शादी... सिर्फ दो लोगों का मिलन नहीं, बल्कि दो दिलों, दो आत्माओं, दो ज़िंदगियों का अटूट बंधन होती है। एक ऐसा बंधन जो विश्वास, समर्पण और प्यार की नींव पर टिका होता है। लेकिन क्या हो जब इस रिश्ते में बंधने वाला एक इंसान, अपने हमसफ़र को... शादी... सिर्फ दो लोगों का मिलन नहीं, बल्कि दो दिलों, दो आत्माओं, दो ज़िंदगियों का अटूट बंधन होती है। एक ऐसा बंधन जो विश्वास, समर्पण और प्यार की नींव पर टिका होता है। लेकिन क्या हो जब इस रिश्ते में बंधने वाला एक इंसान, अपने हमसफ़र को टूट कर चाहे... उससे बेशुमार मोहब्बत करे... और दूसरा सिर्फ नफरत, तिरस्कार और घृणा की नज़र से देखे? क्या उस प्यार की कोई कीमत रह जाती है जो एकतरफा हो? प्यार... एक रूहानी एहसास... जो इंसान को उसके वजूद से जोड़ता है। एक ऐसा एहसास जो दो दिलों को एक धड़कन में समेट देता है। पर क्या हो जब वही प्यार धीरे-धीरे जुनून बन जाए? एक ऐसा पागलपन जो अपने साथ लाता है ज़िल्लत, बदनामी, अपमान, दर्द और निराशा? "The Marriage Trap" दिव्य और दृष्टि की ऐसी अनोखी दास्तान जो आपको सोचने पर मजबूर कर देगी— क्या जबरन की गई शादी में कभी प्यार पनप सकता है? क्या किसी के साथ जबरदस्ती बंधा रिश्ता सच में टिक सकता है? एक ऐसी कहानी जिसमें प्यार है... नफरत है... साजिशें हैं... और एक अनदेखी जंग है दिलों के बीच। जानने के लिए पढ़िए "The Marriage Trap" — एक रिश्ता जो शायद होना ही नहीं चाहिए था... या शायद किस्मत ने ही उसे लिखा था!
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खूबसूरत सा बैंक्वेट हॉल, जो आज किसी दुल्हन जैसा सजा हुआ था। बाहर लगे बोर्ड पर बड़ी ही खूबसूरती से लिखा गया था, "Divya weds Jagriti…" हॉल मेहमानों से भरा हुआ था और सामने बने स्टेज पर उस वक़्त सुनहरे रंग की शेरवानी में दूल्हा बना दिव्य, हाथ में वरमाला थामे, अपने सामने दुल्हन के सुर्ख लिबाज़ में पलकें झुकाए खड़ी जागृति की ओर बढ़ रहा था।
दिव्य ने उसे वरमाला पहनाने के लिए हाथ उठाया ही था कि एक कोयल सी मीठी, तेज़ आवाज़ वहाँ गूँजी।
"रुक जाओ दिव्य!"
आवाज़ इतनी तेज़ थी कि स्टेज पर मौजूद दिव्य और जागृति समेत हॉल में मौजूद सभी मेहमान उस ओर देखने लगे। सामने एक लड़की खड़ी थी, जिसने येलो कुर्ता और ब्लैक जीन्स पहनी हुई थी। उसकी नर्गिसि आँखें गुस्से और दर्द से सुर्ख रंग में रंगी हुई थीं। खुले सुनहरे बाल उसके कंधे और पीठ पर बिखरे हुए थे।
स्टेज पर वरमाला लिए खड़े दिव्य की नज़र जब उस लड़की पर पड़ी तो उसके हाथ से वरमाला छूट गई और चेहरे पर हैरानी और गुस्से के मिले-जुले भाव उभर आए।
शादी में आए सभी मेहमानों के साथ दोनों परिवार और रिश्तेदार हैरान-परेशान से उस लड़की को देख रहे थे।
"दिव्य, तुम मेरे साथ ऐसा कैसे कर सकते हो? प्यार-मोहब्बत के बड़े-बड़े दावे मुझसे, शादी के वादे मुझसे… और अब मुझे यूँ बीच मझधार में छोड़कर इस लड़की से शादी कर रहे हो।"
उस लड़की ने स्टेज की ओर क़दम बढ़ाते हुए बेहद निराशा और दर्द भरे स्वर में कहा और बकायदा उसकी दाईं आँख से आँसू की एक बूँद छलक गई। जहाँ उसके कहे ये शब्द सुनकर बाकी सब आँखें फाड़े और मुँह खोले कभी उसे तो कभी दिव्य को देखते हुए आपस में बातें करने लगे, वहीं दिव्य का चेहरा गुस्से से तमतमा गया।
"ये क्या बकवास कर रही हो तुम? बंद करो अपना ये नाटक और निकल जाओ यहाँ से।"
"मैं नाटक कर रही हूँ? मेरी बातें बकवास लग रही हैं तुम्हें? तो जो हमारे बीच था, क्या वो सब भी एक नाटक, एक छलावा था? क्या वो वादे, वो क़सम सब झूठे थे? क्या जो ख़ूबसूरत लम्हें जो हमने एक साथ बिताए, जिसकी निशानी मेरे अंदर पल रही है, वो भी एक फरेब है?"
वो लड़की गुस्से और दर्द से चीखी, फिर भरी आँखों से उसे देखते हुए लाचारी से कहने लगी,
"दिव्य, तुम ऐसा क्यों कर रहे हो मेरे साथ? मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है जो तुम इस तरह मेरी ज़िंदगी बर्बाद कर रहे हो? तुम तो मुझसे प्यार करते थे ना… कितने खुश थे हम दोनों एक साथ… अपने फ़्यूचर के कितने सपने सजाए थे हमने… कितना कुछ प्लैन किया था…
तुम मेरे साथ अपनी फ़ैमिली बनाने वाले थे… तुमने वादा किया था कि तुम कभी मेरा साथ नहीं छोड़ोगे… मुझसे शादी करोगे, तभी तो मैंने अपना सब कुछ तुम पर लुटा दिया और अब मुझे इस मोड़ पर लाकर तुम मुझसे और हमारे होने वाले बच्चे से मुँह मोड़ना चाहते हो… मुझे छोड़कर इस लड़की से शादी करना चाहते हो… क्या कमी रह गई मेरे प्यार में? क्यों तुम इतने बदल गए?
मत करो मेरे साथ ऐसा… अगर मुझसे कोई भूल हुई है तो मैं तुम्हारे आगे हाथ जोड़कर तुमसे माफ़ी माँगती हूँ। Please मुझे माफ़ कर दो और मुझे और अपने बच्चे को अपना लो… अगर तुमने हमें ठुकरा दिया तो मैं कहाँ जाऊँगी इसे लेकर? क्या जवाब दूँगी लोगों के सवालों का? कैसे फ़ेस करूँगी अपने पेरेंट्स को? मैं मर जाऊँगी दिव्य… मैं मर जाऊँगी तुम्हारे बिना।"
उस लड़की ने दिव्य के आगे हाथ जोड़ दिए और बिलख-बिलखकर रो पड़ी। दिव्य के साथ खड़ी जागृति बेचैनी से कभी सामने खड़ी लड़की को देखती तो कभी दिव्य को। दोनों की फैमिली तो जैसे शॉक़ड रह गई थी इस खुलासे से और मेहमानों के बीच अब दबी जुबान में तरह-तरह की बातें होने लगी थीं।
दिव्य भी पहले अचंभित सा उसे देखता ही रह गया, पर अपने किरदार पर लगे ये बेबुनियाद इल्ज़ाम सुनकर वो गुस्से से बौखला गया और आग उगलती सुर्ख निगाहों से उसे घूरते हुए चीख उठा,
"बन्द करो अपना ये तमाशा और अभी इसी वक़्त मेरी नज़रों के सामने से दफ़ा हो जाओ। अगर मेरे बारे में एक और घटिया बात तुमने अपने मुँह से निकाली तो मुझे भी नहीं पता कि गुस्से में मैं तुम्हारे साथ क्या कर जाऊँ?"
दिव्य की आँखों से गुस्से की ज्वाला निकल रही थी और चेहरा सख़्त था। उसके गुस्से भरी धमकी को सुनकर उस लड़की के चेहरे के भाव पल भर को बदले, पर इससे पहले कि उन दोनों के बीच बात और बिगड़ती, एक बुलंद आवाज़ वहाँ गूँजी।
"दिव्य, ये क्या तरीक़ा है किसी लड़की से बात करने का? क्या यही संस्कार दिए हैं हमने आपको?"
"संस्कार की बात तो अब तुम करो ही मत मनोज, आज तुम्हारे बेटे ने भरी महफ़िल में ये दिखा दिया कि कैसी परवरिश की है तुमने उसकी और कैसे संस्कार दिए हैं उसे।"
चौबे जी ने हिकारत भरी नज़रों से मनोज जी और दिव्य को देखा और कुटिलता से मुस्कुरा दिए। असल में चौबे जी मनोज जी के पड़ोसी थे, पर आपस में उनकी ज़्यादा बनती नहीं थी और पिछले एक साल से वो ख़ुन्नस खाए बैठे थे। अब तक मौके की तलाश में थे कि कैसे उनसे अपने अपमान का बदला लें और आज जब उन्हें मौका मिला तो भरी महफ़िल में उन्हें जलील करने लगे।
उनकी बातें सुनकर मनोज जी का चेहरा अपमान और क्रोध की शिद्दत से जल उठा, साथ ही शर्मिंदा भी हो गए वो। दिव्य ने अपने पापा का गुस्से से भरा चेहरा देखा तो पलटकर जवाब देने को हुआ, उससे पहले ही चौबे जी आगे कहने लगे,
"वो वक़्त याद है मनोज, जब हमारे बेटे की बात पर पूरे गली-मोहल्ले के सामने हमें बेइज़्ज़त किया था, हमारी परवरिश पर सवाल उठाया था… अब अपने बेटे की इस बेशर्मी भरी हरकत पर क्या कहेंगे आप? हमारे बेटे ने तो बस अपने प्यार को पाने की कोशिश की थी, बस नादानी में गलत रास्ता चुन लिया था, पर आपके बेटे ने तो एक मासूम लड़की को अपने झूठे प्यार के जाल में फँसाकर उसकी ज़िंदगी तबाह कर दी और एक और लड़की की ज़िंदगी बर्बाद करने यहाँ चला आया।"
चौबे जी के तानों पर मनोज जी अपना मौन तोड़ते हुए कठोर लहज़े में बोले,
"आपके बेटे ने उस लड़की को बदनाम करने की कोशिश की थी, जिससे उसके साथ-साथ उसके पूरे परिवार की इज़्ज़त उछाली गई थी, जो कोई छोटी बात नहीं और तब हमने कुछ गलत नहीं किया था और ना ही आज हम कुछ गलत होने देंगे… बात भले ही हमारे बेटे की हो, पर आज भी हम न्याय ही करेंगे। अगर ये सब बातें सच हुईं तो हम सज़ा अपने बेटे को भी देंगे और उनके कारण किसी मासूम लड़की की ज़िंदगी बर्बाद नहीं होने देंगे।"
मनोज जी की दमदार आवाज़ ने चौबे जी का मुँह बंद करवा दिया। दृढ़ता से उन्होंने अपनी बात कही, फिर दिव्य की ओर पलटते हुए बुलंद आवाज़ में सवाल किया,
"दिव्य, कौन है ये लड़की और क्या रिश्ता है इनका आपसे?"
"पापा, हमारा इस लड़की से कोई रिश्ता नहीं, हम तो इनका नाम तक नहीं जानते।"
दिव्य ने अपने पक्ष में सफ़ाई पेश की और बड़ी ही उम्मीद से अपने पापा को देखने लगा, जिनके चेहरे पर मौजूद सख़्त भाव इस बात का सबूत थे कि उन्हें उसकी बात पर विश्वास नहीं हुआ।
"अगर आपका इस लड़की से कोई रिश्ता नहीं तो ये आपको कैसे जानती है? यहाँ कैसे आई? कैसे पता चला इन्हें कि आपकी शादी हो रही है यहाँ और जो बातें ये कह रही है वो क्या हैं?"
"सब झूठ है पापा। कुछ वक़्त पहले हमारी इत्तफ़ाक़ से इस लड़की से मुलाक़ात हुई थी। तब से ये हमारे पीछे पड़ी है और हमने जब इनसे शादी से इंकार कर दिया तो अब यहाँ आकर झूठी कहानी सुनाकर सबकी नज़रों में हमें गिराने की कोशिश कर रही है।"
"क्यों इतनी झूठी बातें कह रहे हो तुम? सच क्यों नहीं बताते सबको कि हम पिछले तीन सालों से रिलेशनशिप में थे। एक-दूसरे से बहुत प्यार करते हैं और तुमने मुझसे जल्दी ही शादी करने का वादा भी किया था… मैंने तुम्हारे प्यार पर अपना सब कुछ क़ुर्बान कर दिया और तुम मुझे ही पहचानने से इंकार कर रहे हो।"
उस लड़की के चेहरे पर गुस्से और नाराज़गी के मिले-जुले भाव उभर आए। दिव्य जो मनोज जी को अपनी सच्चाई पर विश्वास करवाने की कोशिश कर रहा था, उसकी बात सुनकर गुस्से से उसका ख़ून खौल गया। कोई इस स्थिति में कुछ कहता, उससे पहले ही लड़की के पिता मनोज जी के पास चले आए।
"माफ़ कीजियेगा भाई साहब, हम नहीं जानते कि यहाँ क्या हो रहा है, कौन सच्चा है और कौन झूठा, पर अब ये शादी नहीं हो सकती… हम जानते-बूझते अपनी बेटी को एक ऐसे लड़के के हवाले नहीं कर सकते जिसके किरदार पर सवाल खड़े हो रहे हों। कल को अगर कुछ ऊँच-नीच हो गई तो हमारी तो बेटी की ज़िंदगी बर्बाद हो जाएगी, इसलिए अब हमें माफ़ कीजियेगा और हमारी मानिए तो इसी मंडप पर इन दोनों की शादी करवा दीजिये, आपके घर की इज़्ज़त भी बनी रहेगी और बच्ची की ज़िंदगी भी बर्बाद होने से बच जाएगी।"
उनकी बात सुनकर दिव्य को झटका लगा और वो बुरी तरह हड़बड़ा गया।
"नहीं पापा, हमारा विश्वास कीजिए, हमारा इस लड़की से कोई रिश्ता नहीं। इसकी कही हर बात झूठ है… अगर अंकल को हम पर विश्वास नहीं तो न हो ये शादी, पर हम इस लड़की से शादी नहीं करेंगे।"
दिव्य की बात सुनकर मनोज जी के कठोर चेहरे पर चिंता के भाव उभर आए। इतने में उसके चाचा मनोज जी के पास चले आए।
"भैया, आप दिव्य की बात पर इतना क्या सोच रहे हैं? घर की इज़्ज़त का सवाल है। अगर इस लड़की और दिव्य का कोई रिश्ता नहीं होता तो आज इनकी शादी में आकर ये इतना हंगामा क्यों करती? इतनी बड़ी बात कहकर लोगों को अपने इज़्ज़त पर कीचड़ उछालने का मौका क्यों देती?
लड़का जवान है। इस उम्र में भूल हो जाती है। हम बड़े हैं, हमारा फ़र्ज़ है उनकी गलतियों को सुधारकर उन्हें सही रास्ता दिखाना। सब तैयारी हो ही रखी है, लगे हाथ दोनों की शादी करवाकर बात यहीं ख़त्म कीजिए।"
"बेटा, आप सच कह रही हैं?" मनोज जी ने एक आख़िरी बार उस लड़की से सवाल किया। उनका लहजा नर्म था और मन में एक उम्मीद, जो अगले ही पल उस लड़की का जवाब सुनकर टूटकर बिखर गई और साथ ही टूटा दिव्य पर से उनका विश्वास।
"अंकल, मैं झूठ क्यों कहूँगी? मैं दिव्य से बहुत प्यार करती हूँ और अपनी सारी ज़िंदगी उसके साथ बिताना चाहती हूँ। मैं सच कह रही हूँ अंकल। ये देखिए…"
उस लड़की ने कुछ तस्वीरों के साथ रिपोर्ट उनकी ओर बढ़ा दी। उन तस्वीरों में दिव्य और वो साथ और करीब नज़र आ रहे थे और उस रिपोर्ट में उसके प्रेग्नेंट होने का सबूत था। अब तो खुले में लोग तरह-तरह की बातें करने लगे थे, जिसने मनोज जी को एक कठोर फ़ैसला लेने पर मजबूर कर दिया।
"अपने मम्मी-पापा को बुलाइए, आज इसी मंडप में हम आप दोनों की शादी करवाएँगे।"
मनोज जी का फ़ैसला सुनकर दिव्य को ऐसा लगा जैसे किसी ने बड़ी ही बेरहमी से उसके पैरों तले ज़मीन खींच ली हो। वो बेचैनी से पल भर को अचंभित सा उन्हें देखता ही रह गया।
"पापा…" उसने कुछ कहना चाहा, पर मनोज जी ने सख़्त लहज़े में उसे कुछ भी कहने से रोक दिया।
"हमें कुछ नहीं सुनना दिव्य… आपकी इस हरकत ने पहले ही हमारा सर शर्मिंदगी से झुका दिया है। कितना गर्व था हमें आप पर… पर आज हमें आपको अपना बेटा कहते हुए भी शर्मिंदगी महसूस हो रही है। यही दिन देखने के लिए हम अब तक ज़िंदा थे कि हमारा ही बेटा हमारी ही परवरिश पर सवाल उठवा दे।"
"पापा, आप हमें गलत समझ रहे हैं, हमारी बात तो सुनिए, हमने कुछ नहीं किया है, हमारा विश्वास कीजिए।" दिव्य इस बार उनके सामने गिड़गिड़ाने लगा था। पर अब भी उन्होंने उसकी बात नहीं सुनी।
"दिव्य, अब आपकी दी किसी सफ़ाई का कोई मतलब नहीं। पहले ही आप हमें बहुत शर्मिंदा कर चुके हैं, इतने लोगों के आगे अब हमारी इज़्ज़त का और तमाशा मत बनाइए… हमने एक बार फ़ैसला सुना दिया कि अब आपकी शादी इन्हीं से होगी। अगर आपके मन में हमारे लिए थोड़ा भी सम्मान हो और आपको हमारी इज़्ज़त की थोड़ी भी परवाह हो तो हमारे फ़ैसले का मान रखिए।
अगर अब आपने इस शादी से इंकार किया तो हम समझ जाएँगे कि अब आपके लिए हमारी बात की भी कोई अहमियत नहीं। हमारी इज़्ज़त और मान-सम्मान की कोई फ़िक्र नहीं।"
क्रमशः…
क्या होगा आगे? क्या मनोज जी के फ़ैसले के आगे दिव्य अपने घुटने टेक देगा? कौन है ये लड़की? दिव्य से क्या रिश्ता है उसका? चाहती क्या है वो और दोनों में से कौन सच कह रहा है?
"अगर अब आपने इस शादी से इंकार किया तो हम समझ जाएँगे कि अब आपके लिए हमारी बात की भी कोई अहमियत नहीं। हमारी इज़्ज़त और मान-सम्मान की कोई फ़िक्र नहीं।"
"पाप…" दिव्य ने बेचारगी से उन्हें देखते हुए कुछ कहना चाहा, पर उन्होंने अपना हाथ दिखाकर उसे ख़ामोश कर दिया।
"एक बार दिव्य की बात तो सुन लीजिए, ये उसकी सारी ज़िंदगी का सवाल है।"
दिव्य की मम्मी गायत्री जी ने मनोज जी को समझाने की कोशिश की, पर सख़्त निगाहों से उन्हें घूरते हुए उन्होंने उनको भी चुप करवा दिया।
"अब कहने-सुनने को कुछ नहीं रह गया है गायत्री जी, और आपके बेटे के साथ-साथ ये इस बच्ची की भी ज़िंदगी का सवाल है। हमारे परिवार की इज़्ज़त, मान-सम्मान के साथ उस बच्ची की इज़्ज़त और खुशियाँ भी दाव पर लगी हैं… सब पहलुओं पर अच्छे से विचार करने के बाद ही हमने ये फ़ैसला किया है और यही फ़ैसला इस वक़्त सही है।"
गायत्री जी भी अब कुछ कह न सकीं। दिव्य को ही शादी करने के लिए समझाने लगीं। दिव्य बेबस-लाचार सा अपने माता-पिता को देखता रहा और अंत में पिता के फ़ैसले, माँ की इच्छा, लोगों के दबाव और परिवार की इज़्ज़त के आगे मजबूर होकर उसने इस अनचाहे रिश्ते के लिए हामी भर दी। अपनी सच्चाई को साबित न कर पाने का दुख़ और निराशा उसके चेहरे पर झलक रही थी।
"बेटा, आपका क्या नाम है और आपके माता-पिता कहाँ हैं?… उन्हें बुला लीजिए, हम आज ही आप दोनों की शादी करवा देंगे।"
मनोज जी ने बेहद प्यार और नर्मी से उस लड़की से ये सवाल किया, जिसे सुनकर दिव्य ने नफ़रत से अपना चेहरा फेर लिया। अब इन सब बातों के उसके लिए कोई मायने नहीं रह गए थे।
"अंकल, मेरा नाम दृष्टि है… मेरे मॉम-डैड यहाँ नहीं हैं और वो इतनी जल्दी यहाँ नहीं आ सकेंगे और हमारी शादी के लिए भी नहीं मानेंगे। अगर उन्हें ये सब पता चला तो मुझे जान से मार देंगे, मैं उन्हें कुछ नहीं बता सकती।"
दृष्टि ने डरते हुए अपनी बात पूरी की, जिसे सुनकर मनोज जी के माथे पर चिंता की रेखाएँ उभर आईं। अंत में उसके माता-पिता की अनुपस्थिति में ही दोनों की शादी करवाने का फ़ैसला लिया गया।
कुछ देर बाद दृष्टि, शादी का लाल जोड़ा पहने दुल्हन बनी विवाह वेदी पर बैठी थी और उसके चेहरे पर उदासी साफ़ झलक रही थी, जबकि उसके बगल में बैठा था दिव्य। जिसके चेहरे पर इस वक़्त सिर्फ़ और सिर्फ़ गुस्सा और फ़्रस्ट्रेशन नज़र आ रहा था। वो एकटक सामने हवन कुंड में उठती अग्नि की लपटों को घूर रहा था और ऐसे ही लपटें उसके मन में उठ रही थीं, जो उसे अंदर ही अंदर झुलसाती जा रही थीं।
पंडित जी मंत्र पढ़ रहे थे। हर कोई ख़ामोश बैठा इस अनोखी शादी को देख रहा था। दिव्य भावहीन सा शादी की रस्में पूरी कर रहा था।
देखते ही देखते शादी संपन्न हो गई थी और नई बहु के साथ जैसवाल परिवार घर लौट चुका था। जहाँ गायत्री जी ने बिगड़ते हालातों के बावजूद हँसी-खुशी नई बहु का घर में स्वागत किया।
मनोज जी की धमकी का असर था कि यहाँ भी दिव्य बिना न-नुकुर किए हर रस्म करता गया, जबकि दृष्टि कभी खुश नज़र आती तो कभी सहमी हुई सी लोगों को देखती। यहाँ भी लोगों के बीच तरह-तरह की बातें सुनने को मिल रही थीं। इन सबके बाद भी बहु के रूप की तारीफ़ खूब हो रही थी और साथ ही दबे-छुपे शब्दों में दिव्य और उसके रिश्ते पर फ़ब्तियाँ भी कसी जा रही थीं।
दिव्य मजबूरी में बड़ी मुश्किल से वहाँ रुका था। जैसे ही रस्में पूरी हुई वो उठकर सीधे घर से बाहर चला गया।
रात के 12 बज रहे थे, जब दिव्य वापिस घर लौटा। दरवाज़ा खुला ही था तो सीधे अंदर चला आया। अभी वो चंद क़दम अंदर आया ही था कि उसका सामना मनोज जी से हो गया। वो अब तक जाग रहे थे। चेहरे पर कठोर भाव लिए, त्योरियाँ चढ़ाए उसे घूरते हुए उन्होंने रौबदार पर धीमे आवाज़ में सवाल किया,
"ये वक़्त है आपके घर आने का?"
उनके बोलने के लहज़े में गुस्सा और नाराज़गी दोनों ही झलक रही थी। दिव्य के क़दम पल भर को ठहरे, पर फिर वो बिना कुछ कहे, बिना नज़रें उठाकर उन्हें देखे… चुपचाप सर झुकाए आगे बढ़ गया और उसकी ये ख़ामोशी मनोज जी को चुभ गई। पल भर को चेहरे पर विचलित भाव उभरे, अगले ही पल उन्होंने एक बार फिर कठोरता से आवरण ओढ़ते हुए सख़्ती से कहा,
"जाने से पहले बात सुनते जाइए हमारी।"
दिव्य के क़दम फिर ठिठक गए। पर अब भी वो मौन साधे सर झुकाए खड़ा रहा।
"दृष्टि बहु से शादी आपकी चाहे जिन हालातों में हुई हो, पर अब वो पत्नी है आपकी। आपसे शादी करके इस घर में आई है तो अब से वो आपकी ज़िम्मेदारी है, जिसमें हम कोई लापरवाही बर्दाश्त नहीं करेंगे। आपके और उनके बीच जो भी परेशानी है या नाराज़गी है उसे भुलाकर इस रिश्ते की नई शुरुआत कीजिए… क्योंकि आपको ये रिश्ता किसी भी कीमत और सूरत में निभाना ही होगा। याद रखिए कि अब दृष्टि बहु हमारे घर की इज़्ज़त है, उनके साथ नर्मी और प्यार से पेश आइएगा। ऐसा न हो कि कल को हमें लोगों से ये ताना भी सुनना पड़े कि हमने अपने बेटे की करतूत छुपाने और उनकी गलतियों पर पर्दा डालने के लिए उनकी शादी तो करवा दी, पर उसके बाद बहु पर अत्याचार करने लगे। उम्मीद करते हैं यहाँ आप हमें निराश नहीं करेंगे और ऐसा कोई काम नहीं करेंगे जिससे हमारा सर किसी के आगे शर्मिंदगी से झुके या हमारे घर-परिवार की इज़्ज़त और मान-सम्मान पर बात आए, हमारी परवरिश पर सवाल उठे।"
"हमारे वजह से अब आपको या किसी को कोई परेशानी नहीं होगी पापा, आप निश्चिंत रहें।" दिव्य की बेबसी भरी आवाज़ बाहर आई और अगले ही पल उसने क़दम सीढ़ियों की ओर बढ़ा दिए।
पीछे खड़े मनोज जी, गायत्री जी और दिव्य की बड़ी बहन गरिमा बस उसे देखते ही रह गए। उनकी निगाहों ने दूर तक उसका पीछा किया था और देखा था उन्होंने कि इतनी रात गए भी अपने रूम में जाने के बजाय उसने छत की सीढ़ियों का रुख़ किया था।
गायत्री जी की उसे यूँ जाते देखकर मुँह पर हाथ रखे सिसकने लगीं। गरिमा जी उन्हें रोते देखकर उनके पास चली आई और उन्हें सांत्वना देने लगीं।
"रोती क्यों हो माँ? अभी परेशान है। हम जाकर बात करते हैं उससे। आप हौंसला रखिए, सब ठीक हो जाएगा।"
"जा बेटा, बात कर उससे, देख तो क्या हाल बना लिया है उसने अपना।" अब भी उनके आँसू बह रहे थे। माँ का दिल अपने बच्चे को तकलीफ में देखकर तड़प उठा था। गरिमा जी ने हामी भरी और दिव्य के पीछे चली गईं।
गायत्री जी ने अब भीगी निगाहों से मनोज जी को देखा और दुखी स्वर में शिकायत करने लगीं,
"आपने दिव्य पर विश्वास क्यों नहीं किया? आप जानते हैं हमारा बेटा कभी ऐसा कुछ नहीं कर सकता। वो तो इतना सीधा है और हमारी इतनी इज़्ज़त करता है कि हमारे एक बार कहने पर जागृति से भी शादी करने के लिए तैयार हो गया था। उसकी कभी कोई लड़की दोस्त तक नहीं रही। आपको अपने बेटे और अपनी परवरिश पर भरोसा करना चाहिए था। आपका अविश्वास उसे तोड़ गया है। हमने पहले कभी उन्हें इस क़दर हताश, निराश और दुखी नहीं देखा।"
बोलते हुए उनकी आँखों के आगे दिव्य का चेहरा उभर आया था। शर्ट-पैंट से बाहर निकला हुआ था और कॉलर के दो बटन खुले थे, पैंट पर मिट्टी लगी थी, बाल बिखरे थे, आँखों के महीन रेशे सुरख़ रंग में रंगे थे और आँखें सूजी हुई थीं। चेहरे पर गहरी उदासी, दर्द, बेबसी जैसे भाव मौजूद थे। उसकी बिखरी अवस्था और ग़मगीन चेहरा देखकर गायत्री जी का मन द्रवित हो गया था।
मनोज जी जो अब भी छत की सीढ़ियों की ओर देख रहे थे, उनके चेहरे पर बेबसी और लाचारी के भाव उभर आए।
"जानते हैं कि हमारा दिव्य कभी ऐसा कोई काम नहीं कर सकता जिसके कारण उनके माता-पिता का सर किसी के आगे झुके या हमारे दिए संस्कारों और परवरिश पर सवाल उठाए जाएँ… भरोसा है हमें अपने बेटे और अपने दिए संस्कारों पर, वो कभी सपने में भी ऐसा कुछ नहीं कर सकते। यूँ ही हमारा बेटा हमारा ग़ुरूर नहीं, उन पर खुद से ज़्यादा भरोसा करते हैं हम। एक अंजान लड़की, क्या अगर तब भगवान खुद भी आकर कहते कि हमारे बेटे ने वो सब किया है तो हम उनकी कही बात भी झुठला देते।"
मनोज जी की बातें सुनकर गायत्री जी हतप्रभ सी उन्हें देखती ही रह गईं।
"अगर आपको उन पर विश्वास था तो आपने उन्हें इतनी कड़वी बातें क्यों कही?… क्यों उन्हें इस शादी के लिए मजबूर किया?… कितनी तकलीफ़ हुई होगी उन्हें… आपने उनका हाल देखा, क्या से क्या बन गए हैं एक दिन में…"
"सब देख रहे हैं और समझने की कोशिश भी कर रहे हैं। जानते हैं कि सिर्फ़ हमारी बात का मान रखने के लिए उन्होंने मजबूरी में इस रिश्ते को जोड़ा है और हमारे लिए ही निभाएँगे भी और यही चाहते हैं हम, क्योंकि जैसे हालात थे उसमें बात को संभालने का बस यही एक तरीक़ा था।"
मनोज जी की बात सुनकर गायत्री जी उलझन भरी निगाहों से उन्हें देखने लगीं। मनोज जी पल भर को ठहरे, फिर उन्हें समझाते हुए बोले,
"आपने देखा था कितने विश्वास से वो लड़की सब कह रही थी। हमने कितने मौके दिए उन्हें सच कहने के, पर वो अपनी बात पर डटी रही… वो पक्के इरादे के साथ वहाँ आई थी और जो उन्होंने कहा उसके बाद जागृति से दिव्य की शादी होना असंभव था। सब मेहमानों और रिश्तेदारों के बीच अगर हम अपने बेटे का पक्ष ले भी लेते, तब भी वो उन्हें बेक़ुसूर नहीं मानते और विश्वास उस लड़की की बातों पर ही किया जाता। हम चाहकर भी तब अपने बेटे की सच्चाई साबित नहीं कर पाते और लोग कहते कि हम अपने बेटे की गलतियों पर पर्दा डाल रहे हैं। आज चार लोग बात बनाते, कल आठ लोगों तक पहुँच जाती, जिससे हमारे परिवार की बदनामी होती, हमारे बेटे पर सवाल उठाए जाते। वो सबकी नज़रों में बेगुनाह होकर भी क़ुसूरवार बन जाते और इन सबके बाद उस बच्ची की ज़िंदगी भी ख़राब हो जाती।… अगर हम किसी तरह उन्हें झूठा साबित कर भी देते तो इन सबका उनके जीवन पर बहुत गलत प्रभाव पड़ता। वो शक्ल से ही हमें मासूम और नादान लगी। उनकी आँखों में हमने दिव्य के लिए प्यार देखा था। वो उनकी शादी में आकर अपनी इज़्ज़त की परवाह न करते हुए इतनी बड़ी-बड़ी बातें कह गई। शायद वो हमारे दिव्य से इतनी मोहब्बत करती है कि उनके लिए अपनी इज़्ज़त तक दाव पर लगाने से पीछे नहीं रही। जबकि जागृति ने एक बार नहीं कहा कि उन्हें दिव्य पर विश्वास है। इन सभी स्थितियों को देखते हुए हमने दिव्य की शादी उनसे करवाने का फ़ैसला किया। अभी लोग बातें कर रहे हैं, पर कुछ दिन में भूल जाएँगे। हम भी दृष्टि को अच्छे से जाँच-परख लेंगे, दिव्य और उनके रिश्ते को एक मौका मिल जाएगा। अगर वाकई में वो हमारे दिव्य से इतना प्यार करती है कि उनके लिए कुछ भी कर सकती है तो जल्दी ही वो दिव्य का दिल जीतने में कामयाब हो जाएंगी।"
"और अगर जैसा आप सोच रहे हैं वैसे नहीं हुआ तो? दिव्य उन्हें नहीं अपना सका तो?… अगर कल को ये रिश्ता टूट गया तब क्या होगा? ऐसे भी दोनों की ज़िंदगी बर्बाद ही होगी।"
"हाँ, ये भी एक संभावना है, पर तब जो बात उठ रही थी उसमें दृष्टि बहु से दिव्य की शादी करवाना ही एकमात्र रास्ता था हमारे पास, हमारे परिवार की इज़्ज़त बचाने का। उस बच्ची को सबके सामने ज़लील होने से बचाने और अपने बेटे के ख़िलाफ़ होती बातों को रोकने का… उनके पास सबूत थे, जिन्हें झुठलाना आसान नहीं था… अगर झुठलाते तो बात और बिगड़ती, उस बच्ची के चरित्र पर सवाल उठते। लड़की है वो, हम इतने लोगों के बीच उन्हें बेइज़्ज़त नहीं करना चाहते थे और न ही अपने परिवार की इज़्ज़त का और तमाशा बनने दे सकते थे। बात को वहीं ख़त्म करना था हमें। उस वक़्त हालातों को देखते हुए हमें जो सही लगा हमने वही किया। आगे जो भगवान् की मर्ज़ी होगी वही होगा। आप अभी बस प्यार-मोहब्बत से उनके मन की थाह लेने की कोशिश कीजिए। उनसे पता लगाने की कोशिश कीजिए कि पूरा सच क्या है? उन्होंने ये सब क्यों किया और क्या चाहती है वो?"
