यूँ तो तुम्हें रखैल भी बना सकता हूँ... लेकिन पहला मौका दूल्हे बनने का दे रहा हूँ।" तो आर्या के पास कोई और रास्ता न बचा। क्या एक सौदे से शुरू हुआ रिश्ता नफरत के तूफान में बचेगा? क्या पत्थर... यूँ तो तुम्हें रखैल भी बना सकता हूँ... लेकिन पहला मौका दूल्हे बनने का दे रहा हूँ।" तो आर्या के पास कोई और रास्ता न बचा। क्या एक सौदे से शुरू हुआ रिश्ता नफरत के तूफान में बचेगा? क्या पत्थर दिल सम्राट के भीतर कहीं कोई धड़कता दिल छुपा है? और क्या आर्या एक सौदे की दुल्हन से उसकी किस्मत बन पाएगी? "एक रहस्य, एक तिलस्म, एक तड़प... जहाँ दिल की हर धड़कन सौदे के खिलाफ बगावत कर बैठती है।" पढ़िए इस तपते अहंकार और टूटते दिलों की कहानी को, जहाँ मोहब्बत की पहली बोली नफरत में लगती है। पत्थर दिल सम्राट और मजबूरी की दुल्हन – एक सौदे की मोहब्बत" जब दिलों के बीच सौदे होते हैं, तब क्या प्यार की कोई जगह बचती है? वो एक क्रूर सम्राट है – रुतबे से नहीं, रौब से चलता है। उसकी आँखों में न प्यार है, न रहम… सिर्फ सत्ता, बदला और जुनून। और वो है आर्या – मासूम, भोली, अपने पिता की जिंदगी बचाने को किसी भी हद तक जाने को तैयार। जब सम्राट ने सामने रखा एक ऐसा प्रस्ताव जो उसकी रूह तक को झकझोर दे –
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धूप और अंधेरे के बीच झूलती उसे तहखाना जैसी जगह में सिर्फ एक चीज़ चमक रही थी — वो पिंजरा, और पिंजरे में बंद वो लड़की। रेशमी लाल लहंगा उसकी कमर से लिपटा था, और उसकी आंखों में भरे काजल से ज़्यादा गहरा था उसका डर। उसके माथे पर पसीने की बूँदें थीं, लेकिन होंठ अब भी सजे हुए थे—जैसे मजबूरी में मुस्कुराना सिखा दिया गया हो।
वो खड़ा था उसके सामने — अंधेरे से निकलता हुआ, जैसे कोई छाया जिसे रौशनी भी ठुकरा दे। काले ब्लेज़र के नीचे उसकी उंगलियाँ बटन खोल रही थीं — धीरे, जानबूझकर धीमे। उसकी आंखों में ना तो वासना थी, ना ही मोह — सिर्फ एक सर्द हक़, जिसे वो पूरे हक़ से चाहता था।
"तुम्हें पता है," उसकी आवाज़ में बर्फ़ जैसी ठंडक थी, "मुझे फूलों से नफ़रत है... मगर जब तुम इस तरह सजी होती हो, तो मुझे तोड़ने का मन करता है।"
वो एक कदम आगे बढ़ा। पिंजरे की सलाखों को उसने ऐसे थामा, जैसे वो किसी औज़ार को पकड़ रहा हो—किसी खेल के लिए नहीं, बल्कि जंग जीतने के लिए।
वो लड़की कांप उठी। उसकी कमर तक आती बालों की लटें उसके चेहरे पर बिखर आईं। उसने पीछे हटने की कोशिश की, लेकिन पिंजरा छोटा था, और उसकी सांसें बड़ी।
"क्यों लाया मुझे यहाँ?" उसने धीमे से पूछा, आवाज़ इतनी नर्म कि पिंजरे की दीवारों से टकरा कर लौट आई।
वो दरवाज़ा खोलता है—धीरे, एक क्रैक की आवाज़ के साथ। लड़की पीछे हटती है, पर वह उसके बेहद करीब आ चुका है।
उसके हाथ उसके चेहरे तक आते हैं। उंगलियाँ उसके गालों पर फिसलती हैं, मानो सर्द पत्थर किसी गर्म तितली को छू रहा हो। "तुम्हें देख कर भी अगर दिल न धड़के, तो समझ लो दिल मर चुका है।" उसने कहा, जैसे किसी किताब की आखिरी पंक्ति पढ़ रहा हो।
लड़की की आंखों में नमी थी, लेकिन होंठ कांपे नहीं। वो बस उसे देखती रही, उसकी आंखों की गहराई में कोई पुराना तूफ़ान तलाशती हुई।
"मुझे मत छुओ..." वह फुसफुसाई।
"मैं तुम्हें छू नहीं रहा," वह मुस्कराया, "मैं बस तुम्हें महसूस कर रहा हूँ। फ़र्क़ है।"
वह धीरे से उसके कंधे के पास झुकता है। उसकी सांसें उसके गले के पास खेलती हैं, और वह कांप जाती है—नफरत और चाहत की मिली-जुली थरथराहट।
"तुम्हें बंद किया है मैंने, मगर पिंजरे में तुम नहीं... शायद मैं हूँ," वह बुदबुदाया।
और तभी, उस क्षण... जब उसकी उंगलियाँ उसके गले के पास लगे पेंडेंट को छूती हैं, वो लड़की उसकी आंखों में झांकती है। वहाँ कुछ टूट रहा होता है — शायद वो सख्त दिल, या शायद सिर्फ एक पुरानी दीवार।
उसकी उँगलियाँ अब पेंडेंट से नीचे फिसलने लगी थीं — गर्दन की खोखली घाटी में, जहाँ दिल की धड़कनों का कंपन सबसे साफ़ सुना जा सकता था।
"ये धड़कनें..." उसने धीमे से फुसफुसाया, "हर बार तेज़ होती हैं जब मैं करीब आता हूँ। डर से या चाह से?"
वो जवाब नहीं देती। शायद वो खुद नहीं जानती।
उसने उसकी कलाई पकड़ ली — तेज़ी से, जैसे कोई शिकार शिकारी की पकड़ में आ गया हो। लड़की की आँखें फैल गईं, पर उसने चीखा नहीं। वो बस देखती रही — उसकी आँखों में झलकते उस अजीब अंधे शौक़ को।
"तुम्हें नहीं लगता कि इस दुनिया में तुम्हारे जैसे चेहरे को आज़ादी से ज़्यादा, किसी की कैद की ज़रूरत है?" उसने धीरे-धीरे कहा, मानो कोई प्रेमी नहीं, कोई गवाह बोल रहा हो।
लड़की ने अपनी कलाई छुड़ाने की कोशिश की, लेकिन वो धीरे-धीरे उसकी ओर झुक आया।
उसकी सांसें अब उसकी कनपटी पर थीं, और उसकी हथेली उसकी पीठ को छूने लगी — उतनी ही ठंडी, जितनी उसकी आँखें थीं।
"तुम्हें पता है, इस पिंजरे में तुम सबसे ज़्यादा खूबसूरत लगती हो। जैसे गुलाब कांटों में कैद हो... और मैं वही काँटा हूं, जो तुम्हें हर बार चुभना चाहता है..."
वो झुका, और उसकी गर्दन पर होंठों की नमी महसूस हुई — हल्की, लेकिन भारी।
वो लड़ती नहीं।
वो चुप रही, मगर उसकी आँखों से एक गूंगी चीख़ रिस गई।
"मुझे मत छुओ…" अबकी बार वो कांपती आवाज़ में बोली।
"क्यों नहीं?" उसने उसका चेहरा ऊपर की ओर मोड़ा, उसकी ठोड़ी को अपनी उँगलियों से दबाते हुए।
"क्योंकि मैंने तुम्हारा डर देखा है… और अब मैं तुम्हारा इश्क़ भी देखना चाहता हूँ। एक बार, बस एक बार तुम मेरे लिए काँपो… चाहत से, नफ़रत से, फर्क नहीं पड़ता।"
वो हँसा, पर उस हँसी में कोई गर्मी नहीं थी। वो धीरे से पीछे हटा, लेकिन उसकी पकड़ अब भी उसकी कमर पर थी।
फिर उसने जेब से एक चाबी निकाली — वही जो पिंजरे की ताले में फिट होती थी।
"आज़ादी चाहिए?" उसने उसकी आंखों में देखा।
लड़की ने सिर हिलाया — धीरे से।
"तो एक शर्त है…"
वो झुका, और फुसफुसाया:
"मेरी आँखों में देखो… और बताओ कि तुमने कभी मुझे चाहा था… ज़रा भी। झूठ भी चलेगा, लेकिन झपकना नहीं।"
लड़की की आंखों में आंसू ठहर गए।
वो कुछ कहने ही वाली थी कि तभी…
दरवाज़े के बाहर एक परछाईं हिली।
किसी और की मौजूदगी का एहसास पिघली हवा की तरह उनके बीच आ गया।
वो लड़का चौकन्ना हुआ, मगर लड़की की आँखों में हल्की सी चमक आई — जैसे पिंजरे में भी उम्मीद की एक दरार खुली हो।
कौन था वो? कोई रहस्य? कोई बचाव? या एक और खेल?
तभी वो लड़की सोचती है इसकी शुरुआत कहाँ और कब हुई?
जयपुर की हवेली उस शाम किसी सपने सी लग रही थी। रंगीन झालरों की लड़ी हवेली के हर कोने में टिमटिमा रही थी, जैसे हर दीवार, हर खंभा किसी खास पल का गवाह बनना चाहता हो। फव्वारों से निकलती पानी की बूंदें और उन पर पड़ती रोशनी, एक जादू सा रच रही थीं। संगीत की धीमी लहरें, गुलाब और मोगरे की महक और मेहमानों की हँसी—सब मिलकर उस शाम को एक परी कथा में बदल चुके थे।
सगाई की रस्म अपने चरम पर थी। मंच के ऊपर, रेशमी शेरवानी में सजे मंयक ने अपने कांपते हाथों से हीरे की अंगूठी अपनी होने वाली मंगेतर की उंगली में पहनाई, तालियों की गूंज पूरे आंगन में भर गई। आर्या, सुनहरी लहंगे में, उस अंगूठी को देखते हुए मुस्कुरा रही थी। उसके गालों पर हलकी सी लाली थी, शायद खुशी की...या फिर कुछ और?
वहीं, हवेली के एक कोने में सम्राट खड़ा उस मुस्कान को पढ़ने की कोशिश कर रहा था। उसकी निगाहें आर्या पर जमी थीं। उसके चेहरे पर शिकन थी, आँखों में बेचैनी। जैसे हर मुस्कान, हर तालियाँ उसे चुभ रही हों। उसने अपनी मुट्ठियाँ कस ली थीं। उसका साँस लेना भी भारी हो गया था।
"सम्राट यार, वहाँ क्या खड़ा है? यहाँ आ ना!"
एक जोरदार आवाज ने सम्राट को वर्तमान में खींच लिया। यह उसके दोस्त मंयक की आवाज थी—वही लड़का जिसकी आज सगाई थी।
सम्राट की नज़रें आर्या से हट गईं, पर उसका मन वहीं अटका रह गया। वह धीरे-धीरे कदम बढ़ाया। उसकी चाल में एक ठहराव था, एक अजीब सा द्वंद्व।
"यार, ये आर्या है...तुम पहली बार मिल रहे हो," मंयक ने मुस्कुराते हुए कहा।
सम्राट ने पहले मंयक से हाथ मिलाया और बधाई दी। "कांग्रेस भाई, बहुत मुबारक हो।"
फिर उसने अपना हाथ आर्या की ओर बढ़ाया।
आर्या ने हल्का सा सिर हिलाते हुए हाथ मिलाया, पर उसकी आँखों में एक अजनबीपन था।
"यू आर सो ब्यूटीफुल," सम्राट के लफ्ज़ कुछ यूँ निकले जैसे साँस के साथ कोई अधूरा जज़्बा बह निकला हो।
उसकी निगाहें आर्या के चेहरे से फिसलती हुई उसके कंधे, गले, और फिर लहंगे की सिलवटों तक पहुँचीं। निगाहें नहीं, जैसे छुअन बन चुकी हों।
आर्या ने झिझकते हुए अपना हाथ खींचा, लेकिन सम्राट की पकड़ मजबूत थी।
"थैंक्स," उसने ठंडे स्वर में कहा, लेकिन भीतर घबराहट दौड़ रही थी। सम्राट की आँखें उस पर टिकी थीं, जैसे कोई भूला हुआ अतीत सामने आ खड़ा हो।
हॉल में लोग हँसी, चाय और मिठाई में डूबे थे। कोई नहीं देख रहा था कि आर्या असहज हो रही है।
"ए मिस्टर, ज़्यादा ही हो रहा है। मेरा हाथ छोड़ो,"
आर्या ने दाँत भींचते हुए, होठों को कड़ा कर कहा।
इस बार उसकी आवाज में चेतावनी थी। लेकिन सम्राट की आँखें अब भी वैसी ही थीं—ठहरी हुई, दीवानी, और कुछ हद तक डरावनी।
एक पल बाद, जैसे होश में आया हो, सम्राट ने उसका हाथ छोड़ दिया। उसकी उंगलियाँ एक हल्की कंपकंपी के साथ हटीं। पर उसकी नज़रें अब भी आर्या पर थीं। इतनी गहराई से जैसे उसकी आँखों में उतर जाना चाहता हो।
फिर बिना कुछ कहे, बिना किसी को देखे, वह धीमे-धीमे कदम पीछे लेने लगा। जैसे कोई जंग हार चुका हो, या फिर कोई और खेल खेलने जा रहा हो।
आर्या ने एक झटके में अपना चेहरा दूसरी ओर मोड़ा, उसकी साँसें तेज़ चल रही थीं।
"साइको कहीं का," उसने गुस्से और घृणा से फुसफुसाया।
उसके शब्द भले धीमे थे, लेकिन उनकी तीव्रता हवेली के उस कोने में बर्फ सी ठंडी हो गई थी।
वह पल छोटा था, लेकिन आर्या के मन में अपनी छाप छोड़ चुका था। सम्राट की वह नज़र, वह छुअन, और वह खामोशी...सब कुछ जैसे हवा में तैरता रह गया।
और सगाई की वह रात, जो हँसी और तालियों से भरी थी, एक कोने में सन्नाटे की दस्तक दे गई।
स्टेज की हल्की पीली रोशनी में एक आलीशान सोफ़ा सजा था। पीछे नीला पर्दा लहराता सा लग रहा था, जैसे रात की कोई रहस्यमयी चुप्पी उसके भीतर छिपी हो। आर्या और मंयक उस सोफे पर आमने-सामने बैठे थे, दोनों के हाथों में कॉफ़ी मग था।
आर्या ने हल्की मुस्कान के साथ सामने खड़े व्यक्ति की ओर इशारा किया।
"ये साइको कौन है? अजीब इंसान है... देखो उसे ज़रा," आर्या ने भौंहें चढ़ाकर धीमे स्वर में कहा, उसकी आँखों में एक हलकी सी चंचलता थी।
मंयक ने एक ज़ोरदार हँसी लगाई।
"तुम नहीं सुधरेगी...वो ही तो मेरा सबसे क़रीबी दोस्त है, सम्राट ओबेरॉय...बिलियनेयर बिज़नेस टायकून।"
आर्या ने हैरानी से आँखें चौड़ी करते हुए पूछा,
"वो…अच्छा…जिसके तुम पीए हो?"
मंयक मुस्कराया,
"हाँ! लेकिन उससे भी ज़्यादा, वो मेरा भाई है। जब उसे पता चला कि मैं अपनी पसंद की लड़की से शादी करना चाहता हूँ, तो सबसे ज़्यादा खुश वही हुआ था। पूरी सगाई की प्लानिंग जयपुर में उसी ने की है…सबकुछ खुद देखा है उसने।"
आर्या की नज़र अब फिर से सम्राट की ओर गई। वह मंच के एक कोने में खड़ा था—काले सूट में, गहरे लाल टाई के साथ। उसकी आँखें स्थिर थीं, जैसे किसी एक बिंदु पर जम गई हों। और वह बिंदु था—आर्या।
आर्या ने धीमे से कहा,
"मुझे तो ये पागल लगता है…देखो कैसे सबसे अलग खड़ा है…जैसे भीड़ से खुद को काट चुका हो।"
मंयक ने गहरी साँस लेते हुए हामी भरी,
"हाँ…वो अलग है, बहुत ज़्यादा। लेकिन वफादार है। और…डरावना भी कभी-कभी।"
फिर दोनों अपनी बातों में मशगूल हो गए। कॉलेज के दिनों की यादें, शरारतें, और शादी की तैयारियाँ…हँसी और हल्के छेड़छाड़ के बीच वक़्त बहता चला गया।
मगर सम्राट की आँखें अब भी वहीं थीं। स्थिर। सर्द। आग से भरी हुई।
उसने धीमे-धीमे अपनी मुट्ठियाँ भींचनी शुरू कर दीं। और जब उसने देखा कि मंयक ने आर्या का हाथ पकड़ा—एक दोस्ताना स्पर्श, एक मासूम सा इशारा—तो सम्राट के भीतर कुछ जल उठा।
उसने धीरे से पास रखे टेबल से गुलदान की तरफ़ हाथ बढ़ाया। उसमें लगे गुलाब को उठाया। और जैसे वह फूल कोई नरम भाव न होकर कोई दुश्मन हो, उसे अपनी अंगुलियों से मसल दिया। उसकी आँखें अब मंयक के चेहरे पर थीं—पर आग के उस घने कुहासे से भी आर्या ही प्रतिबिंबित हो रही थी।
फिर धीरे से, लगभग कान में फुसफुसाते हुए स्वर में…लेकिन इतने तीखे कि हवा भी कांप जाए…
"तुम्हारी हँसी बहुत प्यारी है…और ये सिर्फ मेरे लिए है,"
उसने कहा।
आर्या ने अचानक उसकी तरफ़ देखा। सम्राट अब धीरे-धीरे स्टेज की ओर बढ़ रहा था। उसकी चाल किसी शिकारी की तरह थी—धीमी, नियंत्रित और भयावह।
मंयक ने हँसते हुए कहा,
"सम्राट! आ जा यार, तू तो अकेले ही खड़ा है!"
सम्राट की मुस्कान उभरी—पर वह गर्माहट वाली नहीं थी। वह मुस्कान वैसी थी, जैसे कोई किसी शिकार से पहले अपने दाँत दिखाता हो।
"मैं तो कब से देख रहा हूँ," सम्राट ने कहा, फिर उसकी नज़र आर्या पर टिक गई। "इतनी प्यारी बातों में खोए हो…लगा, मैं कहीं मिस न कर दूँ कुछ…खास…"
आर्या ने हल्का सा मुस्कुरा कर कहा,
"आपके जैसी नज़रों से कुछ छूटे, यह तो मुश्किल है।"
"बिल्कुल," सम्राट ने सिर हल्का टेढ़ा करते हुए कहा, "मैं किसी चीज़ को छूटने नहीं देता, जो मेरी हो…या होनी चाहिए।"
उसका स्वर अब गहराता गया था।
आर्या थोड़ी असहज हुई। मंयक ने माहौल संभालने के लिए बात घुमा दी,
"यार सम्राट, अब तू डायलॉग मारना छोड़ और आ बैठ। आज हम सबको खुश रहना है—आर्या के लिए, मेरे लिए…और तेरे लिए भी।"
सम्राट ने एक पल के लिए मंयक की ओर देखा…फिर उसकी आँखें वहीं लौटीं—आर्या पर।
आर्या का चेहरा अब गंभीर था। उसे पहली बार महसूस हुआ कि इस व्यक्ति की आँखों में कुछ असामान्य है…कोई अजीब सी ललक…कोई अधिकार…जो अभी मिला नहीं, पर वह उसे अपना मान बैठा है।
तभी सम्राट ने गुलाब की पंखुड़ी आर्या की तरफ़ बढ़ा दी।
"ये…तुम्हारे लिए। मगर संभालकर रखना…ये काँटों से भरा है। जैसे मैं।"
आर्या ने कुछ नहीं कहा। उसने वह पंखुड़ी लेकर चुपचाप अपनी हथेली में रख ली। मंयक ने हँसी में माहौल हल्का किया, लेकिन हवा में कुछ भारीपन उतर चुका था।
स्टेज पर संगीत धीमे-धीमे बज रहा था।
मगर सम्राट के भीतर कोई तेज़ साज़ बज रहा था—ईर्ष्या का, हक़ का, जुनून का।
शोला अभी भी दहक रहा था।
और वह आग अब सिर्फ उसके भीतर नहीं थी…वह धीरे-धीरे उस मंच के चारों ओर फैल रही थी।
बाहर हल्की बूँदें गिर रही थीं, लेकिन हाल के भीतर माहौल किसी त्योहार सा था। आर्या की हँसी पूरे कमरे को रोशन कर रही थी—वह हँस रही थी, बेपरवाह, जैसे बचपन की कोई मासूम याद अचानक लौट आई हो। सम्राट सामने खड़ा, उस हँसी में डूब रहा था। हर बार जब आर्या मुस्कुराती, सम्राट का दिल जैसे एक नई धड़कन लेना शुरू कर देता। उसकी नज़रें आर्या के चेहरे से हट ही नहीं रही थीं।
"क्या हम पहले कभी मिले हैं?" सम्राट ने खुद से सवाल किया।
पर अचानक, मानो आसमान भी उसकी बेचैनी को पहचान गया हो। एक ज़ोरदार बिजली चमकी और फिर गरजते बादलों के साथ बारिश तेज़ हो गई। बूंदों की थपकियाँ खिड़कियों से टकरा रही थीं, और हल्की ठंडी हवा भीतर तक दस्तक देने लगी थी।
आर्या खिड़की के पास गई और हाथ फैलाकर बारिश को महसूस करने लगी—उस लम्हे में वह किसी परी जैसी लग रही थी। सम्राट के लिए अब और रुक पाना मुमकिन नहीं था।
उसकी चाल में एक अलग ही बेसब्री थी। जैसे कोई अनकही पुकार उसे आर्या तक खींच रही हो। वह उसके पास पहुँचा, बिना कुछ कहे, बस उसकी आँखों में देखा। आर्या थोड़ी हिचकी, उसकी साँसें थोड़ी गहरी हुईं।
"सम्राट?" उसकी आवाज़ में सवाल भी था और कुछ नज़ाकत भी।
पर जवाब में सम्राट ने बस उसका हाथ थामा, और अपनी तरफ़ खींच लिया। इतना अचानक कि आर्या के कदम खुद-ब-खुद उसके साथ बह निकले।
हॉल में बैठे सभी लोग उस दृश्य को चौंक कर देखने लगे—सम्राट आर्या का हाथ थामे उसे बाहर बारिश में ले जा रहा था।
आर्या की साँसें रुकी थीं, उसका दिल ज़ोर से धड़क रहा था। लेकिन वह विरोध नहीं कर पाई, उसकी उंगलियाँ सम्राट की उंगलियों में उलझ चुकी थीं।
बाहर पहुँचते ही सम्राट ने एक पल के लिए उसे देखा—बारिश अब और तेज़ हो गई थी। उनकी भीगी ज़ुल्फ़ें एक-दूसरे के चेहरे पर गिर रही थीं। आर्या की आँखों में एक अनजाना डर था, लेकिन उससे कहीं ज़्यादा था एक बेचैन सा इंतज़ार।
और तभी...
सम्राट ने उसे अपनी बाँहों में भर लिया और बिना कुछ कहे, उसके होठों पर अपने होठ रख दिए।
एक पल के लिए वक़्त थम गया।
हवा ने अपना रास्ता बदल दिया, बादल थम गए, और दिलों की धड़कनें तेज़ हो गईं।
हॉल से बाहर आ चुके सारे मेहमान, दोस्त, और मंयक—सब वहीं खड़े रह गए। किसी को यकीन नहीं हुआ कि शाही अंदाज़ में जीने वाला सम्राट इतना बेतहाशा, इतना दीवाना हो सकता है।
मंयक की आँखें चौड़ी हो गईं। उसका चेहरा भावशून्य था, जैसे किसी ने ज़मीन खींच ली हो। वह उस जगह से हिल तक नहीं पाया।
आर्या...
वह जैसे साँस लेना भूल गई थी। उसका शरीर काँप रहा था—बारिश से नहीं, सम्राट की उस अचानक दी गई भावनाओं की बौछार से। पर उसने खुद को सम्राट की बाहों में ढलते पाया।
"तुम मेरे हो...सिर्फ़ मेरे।" सम्राट की आँखों में जुनून था, प्यार था, और एक ऐलान।
और तभी किसी ने हॉल के स्पीकर पर म्यूज़िक ऑन कर दिया—जैसे खुद कायनात ने उस पल के लिए सुर सजाए हों।
"तुम मेरे हो...सिर्फ़ मेरे ही मेरे हो..."
बारिश की हर बूँद अब संगीत बन गई थी। सम्राट ने आर्या को अपनी बाँहों में भींच रखा था, उसकी आँखें भीग चुकी थीं—अब केवल बारिश से नहीं, उस एहसास से जो उसने पहली बार महसूस किया।
सम्राट की उंगलियाँ आर्या की पीठ पर फिसलती हुई सी, उसकी धड़कनों को महसूस कर रही थीं। आर्या ने एक पल के लिए आँखें बंद कीं, और फिर उसकी नज़रों में जो भाव थे—वो समर्पण के थे, स्वीकार के थे।
भीगी हुई साड़ी उसकी त्वचा से चिपक रही थी। सम्राट का शर्ट पानी में लिपट कर उसके कसे हुए शरीर को उभार रहा था।
हवा ने फिर से एक झोंका लिया और दोनों के बीच की बची-कुची दूरी भी मिट गई।
चारों ओर खामोशी थी, पर सम्राट और आर्या के बीच जो हो रहा था—वो सारा ब्रह्मांड देख रहा था।
आर्या ने खुद को उसकी बाहों से छुड़ाया नहीं, बस उसकी आँखों में डूबती चली गई।
"सम्राट, यह सब..." उसकी आवाज़ काँप रही थी।
"श्श्श...कुछ मत कहो। बस महसूस करो..." सम्राट ने अपनी ऊँगली से उसके होंठों को चुप कराया।
बारिश के बीच, उन दोनों की रूहें मिल रही थीं। आस-पास का शोर अब उनका हिस्सा नहीं था। सब कुछ धुंधला था, बस वो दो जिस्म—एक आत्मा।
किसी ने उन्हें देखा, किसी ने नहीं—पर उस पल में सम्राट ने पूरी दुनिया को पीछे छोड़ दिया था। और आर्या...उसने पहली बार सम्राट की दीवानगी को भीतर तक महसूस किया।
बाहरी दृश्य अब भी वैसा ही था—बारिश की बूँदें खिड़कियों से टकरा रही थीं, हवा में एक सिहरन थी, और भीतर, संगीत अब भी धीमी लय में बह रहा था। लेकिन अचानक, सम्राट की पकड़ ढीली पड़ गई। आर्या उसकी बाँहों में नहीं थी। उसकी हथेली अब ख़ाली थी।
वह चौंक गया।
बारिश का वह चुंबन...आर्या की नज़रें...वह कंपकंपाती आवाज़...वह सब...सब जैसे धुंध बनकर उड़ गया।
"यह क्या..." सम्राट ने अपने चारों ओर देखा।
कोई बाहों में नहीं था।
आर्या सामने नहीं थी।
भीगी हुई साड़ी, वह गीला चेहरा, और उसकी आँखों में समर्पण—कुछ भी नहीं था।
वह अकेला था...स्टेज पर।
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शुक्रिया! और पढ़ते रहिए…
वह अकेला था... स्टेज पर।
शब्द उसके होंठों से निकलने से पहले ही दम तोड़ गए थे।
धीरे-धीरे उसकी आँखें कमरे में फैली भीड़ की ओर घूमीं। वहाँ लोग खड़े थे, ताली बजा रहे थे—शायद किसी कार्यक्रम की समाप्ति पर।
आर्या... वह वहाँ थी—सबसे आगे, सादगी में लिपटी, बिल्कुल शांत, अपनी जगह पर बैठी हुई। उसके चेहरे पर न तो कोई हिचक थी, न कोई झिझक। और सम्राट?
उसके माथे से बूँदें बह रही थीं, लेकिन वे पसीने की थीं... बारिश की नहीं।
सारा दृश्य—जो अभी-अभी उसने जिया था, महसूस किया था, जिसमें उसकी आत्मा डूब चुकी थी—एक सपना था।
एक कल्पना, जो इतनी सजीव थी कि उसने हकीकत की दीवार को तोड़ दिया था।
सम्राट की साँसें बेकाबू थीं। दिल अब भी उसी रफ्तार से धड़क रहा था, मानो वह चुंबन अभी भी उसकी त्वचा पर तैर रहा हो।
"क्या मैंने सच में कुछ नहीं किया?" उसने खुद से पूछा, और फिर घबराकर अपने हाथों को देखा... सूखे थे।
उसकी उंगलियाँ, जो कुछ देर पहले आर्या की पीठ पर फिसल रही थीं, अब सिर्फ़ हवा में काँप रही थीं।
उसका गला सूख गया था, पर वहाँ पानी की कोई बूँद नहीं थी। सिर्फ़ शून्यता थी।
"मैं स्टेज पर हूँ..." उसने खुद को समझाया, जैसे किसी ट्रान्स से बाहर आने की कोशिश कर रहा हो।
तभी, मंच के कोने से आयोजक ने उसकी ओर माइक बढ़ाया।
"सम्राट जी, आप अपनी कविता शुरू कीजिए..."
कविता?
उसे तो याद ही नहीं रहा था कि वह यहाँ क्यों आया था।
अब उसे समझ आया—जो अभी हुआ था, वह उसकी भावनाओं का एक तूफ़ान था, एक कल्पना, जो उसने कविता पढ़ने से पहले अपनी आँखों में बुन ली थी।
वह पल जब आर्या हँसी थी, जब वह खिड़की की ओर गई थी—वह सब सच था। लेकिन बाकी सब...?
"वो सब मेरे मन का इंद्रधनुष था..."
धीरे-धीरे वह माइक के पास पहुँचा। उसके कदम भारी थे, जैसे कोई सपना पीछे से उसे फिर से खींच रहा हो।
"मैं..." उसकी आवाज़ काँप रही थी। पर अब उसे कुछ कहना था।
भीड़ चुप थी।
आर्या अब भी शांत थी, लेकिन उसकी नज़रें अब सम्राट की ओर थीं—स्थिर, कोमल, पर गहराई लिए हुए।
सम्राट ने आँखें बंद कीं। वह चुंबन, वह बाँहों का आलिंगन, वह बारिश की बूँदें—सब वापस लौट आए। पर इस बार वह जानता था कि यह उसका सच नहीं, उसकी तड़प थी।
उसने माइक थामा, और धीमी आवाज़ में बोलना शुरू किया:
"बारिश का वो पहला स्पर्श...
कभी-कभी हमारी कल्पनाएँ,
हमारे भावों से इतनी सजीव हो जाती हैं,
कि हम हकीकत को भूल बैठते हैं।
मैंने जो देखा, वो हुआ नहीं—
पर वो पल मेरे भीतर था,
एक चाह, एक तड़प, एक ख्वाब,
जो पलकों में रहकर भी पूरे नहीं होते..."
कविता के शब्द जैसे एक-एक करके उसके सपने को विदा कर रहे थे। हर पंक्ति के साथ वह खुद को हकीकत के और करीब पाता गया।
भीड़ ताली बजा रही थी, लेकिन सम्राट के लिए वह सिर्फ़ शोर था—आर्या अब भी वहीं थी, पर अब वह ख्वाब नहीं रही थी।
वह एक हकीकत थी—जिसे पाया नहीं गया था, सिर्फ़ महसूस किया गया था।
"मैंने तुम्हें जिया आर्या," उसने मन ही मन कहा, "एक पल में, एक कल्पना में... पर शायद तुम्हारे बिना ही।"
और उस शाम, बारिश के भीतर भीगी वह कल्पना... उसके जीवन की सबसे सुंदर तन्हाई बन गई।
सगाई की शाम हवा में चंदन की खुशबू और गुलाब की मिठास लेकर आई थी। रोशनी से झिलमिलाते हर कोना एक कहानी कह रहा था—प्यार की, मिलन की, और उस रिश्ते की, जो आज से आर्या और मयंक के नाम हो चुका था।
सभी मेहमान खूबसूरत परिधानों में सजे, चाय और पकोड़ों के साथ बातों में मग्न थे।
"अरे देखो तो ज़रा, आर्या और मयंक की जोड़ी कितनी प्यारी लग रही है ना? जैसे रब ने मिलाया हो," किसी ने कहा।
"वो देखो, मयंक कैसे उसे देख रहा है... जैसे दुनिया की भीड़ में बस वही एक चेहरा देख पाता हो," एक और मेहमान ने जोड़ा।
सारे मेहमान उसी जोड़ी की बात कर रहे थे।
"भगवान हमेशा इनकी जोड़ी सलामत रखे," एक बुज़ुर्ग महिला ने हाथ जोड़कर ऊपर देखा। उनकी आँखों में दुआ की सच्चाई थी।
वहीं, एक कोना ऐसा भी था जहाँ ये बातें किसी को अंदर तक बेचैन कर रही थीं।
वह था—सम्राट।
उसका चेहरा शांत था, लेकिन आँखों में कोई भूचाल पल रहा था। उसने भी आर्या को पहली बार यहीं मिला था और उसे देखते ही एक चाह, एक ख्वाहिश हुई थी, जो उसने कभी किसी से नहीं कही थी।
और आज?
आज उसी आर्या की सगाई मयंक से हो रही थी।
उसके सबसे करीबी दोस्त से।
"जैसे तेरा ही तो ख्वाब था है," सम्राट का दिल चीख रहा था, लेकिन चेहरे पर एक मुस्कान थी—ठहरी हुई, नकली।
"तुम मुस्कुराया करो, तुम पर उदासी अच्छी नहीं लगती।"
आर्या हल्के गुलाबी लहंगे में, मोतियों-सी मुस्कान के साथ स्टेज पर खड़ी थी।
उसी वक्त भीड़ में फिर किसी ने कहा—
"भगवान हमेशा इनकी जोड़ी बनाए रखे… एक-दूसरे में ऐसे खोए हैं जैसे आत्मा और शरीर।"
मयंक की नज़र अचानक सम्राट पर पड़ी। वह मुस्कराया,
"सम्राट! यहाँ क्यों अकेले खड़े हो? चलो ना फोटो लो हमारे साथ!" उसने आवाज़ दी।
वह कुछ क्षण चुप खड़ा रहा, फिर मुस्कराया।
"अभी आया, यार।"
लेकिन उस "यार" में आज जितनी दूरी थी, उतनी पहले कभी नहीं थी।
वह स्टेज की तरफ चला... जैसे हर कदम पर दिल खुद से कह रहा हो—आर्या अब तुम मेरी हो।
फोटोग्राफर ने सबको साथ खड़ा किया।
"स्माइल प्लीज़!"
और कैमरे ने वह पल क़ैद कर लिया…
जिसमें दो लोग एक नई शुरुआत कर रहे थे,
मुस्कान के पीछे की धार
सगाई की शाम अपने चरम पर थी। मंच पर आर्या और मयंक की जोड़ी हर किसी की निगाहों का केंद्र बनी हुई थी। कैमरे चमक रहे थे, फूलों की खुशबू हवा में घुली थी, और हर चेहरा रौशनी से नहाया हुआ था।
"आपने देखा कैसे आर्या और मयंक एक-दूसरे को देख रहे थे? जैसे दो आत्माएं एक ही रूह में बस गई हों," एक अधेड़ उम्र का आदमी, जिसका नाम राकेश था, बड़ी आत्मीयता से अपने पास खड़े लोगों से कह रहा था।
"मैं तो कहता हूं, ऐसी जोड़ी खुदा भी रोज़ नहीं बनाता," उसने एक और लाइन जोड़ी, और सबने सर हिला दिया, जैसे स्वीकृति की मुहर लगा दी हो।
पर इस भीड़ में एक चेहरा था—सम्राट—जो इन बातों से जैसे घुलता जा रहा था। उसकी आँखों में वह हलचल थी, जो बस तूफान से पहले का सन्नाटा दे सकती है।
राकेश ने मुस्कुराते हुए कहा, "मयंक बहुत किस्मत वाला है। आर्या जैसी लड़की किसी को रोज़ नहीं मिलती... वह तो रौशनी है, जो घर को मंदिर बना दे।"
बस, यह कहते ही सम्राट की नज़रें तीर बनकर राकेश पर चुभीं। उसका जबड़ा कस गया, मुट्ठियाँ तन गईं।
लेकिन उसने कुछ नहीं कहा—अभी।
समारोह अपने आखिरी दौर में था। लोग धीरे-धीरे विदा लेने लगे थे। आर्या थकी-सी मुस्कान लिए मयंक के साथ बैठे मेहमानों से बातें कर रही थी।
इसी बीच राकेश, जो एक जान-पहचान वाला था, वॉशरूम की ओर चला गया।
वह जैसे ही बाहर निकला, उसके कदम थम गए।
उसके सामने सम्राट खड़ा था।
चेहरे पर अब वह मुस्कान नहीं थी।
न ही कोई झिझक।
बस एक खाली, ठंडी, और बेहद ख़तरनाक शांति।
"तुम?" राकेश ने अचकचाकर कहा।
सम्राट ने उसकी ओर एक धीमा क़दम बढ़ाया।
"तुम बहुत बातें करते हो," वह बुदबुदाया।
राकेश ने पीछे हटना चाहा, लेकिन दीवार आ गई।
"अरे… तुम ठीक तो हो, वही?" उसने घबराहट में कहा। "ये कोई मज़ाक है क्या?"
सम्राट ने अपनी जेब से कुछ निकाला—एक छोटा सा चाकू।
धातु की धार पर बाथरूम की पीली रोशनी चमक रही थी।
"मज़ाक?" सम्राट का स्वर फुसफुसाहट में डूबा हुआ था। "तुम्हें मज़ाक लगता है जब कोई बार-बार यह कहे कि मयंक किस्मत वाला है? कि आर्या उसके लिए बनी है? कि वह रौशनी है… उसकी रौशनी?"
राकेश की साँसें तेज़ हो गईं। "देखो… मुझे नहीं पता तुम क्या समझ रहे हो लेकिन... तुम यह क्या करने जा रहे हो? यह... यह सही नहीं है।"
सम्राट उसकी ओर और पास आ गया।
अब दोनों के बीच बस एक सांस का फासला था।
"क्या सही है, राकेश?"
"किसी को चाहना, लेकिन उसे किसी और के साथ देखना?"
"या फिर… चाह कर भी कुछ ना कह पाना और हर कोई तुम्हारे ख्वाबों पर तालियाँ बजाता रहे?"
