Novel Cover Image

यत्र सत्यं तत्र प्रेम भवति

User Avatar

Aanchal Rathour

Comments

2

Views

2447

Ratings

2

Read Now

Description

"यत्र सत्यं तत्र प्रेम भवति" जहाँ सत्य की सांस हो, वहीं प्रेम की धड़कन जन्म लेती है। यह कथा है — दो आत्माओं की, जो जन्मों से बिछड़कर भी कभी अलग नहीं होतीं। वरदान — एक शांत अग्नि। अंशु — एक सौम्य प्रकाश। जब ये मिलते हैं, तो कोई प्रेम कहा...

Total Chapters (26)

Page 1 of 2

  • 1. यत्र सत्यं तत्र प्रेम भवति - Chapter 1

    Words: 1271

    Estimated Reading Time: 8 min

    ★★★

    "अंशु..... अंशु......तुम यह सही नहीं कर रही। एक बार अपने अंतर्मन की आवाज़ सुनो। क्या तुम वाकई में यह सब चाहती थी?"

    वह लगभग 25 वर्षीय महिला थी, जिसका मन भारी था, आँखें सूनी और चेहरा भावहीन। कई दिनों से यह आवाज़ उसके भीतर गूंज रही थी, जैसे कोई अदृश्य शक्ति उसे सच का आईना दिखा रही हो। वह इस आवाज़ को अनसुना करना चाहती थी, मगर चाहकर भी नहीं कर पा रही थी।

    उसके बिखरे बाल और थका हुआ शरीर उसकी मानसिक स्थिति का स्पष्ट संकेत थे। उसके अंदर निरंतर एक संघर्ष चल रहा था—अपने बीते कल से, अपनी भावनाओं से, अपने अस्तित्व से।

    "चुप..." वह अपने भीतर चीख पड़ी।

    परिवार वालों के सामने वह अपने दुख को उजागर नहीं करना चाहती थी। जैसे ही उसने अंदर ही अंदर इस आवाज़ को दबाने की कोशिश की, चारों ओर सन्नाटा छा गया। लेकिन यह खामोशी उसे बेचैन करने लगी। वह जानती थी कि यह आवाज़ उसकी अपनी ही अंतरात्मा की थी, जो वही कड़वी सच्चाई कह रही थी जिसे सुनने का साहस उसमें नहीं था।

    उसने पास रखी पानी की बोतल उठाई और कुछ घूंट पीकर गहरी सांस ली।

    "कहिए, आप क्या कहना चाहती हैं?" उसने धीमी मगर तीखी आवाज़ में पूछा।

    उसकी बात पर कोई उत्तर नहीं आया।

    "अब जब मुझे आपकी ज़रूरत है, तो आप मौन क्यों हैं? इतने दिनों तक मुझे परेशान किया, और अब चुप हैं?" वह झल्ला उठी।

    फिर, अचानक उसकी आँखें भर आईं।

    "हाँ, मेरी गलती थी! आप मदद करने आईं, और मैंने आपको अनसुना किया। लेकिन अब ऐसा मत कीजिए, कृपया मुझे अकेला मत छोड़िए!"

    वह लगभग रोने ही वाली थी, जब भीतर से वही जानी-पहचानी आवाज़ फिर गूंज उठी—

    "हे अंशु! मैं हमेशा तुम्हारे साथ रहूंगी। लेकिन यह युद्ध तुम्हारा है, तुम्हें ही अपनी ज़िंदगी के इस रण में स्वयं को एक मज़बूत योद्धा बनाना होगा। याद करो, मैंने तुम्हें क्या-क्या बताया था?"

    यह सुनते ही अंशु ने हाथ जोड़कर प्रणाम किया। अब वह पिछली बातों में खोने लगी।

    "अंशु, तुम यह सही नहीं कर रही। तुम अपने लालची चाचा-चाची की वजह से अपना ही परिवार बर्बाद करने जा रही हो। तुम तो हमेशा से यही चाहती थी ना, कि तुम्हारे भी माता-पिता हों? अगर जन्म देने वाले माता-पिता नहीं रहे, तो क्या हुआ? तुम्हें सास-ससुर के रूप में माता-पिता मिले हैं। तुम्हारा पति वरदान तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है। चाहे तुम कुछ भी कर लो, उससे अलग नहीं हो सकती। वह तुम्हारा जीवनसाथी है, तुम्हारी तक़दीर से जुड़ा हुआ है।" ये शब्द अंशु के दिमाग में गूंजने लगे।

    अगले ही पल उसका हाथ अपने गले की ओर बढ़ा और जब बाहर आया, तो उसकी मुट्ठी में एक मंगलसूत्र था। उसे देखते ही उसकी आँखें छलक उठीं।

    "हे परमेश्वर! यह सब क्या हो रहा है? क्यों हो रहा है?" उसकी आत्मा ने जैसे विलाप किया।

    अंशु के माता-पिता का निधन उसके बचपन में ही हो गया था। चाचा-चाची ने उसे पाला, लेकिन एक बेटी की तरह नहीं, बल्कि एक साधन की तरह। पहले उन्होंने उसे घर के कामों के लिए इस्तेमाल किया, फिर कमाने के लिए, और अब उन्होंने उसकी शादी को भी एक सौदे में बदल दिया था।

    वे वरदान के परिवार से दस लाख रुपए की मांग कर रहे थे और इसी के लिए अंशु के विवाह-विच्छेद की योजना बना रहे थे। पर अंशु को इन साजिशों की कोई भनक तक नहीं थी।

    अंशु के चाचा-चाची अपने कमरे में बैठे थे। दोनों की उम्र पचास पार कर चुकी थी, लेकिन उनके मन में लालच और छल की आग अब भी धधक रही थी।

    "लगा नहीं था कि ये मामला इतना लंबा खिंच जाएगा!" चाचा ने झुंझलाते हुए कहा। "सोचा था, तलाक़ करवाते ही इसके ससुराल से पैसे ऐंठ लेंगे। पर ये लोग मान ही नहीं रहे! कैसे अजीब लोग हैं?"

    चाची ने गहरी सांस ली। "हां, एक साल से ज़्यादा हो गया। पैसे भी देने को तैयार हैं, फिर भी तलाक़ नहीं दे रहे। पता नहीं कौन सा नशा कर रखा है उन लोगों ने! अगर तलाक़ हो जाता तो अब तक इसकी शादी कहीं और करवा चुके होते और नए सौदे से फायदा उठा लेते। लेकिन सबसे बड़ी टेंशन ये है कि कहीं अंशु को सच पता न चल जाए!"

    अंशु दरवाजे के पास खड़ी थी। उसके कानों में ये बातें गूंज रही थीं, जैसे किसी ने उसके पैरों तले ज़मीन खींच ली हो।

    "तो ये सब उनके पैसों की लालच का खेल था? मेरे दर्द, मेरी तकलीफों की कोई अहमियत ही नहीं?"

    तभी बाहर किसी के आने की आहट हुई। चाचा-चाची तुरंत सतर्क हो गए। उनकी चालाक निगाहों में एक-दूसरे के लिए इशारा था, अब उनका अगला नाटक शुरू होने वाला था।

    दरवाजा खुला, और अंशु अंदर आई। उसके चेहरे पर उदासी थी, आँखों में थकान, लेकिन मन में कुछ सवाल कुलबुला रहे थे।

    "चाचा जी, चाची जी…" उसकी आवाज़ धीमी थी, पर उनमें एक अनकही कठोरता थी।

    चाची ने तुरंत नकली ममता का लिबास ओढ़ लिया और दौड़कर उसके पास आई।

    "ओह, मेरी बच्ची! पता नहीं तेरी किस्मत को किसकी नज़र लग गई। तू कितनी खुश थी, लेकिन तेरे ससुराल वालों को ये रास नहीं आया। हमारी सोनी कुड़ी को उन्होंने बर्बाद कर दिया!" चाची ने पंजाबी लहजे में कराहते हुए कहा।

    चाचा भी आगे बढ़े। "बेटा, हम बस यही चाहते हैं कि तू खुश रहे।" अंशु के अंदर गुस्सा उबलने लगा।

    "मैं भी तैयार हो जाती हूं," उसने बुझे स्वर में कहा।

    चाची ने तुरंत उसका हाथ थाम लिया, जैसे कोई बहुत बड़ा एहसान कर रही हो।

    "तू क्या करेगी वहां जाकर? वो तुझे तेरे पुराने जख्मों की याद दिलाएंगे। रहने दे, मत जा। हम तेरे दुख नहीं देख सकते। ऊपर से तू और कमजोर हो जाएगी।" अंशु ने हल्की प्रतिरोध की कोशिश की। "पर..." लेकिन चाचा बीच में ही बोल पड़े।

    "पर क्या, बेटा? हम तेरा भला चाहते हैं! हमें समझ, हम ही तेरे अपने हैं!" उसने इतनी मीठी चालाकी से यह कहा कि अंशु के पास कोई जवाब नहीं था। उसने गहरी सांस ली और हार मान ली।

    "ठीक है, चले जाइए," उसने मन मसोसकर कहा और खुद को रोकने के लिए अपने ही हाथ भींच लिए।

    चाचा-चाची की आँखों में एक अजीब सी चमक आ गई। जैसे उन्होंने अपनी चाल में एक और जीत हासिल कर ली हो। वे मुस्कुराते हुए बाहर निकल गए, लेकिन अंशु की आँखों में अब संदेह था, एक ऐसा संदेह, जो बहुत जल्द सच्चाई को उजागर करने वाला था।

    इतना सब कुछ याद आते ही वह धड़ाम से बिस्तर पर गिर पड़ी। उसका सिर चकराने लगा, जैसे अचानक किसी ने उसकी पूरी दुनिया हिला दी हो। अब उसे समझ आ रहा था कि उस दिन उसे इतना गुस्सा क्यों आ रहा था। उस दिन वह अपने चाचा-चाची की बातचीत नहीं सुन पाई थी, लेकिन उनकी भावनाओं को महसूस कर पा रही थी।

    कोई था, जो उसे सच्चाई बता रहा था—सिर्फ बता ही नहीं रहा था, बल्कि उसे गहराई तक महसूस भी करवा रहा था।

    "क्यों...? क्यों किया आपने ये सब?" उसका अंतर्मन चीख उठा।

    उसकी आँखें दर्द और आक्रोश से भर उठीं। वह वर्षों से जिन रिश्तों को अपना समझती आई थी, वे सिर्फ छलावा थे। उसके दिल में एक तूफान उठ रहा था, धोखे, दर्द और टूटे विश्वास का तूफान। लेकिन इस बार वह उस तूफान में बहने वाली नहीं थी।

    "अब मैं ही अपने बिखरते हुए रिश्ते और परिवार को बचाऊंगी!" उसने दृढ़ निश्चय किया।

    उसकी मुट्ठियाँ भिंच गईं, चेहरे पर संकल्प की एक नई रोशनी चमकने लगी। वह नहीं जानती थी कि उसका परिवार, खासकर उसका पति, उसकी घर वापसी के लिए हर दिन प्रार्थना कर रहा था। पर क्या यह वापसी इतनी आसानी से हो पाएगी? नहीं......और वह भी यह बात जानती थी।

    ★★★

    जारी रहेगी। आप भी इन दोनों के लिए प्रार्थना कीजिए!

  • 2. यत्र सत्यं तत्र प्रेम भवति - Chapter 2

    Words: 1124

    Estimated Reading Time: 7 min

    ★★★

    मेला अपने चरम पर था। रंग-बिरंगी रोशनी, चहल-पहल, हँसी-मजाक, और तरह-तरह के खेल—सब कुछ मन को लुभाने वाला था। भीड़ से भरी गलियों में एक लड़की खड़ी थी। उसकी बड़ी, गहरी आँखें किसी अनजान साए को तलाश रही थीं, मानो कोई उसे पुकार रहा हो।

    "मुझे ऐसा क्यों लग रहा है कि कोई मेरा इंतजार कर रहा है?" उसने खुद से पूछा।

    वह लड़की बाईस साल की थी, मगर उसकी मासूमियत भरी सूरत उसे सोलह की लगने का भ्रम देती थी। उसका चेहरा कोमलता और रहस्य का अद्भुत मिश्रण था। उसकी आँखें इतनी गहरी थीं कि कोई भी उनमें झाँके, तो खो जाने का डर महसूस करे। हल्की घनी भौहें उसके व्यक्तित्व में नटखटपन का हल्का सा स्पर्श जोड़ती थीं। उसका रंग गोरा-गेहुँआ था, लेकिन उसमें एक अनूठी आभा थी, जैसे उसकी त्वचा के भीतर कोई उजाला साँस ले रहा हो।

    उसके गुलाबी होंठों पर हल्की सी मुस्कान थी—न तो पूरी तरह खिली हुई, न ही अधूरी—बस ऐसी, जो देखने वाले के मन में सवाल छोड़ जाए। उसकी लटें कभी-कभी चेहरे पर गिरतीं और फिर हल्की हवा के झोंके से पीछे हट जातीं, जैसे कोई अनदेखा हाथ उन्हें सहेज रहा हो। नाक की नजाकत और चेहरे के अनुपात में उसकी सटीक बनावट उसकी मासूमियत को और गहरा कर रही थी।

    उसका चेहरा सिर्फ एक चेहरा नहीं था; वह एक पूरी कहानी था—सादगी, आत्मीयता और अनकही भावनाओं से भरा हुआ। ऐसा लगता था जैसे उसकी आँखों में कोई अधूरा सपना पल रहा हो, जिसे पूरा करने की ललक उसके पूरे व्यक्तित्व से झलकती थी।

    "यह यहाँ पर...?" उसकी नजर अचानक एक स्त्री पर पड़ी।

    वह स्त्री दिखने में खुश थी, लेकिन लड़की उसकी आँखों में छिपे दर्द को पहचान चुकी थी।

    लड़की उसके करीब गई और सीधे सवाल किया, "क्या हुआ आपको? आप खुश नहीं हैं, न? किस बात का दुःख छुपा रही हैं आप?"

    स्त्री थोड़ी चौंक गई। उसने सवाल किया, "तुम मुझे जानती हो?"

    लड़की ने हल्की मुस्कान के साथ सिर हिलाया, फिर बड़े सम्मान से कहा,

    "आपका नाम अंशु है... अंशु वरदान सिंह।"

    जैसे ही उस स्त्री के कानों में ये नाम पड़ा, उसके चेहरे से सारी चमक उतर गई। उसकी आँखों में छिपी निराशा अब खुलकर बाहर आ रही थी। लड़की उसकी हर भावना को महसूस कर पा रही थी—इतनी गहराई से, जैसे वे दोनों एक ही कहानी के दो अधूरे पन्ने हों।

    "हाँ, सही पहचाना!" उसने हल्की मुस्कान के साथ जवाब दिया।

    "पर आप यहाँ कैसे?" उसने सीधे सवाल किया।

    "मैं तो पास में ही रहती हूँ।" अंशु ने जवाब दिया। वह अपने नाम के जैसी ही प्रतीत हो रही थी—कोमल, शांत, फिर भी गूढ़।

    उसका जवाब थोड़ा अजीब लगा। उसे अच्छी तरह से याद था कि अंशु उसके आस-पास के इलाके में तो दूर, उसके राज्य में भी नहीं थी। फिर यहाँ कैसे?

    "और वरदान भइया?" उसने तुरंत अगला सवाल किया।

    "वे भी पास के ही गाँव में रहते हैं। ये कैसा सवाल पूछ रही हैं आप?" अंशु ने भौंहें सिकोड़ीं। मानो पूछ रही हो—इतना सब जानती हैं और यह नहीं कि भइया कहाँ रहते हैं?

    वहीं, दूसरी ओर वह लड़की अब तक समझ चुकी थी कि माजरा क्या था।

    "क्या आप अपने अलग होने के फैसले से खुश हैं?" लड़की ने गहरी आवाज़ में पूछा। वह अब भी अंशु के नाम से अनजान थी, लेकिन उसके सवाल में अजीब सी शक्ति थी।

    "और सच बोलिएगा, क्योंकि झूठ तो आप मुझसे वैसे भी नहीं बोल सकतीं।"

    अंशु के चेहरे की रंगत फीकी पड़ गई। वह जानती थी कि यह सच है।

    थोड़ी देर की चुप्पी के बाद, उसने धीमे स्वर में कहा, "मुझे उनकी बहुत याद आती है। ऐसा लगता है जैसे वे मुझे हर दिन याद करते हैं। वे दुखी हैं… और उन्हें मेरी ज़रूरत है। मैं बहुत ज्यादा याद करती हूँ उन्हें। कभी-कभी दिल करता है कि दौड़कर उनके गले लग जाऊँ, उन्हें बता दूँ कि मैं भी उन्हें उतना ही प्रेम करती हूँ जितना वे मुझसे…"

    "फिर अलग क्यों हो रही हैं आप?" लड़की ने सीधा सवाल किया।

    अंशु ने कुछ कहने के लिए मुँह खोला, लेकिन शब्द नहीं निकले। सच तो यही था कि वह खुद भी नहीं जानती थी कि ऐसा क्यों कर रही है।

    "मैं नहीं जानती।" उसने अंततः कहा, और उसकी आँखों में उलझन तैरने लगी।

    लड़की ने गंभीर स्वर में कहा, "क्या आप जानती हैं कि आप दोनों का चेहरा भी एक जैसा है? यह तब होता है जब आप एक-दूसरे के अर्धांग होते हैं। आप चाहें जितना दूर चले जाएँ, लेकिन पूरी तरह अलग नहीं हो सकते।"

    अंशु कुछ जवाब देने ही वाली थी कि अचानक एक जानी-पहचानी आवाज़ उसके कानों में गूँजी

    "अंशु!"

    वह चौंककर पीछे मुड़ी। एक महिला, जो काफी देर से खड़ी थी, अब सीधे उनकी ओर देख रही थी।

    अंशु के चेहरे पर घबराहट दौड़ गई। "मैं अभी चलती हूँ।" उसने जल्दी से कहा और जाने के लिए मुड़ी।

    लड़की ने जाते-जाते एक अंतिम बात कही, "मेरी एक बात हमेशा याद रखना—हमेशा अपनी आत्मा की सुनना, वरना पछतावा भी कम पड़ जाएगा। तुम्हारे पास बस कुछ ही दिनों का समय है… पहले ही बता रही हूँ।" अंशु ठिठक गई, लेकिन अगले ही क्षण कदम बढ़ा दिए।

    उस लड़की की आँख खुली तो उसने पाया कि वह अपने बिस्तर पर थी। चेहरे पर एक अजीब-सी मुस्कान तैर गई। जो वह चाहती थी, उसका पहला पड़ाव पूरा हो चुका था।

    "अब मैं खुद इस कहानी को इसकी मंज़िल तक पहुँचाऊँगी। पहले सोचा था कि इसे बाद में लिखूँगी, लेकिन अब लगता है, इसे भी साथ-साथ पूरा करना चाहिए।" उसने दृढ़ आत्मविश्वास के साथ कहा। वह उसके जुड़ने का तरीका था। जब आप किसी मनुष्य से दूर हो तो सपनों के माध्यम से भी आप उसके साथ जुड़ सकते हो और उसने भी इसी विद्या का प्रयोग किया था। इसे स्वप्न संचार भी कहा जाता हैं और वह लड़की इस विद्या में माहिर थी पर वह भी इस बारे में नहीं जानती थी। जिसमें स्वप्न के माध्यम से एक दूसरे से मिला जाता हैं।

    वही दूसरी ओर, अंशु की भी आँख उसी समय खुली थी। उसने पाया कि वह अपने कमरे में थी। लेकिन मन अब भी बेचैन था।

    "कौन थी वह लड़की?" उसने खुद से सवाल किया। "मैंने तो आज तक उसे कभी नहीं देखा… लेकिन उसकी आवाज़... उसकी आवाज़ इतनी जानी-पहचानी क्यों लगी?" कुछ पल सोचने के बाद, उसकी साँसें तेज़ हो गईं।

    "यही तो वही आवाज़ है, जो हर रोज़ मेरी चेतना में गूँजती है। अब यह सपनों में भी आने लगी…"उसने खुद से वादा किया।

    "अब कुछ भी क्यों न हो जाए, मैं अपने रिश्ते और परिवार को बचाकर रहूँगी!" यह संकल्प करते ही, उसकी आँखें फिर से बंद हो गईं।

    दूसरी ओर, वह लड़की भी उन दोनों की कहानी लिखने के लिए पूरी तरह तैयार हो चुकी थी…....और वरदान वह तो हमेशा से ही अपने रिश्ते को बचाने के लिए तैयार था।

    ★★★

  • 3. यत्र सत्यं तत्र प्रेम भवति - Chapter 3

    Words: 1357

    Estimated Reading Time: 9 min

    ★★★

    वरदान अपने कमरे में बैठा हुआ था। उसकी आँखों में बेचैनी थी, दिल में हलचल थी। किसी भी काम में मन नहीं लग रहा था—लगता भी कैसे? उसका प्रेम जो उससे बिछड़ने वाला था।

    "हे शिव जी! आपने मेरे ही साथ ऐसा क्यों किया? मैंने तो कभी किसी का बुरा नहीं चाहा, फिर यह सब मेरे साथ क्यों हो रहा है?" उसकी आत्मा से कराह उठी।

    "अगर वह सीधा माँगती तो मैं दस लाख क्या, दस करोड़ भी खुशी-खुशी दे देता। पर इस तरह...? यह मुझे स्वीकार नहीं! आखिर ऐसा क्या हो गया जो वह इस हद तक चली गई? उसे घर में घुटन क्यों होती है? मेरे माता-पिता से क्या परेशानी है? अगर कह दे कि वह अलग रहना चाहती है, तो मैं उसे भी मान लेता।"

    वरदान के विचारों का बवंडर उसे घसीटकर अतीत में ले गया। वह यह भी भूल चुका था कि स्वयं शिव और शक्ति का मिलन भी इतनी सरलता से नहीं हुआ था। उन्हें संपूर्ण होने में एक सौ आठ जन्म लगे थे, जो यह दर्शाते हैं कि पति-पत्नी के रिश्ते में एक सौ आठ प्रकार की परीक्षाएँ आती हैं—जहाँ से उन्हें अपनी समझदारी और धैर्य से आगे बढ़ना होता है। पर वरदान और अंशु के रिश्ते में ऐसा कुछ भी नहीं था। उनके जीवन की सभी परीक्षाएँ एक ही समय पर आ खड़ी हुई थीं—शायद यही ज़रूरी भी था, ताकि वे खुद की सोच बना सकें, अपने रिश्ते को समझ सकें।

    आज वह दिन था, जब यह रिश्ता पूरी तरह समाप्त होने वाला था। वैसे तो वरदान को ऑफिस जाना था, लेकिन आज अंशु अपने चाचा-चाची के साथ घर आने वाली थी—अंतिम बार, इस रिश्ते को औपचारिक रूप से खत्म करने के लिए।

    उसके भीतर जो तूफान उमड़ रहा था, उसे वह किसी से साझा नहीं कर सकता था। लेकिन एक राहत थी—कम से कम वह उसे एक बार देख तो सकेगा।

    घर में माहौल बोझिल था। वरदान और उसके माता-पिता खाने-पीने की तैयारियों में लगे थे। उनका मन नहीं था, पर वे कर रहे थे—अपने संस्कारों से बंधे हुए। वे किसी को यूँ ही, बिना सत्कार किए विदा नहीं कर सकते थे, चाहे दिल कितना ही भारी क्यों न हो।

    "बेटा, एक बार बात कर ले ना… क्या पता, मान जाए?" उसकी माँ धीमे स्वर में बोलीं, आँखों में उम्मीद की एक अंतिम किरण लिए।

    "मुझे कुछ नहीं चाहिए, उनके चाचा-चाची चाहे तो पैसे रख लें… बस हमें हमारी बेटी लौटा दें।"

    उनकी आवाज़ काँप रही थी, शब्द भारी हो रहे थे। उनकी आँखों में वो अनकहा दर्द था जो एक माँ तब महसूस करती है जब उसका अपना ही आँगन सूना होने लगता है।

    "हमने तो कुछ लिया भी नहीं था... सोचा था कि एक बेटी मिलेगी, जिसे मैं अपनी बेटी की तरह रखूँगी। दहेज भी नहीं माँगा... फिर हमारे साथ ऐसा क्यों हो रहा है? वो हमारे साथ क्यों नहीं रहना चाहती?" उनकी आवाज़ टूट गई और वे वरदान के गले लगकर फूट-फूटकर रोने लगीं।

    वरदान की आँखें भीग गईं। उसका भी मन कर रहा था कि वह रो दे, चीख ले, अपने भीतर के सारे दुःख को बाहर निकाल दे। पर नहीं—उसे ही तो सब संभालना था, वही तो घर की सबसे बड़ी ताकत था।

    वह जानता था कि भावनाएँ उसे कमजोर बना सकती हैं, पर यह दर्द असहनीय था। दिल के अंदर कहीं एक उम्मीद भी थी—शायद कोई चमत्कार हो जाए, शायद अंशु आखिरी वक्त पर रुक जाए, शायद यह रिश्ता बच जाए... लेकिन क्या यह सिर्फ एक भ्रम था? या फिर सच में ऐसा कुछ होने वाला था।

    वरदान के पिता खुद को व्यस्त रखने की कोशिश कर रहे थे। उम्र अभी इतनी भी नहीं हुई थी, पर जब से यह सब शुरू हुआ था, एक अजीब-सी नकारात्मकता उनके मन पर हावी हो गई थी। वरदान की माँ ने अपने दर्द को आँसुओं में बहा दिया था, पर वे ऐसा नहीं कर पाए। पिता और बेटे के बीच बनी वह गहरी खाई—जो भारतीय परिवारों में आम बात थी—उन्हें रोक रही थी। जबकि इस खाई को भी पाटने की जरूरत थी।

    वे अपनी बेटी को भी इस मामले में परेशान नहीं करना चाहते थे, क्योंकि वह अब ससुराल में थी और वे यह समझ चुके थे कि अब वही उसका परिवार है। अपने एक रिश्ते को बचाने के लिए किसी और रिश्ते को दाँव पर लगाना ठीक नहीं था।

    "बेटा, पूछ लो कब आएंगे वे?" उनके पिता ने कहा, मानो यह पूछते हुए भी उनके भीतर कोई भारी बोझ लटक गया हो। पर सच यही था कि वे भी अंशु के जाने से बेहद आहत थे।

    वरदान की शादी को अभी दो साल ही हुए थे। वह और अंशु आपस में ज्यादा घुल-मिल नहीं पाए थे, फिर भी, उसका यूँ चले जाना सभी को भारी पड़ रहा था। इस रिश्ते से जो उम्मीदें जोड़ ली गई थीं, शायद वही इस दर्द की सबसे बड़ी वजह बन रही थीं।

    "पता नहीं।" वरदान ने बुझी हुई आवाज़ में जवाब दिया।

    घर में फिर वही सन्नाटा छा गया। सभी दोबारा अपने-अपने कामों में लग गए।

    दरवाजे की घंटी बजी। वरदान उठकर दरवाजा खोलने चला गया। जब उसने दरवाजा खोला, तो देखा कि सामने अंशु के चाचा-चाची खड़े थे।

    "अंशु नहीं आई?" उसके मुँह से अनायास ही निकल पड़ा।

    "उसकी क्या जरूरत?" चाचा ने कटु स्वर में कहा।

    वरदान का मन किया कि उनका मुँह तोड़ दे, पर वह ऐसा नहीं कर सकता था। वे मेहमान थे।

    "अंदर आइए!" उसने खुद को संयत रखते हुए कहा।

    दोनों भीतर आ गए। मेज़ पर उनके स्वागत के लिए रखा गया नाश्ता रखा हुआ था, जिसे देख चाचा ने व्यंग्य से कहा, "ये सब नहीं चाहिए हमें!"

    "मामला इतना लंबा क्यों खींच रहे हैं आप सभी? पैसे दीजिए और बात खत्म कीजिए।"

    उनके इस रवैये पर वरदान के पिता का धैर्य भी जवाब देने लगा था।

    "बताइए, कितनी एलिमनी चाहिए?" वरदान ने सीधे मुद्दे पर आते हुए कहा।

    "देखिए, शादी में जितना खर्च हुआ है, अंशु की पढ़ाई-लिखाई और बाकी जो खर्चे हुए हैं, उन सबके लिए एक लाख तो बहुत कम हैं।" चाचा ने कहा।

    "फिर कितने चाहिए?" वरदान के पिता ने पूछा।

    "दस लाख।" उसकी चाची ने साफ-साफ कह दिया।

    "इतने ज़्यादा?" वरदान की माँ की आँखें आश्चर्य से फैल गईं।

    "इतने नहीं मिलने वाले।" वरदान के पिता ने दो टूक जवाब दिया। वे इस मामले में ज्यादा बोलना नहीं चाहते थे, लेकिन बात अब हद से आगे बढ़ चुकी थी।

    "बहुत हो गई मर्यादा की बातें। एक लाख से एक पैसा ज़्यादा नहीं मिलेगा!" इस बार वरदान के पिता की आवाज़ सख्त हो गई थी। "रिश्ता मेरे बेटे और अंशु का है, तो आपको पैसे क्यों चाहिए? अगर एलिमनी चाहिए, तो अगली बार बेटी को साथ लाइएगा! यह क्या तरीका है कि आप अकेले मुँह उठाकर चले आते हैं?"

