जब प्यार और मोहब्बत अपनी हदों से आगे बढ़कर जुनून का रूप ले ले, तो दिल की धड़कनों से लेकर सोच और सांसों तक हर चीज़ उसी एक शख़्स के इर्द-गिर्द घूमने लगती है। यह वह एहसास होता है जहाँ चाहत महज़ मोहब्बत नहीं रह जाती, बल्कि रगों में दौड़ता एक नशा बन जाती... जब प्यार और मोहब्बत अपनी हदों से आगे बढ़कर जुनून का रूप ले ले, तो दिल की धड़कनों से लेकर सोच और सांसों तक हर चीज़ उसी एक शख़्स के इर्द-गिर्द घूमने लगती है। यह वह एहसास होता है जहाँ चाहत महज़ मोहब्बत नहीं रह जाती, बल्कि रगों में दौड़ता एक नशा बन जाती है। इंसान अपनी खुशी, ग़म, चैन सब उसी के हवाले कर देता है। फिर न फ़ासले मायने रखते हैं, न हालात। सिर्फ़ एक ख्वाहिश रह जाती है – उस शख़्स को हर हाल में पाने की। यही वह मुक़ाम है जहाँ प्यार मोहब्बत से बढ़कर एक दीवानगी और बेइंतिहा जुनून बन जाता है। ।
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बवेजा इंडस्ट्री, मुंबई! बवेजा इंडस्ट्री के मीटिंग हॉल में उस वक्त माहौल शांत और अंधकारमय था। प्रोजेक्टर की लाइट ऑन थी, जिसके पास खड़ी मोह देसाई सबको प्रेजेंटेशन समझा रही थी। मीटिंग हॉल में बैठे सभी लोग उसके बताए गए बिंदुओं को समझ रहे थे और अपने नोटपैड में लिख भी रहे थे। मीटिंग समाप्त हुई तो सभी एक-एक करके मीटिंग हॉल से बाहर चले गए। सिवाय मोह और मिस्टर बवेजा के। मोह अपनी फाइलें समेट रही थी और मिस्टर बवेजा कुछ फाइलों पर हस्ताक्षर कर रहे थे। मोह जाने लगी तो मिस्टर बवेजा ने उसे रोकते हुए कहा, "मिस मोह! .. वेट ए सेकेंड।" "यस सर.." वह धीरे से मुड़ गई। "मुझे आपसे कुछ बात करनी है। प्लीज आप इस प्रोजेक्ट की फाइल लेकर मेरे केबिन में आ जाइए।" वह हाथ में कुछ फाइलें लेकर वहाँ से चले गए। मोह भी उनके पीछे-पीछे उनके केबिन में आ गई। मिस्टर बवेजा ने उसे बैठने का इशारा किया और खुद किसी को फोन लगाने लगे। मोह वहीं बैठ गई। मिस्टर बवेजा ने फोन पर बातचीत समाप्त कर फोन टेबल पर रखा और मोह की ओर देखकर मुस्कुराते हुए बोले, "इतनी कम उम्र में इतना टैलेंट.. वाकई काबिल-ए-तारीफ है मिस मोह! जानता हूँ कि आप पर पहले से ही बहुत सी ज़िम्मेदारियाँ हैं, पर मैं आपको एक और ज़रूरी ज़िम्मेदारी देना चाहता हूँ क्योंकि मुझे यकीन है कि आप वह ज़िम्मेदारी भी बखूबी निभाएँगी।" "थैंक यू सर.. और अपनी तरफ से मैं अपना 100% दूँगी।" "यकीन है मुझे आप पर.." "सर, क्या करना होगा मुझे..?" "अभी पता चल जाएगा।" इतना ही उन्होंने कहा था कि उनके केबिन का दरवाज़ा खुला। मिस्टर बवेजा दरवाज़े पर खड़े शख्स को देखकर मुस्कुरा दिए और उसे अंदर आने का इशारा किया। मोह ने पीछे मुड़कर देखा तो वहाँ एक लड़का था, जो अंदर आ रहा था। कैज़ुअल कपड़े पहने थे, परन्तु वह काफी आकर्षक लग रहा था। "डैड... आपने मुझे इतनी अर्जेंटली क्यों बुलाया..?" वह लड़का उनके पास आकर खड़ा हो गया। इस बीच उसने मोह पर एक सरसरी नज़र ज़रूर डाली थी। "मिस मोह! मीट माय सन, उत्कर्ष बवेजा.." "हेलो सर..." मोह ने उत्कर्ष की ओर देखकर अपना सिर हल्का सा झुकाया, पर उत्कर्ष ने कोई जवाब नहीं दिया। "उत्कर्ष! ये मोह देसाई हैं। हमारी कंपनी में पिछले एक साल से काम कर रही हैं। इनकी उम्र भले ही कम है, लेकिन टैलेंट इतना है कि अनुभवी होने के बाद भी मेरा साथ नहीं... आपने कहा था ना कि आप कंपनी ज्वाइन करेंगे.. तो मुझे लगता है कि आज से ही आपको कंपनी ज्वाइन कर लेनी चाहिए। (मोह की ओर देखकर) मिस मोह! मेरा बेटा हफ़्ते भर पहले ही इंडिया आया है अपनी पढ़ाई पूरी करके, तो मैं चाहता हूँ कि एक महीने तक आप इसे कंपनी के बारे में हर छोटी से लेकर बड़ी जानकारी से रूबरू करवाएँ। क्योंकि आप जानती हैं कि आगे चलकर मेरे बाद कंपनी का नेक्स्ट एमडी यही होने वाला है। तो मैं चाहता हूँ कि आप इसे..." "मैं समझ गई थी, मुझे इनका असिस्टेंट बनना है..." मिस्टर बवेजा अपनी बात पूरी न कर पाए थे कि मोह मुस्कुराकर बोली। मिस्टर बवेजा ने गर्दन ना में हिला दी। मोह के साथ-साथ उत्कर्ष भी अब भ्रमित होकर उन्हें देख रहा था। तभी मिस्टर बवेजा आगे बोले, "आपको इनका असिस्टेंट नहीं बनना, बल्कि यह आपका असिस्टेंट बनेगा.. ताकि आपसे कंपनी के बारे में बहुत कुछ सीख सके।" उनकी यह बात सुनकर मोह के साथ उत्कर्ष की आँखें भी हैरानी से बड़ी हो गई थीं। वह तुरंत बोला, "व्हाट.. बट व्हाई, डैड..?" "मैंने यह फैसला काफी सोच-समझकर लिया है, तो तुम वही करो जो मैंने कहा है.." मिस्टर बवेजा अपनी भारी आवाज़ में बोले। उत्कर्ष आगे कुछ बोल नहीं पाया। पहले कभी उसने उनकी बात टाली हो, तो आज भी टालता। बस घूरकर मोह को देखा। मिस्टर बवेजा ने मोह की तरफ़ देखा, जो अब भी उलझन में लग रही थी, तो वह अपने दोनों हाथों को टेबल पर टिकाकर सही से बैठे और उसी आवाज़ में बोले, "मिस मोह! एनी प्रॉब्लम..?" "न... न... नो सर..." मोह ने तुरंत अपनी गर्दन ना में हिलाई। "दैट्स ग्रेट! मैं आपका और समय नहीं लेना चाहता.. सो अब आप जाइए और अपना बाकी काम कीजिए। अगर कोई बात होगी तो मैं आपको ज़रूर इन्फॉर्म करूँगा।" मिस्टर बवेजा ने कहा तो मोह अपनी फाइलें लेकर वहाँ से चली गई। लेकिन वह महसूस कर सकती थी उत्कर्ष की घूरती नज़रें खुद पर। मोह के वहाँ से जाने के बाद ही उत्कर्ष झुँझलाकर बोला, "डैड! कंपनी के बारे में तो आप भी मुझे अच्छी तरह जानकारी दे सकते थे। हर ट्रिक्स सिखा सकते थे ना.., सो व्हाई डिड यू चूज़ दैट गर्ल फॉर ऑल दीज़ थिंग्स..?" "तुम्हें प्रॉब्लम किस चीज़ से है.. कि तुम एक लड़की से सीखोगे या फिर वह तुम्हारे डैड की कंपनी में एक एम्प्लॉयी है इसलिए..? यह बात तुम्हारे इगो को हर्ट कर रही है..?" उत्कर्ष अपनी बात पूरी ही किया था कि उसी समय मिस्टर बवेजा काफी सहजता से बोले। वही उनकी बात सुनकर उत्कर्ष ख़ामोश हो गया। कुछ देर सोचने के बाद वह हल्का सा मुस्कुराया और मिस्टर बवेजा की ओर देखकर बोला, "ओके देन.. जैसा आप चाहते हैं वैसा ही होगा.. बट आज से नहीं, कल से.." "ओके माय सन! अब तुम जा सकते हो। लेट्स मीट एट डिनर टाइम।" "श्योर डैड.. टेक केयर।" उत्कर्ष ने मुस्कुराकर कहा और मिस्टर बवेजा के केबिन से निकल गया। "मैं बस अपनी आत्मग्लानि को काम करना चाहता हूँ उत्कर्ष! और जानता हूँ तुम अपने डैड की मदद ज़रूर करोगे।" मिस्टर बवेजा की आँखों में नमी सी चमकी थी, जिसे उन्होंने तुरंत ही साफ़ कर लिया था। क्रमश:
एक सामान्य सा घर था, जिसके बाहर खड़ी मोह बार-बार घंटी बजा रही थी, पर कोई दरवाज़ा नहीं खोल रहा था। दरवाज़ा न खुलने की वजह से उसके माथे पर पसीने की बूँदें चमकने लगी थीं। घबराहट में उसके हाथ-पैर काँप रहे थे।
तभी उसे कुछ याद आया। उसने जल्दी से अपने बैग से दूसरी चाबी निकाली और फौरन दरवाज़ा खोलकर अंदर आ गई। आँगन में आते ही उसके पैर वहीं ठिठक गए। क्योंकि रीना जी, यानी मोह की मम्मी, फर्श पर बेहोश पड़ी थीं।
मोह ने अपना बैग वहीं फेंका और जल्दी से रीना जी की तरफ दौड़ी। उसने घबराते हुए उनका सिर अपनी गोद में रखा और उनके गालों को थपथपाते हुए बोली,
"मम्मी.. मम्मी! .. उठिए.. क्या हुआ आपको..? आप आँखें क्यों नहीं खोल रही...?" मोह परेशान सी बोली। लेकिन रीना जी पर उसकी बातों का कोई असर नहीं हुआ। उनकी कोई बात उनके कानों तक पहुँची ही नहीं। मोह ने धीरे से उनके सीने पर हाथ रखा तो महसूस किया कि उनकी धड़कनें काफी धीमी चल रही थीं।
"फ़ोन.....मेरा फ़ोन.... बैग..." कहते हुए वह जल्दी से उठी और अपने बैग से अपना फ़ोन निकाला और बिना देरी किए एम्बुलेंस का नंबर डायल कर दिया।
"हेलो.. हेलो.. एम्बुलेंस! .. इट्स एन इमरजेंसी..."
उत्कर्ष ने मिस्टर बवेजा को जल्दबाजी में घर से बाहर निकलते हुए देखा तो वह उनसे पूछ बैठा,
"डैड! .. डैड! .. व्हेयर आर यू गोइंग..? एवरीथिंग इज ओके..?"
"एक इमरजेंसी है। मुझे अभी हॉस्पिटल जाना पड़ेगा।"
"कैसे इमरजेंसी..? और हॉस्पिटल... हॉस्पिटल क्यों..?"
"बेटा, वो... आज मैंने तुम्हें एक लड़की से मिलवाया था ऑफिस में... याद है..?"
"ऑफकोर्स याद है डैड.. अं.. मोह!... यही नाम था ना उसका..?" उत्कर्ष याद करते हुए बोला तो मिस्टर बवेजा ने अपनी गर्दन हाँ में हिलाई।
"हाँ बेटा.. मोह! .. दरअसल अभी मेरे पास उसका कॉल आया था। उसकी मम्मी हॉस्पिटल में एडमिट हैं। मुझे अभी वहाँ जाना पड़ेगा..."
"व्हाट..? डैड! सीरियसली.. वह लड़की आपके ऑफिस में सिर्फ़ एक एम्प्लॉय है। सो व्हाट कि उसकी मम्मी हॉस्पिटल में एडमिट है तो आप क्यों जा रहे हैं..?"
"वह लड़की सिर्फ़ मेरी एम्प्लॉय ही नहीं, बल्कि मेरी बेटी की तरह है। उसके पापा मेरे फ़्रेंड थे, जो अब इस दुनिया में नहीं हैं। इसलिए मेरा फ़र्ज़ बनता है कि मैं उन लोगों की मदद करूँ। और अगर उनका मुझसे कोई रिश्ता ना भी होता, तो भी मैं वहाँ जाता, क्योंकि अपने ओहदे से कई गुना बढ़कर मेरे लिए इंसानियत मैटर करती है। तो फिर कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि आप कौन हैं..?" मिस्टर बवेजा ने कहा तो उत्कर्ष को अपनी गलती का एहसास हुआ। वह तुरंत बोला, "आई एम सॉरी डैड, बट मेरी बात का वो मतलब नहीं था..."
"इट्स ओके..." मिस्टर बवेजा ने कहा और वह वहाँ से जाने लगे। तभी उत्कर्ष बोला, "क्या मैं भी आपके साथ चल सकता हूँ..?"
मिस्टर बवेजा ने बिना एक पल सोचे अपना सिर हाँ में हिला दिया। उत्कर्ष भी खामोशी से उनके साथ चल पड़ा।
कुछ देर बाद जैसे ही वे दोनों हॉस्पिटल पहुँचे और मोह के पास आए, तो देखा कि वह रोते-चिल्लाते हुए डॉक्टर से बात कर रही थी। मिस्टर बवेजा तुरंत आगे बढ़े और मोह को सम्हालते हुए उससे बोले, "मोह बेटा, सब ठीक हो जाएगा। तुम रोओ मत..."
"सर..... सर..... देखिए ना.....ये डॉक्टर क्या बकवास कर रहे हैं.... कह... कह रहे हैं कि... कि मम्मी!... मेरी मम्मी! नहीं रही.... पूछिए ना आप इनसे...." मोह रोते हुए अटक-अटक कर बोली।
वह बात सुनकर मिस्टर बवेजा के पैरों तले जैसे ज़मीन खिसक गई। वह अवाक से कभी डॉक्टर को देख रहे थे, तो कभी रोती-बिलखती मोह को... उन्हें जैसे यकीन करना मुश्किल हो रहा था कि मोह जो कह रही है, वह सच है...? उनके लिए यह सोचना तक असंभव सा लग रहा था।
"सर!... ये डॉक्टर! कुछ भी कह रहे हैं ना... आप कहिए इनसे कि मुझे... मुझे मेरी मम्मी से मिलना है.... प्लीज़... मुझे उनसे मिलने दीजिए...." मोह के लिए भी यह सत्य स्वीकार करना आसान नहीं था कि उसका इकलौता सहारा भी आज टूटकर बिखर गया था। उसके पापा के बाद आज उसकी मम्मी भी उसे छोड़कर हमेशा के लिए जा चुकी थी।
"मोह! सम्हालो खुद को बेटा... मैं बात करता हूँ डॉक्टर से... तुम यहाँ शांत होकर बैठो..." कहते हुए मिस्टर बवेजा ने मोह को वहीं रखी बेंच पर बैठा दिया और खुद डॉक्टर के पास चले गए।
"डॉक्टर, क्या यह सच है..?" मिस्टर बवेजा को अभी भी विश्वास नहीं हो रहा था।
"जी... जब पेशेंट को हॉस्पिटल लाया गया, तब तक वह इस दुनिया छोड़कर जा चुकी थीं। और यही बात मैं इन्हें बताने की कोशिश कर रहा हूँ, पर ये ज़िद पकड़कर बैठी हैं कि इन्हें उनसे मिलना है।" डॉक्टर ने कहा।
"हुआ क्या था डॉक्टर..?"
"उन्हें हार्ट अटैक आया था।" डॉक्टर ने कहा तो मिस्टर बवेजा ने लाचार सी नज़रों से मोह की ओर देखा, जो रो रही थी। उन्होंने परेशान होकर अपने माथे को अपनी उंगली से घिसा।
वहीं उत्कर्ष एक तरफ़ खड़ा एकटक मोह को देख रहा था। ना जाने क्यों, पर उसे मोह का यूँ रोना बिलकुल अच्छा नहीं लग रहा था। वह आहिस्ता से उसके पास आकर बैठा और धीरे से उसके कंधे पर हाथ रखा।
"हे डोंट क्राई..."
मोह ने रोते हुए उसकी ओर देखा तो उसने धीरे से उसके आँसुओं को अपने हाथ से पोछ दिया। और अपनी गर्दन ना में हिला दी।
"मेरी.... मेरी मम्मी..." मोह ने सिसकते हुए अपना चेहरा अपने हाथों में छुपा लिया और तेज़-तेज़ रोने लगी।
क्रमश:
वह रात मोह की ज़िंदगी की सबसे भयानक रात थी। जब डॉक्टर्स ने उसे उसकी मम्मी की डेड बॉडी दिखाई थी, बहुत देर तक वह उनसे लिपट कर रोती रही थी। मिस्टर बवेजा उसे अपने साथ बाहर ले आए थे। लेकिन बाहर आने के बाद भी उसका रोना नहीं रुका था। पूरी रात निकल गई, लेकिन मजाल जो उसकी आँखों से आँसू ज़रा भी सूखे हों। रो-रो कर सुबह तक उसकी आँखें सूख गई थीं। वहीं उत्कर्ष और मिस्टर बवेजा की भी पूरी रात जागकर ही कटी थी। तीनों ने ही एक पल के लिए भी आँख बंद करके नहीं देखा था।
मिस्टर बवेजा ने उनके अंतिम संस्कार की सारी तैयारी पहले ही करवा दी थी। ऐसे कुछ खास रिश्तेदार भी नहीं थे जिनके साथ उनका कोई रिश्ता ही बचा हो। जो थोड़ा बहुत था, वह भी मोह के पापा के इस दुनिया से जाने के बाद ही खत्म हो गया था। जब मोह और उसकी मम्मी को किसी के सहारे की ज़रूरत थी, तब सब ने अपना हाथ पीछे खींच लिया था। तब... तब वह दोनों माँ-बेटी एक-दूसरे का सहारा बनी थीं, लेकिन! आज जब मोह की माँ भी उसे छोड़ गई थी, अब तो कोई सहारा ही नहीं बचा था उसके पास।
पंडित जी को बुलाकर मिस्टर बवेजा और उत्कर्ष ने ही उनका अंतिम संस्कार किया था, जबकि मोह किसी मूर्ति की तरह खड़ी यह सब होते हुए देख रही थी। अब वह चिल्ला नहीं रही थी और ना ही चीख रही थी, लेकिन! आँखें एक क्षण के लिए भी नहीं सूखी थीं। यह वाकई उसकी ज़िंदगी का एक कड़वा सच था, जो उसे स्वीकारना ही था।
उनकी अंतिम क्रिया के बाद मिस्टर बवेजा और उत्कर्ष, मोह को लेकर श्मशान घाट से बाहर आ गए। मोह पीछे वाली सीट पर बैठ गई और मिस्टर बवेजा ड्राइविंग सीट पर। उत्कर्ष ने जैसे ही मिस्टर बवेजा के साइड में बैठने के लिए दरवाज़ा खोला, तो मिस्टर बवेजा ने यह देखकर उसे पीछे बैठने का इशारा किया। वहीं उत्कर्ष कन्फ़्यूज होकर उन्हें देख रहा था।
"चलो अब..." मिस्टर बवेजा ने देखा कि उत्कर्ष किसी कन्फ़्यूज़न में अभी भी पैसेंजर सीट वाली साइड का डोर पकड़े खड़ा था, तो मिस्टर बवेजा ने कहा।
"ना जाने क्या चलता रहता है इनके दिमाग़ में..." मन-ही-मन कहते हुए उत्कर्ष ने पैसेंजर सीट वाली साइड का डोर बंद किया और पीछे वाली सीट पर मोह के बराबर में आ बैठा।
"चलिए..." उसने मुँह बनाकर कहा, तो मिस्टर बवेजा ने कार स्टार्ट कर मोह के घर की ओर बढ़ा दी।
पूरे रास्ते कोई कुछ नहीं बोला था। मोह तो वैसे भी कुछ कहने की स्थिति में नहीं थी। उत्कर्ष भी विंडो से बाहर देख रहा था, जबकि मिस्टर बवेजा ड्राइविंग करते हुए लगातार कुछ सोच रहे थे।
मोह के घर के सामने उन्होंने कार रोकी, तो मोह भी ख़ामोशी से कार से बाहर चली आई। मिस्टर बवेजा और उत्कर्ष भी बाहर ही निकल आए। मोह जैसे ही घर का दरवाज़ा खोलकर अंदर आई, तो उसकी आँखें एक बार फिर से नम हो गईं। रीना जी का ख्याल आते ही दिल जैसे फटने को हो रहा था। वह जब भी घर आती थी, तो हमेशा रीना जी उसका इंतज़ार करती हुई मिलती थीं, लेकिन अब से कोई उसका इंतज़ार नहीं करेगा। कोई भी नहीं...!