राकेश अब लगभग काँप रहा था।
"तुम... तुम साइको हो…" उसने घबराकर कहा।
सम्राट के चेहरे पर हल्की सी मुस्कान आई।
"शायद हूँ।
लेकिन तुमने मुझसे आर्या को छीनने वालों की तारीफ़ की…
तुमने मेरी तसल्ली को छीन लिया, राकेश।"
"मैंने... क्या?" राकेश हाँफता हुआ पीछे सरकने लगा।
"तुमने वह कहा जो मुझे सबसे ज़्यादा सुनना बर्दाश्त नहीं... कि मयंक और आर्या एक-दूसरे के लिए बने हैं।"
सम्राट ने चाकू ऊपर उठाया, लेकिन तभी—
एक दरवाज़ा चरमराया।
बाहर से किसी की हँसी की आवाज़ आई।
राकेश की आँखें वहीं टिक गईं।
सम्राट ने एक पल के लिए रुककर वह आवाज़ सुनी... फिर चाकू अपनी जैकेट में वापस डाल लिया।
मुस्कान के पीछे की धार
दरवाज़े के बाहर किसी की हँसी गूंजी। सम्राट का हाथ एक पल के लिए थम गया।
उसकी आँखों में एक ठहराव आया—जैसे किसी गहरे अंधेरे में अचानक रौशनी की एक किरण उतर जाए, लेकिन वह रौशनी सुकून नहीं, चुभन लाती हो। वह कुछ सोचकर पीछे हटा। राकेश की धड़कनें बेकाबू थीं, पसीने की बूँदें उसकी कनपटियों से लुढ़क रही थीं। उसने मान लिया था… वह बच गया।
"देखो," उसने कांपती आवाज़ में कहा, "तुम्हें जो भी लग रहा है… शायद वह गलतफहमी है। मैं तुम्हें जानता भी नहीं ठीक से…"
सम्राट ने गर्दन हल्की सी झुका दी, जैसे राकेश की बात का वजन तोल रहा हो।
"जानते हो सबसे दिलचस्प चीज़ क्या होती है?" उसकी आवाज़ में अब एक अजीब-सी नरमी थी… या शायद साज़िश। ठंडी और धीमी। एक लहर जो किसी गहरे पानी के नीचे चल रही हो।
राकेश ने धीरे-धीरे पीछे हटने की कोशिश की, लेकिन वॉशरूम का तंग कॉरिडोर अब उसे अपनी गिरफ्त में ले चुका था।
"वह लम्हा… जब इंसान सोचता है कि वह बच गया है। वह साँस… जिसमें जान लौटती है," सम्राट कुछ कदम आगे बढ़ा। "और फिर…"
वह चुप हो गया।
कुछ नहीं हुआ। कोई आवाज़ नहीं, कोई चीख नहीं।
सिर्फ़ एक पल… बहुत भारी… बहुत ठंडा।
राकेश जैसे हवा में जड़ हो गया। उसका चेहरा सुन्न, आँखें विस्फारित… और फिर—
धीरे-धीरे उसकी आँखों से प्रकाश खिसकने लगा।
उसका शरीर पीछे की ओर ढुलकने लगा, मानो किसी अदृश्य ताक़त ने उसे समेट लिया हो। सम्राट ने उसे थामा, जैसे कोई थका हुआ कलाकार पर्दा गिरने से पहले अपने किरदार को सलीके से मंच से विदा करता है।
उसने झुककर राकेश के चेहरे पर देखा। वहाँ कुछ अधूरा-सा था—शायद सवाल… या पछतावा… या फिर कुछ ऐसा, जिसे शब्दों में नहीं बाँधा जा सकता।
सम्राट ने उसके कान के पास फुसफुसाया, "इसलिए… क्योंकि हर खामोशी एक धार होती है… और तुमने उसे पहचानना नहीं सीखा।"
एक और मुस्कान उसके होंठों पर थी—वही हल्की, मधुर, और बिलकुल खतरनाक।
अब सब कुछ बहुत शांत था।
कुछ मिनटों बाद—सम्राट ने अपनी जैकेट को समेटा, अपने हाथों को सावधानी से देखा, फिर वॉशबेसिन की ओर गया। वहाँ पानी बहता रहा—जैसे कोई पुराने गाने की धीमी धुन, जो अब किसी को याद नहीं।
बाथरूम के पीछे एक छोटा स्टोरेज एरिया था। जर्जर-सा, धूल भरा।
वहाँ एक लकड़ी का संदूक पड़ा था—पुराना, भारी, लगभग भुला दिया गया।
सम्राट ने धीरे से ढक्कन उठाया… अंदर झाँका… फिर उसकी ओर बढ़ा।
राकेश का शरीर अब हल्की छाया जैसा था। सम्राट ने उसे सावधानी से घसीटा—कोई आवाज़ न हो इसका ख्याल रखते हुए। जैसे कोई किसी याद को दफ़न कर रहा हो। चेहरे पर कपड़ा डाल दिया। हाथ मोड़ दिए। कुछ फटे पुराने गद्दे और पर्दे ऊपर रख दिए।
फिर ढक्कन बंद किया… और गहराई से साँस ली।
अब वह वापस बाथरूम में लौटा। अपने बालों को ठीक किया, चेहरा साफ़ किया, टाई सीधी की और आईने में देखा—
एक मुस्कान।
वही मुस्कान… जिसे सब "विनम्र" कहते थे।
दरवाज़ा खोला… और बाहर आ गया।
हॉल में अब लाइटें मंद हो चुकी थीं। डीजे आखिरी ट्रैक बजा चुका था। आर्या और मयंक मंच से उतर रहे थे। लोग विदा ले रहे थे।
"अरे सम्राट भाई! आप यहाँ?" मयंक ने हँसते हुए पूछा।
"हाँ, थोड़ा सर भारी था… सोचा कुछ देर अकेले हो लूँ।" सम्राट की मुस्कान अब भी वही थी—मीठी, धीमी, लेकिन किसी अजनबी ठंडक से भरी।
आर्या ने उसे गौर से देखा—थोड़ा ज़्यादा गौर से।
"सब ठीक है?" उसने धीमे से पूछा।
सम्राट ने एक लम्बी साँस ली।
"अब सब… बहुत ठीक है।"
आर्या की निगाहें उसकी मुस्कान पर टिक गईं… और पहली बार, उस मुस्कान में उसे कुछ डरावना महसूस हुआ।
क्योंकि वह मुस्कान… कुछ कह नहीं रही थी। कुछ छुपा रही थी।
हवेली की रात – जहाँ हँसी के नीचे कुछ भारी छुपा हो
बाहर ठंडी हवा बह रही थी, पेड़ों की शाखाएँ आपस में सरसराती थीं… जैसे कोई अनसुनी बात फुसफुसा रही हों। हवेली के भीतर एक गहरी शांति थी, मगर उसमें वह हल्का-सा कंपन भी था जो तब आता है जब कोई अपने भीतर कुछ छुपा रहा हो।
ड्राइंग रूम की हल्की रोशनी में अब सिर्फ़ मयंक के माता-पिता, आर्या के मम्मी-पापा, कुछ नज़दीकी रिश्तेदार और कर्मचारी मौजूद थे। आर्या अपनी माँ के पास बैठी थी, और सम्राट दीवार से पीठ टिकाए एक कोने में खड़ा था, हाथ में कॉफी का कप, और चेहरे पर वही विनम्र मुस्कान।
मयंक ने जैसे ही कमरे में प्रवेश किया, उसने अपने हाथ ताली की तरह बजाई और हल्के-फुल्के अंदाज़ में बोला,
"तो दोस्तों, आज का यह दिन यहीं खत्म नहीं होता! अब अगले दो दिन हम सब यहीं इस हवेली में रहेंगे, पूरे राजसी स्टाइल में!"
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आर्या की माँ ने मुस्कुराते हुए पूछा, “और भई, इतना बड़ा प्लान बना लिया… हमें बताया तक नहीं?”
मयंक ने हँसते हुए जवाब दिया,
“बताया होता तो सरप्राइज़ कैसे रहता, आंटी! देखिए न, हवेली है, खुला आंगन है, पास ही जंगल के ट्रेल्स हैं, और ऊपर से सम्राट का साथ है – दो दिन सिर्फ रिलैक्स करने के लिए!”
वह पल भर के लिए सम्राट की ओर पलटा—
“है ना, सम्राट?”
सम्राट ने हल्के से सिर हिलाया,
“बिलकुल… कभी-कभी पुरानी हवेलियाँ सबसे अच्छा ब्रेक देती हैं। खासकर जब बाहर की दुनिया थोड़ी… शोर मचा रही हो।”
उसकी मुस्कान अब भी वहीं थी—लेकिन आर्या ने फिर एक बार उस मुस्कान को थोड़ी देर देखा। कुछ था उसमें… जैसे कोई बर्फ़ की पतली परत—पिघलने से पहले की ठंडी सी चमक।
“वैसे,” मयंक ने अपनी बात को फिर से उत्साह से थामा, “कल सुबह लेट उठेंगे, नाश्ता लॉन में होगा, फिर हम सब छोटी-सी ट्रेकिंग करेंगे, और रात को बोनफायर… और किसी को भी मोबाइल या काम की बात नहीं करनी है! दो दिन, कोई मेल, कोई मीटिंग नहीं… सिर्फ मस्ती और शांति!”
सबने ताली बजाई। हल्के-फुल्के हँसी के छींटे हवा में बिखरे। लेकिन कमरे का तापमान वैसा ही ठंडा रहा—शायद सम्राट की मौजूदगी से… या फिर उसके पीछे किसी अदृश्य साए से।
कर्मचारियों ने धीरे-धीरे बैग उठा लिए। आर्या की माँ ने पूछा,
“कमरे तय हो गए हैं न, मयंक?”
“हाँ आंटी,” मयंक ने मुस्कुराते हुए कहा, “सब कुछ तय है। सम्राट का ऊपर वाली विंग का कमरा दिया है—जहाँ हवेली की पुरानी लाइब्रेरी के पास की खिड़की खुलती है।”
सम्राट के होंठों की कोर हल्की-सी ऊपर उठी।
“पुरानी जगहों के पास… पुरानी कहानियाँ होती हैं,” उसने धीमे से कहा, जैसे खुद से ही।
आर्या ने हल्के संदेह से उसकी ओर देखा—कुछ ऐसा था वहाँ, जैसे कोई आँच बिना आग के उठ रही हो।
बाकी सभी उठने लगे। कमरे में फिर से बातों की हल्की चहचहाहट गूंजने लगी। लेकिन सम्राट वहीं खड़ा रहा—आँखें अब भी कॉफी के कप के उस भाप से बनी लहरों में खोई हुईं।
उसी लहर में… कहीं एक अधूरी आवाज़ बह रही थी।
हवेली अब लगभग शांत हो चुकी थी। दीवारों पर लगी पुरानी पेटिंग्स की छायाएँ धीमे-धीमे खिसक रही थीं, जैसे वो भी अब सोने को तैयार थीं। कर्मचारी थक कर अपने-अपने क्वॉर्टर्स में लौट चुके थे, और मेहमानों के कमरे एक-एक करके बंद होने लगे थे।
आर्या ने अपनी माँ को कमरे तक छोड़ा, उनके बिस्तर पर रजाई ठीक से ओढ़ाई और मुस्कुराते हुए कहा,
“आप आराम से सो जाइए, मैं भी जा रही हूँ।”
उसकी माँ ने उसके माथे पर प्यार से हाथ फेरा,
“बहुत थक गई होगी तू… चल, जा अब।”
आर्या ने धीरे से दरवाज़ा बंद किया और लंबी साँस ली। एक अजीब सी थकान उसके कंधों पर बैठी थी, लेकिन उसके भीतर हल्का-सा तनाव भी था… शायद सम्राट की उस मुस्कान से उपजा हुआ, जो रातभर उसके ज़हन में किसी पहेली की तरह घूमती रही।
वह अब हवेली के पुराने गलियारों में अपने कमरे की ओर बढ़ रही थी—धीरे-धीरे, जैसे हर कदम पर कुछ सोचती हुई। लकड़ी के पुराने फर्श पर उसकी स्लीपर्स की आवाज़ गूँजती, फिर घुल जाती।
और ठीक वहीं—सीढ़ियों की ओट से, दीवार से टिककर खड़ा था सम्राट।
हाथ अब भी कॉफी के खाली कप को थामे हुए, नज़रें आर्या पर जमीं थीं। पर वह सिर्फ उसे देख नहीं रहा था—जैसे उसे महसूस कर रहा हो।
उसके भीतर कुछ हिल रहा था। वह बेचैनी नहीं थी जो किसी डर से उपजे—वह एक दूसरी तरह की बेचैनी थी।
आर्या का चेहरा—थका हुआ, फिर भी शांत। उसके कंधों पर बालों की कुछ लटें अब भी गिरी थीं, आँखों में हल्का सा संशय, जैसे उसने कुछ देखा हो… पर नाम न दे सकी हो। उसकी चाल धीमी थी, पर तयशुदा। जैसे वह खुद को किसी सवाल से बचा रही हो, पर उत्तर की दिशा में ही चल रही हो।
सम्राट की आँखों में कुछ पिघलने लगा। वह मुस्कराया नहीं—इस बार नहीं। उस मुस्कान के नीचे जो धार थी, वह अब खुद को चुपचाप समेट रही थी।
वह चाहता था कि वह बस एक बार मुड़े, उसे देखे।
बस एक बार…
लेकिन आर्या नहीं मुड़ी।
उसकी पीठ धीरे-धीरे दूर होती गई। सम्राट के अंदर की कोई रेखा खिंचने लगी—धूप में पिघलते मोम की तरह।
उसने अपनी उँगलियाँ कप के किनारे पर फिराईं। कप अब ठंडा हो चुका था, ठीक उसकी हथेलियों की तरह।
क्या यह वही एहसास था… जो उसने कभी जज़्ब कर लिया था?
या फिर वह बस इस पल के लिए जी रहा था—जहाँ वह आर्या की दूर जाती पीठ को देखने के अलावा कुछ नहीं कर सकता?
वह जानता था, यह आराम नहीं था।
यह कुछ और था—
कुछ जो चुपचाप, धीमे-धीमे उसकी शिराओं में उतर रहा था।
एक डर? एक चाहत? एक पहचान?
उसने सिर झटक दिया, जैसे खुद को रोक रहा हो।
लेकिन नज़रें… अब भी वहीं थीं, जहाँ आर्या आखिरी बार मुड़ी नहीं थी।
कमरे के दरवाज़े की आवाज़ आई—धीरे से बंद होने की।
और सम्राट ने एक गहरी साँस ली।
उसके सीने में कुछ धड़क रहा था—लेकिन वह दिल नहीं था। वह कोई और साया था… जो अब धीरे-धीरे ज़िंदा हो रहा था।
साया… जो सिर्फ आर्या की परछाईं से जागता था।
आर्या ने कमरे का दरवाज़ा खोला तो भीतर की हल्की रोशनी उसके चेहरे पर पिघल गई। ठंडक कुछ ज़्यादा थी आज, या शायद उसकी साँसें ही भारी थीं। जैसे ही वह भीतर दाखिल हुई, दरवाज़ा बंद करने को मुड़ी—पर तभी, उसकी नज़र खिड़की की ओर गई।
वहाँ, अंधेरे में खड़ा था मयंक।
उसका चेहरा आधी रौशनी में था, और आधा किसी सोच में डूबा हुआ।
वह चुप था, लेकिन उसकी आँखें बोल रही थीं—जैसे हर उस सवाल का जवाब लिए खड़ा हो, जो आर्या पूछना चाहती थी… पर पूछ नहीं सकी।
“मयंक?” उसकी आवाज़ में थकावट थी, पर ताज्जुब नहीं।
“मैं जानता हूँ, तुम्हें मेरी यहाँ मौजूदगी अजीब लगेगी,” मयंक ने धीरे से कहा, “पर आज… मैं बिना कुछ कहे चला भी नहीं सकता था।”
आर्या ने गहरी साँस ली। “क्या बात है?”
मयंक कुछ देर चुप रहा, फिर बिस्तर के पास रखी कुर्सी की ओर इशारा करते हुए बोला, “बैठ सकती हो?”
आर्या थोड़ी झिझकी, पर बैठ गई। मयंक अब उसके सामने था—उन दोनों के बीच बस एक छोटी-सी दूरी थी, लेकिन उसके पार जाना जैसे किसी खाई को लांघना था।
“तुम ठीक लग रही हो, थकी हुई,” मयंक ने उसके चेहरे को पढ़ते हुए कहा।
रात अब गहरी हो चली थी। चाँदनी खिड़की के शीशों से छन कर कमरे में एक सुनहरी चादर सी बिछ रही थी। हल्की हवा के साथ परदों की धीमी सरसराहट उस पल को किसी सपने की तरह बना रही थी। कमरे में हल्की गुलाब की खुशबू फैली थी—ठीक वैसी जैसी आर्या को पसंद थी।
मयंक ने जैसे ही उसकी एक झलक देखी, होंठों पर मुस्कान तैर गई। “आज सब कैसी बातें कर रहे थे, देखा तुमने?” मयंक ने आर्या की ओर देखते हुए कहा, मानो कुछ छुपा रहा हो।
आर्या ने उसकी आँखों में झाँका और मुस्कुराई, “कैसी बातें कर रहे थे?”
मयंक थोड़ा करीब आया, उसकी आँखों में एक शरारती चमक थी, “यही कि हमारी जोड़ी कितनी ख़ास है। इस बारे में... तुम्हारा क्या राज़ है?”
आर्या ने उसकी आँखों से नज़रें हटाते हुए कहा, “मैं क्या बोलूँ... सिवाय इसके कि तुम जैसा इंसान दुनिया में एक ही है और वह हो... तुम।”
उनके बीच कुछ पलों का सन्नाटा पसरा, जो किसी मीठे संगीत जैसा था। मयंक ने धीरे से आर्या के हाथों को थाम लिया। उसकी उंगलियाँ आर्या की हथेलियों को छूती हुई कुछ कहने लगीं, जो लफ़्ज़ों से कहीं ज़्यादा साफ़ थीं। उसने धीरे से, बहुत हल्के से उन पर एक किस किया — मानो हवा ने फूल को छू लिया हो।
आर्या ने तुरंत अपने हाथ खींच लिए, आँखों में हल्की झिझक और गालों पर लाज की लाली तैर आई। “अभी सिर्फ सगाई हुई है मयंक... शादी तक इंतज़ार करो…” उसने नज़रें झुकाते हुए कहा, लेकिन उसकी आवाज़ में वह मीठी शर्म और अपनापन साफ़ झलक रहा था।
मयंक ने हल्की मुस्कान के साथ उसके चेहरे की गिरी लटों को धीरे से कान के पीछे किया। उसकी उंगलियाँ इतने स्नेह से चलीं कि आर्या की आँखें खुद-ब-खुद बंद हो गईं।
“अच्छी बात है,” मयंक ने कहा, “लेकिन क्या थोड़ी बातें भी शादी के बाद ही होंगी... या उसके लिए मंज़ूरी मिल सकती है?”
आर्या की मुस्कान और भी गहरी हो गई। उसने नज़रों से मयंक की आँखों में देखा और कहा, “इतना परेशान क्यों होते हो? बातें की जा सकती हैं... इसके लिए शादी का इंतज़ार करने की ज़रूरत नहीं है।”
मयंक ने मज़ाकिया अंदाज़ में कहा, “मतलब मुझे इजाज़त है कि मैं तुम्हें देखूँ, बात करूँ, तुम्हारी तारीफ़ करूँ, बस… छू नहीं सकता?”
आर्या हँसी नहीं रोक पाई। “बिलकुल! देख सकते हो, बात कर सकते हो, तारीफ़ें भी कर सकते हो… लेकिन छूने के लिए अभी थोड़ा और इंतज़ार करना होगा।”
मयंक ने सिर झुकाया और नाटकीय अंदाज़ में बोला, “ये तो ज़ुल्म है आर्या… प्यार भी है, सगाई भी है, फिर भी दूरी?”
आर्या उसके पास आई, उसकी बाँह पकड़ कर बोली, “प्यार में इंतज़ार का स्वाद भी तो ख़ास होता है, मयंक। जब हर चीज़ मिल जाए बिना थमे, तो उसकी अहमियत कहाँ रह जाती है?”
मयंक ने उसकी ओर देखकर कहा, “तुम्हारे शब्दों में जादू है। और शायद इसी वजह से मैं हर रोज़ थोड़ी और मोहब्बत कर बैठता हूँ।”
उसने उसकी आँखों में देखा — गहराई, सच्चाई और वह कुछ जो शायद शब्दों में नहीं था, सिर्फ महसूस होता था।
आर्या ने अपनी उंगलियाँ उसकी उंगलियों में फँसा दीं, “कभी-कभी… लगता है जैसे तुम सिर्फ मेरे लिए बने हो। किसी पिछले जन्म का अधूरा हिस्सा हो जो अब जाकर पूरा हुआ है।”
मयंक ने धीरे से कहा, “और मैं हर जन्म में तुम्हें ढूँढूँगा आर्या। चाहे जैसे भी हालात हों… तुम मेरी रहोगी।”
एक गहरी ख़ामोशी दोनों के बीच आकर बैठ गई।
रात की ठंडी हवा में नर्म-नर्म संगीत जैसे किसी पुराने ख्वाब की तरह बह रहा था। चारों ओर हल्की रोशनी थी—न नीयन लाइट्स, न चकाचौंध, बस चाँद की चुपचाप फैली रोशनी और कमरे के कोनों में रखे कुछ लैम्प्स की हल्की लौ। माहौल जैसे खुद ही किसी इमोशन में लिपटा हो।
उसकी आँखों में हल्की थकावट थी लेकिन चेहरे पर अब भी हल्की सी मुस्कान बाकी थी। मयंक ने उसे देखा तो एक बार फिर वही शरारती चमक उसकी आँखों में लौट आई।
“चलो थोड़ा डांस करते हैं,” उसने अचानक कहा।
आर्या ने पलट कर देखा और मुस्कराते हुए हल्की झुंझलाहट से बोली, “अभी नहीं… मैं थक चुकी हूँ।”
मयंक को उसका यूँ इनकार करना थोड़ा प्यारा लगा। लेकिन उसने हार नहीं मानी। वह उसके और करीब आया, और बिना ज़्यादा कहे बस उसका हाथ पकड़ लिया। उसका स्पर्श धीमा था, लेकिन उसमें एक खिंचाव था, ऐसा खिंचाव जो इनकार नहीं सुनता। आर्या कुछ कहने ही वाली थी कि मयंक ने उसे हल्के से खींच लिया।
“बस एक पल… फिर चाहो तो मुझे डाँट लेना,” उसकी आवाज़ में मानो कोई मीठी ज़िद थी।
संगीत की धीमी ताल में वे दोनों अब हल्के-हल्के झूमने लगे। आर्या का सिर उसके कंधे के करीब था, और मयंक की उंगलियाँ उसके हाथों के साथ जैसे कोई साज़ छेड़ रही थीं। आर्या ने नज़रें नहीं मिलाई, लेकिन उसकी रूह जैसे अब मयंक की धड़कनों से तालमेल बिठा रही थी।
कुछ पल तक दोनों बिना कोई शब्द बोले बस संगीत में बहते रहे। आर्या की थकावट जैसे मयंक के स्पर्श में घुलकर उड़ गई थी। उसकी साँसें गहरी हो रही थीं, जैसे वह पल को पूरे शरीर से महसूस कर रही हो।
मयंक ने धीरे-धीरे उसका दूसरा हाथ भी थाम लिया, और अब वे दोनों एक-दूसरे के सामने खड़े होकर, आँखों में आँखें डाले, बिना किसी लय को जाने, बस एहसासों की धुन पर नाच रहे थे।
“थक गई थी ना?” मयंक ने फुसफुसाकर पूछा।
आर्या की आँखों में अब एक अलग चमक थी। “थकावट अब नहीं लग रही,” उसने धीरे से कहा।
मयंक मुस्कराया, फिर उसका हाथ अपने सीने पर रखा—उसके दिल के ठीक ऊपर। “यहाँ सुनो, यह जो धड़क रहा है… सिर्फ तुम्हारे लिए,”
आर्या की उंगलियाँ उस धड़कन को महसूस करने लगीं। कुछ कहना चाहती थी, लेकिन शब्द जैसे उसके होंठों से पहले ही गिर चुके थे। मयंक अब और करीब आया, इतना कि उनकी साँसें एक-दूसरे की गर्मी महसूस कर रही थीं।
उसने आर्या की कमर को नर्मी से थाम लिया, और उसकी नज़रें उसके चेहरे पर ठहर गईं। आर्या की पलकों में झिझक थी, लेकिन होंठों पर अब भी एक हल्की, डरपोक सी मुस्कान थी। वह उसकी बाँहों में जैसे खोने लगी।
मयंक ने उसकी जुल्फों को हल्के से उसके कानों के पीछे किया, और धीरे से कहा, “तुम जब पास होती हो ना, तो जैसे सब कुछ सही हो जाता है।”
आर्या ने उसकी आँखों में देखा—वहाँ शरारत भी थी, चाह भी थी और एक अनकहा वादा भी। उसने धीमे से अपना सिर मयंक के सीने पर रख दिया। कुछ देर तक वहाँ बस चुप्पी थी, लेकिन उस चुप्पी में दो धड़कनों की एक साथ बजती धुन थी।
फिर एक मोड़ पर मयंक ने उसे हल्के से घुमाया, जैसे किसी पुराने रोमांटिक गाने का क्लासिक स्टेप। आर्या ने अनजाने में खुद को उसके साथ पूरी तरह बहता पाया। वह अब न तो समय देख रही थी, न जगह। बस मयंक की बाँहों में उसका हर डर, हर थकावट जैसे पिघल चुकी थी।
मयंक ने फिर धीरे से उसकी ठुड्डी उठाई, और आँखों में आँखें डाल कर कहा, “तुम बस रहो मेरे साथ यूँ ही, हर रात ऐसी हो जाए।”
आर्या की आँखों में अब नमी सी थी, लेकिन उसमें सुकून भी था। उसने हल्के से मयंक की उंगलियाँ थाम लीं और मुस्कराकर कहा, “हर रात… और हर सुबह भी।”
अचानक एक तेज़ हवा के झोंके ने खिड़की के परदे को उड़ाया, और चाँद की रोशनी उनके चेहरों पर पड़ने लगी। उस रोशनी में आर्या का चेहरा किसी कविता की तरह लग रहा था—खामोश लेकिन असरदार। मयंक ने एक पल को उसकी ओर झुकते हुए पूछा, “क्या मैं तुम्हें महसूस कर सकता हूँ… और गहराई से?”
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आर्या ने कुछ नहीं कहा, बस अपनी आँखें बंद कर लीं और अपना माथा उसके होंठों के करीब ले आई। मयंक ने उसे माथे पर एक लंबा, नर्म चुंबन दिया—जैसे कोई इबादत हो, या कोई कसमें बुन रहा हो। वह पल ठहर गया था।
माहौल में अब एक अजीब सी तासीर थी—एक स्पर्श, एक एहसास, और एक रोमांस जो कहे बिना भी सब कुछ कह रहा था। उनकी साँसों की गति अब एक सी थी, जैसे दोनों एक ही धड़कन में समा चुके हों।
संगीत अब भी धीमा बज रहा था। लेकिन अब वह महज़ धुन नहीं थी, वह उनकी कहानी बन गई थी।
हल्की-सी शाम की हवा खिड़की के कांच से टकराकर पर्दों को हौले से सरकाती रही। कमरे की नर्म रौशनी में आर्या का चेहरा किसी शांत झील-सा लग रहा था — बाहर से स्थिर, भीतर से अशांत।
मयंक मुस्कुरा रहा था, उसकी नज़रें आर्या के चेहरे पर थीं, लेकिन आर्या की आँखें जाने किस ओर ठहर गई थीं। वह कुछ बोल रही थी, लेकिन शब्दों में वह सहजता नहीं थी जो उसके स्वभाव का हिस्सा थी। जैसे ही उसने एक आँख बंद की—वह चेहरा सामने आ गया।
सम्राट।
उसकी आँखें… वही तीव्रता, वही गहराई—जो जैसे आर्या की आत्मा तक झांक रही हों। उसका चेहरा, एक पल को जैसे सामने बैठा था। वे निगाहें जो कुछ कहती नहीं थीं, लेकिन बहुत कुछ महसूस करवा जाती थीं। आर्या की साँस एक पल को थम-सी गई।
उस दिन, जब सम्राट की आँखों ने पहली बार आर्या को देखा था—आर्या को लगा था कि वक्त थम गया है। किसी अनकहे दर्द, किसी अव्यक्त इच्छा, और किसी न मिट सकने वाली कशिश से भरी वे नज़रें—आज फिर उसे उसी अँधेरे में ले आईं।
वह चौंक गई… और खुद को समेटती हुई मयंक से थोड़ी दूर खिसक गई।
मयंक ने भौंहें सिकोड़ते हुए कहा, "क्या हुआ आर्या? तुम अचानक चुप क्यों हो गई? सब ठीक है?"
आर्या ने तुरंत चेहरा साधा, अपने होठों पर एक हल्की मुस्कान खींचते हुए बोली, "कुछ नहीं, यूँ ही… शायद थकान है।"
लेकिन उसके दिल की धड़कनों को वह कैसे रोकती?
"जलती हुई पहचान के साए में"
कमरा एक आम जगह नहीं लग रहा था—यह एक मनःस्थिति थी, एक पिघलते हुए जुनून का कैनवास। हल्की पीली रौशनी कमरे की छत से लटकते बल्ब से टपक रही थी, लेकिन उसके नीचे खड़ा सम्राट… वह रौशनी में नहीं था। वह जैसे अपने भीतर के अंधेरे में डूबा खड़ा था।
उसकी आँखें सीधी सामने टिकी थीं—न हिलीं, न झपकीं। पत्थर की तरह जमी उस दृष्टि में एक अजीब ठहराव था, जो किसी ज्वालामुखी के सन्नाटे से पहले के क्षण जैसा था।
उसके होंठ भिंचे हुए थे, पर अंदर एक तूफ़ान पल रहा था। उसने अचानक गहरी साँस ली, जैसे किसी याद की कड़वी धूल फेफड़ों में भर ली हो।
उसकी उंगलियाँ एक के बाद एक चटक रही थीं। बाएँ हाथ की अनामिका को बार-बार अंगूठे से मसलते हुए वह आगे बढ़ा—धीरे, जैसे जमीन पर हर कदम कोई दस्तावेज़ छोड़ रहा हो।
फिर वह रुका।
उसके सामने दीवार पर टँगा एक बेनर था—नए प्यार की घोषणा, पुराने दर्द पर चिपका हुआ एक ताज़ा ज़ख्म।
“Mayank weds Arya”
सुनहरे अक्षर सफेद सतह पर चमक रहे थे, जैसे किसी की खुशी ने सम्राट की आँखों में आग भर दी हो।
उसने सिर को थोड़ा तिरछा किया, जैसे शब्दों को सीधा नहीं, दिल की आँखों से पढ़ रहा हो।
"तुम मेरी हो, आर्या…"
उसकी आवाज़ एक फुसफुसाहट थी, लेकिन हर शब्द जैसे दीवारों से टकराकर वापस उसकी आत्मा में घुलता चला गया।
"अब मैं तुम्हें किसी और के साथ नहीं देख सकता… माय स्वीट हार्ट…"
उसके होंठों पर एक मुस्कान उभरी। नहीं, यह प्रेम की मुस्कान नहीं थी—यह उसकी साइको आत्मा की पहचान थी।
वह मुस्कुराया जैसे किसी ख्वाब को चाकू से काटते हुए राहत मिलती हो।
वह बेनर के पास गया, एक हाथ से उसकी निचली किनारी को पकड़ा और दूसरे हाथ को जैकेट की जेब में डाला।
एक चमचमाती सिल्वर लाइटर उसकी हथेली में आई, और अगले ही पल—
नीली लौ उभरी।
उसने बिना झिझक, उस लाइटर की लौ को बेनर की किनारी से स्पर्श कर दिया।
धीरे-धीरे, जैसे कोई लहरें उठती हैं, आग कपड़े पर चढ़ने लगी। सबसे पहले "Mayank" की ‘M’ जलने लगी—एक कोने से सुलगते हुए अक्षर जैसे सम्राट की नफरत की लपटों से झुलस रहे हों।
सम्राट के चेहरे पर अब लपटों की चमक पड़ी थी।
उसकी आँखों की पुतलियाँ फैल गईं, और उसमें एक अजीब तरह का सुकून था—जैसे वह इस जलने को किसी पूजा की आहुति मान रहा हो।
"देखो…"
उसका स्वर अब ज़रा ऊँचा था, पर ठंडा… एकदम ठंडा।
वह झुककर बेनर की ओर देख रहा था, जैसे कोई विद्रोही कलाकार अपने बनाए चित्र को आग में डूबते हुए देखता है।
"वह तुम्हें सिर्फ पा सकता है, आर्या… समझ नहीं सकता। मैं जानता हूँ, तुम्हारी हँसी के पीछे की थकान क्या है। तुम्हारी खामोशी के नीचे कितनी चीखें हैं।"
अब "Mayank" नाम पूरी तरह राख था।
"आर्या"… अधजली सतह पर अब भी साफ़ थी। आग उसकी ओर बढ़ रही थी, लेकिन तभी—
सम्राट हड़बड़ाकर आगे बढ़ा।
उसके हाथों की तेज़ गति में एक डरपना नाटकीयता थी।
"नहीं!"
उसने अपनी जलती हुई हथेलियों से आग को दबाया। लपटें उसके हाथों से चिपक गईं, लेकिन वह पीछे नहीं हटा।
"तुम नहीं जलोगी, आर्या… नहीं।"
उसकी आवाज़ में कंपकंपी थी—डर की नहीं, मोहब्बत के पागलपन की।
जब आग बुझ गई, वह कुछ पल वहीं खड़ा रहा। फिर धीरे से नीचे बैठ गया, जैसे शरीर ने साथ छोड़ दिया हो।
उसके चेहरे पर अब पसीने की एक महीन परत थी, लेकिन आँखों में… एक सूनी प्यास।
उसने अपनी जलती उंगलियाँ बेनर की अधजली सतह पर फेरीं—‘आर्या’ नाम को छुआ, जैसे किसी प्रेत आत्मा को पुकार रहा हो।
"क्या तुमने कभी मेरी तरफ देखा है, आर्या?"
उसकी फुसफुसाहट इतनी धीमी थी कि अगर कमरे में धुआँ न होता, तो वे शब्द हवा में खो जाते।
"क्या तुम्हें पता है कि तुम्हारी हर मुस्कान मेरे सीने में एक नई दरार बना रही थी?"
कमरे में अब सिर्फ धुएँ की गंध थी—अधजले कपड़े, जली दीवार की कालिमा, और सम्राट की राख से सनी उंगलियाँ।
उसने सिर दीवार से टिकाया, एक थका हुआ साँस भरा और फिर बुदबुदाया—
"मैं तुम्हारे लिए सब कुछ छोड़ सकता हूँ, आर्या…
लेकिन अगर तुम किसी और की हो गई…"
उसकी आँखें अब धीरे-धीरे बंद हो रही थीं,
"तो मैं भी वही नहीं रहूँगा… जो तुमसे पहले था।"
अब उसके चेहरे पर एक शांत साइको मुस्कान थी। वह मुस्कान डरावनी नहीं थी… लेकिन उससे डरना ज़रूरी था।
कमरे की दीवारें गवाह थीं—एक जुनूनी मोहब्बत, जो राख बन चुकी थी… और एक पहचान जो अब सिर्फ आग के साए में जल रही थी।
"जलती हुई पहचान के साए में"
कमरे में राख की महक थी, और धुआँ अब भी छत की ओर चुपचाप चढ़ रहा था।
दीवार पर जली हुई रेखाएँ किसी नाम के अधूरे सुराग बनकर कांप रही थीं।
ज़मीन पर बैठा सम्राट, अपने भीतर की शांति और तूफान के बीच झूलता दिख रहा था।
उसकी आँखें अब भी उस नाम को देख रही थीं, जिसे उसने पहली बार एक महज़ सगाई में देखा था—"आर्या"।
उसके लिए वह सगाई एक खुशी का मौका नहीं, एक इल्हाम था।
वहीं पहली बार उसे एहसास हुआ कि मोहब्बत क्या होती है—और कैसा लगता है जब किसी को देखकर सारा वजूद उसी पल रुक जाए।
"तुम्हें देखा था… बस एक बार…"
उसकी आवाज़ में थरथराहट थी, जैसे कोई अधूरा शेर खुद से लड़ रहा हो।
"तुम मुस्कुरा रही थी, और मैं उस मुस्कान में सज़ा काट रहा था, जिसे कभी माँग भी नहीं सका।"
वह उठा और कमरे के कोने में पहुँचा। जहाँ आर्या की एक सगाई वाली तस्वीर रखी थी—उसने चुपचाप उसे उठाया।
तस्वीर में आर्या के चेहरे पर एक हल्की शर्म और मासूम खुशी थी। पर सम्राट के लिए वह तस्वीर अब उसकी सबसे कीमती हकीकत बन चुकी थी।
"मैं तुम्हारा नहीं था… कभी हो भी नहीं सकता था।
पर उस एक नज़र में मैं तुम्हारा हो गया, आर्या… पूरी तरह।"
उसने तस्वीर को सीने से लगा लिया, जैसे उस एक नज़ारे ने उसकी आत्मा में घर कर लिया हो।
"तुम्हें देखा था लहंगे में, हाथों में हल्की मेहँदी, और आँखों में किसी और का सपना…"
उसकी पलकें भीगने लगीं, पर आँसू नहीं निकले। बस सिसकी दब गई थी साँसों के नीचे।
"तुम्हें पाने की ख्वाहिश नहीं थी, बस उस नज़र को सहेजना चाहता था जिसमें मैंने खुद को खो दिया था।"
वह बिस्तर पर लेट गया, तस्वीर को अपनी छाती पर रखकर। उसका बदन शांत था, पर उसका दिल—वह तो अब भी उस सपने में डूबा था।
"गुलाबों की सुबह"
सूरज की हल्की किरणें खिड़की के परदे से छनकर कमरे में फैल रही थीं, जैसे कोई सुनहरा रहस्य धीरे-धीरे आर्या की पलकों पर दस्तक दे रहा हो। नींद की नरम चादर को हटाते हुए, आर्या ने धीरे से अपनी आँखें खोलीं। पल भर को सब कुछ धुंधला था, पर जैसे ही उसकी नज़र कमरे के कोने पर गई—उसकी साँसें थम गईं।
कमरे में हर ओर गुलाब ही गुलाब थे।
सफ़ेद, गुलाबी, और गहरे लाल रंग के गुलाब। दीवार के पास रखी मेज पर एक बड़ा सा कांच का गुलदस्ता था जिसमें ताज़े, भीगे हुए गुलाब अपनी पंखुड़ियाँ फैलाए मुस्कुरा रहे थे। खिड़की की चौखट पर छोटे गमलों में गुलाब के पौधे झूल रहे थे, जैसे सुबह की हवा में कोई नाज़ुक सुर छेड़ रहे हों। बेडसाइड टेबल पर एक छोटे से दिल के आकार का गुलदस्ता रखा था, जिसमें लाल और सफ़ेद गुलाबों की परतें एक-दूसरे में ऐसे लिपटी थीं जैसे प्रेम और मासूमियत एक साथ साँस ले रहे हों।
आर्या एक पल को शून्य में देखती रह गई। उसके होठों पर एक धीमी सी मुस्कान आई, जैसे किसी अनदेखी मिठास ने उसके दिल को छुआ हो। उसने खुद को चुटकी काटी, "क्या मैं सपना देख रही हूँ?" फिर मुस्कुराकर धीरे से बोली, "नहीं… यह सपना नहीं हो सकता।"
वह धीरे से बिस्तर से उठी, नंगे पाँव कालीन पर कदम रखते ही ठंडक की एक रेखा उसकी रीढ़ में दौड़ गई, लेकिन उसकी नज़रों की गर्माहट अब सिर्फ उन्हीं गुलाबों पर थी। उसने पहला कदम कमरे के कोने की ओर रखा, जहाँ एक गोल मेज पर दर्जनों गुलाबों से भरा हुआ गुलदस्ता रखा था। वह झुकी, और उनमें से एक लाल गुलाब को धीरे से अपनी उंगलियों से छुआ—जैसे किसी प्रेमी की हथेली थामी हो।
"वाओ…" उसने आँखें बंद कर गुलाब की खुशबू को महसूस किया, "इतनी प्यारी खुशबू… जैसे तुम्हारा एहसास मयंक।"
गुलाब की पंखुड़ियाँ उसकी उंगलियों के स्पर्श से थोड़ी सी काँपीं। आर्या का दिल भर आया। उसकी आँखों में चमक थी—वही चमक जो किसी ने उसकी पसंद को इतनी बारीकी से समझा हो। वह मुस्कराई, और हल्के से फुसफुसाई, “मुझे गुलाब पसंद हैं… यह बात मम्मी-पापा तक को नहीं पता… और तुम्हें पता है मयंक… सिर्फ तुम्हें।”
उसका चेहरा अब बिल्कुल पास आ चुका था गुलाबों के। वह एक-एक गुलाब को वैसे देख रही थी जैसे किसी पुराने खत को पढ़ रही हो—जिसमें हर पंखुड़ी कोई अल्फ़ाज़ कह रही हो। उसकी उंगलियाँ कभी किसी गुलाब को सहलातीं, तो कभी पंखुड़ियों को खोलकर देखतीं कि उनकी तह में कितनी नमी छुपी हुई है। जैसे हर फूल में मयंक का एक "आई लव यू" छिपा हो।
वह खिड़की की तरफ़ बढ़ी, जहाँ एक छोटा सा गुलाबी गमला रखा था। उसमें हल्के गुलाबी रंग के गुलाब खिले थे—इतने नाज़ुक कि लगता था अगर हवा ज़ोर से चल गई तो बिखर जाएँगे।
आर्या ने धीमे से कहा, “तुम कितने रोमेंटिक हो मयंक… यह तुम ही हो, मैं जानती हूँ। सिर्फ़ तुम ही ऐसा कर सकते हो…” उसकी आवाज़ काँपी, लेकिन उसमें एक मीठी सी कृतज्ञता थी, एक सुकून।
वह पूरे कमरे में चक्कर काटने लगी—कभी ज़मीन पर पड़े पंखुड़ियों को उठाती, कभी गुलाबों के रंग को निहारती। हर फूल जैसे उसके दिल में एक नया एहसास बो रहा था। उसने एक गुलाब उठाकर अपनी हथेली पर रखा और मुस्कुराई, “तुम्हें कैसे पता, कि मैं कौन सा रंग सबसे ज़्यादा पसंद करती हूँ?” फिर उसने एक सफ़ेद गुलाब को उठाया और उसे अपने गाल से लगा लिया, “तुम तो जैसे मेरे मन की किताब पढ़ लेते हो मयंक…”
अब वह आईने के सामने खड़ी थी। उसके हाथ में तीन गुलाब थे—लाल, गुलाबी और सफ़ेद। उसने उन्हें अपने दिल के पास लगाया और आईने में अपनी ही मुस्कुराहट को देखा। आईने में नज़र आई उसकी आँखों की चमक, जैसे किसी लड़की को अपने पहले प्यार का पहला इज़हार मिल रहा हो।
उसकी साँसें तेज़ हो गईं। उसने एक गहरी साँस ली, और खुद से ही बोली, “मैंने कभी किसी से इतना जुड़ा हुआ महसूस नहीं किया… मयंक, तुम मेरे दिल के सबसे कोमल कोने को छू जाते हो…”
फिर उसकी नज़र दरवाज़े की तरफ़ गई—मानो वह इंतज़ार कर रही हो कि दरवाज़ा खुले और मयंक सामने खड़ा हो, मुस्कुराता हुआ। लेकिन दरवाज़ा बंद था, और उसकी साँसों में गुलाबों की खुशबू अब एक प्रेम गीत की तरह गूंज रही थी।
आर्या ने एक गुलाब अपने बालों में लगाया, फिर आईने में खुद को निहारा। उसके होठों पर मुस्कान थी, लेकिन आँखों में नमी की परछाईं थी—एक मीठी सी भावना, जो शब्दों से नहीं, सिर्फ़ खामोशी से कही जाती है।
"मयंक… तुमने मेरे दिन को नहीं, मेरी आत्मा को सुंदर बना दिया," वह फुसफुसाई।
कमरे में गुलाब अब भी वैसे ही खिले थे, पर अब उनके बीच आर्या का चेहरा भी खिल चुका था—जैसे कोई अधूरी कविता अपने अंत को पा गई हो।
और इसी तरह गुलाबों की उस सुबह ने प्रेम की नर्म परतों को आर्या की आत्मा में हमेशा के लिए बसा दिया।
"उसके रंग में खुद को रंगना"
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"उसके रंग में खुद को रंगना"
आर्या ने ड्रेसिंग टेबल के सामने खड़े होकर हल्की मुस्कान के साथ आईने में खुद को देखा। उसकी नज़रों में एक चमक थी—वो चमक जो बिना वजह नहीं थी। "मंयक..." नाम ज़ुबां पर आते ही होठों की कोरें खुद-ब-खुद खिल उठीं।
"मैं क्यों ना मंयक की पसंद के रंग पहनूँ?" उसने खुद से फुसफुसाकर कहा। "अगर उसकी वजह से मेरे चेहरे पर मुस्कान आई है, तो मेरा भी उसके लिए कुछ करना बनता है..."