    उन्होंने साफ़ शब्दों में धमकी दी। "और हाँ, हमारे घर के मामलों से दूर रहिए! पता नहीं कौन सा टोना-टोटका कर दिया हमारी बेटी पर कि वह हमारी बात नहीं सुन रही। आप तो उसे बात भी नहीं करने देते। भगवान ही जाने कि वह सच में अलग होना चाहती है या यह सब आपका खेल है? ताकि तगड़ी रकम ऐंठ सकें!"

    "ये क्या कह रहे हैं तुम्हारे पिता जी?" अंशु के चाचा बिदकते हुए बोले।

    "जो आपको सुनाई दे रहा है, वही। या तो अंशु को अभी यहाँ लाइए, वरना यहाँ दोबारा तब तक मत आइएगा जब तक वह साथ न आए!" वरदान ने भी अपने पिता का पक्ष लिया।

    "याद रखिए, बिना बेटी के एक फूटी कौड़ी भी नहीं मिलेगी।" उसके पिता ने अंतिम निर्णय सुना दिया। "जो भी होगा, अंशु की मर्ज़ी से होगा। पर आपके कहने पर एक पैसा भी नहीं मिलेगा!"

    "हमने उसे पाला है!" चाची का स्वर ऊँचा हो गया।

    "पाला है तो अब हमसे पैसे क्यों मांग रहे हैं? अगर आप माता-पिता बनकर रहते, तो कितना अच्छा होता!" इस बार वरदान की माँ बोल पड़ीं। वे आमतौर पर कम बोलती थीं, लेकिन इस बार चुप नहीं रहीं। "आपने उसे वो सब देखने पर मजबूर किया, जिसकी वजह से वह हमारे साथ नहीं रह पा रही।"

    थोड़ी देर बहस और तकरार चली, फिर चाचा-चाची पैर पटकते हुए वहाँ से चले गए। आज फिर उनके मंसूबों पर पानी फिर चुका था।

    वरदान पुरानी यादों से बाहर आया और तैयार होकर बाहर निकल गया।

    ★★★

  • 4. यत्र सत्यं तत्र प्रेम भवति - Chapter 4

    Words: 1099

    Estimated Reading Time: 7 min

    ★★★

    वरदान तेज़ क़दमों से मंदिर की ओर बढ़ रहा था। आज वहाँ मां बालामुखी का अखंड यज्ञ आयोजित किया गया था, जो पूरे सात दिनों तक चलने वाला था। मंदिर के विशाल प्रांगण में भक्तों की भीड़ थी, हल्दी और चंदन की सुगंध हवा में घुली हुई थी, और चारों ओर वैदिक मंत्रों की गूंज थी।

    उसने पीले रंग के वस्त्र पहने हुए थे—वही रंग जो मां बालामुखी को अति प्रिय है। वरदान पूरी तरह से माता से जुड़ना चाहता था। जब आप किसी के बारे में जानना चाहते हैं या किसी से जुड़ना चाहते हैं तो उसका सीधा सा एक ही तरीका है कि आप उनके रंग में रंग जाएं। यही वजह थी कि वरदान में पीके वस्त्रों को धारण किया हुआ था ताकि वह पूरी तरह से माता से खुद सके।

    मगर उसके मन की दशा इन वस्त्रों से मेल नहीं खा रही थी। उसका चेहरा शांत था, मगर आंखों में अजीब सा खालीपन था। कुछ था जो उसे भीतर से तोड़ रहा था, मगर साथ ही किसी अनजानी शक्ति से जोड़ भी रहा था। जो उसे सकारात्मकता से भर रही थी। उसके भीतर दो विपरीत शक्तियों की जंग छिड़ी हुई थी। जो उसे भीतर से तोड़ रही थी। शारीरिक रूप से तो वह मजबूत नहर आ रहा था पर मानसिक रूप से वह बहुत बुरी तरह से थक चुका था। जिसका असर उसे महसूस हो रहा था। जिसके चलते उसे अपने कदमों में भारीपन महसूस हो रहा था।

    शुरुआत में जब माता-पिता ने उसे इस यज्ञ में जाने के लिए कहा था, तो उसने साफ़ मना कर दिया था। "इस सबसे कुछ नहीं बदलने वाला," उसने कहा था। मगर जैसे-जैसे दिन निकट आए, वह खुद को इस पूजा के लिए तैयार पाता गया। ऐसा लग रहा था कि कोई अदृश्य शक्ति उसे इस ओर खींच रही थी। या माता स्वयं उसे अपने पास बुला रही थी। पर वह यही भी नहीं जानता था कि माता तो लंबे समय से वास्तविक स्वरूप में उसके साथ जुड़ी हुई थी।

    "जब इंसान हर जगह से हार जाता है, तब वह माता के द्वार आता है," किसी ने एक बार कहा था। और आज वरदान को यह बात सच लग रही थी। उसने पहले ही यज्ञ के लिए आवश्यक सामग्री भिजवा दी थी—हल्दी, केसर, पीले फूल, काले तिल, शुद्ध घी, और नींबू। इसके अलावा, उसने मंदिर की सफ़ाई भी खुद से की थी, मानो यह सब करके वह अपने भीतर के अंधकार को मिटा देना चाहता हो। जब दिमाग में ढेर सारी उलझने हो तो साफ सफाई उसको बहार निकालने का जरिया होती हैं। माता की पूजा में उतना फल नहीं मिलता जितना उनके भवन की साफ सफाई में मिल जाता हैं। वरदान ने तो इस कार्य को ही वरदान समझ कर पूरा किया था। उसने ना सिर्फ मूर्तियों को साफ किया था बल्कि वहां के फर्श जोकि साक्षात् धरती माता हैं उन्हें भी किसी बच्चे की तरह स्नान किया था। पर वह नहीं जानता था कि उसकी इस निस्वार्थ भाव से की भी सेवा से ही माता प्रसन्न होने वाली थी।

    वह इस बात को भी गहराई से जानने वाला था। कि मां प्रसन्न करने के लिए केवल बाहरी आडंबर काफ़ी नहीं होते। वे उन पर कृपा बरसाती हैं जो अपने कर्मों को मन से करते हैं, जो उनके दिखाए हुए मार्ग पर चलते हैं, जो अपने रिश्तों को सच्चे दिल से निभाते हैं। और वरदान भी वैसा ही था—बस उसे अभी खुद को और अधिक मज़बूत बनाना था।

    मंदिर के गर्भगृह में प्रवेश करते ही मंत्रोच्चार और अधिक तीव्र हो गया। बड़े-बड़े वेदपाठी ऋषि हवनकुंड के चारों ओर बैठे थे। अग्नि में घी और हवन सामग्री की आहुति दी जा रही थी, जिससे एक दिव्य सुगंध फैल रही थी।

    एक वृद्ध आचार्य ने वरदान की ओर देखा। उनकी आँखों में गहरी अनुभूति थी, मानो वे उसके मन की हलचल को पढ़ पा रहे हों।

    "बेटा, तू जानता है कि मां बालामुखी कौन हैं?" उन्होंने सहज स्वर में पूछा।

    वरदान ने हल्की हिचक के साथ सिर हिलाया।

    आचार्य ने एक आहुति अर्पित की और बोले,

    "मां बालामुखी न केवल शक्ति की देवी हैं, बल्कि न्याय और स्थिरता की भी प्रतीक हैं। जब किसी के जीवन में अशांति आ जाती है, जब कोई अपने शत्रुओं से घिर जाता है, जब कोई निर्णयहीनता में पड़ जाता है—तब मां की उपासना उसे अडिग बना देती है।"

    वरदान मंत्रमुग्ध होकर उनकी बातें सुन रहा था। हवन की लपटें और ऊंची उठने लगीं, मानो इस पावन कथा को शक्ति दे रही हों।

    "बहुत समय पहले, जब संसार में असुरों का आतंक बढ़ गया था, तब एक महाशक्तिशाली दैत्य ने कठोर तपस्या कर अपार सिद्धियाँ प्राप्त कर लीं। उसे वरदान प्राप्त हुआ कि कोई भी अस्त्र-शस्त्र उसे नहीं मार सकेगा। उसने इस शक्ति का प्रयोग कर देवताओं और ऋषियों पर अत्याचार शुरू कर दिया।"

    "त्रिलोक में हाहाकार मच गया। सभी देवता भगवान विष्णु के पास पहुँचे, लेकिन उन्होंने कहा कि इस संकट का समाधान केवल आदिशक्ति के पास है। तब सभी देवताओं ने मां भगवती की आराधना की।"

    "मां ने ध्यान लगाया और एक दिव्य शक्ति उत्पन्न की—मां बालामुखी। जैसे ही यह शक्ति प्रकट हुई, सृष्टि में एक अद्भुत परिवर्तन आया। उनका तेज इतना प्रखर था कि सारा ब्रह्मांड उनकी शक्ति के प्रभाव से स्थिर हो गया।"

    "उन्होंने उस असुर को देखा और केवल एक शब्द कहा—'स्तंभ'। और उसी क्षण वह दैत्य जड़ हो गया। उसकी सारी शक्तियाँ नष्ट हो गईं। वह मां के चरणों में गिरकर कांपने लगा और बोला, ‘हे माता, मैं समझ गया कि आपके आगे कोई भी शक्ति टिक नहीं सकती।’"

    "मां मुस्कुराईं और कहा—'जो धर्म के मार्ग पर चलेगा, मैं उसकी रक्षा करूंगी। जो अधर्म की राह पकड़ेगा, उसका अंत निश्चित है।'"

    वरदान के मन में यह कथा गहराई तक उतर चुकी थी। वह सातों दिन वहां पर गया। उसने भंडारे में प्रसाद का वितरण किया और वहां पर बुजुर्गों की सेवा भी की। जल्द ही उसे उसकी सेवा का मेवा मिलने वाला था।

    यज्ञ अपनी पूर्णाहुति की ओर बढ़ रहा था। आचार्यों ने अंतिम आहुति डाली, और हवन कुंड से एक तीव्र ज्योति निकली। वरदान ने अपनी आँखें बंद कीं और महसूस किया कि उसके भीतर कुछ बदल रहा है। वह पहले जितना टूटा हुआ महसूस कर रहा था, अब वैसा नहीं था।

    उसका चेहरा हवन की अग्नि से पूरी तरह लाल पड़ चुका था, लेकिन यह कोई साधारण लाली नहीं थी। यह उसकी आत्मा में जग रही एक नई ऊर्जा थी।

    अब वह जानता था कि मां ने उसे बुलाया था, और अब उसे अपने जीवन की दिशा स्वयं तय करनी थी। उसने प्रसाद ग्रहण किया। ना जाने उसके दिमाग में क्या आया उसने अपना फोन निकाला और अपनी फोटो खींच कर स्टेटस पर लगा दी।

    ★★★

  • 5. यत्र सत्यं तत्र प्रेम भवति - Chapter 5

    Words: 1565

    Estimated Reading Time: 10 min

    ★★★

    कई दिनों से अंशु इसी कशमकश में उलझी हुई थी कि आगे क्या करे? हालात उसकी समझ से परे थे। हर दिशा में अंधेरा था, लेकिन कहीं न कहीं, भीतर से कोई ताकत उसे आगे बढ़ने की हिम्मत दे रही थी। वह भीतर से पूरी तरह टूट चुकी थी, फिर भी जब से उसे वह सपना आया था, तब से ही वह अपने रिश्ते को बचाने की कोशिश में जुटी हुई थी।

    उसके चाचा-चाची ने तलाक के कागजात कहीं छिपा रखे थे। वे किसी भी हाल में अंशु और वरदान को अलग कर देना चाहते थे। उनके मन में अपनी बेटी की शादी की योजना थी, जिसके लिए वे अंशु के रिश्ते को तोड़ना चाहते थे। एक-एक करके अंशु के जीवन के बीते हुए पल उसकी आँखों के सामने घूमने लगे। धीरे-धीरे उसे अहसास होने लगा कि उसके चाचा-चाची ने उसे कभी अपने परिवार का हिस्सा माना ही नहीं। वह हमेशा उनके लिए सिर्फ एक जरिया थी—कभी घर के कामों के लिए, कभी दूसरों पर एहसान जताने के लिए, और अब अपनी बेटी के भविष्य के लिए।

    "तुम बड़ी हो, इसलिए तुम्हें यह काम करना होगा।"

    "वो छोटी है, उसे छूट है।"

    "अगर तुम यह करोगी तो दूसरों पर गलत असर पड़ेगा!"

    ना जाने कितनी बार ऐसी बातें कह-कहकर उसे बेवकूफ बनाया गया था। उसे हमेशा यही सिखाया गया कि जो भी हो, सहती रहो, सवाल मत करो। शायद इसी वजह से वह कभी समझ ही नहीं पाई कि उसके लिए सही क्या है और गलत क्या। कौन उसका अपना है और कौन अपनों के भेष में पराया।

    उसका धैर्य जवाब दे गया। वह छत पर बैठी थी, जहां उसे थोड़ी बहुत खुली हवा मिल जाती थी। बाहर जाने की इजाजत तो उसे कभी मिली ही नहीं थी। बचपन से ही वह इस कैद में जी रही थी, जहां हर कदम पर उसे रोका जाता, टोका जाता। पर उसके भीतर कहीं न कहीं वह मासूम बच्चा अब भी जीवित था, जो जानता था कि उसे क्या चाहिए—प्यार, अपनापन, सम्मान। शायद यही वजह थी कि तमाम साजिशों के बावजूद उसका और वरदान का रिश्ता अभी तक बचा हुआ था।

    उसने गहरी सांस ली और आकाश की ओर देखते हुए चिल्लाई, "क्यों किया आपने ये सब?"

    उसकी आवाज़ में घुटन थी, दर्द था। आँसू उसकी आँखों से बहकर उसके गालों पर फैल चुके थे।

    "मुझे आपसे सिर्फ प्यार और सम्मान चाहिए था, लेकिन आपने मेरे ही सपनों की हत्या कर दी। मेरे वजूद को मार दिया!" उसकी आत्मा रो पड़ी।

    "आपका लालच! आप सिर्फ अपने मतलब के बारे में सोचते रहे। 'लोग क्या कहेंगे' कहकर आपने मुझे डराया, बेवकूफ बनाया। जबकि असलियत तो यह थी कि वही 'लोग' आपके बनाए हुए थे! मुझे दुनिया से बचकर रहने की सीख दी गई, लेकिन सच तो यह था कि मुझे आपसे बचकर रहना था।"

    अंशु लगातार रोती रही। उस रात उसकी सिसकियों की गूंज उसके अंदर तक समा गई थी। लेकिन वह अकेली नहीं थी। दूसरी ओर, वरदान भी उसका दर्द महसूस कर पा रहा था। दोनों एक-दूसरे के दर्द में पूरी तरह डूब चुके थे—जैसे उनके बीच की तकलीफें उन्हें और करीब ला रही हों, जैसे उनकी आत्माओं के घाव एक-दूसरे से जुड़ रहे हों।

    "अब बहुत हुआ! अब और नहीं सहूंगी।" अंशु ने खुद से कहा और ठंडी साँस छोड़ दी। वह कई दिनों से इस उलझन में थी कि आगे क्या करना चाहिए, पर अब उसे समझ आ गया था कि उसे खुद जाकर माफी माँगनी होगी। अगर सच में गलती उसी की थी, तो वह स्वीकार करेगी। पर अब और कैद में नहीं रह सकती थी।

    वह कई दिनों से यहाँ से निकलने की कोशिश कर रही थी, लेकिन हर बार कोई न कोई रुकावट आ जाती। उसे लगने लगा था कि उसके चाचा-चाची को उसके इरादों का अंदाज़ा हो गया है। शायद वे समझ चुके थे कि वह अपने फैसले से पीछे हटने वाली नहीं है।

    आज उसने हिम्मत जुटाई। धीरे-धीरे सीढ़ियाँ उतरी और ड्राइंग रूम में पहुँची। उसकी चाची और छोटी बहन वहीं बैठे थे।

    "चाची, जॉब का ऑफर आया है, और आज इंटरव्यू है। वहाँ जाना ज़रूरी है। तलाक के बाद जब पैसे मिलेंगे, तब देखा जाएगा, लेकिन फिलहाल मैं खुद कमाकर अपनी बहन के लिए कुछ करना चाहती हूँ," अंशु ने कहा, अपनी आवाज़ को संतुलित रखने की कोशिश करते हुए। "घर के भी सारे काम मैं करूँगी।"

    चाची ने बिना पलक झपकाए जवाब दिया, "कोई ज़रूरत नहीं है।"

    अभी अंशु कुछ और कहने ही वाली थी कि उसकी छोटी बहन बीच में बोल पड़ी।

    "मम्मी, जाने दो ना! दीदी वैसे ही बहुत दुखी हैं। उनके ससुराल वालों ने कितना परेशान किया है। अगर थोड़ा बाहर जाएँगी तो अच्छा रहेगा। उनका दिमाग भी ठीक से काम करेगा। वे सारे पैसे तो आपको ही देती हैं, फिर दिक्कत क्या है? अगर घर से बाहर नहीं निकलेंगी तो तबीयत भी खराब हो जाएगी। मैं साइकोलॉजी पढ़ रही हूँ, मम्मी, और मुझे पता है कि यह उनके लिए ज़रूरी है।"

    चाची की आँखों में हल्की झुंझलाहट थी, लेकिन बेटी के आगे ज्यादा बोलना मुश्किल था। आखिर वह अच्छे से जानती थी कि अपनी माँ का मुँह कैसे बंद कराना है।

    "ठीक है, चली जाना।" चाची ने ठंडी आवाज़ में कहा, फिर एक नकली चिंता दिखाते हुए बोली, "बस टाइम से घर आना।"

    अंशु ने कुछ नहीं कहा। उसने बस अपने साधारण से सूट को सँभाला, बैग उठाया, और दरवाज़े की ओर बढ़ गई।

    जैसे ही वह घर से बाहर निकली, उसे राहत की साँस महसूस हुई। उस घर की चारदीवारी में उसे हमेशा घुटन होती थी। अपनों के भेष में मिले दुश्मनों के बीच रहना आसान नहीं था। पर अब सब बदलने वाला था।

    उसने बस स्टॉप से एक बस पकड़ी और ऑफिस के लिए रवाना हो गई। लेकिन उसके दिमाग में हज़ारों सवाल घूम रहे थे।

    "वरदान मुझे देखकर कैसे रिएक्ट करेगा?"

    "क्या वह मुझे माफ़ करेगा?"

    "मैंने उसके माता-पिता को बुरा-भला कहा था... क्या वे मुझे स्वीकार करेंगे?"

    "क्या मेरी बहन मुझे माफ़ करेगी?"

    "या सब मुझे धक्के मारकर बाहर निकाल देंगे?"

    पर अंशु तैयार थी। अगर उसे ठुकराया भी गया, तो वह पैर पकड़कर माफी माँग लेगी।

    "बस स्टॉप आ गया!" कंडक्टर की तेज़ आवाज़ ने उसके विचारों की धारा तोड़ दी। वह धीरे-धीरे बस से नीचे उतरी। लेकिन जैसे ही उसने कुछ कदम आगे बढ़ाए, उसे अचानक महसूस हुआ कि सिर घूम रहा है। कमज़ोरी की वजह से आँखों के सामने अंधेरा सा छा गया।

    "हिम्मत रख, अंशु!" उसने खुद से कहा और आगे बढ़ने लगी। पर उसके कदम लड़खड़ा रहे थे। अचानक, एक ज़ोरदार हॉर्न बजा! उसकी चेतना हल्की सी लौटी, लेकिन तब तक देर हो चुकी थी। सामने से तेज़ गति से आ रही गाड़ी ने उसे टक्कर मार दी।

    धड़ाम!

    अंशु ज़मीन पर जा गिरी।

    चारों तरफ हड़कंप मच गया। लोग दौड़ पड़े। किसी ने गाड़ी रोकने की कोशिश की, कोई अंशु की हालत देखने लगा। पर अंशु को कुछ सुनाई नहीं दे रहा था। सब कुछ धुंधला हो गया था…और अगले ही पल वह बेहोश हो गई।

    वरदान अपनी फाइनेंस कंपनी के ऑफिस में बैठा, लैपटॉप स्क्रीन पर नजरें टिकाए, लेकिन उसका ध्यान कहीं और था। सामने खुले ग्राफ और रिपोर्ट्स धुंधले से लग रहे थे। वह समझ नहीं पा रहा था कि अचानक उसे इतना बेचैन क्यों महसूस हो रहा है।

    "आज अजीब सी घबराहट हो रही है... मन क्यों इतना अस्थिर है?" उसने मन ही मन सोचा।

    उसने पानी का गिलास उठाया, लेकिन हाथ में पकड़ते ही हल्का कंपन महसूस हुआ। वह चौकन्ना हो गया।

    "क्या हो रहा है मुझे? ये कैसा अजीब एहसास है?"

    हर चीज़ सही थी, फिर भी कुछ गलत लग रहा था। सांसें हल्की-हल्की तेज हो रही थीं, जैसे कोई बड़ा अनर्थ होने वाला हो।

    मीटिंग के दौरान भी उसका ध्यान बार-बार भटक रहा था। सामने बैठे लोग कुछ डिस्कस कर रहे थे, लेकिन उसकी निगाहें कॉन्फ्रेंस रूम के शीशे से बाहर झाँक रही थीं। उसे महसूस हो रहा था कि कहीं कुछ गलत घटने वाला है—कुछ ऐसा जो उसके नियंत्रण से बाहर होगा।

    अचानक, उसकी धड़कनें तेज हो गईं। एक हल्की सी सिरदर्द की लहर उसके मस्तिष्क में दौड़ गई। उसने माथे पर हाथ रखा और एक क्षण के लिए आँखें बंद कर लीं।

    और तभी…

    एक धुंधली परछाईं उसके ज़हन में उभरी—

    अंशु!

    वह खुद को सँभाल भी नहीं पाया था कि दृश्य और साफ़ होने लगे।

    अंशु लड़खड़ा रही थी... उसकी चाल डगमगा रही थी… फिर एक गाड़ी की तेज़ हेडलाइट्स… ज़ोरदार टक्कर... और अंशु दूर जा गिरी… चारों ओर शोर मच गया…

    "नहीं!!!"

    वरदान अचाक अपनी कुर्सी से उठ खड़ा हुआ। मीटिंग रूम में सब उसे अजीब नज़रों से देखने लगे।

    "सर, आप ठीक हैं?" किसी ने पूछा।

    उसका दम घुट रहा था। उसका दिमाग उस दृश्य को झटकने की कोशिश कर रहा था, लेकिन दिल चीख-चीख कर कह रहा था।

    "यह सिर्फ एक भ्रम नहीं है, कुछ हुआ है... अंशु के साथ कुछ बुरा हुआ है!"

    उसने फौरन फोन उठाया और अंशु को कॉल लगाने लगा… लेकिन उधर से कोई जवाब नहीं।

    अब वह पूरी तरह घबरा चुका था।

    "मुझे अभी वहाँ जाना होगा… अंशु को कुछ हुआ है!"

    वह मीटिंग छोड़कर दौड़ता हुआ बाहर निकला, लेकिन उसके भीतर एक ही सवाल गूंज रहा था, "क्या मैं समय पर पहुँच पाऊँगा?" किसी ने कोई सवाल नहीं किया। उसकी पूरी टीम उसे बहुत अच्छे से समझती थी और सभी जानते थे कि उसके साथ कुछ गलत हुआ था।

    ”तुम उसके पीछे जाओ।” मैनेजर ने वरदान के दोस्त को उसके पीछे भेज दिया। वह जिस हालत में गया था उसे उसकी परवाह हो रही थी।

    ★★★

  • 6. यत्र सत्यं तत्र प्रेम भवति - Chapter 6

    Words: 1399

    Estimated Reading Time: 9 min

    ★★★

    वरदान भागते हुए ऑफिस बिल्डिंग से बाहर निकला। उसकी साँसें तेज़ थीं, दिल की धड़कनें बढ़ी हुई थीं, लेकिन उसके कदम रुके नहीं। सड़क पर आते ही उसने अपनी गाड़ी की ओर दौड़ लगाई और जल्दी से दरवाजा खोलकर अंदर बैठा। इंजन चालू करते ही उसने घड़ी पर नजर डाली, समय तेजी से निकल रहा था।

    पीछे से उसका दोस्त, नील, भी भागता हुआ बाहर आया। उसने देखा कि वरदान गाड़ी स्टार्ट कर चुका था। बिना कोई और मौका गंवाए, वह भी दौड़कर सामने आया और कार के दरवाजे पर हाथ रखा।

    "वरदान, रुको! तुम इस हालत में गाड़ी कैसे चला सकते हो?" नील ने चिंतित स्वर में कहा।

    "मुझे जाना होगा, नील!" वरदान की आवाज़ में बेचैनी और घबराहट थी।

    "कम से कम बताओ तो सही, हुआ क्या है?" वरदान कुछ पलों तक चुप रहा, जैसे भीतर किसी उधेड़बुन में फंसा हो। उसकी आँखों में एक डर था—डर कुछ खो देने का। उसने नील की ओर देखा और धीमे स्वर में कहा, "अगर मैं समय पर नहीं पहुँचा, तो बहुत देर हो जाएगी।"

    नील को समझ नहीं आया कि वरदान किस बारे में बात कर रहा था, लेकिन उसके चेहरे की गंभीरता देखकर उसने और सवाल नहीं किए। उसने झट से गाड़ी का दूसरा दरवाजा खोला और साथ बैठ गया।

    "ठीक है, मैं भी चल रहा हूँ। लेकिन कम से कम मुझे बताओ कि हम जा कहाँ रहे हैं?" नील ने सीट बेल्ट लगाते हुए पूछा।

    "मालूम नहीं!" वरदान ने हल्का सिर हिलाया, लेकिन उसकी आँखें अब भी बेचैनी से रास्ते पर जमी थीं। नील को इस तरह के जवाब की उम्मीद नहीं थी।

    "फिर हम कहां जा रहे हैं?“” उसने सीधा सवाल किया।

    "पता नहीं भाई। पर ऐसा लग रहा हैं कि कुछ गलत हुआ हैं। बहुत ज्यादा गलत हुआ हैं।" उसने अपने दिल की बात कही।

    "ठीक हैं। चलते हैं। ऑफिस में रहकर भी तेरा किसी काम में मन नहीं लगेगा।" कहकर नील ने गाड़ी स्टार्ट कर दी। उनकी गाड़ी कुछ दूरी पर आगे बढ़ी ही थी कि उनका ध्यान सड़क पर इक्कठा भीड़ के ऊपर चला गया।

    "क्या हुआ होगा यहां पर?" नील ने सीधा सवाल किया।

    "पूछ ले।" वरदान ने अपनी घबराहट पर काबू किया और फिर आगे बोला, "पूछ ना भाई। मुझे कुछ सही नहीं लग रहा।"

    दोनों ने गाड़ी को सही जगह देखकर पार्क किया और फिर वहां चले गए जहां पर भीड़ इक्कठा थी।

    "क्या हुआ यहां पर?" नील ने वहां खड़े हुए एक शख्स से सवाल किया।

    "एक्सीडेंट हुआ है एक लड़की का और अभी उसे एम्बुलेंस में लेटा रहे हैं।" उसने बताया। "उसका सारा सामान भी बिखरा हुआ हैं किसी ने भी नहीं उठाया और ना ही अभी तक पुलिस आई की कोई उठा ले। वे फालतू में लोगों को फंसा देती हैं कि किसकी फिंगरप्रिंट हैं ये? किसने खून किया होगा? ना जाने क्या क्या?"

