" पिया तौसे नैना लागे ! " एक सामाजिक और पारिवारिक पृष्ठभूमि पर आधारित काल्पनिक कहानी है , जो एक ऐसी युवती ' निष्ठा ' की भावनात्मक यात्रा को दर्शाती है , जिसे उसके सपनों और उसकी इच्छा के विरुद्ध एक अनचाही शादी में बांध दिया जाता है । यह कहानी निष्ठा क... " पिया तौसे नैना लागे ! " एक सामाजिक और पारिवारिक पृष्ठभूमि पर आधारित काल्पनिक कहानी है , जो एक ऐसी युवती ' निष्ठा ' की भावनात्मक यात्रा को दर्शाती है , जिसे उसके सपनों और उसकी इच्छा के विरुद्ध एक अनचाही शादी में बांध दिया जाता है । यह कहानी निष्ठा के ससुराल में उसके संघर्ष, उम्मीदों और रिश्तों के बदलते रंगों को लेकर आगे बढ़ती है । यह कहानी नारी मन, पारिवारिक जिम्मेदारियों और प्रेम की कोमल परतों को उकेरती है । सभी पात्र और घटनाएं लेखक की कल्पना पर आधारित हैं । इसका उद्देश्य केवल मनोरंजन ।
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एक कमरे में लाल बनारसी साड़ी में लिपटी, वह किसी दुल्हन की तरह तैयार होकर कुर्सी पर बैठी थी। चेहरे पर चिंता की लकीरें उभर आई थीं। मन बेचैन हो रहा था। जैसे-जैसे समय आगे बढ़ रहा था, वैसे-वैसे उसकी घबराहट बढ़ती जा रही थी। तभी उस कमरे का दरवाज़ा खुला और एक औरत कमरे में दाखिल हुई।
"निष्ठा बेटा! चलो, पंडित जी बुला रहे हैं फेरों के लिए।"
वह लड़की, यानी निष्ठा, तुरंत परेशान होकर बोली,
"लेकिन! मां, हमें शादी नहीं करनी। हमें अपना सपना पूरा करना है।"
"बस! एक बार फिर अगर तुमने सपने का ज़िक्र किया तो अभी पीट जाओगी मेरे हाथों। थक गई मैं तुम्हारे इस नृत्य के प्रति पागलपन देखकर। पढ़ा-लिखा दिया, बस बात खत्म। ब्याह करके अपने घर जाओ और अपनी घर-गृहस्थी सम्हालो।" निष्ठा की मां ने उसे डांटते हुए कहा। निष्ठा की आँखों में आँसू भर आए। निष्ठा की मां ने उसके चेहरे पर घूँघट डाला और उसका हाथ पकड़कर जबरदस्ती ले जाने लगी। निष्ठा बेजान सी उनके साथ खींची चली गई।
शादी में कुछ मुख्य मेहमान ही शामिल हुए थे। निष्ठा की मां ने निष्ठा को दूल्हे के पास मंडप में बिठा दिया। निष्ठा मंडप में बैठी, घूँघट के अंदर ही रो रही थी। उसके पास बैठा दूल्हा अपने सामने खड़े अपने पिताजी को नाराज़गी से देख रहा था। उसके चेहरे पर भी कोई खुशी नज़र नहीं आ रही थी इस शादी की। मानो यह शादी उसे किसी दबाव में आकर करनी पड़ रही थी।
दो दिन बाद, उस तंग गली में मौजूद एक सामान्य सा मकान, जो काफी सालों पहले बनाया गया था, दिखाई दिया। दीवारों पर पड़ी दरारें यह बात साबित कर रही थीं। तीन कमरे एक कतार में थे और सामने आँगन खुला पड़ा था। जिसमें बीच-बीच में तुलसी लगाई गई थी। उसके आस-पास बहुत से फूलों के गमले रखे गए थे। और एक जामुन का बड़ा सा पेड़ भी आँगन में मौजूद था। रसोई, तीसरे कमरे के आगे थी, लेकिन दोनों में थोड़ा गैप था।
घड़ी की सुइयाँ सुबह के 5 बजा रही थीं। सूरज की किरणों ने अभी तक दस्तक नहीं दी थी, इसलिए खासा अँधेरा देखने को मिल रहा था। मुख्य द्वार के पास वाले कमरे का दरवाज़ा आहिस्ता से खुला और राम नाम का जाप करते हुए एक बुज़ुर्ग व्यक्ति कमरे से बाहर निकले। ये थे मुरारी पुरोहित। उनके एक हाथ में ताँबे की एक छोटी लोटा थी। वह तुलसी के पास आए, लोटा में मौजूद पानी तुलसी में डाला, और दोनों हाथ जोड़कर खड़े हो गए।
"बाबूजी! आप उठ गए...?" उनका बड़ा बेटा प्रत्यक्ष उनके ही कमरे से बाहर निकला, अपनी आँखें मलते हुए।
"हाँ, उठ गया। देख, बहू उठी कि नहीं!"
"कुछ काम है...?" प्रत्यक्ष के माथे पर बल पड़ गए थे।
"एक कप चाय बनवा दे।" कहते हुए मुरारी जी वापस अपने कमरे में चले गए। प्रत्यक्ष ने काफी देर सोचा और फिर अपने कदम दूसरे कमरे की ओर बढ़ा दिए। दरवाज़ा खटखटाया तो अंदर सो रही निष्ठा की आँखें झट से खुलीं। दरवाज़ा खुला हुआ था, लाइट्स बंद थीं, लेकिन कमरे में जाने से प्रत्यक्ष थोड़ा हिचकिचा रहा था। निष्ठा ने उठकर जल्दी से अपनी साड़ी का पल्लू सिर पर जमाया और बेड से उतरकर दरवाज़े पर आई। आँगन में लगे पीले बल्ब की रोशनी जैसे ही निष्ठा के चेहरे पर पड़ी, प्रत्यक्ष उसे देखता ही रह गया। लाल रंग की सूती साड़ी में लिपटी, मांग में भरा सिंदूर और गले में मौजूद मंगलसूत्र उसे सुहागन स्त्री होने का दर्जा दे रहे थे। दूधिया रंगत, हिरणी जैसी आँखें जो काजल से सजी हुई थीं, कलाइयों में भरी-भरी चूड़ियाँ और हाथों पर लगी मेहँदी...
"जी...?" निष्ठा ने अपना पल्लू सही करते हुए धीमे से कहा।
"वो...वो बाबूजी के लिए एक कप चाय।" प्रत्यक्ष ने अपनी नज़रें उसके चेहरे से हटाते हुए अपनी गंभीर सी आवाज़ में कहा।
"इस समय...?" निष्ठा ने लाचारी से कहा।
"बाबूजी इसी समय उठते हैं और इसी समय चाय पीते हैं। तो अब हर रोज़ आदत डाल लो इस समय उठने की, क्योंकि यह तुम्हारा मायका नहीं है, ससुराल है। यहाँ के कुछ तौर-तरीके हैं, जिन्हें तुम्हें सीखना होगा।" प्रत्यक्ष ने अपनी गंभीर सी आवाज़ में कहा।
"जी।" मन-ही-मन कुढ़ते हुए निष्ठा रसोई की तरफ़ चली गई।
प्रत्यक्ष ने अपना सिर ना में हिलाया और कमरे में अंदर चला गया जहाँ पर उसका छोटा भाई पूर्ण सो रहा था। उसकी उम्र लगभग दस साल के आस-पास ही थी। उसने प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरा और नीचे झुककर उसके माथे को चूमा। "भाभी के आते ही भाई को भूल गया।" उसने मुँह बनाया। तभी रसोई से बर्तन गिरने की आवाज़ आई। प्रत्यक्ष तुरंत रसोई में आया।
"ये क्या हो रहा है? इतनी बर्तनों की आवाज़ क्यों आ रही है...?"
"वो...गलती से छूट गया जी।" निष्ठा ने घबराते हुए कहा।
प्रत्यक्ष ने एक गहरी साँस ली और निष्ठा को साइड कर खुद ही चाय बनाने लगा। "पहले इन बंद आँखों को खोल लो।"
"जी...?" निष्ठा समझी नहीं उसकी बात। उसने उलझी नज़रों से उसे देखा।
"नींद आ रही है तुम्हें। सो जाओ वापस जाकर।"
"लेकिन चाय...?"
"हर रोज़ मैं बनाता था और आज भी बना लूँगा।"
"नहीं जी! आप क्यों बनाएँगे मेरे रहते। हटिए..." निष्ठा ने कहा, लेकिन प्रत्यक्ष ने उसे घुरा तो वह चुपचाप फर्श पर बैठ गई। प्रत्यक्ष चाय बनाने लगा।
"कितने बजे उठती थी तुम अपने घर...?"
"जी, सात बजे!" निष्ठा ने संकोच करते हुए कहा।
"लेकिन! तुम्हारी मम्मी तो कह रही थी कि हमारी बेटी 5 बजे उठकर पूजा करती है...?" प्रत्यक्ष ने शक भरी नज़रों से उसे देखा तो निष्ठा का गला सूख गया। अब क्या कहे, उसे भी कुछ समझ नहीं आया। प्रत्यक्ष ने अपना सिर ना में हिला दिया।
"बाबूजी ने भी झूठों से यहाँ ब्याह करवा दिया। अब झेलो सारी उम्र!" प्रत्यक्ष ने ज़रा संकोच नहीं किया था यह बोलते हुए। यह बात निष्ठा को चुभ गई थी।
चाय बन गई तब उसने एक कप में छानी और उसे लेकर रसोई से बाहर चला गया। यह कहता हुआ, "पूर्ण आज स्कूल जाएगा तो उसका टिफिन समय पर तैयार कर देना, कहीं कल की तरह उसे बिना टिफिन के ही जाना पड़े।"
"जी! जी!" निष्ठा ने अपनी गर्दन हिला दी। प्रत्यक्ष के जाने के बाद निष्ठा उदास होकर बैठ गई। "सोचा था कि शादी के बाद अपने हर ख़्वाब पूरे करूंगी, लेकिन दो दिन में ही पता चल गया कि इस घर में मेरा तो कुछ नहीं हो सकता। और ऊपर से यह प्रत्यक्ष जी सीधे मुँह बात करके खुश नहीं... अरे! आखिर हूँ तो पत्नी ही इनकी। काश! हम भागते हुए पकड़े ही नहीं जाते तो आज कहीं और होते। ना जाने किस चीज़ की सज़ा दी मुझे बाबा ने यहाँ ब्याह कर..." कहती हुई उसकी हिरणी जैसी आँखों में मोटे-मोटे आँसू छलक पड़े थे।
"आलू के पराठे बना देना।" बाहर से प्रत्यक्ष ने कहा तो अपने आँसू साफ कर उदास मन के साथ निष्ठा खाना बनाने लगी।
धीरे-धीरे अँधेरा छटने लगा था और सूरज की किरणें हर तरफ़ फैल गई थीं। प्रत्यक्ष पूर्ण को लेकर चला गया था। वह पहले उसे स्कूल छोड़ने वाला था और फिर दुकान पर जाने वाला था। उनकी मेन मार्केट में स्टेशनरी शॉप थी, जो खासी अच्छी चल रही थी। पहले मुरारी जी सम्भालते थे, लेकिन उन्हें दिल का दौरा पड़ा था, उसके बाद अक्सर वह बीमार रहने लगे। इसलिए प्रत्यक्ष को अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़ अपने बाबा की जगह सब सम्भालना पड़ा था।
उनके जाने के बाद निष्ठा घर की सफाई में लग गई। मुरारी जी अपने दोस्त के यहाँ चले गए थे। आठ बजे तक निष्ठा ने घर का सारा काम कर लिया था। वह नाश्ता करने के लिए बैठी ही थी कि तभी किसी ने दरवाजे पर दस्तक दी। निष्ठा ने एक गहरी साँस ली और अपने नाश्ते की प्लेट वहीं रसोई में छोड़कर जाकर दरवाज़ा खोला तो सामने थका-हारा सा श्रवण खड़ा था।
श्रवण हल्का सा मुस्कुराया और अंदर चला गया। निष्ठा ने दरवाज़ा बंद किया।
"पानी!" निष्ठा उसके लिए पानी लेकर आई।
"थैंक्यू भाभी।"
"नाश्ता लगा दूँ...?"
"मैं पहले नहाऊँगा।"
"हम्म।" कहती हुई निष्ठा रसोई में चली गई।
श्रवण ने निष्ठा को जाते हुए देखा और फिर मुस्कुराकर पानी पीने लगा। मुरारी जी के तीन बेटे थे। सबसे बड़ा प्रत्यक्ष, फिर श्रवण और सबसे छोटा पूर्ण। प्रत्यक्ष दुकान सम्भालता था। श्रवण हॉस्पिटल में अपनी प्रैक्टिस कर रहा था नर्सिंग की। कल रात उसकी नाईट ड्यूटी थी इसलिए वह सुबह आया था।
दोपहर को प्रत्यक्ष खाना खाने आया तो देखा कि निष्ठा घोड़े बेच आराम से कमरे में सो रही थी। प्रत्यक्ष ने कुछ देर दरवाज़े पर खड़े होकर उसे घुरा और फिर अपना सिर ना में हिलाकर खुद रसोई में चला गया। खाना खाकर वह वापस दुकान पर चला गया था।
क्रमशः
दोपहर को जब प्रत्यक्ष खाना खाने आया, तो उसने देखा कि निष्ठा घोड़े की तरह आराम से कमरे में सो रही थी। प्रत्यक्ष कुछ देर दरवाजे पर खड़े होकर उसे घूरता रहा, और फिर सिर ना में हिलाकर खुद रसोई में चला गया। खाना खाकर वह वापस दुकान पर चला गया।
पूर्ण घर आया तब निष्ठा सोकर उठी। उसने अपने कपड़े बदले और फिर खाना खिलाकर स्कूल का काम लेकर बैठ गई। पूर्ण ने थोड़ी देर काम किया और फिर निष्ठा की ओर देखकर बोला,
"भाभी मां!"
"हां..?"
"वो आज मैंने अपने दोस्तों से कहा कि मेरी नई भाभी मां आई है। तो आपको पता है वे क्या बोले?" कहते हुए पूर्ण रुक गया।
"क्या बोले..?" निष्ठा ने जिज्ञासापूर्ण स्वर में पूछा।
"वो बोले कि अब तेरी भाभी तुझे और तेरे बाबा को घर से निकाल देगी। मैंने उनसे बोल दिया कि मेरी भाभी मां ऐसी नहीं है। (थोड़ा रुककर) क्या आप सच में ऐसा करेंगी..? भाभी मां! आप हमें इस घर से बाहर निकाल देंगी..? प्लीज आप ऐसा मत कीजिएगा। वरना मेरे दोस्त मुझ पर हँसेंगे। मैं और बाबा तो पेड़ के नीचे रह लेंगे, लेकिन आप हमें इस घर से बाहर मत निकालिएगा।" कहते हुए पूर्ण दुखी सा हो गया था। उसकी बात सुनकर निष्ठा अवाक सी होकर उसे देख रही थी।
"भाभी मां! क्या आप सच में हमें इस घर से..."
"पागल हो क्या..? कुछ भी बोल रहे हो। क्या मैंने ऐसा कहा कि मैं किसी को घर से बाहर निकालूँगी? तुम्हारे दोस्त तो पागल हैं जो कुछ भी बोलते रहते हैं। कल मैं चलूँगी तुम्हें स्कूल छोड़ने। मुझे बताना कि कौन सा बच्चा है वह, जो तुम्हारे दिमाग में यह सब घुस रहा है, कान खिंचूँगी उसके। फ़िलहाल! तुम अपना काम करो..." निष्ठा गुस्से में बोली तो पूर्ण बिना कुछ कहे अपना काम करने लगा। निष्ठा ने आहिस्ता से उसके सिर पर हाथ फेरा और अपना सिर ना में हिला दिया।
स्कूल का काम खत्म करने के बाद पूर्ण अपने दोस्त के पास खेलने गली पर चला गया। निष्ठा कमरे से बाहर आई तो उसकी नज़र बिना धुले हुए कपड़ों पर गई, जो बाथरूम के बाहर तार पर लटके हुए थे। उसने एक गहरी साँस ली और आगे बढ़ गई। उसने सभी कपड़े तार से उतारे और एक बड़े से टब में पानी भरकर उनमें डाल दिए। और वहीं बैठकर कपड़े धोने लगी। कपड़े तार पर सुखाने के बाद जैसे ही वह फ्री हुई, तभी मुरारी जी ने चाय के लिए आवाज़ लगा दी। निष्ठा ने समय देखा तो शाम के 4 बज रहे थे। वह चुपचाप रसोई में घुस गई और चाय बनाने लगी। उसने मुरारी जी, श्रवण और अपने लिए चाय बनाई। पहले उसने एक कप चाय मुरारी जी के कमरे में दे आई और फिर अपनी और श्रवण की चाय लेकर उसके कमरे में आ गई। श्रवण शायद अभी उठा था और फ़ोन चला रहा था। निष्ठा को अपने कमरे में आता देख उसने फ़ोन बंद किया और तुरंत उठकर बैठ गया।
"भाभी आप..?"
"चाय बनाई थी तो सोचा कि तुम्हारे लिए भी ले आऊँ।"
"थैंक्यू।" कहते हुए श्रवण ने चाय का प्याला अपने हाथ में ले लिया। निष्ठा वहीं बेड पर बैठ गई और चाय पीने लगी। "हॉस्पिटल जाओगे आज..?"
"हाँ! 7 बजे जाऊँगा। आज और नाईट ड्यूटी है, फिर मॉर्निंग की होगी।" श्रवण ने धीरे से कहा।
"अच्छा।" निष्ठा ने बस अपना सिर हिला दिया।
चाय पीने के बाद निष्ठा रसोई में आकर रात के खाने की तैयारी करने लगी। कुछ देर बाद पूर्ण खेलकर वापस घर आ गया, और करीब 6:30 बजे दुकान बंद करके प्रत्यक्ष भी लौट आया। रात के 9 बजे तक निष्ठा काम से फ्री हो गई थी। वह कमरे में आई तो देखा कि प्रत्यक्ष और पूर्ण दोनों बेड पर लेटे हुए टीवी देख रहे थे। निष्ठा ने अपनी साड़ी का पल्लू सिर से हटाया और पूर्ण के पास बैठ गई। प्रत्यक्ष ने एक नज़र निष्ठा को देखा और फिर दीवार घड़ी में समय देखा। वह बेड से उठा और पूर्ण की ओर देखकर बोला,
"चल सोने चलते हैं।"
"नहीं! भाई, मैं भाभी मां के पास ही सोऊँगा।" कहते हुए पूर्ण तुरंत निष्ठा से लिपट गया।
"पूर्ण!" प्रत्यक्ष ने उसे घूरते हुए कहा। तो पूर्ण ने निष्ठा से लिपटे हुए ही अपनी गर्दन ना में हिला दी। निष्ठा हल्का सा मुस्कुराई और पूर्ण के सिर पर हाथ फेरते हुए प्रत्यक्ष की ओर देखकर अपनी मीठी सी आवाज़ में बोली,
"अगर यह मेरे पास सोना चाहता है तो सोने दीजिए ना। और वैसे भी यह मुझे बिल्कुल तंग नहीं करता है।"
निष्ठा की बात सुनकर प्रत्यक्ष ने एक गहरी साँस ली और कमरे से बाहर चला गया। प्रत्यक्ष के जाने के बाद पूर्ण ने खुश होकर निष्ठा के गाल को चूम लिया।
"आप बहुत अच्छी हैं भाभी मां।"
"अच्छा! बदमाश।" निष्ठा हँस दी।
फिर दोनों टीवी में कोई कार्टून देखने लगे। प्रत्यक्ष मुरारी जी के कमरे में आया तो देखा कि वे सो चुके थे। वह भी वहीं बिछी चारपाई पर लेट गया और सोने के लिए आँखें बंद कीं, कि सहसा ही उसकी आँखों के सामने निष्ठा का मासूम सा चेहरा आ गया। प्रत्यक्ष ने झट से आँखें खोल लीं। "मैं इसके बारे में ज़्यादा सोच रहा हूँ।" उसने मन ही मन कहा और अपना सिर झटक दिया।
अगली सुबह प्रत्यक्ष पूर्ण को स्कूल छोड़ने जा ही रहा था कि तभी निष्ठा लगभग दौड़ते हुए दरवाजे पर आई।
"सुनिए जी!"
