Novel Cover Image

प्रभाकल्प

User Avatar

Shalini Chaudhary

Comments

2

Views

108

Ratings

35

Read Now

Description

प्रभाकल्प — संघर्ष, जीवन, लालसा और भविष्यवाणी के चार स्तंभों पर खड़ी एक ऐसी कथा, जो आपको ले जाएगी एक नई दुनिया की दहलीज़ पर। यहां धर्म की रक्षा के लिए उठता है तलवारों का स्वर, जीवन की हर साँस में छुपी है आशा और भय की खामोश लड़ाई, लालसा...

Total Chapters (34)

Page 1 of 2

  • 1. प्रभाकल्प - Chapter 1

    Words: 1880

    Estimated Reading Time: 12 min

    ॐ कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने,

    प्रणतः क्लेश नाशाय गोविंदाय नमो नमः।

    *********************************

    "युद्ध! युद्ध का क्या तात्पर्य होता है आचार्य? युद्ध इतना आवश्यक क्यों है? क्यों सैनिक इतने सजग और युद्ध के लिए आतुर होते हैं? जबकि युद्ध में कितना रक्तपात होता है।" 

    बड़े से चबूतरे पर लगभग बीस बालक बैठे थे। उनके ठीक सामने उनसे तनिक ऊँचे आसन पर उनके गुरु बैठे थे। लंबी शिखा, राजसी वस्त्र, कंठ में रुद्राक्ष और माथे पर त्रिपुंड..  ये दर्शाने के लिए पर्याप्त था कि सामने बैठा मनुष्य महाकाल का भक्त था।

     उनके समक्ष तीसरे पंक्ति के दाएं ओर से दूसरे बालक ने ये प्रश्न किया था और आचार्य विरूपदत्त जो उनके गुरु थे, उन्होंने पहले बालक को देखा फिर हौले से मुस्कुराते हुए कहा, "प्रश्न तो अति उत्तम, अति गूढ़, और मनोरंजक है, आपसे ऐसे प्रश्नों की ही आकांक्षा थी शुकप्रभुज।"

    सामने खड़े बालक के चेहरे पर एक मुस्कान खेल गई। तीन वर्ष का वो बालक इतना बुद्धिमान और अनुशासित था कि एक पल को उनके आचार्य भी अचंभित हो जाते थे। तभी एक दूसरे बालक की आवाज़ आई जो पहले वाले बालक के साथ ही बैठा था।

    " आचार्य! शुकप्रभुज अव्यय तो सदा से ही अचंभित करने वाले प्रश्न ही पूछते हैं। ये तो शुकप्रभुज की विशेषता है। विषयों का गहन अध्ययन और अद्भुत प्रश्नों की खोज।" 

    उस बालक की बात पर सामने बैठे आचार्य विरूपदत्त मुस्कुरा उठे और उन्होंने अपने हाथ से अव्यय को बैठने का इशारा किया।

     आचार्य की आज्ञा से अव्यय बैठ गया और आचार्य ने आगे कहा, "उचित है! अदाह्य तुम्हारी बात भी उचित है पुत्र, शिष्यों को हर अध्याय पर विशेष मंथन करना ही चाहिए।"

    इसके बाद पूरी कक्षा में एक सन्नाटा छा गया।

     आचार्य विरूपदत्त ने एक नजर सबको देखते हुए आगे कहा, "युद्ध! युद्ध का तात्पर्य है, अस्तित्व की खोज। क्षत्रियों के लिए युद्ध ही कर्म है और निश्चित धर्म है। युद्ध आवश्यक है, अपनी सत्ता को अडिग बनाए रखने के लिए, अपने प्रदेश के सांस्कृतिक परंपरा को बनाए रखने के लिए और उसके विस्तार के लिए। राष्ट्र विस्तार के लिए किया गया रक्तपात उचित है पुत्र।" 

    आचार्य इतना कह कर कुछ पल को शांत होते गए पूरी कक्षा के बालक ध्यान से उनकी बताई बात सुन रहे थे।

     तभी अदाह्य बोला, "और शुकप्रभुज का अंतिम प्रश्न, युद्ध के लिए सैनिक इतने आतुर और सजग क्यों होते हैं?" 

    आचार्य के चेहरे पर मुस्कान खिल गई वो अदाह्य को देखते हुए बोले, "युद्ध ही सैनिकों के रक्त में शक्ति का संचार करता है। उन्हें उत्साहित करता है, युद्ध ही उन्हें आत्मविश्वास और उल्लास प्रदान करता है। इसलिए ही सैनिक सदा युद्ध के लिए आतुर और सजग रहते हैं।"

    आचार्य के उत्तर को सारे बालक बड़े ध्यान से सुन रहे थे। 

    ये था कालोत्कर्ष मठ, शुकधरा साम्राज्य का सबसे बड़ा मठ.. जहां राजपरिवार के बालक, मंत्री मंडल में उच्च पदों पर आसीन पदाधिकारियों के बालक, नगर सेठ, बड़े व्यापारियों के बालक पढ़ते थे। यहां वर्ष के चैत्र मास की अमावस्या को एक परीक्षा का आयोजन होता था। जहां सामान्य से सामान्य वर्ग के बालक भी परीक्षा में अच्छा प्रदर्शन करके कालोत्कर्ष मठ में प्रवेश पा सकते थे।

    °°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°

    एक बड़ा सा बगीचा जहां चारो ओर प्रकृति अपनी पूर्ण आभा से श्रृंगारमयी हुई शोभायमान थी। चारो ओर फल, फूल के अनेक प्रजातियों के पेड़ पौधें लगे थे। सारे वृक्ष फलों और फूलों से लदे हुए थे।

     वहीं गेंदे के पौधे के पास एक ब्राह्मण हाथ में फूलों की डलिया लिए खड़ा था और फूल तोड़ तोड़ कर डाल रहा था। वह भगवा रंग की धोती और उसी रंग के एक बड़े से टुकड़े को शॉल की तरह ओढ़े था। गले में रुद्राक्ष और माथे पर वैष्णव तिलक लगाए वो फूल तोड़ रहा था।

    उनके बगल में एक साढ़े तीन साल का बालक था, जिससे वो ब्राह्मण बोले, "अब समझ आया अच्युत हमें मां प्रकृति का आदर क्यों करना चाहिए?"

    ये थे आचार्य सोमदत्त भार्गव, जो रौहिण्य साम्राज्य के सबसे बड़े मठ चंद्रोदित मठ के मठाधीश और आचार्य थे। उनके बगल में खड़ा वो बालक अनाथ था, जिसे मठ ने गोद ले लिया था। 

    आचार्य की बात पर वो बालक बोला, "हां! आचार्य मैं समझ गया। प्रकृति ही हमारी जननी है और वही हमें पालती भी है। इसलिए वो हमारी माता हुईं। हमें प्रकृति का सम्मान करना चाहिए और किसी से युद्ध भी नहीं करना चाहिए क्योंकि युद्ध से मां प्रकृति को भी क्षति पहुंचती है, और हम उनके पुत्र है न तो उन्हें कष्ट पहुंचने से हमें पाप लगेगा।"  

    अच्युत की बात सुन कर आचार्य सोमदत्त मुस्कुरा दिए।

    °°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°

    एक बड़े से मैदान में दो पक्षों में बॅंटी सैनिक और योद्धाओं की पूरी टुकड़ी को देखते हुए ये स्पष्ट था कि यहां एक युद्ध का आरंभ होने वाला था  दोनो पक्षों के सैनिक पूर्ण आक्रोश और उत्साह में थे। उन्हें प्रतीक्षा थी तो मात्र अपने नायक की एक आज्ञा की, जिसके पश्चात वो अपने अस्त्रों शस्त्रों की प्यास बुझा सकते थे।

     तभी एक पक्ष के नायक की आवाज़ आई, "व्युत्पुरा नरेश! आपके पास अभी भी समय है, आप आत्मसर्पण करके भयानक मृत्यु को टाल सकते हैं। हम शुकधरा वासी अत्यंत दयावान हैं।"

    इतना कहते ही शुकधरा के सारे सैनिकों के मध्य ठहाके लगने लगे। व्युत्पुरा एक छोटा सा राज्य था, जिसके पास सीमित सैन्यबल था। शुकधरा जैसे बड़े साम्राज्य का आक्रमण ही उनके आत्मबल को हिला चुका था। ऊपर से ये ठहाके उनकी बची हिम्मत को भी तोड़ रहे थे लेकिन व्युत्पुरा नरेश जिनका नाम अंशुमन था, उनके मुख पर भय नहीं था।

      उन्होंने अपने मन में सोचा, "मैं तो एक पल के लिए युद्ध कर लूं, और ये धर्म भी है क्षत्रिय का, लेकिन ये भी निश्चित है कि युद्ध में मेरी मृत्यु अवश्य होगी। इसके पश्चात हमारे राज्य और कुल की स्त्रियों पर इनकी आसुरी दृष्टि पड़ेगी और हमारी स्त्रियों की स्थिति दयनीय हो जाएगी। इसलिए अभी आत्मसमर्पण बुद्धिमत्ता की बात होगी।"

    अंशुमन ने इतना सोच कर अपने सर पर पहना राजमुकुट उतार कर भूमि पर रख दिया। जिसके पश्चात शुकधरा के सैनिक और जोर से हँसने लगे।

    °°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°

    माया मंडप...

    शुकधरा साम्राज्य का दरबार माया मंडप वैभव और भव्यता का एक उत्कृष्ट संयोजन था। सोने की परत चढ़ी तारों से दीवारों पर बनाई गई विशेष कला, सोने की परत चढ़ी राजगद्दी और अन्य गद्दियां, तरह तरह के रत्नों से राजगद्दी को सजाया गया था, कोमल मखमली वस्त्र बिछे थे। लाल रंग और स्वर्ण को मिला कर पूरे दरबार को बनाया गया था, जो वैभव और शक्ति का प्रदर्शन करने के लिए पर्याप्त था। 

    दरबार में मंत्री मंडल बैठा हुआ था।  वहीं राजगद्दी के दाएं ओर के गद्दी पर आचार्य विरूपदत्त बैठे थे। तभी दरबार में काले और सुनहरे कपड़े पहने एक अदभुत व्यक्तित्व के आदमी ने प्रवेश किया। उसके सर पर मुकुट था, जो रत्नों से सजा हुआ था। बाएं हाथ में तलवार और चाल में एक अलग ही शक्ति, वो जा कर जैसे ही राजगद्दी पर बैठा, सारे दरबारी जो देख रहे थे..  वो सभी तुरंत खड़े हो गए और सबने एक साथ कहा,

    "शुकाधिप विध्वंश की जय... शुकाधिप विध्वंश की जय.."

    पूरा दरबार विध्वंश के जयकारों से गूंज उठा।  इसके बाद विध्वंश ने उन्हें बैठने का आदेश दिया। तभी एक सैनिक दरबार में आया। उसके हाथ में एक पत्र था। उस सैनिक ने उसे एक दरबारी को पकड़ा दिया और उसने विध्वंश के आज्ञा से पढ़ना शुरू कर दिया।

    "शुकाधिप विध्वंश के चरणों में अमात्य तमस का प्रणाम। समाचार ये है कि व्युत्पुरा नरेश अंशुमन ने बिना युद्ध के ही आत्मसमर्पण कर दिया है। अब व्युत्पुरा शुकधरा साम्राज्य का एक अभिन्न अंग है। हमारे सैनिक शुकधरा के लिए कल प्रातः प्रस्थान करेंगे। एक बार फिर शुकाधिप विध्वंश के चरणों में अमात्य तमस का प्रणाम।" 

    इस समाचार के सुनते ही दरबार में सबके चेहरे खिल गए।

     तभी आचार्य विरूपदत्त ने कहा, "शुकाधिप ये अत्यंत प्रसन्नता की बात है परन्तु अब पृथ्वी विजय अभियान के लिए मात्र कौशिकपुरा को जीतना शेष है। जिसे हमारे सेनापति अहोत्र ही जीत लेंगे.... आपको अब रौहिण्य साम्राज्य पर आक्रमण कर देना चाहिए।" 

    रौहिण्य साम्राज्य पर आक्रमण की बात पर पूरा दरबार चौंक उठा। सबके मुख पर भय दिखने लगा। वहीं विध्वंश के माथे पर भी बल पड़ गया।

     वो गंभीरता से बोला, "आचार्य! रौहिण्य साम्राज्य पर आक्रमण में एक समस्या है, और एक संकट भी।"

    °°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°

    संध्या काल

    व्युत्पुरा..

    ध्यानवेध महल...

    महल के छत पर खड़े राजा अंशुमन अपने अश्रुपूर्ण सजल नेत्रों से अपने राज्य को निहार रहे थे। उनकी मनोदशा जल बिन मीन जैसी थी। क्षत्रिय होते हुए भी वो कुल और राज्य की स्त्रियों के लिए आत्मसर्पण कर आए थे।

    अंशुमन अपने मन में सोचते हुए बोले, "आज मैंने अपने पूर्वजों के द्वारा संचित इस राज्य को खो दिया।"

    तभी उनके कानों में पायल की आवाज आई। उन्होंने अपने अश्रु साफ किए उनके ठीक पीछे उनकी पत्नी रानी आभा थी।

     वो हल्के रुंधे गले से बोली, " महाराज ये क्या हो गया... आपको आत्मसर्पण नहीं करना चाहिए था अपितु युद्ध करते हुए मृत्यु का आलिंगन करना चाहिए था। हम स्त्रियां भी अपना दाह कर लेती। इस अपमान से वो मृत्यु सुखद थी।"

    राजा अंशुमन रुंधे गले से बोले, "वो मृत्यु तो वास्तव में सुखद होती परंतु हम सबके प्राणों को संकट में नहीं डाल सकते थे।" 

    रानी आभा सामने देखते हुए सजल नेत्र लिए बोली, "महाराज कल जब वो महल में लेखा जोखा और पदभार लेने आयेंगे, तब ये महल पत्थरों का ढांचा नहीं रहेगा अपितु अपमान की अट्टालिका बन जाएगा। आज इसके प्राण छीने गए हैं, कल आत्मा छिन्न भिन्न होगी। क्या आप इसके लिए सज्ज हैं?" 

    रानी आभा के प्रश्न ने एक बार पुनः राजा अंशुमन को दुखों के अवसाद में ढकेल दिया, भले ही उन्होंने राज्य की स्त्रियों की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए राज्य सौंप दिया था, लेकिन क्षत्रिय होते हुए बिना युद्ध के हार जाना और स्वयं के जीवित होते हुए पदभार किसी दूसरे को दे कर उनका स्वामित्व स्वीकारना, मरने से भी बुरा था, अंशुमन को देख कर स्पष्ट था कि उन्हें कितनी पीड़ा हो रही थी, लेकिन फिर भी विवश थे अपने भाग्य के समक्ष। रानी आभा भी अश्रुपूर्ण नेत्रों से राज्य को देख रही थीं।

    तभी पीछे से एक दासी की आवाज़ आई,"महराज, महारानी की जय हो.... महराज शुकधरा साम्राज्य के ओर से अमात्य तमस पधारे हैं, वे शून्यवाणी सभागृह में आपकी प्रतिक्षा कर रहे हैं, मंत्री मंडल वहां उपस्थित है, और गुरु श्रेष्ठ ने आपको सभागृह में बुलाया है।"

    इतना कह कर वो दासी वापस चली गई, लेकिन छोड़ गई रानी आभा के लिए बेचैनी, रानी आभा के आंखों में भय और अपमान की पीड़ा स्पष्ट दिखाई पड़ रही थी, उसकी नजरें बेचैनी से राजा के तरफ गई, और उससे भी अधिक बैचेनी से वो बोली,"ये तो भोर में आने वाले थे न, अभी ही आ गए? क्या ये संध्या काल में पदभार लेंगे? लेकिन नियम है पदभार के पश्चात किसी न किसी को राजा बनाया जाता है... और सारी विधि करते करते रात्रि हो जाएगी... ये रात्रि में राज्याभिषेक करेंगे?"

    रानी आभा ने एक ही स्वर में प्रश्नों की झड़ी लगा दी, लेकिन राजा अंशुमन इतने परेशान थे कि बिना कोई उत्तर दिए ही आगे बढ़ चले। इधर रानी आभा का मन अब और बैचेन हो उठा और वो इधर उधर चक्कर काटने लगी उनके पायल की ध्वनि पूरे वातावण में गूंज रहा था, उनके आंखों की पुतली बेचैनी से नाच रही थीं।

    तो आज के लिए इतना ही आगे की कहानी के लिए बने रहिए मेरे यानी शालिनी चौधरी के साथ और पढ़ते रहिए प्रभाकल्प।

    ✍️ शालिनी चौधरी

    Love you all ❣️ 🌹 🫂

  • 2. प्रभाकल्प - Chapter 2

    Words: 1612

    Estimated Reading Time: 10 min

    ॐ कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने,

    प्रणतः क्लेश नाशाय गोविंदाय नमो नमः।

    **********************************

    शून्यवाणी सभागृह....

    राजा अंशुमन जैसे ही वहां पहुंचे उनकी नज़र अमात्य तमस पर पड़ी जो सिंहासन के बगल में ही खड़े थे, वहीं सारे दरबारी सर झुकाए खड़े थे व्युतपुरा के राजपुरोहित आचार्य  शिवनन्दन भी खड़े थे, सबके सर झुके थे वहीं शुकधरा के अन्य लोग पूरे सभागृह को घेरे हुए थे, राजा अंशुमन जैसे ही पहुंचे वैसे ही अमात्य तमस और बाकी शुकधरा के योद्धा उन्हें देख कर व्यंग से मुस्कुराने लगे उनकी नज़रों में व्यंग और क्रूरता भरी हुई थी। तभी अमात्य तमस बोले,

    "क्यों व्युतपुरा नरेश, आपको देख कर ऐसा प्रतीत हो रहा है जैसे आपको हमारा यहां आना भाया नहीं। क्यों..ऐसा है क्या कुछ?"

    राजा अंशुमन अपने ही सभागृह में आज ऐसे खड़े थे जैसे कोई सेवक हो, इसके पहले की अंशुमन कुछ बोलते, उससे पूर्व ही शुकधरा का योद्धा विभित्सा की आवाज गूंजी,"अमात्य आप भी कैसी बात कर रहें, भला हमें हमारे क्षेत्र में आने से व्युतपुरा नरेश को क्यों कष्ट होगा? क्यों व्युत्पुरा नरेश... अरे..रे मेरा तात्पर्य है भूतपूर्व व्युतपुरा नरेश।"

    विभित्सा के अंतिम वाक्य से संपूर्ण सभागृह ठहाकों से गूंज उठा, वहीं व्युतपुरा का मंत्रिमंडल, अंशुमन और आचार्य शिवनन्दन की नज़रें झुकी हुई थीं। सभागृह के ऊपर एक छोटा सा झरोखा था जिस झरोखें से दरबार में होने वाली प्रत्येक क्रियाकलाप को देखा जा सकता था, उसी झरोखें से रानी आभा सभागृह में हो रहे अपमान के नृत्य को देख रही थीं।

    उनके नेत्र अश्रु से भरे थे जो हर बीतते पल के साथ किनारे को तोड़ लुढ़कने को सज्ज थे, रानी आभा के मुखमंडल पर अत्यंत शोक था, उनके शरीर में कंपन हो रही थी, और कंठ सूखा जा रहा था, शरीर स्थिल हुआ जा रहा था और बस वो धम.. से वहीं लगे आसन पर बैठ गई, उन्होंने ऊपर देखते हुए धीमे से विलाप करते हुए कहा,"क्यों विधाता क्यों? हमारे साथ ही भाग्य का ऐसा परिहास क्यों? ऐसे जीवन से तो हमें मृत्यु ही प्रदान कर देते, आत्मसम्मान के राख पर तो पहले से ही बैठे हैं, अब इन अपमानों के शूल हृदय भेद रहें हैं। ऐसे में जीवित रहने का क्या प्रयोजन है नारायण, क्या प्रयोजन है?"

    तभी उनके कानों में एक बार पुनः ठहाकों की गूंज सुनाई दी, और उन्होंने पीड़ा से अपने नेत्र मूंद लिए, उनके नेत्र से अश्रु ऐसे छलक रहे थे, जैसे पहाड़ों के दरकने से झड़ने का प्रवाह हो। शोक करते हुए रानी आभा ने स्वयं में ही बुदबुदा कर कहा,

    "आज... हमारे व्युत्पुरा के शून्यवाणी सभागृह के एक परंपरा का हनन हुआ, जो शून्यवाणी सभागृह जाना जाता है, अपनी मौन और न्यायिक विरासत के लिए वहां आज ये ठहाकों की गूंज, हमारी परंपरा पर चोट है!"

    जैसा कि रानी आभा ने कहा था कि जब वे आयेंगे तो ये महल अपनाम की अट्टालिका बन जाएगी, कुछ ऐसा ही दृश्य था, सारे शुकधरा निवासी बस हँसे जा रहे थे, वहीं व्युतपुरा के वासी अपना सर झुकाए खड़े थे, तभी राजा अंशुमन ने हिम्मत जुटाते हुए कहा,

    " अमात्य... ये अब आपका क्षेत्र है तो आपके यहां आने से हमें कोई समस्या अथवा शोक नहीं है, परन्तु आप तो प्रातः आने वाले थे, क्या अभी ही दस्तावेजों का कार्य करना है?"

    अंशुमन की बात पर शुकधरा के हर योद्धा के मुखमंडल पर एक अलग ही चमक और व्यंग था।

    अमात्य तमस ने एक गहरी नज़र से अंशुमन को देखते हुए कहा,"व्युत्परा नरेश... मेरा तात्पर्य था सेवक अंशुमन अब आप पूर्व ये सीखिए कि स्वामी से वार्ता किस प्रकार करते हैं? देखिए हम समझते है कि अभी आप नवीन सेवक बने हैं अभी कुछ दिवस तो आपको मैं नरेश हूं ये भ्रम उतारने में ही लगेगा, लेकिन कोई बात नहीं। समय सब सिखा देता है... चलिए पहला अध्याय मैं ही सिखा देता हूं.. सेवक को अधिकार नहीं है कि वो अपने स्वामी से प्रश्न करे।"

    इतना कहना था कि ऊपर से एक स्त्री का कोमल परन्तु सधा हुआ स्वर शून्यवाणी सभागृह में गूंज उठा।

    "विजय का अहम इतना न बढ़ जाए कि भविष्य में आने वाली पराजय का स्वर सुनाई ही न पड़े, जिस विजय मद में डूबे तुम क्रूर दंभी आज इस शून्यवाणी सभागृह की मर्यादा को भंग कर रहे हो, याद रखना कर्म लौटता है, और इतिहास पलट कर आती है, ये अपमान की गाथा फिर से लिखी गई तो इस बार सेवक कहीं शुकाधिप न बन जाएं।"

    जैसे ही ये स्वर शून्यवाणी सभागृह में गूंजा सबका ध्यान सहसा ही सभागृह के ऊपर के झरोखें में चला गया, उस झरोखें से झांकती रानी आभा जिनकी भौहें तनी थी, आंखों में क्रोध की ज्वाला लपटें ले रही थी, क्रोध से कांपता उनका मुख लाल हो चुका था, और वो लालिमा उनके रूप को बड़े ही आश्चर्य जनक रूप से निखार रही थी, सबकी नजरें रानी आभा पर टिकी थी।

    वहीं अमात्य तमस और योद्धा विभित्सा के मुख पर भी अब क्रोध नज़र आने लगा अमात्य कि नज़र रानी आभा पर टिकी ही थी तभी विभित्सा का स्वर गूंजा,"इतने ऊंचे स्वर का प्रयोग न करिए रानी, याद रखिए अब आप रानी नहीं है सेविका हैं और सेविका के ऊंचे स्वर को विद्रोह कहा जाता है... और शुकाधिप विध्वंश से विद्रोह का अर्थ तो आप भली प्रकार समझती ही होंगी।"

    रानी आभा की नज़र राजा अंशुमन पर गई जो उन्हें आंखों से ही शांत रहने का इशारा कर रहे थे। जिसे देख कर रानी आभा झरोखे से पीछे हट गई। वहीं अमात्य की नज़र अभी भी झरोखें पर ही थी।

    °°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°

    चंद्रोदित मठ......

    तपोनिकेतन....

    एक बड़े से मंडप के आकार के प्रांगण में,यज्ञ कुंड में अग्नि जल रही थी, वहीं उसके आस पास बैठे कुछ ऋषि मंत्रोच्चार के साथ यज्ञ समिधा को अग्निकुंड में डाल रहे थे, उसी यज्ञ के प्रधान ऋषि के आसन पर बैठे आचार्य सोमदत्त भार्गव हाथ में अरघा लिए मंत्रोच्चार के अंत में स्वाहा के साथ घृत कुंड में डाल रहे थे, जिससे अग्नि की लपट तेज हो कर ऊपर की ओर उठ रही थी, अग्नि की लौ निर्मल थी उससे उठने वाले सफेद धुएं में सुगंध था, और वो धुआं आस पास फैल कर संपूर्ण वातावरण को पवित्र कर रहा था। सौम्य सा मुखमंडल, बुदबुदाते अधर जिससे मंत्र प्रस्फुटित हो रहे थे, बंद नेत्र और माथे पर वैष्णव तिलक बाजुओं में रुद्राक्ष का बाजूबंद और गले में पंचमुखी रुद्राक्ष की माला। अदभुत और सौम्य अलंकारों में अत्यंत उदार लग रहे थे आचार्य सोमदत्त भार्गव।

    तभी एक शिष्य दौड़ते हुए आया, मंडप में प्रवेश करते ही उसने अपनी चाल धीमी की और अपने शीश को हल्के से झुका कर हाथ जोड़ कर आचार्य के समक्ष खड़ा हुआ और व्यग्रता से बोला,"आचार्य..... चंद्राधिप सूर्यभानु मठ में पधारे हैं, और वे यहीं तपोनिकेतन की ओर बढ़े चले आ रहें हैं।"

    आचार्य ने एक बार उस युवक को देखा जिसने हाथ जोड़ रखे थे और उत्तर के लिए खड़ा था, लेकिन फिर आचार्य अपने यज्ञ में लग गए। वहीं तपोनिकेतन के मुख्य द्वार पर सफेद राजसी वस्त्र पहने एक धनी व्यक्तित्व का स्वामी खड़ा तपोनिकेतन के शिलालेख को देख रहा था।

    "ब्रह्मैव यजमानोऽत्र, ब्रह्मैव हविषां गतिः।
    तपः प्रज्वलितं यत्र, मौनं स्वाहेति घोषते॥"

    संस्कृत में वैदिक शैली में लिखा ये आलेख तपोनिकेतन के वातावरण का ही संक्षेपण था। तभी पीछे से एक और व्यक्ति आया वो पहले वाले व्यक्ति के पीछे खड़ा हो गया, स्वयं के पीछे किसी के होने के आभास से पहले वाले व्यक्ति ने कहा,"सत्यकृत! आप यहीं ठहरिए, आगे हम स्वयं ही जाएंगे।"

    राजसी वस्त्र पहने और माथे पर सिंदूर का तिलक लगाए शांत मुख वाले सत्यकृत को देख कर ये स्पष्ट था कि वो देवी का उपासक था। अपने सामने खड़े व्यक्ति की बात पर सत्यकृत ने कहा,"जो आज्ञा चंद्राधिप।"

    इतना सुनने के साथ ही चंद्राधिप सूर्यभानु ने अपने माथे से चमचमाते हुए रजत मुकुट को उतारा जिस पर लाल माणिक्य सजे थें और उसे सत्यकृत को पकड़ा दिया, सत्यकृत ने बड़े सम्मान से उस मुकुट को पकड़ा और कहा,"चंद्राधिप.. आचार्य कदाचित आपके इस निर्णय का समर्थन न करें, परंतु ये आवश्यक भी है... बात मैत्री धर्म की है।"

    सत्यकृत की बात पर चंद्राधिप सूर्यभानु ने अपना शीश गंभीरता से हिलाया और अपने पैरों से जूती उतार कर तपोनिकेतन के भीतर प्रवेश कर गए, वहीं सत्यकृत के मुखमंडल पर चिंता की लकीरें अभी भी बनी थी।

    तपोनिकेतन...

    यज्ञ मंडप में यज्ञ की लपटें ऊपर की ओर उठ रही थीं, वहीं चन्द्राधिप सूर्यभानु तपोनिकेतन के मुख्य द्वार में प्रवेश कर रहे थे, जिसके स्तंभ पर बड़े अक्षरों में 'तपोनिकेतन' उकेरा गया था। उसके नीचे शिल्पकारी का उच्चतम प्रदर्शन करते हुए त्रिशूल से सर्पराज वासुकी और रुद्राक्ष माला लपटी हुई और सुदर्शन चक्र के ऊपर शंख की आकृति उकेड़ी गई थी उन दोनों के मध्य बड़े अक्षरों में लिखा था, "अहं ब्रह्मास्मि, यज्ञो ब्रह्मपथः"

    चंद्राधिप ने एक बार उस आलेख को देखा और फिर सीढ़ियां चढ़ने लगे, वो जैसे जैसे आगे बढ़ रहे थे, यज्ञमंडप से मंत्रोच्चार की ध्वनि स्पष्ट होती जा रही थी।

    " ॐ त्र्यंबकं यजामहे सुगंधिं पुष्टिवर्धनम्।

    उर्वारुकमिव बंधनान् मृत्युर्मुक्षीय माऽमृतात्॥

    ॐ... स्वाहा!"

    एक लय में सारे ऋषिगण के मुख से निकला ये मंत्र मानो सच में मृत्यु को हराने के लिए पर्याप्त था, चंद्राधिप यज्ञ मंडप में पहुंचे जो एक विशाल क्षेत्र था बीचों बीच गोलाकार आकृति में बना बरामदा जिसके ऊपर संगमरमर के पत्थरों का छत था, वो मुख्य मंडप था, इसके बाद उस क्षेत्र में ऐसे पचास मंडप थे, और जब भी किसी यज्ञ का आयोजन होता तो मुख्य मंडप से प्रेरित हो कर ही मठ के छात्र उन पचास मंडपों में यज्ञ करते जिससे वो पूरा क्षेत्र तपस्या की भूमि बन गया था, दो एकड़ में फैली इस भूमि का नाम इसलिए ही तपोनिकेतन था, और मुख्यमंडप को ज्ञान प्रज्वाल कहते थे तथा सहायक मंडप को सहकारिता प्रज्वाल नाम दिया गया।

    आज के लिए इतना ही आगे जानने के लिए पढ़ते रहें.. प्रभाकल्प मेरे यानी शालिनी चौधरी के साथ। Only on storymania

    Stay tuned...my lovelies ❣️🌹

    ✍️ शालिनी चौधरी

  • 3. प्रभाकल्प - Chapter 3

    Words: 1567

    Estimated Reading Time: 10 min

    ॐ कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने,

    प्रणतः क्लेश नाशाय गोविंदाय नमो नमः।

    **************************************

    तपोनिकेतन ( चंद्रोदित मठ )

    चंद्राधिप सूर्यभानु चलते हुए मुख्यमंडप अर्थात् ज्ञान प्रज्वाल की ओर निरंतर बढ़ते आ रहें थे, उनके तन पर श्वेत वस्त्र उनके आचरण के जैसा ही निर्मल था, ज्ञान प्रज्वाल की ओर बढ़ते उनके कदम बेहद ही गंभीर थे, जिसका आभास आचार्य को हो चुका था, उनका यज्ञ भी समापन के ओर ही था। आचार्य अपनी जगह पर खड़े हुए और उनके सहायक ऋषि गण भी, ज्ञान प्रज्वाल मंडप की क्रियाओं से प्रेरित हो कर पचासों सहकारिता मंडप पर ऋषि छात्र भी आहुति के लिए खड़े हो गए। तपोनिकेतन का वो पूरा क्षेत्र यज्ञ समिधा और धूप के सुगंध से ओत प्रोत था। ज्ञान प्रज्वाल में आचार्य ने पूर्णाहुति की तैयारी आरंभ की।

    पान के पत्ते पर नारियल और खीर रख कर उसके ऊपर घी डाल कर एक साथ ही पूरा तपोनिकेतन पूर्णाहुति के लिए एक स्वर से गूंज गया।

    ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।

    पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥

    ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥

    ज्ञान प्रज्वाल के पहले सीढ़ि पर अपने पैर रखने के लिए जैसे ही चन्द्राधिप सूर्यभानु ने पूर्णाहुति मंत्र सुना, उनके कदम ठहर गए और हाथ जोड़े वे वहीं खड़े हो गए।

    जैसे ही पूर्णाहुति का नारियल यज्ञ कुंड में गिरा आचार्य के दाहिने ओर बैठे उनके सहायक ऋषि कर्पूरी मुनि ने घी के पात्र से बचा सारा घी अग्नि कुंड में उड़ेल दिया, घी के स्पर्श से यज्ञ अग्नि को बल मिला और उसकी लपटें ऊपर मंडप के छत की ओर उठने लगीं, यज्ञ के उठते धुएं से पूरा तपोनिकेतन महक उठा अगले ही पल ऐसी ही लपटें सहकारिता मंडप से भी उठती हुई दिखाई पड़ीं जिसके बाद एक साथ सब ऋषियों ने हाथ जोड़ कर शांति पाठ आरंभ किया

    ॐ द्योः शान्तिः

    अन्तरिक्षं शान्तिः

    पृथिवी शान्तिः

    आपः शान्तिः

    ओषधयः शान्तिः

    वनस्पतयः शान्तिः

    विश्वेदेवाः शान्तिः

    ब्रह्मा शान्तिः

    सर्वं शान्तिः

    शान्तिरेव शान्तिः

    सा मा शान्तिरेधि।

    ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः।

    हाथ जोड़ते हुए आचार्य ने यज्ञ कलश उठा कर कर्पूरी मुनि को देते हुए बोले,

    "संपूर्ण मठ में इस जल का छिड़काव कर दीजिए, आज यज्ञ के बाद खीर ही उत्तम भोजन होगा सारे ऋषि छात्र को यहीं भोजन करवाना है!"