वह वॉर्डरोब की तरफ मुड़ी, धीमे कदमों से। जैसे हर कदम के साथ वह उसकी ओर थोड़ा और खिंच रही हो। अलमारी खोली तो उसमें उसकी तरह ही उलझे हुए रंग रखे थे। एक नीला वन-शोल्डर गाउन, जो मंयक की उस बात की याद दिलाता था—
"ब्लू तुम्हारी आँखों में डूब जाता है..."
दूसरा एक सिंपल लेकिन बॉडी-हगिंग ऑफ-व्हाइट साटन ड्रेस था, जो उसकी स्किन पर दूध की तरह घुल जाता। और तीसरा—लाल रंग की सिल्क की ड्रेस, जो उसके अंदर की छुपी हुई फेमिनिन आग को बेक़ाबू कर सकती थी।
"ये पहनूँ?" उसने ब्लू गाउन को सामने रखकर खुद से पूछा। फिर तुरंत साटन ड्रेस उठाई—
"पर इसमें तो..."
और फिर लाल ड्रेस को देखते ही वह चुप हो गई। उसकी नज़र कुछ पल तक उस ड्रेस पर ठहर गई, जैसे उस कपड़े में कोई और छवि दिखाई दे रही हो—कोई और आर्या।
वह तीनों ड्रेस उठाकर बेड पर बिखेर दी और एक गहरी साँस लेकर खुद से बोली, "पहले शॉवर लेती हूँ... फिर तय करूँगी।"
उसने वॉर्डरोब से सफेद टॉवल निकाला—हल्का, मुलायम, ठीक वैसा जो उसके नम बालों पर लहराते हुए फिसल जाए। अपने बालों को हल्के से समेटकर उसने क्लिप में बाँध लिया और बाथरूम की तरफ चल दी।
बाथरूम का दरवाज़ा बंद होते ही, भाप की हल्की नमी चारों तरफ फैल गई। आर्या ने धीमे-धीमे अपनी टी-शर्ट उतारी। कपास का वो हल्का कपड़ा उसके गले से फिसलता हुआ नीचे गिरा तो उसकी धड़कन थोड़ी और तेज़ हो गई। उसने अपनी शॉर्ट्स भी उतार दी—उसके बदन पर अब सिर्फ उसकी साँसें थीं और आइने में दिखती उसकी गर्म होती त्वचा।
उसने वॉटर टेम्परेचर को हल्का गरम किया और शॉवर ऑन कर दिया।
पानी की बूँदें उसकी गर्दन से होकर उसकी पीठ पर बहने लगीं—हर एक बूँद जैसे कोई लोरी गा रही हो। उसकी आँखें बंद हो गईं। भाप भरे माहौल में उसकी त्वचा चमकने लगी—गीली, मुलायम, और गुलाबी होती जा रही थी।
उसने शैम्पू लिया और अपने लंबे बालों में उंगलियाँ फिरा दीं—झाग में लिपटे बाल उसकी पीठ पर झूमने लगे। फिर उसने बॉडी वॉश लिया—हल्की खुशबू वाला जैस्मिन शावर जेल—और अपने हाथों से गर्दन, कंधे, और कॉलरबोन पर मसला। उसका शरीर हर उस स्पर्श से जागता सा लगा।
उसके कंधे का हर उभार, उसकी कमर की हर लहर, जैसे सब अपने आप बोलने लगे हों। जब उसने अपनी थाइज पर फोम फैलाया, तो उसकी साँसें और भी धीमी और भारी हो गईं। उसने खुद को आइने में देखा—नहाए हुए शरीर पर बूँदें फिसल रही थीं, जैसे कोई चित्रकार उसकी त्वचा पर रंग गिरा रहा हो।
"मंयक... तुम्हें क्या अच्छा लगेगा?" उसने खुद से पूछा, और उस सवाल में वह चाह भी थी, और बेबसी भी।
उसने हल्के से टॉवल उठाया और खुद को सुखाना शुरू किया—कंधे से लेकर नाभि तक, फिर नाभि से लेकर थाइज तक। टॉवल उसके हर हिस्से को चूमता गया। अब वह नर्म, साफ़ और भी ज़्यादा खिला हुआ महसूस कर रही थी।
बाल सुखाते हुए उसने एक बार फिर बेड पर रखी तीनों ड्रेस की ओर देखा। इस बार उसकी आँखों में उलझन कम और आत्मविश्वास ज़्यादा था। उसने लाल सिल्क ड्रेस उठाई और खुद से बोली, "आज... सिर्फ़ मैं नहीं, मेरी त्वचा भी तुम्हारे लिए रंग बदल रही है, मंयक।"
उसने मुस्कुराकर उस ड्रेस को अपने बदन से लगाया और आईने में देखा—यह सिर्फ़ एक पहनावा नहीं था, यह उसके मन की इच्छा थी...उसकी चेतनाओं की पुकार।
कमरे में एक अजीब-सी खामोशी पसरी थी, जैसे हर दीवार किसी रहस्य को अपने भीतर समेटे हुए हों। खिड़की से आती हवा ने पर्दों को हल्के से सरकाया, और वहीं खड़ी थी वह—आर्या। उसके चेहरे पर तनाव की महीन रेखाएँ थीं, माथे पर पसीने की कुछ बूँदें, और आँखें दरवाज़े की ओर टिक गई थीं।
तभी...
एक धीमी सी आहट हुई—बेहद हल्की, जैसे कोई रेशमी कदम फर्श पर रख रहा हो। आर्या का दिल एक पल के लिए ठहर-सा गया। उसकी साँसों की गति अचानक तेज़ हो गई। उसने चौंक कर देखा, दरवाज़े की कुंडी...
"ओह नहीं!" वह बुदबुदाई। उसने कमरे की कुंडी लगाना ही भूल गई थी।
उसकी उंगलियाँ अनायास ही गले के लॉकेट की ओर चली गईं—एक आदत जो उसे डर में सुकून देती थी। कमरे का हर कोना उसे अब किसी अनजाने साए जैसा लग रहा था। और वह टावर में थी...हवेली का सबसे ऊँचा और सबसे एकांत हिस्सा। वहाँ तक कोई बिना मकसद के क्यों आएगा?
दूसरी ओर – मंयक का कमरा
मंयक इस वक्त अपने कमरे में था। दरवाज़ा खोला रखा था। वह कमरे की हल्की रौशनी में बैठा, फोन पर किसी पुराने दोस्त से बात कर रहा था।
"भाई... साला तू आया ही नहीं," मंयक ने मुस्कराते हुए कहा, "इतने साल बाद तो बुलाया था, कम से कम एक रात ही सही..."
फोन की दूसरी तरफ से हँसी की आवाज़ आई, "तू जानता है ना मंयक, माँ की तबीयत अचानक बिगड़ गई थी...वरना तेरी सगाई तो किसी त्योहार से कम नहीं। सुना है दुल्हन की आँखों में तू ही तू दिखता है?"
मंयक हँस पड़ा, लेकिन उसकी नज़रें अनायास ही हवेली की बालकनी से दूर दिखते टावर की ओर चली गईं। वहाँ की खामोशी में भी कुछ था...जैसे किसी अनकहे सवाल का जवाब हवा में तैर रहा हो।
"हाँ...वह बहुत अलग है यार। कभी लगता है मैं उसे जानता हूँ...और कभी लगता है जैसे उसने खुद को एक परत के पीछे छुपा रखा हो," मंयक की आवाज़ अचानक धीमी हो गई।
"तू तो फँस गया लगता है, प्रोफेसर साहब," दोस्त ने चिढ़ाया।
"शायद," मंयक ने गहरी साँस ली, "लेकिन कभी-कभी लगता है...जैसे हम दोनों किसी अधूरी कहानी के किरदार हैं, जो फिर से लिखी जा रही है।"
उसी समय, एक हल्का सा कंपन मंयक के दिल में हुआ—जैसे किसी और की धड़कनों की गूंज उससे टकरा गई हो।
फिर से टावर रूम
दरवाज़े की हैंडल हिली।
आर्या ने एक झटके से पीछे देखा। साया? कोई परछाई? या फिर उसका भ्रम?
उसके हाथ अब भी लॉकेट को थामे हुए थे, और आँखों में एक डर था जो किसी पुराने अनुभव से उठ कर आया था।
वह बढ़ी...बहुत धीरे...हर कदम फर्श पर एक कहानी कहता।
उसने दरवाज़े की ओर देखा।
साँसें थमी हुई थीं।
"कौन है वहाँ?" उसकी आवाज़ धीमी थी लेकिन दृढ़।
और तभी...बाहर से एक और आहट...
...बाहर से एक और आहट हुई।
आर्या की पलकों की कोरों पर घबराहट उतर आई, मगर उसकी आँखें अब स्थिर थीं—मजबूत, सतर्क। उसने दो कदम आगे बढ़ाए और दरवाज़े के पास पहुँचकर कान लगाया। एक हल्की-सी साँस की आवाज़—जैसे कोई दूसरी ओर खड़ा हो। फिर...कुछ नहीं। एक भारी ख़ामोशी ने सब कुछ ढँक लिया।
"कौन है वहाँ?" उसने फिर से पूछा, इस बार हल्की कंपन के साथ।
दूसरी ओर चुप्पी थी।
और अचानक, जैसे समय ठहर गया हो—दरवाज़े के पार से सिर्फ एक शब्द आया...
"मैं।"
आर्या का शरीर कुछ पल के लिए स्तब्ध रह गया। वह आवाज़...शांत, धीमी, लेकिन पहचान में आने लायक।
"मंयक?" उसने दरवाज़ा खोलने की हिम्मत नहीं की, लेकिन उसकी साँसें अब कुछ धीमी हो गई थीं।
उसी समय – मंयक का कमरा
फोन पर दोस्त कुछ कह रहा था, लेकिन मंयक अब ध्यान नहीं दे पा रहा था। उसकी निगाहें हवेली की बालकनी से टावर की ओर ही अटकी थीं। गार्डन की ओर से आती रौशनी में फूलों के रंग और पत्तों की सरसराहट ने माहौल को किसी स्वप्न सा बना दिया था।
"...सुन रहा है ना?" दोस्त ने पूछा।
"हाँ, सुन रहा हूँ," मंयक ने धीमे से कहा, "तूने कभी सोचा है कि कोई इंसान सिर्फ अपने डर की वजह से किसी से दूर रहता हो?"
"मतलब?"
"मतलब यह कि...आर्या। उसके अंदर जैसे कोई अधूरा टुकड़ा है, जो कभी जुड़ ही नहीं पाया। वह बोलती बहुत कम है...लेकिन उसकी आँखें—जैसे सब कुछ कह देना चाहती हैं। और मैं...मैं शायद सिर्फ वह पन्ना बनना चाहता हूँ जिस पर वह खुद को फिर से लिख सके।"
दोस्त कुछ पल चुप रहा, फिर कहा, "तू उसे सिर्फ समझना मत, उसे महसूस करना...वह अपनी परतों में खुद भी खोई हुई लगती है। हो सकता है, तू ही वह आइना हो जो उसे खुद से मिलवा सके।"
मंयक की साँसें एक पल को थम गईं। उसकी आँखों के सामने फिर से टावर का वह झरोखा आया, जहाँ शायद अभी भी आर्या खड़ी होगी...डरी हुई, उलझी हुई।
"मैं अभी वापस कॉल करता हूँ," कहकर मंयक ने फोन रख दिया।
वह उठा, और बालकनी की रेलिंग पर हाथ रखते हुए गार्डन की ओर देखा। वहाँ की नमी और फूलों की खुशबू हवेली की पुरानी दीवारों से टकरा कर कुछ कह रही थी—जैसे कोई भूला हुआ गीत। हर गुलाब, हर बोगनवेलिया, हर चमेली अपनी खुशबू से हवा को भर रही थी। और उसी हवा के साथ एक एहसास, एक धड़कन, सीढ़ियों की ओर बढ़ चला।
टावर रूम – दरवाज़े के इस पार
आर्या अब भी खड़ी थी। उसकी उंगलियाँ लॉकेट को इस कदर थामे हुए थीं जैसे वह उसके भीतर छिपे किसी पुराने घाव को बाँध रहा हो। "मैं" शब्द ने उसे उलझा दिया था, लेकिन उस आवाज़ में जो कंपन थी, वह झूठा नहीं था।
हिम्मत करके उसने दरवाज़ा खोला।
वहाँ कोई नहीं था।
आर्या ने चैन की साँस ली और फिर इस बार उसकी आँखों में था सिर्फ़ एक निर्णय।
आर्या ने लाल सिल्क की ड्रेस उठाई—वह ड्रेस जो उसकी आँखों में उसकी खुद की एक नई छवि बनाती थी। उसने धीरे से ड्रेस को अपनी त्वचा से लगाकर आईने में खुद को देखा। हल्की सी मुस्कान उसके होंठों पर तैर गई, लेकिन इस बार उसमें शरारत थी...और शायद थोड़ी सी आग भी।
"अगर मंयक ने मेरे लिए गुलाबों से सुबह रच दी...तो मैं क्यों ना उसे अपनी ओर खींच लूँ अपने रंग से..."
ड्रेस उसकी बदन पर एक झरने की तरह गिरती गई—उसकी कमर को गले लगाती, उसके कंधों पर रुकती, और उसकी चाल में एक धीमी, मगर निश्चित उत्तेजना भरती। उसने बालों को खुला छोड़ दिया—गीले बालों की कुछ लटें उसके गालों से खेल रही थीं, और कुछ उसकी पीठ पर गिरकर एक अलग ही कहानी बुन रही थीं।
उसने अपने होठों पर गुलाबी लिप बाम लगाया—सिर्फ़ इतना ही, ताकि कुछ भी ज़्यादा न लगे, पर सब कुछ महसूस हो। फिर उसने गुलाबों की ओर देखा, और उनमें से एक लाल गुलाब को चुना। उस फूल को उसने धीरे से अपनी कलाई के पास बाँधा, जैसे कोई अनकहा वादा उसकी नसों से होकर बहने लगा हो।
कमरे की खिड़की से धूप अब पूरी तरह अंदर आ चुकी थी। और अब वह धूप सिर्फ कमरे को नहीं, आर्या को भी जगाने लगी थी। उसने खुद को आईने में देखा—गालों पर हल्की सी लाली, आँखों में भीगी सी चमक, और होंठों पर मुस्कान जो किसी के नाम से जुड़ चुकी थी।
वह पलटी, और बेड के पास जाकर बैठ गई। उसकी उंगलियाँ धीरे-धीरे बेडशीट पर चल रही थीं—जैसे किसी धड़कन की लय पर थिरक रही हों। उसकी आँखें दरवाज़े की तरफ थीं...इंतज़ार अब भी बाकी था, लेकिन अब वह इंतज़ार बेचैनी नहीं, सुंदरता बन चुका था।
उसके दिल में एक बात गूंज रही थी—
"जब कोई तुम्हें गुलाबों की सुबह दे...तो तुम उसे अपनी साँझ का चाँद बना सकती हो।"
आर्या अब तैयार थी—सिर्फ़ मिलने के लिए नहीं, महसूस कराने के लिए...कि वह प्रेम को सिर्फ़ स्वीकार नहीं करती, उसे रचती भी है।
"अगर आपको मेरी यह नॉवेल पसंद आई हो, तो एक छोटी-सी विनती है... ❤️"
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वह कमरे से निकली। हवेली के उस कॉरिडोर की रोशनी मंद थी; दीवारों पर लगे हल्के सुनहरे लैंप अपनी थकी हुई रौशनी बिखेर रहे थे। लकड़ी के फर्श पर आर्या के हील्स की आहिस्ता-सी आवाज़ गूंज रही थी—टक... टक... टक... जैसे हर कदम उसके मन की उलझनों को भी साथ में लिए चल रहा हो।
आर्या ने खुद को शीशे में देखकर आखिरी बार जांचा। बाल खुले थे, कंधों तक लहराते हुए, जैसे हल्की हवा में बहते हुए रेशम के धागे। लेकिन उसकी आँखों की थकावट छुप नहीं रही थी। फिर भी, वह तैयार थी।
वह जैसे ही मुड़ी, कॉरिडोर के मोड़ पर अचानक किसी के सामने आ गई—या यूँ कहें, किसी से टकराते-टकराते बच गई।
"ओह..." आर्या के होंठों से निकला और उसके हाथ अनायास ही सम्राट के सीने से जा लगे।
सम्राट की आँखें चौड़ी हो गईं, लेकिन उसने खुद को स्थिर रखा। आर्या ने जल्दी से हाथ पीछे खींच लिया और एक हल्की सी मुस्कान दी, जो ज़्यादा औपचारिक थी; नर्म थी, मगर उतनी ही दूर।
"सॉरी... मैं थोड़ी जल्दी में थी," आर्या ने धीमे स्वर में कहा, मानो वक्त को थोड़ा थाम रही हो।
लेकिन सम्राट... वह जैसे समय से परे खड़ा था।
उसके सामने आर्या थी—कुछ पल पहले तक एक नाम, एक चेहरा भर, लेकिन इस क्षण में... वह कोई तस्वीर नहीं थी, वह पूरी कविता थी। उसकी आवाज़ सम्राट को कोई मधुर धुन लगी; वह धीमे-धीमे हिलते हुए होंठ, और उस आवाज़ के साथ बहता हुआ वह सुकून, जैसे पूरा कॉरिडोर अचानक शांत हो गया हो।
आर्या ने जब महसूस किया कि सम्राट उसकी आँखों में कहीं खोया है, तो उसने भौंहें चढ़ाकर कहा, "हैलो, मिस्टर...? कहाँ खो गए आप?"
सम्राट अचानक जैसे किसी सम्मोहन से बाहर आया; उसने आँखें झपकाईं और हल्की साँस छोड़ी।
"ब...बहुत खूबसूरत लग रही हो," उसके लबों से ये शब्द बेहद साफ, मगर थोड़ा धीमे निकले।
आर्या चौंकी। उसके चेहरे पर हल्की सी झिझक थी, जैसे उसे इस प्रतिक्रिया की उम्मीद नहीं थी।
"थैंक्स..." उसने संकोच के साथ कहा और नज़रें नीचे कर लीं।
सम्राट वहीं खड़ा रहा; एक हाथ अब भी उसकी जेब में था और दूसरा हल्का-सा काँपता हुआ, जैसे अभी भी आर्या की छुअन को महसूस कर रहा हो।
आर्या ने खुद को शांत रखने की कोशिश की, लेकिन उसके मन में एक हलचल थी। "आरे यार, यह क्यों तारीफ कर रहा है?"
उसने धीरे से बालों को पीछे किया, और हल्की सी मुस्कान फिर से ओढ़ ली—इस बार थोड़ी कम फॉर्मल, थोड़ी और सॉफ्ट।
"आप भी... डिसेंट लग रहे हैं," आर्या ने कहा, नज़रें अब भी बगल की दीवार पर टिकी थीं।
सम्राट को लगा जैसे उसने कोई इनाम पा लिया हो। वह पहली बार किसी लड़की के सामने इतना स्थिर और उतावला दोनों एक साथ था। आर्या की आँखों में एक ऐसी गहराई थी जो उसे डुबो रही थी, और उसकी मुस्कान में एक अजनबी सी गर्माहट, जो बहुत कुछ कहकर भी कुछ नहीं कह रही थी।
"जल्दी में हो?" सम्राट ने धीरे से पूछा, जैसे वह चाह रहा हो कि यह बातचीत बस चलती रहे।
"हाँ...", आर्या ने कहा, लेकिन उसकी आवाज़ अब थोड़ी मुलायम हो गई थी। उसने महसूस किया था कि सम्राट की आँखों में कोई चालाकी नहीं थी—बस एक अजीब सा सच्चा आकर्षण था।
"मैं साथ चलूँ?" सम्राट ने हल्के से मुस्कराते हुए पूछा, लेकिन उसका स्वर बहुत ज़्यादा विनम्र था।
आर्या ने थोड़ी देर तक उसकी ओर देखा—जैसे कोई सवाल उसके भीतर से जवाब मांग रहा हो। फिर उसने सिर हल्का सा हिला दिया, "नहीं, मैं चली जाऊँगी।"
फिर वह एक कदम आगे बढ़ी। सम्राट थोड़ा पीछे हटा, रास्ता दिया। लेकिन जैसे ही आर्या उसके पास से गुज़री, उसकी परफ्यूम की खुशबू सम्राट को छू गई—गुलाब और कुछ गीली मिट्टी जैसी महक... जिसे सम्राट ने अनायास ही महसूस कर लिया।
आर्या ने पीछे मुड़कर देखा, "बाय,"
सम्राट ने सिर झुकाकर कहा, "बाय... आर्या।"
और वह आगे बढ़ गई—तेज़ नहीं, लेकिन ठहराव के साथ। जैसे उसकी चाल भी एक कहानी कह रही हो।
पीछे सम्राट कुछ पल वैसे ही खड़ा रहा—दीवार के पास टिके हुए, उस छुअन को दोबारा महसूस करता हुआ, उस हल्की मुस्कान को अपनी आँखों में संजोए हुए। सम्राट की आँखों में एक पागलपन, दिवानापन था, साथ एक जुनून, साथ ही हल्की सी हवासी भी।
"सिर्फ मेरी—सम्राट का पागलपन"
कॉरिडोर की रोशनी और भी धुंधली लग रही थी, जैसे आर्या के जाने के बाद उजाले की कोई वजह ही बाकी नहीं रही हो।
सम्राट वहीं खड़ा रहा—पीठ दीवार से टिकी हुई, नज़रें उस मोड़ पर जमीं जहाँ से आर्या अभी-अभी गुज़री थी। उसकी चाल... उसका परफ्यूम... उसकी वह मुस्कान—सब कुछ जैसे हवा में स्थिर था। सम्राट ने आँखें बंद कीं और साँस खींची, जैसे वह कुछ पकड़ लेना चाहता हो—शायद उस लम्हे को... या उस एहसास को।
"तुम सिर्फ मेरी हो..." उसके भीतर की आवाज़ फुसफुसाई।
यह कोई इश्क़ नहीं था जो शब्दों में बंध सके। यह कुछ गहराई से, बहुत भीतर से उठता एक पागलपन था—एक आग, जो अब बुझने वाली नहीं थी।
"आर्या..." उसने धीमे से उसका नाम लिया, जैसे वह कोई मंत्र हो। "तुम्हारी वह आँखें... इतनी थकी हुई, फिर भी इतनी जिंदा। तुम्हारा वह 'थैंक्स'... इतना छोटा, फिर भी मुझे रोक देने वाला।"
उसने अपने सीने पर हाथ रखा—वहीं जहाँ आर्या की उंगलियों की छुअन अभी भी महसूस हो रही थी। "किसी और ने कभी यूँ छुआ भी नहीं... और तुमने? सिर्फ एक सेकंड... और मैं कहीं और चला गया..."
उसने अपनी आँखें खोलीं। कॉरिडोर अब खाली था, लेकिन सम्राट के लिए वह अब भी उससे भरा हुआ था।
"तुमने मना किया... कि मैं साथ ना चलूँ... ठीक है आर्या, अभी नहीं... लेकिन एक दिन, हर जगह साथ चलोगी। सिर्फ मेरे साथ।"
उसकी मुट्ठियाँ कस गईं। उसकी साँसें तेज़ थीं, लेकिन आवाज़ धीमी।
"तुम्हें पता भी है कि तुम कौन हो मेरे लिए? शायद नहीं। तुमने बस एक पल दिया, और मैं उसमें डूब गया। और अब... अब मैं तुम्हें जाने नहीं दूँगा।"
"तुम नहीं जानती आर्या, पर मैं जानता हूँ—पहली नज़र का प्यार क्या होता है। वह जो सब कुछ बदल देता है।"
उसने जेब से फ़ोन निकाला, लेकिन कॉल करने के लिए नहीं—बस स्क्रीन पर उसकी उंगलियाँ नाम खोज रही थीं। "आर्या..." उसने बुदबुदाया। सम्राट ने फ़ोन में बड़े अक्षरों में 'आर्या' लिखा। एक अजीब मुस्कान उसके होठों पर आई। पागलपन की शुरुआत अक्सर इसी तरह होती है—जब इंसान खुद को भी नहीं पहचान पाता।
"मैं तुम्हें देखता रह सकता हूँ, आर्या," वह फुसफुसाया, "तुम्हारी चाल, तुम्हारे बाल, वह हल्की सी झिझक... सब कुछ मुझमें उतर रहा है।"
"मुझे पहली बार लगा कि मैं कुछ खो नहीं सकता। तुम्हें नहीं खो सकता।"
एक पल को उसकी आँखें नम हो आईं—पर वे आँसू नहीं थे, वे जुनून थे। एक बेचैन आत्मा की खामोश लड़ाई।
"सिर्फ तुम... सिर्फ मेरी। किसी और की नहीं हो सकती।" उसके शब्दों में अब एक दावा था, एक अधिकार।
"मैं जानता हूँ, मैं थोड़ा अलग हूँ। सब कहते हैं—सम्राट बहुत तेज़ है, बहुत क्रूर है बिज़नेस में... पर कोई यह नहीं जानता कि सम्राट जब किसी को चाहता है, तो उसे छोड़ता नहीं। और तुम..."
उसने दीवार पर हल्के से मुट्ठी मारी, "तुम्हें तो मैंने छुआ भी नहीं ठीक से, लेकिन फिर भी लगता है... जैसे तुम्हें हमेशा से जानता हूँ।"
"मैं जानता हूँ, आर्या... तुम्हें डर लगेगा मुझसे। मैं तुम्हें परेशान नहीं करूँगा। नहीं अभी... लेकिन इंतज़ार करूँगा। अपनी तरह से, अपने वक्त पर।"
"तुमने मुझसे नज़रें चुराईं थीं... पर वह पल—जब तुमने मेरी तारीफ की थी..."
उसने अपने होठों को छुआ, "वह पल मैंने कैद कर लिया है। अब तुम जाओ, जहाँ जाना है—लेकिन यह जान लो..."
उसकी आँखों में एक चमक थी—वह जो जुनून से उपजती है।
"मैं हर जगह हूँ, आर्या। तुम्हारे आसपास, तुम्हारी परछाईं में... तुम्हारी धड़कनों में। जब तुम आँखें बंद करोगी—मैं वहीं खड़ा रहूँगा। और एक दिन... एक दिन तुम खुद कहोगी..."
उसने धीमे से खुद से कहा, "सम्राट... तुम ही हो।"
उसकी तस्वीरें—जो अब भी सिर्फ यादों में थीं—उन्हें आँखों में समेटे बैठा रहा।
"यह तो सिर्फ शुरुआत है..."
सुबह की चुप्पियों में बसी उम्मीद
हवेली के बगीचे की सुबह बहुत शांत थी। धूप ने अभी-अभी पत्तियों पर दस्तक दी थी; ओस की बूँदें अब भी घास पर चमक रही थीं, और बगीचे के कोने में लगे गुलमोहर के पेड़ ने पहली बार कुछ फूल गिराए थे। एक लंबी टेबल को सफेद रंग के टेबलक्लॉथ से सजाया गया था, जिस पर चाय, कॉफी, टोस्ट, आलू के पराठे, घर की बनी मक्खन की टिक्कियाँ और कटे हुए फल रखे थे। सुबह का नाश्ता बहुत प्यार से सजाया गया था, जैसे हर वस्तु किसी खास पल का हिस्सा बनना चाहती हो।
आर्या की माँ, वर्षा, हल्के गुलाबी सूट में बैठी थीं। उनका चेहरा सुकून से भरा था; आँखों में नींद की बची-खुची लहरें थीं, लेकिन मुस्कान पूरी तरह जाग चुकी थी। सामने मयंक के पिता, श्री शेखावत बैठे थे—एक रॉयल ब्लू कुर्ते में, हाथ में कॉफी का मग और आँखों में संतोष।
"आपने गौर किया, आर्या कितनी शांत हो गई है अब?" वर्षा ने टोस्ट पर मक्खन लगाते हुए कहा।
शेखावत मुस्कराए, "हाँ... और मयंक भी। मैं तो हैरान हूँ—वह लड़का जो हमेशा फ़ोन में लगा रहता था, अब हर बात में आर्या का ज़िक्र करता है।"
वर्षा की हँसी हल्की थी, लेकिन उसमें बहुत कुछ छिपा था। "कल जब वे दोनों साथ बैठे थे न... तो ऐसा लग रहा था जैसे दो किरदार नहीं, एक ही कहानी के दो पन्ने हों।"
"सच कह रही हैं आप," शेखावत ने हामी भरी, "कल कई मेहमानों ने मुझसे कहा—'आपके बेटे की पसंद बहुत खूबसूरत है।' और मैं सोच रहा था... कि आर्या सिर्फ़ खूबसूरत नहीं है, समझदार भी है।"
"वह तो है," वर्षा ने गर्व से कहा, "पर मयंक भी बहुत परिपक्व हो गया है। पहले थोड़ा चंचल था, लेकिन आर्या के साथ वह एकदम स्थिर लगता है।"
टेबल पर भाप उड़ाती चाय की केतली रखी थी। उस भाप में जैसे रिश्तों की गरमाहट भी घुली हुई थी। पीछे से आर्या की चाची दो प्लेटों में गरमागरम पराठे लाईं और मुस्कराकर बोलीं, "आज का नाश्ता कुछ ज़्यादा ही खास लग रहा है।"
"हो भी क्यों न," वर्षा ने बात आगे बढ़ाई, "कल की शाम ने जैसे सबके दिल भर दिए।"
शेखावत ने चाय का घूँट लिया, फिर गहरी साँस लेकर कहा, "जब मयंक ने आर्या की आँखों में देखा था न... मैं समझ गया था, अब बात सिर्फ़ पसंद की नहीं रही, अब यह रिश्ता अपने आप में जी रहा है।"
वर्षा चुप हो गईं—आँखें मेज़ पर रखी गुलाब की कली पर टिक गईं। "एक माँ के लिए इससे ज़्यादा सुकून क्या होगा... जब बेटी मुस्कराकर कहे—'माँ, मुझे अच्छा लगता है यहाँ रहना।'"
बगीचे में एक नन्हा झोंका आया, पराठों की महक हवा में और फैल गई। सब थोड़ी देर तक चुपचाप खाने लगे। लेकिन वह चुप्पी बोझिल नहीं थी—वह शांति थी, स्वीकार की।
"हमारा मयंक, थोड़ा ज़िद्दी है, थोड़ा भावुक... लेकिन जब किसी को अपना मान ले, तो पीछे नहीं हटता।" शेखावत ने अपनी बात को बहुत धीमी, मगर भरोसे से भरी आवाज़ में कहा।
"और आर्या," वर्षा ने धीमे से जवाब दिया, "वह दुनिया को समझने वाली लड़की है, लेकिन खुद को किसी के लिए खुलने में वक्त लेती है। मयंक अगर इंतज़ार कर पाया... तो इसका मतलब है, वह सच्चा है।"
दोनों ने एक-दूसरे की बातों को बिना किसी अतिरिक्त शब्दों के स्वीकार किया। यह वह बातचीत थी जो दो परिवारों के बीच नहीं, दो दिलों के बीच होती है—जहाँ शब्द कम और भाव ज़्यादा बोलते हैं।
"कल मेरी बहन कह रही थी," वर्षा ने याद किया, "कि आर्या के हाथ में जब मयंक का हाथ था, तो उसके चेहरे की रंगत कुछ और ही थी। जैसे कोई डर ही न रहा हो।"
"कभी-कभी किसी का साथ... हमें खुद से मिला देता है," शेखावत ने गहराई से कहा।
आर्या की चाची फिर आईं, मीठी चटनी के साथ इडली सर्व करते हुए बोलीं, "अब तो रिश्ता तय मानें न?"
वर्षा ने नज़रों से शेखावत की ओर देखा। उन्होंने हल्के से सिर हिलाया, मुस्कान दी, "अब तो बस एक औपचारिक बात बाकी है—तारीख़ तय करनी है।"
बगीचे में अब बच्चे दौड़ रहे थे, पत्तों पर धूप नाच रही थी, और दो परिवारों के बीच एक नए रिश्ते की नींव और भी पक्की हो रही थी।
पराठों की खुशबू, कॉफी की भाप और दो दिलों की स्वीकृति... यह सुबह सिर्फ़ नाश्ते की नहीं, एक नई शुरुआत की थी।
"वह पल जब नज़रों ने इश्क़ को पहचाना"
परदे हल्के-हल्के लहरा रहे थे, जैसे हवा भी उस क्षण को छूकर मुस्कुरा रही हो। मयंक कमरे में बैठा अपनी किताबें समेट रहा था, पर उसका मन आज अजीब सी बेचैनी से भरा था।
तभी दरवाज़ा धीरे से खुला। उसकी हल्की सी चरमराहट ने मयंक का ध्यान खींचा। उसने नज़रें उठाईं, और पल भर को सब कुछ थम गया।
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आर्या खड़ी थी— बाल खुले हुए, आँखों में हल्की सी काजल की रेखा और होंठों पर वो जानी-पहचानी मुस्कान। उसकी मौजूदगी जैसे कमरे की हर दीवार को चुपचाप गुनगुनाने लगी थी।
मयंक की आँखें बस उसी पर टिक गईं। किताब उसके हाथ से कब गिर पड़ी, उसे होश ही नहीं रहा।
आर्या ने हल्के अंदाज़ में मुस्कुराते हुए कहा,
"कहो तो ज़रा… कैसी लग रही हूं?"
मयंक को जैसे शब्द ढूंढने पड़ रहे थे। उसने धीरे से कहा,
"दुनिया की सबसे प्यारी लड़की… बहुत खूबसूरत। जैसे चाँद ज़मीन पर उतर आया हो।"
आर्या की मुस्कान और गहरी हो गई। वो आगे बढ़ी, धीरे-धीरे उसकी ओर।
"इतनी तारीफें करोगे तो मैं आदत डाल लूंगी…" उसने शरारत से कहा।
मयंक ने उसकी तरफ़ देखा—गंभीरता से, गहराई से।
"तो डाल लो। मैं चाहता हूं कि तुम रोज़ यूँ ही मेरे सामने आओ, और मैं हर बार तुम्हें देखता रह जाऊं।"
कमरे में अब बस उनकी नज़रों की ख़ामोश बातचीत थी। वक्त जैसे किसी रूमानी धुन पर ठहर गया था।
लेकिन दरवाज़े के उस पार—एक और धड़कता दिल था।
सम्राट। वो वहीं खड़ा था—दरवाज़े से चिपककर। उसकी साँसें तेज़ हो रही थीं, जैसे हर लफ्ज़ उसके सीने पर हथौड़े की तरह पड़ रहा हो। उसकी आँखें लाल हो चुकी थीं, और होंठ भींचे हुए थे।
सम्राट का दिल जैसे धीरे-धीरे फट रहा था।
अंदर मयंक और आर्या की बातचीत अब और भी करीब होती जा रही थी। आर्या ने मयंक का हाथ थामा, और हल्के से उसकी उंगलियों में अपनी उंगलियां फँसा दीं।
"तुम्हारे पास आकर सब कुछ आसान लगने लगता है। जैसे तुम मेरी उलझनों को बिना कहे समझ लेते हो," उसने कहा।
मयंक ने उसका हाथ थामे रखा,
"क्योंकि तुम्हारा हर एहसास मेरी साँसों से जुड़ा है, आर्या।"
यह सुनते ही सम्राट की आँखों में आँसू भर आए। पर वो रोया नहीं। बस उसकी आँखों के कोने भीग गए, और चेहरे पर वो कड़वाहट उतर आई जो किसी टूटे हुए दिल की होती है।
उसने चुपचाप एक कदम पीछे हटाया, फिर एक और। और फिर तेज़ कदमों से वो गलियारे से निकल गया। पर जाते-जाते उसकी आँखें आखिरी बार मुड़ीं—उस बंद होते दरवाज़े की ओर, जिसके भीतर आर्या हँस रही थी। एक ऐसी हँसी जिसे सम्राट ने कभी अपने लिए सोचा था।
वो नीचे सीढ़ियों से उतरा, पर उसके मन में अब कोई मंज़िल नहीं थी। उसके कदम भारी थे, और आत्मा से एक कड़वा सा ठहाका निकल रहा था।
"तुम सिर्फ मेरी हो," धीरे से बूदबूदाते हुए कहा।
कमरे में अब एक धीमी सी खामोशी थी। आर्या मयंक के पास बैठी थी, और मयंक की आँखें अब भी उसी को देख रही थीं।
"आर्या?" मयंक ने धीरे से कहा।
"हां?" उसने पलकें झुका लीं।
"मैं चाहता हूं… इस पल को थाम लूं… बस यूँ ही… हमेशा के लिए।"
आर्या ने सिर उठाया, उसकी आँखों में नमी सी थी, पर होंठों पर सुकून।
"तो थाम लो… शायद इसी को इश्क़ कहते हैं।"
बाहर सम्राट एक सूनी बेंच पर आ बैठा था। हवाएं तेज़ चल रही थीं। पर अब उसे हवा की ठंडक नहीं, दिल की खालीपन ज़्यादा चुभ रही थी।
"तुम्हें किसी और की मुस्कान में देखना… ये मेरे इश्क़ की सबसे बड़ी हार है।"
बेंच पर बैठा सम्राट एकटक सामने देख रहा था। हवा अब और तेज़ थी, लेकिन वो ठंड उसे छू भी नहीं रही थी। उसके भीतर की उथल-पुथल, उसका पिघलता हुआ आत्म-सम्मान, और उसका बेकाबू होता गुस्सा—इन सबने उसे आग की तरह भीतर ही भीतर जला दिया था।
उसकी मुट्ठियाँ कस गईं। साँसें अब तेज़ नहीं, भारी लग रही थीं।
"क्यों?" वो खुद से फुसफुसाया।
"क्यों मयंक? तू ही क्यों?"