    वरदान का ध्यान सीधा सड़क पर पड़े हुआ पर्स पर गया जिसे देखकर उसका दिल थक से रह गया। उसकी घबराहट दोबारा फिर से उसके ऊपर हावी होने लगी।

    "नील! ये तो अंशु का पर्स है। मैंने ही तो खरीदा था।" वरदान ने रोते हुए कहा। एक वही तो था जो सब कुछ जानता था। यही वजह थी कि उसने अपने मैनेजर को भी समझाया था और मैनेजर भी समझ गया था। तभी से उसकी टीम और दोस्त यही कोशिश करते थे कि वो डिप्रेशन में ना चला जाएं। वरदान खुद भी ऐसा ही था दूसरों के दुखों को समझने वाला।

    "ऐसे तो बहुत पर्स होते है।" नील ने अपनी बात कही।

    "पर मुझे ये अंशु का ही लग रहा हैं।" वरदान ने कहा और आगे बढ़ गया। मुझे उसका एहसास हो रहा है इस जगह से।

    "ओए सामान को हाथ मत लगा।" कई आवाजें एक साथ आई।

    "इनकी पत्नी का पर्स भी ऐसा ही है और ये देखना चाहता हैं कि कही ये वही तो नहीं।" नील ने सभी को समझाया। "आप सोचिए अगर ऐसे में आप होते तो क्या करते?"

    "देख लो भाई।" एक समझदार शख्स ने कहा। "पुलिस को हम सभी संभाल लेंगे। ऐसा लगता हैं तुम्हें इसकी ज्यादा जरूरत हैं।"

    वरदान आगे बढ़ गया और उसने पर्स को उठा लिया। उसने पर्स को खोला और जैसे ही डॉक्यूमेंट्स को बाहर निकाला तो पाया कि उसमें ड्राइविंग लाइसेंस, आधार कार्ड, पैन कार्ड रखे हुए थे। जिन पर अंशु का नाम लिखा हुआ है। यह देख कर वह घुटनों के बल जमीन पर गिर पड़ा। उसकी हालत देखकर नील पूरा माजरा समझ चुका था।

    "वो एम्बुलेंस किधर गई?" नील ने भीड़ से सवाल किया। उसी शख्स ने हॉस्पिटल का नाम भी बता दिया।

    "वरदान खड़ा हो जा भाई। हम हॉस्पिटल जा रहे हैं। भाभी वही है। तुम दोनों को कोई अलग नहीं कर सकता।" नील की बात सुनकर मानो वरदान की चेतना वापिस आई थी।

    वह अपनी आंखों के आंसु साफ करके अपनी जगह पर खड़ा हो गया और फिर नील के साथ गाड़ी में चला गया।

    "नील उसे कुछ हुआ तो नहीं होगा ना। वो सही तो होगी ना। अगर उसे कुछ हो गया।“ कहकर वह फुट फूट कर रोने लगा।

    "भाई हिम्मत रख। अच्छा सोच।" उनसे उसे हिम्मत दी। "महाकाल और महाकाली जी को याद कर। तू तो उनका भक्त हैं ना। वही अंशु भाभी की जान बचाएंगे।"

    उसकी बात सुनकर उसके हाथ अपने आप ही उसके सामान पर कश गए।

    "अगर मैंने कुछ गलत किया हो तो मुझे माफ कर देना और अगर कोई गुनाह हो गया हो तो मुझे बता देना आप। मैं उसका पश्चाताप करूंगा। बस अंशु को सही सलामत रखियेगा। मैंने आप दोनों से कभी कुछ नहीं मांगा पर आज मैं अपने सारे अच्छे कर्मों और अपनी भक्ति के बदले उसका जीवन मांगता हूं। ये भगवान और भगवती मेरी पुकार सुन लीजिए। अगर जरूरत पड़ी तो मेरे जीवन में से मेरी आयु उसे दे दीजिए। मैं उससे अलग रह लूंगा पर आप उसे सही सलामत रखिए। उसने तो अपनी जिंदगी में कभी अपनों का प्रेम भी नहीं देखा। वो मासूम हैं, एक छोटी बच्ची की तरह, वो दुनियां की चालाकियां नहीं जानती। उस बच्ची के साथ ऐसा मत कीजिए।" एक एक शब्द हृदय से निकल कर आ रहा था।

    "वरदान!" नील की आवाज उसमें कानों में पड़ी। "हॉस्पिटल पहुंच गए।" नील ने गाड़ी को पार्क किया और दोनों नीचे उतर गए। वरदान ने अंशु का सामान भी अपने साथ उठा लिया।

    हॉस्पिटल के बोर्ड पर बड़े बड़े शब्दों में सिटी हॉस्पिटल लिखा हुआ था। दोनों एक ही शहर के अलग अलग हिस्सों में रहते थे। दोनों सीधा भीतर चले गए।

    जैसे ही दोनों हॉस्पिटल के गेट पर पहुँचे, वरदान के कदम अचानक ठिठक गए। उसका दिल तेजी से धड़क रहा था, साँसें भारी हो रही थीं। नील ने उसकी ओर देखा, फिर हल्के से उसके कंधे पर हाथ रखा।

    "वरदान, अभी रुकने का वक्त नहीं है। अंदर चलो।"

    वरदान ने गहरी सांस ली और खुद को संभालते हुए तेज़ी से आगे बढ़ा। हॉस्पिटल के रिसेप्शन पर जाकर उसने हड़बड़ाते हुए पूछा, "एक्सीडेंट केस... एक लड़की को लाया गया था... अंशु नाम है उसका... कहाँ है वो?"

    रिसेप्शनिस्ट ने उसकी घबराहट को समझते हुए कंप्यूटर स्क्रीन पर नजर डाली, फिर कहा, "थोड़ी देर पहले एक युवती को लाया गया था। वह आईसीयू में है। डॉक्टर उसका इलाज कर रहे हैं।"

    "आईसीयू...!" वरदान का सिर चकरा गया।

    "वरदान, हिम्मत रख। पहले डॉक्टर से बात कर लेते हैं।" नील ने उसे संभाला।

    दोनों तेज़ी से आईसीयू के बाहर पहुँचे। अंदर लाल रंग का ‘नो एंट्री’ बोर्ड टंगा हुआ था। एक नर्स बाहर निकल रही थी। वरदान ने उसे रोक लिया, "अंशु कैसी है?"

    नर्स ने एक नजर वरदान पर डाली। उसके चेहरे पर चिंता की लकीरें साफ दिख रही थीं।

    "डॉक्टर अभी अंदर हैं। उन्हें इलाज करने दीजिए।"

    "प्लीज... बस इतना बता दीजिए कि वो ठीक है ना?" वरदान की आवाज काँप रही थी।

    नर्स ने कुछ पलों की खामोशी के बाद कहा, "उनकी हालत गंभीर है। सिर पर चोट आई है और बहुत खून बह चुका है। लेकिन डॉक्टर अपनी पूरी कोशिश कर रहे हैं।"

    वरदान के पैरों तले जमीन खिसक गई। उसकी आँखों में अंधेरा छाने लगा। नील ने उसे सहारा दिया।

    "वरदान, हिम्मत रख भाई। अंशु को कुछ नहीं होगा। तू देखना, वो ठीक होकर खुद तुझे डाँटेगी कि तू इतना रो क्यों रहा है।"

    वरदान ने अपनी आँखों से गिरते आँसू पोंछे और दोनों हाथ जोड़कर बुदबुदाया, "हे महाकाल, मेरी प्रार्थना सुन लीजिए। मेरी पूरी ज़िंदगी का सुख भी ले लीजिए, लेकिन अंशु को बचा लीजिए।"

    अचानक आईसीयू का दरवाजा खुला। डॉक्टर बाहर आए। वरदान और नील एक साथ उनकी ओर लपके।

    ★★★

  • 7. यत्र सत्यं तत्र प्रेम भवति - Chapter 7

    Words: 1148

    Estimated Reading Time: 7 min

    ★★★

    "क्या हुआ, डॉक्टर? वो सही तो हैं ना?" वरदान की आवाज़ में घबराहट साफ झलक रही थी। उसकी आँखें बेचैनी से डॉक्टर के जवाब का इंतजार कर रही थीं।

    डॉक्टर ने गहरी सांस ली और नरम लहजे में कहा, "हाँ, फिलहाल वह खतरे से बाहर हैं। मगर स्थिति गंभीर थी।"

    वरदान की आँखों में सवाल उभर आए। उसने झिझकते हुए पूछा, "वैसे उसे हुआ क्या था?"

    डॉक्टर ने विस्तार से समझाना शुरू किया, "देखिए, उनकी सेहत पहले से ही बहुत कमजोर थी। हीमोग्लोबिन का स्तर काफी कम था, जिससे शरीर में ऑक्सीजन सप्लाई प्रभावित हो रही थी। एक्सीडेंट में सिर पर गहरी चोट लगने से इंट्राक्रैनियल ब्लीडिंग हो गई—खून जमा होने लगा, जिससे ब्रेन प्रेशर बढ़ गया। इसके कारण न्यूरोलॉजिकल रिस्पॉन्स भी धीमा हो गया था।"

    वरदान ने गहरी सांस ली, उसका दिल तेजी से धड़क रहा था। डॉक्टर ने आगे कहा, "खून की कमी पहले से थी, और दुर्घटना के कारण हेमोरेज बढ़ गया, जिससे शरीर को पर्याप्त मात्रा में ऑक्सीजन नहीं मिल पाई। हमने तुरंत ब्लड ट्रांसफ्यूजन किया और दवाइयों से ब्रेन स्वेलिंग को कंट्रोल किया है। अब वे स्थिर हैं, लेकिन अभी भी उन्हें पूरी तरह निगरानी में रखना होगा।"

    वरदान ने राहत की सांस ली, लेकिन उसकी आँखों में अब भी चिंता थी। वह दरवाजे के पार, अस्पताल के उस बिस्तर को देख रहा था जहाँ उसकी अपनी दुनिया बेसुध पड़ी थी।

    डॉक्टर की बात सुनकर वरदान ने राहत की सांस ली, लेकिन उसकी बेचैनी कम नहीं हुई। उसने बिना कुछ सोचे ICU की ओर कदम बढ़ाए।

    "रुकिए!" डॉक्टर ने हाथ आगे बढ़ाकर उसे रोक लिया।

    वरदान चौंक गया। उसकी भौहें सिकुड़ गईं, और उसने डॉक्टर की ओर देखा, "क्यों? मुझे अंदर जाने दीजिए!" उसकी आवाज़ में झुंझलाहट थी।

    डॉक्टर ने शांत लेकिन सख्त लहजे में कहा, "अभी नहीं।"

    "क्यों नहीं?" वरदान की आवाज़ तेज हो गई, "मैं उसे देखना चाहता हूँ, उसके पास रहना चाहता हूँ!"

    डॉक्टर ने गहरी सांस लेते हुए समझाया, "देखिए, वह अभी बेहोश हैं। ब्रेन इंजरी के कारण उनका शरीर बेहद कमजोर है। हम उन्हें लगातार निगरानी में रख रहे हैं, और किसी भी बाहरी हलचल से उनकी स्थिति बिगड़ सकती है।"

    वरदान के चेहरे पर घबराहट बढ़ गई। उसने ICU की काँच की दीवार के पार झाँका—वो वहाँ सफेद चादर से ढकी पड़ी थी, मशीनों से जुड़ी हुई। उसका चेहरा निस्तेज था, जैसे जीवन ने उससे कुछ पल के लिए दूरी बना ली हो।

    "कम से कम एक बार... बस एक बार देखने दीजिए..." उसकी आवाज़ धीमी पड़ गई, लेकिन उसमें मिन्नतें झलक रही थीं।

    डॉक्टर ने नरम होते हुए कहा, "मैं समझ सकता हूँ कि आप कितने परेशान हैं। लेकिन हमें धैर्य रखना होगा। जैसे ही उनकी हालत थोड़ी स्थिर होगी, मैं आपको सबसे पहले अंदर जाने की इजाजत दूँगा।"

    वरदान ने अपनी मुट्ठियाँ भींच लीं। उसकी आँखें ICU के दरवाज़े पर टिकी थीं, मानो अगर डॉक्टर हट जाएँ, तो वह दौड़कर अंदर चला जाए। लेकिन वह जानता था कि यह सही नहीं होगा। उसने लंबी सांस भरी, अपनी भावनाओं को जबरदस्ती काबू में किया और चुपचाप वहीं दीवार से टिककर खड़ा हो गया।

    समय बहुत धीमी गति से गुजर रहा था, लेकिन अब उसके पास इंतजार करने के अलावा कोई और रास्ता नहीं था।

    नील ने वरदान की झुंझलाहट और बेचैनी को महसूस किया। उसने धीरे से उसका कंधा पकड़कर कहा, "शांत हो जाओ, वरदान। अभी तुम्हें मजबूत रहना होगा। वो ठीक हो जाएगी, तुम बस धैर्य रखो।"

    वरदान की मुट्ठियाँ अब भी भींची हुई थीं। उसकी आँखें ICU की ओर टिकी थीं, लेकिन नील के शब्दों में अजीब सा भरोसा था। उसने धीरे से वरदान का हाथ पकड़कर उसे पीछे खींचा।

    "चलो, वहाँ बैठते हैं," नील ने धीरे से कहा।

    वरदान ने एक आखिरी नजर ICU के दरवाजे पर डाली और भारी कदमों से नील के साथ चल पड़ा। दोनों बाहर वेटिंग एरिया में आकर बैठ गए।

    वरदान चुप था, उसकी आँखों में बेचैनी थी। नील ने उसके कंधे पर हाथ रखा, "देखो, अभी तुम्हारा घबराना सही नहीं है। डॉक्टर ने कहा है कि वो खतरे से बाहर है, इसका मतलब वो जल्दी ठीक हो जाएगी।"

    वरदान ने गहरी सांस ली, लेकिन कुछ नहीं बोला। वो सिर्फ सिर झुकाकर हाथों की उंगलियाँ मसलता रहा।

    नील ने हल्की आवाज़ में कहा, "तुम्हें मजबूत रहना होगा, सिर्फ अपने लिए नहीं, उसके लिए भी। जब वो होश में आएगी, तो तुम्हें खुद को उसके लिए संभालना होगा, समझे?"

    वरदान ने धीरे से सिर हिलाया। उसकी बेचैनी थोड़ी कम हुई, लेकिन मन में अब भी हलचल थी।

    नील ने देखा कि वरदान अभी भी असमंजस में है। उसने फिर से कहा, "अगर तुम कमजोर पड़ गए, तो उसे कौन संभालेगा? जब वो होश में आएगी, उसे तुम्हारी सबसे ज्यादा जरूरत होगी। इसलिए खुद को संभालो, दोस्त।"

    वरदान ने अपनी मुट्ठियाँ ढीली कीं, लंबी सांस भरी और धीरे से नील की ओर देखा। "तू सही कह रहा है…" उसकी आवाज़ हल्की थी लेकिन उसमें एक दृढ़ता थी।

    नील ने मुस्कुरा कर उसके कंधे पर हल्की थपकी दी। "यही तो चाहिए था। अब बस थोड़ा सब्र रखो।" दोनों चुपचाप वहीं बैठे रहे, लेकिन अब वरदान की बेचैनी की जगह एक उम्मीद ने ले ली थी।

    एकदम से नील के दिमाग में कुछ आया। उसने फौरन वरदान की तरफ देखा और पूछा, "पर भाभी उस इलाके में क्या कर रही थी?"

    "मालूम नहीं!" वरदान ने जवाब दिया और फिर कुछ सोचते हुए अचानक उठा। "उसका सामान कहाँ रखा था मैंने?"

    वह जल्दी-जल्दी इधर-उधर देखने लगा। कुछ ही दूरी पर डेस्क के नीचे पड़ा बैग नजर आया। उसने कांपते हाथों से उसे उठाया, मानो किसी अनजाने डर ने उसे जकड़ लिया हो।

    बैग में एक थैला था, जिसमें कुछ फाइलें रखी थीं। उसने फाइल खोली तो उसमें उसके डॉक्यूमेंट्स थे… और एक रिज्यूमे।

    "उसने मेरी कंपनी में जॉब के लिए अप्लाई किया था?" उसने खुद से सवाल किया, दिमाग में और भी कई अजीब ख्याल उमड़ने लगे।

    ना जाने क्यों, वह अचानक भाभी का पर्स देखने लगा। उसने अंदर हाथ डाला तो उंगलियों में एक कागज़ महसूस हुआ—एक पत्र।

    वरदान ने कांपते हाथों से उसे बाहर निकाला। पत्र उसी के नाम लिखा गया था। हल्की झिझक और बेचैनी के साथ उसने उसे खोलना शुरू किया…...

    जैसे ही वरदान ने कांपते हाथों से अंशु द्वारा बनाए गए ड्राइंग पेपर के पत्र को खोला, उसके भीतर अजीब सी घबराहट दौड़ गई। कागज का मोटा, हल्का खुरदरा स्पर्श उसकी उंगलियों को महसूस हुआ, मानो वह कोई आम पत्र नहीं, बल्कि किसी गहरे राज़ का संदेश हो।

    रंगों की हल्की छायाएँ अब भी उस पर मौजूद थीं, जैसे अंशु ने इसे बड़े जतन से तैयार किया हो। किनारों पर हल्की तहें पड़ चुकी थीं, मगर अक्षर अब भी साफ और मजबूत थे। उसके दिल की धड़कन तेज हो गई, जैसे वह किसी अनजाने खतरे के करीब पहुँच रहा हो।

    उसकी आँखें धीरे-धीरे अक्षरों पर जमीं, लेकिन हर शब्द के साथ उसकी साँसें भारी होती गईं। उसने खुद को समेटते हुए लंबी गहरी सांस ली मानो खुद को पत्र पढ़ने के लिए तैयार कर रहा था।

    ★★★

  • 8. यत्र सत्यं तत्र प्रेम भवति - Chapter 8

    Words: 1402

    Estimated Reading Time: 9 min

    ★★★

    "समझ नहीं आ रहा कि कहाँ से शुरू करूँ?" वरदान ने काँपते हाथों से पत्र खोला। कागज़ के पन्नों पर स्याही के साथ आँसुओं के धब्बे भी जमे हुए थे, जैसे हर शब्द अंशु की पीड़ा को अपने भीतर समेटे हुए हो। उसने गहरी साँस ली और पढ़ना शुरू किया।

    "जानती हूँ, तुम्हें पत्र पढ़ना बहुत पसंद है, और खासकर पुराने ज़माने के ख़त तो तुम्हारे लिए किसी खजाने से कम नहीं। कितनी भाग्यशाली हूँ मैं, जो आज के समय में भी मुझे ऐसा पति मिला है, जो पत्रों के हर शब्द में प्रेम खोज लेता है। वैसे तो हमारी शादी अरेंज थी, लेकिन जब मैंने तुम्हें करीब से जाना, तब समझ आया कि तुम मुझसे कितना प्रेम करते हो। पर…"

    वरदान की आँखें पत्र पर जमी रहीं। वह महसूस कर सकता था कि अंशु के हर शब्द में कोई न कोई अनकही पीड़ा छिपी हुई थी। उसने खत को और मजबूती से पकड़ा और पढ़ने लगा।

    "समझ नहीं आ रहा, कैसे माफ़ी माँगूँ? 'माफ़ी' शब्द भी मेरे किए गए अपराध के आगे छोटा पड़ जाता है। मैंने जो किया, वह भूल नहीं, पाप था, अक्षम्य पाप। मैंने पूरी ज़िंदगी शिव जैसा पति माँगा था, माता-पिता जैसे सास-ससुर माँगे थे, लेकिन मैं ही उन्हें पहचान नहीं सकी। तुम तो वैसे भी शिव के अनन्य भक्त हो। बिल्कुल अपने नाम के जैसे वरदान! तुम मेरी जिंदगी के वरदान ही तो हो।"

    वरदान की आँखें भर आईं। उसके हाथों की पकड़ और मज़बूत हो गई, जैसे अगर उसने खत छोड़ दिया तो अंशु उससे और दूर हो जाएगी। उसने खत को सीने से लगाया और कुछ देर यूँ ही बैठा रहा। फिर काँपते होठों से आगे पढ़ा।

    "तुम्हारे प्रेम को मैंने हल्के में लिया, तुम्हारी निष्ठा को परीक्षा की आग में झोंक दिया, तुम्हारे अपनेपन को मैंने कभी समझा ही नहीं। तुम मेरे लिए वह वरदान थे, जिसे मैं पहचान ही नहीं पाई और जब पहचान पाई… तब तक बहुत देर हो चुकी थी।"

    "तुम्हारी आँखों में कभी भी कोई शिकायत नहीं थी, न गुस्सा, न दुख, बस एक अटूट विश्वास… और मैंने उसी विश्वास को तोड़ दिया।" वरदान की आँखों से आँसू गिरने लगे। उसे याद आया कि कितनी बार उसने अंशु के मन को समझने की कोशिश की थी, लेकिन अंशु हमेशा मुस्कान के पीछे अपनी पीड़ा छुपा लेती थी। आज यह खत उसकी हर अनकही बात को कह रहा था।

    "शायद यही मेरे पापों का फल है कि आज तुम्हारे सामने होते हुए भी मैं तुमसे बहुत दूर हूँ। हमारा रिश्ता उस दहलीज पर खड़ा हुआ है कि मुझे नहीं लगता कि दोबारा सही होगा।"

    ख़त पढ़ते-पढ़ते वरदान का दिल बैठा जा रहा था। कॉरिडॉर में गहरी ख़ामोशी थी, लेकिन उसके भीतर आँधियाँ चल रही थीं।

    "वरदान, अगर संभव हो तो मुझे एक बार, सिर्फ़ एक बार माफ़ कर देना। लेकिन अगर मैं इस जीवन में तुम्हारी क्षमा के योग्य नहीं हूँ, तो अगले जन्म में मैं तुम्हारी बाँहों में जन्म लेना चाहूँगी… एक ऐसी अंशु बनकर, जो अपने वरदान को पहचान सके।"

    वरदान की उँगलियाँ धीरे-धीरे कागज़ के किनारे सहलाने लगीं, जैसे उसके शब्दों में छिपे एहसासों को महसूस करने की कोशिश कर रही हों। ऑपरेशन थिएटर के बाहर का माहौल भारी था, दीवार घड़ी की सुइयाँ भी जैसे धीमी हो गई थीं। हल्की-हल्की दवाइयों की गंध हवा में घुली हुई थी, लेकिन वरदान को सिर्फ अपने दिल की धड़कनें सुनाई दे रही थीं—तेज़, अनियमित और असहनीय।

    नील कुछ देर पहले उसे यहीं बैठाकर गया था, यह कहकर कि वह डॉक्टर से बात करके आता हूं। मगर इस वक्त वरदान को यह भी याद नहीं था कि नील यहाँ था या नहीं। उसके लिए बस दो ही चीज़ें थीं—उसके हाथों में पकड़ा अंशु का खत और वह दरवाज़ा जिसके पीछे अंशु मौत से जूझ रही थी। उसने काँपते हुए हाथों से खत दोबारा खोला।

    "मैंने कभी अपनापन महसूस नहीं किया। शायद यही वजह थी कि जब मुझे अपनापन मिला, तो वह मेरे लिए एक श्राप बन गया।"

    वरदान की साँस गहरी हो गई। अंशु की यह बात उसके भीतर कहीं गहरे उतर गई थी। उसने हमेशा सोचा था कि अंशु उससे दूर क्यों भागती रही, हर बार जब वह उसे थामना चाहता, वह खुद को और भी पराया कर लेती थी।

    "मुझे कभी प्रेम हुआ ही नहीं, क्योंकि बचपन से मुझे यही सिखाया गया कि प्रेम सबसे बड़ा पाप है। अगर मैंने यह कर दिया, तो सृष्टि नष्ट हो जाएगी। कितनी अजीब बात है, है ना?"

    वरदान को पहली बार एहसास हुआ कि अंशु ने जो भी किया, उसके पीछे सिर्फ उसका गुस्सा या जिद नहीं थी, बल्कि बरसों की जकड़ी हुई मानसिक बेड़ियाँ थीं।

    "पर जब मैं तुमसे मिली, तो मेरे भीतर कुछ पिघलने लगा। मानो सदियों से जल रहे लावे को पहली बार ठंडक मिली हो। लेकिन जब किसी तपते हुए ज्वालामुखी पर बर्फ गिरती है, तो वह शांत नहीं होता, बल्कि एक विनाशकारी विस्फोट होता है। हमारे बीच भी यही हुआ।"

    वरदान की उँगलियाँ खत के कोनों को कसने लगीं। उसके हाथों में पसीना आ रहा था।

    "मैंने हमारे रिश्ते को भी उन्हीं नज़रों से देखा, जिनसे मैंने हमेशा दुनिया को देखा था, धोखे और छल से भरी हुई नज़रें।"

    उसकी नज़र खत पर पड़े हल्के खून के निशान पर गई। शायद लिखते हुए अंशु का हाथ कट गया था। मगर क्या सिर्फ हाथ कटा था? या उसके भीतर की कोई दीवार टूट गई थी? कही उसने सुसाइड तो नहीं की थी। ना जाने कैसे कैसे विचार उसके दिमाग में आने लगे।

    "क्योंकि मुझे हमेशा अपनापन के नाम पर ठगा गया, इसलिए मैं अपनेपन से ही नफरत करने लगी। मैंने हमेशा सोचा कि अगर मैं किसी को खुद से जोड़ लूँगी, तो वह भी मुझे छोड़ देगा... या मैं ही उसे खत्म कर दूँगी।"

    वरदान को अंशु के शब्दों में छिपा दर्द महसूस हो रहा था।

    "फिर मैंने वो सब किया जो इस रिश्ते को तोड़ सकता था। हंसी भी आ रही है खुद पर और गुस्सा भी। सच कहूँ तो जैसे तुम हो, हर लड़की को वैसा ही जीवनसाथी चाहिए होता है, पर एक मैं हूँ जिसे मिला वह उसे सँभाल भी न सकी।"

    उसके होंठ काँपे। वरदान ने कभी नहीं चाहा था कि अंशु खुद को दोषी माने। वह बस इतना चाहता था कि वह सही सलामत उसके पास आ जाएं।

    "बहुत दिनों से मैं खुद से ही एक युद्ध कर रही हूँ ताकि अपने भीतर की उन बुराइयों को खत्म कर सकूँ। मेरा बहुत मन करता है कि दौड़कर तुम्हारे पास आऊँ, तुम्हें कसकर गले लगाऊँ और अपने दिल का हाल कह सुनाऊँ। पर मैं ऐसा नहीं कर सकती। जानते हो क्यों? शायद यही मेरी सज़ा है कि मैं पहले तुम्हारी हर भावना को महसूस करूँ। जो तुमने मेरे लिए की, मैं उन भावनाओं को महसूस करना चाहती हूँ, जो मैं तुम्हारे साथ रहते हुए कभी महसूस नहीं कर पाई।"

    "मैं हर उस पल को महसूस करना चाहती हूँ, जो तुमने मेरे बिना गुज़ारे हैं। मैं अपने माता-पिता के साथ रहना चाहती हूँ, जिनके साथ मैंने बहुत गलत किया। उन्हीं की वजह से यह रिश्ता अभी तक बचा हुआ है। मैं दीदी के साथ रहना चाहती हूँ, जो मुझे बड़ी बहन की तरह मिली। मैं अपनी बेटी के साथ खेलना चाहती हूँ।"

    "वरदान, मैं हर जन्म तुम्हारे साथ रहना चाहती हूँ। मुझे माफ़ कर दो ना। मैं तुमसे बहुत प्रेम करती हूँ, बहुत ज़्यादा प्रेम। अगर तुम ना भी मिलो तो मैं हमेशा तुम्हारा इंतज़ार करूँगी और तुम्हारी लिखी हुई किताबों को पढ़ूँगी, जिन्हें तुमने लिखना बंद कर दिया। मैं उन सभी कामों को देखूँगी, जो तुम करोगे।"

    वरदान की आँखों से एक आँसू टपक कर खत पर गिरा। उसने अपनी उँगलियों से उसे पोंछने की कोशिश की, पर वह स्याही के साथ घुल गया था।

    "मुझे तुमसे और सबसे माफ़ी माँगनी है। जो कुछ भी करना पड़े, मैं वो सब करूँगी। मैं बस तुमसे माफ़ी माँगना चाहती हूँ, अपने बारे में सब कुछ बताना चाहती हूँ और तुम्हारे बारे में सब कुछ जानना चाहती हूँ। तुम्हारे साथ ज़िंदगी में आगे बढ़ना चाहती हूँ। अब सब कुछ तुम्हारे हाथों में है। तुम जो भी फैसला लोगे, मैं उसमें तुम्हारे साथ हूँ। तुम जो कहोगे, अब वही होगा।"

    "मैं भी कितनी नादान थी, जो खुद को होशियार समझती थी। पर देखो ना, मुझे तो अपने ने ही ठग लिया। तुम सही कहते थे, मैं बिल्कुल बच्ची हूँ।" वरदान ने खत को सीने से लगा लिया। उसकी आँखें भींग चुकी थीं, दिल तेज़ी से धड़क रहा था। अंशु उसके सामने लेटी हुई थी वो भी ऐसी हालत में जहां अभी ढेर सारे सवाल थे।