"क्या हुआ..?" प्रत्यक्ष झल्लाकर पूछा। तो निष्ठा थोड़ी सहम सी गई।
"वो...वो क्या आज हम भी चलें पूर्ण को स्कूल छोड़ने साथ में..?"
"तुम क्या करोगी..?"
"भाई ले चलिए ना प्लीज।" पूर्ण ने उसका हाथ पकड़कर बोला। प्रत्यक्ष ने पूर्ण को घूरकर धीरे से बोला,
"आ जाओ।"
प्रत्यक्ष की हाँ सुनकर निष्ठा तुरंत अंदर की तरफ़ भागी और सब कुछ बंद करके अपने पल्लू को सिर पर जमाते हुए बाहर निकल आई। प्रत्यक्ष आगे चलने लगा तो वहीं निष्ठा पूर्ण का हाथ पकड़े एक दूरी बनाकर चल रही थी।
"भाभी मां आप मेरे फ़्रेंड्स को पीटने जा रही हैं।"
"ऐसा ही कुछ समझ, बस तुम अपने भाई को सम्हाल लेना, बाकी सब मैं सम्हाल लूँगी।" निष्ठा के होठों पर एक रहस्यमय मुस्कान थी।
"जल्दी चलो।" निष्ठा और पूर्ण को कुसुफ़ुस करते हुए चलते देख प्रत्यक्ष मुड़कर अपनी गंभीर सी आवाज़ में बोला और दोनों ने अपने चलने की रफ़्तार थोड़ी बढ़ाई।
क्रमश:
"भाभी मां, आप मेरे फ्रेंड्स को पीटने जा रही हैं?"
"ऐसा ही कुछ समझ, बस तुम अपने भाई को संभाल लेना, बाकी सब मैं संभाल लूंगी।" निष्ठा के होंठों पर एक रहस्यमय मुस्कान थी।
"जल्दी चलो।" निष्ठा और पूर्ण को ख़ुसर-फुसर करते हुए चलते देख प्रत्यक्ष मुड़कर अपनी गंभीर सी आवाज़ में बोला और दोनों ने अपने चलने की रफ़्तार थोड़ी बढ़ाई।
कुछ देर बाद तीनों स्कूल के बाहर खड़े थे। निष्ठा ने प्रत्यक्ष की ओर देखा। "मैं ज़रा इसे अंदर तक छोड़ कर आती हूँ।"
"ये चला जाएगा।" प्रत्यक्ष ने कहा।
"छोड़ कर आने दो ना भाई।" पूर्ण ने मुँह लटकाते हुए कहा।
"ठीक है, जाओ, लेकिन जल्दी आना।"
"हम्मम्।" निष्ठा उसका हाथ पकड़े अंदर की तरफ़ बढ़ गई। वे दोनों मेन गेट से अंदर आए ही थे कि पूर्ण पार्क की ओर इशारा करके बोला, "भाभी मां, वो मोंटी वहाँ पर है।"
"जाओ, बुला कर लेकर आओ उसे मेरे पास।" निष्ठा ने दूर से उस बच्चे को देखा, मोंटी! एकदम गोलू-मोलू सा। पूर्ण भागते हुए गया और मोंटी के पास आकर बोला, "ओए मोटू, चल, मेरी भाभी मां तुझे बुला रही है।"
"मैं क्यों जाऊँ?" पूर्ण की बात सुन मोंटी थोड़ा डर सा गया।
"चल, वरना मेरी भाभी मां यहीं आ जाएगी। फिर तुझे बहुत मारेगी।" पूर्ण ने आँखें दिखाईं तो मोंटी थोड़ा डर सा गया। वह चुपचाप उसके साथ निष्ठा के पास आया। निष्ठा ने उसे घुरा और झट से उसका कान पकड़, बोली, "क्या कह रहे थे तुम पूर्ण को...?"
"क...कुछ भी नहीं।" मोंटी थोड़ा डर सा गया।
"तो फिर ये यूँ ही कह रहा था? हाँ, बोलो...?" निष्ठा ने उसे डराने के लिए अपनी आँखों को बड़ा किया। तो मोंटी और डर गया। निष्ठा ने हल्के से उसके कान को मरोड़ा और उसे धमकाते हुए बोली, "अगर आगे से तुमने पूर्ण को ज़रा भी परेशान किया तो देख लेना, बहुत मारूँगी। भागो अब यहाँ से..." कहते हुए उसने उसका कान छोड़ दिया तो मोंटी, पूर्ण को घूरता हुआ बोला, "मैं अपनी मम्मी को बताऊँगा।"
"हाँ! हाँ! बता देना, मैं नहीं डरती तुम्हारी मम्मी से।" निष्ठा ने उसे आँखें दिखाईं तो वह डर कर वहाँ से भाग गया। पूर्ण ने मुस्कुरा कर निष्ठा को देखा और उसे बाय कहकर अपनी क्लास की तरफ़ चला गया। पूर्ण के जाने के बाद निष्ठा भी बाहर चली आई थी। प्रत्यक्ष उसके आने का ही इंतज़ार कर रहा था।
"घर चली जाओगी...?"
"हाँ।" निष्ठा ने अपना सिर हिला दिया।
"ठीक है। मैं यहीं से दुकान पर जा रहा हूँ।" कहते हुए प्रत्यक्ष वहाँ से चला गया। निष्ठा भी घर की ओर अग्रसर हो गई। घर आने के बाद निष्ठा बचा हुआ काम समेटने लगी। प्रत्यक्ष का यह हर रोज़ का ही था, वह दोपहर को घर खाना खाने आता था। वह आज भी आया तो आज भी निष्ठा को सोता हुआ पाया। के सहसा ही उसके मुँह से निकला, "कितना सोती है यह लड़की।" फिर सिर झटक, खाना खाकर दुकान पर चला गया।
शाम हुई तो आज पूर्ण का बाहर जाने का मन हुआ। श्रवण घर ही था तो उसने श्रवण से कहा कि वह उसे बाहर घुमा कर लाए। तो श्रवण ने मुस्कुरा कर हाँ में सिर हिला दिया था। श्रवण ने निष्ठा को भी साथ चलने का कहा तो वह भी उनके साथ चली गई। घूम कर जब तीनों वापस घर आए तो निष्ठा को कुछ अजीब सा लगा। आँगन में आने के बाद उसे महसूस हुआ कि घर पर कोई तो आए हुए थे। निष्ठा थोड़ा और आगे बढ़ी तो उसकी नज़र मोंटी पर पड़ी, जो अपनी मम्मी का हाथ पकड़े खड़ा था। उसके सिर पर पट्टी बंधी हुई थी, मानो सिर पर चोट लगी हो। मोंटी का पापा भी था। मुरारी जी वहीं कुर्सी पर शांत से बैठे हुए थे जबकि प्रत्यक्ष हल्के गुस्से में नज़र आ रहा था। वह समझ गई थी कि कुछ तो गड़बड़ है। मोंटी ने जैसे ही पूर्ण और निष्ठा को देखा, वह तुरंत अपनी मम्मी के पीछे छुपकर बोला, "मम्मी! आ गया पूर्ण।"
मोंटी की मम्मी ने पूर्ण की ओर देखा और गुस्से में बोली, "तुम ही थे ना जिसने मेरे फूल से मोंटी का सिर फोड़ा...?"
मोंटी की मम्मी की बात सुन पूर्ण ने उलझी नज़रों से उसे देखा। यह कब हुआ था और उसे ही पता नहीं। मुरारी जी ने सख़्त आवाज़ में कहा, "मेरे पास आओ पूर्ण।"
"जी बाबा।" पूर्ण निष्ठा का हाथ छोड़, मुरारी जी के पास खड़ा हो गया।
"तुमने इस बच्चे के साथ लड़ाई की और इसका सिर फोड़ा...?" मुरारी जी ने पूछा।
"नहीं बाबा, मुझे नहीं पता इसके सिर पर चोट कहाँ से लगी, लेकिन मैंने नहीं मारी।" पूर्ण ने तुरंत अपना सिर ना में हिलाते हुए कहा।
"तो मेरा फूल सा बेटा झूठ कह रहा है...?" मोंटी की मम्मी ने आँखें तरेर कर कहा।
"शांति से बात हो सकती है मोंटी की मम्मी।" मोंटी के पापा थोड़े नर्म दिल इंसान लग रहे थे।
"आप तो चुप ही रहिए। यहाँ हमारे बेटे का इस बच्चे ने सिर फोड़ा दिया और आप अभी भी शांति से बात करने का कह रहे हैं।" मोंटी की मम्मी गुस्से में बोली तो मुरारी जी उनके सामने अपने हाथ जोड़कर बोले, "माफ़ कर दीजिएगा, पूर्ण की तरफ़ से हम आपसे माफ़ी माँगते हैं। बच्चा है, हो गई गलती। आइन्दा वह ऐसी कोई हरकत नहीं करेगा।"
"लेकिन बाबा, यह झूठ बोल रहा है।" पूर्ण ने जैसे ही कहा, मुरारी जी ने एक थप्पड़ उसके गाल पर लगाया। के सहसा ही पूर्ण की आँखें नम पड़ गईं। "चुप एकदम!"
यह देख निष्ठा का दिल जैसे कट सा गया। थप्पड़ लगा पूर्ण को था, मगर उसका दर्द निष्ठा अपने गाल पर महसूस कर सकती थी।
"देखो एक दिन में ही मेरे बेटे का फूल सा चेहरा कैसे मुरझा सा गया।" मोंटी की मम्मी ने मोंटी के फूले हुए गालों को छूकर कहा।
"ओ बहन जी! आँखें तुम्हारी ख़राब हैं, किसी और की नहीं...जिसे तुम बार-बार फूल सा बच्चा कह रही हो ना, वो फूल किसी भी ऐंगल से नहीं है। फूल से बच्चे अगर देखने हैं तो मेरे पूर्ण को देखिए। ऐसे होते हैं फूल से बच्चे। साँड को फूल बताते हुए भी लोगों को ज़रा शर्म नहीं आती।" निष्ठा गुस्से में आगे बढ़कर फ़ौरन बोली। वहीं उसकी बात सुन सब हैरान उसे देख रहे थे। सब से ज़्यादा तो प्रत्यक्ष!
क्रमश:
"ओ बहन जी! आँखें तुम्हारी ख़राब हैं, किसी और की नहीं। जिसे तुम बार-बार 'फूल सा बच्चा' कह रही हो ना, वो फूल किसी भी ऐंगल से नहीं है। फूल से बच्चे अगर देखने हैं तो मेरे पूर्ण को देखिए। ऐसे होते हैं फूल से बच्चे। सांड को फूल बताते हुए भी लोगों को ज़रा शर्म नहीं आती।" निष्ठा गुस्से में आगे बढ़ी और फ़ौरन बोली। उसकी बात सुनकर सब हैरान होकर उसे देख रहे थे। सब से ज़्यादा तो प्रत्यक्ष!
"वाह! भई वाह! एक तो चोरी, ऊपर से सीनाजोरी। पूर्ण ने गलती की तो उल्टा हमें ही सुना रही हो तुम।" मोंटी की मम्मी ने कटाक्ष करते हुए कहा।
"निष्ठा, तुम चुप रहो।" प्रत्यक्ष आगे बढ़ा और उसका हाथ पकड़ा। निष्ठा ने गुस्से में उसका हाथ झटक दिया और मुरारी जी के पास आकर पूर्ण का हाथ पकड़कर, धीमे से मगर नाराज़गी जताते हुए बोली, "मुझे नहीं पता कि इस बच्चे को चोट कैसे लगी या किसने मारी, लेकिन मैं इतना ज़रूर बता सकती हूँ कि यह काम पूर्ण ने नहीं किया। पूर्ण मना कर रहा है कि उसने नहीं किया, इसके बावजूद भी आप उसकी बात का यकीन नहीं कर रहे, बाबू जी। मैं सच में हैरान हूँ कि आपको अपने बच्चों पर यकीन नहीं है," मोंटी की मम्मी को घूरते हुए, "और किसी की बात पर यकीन कर रहे हैं... चलो पूर्ण! चाहे किसी को तुम्हारी बात पर यकीन हो या ना हो, लेकिन तुम्हारी भाभी-माँ को तुम पर पूरा यकीन है।" कहते हुए निष्ठा पूर्ण को अपने साथ कमरे में ले गई।
"हूँह! लोगों को तो सच्चाई भी चुभती है। चलो मोंटी के पापा..." मोंटी का हाथ पकड़कर मोंटी की मम्मी उसे वहाँ से ले गई। मोंटी के पापा मुरारी जी की ओर देखकर बोले, "गलती हो जाती है बच्चों से। बात को यहीं पर छोड़ते हैं।" कहते हुए उन्होंने अपने हाथ जोड़े और वहाँ से चले गए।
उनके जाने के बाद मुरारी जी एकदम ख़ामोश होकर बैठ गए। प्रत्यक्ष उनके पास आया और धीरे से बोला, "जाने दीजिए ना बाबू जी।"
"इस बात को छोड़ो। यह क्या तरीका था सबके सामने बात करने का, बहुरिया का...?" मुरारी जी को निष्ठा का बोलना वाकई खटका था। बेशक! उसने सच कहा था, मगर फिर भी निष्ठा का यूँ ही बोलना उनसे बर्दाश्त नहीं हो रहा था। वे एकदम रूढ़िवादी ख़यालात के थे।
उनकी बात सुनकर प्रत्यक्ष क्या ही कहता। श्रवण आगे आया और उनसे बोला, "तो उन्होंने ग़लत थोड़ी कहा...? जब पूर्ण मना कर रहा था कि उसने उस बच्चे को नहीं मारा था, तो नहीं मारा, बात ख़त्म। लेकिन! आपने बिना उसकी सुने सीधा उसे थप्पड़ मार दिया। बाबू जी, बच्चा है, मगर वह समझता है कि उसके लिए क्या सही है और क्या ग़लत। मुझे नहीं लगा कि भाभी ने कुछ भी ग़लत कहा।"
"श्रवण! मैंने तुमसे सलाह नहीं ली।" मुरारी जी सख़्त आवाज़ में बोले। श्रवण अपना सिर हिलाकर वहाँ से अपने कमरे में चला गया। मुरारी जी ने प्रत्यक्ष की ओर देखा और बोले, "अच्छे से समझा दो उसे कि आइंदा वह इस लहज़े में बात ना करे जिस लहज़े में उसने आज की है। वह इस घर की बहू है और बहू को अपनी मर्यादा में रहना चाहिए।"
"ज...जी, मैं समझा दूँगा।" प्रत्यक्ष ने तुरंत अपनी गर्दन हिला दी। मुरारी जी कुर्सी से उठकर अपने कमरे में चले गए। उनके जाने के बाद प्रत्यक्ष ने एक गहरी साँस ली और अपना रुख अपने कमरे की ओर किया। अंदर कमरे में आया तो देखा कि निष्ठा के सीने से लगकर पूर्ण सिसक रहा था और वह उसे चुप करवा रही थी। कुछ देर प्रत्यक्ष ने उन दोनों देवर-भाभी को देखा और फिर आगे बढ़कर पूर्ण को निष्ठा से दूर कर दिया। यह देख निष्ठा तुरंत बोली, "ये आप क्या कर रहे हैं?"
"चुप! अगर तुम्हारी रोने की आवाज़ भी आई तो पीट दूँगा।" प्रत्यक्ष ने पूर्ण की ओर देखकर गुस्से में कहा। पूर्ण ने रोते हुए निष्ठा की ओर देखा। निष्ठा आगे बढ़ी और प्रत्यक्ष का हाथ पूर्ण से झटककर उसे वापस अपने सीने से लगाकर प्रत्यक्ष से बोली, "यह पहले ही इतना रो रहा है और आप इसे और रुला रहे हैं। आपको ज़रा दया नहीं आती?"
"पूर्ण, मैंने कहा उठो और श्रवण के पास जाओ..." प्रत्यक्ष ने बेहद गुस्से में कहा। ना चाहते हुए भी पूर्ण को निष्ठा से दूर होकर वहाँ से जाना पड़ा। निष्ठा हैरान होकर उसे जाते हुए देख रही थी। पूर्ण के जाते ही प्रत्यक्ष ने निष्ठा की बाजू पकड़ी और उसे गुस्से में देखता हुआ बोला, "यह एक्टिंग मत करो कि सिर्फ़ तुम्हें ही पूर्ण से प्यार है, बाकी किसी को नहीं... और आज तो तुम बाबू जी के सामने इतना बोल गई! अगर आइंदा तुमने इस तरह से बात की तो तुम्हें तुम्हारे घर ही छोड़ आऊँगा। रहना वहाँ शोक से। क्योंकि! मुझे ऐसी बीवी बिल्कुल नहीं चाहिए जो मेरे बाबू जी का अनादर करे।"
निष्ठा हैरान नज़रों से उसे देख रही थी, "यानी इंसान अपनी मन की बात भी नहीं कह सकता अब।"
"मन की बात कहनी है तो एक काम करना, सुबह ही बस से सीधा अपने घर चली जाना..." प्रत्यक्ष ने उसे छोड़ा और वहाँ से चला गया। निष्ठा के चेहरे पर कई भाव आए और गए। फिर गुस्से में वह अलमारी की तरफ़ मुड़ी और उसमें से अपना बैग निकालकर अपने कपड़े भरने लगी, "अब यहाँ आऊँगी भी नहीं..." अपने कपड़े बैग में डालकर वह सीधा श्रवण के कमरे में आ गई जहाँ पर श्रवण के साथ-साथ पूर्ण और प्रत्यक्ष भी थे, "फ़ोन मिलेगा श्रवण... एक कॉल करना है।"
"हाँ भाभी।" कहते हुए श्रवण ने अपना फ़ोन उसकी ओर बढ़ा दिया। निष्ठा ने एक नंबर डायल किया और फ़ोन अपने कान पर लगा दिया। एक-दो रिंग जाने के बाद सामने से एक जानी-पहचानी आवाज़ आई, जिससे निष्ठा की आँखें भर सी आईं। वह रुँधे गले के साथ बोली, "भाई, आप मुझे लेने आ जाओ..."
क्रमश:
"हाँ, भाभी," कहते हुए श्रवण ने अपना फ़ोन उसकी ओर बढ़ा दिया था। निष्ठा ने एक नंबर डायल किया और फ़ोन अपने कान पर लगा दिया। एक-दो रिंग जाने के बाद सामने से एक जानी-पहचानी आवाज़ आई, जिससे निष्ठा की आँखें भर आईं। वह रुँधे गले के साथ बोली, "भाई, आप मुझे लेने आ जाओ..."