"मोह... बेटा, कुछ दिनों के लिए ऑफ़िस आने की ज़रूरत नहीं है।" मिस्टर बवेजा ने कहा, तो मोह बिना उनकी ओर देखे ही बोली, "उसकी कोई ज़रूरत नहीं है सर! ...और वैसे भी अगर मैं घर पर रहूँगी, तो मम्मी की यादों से, उनके ख्यालों से बाहर नहीं आ पाऊँगी। आई नो कि जो हो गया अब वह बदल नहीं सकता... मुझे यह सच्चाई स्वीकारनी ही पड़ेगी। इसलिए मैं ऑफ़िस से कोई छुट्टी नहीं लूँगी...(दीवार घड़ी की ओर देखते हुए) अभी सिर्फ़ 8 बजे हैं और ऑफ़िस टाइम 9 बजे का है। मेरे पास अभी एक घंटा है। मैं टाइम पर पहुँच जाऊँगी। (थोड़ा रुककर) एंड थैंक्यू, उसके लिए जो आपने मेरे लिए किया...वरना मैं यह सब अकेले नहीं सम्हाल पाती।"
"कोई बात नहीं बेटा..." कहते हुए मिस्टर बवेजा ने धीरे से मोह के सिर पर हाथ रखा और उत्कर्ष के साथ अपने घर के लिए निकल गए। उनके जाते ही मोह ने दरवाज़ा बंद किया और सीधा अपने कमरे में चली गई।
"दस मिनट में तैयार होकर आओ...आज साथ में ऑफ़िस चलेंगे।" मिस्टर बवेजा ने घर के अंदर जाते हुए उत्कर्ष से कहा, तो उत्कर्ष ने चौंकते हुए उन्हें देखा, "डैड! मैं पूरी रात हॉस्पिटल में रहा हूँ। थोड़ी देर के लिए भी नहीं सोया...आई वांट टू हैव अ गुड स्लीप..."
"सोए तो हम भी नहीं हैं। और मोह...मोह पर क्या बीती है यह तो तुमने अपनी आँखों से देखा, उस बच्ची की आँखें नहीं सूख रही थीं। फिर भी उसने कहा कि उसे कोई छुट्टी नहीं चाहिए, बल्कि वह टाइम पर ऑफ़िस पहुँच जाएगी।" मिस्टर बवेजा हॉल में आकर रुक गए थे।
"बट...डैड!" उत्कर्ष ने बोलना चाहा, लेकिन मिस्टर बवेजा ने उसकी बात को बीच में ही काट दिया था, "यू हैव ओनली टेन मिनट्स! ...टेक अ शॉवर एंड गेट रेडी क्विकली।"
एक आदेश था उनके लहज़े में, जिसे अब उत्कर्ष को मानना ही था, फिर वह चाहे या ना चाहे। उसने अपनी गर्दन हिला दी।
"यस डैड!..." उत्कर्ष ने बेमन से कहा और अलसाया सा अपने कमरे की ओर बढ़ गया।
मिस्टर बवेजा ने एक गहरी साँस ली और अपना सिर हिलाते हुए अपने कमरे की तरफ़ चले गए।
क्रमश:
"आई हैव अ वर्क फॉर यू!" मिस्टर बवेजा अपने केबिन में आकर अपनी चेयर पर बैठते हुए उत्कर्ष से बोले। जो उनके पीछे-पीछे ही आ रहा था।
"क्या काम..?" उत्कर्ष भी उनके सामने वाली चेयर पर बैठ गया था।
"आज शाम तक तुम्हें ऑफिस के हर एक डिपार्टमेंट के एंप्लॉयज का एक डाटा रेडी करना है। और यह तुम्हें खुद से ही करना है..." मिस्टर बवेजा ने काफी सख्ती से कहा। मानो उत्कर्ष उनका कोई बेटा नहीं, बल्कि उनके ऑफिस में काम करता सिर्फ एक एम्प्लॉय है।
"डैड! मैं यह सब खुद से कैसे कर सकता हूँ...? और वैसे भी आज तो मेरा पहला दिन है, तो आप मुझे इतना हार्ड वर्क नहीं दे सकते।" उत्कर्ष की रोनी सी शक्ल बन गई थी।
"फर्स्ट ऑफ़ ऑल, जो तुम यह बार-बार मुझे 'डैड! डैड!' कह रहे हो, वह बंद करो क्योंकि ऑफिस टाइम में मैं तुम्हारा डैड नहीं हूँ, बल्कि बॉस हूँ। तो तुम मुझे सर कहोगे। और दूसरी बात... लंदन के इतने बड़े बिज़नेस स्कूल में मैंने तुम्हें इसलिए ही भेजा था ताकि तुम बिज़नेस के दाव-पेंच सीख सको। खाली डिग्री से कुछ नहीं होता है, क्या वहाँ बर्तन धोते थे...? जो तुम एक छोटा सा काम तक नहीं कर सकते...?" मिस्टर बवेजा ने अपने सामने रखे लैपटॉप को ऑन करते हुए कहा। उत्कर्ष ने मुँह बना लिया।
"ओके! जैसा आप कहें। अच्छा, अब मुझे बता दीजिये कि मेरा केबिन कहाँ है। मैं कर लूँगा खुद से ही सब।"
"कौन सा केबिन...?"
"डैड! एटलीस्ट मुझे एक केबिन तो मिलना चाहिए।"
"कोई केबिन नहीं है। बल्कि टेबल है, जो मैंने मोह के केबिन में रखवा दी है। तो तुम आज से उसके केबिन में ही बैठकर काम करोगे। मोह का केबिन मेरे केबिन से नेक्स्ट ही है। बाकी शीट्स तुम्हें वहीं मिल जाएंगी। और शाम का मतलब शाम ही है... शाम तक तुम खुद मुझे सारा डाटा दिखाओगे।"
मिस्टर बवेजा की सारी बात सुनकर उत्कर्ष उठा और चुपचाप उनके केबिन से निकल मोह के केबिन में आ गया। जहाँ मोह ऑलरेडी अपनी चेयर पर बैठी थी।
"इसका भी केबिन है, पर मेरा नहीं..." वह मन-ही-मन गुस्से में खुद से बोला।
"व्हेयर इज़ माई टेबल एंड व्हेयर इज़ शीट्स...?" मिस्टर बवेजा की बातें सुन उत्कर्ष का दिमाग काफी खराब हो गया था। वह इस वक्त थोड़े उखड़े से लहज़े में बोला।
"देयर!" विंडो की ओर इशारा कर मोह ने कहा और वापस अपने काम में लग गई।
उत्कर्ष बिना कुछ कहे अपनी टेबल के पास आया, जो मिस्टर बवेजा ने विंडो के पास रखवाई थी और उसे मोह की टेबल के सामने दीवार से सटा दिया। मोह का उस पर या उसकी किसी भी हरकत पर कोई ध्यान नहीं था। क्योंकि इस वक्त उसके दिमाग में सिर्फ रीना जी ही चल रही थीं। अब वह रो नहीं रही थी, लेकिन उसके दिल-ओ-दिमाग में उनका ख्याल बुरी तरह से कौंध रहा था।
वह अपनी चेयर को खींचते हुए टेबल के पास लेकर आया और उसे एकदम से पटक दिया। पटकने की आवाज इतनी तेज थी कि मोह अपने ख्यालों से तुरंत बाहर आई। उसने अपनी नज़रें उठाकर उत्कर्ष की तरफ देखा, जिसका चेहरा इस वक्त गुस्से में तमतमा रहा था।
"क्या हुआ...?" मोह ने कैज़ुअली पूछा।
"तुमसे मतलब... अपने काम-से-काम रखो ना..." वह चिढ़कर बोला।
"मैं बस पूछ रही थी।"
"तो मत पूछो..." गुस्से में उसे देखते हुए बोला और अपनी चेयर पर बैठ गया। मोह ने उसे घूरा और फिर अपना सिर ना में हिलाकर अपने काम में लग गई।
उत्कर्ष ने गुस्से में टेबल पर रखी कुछ शीट्स को उलट-पलट कर देखा और फिर तुरंत अपनी पॉकेट से फ़ोन निकाल लिया। कुछ देर स्क्रीन पर उंगलियाँ चलाने के बाद उत्कर्ष ने अपना फ़ोन अपने कान पर लगा लिया। शायद उसने किसी को कॉल मिलाया था। एक-दो रिंग जाने के बाद ही सामने से कॉल उठा लिया गया था। सामने वाले को बोलने तक का मौका दिए बगैर उत्कर्ष झुंझला कर बोला,
"मॉम! समझाइए ना डैड को...वो मेरे साथ ऐसा बिहेवियर नहीं कर सकते। वो बहुत नाइंसाफी कर रहे हैं मेरे साथ...एक तो इतना सारा काम दे दिया...ऑफिस के सभी डिपार्टमेंट्स के एंप्लॉयज का डाटा तैयार करो। वो भी शाम तक...और ऊपर से मुझे मेरा केबिन तक नहीं दिया। यहाँ तो औरों की ही किस्मत अच्छी है कि कम-से-कम उनके पास उनका खुद का केबिन तो है और मैं...मेरे पास तो वो भी नहीं..." कहते हुए उसने मोह को देखा, जो अपने काम में लगी हुई थी। आखिरी बात शायद उसके लिए ही थी।
"बेटा! तुम तो पहले ही हार मान रहे हो। कोई एकदम से बड़ा आदमी नहीं बनता। धीरे-धीरे ही बनता है। तुम भी अपनी बारी का वेट करो और जो तुम्हें काम मिले वह सच्ची लगन से करो।" सामने से उत्कर्ष की मॉम यानी वसुंधरा जी ने कहा।
"मॉम! आप भी मेरी बात नहीं समझ रही हैं। आप भी डैड के साथ मिली हुई हैं। मुझे अब किसी से कोई बात ही नहीं करनी है।" उत्कर्ष ने चिढ़कर फ़ोन काट दिया था।
मोह ने एक गहरी साँस ली और अपनी चेयर से उठकर उसके पास आई। फिर टेबल पर रखी शीट्स उठाकर उनमें कुछ लिखने लगी। जिसे देखकर उत्कर्ष गुस्से में बोला,
"यह क्या कर रही हो तुम...? पागल हो क्या...?"
"कीप क्वाइट!" मोह ने अपने होठों पर अपनी उंगली रख उसे आँखें दिखाईं। तो उत्कर्ष और चिढ़ गया।
"ऐ! ज़्यादा रोब झाड़ने की ज़रूरत नहीं है, वरना याद रखना...इस कंपनी का सीईओ तो मैं ही होऊँगा। फिर तुम्हें इस नौकरी से सबसे पहले निकालूँगा।"
"इन योर ड्रीम्स!"
"देख लेना।" उत्कर्ष ने गुस्से और चिढ़ में अपने हाथों की मुट्ठियाँ बाँध लीं।
"हम्मम! देख लेंगे।" मोह ने कहा, लेकिन उसका लिखना अभी भी चालू था। जिसे देखकर उत्कर्ष ने उसके हाथों से अपनी शीट्स निकाल ली और उन्हें अपने पीछे रखता हुआ मोह को उंगली दिखाते हुए बोला,
"मैं अपना काम खुद कर सकता हूँ।"
"अच्छा! तो ठीक है करिए।" मोह को भी अब चिढ़ महसूस होने लगी थी। वह मुड़कर जाने लगी, लेकिन फिर कुछ सोचकर वह रुकी और उत्कर्ष की ओर देखकर बोली,
"वैसे मैं आपको एक बात बताना चाहूँगी कि आप एक नंबर के मगरूर इंसान हैं।" फिर सीधा जाकर अपनी चेयर पर बैठ गई।
क्रमश:
"वैसे मैं आपको एक बात बताना चाहूँगी। कि आप एक नंबर के मगरूर इंसान हैं।" फिर सीधा जाकर अपनी चेयर पर बैठ गई।
वही उसकी बात सुनकर उत्कर्ष ने उसे घूरा और अपनी टेबल पर अपना हाथ मारते हुए गुस्से में बोला,
"डॉन्ट क्रॉस योर लिमिट्स..."
मोह ने एक नज़र उसे देखा और अपना काम करने लगी। क्योंकि अब वह वाकई उससे कोई बहस नहीं करना चाहती थी।
कुछ देर बाद मिस्टर बवेजा मोह के केबिन में आए। उन्होंने देखा कि मोह और उत्कर्ष अपने-अपने कामों में लगे हुए थे। मिस्टर बवेजा उत्कर्ष के पास आए और उसकी ओर देखकर बोले,
"क्या शाम तक हो जाएगा...?"
"जी डैड...मीन सर!...सर! हो जाएगा।" उत्कर्ष ने बिना उनकी ओर देखे कहा। मिस्टर बवेजा हल्का सा मुस्कुरा दिए और फिर मोह की ओर देखकर उत्कर्ष से बोले, "अगर तुम्हें हेल्प चाहिए तो मोह की ले लेना।"
"मैं खुद से कर सकता हूँ। मुझे किसी की हेल्प की ज़रूरत नहीं..."
"ठीक है।" कहते हुए मिस्टर बवेजा वहाँ से चले गए। उनके जाते ही उत्कर्ष ने अपना सारा ध्यान अपनी वर्कशीट्स पर लगा दिया।
कुछ देर बाद जब मोह ने उसकी ओर देखा तो जनाब टेबल पर सिर रखे आराम से सो रहे थे। शायद रात भर जागने का असर था, जो वह अब आराम से सो रहा था। यह देखकर मोह ने अपनी गर्दन ना में हिला दी। वह उठी और उसकी टेबल के पास आकर उसके हाथों के नीचे दबी शीट्स को निकाल, उन्हें वहीं रखे सोफे पर बैठकर ले गई।
और फिर अच्छे से उसमें डाटा लिखने लगी। कुछ देर में ही उसने सारा डाटा तैयार कर दिया था। और फिर उन शीट्स को वापस उत्कर्ष की टेबल पर रखकर वहाँ से बाहर चली गई। क्योंकि अब लंच टाइम हो चुका था। रात से ही उसने कुछ नहीं खाया था। अब तो पेट ने दर्द करना शुरू कर दिया था। वह केबिन से बाहर सीधा कैफेटेरिया में आई जहाँ बाकी सभी कंपनी के एम्प्लॉयी अपना-अपना लंच कर रहे थे। मोह ने एक कॉफी और उसके साथ एक सैंडविच लिया और सबसे अलग सी टेबल पर जाकर बैठ गई।
उसने जैसे ही सैंडविच का एक बाइट लिया, सहसा ही उसकी आँखों में पानी आ गया। जिसे उसने तुरंत पोंछ लिया। क्योंकि इतना आसान नहीं था उसके लिए यह एक्सेप्ट कर लेना कि उसकी माँ अब उसे हमेशा के लिए छोड़कर चली गई है। पर एक्सेप्ट करने के अलावा उसके पास कोई दूसरा विकल्प भी तो नहीं था। उसने जल्दी से अपनी कॉफी और सैंडविच खत्म किया और वापस अपने केबिन में आकर अपना काम करने लगी।
शाम में मिस्टर बवेजा फिर मोह के केबिन में आए तो पाया कि उत्कर्ष आराम से सो रहा था।
"यह कब से सो रहा है...?" मोह की ओर देखकर मिस्टर बवेजा ने पूछा। तो मोह ने एक नज़र उत्कर्ष पर डाली और फिर मिस्टर बवेजा की ओर देखकर बोली,
"अभी थोड़ी देर पहले तो यह काम कर ही रहे थे।"
मोह ने झूठ बोला था। और वह यह बात खुद भी नहीं जानती थी कि आखिर क्यों उसने उत्कर्ष के लिए झूठ बोला। जबकि वह तो सही से उससे बात तक नहीं कर रहा था। और-तो-और जब उसने साफ़ तौर पर मना ही कर दिया था कि उसे उसकी हेल्प की ज़रूरत नहीं, तब भी उसने उसका सारा डाटा तैयार किया।
"पक्का ना...?"
"यस सर!"
"हम्मम!" कहते हुए वह उत्कर्ष के पास आए और उसका कंधा पकड़कर झिझोड़ा तो उत्कर्ष हड़बड़ाकर उठ गया।
"हो गई नींद पूरी...?"
"डैड वो...वो पता नहीं कैसे सो गया..." वह अपनी नींद सी आवाज़ में बोला।
"इट्स ओके!...पर आइंदा ध्यान रहे कि ऑफिस टाइम में सोना नहीं..."
"जी डैड!"
"ऑफिस टाइम में डैड नहीं कहोगे तुम मुझे..."