    ★★★

  • 9. यत्र सत्यं तत्र प्रेम भवति - Chapter 9

    Words: 1250

    Estimated Reading Time: 8 min

    ★★★

    वरदान अंशु की भावनाओं को तो पढ़ चुका था, लेकिन उसने कभी अपनी भावनाएँ जाहिर नहीं की थीं। जबकि किसी भी रिश्ते में दोनों पक्षों का अपनी भावनाएँ व्यक्त करना आवश्यक होता है, और अब बारी वरदान की थी। भावनाओं को व्यक्त करने के लिए हमेशा शब्दों की आवश्यकता नहीं होती—शब्द तो मात्र एक माध्यम होते हैं, जो उन भावनाओं को सामने वाले तक पहुँचाने में सहायक होते हैं। आखिर, भावनाएँ भी तो ऊर्जा का ही एक रूप होती हैं।

    "तुमने तो अपनी भावनाएँ व्यक्त कर दीं, पर इस बार मैं अपनी भावनाओं को प्रकट करूंगा।" वरदान ने अपने भीतर एक दृढ़ निश्चय किया। उसने स्वयं को आंतरिक रूप से सशक्त बनाया और आगे बढ़ा।

    "गलती मेरी थी। मुझे पहले ही अपनी भावनाएँ तुम्हारे सामने रख देनी चाहिए थीं, पर तब मैं खुद अपनी भावनाओं को नहीं समझता था। तुम्हारे जाने के बाद ही मुझे अपने एहसासों की गहराई का पता चला। मुझे लगा कि तुम मेरी भावनाओं को बिना कहे ही समझ जाओगी, लेकिन मैं यह भूल गया कि भावनाएँ और सोच अलग-अलग होती हैं। भावनाएँ महसूस की जाती हैं, पर उलझी हुई सोच को समझ पाना मुश्किल होता है। जब तक भावनाएँ उलझी रहती हैं, वे स्पष्ट नहीं हो पातीं, और शायद इसी उलझन को सुलझाने के लिए हमें एक-दूसरे से दूर किया गया था।"

    वरदान ने अपनी भावनाएँ व्यक्त करना शुरू किया। उसने गहरी सांस ली, आँखें बंद कीं और ध्यान की अवस्था में बैठ गया। अब उसका पूरा ध्यान अंशु पर केंद्रित था। वह जानता था कि ध्यान में आँखें इसलिए बंद की जाती हैं ताकि व्यक्ति अपने आस-पास की चीज़ों से विचलित न हो और अपनी आंतरिक ऊर्जा को महसूस कर सके।

    "आज तो ध्यान अपने आप ही लग गया।" वरदान ने अपने भीतर एक बदलाव महसूस किया। इससे पहले न जाने कितनी बार उसने ध्यान करने की कोशिश की थी, पर सफल नहीं हो पाया था। लेकिन आज, वह सहजता से ध्यान कर पा रहा था। यह अवस्था उसे समाधि की ओर ले जा रही थी, क्योंकि उसने अपनी सारी बाधाएँ छोड़कर, बस प्रवाह में बह जाना चुना था।

    "अब मैं अपनी भावनाएँ व्यक्त कर रहा हूँ।" उसने अपने भीतर के समस्त भावों को शब्दों में ढालना शुरू किया। उसे ऐसा महसूस हो रहा था जैसे अंशु उसकी बातों को सुन रही हो। उनके अवचेतन मन अब एक-दूसरे से पूरी तरह जुड़े हुए थे।

    "मैं बचपन से ही महाकाल का उपासक रहा हूँ और मुझे अपनी प्रेम कहानी भी शिव और शक्ति जैसी चाहिए थी।" वह अपनी भावनाओं को शब्दों में ढालने का प्रयास कर रहा था, पर यह इतना आसान नहीं था। फिर भी, उसने हिम्मत जुटाई।

    "मुझे कभी किसी के लिए कोई विशेष भावना नहीं हुई। और होती भी कैसे? मेरी जीवनसंगिनी तो तुम ही थीं, और वे भावनाएँ भी तुम्हारे लिए ही जन्म लेनी थीं। मुझे तब तक प्रेम का एहसास नहीं हुआ, जब तक मेरे माता-पिता ने हमारे रिश्ते की बात नहीं चलाई। पहली बार, जब उन्होंने तुम्हारा नाम लिया, तब मेरे भीतर कुछ बदला। एक अनजानी अनुभूति, जो मुझे सुंदर भी लगी और डरावनी भी। शायद इसी डर की वजह से मैंने शादी से मना कर दिया था। पर मेरे माता-पिता को पूरा विश्वास था कि तुम ही मेरी अर्धांगिनी हो।"

    कुछ देर के लिए वह शांत हो गया। उसने आँखें खोलीं और गहरी सांस ली।

    "उस समय मैं सोशल मीडिया पर ज्यादा सक्रिय था। वहाँ पर मुझे हर तरफ बस रिश्तों में धोखा, विश्वासघात और दर्द से भरी कहानियाँ ही दिखती थीं। अनजाने में, मैं भी उन्हीं नकारात्मक विचारों में बह गया। मैं सोचने लगा कि अगर मेरे साथ भी ऐसा हुआ तो क्या होगा? इन आशंकाओं ने मेरे मन में डर बैठा दिया। और शायद इसी डर ने हमारे रिश्ते को इस मोड़ तक पहुँचा दिया। इसके लिए मुझे क्षमा करना।"

    "हम अपने रिश्तों के बारे में जैसी सोच रखते हैं, वे वैसे ही बन जाते हैं। अगर हम दोनों एक-दूसरे को बेहतर समझते, तो बाहरी दुनिया की बातें हमारे रिश्ते पर असर नहीं डाल पातीं। लेकिन अब मैं यह कह सकता हूँ कि यह सब कुछ यूँ ही नहीं हुआ। यह सब इसलिए हुआ ताकि मुझे एहसास हो सके कि तुम ही मेरी अर्धांगिनी हो और मैं तुम्हारा अर्धांग हूँ।"

    वरदान के अवचेतन मन में एक गूंज उठी—"सब कुछ जरूरी होता है जीवन में।"

    वह इस आवाज़ को पहचान गया। यह वही आवाज़ थी जिसने कई बार उसे संकटों से बाहर निकाला था। पर आज, उसने पहली बार इस आवाज़ को पूरी तरह महसूस किया।

    "अंशु का शरीर इस समय इतनी कमजोर अवस्था में है कि वह तुम्हारे सवालों का उत्तर नहीं दे सकती, लेकिन वह तुम्हारी हर बात को सुन रही है। उसका शरीर और आत्मा अभी एक-दूसरे के खिलाफ काम कर रहे हैं। उसके भीतर अब भी कुछ ऐसा शेष है जो उसे मुक्त नहीं होने दे रहा। उसकी आत्मा किसी बोझ के तले दबी हुई है। जब तक वह इस बोझ से मुक्त नहीं होगी, तब तक वह अपने शरीर में पूर्ण रूप से नहीं लौट पाएगी। उसे एहसास कराओ कि उसकी आत्मा क्या चाहती है। उसे उसके अपने होने का अनुभव कराओ। उसकी आत्मा, शरीर और मन का एक होना आवश्यक है।"

    यह संदेश सुनकर वरदान का संकल्प और दृढ़ हो गया। उसने अपने दोनों हाथ जोड़ लिए और मन ही मन कहा—"जय महाकाल! जय महाकाली!"

    "मैं अपनी भावना, अपने विचार, अपने कार्य—जिस भी माध्यम से तुम्हें अपने होने का एहसास करवा सकता हूँ, मैं करवाऊँगा।"

    वरदान ने दृढ़ निश्चय कर लिया था। "मैं किसी भी हालत में अपनी अर्धांगिनी को वापस लेकर आऊँगा!"

    वह आगे कुछ सोच पाता, उससे पहले उसके कानों में किसी के कदमों की आहट पड़ी। उसने पलटकर देखा—नील आ चुका था। उसके हाथों में दवाइयाँ और कुछ फल थे।

    "इतनी देर कहाँ लगा दी भाई?" वरदान ने सवाल किया, पर अगले ही पल उसके मन में दूसरा सवाल उठ खड़ा हुआ—"आप दोनों यहाँ?"

    "मैंने ही इन्हें बुलवाया है।" नील ने शांत स्वर में कहा।

    "पर कब? और तू तो यही था ना?"

    "हाँ भाई! पर तेरे दोस्तों की इतनी जान-पहचान तो है ही कि मैं अपने चाचा-चाची को बुलवा सकूँ।" नील मुस्कुराया। "इनका यहाँ आना ज़रूरी था, वरदान। अंशु भाभी सिर्फ़ तुम्हारी ही नहीं हैं, वे इन दोनों की बेटी है। उनके ऊपर पहला अधिकार इन्हीं का ही हैं। इन्हीं की वजह से वे घर आई हैं और शायद अपनी जिंदगी में भी इन्हीं की वजह से वापिस आएगी। मुझे बस अपने भाई और भाभी को साथ में देखना हैं।" वह भावुक हो चुका था पर वह अपनी भावनाओं को व्यक्त करना जानता था।

    वरदान थोड़ी देर के लिए चुप रहा। फिर बोला, "पर डॉक्टर ने मिलने से मना किया है।"

    "भाई, तुम्हें नहीं मिलने दिया जाएगा। मैंने पहले ही डॉक्टर से बात कर ली थी कि सिर्फ़ चाचा-चाची ही मिलेंगे। माता-पिता को उनकी संतान से अलग करना सही नहीं होता, और डॉक्टर मान भी गए। माफ़ करना भाई, लेकिन अभी तुम दोनों का मिलन संभव नहीं है।"

    वरदान ने गहरी साँस ली। "कोई बात नहीं।" उसने दृढ़ता से कहा, "अभी सबसे ज़रूरी बात यह है कि वह जीवित रहे। अगर उसके बचने की संभावना माता-पिता से मिलने से बढ़ती है, तो मुझे कोई आपत्ति नहीं। अगर उसकी जान बचाने के लिए मुझे उससे दूर भी रहना पड़े, तो मैं यह भी सह लूँगा... बस वह ठीक हो जाए।"

    इस क्षण, वरदान ने प्रेम की पराकाष्ठा के पहले चरण में कदम रखा था—जहाँ प्रेम में अधिकार नहीं, बल्कि समर्पण होता है। वह समझ गया था कि प्रेम बंधन नहीं, बल्कि मुक्ति है। अंशु को उसके वास्तविक स्वरूप में लौटने के लिए यह मुक्ति आवश्यक थी।

    ★★★

  • 10. यत्र सत्यं तत्र प्रेम भवति - Chapter 10

    Words: 1632

    Estimated Reading Time: 10 min

    ★★★

    वरदान के माता-पिता धीरे-धीरे से भीतर चले गए। उनके कदम भारी थे, मानो हर एक कदम उनके दिल पर बोझ डाल रहा हो। वे अंदर तो चले गए, लेकिन उनकी आँखें बार-बार पीछे मुड़कर देख रही थी जो इस समय वरदान को, जो अब अपनी पीड़ा में डूबी हुई थी।

    वरदान की हालत देखकर उनका दिल अंदर तक कांप उठा। उसकी सूनी, निर्विकार आँखें किसी अज्ञात शून्य को ताक रही थीं। चेहरे पर एक गहरी उदासी थी, मानो उसकी आत्मा का कोई हिस्सा टूटकर बिखर गया हो। उसकी साँसें तेज़ थीं, लेकिन उसमें जीवन का कोई उत्साह नहीं था। एक ऐसी चुप्पी, जो हृदय को चीर देने वाली थी।

    वरदान की माँ का गला रुंध गया। उसने अपने पति की ओर देखा, लेकिन वहाँ भी वही पीड़ा थी। वे दोनों समझ सकते थे कि वरदान किस पीड़ा से गुजर रहा था। वह वही पर ज़मीन पर बैठ गया, उसने अपने माता पिता को वहां से जाने का इशारा किया। उसके माता पिता भीतर चले गए। उनके जाते ही वह अपने हाथों को घूरने लगा—मानो कुछ ढूँढ रहा हो या फिर वह अपने किस्मत की लकीरों में अंशु का नाम ढूंढ रहा हैं। जिसे वह हमेशा के लिए खो चुका था। ऐसा उसे लगता था क्योंकि वह नहीं जानता था कि उसकी प्रार्थना में कितनी शक्ति थी। उसका ध्यान भीतर चला गया। उसका दोस्त नील उसके पास आया उसने उसे वहां से उठाया और फिर बैंच के ऊपर बैठा दिया।

    दोनों ने देखा तो पाया कि अंशु बुरी तरह से घायल थी। उसके शरीर पर गहरे घाव थे, खून सूखकर जम चुका था, और कपड़े जगह-जगह से फटे हुए थे। लेकिन हैरानी की बात यह थी कि उसके चेहरे पर दर्द की कोई लकीर नहीं थी। उसके चेहरे पर असीम शांति और आत्मसमर्पण का भाव था, मानो वह इस पीड़ा से परे किसी और ही सत्य को जी रही हो।

    उन दोनों की आँखें भर आईं। उन्होंने एक-दूसरे को देखा और फिर अंशु की ओर झुकते हुए बोले, "तुम सिर्फ हमारी बेटी जैसी नहीं हो, तुम हमारी बेटी हो।" उनकी आवाज़ भावनाओं से भीग चुकी थी। "बेटी तो तब तक बेटी होती है जब तक वह अपने माता-पिता के घर होती है। लेकिन जब वह किसी ओर के घर की बन जाती है, तो रिश्ते बदल जाते हैं। वो अब उनकी बेटी हैं। कितने सौभाग्य शाली हैं हम जो हमें एक बेटी के बदले भगवान ने दो दो बेटियां दी हैं।" उनकी आँखों में दर्द और अपनापन एक साथ झलक रहा था।

    उन्होंने धीरे से बेहोश पड़ी हुई अंशु के हाथों को थामा, जैसे उस टूटे हुए शरीर में एक नई ऊर्जा भरने की कोशिश कर रहे हों। "हमारे लिए अब तुम बेटी से भी बढ़कर हो।" उनकी आवाज़ में एक दृढ़ता थी, जो यह जताने के लिए काफी थी कि वे अब अंशु को कभी अकेला नहीं छोड़ेंगे। उसने भाव भौतिक रूप से ना सही पर आध्यात्मिक रूप में अंशु के साथ थी।

    आध्यात्मिक एकीकरण

    अंशु की चेतना धीरे-धीरे किसी और ही आयाम में प्रवेश कर रही थी। उसकी आत्मा हल्की होती जा रही थी, जैसे किसी महान शक्ति में विलीन हो रही हो। शरीर की पीड़ा अब पीछे छूट चुकी थी, और मन एक अनजान पर शुद्ध अनुभव से गुजर रहा था।

    अचानक उसकी आँखें खुलीं। उसने खुद को एक अद्भुत, स्वप्निल बगीचे में पाया। वहाँ की हवा हल्की थी, उसमें सुगंध घुली हुई थी, जो किसी भी सांसारिक फूलों से कहीं अधिक मधुर थी। हर ओर रंग-बिरंगे फूल खिले हुए थे, लेकिन वे सिर्फ फूल नहीं थे—ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे वे स्वयं जीवित हों, श्वास ले रहे हों, हल्की-हल्की गति में झूम रहे हों। फूलों से निकलती मंद ज्योति पूरे वातावरण को किसी दिव्य आभा से भर रही थी। पेड़ों की शाखाएँ आकाश की ओर उठी थीं, मानो ब्रह्मांड से संवाद कर रही हों।

    अंशु ने स्वयं को देखा। "मेरा तो एक्सीडेंट हो गया था, तो मैं यहाँ कैसे आई?" उसने खुद से कई सवाल किए। लेकिन किसी भी सवाल का उत्तर नहीं मिला, बस एक गहरी शांति महसूस हुई, जो किसी भी उत्तर से अधिक संतोषजनक थी।

    उसके वस्त्र भी बदले हुए थे। अब उसने एक गहरे महरून रंग की साड़ी पहनी हुई थी, जो रेशम की तरह चमक रही थी। उसकी देह पर यह साड़ी किसी साधारण वस्त्र की तरह नहीं, बल्कि एक ऊर्जा की परत की तरह प्रतीत हो रही थी, जो उसे किसी दिव्य सत्ता का रूप दे रही थी। वह सचमुच अपने नाम अंशु के समान दिख रही थी—एक दिव्य प्रकाश की किरण।

    "यह सब क्या हो रहा है?" उसने चारों ओर देखा, पर बगीचे का कोई अंत नहीं था।

    तभी, अचानक उसे पास के पौधों के बीच सरसराहट की आवाज़ सुनाई दी। यह कोई साधारण आवाज़ नहीं थी; उसमें एक लय थी, एक स्पंदन, जो हवा में गूँज रहा था। अंशु का हृदय एक क्षण के लिए तेज़ी से धड़क उठा।

    "कौन है? कौन है वहाँ?" उसने थोड़ा घबराते हुए आवाज़ लगाई। वह सोच रही थी कि यह किसी कथा की तरह होगा—वह आवाज़ लगाएगी, लेकिन कोई उत्तर नहीं देगा।

    पर ऐसा नहीं हुआ।

    अगले ही पल, फूलों के बीच से एक सफेद खरगोश हल्की-हल्की छलांग लगाते हुए बाहर आया। उसकी गति किसी सामान्य प्राणी जैसी नहीं थी, उसमें एक दिव्यता थी। वह साधारण खरगोश नहीं था, बल्कि किसी प्राचीन, शुद्ध चेतना का प्रतीक लगता था। उसकी आँखें गहरी और शांत थीं, जैसे उसमें पूरे ब्रह्मांड के रहस्य समाए हों।

    खरगोश धीरे-धीरे अंशु के पास आया और बिना किसी भय के उसके चरणों में बैठ गया। उसकी कोमलता और ऊर्जा से अंशु का हृदय अनजाने में ही पिघलने लगा। उसने उसे अपनी गोद में उठा लिया। वह रुई के फाहे की तरह हल्का था, जैसे हवा में ही घुल सकता हो। अंशु ने कभी किसी प्राणी को इतनी शुद्धता से भरा नहीं पाया था।

    और तभी, पूरे बगीचे में एक दिव्य, गूंजती हुई आवाज़ उभरी। यह कोई सामान्य आवाज़ नहीं थी; यह सृष्टि की मूल ध्वनि थी, जो सृजन के क्षण से अब तक प्रवाहित हो रही थी। इस ध्वनि में कोई शब्द नहीं थे, फिर भी उसमें अनंत रहस्य छुपे थे।

    "हमारे इस बच्चे को तुम बहुत प्रिय हो।"

    अंशु इस स्वर को सुनकर पूरी तरह से शांत हो गई। वह जानती थी कि यह कोई साधारण स्थान नहीं था। यह चेतना के किसी गूढ़ स्तर पर था, जहाँ केवल वे ही पहुँच सकते थे, जो अपनी आत्मा की गहराइयों तक यात्रा कर चुके थे।

    "यह सब क्या है?" अंशु के होंठ काँपे, पर उसका अंतर्मन जानता था कि यह वही सत्य है, जिसे वह जीवनभर खोज रही थी।

    इस बार भी वैसा नहीं हुआ जैसा अंशु ने सोचा था। वह बेचैन थी, उसके भीतर जिज्ञासा और अधीरता एक साथ उमड़ रही थी। उसे लगा था कि जैसे खरगोश प्रकट हुआ था, वैसे ही कोई देवी या दिव्य प्राणी उसके सामने आएगा। परंतु इस बार कोई नहीं आया।

    "कौन हैं आप? हे दिव्य देवी, कौन हैं आप?" अंशु ने अधीरता से पुकारा। पर इस बार भी कोई उत्तर नहीं मिला।

    उसकी बेचैनी बढ़ने लगी। उसे यह बिल्कुल भी उम्मीद नहीं थी कि उसे मौन का ही उत्तर मिलेगा। "कौन है आप? मेरे सामने आइए!" उसने फिर से आवाज़ लगाई, पर हवा में केवल सन्नाटा तैरता रहा।

    तभी, उसने अपनी गोद में पड़े खरगोश में हल्की-सी हलचल महसूस की। अंशु एक झटके से चौंकी और उसने उसे तुरंत ज़मीन पर छोड़ दिया। खरगोश ने एक पल के लिए उसकी ओर देखा, फिर तेजी से भागता हुआ वहीं लौट गया, जहाँ से वह आया था।

    और तभी, पूरा बगीचा अचानक जीवंत हो उठा। चारों ओर पशु-पक्षियों की आवाज़ें गूँजने लगीं। लेकिन ये सिर्फ साधारण ध्वनियाँ नहीं थीं—ये एक दिव्य संगीत था, एक अनसुनी, अलौकिक तान, जो पूरे वातावरण में प्रवाहित हो रहा था। ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो यह संगीतमय स्वर किसी के आगमन की घोषणा कर रहा हो।

    अंशु ने अपने जीवन में ऐसा दिव्य संगीत पहले कभी नहीं सुना था। यह संगीत उसकी आत्मा की गहराइयों तक पहुँच गया। उसकी मलिन हो चुकी आत्मा, इस पवित्र ध्वनि के स्पर्श से शुद्ध हो उठी।

    फिर, जैसे ही संगीत अपनी चरम सीमा पर पहुँचा, अचानक से पूरे बगीचे में विचित्र और अद्भुत जीव प्रकट होने लगे—ऐसे जीव, जिन्हें अंशु ने पहले कभी नहीं देखा था। वे किसी पुरानी स्मृतियों से निकले हुए लग रहे थे। कुछ ऐसे थे जो मनुष्यों के अस्तित्व में आने से पहले ही विलुप्त हो चुके थे, और कुछ वे थे जिन्हें मनुष्य ने अपने स्वार्थ में खो दिया था।

    इसी बीच, एक शक्तिशाली गर्जना ने पूरे वातावरण को हिला दिया।

    "गर्ज्ज्ज्ज!"

    यह दहाड़ इतनी गूंजती हुई थी कि हर जीव जैसे एक पल के लिए स्थिर हो गया और उस आवाज़ के शांत होते ही, एक शेर अपनी राजसी गरिमा के साथ प्रकट हुआ।

    वह कोई साधारण शेर नहीं था। यह आम शेरों से अलग था, न सिर्फ आकार में, बल्कि अपनी ऊर्जा में भी। उसका रंग सफेद था, परंतु उसमें एक दिव्य पीली आभा झलक रही थी। उसके शरीर के बाल नारंगी रंग के थे, मानो सूर्य की किरणें उसकी देह पर नृत्य कर रही थी।

    उसकी उपस्थिति इतनी प्रभावशाली थी कि सभी जीव-जंतु एक लय में खड़े हो गए। ऐसा लग रहा था मानो वे पहले से ही प्रशिक्षित थे, और यह शेर किसी सेनापति की तरह उन्हें संकेत दे रहा था।

    फिर, अगले ही पल, सभी जीव धीरे-धीरे घुटनों के बल बैठ गए। यह किसी उच्च सत्ता के स्वागत का संकेत था।

    अंशु के भीतर कुछ हलचल हुई। यह दृश्य उसे परिचित लग रहा था। जैसे वह पहले भी इस ऊर्जा को महसूस कर चुकी हो। पर कहाँ? यह उसे याद नहीं आ रहा था।

    जैसे ही उसने अपने दिमाग पर जोर डाला, एक स्मृति कौंधी।

    और तभी, पूरे वातावरण में एक दिव्य प्रकाश पुंज प्रकट हुआ। वह प्रकाश इतना तेज था कि अंशु की आँखें चौंधिया गईं और अपने-आप बंद हो गईं। वह उस दिव्य आत्मा के आगमन का संकेत था।

    ★★★

  • 11. यत्र सत्यं तत्र प्रेम भवति - Chapter 11

    Words: 1461

    Estimated Reading Time: 9 min

    जब अंशु की आँखें उस दिव्य प्रकाश को देखने के योग्य हुईं, तो वे धीरे-धीरे स्वयं ही खुलने लगीं। उसकी दृष्टि अभी धुंधली थी, पर जैसे-जैसे उसकी चेतना स्पष्ट होती गई, सामने खड़ी आकृति धीरे-धीरे प्रकट होने लगी।

    उसके सामने एक तेजोमय देवी खड़ी थीं। उनका स्वरूप इतना दिव्य था कि अंशु एक क्षण के लिए स्तब्ध रह गई। उनका कद लगभग पाँच फुट आठ इंच था, किंतु उनकी आभा इतनी व्यापक थी कि वे अन्नत अंतरिक्ष के समान विस्तृत प्रतीत हो रही थीं।

    उन्होंने एक अनुपम साड़ी धारण की हुई थी, जिसमें प्रकृति के समस्त रंग बड़ी ही सुसज्जित रूप से समाहित थे। ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो सम्पूर्ण सृष्टि ने अपने सबसे सुंदर रंगों को समर्पित कर दिया हो और स्वयं प्रकृति ने प्रेमपूर्वक उनका श्रृंगार किया हो। उनकी साड़ी के किनारों पर हल्की स्वर्णिम आभा थी, जो क्षितिज पर उगते हुए सूर्य की किरणों जैसी झिलमिला रही थी।

    उनकी केशराशि गहरी, काली और असंख्य तारों से सजी रात्रि के समान लहराती हुई थी। उनके केशों से मंद-मंद पुष्पों की सुगंध प्रवाहित हो रही थी, मानो समस्त वनस्पतियाँ उनके चरणों में लिपटकर स्वयं को धन्य कर रही हों। उनके ललाट पर एक दिव्य आभायुक्त चंद्र बिंदु था, जो उनके शीतल और सौम्य स्वरूप को दर्शा रहा था।

    उनके नेत्र गहन और विशाल थे—ऐसे जैसे सागर की अथाह गहराइयों में समाया कोई अनंत रहस्य। वे एक साथ ममतामयी भी थीं और तेजस्विनी भी। जब अंशु ने उनके नेत्रों में देखा, तो उसे लगा जैसे वह स्वयं अपने भीतर झाँक रही हो।

    उनके गले में एक अद्भुत मणियों से जड़ित हार था, जो ब्रह्मांड की विभिन्न ऊर्जाओं से बना प्रतीत हो रहा था। उनकी कलाईयों में सुनहरी चूड़ियाँ थीं, जिनसे हल्की-हल्की झंकार उत्पन्न हो रही थी—यह झंकार किसी साधारण ध्वनि की तरह नहीं थी, बल्कि उसमें सृष्टि की अनगिनत ध्वनियाँ गूँज रही थीं।

    उन्होंने अपने हाथों में एक कमल धारण किया हुआ था, जो दिव्य प्रकाश से देदीप्यमान था। उनके चरणों के स्पर्श मात्र से भूमि पर पुष्प उगने लगे थे, मानो स्वयं धरती माँ भी उनके आगमन पर आनंदित होकर उनका स्वागत कर रही हो।

    उनका सम्पूर्ण स्वरूप वात्सल्य और शक्ति का अद्भुत संगम था। एक ओर वे कोमलता की प्रतिमूर्ति थीं, तो दूसरी ओर उनकी उपस्थिति में ऐसी शक्ति थी, जैसे समस्त सृष्टि उनके एक संकेत मात्र से संचालित होती हो।

    अंशु विस्मित थी। उसने आज तक देवी के इतने दिव्य और सजीव स्वरूप की कल्पना भी नहीं की थी। उसके मन में अनगिनत प्रश्न थे, परंतु उस तेजस्वी उपस्थिति के सामने वह निस्तब्ध खड़ी रह गई, जैसे स्वयं को पूर्ण रूप से समर्पित कर देना चाहती हो।

    जैसे ही उन्होंने एक कदम आगे बढ़ाया, वैसे ही समस्त जीव-जंतु एक साथ उनकी ओर खिंचते चले आए। हर पशु, हर पक्षी उनके दिव्य आभामंडल में मानो विलीन होने को आतुर था। उनके चरण कमलों के स्पर्श मात्र से वहाँ उपस्थित प्रत्येक प्राणी अभिभूत हो गया। हवा में एक दिव्य सुवास घुल गई, और वातावरण में मधुर संगीत गूंजने लगा।

    माता का स्नेह पाकर वे सभी भावविभोर हो उठे। कुछ पक्षी आकाश में उड़ते हुए मंगलगान करने लगे, तो कुछ उनके समीप बैठकर नतमस्तक हो गए। वृक्षों की पत्तियाँ झूमने लगीं, जैसे स्वयं प्रकृति भी उनके आगमन पर वंदन कर रही हो।

    माता ने स्नेहभरी दृष्टि से अंशु की ओर देखा, उनकी आँखों में अनंत प्रेम की लहरें हिलोरें मार रही थीं।

    "क्या सोच रही हो, अंशु?" माता ने अपनी मृदुल वाणी में पूछा।

    "यही कि… मैंने आपको पहले कहाँ देखा था?" अंशु के मन में चल रहे विचारों को माता ने पढ़ लिया। या शायद, वे पहले से ही जानती थीं कि अंशु यह प्रश्न पूछने वाली है।

    "याद करो, अंशु… कहां पर देखा था तुमने मुझे?" माता ने सहजता से कहा।

    अंशु ने आँखें मूँद लीं, गहरी साँस ली और अपने स्मृतियों के गहन सागर में डुबकी लगाई। परंतु स्मृति के किनारों पर बस धुंध ही थी। वह जितना अपने मन पर जोर डालती, उतना ही स्मृतियाँ और धुंधली होती गईं।

    "नहीं… मुझे याद नहीं आ रहा, माता!" उसने हताश होकर कहा।

    माता मुस्कुराईं। उनकी मुस्कान में अनंत धैर्य और वात्सल्य भरा था।

    "माते! मेरे साथ खेल मत खेलिए," अंशु भावुक हो उठी। उसकी आँखों में व्याकुलता छलक आई। "मैं जानती हूँ कि जब तक आप नहीं चाहेंगी, तब तक मैं आपको पहचान नहीं सकती। कृपया, मुझ पर कृपा करें… मुझे बताइए कि आप मुझे किस स्वरूप में मिली थीं!"