गायत्री जी ने उनकी बात समझते हुए हामी भर दी। समय कठिन था और सब कुछ आपस में उलझ गया था। जिसकी किसी से कभी कल्पना भी नहीं की थी वो हो गया था और अब किसी तरह इन बिगड़ते हालातों को संभालना ही था।
To be continued…
"दिव्य, इस वक़्त तुम यहाँ क्या कर रहे हो? अपने कमरे में क्यों नहीं गए तुम?"
गरिमा दीदी की चिंता भरी, सौम्य सी आवाज़ दिव्य के कानों से टकराई, पर वह यूँ ही उनसे मुँह फेर, भावहीन सा खड़ा रहा।
"मन नहीं उस कमरे में जाने का हमारा।"
"मन क्यों नहीं?… और अभी तक कहाँ थे तुम?"
"दीदी, हमें कुछ देर अकेले रहना है, please अभी आप यहाँ से चली जाइए।"
दिव्य ने बात खत्म करने की कोशिश की और वहाँ से निकलकर छत के उस हिस्से में आ गया जहाँ चारों ओर घना अंधकार फैला था। कुछ ऐसा ही अंधकार उस वक्त उसके मन के भीतर और ज़िंदगी में भी फैला हुआ था। उसका मन व्यथित था, पर किसी को कुछ कह नहीं पा रहा था।
गरिमा जी कुछ देर दूर खड़ी खामोशी से उसे देखती रहीं, फिर उसके पास चली आईं और उसके कंधे पर हाथ रखते हुए सौम्य स्वर में बोलीं,
"दिव्य, हमें अपने भाई पर पूरा विश्वास है। हम जानते हैं कि जो इल्ज़ाम तुम पर लगे हैं, तुम वह कभी नहीं कर सकते… हमारा भाई कभी ऐसा कुछ नहीं कर सकता, यह सब सच नहीं हो सकता।"
उनकी यह बात सुनकर दिव्य के चेहरे पर दर्द और बेबसी के भाव उभर आए। लबों से दर्द भरी आह निकली और अपनी बेबसी और लाचारी पर वह मुस्कुरा दिया।
"क्या फ़र्क़ पड़ता है दीदी?… सबको तो यही सच लगता है… सबकी नज़रों में तो हम ही क़ुसूरवार हैं और बिना हमारे पक्ष को सुने, हमारे गुनाह की सज़ा भी सुना दी गई। बाहर वालों की क्या बात करें, जब हम पर अविश्वास ज़ाहिर करने वाले हमारे अपने ही थे। जब उन्हें ही हमारी सच्चाई नज़र नहीं आई तो और किससे और क्या शिकायत करें हम?…
वक़्त बदल गया, हालात बदल गए, दुनिया ने इतनी तरक़्क़ी कर ली, पर आज भी समाज की यह सोच नहीं बदली कि लड़कियाँ बेचारी, अबला नारी हैं और मर्द क्रूर, अत्याचारी… लड़कियाँ पाकीज़ा हैं और लड़कों का कोई ईमान या किरदार ही नहीं। लड़की चार आँसू बहाए और आँख बंद करके उसकी बात पर विश्वास करके, बिना लड़के का पक्ष सुने, सच्चाई जाने उसे क़ुसूरवार ठहराकर सज़ा सुना दी जाती है…
हमारे साथ भी यही हुआ। उसने इल्ज़ाम लगाए, चार आँसू बहाकर, हमारे आज तक बनाई इज़्ज़त को मिट्टी में मिला दिया, हमारे किरदार पर सवाल उठाए, women's card खेला और बाज़ी अपने हक़ में कर ली।
हमारे खुद के पापा ने हमारी बात नहीं सुनी और उस अंजान लड़की पर भरोसा करके हमारी शादी उससे करवाकर, सबको इस बात का सबूत दे दिया कि हम ही गलत हैं और उस लड़की की कही एक-एक बात सच… क्योंकि वह लड़की है तो वही सही है और हम दोषी… उसकी सच्चाई पर आँख बंद करके भरोसा किया गया… हमें सुनाई गई है सज़ा… बिना हमारा क़ुसूर जाने और अब इस सज़ा को हमें ताउम्र भुगतना है।"
दिव्य के गहरे दुःख और निराशा में डूबे शब्द गरिमा जी के मन में झकझोर गए। उन्होंने मामले की गंभीरता को देखते हुए धैर्य के साथ उसकी पूरी बात सुनी और संजीदगी से बोलीं,
"पर यह सब हुआ कैसे दिव्य? कोई भी लड़की इतने लोगों के बीच आकर यूँ ही इतनी बड़ी-बड़ी बातें नहीं कह देती। आपके साथ-साथ सवाल उनके किरदार पर भी उठे थे, क्योंकि यह समाज कितना ही आगे क्यों न बढ़ गया हो, पर उसकी सोच आज भी वही पुरानी, संकीर्ण और रूढ़िवादी है। जहाँ लड़का-लड़की के बीच इस तरह का रिश्ता शादी से पहले बनना पाप होता है और कुँवारी लड़की अगर माँ बनने वाली हो तो उसे गंदी नज़रों से देखा जाता है, उसके किरदार पर सवाल उठते हैं। उस वक़्त कोई उस बच्चे के बाप को कुछ नहीं कहता, क्योंकि मर्द का बहकना आम बात है, पर किसी लड़की का अपनी मर्यादा को भंग करना महापाप है।
अगर दृष्टि ने इतनी बड़ी और अहम बातें इतने लोगों के बीच कही हैं, भले ही झूठ हो, पर इसके पीछे कोई तो वजह होगी ना।"
दिव्य जो अब तक उनकी ओर से मुँह फेर खड़ा था, कई भाव एक साथ उसके चेहरे पर उभरे, कुछ बीती पुरानी बातें ज़हन में घूमने लगीं।
"वह हमें हासिल करना चाहती थी, हमसे शादी करना चाहती थी और जब हमने उसे यह कहकर रिजेक्ट कर दिया कि हमारी शादी पहले ही तय है… तो उसने यह रास्ता निकाला, हमारे रिश्ते को तुड़वाकर, हमसे शादी करके अपनी ज़िद पूरी करने का।"
दिव्य की आँखों में इस वक़्त दृष्टि के लिए बेहिसाब गुस्सा और नफ़रत झलक रही थी, जबकि उसके इस जवाब ने गरिमा जी के मन में कई सवालों को जन्म दे दिया था। उन्होंने दिव्य को अपनी ओर घुमाते हुए सवाल किया,
"दिव्य, पूरी बात बताओ, कब से जानते हो तुम दृष्टि को?… और इन सब की शुरुआत कैसे और कब हुई?"
"अभी हमारा वह सब याद करने का मन नहीं है दी, हमें कुछ देर अकेले रहना है।" दिव्य ने लाचारी से उन्हें देखते हुए आँखों से विनती की तो गरिमा जी ने मन में लाखों सवाल होने के बावजूद, आगे कुछ नहीं पूछा।
"तुम कहते हो तो चली जाती हूँ मैं… पर रात बहुत हो गई है दिव्य, अपने कमरे में चले जाइए।"
"चले जाएँगे कुछ देर में।"
गरिमा जी ने प्यार से उसके सर पर हाथ फेरा और वहाँ से चली गईं। दिव्य की यह हालत देखकर उनका मन भी बहुत दुखी और व्यथित था। बड़ी बहन थी वह उसकी और माँ जैसे पाला था उन्होंने उसे। उसकी तकलीफ़ पर उनकी पलकों का भीगना स्वाभाविक था।
गरिमा जी नीचे आईं, तब तक मनोज जी और गायत्री जी अपने कमरे में जा चुके थे। वह भी बुझे मन और बोझिल कदमों से अपने कमरे में चली आईं, जहाँ उनकी बाकी कज़िन सिस्टर्स डेरा जमाए बैठी थीं और उनके कमरे में उनके लिए ही जगह नहीं थी, पर अभी उनकी आँखों में नींद भी कहाँ थी? उनका मन बोझिल था, तो फ़ोन उठाकर बालकनी में आ गई और अपने पति सुमित जी को फ़ोन लगा दिया, ताकि उनसे बात करके अपना मन हल्का कर सकें।
"बताइए जनाब, कैसी रही आपके भाई की शादी? फ़ुर्सत मिल गई आपको हमें फ़ोन करने की? हमें तो लगा था कि अपने भाई और नई-नई भाभी के साथ आप इतनी व्यस्त रहेंगी कि दो-चार दिन तक हमारी याद तक नहीं आएगी आपको और हमें अपनी ही बीवी की आवाज़ सुनने, उनसे बात करने के लिए तरसना पड़ेगा।"
यहाँ गरिमा जी परेशान थीं, तो दूसरी तरफ़ शादी में हुए हंगामों और तमाशे से अंजान सुमित जी बड़े ही खुशमिजाज़ मूड में लग रहे थे। बातों से उन्हें छेड़ रहे थे।
"सुमित, यहाँ सब गड़बड़ हो गई।"
गरिमा जी ने भर्राए स्वर में कहा। सुमित जी की आवाज़ सुनकर ही उनका मन भरा आया था। जैसे ही सुमित जी के कानों में गरिमा जी की परेशानी भरी आवाज़ पड़ी, उनके मुस्कुराते लब सिमट गए और माथे पर चिंता की लकीरें खिंच गईं।
"गरिमा, तुम रो रही हो?… क्या हुआ, कुछ बताओ तो सही… सब ठीक है ना वहाँ?"
"कुछ भी ठीक नहीं सुमित, सब बर्बाद हो गया…"
बोलते हुए उनकी आवाज़ रुंध गई। भारी मन से उन्होंने शादी में जो हुआ, संक्षेप में उन्हें बता दिया। सब सुनकर सुमित जी को भी गहरा सदमा लगा।
"यह सब क्या है और कैसे हो गया… दिव्य तो ऐसा नहीं है। तुमने पापा जी को समझाया नहीं कि वह दिव्य के साथ नाइंसाफ़ी कर रहे हैं। हमारा दिव्य ऐसी घटिया हरकत कभी नहीं कर सकता।"
उनकी बात सुनकर गरिमा जी अपनी बेबसी पर रो पड़ीं।
"कैसे समझाती मैं, जब पापा-मम्मी की ही बात नहीं सुन रहे थे। उनकी इच्छा के आगे दिव्य ने मजबूरी में यह शादी कर ली, पर उसकी हालत मुझसे देखी नहीं जा रही। मुझे ठीक से कुछ बता भी नहीं रहा वह। आप तो उसके बहुत करीब हैं, आपसे हर बात शेयर करता है वह। क्या आप यहाँ नहीं आ सकते?"
गरिमा जी की विनती भरी आवाज़ सुनकर सुमित जी उलझन में पड़ गए।
"है तो थोड़ा मुश्किल, तुम तो जानती हो अभी माँ की तबियत ठीक से संभली नहीं है। तुम भी यहाँ नहीं हो, ऐसे में मेरा उन्हें अकेला छोड़कर आना ठीक नहीं होगा… पर कोशिश करता हूँ एक-दो दिन में वहाँ पहुँचने की। तुम चिंता मत करो और दिव्य का ख़्याल रखो। सब ठीक हो जाएगा…"
सुमित जी ने उन्हें समझाया, दिलासा दिया, तब कहीं जाकर गरिमा जी थोड़ा संभलीं। पर खुद सुमित जी यह सब जानकर बेहद परेशान हो गए थे। दिव्य जैसे शरीफ़ और समझदार लड़के पर ऐसा इल्ज़ाम लगना शॉकिंग था। किसी लड़की का शादी में पहुँचकर इतनी झूठी बातें कहना… इसकी तो कल्पना भी नहीं कर सकते थे और इस वक़्त दिव्य पर क्या बीत रही होगी, यही उनकी चिंता की वजह थी।
रिश्ते में वह भले ही दिव्य के जीजू थे, पर अपना छोटा भाई मानते थे वह उसे। दिव्य भी उनके काफ़ी करीब था, उससे पाँच साल बड़े थे, पर दोस्त जैसे उसके दिल की हर बात समझ जाते थे। लेकिन इस वक़्त जब उसे सबसे ज़्यादा उनके साथ और सहारे की ज़रूरत थी, वह उसके पास नहीं थे, इस बात का बेहद दुःख था उन्हें।
दिव्य के साथ जो हुआ उसके बाद एक बात तो साफ़ थी कि सवाल सिर्फ़ लड़कियों के ही चरित्र पर नहीं उठता, लड़कों के किरदार पर भी उँगली उठाई जाती है।
समाज सिर्फ़ लड़कियों के पैरों की बेड़ियाँ नहीं होती, लड़कों पर भी कई बंदिशें लगाई जाती हैं।
मजबूर सिर्फ़ लड़कियाँ नहीं होतीं, लड़के भी होते हैं… परिवार की इज़्ज़त और मान-सम्मान के लिए सिर्फ़ लड़कियाँ ही अपनी खुशियों की क़ुर्बानी नहीं देतीं, बल्कि लड़के भी अपनी ख़्वाहिशों और चाहतों का बलिदान देते हैं।
एक तरफ़ दिव्य की आँखों में बेबसी के आँसू थे, तो दूसरी तरफ़ दृष्टि के होंठों पर सजी मुस्कराहट थी, जो जाने का नाम नहीं ले रही थी। वह इतनी खुश थी कि पूरे कमरे में चिड़िया सी चहचहाती घूम रही थी।
वह दिव्य के कमरे को जाने कितनी बार घूम-घूमकर बड़ी ही दिलचस्पी से देख रही थी। बार-बार ड्रेसिंग टेबल के सामने खड़ी होकर अपने रूप को निहारती, मांग में भरे सिंदूर और गले में मौजूद मंगलसूत्र को अपनी उंगलियों से छूते हुए खिलखिला उठती।
इस वक़्त वह उस मासूम बच्ची जैसी लग रही थी जिसने शिद्दत से किसी चीज़ को चाहा हो, उसे पाने की कोशिश की हो और अंत में जब उसे वह चीज़ हासिल हो गई तो उसके पैर ज़मीन पर ही नहीं पड़ रहे थे, पर क्या हासिल करना ही पाना होता है?
दिव्य को हासिल करने की अपनी ज़िद पूरी करने के लिए उसने साम-दाम-दंड-भेद सब इस्तेमाल करके उसे खुद से शादी करने पर मजबूर तो कर दिया, पर क्या दिव्य के दिल में अपने लिए प्यार भी जगा लेगी? या उसकी मोहब्बत की ज़िद, दिव्य की नफ़रत की शिद्दत के आगे हार जाएगी?
To be continued…
एक तरफ़ दिव्य की आँखों में बेबसी के आँसू थे, तो दूसरी तरफ़ दृष्टि की मुस्कराहट थी जो जाने का नाम नहीं ले रही थी। वह इतनी खुश थी कि पूरे कमरे में चिड़िया सी चहकती घूम रही थी।
दिव्य के कमरे को जाने कितनी बार घूम-घूमकर बड़ी ही दिलचस्पी से देख रही थी। बार-बार ड्रेसिंग टेबल के सामने खड़ी होकर अपने रूप को निहारती, मांग में भरे सिंदूर और गले में मौजूद मंगलसूत्र को अपनी उंगलियों से छूते हुए खिलखिला उठती।
दिव्य कुछ देर छत पर अकेला खड़ा रहा। आज उसके साथ हुआ उन सबके बारे में सोचता रहा। दृष्टि के लगाए इल्ज़ाम, लोगों की बातें, मनोज जी का फैसला... जितना इन सबके बारे में सोच रहा था, उसका गुस्सा, नफरत उतनी ही ज्यादा बढ़ती जा रही थी।
मन में दृष्टि के बच्चे का ख्याल आया और नफरत से भरा, गुस्से से बौखलाया दिव्य लंबे-लंबे डग भरते हुए अपने कमरे की ओर बढ़ गया।
दृष्टि अब भी पूरे कमरे में इठलाती घूम रही थी। जब अचानक ही तेज आवाज के साथ कमरे का दरवाजा खुला और डर से दृष्टि का नाजुक वजूद कांप गया। उसने घबराकर आँखें बड़ी-बड़ी करते हुए आवाज की दिशा में नजरें घुमाईं।
सामने ही दिव्य खड़ा था। इस मासूम दिलकश चेहरे पर अपना दिल हारी थी वह, पर आज जो दिव्य उसके सामने खड़ा था, उसे देखकर उसका मन भय से भर गया।
उसे दिव्य किसी भयानक दानव जैसा लग रहा था। गुस्से से उसका पूरा वजूद कांप उठा था और आँखें ज्वालामुखी के लावा जैसे धधक रही थीं।
दिव्य ने जब पलटकर दरवाजा बंद किया तो घबराहट के मारे दृष्टि के हाथ-पैर फूलने लगे।
दिव्य नफरत भरी निगाहों से दृष्टि को घूरते हुए, धरती को अपने पैरों तले रौंदते हुए तेज कदमों से उसकी ओर बढ़ने लगा। डर के मारे दृष्टि के कदम पीछे को खिसकने लगे; यह देखकर दिव्य की भौंहे खतरनाक अंदाज़ में सिकुड़ गईं।
पीछे हटते-हटते दृष्टि दीवार से जा लगी। जब कदम और पीछे नहीं गए तो उसने सर घुमाकर पीछे खड़ी दीवार को घूरा, फिर घबराते हुए सामने की ओर नजरें घुमाईं तो दिव्य को अपने बेहद करीब पाया।
दृष्टि ने आँखें बड़ी-बड़ी करके उसे देखा और साइड से निकलने की तैयारी में थी कि दिव्य ने उसके इरादे भांपते हुए उसकी कलाई पकड़कर हाथ मरोड़ते हुए उसकी पीठ से लगाते हुए अपने करीब खींच लिया और गुस्से में जबड़े भींच लिए।
"खुश तो बहुत होगी ना आज तुम। अपनी जिद जो पूरी कर ली तुमने, मुझसे शादी करके इस वक्त मेरे ही घर, मेरे ही कमरे में मेरे सामने खड़ी हो।"
उसकी आँखों में बेशुमार नफरत और गुस्सा झलक रहा था, जिसे देखकर दृष्टि सहम गई। दिव्य से दूर होने की कोशिश करने लगी, पर वहाँ से हिल तक न सकी।
"दिव्य छोड़ो मुझे...... You are hurting me ... Leave my hand....."
अचानक ही दिव्य के चेहरे के भाव बदल गए। उसने जैसे ही उसकी कलाई छोड़ी, दृष्टि हड़बड़ाते हुए दो कदम पीछे हट गई और अपनी कलाई को अपनी हथेली से सहलाने लगी, जिस पर दिव्य के उंगलियों के निशान छप चुके थे।
"अरे हाँ मैं तो भूल ही गया। आज शादी हुई है हमारी, तुम अब पत्नी हो मेरी। आज तो हमारी शादी की पहली रात है, आज के दिन पति अपनी पत्नी को हर्ट थोड़े करता है, उसे प्यार करता है।"
दिव्य के शब्द दृष्टि के कानों से टकराए और वह आँखें बड़ी-बड़ी किए अचरज से उसे देखने लगी। दिव्य के होंठों पर शैतानी मुस्कान फैल गई। उसने फिर से दृष्टि की ओर कदम बढ़ाया तो वह घबराकर उससे दूर हट गई; यह देखकर दिव्य ने हैरानी से कहा,
"अरे तुम उधर कहाँ जा रही हो? शादी करनी थी ना तुम्हें मुझसे.... हो गई शादी.... अब तो तुम मेरी पत्नी हो तो सुहागरात नहीं मनाओगी मेरे साथ?"
दृष्टि को दिव्य से इन सबके बाद तो ऐसी बातों और हरकतों की बिल्कुल उम्मीद नहीं थी। वह फटी आँखों से अचंभित सी उसे देखे जा रही थी।
दिव्य ने जैसे ही उसे छूना चाहा, दृष्टि सहम गई। दिव्य ने बड़ी ही बेरहमी से उसकी बाँह पकड़कर उसे अपने करीब खींच लिया और तीखी निगाहों से उसे घूरते हुए जबड़े भींच लिए।
"अरे घबरा क्या रही हो?.... शादी में तुमने ही तो सबके सामने चीख-चीखकर कहा था कि हम एक-दूसरे से मोहब्बत करते हैं। हमारे प्यार की निशानी तुम्हारे अंदर पल रही है जो इस बात का गवाह है कि कितना करीबी रिश्ता रहा था हमारा।"
उसके लहज़े, व्यवहार, स्पर्श सब में उसका गुस्सा और रोष झलक रहा था, जिसकी वजह थी दृष्टि का यह झूठ जिसने उसके किरदार पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया था। दृष्टि उससे छूटने को छटपटाने लगी।
दिव्य कुछ पल खामोशी से उसे घूरते हुए उसकी कोशिशों को नाकाम होते देखता रहा, फिर उसने उसकी बाँह को मोड़कर उसकी पीठ से सटा दिया। दर्द से दृष्टि की बड़ी-बड़ी नर्गिज आँखों में गुलाबी पानी तैरने लगा।
"किसका बच्चा है यह?" दिव्य ने दूसरी हथेली से उसकी कमर को बड़ी ही बेरहमी से दबा दिया। दृष्टि के थरथराते होंठों से दर्द भरी सिसकी निकल गई।
"तुम्हारा है।" अपने दर्द को छुपाकर उसने होंठों पर मुस्कान सजा दी, जिससे दिव्य का खून खौल गया और उसने झटके से उसे खुद से दूर धकेल दिया।
"बकवास बंद करो अपनी..... तुम्हारे इस झूठ पर मेरे परिवार वाले आँख बंद करके विश्वास कर सकते हैं पर मुझे तुम अपने इस झूठ के जाल में नहीं फँसा सकती...... क्योंकि मैं बहुत अच्छे से जानता हूँ कि हमारे बीच कभी ऐसा कोई रिश्ता नहीं बना कि तुम प्रेग्नेंट हो जाओ।"
उसके यूँ अचानक धक्का देने से दृष्टि का पैर उसके लहंगे में फंस गया, उसका बैलेंस बिगड़ा और वह गिरते-गिरते बची। उसने निगाहें उठाकर उसे देखा और कुटिलता से मुस्कुरा दी।
"यह तो सिर्फ़ तुम और मैं जानते हैं। तुम्हारे परिवार वाले और यह दुनिया तो उसी को सच मानेगी जो मैं उन्हें बताऊँगी और दिखाऊँगी।"
दृष्टि का यह अंदाज़ और बेशर्मी भरी मुस्कराहट देखकर गुस्से से दिव्य का दिमाग भन्ना गया। उसने आव देखा न ताव और सीधे उसके गाल को दबोच लिया।
"मैं जान से मार दूँगा तुम्हें....... सच-सच बताओ किसका पाप मेरे माथे मढ़ने आई हो?"
दिव्य की उंगलियाँ उसके कोमल गालों पर गड़ने लगीं। दिव्य के तीखे शब्द उसके दिल को भेद गए। अपनी सारी ताकत लगाते हुए उसने दिव्य को खुद से दूर धकेला और गुस्से से चीख उठी,
"दिव्य!"
"चिल्लाओ मत।" दिव्य गुस्से में चीखा जिसके नीचे दृष्टि का गुस्सा भी दब गया। पर दिव्य का पूरा शरीर गुस्से से कांप गया था।
"चिल्लाओ मत.... कुछ गलत नहीं कहा है मैंने जो इतना बुरा लग रहा है तुम्हें.... मैं तो तुम्हें ठीक से जानता तक नहीं, गिनती की तीन-चार मुलाकातें हुई हैं हमारी। हमारे बीच तो कभी कुछ हुआ नहीं.... फिर भी अगर तुम कहती हो कि तुम प्रेग्नेंट हो, इसका मतलब साफ़ है कि इस बच्चे का बाप मैं नहीं।.... तुम तो अपनी मोहब्बत के बहुत दावे किया करती थीं ना, अब क्या हुआ उस मोहब्बत को? किसी और के साथ सोकर आ गई मेरे पास?......"
दिव्य का कहा एक-एक शब्द दृष्टि की इज़्ज़त की धज्जियाँ उड़ा गया था, उसके दिल को चीर गया था। उसके शब्दों में अपने लिए नफरत और खुद पर लगा यह इल्ज़ाम दृष्टि सह न सकी और दर्द से चीख उठी,
"बस करो दिव्य, मैंने ऐसा कुछ नहीं किया है।"
"तो यह बच्चा कहाँ से आया तुम्हारे अंदर?" दिव्य गुस्से से दहाड़ा। दृष्टि भी उतनी ही तेज आवाज में चिल्लाई,
"कोई बच्चा नहीं.... सुना तुमने.... कोई बच्चा नहीं। झूठ कहा था मैंने ताकि तुम्हें शादी के लिए मजबूर कर सकूँ। मैंने तुम्हारे अलावा कभी किसी की ओर देखा तक नहीं है.... आज भी virgin हूँ मैं...... और मुझे छूने का, मुझसे मोहब्बत करने का हक़ सिर्फ़ और सिर्फ़ तुम्हें दिया है मैंने।"
"Ohh तो यह सारा नाटक सिर्फ़ मुझसे शादी करने के लिए किया गया था.... but मिस दृष्टि आज तो तुमने सबको झूठी कहानी सुनाकर अपनी जिद पूरी कर ली। पर सोचा है कि जब बाद में सब बच्चे के बारे में सवाल करेंगे, तब क्या जवाब दोगी उन्हें?.... जब तुम प्रेग्नेंट ही नहीं तो बच्चा कहाँ से लेकर आओगी? तुम्हारे इस नाटक पर से तो बहुत जल्द खुद ब खुद ही पर्दा उठ जाएगा और सारा सच सबके सामने होगा।.......
वैसे मैं चाहूँ तो अभी तुम्हारा झूठ सबके सामने ला सकता हूँ। फिर वही लोग जो तुम्हें इस घर में लेकर आए हैं, धक्के मारकर तुम्हें इस घर से बाहर निकालेंगे...... पर तुम्हारे तरह बेशर्म और बेगैरत नहीं मैं, जो सबके सामने एक लड़की की इज़्ज़त का तमाशा बनाऊँ, उसे जलील करूँ।
इसलिए रहो जब तक अपने झूठ को छुपाकर यहाँ रह सको पर मुझसे कोई उम्मीद मत रखना। याद रहे कि यह शादी तुम्हारी जिद, तुम्हारा जुनून है.... मेरी नज़र में इस रिश्ते का कोई अस्तित्व नहीं, कोई रिश्ता नहीं मेरा तुमसे, कुछ नहीं लगती तुम मेरी और मैं सिर्फ़ और सिर्फ़ नफ़रत करता हूँ तुमसे।"
दिव्य ने दृष्टि को नफरत और हिकारत भरी नज़रों से घूरते हुए अपनी बात पूरी की और जैसे ही जाने को पलटा, दृष्टि ने हड़बड़ी में उसे पुकारा,
"दिव्य कहाँ जा रहे हो मुझे यहाँ अकेला छोड़कर?"
दिव्य के आगे बढ़ते कदम ठिठके और चेहरा गुस्से से तमतमा उठा।
"कहीं भी जाऊँ तुम्हें कोई हक़ नहीं मुझसे सवाल-जवाब करने का। अपनी हद में रहो, ज़बरदस्ती शादी कर ली है इसका मतलब यह बिल्कुल नहीं कि बीवी बनकर मेरे सर पर ही सवार हो जाओगी।"
दिव्य ने रूखे अंदाज़ में उसे हड़काया और गुस्से में वहाँ से चला गया। पीछे खड़ी दृष्टि जो कुछ देर पहले तक दिव्य की पत्नी बनकर खुशी से सातवें आसमान में उड़ती फिर रही थी, एकदम से उसका सामना उसकी ज़िंदगी की कड़वी हकीकत से हुआ और आकाश से सीधे धरातल पर आ गिरी। उसकी बाँह और गर्दन पर दिव्य अपनी छाप छोड़ गया था।
हालाँकि यह स्वभाव नहीं था उसका, पर इस वक्त गुस्सा इस कदर उस पर हावी था कि उसे खुद को एहसास नहीं हुआ कि वह क्या कर गया है?
दृष्टि ने मुँह बिचका लिया, आँखों में कैद आँसू उसके सुरख़ गालों पर लुढ़क गए।
"तुम नाराज़ हो ना मुझसे, इसलिए इतना गुस्सा कर रहे हो। मैं जानती हूँ.... तुम ऐसे नहीं हो। तुम तो बहुत स्वीट हो तभी तो मुझे इतने पसंद हो।... देखना मैं बहुत जल्दी तुम्हारी सारी नाराज़गी दूर करके तुम्हें मना लूँगी। तुम्हारे साथ रहूँगी तो जैसे मुझे तुमसे प्यार है, तुम्हें भी मुझसे मोहब्बत हो जाएगी।"
दृष्टि ने अपने आँसू पोंछे और एक बार फिर उसके गुलाबी होंठों पर मीठी सी मुस्कान बिखर गई। दिव्य के इतने बेरुखी भरे रूड बिहेवियर के बावजूद वह खुश थी क्योंकि अब दिव्य उसका था और वह उसके साथ रहने वाली थी।
आधी रात तक दिव्य गुस्से में छत पर टहलता रहा। इतने दिनों की शादी की थकावट और कल से अब तक का तनाव। उसके ज़हन और शरीर दोनों अब बुरी तरह थक चुके थे। जब नींद उस पर हावी होने लगी तो वहीं चटाई डालकर लेट गया।
To be continued…
अगली सुबह, सूरज की किरणें दिव्य के चेहरे पर पड़ीं और नीचे से आती आवाज़ों ने उसकी नींद खराब कर दी। पहले तो नींद इतनी गहरी थी कि वह सब नज़रअंदाज़ करके सोने की कोशिश करता रहा, पर अचानक ही उसके मन में कुछ आया और वह एकदम से उठकर बैठ गया। घबराई निगाहें आस-पास घुमाईं; खुद को अकेला पाकर उसने गहरी साँस ली। अगर किसी ने उसे वहाँ सोता देख लिया होता, तो बड़ा बवाल होता।
दिव्य नींद से बोझिल कदमों को लगभग घसीटते हुए, बेमन से अपने कमरे में लौटा। नज़र दृष्टि पर गई जो हर बात से बेखबर, सुकून की नींद सो रही थी। न शादी का जोड़ा बदला था और न ही गहने उतारे थे; सोते हुए वह मासूम सी बच्ची लग रही थी। हसीन तो बेतहाशा थी और दुल्हन के रूप में बेहद दिलकश लग रही थी।
पर गुस्से में जलते दिव्य के लिए उसकी मासूमियत भी धोखा थी, फरेब था, छल था। उसने हिकारत भरी नज़र उस पर डाली और बेड के दूसरे वाले खाली साइड आ गया। कुछ देर अपने बेड पर सोती दृष्टि को घूरता रहा, फिर बेड पर पेट के बल पड़ गया। कुछ ही देर में नींद उसकी आँखों में समा गई।
कुछ वक़्त गुज़रा, दिन चढ़ने लगा, पर दोनों ही गहरी नींद में सो रहे थे। उनके दरवाज़े पर लगातार कोई दस्तक दे रहा था। दृष्टि तो कुंभकरण जैसे इत्मिनान से सोती रही, पर इस शोर से दिव्य की नींद खराब हो गई। वह खीझते हुए उठकर बैठा। उबासी लेते हुए एक नज़र बेड के दूसरे तरफ सोई दृष्टि को देखा जो उसकी ज़िंदगी में तबाही मचाकर खुद शौक से सो रही थी।
मन गुस्से और चिढ़ से भर गया। दृष्टि जिस चादर में लिपटी सो रही थी, दिव्य ने उस चादर को पकड़ा और झटके से खींचा; तो दृष्टि रोल होती-होती सीधे बेड से नीचे जा गिरी।
दर्द से उसकी चीख निकल गई, पर नींद की खुमारी अब भी पूरी तरह से उसके सर से नहीं उतरी थी। अपनी बैक को सहलाते हुए वह उठकर बैठ गई। गालों को गुब्बारों जैसे फुलाए, खुद में ही बड़बड़ाने लगी।
उसके होंठ हिल रहे थे, पर क्या बड़बड़ा रही थी यह दिव्य नहीं सुन पाया। हाँ, उसकी नाराज़गी से फुले गाल और भीगी पलकें बहुत कुछ बयाँ कर रही थीं, पर अब भी वह आँखें खोलने को तैयार नहीं थी; यह देखकर दिव्य चिढ़ गया।
"अगर नींद में बड़बड़ाने से फुर्सत हो, तो जाकर दरवाज़ा खोलो और देखो कौन है।"
दृष्टि के कानों में जैसे ही दिव्य के बेरुखी भरे कड़वे शब्द पड़े, वह आँखें बड़ी-बड़ी करके उसे देखने लगी। उसकी नर्गिस आँखें, कुछ अधूरी नींद, तो कुछ आँसुओं के कारण गुलाबी रंग में लिपटी, बेहद प्यारी लग रही थीं।
"तुमने मुझे बेड से गिराया ना।" दृष्टि ने मुँह फुलाए, आँखें छोटी-छोटी करके उसे घूरा। जवाब में दिव्य ने बेपरवाही से कंधे उचकाए और तीखी निगाहों से उसे घूरते हुए, धमकी भरे लहज़े में बोला,
"बहुत शौक था ना तुम्हें मुझसे शादी करने का, तो अब उठो और जाकर एक अच्छी बहू होने का फ़र्ज़ निभाओ। याद रहे, अगर तुम्हारे कारण अब मेरे परिवार को किसी के आगे शर्मिंदा होना पड़ा, तो मुझसे बुरा कोई नहीं होगा तुम्हारे लिए।"
"अभी तुमसे बुरा कोई और है भी नहीं। दुनिया में कौन सा हसबैंड अपनी वाइफ को ऐसे उठाता है?"
दृष्टि ने नाराज़गी से उसे घूरा; बदले में दिव्य ने भी उसे घूरते हुए गुस्से में जबड़े भींच लिए।
"जिसकी वाइफ तुम्हारी जैसी होती है, वो। करना तो और भी बहुत कुछ चाहता हूँ मैं, पर मेरे संस्कार मुझे इसकी इजाज़त नहीं देते।...