प्रत्यक्ष और श्रवण हैरान होकर उसे देख रहे थे। प्रत्यक्ष ने तो उसे सिर्फ़ डराने के लिए धमकी दी थी, मगर यह तो सीधा फ़ोन करके अपने भाई को बुला रही थी।
सामने से निष्ठा के भाई ने कुछ कहा, जिसे सुन निष्ठा धीरे से बोली, "ठीक है, फिर सुबह पक्का आ जाना।" कहकर उसने कॉल काटी और श्रवण को उसका फ़ोन देकर कमरे से बाहर चली गई।
"भाई, ये क्या हो रहा है...?" श्रवण हैरान होकर बोला। प्रत्यक्ष कुछ नहीं बोला। पूर्ण ने श्रवण की ओर देखा और फिर से सुबकते हुए बोला, "भाई, क्या सच में भाभी माँ चली जाएगी...?"
"नहीं जाएगी कहीं। तुम रोना बंद करो। मैं पता लगवाता हूँ कि उस मोंटी का सिर किसने फोड़ा था।" श्रवण ने प्यार से पूर्ण को दुलारते हुए कहा। पूर्ण श्रवण के सीने में सिर छुपाकर फिर से रोने लगा।
प्रत्यक्ष वहीं बैठा हुआ झल्लाकर बोला, "बस इसलिए... इसलिए मैं शादी नहीं करना चाहता था। श्लोक (प्रत्यक्ष की बुआ का लड़का) की बीवी के लक्षण देख लिए थे। दो साल तक कैसे परेशान किया था बुआ को, श्लोक को और बाकी सबको... और अब ये मैडम! ज़रा सा क्या कह दिया, इसने तो अपने भाई को ही बुला लिया। अब झेलो इनके भी नखरे। अभी तो बस शुरुआत है, ना जाने आगे क्या-क्या दिखाएगी यह हमें।"
"श्लोक की बीवी से निष्ठा भाभी को कंपेयर मत करो। निष्ठा भाभी उनसे लाख गुणा अच्छी है।" श्रवण ने कहा तो प्रत्यक्ष चिढ़कर बोला, "तुझे तो बड़ा पता चल गया दो दिन में कि वह कैसी है और कैसी नहीं..."
"भाई! बातों से ही पता चल जाता है और किसी को समझने के लिए सालों तक इंतज़ार करने की ज़रूरत नहीं है, बल्कि एक लम्हा ही काफी है।"
"ठीक है। यहाँ ज़्यादा ज्ञान मत झाड़।" कहते हुए वह उठा और कमरे से बाहर निकला। तभी उसे किसी के सिसकने की आवाज़ सुनाई दी। उसने रसोई की ओर देखा और अपने कदम उसकी ओर बढ़ा दिए। उसने दरवाज़े पर खड़े होकर अंदर झाँका तो निष्ठा सुबकते हुए खाना बना रही थी। यह देख, ना जाने क्यों प्रत्यक्ष के होठों पर मुस्कान आ गई।
"या तो तुम पहले रो ही लो या फिर खाना ही बना लो।" प्रत्यक्ष ने धीरे से कहा।
प्रत्यक्ष की आवाज़ सुन निष्ठा ने गुस्से भरी निगाहों से उसे देखा और हाथ में पकड़ी पतीली को स्टोव पर पटककर रखते हुए रुँधे गले के साथ बोली, "मैं तो दोनों काम साथ में करूँगी, आपको कोई दिक्क़त...?"
"मुझे क्यों कोई दिक्क़त होगी। तुम करो अपना।"
"आप हैं ही ऐसे, निर्दयी! करुणाहीन! आपको क्या ही फ़र्क पड़ेगा, क्या ही चला जाएगा आपका। आपके तो कलेजे को ठंडक मिल रही होगी। खुश हो जाइए। चली जाऊँगी कल... फिर नहीं आऊँगी। ना किसी को मेरी आवाज़ सुनने को मिलेगी..." कह वह रोते हुए हिचकियाँ लेने लगी थी। "काश! मेरी शादी ही नहीं हुई होती यहाँ। काश!" वह रोए जा रही थी, जबकि प्रत्यक्ष अवाक होकर उसे देख रहा था। इतनी भी क्या बात हो गई थी जो वह इतना रो रही थी? उसे इतना सुना रही थी। प्रत्यक्ष ने उसे घूरा और अपना सिर ना में हिलाकर वहाँ से चला गया।
रात के खाने के बाद प्रत्यक्ष सोने के लिए मुरारी जी के कमरे में जाने लगा तो श्रवण उसे रोकते हुए बोला, "आज मेरी नाईट ड्यूटी नहीं है भाई, आप अपने कमरे में जाकर सो सकते हैं। मैं सो जाऊँगा बाबूजी के पास।"
"हम्मम! रात को एक-दो बार उठकर देख लेना बाबूजी को..."
"जी! आप फ़िक्र ना करें। मैं देख लूँगा।" श्रवण ने कहा तो प्रत्यक्ष अपने कमरे में चला गया। यूँ तो श्रवण ही मुरारी जी के पास सोता था, मगर कुछ दिनों से उसकी नाईट ड्यूटी होने के कारण प्रत्यक्ष को मुरारी जी के पास सोना पड़ रहा था। क्योंकि मुरारी जी को वह अकेले नहीं छोड़ सकते थे, क्योंकि अक्सर उनकी तबीयत रात को खराब हो जाया करती थी।
श्रवण भी मुरारी जी के कमरे की ओर बढ़ गया। प्रत्यक्ष अपने कमरे में आया। निष्ठा पूर्ण का सिर अपनी गोद में रख उसे सुला रही थी। वह खामोशी से बेड पर जाकर बैठ गया।
"सो गया ये...?" प्रत्यक्ष ने निष्ठा से सवाल किया, मगर निष्ठा ने कोई जवाब नहीं दिया। यह देख प्रत्यक्ष की भौंहें तन गईं। "इतना भी कुछ कहा नहीं जितना तुम रिएक्ट कर रही हो।"
"आपके लिए होंगे वे शब्द! मगर मेरे लिए आपका हर शब्द किसी खंजर से कम नहीं था।" निष्ठा बिना उसकी ओर देखे बोली। "मेरा पूर्ण को प्यार करना आप सभी को एक्टिंग लगता है। मेरा कुछ कहना आप सभी को अनादर करना लगता है। घर!... ये घर! क्या अब मेरा नहीं...? शादी करके आई हूँ मैं इस घर में। आप सब के लिए मेरा घर मेरा मायका है और मेरे मायके के लिए मेरा घर मेरा ससुराल है। और सही मायने में माना जाए तो फिर मेरा तो कोई घर ही नहीं!" कहते हुए एक बार फिर से निष्ठा की आँखें भर आई थीं। वहीँ उसकी कही यह बात प्रत्यक्ष के सीने में चुभ सी गई। उसने तो बस यूँ ही कहा था, मगर कहाँ जानता था कि उसकी बात के पीछे निष्ठा इतना बड़ा माने निकाल देंगी।
"निष्ठा मेरी..." प्रत्यक्ष ने जैसे ही कुछ कहने के लिए अपना मुँह खोला, तभी निष्ठा रोते हुए आगे बोली, "चली जाऊँगी कल!, दो दिन में ही चुभने लगी सब की आँखों में। नहीं बर्दाश्त कर पा रहे तो नहीं आऊँगी यहाँ।" सबका कह वह टारगेट प्रत्यक्ष को ही कर रही थी। कहने के लिए वह उसे ही सुना रही थी और वह उसकी सुन भी रहा था। फिर उसने अपने आँसू साफ़ कर पूर्ण को सही से बीच में लेटाया और खुद भी प्रत्यक्ष की ओर पीठ करके लेट गई, जबकि प्रत्यक्ष एकटक उसे ही देख रहा था और उसके जेहन में उसकी कही बातें चल रही थीं।
क्रमश:
आज इतवार था। निष्ठा की नींद देर से खुली। उठकर बैठी तो उसकी नज़र खिड़की से आँगन में गई। सूरज लगभग सिर पर चढ़ चुका था। हैरानी से उसकी आँखें बड़ी-बड़ी हो गईं। उसने दीवार घड़ी में समय देखा; सुबह के आठ बज चुके थे। और वह इस समय तक सारा काम निपटा लेती थी। उसने अपना सिर पीटा और तुरंत बिस्तर से उतरकर बाहर आई। बाहर भी सन्नाटा सा था, लेकिन उसने इस पर ज़्यादा ध्यान नहीं दिया। वह सीधा रसोई में गई ताकि जल्दी-जल्दी खाना बना सके, मगर खाना पहले ही बना हुआ था। यह देखकर वह और भी ज़्यादा हैरान हो गई।
वह वापस बाहर आई तो उसकी नज़र पूर्ण पर गई जो वहीं बैठा था, उदास सा। निष्ठा उसके पास गई और उसके कंधे पर हाथ रखकर बोली,
"क्या हुआ सुबह-सुबह इतना मुँह क्यों लटका हुआ है? तुम्हारे कड़वे करेले भाई ने कुछ कहा?"
"कड़वा करेला कौन..?" पूर्ण ने पूछा।
निष्ठा आड़े-तिरछे मुँह बनाकर बोली,
"तुम्हारा बड़ा भाई और कौन?"
"ओह्ह्ह मेरी तारीफ़ हो रही है।" अचानक प्रत्यक्ष बोला। निष्ठा का गला सूख गया। उसने धीरे से मुड़कर पीछे देखा तो प्रत्यक्ष उसे खा जाने वाली नज़रों से देख रहा था। वहीं श्रवण अपनी हँसी मुश्किल से रोक पा रहा था। निष्ठा ने लाचारी से पूर्ण की ओर देखा और धीरे से फुसफुसाते हुए बोली,
"पहले नहीं बता सकते थे कि ये यहीं पर हैं?"
"आपने पूछा नहीं, भाभी माँ।" पूर्ण ने मासूमियत से कहा।
उन दोनों को आपस में कुसुर्-फुसुर करते देख, प्रत्यक्ष थोड़े गुस्से में बोला,
"यहाँ मेरी तरफ़ देखकर बात करो।"
निष्ठा ने उसे देखा और मुँह बनाकर वापस कमरे की तरफ़ बढ़ते हुए बोली,
"बात ही नहीं करनी आपसे तो। यहीं पर बात ख़त्म।"
"निष्ठा वापस आओ, कहाँ जा रही हो.. मैं बात कर रहा हूँ ना तुमसे।"
"मत करिए।" निष्ठा, जो कमरे में चली गई थी, प्रत्यक्ष की बात सुनकर दरवाज़े को पकड़कर बाहर की ओर झाँकते हुए, थोड़ी ऊँची आवाज़ में बोली और वापस अंदर चली गई।
प्रत्यक्ष ने गुस्से में अपनी आँखें बंद कीं और फिर पीछे मुड़कर श्रवण की ओर देखा,
"देख लिया, कैसे बात करती है।"
"तो आपने उन्हें नाराज़ किया है।"
"हाँ भाई, सारी गलती सिर्फ़ आपकी है। आपने भाभी माँ पर गुस्सा किया तो अब भुगतो। और मैं पहले ही कह रहा हूँ अगर भाभी माँ यहाँ से गईं तो मैं भी उनके साथ चला जाऊँगा।" पूर्ण ने मुँह बनाकर कहा और निष्ठा के कमरे में चला गया। प्रत्यक्ष अवाक होकर पूर्ण को देख रहा था।
"ये पिद्दी भर का लड़का, मुझे धमकी दे रहा है। अब तो हद ही हो गई।"
"भाई! आप जानते हैं ना कि वह भाभी से कितना अटैच हो गया है थोड़े ही दिनों में। वो उन्हें भाभी माँ कहता है, यानी वो उन्हें अपनी माँ समान मानता है।" श्रवण ने कहा। प्रत्यक्ष ने एक गहरी साँस ली और अपने कमरे में आ गया।
निष्ठा अलमारी खोलकर खड़ी थी, उसमें रखे अपने कपड़ों को देख रही थी। कल रात ही तो उसने अपने सारे कपड़े बैग में डाले थे, मगर अब उसके सारे कपड़े वापस अलमारी में रखे हुए थे।
"ये मैंने रखे हैं क्योंकि! तुम कहीं नहीं जा रही हो, बस बात ख़त्म।"
"क्या बात ख़त्म! आपकी चलेगी हमेशा...? पहले बोले चली जाओ अपने घर, अब बोल रहे हो तुम कहीं नहीं जा रही हो...? एक बात पर तो टिक जाओ प्रत्यक्ष जी।" निष्ठा प्रत्यक्ष की ओर मुड़कर झल्लाकर बोली।
प्रत्यक्ष ने उसे घुरा और आगे बोला,
"मैंने तुम्हारे भाई को मना कर दिया है आने को। चार दिन के लिए बाबूजी हरिद्वार गए हैं अपने किसी दोस्त के साथ। वह जब वापस लौटेंगे, मैं खुद तुम्हें छोड़ आऊँगा।"
"क्या, बाबूजी चार दिन के लिए हरिद्वार गए हैं?" निष्ठा की आँखें चमक उठीं।
"हाँ।" प्रत्यक्ष ने सामान्य ही कहा।
"यह खुशखबरी आबब्ब... मेरा मतलब है कि पहले क्यों नहीं बताया?" निष्ठा ने प्रत्यक्ष को मुस्कुराकर देखा और फिर पूर्ण के पास आकर उसका हाथ पकड़कर खुश होकर बोली,
"तुम कह रहे थे ना कि जामुन के पेड़ पर चिड़िया का घोंसला है, चलो देखते हैं।"
"हाँ! हाँ! भाभी माँ, उसमें उसके दो बच्चे भी हैं।" पूर्ण निष्ठा के साथ ही कमरे से बाहर चला गया, जबकि प्रत्यक्ष हैरान होकर उन दोनों को जाते हुए देख रहा था।
क्रमश:
दोनों देवर-भाभी आँगन में आकर जामुन के पेड़ को देखने लगे। तभी पूर्ण ने एक ओर इशारा करते हुए कहा, "भाभी मां, वो देखो, वहाँ पर है घोंसला।"
"हाँ! हाँ, दिखा। अरे, वहाँ तो चिड़िया नहीं है। चलो, छत से देखते हैं।" निष्ठा पूर्ण के साथ ऊपर छत पर चली गई। प्रत्यक्ष बाहर आँगन में आया और ऊपर की ओर देखा तो निष्ठा और पूर्ण दोनों चिड़िया के घोंसले को देखने में व्यस्त थे। उसने लाचारी से अपना सिर हिलाया और वापस अंदर चला गया।
"पूर्ण! इस पर जामुन लगती है क्या...?"
"हाँ, लगती है ना, बहुत मोटी-मोटी।" पूर्ण ने अपनी उंगली और अंगूठे से इशारा करते हुए कहा। तो निष्ठा ने हँसकर उसके बाल बिगाड़ दिए। निष्ठा घोंसले में देखने लगी। चिड़िया अभी-अभी आकर बैठी थी। शायद अपने बच्चों के लिए दाना चुग कर लाई थी। निष्ठा यह देख मुस्कुरा दी। वह चिड़िया अपनी चोंच से अपने बच्चों को दाना खिलाने लगी।
थोड़ी देर उसे देखने के बाद निष्ठा पूर्ण के साथ वापस नीचे आ गई। इतने में श्रवण ने पूर्ण को आवाज़ लगा दी तो वह उसके पास चला गया। निष्ठा अपने कमरे में आई तो देखा कि प्रत्यक्ष कुछ हिसाब-किताब लगा रहा था। निष्ठा ने नाक सिकोड़ी और अलमारी से अपनी एक साड़ी उठाकर नहाने चली गई। कुछ देर बाद वह नहाकर आई और ड्रेसिंग टेबल के सामने खड़ी हो गई। निष्ठा ने अपने गीले बालों को तौलिए से झटका। तो उसके बालों से एक बूँद आज़ाद होकर बेड पर बैठे प्रत्यक्ष पर उछल गई। कुछ बूँदें उसके चेहरे पर गिरीं तो कुछ उसके हाथ में पकड़ी डायरी पर। प्रत्यक्ष के चेहरे पर झुंझलाहट के भाव आ गए। उसने कुछ कहने के लिए जैसे ही अपनी निगाहें उठाकर निष्ठा की ओर देखीं तो बस निगाहें वहीं ठहर गईं। लाल रंग की साड़ी में, जिसके ब्लाउज़ का गला पीछे से कुछ ज़्यादा ही डीप था, उसकी पीठ पर मौजूद काला तिल तक साफ़ दिख रहा था और ऊपर से उसकी वह पतली-सी कमर, जो फ़िलहाल प्रत्यक्ष का ध्यान भटका रही थी। निष्ठा अपने में ही मगन थी। उसे ज़रा भी अंदाज़ा नहीं था कि प्रत्यक्ष उसे एकटक देख रहा था।
कुछ देर बाद वह मुड़ी तो प्रत्यक्ष ने जल्दी से अपनी निगाहें हटा लीं। निष्ठा अपनी साड़ी का पल्लू कंधे पर सही से रखते हुए कमरे से बाहर चली गई। निष्ठा के वहाँ से जाने के बाद ना जाने क्यों प्रत्यक्ष को एक अजीब सा खालीपन का एहसास हुआ। उसकी निगाहें बेचैन हो गईं। उसने अपनी डायरी को साइड में रखकर बेड से उतरा और बाहर आ गया। चूड़ियों की खनकने की आवाज़ रसोई से आ रही थी। उसने अपने कदम उस तरफ़ बढ़ा दिए। वह अंदर ना जाकर दरवाज़े पर ही खड़ा हो गया और निष्ठा को देखने लगा, जो व्यस्त थी खाना गर्म करने में। और वह व्यस्त था अपनी बीवी को निहारने में।
श्रवण और पूर्ण वहीं आए तो प्रत्यक्ष को रसोई के दरवाज़े पर खड़ा देख पूर्ण बोला, "भाई, आप यहाँ क्यों खड़े हैं? या तो अंदर ही चले जाइए और फिर आगे से हट जाइए ताकि हम अंदर जा सकें।"
अचानक पूर्ण की आवाज़ सुनकर प्रत्यक्ष जैसे होश में आया। वह हड़बड़ाकर बिना कुछ कहे वहाँ से चला गया। पूर्ण ने तो ज़्यादा ध्यान नहीं दिया क्योंकि वह बच्चा था, मगर अपने भाई का यह अजीब सा बर्ताव देख श्रवण थोड़ा उलझ सा गया था।
निष्ठा ने सभी के लिए खाना लगाया और खुद पूर्ण के साथ अपने कमरे में आ गई। निष्ठा उसे खिलाते हुए खुद भी खा रही थी। खाना हो जाने के बाद निष्ठा ने रसोई का बचा हुआ काम समेटा और फिर बाकी घर का काम करने लगी। खाना खाने के बाद पूर्ण और प्रत्यक्ष दोनों बाहर चले गए थे। सारा काम होने के बाद निष्ठा श्रवण के कमरे में आई। निष्ठा को देख श्रवण बोला, "जी भाभी, कुछ काम है...?"
निष्ठा ने अपना सिर हिलाया। "फ़ोन मिलेगा क्या...?"
"क्यों, क्या हुआ...?" श्रवण ने कल की तरह यूँ ही फ़टाक से फ़ोन नहीं दिया क्योंकि उसे डर था कि कहीं कल की तरह वह अभी भी अपने भाई को कॉल करके यहाँ बुला ना ले।
"माँ से बात करनी है।" निष्ठा ने कहा। श्रवण ने धीरे से अपना फ़ोन उसकी ओर बढ़ा दिया। फिर निष्ठा उसका फ़ोन लेकर अपने कमरे में आ गई। उसने अपने घर का नंबर डायल किया। उसकी सोच के मुताबिक उसकी माँ ने ही फ़ोन उठाया।
"हेलो, प्रणाम माँ। मैं निष्ठा, कैसी हैं आप...?"