    अंशु की यह पुकार उसकी आत्मा के गहरे कोनों से निकली थी। उसकी हर धड़कन अब केवल सत्य जानने के लिए स्पंदित हो रही थी।

    अगले ही क्षण, संपूर्ण वातावरण एक दैवीय प्रकाश से जगमगा उठा। एक दिव्य ऊर्जा चारों ओर प्रवाहित होने लगी, और क्षण भर के लिए अंशु के सामने वह स्वरूप प्रकट हुआ जिसमें उसने माता को पहले देखा था।

    वह कोई और नहीं, बल्कि वही बालिका थी, जो एक बार अंशु को अपने स्वप्न में, एक मेले में मिली थी। एक कोमल, सरल, और स्नेहिल कन्या, जिसकी आँखों में संपूर्ण ब्रह्मांड का ज्ञान समाया हुआ था।

    अंशु का रोम-रोम पुलकित हो उठा। हृदय में श्रद्धा का ज्वार उमड़ पड़ा। उसकी आँखें आश्चर्य, प्रेम और भक्ति से भर गईं।

    "आप… आप ही वो कन्या थीं?" उसकी आवाज काँप उठी।

    क्षणभर में उसकी आँखों से आँसू बहने लगे। उसके भीतर भावनाओं का ज्वार उमड़ आया। वह घुटनों के बल बैठ गई और फिर पूर्ण समर्पण की मुद्रा में दंडवत प्रणाम करने लगी।

    "अंशु!" माता ने स्नेहपूर्वक पुकारा। उनकी वाणी में वात्सल्य और करूणा का महासागर उमड़ रहा था।

    "मैं स्वयं को आपके चरणों में समर्पित करती हूँ, माते!" अंशु ने दृढ़ स्वर में कहा। उसकी आत्मा पूर्णतः शुद्ध हो चुकी थी, उसकी चेतना अब केवल माता की दिव्यता में विलीन होने के लिए उत्सुक थी।

    माता के अधरों पर पुनः एक मधुर मुस्कान खिल उठी। उन्होंने अंशु के सिर पर हाथ रखा, और उसी क्षण, अंशु के हृदय में दिव्य ऊर्जा का संचार होने लगा। वह ऊर्जा मात्र शक्ति नहीं थी, वह प्रेम, करुणा और सत्य का प्रकाश थी—वह स्वयं माता का आशीर्वाद था।

    अंशु माता के चरणों में नतमस्तक थी, उसकी आँखों से अविरल अश्रु बह रहे थे। उसके हृदय में असीम श्रद्धा, भक्ति और प्रेम का ज्वार उमड़ रहा था। तभी माता की मधुर वाणी गूंजी।

    "उठ जाओ, पुत्री। तुमने अपना प्रायश्चित पूरा किया।"

    माता की वाणी में वात्सल्य की गहरी गूंज थी। उनके शब्दों में प्रेम की अनंत धारा प्रवाहित हो रही थी। अंशु ने अपनी पलकों को धीरे-धीरे उठाया और माता की ओर देखा।

    "पहले तुम बैठ जाओ।" माता ने उसे स्नेहपूर्वक आदेश दिया।

    अंशु ने उनकी बात मान ली और शांत भाव से अपनी जगह पर बैठ गई। उसका हृदय अब भी माता के दिव्य स्वरूप से पुलकित था।

    "कहिए, माते!" उसने अपनी दोनों हथेलियाँ प्रणाम मुद्रा में जोड़ लीं, उसकी आँखों में माता के प्रति पूर्ण समर्पण झलक रहा था।

    माता के मुखमंडल पर एक रहस्यमयी मुस्कान खेल उठी। उनके नेत्रों में संपूर्ण ब्रह्मांड का ज्ञान समाया हुआ था।

    "लौट जाओ अपनी पुरानी जिंदगी में, पुत्री।" माता ने कोमल स्वर में कहा।

    अंशु स्तब्ध रह गई। वह कुछ कह न सकी। उसके मन में एक अजीब-सी उदासी ने जन्म ले लिया। माता ने उसकी भावनाओं को पढ़ लिया और स्नेह से आगे कहा।

    "जानती हूँ कि तुम यहाँ से जाना नहीं चाहती। परन्तु, वही तुम्हारी सच्ची यात्रा है। वहाँ तुम्हारी बहुत सारी ज़िम्मेदारियाँ अधूरी हैं। तुम्हारे अनेक कार्य शेष हैं, जो केवल तुम ही पूर्ण कर सकती हो। जाओ, अपने पति और परिवार से मिलो। उनका स्नेह और समर्थन तुम्हारे लिए आवश्यक है। तुम्हारे इस संसार में रहने का अभी उद्देश्य समाप्त नहीं हुआ है। अभी तुम्हारे मेरे पास आने का समय नहीं आया।"

    माता के वचन अंशु के हृदय में गूँज उठे। वह जानती थी कि माता का हर शब्द सत्य है। फिर भी, उनका साथ छोड़कर वापस लौटने की कल्पना भी उसके लिए कठिन थी।

    परंतु, उसने कोई प्रतिकार नहीं किया। करती भी कैसे? सामने खड़ी देवी कोई साधारण देवी कन्या नहीं थीं। वे स्वयं साक्षात् जगतजननी, आदिशक्ति, जगदम्बा थीं।

    अंशु ने अपने भीतर उमड़ती भावनाओं को शांत किया और अपनी आँखें बंद कर गहरी श्वास ली।

    "जो आज्ञा, माता।" उसने पूरी श्रद्धा से कहा।

    माता के मुख पर संतोष की छाया उभरी। वे एक निर्मल मुस्कान के साथ उसे निहार रही थीं।

    कुछ क्षणों तक निस्तब्धता छाई रही। अंशु ने संकोच से माँ के चरणों में सिर झुका दिया और धीमे स्वर में विनती की।

    "माते, बस एक बात बता दीजिए… आप कौन सी देवी हैं?"

    माता के नेत्रों में अपार करुणा छलक उठी। उन्होंने हल्की मुस्कान के साथ उत्तर दिया। "मैं आदि शक्ति अन्नत।"

    जैसे ही ये दिव्य शब्द अंशु के कानों में पड़े, उसके चारों ओर पुनः वही तेजस्वी प्रकाश फैल गया। आँखों के सामने विराट आभामंडल का विस्तार होने लगा। अचानक, उसकी चेतना जैसे किसी उच्च आयाम में विलीन होने लगी। क्षण भर में ही, वह उस दिव्य लोक से पृथ्वी पर लौट आई।

  • 12. यत्र सत्यं तत्र प्रेम भवति - Chapter 12

    Words: 965

    Estimated Reading Time: 6 min

    जब अंशु की चेतना धीरे-धीरे लौटने लगी, तो पहले उसे सिर्फ कुछ अस्पष्ट आवाज़ें सुनाई दीं। जैसे कोई दिल की गहराइयों से बोल रहा हो। जब उसने आंखें खोलीं, तो पाया कि वह अपने ही शरीर में थी—कमज़ोर, निर्बल, मगर जीवित। उसका सिर हल्का-सा घूम रहा था, लेकिन उसने देखा कि उसके सास-ससुर उसके पास बैठे थे। उनकी आँखों में चिंता, ममता और पश्चाताप की गहराइयाँ लहर मार रही थीं।

    वे धीरे-धीरे बोल रहे थे—जैसे हर शब्द उनके दिल से निकलकर सीधे अंशु की आत्मा तक पहुँच रहा हो। वे कह रहे थे कि उन्होंने उसे कभी ठीक से समझा ही नहीं, कि उनके अपने डर, सामाजिक दबाव और पुराने संस्कारों ने उन्हें एक कठोर मुखौटा पहना दिया था। वे कह रहे थे कि अब उन्हें अपनी भूलें दिखने लगी हैं—दर्द की इस गहराई में उतरकर।

    अंशु की आँखों से आँसू बहने लगे। ये आँसू न तो केवल दुख के थे, न ही केवल क्षमा के। वे एक गहरी समझ के आँसू थे—मन की पीड़ा और आत्मा के स्पर्श से निकले हुए।

    वह उन्हें छूना चाहती थी, उनके गले लगकर कहना चाहती थी कि वह सब जानती है—उनका भी संघर्ष उतना ही सच्चा था जितना उसका। लेकिन उसका शरीर जैसे पत्थर हो गया था। हाथ उठाना भी संभव नहीं था। भीतर कहीं एक पुकार उठी—मूक, मगर तीव्र।

    “माता... ये क्या किया आपने?” उसका मन देवी की ओर करुणा से भर उठा। “मैं तो आपसे मिलने गई थी… मुझे क्यों वापिस भेजा?” उसके भीतर एक पल को असमंजस और पीड़ा की लहर दौड़ गई।

    लेकिन अगले ही क्षण भीतर से एक शांत स्वर गूंजा—जैसे उसकी आत्मा खुद उसे उत्तर दे रही हो:

    “क्योंकि अभी अधूरा है… तुम्हारा काम, तुम्हारा प्रेम, तुम्हारी यात्रा।”

    उसने गहरी सांस लेने की कोशिश की और मन ही मन कहा, “ठीक है। समझ गई। मुझे ही हिम्मत जुटानी पड़ेगी। सब कुछ फिर से संवारना होगा… अपने भीतर से। अपनी शक्ति से।”

    और उस क्षण, उसके नेत्रों में एक नई चमक उभरी—क्षीण शरीर के भीतर एक ज्वलंत आत्मा फिर से उठ खड़ी हुई थी। पर अभी उसका शरीर इस ऊर्जा के लिए तैयार नहीं था। इसलिए यह ऊर्जा क्षणिक थी।

    "बस अब एक बार उठ जा, अंशु," उसकी सास ने काँपती आवाज़ में कहा। उनका हाथ अंशु की हथेली पर था, जैसे स्पर्श से जीवन लौट आएगा। "बस इतना भर कह दे... कि तू हमारे साथ रहेगी।"

    उनकी आँखों से आँसू थम नहीं रहे थे। आवाज़ में थरथराहट थी, मगर उसमें एक माँ की करुण पुकार भी थी।

    "हमारा बड़ा बेटा... और बहू... वो लोग तो नौकरी के चलते हमसे बहुत दूर चले गए। अब तू ही थी जिसे हम अपने पास मानते थे। लेकिन तुझे भी खो देंगे, ये कभी सोचा न था।"

    कुछ क्षण के लिए वो चुप हुईं, जैसे शब्द गले में अटक गए हों। फिर उन्होंने अंशु की ओर देखा, उसकी बंद पलकें, उसकी आँखों के किनारों से बहते आँसू—सब कुछ उन्हें भीतर तक तोड़ चुका था।

    "मेरा ही डर था अंशु..." उन्होंने कांपती साँस ली, "मैं ही थी जो तुम्हें ठीक से समझ नहीं पाई। मुझे लगा... तू भी मेरे बेटे को मुझसे दूर ले जाएगी। जैसे बाकी औरतें ले जाती हैं। और... मनुष्य जिस बारे में डरता है, वही सबसे पहले होता है।"

    "मैंने उस डर में तुमसे दूरी बना ली, दीवारें खड़ी कर दीं। लेकिन आज समझ आया कि वो डर मेरा था, तुम नहीं। मनुष्य जब अपने स्वार्थ में जीता है तो सब कुछ गवां देता है—रिश्ते, प्रेम, भरोसा। और अब जब ये सब टूटता देख रही हूँ, तो बहुत देर हो चुकी है शायद..." उन्होंने अंशु की हथेली को अपने माथे से लगाया।

    "बेटी, अगर तेरे दिल में थोड़ी भी जगह बची हो मेरे लिए, तो मुझे क्षमा कर देना। मैं नहीं चाहती कि मेरी गलती का बोझ तुझे और आगे ढोना पड़े।"

    सास की यह बात सुनकर अंशु की पलकों में हलचल हुई। उसकी साँस कुछ गहरी हुई, और मन के किसी कोने में क्षमा की एक मूक किरण फूट पड़ी।

    दोनों—सास और ससुर—काफी देर तक अंशु के पास बैठे रहे। वे जैसे वर्षों की चुप्पी और उलझनों को उसके निर्जीव से प्रतीत हो रहे शरीर के सामने उड़ेल देना चाहते थे। उनके शब्दों में पश्चाताप था, प्रेम था, और एक अनकही दुआ भी, जो उनकी हर सांस में शामिल हो गई थी।

    फिर कुछ देर बाद कमरे का दरवाज़ा हल्के से खटका। डॉक्टर अंदर आए—सफेद कोट, थकी आंखें, मगर एक अनुभवी सन्नाटा उनके साथ चलता था। उन्होंने अंशु की पल्स देखी, मॉनिटर की रीडिंग पर नज़र डाली और फिर एक गहरी सांस लेकर बोले।

    "अभी कुछ नहीं कहा जा सकता," डॉक्टर ने शांत स्वर में कहा, "पहले हमें ब्लड की रिकवरी करनी है। उसके बाद ही तय होगा कि स्थिति कितनी गंभीर है… और आगे का रास्ता क्या होगा।"

    सास और ससुर ने एक-दूसरे की ओर देखा। एक मौन, एक चिंता, और एक दबी हुई आशा उनके बीच साँस लेने लगी।

    "ठीक है, डॉक्टर साहब…" ससुर ने धीरे से कहा और फिर वे दोनों बाहर निकल गए। बाहर आकर जैसे ही उन्होंने वरदान को देखा—जो आंखों में चिंता लिए दरवाज़े से टिककर खड़ा था—एक सूक्ष्म सुकून की लहर उन पर छा गई।

    "नील, तुम माँ-पापा को घर ले जाओ," वरदान ने शांत मगर दृढ़ स्वर में कहा। उसकी आंखें अब भी कमरे के दरवाज़े पर टिकी थीं, जैसे वहीं से जीवन की कोई डोर बंधी हो।

    "दोनों थक चुके हैं… अब उन्हें थोड़ा आराम करना चाहिए। मैं यहीं रुकूंगा, अंशु के पास।"

    तीनों कुछ पल चुप रहे, फिर वरदान के निर्णय की गरिमा को स्वीकार कर, नील ने अपने माता-पिता को सहारा देकर धीरे-धीरे बाहर की ओर ले जाना शुरू किया।

    वरदान अब कमरे की ओर मुड़ा, और दरवाज़े के पास खड़ा होकर उस स्त्री को देखता रहा, जो इस समय शब्दों से परे कहीं अपनी आत्मा की यात्रा पर थी। वरदान ने अपना फोन निकाला और किसी को कॉल करने लगा।

  • 13. यत्र सत्यं तत्र प्रेम भवति - Chapter 13

    Words: 1527

    Estimated Reading Time: 10 min

    कॉल समाप्त करने के बाद वरदान ने एक लंबी सांस ली, जैसे कोई बड़ा बोझ अपने सीने से कुछ पल के लिए उतारा हो। फिर वह गलियारे से बाहर निकल आया और धीमे-धीमे कदमों से अस्पताल की सीढ़ियाँ उतरने लगा। हर कदम जैसे किसी सोच में डूबा हुआ था—अंशु की हालत, अतीत की उलझनें और आने वाले समय की धुंधली तस्वीरें।
    वह अस्पताल के बाहर आ गया। रात का सन्नाटा गहरा था, लेकिन उसके भीतर की बेचैनी और भी गहरी। उसने एक कोने में जाकर खड़ा होना बेहतर समझा, जहां से आते-जाते वाहन भी दिखते रहें और मन थोड़ा स्थिर रह सके।
    कुछ देर तक वो बस खड़ा रहा—भीतर कुछ गूंजता रहा… प्रार्थना और पछतावे के बीच झूलता हुआ।
    तभी एक जानी-पहचानी, हल्की और चंचल सी आवाज़ हवा में तैरती हुई उसके कानों तक पहुँची।
    "क्या हुआ जीजू? आपने इतनी रात को यहाँ क्यों बुलाया?"
    वरदान ने चौंक कर सिर घुमाया। सामने अंशु की चचेरी बहन खड़ी थी—उसकी आँखों में जिज्ञासा थी, मगर स्वभाव में वही पुरानी अपनापन और सादगी झलक रही थी।
    उसके आते ही वरदान के चेहरे पर थोड़ी राहत उभरी। वो जानता था कि इस समय, जब सब कुछ बिखरा हुआ है, तो यही एक इंसान है जो अंशु की आत्मा तक पहुँच सकता है—जिससे अंशु सहज होती थी, खुलकर बोलती थी। और शायद अब भी, उसके खोए हुए भीतर को छू सके।
    "तुम्हीं हो जो इस वक़्त मेरी मदद कर सकती हो," वरदान ने धीमे और भरे गले से कहा। "अंशु... बहुत कमजोर हो गई है। शारीरिक रूप से भी… और शायद भावनात्मक रूप से भी। उसे किसी ऐसे की ज़रूरत है जो उसकी आत्मा को छू सके।"
    अंशु की चचेरी बहन—जिसे वरदान हमेशा उसकी आत्मा की सखी मानता आया था—थोड़ा चौंकी, उसकी आँखों में चिंता उतर आई।
    "क्या हुआ है, जीजू? आप ठीक से बताइए।"
    वरदान ने कुछ क्षण चुप रहकर अपनी नज़रें नीचे झुका लीं, फिर गहरी साँस लेकर बोला, "उसका एक्सीडेंट हो गया था। आज ही दोपहर के समय। बहुत बुरा एक्सिडेंट था।"
    उसकी आवाज़ भर्रा गई। उसने अपनी मुट्ठी भींच ली—जैसे उस एक पल को दोबारा जी रहा हो।
    "जब उसे अस्पताल लाया गया था… तो बहुत खून बह चुका था। शरीर लगभग सुन्न था। कुछ समय तक तो हमें लगा कि..." उसका गला रुक गया। "...कि शायद हम उसे खो चुके हैं।"
    बहन के चेहरे का रंग उड़ गया। वह स्तब्ध खड़ी रही।
    "लेकिन," वरदान ने जल्दी से कहा, "वो लौट आई। उसकी चेतना वापस आई है। मगर शरीर अभी भी बहुत कमजोर है, और उसे भावनात्मक सहारा चाहिए। डॉक्टर कह रहे हैं कि अभी ब्लड की रिकवरी ज़रूरी है, फिर पता चलेगा आगे क्या होगा।"
    "हे भगवान..." बहन की आँखों में आँसू आ गए। "मुझे नहीं बताया आपने पहले…"
    "मैं खुद ठीक से कुछ समझ नहीं पा रहा था," वरदान ने सिर झुका लिया। "लेकिन अब... मुझे समझ आ गया है कि उसे बचाने के लिए सिर्फ दवाइयाँ नहीं, प्रेम और रिश्तों का स्पर्श भी चाहिए।"
    चचेरी बहन ने एक बार गहरी साँस ली और अपने आँसू पोंछ डाले।
    "चलिए जीजू," उसने धीरे लेकिन दृढ़ स्वर में कहा, "अब जो भी करना होगा, हम साथ करेंगे। मैं उसके पास चलती हूँ। उसे अकेला नहीं महसूस होने दूंगी।"
    उस पल, वरदान को लगा जैसे उसके भीतर की घुटन कुछ हल्की हो गई हो। इस घड़ी में, जब सब कुछ बिखरता जा रहा था—तो ये लड़की उम्मीद की तरह उसके सामने खड़ी थी।
    दोनों सीधे उसी जगह पहुँचे जहाँ अंशु लेटी हुई थी। शहनाज़ ने जैसे ही उसे देखा, उसका कलेजा कांप उठा। अंशु का पीला चेहरा, बेहोशी की हालत और मशीनों की आवाज़ों ने उसके भीतर कुछ तोड़ दिया। उसकी आँखें भर आईं, पर आँसू गिरने से पहले उसने उन्हें रोक लिया।
    "अब तुम्हारे मम्मी-पापा क्या करेंगे? कहीं फिर से कोई अड़चन तो नहीं डालेंगे?"
    वरदान ने बिना लाग-लपेट के पूछा, उसके स्वर में चिंता भी थी और नाराज़गी भी।
    "उन्हें मैं संभाल लूंगी, अपने तरीके से। जरूरत पड़ी तो उनके सामने इसके मरने का नाटक भी कर दूंगी,"
    शहनाज़ की आवाज़ कांप रही थी पर उसमें एक अजीब सा ठोसपन भी था।
    "कभी-कभी लगता है मैं कितनी मूर्ख थी जो ऐसे स्वार्थी लोगों को अपना सब कुछ मानती थी।“”
    "ऐसी बातें मत कहो," वरदान ने उसकी तरफ देखा, उसकी आँखों में अजीब सी संवेदना थी।
    "हम ध्यान पर फोकस करते हैं। कह देना कि सरकारी हॉस्पिटल में भर्ती है और मैं सारा खर्च उठा रहा हूँ। जब उन्हें लगता है कि पैसा आ रहा है, तो कोई भी सवाल नहीं करेंगे।"
    "ठीक है," शहनाज़ ने गहरी साँस ली, "दिन भर मैं यहाँ रहूंगी। शाम को तुम ध्यान रखना। रात का जैसा कहो वैसा कर लेंगे।"
    "रात को मैं ही रह जाऊँगा," वरदान ने ठहरकर कहा, "घर तो वैसे भी दूर है, लेकिन दीदी और नील का घर पास है, कुछ काम आसान हो जाएगा।"
    "मैं खाना भी ले आया करूंगी, और कपड़े-वपड़े भी अगर धोने हों तो..."
    शहनाज़ की आवाज़ धीमी हो गई, जैसे वो खुद ही सोच रही हो कि कहीं ज़्यादा तो नहीं कह रही।
    "नहीं, उसकी ज़रूरत नहीं," वरदान की आँखें अंशु पर टिकी थीं, "बस एक बार होश में आ जाए… फिर ये जहाँ कहेगी, मैं इसे वहाँ जाने दूँगा।"
    लेकिन दोनों जानते थे, चीज़ें इतनी आसान नहीं थीं। वरदान ने नील से कहकर अपने कपड़े मंगवा लिए और रातभर वहीं रुका। मुश्किल से तीन-चार घंटे सो पाता। सुबह का खाना शहनाज़ लाती, दोपहर को नील और शाम को वरदान की बहन।
    शहनाज़ ने अपने माता-पिता को बातों में ऐसा उलझाया कि वे कोई विरोध नहीं कर सके। उन्हें भी समझ आ गया था—अगर अंशु जिंदा नहीं बची, तो उनके "स्वार्थ" की नींव भी हिल जाएगी।
    वरदान के ऑफिस के लोग, उसका भाई-भाभी, उसकी भतीजी, सभी अंशु के लिए प्रार्थना कर रहे थे। उधर उसकी बहन, बहन का ससुराल और भांजी भी शामिल थे। शहनाज़ के दोस्त भी जुड़ गए थे। कभी-कभी वे हॉस्पिटल आ जाते थे, कुछ बातें करके, कुछ पल बैठकर अंशु को जीवन का स्पर्श देने।
    इन सबकी सामूहिक संवेदना और अंशु की आत्मा की इच्छा ने उसके शरीर में चमत्कारी रिकवरी ला दी। चार-पाँच दिन में उसका शरीर प्रतिक्रिया देने लगा। डॉक्टरों ने कहा, वह जल्द ही डिस्चार्ज हो सकती है।
    डिस्चार्ज के दिन, वरदान का बड़ा भाई, जीजा और शहनाज़ सब वहीं थे।
    "बेटा, अब बताओ तुम्हें कहाँ जाना है?"
    जीजा और भाई दोनों ने एक साथ पूछा।
    वरदान कुछ बोलने ही वाला था कि उसके जीजा ने बात थाम ली—"वरदान, बुरा मत मानना… लेकिन इस बार इसे अपने घर मत ले जाना। एक तो अस्पताल दूर है, ऊपर से नवरात्रि शुरू होने वाली हैं। इस बार तुम साधना में लगो। और अंशु को मेरे साथ भेज दो। वह भी बीमार है, दोनों साथ रहेंगी तो दोनों ही जल्दी ठीक होंगी।"
    "सात दिन रख लीजिएगा… फिर मैं ले जाऊंगा अपनी बेटी को,"
    वरदान के बड़े भाई ने बड़ी विनम्रता और दृढ़ता से कहा।
    सभी की नज़रें अंशु पर थीं, पर उस पल वरदान की आँखें कहीं और खोज रही थीं—कहीं उस भविष्य की छवि में जिसे वो अंशु के साथ जीना चाहता था।
    "और मेरे साथ?"
    उसने अचानक पूछा, जैसे दिल की बात ज़बान पर आ गई हो। उसका स्वर सीधा था, पर उसमें एक अजीब सी बेचैनी छुपी थी।
    सवाल सुनते ही कमरे में एक पल की खामोशी फैल गई। सबने उसकी ओर देखा—सिर्फ इस वजह से नहीं कि उसने ये सवाल किया, बल्कि इसलिए कि ये सवाल अब तक हवा में था, पर किसी ने उसे जुबान नहीं दी थी।
    "नवरात्रि के नौ दिन हैं… उनमें तो मेरे साथ ही रहेगी,"
    वरदान के जीजा, सुदीप, ने दृढ़ता से कहा।
    "और इस फैसले में कोई मना नहीं करेगा।"
    वरदान कुछ कहता उससे पहले ही उसके भाई ने उसकी ओर देखा और बोला,
    "इतने दिन मैं भी रखूंगा… ताकि जब इसकी ज़रूरत हो, मैं साथ रह सकूं।"
    शहनाज़ तब तक चुप थी, पर उसकी आँखें बहुत कुछ कह रही थीं। उसने अब अपनी बात स्पष्ट शब्दों में रखी।
    "फिर अंशु घर आएगी, लेकिन इस बार हमेशा के लिए नहीं बल्कि स्वतंत्र होने के लिए। इन नौ दिनों में मैं सब कुछ ठीक करने की योजना बनाऊंगी। ऐसा कोई रास्ता निकालूंगी जिससे तलाक की नौबत ही न आए। अगर जरूरत पड़ी तो पुलिस की मदद भी लेंगे। लेकिन ये सब जल्दी खत्म होगा।"
    वरदान के जीजा सुदीप ने शहनाज़ की बात का समर्थन करते हुए कहा, "हम वकील से बात करेंगे। लेकिन सबसे जरूरी है कि अंशु अपनी बात खुद कहे, साफ़ और निडर होकर। एक बार उसने कह दिया, तो फिर कोई ताकत मेरे साले और उसकी पत्नी को अलग नहीं कर सकती।"
    इन बातों के बीच, अंशु शांत थी, लेकिन उसकी आँखें भीग रही थीं। न कमज़ोरी से, बल्कि उन रिश्तों की ताकत को देखकर जो उसके लिए खड़े थे—बिना शर्त, बिना शोर।
    डॉक्टरों की अंतिम सलाह और पेपरवर्क के बाद, अंशु को डिस्चार्ज कर दिया गया।
    सुदीप ने अंशु को बड़े स्नेह और ज़िम्मेदारी से अपने घर ले जाने की व्यवस्था की। शहनाज़ ने उसे दुपट्टे के पल्लू से ढांका, और धीरे से कहा, "अब तुम अकेली नहीं हो। इस बार हम सब मिलकर तुम्हें तुम्हारी ज़िंदगी वापस देंगे।"
    गाड़ी अस्पताल से निकल चुकी थी, पर उन सबके मन में अब एक ही राह थी—अंशु का नया जीवन, जहाँ डर नहीं, सिर्फ सम्मान और प्रेम हो।