"सॉरी!...सर"
"शीट्स पूरी हो गईं।" मिस्टर बवेजा ने जैसे ही यह पूछा तो उत्कर्ष के चेहरे की हवाइयाँ उड़ गईं। उसने तो कोई शीट पूरी नहीं की थी, बल्कि उसे तो पता ही नहीं चला था कि वह कब सो गया था।
"सर वो...वो..." उत्कर्ष ने परेशान होकर अपने सिर पर हाथ रखा। मिस्टर बवेजा ने एक नज़र उसे देखा और फिर टेबल पर रखी शीट्स उठाकर उन्हें चेक करने लगे। यह देखकर उत्कर्ष ने अपना सिर झुका लिया। क्योंकि वह जानता था, अब पक्का डाँट पड़ेगी।
"ब्रिलियंट माय बॉय!... " मिस्टर बवेजा उसका डाटा देख काफी खुश हुए थे। उन्होंने धीरे से उसके कंधे को थपथपा दिया।
उत्कर्ष ने चौंकते हुए उनकी ओर देखा। जबकि वह वर्कशीट्स पर डाटा देख रहे थे। उत्कर्ष ने उन शीट्स पर झाँककर देखा तो उन पर काफी अच्छे से सब लिखा हुआ था। वह कन्फ्यूज़ हुआ क्योंकि वह अच्छे से जानता था कि यह सब उसने नहीं किया था। उसने उसी कन्फ्यूज़न में मोह की तरफ़ देखा, जो अपने पर्स में अपनी चीज़ें रख रही थी। क्योंकि अब तो ऑफिस टाइम ख़त्म होने वाला था।
"क्या मेरा काम इसने किया...लेकिन क्यों...?" उत्कर्ष मन-ही-मन बोला।
"ठीक है। उत्कर्ष मैं घर जा रहा हूँ। तुम मोह को उसके घर छोड़कर आ जाना..." मिस्टर बवेजा केबिन से बाहर जाते हुए बोले।
"सर इसकी ज़रूरत नहीं है।" मोह ने तुरंत कहा। मिस्टर बवेजा दरवाज़े पर जाकर रुके और मोह की ओर देखकर बोले,
"ज़रूरत है। और आगे तुम एक भी शब्द नहीं कहोगी। और वैसे भी आजकल उत्कर्ष के पास कुछ खास काम नहीं है।"
उनकी बात सुन मोह कुछ नहीं बोली, लेकिन उत्कर्ष फिर से चिढ़ गया था।
क्रमश:
"तुमने मेरा काम किया…?" कार में काफ़ी देर की ख़ामोशी के बाद उत्कर्ष ने बात शुरू करते हुए कहा।
"हम्मम!" मोह ने धीरे से कहा।
"लेकिन क्यों…?"
"ताकि आपको डाँट न पड़े। और वैसे भी कल आपने और सर ने मेरी बहुत हेल्प की, जो मेरे लिए बहुत बड़ी बात है। शायद ही मैं आप दोनों का अहसान चुका सकूँ। वरना अगर मैं अकेली होती तो शायद ही इतना सब कर पाती। (थोड़ा रुककर) आई नो की, जो आप लोगों ने मेरे लिए… मेरे इतने टफ टाइम में किया, उसका अहसान तो नहीं चुका सकती पर थोड़ी मदद तो कर सकती हूँ। और यही सोचकर मैंने आपका काम किया, जो सर ने आपको दिया हुआ था।" मोह ने काफ़ी सहजता से कहा, जबकि सहसा ही उसकी आँखें हलकी नम पड़ चुकी थीं, जिसे उसने फ़ौरन पोछ लिया था। लेकिन उसकी पनीली आँखें उत्कर्ष से छुपी नहीं थीं।
"थैंक्यू!" उत्कर्ष ने बिना उसकी तरफ़ देखे बस इतना ही कहा। लेकिन अंदर-ही-अंदर उसे काफ़ी गिल्टी फील हो रहा था कि वह सुबह से ही उसके साथ सही से बर्ताव नहीं कर रहा था, जबकि उसके मन में तो कोई द्वेष भी नहीं था। लेकिन क्यों…? वह तो सही से जानता तक नहीं था उसे। फिर भी उसके साथ अजीब सा बर्ताव कर रहा था। शायद इसका एक बड़ा कारण यह था कि मिस्टर बवेजा ने मोह को कुछ ज़्यादा ही अहमियत दे दी थी, और उसे नहीं… शायद वह उससे जलन महसूस कर रहा था। कि उसके पापा होकर वह मोह की इतनी बड़ाई क्यों कर रहे हैं? क्यों उसे इतनी इम्पोर्टेंस दे रहे हैं? उन्हें तो उसे इम्पोर्टेंस… उसकी बड़ाई… उसको अहमियत देनी चाहिए। इसलिए ही वह अजीब सा बर्ताव कर रहा था उसके साथ, क्योंकि अच्छा नहीं लग रहा था उसे।
"हाँ! बस यहीं रोक दो… मुझे यहाँ से थोड़ा काम है, मैं चली जाऊँगी।" मोह ने जैसे ही कहा, तो उत्कर्ष अपने ख्यालों से बाहर आया। उसने एक साइड करके कार रोकी।
"थैंक्यू!… मुझे यहाँ तक ड्रॉप करने के लिए…" कहते हुए मोह कार का दरवाज़ा खोल वहाँ से चली गई।
उसके जाने के बाद उत्कर्ष ने भी अपनी कार घर की तरफ़ मोड़ ली। कुछ देर बाद जैसे ही वह घर पहुँचकर अंदर आया, तो सब हॉल में ही चाय पी रहे थे।
"हे भाई!… आइए, थोड़ा साथ में बैठते हैं।" चिराग़ बवेजा, यानी उत्कर्ष के चचेरे भाई ने उत्कर्ष को देखकर मुस्कुराते हुए कहा। तो उत्कर्ष भी मुस्कुराता हुआ उन सबकी तरफ़ बढ़ गया। इस वक्त वहाँ वसुंधरा बवेजा, यानी उत्कर्ष की मम्मी, मिस्टर बवेजा, परिधि बवेजा, यानी उत्कर्ष की चचेरी बहन, चिराग़ और नीता बवेजा, यानी उत्कर्ष की चाची, यह सभी बैठे थे। वही उत्कर्ष के चाचा उनके साथ नहीं रहते थे क्योंकि नीता जी के साथ शादी में होते हुए भी उन्होंने किसी और लड़की से शादी कर ली थी, तो इसलिए उत्कर्ष के दादा जी ने उन्हें घर, अपने खानदान से और अपनी प्रॉपर्टी से बेदखल कर दिया था। तब से ही वह अपनी दूसरी बीवी और बच्चों के साथ कहीं और रहते हैं।
"छोड़ आए मोह को सही से…?" मिस्टर बवेजा ने अपनी चाय पीते हुए उससे पूछा।
"जी पापा!" उत्कर्ष वसुंधरा जी के पास बैठता हुआ बोला और उसने अपना सिर उनकी गोद में रख लिया।
"मेरा बच्चा तो एक दिन में ही थक गया।" वसुंधरा जी ने उत्कर्ष के सिर में हाथ फेरते हुए कहा। तो मिस्टर बवेजा उत्कर्ष पर तंज करते हुए बोले, "इसने कुछ नहीं किया है। पूरा दिन यह सिर्फ़ ऑफ़िस में सोया है।"
"नहीं पापा मैंने काम…" उत्कर्ष ने बोलना चाहा, लेकिन मिस्टर बवेजा ने उसकी बात को बीच में ही काट दिया और सख़्ती से बोले, "२ साल से भी ज़्यादा का समय हो गया है मोह को हमारी कंपनी में काम करते हुए। उस बच्ची की राइटिंग मैं काफ़ी अच्छे से पहचानता हूँ। जो डाटा तैयार किया था वह तुमने नहीं, बल्कि मोह ने किया था। मैं देखकर ही पहचान गया था, लेकिन मैंने मोह के सामने यह जानबूझकर शो नहीं किया कि मुझे सच्चाई पता है। तुम खुद ही देख लो कि वह बच्ची कैसे तुम्हारी मदद कर रही है, लेकिन तुम्हें बोलने की तमीज़ ही नहीं है। पूरा दिन मैंने अपने केबिन में बैठकर तुम पर ही नज़र रखी थी, क्योंकि मैं तुम्हें बता दूँ कि हमारे ऑफ़िस में हर तरफ़ कैमरास लगे हुए हैं।"
मिस्टर बवेजा की बात सुनकर उत्कर्ष ने मुँह बना लिया।
"वैसे दीदी!… बहुत बुरा लगा मुझे उस बच्ची के लिए। बताओ पहले तो बाप का साया सिर से उठ गया और अब माँ भी छोड़ गई।" नीता जी ने मोह के लिए दया भाव दिखाते हुए कहा। तो वसुंधरा जी ने अपनी गर्दन हिलाई, "सच कहाँ तुमने नीता। पर कहते हैं ना कि भगवान की माया वही जाने। इंसान तो बस उसके हाथ की कठपुतली है, जो उसने लिखा है वही होगा। और वैसे भी जो इस दुनिया में आया है, एक-ना-एक दिन उसे यहाँ से जाना ही है।"
"हम्मम!" वसुंधरा जी ने हुकारा भरा।
वह सभी बातें कर ही रहे थे। वहीं उत्कर्ष के दिमाग़ में इस वक्त सिर्फ़ मोह का ख्याल घूम रहा था।
क्रमश:
मोह जैसे ही घर आई, उसे घर के बाहर उनका मकान मालिक खड़ा मिला। यह देख मोह के माथे पर बल पड़ गए।
"अंकल आप यहां...?" मोह ने उनसे पूछा।
"हाँ, मुझे तुम्हें यह बताना है कि अब तुम यह घर खाली कर दो क्योंकि एक दूसरा परिवार यहां रहने आ रहा है।" मकान मालिक ने कहा। उनकी बात सुनकर मोह के सिर पर जैसे आसमान फट गया। वह तुरंत बोली, "पर अंकल, यहां तो हम रह रहे हैं। किराया भी हम समय पर दे रहे हैं। फिर भी आप हमें यहां से जाने के लिए कह रहे हैं? ऐसा मत कीजिए। हम कहाँ जाएँगे...? हमारे पास तो खुद का घर भी नहीं है..."
"वह सब मुझे नहीं पता। मैं बस तुम्हें यही बताने आया था कि दो दिन का समय है तुम्हारे पास। जल्दी से घर खाली करो और अपने लिए कोई दूसरा घर ढूँढ लो क्योंकि मैं दूसरे परिवार को हामी भर चुका हूँ और वे दो दिन बाद यहां शिफ्ट हो जाएँगे।" मकान मालिक ने सपाट लहजे में कहा। मोह सन्न सी हो गई।
मकान मालिक वहाँ से चला गया। उसके जाने के बाद, मोह ने थके कदमों के साथ दरवाज़ा खोला और घर के अंदर आ गई। उसने पनीली आँखों से पूरे घर को देखा। एक के बाद एक मुश्किलें जैसे उसकी ज़िन्दगी में आती जा रही थीं। अब उसे समझ नहीं आ रहा था कि कहाँ जाए क्योंकि उसके पास कोई ठिकाना ही नहीं था। और दो दिन के अंदर घर ढूँढना उसके लिए इम्पॉसिबल था, वह भी इतने बड़े मुंबई शहर में। क्योंकि जब वह पुणे से मुंबई आई थी, तो बड़ी मुश्किल से यह घर मिला था। और आज वह भी उससे छिनने वाला था।
उसने एक गहरी साँस ली और अगले ही पल अंदर कमरे की तरफ बढ़ गई। क्योंकि यूँ हार मानने से कुछ नहीं हो सकता था। न घर मिल सकता था और न उसकी सामने खड़ी यह घर वाली मुसीबत हल हो सकती थी। अब उसे ही खुद के लिए कोई हल निकालना था।
उधर, बवेजा हाउस इस वक्त अंधेरे में डूबा हुआ था। सब डिनर करके अपने-अपने कमरों में जा चुके थे। वहीं मिस्टर बवेजा, आँखों पर नज़र का चश्मा लगाए, बेड पर बैठे एक किताब पढ़ रहे थे। वसुंधरा जी उनके पास ही बैठी कुछ सोच रही थीं।
"कोई समस्या है...?" मिस्टर बवेजा ने अपनी नज़रें किताब से हटाकर उनकी तरफ कीं।
"जी!... समस्या तो है।" कहते हुए वह पूरी उनकी ओर मुँह करके बैठीं।
मिस्टर बवेजा ने अपने हाथ में पकड़ी किताब को बंद करके साइड में रखा और उनकी तरफ ध्यान से देखने लगे। तो वसुंधरा जी धीरे से बोलीं,
"मैंने आपको शाम में किसी से बात करते हुए सुन लिया था..."
"किससे...?"
"मोह के मकान मालिक से... (थोड़ा रुक कर) मुझे नहीं समझ आया कि आप मोह को उस घर से क्यों निकलवाना चाहते हैं। अरे! अभी तो उस बच्ची ने अपनी माँ खोई है। आप यह बात अच्छे से जानते हैं कि इतने बड़े मुंबई शहर में घर ढूँढना कोई खेल नहीं... अगर वह उस घर से निकली तो कहाँ जाएगी बेचारी...? क्यों आप चाहते हैं कि वह दर-दर की ठोकरें खाए...? आखिर क्यों सुनील जी...?" कहते हुए उनके चेहरे पर मोह के लिए सहानुभूति का भाव था। वहीं उनकी बात सुन मिस्टर बवेजा यानी सुनील जी के चेहरे के भाव जरा भी नहीं बदले। लेकिन उनकी आवाज़ में काफी गंभीरता थी।
"यही सोच कर कि आगे उसे दर-दर की ठोकरें न खानी पड़ें, वसुंधरा जी..."
"मैं कुछ समझी नहीं...?" मिस्टर बवेजा की बात कुछ समझ नहीं आई उन्हें। तो वह हल्का सा मुस्कुराए और आगे बोले, "मैं चाहता हूँ कि मोह हमारे घर में आकर रहे..."
"क्या...? पर क्यों...?" वह हैरान हुईं।
"हाँ, मैंने सोचा है कि मैं मोह की शादी उत्कर्ष से करवा दूँ। ताकि उस बच्ची को आगे कुछ भी फेस न करना पड़े। वह हमारे घर रहे... हमारी फैमिली बनकर। इससे उसे भी महसूस नहीं होगा कि उसका इस दुनिया में कोई नहीं और मेरे सिर से उसकी सेफ्टी की चिंता भी उतर जाएगी।" मिस्टर बवेजा एक साँस में ही बोल गए। वहीं उनकी बात सुनकर वसुंधरा जी किसी सदमे में चली गई थीं क्योंकि उन्हें जरा भी इल्म नहीं था कि मिस्टर बवेजा ऐसा कुछ सोचे बैठे हैं।
"क्या हुआ, आपने कुछ कहा नहीं...?" मिस्टर बवेजा ने वसुंधरा जी की ओर देखकर कहा। तो वसुंधरा जी जैसे अपने होश में आईं। उन्होंने एक गहरी साँस ली और मिस्टर बवेजा के हाथ पर अपना हाथ रखकर काफी सहजता से बोलीं,
"मुझे पता है कि आपको मोह अच्छी लगती है और वह एक अच्छी लड़की भी है, जिसमें कोई संदेह नहीं है। लेकिन उत्कर्ष उससे शादी नहीं करेगा..."
"और आपको ऐसा क्यों लगता है कि उत्कर्ष उससे शादी नहीं करेगा...?"
"क्योंकि उत्कर्ष की सोच और उसकी पसंद बहुत अलग है। सॉरी टू से दिस बट मोह तो बिलकुल भी नहीं है।"
"क्या हो अगर हम उत्कर्ष की पसंद मोह को बना दें...?"
"कहना क्या चाह रहे हैं आप...?"
"यही कि हमें उन दोनों को मौके देने होंगे... जिससे वे दोनों एक-दूसरे को ज़्यादा-से-ज़्यादा जानें... और यही सोचकर मैं चाहता हूँ कि मोह इस घर में आए..."
"अगर आपने सोचा होगा तो कुछ बेहतर ही सोचा होगा। इसमें अब मैं क्या ही कहूँ... खैर! आप जो भी करेंगे, मैं उसमें आपका पूरा-पूरा साथ दूँगी..."
"मुझे आपसे यही उम्मीद थी वसुंधरा जी। देखना, आपकी आगे चलकर मेरा यह फैसला बेहतर ही साबित होगा..." मिस्टर बवेजा ने मुस्कुराकर कहा। तो वसुंधरा जी भी हल्का सा मुस्कुरा दीं।
क्रमश:
अगले ही दिन मोह ने अपना पुराना घर खाली कर दिया और अपना सारा सामान मिस्टर बवेजा के आउट हाउस में शिफ्ट करवा दिया। उत्कर्ष ने उसकी मदद की। उत्कर्ष उसकी मदद करना नहीं चाहता था, लेकिन मिस्टर बवेजा के कहने पर वह उनकी बात टाल नहीं पाया। मोह को उत्कर्ष का यह हेल्पिंग नेचर काफी अच्छा लग रहा था, लेकिन उसने कुछ नहीं कहा। सारा सामान शिफ्ट हो जाने पर, उत्कर्ष कमरे में आता हुआ मोह से कुछ कहने ही वाला था कि मोह की आँखों में आँसू देखकर वह चुप हो गया। मोह अपने पापा और रीना जी (अपनी मम्मी) के फोटो फ्रेम के सामने खड़ी थी, जिस पर फूलों का हार चढ़ा हुआ था। उसकी आँखें नम थीं। उसका जरा भी मन नहीं कर रहा था कि जिस घर में उसने इतने साल बिताए, अपनी मम्मी के साथ इतनी यादें बनाईं, उस घर को छोड़कर जाए। यह घर, हाँ, यह महज़ एक किराए का घर था, लेकिन अपना मानकर रखा था। जज़्बात जुड़े थे इस घर से, लेकिन अब वह यहाँ से जा रही थी, बस दिल भारी सा हो रहा था।
अपनी आँखों के आँसुओं को साफ़ करते हुए, उसने भारी मन से अपने पापा-मम्मी की फोटो फ्रेम दीवार से उतारी और उसे अपने सीने से लगा लिया। जैसे ही वह पीछे मुड़ी, उसने अपने सामने उत्कर्ष को देखा और अपनी जगह पर ही रुक गई। कुछ पल के लिए दोनों की नज़रें मिलीं, लेकिन फिर दोनों ने अपनी नज़रें चुरा लीं। वहाँ की अटपटाहट कम करने के लिए उत्कर्ष ने अपना गला साफ़ किया और बाहर की ओर इशारा करते हुए धीमी आवाज़ में बोला,
"वो... मैं बुलाने ही आया था। मुझे एक काम है, तो तुम्हें घर पर ड्रॉप कर मैं वहीं से निकल जाऊँगा। अब चलें...?"
"हाँ!" मोह ने बस इतना ही कहा। दोनों बाहर आए। मोह ने एक आखिरी बार घर की ओर देखा, उसकी आँखें फिर नम हो गईं।
उत्कर्ष अपनी कार में ड्राइविंग सीट पर बैठ चुका था। जब उसने देखा कि मोह कार में नहीं बैठ रही है, तो उसने हॉर्न बजाया। जिससे मोह की तंद्रा टूटी। उसने जल्दी से अपने आँसू पोछे और एक गहरी साँस लेकर कार का दरवाज़ा खोलकर उत्कर्ष के बराबर वाली सीट पर बैठ गई।
"चलिए..."