उसका गला रुँध गया था, लेकिन आँखों में आँसू नहीं, सिर्फ़ धधकता हुआ सवाल था।
"क्या इसलिए कि तू सीधा-सादा है? कि तू उसकी बातों को सुन लेता है?"
उसने दोनों हाथों से बालों को झटकते हुए सिर को झुका लिया।
"मैंने तो तुझे अपना दोस्त समझा, मयंक… और तूने मेरी दुनिया ही चुरा ली?"
उसकी आँखों में अब गुस्से की लालिमा थी। होंठ काँपने लगे थे, और आवाज़ मानो किसी अंधे कुएँ से निकल रही थी।
"तेरे लिए वो एक 'प्रेमिका' है… मेरे लिए वो मेरी ‘पहचान’ है।"
वो हँसा—एक खोखली, दर्द से भरी हँसी, जो सीधे उसकी आत्मा के जख्मों से उठी थी।
"मैंने उसे उस वक़्त चाहा जब उसे खुद नहीं पता था कि उसे कोई चाहेगा।"
वो उठ खड़ा हुआ। उसकी साँसें तेज़ होती जा रही थीं। दिमाग में आर्या और मयंक के ठहाके गूंज रहे थे—हर लम्हा जो उसने अभी कुछ देर पहले मयंक के कमरे के दरवाजे पर खड़ा होकर सुना था। आर्या की मुस्कान, उसका मयंक की उंगलियाँ थामना, उसकी आँखों में ठहरा वो सुकून—सब कुछ सम्राट के लिए किसी तमाचे से कम नहीं था।
"किस्मत?" उसने व्यंग्य से कहा।
"अगर यही किस्मत है, तो मैं अब किस्मत को अपने हाथ से लिखूंगा… आग से!"
वो गलियारे की ओर तेज़ी से बढ़ा। उसकी चाल में अब तकलीफ़ नहीं, इरादा था। उसके मन में एक तूफ़ान था जो बस बाहर आने को मचल रहा था।
सुबह की नरम धूप में महकता वो गार्डन, और बीच में दो दिल… मयंक और आर्या। टेबल पर फूलों की महक और परोसते हुए नाश्ते की सादगी थी, लेकिन हवा में कुछ अलग था — एक हल्की सी चंचलता, और साथ ही रोमांस का रंग।
मयंक ने एक कौर उठाया, उसमें बटर स्मूथली फैलाया, और हौले से आर्या की तरफ बढ़ा दिया। आर्या थोड़ी संकोच में मुस्कराई, फिर धीरे से मयंक की आँखों में देखते हुए वो कौर खा लिया।
"आजकल बड़े रोमांटिक बनते जा रहे हो, मयंक," आर्या ने अपनी आवाज़ में एक शरारती हँसी मिलाते हुए कहा, "पहले तो ऐसा कुछ नहीं था।"
मयंक ने आँखें हल्की तिरछी कीं, और होंठों पर एक शांत सी मुस्कान फैल गई, "ऐसा कुछ नहीं है… मैं हमेशा से ही रोमांटिक था। पर शायद तुम्हारा ध्यान ही नहीं गया।"
आर्या ने गर्दन थोड़ा झुकाया, अपने बालों को पीछे किया और कहा, "या शायद… मेरा मन तब तुम्हारे इन हिस्सों को देखने के लिए तैयार नहीं था।"
"अब तो है?" मयंक की आवाज़ धीमी हो गई, जैसे हवा से फुसफुसा रहा हो।
आर्या ने हल्के से 'हूँ' कहा और अपनी नज़रें झुका लीं।
टेबल पर अब नाश्ते के अलावा सन्नाटा था, जिसमें सिर्फ़ नज़रों की बातें थीं। चाय की प्याली से उठती भाप मानो उन दोनों के बीच के एहसासों को गर्माए जा रही थी।
मयंक ने फिर एक टोस्ट उठाया और आर्या की तरफ बढ़ाया — "अब तो मेरी बारी है तुम्हें मनाने की।"
"मनाने की?" आर्या ने चौंकते हुए पूछा।
"हाँ… पिछले सारे रूखेपन की भरपाई करनी है," मयंक ने हँसते हुए कहा और टोस्ट को उसके होंठों के पास ले गया।
आर्या ने धीरे से टोस्ट काटा, लेकिन तभी *tring tring…* मोबाइल की रिंग टेबल के उस जादू को तोड़ गई।
मयंक का चेहरा एकदम उतर गया। उसने झुंझलाकर कहा, "ये गलत है! तुम्हें अपना फ़ोन बंद करना चाहिए था। अब देखो, लोग परेशान कर रहे हैं।"
आर्या ने झेंपते हुए फ़ोन उठाया और स्क्रीन को देखा, "अरे! मैंने तो किया था… बंद… पता नहीं कैसे ऑन हो गया।"
"ठीक है तो अब बंद करो," मयंक ने नाराज़ होते हुए कहा।
आर्या ने थोड़ा रुक कर कहा, "अरे… माँ का फ़ोन है। एक बार बात तो कर लूँ… शायद कोई ज़रूरी बात करनी हो।"
मयंक ने अपनी भौंहें सिकोड़ते हुए कहा, "क्या ज़रूरी बात हो सकती है? ऐसे ही बात करने होगी।"
आर्या ने उसकी तरफ़ देखा — उस स्वर में नाराज़गी तो थी, लेकिन कहीं कोई गहराई भी छिपी थी। वो उसकी ओर नज़दीक सरक आई, और धीमे स्वर में बोली, "मयंक… माँ है। माँ की कॉल कभी ‘ऐसे ही’ नहीं होती।"
मयंक कुछ पल चुप रहा। फिर कुर्सी से थोड़ी पीछे सरक कर बैठ गया। उसकी आँखें गार्डन के उस गुलाब की तरफ़ थीं, जिसे अभी सुबह की ताज़गी ने भीगाया था।
"तुम जब माँ से बात करती हो… तो तुम सिर्फ़ बेटी नहीं रहतीं… मैं जैसे तुम्हें खो देता हूँ कुछ देर के लिए।"
आर्या ठिठक गई। उसकी उंगलियाँ फ़ोन पर थीं, लेकिन आँखें अब मयंक पर थीं।
"क्या मतलब?" उसने धीमे से पूछा।
"मतलब ये कि… जब हम साथ होते हैं न, तो मैं चाहता हूँ कि इस पल में सिर्फ़ हम हों। माँ, दोस्त, दुनिया… सब बाहर। बस एक छोटी सी दुनिया हो – मैं और तुम।"
आर्या मुस्करा दी। "तुम्हें पता है, मयंक? ये जो तुमने कहा… ये ‘रोमांस’ है। ये वही मयंक है जो पहले नहीं था।"
मयंक ने सिर झुकाकर कहा, "नहीं, था… लेकिन शायद डर था, कि अगर सबकुछ खोलकर रख दिया, तो कहीं तुम…"
"…तो कहीं मैं चुप हो जाऊँगी?" आर्या ने बात पूरी की।
उसने फ़ोन उठाया, माँ की कॉल को एक बार देखा, फिर उसे साइलेंट करके वापस टेबल पर रख दिया।
"क्या कर रही हो?" मयंक ने चौंक कर पूछा।
"तुमने सही कहा, ये पल सिर्फ़ हमारा है," आर्या ने धीमे से कहा और उसका हाथ थाम लिया।
"लेकिन माँ?" मयंक की आवाज़ में थोड़ी सी चिंता थी।
"माँ समझ जाएंगी। मैं उन्हें बाद में कॉल कर लूँगी। लेकिन इस पल में अगर मैं तुम्हारे साथ हूँ… तो पूरी तरह से रहना चाहती हूँ।"
एक लंबी साँस मयंक ने ली। उसकी आँखों की कोर थोड़ी नम हो गई थी — किसी ने पहली बार उसे चुना था, सिर्फ़ उसे। बिना किसी शर्त, बिना किसी ‘लेकिन’ के।
आर्या ने उसके हाथ की उंगलियों को अपने हाथ में कसा, "अब खिलाओ न कुछ… भूख तो थी पर तुम्हारी बातें ज़्यादा मीठी लग रही थीं।"
मयंक ने हँसते हुए टोस्ट उठाया, "चलो, अब मैं तुम्हारी भूख और भावनाओं — दोनों का ख्याल रखता हूँ।"
गार्डन में एक बार फिर वो सुकून लौटा। पत्तियों पर धूप की हल्की चमक, फूलों की मद्धम खुशबू और दो दिलों की बात — एक छोटे से नाश्ते की टेबल ने आज उनके रिश्ते में एक नया स्वाद भर दिया था।
और फ़ोन… वो चुपचाप वहीं पड़ा था, शायद समझ चुका था कि कुछ पलों की खामोशी, सबसे ज़रूरी बातचीत होती है।
गार्डन अब भी उसी नर्म धूप में नहाया हुआ था। हवा में चाय और फूलों की खुशबू अब एक आत्मीय सुकून बनकर बैठ गई थी। आर्या और मयंक की टेबल पर अब नाश्ता अधूरा था, लेकिन उनकी बातों से पेट और दिल दोनों भर चुके थे। उनकी मुस्कानों के बीच जब मौन उतरता, तो वो किसी गीत की तरह मधुर लगता था।
आर्या ने टोस्ट की एक बाइट ली ही थी कि झाड़ियों के पीछे से अचानक "भौं भौं!" की हल्की सी, मासूम आवाज़ आई।
मयंक और आर्या दोनों चौंके। आर्या ने आँखें फैलाकर देखा और फिर हँसते हुए बोली,
"कोई नन्हा मेहमान लगता है!"
और तभी झाड़ियों से एक छोटा, बर्फ सा सफेद डॉगी कूदता हुआ निकला — उसकी पूँछ फड़फड़ा रही थी, आँखों में शरारत और मासूमियत दोनों तैर रही थीं। उसके गले में एक नीला कॉलर था, जिस पर झुकी धूप खेल रही थी। वो सीधे भागता हुआ मयंक के पास आया और उसकी टांग से सटकर खड़ा हो गया।
"अरे! ये कहाँ से आया?" मयंक ने हैरानी से कहा और नीचे झुककर उसके सिर को सहलाया।
आर्या तो एकदम खिल उठी।
"इतना प्यारा है ये! देखो ना… जैसे कॉटन बॉल हो!"
डॉगी ने उसकी तरफ़ देखा, फिर जैसे उसे भी आर्या से प्यार हो गया हो — वो उसकी तरफ़ दौड़ा और सीधे उसकी गोद में चढ़ गया। आर्या हँसते हुए पीछे सरक गई,
"ओहो! तुम तो बड़े फुर्तीले हो!"
मयंक ने मुस्कुराते हुए आर्या को देखा — उसके चेहरे पर वो बच्ची सी मासूमियत लौट आई थी, जो अक्सर ज़िंदगी की उलझनों में खो जाती है। वो कुछ कहने ही वाला था कि डॉगी ने अचानक टेबल पर रखे टोस्ट की तरफ़ देखा और "भौं!" कह कर उचक गया।
"ओह नहीं!" मयंक हँसते हुए बोला, "लो, अब इसे भी भूख लग गई!"
आर्या ने टोस्ट का एक टुकड़ा उठाया और उसकी तरफ़ बढ़ाया,
"चलो, एक छोटा सा ब्रेकफास्ट हमारे नन्हे मेहमान के लिए भी।"
डॉगी ने जैसे समझ लिया हो, प्यार से टोस्ट का टुकड़ा मुँह में लिया और एक कोने में जाकर बैठ गया। उसकी छोटी सी पूँछ अब ज़्यादा तेज़ी से हिल रही थी।
"तुम्हें क्या लगता है, मयंक? ये किसका डॉगी होगा?" आर्या ने पूछा।
"शायद कोई आसपास रहने वाले का। लेकिन कॉलर देखकर लगता है कि ये घर का पाला हुआ है।"
आर्या ने प्यार से कहा,
"अगर ये खो गया हो, तो हमें इसकी मदद करनी चाहिए।"
"हाँ," मयंक ने सिर हिलाया, "लेकिन फिलहाल लगता है इसे हमारी कंपनी बहुत पसंद आ गई है।"
तभी डॉगी ने एक बार फिर अपनी नन्ही सी थूथन मयंक के हाथ में घुसा दी, जैसे कहना चाहता हो — "थोड़ा और टोस्ट मिलेगा?"
आर्या खिलखिला कर हँस पड़ी।
"मयंक, देखो न, इसे तुमसे ज़्यादा प्यार मिल रहा है मुझसे!"
"अरे नहीं, मुझे लग रहा है इसे तो तुम ही ज़्यादा पसंद आ रही हो। देखो न, अभी गोद में चढ़ा था तुम्हारी!" मयंक ने चुटकी ली।
फिर दोनों ने मिलकर उसके लिए थोड़ी सी दूध-चाय एक छोटी कटोरी में डाली और एक और टोस्ट तोड़कर खिलाया। अब गार्डन में तीन लोग थे — दो दिलों वाले और एक मासूम मन वाला।
आर्या ने डॉगी को नाम दिया — "सफ्फू!"
"सफ्फू?" मयंक ने हँसते हुए पूछा, "ये कैसा नाम है?"
"क्यूट है न? सफेद और प्यारा… बिल्कुल सफ्फू सा," आर्या ने आँखें नचाते हुए कहा।
सफ्फू अब घास पर दौड़ रहा था, कभी झाड़ियों में जाकर सूँघता, कभी वापस आकर मयंक के जूते खींचने लगता।
मयंक अब कुर्सी छोड़कर नीचे ज़मीन पर बैठ गया, और उसके साथ खेलने लगा। आर्या भी कुछ देर बाद वहीं बैठ गई — स्कर्ट की सलवटें थोड़ी सी उलझीं, लेकिन उसकी परवाह किसे थी जब पल इतना प्यारा था?
सफ्फू बीच में कूदता, फिर मयंक और आर्या के बीच दौड़ लगाता। उसकी मासूम हरकतों में कोई बच्चों वाली शरारत थी, और एक अनकहा सा तोहफ़ा — जैसे ब्रह्मांड ने उस सुबह की खूबसूरती को और भी उजला करने के लिए उसे भेजा हो।
"कभी-कभी," आर्या ने धीरे से कहा, "छोटे पल, छोटे मेहमान… सबसे ज़्यादा यादें दे जाते हैं।"
मयंक ने उसकी ओर देखा — उसकी आँखें अब न सिर्फ़ सफ्फू को देख रही थीं, बल्कि उसके अंदर उस पल की गहराई को भी महसूस कर रही थीं।
"और जब वो पल तुम्हारे साथ हो…" मयंक ने बात अधूरी छोड़ी।
आर्या ने मुस्कुराकर कहा,
"तो पूरा हो जाता है।"
धीरे-धीरे धूप और ऊपर चढ़ने लगी। चाय अब ठंडी हो चुकी थी, लेकिन दिलों में गर्माहट और ज़्यादा गहराती जा रही थी।
सफ्फू अब उनकी टेबल के पास curl होकर लेट गया था — पेट भरा हुआ था, मन संतुष्ट, और नज़रें आर्या पर टिकी थीं।
"लगता है इसे हमारी छोटी सी दुनिया पसंद आ गई है," मयंक ने कहा।
आर्या ने सिर हिलाया,
"हाँ… और मुझे भी ये नया सदस्य अच्छा लग रहा है।"
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गार्डन में उस सुबह के नाश्ते ने न सिर्फ़ भूख मिटाई थी, बल्कि एक रिश्ता और भी गहरा कर दिया था—दो दिलों के बीच और अब… एक नन्हे दोस्त के साथ।
और हवा में अब एक और नर्म सी खुशबू थी—भरोसे और अपनापन की।
हवेली के कमरे में हल्की रोशनी फैली थी। पर्दे हिल रहे थे, और खिड़की से आती ठंडी हवा सम्राट के चेहरे को छू रही थी, मगर उसके अंदर जलते गुस्से को ठंडा करने के लिए वो हवा नाकाफी थी। कमरे के कोने में खड़ा नौकर सहमा-सहमा सा नोटों की गड्डी हाथ में लिए खड़ा था।
"काम हो गया ना?" सम्राट ने बिना उसकी आँखों में देखे पूछा।
नौकर ने सिर झुकाते हुए कहा, "हाँ सर। मैंने अपना डॉग वहीं छोड़ दिया है... अब मैडम उसी के साथ खेल रही हैं। मयंक के साथ टाइम नहीं बिता रही हैं।"
"गुड," सम्राट के होठों पर हल्की सी मुस्कान आई, लेकिन आँखों में वही पागलपन था। "तू जा अब।"
नौकर बिना पलटे नोटों की गड्डी जेब में डालते हुए फौरन बाहर निकल गया।
सम्राट ने खिड़की की तरफ बढ़ते हुए पर्दा हल्का हटाया। नीचे हवेली के गार्डन में आर्या और मयंक घास पर बैठे उस डॉग के साथ हँसते-खेलते नज़र आ रहे थे। आर्या की हँसी उसके कानों में किसी और के नाम की जीत जैसी गूंज रही थी।
"आर्या... माइ लव..." सम्राट ने धीमे से बुदबुदाया, "...तुम्हारे वक्त पर मेरा हक है।"
नीचे गार्डन में...
आर्या जोर से हँस रही थी। डॉग उसकी गोद में था और मयंक उसके पास बैठा था।
"मिस्टर मयंक, मुझे पता है ये डॉग तुम ही लेकर आए हो," आर्या ने शरारत भरे लहजे में कहा।
"नहीं, ऐसा कुछ नहीं है," मयंक थोड़ा सकपकाया।
"अरे रहने दो... मैं जानती हूँ तुम ही हो। देखो ना ये मुझे कितना पसंद आ गया है," वो डॉग को प्यार से सहला रही थी।
मयंक मुस्कुराया, "अगर तुम्हें अच्छा लगा तो फिर मैं झूठ क्यों बोलूँ... हाँ, मैं ही लाया हूँ।"
आर्या ने उसे देखा; उसकी आँखों में वो मासूमियत और अपनापन देखकर मयंक कुछ पल के लिए सब कुछ भूल गया। आर्या मुस्कुराई और डॉग उसके पैरों के पास खेलता रहा।
उसी वक्त ऊपर खिड़की से देखता सम्राट का खून खौल उठा।
"क्या सोच कर भेजा था और क्या हो रहा है नीचे..." उसके दिमाग में जैसे एक साथ कई आवाज़ें गूंज उठीं।
उसने गुस्से में खिड़की का पर्दा झटके से बंद किया और कमरे में चक्कर काटने लगा।
"तुम मेरी हो आर्या... ये गलत है। ये सब... ये मयंक... वो डॉग... सब मेरे प्लान का हिस्सा था। मैं चाहता था कि तुम मयंक से दूर रहो, तुम्हारा ध्यान बंटे। लेकिन तुम तो उसी में खो गई... उसी को देखकर हँस रही हो, और मैं... मैं यहाँ तड़प रहा हूँ।"
उसने दीवार पर जोर से मुक्का मारा। दीवार पर उसका हाथ लाल हो गया।
"उस डॉग को मैंने भेजा था... और तुम मयंक की तारीफ़ कर रही हो?" उसकी आवाज़ जैसे कमरे की दीवारों से टकरा रही थी।
नीचे गार्डन में...
आर्या ने मयंक की ओर देखा, "तुम ना... हर बार कुछ नया कर देते हो। कभी चुपचाप किताबें दे देते हो, कभी मेरे लिए खास कॉफी, और अब ये डॉग! तुम्हें क्या लगता है, मैं कुछ समझती नहीं हूँ?"
मयंक थोड़ा शर्मिंदा हो गया, "मैं सिर्फ तुम्हारे चेहरे पर मुस्कान देखना चाहता हूँ।"
आर्या मुस्कुराई और डॉग को उठाकर अपनी गोद में रख दिया, "तुम्हारी ये कोशिशें... मुझे बहुत खास लगती हैं।"
इन्हीं बातों के बीच सम्राट अपने कमरे से बाहर निकला। उसकी चाल तेज थी, आँखों में पागलपन और दिल में एक अलग ही आग जल रही थी।
उसने सोचा—"आर्या सिर्फ मेरी है। मैं उसे किसी और के साथ हँसते हुए नहीं देख सकता। वो मेरे हिस्से की खुशी है, मेरा हक है उस पर। और मयंक... मयंक को मैं ये सब यूँ ही नहीं करने दूँगा।"
वो हवेली के गलियारे से सीढ़ियों तक आया, हर कदम के साथ उसका गुस्सा और तेज हो रहा था। दूर से आर्या की हँसी फिर सुनाई दी। वो रुक गया। दीवार के पीछे से झाँकते हुए उसने देखा—आर्या ने डॉग को उठाया और मयंक की तरफ झुककर कुछ कहा। दोनों के बीच जो निकटता थी, उसने सम्राट के होश उड़ा दिए।
"नहीं!" वो फुसफुसाया, "अब और नहीं... मैं उसे किसी और के करीब नहीं देख सकता।"
उसी समय मयंक ने डॉग को उठाया और आर्या की तरफ बढ़ाया। आर्या की उंगलियाँ जब मयंक की हथेली से टकराईं, सम्राट का दिमाग जैसे पूरी तरह सुलग गया।
वो वापस मुड़ा और अपने कमरे में गया। उसके हाथ काँप रहे थे, मगर चेहरा एक अजीब सी ठंडक ओढ़े था।
उसने खुद से कहा, "अब कुछ बड़ा करना पड़ेगा। अब ये मामूली खेल नहीं है। अगर उसे मुझसे दूर करने की कोशिश हुई, तो मैं उसे दुनिया से ही दूर कर दूँगा।"
गार्डन में, आर्या और मयंक अब डॉग के लिए एक बॉल फेंक रहे थे। हर बार जब डॉग दौड़ता, आर्या तालियाँ बजाती, मयंक मुस्कुराता।
लेकिन हवेली की खिड़की में फिर से वो चेहरा दिखा... सम्राट का चेहरा... जो अब सिर्फ एक प्रेमी का नहीं बल्कि एक पागल जुनूनी का बन चुका था।
हवेली के बड़े दरवाज़े पर पहुँचते ही आर्या और मयंक की चाल कुछ धीमी हो गई थी। हाथों में वो प्यारा सा डॉग था, जिसकी मासूम आँखें हर किसी का दिल जीत लेने वाली थीं। डॉग बार-बार आर्या की गोद से छटपटा कर बाहर झाँक रहा था, जैसे किसी को पहचान गया हो।
जैसे ही दोनों हवेली के अंदरूनी हिस्से की ओर बढ़े, सामने खड़ा एक नौकर नज़र आया। वही, जिसे पिछली बार सम्राट ने नोटों की गड्डियाँ दी थीं। आर्या के कदम थम से गए। डॉग अचानक उछल कर नौकर की तरफ दौड़ पड़ा।
"अरे... ये क्या?" आर्या चौंकी।
मयंक ने भी चौंक कर देखा। डॉग उस नौकर के पास जा चुका था, और अब उसकी टाँगों से चिपककर अपनी पूँछ हिला रहा था।
आर्या ने हैरानी से पूछा, "तुम्हें जानता है ये?"
नौकर थोड़ा सकपका गया। हल्की सी हड़बड़ाहट उसकी आँखों में तैर गई, लेकिन फिर उसने खुद को संयत किया।
"जी... हाँ। ये मेरा ही है। मैं इसे बहुत दिन से ढूँढ रहा था। पता नहीं कहाँ चला गया था।" उसकी आवाज़ में संकोच था, जैसे कुछ छुपा रहा हो।
"सच में?" आर्या ने आँखें सिकोड़ते हुए पूछा।
"जी मैडम... मैं बहुत परेशान था। इसके बिना तो नींद नहीं आती थी।" वो झुका और डॉग को अपनी गोद में उठा लिया। डॉग ने भी उसके सीने से ऐसे लिपटकर सिर रखा, जैसे बहुत समय बाद अपनों से मिला हो।
आर्या अब भी उसे ध्यान से देख रही थी, लेकिन कुछ कहे बिना वो सिर्फ सिर हिला दी।
"जाइए, और ध्यान रखना इसका," उसने धीमे से कहा।
नौकर 'जी' कहता हुआ मुड़ गया और डॉग को लिए हवेली के पिछले हिस्से की तरफ चला गया।
थोड़ी देर दोनों वहीं खड़े रहे। मयंक ने आर्या की तरफ देखा। उसके चेहरे पर उलझन थी, लेकिन कुछ राहत भी।
"तो अब मान लिया, कि मैं डॉग लेकर नहीं आया था?" मयंक ने मुस्कुराते हुए पूछा।
आर्या ने एक लंबी साँस भरी। "हाँ... लगता तो ऐसा ही है। तुम सच कह रहे थे।"
मयंक ने थोड़ा हँसते हुए कहा, "तो अब तुम्हें ये अच्छा नहीं लगा होगा क्योंकि तुम तो यही सोचकर खुश थी कि उसे मैं लाया था।"
आर्या ने उसकी तरफ देखा, फिर थोड़ी देर चुप रहकर मुस्कुरा दी। "ऐसा कुछ नहीं है।"
"तो क्या अब तुम मुझसे प्यार नहीं करोगी?" मयंक की आवाज़ में शरारत थी, लेकिन आँखों में हल्की सी मासूमियत भी।
आर्या हँस दी। "बिलकुल नहीं... ऐसा थोड़ी होता है!" उसने चुटकी लेते हुए कहा। "तुम मेरी हर बात, हर पसंद का इतना ख्याल रखते हो... मैं सब जानती हूँ मयंक।"
उसने मयंक का हाथ पकड़ा। "कभी-कभी हो जाता है, लेकिन भरोसे को भी वक़्त देना पड़ता है खुद को साबित करने का।"
मयंक ने उसका हाथ कसकर थामा। "और मैं हमेशा यही करता रहूँगा। हर बार साबित करूँगा कि तुम्हारे साथ जो भी हूँ, सच्चा हूँ।"
हवेली की दीवारों के बीच उस वक़्त एक गूंज सी हुई—खामोश लेकिन गहरी। जैसे पुरानी हवेली भी उनकी बातों को सुन रही थी, और किसी पुराने ज़ख्म पर फाहे जैसी ये बातें असर कर रही थीं।
दोनों हँस पड़े। हवेली की सीढ़ियाँ अब कुछ हल्की लग रही थीं, जैसे उन पर बोझ नहीं रहा हो। दोनों एक-दूसरे की ओर देखते हुए आगे बढ़े।
आर्या ने चलते-चलते कहा, "वैसे वो नौकर... कुछ तो अजीब था उसमें।"
मयंक ने भी सिर हिलाया, "हाँ, कुछ तो था। लेकिन अब जब वो डॉग चला गया..."
आर्या और मयंक जैसे ही आगे बढ़े तो सामने दोनों की फ्रेमली खड़ी थी। सामने वर्षा जी खड़ी थीं—आर्या की माँ—और उनके पीछे थीं मयंक की माँ, रानी जी। दोनों के चेहरे पर अलग-अलग भाव थे। वर्षा जी थोड़ी परेशान सी लग रही थीं, जबकि रानी जी के चेहरे पर वही हमेशा वाला हल्का सा ताना और सवाल छिपा हुआ था।
"बेटा, मैं तुम्हें कब से फोन कर रही थी। तुमने उठाया क्यों नहीं?" वर्षा जी ने हल्के गुस्से से पूछा, पर उनके लहजे में चिंता भी थी।
आर्या ने झिझकते हुए कहा, "मम्मी, हम नाश्ता कर रहे थे। सोचा वैसे भी आप लोग आ ही रहे हो, तो बैठकर आराम से बात कर लेंगे।"
वर्षा जी ने सिर हिलाया, "हाँ ठीक है, लेकिन अगली बार फोन उठाया करो, बेटा। माँ की चिंता समझो।"
इतने में रानी जी बीच में कूद पड़ीं, अपनी ठहरी हुई सधी आवाज़ में, "कोई बात नहीं वर्षा जी, आपका फोन नहीं उठाया तो चलता है, आखिर आप माँ हैं। पर आर्या बेटा," उन्होंने आर्या की तरफ एक नज़र घुमाई, जो अब तक चुपचाप खड़ी थी, "मेरा फोन तो उठाया जा सकता था ना? मैं तुम्हारी होने वाली सास हूँ आखिर। और मुझे ये सब आदतें पसंद नहीं हैं।"
आर्या को समझ ही नहीं आया कि वो क्या जवाब दे। उसने हल्की सी मुस्कान देने की कोशिश की, लेकिन रानी जी की आँखें बहुत साफ़ बोल रही थीं—उन्हें ये रिश्ता मंज़ूर नहीं था।
वर्षा जी ने माहौल थोड़ा संभालने की कोशिश की, "अरे रानी जी, बच्ची है… थोड़ा समय लगेगा सब समझने में।"
रानी जी ने सिर झटका, "समझने में कितना समय लगता है वर्षा जी? औरत को शादी से पहले ही अपनी जिम्मेदारियों का अंदाज़ा हो जाना चाहिए। मेरा बेटा बहुत सीधा है, बस उसी के भरोसे पर ये रिश्ता तय हुआ था, वरना…"
वो अधूरा छोड़ गईं बात, लेकिन पूरा कमरा समझ गया कि वो क्या कहना चाहती थीं।
मयंक को ये सब ज़रा भी पसंद नहीं आया। उसने आगे बढ़कर कहा, "मम्मी, आप हर बार आर्या को ऐसे क्यों सुनाती हैं? वो भी इंसान है, उसकी भी फीलिंग्स हैं।"
रानी जी ने मयंक की तरफ देखा, "मैं तो सिर्फ वही कह रही हूँ जो सही है। अगर आज ही से इतनी लापरवाही रहेगी, तो कल को क्या होगा?"
आर्या की आँखें भर आईं, लेकिन उसने खुद को संभाला। उसने सिर नीचा कर लिया और चुपचाप खड़ी रही। वर्षा जी को अपनी बेटी की हालत देखी नहीं गई।
"देखिए रानी जी, मैं आपकी बात समझती हूँ, लेकिन मेरी बेटी ने कभी किसी से बदतमीजी नहीं की। वो बस थोड़ा इमोशनल है, और आप जानती हैं, आजकल की लड़कियों को थोड़ा वक़्त लगता है नए रिश्तों में एडजस्ट करने में।"
रानी जी ने कुछ जवाब नहीं दिया, बस आँखें घुमा कर कमरे का जायज़ा लेने लगीं। उन्हें शायद सब कुछ खटक रहा था।
मयंक ने पास आकर आर्या का हाथ पकड़ा और नरमी से बोला, "आर्या, चलो बैठते हैं। सब मिलकर बात करते हैं।"
आर्या ने एक गहरी साँस ली और सोफे की तरफ चल दी। उसके मन में बहुत कुछ चल रहा था—क्या मयंक की माँ कभी उसे अपनाएंगी? क्या उसका इस घर में कोई वजूद होगा?
सब लोग बैठ गए। चाय दोबारा बनाई गई। इस बार रानी जी ने बिना कहे ही चाय में कम चीनी बता दी, और आर्या की बनाई नमकीन पर कोई रिएक्शन ही नहीं दिया। वर्षा जी ने जब तारीफ़ की, "चाय अच्छी बनाई है बेटा," तो रानी जी ने बस हल्के से कहा, "हाँ, ठीक है। थोड़ी तेज़ है पर…"
मयंक ने झुंझलाते हुए कहा, "मम्मी, प्लीज़। कभी कुछ अच्छा भी कह दिया करो। आप जानती हैं ना कि आर्या आपको खुश करने की पूरी कोशिश करती है।"
रानी जी ने लंबी साँस ली, "मैं तो बस चाहती हूँ कि मेरा बेटा खुश रहे। और तुम्हारी होने वाली बीवी मेरी उम्मीदों पर खरी उतरे। यही सबक मैंने अपने घर की बहुओं को दिया है, और वही मैं आर्या से भी चाहती हूँ।"
आर्या अब चुप नहीं रही। उसने सीधा रानी जी की आँखों में देखा और धीरे से कहा, "मैं कोशिश कर रही हूँ aunty… लेकिन शायद हर कोशिश को समझने के लिए भी थोड़ा दिल बड़ा होना चाहिए।"
कमरे में एक पल को सन्नाटा छा गया।
रानी जी ने कुछ नहीं कहा। फिर खड़ी हुई और बोली, "और मयंक, जरा समझाओ इसे कि घर कैसे चलाना होता है। रिश्ते फोन उठाने से ही नहीं, दिल से भी निभाए जाते हैं।"
आर्या ने कुछ नहीं कहा। वो जानती थी, ये सिर्फ शुरुआत थी।
वर्षा जी ने अपनी बेटी के कंधे पर हाथ रखा और हल्के से मुस्कुराईं, जैसे कह रही हों—"तू सही है, बस थोड़ा सब्र रख।"
"अगर आपको मेरी यह नॉवेल पसंद आई हो, तो एक छोटी-सी विनती है... ❤️"
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हवेली का आलीशान डाइनिंग रूम – रात का वक़्त
शाम के साढ़े आठ बज चुके थे। हवेली के भव्य डाइनिंग टेबल पर आर्या और मंयक अपनी फॅमिली के साथ बैठे थे। आर्या और मंयक अपने-अपने प्लेटों में खाना निकाल रहे थे। दोनों एक-दूसरे के बाजू में बैठे थे, हल्की-हल्की मुस्कानें, आँखों में वो मीठी शरारतें। सामने सम्राट बैठा था – उसकी आँखों में जलन साफ़ दिखाई दे रही थी। एक तरफ़ मंयक की माँ, जिनका चेहरा जैसे किसी ने खट्टा नींबू चखा दिया हो, वहीं दूसरी ओर मंयक के पिता, जो चुपचाप सूप पीते हुए तमाशा देखने के मूड में थे।
जैसे ही आर्या ने चुपचाप मंयक की प्लेट में रोटी रखी, सम्राट की मुट्ठी सिकुड़ गई और मंयक की माँ का पारा सातवें आसमान पर पहुँच गया।
मंयक की माँ (तेज़ आवाज़ में, चम्मच नीचे रखते हुए):
"वाह! आजकल के बच्चे तो सारी हदें पार कर रहे हैं। शादी हुई नहीं और ऐसे साथ बैठ कर... माँ-बाप के सामने... खाना खा रहे हैं!"
आर्या का चेहरा थोड़ी देर के लिए उतर गया, लेकिन मंयक ने उसका हाथ टेबल के नीचे हल्के से दबा दिया। एक इशारा – 'मैं हूँ ना' – और आर्या ने मुस्कराकर अपनी नज़रें थाली में गड़ा दीं।
मंयक की माँ (ताने भरे अंदाज़ में):
"हमारे ज़माने में तो लड़की की इज़्ज़त होती थी। कोई मुँह उठा के भी नहीं देख सकता था शादी से पहले। और अब देखो... जमाना ही बदल गया है। कोई शर्म, कोई लिहाज़ बचा ही नहीं है।"
सम्राट (मन ही मन बड़बड़ाते हुए):
"इस बूढ़ी को अपना बेटा नहीं दिखाई देता है कैसे आर्या से चिपक कर बैठा है।"
मंयक ने सम्राट की तरफ़ नज़र उठाई, जैसे कुछ सुन लिया हो, लेकिन कुछ कहा नहीं। तभी मंयक के पिता ने धीरे से अपनी प्लेट रखते हुए कहा:
मंयक के पिता (हल्के से मुस्कराते हुए):
"अरे मैडम, अब जमाना नहीं बदला... बस हमें ही थोड़ा अपडेट होना पड़ेगा। वैसे, जब हमारा रिश्ता पक्का हुआ था, तो आप और मैं भी तो छुप-छुप के मिलते थे ना?"
मंयक की माँ एकदम सन्न रह गईं। सबकी निगाहें अब उन पर टिक गईं।
मंयक की माँ (झूठी सी हँसी हँसते हुए):
"वो तो बस एक बार की बात थी... और वो भी मजबूरी में। तुम तो हमेशा मेरी बात काटने लगते हो। शादी को इतने साल हो गए लेकिन तुम्हारी आदतें तो जस की तस हैं। हर बात में मुझे ही नीचा दिखाना है क्या?"
अब तक आर्या चुपचाप बैठी थी, पर मंयक ने उसकी थाली में रायता बढ़ाया, जैसे कह रहा हो – 'आराम से खाओ, मम्मी का स्पेशल ड्रामा रोज़ का है'।
मंयक की माँ (अब अपने पति से बहस करती हुई):
"मुझे तो समझ ही नहीं आता कि तुम्हें हर जगह मेरी गलती क्यों दिखती है। उस जमाने में हम और थे, ये लड़कियाँ तो कुछ और ही हैं। और तुम्हें तो जैसे इनकी हर बात सही लगती है।"
मंयक के पिता (थोड़ी चिढ़ कर):
"क्योंकि तुम हर वक्त निगेटिव ही सोचती हो। अरे, बहू नहीं है अभी, लेकिन घर की लड़की जैसी है। थोड़ा अपनापन दिखाओ तो सही। बच्चे क्या सोचेंगे, सम्राट क्या सोचेगा?"
सम्राट ने सिर झुकाकर मुँह छुपा लिया, लेकिन अंदर ही अंदर उसका खून खौल रहा था। वो जानता था कि मंयक और आर्या के बीच जो चल रहा है, वो गहरा है – और यही बात उसे सबसे ज़्यादा चुभ रही थी।
मंयक की माँ (गुस्से में चिल्लाकर):
"मुझे मत सिखाओ कि कैसे बड़ों की इज़्ज़त की जाती है! मुझे सब समझ आता है, तुम्हारे इस नई जनरेशन सपोर्ट क्लब का हिस्सा नहीं हूँ मैं!"
अब पूरा माहौल गर्म हो गया था। नौकर चुपचाप कोनों में दुबके हुए थे। किसी ने रोटी देने की हिम्मत नहीं की।
आर्या ने धीरे से मंयक के कान में फुसफुसाया,
आर्या:
"चलो ना, डेज़र्ट कहीं बाहर खाते हैं... यहाँ तो मिठास का सवाल ही नहीं।"
मंयक ने हल्का सा सिर हिलाया, लेकिन उसकी आँखों में चिंता भी थी। वो जानता था कि इस घर में अगर कोई सबसे मुश्किल चीज़ है तो वो है – अपनी माँ को शांत करना।
मंयक:
"माँ... आपसे एक बात पूछूँ?"
मंयक की माँ (घूरते हुए):
"क्या?"
मंयक:
"अगर पापा की बात सही है... कि आप उनसे शादी से पहले मिलती थीं, तो क्या आप भी इस 'नई जनरेशन' में आती हैं?"
एक सन्नाटा छा गया। आर्या ने अपनी हँसी दबा ली, और मंयक के पिता ने जैसे ताली बजाकर कहा हो – 'शाबाश बेटा!'
मंयक की माँ (थाली उठा कर):
"तुम सब मिल गए हो मुझे चिढ़ाने के लिए। अब किसी को मेरी क़द्र नहीं। मैं उठ रही हूँ।"
और वो अपनी साड़ी को ठीक करते हुए उठकर बाहर निकल गईं। पीछे से मंयक के पिता ने मुस्कराते हुए कहा,
मंयक के पिता:
"चलो अच्छा है... कम से कम बहस तो बंद हुई।"
आर्या और मंयक ने एक-दूसरे को देखा और एक हल्की मुस्कान बंट गई – एक साइलेंट वादा, कि चाहे कुछ भी हो, वो इस घर की मिठास को बनाए रखेंगे... भले ही डेज़र्ट कभी-कभी घर के बाहर खाना पड़े।
पल जब साँसों में भीगती है रात – हवेली के पीछे...
रात गहराने लगी थी। हवेली के पिछले हिस्से में स्वीमिंग पूल पर आर्या अकेली बैठी थी। आसमान में चाँद अधूरा था, लेकिन उसकी रौशनी पानी पर कुछ इस तरह झिलमिला रही थी जैसे किसी ने आसमान का एक टुकड़ा ही पानी में घोल दिया हो। ठंडी हवा आर्या के खुले बालों से खेल रही थी, और उसके नंगे पैर हल्के-हल्के पानी की सतह को छूते हुए एक मधुर संगीत रच रहे थे। सब कुछ शांत था—एक गूँगा, मगर खूबसूरत मौन।
आर्या ने अपनी बाँहों को अपने घुटनों के चारों ओर लपेटा और सिर नीचे झुका लिया। अंदर कुछ टूट रहा था, बाहर सब ठहरा हुआ था।
वह इस शांत माहौल में डूबी हुई थी जब अचानक ही उठने की कोशिश में उसका संतुलन बिगड़ गया। पैर फिसला और शरीर का भार एक झटके में पूल की ओर झुक गया। अगले ही पल, पानी की तेज छींटों के साथ आर्या की हल्की चीख गूंज उठी—"ह-help!"