    जल कलश पकड़ते हुए वो वहां से दूसरे ओर चले गए और आचार्य ज्ञान प्रज्वाल से बाहर आने लगे वहीं सहकारिता प्रज्वाल मंडप से यज्ञ समाप्ति के बाद अपने कक्ष की ओर लौटते छात्रों ने आचार्य का अभिवादन किया और वे चल पड़े।

    "प्रणाम आचार्य!" सूर्यभानु ने बड़ी विनम्रता से हाथ जोड़ का अभिवादन किया, उनकी शीलता को देख कर आचार्य स्वयं को मुस्कुराने से रोक नहीं पाए।

    "कल्याण हो चन्द्राधिप! आप यहां? रौहिण्य में सब कुशल क्षेम तो है?"

    यही प्रश्न तो आचार्य के भीतर उठा था जब उन्हें सूर्यभानु के आने का समाचार प्राप्त हुआ था।

    "जी आचार्य! रौहिण्य में सब कुशल है!" सूर्यभानु ने विनम्रता से कहा और दोनों चलते हुए तपोनिकेतन से बाहर आ गए सामने ही एक आम का वृक्ष था जिसके छांव में चबूतरा बना था, यही था आचार्य सोमदत्त का बैठक जहां वो ध्यान और अध्ययन करते थे। वो अपनी जगह पर जा कर पालथी लगा कर बैठ गए। वहीं आचार्य के आदेश से सूर्यभानु भी बैठे गए।

    "कहिए चन्द्राधिप! सब कुशल होने पश्चात यदि आप आएं हैं तो अवश्य ही कुछ विशेष बात है!"

    आचार्य की जांचती सी अनुभवी नज़र सूर्यभानु के मुख पर ही थी, सूर्यभानु की दोनों भौहें चिंता से सिकुड़ी और दो रेखा मस्तक पर उभरे। उनके अधर मौन थे, लेकिन उनकी गंभीरता बता रही थीं कि बात अवश्य ही कुछ गंभीर थी।

    "आचार्य! शुकाधिप विध्वंश की सेना ने व्युत्पुरा राज्य को जीत लिया है और बीती रात्रि ही उन राज्य का लेखजोखा भी के गए हैं।"

    कहते हुए सूर्यभानु की नज़र आचार्य के ओर उठी, शायद वो उनके भाव पढ़ना चाहते थे, परन्तु आचार्य बिल्कुल शांत थे उनके मुख पर कोई भाव नहीं आए।

    "शुकधरा साम्राज्य... विस्तारवाद की नीति का पालन करते हैं, ये उनकी अपनी नीति है आप इसमें कुछ नहीं कर सकते हैं चंद्राधिप! आप केवल अपनी सीमा की सुरक्षा ही बढ़ा सकते हैं!"

    उन्होंने अपना मत रखा एक साधारण से विश्लेषण के साथ। सूर्यभानु कुछ पल आचार्य को देखते रहे और फिर वो एक गहरी सांस खींच कर बोले,

    "आज वहां राज्याभिषेक होगा! लेकिन वहीं से शुकधरा के सेना कौशिकपुरा के लिए कूच करेगी! कौशिक नरेश आर्यमन मेरे मित्र रहे हैं, उनकी सहायता लिए हमें भी जाना चाहिए!"

    अब कर सूर्यभानु ने अपनी असली बात कही वो भी एक स्वांस में। आचार्य ने जैसे ही बात सुनी उनके मुख पर एक चिंता की छाया पड़ने लगी, जो मुख शांत था वो अब हल्की बेचैनी से सूर्यभानु को देख रही थीं।

    "चंद्राधिप! सहायता कई प्रकार की होती है! और युद्ध की स्थिति में तो इसके विभाग और भी हो जाते हैं... आप धन, अस्त्र और सेना से भी सहायता कर सकते हैं!"

    आचार्य ने अपनी बात कही क्योंकि उनके मन में कई विचार उठ रहे थे लेकिन कुछ बातें समय के पूर्व बताई भी नहीं जाती तो आचार्य मौन ही रहें।

    "परंतु उन्होंने कहला भेजा है आचार्य कि हमारे होने से उन्हें आत्मबल मिलेगा। और ये मैत्री धर्म की भी बात है!"

    सूर्यभानु ने अब अपनी बात स्पष्ट कही जिस पर आचार्य को विरोध करना सही नहीं लगा।

    "मैत्री धर्म भी आवश्यक ही है... आपको सहायता करनी चाहिए, परन्तु सहायता भी विवेक के छांव तले की जाए तो ही उचित होता है!"

    जब वो बात को टाल सके तो सहमति दी लेकिन अंत तक आते आते एक सीख भी साथ ही दो जिस पर सूर्यभानु ने सर हिलाया और आचार्य को प्रणाम कर वहां से बाहर जाने लगा। वहीं उनके जाते ही आचार्य की नज़र अंतरिक्ष की ओर उठी जहां उन्होंने सूर्य और शनि को आमने सामने देखा, ग्रहों की स्थिति भी कुछ विशेष अच्छी नहीं थी, चंद्रमा नीच में स्थित था और राहु के भी प्रभाव प्रबल दिख रहे थे। आचार्य मुख पर चिंता की गहन छाया आई जिसे दूर से ही उनकी पत्नी देख रहीं थी।

    ध्यानवेध महल...

    पीले धोती और सफ़ेद अंगवस्त्र पहने राजा अंशुमन रनिवास के ओर बढ़ते आ रहे थें वहीं रानी आभा के कक्ष से उनकी मुख्य दासी माधवी बाहर आ रहीं थी उनके हाथ में रानी आभा के कुछ वस्त्र थे, उनका कमरा खाली हो रहा था क्योंकि यही अमात्य तमस की आज्ञा थी। आज ही विध्वंश और रात्रि वहां पहुंचने वाले थे दोपहर में उनका राज्याभिषेक होना था।

    "दासी.... रानी कहां है?" माधवी जो राजा को पार कर चुकी थी वो पीछे पलटी उसकी आँखें आंसू से भरे थे, उसने आंसू को पोंछते हुए कहा,

    "रानी जी कुछ पुस्तकों को रखने तर्कदीप ग्रन्थालय गईं है!" जिस पर अंशुमन ने सर हिलाया और उनके कदम वहां से दाईं और मुड़ गए।

    हल्की रौशनी बिखरी थी जलती मसालों की, चारों ओर पुस्तकों का अंबार लगा था, वहीं कमरे में बस चूड़ी खनकने और पायल की आवाज़ गूंज रही थी। तभी एक मशाल की रौशनी में रानी आभा का मुख दिखा, गहनों का त्याग कर चुकी थी, लेकिन मुखमंडल की कांति में कोई कमी नहीं थी, बालों को गूथ कर रखा था, बिना मुकुट के उनके शीश बड़े सूने से लग रहे थे लेकिन उनका ध्यान अभी पुस्तकों की छटनी में लगा था।

    "यहीं तो थी... मुझे स्मरण है यहीं रखा था मैंने परन्तु... कहां गया?" स्वयं में ही बड़बड़ाते हुए वो उस ग्रन्थालय के सबसे कोने वाले हिस्से में कोई पुस्तक खोज रही थी।

    "आह्ह... ये रहा मिल गया नारायण की कृपा है!" कहते हुए उनके अधर मुस्कुराए और वो उस पुस्तक को देखने लगी। "तंत्रमाला दिव्युंज!" उस पुस्तक के ऊपर उभरे उन अक्षरों को छूते हुए उसने मुस्कुरा कर कहा और उस पुस्तक को जल्दी से अपने पास ही बक्से में रख दिया। जिसमें पहले से ही क़रीब पांच पुस्तकें रखी थीं।

    "आभा... आभा आप कहां है?" ग्रन्थालय में वो आवाज़ गूंज उठी!

    "यहीं हूं स्वामि! आप यहां क्यों आएं है?" सामने आते हुए आभा ने कहा अंशुमन की नज़र अपनी पत्नी पर थी हमेशा राज अलंकारों में सजी धजी वो आज पूर्णतः सादगी में थीं।

    "क्या हुआ स्वामि? आप इस प्रकार क्यों देख रहे है हमें?" प्रश्न किया आभा ने जिस पर बस मुस्कुरा दिए अंशुमन!

    "यदि आपने किसी सामर्थ्यवान राजा से विवाह किया होता तो आज बिना आभूषण के इस दशा में न होतीं!"

    सहसा ही अंशुमन के मन में ये विचार कौंधा जिसे उन्होंने तुरंत कह भी दिया।

    "कैसी बात करते हैं स्वामि? पत्नी क्या मात्र आभूषण धारण करने के लिए होती हैं, क्या वो मात्र सुख में ही सहभागिन हो सकती है?"

    अश्रु से उभर आएं थे रानी के नयन में, जिसे वो थाम तक न सकीं और ढ़लक गईं उनके छोटे से चेहरे पर।

    "अरे ये क्या आभा? जो नयन कल क्रोध से अंगार बरसा रहे थे आज अश्रु...." अंशुमन अब तक समीप आ चुके थे उनके, उन्होंने हाथ बढ़ाया और अश्रु साफ़ किए। अंशुमन की हथेली में आभा का चेहरा पूरी तरह से समाया हुआ था। और वो अपने सजल नेत्रों से अंशुमन को ही देख रही थीं।

    "आप यहां क्या करने आई थी?" अंशुमन ने उन्हें अपने और समीप करते हुए प्रश्न किया।

    "स्वामि! मैं अत्यंत विशेष कार्य से आई थी... सभी दिव्य पुस्तकों को जो हमारी विरासत हैं उन्हें हम यहां से हटवाना चाहते हैं... यदि ये उन आताताइयों के हाथ लगा तो ओर न जाने क्या अनिष्ट करेंगे।"

    आभा की बात पर अंशुमन की नज़र भी उस बंद संदूक पर गई जिसके आस पास से दिव्य प्रकाश निकल रहा था। अब वे थोड़े गंभीर हुए!

    आज के लिए इतना ही आगे क्या हुआ इसके लिए बने रहिए......

    ✍️ शालिनी चौधरी

  • 4. प्रभाकल्प - Chapter 4

    Words: 1535

    Estimated Reading Time: 10 min

    ॐ कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने,

    प्रणतः क्लेश नाशाय गोविंदाय नमो नमः।

    **************************************

    शुकधरा,

    क्रिन्तनगृह महल...

    आइने के समक्ष एक बेहद ही आकर्षक व्यक्तित्व की महिला बैठी थी, बड़ी काली आँखें जिन पर घनी पलकें, लंबे बाल जो खुले थे और एक दासी उनमें कंघा घुमा रही थी, उसके होठ सुर्ख लाल थे, गोल चेहरा होठों के नीचे काला तिल और पतली नाक, छोटा सा कपाल जिस पर कुछ केश बिखरे थे, और माथे पर लाल बिंदी, माँग में चमकता लाल सिंदूर हाथों में लाल चूड़ियां, उसने लाल साड़ी पहनी थी जिसके किनारे सुनहरे थे और बीच में पट्टिका बनी थी जिस पर कुछ कलाकृति बनी थी।

    "शुकराज्ञी की जय हो.... शुकाधिप पधार रहे हैं!" एक दासी कमरे के द्वार पर खड़ी हो कर सूचना दे रही थी, इसके साथ ही कक्ष में उपस्थित सब दासियां वहां से बाहर चली गईं, और शुकराज्ञी रात्रि ने सामने रखें श्रृंगार दानी से एक छोटी शीशी निकाली जिसमें कोई द्रव्य जैसा पदार्थ था, तुरंत ही उसे अपने हाथों पर मल कर नाक के पास ले जा कर सूंघने लगी।

    "गुलाब और रजनीगंधा के मिश्रण से बना वो इत्र इतना मनमोहक था कि उसके गंध से कोई भी आकर्षित हो जाए।"

    वो मुस्कुराते हुए वहां से उठ कर मुड़ी तभी कक्ष में विध्वंश आया।

    "रात्रि! बधाई हो, एक और राज्य जीत चुका है तुम्हारा पति अब एक दो राज्य शेष हैं इसके बाद तुम मात्र शुकराज्ञी ही नहीं बल्कि राजराजेश्वरी रात्रि कहलाओगी!"

    अपनी पत्नी रात्रि को अपने आलिंगन में भरते हुए विध्वंश अपने विस्तार की गाथा उसे सुना रहा था।

    "मुझे ज्ञात है स्वामी, और कोई संदेह नहीं मेरे राजराजेश्वरी बनने पर! जिसके पति ही विश्व विजेता हो उनकी पत्नी होने पर गर्व है मुझे!"

    विध्वंश के बाहों में सिमटी हुई उसने बड़े सधे और धीमे अंदाज़ से कहा, वहीं उसके बदन से उठते उस सुगंध को अपने स्वांस के सहारे अपने भीतर उतारता हुआ विध्वंश किसी और ही संसार में खो रहा था।

    "रात्रि तुम प्रेरणा हो मेरी.. तुम्हें संसार की सारे सुख दूंगा.. राजराजेश्वरी बनने का अधिकार मात्र और मात्र तुम्हें है।" रात्रि के दोनों हाथ विध्वंश के गर्दन के चारों तरफ़ लिपटे थे और उसने अपना छोटा सा चेहरा उसके सीने में छुपाया था जिसे अब उठा कर अपनी बड़ी बड़ी आँखों से उसे ही देख रही थी।

    "मैं आपकी प्रेरणा हूं स्वामी ये तो भाग्य है मेरा... आपने मुझे अपने योग्य समझा ये उससे बड़ा सौभाग्य है!" कहते हुए उसने अपनी उंगलियां उसके सीने पर फिराया विध्वंश ने अगले ही पल उसकी हथेली को थाम लिया, विध्वंश जैसे योद्धा के मजबूत हथेली में रात्रि की हथेली इतनी कोमल प्रतीत हो रही थी मानो गुलाब की कोमल खिलती कली।

    "तुम मेरे साथ हो ये मेरा भाग्य है!" कहते हुए उसने उसकी हथेली पर अपने होठों को रख दिया जिससे लज्जा की लालिमा सी उभरी। उसकी नज़रें झुक गईं।

    "शुकाधिप विमान सज्ज है... व्युतपुरा प्रस्थान के लिए।"

    दूर से ही संदेश वाहक की ज़ोरदार आवाज़ गूंजी, जिससे रात्रि झटके से विध्वंश से दूर हो गई, जैसे ही ये अनुभूति विध्वंश को हुई और क्रोध की एक लहर दौड़ गई उसके भीतर एक तेज नज़र उसने बाहर डाली लेकिन उस कक्ष के आस पास भी कोई नहीं था, दूर से ही संदेश वाहक ने सूचना दी थी जो गूंज गई थी उस महल के बनावट के कारण।

    "रात्रि! कोई नहीं है.. तुम व्यर्थ विचलित हो जाती हो!" कहते हुए विध्वंश ने रात्रि के कमर पर हाथ रख कर खींचा और एक बार फिर वो उसके बाहों में सिमट सी गई।

    "स्वामी चलना चाहिए... शुभ कार्य शुभ मुहूर्त पर हो तभी कल्याण होता है!" कहते हुए उसने बड़े ही आहिस्ते से अपनी पलकें उठाई। विध्वंश ने अपना सर हिलाया तो वो दूर हुई और चलने लगी। अब रात्रि आगे चल रही थी वहीं उसके नेत्रों में अब कोई सौम्य भाव नहीं थे बल्कि एक योद्धा की भांति अंगारे जल रहे थे।

    "राजराजेश्वरी रात्रि! ह्म्म... यही तो मेरा वास्तविक परिचय होगा!" जलती आँखों से वो बुदबुदाई उसकी बुदबुदाहट में एक अलग ही प्रकार का रोष था।

    "व्युत्पुरा... मैं आ रहा हूं मेरे राज्य की एक और नगरी बनाने!" कहते हुए विध्वंश भी बढ़ गया।

    व्युत्पुरा ( तर्कदीप ग्रन्थालय ).....

    अंशुमन की दृष्टि उस संदूक पर ही थी उसने एक नज़र आभा को देखा जो विचलित नेत्रों से उसे ही देख रही थी।

    "स्वामी! ये समय अपनी दृष्टि से मुझ पर प्रेमवर्षा का नहीं है... अभी हमें इन ग्रंथों को छिपाने के विषय में गंभीरता से सोचना चाहिए क्योंकि वो क्रूर, दंभी विध्वंश कभी भी पहुंच सकता है!"

    आभा ने जब देखा कि अंशुमन अपार प्रेम लिए उसे ही ताक रहा था तो वो हल्के चिढ़ से बोली।

    "देख रहा हूं...; कितना भाग्यशाली हूं मैं जो ऐसी निर्भीक और बुद्धिमान पत्नी मिली है!" कहते हुए वो फिर मुस्कुरा दिया।

    "हां... बुद्धिमान तो मैं हूं बस आप मानते नहीं थे, परंतु निर्भीक? ऐसा तो कोई आश्चर्यजनक कार्य नहीं किया मैंने!"

    पहले तो वो इतराई फिर अंत तक आते आते सोच में पड़ गई।

    "स्वामी..... बताइए न आप मुस्कुराते ही रहेंगे क्या? मैं निर्भीक कैसे हुई?"

    एक अत्यंत प्यारी सी हठ किए बैठी थी आभा।

    "आपने जिस प्रकार अमात्य तमस को उत्तर दिया, उसने बीते दिन हमारी प्रतिष्ठा ही बचाई है, और वो निर्भीकता तो कोई योद्धा भी नहीं कर सका... योद्धा विभित्सा भी मात्र तिलमिला कर रह गया।"

    अंशुमन ने कहा इस समय उसके अधर खिले थे, और आंखों में अपार प्रेम था।

    "अच्छा...; परन्तु कल तो आपने मुझे मौन रहने को कहा... और आज प्रशंसा इस दोहरी व्यक्तित्व का अर्थ क्या लगाऊं?" कहते हुए आभा ने मुंह बनाया क्योंकि कल वो और भी बोलना चाहती थी लेकिन अंशुमन के इशारे से ही वो झरोखें से हट गई।

    "अच्छा.. ऐसा! कल आपने बोल कर शून्यवाणी के परम्परा की रक्षा कर ली... शून्यवाणी की परम्परा ही है कि वहां अन्याय के शब्द नहीं प्रबल होंगे... और आपके कहने के पश्चात तो सब मौन ही हो गए।" आभा मुस्कुराने लगी जिसके बाद वो उसके गाल को उंगलियों से छूते हुए आगे बोले,

    "और मौन रहने को इसलिए कहा क्योंकि नहीं चाहता था कि मेरी प्रियतमा किसी नवीन संकट में पड़े, वैसे भी अमात्य के दृष्टि में आ चुकी हैं आप!"

    कहते हुए अंशुमन के हाथ आभा के गले पर गई और पिछले हिस्से पर बड़े ही प्रेम से उसने अपनी उंगली चलाई जिसका अनुभव पा कर आभा मुस्कराए बिना रह न सकी!

    "अच्छा बहुत हो गई प्रशंसा और बहुत प्रेम दिखा लिया आपने अब बस इस ग्रन्थ को सुरक्षित करिए पूर्व कि वो आ जाएं!"

    आभा ने अपनी लज्जा छिपाते हुए कहा, जिसे अंशुमन भी बहुत अच्छे से समझ रहे थे वो बस मुस्कुरा दिए।

    मौनवाणी रेखागृह.....

    एक विशालकाय मंडपनुमा कक्ष था, ये भाग एक एकड़ के क्षेत्र में फैला था और इसका अभी और भी विस्तार होना शेष था जिसके लिए धरती का आवंटन कर लिया गया था।

    आचार्य शिवनन्दन दाईं और पूर्व दिशा की ओर मुख किए बैठे थे उनके हाथ में मयूर पंख था समक्ष ही एक शिलापट्टिका रखी थी, जिस पर वे बहुत ही बारीकी से कुछ लिख रहे थे। जो स्पष्ट नहीं था लेकिन उनके मन के विचार बहुत साफ थें।

    "काल और कालचक्र दोनों ही जीवन पर और राजवंशों पर प्रभाव डालते हैं वे अत्यंत बलवान होते हैं, परन्तु परिवर्तन भी संसार का एक अपरिवर्तनीय और अटल नियम है। जो वर्तमान में है वो भविष्य में नहीं होगा!"

    अंत में उन्होंने एक रेखा बना कर उसे बीच से काट दिया, अपने विचारों को उन्होंने शब्दों में नहीं लिखा था अपितु उसे चिन्हों में व्यक्त किया था, जिसे मात्र वही समझ सकता था जिसके विचार आचार्य के विचार से मेल खाता हो।

    "वर्तमान में अपितु कष्ट ही सत्य दिखे परन्तु ये चक्र परिवर्तन के लिए ही नाचता है!"

    एक चक्र जिसके सुई को चारों तरफ़ बनाया उन्होंने और अब वो उस पटिक्का को वहीं एक ओर रख दिए जिससे वो उन्हीं विचार शिलाओं में जा मिला।

    अपने स्याही और मयूर कलम को एक ओर रख वो उठ गए, एक दृष्टि उस कक्ष पर डाल कर मुड़ गए बाहर की ओर!

    शुकधरा (माया मंडप )....

    विध्वंश राज सिंहासन पर बैठा था और रात्रि उसके ठीक बाएं भाग में बैठी थी, उसकी दृष्टि में महारानी अर्थात् शुकराज्ञी होने का गर्व या उससे अधिक सत्ता मद स्पष्ट दिखाई पड़ रहा था।

    वहीं दूर एक कोने में एक और महिला थी जिसने राजसी वस्त्र पहने थे, सौम्य मुख वो अपने सजल नेत्रों से विध्वंश को देख रही थी लेकिन होठ ने मौन धारण किया था।

    "महाराज विमान तैयार है हम चलने को सज्ज हैं... और हमारी सेना ने भी कौशिकपुरा के लिए कूच कर दिया है!"

    एक संदेशवाहक ने संदेश दिया। जिस पर एक मुस्कान खिल गई वहां उपस्थित सभी में, परन्तु वो स्त्री मौन ही रही।

    "चलिए शुकाधिप!" रात्रि ने उठते हुए कहा, जिस पर वे मुस्कुराते हुए उठे और रात्रि ने कदम आगे बढ़ाएं।

    "रानी रत्ना! चलिए!" विध्वंश की आवाज़ रात्रि के कानों में गूंजी हैरानी की एक साया सा गुजरा लेकिन वो शांत ही बनी रही वो पलट कर देखने लगी तो वही स्त्री बड़े धीमे कदमों से विध्वंस के ठीक बाईं ओर खड़ी हो गई जहां कुछ पल पहले रात्रि खड़ी थी, विध्वंस ने उसकी हथेली थामी और आगे बढ़ने लगा जिससे रात्रि और रत्ना दोनों ही हैरान हुए।

    तो आज के लिए इतना ही आगे क्या हुआ जानने के लिए बने रहें और कमेंट करते रहें।

    ✍️ शालिनी चौधरी

  • 5. प्रभाकल्प - Chapter 5

    Words: 1599

    Estimated Reading Time: 10 min

    ॐ कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने,

    प्रणतः क्लेश नाशाय गोविंदाय नमो नमः।

    *************************************

    रौहिणय साम्राज्य ( रजतमयूख भवन )....

    साम्राज्य के मध्य में बना ये भवन अपनी शीतल आभा के लिए दूसरे साम्राज्यों में भी प्रसिद्ध था, रात्रि काल में जब चंद्रमा की किरणें इसके गुंबद से टकरा कर परिवर्तित होती और सामने के गोलाकार चक्रनुमा दर्पण से टकराती तो महल के साथ उसके आस पास के क्षेत्र भी श्वेत आभा से चमकने लगती थी।

    दिन का दूसरा पहर आरंभ हो चुका था और सूर्य की किरण भी प्रबल होने लगी थीं, जो सीधे गुंबद से टकरा कर उस चक्रनुमा दर्पण से टकरा रहीं थी। पूरा महल रौशनी से जगमगा रहा था, वहीं रनिवास में एक विशालकाय कक्ष के मध्य लगे शैय्या पर एक स्त्री एकवस्त्र धारण किए लेटी थीं। चंद्राधिप सूर्यभानु द्वार पर खड़े मुस्कुराते हुए शैय्या पर लेटी उस स्त्री को निहार रहे थे, वे धीमे कदमों से चलते हुए आएं और उस स्त्री के सिरहाने बैठ गए।

    "प्रिय जिस अवस्था में अभी आप हैं उस अवस्था में आपको सर्वाधिक हमारी आवश्यकता है परन्तु हम बंधे है कर्तव्यों से।"

    कहते हुए सूर्यभानु की दृष्टि उस स्त्री के गर्भ पर गई, जिसे देख कर लग रहा था कि प्रसव में अब बहुत दिन शेष नहीं बचा था, और ये देख कर सूर्यभानु का मन भारी होने लगा।

    "प्रिय...." स्नेह भरे संबोधन के साथ ही उन्होंने उस स्त्री के खुले केश पर हाथ फिराया जिसके पश्चात स्त्री ने अपनी आँखें धीमे से खोला, सामने सूर्यभानु को देखते ही उसके अधर मुस्कुरा दिए।

    "स्वामी! आप... आज दरबार से बड़ी शीघ्र आ गए!"

    दिन के दूसरे पहर में ही सूर्यभानु को अपने कक्ष में देख कर वो स्त्री आश्चर्य में पड़ गई।

    "शारदा! आपका स्वास्थ कैसा है?" उठती हुई अपनी पत्नी को सहारा देते हुए ही प्रश्न किया।

    "अब समय समीप है स्वामी तो स्वास्थ में उतार चढ़ाव आते रहेंगे... हां बस अब संपूर्ण वस्त्र धारण नहीं कर पाते इसलिए दाई मां ने एक वस्त्र धारण करने को कहा है!"

    शारदा शैय्या के पिछले भाग के सहारे अड़ते हुए बैठी, मुख पर एक मुस्कुराहट बनी हुई थी, लेकिन इससे भी अधिक था तो उनके मुख पर मातृत्व की कांति थी, एक अलग ही चमक और प्रसन्नता थी।

    "स्वामी! हम अपनी संतान का नाम क्या रखेंगे?"

    बड़ी ही उत्सुकता से शारदा ने प्रश्न किया जिस पर सूर्यभानु मुस्कुरा दिए, अपने एक हाथ से शारदा को अपने समीप किया और दूसरे हाथ को रानी के पेट पर रखा जिस पर वो थोड़ी लजा गई।

    "आप कहिए... इस संतान पर हमसे अधिक आपका अधिकार है!" पेट पर अपना हाथ फेरते हुए उसने शारदा को देखा जिसके अधर लज्जा से मुस्कान को दबा रहे थे।

    "प्रिय अब आप माता बनने वाली हैं, अब तक इतनी लज्जा है? कभी इसका त्याग करके प्रेम से हमें देखिए तो!"

    ठोड़ी पकड़ कर शारदा का झुका चेहरा ऊपर करते हुए अपने तरफ किया।

    "स्वामी हमें आती है लज्जा... आप.. आपकी दृष्टि को सह नहीं पाते हम!" लाज से चेहरा घुमाते हुए शारदा कहा।

    "इतनी भयंकर दृष्टि है हमारी?" सूर्यभानु ने आश्चर्य से कहा उनकी आँखें बड़ी हो गईं, और वो आश्चर्य से शारदा को देख रहे थे।

    "नहीं नहीं स्वामी! मेरे कहने का तात्पर्य था कि आपके नेत्रों में उमड़ते प्रेम लहर में हम डूबने लगते हैं।"

    झट से शारदा ने अपनी बात कही। और इस प्रकार के स्पष्टीकरण के बाद वो फिर से लजा गई। जिसे देख सूर्यभानु ठहाके लगा कर हँसने लगे।

    "अच्छा अच्छा.. रहने दीजिए आप ये बताइए आप यहां आए क्यों? क्योंकि हमारा उपहास बनाना ही एक मात्र कारण तो नहीं ही होगा।"

    मुंह बनाते हुए रानी शारदा ने कहा, और वो खिसक गई उससे दूर।

    "अरे.. आप रूष्ट क्यों हो रही हैं अच्छा... सत्य में अब नहीं कहेंगे कुछ!" कहते हुए उन्होंने फिर से शारदा को अपने बाहों में खींच लिया।

    "वैसे आप इतनी शीघ्र आ गए बताया भी नहीं क्यों?" उसने फिर वही सवाल किया।

    "हां! वो मैं ये बताने आया था कि... कौशिकपुरा राज्य के नरेश आर्यमन मेरे मित्र हैं और इस समय थोड़े संकट में है तो मैं वहां जा रहा हूं।"

    उन्होंने पूरी बात नहीं बताई क्योंकि शारदा गर्भवती थी, सूर्यभानु को ये भय था कि कहीं वो भयभीत न हो जाए।

    "परंतु ऐसा क्या संकट है कि आपके जाने से ही समाधान होगा? यदि आर्थिक या प्राकृतिक संकट है तो संसाधन भिजवा दीजिए!"

    शारदा ने जांचती सी नजर से अपने पति को देखा और उसकी दृष्टि गहराने लगी जैसे वो कुछ समझना चाह रही थी।

    "नहीं... हमें मिलना भी था!" बात टालने के दृष्टि से फिर उसने कहा लेकिन राजवंश में पली शारदा के लिए भांपना कोई बड़ी बात नहीं थी।

    "युद्ध की स्थिति बन रही है क्या स्वामी?" आखिर में उसने मन की बात कह ही दी जिस पर सूर्यभानु ने एक गहरी सांस खींची और मुस्कुरा दिए।

    "कुछ ऐसा ही है प्रिय.. एक शत्रु राजा ने आक्रमण किया है हमें भी सहायता पहुंचानी होगी!" सूर्यभानु ने अपनी पत्नी के केश में हाथ फेरते हुए कहा, जिस पर शारदा के मुख पर भय की काली छाया छाने लगी।

    "परन्तु इस समय तो हमें और हमारी संतान को आपकी आवश्यकता है स्वामी! हम नहीं चाहते कि ऐसे समय में आप युद्ध देवी के बलि चढ़ें या आप पर कोई संकट आए!"

    एक चिंता थी जो हर उस पत्नी के मन में होती है जो भी वीर योद्धा की पत्नी होती है।

    "हमें महादेव का आशीष प्राप्त है प्रिय जब तक हम धर्म के छांव में है हमें कोई भी युद्ध में सामने से परास्त नहीं कर सकता!"

    एक आश्वाशन सा दिया उन्होंने अपनी पत्नी को लेकिन शारदा के मुख पर उभरी भय और चिंता की लकीर अब और गहराने लगी।

    "पता नहीं स्वामी परन्तु हमारा मन विचलित हो रहा है, कोई और उपाय निकालिए उनकी सहायता के लिए।"

    शारदा की कोमल हथेली की पकड़ सूर्यभानु के मजबूत हथेली पर बढ़ रही थी, जिसे वो भी अनुभव कर रहे थे, अपने दूसरे हाथ से उन्होंने शारदा के हथेली को थामा और थोड़ा समीप खिसकते हुए शारदा के माथे को अपने सीने से लगा लिया।

    "आप इतना भय न करें, आप हमारी शक्ति है आपके नेत्रों के ही ज्वाला से हमें ऊर्जा मिलती है हमें ये मुख सर्वदा गर्व से ऊपर उठा देखना ही भाता है न कि ऐसे मुरझाया हुआ!"

    सूर्यभानु ने पत्नी को सीने से लगाए केश को सहला रहे थे।

    व्युत्पुरा ( ध्यानवेध महल )...

    महल के द्वार पर बड़े बड़े विमान रुके, जिसके कुछ पल के बाद ही उसके द्वार खुले और सबसे पूर्व शुकराज्ञी रात्रि अपनी पूर्ण गर्व से तनी शोभायमान थी। उसके ठीक पीछे विध्वंस खड़ा था जिसकी दृष्टि ही क्रूर थी विध्वंस के बाईं ओर रानी रत्ना खड़ी थीं जिनके मुख पर मायूसी थी।

    महल के द्वार पर ही अंशुमन के साथ आचार्य और पूरा मंत्री मंडल खड़ा था साथ ही अमात्य तमस भी।

    "पधारिए शुकराज्ञी... स्वागत है शुकाधिप और...."