मोह ने धीरे से कहा। उत्कर्ष ने अपनी कार स्टार्ट की और अपने घर जाने वाले रास्ते की ओर मुड़ा दिया। कुछ दूर जाने के बाद उत्कर्ष ने बात की शुरुआत करते हुए कहा,
"पता है तुम्हें? जब डैड ने मुझे आगे की पढ़ाई के लिए लंदन भेज दिया था, मेरा जरा भी मन नहीं था कि मैं अपनी फैमिली को छोड़कर जाऊँ। लेकिन इसमें मेरी ही भलाई थी, मैं यह बात जानता था। इसलिए दिल को मज़बूत करके मैं यहाँ से चला गया था। वहाँ जाने के बाद काफी दिनों तक, इनफैक्ट काफी महीनों तक मेरा मन नहीं लगा था। कभी-कभी लगता था कि बस यह सब कुछ छोड़कर यहाँ से वापस चला जाऊँ। जैसे-तैसे खुद को रोके रखा और फिर धीरे-धीरे वहाँ रहने की आदत हो गई। जब मेरी स्टडीज़ कंप्लीट हुई और वापस यहाँ आने का समय हुआ, तो तुम यकीन नहीं करोगी, मेरा मन ही नहीं कर रहा था..."
मोह गौर से उसकी बात सुन रही थी और उसे समझ आ गया था कि उत्कर्ष उसे क्या समझाने की कोशिश कर रहा था। उसने हल्का सा मुस्कुरा कर अपनी गर्दन हिला दी और अपनी महीन सी आवाज़ में बोली,
"आदत जाती-जाती ही जाएगी, लेकिन मैं कोशिश करूँगी कि नए माहौल में एडजस्ट हो पाऊँ।"
"तुम गलत हो, यहाँ डैड के अकॉर्डिंग मिस परफेक्ट..."
"कैसे गलत हुई...?"
"ज़रूरी नहीं कि हर बार माहौल के अकॉर्डिंग खुद को एडजस्ट किया जाए। कभी-कभी माहौल को ही खुद के अकॉर्डिंग बना लेना चाहिए..." उत्कर्ष ने ड्राइविंग करते हुए मुस्कुराकर कहा। मोह हल्का सा मुस्कुरा कर रह गई। उसके बाद न तो मोह ने कुछ कहा और न ही उत्कर्ष ने। दोनों पूरे रास्ते खामोश रहे।
उत्कर्ष ने मोह को घर छोड़ा और खुद किसी काम के लिए वहाँ से चला गया। मोह सीधा आउट हाउस आई, जो घर के आगे ही बना हुआ था। जहाँ पहले से ही उसका सामान मौजूद था। आउट हाउस में दो कमरे थे और एक बड़ा सा हॉल, जिससे ओपन किचन अटैच था। मिस्टर बवेजा ने कहा था कि यह काफी समय से बंद था, लेकिन देखकर जरा भी नहीं लग रहा था कि यह वाकई काफी समय से बंद था। पूरे आउट हाउस की कंडीशन काफी अच्छी थी, मानो कोई नया घर। जैसा उसने सोचा भी नहीं था। उसने सबसे पहले हॉल में एक टेबल पर अपने मम्मी और पापा की फोटो फ्रेम रखी और फिर अपनी कमर पर दुपट्टा कसकर सारा सामान जमाने लगी, जो अभी पैक ही था।
क्रमशः
अगले ही दिन मोह ने अपना पुराना घर खाली कर दिया था और अपना सारा सामान मिस्टर बवेजा के आउट हाउस में शिफ्ट करवा दिया था। उत्कर्ष ने उसकी इसमें मदद की थी। यूँ तो उत्कर्ष उसकी मदद करना नहीं चाहता था, लेकिन मिस्टर बवेजा के कहने पर वह उनकी बात टाल नहीं पाया था। जबकि मोह को उत्कर्ष का यह हेल्पिंग नेचर काफी अच्छा लग रहा था, लेकिन उसने कुछ नहीं कहा। जब सारा सामान शिफ्ट हो गया, तो उत्कर्ष कमरे में आता हुआ मोह से कुछ कहने ही वाला था कि मोह की आँखों में आँसू देखकर वह वापस चुप हो गया। मोह अपने पापा और रीना जी (अपनी मम्मी) के फोटो फ्रेम के सामने खड़ी थी, जिस पर फूलों का हार चढ़ा हुआ था। उसकी आँखें नम थीं। उसका जरा भी मन नहीं कर रहा था कि जिस घर में उसने अपने इतने साल बिताए, अपनी मम्मी के साथ इतनी यादें बनाईं, उनके सुख-दुख का साक्षी था यह घर—हाँ, बेशक यह घर महज एक किराए का था, लेकिन अपना मानकर रखा था। जज़्बात जुड़े थे इस घर से, लेकिन अब यहाँ से जा रही थी, बस दिल भारी सा हो रहा था।
अपनी आँखों में आए आँसुओं को साफ़ करते हुए, उसने उसी भारी मन के साथ अपने पापा-मम्मी की फोटो फ्रेम दीवार से उतारी और उसे अपने सीने से लगा लिया। जैसे ही वह पीछे मुड़ी, उसने अपने सामने उत्कर्ष को देखा और अपनी जगह पर ही रुक गई। लम्हे भर के लिए दोनों की निगाहें मिलीं, लेकिन दोनों ने ही फिर अपनी निगाहें चुरा लीं। वहाँ की अटपटाहट कम करने के लिए उत्कर्ष ने अपना गला साफ़ किया और बाहर की ओर इशारा करते हुए, धीमी सी आवाज़ में बोला,
"वो... मैं बुलाने ही आया था... मुझे एक काम है, तो तुम्हें घर पर ड्रॉप कर मैं वहीं से निकल जाऊँगा... अब चलें...?"
"हाँ!" मोह ने बस इतना ही कहा। दोनों बाहर आए। मोह ने एक आखिरी बार घर की ओर देखा, कि सहसा ही उसकी आँखें फिर नम हो गईं।
उत्कर्ष, जो अपनी कार में ड्राइविंग सीट पर बैठ चुका था, जब उसने देखा कि मोह कार में नहीं बैठ रही है, तो उसने हॉर्न बजाया। जिससे मोह की तंद्रा टूटी। उसने जल्दी से अपने आँसू अपने हाथ से पोछे और एक गहरी साँस लेकर कार का दरवाज़ा खोल, अंदर उत्कर्ष के बराबर वाली सीट पर बैठ गई।
"चलिए..."
मोह ने धीरे से कहा। उत्कर्ष ने अपनी कार स्टार्ट की और अपने घर जाने वाले रास्ते की ओर मोड़ दी। कुछ दूर जाने के बाद उत्कर्ष ने ही बात की शुरुआत करते हुए कहा,
"पता है तुम्हें? जब डैड ने मुझे आगे की पढ़ाई के लिए लंदन भेज दिया था, मेरा ना थोड़ा सा भी मन नहीं था कि मैं अपनी फैमिली को छोड़कर जाऊँ, लेकिन इसमें मेरी ही भलाई थी, मैं यह बात जानता था। इसलिए दिल को मज़बूत कर मैं यहाँ से चला गया था। वहाँ जाने के बाद काफी दिनों तक, इनफैक्ट काफी महीनों तक मेरा मन ही नहीं लगा था। कभी-कभी लगता था कि बस यह सब कुछ छोड़कर यहाँ से वापस चला जाऊँ। जैसे-तैसे खुद को रोके रखा और फिर धीरे-धीरे वहाँ रहने की ऐसी आदत हुई कि जब मेरी स्टडीज़ कंप्लीट हुई और वापस यहाँ आने का टाइम हुआ, तो तुम यकीन नहीं करोगी, मेरा मन ही नहीं कर रहा था..."
मोह काफी गौर से उसकी बात सुन रही थी और उसे समझ भी आ गया था कि उत्कर्ष उसे क्या समझाने की कोशिश कर रहा था। उसने हल्का सा मुस्कुराकर अपनी गर्दन हिला दी और अपनी काफी महीन सी आवाज़ में बोली,
"आदत जाती-जाती ही जाएगी, लेकिन मैं कोशिश करूँगी कि नए माहौल में एडजस्ट हो पाऊँ।"
"तुम गलत हो, यहाँ डैड के अकॉर्डिंग मिस परफेक्ट..."
"कैसे गलत हुई...?"
"ज़रूरी नहीं कि हर बार माहौल के अकॉर्डिंग खुद को एडजस्ट किया जाए... कभी-कभी माहौल को ही खुद के अकॉर्डिंग बना लेना चाहिए..." उत्कर्ष ने ड्राइविंग करते हुए मुस्कुराकर कहा। मोह भी बस हल्का सा मुस्कुराकर रह गई। उसके बाद ना तो मोह ने कुछ कहा और ना उत्कर्ष ने। दोनों पूरे रास्ते एकदम खामोश रहे।
उत्कर्ष ने मोह को घर छोड़ा और खुद किसी काम के लिए वहाँ से चला गया। मोह सीधा आउट हाउस आई, जो कि घर के आगे की साइड ही बना हुआ था। जहाँ पहले से ही उसका सामान मौजूद था। आउट हाउस में दो कमरे थे और एक बड़ा सा हॉल, जिससे ओपन किचन अटैच था। मिस्टर बवेजा ने कहा था कि यह काफी टाइम से बंद था, लेकिन देखकर जरा भी नहीं लग रहा था कि यह वाकई काफी टाइम से बंद था। पूरे आउट हाउस की कंडीशन काफी अच्छी थी, मानो कोई नया घर। जैसा उसने सोचा भी नहीं था। उसने सबसे पहले हॉल में ही एक टेबल पर अपने मम्मी और पापा की फोटो फ्रेम रखी और फिर अपनी कमर पर अपने दुपट्टे को कसकर सारा सामान जमाने लगी, जो अभी पैक ही था।
क्रमशः
"वाह बेटा! तुमने आउट हाउस बहुत अच्छे से सेट किया है।" ऑफिस से आने के बाद मिस्टर बवेजा अपनी पत्नी वसुंधरा जी के साथ शाम की चाय लेकर आउट हाउस में आ गए थे। दरवाज़ा खुला हुआ था, इसलिए दोनों अंदर आ गए।
मोह अभी भी बचा हुआ काम कर रही थी। आवाज़ सुनकर वह रुकी और दरवाज़े की ओर मुड़कर देखा। वहाँ मिस्टर बवेजा और वसुंधरा जी खड़े थे। मोह हल्का सा मुस्कुराई और सबसे पहले अपना दुपट्टा ठीक किया।
"अरे सर, ऐसी बात नहीं है! ये तो पहले ही काफी खूबसूरत है।"
"नहीं, इतना भी नहीं था। अच्छा, क्या तुम यहां आराम से रह लोगी? कोई दिक्कत तो नहीं है यहां?"
"नहीं सर! मुझे यहां कोई दिक्कत नहीं होगी। मैं यहां आराम से रह लूँगी।"
"अच्छा बेटा जी! अब ये सारी बातें छोड़ो और देखो! मैं तुम्हारे लिए चाय लाई हूँ।" कहते हुए वसुंधरा जी सोफ़े की ओर बढ़ गई थीं।
"मैम, इसकी ज़रूरत नहीं है..." मोह थोड़ी झिझक गई।
"सबसे पहले तो तुम मुझे मैम कहना बंद करो। मैं तुम्हारी कोई मैम नहीं हूँ। तुम मुझे आंटी कहो, मुझे ज़्यादा अच्छा लगेगा।"
"ओके आंटी।"
"और ऐसे कैसे ज़रूरत नहीं थी? तुम सुबह से लगी हुई हो। चाय पीओगी तो थोड़ी थकान कम होगी..." वसुंधरा जी ने मोह का हाथ पकड़कर उसे सोफ़े पर बिठाया और एक चाय का कप उसके हाथ में पकड़ाया।
"आराम से पियो.... (मिस्टर बवेजा की ओर देखकर) आप भी बैठ जाइए, वरना आपकी चाय भी ठंडी हो जाएगी। और पहले ही बता रही हूँ, दोबारा गर्म करके मैं नहीं लाऊँगी।" वसुंधरा जी ने अपनी नाक सिकोड़ते हुए कहा। मिस्टर बवेजा मुस्कुराकर उनके पास बैठ गए।
हल्की-फुल्की बातों के बीच तीनों ने अपनी चाय खत्म की। उसके बाद वसुंधरा जी वहाँ से जाने लगीं, तभी उन्हें कुछ याद आया। वह अपने सिर पर हाथ रखकर रुकीं और मोह की ओर देखकर बोलीं-
"मोह! बेटा, आज रात तुम हम सबके साथ डिनर करोगी। अब देखो, मना तो करना ही मत... हम सबको अच्छा लगेगा।"
मोह अब क्या कहती? उसे कोई बहाना भी नहीं सूझ रहा था। बस उसने गर्दन हिला दी। वसुंधरा जी मुस्कुराकर वहाँ से चली गईं। उनके जाने के बाद मोह ने ज़्यादा कुछ नहीं सोचा और अपना बाकी बचा हुआ काम करने लगी। सारा सामान अपनी-अपनी जगह पर रखने के बाद मोह को लगा कि उसे नहा लेना चाहिए। उसने अपना एक लाइट पिंक कलर का सूट निकाला और उसे लेकर बाथरूम में आ गई। जैसे ही उसने बाल्टी भरने के लिए पानी का टैप चालू किया, लेकिन उसमें से एक बूंद पानी तक नहीं आया। यह देख मोह ने उस टैप पर हल्के हाथ से मारा, इस उम्मीद में कि शायद कुछ अटका हुआ हो जो हट जाए और पानी आ जाए। लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ, शायद टंकी में ही पानी नहीं था।
"हे भगवान! अब ये क्या नई मुसीबत है..." कहते हुए मोह अपने कपड़े लेकर वापस बाथरूम से बाहर आ गई। तभी किसी ने दरवाज़ा खटखटाया। मोह ने जाकर देखा, तो सामने वसुंधरा जी खड़ी थीं।
"हाँ बेटा, वो मैं तुम्हें बताना भूल गई कि यहां की वाटर सप्लाई बंद है। हमें ज़रूरत नहीं होती थी, इसलिए कभी चालू नहीं करवाई। वैसे मैंने प्लंबर को कॉल कर दिया था, लेकिन वो कह रहा है कि कल ही आना पॉसिबल होगा..." वसुंधरा जी ने जैसे ही यह कहा, मोह का चेहरा लटक सा गया।
"लेकिन मुझे शॉवर लेना था।"
"तो इसमें उदास होने वाली कौन सी बात हुई? तुम मेरे साथ चलो। यहां की सप्लाई बंद है, हमारे घर की तो नहीं..." वसुंधरा जी ने कहा।
"जी..." मोह ने अपना सिर हिला दिया। अब इसके अलावा उसके पास कोई और रास्ता भी नहीं था। वह वसुंधरा जी के साथ अंदर आई। अंदर आने के बाद मोह को कोई नज़र नहीं आया, तो वह पूछ बैठी-
"आंटी, क्या आप तीन ही लोग यहां रहते हैं?"
"नहीं बेटा! हम तीनों के अलावा यहां मेरी देवरानी नीता और उसके बच्चे, चिराग और परिधि रहते हैं। नीता किचन में है और चिराग, परिधि अपने-अपने रूम में हैं, इसलिए तुम्हें कोई नज़र नहीं आ रहा..." वसुंधरा जी ने काफी सहजता से कहा। मोह ने फिर आगे कुछ नहीं पूछा।
"यहां से सीढ़ियाँ हैं, तुम लेफ्ट साइड चली जाना, वहां से सेकंड वाला रूम है। तुम आराम से शॉवर लो..."
"थैंक्यू आंटी।" मोह ने उनका शुक्रिया अदा किया और सीढ़ियों से होते हुए उसी कमरे में आ गई जो वसुंधरा जी ने बताया था। पूरे कमरे में काफी अंधेरा था, लेकिन इतना भी नहीं कि वह कुछ देख न पा रही हो। फिर बिना कमरे की लाइट्स ऑन किए वह सीधा बाथरूम में चली गई शॉवर लेने।
नीचे, वसुंधरा जी हॉल में सोफ़े पर बैठी मुस्कुरा कर सीढ़ियों की ओर देख रही थीं। उनके चेहरे से साफ़ लग रहा था कि उनके मन में कुछ चल रहा था।
"मॉम! आप यहां अकेली क्यों बैठी हैं?" उत्कर्ष हॉल में आते हुए बोला। वसुंधरा जी उठती हुई मुस्कुराकर बोलीं-
"बस यूँ ही! मैं तो किचन में ही जा रही थी। तुम्हारे लिए कुछ ले आऊँ?"
"नहीं मॉम! मैं चेंज करके आता हूँ।" कहते हुए उत्कर्ष सीढ़ियों की ओर बढ़ गया। वसुंधरा जी उसे जाते हुए देख मुस्कुरा दीं।
क्रमशः
कपड़े बदलने को कहकर उत्कर्ष सीढ़ियाँ चढ़ते हुए अपने कमरे में आया था। आज उसे यह बात अजीब लगी कि बाहर का दरवाज़ा पहले ही खुला हुआ था, जबकि ऐसा सामान्यतः नहीं होता था। जब भी वह अपने कमरे में आता था, उसका दरवाज़ा बाहर से बंद मिलता था, पर आज ऐसा नहीं था। फिर भी, इस बात को ज़्यादा न सोचते हुए वह अंदर आया और सबसे पहले कमरे की लाइट्स ऑन कीं। उसने अपनी जेब से फ़ोन और अपना पर्स निकालकर बेड पर रखा। कलाई पर बंधी घड़ी को उतारकर बेड पर ही रख दिया। पैरों में पहने जूते कमरे के किसी कोने में ही थे। फिर अपनी ही धुन में एक हाथ से शर्ट के बटन खोलते हुए वॉर्डरोब की ओर बढ़ गया। उसने अपने लिए एक व्हाइट टीशर्ट और एक ब्लैक ट्राउज़र निकाली और वहीं खड़ा हुआ कपड़े बदलने लगा।
उसी कमरे के बाथरूम में शॉवर ले चुकी मोह को जब बाहर से आहट सुनाई दी, तो उसने तुरंत अपने गीले बालों को तौलिये में लपेटा और बाथरूम से बाहर आ गई। लेकिन! कमरे में आते ही सामने उत्कर्ष को शर्ट-पैंट के बिना देखकर उसकी आँखें हैरानी से बड़ी हो गईं। उसके हाथ से कपड़े छूटकर नीचे फर्श पर गिर गए, और चिल्लाते हुए उसने तुरंत अपनी आँखों पर हाथ रख लिया। किसी के चिल्लाने की आवाज़ सुनकर उत्कर्ष हड़बड़ी में पीछे मुड़ा। वहाँ मोह को देखकर कुछ पल के लिए वह सोचता रहा कि यह क्या हो रहा है, लेकिन! अगले ही पल उसे समझ आ गया कि मोह क्यों चिल्लाई थी। मोह ने शॉर्ट्स पहनी हुई थीं, लेकिन! फिर भी उसे अजीब लग रहा था। उसने जल्दी-जल्दी अपने कपड़े पहने और मोह की ओर बढ़ते हुए हल्के गुस्से में बोला,
"तुम यहां मेरे रूम में क्या कर रही हो..?"