पानी ठंडा था, और साँसे थमी हुई थीं।
वह तैरना नहीं जानती थी। उसकी बाँहें बेतहाशा हवा में फड़फड़ा रही थीं, गले से आवाज़ टूटी-फूटी निकल रही थी। पानी में उसका शरीर डूबता-उबरता, हर पल उसे उसकी नाकामी का अहसास दिला रहा था।
"कोई है? प्लीज़!" उसकी आवाज़ जैसे हवेली की दीवारों से टकराकर लौट आती थी।
अंधेरे में कहीं से कोई हलचल हुई। और फिर...
एक तेज़ छपाक की आवाज़ ने सन्नाटे को चीर दिया।
वहाँ कोई था।
सम्राट।
वो पूल में कूद चुका था।
गहरे नीले पानी में उसकी बाँहें आर्या की तरफ़ बढ़ीं। अगले ही पल वो उसे थाम चुका था। उसकी बाँहें उसके इर्द-गिर्द कस चुकी थीं, जैसे कोई दीवार बन गई हो। आर्या का शरीर कांप रहा था, उसकी साँसे तेज़ थीं और आँखें डरी हुई थीं।
लेकिन अब वो डूब नहीं रही थी।
अब वो सम्राट की बाँहों में थी।
"आर यू ओके?" उसकी भारी आवाज़, जो अक्सर लोगों को डराने का काम करती थी, इस वक़्त किसी पुराने लोरी जैसी लगी।
आर्या ने उसकी आँखों में देखा। कुछ कह नहीं पाई, बस हल्के से सिर हिला दिया। उसके होंठ नीले पड़ रहे थे, बाल पानी से चिपक चुके थे, लेकिन उसकी आँखों में कुछ और था—डर से ज़्यादा, कुछ अनकहा।
भीगे एहसास – जब पानी ने पिघलाया हर फ़ासला
रात का सन्नाटा था और आकाश में तारों की चुप्पी। स्वीमिंग पूल के नीले पानी में चाँद का प्रतिबिंब कांप रहा था जैसे किसी की साँसों की गर्मी से लहरें बन रही हों।
उसने सफ़ेद टॉप और ब्लू शॉर्ट्स पहने थे, बाल खुले थे और पानी की कुछ बूँदें उसके गालों पर मोती-सी चमक रही थीं। सम्राट की नज़रें ठहर गईं – आर्या में एक सादगी थी, लेकिन उस सादगी में छिपी एक कशिश, जो उसे बार-बार खींच रही थी।
सम्राट ने आँखें बंद कीं, जैसे उस बूँद ने उसके भीतर कुछ छू लिया हो।
आर्या कुछ पल उसे देखती रही। उसकी आँखों में एक अजीब सी चमक थी, जैसे वो कुछ कहना चाहती हो, लेकिन शब्दों से नहीं, सिर्फ नज़रों से।
उसकी सफ़ेद शर्ट भीग चुकी थी और शरीर से चिपक रही थी। उस गीले कपड़े के नीचे उसका मज़बूत शरीर साफ़ झलक रहा था। दोनों अब एक-दूसरे के आमने-सामने थे, पानी के अंदर, जहाँ सिर्फ उनका दिल एक-दूसरे की धड़कनें सुन सकता था।
आर्या का पैर हल्का सा फिसला और वह सम्राट की ओर झुकी। उसने घबराकर सम्राट की बाँहें थाम लीं। उसकी साँसे तेज़ हो चुकी थीं और शरीर काँप रहा था। सम्राट ने बिना कुछ कहे उसकी कमर को थाम लिया – मज़बूती से, पर नर्म एहसास के साथ।
"आर्या..." उसने धीमे से कहा।
उसका नाम जैसे सम्राट के होठों से निकलकर हवा में तैर गया हो। आर्या ने सिर उठाया, उसका चेहरा अब सम्राट के चेहरे के बेहद करीब था। उनकी साँसे आपस में टकरा रही थीं, और आँखें... जैसे दिल की सबसे गहरी परतों को पढ़ रही थीं।
आर्या की नज़रों में झिझक थी, लेकिन छिपी हुई चाहत भी। सम्राट ने अपने अंगूठे से उसके गाल की भीगी लट हटाई। वह लम्हा ठहर गया।
"तुम्हें पता है... जब तुम पास होती हो, तो कुछ भी सोच नहीं पाता," सम्राट ने कहा, उसकी आवाज़ बेहद धीमी थी, जैसे कोई राग हो जो सिर्फ आर्या के लिए हो।
आर्या की साँसे और तेज़ हो गईं। उसने खुद को सम्राट से और पास पाया, जैसे खुद-ब-खुद उसके सीने से लग गई हो। सम्राट ने उसकी कमर पर पकड़ और कस दी। अब उनके होठों के बीच कोई फ़ासला नहीं था, बस एक अनकहा वादा।
"सम्राट…" आर्या ने कुछ कहना चाहा, पर शब्द गले में अटक गए।
सम्राट ने धीरे से उसके माथे को चूमा, फिर उसकी नाक के पास रुक गया। उसकी गर्म साँसे आर्या की त्वचा को छू रही थीं, और आर्या की आँखें अब भीगी हुई थीं – ना सिर्फ पानी से, बल्कि उस एहसास से, जो शब्दों से कहीं ज्यादा गहरा था।
आर्या ने कुछ नहीं कहा। बस उसकी आँखें बंद हो गईं, जैसे उसने इजाज़त दे दी हो।
सम्राट ने धीरे से उसके होठों को छुआ – हल्का, धीमा, जैसे कोई कविता पहली बार काग़ज़ पर उतर रही हो। आर्या ने अपनी हथेलियाँ सम्राट के सीने पर रख दीं, उसकी धड़कनों को महसूस करते हुए। लहरें अब और तेज़ हो गई थीं, जैसे पानी भी उनके बीच बहते जज़्बातों को गले लगा रहा हो।
चुम्बन लंबा नहीं था, लेकिन इतना गहरा था कि जैसे उस एक पल में वे दोनों अपने सारे अतीत, डर, सवाल और अनकही बातें भूल गए हों। तभी आर्या को एहसास हुआ कि सम्राट ने उसके साथ अभी क्या किया। घबराकर आर्या ने सम्राट को धक्का दिया, तभी वह सम्राट की बाँहों से छूटकर फिर डूबने लगी तो सम्राट ने उसे फिर थाम लिया।
मंयक के माता-पिता का कमरा –
कमरे की रौशनी मध्यम थी। दीवार पर लगी घड़ी की टिक-टिक और दूर कहीं से आती हवेली के पुराने फर्नीचर की चरमराहट के बीच माहौल बोझिल था। मंयक की माँ कमरे में चहलकदमी कर रही थीं, जबकि मंयक के पिता, अपने पुराने स्टील के चश्मे को पहनकर चुपचाप किताब खोलने का दिखावा कर रहे थे – पर उनका ध्यान हरगिज़ शब्दों में नहीं था।
मंयक की माँ (तेज़ स्वर में):
"देखा आपने आज डाइनिंग टेबल पर क्या तमाशा हुआ? ये मंयक... और वो लड़की... और सबसे बड़ी बात, आपके उस बेटे ने भी कोई शर्म नहीं की!"
मंयक के पिता (धीमे स्वर में, किताब बंद करते हुए):
"कौनसा तमाशा? दो नौजवान साथ खाना खा रहे थे... और वो भी सबके सामने। क्या उस पर भी ऐतराज़ है?"
मंयक की माँ (तेवर चढ़ाते हुए):
"हाँ है! और क्यों न हो? एक तो ये आर्या... ऊपर से मंयक की वो बेहूदगी। प्लेट में रोटी डाल रही थी जैसे शादी हो गई हो। और आप? आप तो जैसे उसके एडवोकेट बन गए हैं!"
मंयक के पिता:
"तुम भी ना, बच्चे बड़े हो गए हैं। अगर उनका मन मिला है, तो हमें थोड़ी समझदारी दिखानी चाहिए। हर बात में टोका-टोकी... ये तो..."
मंयक की माँ (बात काटते हुए):
"टोका-टोकी नहीं, अनुशासन कहते हैं इसे! और मुझे समझाने की ज़रूरत नहीं है कि घर कैसे चलता है। जब मैंने घर संभाला था, तब तुम नौकरी में डूबे रहते थे। अब तुम ये मत समझो कि मैं कुछ नहीं समझती।"
मंयक के पिता (थोड़ा संयम खोते हुए):
"नहीं समझतीं। यही तो दिक्कत है। आज की पीढ़ी को समझना कोई गुनाह नहीं है। हम भी कभी जवान थे, याद है? जब तुम्हें स्टेशन तक छोड़ने गया करता था... बिना घर वालों को बताए।"
मंयक की माँ का चेहरा लाल हो गया, पर अब वो गुस्से में शर्म को ढक नहीं पा रही थीं। उनके भीतर कुछ और उबल रहा था।
मंयक की माँ:
"मत याद दिलाओ वो दिन। मैं भूल चुकी हूँ। और हाँ, तुमने मुझसे कभी इस तरह थाली में रोटी नहीं डाली थी।"
मंयक के पिता (हल्की मुस्कान के साथ):
"मंयक में वो हिम्मत है, और आर्या में वो अपनापन... जो रिश्तों को बनने देता है। हम क्यों उनके बीच ज़हर घोलें?"
मंयक की माँ (थोड़ा रुककर, लेकिन अब भी तीखे स्वर में):
"तो अब मैं ज़हर घोल रही हूँ? यही कहना है ना आपको?"
मंयक के पिता (थोड़े झल्लाए स्वर में):
"मैं सिर्फ ये कह रहा हूँ कि... ज़रा सी नरमी दिखाओ। हर बात को प्रतिष्ठा का मुद्दा मत बनाओ। बच्चों को साँस लेने दो।"
मंयक की माँ (आँखों में आँसू लिए, पर तेवरों में कटाक्ष):
"साँस? और मैं? सारी उम्र तो मैंने घर में साँस रोक के काटी है। कभी तुम्हारे तेवर, कभी सास की नज़रें, अब बहू के आने से पहले ही उसकी तरफ़दारी?"
मंयक के पिता कुछ पल चुप हो गए। कमरे में भारीपन सा छा गया। उन्होंने अपनी चश्मा उतार कर मेज़ पर रखा और कुर्सी से उठ खड़े हुए।
मंयक के पिता (धीरे पर सख्त लहज़े में):
"तुम जो भी कहो, लेकिन मंयक का चेहरा देखकर मैं एक बात कह सकता हूँ – वो लड़की उसे समझती है। और यही तो हम चाहते थे ना? कि हमारे बेटे को कोई समझने वाला मिले?"
मंयक की माँ (दबी आवाज़ में, जैसे ज़मीन हारती जा रही हो):
"तो क्या अब मैं गलत हूँ? मैं माँ हूँ उसकी... कुछ गलत देखूँगी तो बोलूँगी ना?"
मंयक के पिता (थोड़ी नरमी से):
"बोलो, ज़रूर बोलो... लेकिन चीखो मत। अपना रुतबा कायम रखो, मंयक की आँखों में डर नहीं, सम्मान होना चाहिए। और वो तब होगा जब तुम उसे समझोगी, ना कि उसे शर्मिंदा करोगी।"
मंयक की माँ कुछ नहीं बोलीं। बस ख़ामोशी से बैठ गईं। उनकी आँखें अब लड़ाई की नहीं, उलझन की थीं। एक माँ की उलझन, जिसे डर है कि कहीं बेटा उससे दूर न हो जाए।
मंयक के पिता ने कमरे की खिड़की खोली। बाहर रात का सन्नाटा था – पर हवेली के कोने-कोने में जो कुछ हुआ था, उसकी गूँज अब भी फैली हुई थी।
मंयक के पिता (आह भरते हुए):
"उम्मीद करता हूँ कि कल की सुबह थोड़ी शांत हो... और मीठी भी।"
मंयक की माँ ने पहली बार हल्की सी मुस्कान दी।
"अगर आपको मेरी यह नॉवेल पसंद आई हो, तो एक छोटी-सी विनती है... ❤️"
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भीगी रात थी, चाँदनी की नर्म रौशनी में दो धड़कते दिल थे – एक एहसास जो वक्त के लम्हे में ठहर गया था।
आर्या के गाल अब भी गुलाबी थे। उस अचानक चुराए गए चुम्बन की गर्मी अभी तक उसके चेहरे पर थी। उसका दिल धड़क रहा था, तेज़... हाँ, बहुत तेज़, जैसे किसी ने भीतर ज्वालामुखी फूंक दिया हो। सम्राट की वो जज़्बातों से भरी नज़रें, उसकी रूह को पढ़ रही थीं।
आर्या ने खुद को थोड़ा सम्हाला और धीमी आवाज़ में कहा,
"मुझे… मुझे बाहर जाना है…"
उसकी आवाज़ कांप रही थी, लेकिन उसमें जो संकोच था, वो सम्राट की नज़र से छिपा नहीं था। सम्राट उसके बिल्कुल सामने खड़ा था, जैसे ये पल उसके जीवन का सबसे कीमती हिस्सा हो।
सम्राट की आँखों में एक अलग ही चमक थी—जैसे हर ख्वाहिश पूरी हो चुकी हो, सिर्फ आर्या का साथ चाहिए था और कुछ नहीं।
"लेकिन मुझे तो यहीं रहना है… ऐसे ही… तुम्हारे पास," सम्राट ने बेहद नर्मी से कहा।
आर्या ने चौंक कर उसकी तरफ देखा। उसकी आंखें बड़ी हो गईं, चेहरे पर गुस्सा और घबराहट दोनों साथ थे।
"देखिए… आप… प्लीज़… इस तरह की बातें मत कीजिए। मुझे अच्छा नहीं लग रहा," उसने खुद को पीछे खींचते हुए कहा, पर आवाज़ में दृढ़ता कम और बेचैनी ज़्यादा थी।
लेकिन सम्राट ने जैसे उसकी बात सुनी ही नहीं। वह धीरे से उसके करीब आया और अपनी उंगलियों से उसके गालों को छूते हुए फुसफुसाया,
"तो क्या अच्छा लगता है तुम्हें? बोलो ना आर्या… जो भी कहोगी… मैं सब पूरा कर दूँगा…"
उसका स्पर्श बिजली बनकर आर्या की रगों में दौड़ गया। आर्या ने उसकी आंखों में देखा—वो आंखें जो किसी बादशाह की तरह नहीं, किसी आशिक़ की तरह उसके सामने झुकी थीं।
"आप… आप ऐसा कैसे कर सकते हैं?" आर्या की आंखें छलकने को थीं।
"अभी कुछ देर पहले ही आपने… आपने मुझे किस किया… और अब…"
"और अब मैं तुम्हें देख रहा हूँ… बस देखना चाहता हूँ… इसी तरह… हर दिन, हर रात…" सम्राट की आवाज़ गहराई से भरी हुई थी। उसके हर शब्द में जुनून था, लेकिन उनमें ज़बरदस्ती नहीं थी—थी तो सिर्फ मोहब्बत की प्यास।
आर्या ने पलट कर खुद को उस ओर कर लिया जहाँ चाँद की रौशनी फैल रही थी। उसकी आंखों में आंसू थे, मगर होंठों पर हल्की सी थरथराहट।
सम्राट ने धीरे से उसके पीछे से कहा,
"डर लग रहा है तुम्हें मुझसे?"
आर्या चुप रही।
"या खुद से? उस एहसास से जो तुम्हारे अंदर धीरे-धीरे घर बना रहा है?"
आर्या ने एक गहरी सांस ली। सम्राट की बातों ने उसे झकझोर दिया था।
आर्या का कमरा था।
"कहाँ हो तुम, आर्या?"
कमरे की हल्की रौशनी और बंद खिड़कियों के बीच मंयक की नज़र एक खाली बिस्तर पर जा टिकी। दरवाज़ा उसने धकेल कर खोला था, लेकिन आर्या कहीं नज़र नहीं आई। एक पल के लिए उसे लगा, शायद वह बाथरूम में हो।
"आर्या… क्या तुम बाथरूम में हो?"
उसकी आवाज़ धीमी थी, पर आँखों में शरारत की लहरें थीं।
वह मुस्कुराया, जैसे कोई छोटी सी शरारत उसके दिमाग में हो, और दबे पाँव बाथरूम के पास पहुँचा। हल्के से दरवाज़ा धकेला, लेकिन अंदर कोई नहीं था। बाथरूम खाली था। उसकी भौंहें सिकुड़ गईं।
"कहाँ चली गई ये लड़की?"
उसे थोड़ी बेचैनी होने लगी। उसने आर्या को फोन किया। बिस्तर के पास रखा फोन अचानक बजने लगा—वही ट्यून, जो आर्या अक्सर इस्तेमाल करती थी। वह चौंका।
"ये आवाज़ तो यहीं कहीं से आ रही है…"
वह इधर-उधर देखने लगा, तकिए को उठाया तो नीचे से आर्या का फोन निकल आया।
"फोन यहीं है… तो वह गई कहाँ?"
कुछ तो अजीब था। आर्या बिना फोन के कहीं नहीं जाती थी।
वह बिना वक्त गंवाए बाहर निकल पड़ा। हवेली के गलियारों में एक अलग ही सन्नाटा पसरा था—जैसे दीवारें भी चुप हो गई हों। फर्श की लकड़ी पर उसके जूतों की आवाज़ गूंज रही थी। आर्या का नाम वह धीरे-धीरे पुकार रहा था… मगर हवेली में कोई उत्तर नहीं था।
वह पीछे के कॉरिडोर की तरफ मुड़ा, जहाँ से गाँव की पगडंडी की हल्की झलक दिखती थी। वहाँ हवा तेज़ चल रही थी और पुराने पीपल के पत्ते सरसराते हुए एक उदासी का संगीत रच रहे थे।
उसी मोड़ पर, उसे एक परिचित चेहरा दिखा—उसकी माँ।
"माँ?" मंयक थोड़ा चौंका।
माँ—तेज़ निगाहों वाली, शालीन और हमेशा निर्णयात्मक। उन्होंने बेटे को देखा, लेकिन मुस्कान दूर-दूर तक नहीं थी।
"तू किसे ढूंढ रहा है?"
उनकी आवाज़ में सख़्ती थी।
मंयक थोड़ा झिझका, लेकिन फिर बोला, "आर्या… वह कमरे में नहीं है, फोन यहीं है… तो मैं सोच रहा था—"
माँ ने बात बीच में ही काट दी।
"आर्या?"
उसने एक ठंडी हँसी हँसी।
"तुम्हारा यही चयन है? वही लड़की, जो तुम्हारी परछाईं तक को समझ नहीं सकती?"
मंयक कुछ बोलता उससे पहले ही माँ की आँखों में जानी-पहचानी घृणा उतर आई।
"तुम नहीं समझते मंयक… वह लड़की बस तुम्हारे साथ टाइम पास कर रही है। ऐसी लड़कियाँ शादी के दिन मुँह फेर लेती हैं। तुझे छोड़कर चली जाएगी। और फिर तुम अकेले खड़े रह जाओगे।"
मंयक की आँखों में नमी उभर आई थी, लेकिन चेहरे पर गुस्सा और विवेक की लकीरें उभरने लगी थीं।
"माँ, आप ये सब कैसे कह सकती हैं? आप उसे जानती ही कितना हैं?"
"जानती हूँ," माँ बोलीं, "इतना जानती हूँ कि वह तुम्हारे लायक नहीं है। वह तुम्हारी जड़ें नहीं समझती। उसे हमारी विरासत से कोई लेना-देना नहीं है। वह बस तुम्हारे नाम, तुम्हारे पैसों, तुम्हारे चेहरे की चमक से खिंची है।"
मंयक ने गहरी साँस ली, मानो अपने भीतर उबलते तूफ़ान को रोकने की कोशिश कर रहा हो।
"आप हमेशा सबको अपने पैमानों से क्यों तौलती हैं माँ? अगर आपसे कोई नहीं मिला, तो इसका मतलब ये नहीं कि सब छल ही करते हैं। आर्या… वह अलग है।"
माँ ने आँखें सिकोड़ लीं।
"अलग? तुम जिस दिन अपनी सगाई की अंगूठी लेकर खड़े रह जाओगे और वह गायब होगी, तब याद रखना मेरे शब्द।"
उसकी बातों में ऐसा ज़हर था, जिसने मंयक के कानों में घंटियों सी गूंज पैदा कर दी। वह चुप रहा… एक शब्द भी नहीं कहा, लेकिन उसकी आँखों में ठहर चुकी उम्मीद हिलने लगी थी।
वह पीछे मुड़ा और तेज़ कदमों से आगे बढ़ गया। हवेली के पिछले हिस्से की तरफ, जहाँ पुराने मंदिर की सीढ़ियाँ थीं। शायद आर्या वहाँ हो… शायद हवा की थपकियों में उसकी कोई बात रह गई हो… शायद आर्या सच में उसे छोड़ देगी एक दिन… या शायद नहीं।
उसने एक आखिरी बार आसमान की तरफ देखा—शाम ढल चुकी थी, पर एक तारा चुपचाप झलक रहा था।
"आर्या… तुम कहाँ हो?"
उसके स्वर में अब मासूमियत नहीं, बल्कि एक गहराता यकीन और चिंता थी।
और उसी पल हवेली की छत पर हल्की सी आहट हुई—किसी के पायल की… या शायद किसी टूटते विश्वास की।
भीगी रात – चाँद की गवाही में
चाँदनी अब पूरे स्विमिंग पूल पर झिलमिलाने लगी थी। पानी में चाँद की परछाईं यूँ लग रही थी जैसे कोई स्वप्न तैर रहा हो। हवा में नमी थी… और सम्राट की साँसों में एक बेचैन सी गहराई।
आर्या बार-बार पीछे मुड़कर सम्राट को देख रही थी—कभी डर से, कभी उलझन से, और कभी उस अनकहे एहसास से जिसे वह खुद भी नाम नहीं दे पा रही थी।
सम्राट ने कुछ नहीं कहा, वह आर्या को फिर अपनी ओर पलट लेता है, बस धीरे-धीरे उसके पास आ गया। और आर्या की साँसें जैसे थमने लगीं।
"तुम जाना चाहती हो…" सम्राट की आवाज़ में नमी थी, "पर तुम तो खुद तैर नहीं सकती, है ना?"
आर्या ने गर्दन मोड़ी और एक हल्की झुंझलाहट से बोली, "हाँ… इसलिए कह रही हूँ कि आप बाहर चलिए… मुझे डर लग रहा है यहाँ…"
सम्राट मुस्कुराया, एक गहरी, नरम मुस्कान। "डर? मुझसे या इस पानी से?"
"आपसे," आर्या ने तुरंत जवाब दिया, लेकिन उसकी आवाज़ बहुत धीमी थी, जैसे दिल से निकलकर होंठों तक आते-आते कांप गई हो।
सम्राट अब उसके बिल्कुल सामने था, उसका चेहरा उतना ही पास जितना एक हल्की साँस। उसने अपनी उंगलियों से आर्या की ठुड्डी को हल्के से ऊपर किया। उसका स्पर्श ठंडा नहीं था, बल्कि गुनगुना, जैसे किसी पुराने एहसास की तरह जिसे छूकर रूह तक कांप जाए।
"मैं तुम्हें कभी नहीं डराऊँगा आर्या," उसने बहुत धीरे कहा, "पर हाँ… मैं खुद से तुम्हें दूर नहीं कर पाऊँगा।"
आर्या की आँखें भीगने लगीं। वह खुद को समेटना चाहती थी, भाग जाना चाहती थी, लेकिन वह नहीं जा सकती थी। न तैर सकती थी, न अपने एहसासों से लड़ सकती थी।
"मैं यहाँ फँस गई हूँ," उसने काँपती हुई आवाज़ में कहा, "आप नहीं समझते… मैं बाहर नहीं जा सकती। मुझे तैरना नहीं आता, और आप…"
"मैं हूँ ना," सम्राट ने उसकी बात काट दी। उसकी हथेली अब आर्या के हाथ पर थी, और उसने बहुत हल्के से उसे पकड़ा—जैसे पूछ रहा हो कि क्या मुझे थामने दोगी?
"बस एक बार…" सम्राट की आवाज़ में अब वो तीव्रता थी जिसे आर्या ने पहले कभी महसूस नहीं किया था, "बस एक बार इस डर को पीछे छोड़ दो। मैं तुम्हारा हाथ कभी नहीं छोड़ूँगा।"
आर्या ने कुछ पल उसकी आँखों में देखा। वो आँखें अब बादशाह नहीं थीं, वो किसी घायल प्रेमी की तरह थीं—ईमानदार, बेचैन, और पुकारती हुई।
धीरे से, बहुत धीमे, उसने अपना हाथ सम्राट की हथेली में दे दिया।
सम्राट ने बिना कुछ कहे उसे अपने करीब खींचा। उनके बीच अब सिर्फ पानी की वो नर्म लहरें थीं, जो उनके पैरों के आसपास हल्के से काँप रही थीं।
"पानी में चलना चाहोगी?" सम्राट ने पूछा।
आर्या ने एक पल को डर से उसकी ओर देखा, फिर खुद से एक युद्ध करके सिर हिलाया।
"ठीक है…" सम्राट ने उसके कमर के चारों ओर अपनी बाँहें डालीं और कस दीं। आर्या चौंकी, पर विरोध नहीं किया। उसका दिल अब बेकाबू था, और आँखें बंद।
धीरे-धीरे वे दोनों स्विमिंग पूल के किनारे से आगे बढ़ने लगे। पानी अब उनके घुटनों तक था… और सम्राट की पकड़ मजबूत, लेकिन बहुत नरम।
आर्या का दिल धड़क रहा था, उसके होंठ कांप रहे थे। "मैं गिर जाऊँगी…"
"तुम गिरोगी नहीं, मैं हूँ तुम्हारे साथ," सम्राट ने उसके कानों के पास फुसफुसाया।
उसकी साँस आर्या की गर्दन को छू गई, और वह कांप गई—मगर इस बार डर से नहीं, किसी और वजह से… किसी गहरे, अनजाने एहसास से।
पानी अब उनकी कमर तक था। आर्या के कपड़े भीग चुके थे, और उसके बाल उसके गालों से चिपक गए थे। सम्राट अब उसे पूरी तरह से थामे हुए था।
"तुम बहुत खूबसूरत हो…" उसने एकदम अचानक कहा।
आर्या ने उसकी ओर देखा। "ऐसी हालत में?" उसने खुद को लेकर संकोच से कहा।
"हाँ। ऐसी ही। भीगी, डरी हुई, और फिर भी इतनी सच्ची," सम्राट ने उसकी नाक की नोक को हल्के से छुआ। आर्या की आँखें खुद-ब-खुद झुक गईं।
अब वे दोनों पानी के बीचों-बीच थे। सम्राट ने धीरे-धीरे उसका चेहरा अपनी हथेलियों में लिया, और बेहद धीमे से, उसके माथे पर एक चुम्बन छोड़ा—धीमा, सुकून भरा, जैसे किसी वादा किया हो।
आर्या की पलकों पर कुछ गीला सा बहा—शायद आंसू… शायद पानी… शायद कोई ऐसा एहसास जो अब पिघल चुका था।
"प्लीज आप ऐसा मत कीजिए मुझे अच्छा नहीं लग रहा है…" आर्या ने धीमे से कहा, "पर वह खुद इससे दूर नहीं जा पा रही थी…"
"लेकिन मुझे लग रहा है," सम्राट की आवाज़ में अब वह आहिस्ता-आहिस्ता बनने वाला प्यार था। "तुम्हें छूकर अच्छा लगता है। मैं तुम्हें हर रोज़ ऐसे ही देखना चाहता हूँ। तुम्हारे डर के पीछे छिपी उस मासूम सी लड़की को महसूस करना चाहता हूँ… जिसे शायद अब सिर्फ मैं ही देख पाता हूँ।"
आर्या की आँखें भीगी थीं। वह कुछ कह नहीं सकी… बस धीरे से सम्राट की छाती से हाथ टिका दिया। शायद उसे खुद से दूर करना चाह रही थी।
पानी अब उनकी कमर से ऊपर था… मगर डर अब कहीं नहीं था।
उनके बीच अब सिर्फ मौन था—और उस मौन में चाँदनी की गवाही, दिलों की धड़कनों की लय और शायद एक नए रिश्ते की शुरुआत…
भीगी रात – चाँद की गवाही में
पानी अब आर्या के सीने तक पहुँच चुका था, और उसका शरीर काँप रहा था—सर्दी से नहीं, बल्कि उस आंतरिक हलचल से, जो सम्राट की बाँहों में खुद को सुरक्षित महसूस कर रही थी, पर मन अभी भी कहीं उलझा था।
"बस और दो कदम…" सम्राट की आवाज़ बहुत पास से आई, जैसे उसकी हर साँस आर्या की त्वचा पर उतर रही हो। "हम किनारे तक पहुँच गए हैं…"
आर्या ने सिर हिलाया, लेकिन उसका शरीर अब थक चुका था। पानी का भार, कपड़ों की भीगन, और भावनाओं का तूफ़ान… सब कुछ उसके वश से बाहर था। तभी सम्राट ने उसे अपने बाहों में उठा लिया—बहुत धीरे, बहुत सहजता से, जैसे कोई पंख हो जिसे किसी आँधी से बचाना हो।
आर्या हड़बड़ाई। "नहीं… मुझे ज़मीन पर रखिए… लोग देखेंगे…"
"यहाँ कोई नहीं है आर्या," सम्राट की आवाज़ में आश्वासन था, "और अगर कोई हो भी, तो क्या फर्क पड़ता है? मैं तुम्हें अब काँपते हुए नहीं देख सकता।"
"अगर आपको मेरी यह नॉवेल पसंद आई हो, तो एक छोटी-सी विनती है... ❤️"
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स्विमिंग पूल के किनारे,
वे अब पूल से बाहर आ चुके थे। चाँदनी अब और भी साफ़ थी—जैसे उन दोनों के चारों ओर सिर्फ़ सफ़ेदी, भीगापन और खामोशी थी। सम्राट ने आर्या को एक तौलिये में लपेटा और पास ही पड़े लाउंजर पर बिठाया।
उसने एक सूखा तौलिया उसके बालों पर रख दिया और बहुत नर्मी से उसकी लटों को पोछने लगा। आर्या बस उसे देखती रही—उसकी उंगलियाँ, उसका चेहरा, उसकी वो आँखें जो अब पहले जैसी नहीं थीं। उनमें अब सिर्फ़ अधिकार नहीं, स्नेह और एक बेचैनी थी।
"मैं जानता हूँ," सम्राट ने उसकी भीगी पलकों की ओर देखते हुए कहा, "तुम मुझसे डरती हो। पर क्या ये डर अब भी वैसा ही है?"
आर्या ने कुछ नहीं कहा। उसके होंठ हिले, लेकिन कोई शब्द नहीं निकला। सम्राट ने उसका हाथ अपने हाथ में लिया—अब की बार ज़ोर से नहीं, बल्कि जैसे कोई टूटे हुए खिलौने को धीरे से थामता है।
"तुम्हें तैरना नहीं आता, इसलिए तुम पूल में नहीं जाती… मुझे प्यार करना नहीं आता, इसलिए मैं बस तुम्हें देखता रह जाता हूँ। हम दोनों अधूरे हैं, ना?"
आर्या की आँखें एकदम भीग गईं। उसने अपनी नज़रें चुरा लीं, पर सम्राट ने उसका चेहरा फिर से अपनी तरफ़ मोड़ा।
"पर हम अधूरे रहना नहीं चाहते।" सम्राट की आवाज़ में अब वो सच्चाई थी, जो किसी भी गवाही से बड़ी थी। "मैं तुम्हें पूरे दिल से देखना चाहता हूँ आर्या—तुम्हारे डर के पीछे की सच्चाई से, तुम्हारे आँसुओं से, तुम्हारी चुप्पियों से…"
आर्या की आँखों से एक बूँद गिरी—सम्राट की उंगली ने उसे छुआ और उसकी हथेली में कैद कर लिया।
"ये मत सोचो कि ये पल सिर्फ़ एक रात है," सम्राट धीरे से फुसफुसाया, "ये शुरुआत है… उस सफ़र की जहाँ मैं तुम्हारे हर डर को अपने आगोश में छुपा लूँगा।"
आर्या अब भी कुछ नहीं बोली, पर उसकी उंगलियाँ सम्राट की उंगलियों के बीच खुद-ब-खुद फिसलकर टिक गईं।
सम्राट ने उसका हाथ थामे रखा और खुद पास बैठ गया। "ठंडी लग रही है?"
आर्या ने सिर हिलाया। सम्राट ने अपनी जैकेट उतारी और उसके कंधों पर डाल दी।
"अब ठीक है?" उसने पूछा।
आर्या ने इस बार हल्की मुस्कान से सिर हिलाया। पहली बार उसकी मुस्कान में डर नहीं था—सिर्फ़ अपनापन था।
कुछ पल यूँ ही बीत गए—चाँदनी अब उनकी भीगी साँसों को सहला रही थी। फिर सम्राट ने उसकी ओर देखा, "आर्या… अगर तुम कहो, तो हम आज की रात यहीं छोड़ सकते हैं। मैं तुम्हें कमरे तक छोड़ दूँगा, और हम कल से सब कुछ भूल सकते हैं…"
आर्या ने सक्त लहजे में कहा, "मैं खुद जा सकती हूँ।"
सम्राट ने उसकी बात का जवाब नहीं दिया—उसने बस उसकी हथेली को अपनी छाती पर रखा, जहाँ दिल की धड़कनें बहुत तेज़ थीं।
चाँद गवाही देता रहा… रात भीगती रही… और उन दोनों के बीच कुछ पिघलता चला गया—एक सर्द एहसास, एक उलझी हुई नज़दीकी, और एक रिश्ता जो अब सिर्फ़ शब्दों पर नहीं, स्पर्श और मौन की लय पर टिका था।
अब शायद कहानी ने अपने अगले मोड़ की ओर पहला क़दम रख दिया था…
हवेली की पुरानी सीढ़ियाँ मंयक के तेज़ कदमों से काँप रही थीं। उसकी आँखें हर उस कोने को खंगाल रही थीं, जहाँ आर्या की कोई परछाईं छुपी हो सकती थी। लेकिन हवेली की रगों में उस वक़्त केवल सन्नाटा दौड़ रहा था।
वह मंदिर की ओर बढ़ा—जहाँ पत्थरों पर मौसम की मार झलकती थी।
मंदिर की सीढ़ियाँ जमी हुई थीं, उन पर बैठा चाँद जैसे पिघलकर हर पत्थर पर अपनी चाँदनी उकेर रहा था।
"आर्या…"
उसका स्वर अब पुकार नहीं था, मानो खुद से ही सवाल कर रहा हो—"क्या मैं उसे जान पाया हूँ?"
मंदिर के द्वार खुले थे, लेकिन अंदर केवल दीपक की हल्की लौ थी। एक दिया धीमी साँसों सा टिमटिमा रहा था… और उस लौ की परछाईं में कुछ कागज़ पड़े थे—पत्तों जैसे बिखरे हुए।
वह झुका, काँपते हाथों से वो कागज़ उठाए। उस पर आर्या की लिखावट थी—एक जानी-पहचानी, थोड़ी तिरछी लेकिन भावनाओं से भीगी हुई:
"मंयक,
कभी-कभी प्यार किसी को बताकर नहीं बल्कि उसे समझकर किया जाता है।"
कमरे की बत्तियाँ धीमी थीं, हलकी पीली रौशनी दीवार पर बिखरी हुई थी, और पर्दों के पीछे से आती हवा में चाँदनी हल्के-हल्के डोल रही थी। आर्या बिस्तर पर लेटी थी, आँखें बंद थीं लेकिन नींद उससे कोसों दूर। उसके ज़ेहन में अभी भी स्विमिंग पूल की वह एक झलक बसी थी—सम्राट की आँखों में वह लम्हा, जब सब कुछ जैसे ठहर गया था। उस स्पर्श, उस नज़दीकी की गर्मी ने आर्या को अंदर तक हिला दिया था। लेकिन उस एहसास के पीछे एक अपराधबोध भी छिपा था—मंयक।
तभी कमरे का दरवाज़ा धीरे से खुला। मंयक अंदर आया। उसके चेहरे पर चिंता साफ़ झलक रही थी। उसने एक पल को ठहरकर आर्या की ओर देखा—वो लेटी थी, जैसे सोने का नाटक कर रही हो। लेकिन मंयक समझ गया था, वो अब तक जाग रही थी।
वो धीमे-धीमे क़दमों से चलकर उसके सिरहाने बैठ गया। उसकी साँसें गहरी थीं, मानो कुछ कहने से पहले खुद को संयत कर रहा हो।
"तुम कहाँ चली गई थी, आर्या?" उसकी आवाज़ धीमी थी, लेकिन उसमें हल्की झुंझलाहट और चिंता का मिलाजुला भाव था। "मैं तुम्हें ढूंढ रहा था... इतने देर से।"
आर्या ने धीरे से आँखें खोलीं और मंयक की ओर करवट लेकर देखा। उसकी आँखों में एक थकान थी, और शायद एक सवाल भी।
मंयक ने उसकी आँखों में झाँकते हुए कहा, "कहीं मम्मी की बातों को दिल पर तो नहीं ले लिया तुमने? देखो, वो ऐसी ही हैं। उनका नेचर थोड़ा कड़वा है, सबको झट से जज कर लेती हैं। पापा से भी उनका कम ही बनता है… लेकिन तुम्हें जानती हो क्यों अपनाया उन्होंने? क्योंकि वो मुझसे बहुत प्यार करती हैं। मेरे लिए उन्होंने हाँ की है तुम्हारे लिए।"
आर्या हल्के से बैठ गई। उसकी उंगलियाँ चादर की सिलवटों से खेलने लगीं। वो चुप थी, पर अंदर एक तूफ़ान चल रहा था। क्या मंयक वो सब समझ पाएगा, जो वो महसूस कर रही थी? क्या उसे सम्राट के साथ बिताए उस पल के बारे में बताना सही होगा? क्या सच, जो उसके मन में कसक बनकर बैठ गया था, उस रिश्ते को तोड़ देगा जो अभी-अभी पनपना शुरू हुआ था?
"क्या हुआ आर्या?" मंयक ने उसकी ओर झुकते हुए पूछा। "तुम कुछ सोच रही हो… बहुत परेशान लग रही हो।"
वो उसकी आँखों में देख रहा था, जैसे वो उसकी रूह पढ़ना चाहता हो।
"देखो… मम्मी की बातों को भूल जाओ। हम भी अक्सर उन्हें सीरियसली नहीं लेते। उनका अपना तरीका है प्यार दिखाने का—थोड़ा तीखा, थोड़ा रूखा। लेकिन दिल से बुरा नहीं सोचतीं। मैं जानता हूँ, आज जो उन्होंने कहा, वो तुम्हें चुभा होगा… लेकिन हमें नज़रअंदाज़ करना आता है।"
आर्या की आँखें अब भी उसके चेहरे पर थीं, लेकिन अब उनमें एक नमी थी—शायद ग्लानि की, शायद डर की।
"मंयक…" उसने धीमे से कहा। उसकी आवाज़ काँप रही थी। "कभी-कभी हमें खुद से भी सवाल करने पड़ते हैं… कि जो हम कर रहे हैं, वो सही है या नहीं। मैं आज बस… खुद से भाग रही थी।"
"खुद से?" मंयक ने थोड़ा चौंकते हुए पूछा।
आर्या ने हल्की-सी मुस्कान दी, जो दर्द से भरी थी। "हाँ… कभी-कभी कोई पल ऐसा आता है, जब हमें लगता है कि हम किसी मोड़ पर खड़े हैं… जहाँ से आगे बढ़ना भी डर लगता है और पीछे लौटना भी। आज शायद मैं उसी मोड़ पर थी।"
मंयक ने उसका हाथ थामा, उसकी उंगलियाँ थरथरा रही थीं।
"आर्या, तुम मुझसे कुछ छुपा रही हो?" उसने सीधे पूछा।
आर्या ने एक पल को चुप रहकर उसकी आँखों में झाँका। फिर जैसे हिम्मत जुटाते हुए बोली, "तुम क्या हर उस बात पर विश्वास करोगे जो मैं बताऊँगी? अगर कभी मैं कहूँ कि मैंने कोई भूल की है… अनजाने में, तो तुम क्या करोगे?"