"हाँ! हाँ! प्रणाम जीती रहो, ठीक हूँ मैं तो बेटा! तुम बताओ, तुम कैसी हो...? और...और घर पर सब कैसा है...?" निष्ठा की माँ ने पूछा। तो निष्ठा अपना सिर हिलाकर बोली, "जी, सब बढ़िया है यहाँ पर।"
"और जमाई बाबू कैसे हैं...?"
क्रमश:
"हेलो, प्रणाम माँ। मैं निष्ठा, कैसी हैं आप..?"
"हाँ! हाँ! प्रणाम जीती रहो, ठीक हूँ मैं तो बेटा! तुम बताओ तुम कैसी हो..? और..और घर पर सब कैसा है..?" निष्ठा की माँ ने पूछा। तो निष्ठा अपना सिर हिलाकर बोली - "जी सब बढ़िया है यहाँ पर।"
"और जमाई बाबू कैसे हैं..?"
"जी वो भी ठीक हैं।" निष्ठा बेड पर सिरहाने से टेक लगाकर बैठ गई।
"सब ठीक तो है ना तुम दोनों के बीच..?"
"क्या ख़ाक ठीक है, अरे वो तो मेरी ओर एक नज़र तक उठाकर नहीं देखते। और आप पूछती हैं सब ठीक है क्या..?" निष्ठा ने बुरा सा मुँह बनाकर कहा। वही उसकी बात सुनकर उसकी माँ थोड़ी हैरान होकर बोली - "क्या मतलब..?"
"अब क्या बताऊँ आपको," कहते हुए निष्ठा ने प्रत्यक्ष का बर्ताव बता दिया, जो भी शादी के बाद उसने निष्ठा के साथ किया था, या फिर वो जो कर रहा था। उसके बाद निष्ठा परेशान होकर बोली - "अब आप ही बताइए कि इसमें मेरी क्या गलती। वही है जो इतना भाव खा रहे हैं।" कहकर उसने मुँह बना लिया।
"निष्ठा! निष्ठा! निष्ठा! मैं क्या करूँ तेरा। तुझे क्यों बात समझ नहीं आती है। अरे क्या कोई आग की आँच से कभी बच पाया है। तू! अगर कोशिश करेंगी तो क्या जमाई बाबू तुझसे सही से बात नहीं करेंगे। नई-नई शादी हुई है, प्यारी-प्यारी बातें कर उनके साथ..." निष्ठा की माँ ने जैसे ही यह कहा, निष्ठा मुँह बुरा सा मुँह बनाकर बोली - "इस आग की आँच से वो कोसों दूर बैठे हैं।"
"कोई बात नहीं, तू आँच को उनके पास ले जा।"
"क्या मतलब आपका..?" निष्ठा उलझ सी गई। तो निष्ठा की माँ ने अपना सिर पीट लिया - "क्यों तुझे हर बात समझानी पड़ती है। कभी-कभी खुद भी समझ जाया कर ना।"
"इसलिए! इसलिए! मैं बचपन से कहती थी कि जब मुझे बोलना आ जाए तब मेरी शादी करना। लेकिन! आपको तो जल्दी नानी बनना था, इस चक्कर में मुझे वहाँ से उठाकर यहाँ पटक दिया।" निष्ठा झुंझलाकर बोली।
"ठीक है मेरी मां, अब मेरी बात ध्यान से सुन और उस पर अमल भी शुरू कर दे।" कहते हुए निष्ठा की माँ उसे कुछ बताने लगी। वही उनकी सारी बात निष्ठा काफ़ी ध्यान से सुन रही थी। कुछ देर बाद दोनों बात करके फ़ोन रख देती हैं। निष्ठा वहीं बैठी हुई अपनी माँ की बातों के बारे में सोचने लगती है। वहीं दरवाज़े की ओट में खड़ा श्रवण बिना कुछ कहे अपने कमरे में चला जाता है।
फिर निष्ठा एक गहरी साँस लेकर अपना सिर हिला देती है - "माँ भी ना, कैसी-कैसी बातें मुझे सिखा रही है। कोई ऐसी बातें सिखाता है क्या। (फिर सोचते हुए) लेकिन! बातें हैं काम की। (तिरछी मुस्कुराहट के साथ) अब बचकर दिखाइए प्रत्यक्ष जी इस आग से। आपको भी ना जला दिया तो मेरा नाम भी निष्ठा नहीं।" कहकर वह खुद ही हँसने लगी।
एक घंटे बाद प्रत्यक्ष, पूर्ण के साथ घर आया और श्रवण के कमरे में चला गया। यह देख आँगन में कपड़े धोती निष्ठा का मुँह बन गया। "सख़्त दिल कहीं के, एक नज़र भी नहीं देखा.. हुंह।"
दोपहर हो चुकी थी। निष्ठा बेड पर बैठी हुई पूर्ण के सिर को सहला रही थी, जो उसके पास ही सो रहा था। गर्मी का मौसम था इसलिए कमरे में कूलर चल रहा था। निष्ठा की नज़र पूर्ण के बराबर में गई जहाँ प्रत्यक्ष आराम से सो रहा था। वह हल्का सा मुस्कुराई और धीरे से अपना हाथ बढ़ाकर प्रत्यक्ष का सिर भी सहला दिया। "खडूस!" वह धीरे से बुदबुदाई, फिर खुद ही धीरे से हँस दी। उधर, श्रवण अपने कमरे में लेटा हुआ छत पर लगे पंखे को घूमता हुआ देख रहा था, जबकि इस वक़्त उसके दिमाग़ में कुछ और ही चल रहा था।
शाम को सभी ने चाय पी, उसके बाद निष्ठा सब की ओर देखकर बोली - "रात के खाने में क्या बनाऊँ..?"
"जो भी हो वो बना दो।" प्रत्यक्ष ने आराम से जवाब दिया। तो निष्ठा ने कुछ देर उसे घूरा और फिर मुँह बनाकर वहाँ से चली गई।
रात को सब खाना खाने के लिए बैठे तो निष्ठा ने श्रवण और पूर्ण को दाल-चावल परोस दिया और प्रत्यक्ष के सामने प्लेट रख उसमें एक फोल्ड हुआ कागज़ रख दिया। यह देख प्रत्यक्ष ने एक नज़र उस कागज़ को देखा और फिर निष्ठा को देखने लगा। वहीं अपने दाल-चावल खाते हुए श्रवण और पूर्ण कभी प्रत्यक्ष को देखते तो कभी निष्ठा को। प्रत्यक्ष ने अपनी गंभीर सी आवाज़ में कहा - "यह क्या है..?"
"जो आपने कहा था मैंने वही तो बनाया है, देखिए (उसने प्रत्यक्ष की थाली से वह कागज़ उठाया और उसे खोलकर प्रत्यक्ष को दिखाते हुए) पढ़ना तो आता है ना आपको, तो पढ़ लीजिए। वो क्या है ना कि आपकी बताई हुई डिश का नाम ज़रा अनोखा था, मतलब कि मैंने तो पहली बार सुना था, आप जरा इसका स्वाद लेकर बताइए अच्छी तो बनी है ना।" निष्ठा ने कहा। प्रत्यक्ष ने उस कागज़ पर गौर किया तो उस पर लिखा हुआ था "जो भी हो वो बना दो।" यह पढ़कर प्रत्यक्ष ने निष्ठा को घूरा तो वहीं श्रवण और पूर्ण दोनों मुँह दबाकर हँस दिए।
क्रमश:
प्रत्यक्ष जब उसे बुरी तरह से घूरने लगा, तो निष्ठा अपनी नज़रें चुराते हुए श्रवण और पूर्ण से बोली, "तुम दोनों ही बताओ, इन्होंने यही तो कहा था ना?"
निष्ठा की बात सुनकर दोनों ने अपना सिर हाँ में हिलाया।
"तुम दोनों मेरे भाई हो या दुश्मन?" प्रत्यक्ष ने दोनों की ओर देखकर आँखें दिखाईं तो दोनों झेंपकर अपना सिर झुकाकर जल्दी-जल्दी खाना खाने लगे। उन दोनों को प्रत्यक्ष से डरता देख निष्ठा बुरा सा मुँह बना लेती है। तभी उसे अपनी माँ की कही बातें याद आती हैं। निष्ठा धीरे से अपनी जीभ अपने दाँतों से दबा लेती है। फिर जल्दी से रसोई में आकर प्रत्यक्ष के लिए थाली में खाना परोसकर लाती है और उसके सामने रखकर अपनी मीठी सी आवाज़ में बोली, "माफ़ कीजियेगा स्वामी! हमसे बहुत बड़ी भूल हो गई। इन सभी बातों पर गौर ना करके आप सिर्फ़ अपने खाने का आनंद लीजिये। यदि किसी चीज़ की आवश्यकता हो तो हमें बताएँ, हम अभी लेकर आएंगे।"
निष्ठा की बात सुनकर तीनों ने चौंककर उसे देखा। प्रत्यक्ष अपनी आँखें बड़ाते हुए बोला, "कौन स्वामी...?"
"अरे आप पूर्ण के भैया! हम तो आपको स्वामी कह रहे हैं। आप ही तो हमारे स्वामी हैं। आपके बगैर क्या है हमारा...कुछ भी तो नहीं। अरे! आप तो बातों में ही लग गए। ये सब छोड़िये और अपना भोजन ग्रहण कीजिये।" निष्ठा ने अपनी पलकें बार-बार झपकाते हुए कहा तो प्रत्यक्ष ने लाचारी से अपनी गर्दन हिला दी। उसकी बीवी वाकई! नौटंकीबाज़ है। फिर शांति से अपना खाना खाने लगा। श्रवण ने देखा कि निष्ठा खाना नहीं खा रही थी तो वह बोला, "आप खाना नहीं खा रही क्या...?"
"नहीं! पहले हमारे स्वामी खाएँगे, तभी तो हम खा सकेंगे। प्रिय देवर जी!" निष्ठा ने एक सौम्य सी मुस्कान के साथ बोला।
प्रत्यक्ष ने खाना खाते हुए निष्ठा को देखा और मन-ही-मन बोला, "कितनी पागल लड़की है। इसका ही समझ नहीं आ रहा। एक क्षण में कुछ तो दूसरे क्षण में कुछ। कभी बातों को पकड़कर बैठ जाती है। कभी छोटी-छोटी बातों पर चहक उठती है। कभी-कभी इतना गुस्सा करने लगती है। बोलते हुए ज़रा भी नहीं हिचकती। जो मन में वहीँ ज़ुबान पर। प्यारी भी है और तूफ़ान भी। एक मिनट! एक मिनट! लेकिन तुम इतना क्यों सोच रहे हो प्रत्यक्ष!... (फिर खुद से ही) इसके बारे में नहीं सोचूँ तो किसके बारे में सोचूँ। बीवी तो है ही मेरी, अब इस बात को थोड़ी टाल सकता हूँ।"
"आपके लिए कुछ और लेकर आऊँ जी...?" निष्ठा की आवाज़ सुन प्रत्यक्ष जैसे होश में आया। उसने बस धीरे से अपनी गर्दन हिला दी। उन सबका खाना होने के बाद निष्ठा ने खुद खाना खाया और बाकी बचा हुआ काम समेट दिया। सोने के लिए कमरे में जाने से पहले निष्ठा ने एक बार मेन गेट को देखा जो बंद था। फिर अंदर अपने कमरे में आ गई तो देखा कि तीनों भाई आराम से टीवी पर कार्टून देख रहे थे। यह देख वह मन-ही-मन मुस्कुराई। निष्ठा के कमरे में आते ही श्रवण उठा और पूर्ण को अपने साथ खींचते हुए बोला, "चलो सोते हैं।"
"लेकिन! भाई, मैं तो भाभी माँ के पास सोऊँगा।" पूर्ण ने निष्ठा का हाथ पकड़ते हुए कहा।
"सो जाने दो ना!" प्रत्यक्ष और निष्ठा एक साथ बोले। श्रवण ने उन दोनों की ओर देखा और फिर पूर्ण की ओर, "मेरे पास चॉकलेट है। अब चलोगे...?"
चॉकलेट का सुनकर पूर्ण ने निष्ठा का हाथ तुरंत छोड़ दिया और उसकी ओर देखकर बोला, "भाभी माँ मैं कल आपके पास सो जाऊँगा।" निष्ठा ने हँसकर अपना सिर हिला दिया। श्रवण ने एक नज़र निष्ठा और प्रत्यक्ष को देखा और फिर पूर्ण को लेकर उनके कमरे से चला गया। श्रवण पूर्ण को अपने कमरे में लेकर आया और उसे बेड पर बिठाते हुए बोला, "तुम पहले भी मेरे पास सोते थे ना तो आज के बाद भी तुम मेरे पास ही सोओगे। भाई-भाभी के पास नहीं सोना आज से।"
"क्यों...?" पूर्ण ने सवाल किया तो श्रवण ने बस उसके सिर पर हाथ फेर दिया, "क्योंकि अब तुम बड़े हो गए हो।" अब वह क्या ही बताता उसे। फिर उसने हल्का सा मुस्कुराकर अपने बैग से एक चॉकलेट निकालकर पूर्ण को दे दी।
उधर, टीवी बंद करके प्रत्यक्ष ने सोने के लिए अपनी आँखें बंद कर लीं। निष्ठा भी उसके पास ही थोड़ी दूरी बनाकर लेटी थी और लगातार छत को देख रही थी। सोया दोनों में से कोई नहीं था। कुछ देर के बाद निष्ठा ने धीरे से प्रत्यक्ष की ओर करवट ली और आहिस्ता से उसकी बाजू पकड़कर धीमे से बोली, "प्रत्यक्ष जी!"
"हम्मम!" प्रत्यक्ष ने बिना आँखें खोले कहा।
निष्ठा थोड़ा और उसकी तरफ़ खिसकी और अपनी पकड़ उसकी बाजू पर कसती हुई बोली, "आप मुझसे अच्छे से बात क्यों नहीं करते हैं...?"
"तुम करती हो मुझसे...?" प्रत्यक्ष ने अपनी आँखें खोलकर उसकी ओर करवट ली। अब दोनों एक-दूसरे की आँखों में देख रहे थे। निष्ठा ने मुँह बना लिया, "करती तो हूँ, वो तो आप हैं जो हर वक़्त गुस्से में रहते हैं।"
"हम्मम! तो मैं गुस्से में रहता हूँ...?" कहते हुए प्रत्यक्ष ने धीरे से निष्ठा के चेहरे पर आए बालों को हटाकर उसके कान के पीछे किया, जो हवा से आगे आ गए थे। निष्ठा ने कुछ देर उसे देखा और फिर करवट बदलकर उसकी ओर पीठ करके लेट गई, "सो जाइए।" प्रत्यक्ष ने उसे देखा और फिर अपना हाथ बढ़ाकर उसकी पीठ पर अपनी उंगली चलाने लगा। प्रत्यक्ष के ऐसे छूने से निष्ठा सिहर उठी। उसने कसकर अपनी आँखें मींच लीं और अपने होंठों को आपस में दबा लिया, उसने अपने दोनों हाथों को आपस में गुथ लिया था। प्रत्यक्ष की उंगली घूमते हुए निष्ठा की पीठ पर बने तिल पर रुक गई। "आगे से यह साड़ी मत पहनना।" कहते हुए उसने अपना हाथ हटा लिया और सीधा होकर लेट गया। निष्ठा ने उसकी बात सुनकर मुड़कर उसे देखा, "क्या मतलब...?"
"यही कि मुझे ऐसे बेहूदा कपड़े बिलकुल भी पसंद नहीं हैं।" प्रत्यक्ष ने काफी गंभीर होकर कहा कि निष्ठा झट से उठकर बैठ गई और अपनी भौंहें उठाकर बोली, "मैंने कौन से बेहूदा कपड़े पहने, साड़ी ही तो है...?"
क्रमश:
"यही की मुझे ऐसे बेहूदा कपड़े बिलकुल भी पसंद नहीं हैं।" प्रत्यक्ष ने काफी गंभीर होकर कहा। निष्ठा झट से उठकर बैठ गई और अपनी भौंहें उठाकर बोली- "मैंने कौन से बेहूदा कपड़े पहने? साड़ी ही तो है?"
"मैंने साड़ी को बेहूदा नहीं कहा।"
"तो फिर...?"