"मुझे क्या पता था यह आपका रूम है..." मोह थोड़ा झुंझलाकर बोली, हालाँकि उसने अभी भी अपनी आँखों से हाथ नहीं हटाया था।
"सबसे पहले तो तुम अपनी आँखों से हाथ हटाओ। मैंने कपड़े पहन लिए हैं..." उत्कर्ष की यह बात सुनकर मोह ने धीरे से हाथ हटाया और ध्यान से उत्कर्ष की ओर देखा। वाकई उसने कपड़े पहन लिए थे।
"मुझे थोड़ी ही पता था कि यह आपका रूम है। मैं तो यहां शॉवर लेने आई थी...क्योंकि! आउट हाउस की वाटर सप्लाई अभी चालू नहीं हुई है और मुझे शॉवर लेना था, तो आंटी ने मुझे कहा कि मैं यहां आकर शॉवर ले लूँ।"
"तो तुम मेरे ही रूम में क्यों आई? तुम किसी और रूम में भी जा सकती थी..." उत्कर्ष ने गुस्से में कहा। तो मोह भी तुनककर बोली,
"मुझे कैसे पता होगा कि यह आपका रूम है? आंटी ने मुझे कहा कि सीढ़ियों से लेफ्ट जाकर जो दूसरा रूम है वहाँ शॉवर ले लेना। तो मैं आ गई। और इसमें इतना चिल्लाने वाली कोई बात नहीं है। सारी गलती आपकी है। आई बात समझ में आपको? कोई ऐसे कपड़े बदलता है भला...? यूँ सरेआम...?"
"मेरा कमरा है, मैं कैसे भी कपड़े बदलूँ, इससे तुम्हें क्या प्रॉब्लम है...? और इसमें गलती मेरी नहीं, बल्कि सारी गलती तुम्हारी है क्योंकि! मैंने तुम्हें नहीं, तुमने मुझे देखा। हुई ना गलती तुम्हारी... और दूसरी बात कि मुझे नहीं पता था कि तुम यहां मेरे कमरे में मौजूद होंगी..."
"ओह्ह्! मिस्टर...ये गलती का लेक्चर हमें ना पढ़ाओ तो बेहतर है।"
"हाँ तो शुरू किसने किया था?"
"गलती हो गई (हाथ जोड़कर) माफ़ करें हमें।"
"ओके, माफ़ किया। लेकिन! याद रखना कि आइंदा मेरे रूम में आकर शॉवर लेने की ज़रूरत नहीं है क्योंकि! यह मेरा रूम है, ना कि किसी होटल का कोई रूम..." उत्कर्ष ने काफी सख्ती से कहा। मोह ने उसे घूरा और नीचे झुककर फर्श से गिरे अपने कपड़े उठाते हुए उत्कर्ष की ओर देखते हुए बोली,
"हाँ तो मुझे भी कोई शौक नहीं। एक तो मेरी मजबूरी थी और दूसरा मुझे पता नहीं था कि यह रूम आपका है। वरना मैं यहां बिल्कुल भी नहीं आती.. हुंह!" मोह ने नाक सिकोड़ा और वहाँ से पैर पटकती हुई चली गई।
मोह के जाने के बाद उत्कर्ष ने एक गहरी साँस ली और खुद को सामान्य करते हुए सीधा किचन में आ गया जहाँ वसुंधरा जी और नीता जी दोनों रात के खाने की तैयारी कर रही थीं।
"मॉम, आपने उस लड़की को मेरे कमरे में क्यों भेजा नहाने के लिए? क्या पूरे घर में बाथरूम नहीं है..?"
"तो क्या हो गया बेटा? इसमें इतना गुस्सा करने वाली कौन सी बात हुई..?"
"आपको पता है ना कि मुझे अच्छा नहीं लगता जब कोई मेरे रूम में आता है, मेरी चीजों को छूता है।"
"पता नहीं तुम्हारा आगे जाकर क्या होगा। किसी को बर्दाश्त भी कर पाओगे या नहीं..?" वसुंधरा जी झुंझलाकर बोलीं।
"दीदी बिल्कुल सही कह रही हैं। तुम तो आगे चलकर अपनी बीवी को भी बर्दाश्त नहीं कर पाओगे ऐसे तो...वह तो तुम्हारे कमरे में भी रहेगी, तुम्हारी चीजों को भी छूएगी, तुम्हें भी छूएगी। क्या तब भी ऐसे ही गुस्सा करोगे..?" नीता जी ने वसुंधरा जी की बात में सहमति जताई।
"तब-का-तब देख लूँगा चाची, लेकिन! वह लड़की मेरी बीवी नहीं है, जो मैं उसे मेरे कमरे में आने का हक दूँ।"
"नहीं है तो क्या हुआ? बन जाएगी..?" वसुंधरा जी ने मुस्कुराकर कहा, लेकिन मन में सोच रही थीं कि पहले ही सबको सब बताकर वह सब कुछ चौपट तो नहीं कर सकती थीं ना। फिर उत्कर्ष से बोलीं, "मैं आगे ध्यान रखूंगी, ओके..."
"हम्मम! बहुत जोर की भूख लगी है मॉम। जल्दी खाना बना दीजिए..." उत्कर्ष फिर सामान्य हो चुका था। वसुंधरा जी ने बस अपनी गर्दन हिला दी।
क्रमशः
बवेजा हाउस में सभी डाइनिंग टेबल पर बैठकर अपना-अपना डिनर कर रहे थे। उत्कर्ष, मोह को घूर रहा था, जो उसके सामने दूसरी तरफ़ आराम से खाना खा रही थी। परिधि ने यह देखकर उत्कर्ष को कोहनी मारी और फुसफुसाई,
"इतनी पसंद आ गई है भाई आप को क्या? जो आपकी नज़र उससे एक पल के लिए भी नहीं हट रही?"
"ऐसा कुछ नहीं है।"
"तो कैसा है भाई?"
"अरे यार! पता नहीं मॉम को क्या पड़ी है, ऐसे किसी को भी डिनर के लिए इनवाइट कर लेती है क्या? इससे फैमिली की प्राइवेसी डिस्टर्ब होती है। लेकिन इन्हें कौन समझाए?"
"भाई, दिस इज नॉट लंदन, बट इंडिया! दिस इज व्हाट हैपेंस हेयर एंड हेयर नॉट प्राइवेसी इज डिस्टर्ब व्हेन यू इनवाइट समवन फॉर डिनर। 'अतिथि देवो भव' नहीं सुना क्या? क्या फिर भूल गए? मेहमान भगवान समान होता है यहां..." परिधि मुस्कुराई। उत्कर्ष ने मुँह बिगाड़ लिया।
"कीप योर यूजलेस नॉलेज टू योरसेल्फ, खाना खाने दे।"
"तो मैंने कौन सा आपका हाथ पकड़ा हुआ है? खा लो खाना।" परिधि ने भी मुँह बनाया और फिर से खाने में व्यस्त हो गई। अब उत्कर्ष भी मोह से अपना ध्यान हटाकर शांति से खाना खाने लगा।
खाना खाने के बाद मोह अपने आउट हाउस चली गई। चिराग और परिधि, उत्कर्ष को लेकर गार्डन में आ गए ताकि कुछ पल गप्पे मार सकें। उन्हें ऐसा मौका बहुत कम मिलता था। उत्कर्ष अक्सर मना कर देता था क्योंकि उसे ज़्यादा बातें करना पसंद नहीं था। वह अपने में ही मस्त रहता था; उसे किसी से बात करने की ज़रूरत ही नहीं महसूस होती थी, जब तक उसे ज़रूरत नहीं होती थी। थोड़ा अजीब सा था, लेकिन ऐसा ही था वह।
तीनों गार्डन में आकर कुर्सियों पर बैठ गए और पुराने और नए किस्से एक-दूसरे के साथ साझा करने लगे। ना चाहते हुए भी, उत्कर्ष की नज़रें बार-बार आउट हाउस के बंद दरवाज़े पर रुक जाती थीं। गार्डन आउट हाउस के ठीक सामने था; या यूँ कहें कि उनके घर और आउट हाउस के बीच में एक छोटा सा, प्यारा सा और बहुत ही खूबसूरत सा गार्डन था।
कमरे की लाइट्स बंद करके जैसे ही मोह बिस्तर पर लेटी, उसे बाहर से तीनों की आवाज़ें आने लगीं। यह जगह उसके लिए नई थी, जिस कारण उसे नींद नहीं आ रही थी। यहाँ तक कि कोशिश करने पर भी, तीनों की आवाज़ें उसकी नींद उड़ा देती थीं। काफी देर कोशिश करने के बाद भी जब उसे नींद नहीं आई, तो वह बिस्तर से उठी और खिड़की के पास आकर खिड़की खोली, जो गार्डन की तरफ़ खुलती थी। उसकी नज़र बेसाख़्ता ही तीनों पर जा रुकी।
खिड़की के खुलने की आवाज़ सुनकर परिधि ने भी आउट हाउस की तरफ़ देखा, तो उसे मोह खिड़की पर खड़ी दिखाई दी। वह मुस्कुराई और मोह को उनके पास आने का इशारा किया। मोह को नींद नहीं आ रही थी, इसलिए वह उनके पास आ गई थी। लेकिन वहाँ तीन ही कुर्सियाँ थीं, जिस पर तीनों पहले ही बैठे थे। चिराग और परिधि ने एक साथ उत्कर्ष की तरफ़ देखा। उत्कर्ष ने अपनी गर्दन ना में हिलाई, मानो कह रहा हो, "मैं नहीं उठने वाला अपनी चेयर से।" उत्कर्ष का इशारा समझकर चिराग अपनी कुर्सी से उठा और मोह की तरफ़ देखकर मुस्कुराया,
"मोह, आप यहाँ बैठ जाइए।"
"नहीं, आप बैठिए! मैं ठीक हूँ।"
"नहीं, प्लीज़, बैठिए।" चिराग ने उसे ज़ोर दिया। वह आराम से चिराग की कुर्सी पर बैठ गई, जबकि चिराग परिधि की कुर्सी के पीछे खड़ा हो गया, उसकी कुर्सी को पकड़कर।
"क्या आपको नींद नहीं आ रही मोह?"
"नहीं, काफी कोशिश भी की कि नींद आ जाए, लेकिन आई ही नहीं।" मोह एक ठंडी आह भरते हुए बोली।
"कोई नहीं, होता है कभी-कभी।" चिराग मुस्कुराते हुए बोला।
"अच्छा, वैसे आप सब यहाँ क्या कर रहे हैं? मीन, क्या आप सबको नींद नहीं आ रही?" मोह ने सबकी ओर देखकर यह सवाल किया। परिधि मुस्कुराकर बोली,
"हमने सोचा कि आज डिनर के बाद थोड़ी बातें हो जाएँ। यूँ तो हमें बहुत कम ही समय मिलता है ऐसे बैठकर बातें करने का।"
"सही है। वैसे मैंने आप सभी को डिस्टर्ब तो नहीं किया?"
"डिस्टर्ब करके कहती हो कि डिस्टर्ब नहीं किया? स्ट्रेंज गर्ल..." उत्कर्ष ने मोह को घूरते हुए मन ही मन कहा।
"अरे! बिल्कुल नहीं!" परिधि ने काफी अपनेपन के साथ कहा। मोह मुस्कुरा दी। लेकिन जैसे ही उसने उत्कर्ष की तरफ़ देखा, वह मुँह बनाकर बैठा हुआ था। शायद उसे मोह का यहाँ आना पसंद नहीं आया था। यह बात मोह को महसूस हुई, लेकिन उसने कुछ नहीं कहा। और वह कहती भी क्या? सिवाय नज़रअंदाज़ करने के।
क्रमश:
रात देर से सोने के कारण, मोह की नींद देर से खुली। सहसा उसकी नज़र दीवार घड़ी पर जा रुकी, जिससे आँखों में जो थोड़ी बहुत नींद थी, बेसाख़्ता काफ़ूर हो गई। वह हड़बड़ाकर बेड से उठी और जल्दी से बाथरूम की ओर भागी। बाल्टी भरने के लिए नल चालू किया, और पानी बाल्टी में गिरने लगा। जब तक बाल्टी भरी, तब तक वह अपने कपड़े वॉर्डरोब से ले आई थी।
दस मिनट में ही तैयार होकर वह बिना नाश्ता किए बाहर निकल आई। तभी उसकी नज़र अपनी कार में बैठे उत्कर्ष पर पड़ी। आज शायद वह भी लेट ही उठा था। वह उसकी गाड़ी के बगल से निकलते हुए मेन गेट से बाहर आ गई। उत्कर्ष ने उसे जाते हुए देखा और सिक्योरिटी गार्ड से गेट खोलने को कहा।
"हे भगवान! पहले ही लेट हो गई हूँ और अब यहां तो कोई ऑटो भी नहीं मिलेगी..?" मेन रोड की ओर बढ़ती हुई मोह खुद से बुदबुदाई। वह खुद में बड़बड़ाते हुए चल रही थी। तभी उसके कानों में एक तेज हॉर्न की आवाज़ सुनाई पड़ी। उसने तुरंत मुड़कर देखा, तो उसके पीछे ही उत्कर्ष की कार थी। उसने उत्कर्ष की ओर देखा तो उत्कर्ष ने उसे अपने साथ आने का इशारा किया। मोह तो पहले ही लेट हो चुकी थी और वह और लेट होना बिल्कुल नहीं चाहती थी। बिना कुछ कहे वह उत्कर्ष के बगल में आ बैठी।
"थैंक्यू!"
"थैंक्यू किस लिए..?" उत्कर्ष ने कार की स्पीड बढ़ाते हुए पूछा।
"मुझे लिफ्ट देने के लिए..." मोह ने मुस्कुराकर कहा।
"हम्मम! आगे बस स्टैंड है। तुम्हें वहीं ड्रॉप कर दूँगा। आ जाना बस में..." उत्कर्ष की बात सुन मोह ने हैरान नज़रों से उसे देखा। जबकि वह बेफ़िक्र सा सामने देखते हुए ड्राइविंग कर रहा था।
"ना जाने किस चीज़ की अकड़ है। अकड़ू कहीं का.. हुंह!" मोह ने मन ही मन कहा और मुँह बनाकर खिड़की से बाहर देखने लगी।
मेन रोड के किनारे एक छोटा सा बस स्टैंड था। उत्कर्ष ने उसे वहाँ छोड़ा और खुद ऑफ़िस के लिए निकल गया। मोह पैर पटकती हुई मुँह बनाकर वहीं बैठ गई और बस का इंतज़ार करने लगी। करीब पंद्रह मिनट बाद बस आई, जिसमें पैर रखने की भी जगह नहीं थी, लेकिन मोह को तो ऑफ़िस पहुँचना ही था। सो वह उसमें चढ़ गई। कुछ देर बाद वह ऑफ़िस पहुँची तो उसे हाथ में कॉफ़ी का कप उठाए खड़ा उत्कर्ष दिखा, जो बाकी एम्प्लॉइज़ से कुछ डिस्कस कर रहा था। मोह गुस्से में टेढ़ा मुँह बनाए हुए जानबूझकर उससे टकराकर निकली, जिससे उत्कर्ष के हाथ में पकड़े कॉफ़ी के कप से थोड़ी कॉफ़ी छलककर नीचे गिर गई। उत्कर्ष ने हल्के गुस्से में उसकी ओर देखा, जो अपने केबिन का दरवाज़ा खोलकर अंदर जा चुकी थी।
"ये थोड़ी कॉफ़ी गिर गई, ज़रा साफ़ करवाओ।" एक एम्प्लॉइ से कहते हुए उत्कर्ष सीधा मोह के केबिन में आया, जो अब उसका भी केबिन था। मोह ने अपने बैग को टेबल पर पटका और अपनी चेयर पर बैठ गई।
"ये क्या हरकत थी..?"
"कौन सी हरकत..?"
दोनों ही एक-दूसरे को खा जाने वाली नज़रों से देख रहे थे।
"मुझे पता है कि तुम जानबूझकर मुझसे टकराई थी।"
"देखो, सुबह-सुबह मेरा दिमाग खराब करने की ज़रूरत नहीं है। जाकर अपना काम करो, जो सर ने आपको दिया हुआ है। यहाँ मेरा सर मत खाओ।"
"वाह भई! वाह... एक तो मैंने तुम्हारी हेल्प करी और ऊपर से तुम मुझे इतना एटीट्यूड दिखा रही हो... तुम ना सच में एक एहसान फ़रामोश लड़की हो..." उत्कर्ष ने उसे उंगली दिखाते हुए गुस्से में कहा।
"कौन सी हेल्प की...वह आज सुबह वाली...? आपको काफ़ी अच्छे से पता था कि मैं ऑफ़िस के लिए लेट हो रही हूँ, लेकिन नहीं, आपने जानबूझकर मुझे बस स्टैंड पर छोड़ा ताकि मैं और लेट हो सकूँ और सर की नज़रों में मेरी इमेज खराब हो सके..."
"ऐ! कुछ भी कह रही हो, जबकि मेरा ऐसा कोई इरादा नहीं था। मैंने तुम्हें बस स्टैंड पर इसलिए छोड़ा क्योंकि मुझे पुलिस स्टेशन जाना था... तुम मेरे साथ वहाँ क्या करती? इस लिए बाकी जो तुम अपने पास से ये बातें बना रही हो, ये बंद करो..." मोह की बात सुन उत्कर्ष थोड़ा चौंक सा गया।
"पुलिस स्टेशन..?"