    अमात्य की दृष्टि जैसे ही रत्ना पर गई आश्चर्य से उसकी आँखें बड़ी हो गईं और बोल मुंह में ही घुल के रह गए, अमात्य की दृष्टि रत्ना के मुख पर टिकी थी रात्रि विमान से उतर चुकी थी विध्वंस अंतिम पायदान पर खड़ा था जबकि रत्ना अभी ऊपर ही थी।

    "अमात्य.... शुकधरा की रानी और शुकाधिप की पत्नी पर दृष्टि डालने का परिणाम जानते हैं आप?"

    एक कठोर स्वर गूंजा वातावरण में जो अमात्य के कान में पड़ते ही सिहरन पैदा कर चुकी थी।

    "क्षमा... क्षमा शुकाधिप! रानी जी कभी किसी कार्यक्रम में नहीं आती हैं तो तनिक आश्चर्य में था... और तो कुछ विशेष नहीं! हेहेहे.." कहते हुए वो अंत में मात्र बलपूर्वक हँस पड़ा।

    "परन्तु इसका ये तात्पर्य नहीं है कि रानी रत्ना कहीं आ नहीं सकती! स्मरण रहे ये हमारी प्रथम अर्धांगिनी है!"

    एक कठोर दृष्टि डालते हुए विध्वंस ने कहा।

    "जब अर्धांगिनी प्रथम अथवा द्वितीय हो जाए तो संबंधों की मर्यादा भंग हो जाती है शुकाधिप! अमात्य के आश्चर्य पर आपको आश्चर्य नहीं होना चाहिए!"

    अत्यंत धीमे स्वर में रानी रत्ना ने कहा वो अब विध्वंस से एक पायदान ही ऊपर थीं, और कठोर नेत्र विध्वंस पर ही टीके थे।

    "हमें ज्ञात है रत्ना आप हमसे रूष्ट हैं!" विध्वंस ने रत्ना की कलाई थामते हुए उसे नीचे उतारने लगा। वो भी नीचे उतरते हुए कठोरता से बोली,

    "अधिकार विहीन स्त्री रूष्ट नहीं होती है भावी राजराजेश्वर! बलात सत्ता स्थापित की जा सकती है अपितु मर्यादा, कदापि नहीं!"

    रत्ना ने कठोरता से कहा। और वो उतर गई अंतिम पायदान से भी, विध्वंस की दृष्टि अपनी पत्नी पर ही थी, सुंदर सा मुख परन्तु पीड़ा में डूबे नेत्र जिसे अनुभव कर हल्के से विध्वंस ने पुनः रत्ना की हथेली थामी, रत्ना की कोई प्रतिक्रिया फिर भी नहीं आई!

    "स्वागत है शुकाधिप! पधारिए!" अंशुमन ने स्वागत किया मुख पर मुस्कान सजाए हुए जिससे रत्ना को आश्चर्य हुआ। रत्ना की दृष्टि अंशुमन के दाईं ओर खड़ी आभा पर था जिसकी दृष्टि भूमि पर टिकी थी।

    "ये हमारी पत्नी हैं आभा!" अंशुमन ने रत्ना का परिचय कराया।

    उसी पल आभा ने दृष्टि ऊपर की उसके आँखों में रोष स्पष्ट देखा जा सकता था, दृष्टि अत्यंत गंभीर थी। जिससे वो रत्ना को ही घूर रही थी।

    "हमारा विश्वास करें रानी, इसमें हम सम्मिलित नहीं है!"

    एक ही पल में रत्ना ने आभा या व्युत्पुरा के साथ हुए अन्याय से स्वयं को विलग कर लिया, परन्तु इससे विध्वंस की आँखें पीड़ा से भर गई और मुख मलिन हो गया। उसके हृदय में एक ही विचार उमड़ा।

    "क्या रत्ना ने हमारे अस्तित्व से स्वयं को विलग रखने की बात कही, या मात्र व्युत्पुरा के विषय में।"

    वहीं रात्रि क्रोध से भर रही थी क्योंकि वो स्वयं को सबकी दृष्टि से बाहर देख रही थी किसी का ध्यान उसके ओर नहीं था।

    तो आज के लिए इतना ही आगे क्या हुआ जानने के लिए पढ़िए प्रभाकल्प।

    ✍️ शालिनी चौधरी

  • 6. प्रभाकल्प - Chapter 6

    Words: 1532

    Estimated Reading Time: 10 min

    ॐ कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने,

    प्रणतः क्लेश नाशाय गोविंदाय नमो नमः।

    ***********************************

    व्युत्पुरा ( ध्यानवेध महल ).......

    रत्ना की कही बात से विध्वंस के आंखों में पीड़ा की लहर हिचकोले मारने लगी, लेकिन अगले ही पल उसने स्वयं को संभाल लिया। लेकिन साथ ही विध्वंस की पकड़ उसकी हथेली पर कस गई, जिसे वो भी अनुभव कर पा रही थी।

    "राजा के किए कर्मों से रानी स्वयं को विलग नहीं कर सकती!" आभा ने पुनः रोष व्यक्त किया जिस पर रत्ना मुस्कुराने लगी।

    "परन्तु हमारा विश्वास कीजिए रानी आभा... व्युत्पुरा के साथ जो भी अन्याय हुआ है उसमें हमारा कोई भाग नहीं है, क्योंकि हम रानी नहीं! शुकाधिप के कर्मों की उत्तरदायी... शुकराज्ञी रात्रि हैं!"

    कहते हुए उसने तुरंत ही अपने हाथों से कंगन खोल कर आभा को पहना दिया।

    "सुहागिन अपना कंगन नहीं उतारती हैं रानी, और तब तो कदापि नहीं जब स्वामी इतना प्रेम देने वाले हों।"

    रत्ना ने अंशुमन के ओर देखते हुए मुस्कुरा कर कहा। व्युत्पुरा के मंत्रिमंडल और महल की दासियां आश्चर्य से रत्ना को देख रहीं थी।

    "ये आप.. वो!" आभा की मुख्य दासी माधवी जिसे वो अपनी सखी कहती थी वो कुछ बोलने को हुई लेकिन शब्द मिल नहीं रहे थे।

    "कष्ट न करो माधवी और ना ही आश्चर्य... क्योंकि कमल कीचड़ में खिलता है!" आभा ने माधवी को देखते हुए कहा।

    "स्वागत है रत्ना!" आभा ने बड़े स्नेह से रत्ना का स्वागत किया लेकिन आभा के मुख से रत्ना संबोधन विध्वंस को कुछ अच्छा नहीं लगा।

    "मर्यादा में बात करिए... आप शुकधरा की रानी से बात कर रहीं हैं।" अत्यंत कठोर शब्दों में विध्वंस ने आभा को डांटा।

    "हमने शुकराज्ञी को नाम से संबोधित नहीं किया है शुकाधिप! अभी रत्ना ने स्वयं कहा कि वो रानी नहीं है, यदि वो रानी है तो व्युत्पुरा की अपराधी है।"

    मुस्कुराते हुए आभा ने कहा उसकी नजर रत्ना पर थी।

    "नहीं मैं रानी नहीं हूं... मैंने मेरे अधिकारों का त्याग कर दिया है... मैं मात्र रत्ना हूं!"

    कहते हुए उसने आभा के हाथों का नारियल ले लिया जिसका स्पष्ट मतलब था कि उसने स्वागत और आमंत्रण दोनो स्वीकार किया।

    वहां की परिस्थिति अत्यंत गंभीर हो चुकी थी जिसे संभालने के लिए तुरंत ही अंशुमन ने आगे आ कर कहा,

    "शुकाधिप... विश्राम कर लीजिए कुछ पहर पश्चात राज्याभिषेक का मुहूर्त है!" विध्वंस की नजर जा रही रत्ना पर थी, जिसे आभा मुस्कुराते हुए ले जा रही थी और वो भी मुस्कुरा रही थी।

    "जानते हैं हम आप हमसे रूष्ट हैं... रत्ना आप मानती ही नहीं कि प्रेम कम नहीं हुआ है हमारा... आपके अधर के मुस्कान के लिए हम रानी आभा की सहस्त्र बातें सुन सकते हैं!"

    विध्वंस ने अपने मन में ही कहा वहीं रात्रि और विध्वंस भीतर आए।

    "ये दीदी को हमसे क्या समस्या है? वो ये क्यों सदा जताती है कि हमने कुछ अनुचित किया है?"

    अपने क्रोध को दबाए हुए रात्रि ने आखिर विध्वंस को अपनी बात कह ही दी।

    "उनके दोषी हैं हम.. वो रूष्ट है और ये उनका अधिकार है पत्नी हैं हमारी उनका रूष्ट होना अधिकार क्षेत्र में आता है और हमारा मनाते रहना कर्तव्य!"

    विध्वंस मुस्कुरा दिया, ये बड़ा ही दुर्लभ था कि विध्वंस को कोई ऐसे मुस्कुराते हुए देखे, रात्रि आश्चर्य से देख रही थी।

    "यहां का सबसे सुंदर कक्ष हमारा होगा..." रात्रि ने बात मोड़ने के सोच से कही जिस पर विध्वंस ने उसे देखा और मुस्कुरा दिया।

    "ह्म्म! शुकराज्ञी की इच्छा तो माननी ही पड़ेगी!" विध्वंस ने कहा जिस पर रात्रि इतरा उठी। तभी थोड़े संकोच से अंशुमन ने कहा,

    "शुकाधिप... सबसे सुंदर कमरा मेरी पत्नी आभा का था और आभा ने उसमें ही बड़ी रानी को ठहराया है!"

    विध्वंस ने अंशुमन को देखा जो स्वयं ही अलग सी परिस्थिति का शिकार था।

    "आप कहें तो हम बड़ी रानी के लिए दूसरा प्रबंध करते हैं!" अंशुमन ने बात संभालने के उद्देश्य से कहा।

    "नहीं... रत्ना जा चुकी हैं... तो वो कक्ष उनका ही है कोई नहीं उन्हें वहां से जाने को कहेगा। रात्रि को कोई दूसरा कक्ष प्रदान की जाए।"एक आदेश देते हुए वो स्वयं उसी कक्ष की दिशा में बढ़ चले जिधर रत्ना ठहरी थी। रात्रि चिढ़ गई क्रोध में भरी वो तिलमिला रही थी।

    "रानी जी इधर..." माधवी ने रास्ता दिखाया जिस पर वो क्रोध से भरे हुए आगे बढ़ गई।

    "आप तो पूर्णतः भिन्न हैं... शुकधरा के अन्य व्यक्तियों से!" आभा ने रत्ना से कहा को झरोखे से दूर तक फैले उपवन को देख रही थीं।

    " हम शुकधरा के साँचे में कभी ढले नहीं! हमारा अपना स्वतंत्र अस्तित्व है!" बिना मुड़े ही उसने कहा जिस पर आभा मुस्कुरा रही थी।

    "एकांत!" अचानक ही विध्वंस की आवाज़ कक्ष में गूंजी! जिस पर आभा तुरंत ही निकल गई। वहीं रत्ना अब भी नहीं मुड़ी तो विध्वंस ने पीछे से ही उन्हें अपने आलिंगन में लिया।

    "इतनी रूष्ट है.. कि अस्तित्व ही विलग रख रहीं!"

    उसे अपनी बाहों में कसते हुए विध्वंस ने कहा।

    "हमने कहा न शुकाधिप... अधिकार विहीन स्त्री रूष्ट नहीं होती!" रत्ना की कठोर दृष्टि झरोखे के बाहर ही थी।

    "पूर्ण अधिकार है मुझ पर... पत्नी हैं आप मेरी.. रत्ना मैं वही हूं आपका विध्वंस! जो अत्यंत प्रेम करता है आपसे।"

    अपनी ओर घुमाते हुए विध्वंस ने रत्ना से कहा, जिसने अब अपनी पलकें उठा कर विध्वंस के आंखों में झांका।

    "प्रेम किसे कहते हैं शुकाधिप ?" रत्ना ने आंखों में झांकते हुए प्रश्न किया!

    "जो मुझे आपसे है..." विध्वंस ने तत्काल ही उत्तर दिया।

    "नहीं! जो आपने किया वो प्रेम कदापि नहीं था शुकाधिप अन्यथा मात्र संतान प्राप्ति के लिए मेरा त्याग नहीं होता!"

    अश्रु की कुछ बूंदें रत्ना की आंखों में छलछला गए, और अगले ही पल उनके नेत्रों से सरक कर उनके गालों पर बहने लगे, पीड़ा के हर कतरे को समेटे।

    "नहीं रत्ना मैंने कभी आपका त्याग नहीं किया... उत्तराधिकारी के लिए संतान आवश्यक था, परन्तु मेरे लिए आप आवश्यक हैं।"

    रत्ना के कमर पर विध्वंस की पकड़ कसती चली गई।

    "अच्छा... ऐसी ही मधुर बातें अपनी प्रिय भार्या और साम्राज्य को राजकुमार देने वाली रात्रि से भी करते हैं न!" रत्ना के स्वर में अब क्रोध भरने लगा था।

    "आपको ईर्ष्या हो रही है?" बड़े ही शांत और परिहास के उद्देश्य से विध्वंस ने कहा साथ ही रत्ना के अश्रु पोंछ कर अपने अधर को उसके माथे पर टिका दिया.... जिसका स्पर्श पाते ही रत्ना के नेत्र बंद हो गए।

    "ईर्ष्या नहीं हो रही है शुकाधिप... मुझे पीड़ा हो रही है.... संतान सुख न देने के कारण मेरा सम्पूर्ण जीवन ही अपूर्ण हो गया है, अब न मैं माता हूं और न किसी की प्रियतमा पत्नी!"

    थोड़ा दूर होते हुए रत्ना ने कहा, उसकी आँखें पुनः अश्रु से भर गए।

    "आपसे मैं आज भी अत्यंत प्रेम करता हूं, और मेरा प्रेम भविष्य में भी ऐसा ही रहेगा। मेरा आपका संबंध हर नियम के पार है!"

    विध्वंस ने पुनः रत्ना को अपने समीप किया और उसके माथे पर अपने अधरों का स्पर्श कराया जिससे रत्ना के नेत्रों से अश्रु बह गए।

    एक निर्जन स्थान जहां दूर दूर तक रेत बिखरा था, बस कुछ दूर ही धरती दिख रही थी और एक छोटी सी नदी की धार जहां कुछ वृक्ष भी थे।

    "विभित्सा! कौशिकपुरा यहां से मात्र पांच मील की दूरी पर है! और अब दिन का तीसरा पहर भी आरंभ हो गया है, रात्रि तक भी कौशिकपुरा नहीं पहुंच सकेंगे... इसलिए ये स्थान विश्राम के लिए उचित जान पड़ता है!"

    आक्रोश नामक एक अन्य योद्धा ने अपनी बात कही लेकिन ये सुझाव सच में सही थी क्योंकि पांच मील पूरे सैनिक और अस्त्र शस्त्र के साथ भोजन और बाकी के सामान के साथ यात्रा अत्यंत ही संकट भरी हो सकती थी, और रात्रि यात्रा सुरक्षित भी नहीं थी।

    विभित्सा जो रुक गया था अब वो पलटते हुए बोला,

    "आज हम सब यहीं विश्राम करेंगे.... सारे सैनिक शिविर डाल लें, और भोजन की तैयारी में जुट जाएं यहां जल की पूर्ति भी हो जाएगी।"

    एक जोरदार आवाज़ पूरे वातावरण में गूंज गया और सारे सैनिक के साथ सारे रथ और हाथी घोड़े भी रुक गए।

    "वैसे शुकाधिप विध्वंस ने जबसे कार्यभार संभाला है हमें बहुत युद्ध करने का अवसर प्राप्त हुआ है!"

    आक्रोश ने अलग ही उत्साह से कहा जिस पर विभित्सा मुस्कुराया।

    "क्या लगता है शुकाधिप ने इसके लिए क्या खोया होगा?" दोनो ही पेड़ के नीचे बैठ गए।

    "खोया! उन्होंने तो मात्र प्राप्त किया है, राज्य, धन, वहां की संपदा! उन्होंने प्राप्त ही किया है।"

    आक्रोश कुछ उलझन में पड़ गया था उसके अनुसार विध्वंस ने प्राप्त ही तो किया है।

    "नहीं! उन्होंने मात्र प्राप्त नहीं किया है... उन्होंने खोया भी है।" बड़े ही विश्वास से विभित्सा ने कहा उसके आत्मविश्वास को देख कर आक्रोश और उलझ गया।

    "और क्या खोया है शुकाधिप ने?" बड़े ही रुचि से उसने ये प्रश्न किया था! राजराजेश्वर बनने से बस कुछ पायदान की दूरी पर ही था वो उसे अब वो प्राप्त होने वाला था जिसके बाद सारी पृथ्वी उसके अधीन होने वाली थी।

    "स्मरण रखो आक्रोश! जब नियति बहुत दे तो वो किसी प्रिय वस्तु का बलिदान मांगती है, और शुकाधिप ने भी बलिदान दिया है! रानी रत्ना का बलिदान!"

    विभित्सा की आँखें दूर नदी की बहती उस पतली सी धारा में उलझ गई थी, लेकिन वहीं आक्रोश की उत्सुकता ने अब उसके हृदय में एक नए प्रश्न को जगा दिया था।

    आज के लिए इतना ही अब आगे क्या होगा जानने के लिए पढ़ते रहिए प्रभाकल्प!

    ✍️ शालिनी चौधरी

  • 7. प्रभाकल्प - Chapter 7

    Words: 1538

    Estimated Reading Time: 10 min

    ॐ कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने,

    प्रणतः क्लेश नाशाय गोविंदाय नमो नमः।

    ***********************************

    व्युत्पुरा (शून्यवाणी सभागृह).....

    "शुकाधिप विध्वंस की जय.... शुकराज्ञी रात्रि की जय.... रानी रत्ना की जय..."

    अमात्य तमस अपनी पूर्ण शक्ति से जयकारा लगा रहें थे, वहीं व्युत्पुरा के निवासी सर झुकाए खड़े थे, सबके नेत्र अश्रु से भरे और मन उद्विग्न था, सभागृह के झरोखें से रानी आभा भी झांक रही थीं, अंतर इतना था कि आज वो सामान्य वेश में थी, उन्होंने राज अलंकारों त्याग कर दिया था। अंशुमन अभी राज वस्त्रों में खड़ा था और सिंहासन पर बैठा था, तीन ब्राह्मण ऊपर आएं उनके हाथ में तीन कलश था जिसमें गंगा, यमुना और त्रिवेणी का जल था। जिससे उन्होंने अंशुमन के हाथ में पकड़े नारियल को धुलवाया और अब वो सिंहासन से उठा इसके बाद विध्वंस वहां बैठ गया, अंशुमन ने अपने हाथ में पकड़े नारियल को विध्वंस के हाथों में देते हुए कहा,

    "इदं राज्यं तव हस्ते समर्पयामि॥

    एष धर्मोऽयं राष्ट्रस्य मम हृदयसारः।

    यथा अहं यथाशक्ति धर्मपन्थानमन्वगच्छम्,

    एवं त्वं अपि धर्मेण राष्ट्रं पालय।॥

    यस्यां भूमौ अहं राजत्वं कृतवान्,

    तस्यामेव त्वं धर्मराजो भव।

    न कामात्, न क्रोधात्, न लोभात् विचलस्व।

    सत्यं वद, धर्मं चर, प्रजासेवा परमो धर्मः।॥

    इयं पृथिवी त्वां समर्प्यते यथा पुत्राय मातरः।

    सहेषु स्वप्नेषु, दुःखेषु, संग्रामेषु च—

    त्वं धृत्या, क्षमया, तेजसा च धर्मं धारय॥"

    हर श्लोक के साथ आचार्य शिवनन्दन दोनों पर अक्षत वर्षा करते, इसके बाद आचार्य शिवनन्दन ने अंशुमन के हाथ में अक्षत पुष्प और पुष्प में ही लगा चंदन दिया जिसे उसने विध्वंस के हाथ में रख दिया इसके साथ ही अपना राज मुकुट उतारते हुए, उसके चरणों में रखा। इसके साथ ही एक शब्द उसके मुख से निकलें।

    "समर्पयामि!" हाथ जोड़ते हुए वो नीचे उतरा आँखें आंसुओं से भरी थी, व्युत्पुरा के मंत्री मंडल, सभा में उपस्थित नागरिक और झरोखें से झांक रही आभा सबके नेत्र से अश्रु की धारा बह रहें थे, सबके अधर पर चिर काल के लिए मौन छा गई थी, लेकिन नेत्र तो दर्पण है जो मनोभाव को दर्शा देता है, और वही था सबकी पीड़ा नेत्र के रास्ते नीर बन कर बह रहें थे।

    शून्यवाणी सभागृह आज एक मौन को धारण कर चुकी थी, सबके नेत्र बह रहे थे, लेकिन ध्वनि की एक स्वर नहीं था, पूरी सभा स्वरहीन जान पड़ रही थी।

    दिवस के इस पहर में सूर्य की किरणें हिचकोले खाती हुई राजसिंहासन के ऊपरी मणि से टकरा कर झरोखें के रानी के सिंहासन से टकराती थी। व्योम से उतरती उन किरणों ने जब व्युत्पुरा के सिंहासन पर अंशुमन के स्थान पर किसी और को देखा तो क्षितिज ने सूर्य की किरणों को वैसे ही लौटा लिया जैसे अज्ञान के तिमिर को देख गूढ़ ज्ञान का प्रकाश लौट जाता हो।

    "सूर्य ने भी अपनी किरणों को समेट लिया है, प्रकृति को भी नहीं भाया ये सत्ता परिवर्तन।" लौटती किरणों को देख कर रानी आभा के मुख से सहसा निकला धीरे धीरे सभागृह में अंधेरा बढ़ने लगा।

    "व्योम से उतने वाली वो नर्तन करती हुईं प्रकाश किरणों ने आप वापसी कर ली है, मात्र अंधेरा ही अब वास्तविकता है!"

    दुःख से उद्विग्न माधवी के बोल निकले, जिसके पश्चात नेत्रों ने दो बूंद अश्रु बहा दिए जैसे पीड़ निकल रहा हो हृदय का।

    "सूर्य ने जो प्रभा समेटी है वही प्रभा आयेगी कल्प के परिवर्तन के लिए, नियति से इतना भी दुःखी नहीं होना चाहिए रानी आभा। समय परिवर्तनशील है!"

    आभा के पीछे खड़ी आचार्य की पत्नी भौमा ने कहा। जिसके पश्चात एक गहन मौन छा गया।

    वहीं तमस की दृष्टि झरोखे पर खड़ी आभा पर थी, उसे याद था, आभा की गर्जना।

    "आश्चर्य ये रानी इतनी शांतचित्त कैसे है? ये तो तीक्ष्ण बोली और तीखे विरोध में पीछे नहीं रहती! लेकिन मुझे इससे भय भी लगता है, इसके भीतर एक ज्वाला है जो किसी को दिखे न दिखे मुझे दिखाई पड़ती है वो भी स्पष्ट!"

    अमात्य तमस के भीतर ही विचार आ रहें थे, दृष्टि जमी थी रानी आभा पर जिसे रानी रत्ना देख रही थी, उनकी मुट्ठियां भींच गई, क्रोध से शरीर में एक कंपन हुई, मुख जलने लगा और आँखें सामान्य से बड़ी दिखने लगी! फिर भी स्वयं को संयत कर धीमे स्वर से बोली,

    "अमात्य तमस! मर्यादा में रहें!" उस मौन कक्ष में सबका ध्यान अकस्मात ही रानी रत्ना पर गया जिनकी क्रोध भरी दृष्टि अमात्य पर ही टिकी थी।

    "क्षमा रानी जी... परंतु जैसा आप सोच रही हैं हमारा उद्देश्य वो नहीं था।"

    अमात्य को तुरंत ही समझ आ गया रानी के क्रोध का कारण!

    "मर्यादा की सीमा रेखा अत्यधिक महीन होती हैं, उद्देश्य बदलते समय नहीं लगता!" कहते हुए उसने दृष्टि घुमा ली।

    "शुकाधिप, शुभ बेला बीत रहा है, अब आप शुकराज्ञी को अभिषेक के लिए बुलाएं!"

    वहीं बाएं भाग में बैठी रात्रि के अधर मुस्कुराने लगे, नेत्र में एक चमक छा गई जैसे सहस्त्र मणियां उनके नेत्र में समा गई हो। वो उठने के लिए जैसे ही सज्ज हुई विध्वंस की आवाज़ सभागृह में गूंजी!

    "रत्ना... आइए!" रत्ना आश्चर्य से विध्वंस को देख रही थी, अमात्य की दृष्टि अनायास ही रात्रि के ओर मुड़ गई, वहीं रात्रि की मुट्ठियां कस गई, वो पुनः बैठ गई उसने अपने हथेली में अपने साड़ी के आंचल को कसा हुआ था, वो सामान्य दिख रही थी लेकिन भीतर क्रोध का ज्वालामुखी विस्फोट हो चुका था।

    झरोखे में खड़ी आभा की दृष्टि रत्ना पर ही थी अभी से ठीक एक पहर पूर्व ही उसने रत्ना का स्वागत मात्र इसलिए उत्साह से किया था क्योंकि वो स्वयं को शुकधरा से भिन्न बता रही थी।

    "हह.. ये शुकधरा के अधिपति की भार्या है हमने कैसे विचार किया कि ये विलग होगी!" आभा ने तुरंत ही हाथ में पहने कंगन को उतार दिया जिसे रत्ना ने पहनाया था, वो उसे झरोखे से नीचे गिराने ही वाली थी कि रत्ना की मधुर स्वर उसके कानों से टकराई।

    "हमें रानी बनने की लालसा नहीं है शुकाधिप, साम्राज्ञी का पद उन्हें दिया जाता है जो शुकप्रभुज की माता हो, संतान विहीन रानी को पद नहीं सौंपा जाता ये शुकधरा का अटल नियम है!"

    रत्ना ने तुरंत ही काट किया उसने पुनः एक बार अतीत का दर्पण विध्वंस को दिखाया जिससे उसके नेत्र के आगे कुछ पुरानी झांकियां हो कर गुजरी।

    "स्वामी! मात्र संतान न होने के कारण आप हमारा त्याग नहीं कर सकते, हमसे रानी पद नहीं ले सकते हमने अपने कर्तव्य का पालन बड़े हृदय से किया है, हमारे क्षेत्र में आए कामों को आप देखिए। प्रजा की स्त्री भी तो संतान हैं हमारी!"

    श्वेत साड़ी पहने माथे पर श्वेत मुकुट, जूड़े से सुनहरे रंग की चुनर लगी जो धरती को ऐसे स्पर्श कर रही थी जैसे आसमान में तैरते मेघों की बूंद धरती के कोख में पल रहे उन कोमल दूर्वा को स्पर्श करना चाहती है।

    बीती बातों के संदूक से जब स्मृतियों का एक धागा उधरा तो वो टूटे कांच के जैसे विध्वंस के हृदय में चुभ गया जिससे पीड़ा उमड़ी जो उसके नेत्र सजल हो गए, लेकिन कुछ ही पलों में उसने अपनी भावनाओं को समेट लिया क्योंकि वो शुकाधिप था और अश्रु उसके अधिकार क्षेत्र से बाहर थे।

    "किंतु..." विध्वंस ने कहना चाहा।

    "शुकराज्ञी रात्रि... आप शुकप्रभुज अव्यय की माता हैं, ये स्थान आपका है इसे ग्रहण कीजिए।" कहते हुए रत्ना अपने स्थान पर ही बैठी रह गई।

    "हमारे नियमों ने हमें आपसे इतना दूर कर दिया रत्ना... आप समझती नहीं राज्य के लिए संतान की आवश्यकता...."

    कहते हुए ही वो रुक गया कुछ पुरानी झांकियां आँखों के सामने आने लगी जिससे स्वयं ही विध्वंस के शब्दों को मौन कर दिया!

    कौशिकपुरा.....
    वातायनप्रभा महल....

    महल के छत पर खड़े एक प्रौढ़ा अवस्था के युवक खड़े दूर तक फैले उस राज्य को देख रहे थे, जहां खुशियां और संतोष का वास था, जहां दिन हो अथवा रात्रि तिमिर के लिए स्थान नहीं था।

    सबके घर रात्रि को दीप के प्रकाश से भरा रहता तो दिन में व्योम से उतरी भानु किरणों के ग्रीष्म स्पर्श से नर्तन करता था, वही राज्य आज तिमिर के बिछावन तले, भय की दुशाला ओढ़े थी। दूर दूर तक जहां प्रकाश खिली रहती थी, जो नगरी सदा सजी रहती थी एक नवविवाहिता की तरह जो अपने स्वामी की दृष्टि मात्र के लिए धारण करके रखती है सोलह श्रृंगार, वही नगरी आज परित्यकता नारी के जैसे उजड़ गई थी।

    "स्वामी! रौहिणय से कोई नहीं आया है! आपको पूर्ण विश्वास था चंद्राधिप पर।" वो दृष्टि जो अपने राज्य को देख रही थी वो दृष्टि अब उस स्त्री पर टिकी।

    "कांति... विश्वास कीजिए, चन्द्राधिप अवश्य आयेंगे।" आर्यमन के आँखों में विश्वास ज्योति जगमग कर रही थी। जिसे देख कर रानी कांति को भी बल मिला लेकिन वातावरण गंभीर ही था।

    मौसम भी जैसे उमस से भर गया था, वहीं कांति आगे बढ़ी उसके पैरों से बंधा पायल रात के उस मौन पहर में सुर छेड़ने जैसा था, जिसके स्वर आर्यमन के विचलित हृदय को शांत कर रहे थे। कांति चलते हुए आई और आर्यमन के उन बलशाली भुजाओं को अपने कोमल हथेली से बंदी बना कर माथे को उससे टीका दिए, उसकी दृष्टि शून्य में ताक रही थी।

    "प्रिय आप चिंतित न होए, सूर्यभानु को महादेव का आशीष प्राप्त है, वो युद्ध में आयेंगे तो कौशिकपुरा का अहित हो ही नहीं सकता।"

    आर्यमन ने कांति हथेली पर अपनी हथेली रखी और उसे निर्भीक करने के लिए सहलाया। स्वामी के स्पर्श को पा कर कांति का मन शांत होने लगा।

    आज के लिए इतना ही आगे क्या हुआ जानने के लिए पढ़ते रहिए प्रभाकल्प और कमेंट रेटिंग भी देते रहिए।

    ✍️ शालिनी चौधरी

  • 8. प्रभाकल्प - Chapter 8

    Words: 1526

    Estimated Reading Time: 10 min

    ॐ कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने,

    प्रणतः क्लेश नाशाय गोविंदाय नमो नमः।

    ***********************************

    कौशिकपुरा ( वातायनप्रभा महल )....

    कांति ने जैसे ही अपने हथेली पर आर्यमन का स्पर्श पाया उसके भीतर एक शांति सी छाने लगी।

    "ये दुःख की कैसी बेला है आर्य.... हमारे कौशिकपुरा की स्थिति कैसी हो गई है? जैसे नवजात शिशु को प्राण का भय पहली बार सता रहा हो!"

    कांति के नेत्र अश्रु से भरे थे। वो सामने देख रही थी लेकिन उसकी नयन नीर जब आर्यमन के बाजुओं पर गिरती तो उसकी ऊष्मता की अनुभूति मात्र से उसका हृदय जलने लगता, उसने अपनी पत्नी के नेत्र में कभी अश्रु नहीं आने दिए थे और आज उसी पत्नी हृदय में भय और नयन अश्रुपूरित थे।

    अंबर से श्वेत प्रकाश चहुं ओर फैल रही थी, वातावरण उमस से भरा था परन्तु अब वायु भी मध्यम चाल से बहना आरंभ कर चुकी थी, रात्रि गहरी होने लगी थी, रजनी ने अपने स्याह से आँचल से कौशिकपुरा के आकाश को ढंक रखा था, कांति को आज इसी स्याह में अपने माँग की लालिमा मिलती हुई सी प्रतीत होने लगी थी।

    "आर्य क्या हो यदि हम पराजित हो जाएं? क्या कौशिकपुरा शुकधरा साम्राज्य में विलीन हो जाएगा? क्या इसकी स्वतंत्रता छिन्न भिन्न हो जाएगी?"

    अपने हृदय में उठ रहे प्रश्नों के लहर को कांति ने आर्यमन को कह दिया था लेकिन अब उस लहर की तीव्रता को भांप कर आर्यमन के शांत हृदय की गति बढ़ गई थी, लेकिन उन्होंने अपने मनोभाव को अपने भीतर समा लिया जैसे सागर समा लेता है नदी में उठने वाली हर लहर को।

    "प्रिय! ऐसा कुछ नहीं होगा! आप व्यर्थ ही विचलित हो रही हैं!"

    आर्यमन ने कांति को अपने सामने किया और उसे अपने अंक में भर लिया, कांति का माथा आर्यमन के हृदय के पास था जिससे वो उसके हृदय के बढ़े हुए स्पंदन को स्पष्ट सुन सकती थी।

    "आर्य... ये आपका हृदय इतनी तीव्र गति से स्पंदित क्यों हो रहा है? क्या आप विचलित है, या कोई अन्य समस्या भी है जो आप कह नहीं रहे?"

    कांति की कोमल हथेली आर्यमन के हृदय के पास टटोल रही थीं।

    "आप हमारे इतने समीप है प्रिय... हृदय की गति तो तीव्र हो ही जाएगी, न कोई समस्या है न कोई कारण... हृदय के इस गति का एक ही कारण है वो है... हमारी प्रिय कांति का हमारे इतने समीप खड़े हो कर हृदय का हाल टटोलना!"

    आर्यमन की दृष्टि कांति के मुख को देख रही थी, जिस पर लज्जा की लालिमा छाने लगी, उसकी पलकें झुक गई अधरों पर एक दबी मुस्कान सी आई। जिसे देख कर आर्यमन के हृदय को ऐसा आभास हुआ जैसे तपते मरुभूमि में किसी ने शीतल जल की बौछार कर दी हो।

    "ऐसे न मुस्कुराओ प्रिय,
    हम हृदय समर्पित कर जाएंगे,
    तेरी ऐसी ही मोहिनी वृत्ति पर,
    हम स्वांस समर्पित कर जाएंगे!"

    आर्यमन के मुख से निकली ये पंक्तियां कांति के मुख की लालिमा को बढ़ाने लिए प्रयाप्त थें झुकी पलकें जो उठने के लिए सज्ज हो रही थी वे पुनः झुक गए, उनमें अब इतना सामर्थ्य नहीं रहा कि वो उठ कर अपने हृदयराज अपने आर्य को निहार सकें।

    "आर्य.. हमें लज्जा आ रही है आप... आप ऐसे न करें!" कहते हुए वो आर्यमन के आलिंगन से निकल कर दूसरे तरफ़ जाने को हुई लेकिन झट से आर्यमन ने कांति की कलाई पकड़ी जिससे पहनी हुई चूड़ियां खनक गई, दौड़ते हुए पग थमे जिस करण छन की आवाज़ के साथ ही पायल का शोर थमा और कांति के हृदय में एक नया सुर छिड़ गया।

    व्युत्पुरा (शून्यवाणी सभागृह ).....

    रात्रि उठ कर आई अधर पर मुस्कान खेल गई थी, रत्ना ने उसका स्थान नहीं लिया था, ये जानकर उसे स्वयं पर ही गर्व हो रहा था।

    "शुकाधिप... आप यहां आसन पर विराजिए आपका सर्वप्रथम सोमाभिषेक होगा, तत्पश्चात राजधर्म प्रतिष्ठा!"

    आचार्य शिवनन्दन ने ज्यों ही अपनी बात रखी, विध्वंस की दृष्टि अपने आचार्य विरूपदत्त के ओर उठी, उन्होंने भी सर हिला कर अपनी सहमति दिखाई। तब सभागृह के मध्य लगे आसान पर शुकाधिप बैठा और आचार्य शिवनन्दन, आचार्य विरूपदत्त और तीन अन्य ब्राह्मण के अधीनस्थ सोमाभिषेक प्रारंभ हुआ।

    तीन पवित्र नदियों के जल, घृत, गाय दुग्ध, सुगंधित धूप तुलसी रस से बने उस पवित्र जल को विध्वंस को माथे से नहलाया गया और साथी पांचों ऋषि के स्वर एक साथ ही वातावरण में गूंजे,

    "राजानं म ऋतं बृहन्तमच्छा
    सोमेन सिञ्चेम मधुना घृतेन।
    तं त्वा देवा: अभिषिञ्चन्तु राजा
    त्वं भूत्वा जनस्य अधिपतिः।"

    वहीं रात्रि ने उस जल का मात्र छिड़काव किया, विध्वंस के केश और पूरा शरीर उस जल से स्नान कर चुका था, अधरों के समीप कुछ बूंदें जल की रुकी थी जो कुछ क्षणों के बाद स्वयं ही टपक गई।

    विध्वंस उठा और वहीं उसे विरूपदत्त के हाथों से नया वस्त्र मिला कुछ ही देर में उसने उसे धारण किया और अब उसे आचार्य शिवनन्दन पान के पत्ते पर सुपारी और अक्षत पुष्प देते हुए बोले,

    "शिकाधिप... अब आप प्रतिज्ञा कीजिए।" विध्वंस ने उसे ग्रहण किया और आचार्य के पीछे पीछे मंत्र बोलने लगा,

    "त्वमेव प्रजासु धर्ममाचर,
    त्वमेव रक्षो दुष्टान्,
    त्वमेव पालक: सन्तु जनानाम्।
    धर्मो रक्षति रक्षितः।"

    इस संकल्प के लेते ही ऊपर झरोखे में खड़ी आभा खिलखिला कर हँस पड़ी।

    "आचार्य दुष्ट.. कैसे दुष्ट से रक्षित करेंगे व्युत्पुरा को?" ये प्रश्न से अधिक व्यंग था और उससे भी अधिक था विरोध जिसे अनुभव कर विध्वंस ने क्रोध से अधरों को भींच लिया।

    "नहीं... शुकाधिप! आप क्रोध नहीं कर सकते!" कहते हुए ही आचार्य विरूपदत्त ने उसे रोक दिया।

    आचार्य शिवनन्दन ने आम के पल्लव को गंगा जल में डूबा कर विध्वंस पर छिड़काव करते हुए मंत्र बोले,

    "त्वं इन्द्र इव वीर्यं धारय।
    त्वं सूर्य इव तेजसा संपन्नः भव।
    त्वं चन्द्र इव शीतलः,
    धर्मेण समन्वितो भूत्वा
    प्रजां पालय।"

    इसके बाद विध्वंस और रात्रि दोनों ही सिंहासन पर बैठे और इसके साथ ही राज तिलक लगाया गया विध्वंस को पांचों ऋषि ने राजमुकुट पहनाया और एक स्वर में बोले,

    "सिंहासनं तव समर्पितं,
    धर्मेण स्थापय।
    त्वं धर्मस्य प्रतिरूपः भव।
    यथास्यां पृथिव्यां धर्मो नित्यं स्थितः।"

    इसके साथ ही आभा के मुख पर पीड़ा उमड़ आई, अंशुमन की आँखें मानो पाषाण की हो गई थीं उसने आज सब खो दिया था जो भी उसके पूर्वजों ने संचित किया था। राज्य, संस्कार, प्रतिष्ठा सब आज एक विरासत डूब गई थी।

    तभी आचार्य ने दूसरा मुकुट उठाया जो आभा धारण करती थी जब वो रानी थी, उसे रात्रि धारण किया जिसे देख कर अंशुमन ने अपनी दृष्टि घुमा ली। वहीं माधवी के नेत्र से अश्रु बहने लगे।

    काले मेघ व्युत्पुरा के आकाश में छाए, और एक जोरदार विद्युत कड़की इसके साथ ही मूसलाधार वर्षा आरम्भ हो गई।

    "रानी जी... इस नई सत्ता को तो व्युत्पुरा की प्रकृति ने भी नहीं स्वीकारा!" माधवी ने आभा के समीप आ कर कहा परन्तु आभा ने कोई उत्तर नहीं दिया उसके भीतर एक गहन मौन थी।

    रौहिण्य (चंद्रोदित मठ)....

    आचार्य सोमदत्त की दृष्टि अंतरिक्ष में टिकी थी, वे कुछ टटोल रहे थे आकाश के गर्भ में।

    "कालचक्र में ऐसा क्या दिख रहा है स्वामी की आपकी दृष्टि आज धरा को तकती ही नहीं!"

    सोमदत्त के कानों में जैसे ये स्वर गए उनकी दृष्टि उस स्वर के स्वामिनी के ओर गई, साधारण से भगवा वस्त्र में, गले में स्फटिक की माला, हाथों में फूलों का कंगन माथे पर सिंदूर चमकता, ललाट पर कुमकुम और अधर पर शांति धारण किए एक मुस्कान।

    "ओमलता... विनाश दृष्टिगोचर होता है, स्थिति भली नहीं जान पड़ती, आप जगतजननी की सेविका हैं, माता आपकी विनती को सुनती हैं, तो मठ के सुरक्षा का दायित्व हम आपको सौंपते हैं।"

    आचार्य सोमदत्त ने अपनी पत्नी को देखते हुए कहा। जिस पर दोनों हाथ जोड़ते हुए ओमलता ने झट से आज्ञा को शिरोधार्य किया।

    "स्वामी की आज्ञा, ब्रह्म आज्ञा के जैसी है! आप निश्चिंत रहें स्वामी। परन्तु बात क्या है?"

    ओमलता ने प्रश्न किया जिस पर वो अचानक ही उनके ओर देखे और एक गहरी सांस भर कर बोले,

    "रौहिण्य के भाग्य में अब दुःख के बादल आए हैं जो शोक और संताप की बर्षा करेंगे, संपूर्ण रौहिण्य उस काल के चपेट में आयेगा, यदि आप मठ की सुरक्षा का दायित्व लेती हैं तो ये स्थान सुरक्षित रहेगा।"

    सोमदत्त के माथे पर चिंता की दो रेखाएं प्रखर हो कर दिख रही थी, जिसे ओमलता ने भी अनुभव किया, उनके भीतर भी एक भय की लहर सी उठी लेकिन फिर अपने स्वामी के शांत सौम्य मुख को देख वो शांत हो गई।

    "परन्तु स्वामी क्या इसे टालने का कोई उपाय नहीं है?" एक सामान्य प्रश्न उठा ओमलता के हृदय में।

    "नियति जब क्रीड़ा करे तब उसका कोई उपाय नहीं होता है देवी... मैंने एक प्रयास अवश्य किया था लेकिन इसका कोई प्रभाव नहीं हुआ, नियति के तर्क के समक्ष तो सम्पूर्ण ज्ञान व्यर्थ सा प्रतीत हुआ।"

    आचार्य ने सूर्यभानु के साथ हुई अपनी वार्ता को स्मरण करते हुए कहा। तभी वहां कपिल ऋषि आए उन्होंने पहले आचार्य को हाथ जोड़ अभिवादन किया फिर उनका ध्यान ओमलता पर गया तो उन्हें भी आदर सहित प्रणाम किया इसके बाद शीघ्रता में बोलें,

    "आचार्य! रौहिण्य से समाचार है... चंद्राधिप सेना सहित कौशिकपुरा के लिए प्रस्थान कर चुके हैं!"

    कहते हुए कपिल ऋषि चुप हुए लेकिन सोमदत्त के मुख पर गंभीरता अब और बढ़ गई, उनकी दृष्टि पुनः अंतरिक्ष के ओर हुई जहां देखते ही उनका शांत मुख भी व्याकुल सा दिखने लगा।

    आज के लिए इतना ही आगे क्या हुआ जानने के लिए पढ़ें प्रभाकल्प।

    ✍️ शालिनी चौधरी

  • 9. प्रभाकल्प - Chapter 9

    Words: 1546

    Estimated Reading Time: 10 min

    रौहिण्य ( रजतमयूख भवन ).......

    प्रसव का समय समीप था जिस कारण शारदा को भारी कपड़ों और गहनों में असुविधा होने लगी थी, कोशी जो उसकी दाई मां थी, उसने उसे एक वस्त्र धारण करने को कहा ताकि मां को आराम मिले। शारदा ने एक वस्त्र धारण कर रखा था, लाल रंग के उस कोमल वस्त्र को जो अत्यधिक लंबी थी जिस कारण शारदा ने उसे पूरे शरीर पर लपेट रखा था। गोरे बदन पर लाल रंग अत्यंत आकर्षक लग रहा था, कक्ष झरोखें से शारदा नीचे प्रस्थान कर रही सेना को देख रही थी, मुख पर जो तेज था वो मलिन होने लगा था, नेत्र अश्रु से भर चुके थे।

    "भाभी श्री... यदि आपका हृदय नहीं चाहता था तो आप भ्राता को जाने ही नहीं देतीं!"

    शारदा के कंधे पर हाथ रखे शुभलता बोली, उसने अब आगे बढ़ कर शारदा के हथेली को अपनी हथेली में थामा, और उसे सहलाते हुए कही,

    "भाभी श्री... आप चिंता न करें.. भ्राता अजेय योद्धा हैं, युद्ध क्षेत्र में उन्हें कोई नहीं परास्त कर सकता!"

    कहते हुए उसने उसके मुख को अपनी ओर किया, उसके नेत्रों में अश्रु भरे थे जो उसी क्षण बह जाना चाहते थें परन्तु वीर पत्नियां अपने अश्रु के प्रत्येक बूंद को संजोना जानती हैं, और शारदा तो राजवंशी ही थीं।

    "हम शंका नहीं कर रहें है शुभा... न आपके भ्राता के वीरता पर न ही महादेव के आशीष पर...किंतु... किंतु हमारा मन व्याकुल हो रहा है, हमें आभास हो रहा जैसे कुछ अनिष्ट होने को है।"

    व्याकुलता शारदा के मुख पर छलक रही थी, उसकी वो कांतिमय मुखारबिंद मलिन होती हुई जान पड़ रही थी। उसके मुख पर नर्तन करता हुआ उल्लास जैसे मिटने के लिए व्याकुल हो रहा था।

    "भाभी श्री... अभी आप एक ऐसे समय में हैं जहां आपको अवश्य ही भ्राता की आवश्यकता है.. और इसी अवस्था के कारण आपका हृदय शंका या ऐसे मनोभाव में है। परन्तु आप ईश्वर पर विश्वास करें, महादेव कल्याण करेंगे।"

    शुभलता ने अत्यंत ही चतुराई से शारदा को समझा लिया था और अब उसका मन थोड़ा शांत भी था। वहीं महल के नीचे अपने वाहन में बैठते ही सूर्यभानु की दृष्टि रनिवास के उस झरोखें पर रुकी जहां से शारदा का मुख उन्हें दिख रहा था, उसके खुले केश वायु से एक मधुर अठखेली में लगा था, शारदा की पलकें शुभलता को ताक रही थी। उस क्षण को अपने नयन में भरे ही सूर्यभानु ने कहा,

    "सारथी... आगे बढ़ो!" और वाहन महल से निकल गया।

    "वो जा रहें है शुभा... वो जा रहें है..." वाहन के आवाज़ से शारदा पुनः व्याकुल हो गई, जिसे अगले ही पल शुभलता ने थाम लिया।

    "शांत हो जाइए वो आयेंगे अभी ये भी आवश्यक है न... राजा आर्यमन हमारे मित्र राजा हैं और उनकी सीमा भी हमारे रौहिण्य के सबसे समीप है, इसलिए ये भी उतना ही आवश्यक है न!"

    शुभलता ने शारदा को थामते हुए कहा वो अब उसे सहारे से ले आई थी शैय्या के समीप जिस पर तुरंत ही शारदा बैठ गई पीछे टेक लगाए, अब वो अधिक समय तक खड़ी नहीं रह पाती थी।

    "भाभी श्री... ऐसे व्याकुल होंगी तो हमारे भावी चंद्राधिप पर क्या प्रभाव पड़ेगा? पिता अजेय योद्धा... माता परम विदुषी और बुआ वीरांगना और पुत्र... व्याकुलता की मूरत!"

    शुभलता ने जैसे ही कहा वैसे ही शारदा का ध्यान अपने गर्भ पर गया और अगले ही पल उसने अपनी हथेली अपने गर्भ पर रखी और उन्हें आभास हुआ जैसे शिशु ने लात मारी, इस एक अनुभूति ने उन्हें पुनः सारी चिंताओं से मुक्त कर, एक सुखद स्वप्न संसार में खींच लिया।

    शारदा को शांत देख शुभलता मुस्कुराई उसने बड़े स्नेह से उसके माथे को सहलाया जिस पर शारदा उसे देखने लगी।

    "हम दुग्ध और कुछ फल ले कर आते हैं... और पुस्तकालय से कोई नई पुस्तक भी ताकि आपका ध्यान पुनः भ्राता श्री पर न जाए!" अंत तक आते आते उसने परिहास किया जिस पर शारदा पहले मुस्कुराई फिर आँखें दिखाने लगी।

    "आप हमारी माता न बनिए, छोटी हैं आप हम आपकी पिटाई भी कर सकते हैं!"

    जिस पर शुभलता मुस्कुराते हुए बाहर आ गई। और शारदा पुनः अपने हथेली को गर्भ पर रख कर मुस्कुरा उठी।

    "आप हमारी संतान हैं और आपके कंधे अनेक कर्तव्यों का बोझ आयेगा, आप सज्ज तो हैं न... क्योंकि राजकुमार हो या राजकुमारी उसका जीवन सरल नहीं होता है!"

    कहते हुए उसने अपने गर्भ पर हाथ रखा तो पुनः आभास हुआ कि शिशु ने लात मारी।

    चंद्रोदित मठ....

    "स्वामी... आप चिंतित न होए, भविष्य के गर्भ में रहस्यों का कोष इतना विशाल है कि उसे कई बार मनुष्य पूर्णता से नहीं समझ पाता।"

    ओमलता ने कहा जिस पर सोमदत्त की दृष्टि पुनः अपनी पत्नी पर आई। उनकी आँखें जो शांत सरिता सी थी जहां केवल ज्ञान ही बहता था वो अब व्याकुल जान पड़ रही थी जिसका मात्र एक ही अर्थ था कि अब जो होने वाला था वो अटल है कोई उपाय नहीं रहा अब।

    "आप सज्ज रहिए देवी! दो नवीन कक्ष का भी प्रबंध कीजिए, कक्ष में सारी सुविधाएं हो, कोई भी वस्तु कम न रह जाए!"

    आचार्य ने कहा और अपनी जाप माला ले कर उन्होंने नेत्र मूंद लिए उनकी उंगलियां उस जाप माले पर चलने लगी, जिसे देख ओमलता जी भी उनके द्वारा कहे प्रबन्ध में जुट गई।

    शुकधरा ( कालोत्कर्ष मठ )....

    "मित्र... मित्र.. क्या कर रहे हो मित्र!" कहते हुए अदाह्य एक कक्ष में आया जहां एक बड़े से दीप को प्रज्वलित किए अव्यय एक पुस्तक खोले बैठा था।

    "शुकप्रभुज... तुम सदैव पुस्तक में ही लीन रहते हो... बाहर चलो आज तो आचार्य भी नहीं है हम थोड़ी क्रीड़ा कर सकते हैं... द्युतक ने आंख मिचौली का सुझाव दिया है!"

    अदाह्य ने कहा, वहीं अव्यय ने विशेष ध्यान नहीं दिया परंतु उत्तर उसने दिया,

    "नहीं मित्र... आचार्य नहीं है लेकिन यहां उनके बहुत गुप्तचर हैं... आचार्य को ज्ञात हो जाएगा और तब दंडित भी करेंगे, इसलिए अध्ययन कर लो।"

    अव्यय ने सुझाव दिया और उसकी दृष्टि पुस्तक पर ही थी। वहीं अदाह्य जो प्रसन्नता के साथ आया था उसका मुख उदास हो गया, अब वो मौन हो कर लौटने लगा।

    "अच्छा एक उपाय है...क्यों न हम ऐसी क्रीड़ा करें जो अध्ययन जैसा ही हो?" अव्यय ने मुड़ते हुए कहा लेकिन वो अपने स्थान से नहीं उठा।

    "ऐसा भी भला कोई क्रीड़ा होती है?" आश्चर्य से अदाह्य के मुख से प्रश्न निकला जिस पर अव्यय मुस्कुराने लगा, उसकी मुस्कुराहट को देख अदाह्य का बाल मन पुनः उल्लास से भर गया।

    "ऐसी कौन सी क्रीड़ा होती है मित्र?" जो पैर द्वार की ओर बढ़ गए थे अब वो ही पैर बस दो ही पग में अव्यय के समीप आ गए।

    "शास्त्रार्थ!" एक शब्द में अव्यय ने उत्तर दिया जिस पर अदाह्य ने उसे ऐसे देखा जैसे किसी अजूबे को देख रहा हो!

    "शास्त्रार्थ... आह.. मित्र ये तो अत्यंत गंभीर है इससे क्रीड़ा कैसे होगी!" उसका बाल मन जब अपने मित्र की बात नहीं समझ सका तो प्रश्न पूछ ही लिया।

    "हम शास्त्रार्थ करेंगे... और जो अंत तक उत्तर देता रहेगा जिसके पास अंत तक उस विषय का ज्ञान होगा वो विजय होगा और पराजित विरोधी को अगले एक सप्ताह तक उसके कार्य करने होंगे एक एक करके!"

    अव्यय ने खुश होते हुए अपनी योजना रखी जिससे वो अध्ययन भी कर ले और क्रीड़ा का आनंद भी आ जाए।

    "कहो कैसी लगी ये योजना? मित्र.." अदाह्य को देखते हुए उसने प्रश्न किया।

    "योजना तो अच्छी है मित्र परन्तु.... जब समक्ष शुक प्रभुज अव्यय होंगे तो किसी और का विजय होना तो संभव ही नहीं है।"

    अदाह्य ने कहा जिस पर अव्यय उसे देखने लगा और वो मुस्कुराते हुए अपने स्थान से उठा।

    "ज्ञान पद देख कर नहीं आती मित्र, की शुकप्रभुज है तो उसकी ही विजय होगी। ज्ञान तप है और जो जितना गहन है वो उतना सबल है!"

    अव्यय ने मुस्कुराते हुए कहा जिस पर अदाह्य ने सर हिलाया।

    "लो... और कहते हो कि कोई और विजय हो सकता है.. परन्तु उचित है चलो।" कहते हुए वो आगे बढ़ा अव्यय पलटा उसने पुस्तक बंद की और उसे प्रणाम करके जलते दीपक को बुझाया, कमरे में मशाल जल रही थी। अब वो पलटा और कक्ष से बाहर निकल आया।

    कौशिकपुरा से पांच मील दूर पर ही एक कारवां रुका। एक योद्धा घोड़े से उतर कर अपने पीछे चल रहे वाहन के पास आया जिसके भीतर बैठा सूर्यभानु ने बाहर झांका।

    "क्या समस्या है सेनापति धूमकेतु?" सूर्यभानु ने प्रश्न किया जिस पर वो योद्धा बड़े आदर से बोला,

    "चन्द्राधिप! कुछ दूरी पर शिविर लगे हैं... और शुकधरा का ध्वज लहरा रहा है... प्रतीत होता है शत्रु सेना पूर्व ही पहुंच गई है!"

    धूमकेतु ने जैसे ही ये बात कही सूर्यभानु के मस्तक पर बल पड़ गया वो मौन से हो गए।

    "चन्द्राधीप! अब हमें समय व्यर्थ नहीं करना चाहिए... कौशिकपुरा जाने से अच्छा है हम यदि करालप्रस्थ ही चले... धूमकेतु आगे बढ़ कर बस राजा आर्यमन को संदेश दे दे कि रौहिणय की सेना युद्धभूमि में ही पहुंच गई है।"

    उसी वाहन में बैठे सत्यकृत ने अपना सुझाव दिया जो समय के अनुसार सही भी था।

    "ह्म्म...! यही उचित होगा, धूमकेतु आप दूसरे मार्ग से कौशिकपुरा जा कर संदेश दीजिए और सेना के साथ ही आइए हम सब करालप्रस्थ के लिए प्रस्थान करते हैं!"

    कहते हुए सूर्यभानु ने सारथी को चलने की आज्ञा दी तो सारथी ने भी धीरे से मार्ग बदला ताकि शत्रु को भनक न लगे।

    आज के लिए इतना ही आगे क्या हुआ जानने के लिए पढ़ते रहिए प्रभाकल्प।

    ✍️ शालिनी चौधरी

  • 10. प्रभाकल्प - Chapter 10

    Words: 1546

    Estimated Reading Time: 10 min

    कौशिकपुरा ( वातायनप्रभा महल )....

    रानी कांति सो चुकी थीं बड़े स्नेह से सुलाया था आर्यमन ने परंतु आर्यमन के नेत्रों से निद्रा दूर थी, मन व्याकुल हो रहा था, हर बीतते पलों के बाद उनका विश्वास डगमग कर रहा था, वो बस किसी तरह अपनी विश्वास ज्योति को बचाए रखना चाहते थे, लेकिन परिस्थिति के इस बवंडर में वो नन्ही सी नहीं लौ अब स्थिर नहीं हो पा रही थी। समय तेजी से निकल रहा था, रजनी अब इतने पहर के विश्राम के बाद अलसाई सी कुनमुनाने लगी थी जिससे उसका वो स्याह आँचल क्षितिज से खींचता हुआ प्रतीत हो रहा था।

    "भोर होने को है... परन्तु रौहिणय से कोई नहीं आया! पत्र में तो चन्द्राधीप ने सहायता की स्वीकृति दी थी!"

    स्वयं ही मन प्रश्न करने लगा था जब आवश्यकता हो किसी की तो उस क्षण में वो अनमोल लगने लगता है, जैसे जब प्यास न लगी हो तो धरती पर वो बहती हुई नदी की धार भी व्यर्थ सी लगती है परंतु जब कंठ ही शुष्क पड़ा हो तो एक बूंद भी अनमोल सी प्रतीत होती है।

    "नहीं चन्द्राधिप वचन के पक्के हैं, उन्होंने सहमति दी थी तो सहायता अवश्य करेंगे।"

    राज्य पर संकट था जिस कारण उनका मन व्याकुल हो रहा था, वो स्वयं ही प्रश्नोत्तरी कर रहा था। वो अत्यंत व्याकुल हो रहे थे।

    "महराज... रौहिणय के सेनापति धूमकेतु पधारे हैं! अतिथि गृह में उन्हें ठहराया है!"

    एक दासी कमरे में आते हुए बोली जिस पर आर्यमन तुरंत ही उस ओर लपके, उन्हें तो जैसे औषधि मिल गई थी ऐसे रोग का जिसका विष पूरे कौशिकपुरा का नाश कर सकता था।

    "प्रणाम.. धूमकेतु!" वो आते ही बोले लंबी लंबी सांसे ले रहे थे जिससे धूमकेतु को आभास हो गया कि वो भागते हुए आए थे।

    "क्या हुआ महाराज? आप व्याकुल जान पड़ते हैं! कहीं आपको ये तो नहीं लगा कि रौहिण्य ने वचन भंग कर दिया?"

    धूमकेतु की जांचती सी नज़र थी आर्यमन पर वहीं आर्यमन ने अपनी नज़र इधर उधर की जिससे वो समझ गया कि उसने जो सोचा वही सत्य था।

    "महराज आर्यमन... रौहिण्य अपने वचन का पालन सदैव करता है, चन्द्राधिप ने सहायता की स्वीकृति दी थी तो वचनपूर्ति करते हुए रौहिण्य की सेना के साथ वो करालप्रस्थ में ही डटे हुए हैं, मैं यहां सेना संचालन और संदेश ले कर ही आया हूं!"

    धूमकेतु के स्वर में रुष्टता थी, वो सच में ये जान कर रूष्ट हुआ था कि आर्यमन ने कितनी शीघ्र विश्वास के दिए को बुझा दिया था।

    "करालप्रस्थ! परन्तु वो कौशिकपुरा क्यों नहीं आए?" कहते हुए ही आर्यमन व्याकुल हुआ।

    "महराज यहां से पांच मील दूर... शुकधरा की सेना आ चुकी है, इसलिए मात्र एक टुकड़ी के साथ मैं यहां आया हूं... हमारी सेना युद्धभूमि में ही डेरा डाल चुकी इससे समय व्यर्थ होने से बचेगा।"

    धूमकेतु ने स्थिति का अवलोकन करते हुए कहा जिससे आर्यमन को स्थिति स्पष्ट होती हुई तो दिखी परन्तु साथ ही चिंता भी बढ़ गई!

    अब रजनी ने अपने स्याह आँचल को पूर्ण रूप से समेट लिया था, और दिवस का श्वेत आँचल क्षितिज पर फैलने लगा, नन्ही सी किरणें जिन्होंने संपूर्ण रात्रि तिमिर से युद्ध किया था अपने अस्तित्व के लिए वो अब प्रफुल्लित हृदय से आकाश के चहुं ओर छा रही थी, चंद्रमा अभी भी आसमान में ही था, वो अपने दूसरे बिंब को एक झलक देखने की लालसा लिया, परंतु वो प्रेमी इतना रूष्ट है कि जब क्षितिज में आता तो स्वयं के प्रकाश से ही चन्द्रमा को विवश कर देता पृथ्वी के दूसरे छोर मुड़ जाने के लिए।

    "महराज... समय नहीं है सेना को सज्ज कीजिए आपके सेना की दो टुकड़ी यहां महल में रहेगी। पदम् कवच बना कर.. मुख्य द्वार पर आपके योद्धा सुकाश को रखिए वो प्रतिनिधित्व करेंगे, और दूसरे द्वार पर योद्धा युयुत्सा को! साथ ही हमारी ओर से महिला योद्धा रक्षा यहीं महल में रहेंगी ताकि वो नियंत्रित कर सके कि समय से युद्ध क्षेत्र में अस्त्र और खाद्य सामग्री पहुंचती रहे।"

    धूमकेतु ने एक सेनापति के तरह ही झट से एक योजना आर्यमन समक्ष रखी, इसके साथ ही वो कुछ पल मौन हुआ और बोला,

    "आपके यहां जितनी भी मुख्य आध्यात्मिक ग्रन्थ है उसे पुस्तकालय में रख कर पुस्तकालय को बंद करवाइए उस पर भैरव कवच चढ़वाइए! इसके साथ ही जब हम निकलेंगे युद्धभूमि के लिए तभी हमारी एक ओर महिला योद्धा भीमा महारानी को और अन्य स्त्रियों को जिन्हें युद्ध नहीं आता उन्हें यहां से सुरक्षित चंद्रोदित मठ ले जाएंगी। वहां गुरुमाता ओमलता नवदुर्गा कवच से मठ को सुरक्षित रखती हैं।"

    एक और योजना धूमकेतु ने तुरंत रखा जिस पर आर्यमन की माथे पर बल पड़ा।

    "परन्तु स्त्रियों को यहां से भेजने का कारण?" आर्यमन के मन में उभरता ये प्रश्न सामान्य ही था।

    "महराज... शुकधरा अब केवल अपनी ही शक्ति के साथ नहीं आ रहा उसके पास संपूर्ण पृथ्वी की शक्ति है, कल ही शुकाधिप का राज्याभिषेक किया गया है व्युत्पुरा में अर्थात अब व्युत्पुरा को भी वो समक्ष कर सकता है और राजा अंशुमन विवश होंगे युद्ध के लिए। ऐसे में नहीं ज्ञात की इस युद्ध का परिणाम क्या होगा? इसलिए जो स्त्री योद्धा नहीं है उनकी सुरक्षा पूर्व निश्चित की जानी चाहिए।"

    धूमकेतु ने स्पष्ट किया आर्यमन की चिंता फिर बढ़ी लेकिन धूमकेतु के हर कथन में एक परिपक्वता थी, उसकी प्रत्येक सोच और स्थिति को भांप कर बनाई योजना में एक शक्ति थी। यही कारण था कि धूमकेतु को सेनानी अग्निचक्र नामक पुरस्कार से विश्वमंच पर सम्मानित किया गया था ये सम्मान तो शुकधरा के सेनापति विभित्सा के पास भी नहीं थी।

    "आपकी योजना पर संदेह किया ही नहीं जा सकता है सेनानी अग्निचक्र धूमकेतु! आप स्वयं ही युद्ध के पर्यावाची हैं!"

    कहते हुए आर्यमन वहां से दूसरी ओर निकल गया सेना को इकठ्ठा करने के उद्देश्य से सेना तो इकट्ठा ही थी लेकिन एक मार्गदर्शन की भी आवश्यकता थी। तभी कक्ष में एक स्त्री प्रवेश लिया। शरीर पर लोह कवच, पीठ पर लटकती तलवार, तरकश में रखे दस बाण, कमर में घुसी एक कटार और हाथ में पकड़े धनुष! वो तन के खड़ी थी धूमकेतु के समक्ष।

    "प्रणाम सेनानी धूमकेतु! बताइए मेरे लिए क्या आज्ञा है?"

    उसने आदर सहित अपना सर झुका कर धूमकेतु को प्रणाम किया।

    "भीमा! तुम यहां से रानी और अन्य स्त्रियों को मठ ले जाओ! और रौहिण्य की सीमा पर ही रहना.... प्रत्येक सांझ को तुम करालप्रस्थ आओगी और युद्ध की स्थिति देखते हुए कौशिकपुरा और रौहिण्य से युद्ध सामग्री पहुंचाओगी! यदि यहां की स्थिति अनिष्ट कारक हुई तो...."

    धूमकेतु मौन हो गया मानो वो आगे जो होगा उसको सोचना तक न चाहता हो!

    "तो?" भीमा के मुख से प्रश्न के संदर्भ में निकला ये शब्द यही कह रहा था कि भीमा को अपनी भूमिका ज्ञात करनी ही है।

    "तो... तुम राजश्री शारदा और उनके बालक की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए उन्हें मठ पहुंचाओगी!"

    भीमा ने जब युद्ध में अपनी भूमिका को समझ लिया तो वो मुड़ कर जाने लगी तभी विचलित होते हुए धूमकेतु ने कहा,

    "भीमा... रानी के साथ मेरी पत्नी वल्लभा और हमारे आने वाले संतान की रक्षा भी तुम्हारा उत्तरदायित्व है! सबको मठ पहुंचा देना वहां आचार्य सुरक्षित कर लेंगे सबको!"

    धूमकेतु के मस्तक पर भी चिंता की रेखा थी उसकी पत्नी भी गर्भवती थी उसके प्राण को भी संकट हो सकता था।

    व्युत्पुरा ( ध्यानवेध महल )

    रत्ना कक्ष में बैठी हुई कुछ पुस्तकों के पन्ने पलट रही थी तभी विध्वंस वहां आया।

    "रत्ना... आप... आप को अस्वीकार नहीं करना चाहिए था प्रिय!"

    वो वहीं शैय्या पर उसके समीप बैठ गया था, उसकी आँखें लाल थी मानो अश्रु को बहने से रोकने पर वो नन्ही बूंदे चुभ गई थी जिससे एक पीड़ा उठी और नेत्र का रंग लाल हो गया।

    "वो मेरा अधिकार नहीं था शुकाधिप! ये ज्ञात है हमें!" उसने बिना विध्वंस के ओर देखे ही कहा, इस तरह के व्यवहार से उसके हृदय में एक टीस सी उभरी परन्तु उसने उसे व्यक्त नहीं किया।

    "प्रिय.. आपके साथ अन्याय किया है मैंने, परन्तु प्रेम..." विध्वंस की बात उसके मुंह में ही खो गई मानो शब्द अब निकलना ही नहीं चाहते हों। क्योंकि रत्ना के नेत्र विध्वंस के नेत्रों से टकरा रहे थें।

    "प्रेम क्या है शुकाधिप? प्रेम के दंभ भरने के पूर्व आप मेरे प्रश्न का उत्तर खोजिए!" कहते हुए रत्ना वहां से उठी, वो कक्ष से बाहर निकलने लगी थी फिर उसके मस्तिष्क में कुछ आया और उसके पैर रुक गए वो मुड़ी विध्वंस की दृष्टि उस पर ही टिकी थी!

    "वैसे तो आप के कार्यों के मध्य कुछ कहने के योग्य नहीं हम... परन्तु फिर भी कहते हैं... व्युत्पुरा पर अधिकार कर चुके हैं आप यहां के राजा भी बन गए परंतु कार्यभार राजा अंशुमन को ही दे दे... वो यहां की स्थिति से परिचित हैं वो उचित रहेंगे..... और रानी आभा.. वो विवाह पूर्व राजकुमारी थी और विवाह के पश्चात रानी... तो उन्हें रानी गरिमा के साथ ही रहने दें, उन्हें शुकराज्ञी की सेविका न बनाया जाए!"

    कहते हुए वो कक्ष से निकल गई अब ये उसने सुझाव दिया या आज्ञा ये कहना कठिन था क्योंकि अंत तक आते आते उसके शब्द आज्ञात्म हो गए थे। विध्वंस एक गहन सोच में पड़ गया उसके मस्तिष्क में कुछ आया और वो मुस्कुराने लगा।

    "विश्वास तो है हम पर आज भी उतना ही... जिस अधिकार से आपने अपनी बात कही इसने हमें हमारी रत्ना की झलक मिली है!"

    विध्वंस के अधर मुस्कुरा रहे थे।

    आज के लिए इतना ही आगे क्या हुआ जानने के लिए पढ़ते रहिए प्रभाकल्प।

    ✍️ शालिनी चौधरी

  • 11. प्रभाकल्प - Chapter 11

    Words: 1523

    Estimated Reading Time: 10 min

    कौशिकपुरा ( ऋषिसभा कक्ष )....

    एक वृत्ताकार मंडपनुमा कक्ष जिसमें आठ आसन लगे थे जहां आठ ऋषि बैठे थे वहीं आर्यमन हाथ जोड़े खड़े थे और उसके ठीक पीछे धूमकेतु भी खड़े थे।

    "हम सभी सेनानी धूमकेतु के विचार से सहमत हैं.... हमें अपने सारे दिव्य ग्रंथों और पत्र पुस्तकों को संकलित करके उसे दिव्यग्रन्थालय में सुरक्षित करके उस दिव्य ग्रंथ कक्ष को बंद करवा देना चाहिए।"

    एक ऋषि जो तीसरे आसान पर बैठे थे उन्होंने कहा और उनके बात से वहां सब सहमत लगे, इसके साथ ही धूमकेतु की नज़र ने वहां एक कोने में तन कर खड़ी स्त्री सैनिक पर गई जिसका सर झुका था।

    "रक्षा जाइए! तुरंत ही कवच के लिए एक शक्तिशाली ताले का प्रबंध कीजिए साथ ही पूजा की वो सामग्री भी जिससे भैरव कवच चढ़ाया जा सके।"

    रक्षा ने जैसे ही धूमकेतु की आज्ञा सुनी उसने पहले सर उठाया और एक दृष्टि धूमकेतु को देख उसने हाथ जोड़ कर सर झुकाया और फिर सभा गृह से बाहर हो गई।

    "जब लगने लगे कि अब सब समाप्त हो रहा है तो तुरंत ही महल के सारे द्वारों को बंद करके महल खाली करवा कर यहां से गुप्त मार्ग से बचे हुए लोगों को निकाल लेना सेनानी धूमकेतु।"

    एक अन्य ऋषि ने बेहद ही कठोर स्वर से कहा उनके मुख के भाव बता रहे थे कि उन्हें कुछ अनिष्ट होने की आशंका है।

    "परन्तु आचार्य... महल बंद कैसे करवा सकते हैं?"

    आर्यमन की बात अभी ठीक से खत्म भी नहीं हुई थी कि वो ऋषि अब और कठोर होते हुए बोले,

    "प्राण दे देना राजन परन्तु कौशिकपुरा का महल नहीं... ये दिव्य ज्ञान का केंद्र है दिव्य पुस्तकें और दिव्य स्थल स्थित है यहां ऐसे भी विचारवादी और राक्षस प्रवृत्ति से प्रेरित शासक इसका दुरुपयोग ही करेंगे।"

    अंत तक आते आते उन्होंने कारण भी स्पष्ट कर दिया था। सब वहां चिंतित थे। तभी कौशिकपुरा का योद्धा युयुत्सा वहां आया।

    "महराज योजना के अनुसार सेना सज्ज है और हमने भी अपने मोर्चो को संभाल लिया है।" कहते हुए उसने अपना सर सबके सामने झुकाया और अगले ही पल तन कर खड़ा हो गया।

    "अति उत्तम! अब हमें भी प्रस्थान करना चाहिए, इसलिए शीघ्र से शीघ्र आप कूच की तैयारी करें... क्योंकि शत्रु सेना करालप्रस्थ पहुंचती ही होगी।"

    आर्यमन भी विचलित हृदय से अपने कक्ष की ओर गया, कक्ष में उसकी पत्नी कांति उठ गई थी, वो झरोखे के पास खड़ी थी उसकी नज़र आसमान में थी जहां अब उजाला चारो ओर था लेकिन कौशिकपुरा अब भी मौन धारण किए था, प्रत्येक मौन में एक क्रंदन था, अपनों से बिछड़ जाने के भय का क्रंदन, यही भय तो रानी कांति को भी सता रही थी, दूर आकाश में थमे नेत्र अश्रु बहाते बहाते वैसे ही लाल पड़ रहे जैसी लालिमा सूरज के हलचल से आसमान में फैल रही थी।

    "प्रिय... आप उठ गईं!" आर्यमन के बढ़ते पैर ऐसे थमे जैसे बेड़ियां बंध गई हों।

    "आर्य... रौहिण्य से कोई नहीं आया न..." एक अजीब सी स्थिति में पड़ी रानी कांति ने कहा, उसके स्वर में भय का संचार था, उसकी आवाज़ कांप रही थी।

    " सेनानी धूमकेतु, और दो रक्षिका भीमा और रक्षा, महल में है और चंद्राधिप, सत्यकृत के साथ संपूर्ण रौहिण्य के वीर सैनिक करालप्रस्थ पहुंच चुके हैं.... प्रिय! रौहिण्य अपने वचन को अवश्य पूर्ण करते हैं!"

    जैसे ही आर्यमन ने कहा कि सहायता के लिए सूर्यभानु पहुंच चुका है, कांति के विचलित नेत्र अब थोड़े शांत हुए एक अलग ही शांति सी उसके मन को प्राप्त हुई।

    "आपको विश्वास था आर्य वो आयेंगे... वो आएं! मुझे इतना विश्वास नहीं था और जब संध्या भी बीत गई तब तो और नहीं रहा!"

    कांति ने अपनी परिस्थिति समझाई! जिसके बाद उसके अधर मौन हो गए।

    "प्रिय आप उदास न होइए, ये क्षण ही ऐसा hai जहां विश्वास करना भी एक युद्ध है! परन्तु हमें ज्ञात है हमारी कांति विरांगना हैं वो युद्ध से भयभीत नहीं होती!"

    कहते हुए आर्यमन ने रानी कांति को अपने अंक में समेट लिया। परन्तु समय के अभाव के कारण वो शीघ्र ही स्नान के लिए चले गए।

    व्युत्पुरा (ध्यानवेध महल)....

    "स्वामी... बीती संध्या ही तो हमारा राज्याभिषेक हुआ है, और आप भोर में ही राज्य लौटाने की बात कर रहें है, परंतु क्यों? भोर की इन किरणों के साथ जहां हमें नृत्य गायन और उत्सव की तैयारी करनी चाहिए थे ऐसे में आप राज्य लौटा देने की बात करते हैं!"

    रात्रि को जैसे ही ज्ञात हुआ विध्वंस के भीतर राज्य लौटा देने का विचार आया है... उसका क्रोध अब सीमा लांघने लगा था, यदि वो राज्य लौटा देगा तो राजराजेश्वर के पद से दूर हो जाएगा, और फिर रात्रि मात्र शुकधरा की रानी बन कर रह जाएगी!

    "रात्रि तुम बात समझो प्रिय, अंशुमन व्युत्पुरा के संस्कृति और लोगों से परिचीत है वो राज्य संभाल सकते हैं वो भी बहुत अच्छ से!"

    रात्रि जो शैय्या से उठ कर दूसरी ओर घूम चुकी थी उसके बाँह को पकड़ कर विध्वंस ने अपने ओर घुमाते हुए कहा।

    "स्वामी... युद्ध! युद्ध का एक ही नियम है क्रूर हो जाना, यदि भावनाओं से युद्ध हुआ तो विजय कभी पकड़ में न आएगी!"

    आंखों में जलते ज्वाला से विध्वंस को देखते हुए रात्रि ने अपना दांव खेला, परन्तु हर दाँव के ऊपर उठ रही थी एक बात वो थी रत्ना का इतने दिनों के बाद विध्वंस से कुछ कहना।

    "मैं युद्ध में भावनाएं नहीं रखता, मात्र विजय को रखता हूं!"

    रात्रि के आंखों में झांकते हुए विध्वंस ने कहा।

    "परन्तु आप रख रहें हैं स्वामी... यदि व्युत्पुरा के लोगों के अश्रु को देख कर आपने राज्य लौटा दिया तो आप अपने सबसे विशाल और मुख्य उद्देश्य से दूर हो जाएंगे!"

    विध्वंस ने आँखें भींच ली और रात्रि को झटकते हुए वहीं रखे छोटे से सिंहासन पर बैठा उसकी पकड़ सिंहासन बाजुओं पर कसती जा रही थी। वहीं झटके से हैरत में पड़ी रात्रि बस विध्वंस को देख रही थी। वो अपार सुंदरी थी किसी भी पुरुष के लिए उसके रूप से मोहित होना ही था और विध्वंस भी था परन्तु आज के व्यवहार उसे आश्चर्य में डाल दिया।

    "स्वामी... क्रोधित होने से सत्य नहीं परिवर्तित होता! आप अपने मुख्य उद्देश्य राजराजेश्वर बनने से वंचित हो जाएंगे... शुकधरा के अब तक के परिश्रम और प्रतीक्षा का ये प्रतिफल नहीं हो सकता... आप सेना को क्या उत्तर देंगे जिन्होंने आपको विश्वविजेता बनाने लिए प्राण दे दिए!"

    रात्रि ने अब एक और दांव खेला जिसमें सैनिक और शुकधरा के प्रजा के बलिदान का उल्लेख था, विध्वंस ने अब भी कुछ नहीं कहा उसके अधर भींचते जा रहे थे, हथेली कसती जा रही थी, परंतु निर्णय अभी भी अटल ही था।

    "छोड़िए परन्तु अपने पुत्र से क्या कहेंगे? की मात्र भावनाएं आ गई हृदय में इसलिए छोड़ दिया विश्व का राज्य मात्र एक पग धरने से पीछे हो गए!"

    "रात्रि..... " अचानक ही चीख पड़ा विध्वंस और कांप सी गई रात्रि उसके भीतर जैसे किसी ने विद्युत प्रवाह कर दिया हो... वो अपलक देखती रह गई विध्वंस को!

    "हमने राज्य लौटाने की बात कही है लेकिन अंशुमन राजा नहीं वो सामंत है... सामंतों की भांति यहां का शासन देखेगा और उसका विवरण उसे प्रत्येक त्रि मास के समाप्ति पर देना है मुझे!"

    अब जब रात्रि को उसकी पूरी बात समझ आई तो वो शांत हो गई और एक गहरी सांस ले कर मन में बोली।

    "काली मां की कृपा है कि इनकी बुद्धि इतनी नहीं पलटी थी, परन्तु हमारा दांव भी काम आया है!"
    स्वयं में ही उलझी थी कि विध्वंस क्रोध में भरा बाहर आया उसकी दृष्टि सीधा बाहर खड़ी रत्ना से टकराई जिसके बाद एक व्यंग भरी मुस्कान दे कर रत्ना लौटने लगी अपने कक्ष की ओर।

    "रत्ना... रत्ना बात सुनिए!" विध्वंस लपका उसके ओर क्योंकि उसे समझाना था उसे, वो ठहर सी गई, मुड़ते हुए उसने आंख भर देखा विध्वंस को और अपने सामान्य अंदाज में कहा।

    "जब आपने राजा अंशुमन को कार्यभार दिया तो मुझे लगा आपने मेरी कही बात मान रखा है, इसलिए धन्यवाद कहने आई थी, परंतु यहां आ कर सत्य का आभास हुआ.... जब मेरा ही मान नहीं है तो मेरी कही बात का क्या मान होगा?"

    विध्वंस ने अपनी अटकती सांसों को थामा और उसने एक पग आगे बढ़ा कर कहा।

    "रत्ना... आपका मान कभी कम नहीं हुआ था, आप आज भी हमारे लिए उतनी ही माननीय हैं!"

    "हमसे भूल हुई है शुकाधिप! हमने स्वयं को अधिक मान दे दिया था। अब भूल सुधार लेंगे!"

    कहते हुए वो मुड़ी और तेज चाल के साथ वो दूर निकलती गई।

    "नहीं रत्ना... आप आज भी उतनी ही प्रिय हैं... सत्य तो ये है कि सबसे प्रिय हैं आप मुझे!" कहते हुए उसकी आँखें नम होने लगी जिसे दूर खड़ी आभा देख रही थी और उसकी आँखें आश्चर्य से बड़ी हो गई थी।

    "ये... ये दंभी.... इसके भीतर भावनाएं भी है, और हृदय भी?"

    एक प्रश्न सा उमड़ आया था आभा के ह्रदय में। दुष्ट, दुष्कर्मी, निर्दयी, क्रूर! यही थी विध्वंस की पहचान ये उसके अस्तित्व का एक भाग था, लेकिन ये विध्वंस उस जाने हुए विध्वंस से अत्यंत विलग प्रतीत हो रहा था।

    "मुझे नहीं लगा था कि ये... इसके अश्रु भी बहते हैं, ये दुखी भी होता है! ये तो क्रूर है इसे..." आभा आश्चर्य से कुछ सोच नहीं पा रही थी।

    आज के लिए इतना ही... आगे क्या हुआ जानने के लिए पढ़ते रहिए प्रभाकल्प।
    ✍️ शालिनी चौधरी

  • 12. प्रभाकल्प - Chapter 12

    Words: 1519

    Estimated Reading Time: 10 min

    रौहिण्य ( रजतमयूख भवन )....

    "स्वामी...." अचानक ही चीखते हुए शारदा उठ कर बैठ गई, पूरा शरीर पसीने से भींगा था और उसकी सांसे जैसे बंद सी हो गई थी, या फिर सांस लेना जैसे भूल सी गई थी, शरीर काँप रहा था, कमरे में कोशी और शुभलता दौड़ते हुए पहुंची।

    "भाभी श्री... क्या हुआ भाभी श्री? कोई दुस्वप्न देखा आपने।" उसके समीप बैठते हुए ही उसने उसे अपने अंक में भर लिया वो अभी भी कांप रही थी, नेत्र अब बरसने लगे, अश्रु थम नहीं रहे थे, उसके शब्द मानो खो गए थे, और मस्तिष्क जैसे रिक्त हो गया था।

    "राजकुमारी जी.... जल जल दीजिए रानी जी को... और अच्छे से उन्हें अंक में समेटिए, वो अधिक भयभीत हो गईं हैं!" कहते हुए कोशी ने जल का पात्र बढ़ाया जिसे थामते हुए शुभलता ने शारदा को दिया उसके हाथ स्थिर ही नहीं हो रहे थे, इतने कांप रहे थे कि पात्र से जल बाहर छलकने लगा जिसे झट से शुभलता ने थामा और आहिस्ते से उसके अधर के पास ले गई जिसे झट से शारदा ने अधर में दबाया और अपने शुष्क पड़ चुके कंठ को तृप्त किया!

    "शांत.. शांत सब ठीक है... कुछ भी अनुचित नहीं हुआ है, आप शांत रहिए!" कहते हुए शुभलता ने उसे अंक में समेटा और हल्के से उसके पीठ को सहलाने लगी। कुछ देर के बाद शारदा के शरीर से कंपन स्थिर हुआ, उसकी सांसे सामान्य होने लगी और वो स्वयं को संयत कर बैठ गई।

    "क्या हुआ था राजश्री? आप इतना भयभीत क्यों थी?" कोशी ने बड़े ही ममता से भर कर प्रश्न किया जिस पर शारदा की दृष्टि उस पर गई, और कुछ पल थमने के पश्चात वो बोली,

    "बड़ा भयंकर स्वप्न था! हमने देखा... महल वीरान हो गया है... हर कोने में रेत भरे हैं और अंधकार से प्रत्येक कोना ढ़ंका है, हमारे हाथ में शिशु है और हम महल के बाहर श्वेत वस्त्र में श्रृंगार विहीन खड़े हैं! हमारे समक्ष... स्वामी... स्वामी... उनकी उनकी चिता है!"

    अंत में कहते हुए वो कांप गई उसके आंसू पुनः झरने लगे वहीं इस विवरण को सुन शुभलता और कोशी भी कांप गईं, उनके नेत्र में कुछ आ कर चला गया।

    "सब उचित है भाभी श्री... अभी आपकी अवस्था के कारण भी आप अत्यंत भयभीत हो रहीं है... अभी आपको मात्र भ्राता का स्मरण हो रहा है!"

    शुभलता ने पुनः उसे अंक में समेट लिया और उसके केश को सहलाने लगी जिससे कुछ पलों में ही वो सो गई! आहिस्ते से उसे ठीक से सुला कर वो उठी, और विचलित सी कक्ष से बाहर आई कोशी भी उसके पीछे ही आई।

    "कोशी... कुछ ऐसा स्वप्न हमने भी देखा था... महल बंद था अंधकार छाया था, और भाभी श्री... वो ऊंचे पहाड़ से नीचे गिर गईं... मेरे हाथ में एक शिशु था।"

    कहते हुए कांप सी गई थी शुभलता! कोशी उसके पास आई और उसके समक्ष खड़ी हो कर बोली,

    "हमने भी एक स्वप्न देखा हम एक शिशु को ले कर भाग रहें हैं... आप हमारे साथ हैं... और और किसी ने उस शिशु को हमसे छीन लिया... तब... तब आपने उसे धक्का दे कर शिशु लिया और जब हम वहां से निकले तो देखा कि रौहिण्य का ध्वज जल रहा है!"

    शुभलता की आँखें हैरत से बड़ी हो गई कोई कुछ बोल ही नहीं पाया।

    "ये छोड़िए रानी अभी इस अवस्था में नहीं है उन्हें एकांत में छोड़ना सही नहीं उनके पास ही चलिए और रात्रि विश्राम भी यहीं करेंगे!"

    कोशी बुजुर्ग थीं और उनका व्यवहार ममता से भरा रहता था, जिससे सब उन्हें अत्यंत सम्मान देते थे शुभलता को उनकी बात जंच गई थी उसने सर हिलाया और उनके पास आ कर बैठ गई।

    करालप्रस्थ......

    शिविर लग चुके थे भोर की किरण पड़ते ही सूर्यभानु आ गया था शिविर के बाहर मुख पर गंभीरता थी, उसने स्नान कर लिया था और अभी जाप कर रहा था, शत्रु सेना अभी आई नहीं थी, लेकिन उसके सैनिक सज्ज थे, अभी तक कौशिकपुरा से भी समाचार नहीं आया था और न ही धूमकेतु! सूर्यभानु की आँखें बंद थी और उंगली जाप माला पर रुकते और कुछ पलों के बाद अगले माणिक पर चले जाते। उसके अधर मौन थे लेकिन बंद आंखों के मध्य उसके मुख पर कई अलग अलग भाव आ रहे थे। जिससे स्पष्ट था कि वो ध्यान में भी विचलित था वहीं सत्यकृत बैठा था दूसरे शिला पर वो भी सूर्यभानु के मुख पर आ रहे विचलित भाव को देख रहा था।

    "ध्यान कैसे कर पाएंगे... गर्भवती पत्नी को छोड़ कर आना भी एक पीड़ा ही है.. ये राजधर्म भी बड़ा कठोर है! मानव को भावनाओं से ऊपर हो कर विचार करना ही पड़ता है।"

    मन में यही विचार आ रहे थे उसके वो मौन अवश्य था परन्तु अपने राजा के विचार और मानसिक संघर्ष को समझ पा रहा था।

    सूर्यभानु ने माला समाप्त करके, अपने दोनों हथेली को रगड़ कर आंखों से स्पर्श किया और फिर धीरे दे आंखें खोली!

    "सत्यकृत... आप यहां? सब कुशल है न... गंभीर जान पड़ रहे हैं?" सूर्यभानु ने सवाल किया जिसे सुनते ही सत्यकृत अपने विचार से बाहर आया उसके विचारों की श्रृंखला समाप्त हुई।

    "चंद्राधिप! मैं मात्र ये विचार कर रहा था कि राजधर्म कितना कठोर और निर्मम होता है.... इस धर्म के पालन में मात्र त्याग ही है, प्राप्त तो विशेष कुछ नहीं!"

    सत्यकृत आज कुछ अधिक ही गंभीर प्रतीत हो रहा था, उसके नेत्रों में अपने राजा के लिए सम्मान कुछ अधिक ही हो गया था।

    "कठोर तो है और त्याग भी है परंतु इसके पश्चात सेवा देने पर सुख की प्राप्ति होती है, सम्मान प्राप्त होता है।"

    सूर्यभानु ने अपनी माला को कंठ में धारण कर लिया था, उसके मुख पर एक मुस्कान थी परंतु नेत्रों में व्याकुलता!

    "आप उचित कहते हैं परन्तु वो सम्मान भी कितना क्षणिक है.... एक त्रुटि और वही प्रजा अपमानित करती है, कुंठित विचारधारा हो जाती है उनकी! जब इस प्रजा ने श्री राम जैसे राजा पर ये कहते हुए प्रश्न किया कि उन्हें स्त्री मोह घेरा है इसलिए अपनी कलंकित पत्नी को साथ ले आए! तो ये प्रजा किसी हुई?"

    सत्यकृत जैसे आज अपने सामने खड़े उस योद्धा के लिए उससे ही शास्त्रार्थ कर रहा था।

    "सत्यकृत... प्रजा मात्र स्वयं की है.... प्रजा का दायित्व मात्र स्वयं के संबंधियों के प्रतिपाल और उचित अनुचित की है! वो राजा की नहीं होती अपितु राजा उसका होता है.. प्रजा का सेवक! स्वामी भी भला कभी सेवक का होता है क्या?"

    कहते हुए वो उठा और अपने शिविर के ओर बढ़ गया परन्तु अपने विचारों में उलझा सत्यकृत अब और गहन चिंतन में था।

    "राजा सेवक है इसके लिए उसे सम्मान और ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है, परंतु सैनिक! सैनिक को तो उचित सम्मान भी प्राप्त नहीं होता है सत्यकृत..... यदि मैं अपनी गर्भवती पत्नी को छोड़ कर राजधर्म का पालन करने आया हूं! तो धूमकेतु भी अपनी गर्भवती पत्नी को छोड़ कर ही आए हैं!"

    सूर्यभानु जाते हुए ही बोल रहा था, जिसका स्वर वहां आस पास खड़े सैनिकों के कान में भी गया और उनका सीना गर्व से चौड़ा हो गया, अंततः उनके चंद्राधिप ने उनके सम्मान की बात कही थी।

    कौशिकपुरा ( दिव्यग्रंथालय ).....

    वो एक विशाल कक्ष था जिसके मध्य में एक विशाल मेज लगा था आस पास कुछ आसान लगे थे और कक्ष के हर दीवार पर ताखा बना था जिसमें ढेरों किताबें थी, वो पूरा कक्ष सुगंध से भरा था, कुछ ऋषि अपने हाथ में पुस्तक लिए आ रहे थे जिसे सबसे कोने में रखा जा रहा था उनमें से आठ पुस्तकें ऐसी थी जिनसे प्रकाश निकल रहा था। जब सारी पुस्तकें रख दिया तब रानी कांति ने कक्ष की सारी खिड़कियों को बंद करके अपने आँचल से एक मणि बाहर निकाली जिससे प्रकाश निकल रहा था, उसे मेज पर रख दिया पूरा कक्ष श्वेत प्रकाश से भर गया फिर आर्यमन और कांति बाहर आएं और उस बड़े से लकड़ी के द्वार को बंद किया जो सागवान के शसक्त लकड़ी से निर्मित था।

    द्वार बंद होते ही चार अघोरी ऋषि आए उनके तन भस्म से रमे थे, मस्तक पर त्रिपुंड था विशाल जटाएं माथे पर थी। एक विशेष सुगंध उनके भीतर से आ रही थी। उनके हाथ में एक बड़ा ताला था जिसे उन्होंने द्वार पर लगाया उस पर अक्षत लगाया, सिंदूर का तिलक लगाया भस्म लगाया और मौली से उस धागे को बांधते हुए बोले,

    "ॐ कालभैरवाय नमः।
    तिष्ठतु मे द्वारे कवचं ज्वालमालिनम्।
    यः स्पृशति बलात्, स नश्यतु क्षणेन।
    अस्त्रं भैरव कवचं बद्धं –
    ॐ ह्रूं फट् स्वाहा!"

    ऐसे ही तीन बार मौली से उसे बांधा और अंत में तीन बार इसी मंत्र से भस्म को हाथ में लिए पवित्र कर उसे ताले पर लगाया अगले ही क्षण एक विशाल सा मुख उस द्वार से उभरा और कुछ ही पलों में अदृश्य हो गया।

    "राजा आर्यमन... अब ये ग्रन्थालय स्वयं काल भैरव के द्वारा रक्षित है! आप निश्चिंत रहें!" कहते हुए उन ऋषियों ने अपने दोनों हाथ उठाए और एक साथ कहा, "कल्याणमस्तु!" वो सब वहां से चले गए।

    वहीं रानी कांति उस ग्रन्थालय को देख रही थीं वहां वातावरण एक अन्य भय में ही लिप्त था, चारों ओर मात्र मौन था स्वर विहीन हुए सब मात्र रक्षा के उपायों के खोज में थे।

    आज के लिए इतना ही आगे क्या हुआ जानने के लिए पढ़ते रहिए प्रभाकल्प।

    ✍️ शालिनी चौधरी

  • 13. प्रभाकल्प - Chapter 13

    Words: 1558

    Estimated Reading Time: 10 min

    कौशिकपुरा ( प्राणवेध साधनशाला )....

    एक अत्यंत रमणीय स्थान जहां चारों ओर पेड़ थे जिन पर दिव्य पुष्प लगे हुए थे जिनके सुगंध से यहां साधना और गहराई में जाती थी, वातावरण शीतल और मनोरम रहता था, वायु अपने मध्यम गति से चलती, दूर पहाड़ी से गिरने वाले झरने कल कल स्वर के साथ बड़े हो उन्माद में बहती, वो अत्यंत ही मनोरम सुर लगता था। वहीं राजा आर्यमन हाथ में रुद्राक्ष माला लिए मात्र एक धोती को लपेटे एक शिला पर बैठे थे, उनके समक्ष जल की धार अपने नियत बहाव से बह रही थी, जल इतना स्वच्छ था कि सूर्य की किरणें भी परिवर्तित हो कर पुनः सूर्य के ओर ही मुड़ जा रही थी।

    "ॐ..... ॐ...... ॐ......" ओंकार का स्वर वातावरण में गूंज रहा था, कुछ समय पूर्व जो आर्यमन के मुख पर बेचैनी थी वो शांत दिखने लगी, अधर मुस्कुरा रहे थे, उंगलियां एक नियत समय के पश्चात पहले माणिक से उठ कर दूसरे माणिक पर रुक जाती, और एक बार ओंकार बोलने के पश्चात स्वयं ही ताल बैठाए वो अपने मार्ग पर बढ़ जाती।

    आर्यमन के ओंकार की ध्वनि और उसके उंगलियों की गति एक साथ एक ताल में चलते थे। उसके मुख पर असीम शांति पसरी थी। अब धीरे धीरे उनके शरीर से स्वर्णिम आभा निकल कर वातावरण में फैलने लगी, वहीं सूर्य की किरणें अब सिमट कर उनके हृदय के स्थान को छूने लगी।

    "ॐ.... ॐ......" जाप निरंतर तेज होता जा रहा था और शरीर से निकलने वाली आभा भी अब दूर तक फैलने लगी थी जिसके पश्चात वो आभा पुनः संतुलित हो कर आर्यमन में ही विलीन हो गई।

    वहीं महल के प्रांगण में बड़े से लकड़ी के दरवाज़े के ऊपर बने गुंबद पर खड़ा योद्धा युयुत्सा की दृष्टि दूर से ही लहराते शुकधरा के ध्वज पर गया, उसने अपने पास रखे दूरबीन को उठाया और अपनी एक आँखें लगा कर देखने लगा। सबसे आगे था विशाल विमानों का कतार जिसके ऊपर शीर्ष पर विभित्सा और आक्रोश दिखाई पड़े... इसके ठीक पीछे दस पंक्ति में हाथी चल रहे थे जिस पर विशाल अस्त्र धारण किए योद्धा विराजमान थे, हाथी के दोनों ओर चक्राकार व्यूह रचे पैदल सैनिक थे, जिनके हाथों में भाले और पीठ पर दो दो तलवारें लटक रही थी, उसके पीछे बीस पंक्ति में घोड़े चल रहे थे। इसके बाद एक व्यूह बनाएं पैदल सैनिक की विशाल टुकड़ी ने संपूर्ण सेना को घेर रखा था, उनके हाथ में धनुष थे और तलवारे कमर से लटक रहे थे।

    "सेनानी धूमकेतु..... " युयुत्सा देखते हुए तेज स्वर में बोला वहीं नीचे व्यवस्था देखता हुआ धूमकेतु ने ऊपर देखा तो युयुत्सा ने आगे कहा।

    "शत्रु सेना करालप्रस्थ के ओर अग्रसर है.. विशाल सेना है, घोड़ा हाथी, पैदल सैनिक, उन्होंने ब्रम्ह कमल व्यूह रचा है, परन्तु ये पूर्णतः ब्रह्मकमल नहीं है। इसके अग्रभाग को भ्रमित करने हेतु पक्षीराज गरुड़ व्यूह रचना भी है।"

    युयुत्सा की एक दृष्टि दूरबीन से झांक रही थी करालप्रस्थ के ओर बढ़ते काल को देखने के लिए दूसरी दृष्टि संकुचित कर वो संयत कर रहा था, भृकुटी उलझ रही थी स्वयं में मुख के भाव बन रहे थे तो कभी अत्यंत गंभीर हो रहे थे।

    "ब्रह्मकमल? अथवा गरुड़ व्यूह? इन दोनों को एक साथ...." धूमकेतु मौन हो गया। वहीं महिला योद्धा भीमा ने उसके वाक्य को पूरा किया।

    "इन दोनों ही व्यूह को सम्मिलित कर ब्रह्मगरुड़ चक्र का निर्माण हुआ है, परन्तु ब्रह्मगरुड़ को भेद पाना एक योद्धा के लिए संभव नहीं है!"

    भीमा की बात समाप्त होने से पहले ही धूमकेतु मुड़ा और युयुत्सा को देख कर तेज स्वर में बोला,

    "योद्धा युयुत्सा... देखिए शत्रु की सारी सेना युद्धभूमि की ओर जा रही है अथवा कोई टुकड़ी यहां महल के ओर भी आ रही है?"

    युयुत्सा ने दूरबीन उठाया सम्पूर्ण सेना रणभूमि की ओर मुड़ी थी, उनके चलने से धरती कंपित हो रही थी, इतनी दूर से गणना करना असम्भव था परन्तु एक अंदेशा तो था कि सौ हाथी और दो सौ घोड़े थे... पैदल सैनिक और विमानों में बैठे अग्निज्वाला से क्रोध और युद्ध भावना से तपते योद्धा भी थे। सम्पूर्ण सेना को यदि एक दृष्टि में देखा जाए तो वो पांच सहस्त्र संख्या के अत्यंत समीप या उतने होंगे।

    "नहीं... सेनानी धूमकेतु जी... सारी सेना युद्धभूमि के ओर ही जा रही है ये कंपन भी उसी ओर है।"

    युयुत्सा ने जो देखा वो कहा।

    धूमकेतु अत्यंत गंभीरता से सोच रहा था तभी योद्धा रक्षा के स्वर उसके कान में आए!

    "ये निश्चय ही भ्रमजाल है! अवश्य ही कुछ ऐसा है जो हमारे नेत्रों को दिखाई नहीं पड़ रहा है!"

    भीमा ने सहमति से सर हिलाया, ऐसे ही विचार धूमकेतु के मन में आ रहे थे। उसने अब एक दृष्टि भीमा और रक्षा को देखा और बड़े ही गंभीरता से बोला,

    "तुम दोनों यहां की व्यवस्था पर कड़ी दृष्टि रखो... यहां यदि संकट का आभास अधिक हो तो अविलंब रानी को ले कर निकल जाना और गुप्त मार्ग से मठ में पहुंचा देना।"

    दोनों ने अब अपने सर को आदर से झुकाया और वो भी उन्हें आदर से प्रणाम करता हुआ दूसरी ओर निकला।

    वहीं दूसरी ओर... प्राणवेध साधनशाला में अपनी योग शक्ति से कुंडलिनी जागरण करते हुए आर्यमन ने अपनी दिव्य शक्तियों का जागरण भी कर लिया था, संपूर्ण शक्ति अब जागृत थी यही कारण था कि आर्यमन के शरीर से चंदन के जैसी खुशबु आ रही थी, चंदन पवित्र होता है और ये परिचायक था कि आर्यमन ने अपनी पवित्र शक्तियों का आह्वान किया था।

    वो वहां से निकलते हुए आए तो रानी कांति साधनशाला के मुख्य द्वार पर ही प्रतीक्षा कर रही थीं, उनके नेत्र अश्रु पूर्ण थे परन्तु अधर मुस्कुरा रहे थे, हाथों में आरती की थाली थी जिससे उन्होंने आरती उतारते हुए आर्यमन को विजय तिलक लगाया और अक्षत उनके माथे पर छिड़का। आर्यमन ने मुस्कुराते हुए अपने हाथों को रानी के माथे पर प्रेम से फेर कर चले गए।

    समय अत्यंत कम था और ये क्षण प्रजा हित में कार्य करने का था इसमें वो निजी भावनाओं को सम्मिलित नहीं कर सकते थे। वो जैसे ही कवच धारण कर अपने अस्त्र शस्त्र के साथ आएं उनकी दृष्टि अपने सज्ज सेना पर पड़ी जिसे धूमकेतु ने अपने नियंत्रण में लिया था।

    "सेनानी धूमकेतु... अब हमें युद्धभूमि लिए प्रस्थान करना चाहिए!" अपने विमान पर चढ़ते हुए आर्यमन कहा... धूमकेतु भी उसी विमान में आएं, ताकि वो अपनी नीति और योजना उन्हें समझा सकें।

    करालप्रस्थ......

    रौहिण्य का श्वेत ध्वज जिसमें चंद्रमा और ब्रह्मकमल के चिन्ह थे, लहरा रहे थें! वहीं उनकी सेना भी सज्ज थी। सबकी दृष्टि चारों ओर मात्र शत्रु के प्रतीक्षा में ताक रहे थे, अचानक ही धरती में कंपन आरम्भ हुआ सब आश्चर्य से एक दूसरे को देखने लगे।

    "ये... ये भूकंप.. ये तो भूकंप है!" एक सैनिक ने तेज स्वर से कहा तभी वहां सूर्यभानु भी निकल कर आएं!

    "नहीं.. नहीं मित्र ये भूकंप नहीं है... ये तो... शत्रु सेना का आगमन है... ध्यान से स्वर को सुनने का प्रयास करो.... विमानों की गड़गड़ाहट, हाथियों, और घोड़ों के पदचाप, के साथ ही पैदल सैनिक के भाले की घर्षण है।"

    बड़ी ही चतुराई से उस सैनिक ने सम्पूर्ण सेना का विवरण मात्र स्वर पहचान कर दे दिया जिस पर सूर्यभानु अब सज्ज हो गए, उनके स्वर गूंजे!

    "सैनिकों.... युद्ध अंतिम मार्ग होता है, हमें प्रयास करना चाहिए कि विश्व में युद्ध की स्थिति न बने... परन्तु यदि काल की मांग युद्ध है तो युद्ध ही वीरों का प्रमाण होता है... आप और हम सब यहां स्वयं को प्रमाणित करने आए हैं... धर्म विजय के लिए आएं है तो मात्र अपने धर्म पर अडिग रहना है! जय भवानी!"

    एक जयघोष के साथ ही सूर्यभानु ने अपना संक्षेप संबोधन दिया और वातावरण उनके नाम के जयकारों से गूंज गया!

    "चंद्राधिप की जय.... चंद्राधिप की जय.... चंद्राधिप की जय.... "

    वातावरण गूंज उठा था काले धूल कणों से भरा वो मैदान जो सदैव मौन को सुनता है उसके भाग्य में स्वर बड़े कम हैं.. वो गूंजते स्वर तानों को मात्र तब सुनता है जब वहां कई सांसे मिट जाने को आतुर होती हैं।

    करालप्रस्थ.... एक ऐसी भूमि जिसे दो राजवंशियों ने इसलिए बनाया कि वहां युद्ध हों... निर्णायक युद्ध! निर्मल माटी से भरी वो भूमि जिसके आस पास पेड़ पौधे हुआ करते थे।

    उसने मृत्यु तांडव देखा और हर युद्ध के बाद दोनों पक्ष के वीर सेनानी के रक्त को स्वयं में समेट कर एक वीर गाथा को समाहित किया... जैसे महाकाव्य स्वयं में समा लेते हैं कई गाथाओं को, कईं शब्दों को जो भावनाओं से ओत प्रोत होते हैं, ज्ञान के ऊर्जा से भरे और कल्पनाओं के कलम से रचे।

    ऐसी ही थी ये भूमि वीरों के रक्त को समाहित करते हुए ये स्वयं ही एक अडिग वीरांगना बन गई थी, अपने सौम्य स्वरूप को त्याग कर रक्त से सूख कर काली रेत से भरी हुई।

    उस भूमि को देख कर ऐसा ही प्रतीत होता था जैसे किसी स्त्री ने त्याग दिया वो अपने ही स्वरूप को और बन गई वो सबसे कठोर, बिखरी हुई, परन्तु उसके हर बिखराव में था एक शक्ति पुंज! कुछ ऐसी ही गाथा थी इस भूमि की।

    "शुकाधिप विध्वंस की जय.... शुकाधिप विध्वंस की जय.... शुकाधिप विध्वंस की जय.... "

    स्वर गूंज गया उस भूमि के वातावरण में और ये प्रत्युत्तर था रौहिण्य के जयघोष का! युद्ध तो जयघोष से ही आरंभ हो चुका था, सैनिक अपने अपने स्वामी के नाम को इतने उत्साह और तेज स्वर से बोलते की मानो एक जयघोष कम हुआ तो युद्ध के प्रारंभ में ही पराजित माने जाएंगे!

    मिलते हैं अगले भाग में कमेंट में बताइए कैसा लगा?
    ✍️ शालिनी चौधरी

  • 14. प्रभाकल्प - Chapter 14

    Words: 1525

    Estimated Reading Time: 10 min

    करालप्रस्थ.....

    वातावरण जयघोष से गूंज रहा था, एक पक्ष का स्वर शांत नहीं होता कि दूसरे पक्ष से उससे भी तेज स्वर से जयघोष आता। उस भूमि के ऊपर विस्तृत फैले क्षितिज में स्वर एक लहर के प्रकार जाती और टकरा कर पुनः गूंज जाती।

    उस क्षेत्र में तो जैसे वायु ने बहना ही छोड़ दिया था मात्र प्राणवायु ही थी जिससे लोगों के स्वांस चल रहे थे। आकाश में उड़ते विमान जो ब्रह्मगरुड़ चक्र के गरुड़ का भाग था अब वो धरती पर उतरे उसके स्वर और वायु प्रवाह से वो स्याह रेत जो रक्त से सने हुए स्याह पड़ गए थे अपने स्थान से यूं उठे जैसे छू लेंगे वो अपने ऊपर विस्तृत रूप से फैले उस आकाश को।

    जैसे वो पूछ आयेंगे उनसे उनका हाल जो जयघोष के टंकोर से क्षुब्ध सा हो गया था, जो शून्य में रहते हुए भी विचलित दिखने लगा था, क्षितिज जो प्रत्येक दिवस ही देखता है एक नए ब्रह्मांड के निर्माण को, एक पुरातन ब्रह्मांड के अवशेषों को उस कालचक्र में समाते जिसे शिव के ही बढ़े रूप से जाना जाता ही।

    जो शून्य है! ब्रह्माण्ड के सारे नियमों से परिचीत ये क्षितिज पुनः उसी चक्र को देख शून्य न रह कर विचलित सा हो गया था। उसके भीतर भी तो बसती है एक नारी जिसे प्रकृति कहते हैं, और नारी तो सशक्त होते हुए भी भावना के घुंघरू बांधे फिरती है जिसका स्वर सदैव उसके कानों में गूंजता है!

    "हमारी शत्रुता तो कौशिकपुरा से है! ये रौहिण्य युद्ध भूमि में क्या कर रहा है चंद्राधिप?"

    विभित्सा के स्वर गूंजे... उसने एक सामान्य से ढंग से प्रश्न किया था जिस पर सूर्यभानु मात्र मुस्कुरा कर रह गए परंतु उनके स्थान पर उत्तर दिया सत्यकृत ने,

    "योद्धा विभित्सा... शुकधरा की शत्रुता तो संपूर्ण मानवजात से ही है, संपूर्ण पृथ्वी से है। और रौहिण्य पृथ्वी पर स्थित एक ऐश्वर्य ज्ञान युक्त साम्राज्य है!"

    सत्यकृत ने शांत ढंग से उत्तर दिया परंतु एक ऐसा सत्य कहा जिसे झुठलाया नहीं जा सकता था।

    "पृथ्वी ही शुकाधिप की है... राजराजेश्वर के चरणों में उनका राज्य समर्पित करके बन जाओ उनके दास... तो संभव है कि हमारे स्वामी तुम्हें जीवनदान दें!"

    आक्रोश ने कहा और एक जोरदार ठहाके लगा कर वो हँस पड़ा।

    "रौहिण्य संसार में दान देने के लिए ही प्रसिद्ध है आक्रोश! दंभ में ऐसे नेत्रहीन हो की सत्य चक्षु पटल पर उतर ही नहीं रहें..."

    सत्यकृत के इस उत्तर पर रौहिण्य की सेना में ठहाकों की ऐसी श्रृंखला बनी की एक लंबी अवधि तक स्वर शांत ही नहीं हुआ सूर्यभानु की मुस्कुराहट गहरा गई।

    "रौहिण्य के इतिहास में पराजय का घाव भी है सत्यकृत... गौरव गाथा ऐसे तो तब भी नहीं गाई जाती है जब सफलता चरण पखार रही हो... जैसे कि शुकाधिप विध्वंस!"

    आक्रोश का एक और उत्तर आया जिस पर अब गर्व से फूलने की बारी शुकधरा के सैनिकों की थी। सूर्यभानु ने एक दृष्टि सत्यकृत पर दी जो बड़े सौम्य मुस्कान अपने अधर पर सजाए आक्रोश को देख रहे थे, उनके नेत्रों में नर्तन करती हुई उत्तर व्याकुल थी उनके वाणी से निकल शब्दबाण बन कर भेदने के लिए हृदय को!

    "और उसी कथा में शुकधरा के छल का भी वर्णन आता है आक्रोश, इसको प्रमाणित करने के लिए इसी भूमि के नीरव शिला पर मिलेगा प्रथम शुकाधिप का रक्त!"

    इतिहास के वर्णन के क्रम में जिस कथा को आक्रोश ने कहा उसी कथा की एक कड़ी को सत्यकृत ने भी जोड़ा। जहां प्रथम भाग पर शुकधरा गर्व कर रहा था, वहीं दूसरे भाग पर रौहिण्य मुस्कुरा रहा था।

    "शब्द बाणों से युद्ध नहीं जीता जाता... अस्त्रों का प्रयोग करना होता है.. दिव्य ज्ञान का प्रयोग करना होता है।"

    कहते हुए विभित्सा ने अपने रक्तरंजित नेत्रों से सत्यकृत को ऐसे देखा जैसे दृष्टिपात से ही सर्वनाश कर देगा।

    "युद्ध... युद्ध का ज्ञान हमें मत दो विभित्सा... युद्ध करने को हम सज्ज हैं!" कहते हुए सत्यकृत ने अब अपनी धनुष को ताना, वहीं विभित्सा ने भी धनुष को तान रखा था। जिसे झट से उसने अग्नि अस्त्र का प्रहार किया।

    अग्नि अस्त्र को देखते ही सत्यकृत मुस्कुराया और उसने वरुणास्त्र के द्वितीय कोष से प्रहार किया जैसे ही बाण समक्ष आएं वरुणास्त्र के प्रहार से अग्नि अस्त्र शांत हुआ और उसके शांत होते ही वो तीर सत्यकृत के तरकश में आ गिरी।

    "प्रथम पराजय की ढ़ेरों बधाई!" कहते हुए सत्यकृत की दृष्टि विभित्सा पर ही थी। उसके अधर मुस्कुरा रहे थे, सैनिक जो अभी दर्शक बने थे उनके चेहरे खिल गए और एक स्वर से उन्होंने जयघोष किया,

    "योद्धा सत्यकृत की जय.... योद्धा सत्यकृत की जय..."

    एक उत्साह भर गया था वातावरण में रौहिण्य को जैसे नई ऊर्जा मिल गई थी।

    "ये आरंभ मात्र है सत्यकृत... आरंभ को अंत नहीं मानते!" कहते हुए ही विभित्सा ने धनुष फिर ताना और एक दिव्य बाण प्रकट हुआ, जैसे ही बाण धनुष से छूटी वो अपने स्वामी के बताए मार्ग पर तेजी से बढ़ी, और एक उससे पहले स्याह धुआं उठा जिसने वातावरण में एक धुंध पैदा की, रौहिण्य के सेना में सबका दम घुटने लगा और सब खांसने लगे एक साथ।

    "खो खो... खो खो... ये तो विषाक्त अस्त्र है.... खो खो..." खांसते हुए ही एक सैनिक ने कहा। वहीं रौहिण्य के सेना की ऐसी दशा देख शुकधरा के सैनिक में आनंद छा गया।

    "योद्धा विभित्सा की जय.... योद्धा विभित्सा की जय.... योद्धा विभित्सा की जय...." जयघोष से वो भूमि और आकाश गूंज गया।

    सत्यकृत ने एक बाण पर कुछ मंत्र पढ़ें और उसे आकाश की ओर छोड़ दिया वो ऊपर जा कर मेघों से टकराई और विद्युत की दो धारा उत्पन्न हुई एक विद्युत कवच बन कर रौहिण्य के सम्पूर्ण सेना के ऊपर कवच बना। और दूसरी विद्युत विषाक्त अस्त्र पर गिरा जिससे वो बाण ही खंडित हो गया। और विभित्सा के मंत्र का प्रभाव भी समाप्त हो गया।

    उस बाण के टूट जाने से और मंत्र के इस प्रकार के खंडन से तुरंत ही विष वातावरण में घुला और अब शुकधरा के सैनिक भी इस चपेटे में आ गए उनका अस्त्र अब उन्हें ही पीड़ा देने लगा।

    "रक्षा... रक्षा करिए ये... हृदय जल रहा है स्वांस नली का दाह हो रहा " शुकधरा के पैदल सैनिक जो सामान्य थे वो चीखने लगे लेकिन आक्रोश ने तुरंत ही रक्षा कवच चढ़ाया जिससे अब वो सुरक्षित हुए, परन्तु वो विष अभी भी वातावरण में यूं ही फैला था।

    "ईश्वर कहते हैं कर्म लौटता है... ये कथन था आचार्य का जब हम सब बालक थे... आज के दिवस ये प्रमाणित भी हो गया!" सत्यकृत ने मुस्कुराते हुए कहा वहीं रौहिण्य के सैनिक जो अब तक स्वांस संयत कर चुके थे वे ठहाके लगा कर हँसने लगे।

    करालप्रस्थ और कौशिकपुरा के मार्ग में... आर्यमन और कौशिकपुरा के सैनिक युद्ध भूमि के समीप थे।

    "ये कैसा धुंध है? अत्यंत स्याह से भरा!" आर्यमन ने चौंकते हुए कहा उसकी दृष्टि करालप्रस्थ के वायुमंडल में घुलते स्याह धुएं पर था।

    "युद्ध प्रारंभ हो चुका है महराज... योद्धाओं ने अस्त्र प्रयोग आरम्भ कर दिया है..." धूमकेतु ने कहा जिस पर आर्यमन ने ध्यान से धुंध को देखा।

    "हमारे पहुंचने के पूर्व ही... हम भी आ ही रहे थे।" धूमकेतु के साथ आया योद्धा माणिक ने कहा।

    "हमें विलंब हुआ है.....महराज ये विषाक्त अस्त्र है... आप चिंता न करे इसका उत्तर है सत्यकृत जी के पास!"

    धूमकेतु ने पहले माणिक को उत्तर दिया परंतु जब उसकी दृष्टि चिंता के सागर में डूब रहे आर्यमन पर गई तो उसने झट से अस्त्र का नाम बताया साथ ही ये भी की उपाय है सत्यकृत के पास!

    "सारथी... तेजी से चलो! हमें युद्ध भूमि में पहुंचना है अति शीघ्र!"

    करालप्रस्थ....

    "विभित्सा... इसका उपचार करो क्योंकि ये कवच बहुत अधिक समय तक सुरक्षित नहीं रख सकता!"

    आक्रोश ने दबे स्वर में ही स्थिति समझाई, विभित्सा की दृष्टि शत्रु पक्ष पर गई तो उसने देखा कि सत्यकृत बड़े ही शांत हैं, उनके अधर की मुस्कान बता रही थी कि उन्होंने अपनी सेना की रक्षा कर ली।

    विभित्सा की पकड़ धनुष पर कस गई, नेत्र क्रोध से भींच लिए और अंत में उसने एक बाण का अनुसंधान किया। और छोड़ दिया।

    "ये अमृतकोशी है! परन्तु ये अस्त्र तो इतनी सरलता से मिलती ही नहीं किसी को!" उसी सैनिक ने फिर कहा।

    "ओंकार... आपको क्या लगा विभित्सा कोई नवीन योद्धा हैं... नहीं वो एक कुशल रणनीतिकार और शक्तिशाली योद्धा हैं... योद्धा की दृष्टि से उन्हें और उनके नीतियों को प्रणाम करना चाहिए।"

    कहते हुए सत्यकृत ने विभित्सा को देखा जिसकी दृष्टि आकाश को देख रही थी और वो बाण सोख रहा था सारी स्याह धुंध को आकाश साफ होने लगी और प्रकाश किरणें जो कुछ समय पूर्व ही बिछड़ गई थी उस धरती से वो ऐसे आ लगी उसके सतह से मानो कोई विरह वेदना में तपी सालों की विरहनी हो!

    जो आ कर लिपट गई बस अपने प्रियतम के वक्ष से और समा गई उसके अंक में कुछ यूं जैसे लिपट रहा हो चंद्रमा के अंक में चकोर, और झूम जा रही हो प्रकृति बरखा के प्रथम आगमन पर।

    परन्तु उस भूमि के भाग्य में इतना प्रेम कहां था वो या तो मौन को सुनती थी या फिर क्रंदन को। जयघोषों को और सिमट जाती थी स्वयं में ही क्योंकि उसके पीड़ा को जो सबसे अधिक जानता था वो आकाश तो उससे कोसों दूर था।

    मिलते हैं अगले भाग में आगे क्या हुआ जानने के लिए पढ़ते रहिए प्रभाकल्प।

    ✍️ शालिनी चौधरी

  • 15. प्रभाकल्प - Chapter 15

    Words: 1536

    Estimated Reading Time: 10 min

    "ब्रह्मगरुड़ं तु चक्रं तेजसा व्योमसंभवम्।

    यत्र स्थग्नं च वातानां गमनं कालमातृके॥"

    कालोत्कर्ष मठ में छात्रों के मध्य खड़े आचार्य विरूपदत्त ने श्लोक का उच्च स्वर से पाठ किया।

    "इस श्लोक का अर्थ क्या हुआ आचार्य?" एक छात्र ने बड़ी बड़ी आंखों को झपकाते हुए पूछा, उसकी लंबी शिखा और थोड़ा अधिक मोटा शरीर, छोटी आँखें जिससे वो उत्सुकता लिए झांक रहा था अपने आचार्य के नेत्रों में, वहां बैठे सभी छात्रों में प्रश्न के उत्तर को जानने की उत्सुकता थी।

    "इसका अर्थ हुआ.... जब भी ब्रह्मगरुड़ चक्र का निर्माण कर सेना युद्ध क्षेत्र में उतरती है, तो उसके वेग और उसके सूक्ष्म मायावी चक्र में फंसा योद्धा उसे भेद नहीं पाता हर ओर से अस्त्रों से उस पर वार किया जाता है जिससे उसकी प्राणवायु स्थिर हो जाती और वो कालमाता का आहार हो जाता है! "

    आचार्य ने अपने दोनों हाथों को ध्यान मुद्रा में किया और कुछ पल स्थिर होने के बाद उनके दाईं ओर दस पग की दूरी पर धरती से चार हाथ ऊपर एक तैरता हुआ दृश्य प्रकट हुआ।

    जिसके केंद्र में एक महारथी योद्धा था, उसके आगे हाथी पर सवार कुछ योद्धा थे इसके पश्चात एक पंक्ति में खड़े पैदल सैनिक, केंद्र में खड़े योद्धा के पीछे घोड़ों पर सवार सैनिक और इसके पश्चात चारों ओर से पैदल सैनिक का व्यूह, सबसे अग्रणी कतार में विशाल विमान थे जो गरुड़ के आकार में उड़ते थे। ये संपूर्ण सेना जब एक साथ मिलती थी तो पीछे से ब्रह्मकमल और आगे से पंख फैलाए गरुड़ के आकार में बनती थी। इसी का नाम था ब्रह्मगरुड़ चक्र!

    "आचार्य क्या कभी किसी ने इस चक्र को भेदा है? अथवा ये अभेद्य है?" अदाह्य ने प्रश्न किया वहीं सभी छात्रों के साथ शुकप्रभुज अव्यय भी बड़े आश्चर्य से वायु में स्थित उस प्रतिबिंब को देख रहा था। सबके मन में प्रश्न थे और उससे बढ़ कर आश्चर्य!

    "हां! एक योद्धा थें... परन्तु उन्होंने ने भी संपूर्णता से नहीं भेदा था तो ये कहा जा सकता है कि ये चक्र अभेद्य है!"

    आचार्य विरूपदत्त ने उल्लेख किया परन्तु उनके मुख के भाव बिगड़े थे, जैसे वो इसके आगे चर्चा नहीं करना चाहते हों... परन्तु उस प्रतिबिंब को देखते हुए छात्रों की उत्सुकता अब समय के साथ बढ़ रही थी।

    "वे महान योद्धा कौन थे आचार्य? क्या वे शुकधरा के थे?" एक छात्र ने प्रश्न किया उसका सांवला शरीर और गहरे नेत्र बड़े आकर्षक लग रहे थे।

    "हां हमारे साम्राज्य के ही होंगे क्योंकि वीर योद्धा की जन्मदात्री भूमि है ये शुकधरा।" एक दूसरे छात्र ने कहा, जिससे आचार्य विरूपदत्त भाव अब और बिगड़े परन्तु उन्होंने स्वयं को संयत कर लिया।

    "नहीं पुत्र... वे महान योद्धा शुकधरा के नहीं थे! वे महान योद्धा थें चंद्राधिप शशिशेखर!"

    कहते हुए ही आचार्य विरुदत्त के भाव में घृणा उभरी परन्तु उन्होंने अपने शब्दों में संयम बनाएं रखा।

    "ये तो रौहिण्य साम्राज्य के संस्थापक थे न?" जैसे ही शशिशेखर का नाम आया उस नाम को सुनते ही आठ वर्ष का वो बालक जो शुकप्रभुज था और भावी शुकाधिप! उसने प्रश्न किया।

    "हां पुत्र! सर्वथा उचित पहचाना है! ये रौहिण्य के संस्थापक ही हैं!" आचार्य ने अब उस प्रतिबिंब को समेटते हुए कहा।

    "रौहिण्य जो विख्यात है अपने अध्यात्म और औषधि ज्ञान के लिए।" इस बार रौहिण्य के परिचय को अदाह्य ने थोड़ा और उकेरा जिससे विरूपदत्त की भौहें आपस में जुड़ी। उन्होंने चर्चा को दूसरे ओर मोड़ने के उद्देश्य से कहा,

    "अभी शुकधरा के सैनिक... युद्ध भूमि करालप्रस्थ में हैं... उन्होंने अपने शत्रु राष्ट्र कौशिकपुरा के लिए ब्रह्मगरुड़ चक्र का ही निर्माण किया है!"

    आचार्य के मुख से निकला ये समाचार छात्रों के मध्य एक नए कौतूहल का विषय बन गया!

    "परन्तु कौशिकपुरा राज्य से हमारी क्या शत्रुता है आचार्य?" अव्यय ने प्रश्न किया जिस पर आचार्य के माथे पर बल पड़ गया।

    यदि एक दृष्टि से देखा जाए तो कौशिकपुरा से कोई शत्रुता नहीं थी, वो एक शांतिप्रिय राष्ट्र था ज्ञान का केंद्र था मुख्य रूप से आध्यात्मिक ज्ञान का। और उसकी भौगोलिक स्थिति भी शुकधरा से पूर्णतः विलग थी शुकधरा साम्राज्य था और कौशिकपुरा एक राज्य! दोनों के मध्य भला क्या शत्रुता होती।

    परन्तु ये तो होड़ था राजराजेश्वर बनने के क्रम में एक मार्ग जिसमें कौशिकपुरा भी आता था, इसलिए ही अब वो शत्रु था।

    "पुत्र अभी इस स्थिति को समझने के लिए आप सब बालक हैं थोड़े बड़े होने पर ये स्थिति भी स्पष्ट कर दी जाएगी!"

    समय के पर्दे के नीचे कई बड़े रहस्यों को छिपा लिया जाता है, आचार्य ने भी यही किया क्योंकि आठ से दस वर्ष के वे सभी बालक अपने बालपन में कोई भी प्रश्न पूछते और यदि यथोचित उत्तर न मिलता तो उनकी दिशा और विचार शुकधरा से भिन्न हो सकते थे।

    "आचार्य... तो विजय कौन होगा?" बड़े ही भोलेपन से अदाह्य ने प्रश्न किया!

    "जिसकी युद्धनीति कुशल और बाजुबल अधिक होगा!" बड़े संक्षेप से उत्तर में आचार्य ने उसके उत्साह को शांत कर दिया।

    करालप्रस्थ......

    विषाक्त अस्त्र के खंडन के पश्चात वातावरण में वो स्याह धुएं के भांति फैलने लगा जिससे अंततः विभित्सा को अमृतकोशी बाण से उस विष के प्रभाव को नष्ट करना पड़ा।

    और ये हुई थी दूसरी पराजय जो देखते ही विभित्सा बौखला गया, अब उसने अपने धनुष पर एक नए बाण का अनुसंधान किया, चमकता हुआ वो स्वर्णिम बाण का जैसे ही उसके धनुष पर आगमन हुआ, क्षितिज में विद्युत कड़की साथ ही वायु की गति अकस्मात बढ़ी और उस बाण में समाने लगी!

    "ये ये... ये तो प्राणशोषणि अस्त्र है.. इसका उपयोग हमारे पूर्वज चंद्राधिप शशिशेखर ने एक बार किया था इसके पश्चात इसका प्रयोग कभी नहीं हुआ!"

    ओंकार ने आश्चर्य में पड़े हुए ही उस बाण की पहचान की!

    "प्राणशोषणि! इस अस्त्र का काट तो एक मात्र सेनानी धूमकेतु के ही पास है, और वे तो अभी तक पहुंचे ही नहीं है!"

    सत्यकृत के मुख पर चिंता छलकने लगी वहीं सूर्यभानु की दृष्टि संपूर्ण युद्धभूमि पर थी, रौहिण्य की सेना ने पद्मनाभ चक्र रचा था, जिसमें केंद्र यानी नाभि में सूर्यभानु को रखा गया था उसके ठीक आगे सत्यकृत थे।

    परन्तु उनकी दृष्टि अपने शत्रु सेना के ब्रह्मगरुड़ चक्र पर थी उसे भेदने की एक मुख्य चिंता छाई थी। अब विभित्सा की छोड़ी बाण आकाश में ऊपर गया। एक बार और बिजली कड़की। जिसकी गरज दूर से आ रहे धूमकेतु को भी सुनाई पड़ी उसने झट से दृष्टि दी, उसकी आँखें पहले थोड़ी छोटी हुई और फिर बड़ी हुई... उसने झट से अपना धनुष उठाया।

    "क्या हुआ सेनानी?" आर्यमन ने चिंता से ये प्रश्न पूछा!

    "प्राणशोषणि अस्त्र का प्रहार हुआ है, महादेव की कृपा है कि हम युद्धभूमि में प्रवेश कर चुके हैं!"

    कहते हुए उसने तुरंत ही अपने धनुष की प्रत्यंचा खींच कर कुछ मंत्रों का आवाह्न किया जिसके फलस्वरूप एक बाण उत्पन्न हुआ।

    उसने तुरंत ही उसे आकाश की ओर छोड़ दिया। देखते ही देखते वो उस आकाश को छूने के लिए निकल गई लेकिन फिर स्थिर हो उसने दो विद्युत तरंग उत्पन्न किया जिसमें से एक ने कौशिकपुरा के संपूर्ण सेना पर कवच बनाया अब वो जहां बढ़ते कवच साथ जाता।

    और दूसरी विद्युत तरंग ने रौहिण्य के सैनिक पर कवच चढ़ाया। सत्यकृत जो चिंतित थे जब उन्होंने देखा संपूर्ण सेना पर एक कवच चढ़ा तो उनके अधर मुस्कुराने लगे और उन्होंने अपनी दृष्टि अब विभित्सा के ओर उठाई।

    "ये.. ये सत्यकृत इतना... इतना... निश्चिंत कैसे है? क्या क्या इसके पास...." अभी वो वाक्य पूरा भी नहीं कर पाया था कि उसके कानों में अपनी सेना के बिखरते स्वर पड़े।

    "युद्ध... योद्धा.. योद्धा विभित्सा रक्षा... रक्षा करिए!"

    उसके सैनिक स्वांस वायु के लिए संघर्ष कर रहे थे, सब की शक्ति जैसे क्षीण होने लगी थी।

    "विभित्सा आप पुनः अपने लोगों को संकट में डाल रहे हैं.... वापस करिए इसे क्योंकि... क्योंकि सेनानी धूमकेतु का आगमन हुआ है... उन्होंने अष्टभुजी दुर्गा कवच चढ़ाया है!"

    विभित्सा की दृष्टि सत्यकृत के मुस्कुराते अधर पर गई और उसके ठीक पीछे चले आ रहे धूमकेतु पर जो हाथ में धनुष पकड़े उससे प्रतिध्वनि निकालता हुआ आ रहा था।

    "ये... ये विजय नहीं है... मात्र आरम्भ है राजा आर्यमन.... संतुष्ट मत होइए क्योंकि कोई भी आपको हमसे नहीं बचा सकता।"

    आर्यमन जो सूर्यभानु के दाईं ओर अपने विमान में खड़े थे जिसके ऊपर की छत खुली थी, और दृष्टि संपूर्ण युद्धभूमि को ताक रहे थे।

    "बचाव ईश्वर करते हैं... हमारे मित्र मात्र साथ देने आए हैं! मित्रता के भाषा आपको समझ नहीं आएगी विभित्सा...."