  • 14. यत्र सत्यं तत्र प्रेम भवति - Chapter 14

    Words: 1546

    Estimated Reading Time: 10 min

    नवरात्रि शुरू होने में अभी दो दिन थे, पर वरदान के भीतर जैसे कोई आंतरिक घड़ी पहले ही जाग चुकी थी। इस बार कुछ अलग था। हर बार वह केवल व्रत रखता था—शरीर के स्तर पर एक निष्ठा। लेकिन इस बार......इस बार उसने साधना का संकल्प लिया था।उसे साधना के बारे में ज़्यादा कुछ नहीं पता था। ना किसी गुरु का मार्गदर्शन, ना किसी पुस्तक का सहारा। लेकिन उसके भीतर एक मौन पुकार थी, एक ज्वाला थी, एक आत्मिक आग्रह जो उसे खींच रहा था उस ओर जहाँ भक्ति और समर्पण एक हो जाते हैं।

    उसके व्रत चतुर्दशी से ही शुरू हो गए थे और चतुर्दशी और अमावस्या—ये दोनों दिन जैसे परीक्षा की अग्नि बनकर उतरे थे उस पर भीतर की बेचैनी, बाहरी गर्मी, और मन का उथल-पुथल, तीनों ने मिलकर उसे भीतर तक झुलसा दिया। बसंत का महीना था, पर गर्मी जैसे ग्रीष्म से भी अधिक प्रचंड हो उठी थी।शरीर पसीने में डूबता, लेकिन मन—वो कहीं और उड़ान भरता। इन दो दिनों में ही उसने खुद में बदलाव महसूस किया। वह सुबह उठकर घर की हर कोने की सफाई करता।पूजा घर से शुरू करता, फिर रसोई, फिर आँगन, फिर दरवाज़े की चौखट तक। माँ-बाप बुज़ुर्ग थे—न तो ताक़त थी न भाव—तो ये काम वरदान के हिस्से ही आ गए। लेकिन वो शिकायत नहीं करता। उसके भीतर एक विश्वास जाग रहा था—"गृहलक्ष्मी लौटने वाली है।" अंशु की वापसी का भाव ही उसकी थकान को भक्ति में बदल देता।

    उसने मन्दिर को सजाया। सफ़ेद और लाल कपड़ों से, रंगोली से, दीयों से और फूलों से।हर दिन वह अलग-अलग पुष्प अर्पित करता माता को—कभी गेंदे, कभी गुलाब, कभी चमेली। हर पुष्प के साथ उसकी एक मनोकामना बंधी होती,“माँ, मेरी अंशु को अपना आंचल दे दो।”माता की चौकी भी लगाई गई। छोटा सा आसन, उस पर सजी हुई मूर्ति, कनक की माला, और शंख की ध्वनि। पर सबके बीच सबसे सुंदर चीज़ थी—वरदान का समर्पण। अब वह सिर्फ पूजा नहीं करता था,अब वह हर दिन योग करता, ध्यान करता, और चुपचाप मंत्रों का जाप करता।

    सुबह 4 बजे उठना, नहा धोकर शुद्ध वस्त्र पहनना, दीपक जलाकर आसन पर बैठ जाना।

    शुरुआत में मन भटकता था—कभी अंशु की याद में, कभी शहनाज़ की चिंता में, लेकिन फिर धीरे-धीरे वह उतरने लगा… उस मौन में… जहां सिर्फ माँ थीं और वह।उसके ध्यान के क्षण अब पसीने से नहीं, आँसुओं से भीगते थे।हर दिन का उपवास उसके शरीर को थका रहा था,पर उसकी आत्मा जैसे धीरे-धीरे निर्मल होती जा रही थी।वह अब सिर्फ अंशु के लिए नहीं,अपने भीतर के पुरुष से देवत्व की ओर यात्रा कर रहा था।

    वही दूसरी ओर, वरदान के जीजा सुदीप और उनकी पत्नी आरती ने नवरात्रि को सिर्फ धार्मिक परंपरा के रूप में नहीं बल्कि सेवा, करुणा और मातृत्व के रूप में जीना शुरू किया था।इस बार उनके घर में मूर्ति मात्र देवी नहीं थीं, बल्कि वहाँ दो कन्याएँ थीं—एक छोटी परी, जो अपने मासूम प्रेम से सबका मन मोह लेती थी, और दूसरी अंशु, जो अब तक जीवन की तपिश में झुलसती रही थी। जो बचपन में कभी खेल नहीं पाई, गुड़ियों से बात नहीं कर पाई,जो हर त्यौहार पर सेवा में लगी रही,उसे अब माता ने एक बार फिर से बचपन जीने का वरदान दिया था।आरती इस सेवा को पूजा मानकर करती थी। हर सुबह वह सबसे पहले अंशु के पास जाती, धीरे-धीरे उसके बिस्तर के पास बैठती,नरम गीले कपड़े से उसके शरीर को पोछती, जैसे कोई माँ नवजात शिशु को स्नान करवा रही हो। वह प्यार से उसके बालों में कंघी करती, उन्हें हल्के से संवारती, कभी एक छोटी सी चोटी बनाती, कभी दो, कहती—"आज तुम फूल जैसी लग रही हो।"

    अंशु की आँखें तो बंद रहतीं, पर होठों पर कभी-कभी एक कोमल मुस्कान तैर जाती। परी, जो कभी अपनी मामी से हिचकती थी, अब दिनभर उसके पास खेलती, बातें करती, कहानियाँ सुनाती।

    एक दिन वह वहीं बैठी, लकड़ी की रंगीन पेंसिलों से चित्र बना रही थी। तभी उसकी नज़र गई अंशु के चेहरे पर—एक बूँद आँसू उसकी आँख से निकलकर गर्दन तक बह रही थी।

    परी ने अपने नन्हे हाथों से उसका चेहरा सहलाया और बेहद मासूमियत से कहा,

    "मामी, रोइए मत… सभी आपसे बहुत प्यार करते हैं।"

    उसकी आवाज़ में ना कोई बनावट थी, ना समझदारी, बस प्रेम की सीधी सरल धारा।

    "आपको पता है?" वह आगे बोली, "मैंने भी इस बार व्रत रखा है, ताकि आप जल्दी ठीक हो जाएं और मामू के पास वापस लौट आएं।

    मामू बताते नहीं, पर वे बहुत उदास रहते हैं।

    आप मान जाओ ना मामी… ज्यादा दिनों तक रूठना अच्छा नहीं होता। हमें आपकी बहुत ज़रूरत है…" उसके शब्द अंशु के गहरे ज़ख्मों पर मलहम जैसे लगे।

    उसकी बंद पलकों के पीछे एक प्रकाश चमक उठा—माँ का चेहरा। ममता से भरा, ओज से दमकता। और तभी…उसके होठ काँपे। फिर उसकी उँगलियाँ…मानो कोई बंद कली पहली बार खुलने लगी हो। अंशु के भीतर से आवाज आई, “अब मैं ठीक होकर रहूंगी। ये युद्ध मेरा है। मुझे अपने लोगों के लिए खड़ा होना है… माता ने सच कहा था, हर युग में स्त्री को अपने लिए लड़ना होता है… और अपनों के लिए भी।” वो रो पड़ी—लेकिन इस बार ये आंसू दर्द के नहीं, बल्कि संघर्ष और संकल्प के थे।

    परी ने जैसे उसकी आत्मा की वह पुकार सुन ली हो। "मम्मी!" वह चीखती हुई दौड़ी,

    "मामी सही हो रही हैं!" आरती रसोई में थी, उसके हाथों में आटा लगा था, पर वह बिना सोचे दौड़ती चली आई।

    उसने देखा—अंशु की उंगलियाँ काँप रही थीं, और होठों पर कंपन था।

    "इन्होने हरकत की मम्मी!" परी ने उत्साह से कहा। आरती की आँखों में एक साथ आँसू और मुस्कान उमड़ आए।

    उसने अंशु का माथा चूमा और अपनी बेटी को कसकर सीने से लगा लिया। "बोलो परी, आज माता रानी ने सुन ली ना?"

    "हां मम्मी, मामी ठीक हो रही हैं।"

    आरती ने धीरे से कहा—

    "ऐसे ही बात कर, प्यार कर, सब कुछ अच्छा होगा।" वह काम करने चली गई और परी वही बैठी रही।

    अंशु अब हर दिन थोड़ी-थोड़ी ठीक हो रही थी। पहले उसकी उंगलियाँ हिलतीं, फिर होंठों पर कुछ शब्द फिसलते, और फिर एक दिन—"परी…"यह पहला नाम था जो उसने धीमे से पुकारा। परी खुशी से उछल पड़ी,

    "मामी बोल पाईं! मम्मी! मामी ने मुझे बुलाया!" आरती दौड़ते हुए आई, और उसका चेहरा देखकर समझ गई— वो घड़ी आ चुकी थी। अब दिनचर्या बदल चुकी थी—आरती उसे सहारा देकर बिठाने लगी, उसका मन बहलाने के लिए माता के भजन लगाती, परी उसे छोटी-छोटी कहानियाँ सुनाती और अपनी गुड़ियों का परिचय कराती। सुदीप, ऑफिस से आने के बाद एक बार ज़रूर उसके पास बैठता—कभी अखबार पढ़कर सुनाता, कभी चाय पीते हुए कहता, "तुम्हें ठीक होना ही है बहन… वरना उस लड़के का क्या होगा जो हर दिन जप करता है?"

    और अंशु…वह अब धीरे-धीरे अपने अंदर की टूटी हुई किरचों को जोड़ने लगी थी। शरीर तो अब साथ दे रहा था, पर दिल........वो अब भी अतीत की उलझनों में भटका हुआ था।नवरात्रि का अष्टमी का दिन था। आरती ने अंशु को नए कपड़े पहनाए—गुलाबी रंग का सूती सूट, बालों में हल्का सा गजरा, माथे पर बिंदी। परी भी तैयार थी और दोनों कन्याओं की पूजा की गई। सुदीप ने पहले अंशु के पैर धोए, फिर उसे थाली में रखकर कन्या पूजन करवाया। अंशु की आँखें छलछला आईं—"मैंने तो कभी खुद को देवी नहीं माना…"आरती ने उसके कंधे पर हाथ रखा,

    "पर माता ने तुम्हें हमेशा अपनी बेटी माना है। अब तुम अपने पैरों पर खड़ी हो, तो चलो…

    अब अगले चरण की तैयारी करनी है।" अगले दिन नवमी के बाद जब हवन पूरा हुआ,

    सुदीप ने वरदान के बड़े भाई को फोन किया।

    "तैयार रहना, तुम्हारी बेटी अब खुद से चलने लगी है। अब ये तुम्हारे घर जाएगी।"

    अंशु को विदा करने का दृश्य बहुत भावुक था। सभी की आँखें नम थीं। अंशु देवी बनकर बनकर उनके घर आई थी। जब से वह घर आई थी तब से ही सब कुछ सकारात्मक हो रहा था। पर उसके जाने के बाद उन्हें वो सबकुछ मिलने वाला था जो उन्हें चाहिए था। आरती ने उसके लिए एक थैला तैयार किया—उसके कपड़े, एक डायरी, परी की एक छोटी सी ड्राइंग और एक लिफाफा।

    "इसमें क्या है?" अंशु ने पूछा। "तुम्हारे लिए एक पत्र लिखा है," आरती मुस्कराई। "जब दिल डगमगाए, तो पढ़ लेना।"

    सुदीप ने अंशु को अपनी गाड़ी में बैठाया,

    और पीछे से परी भागती हुई आई—"मामी! ये मेरी गुड़िया आपके लिए। जब आप उदास हों तो इसे गले से लगा लेना, ये आपके लिए व्रत रखेगी।" अंशु की आँखों से आँसू बह चले।

    "तुम्हारी मामी अब कभी पीछे नहीं हटेगी… वादा करती हूं।" वरदान के बड़े भाई का घर—जब अंशु वहाँ पहुँची, तो दरवाज़ा खोलते ही

    भाभी ने उसे गले से लगा लिया, "हमने तुम्हारे लिए कमरा सजाया है… बिल्कुल वैसा जैसा माँ अपने बच्चों के लिए सजाती है।"

    कमरे में साफ-सुथरी सफेद चादर, एक छोटा मंदिर, और खिड़की से आती धूप ने जैसे उसे नया जीवन दिया। अंशु चुपचाप खिड़की के पास बैठ गई…और फिर डायरी खोली।

    आरती का लिखा पत्र था—

    "प्रिय अंशु,

    तुम देवी हो।

    तुम्हें टूटने का हक है, लेकिन बिखरने का नहीं।

    तुम्हारा हँसना, चलना, बोलना… ये सब माता की साधना है।

    अब तुम्हें वहाँ खड़ा होना है जहाँ तुम्हारा सम्मान हो, और प्रेम मिले…

    वरदान की प्रतीक्षा केवल तुम्हारे शरीर की नहीं, तुम्हारी आत्मा की भी है।

    अब जाओ, और अपने जीवन की अगली ऋचा खुद रचो।

    तुम्हारी दीदी, आरती।"

    उसकी जिंदगी की एक ओर नई शुरुवात हों चुकी थी।

  • 15. यत्र सत्यं तत्र प्रेम भवति - Chapter 15

    Words: 1194

    Estimated Reading Time: 8 min

    उस कमरे में बैठी अंशु खिड़की से आती धूप को अपने चेहरे पर महसूस कर रही थी। पहली बार उसे ऐसा लगा जैसे यह रोशनी सिर्फ बाहर से नहीं, उसके भीतर भी उतर रही हो। यह धूप किसी तपस्विनी की तरह उसके अंतरतम को छू रही थी—धीरे-धीरे, पर पूरी तरह।
    कमरे की सादगी, दीवार पर लगी माँ दुर्गा की तस्वीर, और पास के मंदिर से आती आरती की धीमी स्वर लहरियाँ—सब मिलकर एक ऐसा वातावरण बना रही थीं जो केवल शरीर को नहीं, आत्मा को भी सहला रहा था। यहाँ सब कुछ धीरे-धीरे हो रहा था—पर हर चीज़ एक गहरा अर्थ ले कर आती थी।
    वहाँ वरदान की भांजी ने, और यहाँ उसकी भतीजी—आद्या ने अंशु को जीवित रखा था।दोनों बच्चियाँ जैसे उसके जीवन की टूटी लय को फिर से गुनगुना रही थीं। अंशु आद्या के फ्रॉक के लिए डिज़ाइन बना रही थी। कपड़ों का रंग गुलाबी नहीं था, वो भावनाओं के रंग थे। नर्म, कोमल और भीतर की किसी स्मृति से जुड़े हुए। एक परी के लिए और एक आद्या के लिए। दोनों की पोशाक का कपड़ा उनके नाम जैसा ही था—"परी" में हवा-सी हल्कापन था और "आद्या" में कोई प्राचीन देवी छिपी थी।
    पहले तो अंशु को अपने जेठ पुलकित से कहना कठिन लगा। कुछ कहना हो तो शब्द अक्सर थरथरा जाते हैं, और जो नहीं कहना होता, वही आँखों में भर आता है। पर उससे पहले ही पुलकित और सुरेखा ने उसकी रुचियों को जान लिया।
    "उसे फैशन डिजाइनिंग का बहुत शौक है," सुरेखा ने पुलकित से कहा था। "कपड़े उसके लिए केवल पहनने की चीज़ नहीं, वो तो उसके लिए भावनाओं को आकार देने का माध्यम हैं।" उसने अंशु को समझते हुए कहा और पुलकित भी गहराई से उसकी बातों को समझ गया।
    उसी शाम पुलकित घर लौटे, हाथों में थैले थे—कपड़े, कतरनें, रंग-बिरंगी लेस, मनके, धागे, सुई, स्केच पेन और एक कोरा स्केच बुक।
    "दुकानदार को सब सच-सच बता दिया," पुलकित ने हँसते हुए कहा था, "कि हमें कोई ऐसा सामान चाहिए जो आत्मा को गहराई से जोड़ सके।"
    जब अंशु ने वो सब देखा तो उसके भीतर कोई बंद द्वार खुल गया। उसने पहली बार जेठ के पैर छुए। पुलकित हड़बड़ा गया, "इसकी कोई जरूरत नहीं है। तुम अभी हमारे घर की बेटी हो—not बहू। ये सब तब करना, जब फिर से अपने अधिकार से वरदान के पास लौट आओ।"
    सुरेखा ने उसे उठाया और पास बिठाया। "तुम सिर्फ शरीर से नहीं, आत्मा से भी थकी हो। यहाँ तुम्हें फिर से जीने की अनुमति मिलेगी।"
    धीरे-धीरे… एक लय लौटने लगी। शामों को वह सिलाई करती, आद्या पास बैठी होती। वो बातें नहीं करती, पर उसके चेहरे पर एक शांति थी।
    आरती और शहनाज़ अब भी हर दिन फोन करती थीं। आरती ने कहा, “तेरे जाने के बाद ऐसा लगा जैसे माँ खुद आकर चली गई हो। पर सच तो यह है कि माँ की एक झलक तुझमें ही है अंशु… जो अधूरे काम थे, माँ ने उन्हें पूरा करने के लिए शायद तुझे भेजा था…”
    शहनाज़ की आवाज़ अब भी उतनी ही स्थिर और मजबूत थी। “तू जिंदा है, इसका मतलब है कि तेरी रूह ने अभी हार नहीं मानी। जो तू कर रही है—वो तेरा पुनर्जन्म है।” दोनों इस तरह की बातों से उसे हिम्मत देती।
    सुबह होते ही अंशु खिड़की के पास बैठ जाती—तुलसी के पौधे के पास। वहाँ एक पुरानी सी चौकी थी, जिस पर एक सादी चादर बिछी रहती। माँ दुर्गा की तस्वीर के आगे वह अपनी डायरी खोलती। वह मौन साधती।
    कोई मंत्र नहीं, कोई जाप नहीं।
    बस एक श्वास… फिर दूसरा… फिर तीसरा…
    और फिर डायरी के पन्नों पर लिखा जाता।
    "माँ, आज मैं साँस ले रही हूँ… पर हर साँस के साथ जीना भी सीख रही हूँ।
    माँ, मेरे हाथ अब कांपते नहीं… ये फिर से रचने लगे हैं। क्या ये वही हाथ हैं जिन्होंने जीवन से हार मान ली थी?" और उसे जवाब मिल भी जाता। उसने आद्या की फ्रॉक की पहली कढ़ाई पूरी की। छोटे-छोटे सितारे, जैसे आकाश की याद दिला रहे हों और जब उसने वो फ्रॉक आद्या को पहनाई, तो बच्ची ने अंशु को गले से लगा लिया। अंशु ने सोचा—शायद यही सबसे बड़ी साधना है, जब एक मासूम दिल तुम्हारे काम में ईश्वर को पहचान ले।

    नवरात्रि की साधना पूरी हो चुकी थी। वरदान जैसे किसी और लोक से लौटा हो। शरीर थक कर चूर था, लेकिन मन में एक अलौकिक शांति थी। नौ दिनों की साधना में वह जैसे अपने भीतर की गहराइयों तक उतर गया था, और अब उस गहराई से लौटते हुए उसे अपने शरीर की असली सीमाएँ समझ आ रही थीं। यह थकान केवल बाहरी नहीं थी—यह उस आत्मा की थकान थी जो सृष्टि की सबसे पवित्र शक्ति से मिलकर लौटी हो।
    शरीर में कंपन था, मानो हर कोशिका एक नई ऊर्जा को समेटने के लिए शून्य हो गई हो। उस शून्यता में ही उसे पहली बार शिव की अवस्था का बोध हुआ—कि शक्ति के बिना शिव केवल मौन हैं, जड़ हैं, और वही जड़ता आज वह स्वयं अनुभव कर रहा था।
    उसने खुद को बिस्तर पर गिरा दिया—न शरीर को उठने की ताक़त थी, न मन को चलाने की और फिर भी भीतर कुछ मुस्कुरा रहा था। वह जान गया था—माँ ने उसे थाम लिया है।
    आराम उसके लिए अब एक आलस नहीं, एक आज्ञा था। माँ ने जैसे उसके कान में फुसफुसाया हो—"अब ठहरो, मैं आई हूँ, अब तुम्हें नहीं चलना।" अगले दिन जब वह उठा, तो जैसे पुनर्जन्म हुआ हो।
    शरीर हल्का था, चेतना प्रखर। उसकी आँखों में चमक थी, मन में स्पष्टता। जैसे किसी ने उसकी आत्मा को फिर से नई ऊर्जा से भर दिया हो। वह जान गया था—देवी माँ को समर्पण चाहिए, न कि संघर्ष। उसी चेतना की प्रबलता में जब शाम को आरती का फोन आया और उसने कहा—“अंशु अब चलने फिरने लगी है”, तो वरदान के मन में जैसे दीपक जल उठे। उसका रोम-रोम बोल उठा—"माँ… तूने सुन लिया।"
    उस पल वह चुपचाप कमरे में चला गया, जहां अंशु का सामान रखा था। सबकुछ जैसे अब नई दृष्टि से देख रहा था। उसके हाथ उस बैग तक पहुँचे, जिसमें अंशु ने वह पत्र रखा था—जो कभी अधूरा संवाद था।
    उसने वह पत्र अग्नि को समर्पित कर दिया।
    "मैं आज तुम्हें पूर्ण रूप से मुक्त करता हूं अंशु," उसने अग्नि से कहा, "हर बंधन से, हर अपेक्षा से। लेकिन इस प्रेम से नहीं—क्योंकि अब यह प्रेम मैं अपनी आत्मा में धारण कर चुका हूँ।"
    उसने एक कोरा कागज़ उठाया। अब वह न पति था, न त्यागी—अब वह केवल प्रेमी था।
    एक ऐसा प्रेमी, जो न वापसी चाहता था, न आश्वासन—बस एक अवसर कि वह अपनी प्रेमिका की आत्मा को छू सके, शब्दों के माध्यम से।
    उसने पेंसिल उठाई, और उस कागज़ को अंशु के स्पर्श योग्य बना दिया—चित्रों से जो भले बचकाने हों, लेकिन उसमें उसके दिल की आहट थी।
    फिर उसने लिखा—“तुम्हें शायद शब्दों से प्रेम है, अंशु। और मुझे तुमसे। ये शब्द ही अब मेरा प्रस्ताव, मेरी प्रार्थना, और मेरी पूजा बन जाएँ।” यह प्रेम पत्र नहीं था। यह आत्मा का अर्घ्य था। वो आज सिर्फ प्रेम कर रहा था, जैसे पहली बार कर रहा हो और वहीं, एक कोने में खड़ी माँ दुर्गा की तस्वीर मुस्कुरा रही थी—“अभी यात्रा शुरू हुई है, मेरे पुत्र। अब प्रेम के अग्निपथ पर चलना है तुम्हें।”

  • 16. यत्र सत्यं तत्र प्रेम भवति - Chapter 16

    Words: 1374

    Estimated Reading Time: 9 min

    उसने गहराई से अपनी भावनाओं को कागज़ पर उकेरना शुरू किया। शब्दों के पीछे कोई दिखावा नहीं था, बस एक गूंज थी… उस मौन की, जो केवल प्रेम समझ सकता है।
    "मुझे तुमसे कोई शिकायत नहीं, ना कोई उलाहना। ये पत्र सिर्फ इसीलिए है कि मैं तुम्हें बताना चाहता हूँ कि तुम मेरे लिए क्या हो। तुम कौन हो मेरे लिए… और सच में तुम कौन हो?
    तुम मेरी साँसों में बसी वो स्थिरता हो जो मुझे हर तूफान में टिकाए रखती है। तुम मेरी चेतना में बसी वो देवी हो, जो मुझे मेरी ही गहराइयों से मिला देती हो।
    तुम मेरी कलम की वो स्याही हो, जिसके बिना मैं कुछ भी नहीं लिख सकता—ना कविता, ना प्रार्थना, ना प्रेम। मेरे पास शब्द हो सकते हैं, पर अगर वो तुमसे न जुड़ें तो वो सिर्फ अक्षर रह जाते हैं—बेजान, ठंडे, खोखले।
    तुम मेरे पत्रों के वो शब्द हो जिनके बिना कोई खत, खत ही नहीं होता… बस एक ख़ाली पन्ना रह जाता है। तुम ही तो हो जो मेरी हर अभिव्यक्ति को अर्थ देती हो, तुम्हारे बिना मेरी आत्मा बोलना ही भूल जाए।
    और सबसे बढ़कर, तुम मेरी वो ऊर्जा हो… वो जीवन-शक्ति हो… जिसके बिना मैं सिर्फ शरीर रह जाता हूँ, एक अस्तित्वहीन "मैं"।
    तुम वही शक्ति हो जिसके बिना मेरा शिवत्व अधूरा है। जैसे शिव शक्ति के बिना सिर्फ 'शव' रह जाते हैं, वैसे ही मैं तुम्हारे बिना बस एक मौन तन्हा छाया हूँ।
    तुम मेरी पूजा की गई देवी हो और मेरे प्रेम की धड़कन भी।
    तुम मेरे वर्तमान की नमी, मेरे भविष्य की लौ और मेरे बीते हर पल की शांति हो।
    तुम कोई साधारण प्रेम नहीं हो मेरे लिए, तुम मेरी साधना हो। मेरी उपासना।
    मैं तुम्हें सिर्फ प्रेम नहीं करता, मैं तुम्हें पूजता हूँ—हर उस क्षण में जब मैं साँस लेता हूँ, हर उस पल में जब मैं मौन होता हूँ।
    मैं नहीं जानता तुम मुझे इस प्रेम के योग्य समझती हो या नहीं,
    पर मैं जानता हूँ—तुम्हारे बिना मैं वो नहीं रह जाता जो मैं हूँ।
    तुम हो तो मैं हूँ।"