मंयक ने उसकी बात को गंभीरता से सुना, फिर गहरी साँस लेते हुए बोला, "देखो आर्या… इंसान गलतियाँ करता है, और कई बार उन्हें कबूल करना सबसे बड़ी हिम्मत होती है। मैं ये नहीं कहता कि सब माफ़ किया जा सकता है… लेकिन जब प्यार होता है, तो हम कोशिश करते हैं समझने की… और माफ़ करने की भी।"
आर्या की आँखों से एक आँसू टपक गया। वो मंयक के पास खिसक आई और उसका हाथ थामे बोली, "मैं कोशिश कर रही हूँ खुद को समझने की, मंयक। शायद कुछ बातें हैं जो मैं अभी खुद भी नहीं समझ पाई हूँ। लेकिन एक बात सच है… तुम्हारी मौजूदगी मुझे सुकून देती है। तुम्हारी आँखों में झाँककर लगता है कि शायद मैं गलत नहीं हूँ…"
मंयक ने उसके आँसू पोंछ दिए। "तब तक कोई बात मत कहो जो आधी हो, अधूरी हो। जब तुम पूरी तरह यकीन कर लो कि तुम्हें मुझसे कुछ कहना है, तब कहना। मैं यहीं हूँ… और हमेशा यहीं रहूँगा।"
आर्या ने एक गहरी साँस ली। उस पल, कमरे में जैसे वक़्त ठहर गया था। बाहर हवा अब भी पेड़ों से खेल रही थी, लेकिन अंदर एक रिश्ते की जड़ें थोड़ी और गहरी हो गई थीं। सच चाहे जो भी हो, वो अब आर्या के दिल में एक गुप्त जगह पर ठहरा था।
लेकिन मंयक का विश्वास, उसका इंतज़ार… शायद उसे वो ताक़त देगा जो किसी भी सच को सामने लाने के लिए चाहिए होती है।
कमरे की हवा में एक अजीब-सी नमी तैर रही थी। हल्की रोशनी अब और भी फीकी हो चली थी, मानो दीवारें भी आर्या के दिल की थकान महसूस कर रही हों। मंयक का हाथ अब भी उसकी उंगलियों को थामे हुए था, लेकिन आर्या की उंगलियाँ ढीली थीं। उस स्पर्श में कोई प्रतिक्रिया नहीं थी, कोई गर्मजोशी नहीं। बस एक मौन था—गहरा, असमंजस से भरा हुआ।
मंयक ने थोड़ी कोशिश की मुस्कुराने की। "याद है, जब पहली बार हम मिले थे? तुम्हारे हाथ में वो मोटी-सी किताब थी और तुमने मुझे देखा भी नहीं था। मैं तो वहीं रुक गया था… सोच रहा था, 'क्या ये लड़की किताबों से बात करती है?'"
आर्या ने हल्की सी नज़र उसकी तरफ़ डाली। उसकी आँखों में कोई चमक नहीं थी, बस एक ठहरी हुई झील जैसा सूनापन था।
"मैंने उस दिन सोचा था," मंयक आगे बोला, "अगर किसी के पास इतना सब्र है कि वो इतनी भीड़ में भी खुद को पूरी तरह किताब में डुबो ले, तो ज़रूर कुछ खास होगी।"
आर्या की नज़रें अब भी उसी जगह थीं जहाँ दीवार पर चाँदनी की लकीर हिल रही थी। उसके होठ थोड़े से खुले थे, जैसे कुछ कहना चाहती हो, लेकिन आवाज़ कहीं गुम थी।
"आर्या…" मंयक की आवाज़ अब थोड़ा धीमी और नरम हो गई। "मैं जानता हूँ कि तुम अभी ठीक नहीं हो। मैं देख सकता हूँ, तुम यहाँ होकर भी कहीं और हो। लेकिन क्या मैं तुम्हें वापस खींच सकता हूँ उस जगह से, जहाँ तुम खुद से भाग रही हो?"
आर्या ने धीरे से अपनी उंगलियाँ उसके हाथ से खींच लीं। वो धीरे से बोली, "तुम बहुत अच्छा बोलते हो मंयक… शायद इतना अच्छा कि मैं तुम्हें कभी चोट नहीं पहुँचाना चाहती। लेकिन अभी… इस पल में… मैं कुछ भी महसूस नहीं कर पा रही।"
उसका स्वर इतना सपाट था कि मंयक के दिल में एक हल्की सी चुभन दौड़ गई।
"मैं… क्या करूँ जिससे तुम्हें अच्छा लगे?" मंयक ने पूछा। "तुम्हारे लिए कुछ लाऊँ? चलो कहीं बाहर चलें, हवा खाएँ… तुम्हारा मूड बदल जाएगा। या फिर मैं यहीं बैठा रहूँ, जब तक तुम कुछ महसूस करने लगो?"
आर्या ने सिर झटकते हुए आँखें बंद कर लीं। "कुछ नहीं चाहिए, मंयक। न बाहर जाना, न किसी से बात करना… बस थोड़ा समय। शायद खुद से।"
मंयक थोड़ी देर तक उसे देखता रहा। उसके चेहरे पर थकान की एक गहरी परत थी। जैसे किसी ने उसके अंदर की सारी भावनाएँ निकाल ली हों, और अब वो बस एक खोल बनकर रह गई हो।
"तुम जानती हो न, मैं तुमसे प्यार करता हूँ?" मंयक ने धीरे से कहा। "शायद तुम अभी इस प्यार को महसूस नहीं कर पा रही, लेकिन मेरे लिए ये पल भी उतना ही सच्चा है, जितना वो पल जब तुमने पहली बार मेरा नाम लिया था।"
आर्या की पलकें काँपीं, लेकिन उसने कोई जवाब नहीं दिया।
"तुम्हारी ये चुप्पी मुझे डराती है, आर्या," मंयक बोला। "क्योंकि तुम जब मुझसे लड़ती हो, बहस करती हो… तब भी तुम होती हो। लेकिन जब तुम ऐसे चुप हो जाती हो, तो लगता है जैसे मैं तुम्हें खो रहा हूँ—बिना किसी आवाज़ के।"
आर्या की आँखों से दो आँसू बह निकले। वो बिना पोंछे बहने दिए। उसे इस वक़्त अपनी भावनाओं को छुपाने की ज़रूरत महसूस नहीं हो रही थी—क्योंकि वो खुद भी नहीं जानती थी कि क्या सही है, क्या गलत।
"मैं जानती हूँ, मैं तुम्हें तकलीफ़ दे रही हूँ," उसने काँपती आवाज़ में कहा। "लेकिन मंयक… मैं तुमसे झूठ नहीं बोल सकती। मैं नहीं जानती कि मेरे अंदर क्या चल रहा है। मैं बस… उलझ गई हूँ।"
"किससे?" मंयक ने पूछा, उसकी आवाज़ में अब भी एक कोमलता थी। "मुझसे? खुद से? या किसी और से?"
आर्या ने कोई जवाब नहीं दिया। उसकी चुप्पी अब और भी भारी हो गई थी। कुछ क्षणों के लिए, कमरे में सिर्फ़ घड़ी की टिक-टिक सुनाई दे रही थी।
फिर मंयक धीरे से उसके पास खिसक आया। उसने उसकी पीठ पर हाथ रखा, बहुत हल्के से। "मैं यहाँ हूँ, आर्या। जब तक तुम्हें चाहिए। मैं कोई जवाब नहीं मांगूँगा। लेकिन बस एक वादा करो… खुद से भागना मत।"
"अगर आपको मेरी यह नॉवेल पसंद आई हो, तो एक छोटी-सी विनती है... ❤️"
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फिर मंयक धीरे से उसके पास खिसक आया। उसने उसकी पीठ पर हाथ रखा, बहुत हल्के से। "मैं यहाँ हूँ, आर्या। जब तक तुम्हें चाहिए। मैं कोई जवाब नहीं मांगूंगा। लेकिन बस एक वादा करो... खुद से भागना मत।"
आर्या ने गहरी साँस ली। उसका चेहरा मंयक की ओर था, लेकिन निगाहें अब भी कहीं दूर थीं। उसके होठों पर एक बेहद फीकी मुस्कान आई—इतनी हल्की कि जैसे हवा में ही घुल जाए।
"शायद मैं कोशिश करूँगी," उसने कहा। "लेकिन अभी... बस यहीं रहो। कुछ मत कहो। बस थोड़ी देर... यह मौन रहने दो।"
मंयक ने धीरे से सिर हिलाया और उसे हल्के से अपनी बाहों में ले लिया। आर्या ने खुद को उस आलिंगन में ढीला छोड़ दिया। वह गर्माहट उसे सुकून दे रही थी, लेकिन भीतर की सच्चाई अब भी वही थी—एक गुप्त पीड़ा, जो किसी और की आँखों में बस चुकी थी... और शायद एक दिन बोल उठेगी।
लेकिन अभी नहीं।
इस वक्त, बस मौन का यह कोना था, दो धड़कनों की बीच की वह जगह, जहाँ रिश्ते बनते भी हैं... और टूटते भी हैं।
स्विमिंग पूल के किनारे रात की नमी गहराती जा रही थी। हल्की पीली रोशनी पानी की सतह पर फिसलती हुई लहरों से खेल रही थी। चारों ओर सन्नाटा था, बस पानी की हलचल और सम्राट की साँसों की आवाज़ थी। वह अकेला था, लेकिन उसकी आँखों में कोई अकेलापन नहीं था—वहाँ जुनून था, दर्द था, और आर्या की यादों का तूफ़ान।
भीगे कपड़ों में वह उसी जगह खड़ा था जहाँ कुछ देर पहले आर्या बैठी थी। उसकी नज़रें उस बेंच पर टिकी थीं, जहाँ वह और आर्या साथ बैठे थे। उसकी उंगलियाँ काँपती हुई उस जगह को छूने लगीं।
"आर्या, माय लव…" उसकी आवाज़ में कंपन था, जैसे कोई साज़ अपने ही सुरों से काँप रहा हो।
"कुछ देर पहले तुम मेरे साथ यही बैठी थीं… तुम्हारे गीले बालों से टपकती बूँदें मेरे हाथों पर गिरी थीं। तुम्हारी आँखों में झीलें थीं… और मैं उन झीलों में डूबता जा रहा था।"
एक दर्दभरी मुस्कान उसके चेहरे पर आई, और फिर अचानक, एक आवेग में, उसने एक लंबी साँस ली और सीधे पानी में छलांग लगा दी।
छपाक!
पानी की परत टूटी, और सम्राट गहराई की ओर गया जैसे अपने ही अंदर के किसी खालीपन को भरने की कोशिश कर रहा हो। जब वह ऊपर आया, उसका चेहरा गीला था—न केवल पानी से, बल्कि उन यादों से जो आज भी साँस ले रही थीं।
वह तैरते हुए एकदम उस जगह पर रुका जहाँ कुछ दिन पहले उसने आर्या को पहली बार चूमा था।
उसने धीरे से पानी में हाथ चलाया, जैसे उस रात के कंपन को फिर से जीने की कोशिश कर रहा हो।
"यही…," उसने धीमे से कहा, "यही हमने एक-दूसरे के करीब आना सीखा था। पहली बार तुम्हारा चेहरा इतनी नज़दीक था… इतनी नज़दीक कि मेरी साँसें तुम्हारी साँसों से उलझ गई थीं।"
वह अब आँखें बंद करके पानी में तैर रहा था, बहुत धीमे… मानो कोई राग गा रहा हो—एक ऐसा राग जो केवल आर्या सुन सकती थी।
पानी में उसकी हलचलें अब मद्धम हो चुकी थीं। वह वहाँ, उसी बिंदु पर, स्थिर होकर खड़ा हो गया—जैसे समय ठहर गया हो।
"यही जगह थी, जहाँ तुमने अपनी उंगलियाँ मेरी उंगलियों में उलझा दी थीं। उस एक पल में जैसे दुनिया थम गई थी। और फिर… तुम्हारे होठ मेरे होठों से टकराए थे… हल्के से, काँपते हुए। उस पहली छुअन ने जैसे मेरी रूह को जगा दिया था।"
वह खुद से बातें कर रहा था, लेकिन हर शब्द में आर्या की मौजूदगी थी।
उसकी हथेलियाँ पानी की सतह पर फैलीं, जैसे वह कोई दृश्य पकड़ना चाहता हो।
"तुमने डरते हुए मेरी आँखों में देखा था, और मैं वहीं डूब गया था… तुम्हारी नर्म साँसें, तुम्हारी सिहरन… सबकुछ इस पानी में बस गया है आर्या।"
सम्राट अब धीरे-धीरे चक्कर काट रहा था, उसी जगह को घेरे हुए जहाँ उनकी पहली मोहब्बत की दस्तक पड़ी थी।
उसने आसमान की ओर देखा, रात गहरी हो चली थी, और तारे अब धीमे-धीमे झलकने लगे थे।
"लेकिन अब… अब मैं अकेला हूँ, आर्या। तुम्हारे बिना ये पानी ठंडा है, बेजान है। तुम्हारे बिना ये होठ तन्हा हैं, ये साँसें अधूरी हैं।"
वह फिर से डुबकी लगाता है, जैसे कोई संगीत की धुन में खो गया हो। हर बार ऊपर आता है, तो उसके चेहरे पर कुछ और टूटता है—कोई और याद बह जाती है।
"यही वो जगह थी जहाँ मैंने तुम्हारे कंधे पर अपनी उंगलियाँ रखीं थीं, काँपते हुए… और तुमने अपनी आँखें बंद कर ली थीं। मैंने तुम्हारे माथे को चूमा था… और फिर, वो पहला चुंबन… वो बस एक स्पर्श नहीं था आर्या, वो एक क़सम थी, कि मैं तुम्हारा हो गया हूँ। पूरी तरह से।"
पानी की परत अब शांति में थी, लेकिन सम्राट की आँखों में तूफ़ान उठ रहा था। वह थक कर उसी पुल की सीढ़ियों के पास आ बैठा, शरीर से भीगा, आत्मा से टूटा।
"आज मैं यहाँ हूँ, फिर से… और तुम वहाँ कहीं, न जाने किस मोड़ पर रुक गईं। लेकिन ये पानी गवाह है हमारे प्यार का, इसने तुम्हारे अधरों की मिठास को छुआ है… और अभी भी मेरी साँसों में वही स्वाद है।"
वह अपने होंठों पर उंगलियाँ फेरता है, जैसे आर्या की छुअन को फिर से महसूस कर रहा हो।
"जब तक ये पानी मेरा नाम नहीं दोहराता, जब तक ये लहरें तुम्हारा चेहरा नहीं दिखातीं।"
भीगे कपड़ों में काँपते हुए वह फिर से पानी में उतरा, बहुत धीरे… और उसी जगह ठहर गया।
रात गहरा रही थी… लेकिन मोहब्बत का उजाला उस स्विमिंग पूल के पानी में अब भी कांप रहा था… एक जुनून की तरह, जो सम्राट की साँसों में आर्या की याद बनकर तैरता रहा।
कमरा हल्की सी नीली रौशनी से जगमगा रहा था। खिड़की से आती हवा के साथ परदे धीमे-धीमे हिल रहे थे। एकांत का यह पल आर्या के भीतर कहीं बहुत गहराई तक उतर रहा था। वह बिस्तर पर बैठी थी, घुटनों को छाती से लगाकर।
"वह अभी भी वहाँ है… शायद स्विमिंग पूल में।"
आर्या ने धीरे से आँखें बंद कीं, और वही पल सामने उभर आया—उसकी उंगलियाँ सम्राट की उंगलियों में उलझतीं, उसकी साँसों का वह गर्म एहसास, जो उस ठंडी रात में भी रूह तक उतर गया था।
उसने खुद को शीशे में देखा—आँखें लाल थीं, पर नम नहीं। शायद अब वह रो नहीं सकती थी। अब बस सोच सकती थी… लगातार, बिना रुके।
"क्या उसे बताना चाहिए कि आज रात क्या हुआ मेरे साथ?"
हवेली की सुबह कुछ ख़ास थी। धूप की किरणें शहतीरों से छनकर अंदर आ रही थीं, जैसे किसी ने सोने के रेशे हवा में लटका दिए हों। महोगनी की भारी डायनिंग टेबल पर सिल्वर वर्क के बर्तन रखे थे, जिनमें से गरमा-गरम नाश्ते की खुशबू उठ रही थी। चंदन और केवड़े की मिली-जुली खुशबू पूरे हॉल में फैली हुई थी।
डायनिंग टेबल के एक छोर पर बुआ जी बैठी थीं—हल्की गुलाबी सिल्क की साड़ी में, माथे पर लाल बिंदी और नज़रों में सवाल। उनके पास ही मयंक बैठा था—थोड़ी उलझन में, लेकिन चेहरे पर वही हल्की सी मुस्कान जो वह अक्सर बनावटी तौर पर रखता था, जब किसी सवाल का जवाब न होता हो।
"मयंक बेटा," बुआ जी ने चम्मच रखते हुए कहा, "आर्या कहाँ है? तुम उसे नाश्ते पर नहीं लाए?"
मयंक ने आँखें उठाकर बुआ को देखा, फिर हल्के से मुस्कराया, "जब मैं रूम गया था, वह रेडी हो रही थी। उसने कहा कि तुम लोग चलो, वह आ रही है।"
बुआ जी ने भौंहें चढ़ाईं, "ये कैसी बात हुई? उसने कहा और तुम आ गए? साथ क्यों नहीं लाए उसे?"
अब मयंक के चेहरे पर संकोच छा गया था। वह सोच में पड़ गया था कि क्या कहे। एक तरफ आर्या की वह धीमी मुस्कान, जो उसने शीशे में खुद को देखते हुए दी थी, और दूसरी तरफ बुआ की वह पारंपरिक आदतें—जिसमें घर की बेटियाँ और बहुएँ साथ चलती हैं, साथ खाती हैं।
"पता नहीं बुआ..." वह बस इतना ही कह पाया।
बाकी सब नाश्ता कर रहे थे—हवेली के सदस्यों की हल्की-हल्की बातचीत के बीच चम्मचों की खनक और परोसती महरिनों की आवाज़ें भी शामिल थीं।
टेबल के एक ओर चाची बैठी थीं—सफ़ेद ब्लाउज और नीले कांजीवरम की साड़ी में, जो हर बाइट के बाद किसी न किसी को कुछ न कुछ परोस रही थीं। "ले बेटा, ये आलू के परांठे तूने नहीं लिए, तेरे फेवरेट हैं।"
दूसरी तरफ आकाश बैठा था—मयंक का छोटा भाई, जो टोस्ट पर बटर लगाते हुए हँसी में बोला, "भैया, भाभी को टाइम लग रहा होगा सजने में, हवा जो बदल गई है अब!"
सभी हँसे, लेकिन मयंक बस हल्के से मुस्कराया। उसकी नज़रें बार-बार दरवाज़े की तरफ़ जा रही थीं।
आर्या नहीं आई थी। नाश्ते की थाली उसके लिए अभी भी खाली रखी गई थी, जैसे हर किसी को यकीन था कि वह आएगी।
टेबल पर खाना पूरे रिवाज़ के साथ चल रहा था। बर्तन चाँदी के थे, पानी तांबे के लोटे में परोसा गया था। एक-एक व्यंजन में घर की परंपरा और प्यार घुला हुआ था। गरमा-गरम पूरी, बेसन की कढ़ी, आलू-टोमैटो की सब्ज़ी, दही-भुजिया और एक हल्की सी चटनी—सब कुछ परोसा जा रहा था जैसे यह एक रोज़ की नहीं, कोई रस्म हो।
खाना परोसने वाली पुरानी नौकरानी पारो बुआ, जो हवेली के बच्चों को पालते-पोसते अब खुद भी एक दादी बन चुकी थीं, मयंक के पास आकर बोलीं, "बाबू, आज बिटिया ने कुछ खाया नहीं क्या? सुबह बेड टी ऊपर गई थी तो उसने वैसे ही लौटा दिया।"
मयंक ने नज़रें चुराईं, "मैं देखता हूँ।"
पर वह उठा नहीं। उसकी नज़रें अब दीवार पर लगे उस पुराने पेंटिंग पर टिक गई थीं—जिसमें हवेली की दादी-नानी एक भरे-पूरे खाने के साथ बच्चों को गोद में लिए बैठी थीं। वही माहौल आज यहाँ था, लेकिन अधूरा-सा।
आर्या की खाली कुर्सी सबको खल रही थी, लेकिन कोई कुछ बोल नहीं रहा था।
चुप्पियों के बीच बुआ जी ने फिर रोटी के टुकड़े को चटनी में डुबोया, और एक लंबा निश्वास लेकर कहा, "अब की बार शादी का माहौल है, बेटा। अब आर्या हमारी ज़िम्मेदारी है—उसे समझाना, सिखाना भी तुम्हारा फ़र्ज़ है।"
इस बार मयंक ने कुछ नहीं कहा, बस सिर झुकाकर नाश्ते की थाली में लगे परांठे का टुकड़ा तोड़ा। लेकिन दिल की भूख जैसे किसी और स्वाद की तलाश में थी—आर्या की उपस्थिति की।
उसी पल, हवेली के बरामदे से किसी के पायल की हल्की-सी छनक सुनाई दी।
सबकी नज़रें उस ओर गईं, लेकिन यह आर्या नहीं, हवेली की एक नौकरानी थी।
आर्या तेज़ कदमों से कमरे की हवेली की चमचमाती दीवारों के बीच बनी लंबी और ख़ामोश कॉरिडोर से गुज़र रही थी। बाहर सूरज धीरे-धीरे ढलने लगा था, लेकिन उसके भीतर की उलझनें और भी गहराती जा रही थीं। उसका मन मानो उस रात की गहराई में अटका पड़ा था—वह रात जो एक अजीब मोड़ लेकर उसके जीवन को बदल चुकी थी।
"मेरी ही गलती है..." उसने होंठ भींचते हुए बुदबुदाया, "मुझे स्विमिंग पूल के पास जाना ही नहीं चाहिए था।"
कॉरिडोर की टाइल्स पर उसके जूते की आवाज़ बार-बार गूंज रही थी। हर कदम के साथ उसका मन एक नई दिशा में बहकता—एक पल खुद को कोसती, अगले ही पल सम्राट के चेहरे की छवि उसके ज़ेहन में कौंध जाती।
"मैं वहाँ ना जाती तो... ना पूल में गिरती... और ना ही सम्राट को मुझे बचाने के लिए पानी में कूदना पड़ता।"
उसकी आँखें हल्की सी नमी से भर आईं, लेकिन उसने उन्हें जोर से झपका दिया। उसके भीतर की आत्मा जैसे अपनी ही चीख़ सुन रही थी—एक ऐसी चीख़ जिसे दुनिया नहीं सुन सकती थी।
लेकिन फिर...
जैसे ही वह कॉरिडोर के एक मोड़ पर पहुँची, उसके कदम खुद-ब-खुद धीमे हो गए। दीवारों पर लगी पुरानी पेंटिंग्स उसकी नज़र से होकर उसके ज़ेहन तक उतर गईं—एक पेंटिंग जिसमें एक राजा अपनी रानी को बचाते हुए नदी में छलांग लगाता है। उसके भीतर हलचल हुई।
"तो क्या... ये सब सम्राट की गलती है?" उसके मन ने प्रश्न उछाला।
"नहीं, ऐसा तो किसी के भी साथ हो सकता था। कोई भी मुझे बचाने के लिए कूदता... पर..." उसका दिल धड़क उठा, "पर क्या कोई और... उस क्षण... मुझे वैसे चूमता जैसे सम्राट ने...?"
उसके गाल अचानक तपने लगे। कॉरिडोर में कोई नहीं था, फिर भी उसने इधर-उधर देखा, मानो उसकी सोच पकड़ी जा सकती हो।
"क्या हर किसी को बचाकर... कोई इस तरह किस करता है?"
उसका मन उसे खुद ही से डराने लगा। और इसी डर में उसका शरीर अनजाने में काँप उठा। वह चलती रही, पर अब उसकी चाल में एक उलझन थी—पाँव भारी थे, और दिल में सवालों की एक रेलगाड़ी दौड़ रही थी।
कॉरिडोर के अंत में एक झरोखा था, जहाँ से सूरज की पीली रोशनी अंदर झाँक रही थी। आर्या वहीं रुक गई। उसने दोनों हथेलियाँ बालकनी की पत्थर की रेलिंग पर रख दीं और गहरी साँस ली।
हवा में महल की पुरानी दीवारों की खुशबू थी—एक ऐसी खुशबू जिसमें इतिहास छुपा हो, और शायद अब उसका अपना कोई अधूरा किस्सा भी।
"सम्राट ने मुझे क्यों चूमा?" उसके होंठ फड़फड़ाए।
उसने खुद को समझाने की कोशिश की—"वह बस एक इमोशनल मोमेंट था, मुझे होश नहीं था... शायद वह घबरा गए होंगे... शायद..."
लेकिन मन ने फिर टोका—"क्या डर में कोई इस तरह होंठों पर छूता है?"
एक झटका-सा दिल में हुआ। आर्या पीछे मुड़ी, फिर कुछ कदम लौटकर वहीं दीवार से टिक गई। कॉरिडोर के दीपक एक-एक कर जलने लगे थे। उनका पीला उजाला उसके चेहरे पर अजीब-सी छाया डाल रहा था।
वह दीवार से सिर टिका कर खड़ी हो गई। उसकी उंगलियाँ अब भी काँप रही थीं।
"उस पल कुछ और था... कुछ ऐसा जो शब्दों से परे था..."
आर्या ने अपनी आँखें बंद कर लीं। सम्राट की भीगी पलकों की तस्वीर उसकी बंद आँखों में फिर से उभर आई—जब उन्होंने उसे पानी से खींचकर अपनी बाँहों में लिया था, जब उसकी साँसे नहीं चल रही थीं... और जब...
उनके होंठ उसके होंठों से टकरा गए थे।
"क्या उन्होंने जानबूझकर किया?" आर्या का गला भर आया। "या... क्या उस पल कुछ और भी था, जो उन्होंने भी नहीं समझा?"
वह अब अपने ही सवालों से थकने लगी थी। यह कॉरिडोर सिर्फ़ एक रास्ता नहीं था—यह उसके भीतर चल रही दुविधाओं की यात्रा बन चुका था।
"कहीं मैं ही तो... कुछ महसूस नहीं करने लगी हूँ?" उसकी आँखें भर आईं।
उसने अपने सीने पर हाथ रखा—धड़कन तेज थी, बहुत तेज।
कॉरिडोर में अब कोई आता-जाता नहीं था। महल की वह लंबी दीवारें उसकी गवाही बन चुकी थीं—उसकी उलझनों, उसकी उम्मीदों, और उसके उस एक चुम्बन के बाद उपजे सवालों की।
आर्या ने धीरे-से दीवार को छुआ—उसकी उंगलियाँ ठंडी पत्थर को महसूस कर रही थीं, और उसकी आत्मा एक ऐसे उत्तर की तलाश में थी, जो शायद सम्राट की आँखों में कहीं छुपा था।
"मुझे अब उससे नज़रें मिलाने का साहस नहीं है..." उसने धीरे-से कहा।
पर मन ने फुसफुसा कर जवाब दिया—"शायद अब नज़रें मिलाने का ही समय है।"
आर्या हल्के कदमों से सीढ़ियाँ उतरती हुई डायनिंग रूम की ओर बढ़ रही थी। हर कदम के साथ उसके मन में हल्की सी घबराहट थी। उसके चेहरे पर कोई ख़ास भाव नहीं था, लेकिन भीतर जैसे तूफ़ान चल रहा था। जैसे ही वह दरवाज़े के पास पहुँची, उसने धीमे से गर्दन घुमाकर नाश्ते की टेबल पर एक उड़ती हुई नज़र डाली।
"देखूँ तो... कहीं सम्राट तो यहाँ नहीं है?"
उसकी नज़रें किसी रडार की तरह टेबल के हर कोने को छूती गईं। कुर्सियों पर बैठे लोग—मयंक, उसकी बुआ, चाची, और कज़िन्स—सब अपने-अपने भोजन में व्यस्त थे, लेकिन सम्राट नहीं था।
आर्या ने भीतर ही भीतर राहत की एक लंबी साँस ली।
"शुक्र है," उसने मन ही मन कहा।
"वह यहाँ नहीं है। मैं उससे नज़रें नहीं मिला पाऊँगी... बहुत अजीब इंसान है... और अजीब तरह से देखता है।"
वह अपनी ही सोच में उलझी हुई थी, उसके होठों पर एक घबराया हुआ सा मुस्कान था और आँखें कहीं दूर खोई हुई थीं।
"उफ़्फ़... और वह रात... उस स्विमिंग पूल वाला पल..."
उसका चेहरा हल्के गुलाबी रंग में रंग गया।
"उसने मुझे किस किया था... बिना कुछ कहे... जैसे सब कुछ थम गया हो उस पल में..."
आर्या की उंगलियाँ अनजाने में अपनी गर्दन को छू गईं, जैसे अब भी उस एहसास को महसूस कर रही हों।
उसे खुद पर गुस्सा भी आ रहा था।
"क्यों नहीं कुछ कहा मैंने उस वक़्त? क्यों उस पल को रोक नहीं पाई?"
वह खुद से लड़ती रही। अब भी उसकी धड़कनें अनजानी गति से चल रही थीं।
वह अपने विचारों में इतनी खोई हुई थी कि उसे इस बात का अंदाज़ा ही नहीं हुआ कि मयंक की नज़रें उस पर टिक चुकी हैं।
"आर्या!"
बुआ की आवाज़ गूंजी, और उसके साथ ही पूरे हॉल की नज़रें आर्या की ओर उठ गईं।
आर्या की चाल अचानक रुक गई। वह एक पल को वहीं खड़ी रह गई, डायनिंग टेबल से कुछ कदम दूर, जैसे किसी ने 'पॉज़' बटन दबा दिया हो।
उसने धीरे से अपनी नज़रें सबकी ओर डालीं। और तभी उसे एहसास हुआ कि सबका ध्यान उसके कपड़ों पर था।
एक सफ़ेद स्पेगिटी टॉप, जिसके स्ट्रैप उसके कंधों से खेल रहे थे, और नीले डेनिम शॉर्ट्स, जो उसके घुटनों से ऊपर ख़त्म हो जाते थे।
आर्या की आँखें एक पल के लिए फैल गईं।
"ओ गॉड!"
उसका चेहरा शर्म से लाल हो गया। उसने फ़ौरन अपने टॉप की स्ट्रैप को कंधे पर ठीक किया, और नज़रें झुका लीं।
मयंक की आँखें तो जैसे जम सी गई थीं। उसकी चाची ने धीरे से गला खँखारा, लेकिन किसी ने कुछ कहा नहीं। बस एक लंबा पल था, जो जैसे अजीब सी चुप्पी में बँधा हुआ था।
आर्या ने हिम्मत करके मुस्कुराने की कोशिश की,
"गुड मॉर्निंग,"
उसने धीमे से कहा, और धीरे-धीरे टेबल की ओर बढ़ी।
"अरे आर्या, सुबह-सुबह क्या बात है! लग रहा है गोवा से कोई छुट्टियाँ मना कर लौट आया हो!"
बुआ ने मज़ाक में कहा, लेकिन उसमें हल्की चुभन छिपी थी।
"ओह... नहीं बुआ, बस नाइट क्लोथ्स ही पहन लिए जल्दी में..."
उसने झूठ बोला और चेहरा दूसरी ओर मोड़ लिया।
जैसे ही वह कुर्सी पर बैठने लगी, दरवाज़े से धीमे कदमों की आवाज़ आई। एक ठंडी हवा की लहर कमरे में घुल गई।
वह आ गया था।
सम्राट।
गहरे नीले ट्रैक पैंट्स और काले वेस्ट में, जैसे सीधे किसी रनवे से उतरा हो। उसकी आँखें थकी हुई थीं, पर उनमें वही तेज़ था जो आर्या को हर बार अंदर तक हिला देता था।
आर्या की नज़रें अनायास ही उठ गईं, और दोनों की आँखें टकरा गईं।
एक पल के लिए समय फिर से थम गया।
सम्राट की आँखों में हल्की सी मुस्कान थी, जो उसके होंठों तक नहीं पहुँची थी। वह बस आर्या को देखता रहा... उसी तरह... उसी गहराई से... जैसे कोई उस किताब को फिर से पढ़ रहा हो जिसे उसने खुद लिखा हो।
आर्या का दिल फिर से तेज़ी से धड़कने लगा।
"नहीं... नहीं देखना मुझे उसकी ओर। वह रात... वह किस... ओ गॉड!"
उसने जल्दी से अपनी नज़रें नीचे कर लीं, लेकिन सम्राट की नज़रें अभी भी वहीं अटकी थीं।
"गुड मॉर्निंग, सबको।"
उसकी आवाज़ गूंजती हुई सी आई, और आर्या के कानों में जैसे कोई म्यूज़िक बजने लगा हो।
"लेट हो गया क्या सम्राट?" मयंक ने पूछा।
"थोड़ा... नींद अच्छी आ रही थी,"
उसने जवाब दिया, लेकिन उसकी आँखें अब भी आर्या पर टिकी थीं।
वह धीरे-धीरे चला, और आर्या के पास वाली कुर्सी खींच कर बैठ गया।
आर्या को महसूस हो रहा था जैसे उसकी साँसें तेज़ हो गई हों। उसकी उंगलियाँ काँप रही थीं। उसने जूस का गिलास उठाया, लेकिन होठों तक ले जाने से पहले ही उसने महसूस किया—सम्राट अब भी उसे देख रहा था।
"रात अच्छी थी, है ना?"
सम्राट ने धीरे से फुसफुसाया, सिर्फ़ इतना कि पास बैठे आर्या ही सुन पाए।
आर्या ने चौंक कर उसकी तरफ़ देखा। उसकी आँखें फैलीं, होंठ खुले के खुले रह गए।
सम्राट की मुस्कान अब होठों तक आ गई थी।
"यू लुक प्रिटी इन वाइट..."
उसने कहा और धीरे से ब्रेड का टुकड़ा तोड़ने लगा।
आर्या का चेहरा गरम हो गया। वह बिना कुछ कहे उठी, प्लेट में थोड़ा सा टोस्ट रखा, पीछे से सम्राट की निगाहें अब भी उसका पीछा कर रही थीं।
और आर्या के दिल में एक ही बात गूंज रही थी—
"ये इंसान... मेरी ज़िन्दगी को जैसे किसी और ही दुनिया में ले जा रहा है..."
आर्या उसकी साँसें भारी हो रही थीं। हर कदम जैसे सम्राट की निगाहों की आँच में तप रहा था। उसके गालों पर गर्मी थी, और दिल जैसे एक अजीब सी बेचैनी में बँधा हुआ था। पीछे से एक सख़्त, तीखी आवाज़ ने उसे रोक लिया।
"आर्या!"
यह मयंक की माँ थीं, तेज नज़रों वाली।
आर्या ने धीरे से देखा। उनकी आँखों में सवाल थे, और चेहरे पर वह मासूमियत, जो उसे नज़रें झुकाने पर मजबूर कर रही थी।
"हमारे घर की बहू ऐसे कपड़े पहनेगी?" मयंक की माँ का स्वर मीठा नहीं था, उसमें ताने की तलवार थी।
आर्या ने कुछ कहने के लिए होंठ खोले, लेकिन शब्द जैसे गले में ही अटक गए।
"शादी से पहले ही अगर ये हाल है... तो न जाने शादी के बाद क्या-क्या देखना पड़ेगा हमें!" उन्होंने कुर्सी से उठते हुए कहा, मानो एक जज अपना फ़ैसला सुना रहा हो।
सारा डायनिंग हॉल सन्न था। सम्राट अब भी कुर्सी पर बैठा था, लेकिन उसकी नज़रें अब अपनी माँ पर थीं—गहरी, शांत, पर अडोल।
मयंक के पिता, जो अब तक चुपचाप अखबार पढ़ने का नाटक कर रहे थे, आख़िरकार सामने आए।
"मयंक के पिता, ज़रा सोच कर बोलो। लड़की नई है, अपने घर के माहौल में पली-बढ़ी है। और फिर, अभी तो आर्या और मयंक की सगाई हुई है।"
"तो क्या तभी उसे हर चीज़ की छूट है?" मयंक की माँ की आवाज़ ऊँची होने लगी थी। "हमारे घर की बहू बनने का मतलब है—परंपरा, संस्कार और गरिमा। ये क्या है? टॉप और शॉर्ट्स में हमारी बहू टेबल पर बैठेगी? रिश्तेदार आएँगे तो क्या कहेंगे?"
"रिश्तेदारों की सोच से ज़्यादा ज़रूरी है लड़की का मन।" मयंक के पिता ने पहली बार थोड़ा सख़्त होकर कहा। "आर्या का पहनावा भले तुम्हें अजीब लगे, लेकिन क्या तुमने उसकी आँखों में कभी झाँक कर देखा है? वह डरती है, घबराती है... और शायद अभी अपनापन ढूँढ़ रही है।"
मयंक की माँ की आँखों में कठोरता थी। "मुझे उसकी मासूमियत से कोई दिक्कत नहीं है, लेकिन ऐसे कपड़ों को देखकर मुझे डर लगता है। कल को मयंक से कहेगी कि मुझे फ़्रीडम चाहिए। और फिर क्या—पार्टी, ड्रिंक्स, दोस्तों की भीड़?"
"तुमने कुछ ज़्यादा ही सोच लिया है," मयंक के पिता ने कहा, "आर्या कोई गैर-जिम्मेदार लड़की नहीं लगती मुझे। हाँ, आज उसने जो पहना है, वह तुम्हारे हिसाब से अनुचित हो सकता है, लेकिन हम उसे पहले अपनापन तो दें... फिर अपनी बातें समझाएँ।"
"मुझे किसी को समझाने का शौक नहीं है," मयंक की माँ तीखे स्वर में बोलीं। "जो इस घर में आए, उसे घर के नियम अपनाने होंगे। नहीं तो दरवाज़े खुले हैं..."
उनकी बात अधूरी ही थी, लेकिन उसमें धमकी का पूरा असर था।
बालकनी की ओर जाती आर्या का पैर रुक गया था। वह सब कुछ सुन चुकी थी। उसकी पीठ सख़्त हो गई थी, और आँखों में हल्की नमी उतर आई थी।
लेकिन सम्राट ने अब कुर्सी से उठकर एक गहरी साँस ली और सीधे मयंक की माँ के सामने जाकर खड़ा हो गया।
"मिसेज़ शिखावत," उसका स्वर संयमित था, पर उसकी आँखों में कोई झिझक नहीं थी, "आपको अगर आर्या के कपड़ों से इतनी परेशानी है, तो फिर आप उसके जज़्बातों को देखकर थोड़ी सहनशीलता क्यों नहीं दिखा सकतीं?"
"तुम बीच में मत बोलो सम्राट," मयंक की माँ ने घूरते हुए कहा, "यह मयंक और आर्या के बीच की बात है, और मैं उसकी माँ हूँ।"
"तो फिर मयंक को बोलने दीजिए," सम्राट ने ठंडी पर सधी आवाज़ में कहा।
मयंक कुछ कहने ही वाला था, लेकिन शायद साहस नहीं जुटा पाया। उसका चेहरा झुका हुआ था, और उसके हाथ चुपचाप कॉफ़ी का कप थामे हुए थे।
मयंक की माँ ने गुस्से से देखा, फिर एक बार फिर आर्या की ओर देखा जो अब तक बालकनी के दरवाज़े पर खड़ी थी।
"मैंने जो कहा, वह साफ़ है। अब फ़ैसला आर्या को करना है—वह इस घर के संस्कार अपनाना चाहती है या नहीं।"
उनकी आँखें सीधी आर्या पर टिक गईं।
आर्या कुछ पलों तक शांत रही। फिर धीरे-धीरे उसने कदम आगे बढ़ाए और डायनिंग टेबल के पास आकर खड़ी हो गई। उसकी आवाज़ धीमी थी, पर स्पष्ट।
"माफ़ कीजिए मामीजी... मैंने जानबूझकर ऐसा कुछ नहीं पहना जो आपको ठेस पहुँचाए। लेकिन अगर कपड़े मेरे चरित्र का पैमाना बन जाएँ, तो शायद मुझे फिर से सोचना पड़ेगा कि मैं इस घर का हिस्सा बनना भी चाहती हूँ या नहीं।"
सब चुप थे। सम्राट की आँखों में हल्की सी चमक थी। मयंक के पिता जी ने सिर हल्का सा हिलाया।
मयंक की माँ एक पल को सन्न रह गईं। शायद उन्हें उम्मीद नहीं थी कि आर्या कुछ कहेगी।
फिर वह मुड़ी, बालकनी की ओर चली गई—तेज़ कदमों से नहीं, लेकिन पूरी गरिमा और आत्मविश्वास के साथ।
और सम्राट अब भी मुस्कुरा रहा था... जैसे उसने पहली बार आर्या को सच में जाना हो।
बाहर गार्डन की घास अभी भी सुबह की ओस से भीगी हुई थी। सूरज की हल्की किरणें फूलों पर पड़ रही थीं, लेकिन वातावरण में एक तरह की असहज चुप्पी तैर रही थी। मयंक की माँ लोहे की कुर्सी पर बैठी थीं—बिलकुल सीधे तन से, जैसे उनके भीतर कुछ अभी-अभी टूटा हो और वह उसे संभाल रही हों।
पास ही उनकी देवरानी और ननद बैठी थीं, दोनों ने चाय के कप हाथ में लिए, पर निगाहें मयंक की माँ के चेहरे पर थीं।
"दीदी, थोड़ा रिलैक्स करो," देवरानी ने हल्के स्वर में कहा, "आर्या बच्ची है, और नई जगह है उसके लिए। तुम यूँ नाराज़ रहोगी तो वह डर जाएगी।"
ननद ने भी सिर हिलाया, "और वह कुछ गलत नहीं कर रही थी... वह बस बालकनी की ओर जा रही थी, शायद सुबह की हवा लेने। कपड़े... हाँ, थोड़े मॉडर्न थे, लेकिन ज़माना भी तो बदल गया है ना भाभी?"
मयंक की माँ ने चाय का कप टेबल पर रखा, लेकिन उसकी उँगलियाँ कप के हैंडल पर ऐसे ठहरी थीं जैसे कुछ कहना चाह रही हों।
"तुम दोनों नहीं समझोगी," उन्होंने धीमे पर कठोर स्वर में कहा। "मैंने घर कैसे चलाया है... कैसे हर रिश्तेदार की नज़रों में गरिमा बनाई है, तुम्हें क्या पता।"
"गरिमा कपड़ों से नहीं, बर्ताव से आती है दीदी," देवरानी ने धीरे से कहा।
"तुम यह मत सिखाओ मुझे," मयंक की माँ की आवाज़ में अब एक पुराना दर्द छलक आया। "जब मैं ब्याह कर इस घर में आई थी, तब मेरे पास खुद के लिए कुछ नहीं था—ना ढंग के कपड़े, ना अपने मन की कोई बात। बस सास के आदेश और समाज की आँखें। मैंने सीखा कि बहू को कैसे रहना चाहिए। मैंने अपनी इच्छाएँ कुचलीं, हर दिन खुद को तोड़ा... ताकि इस घर की छवि बनी रहे।"
"लेकिन क्या वही इतिहास आर्या को दोहराना चाहिए?" देवरानी ने नर्म आवाज़ में पूछा।
"वह इतिहास ही तो इस घर की नींव है!" मयंक की माँ ने तेज़ी से कहा। "आज अगर मैंने छूट दी, तो कल मेरी हर बात को चुनौती मिलेगी। क्या तुम्हें लगता है आर्या जैसी लड़कियाँ वक़्त के साथ झुकती हैं? नहीं। वह तुम्हारी सहनशीलता को कमज़ोरी समझती हैं। आज शॉर्ट्स में घूमेगी, कल कहेगी—'मामीजी, मैं देर रात पार्टी से लौटूँगी, चिंता मत कीजिए'। और फिर?"
देवरानी अब थोड़ा गंभीर हो गई थी। "पर क्या कभी आपने सोचा कि डराकर जो रिश्ते बनाए जाते हैं, वह कब तक टिकते हैं? मयंक ने कभी किसी बात पर तुमसे टकराव नहीं किया क्योंकि उसने तुम्हें समझा है। पर आर्या—वह तुम्हारे उस वक़्त की परछाईं नहीं है। उसके पास बोलने की हिम्मत है। क्या वह हिम्मत तुम्हें डराती है?"
मयंक की माँ की आँखों में कुछ काँप गया। शायद वह सवाल उसकी सोच से भी ज़्यादा भीतर तक चला गया था।
"मुझे डर नहीं लगता उससे..." उन्होंने धीरे से कहा, "मुझे डर है अपने बेटे के खोने का। मयंक, जो अब तक घर के हर नियम का पालन करता था, अब आर्या की बातों में आकर बदलने लगा है। और अगर आर्या इस घर में आई, मयंक की सोच और मेरी पकड़... सब छूट जाएँगे।"
ननद ने अपना कप मेज़ पर रखा और मयंक की माँ का हाथ थाम लिया।
"भाभी, किसी को रोकने से वह तुम्हारा नहीं रहता... किसी को अपनाने से वह हमेशा तुम्हारा हो जाता है। शायद आर्या की हिम्मत तुम्हें असुरक्षित कर रही है, लेकिन वही हिम्मत अगर मयंक के जीवन में रोशनी लाए, तो क्या बुरा है?"
देवरानी ने एक गहरी साँस ली, "और तुमने देखा न, उसने जवाब दिया, पर तमीज़ के साथ। उसकी आँखों में कोई विद्रोह नहीं था, बस आत्म-सम्मान था। क्या वह गलत है?"
मयंक की माँ अब शांत थीं। उनकी नज़र सामने लगे गुलाब के पौधे पर थी, जिसकी एक कली आधी खिली हुई थी—जैसे आर्या की तरह, जो इस नए माहौल में अपने अस्तित्व को समझने की कोशिश कर रही थी।
कुछ देर की चुप्पी के बाद उन्होंने कहा, "अगर वह सच में इस घर की कली बनना चाहती है... तो मैं उसे काटने नहीं, सँवारने की कोशिश करूँगी। लेकिन मुझे वक़्त लगेगा... खुद को बदलने में भी और उसे अपनाने में भी।"
ननद मुस्कुराई। "बस इतना ही तो चाहिए था, भाभी। बदलाव का पहला कदम।"
देवरानी ने हल्के से उनके कंधे पर हाथ रखा, "और जो औरत अपने दर्द को समझती है, वह औरत किसी को दर्द नहीं देती—उससे प्यार करती है।"
गार्डन की हवा अब कुछ हल्की हो गई थी, जैसे पेड़-पौधे भी राहत की साँस ले रहे हों।
और कहीं न कहीं, बालकनी में खड़ी आर्या को भी यह एहसास हो रहा था... कि शायद सूरज की पहली किरण उसके लिए भी थोड़ी गरम और थोड़ी नरम हो चली है।
आर्या अपने कमरे में चुपचाप बैठी हुई थी। खिड़की से बाहर धूप की किरणें झाँक रही थीं, लेकिन कमरे का माहौल अब भी भारी था। वह बिस्तर के एक कोने पर घुटनों को सीने से लगाए बैठी थी, और उसकी आँखों में वे तमाम बातें तैर रही थीं जो उसने कुछ देर पहले डायनिंग हॉल में सुनी थीं। कोई आहट नहीं, कोई आवाज़ नहीं—सिर्फ़ भीतर की ख़ामोशी थी जो उसे कचोट रही थी।
तभी दरवाज़ा खटका। दो बार हल्की दस्तक हुई और फिर मयंक अंदर आया।
"आर्या..." उसका स्वर धीमा था, लगभग संकोच से भरा।
आर्या ने उसकी ओर नहीं देखा। वह अब भी अपने घुटनों में सिर छुपाए बैठी रही।
मयंक ने दरवाज़ा बंद किया और धीरे-धीरे पास आया। "मैं जानता हूँ... जो कुछ भी हुआ, वह सही नहीं था। मम्मी कभी-कभी कुछ ज़्यादा कह देती हैं... पर उनका मतलब बुरा नहीं होता।"
आर्या ने सिर उठाया, उसकी आँखें अब भी थोड़ी भीगी हुई थीं। "मतलब बुरा नहीं होता, लेकिन असर तो बुरा होता है, मयंक। उन्होंने मुझे कपड़ों से आँक लिया... जैसे मैं कोई किरदार नहीं, बस एक लिबास हूँ।"
मयंक ने बगल में बैठते हुए गहरी साँस ली। "वह थोड़ी ओल्ड-स्कूल हैं, यार। पर उन्हें धीरे-धीरे समझाया जा सकता है। तुम इतनी अच्छी हो... तुम्हें देखकर वह भी बदलेगी एक दिन।"
आर्या ने थोड़ी कटाक्ष भरी मुस्कान दी। "क्या तुम्हें लगता है, मैं बदल जाऊँगी किसी की उम्मीदों के मुताबिक? या फिर हर बार मुझे साबित करना होगा कि
"अगर आपको मेरी यह नॉवेल पसंद आई हो, तो एक छोटी-सी विनती है... ❤️"
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हवेली की शाम और साँसे
उसे नहीं पता था कि कोई उसकी उस मुस्कान और अकेलेपन को कुछ पल से महसूस कर रहा था—बेहद क़रीब से।
अचानक, उसकी गर्दन के पास गरम साँसों की गर्मी महसूस हुई। आर्या की साँसे एक पल के लिए थम गईं।
"कैसी हो... मेरी जान?"
ये वही आवाज़ थी... वही गहराई, वही ठहराव... सम्राट।
आर्या ने चौंक कर देखा—वह एकदम उसके पास खड़ा था, इतना पास कि उसकी साँसे उसके कान को छू रही थीं। सम्राट के होठ उसके कान के इतने क़रीब थे कि उसकी गरम साँसें जैसे उसकी रूह तक उतर गईं।
"सम्राट..." वह बस इतना ही कह सकी, उसकी आवाज़ जैसे उसकी खुद की धड़कनों में ही खो गई।
उसका हाथ हवा में हल्के से उठा, जैसे कुछ कहे, लेकिन तभी सम्राट का हाथ उसके हाथ से टकरा गया। उस टकराहट में न तो आकस्मिकता थी, न ही जल्दबाज़ी—बल्कि एक स्थिर एहसास था, जैसे बरसों से यही पल दोनों की प्रतीक्षा कर रहा हो।
"तुम यहाँ अकेली क्यों खड़ी हो?" सम्राट की आवाज़ अब और भी नज़दीक थी, उसके लहजे में हल्की मुस्कान की लहर थी, मगर आँखों में गहराई थी।
आर्या ने शाल को ठीक करने की कोशिश की, मगर उसके हाथ काँप रहे थे। "बस... यूँ ही। सबको खेलते हुए देखना अच्छा लग रहा था।"
"या यूँ कहो कि तुम खुद को दूर रख रही हो, ताकि किसी की नज़र न पड़े उस दर्द पर जो तुमने इतने सलीके से छुपा रखा है।"
आर्या ने उसकी तरफ़ देखा—वह वही सम्राट था, जो कम बोलता था, पर जब बोलता था तो रूह तक उतर जाता था।
"क्या तुम सब जान लेते हो?" उसने धीमे से पूछा, उसकी आँखों में सवाल नहीं, एक भरोसा था।
सम्राट ने उसके कंधे के पास से झुककर, उसके कान के और भी क़रीब आकर कहा, "तुम्हारी खामोशियाँ मुझसे ज़्यादा बोलती हैं, आर्या।"
आर्या की रूह काँप गई, उसके होंठ थोड़े से खुले रह गए। ये सिर्फ़ शब्द नहीं थे, ये वह कंपन था जो आत्मा के दरवाज़े खोल देता है।
बाग़ के पीछे से ठंडी हवा का झोंका आया, गुलाब की कुछ पंखुड़ियाँ हवा में उड़कर दोनों के बीच आकर गिर गईं। और फिर कुछ पल... बस मौन था।
"तुमने कभी खुद को मेरे साथ देखने की कोशिश की है?" सम्राट ने धीरे से पूछा, उसकी उंगलियाँ अब आर्या की हथेली के क़रीब आकर थम गई थीं।
"नहीं," आर्या ने कहा, उसकी आँखों में हल्की नमी थी। "मैंने सिर्फ़ खोया है, पाया कुछ नहीं।"
"तुम्हें अभी तक पता ही नहीं कि तुम किसकी सबसे बड़ी जीत हो," सम्राट ने उसकी ओर झुकते हुए कहा, और उसकी साँस फिर से आर्या की गर्दन से टकराई। इस बार आर्या ने नज़रें नहीं चुराईं। उसकी आँखें अब सम्राट की आँखों में झाँक रही थीं—गहरी, स्थिर, और सच्ची।
"सम्राट..." उसकी आवाज़ में कंपकंपाहट थी, लेकिन वह डर नहीं था, वह भरोसे की दहलीज़ थी।
"हाँ..." सम्राट ने उसके हाथ को हल्के से पकड़ लिया। "अगर यह सपना है, तो मुझे मत जगाना।"
सम्राट ने मुस्कुराते हुए उसकी उंगलियों को अपनी हथेलियों में ले लिया। "यह वह हक़ीक़त है जिसे हम दोनों ने अपने-अपने अकेलेपन में सालों से जिया है। अब वक़्त है कि उसे एक साथ जियें।"
दूर कहीं बच्चे अब भी हँस रहे थे, खेल चल रहा था, मगर उस गुलाबों की झाड़ी के पास एक अलग ही कहानी जन्म ले चुकी थी—मौन में, साँसों में, और एक स्पर्श में।
बेआवाज़ इज़हार
आर्या ने झटका देकर अपना हाथ सम्राट की पकड़ से छुड़ा लिया। उसकी आँखों में नाराज़गी थी, पर कहीं गहराई में घबराहट भी।
"आप कुछ ज़्यादा ही सोचने लगे हैं," आर्या ने हल्के तेज़ स्वर में कहा। "मैं अपनी ज़िंदगी में बहुत खुश हूँ, मुझे किसी की ज़रूरत नहीं।"
उसके लहजे में आत्मविश्वास था, लेकिन सम्राट ने उसकी आँखों में छुपा डर पढ़ लिया।
"ऐसा नहीं है, आर्या," उसने गहराई से कहा, "तुम्हारे दिल में कुछ तो है... और मैं उसे साफ़-साफ़ देख सकता हूँ।"
आर्या का चेहरा पल भर के लिए स्याह पड़ गया। उसने पलट कर पीछे देखा; हवाओं में सरसराहट थी, जैसे कोई गवाह हो।
"कृपया..." उसने धीरे से कहा, "मेरा हाथ मत पकड़ो, कोई देख लेगा।"
पर सम्राट ने उसकी बात अनसुनी कर दी। उसका हाथ फिर से आर्या की हथेली पर था। उसकी उंगलियों की पकड़ न ज़ोरदार थी, न ढीली—एकदम वैसी जैसी कोई अपने टूटते विश्वास को थामे रखे।
"अगर कोई देख भी ले, तो क्या? तुम्हें कुछ नहीं होगा, आर्या।"
"नहीं!" वह झटके से बोल पड़ी, "आपको तो कोई कुछ नहीं कहेगा। आप हैं सम्राट! लेकिन मेरी बदनामी हो जाएगी... मैं..."
वह कसमसाई, लेकिन सम्राट अपनी जगह खड़ा रहा। उसका चेहरा शांत था, पर आँखों में सवालों का सैलाब था।
"क्या तुम मुझसे डरती हो... या अपने आपसे?"
आर्या कुछ कहने ही वाली थी कि तभी पीछे से मंयल पलटता हुआ दिखा। उसकी नज़रें सम्राट और आर्या के जुड़े हाथों पर जा टिकीं। उसकी भौंहें सिकुड़ीं और चेहरा जिज्ञासा से भर गया।
आर्या ने पलटकर देखा—मंयल... और फिर उसकी धड़कनों ने पल भर के लिए कसमसा कर साँस लेना छोड़ दिया। उसकी साँसें उलझ गईं, जैसे कोई गलती रंगे हाथों पकड़ी गई हो।
"अब क्या होगा..." आर्या के चेहरे पर पसीना था।
मंयल अब भी दूर खड़ा था, पर उसकी नज़रें सवाल बनकर तीर की तरह चुभ रही थीं।
उसी समय, जैसे ही आर्या अपने डर को शब्दों में बदलने लगी, किसी ने उनका ध्यान भटका दिया।
"यह सब क्या है?" आवाज़ मंयक की थी, जो अचानक पास आ चुका था। उसकी आँखें सम्राट और आर्या के बीच की नज़दीकी पर थमी थीं।
आर्या घबरा कर कुछ कहने ही वाली थी कि सम्राट ने बिना पलक झपकाए झूठ को ओढ़ लिया,
"देखो ना, आर्या के हाथ में चोट लग गई थी... मैंने अभी देखा, बस उसी की चिंता कर रहा था।"
आर्या अवाक् रह गई। यह कैसा बचाव था? कितना सहज और कितना साफ़ झूठ!
"अरे!" मंयक ने सचमुच आर्या की हथेली की ओर देखा, "यह कब हुआ?"
सम्राट ने हल्की सी मुस्कान में अपने झूठ को पुख़्ता बना दिया। उसकी आँखें अब भी आर्या पर टिकी थीं।
आर्या ने धीरे से हाथ पीछे खींच लिया। उसका चेहरा अब हैरानी से भरा था।
उसने मन ही मन कहा—कितना चालाक आदमी है! अभी क्या बोल रहा था... और अब देखो, कैसे एक पल में कहानी ही बदल दी।
पर सच यही था कि सम्राट का झूठ उसके लिए ढाल बन गया था।
मंयक अब तक बेपरवाह ढंग से मुस्कुरा रहा था,
"आर्या, थोड़ा ध्यान रखा करो, चोट लग जाए और तुम कुछ बताओ भी नहीं।"
आर्या ने हल्का-सा सिर हिलाया। उसकी आँखें अब सम्राट की ओर नहीं देख रही थीं, लेकिन उसकी पलकों में वही झलक थी—उलझन और कुछ ना कह पाने की कशिश।
आर्या धीरे-धीरे चल दी, उसकी चाल में थकावट थी और दिल में एक अनकहा इज़हार।
पीछे खड़े सम्राट ने उसकी जाती हुई परछाईं को देखा और मन ही मन कुछ तय कर लिया।
"आर्या... मैं तुम्हारे नज़दीक आना नहीं चाहता हूँ..."
शब्द कहे नहीं गए, लेकिन आँखों में लिख दिए गए थे।
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माँ की गोद और सच्चाई की थकान
कमरे में हल्की सी गर्मी थी। खिड़की से धूप का एक टुकड़ा पर्दे के किनारे से झांकता हुआ फर्श पर पसरा था। लेकिन आज उसका चेहरा थका हुआ, कुछ बुझा-बुझा सा था।
आर्या की माँ धीरे से कमरे में दाखिल हुईं। उनके हाथ में हल्दी और नारियल तेल की छोटी सी कटोरी थी। वे बिस्तर के पास बैठीं और आर्या के हाथ को अपने पास खींच लिया।
"बेटा, अपना ख्याल रखा करो," उन्होंने चिंता से कहा, "ये कब लगी? ताज़ा लग रही है, लगता है कल ही की चोट है।"
आर्या ने नजरें चुराते हुए धीमे से कहा,
"पता नहीं माँ... कब लगी..."
एक अधूरी सी मुस्कान उसके होठों पर आई और तुरंत ही गायब भी हो गई।
असल में आर्या को मालूम था—चोट कब लगी थी। वह कल शाम स्विमिंग पूल में स्लिप होकर गिर गई थी, लेकिन उसने किसी को बताया नहीं। न ही वह दर्द उसे तकलीफ दे रहा था, और न ही वह चोट। जो तकलीफ दे रही थी, वह कुछ और था। कुछ ऐसा, जो उसके अंदर धीरे-धीरे जमा हो रहा था।
माँ ने उसका चेहरा गौर से देखा। उसके गाल पर हल्की सी थकान की परछाईं थी। उन्होंने प्यार से आर्या के गाल पर हाथ फेरा।
"बेटा, तुम बहुत परेशान लग रही हो। क्या बात है? कुछ कहना चाहती हो?"
एक लंबा मौन कमरे में भर गया। पंखा घूमता रहा, खिड़की की सलाखों से हल्की सी हवा अंदर आती रही, लेकिन आर्या चुप रही। दो मिनट बीत गए, फिर उसने गहरी साँस ली और धीमे स्वर में कहा—
"मम्मी, ज़्यादा कुछ तो नहीं... लेकिन... मयंक की मम्मी... आप जैसी क्यों नहीं हैं?"
माँ ने चौंक कर उसकी तरफ देखा, लेकिन उनकी आँखों में कोई नाराज़गी नहीं थी—सिर्फ़ समझदारी और अपनापन।
"बेटा," उन्होंने मुस्कुरा कर कहा, "सब एक जैसे नहीं होते। तुम्हारी दादी अगर आज ज़िंदा होतीं, तो मयंक की मम्मी उनके सामने कुछ भी नहीं लगतीं। वे उसूल की पक्की थीं, गलती से भी अगर कुछ गलत हो जाए तो ऐसा लगता था जैसे क़यामत आ गई हो।"
आर्या ने चौंककर पूछा,
"सच मम्मी?"
"हाँ बेटा," माँ ने उसकी हथेली पर धीरे से हल्दी लगाते हुए कहा, "मुझे आज भी याद है, एक बार मैंने बिना पूछे उनकी चप्पल पहन ली थी। बस वही बात थी, और उन्होंने तीन दिन मुझसे बात नहीं की। तब मैं भी रोती थी, सोचती थी कि काश मेरी सास कोई और होती। लेकिन आज समझ में आता है कि हर रिश्ता वक्त लेता है। उसमें भी एक किस्म की सीख छुपी होती है।"
आर्या ने माँ के कंधे पर सिर रख दिया।
"पर मम्मी, जब वे हर बात में टोकती हैं, जब मुझे ये महसूस होता है कि मैं कभी उनके लायक नहीं बन पाऊँगी... तब बहुत अकेला महसूस होता है।"
माँ ने उसका सिर सहलाया।
"तुम अकेली नहीं हो आर्या। हर लड़की जो एक नए घर जाती है, उसे ये लगता है। तुम्हारी मम्मी ने भी कभी यही सब सहा है। लेकिन आज मैं खुश हूँ कि तुम मुझसे ये कह पा रही हो। यही तो सबसे बड़ी बात है, कि तुम अपने मन की बात कह सको, बिना डरे।"
आर्या की आँखें थोड़ी नम हो गईं।
"कभी-कभी लगता है कि मैं ही गलत हूँ, या फिर... शायद मैं किसी के लायक नहीं।"
माँ ने उसे सीने से लगा लिया।
"बिलकुल भी नहीं। तुम जैसी हो, वैसी ही बहुत कीमती हो। कोई रिश्ता परफेक्ट नहीं होता, पर कोशिश और समझदारी से उसे बेहतर ज़रूर बनाया जा सकता है।"
आर्या ने माँ की गोद में चुपचाप सिर रखा और आँखें बंद कर लीं। माँ की हथेलियाँ जैसे हर चोट, हर थकावट को सोख लेती थीं। कमरे में एक सुकून का अहसास फैल गया था।
माँ ने फिर कहा, "अभी बहुत सोचने की ज़रूरत नहीं है, बेटा। जब मन भारी लगे, तो खुद को समय दो। और याद रखो, तुम अकेली नहीं हो। मैं हमेशा तुम्हारे साथ हूँ।"
उस शाम, आर्या ने पहली बार अपनी उलझनों को बाँट दिया था। यह कोई समाधान नहीं था, लेकिन एक शुरुआत ज़रूर थी। और कई बार, एक शुरुआत ही काफी होती है… healing के रास्ते पर पहला कदम रखने के लिए।
खिड़की के पार...
शाम का झुटपुटा आसमान कमरे में हल्की नीली और नारंगी रौशनी बिखेर रहा था। सम्राट अपने कमरे की बड़ी खिड़की के सामने खड़ा था, दोनों हाथ पीछे बाँधकर। बाहर फैला नज़ारा—एक शांत झील, उसके पार पहाड़ियों की कतार और झिलमिलाती रौशनी—उसे किसी और ही दुनिया में ले जा रही थी।
दरवाज़ा हल्के से खुला और मयंक अंदर आया, हाथ में कुछ फाइल्स थीं लेकिन चेहरे पर वही पुरानी दोस्ती वाली मुस्कान।
"कुछ खास तो नहीं कर रहे थे?" मयंक ने कहा, थोड़ी चुटकी लेते हुए।
सम्राट ने बिना पलटे, गहरी आवाज़ में जवाब दिया,
"हाँ, बहुत खास काम कर रहा हूँ।"
मयंक ने थोड़ा चौंक कर देखा—सम्राट के सामने बस वह खिड़की थी, और उसके पार वही रोज़ की दुनिया। उसने हँसते हुए कहा,
"लेकिन तुम तो सिर्फ बाहर देख रहे हो!"
सम्राट की आवाज़ थोड़ी रफ हो गई, जैसे कुछ छुपा रहा हो,
"ये खूबसूरत नज़ारे देखना भी मेरे लिए बहुत ज़रूरी काम है।"
मयंक ने सिर हिलाया,
"यार, तुम्हारे लिए हर चीज़ काम या सौदा ही होती है क्या? क्या कुछ नहीं है जिसे तुम किसी और नज़र से देखो... सिर्फ दिल से?"
सम्राट की पलकों ने थरथराहट की। उसकी आँखें धीरे-धीरे बंद हुईं और जैसे ही अँधेरा छाया, एक चेहरा उभर आया—आर्या का। उसका मुस्कुराता चेहरा, उसकी चोटी से झूलती एक लट, उसकी आँखों की मासूम शरारत। सम्राट के चेहरे पर एक पल के लिए ठहराव आया, वह ठहराव जो उसने खुद को बरसों से देने नहीं दिया था।
"है एक चीज़..." सम्राट ने फुसफुसाहट जैसी आवाज़ में कहा।
मयंक तुरंत करीब आया, उसकी आँखों में उत्सुकता छलक रही थी,
"क्या? प्लीज़ कहो ना! ज़रूर मैं भी तो जानूँ, आप जैसे पक्के बिज़नेस मैन के लिए ‘काम’ और ‘सौदे’ के अलावा क्या है?"
सम्राट चुप रहा। उसके होठों पर हल्की मुस्कान आई, लेकिन जवाब उसकी जुबां तक नहीं आया। अगले ही पल, जैसे उसने उस भावना को झटक दिया हो, उसकी आवाज़ फिर से सख्त हो गई।
"लंदन की डील की क्या अपडेट है?" उसने पूछा, जैसे कुछ पल पहले उसने कुछ महसूस ही नहीं किया।
मयंक थोड़ा निराश हुआ, लेकिन वह सम्राट को जानता था। जानता था कि इस आदमी की चुप्पी अक्सर चीखों से भी ज़्यादा बोलती है।
"डील क्लोज हो रही है। लेकिन तुम बताओ, यह अचानक से खिड़की, नज़ारे, और 'बहुत ज़रूरी काम'? कोई तो है जो तुम्हें यह देखने पर मजबूर कर रहा है... कोई जो तुम्हारे बिज़नेस माइंड के नीचे के उस दिल को जगा रहा है?" मयंक ने कहा, अब उसका अंदाज़ थोड़ा नरम था।
सम्राट ने एक गहरी साँस ली और वापस खिड़की की ओर देखने लगा।
"जानते हो मयंक," उसने धीमे स्वर में कहा, "कुछ रिश्ते होते हैं... जो सौदे की तरह शुरू नहीं होते, लेकिन धीरे-धीरे सबसे बड़ा सौदा बन जाते हैं—दिल का। और वह सौदा कभी क्लोज नहीं होता... अधूरा रह जाता है... हमेशा।"
सम्राट ने खिड़की के बाहर देखा, जैसे उसकी याद वहाँ किसी कोने में बैठी हो।
"जहाँ भी है... वह मुस्कुरा रही है। शायद मुझे याद कर रही है... या शायद बिल्कुल भूल चुकी है। लेकिन मैं? मैं उसे हर उस चीज़ में देखता हूँ जिसे लोग बस ‘देखने’ के लिए देखते हैं—रौशनी, बादल, या ये खिड़की से दिखती पहाड़ियाँ।"
“मेले की भीड़ और मन की खामोशी”
हवेली से कुछ ही दूरी पर एक छोटा-सा गाँव था – हरे-भरे खेतों के बीच बसा, मिट्टी की महक से भरा और सादगी में लिपटा हुआ। इन दिनों वहाँ सालाना मेला लगा हुआ था। सजे हुए झूले, रंग-बिरंगे गुब्बारे, मिट्टी के खिलौने, चाट-पकौड़ी की महक और लोकगीतों की गूंज से पूरा गाँव जीवंत हो उठा था। दूर-दूर से लोग आए थे, और यही मेला आज आर्या और मयंक के परिवार के लिए खास बन गया था।
संध्या की रोशनी जब ढलती धूप से छितरती थी, तब मेला और भी रंगीन दिखता था। चूड़ी की दुकानों पर लड़कियाँ भीड़ लगाए खड़ी थीं; कहीं बच्चों के लिए लकड़ी के खिलौनों की दुकानें थीं। गुलाब जामुन और जलेबी की मिठास हवा में तैर रही थी।
आर्या अपनी माँ के साथ एक चाट के ठेले के पास खड़ी थी, हाथ में पापड़ी चाट पकड़े हुए। मयंक पास आया और मुस्कुराकर बोला,
"कैसा लगा, आर्या?"
आर्या ने उसकी ओर देखा; होंठों पर हल्की-सी मुस्कान और आँखों में चमक थी।
"बहुत अच्छा है मेला, मयंक। इतने दिनों बाद कुछ यूँ हल्का महसूस हो रहा है।"
मयंक ने उसकी बात पर सिर हिलाया और अपनी जेब से टॉफी निकालकर एक छोटे बच्चे को, जो वहाँ शरारत कर रहा था, दे दी। तभी आर्या की माँ उनकी ओर बढ़ीं। उन्होंने मयंक को देख मुस्कुरा कर कहा,
"बेटा, सम्राट नहीं आया? तुमने तो कहा था कि सब चलेंगे?"
मयंक ने हँसते हुए जवाब दिया,
"कहा तो था, आंटी। पर वो ज़रा अलग ही किस्म का इंसान है। बोला कि किसी क्लाइंट से फोन पर बात करनी है। कहने को तो छुट्टी है, लेकिन दिमाग उसका वहीं दफ्तर में अटका रहता है।"
आर्या की माँ ने थोड़ी नाराज़गी से कहा,
"अच्छा, तो वो हमेशा यूँ ही रहता है? किसी भी मौके पर खुद को अलग कर लेता है?"
"हाँ आंटी," मयंक ने कंधे उचकाते हुए कहा, "वो वर्कहोलिक है। एकदम सख्त और समय से बंधा हुआ इंसान। छुट्टी में भी फ़ोन, मीटिंग्स, ईमेल… यही सब चलता रहता है। उसके लिए आराम मतलब शायद एक और टास्क लिस्ट।"
पास ही झूले की कतारें लग चुकी थीं; बच्चे हँसते हुए “चक्रव्यूह झूले” की ओर भाग रहे थे। माहौल में उल्लास था, रंग था, जीवन था—पर आर्या के भीतर एक अनकहा विचार उठ रहा था। वह मयंक की बातों को सुनते हुए, सम्राट के उस अलग-थलग स्वभाव के बारे में सोचने लगी।
मन ही मन वह सोचती रही—
"मयंक भी ना… हर बार उसी की बकवास लेकर बैठ जाता है। इतना भी खास नहीं है वो सम्राट। अजीब-सा इंसान है, न बात करता है, थोड़ा रहस्यमय है, लेकिन… शायद बस उतना ही। बेवजह उस पर ध्यान क्यों देना?"
उसके भीतर कोई गहरी परत सरक रही थी। वह जानती थी कि सम्राट हर बार कुछ कहे बिना चला जाता है, लेकिन हर बार उसके ज़िक्र पर उसका मन चुप क्यों हो जाता है? वह उसका नाम सुनते ही खुद को एक दूरी पर क्यों महसूस करती है, और फिर भी एक खिंचाव-सा क्यों महसूस होता है?
मयंक अब गुब्बारों के स्टॉल की तरफ बढ़ गया था, आर्या की छोटी बहन को एक लाल दिल के आकार वाला गुब्बारा दिलाते हुए। आर्या वहीं चुप खड़ी थी; हाथ में पकड़ी पापड़ी अब ठंडी हो चुकी थी।
आर्या की माँ ने उसका हाथ पकड़कर पूछा,
"क्या हुआ? चुप क्यों हो गई?"
"कुछ नहीं मम्मा," वह मुस्कुराई, "बस सोच रही थी कि कितने दिनों बाद हमने यूँ कोई मेला देखा। अच्छा लग रहा है।"
माँ ने उसके सिर पर हाथ फेरा, और कहा,
"हाँ, ज़िंदगी सिर्फ काम से नहीं चलती बेटा। कभी-कभी इस तरह के पल हमें खुद से मिला देते हैं।"
आर्या की आँखें दूर कहीं खो गईं—शायद झूलों से परे, शायद उस आदमी की ओर, जो आज फिर नहीं आया था, लेकिन फिर भी उसका ज़िक्र हर जगह मौजूद था।
शोर के बीच भी आर्या के भीतर एक मौन था। और उस मौन में कहीं सम्राट की अनुपस्थिति से बनी जगह धड़क रही थी।
शोरगुल, हँसी, बच्चों की किलकारियाँ और लोकगीतों की मधुर धुन के बीच आर्या की साँसे धीमी चल रही थीं। उसका दिल तो वहीं ठहर गया था – उस जगह पर जहाँ मयंक ने सम्राट का ज़िक्र किया था, और जहाँ उसका मन फिर एक बार उसी उलझे से व्यक्ति के बारे में सोचने लगा था।
उसकी उंगलियों में अब भी पापड़ी चाट का ठंडा टुकड़ा अटका हुआ था, पर स्वाद का कोई एहसास नहीं बचा था।
भीड़ की चहल-पहल से खुद को अलग करते हुए वह धीरे-धीरे पीछे की दिशा में निकल पड़ी, जहाँ मेले की रोशनी कुछ कम होती थी, और एकांत बढ़ने लगता था। रास्ते में मिट्टी की सोंधी खुशबू हवा में घुली हुई थी, और पैरों के नीचे कुछ-कुछ पत्तियाँ चरमरा रही थीं।
कुछ ही देर में, पुराने बरगद के पीछे एक छोटा-सा शिव मंदिर दिखा—प्राचीन और शांत। उसके पत्थरों पर समय की परतें जमी हुई थीं, लेकिन उसमें एक अलग ही शांति थी। हल्की रोशनी में मंदिर का गुम्बद कुछ-कुछ नीला-सा लग रहा था। वहाँ कोई और नहीं था—सिर्फ मौन, मिट्टी, और वो आर्या, जो अपने भीतर की हलचल से थक चुकी थी।
वह मंदिर की सीढ़ियों पर बैठ गई, कुछ देर अपनी सांसों को समेटने के लिए। पास ही जलता दिया टिमटिमा रहा था। धीमे से उसने आँखें मूँद लीं।
"शिव…" उसके मन ने पुकारा।
आर्या ने मंदिर के भीतर जाकर शिवलिंग के सामने अपना सिर झुका दिया, दोनों हाथ जोड़े और आँखें मूँद लीं। उसकी पलकों के पीछे सम्राट का चेहरा उभर आया—वो चेहरा जो हमेशा गंभीर रहता था, जिसकी आँखों में जैसे कोई भूला हुआ शोर था।
आर्या की साँसें थमी हुई थीं। उसने शिव से कुछ माँगा नहीं, कुछ कहा नहीं—बस वह खड़ी रही, जैसे कोई टूटी हुई बात, जो शब्दों में ढल ही नहीं सकती।
मन ही मन उसने कहा,
"भगवान… मैं नहीं जानती कि मेरे मन में क्या है। मैं तो बस खुद को खोती जा रही हूँ। वो इंसान जो कभी पास नहीं आया, क्यों बार-बार मेरे दिल के सबसे शांत हिस्से में उतर आता है? क्यों उसकी अनुपस्थिति भी इतनी भारी है?"
शिव की मूर्ति मौन थी, लेकिन वह मौन, आर्या के भीतर उठे तूफ़ान को धीरे-धीरे सोख रहा था।
तभी हवा का एक झोंका आया—दीया एक पल को काँपा, फिर और तेज़ जल उठा।
आर्या की आँखों से एक बूँद अश्रु गिरा, बिलकुल अनायास। उसने सिर नीचे किया और धीरे से बुदबुदाई,
"शायद मैं ही खुद को नहीं समझ पा रही…"
पीछे कहीं दूर से ढोलक की थाप सुनाई दे रही थी। मेले की आवाज़ें वहाँ तक धीमी होकर पहुँचती थीं, लेकिन आर्या का मन अब और शांति में उतर चुका था।
कुछ ही देर बाद वह मंदिर की सीढ़ियों पर बैठ गई, और आकाश की ओर देखने लगी। तारों से सजी उस रात में एक अलग ही नज़ारा था—साँझ की ऊँचाइयों में कोई उत्तर नहीं था, पर सवाल अब उतने तीखे भी नहीं लग रहे थे।
उसी समय, मंदिर के किनारे रखे एक छोटे-से पीतल के घंट की टन-टन सुनाई दी। कोई और वहाँ नहीं था, फिर भी जैसे कोई मौन भीतर से उठ कर आर्या को छू गया हो।
वह उठी, शिवलिंग के पास दोबारा गई, और धीमे से कहा,
"अगर यह खामोशी ही उत्तर है… तो मैं इसे सुनना चाहती हूँ।"
आर्या वापस जाने लगी, लेकिन अब उसकी चाल में एक संतुलन था। मंदिर से निकलते हुए उसने पीछे मुड़कर एक बार और शिव की मूर्ति को देखा—और उसे लगा, जैसे वहाँ सम्राट की आत्मा की भी कोई झलक थी, मौन में ढली हुई, उत्तर न देती हुई… लेकिन उसकी अपनी।
आर्या के कदम पीछे हटे, उसकी साँसें घबराहट से तेज़ चलने लगीं। पर तभी उसकी पीठ किसी दीवार से नहीं, बल्कि किसी की ठोस छाती से टकरा गई। उसकी रूह काँप गई। वह धीरे से मुड़ी—और उसकी साँस अटक गई।
वह सम्राट था।
वह वहाँ खड़ा था, जैसे अंधेरे और रौशनी के बीच उभरा कोई साया। उसकी आँखें—गहरी, काली, और कुछ कहती हुई—सीधा आर्या की आँखों में झाँक रही थीं। वक़्त कुछ पल के लिए रुक गया। आर्या ने एक लट को महसूस किया जो अचानक हवा के साथ उसके चेहरे पर आ गिरी। सम्राट का हाथ खुद-ब-खुद आगे बढ़ा, और उसने उस लट को बड़ी नरमी से उसके कान के पीछे सँवारा।
"पीछे मत हटो," उसकी आवाज़ धीमी लेकिन गरजती हुई थी।
पर आर्या का शरीर अपनी सुरक्षा ढूँढने के लिए खुद-ब-खुद एक कदम पीछे खिसका। लेकिन सम्राट ने फुर्ती से उसका हाथ पकड़ लिया—मज़बूती से, जैसे वह कभी छूटना ही नहीं चाहता।
"ये...ये क्या कर रहे हो?" आर्या की आवाज़ काँप रही थी, लेकिन वह उसकी पकड़ से खुद को छुड़ाने की कोशिश करने लगी।
सम्राट की आँखों में अब जुनून की आग थी। उसने उसकी कलाई और कस ली और धीरे से उसकी ओर झुकते हुए कहा, "गलती से भी मुझसे दूर जाने की कोशिश मत करना...वरना बहुत पछताओगी, माइ लव…"
आर्या के दिल की धड़कन अब सिर्फ़ तेज़ नहीं थी, वह बेकाबू थी। उसका शरीर कह रहा था कि वह भाग जाए, लेकिन उसकी आँखों का कोई हिस्सा सम्राट से हट ही नहीं रहा था। सम्राट अब उसके और भी करीब था, इतना कि उसकी साँसें आर्या की गर्दन को छूने लगी थीं।
"क्या मतलब है तुम्हारा?" आर्या ने खुद को मज़बूत दिखाने की कोशिश की, लेकिन उसकी आवाज़ की कंपकंपी सम्राट ने महसूस कर ली थी।
"मतलब तुम्हें अच्छे से पता है, जान," वह फुसफुसाया। "तुम जानती हो, मैं वह नहीं जिसे कोई छोड़ दे और वह चुप बैठा रहे।"
आर्या को जैसे किसी बंद दरवाज़े के पीछे बंद कर दिया गया हो। सम्राट ने उसकी ठुड्डी को हल्के से ऊपर उठाया, और उसकी आँखों में देखते हुए कहा, "तुम मेरी हो। और यह दुनिया भी हमारी नहीं समझती, तो मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता।"
आर्या के होंठ काँप रहे थे। लेकिन सम्राट का छूना… वह केवल जबरदस्ती नहीं था। उसमें एक अजीब सी नर्मी भी थी—जैसे वह पत्थर हो लेकिन भीतर कहीं पिघलता हुआ मोम भी।
उसके हाथ अब आर्या के गाल को हल्के-हल्के सहला रहे थे। जैसे वह एक सपना छू रहा हो, जिसे वह खोना नहीं चाहता।
"तुम क्यों नहीं समझती, आर्या," उसकी आवाज़ में अब थोड़ा दर्द भी था, "मैं तुम्हें चाहता हूँ… उस हद तक जहाँ चाहत पागलपन बन जाए…"
आर्या की आँखें भीगने लगी थीं। वह अब भी खुद को छुड़ाने की कोशिश कर रही थी, लेकिन अंदर ही अंदर एक हिस्से ने सम्राट के उस स्पर्श को महसूस करना भी शुरू कर दिया था।
सम्राट ने उसके चेहरे को दोनों हथेलियों में भर लिया और उसके बहुत पास आ गया।
"तुम्हारी हर साँस, हर धड़कन… अब मेरी है। मैं इसे किसी और का हिस्सा नहीं बनने दूँगा।"
आर्या ने एक गहरी साँस ली। उसकी आँखों में डर था।
"तुम्हें लगता है मैं पागल हूँ?" सम्राट ने हल्के से उसके माथे को छुआ।
"हाँ…" आर्या की आवाज़ टूटी हुई थी। "तुम पागल हो…और मैं इससे डरती हूँ।"
"डर तो तब लगता है जब दिल सच बोलने लगे," सम्राट ने उसकी गर्दन के पास उँगलियों से एक हल्का स्पर्श छोड़ा, जिससे आर्या की पूरी देह में एक झुरझुरी दौड़ गई।
वह एक पल को ठिठकी। उसकी आँखें अब सम्राट की आँखों से टकरा रही थीं। वहाँ जुनून था, लेकिन वह अकेला नहीं था। वहाँ एक तड़प थी—जैसे कोई अधूरी कहानी, जो इस छुअन से पूरी होनी चाहती है।
"मैं तुम्हें खो नहीं सकता, आर्या," उसकी आवाज़ अब भरी हुई थी। "तुम नहीं जानती, तुम्हारा जाना मुझे कहाँ ले जाता है। मैं तन्हा नहीं रह सकता…मैं वह आदमी नहीं हूँ जो छोड़ना जानता है।"
आर्या ने उसकी पकड़ में खुद को ढीला छोड़ दिया, जैसे कुछ पल के लिए उसने समर्पण कर दिया हो। उसकी साँसें अब सम्राट के कंधे पर महसूस हो रही थीं।
"मैं भी नहीं जानती कि इस सबका क्या मतलब है…" उसने धीमे से कहा। "लेकिन तुम्हारी ये आँखें…हर बार मुझे रोक लेती हैं…"
सम्राट ने उसकी हथेलियाँ थाम लीं, और हल्के से अपने होंठ उसकी उँगलियों पर रख दिए।
"तुम मेरी हो, आर्या। और जब तक मेरा दिल धड़कता है…यह सच रहेगा।"
पेड़ों के झुरमुट के बीच रात की चाँदनी छलकती हुई ज़मीन पर बिखर रही थी। दूर किसी उल्लू की आवाज़ और पत्तों की सरसराहट उस पल को और भी रहस्यमयी बना रही थी। आर्या अब भी सम्राट की बाहों में थी, लेकिन उस पकड़ में एक और ही तरह की शांति उतर आई थी। जैसे तूफ़ान के बाद एक गहराई वाला मौन।
सम्राट ने उसके चेहरे को थोड़ी दूरी पर लाकर देखा, जैसे वह देखना चाहता हो कि क्या आर्या की आँखें अब भी उसी जंग में हैं—डर और चाहत की जंग। लेकिन जो देखा, उसने उसे और पास खींच लिया।
"चलो," उसने धीमे से कहा।
"कहाँ?" आर्या के होंठ फड़के।
"जहाँ हमारे दिल की आवाज़ के सिवा और कुछ न हो।"
वह उसे हल्के से पेड़ों की ओर ले गया, एक पुराने महोगनी के पेड़ के नीचे—जहाँ ज़मीन पर चाँदनी का गोल टुकड़ा फैला था, मानो किस्मत ने वही जगह चुनी हो।
पेड़ की मोटी, सीधी जड़ें एक प्राकृतिक बेंच बनाती थीं। सम्राट ने आर्या को उसी पर धीरे से बिठाया। खुद उसके सामने ज़मीन पर बैठ गया, जैसे कोई दीवाना अपने ईश्वर के आगे बैठता है।
"तुम्हें क्या लगता है?" सम्राट ने उसका हाथ पकड़ते हुए पूछा, "क्या यह सिर्फ पागलपन है…या कोई अधूरी दुआ का असर?"
सम्राट मुस्कुराया, और फिर एक पल में उसके करीब आ गया। उसका हाथ आर्या की कमर के इर्द-गिर्द लिपट चुका था। वह अब पेड़ के तने से पीठ टिकाए बैठी थी, और सम्राट उसके इतना पास आ चुका था कि उनकी साँसें एक हो चली थीं।
"देखो इस तरह मेरे करीब मत आओ,"
आर्या की पलकों पर एक कंपन सा हुआ। सम्राट का हाथ अब उसकी गर्दन के पीछे था, और उसकी उँगलियाँ बालों में उतर चुकी थीं। उसने धीरे से उसका सिर अपनी ओर खींचा, और होंठ उसकी पलकों पर रख दिए।
एक हल्की, सिहरन भरी चुम्बन—जिसमें कोई इज़्ज़त नहीं लिपटी हुई थी, लेकिन चाहत से भरा हुआ था।
फिर उसने उसकी नाक की नोक को चूमा, और आखिरकार—उन काँपते होंठों पर आकर रुक गया।
आर्या ने आँखें मूँद लीं।
सम्राट ने जैसे समय को ही रोक दिया। उसका पहला चुंबन धीमा था, नर्म—जैसे वह एक सपना चूम रहा हो। लेकिन फिर आर्या की उँगलियाँ सम्राट की शर्ट के कॉलर को कसने लगीं, जैसे वह अब खुद भी इस पल में डूब चुकी थी।
वह चुंबन अब सिर्फ होंठों का नहीं था। वह एक प्यास थी, एक तड़प—जो बरसों से दबी हुई थी। आर्या ने जब सम्राट को और करीब खींचा, तब सम्राट ने उसकी कमर को अपनी बाँहों में भर लिया। वह अब पेड़ के तने से सट चुकी थी, और सम्राट उसके ऊपर झुका हुआ।
उनके बीच की हर साँस अब बोल रही थी। उँगलियाँ बालों में उलझ रही थीं, हथेलियाँ गालों को छू रही थीं, और होंठ…अब रुकने का नाम नहीं ले रहे थे।
"तुम्हें पता है," सम्राट ने उसके होठों के पास फुसफुसाया, "मैं हर रोज़ यह ख्वाब देखता था…लेकिन अब यह हक़ीक़त है।"
गुमशुदा साए
मेला चरम पर था—रंग-बिरंगे झूले, ढोल की थाप, हल्की चाट की खुशबू और भीड़ का हँसता-खिलखिलाता शोर चारों ओर बिखरा हुआ था। पर इस भीड़ के बीच मंयक की धड़कनें किसी और ही लय पर चल रही थीं। उसकी आँखें किसी एक चेहरे को तलाश रही थीं—आर्या।
शाम की हल्की ठंड में भी उसके माथे पर पसीने की बूँदें थीं। वह बार-बार गर्दन घुमाकर लोगों के बीच उस दुपट्टे के रंग, उस मुस्कान या उस धीमे से चलने के अंदाज़ को ढूँढ रहा था—पर हर बार निराश।
"तूने देखा क्या? आर्या यहीं थी न थोड़ी देर पहले?" उसने सौरभ से पूछा, जिसकी निगाहें अभी भी गोलगप्पे के ठेले पर थीं।
"भाई, हो सकता है किसी स्टॉल पर गई हो... या झूला देखने। मेला है, यूँ ही खो जाती हैं लड़कियाँ कुछ देर के लिए," सौरभ ने हँसते हुए कहा।
पर मंयक को वो हँसी चुभी।
"नहीं यार, वो... कुछ अजीब था उसके चेहरे पर। जैसे कुछ कहना चाहती थी, पर रोक गई..."
इसी बीच चाची हड़बड़ाते हुए आईं,
"शिवानी, वो आर्या दिखी क्या तुझे? मैं चाय लेकर आई थी, कहाँ गई वो?"
शिवानी ने चौंककर इधर-उधर देखा,
"मैं तो बस पान खरीदने गई थी। अभी यहीं थी वो... इसी झूले के पास।"
अब माहौल में हँसी की जगह फुसफुसाहटें भरने लगी थीं। एक कोने में बच्चे अब भी गुब्बारे खरीदने की जिद कर रहे थे, पर कुछ लोगों की निगाहें अब आर्या की तलाश में मंयक की बेचैन चाल को फॉलो करने लगी थीं।
"मंयक!" उसकी माँ की आवाज़ आई, तीखी और दो टूक।
"मैं तो कहती थी, ये लड़की तुम्हारे लायक नहीं है। आज देख ही लिया—मेले में आई और गुम हो गई। कौन सी सभ्यता है ये?"
"माँ, अभी कुछ पता नहीं चला और आप—" मंयक ने गुस्से से बात काट दी।
"मुझे सब समझ आता है बेटा," माँ ने और ऊँची आवाज़ में कहा, "उसका मन शायद कभी था ही नहीं इस रिश्ते में। अब सबके सामने मेला छोड़कर चली गई—इज़्ज़त मिट्टी में मिला दी।"
भीड़ अब धीरे-धीरे झूलों और स्टॉल से हटकर उनके पास खिंचने लगी थी। सबकी निगाहें अब जलेबी की कतार से हटकर उस परिवार के इस आपसी तनाव पर थीं।
"चाची, प्लीज़ अभी कुछ भी मत कहिए," शिवानी बीच में आई, "मेला है, हो सकता है नेटवर्क न हो... फोन भी न लग रहा हो... मैं देखती हूँ।"
उसी वक्त किसी बच्चे ने बताया,
"दीदी तो झूले की लाइन से निकलकर पार्क की तरफ गई थी।"
मंयक का दिल धड़कने लगा। वो तुरंत पार्क की तरफ दौड़ा।
लेकिन अब वहाँ सन्नाटा था।
बस एक पतली-सी चुन्नी झूले के लोहे में अटकी थी, हवा में फड़फड़ाती। उसका वही टरक्वॉइज़ नीला रंग। आर्या का पसंदीदा।
मंयक ने उसे धीरे से छुकर निकाला। वो गर्म थी—जैसे अभी-अभी छूटी हो किसी की।
वह वापस लौटा, आँखें भर आईं थीं पर चेहरा सख़्त था।
"ये देखिए..." उसने सबको दिखाया।
माँ कुछ कहने ही वाली थीं, पर बुआ ने हाथ पकड़ लिया।
"नंदिनी, अब चुप रहो। अभी वक्त आरोप लगाने का नहीं है।"
सौरभ ने धीमे से कहा,
"कोई अनाउंसमेंट करा दें क्या? जैसे बच्चों के लिए करते हैं—ध्यान आकर्षित करें..."
"नहीं," मंयक ने सख़्ती से कहा, "आर्या कोई बच्ची नहीं है। और न ही वो किसी ग़लती से खोई है।"
एक लंबा मौन फैल गया। दूर कहीं बैंड की धुन फिर से बजने लगी थी—"तेरा मेरा साथ रहे..."—लेकिन अब वो सुर चुभ रहे थे।
मंयक की बहन पास आई,
"भैया... शायद उसने कुछ महसूस किया होगा। कोई डर, कोई दबाव। आप ही तो कहते थे कि वो बहुत संवेदनशील है..."
मंयक कुछ नहीं बोला।
उसकी माँ अब भी कसमसा रही थीं, पर कुछ न कह सकीं। क्योंकि इस बार मंयक की आँखों में सिर्फ़ सवाल नहीं थे—वहाँ पछतावा, प्यार और एक गहरा डर था।
दूर कहीं चूड़ी की दुकान पर फिर से भीड़ लग गई थी। जलेबी के चूल्हे से फिर से मिठास की खुशबू आने लगी थी। लेकिन इस हिस्से में अब भी वो सन्नाटा था—जहाँ कोई सिर्फ़ एक चुन्नी थामे खड़ा था, और भीड़... सब कुछ देखकर भी कुछ कह नहीं पा रही थी।
जंगल की घनी छांव में, उस पुराने लकड़ी के बेंच पर आर्या और सम्राट की साँसें जैसे एक ही लय में धड़क रही थीं। पत्तों से छनती चाँदनी उनके चेहरों पर झिलमिला रही थी, और उस पल... वक़्त जैसे ठहर गया था।
आर्या की पलकों की थरथराहट से सम्राट की नज़रें बंध चुकी थीं। उनके बीच की दूरी अब ना के बराबर थी। लेकिन तभी जैसे आर्या की चेतना वापस लौटी—किसी मोह-जाल से बाहर आई हो—उसने खुद को झटके से सम्राट से अलग किया।
"नहीं… ये गलत है…" उसकी साँसें तेज़ थीं, दिल बेतरतीब धड़क रहा था।
लेकिन सम्राट, जो उस पल को पकड़ लेना चाहता था, उसकी ओर झुका और उसकी जिद सी हो गई—उसने आर्या को फिर से अपने करीब खींच लिया। और इस बार... उसका चुंबन और भी बेसब्र, और भी गहरा था। आर्या की साँसे जैसे थमने लगीं। उसकी हथेलियाँ सम्राट की छाती पर धकेलती रहीं, मगर सम्राट तब तक नहीं रुका जब तक उसके भीतर का तूफ़ान थोड़ी देर को शांत नहीं हुआ।
चुपचाप, धीमे से उसने चुंबन तोड़ा... और अपनी हथेली आर्या के गर्म चेहरे पर फेरने लगा, जैसे उसे छूकर ये यकीन करना चाहता हो कि वो सपना नहीं, सच है।
"माय लव…" सम्राट की आवाज़ में जुनून और अधिकार था, "तुम मेरी हो… सिर्फ मेरी।"
आर्या ने खुद को समेटते हुए बेंच से उठने की कोशिश की, आँखों में बेचैनी और कदमों में हलचल। लेकिन सम्राट ने उसकी कलाई थाम ली, और झटके में उसे अपनी बाहों में भर लिया।
"मुझसे दूर जाने की कोशिश मत करना," उसकी आवाज़ अब नर्म थी पर उस नर्मी के नीचे एक दीवानगी छुपी थी, "मैं तुम्हारी रूह हूँ… और रूह से कोई कैसे दूर हो सकता है?"
आर्या का चेहरा सख़्त हो गया। वहाँ डर था, गुस्सा था… और अपनी आज़ादी का संघर्ष।
"देखिए सम्राट," उसकी आवाज़ काँप रही थी लेकिन नज़रें मज़बूत थीं, "आपको कोई हक़ नहीं है मुझे छूने का… ये सब सही नहीं है।"
सम्राट के हाथों की पकड़ और कस गई।
"सही और गलत… मैं नहीं जानता, आर्या। मैं सिर्फ़ ये जानता हूँ कि जब तुम मेरी बाँहों में होती हो, दुनिया पूरी लगती है…"
और फिर… एक पल में जैसे उसकी पकड़ ढीली पड़ी। उसने आर्या को आज़ाद कर दिया। आर्या ने कुछ बुदबुदाया, मानो खुद से कह रही हो—"बस… आज रात, फिर हम घर लौट जाएँगे।"
लेकिन सम्राट ने सुन लिया। उसकी आँखों में फिर से वो तड़प जागी।
"नहीं…" उसकी आवाज़ सख़्त हो गई, "ऐसा हरगिज़ नहीं होगा।"
आर्या रुकी। उसका चेहरा सवालों से भर गया।
"क्या कहा आपने…? क्या मतलब है आपका?"
उसके स्वर में खौफ़ भी था, और चुनौती भी।
सम्राट ने उसके उलझे बालों को सवारना चाहा, लेकिन आर्या ने उसका हाथ झटक दिया। उसकी आँखों में गुस्से की आग भड़क उठी थी।
"कहिए न… मतलब क्या है इसका?"
सम्राट अब चुप नहीं रहा। उसकी आँखों में कोई फैसला चमक रहा था।
"मतलब ये कि… कोई इस हवेली से तब तक नहीं जाएगा जब तक मैं नहीं चाहता। और मैं नहीं चाहता कि तुम कहीं जाओ।"
आर्या अब और नहीं रुकी।
"आप जो चाहे कर लें सम्राट, लेकिन मैं आपकी कैदी नहीं हूँ… और ना बनूँगी।"
सम्राट ने अब सीधा उसे देखा… उसके चेहरे के हर भाव को पीते हुए, और फिर बोला—"ठीक है… तो सुनो आर्या, मेरा एक चैलेंज है।"
"चैलेंज?" आर्या ने भौंहें चढ़ाईं।
"हाँ," सम्राट के होठों पर एक टेढ़ी मुस्कान थी, "अगर मैं जीत गया… तो तुम वो करोगी जो मैं कहूँगा।"
आर्या की आँखें ठहर गईं उस एक वाक्य पर… उसके दिल की धड़कन जैसे उस जंगल के सन्नाटे से टकरा रही थी।
उस रात, हवेली की हवाएं तेज़ थीं… और आर्या के दिल में सम्राट के इस चुनौती ने एक ऐसी हलचल भर दी थी, जो शायद अब कभी शांत नहीं होगी।
बिखरी साँसों के बीच, हवाओं में रात का रंग गहराने लगा था। धुंधली रोशनी में, जब आर्या के कदम कच्ची पगडंडी से लौटते दिखाई दिए, तो पूरे परिवार की आँखों में एक साथ सुकून और सवाल उमड़ आए। मंयक सबसे पहले आगे बढ़ा; उसके चेहरे पर चिंता और गुस्से की मिली-जुली परछाई थी।
"कहाँ चली गई थी?" उसने रूखे स्वर में पूछा।
आर्या ने नज़रें चुराते हुए कहा, "किसी से सुना था कि यहाँ पास में एक शिव मंदिर है... बस वहाँ चली गई थी। माफ़ कीजिए, बिना बताए निकल गई।"
उसकी आवाज़ में झूठ छिपाना मुश्किल हो रहा था, पर उसने खुद को संयत रखने की कोशिश की।
मंयक की माँ, जो अब तक दिल थामे बैठी थीं, तपाक से बोल पड़ीं, "इतनी गैर-ज़िम्मेदार लड़की है ये! न जाने कैसी परवरिश पाई है। कोई डर-भय ही नहीं!"
मंयक ने तुरंत बीच में टोका, "माँ, हवेली चलकर बात करते हैं। वैसे भी, लौटने का वक्त हो गया है।"
माहौल में असहज चुप्पी छा गई। गाड़ी तैयार थी, और सब उसमें एक-एक कर बैठने लगे। मंयक ड्राइविंग सीट पर बैठा, जबकि आर्या उसके बगल में। बाकी लोग पीछे थे—पर सबसे पीछे था आर्या का मन, जो अभी भी उस जंगल के आलिंगन में उलझा पड़ा था।
गाड़ी ने जैसे ही रास्ता पकड़ा, रात की ठंडी हवा और घने सन्नाटे ने हर शब्द को और भारी बना दिया। कुछ मिनट तक कोई कुछ नहीं बोला।
फिर अचानक मंयक ने उसकी ओर देखकर कहा, "तुम्हारी लिपस्टिक इतनी हल्की कैसे हो गई?"
आर्या का चेहरा एक पल में सफ़ेद पड़ गया। उसकी पलकों के नीचे वो क्षण कौंध गया—सम्राट की तीखी आँखें, जंगल की घनी छांव, और वो लम्हा... जब उसकी साँसें सम्राट की उंगलियों में उलझ गई थीं। वो चुम्बन… और सबसे खतरनाक भी।
उसने खुद को जल्दी सम्भाला, और धीमी आवाज़ में बोली, "पता नहीं… शायद मंदिर में पसीना हो गया… या यूँ ही उतर गई।"
मंयक ने एक हल्की मुस्कान दी, जो अधूरी थी। "कोई बात नहीं," उसने कहा, पर उसकी नज़रें सड़क पर टिकी नहीं थीं; वो आर्या की तरफ देखना चाह रहा था, जैसे किसी अनदेखे सच को पकड़ना चाहता हो।
आर्या ने खिड़की की तरफ मुँह फेर लिया। बाहर रात थी, और उसके भीतर भी एक रात उतर आई थी। सम्राट का चेहरा उसके भीतर गूंज रहा था—वो रहस्यमयी मुस्कान, जो हर बार कुछ चुराकर ले जाती थी। पर इस बार... उसने आर्या की मासूमियत चुराई थी।
‘अब वो क्या करेगा? उसके मन में सवालों की आँधी चल रही थी।
‘अगर मंयक को सब पता चल गया तो?’ उसका दिल तेज़ी से धड़कने लगा।
गाड़ी की खामोशी और रात की गहराई जैसे उसके अपराधबोध को और उजागर कर रही थी। उसे सम्राट की वो बात याद आई—“अगर तुम हवेली से वापस गई, मैं कुछ ऐसा करूँगा कि तुम्हें लौटना ही ना पड़े।”
वो बात अब शाब्दिक नहीं रही थी, वो हकीकत बन चुकी थी। सम्राट ने कुछ तो कर दिया था—उसके ज़हन, उसकी भावनाओं, उसके नियंत्रण के साथ।
पीछे बैठे परिवार को सब कुछ सामान्य लग रहा था, पर इस गाड़ी के अगले हिस्से में दो चेहरों के बीच एक अदृश्य तूफान चल रहा था। मंयक सोच में था—आर्या की आँखें अजनबी सी क्यों लग रही हैं? क्या वो मुझसे कुछ छुपा रही है?
वहीं आर्या, अपनी ही बनाई उलझनों में फँसती जा रही थी।
गाड़ी अब हवेली के लम्बे गेट से अंदर दाखिल हो चुकी थी। ड्राइववे की सफ़ाई और बत्तियाँ कुछ ज़्यादा ही चमकदार लग रही थीं आज। शायद हवेली जान गई थी कि अब यहाँ सब कुछ पहले जैसा नहीं रहेगा।
आर्या ने गाड़ी से उतरते हुए एक बार फिर हवेली को देखा—उसके पीछे छिपे रहस्य अब और ज़्यादा गहरे लगने लगे थे।
"आर्या," मंयक की आवाज़ ने उसकी सोच को तोड़ा। "अगर कभी कुछ कहना हो, तो कह देना। मैं सुनने के लिए हमेशा हूँ।"
आर्या ने उसकी ओर देखा—वो सच्चा था, साफ़ था। पर शायद बहुत देर हो चुकी थी।
"थैंक्स मंयक," उसने कहा, और अंदर चली गई।
पीछे रह गया मंयक… और हवेली के अंधेरे में गूंजता सम्राट का नाम—जैसे वो अभी भी वहीं कहीं छिपा मुस्कुरा रहा हो… अगली चाल चलने को तैयार।
जुनून की दरार
सम्राट के भीतर उमड़ते जज़्बातों की ही कोई तस्वीर हो। हवेली की ओर जाती लम्बी सड़क पर उसकी कार दौड़ रही थी, लेकिन उसका मन कहीं और ही भटक रहा था – वहाँ, उस घने जंगल की झील किनारे, उस चुप बेच पर जहाँ एक पल के लिए वक़्त रुक गया था।
आर्या की आँखें, उसकी आवाज़, वो हल्की मुस्कान – सब कुछ सम्राट के ज़हन में एक चलचित्र की तरह दौड़ रहा था। जैसे ही वो उस जगह के करीब पहुँचा जहाँ एक पुराना मोड़ था, उसने अचानक ब्रेक मार दिए। कार की चरमराहट के साथ रुकने की आवाज़ हुई, और सम्राट ने गाड़ी साइड में रोक दी।
उसने आँखें बंद कीं।
"तुम क्यों नहीं समझती आर्या?" उसने अपने भीतर गूंजते उस वाक्य को फिर से महसूस किया।
झील पर ठंडी हवा बह रही थी, और आर्या उसके ठीक पास बैठी थी; उसकी नज़रें पानी पर थीं, और सम्राट की नज़रें उस पर।
"मैं जाना चाहती हूँ," उसने धीरे से कहा था।
"क्यों?" सम्राट की आवाज़ धीमी लेकिन दर्द से भरी थी।
उसने उसका चेहरा थाम कर कहा था। और अगले ही पल—वो किस। एक गहराई से भरा, तड़पता हुआ, टूटे हुए दो पलों का संगम—जैसे उनकी आत्माएँ कुछ देर के लिए एक हो गई हों।
"नहीं!" अचानक कार से बाहर निकलकर सम्राट ने चीखकर कहा।
उसका चेहरा पसीने से भीग चुका था। उसके बाल हवा में बिखरे हुए थे। सड़क सुनसान थी, और सम्राट जैसे अपने ही पागलपन के घेरे में फँस चुका था।
"तुम मुझे छोड़कर नहीं जा सकती... मैं तुम्हें जाने नहीं दूँगा।" वो कार के पास से हटकर एक तरफ घूमने लगा, जैसे किसी बेचैनी में रास्ता तलाश रहा हो।
"तुम मेरी हो, आर्या... तुम्हें यहीं रहना होगा। मेरे साथ।" उसकी आवाज़ अब खुद से बातें कर रही थी। आँखों में पागलपन, ज़ुबान पर हक़ की आग।
वो सड़क किनारे एक बड़े पत्थर पर बैठ गया, सिर हाथों में थामे।
आर्या के जाने के ख्याल से ही उसका सीना जकड़ने लगा।
"मैंने खुद को खो दिया था... बचपन में भी, जवानी में भी... लेकिन जब तू मिली ना आर्या, तब लगा जैसे ज़िंदगी ने पहली बार मुझे कुछ लौटाया हो..."
उसकी साँसें तेज़ हो गईं। वो उठा और कार के बोनट पर मुक्का मारने लगा।
"तुम मेरी कमज़ोरी नहीं, मेरी ज़रूरत हो आर्या... समझ क्यों नहीं रही?"
हवा में अब ठंड घुलने लगी थी, और सम्राट की आँखें भर चुकी थीं। लेकिन आँसू नहीं गिरे – वो पिघलने को तैयार नहीं था।
"मैं तुम्हें रोकूँगा... चाहे जैसे भी। तू कहीं नहीं जा सकती..."
एक पल को वो ठिठका, फिर जैसे कोई निर्णय लेकर धीरे-धीरे अपनी जगह पर स्थिर हो गया। उसने अपना मोबाइल निकाला, आर्या का नंबर डायल किया।
रिंग जा रही थी।
एक... दो... तीन...
लेकिन कोई जवाब नहीं आया।
उसने मोबाइल को देखा, फिर दूर, अंधेरे जंगल की तरफ, और बुदबुदाया—
"अब मैं कुछ भी कर सकता हूँ..."
उसके भीतर का जुनून अब धीरे-धीरे एक सन्नाटे में ढल रहा था—वो सन्नाटा जो किसी तूफान से पहले आता है।
और उसी सन्नाटे में, सम्राट की कार फिर स्टार्ट हुई, और वो उसी झील की तरफ लौट पड़ा... जहाँ सब कुछ शुरू हुआ था... शायद जहाँ सब कुछ ख़त्म भी होने वाला था।
हवेली की परछाइयाँ उस शाम कुछ और ही कह रही थीं। चारों ओर मेला घूमकर लौटे लोगों की थकान और संतोष की मिली-जुली आहटें थीं। हवेली की दीवारों पर रौशनी की लकीरें कुछ इस तरह गिर रही थीं, जैसे किसी पुराने रहस्य की परतें चुपचाप खुलने लगी हों।
जब सब अपने-अपने कमरों में जा चुके थे, तब मंयक और आर्या, पुराने लकड़ी के झूले के पास बने आर्या के कमरे में साथ बैठे थे। हवा में मेले की मिठास और हल्की-सी मिट्टी की गंध अब भी तैर रही थी।
आर्या ने अपने बालों को पीछे किया और धीरे से कहा,
"कॉफ़ी पियोगे?"
"हाँ," मंयक मुस्कुरा दिया।
कुछ ही देर में दोनों के हाथ में कप थे, और खिड़की से बाहर हवेली के बगीचे की पीली रोशनी झांक रही थी। थोड़ी देर तक दोनों खामोशी से बैठे रहे। यह वो खामोशी थी जो सुकून देती है—जब दो लोग शब्दों के बिना भी एक-दूसरे को समझ लेते हैं।
आर्या ने खिड़की से बाहर झांकते हुए पूछा,
"ये तुम्हारे दोस्त... सम्राट... अजीब से लगते हैं। कितने समय से जानते हो उन्हें?"
मंयक ने एक हल्की साँस ली, जैसे किसी भूले हुए पल की परछाई छू गई हो। फिर उसने कप को मेज़ पर रखते हुए कहा,
"काफ़ी साल हो गए... कॉलेज के दिनों से। वो अमीर परिवार से है, और मैं मिडिल क्लास। लेकिन फिर भी, पता नहीं कैसे, हम अच्छे दोस्त बन गए। शायद उस समय हमें एक-दूसरे की ज़रूरत थी।"
आर्या ने उसकी आँखों में देखा,
"तुम्हें लगता है वो सच्चा है? मेरा मतलब... अंदर से?"
मंयक ने एक पल के लिए चुप्पी साध ली। फिर बोला,
"वो थोड़ा रहस्यमयी है, हाँ। कभी-कभी लगता है, उसके पास सब कुछ है, लेकिन फिर भी कुछ खोया हुआ है उसमें। वो रोड है, बेबाक है, लेकिन कुछ है उसके अंदर... कोई टूटन, कोई अधूरी कहानी।"
आर्या की उंगलियाँ कप के हैंडल पर रुक गईं। उसके दिल में एक हूक-सी उठी। उसने मन ही मन सोचा – मंयक सम्राट के बारे में जिस तरह से बात करता है, अगर मैंने उसे कुछ कहा तो क्या वो यकीन करेगा? क्या वो मेरी बात को समझेगा या सम्राट की उस दोस्ती को मेरी बात से परखा जाएगा?
मंयक उसकी ओर देखकर बोला,
"तुम चुप क्यों हो गईं?"
आर्या ने हल्की मुस्कान दी,
"कुछ नहीं... बस सोच रही थी। दोस्ती बड़ी अजीब चीज़ होती है ना। हम कभी-कभी उन लोगों पर भी यकीन कर लेते हैं जिनके चेहरे के पीछे की परतें हमें दिखती ही नहीं।"
मंयक ने गहराई से उसकी आँखों में झांका,
"तुम कुछ छुपा रही हो? सम्राट को लेकर कुछ महसूस किया तुमने?"
आर्या का दिल ज़ोर से धड़कने लगा। वो जानती थी कि यह वही क्षण है जब वो सब कह सकती है—वो अजीब सी बेचैनी जो उसे सम्राट की नज़रों में महसूस हुई थी, वो रहस्यमयी खिंचाव, और एक अनजानी-सी घुटन जो उसके आस-पास सम्राट के रहते रहती थी।
पर फिर मंयक की बातों की गर्माहट याद आई—"हम अच्छे दोस्त हैं...", "उसके अंदर कुछ है..."—क्या वो उसकी बातों को गलत नहीं समझेगा?
आर्या ने गहरी साँस ली, और धीरे से बोली,
"कभी-कभी इंसान इतना उलझा हुआ होता है कि वो जानता भी नहीं कि वो किससे डर रहा है, किससे दूर भाग रहा है।"
मंयक ने सिर हिलाया,
"बिलकुल। सम्राट भी वैसा ही है। बाहर से मजबूत, मगर भीतर से शायद टूटा हुआ। पता नहीं क्यों, लेकिन मैं उसे कभी अकेला नहीं छोड़ना चाहता था... हमेशा लगता था, अगर मैंने उसे छोड़ा, तो वो कहीं बहुत दूर चला जाएगा। शायद हमेशा के लिए।"
आर्या का दिल भर आया। सम्राट के लिए उसके मन में जो डर था, वह अब और गहराता जा रहा था। एक तरफ़ मंयक की दोस्ती थी, दूसरी तरफ़ उसकी अपनी बेचैनी, और कहीं बीच में सम्राट—एक पहेली।
कॉफी खत्म हो चुकी थी, लेकिन कमरे में एक नई तरह की हलचल थी—मौन, जिसमें सवाल थे; और जवाब, जो शायद किसी के पास नहीं थे।
आर्या ने धीरे से पूछा,
"क्या कभी तुमने उससे उसके अतीत के बारे में पूछा?"
मंयक ने आँखें झुका लीं,
"एक बार... उसने सिर्फ़ इतना कहा—"हर किसी का अतीत होता है, लेकिन कुछ लोग उस अतीत में आज भी जीते हैं।"—उसके बाद मैंने कभी दोबारा नहीं पूछा।"
बाहर हवेली की पुरानी घड़ी ने 9 बजने की आवाज़ दी। आर्या ने हल्के से सिर झुकाया और खिड़की से बाहर देखने लगी।
उसने मन ही मन तय किया—मैं कुछ कहूँ या नहीं, लेकिन मैं सतर्क रहूंगी। मंयक की दोस्ती पर भरोसा है, लेकिन सम्राट की आँखों में जो छाया है, वह अनदेखी नहीं की जा सकती।
हवा फिर से बहने लगी थी। कमरे में चुप्पी छा गई, लेकिन उस चुप्पी में अब दोनों की सोचों का शोर था—एक दोस्ती की गहराई, एक डर की हल्की आहट, और एक अनकहा सच जो आने वाले दिनों में शायद सब कुछ बदल सकता था।
कमरे में एक पल की खामोशी के बाद मंयक ने हँसते हुए कहा,
"वैसे, तुम्हारी कॉफी उम्मीद से बेहतर निकली। मुझे तो लगा था तुम दूध उबालने में भी सस्पेंस डाल दोगी।"
आर्या ने आँखें तरेरीं,
"ओह, बहुत मज़ाकिया हो गए हो तुम। शुक्र मनाओ कि मैंने कॉफी में नमक नहीं डाल दिया।"
"तुम्हारा अंदाज़ देखकर तो कभी-कभी लगता है कि तुम्हारे अंदर कोई सीक्रेट जासूस छिपा है," मंयक मुस्कुराया।
आर्या ने शरारती अंदाज़ में आँखें नचाईं,
"हो सकता है! हो सकता है मैं यहाँ हवेली के रहस्यों को सुलझाने ही आई हूँ।"
"और मैंने सोचा था तुम मेले में घूमने आई हो," मंयक ने नकली मायूसी से कहा।
"दोनों बातें सही हैं," आर्या ने टेबल से उठते हुए कहा, "घूमना और गुप्त बातें निकालना—दोनों में मुझे महारत है।"
मंयक ने हाथ जोड़ते हुए कहा,
"फिर तो मैं सावधान हो जाऊँ, कहीं अगला शिकार मैं ही न बन जाऊँ।"
"बन चुके हो," आर्या ने मुस्कुराते हुए उसकी ओर देखा, "अब निकलना मुश्किल है।"
मंयक की मुस्कान थोड़ी गहरी हो गई, लेकिन उसने बात को हल्केपन में ही रखा,
"अरे बाप रे! इस हवेली से तो डर नहीं लगता, लेकिन तुमसे थोड़ा लगने लगा है।"
आर्या ने खिलखिलाकर हँसते हुए कहा,
"डर अच्छा होता है, थोड़ा-सा डर इंसान को ज़िंदा रखता है।"
"और ज़्यादा डर?" मंयक ने उसकी ओर आँखों में हल्की चमक के साथ देखा।
"वो इंसान को कुछ नया सोचने पर मजबूर करता है," आर्या ने जवाब दिया, फिर हल्के से मुस्कराई, "या फिर किसी कमरे से बाहर भागने पर।"
मंयक भी हँस पड़ा,
"तुम्हारा कॉफ़ी पीने का स्टाइल भी कोई थ्रिलर मूवी जैसी है। पहले गहरी बातें, फिर हल्की छेड़छाड़... और अब थोड़ा डर!"
"मैं तो सस्पेंस ही हूँ," आर्या ने अपनी आँखें छोटी करते हुए नाटकिया अंदाज़ में कहा।
फिर दोनों ने एक साथ हँस दिया। खिड़की से आती हवा अब हल्की ठंडी हो चली थी, और दूर मंदिर की घंटी की धीमी-सी आवाज़ सुनाई दे रही थी।
आर्या झूले पर बैठ गई, और पैरों को हल्का झुलाते हुए बोली,
"यह झूला... मुझे नानी के घर की याद दिलाता है। वहाँ भी एक ऐसा ही लकड़ी का झूला था, जहाँ हम सारे भाई-बहन बैठकर गप्पें लड़ाते थे।"
मंयक पास आकर दीवार से टेक लगाकर खड़ा हो गया,
"मुझे बचपन में झूला बहुत पसंद था... लेकिन एक बार इतनी जोर से झूला कि गिर पड़ा। तबसे मैंने झूले को थोड़ी इज्ज़त से देखना शुरू किया।"
"इज्ज़त?" आर्या ने मुस्कुराकर पूछा,
"या डर?"
"डर वाली इज्ज़त... वो जो माँ के थप्पड़ और झूले के धक्के के बीच होती है," मंयक ने आँख मारते हुए कहा।
आर्या फिर से हँस पड़ी। अब माहौल हल्का-फुल्का हो चला था। दोनों ने अपनी कॉफी के कप मेज़ पर रखे ही छोड़ दिए थे, लेकिन बातों का सिलसिला जारी था।
"वैसे," मंयक ने चुप्पी को तोड़ते हुए पूछा,
"मेले में तुम्हें सबसे अच्छा क्या लगा?"
आर्या ने थोड़ी देर सोचा,
"मिठाई की दुकानें... और वो जो छोटा-सा लड़का अपने पापा का हाथ पकड़े घूम रहा था। उसकी आँखों में जो चमक थी, वो बस... छू गई।"
मंयक ने हल्की मुस्कान दी,
"हाँ, वो मासूमियत... शायद हमें भी कभी वैसी ही थी।"
"थी नहीं," आर्या ने कहा,
"कहीं न कहीं अब भी है। बस रोज़मर्रा की ज़िंदगी के नीचे दब गई है।"
"तुम्हें देखकर तो लगता है, तुम्हारी वो चमक अब भी बची है," मंयक ने बिना ज़्यादा भावुक हुए कहा।
आर्या ने उसकी ओर देखा, उसकी मुस्कान में कोई चाल नहीं थी—बस एक सादगी थी, जो अजीब सुकून देती थी।
"तुम्हारी बातें भी कभी-कभी अच्छी लगती हैं," आर्या ने धीरे से कहा।
"कभी-कभी?" मंयक ने नकली नाराज़गी जताई।
"हाँ, जब तुम बहुत ज़्यादा फ़िलॉसफ़िकल नहीं हो जाते," आर्या ने मुस्कराते हुए कहा।
"ओह! तो मतलब आज की मेरी रेटिंग क्या रही?" मंयक ने चुटकी ली।
"7 में से 5.5। बाकी का डेढ़, अगली कॉफी के बाद मिलेगा," आर्या ने कहा और झूले को ज़रा सा तेज़ धक्का दे दिया।
"फिर तो मुझे कल की शिफ्ट में भी कॉफी बनवानी पड़ेगी," मंयक ने कहा,
"लेकिन शर्त है—तुम्हें झूला नहीं छोड़ना पड़ेगा।"
"सौदा मंज़ूर है," आर्या ने उसकी ओर देखते हुए कहा।
तभी दूर कहीं से सम्राट की आवाज़ सुनाई दी—वह शायद नीचे लॉन में किसी से बात कर रहा था।
आर्या का चेहरा थोड़ी देर को ठहर-सा गया, पर उसने खुद को तुरंत सामान्य किया।
मंयक ने ध्यान नहीं दिया, वह अभी भी उसी हल्के मज़ाकिया अंदाज़ में बोला,
"सम्राट भी लगता है थक गया है, पर फिर भी कुछ न कुछ प्लान करता रहता है। पता नहीं उसकी एनर्जी कहाँ से आती है।"
"शायद... उसके पास नींद कम है और सोच ज़्यादा," आर्या ने धीमे से कहा।
"बिलकुल तुम्हारी तरह," मंयक ने चिढ़ाते हुए कहा।
"शायद," आर्या ने मुस्कुराते हुए उसकी ओर देखा।