    आर्यमन ने कहा और वो मुस्कुराते हुए सूर्यभानु के गले लग गया।

    "ऐसा है तो अब सहो मेरे इस प्रहार को... भेद सकते हो तो भेदो।"

    कहते हुए जैसे ही विभित्सा ने विमान को गति देनी चाही क्षितिज पर चमकते सूर्य ने मार्ग बदल ली और उसकी वो अंतिम लाल किरणें भी अब क्षितिज से अदृश्य सी हो गई!

    "ये ये उचित नहीं है! ये अत्यंत..." कहते हुए उसने मुट्ठी कसी। और तभी बिना इच्छा के भी दोनों पक्षों ने शंखनाद कर युद्ध की समाप्ति की घोषणा की। और मुड़ गए अपने शिविरों की ओर....

    वो भूमि अब पुनः मौन हो गई, मानो फिर पहुंच गई हो अपने साधनाकाल में, वो पुनः सुन रही थी भविष्य में आने वाले क्रंदनों को, योद्धाओं के रक्त के गंध उसे दिखने लगे थे, आज भी दोनों पक्षों के सौ के समीप योद्धा मारे गए थे दिव्य अस्त्रों के प्रभाव से जिसके शवों को उनके साथी सैनिक ले जा रहे थे।

    मिलते हैं अगले भाग में आगे क्या हुआ जानने के लिए पढ़ते रहिए प्रभाकल्प।

    ✍️ शालिनी चौधरी

  • 16. प्रभाकल्प - Chapter 16

    Words: 1523

    Estimated Reading Time: 10 min

    करालप्रस्थ.....
    वो भूमि मौन हुए ताक रही थी क्षितिज के ओर अपलक, वहीं दिव्य अस्त्रों के घात को सहते हुए आकाश ने भी उत्पन्न की थी स्वयं को पीड़ा दे कर विद्युत तरंग। और अब इस मौन से आश्चर्य में था वो।

    आकाश में अब सूर्य के स्थान पर चंद्रमा अपनी आभा लिए पूर्ण वैभव से चमक रही थी। परन्तु सम्पूर्ण विश्व में जहां वो श्वेत वर्णी चंद्रमा प्रेम बाँट रहा था, विशाल पर्वतों के कोष में अमृत उड़ेल कर औषधियों को पुष्ट कर रहा था। वहीं... वहीं युद्ध की ये भूमि जब आकाश में देखती एक बूंद प्रेम की लालसा लिए तो रक्तिम हुए चंद्रमा को तो आभास होता की प्रेम उसके भाग्य में नहीं।

    वो नहीं बनी थी दो प्रेमी के मधुर संवाद को सुनने के लिए, वो बनी थी योद्धाओं के बीच झड़प और कटाक्ष को सुनने के लिए, वो बनी थी योद्धाओं के धनुष के स्वर सुनने के लिए बाण पर गरजते मंत्रों के शक्ति को समझने के लिए।

    रजनी ने जैसे ही स्याह आँचल फैलाया क्षितिज पर तो थके हुए तन और क्रोध से तपते मन शिविर में विश्राम के लिए प्रयासों में परिश्रम कर रही थी। परन्तु विभित्सा के आज के इस पराजय ने मानो उसके नेत्र से निद्रा को दूर कर दिया था, एक के पश्चात एक अस्त्र का नष्ट हो जाना और दो अस्त्रों को स्वयं ही लौटाना निःसंदेह ही संकेत था कि आज की ये रजनी रौहिण्य के शिविर में उत्सव और विश्राम ले कर आई है।

    "हमें ज्ञात था मित्र आपका आगमन हमारे लिए शुभ होगा!" आर्यमन जो सूर्यभानु के सामने ही आसन पर बैठे थे उन्होनें मुस्कुराते हुए कहा।

    "आप विचलित तो नहीं हुए मित्र? हमें आने में विलम्ब जो हो गया था! हमारी पत्नी गर्भवती हैं और ऐसी अवस्था में उन्हें समझा पाना जरा सा कठिन था, बस....."

    सूर्यभानु अपनी बात समाप्त करते उससे पूर्व ही आर्यमन ने उनकी बात काटी।

    "आप हमें लज्जित कर रहें हैं! मित्र किंचित व्याकुलता के कारण मन में शंका तो उत्पन्न हुई थी परंतु आपकी वचन परायनता पर पूर्ण विश्वास था।"

    आर्यमन की दृष्टि झुक गई ये बड़े ही लज्जा की बात थी उनके लिए कि उन्होंने शंका की अपने मित्र राज्य पर।

    "जब आक्रमण इतना विशाल और तीव्र हो तो मन का व्याकुल और चिंतित होना स्वाभाविक ही है।"

    सूर्यभानु ने आर्यमन के कंधे पर अपना सर रखते हुए बोले, जिससे आर्यमन को एक बल मिला।

    "आपका आगमन हमें अत्यंत बल दे रहा है... कौशिकपुरा की समस्या में आपने ऐसी तत्परता दिखाई है मित्र मानो ये समस्या रौहिण्य की अपनी हो!"

    आर्यमन ने कहा और मुस्कुरा दिया जिस पर सूर्यभानु भी मुस्कुराने लगे, अकस्मात ही आर्यमन के मस्तिष्क में कोई बात आई जिससे उन्होंने झट से मुस्कुराते हुए कहा।

    "इस चिंता में तो हमें आपको बधाई देना ही स्मरण नहीं रहा.... बधाई हो मित्र, अब आप पिता बनने का सुख भोगेंगे!"

    कहते हुए वो उठे और सूर्यभानु के गले लग गए। जिस पर वो मुस्कुराते हुए उनके पीठ पर हाथ रख कर थपथपाएं।

    "ये सुख तो आप पहले ही प्राप्त कर चुके हैं मित्र... आप हमें इस विषय में ज्ञान ही दीजिए!"

    सूर्यभानु ने कहा, जिस पर आर्यमन उनसे अलग होते हुए और हँसते हुए बोले,

    "ज्ञान.... मित्र ये तो अनुभूति है! संतान आगमन पर ज्ञान नहीं काम आता वहां तो अनुभूतियां इतनी गहन होती हैं कि स्वयं ही मनसा पटल पर अच्छे बुरे का ज्ञान होने लगता है!"

    ये सत्य ही था जीवन के इतने बड़े क्षण को अनुभूति से ही जिया जा सकता था। भावनाओं को यदि ज्ञान के तुला में रख कर उसे शब्दों की भांति एक कड़ी मर्यादा के मध्य रखा जाए तो वो शाखा से टूटी पुष्प की भांति ही मुरझा जाती है।

    "आपका कथन भी उचित है मित्र।" सूर्यभानु ने कहा तो अब आर्यमन की दृष्टि सत्यकृत और धूमकेतु पर गई।

    "आप दोनों की वीरता को नतमस्तक प्रणाम है! आप दोनों के रण कौशल से तो अचंभित रह गया मैं! आज का विजय आप दोनों के नाम ही जाता है।"

    आर्यमन ने कृतज्ञता से भरे हुए कहा जिस पर सत्यकृत और धूमकेतु मुस्कुराएं, फिर सत्यकृत ने कहा,

    "परन्तु इसमें हमारे एक नवयुवक योद्धा ओंकार का भी चमत्कार है.... विभित्सा ने अस्त्र छोड़ें नहीं कि ओंकार ने उसके विवरण को झट से कह दिया... अस्त्रों की समझ अत्यंत गहन है ओंकार के पास!"

    सत्यकृत ने ओंकार के ज्ञान की सराहना की जिससे वहां बैठे ओंकार के अधर मुस्कुराएं और सीना गर्व से चौड़ा हो गया।

    "परन्तु इससे ये न बिसरा जाए कि युद्ध का अंत नहीं हुआ है... आज शुकधरा ने ब्रह्मगरुड़ चक्र का निर्माण किया था, परन्तु उसे संचालित करने से पूर्व ही युद्ध विराम हो गया! स्मरण रहे कोई भी उस चक्र के भीतर न जाए।"

    सूर्यभानु जो युद्धभूमि से ही इस विषय से चिंतित थे उन्होनें अपनी चिंता बताई।

    "और कल युद्धारंभ के साथ ही विभित्सा चक्र को संचालित करेगा!" आर्यमन ने एक पक्ष सामने रखा जिसमें कल के युद्ध की एक झांकी थी।

    "ये ही चिंता का विषय है, इसे रोकना होगा।" सूर्यभानु ने स्पष्ट किया।

    शुकधरा शिविर....

    विभित्सा क्रोध से तप रहा था, उसके नेत्र लाल थे और भुजाएं कसी हुईं उसने क्रोध से मुट्ठी कसी थी जिससे उसके नस तक बाहर के ओर उभरे थे।

    "विभित्सा... क्रोध करने के स्थान पर कल की रणनीति पर ध्यान केंद्रित करिए... आज युद्ध आरम्भ हुआ और आज ही हम पराजय के द्वार पर खड़े हैं.. हमारे सैनिकों का मनोबल टूट गया है! वे अब उत्साहित नहीं सशंकित हैं!"

    आक्रोश ने समझाने के उद्देश्य से कहा वहीं विभित्सा के दृष्टि में अभी भी सत्यकृत का वो मुस्कुराता मुख ही था, इतने सौम्य स्वरूप के बाद भी वो युद्ध में तीव्र प्रहार करते थे। प्रत्येक विजय के साथ ही उनके अधर एक संतुष्ट मुस्कान सजा लेते।

    "कैसे शांत हो जाऊं आक्रोश? मुझे अभी भी सत्यकृत का वो मुस्कुराता मुख स्मरण हो रहा... क्षणिक चिंता भी उनके मुख पर न उभरी.... कल के युद्ध का उसके प्राण खींचने के साथ ही अंत होगा।"

    क्रोध से तपते हुए विभित्सा ने कहा, जिस पर आक्रोष ने उसके कंधे पर हाथ रखते हुए कहा,

    "नहीं मित्र.... कल का युद्ध किसी एक योद्धा के प्राणांत के साथ समाप्त नहीं होगा... कल के युद्ध को ही निर्णायक युद्ध बनाना होगा क्योंकि हमें इस पराजय का उत्तर भी देना है अन्यथा शुकाधिप का क्रोध जागृत होगा।"

    आक्रोश ने कहा उसके नेत्रों में विध्वंस का भय स्पष्ट रूप से दिख रहा था।

    "विभित्सा कल युद्ध आरम्भ होते ही समय व्यर्थ न करते हुए, ब्रह्मगरुड़ चक्र को संचालित कर देना होगा।"

    आक्रोश की इस बात पर विभित्सा ने भी सहमति से सर हिलाया उसकी दृष्टि सामने शत्रु शिविर में टिकी थी जहां सैनिक नाच रहे थे। उत्सव मना रहे थे।

    "ये उत्सव ही अंतिम है कल मात्र क्रंदन का स्वर होगा!" अंत तक आते आते विभित्सा ने दांत पर दांत चढ़ा लिया था वो क्रोध से कांप रहा था।

    व्युत्पुरा...... ( शून्यवाणी सभागृह ).......

    सभा में मात्र तीन लोग थे.. विध्वंस सिंहासन पर बैठा था, उसके बाईं ओर रात्रि बैठी थी और सामने था संदेशवाहक जो हाथ में पत्र पकड़े कांप रहा था।

    "संदेश सुनाओ..." विध्वंस ने मुस्कुराते हुए कहा उसे अंदेशा था कि कोई शुभ समाचार ही होगा।

    उस दूत ने कांपते स्वर से पत्र पढ़ना आरंभ किया।

    "शुकाधिप विध्वंस को आक्रोश का प्रणाम! मुझे ये सूचना देते हुए अत्यंत खेद है कि आज के युद्ध में हम पराजित रहें! कुछ दिव्यास्त्रों के टकराव से हमारे सौ सैनिक की मृत्यु हुई और शुकधरा को सौ योद्धा की हानि! विभित्सा ने दिव्य अस्त्रों से युद्ध आरंभ किया परन्तु सत्यकृत ने प्रतिउत्तर में हमारे अस्त्रों को ध्वस्त कर दिया। कौशिकपुरा की सहायता के लिए रौहिण्य की सम्पूर्ण सेना के साथ चंद्राधिप स्वयं युद्ध भूमि में पधारे हैं! अंत में विभित्सा ने ब्रह्मगरुड़ चक्र को संचालित करना चाहा उसे पूर्व ही सूर्य देव ने अपने गृह का मार्ग ले लिया जिससे युद्ध विराम हो गया। कल का युद्ध हमारे पक्ष में होगा इस आश्वासन के साथ हम क्षमाप्रार्थी हैं!"

    कहते हुए वो संदेशवाहक रुका उसकी दृष्टि क्रोध से कांपते हुए विध्वंस पर गई, एक झटके में वो सिंहासन से उठा और अपने कमर में खोसे हुए कटार को उस संदेशवाहक के ओर पूरी ताकत से फेंका वो कटार उसके पेट में घुपी।

    रक्त की धार बहते हुए ही वो दूत चीखते हुए वहीं धरती पर गिर गया उसने गिन कर ग्यारह बार सांसें खींची और बारहवीं सांस ऐसे बिखरी जैसे किसी माला के माणिक बिखर गए हो! उसने तड़पते हुए प्राण त्यागे।

    "रौहिण्य.... ये उचित नहीं किया... तुम्हें इस युद्ध में सम्मिलित नहीं होना चाहिए था सूर्यभानु.... अब तुमने अपने काल को स्वयं निमंत्रण दिया है.... रौहिण्य पर जो संकट कुछ समय पश्चात आता उसे शीघ्र आमंत्रित किया है तुमने...."

    कहते हुए विध्वंस एक बार पुनः क्रोध से कांप गया वहीं उसे इतने क्रोध में देख रात्रि का भय भी बढ़ता ही जा रहा था।

    "कौन किसका काल है ये तो भविष्य ही जाने... परन्तु कर्म लौटता अवश्य है!" झरोखें से झांकती आभा ने स्वयं से ही कहा उसकी दृष्टि उस दूत पर थी जिसके शव अभी तक वहीं था, आभा मुस्कुराई परन्तु इसमें पीड़ा थी नेत्र से अश्रु के दो धार बह गए। जिसे उसने हथेली से रगड़ का पोंछ लिया।

    मिलते हैं अगले भाग में आगे क्या होगा जानने के लिए पढ़ते रहिए प्रभाकल्प।

    ✍️ शालिनी चौधरी

  • 17. प्रभाकल्प - Chapter 17

    Words: 1526

    Estimated Reading Time: 10 min

    करालप्रस्थ.....

    सूर्य क्षितिज पर आ कर अपनी नन्ही रक्तिम किरणों से आकाश में छाए स्याही को मिटाने लगी थी, वातावरण में अभी भी उदासी भरी हुई थी, उस रक्त सने हुए स्याह रेत पर जैसे ही सूर्य की पहली किरण नर्तन करते हुए उल्लास से भरी हुई उतरी, उसे आभास हुआ कि वो स्थान वीरान थी, भूमि का ये टुकड़ा वैसी ही थी जैसे किसी स्त्री से उसका श्रृंगार छीन लिया हो।

    उस किरण को आभास हो चुका था कि ये उल्लास से भरी भूमि नहीं, अपितु रक्त से सनी क्रंदन करती हुई भूमि थी, जहां शोभायमान होतीं है शव, जहां मृत्यु पर उस आत्मा को हर्ष होता है और उसके पक्ष वाले साथी योद्धा को गर्व। युद्ध की विभीषिका ही ऐसी थी, जो यहां लड़ते हुए मर गया वही भाग्यशाली था।

    सूर्य आकाश में जैसे अब पूर्णता से दिखने लगा था, वैसे ही उनसे उर्जा और विजय की इच्छा रखने वाले योद्धा पहुंच गए थे प्रार्थनाओं के स्वर ले कर।

    "ॐ सूर्यदेवाय नमः.... ॐ सूर्यदेवाय नमः.... ॐ सूर्यदेवाय नमः.... "

    सूर्यभानु के हिलते अधर से और कंठ में स्थित उसके वाणी प्रवाह से सूर्य देव के मंत्र ही प्रस्फुटित हो रहे थें, पीली धोती, खुले तन जिस आर जनेऊ की पवित्र धागे लिपटे थे, दाएं हाथ में कलावा, और दोनों हाथ को सर से थोड़ा ऊपर रखे ही वो सूर्य को अर्घ दे रहे थे।

    व्योम से उतरती वो किरणें जो अनजान थी इस बात से की कहां गिरेंगी वो धरती पर, क्या उनके अस्तित्व को कोई सराहेगा अथवा वो ओझल ही रह जाएगी नयनों से। वो टकराई सूर्यभानु के अर्घ रूप जल धार से जिससे तुरंत ही वो परिवर्तित सी हो कर लौट गई अपने ही मार्ग पर।

    कदाचित आप वो गई थी सूर्यदेव को ही संदेश देने की नीचे धरा पर कोई अर्घ्य दे कर रख रहा अपने इच्छाओं की पोटली उनके समक्ष।

    "चंद्राधिप! पूजन के लिए प्रबंध हो गया है!"

    कहते हुए सत्यकृत ने अपने दोनों हाथ जोड़ लिए, वहीं स्वर को सुन सूर्यभानु ने गर्दन घुमाया तो समक्ष ही खड़े थे वो शांत और सौम्य मुख के व्यक्ति।

    "चलिए!" कहते हुए सूर्यभानु पलटे और धीमे चाल से चलने लगे उस दिशा की ओर जिधर ले जा रहे थे उन्हें सत्यकृत!

    "हे महादेव.... कल की रात्रि उनकी थी परंतु आज का दिवस हमारा हो... शुकधरा पराजित नहीं हो सकता!" विभित्सा की आँखें रक्त के समान लाल हो चुकी थीं, एक क्षण को भी बंद नहीं हुईं थी वो, पलकें जैसे विश्राम चाहती ही नहीं, उन नेत्रों ने चंद्रमा के हर पग को नाप लिया होगा, अथवा देख लिया होगा उसने रक्तिम चंद्रमा की विवशता को, जिसमें वो करालप्रस्थ की भूमि को एक बूंद प्रेम तक नहीं दे सकी थी।

    "योद्धा विभित्सा.... सेना सज्ज है परन्तु सशंकित भी है, उत्साह क्षीण हो गया है!"

    विभित्सा के नेत्र क्रोध से धधक उठे परन्तु उसने स्वयं को शांत ही रखा, आक्रोश की बातें सुनते हुए ही वो आगे बढ़ा और कवच पहनते हुए उसने गर्दन घुमाई,

    "युद्ध... युद्ध क्रीड़ा की भांति ही है इसका आनंद उठाना चाहिए, शत्रु पक्ष को हारने की तीव्रता में वर्तमान आनंद का ह्रास नहीं करना चाहिए!"

    विभित्सा जो स्वयं ही कल के पराजय के अपमान के अदृश्य ज्वाला से तप रहा था, उसने ये बात कही जिससे आक्रोश आश्चर्य में पड़ गया, उसने कुछ कहने का प्रयास किया, लेकिन उससे पूर्व ही उसके मस्तिष्क में कुछ बात आई और वो मौन रह गया।

    "कल जो सैनिक वीरगति को प्राप्त हुए... उनके शवों को शुकधरा भिजवाया गया?"

    अपने तरकश के तीरों के धार को जांचते हुए विभित्सा ने पूछा, जिससे आक्रोश ने बस सर हिलाया।

    "योद्धा विभित्सा और आक्रोश को प्रणाम.... शुकाधिप का संदेश पत्र आया है।" कहते हुए उसने पत्र को आगे किया, जिसे झट से आक्रोश ने ले लिया, और वो सैनिक शिविर से बाहर चला गया।

    उस पत्र के आने का अर्थ था विध्वंस का कल के युद्ध पर टिप्पणीउन्हें पूर्ण विश्वास था कि इस पत्र में भी विध्वंस का क्रोध ही दिखेगा और हुआ भी कुछ ऐसा ही।

    "मेरे वीर योद्धाओं.... पराजय की अत्यंत शुभकामना.... मैं शुकधरा का अधिपति शुकाधिप विध्वंस आपकी, आपके रणनीति की और सेना की सराहना करता हूं.... शुकधरा के इतिहास ने कभी भी पराजय का मुख नहीं देखा... आप जैसे योद्धाओं ने कभी ऐसा भाग्यशाली क्षण आने ही नहीं दिए.... परन्तु धन्यवाद मेरे वीर सैनिक! आपने ये अत्यंत सुखद क्षण प्रदान किया... शुकधरा गर्व से प्रफुल्लित है!"

    ये एक व्यंग्यात्मक पत्र था, जिसका प्रत्येक शब्द मात्र तंज और क्रोध का प्रतीक था, विध्वंस के द्वारा लिखे इस पत्र से ही उसके क्रोध का अंदेशा वहां बैठे विभित्सा एवं आक्रोश को हो चुका था।

    "आज का युद्ध हमें जीतना ही होगा.... आज का विजय हमारे प्रतिष्ठा के लिए आवश्यक है!"

    आक्रोश ने विभित्सा को देखते हुए कहा, और दोनों उठ कर बाहर गए।

    रौहिण्य शिविर....

    आर्यमन, सूर्यभानु बैठे थे समक्ष ही सेनानी धूमकेतु एवं सत्यकृत बैठे थे, वातावरण गंभीर था।

    "महराज आर्यमन.... आप पूर्व एवं उत्तर दिशा को संभालिए.... सत्यकृत मुख्य रूप से विभित्सा को ही संभालेंगे और ओंकार उनके साथ होंगे इन्हें अस्त्रों की अच्छी समझ है! वहीं मैं और माणिक चारों ओर दृष्टि रखेंगे... वहीं चंद्राधिप केंद्र में स्थित होते हुए ही दक्षिण और पश्चिम दिशा पर निगरानी रखेंगे।"

    धूमकेतु ने अपनी योजना बताई। वहीं सत्यकृत जो अत्यंत शांत थे, उन्होंने कुछ सोचते हुए कहा।

    "आज जब वे युद्ध क्षेत्र में आयेंगे तो आते के साथ ही ब्रह्म गरुड़चक्र को संचालित करेंगे! यदि उन्होंने इस चक्र के व्यूह को संचालित किया तो इसे भेदा जा सकता है... परन्तु यदि उन्होंने चक्र के साथ ब्रह्म गरुड़ अस्त्र का भी उपयोग किया तो अत्यंत संकट आ सकता है!"

    सत्यकृत ने आज के युद्ध की एक झलक दी थी..... ब्रह्मगरुड़ चक्र जिसके दो भाग थे..... प्रथम भाग में वो सेना के द्वारा बनाया एक व्यूह था जो ब्रह्म कमल और गरुड़ के सम्मिलित रूप जैसा था। गरुड़ जो आगे के भाग में होते थे, वे वास्तव में आकाशीय विमान होते थे.... जो अत्यंत तीव्र गति से वायु मार्ग से प्रहार करते थे, गरुड़ के भाग को भेदते हुए ही ब्रह्म कमल के भाग में प्रवेश मिलता था। परन्तु वहां घोड़ों, हाथियों और पैदल सैनिक से युद्ध करते हुए उसे चहुं ओर से तोड़ना होता था।

    इसका दूसरा भाग था जहां केंद्र में स्थित योद्धा ब्रह्मगरुड़ चक्र को वास्तविक रूप से जागृत करता था, जिसमें उसके द्वारा बाण पर विशेष मंत्र के जाप से एक चक्र का निर्माण होता और वो चक्र आकाश में स्थित हो.. प्रवेश करने वाले योद्धा को शारीरिक रूप से कष्ट देता एवं मानसिक रूप से भ्रमित करता था।

    वातावरण में एक उमस सी थी, सूर्य की किरणें आज भोर से ही प्रखर थें, मानो वो आज हो रहे इस युद्ध से ही क्रोधित हों!

    रौहिण्य ( रजतमयूख भवन )......

    "शुभा.... शुभा.... शुभा...." गलियारा सूना पड़ा था, जिसमें मात्र शारदा के स्वर ही गूंज रहे थे, जो दीवारों से टकरा कर उसी गलियारे में सिमट कर रह जाते।

    "प्रणाम राजश्री.... कुछ चाहिए आपको कोई समस्या है?"

    तुरंत ही एक दासी जो उसी कक्ष के एक भाग में खड़ी सफाई कर रही थी वो भागते हुए आई..... शारदा के स्वर बिखर रहे थे, स्वांस लंबी होने लगी थी, वो गहराई से स्वांस खींच रही थी जैसे प्रत्येक स्वांस के लिए संघर्ष कर रही हो!

    शारदा के ऐसे हालत से वो दासी भयभीत हो गई उसने शारदा को एक पात्र में जल भर कर दिया परंतु कांपते हाथों से पात्र गिर गया और जल से शैय्या भी भींग गई।

    "शुभा... शुभा को बुलाओ!" उस दासी ने तुरंत ही रानी को छोड़ा और अपनी साड़ी संभालते हुए वो बाहर भागी... गलियारे से दौड़ते हुए उसकी दृष्टि नीचे उपवन में खड़ी शुभलता पर गई, जो पौधों में जल दे रही थी।

    "राजकुमारी जी.... राजकुमारी... " आवाज़ देते हुए ही आभास हुआ कि वो अधिक दूर ही इतने दूरी से स्वर पहुंचेगा नहीं.... वो अब फिर भागी, उसके स्वांस उखड़ने लगे थे, कंठ शुष्क होने लगा। श्रम बिंदु की कुछ बूंदे उसके माथे पर छलकने लगी, वो रुक नहीं सकती थी, उसका स्वांस रौहिण्य की राजश्री शारदा से अधिक मूल्यवान नहीं था, इसलिए बिखरे स्वांस के साथ ही वो सीढ़ियों से उतर रही थी।

    धम्म... अगले ही पल उसके पैर उसकी सारी से उलझे और वो अंतिम तीन पायदानों से नीचे गिरी! स्वयं को संभालने की चेष्टा में उसने सीढ़ी पर बने वो छोटी ऊंचाई वाले दीवारों को पकड़ना चाहा परंतु गति अधिक होने कारण वो स्थिर नहीं हो पाई और गिरी!

    ठक... उसका माथा महल के कठोर संगमरमर के धरती से जा लगा.....

    "आह... हे नारायण!" अगले ही पल मुख से एक आह निकली और हाथ माथे को छूने लगा, रक्त तो नहीं निकला परन्तु माथे पर गांठ सी बनी और तुरंत ही स्याह पर गई। उसकी आंखों के आगे कुछ पल को अंधेरा छा गया... परन्तु शारदा के स्थिति का स्मरण होते ही वो उठी उसके पैरों में कंपन होने लगा था।

    "राज... राजकुमारी जी...." उसके मुख से निकला बस कुछ दूरी पर ही थी शुभलता... वो उठी और तेज स्वर से पुकारी "राजकुमारी जी... राजकुमारी जी..." उसके स्वर कांप रहे थे।

    शुभलता ने अपनी गर्दन घुमाई सामने लड़खड़ाती दासी पर दृष्टि जाते ही उसकी भौहें आपस में जुड़ी और हृदय में सहसा एक भय की लहर उठी!

    मिलते हैं अगले भाग में आगे क्या होगा जानने के लिए पढ़ते रहिए प्रभाकल्प।

    ✍️ शालिनी चौधरी

  • 18. प्रभाकल्प - Chapter 18

    Words: 1531

    Estimated Reading Time: 10 min

    रौहिण्य ( रजतमयूख भवन )......

    "राज... राजकुमारी जी..." उस दासी ने अपने उखड़े स्वांस को संभालते हुए तेज स्वर में पुकारा... उस स्वर के कान में पड़ते ही शुभलता ने गर्दन घुमाई। उसकी दृष्टि सामने से लड़खड़ाती हुई आ रही दासी पर दृष्टि गई और अगले ही पल उसकी भौहें जुड़ गई, भय की एक तेज लहर से उसका शरीर सिहर गया।

    "क्या क्या हुआ... तुम तुम ऐसे क्यों भाग रही..." शुभलता आगे कुछ बोल पाती उससे पूर्व ही दासी ने अपने सीने पर हाथ रखते हुए सांसे संभालते हुए बोली,

    "वो राजश्री... राजश्री को वैद्य की आवश्यकता है... वो निरंतर आपको पुकार रही हैं!"

    कहते हुए उसकी सांसे उखड़ रही थी वो अभी भी स्थिर नहीं हुई थी, आंखों पर धूप पड़ रहा था जिससे उसने हल्के से मोड़ा था पलकों को जिससे भौंहों के मध्य भाग में सिकुड़न थी। मुख और माथे पर श्रमबिंदु उभरे थे।

    "क्या... तुम.. तुम राजवैद्य को सूचना दो कहो कि शीघ्र आएं... और तुम कोशी को बुलाओ।"

    भागते हुए शुभलता ने उस दासी और अपने साथ वाली दासी को कार्य दिया, जल से भरा पात्र वहीं फेंका और दौड़ पड़ी रनिवास के ओर... वहीं वो पात्र भूमि से टकराया और छलक कर गिर गया आधे से अधिक जल, जिसका कुछ भाग रिस कर पौधों के जड़ों में जमा हो गया और कुछ वहीं मिट्टी में समा गए।


    शुभलता दौड़ रही थी, उसकी आंखों में बेचैनी स्पष्ट रूप से दिख रहे थे और वो भागे जा रही थी मन में सहस्त्रों दुविचार आ रहें थे।

    "कहीं... भाभी श्री को... नहीं नहीं वो स्वस्थ होंगी... भ्राता के आने के पश्चात मुझे उन्हें उत्तर भी देना होगा.... भाभी श्री को कुछ नहीं हो सकता है!"

    मन में उठते एक विचार को सुन कर वो विचलित सी हुई.... उसके पैर तीव्र गति से दौड़ रहे थे, पायल की घुंघरू अपने ध्वनि को निकाल के स्वयं के अस्तित्व का प्रमाण दे रही थी,

    शुभलता के केश जिसे उसने हल्के से जुड़ा बनाया था वो दौड़ते हुए खुल कर लहरा गए थे उसके कमर तक.... ढ़लकते केश ऐसे लग रहे थे जैसे पहाड़ से ढ़लक रहे हो एक कतार बनाए रेत जिस पर सूर्य किरण पड़ते ही वो चमकने लगते। केश परिस्थितियों को कहां समझ पाते हैं वो तो बस लहरा जाते हैं स्वतंत्र होते ही।

    सारी का आँचल लहरा रहा था, उसकी सांसे रुकती हुई सी प्रतीत हुई, परन्तु हृदय में उमड़ते विचारों ने उसे थम जाने की आज्ञा नहीं दी वो दौड़ते हुए कक्ष में आ कर रुकी जहां उसकी दृष्टि शैय्या पर लेटी शारदा पर गई जो मूर्छित हो चुकी थी।

    "भाभी श्री.... भाभी श्री... ये क्या हुआ आप..." जब उसने शारदा के गाल छुएं तो तप रहे थे वो... वो मूर्छित थी ये आभास हो चुका था, झट से पात्र में जल ले कर शारदा के मुख पर फुहारें दिए।

    "शुभ... शुभा.." मूर्छा भंग होते ही कांपते स्वर से शुभलता के नाम ही निकले, ज्वर अधिक था जिस कारण वो बोल नहीं पा रही थी।

    "आप शांत रहिए... वैद्य जी आ रहें है..." वो कह ही रही थी कि एक महिला आई कंधे पर पोटली लिए वो वैद्य थी, उसके आते ही शुभलता ने स्थान छोड़ा तो वहां वो बैठ गईं... पहले उन्होंने नाड़ी को टटोला कुछ क्षण के पश्चात आंखों को देखा।

    "राजश्री... आपका प्रसव समय निकट है... आप ऐसे नहीं कर सकती... आपको अपना ध्यान रखना होगा!" वैद्य ने कहा जिस पर वो मात्र सर हिला कर रह गई।

    "राजकुमारी ये औषधि में बना कर लाई थी... मुझे आभास था कि ज्वर ही हो.. इसे जल में मिला कर दीजिए, तीन दिन तक... ये स्वस्थ हो जाएंगी!"

    वैद्य ने कहा वहीं वो दासी भी पीछे ही खड़ी थी, शुभलता की दृष्टि उस पर गई!

    "वैद्य इन्हें भी कोई औषधि दे दीजिए इन्हें चोट लग गई है!" वैद्य ने चोट को देखते हुए कहा,

    "अधिक समस्या नहीं है... पत्थर के सेंक से ये ठीक हो जाएगा... अथवा चावल को भुन कर गर्म करके एक पोटली में बांध कर उससे सेंक लेना... पीड़ा में आराम मिलेगा।"

    कहते हुए वैद्य ने शुभलता को आंखों से ही आने को कहा और दूसरे ओर चली गईं!