    उसने अपनी भावनाओं को शब्दों के धागों में पिरोया, हर वाक्य मानो उसकी आत्मा की पुकार हो। जब पत्र पूरा हुआ, उसने उसे ध्यान से मोड़ा, जैसे कोई पवित्र वस्त्र लपेटा जाता है। फिर एक हल्के रेशमी धागे से उसे बाँधा—उस धागे में न कोई औपचारिकता थी, न कोई दिखावा, बस प्रेम था, निश्छल और गहरा।
    इसके बाद वह बाजार गया। कुछ जरूरी चीजें खरीदीं—अंशु के लिए नहीं, बल्कि उन स्मृतियों और भावनाओं के लिए जो अब शब्द बनकर उसके साथ जाएँगी। एक छोटा सा डिब्बा लिया जिसमें पत्र और वह छोटा सा उपहार रखा जिसे छूकर अंशु मुस्कुरा सके।
    फिर वह पोस्ट ऑफिस पहुँचा, जैसे कोई तीर्थ करने गया हो। उसने वह लिफाफा जमा किया—सौंप दिया समय को, हवा को, माँ के आशीर्वाद को—कि ये उसे सही-सलामत अंशु तक पहुँचा दें।
    उसे नहीं पता था कि पत्र पढ़ते वक़्त अंशु क्या महसूस करेगी, पर वह जानता था कि ये प्रेम उसके भीतर तक ज़रूर पहुँचेगा।
    सुरेखा सुबह की पूजा करके जैसे ही कमरे में लौटी, दरवाज़े के पास रखा एक छोटा-सा डिब्बा उसकी नज़र में आ गया। उसे उठाते ही जैसे कोई अदृश्य कंपन उसके भीतर उतर गया। हल्की मुस्कान के साथ उसने डिब्बे को देखा और तुरंत समझ गई—यह वरदान की ओर से है। उसे किसी ने कुछ बताने की ज़रूरत नहीं थी, माँ की तरह उसकी अनुभूति अब शब्दों से परे चलती थी।
    वह चुपचाप अंशु के कमरे में गई। अंशु खिड़की के पास बैठी थी, धूप उसकी हथेलियों पर उतर रही थी, जैसे कोई आशीर्वाद छू रहा हो।
    "ये कुछ तुम्हारे लिए आया है," सुरेखा ने कोमल स्वर में कहा और वह डिब्बा अंशु के पास रख दिया।
    अंशु ने धीमे से उसे देखा, जैसे समय रुक गया हो। हाथ बढ़ाया और धड़कनों की लय में डिब्बा खोला। जैसे ही उसकी उँगलियाँ उस पत्र और धागे से बँधे भावों को छूती गईं, उसकी आँखें भर आईं।
    पत्र खोला… शब्दों को देखा… फिर उन शब्दों ने उसे देखना शुरू कर दिया।
    उसकी साँसें धीमी हो गईं, लेकिन भीतर कोई तूफान उमड़ रहा था। आँसू बिना किसी रोकटोक के बहने लगे। हर पंक्ति, हर शब्द उसके भीतर कुछ खोल रहा था—पुरानी स्मृतियाँ, वो अधूरे संवाद, वो मौन प्रेम जो शब्दों से बाहर कभी नहीं आया था।
    उसने पत्र को सीने से लगाया, जैसे वो काग़ज़ नहीं, वरदान का दिल हो जो धड़क रहा हो।
    वो बोली नहीं… कुछ नहीं कहा… बस आँखें बंद कीं और धीमे से बुदबुदाई—
    "ये तो माँ के बाद पहली बार किसी ने मुझे फिर से जीवित किया है…"
    उस दिन, अंशु की आत्मा में कुछ पुनः जागा था—एक विश्वास, एक प्रेम, जो अब केवल स्मृति नहीं था, बल्कि वर्तमान की साँस बन चुका था।
    उसने पत्र को सीने से लगाए बहुत देर तक बैठी रही। कमरे में गहराता मौन जैसे उसके भीतर की हलचल को थामे खड़ा था। बाहर से आती मंदिर की घंटियों की आवाज़ें अब उसे भीतर से गूंजती लग रही थीं। जैसे हर ध्वनि, हर स्पंदन उसके हृदय की ही प्रतिध्वनि हो।
    सुरेखा कुछ दूर बैठकर चुपचाप उसे देख रही थी। उसकी आँखों में कोई सवाल नहीं था—बस एक साक्षी भाव था, जैसे माँ अपनी बेटी को पहली बार किसी के प्रेम में पिघलते देख रही हो। वह जानती थी, इस पत्र में सिर्फ शब्द नहीं थे… यह एक पुनरागमन था… वरदान की आत्मा का, उसकी उपस्थिति का, उसका प्रेम जो अब लौट आया था—कर्म और समर्पण की भाषा में।
    अंशु ने धीरे से डिब्बे में रखी छोटी-सी वस्तुएँ एक-एक कर निकालीं—वो कागज़ के फूल, कुछ धागे जिनमें भाव पिरोए गए थे, और वह एक छोटी-सी बंधी हुई पोटली, जिसमें एक कपड़े का टुकड़ा था—उसी कपड़े का जिससे वह आद्या के लिए फ्रॉक बना रही थी। पर यह टुकड़ा वरदान ने अपनी ओर से लौटाया था, जैसे कह रहा हो—“ये अधूरापन अब तुम्हारे बिना नहीं सहे जा सकता।”
    अंशु की उँगलियाँ उस कपड़े को सहलाने लगीं। वह मुस्कराई—एक ऐसी मुस्कान जो वर्षों बाद आई थी, जिसमें आँसू भी थे, आशा भी, और जीवन की स्वीकृति भी।
    “भाभी…” अंशु की आवाज़ टूटी हुई पर गहरी थी, “…मैं एक जवाब लिखना चाहती हूँ।”
    सुरेखा के होठों पर सुकून की रेखा उभरी—“तो फिर देर किस बात की? प्रेम जब जवाब माँगे, तो उसे मौन नहीं मिलता… शब्दों की सच्चाई चाहिए होती है।”
    अंशु उठी, अपने पुराने बैग से डायरी निकाली। कागज़ पर पहली स्याही की बूँद गिरी, और उसने लिखा—
    “वरदान, तुमने मुझे जिस पल मुक्त किया, उसी पल मैं बंध गई… पर इस बार प्रेम के धागे से, जिसमें न कोई बाध्यता है, न कोई संकोच। ये जवाब नहीं है… ये मेरी आत्मा की सहमति है।”
    उसकी कलम रुक नहीं रही थी। और उस कमरे में, धूप अब सिर्फ खिड़की से नहीं आ रही थी—उसकी आत्मा में एक नया सूरज उग चुका था।
    ज़रूर…
    यह वह पत्र है जिसे अंशु ने नहीं भेजा… लेकिन जो वह अपने अंतर्मन में लिख चुकी है — प्रेम की पूर्णता, मौन के सम्मान, और अपने आत्मिक पुनर्जन्म के साथ।
    यह वह उत्तर है जो शब्दों में नहीं — साँसों और मौन की भाषा में उतरा है।
    प्रिय वरदान,
    जब तुम्हारा पत्र आया,
    मैंने उसे केवल पढ़ा नहीं—
    मैंने उसे जिया।
    हर शब्द, जैसे तुम्हारी उँगलियों की छुअन थी।
    हर वाक्य, जैसे तुम्हारी साँसों की गर्मी थी।
    और हर मौन—जैसे तुम मेरे सामने बैठे हो,
    कुछ कहे बिना सब कह रहे हो।
    वरदान…
    तुमने मुझे स्याही कहा,
    और खुद को कलम—
    पर सच तो ये है कि
    हम दोनों ही एक-दूसरे की अधूरी रचना थे।
    तुमने मुझे शिव की शक्ति कहा…
    पर मैं खुद को कब जान पाई थी?
    तुम्हारे प्रेम ने मुझे मेरे भीतर की देवी से मिलाया।
    तुमने मुझे छोड़ा नहीं,
    मुझे मेरी ही बाहों में सौंप दिया—
    जहाँ से मैं खुद को फिर से चुन सकी,
    पुनः जी सकी।
    इस पत्र को मैं जवाब नहीं मानती—
    क्योंकि प्रेम का कोई जवाब नहीं होता।
    ये पत्र एक मौन की तरह है,
    जिसमें मैं तुम्हारी बाँहों में नहीं,
    तुम्हारे प्रेम में विश्राम कर रही हूँ।
    तुमने मुझे मुक्त किया…
    और इस मुक्ति में मैंने तुम्हारे प्रति
    अपना सबसे गहरा बंधन महसूस किया।
    आज नहीं—
    पर किसी दिन,
    जब हमारी साँसें फिर एक होंगी,
    मैं तुम्हें यह पत्र अपने हाथों से दूँगी।
    और तब मैं कुछ नहीं कहूँगी—
    बस तुम्हारी आँखों में देखूँगी,
    और तुम सब कुछ समझ जाओगे।
    तुम्हारी…
    सिर्फ तुम्हारी
    अंशु

  • 17. यत्र सत्यं तत्र प्रेम भवति - Chapter 17

    Words: 1372

    Estimated Reading Time: 9 min

    ★★★
    कमरे में धीमी रौशनी है, खिड़की से आती सूर्य-किरणें फर्श पर स्वर्ण-मंडल बना रही हैं। अंशु अपने काठ की पुरानी सिलाई मशीन के पास बैठी है। उसका सिर ढका हुआ है, आँखें झुकी हुई हैं… लेकिन भीतर कोई जागा हुआ है—एक स्त्री जो प्रेमिका है, कारीगर है, और देवी भी। उसने वरदान के लिए एक दिव्य पोशाक बनानी ठानी है, और यह केवल सूई-धागे का काम नहीं.....यह उसका अंतर्दर्शन है।
    अंशु ने सबसे पहले हल्के क्रीम और सुनहरे रेशमी कपड़े को छुआ....उसका स्पर्श जैसे कोई प्राचीन मंदिर की सीढ़ियाँ हों—शांत, शीतल और पवित्र। उसके हाथ काँपे नहीं…बल्कि स्थिर हो गए, जैसे उसकी उँगलियाँ किसी पुराने यज्ञ में शामिल हो रही हों।
    उसने आँखें मूँदीं और बुदबुदाई— "हे भोलेनाथ, इस वस्त्र में वही गरिमा भर दो, जो तुम्हारे वस्त्रों में होती है। ये कोई सामान्य पोशाक नहीं… यह मेरे प्रेमी की आत्मा पर चढ़ेगा।"
    वो हर टांका ध्यानपूर्वक लगा रही थी....जैसे हर धागा कोई मंत्र हो। बेल-बूटों की कढ़ाई में वह अपने रिश्ते की हर परत बुन रही थी। कुछ अनकहे संवाद, कुछ अधूरी हँसी, कुछ पिघली हुई प्रार्थनाएँ जो कभी कह नहीं सकी थी। हर धागा वह ऐसे डालती जैसे शिवलिंग पर बेलपत्र चढ़ाया जाता है—श्रद्धा से, प्रेम से, मौन से। फिर, उसने उस स्थान पर दृष्टि डाली
    जहाँ हृदय बसता है—उसने वहीँ ‘ॐ’ काढ़ने का निश्चय किया। धागा उसने कस्तूरी-सा सुगंधित चुना। हर रेखा, हर मोड़, उसकी चेतना में डूबी हुई थी। उसकी आँखें भर आईं, फिर भी उसने हाथ नहीं रोके। उसके मन में एक मौन वाक्य बार-बार गूंजता रहा— "जिसे मैं प्रेम करती हूँ, वह मेरा ईश्वर है....और उसका हृदय मेरे तप का तीर्थ बन जाए।"
    हर बार जब सुई कपड़े में उतरती, वह मन ही मन जाप करती— "ॐ नमः शिवाय…ॐ नमः शिवाय…"
    यह ‘ॐ’ अब कोई कढ़ाई नहीं रह गया था—
    वह बन गया था परमात्मा का घर, वह पवित्र स्पर्श जहाँ प्रेम, ईश्वर और तप एक ही देह में उतर आए। उस दिन अंशु केवल एक कारीगर नहीं थी....वह एक साधिका थी—जो प्रेम को शिवत्व में रूपांतरित कर रही थी।
    ‘ॐ’ के बाद, उसकी दृष्टि उस हिस्से पर पड़ी जहाँ आस्तीनें होती हैं—वरदान की पोशाक की बाँहों के पास जहाँ से वह जीवन को थामता है, रक्षा करता है, और कभी-कभी काँपता भी है। अंशु ने वहाँ नीले और सफ़ेद रेशमी धागों से धारियाँ बनाई—ना ज़्यादा सजीली, ना साधारण। हर एक में छिपी थी एक प्रतीक्षा… एक मौन विश्वास।
    "जब तू नहीं था, तब भी तुझसे जुड़ी रही…
    और जब तू होगा, तब भी मैं वही रहूँगी—
    क्योंकि प्रेम बदलता नहीं, वो बस प्रतीक्षा में रम जाता है।" हर धार को काढ़ते हुए उसने सोचा—यह आस्तीनें उस दिन उठेंगी, जब वह मुझे गले लगाएगा और उस क्षण, यह धागे मेरे मन का स्पर्श उसे देंगे। उसने आस्तीन के छोर पर दो छोटी माला-जैसी बुनावट जोड़ी एक ओर नीला, एक ओर सुनहरा, जैसे दिन और रात साथ-साथ चल रहे हो। अब आगे वह दुपट्टे की ओर बढ़ी। उसने केसरिया रंग चुना—वो रंग जो कभी भक्ति होता है, कभी बलिदान और कभी प्रेम में जलती लौ। जैसे ही कपड़ा उसके हाथ में आया, उसे एक गर्माहट महसूस हुई—मानो किसी योगिनी की आत्मा इस रंग में निवास कर रही हो। उसने वहाँ शिव और पार्वती की एक छवि चित्रित की—कोई परिपूर्ण चित्र नहीं, बस रेखाओं का आलाप। एक रेखा शिव की—सहनशील, शांत। एक रेखा पार्वती की—दृढ़, मगर प्रेममयी। और उन दोनों के मध्य वह स्वयं—मौन में, प्रेम में, समर्पण में खड़ी। उसके भीतर से आवाज़ आई— "मैं पार्वती नहीं, पर मेरी प्रेम-तपस्या भी किसी वनवास से कम नहीं। और वो… वह शिव नहीं सही, पर मेरे ईश्वर का दर्पण तो है!" उसने शिव की आँखों में क्षमा भरी......पार्वती की मुस्कान में स्थायित्व और अपनी मौन आकृति में अनंत प्रतीक्षा। यह दुपट्टा अब केवल वस्त्र नहीं रहा—वह अंशु की साधना बन गया, वो ओढ़नी जो उसके प्रेम की ज्वाला भी थी और उसकी शीतल छाया भी। दुपट्टा पूर्ण होते ही अंशु ने गहरी साँस ली, जैसे कोई मंत्र संपन्न हुआ हो। फिर उसका हाथ स्वतः ही उस अंतिम कपड़े की ओर बढ़ा—नीला नहीं, बल्कि शुद्ध श्वेत और चंदन-केसर की आभा लिए। वो थी पगड़ी की पट्टी—वह हिस्सा जो वरदान के मस्तक पर सजेगा, प्रेम और चेतना के संग। उसके चेहरे पर एक शांत मुस्कान तैर आई वह सोचने लगी—
    "यह वस्त्र उसका मस्तक छूएगा—वो मस्तक जिसने कभी मुझे समझा, कभी खो दिया और अब, फिर से प्रेम को थामेगा।" वह सुई-धागा उठाती है, जैसे कोई राग चुन रही हो और हर फंदा किसी भजन की तरह उतरता है उस कपड़े पर। इस पगड़ी में उसने केवल धागा नहीं, अपना गौरव, अपनी श्रद्धा, और अपना मौन प्रेम भी पिरोया। वह जानती थी, यह सिर सजाने के लिए नहीं है—बल्कि झुकने की विनम्रता के लिए है। उसने एक छोटा-सा स्वर्ण बिंदी जड़ा ना भारी, ना दिखावटी बस एक छोटी-सी बूँद, जैसे वो प्रेम की एक बूँद हो जो बरसों से उसके हृदय की गहराई में गिरती रही, और आज आकार ले रही हो। "इस पगड़ी में मेरा गर्व है लेकिन यह गर्व मौन है, नम्र है, आत्मा से जन्मा है। यह मेरे प्रेम का मुकुट है—वो मुकुट जो ना किसी सिंहासन से है, ना किसी अधिकार से। यह उस आत्मा का मुकुट है, जिसे मैंने अपने भीतर ईश्वर के रूप में पहचाना।"
    उसने पगड़ी को नर्म मलमल में लपेट कर एक छोटी थैली में रखा। फिर उसकी आँखें उस पोशाक पर गई—जिसमें अब केवल वस्त्र नहीं, बल्कि उसका प्रेम, उसका भक्ति-भाव और उसका आत्म-समर्पण लिपटा हुआ था।
    पगड़ी को सँभालने के बाद अंशु कुछ पल खामोश बैठी रही। उसके सामने अब अंतिम स्पर्श था— वो मौन श्रृंगार, जो किसी ज़ेवर से नहीं बल्कि स्मृतियों और आत्मिक स्पर्श से गुँथा जाता है। उसने एक छोटी सी थैली खोली, जिसमें रखे थे कुछ शुद्ध सफ़ेद मोती—एकदम शांत, पारदर्शी, जैसे नदियों की गहराई से निकले हों या किसी साध्वी की आँखों से टपके हों। वह एक-एक मोती उठाने लगी हर मोती को छूते ही उसकी आँखें नम हो जातीं, पर चेहरा शांत—एक तपस्विनी-सा।
    पहला मोती —जब वरदान ने पहली बार उसे चाँद की ओर देखते हुए देखा था, और बिना कुछ कहे, बस पास बैठ गया था…उस चाँदनी में अंशु ने पहली बार जाना था—मौन में भी प्रेम होता है।
    दूसरा मोती —जब उसकी चुप्पी को वरदान ने बिना पूछे पढ़ लिया था…वह क्षण जब किसी ने उसके मौन को सुनने की हिम्मत की।
    तीसरा मोती—जब वियोग के बाद, वह टूटी नहीं…बल्कि उसने प्रेम को अनुपस्थिति में भी जीवित रखना सीखा। हर मोती उसके जीवन के किसी आत्मिक मोड़ का प्रतीक था,
    जैसे उसके भीतर से निकली कोई प्रार्थना, कोई मंत्र,जो अब इस माला के रूप में आकार ले रही थी। वह माला केवल गले में पहनने की चीज़ नहीं थी—वह तो एक आत्मा के गर्भगृह में रखने योग्य वस्तु थी। उसने माला के अंतिम छोर पर एक छोटी सी घंटी बाँधी—ना ज़ोर से बजने के लिए,
    बल्कि बस इतना कि जब वह माला धारण हो, तो वरदान की आत्मा को लगे—
    "किसी मंदिर की घंटी बजी है… मेरी पूजा पूर्ण हुई है…"
    अंशु देर तक उस पोशाक को अपनी गोद में रखे बैठी रही। शिव की मूर्ति सामने थी, दीपक की लौ स्थिर। उसकी आँखें उस लौ में समा चुकी थीं जैसे कोई अपनी आत्मा को जलता हुआ देख रहा हो, पर पूरी श्रद्धा में।
    उसने धीरे-धीरे सब कुछ एक-एक कर समेटा।
    सुनहरा कुर्ता, शिव-पार्वती वाला केसरिया दुपट्टा, पगड़ी का मुकुट, और मोतियों की माला जो अभी तक उसके हृदय पर धरी थी।
    उसने पोशाक को जिस डिब्बे में रखना था,
    उसे गुलाब की पंखुड़ियों से भर दिया —
    जैसे प्रेम की हर परत में एक कोमलता की गंध बसी हो।
    फिर उसने पोशाक को उसमें सहेज कर रखा
    एक माँ की तरह, एक साध्वी की तरह।
    फिर उसने एक अंतिम चीज़ निकाली, छोटा-सा पीला रेशमी धागा,
    जिसे उसने शिवरात्रि की रात मंदिर से लिया था। उसने डिब्बे को बाँधा…और बँधते हुए बुदबुदाई—
    "अब यह मेरा नहीं, तेरे चरणों में अर्पित है प्रभु। अगर यह प्रेम तेरा रूप है, तो तू स्वयं इसे उसके पास पहुँचा देना। मैं नहीं जाऊँगी… मेरी भक्ति जाएगी।"
    डिब्बे के ऊपर उसने कुछ नहीं लिखा —
    ना नाम, ना पता,
    बस एक बेलपत्र रखा, जिस पर अंकित था—
    "ॐ प्रेमाय नमः" और जब वह डिब्बा बाहर रखने चली,
    तो लगा जैसे वो अपने हृदय को बाहर भेज रही हो…बिना किसी डर,बिना किसी अपेक्षा…
    बस पूर्ण समर्पण में।
    ★★★

  • 18. यत्र सत्यं तत्र प्रेम भवति - Chapter 18

    Words: 1134

    Estimated Reading Time: 7 min

    ★★★

    आज आखिरी दिन था। घड़ी की सुइयाँ जैसे धीमे चल रही थीं, और हवा में एक अजीब-सी खामोशी थी—विरह की, लेकिन संपूर्णता की भी। अंशु को आज उस घर लौटना था, जहाँ से वो एक अधूरी स्त्री बनकर निकली थी—और अब, एक संपूर्ण आत्मा के रूप में लौटने वाली थी क्योंकि वह उसकी युद्धभूमि थी जिस पर उसे युद्ध करना था। पर भीतर का एक हिस्सा अब भी कांप रहा था.....शायद इसलिए कि आत्मा तो जाग गई थी, पर शरीर अभी भी दुनिया के उन नियमों में जकड़ा था जहाँ उसे जाना था, जहाँ जाना ‘ज़रूरी’ था, ‘मनचाहा’ नहीं। चाचा चाची दोनों ही नहीं जानते थे कि पिछले अठारह दिनों में उसके साथ क्या हुआ था! क्योंकि वह सिर्फ उसने महसूस किया था।वरदान आज नहीं आया था। वह दोबारा से उसे उस घर में जाते हुए नहीं देख सकता था। ना ही कोई विदाई का शोर......बस एक मूक विदाई जो उसके और अंशु के बीच पहले ही हो चुकी थी—वो पोशाक, वो पत्र, वो मौन, जिसमें प्रेम अपने परम रूप में पहुँच गया था।

    सुरेखा ने सुबह सबसे पहले पूजा की थी।

    आज उन्होंने अपने आँचल में आँसू नहीं छुपाए थे। वो बस चुपचाप अंशु के सिर पर हाथ रखकर बुदबुदाई थीं—“जा बेटी… अब तू किसी बंधन में नहीं जा रही, तू अब वहाँ जा रही है जहाँ तेरा प्रकाश बिखरना है। जहां तुझे निखरना है। इस बार हर बंधन से मुक्त होकर हमारे पास आना। कभी ना जाने के लिए।”

    आरती सुदीप और पारी को भी बुला लिया था। परी और आद्या ने उसके बनाएं हुए कपड़े पहने थे। सिर्फ नौ दिनों में इतना कुछ कर लेगी उसे खुद भी नहीं पता था पर खुद को जोड़ते संवारते हुए उसने ये सब कर लिया और ये सब करते हुए उसे थकावट नहीं हुई बल्कि उसे बढ़िया लगा। आरती, जो हमेशा उसकी सहेली रही, आज बिल्कुल माँ जैसी हो गई थी। उसने अंशु को गले लगाते हुए कहा, "तेरे हिस्से की दुनिया तुझे लौटा दी गई है, अब तू उसे अपने हिसाब से रच। हम सब तेरे साथ हैं, हर समय।"

    उसकी आँखें भीग गई थीं, पर चेहरे पर एक ठोस विश्वास था—कि अंशु अब खोई नहीं जाएगी। परी, छोटी थी, पर उसकी आँखें कुछ ज़्यादा जानती थीं। उसने अंशु की गोदी में सिर रखा और कहा, "आप परी हो ना मामी? बस उड़ना मत छोड़िएगा।" अंशु मुस्काई, लेकिन होंठों की मुस्कान आँखों की नमी में भीग गई।

    सुदीप और पुलकित, दोनों पास खड़े थे, जैसे कोई दो स्तंभ—एक अंशु के वर्तमान का, एक भविष्य का। पुलकित ने हाथ में अंशु का बैग थाम लिया, बिना कहे।

    सुदीप ने बस इतना कहा। "वरदान कह कर गया था कि तुम्हारा ख्याल रखना है। हम रखा भी पर तुम अपना ख्याल रखना।"

    इतना कहकर उसने नज़रें झुका लीं—क्योंकि भावनाएँ लड़कों की आँखों से भी बह निकलती हैं। आद्या, जो सब समझती थी लेकिन कुछ नहीं कहती थी, उसने चुपचाप एक छोटी-सी पेंटिंग अंशु के हाथ में रखी, एक लड़की, जिसके सिर के पीछे आभा थी, और आँखों में शांति। अंशु ने वो पेंटिंग सीने से लगाई। उसके हाथों में कम्पन था, लेकिन चेहरे पर एक शांति उतर आई थी। शहनाज़ अब दरवाज़े पर खड़ी थी, उसकी कार तैयार थी। शहनाज़ की आँखें भी बोल रही थीं—“तू इस बार सिर्फ़ बेटी बनकर नहीं, प्रकाश बनकर चल रही है।” फिर वो क्षण आया। जब अंशु ने उस घर को देखा—जहाँ उसने पाया था खुद को दोबारा।

    जहाँ प्रेम ने बिना छुए उसे आत्मा तक छू लिया था। वो पलटकर नहीं देखना चाहती थी, लेकिन उसने देखा। हर चेहरा, हर आँगन, हर दीवार… एक-एक भाव, एक-एक साक्षी और वह चल दी। ना कोई शोर, ना आँसुओं का कोई प्रदर्शन—बस एक मौन यात्रा, जिसकी मंज़िल अब कहीं बाहर नहीं थी, बल्कि भीतर थी। उसके कदमों में अब संदेह नहीं था,वो जानती थी—अब चाहे जो हो, वह खोएगी नहीं… क्योंकि अब वह स्वयं को पा चुकी थी। आज आख़िरी दिन नहीं था। यह शुरुआत थी—उस जीवन की जहाँ अंशु अब एक नाम नहीं, एक उपस्थिति थी और कहीं दूर बैठा वरदान… शायद उसी पल मुस्कुराया होगा।

    क्योंकि उसने जाना था, प्रेम रुकता नहीं… वो बस एक आत्मा से दूसरी आत्मा में उतर जाता है… शांति की तरह और अंततः… अंशु शहनाज़ के साथ चल दी।

    कार की खिड़की से बाहर देखते हुए वो चुप थी, जैसे भीतर कुछ बोल रहा हो—पर शब्द नहीं थे, बस भाव थे।

    शहनाज़ ने धीरे से उसका हाथ थामा, "डर मत… अब तुझे कोई छू भी नहीं सकता जो तेरी रूह को तकलीफ़ दे। तेरा सच अब तेरी ढाल है।"

    कुछ घंटों बाद, वो उसी दरवाज़े पर खड़ी थी

    जहाँ से एक बार टूटी, थकी और विवश होकर निकली थी। आज वही अंशु लौटी थी—पर बदलकर। अब उसकी आँखों में लाचारी नहीं, एक गूढ़ शांति थी।

    दरवाज़ा खुला—चाचा और चाची ने देखा।

    वो कुछ बोल नहीं पाए। अंशु ने भी कुछ कहा नहीं। बस चुपचाप भीतर आ गई, अपना सामान उसी कमरे में रखा, जहाँ उसकी बहुत सी रातें आँखों के नीचे घुली थीं लेकिन आज, उस कमरे में घुटन नहीं थी क्योंकि आज अंशु ने डर को नहीं, प्रेम को साथ लाया था। वो प्रेम जो अब किसी एक इंसान तक सीमित नहीं था, वो बन चुका था उसका जीवन-ध्यान।

    अब वह उस घर में एक मेहमान नहीं थी,

    बल्कि एक आत्मा थी—जो हर पल अपने प्रकाश के साथ वहाँ थी,सिर्फ़ जीने के लिए नहीं,बल्कि जीने का रास्ता दिखाने के लिए। वरदान का भेजा वो डिब्बा, वो पोशाक, वो पत्र, वो अब तक उस बैग में था—अछूता, लेकिन जीवित क्योंकि उसका समय अभी आया नहीं था। वो दिन भी आएगा, जब वह खुद उसके पास पहुंच जाएगा। जिसे वह उस घर के एक कोने में ही सुरक्षित रूप से छोड़ आई थी ताकि सही समय पर वह वरदान के पास पहुंच जाएं।

    उसे प्रतीक्षा थी उस क्षण कि जब वरदान उस डिब्बे को खोलेगा, और हर धागा बोलेगा—"मैं तेरे प्रेम की आवाज़ हूँ, मैं तुझे फिर से तेरे प्रेम तक पहुँचाऊँगा।"

    दूसरी तरफ चाचा, चाची ने अंशु के भीतर बदलाव को साफ मजसूस किया था।

    "ये एक्सिडेंट के बाद आई हैं या दोबारा जन्म लेकर।" उसकी चाची ने आश्चर्य प्रकट किया। "कुछ तो गड़बड़ हैं। हमें सम्भल कर रहना होगा।"

    "मुझे भी कुछ सही नहीं लग रहा।" उसके चाचा ने कहा। पर दोनों ही नहीं जानते थे कि कुछ नहीं बहुत कुछ बदला था या फिर सब कुछ बदल गया था। वो अब अपनों का साथ, प्रेम, सम्मान, सपने, आत्म जाग्रति, माता का स्नेह और वरदान। सब कुछ तो लाई थी अपने साथ।

    "डॉक्टर ने कहा हैं कि इन्हें दिमाग पर जोर मत देने देना वरना बढ़िया नहीं होगा और ऊपर से एक्सिडेंट हुआ था तो पुलिस केस की ज्यादा संभावना हैं।" शहनाज ने दोनों को सचेत कर दिया। आज का दिन तो ऐसे ही चला गया फिर दोनों अपने अपने कामों में जुट गई। अंशु को वहां से मुक्त जो करना था।

    ★★★

  • 19. यत्र सत्यं तत्र प्रेम भवति - Chapter 19

    Words: 1770

    Estimated Reading Time: 11 min

    कोर्ट का माहौल कुछ अजीब था। हवा में तनाव और संजीदगी का मिश्रण था। कोर्ट के कमरे में बैठी हुई हर एक व्यक्ति की आँखों में एक ही सवाल था: क्या सच सामने आएगा? क्या अंशु को न्याय मिलेगा? और क्या चाचा-चाची को अपनी लालच का परिणाम भुगतना पड़ेगा?