"मैंने ये...ये जो तुमने ऊपर पहना है, उसकी बात कर रहा हूँ। कितना खुला हुआ है, क्या तुमने इस बात पर गौर किया? ऐसे कपड़े जो फैशन के नाम पर सिर्फ़ जिस्म की प्रदर्शनी करें, मेरी नज़र में वह बेहूदा ही होते हैं और यही काम तुम यहाँ कर रही हो। इस घर में तुम्हारे अलावा बाजूजी, श्रवण और...और पूर्ण भी रहता है। तो थोड़ा मर्यादा में रहोगी तो बेहतर होगा।" प्रत्यक्ष ने बिना उसकी ओर देखे कहा।
प्रत्यक्ष की बात सुन निष्ठा ने इस बात पर गौर किया। वह धीरे से बोली- "मुझे पता है। पर यह सब भाभी ने सिलवाए हुए हैं। मैंने उनसे कहा था कि सिंपल ही रखें, लेकिन! उन्होंने मेरी एक नहीं सुनी। ठीक है, अगर आपको अच्छा नहीं लगता तो फिर मैं ऐसे ब्लाउज़ नहीं पहनूँगी। माँ को बोल दूँगी कि वह दूसरे सिलवा दें। जब कभी घर जाऊँगी तो उठा लाऊँगी।"
"हम्मम! सो जाओ अब।"
निष्ठा धीरे से उसके पास ही लेट गई और अपना सिर उसकी बाजू पर रख आँखें बंद कर ली। निष्ठा का सिर अपनी बाजू पर महसूस कर प्रत्यक्ष ने झट से अपनी आँखें खोली और उसे देखने लगा। जो आँखें बंद कर उसके हाथ को अपना तकिया समझ आराम से लेटी थी। वह चिढ़ सा गया-"मेरा हाथ कोई तकिया नहीं है जो तुम मज़े से यहाँ पर लेटी हो। थोड़ा दूर होकर लेटो और ऐसा चिपक क्यों रही हो...?" प्रत्यक्ष अपनी गंभीर सी आवाज़ में बोला।
उसकी बात सुनकर निष्ठा ने धीरे से अपनी आँखें खोली और उसे देखा-"ना मैं कोई कागज़ हूँ और ना आप कोई फेविकोल हैं जो मैं आपसे चिपकूँगी। हुंह..." निष्ठा ने अपनी हिरणी जैसी आँखों को ज़रा छोटा किया।
"निष्ठा!" प्रत्यक्ष ने अपनी सर्द सी आवाज़ में कहा, जबकि उसकी आँखें उसे घूर रही थीं।
"यह बात याद रखूँगी मैं, देखना आप।" निष्ठा चिढ़कर उससे थोड़ा दूरी बनाकर लेट गई। निष्ठा की बात का प्रत्यक्ष ने कोई जवाब नहीं दिया। वहीँ निष्ठा मन-ही-मन कुढ़ते हुए बोली-"सच में ऊपर वाले ने इन्हें कुछ अलग ही मिट्टी से बनाया है। माँ की बातें भी फ़ेल हो गईं। कहाँ वो कह रही थी तुम खुद उनके करीब जाओ और अब जब क़रीब गई तो कैसे बोल रहे हैं (प्रत्यक्ष की नक़ल करते हुए) चिपको मत। हुंह...सच में बहुत संगदिल हैं। अब क्या करूँ..." कहकर वह कुछ सोचने लगी और कब सोचते हुए उसे नींद आ गई पता ही नहीं चला।
सुबह प्रत्यक्ष दुकान पर, श्रवण हॉस्पिटल तो वहीँ पूर्ण अपने स्कूल जा चुका था। आज निष्ठा घर पर अकेली थी। 9 बजे तक उसने लगभग घर का सारा काम समेट लिया था। उसके बाद वह अपने कमरे में आई और अलमारी से अपना बैग निकाला और उसे लेकर बेड पर बैठ गई। उस बैग से उसने एक वुडन बॉक्स निकाला और उसे धीरे से अपने सीने से लगा लिया कि सहसा ही उसकी आँखें भर सी आई थीं। उसने उस बॉक्स को खोला तो उसमें घुँघरू रखे हुए थे। वह आहिस्ता से उन घुँघरूओं को अपने हाथों में पकड़ती और उन्हें चूम लेती।
"मेरा सपना अब सिर्फ़ इन घुँघरूओं की तरह डिब्बे में बंद होकर रह गया है।" वह रुँधे गले से बोली और फिर अपने पैरों की तरफ़ देखा जहाँ पर चाँदी की पाजेब मौजूद थीं। उसने अपने पैरों से पाजेबों को निकाला और घुँघरू पहन लिए। आँखें नम थीं उसकी और होंठों पर मुस्कान। बचपन से ही उसे पढ़ाई से ज़्यादा नृत्य में बेहद रुचि थी। वह मानती थी कि नृत्य उसकी रग-रग में बसा है। जब ग्यारहवीं में हुई तो उनके स्कूल में एक कथक की गुरु आईं, वार्षिक समारोह में हिस्सा लेने वाले विद्यार्थियों को नृत्य सिखाने के लिए। निष्ठा ने भी हिस्सा लिया और वहीं से उसका झुकाव और ज़्यादा बढ़ गया नृत्य के प्रति। अपनी माँ से ज़िद करके उसने नृत्य सीखना शुरू कर दिया। स्कूल से जब कॉलेज में हुई तब भी उसने जारी रखा। कॉलेज की पढ़ाई पूरी हुई तभी अचानक शादी की बातें घर में होने लगीं। शादी वाले दिन भी उसकी नृत्य की प्रतियोगिता थी। उसका बड़ा मन था कि वह उसमें भाग ले, मगर वह उसमें भाग नहीं ले पाई। शादी से एक दिन पहले भी उसने भागने की कोशिश की थी ताकि प्रतियोगिता में भाग ले सके, मगर निष्ठा की बुआ ने उसे देख लिया था और वह वहीं पकड़ी गई थी। और उसके बाद करा दी गई थी उसकी शादी। इन घुँघरूओं की जगह पहना दी गई थीं चाँदी की पाजेबें, जो उसे किसी बेड़ियों से कम नहीं लगती थीं क्योंकि उसका सपना यह नहीं था, उसका सपना ये घुँघरू थे।
उसने एक गहरी साँस लेकर अपने आँसुओं को साफ़ किया और उन घुँघरूओं को अपने पैरों से खोल वापस उस बॉक्स में रख, उसे अलमारी में रख दिया था और पहन ली थीं वहीँ पाजेबें, जो उसकी मर्ज़ी के बगैर डाली थी उसके घर वालों ने उसके पैरों में। शायद! अब यहीं थी उसकी किस्मत।
ऐसे ही तीन दिन और बीत गए, मगर प्रत्यक्ष और निष्ठा की नोकझोंक कम ना हुई। निष्ठा हमेशा ऐसा कर जाती थी जिससे प्रत्यक्ष को बेहद गुस्सा आता था। श्रवण और पूर्ण उन दोनों को बहस करते देख बस हँसते रहते थे। रात का समय था जब सब सो चुके थे, सिवाय श्रवण के, वह अपनी फ़ाइलें बना रहा था। तभी उसके फ़ोन पर किसी का मैसेज आया। श्रवण ने यूँ ही फ़ोन उठाकर चेक किया तो मैसेज में लिखा था-"कल सुबह तूफ़ान आ रहा है तुम्हारे घर।" यह पढ़कर श्रवण की आँखें हैरानी से बड़ी हुईं और बेसाख़्ता ही उसके मुँह से निकला-"बुआ आ रही है, ओह नहीं!"
क्रमश:
रात का समय था, सब सो चुके थे। सिवाय श्रवण के, जो अपनी फाइलें बना रहा था। तभी उसके फ़ोन पर किसी का मैसेज आया। श्रवण ने फ़ोन उठाकर चेक किया तो मैसेज में लिखा था, "कल सुबह तूफ़ान आ रहा है तुम्हारे घर।" यह पढ़कर श्रवण की आँखें हैरानी से बड़ी हुईं और बेसाख़्ता ही उसके मुँह से निकला, "बुआ आ रही है, ओह नहीं!"
यह मैसेज श्लोक की ओर से आया था। यानी वह बता रहा था कि कल सुबह उसकी माँ, यानी श्रवण की बुआ, घर आ रही है। श्रवण ने मुँह बनाकर फ़ोन बंद किया और अपनी फाइलें एक ओर रख बेड पर पूर्ण के पास लेट गया।
"पता नहीं अब यह बुआ आ क्यों रही है। इतना तो पक्का है कि कुछ तो काम है इन्हें। वरना ये बिना काम तो कहीं जा ही नहीं सकती।" यही सोचते हुए वह सो गया।
अगली सुबह मुरारी जी हरिद्वार से लौट आए थे। उनसे मिलकर प्रत्यक्ष दुकान पर गया था। श्रवण भी जल्दी अस्पताल जाने के चक्कर में यह बताना भूल गया था कि आज बुआ आने वाली थी। पूर्ण को स्कूल निष्ठा ने छोड़कर लाया था, फिर घर आते ही बाकी के कामों में लग गई। जैसे ही वह कामों से फ्री हुई, तभी दरवाज़े की कुंडी किसी ने खटखटा दी। निष्ठा ने अपने पल्लू से माथे पर आए पसीने को पोछते हुए दरवाज़े की ओर बढ़ा। निष्ठा ने जैसे ही दरवाज़ा खोला, सामने एक औरत खड़ी थी जो अपने गोल फ्रेम के चश्मे को ठीक करती हुई निष्ठा को ऊपर से लेकर नीचे तक घूरने लगी। उन्हें देख निष्ठा ने झट से अपने सिर को पल्लू से ढँक नीचे झुककर उनके पैर छूते हुए हैरानगी से बोली, "प्रणाम बुआ जी!"
"चल हट आगे से। अब क्या अंदर भी नहीं जाने देगी?" बुआ जी ने मुँह बना लिया और उसके कंधे पर अपना हाथ मार उसे अपने आगे हटाते हुए कहा।
निष्ठा तत्काल उनके सामने से हटी। बुआ जी ने अपने हाथ में पकड़ा बैग निष्ठा को थमाते हुए कहा, "पकड़ इसे और बिलकुल ठंडा सा पानी ले आ।"
"जी, बुआ जी अभी लेकर आती हूँ।" निष्ठा जल्दी से रसोई में चली गई।
"मुरारी! मुरारी!" कहते हुए वह उनके कमरे में चली आई। उस वक्त मुरारी जी अख़बार पढ़ रहे थे। अपनी बड़ी बहन को देख वह थोड़ा हैरान भी हुए और खुश भी।
"सुलक्षणा दीदी!" मुरारी जी ने अख़बार बंद कर साइड में रखा और उठकर सुलक्षणा जी के पैर छुए। सुलक्षणा जी मुस्कुराईं और मुरारी जी का कंधा थपथपा दिया। "सुखी रहो।"
"आप अचानक! आपने तो आने से पहले कोई खबर भी नहीं की।" सुलक्षणा जी और मुरारी जी दोनों बैठे तो मुरारी जी बोल उठे। सुलक्षणा जी ने मुँह बनाया, "क्यों, बिना बताए नहीं आना चाहिए था क्या...?"
"अरे दीदी! आप तो बुरा मान रही हैं, हमारा यह अर्थ नहीं था। आपका ही घर है, जब चाहे आएँ और हक से रहें यहाँ।" मुरारी जी तुरंत बोले।
"जानते हैं हम।" वह हल्का सा मुस्कुराईं। तब तक निष्ठा उनके लिए एकदम ठंडा पानी ले आई थी। मुरारी जी वहीं थे इसलिए निष्ठा को घूँघट करना पड़ा। वह चलकर सुलक्षणा जी के पास जाने लगी, मगर अचानक साड़ी में पैर फंसने के कारण वह हड़बड़ा गई और हाथ में पकड़े ग्लास का पानी सीधा सुलक्षणा जी के मुँह पर जा गिरा। सुलक्षणा जी का मुँह बेसाख़्ता ही खुला। कुछ पानी उनके कपड़ों पर भी गिर गया था। यह देख निष्ठा ने अपनी जीभ को दाँतों तले दबा लिया और अपनी आँखें मींच लीं। हो गई गड़बड़! मुरारी जी यह देख थोड़े गुस्से में बोले, "निष्ठा ये क्या किया तुमने...?"
"मा... माफ़ कीजिए बाबू जी। मगर अचानक पैर साड़ी में फंस गया।" निष्ठा हिचकिचाती हुई बोली।
"ये क्या तरीका है पानी देने का, हम्म! इससे अच्छा है देती ही ना, सीधा मुँह पर फेंक के मारा...? " सुलक्षणा जी अपना चश्मा हटाकर अपने चेहरे से पानी पोछते हुए गुस्से में बोलीं।
"माफ़ी बुआ जी, मैं अभी आपके लिए दूसरा पानी लेकर आती हूँ।" कहते हुए निष्ठा वहाँ से तुरंत चली गई।
"आप ठीक तो हैं ना दीदी?" मुरारी जी ने पूछा तो सुलक्षणा जी मुँह बनाकर बोलीं, "ठीक हूँ।"
कुछ देर बाद निष्ठा उनके लिए पानी लेकर आई और काफी धीमे से बोली, "बुआ जी, चाय लेकर आऊँ...?"
"नहीं! वरना तुम्हारा कोई भरोसा नहीं, अबकी जैसे पानी फेंक के मारा, कहीं चाय भी फेंक के ना मार दो। तुम्हारा क्या ही चला जाएगा मगर मैं तो जल जाऊँगी ना।" सुलक्षणा जी ने ताना मारते हुए कहा।
"ले आओ चाय बनाकर, मगर ज़रा ध्यान से।" मुरारी जी धीरे से बोले तो निष्ठा अपना सिर हिलाकर वहाँ से चली गई।
क्रमश:
सुलक्षणा जी को चाय देकर आने के बाद निष्ठा अपने कमरे में आ बैठी। उसने अपने सिर से पल्लू हटाया और मुँह बनाकर बोली, "मैंने कौन सा जानबूझकर पानी फेंका था? गलती से गिर गया, मगर नहीं। हुंह!"
कुछ देर बाद मुरारी जी ने निष्ठा को सुलक्षणा जी के लिए खाना लगाने को कहा। निष्ठा ने उनका खाना लगाकर दे दिया। तब उसे पता चला कि वह कुछ दिन यहीं रुकने वाली है। निष्ठा वापस अपने कमरे में आ गई। दोपहर को प्रत्यक्ष खाना खाने आया तो बुआ जी को देखकर बेहद खुश हुआ।
"बबुआ! कैसे हो..?" सुलक्षणा जी ने प्रत्यक्ष के सिर पर हाथ रखकर कहा। प्रत्यक्ष ने अपना सिर हिलाकर मुस्कुराते हुए कहा, "जी, ठीक हूँ। आप बताइए..?"
"मैं भी एकदम बढ़िया।"
"घर पर सब कैसे हैं..?"
"सब ठीक हैं।" सुलक्षणा जी मुस्कुराकर बोलीं।
"मैं बस अभी आता हूँ।" यह कहकर प्रत्यक्ष वहाँ से निकलकर अपने कमरे में आ गया। निष्ठा को जागा देखकर वह हैरान होकर बोला, "तुम सोई नहीं आज..?"
"आज मन नहीं था।" निष्ठा, जो कपड़ों की तह कर रही थी, बोली।
"अच्छा, ठीक है। मैं जरा हाथ-मुँह धोकर आता हूँ, तुम खाना लगाओ।"
"जी।" निष्ठा ने अपना सिर हिला दिया। प्रत्यक्ष बाहर चला गया। निष्ठा ने तह किए हुए कपड़े अलमारी में रखकर प्रत्यक्ष का खाना लगाने चली गई। कुछ देर बाद वह खाना खाकर वापस दुकान पर चला गया। उसके जाने के बाद निष्ठा थोड़ी देर बेड पर लेट गई। अभी उसे कुछ देर ही बीती थी कि बाहर से सुलक्षणा जी की आवाज़ आई, शायद! वह उसे बुला रही थीं। वह उठी और बाहर चली गई।
शाम के वक्त पेड़ के नीचे चारपाई बिछाई थी। सुलक्षणा जी और मुरारी जी दोनों वहीं पर बैठकर बातें कर रहे थे। पूर्ण स्कूल का काम खत्म करके खेलने गया हुआ था। वहीं निष्ठा रसोई में रात के खाने की तैयारी कर रही थी। मौसम काफी घुटा हुआ सा हो गया था और ऊपर से गर्मी। निष्ठा बार-बार अपने पसीने को अपने पल्लू से पोछती हुई सब्जी काट रही थी। सुलक्षणा जी ने फरमाइश की थी कद्दू की सब्जी, पूरी और हलवे की। कद्दू काफी सख्त था, जिसे वह बड़ी मुश्किल से काट पा रही थी। काटते हुए उसकी उंगली लाल हो गई थी क्योंकि चाकू का पिछला हिस्सा बार-बार चुभ रहा था। एक तो गर्मी, ऊपर से यह कद्दू कट नहीं रहा था। इसलिए वह थोड़ा झुंझला उठी थी। "ये बुआ भी ना, कद्दू जैसी तो पहले ही हैं। और खाना इन्हें कद्दू ही है... हुंह। उफ्फ ये गर्मी! जान निकाल देंगी मेरी।" वह बड़बड़ाती हुई सब्जी काट रही थी कि अचानक चाकू उसकी उंगली पर लग गया और वहाँ से खून निकल आया। निष्ठा ने तुरंत अपनी उंगली को अपने मुँह में डाल लिया। जब खून का रिसाव बंद हो गया, वह फिर सब्जी काटने लगी। सब्जी काटकर उसने जैसे ही स्लैब पर रखी कि तभी दरवाज़े पर किसी ने दस्तक दी।
"बहुरिया, ज़रा देखो कौन आया है।" सुलक्षणा जी ने निष्ठा को आवाज़ लगाकर कहा। निष्ठा हैरान सी हो गई। वह लोग आँगन में बैठे थे और दरवाज़ा सामने ही था, तो आराम से खोल सकते थे। मगर फिर भी उन्होंने उसे बोला। वह चिढ़ सी गई और जाकर दरवाज़ा खोला तो सामने प्रत्यक्ष, पूर्ण के साथ खड़ा था। निष्ठा ने गुस्से में उसे घूरा और पैर पटकते हुए वहाँ से चली गई। प्रत्यक्ष के माथे पर बल पड़ गए। वह मन-ही-मन बोला, "अब मैंने क्या किया, जो यह ऐसे घूर रही है? अभी तो आकर ही खड़ा हुआ हूँ। इसकी भी हद है।"
अंदर आकर उसने दरवाज़ा बंद किया और मुरारी जी, सुलक्षणा जी के पास आ गया।
"बहुरिया, पानी लेकर आ बबुआ के लिए।" सुलक्षणा जी ने कहा तो प्रत्यक्ष तुरंत बोला, "नहीं, उसकी ज़रूरत नहीं है।"
"बेटा, गर्मी है, पानी पीते रहना चाहिए।"
"मगर अभी मुझे प्यास नहीं लगी। जब लगेगी मैं खुद ले लूँगा।" प्रत्यक्ष ने कहा।
निष्ठा ने फ्रिज से बोतल निकालकर पानी ग्लास में भर लिया था। प्रत्यक्ष की बात सुनकर उसने गुस्से में पानी को घूरा, "पोपट बना रहे हैं क्या ये लोग मेरा? कभी हाँ तो कभी ना, हुंह..." भर हुआ पानी का ग्लास उठाकर उसने अपने होठों पर लगा लिया।
कुछ देर बाद श्रवण भी घर आ गया था। सब आँगन में बातें कर रहे थे। वहीं निष्ठा उनकी बातें सुनती हुई खाना बना रही थी। खाना बनने के बाद उसने सबका खाना परोसा और वापस रसोई में आकर वहीं पर बैठ गई। तभी सुलक्षणा जी सब्जी का स्वाद लेती हुई मुँह बनाकर बोलीं, "उह्ह्ह्ह.... कद्दू की सब्जी में इतना मीठा डालते हैं क्या! सब्जी खानी थी, खीर बना रखी है। लगता है हलवे में डालने वाला मीठा सब्जी में उड़ेल दिया है। अरे ओ बहुरिया, खाना बनाना सीखकर आई भी है कि नहीं अपने पीहर से, हम्मम..?"
उनकी बात सुन कोई कुछ नहीं बोला। वहीं निष्ठा भी मन-ही-मन कुढ़ चुकी थी। एक तो इतनी गर्मी में वह खाना बना रही थी और इतने घंटों से लगी हुई थी और अब सुनने को मिल रहा था कि उसने सही से खाना ही नहीं बनाया था। श्रवण ने सब्जी को टेस्ट किया तो उसे तो अच्छी लगी। "बुआ! सही से बनी हुई है। कहाँ मीठा ज़्यादा है..? मुझे तो नहीं लगा।"
"तू तो लड़का है, तुझे क्या पता स्वाद का? (अपने एक हाथ को उठाकर) मेरे हाथों से कभी कुछ ज़्यादा ही नहीं गिरता। एकदम सटीक। और खाने वाला तो बस तारीफ़ करता ही रह जाए। (और अपनी थाली में रखे खाने को देख) इतने महँगे कद्दू का नाश ही पीट दिया। इससे अच्छा मैं बना देती।" सुलक्षणा जी ने मुँह बनाकर कहा। वहीं उनकी यह बात सुनकर निष्ठा के तन-बदन में जैसे आग लग गई थी।
क्रमश:
"तू तो लड़का है, तुझे क्या पता स्वाद का।" सुलक्षणा जी ने अपने एक हाथ को उठाते हुए कहा, "मेरे हाथों से कभी कुछ ज़्यादा नहीं गिरता। एकदम सटीक। और खाने वाला तो बस तारीफ़ करता ही रह जाता है। इतने महँगे कद्दू का नाश ही पीट दिया। इससे अच्छा मैं बना देती।" मुँह बनाकर उन्होंने कहा। उनकी यह बात सुनकर निष्ठा के तन-बदन में जैसे आग लग गई थी।
उसका मन कर रहा था कि अभी उठकर बुआ के सामने से थाली ही उठा ले और कहे कि अपना खुद ही बना ले। अफ़सोस! अफ़सोस! वह कुछ कह नहीं सकती थी।
"अएएएए! मैं लड़का हूँ तो मुझे स्वाद का पता नहीं।" श्रवण ने मुँह बनाकर कहा।
"श्रवण! चुपचाप खाना खा।" प्रत्यक्ष ने अपनी सर्द सी आवाज़ में कहा।
सभी अपना-अपना खाना खाने लगे। सबका खाना हो जाने के बाद निष्ठा ने सारे बर्तन समेटकर एक ओर रख दिए और फिर खुद खाना खाया। सारा काम करते-करते रात के लगभग 10 बज चुके थे। सभी आँगन में ही बैठे हुए थे। निष्ठा ने रसोई की लाइट बंद कर, उसका दरवाज़ा बंद किया और अपने कमरे में चली आई। थोड़ा दरवाज़ा झुकाकर उसने जल्दी से कूलर ऑन किया और उसके सामने बैठ गई। सिर से पल्लू को हटाया और कूलर की हवा में थोड़ी देर सुकून की साँस लेने लगी। मगर आज शायद उसकी किस्मत में सुकून लिखा ही नहीं था। उसे बस दो मिनट ही हुए थे कि अचानक कमरे की लाइट्स बंद हो गईं और साथ ही कूलर, जो ठंडी हवाएँ दे रहा था, वह रुक गया। पूरे कमरे में ही नहीं, बल्कि पूरे मोहल्ले में अंधेरा छा गया था। निष्ठा अब और चिढ़ गई।
"इस लाइट को भी अभी जाना था क्या? हर किसी को बस बैर मुझसे ही है और इस लाइट को तो कुछ ज़्यादा ही। थोड़ी देर सुकून की साँस तक नहीं लेने दी।" वह बड़बड़ाकर बोली और वहीं अंधेरे में बेड पर लेट गई। आँखें बंद कर अपने पल्लू को ही घुमाने लगी ताकि कुछ हवा इससे ही लग जाए। दिन भर की थकान थी, तो कुछ ही क्षण में वह नींद में सो गई।
बाकी सभी ने फैसला किया कि वे आज रात बाहर आँगन में ही सोएँगे। तो श्रवण ने सभी का बिस्तर वहीं लगा दिया था। बाहर हल्की-हल्की हवा चल रही थी। प्रत्यक्ष को अचानक निष्ठा का ख्याल आया। उसने अपने कमरे की ओर देखा, फिर बाकी सब की ओर, जो अपने-अपने बिस्तर पर लेट चुके थे।
"भाई, आप एक काम करो, आप और भाभी ऊपर छत पर सो जाओ। अंदर कमरे में गर्मी में मरने से तो अच्छा है। कम-से-कम थोड़ी हवा तो लगेगी।" श्रवण ने जब प्रत्यक्ष को अजीब सी दुविधा में पड़े देखा तो बोला। उसकी बात सुनकर प्रत्यक्ष ने धीरे से अपनी गर्दन हिला दी। प्रत्यक्ष ने सबसे पहले अपना और निष्ठा का बिस्तर लगाया और फिर अपने कमरे में आया। प्रत्यक्ष ने फ़ोन की लाइट जला रखी थी। उसने जब निष्ठा को देखा तो एकाएक हैरान हुआ। अजीब थी यह लड़की। इतनी गर्मी में पूरी पसीने से तर-बतर हो चुकी थी, मगर काफ़ी मज़े से सो रही थी। वह उसके पास आया और उसके गाल को थपथपाते हुए बोला,
"निष्ठा! निष्ठा! उठो, चलो ऊपर छत पर जाकर सोते हैं। यहाँ बहुत गर्मी है।"
उसकी आवाज़ सुन निष्ठा बेमन से उठी और उसके साथ ऊपर छत पर आ गई। प्रत्यक्ष ने उसे थोड़ा पानी पिलाया और उसके बाद निष्ठा उसकी ओर पीठ करके आराम से सो गई। कमरे से तो यहाँ थोड़ा सुकून था। प्रत्यक्ष ने अपनी कोहनी तकिए पर टिकाकर अपने हाथ पर अपना सिर रख, सोती हुई निष्ठा को देखने लगा। फिर खुद ही मुस्कुराकर मन-ही-मन बोला,
"इतनी नींद से भरी है यह। देखो कैसे बिस्तर पर लेटते ही सो गई।" फिर धीरे से उसके हाथ को पकड़ा और आहिस्ता से चूम लिया। "और साथ में गुस्से से भी भरी हुई है। पता नहीं इतना कितना गुस्सा आता है इसे। और इतना किसका मूड खराब रहता है। हर वक्त! हर वक्त! बस चिढ़ी रहती है। पागल लड़की।"
प्रत्यक्ष सीधा लेटा और अपने सिर के नीचे हाथ रख, उस खुले आसमान की तरफ़ देखने लगा। तारे टिमटिमाकर अपनी खुशी ज़ाहिर कर रहे थे। चाँद कुछ अधूरा सा था, जो बार-बार बादलों की ओट में खुद को छिपा रहा था। बिल्कुल वैसे ही जैसे प्रेयसी अपने प्रियतम को देख शर्माकर छिप जाती है। पेड़ पर बैठी चिड़िया और उसके बच्चे भी आराम से अपने घोंसले में सो रहे थे। अब तो प्रत्यक्ष की भी आँखें बोझिल होने लगी थीं, चाँद का यह लुका-छिपी का खेल देखते हुए। वह आँखें बंद करके अपने ख्वाबों की दुनिया की सैर पर निकल गया था। उसके सोने के बाद निष्ठा ने नींद में उसकी ओर करवट ली और उसके सीने पर अपना सिर रखकर उससे लिपट गई। रात की गई लाइट फिर सुबह 6 बजे ही आई थी और लाइट आते ही सुलक्षणा जी की नींद भी खुल गई थी। मुरारी जी को भी सुबह जल्दी नहाकर पूजा करने की आदत थी। वे पूजा करने अपने कमरे में गए थे। सुलक्षणा जी ने श्रवण को देखा और उसकी बाजू पकड़ उसे झंझोड़ते हुए बोलीं,
"ए श्रवण! उठ जरा।"
"क्या हो गया बुआ?" वह अपनी आँखें जबरदस्ती खोलता हुआ बोला।
"जा, बहुरिया से कह दे कि अब उठेगी और चाय बना देगी।"
"मैं बना देता हूँ।" श्रवण उठने लगा तो सुलक्षणा जी ने उसे आँखें दिखाते हुए कहा, "घर में औरत के होते हुए मर्द काम करेंगे अब? हम्मम…?"
श्रवण ने चिढ़कर उनकी ओर देखा और मुँह बनाकर अपना फ़ोन उठा लिया। फिर प्रत्यक्ष का नंबर डायल कर दिया। फ़ोन के बजने की आवाज़ सुन प्रत्यक्ष और निष्ठा दोनों की चौंककर आँखें खुल गईं।
क्रमश:
श्रवण ने चिढ़कर उनकी ओर देखा और मुँह बनाकर अपना फ़ोन उठा लिया। फिर प्रत्यक्ष का नंबर डायल किया। फ़ोन के बजने की आवाज़ सुनकर प्रत्यक्ष और निष्ठा दोनों की आँखें चौंककर खुल गईं।
निष्ठा, जो अनजाने में ही सही, नींद में होने के कारण प्रत्यक्ष के बेहद करीब आ गई थी, वह तुरंत उठकर उससे दूर हो गई। प्रत्यक्ष ने उठकर अपने तकिए के पास से फ़ोन उठाया और बड़ी मुश्किल से अपनी आँखें खोलकर उस पर फ़्लैश हो रहे नाम को देखा। श्रवण इतनी सुबह कॉल क्यों कर रहा था? उसने फ़ोन उठाकर कान पर लगाया। "हम्मम…?"
"भाई, वो बुआ कह रही हैं कि भाभी को उठा दो, आकर चाय बना देंगी। बाबूजी और बुआ के लिए।" सामने से श्रवण ने कहा। तो प्रत्यक्ष ने बस इतना ही कहा, "आ रहे हैं नीचे ही।" और फ़ोन काट दिया। उसने निष्ठा की ओर देखा, जो एक बार फिर उससे दूर होकर सो चुकी थी। प्रत्यक्ष ने लाचारी में अपनी गर्दन हिला दी। फिर उसने धीरे से उसकी बाजू पर हाथ रखा और उसे उठाते हुए बोला, "निष्ठा! चलो नीचे चलते हैं। लाइट आ गई है। और बुआ, बाबूजी के लिए चाय भी बना दो।"
प्रत्यक्ष की बात सुनकर निष्ठा झुंझलाहट के साथ उठी और उसे गुस्से में देखते हुए, मगर थोड़ी दबी आवाज़ में बोली, "आप लोगों को नहीं पता तो मैं बताती हूँ कि पूरा दिन काम करने के बाद इंसान थक जाता है। उसे थोड़ी देर सुकून की भी ज़रूरत होती है। कल कितनी बुरी हालत में थी मैं! आपने एक बार भी देखा? नहीं देखा। क्यों देखेंगे? क्योंकि आपकी ज़िंदगी में मेरी अहमियत क्या है? फ्री की नौकरानी जो मिली हुई हूँ। कल एक तो गर्मी इतनी थी, उस पर से सबकी अलग-अलग फ़रमाइश। रात के समय लाइट चली गई। सही से नींद भी नहीं ले पाई। और अब फिर उठकर काम में लग जाओ। पागल समझ रहे हो क्या, बिलकुल ही।"
"निष्ठा! ये क्या तरीका है? किसी गैर के लिए थोड़ी कर रही हो, अपने परिवार के लिए तो कर रही हो।" प्रत्यक्ष उसकी बात सुनकर अपनी गंभीर सी आवाज़ में बोला। निष्ठा खिल उठी। उसने गुस्से में तकिया उठाकर प्रत्यक्ष को मारा और नम आँखों के साथ उठकर नीचे चली गई, यह कहते हुए, "जीना हराम कर दिया है सब ने मेरा।"
उसके जाते ही प्रत्यक्ष ने एक गहरी साँस ली और अपना सिर ना में हिला दिया। "इस लड़की का कुछ नहीं हो सकता। सभी का गुस्सा बस मुझ पर ही निकालना होता है इसे।" वह उठा और अपना बिस्तर समेटकर नीचे चला गया। निष्ठा नीचे आकर पहले नहाई और फिर रसोई में आकर गैस पर चाय चढ़ा दी। की सहसा ही उसकी आँखों से आँसू छलक पड़े। यह सब उसके लिए कहाँ आसान था! उसकी माँ ने काम सारा सिखाया था उसे, मगर अपने मायके में कभी उस पर काम का इतना ज़ोर नहीं डाला था किसी ने। मर्ज़ी होती तो कर देती, नहीं होती तो नहीं करती। और अब यहाँ आकर, यानी ससुराल में आकर, उसे लगभग सारा ही काम खुद से करना पड़ रहा था। तो उस पर काम का काफ़ी ज़ोर पड़ रहा था। यहाँ उसे 6 बजे उठा दिया जाता था और कभी-कभी उससे भी पहले, जबकि वह अपने मायके में कभी भूलकर भी इतनी जल्दी नहीं उठती थी।
"निष्ठा, चाय उबल गई है।" प्रत्यक्ष पानी लेने रसोई में आया तो देखा कि चाय उबल चुकी थी, मगर निष्ठा रो रही थी। तो वह धीरे से उसके कंधे पर हाथ रखकर बोला। निष्ठा ने बिना कुछ कहे गुस्से में उसका हाथ झटका और अपने आँसू साफ़ कर चाय में दूध डालने लगी। प्रत्यक्ष ने कुछ देर उसे घूरा और फिर वहाँ से चला गया। निष्ठा ने चाय बनने के बाद सुलक्षणा जी और मुरारी जी को चाय दी। फिर प्रत्यक्ष की चाय कमरे में टेबल पर रखकर वापस रसोई में आकर खाने की तैयारी करने लगी। धीरे-धीरे अंधेरा छटने लगा था। खाना बनाकर निष्ठा ने पूर्ण और श्रवण का टिफ़िन बॉक्स पैक किया और फिर बाहर आ गई। आँगन में पूर्ण और श्रवण दोनों आराम से एक-दूसरे से लिपटे सो रहे थे। निष्ठा उनके पास आई और पूर्ण के सिर पर प्यार से हाथ फेरती हुई धीमे से बोली, क्योंकि यहीं पर मुरारी जी मौजूद थे, "पूर्ण, उठो! चलो स्कूल जाना है।"
"भाभी, माँ थोड़ी देर और सोने दो ना।" पूर्ण निष्ठा का हाथ पकड़ अपने चेहरे पर लगाता हुआ अपनी उनींदी सी आवाज़ में बोला।
"नहीं! चलो उठो। स्कूल का टाइम हो जाएगा फिर।" कहते हुए निष्ठा ने उसे अपनी गोद में उठा लिया था और पूर्ण ने भी नींद के मारे अपना सर उसके कंधे पर टिका दिया। निष्ठा उसे लेकर बाथरूम में चली गई। उसे नहलाकर स्कूल के लिए तैयार किया और उसे स्कूल में छोड़ने जाने लगी, कि तभी सुलक्षणा जी मुँह बनाकर बोलीं, "तुम कहाँ जा रही हो बहुरिया…?"
निष्ठा रुकी और उनकी ओर देखकर बोली, "पूर्ण को स्कूल छोड़ने।"
"नहीं, तुम नहीं जाओगी। (मुरारी जी की ओर देख) तुम जाओ, पूर्ण को छोड़कर आओ। घर की बहू ऐसे बाहर जाती हुई अच्छी थोड़ी लगती है।" सुलक्षणा जी ने कहा। तो मुरारी जी पूर्ण को स्कूल छोड़ने चले गए। उनके जाते ही निष्ठा ने अपना घूँघट थोड़ा ऊपर किया और सुलक्षणा जी को घूरते हुए वहाँ से अपने कमरे में चली गई। वह कमरे में आई तो देखा कि प्रत्यक्ष दुकान पर जाने के लिए तैयार हो रहा था। निष्ठा को आया देख वह उसकी ओर मुड़ा और अलमारी से एक नया फ़ोन का डिब्बा निकालकर उसकी तरफ़ बढ़ाता हुआ बोला, "ये मैं कल नया फ़ोन लेकर आया था तुम्हारे लिए। मैं और श्रवण तो सुबह चले जाते हैं। यदि तुम्हें पीछे से काम पड़ जाएँ तो तुम कैसे बताओगी? बाबूजी के पास भी फ़ोन नहीं है। इसलिए मैं ले आया हूँ एक खरीदकर।"
निष्ठा ने मुस्कुराकर प्रत्यक्ष के हाथों से फ़ोन ले लिया। तो प्रत्यक्ष अपने बालों में ब्रश घुमाता हुआ बोला, "शाम को आकर मैं सब के नंबर सेव कर दूँगा।"
"सिम कार्ड…?"
"दुकान वाले ने इसमें ही डाल दिया था।"
"हम्मम।" निष्ठा अपनी चमकती आँखों से नए फ़ोन को देखने लगी। प्रत्यक्ष के जाने के बाद श्रवण भी तैयार होकर हॉस्पिटल चला गया था। सुलक्षणा जी और मुरारी जी का खाना लगाकर वह घर की साफ़-सफ़ाई में लग गई। वहाँ से फ़्री होकर उसने खाना खाया और अपने कमरे में चली आई। तभी सुलक्षणा जी ने उसे आवाज़ लगाई। निष्ठा चिढ़कर उनके पास चली गई।
"जी, बुआ जी…?"
"क्या कर रही हो…?"
"कुछ नहीं।"
"आओ मेरे पास बैठो। मुरारी तो खाना खाकर अपने दोस्तों के पास चला गया।" सुलक्षणा जी ने कहा तो निष्ठा उनके पास ही बैठ गई। तो सुलक्षणा जी अपने पैरों को सीधा करती हुई बोलीं, "बैठी ही है तो बैठे-बैठे पैर भी दबा दे। दर्द सा हो रहा है।"
निष्ठा बिना कुछ कहे उनके पैर दबाने लगी। सुलक्षणा जी ने कुछ देर उसे देखा और बोलीं, "तेरे मुँह पर बारह क्यों बजे हैं? क्या हुआ है…?"
"आपकी वजह से बारह बजे हैं मेरे मुँह।" निष्ठा ने झल्लाकर कहा।
क्रमश:
निष्ठा बिना कुछ कहे उनके पैर दबाने लगी। सुलक्षणा जी ने कुछ देर उसे देखा और बोली, "तेरे मुँह पर बारह क्यों बजे हैं? क्या हुआ है?"
"आप की वजह से बारह बजे हैं मेरे मुँह पर," निष्ठा ने झल्लाकर कहा। सुलक्षणा जी ने हैरान नज़रों से उसे देखा। मानो यकीन करने की कोशिश कर रही हों कि जो अभी उसने सुना वह सही ही सुना है या कहीं उनके कान न बजने लगे हों। सुलक्षणा जी ने निष्ठा को घूरा और उसके बाजू पर मारती हुई बोली, "हट परे को।" निष्ठा मुँह बनाकर थोड़ा सरककर बैठ गई।
"मैंने कौन सा तुझसे पहाड़ तुड़वा दिए?" सुलक्षणा जी ने कहा। तो निष्ठा चिढ़कर बोली, "इतना सब करवाने के बाद अब पहाड़ भी तुड़वाने बाकी हैं। हद है बुआ आपकी भी।"
"ऐ लड़की! बहुत ज़ुबान चला रही है। मुझे बिल्कुल भी पसंद नहीं कि कोई मेरे सामने इतना बोले," सुलक्षणा जी ने कहा। तो निष्ठा कुछ नहीं बोली और वापस से उनके पैर दबाने लगी। सुलक्षणा जी उसे घूरकर देख रही थीं। निष्ठा थोड़ी देर बाद बेचारा सा मुँह बनाकर बोली, "आपसे एक बात पूछूँ।"
"हाँ पूछो...?" सुलक्षणा जी ने भौंहें उठाकर कहा।
"आप कब तक यहाँ रुकने वाली हैं?" निष्ठा ने दाँत निपोरते हुए पूछा।
"बहुत जल्दी है मुझे यहाँ से भगाने की। हम्मम...? भूल मत, ये घर मेरा भी है। मैं इस घर की बेटी हूँ। जब तक चाहूँ यहाँ रह सकती हूँ। और यहाँ ज़्यादा अपनी चलाने की ज़रूरत नहीं है। आयी बात समझ?" सुलक्षणा जी ने आँखें दिखाईं।
"नहीं आप गलत समझ रही हैं। मैं तो इसलिए पूछ रही थी कि आप के जाने के बाद मैं कुछ दिन अपने मायके चली जाऊँगी। माँ बुला रही थी," निष्ठा ने बहाना बनाते हुए कहा। उसकी बात सुन सुलक्षणा जी ने अपनी गंभीर सी आवाज़ में कहा, "दो-तीन दिन ही रुकूँगी।"
"ठीक है। तो दो-तीन दिन के बाद चली जाऊँगी मैं। (फिर थोड़ा रुककर) पक्का! दो-तीन दिन में चली जाएगी ना आप? देखो! बुआ मुझे मज़ाक पसंद नहीं। कहीं आप दो-तीन दिन के बाद कहें कि बेटा मैं तो मज़ाक कर रही थी, अब और दिन रुकूँगी," कहते हुए निष्ठा ने रोने सी शक्ल बना ली। सुलक्षणा जी ने निष्ठा को खा जाने वाली नज़रों से देखा तो निष्ठा झेंप गई और अपना सिर नीचे झुकाकर उनके पैर दबाने लगी।
"लड़की की जात तो इतना नहीं बोलना चाहिए," सुलक्षणा जी ने कहा। फिर ऊपर की ओर देखकर, "इतनी बड़बोली बीवी मिली मेरे शांत और सीधे रहने वाले बबुआ को। (निष्ठा को घूरते हुए) और कम दिमाग़ भी। अब तो मेरे बबुआ का कुछ नहीं हो सकता।"
"ऐ! बुआ ऐसे क्यों कह रही हो? भगवान की कृपा रही तो एक बेटा और एक प्यारी सी बेटी जल्द ही होगी। और दोनों-के-दोनों मुझ पर, क्योंकि अगर प्रत्यक्ष जी पर हुए तो मैं नहीं सम्हाल पाऊँगी। सुनो ना बुआ, मैं क्या कहती हूँ कि प्रत्यक्ष जी हैं तो खड़ूस से। मुझ पर होंगे तो ठीक रहेगा ना...?" कहते हुए निष्ठा टिमटिमाती हुई आँखों से उन्हें देखने लगी। सुलक्षणा जी आँखें फाड़े उसे देख रही थीं। कितनी बोलती थी यह लड़की!
"शादी से पहले तुम्हारी माँ ने तो यह बताया नहीं कि उनकी लड़की ज़ुबान की टूटी हुई है।"
"च्च्च्! बताओ मेरी इतनी बड़ी खूबी भी नहीं बताई माँ ने।"
"यह खूबी नहीं है," सुलक्षणा जी ने चिढ़कर कहा और एक थप्पड़ मारा उसकी बाजू पर। तो निष्ठा झल्लाकर उठी और अपनी बाजू को सहलाती हुई मुँह बनाकर बोली, "अब मैं नहीं दबा रही आप के पैर। एक तो काम करवा रही हैं और ऊपर से हाथ साफ़ कर रही हैं इतनी देर से। दर्द होता है मुझे भी।" कहते हुए निष्ठा वहाँ से चली गई। उसके जाने के बाद सुलक्षणा जी ने अपना सिर पकड़ लिया, "इस लड़की ने तो थोड़ी देर में ही सिर दर्द कर दिया। हे प्रभु! सद्बुद्धि दे इस लड़की को। वरना मेरे बबुआ की तो सारी ज़िन्दगी ही झंड हो जाएगी।"
हर रोज़ की तरह आज भी प्रत्यक्ष दोपहर को घर आया। सुलक्षणा जी आराम कर रही थीं। यह देख वह अपने कमरे में आया तो यहाँ भी निष्ठा आराम से कूलर की हवा में सो रही थी। प्रत्यक्ष ने कुछ देर उसे देखा और फिर अपना सिर ना में हिलाकर खाना खाकर वापस दुकान पर चला गया। पूर्ण की स्कूल की छुट्टी होने के बाद आज मुरारी जी ही उसे घर ले आए थे। निष्ठा भी सोकर उठ चुकी थी। पूर्ण सीधा निष्ठा के कमरे में आया और खुशी से उससे लिपटता हुआ बोला, "भाभी माँ आपको पता है उस मोंटी का सिर हमारे स्कूल के एक बड़े बच्चे ने फोड़ दिया था। उनकी लड़ाई हो गई थी। और उस मोंटी के बच्चे ने सारा इल्ज़ाम मुझ पर लगा दिया था ताकि वो मुझे परेशान कर सके।"
"और तुम्हें यह सब कैसे पता चला...?" निष्ठा ने पूछा तो पूर्ण ने कहा, "आज उस मोंटी ने खुद बताया।"
"चलो अब यह बातें छोड़ो और जल्दी से कपड़े बदलो। तब तक मैं खाना लगा देती हूँ," निष्ठा ने उसके गले में बंधी टाई खोलते हुए कहा। तो पूर्ण खुश होकर बोला, "आज हम दुकान पर गए थे। मैं और बाबा। तो वहाँ लज्जो दीदी आई हुई थीं प्रत्यक्ष भाई के लिए गाजर का हलवा और आलू छोले की चाट बनाकर। मैंने भी वही खा लिया था इसलिए मेरा पेट भरा हुआ है भाभी माँ। मैं कुछ नहीं खाऊँगा।"
"क्या...?" निष्ठा हैरान हुई। फिर अपने दाँतों को पीसते हुए, "कौन है ये लज्जो दीदी! ज़रा बताओ तो मुझे, जो इनके लिए गाजर का हलवा और आलू छोले की चाट लेकर जा रही थी दुकान पर।"
"भाई की दोस्त है। उनके साथ कॉलेज में पढ़ती थी। वह दोनों आज भी दोस्त हैं," पूर्ण ने मुस्कुराकर कहा और कपड़े बदलने चला गया। निष्ठा की आँखें अचानक छोटी हो गईं, "लज्जो रानी बड़ी सयानी मगर तुम्हारी दाल यहाँ नहीं गलने दूँगी। और प्रत्यक्ष जी को तो आज मैं नहीं छोड़ने वाली। आने तो दो ज़रा इन्हें। अच्छे से गाजर का ही हलवा खिलाऊँगी।" गुस्से में हाथ में पकड़ी पूर्ण की टाई को उसने बेड पर फेंका और कमरे से बाहर चली गई।
क्रमश:
"भाई की दोस्त है। उनके साथ कॉलेज में पढ़ती थी। वे दोनों आज भी दोस्त हैं।" पूर्ण ने मुस्कुरा कर कहा और कपड़े बदलने चला गया। निष्ठा की आँखें अचानक छोटी हो गईं। "लज्जो रानी बड़ी सयानी मगर तुम्हारी दाल यहाँ नहीं गलने दूँगी। और प्रत्यक्ष जी को तो आज मैं नहीं छोड़ने वाली। आने तो दो ज़रा इन्हें। अच्छे से गाजर का ही हलवा खिलाऊँगी।" गुस्से में हाथ में पकड़ी पूर्ण की टाई को उसने बेड पर फेंका और कमरे से बाहर चली गई।
शाम को मुरारी जी और सुलक्षणा जी दोनों किसी काम से बाहर गए हुए थे। पूर्ण गली में बच्चों के साथ खेल रहा था। निष्ठा बार-बार समय देखती हुई सब्ज़ी काट रही थी। थोड़े गुस्से में भी लग रही थी और बड़बड़ाए जा रही थी। कुछ देर बाद किसी ने दरवाज़े पर दस्तक दी। निष्ठा ने चाकू को अपने हाथ में पकड़े रखा। वह उठी और जाकर दरवाज़ा खोला। उसकी सोच के मुताबिक प्रत्यक्ष ही था, जो दुकान बंद कर घर लौट चुका था। वह हल्का सा मुस्कुराया और अंदर चला गया। निष्ठा ने बिना कुछ कहे दरवाज़ा बंद कर दिया।
"लो सब्ज़ियाँ, जो तुमने मँगवाई थीं।" सब्ज़ियों से भरी थैली को प्रत्यक्ष ने मुस्कुरा कर निष्ठा की तरफ़ बढ़ा दिया। निष्ठा ने घूर कर उस थैली को पकड़ा और रसोई में रखकर वापस प्रत्यक्ष के पास आ गई। जो अब अलमारी से अपने कपड़े निकाल रहा था। प्रत्यक्ष कपड़े लेकर जैसे ही पीछे मुड़ा, अपने बिल्कुल पीछे निष्ठा को देख एक क्षण के लिए चिल्ला उठा।
"ऐसे चुड़ैल वाली हरकतें करके डरा क्यों रही हो?"
निष्ठा जबरदस्ती मुस्कुराई और प्रत्यक्ष की शर्ट का कॉलर ठीक करती हुई उसके करीब आई और अपना एक हाथ उसके सीने पर रख, अपना सिर उठाकर उसे देखने लगी। जबकि प्रत्यक्ष उलझा हुआ सा उसे देख रहा था। निष्ठा क्या कर रही थी, उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था। लेकिन! अब तक जितना उसने निष्ठा को जाना था, उसे पक्का कुछ तो गड़बड़ लग रही थी। प्रत्यक्ष की नज़रें सहसा ही उसके हाथ में पकड़े चाकू पर गईं और एक क्षण के लिए उसकी आँखें हैरानी से खुली की खुली रह गईं। वह थोड़ा डरते हुए बोला-
"ये...ये तुम चाकू को पकड़े हुए हो...?"
"सब्ज़ी काट रही थी ना मैं।" निष्ठा ने पलकें बार-बार झपकाते हुए कहा।
"हम्मम! हटो तो, आगे से ऐसे क्यों खड़ी हो। कपड़े बदलने हैं मुझे।" कहते हुए प्रत्यक्ष कपड़े बदलने लगा। निष्ठा वहाँ से रसोई में आई और फ्रिज से एक कटोरी निकाली जिसमें गाजर का हलवा था। उसके होठों पर एक तिरछी मुस्कान फैल गई। वह मुड़ी और लाल मिर्च का डिब्बा उठाकर दो चम्मच भर हलवे में डाल दिए। मगर शायद! इससे भी उसे संतुष्टि नहीं मिली थी इसलिए उसने दो चम्मच और भरकर डाल दिए। और फिर उसे चम्मच से मिलाती हुई बोली- "हलवा ही खिलाऊँगी आपको। बहुत शौक है ना अपने दोस्तों के हाथों से बना खाना का। आज अपनी बीवी के हाथ का बना खाइए। कसम से दोबारा अगर गाजर के हलवे की तरह रूखा भी कर ले तो मैं भी आपकी बीवी नहीं। हूँह।"
निष्ठा ने काजू के डिब्बे से एक काजू निकाल हलवे पर सजाया। वह हलवा लेकर कमरे में आई। उस वक्त प्रत्यक्ष बैठा हुआ अपनी डायरी में कुछ लिख रहा था। वह चहक कर उसके पास आई और उसके सामने हलवे की कटोरी रख मुस्कुराते हुए बोली- "पूर्ण बता रहा था कि आपको गाजर का हलवा पसंद है। इसलिए मैंने आपके लिए बना दिया। खाकर बताइए ना कैसा बना है...?"
प्रत्यक्ष ने एक नज़र निष्ठा को देखा, जो आज हद से ज़्यादा ही खुश लग रही थी, फिर हलवे की तरफ़ देखा। उसने ज़्यादा नहीं सोचा और हलवे की कटोरी पकड़ ली- "हाँ, मुझे बहुत पसंद है।"
"खाकर बताइए ना कैसा बना है...?"
"हम्मम" कहकर उसने मुस्कुरा कर एक चम्मच हलवा भरा और अपने मुँह में डाल लिया। एक-दो सेकंड के बाद प्रत्यक्ष को अहसास हुआ कि उसका मुँह बुरी तरह से जल उठा था। अचानक ही प्रत्यक्ष को खांसी आने लगी। चार टाइम की मिर्च उसने इस चार चम्मच हलवे में डाल दी थी। निष्ठा उसके पास आई और उसकी पीठ को सहलाती हुई अनजान बनते हुए बोली- "अच्छा नहीं लगा? क्या हुआ जी? हलवा..."
प्रत्यक्ष की आँखों से आँसू तक आ गए थे इतनी तेज़ मिर्च लग रही थी उसे। फिर भी उसने अपना सिर हिला दिया- "ब...बहुत अच्छा है। एक ग्लास प...पानी ले आओ।"
"हलवा खाते हुए पानी नहीं पीना चाहिए। आप खाइए। अच्छा, रुकिए मैं आपको अपने हाथों से खिलाती हूँ।" कहते हुए निष्ठा ने एक चम्मच हलवा उसे जबरदस्ती सा खिला दिया। फिर खुश होकर- "अच्छा है ना...?"
"बहुत ही वाहियात है। कहाँ से सीखा बनाना? इतनी मिर्च।" प्रत्यक्ष से अब सहन नहीं हुआ, वह झल्ला कर उठा और जल्दी से रसोई में आकर फ्रिज से ठंडे पानी की बोतल निकाली और जल्दी से अपने होठों से लगा दी। मुँह के साथ, उसके होठ और आँखें भी जलने लगी थीं। नॉर्मली भी वह बहुत कम ही मिर्च खाता था और यह बात निष्ठा काफी अच्छे से जानती थी। मगर अपनी जलन में उसने प्रत्यक्ष को भी जला दिया था मिर्च से। उसने वह सारी बोतल खाली कर दी थी। फिर उसने फ्रिज से आइस क्यूब निकाला और उसे अपने होठों पर रगड़ने लगा। ताकि थोड़ी राहत मिले। निष्ठा उस मिर्च वाले हलवे की कटोरी लेकर रसोई में आई। उसने प्रत्यक्ष का चेहरा देखा जो एकदम लाल हो चुका था।
"क्या हुआ आपको? मिर्च ज़्यादा लगी क्या...?" निष्ठा दाँत दिखाकर हँसते हुए बोली। प्रत्यक्ष ने उसे गुस्से में घूरा- "तुमने यह सब जानबूझकर किया ना...?"
"हाँ, किया तो...?"
"तो!, रुको तुम!... तुम्हें तो मैं अभी बताता हूँ।" कहते हुए प्रत्यक्ष ने उसे उसकी बाजू से पकड़ा और अपने करीब खींच लिया। वही निष्ठा भी किसी कटी पतंग की तरह सीधा उसकी बाहों में गिर गई थी। हाथ में पकड़ी हलवे की कटोरी सीधा फर्श पर गिर गई। प्रत्यक्ष की इस अचानक की गई हरकत पर निष्ठा की आँखें हैरानी से बड़ी-बड़ी हो गई थीं।
क्रमशः
"तो! रुको तुम!...तुम्हें तो मैं अभी बताता हूँ।" कहते हुए प्रत्यक्ष ने उसे उसकी बाजू से पकड़ा और अपने करीब खींचा। वही निष्ठा भी किसी कटी पतंग की तरह सीधा उसकी बाहों में गिर गई थी। हाथ में पकड़ी हलवे की कटोरी सीधा फर्श पर गिर गई। प्रत्यक्ष की इस अचानक की गई हरकत पर निष्ठा की आँखें हैरानी से बड़ी-बड़ी हो गई थीं। प्रत्यक्ष ने उसे घूरा और अपने हाथों की पकड़ उसकी बाजू और उसकी कमर पर कसता हुआ, गुस्से में बोला-
"क्या ये हर वक़्त बच्चों जैसी हरकतें करती रहती हो...? हम्मम... इतनी बड़ी हो गई हो। फिर भी हर वक़्त तुम्हारा यह बचपना।"
प्रत्यक्ष का गुस्सा देख निष्ठा सहसा ही सहम गई थी। उसने अपनी पलकें झुका ली थीं। उसे देखकर ऐसा लग रहा था कि वह बस रो ही देगी। प्रत्यक्ष हल्का सा मुस्कुराया और फिर वापस से अपनी मुस्कान छुपा, नकली गुस्सा करते हुए बोला-
"इतनी खुराफाती कहाँ से आती है तुम्हारे इस छोटे से दिमाग में! पूर्ण भी तुमसे काफ़ी समझदार है।"
"बहुत बुरे हैं आप।" निष्ठा उससे दूर हुई और अपनी आँखें मलते हुए रोने लगी थी। प्रत्यक्ष ने उसे अजीब नज़रों से देखा। खुद कितनी ही शरारत करे, मगर वो ज़रा डाँट दे तो हो जाता है मैडम का रोना। अब गलती भी उसी की थी और टिश्यू भी बहाकर वही दिखा रही थी। प्रत्यक्ष ने एक गहरी साँस ली और अपना सिर ना में हिलाकर वहाँ से चला गया। उसके जाने के बाद निष्ठा ने रोना तुरंत बंद कर दिया था। अब तक जहाँ उसका चेहरा प्रत्यक्ष की डाँट सुनकर उदास हो गया था, अचानक ही वह मुस्कुराने लगी थी। फिर धीरे से हँसते हुए मन-ही-मन बोली-
"मेरे आँसू देख तो प्रत्यक्ष जी पिघल ही जाते हैं। अब जब भी आगे डाँटेंगे, थोड़े से आँसू बहा दिया करूँगी।"
मुरारी जी और सुलक्षणा जी घर आए तो निष्ठा सुलक्षणा जी के पास आ धीरे से उनकी बाजू पकड़, हौले से बोली-
"बुआ, ज़रा साइड में आओ ना।"
"क्या हुआ है...?"
"पहले आओ तो सही, सारी पंचायत यहीं खड़े-खड़े करोगी क्या बुआ? आओ।" कहते हुए निष्ठा उन्हें खींचते हुए अपने साथ रसोई में ले आई थी। फिर अपना घूँघट हटाकर-
"देखो बुआ!, आपको कल मेरे हाथों की सब्ज़ी पसंद नहीं आई थी। इसलिए मैंने सब्ज़ी काटकर रख दी है और मसाला भी तैयार कर दिया है। आप बना दीजिये अपने हिसाब से। इसी बहाने मैं भी आपके हाथों से बने खाने की तारीफ़ कर दूँगी।" कहते हुए निष्ठा ने दाँत दिखा दिए।
"तुम मुझसे काम करवाओगी...?" सुलक्षणा जी ने आँखें दिखाईं। तो निष्ठा मुँह बनाकर बोली-
"मैं आपसे काम नहीं करवा रही। आप ही तो कह रही थीं कि मैं अच्छा खाना नहीं बनाती हूँ। मेरी माँ ने मुझे नहीं सिखाया है। तो आपको तो बहुत अच्छा बनाना आता है ना, तो बना दीजिये। मैंने सब कुछ तैयार करके रखा है। देखिये! मैंने सब्ज़ी भी काट दी है और मसाला भी तैयार कर दिया है। बस बनानी ही तो है।"
"हम्मम! मैं तुम्हें बताती हूँ, तुम वैसे-वैसे बनाती जाओ।" सुलक्षणा जी ने कहा तो निष्ठा मुँह बनाकर धीरे से बड़बड़ाई-
"ये तो मुझसे भी बड़ी कामचोर है।"
"अब बड़बड़ ही करती रहेंगी। चल, बना। तेल डाल।" सुलक्षणा जी ने कहा तो निष्ठा अजीब नज़रों से उन्हें देखने लगी।
"अरे! बुआ, पहले गैस चालू करूँगी ना, आप भी एकदम बुद्धू हैं।" सुलक्षणा जी अवाक होकर उसे देख रही थीं। इस लड़की को जो बोलना होता था, सीधा मुँह पर बोलती थी। फिर सामने वाले को बुरा लगे या अच्छा, इसकी फ़िक्र वह करती ही नहीं थी।
सुलक्षणा जी बताती गईं और निष्ठा वैसे-वैसे बनाती गई। खाना तैयार होने के बाद निष्ठा ने सबको परोसा और फिर खुद खाकर बाकी का बचा हुआ काम करने लगी। काम से फ्री होकर वह सीधा अपने कमरे में चली गई थी। बाकी सब आँगन में बैठे हुए बातें कर रहे थे। कुछ देर बाद सब सोने चले गए थे। प्रत्यक्ष भी कमरे में आया और दरवाज़ा बंद कर बेड पर आ गया। निष्ठा उसी के आने का इंतज़ार कर रही थी। उसने जल्दी से अपना फ़ोन उसके सामने किया और चमकती आँखों से प्रत्यक्ष को देखती हुई बोली-
"आपने सुबह कहा था कि आकर सबके नंबर सेव करेंगे।"
प्रत्यक्ष ने उसका फ़ोन लिया और उसमें अपना और श्रवण का नंबर सेव कर दिया। और उसे वापस फ़ोन पकड़ाता हुआ बोला-
"मैंने अपना और श्रवण का नंबर सेव कर दिया है, बाकी जो तुम्हें ज़रूरी लगे वह कर लेना।"
"ठीक है।" निष्ठा ने फ़ोन साइड में रख दिया और फिर प्रत्यक्ष की ओर देख मुँह बनाकर बोली-
"अब आपकी शादी हो गई है तो ज़रा सुधर जाइए।"
"ये लाइन मुझे तुमसे कहनी चाहिए वैसे।" प्रत्यक्ष ने भी बराबर उसे घूरा।
"मैं किसी के हाथों से बना हुआ गाजर का हलवा और आलू छोले की चाट नहीं खाती दुकान पर बैठकर।" निष्ठा ने ताना मारते हुए कहा। जबकि प्रत्यक्ष हैरान होकर उसे देख रहा था मानो कह रहा हो कि तुम्हें कैसे पता। तो निष्ठा उसकी नज़रों को समझ बोली-
"पूर्ण ने बताया था।"
प्रत्यक्ष ने कुछ देर उसे देखा और फिर अपना सिर ना में हिलाकर बेड पर लेट गया।
"तुम्हें समझना असंभव है।"
आज निष्ठा सुलक्षणा जी के साथ बाज़ार आई थी, कुछ कपड़ों की खरीदी करने। सुबह से उसने कुछ खाया नहीं था और अब उसका पेट आवाज़ करने लगा था। उसने उदास चेहरा बनाकर कहा, "बुआ! सुनो ना, अब तो कुछ खिला दो। सुबह से कुछ नहीं खाया है। घर का काम होते ही आप यहां ले आईं। मुझे भूख लगी है।"
"अब घर ही चल रहे हैं। खा लेना घर जाकर। और ज़्यादा बोला मत कर।" सुलक्षणा जी ने चलते हुए कहा। निष्ठा पास में खड़े एक चाट के ठेले पर खड़ी होकर बोली, "बुआ! सुनो तो।"
"क्या है..?" सुलक्षणा जी भी उसके पास खड़ी हो गईं।
"बुआ प्लीजजजजज....." निष्ठा रोती सी शक्ल बनाकर बोली। सुलक्षणा जी ने कुछ देर उसे घुरा और फिर ठेले वाले से मुँह बनाकर बोली, "लगा दो भाई एक इसकी।"
उनकी बात सुन निष्ठा खुशी से उनके गले लग गई। सुलक्षणा जी उसे खुद से दूर करती हुई डाँटने वाले अंदाज़ में बोलीं, "ऐ बैल बुद्धि! बाज़ार में खड़े हैं हम। कम-से-कम यहाँ तो पागलपन ना दिखा।"
निष्ठा ने आराम से अपनी चाट खाई और फिर दोनों एक-दो और दुकानों पर घूमने के बाद घर आ गईं। निष्ठा ने सुलक्षणा जी को पानी दिया और धीरे, मगर थकी सी आवाज़ में बोली, "बुआ! अब मैं बहुत थक गई हूँ। सच में। थोड़ी देर सोने जा रही हूँ। अगर आपको कुछ काम हो तो प्लीज़ मुझे तो उठाइएगा ही मत। खुद से कर लीजिएगा, ठीक है।"
"एक चाय तो पी ले पहले।"
"ये चाय पीने का टाइम है। उफ़्फ़ बुआ! देखिए ना पहले ही कितनी गर्मी है। अब मैं नहीं जा रही रसोई में।" कहते हुए निष्ठा अपने कमरे में जाने लगी तो सुलक्षणा जी तुरंत बोलीं, "चाय नहीं बना रही तो नींबू पानी ही बना दे। (मुरारी जी को आवाज़ लगाकर) मुरारी, नींबू पानी पिएगा। बहुरिया बनाने जा रही है..?"