    "क्या हुआ वैद्य? आपने...." शुभलता ने जैसे ही आगे कहना चाहा तुरंत ही वैद्य की गंभीरता देख कर शांत हो गई।

    "राजकुमारी जी... राजश्री इस समय अत्यधिक मानसिक दवाब में है... चन्द्राधिप... के युद्ध में जाने के कारण राजश्री स्वयं को एकाकी समझने लगी हैं... जिस कारण ये चिंतित रहती हैं।"

    वैद्य ने कहा... शुभलता इस बात से सहमत थी।

    "देखिए राजकुमारी जी ऐसी अवस्था में अत्यधिक औषधि भी नहीं देनी चाहिए... जब तक कि वो बालक और माता को पुष्ट करने के उद्देश्य से न बनी हो! इन्हें अधिक से अधिक प्रसन्न रखने का प्रयास करें।"

    कहते हुए वो वहां से चली गई वहीं शुभलता के माथे पर चिंता के भाव उभर आएं... उसकी आँखें हल्की छोटी हुईं जैसे कोई विचार में डूब रही हों

    कौशिकपुरा (वातायनप्रभा महल ).....

    रानी कांति झरोखें में खड़ी दूर क्षितिज के सूर्य को देख रही थीं हाथों में पूजा की थाली थी जिसमें अब धूप भी बूझ गए थे, लेकिन उसके सुगंध वातावरण में बिखरे थे.... रानी कांति की नेत्र विचलित थे, उन्हें अभी तक कल के युद्ध की कोई सूचना नहीं मिली थी।

    "रानी जी की जय हो.... रानी जी.. कल युद्ध में हमारी विजय हुई थी!"

    दासी ने आ कर कहा जिसे सुनते ही उनके अधर अनायास ही मुस्कुराने लगे, उल्लास की एक लहर दौड़ गई और वो मुड़ी।

    "परन्तु रानी जी.... योद्धा रक्षा और भीमा की वार्ता सुनी मैंने... वे कह रहे थे कि आज का युद्ध कल के युद्ध से अधिक भयंकर होगा... क्योंकि आज शुकधरा के सैनिक अधिक क्रुद्ध हुए होंगे।"

    प्रथम सूचना ने जैसे ही उल्लास भरी वैसे ही द्वितीय सूचना ने जैसे एक नया भय का संचार कर दिया था, उन्होंने हाथों से ही जाने की आज्ञा दी... शब्द जैसे मौन से हो गए थे। सम्पूर्ण कौशिकपुरा में भी एक शांति थी।

    बस कल से राज्य के कुछ घरों में क्रंदन हो रहा था, शव को युद्ध भूमि से भेजा गया था, उनके प्रियजनों के अंतिम दर्शन और क्रियाकर्म के लिए।

    रानी के कांति के दृष्टि के समक्ष रात्रि की वो दृश्य आई जिससे उनके शरीर में एक सिहरन सी उत्पन्न हुई।

    "स्वामी..... स्वामी हम कैसे रहेंगे स्वामी... आप हमें छोड़ कर नहीं जा सकते स्वामी.... पुत्र... हमारे पुत्र का क्या होगा... मां पिता जी का क्या होगा स्वामी...."

    एक स्त्री अपने पति के शव को लेने आई थी, शव देखते ही उसके मुख से चित्कार फुट पड़ी... नयन बहने लगे उसकी सांसे थमने लगी थी। उसे उसके संबंधियों से संभाला और शव ले कर गए।

    आंखों के आगे उसी दृश्य को देख पुनः कांप गई कांति मन में अनेक विचार से उठे वे कांप रही थी, जब उसके पैर स्थिर न हुए तो वहीं सहारे से बैठ गई आसन पर।

    "स्वामी... स्वामी संदेश भेजते रहिए... यहां आपकी कांति अत्यंत दयनीय स्थिति में है! मैं... मैं उन दुविचारों से कैसे मुक्त होऊं?"

    स्वयं कही भावना से और प्रश्नों से खीजने लगी थी वो एक अत्यंत ही विकट स्थिति में थी वो।

    व्युत्पुरा ( ध्यानवेध महल ).....

    "रत्ना... रत्ना ये आपके लिए भेंट है.. प्रिय देखिए ये..." हाथ में सोने की कंगन लिए वो रत्ना के सामने बैठा था, वहीं रत्ना की दृष्टि अपने हाथों में पकड़े पुस्तक पर थी, वो बड़े ध्यान से उसे पढ़ रही थी।

    "रत्ना... हम आपसे बात कर रहें हैं प्रिय!" कहते हुए विध्वंस ने उसे अपने ओर घुमाया। उसने दृष्टि उठा कर देखा विध्वंस को जिसकी आंखों में एक भिन्न प्रकार की चमक थी एक बालक जैसी जो कुछ ले कर आया था रत्ना के लिए।

    "हमारे पास कंगन हैं शुकाधिप! आप चिंता न करें!" कहते हुए उसने बात टालना चाहा परंतु तब तक विध्वंस ने उसके हथेली को थाम लिया था और पहनाने लगा उसे।

    "इसकी आवश्यकता नहीं है!" रत्ना ने पुनः हाथ खींचते हुए कहा, जिस पर तुरंत ही विध्वंस ने अपनी पकड़ बढ़ाई।

    "आवश्यकता है प्रिय... आप विध्वंस की पत्नी है... अधिकार है आपका!" कहते हुए ही उसने पहना दिया था, उस पर बना वो कलाकृति जिसमें कुछ बेलों की आकृति उकेरी थी जिस पर कुछ फूल भी बने थे अत्यंत सुंदर लग रहा था वो।

    "देखिए कितना सुंदर लग रहा ये आपके हाथों में... जैसे बना ही था आपके लिए!" कहते हुए विध्वंस ने बड़े ही आहिस्ते से रत्ना के मुख को छुआ और उसके हाथ फिसले उसके कोमल गालों पर रत्ना बस अपलक देख रही थी उसकी आंखों के समक्ष कुछ अतीत की बातें आईं जिससे उनके मुख पर एक व्यंग भरी मुस्कुराहट आ गई।

    "प्रेम इतना छलकाओ जितना अपने गागर में हो.. यदि गागर से अधिक प्रेम छलका तो वो शुद्ध हो इस पर प्रश्न चिन्ह लग जाता है।"

    कहते हुए रत्ना ने अकस्मात ही अपने मुख को पीछे खींच लिया और विध्वंस के हाथ रह गए वायु में ही।

    "आपका क्रोधित होना भी उचित ही है... आपके इस रूष्ट होने से भी हमें कोई समस्या नहीं है... पत्नी हैं आप अधिकार है आपका... और हमारा अधिकार है आपको मनाते रहना वो हम करते रहेंगे!"

    बड़ी दृढ़ता से कहा विध्वंस ने जिससे रत्ना की दृष्टि ठहर गई उस पर आंखों में कई भाव एक साथ उतरे जिसे समझ रहा था विध्वंस।

    मिलते हैं अगले भाग में आगे क्या होगा जानने के लिए पढ़ते रहिए प्रभाकल्प।

    ✍️ शालिनी चौधरी

  • 19. प्रभाकल्प - Chapter 19

    Words: 1604

    Estimated Reading Time: 10 min

    व्युत्पुरा ( ध्यानवेध महल )......

    विध्वंस रत्ना के दृष्टि में उतर रहे भावों का अर्थ समझ रहा था, उसकी दृष्टि झुक गई जिसे देखते हुए रत्ना के अधरों पर एक फीकी सी मुस्कान छा गई।

    "शुकाधिप.... अधिकार यदि एक बार ले लिया जाए तो वो पुनः दिया नहीं जाता..."

    उसने कहा और अपना ध्यान पुस्तक पर लगा लिया।

    "रत्ना... प्रिय आप..." बोलते हुए ही वो रुक गया क्योंकि रत्ना की दृष्टि एक बार भी उस पर नहीं उठी वो मौन सी मात्र पुस्तक पर दृष्टि जमाए बैठी रही!

    "अच्छा... हम जाते है... आज संध्या को शुकधरा के लिए निकलेंगे सज्ज रहिएगा!"

    रत्ना ने कोई उत्तर नहीं दिया और दृष्टि भी नहीं उठाई! जिसके बाद विध्वंस वहां से निकल गए, नेत्र में पश्चाताप के भाव थे, और अतीत की कुछ झांकियां भी अब दृष्टि के समक्ष आने लगी थी।

    "स्वामी.... स्वामी एक बार... एक बार रौहिण्य ले चलिए वहां की वैद्य से दिखवा लेंगे... कोई समस्या होगी तो वो उपचार बताएंगी... बड़ा नाम है उनका।"

    रोती हुई सी रत्ना दोनों हाथ जोड़े विध्वंस के पैरों में बैठी थी, वहीं विध्वंस की आँखें क्रोध से जल उठी।

    "रत्ना.... यदि एक और बार आपने रौहिण्य जाने की बात कही... तो ये आपके लिए अधिक कष्टप्रद होगा! रौहिण्य के उपचार से हमें संतान हो इससे अच्छा है आप संतानहीन रहें!"

    क्रोध से धधकते नेत्रों को रत्ना पर टिकाए उसने तेज स्वर से कहा, जिससे रत्ना कांप गई।

    "स्वामी... स्वामी... एक बार... एक बार आप कर लीजिए न.... मैं मैं आपको किसी के साथ साझा नहीं कर सकती आप समझ...."

    रत्ना बोल ही रही थी कि विध्वंस की तेज आवाज़ गूंजी।

    "मौन.... एक और शब्द यदि आपने कहा तो बिल्कुल अच्छा नहीं होगा.... संतान तो दे नहीं पाईं आप और बात करती हैं साझा नहीं कर सकतीं!"

    क्रोध से भरे विध्वंस ने वो कहा जिसके पश्चात रोती हुई रत्ना मौन हो गईं, उनके शब्द कंठ में ही रुक से गए।

    अतीत के संदूक से जैसे ही कोई नवीन धागा उधड़ते ही विध्वंस ने कस कर आँखें भींच ली।

    "आप प्रतिशोध ले रहीं है न रत्ना.... आपके अस्वीकार करने के पश्चात भी हमने रात्रि से विवाह किया.... हमारी संतान हुईं, कदाचित उपचार के पश्चात आप भी माता बन सकती थीं परंतु...."

    पश्चाताप के भावना से उसके नेत्र भर आएं और दोष स्वयं को देने लगा जो बीते समय में उसने ही कर्म किया था।

    "इन पुस्तकों को रत्ना के कक्ष में रख दो उन्हें पुस्तकों से अत्यधिक प्रेम है!" आभा उसी गलियारे में कुछ पुस्तकों को एक दासी को देते हुए कह रही थी, विध्वंस का ध्यान उसके ओर गया।

    "मर्यादा में बात करिए आप... " विध्वंस की तीखी आवाज़ आभा के कानों में गई वो मुड़ी सामने विध्वंस था, अत्यंत क्रोध से भरे हुए, उसकी भौहें सिकुड़ी हुई थी और क्रोध से नेत्र लाल हो चुके थे।

    " उन्होंने स्वयं कहा है कि वो रानी नहीं है.... मर्यादा की बात आप न करें शुकाधिप जो स्वयं मर्यादा भंग करता हो उसके मुख से मर्यादा ज्ञान शोभा नहीं देता।"

    कहते हुए आभा क्रोध से भरी निकल गई, वहीं विध्वंस मात्र मुट्ठियां कस कर रह गया।

    करालप्रस्थ.....

    वो स्याह रेत से भरी भूमि जो सदैव मौन रहती थी, उस मौन को चीरते हुए वहां ध्वनियां उत्पन्न हुईं, रेत के कण अपने स्थान से हिलने लगे धरती कंपन करने लगी। घर्षण से भूमि से एक भिन्न प्रकार की ध्वनि निकल रही थी, आकाश जो मौन सा ताक रहा था धरा को उसमें तेज विमानों की ध्वनियां उत्पन्न हुईं, देखते ही देखते वो भूमि स्याह रेत से भर गई। कुछ समय पश्चात जब रेत छटी तब दोनों के पक्ष के योद्धा और सेना दिखाई पड़े।

    शुकधरा के सेना में प्रत्येक सैनिक और बड़े बड़े योद्धाओं की दृष्टि में क्रोध भरा था, उन्हें कल की पराजय अपमान की भांति लगे थे, उनके नेत्र में रौहिण्य के प्रति घृणा अब और बढ़ गई थी।

    "आज के दिवस एक और युद्ध होगा... और आज विजय शुकधरा की होगी!"

    मन ही मन विभित्सा ने कहा उसकी दृष्टि समक्ष खड़े सत्यकृत पर थी, जो अपलक विभित्सा को ही देख रहा था, उसके अधर पर एक मुस्कुराहट थी। सौम्य मुख और माथे पर सिंदूर से किया तिलक, पीले वस्त्र में वो अत्यंत हो सौम्य लग रहा था।

    विभित्सा की दृष्टि जैसे ही सौम्य मुख वाले सत्यकृत पर गई उसके नेत्रों के समक्ष कल के युद्ध का दृश्य आया और क्रोध की एक चिंगारी उसके हृदय में प्रज्वलित होती हुई प्रतीत हुई।

    "स्वागत है विभित्सा... युद्ध क्षेत्र में पुनः स्वागत है!"

    सत्यकृत ने तीव्र स्वर से कहा उसके अधर पर मुस्कुराहट अब गहरा गई उसे ज्ञात था अब विभित्सा कुछ कहेगा।

    "स्वागत... स्वागत कर रहे हो अपनी मृत्यु का? अच्छा है! मृत्यु तो अटल सत्य है मनुष्य को ऐसे ही विचार रखने चाहिए।"

    विभित्सा की भौहें सिकुड़ गई थीं, उसके मुख पर आत्मविश्वास छलक रहा था और वो अत्यंत ही गहन दृष्टि से सत्यकृत को देख रहा था मानो वो उसे पढ़ लेना चाहता था।

    "क्या हुआ विभित्सा? कहीं कल के परिणाम से विचलित तो नहीं।"

    सत्यकृत ने पुनः कहा और इस बार ओंकार भी मुस्कुरा दिया।

    "युद्ध के आरंभिक परिणाम अंत को निश्चित नहीं करते हैं, वे सदा ही आरंभ होते हैं।"

    उसने कहा जिस पर सत्यकृत मात्र मुस्कुरा कर रह गया। परन्तु ओंकार ने मुस्कुराते हुए कहा,

    "और आरंभ इतना शुभ हो तो अंत भी शुभ ही होता है।"

    रौहिण्य की सेना का उत्साह आज आकाश छू रहा था, व्योम से उतरती वो प्रखर सूर्य की किरणें भी उन्हें बाधित नहीं कर पा रहीं थी।

    "विभित्सा.... समय व्यर्थ न करे...." आक्रोश दूर था विभित्सा थे जिस कारण उसके स्वर तीव्र थे।

    "हां हां... समय व्यर्थ न करें युद्ध का आरंभ करें।" कहते हुए ओंकार के तीव्र स्वर ने आक्रोश के स्वर को ढंक दिया। और विभित्सा ने धनुष उठा कर तुरंत ही एक अस्त्र का आह्वान किया।

    ओंकार की दृष्टि अब विभित्सा के क्रियाकलापों पर ठहर गई थी, वो उसके बुदबुदाते अधर को गहन दृष्टि से देखता हुआ मन में बोला,

    "ये तो... नीराजीवंत अस्त्र का आह्वान है... परन्तु क्या ये अस्त्र वही है!"

    सोचते हुए ओंकार ने सत्यकृत को देखा जिसकी दृष्टि भी विभित्सा पर स्थिर थी।

    "सत्यकृत जी.... ये नीराजीवंत अस्त्र का आवाहन कर रहा है... ऐसे में..."

    ओंकार बोलते हुए शांत हो गया... वहीं सत्यकृत के माथे पर बल पड़ गया!

    तभी एक उड़ता हुआ तीर आया जो ओंकार के नेत्रों के कोने से होते हुए पीछे उसके विमान में जा लगा।

    "ओंकार संभालिए..." सत्यकृत तीव्र स्वर से चीखा परन्तु तब तक ओंकार नीचे झुक चुके थे, उनके कंधे से कुछ ऊपर लहराते केशों ने उनके मुख को ढंक दिया था कुछ ही पल बाद वो उठे उनके केश उनके माथे पर लहराते हुए बिखर गए जैसे बिखर जाते हैं काले मेघ जब उन्हें आभास होता है कि अब आकाश को उनकी आवश्यकता नहीं!

    उनके माथे पर बिखरे केश के मध्य से दो नेत्र अंगार भरे झांक रही थी आक्रोश की आंखों में, जिसके ताप से एक पल को तो आक्रोश भी थम गया था। उसने झट से अपना धनुष उठाया और तरकश से तीर निकालते हुए लक्ष्य साधा और तीव्र स्वर से बोला,

    "युद्ध के नियम कदाचित भूल गए हैं आप आक्रोश.... किसी भी योद्धा पर सहसा ही आक्रमण नहीं होता!" युद्ध के प्रथम पाठ को स्मरण कराते हुए ही उसकी दृष्टि अपने तीर पर गई आक्रोश ने अपने स्थान को परिवर्तित किया परन्तु तीर की गति इतनी तीव्र थी कि उसने फिर भी छू लिया था आक्रोश के उन बलशाली कसी हुई भुजा को, और एक गहरा घाव देते हुए वो जा लगा उसके पीछे, जिससे उसके विमान से लगे ध्वज के दंड पर एक दरार सी उभरी।

    तभी आकाश में एक तीव्र विद्युत गर्जना हुई सबकी दृष्टि उस ओर गई, आकाश से एक बिजली तरंग उतरी और समा गई विभित्सा के तीर में जिससे विभित्सा के बाजु में कंपन हुई, वो ऊर्जा इतनी तीव्र थी कि उससे संभालने लिए विभित्सा को अपने पूर्ण शक्ति की आवश्यकता थी, उसकी तीव्रता ने उसे तीन पग पीछे धकेल दिया।

    उसके बाजु की नसें उभरने लगी थी, आकाश से विद्युत को उतार कर उसने अब बाण को संभालने पर ध्यान केंद्रित किया!

    "क्या ये विद्युत अस्त्र है? क्या इस विद्युत अस्त्र का प्रयोग हम पर करेंगे?" रौहिण्य के साधारण पैदल सैनिक जो शुकधरा के बाहरी क्षेत्र के पैदल सैनिक से युद्ध कर रहे थे उनके हृदय में सहसा ये विचार कौंधा, वहीं शुकधरा के सैनिकों के हृदय में भी यही प्रश्न था। कल के युद्ध में जिस प्रकार उनके प्राण संकट में आए थे इन दिव्यास्त्रों के प्रयोग से उसे देखते हुए उनकी भी दृष्टि उस बाण पर थम गई थी।

    वो बाण अपने लक्ष्य पर छोड़ चुका था, जो अपने ऊपर विद्युत तरंगों को लपेटे लक्ष्य मार्ग पर तीव्र गति से बढ़ रही थी।

    "इस अस्त्र के लिए..." ओंकार ने जैसे ही कहना चाहा उसकी दृष्टि समाने से आ रहे तीर पर गई उसने अपने तीर से लक्ष्य साधा और उस तेरे की दिशा बदल दी जो जा कर शुकधरा के सैनिक को ही लगा।

    "आह..आह..." एक आह के साथ ही वो वहीं गिर गया उसके मुख से रक्त बहने लगे और उसी क्षण उसकी मृत्यु हो गई।

    वहीं वो बाण वायु को चीरते हुए आगे बढ़ रही थी, साथ ही वायु में स्थित नगण्य जल बूंदों को भी सोखती जा रही थी। सत्यकृत को इसका उत्तर नहीं पता था, वो चिंतित हुआ बस बढ़ते हुए बाण को देख रहा था।

    "मेरा प्रतिशोध आज ही पूर्ण होगा... सत्यकृत कल तुमने मेरा अपमान किया था आज प्राण दोगे।"

    विभित्सा के अधर की मुस्कान बढ़ गई और नेत्र में उत्सव जैसा चमक छा गया।

    वो भूमि आज पुनः देख रही थी किसी के मृत्यु संयोग पर किसी के हर्ष को!

    मिलते हैं अगले भाग में आगे क्या होगा जानने के लिए पढ़ते रहिए प्रभाकल्प।

    ✍️ शालिनी चौधरी

  • 20. प्रभाकल्प - Chapter 20

    Words: 1538

    Estimated Reading Time: 10 min

    करालप्रस्थ.......

    मात्र कुछ दूरी रह गई थी विभित्सा के छोड़े अस्त्र और सत्यकृत के मध्य, आर्यमन की आँखें बड़ी हो गई थी, सूर्यभानु के तो हृदय थम जाने जैसी स्थिति थी, वहीं धूमकेतु के मुख पर क्रोध था उसके नेत्र विचलित थे, माणिक बड़े बड़े नेत्र किए स्थिति को समझने के प्रयास में था, तभी सहसा उसके मस्तिष्क में कुछ आया और वो विमान से उतर कर दौड़ पड़ा सत्यकृत के ओर... परन्तु उनके मध्य दूरी अधिक थी।

    वो बाण जैसे ही सत्यकृत को लगने वाली थी ओंकार ने अकस्मात उसे धकेला वो अपने रथ से सीधा उसके विमान पर कूद पड़ा था, जिस धक्के से सत्यकृत धरती पर गिर गया और वो अस्त्र ओंकार के हृदय पर जा लगा।

    "जय रौहिण्य......" सहसा ही एक तीव्र स्वर उस मौन वातावरण में गूंजा और ओंकार वहीं पीछे गिरने लगा, तुरंत ही सत्यकृत ने उसे संभाला माणिक भी वहां आ गया था उसने उसे पकड़ लिया। विभित्सा के नेत्र में चमक छा गई उसके शत्रु का ध्यान भटक गया था। उसने कुटिलता से भरी मुस्कुराहट उसके अधर पर खेल गई।

    "आक्रोश...... आक्रमण....." एक तीव्र स्वर में जैसे ही विभित्सा ने आदेश दिया तुरंत ही ब्रह्मगरुड़ चक्र का अग्रिम भाग जो गरुड़ का भाग था और विमानों की कतार थी, उसमें तुरंत ही घर्षण उत्पन्न हुई और एक साथ वो दस विमान आकाश की ओर उड़े.... इसके साथ ही पीछे के ब्रह्म कमल वाले भाग के योद्धा भी पूर्णतः सज्ज हो गए... पैदल सैनिक जिन्होंने ब्रह्म कमल के चारों ओर गोल व्यूह से सुरक्षित किया था ढाल आगे लिए खड़े हुए।

    " मुझे ज्ञात था ये दुष्ट छल ही करेगा... माणिक... ओंकार को शिविर में ले कर जाइए वहां वैद्यराज हैं उपचार कराइए।"

    क्रोध से भरे धूमकेतु ने कहा जिसके आज्ञा का पालन तुरंत ही माणिक ने किया झट से ओंकार को कंधे पर उठाए वो आगे बढ़ने लगा वहीं सत्यकृत हाथों में तलवार लिए उनके ओर आ रहे बाणों को काट कर सुरक्षित करने लगा, तभी दस सैनिक की एक छोटी टुकड़ी ने माणिक को घेर का ढाल बनाई और बढ़ने लगे शिविर के ओर।

    "सत्यकृत कुछ भी करने पूर्व इन तीरों को रोकिए।" सूर्यभानु की आवाज़ गूंजी...

    "आह...आह.. जय रौहिण्य...." ऐसे स्वरों से वो भूमि गूंज रहा था। ब्रह्मगरुड़ चक्र का सबसे सशक्त भाग गरुड़ ही था अपने गति के कारण। जिससे निरंतर बाण की बर्षा हो रही थी, रौहिण्य और कौशिकपुरा के योद्धाओं का ध्यान भटका हुआ था और जब तक वो संभल पाते एक बड़ी संख्या में सैनिक हताहत हो चुके थे, तुरंत ही सत्यकृत ने अपने धनुष पर एक बाण चढ़ाया और वे तुरंत ही कुछ मंत्र बुदबुदाए।

    अगले ही पल बाण वायु में छोड़े जो एक जगह स्थित हो कर निरंतर कई बाण निकाल कर उन बाणों की दिशा परिवर्तित कर दे रही थी, जिससे शुकधरा के भी सैनिक मरने लगे। इस अस्त्र नाम निरंतरा था।

    "आह... बचो.... ढाल को कस कर पकड़े रहो... कवच टूटे न।" शुकधरा के सैनिकों को जैसे ही तीर लगने प्रारंभ हुए उनके सभी सैनिक ब्रह्म कमल के भाग को सुरक्षित रखने के लिए तुरंत ही अपने ढाल को कस कर पकड़ लिए, परन्तु निरंतर प्रहार से उनके ढाल बहुत अधिक समय टिक नहीं सकते थे।

    धूमकेतु ने तुरंत ही एक कवच संपूर्ण सेना पर चढ़ाई, वहीं आक्रोश के प्रहार से वो बाण भी दो टुकड़ों में टूट गई जिसे सत्यकृत ने छोड़ा था। अब गरुड़ भाग से हो बाणों का प्रहार होता उसे कवच पर ही रोक लिया जाता।

    "धूमकेतु... प्रथम इस चक्र को भेदना होगा... मैं आगे बढ़ता हूं!" कहते हुए सूर्यभानु ने जैसे ही अपने सारथी के ओर देखा तुरंत ही धूमकेतु ने तीव्र स्वर से कहा,

    "नहीं चन्द्राधिप! कदाचित ये उचित नहीं! इस चक्र को भेदना अत्यंत संकट भरा होगा क्योंकि पूर्व प्रवेश करना होगा।"

    धूमकेतु की बात पर सूर्यभानु रुका, परन्तु अभी इस विकट स्थिति में कोई और उपचार भी नहीं था ।

    "हमें प्रवेश करना ही होगा धूमकेतु परन्तु हमें लगता है मुझे जाना चाहिए, विपदा कौशिकपुरा पर आई है इसके लिए...."

    अभी वो कह ही रहे थे कि सूर्यभानु ने बात काटी।

    "विपदा दोनों पर आई है मित्र... परन्तु धूमकेतु की बात उचित है।"

    उन्हें कुछ भी समझ नहीं आ रहा था तभी निरंतर बरस रहे बाण से कवच की परतें भी उधड़ने लगी थी,

    "हम में से किसी को उसे भेदने के लिए भीतर जाना ही होगा... कवच भी अब क्षीण हो रहा है।"

    सत्यकृत ने चिंतित भरे स्वर में कहा, तभी कवच टूटा और एक तीर नाचते हुए आर्यमन के विमान सारथी के हृदय में लगा, तुरंत ही वो गिरा जिसे अन्य सैनिक उठा कर शिविर के ओर ले जाने लगे तभी एक साथ कई बाण सेना के ओर आ रहे थे।

    रौहिण्य की चिंता बढ़ने लगी, यदि ये बाण रोके न गए तो कई सैनिक और योद्धा एक साथ घायल हो सकते थे। वो बाण बस कुछ दूरी पर ही थे कि अगले ही पल एक नीले रंग की ऊर्जा से लिपटा एक तीर आकाश में स्थित हुआ और एक कवच का निर्माण हो गया संपूर्ण सेना के ऊपर।

    किसी को कुछ समझ ही नहीं आया तभी सूर्यभानु ने गर्दन घुमा कर देखा, दूर से ही युद्ध भूमि में एक घोड़े पर स्त्री योद्धा धनुष को साधे तीव्र गति से आ रही थी।

    उसके केश लहरा रहे थे जो जुड़े में लिपटे अवश्य थे परंतु लंबे होने के कारण लहरा गए थे। घोड़े को स्वतंत्र छोड़ा था जैसे पूर्ण विश्वास हो उसे की धोखा नहीं देगा वो।

    "ये... ये तो भीमा है!" धूमकेतु ने तुरंत ही कहा तब तक वो कवच में प्रवेश कर चुकी थी।

    "प्रणाम सेनानी! ब्रह्मगरुड़ चक्र में प्रवेश कर उसे भेदना असंभव सा है, परन्तु यदि ब्रह्मकमल को ऊपर से ही तोड़ने का प्रयास किया जाए तो सैनिक छिन्न भिन्न हो सकते हैं!"

    तुरंत ही भीमा ने एक उपाय बताया जिसे सुन कर धूमकेतु के अधर मुस्कुराए और तुरंत ही उसने अपना धनुष संभाला, और एक साथ ही भीमा, सूर्यभानु, आर्यमन, और सत्यकृत ने कमल के भाग में बाहरी क्षेत्र के सैनिकों पर बाण वर्षा कर दी... कुछ ही क्षणों में बाण की तीव्रता से वे सैनिक के कई घाव लगे और वो छिन्न भिन्न होने लगे।

    "विभित्सा... कुछ करिए..." कहते हुए आक्रोष ने तुरंत ही अपने बाण से कवच निर्माण कर गरुड़ भाग पर चढ़ाया और विभित्सा ने कवच निर्माण कर उन सैनिकों पर चढ़ाया।

    "ये उचित नहीं किया तुम सब ने...." कहते हुए विभित्सा ने जैसे ही धनुष ताना की शंखनाद कर दिया भीमा ने, विभित्सा की दृष्टि आकाश में गई जहां सूर्य ने अपनी अंतिम किरणों को भी समेट लिया था, और मात्र रह गई थी क्षितिज पर कुछ लाली, जो इसी रक्तरंजित भूमि का अंश प्रतीत हो रही थी।

    "आज का विजय... शुकधरा का हुआ... सूर्य देव जीवन दान दिया है परन्तु कल का दिवस अंत होगा तुम सबका!" कहते हुए विभित्सा ने चिंघारा और अपने विमान को शिविर के ओर मोड़ लिया।

    आज की रात्रि शुकधरा के शिविर में उत्सव और विश्राम की थी, निश्चिंतता तो राौहिण्य के शिविर में भी थी।

    "भीमा... आप युद्ध भूमि में कैसे आई?" सूर्यभानु ने शिविर में पहुंचते ही पहला प्रश्न किया।

    "मैं यहां युद्ध सामग्री पहुंचाने ही आई थी चंद्राधिप तब मैंने योद्धा ओंकार को घायल देखा... योद्धा माणिक को वैद्य जी ने भेजा था औषधि लाने लिए और वो सहायता में थे। तब उनके स्थान को संभालने मैं आई थी।"

    कारण सुनते ही सूर्यभानु के मस्तक पर जो चिंता की रेखा थी वो कम हुई। तभी वहां वैद्यराज आए।

    "चन्द्राधिप.... ओंकार की स्थिति अब स्थिर है किंतु आज सम्पूर्ण रात्रि वो मूर्छित ही रहेंगे, नीराजीवंत के क्षणिक प्रहार से भी शरीर की अधिक जल की मात्रा सूख गई है।"

    स्थिति समझाया वैद्य ने और वहां से चले गए। आज युद्ध रौहिण्य के लिए बड़ा भारी रहा। उनके दो लोग घायल हुए कई सैनिक मारे गए, कई हताहत थे और उपचार करवा रहे थे। आज उस शिविर में मौन था अत्यधिक गंभीरता!

    "मित्र लीजिए मदिरा.. आज की रात्रि उत्सव की रात्रि है... यहां नर्तकी का भी प्रबंध है चलिए आनंद लेते हैं।"

    आक्रोश ने मदिरा का पात्र विभित्सा के ओर बढ़ाते हुए कहा। जिस पर विभित्सा ने उसे देखा और कहा,

    "आज उस सत्यकृत की मृत्यु हो ही जाती यदि वो दूसरा योद्धा मध्य में न आता... परन्तु इसके पश्चात भी आज युद्ध हमारे पक्ष में ही था, जब तक वो स्त्री योद्धा नहीं आई थी।"

    विभित्सा ने भीमा को स्मरण करते हुए कहा, मदिरा के पात्र पर उसकी पकड़ कस गई। सत्य यही था कि भले ही पक्ष में रहा हो युद्ध शुकधरा के परंतु वो विजय उनके हाथ नहीं आई जो तब आती जब भीमा नहीं आती।

    वहीं वो धरती रक्तरंजित हो गई थी, आकाश से ताकते चांद की दृष्टि जैसे ही उन रक्त की धाराओं पर पड़ी उसका श्वेत और निर्मल हृदय में ऐसा कष्ट उमड़ा कि वो मलिन सा दिखने लगा।

    आज वो भूमि चीत्कार रही थी, लेकिन सदियों के मौन को तोड़ना उसके सामर्थ्य से बाहर था, परन्तु ये क्षमता आकाश के भीतर थी, जिसने उस भूमि की पीड़ा को तुरंत ही अपने भीतर पाया और मेघ बन कर उसके आंसू धरा पर गिरने लगे।

    सरल नहीं थे भावनाओं से ओत प्रोत उन बूंदों का इतने ऊंचाई से गिर जाना, अत्यंत कठिन था उसके लिए आज इस भयंकर रक्तरंजित संघर्ष को देखना।

    मिलते हैं अगले भाग में आगे क्या होगा जानने के लिए पढ़ते रहिए प्रभाकल्प।

    ✍️ शालिनी चौधरी