    अधिवक्ता और जज के बीच में, जो लोग बैठे थे, उनमें से कोई भी सामान्य दिखाई नहीं दे रहा था। लोग अपनी जगह पर कसे हुए बैठे थे, जैसे हर एक कदम पर कुछ नया और बड़ा होने वाला था।

    वरदान अपने परिवार के साथ कोर्ट में खड़ा था। उसकी आँखों में चिंता और चिंता के साथ-साथ दृढ़ निश्चय भी था। आज का दिन बहुत अहम था, न केवल अंशु के भविष्य के लिए, बल्कि उसके पूरे परिवार के लिए।

    अंशु और शहनाज ने पिछले कुछ हफ्तों में बहुत मेहनत की थी। दिन-रात दस्तावेज़ खंगालना, गवाहों से बयान लेना, पुलिस रिपोर्ट्स और पुरानी तस्वीरें इकट्ठा करना, इन दोनों ने मिलकर चाचा-चाची के खिलाफ इतना सशक्त केस तैयार किया था कि अब इसे खारिज करना मुश्किल था। शहनाज की आँखों में एक चिंगारी थी, जो यह साबित करती थी कि वह इस लड़ाई को जीतने के लिए पूरी तरह से तैयार थी।

    अंशु और शहनाज ने चुपचाप सबूत पेश किए। अंशु ने चाचा-चाची द्वारा किए गए शारीरिक और मानसिक शोषण के कुछ कागजात पेश किए, एक रिपोर्ट जिसमें उनके व्यवहार को लेकर बच्चों और परिवार के अन्य सदस्यों ने शिकायत की थी। इसके अलावा, शहनाज ने कुछ तस्वीरें पेश कीं, जो यह दिखाती थीं कि चाचा और चाची अंशु को अकेला छोड़कर संपत्ति के लिए साजिश रच रहे थे। यह तस्वीरें और कागजात इतने शक्तिशाली थे कि उनके बिना पूरा केस कमजोर पड़ सकता था।

    वरदान अपनी जगह पर खड़ा था, जबकि उसकी पीठ पर हर एक शब्द भारी पड़ रहा था। वह जानता था कि यह लड़ाई केवल कानूनी नहीं, बल्कि अस्तित्व की थी। उसकी आँखों में दृढ़ निश्चय था, और उसका सिर झुका नहीं था। वह जानता था कि अंशु को अब न्याय मिलेगा। उसने अपनी तरफ से पूरी मेहनत की थी, सैकड़ों दस्तावेज़, संपत्ति के रिकॉर्ड्स, बैंक स्टेटमेंट्स — हर एक चीज़ पर गहन शोध किया था, ताकि कोर्ट के सामने सारे तथ्य सही तरीके से प्रस्तुत किए जा सकें। लेकिन अब यह सब इतना आसान नहीं था।

    पुलकित और सुदीप दोनों का प्रयास भी अद्वितीय था। पुलकित ने उन सभी बैंक स्टेटमेंट्स और संपत्ति के दस्तावेजों को एकत्रित किया था, जो यह साबित कर सके कि चाचा और चाची ने अंशु को अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए रखा था। बैंक ट्रांजेक्शन और लेन-देन के दस्तावेज यह दिखा रहे थे कि कैसे चाचा और चाची ने अंशु की संपत्ति पर अपना दावा ठोकने के लिए उसे मानसिक रूप से परेशान किया था।

    सुदीप ने अपने कानूनी ज्ञान का पूरा इस्तेमाल करते हुए मामले के हर पहलू को समझाया। वह समझता था कि यह सिर्फ संपत्ति का मामला नहीं था, बल्कि यह पूरी तरह से परिवार के सदस्य के अधिकार की लड़ाई थी। उसने यह साबित करने के लिए सबूत पेश किए कि चाचा और चाची ने अंशु को उसके माता-पिता की संपत्ति से हक़ से वंचित करने के लिए यह सब किया था।

    अब बारी थी चाचा और चाची की दलीलें पेश करने की। वे दोनों अब अपने झूठ को छुपाने और अपनी गलतियों को नकारने की पूरी कोशिश कर रहे थे। उनकी आँखों में एक विशेष प्रकार का घमंड था, जैसे उन्हें पूरा यकीन था कि वे इस अदालत में जीतेंगे।

    चाचा ने अपनी आवाज को कड़ा करते हुए कहा, "मान्यवर, हमारी मदद के बिना, अंशु न तो इस दुनिया में जी सकता था और न ही खुश रह सकती थी। हमने उसे अपने घर में रखा, उसका ख्याल रखा। वह हमारा कर्तव्य था, और इस कर्तव्य के लिए हमें अधिकार मिलना चाहिए। इस संपत्ति का आधिकार हमें है। यह केवल हमारी मेहनत का फल है कि हम इस परिवार को चला रहे हैं।"

    चाची ने भी अपनी तरफ से अपनी बात रखी, "हमने अंशु को संभाला, उसे पालने की जिम्मेदारी ली। अगर हम उसे न संभालते, तो वह अब तक टूट चुका होता। हमें उसकी संपत्ति का अधिकार है, और इस पर हमारा हक बनता है।"

    लेकिन उनका यह वक्तव्य केवल उनके स्वार्थ को ही दिखा रहा था। यह स्पष्ट था कि उनका असली मकसद अंशु के पास मौजूद संपत्ति हड़पना था।

    अंशु ने अपनी बात रखते हुए कहा, "आप लोग मुझसे हमेशा कह रहे थे कि मैं इस परिवार के लिए लायक नहीं हूं। आपने कभी मुझे एक इंसान की तरह नहीं देखा, हमेशा मुझे अपनी संपत्ति का हिस्सा समझा। क्या आप मुझे एक इंसान की तरह जीने का मौका देंगे? मैंने किसी से भी कोई मदद नहीं मांगी, और अब मुझे आपकी मदद की जरूरत नहीं है।"

    अंशु की आँखों में एक स्पष्ट निर्णय था। उसकी आत्मसम्मान की भावना ने उसे इस लड़ाई में खड़ा किया था। उसने अब चाचा और चाची के खिलाफ पूरे परिवार के सामने अपनी आवाज उठाई।

    जज ने शांत स्वर में कहा, "आप सभी ने अपनी बात रखी है, और अब हमें यह तय करना है कि न्याय कहां है। इस कोर्ट का उद्देश्य केवल संपत्ति के अधिकार का निर्णय नहीं है, बल्कि यह सुनिश्चित करना है कि हर व्यक्ति को उसका अधिकार मिले।"

    उसकी आँखों में गहरी समझ थी। वह जानता था कि इस केस में केवल सबूत नहीं, बल्कि इंसानियत, आत्मसम्मान और परिवार के अधिकार का सवाल भी है। जज ने सबूतों को ध्यान से देखा और कहा, "यह मामला केवल संपत्ति का नहीं, बल्कि एक व्यक्ति के जीवन, उसकी स्वतंत्रता और उसकी पहचान का है। हमें यह ध्यान रखना होगा कि कानून केवल सही का समर्थन करता है, और यही वह स्थिति है जो हम इस मामले में लागू करेंगे।"

    कई दिनों तक चली कड़ी पैरवी और कानूनी लड़ाई के बाद अंत में फैसला हुआ। अदालत में एक गहरी सन्नाटा छा गया, जैसे हर कोई इस पल का इंतजार कर रहा हो। अंततः, जज ने अपनी बड़ी और निर्णायक आवाज़ में फैसला सुनाया।

    "इस अदालत ने जो कुछ भी सुना और देखा है, उसके आधार पर, यह स्पष्ट है कि अंशु ने पूरी मेहनत से अपने परिवार का हक़ और अधिकार प्राप्त किया है। चाचा और चाची के द्वारा किए गए शोषण, मानसिक उत्पीड़न और संपत्ति को हथियाने की कोशिश ने न केवल अंशु की जिंदगी को प्रभावित किया, बल्कि उनके बच्चों की मानसिक स्थिति पर भी गहरा असर डाला।"

    "इसलिए, इस तलाक को खारिज किया जाता है, और कोर्ट ने अंशु को उसके माता-पिता की सम्पत्ति का अधिकार दिया है। उसके माता पिता की संपति सिर्फ उसकी हैं।"

    सभी की निगाहें उस पल जज की ओर थीं। लेकिन जैसे ही जज ने आगे कहा, "इसके अलावा, चाचा और चाची के खिलाफ जो शोषण और मानसिक प्रताड़ना के आरोप लगे थे, उन पर सजा और जुर्माना लगाया जाएगा। उनके बच्चों के हिस्से में जो संपत्ति थी, उसे वे आपस में उचित रूप से बांट सकते हैं, लेकिन वह भी अंशु के अधिकार से कोई समझौता नहीं करेगा। उन्हें उसमें से कुछ भी नहीं मिलेगा।"

    यह सुनकर, अंशु के चेहरे पर गहरी राहत की भावना थी, जैसे एक लंबी और थका देने वाली यात्रा के बाद उसे अंततः मंजिल मिल गई हो। उसे वह न्याय मिला था, जो उसने पूरे दिल से मांगा था।

    अंशु ने अपने माता-पिता की संपत्ति पूरी तरह से अपने नाम पर की। वह जानती थी कि यह केवल संपत्ति का नहीं, बल्कि उसके आत्मसम्मान, उसकी स्वतंत्रता, और उसके माता-पिता की यादों का सवाल था। अब वह न सिर्फ़ इस संपत्ति का अधिकार रखती थी, बल्कि उसने अपने माता-पिता के ख्वाबों को भी अपने हाथों में समेट लिया था।

    अंशु ने अपने चाचा-चाची से पूरे न्याय का बदला लिया था। यह सिर्फ एक कानूनी जीत नहीं थी, बल्कि यह समाज को यह संदेश देने की कोशिश थी कि किसी का शोषण करना, किसी की ज़िंदगी से खिलवाड़ करना और अपने स्वार्थ के लिए किसी को तुच्छ समझना बिलकुल गलत है।

    चाचा और चाची के खिलाफ जो सबसे अहम धाराएं लगी थीं, वे थीं:

    धारा 323 (जानबूझकर चोट पहुंचाना): चाचा और चाची पर मानसिक और शारीरिक शोषण का आरोप था, जिसे अदालत ने गंभीरता से लिया।

    धारा 498A (रिश्तेदार द्वारा महिला के प्रति क्रूरता): अदालत ने यह भी माना कि चाचा और चाची ने अंशु के साथ क्रूरता की थी, ताकि वह उनकी संपत्ति से वंचित हो जाए।

    धारा 406 (संपत्ति की धोखाधड़ी): अंशु के माता-पिता की संपत्ति में धोखाधड़ी की कोशिश को भी गंभीर अपराध माना गया।

    धारा 506 (धमकी देना): चाचा और चाची ने अंशु को मानसिक और शारीरिक रूप से धमकाया था, जिससे उसे गंभीर तनाव और भय का सामना करना पड़ा।

    इसलिए, अदालत ने चाचा और चाची के खिलाफ सजा और जुर्माना लगाया। उन्हें कुछ सालों के लिए जेल में रहना पड़ा, साथ ही साथ एक भारी जुर्माना भी भरना पड़ा। कोर्ट ने यह फैसला भी सुनाया कि किसी भी प्रकार का शोषण, और खासकर बच्चों के मानसिक उत्पीड़न को कभी भी सहन नहीं किया जा सकता। यह एक बड़ा संदेश था समाज के लिए।

    फैसले के बाद, अंशु का परिवार एक दूसरे के गले लगकर खुशी से झूम उठा। उसके आँखों में आंसू थे, लेकिन ये आंसू दुःख के नहीं, बल्कि जीत के थे। उसे महसूस हो रहा था कि अब उसके परिवार को सच्चा न्याय मिला है।

    वरदान, पुलकित, और सुदीप उसके साथ खड़े थे। यह जीत केवल कानूनी नहीं थी, बल्कि यह एक जीवन को पुनः बहाल करने की प्रक्रिया थी। परिवार के हर सदस्य ने महसूस किया कि जिस तरह अंशु ने अपने अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ी, वह उनकी खुद की जिंदगी में भी एक नए विश्वास और साहस का संचार करेगा।

    जश्न का माहौल था — अंशु के घर में एक छोटी सी पार्टी हुई, जहाँ सभी ने मिलकर इस कठिन जंग के बाद जीते हुए दिन का जश्न मनाया। अंशु के चेहरों पर अब एक नई मुस्कान थी। उसे अब अपने जीवन में शांति और संतोष का अहसास हो रहा था। वह जानता था कि यह लड़ाई पूरी हो चुकी थी, लेकिन अब उसे अपने परिवार के साथ अपने जीवन की नई शुरुआत करनी थी।

    इस केस से यह भी संदेश मिला कि यदि आप अपने अधिकारों के लिए खड़े होते हैं, तो किसी भी समस्या से पार पाया जा सकता है। अंशु की लड़ाई ने यह साबित कर दिया कि जब परिवार, समर्थन और सही मार्गदर्शन हो, तो कोई भी व्यक्ति किसी भी परिस्थिति से बाहर निकल सकता है।

    न्याय का सच वही होता है, जो केवल कानून तक ही सीमित नहीं होता, बल्कि जो हर इंसान को उसकी गरिमा, अधिकार और स्वतंत्रता देता है। इस केस ने यह संदेश दिया कि हर एक इंसान को उसकी आवाज़ उठाने का अधिकार है और वह अपने जीवन के फैसले खुद लेने का हकदार है।

  • 20. यत्र सत्यं तत्र प्रेम भवति - Chapter 20

    Words: 2030

    Estimated Reading Time: 13 min

    ★★★

    शहनाज़ के जीवन में एक लंबे अँधेरे दौर के बाद अब जैसे एक नई सुबह दस्तक दे रही थी। उसके माता-पिता को अदालत ने दो साल की सज़ा सुनाई थी। यह निर्णय कठिन था, लेकिन न्याय की राह में आवश्यक भी। उस घटना के बाद परिवार बिखरने की कगार पर था, पर समय ने धीरे-धीरे अपने ढंग से चीज़ें समेटनी शुरू कर दीं।

    शहनाज़ का बड़ा भाई और भाभी, जो कुछ समय के लिए मायके चले गए थे, अब वापस उसी घर में लौट आए जहाँ बचपन की यादें और हाल की पीड़ाएँ एक साथ सांस ले रही थीं। उनके साथ उनका चार साल का प्यारा सा बेटा भी था, जिसकी मासूम हँसी ने घर की वीरानी में फिर से रंग भरना शुरू कर दिया।

    भाभी ने एक बार फिर अपने पुराने हुनर — ज्वैलरी डिज़ाइन को हाथ में लिया और धीरे-धीरे काम को पुनः शुरू किया। भाई ने भी इसी शहर में नौकरी ढूंढ ली, ताकि घर-परिवार के साथ रहकर सब कुछ फिर से संजोया जा सके।

    शहनाज़ ने भी स्वयं को एक नयी दिशा दी। उसने एक प्रतिष्ठित कंपनी में नौकरी जॉइन की और खुद को व्यस्त रखना शुरू किया।

    घर में फिर से जीवन की चहल-पहल लौटे, इसके लिए एक और बड़ा क़दम उठाया गया घर के रेनोवेशन का काम शुरू कर दिया गया। दीवारों की दरारें, छत की उखड़ती परतें, टूटे फर्श सब कुछ अब नए जीवन की तरह सजने को तैयार था।

    इस मरम्मत और पुनर्निर्माण के लिए जो धनराशि उपयोग में लाई गई, वह वही थी जो अंशु को न्यायालय द्वारा क्षतिपूर्ति स्वरूप मिली थी। पर अंशु ने अपने स्वार्थ से ऊपर उठते हुए वह राशि चार समान हिस्सों में बाँट दी थी एक हिस्सा अपने लिए, एक वरदान के लिए, एक हिस्सा शहनाज़ के लिए, एक हिस्सा सुरेखा और आरती के लिए, और एक हिस्सा भाई-भाभी के लिए। यह बाँट न सिर्फ़ पैसों की थी, बल्कि एक साझा पीड़ा और पुनर्निर्माण की प्रक्रिया की भी साझेदारी थी।

    अब यह घर सिर्फ़ ईंटों और सीमेंट का ढांचा नहीं था, बल्कि टूटे हुए रिश्तों को फिर से जोड़ने का प्रतीक बनता जा रहा था जहाँ हर कोना किसी न किसी के पुनर्जन्म की कहानी कहता था।

    दूसरी ओर, वरदान के जीवन में भी अब स्थिरता की एक नई लहर आ रही थी। उसके बड़े भाई और भाभी वर्षों बाद घर लौट आए थे। वे अब जीवन की आपाधापी से थककर, अपने वृद्ध माता-पिता के पास रहना चाहते थे सेवा करना चाहते थे, और उनके बचे हुए समय को स्नेह व सम्मान से भर देना चाहते थे।

    घर के आँगन में अब फिर से कदमों की चहलकदमी सुनाई देने लगी थी। भाभी की सधी हुई दिनचर्या और भाई की शांत परिपक्वता ने पूरे घर को एक नया आधार दिया। दीवारों पर जमी उदासी जैसे धुलने लगी थी, और घर फिर से एक जीवंत इकाई बनने लगा था।

    वरदान और अंशु ने भी यह बदलाव महसूस किया जैसे समय उन्हें किसी नये अध्याय की ओर आमंत्रित कर रहा हो। दोनों अब उस शहर में शिफ्ट हो गए जहाँ वरदान का भाई-भाभी रहते थे। वह घर बड़ा तो नहीं था, पर वहाँ अपनापन था, जड़ें थीं, और सबसे ज़रूरी एक ऐसी जगह जहाँ वे खुद को सुरक्षित और स्वीकार्य महसूस कर सकते थे।

    दोनों ने एक ही कंपनी में नौकरी जॉइन की, जिससे दिन की शुरुआत और अंत साथ होता और उनके बीच का रिश्ता धीरे-धीरे एक शांत, स्नेहिल सहजीवन की ओर बढ़ने लगा। ऑफिस का व्यस्त वातावरण, साथ-साथ लंच ब्रेक, और घर लौटकर छोटी-छोटी बातों पर मुस्कराना ये सब जैसे एक सामान्य जीवन की अनमोल झलकियाँ थीं, जिसे वे अब धीरे-धीरे जीना सीख रहे थे।

    इधर वरदान के भाई-भाभी पूरी तरह अपने माता-पिता की सेवा में लग गए थे। माँ की आँखों में अब हर दिन बेटे का चेहरा देखने का सुकून था, और पिता के लिए वह एक तरह की आत्मिक शांति थी जैसे उन्होंने जीवन का सबसे कठिन युद्ध जीत लिया हो।

    अब वह घर भी एक साधारण मकान नहीं रहा था वह एक पुनर्निर्मित संबंधों का मंदिर बन गया था, जहाँ हर व्यक्ति अपने-अपने कर्मपथ पर था, पर दिलों की डोर एक-दूसरे से गुँथी हुई थी।

    इसके अलावा, वरदान और अंशु ने अपने जीवन को सादगी और विवेक के साथ आगे बढ़ाने का निर्णय लिया। उन्होंने सिर्फ़ उतने ही ख़र्चे किए जितने सच में आवश्यक थे — बुनियादी ज़रूरतें, घर का संचालन, और थोड़ी-बहुत रोज़मर्रा की सहूलियतें। उनके भीतर अब भोग नहीं, बल्कि सेवा और निर्माण की भावना थी।

    जो धनराशि अंशु को मिली थी, उसका एक बड़ा हिस्सा अब उन्होंने उस पुराने, दो-मंज़िला मकान की मरम्मत में लगाना शुरू कर दिया, जिसे अंशु के माता-पिता ने वर्षों पहले बड़ी मेहनत और आशा से बनवाया था। वह घर समय और उपेक्षा के कारण जर्जर होता जा रहा था दीवारों में सीलन थी, खिड़कियों की चौखटें ढीली पड़ चुकी थीं, और छतों की परतें झड़ने लगी थीं। पर उस घर की नींव में एक परिवार का सपना धड़कता था, और अंशु ने उसे फिर से जी उठाने का निश्चय कर लिया था।

    मरम्मत के काम में वे दोनों व्यक्तिगत रूप से शामिल होते राजमिस्त्री से बात करना, रंगों का चयन करना, पुराने फर्नीचर को खुद पॉलिश करना, और हर कोने में अपने हाथों से जीवन भर देना। यह सिर्फ़ ईंट-पत्थर का काम नहीं था, यह एक टूटी हुई विरासत को संजोने और उसके माध्यम से एक नया अध्याय रचने का प्रयास था।

    वह घर इतना बड़ा था कि वरदान के पूरे परिवार के साथ आराम से रहा जा सकता था माता-पिता, भाई-भाभी, और आने वाले समय में यदि अंशु और वरदान का अपना छोटा-सा परिवार हो, तो भी जगह की कोई कमी नहीं थी।

    शहर की भीड़ से थोड़ा हटकर, उस घर के चारों ओर हरियाली थी पुराने नीम का पेड़, जो अब भी आँगन पर छाया किए खड़ा था; पिछवाड़े में तुलसी का पौधा, जिसे अंशु ने अपनी माँ के हाथों लगते देखा था। इन सबको वह अब फिर से सजीव बना रही थी।

    जहाँ एक ओर घर की मरम्मत चल रही थी, वहीं दूसरी ओर अंशु ने बची हुई धनराशि को संभालकर रखना शुरू कर दिया था। यह पैसे किसी और जरूरी उद्देश्य के लिए थे कोई ऐसा काम, जो सिर्फ़ घर की दीवारों तक सीमित न हो, बल्कि किसी बड़े अर्थ की ओर इशारा करता हो। वह जानती थी कि यह धन एक शक्ति है और शक्ति का सही प्रयोग तभी होता है जब वह समय के साथ, सोच-समझकर और सच्चे उद्देश्य के लिए किया जाए।

    उसके भीतर अब एक गहरी नीरवता थी न शोर था, न दिखावा। बस एक गहन शांति और मौन निर्माण, जो भीतर भी था और बाहर भी।

    सुदीप अब अपने वकालत के पेशे से एक अजीब-सी थकान महसूस करने लगा था। हर दिन अदालतों के चक्कर, तर्कों की तीखी बहसें, और दूसरों के संघर्षों को अपने कंधों पर ढोते-ढोते उसका मन अब बोझिल रहने लगा था। वह जानता था कि न्याय का यह रास्ता ज़रूरी था, पर कभी-कभी यह रास्ता भी उसकी आत्मा की खामोशी को सुनने नहीं देता था।

    फिर भी, उसने हार नहीं मानी। उसने अपने काम को पूरी ज़िम्मेदारी से निभाया, पर साथ ही भीतर कुछ नया सीखने की प्यास भी पल रही थी। उसने बिज़नेस से जुड़े विषयों पर पढ़ना शुरू किया छोटे-छोटे कोर्स, ऑनलाइन सेमिनार, और प्रैक्टिकल ज्ञान जो वकालत के क्षेत्र को व्यापारिक दृष्टिकोण से देखने में उसकी मदद कर सके।

    अब वह सिर्फ़ कानून नहीं, बल्कि व्यवस्था के भीतर छुपी संभावनाओं को भी समझने लगा था कैसे किसी केस के पीछे आर्थिक ढाँचा काम करता है, कैसे क्लाइंट्स के साथ संवाद का स्तर केवल वैधानिक नहीं, मानवीय और व्यावसायिक भी होना चाहिए। उसने अपने अनुभव को नये नज़रिए से देखना शुरू कर दिया अब वकालत सिर्फ़ नौकरी नहीं रही, बल्कि एक ज़रिया बन गई थी उस बदलाव का जो वह अपने जीवन में लाना चाहता था।

    उधर आरती भी अपने जीवन को एक नई दिशा देने के लिए संकल्पित थी। वर्षों तक दूसरों की ज़रूरतों में खुद को भूल जाने वाली आरती ने अब पहली बार अपने भीतर झाँकना शुरू किया था और वहाँ उसे एक कलाकार मिली।

    उसे हमेशा से सौंदर्य की समझ थी पर अब वह केवल दिखावे तक सीमित नहीं रहना चाहती थी। उसने प्राकृतिक सौंदर्य और आत्म-देखभाल से जुड़ी विधाओं को सीखना शुरू कर दिया। हर्बल बॉडी केयर, आयुर्वेदिक स्किन थेरेपी, और घर पर बने प्राकृतिक मेकअप प्रोडक्ट्स इन सभी विषयों में वह धीरे-धीरे पारंगत होती जा रही थी।

    उसका कमरा अब छोटे-छोटे बर्तनों, जड़ी-बूटियों, और सुगंधित तेलों की प्रयोगशाला जैसा लगने लगा था। वह न सिर्फ़ सीख रही थी, बल्कि अपने आसपास की महिलाओं को भी छोटे-छोटे प्रयोगों से जोड़ रही थी एक तरह से यह उसके भीतर पल रहे उस स्वप्न का प्रारंभ था, जिसमें वह सौंदर्य को बाज़ार की नहीं, प्रकृति की नज़र से देखना चाहती थी।

    सुदीप और आरती दोनों ही अब एक ऐसे मोड़ पर थे जहाँ पुराने रास्ते पीछे छूटते जा रहे थे, और नए रास्तों की तैयारी चल रही थी। वे थके थे, पर रुके नहीं थे। भीतर कुछ जाग रहा था, पर बाहर सब शांत था।

    नील, जो सोशल मीडिया मैनेजमेंट के क्षेत्र में वर्षों से कार्यरत था, अब डिजिटल दुनिया की तेज़ रफ्तार को बखूबी समझने लगा था। ट्रेंड्स, एल्गोरिदम, ब्रांडिंग सब उसकी उंगलियों पर था। पर इस तकनीकी और तेज़ भागती दुनिया में भी उसके भीतर एक सृजनात्मक तड़प बची हुई थी, जो सिर्फ़ पोस्ट शेड्यूल करने या कैप्शन लिखने से शांत नहीं होती थी।

    उसी दौरान उसकी मुलाकात हुई सुरभि से एक आत्मविश्वासी और कल्पनाशील ग्राफिक डिज़ाइनर, जिसकी आँखों में रंगों की भाषा और डिज़ाइन की लय जैसे बसी हुई थी। वह न केवल पिक्सल और पैलेट को समझती थी, बल्कि हर डिज़ाइन में भाव भर देती थी।

    नील को सुरभि का काम ही नहीं, उसकी सोच भी पसंद आने लगी। उनके बीच शुरुआत एक पेशेवर टीम वर्क के तौर पर हुई वीडियो एडिटिंग के दौरान सुरभि का बारीकी से फ्रेम्स पर ध्यान देना, और नील का शब्दों और साउंड के साथ जादू करना ये सब जैसे किसी सुंदर जुगलबंदी की तरह घटने लगा।

    वे दोनों अब एक ही कंपनी में साथ काम कर रहे थे और साथ में प्रोजेक्ट्स पर काम करते हुए एक सहज लय विकसित होने लगी थी। फोटोशूट से पहले की स्क्रिप्टिंग, लोकेशन का चयन, फिर शूट के दौरान दोनों की ऊर्जा और अंत में घंटों की एडिटिंग यह सब उन्हें एक-दूसरे के और करीब ले आया।

    उनके बीच कोई भारी-भरकम वादा नहीं था, कोई स्पष्ट नाम नहीं था इस रिश्ते का पर हर साझा प्रोजेक्ट के बाद जब दोनों बैठकर अपने काम को देखते, मुस्कराते और अगली बार और बेहतर करने की योजना बनाते, तो यह साफ़ महसूस होता कि कुछ है जो सिर्फ़ पेशेवर नहीं रहा।

    नील की डिजिटल दृष्टि और सुरभि की दृश्य-संवेदना ने मिलकर अब कंपनी के कई प्रोजेक्ट्स को नया जीवन दे दिया था। वे सिर्फ़ कंटेंट क्रिएटर नहीं थे वे भावना को दृश्य और ध्वनि में पिरोने वाले दो कलाकार बन गए थे, जो एक-दूसरे की भाषा बिना कहे समझने लगे थे।

    इस रचनात्मक संग-साथ ने उन्हें बाहर से भी सराहना दिलाई, और भीतर एक ऐसा रिश्ता गढ़ा जो शब्दों से ज़्यादा लय और रंगों में व्यक्त होता था।

    बहुत सुंदर वाक्य है — "जल्द ही अभी को उनकी मंज़िल मिलने वाली थी।"

    इसमें एक भविष्य की हल्की झलक है, एक सस्पेंस, और एक आशा।

    हर दिन की मेहनत, हर रात का सपना, हर संवाद, हर चुप्पी जैसे एक दिशा में बह रहे थे। नील और सुरभि को पता नहीं था कि मंज़िल कैसी होगी, पर इतना यक़ीन ज़रूर था कि वह दूर नहीं।

    उनकी कोशिशें अब रंग लाने लगी थीं एक साथ किए गए प्रोजेक्ट्स वायरल हो रहे थे, क्लाइंट्स की सराहना मिल रही थी, और कंपनी के भीतर भी उनके काम को एक पहचान मिलने लगी थी। लेकिन इन सबके परे, सबसे बड़ी बात थी एक-दूसरे की उपस्थिति का वो भरोसा, जो बिना कहे साथ खड़ा रहता था। जल्द ही अभी को उनकी मंज़िल मिलने वाली थी।

    एक ऐसी मंज़िल जो सिर्फ़ सफलता नहीं, संतुलन और सच्चे साथ का प्रतीक होगी।शायद एक ऐसा दिन, जब सभी पहली बार कुछ कहे बिना ही एक दूसरे की आँखों में देखेंगे और वह सब कुछ समझ जाएंगे......या वो पल, जब सभी मिलकर अपने नाम की अमिट छाप छोड़ेंगे। मंज़िल अब एक मोड़ पर थी और वो मोड़, ज़िंदगी की सबसे सुंदर राह बनने वाला था।