अब घूर क्या रही हो मुझे?... ज़्यादा नखरे दिखाने की ज़रूरत नहीं है, मैं यहाँ तुम्हारे नाज़-नखरे उठाने नहीं बैठा हूँ। चुपचाप अपना हुलिया ठीक करो और जाकर देखो कि दरवाज़े पर कौन है और याद रहे, अगर तुम्हारे वजह से मेरी नींद खराब हुई, तो आगे की सारी रात तुम जागकर काटोगी।"
दिव्य ने उसे धमकी दी और मुँह फेरकर वापिस सो गया। दृष्टि, जो आँखें बड़ी-बड़ी करके उसे देखे जा रही थी, उसने मुँह ऐंठ लिया और मन ही मन उसे कोसती हुई उठकर दरवाज़े की ओर बढ़ गई।
"जल्लाद कहीं का..... मुझे उठाकर बेड से नीचे पटक दिया। इतना दर्द हो रहा है बॉडी में..... खुद कैसे सो रहा है और मेरी नींद खराब कर दी।"
यूँ ही बड़बड़ाते हुए, अतरंगी चेहरा बनाते हुए वह गेट के पास पहुँची और गेट खोल दिया। सामने खड़ी गायत्री जी को देखते ही उसके गुलाबी होंठों पर मीठी सी मुस्कान बिखर गई।
"Good morning आंटी।"
"आंटी नहीं, मम्मी कहो बहू, दिव्य और गरिमा जैसे अब से हम आपकी भी मम्मी हैं।"
गायत्री जी ने स्नेह से उसके गाल को छूते हुए उसे प्यार से समझाया। उनकी बातों में छलकते अपनेपन और स्पर्श में स्नेह महसूस करते हुए, जाने दृष्टि के दिमाग में क्या आया कि वह उनके गले से लग गई।
"सॉरी मम्मा, अब से मैं आपको मम्मा ही कहूँगी।" गायत्री जी जो उसके अचानक गले लगने से चौंक गई थीं, उसकी बात सुनकर खुद को मुस्कुराने से न रोक सकीं। उसकी मीठी सी आवाज़ उनके मन से सारी बदगुमानी और नाराज़गी खत्म करने का काम कर रही थी।
"मम्मा आप बहुत स्वीट हैं, पर आपका बेटा बहुत रूड है।"
दिव्य के ज़िक्र के साथ ही उसका चेहरा अजीब सा हो गया। मन नाराज़गी से भर गया।
गायत्री जी समझ गईं कि दोनों के बीच कुछ हुआ है। अंदर से आती आवाज़ें भी सुन चुकी थीं वह और अंदाज़ा भी था कि इतनी जल्दी दिव्य दृष्टि को नहीं अपनाएगा।
"अभी दुखी और परेशान है वो, दिल के बुरे नहीं है।" उन्हें अपने बेटे की पैरवी करते देखकर दृष्टि खिलखिला उठी।
"मैं जानती हूँ, वो बहुत स्वीट और इनोसेंट है, तभी तो मुझे इतना पसंद है।"
"आप चाहती हैं दिव्य को?"
गायत्री जी ने गहरी निगाहों से उसे देखते हुए सवाल किया, जैसे जाँच रही हों उसे। उनका सवाल सुनकर दृष्टि ने चहकते हुए हामी भर दी।
"बहुत-बहुत-बहुत ज़्यादा... पर वो समझता ही नहीं है। उसे मेरी और मेरे प्यार की बिल्कुल भी वैल्यू नहीं है। पर मैं भी दृष्टि भार्गव हूँ। जैसे उसकी ज़िंदगी में शामिल हो गई हूँ, उसके दिल में एंट्री ले लूँगी और वो कुछ नहीं कर पाएगा।"
बड़बोली दृष्टि ने यह तक ध्यान नहीं दिया कि किसके सामने क्या बोल रही है? एक दिन की दुल्हन का यह रूप अप्रत्याशित था। वह खुद पर इतराते हुए जो मन में था, बोले जा रही थी और गायत्री जी बेहद ध्यान से उसकी बात सुन रही थीं।
"बहू, आपने रात को गहने नहीं उतारे, कपड़े नहीं बदले। ऐसी ही सो गई थी?"
गायत्री जी ने उसे कल वाले रूप में देखते हुए सवाल किया। दृष्टि का ध्यान भी खुद पर गया और उसने अपनी जीभ को दाँतों तले दबा लिया। क्यूट सी शक्ल बनाते हुए गायत्री जी की ओर नज़रें उठाईं।
"दिव्य कहाँ है?"
गायत्री जी के इस सवाल पर दृष्टि ने सर घुमाकर बेड की ओर देखा और बच्चों जैसे मुँह बिचोर लिया।
"सो रहा है।"
"सो रहा नहीं, सो रहे हैं। अब वो पति है आपके, आप करके इज़्ज़त से बात कीजियेगा उनसे।"
गायत्री जी ने उसकी गलती सुधारते हुए उसे समझाया, तो दृष्टि ने अच्छे बच्चे जैसे झट से अपना सर हिला दिया।
"सो रहे हैं वो।"
"उठा दीजिए उन्हें और आप भी नहाकर तैयार हो जाइए। ये पहनिएगा।"
गायत्री जी ने उसे कपड़े और गहने दिए और सर पर हाथ फेरते हुए वहाँ से चली गईं। दरवाज़ा बंद करके दृष्टि वापिस अंदर चली आई। सारा समान बेड पर रखा और बाथरूम में चली गई।
दिव्य की नींद तो पहले ही उजड़ चुकी थी। ज़बरदस्ती आँखें मूँदकर सोने का नाटक कर रहा था वह और लेटे-लेटे अपनी माँ और दृष्टि की सारी बातें सुन रहा था। उसके कानों में जब बाथरूम के दरवाज़े के बंद होने की आवाज़ पड़ी, तो उसने धीरे से आँख खोलकर बाथरूम के दरवाज़े को देखा और जब विश्वास हो गया कि दृष्टि अंदर जा चुकी है, तो उठकर बैठ गया।
फ़ोन बजा, स्क्रीन पर सौरभ नाम देखकर दिव्य ने बेमन से फ़ोन उठा लिया। कॉल पिक करते हुए, दूसरे तरफ़ से एक लड़के की खुशी और शरारत से भरी आवाज़ उभरी।
"और दुल्हे राजा, क्या हाल है तेरे? कैसी रही भाभी के साथ तेरी first night?... जागृति भाभी को सारी रात जगाकर तो नहीं रखा तूने?"
यह सौरभ था, दिव्य का बचपन का दोस्त। एन वक़्त पर उसकी नानी की तबीयत खराब हो गई और मजबूरी में अपनी मम्मी के साथ उसे जाना पड़ा। जिसके वजह से वह अपने ही जिगरी यार की शादी में शामिल न हो सका। वह यहाँ था ही नहीं, इसलिए उसके पीछे यहाँ क्या कुछ हो गया इसकी खबर भी नहीं थी उसे।
वह तो मज़ाक में अपने यार को छेड़ रहा था, पर दिव्य चिढ़ गया।
"मुँह बंद कर अपना, तुम्हारी यह बकवास सुनने का बिल्कुल मन नहीं है अभी हमारा।"
"हाँ भई..... अब तो तुझे हमारी बातें बकवास ही लगेंगी, बातें तो भाभी से करेगा ना।" सौरभ ने फिर नौटंकी भरे अंदाज़ में झूठ-मुठ की नाराज़गी दिखाते हुए उस पर तंज कसा। अबकी बार दिव्य का सब्र जवाब दे गया और गुस्से से उसका चेहरा तप गया।
"सौरभ, पहले ही हमारा दिमाग खराब है, तुम और चले आए हमारे ज़ख़्मों पर नमक छिड़कने। मुँह बंद करो अपना, नहीं तो फ़ोन में घुसकर एक मुक्के में मुँह तोड़ देंगे तुम्हारा।"
दिव्य की धमकी सुनकर सौरभ ने अजीब सा मुँह बनाया, पर बाज़ तो वह अब भी न आया।
"क्या हुआ यार, इतना भड़क क्यों रहा है? कहीं शादी की पहली ही रात भाभी ने तुझे उठाकर तेरे ही कमरे से बाहर तो नहीं पटक दिया, जो सुबह-सुबह मूड इतना खराब है और उनका गुस्सा और चिढ़ मुझ पर निकाल रहा है?"
फिर उसने दिव्य को छेड़ा और अपनी ही बात पर खी-खी करके हँसने लगा। दिव्य का खून खौल उठा उसकी इस हरकत पर।
"तुझे समझ नहीं आ रहा कि इस बारे में हमें अभी कोई बात नहीं करनी है... हमें अभी किसी से बात ही नहीं करनी है। फ़ोन रखो साले और जब तक दिमाग ठिकाने पर न आए, दोबारा फ़ोन नहीं करना हमें।"
दिव्य ने एक ही बार में उसकी सारी शरारत निकाल दी। उसे इस कदर गुस्से में देखकर सौरभ चौंक गया।
"अरे मेरे भोले भंडारी, तुझे क्या हो गया यार?... मैं तो बस ऐसे ही तुझे छेड़ रहा था, थोड़ी मस्ती कर रहा था, पर तू तो भड़क ही गया। सब ठीक तो है?....."
दिव्य को अब एहसास हुआ, उसने अपने गुस्से पर काबू करते हुए बुझे स्वर में बोला,
"कुछ भी ठीक नहीं है और तेरे पीछे यहाँ इतना कुछ हो गया है कि हम तुम्हें अभी बता भी नहीं सकते। जब वापिस आओ तब मिलना हमसे, इत्मिनान से तुम्हें अपनी बर्बादी की कहानी सुनाएँगे। अभी फ़ोन रखो...."
दिव्य ने सौरभ के जवाब का भी इंतज़ार नहीं किया और फ़ोन काट दिया, क्योंकि दृष्टि बाथरूम से बाहर आ चुकी थी और अभी दिव्य सौरभ को उसके और दृष्टि की शादी की भनक भी नहीं लगने देना चाहता था।
दृष्टि, जो दिव्य को फ़ोन पर बात करते हुए चुप सी खड़ी थी, फ़ोन कटते ही उसके पास पहुँच गई।
To be continued…
"दिव्य, अंदर तो बाथटब, बॉडी वॉश, फेस वॉश, बाथरोब...कुछ भी नहीं है, मैं बाथ कैसे लूँगी?"
"वो तुम्हारी प्रॉब्लम है, मेरी नहीं। शौक तुम्हें चढ़ा था मुझसे शादी करने का, तो अब जैसे मैं रहता हूँ, वैसे ही रहना होगा तुम्हें। मेरा घर है ये और मैं तुम्हारे तरह अमीर बाप की बिगड़ी औलाद नहीं, तो ये सारे नखरे तुम अपने घर जाकर दिखाना। यहाँ जो और जितना मिल रहा है, उसी में काम चलाना सीखो और अगर ये तुम्हारे बस की नहीं, तो दरवाज़ा वहाँ है। अपना थोपड़ा उठाओ और निकल जाओ मेरे घर, मेरे कमरे और मेरी ज़िंदगी से।"
वह बेचारी तो अपनी परेशानी लेकर दिव्य के पास आई थी, पर दिव्य ने गुस्से में उसे इतना कुछ सुना दिया कि वह फटी आँखों से उसे देखती ही रह गई। दिव्य की बेरुखी उसके मासूम से दिल को आहत कर गई।
"इतनी आसानी से तो मैं तुम्हारा पीछा नहीं छोड़ूँगी।"
दृष्टि ने तुनकते हुए कहा और कपड़े लेकर, मुँह फुलाते हुए वापिस बाथरूम में चली गई। उसके लिए तो यहाँ कुछ था ही नहीं; यह देखकर वह उदास हो गई। मुँह बनाते हुए वहाँ रखे साबुन को कुछ देर तक घूरती रही, फिर उसी से मुँह धोकर खाली पानी से ही नहा लिया; अंदर रखे शैंपू से ही अपने बाल धो लिए। सब करने को तैयार थी वह, बस दिव्य को छोड़ने को राज़ी नहीं थी।
कमरे में, बेड पर पैर पसारे बैठा दिव्य अपने फ़ोन संग टाइम पास कर रहा था। बाहर मेहमान थे, तो जा नहीं सकता था; वरना मन तो उसका एक पल भी यहाँ रुकने का नहीं था।
कानों में अजीब सी आवाज़ पड़ी, तो दिव्य की तंद्रा टूटी। नज़र अनायास ही आवाज़ की दिशा में घूम गई और अगले ही पल वह निगाहें फेरते हुए चीख पड़ा,
"क्या बेहूदा हरकत है ये?"
दृष्टि उसकी आवाज़ सुनकर चौंक गई और आँखें बड़ी-बड़ी करके उसे देखने लगी।
"क्या हुआ?...अब मैंने क्या कर दिया जो तुम सुबह-सुबह चिल्लाने लगे?"
दृष्टि के लापरवाही से किए सवाल को सुनकर दिव्य गुस्से से भर गया।
"ये आधे-अधूरे कपड़े पहनकर कहाँ चली आ रही हो तुम?...कुछ शर्म-हया बाकी है या पूरी की पूरी बेशर्म ही हो...अंदर जाओ वापिस।"
दिव्य फिर उस पर चीखा, पर एक बार भी उसने नज़र उठाकर उसे नहीं देखा। दृष्टि ने नज़रें झुकाकर खुद को देखा। बस पेटीकोट और ब्लाउज़ में ही बाथरूम से बाहर निकल आई थी वह; उस पर भी ब्लाउज़ ज़रा लूज़ था, जिससे गला लटक रहा था और उसके क्लीवेज का हिस्सा उजागर हो रहा था। उसकी गोरी पतली कमर और पेट भी पूरी तरह से खुला था।
यही वजह थी कि दिव्य गलती से भी उसकी तरफ़ नहीं देख रहा था, पर दृष्टि को इन बातों से कोई फ़र्क ही नहीं पड़ा। उसे आदत थी, one piece वगैरह पहनती थी, तो उसे कुछ गलत नहीं लगा।
"सुनाई नहीं दिया तुम्हें, अंदर जाकर पूरे कपड़े पहनो?" उसकी मौजूदगी को महसूस करते हुए दिव्य फिर से चिल्लाया। दृष्टि ने तपाक से जवाब दे दिया,
"अरे नहीं जा सकती ना, पूरा बाथरूम तो मैंने गीला कर दिया, साड़ी गीली हो जाएगी तो मैं पहनूँगी क्या?"
उसने अपनी नर्गिस आँखों को बड़ा-बड़ा करते हुए, आँखें मटकाते हुए इतनी मासूमियत से कहा कि दिव्य पल भर को उस छोटे से मासूम चेहरे पर बिखरी मासूमियत देखकर पिघल गया। अगले ही पल नज़र उसकी खुली कमर, पेट और सीने पर गया और उसने गुस्से में जबड़े भींच लिए।
"बड़ी ही बेहूदा और बेशर्म लड़की हो तुम। पहले मेरी शादी में आकर इतनी बकवास बातें कही और अब ये आधे-अधूरे कपड़े पहनकर यहाँ अपने जिस्म की नुमाइश करने चली आई।"
दिव्य ने धधकती निगाहों से उसे घूरा, तो दृष्टि ने मुँह बना लिया। इतने बोलने पर भी दृष्टि वापिस बाथरूम में नहीं गई। ढीठ बनी वहीं खड़ी रही; अंत में झुंझलाते हुए दिव्य ने ही वहाँ से जाने का फैसला कर लिया।
दिव्य ने जैसे ही बेड से उतरकर जाने को कदम उठाया, दृष्टि की आँखों की पुतलियाँ फैल गईं। उसने हड़बड़ाते हुए उसे पुकारा,
"दिव्य।"
"क्या है?"
दिव्य ने चिढ़ते हुए, रूखे अंदाज़ में सवाल किया। दृष्टि ने झट से कहा,
"तुम कहाँ जा रहे हो, रुको ना यहीं।"
"तुम अपनी शर्म-हया सब बेच आई हो, पर मैं अब तक तुम्हारे लेवल जितना नीचे नहीं गिरा हूँ जो बेशर्मों जैसे यहाँ खड़े होकर तुम्हें कपड़े पहनते देखूँ।" दिव्य ने फिर तबीयत से उसे झाड़ा। वह फिर जाने लगा, तो दृष्टि फिर से हड़बड़ाते हुए बोल पड़ी,
"अरे पर अगर तुम चले गए, तो मुझे ये इतनी बड़ी और लंबी साड़ी कौन पहनाएगा?"
दृष्टि की बात सुनकर दिव्य बुरी तरह चौंक गया। उसके आगे बढ़ते कदम ठिठक गए और वह झटके से उसकी ओर पलटा,
"क्या मतलब?"
"मैंने पहले कभी साड़ी नहीं पहनी ना, तो मुझे तो साड़ी पहननी ही नहीं आती। देखो तो कितनी लंबी है, मैं तो इसके अंदर ही उलझ जाऊँगी। तुम मेरी हैल्प कर दो ना, जल्दी से मुझे अच्छी सी साड़ी पहना दो ताकि मैं मम्मा को इम्प्रेस कर दूँ।"
दृष्टि ने मासूम सी सूरत बनाकर अपनी तितली जैसी पलकों को झपकाया। दिव्य को मक्खन लगाने की कोशिश की और चंचल मुस्कान उसके लबों पर बिखर गई।
दिव्य जो पहले हैरान था, उसकी आखिरी की बात सुनकर त्योरियाँ चढ़ाए उसे घूरने लगा।
"दिमाग-विमाग तो खराब नहीं हो गया है तुम्हारा......मैं तुम्हें साड़ी पहनाऊँगा, अपनी माँ को इम्प्रेस करने में तुम्हारी हेल्प करूँगा......तुमने ये सोच भी कैसे लिया?"
दिव्य गुस्से से दहाड़ा, तो दृष्टि मासूम सी सूरत बनाए, बेचारगी से उसे देखने लगी।
"दिव्य, अपना गुस्सा बाद में उतार लेना ना मुझ पर, अभी मेरी हेल्प कर दो, please। मम्मा ने मुझे जल्दी नीचे आने कहा है ना, अगर मैं साड़ी ही नहीं पहन पाऊँगी तो रेडी कैसे होऊँगी?...नीचे कैसे जाऊँगी?"
"वो तुम्हारी प्रॉब्लम है, मेरी नहीं। साड़ी पहनकर जाओ, लपेटकर जाओ या ऐसी ही नीचे चली जाओ......मुझे कोई फ़र्क नहीं पड़ता तुमसे।"
दिव्य ने बेपरवाही से टका-सा जवाब दिया। उसकी बेरुखी भरा जवाब सुनकर दृष्टि ने निचले होंठ को बाहर निकालते हुए मुँह बिचका लिया।
"दिव्य, मैं वाइफ हूँ तुम्हारी, तुम मेरे साथ इतना रूड बिहेव कैसे कर सकते हो?"
दृष्टि ने नाराज़गी ज़ाहिर की और दिव्य ने कठोर स्वर में उसे टोक दिया, "वाइफ नहीं, मजबूरी की वाइफ हो और ज़बरदस्ती मेरे गले पड़ गई हो, वरना तुम जैसी लड़की को तो मैं अपने आस-पास भी न भटकने दूँ।"
"मेरे जैसी लड़की से क्या मतलब है तुम्हारा?...क्या कमी है मुझमें?"
"तुम्हें नहीं पता?" दिव्य ने आँखें चढ़ाते हुए, तंजिया निगाहों से उसे घूरा। दृष्टि ने नाक सिकोड़ते हुए, इंकार में सर हिला दिया।
"नहीं...मुझे नहीं पता।"
दिव्य ने अपने जबड़े भींच लिए और घृणा भरी नज़रों से उसे घूरने लगा।
"तुम एक निहायती बेशर्म, बेहया और बेहूदा लड़की हो। जिसको अपनी इज़्ज़त की कोई परवाह नहीं और अपनी ज़िद पूरी करने के लिए वह किसी भी हद तक गिर सकती है, किसी की भी ज़िंदगी बर्बाद कर सकती है, किसी के भी पाक किरदार को दागदार कर सकती हो। जिसे यह तक नहीं पता कि कहाँ, कब और क्या कहना चाहिए।"
चंद अल्फ़ाज़ों में दिव्य अपना सारा गुस्सा ज़ाहिर कर गया था और दृष्टि उसके आगे शर्मिंदा होने पर मजबूर हो गई थी।
"देखो...इतना मत सुनाओ मुझे, मैं इतनी भी बुरी नहीं हूँ। मैंने जो किया, सिर्फ़ तुम्हारे लिए किया, मैं बहुत प्यार करती हूँ तुमसे।"
दृष्टि की यह प्यार की दुहाई सुनकर, दिव्य की त्योरियाँ चढ़ गईं, अल्फ़ाज़ों में कड़वाहट घुलने लगी और वह नफ़रत से उसे घूरने लगा।
"तुम और तुम्हारा स्वार्थी प्यार, मेरे गले में पड़ा फाँसी का फँसा बन गया है...नफ़रत करता हूँ मैं तुमसे...बेइंतेहा नफ़रत करता हूँ, मेरा बस नहीं चल रहा, वरना मैं तुम्हें अपनी ज़िंदगी और अपने घर में एक सेकंड भी बर्दाश्त ना करूँ, उठाकर ऐसी जगह फेंक आऊँ कि लौटकर कभी वापिस मेरे पास न आ सको।"
"कितने रूड हो तुम...पर फिर भी मुझे बहुत पसंद हो।"
दृष्टि ने नाराज़गी से नाक सिकोड़ी और गुलाबी लब मुस्कुरा उठे। दिव्य उसकी बात सुनकर अचरज से उसे देखने लगा और उसकी मुस्कराहट देखकर बुरी तरह खीझ उठा।
"पागल-वागल हो क्या तुम?"
"तुम्हारे प्यार में।" दृष्टि ने मोहब्बत भरे अंदाज़ में जवाब दिया, जिससे दिव्य और ज़्यादा झुंझला गया।
"Just go to hell."
"वहाँ भी चली जाऊँगी अगर तुम साथ चलो तो।" दृष्टि एक बार फिर मुस्कुराई। दिव्य आँखें छोटी-छोटी करके गुस्से से उसे घूरने लगा।
"मैं क्यों जाऊँगा नर्क में?...काम तुमने वहाँ जाने वाले किए हैं तो तुम ही जाओ, वह भी अकेले। इसी बहाने मेरा पीछा तो छूटेगा तुमसे।"
"हाँ, अब मेरे मरने के बाद ही तुम्हारा मुझसे पीछा छूटेगा।" दृष्टि ने तपाक से जवाब दिया और मुस्कुराई। दिव्य बुरी तरह खीझ उठा।
दृष्टि ने पल भर ठहरते हुए आगे कहना शुरू किया,
"अच्छा, अब तो लड़ लिए ना तुम मुझसे, अब आकर मेरी हेल्प भी कर दो। देखो तो कितनी लंबी साड़ी है, मैंने तो पहले कभी किसी को पहनते तक नहीं देखा है। मैं कैसे पहन पाऊँगी? तुम पहना दो ना मुझे, सोचो तुम्हारी वाइफ सबके सामने ऐसे जाएगी तो कैसा लगेगा तुम्हें?...और तुम्हारे मम्मी-पापा की कितनी इन्सल्ट हो जाएगी।"
दृष्टि ने आखिरी दाव चला था। उसके माँ-बाप उसकी कमज़ोरी थे और उसी कमज़ोरी का फ़ायदा उठाना चाहती थी; यह देखकर दिव्य का खून खौल गया और वह दृष्टि को घूरते हुए, बिना कुछ कहे ही रूम से बाहर निकल गया।
दृष्टि ने मुँह बिचका लिया, कभी उदास निगाहों से कमरे के बंद दरवाज़े को देखती, तो कभी मायूसी से साड़ी को।
दिव्य कमरे से निकलकर सबसे बचते-बचाते रसोई में पहुँचा। जिसकी नज़र उस पर पड़ती, वही उसे छेड़ देता। कुछ रिश्तेदार तो अजीब नज़रों से उसे घूर रहे थे।
दिव्य का मन तो कर रहा था कि इन सबसे कहीं दूर भाग जाए, ताकि किसी की नज़रों का सामना ना करना पड़े, बार-बार अपने किरदार की सफ़ाई ना पेश करनी पड़े, लोगों की बातों से शर्मिंदा ना होना पड़े, पर अफ़सोस की बात है कि अभी यह मुमकिन नहीं था।
किचन में गरिमा जी, गायत्री जी संग मिलकर मेहमानों के चाय-नाश्ते का इंतज़ाम कर रही थीं।
"दी।"
झिझकते हुए दिव्य ने उन्हें पुकारा, उन्होंने भी तुरंत ही पलटकर उसे देखा।
"हाँ दिव्य...चाय चाहिए तुम्हें भी?"
"नहीं...अभी मुँह नहीं धोया है हमने।" दिव्य ने झट से इंकार में सर हिला दिया। गरिमा जी उसके पास चली आईं और प्यार से उसके गाल को छूते हुए बोलीं,
"अब ठीक हो तुम? जाओ जाकर मुँह-हाथ धो लो। सबके लिए चाय बनाई है।"
वह इतना कहकर वापिस गैस के पास आने लगी, पर दिव्य अब भी वहीं खड़ा, सोचता रहा कि जो बात करने आया है वह कैसे कहे? जब गरिमा जी को एहसास हुआ कि दिव्य अब भी वहीं खड़ा है, तो वापिस उसकी ओर पलट गईं। दिव्य खुद में उलझा हुआ, परेशान सा वहाँ खड़ा था।
"क्या हुआ दिव्य?...कुछ कहना चाहते हो तुम? कोई परेशानी है?"
दिव्य हड़बड़ाते हुए अपने ख्यालों से बाहर आया। पहले तो इंकार में सर हिला दिया, फिर हामी भरते हुए, झिझकते हुए बोला,
"हमें नहीं, उसे परेशानी है?"
"उसे? किसे परेशानी है?" गरिमा जी उसकी जलेबी जैसी बातों में उलझ गईं।
"दृष्टि को...उसे साड़ी पहननी नहीं आती, तो आप जाकर पहना दीजिए उसे।"
झिझकते हुए दिव्य ने पूरी बात बताई। अब जाकर गरिमा जी को माजरा समझ आया और नज़र दिव्य के चेहरे पर ठहर गई, जिस पर हल्की गुलाबी रंगत बिखरी हुई थी।
"हमें तो यहाँ बहुत काम है दिव्य। हम तो नहीं जा सकेंगे, तुम ही कर दो उसकी मदद और जल्दी दोनों तैयार होकर नीचे आना।"
"दीदी, हम कैसे?... " दिव्य की आँखें फटी की फटी रह गईं और बेचारा सोचकर ही इतना घबरा गया कि माथे पर चिंता की लकीरें उभर आईं।
"दिव्य, अभी हमारे पास बिल्कुल भी वक़्त नहीं है। तुम खुद देख रहे हो कितना काम फैला है और अब सब नई बहू के लिए पूछ रहे हैं। जाकर उसकी मदद करो और दोनों जल्दी से तैयार होकर नीचे आ जाओ।"
दिव्य ने अब बड़ी ही उम्मीद से अपनी माँ को देखा, पर उन्होंने भी अपने हाथ खड़े कर दिए। बेचारा दिव्य निराश होकर, मजबूरी में वापिस लौट गया।
To be continued…
दृष्टि, मुँह लटकाए, मायूस सी, बेड पर बैठी अपने पैर हिला रही थी। जैसे ही उसके कानों में दरवाजे के खुलने की आवाज़ पड़ी, वह झट से बेड से नीचे उतर गई। नज़र जैसे ही दिव्य पर पड़ी, उसका मायूस चेहरा खिल उठा, पर दिव्य उसे नज़रअंदाज़ करते हुए अलमारी की ओर बढ़ गया। उसने एक टीशर्ट निकाली और दृष्टि की ओर कदम बढ़ा दिए।
"बाथरूम में जाकर इसे पहनो और ब्लाउज़ उतारकर लेकर आओ।"
"क्यों?" दृष्टि ने झट से सवाल किया और आँखें बड़ी-बड़ी करके उसे देखने लगी। दिव्य अब भी उसकी ओर नज़र उठाने से बच रहा था। उसने दृष्टि का सवाल सुना तो तीखी निगाहों से उसे घूरने लगा।
"जितना कहा है, चुपचाप उतना करो, अगर ज़्यादा सवाल-जवाब किया तो ऐसे ही छोड़ जाऊँगा तुम्हें, फिर बैठी रहना यहाँ इसी तरह भूखी-प्यासी सारा दिन।"
फिर से उसने दृष्टि को डाँटा था। उसने मुँह बिचकाया और तुनकते हुए उससे टीशर्ट छीनकर मुँह फुलाए बाथरूम की ओर बढ़ गई।
कुछ देर बाद वापिस लौटी और ब्लाउज़ दिव्य को पकड़ा दिया। खुद अपने भीगे बालों को तौलिये से आज़ाद करके झटकने लगी।
"दिव्य, हेयर ड्रायर कहाँ रखा है?"
"नहीं है, मैं इस्तेमाल नहीं करता।" दिव्य ने सपाट लहज़े में जवाब दिया और नाइट टेबल के ड्रॉवर से सुई और धागा निकालकर ब्लाउज़ लेकर बेड पर बैठ गया।
दिव्य जो हेयर ड्रायर नहीं मिलने पर मायूस हो गई थी, आँखें बड़ी-बड़ी करके उसे देखने लगी।
"ये तुम क्या कर रहे हो?"
"कहा है ना मैंने कि चुप करके बैठी रहो, बार-बार सवाल पूछकर मुझे इरिटेट किया तो अच्छा नहीं होगा तुम्हारे लिए।"
दिव्य ने पैनी निगाहों से उसे घूरते हुए धमकाया और वापिस अपना काम करने लगा।
दृष्टि मुँह फुलाए कुछ देर नाराज़गी से उसे घूरती रही, फिर उसके पास आकर खड़ी हो गई और amusement के साथ बड़ी ही दिलचस्पी से उसे देखने लगी।
दिव्य ने उसके कंधे छोटे किए, साइड से भी सिलकर उसे थोड़ा फ़िटिंग का कर दिया। प्रॉपर मशीन की सिलाई तो नहीं थी पर हाथ से काम चलाऊ हो गया था। दिव्य ने दाँतों से धागा काटा और ब्लाउज़ दृष्टि की ओर बढ़ा दिया।
"जाओ इसे पहनकर आओ।"
दृष्टि ने झट से उसे ले लिया और बाथरूम में भाग गई। ब्लाउज़ पहनने के बाद बाथरूम में लगे मिरर के सामने खड़े होकर उसने खुद को देखा। अब न तो उसका गला लटक रहा था, न ज़्यादा ढीला था और न ही हाथ उठाने पर ब्लाउज़ ऊपर को चढ़ रहा था।
दृष्टि के होंठों पर मीठी सी मुस्कान बिखर गई। ये सब उसे नहीं आता था पर दिव्य को आता था और आता भी क्यों नहीं? बचपन से अपनी मम्मी और दीदी को ये सब करते देखा था और सीखा भी था।
कुछ देर बाद वह दिव्य के सामने खड़ी थी। दिव्य ने साड़ी उठाई, कुछ पल परेशान सा उसे देखता रहा, फिर घूरती निगाहें दृष्टि की ओर उठाईं।
"मैं ये सिर्फ़ अपनी फैमिली की इज़्ज़त और अपने मम्मी-पापा के लिए कर रहा हूँ।"
"हाँ...हाँ मुझे पता है।" दृष्टि ने चिढ़ते हुए मुँह बना लिया। दिव्य ने चेतावनी भरे लहज़े में आगे कहा।
"अब अपना मुँह बंद रखना, अगर मुँह खोला तो खुद पहनना साड़ी, मैं कोई मदद नहीं करूँगा तुम्हारी।"
दृष्टि ने झट से अपने होंठों पर उंगली रखते हुए सर हिला दिया। दिव्य ने झुंझलाते हुए उस पर से निगाहें फेर लीं। गहरी साँस ली और साड़ी के एक छोर को पकड़कर उसकी ओर बढ़ा दिया।
"इसे खोंसो।"
"वो कैसे होता है?" दृष्टि आँखें बड़ी-बड़ी करके उसे देखने लगी। दिव्य ने जबड़े भींचते हुए, चिढ़ते हुए अपने सामने खड़ी इस बेवकूफ़ लड़की को घूरा और गुस्से में जैसे ही साड़ी के उस छोर को उसकी कमर पर खोसने लगा, दृष्टि हड़बड़ाकर दो कदम पीछे हट गई।
"मेरी स्कर्ट खुल जाएगी।"
"स्कर्ट नहीं कहते इसे।" दिव्य ने झुंझलाते हुए उसे डाँट दिया तो दृष्टि आँखें बड़ी-बड़ी करके उसे देखने लगी।
"ये स्कर्ट नहीं है तो इसे क्या कहते हैं?"
"पेटीकोट कहते हैं, बेवकूफ़ लकड़ी, कौन सी दुनिया से आई हो जो इतना भी नहीं जानती।"
दिव्य बुरी तरह उस पर भड़क गया। दृष्टि मासूमियत से अपनी पलकें फड़फड़ाते हुए उसे देखने लगी। दिव्य ने उसके एक्सप्रेशन देखकर गहरी साँस छोड़ी और उसकी ओर कदम बढ़ाते हुए गंभीर स्वर में बोला।
"दोनों हाथ ऊपर करो अपने।"
"क्यों?" दृष्टि ने झट से सवाल किया पर जैसे ही दिव्य की घूरती नज़र उस पर पड़ी उसने अपनी बत्तीसी चमकाई और झट से अपने दोनों हाथ ऐसे ऊपर करके खड़ी हो गई जैसे पनिशमेंट मिली हो।
दिव्य ने साड़ी को साइड रखकर सबसे पहले उसके पेटीकोट को टाइट किया। फिर खुद ही साड़ी के कोने को उसकी कमर के साइड में खोसने के बाद उसे साड़ी पहनाने लगा। आँचल को घुमाकर उसके कंधे पर डाला, फिर थोड़ी मशक्कत के बाद उसने प्लेट्स भी बना लीं।
"लो इसे यहाँ अंदर डालो अच्छे से ताकि निकले नहीं।"
दिव्य ने इशारे से उसे बताया कि कहाँ कोना खोसना है। किसी शरीफ़ आज्ञाकारी बच्चे जैसे दृष्टि ने झट से अपना सर हिलाया और जैसे ही प्लेट्स पकड़ी, उसने बीच से एक प्लेट छोड़ दी और दिव्य की सारी मेहनत बर्बाद हो गई।
दृष्टि ने सहमी निगाहों से दिव्य को देखा जो खा जाने वाली नज़रों से उसे घूर रहा था।
"सॉरी।" दृष्टि मासूम सी सूरत बनाई, अपनी पलकें फड़फड़ाते हुए उसे देखने लगी। फ्रस्टेट होकर दिव्य अपने बाल नोचने लगा।
"हमारे किस जन्म के गुनाहों की सज़ा दे रहे हैं आप हमें, जो इस बेवकूफ़ लड़की से हमारा रिश्ता जोड़ दिया?"
दिव्य ने मन ही मन भगवान् से शिकायत की। अपनी आँखों को भींचते हुए अपने गुस्से को शांत किया और फिर से काम में जुट गया। इस बार झिझकते हुए उसने खुद ही उसकी प्लेट्स सेट कीं और उसके पल्लू में उलझ गया।
किसी तरह उसके आँचल को भी पिन लगाकर सेट किया। कड़ी मेहनत के बाद उसने ठीक-ठाक साड़ी पहना दी थी उसे।
इस दौरान उसने पूरा ध्यान रखा था और कोशिश भी पूरी की थी कि उसके हाथ दृष्टि के शरीर से टच ना हों, फिर भी कई बार उसकी उंगलियों ने दृष्टि की कमर, उसके कंधे को छू लिया था।
जहाँ लम्हें भर के इस स्पर्श से दिव्य हड़बड़ा जाता, वहीं दृष्टि के जिस्म में सिहरन सी दौड़ जाती और दिव्य की झिझक उसके होंठों पर मुस्कान बनकर थिरक जाती।
पता नहीं ये दृष्टि की नज़दीकियों का असर था या उनके दरमियाँ मौजूद रिश्ते का, पर कुछ अजीब से एहसास उसके मन को बेचैन कर रहे थे और वह बस जल्दी से जल्दी उससे दूर जाना चाहता था। जबकि उसकी नज़दीकियाँ, स्पर्श दृष्टि के मन को गुदगुदा रहा था। उसे ये अच्छा लग रहा था, एक मीठा-मीठा सा एहसास था जिसे शब्दों में बयाँ करना मुमकिन नहीं था।
दिव्य जैसे ही उससे दूर जाने लगा, दृष्टि ने झट से आगे बढ़कर गाल को अपने गुलाबी नर्म होंठों से चूम लिया। पल भर को दिव्य की धड़कनें थम गईं। वह हक्का-बक्का सा उसी स्थिति में खड़ा रह गया जैसे फ़्रीज़ हो गया हो।
To be continued…
दिव्य जैसे ही उससे दूर जाने लगा, दृष्टि ने झट से आगे बढ़कर उसके गाल को अपने गुलाबी, नर्म होंठों से चूम लिया। पल भर के लिए दिव्य की धड़कनें थम गईं। वह हक्का-बक्का उसी स्थिति में खड़ा रह गया, जैसे जम गया हो।
मौके का फायदा उठाकर दृष्टि ने उसके दूसरे गाल को भी चूम लिया। दिव्य ने हड़बड़ाते हुए होश में वापसी की और चौंकते हुए निगाहें उठाकर उसे देखने लगा।
"I love you."
दृष्टि मीठी सी मुस्कान लबों पर सजाए, बड़े ही प्यार से उसे देख रही थी। उसकी इस मासूम सी अदा पर किसी को भी प्यार आ सकता था, पर दिव्य तो जैसे पत्थर दिल बन चुका था। दृष्टि का इज़हार सुनकर दिव्य का चेहरा सख्त हो गया।
"क्या बेहूदा हरकत है ये?"
"मैंने तो अपने हसबैंड को एक छोटी सी किस किया है, कोई बेहूदा हरकत नहीं की।"
दृष्टि ने मासूमियत बिखेरते हुए जवाब दिया और अपनी आँखें मटकाते हुए मुस्कुरा उठी। दिव्य का चेहरा गुस्से से तप गया।
"मैं तुम्हें ये आखिरी बार बता रहा हूँ कि मैं इस शादी को नहीं मानता...न तुम मेरी वाइफ़ हो और न ही मैं तुम्हारा हसबैंड। तो दूर रहो मुझसे, खबरदार जो मेरी इजाज़त के बिना मुझे छूने के बारे में सोचा भी।"
गुस्से में उस पर चिल्लाने और धमकाने के बाद दिव्य लंबे-लंबे डग भरते हुए बाथरूम में चला गया। दृष्टि ने बुरा सा मुँह बनाया, पर अगले ही पल दिव्य की नज़दीकियों को याद करते हुए दिलकशी से मुस्कुरा उठी।
अंदर शॉवर के नीचे खड़ा दिव्य जाने किन अजीब से एहसासों से लड़ रहा था। दृष्टि से ज़्यादा गुस्सा उसे खुद पर आ रहा था। उसके कोमल लबों के नर्म एहसास को वह अब भी अपने गालों पर महसूस कर रहा था। दृष्टि के होंठों के स्पर्श ने उसके गाल को तो छुआ था, पर हलचल उसके दिल में मची थी।
कुछ देर बाद वह नहाकर बाहर निकला। बेध्यानी में वह कमर पर तौलिया लपेटकर ही बाहर आ गया था क्योंकि गुस्से में कपड़े तो लेकर ही नहीं गया था, आदत भी नहीं थी, और इस वक्त उसके दिमाग से यह बात बिल्कुल ही निकल गई थी कि दृष्टि भी कमरे में हो सकती है।
दृष्टि बेड पर आलती-पालती मारकर बैठी फ़ोन चलाने में बिज़ी थी। उसकी नज़र जैसे ही दिव्य पर पड़ी, वह आँखों की पुतलियाँ फैलाए, mesmerizing सी टकटकी लगाए उसे देखती ही रह गई।
a muscular upper body with broad shoulders, a narrow waist, and a defined chest... बेहद हॉट एंड अट्रैक्टिव लग रहा था वह इस वक्त।
दिव्य ने अपने भीगे बालों में उंगलियाँ घुमाईं तो कुछ बूँदें दृष्टि के चेहरे पर ओस की बूँदों जैसे बिखर गईं। उसकी पलकें झुक गईं और लब मुस्कुरा उठे। एक खूबसूरत सा एहसास उसके दिल को छूकर गुज़र गया।
"Looks like someone has been hitting the gym."
दृष्टि की कोयल सी मीठी, खनकती आवाज़ दिव्य के कानों से टकराई। उसने चौंकते हुए पलटकर उस दिशा में देखा। दृष्टि होंठों पर flattering smile सजाए, टकटकी लगाए उसे देखते हुए उसकी ओर ही बढ़ रही थी।
दृष्टि को वहाँ देखकर दिव्य के चेहरे का रंग उड़ गया।
"तुम अभी तक यहाँ क्या कर रही हो?"
"अपने हैंडसम हसबैंड का वेट कर रही हूँ।" दृष्टि ने शरारत से मुस्कुराते हुए आई विंक की और अपनी हथेली से उसके upper body को आहिस्ता से सहलाने लगी।
"You know what? You're the hottest guy I've ever known."
"और तुम सबसे ज़्यादा बेशर्म लड़की हो जो मैंने कभी देखी है..." दिव्य ने गुस्से से अपने जबड़े भींच लिए और उसकी कलाई को मरोड़ते हुए, उसका हाथ झटक दिया।
दृष्टि ने नाराज़गी से उसे घूरा और आँखें चढ़ाते हुए सवाल किया।
"मैंने अपने हसबैंड की तारीफ़ की है, उसे छुआ है तो बेशर्म कैसे हुई?"
"अपनी बेशर्मी का सबूत तो तुम मेरी शादी में आकर ही दे चुकी हो। जो तुमने किया, उसके बाद मुझे तुमसे कोई उम्मीद भी नहीं थी, पर मुझे नहीं पता था कि तुम इतनी बेशर्म और बेगैरत होगी कि इतने बार मेरे डाँटने और इस रिश्ते को झुठलाने के बावजूद भी तुम मुझ पर अपना हक़ जताकर मेरे करीब आने की कोशिश कर रही हो। I am damn sure कि अपनी जिस मोहब्बत के तुम कसीदे पढ़ती रहती हो, वह भी महज़ एक फ़िज़िकल अट्रैक्शन ही होगा। मेरे लुक्स और पर्सनैलिटी से इम्प्रेस हो गई होगी तुम, अट्रैक्शन को प्यार समझकर मेरे पीछे पड़ गई और जब मैंने तुमसे शादी करने से मना कर दिया तो तुम्हारी चाहत तुम्हारी ज़िद बन गई जिसे पूरा करने के लिए तुमने सारी हदें पार कर लीं। अब मेरे इतने पास होकर भी मुझसे इतनी दूरी रास नहीं आ रही होगी तुम्हें, तभी बहाने ढूँढ रही हो मेरे करीब आने के...मुझे हासिल करके अपनी ज़िद पूरी करना चाहती हो पर अब मैं तुम्हें तुम्हारे किसी घटिया इरादे में कामयाब नहीं होने दूँगा। तुम ज़बरदस्ती मेरे गले तो पड़ गई, मुझे मजबूर करके शादी भी कर ली पर मैं कभी तुम्हें अपने करीब नहीं आने दूँगा। मेरी पत्नी बनकर भी तुम मेरे प्यार के लिए तरसती रह जाओगी।"
दिव्य गुस्से में बहुत कुछ कह गया था। इसका ध्यान उसे तब आया जब उसकी नज़र दृष्टि की आँसुओं से भरी आँखों पर पड़ी।
"मैंने तुम्हारी बॉडी या face को देखकर तुमसे मोहब्बत नहीं की है, मुझे तुम्हारी मासूमियत और तुम्हारा नेचर पसंद आया था...मैं मोहब्बत करती हूँ तुमसे, यह फ़िज़िकल अट्रैक्शन नहीं है। जो मैंने तुम्हारे लिए फील किया वह पहले कभी किसी और के लिए फील नहीं किया। मैं ऐसे तुमसे शादी नहीं करना चाहती थी पर अपनी आँखों के सामने तुम्हें किसी और का होते हुए भी नहीं देख सकती थी। तुम पहली मोहब्बत हो मेरी, मैं तुम्हें खोना नहीं चाहती थी इसलिए मैंने यह सब किया और मैं अब भी तुम्हारे दिल में अपने लिए जगह बनाने की कोशिश करती रहूँगी। तुम्हें मुझे जितना सुनाना है सुना लो, मुझ पर जितना चिल्लाना है चिल्ला लो, डाँट लो मुझे पर मैं तुम्हें छोड़कर कहीं नहीं जाऊँगी।"
दृष्टि ने सिसकते हुए उसे अपनी मोहब्बत पर विश्वास दिलाने की कोशिश की पर दिव्य अपने कपड़े लेकर उससे मुँह फेरते हुए वापिस बाथरूम में चला गया और दृष्टि वहाँ खड़ी सिसकती रह गई।
To be continued…
क्या कहना चाहेंगे आप? क्या दिव्य सही है या दृष्टि के जज़्बात सच्चे हैं?
"दिव्य मुझे पकड़कर रखना, प्लीज़, वरना मैं गिर जाऊँगी।" दिव्य दृष्टि को छोड़कर ही जाने लगा था, पर वह जल्दी-जल्दी चलते हुए उसके पास चली आई। हालाँकि बार-बार साड़ी में उसका पैर उलझ रहा था और अंत में तो वह गिर ही गई होती, अगर लास्ट मिनट पर दिव्य ने उसे न थामा होता।
"पहले ही मेरी नज़रों में इतनी नीचे गिर चुकी हो और कितना गिरोगी?"
दिव्य ने नफ़रत भरे स्वर में कहा और उसे एकदम से छोड़ दिया। दृष्टि ने हड़बड़ी में उसकी बाँह कसके पकड़ ली, वरना मुँह के बल ज़मीन पर गिरती।
"मैंने पहली बार साड़ी पहनी है, मुझसे इसमें ठीक से चला भी नहीं जा रहा।" दृष्टि ने सिर उठाकर उसे मासूम निगाहों से देखते हुए निचले होंठ को बाहर निकालते हुए मुँह बिचका लिया।
कोई और होता तो उसे शायद उसके मासूम से चेहरे को देखकर उस पर दया ही आ जाती, पर दिव्य ने बेरहमी से उसके हाथ को अपनी बाँह पर से हटाया और तेज कदमों से वहाँ से निकल गया। दृष्टि के चेहरे पर मायूसी छा गई।
गरिमा जी जो उन दोनों को बुलाने आई थीं, दिव्य को यूँ गुस्से में जाते देखकर परेशान हो गईं, पर जब नज़र दृष्टि के उदास चेहरे पर पड़ी तो उन्हें उस पर तरस आ गया।
दृष्टि से सुबह हुई बहस के बाद दिव्य बिना नाश्ता किए ही घर से निकल गया था। वह ऑफ़िस भी नहीं गया था। अचानक उसके साथ जो हुआ उसे एक्सेप्ट नहीं कर पा रहा था वह। लोगों का सामना करने से बच रहा था और दृष्टि से दूर रहना चाहता था।
सुबह उसकी आँखों में आँसू देखकर अजीब सी बेचैनी का एहसास हुआ था उसे। पता नहीं दृष्टि से भाग रहा था, लोगों से भाग रहा था या खुद से।
सारा दिन वह कहाँ रहा, किसी को कुछ नहीं पता था। फ़ोन भी बंद था। सुबह का निकला वह सीधे रात को लौटा। लिविंग रूम में बैठी गरिमा जी उसी का इंतज़ार कर रही थीं।
"खाना लगा दूँ तेरे लिए?"
दिव्य ने हामी भरी और वहीं बने वॉशरूम में हाथ-मुँह धोने चला गया।
"तू दृष्टि से लड़कर गया था ना, वह सारा दिन उदास थी।"
कुछ इधर-उधर की बातों के बाद गरिमा जी ने दृष्टि का ज़िक्र किया। पल भर को दिव्य के चेहरे के भाव बदले, निवाला तोड़ते हुए वह ठहर गया, फिर उनकी बात को अनसुना करते हुए वापस खाना खाने लगा।
"दिव्य, एक बात सच-सच बताएगा, दृष्टि कैसी लड़की है?"
कुछ देर बाद उन्होंने फिर से सवाल किया। दिव्य खाना खा चुका था। उसने अब भी उनकी बात को अनसुना कर दिया और हाथ धोने लगा, तो उन्होंने गंभीर स्वर में आगे कहना शुरू किया,
"इन दो दिनों में मुझे तो बहुत प्यारी और इनोसेंट बच्ची लगी। तुझे बहुत चाहती है, नादान है... इसी नादानी में ऐसी गलती कर गई।"
उन्हें दृष्टि की तरफ़दारी करते देखकर दिव्य की त्योरियाँ चढ़ गईं और नाराज़गी भरी निगाहें उनकी ओर उठ गईं।
"मासूम नहीं, ज़िद्दी है....... हम उसकी मोहब्बत नहीं, ज़िद थे और अपनी उसी ज़िद को पूरा करने के लिए उसने सबके सामने हमारे किरदार पर ही सवाल खड़े कर दिए, अपने झूठ के आगे हमें मजबूर कर दिया उनसे शादी करने के लिए। प्यार ऐसे थोड़े होता है कि किसी को बस एक बार देखा और हो गया प्यार। बिना उसको जाने, समझे, दिल में उसके लिए एहसास पनप गए। प्यार में इंसान खुदगर्ज़ नहीं बनता।.....मोहब्बत तो इबादत के समान होती है, कोई मन को भाता है तो दिल में उसके लिए कोमल एहसास पनपते हैं, मोहब्बत के बीज अंकुरित होते हैं। जैसे-जैसे हम उस शख्स को और जानने, समझने लगते हैं, उसके प्रति हमारा झुकाव बढ़ता जाता है, वैसे ही धीरे-धीरे प्रेम का बीज खूबसूरत पौधे और विशाल वृक्ष में बदलता है।.....मोहब्बत में खुद से पहले अपने महबूब की खुशी रखी जाती है.....अपने दिलबर के मान के लिए तो प्रेमी अपनी मोहब्बत और जान तक कुर्बान कर देते हैं..... अपनी ज़िद पूरी करने के लिए किसी को बदनाम कर देना, उस पर चरित्र पर सवाल उठाना, दुनिया के आगे उसे शर्मिंदा कर देना.....ये कैसी मोहब्बत हुई?"
"दिव्य, हर इंसान का प्यार अलग तरह और अलग हालातों में होता है। कुछ समझदार होते हैं तो सोच-समझकर धीरे-धीरे आगे बढ़ते हैं, पर कुछ पहली ही नज़र में अपना दिल किसी और के नाम कर देते हैं, इसलिए हम किसी की भी मोहब्बत पर सवाल नहीं उठा सकते।..... हम मानते हैं कि दृष्टि ने जो किया वह गलत था। तुम्हारा गुस्सा, नाराज़गी सब सही है। हम नहीं जानते कि तुम दोनों के बीच पहले क्या और कैसा था? हालात इतने कैसे और क्यों बिगड़ गए। पर अब आप दोनों की शादी हो गई है। वह तो नादान है, उम्र ही कितनी है अभी उनकी, आप तो बड़े और समझदार हैं। भागने के बजाय हालातों का सामना करने की कोशिश कीजिए।"
"दीदी, वह कोई दो साल की दूध पीती बच्ची नहीं है और न ही इतनी नादान है कि सही-गलत में फ़र्क न समझ सके। ...आपकी ये दलीलें उसके गुनाहों पर पर्दा नहीं डाल सकतीं। जो उसने हमारे साथ किया है, उसे हम कभी नहीं भूल सकते। हमसे मत रखिए ऐसी कोई उम्मीद जिस पर हम खरे न उतर सकें। यहाँ हम आपको समझदारी नहीं दिखा सकते।"
दिव्य गुस्से में वहाँ से उठकर चला गया। गरिमा जी माथे पर बल डाले परेशान सी उसे देखती ही रह गईं।
गुस्से में बौखलाए दिव्य ने जैसे ही रूम में कदम रखा, उसकी नज़र सीधे बेड पर खुद में सिमटी, गहरी नींद में सोती दृष्टि पर चली गई। उसके मासूम से चेहरे पर आज अजीब सी उदासी झलक रही थी। सारा दिन वह एकदम चुप रही, मेहमानों से घिरी, उनकी बातें सुनती रही।
सिर्फ़ दिव्य को ही लोगों की नज़रों का शिकार नहीं होना पड़ रहा था, अच्छी नज़र से तो कोई दृष्टि को भी नहीं देख रहा था। ढके-छुपे शब्दों में उस पर भी तंज कसे जा रहे थे, पर वह चुपचाप सब सुनती रही। सारे दिन की थकान के बाद उसका ताज़े गुलाब सा खिला रहने वाला चेहरा एकदम मुरझा गया था। सुबह जितनी खुश लग रही थी, अब उससे कहीं गुना ज़्यादा गहरी उदासी उसके चेहरे पर झलक रही थी।
नींद में भी वह बेचैनी से करवट बदल रही थी। शायद उस हैवी साड़ी में वह ठीक से सो नहीं पा रही थी और कपड़े क्या, उसका तो कोई समान नहीं था यहाँ।
पता नहीं कैसे, पर इस बार दिव्य को उस पर दया आ गई। उसने अलमारी से कपड़े निकाले और उसके पास चला आया।
"दृष्टि, उठो....कपड़े बदल लो, अच्छी नींद आएगी।"
कई बार आवाज़ देने पर भी वह नहीं उठी, तो दिव्य ने ज़बरदस्ती उसे उठाकर बिठा दिया और हल्के तेज आवाज़ में चिल्लाया,
"उठो दृष्टि, अगर अब भी तुम नहीं जागी तो मैं तुम्हें उठाकर इस कमरे से बाहर फेंक दूँगा।"
दिव्य की गुस्से भरी तेज आवाज़ दृष्टि के कानों में पड़ी और उसने हड़बड़ाते हुए अपनी आँखें खोल दीं। उसके चिल्लाने से घबरा गई थी वह और गुलाबी आँखों को बड़ा-बड़ा किए, नींद से बोझिल पलकें बार-बार झपकाते हुए उसे देखने लगी।
"खुल गई नींद, तो अब जाकर कपड़े बदलो।"
दिव्य ने फिर कठोर लहज़े में कहा और साइड में रखे कपड़े उसे थमा दिए। दृष्टि, जिस पर अब भी नींद की खुमारी छाई हुई थी, कभी उलझन भरी नज़रों से उसे देखती, तो कभी कपड़ों को।
"अब जाओ भी।" दिव्य फिर चिल्लाया, तो दृष्टि हड़बड़ाते हुए बेड से नीचे उतरने लगी। इसी चक्कर में उसका पैर उसकी साड़ी में उलझा और साड़ी की प्लेट्स खुलकर फर्श पर बिखर गईं। उसने अपनी खुली हुई साड़ी को देखा, फिर बड़ी-बड़ी सहमी हुई आँखें दिव्य की ओर उठाईं, जिसने अफ़सोस से सिर हिलाते हुए अपना चेहरा फेर लिया था।
"तुम यही कपड़े बदल लो, मैं ही बाथरूम में चला जाता हूँ।"
दिव्य ने खीझते हुए कहा और कबर्ड से अपने कपड़े लेकर बाथरूम में घुस गया। दृष्टि ने जल्दी से अपनी साड़ी उतारी।
दिव्य के कपड़े देखकर मीठी सी मुस्कान उसके होंठों पर बिखर गई। उसने जल्दी-जल्दी कपड़े बदले। अगर दिव्य आ जाता तो फिर उसे डाँट पड़ जाती, इसलिए उसने झटपट कपड़े बदले और साड़ी को ब्लाउज़ और पेटीकोट के साथ गुड़मुड़ करके कमरे में लगे सिंगल सीटर सोफ़े पर पटक दिया।
"तुम्हें मेरी फ़िक्र है ना, इसलिए तुमने मुझे उठाकर कपड़े चेंज करने कहा और मुझे अपने कपड़े भी दिए चेंज करने के लिए।"
दिव्य चेंज करके कमरे में आया ही था कि खुशी से उछलती हुई दृष्टि उसके पास पहुँच गई। उसके होंठों पर मीठी सी मुस्कान बिखरी थी और आँखों में जुगनू जगमगा रहे थे।
दिव्य ने एक नज़र उसे देखा और फिर उसे नज़रअंदाज़ करते हुए आगे बढ़ गया। बेड की ओर जाते हुए अनायास ही उसकी नज़र उस सोफ़े पर पड़ी और उसकी भौहें तन गईं।
"तुम्हें तमीज़ से कपड़े तह लगाकर रखने नहीं आते? सुबह भी लहंगा, दुपट्टा सब बाथरूम के फर्श पर बिखेर कर आ गई थी और अब साड़ी को यहाँ सोफ़े पर पटक रखा है।"
दिव्य उस पर चिल्ला रहा था और दृष्टि आँखें चौड़ी किए टुकुर-टुकुर उसे देखे जा रही थी।
"मेरे घर में तो आंटी सब करती थीं। मैं तो बस नहाती थी, खाती थी, सोती थी या बाहर रहती थी। मेरा बाथरूम, रूम.....सब आंटी साफ़ करती थीं। मुझे कभी कुछ करने की ज़रूरत ही नहीं पड़ी। इसलिए मुझे ये सब करना नहीं आता।"
"मतलब तुम्हारे घरवालों ने अच्छे से सर चढ़ाकर रखा था तुम्हें। पर मैडम, ये आपके पिता जी का घर नहीं है, यहाँ आप बस चीज़ें बिखेरती रहें, उन्हें समेटने के लिए नौकरों की फ़ौज है।.....यहाँ आपके आगे-पीछे घूमने के लिए कोई नौकर नहीं है। इस घर में सब अपने काम खुद ही करते हैं, तो तुम अगर यहाँ रहना चाहती हो तो अपने काम खुद से करने की आदत डाल लो। नहीं आता तो सीख लो...बेहतर होगा तुम्हारे लिए, क्योंकि मुझे मेरा कमरा साफ़-सुथरा और व्यवस्थित पसंद है।"
दिव्य ने उस पर तंज कसते हुए समझाया भी और चेतावनी देते हुए धमकाया भी। वह जैसे ही चुप हुआ, दृष्टि ने झट से सवाल किया,
"तुम सिखाओगे मुझे?"
दिव्य कुछ पल सोच में पड़ गया। फिर अपने कमरे की सलामती और सफ़ाई के लिए बेमन से हामी भर दी।
ब्लाउज़ और पेटीकोट तह लगाना आसान था, दृष्टि जल्दी ही सीख गई, पर इतनी लंबी साड़ी थी कि दिव्य के लाख समझाने के बाद भी वह उसे तह नहीं कर सकी। कभी खुद उसमें उलझ जाती, कभी दूसरे सिरे को पकड़ते-पकड़ते में एक सिरा छोड़ देती, तो कभी बीच से कोई हिस्सा उससे छूट जाता।
दिव्य उसे समझा-समझाकर परेशान हो गया था, तो दृष्टि भी थक चुकी थी।
"मुझसे नहीं हो रहा।" उसने गुस्से में साड़ी को ज़मीन पर ही पटक दिया और खुद थकी-हारी काउच पर मुँह फुलाकर बैठ गई। उसके एक्सप्रेशन ऐसे थे जैसे किसी छोटे बच्चे को कठिन सवाल दे दिया गया हो। जब बार-बार कोशिश के बाद भी सवाल हल नहीं होता तो बच्चा कॉपी ही पटक देता है कि अब करेगा ही नहीं।
दिव्य कुछ पल खामोशी से उसे देखता रहा। फिर उसने दृष्टि की बाँह पकड़कर उसे खड़ा किया और साड़ी का एक सिरा उसे पकड़ाते हुए बोला,
"इसे ठीक से पकड़ो, छोड़ना मत।"
साड़ी के दूसरे छोर को पकड़ते हुए वह दूर हुआ, फिर पास आकर उस छोर को भी उसे पकड़ाते हुए बीच का हिस्सा खुद पकड़ लिया। ऐसे ही करते-करते उसने लगभग पूरी साड़ी फोल्ड करवा दी थी। आखिर में उसने एक और बार फोल्ड किया और इस दौरान दोनों एक-दूसरे के करीब आ गए।
दिव्य के ध्यान तो काम पर था, पर दृष्टि एकटक उसे देखे जा रही थी। दिव्य ने उसके हाथ से साड़ी ली और बीचों-बीच मोड़ते हुए उसे फोल्ड करने के बाद काउच पर रख दिया।
उसके बाद वह जैसे ही पलटा, पीछे खड़ी दृष्टि ने झट से अपना पैर उठाते हुए उसके होंठों को चूम लिया।
"गुड नाइट।"
झट से उसके होंठों को चूमकर वह फट से जाकर बेड पर लेट गई और सिर तक चादर तान लिया। दिव्य स्तब्ध सा खड़ा रह गया, पल भर को साँस तक लेना भूल गया, दिल की धड़कनें बेसख़ता बढ़ीं।
जब तक वह अपने सेंसेस में लौटा और उसे एहसास हुआ कि आखिर उसके साथ कैसा हादसा हुआ? दृष्टि अपने काम में अंजाम देकर अपने बिल में छुप चुकी थी ताकि दिव्य की डाँट ना सुननी पड़े।
दिव्य ने नाराज़गी से दृष्टि को घूरा, फिर अफ़सोस से सिर हिलाते हुए बेड के दूसरे छोर पर जाकर लेट गया। अजीब ही पागल झल्ली सी लड़की थी। सुबह ही इतना सुनाया था, फिर भी कोई डर ही नहीं था मन में। बस जो दिल में आता करती। उसकी बेपरवाही और बेबाकी दिव्य के होश उड़ा चुकी थी और काफ़ी देर तक वह अनजाने तौर पर उसके बारे में सोचता रहा था।
To be continued…
"ओह तेरी... मतलब तू दुल्हा बना जागृति का? और तेरी शादी हुई तेरी उस बार्बी डॉल से... ओह माय गॉड... आई कैन नॉट बिलीव दिस... वो क्यूट सी दिखने वाली लड़की इतनी चालाक निकली कि तेरी शादी में आकर तुझे ही मजबूर कर दिया... आई थॉट बस कुछ दिनों का क्रेज़ है, भूल जाएगी तुझे, पर वो लड़की तो बड़ी खतरनाक निकली यार... कितनी चालाकी से तुझे और बाकी सबको अपने झूठ के जाल में फँसा लिया..."
सौरभ सारी बात जानने के बाद हैरान से ज़्यादा खुश और एक्साइटेड नज़र आ रहा था। दृष्टि की तारीफ़ करते उसका मुँह नहीं थक रहा था। इस हरकत से दिव्य बुरी तरह चिढ़ गया था। उसका चेहरा गुस्से से लाल हो गया था।
"साले जहन्नुम में जाओ तुम! यहाँ हम तुम्हें अपनी दुखद कहानी सुना रहे हैं और तुम मस्ती मार रहे हो... जिस लड़की ने हमारी ज़िंदगी तबाह कर दी, हमें किसी को मुँह दिखाने के काबिल नहीं छोड़ा, तुम उसकी तारीफ़ किए जा रहे हो... कैसे दोस्त हो बे... इससे अच्छा तो भगवान हमें दो, चार दुश्मन दे दिए होते... दोस्त की दगाबाज़ी का दुख तो नहीं सहना पड़ता हमें... निकलो बे तुम यहाँ से और दोबारा कभी हमें अपनी शक्ल न दिखाना, वरना तुम्हारा हुलिया बिगाड़ देंगे।"
सौरभ को जब दिव्य ने गुस्से में अच्छे से फटकार लगाई, तब जाकर उसे अपनी गलती का एहसास हुआ। दिव्य ने गुस्से में उसे खुद से दूर धकेला, पर वह चिपकू गम जैसे आकर उससे चिपक गया।
"अच्छा मेरे लाल, इतना नाराज़ क्यों होता है? मैं तेरी दुश्मने जाँ की तारीफ़ थोड़े कर रहा था। मैं तो तेरी बात सुनकर हैरान था कि कोई लड़की, वो भी इतनी क्यूट और इनोसेंट दिखने वाली पिद्दी सी इतनी खतरनाक भी हो सकती है। ऐसा कुछ भी कर सकती है... तुझसे तो बहुत सिम्पैथि है मुझे, तू मेरा एकलौता यार है... अगर मैं तेरा दुख नहीं समझूँगा तो और कौन समझेगा।"
"परे हटो तुम... देख ली हमने तुम्हारी यारी... साले हमारी परेशानी समझने के बजाय उस लड़की की तारीफ़ कर रहे थे और अब चापलूसी कर रहे हो हमारी।"
दिव्य ने उसे अच्छे से झिड़कते हुए खुद से दूर झटक दिया। उसे बीमारी थी, ऐसे तो गुस्सा जल्दी नहीं आता था, और आता था तो जाता नहीं था। अब वह गुस्सा हो चुका था।
"अच्छा चल यार, गलती हो गई मुझसे... मैं ज़रा ज़्यादा ही एक्साइटेड हो गया था। अब माफ़ भी कर दे और बैठ साथ, बात करते हैं।"
मान, मनोहार करके, माफ़ी माँगकर किसी तरह सौरभ ने उसे मनाकर वापस बिठा लिया। दिव्य भी कितने दिनों बाद उससे मिला था और अभी भी कितना कुछ था उसे बताने को, इसलिए बैठ गया।
"हाँ तो तुम पिछले एक हफ़्ते से अपने घर से फ़रार हो। सुबह निकलते थे और रात को घर लौटते थे, ऑफ़िस भी नहीं जाते थे और ये सब तुम्हारी उस बार्बी डॉल के कारण है?"
"उस लड़की ने अपनी ज़िद में हमें किसी को मुँह दिखाने के लायक नहीं छोड़ा। घर पर सब हमें अजीब नज़रों से देखते हैं और हम उनकी निगाहों का सामना नहीं कर पाते... हमारे ऑफ़िस के कुछ कलीग भी आए थे शादी में और उनके सामने ही उस लड़की ने हमारी इज़्ज़त का तमाशा बना दिया। अब तक तो पूरे ऑफ़िस में बात फैल गई होगी... सालों की मेहनत से बनाई इज़्ज़त पल में मिट्टी में मिल गई। क्या सोचते होंगे सब हमारे बारे में कि इतने वक़्त तक शरीफ़ बनने का नाटक करते रहे और पीठ पीछे ऐसी बेशर्मी भरी हरकतें कर रहे थे।"
दिव्य बेहद परेशान था। दृष्टि के उठाए एक कदम ने उसकी इमेज और रेपुटेशन को बिल्कुल ही बर्बाद कर दिया था। सबकी नज़रों में उसे गिरा दिया था।
"कोई कुछ नहीं सोचेगा। जो लोग तुम्हें जानते हैं वो ये भी जानते होंगे कि तुम कैसे हो? क्या हो?... क्या कर सकते हो और क्या नहीं?... और कोई और क्या सोचता है, तुम इसके बारे में सोचकर इतना परेशान क्यों हो रहे हो?... तुम जानते हो कि तुम निर्दोष हो, तुमने कुछ गलत नहीं किया, तो लोगों का सामना करने से क्यों घबरा रहे हो? क्यों सबसे छुपते फिर रहे हो? सच्चाई मुँह छुपाए नहीं फिरती, बल्कि सीना तानकर सबका मुक़ाबला करती है।..... निकाल दो अपने मन से ये सब ख्याल। तुम सही हो, हमें तुम पर विश्वास है, तुम्हारा परिवार तुम्हारे साथ है, इससे बढ़कर और क्या चाहिए तुम्हें? लोगों का तो काम है बाल की खाल निकालना। आज बात करेंगे, चार दिन बाद भूल जाएँगे।"
"पर हमारे परिवार को भी हम पर भरोसा नहीं।"
दिव्य ने मायूसी से सर झुका लिया। उसे मनोज जी का व्यवहार याद आ गया था और गहरी निराशा और दुख के बादल उसके चेहरे पर मँडराने लगे थे। उसकी इस बात पर सौरभ ने संधी हुई गंभीर आवाज़ में जवाब दिया,
"सबको तुम पर विश्वास है यार। तू ज़रूर अंकल जी के वजह से इतना दुखी हो रहा है, पर उन्होंने जो किया शायद कोई भी बाप उस वक़्त वही करता। उनके नज़रिये से सोचकर देख... जैसे हालात उस वक़्त बने थे, तुम पर विश्वास होते हुए वो किसी को तेरी बेगुनाही का यकीन नहीं दिला पाते। सवाल उनके बेटे पर उठता, जो गुरूर है उनका।..... कैसे साबित करते वो कि दृष्टि झूठ बोल रही है, तूने ऐसा कुछ नहीं किया और क्या लोग उनकी बातों पर विश्वास करते? नहीं कहते कि अपने बेटे की गलती पर पर्दा डालने की कोशिश में वो सच को झुठला रहे हैं?... अपने परिवार की इज़्ज़त बचाने और तुझ पर उठती उँगलियों को रोकने के लिए उन्होंने ये फैसला लिया है, पर इसका ये मतलब बिल्कुल नहीं कि उन्हें तुझ पर विश्वास नहीं है। अगर ऐसा होता तो उसी वक़्त तुझे अपनी ज़िंदगी और घर से बेदखल कर चुके थे और हमारे बाप तो हमें चप्पल, जूते से सूत भी दिए होते।"
सौरभ ने उसकी सोच को एक नई दिशा दी थी, मनोज जी का नज़रिया उसे समझाया था और उसकी बातें सुनकर दिव्य के सीने पर रखा बोझ काफ़ी हद तक हल्का हो गया था।
"अब लोगों से भागना और छुपना बंद कर और उनका सामना करना शुरू कर। तूने कुछ गलत नहीं किया तो तू क्यों घबराए? चार दिन लोग बात करेंगे, फिर खुद ही भूल जाएँगे, पर अगर तू ऐसे ही मुँह छुपाकर घूमता रहा, तब ज़रूर उन्हें तेरे बारे में और बातें करने का मौका मिल जाएगा।"
"तू ठीक कह रहा है। आज नहीं तो कल दुनिया की नज़रों का सामना तो हमें करना ही होगा। दृष्टि के कारण हम सबसे भाग तो नहीं सकते। फिर जब हमने कुछ गलत किया ही नहीं तो हम क्यों घबराएँ?"
आखिरकार दिव्य को उसकी बात समझ आ गई थी। उस वक़्त उसे इस इमोशनल सपोर्ट की ज़रूरत थी, वह उसे सौरभ से मिल गया था और अब वह काफ़ी हद तक नॉर्मल हो गया था।
सौरभ कुछ देर इधर-उधर की बातों में मन बहलाता रहा, फिर मज़ाकिया अंदाज़ में बोला,
"दिव्य, तुम लकी तो बहुत हो। अगर बार्बी डॉल की उस गलती को हटाकर देखें तो तुम्हारे हाथ जैकपॉट लग गया है। इतनी प्यारी और स्वीट सी लड़की तुम्हारे लिए दीवानगी में हर हद पार करने को तैयार है। ऐसा शिद्दत वाला जुनूनी इश्क़ सबके नसीब में नहीं होता।"
"ना ही हो तो अच्छा है। उस लड़की ने हमारी शांत सी ज़िंदगी में तबाही मचाकर रख दी है। अगर ये खुशनसीबी है तो हम बदनसीब ही ठीक थे।" दृष्टि का ज़िक्र होते ही दिव्य बुरी तरह खीझ उठा, जबकि उसका यह रिएक्शन देखकर सौरभ चिंता में पड़ गया।
"तूने इस रिश्ते के बारे में क्या सोचा है?" सौरभ ने दिव्य के चेहरे पर नज़रें टिकाते हुए गंभीर स्वर में सवाल किया। जिसे सुनकर दिव्य का चेहरा एकदम सपाट हो गया और उसने बिना किसी भाव के जवाब दिया,
"पापा चाहते हैं कि हम यह रिश्ता निभाएँ, उनकी बात का मान रखने के लिए किसी तरह झेल रहे हैं सब।"
इसके आगे इस बारे में दोनों की कोई बात नहीं हुई। इतने दिनों बाद किसी से खुलकर बात करने और अपने मन की उलझनें साझा करने के बाद दिव्य काफ़ी बेहतर महसूस कर रहा था। सौरभ भी बस उसका मूड लाइट करने की कोशिश कर रहा था।
"दृष्टि, आजकल कहाँ रहती हो तुम? फ़ोन करो तो बात नहीं करती। मैसेज का जल्दी से रिप्लाई नहीं करती, सोशल साइट्स से भी गायब हो। अपने घर पर कह गई हो कि मेरे साथ हो, पर तुम एक्चुअली में कहाँ हो, मैं यह तक नहीं जानती। अभी अंकल, आंटी नहीं हैं तो ज़्यादा फ़र्क नहीं पड़ रहा। अगर वो आ गए और मुझसे सवाल किया कि उनकी बेटी कहाँ है तो क्या जवाब दूँगी मैं?... कुछ तो बता यार, कहाँ है तू? कब घर लौट रही है?"
यह श्रेया थी, दृष्टि की बचपन की दोस्त, उसकी बेस्ट फ़्रेंड। जो आवाज़ से ही दृष्टि के लिए परेशान नज़र आ रही थी, जबकि दृष्टि चिल मार रही थी। उसे किसी चीज़ की कोई चिंता, फ़िक्र या परवाह ही नहीं थी।
श्रेया के सवालों के जवाब में उसने बेफ़िक्री भरे अंदाज़ में लापरवाही से जवाब दिया,
"अब मैं कभी वहाँ नहीं जाऊँगी। मेरी शादी हो गई है तो अब मैं अपने हसबैंड के साथ उसके घर में रहूँगी।"
दृष्टि का जवाब श्रेया के लिए किसी शॉक से कम नहीं था।
"व्हाट... शादी और वो भी तेरी... क्या बकवास कर रही है?"
श्रेया हैरान थी और इतनी ज़्यादा शॉक्ड थी कि उसे इस बात पर विश्वास तक नहीं हुआ। उसकी आवाज़ में बेयक़ीनी झलक रही थी और अंत में तो वह दृष्टि पर भड़क भी गई थी। पर दृष्टि एकदम बेफ़िक्र थी।
"मैं मज़ाक नहीं कर रही। मैंने सच में शादी कर ली है।"
"कब... किससे... कैसे... क्यों........ मुझे कुछ क्यों नहीं बताया तूने और ऐसे कैसे अचानक शादी कर ली तूने?"
श्रेया जितनी ज़्यादा हैरान थी, उससे कहीं गुना ज़्यादा परेशान थी, जबकि दृष्टि को तो किसी बात की कोई परवाह ही नहीं थी।
"वो सब मैं तुझे अभी फ़ोन पर नहीं बता सकती।"
"तो बता कहाँ है तू, मैं अभी आ रही हूँ तुझसे मिलने, पर मुझे पूरी बात जाननी है।"
"तू यहाँ नहीं आ सकती।"
"तो तू मुझे फ़ोन पर ही पूरी बात बता, क्योंकि मुझे सब कुछ जानना है। तूने कब, कैसे और किससे शादी कर ली? कहाँ है अभी?"
श्रेया के बहुत ज़ोर देने पर दृष्टि ने मजबूरी में उसे सब बताने का फैसला कर लिया,
"मैंने तुझे बताया था ना कि मुझे एक लड़का बहुत, बहुत, बहुत पसंद आ गया है, पर वह मुझ पर बिल्कुल ध्यान नहीं देता। उसकी शादी तय है इसलिए बस मेरी फीलिंग्स को इग्नोर करके मुझे रिजेक्ट ही करता रहता है।"
दृष्टि ने भूमिका बाँधी तो श्रेया को भी कुछ बीती पुरानी बातें याद आ गईं।
"मैंने उसी से शादी की है और अभी अपने इन लॉज़ के पास हूँ।"
दृष्टि की बात सुनकर श्रेया को झटका लग गया,
"तूने उस लड़के से कैसे शादी कर ली? उसकी शादी तो किसी और से हो रही थी और वह तो तुझे बिल्कुल पसंद नहीं करता था।"
श्रेया का सवाल सुनकर दृष्टि शातिर अंदाज़ में मुस्कुराई और शादी में उसने जो किया, बड़े ही गर्व से उसे एक-एक बात विस्तार से बताने लगी। श्रेया फटी आँखों से अचंभित सी उसकी बात सुनती ही रह गई।
"तूने उसकी शादी में पहुँचकर अपनी और उसकी तस्वीरें दिखाकर, झूठी प्रेग्नेंसी का नाटक करके, न सिर्फ़ उसकी शादी तोड़ी, बल्कि उसे खुद से शादी करने पर मजबूर भी कर दिया।"
To be continued…
"तूने उसकी शादी में पहुँचकर अपनी और उसकी तस्वीरें दिखाकर, झूठी प्रेग्नेंसी का नाटक करके...न सिर्फ़ उसकी शादी तोड़ी, बल्कि उसे खुद से शादी करने पर मजबूर भी कर दिया।"
"और नहीं तो क्या...प्यार करती थी मैं उससे, इतनी आसानी से किसी को अपनी पहली मोहब्बत कैसे छीनने देती? तूने ही तो कहा था कि अगर लव ट्रू है तो उसे पाने के लिए कुछ भी करना गलत नहीं होता। मुझे भी जो समझ आया मैंने कर दिया और दिव्य को हासिल कर लिया।"
एक बार फिर दृष्टि ने बेपरवाही से जवाब दिया, पर उसकी बात सुनकर श्रेया गुस्से से भड़क उठी।
"आर यू आउट ऑफ़ योर माइंड...यू डोंट इवन रियलाइज़ व्हाट यू हैव डन...हाउ कैन यू डू दिस दृष्टि...ओह माय गॉड...आई कैन नॉट बिलीव दिस कि तुमने अपनी मोहब्बत को पाने के लिए ऐसा रास्ता चुना है। तुम्हारे झूठ ने तुम्हें और उस लड़के को कितनी बड़ी मुसीबत में डाला है, तुम्हें इसका एहसास तक नहीं और ये सब करके तुम्हें क्या लगता है कि वो लड़का खुशी-खुशी तुम्हें अपनी लाइफ़ में एक्सेप्ट कर लेगा...तुमने उसके कैरेक्टर पर सवाल उठा दिया, सबके सामने उसे और उसकी फैमिली को ह्यूमिलिएट कर दिया और वो तुमसे प्यार करने लगेगा...ऐसे फ़ोर्सफ़ुल्ली किसी की लाइफ़ में नहीं घुसा जाता दृष्टि।"
तुम इतनी बड़ी बेवकूफ़ी कैसे कर सकती हो दृष्टि? तुमने उस लड़के की शादी में जाकर इतना हंगामा किया, उसका रिश्ता तोड़ दिया और उसे अपनी झूठी कहानी सुनाकर खुद से शादी करने पर मजबूर कर लिया, पर उसे खुद से प्यार करने के लिए कैसे मजबूर करोगी? जब सच्चाई सबके सामने आएगी तब क्या करोगी, कहाँ जाओगी? अंकल-आंटी को जब तुम्हारी इन हरकतों के बारे में पता चलेगा तो वो क्या हाल करेंगे तुम्हारा...कुछ सोचा भी है तुमने? तुमने अपनी इस बेवकूफ़ी में अपने लिए खुद मुसीबत खड़ी कर ली है। ये सब करने से पहले एक बार मुझसे बात तो कर लेती।
"तो मैं क्या करती...पहली बार मुझे प्यार हुआ था। बिना कोई कोशिश किए उसे किसी और का हो जाने देती? और सारी गलती मेरी नहीं है। मैंने तो बहुत बार दिव्य को मनाने की कोशिश की थी, पर वो हर बार मेरी फ़ीलिंग्स को इग्नोर करके मुझे रिजेक्ट करता रहा।"
"क्योंकि वो तुमसे प्यार नहीं करता था। जो तुम उसे लेकर फ़ील करती थी वो नहीं करता था। उसके दिल में तुम्हारे लिए कोई एहसास नहीं थे। वो कमिटेड था...इंगेज्ड था। तुम्हारी फ़ीलिंग्स वन-साइडेड थीं और तुमने उसके लिए अपने साथ-साथ उस लड़के की भी लाइफ़ स्पॉइल कर दी है। हो सकता है कि वो अपनी फ़िआंसे से प्यार करता हो, पर तुम्हारे वजह से वो दोनों अलग हो गए और इसका बदला वो तुमसे ज़रूर लेगा।"
"आई एम टेलिंग यू, इससे पहले कि वो तुम्हारे साथ कुछ गलत करे और ये सारी बातें अंकल-आंटी तक पहुँच जाएँ, सब कुछ छोड़कर वापस अपने घर आ जाओ। हम मिलकर दिव्य और उसकी फैमिली से बात करके इस मैटर को सॉर्ट आउट कर देंगे।"
श्रेया उसकी सच्ची दोस्त थी और सारी बातें जानने के बाद उसे दृष्टि की फ़िक्र होने लगी थी, जो लाज़मी था। उसने कोशिश की उसे समझाते हुए इन सबसे बाहर निकालने की, पर दृष्टि उसकी बात से सहमत नहीं थी। उसने मुँह फुलाते हुए इंकार में सिर हिला दिया-
"नहीं...मैं यहाँ से कहीं नहीं जाऊँगी। मुझे दिव्य के साथ रहना है।"
"पागल मत बनो दृष्टि, दिव्य तुम्हें नहीं चाहता और जो तुमने अपनी बेवकूफ़ी और नादानी में उसके और उसकी फैमिली के साथ किया है, उसके बाद वो कभी तुम्हें अपनी लाइफ़ में एक्सेप्ट नहीं करेगा, प्यार करना तो दूर की बात है।.....वो क्या, उसकी फैमिली ही कभी तुम्हें एक्सेप्ट नहीं करेगी और जिस दिन तुम्हारी सच्चाई उनके सामने आएगी, वो धक्के मारकर तुम्हें अपने घर और दिव्य की ज़िंदगी से बाहर निकाल देंगे।"
"इससे पहले कि आगे कुछ और गलत हो, तुमसे बदला लेने के लिए दिव्य तुम्हें हर्ट करे, अंकल-आंटी तक ये सारी बातें पहुँचें, सब कुछ खत्म करके वापस अपनी लाइफ़ में लौट आओ। तुम भी जानती हो कि जैसे तुमने ये रिलेशन जोड़ा है इसका कोई फ़्यूचर नहीं है और तुम्हारे पेरेंट्स कभी इस रिश्ते को एक्सेप्ट नहीं करेंगे, तुम्हारा और दिव्य का साथ होना इम्पॉसिबल है।...इसलिए अपना ये पागलपन छोड़ो और वापस आ जाओ। अगर तुमसे नहीं हो रहा तो मैं वहाँ आकर सबको सारी सच्चाई बताकर उनसे माफ़ी माँग लेती हूँ।"
"नहीं...नहीं तुम यहाँ नहीं आओगी, किसी को कुछ नहीं बताओगी। मैं नहीं जाऊँगी यहाँ से कहीं भी। मैं दिव्य के साथ रहूँगी, वो बहुत अच्छा है...आई लव हिम....."
श्रेया के यहाँ आने की बात सुनकर दृष्टि घबरा गई। श्रेया उसे समझा-समझाकर थक गई, पर दृष्टि कुछ सुनने को ही तैयार नहीं थी। वो अपनी ही ज़िद पर अड़ी हुई थी और किसी कीमत पर दिव्य से दूर जाने के लिए तैयार नहीं थी। श्रेया ने फ़्रस्ट्रेट होकर फ़ोन काट दिया और दृष्टि मुँह फुलाकर बैठ गई।
आज दिव्य घर जल्दी आया था। शाम को जब वो लौटा तो लिविंग रूम में बैठे अपने जीजू को देखकर चौंक गया। उसकी और दृष्टि की शादी को कुछ दिन हो चुके थे। दिव्य और दृष्टि के बीच इन दिनों सिर्फ़ बहस और लड़ाई ही हुई थी। दृष्टि तो कभी-कभी बेबाकी से उसके करीब आ जाती थी, पर दिव्य बड़ी ही बेरुखी से उसे खुद से दूर झटक देता था।
मेहमान अपने-अपने घर वापस लौट चुके थे और अब घर में बस परिवार के गिने-चुने लोग ही रह गए थे। इन दिनों दृष्टि या तो मेहमानों से घिरी रही या कमरे में रही। किसी से ज़्यादा घुलने-मिलने और बात करने का मौका नहीं मिला उसे, पर दिव्य पर अपना हक पूरे हक़ से जताती थी वो।
दिव्य को ठिठकते देखकर सुमित जी खुद ही उठकर उसके तरफ़ बढ़ गए।
"गले नहीं मिलेंगे साले साहब?" सुमित जी ने मुस्कुराते हुए कहा और उसे गले से लगाते हुए उसके पीठ को हल्के से थपथपा दिया। कुछ न कहकर भी उनका ये जेस्चर काफ़ी कुछ कह गया था और दिव्य के चेहरे पर सुकून के भाव उभर आए थे।
"आप कब आए जीजू?"
"बस अभी ही आए थे और तुम्हें ही ढूँढ रहे थे, कहाँ गायब थे?"
"कहीं नहीं जीजू, बस थोड़ा बाहर गए थे।" दिव्य ने नज़रें चुराते हुए जवाब दिया, जिस पर सुमित जी हौले से मुस्कुरा दिए।
"शादी की बहुत-बहुत बधाई आपको, हम आ नहीं सके आपकी शादी में, इसका बहुत दुख है हमें। उम्मीद करते हैं कि आप नाराज़ नहीं होंगे हमसे।"
सुमित जी तो बिल्कुल सहज थे, पर शादी का ज़िक्र आते ही दिव्य के चेहरे पर कड़वाहट नज़र आने लगी थी। उसकी खामोशी पर सुमित जी ने ही आगे कहा-
"अपनी पत्नी से नहीं मिलवाओगे साले साहब?"
उनके इस सवाल पर दिव्य की नाराज़गी भरी निगाहें उनकी ओर उठ गईं-
"जीजू...दीदी ने आपको सब बता ही दिया होगा, फिर भी आप..."
"हाँ, बता तो दिया, पर शादी जैसे भी हुई है, पत्नी तो अब वो है आपकी और हमारा हक़ बनता है उनसे मिलने का। बाकी बातें हम बाद में आराम से करेंगे आपसे। इसलिए तो आए हैं हम यहाँ...अभी आप जाइए, जाकर उन्हें बुलाकर लेकर आइए।"
"हम नहीं जाएँगे।" दिव्य ने सपाट लहज़े में एतराज जताया और तेज़ी से वहाँ से निकल गया। वहाँ खड़े सभी लोगों के चेहरे पर चिंता के भाव उभर आए। पर सुमित जी अब भी शांत लग रहे थे।
"गरिमा जी, हमारी और दिव्य की चाय छत पर लेकर आइए। अब तो सबसे पहले अपने साले साहब से ही बात करेंगे हम, उसके बाद किसी से मिलना-जुलना होगा।"
सुमित जी ने एक नज़र गरिमा जी को देखा और आँखों से कुछ इशारा करते हुए सीढ़ियों की ओर बढ़ गए।
छत पर आए तो दिव्य रेलिंग के पास खड़ा था। वो भी उसके पास आ गए।
"दिव्य, नाराज़ हो गए क्या हमसे?"
"नहीं जीजू...आपसे कैसी नाराज़गी?...नाराज़ तो हमें अपने नसीब से होना चाहिए, जिसने हमें उस शख्स से जोड़ दिया, जिसने हमारे किरदार पर दाग लगाया और हमारी मजबूरी है कि दिल में उसके लिए बेहद नफ़रत कैद किए, रहना हमें उसी के साथ पड़ता है।"
दिव्य का लहजा सपाट था और चेहरा भावहीन, पर इन शब्दों में वो उसके और दृष्टि के रिश्ते की सच्चाई बयाँ कर गया था।
सुमित जी कुछ पल उसके चेहरे को देखते रहे, फिर उसके कंधे पर हाथ रखते हुए गंभीर स्वर में कहना शुरू किया-
"हैट्रेड इज़ अ वेरी इंटेंस फ़ीलिंग...जैसे जिससे हम मोहब्बत करते हैं वो हमारे दिल में रहता है, वैसे ही जिससे हम नफ़रत करते हैं वो भी जाने-अनजाने हमारे दिलों-दिमाग़ पर छाया रहता है...किसी से नफ़रत करना एक बहुत बड़ी बात है, जिसके लिए कोई बहुत अहम वजह का होना ज़रूरी है।"
"कभी-कभी हमें कोई इंसान पसंद नहीं होता, उसकी कोई बात पसंद नहीं होती, उसकी किसी हरकत पर हम नाराज़ हो सकते हैं, गुस्सा भी आ सकता है...इतना कि हम उस इंसान की शक्ल तक नहीं देखना चाहते...पर नफ़रत एक्सट्रीम लेवल पर होती है। छोटी-छोटी बातों पर शिकवे-शिकायतें की जाती हैं, नफ़रत नहीं।"
उनकी जलेबी जैसी गोल-मटोल बातों में दिव्य उलझ गया और सर घुमाकर असमंजस भरी निगाहों से उन्हें देखने लगा।
"आप कहना चाहते हैं कि दृष्टि ने जो हमारे साथ किया, उसके बाद भी वो हमारी नफ़रत डिज़र्व नहीं करती?"
"ये तो आपको देखना है दिव्य कि वो किस लायक है, जो उन्होंने किया, आप कभी उसे माफ़ कर सकेंगे या नहीं? आपके दिल में क्या वाकई उनके लिए नफ़रत ही है?...हम तो जितना जानते हैं, हमें वो नफ़रत के काबिल नहीं लगती।.........."
"खुद सोचिए आप, उन्होंने भरी महफ़िल में आकर जो बातें कहीं, उसके बाद सवाल सिर्फ़ आपके किरदार पर नहीं उठा था। हाँ, सबकी नज़रों में आप गलत ज़रूर बने, मम्मी-पापा जी को भी सबके सामने शर्मिंदा होना पड़ा, पर दृष्टि ने इतना बड़ा कदम उठाया तो सिर्फ़ आपके लिए।"
"हम ये नहीं कह रहे कि उन्होंने जो और जैसे किया वो सही था। आपको उन्हें माफ़ करने के लिए भी नहीं कह रहे, पर आपका उनसे नफ़रत करना हमें ठीक नहीं लग रहा। ज़िंदगी भर का साथ जुड़ा है आपका उनसे, अगर उनसे नफ़रत करेंगे तो उनके साथ एक छत के नीचे कैसे रह पाएँगे।"
"आप जानते नहीं हैं उसे। वो लड़की पागल है...इतनी ज़िद्दी है और हमें हासिल करना ज़िद थी उसकी, जिसे पूरा करने के लिए उसने हमें और हमारे परिवार को सबके सामने शर्मिंदा कर दिया। हम उसके साथ ज़िंदगी बिताना तो दूर, उसे लम्हें भर के लिए भी अपनी ज़िंदगी में बर्दाश्त नहीं कर सकते, फिर भी अगर उसे अब तक अपनी ज़िंदगी और घर से निकालकर बाहर नहीं फेंका तो सिर्फ़ इसलिए क्योंकि पापा ने हमें ऐसा करने से रोका हुआ है। दृष्टि ने पहले ही हमारे परिवार को बहुत बेइज़्ज़त किया है, अब हम और बदनामी नहीं चाहते।"
"चलिए इस बारे में बाद में बात करेंगे। अभी तो आप हमें दृष्टि के बारे में सब बताइए, ताकि हम भी उन्हें जान सकें। चलिए बैठकर आराम से हमें अपनी और दृष्टि की कहानी सुनाइए, कब और कैसे मिले आप उनसे, बात यहाँ तक कैसे पहुँच गई?"
यहाँ दिव्य अब पुरानी बातों पर से पर्दा उठाने को था, तो वहीं कमरे में बैठी दृष्टि भी दिव्य से हुई अपनी पहली मुलाक़ात के बारे में सोचने लगी थी और दोनों उस वक़्त में चले गए थे जहाँ से इस कहानी की शुरुआत हुई थी।
To be continued…
"मुस्कुराइए, आप लखनऊ में हैं।"
लखनऊ उस क्षेत्र में स्थित है जिसे ऐतिहासिक रूप से अवध क्षेत्र के नाम से जाना जाता था। लखनऊ हमेशा से एक बहुसांस्कृतिक शहर रहा है। यहाँ के शिया नवाबों द्वारा शिष्टाचार, खूबसूरत उद्यानों, कविता, संगीत और बढ़िया व्यंजनों को हमेशा संरक्षण दिया गया।
लखनऊ को "नवाबों के शहर" के रूप में भी जाना जाता है। इसे पूर्व की स्वर्ण नगर (गोल्डन सिटी) और शिराज-ए-हिंद के रूप में जाना जाता है। नवाबों के शहर लखनऊ में आज भी लोगों के रहन-सहन, आचार-विचार और भाषा में नवाबियत की झलक आती है। यहाँ के लोगों में आज भी उनकी विविध संस्कृति मौजूद है। लखनऊ की प्रसिद्ध लाइन है—
"मुस्कुराइए, आप लखनऊ में हैं।"—जो हर लबों पर मुस्कराहट लाने को काफी होती है।
सारा दिन ऑफिस में काम करने के बाद दिव्य बाइक लेकर घर के लिए निकला ही था कि उसकी नज़र सामने लगे बोर्ड पर सुनहरे अक्षरों में लिखे इन शब्दों पर पड़ी और उसके लब मुस्कुरा उठे।
दिव्य आधे रास्ते पहुँचा ही था कि अचानक बारिश शुरू हो गई। वह बाइक पर था और सोच रहा था कि जल्द से जल्द घर पहुँचे। उसने टर्न लिया ही था कि तभी एक स्पोर्ट्स कार तेजी से आई और उसके ठीक सामने ब्रेक मारी।
दिव्य संभल नहीं पाया और बाइक फिसल गई। उसने किसी तरह खुद को बचाया, लेकिन उसकी शर्ट पर कीचड़ लग गया था और घुटना हल्का छिल भी गया था।
दिव्य ने गुस्से में कार की तरफ देखा। कार का शीशा नीचे हुआ... वहीं पर बैठी थी दृष्टि!
दिव्य लगातार उसे घूरते हुए खड़ा हुआ और गुस्से में उसकी कार की तरफ बढ़ गया।
"ओएमजी! क्या तुम ठीक हो?" दृष्टि ने हैरानी से सवाल किया। दिव्य जो लगातार उसे घूर रहा था, उसने गुस्से में अपने जबड़े भींच लिए।
"हाँ हाँ... मैं तो बिल्कुल ठीक हूँ, मुझे क्या होना है? मुझे तो शौक है, स्टंट करके अपनी जान जोखिम में डालने का..... मुझे बहुत मज़ा आया और मैं तो आपका शुक्रगुज़ार हूँ कि आपने मुझे अपना टैलेंट दिखाने का मौका दे दिया।"
दिव्य बुरी तरह चिढ़ा हुआ था, वहीं दृष्टि उसकी बातों में उलझ गई थी। अपनी पलकों को फड़फड़ाते हुए वह असमंजस भरी नज़रों से उसे देख रही थी। तभी दिव्य एकदम से उस पर चिल्ला उठा।
"दिखाई नहीं देता तुम्हें, सामने से आती इतनी बड़ी बाइक नज़र नहीं आई तुम्हें?...... दूसरों की जान की तुम्हारी नज़रों में कोई कीमत है या नहीं? अपनी जान की परवाह नहीं, तो ना सही..... कम से कम दूसरों की ज़िंदगी की तो चिंता करो..... बारिश में इतनी तेज कार कौन चलाता है..... जब कार चलाना नहीं आती तो कार लेकर सड़क पर निकली ही क्यों हो?"
दिव्य गुस्से में उस पर चिल्ला रहा था और दृष्टि उसकी ओर देख रही थी। बारिश से पूरी तरह भीग चुका था वह, उसका बारिश की बूंदों से सराबोर भीगा-भीगा गुस्से से भरा चेहरा बेहद दिलकश लग रहा था।
"अरे, इतनी भी तेज नहीं थी... और वैसे भी, ब्रेक तो लगा ही दिए थे मैंने।" दृष्टि ने मुस्कुराकर, लापरवाही से जवाब दिया, जिससे दिव्य और ज्यादा चिढ़ गया और दाँत पर दाँत चढ़ाते हुए जबड़े भींच लिए।
"वाह.... बहुत बड़ा एहसान कर दिया तुमने..... क्या चाहती हो अब कि तुम्हें धन्यवाद बोलूँ कि तुमने टक्कर मारने से पहले ब्रेक मार दिए?"
दृष्टि को उसकी यह नाराजगी मजेदार लग रही थी। वह झुककर उसकी शर्ट पर लगे कीचड़ को देखकर थोड़ा मुस्कुराई और अपनी गाड़ी से एक नैपकिन निकालकर उसकी तरफ बढ़ा दिया।
"लो, इसे पोंछ लो। वैसे भी, पहली मुलाकात में अच्छी छाप छोड़नी चाहिए।"
दिव्य उसका यह बेफिक्री भरा अंदाज़ देखकर झुंझला गया। उसने गहरी साँस ली और नैपकिन लिए बिना तीखी निगाहों से उसे घूरने लगा।
"तुमने पहले ही काफी छाप छोड़ दी है... वो भी मेरी शर्ट पर।"
उसकी बात और यह अंदाज़ देखकर दृष्टि खिलखिला कर हँस पड़ी। उसे दिव्य की नाराजगी और सीरियस नेचर बहुत क्यूट लग रहा था।
"ओह! तो तुम वैसे वाले हो... जो छोटी-छोटी बातों पर चिढ़ जाते हैं?"
दृष्टि शरारती अंदाज़ में मुस्कुराई, वहीं उसकी बात सुनकर दिव्य खीझ गया।
"और तुम वैसे वाली हो... जो दूसरों की टांग तुड़वाने के बाद भी मज़ाक करते हैं?"
"चलो, टांग तो नहीं टूटी, लेकिन तुम्हारी बाइक ज़रूर घायल लग रही है!"
दृष्टि फिर बेपरवाही से हँस पड़ी, जिससे दिव्य का खून खौल गया। उसने अपनी बाइक की तरफ देखा और एक लंबी साँस छोड़ते हुए गुस्से से बड़बड़ाया।
"आज तो दिन ही खराब था!"
दृष्टि को यह सब बहुत मजेदार लग रहा था। वह दिव्य की झुंझलाहट से उल्टा और ज़्यादा इम्प्रेस हो गई थी। उसे पहली ही नज़र में दिव्य की सादगी और ईमानदारी बहुत पसंद आ गई।
"सुनो, अगर ज़्यादा गुस्सा ठंडा करने का मन हो, तो कॉफी पी सकते हो मेरे साथ..... मेरी ट्रीट।" दृष्टि ने हल्का सा मुस्कुराया। जवाब में दिव्य उसे आँखें दिखाने लगा।
"अच्छा! पहले मुझे गिरा दो, फिर कॉफी ऑफ़र कर दो..... ये तरीका है अपनी गलती की माफ़ी माँगने का?"
दृष्टि उसके इस सवाल पर सौम्यता से मुस्कुरा दी। "तो क्या करूँ? माफ़ी माँगने का और तरीका भी हो सकता है तो बता दो।"
दिव्य कुछ पल उसे घूरता रहा, फिर उसे अनदेखा करके अपनी बाइक स्टार्ट करने की कोशिश करने लगा लेकिन बाइक स्टार्ट नहीं हो रही थी। दृष्टि अब कार से निकलकर उसके पास चली आई और उसके पास आकर झुकते हुए बोली।
"अब तो तुम्हें मेरी मदद लेनी ही पड़ेगी, मिस्टर एंग्री बर्ड..."
दृष्टि मुस्कुराई और उसकी मुस्कान देखकर दिव्य चिढ़ गया। दिव्य ने पलटकर उसे घूरा, उसे दृष्टि पर बहुत गुस्सा आ रहा था क्योंकि उसके कारण आज वह ऐसी सिचुएशन में फँस गया था और उस पर दृष्टि माफ़ी माँगने के बजाय उसे और चिढ़ा रही थी।
दृष्टि ने उसे खामोश देखकर मुस्कान दबाते हुए सवाल किया। "तो क्या सोचा? मेरी ट्रीट लोगे या फिर गुस्से में भीगते रहोगे?"
दिव्य को समझ नहीं आया कि यह लड़की इतनी बिन बुलाए मुसीबत की तरह उसकी लाइफ में क्यों आई, और अब वह उससे पीछे ही पड़ गई है। गुस्से से भरा था दिव्य। कुछ पल आँखें छोटी-छोटी किए उसे घूरता रहा, फिर उसने उसे पूरी तरह से नज़रअंदाज़ कर दिया और बाइक घसीटते हुए आगे बढ़ गया।
दृष्टि ने मुँह बनाते हुए खुद से दूर जाते दिव्य की पीठ को घूरा, फिर कुछ सोचते हुए मुस्कुरा दी। उसे पहली ही नज़र में यह "सीरियस शक्स" कुछ ज़्यादा ही दिलचस्प लगने लगा था। उसकी हर अदा जैसे उसे अपनी ओर खींच रही थी। इन सब में वह बेवजह ही सर से पैर तक भीग चुकी थी।
दृष्टि तब तक दिव्य को देखती रही जब तक वह उसकी आँखों से ओझल नहीं हो गया। फिर अपने माथे पर बिखरी भीगी जुल्फ़ों को उसने अपनी उंगलियों से सहलाया और मुस्कुराते हुए कार में बैठकर वहाँ से निकल गई।
बारिश अब भी हो रही थी, लेकिन दृष्टि के लिए यह सिर्फ़ बारिश नहीं थी—यह उसके दिल में जन्म ले रहे एक अनकहे एहसास की पहली बूँद थी...
दिव्य किसी तरह बाइक को घसीटते हुए पास के गैरेज तक लाया और खुद भी वहीं बैठ गया। आधे घंटे में बाइक ठीक हुई, हालाँकि पैर में लगी चोट के कारण उसे बाइक चलाने में दिक्कत हो रही थी, पर वह किसी तरह घर पहुँचा, जहाँ गायत्री जी परेशान सी यहाँ से वहाँ चक्कर काटते हुए उसका इंतज़ार कर रही थीं।
"दिव्य बेटा, यह क्या हुआ आपको... यह चोट कैसी लगी?" दिव्य को देखते ही वह परेशान सी उसके पास चली आईं और उसकी हालत देखकर चिंतित स्वर में सवाल किया।
बारिश के पानी से कपड़ों पर लगा कीचड़ तो धुल गया था पर निशान बाकी था और घुटने के पास से पैंट फट गई थी जिससे अंदर लगा ज़ख्म नज़र आ रहा था जिसके कारण उसे चलने में भी दिक्कत हो रही थी।
"कुछ नहीं मम्मी, बाहर बारिश हो रही थी तो बाइक स्लिप हो गई, उसी से ज़रा सी चोट लग गई है। कुछ दिनों में ठीक हो जाएगी।"
दिव्य उन्हें परेशान देखकर अपना दर्द छुपाकर मुस्कुराया। पर माँ का दिल अपने बच्चे को तकलीफ में देखकर ही विचलित हो गया था। दिव्य ने उन्हें साइड से गले लगा लिया।
"हम ठीक हैं मम्मी, आप चिंता मत कीजिए। हम ज़रा कपड़े बदलकर फ्रेश हो जाते हैं, आप तब तक हमारे लिए अपने हाथ की कड़क चाय बना दीजिए। आज का दिन बहुत खराब था, हमारा सर दर्द से फट रहा है।"
उसने उनके माथे को चूम लिया और सीढ़ियों की ओर बढ़ गया। गायत्री जी भी जल्दी से किचन में चली गईं। कुछ देर बाद चाय लेकर वह उसके कमरे में आईं। दिव्य नहाकर कपड़े बदलकर काफी फ्रेश लग रहा था और अपने लोअर को घुटने तक चढ़ाए ज़ख्म को साफ करने की तैयारी में था।
"आप चाय पीजिए बेटा, हम कर देते हैं।" गायत्री जी ने उसे कप पकड़ाया और खुद नीचे बैठकर उसके ज़ख्म को साफ करने लगीं, उस पर दवाई लगाई। ज़ख्म ज़्यादा गहरा नहीं था पर छिल ज़्यादा गया था।
"मम्मी, पापा नहीं आए अभी तक?" दिव्य ने चाय की चुस्की लेते हुए सवाल किया। गायत्री जी ने दवाई का डब्बा बंद करते हुए जवाब दिया।
"उनका फोन आया था। आज आने में थोड़ी देर हो जाएगी। आपका खाना ले आते हैं हम। आप खाना खाकर दवाई लेकर आराम कर लीजिएगा।"
दिव्य ने सौम्यता से मुस्कुराते हुए सिर हिला दिया। गायत्री जी के जाने के बाद दिव्य बेड पर लेट गया। न चाहते हुए भी आँखों के आगे दृष्टि का मुस्कुराता हुआ चेहरा आया और मन गुस्से से भर गया।
दूसरे तरफ दृष्टि इस वक़्त अपने सीक्रेट रूम में बैठी थी। उसके सामने एक कैनवास लगा था जिस पर कुछ रंग बिखरे थे, शायद कुछ बनाने की कोशिश कर रही थी और अभी भी उन्हीं भीगे कपड़ों में थी।
"दृष्टि, तू यहाँ क्या कर रही है, मैं कब से कैफ़े में तेरा इंतज़ार कर रही थी। तुझे इतने कॉल भी किए पर मैडम को तो फ़ोन उठाने की कभी फ़ुर्सत ही नहीं होती। वो तो मैंने आंटी को फ़ोन किया तो पता चला कि तुमने खुद को इस कमरे में बंद किया हुआ है। तो मुझे खुद ही ये देखने आना पड़ा कि मुझे मिलने का वादा करके तू यहाँ क्या करने लगी?"