"तुम कौन हो जिसे मैं बताऊँ कि मैं क्यों गया था...? एक मिनट, मैं तुम्हें सफ़ाई क्यों दे रहा हूँ..?" वह खुद में ही उलझा। मोह ने नाक सिकोड़ी और अपना काम करने लगी।
"मत बताओ, मुझे भी कोई शौक थोड़ी।"
उत्कर्ष जवाब देना चाहता था, लेकिन उसके होठों से कोई शब्द नहीं फूटा। फिर ज़्यादा कुछ ना कहकर वह केबिन से बाहर चला गया। उसके जाने के बाद मोह ने खुद को ही डाँटा।
पूरा दिन ऐसे ही निकल गया। छुट्टी का समय हुआ तो सब एम्प्लॉइज़ अपने-अपने घर के लिए निकल गए। मिस्टर बवेजा तो दोपहर को ही चले गए थे। अब मोह और उत्कर्ष के अलावा ऑफ़िस में सिर्फ़ सफ़ाई कर्मचारी ही मौजूद थे।
"साढ़े पाँच बज चुके हैं।" उत्कर्ष ने अपनी टेबल पर बैठे हुए ही देखा कि मोह अभी भी ऑफ़िस के काम में व्यस्त थी, तो वह अपने टेबल पर पेन से टैप करते हुए बोला।
"पता है मुझे..." मोह ने बस इतना ही कहा, वह भी बिना उसकी ओर देखे।
उत्कर्ष ने उसे पहले घूरा, फिर उठकर केबिन से बाहर चला गया। करीब दस मिनट बाद जब मोह ने फ़ाइल बंद करके साइड में रखी, तो अपने आस-पास का माहौल कुछ शांत सा पाया। अपने हाथ में बंधी घड़ी में समय देखते हुए उसने जल्दी-जल्दी अपना सामान बैग में रखा और अपना फ़ोन उठाकर दरवाज़े के पास आई। जैसे ही उसने दरवाज़ा खोलने के लिए हाथ बढ़ाया, लेकिन दरवाज़ा नहीं खुला। यह देख उसका दिल क्षण भर के लिए रुक सा गया। उसने दोबारा कोशिश की, लेकिन उसकी यह कोशिश भी नाकाम रही।
"हे भगवान! कहीं सब ऑफ़िस लॉक करके तो नहीं चले गए...(दरवाज़े को पीटते हुए चिल्लाकर) क्या कोई है बाहर...? मैं यहाँ बंद हो गई हूँ! प्लीज़! मुझे यहाँ से निकालिए... प्लीज़! मुझे यहाँ से निकालिए... मुझे डर...डर लग रहा है।" कहते हुए मोह की ज़ुबान काँप उठी थी और होठ थरथराने लगे थे। उसे क्लॉस्ट्रोफोबिया था। यह एक अवस्था है जब एक इंसान को बंद जगहों में या कमरों में बंद होने से तकलीफ होती है। और इस वक़्त मोह उस तकलीफ़ से गुज़र रही थी, क्योंकि वह बंद हो चुकी थी यहाँ। बीतते सेकंड के साथ उसका डर और घबराहट उस पर हावी होती जा रही थी। वह चिल्ला रही थी, मगर अब शब्द उसके गले से बाहर नहीं निकल पा रहे थे। वह पैनिक करने लगी थी और सोचने-समझने की शक्ति खो चुकी थी। बस पता था तो यही कि उसे यह दरवाज़ा खोलकर बाहर निकलना है। इसलिए वह लगातार अपने हाथों से उस दरवाज़े को पीट रही थी।
तो वहीं ऑफ़िस की बिल्डिंग के बाहर अपनी कार में बैठा उत्कर्ष खुद ही मुस्कुरा रहा था। उसने स्टीयरिंग व्हील पर अपने हाथ घुमाए और अपनी कार को वहाँ से बाहर निकालते हुए धीरे से बोला,
"बहुत ज़ुबान चलती है ना, अब एक रात यहाँ अकेले में रहोगी तो सारी अकल ठिकाने आ जाएगी।"
क्रमश:
"मोह आ गई थी क्या..?" डाइनिंग टेबल पर बैठे हुए मिस्टर बवेजा ने उत्कर्ष से पूछा। उत्कर्ष क्षण भर खामोश रहा। फिर ज़बरदस्ती मुस्कुराते हुए बोला,
"छुट्टी होने के बाद वह निकल गई थी।"
"ओके!" मिस्टर बवेजा ने ज़्यादा कुछ नहीं कहा। सबने डिनर किया। उसके बाद सब अपने-अपने कमरों में चले गए। उत्कर्ष जैसे ही अपने कमरे में आया, उसके चेहरे के भाव बदल गए। वह कमरे में चहलकदमी करता हुआ खुद से बोला,
"गुस्से में आकर कहीं उत्कर्ष! तुमने गलत तो नहीं कर दिया? अगर वह मर-मिट गई तो..? नहीं! नहीं! केबिन में बंद करने से कहाँ मरेगी वह। लेकिन! हो सकता है कि वह भूख और प्यास से मर जाए क्योंकि मुझे नहीं लगता कि उसके पास कुछ खाने या फिर पीने को होगा। नहीं! नहीं! भूख बर्दाश्त भी तो की जा सकती है.. कर लेगी। बहुत स्ट्रॉन्ग है, जो समझती है खुद को। कम-से-कम अकल ठिकाने तो आ ही जाएगी।" कहते हुए उत्कर्ष ने अपना सिर झटका। जो भी दिल-ओ-दिमाग़ में थोड़ी देर पहले मोह के लिए हमदर्दी के जज़्बात आ रहे थे, क्षण में चले गए। वह बेड पर लेटा, कुछ देर फोन को स्क्रॉल किया और फिर लाइट्स बंद करके सो गया।
उधर, मिस्टर बवेजा और वसुंधरा जी गार्डन में टहलने आ गए थे। कुछ देर टहलने के बाद, जब वसुंधरा जी की नज़र आउट हाउस पर गई, तो उन्हें थोड़ा अजीब लगा। उन्होंने कहा,
"मोह ने आज लाइट्स ऑन नहीं की..?"
"शायद! लाइट्स बंद करके सो गई होगी..." मिस्टर बवेजा ने कैज़ुअली कहा। तभी वसुंधरा जी की आँखें आउट हाउस के दरवाज़े पर लगे ताले पर रुकीं, जिसे देखकर वह थोड़ी चौंक सी गईं।
"मोह अभी तक घर नहीं आई है.. देखिए! लॉक लगा हुआ है।"
"क्या..?" मिस्टर बवेजा के लिए भी यह काफी हैरानी की बात थी। दोनों ही जल्दी से आउट हाउस के पास आए। वहाँ वाकई! ताला लगा हुआ था। दोनों ही यह बात अच्छी तरह जानते थे कि मोह के पास इस जगह के अलावा और कोई जगह नहीं थी, जहाँ वह जाती।
"कहीं वह किसी खतरे में तो नहीं..?" वसुंधरा का दिल घबराया।
"रुकिए एक मिनट!" कहते हुए मिस्टर बवेजा सिक्योरिटी गार्ड के पास गए, जो वहीं दरवाज़े के पास बैठा हुआ ड्यूटी दे रहा था। उन्होंने उससे पूछा कि क्या मोह घर लौटी थी। उसने साफ़ इनकार कर दिया कि वह अभी तक घर नहीं लौटी है। यह सुनकर मिस्टर बवेजा के माथे पर बल पड़ गए। किसी अनहोनी के डर से वह जल्दी-जल्दी घर के अंदर की तरफ़ बढ़ गए और उनके पीछे ही वसुंधरा जी भी अंदर आ गईं। अपने कमरे में आकर मिस्टर बवेजा ने सबसे पहले अपना फ़ोन उठाया और मोह को कॉल मिलाया।
वहीं दूसरी तरफ़, मोह केबिन के फ़र्श पर आधी बेहोशी की हालत में नज़र आ रही थी। उसका सारा शरीर पसीने से लथपथ था और साँसें बिल्कुल धीमी गति से चल रही थीं, जिनके लिए उसे काफी संघर्ष करना पड़ रहा था। तभी उससे थोड़ी दूरी पर गिरा हुआ उसका फ़ोन एक तेज आवाज़ के साथ बजा। वह धीरे-धीरे अपनी उंगलियाँ हिला रही थी, लेकिन उसमें जरा सी भी हिम्मत नहीं बची थी कि उठकर फ़ोन उठा ले। आँखों से छलके आँसुओं ने उसकी कानपट्टी को पूरी तरह भीगो दिया था। और कुछ क्षण पश्चात् उसकी वह आधी खुली आँखें भी बंद हो चुकी थीं।
"नहीं उठा रही वो कॉल.. वसुंधरा जी मुझे तो बहुत घबराहट हो रही है। कहीं कुछ हो तो नहीं गया उसके साथ... मुझे तो खुद पर ही गुस्सा आ रहा है कि मैं एक बच्ची की ज़िम्मेदारी भी सही से नहीं निभा पाया। जबकि आज वह जिस सिचुएशन में है, वो सब..." कहते हुए परेशान मिस्टर बवेजा रुक गए। वसुंधरा जी ने तुरंत उनके हाथ पर अपना हाथ रखा और धीरे से बोली,
"खुद पर काबू कीजिए और हो सके तो आइंदा अपनी जुबान पर भी ध्यान रखिएगा। अगर किसी ने गलती से सुन लिया तो कयामत आ जाएगी... फिर क्या कहेंगे..? यह बात आप अच्छी तरह जानते हैं कि खुद के घर की दीवार भी वफ़ादार नहीं होती। और मोह को कुछ नहीं हुआ होगा.. आप पहले ही नेगेटिव मत सोचिए.. बल्कि उसे ढूँढिए कि आखिर वह है कहाँ..?"
"शायद! सही कहा आपने... (सोचते हुए) उत्कर्ष से जब पूछा था तो उसने कहा था कि मोह ऑफ़िस से निकल गई थी, तो फिर वह गई कहाँ सकती है, यह समझ नहीं आ रहा।" मिस्टर बवेजा ने चिंता में अपने माथे को अपनी उंगलियों से रगड़ा। वसुंधरा जी भी किसी सोच में डूब गई थीं। मोह की फ़िक्र दोनों को ही हो रही थी और दोनों यही सोच रहे थे कि मोह कहाँ गई होगी...? और उन्हें बस इसी सवाल का जवाब नहीं मिल रहा था। सोचते हुए सहसा ही मिस्टर बवेजा की नज़र टेबल पर रखे अपने लैपटॉप पर गई। आँखों में एक उम्मीद की किरण लिए वह उसकी तरफ़ बढ़े और उसे ऑन करके उसमें कुछ करने लगे।
"यह आप क्या कर रहे हैं.. हमें मोह का पता लगाना है..?" वसुंधरा जी ने उन्हें टोका।
"वही कर रहा हूँ।"
"मैं कुछ समझी नहीं..." कहते हुए वह मिस्टर बवेजा की चेयर के पीछे आ खड़ी हुईं। मिस्टर बवेजा कीबोर्ड पर अपनी उंगलियाँ तेज़ी से चलाते हुए बोले,
"मैं मान ही नहीं सकता कि मोह जैसी लड़की कहीं और जा सकती है। ना जाने क्यों मगर मुझे लग रहा है कि उत्कर्ष ने मुझसे झूठ बोला। मोह ज़रूर ऑफ़िस में ही रह गई है।"
"भला उत्कर्ष क्यों झूठ बोलेगा..?" वसुंधरा जी ने कहा।
"मुझे नहीं पता कि..." कहते हुए सहसा ही मिस्टर बवेजा रुक गए। क्योंकि उनकी लैपटॉप स्क्रीन पर ऑफ़िस की सीसीटीवी फ़ुटेज चालू हो गई थी, जो मोह के केबिन की ही थी, जिसमें साफ़ दिख रहा था कि मोह फ़र्श पर गिरी हुई थी। यह देख एक क्षण के लिए मिस्टर बवेजा के साथ वसुंधरा जी भी सन्न रह गईं। लेकिन अगले ही क्षण खुद को संभालकर मिस्टर बवेजा उठकर बाहर की तरफ़ भागे।
क्रमश:
सिटी हॉस्पिटल, मुंबई। समय: ११:३०
मिस्टर बवेजा एक वार्ड रूम के सामने बेंच पर बैठे, काफी परेशान दिख रहे थे। उन्हें अभी तक पता नहीं चला था कि मोह ठीक है या नहीं। वसुंधरा जी ने कई बार फ़ोन करके पूछा था, क्योंकि मोह की चिंता उन्हें भी बहुत थी। हर पल काटना उनके लिए मुश्किल हो गया था। वे बार-बार भगवान से प्रार्थना कर रहे थे कि मोह ठीक हो, उसे कुछ न हुआ हो। कैबिन में उसे बेहोश देखकर वे बहुत घबरा गए थे। बिना देरी किए, उन्होंने उसे पास के ही हॉस्पिटल में ले आए थे। डॉक्टर्स उसे अभी जांच ही रहे थे, लेकिन मिस्टर बवेजा की घबराहट कम होने का नाम नहीं ले रही थी।
कुछ देर बाद, डॉक्टर बाहर आए। यह देखकर मिस्टर बवेजा तुरंत अपनी जगह से उठे और उनके सामने खड़े हो गए। उन्होंने एक के बाद एक सवाल दाग दिए।
"अब कैसी है वो...? कुछ हुआ तो नहीं डॉक्टर...? क्या उसे होश आ गया...? क्या हुआ था...? क्या अब मैं मिल सकता हूँ? क्या मैं एक बार बात कर लूँ...?"
"रिलैक्स! मिस्टर बवेजा! अब उसे होश आ गया है और वह पहले से बेहतर महसूस कर रही है। उसने बताया कि उसे क्लॉस्ट्रोफोबिया है।"
"मतलब...?"
"दरअसल, जब किसी इंसान को क्लॉस्ट्रोफोबिया हो और वह किसी बंद जगह या बंद कमरे आदि में हो, तो उसे अजीब सी बेचैनी होने लगती है। साँस लेने में बहुत दिक्कत आती है, घुटन जैसा महसूस होता है। अजीब सा डर लगता है, घबराहट होती है। सोचने-समझने की शक्ति जैसे उसमें रहती ही नहीं है। और अगर वह ज़्यादा देर इसी सिचुएशन में रह ले, तो इसके कारण उस इंसान की मौत तक हो सकती है।" डॉक्टर ने जैसे ही यह कहा, मिस्टर बवेजा की आँखें हैरानी से पड़ी रहीं।
"डॉक्टर! अब तो कोई खतरा नहीं...?"
"नहीं! अब वह ठीक है, लेकिन हमे खुद की तसल्ली के लिए उसे आज की रात हॉस्पिटल में ही रखना होगा। सुबह डिस्चार्ज मिल जाएगा, फिर आप उसे लेकर जा सकते हैं। और फ़िलहाल, अगर आप उससे मिलना चाहते हैं, तो अंदर जाकर मिल सकते हैं। Now excuse me!"
"श्योर! थैंक्यू डॉक्टर।"
डॉक्टर के जाने के बाद, मिस्टर बवेजा सबसे पहले मोह को देखने गए। वह अंदर वार्ड रूम में आए तो मोह बिना कुछ कहे, सामने वाली दीवार को एकटक देख रही थी। उसका चेहरा कुछ मुरझाया हुआ सा लग रहा था। मिस्टर बवेजा उसके पास गए और वहीं रखे एक स्टूल को बेड के पास खींचकर बैठ गए।
"बेटा! अब कैसा लग रहा है...?"
"अं!... आई एम फाइन सर।" मोह अपने ख्यालों से जैसे बाहर आई।
"बेटा! जब सब ऑफिस से जा चुके थे, तो तुम वहाँ अकेली कैसे रह गई...?"
"पता नहीं सर!"
"बेटा, तुम्हें झूठ बोलने की ज़रूरत नहीं है। तुम मुझे सच-सच बताओ कि क्या तुम्हें वहाँ बंद करने वाला उत्कर्ष था...?"
"नहीं सर! मैं वहाँ एक्सीडेंटली बंद हुई थी। शायद सब को लगा कि मैं जा चुकी हूँ..."
"मैंने सीसीटीवी फ़ुटेज में देखा कि उत्कर्ष तुमसे पहले निकल गया था। और जब मैंने घर पर आकर उससे पूछा कि क्या तुम घर आ गई हो, तो उसने कहा कि हाँ, तुम पहले ही निकल चुकी थीं, जबकि ऐसा नहीं था। तुम वहाँ बंद हो चुकी थीं। तो अब तुम मुझे बताओ कि उत्कर्ष ने मुझसे झूठ क्यों कहा...?" मिस्टर बवेजा इतनी जल्दी किसी की बातों में आने वाले इंसान नहीं थे।
"शायद उसे याद न रहा हो सर!... और वैसे भी अब मुझे इस बारे में कोई बात नहीं करनी। मैं बस भूल जाना चाहती हूँ, क्योंकि आज का यह वाक़िया मेरे लिए किसी बुरे सपने से कम नहीं था। एंड थैंक्यू सो मच कि आप मुझे यहाँ हॉस्पिटल लेकर आए।" कहते हुए मोह ने चेहरे पर एक फीकी सी मुस्कान लिए, अपने दोनों हाथों को आपस में जोड़ लिया। यह देख मिस्टर बवेजा ने धीरे से उसके हाथों को अपने हाथ में पकड़ा और उन्हें नीचे करता हुआ बोला,
"मोह! बेटा, मैं तुम्हें सिर्फ़ कहने के लिए नहीं कहता, बल्कि मैंने तुम्हें अपना बच्चा माना है। तुम भी मेरे लिए मेरे बच्चों से कम नहीं हो... और फिर एक बाप होने के नाते यह तो मेरा फ़र्ज़ है।" मिस्टर बवेजा ने प्यार से उसके सिर को सहलाया। ना चाहते हुए भी मोह की आँखें नम हो गईं। आज इतने सालों बाद मिस्टर बवेजा का स्पर्श उसे उसके पापा का स्पर्श महसूस करा गया था। उसने अपने जज़्बातों पर काबू किया और अपने आँसू साफ़ कर धीरे से बोली,
"थैंक्यू..."
"इसकी ज़रूरत नहीं है बेटा! (थोड़ा रुककर) अच्छा! तुम यहीं आराम करो, तब तक मैं तुम्हारे लिए कुछ अच्छा सा खाने को लेकर आता हूँ। तुम्हें भूख लगी होगी ना... रुको, मैं बस अभी आया।" कहते हुए मिस्टर बवेजा तुरंत उठकर बाहर चले गए। उनके जाते ही मोह की आँखों में रुके आँसू अब धारा बनकर बह निकले। उसने अपने चेहरे को अपनी हथेलियों से ढँक लिया और तेज-तेज सिसक पड़ी। ऊपर वाले ने भी अजीब खेल खेला था उसके साथ। बस उसके डर के साथ जीने के लिए छोड़ दिया था उसे, वह भी अकेले...? हाँ, अकेले। कौन था उसका...? कोई भी तो नहीं जिसके कंधे पर वह अपना सिर रखकर खुद का दर्द कम कर सके।
क्रमश:
"मॉम! व्हेयर इज डैड..?" नाश्ते की टेबल पर बैठते हुए, जब उत्कर्ष की नज़र मिस्टर बवेजा की खाली पड़ी चेयर पर गई, तो वह वसुंधरा जी से पूछ बैठा।
"हॉस्पिटल में," वसुंधरा जी ने उसकी प्लेट में नाश्ता परोसते हुए कहा।
वह उनकी बात सुनकर चौंक गया और उन्हें देखा।
"हॉस्पिटल...? मगर क्यों...? क्या हुआ है मॉम...? डैड ठीक तो है ना...?"
"हम्मम! डैड ठीक है, उन्हें कुछ नहीं हुआ। दरअसल, जब मैं और तेरे डैड गार्डन में टहल रहे थे, तब हमने देखा कि मोह का दरवाज़ा बाहर से बंद था। और तब हमें पता चला कि वह घर आई ही नहीं। फिर तेरे पापा ने ऑफिस की सीसीटीवी फ़ुटेज चेक की तो पाया कि मोह केबिन में ही बेहोश पड़ी थी। शायद वह वहाँ बंद हो गई थी। पूरी रात से वह हॉस्पिटल में एडमिट है और तेरे डैड उसके साथ वहीं पर हैं, उसकी देखभाल के लिए।"
वसुंधरा जी की बात सुनकर उत्कर्ष एकदम ख़ामोश रह गया। जबकि वसुंधरा जी की नज़रें उसके हर एक एक्सप्रेशन को नोटिस कर रही थीं।
"तो वह अब कैसी है...?" परिधी ने पूछा।
"हम्मम! पहले से बेहतर है।"
"लेकिन ताई जी, मोह के पास तो फ़ोन है और वह किसी को इन्फ़ॉर्म भी तो कर सकती थी कि वह ऑफ़िस में बंद हो चुकी है...?" यह चिराग़ था।
"एक्जेक्टली! मॉम... वह किसी को इन्फ़ॉर्म भी तो कर सकती थी...?" उत्कर्ष ने चिराग़ की बात का समर्थन किया।
"वह तब इन्फ़ॉर्म कर पाती जब वह अपने होश-ओ-हवास में होती। दरअसल, उसे क्लॉस्ट्रोफोबिया है। और जैसे ही उसे पता चला कि वह केबिन में बंद हो चुकी है, वह अपने होश खो बैठी। डॉक्टर ने बताया कि वह डर और घबराहट के कारण बेहोश हो गई थी और अगर वह ज़्यादा देर वहाँ रह जाती, तो शायद उसकी जान तक खतरा हो सकता था। लेकिन शुक्र है, अब वह ठीक है।" वसुंधरा जी ने जितना पता था, उन्होंने बता दिया। जिसके बाद कोई कुछ नहीं बोला। नाश्ता करते हुए उत्कर्ष ने धीरे से अपना फ़ोन निकाला और उसने क्लॉस्ट्रोफोबिया सर्च करके उसके बारे में पढ़ना शुरू कर दिया। अब वह जैसे-जैसे उस आर्टिकल को पढ़ रहा था, उसकी आँखें हैरत में बड़ी होती चली गईं।
"ओह माय गॉड! जाने-अनजाने में तुमने यह क्या कर दिया उत्कर्ष! क्या ज़रूरत थी उसे वहाँ बंद करने की...? अगर उसे कुछ हो जाता, तो बिना बात हमारी कंपनी पर ही उंगली उठती। (सोचते हुए) लेकिन अपनी हालत की वह खुद ज़िम्मेदार है। क्या ज़रूरत थी उसे मेरे सामने इतनी ज़ुबान चलाने की? और वैसे भी मुझे थोड़ा ही पता था कि उसे कोई फ़ोबिया है।" मन-ही-मन कहते हुए उसने अपना फ़ोन बंद कर वापस पॉकेट में रखा और अपना नाश्ता करने लगा। जबकि उसे अंदर-ही-अंदर एक डर सता रहा था कि कहीं वह मिस्टर बवेजा को यह न बता दे कि उसे वहाँ जान-बूझकर बंद किया गया था। अगर उसने उसका नाम लिया तो...? और इसी उधेड़बुन में उसने अपना नाश्ता ख़त्म किया।
उसके बाद अपनी गाड़ी की चाबी उठाकर वह जैसे ही बाहर आया, उसकी नज़र दरवाज़े से अंदर आते मिस्टर बवेजा पर चली गई, जो मोह को सहारा देकर ला रहे थे। मिस्टर बवेजा की नज़र भी अब तक उस पर चली गई थी। बेशक मोह ने उत्कर्ष का नाम नहीं लिया था, पर मिस्टर बवेजा को यकीन भी नहीं हुआ था।
"डैड! आप आ गए...?"
"हम्मम! कहाँ जा रहे हो...?"
"ऑफ़िस!"
"रुको, ज़रा बात करनी है। वसुंधरा जी..." कहते हुए उन्होंने वसुंधरा जी को बुलाया। मिस्टर बवेजा की आवाज़ सुनकर वसुंधरा जी तुरंत उनके सामने हाज़िर हो गई थीं।
"मोह बेटा! अब ठीक हो तुम...?" वसुंधरा जी ने प्यार से मोह के सिर पर हाथ फेरा। तो उसने फ़ीका सा मुस्कुराकर अपना सिर हाँ में हिला दिया।
"वसुंधरा जी!... आप मोह को अंदर ले जाइए। डॉक्टर ने कुछ दिन मोह को अच्छे से रेस्ट करने को कहा है। और अकेली यह आउट हाउस में खुद का ख़्याल नहीं रख पाएगी, इसलिए कुछ दिन यह परिधी के रूम में रह लेगी। सब मिलकर ख़्याल रख लेना।" मिस्टर बवेजा ने मोह की कुछ दवाइयाँ वसुंधरा जी की ओर बढ़ाते हुए कहा। तो वसुंधरा जी तुरंत उन्हें पकड़ती हुई बोलीं,
"आप फ़िक्र मत कीजिए!, मोह का मैं खुद ख़्याल रखूँगी।"
"हम्मम!" मिस्टर बवेजा ने बस इतना ही कहा। वसुंधरा जी मोह को अपने साथ अंदर ले गईं। उनके अंदर जाते ही मिस्टर बवेजा ने उत्कर्ष को जलती हुई नज़रों से देखते हुए कहा,
"तुमने मुझसे झूठ क्यों कहा कि मोह ऑफ़िस से घर आ गई है...?"
"डैड! मुझे नहीं पता था कि वह नहीं आई।"
"अगर तुम्हें पता नहीं था तो तुम्हें कुछ कहना ही नहीं चाहिए था। झूठ बोला, लेकिन क्या ज़रूरत थी तुम्हें मुझसे झूठ कहने की...?"
"मैंने कोई झूठ नहीं बोला..."
"ओह रियली...? (थोड़ा रुककर) या यू आर राइट! तुमने झूठ नहीं कहा, बल्कि बहुत बड़ा झूठ कहा है। (उत्कर्ष की बाजू पकड़) तुम ही थे ना जिसने मोह को केबिन में बंद कर दिया था... बोलो... तुम ही थे ना...?"
"डैड! आप मुझ पर इल्ज़ाम..."
"सटाक!" एक तेज़ थप्पड़ की आवाज़। पूरे माहौल में घुप्प शांति फैल गई थी। उत्कर्ष अपने गाल पर हाथ रखे अवाक सा मिस्टर बवेजा को देख रहा था, जो इस वक्त काफ़ी गुस्से में लग रहे थे।
"इल्ज़ाम...? क्या मैंने तुम पर इल्ज़ाम लगाया...? नहीं! नहीं! मैंने तुम पर कोई इल्ज़ाम नहीं लगाया, बल्कि यही सच्चाई है कि वह तुम ही थे जिसने मोह को केबिन में बंद कर दिया... मैंने खुद देखा सीसीटीवी फ़ुटेज में और मेरे पास प्रूफ़ भी है, अगर तुम चाहो तो अभी दिखा सकता हूँ!" मिस्टर बवेजा ने यह बात काफ़ी गुस्से में कही थी कि उत्कर्ष खुद के बचाव में कोई बहाना भी नहीं दे पाया था। क्योंकि सच्चाई क्या थी, यह तो वह काफ़ी अच्छे से जानता था।
क्रमश:
अपने कमरे में बिस्तर पर लेटा उत्कर्ष एकदम खामोश लग रहा था। वह बस एकटक सामने की दीवार को देख रहा था। उसका एक हाथ लैंप के स्विच पर था, जिसे वह कभी ऑन करता, कभी ऑफ। उसके चेहरे से ही लग रहा था कि वह इस वक्त काफी परेशान था। आज मिस्टर बवेजा का उस पर हाथ उठाना उसे अंदर तक हिला गया था। बचपन से लेकर बड़े होने तक कभी किसी ने भी उस पर हाथ नहीं उठाया था। लेकिन आज, आज मिस्टर बवेजा ने उसे थप्पड़ मारा था, वह भी किसी अनजान लड़की के लिए...? उसे गुस्सा नहीं आ रहा था, और मोह पर तो बिलकुल नहीं! लेकिन उसे अपनी गलती का अहसास था; हाँ, उससे गलती हुई थी। उसे ऐसा नहीं करना चाहिए था। जाने-अनजाने में ही सही, पर उसके कारण मोह की जान पर बन आई थी। उसे खुद ही काफी गिल्टी फील हो रहा था। आखिर में, जब कुछ समझ ना आया, तो उसने अपना सिर झटका और अपनी आँखें बंद कर लीं ताकि कुछ देर वह रिलैक्स कर सके।
लेकिन अचानक उसे बाहर से कुछ आहट सुनाई दी। वह उठकर बैठा और घड़ी में समय देखा; साढ़े बारह बज रहे थे।
वह बिस्तर से उठा और सीधा कमरे से बाहर निकल आया। इस वक्त हर तरफ़ अंधेरा ही अंधेरा था, जो साफ़ इशारा कर रहा था कि घर में मौजूद सभी जन सो चुके थे। एक बार फिर उसे किसी के चलने की आहट सुनाई दी। उसने जल्दी से नीचे की तरफ़ झाँका तो एक काला सा साया अंधेरे में चलता हुआ दिखाई दिया। उसके माथे पर बल पड़ गए। लेकिन अगले ही क्षण वह सचेत हो गया, यह सोचकर कि शायद घर में कोई चोर घुस आया है। वह बिना कुछ सोचे-समझे नीचे की तरफ़ आया और हॉल में मौजूद उस काले साये को वहीं दबोच लिया। उस साये ने उत्कर्ष की पकड़ से खुद को छुड़वाने की नाकाम कोशिश की, लेकिन उत्कर्ष की फिजिकल स्ट्रैंथ उससे ज़्यादा थी, इसलिए वह खुद को छुड़वा नहीं पाया।
"कौन हो तुम...?" उत्कर्ष को इस वक्त वाकई ऐसा लग रहा था कि उसने किसी चोर को ही पकड़ा है। अंधेरा इतना ज़्यादा था कि वह नहीं देख पाया कि आखिर कौन है वह...?
"उह्ह्ह्हहह...." शायद वह साया कुछ बोलना चाह रहा था, लेकिन उत्कर्ष ने उसके मुँह पर अपना हाथ रखकर उसका मुँह दबा दिया था, जिससे उसकी आवाज़ अंदर ही घुटकर रह गई थी।
"सही है... तुम लड़कियाँ लड़कों की बराबरी करने के चक्कर में चोर तक बन गईं। अरे भई! एक काम तो छोड़ दो जो सिर्फ़ लड़के ही कर सकें, पर नहीं... तुम्हें तो इसमें भी अपनी नाक घुसानी है...?" अंधेरे में ही उत्कर्ष को महसूस हुआ कि जिसे वह चोर समझ रहा है, वह कोई लड़की थी।
"आउच..." पर अगले ही क्षण उत्कर्ष चिल्लाते हुए पीछे हट गया था, क्योंकि उस साये ने उत्कर्ष के पैर पर वार किया था। उत्कर्ष उसके इस वार के लिए जरा भी तैयार नहीं था।
"हिलना भी मत, वरना अभी पुलिस को बुलाऊँगा।" उत्कर्ष ने जल्दी से खुद को सम्हाल लिया था। जब उसने देखा कि वह साया उससे दूर जा रहा है, तब वह उसे धमकाता हुआ अचानक थोड़े तेज आवाज़ में बोला। लेकिन उत्कर्ष की धमकी का उस साये पर कोई असर नहीं हुआ।
पर अगले ही पल उसका मुँह खुला का खुला रह गया था। जब हॉल की लाइट्स ऑन हुईं, तो मोह स्विचबोर्ड के पास खड़ी, उसे घूर कर देख रही थी। इस वक्त उसके बाल भी काफी बिखरे हुए थे। अब उसे समझने में देर नहीं लगी कि जिस साये को वह अब तक चोर... नहीं! नहीं! चोरनी समझ रहा था, वह असल में मोह थी।
"सॉरी! मुझे लगा कि कोई चोर घुस आया है। और ऐसे इतनी रात को कौन इधर-उधर घूमता है...?" उत्कर्ष के सवाल पर मोह ने अपने हाथ में पड़ी बोतल को ऊपर की तरफ़ उठाया।
"पानी नहीं था रूम में... वही लेने जा रही थी।"
"हम्मम! सॉरी।" कहते हुए उत्कर्ष बिना वहाँ और रुके सीधा अपने कमरे में चला गया था। जबकि उसके जाते ही मोह एक गहरी साँस लेकर किचन की ओर बढ़ गई।
"सर, कल से मैं ऑफिस आ रही हूँ।" डिनर के बाद मोह ने मिस्टर बवेजा से कहा। तो मिस्टर बवेजा तुरंत बोले,
"पर बेटा, अभी तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं है। तुम्हें अभी आराम करना चाहिए..."
"चार दिन से आराम ही कर रही हूँ सर! और वैसे भी मुझे इतने आराम की आदत नहीं है और ना घर में रहने की आदत है। होप आप समझ रहे होंगे... मैं सच में ठीक हूँ। और ऑफिस में आराम से काम कर सकती हूँ।" मोह ने कहा। तो मिस्टर बवेजा ने हल्का सा मुस्कुरा कर अपनी गर्दन हाँ में हिलाकर सहमति दे दी। मोह सबको गुड नाईट बोलकर आउट हाउस सोने चली गई। वहीं मोह के जाते ही वसुंधरा जी मिस्टर बवेजा के पास सोफ़े पर बैठती हुई बोलीं,
"सही कहा उसने... वह एक कामकाजी लड़की है, जिसे आदत नहीं है घर पर बेकार रहने की।"
"बहुत मेहनती लड़की है। सोचा था कि कुछ दिन शांति से बीत जाने पर मोह से बात करूँगा उसकी और उत्कर्ष की शादी की, पर आप के उस लाडले ने मेरे बने-बनाए सारे प्लान पर पानी फेर दिया। अब तो सीधा जाकर बात भी नहीं कर सकता मोह से... करूँ भी तो किस मुँह से।" कहते हुए मिस्टर बवेजा का लहजा उदासी में बदल गया था, जिसे वसुंधरा जी महसूस कर सकती थीं। उन्होंने धीरे से उनके कंधे पर हाथ रखा और अपनी परिचित सी आवाज़ में बोलीं,
"मुझे पता है कि आप मोह को इस घर की बहू बनाना चाहते हैं। और सच मानिए मैं भी चाहती हूँ कि मोह हमारे घर की बहू बने, पर हम उन दोनों के साथ जबरदस्ती तो नहीं कर सकते ना। क्योंकि पूरी ज़िंदगी उन दोनों को साथ में बितानी है। हम फ़ोर्स करेंगे उन्हें तो क्या फ़ायदा...? साथ होकर भी वह खुश नहीं रह पाएँगे। इसलिए मेरी माने तो उन दोनों को उनके हाल पर छोड़ दें। और बाकी सब उस ऊपर वाले पर... यकीनन अच्छा ही होगा आने वाले समय में..."
"हम्मम।" मिस्टर बवेजा ने बस इतना ही कहा, जबकि उनके मन में कुछ तो चल रहा था, जिसका साफ़ पता चल रहा था उनके चेहरे से, लेकिन क्या...?
क्रमश:
कई दिन बीत गए थे। इस बीच न तो मोह ने उत्कर्ष से बात की और न ही उत्कर्ष ने मोह से बात करने की कोशिश की। मोह ने उत्कर्ष से बात करना जैसे बंद ही कर दिया था। अगर उत्कर्ष कोशिश भी करता, तो मोह खामोश होकर उसे और उसकी बातों को पूरी तरह नज़रअंदाज़ कर देती। क्योंकि वह उसके बर्ताव से इतना जान चुकी थी कि उत्कर्ष उसे फूटी आँख भी बर्दाश्त नहीं कर सकता था, इसलिए बेहतर यही था कि वह खुद उससे दूर रहे। यही वह कर रही थी; वरना उसे उससे कोई ख़ास फर्क नहीं पड़ता था। ना जाने क्यों, लेकिन मोह का यह बर्ताव उत्कर्ष को प्रभावित कर रहा था। और इस बात से ख़ुद उत्कर्ष भी अनजान था।
"आप दोनों को सर अपने केबिन में बुला रहे हैं अभी..." एक पिऑन ने मोह के केबिन में आकर मोह और उत्कर्ष से कहा। दोनों ने तुरंत अपना काम छोड़ मिस्टर बवेजा के केबिन में हाजिर हुए। मिस्टर बवेजा ने दोनों को बैठने का इशारा किया, और दोनों खामोशी से अपनी-अपनी चेयर पर बैठ गए।
"दरअसल, मुझे आप दोनों को एक काम सौंपना है।"
"कैसा काम सर...?" मोह ने तुरंत पूछा।
"मिस्टर हैरी डिसूजा, जो कि अमेरिका के एक सफल बिज़नेसमैन हैं, वह यहाँ इंडिया में हमारी कंपनी के साथ कोलेबोरेशन करना चाहते हैं। और इसी सिलसिले में वह कल यहाँ आ रहे हैं। और साथ में उनकी वाइफ भी आ रही है। सुनने में आया है कि उनकी वाइफ को इंडियन कल्चर काफी पसंद है। तो उनके रहने से लेकर खाने और घूमने से लेकर डील तक की सभी ज़िम्मेदारी आप दोनों की... वे यहाँ एक हफ़्ता रुकेंगे, तो देख लेना।" मिस्टर बवेजा ने कहा। मोह और उत्कर्ष ने एक-दूसरे की ओर देखा, फिर अपनी नज़रें चुराकर एक साथ अपनी गर्दन हिला दी।
"सर! मुझे आपसे कुछ बात करनी है।" मोह ने कहा।
"हाँ, कहो।"
"अकेले में..."
"मुझे काम है, मैं जाता हूँ।" उत्कर्ष समझ गया था कि मोह उसके सामने बात नहीं करना चाहती। वह उठा और वहाँ से चला गया।
"हाँ, अब कहो कि क्या बात करनी है...?"
"सर! आप यह बात अच्छे से जानते हैं कि हम दोनों साथ में काम नहीं कर पाएँगे, फिर भी आपने हम दोनों को यह काम दिया। जबकि बात यहाँ आपकी कंपनी की रेपुटेशन की है।" मोह ने परेशान होकर कहा।
"क्यों? आप दोनों साथ में काम नहीं कर सकते...?"
"क्योंकि हम दोनों में नहीं बनती।"
"मोह! मैं यह बात काफी अच्छे से जानता हूँ, लेकिन क्या आप दोनों सारी ज़िन्दगी यूँ अजनबियों की तरह रहोगे...? मैं यह बात नहीं भूला कि कुछ समय पहले उत्कर्ष ने आपके साथ क्या किया था... लेकिन बेटा, उत्कर्ष बुरा नहीं है। मेरा यकीन कीजिए कि अगर उसे पता होता कि उसके द्वारा जाने-अनजाने में की गई हरकत के कारण आप इतनी सीरियस हो जाएँगी, तो वह ऐसा कभी नहीं करता। अगर आप उसे जानेंगी, तो आपको पता चलेगा कि वह ऐसा बिल्कुल नहीं है जैसा आप सोच रही हैं।" मिस्टर बवेजा ने यह सब काफी सहजता से कहा।
मोह बिना कुछ कहे उठी और चुपचाप वहाँ से निकल अपने केबिन में आ गई। उत्कर्ष अपने लैपटॉप में पूरी तरह झुका हुआ था। यह देख मोह ने अपना सर झटका और अपनी चेयर पर जा बैठी।
"कैसे क्या करना है...?" कुछ देर बाद उत्कर्ष ने उसकी ओर देखकर पूछ ही लिया।
"मिस्टर हैरी डिसूजा और उनकी वाइफ की इन्फॉर्मेशन निकालनी होगी कि उनका नेचर कैसा है? उनकी पसंद-नापसंद आदि। तब जाकर सब डिसाइड किया जाएगा।" मोह ने कीबोर्ड पर अपनी उंगलियाँ नचाते हुए, बिना उसकी ओर देखे कहा।
"मैं ऑलरेडी निकाल चुका हूँ।" कहते हुए वह अपना लैपटॉप लेकर उठा और मोह के पास आकर अपना लैपटॉप उसकी टेबल पर रखते हुए आगे बोला, "मैंने अभी एक इंटरव्यू देखा, जो मिस्टर हैरी डिसूजा का है, जब उन्हें बेस्ट बिज़नेसमैन का अवॉर्ड मिला था। इस इंटरव्यू में उनकी वाइफ भी है और होस्ट ने बहुत से पर्सनल क्वेश्चन पूछे हैं, तो शायद हमें इस इंटरव्यू के ज़रिए कुछ मदद मिल सके...?"
"हम्मम!" मोह ने बस इतना ही कहा। दोनों का ध्यान अब उस इंटरव्यू में था। जो काम का लग रहा था, उसे मोह अपने नोटपैड में नोट कर रही थी। और जब सारा इंटरव्यू ख़त्म हुआ, तो मोह किसी सोच में डूब गई।
उत्कर्ष ने अपना लैपटॉप बंद किया और मोह की ओर देखकर अपना गला साफ़ करते हुए बोला,
"आई नो कि तुम मुझसे अभी तक नाराज़ हो पहले वाली बात को लेकर, पर प्लीज़! हमें पर्सनल और प्रोफ़ेशनल लाइफ़ को अलग रखना होगा। अपने पर्सनल रीज़न्स की वजह से हम अपनी इतनी बड़ी डील बर्बाद नहीं कर सकते। साथ मिलकर करते हैं ना।" कहते हुए उत्कर्ष ने हाथ बढ़ा दिया था। उस क्षण में मोह कभी उत्कर्ष को देखती, तो कभी उसके बढ़े हुए हाथ को। वह अजीब सी दुविधा में थी। समझ नहीं आ रहा था कि उसे क्या करना चाहिए। उत्कर्ष ने जब यह देखा कि मोह अपना हाथ आगे नहीं बढ़ा रही, तो उसे थोड़ी शर्मिंदगी सी महसूस हुई। उसने अपना हाथ पीछे खींचने के लिए अपने हाथ की मुट्ठी बांधी, कि तभी उसे अपनी कलाई पर एक नाजुक से हाथ का स्पर्श महसूस हुआ। उसने मोह की ओर देखा, तो वह हल्का सा मुस्कुरा कर उसे ही देख रही थी।
"लेट्स डू टुगेदर।" मोह ने कहा, तो उत्कर्ष के होठों पर भी एक छोटी सी मुस्कान आ खिली। उसने तुरंत अपना सर हाँ में हिला दिया।
"लेकिन कहाँ से शुरू करें...?" उत्कर्ष बेचैनी से बोला, तो मोह अपने नोटपैड में लिखी ज़रूरी इन्फॉर्मेशन को देखती हुई बोली,
"वैसे उतना मुश्किल भी नहीं है। तुम बस एक अच्छे से होटल में मिस्टर हैरी डिसूजा और उनकी वाइफ के लिए रूम बुक करो। बाकी चीजें मैं देख लूँगी।"
"लेकिन तुम अकेले...?"
"इट्स ओके... यह मेरे लिए कोई नई बात नहीं है, क्योंकि ऐसी ही ना जाने कितनी बड़ी-बड़ी डील्स को मैंने हैंडल किया है। वह भी अकेले ही।" मोह मुस्कुराई, तो उत्कर्ष ने बस अपना सर हिला दिया। उसे समझ आ चुका था कि मिस्टर बवेजा मोह की यूँ ही तारीफ़ नहीं करते हैं। वह वाकई एक काबिल लड़की है। और उसकी काबिलियत पर उत्कर्ष को अब कोई डाउट नहीं था।
क्रमश:
मिस्टर बवेजा द्वारा दी गई जिम्मेदारी उत्कर्ष और मोह ने बखूबी अपने कंधों पर ले ली थी और उसे पूरा करने के लिए एकजुट हो गए थे। दोनों को साथ में काम करता देख मिस्टर बवेजा को काफी खुशी हुई थी। उनकी यह खुशी दुगुनी तब हुई जब मिस्टर हैरी डिसूजा द्वारा उनकी कंपनी के साथ डील पक्की हुई। इसी खुशी में, मिस्टर हैरी डिसूजा के अमेरिका लौट जाने के बाद, मिस्टर बवेजा ने अपनी कंपनी में एक छोटी सी पार्टी रखी। इसी बीच मोह और उत्कर्ष के बीच थोड़ी बहुत बातचीत का सिलसिला भी शुरू हो गया था।
रात को पार्टी थी। कंपनी के सभी एम्प्लॉयीज़ को निमंत्रण दिया गया था। क्योंकि, अगर आज यह सब संभव हो रहा था, तो वह मिस्टर बवेजा और उनकी दिन-रात की मेहनत के कारण था। मिस्टर बवेजा अपनी फैमिली के साथ जा चुके थे। उन्होंने जानबूझकर उत्कर्ष से कहा था कि वह अपने साथ मोह को लेकर आए। अब उत्कर्ष उनकी बात कैसे टाल सकता था? ब्लैक कलर की फॉर्मल पैंट और शर्ट पहनी, बालों को अच्छे से सेट किया, कलाई पर रिस्ट वॉच पहनी, उसने मुस्कुराकर खुद को आईने में देखा और वहीं रखी एक परफ्यूम की बोतल उठाकर अपनी शर्ट पर स्प्रे किया।
फिर वह अपनी कार के पास आकर खड़ा हुआ और मोह का इंतज़ार करने लगा। करीब पाँच मिनट बाद ही उसे चूड़ियों की खनखन सुनाई पड़ी। अपनी नज़रें ऊपर उठाकर सामने देखा तो मोह, अपनी साड़ी का पल्लू संभाले, उसकी ओर बढ़ती आ रही थी। उसने एक ब्लैक कलर की नेट की साड़ी पहनी हुई थी, जिसमें वह बहुत ही प्यारी लग रही थी। उसकी खुली काली जुल्फ़ें हवा में उड़ रही थीं।
उत्कर्ष का दिल उसे इस अवतार में देखकर धड़क उठा था। वह बस उसे एकटक देखे जा रहा था। ना जाने क्यों, आज उसे मोह और भी प्यारी और खूबसूरत लग रही थी।
"ये आज मुझे इतनी खूबसूरत क्यों लग रही है?" उत्कर्ष खोये से अंदाज़ में खुद से बोला।
"उत्कर्ष! चलें...?" वह उसके पास आकर बोली।
"अं...?"
"मैंने कहा चलें...? वी आर ऑलरेडी लेट..." कहते हुए मोह कार में बैठ गई थी। उत्कर्ष ने अपने बालों में हाथ घुमाया और एक गहरी साँस लेकर बोला,
"डॉन्ट डू दिस उत्कर्ष!" खुद को नॉर्मल करते हुए वह ड्राइविंग सीट पर बैठा और कार पार्किंग से निकालकर ऑफिस की ओर बढ़ा दी।
अभी थोड़ा समय लगने वाला था, सो कार में फैली बोरियत को कम करने के लिए उत्कर्ष ने म्यूजिक सिस्टम ऑन कर दिया। जिस पर गाना चल रहा था:
जब कोई बात बिगड़ जाये
जब कोई मुश्किल पड़ जाये
तुम देना साथ मेरा ओ हमनवा
जब कोई बात बिगड़ जाये
जब कोई मुश्किल पड़ जाये
तुम देना साथ मेरा ओ हमनवा
ना कोई है ना कोई था ज़िन्दगी में तुम्हारे सिवा
तुम देना साथ मेरा ओ हमनवा तुम देना साथ मेरा ओ हमनवा
ड्राइविंग करते हुए ही बेसाख्ता उत्कर्ष की नज़रें मोह की ओर उठीं, जो मुस्कुरा कर इस गाने को एन्जॉय कर रही थी। उसके भी होठों पर एक प्यारी सी मुस्कान आ खिली। उसने वापस अपना ध्यान सामने की ओर किया और मन ही मन गाने के बोलों के साथ बोल उठा:
हो चांदनी जब तक रात
देता है हर कोई साथ
तुम मगर अंधेरों में ना छोड़ना मेरा हाथ
हो चांदनी जब तक रात
देता है हर कोई साथ
तुम मगर अंधेरों में ना छोड़ना मेरा हाथ
जब कोई बात बिगड़ जाये
जब कोई मुश्किल पड़ जाये
तुम देना साथ मेरा ओ हमनवा
ना कोई है ना कोई था ज़िन्दगी में तुम्हारे सिवा
तुम देना साथ मेरा ओ हमनवा
"तुम्हें ओल्ड सॉन्ग्स पसंद हैं...?" मोह ने बात की शुरुआत करते हुए अपना रुख उत्कर्ष की ओर किया। तो उसने बस अपना सिर हिला दिया।
"कभी-कभी जब मन को शांत करना हो तो सुन लेता हूँ।"
"सो तो है वाकई! एक अलग सा सुकून मिलता है इनमें..." वह मुस्कुराई और खिड़की से बाहर देखने लगी।
"तुम चलो, मैं पार्किंग में कार पार्क करके आता हूँ।" कुछ देर बाद उत्कर्ष ने कार ऑफिस की बिल्डिंग के सामने रोकते हुए मोह से कहा। मोह चुपचाप कार से उतर गई और वहाँ से अंदर की तरफ़ बढ़ गई। कुछ देर बाद उत्कर्ष भी अंदर आकर अपनी फैमिली के पास जा खड़ा हुआ था, जबकि मोह अपने बाकी कलीग्स के साथ खड़ी थी। पार्टी शुरू हुए अभी कुछ देर ही हुई थी।
रह-रह कर उत्कर्ष की नज़रें आज मोह को देख रही थीं, वह भी चोरी-छिपे। और उसे यह करते हुए आज अलग ही फील हो रहा था। मन ही मन एक अलग सी खुशी वह फील कर सकता था, जिसका उसे खुद पता नहीं था।
"भाई...ये क्या चल रहा है...?" चिराग़ और परिधी की नज़रें तो बस इस अजीब से दृश्य को देख चमक उठी थीं। वरना उन्हें कहाँ ही देखने को मिलता था अपने भाई का यह रूप।
"क्या हो रहा, क्या...?" उसने अपनी आईब्रो उठाई।
"मोह को नज़र लगाने का इरादा है आज आपका, जो आप यूँ उसे देखे ही जा रहे हैं...?" परिधी ने उसकी टांग खींची तो उत्कर्ष ने उसे आँखें दिखा दीं।
"ऐसा कुछ नहीं है और अपने दिमाग़ के घोड़े ज़्यादा ना दौड़ाओ, तुम दोनों...क्योंकि! जैसा तुम सोच रहे हो वैसा कभी हो नहीं सकता। शी इज़ नॉट माय टाइप..." कहते हुए उत्कर्ष वहाँ से आगे बढ़ गया।
"ये आज भाई की जुबान और आँखों का तालमेल सही नहीं बैठ रहा। ज़ुबान से कुछ कह रहे हैं आँखें कुछ अलग ही कहानी बयाँ कर रही हैं...? आखिर माज़रा क्या है...?" चिराग़ ने परिधी की ओर देखकर कहा तो परिधि बस मुस्कुरा दी। जबकि उसकी नज़रें अपने से थोड़ा दूर खड़ी मोह पर थीं, जो अपने कलीग्स के साथ बातों में मशगूल थी।
क्रमश:
"मोह!" पार्टी खत्म होने के बाद सभी घर आ गए थे। मोह आउट हाउस की तरफ जाने लगी, तभी उत्कर्ष ने उसका नाम पुकारा। अपना नाम सुनकर मोह के बढ़ते कदम रुक गए। उसने तुरंत पीछे मुड़कर देखा तो उत्कर्ष उसे ही देख रहा था।
"हां..?"
"वो....वो.....मै....." वह एक बार फिर मोह के शांत से चेहरे पर खो सा गया था। उसकी जुबान ने भी साथ छोड़ दिया था।
"उत्कर्ष! उत्कर्ष! उत्कर्ष!" मोह ने उसके पास आकर उसका कंधा झंझोड़ा। उत्कर्ष ने थोड़ा चौंकते हुए उसे देखा।
"क्या हुआ..?"
"ये तो मुझे तुमसे पूछना चाहिए कि तुम्हें क्या हुआ..? कहाँ खो गए थे..?" उसके ऐसे अजीब से बर्ताव पर मोह ने उलझी सी नज़रों से उसे देखा।
"कुछ नहीं! मैं तो बस ये कह रहा था कि जब हम दोनों को ऑफिस ही जाना है तो क्या ना हर रोज़ सुबह साथ में चलें..?" कहते हुए वह मोह के जवाब का इंतज़ार करने लगा था।
"नहीं! मैं ठीक हूँ...वैसे भी मुझे आदत है बसों में धक्के खाने की..." मोह को वह दिन याद आ गया था जब उत्कर्ष ने उसे बस स्टॉप पर छोड़ दिया था।
उत्कर्ष कुछ नहीं बोल पाया। क्योंकि वह यह बात काफी अच्छे से महसूस कर सकता था कि, भले ही पिछले कुछ दिनों में उनके बीच सही से बातें हुई हों, लेकिन मोह आज भी उससे नाराज़ है।
"आई एम सॉरी मोह! आई नो कि मैंने जो किया वह गलत किया। मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था। मैं बहुत शर्मिंदा हूँ अपनी की गई हरकत पर..." उत्कर्ष की नज़रें झुक सी गई थीं।
मोह ने कुछ क्षण उत्कर्ष के मासूम और मायूस से चेहरे को देखा और फिर बिना कुछ कहे एकदम खामोशी से वहाँ से चली गई। मोह के जाते ही उत्कर्ष ने उदास नज़रों से उसे देखा और थके कदमों के साथ अंदर की ओर बढ़ गया।
सुबह ऑफिस के लिए तैयार होकर उत्कर्ष जैसे ही बाहर आया, मोह उसे गेट से बाहर जाती हुई दिखी। उसने उसे जाते हुए देखा, एक ठंडी साँस लेकर वह अपनी गाड़ी की ओर बढ़ा, फिर कुछ सोचकर उसके होठों पर मुस्कान तैर गई। उसने अपने हाथ में मौजूद कार की चाबी की ओर देखा। फिर अपने कदम गेट की ओर बढ़ाते हुए उसने अपनी चाबी सिक्योरिटी गार्ड की तरफ उछाली, तो लपक कर उसने तुरंत पकड़ी।
"आज कार को सर्विस के लिए भेज दो..." कहते हुए वह गेट से बाहर निकल गया था।
"लेकिन! एक हफ़्ता पहले तो गाड़ी सर्विस होकर आई थी। क्या बाबा भूल गए..?" उत्कर्ष के वहाँ से जाते ही सिक्योरिटी गार्ड अपना सिर खुजलाते हुए खुद से बोला।
मोह रोड के किनारे-किनारे चल रही थी, तो वहीं उत्कर्ष उसके पीछे। कुछ दूर चलने के बाद मोह को अहसास हुआ कि कोई उसका पीछा कर रहा है। वह चलते हुए धीरे से मुड़ी, तो अपने पीछे आते उत्कर्ष को देखकर थोड़ा चौंक गई।
"तुम..?"
"हाँ.. क्यों! इतनी हैरान क्यों हो रही हो..?"
"ऑफिस नहीं जाना तुम्हें..?"
"वही तो जा रहा हूँ.."
"लेकिन! तुम तो कार से जाते हो ना..?"
"हाँ, लेकिन! आज कार की सर्विस करवानी है। इसलिए आज मैं भी बस से जाऊँगा।" उत्कर्ष ने कहा और मुस्कुराकर आगे की तरफ बढ़ गया। जबकि मोह हैरत में उसे ही देख रही थी। लेकिन फिर अपना सिर झटक कर उसके पीछे चल दी।
"कभी पहले ट्रैवल किया है बस से..?" उसकी बराबर में चलते हुए मोह ने सवाल किया, तो उत्कर्ष ने बस हुँकार भरी।
"उहूँ..."
"कभी नहीं..?"
"नहीं ना.."
"और जब लंदन में थे तब अगर तुम्हें कहीं जाना पड़ता तो कैसे जाते थे..?"
"वहाँ मेरी कार थी।"
"ओह्ह्ह्ह! मैं तो भूल गई, तुम तो सोने का चम्मच लेकर पैदा हुए..." मोह ने तंज कसा।
"नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है। पहले हमारी भी मिडिल क्लास फैमिली ही थी। पापा उस टाइम किसी कंपनी में जॉब करते थे। लेकिन पापा की मेहनत से और ऊपर वाले के रहम-ओ-करम से आज हम यहाँ हैं। आज हमारे पास सब कुछ है।" उत्कर्ष की आँखों में अचानक चमक आ गई थी। मोह कुछ नहीं बोली।
दोनों बस स्टॉप पर आकर खड़े हुए, तभी मोह को बस आती हुई नज़र आई। उसने उत्कर्ष की ओर देखा और मुस्कुरा दी। बस आकर बस स्टॉप पर रुकी। यह तो शुक्र था कि आज बस में ज़्यादा भीड़ नहीं थी। लेकिन कोई सीट भी खाली नहीं थी। दोनों बस में चढ़े तो मोह एक सीट के सहारे खड़ी हो गई। उत्कर्ष अजीब सी नज़रों से कभी बस में मौजूद पैसेंजर्स को देखता तो कभी मोह को, जो मुस्कुरा कर उसे देख रही थी।
"क्या हम खड़े होकर जाएँगे..?"
"क्यों प्रॉब्लम है..?"
"नहीं! नहीं! मैं तो बस यूँ ही पूछ रहा था।" कहते हुए उत्कर्ष ने एक गहरी साँस ली और विंडो की एक रॉड को पकड़ा ताकि उसका बैलेंस बना रहे। मोह ने मुस्कुराकर अपना चेहरा दूसरी तरफ फेर लिया। आगे ब्रेकर से बस जम्प हुई तो मोह का बैलेंस बिगड़ा, वह गिरती, उससे पहले ही उसके सामने खड़े उत्कर्ष ने उसे अपनी बाहों में थाम लिया। एक क्षण के लिए दोनों की नज़रें मिलीं, पर मोह ने तुरंत अपनी नज़रें चुरा लीं।
"ठीक हो..?"
"हाँ"
"मैंने पकड़ा हुआ है। नहीं गिरने दूँगा।" उत्कर्ष ने बड़ी चाह से मोह की ओर देखकर कहा। तो ना चाहते हुए भी मोह की धड़कनें तेज हो उठीं। अब उसमें हिम्मत नहीं थी कि एक बार निगाहें उठाकर उसकी ओर ही देख ले। जबकि उत्कर्ष उसे ही एकटक देखे जा रहा था। वह भूल चुका था कि वह किसी पब्लिक प्लेस पर था, वह भूल चुका था कि उन दोनों के अलावा भी यहाँ लोग थे। अगर उसे इस वक्त कोई दिख रहा था तो वह सिर्फ़ मोह थी।
क्रमश: