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Twisted vengeance

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Starwoventales

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Description

वह निर्दोष थी। वह निर्दयी था। उनकी किस्मत बदले की आग में टकराई। अभिराज सिंह राजपूत का दिल दर्द और गुस्से से भरा था। उसे बस एक ही मकसद था—अपनी बहन आकांक्षा की बरबादी का बदला लेना। उसे लगा कि चित्रांगदा शर्मा ही उसकी बहन की बर्बादी की वजह है...

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Chitraangda sharma

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Abhiraj singh rajpoot

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Total Chapters (34)

Page 1 of 2

  • 1. kidnapping

    Words: 1358

    Estimated Reading Time: 9 min

    दोपहर का सूरज कॉलेज के गेट पर सुनहरी रोशनी बिखेर रहा था। चित्रांगदा ने अपनी स्कर्ट ठीक की। उसकी त्वचा धूप में चमक रही थी और लंबे, घुँघराले बाल कंधों पर लहरा रहे थे। वह बहुत खूबसूरत लग रही थी। वह कॉलेज के बाहर खड़ी थी, फोन कान से लगाए। उसकी आवाज़ मीठी लेकिन मज़बूत थी। "भैया, चिंता मत करो। मैं खुद घर आ जाऊँगी," उसने कहा और बाल पीछे किए। फोन के दूसरी तरफ उसका भाई, विवान, बेचैन था। उसकी आवाज़ में चिंता थी। "कैसे चिंता न करूँ, चित्रांगदा? जल्दी घर आ जाओ। जब तक तुम नहीं आओगी, मुझे चैन नहीं मिलेगा।" चित्रांगदा ने कंधे पर बैग ठीक किया और बोली, "भैया, मैं बच्ची नहीं हूँ। कॉलेज से घर बस दस मिनट का रास्ता है। मैं अपना ध्यान रख सकती हूँ।" विवान ने फिर समझाया, "तुम समझती नहीं हो। दुनिया सुरक्षित नहीं है। तुम बहुत मासूम और खूबसूरत हो। बुरे लोग—" "भैया! बस करो। ज्यादा मत सोचो। मैं ठीक रहूँगी," उसने आँखें घुमाते हुए कहा। तभी, किसी ने पुकारा, "रुको, चित्रा!" चित्रांगदा ने देखा। राहुल उसकी तरफ आ रहा था। वह लंबा, पतला और जीन्स-टीशर्ट में था। उसकी आँखों में शरारत झलक रही थी। "तुम बिना अलविदा कहे जा रही थीं?" उसने हल्के गुस्से से कहा और चित्रांगदा का हाथ पकड़ लिया। "यह गलत है।" चित्रांगदा हँस पड़ी और उसका हाथ हल्के से दबाया। "ऐसा नहीं है, राहुल! मैं तुम्हें कॉल करने वाली थी।" "झूठ! तुम मुझे बहुत मिस करोगी, कहो ना?" राहुल मुस्कुराया। चित्रांगदा ने मज़ाक में कहा, "हम्म... शायद थोड़ा सा।" "फिर झूठ! तुम मुझे बहुत ज्यादा मिस करोगी, मान लो।" राहुल ने चिढ़ाया। चित्रांगदा ने हल्के से उसकी बाह पर मारा। "ठीक है, ठीक है! मैं तुम्हें मिस करूँगी। अब खुश?" "बहुत!" राहुल हँसते हुए बोला। "अब जाओ, वरना तुम्हारा भाई पुलिस बुला लेगा।" लेकिन उन्हें नहीं पता था कि कोई उनकी बातें देख रहा था। किसी ने यह सब रिकॉर्ड कर लिया और भेज दिया एक ऐसे इंसान को, जिसके दिल में चित्रांगदा के लिए सिर्फ नफरत और अंधेरा था... पटना, बिहार – एक शानदार विला के अंदर कमरे में सिगार और मर्दाना इत्र की गंध फैली हुई थी। एक भारी चमड़े की कुर्सी चरमराई जब अभिराज सिंह राजपूत आगे झुका, फोन हाथ में था। उसकी नुकीली जबड़े की रेखा तन गई जब उसने तस्वीरों को स्क्रॉल किया—हर एक तस्वीर उसके अंदर क्रोध की नई लहर जगा रही थी। चित्रांगदा की चमकती मुस्कान। राहुल का उसका हाथ पकड़ना। उनकी नज़दीकियाँ। उसकी उंगलियाँ मुट्ठी में बदल गईं, नाखून हथेलियों में धंस गए। उसकी गहरी, क्रोध से जलती आँखें कमरे की दीवारों पर घूमी—जहाँ हर इंच पर चित्रांगदा की तस्वीरें थीं। उसकी हँसी, उसका चलना, उसका स्कर्ट ठीक करना, उसका सोचे-विचारे में कलम चबाना—हर पल को उसने देखा था, महीनों तक पीछा किया था। उसने एक तस्वीर पर हाथ फेरा, जहाँ उसका टॉप थोड़ा कंधे से खिसक गया था, जिससे उसकी मुलायम त्वचा झलक रही थी। उसकी साँसें भारी हो गईं। "एक बार तुम अभिराज सिंह राजपूत की गिरफ्त में आ गई, तो खुद भगवान भी तुम्हें बचा नहीं पाएँगे," उसने हल्की आवाज़ में कहा, उसकी आँखों में विकृत चाहत झलक रही थी। "देखो खुद को… इतनी मासूम, इतनी पवित्र। क्या वो मूर्ख लड़का जानता भी है कि तुम कितनी चालाक हो? उस तंग स्कर्ट में घूमती हो, जैसे मासूम हो, लेकिन हकीकत में तुम बस किसी के कब्जे में जाने के लिए बनी हो।" वह पीछे झुका, एक शातिर मुस्कान के साथ और तस्वीरें स्क्रॉल करने लगा। "ये हाथ पकड़ने की नौटंकी जल्द खत्म होगी। जब तुम मेरी बाँहों में होगी, तुम्हें उसका नाम भी याद नहीं रहेगा। तुम सिर्फ मेरा नाम पुकारोगी। मैं तुम्हें सिखाऊँगा कि काबू में लाया जाता है, कैसे तोड़ा जाता है, और कैसे तबाह किया जाता है। तुम मेरे पास रेंगकर आओगी, मेरी गुलाम बनने के लिए।" उसकी उंगलियाँ व्हिस्की के गिलास के चारों ओर कस गईं, और गुस्से में उसने उसे कमरे के कोने में फेंक दिया। क्रिस्टल के टुकड़े दीवार से टकराकर बिखर गए। उसकी आँखें फिर से चित्रांगदा की तस्वीरों पर गईं। "तुम्हें पता भी नहीं, है ना? तुम्हारी हर साँस, हर कदम मुझसे ताल्लुक रखता है। कोई और तुम्हें छू भी नहीं सकता, देखने की तो बात ही छोड़ो।" उसके होंठ एक शातिर मुस्कान में ढल गए। "भागो, चित्रांगदा, जितना भाग सकती हो। लेकिन जब मैं तुम्हें पकड़ूँगा, कोई बचाने नहीं आएगा।" उसने फोन निकाला और एक नंबर डायल किया। दूसरी तरफ कॉल रिसीव होते ही उसकी आवाज़ ठंडी और बेरहम हो गई। "उसे पकड़ो। कोई देखे नहीं। कोई गलती नहीं होनी चाहिए। मैं उसे सही-सलामत, लेकिन डरी हुई चाहता हूँ। समझ गए?" "जी, बॉस। हो जाएगा।" अभिराज ने फोन काट दिया, उसकी आँखों में घनी काली परछाइयाँ नाच रही थीं। "भाग लो, चित्रांगदा। लेकिन तुम्हारी किस्मत अब लिखी जा चुकी है।" एक आलीशान विला दो आदमी महंगे चमड़े के सोफे पर बैठे थे, हाथ में ड्रिंक लिए। हल्की रोशनी उनके चेहरे को निखार रही थी—दोनों बहुत हैंडसम थे, लेकिन उनके अंदर एक अजीब सा खतरनाक एहसास भी था। अविनाश ने अपना ड्रिंक घुमाया और मुस्कुराते हुए कहा, "यार, ये लड़कियाँ कमाल की होती हैं। नर्म बदन, मासूम आँखें… इन्हें गिड़गिड़ाते देखने का मज़ा ही कुछ और है।" रणविजय, जो उसके बगल में बैठा था, ने उसे गुस्से से देखा। "तुम्हारे दिमाग में बस यही सब चलता रहता है क्या?" अविनाश ने हँसते हुए कहा, "अरे यार, ऐसे मत बोलो। तुम और अभिराज एक जैसे हो—निर्दयी, पत्थर दिल।" रणविजय थोड़ा आगे झुका और सख्त आवाज़ में बोला, "मुझे बकवास सुनने का शौक नहीं है। अगर कुछ काम की बात नहीं करनी, तो चुप रहो।" अविनाश ने उसे नजरअंदाज किया और फोन चेक किया। फिर खड़े होकर रणविजय से बोला, "तू यहीं रुक, मैं दस मिनट में आता हूँ।" रणविजय ने बिना कुछ बोले सिर हिला दिया और बाहर बगीचे की ओर बढ़ गया। बगीचे में रात की ठंडी हवा पेड़ों की पत्तियों को हिला रही थी। तभी एक मीठी हँसी गूंज उठी। एक लड़की, जो मुश्किल से सत्रह साल की थी, उसकी तरफ भागी। "पकड़ लिया! पकड़ लिया! अब कहाँ जाओगे मुझसे बच के?" अमीशा ने हँसते हुए कहा। रणविजय उसे डाँटने ही वाला था कि अचानक उसका पैर गीली घास पर फिसल गया। एक पल में वह संतुलन खो बैठा और सीधा अमीशा के ऊपर गिर पड़ा। दोनों के शरीर आपस में टकराए, और इससे पहले कि वे कुछ समझ पाते, उनके होंठ एक-दूसरे से छू गए। अमीशा की आँखें चौड़ी हो गईं। रणविजय के होंठों की गर्मी महसूस होते ही वह तुरंत पीछे हटी और बिना सोचे-समझे उसे एक जोरदार थप्पड़ जड़ दिया। थप्पड़ की आवाज़ के साथ रणविजय वहीं ठहर गया। उसकी आँखों में गुस्सा और हैरानी झलक रही थी। बिना कुछ कहे, उसने अमीशा की कलाई पकड़ी और उसे दीवार से सटा दिया। वह उसके बहुत करीब था, उसकी साँसें उसके चेहरे को छू रही थीं। "ये क्या था?" उसने गुस्से से पूछा। अमीशा तेजी से साँस ले रही थी, लेकिन उसने भी हिम्मत नहीं हारी। "तुमने—तुमने मुझे किस किया!" रणविजय भड़क उठा, "मैं फिसल गया था! और तुम्हें लगता है कि मैं सच में तुम्हें किस करना चाहता था?" अमीशा ने आँखें घुमाते हुए कहा, "तो फिर मुझे जाने दो।" लेकिन रणविजय ने उसकी पकड़ और मज़बूत कर दी। उसका जबड़ा कस गया, और वह धीरे से फुसफुसाया, "अगली बार, सोच-समझकर थप्पड़ मारना। मुझे कोई थप्पड़ मारकर यूँ ही नहीं जा सकता।" कुछ पल के लिए दोनों एक-दूसरे को देखते रहे। फिर रणविजय ने अचानक उसे छोड़ दिया और पीछे हट गया। "अंदर जाओ, इससे पहले कि मैं सच में गुस्से में आ जाऊँ," उसने गहरी आवाज़ में कहा और मुड़ गया। अमीशा ने मुस्कुराते हुए कहा, "देखा? तुम बहुत ड्रामेबाज़ हो।" रणविजय ने लंबी साँस ली और अपने बालों में हाथ फेरा, जबकि अमीशा हँसते हुए अंदर चली गई। वह वहीं खड़ा रहा, अब भी गुस्से से भरा हुआ। दिल्ली – रेलवे स्टेशन के बाहर चित्रांगदा ने अपने बैग का पट्टा ठीक किया और ऑटो की तलाश में इधर-उधर देखने लगी, तभी अचानक किसी ने पीछे से उसका हाथ पकड़ लिया। एक मज़बूत हथेली उसके मुँह पर जम गई, और एक कपड़ा उसकी नाक और मुँह पर दबाया गया। एक तीखी गंध उसके दिमाग में भर गई, और कुछ ही सेकंड में उसकी आँखों के सामने अंधेरा छा गया।

  • 2. Caged Bride

    Words: 1897

    Estimated Reading Time: 12 min

    चित्रांगदा की आँखें धीरे-धीरे खुलीं। उसके सिर में दर्द हो रहा था। उसे ऐसा लग रहा था जैसे किसी ने उसे बेहोश कर दिया हो। पलकों में भारीपन था। उसने तेजी से पलकें झपकाईं और चारों ओर देखा। कमरा अंधेरा था। "मैं कहाँ हूँ?" उसने धीरे से कहा। उसकी आवाज़ कांप रही थी। वह झट से उठी। बिस्तर की चादरें रेशमी थीं। यह उसका कमरा नहीं था। चारों ओर महंगे परदे, गहरे रंग की दीवारें थीं; हवा में सिगार और परफ्यूम की खुशबू थी। उसका दिल जोर से धड़कने लगा। वह तो रेलवे स्टेशन पर थी, घर जाने के लिए। यहाँ कैसे आ गई? डर से उसकी साँस तेज हो गई। उसके हाथ कांप रहे थे। वह बिस्तर से उतरी और दरवाजे की ओर बढ़ी। उसके पैर भारी लग रहे थे, लेकिन वह रुकी नहीं। जैसे ही उसने बाहर कदम रखा, सामने का नज़ारा देखकर वह ठिठक गई। यह जगह बहुत बड़ी थी। चारों ओर महंगे फर्श, झूमर, ऊँची खिड़कियाँ और भारी पर्दे थे। यह बहुत सुंदर था, लेकिन साथ ही डरावना भी। ऐसा लग रहा था जैसे यह एक सुनहरी जेल हो। तभी एक गहरी, सख्त आवाज़ आई— "कैद मुबारक हो, चित्रांगदा शर्मा।" उसका दिल जोर से धड़कने लगा। उसने धीरे से सिर घुमाया। अभिराज सिंह राजपूत। वह लंबा और खतरनाक दिख रहा था। उसकी आँखों में अजीब सी चमक थी। उसका चेहरा कठोर था; होंठों पर हल्की मुस्कान थी। चितरंगदा को डर लगने लगा। "तुम... तुम कौन हो?" चित्रांगदा ने डर से कहा। उसकी आवाज़ बहुत धीमी थी। "तुमने मुझे यहाँ क्यों लाया? मुझे जाने दो!" अभिराज हल्का सा हंसा। उसकी आँखें और गहरी हो गईं। "तch तch," उसने ज़ुबान से आवाज़ निकाली। "मुझे ज्यादा बोलने वाले लोग पसंद नहीं, जब तक कि वे चीखें ना मार रहे हों।" चित्रांगदा कुछ समझ पाती, इससे पहले ही अभिराज ने उसका हाथ पकड़ लिया। उसकी पकड़ बहुत मजबूत थी। चित्रांगदा ने खुद को छुड़ाने की कोशिश की, लेकिन वह टस से मस नहीं हुआ। उसने एक झटके में उसे अपनी ओर खींच लिया और कमरे के अंदर घसीट लिया। "नहीं! मुझे छोड़ दो! प्लीज़!" चित्रांगदा रोने लगी, लेकिन अभिराज की पकड़ और मजबूत हो गई। अभिराज ने उसे जोर से धक्का दिया। वह बिस्तर पर गिर गई। उसके शरीर में दर्द हुआ। उसकी आँखों में आँसू आ गए। अभिराज धीरे-धीरे उसके पास आया और मुस्कुराकर बोला, "रो सकती हो जितना चाहो, मुझे तो और मज़ा आएगा।" चित्रांगदा ने सिर हिलाया। वह डर से कांप रही थी। "प्लीज़, मैं तुम्हें जानती भी नहीं! तुम ऐसा क्यों कर रहे हो? मुझसे क्या चाहते हो?" अभिराज हल्का सा हंसा। "सच में नहीं जानती? या नाटक कर रही हो?" उसने झुककर उसका चेहरा छुआ, फिर ठुड्डी को कसकर पकड़ लिया। उसकी आँखें बहुत सख्त थीं। "इतनी मासूम मत बनो! हाथ पकड़कर घूम रही थी किसी और मर्द के साथ? गंदी लड़की!" चित्रांगदा की आँखें डर से फैल गईं। "न-नहीं! राहुल सिर्फ मेरा दोस्त है! तुम गलत समझ रहे हो!" चटाक! एक जोरदार थप्पड़ पड़ा। चित्रांगदा का सिर एक तरफ झटक गया। उसकी आँखों से आँसू बहने लगे। वह अभी दर्द समझ भी नहीं पाई थी कि दूसरा थप्पड़ पड़ा। फिर तीसरा। फिर चौथा। चित्रांगदा के कानों में आवाज़ गूंज रही थी। उसका चेहरा जल रहा था। उसकी आँखों से आँसू रुक ही नहीं रहे थे। वह डर से कांप रही थी। अभिराज मुस्कुराया। उसे चित्रांगदा की तकलीफ देखकर मज़ा आ रहा था। "ये तो बस शुरुआत है, रोने के लिए तुम्हें और वजह दूंगा।" चित्रांगदा खुद में सिमट गई। वह बहुत डरी हुई थी। यह सब एक बुरा सपना लग रहा था जिससे वह जाग नहीं पा रही थी। और सबसे बुरा यह था कि अभिराज हर पल का मज़ा ले रहा था। वह बिस्तर पर बैठी थी। उसके गाल अभी भी जल रहे थे। उसकी आँखों से लगातार आँसू बह रहे थे। तभी भारी कदमों की आवाज़ आई। उसका दिल तेज़ी से धड़कने लगा। दरवाज़ा खुला और अंदर फिर से अभिराज आया। उसके हाथ में एक लाल शादी का जोड़ा था, जिसमें सोने की कढ़ाई थी। उसने बिना कुछ कहे वह जोड़ा उसकी तरफ फेंक दिया। कपड़ा उसके चेहरे पर लगा और फिर उसकी गोद में गिर गया। "इसे पहनो," अभिराज ने सख्त आवाज़ में कहा। "पंडित एक घंटे में आएगा।" चित्रांगदा डर से काँप गई। उसने जोड़े को कसकर पकड़ लिया। "क्यों?" उसकी आवाज़ बहुत धीमी थी। अभिराज हंसा। वह धीरे-धीरे उसके पास आया और उसका जबड़ा कसकर पकड़ लिया। "क्योंकि मैंने कहा," उसने गुस्से से कहा। "तुम सोचती हो कि तुम मुझसे बच सकती हो? रोकर कुछ बदल जाएगा? नहीं चित्रांगदा। अब से तुम्हारी ज़िंदगी मेरी है। तुम्हारी हर साँस मेरी मर्ज़ी से चलेगी। तुम्हें कभी शांति नहीं मिलेगी।" अस्पताल के कमरे में मशीनों की बीप-बीप की आवाज़ गूंज रही थी। एक लड़की बिस्तर पर बिना हिले-डुले पड़ी थी। उसके चारों ओर मशीनें लगी थीं जो उसे ज़िंदा रख रही थीं। उसका चेहरा बिलकुल सफेद था, जैसे उसमें जान ही नहीं बची हो। अभिराज उसके पास बैठा था। उसकी उंगलियाँ धीरे-धीरे उसकी ठंडी, बेजान हथेली को पकड़े हुए थीं। उसने झुककर उसके माथे को चूमा; उसकी आँखों में दर्द साफ़ दिख रहा था। "अक्कू…" उसने धीमी आवाज़ में कहा, उसकी आवाज़ कांप रही थी। "जो तुम्हारे साथ किया, मैं उन्हें छोड़ूंगा नहीं। मैं उन्हें ऐसे तड़पाऊंगा कि मौत भी उनके लिए आसान लगेगी।" अभिराज की पकड़ उसकी हथेली पर और मजबूत हो गई। उसकी यादों में उसकी हँसती-खेलती बहन घूम रही थी। लेकिन अब वह ज़िंदगी और मौत के बीच फँसी हुई थी। यह देखकर उसका दिल दर्द से भर गया। तभी दरवाज़ा खुला। रणविजय और अविनाश अंदर आए। रणविजय दीवार से टिककर खड़ा हो गया, जबकि अविनाश अभिराज के पास बैठ गया। "अब क्या करने वाले हो?" रणविजय ने ठंडी आवाज़ में पूछा। अभिराज की आँखों में गुस्सा था। "मैं आज ही उस लड़की से शादी करूंगा।" अविनाश चौंक गया। "तुम्हें यकीन है कि वही ज़िम्मेदार है? देखो अभिराज, जो करना है करो, लेकिन ऐसा कुछ मत करना जिसका बाद में पछतावा हो।" अभिराज ने कड़वी हँसी हँसते हुए कहा, "पछतावा? मेरा बस एक ही पछतावा है कि मैंने उसे अब तक खुला छोड़ा था। उसने मेरी अक्कू के साथ ऐसा किया। अब मैं उसकी ज़िंदगी को नर्क बना दूंगा। वह हर पल तड़पेगी, हर साँस उसके लिए सज़ा होगी। वह मुझसे रहम की भीख मांगेगी, और मैं सिर्फ हँसूंगा।" रणविजय ने गुस्से में कहा, "उस लड़की को सिर्फ दर्द मिलना चाहिए। उसका चेहरा देखकर ही गुस्सा आता है।" अविनाश ने गहरी साँस ली। "बस यह देख लो कि सही इंसान को सज़ा मिले।" अभिराज की आँखों में अजीब सी चमक आई। "ओह, अविनाश, यह तो बस शुरुआत है।" अमीषा अपने बिस्तर पर लेटी सोच रही थी। उसने खुद से कहा, "रणविजय कितना बुरा है! उसने मेरा पहला किस छीन लिया।" फिर वह धीरे से मुस्कुराई, "लेकिन वह बहुत हैंडसम भी है। हाँ, वह बहुत गुस्से वाला है, पर कोई बात नहीं। मुझे जल्दी से बड़ा होना है, फिर मैं उसे शादी के लिए प्रपोज़ करूंगी।" तभी अविनाश कमरे में आया। उसने मज़ाक में कहा, "तो कपूर परिवार के लिए दामाद भी ढूँढ लिया?" अमीषा चौंक गई। "भाई, आप यहाँ?" अविनाश हँसा, "मैं यहाँ क्यों नहीं आ सकता?" उसने अमीषा के कान पकड़कर कहा, "पहले पढ़ाई कर ले! इस बार भी फेल हुई तो घर से निकाल दूंगा। और क्या बात कर रही थी? शादी, प्यार, हैंडसम?" अमीषा जल्दी से बोली, "ओ भाई, आपके कान बज रहे हैं! जाओ डॉक्टर से इलाज करवाओ, नहीं तो मुझे भाभी मिलने में देर हो जाएगी।" अविनाश ने गुस्से में कहा, "बस, इस बार फेल हुई तो फिर देख लेना!" अभिराज अस्पताल से अपने विला "डार्क डेन" पहुँचा। जैसे ही उसने अंदर कदम रखा, उसकी तेज़ नज़रें चारों ओर घूमीं। लेकिन कमरा खाली था। वह गुस्से में काँप उठा। बिस्तर पर पड़ा शादी का जोड़ा जस का तस था—कोई उसे छू तक नहीं गया था। "वह भाग गई…" उसने गुस्से में कहा, उसकी मुट्ठियाँ कस गईं। वह तेजी से सिक्योरिटी गार्ड्स के पास गया। "कहाँ गई वो?" उसकी आवाज़ शांत थी, लेकिन किसी तूफ़ान से कम नहीं लग रही थी। एक गार्ड घबराया हुआ बोला, "स-साहब, वो… वो पिछले दरवाज़े से भाग गई।" अभिराज की आँखें सिकुड़ गईं। उसने गहरी साँस ली और पीछे के दरवाज़े की तरफ़ बढ़ा। बाहर अंधेरे में भागती एक परछाई उसे दिखी। उसके होंठों पर एक खतरनाक मुस्कान आई। "भागने से कुछ नहीं होगा, डॉल।" चित्रांगदा नंगे पैर दौड़ रही थी। उसके पैर दर्द कर रहे थे, लेकिन वह रुकी नहीं। ठंडी रात की हवा उसके चेहरे पर लग रही थी। वह खुद से बुदबुदाई, "भाग, चितरा... इससे पहले कि वह तुझे पकड़ ले!" उसके कपड़े फटे हुए थे, लेकिन वह किसी तरह भागने में सफल रही। आज़ादी बस थोड़ी दूर थी। तभी काले एसयूवी गाड़ियों का काफिला उसके सामने आकर रुका। तेज़ हेडलाइट की रोशनी ने उसे जकड़ लिया। वह मुड़ी भी नहीं थी कि किसी ने उसके बाल खींच लिए। एक ठंडी हँसी गूँजी। "भागने की हिम्मत कैसे हुई?" अभिराज का स्वर ज़हर से भरा था। उसने चितरा के बाल ज़ोर से खींचे, जिससे वह कराह उठी। "मुझे जाने दो!" वह चीखी। अभिराज ने मुस्कुराते हुए कहा, "ऊह... अपनी ताकत बचाकर रखो, डार्लिंग। तुम्हें इसकी ज़रूरत पड़ेगी।" फिर उसने उसे कार के अंदर धकेल दिया और दरवाज़ा बंद कर दिया। चित्रांगदा कांप गई। वह दूर हटने लगी, लेकिन अभिराज ने उसका चेहरा ज़बरदस्ती पकड़ लिया। उसकी आँखों में एक खतरनाक चमक थी। "तू समझी क्या कि मुझसे बच जाएगी?" उसने धीमे लेकिन डरावने लहजे में कहा। "शायद हमारी सुहागरात यहीं मना लें? बोलो, डार्लिंग?" चित्रांगदा की आँखें डर से फैल गईं। "नहीं... प्लीज़..." अभिराज हँसा और फिर उसे धक्का देकर बोला, "चुपचाप बैठ। नहीं तो तुझे और भी पछताना पड़ेगा।" आँसू उसकी आँखों से बह निकले। वह कार के दरवाज़े से चिपक गई, उसका दिल तेज़ धड़क रहा था। कार रुकी। अभिराज उतरा और उसने चित्रा का हाथ पकड़कर उसे ज़ोर से खींच लिया। वह गिरते-गिरते बची। जैसे ही वे अंदर आए, उसने उसे संगमरमर के फर्श पर धक्का दे दिया। चित्रा कराह उठी। अभिराज ने गुस्से से कहा, "तूने मेरी बात मानी होती, तो ये सब नहीं होता! लेकिन नहीं... तुझे नाटक करना था।" चित्रांगदा ने डरते हुए कहा, "मैं कोई—" थप्पड़! अभिराज का हाथ उसके गाल पर पड़ा। "चुप!" वह गुर्राया। "खड़ी हो!" फिर उसने उसका हाथ पकड़कर सीढ़ियों की तरफ़ खींचा। "पंडित बस आने वाला है। एक घंटे में शादी होगी। तैयार हो जा!" चित्रांगदा जमी रही। उसकी भागने की कोशिश नाकाम हो गई थी। अब वह शैतान की बीवी बनने वाली थी। पंडित आ चुका था। उसने चित्रा की हालत देखी—आँसू, चोटें, फटे कपड़े। वह कुछ बोलना चाहता था, लेकिन चुप रहा। अभिराज ने क्रूरता से चित्रा का चेहरा पकड़कर कहा, "मैंने कहा ना, रोना बंद कर!" चित्रांगदा ने सुबकते हुए कहा, "प्लीज़... मत करो यह सब।" अभिराज हँसा। "तेरे आँसू मुझे पिघलाएंगे? भूल जा। तुझे मेरी बीवी बनना ही होगा!" फिर उसने उसे घसीटा और मंडप में बैठा दिया। "पंडित, मंत्र पढ़ना शुरू कर!" पंडित झिझका। "बेटा, अगर तू नहीं—" "चुप!" अभिराज गरजा। "तेरा काम शादी करवाना है, सलाह देना नहीं!" चित्रांगदा ने सिर हिलाया, "नहीं... मैं यह शादी नहीं मानती!" अभिराज ने उसकी कान में फुसफुसाया, "या तो तू मेरी बीवी बनेगी, या फिर मैं तुझे ऐसे चीखने पर मजबूर करूँगा कि शादी से पहले ही तू मेरा नाम पुकारेगी!" चित्रांगदा सुन्न हो गई। उसके शरीर में खून जम गया। वह काँपने लगी। अग्नि जल रही थी। मंत्र गूंज रहे थे। अभिराज ने उसकी कलाई कसकर पकड़ी और मुस्कुराया। "यही ठीक है, डार्लिंग। ये तो बस शुरुआत है!"

  • 3. night Of Torment

    Words: 1526

    Estimated Reading Time: 10 min

    अविनाश का घर

    दोपहर के तीन बजे थे जब अमीशा घर में आई। अंदर आते ही उसने देखा कि अविनाश सोफे पर बैठा उसका इंतज़ार कर रहा था।

    "अरे, आज इतनी जल्दी आ गई? स्कूल तो एक बजे खत्म हो जाता है।" अविनाश बोला।

    अमीशा की हालत बहुत खराब थी। उसके बाल बिखरे हुए थे और नाक से खून बह रहा था।

    "अरे भैया, आज जब मैं घर आ रही थी तो मेरी क्लास के कुछ शरारती लड़कों ने मुझे छेड़ा। तो मैंने भी उन्हें अच्छा सबक सिखाया।" अमीशा बोली।

    इतने में अविनाश ने कहा, "तुम्हारी टीचर का फ़ोन आया था। उन्होंने बताया कि तुम सभी विषयों में फ़ेल हो गई हो, सिर्फ़ ड्रॉइंग में पास हुई हो।"

    "अरे भैया, मैं पढ़ाई संभाल लूँगी।" अमीशा बोली।

    "बस बहुत हो गया! तुम्हारी शरारतें बढ़ती जा रही हैं। तुम खुद से पढ़ती नहीं हो, ऊपर से ट्यूशन टीचर को मारकर भगा देती हो।" गुस्से में अविनाश बोला।

    तभी रणविजय अंदर आया। उसे देखते ही अमीशा को कल का किसिंग वाला हादसा याद आ गया।

    "क्या हुआ? और तुम्हारी हालत देखो ज़रा!" रणविजय ने पूछा।

    "ये लड़की हर विषय में फ़ेल हो गई है। इसे पढ़ाने के लिए कोई टीचर टिकता ही नहीं। और जो भी आता है, ये उसे मारकर भगा देती है।" अविनाश बोला।

    "कोई बात नहीं, आज से मैं इसे पढ़ाऊँगा। रोज़ शाम छह बजे से।" रणविजय ने गंभीर आवाज़ में कहा।

    "सच में?" अविनाश खुश होकर बोला।

    "हम्म, हाँ।" रणविजय बोला।

    "बिल्कुल सही! ये तुमसे बहुत डरती है, तो तुम्हारे सामने पढ़ाई में बदमाशी नहीं करेगी।" अविनाश बोला।


    शाम छह बजे, अमीशा का कमरा

    रणविजय कमरे में आया। उसे देखते ही अमीशा उठ खड़ी हुई और बोली, "आप यहाँ?"

    "लगता है तुम भूल गई हो। चलो, अपनी किताब और कॉपी निकालो।" रणविजय बोला।

    अमीशा धीरे से "हम्म" बोली और कुर्सी पर बैठ गई।

    रणविजय ने किताब खोली, जिसमें उसकी रिपोर्ट कार्ड थी। उसने रिपोर्ट कार्ड देखा और फिर अमीशा को देखा। फिर उसने उसकी कॉपी खोली और कहा, "लगता है पहली बार मैं तुम्हारी कॉपी खोल रहा हूँ... और ये पूरी खाली है!"

    अमीशा चुप रही।

    फिर रणविजय ने उसे गणित के सवाल हल करने को दिए, जिसमें LCM लगाना था। लेकिन अमीशा को कुछ समझ नहीं आया। वह बार-बार घड़ी की ओर देखने लगी।

    तभी रणविजय की शांत लेकिन सख्त आवाज़ आई, "ये सवाल तुम्हें आज ही करना होगा।"

    उसने अमीशा की कॉपी देखी—एक भी सवाल हल नहीं था।

    रणविजय ने उसे ठंडी नज़रों से देखा और कहा, "इतना आसान सवाल भी नहीं आता? ये तो चौथी-पाँचवी क्लास में पढ़ाया जाता है।"

    फिर उसने स्केल उठाया और अमीशा के हाथ पर हल्का सा मारा।

    "आप तो बहुत गुस्से वाले हो!" अमीशा धीरे से बड़बड़ाई।


    अभिराज का विला

    शादी के बाद अभिराज चित्रा को बालों से पकड़कर कमरे में खींचता है और बिस्तर पर पटक देता है।

    "तुम कौन हो और मेरे साथ ऐसा क्यों कर रहे हो?" चित्रा रोते हुए कहती है।

    तभी अभिराज चित्रा के गालों पर जोरदार तमाचा मारता है।

    "तुम दूसरों की ज़िंदगी बर्बाद करने में माहिर हो और अपनी बारी को कभी मत भूलना, अब असली नर्क का सामना करने का समय आ गया है।" वह कहता है।

    चित्रा का रोना और तेज हो गया।

    "अपने कपड़े उतारो।" अभिराज ठंडे स्वर में कहता है।

    चित्रा अपनी आँखें चौड़ी करके अभिराज की ओर देखने लगती है। गुस्से में वह अभिराज को एक साथ तीन तमाचे मारती है।

    "तुम बहुत बेशर्म और घटिया आदमी हो। मुझे तुम्हारी माँ पर तरस आता है कि उसने तुम जैसे इंसान को जन्म दिया।" चित्रा कहती है।

    अपनी माँ के बारे में सुनकर अभिराज का चेहरा काला पड़ गया। उसने चित्रा को दीवार से सटा दिया और उसके दोनों ओर हाथ रखकर बोला, "अगर मैं बेशर्मी दिखाने लगा तो तुम चार दिन तक बिस्तर से नहीं उठ पाओगी। और जब तुमने मुझे घटिया कहा तो अब देखो मैं तुम्हारे साथ क्या करता हूँ।" फिर उसने चित्रा को चूमा और उसे बिस्तर पर ले जाकर पटक दिया। बीस मिनट तक चले लंबे चुंबन के बाद उसने चित्रा को छोड़ा और उसके चेहरे को देखते हुए बोला,

    "तुममें बहुत आग है, आज मैं तुम्हारी सारी आग निकाल दूँगा।" यह कहते हुए उसने चित्रा का दुपट्टा उतार दिया और उसके हाथ बाँध दिए। उसने उसका ब्लाउज़ भी उतार दिया। चित्रा रोती हुई अभिराज से विनती करती रही,

    "प्लीज ऐसा मत करो। मैं बच नहीं पाऊँगी।"

    अभिराज ने ऊपरी वस्त्र उतार दिए। अभिराज झुककर उसके सीने को चूसने और चाटने लगा। फिर उसने चित्रा का लहँगा उतार दिया और उसकी जाँघों को चूमता रहा और उसे जोर से काटता रहा। थोड़ी देर बाद उसने चित्रा के निचले अंडरगारमेंट भी उतार दिए और एक साथ उसके योनि में तीन उंगलियाँ डाल दीं। चित्रा का यह पहला बार था और वह जोर-जोर से रोने लगी। अभिराज ने उसका चेहरा देखकर कहा,

    "You are very tight I like it."

    फिर थोड़ी देर बाद उसने चित्रा की टाँगें अपनी कमर के इर्द-गिर्द लपेट लीं, उसके अंदर घुस गया और उसके साथ बहुत ही बेरहमी से पेश आने लगा। उसकी गति सीमा से परे थी। उसने चित्रा की चीखें बिल्कुल नहीं सुनीं। करीब पाँच घंटे बाद उसने चित्रा को छोड़ा। वह बहुत बुरी हालत में थी। अभिराज ने चित्रा को बिस्तर से धक्का दिया और कहा,

    "तुम जैसी लड़कियाँ बिस्तर गर्म करने के लिए बनी हैं।"

    और फिर वह सो गया।


    अगली सुबह

    अभिराज गहरी नींद में था जब उसने कोने से चित्रांगदा की सिसकियों की आवाज़ सुनी। चित्रांगदा जोर-जोर से रो रही थी। अभिराज उठकर उसके पास गया और बोला, "क्यों रो रही हो? लगता है कल रात तुम्हें अच्छी तरह से संतुष्ट नहीं कर पाया। कोई बात नहीं, अभी पूरी कर देता हूँ।"

    चित्रांगदा सिर्फ़ एक चादर में थी। अभिराज ने बेरहमी से उसकी चादर खींच दी और उसे फिर से बिस्तर पर गिरा दिया। वह दर्द से चीख उठी, लेकिन अभिराज को कोई फ़र्क नहीं पड़ा। जब वह अंत में उससे अलग हुआ, तो उसने कठोर आवाज़ में कहा, "अब यह नौटंकी बंद करो और रसोई में जाकर मुझे नाश्ता बनाकर दो।"

    फिर अभिराज ने उसे एक थैली दी, जिसमें नौकरानियों के पुराने कपड़े थे। उसने चित्रांगदा की ठुड्डी पकड़कर कहा, "इस कमरे में तुम मेरी रखैल हो और बाहर मेरी नौकरानी। समझीं? अब जाकर काम करो।"

    कुछ समय बाद, चित्रांगदा हॉल में आई। उसकी आँखें सूजी हुई थीं, लेकिन उसकी सुंदरता पर इसका कोई असर नहीं था। उसकी गहरी रंगत, तीखे नैन-नक्श, लंबे घने बाल, गुलाबी होंठ और पतली कमर उसे किसी रानी जैसा रूप देते थे। अभिराज की नज़र जब उस पर पड़ी, तो वह कुछ पल के लिए देखता ही रह गया। फिर कठोर आवाज़ में बोला, "जल्दी खाना बनाकर लाओ।"

    चित्रांगदा बिना कुछ कहे रसोई में चली गई। थोड़ी देर बाद, वह खाने की थाली लेकर आई और बिना कुछ बोले उसे परोसने लगी। अभिराज ने उसे घूरते हुए कहा, "अब से सारा घर का काम तुम्हें करना होगा। समझीं?"

    इसके बाद वह ऑफिस चला गया।


    अभिराज का ऑफिस

    अभिराज अपने दोस्तों अविनाश और रणविजय के साथ बैठा था।

    "तो भाई, भाभी से मिलवा रहे हो या नहीं?" अविनाश ने मज़ाक करते हुए कहा।

    "पहली बात, वह मेरी भाभी नहीं है, और दूसरी बात, उसकी इज़्ज़त करना बंद करो।" अभिराज ने गंभीर स्वर में कहा।

    "तुम लोग हमेशा लड़कियों से दूर भागते हो। और अभिराज, तुम तो अब तक कुंवारे थे।" अविनाश ने मुँह बनाते हुए कहा।

    "अब नहीं हूँ। कल ही शादी की है।" अभिराज ने ठंडी मुस्कान के साथ जवाब दिया।


    दूसरी ओर

    अमीशा स्कूल से घर जा रही थी, तभी कुछ लड़कों ने उसे घेर लिया।

    "कहाँ जा रही हो, मैडम?" एक ने कहा।

    "लगता है स्कूल से आ रही हो।" दूसरे ने हँसते हुए कहा।

    "हमें भी बायोलॉजी पढ़ा दो।" तीसरे ने अश्लील अंदाज़ में कहा।

    अमीशा हमेशा झगड़ने के मूड में रहती थी, तो उसने उन्हें पीटना शुरू कर दिया। लेकिन तभी कुछ और लड़के पीछे से आए और उसे पकड़ लिया।

    "अरे मैडम, इतनी छोटी हो, अपनी ताकत हम पर मत खर्च करो।" एक ने कहा। यह कहते हुए वे उसे वैन में खींचने लगे।

    तभी एक भारी आवाज़ आई, "लड़की को छोड़ दो।"

    "ओ हीरो, तू कौन है? लगता है अपनी हीरोइन को बचाने आया है।" एक लड़के ने घूरकर कहा।

    "रणविजय जी, आप?" अमीशा ने चौंककर देखा।

    "मुझे भी बायोलॉजी पढ़ने का बहुत शौक है।" रणविजय ने उसे अनदेखा करते हुए कहा। यह कहते हुए उसने एक लड़के को घूँसा जड़ दिया। फिर रणविजय के बॉडीगार्ड्स भी आ गए और उन गुंडों की धुलाई करने लगे।

    "गाड़ी में बैठो।" रणविजय अमीशा के पास आया और कहा।

    अमीशा चुपचाप गाड़ी में बैठ गई। कुछ देर बाद रणविजय भी गाड़ी में आया और गुस्से से बोला, "तुम पागल हो या तुम्हारे पास दिमाग़ नहीं है? जब भी देखो, झगड़ती रहती हो। बेवकूफ लड़की।"

    "आप हमेशा मुझ पर गुस्सा ही करते हैं।" अमीशा ने मुँह फुलाते हुए कहा।

    "गलती ही ऐसी करती हो कि डाँट सुननी पड़ती है।" रणविजय ठंडे स्वर में बोला।

  • 4. price of Revenge

    Words: 963

    Estimated Reading Time: 6 min

    ⚠️again this chapter contains some abusive rape scene so read your own risk⚠️

    विवान का घर

    विवान बार-बार चितरा के दोस्तों को फोन कर रहा था, क्योंकि उसे चितरा की कोई खबर नहीं थी और वह बहुत परेशान था। गौरी उसे बार-बार दिलासा दे रही थी, "चिंता मत करो, हमारी छोटी जल्दी ही वापस आ जाएगी।" विवान बोला, "मैं कैसे चिंता न करूं? मेरी प्यारी बहन गायब है, वह मेरी जान से भी ज्यादा कीमती है।" गौरी ने कहा, "हमने पहले ही पुलिस में रिपोर्ट कर दी है। हमारी छोटी जल्दी ही मिल जाएगी।"

    अभिराज ka villa

    शाम हो चुकी थी। अभिराज ऑफिस से घर लौटा और ज़ोर से चिल्लाया, "चितरांगदा! चितरांगदा! जल्दी यहाँ आओ!" चितरा आई तो उसने देखा कि अभिराज बहुत गुस्से में था। अभिराज बोला, "मेरे लिए खाना लाओ।" चितरा ने धीरे से कहा, "मैंने अभी तक खाना नहीं बनाया।" अभिराज गुस्से से बोला, "सारा दिन क्या कर रही थी? किसको रिझा रही थी?" चितरा रोने लगी और फिर बोली, "बस, मैं अभी खाना बना देती हूँ।" अभिराज बोला, "अब मेरी भूख तुमसे मिटेगी।" वह चितरा को ज़बरदस्ती चूमने लगा। चितरा बहुत दर्द में थी, क्योंकि पिछली रात उसके साथ बहुत बुरा हुआ था। वह रोते हुए बोली, "प्लीज़, मैं यह नहीं कर सकती।" अभिराज चिल्लाया, "क्यों? दूसरों के साथ तो तुम्हें बहुत मज़ा आता होगा! बहुत सारे प्रेमियों के साथ सोने में मज़ा आता है, है ना?" यह कहकर उसने चितरा को अपने कमरे में ले जाकर दीवार से सटा दिया और जबरदस्ती चूमने लगा।

    तभी अभिराज का फोन बजा। दूसरी तरफ से आवाज़ आई, "सर, जल्दी आइए, डॉक्टर बुला रहे हैं।" अभिराज ने चितरा को घूरते हुए कहा, "ठीक है।" फिर उसने फोन काट दिया और बोला, "अभी के लिए बच गई हो, लेकिन बाद में तुम्हें कोई नहीं बचा सकता।"

    अस्पताल में

    जैसे ही अभिराज अस्पताल पहुंचा, उसने पूछा, "क्या हुआ, अगस्त्य?"

    (अगस्त्य खुराना अभिराज का सेक्रेटरी है। वह 25 साल का गोरा, तीखे नैन-नक्श वाला, अंतर्मुखी इंसान है। कोई भी उसके चेहरे से यह नहीं समझ सकता कि वह क्या सोच रहा है। वह बहुत मेहनती और रहस्यमयी स्वभाव का है।)

    अगस्त्य बोला, "डॉक्टर आपको बुला रहे हैं।"

    अभिराज ने "हम्म" कहा और डॉक्टर के केबिन में चला गया।

    डॉक्टर का केबिन

    डॉक्टर ने अभिराज को देखते ही कहा, "मिस्टर राजपूत, आकांक्षा की हालत बहुत गंभीर है। उसके दिमाग में सूजन है। अगर वह होश में भी आ गई, तो उसका दिमाग 5 साल के बच्चे जैसा काम करेगा, क्योंकि उसे बहुत गहरा सदमा लगा है।"

    यह सुनते ही अभिराज की मुट्ठी कस गई। अपनी बहन को इस हालत में देखकर वह अंदर से टूट गया। उसे ऐसा लग रहा था कि वह गुस्से में चितरा को मार ही डालेगा। वह तेज़ी से अस्पताल से बाहर निकला और अपनी गाड़ी में बैठा। उसकी आंखें लाल हो चुकी थीं।

    घर पहुँचते ही वह अपने बार में गया और एक के बाद एक शराब पीने लगा। उसके दिमाग में चितरा के लिए कोई बहुत ही खतरनाक योजना बन रही थी। सोचते-सोचते उसके चेहरे पर एक टेढ़ी मुस्कान आ गई।

    अगस्त्य का घर

    अगस्त्य घर पहुंचते ही ज़ोर से चिल्लाया, "माही, माही, जल्दी आओ, तुम कहां थीं?"

    (तभी एक लड़की, जो करीब 20 साल की थी, सामने आई। वह दूध जैसी गोरी थी और बिल्कुल एक परी जैसी दिखती थी। उसके होंठ गुलाब की पंखुड़ियों जैसे गुलाबी थे, लंबी पलकें, गोल-मटोल शरीर, छोटा सा मुंह और होंठ के किनारे एक सुंदर तिल था।)

    अगस्त्य ने गुस्से से कहा, "शाम को कहां गई थी?" माही ने कहा कि वह सब्ज़ी लेने गई थी।

    अगस्त्य चिल्लाया, "सब्ज़ी लेने गई थी या अपने प्रेमी से मिलने?" माही ने ज़ोर से सिर हिलाया और रोने लगी। अगस्त्य ने उसके बाल पकड़कर कमरे में खींच लिया और बोला, "कपड़े उतारो।"

    बिना कुछ कहे, माही ने अपने कपड़े उतारने शुरू कर दिए। माही के शरीर पर बहुत सारे निशान थे, जिससे पता चल रहा था कि किसी ने उसे बहुत बुरी तरह से मारा है। अगस्त्य ने कहा,

    "क्या बात है?

    जो निशान मैंने तुम्हें दिए हैं, वो तुम्हारे शरीर पर कितने अच्छे लग रहे हैं।


    " माही ने अपनी नजरें झुका लीं। उसकी आँखों से आँसू बह रहे थे। अगस्त्य ने उसके बाल मुट्ठी में पकड़ लिए और कहा, "तुम मुझसे शादी करना चाहती थी, है ना? तो मजे करो, क्यों रो रही हो?"

    तभी वो चुप हो गया और एक बोतल से शराब माही के शरीर पर डाली, कामुक आवाज में कहा,

    "मैं तुम्हारे शरीर के साथ खेलना चाहता हूँ।"


    उसने उसके शरीर से शराब चाटनी शुरू कर दी। थोड़ी देर बाद, उसने उसे दीवार से सटा दिया और उस पर हमला करने लगा, बार-बार कहता रहा कि यह उसकी सजा है। इस समय, अगस्त्य का हाथ माही के मुँह पर था। उनकी शादी को 5 महीने हो गए थे। लेकिन अब तक अगस्त्य ने माही को कभी चूमा नहीं था। माही को इस समय बहुत दर्द हो रहा था और वह रो रही थी, अगस्त्य से विनती कर रही थी,


    "सर, कृपया थोड़ा धीरे करो, मुझसे अब और नहीं सहा जा रहा।" अगस्त्य अचानक उससे दूर हट गया और ठंडे ढंग से कहा, "बस मेरी नज़रों से दूर हो जाओ। और हाँ, अपने कपड़े लो और मेरा कमरा छोड़ दो। समझी?"


    माही ने अपने कपड़े उठाए और अगस्त्य का कमरा छोड़ दिया। माही अपने कमरे में गई, दरवाजा बंद कर लिया, और जोर-जोर से रोने लगी। उसका कमरा किसी बेडरूम से ज्यादा स्टोर रूम जैसा लग रहा था, जिसमें सिर्फ एक पुराना बिस्तर था जो बहुत बुरी हालत में था। वह अपने आँसुओं के बीच कहती रही,

    "मेरी क्या गलती है कि मैं नरक से भी बदतर जिंदगी जी रही हूँ? इससे तो अच्छा है कि मैं मर जाऊँ। इस दुनिया में मेरा कोई नहीं है। कोई नहीं। भगवान, कृपया मुझे इस नरक से मुक्त करो," और वह पूरी रात रोती रही।

  • 5. crushing dignity

    Words: 1171

    Estimated Reading Time: 8 min

    अगली सुबह, अभिराज की हवेली में सूरज ठीक से नहीं निकला था कि अभिराज जिम से लौट आया। उसके शरीर से पसीना चमक रहा था। उसने तौलिये से अपना चेहरा पोंछा, पर उसकी आँखों में सख्ती और गुस्सा ही था।

    वह अपने कमरे में दाखिल हुआ। उसकी नज़र चित्रांगदा पर पड़ी। वह ठंडी संगमरमर की फर्श पर गठरी बनकर सो रही थी। उसका चेहरा पीला था, होंठ सूखे थे, और उसकी बाहों पर बीती रात के निशान साफ़ थे।

    यह देखकर उसे गुस्सा आया। एक झटके में, उसने साइड टेबल पर रखा चाँदी का जग उठाया और बर्फ जैसा ठंडा पानी सीधे चित्रांगदा के चेहरे पर उँडेला।

    चित्रांगदा झटके से जागी। उसने साँस लेने के लिए हाँफते हुए आँखें खोलीं। ठंडा पानी उसके पूरे शरीर में बहने लगा। उसकी पलकों ने हलचल की, और उसकी घबराई हुई आँखें अभिराज की खतरनाक नज़रों से टकरा गईं।

    उसकी आँखों में लाल गुस्सा देखकर, डर धीरे-धीरे चित्रांगदा के दिल में घर करने लगा।

    "किसने तुम्हें देर तक सोने की इजाजत दी?" अभिराज की आवाज चाकू की तरह तेज थी। हवा में उसकी नाराज़गी साफ़ महसूस हो रही थी। "लगता है, तुम अपनी औकात भूल गई हो। कोई बात नहीं… मैं तुम्हें याद दिला दूँगा।"

    चित्रांगदा कुछ समझ पाती, इससे पहले ही अभिराज ने उसकी कलाई पकड़ ली। कसकर झटके से ऊपर खींच लिया। उसकी पकड़ इतनी मजबूत थी कि ऐसा लगा जैसे हड्डियाँ टूट जाएँगी। वह उसे घसीटते हुए दीवार पर लगे बड़े आईने के सामने ले आया।

    बिना कुछ सोचे, उसने झटके से उसकी साड़ी का पल्लू नीचे खींच दिया। अब उसके कंधे साफ़ दिख रहे थे, जहाँ नीले-काले निशान पड़े थे। ये निशान पिछली रात की उसकी हुकूमत के सबूत थे।

    अभिराज की आँखों में घृणा थी। उसने उन निशानों की तरफ़ इशारा करते हुए हँसते हुए ताना मारा, "यही तुम्हारी औकात है। यही तुम हो।"

    चित्रांगदा का गला सूख गया। वह कुछ कहना चाहती थी, चीखना चाहती थी, पर आवाज़ गले में ही घुट गई। उसकी बातें सुनकर उसका दिल मिचलाने लगा। वह पीछे हटना चाहती थी, लेकिन अभिराज ने उसे घुमाकर आईने से सटा दिया।

    उसके चेहरे पर हल्की सी मुस्कान आई। वह झुका और उसकी गर्दन के पास साँस छोड़ी। "चलो, तुम्हें फिर से याद दिलाता हूँ।" कहकर, उसने उसकी गर्दन पर होंठ रख दिए। धीरे-धीरे उसके दाँत उसकी नाजुक त्वचा में धँस गए। उसने साड़ी को और नीचे खींचना शुरू किया।

    धड़! धड़!

    हवेली के दरवाज़े पर तेज़ दस्तक हुई।

    "चित्रांगदा! चित्रांगदा! जल्दी दरवाज़ा खोलो!"

    चित्रांगदा का दिल जोर से धड़क उठा। यह आवाज़ वह अच्छे से पहचानती थी। उसके अंदर घबराहट दौड़ गई। उसने पूरी ताकत लगाकर अभिराज को धक्का दिया और दरवाज़े की तरफ़ दौड़ पड़ी।

    अभिराज बस खड़ा रहा, हाथ बाँधे हुए, आँखों में मज़ाकिया चमक।

    दरवाज़ा खुलते ही—

    चटाक!

    एक जोरदार थप्पड़।

    चित्रांगदा लड़खड़ा गई। उसके गाल पर लाल निशान पड़ गया।

    उसकी आँखें आँसुओं से धुंधली हो गईं। जब उसने ऊपर देखा, तो सामने उसके भाई विवान थे।

    "भ… भैया…" वह सदमे में फुसफुसाई।

    विवान की आँखों में गुस्से का तूफ़ान था।

    "मैंने तुम्हें बाहर भेजा था, और तुमने ये किया?" उनकी आवाज़ में गुस्सा और नफ़रत थी। "मुझे तुम पर कितना गर्व था, चित्रांगदा… लेकिन तुमने सब बर्बाद कर दिया।"

    "नहीं भैया! आप गलत समझ रहे हैं—"

    चटाक!

    एक और थप्पड़।

    "अब मुझे सब समझ आ गया।" विवान की आवाज़ अब बिलकुल ठंडी थी। "आज से, गौरी और मैं तुम्हारे लिए मर चुके हैं। हमारे लिए तुम मर चुकी हो। कभी हमें फोन मत करना, समझी?"

    चित्रांगदा की पूरी दुनिया उजड़ गई। उसकी आँखें आँसुओं से भर गईं। वह धीरे-धीरे अभिराज की तरफ़ मुड़ी।

    अभिराज दूर खड़ा था, चेहरे पर जीत की घमंडी मुस्कान लिए हुए।

    विवान ने एक बार भी पीछे मुड़कर नहीं देखा। वह गुस्से में दरवाज़ा जोर से बंद करके चला गया।

    हॉल में गहरा सन्नाटा छा गया।

    फिर, अभिराज ने धीरे से हँसते हुए कहा—

    "कैसा लगा मेरा पहला शादी का तोहफ़ा? मेरे प्यारे साले से एक थप्पड़?"

    चित्रांगदा का खून खौल उठा। उसके अंदर गुस्से की लहर दौड़ गई।

    उसने अभिराज का कॉलर पकड़ लिया। उसकी आँखों में आग जल रही थी।

    "क्यों कर रहे हो ये सब? बताओ मुझे! मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है, मिस्टर अभिराज सिंह राजपूत?!"

    उसकी आवाज़ गुस्से से काँप रही थी।

    "तुमने मुझे इस जबरदस्ती के रिश्ते में बाँध दिया। तुमने मुझसे जो चाहा किया, और मैंने चुपचाप सह लिया। लेकिन अब तुमने मेरे भाई से मेरा रिश्ता तोड़ दिया! अब हद हो गई! मैं अब एक सेकंड भी यहाँ नहीं रुकूँगी!"

    चित्रांगदा मुड़ी, दरवाज़े की तरफ़ बढ़ी।

    लेकिन तभी

    एक मज़बूत हाथ उसकी कलाई पर लपका।

    "अगर एक कदम और बढ़ाया, तो अंजाम बुरा होगा।"

    अभिराज की आवाज़ अब बहुत खतरनाक थी।

    चित्रांगदा ने गुस्से में उसे घूरा।

    "क्यों नहीं जाऊँ? सुन लो, मिस्टर अभिराज सिंह राजपूत, मैं तुम्हारी गुलाम नहीं हूँ! मैं यहाँ नहीं रहूँगी!"

    उसने अपना हाथ छुड़ाने की कोशिश की। लेकिन अभिराज की पकड़ और मज़बूत हो गई।

    चित्रांगदा का गुस्सा अब अपने चरम पर था।

    उसने एक झटके में—

    अभिराज के चेहरे पर थूक दिया।

    पूरा कमरा चुप हो गया।

    एक पल के लिए, सब कुछ ठहर गया।

    फिर, चित्रांगदा का हाथ उठा और—

    चटाक!

    उसने जोर से अभिराज के गाल पर थप्पड़ जड़ दिया।

    अभिराज का चेहरा एक तरफ़ झुक गया।

    चित्रांगदा की आँखें गुस्से से लाल हो गईं।

    "तुम एक कायर हो, अभिराज सिंह राजपूत!" उसने गुस्से से कहा। "तुम्हें लगता है कि जबरदस्ती किसी से शादी करने से तुम ताक़तवर बन जाओगे? नहीं! ये सिर्फ़ तुम्हारी कमज़ोरी दिखाता है!

    "एक सच्चा आदमी औरत की इज़्ज़त करता है। लेकिन तुम? तुम मर्द कहलाने के लायक नहीं हो!"

    अभिराज की आँखों में गुस्से का समुंदर उमड़ आया।

    चित्रांगदा एक कदम और आगे बढ़ी।

    उसने ठंडी आवाज़ में कहा—

    "तुमने मुझे अपनी रखैल कहा था, है ना? देखना… एक दिन कोई तुम्हारी बहन के साथ भी यही करेगा।"


    अभिराज को बहुत गुस्सा आया। उसने चित्रांगदा का गला पकड़ लिया और उसे अपने पास खींच लिया। अब वह अभिराज के गुस्से की गर्मी को महसूस कर सकती थी।

    "अगर तुमने मेरी बहन के बारे में एक और शब्द भी कहा…" अभिराज ने गुस्से से कहा, उसकी पकड़ और मज़बूत हो गई। "तब तुम इतनी बड़ी गलती करोगी कि आईने में भी खुद को देखने से डरोगी।"

    चित्रांगदा ने साँस लेने की कोशिश की, लेकिन वह रुकी नहीं। "मैं बोलूँगी! जो करना है कर लो!"

    चटाक! एक तेज़ थप्पड़ की आवाज़ गूँजी। अभिराज ने उसे ज़ोर से थप्पड़ मार दिया। "तुम अपने आपको क्या समझती हो?" वह ज़ोर से चिल्लाया। "और तुमने क्या कहा? कि मैं डरपोक हूँ? मेरे अंदर मर्दानगी नहीं है?"

    उसने चित्रांगदा को ज़ोर से बिस्तर पर धक्का दिया और उसके ऊपर झुक गया। उसके हाथ काँपते होठों को छूने लगे। फिर वह हल्का सा मुस्कुराया, मगर उसकी मुस्कान खतरनाक थी।

    "कोई बात नहीं," उसकी आवाज़ में एक अजीब डरावनी धमकी थी। "तुमने अभिराज सिंह राजपूत की मर्दानगी पर शक किया? तो अब देखना, तुम एक हफ़्ते तक बिस्तर से उठ भी नहीं पाओगी, चित्रांगदा।"

    कमरे में सन्नाटा छा गया। और फिर अचानक, दरवाज़ा जोर से बंद होने की आवाज़ आई।

  • 6. Broken innocence

    Words: 868

    Estimated Reading Time: 6 min

    ⚠️ warning this chapter contains some scenes like rape, abuse so if you can't tolerate those scene then please don't read because i will not tolerate any hate comments so that's why i sm already giving you warning ⚠️ let's start it
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    अभिराज ने चित्रांगदा की कलाई को जोर से पकड़ा और उसे कमरे में घसीटते हुए बिस्तर पर पटक दिया। उसने कहा,

    "तो तुमने बहुत हिम्मत हासिल कर ली है?? कि तुम अपने शब्दों से मुझे चुनौती दे रही हो। तुम मुझे नामर्द कह रही हो, अभिराज सिंह राजपूत?"

    यह कहते हुए, उसने चित्रांगदा की साड़ी का पल्लू जोर से खिसका दिया।

    उसने अपनी शर्ट के बटन खोलने शुरू कर दिए। एक-एक करके, उसने चित्रांगदा को उसके कपड़ों से आजाद करना शुरू कर दिया। चित्रांगदा रो रही थी, अभिराज से बार-बार उसे जाने देने की भीख मांग रही थी। लेकिन अभिराज उसके साथ जानवरों जैसा व्यवहार कर रहा था।

    अभिराज चित्रांगदा के शरीर से आखिरी कपड़ा उतारता है और उसे ढेर सारे kisses और love bites से नहलाना शुरू कर देता है।

    कोई कह सकता है कि अभिराज चित्रांगदा के शरीर को ऐसे कुतर रहा था जैसे कि वह कोई गम हो। फिर अभिराज चित्रांगदा के पैरों तक चूमता हुआ जाता है। जब चित्रांगदा अपनी टाँगें बंद करने की कोशिश करती है,

    तो अभिराज उसे गुस्से से घूरता है और कहता है,

    "खोलो इन्हें।"

    लेकिन चित्रांगदा इनकार में अपना सिर हिलाती है। अभिराज का गुस्सा भड़क उठता है। वह चित्रांगदा की टाँगें जबरदस्ती फैलाता है और उसके sensitive अंग को चूमना शुरू कर देता है। थोड़ी देर बाद अभिराज चित्रांगदा के शरीर में enter करता है और उसके साथ बहुत ही बुरा व्यवहार करना शुरू कर देता है। चित्रांगदा बहुत बुरी हालत में थी, रो रही थी। अभिराज की आँखें बंद थीं, लेकिन उसके कान में एक आवाज़ सुनाई दे रही थी,

    "प्लीज़ मुझे बचा लो, प्लीज़, प्लीज़ मैं मरना नहीं चाहती।" अभिराज झटके से अपनी आँखें खोलता है और चित्रांगदा के साथ और भी बुरा व्यवहार करना शुरू कर देता है।


    उसके कानों में सिर्फ़ आकांक्षा की आवाज़ गूंज रही थी। अभिराज की गति सीमा से परे थी। थोड़ी देर बाद अभिराज ने चित्रांगदा को उठाया और उसके पैरों को अपनी कमर में लपेट लिया। वह चित्रांगदा के साथ बहुत क्रूर व्यवहार कर रहा था। कोई नहीं जानता कि रात के किस समय अभिराज चित्रांगदा से अलग हुआ। फिर उसने उसे चादर से ढक दिया और कहा,


    "मुझे उम्मीद है कि अब तुम्हें एक मर्द और एक नपुंसक आदमी के बीच का अंतर समझ में आ जाएगा।"

    अविनाश का घर

    आज अमीशा की स्कूल मीटिंग थी। वह बहुत डरी हुई थी, क्योंकि उसने बहुत शरारतें की थीं। टीचर ने साफ कहा था कि उसे मम्मी-पापा को लाना ही होगा। अब उसके पास कोई रास्ता नहीं था।

    तभी दरवाजे पर दस्तक हुई और नौकरानी अंदर आई। अमीशा को अचानक एक आइडिया आया। उसने जल्दी से कहा, "रुको, आंटी!"

    नौकरानी रुकी तो अमीशा ने हाथ जोड़कर कहा, "अगर मैं मम्मी-पापा को लेकर गई, तो वे बहुत डांटेंगे। अगर नहीं गई, तो टीचर घर पर फोन कर देंगी। प्लीज, आप मेरी मम्मी बनकर चलो!"

    नौकरानी ने मना कर दिया। लेकिन अमीशा तो नाटक करने में उस्ताद थी! उसने गहरी साँस ली और दुखी होकर बोली, "ठीक है, आंटी। अगर मम्मी-पापा स्कूल गए, तो टीचर मेरी बहुत शिकायत करेंगे। फिर वे मुझे बहुत मारेंगे। हो सकता है मैं इस दुनिया से ही चली जाऊँ। पर कोई बात नहीं, आप जाओ, मैं अकेले ही सब झेल लूँगी।"

    नौकरानी भोली थी। उसे अमीशा की बातों पर सच में तरस आ गया। उसने कहा, "ठीक है, बेटा। मैं तेरे साथ चलूँगी।"

    अमीशा मन ही मन खुश हो गई! उसकी चाल फिर से काम कर गई। वह अपनी मासूमियत दिखाकर हमेशा मम्मी-पापा को बेवकूफ बना लेती थी। लेकिन उसकी ये ट्रिक सिर्फ दो लोगों पर नहीं चलती थी—रनविजय और अविनाश।

    अमीशा ने नौकरानी से कहा, "आंटी, यहीं रुको। मैं मम्मी के कपड़े और गहने लेकर आती हूँ ताकि कोई शक न करे।"

    वह भागकर कमरे से निकली, लेकिन सीधा जाकर किसी से टकरा गई। उसने देखा—रनविजय गुस्से से उसे देख रहा था।

    उसने भौंहें चढ़ाकर पूछा, "ठीक से चलना कब सीखोगी? और घर में इधर-उधर क्यों भाग रही हो?"

    अमीशा कुछ बोलती, इससे पहले ही पीछे से अविनाश की आवाज आई, "यह जरूर कोई नई शरारत कर रही होगी।"

    अविनाश ने उसे घूरकर पूछा, "सच-सच बताओ, अब कौन सी मुसीबत खड़ी करने वाली हो?"

    अमीशा ने मासूम चेहरा बनाकर कहा, "आप लोग हमेशा मुझे गलत क्यों समझते हो?"

    रनविजय ने सिर हिलाया, "लो, फिर से ड्रामा शुरू!"

    अमीशा ने मीठी आवाज में कहा, "मैं तो बस अपने प्यारे भाई के लिए चाय बनाने जा रही थी। आप लोग दिनभर काम करते हो, इसलिए सोचा आपके लिए चाय बना दूँ। लेकिन आप लोग तो हमेशा मुझ पर शक करते हो!"

    अविनाश हँसकर बोला, "ये मासूम बनने का नाटक मम्मी-पापा के लिए बचाकर रखो!"

    फिर उसने रनविजय से पूछा, "क्या तुम्हें वह हरा जापानी फाइल दिखी? मेरा, तुम्हारा और अभिराज का जापानी कंपनी यामामोटो के साथ मीटिंग बहुत जरूरी है।"

    यह सुनकर अमीशा घबरा गई! उसे याद आया कि उसने उसी फाइल के कागजों से हवाई जहाज बनाकर उड़ा दिया था! डर के मारे वह जल्दी से वहाँ से भाग गई ताकि पकड़ी न जाए।

  • 7. caring

    Words: 893

    Estimated Reading Time: 6 min

    सुबह का समय था।

    कल रात चितरांगदा अभिराज की बेरहमी सहन नहीं कर पाई थी। जब अभिराज ने उसे बिस्तर से धक्का दिया था, तो उसके सिर पर चोट लग गई थी। वह अब भी बेहोश पड़ी हुई थी।

    बालकनी से आती हल्की सुबह की रोशनी अभिराज के चेहरे पर पड़ी, जिससे वह थोड़ा हिला। कुछ देर बाद उसने आँखें खोलीं। वह उठकर बाथरूम में नहाने चला गया।

    नहाने के बाद जब अभिराज बाथरोब पहनकर बाहर आया, तो उसकी नजर चितरांगदा पर पड़ी। वह अब भी बेहोश थी। उसके शरीर पर कोई कपड़ा नहीं था। उसकी चादर पूरी तरह खून से लाल हो चुकी थी। सिर से भी खून निकल रहा था। अभिराज को चितरांगदा की हालत अजीब लगी। (और क्यों न लगती? आखिर, उसकी यह हालत बनाने वाला वही था।)

    अभिराज चितरांगदा के पास गया और चादर हटाई। जैसे ही उसने ऐसा किया, उसकी आँखें हैरानी से फैल गईं। क्योंकि जो दर्द उसने चितरांगदा को दिया था, वह उसके शरीर पर साफ दिख रहा था।

    कुछ पलों के लिए अभिराज खुद भी चौंक गया। वह सोचने लगा कि उसने इस मासूम २० साल की लड़की के साथ क्या कर दिया था।

    खून अभी भी चितरांगदा की प्राइवेट जगह से बह रहा था।

    अभिराज ने धीरे से उसके गाल थपथपाए और महसूस किया कि उसकी नब्ज बहुत कमजोर थी। उसने हाथ की नब्ज भी चेक की, लेकिन वह भी बहुत धीमी थी।

    बिना समय गँवाए, अभिराज ने तुरंत डॉक्टर को बुलाया। कुछ देर बाद डॉक्टर आ गईं। डॉक्टर ने चितरांगदा की हालत देखी और गुस्से से अभिराज को घूरा। वह समझ चुकी थी कि चितरांगदा की यह हालत अभिराज की वजह से हुई थी।

    डॉक्टर ने चेक करने के बाद कहा, "तुम इंसान हो या जानवर? तुमने इसके साथ क्या किया? कम से कम थोड़ा नरमी से पेश आते!"

    अभिराज ने गुस्से से डॉक्टर को देखा और ठंडे स्वर में कहा, "तुम्हारा काम खत्म हो गया, अब जा सकती हो। किसी ने तुमसे सलाह नहीं मांगी।"

    डॉक्टर ने सीधा जवाब दिया, "तुम्हारी बीवी की हालत बहुत खराब है। ऐसा लग रहा है जैसे यह सब उसकी मर्जी से नहीं हुआ, बल्कि जबरदस्ती किया गया है..."

    इतना सुनते ही अभिराज ने बीच में ही टोका, "बस! अब तुम जा सकती हो।"

    डॉक्टर ने जाते-जाते कहा, "तुम्हें दो हफ्ते तक इससे दूर रहना होगा, क्योंकि तुम्हारे अंदर का जानवर इतनी तकलीफ सहन नहीं कर सकता।"

    अभिराज ने अगस्त्य को बुलाया और कहा, "डॉक्टर को बाहर छोड़कर आओ।"


    दोपहर का समय था।

    चितरांगदा अब तक होश में नहीं आई थी, और अभिराज भी ऑफिस नहीं गया था। उसने अगस्त्य से कहा था कि आज वह ऑफिस का काम संभाल ले। इस वक्त अभिराज चितरांगदा के पास बैठा था और ध्यान से उसका चेहरा देख रहा था, जो उसकी बेरहमी के कारण बिलकुल पीला पड़ गया था।

    कुछ देर बाद चितरांगदा को महसूस हुआ कि कोई उसे देख रहा है। उसने धीरे से आँखें खोलीं और उसकी नजर सीधे अभिराज से मिली। जैसे ही उसने अभिराज को देखा, पिछली रात की सारी बातें याद आ गईं। उसकी आँख से एक आँसू गिर पड़ा।

    अभिराज ने पूछा, "अब कैसी तबीयत है?"

    चितरांगदा ने कोई जवाब नहीं दिया।

    अभिराज ने फिर कहा, "मैं कुछ पूछ रहा हूँ।"

    चितरांगदा ने धीमी आवाज़ में कहा, "ठीक हूँ।"

    अभिराज ने उसे अपनी बाहों में उठाया और बाथरूम में ले जाकर टब में बैठा दिया। पानी हल्का गरम था, जिससे चितरांगदा को अच्छा लगा।

    थोड़ी देर बाद अभिराज भी टब में आ गया और उसे अपनी बाहों में कसकर पकड़ लिया।

    चितरांगदा ने खुद को छुड़ाने की कोशिश की।

    अभिराज चिढ़ गया। उसने गुस्से से कहा, "अगर ज्यादा हिली-डुली तो इसी पानी में डुबो दूँगा।"

    यह सुनकर चितरांगदा डर से चुप हो गई और शांत बैठ गई। उसे पता था कि अभिराज बहुत निर्दयी है और वह ऐसा कर भी सकता है।

    दर्द की वजह से चितरांगदा को नींद आ गई।

    अभिराज ने उसके चेहरे को देखा और एक पल के लिए हल्की मुस्कान आई, लेकिन फिर उसने अपने चेहरे पर वही गंभीरता वापस ले ली।

    उसने चितरांगदा को फिर से उठाया, उसे एक सफेद शर्ट पहनाई और कंबल ओढ़ा दिया।

    थोड़ी देर बाद, अभिराज किचन में खाना बनाने गया क्योंकि डॉक्टर ने चितरांगदा को हल्का खाना खाने की सलाह दी थी। तभी उसने किसी को कहते सुना,

    "क्या यहाँ कोई पार्टी हो रही है? क्या बात है? अभिराज बाबू, शादी के बाद दोस्तों को भूल गए क्या?"

    अभिराज ने पलटकर देखा तो अविनाश और रणविजय आ चुके थे। रणविजय ने कहा,

    "इसकी बकवास को नजरअंदाज कर, ये पागल है। तू आज ऑफिस क्यों नहीं आया?"

    तभी अविनाश ने मजाक में कहा,

    "अरे रणविजय, ये नया-नया शादीशुदा है, अपनी बीवी के साथ टाइम बिता रहा होगा। और हाँ, ये हमें चाचा बनाने की तैयारी भी कर रहा है, है ना अभिराज?"

    अभिराज ने ठंडी नजरों से उसे देखा और कहा,

    "तेरे पापा का फोन आया था कल, कह रहे थे तू रातभर घर नहीं आया।"

    इस पर अविनाश हँसते हुए बोला,

    "अगर मैं घर नहीं जाता, तो सिर्फ एक ही जगह पर होता हूँ, और वो है क्लब। वहाँ हॉट लड़कियाँ होती हैं। रूसी और जापानी लड़कियाँ सभी मूनलाइट बार में मिलती हैं।"

    रणविजय ने मजाक में कहा,

    "अपने पापा से पूछ, उन्हें रूसी चाहिए या जापानी?"

    इस पर अविनाश ने हँसकर जवाब दिया,

    "मेरी मम्मी ही मेरे पापा के लिए काफी हैं, उनके आगे कोई रूसी या जापानी फीकी पड़ जाएगी!"

  • 8. Tangled Fates

    Words: 2415

    Estimated Reading Time: 15 min

    अमीशा अपने कमरे में गहरी नींद में सो रही थी।

    तभी अचानक किसी ने गुस्से में उसका नाम पुकारा, "अमीशा! अमीशा!"

    अमीशा चौंककर जागी और डर गई।

    बाहर से अविनाश गुस्से में बुला रहा था।

    अमीशा धीरे-धीरे कमरे से बाहर निकली।

    अविनाश तेजी से उसकी तरफ आया और उसका कान पकड़कर मरोड़ दिया।

    "अब क्या शरारत की है तूने? जल्दी बता!" अविनाश गुस्से से बोला।

    "अब मैंने क्या कर दिया, भैया? आप जब भी मुझे देखते हो, गुस्सा ही करते हो!" अमीशा मासूमियत से बोली।

    तभी पीछे से उनके पापा आ गए।

    "क्या हुआ? मेरी बेटी को क्यों डांट रहा है?" उन्होंने पूछा।

    "अगर आपकी बेटी की करतूतें सुन लोगे, तो होश उड़ जाएंगे!" अविनाश गुस्से में बोला।

    "अब इसने क्या किया?" पापा ने हैरान होकर पूछा।

    अविनाश ने गहरी सांस ली और कहा, "इसने संध्या को अपनी माँ बनाकर पैरेंट-टीचर मीटिंग में ले गई!"

    "आज टीचर का फोन आया कि इसके पीटीएम फॉर्म और एडमिशन फॉर्म के साइन अलग-अलग हैं!" उसने आगे बताया।

    "और सिर्फ यही नहीं, ये सारे विषयों में फेल हो गई है! गणित में तो पूरे शून्य नंबर आए हैं!" अविनाश और भी गुस्से में बोला।

    पापा मुस्कुराए और बोले, "तो क्या हुआ? तू खुद दसवीं तीन बार फेल हुआ था, और मेरी बेटी ने फिर भी दो बार पास कर ली!"

    "निकम्मे, हमेशा मेरी बच्ची के पीछे पड़ा रहता है!" फिर पापा ने अविनाश को घूरकर कहा।

    अमीशा बड़े मजे से हँसने लगी, उसके पूरे 32 दाँत दिख रहे थे।

    फिर वह तेजी से भाग गई।

    अविनाश भी गुस्से में पैर पटकते हुए वहाँ से चला गया।

    अचानक पीछे से किसी ने राजवीर को गले लगा लिया।

    "क्या हुआ, प्रिय पति? इतने गुस्से में क्यों हो?" एक मीठी आवाज आई।

    राजवीर ने मुड़कर देखा, तो उनकी पत्नी नलिनी मुस्कुरा रही थी।

    नलिनी ने प्यार से उनका हाथ पकड़ लिया और धीरे से अपनी ओर खींच लिया।

    राजवीर थोड़ा पास आए और मुस्कुराते हुए बोले, "कुछ नहीं, प्रिय! ये लाल-मुँह वाला बस मेरी बेटी को परेशान कर रहा था।"

    "कोई बात नहीं, पतिदेव! मैं आपका सारा टेंशन दूर कर दूँगी।" नलिनी ने हँसकर कहा।

    (दरअसल, अविनाश और अमीशा के माता-पिता बहुत रोमांटिक कपल हैं। उनकी मोहब्बत आज भी पहले जैसी बनी हुई है।)

    अविनाश अब भी गुस्से में था, तभी रणविजय अंदर आया।

    "क्या हुआ? आज बहुत चिड़चिड़े लग रहे हो।" उसने पूछा।

    "इस लड़की की शरारतों ने मेरी ज़िंदगी नरक बना दी है!" अविनाश गुस्से से बोला।

    "ये तो रोज़ का ही है, इसमें नया क्या है?" रणविजय हँसकर बोला।

    थोड़ी देर सोचने के बाद, अविनाश गंभीर होकर बोला, "बाज़ार में 'अल्फा मिश्रा' नाम का एक ड्रग डीलर घूम रहा है। उसने हमें बहुत नुकसान पहुँचाया है। हमें उसे ढूँढना होगा। अबीराज से बात करनी पड़ेगी।"

    "अबीराज इन दिनों बहुत बिज़ी है।" रणविजय ने कहा।

    "तुझे पता भी है कि अबीराज उस मासूम चित्रांगदा के साथ क्या कर रहा है?" अविनाश ने तुरंत टोक दिया।

    रणविजय ने गहरी साँस लेते हुए कहा, "बुरे काम का बुरा नतीजा होता है। उसने हमारी अक्कू के साथ जो किया, अब वही चीज़ वो चित्रांगदा के साथ कर रहा है।"

    "मुझे नहीं लगता कि चित्रांगदा इसमें दोषी है।" अविनाश ने गंभीर होकर कहा।

    "तेरी गंदी सोच फिर जाग गई क्या?" रणविजय चिढ़कर बोला।

    तभी राजवीर कमरे में दाखिल हुए।

    "हेलो अंकल!" रणविजय ने मुस्कुराकर कहा।

    राजवीर ने भी हँसकर जवाब दिया और फिर अविनाश की तरफ देखा।

    "मुझे तुमसे बात करनी है," राजवीर ने कहा।

    अविनाश ने अपने ड्रिंक का एक घूँट लिया और बोला, "कहिए पापा, मैं सुन रहा हूँ।"

    "तुझे मित्रा याद है?" राजवीर ने पूछा।

    यह सुनते ही अविनाश ने झट से अपना ग्लास टेबल पर रख दिया और गुस्से से बोला, "कैसे भूल सकता हूँ उस डायन को?"

    राजवीर ने उसे घूरा और सख्ती से कहा, "तमीज से बात कर! मैंने उसके पिता से तेरी शादी की बात कर ली है।"

    रणविजय, जो जूस पी रहा था, हैरान होकर उसे थूक देता है और अविनाश की तरफ देखता है। अविनाश ऐसा लगता है जैसे उसने भूत देख लिया हो।

    (नोट: मित्रा 24 साल की है, और अबीराज की बचपन की दोस्त है, साथ ही अविनाश की बचपन की दुश्मन भी है। वह काफी गुस्सैल है और बिना सोचे-समझे बोलती है। लेकिन अगर उसे शारीरिक रूप से देखा जाए, तो वह सुंदर है—दूध जैसी सफेद।)

    "तुम्हारे पास एक हफ्ते का वक्त है, वरना उसके पिता की कंपनी के साथ हमारा समझौता टूट जाएगा।" राजवीर कहता है, फिर वह कमरे से बाहर चला जाता है।

    "तुम और मित्रा? वह तुम्हें पूरी तरह से सही रास्ते पर ले आएगी।" राजवीर के बाहर जाते ही रणविजय हंसी में कहता है।

    अविनाश ने मन बना लिया था कि वह मित्रा से कोई भी संबंध नहीं बनाएगा।


    (अबीराज का विला, शाम):

    अबीराज डाइनिंग टेबल पर बैठा था, तभी चित्रांगदा किचन से पकवानों से भरी प्लेट लेकर आई और उसे सर्व करने लगी। अचानक, अबीराज ने चित्रांगदा को उसकी कमर से पकड़कर अपनी गोदी में खींच लिया और कहा, "मुझे खिला दो।"

    "क्या कर रहे हो?" चित्रांगदा ने कहा।

    "अरे, इतनी मासूम मत बनो।" अबीराज मजाक करते हुए बोला। वह उसके कमर को सहलाने लगा और साथ ही उसकी गर्दन को चुमने लगा।

    "कृपया, अब और नहीं सहन कर सकती।" चित्रांगदा शर्मिंदा होकर बोली।

    "मतलब हम नहीं कर सकते? तुम मेरी बीवी हो।" अबीराज मजाक करते हुए बोला।

    "तुम बहुत अच्छे से जानते हो, मैं क्या मतलब कह रही हूँ। वही जो तुम हर रात मेरे साथ करते हो।" चित्रांगदा शरमाते हुए बोली।

    "मैं तुम्हारे साथ क्या करता हूँ, प्यारी?" अबीराज बोला।

    इस समय, उसकी होंठ चित्रांगदा के पास थे, और चित्रांगदा की आँखों में आंसू थे, उसने विरोध करते हुए कहा, "तुम मुझ पर ज़बरदस्ती करते हो!"

    "सच कहूँ तो, मुझे इस ज़बरदस्ती में अजीब तरह का आनंद आता है, क्योंकि तुम्हें दर्द में देखना मुझे अजीब संतुष्टि देता है। क्या यह सच हो सकता है, मेरी पत्नी? और भूलना मत, तुम मेरी प्यारी हो, और तुम्हारा फर्ज है कि तुम अपने पति की खुशी का ध्यान रखो।" अबीराज ने कहा।

    अबीराज चित्रांगदा को परेशान कर रहा था, तभी रणविजय और अविनाश कमरे में प्रवेश करते हैं।

    चित्रांगदा ने रणविजय और अविनाश को देखा और उसके गाल लाल हो गए। वह जल्दी से अबीराज की गोदी से कूद पड़ी।

    "तुम्हें पता है क्या?" रणविजय ने अबीराज से कहा।

    "अगर तुम नहीं बताओगे तो कैसे पता चलेगा?" अबीराज ने जवाब दिया।

    "वह बदमाश अविनाश का पिता ने उसकी शादी मित्रा से तय कर दी है।" रणविजय बोला।

    "क्या? मित्रा? मित्रा मल्होत्रा? वही जो स्कूल में उसे हमेशा पीटती थी? वे हमेशा बिल्ली और कुत्ते की तरह लड़ते थे।" अबीराज ने हैरान होकर कहा।

    "मुझे नहीं पता क्या होगा, वह दुष्ट लड़की मेरी सारी ऊर्जा निकाल डालेगी।" अविनाश, जो उदास था, बोला।

    अबीराज, अविनाश और रणविजय बात कर रहे थे, तभी अबीराज ने चित्रांगदा को देखा और थोड़ी देर रुक कर कहा, "तुम यहाँ क्या कर रही हो? अंदर जाओ।"

    "नमस्ते भाभी जी।" अविनाश ने बीच में आकर कहा।

    "अभी उसका मूड खराब था, और अब पूरी तरह से अच्छा हो गया- क्या आदमी है!" रणविजय, अबीराज की तरफ देखते हुए बोला।

    "उससे दूर रहो; वह मेरी पत्नी है। अपनी गंदी हरकतें बंद करो, नहीं तो जैसे तुम्हारे पिता ने तुम्हारा इलाज किया था, वैसे ही मैं भी करूंगा।" अबीराज, अविनाश को देखकर बोला।

    "मैं उस दुष्ट लड़की से छुटकारा पाने का तरीका ढूंढूंगा; तुम लोग बस देखना।" अविनाश का चेहरा बिगड़ गया और वह बोला।

    "तुम्हारे तानाशाह पिता कभी तुम्हें ऐसा करने नहीं देंगे। वैसे, मित्रा कल पटना आ रही है; क्या तुमने नहीं सुना?" रणविजय बोला।

    "मैंने उस दुष्ट लड़की से कोई करार नहीं किया है।" अविनाश ने कहा।

    इस बीच, एक बहुत सुंदर लड़की अपने चारों ओर चीजें फेंक रही थी।

    "मैं उस ऑस्ट्रेलियाई बंदर से कभी शादी नहीं करूंगी!" मित्रा बार-बार कह रही थी। तभी उसके पिता कमरे में आए और पूछा,

    "क्या हुआ, मित्रा? इतनी जोर से क्यों चिल्ला रही हो?"

    "पापा, तुम भी बहुत भोले बनते हो! मुझे सब कुछ पता है। तुम लोगों ने सब जानकर ये तय किया है! मैं उस गंदे और बेकार अविनाश से शादी नहीं करना चाहती!" मित्रा गुस्से में बोली।

    मित्रा के पिता ने समझाया, "सुनो, सौदा पक्का हो गया है। बाद में तुम उसे तलाक दे सकती हो, बस अभी शादी कर लो। हम लोग कल पटना जा रहे हैं। तुम्हारी सगाई एक हफ्ते में होगी।"

    मित्रा गुस्से से भर गई और सोचने लगी कि वह अविनाश को मार डाले। इस बीच, उसके पिता कमरे से बाहर जा चुके थे।


    शाम को 6:30 बजे,

    रणविजय अमिशा को पढ़ा रहा था, और अमिशा लगातार ऊँघ रही थी। वह न्यूटन के गति के नियम समझा रहा था।

    "क्या तुमने जो मैंने पढ़ाया, वह समझ लिया?" रणविजय ने पूछा।

    "हां, समझ लिया।" अमिशा ने जवाब दिया।

    "तो फिर बताओ, मैंने क्या पढ़ाया, ताकि मैं जान सकूं कि तुमने समझा और हम आगे बढ़ सकें।" रणविजय ने कहा।

    अमिशा सोचने लगी, "कैसे जल्दी पढ़ाया था! ठीक है, मैं कोशिश करती हूं।"

    रणविजय ने देखा कि अमिशा कुछ सोच रही है, तो पूछा,

    "कहां खो गई हो? मैंने तुमसे कुछ पूछा था।"

    "तुम क्या पूछ रहे हो?" अमिशा उलझन में बोली।

    "जो मैंने तुम्हें पढ़ाया, वह बताओ।" रणविजय ने कहा।

    "तुमने बताया था कि आइंस्टीन ने न्यूटन के नियम लिखे थे।" अमिशा ने कहा।

    "क्या?!?" रणविजय ने चौंकते हुए कहा।

    "हां।" अमिशा बिना घबराए बोली।

    "तो आइजैक न्यूटन कौन थे?" रणविजय ने फिर पूछा।

    "यह तो आसान है; न्यूटन के छोटे भाई थे।" अमिशा ने आत्मविश्वास से जवाब दिया।

    "तुम 11वीं में कैसे पास हो गईं, जब तुम यह भी नहीं समझ पाई?" रणविजय सिर पकड़कर बोला।

    रणविजय ने अमिशा से पूछा, "अगर शरीर की गति धीमी हो, तो क्या होता है?"

    "जब कार या स्कूटर का ब्रेक डाउन हो जाता है, तो सही है?" अमिशा ने जवाब दिया।

    "अब तुमसे क्या उम्मीद रखूं! कल तुम्हारा टेस्ट है, और तुम्हारी पढ़ाई बहुत कम है!" रणविजय गुस्से में बोला।

    "अगर यही चलता रहा, तो तुम फेल हो जाओगी और मैं तुम्हारी ट्यूशन नहीं करूंगा। समझी?" वह नाराज होते हुए बोला।

    "आज तुम आराम नहीं करोगी, जब तक तुम सब कुछ नहीं याद कर लेती। जो भी मैंने पढ़ाया, कल उसका टेस्ट होगा। तैयार रहना, या मेरे गुस्से के लिए तैयार हो जाओ।" रणविजय ने कहा।

    "ठीक है," अमिशा ने कहा, और पढ़ाई करने बैठ गई।

    राजनविजय उसे ध्यान से देख रहा था। रात के 10 बजे तक अमिशा पढ़ाई करती रही।

    "समय खत्म हुआ, अब बताओ, तुम क्या समझी?" रणविजय ने कहा।

    इस बार अमिशा ने सब सही-सही बताया।

    "अच्छा है, लेकिन कल के टेस्ट के लिए अच्छे से पढ़ाई करना। नहीं तो सजा के लिए तैयार रहना। मैं तुम्हें बहुत सारे होमवर्क दूंगा, ध्यान रखना कि कोई गलती न हो।" रणविजय ने कहा।

    "समझ गई।" अमिशा ने कहा।


    अभिराज सुबह उठकर सीधे रसोई में गया, क्योंकि उसे पता था कि अगर चित्रांगदा कमरे में नहीं है, तो वह रसोई में जरूर होगी।

    वह चित्रांगदा के पास आया और उसके कमर के चारों ओर हाथ डालते हुए कहा, "क्या कर रही हो, मेरी प्यारी बीवी?"

    चित्रांगदा अचानक चौंकी और बोली, "तुम यहां क्या कर रहे हो? मुझे छोड़ दो, मुझे खाना बनाना है।"

    "ओह, मेरी प्यारी बीवी, खाना बनाने दो, मैं तुम्हें नहीं रोक रहा।" अभिराज मुस्कुराते हुए बोला।

    "अगर तुम मुझे पकड़े रहोगे, तो मुश्किल हो जाएगी।" चित्रांगदा बोली।

    फिर अभिराज ने उसे घुमा दिया, रसोई का सामान नीचे गिरा दिया और उसे रसोई के स्लैब पर बिठा लिया। उसने उसके गले को चूमा। फिर धीरे-धीरे उसकी ब्लाउज़ खोलते हुए उसे चूमा।

    "डॉक्टर ने कहा था कि तुम मुझसे दूर रहो।" चित्रांगदा बोली।

    "क्या समझती हो, मैं सिर्फ तुम्हें चूम रहा हूं। अगर मैं कुछ और करूंगा तो तुम्हारे लिए बुरा होगा। मैं तुम्हें ऐसे नहीं मरने दूंगा, समझी?" अभिराज ने जवाब दिया।

    "अब कपड़े पहन लो।" फिर अभिराज बोला।

    "क्या?" चित्रांगदा हैरान होकर बोली।

    "क्यों? क्या तुम मेरे सामने ऐसी रहना चाहती हो? कोई चिंता नहीं मुझे, लेकिन तुम्हें परेशानी होगी। मैं दिन-रात खुद को कंट्रोल कर रहा हूं।" अभिराज ने कहा।

    "ठीक है, ठीक है, मैं कपड़े पहन लूंगी।" चित्रांगदा बोली।

    अभिराज बाहर गया और शोर मचाया, "रसोई अच्छे से साफ कर देना, नहीं तो तुम्हारा नाश्ता कच्चा खा जाऊँगा, समझी?"

    "मुझे नहीं पता क्या हो रहा है, मुझे नहीं पता कितने दिन और ऐसा चलने वाला है। मुझे जल्द ही कोई रास्ता खोजना होगा, नहीं तो वह मुझे एक दिन मार डालेगा।" चित्रांगदा बुदबुदाई।


    पटना एयरपोर्ट

    मित्रा अपने पिता के साथ पटना एयरपोर्ट पर पहुंची, और अविनाश के माता-पिता उन्हें लेने आए।

    मित्रा ने उन्हें खुश होकर नमस्ते किया।

    "अरे, तुम पहले से भी ज्यादा खूबसूरत हो गई हो!" नलिनी ने कहा।

    मित्रा ने धन्यवाद कहा।

    "मित्रा, आज अविनाश से मिलो!" मित्रा के पिता ने कहा।

    "पापा, आज रविवार है, और अभिराज, अविनाश और रणविजय ऑफिस नहीं जा रहे हैं।" मित्रा बोली।

    "कोई बात नहीं, तुम लोग कहीं और मिल सकते हो; वैसे भी तुम चारों काफी समय बाद मिल रहे हो।" अविनाश के पिता ने कहा।

    "ठीक है," मित्रा बोली, और वे सभी घर की ओर चल पड़े।

    कार में अविनाश के पिता ने कहा, "तुम हमारे घर आ सकती हो।"

    "नहीं।" मित्रा तुरंत बोली।

    जब उसके पिता ने नाराजगी से देखा, तो उसने कहा, "मैं मतलब यह नहीं है कि तुमलोगों को असुविधा हो, बस इतना कह रही हूं।"

    "बिलकुल नहीं, हम कोई असुविधा नहीं महसूस कर रहे। तुम तो हमारी बहू बनने जा रही हो!" नलिनी बोली।

    मित्रा चुप हो गई।

    वे सब अविनाश के घर पहुंचे, और सब अंदर चले गए, सिवाय मित्रा के जो एक जरूरी कॉल लेने के लिए रुक गई।

    वह बगीचे में गई और कॉल करने लगी।

    अविनाश बगीचे में टहलते हुए मित्रा को देखता है। उसकी नजरों में एक चमक आ जाती है।

    "देखो, आ गई वह छोटी चुड़ैल!" अविनाश ने मजाक करते हुए कहा।

    "देखो देखो, ऑस्ट्रेलियाई बंदर के गाल फूले हुए हैं!" मित्रा ने भी हंसते हुए कहा।

    तभी अमिशा गेंद लेकर आकर अविनाश के चेहरे पर मार देती है।

    "अब देखो, उसका चेहरा तो इतना फूला हुआ है!" मित्रा हंसते हुए कहती है।

    अमिशा दौड़ते हुए मित्रा से मिलती है और कहती है, "दीदी, तुम कब आई?"

    "अभी आई हूं, छोटी!" मित्रा कहती है।

    वे दोनों अंदर जा रहे होते हैं, जबकि मित्रा बार-बार अविनाश की ओर देखती है।

    अविनाश ने ठान लिया कि वह अपने दोस्त को एक सबक सिखाएगा।

    मित्रा अपने कमरे में रात की दिनचर्या कर रही थी जब उसने एक साया देखा। शुरुआत में उसने उसे नजरअंदाज किया, लेकिन जब वह साया तीन-चार बार दिखा, तो उसे डर लगने लगा।

    कुछ समय बाद कमरे की लाइटें झपकने लगीं और फिर बंद हो गईं, जिससे वह घबराकर और भी डर गई।

  • 9. Merciless abhiraj

    Words: 2409

    Estimated Reading Time: 15 min

    मित्रा का कमरा
    फिलहाल, मित्रा के कमरे में कोई रोशनी नहीं थी, और अंदर पूरी तरह अंधेरा था। अचानक, मित्रा को कदमों की आवाज़ सुनाई दी, कोई आदमी उसके पास आ रहा था। मित्रा घबराकर पीछे कदम रखने लगी। ठीक तभी, वह आदमी फिसलकर सीधे मित्रा के ऊपर गिर पड़ा।


    सिर्फ कुछ सेकंड्स में, मित्रा और वह आदमी बिस्तर पर गिर पड़े। उस पल कमरे की बत्तियाँ जल गईं, और मित्रा को आदमी का चेहरा साफ दिखाई दिया। जैसे ही उसने उसका चेहरा देखा, उसकी ग़ुस्से की माचिस जल गई, और उसने ग़ुस्से में कहा,


    "तू ऑस्ट्रेलियन बंदर! इस वक्त देर रात मेरे कमरे में पुलिस का डर नहीं लगता?"
    अविनाश ने शरारती मुस्कान के साथ जवाब दिया, "ओ मेरी प्यारी चुड़ैल, इस वक्त बस तुम और मैं ही इस कमरे में हैं। कोई और नहीं है। सोचो, अगर मैं तुम्हारे साथ कुछ शरारत करूँ तो?"
    मित्रा चिल्लाई,


    "तू हरामी! तू बच के नहीं जाएगा, रुक!" फिर उसने हाथ उठाया, अविनाश को मारने के लिए, लेकिन उसने तुरंत उसका हाथ पकड़ लिया।

    अविनाश ने मित्रा के हाथों को अपनी पकड़ में लिया और कहा, "ऐसी सोच मत रखना, मेरी प्यारी चुड़ैल। तुम आज सुबह मुझे तंग कर रही थी, याद है? मुझे मानना पड़ेगा, तुम पहले behen ji जैसी लगती थी, लेकिन अब तुम सच में एक खूबसूरत लड़की बन गई हो।"
    ग़ुस्से में, मित्रा ने जवाब दिया,

    "मैं कैसी दिखती हूं, ये तुझे क्या फर्क पड़ता है?" फिर उसने अविनाश को थप्पड़ मारा, और उसने किचकिचाते हुए कहा, "आह!"

    मित्रा ने फिर बिस्तर से एक तकिया उठाया और अविनाश को मारने लगी। अविनाश हंसी में बोला,

    "आह, अब चुड़ैल ने अपनी असली रूप दिखा दिया।"

    तभी दरवाजे पर दस्तक हुई, और मित्रा घबराते हुए अविनाश से कहा, "जल्दी से चले जाओ!" अविनाश ने जवाब दिया, "मैं क्यों जाऊं? यह मेरा घर है; तुम तो यहाँ आकर आराम से बैठी हो।"


    मित्रा घबराते हुए बोली, "कृपया, बस चले जाओ या कहीं चुप रहो, नहीं तो परेशानी हो जाएगी।"
    बाहर नलिनी दरवाजे पर खड़ी थी, वह मित्रा को खाने के लिए बुलाने आई थी। "मित्रा, बेटा, दरवाजा खोल और आकर खा ले,

    " उसने कहा। मित्रा अंदर से बोली, "ठीक है, आंटी, मैं आ रही हूं," तो नलिनी ने कहा,


    "नहीं, मैं अंदर आकर तुझे ले जाऊँगी। तुमने सुबह से कुछ नहीं खाया। दरवाजा खोल और बाहर आकर खा ले।"
    मजबूरी में, मित्रा ने दरवाजा खोला और नलिनी को कमरे में आने दिया।
    नलिनी ने पूछा, "क्या तुम व्यस्त थी?

    " मित्रा ने जवाब दिया, "नहीं आंटी, मैं बस थोड़ी तबियत ठीक नहीं महसूस कर रही थी।"


    चिंतित नलिनी बोली, "तुम यहीं रहो, बेटा, मैं तुम्हारे लिए दवा लेकर आती हूं।" इसके बाद, वह कमरे से बाहर चली गई।



    मित्रा ने जल्दी से कमरे का जायजा लिया, लेकिन अविनाश को कहीं नहीं देखा; वह खिड़की से बाहर निकल चुका था। मित्रा ने मन ही मन कहा,


    "क्या अजीब आदमी है! मुझे चुड़ैल कहता है, फिर भी उसकी सारी हरकतें चुड़ैल जैसी हैं। पता नहीं कहां चला गया। खैर, मुझे क्या फर्क पड़ता है?"

    अभिराज का कमरा

    इस समय, चित्रांगा उसे खाने के लिए तैयार कर रही थी। तभी, उसने विला के मेन गेट पर गार्ड को आते देखा। वह मेन गेट बंद कर रहा था और उसके पास चाबियाँ थीं। चित्रांगा की आँखों में चमक आ गई, और उसने गार्ड का पीछा करना शुरू किया। वह सर्वेंट क्वार्टर की तरफ बढ़ा और चाबियाँ एक दराज में रख दी। चित्रांगा ने जल्दी से समझ लिया कि चाबियाँ कहाँ हैं और सर्वेंट क्वार्टर से बाहर निकल आई।

    उसने सोचा, "अगर हम अब चाबियाँ ले लेंगे, तो सबको पता चल जाएगा। हमें तब तक इंतजार करना चाहिए जब तक सभी सो न जाएं।" अचानक, वह किसी से टकरा गई। ऊपर देखी तो अभिराज खड़ा था। "यहाँ क्या कर रही हो,


    उसने पूछा। अभिराज मुस्कराते हुए बोला, "मैं यहाँ क्यों नहीं हो सकता? यह मेरा विला है, मैं कहीं भी जा सकता हूँ। लेकिन बताओ, तुम यहाँ क्या कर रही हो?"
    चित्रांगा घबराते हुए बोली, "मैं सर्वेंट क्वार्टर की सफाई कर रही थी।"

    अभिराज बोला, "कोई सफाई की जरूरत नहीं है। और क्या तुमने अपनी दवाई ली?" उसकी आवाज में गुस्सा और चिंता थी।

    चित्रांगा बोली, "नहीं, मुझे पहले बर्तन धोने हैं और रसोई ठीक करनी है, फिर खाऊँगी।"


    बिना कोई समय गंवाए, अभिराज ने उसका कलाई पकड़ लिया और उसे विला के अंदर खींच लिया। फिर उसे डाइनिंग टेबल पर बिठा दिया और उसे खाना खिलाने लगा।
    चित्रांगा ने उसकी आँखों में देख कर पूछा, "तुम मेरी इतनी परवाह क्यों करते हो? क्या तुम नहीं चाहते कि मैं मर जाऊं? बस मुझे मरने दो, प्लीज़।"

    अभिराज ने जवाब दिया, "तुम क्यों चिंता कर रही हो? जब तक मैं तुम्हें अपनी खुशी से तंग नहीं कर लूँ, तब तक तुम आराम से मर नहीं सकती, समझी?" फिर उसने प्लेट को एक तरफ रखा, दवाई ली और उसे चित्रांगा को देने की कोशिश की।

    चित्रांगा ने जिद्दी बच्चे की तरह कहा, "मुझे ये कड़वी दवाई नहीं चाहिए!"

    अभिराज बोला, "तुम मुझे गुस्सा क्यों दिला रही हो, बीवी? बस चुपचाप लो। तुम्हें पता है जब तुम मेरा गुस्सा उकसाती हो तो क्या होता है।" जैसे ही चित्रांगा जाने की कोशिश करने लगी, अभिराज ने दवाई मुँह में रख ली,


    चित्रांगदा को उसकी कलाई से खींचकर, अभिराज ने उसके होंठों पर किस किया और उसी दौरान दवाई भी उसकी मुंह में डाल दी। चित्रांगदा शॉक में थी, और कुछ देर बाद, अभिराज ने कहा,


    "अब दवाई कड़वी नहीं लगेगी, है ना, मेरी बीवी?"


    चित्रांगदा का चेहरा लाल हो गया और वह जल्दी से बाहर चली गई। अभिराज उसे अपनी शरारतों से चिढ़ा रहा था। फिर उसने कहा कि अब दवाई कड़वी नहीं होगी। चित्रांगदा शर्माते हुए बोली,


    "तुम बहुत शरारती हो।" अभिराज ने उसके गालों को सहलाते हुए कहा,


    "तुम सही हो, मैं बहुत बुरा और शरारती हूँ, मुझे तुम्हें असहज करना अच्छा लगता है।"



    फिर उसने उसके गालों को कसकर पकड़ा और कहा कि अब से उसे मुझसे कोई रहम की उम्मीद नहीं करनी चाहिए। वह कह रहा था कि अब वह उसे सोने नहीं देगा। चित्रांगदा बोली,


    "अभी बहुत काम बाकी है, अगर तुम चले गए तो गुस्से में आ जाओगे।" फिर अभिराज उसके पास बढ़ने लगा, और चित्रांगदा दीवार से टकरा गई। अभिराज ने उसके बाल कानों के पीछे किए और कहा,


    "मुझे तुम्हारा डर चाहिए।" चित्रांगदा जल्दी से उसे छोड़कर रसोई में बर्तन धोने चली गई।

    अभिराज अपने कमरे में गया। चित्रांगदा सोचने लगी कि उसे जल्दी से विला की चाबियाँ लेनी चाहिए, ताकि वह अभिराज की कैद से बाहर निकल सके। उसने जल्दी से बर्तन धोए और रसोई साफ की। अब रात के 11 बज चुके थे,


    सभी नौकर अपने कमरे में चले गए थे। चित्रांगदा जल्दी से अभिराज के कमरे से पैसे लेकर, फिर नौकरों के क्वार्टर से विला की चाबियाँ ले ली। वह डरी हुई थी क्योंकि अगर अभिराज ने उसे पकड़ लिया, तो उसका हाल बहुत बुरा होगा। उसने जो कुछ भी किया, इकट्ठा किया और अब उसे विला से बाहर निकलना था। वह बगीचे वाले का नाम पुकारते हुए गेट खोलकर रेलवे स्टेशन की ओर भागी। ट्रेन पटना से हाजीपुर जा रही थी। वह जल्दी से स्लीपर क्लास में बैठी और अपने भाई को फोन करने लगी। लेकिन जैसे ही विवान ने उसका नंबर देखा, उसे गुस्सा आ गया और उसने फोन बंद कर दिया।

    अभिराज के विला में, अभिराज गहरी नींद में था। अचानक उसकी गला सूख गया, और वह चिल्लाने लगा, "चित्रांगदा, मुझे पानी दो!


    " जब कोई जवाब नहीं मिला, तो वह उठकर हर जगह ढूंढने लगा। उसकी आँखें गुस्से से चौड़ी हो गईं क्योंकि चित्रांगदा कहीं नहीं थी। उसने रसोई और छत तक देखा, लेकिन वह नहीं थी। फिर उसने देखा कि मुख्य दरवाजा खुला था। अभिराज ने समझ लिया कि चित्रांगदा विला छोड़ चुकी है। गुस्से में, उसने चीजें तोड़नी शुरू कर दीं और फिर जल्दी से बाहर निकला।

    चित्रांगदा ट्रेन में थी, और वह बगीचे वाले से आशीर्वाद मांग रही थी। ट्रेन चल पड़ी थी, और चित्रांगदा खुश थी, सोच रही थी, "बगीचे वाले, तुमने मुझे नरक से बचाया। ये सिर्फ चार घंटे की यात्रा है, और अब 2 बजे हैं।"

    अभिराज चित्रांगदा को पागल की तरह ढूंढ रहा था। वह गुस्से में था, और उसकी कार तेज रफ्तार से चल रही थी। वह गुस्से में कह रहा था, "चित्रांगदा अभिराज सिंह राजपूत, एक बार मुझे तुम्हें ढूंढ लेने दो, फिर तुम देखोगी कि मैं तुम्हारे साथ क्या करता हूँ।


    " फिर उसने अगस्त्य को फोन किया। अगस्त्य महिरा को तंग कर रहा था, लेकिन उसने फोन उठाया और कहा, "बॉस, मैं आपकी मदद कैसे कर सकता हूँ?"


    अभिराज ने कहा, "जल्दी से चित्रांगदा को ढूंढो।" इस बीच, महिरा अभिराज से बचने की कोशिश कर रही थी। अगस्त्य ने कहा, "इतना खुश मत हो, तुम आज सुरक्षित हो, लेकिन तुम बार-बार बच नहीं सकोगी।" फिर वह काम में लग गया।

    चित्रांगदा अब हाजीपुर जंक्शन पर उतरने वाली थी, और 30 मिनट में वह अपने घर पहुंचने वाली थी। जैसे ही 30 मिनट खत्म हुए, वह अब 4 बजे थी। चित्रांगदा जल्दी से ट्रेन से उतरी और अपने घर की ओर बढ़ी। उसने दरवाजा खटखटाया, विवान ने दरवाजा खोला, और गुस्से में कहा,


    "तुम यहाँ क्या कर रही हो? क्या तुम्हारे पति ने तुम्हें बाहर निकाल दिया? अगर तुम यहाँ रहना चाहती हो, तो भूल जाओ।" गौरी ने कहा, "तुम बहुत समय बाद घर आई हो, उसने गलती की, माफ कर दो।" विवान ने कहा, "यह लड़की बड़ी हो गई है, उसने अब यह फर्क भूल दिया। चित्रांगदा, बाहर निकलो!


    " गौरी कुछ बोलने लगी, लेकिन विवान ने गुस्से में कहा, "अंदर जाओ और चुप हो जाओ।" फिर उसने दरवाजा बंद कर दिया।

    चित्रांगदा के पास अब कोई पैसा नहीं था और उसने कुछ नहीं खाया था। वह सड़क पर चली जा रही थी, और खुद को मृत जैसा महसूस कर रही थी। अचानक एक कार उसके सामने आकर रुकी। चित्रांगदा ने देखा कि वह अभिराज था। अभिराज ने उसे खींचकर कार में डाला और कहा, "तुमने हिम्मत दिखा दी है, अब देखो मैं तुम्हारे साथ क्या करता हूँ।"

    चित्रांगदा रोने लगी और अभिराज से धक्का देकर कार से बाहर निकलने की कोशिश की, लेकिन अभिराज ने उसका गला पकड़कर दरवाजा बंद कर दिया। अब वे पटना वापस जा रहे थे।

    अभिराज ने उसे गर्दन से पकड़ा और जोर से दरवाजा बंद कर दिया। जब वे दोनों अपनी लंबी यात्रा के बाद आखिरकार पटना लौटे, तो अभिराज ने द्वेष की भावना से चित्रांगदा को अपने कमरे में खींच लिया और बिस्तर पर पटक दिया।


    उसने उसे घूरते हुए अपनी शर्ट के बटन खोले और कहा, "तुमने मुझे नहीं बताया कि तुम अपने आशिक से मिल रही हो, है न?


    " चित्रांगदा चुप रही, जिससे अभिराज और भी भड़क गया। गुस्से में उसने उसके गालों पर पांच-छह जोरदार थप्पड़ जड़ दिए। बिना किसी हिचकिचाहट के अभिराज ने चित्रांगदा की साड़ी को उसके शरीर से अलग कर दिया और उसके ऊपर चढ़ते हुए कहा,

    "मैं तुम्हारी टांगों के बीच से बहुत गर्मी निकलती हुई देख सकता हूँ। मैं इसे जल्दी ही बुझा दूँगा।


    " वह कुछ देर के लिए रुका और सोचने लगा, "अगर तुम्हारे पैरों के बीच में वाकई इतनी गर्मी थी, तो तुम्हें मुझे बताना चाहिए था, और मैं तुम्हारे लिए उसे बुझा देता।

    " अभिराज के शब्दों को दुस्साहस और अनादर से भरे हुए कहने पर चित्रांगदा के हाव-भाव दृढ़ रहे। क्रोधित होकर चित्रांगदा ने अभिराज को जोर से धक्का दिया और चिल्लाते हुए कहा,

    "मेरे अंदर कोई आग नहीं है, लेकिन यह तुम्हारे अंदर जल रही है, जिसे तुम मेरे साथ बार-बार बुझाते हो।" उसने आगे कहा, "तुम मुझे कह रहे हो कि मैं एक वेश्या हूँ, तो मैं तुमसे विनती करती हूँ कि आज मेरे साथ एक वेश्या की तरह व्यवहार करो। मैं भी देखना चाहती हूँ कि तुम मुझसे कितनी नफरत करते हो"।

    "मैं तुमसे कुछ नहीं माँग रही हूँ, लेकिन मैं तुमसे पूछ रही हूँ कि तुम मुझे रात का कितना हिस्सा देने को तैयार हो?" उसके अप्रत्याशित रूप से स्पष्ट शब्दों से अभिराज की आँखें चौड़ी हो गईं। चित्रांगदा ने आगे कहा,


    "चिंता मत करो, मैं तुमसे किसी भी पूर्व भुगतान के लिए शुल्क नहीं लूँगी। मैं तुमसे केवल 1,000,000 रुपये लूँगी, और बस।" इसके साथ ही, चित्रांगदा धीरे-धीरे अपने इनरवियर को उतारना शुरू कर देती है, उसके बोलने के दौरान उसकी इनर स्कर्ट और ब्लाउज उसके शरीर से फिसल जाते हैं। वह अभी अपने इनरवियर में है। चित्रांगदा अभिराज के पास जाती है, उसके हाथ उसकी ब्रा पर मजबूती से दबे होते हैं। अभिराज उसे गुस्से से देखता है। फिर चित्रांगदा अपना हाथ अभिराज की छाती की ओर ले जाती है, जो उसकी पैंट की ज़िप के पास है, और अपनी नम आँखों और एक फीकी मुस्कान के साथ कहती है "अगर तुम blowj*b चाहती हो, तो कृपया बिना किसी झिझक के मुझे बता दो, क्योंकि तुम पहले ही इसके लिए भुगतान कर चुकी हो।" अभिराज का गुस्सा चरम पर होता है और वह chitraa से कहता है कि

    "आज तुमने सच में दिखा दिया कि तुम एक बदचलन औरत हो जो पैसे के लिए कुछ भी कर सकती हो"
    तुमने अपना असली रूप दिखा दिया, एक सेक्स वर्कर जो पैसे के लिए कुछ भी कर सकती है।

    चिंता मत करो, मैं आज अच्छा काम करूँगा। chitra मुस्कुराते हुए बोलती है और फिर बिस्तर पर लेट जाती है, अपनी टाँगें फैला लेती है। दूसरी तरफ, अभिराज उसके हाथों को उसकी ब्रा के पीछे बाँधता है और उसके स्तनों को उत्तेजित करना शुरू कर देता है। इस बार,
    चैरंगदा रो नहीं रही है; वह खुद का आनंद ले रही है।

    अभिराज गुस्से में है कि वह रो नहीं रही है, बल्कि दर्द का आनंद ले रही है। वह उसके अंडरवियर को उतारता है और उसकी vagina में चार उंगलियाँ डालता है, बहुत जोर से अंदर-बाहर करता है। chitra भी कराह रही है। बस उसके
    दर्द को छिपाने के लिए
    एक घंटे तक, अभिराज ने अपनी उंगलियों से chitra को सताया, और उस
    घंटे में, चैरंगदा ने कई बार c*m किया। वह अब पसीने से भीग चुकी थी। अभिराज अब और भी क्रोधित हो गया था, और उसने अपनी कठोरता को chitra की कोमलता में डाल दिया, संभोग में संलग्न हो गया। chitra को बहुत दर्द हो रहा था, लेकिन वह चुप रही, क्योंकि वह जानती थी कि वह अभिराज को रोक नहीं सकती। उग्र स्वर में, अभिराज ने बार-बार chitra से कहा कि "मैं भी देखता हूँ कि तुम कब नहीं टूटती हो"। हालाँकि, chitra ने रोना बंद करने और अभिराज से दया की भीख न माँगने का मन बना लिया था। अभिराज निराश हो गया और चैरंगदा से दूर चला गया, कमरे से बाहर निकल गया

  • 10. new entry

    Words: 3327

    Estimated Reading Time: 20 min

    चित्रांगदा ठंडी ज़मीन पर सिकुड़कर पड़ी थी। उसका नाज़ुक शरीर हल्के-हल्के कांप रहा था। वह चुपचाप रो रही थी। उसकी सांसें तेज़ चल रही थीं, और उसका सीना दर्द से भारी हो गया था।

    कमरे की हल्की रोशनी में परछाइयाँ पड़ रही थीं, लेकिन सबसे गहरी परछाईं उसके दिल में थी—खालीपन की।

    आँसू उसके गालों से बहकर ज़मीन पर गिर रहे थे, लेकिन उसे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ रहा था। अब कुछ भी बचा नहीं था। अभिराज ने उसकी आत्मा को टुकड़ों में तोड़ दिया था। उसके हर कठोर शब्द, हर बेरहम छूने, और उसकी आँखों में भरे नफ़रत ने उसके दिल में गहरे ज़ख़्म दे दिए थे।

    दरवाज़े के बाहर, अभिराज चुपचाप खड़ा था। उसकी मुठ्ठियाँ भींची हुई थीं, जबड़े कसकर बंद थे। वह उसे सुन सकता था—उसका हर सिसकना, हर दर्दभरी साँस। उसकी हर चीख़ उसके सीने में जैसे एक कुंद चाकू की तरह चुभ रही थी।

    पछतावा।

    उसका हाथ दरवाज़े के हैंडल के पास गया। उसका एक हिस्सा—शायद आख़िरी हिस्सा जो अब भी इंसान था—कमरे के अंदर जाना चाहता था। उसे देखना चाहता था। उसके आँसू पोंछना चाहता था।

    लेकिन उसका अहंकार उसे रोक रहा था। नहीं। उसने खुद को यक़ीन दिला लिया था कि चितरांगदा इसी लायक थी। यही उसका इंसाफ़ था।

    फिर भी, ऐसा क्यों लग रहा था कि यह ग़लत है?

    अंदर उसकी सिसकियाँ धीरे-धीरे कम हो गईं। फिर वह हल्की-हल्की हिचकियों में बदल गईं। कुछ ही देर बाद, कमरा पूरी तरह से शांत हो गया।

    वह रोते-रोते सो गई थी।

    अभिराज ने एक लंबी साँस ली, जिसे उसने जाने-अनजाने रोका हुआ था। वह थके हुए से दरवाज़े पर सिर टिका कर खड़ा हो गया। उसने अपनी आँखें बंद कर लीं।

    "काश, वह आकांक्षा के लिए ज़िम्मेदार न होती..."

    उसके दिमाग में यह बात बार-बार गूंज रही थी, जैसे कोई श्राप हो।

    आख़िरी बार दरवाज़े की ओर देखते हुए, वह वापस लौट गया—उसी अंधेरी तन्हाई में, जिसे उसने खुद के लिए बनाया था।


    अभिराज अपने ऑफिस में दाखिल हुआ। पिछली रात का बोझ अब भी उसके सीने पर पड़ा था, जैसे कोई भारी पत्थर। उसकी मुठ्ठियाँ कस गईं। वह चितरांगदा के आँसुओं से भरे चेहरे को याद करने से खुद को रोक नहीं पा रहा था। उसकी सिसकियाँ अब भी उसके कानों में गूंज रही थीं। हर एक रोना, हर टूटी हुई साँस—ये सब उसी के दिए हुए दर्द थे।

    उसे यह एहसास पसंद नहीं था। यह पछतावा। यह अंदर तक चुभ रहा था, लेकिन उसका अहम उसे इसे स्वीकार नहीं करने दे रहा था। इसलिए, उसने वही किया जो वह हमेशा करता था—अपने दिल के दर्द को अंदर दबाया और ऑफिस में ऐसे घुसा, जैसे कुछ हुआ ही न हो।

    जैसे ही वह अंदर गया, उसकी टीम पहले से मौजूद थी—अगस्त्य, उसका सीरियस रहने वाला सेक्रेटरी, अविनाश, जो हमेशा किसी न किसी बात की शिकायत करता था, और रणविजय, जिसे बस मज़े लेने की आदत थी।

    "सर," अगस्त्य ने कहा, उसकी आवाज़ कुछ ज्यादा ही गंभीर थी। "डॉक्टर का कॉल आया था... आकांक्षा के बारे में।"

    अभिराज का शरीर तन गया। उसकी उंगलियाँ टेबल के किनारे कस गईं।
    "क्या कहा?"

    अगस्त्य रुका, फिर गहरी साँस ली। "उसकी हालत अभी स्थिर है, लेकिन पूरी तरह ठीक होने की संभावना कम है। उसे ठीक होने में कई महीने या साल लग सकते हैं... और तब भी, ये पक्का नहीं कि वह पहले जैसी होगी।"

    अभिराज के सीने में कुछ कस सा गया। उसने नाक से गहरी साँस छोड़ी, खुद को शांत रखने की कोशिश की।

    "मतलब... वह शायद कभी ठीक नहीं होगी?"

    अगस्त्य ने नज़रें फेर लीं। उसकी चुप्पी ही जवाब थी।

    अभिराज ने कुछ देर के लिए आँखें बंद कर लीं। उसके दिल में हलचल मच गई थी। यह उसकी गलती थी। उसे आकांक्षा को बचाना चाहिए था। अगर वह थोड़ा सतर्क होता, अगर वह उसके साथ होता, तो आकांक्षा इस हालत में नहीं होती।

    और फिर भी... उसने अपना गुस्सा चितरांगदा पर निकाल दिया, जिस मासूम का इसमें कोई हाथ ही नहीं था।

    तभी माहौल को चीरती एक चिढ़ी हुई आवाज़ गूंजी।

    "ओह, देखो, डायन आ गई," अविनाश बुदबुदाया।

    अभिराज ने आँखें खोलीं। उसने देखा कि मित्रा ऑफिस में दाखिल हो रही थी। उसने अविनाश की बात सुन ली थी, उसकी आँखें नाराज़ी से सिकुड़ गईं।

    "मुझे क्या बुलाया तुमने?" मित्रा ने हाथ बाँधकर पूछा।

    अविनाश कुर्सी पर पीछे झुका और मुस्कुराया। "ओह, तो तुम्हारे कान काम करते हैं? मुझे लगा था कि तुम इतनी ऊँचाई पर उड़ती हो कि तुम्हें नीचे की आवाज़ सुनाई ही नहीं देती।"

    मित्रा की आँखें चमकीं। "और मुझे लगा था कि तुम्हारे दिमाग़ का साइज़ मूँगफली से बड़ा होगा, लेकिन मैं गलत थी—क्योंकि मूँगफली में भी तुमसे ज़्यादा अक्ल होती है।"

    रणविजय ने सीटी बजाई। "ओह हो, फिर से शुरू हो गया! प्यार की हवा चल रही है!"

    "प्यार?!" मित्रा और अविनाश दोनों एक साथ चिल्लाए, उनके चेहरे गुस्से से लाल थे।

    अभिराज ने माथा दबाया। "बस करो, तुम सब।"

    मित्रा ने अविनाश को एक आखिरी घूरा और बाल झटककर बैठ गई। अविनाश ने बुदबुदाया, "पागल औरत।"

    तभी एक ज़ोर की आवाज़ आई—"ठक!"

    सबने देखा कि एक छोटी सी बॉल ज़मीन पर लुढ़क रही थी।

    "अमीशा!" अविनाश दहाड़ा।

    दरवाज़े पर एक शरारती मुस्कान के साथ अमीशा खड़ी थी। "उफ़! हाथ फिसल गया।"

    रणविजय हँस पड़ा। "तेरा हाथ हमेशा तब ही क्यों फिसलता है जब निशाना अविनाश होता है?"

    अविनाश ने झुंझलाकर मित्रा की तरफ देखा। "तुम इसे ऑफिस क्यों लाती हो?"

    मित्रा ने आँखें घुमाईं। "क्योंकि यह तुमसे ज़्यादा समझदार है।"

    अभिराज ने लंबी साँस ली। यह ऑफिस पागलखाना बन गया था।

    लेकिन फिर भी, इस सारी उथल-पुथल के बीच, एक चीज़ उसकी आत्मा को चैन नहीं लेने दे रही थी।

    चितरांगदा।

    उसका दिमाग़ बार-बार उसकी तरफ जा रहा था। वह रात याद आ रही थी। उसका ज़मीन पर सिकुड़कर पड़े रहना। उसकी सिसकियाँ।

    वह तब कमरे में नहीं गया था, क्योंकि उसका अहम बीच में आ गया था। लेकिन अब पछतावा उसे जीने नहीं दे रहा था।

    ऑफिस से निकलते ही, उसके अंदर बेचैनी बढ़ने लगी। गाड़ी चलाते हुए उसकी उंगलियाँ स्टीयरिंग पर तेज़ी से थिरक रही थीं।

    उसे नहीं मानना था, लेकिन सच्चाई यही थी—उसकी पूरी सोच अब सिर्फ़ चितरांगदा के इर्द-गिर्द घूम रही थी।


    जैसे ही मैं विला में दाखिल हुआ, चुप्पी बहुत भारी लग रही थी।

    मेरी आँखें सहज ही उसे ढूँढने लगीं, लिविंग रूम, हॉलवे—कुछ नहीं। एक अजीब सी बेचैनी मेरे सीने में समा गई।

    "वो कहाँ है?" मैंने अपने आप से बुदबुदाया।

    वह हमेशा मेरे सामने कहीं न कहीं होती थी, चाहे मुझे अच्छा लगे या न लगे। कभी किचन में, कभी टेबल लगाती, या फिर कमरे में किसी कोने में बेतहाशा बैठी होती, जैसे कोई हार चुकी गुड़िया। लेकिन आज वह कहीं नहीं थी।

    मैं किचन की तरफ़ बढ़ा, उम्मीद करते हुए कि शायद वह वहाँ खाना बना रही हो। लेकिन जैसे ही मैं किचन में दाखिल हुआ, तैयार खाने की खुशबू ने मुझे घेर लिया।

    बर्तन साफ़-सुथरे ढंग से काउंटर पर रखे हुए थे। उन्हें देखकर कुछ अजीब सा महसूस हुआ।

    उसने मेरे लिए खाना बनाया था।

    मेरे द्वारा किए गए सभी कृत्यों के बावजूद।

    मेरे जबड़े कस गए। मुझे नहीं पता था कि मैं क्या महसूस कर रहा था, लेकिन कुछ ऐसा था जिसे मैं नाम नहीं देना चाहता था।

    मैंने मुड़कर किचन छोड़ दिया और मेरी कदमों में जल्दबाज़ी आ गई।

    "चित्रांगदा?"

    कोई जवाब नहीं।

    मैंने डाइनिंग एरिया चेक किया। कुछ नहीं।

    लिविंग रूम। खाली।

    बगीचा। कोई निशान नहीं।

    मेरे सीने में कसाव महसूस होने लगा, जैसे कुछ गलत हो गया हो। वह कभी इस तरह से गायब नहीं होती थी। क्या वह भाग गई थी? नहीं। वह ऐसा नहीं करेगी।

    फिर वह कहाँ गई?

    मेरे कदम तेज हो गए और मैं ऊपर की ओर बढ़ा। मैंने अपने कमरे का दरवाज़ा खोला। खाली था।

    मैंने अपनी मुट्ठियाँ भींच लीं, साँस खींची। और फिर, एक अचानक विचार से, मैं गेस्ट रूम की तरफ़ बढ़ा।

    मैंने दरवाज़ा खोला—और रुक गया।

    वह वहाँ थी।

    ज़मीन पर मुड़ी हुई, उसकी बॉडी हल्की सी काँप रही थी, अक्टूबर की ठंडी हवा से जो खिड़की से आ रही थी।

    मेरी साँस अटक गई।

    वह कितनी छोटी लग रही थी। कितनी नाज़ुक।

    कुछ अंदर तक घूमा जब मैंने उसके पास कदम बढ़ाए। उसके हाथ उसके शरीर के चारों ओर लिपटे हुए थे, जैसे वह दुनिया से खुद को बचाना चाहती हो। उसके बाल उलझे हुए थे, चेहरे पर बाल बिखरे थे, होंठ हल्के से खुले थे, और उसकी साँसें असमान थीं।

    मैं झिझकते हुए उसके पास घुटनों के बल बैठ गया।

    वह कांप रही थी।

    "किसी तरह की बुरी बात नहीं हो, मुझे भी ऐतिहात से उठाना होगा।"

    मैंने बिना सोचे-समझे अपने हाथों से उसे हल्के से उठाया और अपने सीने से सटाकर बिस्तर तक ले गया। वह बहुत हल्की थी—बहुत हल्की। यह कुछ अंदर गहरे घूमा।

    मैंने उसे बिस्तर पर रखा और कंबल उसके ऊपर खींच दिया।

    लेकिन जैसे ही मैं जाने वाला था, उसने हल्का सा हलचल की।

    उसकी ठंडी और काँपती उंगलियाँ मेरे शर्ट को कसकर पकड़ लीं।

    एक धक्का मेरी बॉडी में दौड़ा।

    वह पूरी तरह से जागी नहीं थी, पर उसकी आधी जागी अवस्था में उसने मुझे अपने पास खींच लिया था।

    कुछ अंदर टूट गया।

    जैसे ही मैं अपने आप को रोकने की कोशिश कर रहा था, मैंने अपने होठों को उसके माथे पर रखा।

    वह हल्की सी गुलाब की खुशबू और उसकी एक अलग सी खुशबू के साथ महक रही थी।

    मेरे हाथ उसकी ओर सहज ही बढ़ गए और उसे अपनी बाँहों में ले लिया। उसकी नाज़ुक काया मेरे पास समा गई, और उसका गर्मी मुझ तक पहुँचने लगी।

    मैं जानता था कि मुझे छोड़ देना चाहिए था। मुझे छोड़ देना चाहिए था।

    लेकिन मैंने नहीं किया।

    आज रात, मैं उसे पकड़कर रखा। भले ही यह सिर्फ़ इस एक पल के लिए हो।


    एक हल्का सा दर्द मेरे सिर में था।

    मेरा शरीर अजीब सा गर्म महसूस हो रहा था, कुछ मज़बूत चीज़ से लिपटी हुई। मेरी अंगुलियाँ हल्के से कपड़े के ऊपर से महसूस कर रही थीं—नर्म, महँगे कपड़े।

    कुछ सही नहीं था।

    मैं हलका सा हिली, और मेरा माथा कुछ कड़ा चीज़ से टकरा गया।

    मैंने आँखें खोलने की कोशिश की, नींद की धुंध गायब होने लगी। जैसे ही मेरी आँखें पूरी तरह से खुलीं, मेरे दिल ने डर से धड़कना शुरू कर दिया।

    मैं अभिराज की छाती पर लेटी हुई थी।

    मेरी साँस रुक गई। उसकी मज़बूत, मांसपेशियों वाली बाँह मेरी तरफ़ लपकी हुई थी, जैसे मैं वहाँ रुकने के लिए ही बनी थी। उसकी खुशबू—कोलोन और कुछ ऐसा जो सिर्फ़ वही था—मेरे आस-पास घेर रही थी।

    नहीं।

    मेरे अंदर डर ने घर कर लिया। मैंने खुद को खींच लिया और उसकी पकड़ से बाहर निकली। मेरा शरीर कांप रहा था और मैं सावधानी से बिस्तर से उतरने की कोशिश की, जैसे की एक भी आवाज़ उसे जगा न दे।

    बस कुछ कदम और। बस थोड़े से कदम और—

    एक कठोर पकड़ ने मुझे फिर से खींच लिया।

    मैं चौंकी और एक साँस के साथ बिस्तर पर गिर गई, उसकी बॉडी मेरे ऊपर झुकी।

    "कहाँ जा रही हो?" उसकी आवाज़ गहरी और खड़ी थी, जैसे वह पूरी तरह से जागा न हो, लेकिन उसका स्वर अंधेरे से लिपटा हुआ था।

    मैंने उसके सीने में धक्का दिया और साँस के साथ बोली, "मुझे जाने दो।"

    वह हिलते हुए नहीं था। उसके चेहरे पर हल्की मुस्कान आई। उसकी उंगली धीरे से मेरी बाज़ू पर चल रही थी। एक ठंडी लहर मेरे शरीर में दौड़ी—यह आनंद की नहीं, बल्कि गंदी शीतलता थी।

    "इतनी जल्दी क्यों भाग रही हो, बीवी?" उसकी आवाज़ और गहरी हो गई, और ताने जैसी लगी। "क्या पिछली रात आरामदायक नहीं थी?"

    मेरे पेट में मरोड़ महसूस हुआ। "तुम घिनौने हो," मैंने गुस्से में कहा, मेरी आवाज़ कांप रही थी। "मुझे तुमसे नफ़रत है।"

    उसका सिर हल्का सा मोड़ा और मुस्कान ने उसे नहीं छोड़ा। "तुम मुझसे नफ़रत करो, जो चाहे करो," उसने धीमे से कहा, मेरी तरफ़ अपनी उंगली बढ़ाते हुए। "लेकिन जितना तुम लड़ोगी, उतना मुझे मज़ा आएगा।"

    मैंने उसे झटका दिया और कहा, "तुम एक राक्षस हो।"

    वह हँसते हुए बोला, "और तुम यही कह रही हो। फिर भी, यहाँ तुम हो। मेरे हाथों में। फिर से।"

    मेरी पीठ में ठंडी चिपचिपाहट बढ़ी। मैंने कभी खुद को इतनी असहाय महसूस नहीं किया था।

    "एक दिन," मैंने कहा, मेरे मुँह से नफ़रत लहजे में, "तुम पछताओगे।"

    उसकी मुस्कान थोड़ी सी फीकी पड़ी, बस एक सेकंड के लिए। लेकिन फिर, वह वापस आई, और उसकी पकड़ मुझ पर और कस गई।

    "शायद," उसने कहा, एक कदम और करीब आकर। "लेकिन आज नहीं, बीवी।"


    आमिशा स्कूल के गेट से दौड़ते हुए अंदर पहुँची, उसकी बैग कंधे से झूल रही थी। घंटी पहले ही बज चुकी थी, और वह जानती थी कि आज फिर से वह परेशानी में है। जैसे ही वह क्लासरूम के दरवाज़े पर पहुँची, उसने हलके से दस्तक दी।

    टीचर, जो पहले ही पढ़ाई शुरू कर चुकी थी, गुस्से में मुड़ी। "आमिशा! तुम फिर से लेट हो! यह तुम्हारी आदत बनती जा रही है। तुम कभी पढ़ाई नहीं करती, और हमेशा घूमने-फिरने में लगी रहती हो!"

    आमिशा ने आँखें घुमाईं और हलके से मुँह से कुछ बुदबुदाया, लेकिन उसने जवाब नहीं दिया। बस वह आखिरी बेंच की तरफ़ बढ़ी और बैठ गई, टीचर के गुस्से को नज़रअंदाज़ करते हुए।

    टीचर ने गहरी साँस ली और कहा, "आज हमारे पास एक नई स्टूडेंट हैं। मिस आर्या, जो आज हमारी क्लास में शामिल हुई हैं।"

    सभी की नज़रें आर्या पर गईं जो क्लास के सामने खड़ी थी, थोड़ी सी संकोच करते हुए। उसके चेहरे पर मासूमियत की एक झलक थी। उसकी आँखें हलके से इधर-उधर घूम रही थीं, जैसे कुछ नया और अजनबी देख रही हो। बाकी सभी स्टूडेंट्स के मुक़ाबले, उसके कपड़े पुराने और फटे हुए लग रहे थे। यह फर्क़ स्पष्ट था, क्योंकि बाकी के बच्चे अमीर परिवारों से थे।

    टीचर ने आर्या को अपना परिचय देने का इशारा किया। "आर्या, तुम हमारे क्लास में शामिल हो चुकी हो। कृपया अपना परिचय दो।"

    आर्या ने धीरे-धीरे अपना सिर उठाया, और थोड़ा संकोच करते हुए बोली, "नमस्ते, मेरा नाम आर्या है। मैं... हाल ही में यहाँ आई हूँ।"

    कुछ देर तक सब चुप रहे, और फिर कुछ बच्चों ने आपस में फुसफुसाना शुरू कर दिया।

    आमिशा ने अपना सिर झुकाया और ध्यान से सुना, जैसे वह आर्या के बारे में कुछ जानने की कोशिश कर रही हो। कुछ ने उसे देखकर हँसी उड़ाई, लेकिन वह चुप रही।

    आर्या के लिए यह नया वातावरण काफ़ी अजनबी था, और उसकी आँखों में डर साफ़ दिख रहा था। वह गहरी साँस लेती हुई अपनी सीट की तरफ़ बढ़ी और बैठ गई।


    एक फुसफुसाहट ने चुप्पी तोड़ी। "लगता है, वह सीधे खेतों से आई है, उसके कपड़े गंदे हैं।"

    एक और लड़की हँसी। "सही कहा, शायद उसने आज नहाया भी नहीं है। उसका चेहरा तो गंदा लगता है।"

    आर्या के हाथ उसके यूनिफ़ॉर्म के हेम को कसकर पकड़ रहे थे, लेकिन उसने कुछ नहीं कहा। उसके होंठ कांप रहे थे, लेकिन उसने आँसू नहीं गिरने दिए।

    टीचर, या तो अनजान थी या फिर उन टिप्पणियों को नज़रअंदाज़ करने का फैसला किया, "आर्या, तुम आमिशा के पास आखिरी बेंच पर बैठो।"

    आर्या ने हल्का सा सिर हिलाया और क्लास के पीछे की ओर चल दी। आमिशा, उसे देख रही थी, और उसकी पूरी शरीर को ध्यान से नज़र से नापते हुए बोली, "नई स्टूडेंट हो, हाँ?"

    आर्या ने फिर से सिर हिलाया, और आवाज़ धीमी रखते हुए बोली, "हाँ।"

    टीचर ने पाठ शुरू किया और अगले तीस मिनट तक चुप्पी छाई रही। लेकिन जैसे ही टीचर क्लास से बाहर गई, फुसफुसाहटें फिर से शुरू हो गईं।

    "अरे, किसान की बेटी, क्या तुम्हारे पास अच्छे कपड़े भी हैं?"

    "मुझे यकीन है, वह हाथों से खाना खाती होगी, जैसे गँवार।"

    आर्या कुछ भी जवाब देने से पहले, एक पानी की छींट उनके पास खड़ी लड़कियों पर पड़ गई। वे चौंकीं और मुड़कर देखा कि पानी की बोतल हाथ में लिए आमिशा खड़ी थी, मुस्कुरा रही थी।

    "ओह, हाथ से गलती से निकल गया," वह बेशर्मी से बोली।

    लड़कियाँ घूरते हुए वापस चल दीं, लेकिन आमिशा से भिड़ने की हिम्मत नहीं जुटा पाईं।

    आर्या ने आमिशा की ओर देखा, उसकी आँखें चौंकी हुईं। "धन्यवाद," उसने कहा।

    आमिशा मुस्कराई। "आमिशा कपूर कभी मुफ़्त में कुछ नहीं करती।"

    आर्या ने सिर झुकाया। "क्या मतलब?"

    "मैंने तुम्हें उन लड़कियों से बचाया, अब तुम मेरा होमवर्क करोगी।"

    आर्या थोड़ी देर के लिए झिझकी, फिर उसने सिर हिलाया। "ठीक है।"

    "अच्छा। और ध्यान से करना। मेरा ट्यूटर बहुत सख्त है। लगता है जैसे वह अपने अच्छे चेहरे और ग्रेड के कारण खुद को जीनियस समझता है। क्या घमंडी आदमी है।"

    आर्या को सुनकर मुस्कराहट आ गई। आमिशा हैरान होकर देखने लगी, जब आर्या ने चंद मिनटों में होमवर्क पूरा कर दिया।

    "क्या—तुमने यह इतना जल्दी कैसे किया?" आमिशा ने हैरान होकर कहा।

    आर्या ने बस कंधे उचका दिए। "इतना मुश्किल नहीं था।"

    लंच का समय हुआ, और आमिशा ने खुशी-खुशी अपना टिफ़िन खोला, जिसमें स्वादिष्ट चाउमीन की खुशबू फैल गई। उसने आर्या से पूछा, "तुम क्यों नहीं खा रही?"

    आर्या ने अपनी नज़रें झुका लीं। "मेरे पास लंच नहीं है।"

    आमिशा ने माथा सिकोड़ते हुए पूछा, "क्यों नहीं?"

    आर्या ने धीरे से कहा, "क्योंकि मेरे पास तुम्हारी तरह माँ नहीं है।"

    एक चुप्पी खिंच गई, फिर आमिशा ने अपना लंच आर्या की ओर बढ़ाया। "लो, खाओ। मुझे तो वैसे भी अब भूख नहीं है।"

    आर्या ने थोड़ी झिझक के साथ एक कौर लिया। "स्वादिष्ट है," उसने माना।

    आमिशा मुस्कराई। "बताया था ना।"

    वे दोनों खाना खा रही थीं, तब आमिशा ने पूछा, "तुम्हारे माँ-बाप कहाँ हैं?"

    आर्या का चेहरा बुझ गया। "वो... एक हादसे में मर गए।"

    दिन बाकी समय में जैसे-तैसे बीत गया और फिर घर जाने का समय आया। आमिशा ने अपने ड्राइवर को ढूँढा, लेकिन वह कहीं नज़र नहीं आया। उसकी नज़रें रणविजय पर पड़ीं। उसका पेट मरोड़ने लगा। जाहिर है, उसका ड्राइवर शहर से बाहर था, और अविनाश ने रणविजय को उसे लेने भेजा था।

    आर्या चुपचाप आमिशा के पीछे-पीछे चल रही थी, जब रणविजय की नज़रें उस पर पड़ीं। उसका चेहरा गुस्से से लाल हो गया। आर्या की साँस रुक गई और छाती में दर्द की लहर दौड़ गई।

    "गाड़ी में बैठो," रणविजय ने आमिशा से चिल्लाकर कहा, आर्या को पूरी तरह नज़रअंदाज़ करते हुए।

    आमिशा थोड़ी देर रुकी, फिर उसने उबकाई लेते हुए कहा, "ठीक है," और गाड़ी में बैठ गई। गाड़ी तेज़ी से चल पड़ी, और आर्या अकेली खड़ी रही। उसकी आँखों में आँसू थे, और वह घर की ओर चल पड़ी।

    उसका टूटा-फूटा झोपड़ा उसका स्वागत करता था, जो उसकी तन्हाई का गहरा अहसास दिला रहा था। उसने जल्दी से एक साधारण खाना तैयार किया और फिर अपने पार्ट-टाइम काम के लिए कैफे में निकल पड़ी।

    कैफे में उसके मैनेजर ने मुँह चिढ़ाया। "तुम लेट हो।"

    "स्कूल में... अब मैं लेट नहीं होऊँगी," आर्या ने वादा किया।

    "ठीक है। टेबल नंबर 10।"

    जब वह टेबल की ओर बढ़ी, उसके कदम लड़खड़ाए। उसकी रगों में खून ठंडा हो गया। रणविजय वहीं बैठा था, उसकी आँखें कठोर और कठोर थीं। इससे पहले कि वह कुछ कह पाती, रणविजय ने कप से कॉफ़ी उठाकर उसे उस पर उड़ा दिया।

    "तुमसे पानी भी पीना मेरे लिए अपराध है," उसने घृणा से कहा, और उसे किनारे धकेलते हुए बाहर चला गया।

    आर्या जड़ की तरह खड़ी रही, उसका कॉफ़ी से सना हुआ यूनिफ़ॉर्म। उसका मैनेजर गुस्से में दौड़ता हुआ आया। "तुमने यहाँ आकर सिर्फ़ समस्याएँ ही पैदा की हैं। तुम को निकाल दिया गया है!"

    आर्या, जो पूरी तरह से सुन्न हो गई थी, बस बोली, "क्या मैं कम से कम अपनी सैलरी ले सकती हूँ?"

    मैनेजर ने ताने में कहा, "जल्दी निकलो, नहीं तो तुम्हें पछताना पड़ेगा।"

    आर्या घर की ओर चल पड़ी, अपने छोटे से टेडी बियर को अपनी बाहों में समेटे। जैसे ही वह अपने झोपड़े में पहुँची, उसकी आँखों से आँसू बहने लगे। उसने टेडी बियर को कसकर पकड़ा और फुसफुसाते हुए कहा, "माँ, वापस आ जाओ। मुझे तुम बहुत याद आती हो। आज मैंने कुछ नहीं खाया। मुझे बहुत भूख है।"

    रोने से थककर, वह ठंडी ज़मीन पर गिर पड़ी, और टेडी बियर को अपने सीने से लगाए सो गई।

    और एक और रात, आर्या अकेली सोई रही, एक ऐसी दुनिया में जिसे कभी भी उससे दया नहीं मिली।

  • 11. shower romance

    Words: 2895

    Estimated Reading Time: 18 min

    चित्रांगदा की दृष्टि से

    सूरज की हल्की सुनहरी रोशनी कमरे में आई और कमरे को गर्मी के रंगों से भर दिया। आज गुरुवार था—एक खास दिन, जिसे मैं पूरी श्रद्धा से मानती थी। भगवान विष्णु के लिए जो उपवास व्रत मैंने रखा था, वह सिर्फ एक रस्म नहीं था; यह मेरे जीवन की एकमात्र शांति थी, जो इस दुनिया में मुझे मिली थी।

    मैं अपने कमरे के छोटे से मंदिर के सामने बैठी थी। चंदन और अगरबत्ती की खुशबू मुझे आराम दे रही थी। मैंने अपनी आँखें बंद कीं, हाथ जोड़कर प्रार्थना की और भगवान विष्णु के श्लोक पढ़े। कुछ देर के लिए, मैंने खुद को शांति में डूबने दिया और बाहरी सच्चाई को भूलने की कोशिश की।

    जब पूजा खत्म हुई, तो मैंने हल्की पीली साड़ी पहनी—भक्ति और शुद्धता का प्रतीक। यह साड़ी मेरी त्वचा पर हल्की सी महसूस हो रही थी और पहनने में बहुत आरामदायक लगी। मैंने अपना श्रृंगार सादा रखा—थोड़ा काजल, माथे पर बिंदी और हल्का लिपस्टिक। मेरे लंबे काले बाल खुले हुए मेरी पीठ पर लहरा रहे थे।

    एक गहरी साँस लेकर, मैं कमरे से बाहर निकली और रसोई की ओर बढ़ी। किन्तु जैसे ही मैंने एक कदम बढ़ाया, मैं किसी से टकरा गई।

    एक मजबूत हाथ ने मेरे हाथ को पकड़ा और मुझे गिरने से बचाया। मेरा दिल रुक सा गया। ऊपर देखने पर मुझे गुस्से से भरी हुई आँखें दिखाई दीं।

    अभिराज।

    मेरे पेट में डर नहीं, बल्कि उसकी आँखों की तीव्रता से घबराहट हुई। वह ऊँचा खड़ा था और उसके कंधे मेरे रास्ते को रोक रहे थे; जैसे वह मुझे कहीं जाने की चुनौती दे रहा हो। मेरा दिल तेज़ी से धड़कने लगा, पर मैंने अपनी भावनाओं को छिपा लिया, ताकि वह देख न सके कि उसकी मौजूदगी मुझ पर कितना असर डाल रही है।

    उसकी नजरें मुझ पर धीरे-धीरे घूमीं। वह मुझे ऐसे देख रहा था जैसे हर चीज़ का हिसाब कर रहा हो। उसकी मुस्कान में कोई हंसी नहीं थी, बस कुछ अंधेरा और खतरनाक सा था।

    "तू कहाँ जा रही है, ऐसे कपड़े पहनकर?" उसकी आवाज़ बहुत तीव्र और खतरनाक थी, जैसे कोई चाकू हो।

    मैं सख्त होकर खड़ी हो गई, साड़ी के पल्लू को मजबूती से पकड़ते हुए।
    "रसोई में," मैंने कहा, पर मेरी धड़कन ने मुझे धोखा दिया।

    वह हँसा। उसकी हँसी से मेरी रीढ़ में सिहरन दौड़ गई।

    "नयी दुल्हन की तरह क्यों पहन रखी है?" उसकी आवाज़ और भी नीचे हो गई, मजाकिया अंदाज़ में। उसकी नजरें मेरे होठों पर थीं, और मुझे महसूस हुआ कि वह मुझे ऐसे देख रहा था जैसे होठों को ही घेर लिया हो। "किसे ललचा रही हो?"

    मैं चौंक गई और उसके सवाल ने मेरे होठों को गोल कर दिया। उससे पहले कि मैं कुछ बोल पाती, उसकी उंगलियाँ मेरी तरफ बढ़ीं। उसका स्पर्श कड़ा और अचानक था। उसने मेरे होठों पर अंगूठा लगाया और लिपस्टिक को गड़बड़ कर दिया।

    मेरा साँस रुक गया। गर्मी मेरे गालों में दौड़ने लगी—यह गुस्से से था या कुछ और, मैंने खुद को इससे इंकार किया।

    मैं पीछे हट गई, और अपने होठों को अपनी उंगली से तेज़ी से रगड़ने लगी।
    "तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई—"

    वह एक कदम और आगे बढ़ा, उसका बड़ा शरीर मुझे घेर रहा था, जैसे मुझे दबा रहा हो। उसकी मौजूदगी आग की तरह थी—लापरवाह और सब कुछ खा जाने वाली।

    "मेरी सहनशीलता का इम्तिहान मत लो, चित्रांगदा," उसने धीरे से कहा, उसकी आवाज़ खतरनाक थी। "तुम मेरी हो, याद रखना।"

    मेरे अंदर तूफान चल रहा था। मुझे उसका हाथ हटाना था, उसे चिल्ला कर कहना था कि उसे ऐसा करने का कोई हक़ नहीं है। लेकिन मेरी बॉडी ने मेरी मदद नहीं की; उसकी नज़रों में मैं जड़ हो गई थी।

    मैंने गहरी साँस ली, मेरा दिल बहुत तेज़ धड़क रहा था। मैं उसे जीतने नहीं दूँगी। मैं उसे यह नहीं दिखाऊँगी कि वह मुझ पर असर डाल रहा है।

    कुछ नहीं कहकर, मैंने उसे छोड़ दिया और सिर ऊँचा करके चल दी। पर जैसे ही मैं चली, मुझे उसकी जलती हुई नज़रें महसूस हो रही थीं।

    यह खत्म नहीं हुआ था। अभी तो कुछ भी नहीं हुआ था।

    मैं चलती जा रही थी, मेरे हाथों में कसकर मुट्ठी थी, और दिल तेज़ी से धड़क रहा था क्योंकि उसने मुझे ऐसे छुआ था—मेरे लिपस्टिक को ऐसे जैसे मैं कोई चीज़ हूँ। उसकी बातें मेरे दिमाग में गूंज रही थीं, "तुम मेरी हो, याद रखना।"

    मुझे यह घृणा थी। मुझे घृणा थी कि वह मुझे कमज़ोर महसूस कराता था, उसकी बस मौजूदगी मुझे घुटन में डाल देती थी। लेकिन मैं उसे यह नहीं दिखाऊँगी। मैं उसे जीतने नहीं दूँगी।

    मैंने गहरी साँस ली और रसोई में कदम रखा। मेरे हाथ थोड़े काँप रहे थे, जैसे ही मैंने सामान उठाया। मुझे उसका नाश्ता बनाना था। मुझे नहीं करना था, पर मना करना भी मुमकिन नहीं था। खासकर जब वह हो।

    मैं जल्दी से काम करने लगी, जैसे मेरे हाथ अपने आप चल रहे थे। मैंने आलू पराठा, ताज़े दही का कटोरा और चाय बनाई। मेरा मन पहले ही खत्म हो चुका था, पर मैंने सब कुछ सजाकर एक ट्रे में रखा और उसे डाइनिंग टेबल पर ले आई, जहाँ वह बैठा था, इंतज़ार कर रहा था।

    वह धीरे-धीरे मुझे देख रहा था, उसका चेहरा बिना किसी भाव के। मैंने ट्रे उसके सामने रखी और चुपचाप पीछे हट गई। उसने पराठा उठाया, एक बाइट ली, और फिर एक पल के लिए, सब कुछ चुप था।

    फिर अचानक, उसने प्लेट को फर्श पर फेंक दिया। प्लेट टूटकर फर्श पर बिखर गई, और खाने के टुकड़े इधर-उधर फैल गए।

    मेरे पास कुछ करने का वक्त भी नहीं था, इससे पहले कि उसने मेरी गाल पर तेज़ थप्पड़ मारा।

    थप्पड़ की आवाज़ पूरे कमरे में गूंज उठी। मेरा सिर झटके से मुड़ गया, और मैं पीछे हट गई। मेरे चेहरे पर तेज़ जलन हो रही थी, और वह और भी बढ़ रही थी। मैंने अपनी जीभ पर खून का स्वाद महसूस किया, जब मेरे दाँत मेरी अंदर की होठ को काट गए।

    "क्या यह तुम खाना कहती हो?" अभिराज की आवाज़ बहुत कड़ी थी, जैसे बर्फ। "तुम मुझे यह कचरा खिलाना चाहती हो?"

    मैंने मुश्किल से गला निगला, मेरी उंगलियाँ काँप रही थीं, और मैं अपनी साड़ी के कपड़े को कसकर पकड़ रही थी। मुझे रोने का मन था, पर मैंने खुद को रोने नहीं दिया।

    मैंने सिर उठाया और उसकी आँखों में देखा। उसकी आँखें गुस्से से जल रही थीं, जैसे मुझे कुछ कहने का या अपना बचाव करने का चुनौती दे रहा हो।

    लेकिन मुझे समझ था।

    मैंने धीरे से साँस ली और कहा, "मैंने वही बनाया जो हमेशा बनाती हूँ।"

    उसके होंठों पर खतरनाक मुस्कान फैल गई। "तो शायद मुझे तुम्हें सही तरीका सिखाना चाहिए।"

    मैं सख्त हो गई, मेरा दिल तेज़ी से धड़कने लगा।

    वह अचानक मेरी कलाई पकड़कर मुझे अपनी ओर खींच लाया, अब मैं उससे कुछ इंच दूर थी। मेरा साँस रुक गया, लेकिन मैंने विरोध नहीं किया। ऐसा करने से बात और बिगड़ सकती थी।

    "यह गंदगी साफ़ करो," उसने कहा, उसकी आवाज़ ठंडी थी। "और कुछ ऐसा बनाओ जो खाया जा सके।"

    मैंने अंदर से गुस्सा दबाया, खुद को काटते हुए। मैं चिल्लाना चाहती थी, खाना उसे वापस फेंक देना चाहती थी, उसे बताना चाहती थी कि उसे मुझे ऐसे नहीं ट्रीट करना चाहिए।

    लेकिन मैंने कुछ नहीं किया।

    इसके बजाय, मैंने घुटनों के बल बैठकर टूटी हुई प्लेट के टुकड़े उठाए। पराठे की गंध मेरे नथुनों में भर गई, वही खाना जो मैंने खुद बनाया था, अब सिर्फ़ कचरा बनकर फर्श पर पड़ा था।

    मैं महसूस कर सकती थी कि वह मुझे देख रहा था, इंतज़ार कर रहा था।

    लेकिन मैंने उसे यह नहीं दिखने दिया कि मैं टूट गई थी।

    अभी नहीं।


    अभिराज की दृष्टि से

    रात का समय सन्नाटा था, और मेरे कमरे में बस घड़ी की टिक-टिक की आवाज़ सुनाई दे रही थी। मैं बिस्तर के किनारे बैठा था, हाथ में एक गिलास व्हिस्की था, उसे हल्का सा घुमा रहा था। खाना बहुत बुरा था, पर कम से कम कुछ तो था। मुझे चित्रांगदा का बर्ताव बिल्कुल पसंद नहीं था—उसकी चुप्पी, और उन आँखों में जो चुनौती छिपी थी।

    फ़ोन बजा और मैंने देखा कि यह अविनाश था।

    मैंने फ़ोन उठाया। "बोलो।"

    "अभिराज, मैं तुम्हें और चित्रांगदा को अपनी सगाई पर बुलाना चाहता हूँ," उसकी आवाज़ आई। "यह परसों है, तुम आओगे, न?"

    सगाई? मेरी भौंहें चढ़ गईं। अविनाश ऐसा इंसान था जिसे मैं सह सकता था, शायद इज़्ज़त भी करता था, पर मैं समारोहों में बहुत दिलचस्पी नहीं रखता था। फिर भी, इंकार करना कोई विकल्प नहीं था।

    मैंने कहा, "ठीक है, मैं वहाँ मिलूँगा।"

    "अच्छा, मैं वहाँ मिलूँगा।"

    इसके साथ ही, मैंने फ़ोन कॉल समाप्त कर दी और फ़ोन को रात के खड़े पर फेंक दिया। मेरी नज़र बिस्तर के खाली तरफ़ घूम गई। मेरे होंठों पर एक शरारती मुस्कान खेलने लगी।

    "चित्रांगदा!" मैंने पुकारा।

    कुछ पलों में, वह दरवाजे पर दिखाई दी, उसकी हरकतें संकोच से भरी हुई थीं। मैं देख सकता था कि वह मुझसे डरती है, यह जानने के लिए डरी हुई है कि आगे क्या होगा। अच्छा।

    "तुम अविनाश की सगाई में मेरे साथ जाओगी," मैंने कहा, उसकी प्रतिक्रिया को ध्यान से देखते हुए।

    उसने बिना कुछ कहे सिर हिला दिया, उसके हाथ उसके सामने जुड़े हुए थे।

    "अब, सो जाओ।"

    एक पल के लिए, वह भ्रमित दिखाई दी। शायद उसने सोचा था कि मैं उसे कोई और कठोर आदेश दूँगा। वह हिचकिचाई, फिर धीरे-धीरे बिस्तर की ओर बढ़ गई और एक तरफ़ लेट गई, मुझसे दूरी बनाए रखी।

    मैंने उसे एक पल के लिए देखा, फिर मेरा जबड़ा कस गया।

    यह कौन है जो सोचती है कि वह कौन है?

    बिना कुछ कहे, मैंने उसकी कलाई पकड़ ली और उसे बिस्तर से खींच लिया। वह नरम से गिर गई, उसके हाथ उसके गिरने को रोकने में मदद कर रहे थे। मैं नीचे झुका, मेरी आवाज़ खतरनाक रूप से नीची थी।

    "क्या तुमने सोचा था कि तुम्हारे पास यहाँ सोने का अधिकार है?" मेरी आँखें उसकी आँखों में जल रही थीं, उसकी आँखों में दर्द और अपमान की चमक देखकर। "तुम्हारी जगह फर्श पर है, जहाँ तुम्हें होना चाहिए।"

    उसने निगला, उसकी साँसें असमान थीं। लेकिन उसने कुछ नहीं कहा। उसने वापस नहीं लड़ी। अच्छा।

    मैं सीधा खड़ा हो गया, उसे पार करते हुए जैसे कि वह केवल एक असुविधा थी।

    "सोने से पहले लाइट बंद कर दो," मैंने ठंडे से आदेश दिए पहले बिस्तर पर लेटने से पहले, पूरी तरह से बेपरवाह। मैंने उसे थोड़ा हिलते हुए सुना, फिर कमरा अंधेरे में डूब गया।

    मेरे होंठों पर एक संतुष्ट मुस्कान खेलने लगी जब मैंने अपनी आँखें बंद कर लीं।

    उसे याद रखना होगा कि उसकी जगह क्या है। और मैं सुनिश्चित करूँगा कि वह कभी नहीं भूलेगी।


    अगली सुबह

    लेखक की दृष्टि से

    अभिराज सुकूनभरी नींद की बाहों में खोया हुआ था, उसका शरीर बिस्तर पर आराम से था। अचानक अलार्म की आवाज़ ने शांति को तोड़ दिया, उसे जागने पर मजबूर किया। उसकी नज़र तुरंत चित्रांगदा पर पड़ी, जो फर्श पर सो रही थी, अपने सपनों में खो गई थी।

    अभिराज ने उसे एक पल के लिए देखा। उसकी साँवली त्वचा के साथ, वह एक स्वादिष्ट चॉकलेट बार जैसी लग रही थी। वह उसे अपनी बाहों में लिपटाने और प्यार से भर देने के लिए ललचा रहा था। हालाँकि, उसके विचारों में एक अचानक परिवर्तन ने उसके चेहरे को गहरा कर दिया। उसने एक पिचर उठाया जिसमें पानी भरा हुआ था और चित्रांगदा पर पानी डाल दिया, उसे अचानक जाग्रत कर दिया। वह उसकी ओर बड़ी, हैरान आँखों से देख रही थी। झुकते हुए, अभिराज ने फुसफुसाया, "आओ, साथ में नहाते हैं।"

    चित्रांगदा ने उत्तर दिया, संकोच और भ्रमित, "मैं... मतलब, क्या? हम साथ में नहाएँगे? मैं... मतलब, हम कैसे साथ में नहा सकते हैं?" चित्रांगदा की ज़ोर से बोलते हुए आवाज़ इतनी ज़ोर से हो गई कि अभिराज ने उसे अपनी बाहों में उठा लिया और उसे बाथरूम में ले गया। उसने शॉवर चालू किया और पानी बहुत ठंडा था, जिससे चित्रांगदा को ठंड लग गई। ठंड के कारण, वह तुरंत अभिराज से चिपक गई और वह और अधिक आक्रामक हो गया।

    "अरे, मेरी प्यारी पत्नी को ठंड लग रही है, चिंता मत करो, मैं तुम्हें गर्म कर दूँगा। लेकिन पहले आओ, थोड़ा रोमांस करें।" अभिराज ने चित्रांगदा को दीवार के खिलाफ़ धक्का दिया और उसके होंठों पर चूमना शुरू कर दिया। उस समय, वह उसके हाथों को अपने हाथों से उसके सिर के ऊपर पकड़े हुए थे। एक लंबे और जोशीले चुंबन के बाद, अभिराज चित्रांगदा से दूर हट गया और कहा, "तुम्हारे होंठ इतने स्वादिष्ट हैं जैसे कि कुछ स्वादिष्ट चॉकलेट। मेरा दिल दर्द करता है क्योंकि मैं बस उन्हें खाना चाहता हूँ।"

    इसके बाद, उसने चित्रांगदा की साड़ी का पल्लू अलग किया और उसकी गर्दन पर चूमना शुरू कर दिया, कहते हुए,

    "तुम्हारी गर्दन, अह, यह मुझ पर हमेशा यह प्रभाव डालती है। मैं बस इसे खाना चाहता हूँ।"

    चित्रांगदा ने अभिराज से कहा, "कृपया अभिराज जी, कृपया मुझे आज बख्श दो।"

    चित्रांगदा की आँखें आँसुओं से भरी हुई थीं। अभिराज का चेहरा गुस्से से भर गया जब उसने यह देखा। उसने चित्रांगदा के बालों को अपने मुट्ठी में पकड़ लिया और कहा, "मैं तुम्हें इतना प्यार से व्यवहार कर रहा हूँ, लेकिन लगता है कि तुम मेरे अपमानजनक व्यवहार से आनंद लेती हो जब मैं गुस्से में हूँ। तुम्हें यह पसंद है, है ना? इसमें कोई समस्या नहीं है जब मैं तुम्हारे साथ इस तरह व्यवहार करता हूँ। मैं यह फिर से आज भी करूँगा।"

    अभिराज ने फिर चित्रांगदा की साड़ी खोल दी और उसकी कमर पर काटने लगा। चित्रांगदा अभिराज के चंगुल से मुक्त होने की कोशिश कर रही थी। हालाँकि, अभिराज के कान उसकी बहन की आवाज़ से झंकृत हो गए, और उसकी आँखें क्षणभर के लिए बंद हो गईं। उसने फिर अपनी आँखें खोलीं, चित्रांगदा को देखा, और उसकी पेटीकोट को फाड़ दिया।

    उसने अपनी तर्जनी उंगली को चित्रांगदा की योनि में डाल दिया, जिससे चित्रांगदा की ओर से एक ज़ोर से चीख निकली। अभिराज का चेहरा एक शरारती मुस्कान से भर गया जब उसने अपनी चार उंगलियाँ डाल दीं, जिससे चित्रांगदा बेसुध हो गई।

    चित्रांगदा ने रोते हुए कहा, "अभिराज जी आह... अभि...राज जी मैं आपको बहुत नफ़रत करती हूँ।"

    इस पर अभिराज ने कहा, अपनी उंगलियों की गति बढ़ाते हुए, "तुम मुझसे जितनी नफ़रत करती हो, मैं उससे ज़्यादा तुमसे करता हूँ।"

    "और अब जैसे एक अच्छी लड़की को चाहिए, बस इस सुख का आनंद लो जो मैं तुम्हें दे रहा हूँ।" चित्रांगदा के मुँह से एक ज़ोर से दर्दनाक कराह निकला। आह... अभिराज जी आह... जैसा कि अपेक्षित था, वह केवल 5 मिनट में ही वीर्य स्खलन कर गई। उसने रोते हुए कहा, "यह सुख नहीं है, अभिराज जी, यह बलात्कार है जो आप मुझसे कर रहे हैं।"

    अभिराज ने कहा, "ओह, वास्तव में? मुझे लगता है कि तुम भूल गई हो कि मैं तुम्हारा पति हूँ और तुम्हारे शरीर, मन और आत्मा का मालिक भी।"

    "और मैं कहना चाहता हूँ कि तुम्हारी सहनशक्ति बहुत कम है। तुम केवल 5 मिनट में ही वीर्य स्खलन कर गईं।" फिर उसने चित्रांगदा के एक स्तन को अपने हाथ में पकड़ लिया और उसकी ब्लाउज़ पर ज़ोर से दबाने लगा, उसकी आँखों में देखते हुए और कहा, "तुम्हारे स्तन बहुत छोटे हैं, लेकिन चिंता मत करो, मैं उन्हें बड़ा बना दूँगा।"

    चित्रांगदा के पैर बहुत ज़ोर से काँप रहे थे अभिराज की उंगलियों के कारण। दृश्य अभिराज के लिए बहुत उत्साह से भरा हुआ था जब उसने देखा।

    उसने फिर चित्रांगदा की ब्लाउज़ को फाड़ दिया। चित्रांगदा ने अपनी छाती को अपने हाथों से ढक लिया, उसकी आँखें विभिन्न भावनाओं के मिश्रण से चमक रही थीं जब उसने अभिराज की प्रतिक्रिया को देखा। उसकी आँखें गहरे लाल रंग में बदल गईं, और उसने चित्रांगदा के हाथों को उसके सिर के ऊपर पकड़ लिया और उसकी नंगी छाती पर चूमना शुरू कर दिया।

    जैसे वह चूम रहा था, वह चित्रांगदा के पैरों की ओर बढ़ गया और एक तेज़ नज़र से चित्रांगदा को देखा। चित्रांगदा उसकी नज़र से असहज हो गई।

    हालाँकि, अभिराज अपने आप में था, और उसने चित्रांगदा के निजी अंगों पर चूमना और काटना शुरू कर दिया। चित्रांगदा दूसरे सुख के लिए तैयार नहीं थी। चित्रांगदा बहुत दर्द में थी और अभी भी ठंडे शॉवर पानी से गीली थी। कुछ समय के बाद, अभिराज पीछे हट गया, केवल चित्रांगदा को अपनी अंधेरी दुनिया में ले जाने के लिए, जो कामुकता और नफ़रत से भरी हुई थी।

    जब अभिराज उसके अंदर घुसा, तो उसने दर्द से चीखना शुरू कर दिया। अभिराज रुक गया, फिर उसने उसका चेहरा देखा, जो आँसुओं और दर्द से भरा हुआ था। अभिराज ने अचानक से उसे अपनी बाहों में उठा लिया, उसे अपने कमरे में ले गया और उसे बिस्तर पर रख दिया। उसने खुद भी उसके बगल में लेट गया और दोनों को एक कंबल में लपेट लिया। उसे मजबूती से अपनी बाहों में पकड़कर, वह सो गया।

    चित्रांगदा, ठंड को महसूस करते हुए, अभिराज से चिपक गई, जैसे कि एक छोटा बच्चा गर्मी की तलाश में हो। अभिराज ने उसके बालों को प्यार से सहलाना शुरू किया, लगभग उसके माथे पर एक चुंबन लगाने के लिए, लेकिन रुक गया, अपने आप से कहा, "मैं क्या कर रहा हूँ? मुझे उसे चोट पहुँचाना चाहिए, न कि उसे इस तरह से सांत्वना देनी चाहिए।"

    तभी चित्रांगदा ने उसे और ज़ोर से पकड़ लिया, उसकी नींद से भरी आवाज़ ने शांति को तोड़ दिया, "कृपया, मुझे पकड़ो। यह बहुत ठंडा है।" उसकी पकड़ अभिराज पर मजबूत हो गई, और उसने उसे अपने पास खींच लिया, उसे मजबूती से पकड़कर, जैसे वे सो गए।

  • 12. Engagement

    Words: 2160

    Estimated Reading Time: 13 min

    अविनाश और मित्रा की सगाई की पार्टी जोरों पर थी। चारों तरफ बढ़िया सजावट थी, सुनहरी लाइटें चमक रही थीं। हल्का-फुल्का संगीत बज रहा था, और लोग आपस में बातें कर रहे थे। माहौल में हंसी-मजाक का माहौल था; हर कोई इस खास रात का मज़ा ले रहा था।

    तभी एक चमचमाती काली गाड़ी प्रवेश द्वार पर आकर रुकी। दरवाज़ा खुला और अभिराज बाहर निकला। हमेशा की तरह उसका अंदाज़ रॉयल था। उसने गहरे नीले रंग का सूट पहना हुआ था, जो उसकी पर्सनैलिटी पर खूब जम रहा था। उसके पीछे चित्रांगदा उतरी। जैसे ही वह अंदर आई, लोगों की नज़रें उस पर टिक गईं। उसने गहरे लाल रंग की साड़ी पहनी हुई थी, जो उसकी खूबसूरती को और बढ़ा रही थी। साड़ी पर हल्की गोल्डन कढ़ाई थी, जो झूमर की रोशनी में चमक रही थी। उसकी मांग में सिंदूर और हाथों में चूड़ियाँ उसकी नई-नवेली दुल्हन जैसी छवि को और खास बना रही थीं।

    दोनों जैसे ही हॉल में घुसे, वहाँ काफी भीड़ थी। लोग मस्ती में लगे थे, हंसी-ठहाके गूंज रहे थे। वेटर ट्रे में स्वादिष्ट खाने की चीज़ें लेकर घूम रहे थे। अभिराज ने एक नज़र पूरे माहौल पर डाली, भव्य सजे हुए हॉल को देखा। लेकिन जैसे ही वह आगे बढ़ा, अचानक एक भारी आवाज़ आई—

    "अभिराज।"

    यह दमदार आवाज़ किसी और की नहीं, बल्कि रुद्र अग्निहोत्री की थी।

    उसका नाम सुनते ही माहौल में हलचल मच गई। जो भी आसपास खड़े थे, तुरंत पलटकर देखने लगे। सबके चेहरे पर एक अजीब-सी जिज्ञासा थी।

    अभिराज का चेहरा खुशी से चमक उठा जब उसने पीछे मुड़कर देखा। सामने उसका सबसे अच्छा दोस्त, भाई जैसा रुद्र खड़ा था। लंबा-चौड़ा, 6 फीट 5 इंच का जबरदस्त कद, और काले रंग का बिजनेस सूट पहनकर वह और भी दमदार लग रहा था। उसकी नुकीली शक्ल और गहरी आँखें हमेशा की तरह रौबदार थीं, लेकिन आज उनमें थोड़ी नर्मी भी दिख रही थी।

    उसके साथ एक बहुत खूबसूरत लड़की खड़ी थी। उसकी गहरी रंगत झूमर की रोशनी में चमक रही थी। लंबे, घने बाल उसके मासूम से चेहरे पर गिर रहे थे। उसने हल्के नीले रंग की सजी-संवरी साड़ी पहनी हुई थी, जो उसकी सुंदरता को और निखार रही थी। उसकी काजल लगी आँखों में एक अलग सा सुकून था, और वह हल्का सा मुस्कुरा रही थी, जब उसने अभिराज और चित्रांगदा की ओर देखा।

    रुद्र ने हल्की सी मुस्कान के साथ अभिराज के कंधे पर हाथ रखा और कहा, "मिल मेरी पत्नी, अनुरिमा अग्निहोत्री से।"

    ये शब्द सिर्फ़ एक सीधी-सादी पहचान नहीं थे, इसमें कुछ गहरा एहसास छुपा था। अभिराज के चेहरे पर पहले हैरानी आई, फिर खुशी।

    "अनुरिमा," उसने मुस्कुराते हुए दोहराया, उसकी आवाज में अलग ही अपनापन था। "तुमसे मिलकर बहुत अच्छा लगा।"

    अनुरिमा ने नर्मी से मुस्कुराते हुए कहा, "खुशी मेरी है, मिस्टर अभिराज। रुद्र ने आपके बारे में बहुत कुछ बताया है।"

    चित्रांगदा, जो अब तक चुपचाप खड़ी थी, धीरे से आगे आई। उसकी नज़रें अनुरिमा को गौर से देख रही थीं। अनुरिमा के व्यवहार में कुछ अलग था—कुछ ऐसा, जिसकी उम्मीद चित्रांगदा ने नहीं की थी।

    रुद्र ने माहौल को समझते हुए, अपने सधे हुए अंदाज़ में कहा, "और ये हैं चित्रांगदा।"

    अनुरिमा ने हाथ जोड़कर कहा, "आपसे मिलकर अच्छा लगा।"

    चित्रांगदा ने हल्के से सिर हिलाया और मुस्कुराकर बोली, "मुझे भी।"

    कुछ पल के लिए, दोनों के बीच एक अजीब सी खामोशी छा गई। जैसे बिना कुछ कहे भी दोनों ने बहुत कुछ समझ लिया—पुराने रिश्तों को, नए बंधनों को। मगर जैसे-जैसे सगाई की रस्में आगे बढ़ीं और बातचीत होने लगी, बीती बातें पीछे छूट गईं। अब बस नई शुरुआत और दोस्ती का एहसास रह गया।

    रात अभी शुरू ही हुई थी, और जश्न का माहौल बन रहा था।


    चित्रांगदा का दृष्टिकोण

    सगाई की रौनक जोरों पर थी। हर तरफ़ गप्पें, हँसी-मजाक और झूमर की हल्की रोशनी थी। लेकिन मुझे कुछ अजीब सा महसूस हो रहा था।

    अभी-अभी मेरी मुलाक़ात अनुरिमा अग्निहोत्री से हुई—रुद्र अग्निहोत्री की पत्नी। वह बहुत खूबसूरत थी। उसकी गहरी रंगत नर्म रोशनी में दमक रही थी, और उसकी हल्के नीले रंग की साड़ी उस पर बेहद प्यारी लग रही थी। उसने मुस्कुराते हुए मुझसे बात की, उसकी आवाज़ शांत और मीठी थी। लेकिन कुछ था जो मुझे अंदर से बेचैन कर रहा था।

    उसकी आँखें।

    उनमें खुशी नहीं थी। वह चमक, वह नयापन, जो नई शादीशुदा लड़की की आँखों में होता है, नदारद था। उसकी आँखों में कुछ अधूरा, कुछ अनकहा था—जबरदस्ती की शांति? या कोई छुपा हुआ दर्द? मैं ठीक-ठीक समझ नहीं पाई, लेकिन उसकी नज़रों में कुछ जाना-पहचाना सा लगा।

    फिर, अचानक समझ आया।

    वह मेरी जैसी थी। नाखुश।

    मुझे नहीं पता कि यह एहसास कैसे आया, लेकिन साफ़ था। हम दोनों के बीच एक अनकही बात थी, जिसे ना उसने कहा, ना मैंने।

    मेरी नज़र अचानक अनुरिमा की कलाई पर पड़ी।

    हल्की रोशनी में साफ़ तो नहीं दिखा, मगर वहाँ कुछ निशान थे—नीले धब्बे? खरोंचें? मैं पक्के तौर पर कुछ नहीं कह सकती थी, लेकिन उन्हें देखकर अजीब सा महसूस हुआ। क्या उसने जानबूझकर अपनी चूड़ियों से उन्हें छिपाया था? या किसी ने उसे छिपाने पर मजबूर किया था?

    मेरी नज़र अपने आप रुद्र अग्निहोत्री की तरफ़ चली गई।

    वह अभिराज से बात कर रहा था, हमेशा की तरह गंभीर और रौबदार। उसकी मौजूदगी ही पूरे माहौल को भारी बना रही थी।

    कुछ तो था उसमें... अजीब।

    उसकी आँखें गहरी थीं, ठंडी, जैसे किसी शिकारी की। वह शांत था, मगर उसके अंदर एक अजीब सी ताकत महसूस हो रही थी—जैसे उसे सब कुछ अपने काबू में रखने की आदत थी। शायद मैं ज़्यादा सोच रही थी, लेकिन मेरी हर नस कह रही थी कि रुद्र अग्निहोत्री से उलझना सही नहीं होगा।

    और अनुरिमा... वह उसके साथ खड़ी थी, फिर भी ऐसा लग रहा था जैसे वह वहाँ थी ही नहीं।

    मैं इस बारे में और सोचती, इससे पहले ही माहौल में अचानक बदलाव आ गया। लोग दरवाज़े की तरफ़ देखने लगे, और फिर वह आई—मित्रा।

    गोल्डन लहंगे में, महीन कढ़ाई के साथ, वह सच में किसी राजकुमारी जैसी लग रही थी। उसकी ज्वेलरी चमक रही थी, मेकअप परफेक्ट था, और उसकी आँखों में वह चमक थी, जैसे उसे पता था कि आज की रात उसी की है।

    जैसे ही उसने अंदर कदम रखा, हर तरफ़ से बधाइयाँ मिलने लगीं। लोग उसकी तारीफ़ें करने लगे, उसके लुक्स पर बात करने लगे।

    लेकिन मेरी नज़र अविनाश पर पड़ी, और मुझे अपनी मुस्कान रोकनी पड़ी।

    उन दोनों की खामोश लड़ाई शुरू हो चुकी थी।

    भीड़ से घिरे होने के बावजूद, उनके बीच का तनाव साफ़ दिख रहा था।

    मित्रा मुस्कान देती, और अविनाश कुछ धीमे स्वर में बोलता, जिससे उसकी मुस्कान पल भर के लिए फीकी पड़ जाती। फिर वह खुद को संभालती और जवाब देती।

    अविनाश उसका हाथ पकड़ने की कोशिश करता, लेकिन मित्रा इतनी हल्की दूरी बना लेती कि उसे अहसास हो जाए, मगर किसी और को शक ना हो।

    वह लड़ रहे थे।

    खामोशी से। नफ़ासत से। लेकिन लड़ रहे थे।

    और इस शानदार जश्न के बीच भी, मुझे अंदर ही अंदर लग रहा था कि आज की रात कुछ सही नहीं था।


    समय आ गया था अंगूठी पहनाने का।

    अविनाश ने मित्रा का हाथ पकड़ा, और उसने उसे ऐसे देखा कि काँच भी कट जाए।

    उनकी उंगलियाँ हल्के से छुईं, जबरदस्ती की मुस्कानें सिर्फ़ उन्हीं को धोखा दे सकती थीं, जो ध्यान नहीं दे रहे थे।

    मित्रा की आँखों में गुस्सा था, जैसे वह उसे चुनौती दे रही हो—'अगर हिम्मत है तो कुछ गलत कहकर दिखाओ।'

    अविनाश शांत था, मगर उसकी पकड़ इतनी मजबूत थी कि वह अपने इरादे साफ़ कर चुका था।

    जैसे ही अंगूठियाँ उंगलियों में डलीं, तालियों की गूंज ने उनके बीच के तनाव को ढँक दिया।

    अब वे सगाई कर चुके थे।

    लेकिन उनकी जंग अभी खत्म नहीं हुई थी।

    जैसे ही रस्में खत्म हुईं, मेहमान अलग-अलग बातें करने लगे, खाना-पीना एन्जॉय करने लगे। माहौल हल्का हो गया।

    मैंने चैन की साँस ली, सोचा कि अब थोड़ी राहत मिलेगी, लेकिन तभी किसी ने मेरी कलाई पकड़ ली।

    मुझे कुछ समझने का मौका भी नहीं मिला, और मैं अचानक भीड़ से खींच ली गई।

    मेरा दिल तेज़ी से धड़क उठा। ऊँची एड़ी की सैंडल फर्श पर खटखटा उठी।

    मैंने सिर घुमाया, और अभिराज की तीखी नज़रों से टकराई।

    वह कुछ नहीं बोला।

    बस मुझे लेकर चलता रहा, शानदार हॉल से बाहर, गपशप करते मेहमानों के बीच से, अंधेरे कॉरिडोर से होते हुए पूल के किनारे तक।

    पानी चाँदनी में चमक रहा था, ठंडी हवा मेरे शरीर से टकरा रही थी।

    मैं कुछ पूछती, उससे जवाब मांगती, इससे पहले ही अभिराज ने मुझे घुमा दिया।

    उसकी पकड़ एक पल के लिए कस गई, और फिर उसने मुझे चूम लिया।

    मैं हक्का-बक्का रह गई।

    मेरा दिमाग सुन्न हो गया।

    यह अचानक हुआ।

    यह जबरदस्त था।

    यह दावा था।

    यह दीवानगी थी।

    उसके होंठ मेरे होंठों पर गहरे दब गए, जैसे वह मुझे पूरी तरह अपना बना लेना चाहता हो।

    मेरे शरीर में गर्मी फैल गई।

    मैंने उसके सूट को कसकर पकड़ लिया, खुद को संभालने की कोशिश की, मगर कोई काबू नहीं था।

    क्योंकि यह सिर्फ़ एक किस नहीं थी।

    यह कुछ और था।

    कुछ ऐसा, जिसे शब्दों में नहीं समझाया जा सकता।

    और मैं उसमें पूरी तरह खो चुकी थी।

    मेरी साँस तेज़ हो गई, जैसे ही उसने किस को और गहरा किया।

    उसके हाथ मेरी कमर के चारों ओर कस गए, मुझे अपनी ओर खींचते हुए, जैसे मेरे और उसके बीच कोई फासला ना रह जाए।

    दुनिया धुंधली हो गई।

    दूर से आती हँसी-ठिठोली, मेहमानों की आवाज़ें—सब कहीं खो गया।

    बस हम थे।

    बस यह पल था।

    उसकी उंगलियाँ मेरे बालों में उलझ गईं, हल्का सा खींचा, जिससे मेरा सिर थोड़ा झुका, और किस और गहरा हो गया।

    मैंने उसके सूट को पकड़े रखा, जैसे उसी को थामे रहना चाहती थी।

    मेरे शरीर ने उसकी छुअन में खुद को ढीला छोड़ दिया।

    यह किस सिर्फ़ बाहरी एहसास नहीं था।

    इसमें कुछ ऐसा था जिसे समझा नहीं जा सकता था।

    जब वह आखिरकार पीछे हटा, उसकी गहरी नज़रों ने मेरी आँखों में कुछ तलाशा—एक जवाब, एक प्रतिक्रिया, कुछ भी। मेरे होंठ अब भी उसके किस की गर्मी महसूस कर रहे थे, मेरी साँसें तेज़ी से चल रही थीं।

    "यह... क्या था?" मैंने मुश्किल से फुसफुसाया।

    अभिराज ने तुरंत कुछ नहीं कहा। उसने बस अपने अंगूठे से मेरे होंठों को हल्के से छुआ। उसकी आँखें गहरी थीं, जिनमें कुछ ऐसा था जिसे मैं समझ नहीं पाई।

    "कुछ ऐसा जो मुझे बहुत पहले कर लेना चाहिए था," उसने धीमी, भारी आवाज़ में कहा।

    मेरा दिल बहुत तेज़ धड़कने लगा। दिमाग उलझा हुआ था—कन्फ़्यूज़न और उसके प्रति खिंचाव के बीच एक अजीब लड़ाई चल रही थी। और उस पल, चाँदनी रात में, मुझे अहसास हुआ—यह बस शुरुआत थी।

    अभिराज ने मेरा हाथ पकड़ा और मुझे अपने साथ खींचता चला गया। उसकी पकड़ मज़बूत थी—सख्त, अधिकार जताने वाली। मेरी साँसें अब भी असामान्य थीं, दिमाग अब भी उस पल में अटका हुआ था। पूल के किनारे ठंडी हवा चल रही थी, लेकिन मेरी त्वचा अब भी उसके स्पर्श से जल रही थी।

    जैसे ही हम दोबारा समारोह में पहुँचे, एक जानी-पहचानी आवाज़ ने हमारी शांति तोड़ दी।

    "ओह, तो यही है अभिराज की दुल्हन?"

    मैं अचानक ठिठक गई। जैसे ही मैंने देखा, एक महिला हमारी ओर बढ़ रही थी। वह गहरे लाल रंग की साड़ी में थी, सुनहरी कढ़ाई वाली। उसकी आँखों में अजीब-सी समझदारी झलक रही थी।

    "मैं अविनाश की माँ हूँ," उसने मुस्कुराते हुए कहा। उसकी आवाज़ में आत्मविश्वास था। फिर उसने मेरी ओर देखा और हल्की मुस्कान के साथ कहा, "तुम दोनों साथ में बहुत अच्छे लगते हो, एकदम परफेक्ट कपल।"

    मैंने जबरदस्ती हल्की-सी मुस्कान दी, लेकिन मेरा दिल अंदर ही अंदर जैसे कसमसा उठा।

    परफेक्ट कपल?

    सिर्फ़ मैं जानती थी कि यह सच नहीं था।

    लोगों की नज़रों में अभिराज एक दमदार, आकर्षक, और सम्मानित इंसान था। लेकिन मेरे लिए?

    वह तूफ़ान था। वह जबरदस्ती करने वाला, अपनी मर्ज़ी सब पर थोपने वाला। उसकी मौजूदगी ही ऐसी थी कि साँस लेना मुश्किल लगने लगता था।

    नलिनी जी लगातार हमारी तारीफ़ें कर रही थीं, लेकिन मुझे हर शब्द चुभ रहा था। मैं चिल्लाकर सबको सच बताना चाहती थी—कि कुछ भी वैसा नहीं है जैसा दिखता है। मैं अभिराज की दुल्हन नहीं थी, उसकी साथी नहीं थी। लेकिन ये शब्द मेरी ज़ुबान तक आते ही रुक गए।

    तभी एक चुलबुली आवाज़ ने माहौल बदल दिया।

    "चित्रांगदा भाभी!"

    मैंने मुड़कर देखा। एक छोटी-सी लड़की हमारी तरफ़ भागती आ रही थी—अमिशा।

    वह बहुत खुश लग रही थी, उसकी आँखें चमक रही थीं। "पता है?" उसने थोड़ा सा मुँह फुलाकर कहा, "मैं कब से अभिराज भैया से कह रही थी कि मुझसे आपकी मुलाक़ात करवा दो! लेकिन वह हमेशा टालते रहे!"

    मैंने महसूस किया कि अभिराज की पकड़ थोड़ी और कस गई। उसकी बॉडी टाइट हो गई, जैसे वह कुछ छिपाने की कोशिश कर रहा हो।

    मैंने जबरदस्ती मुस्कुराकर कहा, "ओह... सच में?"

    अमिशा ने जोश में सिर हिलाया। "हाँ! लेकिन अब जब मैं आपसे मिल गई हूँ, तो मुझे पूरा यकीन हो गया है—आप ही भैया के लिए सबसे परफेक्ट हो!"

    मेरी उंगलियाँ ठंडी पड़ गईं।

    मुझे नहीं पता क्या ज़्यादा बुरा था—लोगों का हमें एक 'परफेक्ट कपल' समझना या वह कड़वा सच, जिसे मैं हर बार निगलने के लिए मजबूर थी।

  • 13. licking

    Words: 1540

    Estimated Reading Time: 10 min

    सगाई की पार्टी ज़ोरों पर थी। चारों तरफ हँसी और बातें गूँज रही थीं। हल्की सुनहरी रोशनी से हॉल जगमगा रहा था और ताज़ा गुलाबों की खुशबू हवा में फैली हुई थी।

    इसी बीच, हॉल के एक कोने में, अभिराज ने चित्रांगदा को एक खंभे से दबा रखा था। वह बहुत लंबा था और उसकी ताकत के सामने वह छोटी लग रही थी।

    अभिराज ने धीरे से उसकी ठुड्डी को छुआ और फिर कसकर पकड़ लिया।
    "तुम सोचती हो कि तुम यहाँ किसी भी आदमी से बात कर सकती हो और मैं कुछ नहीं कहूँगा?" उसकी आवाज़ बहुत धीमी लेकिन खतरनाक थी।

    चित्रांगदा की आँखों में गुस्सा था, लेकिन उसका दिल तेज़ी से धड़क रहा था।
    "वह सिर्फ एक बात थी," उसने फुसफुसाया और उसे धक्का देने की कोशिश की, लेकिन अभिराज ने उसकी पकड़ और मज़बूत कर दी।

    "तुम मेरी हो," अभिराज ने गहरी आवाज़ में कहा, उसका गर्म साँस चित्रांगदा के होठों को छू गया। "कोई दूसरा आदमी तुम्हारी तरफ देखने की भी हिम्मत न करे।"

    फिर उसने अचानक उसके होंठों को अपने होंठों से दबा लिया। उसने उसके निचले होंठ को हल्के से काटा, जिससे चित्रांगदा के मुँह से हल्की सी आवाज़ निकली। उसने खुद को छुड़ाने की कोशिश की, लेकिन अभिराज की पकड़ बहुत मज़बूत थी।

    "अभिराज, रुकिए," उसने काँपती आवाज़ में कहा। उसका दिल तेज़ धड़क रहा था—गुस्से और किसी अनजाने डर से।

    अभिराज ने गहरी साँस ली। उसकी आँखों में जुनून था।
    "जब यह पार्टी खत्म होगी, तब मैं तुम्हें याद दिलाऊँगा कि तुम किसकी हो," उसने धीरे से लेकिन सख्ती से कहा।

    चित्रांगदा की आँखों से आँसू गिरने लगे। उसने अपना सीना पकड़ा, उसका शरीर डर से काँप रहा था।
    "क्यों नहीं तुम मुझे मार ही देते?" उसकी आवाज़ टूट गई। "मरना इस नर्क में जीने से अच्छा होगा।"

    अभिराज का जबड़ा कस गया। उसकी आँखों में गुस्सा था।
    "तुम सोचती हो कि तुम मुझसे बच जाओगी?" उसने उसके हाथ को ज़ोर से पकड़ा। "आज़ादी चाहिए तुम्हें, चित्रांगदा? अच्छा, मैं तुम्हें बताऊँगा कि तुम सच में कहाँ belong करती हो।"

    फिर उसने बिना कुछ कहे उसे ज़ोर से खींचा और होटल के बड़े हॉल में घसीटने लगा। सगाई की पार्टी अभी भी चल रही थी। झूमर चमक रहे थे। लोग हँस रहे थे, संगीत बज रहा था। लेकिन चित्रांगदा को लगा कि वह डूब रही है।

    लोग उन्हें देख रहे थे—कुछ हैरान, कुछ परेशान। लेकिन कोई कुछ नहीं बोला। अभिराज की ताकत और रुतबा इतना था कि किसी की हिम्मत नहीं हुई कि बीच में आए।

    अभिराज उसे सीधा प्राइवेट लिफ्ट की तरफ ले गया। उसने ज़ोर से बटन दबाया। चित्रांगदा ने खुद को छुड़ाने की कोशिश की, उसका दिल तेज़ी से धड़क रहा था।
    "मुझे जाने दो, अभिराज!" उसने धीमी आवाज़ में कहा।

    अभिराज की पकड़ और मज़बूत हो गई।
    "तुमने यह हक उसी समय खो दिया, जब तुमने किसी और आदमी से बात की।"

    लिफ्ट के दरवाज़े खुले। उसने चित्रांगदा को अंदर खींच लिया। जैसे ही वे टॉप फ्लोर पर अपने कमरे में पहुँचे, अभिराज ने दरवाज़ा ज़ोर से खोला और उसे अंदर ले गया। अंदर जाते ही, उसने दरवाज़ा बंद किया और लॉक कर दिया।

    चित्रांगदा ने डर से उसकी तरफ देखा। उसकी साँस तेज़ चल रही थी।
    "तुम यह सब क्यों कर रहे हो?" उसकी आँखों से आँसू गिरने लगे।

    अभिराज उसके पास आया। उसकी मौजूदगी डराने वाली थी।
    "क्योंकि तुम मेरी हो," उसने गहरी आवाज़ में कहा। उसने चित्रांगदा की ठुड्डी पकड़ी और उसकी आँखों में देखा। "मैं तुम्हें यह कभी भूलने नहीं दूँगा।"

    चित्रांगदा काँप गई। उसका दिमाग भागना चाहता था, लेकिन उसका शरीर हिल नहीं पाया।

    अभिराज की आँखों में गुस्सा था। लेकिन उसमें कुछ और भी था—कुछ बहुत खतरनाक।

    कमरा बहुत सुंदर था, लेकिन चित्रांगदा को लगा कि वह एक सोने के पिंजरे में बंद हो गई है। यह एक ऐसी लड़ाई थी, जिससे बचना मुश्किल था।


    शानदार होटल के एक कोने में, जहाँ सगाई की पार्टी की चमक नहीं पहुँच रही थी, एक अंधेरा कमरा था। वहाँ ठंडी हवा थी, और सिर्फ एक मोमबत्ती जल रही थी। उसकी रोशनी से दीवारों पर डरावने साये बन रहे थे।

    एक औरत ज़मीन पर बैठी हुई थी। उसका शरीर ठंडे फर्श पर सिमटा हुआ था। उसके लंबे, बिखरे बाल उसके चेहरे पर थे, लेकिन उसकी पागल आँखें साफ़ दिख रही थीं। अचानक, उसके होठों से हल्की हँसी निकली, जो धीरे-धीरे तेज़ और डरावनी हँसी में बदल गई।

    "बेचारा अभिराज…" उसने धीरे से कहा। उसकी आवाज़ में ज़हर और मज़ाक था। "वह सोचता है कि वह बेचारी चित्रांगदा उसकी बहन की हालत की वजह है।" फिर वह फिर से हँसने लगी। "वह बहुत पागल है… बहुत अंधा है।"

    उसकी उंगलियाँ ज़मीन पर अजीब-अजीब आकृतियाँ बना रही थीं। वह हल्के-हल्के आगे-पीछे झूल रही थी, जैसे किसी और दुनिया में खो गई हो।
    "उसे जो सोचना है, सोचने दो," उसने फुसफुसाया। "इससे खेल और मज़ेदार हो जाएगा।"

    मोमबत्ती की लौ अचानक तेज़ हुई, जैसे उसकी खतरनाक बातों को महसूस कर रही हो। कमरे में अंधेरा और भी डरावना हो गया। उसकी हँसी गूँज रही थी—ठंडी, पागलपन से भरी और बर्बादी का इशारा करती हुई।

    धीरे-धीरे उसकी हँसी बंद हुई। उसके चेहरे पर एक अजीब मुस्कान आ गई। वह ज़मीन से उठी, उसके नंगे पैर ज़मीन पर कोई आवाज़ नहीं कर रहे थे। वह बिलकुल परछाईं की तरह हिली। उसके हाथ दीवार को छूते हुए एक कोने में पहुँचे।

    मोमबत्ती की हल्की रोशनी मुश्किल से वहाँ तक पहुँच रही थी। लेकिन उसे कोई रोशनी नहीं चाहिए थी। वह इस जगह को अच्छी तरह जानती थी।

    उसकी आँखें सामने की दीवार पर टिक गईं। वहाँ बहुत सारी तस्वीरें लगी हुई थीं।

    दर्द की तस्वीरें।

    उसके चेहरे पर हल्की हँसी आई। उसकी आँखें तस्वीरों पर घूम रही थीं।

    चित्रांगदा—आँसुओं से भरा चेहरा, उसकी शादी की पहली रात। उसकी आँखें खाली थीं, उसके होंठ काँप रहे थे।

    एक और फोटो—अभिराज, गुस्से से भरा चेहरा। उसका हाथ हवा में, जो चित्रांगदा के गाल पर पड़ रहा था।

    एक और—अभिराज, चित्रांगदा के ऊपर झुका हुआ, उसके कठोर शब्द चित्रांगदा के दिल को चीर रहे थे।

    औरत ने हाथ बढ़ाया, उसकी उंगलियाँ एक तस्वीर को हल्के से छू रही थीं। उसमें चित्रांगदा रो रही थी।
    "कितनी कमजोर…" उसने धीमे से कहा। उसके होंठों पर मज़ाक उड़ाने वाली मुस्कान थी। "रो रही है, टूट रही है… कितनी बेकार लड़की है।"

    फिर उसने तेज़ हँसी हँसी।
    "और अभिराज… कितना बेवकूफ। गुस्से में इतना अंधा कि उसे सामने की सच्चाई नहीं दिख रही।"

    वह एक कदम पीछे हटी। उसकी आँखों में चमक थी। उसने अपनी बनाई इस तस्वीर को देखा—दर्द, बिखराव, और ज़िंदगी में आई दरारें। वह इन दरारों को और बड़ा कर रही थी, जैसे कोई माली अपने बगीचे का ध्यान रखता है।

    उसकी आँखें चमकीं। उसने धीरे से कहा, "यह तो बस शुरुआत है।"

    वह दीवार से हट गई। उसने गहरी साँस ली। उसकी आँखों में एक खतरनाक चमक थी।

    खेल अभी खत्म नहीं हुआ था।

    बहुत जल्द… बहुत बहुत जल्द… वह अपना अगला कदम उठाने वाली थी।


    मैं रो रही थी क्योंकि यह राक्षस पिछले पाँच घंटों से मुझे इस तरह व्यवहार कर रहा था। मैं रो रही थी और भीख माँग रही थी, लेकिन यह जानवर मुझे छोड़ नहीं रहा था।

    मैंने रोते हुए कहा,
    "अभिराज जी, please दया करो, please मुझ पर कुछ दया करो, मैं बहुत दर्द में हूँ, please मुझे छोड़ दो।"

    लेकिन उसने मेरी सारी pleading को नज़रअंदाज़ कर दिया और अपनी हरकतें बढ़ा दीं। और मुझे पागलों की तरह मारना शुरू कर दिया। इस बार मैंने चिल्लाना शुरू कर दिया और अपने पैरों को हिलाना शुरू कर दिया जिससे वह निश्चित रूप से चिढ़ गया। उसने मेरे बालों को पकड़ते हुए कहा,
    "क्या हुआ? तुम मज़ा क्यों नहीं ले रही हो? तुम्हें यह पसंद है ना? मैं तुम्हें संतुष्ट कर रहा हूँ ना? फिर तुम क्यों रो रही हो?"

    मैंने रोते हुए कहा,
    "please मुझे छोड़ दो, मैं मर जाऊँगी, मुझे अपने vagina में दर्द हो रहा है, please मुझे छोड़ दो।"

    मुझे नहीं पता कि उसे क्या हुआ। उसने कुछ मिनटों तक मेरे चेहरे को घूरा, फिर वह मेरे बगल में लेट गया और मेरे vagina को छुआ। उसने कहा,
    "तुम्हें यहाँ दर्द हो रहा है?"

    मैंने कुछ नहीं कहा क्योंकि मैं रो रही थी। तो बिना कुछ कहे उसने अपनी उंगली मेरी vagina में डाली और फिर उसने फिर कहा,
    "तुम्हें दर्द हो रहा है?"

    मैंने कहा, "हाँ…हाँ…"

    बिना एक पल इंतज़ार किए उसने जो किया वो वाकई अप्रत्याशित था।

    उसने मेरी कमर पकड़ी और मेरे vagina को चूमना शुरू कर दिया। और फिर उसने उसे चाटना शुरू कर दिया। मेरे शरीर में सुख की लहर दौड़ गई। मैंने कहा,
    "please ऐसा मत करो।"

    लेकिन उसने इसे अनदेखा कर दिया और अपनी जीभ की हरकत शुरू कर दी और इस बार और तेज़ी से चाटने लगा। और बिना किसी चेतावनी के मैं उसके मुँह में जैसे फव्वारा बनकर बह निकली। उसने अपने होठों को चाटते हुए कहा,
    "तुम्हारा nectar बहुत sweet है, मुझे बहुत पसंद है।"

    फिर अगले एक घंटे तक उसने मेरे vagina के साथ यही किया और मुझे बहुत शर्म और घिन आ रही थी कि मेरा शरीर उसके स्पर्श पर कैसे प्रतिक्रिया कर रहा था। मैं उसके मुँह में कैसे आई थी, इस बार मुझे सचमुच लग रहा था कि मैं slut हूँ…

    ये सब करने के बाद वो थक गया और मैं भी, और मुझे नहीं पता कि मैं कब सो गई।

  • 14. Arrival of grandparents

    Words: 4082

    Estimated Reading Time: 25 min

    सुबह की हल्की रौशनी होटल के कमरे में धीरे-धीरे घुस रही थी। कमरे में हर तरफ बिखराव था। चादरें उलझी हुई थीं, और हवा में अब भी पसीने और जबरदस्ती का असर महसूस हो रहा था। पिछली रात क्या हुआ था, उसकी गूंज अब भी कमरे की खामोशी में बनी हुई थी।

    चित्रांगदा की आँखें धीरे से खुलीं, लेकिन फिर झट से बंद हो गईं क्योंकि उसके पूरे शरीर में तेज़ दर्द उठ गया। उसका हर हिस्सा दुख रहा था। वह हिलने की कोशिश करती थी, लेकिन उसके पैर कांपने लगे थे। उसे अपने मुँह में कड़वाहट महसूस हुई थी—गुस्सा, घिन, और सबसे बुरा… बेबसी।

    कोई चलने की आवाज़ सुनकर उसकी सोच टूटी। अभिराज खिड़की के पास खड़ा था, अच्छे से तैयार। उसके चेहरे पर वही सख्त तेवर थे। उसने चित्रांगदा की ओर देखा, जैसे कुछ सोच रहा हो। जब उसने उठने की कोशिश की, तो उसके मुँह से हल्की चीख निकल गई क्योंकि दर्द फिर से जाग गया था।

    अभिराज के चेहरे पर हल्की सी मुस्कान आ गई थी।
    "कमज़ोर," उसने धीरे से कहा और उसकी ओर बढ़ा।

    चित्रांगदा ने गुस्से से उसे देखा। उसे यह आदमी बिलकुल पसंद नहीं था। उसे खुद पर गुस्सा आ रहा था कि वह ऐसे इंसान से मिली थी। लेकिन सबसे ज़्यादा दुख उसे इस बात का था कि वह उसके सामने कुछ भी नहीं कर पा रही थी।

    जब अभिराज ने उसे छूने की कोशिश की, तो वह पीछे हट गई।
    "मुझे मत छुओ!" उसने गुस्से में कहा और उसका हाथ हटाने लगी, लेकिन उसमें ताकत नहीं थी।

    अभिराज ने उसकी बात अनसुनी करते हुए उसे गोद में उठा लिया।
    "ज़्यादा हिलोगी तो और दर्द होगा," उसने बिना किसी फीलिंग के कहा।

    उसने अपना चेहरा घुमा लिया, गले में फंसी हुई बेइज़्ज़ती की गांठ को निगलने की कोशिश की। अभिराज उसे बाथरूम में ले गया। वहाँ पहले से ही गरम भाप फैली हुई थी। चंदन और गुलाबजल की खुशबू पूरे कमरे में थी, लेकिन चित्रांगदा को लग रहा था जैसे उसकी त्वचा से अब भी गंदगी चिपकी हो।

    अभिराज ने उसे ठंडी संगमरमर की सीट पर बैठाया और उसकी साड़ी के घेरे को सुलझाने लगा। चित्रांगदा को जैसे सांस रुक गई थी।

    "बाहर जाओ!" वह गुस्से में बोली, उसके नाखून उसकी हथेलियों में धंस गए थे। "मुझे तुम्हारी मदद की ज़रूरत नहीं है!"

    अभिराज हल्का सा हंसा, उसकी हंसी ठंडी और ताना मारने वाली थी।
    "तुम चल भी नहीं सकती, और फिर भी लगता है कि तुम्हारे पास कोई चॉइस है?"

    उसकी सांस अटक गई जब अभिराज ने साड़ी खोलनी शुरू की थी। उसके हाथ ठंडे और सीधे थे, जैसे किसी चीज़ को पकड़ रहे हों, इंसान को नहीं। चित्रांगदा ने अपनी आँखें कसकर बंद कर लीं, उसका मन घिन से भर गया था। उसे लग रहा था जैसे कोई उसके कपड़े ही नहीं, उसकी इज़्ज़त भी छीन रहा हो।

    पानी गरम था, लेकिन वह गंदगी को धो नहीं पाया जो वह महसूस कर रही थी। वह चुपचाप बैठी रही, बिल्कुल सख्त होकर। अभिराज के हर टच से उसकी नफ़रत और बढ़ती जा रही थी। वह चीखना चाहती थी, उसे धक्का देना चाहती थी, लेकिन शरीर साथ नहीं दे रहा था।

    उसकी आँखों में आँसू भर आए थे, पर उसने उन्हें बहने नहीं दिया। वह अभिराज को यह खुशी नहीं देना चाहती थी।

    जब उसने उसे तौलिये में लपेटा, चित्रांगदा चाहती थी कि उसे दूर धकेल दे, लेकिन बस सहती रही। उसका छूना, उसका कंट्रोल, यह सब उसे झेलना पड़ा… जैसे वह कोई सामान हो।

    अभिराज ने उसे गहरे लाल रंग की साड़ी पहनाई, उसके हाथ फुर्तीले थे, जैसे पहले भी कई बार किया हो। चित्रांगदा चुपचाप खड़ी रही, अंदर से उबकाई सी आ रही थी।

    "अब तुम मेरी रानी लग रही हो," उसने धीमे से कहा, उसके आवाज़ में जैसे कोई दावा था।

    चित्रांगदा ने अपनी मुट्ठियाँ कस लीं, नाखून उसकी त्वचा में धंस गए थे। वह मर जाना पसंद करेगी, लेकिन उसकी कुछ भी नहीं बनेगी।

    घर तक का रास्ता पूरा चुपचाप बीता। चित्रांगदा कार की सीट पर एकदम सीधी बैठी थी, उसकी आँखें सामने सड़क पर थीं, लेकिन मन कहीं और था। कार का हल्का शोर ही दोनों के बीच एकमात्र आवाज़ थी, लेकिन बाहर बिहार की सड़कों पर नवंबर की शुरुआत में रौनक फैली हुई थी।

    छठ पूजा बस दो दिन दूर थी और हर कोना तैयारियों में डूबा हुआ था। कहीं गन्ने के ढेर लगे थे, कहीं ठेकुए और पूजा का प्रसाद बिक रहा था। औरतें फल और पूजा की टोकरी लेकर इधर-उधर जा रही थीं। धूप-गुग्गुल की खुशबू ठंडी हवा में घुली हुई थी, वह खुशबू जो बचपन से जुड़ी हुई थी।

    चित्रांगदा ने अपनी साड़ी को मुट्ठी में भींच लिया। उसके सामने जैसे पुरानी यादें तैरने लगीं—उसकी भाभी गौरी की, जो सुबह-सुबह ठंडे पानी में कमर तक खड़ी होकर पूजा करती थीं, आँखें बंद, हाथ जुड़े। वह सोप की आवाज़, औरतों के भजन, शंख की गूंज… सब याद आने लगा।

    उसका भाई विवान हमेशा भाभी के साथ होता था। सारा अरग का सामान लाता, उनके व्रत में हर कदम पर साथ देता। वह प्यार और अपनापन… सब याद करके चित्रांगदा का दिल कसक उठा।

    लेकिन अब… वह यहां थी। इस कार में। उस आदमी के साथ जिसने उसकी पूरी ज़िंदगी छीन ली थी।

    उसने आँसू रोकने के लिए होंठ काट लिए, खुद को संभालने की कोशिश की।

    दूसरी ओर, अभिराज चुपचाप गाड़ी चला रहा था। उसका ध्यान भी जैसे कहीं और था।

    सड़कों की पूजा वाली रौनक ने उसके अंदर कुछ जगा दिया था… कुछ जो उसने सालों पहले दफन कर दिया था। उसे अब भी याद था, कैसे उनके पुराने घर में दीयों की रोशनी होती थी, बेलपत्र की खुशबू आती थी।

    उसकी माँ…

    वह हर साल पूरे विश्वास से छठ का व्रत करती थीं। उसे अब भी याद था, वह नारंगी साड़ी में नदी किनारे खड़ी रहती थीं, भीगे बाल चेहरे से चिपके रहते थे, और वह हाथ जोड़कर सूरज को प्रणाम करती थीं। अभिराज तब बच्चा था, माँ से चिपककर रोता था कि ठंड लग रही है, भूख लगी है… उसे समझ नहीं आता था कि यह सब करने की क्या ज़रूरत है।

    लेकिन उसने बस हल्की सी मुस्कान के साथ उसके माथे पर एक छोटा सा प्यारा सा किस किया था।
    "एक दिन, अभिराज, तुम्हें समझ आएगा कि हम यह सब क्यों करते हैं। वह एहसास तुम्हारे दिल तक पहुँचेगा।"

    और अब, इतने सालों बाद, जब वह बिहार की सड़कों पर छठ पूजा की तैयारियों को देख रहा था, कुछ उसके अंदर टूट सा गया था।

    अब उसकी माँ इस दुनिया में नहीं थीं। उसका भरोसा भी कब का खत्म हो चुका था।

    उसने एक लंबी साँस ली, सिर झटककर उन सब यादों को दिमाग से बाहर किया। अब इन सब बातों को सोचने से फायदा ही क्या था, जो अब वापस आने वाली नहीं थीं?

    उसके बगल में चित्रांगदा एकदम चुप बैठी थी, जैसे किसी गहरी सोच में हो। उसकी नज़रें खिड़की से बाहर थीं, और उसकी उंगलियाँ साड़ी के पल्लू को जोर से पकड़ रही थीं। उसके चेहरे पर एक हल्की सी तकलीफ की परछाईं थी—जो अभिराज की नज़रों से छुपी नहीं थी।

    उसने यह नहीं पूछा कि चित्रांगदा क्या सोच रही है।

    और चित्रांगदा ने भी नहीं पूछा कि वह क्या सोच रहा है।

    सामने का रास्ता लंबा था, अनजान। दो लोग जो अपने-अपने अतीत में उलझे हुए थे, एक ऐसे सफ़र पर थे जो उन्होंने खुद नहीं चुना था।

    बाहर छठ पूजा की आवाज़ें थीं, माहौल में मिठास और हलचल थी।

    लेकिन गाड़ी के अंदर सिर्फ़ सन्नाटा था।


    जैसे ही मैंने विला के अंदर कदम रखा, मेरे दिल में एक अजीब सी शांति सी भर गई थी। सफ़र लंबा था, लेकिन मैं थका नहीं था। कम से कम बाहर से तो नहीं। मैं उस चुप्पी का आदी हो गया हूँ—वह चुप्पी जो बाहर नहीं, अंदर होती है।

    लेकिन जैसे ही मेरी नज़र लिविंग रूम पर पड़ी, उस सन्नाटे में दरार आ गई थी।

    वहाँ सोफे पर दो लोग बैठे थे, जैसे वे इस घर के ही हों—और किसी मायने में, वे थे भी। वे थे मेरे दादाजी और दादी।

    मैं चौंक गया—ये लोग यहाँ क्या कर रहे हैं?

    दादाजी हमेशा की तरह सीधे बैठे थे, उनकी नज़र मुझ पर टिकी हुई थी। उम्र भले ही बढ़ गई थी, लेकिन उनकी आँखों की तेज़ी अब भी वैसी ही थी। वे वैसे इंसान थे जिन्हें इज़्ज़त देने के लिए किसी को मजबूर नहीं करना पड़ता था—लोग खुद ही उन्हें मानते थे। उनके बगल में दादी जी थीं—एकदम शांत, सिंपल कॉटन की साड़ी में, हाथ गोदी में रखे हुए। लेकिन मैं जानता था, उनकी नरमी सिर्फ़ दिखाने के लिए थी—वे अंदर से उतनी ही मज़बूत थीं जितने दादाजी।

    एक पल के लिए मुझे लगा जैसे मैं फिर से वही छोटा बच्चा बन गया हूँ—जो कोई गलती करके पकड़ा गया हो। लेकिन अब मैं बच्चा नहीं था।

    मैंने अपने जबड़े कस लिए और अपने चेहरे पर वह हमेशा वाला सीरियस एक्सप्रेशन डाल लिया।
    "दादाजी… दादी… आप लोग यहाँ क्यों आए हैं?"

    दादाजी के होंठों पर हल्की सी मुस्कान आई थी, जो ज़्यादा सवालों वाली लग रही थी।
    "तुम्हें उम्मीद नहीं थी कि हम आएंगे?" उनकी आवाज़ में वही पुरानी सख्ती थी।

    मैंने कुछ नहीं कहा। ज़रूरत भी नहीं थी। उन्हें पता था कि मैं चौंका हुआ था।

    तभी दरवाज़े की तरफ़ हलचल हुई। चित्रांगदा।

    वह वहीं रुक गई थी, जैसे किसी ने उसे रोक दिया हो। उसके हाथ साड़ी के पल्लू को कसकर पकड़ रहे थे, जैसे वह उसमें छिप जाना चाहती हो। होटल से निकलने के बाद पहली बार मैंने उसे गौर से देखा। वह थकी हुई लग रही थी—चेहरा बुझा-बुझा सा, आँखें थकी हुई, और उसका पूरा शरीर जैसे किसी बोझ को झेलने की कोशिश कर रहा हो। अब वह मेरी पत्नी थी। और चाहे उसे पसंद हो या नहीं, अब उसे यह रिश्ता निभाना पड़ेगा।

    मैंने दादा-दादी की तरफ़ देखा, फिर उसकी तरफ़। एक हल्का सा इशारा किया।

    वह समझ गई।

    थोड़ी देर हिचकिचाई, लेकिन फिर धीरे-धीरे आगे बढ़ी। उसके कदम धीमे और अनिश्चित से थे। बिना कुछ बोले उसने झुककर उनके पैर छुए।

    "सदा सुहागन रहो," दादी जी ने प्यार से कहा।

    मैंने साफ़ देखा—जैसे चित्रांगदा का पूरा शरीर एक पल को सख्त हो गया हो। उसकी आँखों में कुछ अजीब सा था। नफ़रत? दर्द? या कोई चीख, जो वह बाहर नहीं निकाल पा रही थी?

    वह खड़ी हो गई, सिर थोड़ा झुका हुआ, चेहरा एकदम सपाट।

    मैंने गहरी साँस ली, मेरी झुंझलाहट अब बढ़ रही थी।
    "दादाजी, दादी, आप लोग यहाँ क्यों आए हैं?"

    दादाजी थोड़ा आराम से बैठ गए, जैसे उन्हें कोई जल्दी नहीं थी।
    "हम अपने पोते और उसकी नई बहू से मिलने आए हैं," उन्होंने एकदम ठंडे लहजे में कहा। उनकी आवाज़ शांत थी, लेकिन उसमें जो बात छुपी थी, मैं उसे अच्छे से समझ रहा था।

    मैंने सिर सीधा किया, कंधे सीधे किए। मेरे दादा-दादी अब उम्रदराज़ हो चुके थे और अब किसी से मिलने जाना उन्होंने लगभग बंद कर दिया था। अगर वे खुद यहाँ आए हैं, तो बस यूँ ही नहीं आए। उन्हें जवाब चाहिए थे।

    दिग्विजय सिंह राजपूत—मेरे दादाजी—हमेशा से एक ताकतवर इंसान रहे हैं। आज भी, अस्सी की उम्र में भी, उनका रौब पूरे कमरे को खामोश कर देता है। और जुगनी सिंह राजपूत, मेरी दादी, भी उनसे कम नहीं। उन्होंने कभी किसी से ऊँची आवाज़ में बात नहीं की, और ना ही कभी इज़्ज़त माँगी—ज़रूरत ही नहीं पड़ी।

    मुझे पता था, अब वे क्या कहने वाले हैं।

    "अभिराज," उनके लहजे में नरमी थी, लेकिन उसमें छुपा दबाव साफ़ झलक रहा था,
    "तूने शादी कर ली और घर में किसी को बताया तक नहीं?"

    मैं चुप रहा। कभी-कभी चुप्पी ही सबसे बड़ा जवाब होती है।

    "एक शब्द भी नहीं?" दादी ने भी पूछा, थोड़ा दुखी होकर।
    "हमने तो सपना देखा था तेरी शादी देखने का—ढेर सारी रस्मों और खुशियों के साथ बहू का स्वागत करने का। लेकिन हमें तो किसी और से यह बात पता चली?"

    उनकी आवाज़ में जो मायूसी थी, वह मुझे अंदर तक चुभ गई थी।

    "और इसे देखो," दादाजी ने चित्रांगदा की तरफ़ इशारा करते हुए कहा।
    "इतनी सुंदर दुल्हन। फिर भी तुझे ज़रूरी नहीं लगा कि अपने परिवार को बता सके?"

    चित्रांगदा थोड़ी और सीधी होकर खड़ी हो गई, लेकिन चुप रही। समझदार थी।

    मैं भी वैसे ही खड़ा रहा, हाथ जेब में डाले, जबड़े अब भी सख्त।

    "क्या सोच रहे थे तुम, अभिराज?" दादी ने पूछा, अब उनकी आवाज़ थोड़ी नरम थी। "हम बस तुम्हारी शादी देखना चाहते थे, तुम्हें अपना आशीर्वाद देना चाहते थे। क्या यह बहुत ज़्यादा मांग लिया था हमने?"

    मेरे हाथ जेब में मुट्ठी बनाकर भींच गए थे। उन्हें क्या समझ आता? कैसे समझते?

    मैंने चित्रांगदा से प्यार में शादी नहीं की थी। ना कोई धूमधाम हुई थी, ना कोई सात फेरे, ना भगवान के सामने कोई कसमें-वादे। बस मेरा एक फैसला था—ठंडा, सोचा-समझा और आखिरी।

    "अचानक हुआ सब," मैंने आखिरकार कहा, मेरी आवाज़ में कोई एहसास नहीं था। "घोषणा करने का वक़्त नहीं था।"

    "अचानक?" दादाजी हँसे, वे भी कटाक्ष भरी हँसी। "हम कोई बेवकूफ़ हैं क्या? शादी कभी अचानक नहीं होती। अगर ज़रूरी था, तो सबसे पहले हमें बताना चाहिए था। लेकिन हमें तो बस अफ़वाहों से ही पता चला!"

    अब मेरी सहनशक्ति जवाब दे रही थी। चित्रांगदा की चुप्पी मेरे पास खड़ी थी, जैसे उसने याद दिलाया हो कि मैंने कैसी गड़बड़ की है।

    "बस करो," मैंने सीधा कहा। "शादी हो चुकी है। अब वह मेरी बीवी है। जो होना था, हो गया।"

    दादी ने लंबी साँस ली, उनके झुर्रीदार चेहरे पर साफ़ मायूसी थी।
    "हमने तुम्हें इससे बेहतर तरीके से पाला था, अभिराज।"

    मेरे जबड़े कस गए, लेकिन मैंने कुछ नहीं कहा।

    "कम से कम यह तो कहो कि सब कुछ सही करोगे," दादाजी बोले। "बहू को घर में ढंग से लाना चाहिए, एक शादी का जश्न, एक स्वागत समारोह। कुछ तो जिससे दुनिया को पता चले कि चित्रांगदा अब हमारे खून की हिस्सेदार है।"

    मैंने कोई रिएक्शन नहीं दिया, लेकिन अंदर से मैं समझ गया था—यह अनुरोध नहीं था। यह उम्मीद थी। और दादाजी की उम्मीदें अनदेखी नहीं की जा सकती थीं।

    मैंने चित्रांगदा की तरफ़ देखा। उसकी उंगलियाँ साड़ी के पल्लू को हल्के से पकड़ रही थीं, थोड़ी कांप रही थीं, लेकिन चेहरा पूरी तरह से भावहीन था। उसने अब तक एक भी शब्द नहीं बोला था, ना ही एक बार नज़रें उठाई थीं।

    उससे पहले कि मैं कुछ और बोलूँ, दादी अचानक आगे बढ़ीं और चित्रांगदा का हाथ पकड़ लिया।

    "बेटा," उन्होंने नरमी से कहा, "हमें नहीं पता कि यह शादी कैसे हुई, और सच कहें तो अब इससे फ़र्क भी नहीं पड़ता। अब तुम हमारी बहू हो। और आज से हमारी पोती, हमारे परिवार की बेटी हो।"

    पहली बार जब से हम घर में घुसे थे, चित्रांगदा ने अपनी नज़रें उठाईं, आँखें थोड़ी चौड़ी हो गईं। शायद इतनी गर्मजोशी की उम्मीद नहीं थी, लेकिन वह फिर भी चुप रही।

    दादाजी ने भी हामी भरी।
    "अब तुम सिंह राजपूत परिवार की बहू हो, चित्रांगदा। यह घर तुम्हारा है। जो भी हुआ, भूल जाओ। अब तुम इस घर का हिस्सा हो।"

    दादी मुस्कुराईं, और चित्रांगदा के सिर पर हाथ फेरकर आशीर्वाद दिया।
    "और सुन लो, चाहे हमारा अभिराज जितना भी ज़िद्दी क्यों न हो, हम यह सुनिश्चित करेंगे कि तुम्हें इस घर की बहू के सारे हक़ मिलें। और जहाँ तक शादी का जश्न है, उस पर कोई बहस नहीं होगी। हम सब कुछ ठीक से करेंगे।"

    मेरे जबड़े फिर से भींच गए। उन्हें तो यही करना था। उन्हें हमेशा एक शानदार शादी चाहिए थी, जश्न का मौका। और अब वे उसकी भरपाई अपनी तरह से कर रहे थे।

    चित्रांगदा अब भी वहीं खड़ी थी, हिली तक नहीं। शायद समझ नहीं पा रही थी कि कैसे रिएक्ट करे। उसकी उलझन साफ़ दिख रही थी, लेकिन दादी फिर भी मुस्कुराईं और मेरी तरफ़ मुड़ीं।

    "बहुत छुपते फिर लिए तुम, अभिराज," उन्होंने सख्ती से कहा। "अब यह शादी सिर्फ़ तुम्हारे बारे में नहीं है। यह परिवार की बात है। और परिवार को तो खुश होने का हक़ बनता है।"

    मैंने गहरी साँस ली, मुझे पता था अब बहस का कोई फायदा नहीं।

    "बाद में बात करेंगे," मैंने कहा, लहजे में साफ़ साफ़ था कि मुद्दा यहीं ख़त्म।

    मैं अभी उनके चित्रांगदा को स्वीकार करने की बात को पचा भी नहीं पाया था कि दादी ने फिर बोल दिया, इस बार प्यार भरी सख्ती के साथ।

    "और, चित्रांगदा," उन्होंने मुस्कुराकर कहा, "अब जब तुम इस घर की बहू हो, तो इस साल तुम्हें छठ का व्रत रखना होगा।"

    चित्रांगदा के हाथ हल्के से हिले, और मैंने महसूस किया कि उसका पूरा शरीर थोड़ा सा सख्त हो गया। मुझे उसकी तरफ़ देखने की ज़रूरत नहीं थी—मैं समझ गया था। यह उसके लिए बिल्कुल अनपेक्षित था।

    "दादी," मैंने कहा, झुंझलाहट साफ़ थी मेरी आवाज़ में, लेकिन दादाजी ने हाथ उठा दिया, और उनके एक इशारे ने मुझे चुप करा दिया।

    "यह हमारी परंपरा है, अभिराज," उन्होंने सख्त लहजे में कहा। "हर नई दुल्हन हमारे घर में पहले साल छठ का व्रत रखती है। तुम्हारी माँ ने रखा था, तुम्हारी बुआओं ने भी रखा। अब चित्रांगदा रखेगी।"

    दादी ने भी सिर हिलाया।
    "यह सिर्फ़ व्रत नहीं होता, बेटा," उन्होंने समझाया, आवाज़ में प्यार भी था और दृढ़ता भी। "यह पूरे परिवार के लिए आशीर्वाद मांगने का तरीका होता है—पति के लिए, सुख-समृद्धि के लिए। बहू का पहला छठ बहुत ही पवित्र माना जाता है।"

    मुझे गुस्सा आ रहा था अंदर से। मुझे इन रिवाज़ों से कोई मतलब नहीं था, ना कभी हुआ। लेकिन दादी-दादाजी जैसे लोग—वे लोग परंपराओं से बंधे हुए थे, उनकी जड़ें उन्हीं में थीं। और अब वे उम्मीद कर रहे थे कि मेरी बीवी—जिसे मैंने जबरदस्ती अपने जीवन में खींचा—वह इन परंपराओं को निभाए।

    मैंने थोड़ा सा मुड़कर चित्रांगदा की तरफ़ देखा। उसका चेहरा अब भी खाली था, लेकिन मैं जानता था। उसके खड़े होने का तरीका, पल्लू पकड़ने का ढंग—सब कुछ बता रहा था। वह सिर्फ़ हैरान नहीं थी। वह डर रही थी।

    दादी ने उसकी चुप्पी को झिझक समझा।
    "चिंता मत करो, बेटा, मैं सब सिखा दूँगी तुम्हें। यह कठिन व्रत होता है, लेकिन मुझे पूरा भरोसा है कि तुम अपने पति के लिए करोगी।"

    चित्रांगदा की उंगलियाँ मुट्ठी में बदल गईं, और पहली बार उसने नज़रें उठाईं। ना विरोध था, ना आज्ञा—बस खालीपन था।

    "दादी… मैं—" वह धीरे से बोली, लेकिन उसकी आवाज़ अटक गई।

    मुझे पता था, वह क्या कहना चाहती थी। वह नहीं करना चाहती थी।

    मैंने गुस्से में साँस छोड़ी और बालों में हाथ फिराया।
    "दादी, रहने दो," मैंने कहा, हल्के झुंझलाहट भरे लहजे में। "उसे यह सब करने की ज़रूरत नहीं है।"

    बस इतना कहना था, और सब गड़बड़ हो गया।

    दादी-दादाजी दोनों ने एक साथ मेरी तरफ़ देखा, और दादाजी का चेहरा कड़ा हो गया।
    "अभिराज सिंह राजपूत," उन्होंने गुस्से से कहा, "तुम्हें याद है ना, किससे बात कर रहे हो?"

    मैंने होंठ भींच लिए, जवाब नहीं दिया।

    "कब से हमने परंपराएँ तोड़नी शुरू कर दी?" दादी ने भी जोड़ दिया, उनके चेहरे पर साफ़ नाराज़गी थी। "अगर तुम्हारी माँ आज ज़िंदा होती, तो वह यह व्रत खुद अपनी बहू से करवाती।"

    मैंने मुट्ठियाँ कस लीं, कुछ भी बोलने से पहले खुद को रोका। उन्होंने 'माँ' का नाम लिया था। इतने सालों बाद भी, उनका नाम सुनते ही दिल भारी हो जाता था।

    दादी ने फिर चित्रांगदा की तरफ़ रुख किया और उसके हाथ अपने हाथों में ले लिए।
    "तुम करोगी ना, बेटा?"

    चुप्पी। हवा भारी हो गई थी।

    मैंने उसकी आँखों में उलझन देखी। वह बहस नहीं कर पाई। पहले से ही थकी हुई थी—शारीरिक रूप से, मानसिक रूप से। लेकिन दादी के चेहरे पर इतनी उम्मीद, इतना अपनापन था… कि अब मना करना मुश्किल था। और मुझे पता था, वह क्या करने वाली है।

    धीरे-धीरे, थोड़ा हिचकिचाते हुए, उसने सिर हिला दिया।
    "जी," उसने फुसफुसाकर कहा।

    मैंने गहरी साँस ली। वह मान गई थी। ना अपनी मर्ज़ी से। बल्कि इसलिए क्योंकि उसके पास कोई और रास्ता नहीं था।

    मैंने मुँह फेर लिया, अपने अंदर उमड़ते गुस्से को दबाते हुए। मुझे इस व्रत से कोई मतलब नहीं था। ना आशीर्वादों से, ना परंपराओं से। लेकिन दादी-दादाजी को था। और अब चित्रांगदा को भी रखना पड़ेगा। क्योंकि इस घर में परंपराएँ सवाल नहीं होतीं—वे हुक्म होती हैं। मुझे पहले ही समझ जाना चाहिए था।

    जिस पल दादी-दादाजी ने चित्रांगदा से व्रत रखने को कहा, मुझे पता था कि वे यहीं नहीं रुकेंगे। और मैं सही था।

    "अभिराज, अपनी पत्नी को बाज़ार लेकर जाओ," दादाजी ने आदेश दिया, अपने आरामदायक कुर्सी पर बैठते हुए, उस अंदाज़ में जिससे कोई बहस नहीं कर सकता था। "पूजा के लिए सब लाना होगा—गेहूँ, लकड़ी, दौरा, और अर्घ्य के लिए एक साड़ी भी।"

    मेरे जबड़े फिर से भींच गए। शॉपिंग? क्या व्रत के लिए उसे मजबूर करना ही काफी नहीं था? अब वे मुझसे यह भी चाहते थे कि मैं अच्छा पति बनकर शॉपिंग कराऊँ?

    "दादाजी, कोई और जा सकता है—" मैंने शुरू किया, लेकिन उनके तीखे नज़र ने मेरी बात वहीं रोक दी।

    "जाओ।"

    सिर्फ़ एक शब्द, लेकिन उसका असर ऐसा था कि और कुछ बोलने की हिम्मत नहीं बची।

    मैंने गहरी साँस ली और चित्रांगदा की तरफ़ देखा।
    "चलो," मैंने कहा, और बाहर की तरफ़ बढ़ गया।

    वह हमेशा की तरह चुपचाप पीछे आ गई।

    पटना की गलियाँ त्योहार के जोश में डूबी हुई थीं। हर तरफ़ छठ की तैयारियाँ—दुकानों के बाहर दौरे लगे हुए, गन्ने की बिक्री, औरतें साड़ियों पर मोलभाव कर रही थीं। हवा में फलों की खुशबू, धूपबत्ती और जलती लकड़ियों की महक थी।

    मुझे यह सब शोर-गुल पसंद नहीं था। मुझे भीड़ से नफ़रत थी। और सबसे ज़्यादा, मुझे इस बात से चिढ़ थी कि मैं यहाँ था—एक ऐसे त्योहार के लिए वक़्त बर्बाद कर रहा था, जिसमें मुझे कोई विश्वास नहीं था।

    "पहले क्या लेना है?" मैंने रूखे लहजे में पूछा, बिना उसकी तरफ़ देखे।

    "गेहूँ…" उसने धीरे से कहा। "प्रसाद के लिए चाहिए।"

    मैंने साँस छोड़ी और अनाज की दुकान की तरफ़ बढ़ गया। वहाँ गेहूँ के बोरे लगे थे। दुकानदार—एक अधेड़ उम्र का आदमी—चित्रांगदा को देखकर मुस्कुराया, जब उसने मात्रा बताई। उसकी नज़रें ज़्यादा देर टिकी रहीं। मेरी उंगलियाँ मुट्ठी में बदल गईं। कुछ बोलने ही वाला था कि वह खुद ही पीछे हट गई, उसकी नज़रें झुकी हुई थीं, और मेरी तरफ़ मुड़ी।

    "हो गया," उसने फुसफुसाया।

    मैंने पैसे फेंके काउंटर पर और खुद उस बोरी को उठा लिया, जानबूझकर दुकानदार को धक्का देते हुए। वह थोड़ा लड़खड़ाया, डर के मारे कुछ बोला भी नहीं। अक्लमंदी दिखाई उसने।

    इसके बाद लकड़ी खरीदनी थी। भीड़ ज़्यादा थी, लोग दाम चिल्ला रहे थे, औरतें लकड़ियों की जाँच कर रही थीं। मेरा पारा चढ़ता जा रहा था।

    "जल्दी करो," मैंने चित्रांगदा पर झल्लाकर कहा।

    वह थोड़ी सकुचाई, लेकिन कुछ नहीं बोली। जल्दी-जल्दी लकड़ियाँ पसंद कीं, और मैं उन्हें गाड़ी में रखवाने लगा।

    अब बारी थी दौरे की—बाँस की टोकरी। भीड़भाड़ वाले बाज़ार में हम पहुँचे जहाँ टोकरी लगी थी। चित्रांगदा एक टोकरी उठा रही थी तभी मैंने देखा, एक आदमी ज़रूरत से ज़्यादा उसके पास खड़ा था। बहुत पास। उसकी नज़रें उसकी कमर पर थीं, और हाथ धीरे से उसकी पीठ से छू गया।

    मेरे अंदर कुछ टूट गया। मैंने झट से उसका हाथ पकड़ा और मरोड़ दिया, उसकी चीख निकल गई।

    "साले, हाथ कैसे लगाया?" मेरी आवाज़ में गुस्से की कोई हद नहीं थी।

    "भैया, गलती से…" वह घबराया, लेकिन मुझे बहाने नहीं सुनने थे। मैंने उसे धक्का दे दिया, वह जाकर टोकरी के ढेर में गिरा।
    "अगली बार सोच के हाथ लगाना," मैंने घुड़कते हुए कहा।

    विक्रेता घबरा गया था, आसपास के लोग घूर रहे थे, लेकिन मुझे कोई फ़र्क नहीं पड़ा।

    मैंने चित्रांगदा की तरफ़ देखा।
    "अगली बार आवाज़ निकालो," मैंने डाँटते हुए कहा। "हर वक़्त ऐसे चुपचाप सहने से कुछ नहीं होगा।"

    उसने नज़रें झुका लीं, दौरा कसकर पकड़ लिया। मैंने जवाब की उम्मीद भी नहीं की। बस मुड़कर चल दिया।

    अब बची थी साड़ी की खरीदारी। मुझे साड़ी की दुकानें बिल्कुल नहीं पसंद—छोटा सा टाइट स्पेस, कपड़ों की मिली-जुली महक, ज़रूरत से ज़्यादा चहकते दुकानदार।

    "जल्दी से कुछ चुनो," मैंने कहा, खंभे से टेक लगाकर खड़ा हो गया।

    उसने चुपचाप एक गहरे मरून रंग की साड़ी चुनी जिसमें सुनहरी कढ़ाई थी। वह सादी थी, लेकिन खूबसूरत।

    "यही?" मैंने पूछा।

    उसने सिर हिलाया।

    मैंने इशारे से दुकानदार को पैक करने को कहा, पैसे दिए और बाहर निकल आया।

    घर वापस लौटते वक़्त मैंने उसकी तरफ़ देखा। वह खिड़की से बाहर देख रही थी, साड़ी का बैग कसकर पकड़े हुए।

    "क्या दिक्कत है तुम्हें?" मैंने बड़बड़ाते हुए पूछा। "इतनी चुप क्यों हो?"

    उसने कोई जवाब नहीं दिया। मैंने मुँह बिचकाया और फिर रोड की तरफ़ देखा। अभी तो त्योहार शुरू भी नहीं हुआ था—और यह दिन बहुत लंबे लगने वाले थे।

  • 15. Devotions

    Words: 1708

    Estimated Reading Time: 11 min

    छठ पूजा का पहला दिन था। राजपूत हवेली में पूजा-पाठ और भागदौड़ का अलग ही माहौल था। हवेली के अंदर वाले मंदिर में अगरबत्ती और ताज़ा पकवानों की खुशबू फैल रही थी। नौकर-चाकर फल, गन्ना और मिट्टी के दीए लेकर इधर-उधर दौड़ रहे थे। उनकी बातें और भागदौड़ त्योहार की हलचल को बढ़ा रही थीं।

    इन्हीं तैयारियों के बीच चित्रांगदा हवेली के बड़े किचन में अकेली खड़ी थी। उसके हाथ प्यार से प्रसाद बना रहे थे। मिट्टी के दीयों की रौशनी उसके चेहरे पर पड़ रही थी, और उसकी आँखों में शांति और एकाग्रता दिख रही थी। वह ध्यान से गुड़ और आटा मिलाकर ठेकुआ बना रही थी।

    किचन में गर्मी थी। तभी अचानक किसी ने उसकी कमर पकड़ ली। वह चौंकी और हल्की सी साँस निकली। अभिराज ने उसे पीछे से कसकर पकड़ लिया था। उसका मजबूत शरीर उसके शरीर से सट गया था। उसकी गर्म साँसें चित्रांगदा के कान के पास लगीं, जिससे उसके रोंगटे खड़े हो गए और साँस अटक गई।

    "आजकल तो बड़ी अच्छी बन रही हो तुम," अभिराज ने धीरे से कहा, उसकी आवाज़ भारी और हुक्म भरी थी। "ऐसे ही बनी रहो...वरना क्या होगा, यह तुम्हें पता है।"

    चित्रांगदा की बॉडी अकड़ गई, और उसके हाथ में पकड़ा बेलन हिलने लगा। उसका दिल तेज़ धड़कने लगा – डर से और अभिराज के इतने पास होने से। उसने खुद को संभालने की कोशिश की।

    उसने गले से एक गूँट निगला और सामान्य आवाज़ में बोली, "मैं बस वही कर रही हूँ जो इस पूजा के लिए करना चाहिए, अभिराज। और कुछ नहीं।"

    अभिराज हल्का सा हँसा, फिर झुककर उसके और करीब हुआ। उसके होंठ धीरे से उसके कान के पीछे छूए। "अच्छा है। यही याद रखना हमेशा।"

    इससे पहले कि चित्रांगदा कुछ कह पाती, उसने उसे छोड़ दिया, लेकिन उसका हाथ कुछ सेकंड और रुका, फिर वह पीछे हटा। चित्रांगदा ने गहरी साँस ली और किचन की स्लैब को पकड़कर खुद को संभाला। उसे लग रहा था कि अभिराज की नज़र अब भी उस पर टिकी है, लेकिन फिर वह चला गया।

    किचन गरम था, फिर भी चित्रांगदा का शरीर काँप रहा था। बाहर छठ पूजा की तैयारियाँ चल रही थीं, लेकिन उसके दिल में एक जंग शुरू हो चुकी थी – किसी के नियंत्रण और उसके अपने मन की आवाज़ के बीच।

    रसोई गर्म थी, फिर भी वह काँप रही थी। बाहर छठ पूजा की तैयारियाँ हो रही थीं, लेकिन उसके मन में कुछ और ही चल रहा था—वह खुद से लड़ रही थी, किसी के बस में न आने देने की कोशिश कर रही थी और साथ ही डर भी रही थी।

    अभिराज फिर से उसके पास आया और उसकी कमर पर हल्के से हाथ रखा। उसकी आवाज़ धीमी थी, लेकिन उसमें दबाव साफ था।

    "तू कुछ नहीं बोलेगी, चित्रांगदा। किसी को कुछ भी बताने की ज़रूरत नहीं है, समझी?"

    उसका चेहरा बहुत पास था। चित्रांगदा की साँसें तेज हो गईं। उसके हाथ मुट्ठियों में बंध गए। वह उसे हटाना चाहती थी, कहना चाहती थी कि अब वह डरती नहीं—पर वह जानती थी, यह सही वक्त नहीं है।

    तभी रसोई का दरवाज़ा हल्के से चरचराया।

    "चित्रा?"

    जानी-पहचानी आवाज़ थी—दादी की।

    चित्रांगदा का चेहरा एक पल को डर से सफेद पड़ गया, लेकिन अभिराज ने हटने की कोशिश नहीं की। वह थोड़ी देर वहीं खड़ा रहा, फिर हल्की सी मुस्कान के साथ पीछे हटा।

    दादी ने दोनों को देखा, उनकी भौंहें थोड़ी सिकुड़ीं।

    "सब ठीक है न?" उन्होंने पूछा और चित्रांगदा के चेहरे की तरफ देखा जो थोड़ा लाल था।

    चित्रांगदा झट से स्टोव की तरफ मुड़ी।

    "हाँ दादी...बस यूँ ही, सोचते-सोचते खाना बना रही थी।"

    अब दादी की नज़र सीधी अभिराज पर पड़ी।

    "अच्छा। पूजा का मतलब होता है साफ़ मन और श्रद्धा। उम्मीद है, किचन में सब वैसे ही चल रहा है जैसे चलना चाहिए।"

    अभिराज के चेहरे पर वही हल्की सी मुस्कान बनी रही।

    "हाँ दादी, जैसा होना चाहिए, वैसा ही है।"

    चित्रांगदा ने अपने गले में उठी हुई गांठ को निगला और खुद को जबरदस्ती काम पर ध्यान देने को कहा। उसे पता था कि अभी बात यहीं खत्म नहीं हुई है।

    दादी आगे आईं और प्रसाद पर नज़र डाली।

    "बहुत अच्छा बनाया है बेटा। तेरी माँ होती तो बहुत खुश होती तुझ पर।"

    चित्रांगदा ने हल्की सी मुस्कान दी और सिर हिला दिया। वह अपनी पीठ पर अभिराज की नज़रें महसूस कर पा रही थी।

    "दादी, पूजा के लिए कुछ और चाहिए क्या?" उसने बात को जल्दी घुमाने की कोशिश की।

    "नहीं बेटा," दादी बोलीं, "बस टाइम का ध्यान रखना। पूजा में देर नहीं होनी चाहिए।"

    "हाँ, मैं सब देख लूंगी," उसने धीरे से जवाब दिया।

    दादी ने उसके गाल पर प्यार से हाथ रखा, फिर अभिराज की तरफ देखती हुई बोलीं,

    "और तू, इसे तंग मत किया कर। काम करने दे आराम से।"

    अभिराज ने हँसते हुए दोनों हाथ ऊपर कर दिए।

    "ठीक है दादी, जैसी आपकी मर्जी।"

    दादी उसे एक नजर देखकर बाहर चली गईं।

    जैसे ही वो गईं, चित्रांगदा ने लंबी साँस ली। लेकिन उसकी राहत ज़्यादा देर तक नहीं टिक पाई।

    अभिराज ने किचन की स्लैब पर हाथ टिकाते हुए कहा,

    "देखा? दादी को भी लगता है कि हम दोनों साथ में अच्छे लगते हैं।"

    चित्रांगदा ने उसे घूरते हुए कहा, "अभिराज, मुझसे दूर रहो।" उसकी आवाज़ में साफ गुस्सा था।

    अभिराज ने हल्की सी मुस्कान दी, लेकिन कुछ बोला नहीं। चुपचाप पलटा और चला गया। पीछे वो सिर्फ उलझनें छोड़ गया, जो चित्रांगदा के दिमाग में चल रही थीं।

    थोड़ी देर बाद, प्रसाद बन गया, तो चित्रांगदा थोड़ी देर बैठ गई। उसने थोड़ा सा प्रसाद चखा। उसे पता नहीं था कि दूर से अभिराज उसे देख रहा था। उसकी नज़रें उसी पर टिकी थीं।

    इसी बीच घर में अचानक हलचल होने लगी। राजपूत परिवार आ गया था।

    अभिराज का मूड एकदम खराब हो गया। जबड़ा कस गया, जैसे ही उसने देखा कि सारे रिश्तेदार अंदर घुस रहे हैं।

    उसे गुस्सा आ गया।

    "इन्हें बुलाया किसने?" – उसकी आवाज़ एकदम ठंडी थी।

    दिग्विजय सामने आए। उन्हें उसके गुस्से से कोई फर्क नहीं पड़ा। "मैंने बुलाया। त्योहार है, सबको साथ होना चाहिए।"

    अभिराज कुछ बोलता, उससे पहले ही एक ऊँची आवाज़ सुनाई दी –

    "अरे ये क्या है! यही है दामाद की इज़्ज़त? सबके लिए एयरपोर्ट से गाड़ी भेजी और मुझे बस स्टैंड से लेना पड़ा? ये कैसा बर्ताव है?"

    ये थे – इंद्रजीत फूफा। हमेशा शिकायत करते रहते हैं। उन्हें लगता है कि वो बहुत खास हैं।

    उन्होंने अपना शॉल ठीक किया और बोले,

    "किसी ने पूछा तक नहीं कि पानी चाहिए? चाय मिलेगी या नहीं? किसी ने देखा तक नहीं कि मैं आया हूँ! अब मेरी कोई वैल्यू ही नहीं रही क्या?"

    फिर उन्होंने दिग्विजय की तरफ देखा – "समधी जी, ये कोई तरीका है दामाद को वेलकम करने का? कोई स्वागत तक नहीं!"

    जुगनी देवी ने माहौल संभालने की कोशिश की –

    "अरे दामाद जी, आप न हों तो घर सूना लगता है। चलिए, प्रसाद खाइए।"

    इंद्रजीत ने लंबी साँस ली –

    "अच्छा है कम से कम किसी को मेरी फिक्र है। लेकिन मेरी स्पेशल सीट कहाँ है? क्या मुझे आम कुर्सी पर बैठा दोगे? मैं कोई नॉर्मल मेहमान थोड़ी हूँ, दामाद हूँ!"

    शिल्पी ने आँखें घुमाईं, लेकिन बोली –

    "आपके लिए इंतज़ाम कर दिया है, जीजा जी।"

    थोड़ी देर चुप रहे, फिर बोले –

    "और मेरी कोई राय क्यों नहीं लेता? सब अपने मन से करते हैं। मैं जब जवान था तो बहुत सोचता था इस घर के लिए…"

    अभिराज ने तंग आकर कहा –

    "फूफा जी, खाना खाइए या भूतकाल सुनाते रहिए?"

    इंद्रजीत थोड़ा चौंके –

    "देखा! अब मेरी कोई इज़्ज़त ही नहीं रही। लगता है अब मैं बोझ बन गया हूँ। चलो, खा लेता हूँ। लेकिन याद रखना – दामाद को राजा जैसा ट्रीट करना चाहिए!"

    दिग्विजय ने थककर कहा –

    "आपके लिए कमरा रेडी है। पहले खाना खा लीजिए।"

    इंद्रजीत ने मुँह बनाया –

    "ठीक है, लेकिन मैं दामाद हूँ, और मेरे साथ वैसा ही बिहेव होना चाहिए।"

    फिर वो अंदर चले गए।

    अभिराज ने सिर पकड़ लिया। उसे समझ आ गया – आज का दिन लंबा होने वाला है।

    डाइनिंग टेबल पर कद्दू-भात और चने की दाल की खुशबू फैली हुई थी। सब लोग चुपचाप खा रहे थे, बस इंद्रजीत फूफा को छोड़कर।

    उन्होंने लंबी साँस ली, थाली नीचे रखी और बोले –

    "हमारे टाइम में त्योहार अलग होते थे। औरतें सुबह-सुबह उठ जाती थीं, खुद सब कुछ बनाती थीं, सबको खाना खिलाने के बाद ही खुद खाती थीं। और आज की लड़कियाँ? बस प्यार-व्यार में लगी रहती हैं, आलसी हैं!"

    जुगनी ने चुपचाप सुन लिया। दिग्विजय भी बिना कुछ बोले खाते रहे।

    लेकिन शिल्पी की नज़रें थोड़ी अलग थीं। उसने चम्मच रखा और सीधा चित्रांगदा की तरफ देखा –

    "फूफा जी ठीक कह रहे हैं। कुछ लड़कियाँ तो होती हैं जिन्हें अपने घर की इज़्ज़त की परवाह ही नहीं होती। भाग जाती हैं, चुपचाप शादी कर लेती हैं। शर्म की बात है।"

    उसका लहजा तीखा था। बात साफ थी – निशाना चित्रांगदा और अभिराज पर ही था।

    चित्रांगदा की उंगलियां कस गईं। उसने नज़रें झुका लीं। उसे समझ आ गया था – यह तो अभी शुरुआत है।

  • 16. Devotions-2

    Words: 2038

    Estimated Reading Time: 13 min

    चिरांगदा का दृष्टिकोण

    अगली सुबह, घर गुड़ और उबलते दूध की खुशबू से भर गया था। आज खरना था, छठ पूजा से एक दिन पहले का सबसे खास दिन। मैं बहुत सुबह उठ गई थी, यह ठानकर कि खीर मैं खुद बनाऊँगी, जैसे मेरी मम्मी बनाया करती थीं।

    रसोई में गैस की गर्मी थी, और मैं दूध को धीरे-धीरे चलाती रही ताकि वह गाढ़ा हो जाए। घर के बाकी लोग बाहर तैयारी में लगे हुए थे, और मैं अकेली थी।


    शाम होते-होते घर में हर तरफ दीयों की हल्की सुनहरी रौशनी फैल गई थी। पूजा की चीज़ों की खुशबू हवा में घुली हुई थी, और हल्की ठंडी हवा सब कुछ बहुत अच्छा बना रही थी।

    मैं खुले आसमान के नीचे खड़ी थी, हाथ जोड़कर ऊपर चाँद को देख रही थी। चाँद की चाँदी जैसी रौशनी सब कुछ पर पड़ रही थी, और सब कुछ बहुत सपना जैसा लग रहा था।

    यह मेरा आखिरी खाना था, इसके बाद मेरा 36 घंटे का व्रत शुरू होने वाला था। सोचकर ही थोड़ा डर लग रहा था, लेकिन मैंने अपनी मम्मी को हमेशा यह व्रत बहुत श्रद्धा से करते देखा है।

    मैंने गहरी साँस ली और चुपचाप खाना खा लिया, यह जानते हुए कि अगली बार जब कुछ खाऊँगी, तब तक मैं भूख, प्यास और अपने मन की बातें सब झेल चुकी होऊँगी।

    और तभी, जैसे ही मैंने आँगन की तरफ देखा, मेरी नजर अनजाने में अभिराज पर पड़ी।

    वह पहले से ही मुझे देख रहा था।


    और तभी यह हुआ।

    लाइट एक बार झपकी, फिर पूरी तरह चली गई। अचानक रसोई अंधेरे में डूब गई। मैं कुछ समझ पाती, उससे पहले ही किसी ने मुझे पीछे से जोर से धक्का दिया। मेरा हाथ सीधा जलती हुई गैस पर जा गिरा।

    तेज़ जलन ने एकदम से पूरे हाथ में दर्द फैला दिया। मैं चीखी, और झट से हाथ खींच लिया। साँस रुक सी गई थी, आँखों में आँसू आ गए थे। जलती हुई चमड़ी की बदबू खीर की मीठी खुशबू के साथ मिलकर मन खराब कर रही थी।

    थोड़ी ही देर में सबको पता चल गया। सबके कदमों की आवाज़ सुनाई दी और थोड़ी ही देर में पूरा घर रसोई में इकट्ठा हो गया।

    जुगनी दादी ने मेरा जला हुआ हाथ अपने हाथ में लिया, बहुत प्यार से। उनके चेहरे पर चिंता साफ थी।
    "अरे बिटिया, यह कैसे हो गया?"

    शिल्पी, हमेशा की तरह दूर खड़ी थी, हाथ सीने पर बाँधे हुए, जैसे कुछ हुआ ही ना हो।
    "बहुत लापरवाह है," वह बड़बड़ाई, लेकिन इतनी तेज़ कि मैं सुन लूँ।

    अभिराज सबसे आखिर में आया। उसकी नजर मेरे हाथ पर गई। चेहरा कुछ भी साफ़ नहीं बता रहा था। एक सेकंड के लिए उसकी आँखों में कुछ था—गुस्सा? फिक्र? लेकिन उसने कुछ नहीं कहा, बस जबड़े भींच लिए।

    और जैसे यह सब कम था, तभी इन्द्रजीत फूफा जी आ गए।

    "अरे यह क्या हंगामा है सुबह-सुबह?"
    उन्होंने अपने शॉल को बड़े स्टाइल में एडजस्ट किया और ऐसे बैठ गए जैसे कोई VIP हो जो जाँच करने आया हो।
    "हाथ जल गया? मैंने तो पहले ही कहा था, आजकल की लड़कियों को किचन का काम नहीं आता। हमारे ज़माने में औरतें पूरे गाँव के लिए बना लेती थीं, और एक खरोंच तक नहीं आती थी। और अब देखो—बस खीर बनाते हुए ही हाथ जला लिया!"

    मुझे हँसी आ रही थी, लेकिन दर्द इतना था कि हँस भी नहीं सकती थी।

    फूफा जी तो अभी चुप नहीं हुए थे। वह आगे झुककर बड़े अफ़सोस में बोले, "देखो, बचपन में मैं एक बार आम के पेड़ से गिर गया था—पूरे दस फीट नीचे! हाथ टूट गया था, लेकिन क्या मैंने रोया? नहीं! बस कपड़ा बाँधा और वापस पेड़ पर चढ़ गया। यह होती है असली ताकत! अब देखो—जरा सा जलने पर पूरा घर परेशान हो गया।"

    मैं अंदर से लंबी साँस लेकर रह गई। वाह! अब मुझे डॉक्टर साहब का प्रवचन भी झेलना पड़ेगा, जो बिना देखे ही बता देते हैं कि कुछ नहीं हुआ।

    मैंने अभिराज की तरफ देखा, जो अब मुझे ही देख रहा था। उसकी उंगलियाँ टेबल पर टैप कर रही थीं, और उसकी नज़र बहुत तेज़ थी—जैसे सब समझने की कोशिश कर रहा हो। उसके चेहरे से लग रहा था कि उसे भी यह 'एक्सीडेंट' वाली बात पर शक है।

    कुछ तो गड़बड़ थी। और यह बस शुरुआत थी।

    फूफा जी अब भी अपनी बचपन की कहानी सुना रहे थे, कि कैसे वह बगैर रोए पेड़ से गिरकर भी हीरो बन गए थे—तभी अचानक, कमरे का माहौल बदल गया।

    अभिराज ने एक कदम आगे बढ़ाया।

    उसने कुछ नहीं कहा—कहने की ज़रूरत भी नहीं थी। उसकी तेज़ नज़र फूफा जी पर पड़ी और बस, फूफा जी की आवाज़ वहीं रुक गई। उनका घमंडी चेहरा एकदम ढीला पड़ गया। होंठ खुले, जैसे कुछ बोलना हो—लेकिन कुछ निकला ही नहीं। वह बस एक बार निगल गए।

    कमरा एकदम चुप।

    पहली बार, फूफा जी चुप हो गए थे। लेकिन उनकी आँखों में डर साफ दिख रहा था। वह अपनी जगह पर असहज होकर थोड़ा हिले, शॉल फिर से एडजस्ट किया, लेकिन अभिराज की नज़र अब भी उन्हीं पर थी—जैसे कोई शिकारी अपने शिकार को देखता है।

    मैंने देखा, फूफा जी का नकली घमंड अब पिघल रहा था। मतलब इन पर भी अभिराज की दहशत का असर होता है।

    अभिराज ने मेरी तरफ देखा, फिर धीरे से मेरा जला हुआ हाथ पकड़ लिया।

    मैं थोड़ा झिझकी, लेकिन रुकी रही। उसने बहुत ध्यान से पट्टी बाँधनी शुरू की। उसका स्पर्श मजबूत था, लेकिन अजीब तरह से नर्म भी था। उसकी उंगलियाँ मेरी जलन वाली जगह को छूने से बचती रहीं, लेकिन उसकी आँखें बहुत ध्यान से देख रही थीं—जैसे हर चोट की तस्वीर अपने दिमाग में उतार रहा हो।

    हम दोनों खामोश थे।

    पता नहीं, हाथ का दर्द ज़्यादा था या इस चुप्पी का।

    दादी ने माहौल हल्का करने की कोशिश की। उन्होंने धीरे से गला साफ़ किया और बोलीं, "बिटिया, चिंता मत कर, खीर बनाने में मैं तेरी मदद करूँगी।"

    मैंने उनकी तरफ़ देखा, और उनके प्यार से दिल थोड़ा हल्का हो गया।
    "थैंक यू दादी," मैंने धीरे से कहा।

    उनकी मदद से मैंने खीर बनाना शुरू किया, हाथ धीरे-धीरे चला रही थी, ज़्यादा ज़ोर नहीं लगा रही थी। वह मेरे पास ही रहीं, हर मूवमेंट पर ध्यान रख रही थीं कि मैं हाथ पर ज़ोर न डालूँ। और उस दिन पहली बार, मुझे थोड़ा सुकून मिला—एक छोटा सा आराम इस पूरे तूफान के बीच।


    अभिराज का दृष्टिकोण

    मुझे समझ नहीं आ रहा था मेरे साथ क्या हो रहा है। जैसे ही मैंने चित्रांगदा का जला हुआ हाथ देखा, सीने में अजीब सा कुछ महसूस हुआ। गुस्सा तो नहीं था... कम से कम वैसा नहीं जैसा हमेशा होता है। यह कुछ और था, कुछ अजीब।

    मैंने लोगों को खून करते देखा है, खुद भी बिना सोचे कर चुका हूँ। पर उसे तकलीफ में देखकर... कुछ हो गया अंदर।

    और ऊपर से वह मूर्ख फूफा जी, बस बोले जा रहे थे। बचपन की चोट और बहादुरी की बातें करके दिमाग खराब कर रहे थे। मैंने उसे ऐसे घूरा कि वह एकदम चुप हो गया।

    ठीक किया मैंने।

    मैंने बिना कुछ बोले चित्रांगदा का हाथ पकड़ा और खुद ही पट्टी करने लगा। उसे छूने से वह हल्का सा कांप गई, लेकिन मैंने ध्यान नहीं दिया। धीरे-धीरे पट्टी बाँधने लगा। उसकी त्वचा गर्म थी... नाज़ुक सी।

    पता नहीं क्यों, यह सोचकर मुझे और चिढ़ हो रही थी।

    चेहरे पर कुछ जाहिर नहीं होने दिया। हाथों में कोई झलक नहीं थी। पर अंदर कुछ बदल रहा था... कुछ ऐसा जिसे मैं नाम नहीं देना चाहता था।

    शाम तक हवेली दीयों की रौशनी से चमक रही थी। हवा में पूजा की खुशबू थी और घंटे की आवाज़ें गूंज रही थीं।

    मैं दूर खड़ा था, हाथ सीने पर रखे, नज़रें उसी पर थीं।

    चित्रांगदा।

    वह पूजा की चौकी के सामने बैठी थी, हाथ जोड़े हुए। जलते दीयों की रौशनी उसके चेहरे पर पड़ रही थी, जिससे वह और भी अलग सी लग रही थी। उसका सिंदूर नाक से मांग तक फैला हुआ था—गहरा, लाल, और साफ़—मेरे नाम का निशान।

    उसके हाथों में काँच की चूड़ियाँ थीं, जो हर हरकत पर खनक रही थीं। और उसके पाँव... नंगे थे लेकिन पायल पहनी थी, जो दीयों की रोशनी में चमक रही थी।

    वह... बहुत सुंदर लग रही थी।

    मैंने जबड़े भींच लिए। क्या सोच रहा हूँ मैं?

    वह मेरी पत्नी है, हाँ। पर यह शादी... यह सब इमोशंस के लिए नहीं था। फिर भी, जैसे ही उसने सिर झुकाया, उसकी पलकों की परछाई उसके गालों पर पड़ी, मेरी नज़रें उससे हट नहीं रही थीं।

    उसकी उस पारंपरिक साज-सज्जा को देखकर मुट्ठी कस गई।

    मैंने खुद को ज़बरदस्ती दूसरी तरफ देखा।

    कुछ नहीं है यह। बस... कुछ भी नहीं।


    लेखक का दृष्टिकोण

    संध्या अर्घ्य का दिन आ गया था। राजपूत परिवार में पूजा की तैयारी पूरे जोरों से चल रही थी। औरतें दौरा (बाँस की टोकरी) में गन्ना, नारियल, केला और बाकी पूजा की चीज़ें सजा रही थीं। घी में पकते ठेकुआ की खुशबू हवा में घुल गई थी।

    चित्रांगदा भी बाकी व्रत रखने वाली औरतों की तरह उसी सूती साड़ी में थी जो उसने खरना वाले दिन पहनी थी। उसकी चूड़ियाँ खनक रही थीं और मेंहदी लगे हाथ शांति से काम कर रहे थे। लेकिन सबसे ज़्यादा जो चीज़ दिख रही थी, वह था उसका गहरा सिंदूर—नाक से लेकर सिर की मांग तक फैला हुआ। जैसे उसके भरोसे की ताकत की निशानी हो।

    शाम होने लगी थी, आसमान लाल-नारंगी रंग में रंगा हुआ था। पूरा परिवार पूजा की सारी चीज़ें लेकर अपने घाट की तरफ़ चल पड़ा।


    संध्या अर्घ्य (शाम का सूर्य को अर्घ्य)

    घाट को बहुत सुंदर तरीके से सजाया गया था। पानी के किनारे हज़ारों दीए जल रहे थे, उनकी रौशनी लहरों पर चमक रही थी। भजन की आवाज़ हवा में गूंज रही थी।

    चित्रांगदा धीरे-धीरे ठंडे पानी में उतरी, उसका पाँव जैसे ही नदी में पड़ा, पानी उसके टखनों को छू गया। साड़ी भीग कर भारी हो गई थी। उसने अपने हाथ में सुप (सोप) उठाया और डूबते सूरज की ओर देखने लगी, होंठों से बिना आवाज़ के प्रार्थना कर रही थी। आसपास बाकी औरतें भी वही कर रही थीं। सबका एक जैसा हिलना, पूजा का एक जैसा तरीका... बहुत सुंदर नज़ारा था।

    जैसे ही सूरज ढला, आखिरी किरणों ने सबके झुके सिर को छुआ और संध्या अर्घ्य पूरा हुआ।

    फिर सब चुपचाप घर की ओर लौटने लगे। अब अगली सुबह के उषा अर्घ्य की तैयारी करनी थी।


    उषा अर्घ्य (सुबह का अर्घ्य)

    राजपूत परिवार में सब बहुत सुबह उठ गए। औरतें उसी साड़ी में थीं, जो उन्होंने कल पहनी थी। सब बहुत शांत और धीरे-धीरे काम कर रही थीं। चित्रांगदा का सिंदूर अब भी उतना ही गहरा था, जैसे समय भी उसे छू नहीं सका।

    घाट पर पहुँचे तो आसमान अभी नीला था, सूरज निकलने ही वाला था। हवा ठंडी थी, दूर कहीं मंदिर की घंटी बज रही थी।

    पानी बहुत ठंडा था, लेकिन चित्रांगदा बिना रुके उसमें उतर गई। ठंड से कांप गई, लेकिन पीछे नहीं हटी। हाथ में सुप उठाकर वह सूरज की ओर देखने लगी। जैसे ही पहली किरण आसमान में आई, उसने अर्घ्य दिया—पूरा मन लगाकर।

    नदी पर सूरज की रोशनी पड़ रही थी, जैसे सब कुछ सोने सा चमक रहा हो।

    चारों ओर से मंत्रों की आवाज़ आने लगी। जैसे ही अंतिम अर्घ्य पूरा हुआ, चित्रांगदा ने झुककर प्रणाम किया और धीरे-धीरे घाट से बाहर आई। शरीर थक चुका था लेकिन मन मजबूत था।

    अब निर्जला व्रत तोड़ने का समय आ गया था।

    परंपरा के अनुसार, उसे अदरक का छोटा टुकड़ा और गुड़ दिया गया। अदरक का तीखापन जीभ को जगा गया, और गुड़ ने मिठास से स्वाद भर दिया। बाकी औरतें भी यही कर रही थीं—धन्यवाद की दुआओं के साथ।

    जुगनी देवी बहुत खुश थीं, उन्होंने सबको आशीर्वाद दिया। बुज़ुर्गों ने भी सिर झुकाकर प्रार्थना की, और परिवार घर की ओर लौटने लगा।

    चित्रांगदा ने माथे से एक पानी की बूंद पोछी और हल्की सी साँस छोड़ी। व्रत पूरा हो गया था। भक्ति पूरी हुई थी।

    जैसे ही वह मुड़ी, उसे एक नज़र का एहसास हुआ।

    अभिराज।

    वह कुछ दूरी पर खड़ा था, हाथ सीने पर, उसकी नज़रें उसी पर थीं। लेकिन इस बार उस नज़र में कुछ और था... बस हक़ जताना या नफ़रत नहीं।

    कुछ अलग था।

    पहली बार, चित्रांगदा ने भी नज़रें नहीं झुकाईं।

    शायद थकान थी। शायद पूजा का असर।

    या फिर... शायद अब उनके बीच कुछ हमेशा के लिए बदल चुका था।

  • 17. Slapped

    Words: 2224

    Estimated Reading Time: 14 min

    चित्रांगदा का दृष्टिकोण


    राजपूत विला की बड़ी-बड़ी खिड़कियों से सुबह की धूप अंदर आ रही थी, लेकिन उसमें कोई गर्मी नहीं थी—कम से कम मेरे लिए तो नहीं। ठंडी संगमरमर की फर्श पर नंगे पैर खड़े होना मेरे बदन में सिहरन पैदा कर रहा था, फिर भी मैं वहीं खड़ी थी, कांपते हाथों से कॉफी की ट्रे पकड़े हुए। मेरा पूरा शरीर दर्द कर रहा था; पैरों में तो जैसे जान ही नहीं थी, हर एक कदम पिछली रात के दर्द की याद दिला रहा था।

    अभिराज अपने डेस्क पर बैठा था, कागज़ों में खोया हुआ, जैसे मैं वहाँ थी ही नहीं। उसने एक घंटा पहले कॉफी मांगी थी, और मैंने फौरन बनाकर ला दी थी, लेकिन उसने एक बार भी मेरी तरफ देखा तक नहीं।

    वह मुझे जानबूझकर अनदेखा कर रहा था।

    मैंने ट्रे को और कसकर पकड़ लिया, और होंठ काटते हुए खामोश खड़ी रही। मेरी हालत बहुत खराब थी, लेकिन मैंने खुद को कमज़ोर नहीं दिखाया—कम से कम उसके सामने तो बिल्कुल नहीं। अब ज़्यादा देर खड़े रहना मुश्किल हो रहा था।

    मुझे बैठना था।

    मैं धीरे-धीरे सोफे की तरफ बढ़ी, और जैसे ही बैठने की कोशिश की, मेरे पैर जवाब दे गए। मैं संभल नहीं पाई, और अचानक मेरे हाथ से कप छूट गया। गरम कॉफी सीधे टेबल पर गिर गई, जहाँ अभिराज के कागज़ फैले हुए थे।

    कप ज़मीन पर गिरा और चकनाचूर हो गया। उस आवाज़ ने जैसे पूरे कमरे की खामोशी को तोड़ दिया। मेरी साँसें तेज़ हो गईं। कॉफी की वजह से सारे कागज़ बर्बाद हो चुके थे।

    अगले पल जो हुआ, वह बहुत तेज़ था।

    एक जोरदार थप्पड़ मेरे गाल पर पड़ा। मेरे सिर का झटका हुआ और कुछ सेकंड के लिए सब सुन्न सा हो गया। मेरे मुँह से हल्की सी चीख निकली, और हाथ अपने आप मेरे गाल पर चला गया।

    मेरी आँखों में आँसू आ गए, लेकिन मैंने उन्हें बहने नहीं दिया।

    मैंने धीरे से उसकी तरफ देखा।

    अभिराज की आँखों में कोई पछतावा नहीं था। उसका चेहरा बिलकुल सख्त था, जैसे उसने किसी नौकर को उसकी गलती के लिए सज़ा दी हो।

    मेरे गले में कुछ अटक गया, लेकिन मैंने उसे जबरदस्ती निगल लिया।

    मुझे पता था ऐसा ही होगा।

    मैं उसके लिए सिर्फ एक कैदी थी।

    अभिराज ने फिर से हाथ उठाया, चेहरा गुस्से से भरा हुआ था। मैंने आँखें बंद कर लीं, खुद को अगली मार के लिए तैयार कर लिया।

    लेकिन वह थप्पड़ कभी पड़ा ही नहीं।

    किसी ने उसका हाथ बीच में ही पकड़ लिया।

    मैंने चौंक कर आँखें खोलीं, और अभिराज भी हैरान था। उसने अपने हाथ की तरफ देखा, और मैंने भी।

    वह थीं—जुगनी देवी।

    उसकी दादी उसके सामने खड़ी थीं, गुस्से से कांपती हुईं, और उसका हाथ कसकर पकड़े हुए।

    अगले ही पल, उनकी हथेली अभिराज के गाल पर पड़ी। जोरदार थप्पड़ की आवाज़ पूरे कमरे में गूंज गई, और पहली बार अभिराज की आँखों में हैरानी दिखी।

    "कैसे हिम्मत की तुमने, अभिराज?" उनकी आवाज़ गूंज रही थी। "इतनी छोटी सी बात पर अपनी बीवी पर हाथ उठाया?"

    कमरे में सन्नाटा था, लेकिन उन्होंने बोलना बंद नहीं किया।

    "मैंने तुम्हें ऐसा आदमी नहीं बनाया था! अपनी बीवी को मारना? उसे ऐसे नीचा दिखाना जैसे वह कुछ है ही नहीं? तुम्हें क्या हो गया है?" उनकी आवाज़ में गुस्सा था, दर्द था, और कुछ और... कुछ ऐसा जो शायद अभिराज को अंदर से हिला गया।

    अभिराज ने कुछ नहीं कहा। बस खड़ा रहा, मुट्ठियाँ भिंची हुईं।

    "वह तुम्हारी बीवी है, कोई नौकरानी नहीं जिसे जब चाहा डाँट लिया!" दादी की आँखों में आँसू थे। "तुम्हें दिखता भी है कि तुम क्या कर रहे हो? समझ में आता है कि तुम किसमें बदल गए हो?"

    सब कुछ एकदम शांत था।

    फिर वह मेरी तरफ मुड़ीं। उनकी आँखों में कोमलता थी, और उन्होंने धीरे से मेरे गाल को छुआ। उनके हाथों की गर्मी ने मुझे थोड़ा सुकून दिया।

    "अब और नहीं, बेटा," उन्होंने धीमे से कहा। "तुम अब अकेली नहीं हो इस घर में। जब तक मैं जिंदा हूँ, मैं किसी को तुम्हें तकलीफ नहीं देने दूँगी—चाहे वह मेरा ही खून क्यों ना हो।"

    मेरी आँखों में आँसू फिर से भर आए, लेकिन मैंने उन्हें रोका। मुझे डर था कि अगर एक आँसू भी गिरा, तो मैं टूट जाऊँगी।

    अभिराज अब भी वहीं खड़ा था, बिना किसी भाव के। लेकिन उसकी आँखों में कुछ था—एक छोटा सा एहसास, जो उसने तुरंत छुपा लिया।

    लेकिन मुझे उम्मीद नहीं करनी चाहिए।

    उस आदमी का दिल ही नहीं है।

    और अगर है भी, तो उसमें अब सिर्फ अंधेरा बचा है।

    मैं चुप बैठी रही, अब भी कांप रही थी। गाल पर मार की जलन थी, लेकिन असली तकलीफ उस बेइज्जती से हो रही थी जो मैंने महसूस की।

    दादी ने अभिराज से कुछ नहीं कहा। बस मेरी तरफ देखा और मेरे हाथ पकड़कर मुझे धीरे से सोफे पर बैठा दिया।

    "बेटा, दिखा तो ज़रा," उन्होंने चिंता से कहा।

    जैसे ही मैं हिली, मुझे एक जोर की चुभन सी महसूस हुई। मैंने नीचे देखा तो पता चला—कप के टूटे हुए टुकड़ों से मेरे टखने में कट लग गया था। खून की पतली धार बह रही थी, कॉफी में मिलती जा रही थी।

    दादी ने हल्का सा साँस छोड़ा और बोलीं, "यह सब तब होता है जब लोगों के अंदर इंसानियत ही खत्म हो जाती है।" उन्होंने यह बात जोर से कही, और अभिराज की तरफ गुस्से से देखा।

    मैंने हिम्मत करके उसकी तरफ देखा।

    वह अब भी वहीं खड़ा था, चेहरा अब भी वैसा ही। लेकिन उसकी आँखों में अब कुछ अलग था—जो उसने जल्दी से छुपा लिया।

    दादी ने नौकर को फर्स्ट एड बॉक्स लाने को कहा। कुछ ही देर में बॉक्स आ गया। उन्होंने उसमें से दवाई निकाली और पट्टी भी।

    वह खुद नीचे बैठ गईं, और मेरा पैर अपनी गोद में रख लिया।

    "थोड़ा चुभेगा," उन्होंने धीरे से कहा और दवाई लगानी शुरू की।

    तेज जलन हुई, लेकिन मैंने दाँत भींच लिए।

    दादी ने दुख से कहा, "देखो हालत क्या हो गई है... लड़की पहले से ही परेशान है, और ऊपर से और दर्द दिया जा रहा है।"

    अभिराज अब भी कुछ नहीं बोला।

    मुझे उसकी नज़र महसूस हो रही थी, लेकिन मैंने उसे देखना भी नहीं चाहा।

    "बोलो अभिराज," दादी ने फिर से कहा, "क्या अब तुम ऐसे इंसान बन चुके हो जो कॉफी गिर जाने पर बीवी को मारते हो? अब क्या, अगर वह ज़ोर से साँस भी ले ले, तो हड्डी तोड़ दोगे?"

    अभिराज का जबड़ा हिलता हुआ दिखा, लेकिन उसने अब भी कुछ नहीं कहा।

    दादी ने हल्के से सिर हिलाया। "मुझे तुम पर तरस आता है," उन्होंने कहा। "तुम सोचते हो कि ताकत मतलब दूसरों को कंट्रोल करना है। लेकिन असली ताकत तो अपने गुस्से को कंट्रोल करने में होती है। जो आदमी खुद पर काबू नहीं रख सकता, वह सबसे कमज़ोर होता है।"

    कमरा एकदम शांत था।

    मैंने चुपचाप अपनी ड्रेस की सलवटें मरोड़ लीं।

    दादी ने पट्टी बाँधी और मेरे घुटने पर प्यार से हाथ रखा। "अब ठीक हो जाएगा, बेटा," उन्होंने नरम आवाज़ में कहा।

    मैंने उनकी तरफ देखा, कुछ बोल नहीं पाई।

    उन्होंने मुझे हल्की सी मुस्कान दी और फिर अभिराज की तरफ मुड़ीं। अब उनका चेहरा फिर से सख्त था। "यह मेरी आखिरी चेतावनी है, अभिराज। अगर अगली बार मैंने देखा कि तुमने इस पर हाथ उठाया, तो तुम मुझे उस रूप में देखोगे जो तुमने कभी नहीं देखा।"


    मैंने कभी किसी को उसे उस तरह बात करते नहीं देखा था।

    और पहली बार… उसके पास कोई जवाब नहीं था।

    दादी ने गहरी साँस ली और खड़ी हो गईं। उन्होंने अपनी साड़ी के पल्लू को ठीक किया और फिर दादाजी की तरफ देखा, जो अब तक चुपचाप सब देख रहे थे। दोनों के बीच एक चुप सहमति हुई, फिर उन्होंने अभिराज की तरफ देखा।

    "अभिराज, इसे कमरे में ले जाओ," दादी ने साफ़ और सख्त लहजे में कहा। "इसे आराम की ज़रूरत है। हम दोनों को धनराज के घर जाना है। डामिनी और उसका पति इंद्रजीत मुंबई लौट रहे हैं। अगर हम उन्हें विदा करने नहीं गए तो वह फिर से शुरू हो जाएगा — ‘घर का इकलौता दामाद’ और उसकी इज़्ज़त की बातें लेकर।”

    अभिराज ने कोई बहस नहीं की। इस बार बस सिर हिलाया, उसका चेहरा बिना किसी भाव के था। वह मेरी तरफ बढ़ा, उसके कदम पहले जैसे तेज़ नहीं थे, थोड़े धीमे और झिझकते हुए से। मैं खुद-ब-खुद सिमट गई, लेकिन कोई चारा नहीं था जब उसने नीचे झुककर मुझे अपनी बाहों में उठा लिया।

    दादी ने उसे पैनी नज़रों से देखा लेकिन कुछ नहीं कहा। बस चुपचाप दरवाजे की तरफ बढ़ गईं। उनके जाने के बाद भी ऐसा लग रहा था जैसे उनकी मौजूदगी कमरे में बनी हुई है।

    अभिराज मुझे लेकर घर के लंबे गलियारों से गुज़रा। मैंने उसकी तरफ नहीं देखा, बस नज़रें झुकी रहीं। मेरा दिल तेज़-तेज़ धड़क रहा था। उसके पास कहने को कुछ नहीं था। और इस बार मेरे पास भी कोई बात नहीं थी।

    जब कमरे का दरवाज़ा खुला, उसने धीरे-धीरे मुझे बिस्तर पर लिटा दिया। उसका हर मूवमेंट इतना सधा हुआ था कि लग रहा था जैसे वह हर चीज़ सोच-समझकर कर रहा हो। जब वह थोड़ा नीचे झुका, तो उसकी साँसें मेरे कानों के पास लगीं।

    "अच्छा नाटक किया तुमने, दादी के सामने खुद को बेचारी बनाकर दिखाया," उसने धीमे मगर तीखे लहजे में कहा। "रात होने दो… फिर मैं तुम्हें बताऊँगा।"

    मेरे पूरे शरीर में एक सिहरन दौड़ गई। मैंने चादर को कसकर पकड़ लिया। मैंने उसकी तरफ देखा भी नहीं, लेकिन मुझे पता था — वह मुस्कुरा रहा है। वह मुस्कान जो डर पैदा करती है।

    वह सीधा हुआ और वहाँ से चला गया।

    और मुझे यकीन था — यह रात बस यूँ ही नहीं गुज़रने वाली।


    लेखक का दृष्टिकोण


    राजपूत विला पर रात पूरी तरह उतर चुकी थी। अंधेरे गलियारों में हल्की रोशनी की परछाइयाँ थीं। कमरे में चित्रांगदा बिस्तर पर सिकुड़ी बैठी थी, उसके घुटनों पर हाथ थे। उसकी आँखों में आँसू थे, और चेहरा थका हुआ। पैर की चोट से दर्द हो रहा था — लेकिन उस दर्द से ज़्यादा जो उसके दिल में था, वह बर्दाश्त करना मुश्किल था।

    उसने हल्की साँस ली। उसका सीना ऊपर-नीचे हो रहा था। नए-नए आँसू उसकी आँखों से बहने लगे। यह सब उसके साथ क्यों हुआ? कुछ महीने पहले तक तो सब ठीक था — प्यार, हँसी, सपने… एक अच्छी ज़िन्दगी थी। और अब? अब वह जैसे किसी बुरे सपने में जी रही थी। एक ऐसे आदमी की बीवी बन चुकी थी जो उसे सिर्फ़ एक चीज़ समझता था — जिसकी कोई इज़्ज़त नहीं, कोई अहमियत नहीं।

    उसके हाथ कांप रहे थे जब उसने बिस्तर के पास रखा फ़ोन उठाया। बस एक इंसान था जिससे बात करके उसे थोड़ा सुकून मिल सकता था। एक इंसान जो हमेशा उसके लिए था।

    विवान।

    उसने जल्दी-जल्दी नंबर मिलाया। दिल जोर-जोर से धड़क रहा था। घंटी जा रही थी। उसने फ़ोन कान से और पास किया। बस यही उम्मीद थी कि वह उठाए।

    और उसने कॉल उठा ली।

    "हेलो?" आवाज़ कड़क थी, जैसे नाराज़ हो।

    "भैया…" उसकी आवाज़ टूट रही थी। "भैया, प्लीज़… मैं अब और नहीं सह सकती। प्लीज़ मुझे यहाँ से ले चलो। मैं घर आना चाहती हूँ।"

    कुछ सेकंड खामोशी रही।

    फिर उधर से एक लंबी साँस की आवाज़ आई।

    "तुम्हारा अब यहाँ कोई घर नहीं है, चित्रांगदा।" उसकी आवाज़ इतनी ठंडी थी कि दिल को चीर गई। "मेरी बहन उसी दिन मर गई जिस दिन उसने उस आदमी से शादी की थी। दुबारा कॉल मत करना।"

    कॉल कट गई।

    चित्रांगदा फ़ोन को देखती रह गई। हाथ कांप रहे थे। उसने फ़ोन को सीने से लगा लिया और रोने लगी — बुरी तरह।

    अब उसके पास कुछ भी नहीं बचा था।

    न परिवार। न आज़ादी। न खुद की पहचान।

    अब वह वाकई अकेली थी।

    उसकी आँखें आँसुओं से भर गईं। उसने बिस्तर पर मुँह छुपा लिया। सब कुछ खत्म हो गया था उसके लिए। जब वह कमरे में इधर-उधर देख रही थी, तो उसकी नज़र साइड टेबल पर रखे एक फ़ोटो फ़्रेम पर पड़ी।

    उसने हाथ बढ़ाया। फ़ोटो को धीरे से उठाया।

    फ़ोटो में तीन बच्चे थे। एक तो अभिराज था — उसका चेहरा बच्चा होते हुए भी पहचाना जा सकता था। लेकिन बाकी दो लड़कियाँ कौन थीं? वह उन्हें नहीं पहचान पाई।

    वह फ़ोटो को और पास से देखने ही वाली थी कि तभी एक हाथ ने झटके से वह फ़्रेम उससे छीन लिया।

    अभिराज।

    उसके हाथ में फ़्रेम था, उसकी मुट्ठी इतनी टाइट थी कि उंगलियों के पोर सफ़ेद हो गए थे। उसका जबड़ा कसा हुआ था और आँखों में गुस्सा।

    "मेरी चीज़ों को छूने की इजाज़त किसने दी तुम्हें?" उसका लहजा बहुत सख्त था।

    चित्रांगदा डर गई लेकिन कुछ नहीं बोली। बस नज़रें नीचे कर लीं और धीरे से बोली, "सॉरी।"

    कुछ पल सब चुप था। फिर शायद उसके माफ़ी माँगने से अभिराज का गुस्सा थोड़ा ठंडा हो गया। उसकी नज़र उसके पट्टी बंधे पैर पर पड़ी। उसका चेहरा थोड़ा बदला। अगली बार उसने थोड़ा नॉर्मल आवाज़ में पूछा —

    "तेरा पैर… अभी भी दर्द कर रहा है?"

    चित्रांगदा ने थोड़ी देर रुककर जवाब दिया, "ठीक है।"

    अभिराज ने कुछ नहीं कहा। उसने फ़्रेम वापस टेबल पर रखा और उसकी तरफ बढ़ा। बिना कुछ बोले उसने उसे फिर से गोद में उठा लिया और बिस्तर पर आराम से लिटाया।

    फिर थोड़ा झुककर बोला —

    "सो जा। नहीं तो फिर पूरी रात जागने के लिए तैयार हो जा।"

    चित्रांगदा ने चादर कसकर पकड़ ली। उसने आँखें बंद कर लीं। वह जानती थी — उसका मतलब क्या था।

    और अब उसमें लड़ने की ताकत नहीं बची थी।

  • 18. Silent Tears

    Words: 1294

    Estimated Reading Time: 8 min

    अभिराज अकांक्षा के कमरे में खड़ा था। कमरे में हल्की रौशनी लंबी-लंबी परछाइयाँ बना रही थी। उसके हाथ में एक फोटो फ्रेम था, जिसे वह बड़ी देर से घूर रहा था। फोटो में उनके बचपन की एक झलक थी—अभिराज, अकांक्षा और एक और छोटी लड़की, जो ज़्यादा से ज़्यादा छह साल की होगी। तीनों हँसते हुए खेल रहे थे। ये सब किसी और जमाने की बात लग रही थी—उस वक़्त की, जब सब कुछ ठीक था।

    उसकी नज़र फोटो में तीसरी लड़की पर टिक गई। उसकी आँखों में अजीब सा दुःख और पछतावा था। वह उसे बहुत देर तक देखता रहा, जैसे उसकी साँस वहीं अटक गई हो।

    "सबने मुझे छोड़ दिया," उसने धीरे से कहा, आवाज़ में गुस्सा कम और दर्द ज़्यादा था। "कोई मुझसे प्यार नहीं करता।"

    एक ठंडी सी हँसी उसके होठों से निकली, पर उसमें कोई खुशी नहीं थी, बस दर्द ही दर्द था। उसकी सोच फिर से अकांक्षा की तरफ़ लौट आई—जो अब उस बिस्तर पर बिना हिले लेटी थी।

    "अकांक्षा… हमसे क्या हो गया? मुझसे क्या हो गया? मेरी बहन आज इस हाल में है और उसकी वजह…वो है। लेकिन मैं चाहकर भी उसका दर्द नहीं देख पाता। जितना चाहूँ कि वो तड़पे, उतना ही मन उसे देखकर बेचैन हो जाता है। उसने मेरी ज़िंदगी बर्बाद कर दी, फिर भी मैं उससे इतनी नफ़रत नहीं कर पाता कि उसे यूँ तकलीफ़ में देख सकूँ।"

    उसके शब्द जैसे खुद उसे ही चुभ रहे थे। उसने फिर से उस फोटो की ओर देखा—पर मन में खालीपन ही था।

    अभिराज के हाथ थोड़े काँपने लगे, जब उसने वह फोटो फ्रेम वापस टेबल पर रखा। उसकी आँखों में गुस्सा और पछतावा तो था, लेकिन अब ध्यान दराज की ओर गया। जैसे कोई सपना देख रहा हो, वैसे उसने दराज खोली और एक पुराना अल्बम निकाला। अल्बम पर धूल जमी थी, किनारे फटे हुए थे। उसे हाथ में पकड़ते ही वह बीते वक़्त का बोझ सा महसूस करने लगा।

    जैसे-जैसे उसने पन्ने पलटे, उसके सामने पुराने चेहरे आ गए—उसका बचपन, उसकी माँ, पापा और दोनों बहनें। सबके चेहरे पर हँसी थी, जैसे ज़िंदगी बहुत अच्छी चल रही थी। उस वक़्त वह एक बच्चा था जिसे सब कुछ मिला था—प्यार, खुशियाँ, परिवार…और एक लड़की जिसे वह ‘चॉकलेट’ कहा करता था।

    एक पेज पर पहुँचकर उसका हाथ रुक गया। साँस थम सी गई। उस फोटो में वही लड़की थी—उसकी पहली पसंद, उसकी ‘चॉकलेट’। वह मुश्किल से तीन साल की होगी। उसकी आँखों में मासूम सी चमक थी और खिलखिलाती हँसी थी। उसके छोटे-छोटे हाथों में एक खिलौना था, और उसका चेहरा जैसे कह रहा हो कि दुनिया बहुत प्यारी है।

    अभिराज के सीने से एक भरी हुई सी सिसकी निकल गई। उसकी आँखों से आँसू टपकने लगे और उस फोटो को भी गीला कर दिया। अब वह ज़्यादा नहीं रोक पाया—दर्द, कमी, तड़प सब बाहर आ गया। उसकी उंगलियाँ उस फोटो को सहलाने लगीं।

    "क्यों…तुमने भी मुझे छोड़ दिया?" वह फूट-फूटकर रोने लगा।

    वह फर्श पर गिर पड़ा, उस अल्बम को सीने से लगाए रहा। आँसू थम नहीं रहे थे। बचपन की यादें, वह लड़की जिसे उसने सबसे ज़्यादा चाहा था—अब बस एक तकलीफ़ बन गई थी। अभिराज के पास कुछ नहीं बचा था—न प्यार, न परिवार, सिर्फ़ एक खालीपन…जो अब बर्दाश्त से बाहर था।

    फिर उसने एक और पन्ना पलटा। उसमें उसकी ग्रैजुएशन की फोटो थी। उसने देखा—अविनाश, रणविजय और रूद्र के साथ खड़ा था वह। उसकी नज़र रूद्र के चेहरे पर जाकर रुक गई—उसके सबसे अच्छे दोस्त पर।

    "रूद्र," उसने बुदबुदाया। आवाज़ में इज़्ज़त थी। "मेरा सबसे अच्छा दोस्त।"

    वह उसके चेहरे को देखता रहा। उसे वह दिन याद आ गए, जब हर बार रूद्र उसे बहुत खराब हालत में मिलता था—जैसे ज़िंदगी ने उसे कुछ नहीं दिया हो।

    अभिराज की आँखें थोड़ी उदास हो गईं। "मुझे याद है…जब भी उसे देखता, लगता जैसे अंदर से टूट गया है। बहुत दर्द होता था उसे देखकर।"

    उसने अल्बम नीचे किया, और फिर सोचने लगा, "मैं तो चोरी करके खाना निकालता था…ताकि रूद्र और उसके भाई-बहन कुछ खा सकें।"

    यादें थोड़ी तकलीफ़देह थीं, लेकिन उसे इस बात पर गर्व भी था कि उसने बिना किसी स्वार्थ के ऐसा किया। वह रिश्ता ही कुछ अलग था—सच्चा था, भले ही हालातों ने दोनों को जल्दी बड़ा बना दिया।

    अभिराज अपने कमरे की ओर चल पड़ा। दिमाग अब भी उन पुरानी यादों से भरा हुआ था। जैसे ही वह डाइनिंग एरिया से गुज़रा, उसकी नज़र चितरांगदा पर पड़ी। वह मेज़ साफ कर रही थी। उसकी कमर थोड़ी सी दिख रही थी और नौकर उसे ऐसे देख रहे थे, जैसे कुछ गलत सोच रहे हों।

    अभिराज की आँखों में गुस्सा भर आया। उसे यह सब बर्दाश्त नहीं हुआ। बिना कुछ सोचे, वह चितरांगदा की तरफ़ बढ़ा और उसका हाथ जोर से पकड़ा।

    "ऐसे कपड़े पहनोगी तो लोग देखेंगे ही ना?" उसने गुस्से से कहा। "तुम क्या चाहती हो? सब तुम्हें उस नज़र से देखें?"

    उसने उसका हाथ और कसकर पकड़ा और खींचते हुए अपने कमरे में ले गया, चाहे वह मना करती रही। कमरे में पहुँचते ही दरवाज़ा इतनी ज़ोर से बंद किया कि दीवारें हिल गईं।

    "तुम्हें लगता है ऐसे चलने-फिरने से सब खुश हो जाते हैं? तुम बस एक दिखावे की चीज़ हो—जैसे कोई सस्ती चीज़, जिसे सब घूरें," अभिराज ने गुस्से से कहा। "यही चाहती हो ना? कि हर आदमी तुम्हें उस नज़र से देखे?"

    उसने उसे बिस्तर पर पटक दिया, उसका गुस्सा उबल रहा था, उसके हाथ काँप रहे थे।

    गुस्से में अंधा होकर उसने उसके कपड़े खोलने शुरू कर दिए। लेकिन वह कुछ नहीं कर रही थी। वह चुपचाप रोने लगी। अभिराज ने उसका जबड़ा पकड़ लिया और उसे जोर से दबाते हुए कहा,

    "Why are you crying whore? क्या तुम्हें मज़ा नहीं आता जब दूसरे मर्द तुम्हें इस तरह देखते हैं?"

    उसके घिनौने शब्द सुनकर चित्रांगदा ने अपना चेहरा दूसरी तरफ़ घुमा लिया। गुस्से से घिरे अभिराज ने उसका जबड़ा पकड़ लिया और सीधे उसकी आँखों में देखा, और कहा,

    "Don't close your eyes when I am fucking you."

    इसके साथ ही उसने उसकी साड़ी खोल दी और उसे कमरे के कोने में फेंक दिया।

    वह अपने इनरवियर में थी, अभिराज उसके ऊपर मंडरा रहा था और उसके अंडरवियर के ऊपर से उसे फिंगरिंग करने लगा। वह वहाँ गीली हो रही थी।

    अब अभिराज ने उसका एक ब्रेस्ट पकड़ लिया और उसे लिक करने लगा, जबकि वह उसका दूसरा ब्रेस्ट दबा रहा था। चित्रांगदा कुछ नहीं बोल रही थी। वह चुपचाप रो रही थी।

    फिर अभिराज ने उसके ब्रेस्ट पर मुँह लगाते हुए कहा,

    "हे भगवान! तुम्हारा शरीर ऐसा है कि मैं इसका विरोध नहीं कर सकता।"

    चित्रांगदा ने कुछ नहीं कहा, वह अपनी खुली और टूटी आँखों से छत को घूर रही थी।

    फिर अभिराज ने उसकी नेवल को काटना शुरू कर दिया। लेकिन चित्रांगदा कोई भावना नहीं दिखा रही थी। अभिराज ने इसे और तेज़ी से करना शुरू कर दिया।

    फिर उसने उसे बहुत बेरहमी से उंगलियों से चुदाई की, उसका शरीर बहुत बुरी तरह से हिल रहा था। लेकिन अभिराज नहीं रुक रहा था।

    She came like a fountain. फिर अभिराज ने अपने कपड़े भी खोलने शुरू कर दिए और उसके शरीर में प्रवेश कर गया। उसने उसे अल्फा वुल्फ की तरह चुदाई शुरू कर दी। पाँच घंटे तक लगातार। हर पोज़िशन में।

    उसे चुदाई करने के बाद वह भी उसके ऊपर आकर सो गया। चित्रांगदा अभी भी छत को घूर रही थी, वह सचमुच टूट चुकी थी।

    फिर वह गिर गई, कुछ उसे काट रहा था। वह जानती थी कि अभिराज उसकी योनि को चाट रहा था…वह पहले से ही उस बोन क्रशिंग ऑर्गेज़्म से थक चुकी थी और अब वह उसे काट रहा था।

  • 19. rough pleasure

    Words: 1320

    Estimated Reading Time: 8 min

    चित्रांगदा का दृष्टिकोण


    मैं एकदम हड़बड़ाकर उठी। पूरे बदन में अजीब-सा दर्द हो रहा था; इससे साफ़ पता चल रहा था कि रात को क्या हुआ था। चादर मुझसे उलझी हुई थी, और पास ही अबीराज की साँसों की आवाज़ आ रही थी। वो पास था, इससे थोड़ा ठीक लग रहा था, लेकिन जो दर्द था वो हर जगह था। जैसे ही मैंने खुद को थोड़ा हिलाने की कोशिश की, बदन ने जवाब दे दिया और मैं हल्की-सी कराह उठी।

    मैं धीरे से बिस्तर से उतरी, ध्यान रखा कि अबीराज की नींद न टूटे, और नंगे पैर बाथरूम की तरफ़ चल दी। फर्श ठंडी थी, लेकिन उस गर्माहट वाले दर्द के बीच थोड़ी राहत मिल रही थी।

    मैंने बाथरूम की लाइट जलाई और शीशे के सामने खड़ी हो गई। लगा शायद खुद को देखूँ तो थोड़ा नॉर्मल लगे, लेकिन जैसे ही मेरी नज़र अपने सीने पर पड़ी, मैं रुक गई।

    "क्या..."

    मुझे कुछ अजीब लगा। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था। सीना थोड़ा सूजा-सूजा और बड़ा लग रहा था। एकदम अलग। मैंने हल्के से छूने की कोशिश की, तो दर्द हो गया। लेकिन नज़र हट नहीं रही थी।

    "ऐसा क्यों लग रहा है?" मन में यही सवाल था।

    अभी मैं सोच ही रही थी कि तभी पीछे से अबीराज की आवाज़ आई, जिसने एकदम शांत माहौल को तोड़ दिया।

    "क्योंकि ये सब तुम्हारे प्यारे पति की मेहनत का रिजल्ट है," उसने कहा, जैसे मज़ाक कर रहा हो और बहुत देर से देख रहा हो।

    मैं एकदम चौंक गई। दिल बहुत तेज़ धड़कने लगा। वो दरवाज़े पर खड़ा था; उसका चेहरा थोड़ा छुपा था, लेकिन उसकी आँखों से लग रहा था कि वो मज़े ले रहा है।

    "अबीराज..." मैंने धीरे से कहा, थोड़ा डरते हुए, "तुम यहाँ...?"

    वो धीरे-धीरे मेरी तरफ़ आया। उसकी मौजूदगी का एहसास हो रहा था। "कल रात तुम बहुत क्यूट लग रही थी," उसने बिलकुल कैज़ुअली कहा, जैसे कुछ हुआ ही नहीं।

    मुझे समझ नहीं आ रहा था—शर्मिंदा हो जाऊँ या गुस्सा करूँ। दर्द से सब याद आ रहा था, लेकिन उसकी आवाज़ ऐसे थी जैसे सब एक फनी बात हो।

    "जो तुम अभी देख रही हो, वो हमारी रात की वजह से है," उसने फिर कहा। उसकी आवाज़ थोड़ी सीरियस थी, लेकिन समझ नहीं आ रहा था वो मज़ाक कर रहा है या सीरियस है।

    मैं थोड़ा पीछे हुई; दिल और तेज़ धड़कने लगा, लेकिन उसने धीरे से मेरी कमर पकड़ ली और फिर से पास खींच लिया।

    उसने मुझे पकड़कर बाथरूम के स्लैब पर बिठाया। उसके हाथ मज़बूत थे, लेकिन वो बहुत प्यार से छू रहा था। उसका अंगूठा मेरी ठुड्डी के पास हल्के से चला, और मेरी आँखें खुद-ब-खुद बंद हो गईं। उसका स्पर्श बहुत सॉफ्ट था, रात के उस दर्द से बिल्कुल अलग।

    "अबीराज..." मैंने फिर धीरे से कहा। उस पल में कोई गुस्सा नहीं था, कोई सवाल नहीं—बस एक चुप्पी थी जो बहुत कुछ कह रही थी।

    फिर वो झुककर मेरे होंठों को छूने लगा—धीरे-धीरे, बहुत सॉफ्टली। ये किस बिलकुल अलग था—पिछली रात जैसे कुछ नहीं हुआ। ऐसा लगा जैसे वो कुछ कहना चाहता हो, कुछ समझाना चाहता हो।

    कुछ पल तक बस वही था—उसका हल्का-सा स्पर्श, उसके हाथों की गर्माहट, और वो अहसास कि शायद मैं उसके लिए कुछ मायने रखती हूँ। कोई जल्दबाज़ी नहीं, कोई ज़बरदस्ती नहीं—बस एक शांत पल, जो बिना बोले भी बहुत कुछ कह रहा था।


    लेखक का दृष्टिकोण


    उसके सामने चित्रांगदा एकदम मासूम और कमजोर सी लग रही थी, जैसे कोई बच्चा हो।

    "प्लीज़, सुबह का वक्त है... मुझे बहुत सारा काम करना है," उसने गिड़गिड़ाते हुए कहा।

    अभिराज हल्की सी हँसी हँसा। "घर की इतनी फिक्र है, लेकिन अपने पति की नहीं? ये नाइंसाफी क्यों? बताओ मुझे।"

    जब उसने कुछ नहीं कहा, तो अभिराज उसके पास झुक आया और गहरा किस करने लगा। उसकी उंगलियाँ धीरे-धीरे चित्रांगदा की जांघों पर चलने लगीं। फिर वो थोड़ा और नीचे की तरफ़ गया।

    चित्रांगदा ने ना में सिर हिलाया, लेकिन अभिराज ने बस एक शैतानी सी मुस्कान दी और अपनी उंगलियाँ उसके अंदर कर दीं। वो तैयार नहीं थी, तो उसके मुँह से हल्की सी आवाज़ निकल गई। अभिराज उसकी आँखों में देखता रहा, और उसकी उंगलियाँ चलती रहीं। चित्रांगदा ने अपनी आँखें कसकर बंद कर लीं।

    "बीवी हो तो आँखें मुझ पर रखो," अभिराज ने ठंडी, सख्त आवाज़ में कहा।

    मजबूरी में चित्रांगदा ने आँखें खोलीं; उसकी नज़रें उससे मिलीं। अभिराज की आँखों में कोई एहसास नहीं था, बस एक अजीब सा सख्तपन था जो उसे डरा रहा था। वो फिर से आँखें बंद करने लगी, तो अभिराज ने अपनी हरकतें तेज़ कर दीं।

    "क्यों नहीं सुनती मेरी बात, बीवी?" उसने पूछा। चित्रांगदा ने फिर से आँखें खोलीं; उसका चेहरा लाल हो गया था।

    लेकिन अभिराज रुका नहीं।

    "उंगलियाँ ही नहीं संभाल पा रही हो, सोचो बाकी चीज़ों का क्या होगा," उसने चिढ़ाते हुए कहा।

    "प्लीज़, अभिराज, अब रुक जाओ," चित्रांगदा ने गिड़गिड़ाकर कहा।

    पर अभिराज रुकने के मूड में नहीं था। अगले एक घंटे तक उसने उसे कई बार थका दिया, हद से ज़्यादा। वो आगे नहीं बढ़ा, लेकिन सिर्फ उंगलियों से ही उसे पूरी तरह थका दिया।

    आखिर में वो उसे गोद में उठाकर बाथरूम ले गया और धीरे-धीरे साफ़ किया। उसके शरीर पर अब भी उसकी परफ्यूम की खुशबू थी। मुस्कराते हुए वो बोला, "तुम्हारे जिस्म को तो मेरी खुशबू बहुत पसंद आ गई है, तभी तो हटती ही नहीं।"

    अभिराज के कदम बहुत ठंडे और सोच-समझकर रखे गए थे, जब वो चित्रांगदा को कमरे से ले जा रहा था। वो उसे अपनी बाँहों में पकड़े हुए था, लेकिन उसमें कोई अपनापन नहीं था। बस जैसे कोई ज़रूरी काम कर रहा हो।

    चित्रांगदा का शरीर दर्द से भरा था; बीती रात के असर अब भी थे उसके चेहरे और चाल में। पर अभिराज के चेहरे पर कोई फर्क नहीं था; उसकी नज़रें कहीं और थीं।

    वो धीरे-धीरे चला; कोई जल्दी नहीं थी उसे। उनके बीच की खामोशी बहुत भारी थी। चित्रांगदा का सिर उसके सीने से लगा था, लेकिन उसमें कोई प्यार नहीं था। उसकी बॉडी एकदम सीधी और सख्त थी, जैसे कोई चीज़ उठाई हो सिर्फ।

    चित्रांगदा की साँसें तेज़ चल रही थीं; उसका दिल डर और थकान से काँप रहा था, लेकिन अभिराज उसे कोई सुकून नहीं दे रहा था।

    जब वो बेड तक पहुँचा, तो उसने उसे बिना किसी एक्सप्रेशन के नीचे रखा। उसकी नज़र एक बार उसके ऊपर गई, पर उसमें कोई प्यार नहीं था, बस ऐसा जैसे कोई ट्रॉफी देख रहा हो।

    "रुको," उसने कहा; उसकी आवाज़ ठंडी और बेरुखी थी। बिना जवाब सुने वो अलमारी की तरफ़ बढ़ा और बहुत आराम से एक हरा रंग की साड़ी निकाली।

    साड़ी बहुत खूबसूरत थी, लेकिन उसके लिए वो बस एक चीज़ थी जो उसे दिखाने लायक बना सके। न तो उसने चित्रांगदा से पूछा कि वो क्या पहनना चाहती है, न ही ये कि उसे मदद चाहिए या नहीं।

    वो साड़ी लेकर उसके पास आया, और बिना कोई खास ध्यान दिए साड़ी को उसके ऊपर डालने लगा। उसके हाथ तेज़ी से कपड़े को उसके ऊपर बिठा रहे थे, जैसे वो एक गुड़िया हो या कोई स्टैचू।

    उसका स्पर्श बहुत सख्त था, जैसे वो जताना चाहता हो कि ये लड़की अब उसकी है, और सबको पता होना चाहिए। उसने चित्रांगदा के चेहरे की तरफ़ देखा तक नहीं।

    चित्रांगदा की साँसें धीमी थीं; उसकी बॉडी अब भी थकावट से कांप रही थी। लेकिन अभिराज के चेहरे पर न कोई फिक्र थी, न कोई समझदारी।

    वो बस उसके शरीर को ढँक रहा था, जैसे कोई काम निपटा रहा हो। जब साड़ी पहनवा दी, तो उसने एक बार उसे ऊपर से नीचे तक देखा, और बोला—

    "ठीक लग रही हो।"

    कोई इज़्ज़त नहीं थी उसकी आवाज़ में, कोई अपनापन नहीं था।

    अभिराज मुड़कर चला गया, जैसे अब उसका काम हो गया हो। चित्रांगदा को एक पल के लिए बहुत ठंडा सा खालीपन महसूस हुआ।

    उसने कभी सोचा था कि वो उसके लिए कुछ खास होगी, लेकिन हकीकत ये थी कि वो उसके लिए सिर्फ एक चीज़ थी—एक हिस्सा, जिसे वो अपने हिसाब से चलाना चाहता था।

  • 20. pregnancy

    Words: 2868

    Estimated Reading Time: 18 min

    राजपूत एंटरप्राइजेस के विशाल सम्मेलन कक्ष में गंभीर माहौल छाया हुआ था। सुनहरे झूमरों की चमकदार रोशनी पूरी मेज पर एक शाही आभा बिखेर रही थी। मेज के सामने अभिराज सिंह राजपूत अपनी ठंडी और कठोर निगाहों से सभी को निहार रहे थे। उनके चेहरे पर कोई भाव नहीं था, फिर भी उनकी उपस्थिति इतनी दबाव भरी थी कि कमरे का तापमान ही कम हो गया हो।

    उनके दायें ओर रूद्र अग्निहोत्री आराम से कुर्सी पर बैठे थे, उनकी उंगलियाँ कुर्सी की बाहों पर धीरे-धीरे टकरा रही थीं। उनकी आँखों में हल्की मुस्कान थी, मानो वे किसी खेल का आनंद ले रहे हों। उनके पास राजवीर कपूर शांत भाव से बैठे, ध्यानपूर्वक सब कुछ सुन रहे थे। अविनाश कपूर तेज़ी से नोट्स बना रहा था, जबकि मित्रा मौन थीं, पर उनका ध्यान हर बात पर केंद्रित था।

    बायीं ओर रणविजय रंधावा भी शांत चेहरे के साथ बैठे थे, लेकिन उनकी नज़रें हर चीज़ को गौर से देख रही थीं। वे अभिराज के स्वभाव के आदी थे, इसलिए उनके चेहरे पर कोई भय या घबराहट नहीं थी।

    अचानक अभिराज की गहरी और कठोर आवाज़ कमरे में गूँजी—

    "हमारे औद्योगिक क्षेत्र का विस्तार योजनानुसार ही होगा। कोई गड़बड़ बर्दाश्त नहीं होगी।"

    राजवीर ने गला साफ़ किया,

    "निवेशक प्रगति रिपोर्ट मांग रहे हैं। उन्हें विश्वास दिलाना होगा कि सब कुछ सही चल रहा है।"

    अभिराज की आँखें और कठोर हो गईं—

    "जब मैं कहूँगा, तभी विश्वास मिलेगा। मेरे व्यापार में कोई सवाल नहीं उठाता।"

    उनकी आवाज़ में बर्फ जैसी ठंडक थी, और उसमें किसी भी तरह की बहस की गुंजाइश नहीं थी। राजवीर जैसे अनुभवी व्यक्ति ने भी बिना कुछ बोले सिर हिला दिया।

    अविनाश थोड़ा हिचकिचाते हुए बोले,

    "सर... विदेशी शिपमेंट में थोड़ी दिक्कत आ गई है। एक छोटी सी देरी... कुछ अप्रत्याशित..."

    परन्तु इससे पहले कि वे बात पूरी कर पाते, अभिराज ने उन्हें एक कठोर नज़र से रोक दिया—

    "अप्रत्याशित? मैं ऐसे बहाने नहीं मानता, अविनाश। यदि तैयारी सही होती, तो देरी होती ही नहीं। इसे ठीक करो।"

    अविनाश ने तुरंत सिर हिलाया,

    "हाँ, सर।"

    अब तक चुप बैठी मित्रा ने धीरे से कहा,

    "शायद हमें एक वैकल्पिक आपूर्तिकर्ता भी देख लेना चाहिए, ताकि आगे कोई समस्या न हो।"

    रूद्र मुस्कुराए और अभिराज की ओर देखा—

    "बिलकुल सही कहा इसने।"

    अभिराज ने कुछ सेकंड तक मित्रा को देखा, फिर एक बार सिर हिलाया—

    "ऐसा करो।"

    बैठक आगे बढ़ती रही। हर निर्णय वैसे ही लिया गया जैसे अभिराज चाहते थे। उनके सामने कोई गलती नहीं चलती थी, कोई छोटी बात भी नहीं बचती थी। स्पष्ट था कि लोग उन्हें डरते भी हैं और सम्मान भी करते हैं। उनका बना हुआ साम्राज्य उनकी कठोर सोच और नियंत्रण से चलता था—और उनके रहते हार का प्रश्न ही नहीं उठता था।

    बैठक ख़त्म हुए एक घंटा हो गया था, लेकिन अभिराज अभी भी अपनी कुर्सी पर बैठे थे। उनकी उंगलियाँ धीरे-धीरे मेज पर टकरा रही थीं। आमतौर पर उनकी आँखों में केवल शक्ति और नियंत्रण दिखता था, लेकिन आज उनमें कुछ और था—कुछ जिसे वे स्वयं मानना नहीं चाहते थे।

    उनका मन चित्रांगदा के ख्यालों में उलझा हुआ था।

    उन्होंने जबड़ा कसा। स्वयं से नाराज़गी हो रही थी।

    "क्यों?" उन्होंने मन ही मन सोचा।

    "जब मैं उससे घृणा करता हूँ, तो उसका चेहरा बार-बार क्यों सामने आता है?"

    वे उसकी आवाज़ सुन सकते थे, उसकी आँखों की जिद—सब कुछ मानो अभी उनके सामने हो। जितना वे उसे भुलाने की कोशिश करते, वह उतनी ही ज़ोर से वापस आ जाती—एक परछाई की तरह, जो पीछा नहीं छोड़ती।

    उन्होंने गहरी साँस ली, फिर अपनी आँखें मलीं, लेकिन मन का तूफ़ान थमा नहीं। जिस लड़की से वे घृणा करने की कोशिश कर रहे थे, वही उनके दिल और दिमाग में बैठती जा रही थी। उन्हें स्वयं पर गुस्सा आ रहा था।

    तभी दरवाज़े के खुलने की आवाज़ हुई और वे अपनी सोच से बाहर आ गए। उन्होंने तुरंत अपना चेहरा फिर से वैसा ही बना लिया—कठोर और भावहीन।

    अंदर अगस्त्य आए।

    "अभिराज," अगस्त्य ने कहा, उनकी आवाज़ में गंभीरता थी। वे धीरे-धीरे चले और अपने दोस्त के चेहरे को गौर से देखा, लेकिन तब तक अभिराज अपने मन के उथल-पुथल को छिपा चुके थे।

    "क्या बात है?" अभिराज की आवाज़ कठोर और व्यावसायिक थी।

    अगस्त्य ने बिना समय गँवाए कहा,

    "डॉक्टर आपसे मिलना चाहते हैं।"

    अभिराज की भौहें थोड़ी सिकुड़ गईं—

    "डॉक्टर?"

    "आकांक्षा की हालत को लेकर।"

    कुछ पल के लिए कमरे में खामोशी छा गई।

    अभिराज की उंगलियाँ धीरे-धीरे कुर्सी की पकड़ पर कस गईं।

    "आकांक्षा..."

    उनकी बहन... जिसकी हालत अब तक नहीं सुधरी थी। इसका नाम सुनते ही उनके सीने में कुछ भारी सा महसूस हुआ।

    "डॉक्टर ने कुछ खास बताया?" उन्होंने पूछा, उनकी आवाज़ शांत थी, लेकिन अंदर एक हलचल छुपी हुई थी।

    अगस्त्य ने सिर हिलाया,

    "नहीं। उन्होंने कहा, आपको व्यक्तिगत रूप से मिलना है।"

    अभिराज ने एक लम्बी साँस छोड़ी और खड़े हो गए। अभी कुछ पल पहले जो मन चित्रांगदा में अटका था, अब वह वापस आकांक्षा की ओर चला गया—उस रहस्य की ओर, जो उनकी हालत के पीछे छुपा था।

    बिना कुछ बोले उन्होंने अपना कोट उठाया और कार्यालय से बाहर निकल गए। अगस्त्य चुपचाप उनके पीछे चल पड़े।

    जो भी बात डॉक्टर को बतानी थी...

    अभिराज को सिर्फ़ एक डर था—

    कि कहीं फिर से कोई बुरी खबर न मिले।


    अस्पताल तक का सफ़र मानो किसी धुंध में बीत गया। मेरी उंगलियाँ सीट पर बेचैनी से थपथपा रही थीं। आकांक्षा... मेरी बहन। बस उसका नाम सुनते ही अंदर से क्रोध, बेचैनी और लाचारी का तूफ़ान उठने लगा। डॉक्टर का फ़ोन बहुत अचानक आया था। आकांक्षा की हालत को लेकर कुछ नया था—कुछ और गंभीर।

    पर जितनी तेज़ी से गाड़ी अस्पताल की तरफ़ बढ़ रही थी, उतनी ही ज़िद्दी तरह से एक और चेहरा मेरे दिमाग में घूम रहा था—चित्रांगदा। उसे भाड़ में जाये। फिर भी वह वापस आ गई मेरे दिमाग में। जब मुझे अपनी बहन पर ध्यान देना चाहिए, तब भी। उसकी आँखें, उसका अड़ियलपन, हर चीज़ मानो दिमाग में चिपक गई हो। मुझे उससे नफ़रत है। और सबसे ज़्यादा इस बात से नफ़रत है कि मैं उसे भुला नहीं पा रहा। पर सच्चाई यही है—उसका चेहरा मुझे परेशान कर रहा है, जब मैं उसे बिल्कुल नहीं देखना चाहता।

    गाड़ी से उतरते ही ठंडी हवा चेहरे से टकराई, लेकिन अंदर जो आग जल रही थी, वह नहीं बुझी। भारी कदमों से मैं अस्पताल के अंदर गया। हर कदम मानो खुद गवाही दे रहा था कि सब कुछ कितना बिगड़ चुका है। डॉक्टर को ऐसा क्या कहना था जो फ़ोन पर नहीं बोल सकता था?

    डॉक्टर के केबिन में पहुँचा, तो उन्होंने मेरी ओर देखा। उनका चेहरा हमेशा की तरह व्यवसायिक नहीं था, कुछ परेशान सा दिख रहा था।

    "मिस्टर राजपूत," उन्होंने धीरे से कहा, "आपको आकांक्षा के बारे में एक बात बतानी है।"

    मैंने आँखें सिकोड़ लीं।

    "क्या बात?"

    उन्होंने थोड़ी देर चुप रहने के बाद कहा,

    "आकांक्षा गर्भवती थी... आत्महत्या की कोशिश से पहले।"

    एकदम से मानो किसी ने छुरा घोंप दिया हो सीने में। मैं वहीं रुक गया। दिमाग तेज़ी से सोचने लगा—गर्भवती? मेरी बहन? मुझे पहले क्यों नहीं पता चला? हमसे हमेशा दूर रहती थी, लेकिन यह तो मैंने कभी सोचा भी नहीं था।

    क्रोध खून में उबलने लगा। बाप कौन है? यह सवाल अंदर से चीर गया। क्या हुआ था ऐसा जो उसने मुझसे भी नहीं कहा?

    और तभी मानो दिमाग में बिजली सी कौंधी—चित्रांगदा। हाँ, वही वजह है। सब कुछ उसी की वजह से हुआ। वही हमारी ज़िंदगी में आई और सब बर्बाद हो गया। उसी की वजह से आकांक्षा टूट गई। उसी की वजह से सब अंधेरे में चला गया। मैंने आकांक्षा की आँखों में वह दर्द देखा था—वही दर्द तब से शुरू हुआ जब चित्रांगदा इस घर में आई।

    मेरे जबड़े इतने कस गए थे कि जैसे टूट जाएँगे। हाथ काँप रहे थे, मुट्ठियाँ सिकुड़ गई थीं। वही है।

    सब कुछ उसी की वजह से हुआ है। मेरी बहन को उसने तोड़ा। जैसे मुझे तोड़ रही है—धीरे-धीरे, बिना आवाज़ के, और शायद बिना उसे खुद को पता चले। मुझे लग रहा था जैसे अंदर कुछ फट रहा हो। क्रोध इतना बढ़ गया कि साँस लेना मुश्किल लग रहा था।

    मैंने डॉक्टर की आँखों में देखा, आवाज़ ठंडी और कठोर थी।

    "उसे घर कब ले जा सकते हैं?"

    अब मुझे उनकी बातों में कोई दिलचस्पी नहीं थी। मुझे बस एक बात करनी थी—चित्रांगदा को सबक सिखाना था। सब कुछ उसके आने के बाद से बिगड़ा है। और अब वक़्त आ गया है कि वह इसकी कीमत चुकाए।

    उसका नाम सुनते ही खून खौलने लगता है। वह औरत... जैसे उसने मेरी पूरी ज़िंदगी उलझा दी हो। मेरे परिवार को तोड़ा, मेरी बहन को... मुझे। हर बार जब वह सामने आती है, कुछ न कुछ बुरा होता है। वह मासूम बनने की जो एक्टिंग करती है ना, सब झूठ है। उसने सब कुछ तहस-नहस कर दिया है।

    मैं वहीं खड़ा था, अस्पताल की उन सफ़ेद, ठंडी दीवारों के बीच, और अंदर से गुस्से से फटने वाला था। उसका चेहरा सामने आ रहा था... वह नकली मासूमियत भरा चेहरा।

    वह... घटिया औरत। राक्षसी। ये शब्द खुद-ब-खुद मुँह से निकल रहे थे।

    "वह एक नंबर की बदचलन है," मैंने धीरे से बड़बड़ाया, मुट्ठियाँ इतनी कसकर बंद की कि जैसे खून बह जाएगा। "जिसके हाथ लगता है, उसे बर्बाद कर देती है।"

    उसकी बातें, वह झूठ, वह नाटक—सब एक-एक करके दिमाग में घूम रहे थे। उसने मुझे मेरे परिवार से दूर किया, मुझे स्वयं से घृणा करवाने लगी, और अब मेरी बहन को बर्बाद कर दिया। बस बहुत हुआ।

    अब मैं उसे छोड़ने वाला नहीं हूँ। अब वह रोएगी, गिड़गिड़ाएगी, पर मैं उसे माफ़ नहीं करूँगा। वह सोचती है कि सबको यूँ ही तोड़ देगी और निकल जाएगी? अबकी बार वह खुद टूटेगी। मैं तोड़ूँगा उसे।

    मैं उसकी आँखों में वह डर देखना चाहता हूँ, जो अब तक मेरे अंदर था। मैं उसकी वह हालत देखना चाहता हूँ, जहाँ उसे लगे कि अब कुछ नहीं बचा।

    उसे नहीं पता उसने किससे पंगा लिया है। अब वह पछताएगी, बहुत पछताएगी।


    अविनाश का घर

    शाम की हल्की धूप खिड़की से छनकर कमरे में आ रही थी। रणविजय अमीषा के सामने बैठे थे, तैयार थे एक और "भयानक" भौतिकी सत्र के लिए। लेकिन अमीषा तो किसी और ही दुनिया में थीं। सिर एक हाथ पर टिकाया हुआ, आँखें आधी बंद, मानो वे प्रक्षेप्य गति नहीं, जीवन का अर्थ सोच रही हों।

    रणविजय, जो बहुत ही धैर्यवान शिक्षक थे, अपने चश्मे को ठीक करते हैं और नोटबुक खोलते हैं, मानो किसी बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी के लिए खुद को तैयार कर रहे हों।

    "ओके अमीषा, चलो शुरू करते हैं। आज हम प्रक्षेप्य गति पढ़ेंगे। याद है? जब कोई चीज़ हवा में फेंकी जाती है, जैसे कि कोई गेंद दीवार की ओर फेंको तो—"

    अभी वे बोल ही रहे थे कि अमीषा की नज़र खिड़की से बाहर उड़ते हुए पक्षी पर चली गई। उनकी आँखों में चमक आ गई।

    "अरे देखो, एक चिड़िया! लगता है उसे भी त्वरण के बारे में सब पता है..."

    रणविजय कुछ सेकंड उन्हें देखते रहे, फिर गला खँखारते हुए बोले,

    "हाँ... लेकिन अब पाठ पर आते हैं?"

    अमीषा ने पक्षी देखना बंद किया और लम्बी साँस छोड़ते हुए बोलीं,

    "हाँ हाँ... प्रक्षेप्य गति... वैसे, यह सुनने में तो किसी एक्शन मूवी जैसा लग रहा है ना? 'प्रक्षेप्य गति: उड़ान का भौतिकी!'"

    रणविजय ने मानो अपने माथे पर हाथ मारने की इच्छा को रोका।

    "अमीषा, ध्यान दो! देखो, प्रक्षेप्य का क्षैतिज वेग स्थिर रहता है, लेकिन ऊर्ध्वाधर वेग गुरुत्वाकर्षण के कारण बदलता रहता है। मतलब दोनों दिशाओं में गति होती है—क्षैतिज और ऊर्ध्वाधर।"

    अमीषा धीरे से बोलीं,

    "तो अगर मैं यह पेन यहाँ से रसोई की ओर फेंकूँ, तो वह प्रक्षेप्य हुआ? और अगर वह माँ का प्रिय फूलदान तोड़ दे, तो क्या मुझे डाँट पड़ेगी?"

    रणविजय हँसी रोकते हुए बोले,

    "वैसे तो हाँ, पर यही बिंदु नहीं है। चलो सरल करते हैं। जब कोई चीज़ कोण पर फेंकी जाती है, जैसे कोई गेंद, तो उसका प्रारंभिक वेग दो भागों में विभाजित होता है—क्षैतिज और ऊर्ध्वाधर।"

    अमीषा अब भी बाहर देखती हुई बोलीं,

    "दो भाग... जैसे मेरा दिमाग और मेरा फोन... दोनों अलग-अलग दिशाओं में जा रहे हैं। समझ गई!"

    रणविजय अब थोड़ा थक चुके थे, लेकिन फिर भी समझा रहे थे।

    "मान लो किसी चीज़ को कोण पर फेंका, तो हवा में समय निकालने का सूत्र है:
    t = 2 * u * sin(θ) / g
    जहाँ 'u' प्रारंभिक वेग है, θ कोण है और 'g' गुरुत्वाकर्षण।"

    अमीषा की भौंहें सिकुड़ गईं,

    "U मतलब 'you' वाला u? क्योंकि मुझे लग रहा है मैं किसी भौतिकी के बुरे सपने में फँसी हुई हूँ।"

    "नहीं!" रणविजय ने झुंझलाते हुए कहा, "U मतलब प्रारंभिक वेग! गति जैसा होता है लेकिन दिशा के साथ! यह 'you' नहीं है!"

    अमीषा ने उन्हें खाली चेहरे से देखा,

    "ओह्ह... तो अगर मैं अपना फोन हवा में फेंकूँ, और फिर समय निकालूँ कि वह कितनी देर में जमीन पर गिरेगा, तो वह भी प्रक्षेप्य हुआ?"

    रणविजय ने आँखें बंद करके खुद को नियंत्रित किया।

    "सिद्धांत में हाँ, पर ऐसा मत करना।"

    अमीषा हँसते हुए बोलीं,

    "पर यह तो बड़ा अच्छा भौतिकी प्रयोग होगा ना? मैं कोशिश करती हूँ!"

    "अमीषा!" रणविजय ने माथा पकड़ लिया। "हम भौतिकी पढ़ रहे हैं, दीवारों पर फोन फेंकने का प्लान नहीं बना रहे! इसी वजह से तुम्हारा परिणाम खराब आ रहा है! थोड़ा गंभीर हो जाओ!"

    अमीषा ने उंगली चटकाई जैसे उन्हें अचानक कोई गहरा ज्ञान मिल गया हो।

    "ओह! अब समझ में आया! गेंद ऊपर जाती है, नीचे गिरती है... और फिर मैं जमीन पर आ जाती हूँ! समझ गई!"

    रणविजय का चेहरा दोनों हाथों में छुप गया।

    "नहीं अमीषा... गेंद जमीन पर नहीं होती। वह जमीन पर गिरती है... कोण से फेंकने के बाद!"

    अमीषा अब थोड़ा गंभीर चेहरा बनाकर बैठीं,

    "अगर मैं फोन को 45 डिग्री पर फेंकूँ, तो वह कितनी देर हवा में रहेगा इससे पहले कि वह टूट के हज़ार टुकड़े हो जाए?"

    रणविजय अब हार मान चुके थे। उनकी मानसिक स्थिति धीरे-धीरे जवाब दे रही थी।

    "आज के लिए बस। तुम पढ़ाई नहीं कर रही, तुम अपनी अलग ही दुनिया में हो।"

    अमीषा ने मासूम सा चेहरा बनाकर पूछा,

    "तो... इसका मतलब मैं फोन फेंक सकती हूँ? टिकाऊपन परीक्षण करने के लिए?"

    रणविजय ने कोई जवाब नहीं दिया। बस चुपचाप अपने नोट्स समेटे और कमरे से बाहर निकलते हुए बड़बड़ाया,

    "मैं यह दिन नहीं बचा पाऊँगा..."

    अमीषा खिड़की से बाहर सूरज को देखती हुई बैठी रहीं, पूरी तरह बेखबर कि एक घंटे की पढ़ाई उनकी समझ से वैसे ही निकल गई थी जैसे प्रक्षेप्य बिना वेग के उड़ान...

    रणविजय का धैर्य अब बिल्कुल ख़त्म हो चुका था। उन्होंने सब कोशिश कर ली थी—प्यार से समझाना, मज़ाक में लेना, लेकिन अमीषा का ध्यान ही नहीं था। और अब तो उनकी सहनशीलता की सीमा हो चुकी थी।

    "अमीषा!" रणविजय की आवाज़ इतनी तेज़ थी कि पूरा कमरा काँप गया। "अगर तुम ऐसे ही मूर्खतापूर्ण ढंग से बैठी रहोगी, तो मैं जा रहा हूँ। मैं तुम्हारा शिक्षक हूँ, बच्चों की देखभाल करने वाला नहीं! या तो पढ़ाई करो वरना मैं तुम्हारे माता-पिता को कॉल कर रहा हूँ। बता दूँगा कि तुम मेरा और उनका समय बर्बाद कर रही हो!"

    अमीषा धीरे से उनकी ओर घूमीं जैसे किसी नींद से जागी हों।

    "हूँ? क्या? तुम कुछ बोल रहे थे?"

    रणविजय ने गुस्से में डेस्क पर हाथ पटक दिया, और आवाज़ पूरे कमरे में गूँजी।

    "मैं पिछले एक घंटे से प्रक्षेप्य गति समझा रहा हूँ और तुम छत की ओर ऐसे देख रही हो जैसे वहाँ ब्रह्मांड का रहस्य छुपा हो! बताओ, क्या समझ आया? अगर गेंद कोण पर फेंकी जाए तो क्या होता है?"

    अमीषा बोलीं,

    "वह ऊपर जाती है... फिर नीचे?"

    "नहीं!" रणविजय चिल्लाए। "वह ऊपर जाती है, फिर गुरुत्वाकर्षण के कारण नीचे आती है! और उसके दो गतियाँ होती हैं—एक क्षैतिज, एक ऊर्ध्वाधर! समझी कुछ? मैं अपना समय किसी ऐसे को दे सकता था जो वाकई पास होना चाहता है!"

    अमीषा ने कंधे उचकाए,

    "मतलब अगर मैं पेंसिल फेंकूँ, तो वह ऊपर जाएगी फिर नीचे गिरेगी? जादू जैसा?"

    रणविजय की आँख फड़कने लगी।

    "जादू?? क्या यह सब तुम्हारे लिए मज़ाक है??"

    रणविजय अब बर्दाश्त से बाहर थे।

    "ठीक है! अगर तुम नहीं पढ़ना चाहती, तो मैं तुम्हारे माता-पिता को फोन करता हूँ। अब वह ही समझाएँगे तुम्हें!"

    अमीषा एकदम गंभीर हो गईं।

    "नहीं! कृपया मत करो! मैं ध्यान दूँगी, वादा!"

    रणविजय ने फोन उठाते हुए कठोर आवाज़ में कहा,

    "मैं कॉल कर रहा हूँ। अब बहुत हो गया। अगर तुम गंभीर नहीं हो, तो मैं तुम्हारे माता-पिता को बताऊँगा।"

    "नहीं! कृपया!" अमीषा अब घबरा गई थीं। "ठीक है! मैं ध्यान दूँगी! जो कहोगे वह करूँगी! बस माँ-बाप को मत बताओ!"

    रणविजय ने फोन नीचे रखा, थोड़ी सी जीत की मुस्कान के साथ।

    "अच्छा। अब फिर से शुरू करते हैं। और अगर तुम फिर से उड़ने लगी, तो इस बार फोन से पहले मैं कॉल कर दूँगा—समझी?"

    अमीषा ने सिर तेज़ी से हिलाया, जैसे कि उन्हें जान की सलामती चाहिए हो।

    "समझ गई! पूरी तरह से ध्यान!"

    रणविजय कुर्सी पर टिकते हुए, बाहें मोड़कर बोले,

    "और अगर तुम्हें अपने फोन की सलामती चाहिए, तो प्रक्षेप्य गति के सारे प्रश्न हल करने पड़ेंगे।"

    अमीषा ने सिर हिलाया, इस बार पूरी श्रद्धा के साथ।

    "हाँ, प्रक्षेप्य, क्षैतिज, ऊर्ध्वाधर, गुरुत्वाकर्षण... सब याद रहेगा।"

    रणविजय ने ऊपर देखकर भगवान का धन्यवाद किया, और फिर से पाठ शुरू किया।

    इस बार... शायद... अमीषा थोड़ी गंभीर थीं। शायद