अचानक आई यह आवाज़ सुनकर दृष्टि चौंक गई। उसने हड़बड़ाते हुए उस पेंटिंग को पास में रखे व्हाइट पर्दे से ढक दिया। तब तक में श्रेया उसके पास पहुँच चुकी थी।
"क्या छुपा रही है तू मुझसे? मुझसे मिलने का वादा करके यहाँ बैठकर क्या बना रही थी तू?...जिसे मेरी आवाज़ सुनते ही छुपा दिया और ये तेरे कपड़े बाल सब गीले क्यों हैं?"
श्रेया भौंह सिकोड़कर तीखी शक भरी निगाहों से उसे घूर रही थी। दृष्टि पहले तो सकपका गई फिर झट से उठकर खड़ी हुई और उसके कंधे पर बाँह लपेटते हुए मुस्कुराते हुए बोली।
"मैं तुझसे कभी कुछ छुपा सकती हूँ क्या? मैं आ रही थी तुझसे मिलने तो रास्ते में बारिश हो गई और वहीं मैंने एक ब्यूटीफुल सीन देख लिया। भूल न जाऊँ इसलिए वापिस घर चली आई। बारिश में भीग गई थी पर उस सीन को कैनवास पर उतारने के लिए इतनी एक्साइटेड थी कि ड्रेस चेंज करना याद ही नहीं रहा।"
"अच्छा, ऐसी बात है। ज़रा दिखा तो ऐसा क्या देख लिया था तूने कि उसके आगे तुझे मैं भी याद नहीं रही।"
"अभी कम्पलीट नहीं हुआ है इसलिए नहीं दिखा रही तुझे। जब पूरा हो जाएगा तो तुझे ज़रूर दिखाऊँगी। चल अब बाहर चलते हैं, मैं चेंज कर लूँगी, उसके बाद बात करेंगे।"
दृष्टि ने श्रेया को बातों में उलझाया और उसे घसीटते हुए उस रूम से बाहर ले गई। श्रेया को उस पर शक तो हो गया था पर दृष्टि ने उसे कुछ बोलने का मौका ही नहीं दिया। रूम का दरवाज़ा लॉक करते हुए उसने सरसरी नज़र उस ढकी हुई अधूरी पेंटिंग पर डाली और होंठों पर मीठी सी मुस्कान बिखर गई।
To be continued…
क्या छुपा रही है दृष्टि श्रेया से? कैसी लगी आपको दोनों की यह पहली मुलाकात?
दिव्य का मूड उस दिन काफी अच्छा था। सृष्टि से हुई पिछली मुलाकात को वह पूरी तरह से भूल चुका था।
"यार, ये तुम कहाँ ले आए हो हमें?" दिव्य ने उस जगह और माहौल को देखते हुए अजीब सा मुँह बनाया। जिससे साफ ज़ाहिर था कि उसे यह जगह और यहाँ का एटमॉस्फेयर बिल्कुल पसंद नहीं आया था।
"अरे यार, तू तो बस हमेशा सीरियस ही रहता है! अपनी ज़िंदगी को इतना बुझा-बुझा के काहे रखे है? ज़रा जीना सीख, मियाँ! वैसे भी आज का दिन कितना ख़ास है, और हम यहाँ तेरी कामयाबी का जश्न मनाने आए हैं। तो छोड़ सब फालतू की टेंशन और बस वही कर, जो हम कह रहे हैं। खुदा कसम, बड़ा मज़ा आएगा! ऐसा एक्सपीरिएंस होगा कि पूरी ज़िंदगी याद रखेगा।"
सौरभ जबर्दस्ती उसे घसीटते हुए अंदर लाने लगा। दिव्य उससे अपना हाथ छुड़ाने की कोशिश कर रहा था।
"सेलिब्रेशन करने के और भी तरीके हैं, यहाँ आने की क्या ज़रूरत थी? तुम जानते हो हमें ऐसी जगह, यह चकाचौंध, शोर-शराबा बिल्कुल भी पसंद नहीं है।"
"जानता हूँ मेरे यार कि तुझे शांति पसंद है, पर कभी तो अपनी बोरिंग, ब्लैक एंड वाइट ज़िंदगी से बाहर निकल। ज़िंदगी को एंजॉय कर, खुद को थोड़ा बदल यार, वरना शादी के बाद तेरे जैसे बोरिंग इंसान के साथ रहना भाभी के लिए बहुत मुश्किल हो जाएगा।"
"उन्हें भी यह सब पसंद नहीं है।" दिव्य ने उसकी बातों पर मुँह एंठते हुए कहा। उसका यह जवाब सुनकर सौरभ चिढ़ गया।
"सौरभ, अगर पापा को पता चल गया कि हम तुम्हारे साथ यहाँ आए थे तो हमारी टाँगें तोड़ देंगे वो।"
"कहाँ से पता चलेगा अंकल को कुछ भी, जब न तू उन्हें कुछ बताएगा और न ही मैं। चल अब बहाने बनाना छोड़ और थोड़ी देर सब भुलाकर बस एंजॉय कर।"
सौरभ की ज़िद पर मन न होते हुए दिव्य को अंदर आना पड़ा। सौरभ उसे खींचते हुए डांस फ्लोर पर ले आया जहाँ रंग-बिरंगी मद्धम रोशनी बिखरी थी; कई लोग पहले से वहाँ डांस कर रहे थे।
सौरभ जबर्दस्ती उसे अपने साथ नचाने लगा, जबकि दिव्य के मूव्स और फेशियल एक्सप्रेशन चीख-चीखकर कह रहे थे कि उसे डांस का डी भी नहीं आता और न ही इसमें कोई दिलचस्पी है। उस पर उसके आस-पास मौजूद लड़कियाँ, भीड़ के वजह से उसके करीब आ रही थीं, जिससे वह असहज हो रहा था और बार-बार उनसे दूर जाने की नाकाम सी कोशिश कर रहा था।
उसे बेमन से हाथ-पैर हिलाते, अजीब सी शक्लें बनाते और लड़कियों से यूँ दूर भागते देखकर वहीं एक तरफ कोने में एकदम खामोश बैठी दृष्टि के होंठों पर हँसी खिल गयी।
"How cute," उसके होंठ हिले, पर आवाज़ बाहर न आ सकी।
"तुझे क्या हुआ दृष्टि, मैंने आज के दिन पहले कभी तुझे इतना खुश नहीं देखा।"
दृष्टि के बगल में बैठी श्रेया उसे यूँ हँसते-मुस्कुराते देखकर हैरान थी। कुछ देर पहले तक दृष्टि एकदम गुमसुम और उदास सी बैठी थी, मूड ऑफ था और वह काफी दुखी लग रही थी; अब उसका अचानक हूँ खिलखिलाना..... श्रेया कुछ समझ ही नहीं सकी।
दृष्टि, जो बेहद प्यार से डांस फ्लोर पर अनकॉम्फोर्टेबल से हाथ-पैर हिलाते दिव्य को देखते हुए हँस रही थी, एकदम से चुप हो गयी। पहले तो खुद ही चौंक गयी, अगले ही पल मन में कुछ आया और होंठों पर मीठी सी मुस्कान बिखर गयी।
"अब तक वजह नहीं थी, पर अब मिल गयी है।"
दृष्टि की नज़र अब भी दिव्य पर ठहरी थी। श्रेया उसकी इस पहेली जैसे जवाब में उलझ गयी। इतने में दृष्टि उठकर खड़ी हो गयी।
"चल डांस करते हैं।"
"पर अभी त......" श्रेया हैरान-परेशान सी कुछ बोल ही रही थी कि दृष्टि ने उसकी बात काटते हुए कहा।
"चल न यार।" दृष्टि ने उसे मौका तक नहीं दिया और जबर्दस्ती उसे खींचते हुए डांस फ्लोर पर ले आई। श्रेया ने भी आगे कुछ नहीं पूछा और उसे खुश और रिलेक्स देखकर उसके साथ डांस करने लगी, पर दृष्टि के लिए डांस सिर्फ बहाना था, उसे तो दिव्य के पास आना था।
कुछ देर यूँ ही कमर मटकाने के बाद, जब श्रेया पूरी तरह से डांस में मग्न, उसके तरफ से बेफिक्र हो गयी, तो दृष्टि नाचते हुए धीरे-धीरे दिव्य के पास आने लगी। पर उसकी फूटी किस्मत थी कि वह उसके पास पहुँचती उससे पहले ही दिव्य डांस फ्लोर से नीचे उतर गया।
"Shit man," दृष्टि ने खींचते हुए अजीब सा मुँह बनाया। एक नज़र श्रेया को देखा, जिसे किसी बात का होश ही नहीं था, और धीरे से दिव्य के पीछे निकल गयी।
दिव्य पहली बार ऐसी किसी जगह आया था। उसे यहाँ काफी अजीब और आक्वर्ड फील हो रहा था। शांति और सुकून ढूँढते हुए वह एकदम कोने के लगे टेबल पर आकर बैठ गया।
दिव्य का मन तो एक पल भी वहाँ ठहरने का नहीं था, पर सौरभ को छोड़कर भी नहीं जा सकता था। वह अनमने ढंग से कोने की एक टेबल पर बैठा, आस-पास नज़रें घुमाते हुए बस टाइम पास कर रहा था, तभी उसकी नज़र सामने से चली आ रही दृष्टि पर गयी।
पल भर को उसकी नज़र उस पर ठहरी और भौंहें सोचने के अंदाज़ में सिकुड़ गयीं।
"ये कुछ जानी-पहचानी सी क्यों लग रही है?" दिव्य खुद में उलझा हुआ, दृष्टि को देखते हुए अपने दिमाग पर ज़ोर डाल ही रहा था, तभी दृष्टि उसे देखते हुए मुस्कुराई और अचानक ही दिव्य की आँखों के सामने वह बरसात वाली मुलाकात किसी चलचित्र की भाँति घूम गयी; आँखें अविश्वास से फैल गयीं।
"ये यहाँ....."
दिव्य चौंकते हुए खुद से ही बोला। अगले ही पल उसने दृष्टि पर से निगाहें फेर लीं और उसे ऐसे इग्नोर किया जैसे जानता ही नहीं। यह देखकर दृष्टि के मुस्कुराते लब सिमट गए और उसकी त्योरियाँ चढ़ गयीं।
"इसने मुझे पहचाना नहीं या जानकर इग्नोर कर रहा है?" दृष्टि के मन में सवाल आया और सर झटकते हुए वह दिव्य के पास पहुँच गयी।
"हैलो हैंडसम....Can I sit here?" दृष्टि ने सौम्य सी मुस्कान लबों पर बिखेरते हुए अपनी मीठी सी आवाज़ में सवाल किया। दिव्य, जो अब तक उसे इग्नोर कर रहा था, उसने तीखी निगाहों से उसे घूरा और उखड़े अंदाज़ में जवाब दिया।
"You can sit wherever you want but not here."
"Why.....मैं तो यही बैठूंगी।" दृष्टि भी कहाँ कम थी? अपनी मनमानी करने की आदत थी उसे और पैदाइशी ज़िद्दी थी। ढींट बनकर उसके बगल में बैठ गयी, जिससे दिव्य चिढ़ गया और जैसे ही उठने लगा, दृष्टि ने हड़बड़ाते हुए उसकी कलाई थाम ली।
"अरे तुम कहाँ भागे जा रहे हो?...बैठो न यहीं।"
उसकी यह हरकत दिव्य को नागवार गुज़री थी। उसकी आँखें खतरनाक अंदाज़ में सिकुड़ गयीं। उसने सर घुमाकर पहले अपने हाथ को देखा, जिसे अभी भी दृष्टि ने थामा हुआ था, फिर जैसे ही उसकी गुस्से भरी नज़रें दृष्टि की ओर उठीं, उसने हड़बड़ाते हुए उसके हाथ को छोड़ दिया।
To be continued…
"अरे तुम कहाँ भागे जा रहे हो? ... बैठो न यहीं।"
उसकी यह हरकत दिव्य को नागवार लगी थी। उसकी आँखें खतरनाक अंदाज़ में सिकुड़ गईं। उसने सर घुमाकर पहले अपने हाथ को देखा, जिसे अभी भी दृष्टि ने थामा हुआ था। फिर, जैसे ही उसकी गुस्से भरी नज़रें दृष्टि की ओर उठीं, उसने हड़बड़ाते हुए उसके हाथ को छोड़ दिया।
"Sorry....But मुझे तुमसे कुछ ज़रूरी बात करनी है...Please sit."
इस बार उसने रिक्वेस्ट की थी और बड़ी ही आस से दिव्य को देख रही थी। दिव्य कुछ पल उसे यूँ ही घूरता रहा। फिर उसने गहरी साँस छोड़ते हुए खुद को शांत किया और मन ही मन भुनभुनाते हुए वापिस बैठ गया।
"बोलो क्या कहना है तुम्हें?"
"I am sorry.....उस दिन मेरे वजह से तुम गिर गए, हर्ट हुए और तुम्हारी बाइक भी खराब हो गई थी।"
इसी बात की चिढ़ थी दिव्य को और आज जब दृष्टि ने sincerely apologize किया, तो उसकी चिढ़ कम होने लगी।
"It's okay, पर जब कार लेकर सड़क पर निकलो तो ध्यान रखा करो कि वहाँ और भी लोग होते हैं जिनकी लाइफ उतनी ही कीमती है जितनी कि तुम्हारी। अगर नहीं चला सकती तो ड्राइवर रख लो, ऐसे अपनी और दूसरों की लाइफ डेंजर में डालना ठीक नहीं है।"
इस बार दिव्य ने नर्मी से उसे समझाया था और दृष्टि ने किसी छोटे आज्ञाकारी बच्चे जैसे सर हिलाते हुए उसकी बात मान ली थी।
"अब जाओ," दिव्य ने कुछ देर बाद भी उसे वहीं बैठे देखते हुए कहा, तो दृष्टि ने झट से इंकार में सर हिला दिया।
"मैं जाने के लिए थोड़े आई हूँ तुम्हारे पास।"
"तो और क्यों आई हो?...सुन तो ली मैंने तुम्हारी बात, अब तुम्हें मुझसे क्या चाहिए?"
दिव्य ने आँखें चढ़ाते हुए सवाल किया। जिसे सुनकर दृष्टि बेपरवाही से मुस्कुरा उठी।
"कुछ नहीं, बस तुम्हारी कंपनी.....अब तो मैंने लास्ट टाइम के लिए तुमसे excuse भी कर लिया और इस बार मेरी कार तुम्हारी बाइक से नहीं टकराई, तो शायद अब तुम अपनी यह नाराजगी छोड़ सकते हो!"
आकृति का जवाब और अंदाज़ दिव्य को कुछ खास पसंद नहीं आया और उसके होंठ व्यंग्य से टेढ़े हो गए।
"हाँ, माफ़ी मांगकर तो तुमने बहुत बड़ा एहसान कर दिया मुझ पर....शुक्र है कि आज मैं तुम्हारी रैश ड्राइविंग का शिकार नहीं बना, वरना शायद इस बार सीधा हॉस्पिटल में मिलता और वहाँ आकर भी तुम एक छोटा सा सॉरी कहकर मुझ पर एहसान कर देती।"
दिव्य के ताने सुनकर दृष्टि ने अजीब सा मुँह बना लिया।
"किया तो नहीं न मैंने ऐसा कुछ और genuinely मैंने तुमसे sorry कहा था। Let's forget it.....अब ज़रा सी बात पर इतना भी क्या सीरियस होना?...चलो, मैं एक ड्रिंक मंगवाती हूँ। तुम क्या लोगे?"
दृष्टि ने बात को खत्म करने के इरादे से बात बदली और होंठों पर सौम्य सी मुस्कान सजाए आँखें बड़ी-बड़ी करके उसे देखने लगी।
"कुछ नहीं," दिव्य ने भावहीन अंदाज़ में जवाब दिया और चेहरा घुमाकर बैठ गया।
"अगर तुम नहीं बताओगे तो फिर मैं अपनी मर्ज़ी से कुछ भी ऑर्डर कर दूँगी और तुम्हें पीना पड़ेगा....और अगर नहीं पीओगे तो उसके पैसे दोगे होंगे। You know न यहाँ एक-एक ड्रिंक काफी एक्स्पेंसिव है और तुम्हारे लिए मैं सबसे एक्स्पेंसिव वाली ऑर्डर करने वाली हूँ।"
दृष्टि ने चमकती आँखों से उसे देखा और शातिर अंदाज़ में मुस्कुराई। दिव्य पहले तो चौंक गया, फिर चिढ़ते हुए वहाँ से उठकर चला गया और दृष्टि मुँह बनाए उसे खुद से दूर जाते देखती ही रह गई।
"One glass water please," दिव्य ने सौम्यता से वेटर से कहा। वेटर ने आँखें बड़ी-बड़ी करके उसे देखा, साथ ही दृष्टि की हैरानी भरी आवाज़ आई।
"क्या? पब में आकर सिर्फ़ वॉटर?... "
"क्यों? क्या पब में पानी पीना गैरकानूनी है?" दिव्य, जो अभी-अभी उससे पीछा छुड़ाकर आया था, उसे फिर से अपने पास देखकर बुरी तरह से खीझ उठा। वही इरिटेशन उसके अल्फ़ाज़ में झलकने लगी। उसका तल्ख लहज़ा देखकर भी दृष्टि बेफिक्री से मुस्कुरा उठी।
"नहीं, लेकिन थोड़ा बोरिंग ज़रूर है।"
दृष्टि ने वेटर को बुलाकर खुद के लिए एक कॉकटेल ऑर्डर की और दिव्य के लिए एक "स्पेशल ड्रिंक" बनाने को कहा। दिव्य को यह सुनकर शक हुआ।
दिव्य ने भौंह सिकोड़ते हुए सवाल किया, "तुमने मेरे लिए क्या ऑर्डर किया?"
वेटर के जाते ही दिव्य ने पैनी निगाहों से उसे घूरते हुए सवाल किया, जिस पर दृष्टि शरारती अंदाज़ में मुस्कुरा उठी। "सरप्राइज़।"
कुछ मिनटों बाद वेटर एक रंग-बिरंगा ड्रिंक लेकर आया और एक-एक ग्लास दोनों के सामने रख दिया। दृष्टि ने तो अपना ग्लास उठा लिया, पर दिव्य को उस पर यकीन नहीं था।
"क्या है यह?...कहीं तुमने इसमें कुछ मिलाया तो नहीं?"
दिव्य आँखें छोटी करते हुए उसे घूर रहा था। यह देखकर दृष्टि खिलखिला कर हँस पड़ी। "अरे बाबा, यह सिर्फ़ एक मॉकटेल है.....नो एल्कोहल, सिर्फ़ मस्ती। अगर यकीन नहीं तो सूँघकर देख लो।"
दिव्य को वाकई में उस पर भरोसा नहीं था। उसने सूँघने का सोचा, पर कुछ सोचकर ठहर गया।
"क्या चाहती हो तुम?...उस दिन के लिए माफ़ कर तो दिया मैंने तुम्हें, फिर मेरे पीछे क्यों पड़ी हो और यह सब करके आखिर हासिल क्या करना चाहती हो तुम?"
दिव्य को उसकी नियत पर शक था। दृष्टि का बिहेवियर ही उसे कुछ अजीब सा लग रहा था।
"कुछ नहीं, बस तुम्हारे साथ एक ड्रिंक पीनी है। अगर तुमने इसे पी लिया तो मैं समझ जाऊँगी कि तुमने मेरी apology एक्सेप्ट कर ली, मुझे माफ़ कर दिया। फिर मैं बिना तुम्हें और परेशान किए चुपचाप यहाँ से चली जाऊँगी। बस एक ड्रिंक कर लो मेरे साथ।"
इस बार अपनी शरारत छोड़कर दृष्टि काफी सीरियस नज़र आई। दिव्य कुछ पल जाँचती नज़रों से उसे देखता रहा, फिर भौंह उचकाते हुए बोला।
"बस एक ड्रिंक की बात है?"
दृष्टि ने झट से सर हिला दिया। दिव्य ने अब ग्लास उठाकर उसे सूँघा। मन तो नहीं था, पर प्यास भी लगी थी और इस अनचाही मुसीबत से पीछा भी छुड़ाना था। यही सोचते हुए उसने दृष्टि की बात मान ली। जिससे दृष्टि खुशी से चहक उठी।
"Cheers," कहते हुए उसने अपना ग्लास दिव्य की ओर बढ़ाया, तो उसने भी बेमन से उसके ग्लास से अपने ग्लास को हल्के से टकरा दिया।
To be continued…
क्या दिव्य-दृष्टि की यह मुलाकात बस इत्तेफाक़ थी? क्या चाहती है दृष्टि उससे? क्या वाकई वह यहाँ से चली जाएगी?
एक ड्रिंक के बाद दिव्य उठकर बाहर चला गया था। दृष्टि भी वापिस श्रेया के पास चली गई थी। वह बेहद खुश थी और वही खुशी उसके लबों पर मुस्कान बनकर बिखरी हुई थी।
बाहर बरसात शुरू हो चुकी थी। दिव्य कुछ देर तक घर पर फोन करने की कोशिश करता रहा, फिर भी जब बात नहीं हो सकी, तो परेशान सा वापिस अंदर चला आया।
"सौरभ, बहुत हो गया, चल अब घर चलते हैं।"
दिव्य की बात सुनकर सौरभ, जो खूब एन्जॉय कर रहा था, उसने चौंकते हुए सिर घुमाकर उसे देखा।
"अभी तो आए हैं।"
"देख, बाहर कितनी बारिश हो रही है। तू मुझे ऑफिस से जबरदस्ती उठाकर ले आया, घर कॉल भी नहीं करने दी। हमने मम्मी को बताया भी नहीं कि हम तुम्हारे साथ हैं। हमारे घर पहुँचने का टाइम हो गया है, मौसम बिगड़ रहा है। घर पर मम्मी परेशान हो रही होंगी और बारिश के वजह से नेटवर्क इशू आ रहा है, हम उनसे बात भी नहीं कर पा रहे। अभी घर चलते हैं, बाद में तुम्हें अच्छे से पार्टी दे देंगे।"
दिव्य काफी परेशान लग रहा था। वजह भी थी। सौरभ का मन तो नहीं था अभी इतनी जल्दी जाने का, पर मान गया।
"श्रेया, चल घर चलें।"
"अरे, पर इतनी जल्दी, अभी तो एन्जॉय करना शुरू किया है हमने।"
"कभी और आ जाएँगे यार, अभी चल, वरना मैं तुझे यहीं छोड़कर चली जाऊँगी।"
दृष्टि की धमकी पर श्रेया मन मसोसकर रह गई और दृष्टि उसे खींचते हुए अपने साथ ले गई।
बारिश लगातार तेज़ होती जा रही थी। ठंडी हवा चेहरे पर चुभने लगी थी, लेकिन दिव्य को इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ा। वह सौरभ के साथ पब से निकलकर अपने घर की ओर बढ़ ही रहा था कि अचानक ही उसकी नज़र फुटपाथ के किनारे खड़ी एक औरत पर पड़ी। उसके कपड़े पानी से पूरी तरह भीग चुके थे, बाल चेहरे पर चिपक गए थे, और ठंड से उसके होंठ हल्के-हल्के काँप रहे थे। वह बेचैनी से इधर-उधर देख रही थी, लेकिन उसके चेहरे पर बेबसी साफ झलक रही थी।
दिव्य के चेहरे पर चिंता के भाव उभरे और उसने एकदम से कार रोक दी। जिससे सौरभ चौंक गया।
"अबे, क्या हुआ?"
"वो औरत...शायद किसी का इंतज़ार कर रही है।" दिव्य ने धीरे से कहा, नज़रें अब भी उस लेडी पर टिकी थीं।
"तो.....हमें क्या? बारिश में खड़े रहकर चैरिटी करने का मूड है क्या अब तेरा?" सौरभ ने उसकी नज़र का पीछा करते हुए मज़ाकिया अंदाज़ में कहा।
दिव्य ने नाराज़गी से उसे घूरा तो वह एकदम से चुप हो गया। उसने एक गहरी साँस ली और बिना कुछ कहे कार का दरवाज़ा खोला।
"अबे! तू जा कहाँ रहा है?" सौरभ ने उसे पकड़ने की कोशिश की, लेकिन तब तक दिव्य छतरी लेकर बाहर निकल चुका था।
दिव्य उस औरत की ओर बढ़ा। औरत ने उसकी आहट सुनी और घबराकर उसकी ओर देखा।
"आप ऐसे क्यों खड़ी हैं? ठंड लग जाएगी।" बोलते हुए दिव्य ने छतरी उसके ऊपर कर दी।
"मैं...मैं ठीक हूँ..." महिला ने धीरे से कहा, लेकिन उसकी आवाज़ खुद ही उसका विरोध कर रही थी।
"ठीक होने के लिए भीगना ज़रूरी है क्या?" दिव्य ने हल्की मुस्कान के साथ अपना कोट उतारा और उसके कंधों पर डाल दिया।
महिला की आँखों में अजीब-सा भाव उभरा—आभार, झिझक, और शायद थोड़ी हैरानी भी।
"आपको कोई हेल्प चाहिए?" दिव्य ने सौम्यता से सवाल किया। पहले तो वह लेडी सोच में पड़ गई, फिर झिझकते हुए उसने सिर हिला दिया।
"मेरा फ़ोन ऑफ़ हो गया है और मुझे अपने हसबैंड को कॉल करना है।"
उन्होंने इतना कहा ही था कि दिव्य ने अपना फ़ोन निकालकर उनकी ओर बढ़ा दिया। नेटवर्क इशू था, तो दो-तीन बार ट्राई करने के बाद जाकर कॉल लगा। उन्होंने बात की और मोबाइल वापिस उसकी ओर बढ़ा दिया।
"थैंक्यू," उन्होंने कृतज्ञता व्यक्त की। दिव्य हौले से मुस्कुरा दिया। कुछ देर बाद एक बाइक वहाँ आकर रुकी। एक बार फिर दिव्य को थैंक्यू कहने के बाद वह लेडी अपने हसबैंड के साथ चली गई। उसके बाद जाकर दिव्य ने कदम अपने रास्ते की ओर बढ़ाए।
बारिश की ठंडी बूँदें उसके सिर और कंधों पर गिरने लगीं, लेकिन उसने ध्यान नहीं दिया। जाकर कार में बैठा तो सौरभ भौंह सिकोड़े उसे घूर रहा था।
"तू कभी सुधरने वाला नहीं, दिव्य।"
"उन्हें हेल्प की ज़रूरत थी।" दिव्य ने संजीदगी से कहा और कार स्टार्ट कर दी। सौरभ भी सर झटकते हुए अपना मोबाइल चलाने लगा।
उनसे कुछ दूरी पर अपनी कार में बैठी दृष्टि ने यह सब देखा था। दिव्य का यह रूप देखकर उसका दिल धड़क उठा। एक अजनबी के लिए दिव्य ने जो किया, उसकी इस अच्छाई ने दृष्टि के मन को छू लिया था।
"यह शक्स...सच में अलग है," दृष्टि ने खुद से कहा, होंठों पर एक अनजानी मुस्कान आ गई।
उसके बगल में बैठी श्रेया, जो इतनी देर से दृष्टि को ही ऑब्ज़र्व कर रही थी, उसने कुछ बोलने के लिए मुँह खोला, पर फिर कुछ सोचते ही वापिस चुप हो गई।
कुछ दिन बाद
दिव्य अपने रोज़ के टाइम पर घर जाने को निकला, तो आज ऑफिस के बाहर वही गाड़ी थी जिसने पहले उसे टक्कर मारी थी और पब की पार्किंग में भी नज़र आई थी। दिव्य उस कार को देखते ही पहचान गया कि यह दृष्टि की ही कार है और उस कार को अपने ऑफिस के बाहर देखकर वह सकते में आ गया।
वह पल भर को रुका, फिर बाइक स्टार्ट की और तेज़ी से आगे बढ़ गया। वह कार भी उसके पीछे चल दी। दिव्य कुछ देर तक बाइक चलाते हुए ऑब्ज़र्व करता रहा कि वह कार उसके पीछे ही आ रही है, फिर उकताते हुए अपनी बाइक साइड में खड़ी कर दी। वह कार भी उसके पीछे रुक गई।
दिव्य ने खीझते हुए सिर हिलाया, फिर अपना हेलमेट उतारकर हैंडल में लटकाया और बाइक से उतरकर उस कार के पास चला आया। इतने में कार का दरवाज़ा भी खुला और आज फिर खूबसूरत सी ड्रेस पहने, खुले बालों और खिले चेहरे के साथ, दृष्टि उसके सामने आ खड़ी हुई।
"यह सब क्या है? तुम हमारे ऑफिस कैसे पहुँची और इतनी देर से हमारा पीछा क्यों कर रही हो?" दिव्य का लहज़ा कड़क था।
"हमारा....मैंने तो बस तुम्हारा पीछा किया था।"
दृष्टि ने शरारत से आँखों को मटकाते हुए बड़ी ही मासूमियत से कहा। दिव्य ने झुंझलाते हुए अपने जबड़े को भींच लिए।
To be continued…
"हमारा....मैंने तो बस तुम्हारा पीछा किया था।"
दृष्टि ने शरारत से आँखें मटकाते हुए, बड़ी ही मासूमियत से कहा। दिव्य झुंझला गया और अपने जबड़े कस लिए।
"तो मेरा पीछा क्यों कर रही हो तुम?"
उसके चेहरे पर चिढ़ देखकर दृष्टि ने अपनी मुस्कराहट समेट ली।
"तुमसे बहुत इम्पॉर्टेन्ट बात करनी है मुझे, पर यहाँ रोड पर नहीं कर सकती। तुम मेरी कार में बैठो, किसी शांत जगह जाकर आराम से बात करते हैं।"
"मैं तुम्हें जानता तक नहीं, फिर कौन सी बात करनी है तुम्हें मुझसे?" दिव्य ने आँखें चढ़ाते हुए सवाल किया। फिर उखड़े स्वर में आगे बोला, "मुझे तुमसे कोई बात नहीं करनी, इसलिए मेरा पीछा छोड़ो और अपने रास्ते जाओ।"
दिव्य की बेरुखी देखकर दृष्टि का मुँह बन गया, पर वह पैदाइशी ज़िद्दी थी। सीना तानकर वह उसके सामने खड़ी हो गई। "अगर तुम मेरी बात नहीं सुनोगे तो मैं ऐसे ही तुम्हारे पीछे लगी रहूँगी।"
उसके एक्सप्रेशन यह ज़ाहिर करने के लिए काफी थे कि वह अपनी बात मनवाए बिना नहीं मानेगी। आस-पास से जाते लोग उन्हें अजीब नज़रों से घूर रहे थे। तंग आकर, आखिर में दिव्य को उसकी ज़िद के आगे झुकना ही पड़ा।
"मैं तुम्हारे साथ तुम्हारी कार में नहीं जाऊँगा। तुम चलो आगे, मैं बाइक से तुम्हारे पीछे आऊँगा।"
दृष्टि झट से मान गई। उसे तो बस उससे मिलने से मतलब था, पर जाते-जाते दिव्य को धमकी दे गई।
"पीछे ही आना, अगर पीछे से गायब हुए तो कल फिर से तुम्हारे ऑफिस पहुँच जाऊँगी। आज तो बाहर ही खड़ी थी, पर कल अंदर आकर मीटिंग होगी तुमसे।"
उसकी धमकी सुनकर दिव्य चिढ़ते हुए उसे घूरने लगा, पर दृष्टि पर कोई असर नहीं हुआ। वह कार स्टार्ट करती हुई निकल गई। दिव्य ने सिर झटका और उसके पीछे अपनी बाइक लगा दी।
कुछ देर बाद दोनों रेस्टोरेंट के कॉर्नर वाली टेबल पर एक-दूसरे के आमने-सामने बैठे थे।
"कहो क्या बात करनी है तुम्हें मुझसे?"
दिव्य ने सीधे ही सवाल किया। जवाब में दृष्टि ने मीठी सी मुस्कान लबों पर बिखेरते हुए कहा,
"पहले कॉफ़ी तो पियो, फिर बात करते हैं।"
"मुझे घर जाने में देर हो रही है। मेरे परिवार वाले इंतज़ार कर रहे होंगे, ज़ाहिर सी बात है, तुमको भी घर जाना होगा। तो जो भी बात करनी है, जल्दी करो।"
दिव्य ने सधे स्वर में जवाब दिया। चेहरे पर गंभीर भाव मौजूद थे। पर उसकी बात सुनकर दृष्टि के चेहरे पर अजीब सी मायूसी छा गई।
"नहीं.....मुझे तो घर जाने की कोई जल्दी नहीं है, मेरे घर में कोई मेरा इंतज़ार नहीं करता।"
इन अल्फ़ाज़ों में एक दर्द और उदासी छुपी थी। आँखों में अजीब सी वीरानी और सूनापन झलक रहा था। पर दिव्य ने इस पर खास ध्यान नहीं देते हुए, झल्लाते हुए कहा,
"Please जल्दी बोलो, जो भी बोलना है तुम्हें।"
दृष्टि जो अपने ख्यालों में खो गई थी, उसने अपनी उदासी को मुस्कराहट के पीछे छुपा लिया, जिसमें वह माहिर थी।
"मुझे तुम पसंद आ गए हो। मैं तुम्हारे साथ टाइम स्पेंड करना चाहती हूँ। तुम मुझसे शादी कर लो, फिर मैं हमेशा तुम्हारे साथ रहूँगी।" दृष्टि ने एकदम आम से अंदाज़ में अपनी बात उसके सामने रख दी, पर दिव्य को ज़ोरों का झटका लगा।
दृष्टि की बात सुनकर वह इस कदर हैरान था कि एकदम से चेयर से उठ खड़ा हुआ और फटी आँखों से उसे देखने लगा।
"क्या...."
दिव्य की आवाज़ काफी तेज़ थी, इसलिए रेस्टोरेंट में मौजूद सभी लोग चौंकते हुए उसे देखने लगे। दृष्टि ने आस-पास नज़रें घुमाई और अपनी बत्तीसी दिखा दी; सब वापिस खुद में बिज़ी हो गए।
"आराम से बैठकर बात करो, सब तुम्हें ही देख रहे हैं।" अंत में दृष्टि दिव्य को देखकर धीरे से फुसफुसाई। दिव्य को भी ध्यान आया कि इस वक़्त वे लोग पब्लिक प्लेस पर आए हुए हैं। वह खामोशी से वापिस बैठ गया।
"अब बताओ, मेरा प्रोपोज़ल एक्सेप्ट करोगे?"
दृष्टि की आँखें जुगनूओं सी चमक उठीं, और उसे पूरी उम्मीद थी कि दिव्य उसे रिजेक्ट नहीं करेगा। दिव्य जो अपने दिमाग को शांत करने की कोशिश कर रहा था, दृष्टि का यह सवाल सुनकर, पेशेंस के साथ, हैरानगी से सवाल किया,
"मैं तुम्हें जानता तक नहीं। तुम खुद मुझे नहीं जानती, फिर ऐसे कैसे तुम मुझसे ये सब कह सकती हो?"
"तो जान लेते हैं न एक-दूसरे को।" दृष्टि ने तपाक से कहा। अभी भी उसके होंठों पर मीठी सी मुस्कान बिखरी थी, और दिव्य के चेहरे पर गंभीर भाव मौजूद थे।
"मेरे दिल में तुम्हारे लिए कोई एहसास नहीं है। अगर तुम्हारे लिए एक बार सोचूँ, तब भी मैं कुछ नहीं कर सकता। तुम्हारा और मेरा कोई मैच ही नहीं है।"
"क्यों मैच नहीं है?" दिव्य का इंकार सुनकर दृष्टि के मुस्कुराते लब सिमट गए और वह आँखें बड़ी-बड़ी करके उसे देखने लगी, जबकि दिव्य अब भी बेहद सीरियस लग रहा था।
"मैं एक नॉर्मल मिडल क्लास फैमिली से हूँ, और तुम देखने में ही किसी अमीर घर की लगती हो। हमारे स्टेट्स, रहन-सहन, सोच, वैल्यूज़ में ज़मीन और आसमान का अंतर है। वैसे भी मेरी सगाई हो चुकी है और जल्दी ही शादी होने वाली है मेरी, तो इन फ़िज़ूल की बातों के मेरे लिए कोई मायने नहीं है। बेहतर होगा कि तुम भी ये बेकार की बातें अपने दिमाग से निकाल दो, हमारा पीछा करना बंद करो, खुद भी खुश रहो और मुझे भी सुकून से अपनी ज़िंदगी जीने दो।"
दिव्य ने साफ़ शब्दों में सारी बात कह दी। वह पहले से किसी और का हो चुका है, यह सुनकर दृष्टि का नाज़ुक दिल टुकड़ों में टूटकर बिखर गया; आँखें डबडबा गईं, चेहरे पर पीड़ा और मायूसी के भाव उभर आए।
दिव्य के लिए उसके जज़्बात आँसुओं में घुलने लगे। कितने सपने सजाए थे, पर एक झटके में उसका बनाया काँच का महल टूटकर बिखर गया।
पर उसने खुद को कमज़ोर नहीं पड़ने दिया। अपने आँसुओं को अपनी हथेलियों से रगड़कर पोंछ लिया।
"मुझसे शादी कर लो। मेरे पापा का बहुत बड़ा बिज़नेस है, बहुत सारा पैसा और प्रोपर्टी है और मैं उनकी सिंगल चाइल्ड हूँ। शादी के बाद सब तुम्हारा होगा।"
यह सुनते ही दिव्य के चेहरे के भाव बिगड़ गए। चोट उसके स्वाभिमान को लगी और वह तीखी निगाहों से उसे घूरने लगा।
"लालच देकर खरीदना चाहती हो मुझे?........माफ़ करना, पर मैं बिकाऊ नहीं हूँ और न ही अपनी ज़िंदगी और खुशियों का सौदा करने में मुझे कोई दिलचस्पी है। मेरा जो फ़ैसला था, मैं साफ़ शब्दों में तुम्हें बता चुका हूँ, तो बेहतर होगा कि अब तुम मुझसे दूर रहो।"
दिव्य का अंदाज़ कड़क था और उसने दृष्टि को चेतावनी भी दे दी थी, पर दृष्टि अब भी हार मानने को तैयार नहीं थी। उसने आँखें टिमटिमाते हुए उसे देखा और बेचैनी से पूछ बैठी,
"तुम क्या उससे प्यार करते हो?" यह सवाल पूछते हुए दृष्टि की नज़रें दिव्य पर ठहरी थीं और दिल में धुकधुकी सी मची थी, पर दिव्य का चेहरा एकदम सपाट था।
"मैं उससे प्यार करता हूँ या नहीं, यह मेरा पर्सनल मैटर है जिसका तुमसे कोई लेना-देना नहीं है। बेहतर होगा कि तुम सिर्फ़ अपने काम से काम रखो।...तुम्हें जो कहना था तुमने कह दिया, मेरा जवाब भी सुन लिया। अब मुझे नहीं लगता कि मेरे यहाँ रुकने का कोई मतलब है, तो मैं जा रहा हूँ और उम्मीद करता हूँ कि अब दोबारा तुम मुझे परेशान नहीं करोगी।"
दिव्य ने गंभीर स्वर में अपनी बात खत्म की और उठकर तेज़ कदमों से वहाँ से निकल गया। पीछे बैठी दृष्टि, जो इतनी देर से अपनी भावनाओं को समेटने की कोशिश कर रही थी, उसकी आँखें छलक गईं।
To be continued…
कुछ दिन शांति से बीत गए थे। दृष्टि न तो दोबारा दिव्य के सामने आई और न ही उसे परेशान किया। दिव्य अब काफी रिलेक्स था जबकि इन दिनों दृष्टि गुमसुम और उदास रहने लगी थी। दिव्य का रिजेक्शन वो संभाल नहीं पा रही थी, कोशिश की थी पर उसे भुलाना भी मुमकिन न हो सका।
शाम का वक़्त था। कॉफी शॉप में हल्की गुनगुनी रोशनी थी। धीमी आवाज़ में म्यूजिक बज रहा था। लोग अपनी-अपनी टेबल्स पर बैठे, कॉफी की चुस्कियों के साथ बातें कर रहे थे।
दिव्य एक कोने की टेबल पर बैठा हुआ था। उसके सामने सौरभ बैठा था, लेकिन दिव्य का ध्यान अपने फ़ोन पर था। शायद किसी ज़रूरी मैसेज का इंतज़ार कर रहा था।
वहीं दूसरी ओर, कुछ ही टेबल छोड़कर दृष्टि बैठी थी। उसके सामने उसकी फ्रेंड श्रेया बैठी उसे ही देखे जा रही थी, जबकि दृष्टि फ़ोन स्क्रॉल कर रही थी। लेकिन उसका ध्यान यहाँ-वहाँ भटक रहा था। मन तो उसका दिव्य में अटका था।
"Sir, your cappuccino."
वेटर ने दोनों की टेबल पर कॉफ़ी रखी और चला गया। दिव्य और दृष्टि, दोनों ने अपनी-अपनी कॉफ़ी उठाई और एक ही समय पर पहला सिप लिया।
दिव्य का चेहरा तुरंत ही सिकुड़ गया। इतनी मीठी कॉफ़ी? दृष्टि ने भी झट से कप नीचे रखा, उसके चेहरे पर अजीब से एक्सप्रेशन थे।
और फिर दोनों की आवाज़ एक साथ गूंजी—
दिव्य: "इतनी मीठी?"
दृष्टि: "इतनी कड़वी?"
आवाज़ सुनकर दोनों ही चौंक गए। एक ही पल में दोनों की नज़रें मिलीं। पहले हैरानी, फिर झुंझलाहट और फिर वही पुरानी तानाकशी वाली फीलिंग।
दृष्टि ने भौंहें उठाते हुए कहा, "ओह, तो ये तुम्हारी कॉफ़ी थी?"
"और ये तुम्हारी?" दिव्य ने भी उसी अंदाज़ में कहा। उसके चेहरे से साफ़ ज़ाहिर था कि दृष्टि का यहाँ होना उसे बिल्कुल पसंद नहीं आया था।
दृष्टि उसकी बात सुनकर खिलखिलाकर हँस पड़ी। "अब समझ आया तुम इतने कड़वे क्यों हो, इतनी कड़वी कॉफ़ी पीते हो।"
"और तुम्हें इतनी मीठी चीज़ें पसंद हैं, इसलिए शायद तुम…" दिव्य आँखें घुमाते हुए इतना बोलकर अचानक ही चुप हो गया। यह देखकर दृष्टि मुस्कुराते हुए उसे उकसाने लगी।
"शायद मैं क्या?"
दिव्य ने गहरी साँस लेते हुए, खुद को रोकते हुए कहा, "छोड़ो।"
मूड नहीं था उसका बेवजह दृष्टि से उलझने का, पर दृष्टि कहाँ उसे इतनी आसानी से छोड़ने वाली थी?
दृष्टि चुटकी लेते बोली, "वैसे सुना है, झूठा खाने-पीने से प्यार बढ़ता है। तुम ट्राय करोगे?"
दिव्य उसकी बात सुनकर खीझ उठा और झट से जवाब दिया। "No thanks."
दृष्टि आगे कुछ कहती, उससे पहले ही दिव्य तुरंत खड़ा हुआ और अपने दोस्त सौरभ की ओर देखा, जो पूरे सीन को मज़े से एंजॉय करते हुए बड़ी ही दिलचस्पी से दिव्य और दृष्टि को देख रहा था।
"चल यहाँ से।"
दिव्य एक पल भी वहाँ न ठहरा। सौरभ उसे रोकता रह गया, पर वो तेज़ी से चलते हुए सीधे कॉफ़ी शॉप से बाहर निकलने लगा और सौरभ को लगभग घसीटते हुए ले जा रहा था।
सौरभ की आँखें हैरानी से फटी थीं। "अबे रुक.....क्या कर रहा है? पहले बता तो सही ये लड़की कौन थी? क्या चल रहा था वो तुम दोनों के बीच?"
सौरभ की बात सुनकर दिव्य गुस्से से उसकी ओर पलटा। "तुझे कॉफ़ी पीनी थी, न?...हो गयी? अब चलते हैं।"
उसकी ये चिढ़ और झुंझलाहट देखकर सौरभ हँस पड़ा। "अबे....मैं तुझे छोड़कर कॉफ़ी नहीं पीने आया था जो इतना चिढ़ रहा है.......पर कसम से जो ड्रामा अभी देखा, उसके बाद तो मज़ा आ गया।"
"ड्रामा नहीं था, वो बस…एक गलतफहमी थी।" दिव्य ने गहरी साँस लेते हुए खुद को शांत किया। सौरभ मस्ती के मूड में आ चुका था और दिव्य को छेड़ने का मौका तो वैसे ही मुश्किल से मिलता था, तो मौके का फ़ायदा उठाते हुए उसने उसकी चुटकी लेते हुए कहा। "गलतफहमी या फिर…मोहब्बत?"
"मुझे उस लड़की में ज़रा भी इंटरेस्ट नहीं है।" दिव्य ने आँखें तरेरते हुए उसे घूरा, पर सौरभ बेफिक्री से हँस पड़ा।
"हाँ हाँ.....इंटरेस्ट नहीं पर नोक-झोंक बढ़िया चल रही थी। प्यार-मोहब्बत की बातें हो रही थीं।"
दिव्य ने उसे घूरा, लेकिन सौरभ तो सौरभ था। उसने मज़ाकिया अंदाज़ में आगे कहा।
"वैसे मानना पड़ेगा, लड़की बवाल है। इतनी बेबाकी, इतना कॉन्फिडेंस....और यार, जब उसने वो 'झूठा खाने से प्यार बढ़ता है' वाला डायलॉग मारा, तो मैं तो वहीं फ़्लैट हो गया।"
"तो तेरा दिल आ गया उस पर? तो जा न उसके पास, तुझे कोई रोक रहा है क्या?" दिव्य बुरी तरह से खीझ उठा। उसके गुस्से को देखकर सौरभ ने उसके आगे हाथ जोड़ दिए।
"भाई मज़ाक कर रहा था, तू तो सीरियस हो गया।"
दिव्य ने भी गहरी साँस लेते हुए खुद को शांत किया।
"तुझे समझ नहीं आता? वो लड़की बिल्कुल पागल है। मैंने अपनी लाइफ़ में इतनी ज़िद्दी, ढीठ और बेशर्म लड़की नहीं देखी।"
दिव्य को दृष्टि के बारे में सोचते देखकर सौरभ के होंठ शरारत से मुस्कुरा उठे। "ओहह.......मतलब इंटरेस्टिंग है।"
"नहीं पागल है। वो सिर्फ़ अटेंशन चाहती है मेरा और मैं उसे वो अटेंशन नहीं दूँगा।"
दृष्टि की हरकतों को याद करते हुए दिव्य ने गुस्से में जबड़े भींच लिए। सौरभ भी गंभीर हो गया।
"अरे यार, सीरियस मत हो और ये तो बता, वो बार्बीडॉल आखिर थी कौन? तू कैसे जानता है उसे? कब और कैसे मुलाक़ात हुई तुम दोनों की और आखिर तुम दोनों के बीच ये चल क्या रहा है?"
बहुत से सवाल थे जिसके जवाब वो दिव्य से चाहता था। मज़ाक अपनी जगह था पर अब पूरी बात जानना भी ज़रूरी था उसके लिए।
दिव्य ने कुछ पल सोचने के बाद गहरी साँस ली और रोड पर हुए एक्सीडेंट के बाद से सब उसे बताता चला गया। बोलते हुए उसके चेहरे के भाव पल-पल बदल रहे थे और वही हाल सौरभ का भी था।
अब तक की सारी बात बताने के बाद दिव्य चुप हुआ तो सौरभ ने फटी आँखों से उसे देखते हुए हैरानगी से सवाल किया।
"मतलब वो बार्बीडॉल तुझे पसंद करती है, प्रपोज़ भी कर चुकी है और तेरे रिजेक्ट करने के बाद भी तुझे छोड़ने को तैयार नहीं है।"
"हाँ, पहले मुझे लगा था कि उस दिन उसे मेरी बातें समझ आ गयी हैं और अब वो मुझे परेशान नहीं करेगी, पर उसकी आज की हरकत ने मुझे चिंता में डाल दिया है।"
दिव्य जितना इरिटेट और फ़्रस्ट्रेट नज़र आ रहा था उतना ही ज़्यादा परेशान भी था।
"Don't worry सब ठीक ही होगा।" सौरभ ने उसके कंधे पर हाथ रखते हुए हल्का दबाव बनाया, जैसे उसे तसल्ली दे रहा हो, फिर दृष्टि को याद करते हुए गंभीर स्वर में बोला।
"वैसे कुछ तो बात है उस लड़की में। कमाल का अंदाज़ है, बेहिसाब खूबसूरत होने के साथ-साथ, ढाँसू पर्सनालिटी और ऐसा कॉन्फिडेंस.....रेअर ही देखने को मिलता है और जिस तरह वो तुझे देख रही है.........वैसे सोच, अगर तेरी शादी कहीं और फ़िक्स न हुई होती और अंकल-आंटी को वो पसंद आ जाती, तब तू क्या करता?"
"ये सब सोचने का कोई फ़ायदा नहीं। वो हमारे टाइप की नहीं है। इतनी अमीर, खुले विचारों वाली, ज़िद्दी लड़की हमारे घर में एडजस्ट नहीं कर पाएगी.....और जो भी है, ये उसकी मोहब्बत नहीं, महज़ आकर्षण और ज़िद है।"
दिव्य ने सपाट लहज़े में जवाब दिया। सौरभ ने गहरी साँस लेते हुए, शरारत से आँखें मटकाईं। "तो तू मान रहा है कि उसे तुझसे मोहब्बत है?"
दिव्य ने चौंकते हुए उसे देखा और चिढ़ते हुए बोला। "मुझे तुमसे बात ही नहीं करनी.....खामख़वाह तुम्हें सब बता दिया।"
उसे यूँ चिढ़ते देखकर सौरभ हँस पड़ा। "भाई, जब लड़की आँखों में देखकर कह रही है कि उसे प्यार हो गया है, तो कुछ तो स्पेशल होगा।.....तेरा क्या, तू तो वैसे भी बोरिंग आदमी है। एक लड़की ही है जो तेरी नीरस ज़िंदगी में रंग भर सकती है।.....वैसे बुरा मत मानियो पर तुम दोनों की जोड़ी लगेगी कमाल। तू शांत, ज़िम्मेदार और सीधा-सादा सा लड़का, वो बोल्ड, चुलबुली और थोड़ी ज़िद्दी लड़की। अगर तुम दोनों की शादी हो गयी तो तेरी बोरिंग सी लाइफ़ काफ़ी दिलचस्प बन जाएगी।"
दिव्य झुंझलाते हुए आगे बढ़ा, लेकिन उसके दिल में कहीं न कहीं सौरभ की बातों ने हलचल मचा दी थी। क्या वाकई दृष्टि की बातों में सच्चाई थी?
दिव्य जा चुका था। दृष्टि टेबल पर बैठी, हल्की-हल्की मुस्कान के साथ अपनी, मतलब दिव्य की, कड़वी कॉफ़ी पी रही थी। लेकिन उसकी आँखों में शरारत के साथ-साथ एक अजीब सी दृढ़ता भी थी।
श्रेया, जो अब तक इस ड्रामे को शांति से देख रही थी, आखिरकार चुप नहीं रह पाई और दृष्टि की खामोशी से चिढ़ते हुए बोल पड़ी।
"दृष्टि, अब तो बता दे, ये लड़का कौन था और तू उसके पीछे क्यों पड़ी है?...उससे ऐसे बात क्यों कर रही थी?"
दृष्टि ने अपनी कॉफ़ी का सिप लिया और हल्के से मुस्कुराई।
"वो मेरा पहला और आखिरी क्रश है।"
दृष्टि का जवाब सुनकर श्रेया की आँखें फटी की फटी रह गयीं। वो इस कदर हैरान थी कि मुँह भी खुल गया।
"क्रश? लेकिन तेरी पर्सनालिटी में ऐसा तो कुछ नहीं था कि तुझे किसी पर क्रश हो। तूने तो पहले कभी किसी लड़के में कोई इंटरेस्ट ही नहीं दिखाया, फिर अब ऐसे अचानक....... "
श्रेया के सवाल सुनकर दृष्टि खुद पर ही हँस पड़ी। "बिलकुल.....मुझे पहले कभी किसी लड़के में कोई इंटरेस्ट नहीं रहा, लेकिन क्या करूँ, दिल तो अपना भी पागल ही है....पहली नज़र में ही दिव्य पर आ गया।"
श्रेया ने उसकी तरफ़ गहरी नज़रों से देखा। आज उसकी बेपरवाह दोस्त कुछ खोई-खोई सी नज़र आई।
"और वो? वो भी तुझे पसंद करता है?"
श्रेया ने दिव्य के बिहेवियर को याद करते हुए सवाल किया। दृष्टि ने एक पल के लिए अपनी नज़रें झुका लीं, लेकिन फिर तुरंत आँखों में वही पुराना कॉन्फिडेंस लौट आया।
"अभी नहीं…लेकिन कोई बात नहीं। प्यार थोड़ी न सबको मेरे तरह एक दिन या एक मुलाक़ात में हो जाता है।"
"दृष्टि तू दिव्य से कब और कैसे मिली? मुझे तो तूने कभी उसके बारे में कुछ नहीं बताया।"
"बस कुछ दिनों पहले ही एक्सीडेंटली हमारी मुलाक़ात हुई थी। तुझे भी जल्दी ही बताने वाली थी।"
इसके बाद दृष्टि ने श्रेया को दिव्य और अपने बारे में संक्षेप में सब कुछ बता दिया, जिसे उसने ध्यान से सुना। दृष्टि के चेहरे पर पल-पल बदलते भावों और आँखों में छलकते जज़्बातों को भी महसूस किया।
श्रेया ने गहरी साँस लेते हुए गंभीर स्वर में कहा। "लेकिन दृष्टि, तुझे पता है ना कि उसकी सगाई हो चुकी है?....I don't think कि तेरा उसके लिए ऐसा फ़ील करना ठीक है।"
दृष्टि कुछ सेकंड के लिए चुप हो गई, लेकिन फिर शरारती मुस्कान के साथ बोली—
"तो क्या हुआ? सगाई हुई है, शादी थोड़ी न हुई है।"
श्रेया जो उसे समझाने की कोशिश कर रही थी, उसका जवाब सुनकर चौंक गयी और हैरानी से बोली।
"तू पागल है......वो लड़का तुझसे बार-बार बच रहा है, तुझे रिजेक्ट कर चुका है, एंगेज्ड है, तुझ में इंटरेस्ट तक शो नहीं कर रहा और तू अब भी पीछे नहीं हट रही?"
"श्रेया, ये मोहब्बत है, कोई फ़िज़िक्स का फ़ॉर्मूला नहीं कि अगर A, B से टकराए तो सीधा रिएक्शन हो जाए। और वैसे भी, अगर वो मुझे पसंद नहीं करता, तो मुझे भी उसे जबरदस्ती अपना नहीं बनाना। लेकिन मैं इतनी आसानी से हार मानने वाली नहीं हूँ।"
दृष्टि ने मुस्कुराते हुए, लेकिन दृढ़ता से कहा। श्रेया कुछ रिलेक्स हुई और गहरी निगाहों से उसे देखते हुए गंभीरता से सवाल किया। "तो अब तेरा प्लान क्या है?"
"दिल जीतने का कोई प्लान नहीं होता, बस सच्ची कोशिश होती है.........और मैं वही करूँगी।"
दृष्टि ने मुस्कुराते हुए, कॉफ़ी का आखिरी सिप लिया। श्रेया ने उसके चेहरे पर वही पुरानी ज़िद्द और मासूमियत झलक रही थी।
श्रेया हल्के से मुस्कुरा उठी। "पता है, दिव्य सच में बहुत लकी है, जो उसे तुझ जैसी लड़की चाहती है। लेकिन मुझे डर है कि कहीं ये चाहत तुझे दर्द न दे।"
"दर्द के डर से कोई मोहब्बत करना छोड़ता है क्या?"
दृष्टि ने आँखें चमकाते हुए सवाल किया। श्रेया ने कोई जवाब नहीं दिया, लेकिन उसके चेहरे पर एक हल्की मुस्कान आ गई।
To be continued…
कैसी लगी आपको दिव्य और दृष्टि की ये मुलाक़ात और दृष्टि का ये अंदाज़?
दिव्य अपनी पसंद की किताबें देखने में मग्न था। किताबों की महक, हल्की-हल्की बज रहा क्लासिकल म्यूज़िक और हल्की रोशनी ने माहौल को बिल्कुल परफेक्ट बना दिया था। उसने एक किताब उठाई और उसके पन्ने पलटने लगा।
"ओह्, तो इस टाइप की बुक्स पसंद हैं तुम्हें?"
दिव्य का हाथ वहीं रुक गया। वह बिना देखे ही समझ गया कि आवाज़ किसकी थी। ज़ाहिर है, दृष्टि! उसने गहरी साँस ली और किताब वापस शेल्फ में रखने लगा।
"वैसे तुम हो भी इतने डिसेंट से जेंटलमैन टाइप। तुम्हारी पर्सनैलिटी पर ऐसी ही बुक सूट भी करती है।"
दृष्टि मुस्कुराते हुए उसके पास चली आई। दिव्य ने उसकी बात का कोई जवाब नहीं दिया। 'इग्नोरेंस इज़ द बेस्ट सॉल्यूशन' इस रूल को फॉलो करते हुए वह बिना कुछ कहे दूसरी तरफ बढ़ गया। लेकिन दृष्टि इतनी आसानी से हार मानने वालों में से नहीं थी। वह तेज़ी से उसके सामने आकर खड़ी हो गई।
"मुझे भी अपनी पसंद की कोई अच्छी सी बुक दिला दो न।"
दृष्टि ने शरारत से आँखें मटकाईं। दिव्य ने फिर से उसे नज़रअंदाज़ किया और दूसरी तरफ जाने लगा।
अबकी बार दृष्टि दौड़कर उसके सामने आ खड़ी हुई।
"तुम मुझे इग्नोर कर रहे हो? इतनी खूबसूरत, क्यूट और स्वीट सी लड़की को इग्नोर करोगे, तो पाप लगेगा तुम्हें।"
दृष्टि ने नाराज़गी से उसे देखते हुए बच्चों जैसा मुँह बनाया। इस बार दिव्य के सब्र का बाँध टूट गया। उसने उसकी तरफ गुस्से से देखा।
"तुम मेरे पीछे क्यों पड़ी हो?"
"पीछे कहाँ हूँ? मैं तो तुम्हारे आगे हूँ।" दृष्टि आँखें गोल-गोल घुमाते हुए खिलखिला उठी।
दिव्य खीजते हुए उसके साइड से निकलने लगा, लेकिन दृष्टि इतनी आसानी से पीछा छोड़ने वालों में से नहीं थी।
"अरे, फिर से इग्नोर करके भाग रहे हो।"
दृष्टि उसका रास्ता रोककर खड़ी थी। दिव्य ने आँखें बंद कर लीं, मानो खुद को कंट्रोल कर रहा हो। फिर गहरी साँस लेकर चिढ़ भरी नज़रों से उसे घूरा।
"तुम चाहती क्या हो?"
दृष्टि हौले से मुस्कुराई, फिर सीधे उसकी आँखों में देखते हुए जवाब दिया, "तुम्हें... और तुम्हीं से शादी करनी है। बताया तो था तुम्हें।"
दिव्य उसकी बात सुनकर झुंझला उठा। "और हमने भी बताया था कि ये मुमकिन नहीं है। अपने सर से इस फितूर को उतार दीजिए। हमारी शादी होने वाली है।"
"मैं भी तो हमारी ही शादी की बात करने आई हूँ।" दृष्टि के होंठों पर शरारती मुस्कान बिखर गई। बड़ी ही चालाकी से उसने दिव्य को बातों को घुमाकर अपने तरफ मोड़ लिया था, यह देखकर दिव्य ने गुस्से में अपनी मुट्ठियाँ भींच लीं। उसकी आँखों में झुंझलाहट साफ झलक रही थी।
"How frustrating you are..... तुम्हें एक बार में बात समझ नहीं आती या जानबूझकर हमें परेशान करने के लिए बेवकूफों जैसी हरकतें कर रही हो?"
"मुझे तुम्हारे अलावा कुछ और समझ नहीं आता। मैं बस तुमसे शादी करना चाहती हूँ और देखना, तुम कितना ही मुझे रिजेक्ट करो, लेकिन शादी तो तुम्हारी मुझसे ही होगी।"
दृष्टि बेपरवाही से मुस्कुराते हुए प्यार से उसे निहारने लगी। दिव्य का धैर्य जवाब दे चुका था। उसने गुस्से से उसे घूरा और एक शब्द कहे बिना बाहर निकल गया।
दृष्टि पीछे से चिल्लाती रही, "अरे, कहाँ भागे जा रहे हो? यह बुक तो लेते जाओ।"
"नहीं चाहिए अब।" दिव्य ने गुस्से में बिना देखे ही उखड़े स्वर में जवाब दिया और लंबे-लंबे डग भरते हुए तेज़ी से बुकशॉप से बाहर निकल गया।
दिव्य सीधा अपनी बाइक की तरफ बढ़ा। लेकिन फिर उसे याद आया कि उसे वही किताब चाहिए थी। इसलिए उसने दो दुकान छोड़कर एक और बुक शॉप में जाने का फैसला किया।
अंदर जाकर उसने किताबें चेक कीं, लेकिन वही किताब नहीं मिली। मन में खीज थी कि जब ज़रूरत थी, तब नहीं मिली। वह थोड़ा मायूस होकर अपनी बाइक के पास लौटा।
जैसे ही उसने बाइक का हैंडल पकड़ा, उसकी नज़र उस शॉपिंग बैग पर पड़ी, जो किसी ने उसकी बाइक पर टाँग दिया था।
उसने बैग उठाकर देखा, उसमें ठीक वही किताब थी, जिसे वह लेने गया था। बल्कि उसी किताब के जैसी दो और किताबें भी रखी हुई थीं। और साथ ही एक छोटा सा पिंक कलर का पेपर भी रखा था। दिव्य ने उलझन भरी नज़रों से शॉपिंग बैग को देखा, फिर पेपर निकालकर पढ़ने लगा।
"मेरी मोहब्बत का पहला गिफ्ट समझकर रख लो। आगे बहुत मौके दूँगी तुम्हें। तब बदले में तुम भी मुझे कुछ दिला देना।"
दिव्य को शक तो पहले ही था, अब वह शक यकीन में बदल गया। उसकी आँखें क्रोध से भर गईं। दिव्य ने नफ़रत से उस चिट्ठी को घूरा।
"अजीब पागल लड़की है।" उसने चिट्ठी को क्रश कर दिया और गुस्से से इधर-उधर देखने लगा। लेकिन दृष्टि और उसकी कार कहीं नहीं दिखी।
गुस्से में उसने शॉपिंग बैग को सड़क किनारे रख दिया और अपनी बाइक स्टार्ट करने लगा। लेकिन फिर अचानक मन में कुछ आया।
उसने एक बार फिर इधर-उधर देखा। दृष्टि कहीं नहीं थी। उसने धीरे-धीरे शॉपिंग बैग उठाया और वापस हैंडल पर टाँग दिया। फिर जैसे ही वह कुछ आगे बढ़ा, उसे डस्टबिन दिखा।
उसने बिना सोचे बैग को डस्टबिन में डाल दिया और तेज़ी से बाइक स्टार्ट कर चला गया।
दृष्टि कुछ दूरी पर कार में बैठी सब देख रही थी। जैसे ही उसने देखा कि दिव्य ने उसका गिफ्ट डस्टबिन में डाल दिया, उसके चेहरे की मुस्कान अचानक गायब हो गई।
उसने गहरी साँस ली, होंठ भींचे और खुद को शांत किया।
"खडूस कहीं का...... चेहरे से तो कितना इनोसेंट लगता है, पता नहीं इतनी रूडनेस लाता कहाँ से है?"
दृष्टि मन ही मन भुनभुनाई। उसने कार का दरवाज़ा खोला और बाहर आई। फिर धीरे-धीरे डस्टबिन की तरफ बढ़ी।
वहाँ जाकर उसने बैग को बाहर निकाला और एक नज़र उसमें रखी किताबों पर डालते हुए खुद में बुदबुदाते लगी।
"इगोइस्टिक मैन..... खरीद दी थी तो रख नहीं सकता था? डस्टबिन में डाल दिया?"
उसने धीरे से किताबें निकालीं, कुछ देर उन्हें देखते हुए मुँह बनाती रही। फिर उन्हें वापस से बैग में डालते हुए मुस्कुरा उठी।
"कोई बात नहीं दिव्य… अगली बार तुम्हें ऐसे गिफ्ट दूँगी कि चाहकर भी फेंक नहीं पाओगे।"
दृष्टि ने आँखें चमकाते हुए, हल्की शरारत के साथ कहा। उसके दिलो-दिमाग में इस वक़्त क्या चल रहा था, बस वही जानती थी।
दूसरे तरफ बाइक चलाते हुए दिव्य मन ही मन सोच रहा था, "हमें इस लड़की से दूर ही रहना चाहिए।"
"उस दिन के बाद दृष्टि से हमारी दोबारा मुलाक़ात नहीं हुई। अलर्ट रहते थे हम, पर वह कहीं नज़र नहीं आई, तो हमें लगा कि उसके तरफ़ से जो भी था वह ख़त्म हो गया। उसे हमारी बात समझ आ गई। हम रिलैक्स हो गए, उसके बाद शादी की तैयारियों में वक़्त कैसे गुज़रा पता ही नहीं चला। वह सब बातें हमारे दिमाग से पूरी तरह निकल गई थीं, पर फिर शादी वाले दिन दृष्टि अचानक ही वहाँ आ गई और उसके बाद जो हुआ वह तो आप जानते ही हैं।"
दिव्य ने सारी कहानी सुनाने के बाद गहरी साँस छोड़ी। सुमित जी ने पूरी कहानी धैर्य के साथ सुनी। बहुत ही गहराई से दिव्य के भावों को ऑब्ज़र्व किया, फिर उसके कंधे पर हाथ रखते हुए गंभीर स्वर में कहना शुरू किया।
"हम समझते हैं कि यह सिचुएशन आपके लिए कितनी मुश्किल है, किस मेंटल स्टेट से गुज़र रहे हैं आप। गलती न होते हुए दोषी ठहराया जाना, लोगों की नज़रों का, उनके सवालों का सामना करना, किरदार पर उँगली उठना..... वह भी तब जब आपने कभी कुछ गलत किया ही नहीं। आपने हमेशा परिवार की खुशी को सबसे ऊपर रखा, मम्मी-पापा जी की इच्छा का मान रखा, उनका सर गर्व से ऊँचा किया और अब अचानक ऐसा कुछ हुआ जिसने आज तक की आपकी सारी मेहनत पर पानी फेर दिया। लोगों की बातों से शायद आपको इतना फ़र्क नहीं पड़ता, पर पापा जी ने भी आप पर विश्वास न करते हुए आपकी शादी दृष्टि से करवा दी, इस बात ने आपको सबसे ज़्यादा हर्ट किया। लेकिन आप एक बार उनके नज़रिए से सोचकर देखिए तो शायद समझ सकें कि उस वक़्त जो हालात रहे, उनके पास इसके अलावा कोई रास्ता नहीं था। ..... पहले हमें भी पापा जी का फ़ैसला गलत लगा था, फिर जब हमने उनके नज़रिए से सोचा तो एहसास हुआ कि वह आपके पिता हैं, कभी आपका बुरा नहीं चाहेंगे। अगर उन्होंने यह फ़ैसला लिया तो उसके पीछे भी आपके लिए उनका प्यार ही है और उन्हें विश्वास है आप पर, तभी आपको दृष्टि से शादी करने कहा और आपने उनकी बात का मान रखकर उनके विश्वास को जीत लिया। हम यह नहीं कहेंगे कि दृष्टि सही थी या उन्होंने जो किया वह सही था, पर आपकी सारी बातें सुनने के बाद हमें लगता है कि वह नादान है। उन्होंने रास्ता गलत चुना, पर उनकी नियत गलत नहीं थी। उन्हें बस आपको पाना था, जिसके लिए पहले उन्होंने आपको मनाने की कोशिश की, पर जब आप नहीं माने तो उन्होंने यह रास्ता चुन लिया। या तो आपके तरह से उन्हें समझने और समझाने में कमी रह गई या शायद वह आपकी बात को समझना ही नहीं चाहती थी। एक गलती आपकी यह भी है कि आपने बाकी सबको तो छोड़ो, जागृति, जिनसे आपकी शादी होने वाली थी, उन्हें तक कुछ नहीं बताया। अगर आपने उन्हें भी यह सब पहले से बताया होता तो वह आपका साथ देती और तब शायद हालात ऐसे नहीं होते, अगर मम्मी-पापा जी पहले से सब जानते होते तो जो हुआ वह नहीं होता। .... यह सब संभावनाएँ ही हैं और अब जो हो गया उसे बदला जाना नामुमकिन है। हम यह भी जानते हैं कि जो हुआ उसे भुलाकर आगे बढ़ना भी आसान नहीं है। हम बस अब इतना ही कहेंगे कि इस रिश्ते को वक़्त दीजिए। अब दृष्टि पत्नी है आपकी, आपकी ज़िम्मेदारी है और इस रिश्ते से घर की इज़्ज़त, पापा का सम्मान जुड़ा है। इतनी भी बुरी नहीं है दृष्टि कि आप उनके साथ ज़िंदगी न बिता सकें। वह गलत है, पर दिल की साफ़ है। शायद सच में आपसे प्यार करती है, तो आपको उन्हें एक मौक़ा देना चाहिए। उन्होंने अपने बचपने और नादानी में जो गलती की, उसे सुधारने का मौक़ा मिलना चाहिए उन्हें। हम यह नहीं कह रहे कि सब भुलाकर उन्हें एक्सेप्ट कर लीजिए और उनके साथ खुशहाल शादीशुदा जीवन बिताइए। बस इतना कह रहे हैं कि इस नाराज़गी को नाराज़गी ही रहने दीजिए, गुस्से को नफ़रत मत बनने दीजिए। एक मौक़ा दीजिए उन्हें, उन्हें जानने और समझने की कोशिश कीजिए। देखिए कि वह इस काबिल है या नहीं कि आप उनके साथ अपनी ज़िंदगी बिता सकें? रिश्ता जुड़ा है तो कोशिश कीजिए कि उसे निभा सकें और अगर फिर भी आपको लगे कि आप उनके साथ नहीं रह सकते तो हमें बताइएगा। उनसे आपका तलाक़ करवाने की ज़िम्मेदारी हमारी। सबसे हम बात करेंगे, आप पर कोई बात नहीं आएगी और हम आपको इस अनचाहे रिश्ते से आज़ादी भी दिला देंगे। बस उससे पहले एक बार कोशिश करके देखिए। ....... चलिए अब नीचे चलते हैं। सब इंतज़ार कर रहे होंगे और हमें भी दृष्टि से मिलना है। देखें तो सही, कौन है जो इतनी बहादुर है और हमारे साले साहब से इतना प्यार करती है कि उनके लिए इतना सब कुछ कर गई।"
सुमित जी उसके कंधे को थपथपाते हुए हौले से मुस्कुराए। शायद उसका मूड लाइट करने की कोशिश कर रहे थे। दिव्य कुछ पल खामोशी से उन्हें देखते हुए उनकी कही बातों के बारे में सोचता रहा, फिर सर हिलाते हुए उनके साथ सीढ़ियों की ओर बढ़ गया।
To be continued…
"तुम कहाँ चले गए थे? मैं सारा दिन तुम्हें ढूँढ रही थी। तुम्हें पता है, तुम्हारे अलावा मैं यहाँ किसी को भी नहीं जानती और तुम हर बार मुझे अकेला छोड़कर चले जाते हो।"
दिव्य के कमरे में कदम रखते ही दृष्टि शिकायतों की पोटली खोलकर बैठ गई।
दिव्य सुमित जी की बातों में उलझे हुए कमरे में आया था। दृष्टि की आवाज़ें कानों में पड़ीं, तब जाकर उसकी तंद्रा टूटी और अनायास ही नज़र दृष्टि पर गई। जो बेड पर आलती-पालती मारे और गालों को गुब्बारे जैसे फुलाए बैठी, नाराज़गी से उसे ही घूर रही थी।
ज़हन में एक बार फिर सुमित जी की कही बातें घूमने लगीं, पल भर को नज़रें दृष्टि के चेहरे पर ठहरीं। फिर सर झटकते हुए वह आगे बढ़ गया। हमेशा की तरह उसने दृष्टि और उसकी बात को इग्नोर कर दिया था। यह देखकर दृष्टि की त्योरियाँ चढ़ गईं।
"मैं कुछ पूछ रही हूँ, जवाब क्यों नहीं देते?" दृष्टि ने तड़कते हुए सवाल किया और दिव्य के आगे बढ़ते कदम ठिठक गए।
"क्योंकि मैं जवाब देना ज़रूरी नहीं समझता और तुम्हें कोई हक़ नहीं है मुझसे सवाल करने का। पहले ही कह चुका हूँ मैं कि मैं इस रिश्ते को नहीं मानता, नहीं हो तुम मेरी पत्नी, कोई हक़ नहीं तुम्हारा मुझ पर... ये बात अपने दिलों-दिमाग में अच्छे से बिठा लो और मेरी ये बात हमेशा याद रखना कि ज़बरदस्ती, साज़िशें रचकर तुम मेरे घर में तो आ गई पर मेरे दिल में नहीं आ सकोगी। शादी तो कर ली तुमने मुझसे पर मेरे प्यार को कभी नहीं पा सकोगी।"
बिन मौसम बरसात जैसे दिव्य उस पर बरस पड़ा और दृष्टि आँखें बड़ी-बड़ी किए अपनी पलकों को फड़फड़ाते हुए बस उसे देखती ही रह गई। दिव्य अपनी बात कहकर, अपने कपड़े लेकर बाथरूम में घुस चुका था और दृष्टि सहमी हुई सी बैठी बस यही सोच रही थी कि आखिर उसने अब ऐसा क्या किया कि दिव्य उस पर इतना गुस्सा करके गया है?
कुछ देर बाद दिव्य फ्रेश होकर बाहर आया। अब वह पहले से काफी शांत लग रहा था। कमरे में कदम रखा तो अनायास ही नज़र दृष्टि पर गई जिसकी आँखें हल्की लाल थीं पर दिव्य के आते ही उसने मीठी सी मुस्कान अपने लबों पर सजा ली थी। साफ़ ज़ाहिर था कि वह रोई थी।
दिव्य पल भर को अचरज से उसे देखते हुए सोचने लगा कि आखिर वह क्या चीज़ है?..... फिर उस पर से निगाहें फेरते हुए बोला
"मेरे जीजाजी आए हैं और तुमसे मिलना चाहते हैं।"
दिव्य की बात सुनकर दृष्टि के लब सिमट गए और अजीब सी उदासी उसके चेहरे पर झलकने लगी।
"मुझे नहीं मिलना किसी से भी। मुझे आदत नहीं है इन सबकी। तुम्हारे रिलेटिव्स मुझे ऐसे घूरते हैं कि मेरा उनके सामने जाने का मन नहीं करता। गंदी-गंदी बातें बोलते हैं, मुझे सारी बातें समझ नहीं आती पर मुझे उनकी बातें अच्छी नहीं लगती।"
इतने दिनों में पहली बार दृष्टि ने ऐसी कोई बात उससे की थी। आज दिव्य को एहसास हुआ कि अगर यह सिचुएशन उसके लिए मुश्किल है तो आसान दृष्टि के लिए भी नहीं। अगर उसे लोगों की नज़रों और तानों का सामना करना पड़ रहा था तो दृष्टि भी तो उसी फेज़ से गुज़र रही थी। उल्टा उसके लिए तो सब अंजान थे और वह लड़की थी तो ज़्यादा बातें सुनती होगी।
दिव्य के पास ऑप्शन था, वह तो घर से चला जाता था पर दृष्टि तो सारा दिन उन्हीं लोगों के बीच रहती थी। सोचते हुए पल भर को उसके चेहरे के भाव भी कुछ कोमल हुए पर अगले ही पल शादी में दृष्टि की कही बातें याद आईं और मन कड़वाहट से भर गया।
"वैसे तो मेरे जीजू कुछ कहेंगे नहीं तुम्हें पर जो तुमने हरकत की है उसके बाद तुम्हें इन सबकी आदत डाल लेनी चाहिए क्योंकि आज जो हो रहा है उसकी वजह सिर्फ़ और सिर्फ़ तुम हो। मैं तो बिना किसी कुसूर के ही इस सज़ा को भुगतने पर मजबूर हूँ पर तुमने जो किया है उसके बाद तुम ये डिज़र्व करती हो, तो अपने गुनाहों को फ़ेस करना सीखो।"
दिव्य के तीखे अल्फ़ाज़ दृष्टि के नाज़ुक दिल को चीर गए, उसकी नज़रों में अपने लिए हिक़ारत, घृणा, क्रोध जैसे भाव देखकर उसका मन शर्मिंदगी से भर गया।
दिव्य उसे घूरते हुए कमरे से बाहर जाने लगा। दृष्टि भी बेड से नीचे उतरी और उसके पीछे-पीछे चल दी।
"सुनो न तुम्हारे जीजू तुम्हारे जैसे खड़ूस तो नहीं हैं न?"
अभी इतना सुना था फिर भी बोलने से बाज़ नहीं आई। दिव्य ने घूरा तो एकदम से चुप हो गई।
दोनों नीचे आए जहाँ बाकी सब पहले से ही मौजूद थे।
"ये मेरे जीजू हैं।" दिव्य ने सुमित जी की ओर इशारा करते हुए कहा। दृष्टि ने पहले उन्हें देखा फिर सर घुमाकर दिव्य को देखने लगी।
"इनके भी फ़िट्स टच करने होंगे क्या?"
बेचारी की बीते दिनों में हालत ख़राब थी। अपने घर में कभी यह सब देखा नहीं था और यहाँ आते ही एकदम से सब कुछ बदल गया था। जो आता-जाता सबके पैर छूते-छूते उसकी नाज़ुक कमर टूटने लगती।
दिव्य ने एक बार फिर उसे पैनी निगाहों से घूरा। दृष्टि हड़बड़ाते हुए सुमित जी के पैर छूने को बढ़ी कि पैर दुपट्टे में फंस गया जो फर्श पर बिछा झाड़ू लगा रहा था।
दृष्टि का बैलेंस बिगड़ा पर इससे पहले कि वह कार्पेट जैसे फर्श पर गिर जाती, दिव्य ने एकदम सही समय पर उसे संभाल लिया और साथ ही झिड़क भी दिया।
"जब संभाले नहीं जाते तो ऐसे कपड़े पहनती ही क्यों हो तुम? बिलकुल किसी चीज़ का सलीका ही नहीं है, जब देखो जहाँ देखो बस गिरती-पड़ती रहती हो।"
बेचारी दृष्टि अभी तक गिरने के डर से उबर तक नहीं पाई थी और अब दिव्य की डाँट सुनकर सदमे में जा चुकी थी।
"दिव्य ये किस लहज़े में बात कर रहे हैं आप बहू से?"
मनोज जी की नाराज़गी भरी कठोर आवाज़ वहाँ गूँजी, सबकी नज़रें उनकी ओर घूम गईं। दिव्य एकदम से चुप हो गया और साथ ही दृष्टि को भी उसने खुद से दूर कर दिया।
"Sorry" उखड़े अंदाज़ में कहते हुए वह सीधे बाहर ही चला गया। अब सब परेशान निगाहों से एक-दूसरे को देखने लगे पर दृष्टि की नज़रें तो जाते हुए दिव्य पर टिकी थीं।
"दृष्टि.... राइट" कुछ लम्हें बाद सुमित जी ने दृष्टि का रुख किया। उसने भी हड़बड़ाते हुए नज़रें उनकी ओर घुमाईं।
"Yes"
"दिव्य के जीजू हैं हम तो आपके भी जीजू हुए, मिलेगी नहीं हमसे?" सुमित जी सौम्यता से मुस्कुराए और उनके अपनेपन से भरा व्यवहार देखकर दृष्टि के होंठों पर भी मीठी सी मुस्कान फैल गई।
आगे बढ़कर उसने उनके पैर छूने चाहे पर सुमित जी ने उसके कंधों को थामते हुए उसे रोक दिया और अपना स्नेह भरा हाथ उसके सर पर रख दिया।
"सदा खुश रहिये।"
दृष्टि की मुस्कराहट गहरा गई।
"आप तो बहुत प्यारी हैं।" अनायास ही उनके मुँह से निकला। वाकई गुड़िया जैसी क्यूट सी दिखती थी वह। अपनी तारीफ़ सुनकर दृष्टि खिलखिलाकर हँस पड़ी।
"आप भी बहुत स्वीट हैं, मुझे तो लगा था कि दिव्य के जीजू भी उसके तरह रूड होंगे।"
उसे इतने casually दिव्य का नाम लेते देखकर मनोज जी और गायत्री जी की नज़रें एक-दूसरे की ओर घूम गईं। वहीं सुमित जी झूठी नाराज़गी दिखाते हुए उसे घूरने लगे।
"आपको मैं रूड लगता हूँ?"
उनका सवाल सुनकर दृष्टि तपाक से बोल पड़ी "अब थोड़े न लगते हैं, पहले लगते थे। तब तो मैं आपको जानती नहीं थी न और दिव्य के सारे रिलेटिव मेरे साथ रूडली बिहेव करते थे तो मुझे लगा कि आप भी दिव्य और बाकी सबके जैसे मेरे साथ रुडली ही बिहेव करेंगे पर आप तो बहुत स्वीट हैं, बिलकुल दीदी के जैसे।"
दिल की साफ़ थी वह, जो दिल में होता, वही ज़ुबान पर होता और बहुत दिनों बाद उसे ऐसा कोई मिला था जिसके साथ वह कुछ मिनट में ही इतना कम्फ़र्टेबल हो गई थी कि एकदम खुलकर बात कर रही थी। अपनी बात पूरी करते हुए गरिमा जी को देखकर वह मुस्कुराई क्योंकि पहले दिन से उनका व्यवहार भी उसके साथ बहुत अच्छा था। इन्फैक्ट वही उसके सारे छोटे-बड़े काम कर रही थी, उसे लोगों के तानों से बचाने के लिए कभी बात बदल देती तो कभी उसे कमरे में भेज देती।
दृष्टि तो बेपरवाही से सब बोल गई पर उसकी बात सुनकर कईयों के चेहरे के भाव बिगड़ गए थे। खुद सुमित जी इस स्थिति में यह नहीं समझ सके कि उन्हें क्या कहना चाहिए?
"मम्मी जी और पापा जी भी आपके साथ अच्छे से पेश नहीं आते थे?"
उन्होंने यूँ ही यह सवाल पूछ लिया। दृष्टि ने झट से इंकार में सर हिलाया "नहीं.... मम्मा तो मुझे बहुत प्यार से रखती है और मेरी बहुत केयर करती है, मेरी मॉम से भी ज़्यादा। मम्मा बहुत प्यारी है, स्वीट सी और पापा भी अच्छे हैं उन्होंने दिव्य से मेरी शादी करवा दी पर अब जब वे मेरे वजह से दिव्य से रूडली बात करते हैं, उस पर गुस्सा करते हैं तो मुझे अच्छा नहीं लगता।"
शुरू में दृष्टि खुश थी पर अंत तक आते-आते दुखी हो गई। सब इस दौरान बस उसके चेहरे पर आते-जाते भावों को देख रहे थे।
"चलिए तो हम पापा जी को समझाएंगे कि दिव्य के साथ इतनी रूडली बिहेव न करे, उन पर गुस्सा न करे। अब ठीक है?"
अपनी उदासी छोड़कर दृष्टि पल में मुस्कुरा उठी।
"और किसी से आपको कोई शिकायत है?"
"नहीं। दिव्य की फैमिली बहुत अच्छी है, एकदम perfect फैमिली जैसी और वह भी बहुत अच्छा है। पर अभी वह मुझसे थोड़ा सा नाराज़ है लेकिन मैं उसे भी मना लूँगा।"
दृष्टि ने झट से इंकार में सर हिलाया और मुस्कुरा उठी। उसकी आँखें उसकी सच्चाई बयाँ करती थीं। दिव्य के ज़िक्र मात्र से उसके लब मुस्कुरा उठते थे, जिस पर सबने गौर किया और कहीं न कहीं अब उनकी चिंता कुछ कम हो गई थी।
"दृष्टि जाइए जाकर बाहर से दिव्य को बुलाकर लाइए।"
सुमित जी ने जैसे ही यह कहा, दृष्टि के मुस्कुराते लब एक झटके में सिमट गए और वह आँखें बड़ी-बड़ी करके उन्हें देखने लगी।
"मैं जाऊँ?"
"Hmm आप जाइए और जाकर दिव्य को बुलाकर लाइए। कहिएगा हमने बुलाया है।"
सुमित जी ने दबाव बनाया तो दृष्टि बेमन से अपने दुपट्टे को संभालते हुए बाहर की ओर चली गई।
दिव्य बाहर पार्किंग एरिया में खड़ी अपनी बाइक पर मुँह फुलाए बैठा था।
"Sorry" दृष्टि की सौम्य सी आवाज़ कानों से टकराई और दिव्य की नज़रें उसकी ओर घूम गईं।
"मेरे वजह से पापा ने तुम्हें डाँट दिया न, I am sorry" दृष्टि सच में दुखी थी और दिव्य के सामने सर झुकाए खड़ी थी। दिव्य ने सरसरी सी नज़र उस पर डाली फिर निगाहें फेर लीं। उसकी चुप्पी पर दृष्टि ने ही आगे कहा
"अब वे दोबारा तुम्हें नहीं डाँटेंगे। मैंने जीजू से कह दिया है कि वे पापा को कह दें कि तुम्हें न डाँटे, मुझे अच्छा नहीं लगता जब वे मेरे वजह से तुम पर गुस्सा करते हैं।"
यह सुनकर दिव्य के चेहरे के भाव कुछ बदले। अगले ही पल उसने रूखे स्वर में सवाल किया
"क्यों आई हो तुम यहाँ?"
यह सुनने की देर थी कि दृष्टि ने अपनी हथेली अपने सर पर दे मारी "Oh.... मैं तो भूल ही गई कि मैं यहाँ तुम्हें मनाने नहीं बुलाने आई थी। जीजू ने बुलाया है तुम्हें अंदर।"
दिव्य ने एक नज़र उसे देखा फिर उसे नज़रअंदाज़ करते हुए अंदर चला गया। दृष्टि ने अजीब सा मुँह बनाया और पैर पटकती हुई उसके पीछे चलने लगी।
To be continued…
आज बहुत दिनों बाद दिव्य पूरे परिवार के बीच बैठा था। सबने साथ में डिनर किया, फिर सैर के बहाने सुमित जी दिव्य को अपने साथ बाहर ले गए थे। कुछ देर खुले में टहलते हुए यहाँ-वहाँ की बातें हुई थीं। अब दिव्य का मूड काफी हद तक ठीक था। मौका देखकर सुमित जी ने बात छेड़ दी।
"दिव्य, हम कुछ कहें तो मानेंगे?"
"दृष्टि को अपनी लाइफ़ में एक्सेप्ट करने के अलावा, आप जो कहेंगे हम करेंगे।" दिव्य ने गंभीरता से जवाब दिया। जिसे सुनकर सुमित जी हल्के से हँसे, फिर संजीदगी से बोले।
"दृष्टि हम सबसे ज़्यादा बड़ी गुनाहगार आपकी है। उन्होंने जो किया उसका सबसे गहरा असर आप पर पड़ा है। अपनी ज़िंदगी आपको उनके साथ बितानी है। इसलिए आपको उन्हें माफ़ करके अपनी लाइफ़ में एक्सेप्ट करते हुए उनके साथ एक खुशहाल जीवन बिताना है या उन्हें उनकी गलती की सज़ा देनी है, ये सिर्फ़ आपका फ़ैसला होगा।
पहले भी हमने कहा था कि हम बस चाहते हैं कि आप कुछ वक़्त उनके साथ बिताकर उन्हें जानने और समझने की कोशिश करें, जो रिश्ता जुड़ा है उसे निभाने की कोशिश करें। और अगर आपको लगेगा कि आप दृष्टि को माफ़ करके उनके साथ अपनी ज़िंदगी बिता सकते हैं तो अच्छी बात है, पर अगर आप उनसे दूर होना चाहेंगे तो उसमें भी हम आपके साथ हैं।
आप दोनों के रिश्ते में हम कुछ नहीं कहेंगे, बस आपको इतना समझाना चाहते हैं कि शादी चाहे जिन भी हालातों में क्यों न हुई हो, पर अब दृष्टि आपकी पत्नी है। उनसे आपकी जो भी नाराज़गी या गुस्सा है, जैसे भी मतभेद हैं उन्हें अपने कमरे के अंदर रखिए। वहाँ वो आपकी पत्नी है और उन्होंने गलती की है तो आपकी नाराज़गी भी सहेंगी। पर बाहर सबके सामने उनसे इज़्ज़त से पेश आया कीजिए।
वो पत्नी है आपकी और उन्हें वो मान मिलना चाहिए। बाहर किसी के सामने अगर आप उनके साथ ऐसे बिहेव करेंगे तो अपमान उनका नहीं आपका होगा क्योंकि अब उनके साथ आपका नाम जुड़ा है। आप उन्हें इज़्ज़त देंगे तभी लोग उनकी इज़्ज़त करेंगे।
पति-पत्नी के बीच जो बातें होती हैं उनका दरवाज़े के अंदर रहना ही ठीक होता है ताकि रिश्ते का मान बना रहे। आप खुद सोचिए अगर हम आपकी दीदी के साथ ऐसा व्यवहार करें जैसा आज आपने दृष्टि के साथ किया तो उन पर क्या बीतेगी? हम तो शायद कुछ वक़्त बाद सब भूल जाएँ पर क्या आपकी दीदी अपना वो अपमान भूल पाएंगी? जब हम खुद सबके सामने अपनी पत्नी का अपमान करेंगे तो क्या बाकी लोग उनकी इज़्ज़त करेंगे?"
सुमित जी ने आम से अंदाज़ में दिव्य को उसकी गलती का एहसास करवा दिया था।
"आगे से ध्यान रखेंगे हम।" दिव्य का जवाब सुनकर सुमित जी ने मुस्कुराते हुए उसके कंधे को थपथपाया और दोनों वापिस घर की ओर घूम गए।
"सीधे अपने रूम में जाना।" जाने से पहले सुमित जी ने उसे हिदायत दी। उसने सर हिला दिया।
दिव्य रूम में आया तब तक दृष्टि लेट चुकी थी। लाइट बंद थी, बस नाइट बल्ब की हल्की रोशनी रूम में बिखरी हुई थी। दिव्य की नज़र दृष्टि पर गई जो खुली आँखों से सीलिंग को घूरते हुए पता नहीं क्या सोच रही थी।
"कपड़े चेंज क्यों नहीं किए तुमने अपने?" दिव्य ने कबर्ड की ओर बढ़ते हुए सवाल किया। दृष्टि अपने ख्यालों से बाहर आई, नज़रें दिव्य की ओर घूम गईं, पर चेहरे पर भी अजीब से भाव मौजूद थे।
"दिव्य, तुम मुझसे hate करते हो न?" दृष्टि के शब्द दिव्य के कानों से टकराए और उसके आगे बढ़ते कदम ठिठक गए। पल भर को चेहरे के भाव भी कुछ बदले। अगले ही लम्हें उसके आगे बढ़ते हुए, बेपरवाही भरे लहज़े में उसने जवाब दिया।
"पूछने की ज़रूरत है?"
सवाल का जवाब सवाल से आया था, पर दृष्टि अब भी उसे ही देखे जा रही थी।
"बहुत गुस्सा भी हो न क्योंकि मैंने तुम्हारी शादी उस लड़की से नहीं होने दी, जिससे तुम चाहते थे और मुझसे शादी करने के लिए तुम्हें फ़ोर्स किया।"
"ज़ाहिर सी बात है।" एक बार फिर उसने सपाट लहज़े में जवाब दिया। जिसे सुनकर दृष्टि का मुँह लटककर छोटा सा हो गया।
"तुम उस लड़की से नाराज़ तक नहीं हो, जिससे तुम शादी करने वाले थे, लेकिन उसे तुम पर ज़रा-सा भी ट्रस्ट नहीं था? कैसी मोहब्बत थी उसकी, जो सिर्फ़ एक झूठ पर यकीन करके तुम्हें छोड़कर चली गई? अगर वो सच में तुमसे प्यार करती, तो क्या तुम्हारी आँखों में तुम्हारी सच्चाई नहीं पढ़ पाती? क्या उसे तुम्हारे character पर इतना भी भरोसा नहीं था?
अगर उसकी जगह मैं होती, तो किसी और लड़की की बात तो छोड़ो, खुद तुम या भगवान भी मुझे कुछ कह देते, तब भी मेरा ट्रस्ट तुम पर से एक पल के लिए भी कम नहीं होता। क्योंकि मैं तुम्हें बहुत अच्छे से जानती हूँ... इतना कि मुझे पता है, तुम किसी लड़की को धोखा देना तो दूर, उसे गलत नज़र से देखने तक की सोच भी नहीं सकते।"
दृष्टि की इन बातों ने दिव्य को पलटकर उसे देखने पर मजबूर कर दिया था। वो उसकी आँखों में झाँक रहा था जहाँ उसे अपने लिए अटूट विश्वास नज़र आ रहा था।
दृष्टि कुछ देर उसे देखती रही, फिर करवट बदलकर लेट गई। दिव्य ने दोबारा उसे कपड़े बदलने तक नहीं कहा और न ही उनके बीच कोई बात हुई।
अगले दिन सारा दिन दिव्य ने सुमित जी के साथ बिताया और बहुत दिनों बाद वो खुश नज़र आया। दृष्टि से उसकी कोई बात नहीं हुई। शाम को जब गरिमा जी को लेकर सुमित जी जाने लगे, दोनों ने ही दोनों को समझाया था। दिव्य और दृष्टि दोनों ही उस वक़्त उदास नज़र आए थे।
"मम्मी, कल से हम वापिस ऑफ़िस जॉइन करने वाले हैं।" नाश्ते के वक़्त दिव्या ने यह बात कही थी और सबकी नज़र उसकी ओर उठ गई थी।
अब उसने इस सिचुएशन को फ़ेस करने का फ़ैसला लिया था। यह देखकर गायत्री जी और मनोज जी दोनों ही कुछ निश्चिंत हो गए थे। हालाँकि अभी शादी को ज़्यादा वक़्त नहीं हुआ था, पर अभी दिव्य का मन बहलना ज़रूरी था।
"ये तो बहुत अच्छी बात है बेटा।" गायत्री जी उसके इस फ़ैसले से काफी खुश नज़र आईं। उन्होंने प्यार से उसके सर पर हाथ फेरा, तो दिव्य भी फ़ीका सा मुस्कुरा दिया।
मनोज जी ने एक नज़र उसे देखा, पर बोले कुछ नहीं। उनकी और दिव्य की बातचीत बंद थी। जिसकी कई वजहें थीं और शायद उनके रिश्ते को वक़्त की ज़रूरत थी।
जहाँ बाकी दोनों दिव्य के इस फ़ैसले से खुश नज़र आए, वहीं दृष्टि के चेहरे पर उदासी छा गई। मुँह लटकाए उसने बेमन से कुछ निवाले खाए, फिर उठकर जाने ही लगी थी, जब गायत्री जी के शब्द उसके कानों में पड़े और वो एक्साइटमेंट से उछल पड़ी।
"दिव्य, कल से आप ऑफ़िस जाने लगेंगे, फिर तो आपको वक़्त मिलेगा नहीं, इसलिए आप दृष्टि को आज शॉपिंग पर ले जाइए, अपनी ज़रूरत का समान और कपड़े ले आएगी। कब तक इन दो-तीन जोड़ी कपड़ों में गुज़ारा करेगी, जो उन्हें ठीक से आते भी नहीं हैं।"
दृष्टि चहकते हुए उनकी ओर पलटी, पर अगले ही पल उसकी सारी एक्साइटमेंट ख़त्म हो गई और चेहरा मायूसी से लटक गया।
"मैं क्यों लेकर जाऊँ?... खुद चली जाएगी।"
दिव्य ने बेहद रूखे अंदाज़ में कहा, जिससे उसकी चिढ़ साफ़ ज़ाहिर थी। दृष्टि जो उसके साथ बाहर जाने का सोचकर खुश थी, अब एकदम से उदास हो गई।
"दिव्य, वो पत्नी है आपकी। आपका फ़र्ज़ है उनकी ज़रूरतों का ख्याल रखना। कुछ दिन पहले ही शादी हुई है आपकी, नई-नवेली बहू घर से अकेले बाज़ार जाएगी तो लोग सौ तरह की बातें करेंगे, हमें भी चिंता लगी रहेगी, इसलिए आप उन्हें अपने साथ लेकर जाएँगे। उनकी ज़रूरत की सारी चीजें दिलाकर उन्हें अपने साथ ही लेकर आएंगे।"
दिव्य फिर कुछ कहने ही वाला था कि मनोज जी ने कड़क लहज़े में उसे टोका, "दिव्य, अपनी माँ से ज़्यादा बहस मत करो और वो जो कह रही हो वो करो। दृष्टि अब इस घर की इज़्ज़त है और हम नहीं चाहते कि आपके कारण एक बार फिर हमारे घर की इज़्ज़त उछाली जाए।"
मनोज जी का आदेश था, जिसे टालना दिव्य के लिए संभव न हो सका। वो बुरी तरह किलकिला गया। पल भर को नाराज़गी से उसने अपने मम्मी-पापा को देखा, फिर दृष्टि को घूरते हुए गुस्से में जबड़े भींच लिए।
"शाम को रेडी रहना, ले चलूँगा मार्केट।"
इसके बाद वो सीधे घर से बाहर निकल गया। दृष्टि मुँह लटकाए मायूसी से उसे देखती ही रह गई। गायत्री जी और मनोज जी भी कुछ परेशान थे, पर अब इससे ज़्यादा वो कुछ नहीं कर सकते थे। तो उन्होंने सब वक़्त पर ही छोड़ दिया।
दृष्टि आज सारे दिन गायत्री जी के संग रही। शाम होने लगी तो उनके कहने पर ही रेडी भी हो गई। इन्फैक्ट उन्होंने ही उसे साड़ी पहनाकर तैयार कर दिया था। शादी के बाद पहली बार घर से बाहर जा रही थी, लोग देखेंगे तो किसी को भी कुछ कहने का मौका न मिले, इसका पूरा ध्यान रखा था उन्होंने।
कुछ देर बाद दिव्य भी आ गया और घर में कदम रखते ही चिल्लाने लगा,
"दृष्टि, जल्दी आओ, ज़्यादा फ़ालतू वक़्त नहीं है मेरे पास।"
"आ रही हूँ, ज़्यादा चिल्लाओ मत और यह पियो। तब तक में वो भी नीचे आ जाएंगी।"
रसोई से बाहर निकलती गायत्री जी ने उसे हल्के से झिड़कते हुए चाय की प्याली उसकी ओर बढ़ा दी।
दिव्य ने चिढ़ते हुए मुँह बनाया। जब से दृष्टि आई थी उसके अपने घर में उसकी ही कोई इज़्ज़त नहीं रह गई थी। सब कुछ दिन पहले ज़बरदस्ती उसकी ज़िंदगी में घुसी उस ज़िद्दी और बदतमीज़ लड़की को सपोर्ट करते थे और अपने ही परिवार में वो बेगाना हो गया था। हर कोई या तो उसे समझाता या डाँट लगाता।
दिव्य ने चाय की प्याली पकड़ी और सोफ़े पर बैठ गया। गायत्री जी दृष्टि को लाने चली गईं। शायद जानती थीं कि अगर अकेली आएगी तो शॉर्टकट लेकर सीढ़ियों से उतरने के जगह लुढ़कते हुए नीचे आएगी।
यहाँ दिव्य ने चाय ख़त्म की और गायत्री जी दृष्टि को लेकर वहाँ आ गईं। गुलाबी साड़ी, खुले बाल और सोलह श्रृंगार में दृष्टि प्यारी सी गुड़िया जैसी लग रही थी। माथे पर बिखरे बैंग्स उसे और भी क्यूट लुक दे रहे थे। हमेशा की तरह दिव्य को देखकर वो मुस्कुराई, पर दिव्य ने नफ़रत से चेहरा फेर लिया। यह देखकर दृष्टि का मुँह उतर गया।
"जल्दी आओ बाहर।" फ़रमान सुनाकर वो लम्बे-लम्बे डग भरते हुए वहाँ से चला गया।
"दृष्टि बहू, आपको याद है न आपके पापा जी ने आपको क्या कहा था?" गायत्री जी के सवाल पर दृष्टि ने सर घुमाकर उन्हें देखा और हामी भर दी।
"हाँ।"
"उसे याद रखिएगा। दिव्य की बातों को दिल पर मत लीजिएगा। जो दिल में आए ले लीजिएगा। चलिए अब आप जाइए, दिव्य इंतज़ार कर रहे होंगे, देर करेंगी तो गुस्सा करेंगे।"
"हमेशा गुस्सा ही करता है।" दृष्टि ने मुँह ऐंठते हुए मन ही मन कहा और सर हिला दिया। अपनी साड़ी को आगे से उठाया और धीमे-धीमे कदमों से बाहर जाने लगी।
To be continued…
अब ये शॉपिंग दिव्य की ज़िंदगी में कौन सा नया तूफ़ान लेकर आएगी, ये देखना बड़ा दिलचस्प होने वाला है।