"नहीं दीदी!, मुझे तो चाय पीनी है। बहुरिया मेरे लिए एक कप चाय बना देना।" मुरारी जी अपने कमरे से बाहर निकलते हुए बोले।
निष्ठा ने सुलक्षणा जी को घुरा और पैर पटकते हुए रसोई में चली गई। उसे जाते देख सुलक्षणा जी के होठों पर एक तिरछी मुस्कान फैल गई। वह मन-ही-मन बोलीं, "मैं भी सास हूँ। अच्छे से जानती हूँ कि तुम जैसी बहुओं को कैसे लाइन पर लाना है।"
रसोई में आकर निष्ठा ने चाय चढ़ाई और नींबू पानी बनाते हुए चिढ़कर बोली, "ये बुआ तो बड़ी तेज़ हैं। पहले तो सिर्फ़ चाय बनाती थीं, अब नींबू पानी भी बनाओ। उफ़्फ़ बुआ! तुम मुझे पागल करके जाओगी।"
निष्ठा ने उन्हें चाय और नींबू पानी दिया और फिर अपने कमरे में चली गई।
शाम का वक्त था। मुरारी जी, सुलक्षणा जी और प्रत्यक्ष तीनों मुरारी जी के कमरे में बैठे थे। प्रत्यक्ष काफी गहरी सोच में डूबा हुआ लग रहा था। वहीं मुरारी जी के माथे पर भी चिंता की लकीरें उभर आई थीं। जबकि सुलक्षणा जी उन दोनों के बोलने का ही इंतज़ार कर रही थीं। काफी देर के बाद प्रत्यक्ष गंभीरता के साथ बोला, "बुआ! दस लाख तो नहीं, पाँच लाख तक का हो जाएगा इंतज़ाम। इतनी सेविंग्स है मेरे पास।"
"हाँ दीदी! दस लाख बहुत बड़ी रकम होती है। प्रत्यक्ष एक साथ कहाँ से लाएंगे इतने?" मुरारी जी परेशान होकर बोले।
"मैं जानती हूँ मुरारी, मगर मैं भी मजबूर हूँ। वरना मैं कभी यहाँ नहीं आती पैसे माँगने। इश्की (सुलक्षणा जी की छोटी बेटी) के ससुराल वाले दहेज़ में बड़ी गाड़ी माँग रहे हैं। शादी के बाद धीरे-धीरे मैं लौटा दूँगी सारे पैसे। दो महीने बाद शादी है। अगर दहेज़ में बड़ी गाड़ी नहीं दी तो वे शादी से पीछे हट जाएँगे। जो मैं नहीं चाहती। रिश्ता बहुत अच्छा है। लड़का सरकारी नौकरी करता है।" सुलक्षणा जी ने कहा। उनकी बात सुन प्रत्यक्ष कुछ सोचकर धीरे से बोला, "मैं देखता हूँ, आप चिंता ना करें।"
"लेकिन! प्रत्यक्ष, दस हज़ार की बात नहीं है, दस लाख की बात है बेटा।" मुरारी जी ने परेशान होकर कहा तो प्रत्यक्ष हल्का सा मुस्कुराकर बोला, "जानता हूँ बाबूजी। कि बात यहाँ दस लाख की है। आप चिंता ना करें। मैं इंतज़ाम कर दूँगा।"
"मुझे पता था मेरा बबुआ मेरी मजबूरी को ज़रूर समझेगा।" सुलक्षणा जी ने धीरे से प्रत्यक्ष के सिर पर हाथ फेरा।
वहीं निष्ठा दरवाजे के बाहर खड़ी, हैरान और चिंतित होकर प्रत्यक्ष को देख रही थी।
रात का खाना खाने के बाद, सब सोने के लिए अपने-अपने कमरों में चले गए थे। प्रत्यक्ष कमरे में आकर चुपचाप बिस्तर पर लेट गया। वह परेशान था, बार-बार यही सोच रहा था कि अब वह पाँच लाख रुपये कहाँ से लाएगा। उसने बुआ से तो कह दिया था कि चिंता न करें, वह इंतज़ाम कर लेगा, लेकिन अब उसे समझ नहीं आ रहा था कि क्या करे, किससे बात करे। प्रत्यक्ष के माथे पर चिंता की लकीरें देख निष्ठा भी बहुत परेशान हुई। वह धीरे से उसकी ओर खिसकी और अपना सिर उसकी बाजू पर रखकर, अपना एक हाथ उसके सीने पर रख दिया। प्रत्यक्ष ने धीरे से आँखें खोलकर उसे देखा। उसने कुछ नहीं बोला और न ही निष्ठा को खुद से दूर जाने के लिए कहा। बस वैसे ही लेटा रहा।
"वो... वो मैं... मेरा मतलब है... आप कुछ... कुछ परेशान से लग रहे हैं। सब ठीक तो है ना प्रत्यक्ष जी...?" कुछ देर बाद निष्ठा अपना सिर उठाकर उसे देखती हुई बोली।
प्रत्यक्ष ने उसे देखा और हल्का सा मुस्कुराकर अपना सिर ना में हिला दिया। फिर उसके गाल पर हाथ रखकर बोला, "परेशान नहीं हूँ। तुम सो जाओ। सुबह जल्दी उठना होता है ना तुम्हें।"
"नहीं! मुझे नींद नहीं आ रही। आप बताइए ना... क्या हुआ है...?" निष्ठा थोड़ा ज़िद करती हुई बोली।
"कुछ नहीं बताने को तो क्या बताऊँ...?"
"आप झूठ बोल रहे हैं ना। आप के चेहरे से ही पता चल रहा है। (प्रत्यक्ष के दोनों गालों को खींचते हुए) मेरे भोले पति जी! आप सच-सच बताइए।" निष्ठा ने प्यार से उसे देखते हुए पूछा।
"कुछ नहीं है सच में।" प्रत्यक्ष ने फिर बात टालनी चाही, मगर निष्ठा तो निष्ठा थी। उसने अपनी हिरणी जैसी आँखें बड़ा कर उसे घूरते हुए कहा, "प्यार से पूछ रही हूँ तो प्यार हज़म नहीं हो रहा आप को। बताइए जल्दी, वरना (अपनी मुट्ठी बनाकर उसके पेट पर लगाते हुए) एक मुक्का मारूँगी ना कि सारी बात बाहर आ जाएगी।"
प्रत्यक्ष ने भावहीन होकर उसे देखा। यह पिद्दी भर की लड़की उसे डरा रही थी, अपनी आँखें बड़ी-बड़ी करके। और-तो-और धमकी भी दे रही थी। मगर अगले ही क्षण प्रत्यक्ष की हँसी छूट गई। प्रत्यक्ष ने एक चपत उसके सिर पर लगाई तो निष्ठा कन्फ्यूज़ होकर अपना सिर सहलाने लगी। प्रत्यक्ष अपनी हँसी को रोकते हुए धीरे से बोला, "पेट से बातें नहीं आएंगी, बल्कि खाना आएगा, जो मैंने अभी खाया था।" यह कहते हुए प्रत्यक्ष फिर हँसने लगा। निष्ठा उसे हँसता देख हल्का सा मुस्कुराकर उसे देखने लगी। जब से वह यहाँ आई थी, आज उसने प्रत्यक्ष को ऐसे खुलकर हँसते हुए देखा था। निष्ठा तो उसकी हँसी में ही खो गई थी। फिर उसके गाल को खींचकर प्रत्यक्ष बोला, "पागल हो एकदम।"
"मैंने सुन ली थी बुआ और आप सब की बातें।" काफी देर के बाद निष्ठा धीरे से बोली। मगर प्रत्यक्ष ने कुछ नहीं कहा। तो निष्ठा उठकर बैठी और उसका हाथ पकड़कर उसे उठाते हुए बोली, "उठो एक बार।"
"क्या है...?" प्रत्यक्ष उठकर बैठ गया। तो निष्ठा उसे देखती हुई बोली, "आपको पैसे बाहर से लेने की ज़रूरत नहीं है, मेरे पास हैं। आप मुझसे ले लीजिए, फिर बाद में लौटाते रहना।"
निष्ठा की बात सुनकर हैरान होकर प्रत्यक्ष ने उसे देखा। तो निष्ठा ने मुस्कुराकर अपना सिर हाँ में हिला दिया।
"तुम्हारे पास कहाँ से आए...?" प्रत्यक्ष ने पूछा तो निष्ठा मुस्कुराकर बिस्तर से नीचे उतरी और अलमारी खोल, उसमें बने लॉकर से अपने गहनों का बॉक्स निकालकर प्रत्यक्ष के सामने रख दिया। प्रत्यक्ष हैरान होकर अभी भी उसे देख रहा था। तो निष्ठा ने उसे अपने गहने दिखाते हुए कहा, "ये सारे गहने बेच दीजिए। ये... ये जो सोने का हार है, यह पापा ने ढाई लाख का खरीदा था और ये मेरी नथनी। ये सोने के कड़े। ये झुमकियाँ सोने की हैं, डेढ़ तोले की हैं, एक लाख से तो ऊपर की ही हैं और ये... ये वाला हार जो आप लोगों ने चढ़ाया था। यह मांग टीका। कुछ चाँदी के भी गहने हैं। (अपने कानों से सोने की बालियाँ उतारते हुए, प्रत्यक्ष के सामने रख) ये भी बेच दीजिए। प... पाँच लाख तक तो हो ही जाएँगे।" कहते हुए निष्ठा ने प्रत्यक्ष को देखा, जो एकटक उसे देख रहा था। निष्ठा ने सवालिया निगाहों से उसे देखा, "क्या हुआ आपको, आप ऐसे क्यों देख रहे हैं मुझे...?"
"देख रहा हूँ कि मेरी वो बीवी, जिसका बचपन ही खत्म नहीं होता। जिसके दिमाग़ में हर पल खुराफ़ाती जन्म लेती रहती है। जिसे दौरे शुरू हो जाते हैं पागलपन करने के, जो बेफ़ालतू की बक-बक करती रहती है। अब एकदम से इतनी समझदारी वाली बातें करने लगी।" प्रत्यक्ष ने धीरे से उसका हाथ पकड़ अपने सामने बिठाया।
क्रमश:
"देख रहा हूँ कि मेरी वो बीवी, जिसका बचपना ही खत्म नहीं होता, जिसके दिमाग़ में हर पल खुराफ़ाती जन्म लेती रहती हैं, जिसे पागलपन करने के दौरे शुरू हो जाते हैं, जो बेफालतू की बक-बक करती रहती है, अब एकदम से इतनी समझदारी वाली बातें करने लगी।" प्रत्यक्ष ने धीरे से उसका हाथ पकड़कर अपने सामने बिठाया।
उसकी बात सुन निष्ठा ने मुँह बना लिया और उसे घूरती हुई बोली, "हमें कोई दौरे नहीं शुरू होते।"
"पागल लड़की," कहते हुए प्रत्यक्ष ने प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरा। फिर उसने बेड पर रखे निष्ठा के गहनों की ओर देखा और निष्ठा से बोला, "इन गहनों पर सिर्फ़ तुम्हारा हक़ है। ये तुम्हारे हैं। इन्हें मैं नहीं ले सकता।"
"अरे! ऐसे कैसे नहीं ले सकते आप इन्हें? और वैसे भी ये गहने मैं हमेशा थोड़ी पहनूँगी? अलमारी में धूल ही तो खाते हैं। अगर हमारे मुश्किल समय में हमारे काम आ जाएँगे तो कौन सी आफ़त आ जाएगी! आप एक काम कीजिए, इन गहनों को बेच दीजिए और जो भी पैसे मिलें, आप उन्हें बुआ को दे दीजिएगा। (थोड़ा रुककर उसे उंगली दिखाते हुए) अब ये वाली बात आप मेरी गौर से सुनिए। हर महीने आप हमें एक गहना खरीदकर देंगे ताकि वापस से हमारे पास बहुत सारे गहने इकट्ठे हो जाएँ। समझ आयी बात?" निष्ठा ने अपनी पलकें बार-बार झपकाते हुए कहा।
"ठीक है। मगर अभी तुम इन्हें अपने ही पास रखो। जब मुझे ज़रूरत होगी, मैं ले लूँगा तुमसे।" प्रत्यक्ष ने कहा। उसकी बात सुनकर निष्ठा ने अपना सिर हिला दिया। उसने सभी गहनों के बॉक्स को वापस से बंद करके अलमारी में रखा और लॉकर को अच्छे से ताला लगाते हुए उसने लॉकर की चाबी को कपड़ों के बीच छिपा दिया। और अलमारी को बंद करके वह वापस से बेड पर आकर प्रत्यक्ष के पास लेट गई।
"तुम इतनी समझदार हो, मुझे तो पता ही नहीं था।" प्रत्यक्ष ने मुस्कुराकर कहा।
"अब पता चल गया ना आपको...?" निष्ठा चिढ़ सी गई।
उसे ऐसे चिढ़ते देख प्रत्यक्ष की मुस्कान गहरी हो गई थी। उसने आहिस्ता से उसके माथे पर अपने होंठ रखे तो निष्ठा अचानक जम सी गई, जबकि उसकी आँखें हैरानी से बड़ी-बड़ी हो गईं। प्रत्यक्ष ने प्यार से उसके माथे को चूमा और उसके गाल थपथपाकर बोला, "चलो अब सो जाओ।"
"हम्मम," कहकर निष्ठा ने झट से अपनी आँखें बंद कर ली थीं, जबकि उसका दिल तेज़ी से धड़क उठा था। वह अभी भी महसूस कर सकती थी प्रत्यक्ष के होंठों का स्पर्श अपने माथे पर। उसे एक अलग सा एहसास हो रहा था जो आज से पहले उसे कभी नहीं महसूस हुआ था। उसका दिल बार-बार गुदगुदा रहा था। एक अजीब सी सिहरन उसके वजूद में दौड़ रही थी। उसे नहीं समझ आ रहा था कि अचानक ये सब क्या हो रहा था उसके साथ। अपनी सोच में उलझी कब वह सो गई, उसे भी पता नहीं चला।
अगली सुबह, हर रोज़ की तरह वही काम; निष्ठा के उठने का इंतज़ार कर रहे थे। प्रत्यक्ष ने उसे उठाया तो वह भी उठकर नहा-धोकर अपने कामों में लग गई थी। प्रत्यक्ष, श्रवण और पूर्ण के जाने के बाद निष्ठा ने बाकी बचा हुआ काम किया और फिर सुलक्षणा जी का बैग पैक करने लगी क्योंकि आज शाम की बस से वह वापस गाँव जाने वाली थी। निष्ठा फिर उनके पास ही बैठ गई। सुलक्षणा जी उसे बता रही थीं कि कैसे क्या करना चाहिए और वह उनकी बातें गौर से सुन भी रही थी। ऐसे ही दिन बीत गया। आज प्रत्यक्ष जरा जल्दी आ गया था दुकान से क्योंकि बुआ जी को बस में बिठाकर आना था। सुलक्षणा जी ने सब से विदा ली तो निष्ठा ने उनके पैर छुए और धीरे से उनके गले लगती हुई बोली, "बुआ अब आपकी उम्र हो गई है, ज़्यादा घूमना नहीं चाहिए, इसलिए मेरी मानें तो आप घर ही रहिए। यहाँ का पता तो मैं आपको फ़ोन पर दे दिया करूँगी। ठीक है।"
सुलक्षणा जी ने उसे घूरा। वह इतनी भी बेवकूफ़ नहीं थीं कि निष्ठा का इशारा नहीं समझी। निष्ठा ने अपने दाँत दिखा दिए तो वह मुँह बनाकर बोली, "ऐ लड़की ज़्यादा मत बोल। वरना यहाँ से जाऊँगी भी नहीं।"
"माफ़ी! माफ़ी! माते माफ़ी! (प्रत्यक्ष की ओर देख) आप अब यहीं खड़े रहेंगे क्या...? लेट हो रहा है बुआ को। जल्दी जाइए कहीं बस ना छूट जाए।" निष्ठा हड़बड़ाकर बोली।
प्रत्यक्ष, सुलक्षणा जी को बस स्टैंड तक छोड़ने चला गया। उनके साथ ही पूर्ण भी चला गया था। सुलक्षणा जी के जाने के बाद निष्ठा ने राहत की साँस ली। वही जानती थी कि बीते तीन-चार दिन में निष्ठा ने कैसे बुआ को झेला था। सच में नाक में दम कर दिया था उन्होंने उसके। दरवाज़ा बंद करके वह रसोई में चली गई रात के खाने की तैयारी करने।
क्रमश: