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कहानी है कबीर अहमद मिर्जा और हिना वकार मिर्जा की—दो ऐसे लोग जो एक ही रिश्ते में बंध तो गए हैं, मगर दिलों की दूरी अब भी बाकी है। कबीर, एक बेहद पारंपरिक और सख्त मिजाज मुस्लिम परिवार का बड़ा बेटा, जिसकी जिम्मेदारियां उसके कंधों पर इतन... कहानी है कबीर अहमद मिर्जा और हिना वकार मिर्जा की—दो ऐसे लोग जो एक ही रिश्ते में बंध तो गए हैं, मगर दिलों की दूरी अब भी बाकी है। कबीर, एक बेहद पारंपरिक और सख्त मिजाज मुस्लिम परिवार का बड़ा बेटा, जिसकी जिम्मेदारियां उसके कंधों पर इतनी भारी हैं कि उसने खुद की ख्वाहिशों को हमेशा पीछे रखा। वह दिल से हिना को चाहता है, उसे अपनाना चाहता है, मगर उसके तरीके, उसकी गंभीरता और उसकी चुप्पी… हिना के दिल में कई सवाल और गलतफहमियां भर देती है। हिना, उसी परंपरागत खानदान की सबसे बड़ी बेटी, जिसने बचपन से घर के सख्त नियमों में खुद को ढाला है। निकाह तो हो गया, लेकिन रुकसती अभी बाकी है। अपने मायके और ससुराल के बीच झूलते हुए, वह कबीर के सच्चे इरादों को समझ ही नहीं पाती, और दिल के कोने में उसकी एक अलग ही तस्वीर बना लेती है—एक ऐसी तस्वीर, जिसमें मोहब्बत कम और सख्ती ज्यादा है। यह सिर्फ दो लोगों की नहीं, बल्कि दो दिलों, दो सोचों और दो परंपराओं के टकराव की कहानी है… जहां प्यार की शुरुआत गलतफहमियों के पर्दे को चीरकर होनी है।
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जैसे ही हिना अपने कमरे से बाहर निकली, वो एकदम अचानक कबीर से टकरा गई।
कबीर—जो शायद बाहर से लौटा था, थका हुआ और किसी उलझन में डूबा हुआ—उसका चेहरा संजीदा और भरा-भरा लग रहा था। उसने हिना की तरफ एक तेज़, मगर बेमानी नज़र डाली — न नफरत, न अपनापन, बस एक थकी हुई बेरुख़ी थी उस आँखों में।
हिना का दिल एक पल को काँप उठा।
कबीर कुछ बोले बिना, सीधा ऊपर की ओर अपने कमरे की तरफ बढ़ गया।
हिना वहीं खड़ी रह गई... जैसे किसी ने उसके पैरों के नीचे से ज़मीन खींच ली हो।
उसके मन में हलचल सी उठी।
उसने धीरे से खुद से कहा,
"या अल्लाह... यही है वो शख़्स? जिससे मेरी शादी की बात चल रही है?
कुछ तो हो जाए... कोई वजह बन जाए... कि बात यहीं रुक जाए..."
उसकी आँखों में हल्का सा डर, हल्का सा गुस्सा और एक बेआवाज़ दुआ थी।
हिना ने दुपट्टा ठीक किया, और बिना किसी से कुछ कहे, बड़े से हाल से बाहर निकल गई।
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पूरी मिर्ज़ा फैमिली डाइनिंग रूम में, डाइनिंग टेबल पर एक साथ बैठी हुई थी।
टेबल के एक सिरे पर हाशमी मिर्ज़ा और उनकी बीवी — जिन्हें सब "दादी" कहकर पुकारते थे — अपनी आदत के मुताबिक़ ग़ौर से सबको देख रहे थे।
उनके साथ ही उनके तीनों बेटे बैठे थे —
सबसे बड़ा बेटा अहमद मिर्ज़ा,
उसके बाद सईद मिर्ज़ा,
और सबसे छोटा बेटा — वक़ार मिर्ज़ा।
अहमद मिर्ज़ा के दोनों बेटे —
बड़ा बेटा कबीर, और दूसरा बेटा आयान
उसकी बेटी साबिहा,
दोनों टेबल पर बैठे हुए थे।
सईद मिर्ज़ा का बड़ा बेटा शाहरुख़, जो शहर से बाहर था, वह आज मौजूद नहीं था।
उनका छोटा बेटा तैमूर, जो ग्रेजुएशन कर रहा है, वह टेबल पर बैठा हुआ था।
उनकी बेटी कहकशां, जो हिना के साथ ही कॉलेज में पढ़ती है, वह भी अपनी सीट पर थी।
वक़ार मिर्ज़ा की दोनों बेटियाँ —
हिना और हवा —
दोनों बैठी हुई थीं।
हवा ने हाल ही में कॉलेज जाना शुरू किया है, जबकि हिना फाइनल ईयर में है।
तीनों भाइयों की बीवियाँ —
सलीमा भाभी (कबीर की अम्मी),
शगुफ़्ता भाभी (हिना की अम्मी),
और रिहाना भाभी (तैमूर की अम्मी) —
तीनों औरतें खाने की सर्विंग में लगी हुई थीं।
जैसा हमेशा होता आया था, आज भी उन्होंने डाइनिंग टेबल पर परिवार के साथ बैठकर खाना नहीं खाया।
वो तीनों अपनी बेटियों और बच्चों को खाना परोसने में लगी थीं।
इस घर की एक परंपरा यही थी — मर्द और बच्चे पहले खाते हैं, और घर की औरतें बाद में, अलग से बैठकर खाना खाती हैं।
हालाँकि परिवार की बेटियों को टेबल पर बैठने की इजाज़त थी, मगर बहुएं अब तक उस जगह पर नहीं बैठी थीं।
सभी चुपचाप खाना खा रहे थे, क्योंकि सभी — छोटे हों या बड़े — दादा जान और दादी जान से डरते थे।
चाहे अब वे लोग बिजनेस शुरू कर चुके थे, और मॉडर्न सोच का हिस्सा बन चुके थे, मगर कुछ रवायतें अभी भी नहीं बदली थीं।
दादा हुज़ूर और दादी जान के सामने कोई भी ज़ोर से बोल नहीं सकता था।
न ही वह तीनों भाई कभी अपने मां-बाप की बातों का विरोध करते थे।
हाँ, इतना ज़रूर था कि बच्चों में नई सोच पनपने लगी थी — जो अब तक सिर्फ़ उनके कमरों के अंदर ही सीमित थी।
मिर्ज़ा साहब के सबसे छोटे बेटे वक़ार का स्वभाव अपने भाइयों से बिल्कुल अलग था।
उसका मिज़ाज शुरू से ही नरम और समझदार था।
उसका स्वभाव खुला हुआ था, और वह औरतों को आज़ादी देने के पक्ष में था।
मगर साथ ही वह अपने अम्मी और अब्बा हुज़ूर की बहुत इज़्ज़त करता था।
जैसे ही खाना खत्म हुआ और सभी अपनी-अपनी जगह से उठने लगे, दादा जान ने दादी जान की तरफ देखा।
फिर उन्होंने बड़े बेटे अहमद से कहा,
"अहमद, तुम तीनों भाई ज़रा मेरे कमरे में आना।"
🌙
खाने के बाद तीनों भाई उठकर मिर्ज़ा साहब के कमरे में चले गए।
वैसे सबको पहले से ही अंदाज़ा था कि किस बारे में बात होने वाली है।
कमरे में पहुँचते ही दादा सरकार ने तीनों बेटों की तरफ देखा और गंभीर स्वर में कहा —
"मुझे लगता है कि अब कबीर और हिना — दोनों का रिश्ता तय कर देना चाहिए।"
अहमद मिर्ज़ा ने थोड़ी देर सोचा और फिर कहा,
"अब्बा हुज़ूर, मुझे कबीर से एक बार बात करनी होगी..."
वक़ार — जो हिना का अब्बा था — धीमे से बोला,
"और मुझे भी हिना से पूछना होगा..."
"तुम्हें हिना से पूछना होगा?"
सईद मिर्ज़ा ने थोड़ा हैरान होकर कहा,
"कबीर की बात तो मैं फिर भी समझता हूँ, मगर हिना...? तुम्हारा फैसला क्यों नहीं मानेगी भाई साहब?"
वक़ार ने बिना हिचकिचाहट के कहा,
"वक़्त बदल चुका है। अब बच्चे अपनी ज़िंदगी के फैसले खुद लेना चाहते हैं। मैं अपनी बेटी की राय लेना ज़रूरी समझता हूँ।"
"तुम दोनों एक बात भूल रहे हो..."
दादा सरकार ने सख़्त लहजे में कहा,
"इन दोनों की शादी तो बचपन में ही तय कर दी गई थी। और मुझे नहीं लगता कि अब वो बात टूटेगी। मैं तुम लोगों को पहले ही बता चुका हूँ — इस घर में सारी शादियाँ मेरी मर्ज़ी से होती हैं।"
तभी दादी जान बीच में बोल पड़ीं —
"ये तो बचपन में ही तय हो गया था... कबीर घर का बड़ा बेटा है, और हिना घर की बड़ी बेटी। तो इन दोनों की शादी ही होगी।"
कमरे में कुछ पल के लिए चुप्पी छा गई।
रात को वक़ार अपने कमरे में अपनी पत्नी शगुफ़्ता से बात कर रहा था।
"तो अब क्या करोगे?"
शगुफ़्ता ने अपने शौहर वक़ार से पूछा,
"अब हिना से तो बात करनी ही होगी।"
मैं मुस्लिम पृष्ठभूमि पर सीरीज लिखने की कोशिश कर रही हूं प्लीज मुझे सपोर्ट करें कमेंट करें लाइक करें और मुझे सजेस्ट भी करें।
वक़ार ने धीमे स्वर में कहा,
"वैसे कबीर अच्छा लड़का है… ज़िम्मेदार भी है।"
शगुफ़्ता ने सिर हिलाते हुए कहा,
"वो तो ठीक है… मगर उसकी और हिना की सोच में बहुत फ़र्क है।
मेरी हिना हँसती है, मुस्कुराती है, शरारती है… और कबीर?
वो तो सिर्फ़ ज़रूरत की बात करता है। घर के सभी लड़के उसके सामने बोलते हुए झिझकते हैं।"
वक़ार ने हामी में सिर हिलाते हुए कहा,
"बात तो तुम्हारी सही है।
एक बात का और भी फ़र्क है… हिना जब ग्रेजुएशन पूरी कर लेगी, ।
और कबीर… उसने बिज़नेस तो बहुत अच्छे से संभाला है, मगर एजुकेशन दिमाग खोलती है।
वो जो बात पढ़ाई से आती है… वो कमी उसमें रहेगी।"
जैसे ही हिना अपने कमरे से बाहर निकली, वो कबीर से टकरा गई। कबीर थका हुआ और उलझन में डूबा हुआ था। हिना का दिल काँप उठा। कबीर कुछ बोले बिना ऊपर चला गया। हिना ने खुद से कहा कि क्या कबीर से उसकी शादी की बात चल रही है।
पूरी मिर्ज़ा फैमिली डाइनिंग टेबल पर बैठी हुई थी। दादा और दादी सबको देख रहे थे। तीनों बेटे और उनके बच्चे भी बैठे थे। तीनों बहुएँ खाना परोस रही थीं। मर्द और बच्चे पहले खाते थे, औरतें बाद में। सब चुपचाप खा रहे थे, क्योंकि दादा जान से सब डरते थे। वक़ार का स्वभाव नरम था, और वो औरतों को आज़ादी देने के पक्ष में था। खाना खत्म होने पर दादा जान ने तीनों बेटों को अपने कमरे में बुलाया।
खाने के बाद तीनों भाई मिर्ज़ा साहब के कमरे में गए। दादा सरकार ने कहा कि कबीर और हिना का रिश्ता तय कर देना चाहिए। अहमद ने कहा कि उसे कबीर से बात करनी होगी। वक़ार ने कहा कि उसे हिना से पूछना होगा। दादा सरकार ने कहा कि शादी तो बचपन में ही तय हो गई थी।
रात को वक़ार अपनी पत्नी शगुफ़्ता से बात कर रहा था। शगुफ़्ता ने कहा कि हिना और कबीर की सोच में बहुत फ़र्क है। वक़ार ने हामी भरी।
Now Next
-------- कबीर इस घर का बड़ा बेटा था, जिसने 12वीं तक की पढ़ाई की थी। वह ऐसा वक्त था जब वह अपने छोटे से कस्बे को छोड़कर इस बड़े शहर में आए थे। वहाँ पर उनकी जमीन थी, जो आज भी है। उन्होंने अपनी हवेली और जमीनें छोड़कर यहाँ पर कपड़ों का कारोबार शुरू किया। उस समय हालात ऐसे थे कि कबीर अपने अब्बा के साथ काम में लग गया था, और उनके घर में तब एजुकेशन की इतनी अहमियत नहीं थी।
मगर उसके बाद के सारे बच्चे पढ़े-लिखे थे। कबीर का छोटा भाई अयान, उसकी एम.कॉम. पूरी होने वाली थी और उसके बाद वह बिजनेस जॉइन करने वाला था। दूसरे भाई सैयद के बड़े बेटे शाहरुख ने बी.ए. किया था। वह हॉस्टल में रहकर पढ़ा था। तैमूर ग्रेजुएशन खत्म करने के बाद इसी शहर में एम.बी.ए. कर रहा था।
कबीर की बहन साहिबा, शाहरुख की बहन के कहकशां, और वकार मिर्जा की दोनों बेटियाँ — हवा और हिना — चारों कॉलेज जा रही थीं, मगर उन पर बहुत बंदिशें थीं। वे सीधा कॉलेज जातीं, घर से गाड़ी जाती थी और सीधा घर वापस आती थीं। घर की शादियाँ बड़े तय कर रहे थे।
कबीर जानता था कि उसकी शादी बचपन से हिना से तय है, मगर हिना को इस बारे में पता नहीं था। उसे अभी-अभी यह बात पता चली थी।
"तो अब आप क्या करेंगी, आपा?" हवा ने धीमे स्वर में अपनी बड़ी बहन हिना से पूछा।
दोनों बहनें अपने कमरे में थीं। उनका कमरा उनके अम्मी-अब्बू के कमरे से सटा हुआ था। मिर्ज़ा हाउस में बेटियों के सारे कमरे ज़मीन की मंज़िल पर थे, जबकि बेटों को ऊपरी मंज़िल पर कमरे मिले हुए थे।
हवा और हिना का कमरा सादा लेकिन खूबसूरत था, एक ही बेड पर दोनों बहनें आमने-सामने लेटी थीं। हवा ने अपनी ठोड़ी के नीचे हथेली टिकाकर बहन की ओर देखा। हिना की आँखों में गहराई थी, चिंता थी, और कहीं एक डर भी।
"तुम ही बताओ, मैं क्या कर सकती हूँ?" हिना की आवाज़ में बेबसी थी, "मैं सचमुच कबीर से शादी नहीं करना चाहती। तुम्हें अच्छे से पता है कि वह कैसा इंसान है।"
हवा ने हल्की-सी हामी में सिर हिलाया, "सही बात है आपा… मगर हम चाहकर भी कुछ नहीं कर सकते। अब्बा ने तो कोशिश की थी दादाजान से बात करने की… मगर उन्होंने साफ़ मना कर दिया।"
"और पूछा तो कबीर भाईजान से भी नहीं गया होगा," हवा ने झुंझलाकर कहा, "उन्हें भी बस हुक्म सुना दिया गया होगा। इस घर में जब मर्दों की नहीं चलती तो औरतों की क्या चलेगी?"
हवा ने करवट बदली, और उल्टे लेटते हुए ठंडी साँस ली।
"आपकी पढ़ाई भी यहीं रुक जाएगी, है न?" हवा ने धीरे से पूछा।
हिना की आँखों में कुछ भीगे-से सपने थे। "हाँ, ग्रैजुएशन तो खत्म हो गया, लेकिन मैं मास्टर्स करना चाहती थी… तुम्हें तो पता है ना मुझे लिटरेचर में कितनी दिलचस्पी है।"
"कोई फ़ायदा नहीं आपा। कबीर भाई को कहाँ पढ़ाई की कद्र है। देख लेना, वह धीरे-धीरे दादाजान की तरह हो जाएंगे — सख्त मिज़ाज, औरतों को बस घर की चारदीवारी में रखने वाले, और सबसे पहले आप पर ही हुक्म चलाएँगे।"
"क्यों डरा रही हो यार मुझे?" हिना ने नर्म लहजे में कहा।
"सच कह रही हूँ," हवा ने तड़पकर कहा, "आप उनकी बीवी बनेंगी, और इस घर की सबसे समझदार लड़की होने के बावजूद आपकी कोई सुनवाई नहीं होगी।"
हिना चुप रही। उसने करवट बदली और आंखें बंद कर लीं।
"सो जाओ आपा," हिना ने कहा, और खुद भी आंखें मूंद लीं। मगर नींद दोनों की आँखों से कोसों दूर थी।
हिना सोच रही थी... क्या वह कबीर को पसंद करती है?
कभी नहीं।
कबीर — गुस्से से भरा, एटीट्यूड वाला, सिर्फ अपनी चलाने वाला लड़का। उसने शायद ही कभी सूट पहना हो। घर में बाकी लड़के ट्राउज़र-शर्ट में रिलैक्स होते थे, मगर कबीर हमेशा पठानी सूट या पायजामा-कुर्ते में ही दिखाई देता था। ऑफिस भी वह जीन्स और शर्ट में जाता था, ऊपर से कभी-कभी जैकेट डाल लेता — मगर सूट? शायद ही कभी।
और शाहरुख…
हिना के ज़ेहन में जैसे उसकी तस्वीर उतर आई।
शाहरुख, कबीर से कोई तीन साल छोटा था, मगर बिल्कुल अलग। वह हॉस्टल में पढ़ता था, बहुत बातें करता, मुस्कुराता, हँसता — लड़कियाँ उसे पसंद करतीं, उसकी मौजूदगी से महफ़िल रौशन हो जाती।
हिना को शाहरुख में अपने अब्बा की झलक दिखती थी — खुले विचारों वाला, ज़िंदगी को समझने वाला लड़का।
काश…
काश वो अपनी पसंद से जी पाती। मगर इस घर में लड़की की पसंद का क्या मतलब?
किसी ने दरवाज़े पर दस्तक दी।
"आ जाओ," कबीर ने कहा, और वो वापस फाइल की तरफ देखने लगा।
अयान अंदर आ गया।
"भाईजान, कैसे हैं आप?" उसने मुस्कुराकर पूछा।
कबीर ने बिना मुस्कराए फाइल से नज़र उठाई और उसकी तरफ देखा, "काम बताओ," उसने सीधा कहा।
अयान थोड़ा मुस्कराया और कमरे के भीतर आकर बेड पर बैठ गया। कबीर की आँखों में ठंडी-सी नज़रें थीं।
"कुछ चाहिए था?" उसने रूखे लहजे में पूछा।
अयान हल्के से हँसा, "नहीं, बस मिलने चला आया… देखना था कि आप कैसे हैं।"
"जैसा हमेशा था, वैसा ही हूँ," कबीर ने नज़रें वापस फाइल पर टिकाईं, "अब बताओ, असल बात क्या है?"
अयान ने गहरी साँस ली, फिर मुस्कराकर बोला, "पता है, आजकल घर में आपकी और हिना की शादी की बातें चल रही हैं।"
कबीर ने उसकी तरफ देखा नहीं, सिर्फ हल्का-सा सिर हिलाया, जैसे ये बात नई न हो।
अयान, जो भले ही कबीर से छोटा था, लेकिन हिना से उम्र में बड़ा था, थोड़ा रुककर बोला, "मैं सोच रहा था… आप दोनों साथ में कितने अच्छे लगेंगे।"
"तो सोचते रहो," कबीर ने सूखी आवाज़ में कहा, "लेकिन जहां से आए हो, वहाँ लौट जाओ।"
अयान को थोड़ी हैरानी हुई, "इतना भी क्या सख्त मिज़ाज होना, भाईजान? अब तो भाभी ही आपको सीधा करेंगी।"
इस पर कबीर ने पहली बार उसकी तरफ सीधी नज़र से देखा, उसकी नज़र तीखी थी, मगर अंदर कोई खामोशी भी थी।
"अब जो जहां से तुम्हारी बातें हो चुकी हैं…
अयान ने मुस्कुराते हुए सिर झुकाया, "ठीक है भाईजान, मैंने तो बस बात करने की कोशिश की थी।"
अयान चुपचाप उठकर कमरे से बाहर चला गया।
कबीर अहमद मिर्जा – मिर्जा खानदान का सबसे बड़ा बेटा
कबीर अहमद मिर्जा, मिर्जा खानदान का सबसे बड़ा बेटा था। लंबा-चौड़ा कद, सांवला रंग, बड़ी-बड़ी गहरी आँखें, और घने काले बाल — देखने में बेहद हैंडसम था। उसकी शख़्सियत में गहराई थी, और बोलचाल में गंभीरता। वह कम बोलता था, लेकिन जब भी बोलता, तो उसके हर शब्द में वजन होता।
कबीर का घर के कारोबार में अहम योगदान था। खानदान की तीनों कपड़ों की फैक्ट्रियाँ — जिनकी नींव उसके अब्बा और दोनों चाचाओं ने मिलकर रखी थी — उन्हें खड़ा करने और आगे बढ़ाने में कबीर ने सबसे ज़्यादा मेहनत की थी। जब खानदान ने अपने छोटे कस्बे से निकलकर शहर में बसने का फ़ैसला किया था, उस वक्त कबीर ननिहाल में पढ़ाई कर रहा था। गांव में अच्छी शिक्षा का अभाव था, इसलिए उसे बचपन से ही मामा के घर शहर भेज दिया गया था, जहाँ उसने प्लस टू तक की पढ़ाई की।
उसका पढ़ाई में मन लगता था, और वह हमेशा क्लास का होशियार छात्र माना जाता था। ननिहाल का शांत और अनुशासित माहौल उसके अपने घर से बिल्कुल अलग था। मामा के घर में नियम थे, और अनुशासन के साथ ज़िंदगी जीने की आदत पड़ी थी। उसके दो मामेरे भाई थे, जो उम्र में उससे बड़े थे और अपने-अपने करियर में व्यस्त रहते थे।
जब कबीर की प्लस टू की पढ़ाई पूरी हुई, तो वह वापस घर आ गया। उसी दौरान घर वालों ने शहर में बसने का फैसला किया। बाकी बच्चों की पढ़ाई कस्बे के स्कूल में ही जारी रही, लेकिन कबीर की स्कूली शिक्षा जिस स्तर की थी, वैसी किसी और को नहीं मिल सकी थी। यह बात और थी कि वह आगे की पढ़ाई नहीं कर सका। कभी कॉलेज जाने का मौका ही नहीं मिला।
उस वक्त उसके अब्बा और चाचा मिलकर फैक्ट्री शुरू करने की योजना बना रहे थे, और कबीर ने उनके साथ काम में जुट जाना ज़्यादा ज़रूरी समझा। किसी ने नहीं कहा कि वो पढ़ाई जारी रखे — क्योंकि उस समय पढ़ाई को इतनी अहमियत नहीं दी जाती थी। कबीर जानता था कि आगे चलकर उसे क्या खोना पड़ा है, लेकिन फिर भी उसने कभी शिकायत नहीं की।
कबीर को मालूम था कि घर में कई बार उसकी और हिना की शादी की बात की गई है। मगर इस रिश्ते के बारे में उसकी मोहब्बत बस उसके दिल में दबी रही — किसी को भनक तक नहीं थी। हिना उसके दिल के बहुत करीब थी, मगर वह कभी खुलकर सामने नहीं आया।
कबीर जानता था कि वह घर का सबसे बड़ा बेटा है, और इस नाते उससे एक संयमित व्यवहार की उम्मीद की जाती है। उसने हिना से हमेशा एक दूरी बनाकर रखी — ताकि वह उसकी पढ़ाई में कोई रुकावट न बने। वह नहीं चाहता था कि उसकी वजह से हिना की पढ़ाई छूट जाए या उस पर किसी तरह का सामाजिक दबाव पड़े। खुद भले ही पढ़ाई छोड़ चुका था, लेकिन वह अपने छोटे भाई-बहनों को आगे बढ़ते देखना चाहता था।
जब उसके शाहरुख ने प्लस टू पास किया, तो कबीर ने खुद दादा जान से बात की कि उसे आगे पढ़ने के लिए हॉस्टल भेजा जाए। दादा जान की इजाज़त लेना आसान नहीं था — उन्हें अपनी बात काटना बिल्कुल पसंद नहीं था — मगर कबीर ने हमेशा उन्हें अकेले में जाकर समझाया। धीरे-धीरे दादा जान को भी यकीन हो गया कि उनका कारोबार कबीर की मेहनत से चल रहा है, और यह लड़का सोच-समझकर फैसले करता है। इसीलिए कबीर की बात अक्सर मान ली जाती।
अब तो घर के बाकी लड़के-लड़कियाँ भी कॉलेज जाने लगे थे। उसका अपना छोटा भाई m.com कर रहा था, और छोटी बहन भी कॉलेज जाती थी।
कबीर की रुचि केवल कारोबार तक सीमित नहीं थी। उसे राजनीति में भी गहरी दिलचस्पी थी। वह अकसर राजनीति से जुड़े प्रोग्राम्स में हिस्सा लेता था। उसका एक खास दोस्त था — गौतम शर्मा — जो दिल्ली में राजनीतिक हलकों में भी काफी एक्टिव रहता था। कबीर जानता था कि बिजनेस को आगे बढ़ाने के लिए राजनीतिक कनेक्शन ज़रूरी होते हैं, और गौतम के ज़रिए उसकी पहुँच वहाँ तक बन चुकी थी।
हिना के लिए कबीर की मोहब्बत उसके दिल में थी — गहरी, लेकिन खामोश। जब उनकी शादी की बात दोबारा चली, तो कबीर को कोई ऐतराज़ नहीं था। उसके लिए तो यह रिश्ता दिल से कब का मंज़ूर हो चुका था।
मगर... सवाल यह था कि क्या हिना कबीर के बारे में कुछ जानती थी?
शायद नहीं।
उसे यह तक नहीं पता था कि कबीर कैसा इंसान है, वह कैसे सोचता है, उसे क्या पसंद है, और उसके दिल में हिना के लिए कितनी गहराई से मोहब्बत है। कबीर ने कभी जताया ही नहीं। शायद वक्त अब उसी रुख़ की ओर बढ़ रहा था जहाँ यह चुप मोहब्बत... हकीकत में बदलने वाली थी।
कबीर का छोटा भाई अयान, घर का सबसे शरारती लड़का था। जितनी शरारत वह करता था, उतनी घर का कोई भी और लड़का नहीं करता था। वह न सिर्फ शरारती था, बल्कि बिल्कुल बेपरवाह, हर बात खुलकर कहने वाला, मनमौजी किस्म का लड़का था।
जब घर की लड़कियाँ बड़ी हो जाती थीं, तो परिवार के नियमों के अनुसार बाकी लड़के उनसे एक दूरी बनाकर रखते थे — जैसा कि खानदान में पीढ़ियों से होता आया था। मगर अयान इस मामले में बिल्कुल अलग था। वह किसी से दूरी नहीं बनाता था, बल्कि अक्सर घर की लड़कियों से उसकी बहस और झगड़े होते रहते थे।
अयान और हवा के बीच तो खास दुश्मनी थी। जब तक घर के बड़े सदस्य आस-पास रहते, दोनों शांति से रहते थे। मगर जैसे ही कोई बड़ा सामने से हटा, उनकी बहस शुरू हो जाती ीं
कबीर की बहन सबिहा, बहुत प्यारी और समझदार लड़की थी। उसकी हिना और हवा के साथ खास दोस्ती थी। बल्कि, सिर्फ वही तीनों नहीं — घर की चारों लड़कियाँ, यानी हिना, हवा, कहकशा और सबिहा — आपस में बहनों से बढ़कर दोस्त थीं। चारों के बीच बहुत गहरा प्रेम था।
हिना और हवा एक ही कमरे में रहती थीं, जबकि सबिहा और कहकशा एक और कमरे में। चारों में से अगर किसी एक को भी कोई बात परेशान करती, तो वे सब उसे मिलकर सुलझाने की कोशिश करती थीं। उनके बीच का रिश्ता इतना गहरा था कि चाहे कोई भी बात हो, वो एक-दूसरे का पूरा साथ देती थीं — और घर के बाकी लोगों को भनक भी नहीं लगने देती थीं।
चारों बहनें एक साथ कॉलेज जाती थीं, और साथ ही लौटती थीं। उन्हें बस एक ही बात की चिंता सताती रहती थी — कि उनकी शादी इस घर में न हो। खासकर, इस घर के लड़कों से नहीं।
उनके मन में ये धारणा बन चुकी थी कि घर के सारे लड़के सख्त मिज़ाज के हैं — जो औरतों की इज़्ज़त नहीं करते, उन्हें दबाकर रखते हैं और बस अपनी चलाना जानते हैं। उनमें से उन्हें सबसे ज़्यादा डर कबीर से लगता था। उन्हें लगता था कि कबीर सबसे ज्यादा रुखा, गुस्सैल और मर्दवादी सोच रखने वाला है।
मगर सच क्या था — ये सिर्फ कबीर जानता था।
क्योंकि अगर आज इस घर की बेटियाँ कॉलेज तक पढ़ पा रही थीं, और उन्हें बाहर जाने की इजाज़त थी — तो वह सिर्फ और सिर्फ कबीर की वजह से था।
अब आगे क्या होगा?
क्या हिना कबीर को जान पाएगी?
क्या कबीर अपनी मोहब्बत का इज़हार कर पाएगा?
या फिर वक्त कुछ और ही मोड़ लेकर आएगा?
अप्रैल का महीना था। मौसम में गर्मी की शुरुआत हो चुकी थी, और शहर की गलियों में सुबह की हवा भी अब तपिश लिए चलने लगी थी। चारों बहनों — को आज कॉलेज जाना था। फाइनल एग्ज़ाम से पहले कुछ क्लासेज की फाइल सबमिट करनी थी। फिर मई के पहले हफ्ते से उनके एग्ज़ाम शुरू होने थे, इसलिए ये कॉलेज के आखिरी चक्कर थे।
घर की लॉबी से निकलती हुई चारों बहनें किसी खूबसूरत गुलदस्ते जैसी लग रही थीं। चारों का अंदाज़, चाल और मुस्कराहटें — एक साथ बाहर आते ही ऐसा लगा जैसे घर में बहार आ गई हो। सबने हल्के गर्मियों के कपड़े पहने थे — स्काई ब्लू, गुलाबी और सफेद रंगों की लहरें उनके दुपट्टों में उड़ती जा रही थीं।
ड्राइवर गेट पर खड़ा पहले से ही गाड़ी के दरवाज़े के पास था। उसका नाम था रशीद चाचा — एक उम्रदराज़ और बेहद विनम्र शख़्स, जो बरसों से इस घर में ड्राइवर था। चारों बहनों की परवरिश को वह अपनी बेटियों जैसा मानता था।
रशीद चाचा ने गाड़ी का बोनट खोल रखा था और माथे पर परेशानी की लकीरें थीं। जैसे ही लड़कियां बाहर आईं, उन्होंने मुस्कुराकर कहा —
"बीबी, गाड़ी आज आपका साथ नहीं निभा सकेगी। इंजन में कुछ दिक्कत है, शायद मैकेनिक को दिखानी पड़ेगी।"
हवा ने रुककर पूछा, “क्या हो गया, चाचा?”
रशीद चाचा ने अपने चश्मे को ठीक करते हुए कहा,
"पता नहीं, सुबह से स्टार्ट नहीं हो रही। दो बार कोशिश कर चुका हूं... पर अब तो लगता है मिकैनिक ही देखेगा।"
चारों बहनों ने एक-दूसरे की तरफ देखा। सबको कॉलेज जाना ज़रूरी था — आख़िरी डेट थी फाइल सबमिट करने की।
"अब क्या करें?" हिना ने हल्के से कहा।
उसी पल सामने से कबीर आता दिखा — सफ़ेद स्काई ब्लू शर्ट और ब्लू डेनिम्स में, हमेशा की तरह बेपरवाह और ठंडी सी नज़रों वाला। गाड़ी की साइड में आकर उसने हालात को देखा। सबिहा ने उसे देखकर कहा,
“हमें कॉलेज जाना है, और गाड़ी…”
“ठीक है, देखता हूं,” उसने एक ही लाइन में कहा और गाड़ी के सामने जाकर झुककर इंजन की तरफ देखने लगा।
कबीर, जो अक्सर कम बोलता था, मगर जब कुछ कहता तो बात वहीं खत्म हो जाती।
चलो तुम लोगों को मैं छोड़ देता हूं "उसने कहा
---
गाड़ी में बैठने की हलचल और बारिश की हल्की रिमझिम
सबिहा आगे वाली सीट पर कबीर के साथ बैठ गई थी, क्योंकि वह कबीर की छोटी बहन थी। पीछे की सीट पर हिना, हवा और कहकशां— तीनों — आराम से बैठ गईं।
"भाई जान, आज हमें अपनी फाइल सबमिट करनी है," सबिहा ने झिझकते हुए कहा।
"लास्ट डेट है," हवा ने भी धीरे से जोड़ा।
कबीर ने थोड़ा नाराज़ होते हुए कहा, "तो ये काम तो पहले ही हो जाना चाहिए था। इतनी लापरवाही अच्छी नहीं होती।"
उसकी बात सुनकर सभी चुप हो गईं।
"सॉरी भाई जान," सबकी ओर से सबिहा ने धीरे से कहा।
कबीर ने एक गहरी साँस ली और गाड़ी स्टार्ट कर दी। कुछ ही पलों में वे सब घर से निकल चुके थे।
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आईने के आरपार
हिना, जो कबीर की सीट के ठीक पीछे बैठी थी, बाहर की तरफ देख रही थी। बारिश की बूँदें खिड़की से टकरा रही थीं और उसका ध्यान उन्हीं में उलझा हुआ था। हवा बीच में बैठी थी और कहकशां खिड़की की ओर।
कबीर गाड़ी चला रहा था, लेकिन उसका ध्यान गाड़ी से ज़्यादा आईने पर था। उसने फ्रंट रियर व्यू मिरर में झाँका — हिना का चेहरा साफ़ नजर आ रहा था।
आज वह पिंक रंग के सूट में थी, उसका चेहरा उसके कपड़ों के साथ इस कदर मेल खा रहा था जैसे किसी पेंटिंग का टोन। उसकी बड़ी-बड़ी काली आँखों में काजल की गहराई थी। छोटी, तीखी सी नाक में बारीक सी नथनी चमक रही थी। होठों पर हल्की गुलाबी लिपस्टिक थी। उसके खुले बाल कंधों से नीचे तक बहते हुए, हल्की हवा में लहराते थे।
हिना को अंदाज़ा भी नहीं था कि कोई उसे आईने से इतनी तल्लीनता से देख रहा है। वह तो खिड़की के बाहर उस बारिश को निहार रही थी, जैसे उस भीगती दुनिया से कोई रिश्ता जोड़ना चाहती हो।
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कबीर जानता था कि उसके दिल में हिना के लिए हमेशा से एक जगह रही है। वह यह भी जानता था कि परिवार में सब यही मानते हैं कि उसकी शादी हिना से ही होगी। लेकिन जब कल रात यह रिश्ता पक्का हो गया, तो आज हिना को देखने का उसका नज़रिया बदल गया था।
उसे आज एक अजीब सा अधिकार महसूस हो रहा था — जैसे अब वह उसे पहले से ज़्यादा अपने दिल से देख सकता है।
आईने से वह लगातार हिना को देखे जा रहा था — उसकी हर मुस्कान, उसकी हर झलक उसे अपनी ओर खींच रही थी।
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कबीर इतना खोया हुआ था कि उसे सामने से आ रही एक कार का ध्यान ही नहीं रहा। गाड़ी की रफ़्तार भी थोड़ी तेज़ थी।
हवा, जो अब तक शांत बैठी थी, कबीर के चेहरे की तरफ देख रही थी। उसे तुरंत समझ में आ गया कि कबीर किसे और कैसे देख रहा है।
जैसे ही सामने से आती गाड़ी थोड़ी नज़दीक आई, हवा ने अचानक ज़ोर से चिल्लाया —
"कबीर भाई जान!"
कबीर की तंद्रा टूटी। उसने तुरंत ब्रेक मारा।
गाड़ी एक झटके के साथ रुक गई।
सभी एकदम से अपनी सीटों से थोड़ा आगे की तरफ झुक गए। सीट बेल्ट की वजह से उन्हें कोई चोट तो नहीं लगी, लेकिन पल भर के लिए गाड़ी के अंदर सन्नाटा छा गया।
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कबीर ने चुपचाप सामने देखा, फिर शीशे में। हिना अब भी चुपचाप बैठी थी, मगर अब उसकी निगाहें बाहर नहीं — सीधे सामने आईने की तरफ थीं।
हवा ने भी कुछ नहीं कहा। लेकिन उसके चेहरे पर एक हल्की सी मुस्कान थी — वो मुस्कान, जो बहुत कुछ जानकर भी कुछ न कहे।
कबीर ने गाड़ी रोकने के बाद जैसे ही थोड़ा सिर घुमाया, उसकी नज़र हवा के चेहरे पर पड़ गई। हवा के चेहरे पर हल्की सी मुस्कान थी — वही मुस्कान, जो बहुत कुछ कहती है, बिना कुछ बोले।
कबीर समझ गया था... हवा सब जान चुकी है।
उसी मुस्कान में जवाब छुपा था।
गाड़ी कॉलेज के सामने रुकी। जैसे ही लड़कियाँ उतरने लगीं, कबीर ने गाड़ी से उतरकर उन्हें जल्दी-जल्दी विदा किया।
"चलो, ध्यान से जाना। सबमिशन टाइम पर कर देना," उसने सामान्य लहजे में कहा, लेकिन उसकी आँखें हवा की ओर उठ गईं।
हवा, जो धीरे-धीरे आगे बढ़ रही थी, तब तक रुक गई।
कबीर थोड़ा पास आया और बहुत धीमे स्वर में सिर्फ उससे कहा —
"किसी को कुछ भी कहने की ज़रूरत नहीं है।"
हवा ने सिर हल्के से हिलाया। उसकी मुस्कान अब भी वहीं थी —
कबीर बिना और कुछ कहे वापस मुड़ा, अपनी थार की ड्राइविंग सीट पर बैठा, और एक हल्की साँस लेते हुए गाड़ी स्टार्ट कर दी।
गाड़ी ने मोड़ लिया था... लेकिन हवा की मुस्कान और हिना की वो बेखबर सी झलक — दोनों अब भी कबीर के दिल के आईने में साफ़ नज़र आ रही थीं।
चारों लड़कियाँ अपनी-अपनी क्लासेस में चली गई थीं।
हिना का फाइनल ईयर था,
कहकशां और साबिहा दोनों सेकंड ईयर में थीं,
जबकि हवा फर्स्ट ईयर में पढ़ती थी।
क्लासेस खत्म होने के बाद, उन्हें लेने के लिए राशिद चाचा आने वाले थे।
तब तक गाड़ी ठीक भी हो जानी थी।
काम खत्म करके जब वे सब वापस घर आईं, तो हवा बहुत खुश थी।
आज पहली बार, उसने अपनी बहन के लिए कबीर की आँखों में जो मोहब्बत देखी, वो उसके दिल को छू गई थी।
अचानक ही, जिससे अब तक हवा डरती थी —
कबीर — वही अब उसे अच्छा लगने लगा था।
उसे लग रहा था कि कबीर उसकी बहन को बहुत खुश रखेगा।
हालाँकि कबीर ने उसे साफ कह दिया था,
"किसी से कुछ मत कहना,"
मगर हवा…
हवा ही क्या जो चुप रह जाए!
घर की सबसे शरारती लड़की थी वो।
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रात के खाने के बाद, दोनों बहनें लान में टहल रही थीं।
वैसे तो ये चारों बहनें अक्सर साथ टहलती थीं,
लेकिन आज सिर्फ हिना और हवा साथ थीं।
चारों के बीच बहुत प्यार था —
एक-दूसरे की आँखों से सब समझने वाला रिश्ता।
मगर आज हवा, अपनी बात हिना तक पहुँचाना चाहती थी।
"मैं तुम्हें एक बात बताऊँ?" हवा ने धीरे से कहा।
हिना ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया,
"अगर मैं ना कहूंगी, तो क्या तू चुप रह जाएगी ।बोल ना, क्या हुआ?"
हवा ने आँखें चमकाते हुए कहा,
"आज मैंने कुछ देखा है।"
हिना हँसते हुए बोली,
"मुझे तो लगता है जब से तेरा जन्म हुआ है,
तब से तू हर चीज़ ‘देखती’ ही आ रही है!"
"अच्छा, ये तो बता — तुझे पता है, आज एक्सीडेंट क्यों हुआ था?"
हवा ने थोड़ा गंभीर होकर कहा।
हिना चौंकी, "क्यों हुआ था?"
"क्योंकि… भाई ने अचानक ब्रेक मारा था।
सामने से गाड़ी आ रही थी, और उन्हें ध्यान ही नहीं रहा!"
"और क्या! फिर?"
"ये पूछो… ध्यान क्यों नहीं रहा?"
"अब वो मुझे क्यों पूछना है? मुझे उनकी कोई बात नहीं करनी!"
हिना गुस्से से बोली।
अब भी वो कबीर से निकाह की बात पर नाराज़ थी।
"प्लीज़, कम से कम कुछ पूछो तो सही," हवा ने जिद की।
"अच्छा, बताती हूँ,"
हवा ने आँखें चमकाते हुए कहा,
"वो फ्रंट मिरर से आपको देख रहे थे।
उनकी आँखों में… आपके लिए प्यार था, बहुत प्यार।
मुझे लगता है, वो आपको बहुत खुश रखेंगे…"
"हो गया तेरा? चल, अब अंदर चलते हैं!"
हिना ने झल्लाते हुए कहा।
"क्या यार! मैं तो तुमसे कुछ अहम बात कर रही हूँ,
और तुम हो कि उसे नज़रअंदाज़ कर रही हो।"
"देख हवा, मेरा दिमाग पहले ही बहुत खराब है।
मैं जानती हूँ तू मेरी टेंशन कम नहीं कर सकती,
कम से कम उसे बढ़ा मत!"
"क्या आपकी ज़िंदगी का रुख़ा-सूखा होना इतना ही ज़रूरी है?"
हवा ने तंज़ कसते हुए कहा।
"देख लेना, कबीर भाई आपको बहुत खुश रखेंगे!"
"लगता है तेरे एग्ज़ाम की टेंशन में तेरा दिमाग खराब हो गया है,"
हिना ने गुस्से में कहा और कमरे की ओर चली गई।
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हवा हाथ कमर पर रखे खड़ी थी और बोली,
"इसका कुछ नहीं हो सकता! इसे तो कबीर भाई ही ठीक करेंगे!"
उसी वक्त, उसकी नज़र ऊपर गई —
कबीर की बालकनी की तरफ।
कबीर वहीं खड़ा था,
दोनों हाथ बांधे, और उनके बीच की सारी बातें सुन रहा था।
जैसे ही हवा की नज़र उस पर पड़ी,
वो कमरे की तरफ भाग गई।
कबीर ने उसकी हरकत देख कर हल्की मुस्कान ली।
फिर खुद से बुदबुदाया,
"अजीब बात है… जिसे ये बात नहीं जाननी चाहिए थी,
वो जान गई कि मैं उसे चाहता हूँ।
मगर जिसे जाननी चाहिए थी —
उसे अब तक कोई फर्क ही नहीं पड़ा!"
कबीर की आँखों में एक ठहराव था।
उसने गहरी साँस ली और फिर कहा:
"कोई बात नहीं… एक बार निकाह होकर आने दो।
फिर देखना, मैं कैसे तुम्हें दिखाता हूँ
कि मैं तुम्हें कितना चाहता हूँ…"
थोड़ी देर बाद, हिना अपनी किताब लेकर लौन में आकर बैठ गई।
वहाँ पर काफी रोशनी थी, और वातावरण एकदम शांत।
एक चेयर पर वह खुद बैठी थी, और दूसरी पर उसने अपने पाँव टिकाए हुए थे।
लौन का यह कोना ऐसा था जहाँ कोई नौकर भी नहीं आता था।
यह हिस्सा सिर्फ चारों लड़कियों के कमरों,
हिना के अम्मी अब्बू का कमरा भी इसी तरफ खुलता था।
इसलिए, यहाँ वे चारों लड़कियाँ पूरी आज़ादी से घूमती थीं —
बिना दुपट्टे, आरामदेह कपड़ों में,
और कभी किसी अजनबी या घर के मर्द के आने का डर नहीं होता था।
वकार साहब का स्वभाव भी बहुत नरम और समझदार था।
वो कभी छोटी-छोटी बातों पर बच्चियों को डाँटते नहीं थे।
इसीलिए चारों लड़कियाँ उनके साथ बहुत कम्फर्टेबल रहती थीं।
उन्हें न दादा से डर लगता था,
और न ही किसी बंदिश का एहसास होता था।
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ऊपर वाले हिस्से में कबीर का कमरा था,
जिसकी बालकनी सीधा लौन की तरफ खुलती थी।
उसके साथ ही अयान का कमरा था,
जिसकी बालकनी भी इसी दिशा में खुलती थी।
बाकी घर के सभी बेडरूम की बालकनियाँ दूसरी तरफ थीं।
कबीर, जो अक्सर काम में व्यस्त रहता था,
बहुत कम मौकों पर घर पर आराम करता था।
और जैसा कि हवा घर की सबसे शरारती लड़की थी,
वैसे ही अयान घर का सबसे शरारती और प्यारा लड़का था।
वो बिल्कुल अपने चाचा वकार पर गया था।
अयान भी कभी घर की औरतों से ऊँची आवाज़ में बात नहीं करता था,
बल्कि सबका चहेता था।
हाँ, एक बात जरूर थी —
हवा और अयान की आपस में बिल्कुल नहीं बनती थी।
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घर के बड़े-बुज़ुर्गों के सामने तो वो दोनों बहुत शरीफ बनकर रहते थे,
मगर जैसे ही अकेले होते, उनकी लड़ाई शुरू हो जाती।
शायद ही कोई दिन ऐसा जाता हो
जब वे आपस में ना झगड़ते हों।
मज़े की बात ये थी कि इस 'छुपी दुश्मनी' के बारे में
सिर्फ चारों लड़कियाँ और हवा के अम्मी-अब्बू जानते थे।
बाकी घर के सदस्य उन्हें एकदम सुलझा हुआ और सभ्य मानते थे।
सच्चाई ये थी — जहाँ हवा जाती, अयान वहाँ कोई न कोई बहाना बना कर आ जाता।
और जहाँ अयान होता, हवा उससे चिढ़ने का कोई मौक़ा नहीं छोड़तं।
हर कोई अपने-अपने कमरों में जा चुका था।
मगर हिना की आँखों में नींद नहीं थी... बस किताबें थीं।
वो अपनी किताबें लेकर आहिस्ता से लौन में चली आई।
लौन के उस कोने में जहाँ एक पीली सी वॉर्म लाइट जल रही थी —
न ज़्यादा तेज़, न बहुत हल्की।
बस इतनी कि किताब पढ़ी जा सके
लौन उस वक़्त बहुत शांत था।
ठंडी हवा पेड़ों की पत्तियों से खेल रही थी,
चाँदनी कहीं छुपती और कहीं उभरती,
और उस सबके बीच हिना एक चेयर पर बैठी,
पैर दूसरी चेयर पर टिकाए,
अपनी किताब में डूबी हुई थी।
वैसे तो अप्रैल का महीने में गर्मी शुरू हो जाती है मगर दिन को बारिश की वजह से रात को हल्की-हल्की ठंड होने लगी इसीलिए उसने ऊपर एक हल्की शॉल ले रखी थी,
बाल खुले थे, और माथे पर कुछ लटें बिखरी थीं
जिन्हें वो बार-बार किताब से न हटते हुए
हौले से कान के पीछे कर देती।
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उसे नहीं पता था कि ऊपर से कोई उसे देख रहा है।
कबीर, अपनी बालकनी में खड़ा था —
एक बार फिर, चुपचाप।
वो कोई आवाज़ नहीं करता,
बस देखता था।
और हर बार की तरह,
आज भी उसकी नज़रें सिर्फ हिना पर टिकी थीं।
"रात की इस तन्हाई में सिर्फ एक चीज़ जिंदा लग रही है — ये लड़की,"
उसने मन ही मन कहा।
"कैसे कोई इतना सादा होकर इतना खूबसूरत हो सकता है?"
हिना पढ़ रही थी, मगर उसे पढ़ना
कबीर के लिए खुद को समझने जैसा था।
वो जब पन्ना पलटती,
कबीर को लगता कोई अहसास उसकी छाती पर दस्तक दे रहा है।
वो जब पल भर के लिए कुछ सोचती और नज़रें उठाकर सामने देखती,
कबीर का दिल धक-से रह जाता।
कबीर की नज़रें उससे नहीं हटती थीं — और हिना को इसका बिल्कुल एहसास नहीं था।
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"चाँद के साए में, इश्क़ की ख़ामोशियाँ"
रात गहराती जा रही थी।
अब लौन में सिर्फ हिना थी —
और ऊपर बालकनी में, बस कबीर।
कभी-कभी हवा उसके पन्नों को हिला देती,
कभी उसकी शॉल उड़ जाती,
और कबीर अपने होंठों पर हल्की मुस्कान के साथ
उसकी हर हरकत को वैसे देखता जैसे कोई इबादत को देखता है।
"काश... ये मेरी किताब होती।
जिसे वो यूँ पलटती, छूती, गहराई से पढ़ती।
काश, उसे पता होता…
कि एक शख़्स उसे देखता है जैसे ज़िन्दगी की आख़िरी उम्मीद को देखा जाता है।"
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"कुछ अहसास शब्दों के मोहताज नहीं होते"
हिना पढ़ती रही…
समझती रही…
और धीरे-धीरे उसने किताब बंद की।
अपने चारों तरफ देखा,
और एक गहरी साँस ली।
शायद अब वह उठने वाली थी,
मगर जाने से पहले उसने आसमान की तरफ देखा।
चाँद को, तारों को।
वहीं खड़ा कबीर भी आसमान की तरफ देखने लगा…
मगर उसकी नज़र चाँद पर नहीं,
हिना के चेहरे पर थी।
सुबह लड़कियों को कॉलेज नहीं जाना था। जब तक एग्ज़ाम शुरू नहीं होते, उन्हें घर पर ही रहकर पढ़ाई करनी थी। इसलिए उन्होंने सोचा था कि आज थोड़ा देर से उठेंगी। मगर हवेली के नियम इतने ढीले नहीं थे कि कोई भी मर्ज़ी से उठे और अपनी सहूलियत से नीचे आए।
हवेली का एक सख़्त निज़ाम था — चाहे लड़कियाँ कॉलेज जाएं या न जाएं, उन्हें नहा-धोकर, पूरी तरह तैयार होकर ही डाइनिंग टेबल पर पहुँचना होता था। नाइट सूट में बाहर आना बिल्कुल भी स्वीकार नहीं था। भले ही वे दिनभर अपने कमरों में आराम करें, लेकिन नाश्ते के वक़्त सबका एकसाथ हाज़िर होना बेहद ज़रूरी था।
घर के लड़के — चाहे कबीर हों, तैमूर हो — उन्हें यह छूट थी कि वे बिना नहाए, नाइट सूट में ही पूरे घर में घूम सकते थे। लेकिन लड़कियाँ नाश्ते से पहले तैयार होकर ही अपने कमरे से बाहर आती थीं। खाना खाकर ही वे रिलैक्सिंग कपड़ों में वापस बदलतीं, जब यकीन हो जाता कि उन्हें बाहर नहीं जाना है।
घर की औरतें — तीनों भाभियाँ, सलीमा भाभी (कबीर की अम्मी), शगुफ़्ता भाभी (हिना की अम्मी), और रिहाना भाभी (तैमूर की अम्मी) — सुबह-सुबह डाइनिंग टेबल पर नाश्ता सजा रही थीं।
मुस्लिम घराने का पारंपरिक नाश्ता तैयार किया जा रहा था: हलकी सी तले हुए पराठे, खमीरी रोटियाँ, पनीर की भुर्जी, उबले अंडे, बेसन का हलवा, और साथ में दारचिनी वाली चाय। साथ ही, मेज़ पर खजूर और बिस्किट भी रखे गए थे। चाय के साथ ज़ाफ़रानी दूध और शीरमाल भी रखे गए थे।
इस सुबह की बात कुछ और ही थी। घर में एक खास मेहमान मौजूद थीं — फरीदा बानो, दादा जान और दादी जान की इकलौती बेटी, और तीनों भाइयों की बहन।
फरीदा बानो मिर्जा अहमद, वकार मिर्जा और सईद मिर्जा की बहन थी।
उम्र में वह मिर्जा अहमद से छोटी थीं, लेकिन वकार और सईद दोनों से बड़ी थीं।
उनके साथ उनके पति भी आए थे — रईस हुसैन। वह एक सुलझे हुए, शांत स्वभाव के और धार्मिक रुझान रखने वाले व्यक्ति थे, जिन्हें पूरे खानदान में इज़्ज़त और मोहब्बत से देखा जाता था।
डाइनिंग टेबल पर सभी इकट्ठा हो चुके थे — दादा जान, दादी जान, मिर्जा साहब, तीनों बहुएँ, कुछ लड़कियाँ और लड़के। फरीदा बानो को देखकर दादी जान की आँखों में चमक थी, और दादा जान का चेहरा भी बेहद सुकून से भरा हुआ था। उनकी बेटी उनके सामने बैठी थी।
दादी जान ने प्यार से उसका हाथ थामा और पूछा,
"कैसी हो मेरी बच्ची?"
फरीदा बानो ने मुस्कुरा कर जवाब दिया,
"अम्मी, जैसे आपके पास आ जाती हूँ, सब कुछ अच्छा लगने लगता है।"
थोड़ीदादी जान ने प्यार से उसका हाथ थामा और पूछा,
"कैसी हो मेरी बच्ची?"
फरीदा बानो ने मुस्कुरा कर जवाब दिया,
"अम्मी, जैसे आपके पास आ जाती हूँ, सब कुछ अच्छा लगने लगता है।"
थोड़ी देर सबने साथ में नाश्ता किया। घर की रौनक मानो दोगुनी हो गई थी। चाय के कप के साथ हल्की बातचीत चल रही थी। इतने में फरीदा बानो ने अपना कप नीचे रखा और बोलीं:
"आज मैं आप सबसे कुछ माँगने आई हूँ…"
उनकी बात सुनकर पूरा घर शांत हो गया। सबकी नज़रें उनकी तरफ़ उठीं — दादा जान ने भौंहें थोड़ी चढ़ाईं, और मिर्जा साहब ने हैरानी से पूछा,
"क्या बात है, फरीदा?"
फरीदा बानो कुछ पल चुप रहीं। उनकी आँखों में संजीदगी थी, आवाज़ में मोहब्बत और विनम्रता।
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फरीदा बानो, मिर्जा साहब की इकलौती बेटी थी, इसी शहर में रहती थीं। उनका ससुराल एक पढ़ा-लिखा और संभ्रांत खानदान था। उनके शौहर राहीस हुसैन एक बहुत ही समझदार और शिक्षित व्यक्ति थे, जिनका अपना बड़ा और सफल कारोबार था। वह व्यापार के साथ-साथ समाजिक दृष्टिकोण से भी काफी खुले विचारों वाले इंसान माने जाते थे।
हुसैन साहब का घर का माहौल, मिर्जा साहब के घर की तुलना में थोड़ा ज़्यादा खुला और आधुनिक था। दोनों घरों की परवरिश और माहौल में अंतर तो था, मगर रिश्ता अब भी वैसा ही मजबूत था जैसा एक भाई-बहन के परिवारों में होता है।
फरीदा और हुसैन के दो बच्चे थे —
बेटा: अरहान हुसैन रिज़वी
बेटी: मेहरूनिसा रिज़वी
अरहान ने बिज़नेस मैनेजमेंट की पढ़ाई की थी और अब अपने पिता के साथ कारोबार में हाथ बँटा रहा था। मेहरूनिसा भी कॉलेज में पढ़ रही थ।
आज फरीदा बानो मिर्जा हाउस आई थीं — एक खास मक़सद के साथ। वह चाहती थीं कि उनका बेटा अरहान, मिर्जा साहब की किसी पोती से निकाह करे, और उनकी बेटी मेहरूनिसा के लिए भी वह इसी खानदान से रिश्ता तय करना चाहती थीं।
सच कहें तो यह बात दादी जान से पहले ही हो चुकी थी।
इस घर में जो दादी जान कह देती थीं, वही आख़िरी फ़ैसला माना जाता था।
फरीदा का स्वभाव थोड़ा तेज़ और मुखर था।
अपने बच्चों के लिए वह सबसे अच्छा ही चाहती थीं — और यह "सबसे अच्छा" उन्हें अपने मायके में ही नज़र आया था।
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पूरी फै़मिली डाइनिंग टेबल पर मौजूद थी।
तीनों भाभियाँ — सलीमा, शगुफ़्ता और रिहाना — नाश्ता सर्व कर रही थीं।
कबीर, अयान, और तैमूर के साथ बैठे थे।
घर की सारी बेटियाँ — हिना, हवा , कहकशां और साबिहा— भी वहाँ मौजूद थीं।
तीनों भाई — अहमद, सईद और वकार — और खुद मिर्जा साहब व दादी जान भी टेबल पर मौजूद थे। माहौल गरम चाय और हल्की-फुल्की बातों से भरा हुआ था।
तभी फरीदा बानो ने धीमे मगर साफ़ लहजे में कहा,
"आज मैं आप सबसे कुछ माँगने आई हूँ..."
उनकी इस बात पर कुछ पल को सन्नाटा सा छा गया।
अहमद मिर्जा ने हल्के से मुस्कराते हुए, मगर थोड़ा चौंक कर कहा:
"क्या चाहिए तुम्हें, फरीदा? और माँगने की ज़रूरत क्या है? यह घर तुम्हारा ही है।"
उसका मानना था कि अगर वह अपने बेटे की शादी इसी घर में करेगी, तो वह लड़की उसके नियंत्रण में रहेगी।
बाहर से आई हुई लड़की के स्वभाव और परवरिश के बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता — न जाने कै seसी हो, कौन से माहौल से आई हो।
लेकिन इस घर की लड़की उसके सामने पली-बढ़ी है, उसे अच्छे से जानती है, लिहाज़ करना जानती है — और सबसे बड़ी बात, उसे वह संभाल सकती है।
उसी तरह, वह अपनी बेटी की शादी भी अपने किसी भतीजे के साथ करना चाहती थी।
उसे पूरा विश्वास था कि उसकी अम्मी और अब्बा उसकी बेटी का उसी प्यार और देखभाल से ख्याल रखेंगे।
उसे यह भी लगता था कि इस घर का माहौल उसकी बेटी के लिए सबसे सुरक्षित और सम्मानजनक रहेगा।
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"मैं चाहती हूं कि मेरी बेटी मेहरुन्निसा का रिश्ता शाहरुख से तय हो जाए।"
फ़रीदा बानो ने यह बात कहते हुए मिर्जा साहब और अपने भाई सईद मिर्जा की तरफ देखा।
वैसे भी यह बात पहले कई बार चर्चा में आ चुकी थी,
और उन्हें पूरा यकीन था कि यह रिश्ता अब पक्का हो ही जाएगा।
उनकी बेटी को भी शाहरुख पसंद था।
फरीदा बानो ने हमेशा अपनी बेटी से राय लेकर ही ये कदम उठाया था।
उनकी बात सुनकर दादी जान हल्के से मुस्कुराईं।
"बिल्कुल… जैसे कबीर और हिना का रिश्ता तय किया, वैसे ही इन दोनों की भी सगाई जल्द कर देंगे,"
उन्होंने कहा।
सभी लोग एक-दूसरे को मुबारकबाद देने लगे।
लेकिन तभी कबीर ने कहा,
"मुझे लगता है, एक बार शाहरुख से भी बात करनी चाहिए। वह घर पर ही है..."
सैयद साहब ने तुरंत जवाब दिया,
"वो मेरी बात मानेगा। जो मैं तय कर दूं, वही होगा।"
उनकी बात सुनकर कबीर चुप हो गया।
सहसा हिना की नज़रें झुक गईं।
इस पूरे माहौल में सबसे ज़्यादा असर हिना पर पड़ रहा था।
उसे अंदर ही अंदर दुख हो रहा था।
वह खुद शाहरुख को कहीं न कहीं दिल से पसंद करती थी।
शाहरुख खुले विचारों वाला, मॉडर्न सोच रखने वाला लड़का था।
इसीलिए हिना ही नहीं, घर की कई लड़कियाँ उसकी ओर आकर्षित थीं।
अब कबीर का यह कहना कि
"एक बार शाहरुख से पूछ लेना चाहिए"
हिना के दिल में एक टीस जगा गया।
कबीर की अपनी शादी के वक़्त तो कभी उससे नहीं पूछा गया था।
इसीलिए कबीर आप ऐसा कह रहा था।
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इस माहौल में सबके चेहरे पर मुस्कान थी, लेकिन हिना की मुस्कान सबसे झूठी थी।
तभी रईस साहब ने बात को आगे बढ़ाते हुए कहा,
"अभी बात पूरी नहीं हुई। हमें आपसे एक और रिश्ता भी चाहिए..."
"किसका?" सैयद साहब ने पूछा।
"अपने बेटे अरहान के लिए। हमें आपकी बेटी सबिहा का रिश्ता चाहिए। वह हमारे घर आएगी।
शादियां अपने खानदान में होनी चाहिए।
बाहर की लड़कियों का क्या भरोसा..."
फरीद ने बड़ी दृढ़ता से कहा।
उसे पूरा यकीन था कि यह रिश्ता कोई मना नहीं करेगा —
क्योंकि उसका बेटा अरहान न सिर्फ पढ़ा-लिखा और हैंडसम था,
वो एकलौता बेटा, छोटा परिवार — सब कुछ अनुकूल था।
जैसे ही साबिहा की शादी की बात चली, वह तुरंत उठकर वहाँ से चली गई। इस घर का नियम था कि जब भी बेटियों की शादी का ज़िक्र हो, वे बातचीत में शामिल न रहें।
सुविधा चुपचाप चली गई—क्योंकि उसके मन में साफ़ था कि वह इस वक़्त शादी नहीं करना चाहती। उसका सपना था अपनी पढ़ाई पूरी करना।
मगर क्या किसी ने उससे उसकी राय पूछी?
इस बात की उम्मीद उसे बिल्कुल नहीं थी।
"तीनों की सगाई एक साथ कर देंगे,"
दादी जान ने फिर से कहा।
लेकिन तभी कबीर बीच में बोल पड़ा,
"बिल्कुल नहीं! अभी तो सबिहा से भी पूछना होगा..."
सैयद साहब नाराज़ हो उठे,
"अब उससे भी पूछना है क्या?
साबिहा अभी बहुत छोटी है। उसकी शादी की बात करना अभी सही नहीं है।
कबीर ने कहा।
और जब हम बड़े बैठे हैं, तो तुम्हारा बीच में बोलना क्या ठीक है?"
दादा हाशमी मिर्जा को यह बात नागवार गुज़री कि कबीर ने बड़ों की बातचीत में टोक दिया।
कमरे में बैठे सबकी नज़र एक साथ अहमद मिर्जा पर गई (वे कबीर के अब्बा थे)।
सैयद साहब ने बात आगे बढ़ाने की कोशिश की:
“भाईजान, आप ही कुछ कहिए।”
अहमद मिर्जा ने पहले अपने वालिद हाशमी मिर्जा की तरफ देखा, फिर कबीर की ओर मुड़े।
धीरे से बोले:
“मेरी राय भी कबीर जैसी है। पहले घर के दोनों बेटों की शादियाँ कर लेते हैं, फिर बेटियों की बात करेंगे। ‘साबिहा अभी छोटी है—मुझे लगता है उसे पहले ग्रेजुएशन कर लेने देना चाहिए।”
(यह नहीं था कि रिश्ता हमें पसंद नहीं; पर वे कभी अपने बेटे कबीर के खिलाफ न जाते।)
तभी फ़रीदा ने ज़रा ऊँची आवाज़ में पूछा:
“तो मतलब? रिश्ता पक्का हुआ या नहीं?”
अहमद ने संयम रखा:
“पहले दोनों भाइयों का निकाह होने दो, फिर सोचेंगे।
वो अभी छोटी है—घर कैसे संभालेगी? और मैं नहीं चाहता कि उसकी पढ़ाई बीच में रह जाए।” कबीर फिर बोला।
फ़रीदा ने चुटकी ली:
“कहीं ऐसा तो नहीं कि तुम्हें अपने न पढ़ पाने का दुख है, इसलिए बहन को पढ़ाना चाहते हो?”
कबीर उठ खड़ा हुआ।
“मैं कॉलेज नहीं जा सका तो क्या हुआ? मेरे बाकी भाई-बहन तो पढ़ रहे हैं न! हाँ, मैं अपनी पढ़ाई पूरी न कर पाया—लेकिन मेरी बहन ज़रूर करेगी।”
पलभर सन्नाटा रहा।
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ऐसा कहते हुए कबीर ने एक नज़र हिना पर डाली। हिना सिर झुकाए अपनी प्लेट में चम्मच से खेल रही थी। जब उसकी शादी की बात चली थी, तब किसी ने नहीं कहा था कि वह पहले पढ़ाई पूरी कर ले। अब कबीर अपनी छोटी बहन साबिहा के लिए पढ़ाई की बात कर रहा था—यह बात हिना को अच्छी भी लगी और कहीं न कहीं चुभी भी।
उधर शाहरुख की शादी मेहरुन्निसा से तय होने की चर्चा चल रही थी। हिना के मन में हल्का-सा कसाव था—। हिना बाहर से चुप थी, पर भीतर सुन रही थी—सब कुछ, बहुत ध्यान से।
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कबीर उठ खड़ा हुआ
अचानक कबीर उठा।
“मैं गौतम के साथ दिल्ली जा रहा हूँ। शायद कल तक लौटूँ,” उसने कहा और अपने कमरे की तरफ चला गया—शायद कुछ सामान लेने।
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फ़रीदा का ग़ुस्सा
कबीर के जाते ही फ़रीदा रुकी नहीं। ग़ुस्से में बोली:
“मैं तो अरहान के लिए साबिहा का रिश्ता मांगने आई थी—इतना अच्छा लड़का, इसी घर का दामाद बन जाता! लेकिन अब? इस बेइज़्ज़ती के बाद मैं दूसरी बार रिश्ता लेकर नहीं आऊँगी!”
रईस साहब ने धीरे से समझाया:
“कोई बात नहीं… अपना ही बच्चा है।”
पर बात फ़रीदा को लग चुकी थी।
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दादी-जान को अच्छा नहीं लगा—उन्हें लगा उनकी बेटी (फ़रीदा) का दिल दुख गया।
उन्होंने दादा-जान की ओर देखा:
“आप घर के बड़े हैं। जो आप कहेंगे वही होगा…
बाद में बात कर लेंगे।”
दादा-जान ने बात सँभालना चाहा। वे जानते थे—कबीर की बात पूरी तरह नज़रअंदाज़ करना आसान नहीं। वह सीधे बोलता है, पर घर की आर्थिक रीढ़ भी वही है। काम सब करते हैं, पर असली ज़िम्मेदारी उसी पर है—और उसका गुस्सा भी कम नहीं।
घर की बहुएँ चुप थी।तीनों भाइयों की बीवियाँ —
सलीमा भाभी (कबीर की अम्मी),
शगुफ़्ता भाभी (हिना की अम्मी),
और रिहाना भाभी (तैमूर की अम्मी) —
तीनों औरतें खाने की सर्विंग में लगी हुई थीं।
वे जानती थीं कि दादा-जान और दादी-जान के सामने उनकी चलती नहीं। ऊपर से नंद फ़रीदा भी आई हुई थी—इसलिए बेहतर समझा कि परिवार के बुज़ुर्ग ही फ़ैसला लें।
कबीर अपना सामान लेकर जैसे ही कमरे से बाहर हॉल में आया, उसने सुना कि हॉल के अंदर कुछ बातचीत हो रही थी। वह धीरे-धीरे आगे बढ़ा। हॉल में प्रवेश करने से पहले ही उसकी कानों में बुआ की आवाज़ पड़ी।
फुफ्फो हिना से कह रही थीं,
"वैसे है ना, तुम्हारे तो नसीब पहले से ही हाथ के हैं। जो लड़का घर के बड़ों की नहीं मानता, कल को शादी के बाद तुम्हारी क्या सुनेगा? और हाँ, अरहान के लिए तो मुझे तुम ही पसंद हो, मगर मैं यह भी जानती हूँ कि तुम्हारी शादी तो बचपन से कबीर से तय है। उसकी नेचर कैसी है, यह तो घर में सबको पता ही है।"
कबीर यह सब सुनकर ठिठक गया। उसे बिल्कुल अच्छा नहीं लगा कि उसको लेकर बातें हो रही हैं और हिना को बीच में लाया जा रहा है।
वह गुस्से में हॉल के अंदर गया और डाइनिंग टेबल के पास पहुंचकर सख़्त लहजे में बोला,
"फुफ्फो, आप इस सब के बीच हिना को मत लाएँ। इस निकाह के लिए मैंने आपसे मना किया था। तो फिर आप इसे बीच में क्यों ला रही हैं?"
कबीर की अचानक मौजूदगी और उसके सख़्त लहजे से हिना चौंक गई। उसने कबीर की तरफ देखा, लेकिन कुछ कहा नहीं।
"चलो ठीक है, मेरी बात सुनो," उसके दादा जान ने कहा। "मैं तुम दोनों भाइयों की सगाई और निकाह की तारीख निकलवा लूंगा। जैसे ही तुम दिल्ली से वापस आओ, फिर सगाई और निकाह की तैयारी करेंगे।"
कबीर ने सख़्ती से जवाब दिया,
"मैं सिर्फ सगाई करूंगा। शादी अभी नहीं कर सकता।"
"क्यों?" दादा जान ने गुस्से में पूछा।
कबीर के अब्बा, अहमद साहब, भी अपनी जगह से खड़े हो गए। अब सबकी निगाहें कबीर पर थीं। हर किसी के चेहरे पर सवाल था, क्योंकि कबीर हर बात के लिए मना कर रहा था। जबकि सैयद साहब की बात का विरोध करने की हिम्मत किसी में नहीं थी।
अयान, तैमूर और हवा—तीनों टेबल पर बैठे हुए एक-दूसरे को देख रहे थे। उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि क्या कहें। वे जानते थे कि घर के बड़ों की बातों में बीच में बोलना उनका हक नहीं है।
घर की तीनों बहुंए—शफुगुप्ता, रिहाना और सलीम—भी चुप थीं। वे जानती थीं कि अगर उन्होंने बीच में कुछ कहा, तो दादा जान और दादी जान को गुस्सा आ जाएगा।
कबीर का चेहरा अब भी गुस्से से लाल था। उसने धीमे स्वर में कहा,
"आप लोग जानते हैं कि मैं अभी शादी के लिए तैयार नहीं हूँ।"
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शाहरुख अभी-अभी जिम से लौटकर हॉल में आया ही था कि उसने देखा, शाहरुख अंदर प्रवेश कर रहा है। शाहरुख सीधा अपनी फूफी फरीदा और उनके शौहर फूफा जान रईस हुसैन के पास गया।
मुलाक़ात पर उसने झुककर कहा,
"अस्सलामु अलैकुम, फूफी जान... फूफा जान."
फरीदा ने मुस्कुराकर जवाब दिया,
"वअलैकुम अस्सलाम, बेटा शाहरुख!"
फरीदा शाहरुख को देखकर बहुत खुश हुईं। उन्होंने उसके हाथ थामकर कहा,
"मैं तो तुम्हारा ही इंतज़ार कर रही थी! तुम्हारे लिए बहुत बड़ी खुशख़बरी है!"
शाहरुख थोड़ा उलझन में था। उसने एक-एक कर सभी के चेहरों की तरफ देखा। तभी सैयद साहब बोले,
"बेटा, तुम्हारा मेहरुन्निसा के साथ रिश्ता तय हो गया है। जल्दी ही सगाई और फिर निकाह होगा।"
शाहरुख कुछ कह पाता, उससे पहले फरीदा ने उत्साह से जोड़ दिया,
"और सुनो—तुम अपनी खुद की फैक्ट्री लगाना चाहते थे न? तुम्हारे फूफा इसमें तुम्हारी मदद करेंगे। तुम्हारी खुद की कपड़ों की फैक्ट्री होगी! हमें पता है, यह तुम्हारा सपना है।"
यह सुनते ही शाहरुख की आँखों में चमक आ गई। वह सचमुच अपनी फैक्ट्री शुरू करना चाहता था, लेकिन पैसों का इंतज़ाम नहीं हो पा रहा था। घर वाले मदद करने को तैयार तो थे, मगर पूरा निवेश उनके लिए मुश्किल था। अब फूफा जान के सहारे उसका सपना सच होने की उम्मीद जग उठी।
हॉल में अभी-अभी खुशियों की हल्की चमक उभरी थी—फूफी फरीदा की बात सुनकर सबके चेहरे खिल उठे थे। सबसे ज़्यादा चमक तो शाहरुख के चेहरे पर थी। पर यह खुशी ज़्यादा देर टिक नहीं पाई; जैसे ही बात निकाह, रुख़सती और बिज़नेस पर आई, माहौल धीरे-धीरे भारी होने लगा।
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दादा जान ने सीधे कबीर से कहा,
"जब तुम सगाई के लिए तैयार हो, तो निकाह में देर क्यों? अगर तुम चाहो तो रुख़सती बाद में कर देंगे। मगर निकाह तो हो जाना चाहिए, बेटा।"
कबीर ने बिना झिझक जवाब दिया,
"मैं अभी सिर्फ सगाई करूंगा। निकाह और सगाई के बीच मुझे टाइम चाहिए।"
दादा जान भड़क उठे।
"क्यों? आखिर देरी किस बात की?"
कबीर ने नज़रें मिलाईं, आवाज़ स्थिर रखते हुए कहा,
"मुझे काम सँभालना है। सब कुछ एक साथ नहीं हो पाएगा।"
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दादी जान ने बात संभालने की कोशिश की।
"अरे, हिना का क्या? उसका तो यह एग्ज़ाम देकर ग्रेजुएशन पूरा हो जाएगा। कबीर ने दादी जान की ओर देखा—
आगे से मास्टर्स भी कर सकती है। वैसे भी उसे लिटरेचर में दिलचस्पी है…"
हिना को हैरानी हुई कि कबीर को हिना की पढ़ाई और शौक़ का इतना पता है। हिना भी डाइनिंग टेबल पर चुप बैठी थी, मन में हज़ारों सवाल लिए। कबीर की ये बातें सुनकर उसने धीमे से उसकी तरफ़ देखा—क्या सच में वह निकाह टाल रहा है… उसके लिए? या अपने लिए?
दादी जान फिर बोलीं,
"ठीक है, रुख़सती मत करो। मगर निकाह तो हो जाए?"
कबीर ने गहरी सांस ली।
"दादी जान, एक बार निकाह हो गया तो आप सब रुखसती के लिए दबाव डालेंगं।
"मैं जा रहा हूँ। गौतम मुझे लेने पहुँचने ही वाला है," कबीर ने बात लगभग ख़त्म करने के अंदाज़ में कहा।
दादा जान ने उसे रोका,
"ऐसा क्या ज़रूरी काम है कि अभी जाना पड़ रहा है?"
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सैयद साहब ने मेज़ पर बैठे वक़ार (हिना के अब्बा) की तरफ़ देखा।
"वक़ार, तुम तो बेटी के अब्बा हो—कुछ तो कहो। निकाह होना चाहिए, नहीं?"
वक़ार साहब ने भारी सांस ली।
"अगर कबीर टाइम माँग रहा है, तो देना चाहिए। तब तक हिना अपनी मास्टर्स कर लेगी। वो आगे पढ़ना चाहती है।"
उन्होंने बात यहीं रोक दी; वो अपनी बेटी के मन की बात जानते थे—वह जल्दीबाज़ी में निकाह नहीं करना चाहते थे।
दादा जान अभी भी नहीं पिघले थे।
"कौन सा काम है जिसके लिए इतना टाइम चाहिए?"
कबीर ने हल्की मुस्कान के साथ कहा,
"आप लोगों को पता ही है—शहर में जो फाइव-स्टार होटल सेल पर है… मैं उसे खरीदना चाहता हूँ। अगर डील हो गई तो उसे खड़ा करने में जी जान लगानी पड़ेगी। साथ ही मैं राजनीति में भी किस्मत आज़मा रहा हूँ, और कारोबार भी देखना है। मैं चाहता हूँ कि शादी से पहले थोड़ा सेटल हो जाऊँ।"
हॉल में सन्नाटा-सा छा गया।
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पैसा कहाँ से आएगा?
सैयद साहब ने याद दिलाया, "पर उस होटल की डील तो कैंसिल हो गई थी…पैसों का इंतजाम करना मुश्किल था"
कबीर बोला,
"पैसों का इंतज़ाम करने ही तो जा रहा हूँ। शायद लोन सैंक्शन हो जाए। तब हम होटल खरीद सकेंगे।"
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फूफी फरीदा की चिंता
फूफी फरीदा ने बेचैनी से अपने भाई (सैयद/मिर्ज़ा साहब—परिवार के बड़े) की ओर देखा।
"इतना बड़ा क़र्ज़? और अगर होटल नहीं चला तो? सारा बोझ पूरे खानदान पर पड़ेगा! तुम कोई सीधा-सादा काम नहीं कर सकते क्या?"
फूफा जान रईस हुसैन ने तुरंत टोका,
"फरीदा, तुम हर घरेलू मामले में मत कूदो।"
फरीदा चुप कहाँ होने वाली थीं।
"मेरी बेटी को इस घर में आना है! मैं नहीं चाहती कि किसी और की ग़लती का असर मेरी बेटी और उसके दामाद की ज़िंदगी पर पड़े। जो करना है करो—मगर अपने दम पर करो।"
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सईद मिर्जा ने सख़्ती से कहा,
"अगर लोन लेना है तो अपनी ज़मीन गिरवी (रेहन) रखो—पूरे खानदान की नहीं। मैं इस जोखिम में शामिल नहीं। वक़ार से पूछो—उसकी दो बेटियाँ हैं। उसे भी सोचना पड़ेगा।"
माहौल अब बहस में बदल चुका था। कबीर को पहली बार लगा कि घर एक मिनट में कितनी तेज़ी से बाँट सकता है।
फरीदा ने कहा,
"मैं तो कहती हूँ, अब्बा जान, जो घर का बिज़नेस है—उसका बंटवारा तीनों भाइयों में कर दो। जिसे जैसा अच्छा लगे, अपना काम बढ़ाए।"
रईस हुसैन ( हल्का गुस्सा लेकर) बोले,
"फरीदा, तुम क्या-क्या कह रही हो?"
"मैं बिल्कुल सही कह रही हूँ," फरीदा अड़ी रहीं।
सैयद साहब ने अब बात को आकार दिया:
"हमारी तीन फैक्ट्रियाँ हैं। तो तीन हिस्से करो—तीनों भाइयों में बाँट दो। कपड़ों की दुकानें, दूसरी प्रॉपर्टीज—सबका हिसाब हो। अब्बा जान और अम्मी जान के हिस्से अलग रहें। बाकी हम लोग अपने-अपने बिज़नेस संभालें। कोई होटल में जाएगा, कोई फैक्ट्री देखेगा—कम से कम एक आदमी की वजह से सब डूबेंगे नहीं।"
मिर्ज़ा साहब (घर के मुखिया) चुप बैठे सब सुनते रहे। उन्हें महसूस हुआ कि बहस अब आगे बढ़ती तो रिश्तों में दरार पक्की हो जाती। उन्होंने गहरी आवाज़ में कहा:
"ठीक है… जैसा तुम लोग चाहते हो, वैसा ही होगा। बंटवारा कर देंगे। लेकिन घर—घर हमारा एक ही रहेगा। कोई अलग-अलग मकानों में जाकर जिए, यह मैं नहीं चाहता।"
वक़ार ने धीमे से पूछा,
"अब्बा जान, बंटवारा… कैसा?"
"हिस्से के काग़ज़ बनेंगे," सैयद साहब ने कहा। "सबका हिस्सा साफ़ होगा।"
फिर उन्होंने चेतावनी दी,
"और सुनो, यह जो कबीर कर रहा है—कहीं ऐसा न हो कि कल तुम लोगों को भी रिश्ता तोड़ना पड़े।"
"भाई जान, यह क्या कह रहे हो आप!" वक़ार ने विरोध किया।
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दादा जान ने आख़िरी कोशिश की:
"कबीर, रुक जाओ। आज ही बातें साफ़ कर लेते हैं।"
कबीर ने बैग उठाया।
"जो आपको करना है, आप कर सकते हैं। मेरा स्टे यहाँ ख़त्म। गौतम गेट पर पहुँच चुका होगा। मैं दिल्ली जा रहा हूँ।"
वह मुड़ा, एक बार सबकी तरफ़ देखा—और वह चला गया।
दादा जान ने लगभग विनती के लहजे में कहा,
"कबीर, रुक जाओ। आज ही बातें साफ़ कर लेते हैं।"
कबीर ने अपना बैग उठाया। उसकी आँखों में थकान और जिद दोनों थीं।
"जो आपको करना है, आप कर सकते हैं। मेरा स्टे यहाँ ख़त्म। गौतम गेट पर पहुँच चुका होगा। मैं दिल्ली जा रहा हूँ।"
वह दरवाज़े तक आया, ठहरा, एक नज़र पूरे घर पर — दादा जान, अब्बा, चाचाजान, फूफी, सब पर — और फिर चुपचाप बाहर निकल गया। ऐसा लगा जैसे हवेली की साँस कुछ पल के लिए अटक गई हो।
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गौतम पहले से बाहर कार के पास खड़ा था। उसने कबीर को आते ही भाँप लिया — चेहरा बुझा हुआ, आँखों के नीचे थकी लकीरें।
गौतम: "क्या बात है? तुम्हारा मूड काफ़ी ऑफ़ लग रहा है।"
कबीर (लंबी साँस लेकर): "चलो, रास्ते में बताऊँगा। जो हुआ… वो होना नहीं चाहिए था।"
कार स्टार्ट हुई। हवेली पीछे छूटती चली गईं।
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कुछ किलोमीटर ख़ामोशी रही। फिर गौतम ने हल्के अंदाज़ में बात छेड़ी ।
तुम्हारा मूड क्यों खराब है।
"घर पर फ़रीदा फूफ़ा आई हुई हैं," कबीर ने बताया। "वो वह शाहरुख का रिश्ता अपनी बेटी से करना चाहती है और — और अहमर के लिए साबिहा का हाथ मांगा है।"
गौतम ने तुरंत टोका:
" साबिहा का हाथ अहमर के लिए?"
कबीर: "हाँ। परिवार ठीक है, पढ़े-लिखे लोग हैं —बिजनेस भी बहुत अच्छा है उनका। खुला माहौल भी है। पर अहमर की कुछ हरकतें... मैं अनदेखी नहीं कर सकता। मैंने उसे कई बार लड़कियों के साथ — मतलब ऐसी जगहों पर देखा है जहाँ परिवार का कोई लड़का नहीं होना चाहिए। मुझे पता है वो उनके लिए ठीक नहीं रहेगा।"
गौतम ने लंबी सी 'हूँऽऽ' की आवाज़ निकाली।
"तो तुमने साफ़ मना कर दिया?"
"हाँ, मैंने मना कर दिया।"
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"शाहरुख को ये रिश्ता बहुत पसन्द आया है, साथ में मेरी और हिना की सगाई और निकाह की बात हो रही है," कबीर ने जोड़ा। "
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गौतम: "तो क्या बोल दिया तुमने?"
कबीर: "सगाई की बात पर हाँ कर दी… मगर निकाह के लिए टाइम माँगा है। अभी शादी नहीं।"
गौतम (छेड़ते हुए): "क्यों? भाभी को इंतज़ार कराओगे? कोई और लाइन में तो नहीं?"
कबीर: "गौतम!"
दोनों हँस पड़े। तनाव थोड़ा हल्का हुआ।
गौतम (शरारती मुस्कान के साथ, हल्का कंधा ठेलते हुए):
"वैसे एक बात कहूँ? जब मैं हिना भाभी का नाम लेता हूँ ना, तुम्हारे चेहरे पर एकदम ऑन आ जाता है। गाड़ी में बैठे-बैठे जो सड़ा हुआ मूड था न, बस नाम लेते ही बदल गया!"
कबीर (माथा टेढ़ा, पर होंठों पर दबती मुस्कान):
"छेड़ क्यों रहे हो?"
गौतम: "अरे क्यों न छेड़ूँ! आखिर तुम्हारी सगाई हो रही है — आगे चलकर निकाह भी तो होगा। बहुत चाहते हो उसे, मान लो ना!"
कबीर: "तुम्हें सब पता है, फिर पूछ क्यों रहे हो?"
गौतम (जोर देकर): "क्योंकि उसे नहीं पता! बता दो उसे — कितना चाहते हो, कितना सोचते हो उसके बारे में। वो रंग जो उसे पसंद हैं, वही तुम्हारे फ़ेवरिट बन गए हैं। उसका हर प्लान तुम याद रखते हो। ये सब कहोगे तो वो कितनी खुश हो जाएगी, अंदाज़ा है?"
कबीर कुछ पल चुप रहा। बाहर सड़क की लाइटें उसके चेहरे पर आती-जाती रहीं।
कबीर (गंभीर स्वर):
"अभी समय नहीं आया, गौतम। तुम हमारे घर का माहौल नहीं जानते। जो दूरी अभी है, वो ज़रूरी है — खासकर हिना के लिए। अगर मैं ज़्यादा खुल गया तो सगाई के साथ निकाह भी तुरंत करवाने की ज़िद शुरू हो जाएगी… और फिर रुखसती भी?"
वह गहरी साँस लेता है।
"फिर उसकी पढ़ाई रह जाएगी। और मेरे पास अभी शादी सँभालने का वक़्त नहीं — बिज़नेस, होटल प्रोजेक्ट, सब लाइन में है। मैं निकाह तब करूँगा तब तक उसे बिना रुके आगे पढ़ने दूँ। अभी नहीं।"
कबीर गंभीर हुआ।
"तुम जानते हो ना — हिना पढ़ना चाहती है। मौका मिला तो वो अपनी मास्टर्स करेगी। और मैं… मेरा सपना है बिज़नेस बड़ा करना। वो फ़ाइव-स्टार होटल प्रोजेक्ट याद है? और थोड़ा राजनीति में भी आना है। ये दो साल बहुत काम के हैं। अगर अभी निकाह कर लिया तो घर वाले हिना को पढ़ने भी नहीं देंगे। फिर उसकी पढ़ाई रुक जाएगी — और मैं उसे वो ज़िन्दगी नहीं दे पाऊँगा जिसकी वो हक़दार है।"
गौतम: "तो साफ़-साफ़ बोल दो सबको — 'मैं हिना से निकाह करूँगा, मगर तब जब मैं उसे पूरी दुनिया दे सकूँ!'"
कबीर: "बिल्कुल यही तो कहा… किसी ने सुना नहीं।"
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सिग्नल पर कार रुकी। गौतम ने मुस्कुराकर कहा:
"वैसे, मैं हिना भाभी से पूछ लूँ क्या— कि वो मास्टर्स के बाद दिल्ली शिफ़्ट होगी या तुम उसके कॉलेज के पास फ़ाइव-स्टार बनाओगे?"
कबीर ने सीट से पीछे सिर टिका लिया।
"तू चुप रहेगा या नहीं?"
दोनों फिर हँस पड़े। हवा हल्की हो गई।
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हिना कमरे में बैठी हुई थी। उसके साथ हवा भी थी। तभी उसके अब्बा वकार मिर्जा कमरे में आते हैं।
हिना ने आगे बढ़कर कहा,
"आप परेशान लग रहे हैं, अब्बा। कोई बात?"
उन्होंने धीरे से मुस्कुराने की कोशिश की।
"नहीं बेटा, तुम अपने कमरे में जाओ।"
हिना रुकी नहीं।
"कबीर ने निकाह के लिए टाइम माँगा है। अगर अभी सिर्फ़ सगाई हो जाए और निकाह कुछ देर बाद… तो मैं अपनी पढ़ाई जारी रख पाऊँगी। आप क्यों इतना परेशान हो रहे हैं?"
अब्बा ने आँखें झुका लीं।
"मैं इस बात से परेशान नहीं हूँ कि निकाह अभी नहीं हो रहा। असली परेशानी तो ये बँटवारे की बात है… जो शुरू हो गई है।"
उन्होंने धीमे से जोड़ा,
"घर बाँटने की बातें घर तोड़ देती हैं, बेटा।
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बाहर सड़क पर कार दिल्ली की तरफ़ बढ़ रही थी।
अंदर हवेली में बँटवारे के काग़ज़ों से पहले, रिश्तों की रेखाएँ खिंच रही थीं।
"तेरे साये में छुप जाने का अरमाँ है मुझे,
फ़ासलों को मिटा देने का इरादा है मुझे।
तू खामोश है मगर आँखें बयान करती हैं,
तेरे लफ़्ज़ों में छुपी मोहब्बत पहचानता हूँ मैं।
तेरा होना ही मेरी हर दुआ का जहाँ है मुझे।"
"सीरीज़ पर कमेंट नहीं आ रहे, तो मेरा लिखने का मन भी नहीं करता। प्लीज़, अगर आपको यह पसंद है तो कमेंट करें, वरना मैं इस सीरीज़ को यहीं रोक दूँगी। मुझे नहीं लगता कि यह किसी को पसंद आ रही है।" ❤️
“आप अपना दिल छोटा मत करें। वकार मिर्जा के पीछे उनकी बीवी शफुगता पीछे आई ।
सब ठीक हो जाएगा।”
“मुझे नहीं लगता कि सब ठीक होगा,” वकार मिर्जा ने धीमे से कहा।
“फरीदा ने अच्छा नहीं किया। उसने घर का माहौल बिगाड़ दिया।
मगर कबीर भी बिना सोचे समझे बोलता है,” हिना ने कहा।
वह कहना नहीं चाहती थी, मगर कह दिया।
“बात तो तुम्हारी सही है बेटा। बेकार । मगर सलाह कौन करता? अगर कबीर नहीं बोलता, तो सिर्फ हुक्म ही सुनाया जाना था।”
वकार को अपने अब्बा हाशमी मिर्ज़ा के बारे में पता था, सभी जानते थे।
“हाँ, साबिहा छोटी हैं। उसकी शादी ऐसे ही नहीं की जा सकती,” हिना की अम्मी ने कहा।
वकार मिर्ज़ा इस पक्ष में था कि लड़कियों को पढ़ना चाहिए, इसलिए किसी की ज़बरदस्ती शादी कराना उसे भी पसंद नहीं था।
“जो होना है, वो होकर रहेगा। फरीदा आपा को तो हम जानते ही हैं।”
हिना की अम्मी इस बात को यहीं खत्म करना चाहती थीं, वह नहीं चाहती थीं कि इस मुद्दे पर फिर चर्चा हो।
वकार मिर्ज़ा की दो ही बेटियाँ थीं, कोई बेटा नहीं था। इस बात को लेकर फरीदा कितनी बार चर्चा कर चुकी थीं। जहाँ तक बात थी, वह अपने भाई की दूसरी शादी करवाना चाहती थीं।
आज हालात चाहे शगुफ़्ता पक्ष में थे, मगर वो दिन उस के लिए बहुत बुरे थे।वकार मिर्ज़ा अपनी बीवी से बहुत मोहब्बत करता था और अपनी बेटियों को लेकर भी बेहद फिक्रमंद था। उसने ने दूसरी शादी नहीं की। उसने अपनी बेटियों को ही अपना सब कुछ माना। समय बीतने के साथ उसके ताल्लुकात फरीदा के साथ पहले जैसे मज़बूत नहीं रहे।
तभी हवा कमरे में आई।
“क्या हो रहा है?” उसने सभी के चेहरे देखते हुए पूछा।
“तुम लोगों के एग्ज़ाम हैं, जाकर पढ़ाई करो,” उनकी अम्मी ने दोनों बहनों को कमरे से भेज दिया।
वो दोनों अपने कमरे में आईं।
“इतनी उदास क्यों हो?” हवा ने पूछा।
“ कबीर भाईजान के चले जाने से…इसलिए आप इतनी उदास हैं” हवा ने कहा।
“सीरियसली हवा, घर में इतने मसले हैं और तुम्हें ये सब सूझ रहा है। और देख लेना, तुम्हारे कबीर भाईजान के कारण घर के बंटवारे की बात हो रही है।”
“मगर उन्होंने तो अपनी बहन के पक्ष में बोला था ना। वो तो आपसे भी छोटी है, और उसकी शादी उसकी पढ़ाई के बीच में करना क्या सही था?”
हिना ने ठंडी सांस ली।
“बिलकुल नहीं। शादी तो मैं भी अभी नहीं करना चाहती। वो तो मुझसे भी छोटी है,” हिना ने कहा।
“इसीलिए तो कबीर भाईजान को आपकी फिक्र है। वो जल्दी निकाह नहीं करना चाहते। आप अपनी मास्टर्स कर लेंगी, वो अपना बिज़नेस सेट कर लेंगे, फिर आपका निकाह होगा और रुख़सती,” हवा ने मुस्कुराते हुए कहा।
हवा खिड़की के पास जाकर बोली,
“पता है, रुख़सती में इस कमरे से उसी कमरे तक ही तो जाना है। मुझे नीचे वाला कमरा पूरा मिल जाएगा, और आप कबीर भाईजान के कमरे पर कब्ज़ा कर लेना।”
हिना (हल्की चिंता के साथ):
“तू मेरी और कबीर के निकाह की बात करके इतनी खुश हो जाती है, मगर तूने सोचा है, हवा—मैं कैसे निभाऊँगी उसके साथ? दादा जान और कबीर दोनों एक जैसे हैं! कबीर मिर्ज़ा तो हाशमी मिर्ज़ा का दूसरा रूप लगता है। जैसे दादा जान हर वक्त हुक्म चलाते हैं, वैसे ही वो भी। न दादा जान कभी अपनी बात से पीछे हटते हैं, न कबीर!”
हवा (हँसते हुए, कमरे में गोल-गोल घूमते हुए):
“अरे, दादा जान दादी जान की तो मानते ही हैं ना! हमारे दादा जान कितने गुस्से वाले हैं, पर दादी जान की बात पर हार मान लेते हैं—कितना ख़याल रखते हैं उनका! तो जैसे हमारे घर में दादा जान की चलती है पर दादी जान उनका दिल संभाल लेती हैं, वैसे ही कबीर की चलेगी और तुम दादी जान की तरह अपने सारे हुक्म चलाना!”
हिना (धीमे से, यादों में जाती हुई):
“तुम्हें पता है ना, दादा जान ने दूसरा निकाह किया था।उनकी पहली बीवी को कोई औलाद नहीं हुई, तो दादी जान—यानी उनकी पहली बीवी की छोटी बहन—से निकाह कर लिया गया। वरना सुनते हैं कि दादा जान उस बेचारी को पूछते भी नहीं थे… उसकी हालत बहुत बुरी थी उस वक़्त।”
हवा (गंभीर होकर, दिल से बोलते हुए):
“मैं तुमसे एक बात कहूँ? चाहे जो हो जाए, कबीर भाईजान की आँखों में उस दिन जो मैंने देखा… वो तुम्हारे क़दमों में पूरी दुनिया रख देंगे। तुम बहुत खुश रहोगी। वो तुमसे सच में बहुत प्यार करेंगे। उनका गुस्सा तुम्हारे लिए नहीं होगा—यक़ीन करो।”
हिना (आँखें झुका कर, हल्की मुस्कान के साथ):
“सचमुच? काश ऐसा ही हो… आमीन।”
फरीदा बानो और राइस हुसैन वापस घर जाते हुए गाड़ी में एक दूसरे के साथ बात कर रहे हैं।
फरीदा बानो (धीमे पर बेचैन स्वर में): "मैंने ठीक किया ना?"
उन्होंने रईस की ओर मुड़कर पूछा।
रईस हुसैन: "और कोई रास्ता भी तो नहीं था," उन्होंने थके लहजे में कहा। "अहमर की हालत दिन-ब-दिन बिगड़ती जा रही है। किसी की बात सुनता ही नहीं। अभी तक ख़ानदान में किसी को पता भी नहीं चला... और मुझे लगा था कि वे लोग साबिहा का रिश्ता मान लेंगे।"
रईस ने अपनी दिल की बात आगे बढ़ाई। "मुझे तो यक़ीन था कि कोई हमारी बात नहीं मानेगा—मगर सैयद भाई तो मान गए, है ना? उन्होंने तो रिश्ते पर हामी भर दी।"
फरीदा (झुंझलाहट से): "इसलिए तो मैंने कबीर के जाते ही बात कर ली। कबीर जहाँ भी जाता है अपनी टांग अड़ाता है!"
उनके चेहरे पर ग़ुस्सा था।
रईस (सोचते हुए): "शायद कबीर को अहमर के बारे में कुछ पता है..."
फरीदा (तुरंत बेटे की तरफ़दारी करते हुए): "ऐसा भी क्या कर दिया मेरे बेटे ने? अमीर घरों के बच्चों के शौक तो होते ही हैं!" वह अपने बेटे अहमर के बारे में कोई सुनना नहीं चाहती थीं।
कुछ पल की खामोशी के बाद वह फिर बोलीं, आवाज़ में जल्दबाज़ी साफ़ थी:
"मैं अभी वापस जाकर सैयद भाई को फोन करती हूँ। कबीर के लौटने से पहले ही सगाई और निकाह—दोनों की तारीख़ निकलवा लेती हूँ। फिर कोई कबीर की बात नहीं सुनेगा!"
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कबीर के घर से जाते ही, अंदर ही अंदर बहुत बातें हुईं। कबीर ने जब साबिहा का रिश्ता साफ़ मना कर दिया, तो उसी समय का फ़ायदा उठाकर फरीदा बानो ने सैयद मिर्ज़ा से कहकशां के लिए रिश्ता माँग लिया।
परिवार में एक और रिश्ते की चर्चा भी थी—शाहरुख़ ख़ान और तैमूर की छोटी बहन थी ।वो साबिहा की क्लास में पढ़ती है। वह साबिहा से कुछ महीने छोटी है। इसी वजह से सबसे पहले फरीदा बानो ने साबिहा का रिश्ता माँगना सही समझा था। अब वे दोनों बच्चों के सगाई और निकाह की तैयारी जल्दी निपटा देना चाहती हैं, ताकि कबीर—की गुंजाइश न रहे।
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कबीर को दिल्ली गए हुए एक हफ़्ता हो चुका था। असल में वह किसी के साथ पार्टनरशिप के बारे में सोच रहा था और दिल्ली में उसी सिलसिले में किसी से बात करनी थी। इसके अलावा उसका राजनीतिक गलियारों में भी कुछ काम था। वह गुस्से में घर से निकला था और जाते समय उसने किसी को फोन नहीं किया।
घर से उसकी अम्मी उसे बार-बार फोन करती रहीं, लेकिन कबीर ने किसी से ज़्यादा बात नहीं की।
जब एक हफ़्ते बाद कबीर घर लौटा, तो बहुत कुछ बदल चुका था। उसकी सोच से कहीं बड़े फैसले हो चुके थे। शायद कुछ बातों का उसे पहले ही अंदाज़ा था, क्योंकि घर का बिज़नेस और फैक्ट्रियों का बंटवारा होने वाला था। उनकी बाकी की प्रॉपर्टी का भी हिसाब-किताब तय किया जा रहा था। सबसे बड़ी बात कबीर और हिना की सगाई के साथ दोनों का निकाह भी होना था।
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जब एक हफ़्ते बाद कबीर घर लौटा, तो बहुत कुछ बदल चुका था। उसकी सोच से कहीं बड़े फैसले हो चुके थे। शायद कुछ बातों का उसे पहले ही अंदाज़ा था, क्योंकि घर का बिज़नेस और फैक्ट्रियों का बंटवारा होने वाला था। उनकी बाकी की प्रॉपर्टी का भी हिसाब-किताब तय किया जा रहा था। सबसे बड़ी बात कबीर और हिना की सगाई के साथ दोनों का निकाह भी होना था।
कबीर एक हफ्ते के बाद घर पहुँचा। शाम ढल चुकी थी। गौतम उसे मुख्य गेट तक छोड़कर चला गया। बिज़नेस की उलझनों से घिरा, वह सीधे अंदर बढ़ा। जिस काम के लिए वह बाहर गया था—एक दिल्ली के बिजनेसमैन के साथ होटल पार्टनरशिप—वह बीच में अटका पड़ा था; न पूरी हाँ हुई थी, न साफ़ इनकार।
घर के बड़े हाल में कदम रखते ही वह ठिठक गया। पूरी फैमिली वहाँ इकट्ठी थी! आम तौर पर इस समय घर के मर्द काम पर बाहर होते हैं और देर शाम लौटते हैं, मगर आज सब मौजूद थे—अब्बा अहमद मिर्ज़ा, दोनों चाचा जान, अम्मी, दोनों चचियाँ, शाहरुख, तैमूर, सबीहा, कहकशा, हिना, हवा… सब।
“लो, भाईजान आ गए!” शाहरूख ने मुस्कराकर कहा।
कबीर ने हल्का सा सलाम किया। दादा जान ने पास की सोफ़ा-सीट थपथपाई। “आओ, बैठो।”
कबीर बैठा तो धीमे से बोला, “आज सब लोग काम पर नहीं गए? कुछ हुआ क्या?… कहीं बँटवारे का प्रोग्राम कैंसल तो नहीं हो गया?”
सईद चाचा ने कहा, “काम पर गए थे, बेटा… लेकिन तैयारी भी करनी है। तीन-तीन दिन में शादियाँ हैं घर में!”
कबीर हँस पड़ा। “तीन नहीं—दो ही तो हैं! शाहरूख और मेहरुन्निसा… हमारी तो बस सगाई है।” उसने हिना की तरफ देखा। लड़की ने सिर झुका रखा था।
तैमूर ने मुस्कुराकर कहा, “यही तो सरप्राइज़ है आपके लिए!”
“सरप्राइज़? क्या मतलब?”
“मतलब ये कि—शाहरूख भाई और मेहरुन्निसा भाभी की शादी पक्की। अहमर और कहकशा आपा का निकाह। और…” उसने नाटकीय विराम लिया, “आपका और हिना का निकाह भी साथ में!”
कबीर का चेहरा सख़्त हो गया। एक ही साथ इतने फैसले?
“कहकशा का निकाह… अहमर के साथ?!” (उसे यक़ीन न हुआ—उसने सईद चाचा की ओर देखा।)
सईद बोले, “देखो कबीर, बुरा मत मानना। तुमने साबिहा के लिए पहले मना कर दिया था, तो तो यह रिश्ता कहकशां के लिए आ गया… और घर-बार बहुत अच्छा है। मैंने हाँ कह दी।”
“लेकिन उसकी पढ़ाई?” कबीर ने टोका।
“अरे, अपनी पढ़ाई की चिंता तुम बाद में करना,” किसी ने बात बदल दी।
मगर मुझे अभी निकाह नहीं करना, मैंने टाइम मांगा था आपसे। कबीर ने थोड़े गुस्से से कहा
कबीर ने अब्बा की ओर देखा। अहमद मिर्ज़ा ने नज़र से ही समझा दिया—मान लो।
दादा जान ने नरमी से कहा, “बेटा, तुम घर के सबसे बड़े हो, और हिना सबसे बड़ी बेटी। जब तक तुम दोनों का निकाह नहीं होगा, छोटों का कैसे करेंगे? रुख़सती बाद में रखना—तुम्हारी मर्ज़ी। लेकिन निकाह ज़रूरी है।”
कबीर ने लगभग फुसफुसाकर कहा, “मुझे थोड़ा टाइम चाहिए था…”
पर वह जानता था—इतने लोगों के बीच उसकी बात नहीं चलेगी। अब्बा की आँखों के इशारे ने फैसला पक्का कर दिया।
“ठीक है,” वह उठते हुए बोला, “आप लोग जैसा सही समझें। मैं बहुत थक गया हूँ… ज़रा फ्रेश हो लूँ?” और वह हाल से बाहर चला गया।
सिर्फ एक हफ़्ता बचा था सगाई और निकाह में। उधर बिज़नेस डील अटकी हुई। अपनी शादी वह दो साल बाद करना चाहता था, और यहाँ सब कुछ तुरंत!
कबीर के उठकर जाने का ढंग सबको चुभ गया—पर सबसे ज़्यादा चोट हिना को लगी। जिस इंसान को मेरे साथ निकाह में दिलचस्पी ही नहीं… उसके साथ ज़िंदगी कैसे कटेगी? क्या वह बस नाम की बीवी बनकर रह जाएगी? कबीर की लाइफ़ में उसकी कोई अहमियत होगी भी या नहीं?
हिना ने अपने घर-ख़ानदान में कई औरतों को देखा है जिनके शोहर उन्हें पूछते ही नहीं। ऐसी औरतों को न घर में इज़्ज़त मिलती है, न बाहर। उसका गला भर आया। सबकी नज़रों से बचते हुए उसने चुपके से आँसू पोंछे। अब उसके दिल में उम्मीद की लौ बहुत धीमी पड़ चुकी थी।
घर में शादी और निकाह की तैयारियाँ ज़ोर-शोर से शुरू हो चुकी थीं। हिना ने बड़ी बेदिली से अपनी सगाई और निकाह का जोड़ा फाइनल किया था। उसके मन में अब कोई चाह या उत्साह नहीं बचा था। वह बस अपने अब्बा और अम्मी के सामने सब कुछ ठीक होने का दिखावा कर रही थी।
हवा उसके मन की हालत को समझती थी। अक्सर वह हिना से कहती,
“आप दिल छोटा मत करो। कबीर भाईजान आपको बहुत चाहते हैं।”
हिना बस हल्का सा मुस्कुरा देती और चुप हो जाती।
मेहरुन्निसा और कहकशां अपनी शॉपिंग में मग्न थीं। उनकी सगाई, निकाह और रुख़सती भी एक साथ होने वाली थी। मेहरुन्निसा को मिर्ज़ा खानदान में आना था, जबकि कहकशा की रुख़सती के बाद वह हुसैन रिज़वी के बेटे के साथ उनके खानदान में जाएगी।
शाहरुख भी अपनी शादी की तैयारियों में बड़े शौक से लगा हुआ था। जब कबीर से उसके निकाह और शादी के कपड़ों के बारे में पूछा गया, तो उसने साफ़ कह दिया,
“मैं अपने कपड़े खुद बनवा लूँगा।”
इन सब तैयारियों के बाद घर में एक और बड़ा फैसला लिया जाना था—फैक्ट्रियों और प्रॉपर्टी का बँटवारा। यह सब कुछ लगभग तय हो चुका था। बस शादी का खर्चा सही तरीके से सँभालकर रखने की बात पर सभी का ध्यान था।
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निकाह का दिन
सगाई के अगले ही दिन निकाह की तैयारियाँ तेज़ हो गईं। घर का माहौल उत्सव जैसा था, मगर कबीर के मन में हलचल मची थी। वह सोच रहा था कि कहकशा का रिश्ता अहमद के साथ सही नहीं है। अहमद के बारे में कुछ बातें वह जानता था जो पूरे खानदान में किसी को नहीं पता थीं। वह ये बातें बताना चाहता था, मगर डरता था कि लोग यह न समझ लें कि वह जान-बूझकर इस रिश्ते में रुकावट डाल रहा है।
वह घर का सबसे बड़ा बेटा था, जिम्मेदारियों का बोझ उसके कंधों पर था, फिर भी किसी ने उससे न तो राय ली और न ही उसके अपने निकाह के बारे में पूछा।
हिना पीच कलर के खूबसूरत जोड़े में सजी बैठी थी। आज उसका निकाह था। ऊपर से मुस्कुराती दिख रही थी, मगर उसका दिल जानता था कि आज उसकी ज़िंदगी का सबसे बड़ा फैसला हो रहा है — एक ऐसे इंसान के साथ जिसका दिल कभी उसकी तरफ़ नहीं झुका।
कहकशा लाल जोड़े में थी और बेहद खुश नज़र आ रही थी। उसकी आँखों में शादी का खुमार साफ़ दिखता था। उधर मेहरुन्निसा सबसे ज्यादा खुश थी, क्योंकि उसका रिश्ता शाहरुख से उसकी अपनी मर्जी से तय हुआ था। शाहरुख भी उसे पसंद करता था। मेहरुन्निसा मजेंटा (रानी कलर) जोड़े में बेहद खूबसूरत लग रही थी।
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निका
दोपहर की नमाज़ के बाद निकाह की रस्में शुरू हुईं। पहले कबीर और हिना का निकाह हुआ। कबीर मिर्ज़ा को क़ाज़ी साहब ने सवाल किया,
“कबीर अहमद मिर्ज़ा, क्या आप हिना वकार मिर्ज़ा को अपनी बीवी के रूप में स्वीकार करते हैं?”
कबीर ने धीमी आवाज़ में कहा,
“क़बूल है।”
तीन बार क़बूल है कहने के बाद दुआएँ पढ़ी गईं। हिना के कमरे में भी यही सवाल दोहराया गया,
“हिना वकार मिर्ज़ा, क्या आप कबीर अहमद मिर्ज़ा को अपना शौहर मानती हैं?”
हिना की आँखें नम थीं, मगर उसने भी जवाब दिया,
“क़बूल है।”
यूं दोनों का निकाह मुकम्मल हुआ।
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कबीर और हिना के निकाह के बाद शाहरुख और मेहरुन्निसा का निकाह हुआ। उनकी मुस्कुराहटों और खुशी ने पूरे माहौल को हल्का और रौशन कर दिया।
कहकशा का निकाह अहमर के साथ संपन्न हुआ। अहमर ने भी बिना किसी झिझक के क़बूल है कहा। कहकशा के चेहरे पर खुशी साफ़ दिख रही थी, मगर कबीर के मन में एक बोझ था। उसे लग रहा था कि शायद यह रिश्ता कहकशा के लिए सही नहीं होगा, मगर अब वह कुछ नहीं कर सकता था।
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4
तीन निकाह हो चुके थे। प्रोग्राम के लिए शहर का सबसे खूबसूरत और सबसे बड़ा हॉल बुक किया गया था। आखिरकार, मिर्ज़ा खानदान की तीन शादियाँ एक साथ हो रही थीं। हॉल में रोशनी की जगमगाहट थी, हर तरफ गहमा-गहमी और शोर-शराबा — हँसी, ठहाकों और मेहमानों की बातचीत से हॉल की रौनक दोगुनी हो गई थी।
कहकशां और मेहरुन्निसा की रुख़सती आज ही होनी थी। लेकिन हैना और कबीर का सिर्फ निकाह हुआ था, उनकी रुख़सती बाद में तय थी। मेहमान बड़ी तादाद में आए हुए थे। सजावट से लेकर खाने तक हर चीज़ शाही अंदाज़ की गवाही दे रही थी।
कबीर का चेहरा मगर उदास और बुझा हुआ था। वह कोने में बैठे-बैठे चुपचाप सब देख रहा था। जब से वह दिल्ली से वापस आया था, उसका मूड खराब था। यह निकाह का मौका उसकी खुशी का दिन होना चाहिए था, मगर न जाने क्यों, उसकी आँखों में कोई चमक नहीं थी।
तीन निकाह पूरे हो चुके थे और मिर्ज़ा खानदान की शाही दावत अभी पूरे शबाब पर थी। हॉल अभी भी मेहमानों, रोशनी और बधाइयों से भरा था। कहकशाँ और उरूज की रुख़सती आज ही होनी थी; हिना और कबीर का निकाह हो चुका था लेकिन उनकी रुख़सती बाद में तय थी। सब खुश थे—सिवाय कबीर के।
कबीर के चेहरे पर थकान, तनाव और भीतर जमा बेचैनी साफ़ झलक रही थी। जब से वह दिल्ली से लौटा था, उसका मूड ठीक नहीं था। वजह? वो होटल।
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कबीर उस होटल को खरीदने पर अड़ा हुआ था। डील छोटी नहीं थी—काफी बड़ा इन्वेस्टमेंट चाहिए था, जो वह अकेले जुटा नहीं सकता था। इसलिए उसने पार्टनरशिप का रास्ता चुना।
दिल्ली में एक सांसद थे—सांसद अहमद रियाज़, मूलतः राजस्थान से ताल्लुक रखते थे। उनका बेटा सिकंदर रियाज़ हाल ही में विदेश से एमबीए कर के लौटा था और पिता उसे बिज़नेस में उतारना चाहते थे। होटल इंडस्ट्री में एंट्री लेने के लिए उन्हें एक जमीनी, समझदार, लोकल-नेटवर्क वाला पार्टनर चाहिए था—और उन्हें कबीर सही लगा।
मगर बातें अटकी रहीं। न साफ़ "हाँ", न साफ़ "ना"। इक्विटी, मैनेजमेंट कंट्रोल, पुराने बकाए, और रेवेन्यू-शेयर जैसी कुछ शर्तें थीं जिन पर भरोसा (trust) बन ही नहीं पा रहा था। पिछले कुछ दिनों से कबीर लगातार फोन पर उन्हीं लोगों से बात कर रहा था।
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निकाह की रस्में ख़त्म होने के बाद कबीर मेहमानों से मिल तो रहा था, मगर बार-बार उसका हाथ जेब में पड़े फोन पर जाता। तभी फोन वाइब्रेट हुआ—दिल्ली का नंबर। उसने भीड़ से थोड़ा हटकर कॉल उठाई। दूसरी तरफ़ से संदेश साफ़ था:
> "सांसद साहब और सिकंदर अभी जयपुर के रास्ते पर हैं। अगर आप आज रात मिल कर टर्म्स क्लोज़ करना चाहते हैं तो अभी निकलिए। वरना तारीख आगे खिसक जाएगी — और फिर ये मौका महीनों बाद मिलेगा।"
कबीर की धड़कन तेज़ हो गई। उसने तुरंत गौतम की तरफ़ देखा। बस एक इशारा — चलो!
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कबीर तेज़ क़दमों से मैरिज पैलेस के पिछले गेट की तरफ़ बढ़ा। गौतम अपनी गाड़ी निकालने लगा। इतने में पीछे से आवाज़ आई:
"कबीर! इस वक़्त कहाँ जा रहे हो? तुम्हारा अभी-अभी निकाह हुआ है!"
ये उनके अब्बा, अहमद मिर्ज़ा थे। चेहरा चिंता से भरा।
कबीर पलटा, आगे बढ़ा, अब्बा के हाथ छुए।
"अब्बा, दुआ कीजिए। मैं होटल की डील फाइनल करने जा रहा हूँ। ये मौका हाथ से गया तो फिर नहीं मिलेगा। मैं लौटा तो खुशखबरी लेकर आऊँगा।"
"लेकिन अभी? लोगों के बीच से उठकर जाना अच्छा नहीं लगता!"
"मुझे अभी जाना होगा। बाद में समझाऊँगा, वादा।"
बात ख़त्म। वह बैठा, गौतम ने गाड़ी बढ़ा दी।
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कुछ ही मिनटों में ये खबर हॉल के दूसरे हिस्से—जहाँ दुल्हनें और घर की खवातीन बैठी थीं—तक पहुँच गई:
"कबीर अभी-अभी मैरिज पैलेस से निकल गया!"
"क्या हुआ?"
फूफ़ी" फरीदा ने भौंहें चढ़ाईं। उन्हें तर्ज़ीह ड्रामे में ही मिलती थी।
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फूफ़ी फरीदा की तंज़भरी गोलाबारी
फूफ़ी फरीदा ने हिना और उसके पास बैठी सबीहा पर नज़र डाली और दबी मुस्कान के साथ बोलीं:
"देखा? मैंने पहले ही कहा था—ये लड़का किसी को भी पूरा भरोसा नहीं देगा। निकाह के दिन ही बिना बताए चला गया! बेटी, तुम पूरी उमर ऐसे ही इंतज़ार करती रहो तो?"
हिना का चेहरा तमतमा गया। सामने कहकशाँ की तरफ़ से हँसी की आवाज़ आई—वो अपनी रुख़सती की तैयारियों से खुश थी; तुलना में हिना और भी असहज लगने लगी।
फूफ़ी ने आग में घी डाला:
"और सुनो सब—मैं तो चाहती थी कि सबीहा हमारे घर आये... किस्मत देखो! कहकशाँ बैठी हैं दुल्हन बनकर, और इस कबीर मियां को देखो—दुल्हन को छोड़ डील के पीछे भागे जा रहे हैं।"फरीदा को लगता था कि जो लड़की उसके बेटे की दुल्हन बनकर आएगी, उसकी किस्मत खुल जाएगी ।मगर यह तो वक्त ही बताने वाला था कि क्या होगा।
सबीहा ने झेंपकर नज़रें झुका लीं। बात का असली निशाना फिर भी हिना ही थी।
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इसी तनाव भरे माहौल में, छोटी-सी, चुलबुली हवा दौड़ती हुई आई।
सबकी नज़रें उस पर जा टिकीं। हवा हांफती हुई बैठी और हिना के हाथ में फोन थमा दिया। स्क्रीन पर कबीर का मैसेज खुला था:
> "माफ़ कीजिएगा, बेगम साहिबा। मुझे अचानक जाना पड़ा—बहुत ज़रूरी था। अगर आप मेरे नसीब में हैं, तो समझिए मेरा नसीब भी खुलने वाला है। जो डील इतने दिनों से अटकी थी, आज पार्टनरशिप की बात आगे बढ़ गई है। दुआ कीजिए, मैं ये होटल लेकर ही लौटूँगा। ❤️"
हिना का चेहरा—जो अभी पल भर पहले शर्म और ग़ुस्से से तपा था—धीरे से नरम पड़ने लगा। उसने हल्की मुस्कान रोके हुए मैसेज पढ़ा।
सभी लोग आपस में बातों में व्यस्त थे, किसी का ध्यान हवा और हिना की तरफ नहीं था। कबीर का मैसेज पढ़ने के बाद हिना, जो अब तक अपने मन में कई भारी बातें लिए बैठी थी, एकदम हल्का महसूस करने लगी। ऐसा नहीं था कि उसके मन में कबीर के लिए कोई खास भावना थी, मगर जो भी था, कबीर ने उसे अहमियत दी थी—ये बात उसके दिल को छू गई थी।
"क्या सोच रही हो? भाईजान को बेस्ट ऑफ लक का मैसेज तो भेज दो," हवा ने मुस्कुराते हुए कहा।
"ठीक है, भेज दिया," हिना ने धीरे से जवाब दिया और मैसेज टाइप कर भेज दिया।
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गौतम गाड़ी चला रहा था, कबीर फोन पर टाइप कर रहा था।
"किसे मैसेज?" गौतम ने पूछा।
"बेगम साहिबा को।" कबीर आज खुलकर मुस्कुराया।
"निकाह के दिन ही गुलामी शुरू?"
"हम तो कब से उनके गुलाम हैं, बस आज बताने का टाइम मिला है!"
उसी वक़्त हवा का जवाब आया। कबीर ने पढ़ा और हँसी रोक न सका।
"इस लड़की से मेरी कोई प्राइवेसी नहीं रह सकती! बेगम तक मैसेज पहुँचे उससे पहले हवा पढ़ लेती है!"
गौतम ने कहा, "चलो अच्छा है—कम से कम घरवालों को पता चल जाएगा कि तुम भागे नहीं, बिज़नेस की जंग लड़ने निकले हो!"
कबीर ने फोन सीने पर रख लिया। आँखों में चमक आ गई थी—वो वही जुनून था जो उसे इस होटल के पीछे भागा रहा था।
"ये डील हुई तो सिर्फ़ बिज़नेस नहीं, मेरे और हिना के आने वाले घर की बुनियाद होगी।"
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हिना ने फोन वापस पर्स में रखा। चेहरा अभी भी लाल था, मगर अब शर्म व गुस्से से नहीं—उम्मीद से।
उसने धीरे से कहा, "अल्लाह करे, ये होटल तुम्हें मिल जाए कबीर..."
उधर फूफ़ी फरीदा फिर बोलने को हुईं, । अब कोई कुछ भी बोले पर कबीर ने हिना को मैसेज दे दिया था कि वह कहां जा रहा है और हिना को यह बात सभी को बताने की जरूरत नहीं थी ।शायद निकाह होते ही एक नए रिश्ते की शुरुआत हो चली थी।
कबीर के बिना बताए निकल जाने की ख़बर ने पूरे ख़ानदान में जैसे मिर्च-मसाला भर दिया था। सबसे पहले यह बात फ़रीदा बानो (दादी जान की बेटी, यानी सबकी ननद) ने उठाई, और जिस अंदाज़ में उठाई—उससे मामला सीधा-सीधा चिंता से ज़्यादा तमाशे का विषय बन गया। वह कह रही थी कि कबीर को न तो ख़ानदान की परवाह है, न ही हिना की; बस अपनी मर्ज़ी चलाने वाला लड़का है।
फ़रीदा बानो यहीं नहीं रुकी। उसने अपने बेटे अहमद और दामाद शाहरुख़ की तारीफ़ों के पुल बाँध दिए—“देखो मेरे लड़के! जिन लड़कियों से रिश्ता हुआ, वे दोनों कितनी खुश हैं… कोई शिकायत नहीं, कोई ड्रामा नहीं।” उसके लहज़े का हर तीर कबीर और हिना की तरफ़ छोड़ा जा रहा था।
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रिहाना और सलीमा और शगुफ़्ता —तीनों देवरानियाँ/जेठानियाँ—मन ही मन कसक से भर उठीं। बात चाहे जो भी हो, उन्हें मालूम था कि इस तरह की छींटाकशी हिना के दिल पर क्या गुज़रेगी। वे तीनों आपस में बहुत जुड़ी हुई थीं; दुःख-सुख में हमेशा एक-दूसरे का हाथ थामती आई थीं। ऊपर से दादी जान का सख़्त मिज़ाज, और फिर फ़रीदा बानो जैसी ननद जो हर मुद्दे पर घी डाल दे—हालात आसान कभी नहीं थे। फिर भी, इन तीनों औरतों ने हर मोड़ पर एक-दूसरे का साथ निभाया था।
रिहाना आज अपने बच्चों की शादी की भागदौड़ में उलझी हुई थी—बेटा और बेटी, दोनों की रस्में एक ही दिन थीं—फिर भी वह हिना के चेहरे की रंगत पढ़ लेती थी। सलीमा के मन में झेंप थी कि कबीर की वजह से हिना को सुनना पड़ रहा है। शगुफ्ता ने बस एक बार हिना की आँखों में देखा और समझ गई—लड़की भीतर से टूट-सी रही है, पर सामने मजबूती ओढ़े बैठी है।
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इसी बीच शगुफ्ता उसके पास आई। हल्की थकी, भारी आवाज़ में बोली, “बेटा, मन में कुछ मत रखना। लड़कों को काम पड़ते हैं। कबीर को कब से उस होटल वाली डील के पीछे भागते देख रहा हूँ—शायद वही वजह होगी।”
वे हिना को समझाने की कोशिश कर रही थी, जबकि उनका अपना दिल भरा हुआ था। बात पूरी भी न हुई थी कि हिना की बहन हव्वा (हवा) ने मोबाइल आगे बढ़ाते हुए कहा, “अममी, देखिए… कबीर भाई का मैसेज आया है।”
“दिखाओ ज़रा!” अम्मी ने भी झट से कहा।
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हव्वा ने मैसेज ज़ोर से पढ़ा:
माफ़ कीजिएगा, बेगम साहिबा। मुझे अचानक जाना पड़ा—बहुत ज़रूरी था। अगर आप मेरे नसीब में हैं, तो समझिए मेरा नसीब भी खुलने वाला है। जो डील इतने दिनों से अटकी थी, आज पार्टनरशिप की बात आगे बढ़ गई है। दुआ कीजिए, मैं ये होटल लेकर ही लौटूँगा। ❤️"
मैसेज सुनते ही अम्मी की आँखें नम हो आईं; उनके चेहरे पर राहत की झलक दौड़ गई। उन्होंने हिना के गालों को दोनों हथेलियों से थामा, जैसे कह रही हों—“देखा? वो तुम्हें खुश ही रखेगा, बेटा। बस यक़ीन रखो।”
अममी का अपना मन भी हल्का हो गया था।
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अम्मी ने धीरे से, पर सख़्ती के साथ कहा, “सुनो—इस बात की चर्चा बाहर मत करना, ख़ासकर फ़रीदा बानो के सामने। लोग बात का बतंगड़ बनाते देर नहीं लगाते।”
हवा ने सिर हिला कर हामी भरी। उन्हें मालूम था कि फ़रीदा मसाला लगाने से कभी नहीं चूकेगी। आज का दिन वैसे भी रस्मों और मेहमानों से भरा था; किसी एक गलत शब्द से पूरा माहौल बिगड़ सकता था।
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उधर मिर्ज़ा भाईयों का मन भी बेचैनी से भरा था। सईद मिर्ज़ा (कबीर के वालिद) परेशान टहल रहे थे। उन्होंने कबीर को रोकने की कोशिश की थी, पर लड़का रुका नहीं। “ये फ़ैसले यूँ अकेले लेकर निकल जाना… ख़ानदान की इज़्ज़त भी कोई चीज़ होती है,” वे बुदबुदा रहे थे।
उनके छोटे भाई बाक़र मिर्ज़ा पास आकर बोले, “भाईजान, क्या हुआ? आप इतने परेशान क्यूँ हैं?”
सईद ने गहरी साँस ली। “आज रस्मों का दिन था… और ये लड़का होटल की डील के पीछे भाग गया। हिना की क्या हालत होगी? और लोग क्या कहेंगे?”
वकार ने हल्की मुस्कान से माहौल नरम किया। “कम-से-कम उसने मैसेज तो किया है न? अहमद से सुना—हिना को ख़ुद बताया है कि काम की मजबूरी थी। देखिए, लड़का भोला नहीं है; लौटेगा तो सब समझाएगा।”
सईद का माथा कुछ हल्का हुआ। “हाँ… अगर उसने हिना को लिखा है तो ठीक है। ”
कबीर और हिना के मामले के बाद फरीदा साबिहा निशाना बनाने लगी ।
पता नहीं क्यों—तुम्हारा भाई तो जैसे तुम्हारा दुश्मन बन बैठा है। देखो अहमर को—मेरे बेटे जैसा लड़का पूरे ख़ानदान में नहीं मिलेगा! हमारा घराना, हमारी परवरिश… और तुम्हारे घर में तो हर वक़्त , बंदिशें!”
अपनी बेटी का नाम लेकर ताने कसे—“—बताओ मेहरुन्निसा कैसे रहती हैं? और तुम लड़कियों पर कितनी पाबंदियाँ हैं तुम्हारे घर! मुझे तो सीधा-सीधा लगता है तुम्हारा भाई जलता है—कहीं तुम उससे ज़्यादा अमीर घर में न चली जाओ, इसलिए उसने रिश्ता रोकने की कोशिश की होगी। पर किस्मत तो ऊपर वाला लिखता है। मेरा बेटा जिसकी किस्मत में था, उसी को मिला। ?”
आख़िर में साबिहा ने नज़रें झुका कर, आधा-कुछ कहकर, “मुझे काम है” बोलते हुए वो उठ गई।
ऐसा नहीं था कि साबीहा के मन में अहमर के लिए कुछ था। वो शादी अभी करना चाहती थी। उसे अपनी स्टडी खत्म करनी थी ।मगर इस तरह अपनी फूफी के बात करने से उसका मन बेचैन जरूर हो गया था।
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दूर कोने में बैठी हिना और हव्वा सब सुन रही थीं। फ़रीदा के हर वाक्य के बाद हिना के चेहरे का रंग हल्का पड़ता जा रहा था।
हव्वा ने धीमे से पूछा, “हिना… हमारी फूफी ऐसी क्यों है ?”
हिना ने आँखें झुका लीं। “पता नहीं… पर अब मुझे साबिहा से ज़्यादा उसकी फ़िक्र हो रही है ।
“चल, उससे बात करते हैं,” हव्वा ने कहा और उठकर साबिहा के पास चली गई।
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शहर के दूसरी तरफ़ उस वक़्त असली ड्रामा चल रहा था—होटल की डील का आख़िरी दौर। एक टेबल पर काग़ज़, फ़ाइलें, स्टाम्प पेपर; दूसरी तरफ़ चाय के खाली कप।
मौजूद थे:
कबीर (निकाह की रस्म से सीधा पहुँचा हुआ, अब भी शेरवानी में)
सैयद रियाज़ साहब और सिकंदर रियाज़ (उनका बेटा)
पुराने मालिक, जो काग़ज़ात पर दस्तख़त करके निकल चुके थे।
गौतम भी पूरी शाम वहीं था, पर आख़िरी काग़ज़ी कार्रवाई के दौरान वह बाहर जाकर बैठ गया—कबीर को कुछ निजी बात कहनी थी।
लंबी बातचीत, रेट, हिस्सेदारी, लाइसेंस ट्रांसफ़र… सब निपटा। रियाज़ साहब ने फ़ाइल बंद की। “तो तय रहा—होटल अब आप दोनों का हुआ।” दस्तख़त के बाद हाथ मिलाए गए।
ज्यों ही माहौल हल्का हुआ, सिकंदर रियाज़ हँस पड़ा। “एक बात पूछूँ? आज आपने ये शेरवानी क्यों पहनी है? मीटिंग के लिए तो काफ़ी… रॉयल लग रहे हैं!”
कबीर ने भी मुस्कुराकर जवाब दिया, “आज मेरा निकाह था। टाइम ही नहीं मिला कपड़े बदलने का।”
“सीरियसली? आप अपना निकाह छोड़कर यहाँ आए?” सिकंदर की आँखें फैल गईं।
“निकाह हो गया,” कबीर ने कंधा उचकाया। “रुख़्सती अभी नहीं। बस क़ुबूल है बोलकर भागा और यहाँ आ गया। डील आज ही करनी थी।”
रियाज़ साहब ने हँसते हुए कहा, “तो आपकी बेगम इंतज़ार कर रही होंगी। अब घर जाइए।”
कबीर ने हल्का सा विस्तार दिया, “वो मेरे चाचा जान की बेटी हैं—हम सब एक ही बड़े घर में रहते हैं। वैसे घर पर आज दो-दो शादियाँ भी चल रही थीं। मुझे पता है सब लोग अब तक थककर बैठ गए होंगे।”
“ठीक है, हम चलते हैं,” रियाज़ साहब बोले।
“कल वलीमा है आप, सिकंदर—और पूरा ख़ानदान आइए।।”
हाथ मिलाए गए। रात बहुत आगे बढ़ चुकी थी। अब बस एक काम बचा था—कबीर का लौटना… और हिना का इंतज़ार।
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कबीर जाने किस पहर रात को लौटा था। वो डिनर करके ही आया था। वह होटल की किसी बड़ी डील की खुशी मना रहा था। जैसे ही घर पहुंचा, थका हुआ-सा सीधा अपने कमरे में चला गया। सुबह उसे फिर से जल्दी निकलना था — अगली मीटिंग उसका इंतज़ार कर रही थी।
इस बीच बहुत कुछ बदल चुका था। मेहरुन्निसा अब शाहरुख के साथ शादी करके इस घर की बहू बन चुकी थी, और कहकशा का निकाह अहमर से हो चुका ा पर सबसे बड़ा बदलाव तो शायद उसके अपने दिल में हुआ था।
कबीर की ज़िंदगी में अब हिना थी — सिर्फ नाम की नहीं, अब वह उसकी बीवी थी। कभी जो रिश्ता उलझा हुआ-सा लगता था, अब किसी मीठी सी सच्चाई में बदल चुका था।
कमरे में जैसे ही वह पहुंचा, उसकी आंखों में थकान तो थी, मगर दिल में एक ख्याल भी — हिना।
उसने धीमे से बिस्तर पर गिरते हुए आंखें बंद कीं और खुद से बुदबुदाया,
"मन तो मेरा भी है... कि तुम अभी इसी वक्त आ जाओ... चुपचाप मेरी बाहों में समा जाओ। मगर जानता हूं, वक्त मेरा अपना नहीं है। जब भी लौटता हूं, आधी रात हो चुकी होती है। और सुबह फिर निकल जाना होता है। पर जब तुम्हारे लिए वक़्त निकालूंगा... तब तुम्हें सिर्फ अपनी बाहों में नहीं, अपनी पूरी ज़िंदगी में शामिल कर लूंगा..."
वो जानता था, ज़िंदगी की रफ़्तार ने उन्हें बहुत कुछ दिया, मगर वक़्त छीन लिया। अब हर गुज़रा लम्हा वह सहेजना चाहता था — हिना के साथ।
शायद वह यह नहीं कह पाता था, मगर सोचता ज़रूर था कि हिना अब सिर्फ उसकी जिम्मेदारी नहीं, उसकी आदत बन गई है। और आदतें जब दिल से जुड़ जाएं, तो फिर उनका नाम मोहब्बत होता है।
अगली सुबह...
कबीर थोड़े प्यार और बहुत सारा सुकून लेकर अपने कमरे से बाहर निकला। रात की थकावट अब तक उसकी आंखों के कोनों में हल्के हल्के ठहरी हुई थी, मगर मन आज कुछ अलग था। शायद इसीलिए उसके कदम धीमे थे — हल्के मुस्कुराते हुए, जैसे किसी अपने की तलाश में हों।
जब वह डाइनिंग हॉल तक पहुंचा, तो देखा कि सारे लोग नाश्ते के लिए टेबल पर पहले से मौजूद थे। टेबल पर गर्म पराठों की खुशबू के साथ एक घरेलू सी हलचल थी।
शाहरुख भी मौजूद था — अपनी नई नवेली दुल्हन मेहरुन्निसा के साथ।
कबीर ने हाल में क़दम रखा, और अदब से बोला,
"अस्सलामु अलैकुम, दादा जान... दादी जान..."
दादा जान ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया,
"वअलैकुम अस्सलाम, बेटा... जाओ बैठो..."
कबीर फिर बाक़ी बड़ों सबको आदाब करता हुआ टेबल पर अपनी सीट पर जाकर बैठ गया।
कबीर ने चुपचाप अपनी जगह ली। तभी उसकी अम्मी — सलीमा बेगम — ने ज़रा धीमे, मगर साफ़ स्वर में कहा,
"रात को बहुत देर से आए थे तुम..."
"हाँ अम्मी... एक ज़रूरी मीटिंग थी, देर हो गई,"
कबीर ने हल्की मुस्कान के साथ जवाब दिया।
वो मां से बात कर रहा था, मगर उसकी नज़रें किसी और को ढूंढ़ रही थीं। सामने, टेबल के दूसरी तरफ़, हिना बैठी थी — चुपचाप, अपनी प्लेट की तरफ़ देखती हुई। उसका चेहरा बिल्कुल शांत था, जैसे न कुछ कहना है, न कुछ सुनना।
कबीर की नज़र उसके चेहरे से हटकर टेबल पर घूम गई। मेहरुन्निसा, गुलाबी रंग की हल्की साड़ी में, दादी जान के पास वाली कुर्सी पर बैठी थी। वैसे इस घर में परंपरा थी कि नई बहू पहले कुछ दिन खाना सर्व करती है, टेबल पर साथ नहीं बैठती। मगर आज पहला दिन था — दादी जान की ज़िद पर सबने इस नियम को नजरअंदाज़ कर दिया था।
सभी लोग कबीर से उसके होटल डील्स के बारे में पूछते रहे — वह भी जवाब देता रहा, बिज़नेस अंदाज़ में, मगर दिल तो कहीं और था।
बातों-बातों में, कबीर ने अपना फोन निकाला और कुछ टाइप करने लगा। उसके होंठों पर एक हल्की मुस्कान तैर गई थी — वो मुस्कान जो किसी खास के नाम पर ही आती है।
दूसरी तरफ, हिना ने अपने फोन पर एक नोटिफिकेशन देखा। स्क्रीन पर नाम चमक रहा था — “Kabir ”
उसने धीरे से फोन उठाया, और मैसेज खोला।
“Good Morning.”
बस इतना ही लिखा था। मगर उस दो शब्दों में जैसे एक पूरी मोहब्बत छुपी थी।
हिना की नज़रें एक पल को उस मैसेज पर ठहरीं, फिर वो हल्के से नीचे देखने लगी। उसके होंठों पर कोई जवाब नहीं था, मगर उसके दिल में शायद बहुत कुछ चल रहा था।
पास बैठी हवा ने सब कुछ देख लिया। वह धीरे से उसकी ओर झुकी और मुस्कुराकर बोली,
“कम से कम गुड मॉर्निंग का जवाब तो दे दो...!”
हिना ने सिर उठाकर हवा को देखा, उसकी मुस्कान पढ़ने की कोशिश की, फिर धीरे से फोन उसकी तरफ़ बढ़ा दिया। हवा ने कबीर की तरफ देखा, जो अब शरारती नज़रों से उन दोनों को ही देख रहा था।
हवा ने फोन वापस हिना को पकड़ाया और कहा,
“जल्दी से भेज दो, !”
हिना ने अपनी उंगलियों से स्क्रीन पर एक छोटा-सा मैसेज टाइप किया —
“Good Morning :)”
उसने जैसे ही सेंड किया, कबीर की नज़र सीधी अपने फोन पर पड़ी। मैसेज पढ़ते ही उसकी मुस्कान थोड़ी और गहरी हो गई।
मन ही मन वह सोचने लगा —
“इस लड़की से तो सच में सावधान रहना होगा... मेरी बेगम से पहले सारे मैसेज हवा देख लेती है। मेरी तो कोई प्राइवेसी ही नहीं बची!”
उसके चेहरे पर मुस्कान थी, मगर उस मुस्कान में भी मोहब्बत की पूरी दुनिया थी। एक दुनिया जिसमें अब हिना शामिल थी — उसकी सुबह की पहली सोच, और रात की आख़िरी ख्वाह था।
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कबीर ने जल्दी-जल्दी अपना ब्रेकफास्ट खत्म किया और अपनी जगह से उठ खड़ा हुआ।
"मैं जा रहा हूँ," उसने कहा।
"इतनी जल्दी?" दादा जान ने हैरानी से पूछा।
"हाँ, मैं पहले ही लेट हो चुका हूँ," कबीर ने घड़ी पर नजर डालते हुए जवाब दिया। "हमें होटल की ओपनिंग करनी है और आज पहला दिन है।"
शाहरुख ने मुस्कराते हुए कहा, "तो फिर शाम को मेहमानों के आने से पहले वलीमे में जरूर पहुंच जाना। कहीं ऐसा न हो कि तुम खुद ही पार्टी से गायब हो जाओ।"
"बिलकुल फिक्र मत करो, मैं समय पर पहुँच जाऊँगा," कबीर ने आश्वस्त करते हुए कहा, और जल्दी से वहाँ से निकल गा।
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कहकशां अब ससुराल जा चुकी थी।
अब घर में तीन बहनें—हिना, हवा और सबिहा—ही रह गई थीं।
वो अपनी शाम को पहनने वाली ड्रेस लेकर हिना और हवा के कमरे में आई।
"मुझ पर यह कैसी लगेगी?"
उसने रेड कलर की अनारकली ड्रेस दिखाते हुए पूछा।
ड्रेस वाकई बहुत खूबसूरत थी।
"बहुत अच्छी लगेगी," हवा ने मुस्कराते हुए कहा।
"तुमने एक और ड्रेस भी ली थी न?" हिना ने याद दिलाया।
"हाँ, वही बेबी पिंक वाली," सबिहा ने सिर हिलाकर कहा।
"वही पहन लो," हिना ने सुझाव दिया। "वह तुम्हारे गोरे रंग पर बहुत ज्यादा अच्छी लगेगी।"
"आप बिल्कुल भाई जैसी हो," सबिहा ने हिना की तरफ देखकर कहा।
"कबीर भाई भी ऐसा ही कहते हैं, और आप भी। अच्छा हुआ जो आप दोनों की शादी हो गई, आप दोनों एक जैसे हो।"
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"वैसे भाभी जान, आप भाई के कमरे में कब शिफ्ट हो रही हैं?"
साबिहा ने शरारत भरी मुस्कान के साथ पूछा।
मुझे तो उस कमरे में अकेले नहीं रहना। मैं तो आपके कमरे में रहने वाली हुं, मुझे हवा के साथ रहना है।"क्योंकि कहकशां जा चुकी थी तो कमरे में सबिहा अकेली रह गई थी जो उसे बिल्कुल अच्छा नहीं लग रहा था।
"हम दोनों बहनें साथ रहेंगे, और आप भाई के साथ चले जाइए,"
कहते हुए वह हँसती हुई बेड पर उल्टा लेट गई और अपने हाथ की कलाई पर बनी हुई ड्यूटी (मेहंदी या टैटू) दिखाते हुए हिना की ओर देखने लगी।
"पहले तो मुझे 'आपा' कहती थी, अब 'भाभी' कह रही हो!"
हिना ने उसे चिढ़ाते हुए कहा।
"पहले की बात और थी, अब तो आप मेरी भाभी बन चुकी हैं,"
सबिहा ने मिलकर चहकते हुए कहा।
उसकी की आँखों में एक चमक थी, एक खुशी थ।
पर कोई क्या जाने,
क्या हिना कभी कबीर की मोहब्बत को समझ पाएगी?
क्या कबीर का खामोश इश्क हिना के दिल तक पहुँच पाएगा?
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तेरा नाम लबों पर नहीं, पर दुआओं में जरूर है,
वो खामोश सा कबीर, हिना की हर सोच में भरपूर है।
न कह सका कुछ, न जता सका एहसास,
पर उसकी निगाहों में छुपा हर अल्फ़ाज़ था खास।
हिना को समझना था, पर वक्त को लग गई देर,
दो दिल, दो ख़ामोशियाँ, और बीच में था एक फिक्र का सैर।
इश्क़ कहे बिना भी कब पूरा नहीं होता... और मोहब्बत कब कबीर जैसी होती है?
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💬 सीरीज़ पर मेरा कमेंट:
यह सीरीज़ बहुत प्यारी लग है। इसमें रिश्तों की मासूमियत, पारिवारिक मिठास और धीरे-धीरे पनपती मोहब्बत को बहुत खूबसूरत अंदाज़ में दिखाया गया है। हिना और कबीर का ट्रैक एक साइलेंट लव स्टोरी की तरह है, जो दिल को छू जाती है।
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पाठकों से अनुरोध:
अगर आपको ये कहानी पसंद आई हो तो कृपया फॉलो करें, व्यू और कमेंट देना न भूलें। आपके शब्द ही इस कहानी को आगे बढ़ाने की ताक़त हैं। ❤️
कबीर सुबह से ही काम में उलझा हुआ था। देखते ही देखते शाम हो चुकी थी। वह और सिकंदर रियाज,दोनों होटल के बदलाव को लेकर चर्चा में लगे हुए थे। चूंकि अब वह होटल उनकी मिल्कियत बन चुका था, इसलिए दोनों उसे एक नए अंदाज़ में चलाने की योजना पर कड़ी मेहनत कर रहे थे।
शाम के छह बज चुके थे। कबीर को याद था कि आज उसे वलीमे पे जाना है। उसने सिकंदर की ओर देखा और कहा,
"सिकंदर, याद है न आज वलीमा की रस्म है? मुझे वहाँ जाना है।"
सिकंदर चौंका, मानो उसे बात याद ही न हो।
"अरे, हाँ! मुझे तो बिल्कुल याद नहीं रहा कि आज मुझे भी इनवाइट किया गया था। तुमने कल ही तो बताया था," सिकंदर ने घड़ी की ओर देखते हुए कहा।
"मुझे जल्दी से तैयार होना होगा, मैं निकलता हूँ।"
कबीर को भी अब तैयार होना था, इसलिए वह भी अपने घर की ओर लौट गया।
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हिना स्टेज पर खड़े शाहरुख की तरफ देख रही थी।शाहरुख बेहद हैंडसम लग रहा था। वह कितना खुश था — उसकी खुशी उसके चेहरे पर साफ़ झलक रही थी।
"मैं ये क्या सोच रही हूँ?" हिना ने खुद से कहा।
"यह गलत है... मेरा निकाह हो चुका है।"
उसने अपने मन को शाहरुख की ओर से हटाने की कोशिश की, लेकिन दिल कहाँ किसी की सुनता है...
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हिना खुद को समझाने की कोशिश कर रही थी। वह चुपचाप एक साइड में जाकर उस टेबल के पास बैठ गई जहाँ ज़्यादा भीड़ नहीं थी। तभी साबिहा उसके पास आई और बोली,
“भाभी जान, यहाँ क्यों बैठी हो? चलो ना, सब लोग उधर हैं, बातें कर रहे हैं, हँसी-मज़ाक चल रहा है।”
हिना ने हल्के से सिर हिलाया, “अभी नहीं साबिहा, मेरा मन नहीं है…”
वो उसकी बात पर मुस्कुरा दी, “तो फिर कब है मन? भाई से पूछकर आऊँ? या कह दूँ उन्हें कि भाभी जी का मूड नहीं है?”
हिना उसकी बात पर हल्का-सा मुस्कुराई, लेकिन जैसे ही 'भाई' यानी कबीर का नाम लिया गया, उसका दिल थोड़ी देर के लिए बुझ-सा गया।
उसका निकाह कबीर से हो चुका था। ऐसा नहीं था कि कबीर ने उसे बिल्कुल नज़रअंदाज़ किया हो... लेकिन पता नहीं क्यों, कबीर का नाम सुनकर उसके भीतर एक डर-सा बैठ जाता था। उसे लगता था कि वह आदमी शायद उसे कभी आज़ादी, इज़्ज़त और प्यार नहीं दे पाएगा।
साबिहा उसका हाथ पकड़कर खींचती है, “चलो उठो, सब उधर स्टॉल के पास हैं।”
हिना भी धीरे-धीरे उठी और दोनों उस जगह आ गईं जहाँ स्टॉल लगे हुए थे।
“हवा कहाँ है?” हिना ने साबिहा से पूछा।
“जहाँ भी है, यहीं कहीं होगी…” तभी पीछे से आवाज़ आई।
हवा पीछे से आ रही थी — ग्रीन कलर का लहंगा पहने हुए, वो बहुत खूबसूरत लग रही थी। उसकी चाल में भी एक अलग ही नज़ाकत थी।
“तुम कहाँ चली गई थी?” हिना ने उससे पूछा।
हवा ने सांस लेते हुए कहा, “अभी बताती हूँ, ज़रा साँस तो लेने दो।”
तभी किसी और ने मज़ाक करते हुए कहा,
“अरे इसे कहां जाना है, किसी कोने में बैठकर खा रही होगी, अब ऐसे एक्टिंग कर रही है जैसे सारा काम यही करती हो…” अयान जो उनके पास आ रहा था उसने कहा।
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“हाँ, जैसे सारा काम तो तुम ही करते हो!” हवा ने गुस्से में हवा से कहा।
आयान ने तुरंत पलटकर जवाब दिया,
“बिल्कुल मेरी ही ज़िम्मेदारी थी! म… आज घर का फ़ंक्शन है और सब मेरी ही ज़िम्मेदारी पर हो रहा है। शाहरुख भाई तो सुबह से अपनी तैयारी में लगे हैं, कबीर भाई को होटल से फुर्सत नहीं मिलती। तो मैंने और तैमूर ने मिलकर सारी तैयारी करवाई है!”
हवा ने हल्की सी हँसी के साथ कहा,
“अरे, सब जानती हूँ मैं… मेरा मुँह मत खुलवाओ! तुम तो फोन पर लगे रहती हो अपनी… उसे… गर्लफ्रेंड के साथ!”
आयान का चेहरा तुरंत लाल हो गया।
“कौन सी गर्लफ्रेंड?” साबिहा की आँखें फैल गईं।
“गर्लफ्रेंड?” सुविधा ने जल्दी से बात सँभाली,
“न-न… मेरा मतलब है… अपने दोस्त से। गर्लफ्रेंड तो मैंने ऐसे ही कह दिया…”हवा अपने बात संभालने की कोशिश की।
लेकिन हवा सब जानती थी। एक पुरानी बात थी — एक राज, जो सिर्फ हवा को पता था। वह कभी-कभी इस राज़ को लेकर वो आयान को मज़ाक में ब्लैकमेल करती थी।
“छोड़ो भी, सब समझते हैं। अब तुम अपनी बातें बंद करो। वहाँ दोनों जोड़े स्टेज पर पहुँच चुके हैं। चलो, लड़कियों, अपनी भाभी और बहन की मदद करो। वहां पर चाची जान आई उन्होंने कहा।
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वे सब वहाँ से हटकर स्टेज की तरफ बढ़ गए थे। एक किनारे खड़े होकर सब स्टेज की ओर देखने में मशगूल थे कि तभी पीछे से आवाज़ आई —
"कोई मुझे याद भी कर रहा है?"
सबने मुड़कर पीछे देखा। वहाँ कबीर खड़ा था — ब्लू सूट में, पूरे कॉन्फिडेंस के साथ।
उसने मुस्कुराते हुए अपने भाई-बहनों की तरफ देखा और हल्के मज़ाकिया लहजे में कहा,
"इतनी देर से खड़ा हूँ, किसी ने नोटिस भी नहीं किया मुझे?"
कबीर आज कुछ अलग ही लग रहा था। शायद आज उसने होटल के बिज़नेस में आधिकारिक रूप से कदम रखा था, और उसी के हिसाब से उसने अपना ड्रेसअप भी बदला था।
ब्लू सूट, सफेद शर्ट, पॉकेट स्क्वेयर, बाल जेल से सलीके से सेट किए हुए, हाथ में घड़ी, और एक हाथ पॉकेट में डाले वह पूरे स्टाइल में खड़ा था। उसकी आँखों में आत्मविश्वास था और मुस्कान में एक ठहराव।
वह इतना हैंडसम लग रहा था कि शाहरुख भी उसके सामने फीका पड़ रहा था। उसका लंबा कद, स्मार्ट पर्सनालिटी और शांत लेकिन प्रभावशाली अंदाज़... सब कुछ जैसे परफेक्ट लग रहा था।
हिना ने एक पल के लिए उसकी तरफ देखा… धीरे से नज़रें मिलीं, और फिर जैसे खुद को संभालते हुए नज़रें स्टेज की तरफ फेर लीं।
दिल ने जो महसूस किया, वो शायद चेहरे ने नहीं बताया... लेकिन उस एक नज़र में बहुत कुछ था — सवाल, उलझन, और शायद एक अनकहा एहसास भी।
कबीर भी जाकर उन सबको जॉइन कर चुका था। वह चुपचाप उनके साथ खड़ा होकर स्टेज की तरफ देखने लगा। स्टेज पर शाहरुख, मेहरुन्निसा, कहकशा और अरहान मौजूद थे। कहकशां आज बेहद खूबसूरत लग रही थी। अरहान और कहकशां दोनों एक-दूसरे के साथ बहुत अच्छे लग रहे थे — जैसे एक परफेक्ट जोड़ी।
कबीर ने धीरे से अपनी छोटी बहन साबिहा के कंधे पर हाथ रखा और मुस्कुराकर पूछा,
“क्या सोच रही है मेरी छोटी गुड़िया?”
उस ने थोड़ा चौंककर उसकी तरफ देखा, फिर धीमे से बोली,
“कुछ नहीं भाई…”
“मुझसे कुछ छुपाओगी?” कबीर ने प्यार से कहा और फिर उसे अपने साथ हल्के से साइड में ले गया।
“गुस्सा तो नहीं हो मुझसे?”
उसने बड़े प्यार से उसका हाथ थामकर पूछा।
साबिहा ने उसकी आँखों में देखा और कहा,
“भाई, मैं आपसे नाराज़ क्यों होने लगी?”
कबीर ने गहरी सांस ली और गंभीर लहजे में कहा,
“तुम अपनी पढ़ाई पूरी करो, तुम्हारे लिए मैं बहुत अच्छा रिश्ता ढूँढूँगा — ऐसा कि तुम सोच भी नहीं सकती। लेकिन तुम ऐसा मत सोचना कि मैंने तुम्हारा रिश्ता अरहान से होने नहीं दिया।”
“कुछ ऐसा है अरहान के बारे में, जो हमारे घर के बहुत से लोगों को नहीं पता... मगर वो बात कब तक छुपी रहेगी? एक न एक दिन सामने आ ही जाएगी — और जब आएगी, तो सबको बहुत बुरा लगेगा। मैं नहीं चाहता कि मेरी बहन किसी ऐसे रिश्ते में जाए जहाँ बाद में पछताना पड़े।”
“तुम ही नहीं, कहकशां भी मेरी छोटी बहन है। मैं चाहता हूँ कि मेरी सभी बहनें बहुत अच्छे और इज़्ज़तदार घरों में जाएँ — उन्हें एक ऐसा इंसान मिले जो उन्हें समझे, संभाले और पूरी ज़िंदगी उनका साथ दे।”
कबीर की बातों में सच्चा प्यार और चिंता थी। वह हवा को समझा रहा था, क्योंकि उसे लग रहा था कि शायद साबिहा सोच रही हो कि कबीर की वजह से ही अरहान और कहकशां का रिश्ता तय हुआ, और उसका नहीं।
वह नहीं चाहता था कि उसकी बहन के दिल में उसके लिए कोई गलतफहमी रह जाए।
बात खत्म करने के बाद कबीर ने साबिहा को प्यार से स्टेज की ओर भेजा और फिर बाकी लोगों से मिलने-जुलने लग गया।
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थोड़ी देर तक खड़े रहने के बाद हिना ने हवा और साबिहा से कहा,
"तुम दोनों जाकर चाची जान को बुला लो, स्टेज पर उन्हें बुलाया जा रहा है।"
उनका मतलब रेहाना चाची से था — जो शाहरुख की अम्मी की अम्मी थी।
"ठीक है , हम देखते हैं कि वो कहाँ हैं," हवा ने कहा।
हवा एक ओर देखने लगी, तो सुविधा दूसरी तरफ सीढ़ियों की ओर बढ़ गई।
साबिहा इधर-उधर नज़रें दौड़ाते हुए उन को ढूंढ ही रही थी कि अचानक वह किसी से टकरा गई। वह पीछे देख रही थी और फिर जैसे ही उसने सामने देखा, वह किसी से सीधे टकराई।
वह गिरने ही वाली थी कि तभी एक मजबूत हाथ ने उसे थाम लिया। वह गिरने से बच गई।
"छोड़ो मेरा हाथ!" उसने ने गुस्से से कहा।
"मैंने तो आपको गिरने से बचाया है, बस इसलिए पकड़ा," सामने खड़ा हैंडसम नौजवान शांत लहजे में बोला।
"मैं गिर भी तो आपकी वजह से रही थी!"
उसका का चेहरा गुस्से से लाल हो गया था।
"सॉरी, सॉरी... देखिए, जो भी हो, थोड़ी सावधानी रखें। वह नौजवान बोला।
और... लड़कियों से टकराना कोई अच्छा तरीका नहीं है," साबिहा ने तीखे स्वर में कहा।
"मैंने माफ़ी तो माँग ली... अब क्या करूँ?" उस नौजवान ने हल्की मुस्कान के साथ जवाब दिया।
तभी कबीर वहाँ आ गया।
"आ गए आप, सिकंदर साहब?" कबीर ने मुस्कुराते हुए कहा।
"क्या हुआ साबिहा, इतनी गुस्से में क्यों हो?"
"कुछ नहीं भाई," हवा ने कहा और वहाँ से तेज़ी से निकल गई।
"मेरी बात तो सुनो..." सिकंदर ने पीछे से पुकारा।
तभी वो लौटती हुई बोली,
"हाँ कहिए भाई जान?"
वह अपना दुपट्टा ठीक करते हुए धीरे से मुस्कराई।
कबीर ने दोनों को देखते हुए कहा,
"यह मेरे बिज़नेस पार्टनर हैं — सिकंदर रियाज। मैं चाहता था कि तुम इनसे मिलो।"
सिकंदर ने विनम्रता से हाथ आगे बढ़ाया,
"तो आप कबीर साहब की छोटी बहन हैं?"
लेकिन साबिहा हाथ मिलाने की बजाय आदाब करती हुई वहां से चली गई।
सिकंदर थोड़ी देर उसे देखता रहा, फिर कबीर हल्की मुस्कान के साथ बोला,
"बुरा मत मानिएगा
हमारे जहां का का माहौल थोड़ा अलग होता है। मगर यहाँ के लोग थोड़े सीधे और सादे हैं।"
प्रोग्राम चल रहा था।
चारों तरफ रौशनी और हंसी-मज़ाक का माहौल था, मगर हिना थोड़ा उदास-सी लग रही थी। वह एक किनारे जाकर चुपचाप बैठ गई थी। जहां डांस और मस्ती हो रही थी, वहां साबिहा और हवा पूरे जोश के साथ शामिल थीं, मगर हिना का स्वभाव हमेशा से थोड़ा गंभीर था। वह घर की बड़ी बेटी थी — ज़िम्मेदार, शांत और समझदार। उसमें बचपना कम था और अब तो हालात ने उसे और भी जल्दी बड़ा बना दिया था।
उसके मन में कई उलझनें थीं। उसे जिस इंसान के साथ ज़िंदगी बितानी थी, उसके बारे में वह खुद भी बहुत कुछ नहीं जानती थी। उसे बस इतना लगता था कि अब उसे 'एक पत्नी' बनकर ही ज़िंदगी गुज़ारनी है — अपने मन की बातें, इच्छाएँ और सपने शायद अब पीछे छूट जाएंगे।
मगर हिना इस बात से अनजान थी कि उसे दूर से कोई देख रहा था — बहुत गौर से, बहुत ध्यान से।
कबीर।
वह कुछ दूर खड़ा था, अपने दोस्तों से बात करता हुआ, मगर उसकी निगाहें बार-बार हिना की तरफ लौट रही थीं। वह मुस्कुरा रहा था — बेआवाज़, बेपरवाह, मगर उसके दिल में एक हलचल थी जिसे वह खुद भी नज़रअंदाज़ नहीं कर पा रहा था। हिना अपने फोन की स्क्रीन पर आंखें टिकाए बैठी थी, कभी-कभी अपने बालों को पीछे कर रही थी जो बार-बार चेहरे पर आ गिरते थे। वह स्क्रोल कर रही थी, जैसे कुछ ढूंढ रही हो — शायद कुछ भी नहीं।
मगर कबीर को उसके यह छोटे-छोटे हावभाव बेचैन कर रहे थ
"इतनी सीरियस, फिर भी इतनी मासूम लगती है। जैसे सब कुछ समझती हो, और फिर भी... खुद को किसी से कहती नहीं।"
वह चाहता था कि बस एक बार उसके पास जाकर बैठ जाए। उससे दो बातें कर ले। उसकी आंखों में देख कर पूछे,
"क्या तुम ठीक हो, हिना?"
मगर वह खुद ही अपने कदमों को रोक चुका था। अगर आज वह उससे बात करता, उसके पास बैठता — तो घरवालों के लिए यह सीधा संकेत होता।
और फिर शायद आज रात ही हिना की रुखसती भी तय हो जाती।
पर कबीर को समय चाहिए था।
वह चाहता था कि यह रिश्ता जब आगे बढ़े, तो पूरी समझ और सच्चाई के साथ बढ़े — जब दोनों तैयार हों, न कि बस परंपराओं के दबाव में।
उसे पता था हिना अभी अपनी पढ़ाई पूरी कर रही है, और वह नहीं चाहता था कि वह किसी बोझ या जल्दबाज़ी में बंध जाए।
लेकिन यह सब जानते हुए भी... उसकी नज़रों ने तो जैसे हिना को चुन लिया था।
"तुम बहुत अलग हो हिना... और शायद इसलिए मुझे बार-बार तुम्हें देखने का मन करता है।"
कबीर ने एक धीमी साँस ली, अपनी नज़रों को हिना से हटाया, और फिर दोस्तों के साथ सामान्य व्यवहार में लौटने की कोशिश की।
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सिकंदर रियाज़।
रियाज़ खानदान का इकलौता चिराग। उसके डैड, रियाज़ साहब, दिल्ली की राजनीति में एक बड़ा नाम थे — राजस्थान के एक प्रमुख हल्के से सांसद रहे थ। खानदान की जड़ें गहरी थीं, और रुतबा भी। सिकंदर की एक छोटी बहन थी, जो अभी पढ़ाई कर रही थी।
वो अपने मॉम और डैड का बेहद लाडला बेटा था — नाज़ों में पला, मगर समझदार।
अभी कुछ ही समय पहले वह विदेश से एमबीए करके लौटा था।
बात ये नहीं थी कि उसकी ज़िंदगी में लड़कियाँ नहीं आई थीं — बहुत सी आईं।
किसी से दोस्ती, किसी से कुछ वक़्त की नज़दीकी भी रही, मगर कभी कोई ऐसा चेहरा नहीं मिला जो उसके दिल में उतर सके... स्थायी रूप से।
शादी...?
वह तो उसे एक मजबूरी लगती थी। उसे यकीन नहीं था कि वह कभी उस बंधन में बंधेगा।
मगर आज... आज कुछ बदल गया था।
"उसके दिल को किसी के गुस्से ने छू लिया था। उस लड़की ने उसे ऐसे अनदेखा किया था, जैसे वो कोई मायने ही न रखता हो — और शायद ऐसा उसे पहली बार किसी ने किया था।"
वह गंभीर से मन से एक कोने की टेबल पर कुछ लोगों के साथ बैठा था — बातचीत चल रही थी, मगर उसका ध्यान कहीं और था। उसकी निगाहें बार-बार उस पर टिक जातीं — साबिहा पर।
साबिहा — जो थोड़ी देर पहले स्टेज पर नाच रही थी, और अब थक कर जूस की स्टॉल पर आ खड़ी हुई थी।
उसके माथे पर पसीना था, उसकी साँसें तेज़ थीं, मगर चेहरा... वही मासूम, वही ज़िंदादिल।
उसकी सादगी और बेपरवाही में कुछ ऐसा था जो सिकंदर को बहुत आकर्षित कर रहा था।
वह दूर बैठा था, मगर उसकी निगाहें बस उसी पर थीं।
"ये लड़की... कुछ अलग है," उसने मन ही मन सोचा।
साबिहा ने शायद उसे देखा भी नहीं।
वह बस जल्दी-जल्दी जूस पीकर, बालों को पीछे करते हुए, फिर से स्टेज की तरफ बढ़ गई — जैसे नाच उसकी आत्मा हो।
मगर सिकंदर के लिए वो कुछ और बन चुकी थी — एक दिलचस्प रहस्य।
उसे समझ नहीं आ रहा था कि ये पहली बार था, या किसी अधूरी कहानी की शुरुआत...
मगर इतना तय था — वो लड़की अब उसके दिल में उतर चुकी थी।
वो बस मुस्कुरा दिया, धीरे से।
उसे पाने की कोई जल्दबाज़ी नहीं थी, मगर इरादा... अब पक्का था।
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स्टेज पर बैठे शाहरुख और मेहरुन्निसा एक-दूसरे की ओर देखकर मुस्कुरा रहे थे।
उन दोनों के चेहरों पर संतोष और सुकून साफ़ नज़र आ रहा था। यह रिश्ता उनकी ज़िंदगी में एक नई शुरुआत बनकर आया था — और सबसे बढ़कर, मेहरुन्निसा को शाहरुख बहुत पसंद था। मेहरुन्निसा की दुआएँ कुबूल हो गई थीं।
लेकिन शाहरुख...
वो थोड़ा अलग था।
उसे मेहरुन्निसा से ज़्यादा लगाव शायद उस फैक्ट्री से था, जिसे मेहरुन्निसा की अम्मी उनके अब्बा के सपनों की तामीर मानती थीं — और जिसे पूरा करने में शाहरुख मदद करने वाला था।
अब जब घर का बंटवारा भी हो चुका था, तो शाहरुख को अपने फैसले खुद लेने की आज़ादी मिलने वाली थी।
अब दोनों के बीच एक अपनापन था।
क्या ये प्यार था? या बस एक समझदारी भरा रिश्ता?
ये तो वक्त ही बताएगा।
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वहीं दूसरी तरफ़...
स्टेज पर एक और जोड़ी लोगों का ध्यान खींच रही थी — अरहान और कहकशां।
वे दोनों एक परफेक्ट कपल लग रहे थे। कहकशां के चेहरे पर खुशी साफ झलक रही थी।
उसके दिल में एक सुकून था कि उसका रिश्ता मांग कर तय हो चुका है। वह एक सीधी-सादी, संस्कारी लड़की थी, जो अपने मां-बाप के पसंद किए हुए लड़के के साथ सादा और सच्चा जीवन जीना चाहती थी। उसे प्यार, सपनों, और अफ़सानों से कोई ख़ास लगाव नहीं था — वो तो बस घर बसाना चाहती थी।
मगर उसे यह नहीं पता था कि अरहान कौन है असल में।
वो अपने सपनों की दुनिया में खोई हुई थी, और इस बात से बिल्कुल अंजान कि अरहान की हां के पीछे क्या राज़ छुपा है।
क्यों अरहान ने इस रिश्ते के लिए हामी भरी — यह बात किसी को नहीं पता थी।
अरहान का चेहरा मुस्कुरा रहा था, मगर उसकी आँखों में कोई गहराई थी — कुछ अधूरा, कुछ छुपा हुआ।
वो किसी मजबूरी से तो नहीं...?
या फिर कोई पुराना रिश्ता...?
शायद किसी को पता चलने में वक्त लगेगा, मगर एक बात तय थी —
कहकशां ने तो दिल से रिश्ता स्वीकार किया था।
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हिना अपने फोन पर कोई और ऐप खोले बैठी थी, जब अचानक व्हाट्सएप का नोटिफिकेशन आया।
ऊपर स्क्रीन पर नाम चमक रहा था — "Kabir"।
उसने थोड़ा चौंकते हुए ऐप बदला और मैसेज खोला।
"तुमने ही डांस क्यों नहीं किया? बाकी सब लड़कियाँ तो नाच रही हैं..."
— कबीर का मैसेज था।
हिना ने हैरानी से मैसेज को दोबारा पढ़ा।
उसका मन अचानक बेचैन हो गया। उसने फौरन चारों ओर देखा — "कबीर कहां है?"
मगर भीड़ में वो कहीं दिखाई नहीं दिया।
तभी दूसरा मैसेज आ गया —
"जवाब नहीं दिया... तुम डांस क्यों नहीं कर रही?"
अब हिना थोड़ी घबरा-सी गई।
उसे समझ नहीं आया कि क्या जवाब दे।
थोड़ी झिझकते हुए उसने सिर्फ इतना टाइप किया —
"बस... जा ही रही हूं।"
और वह धीरे-धीरे उठ खड़ी हुई।
"उसका ध्यान मुझ पर है..."
हिना ने खुद से कहा।
फिर एक पल को रुक कर उसने खुद से पूछा —
"क्या वह मुझे इतने ध्यान से देखता है?"
हवा, अयान के पास तेजी से चली आई। उसकी आँखों में एक नई शरारत चमक रही थी।
हवा: "सुनो अयान, मुझे एक ज़बरदस्त आइडिया आया है। जिनकी आज शादी हुई है, उन सभी को स्टेज पर बुलाकर डांस करवाते हैं। सोचो ज़रा, कितना मज़ा आएगा!"
अयान ने थोड़ी चिंता के साथ कहा: "बात तो तुम्हारी सही है, लेकिन हमें घर वालों से डाँट पड़ेगी। सब सीनियर्स बैठे हैं, नाराज़ हो जाएंगे।"
हवा ने हौसले के साथ जवाब दिया: "डाँट तो बाद में पड़ जाएगी, पहले इस पल को एंजॉय करना ज़रूरी है। आज की रात यादगार बननी चाहिए, समझे?"
अयान उसकी बात से सहमत तो था, लेकिन फिर भी थोड़ा हिचकिचा रहा था। तभी हवा ने ज़ोर से कहा, "चलो अब! टाइम खराब मत करो!"
दोनों फौरन हिना के पास पहुँचे, जो स्टेज के नीचे खड़ी सब कुछ देख रही थी। फिर तीनों ने मिलकर शाहरुख, मेहरुन्निसा, कहकशां और अरहान को हाथ पकड़कर उन्हें स्टेज की ओर ले आए।
[सीन: स्टेज पर अनाउंसमेंट]
जैसे ही डीजे ने माइक ऑन किया, अयान ने अनाउंसमेंट की:
"अब वक्त है हमारी पहली जोड़ी का! शाहरुख भाई और मेहरुन्निसा भाभी — ये दोनों आज के दूल्हा-दुल्हन हैं और इन्हें हमारे लिए एक छोटा-सा परफॉर्मेंस देना ही होगा!"
तालियों की गूंज के साथ दोनों स्टेज पर आ गए। दोनों थोड़े शर्माते हुए एक-दूसरे को देख रहे थे। लेकिन म्यूजिक शुरू होते ही शाहरुख ने एक झटके में हाथ बढ़ाकर निशा को थाम लिया और दोनों ने प्यारा-सा डांस शुरू कर दिया।
नीचे खड़े सभी मेहमानों के चेहरों पर मुस्कान आ गई। कबीर, गौतम और सिकंदर, रियाज़ के साथ स्टेज के पास आकर खड़े हो गए। सभी ध्यान से देख रहे थे।
[सीन: अगली जोड़ी - अरहान और कहकशा]
डांस खत्म होते ही अयान ने फिर माइक पकड़ा और कहा:
"अब बारी है हमारी दूसरी जोड़ी की — अरहान और कहकशा! चलिए, आप दोनों भी अब सबको दिखाइए कि मोहब्बत क्या होती है!"
अरहान और कहकशां दोनों साथ में नाच रहे थे। शादी का माहौल था और शादी के बाद का यही तो समय होता है जब एक-दूसरे का साथ और भी ज्यादा अच्छा लगता है। जैसे ही दोनों ने नाचना शुरू किया, लोग उन्हें देख कर मुस्कुरा उठे। उनकी जोड़ी स्टेज पर बेहद खूबसूरत लग रही थी।
आयान ने फिर से माइक हाथ में उठाया। अगली अनाउंसमेंट उसी को करनी थी, मगर अब उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह "कबीर भाई" को डांस करने के लिए कैसे कहे। वह उनसे डरता था।
हवा ने आयान की तरफ गुस्से से देखा। उसकी नजरों में साफ लिखा था — "कुछ तो कर!"
मगर मुश्किल ये थी कि कबीर भाई , पूरे घर में सबसे सख्त और सीरियस माने जाते थे। कोई भी उनसे मज़ाक में भी सीधे कुछ कहने से बचता था। सब जानते थे कि वो हर बात को हल्के में नहीं लेते।
कबीर स्टेज के ठीक नीचे खड़ा था। वह आयान और हवा की हड़बड़ाहट और हाव-भाव गौर से देख रहा था। उसे समझते देर नहीं लगी कि अब शायद हिना और उसका नाम स्टेज पर लिया जाने वाला है।
कबीर ने तुरंत हवा के फोन पर एक मैसेज भेजा —
"मैं डांस के लिए नहीं आ रहा। इसलिए मेरा नाम अनाउंस करने की ज़रूरत नहीं है।"
हवा ने जैसे ही मैसेज पढ़ा, उसकी और आयान की नज़रें मिलीं। फिर दोनों ने ही एक-दूसरे को देखा और हल्का-सा कंधे उचकाया — मानो कह रहे हों, "हमने तो कोशिश की।"
कबीर ठंडी, गंभीर निगाहों से उन्हें देखता रहा... फिर चुपचाप वहाँ से चला गया।
अब वह जाकर गौतम और सिकंदर रियाज़ के पास बैठ गया।
"क्या तुमने ही डांस करना था?" — गौतम ने मुस्कुराकर पूछा।
"नहीं। और तुम ये बात अच्छी तरह जानते हो," — कबीर ने शांत लहजे में जवाब दिया।
"मगर आज का दिन खास है। तुम्हें और रहना को एक साथ डांस करना चाहिए था।"
— गौतम ने चुटकी ली।
"छोड़ो इस बात को।" — कबीर ने बीच में ही बात काट दी।
आपका प्रोग्राम दिलचस्प है, आप कहीं भाई बहन हैं।
सिकंदर बोला।
"थैंक्यू।" — कबीर ने विनम्रता से जवाब दिया,
"हमारी फैमिली बहुत छोटी है — सिर्फ मैं और मेरी छोटी बहन।"
"वैसे, आप मुझे अपनी बेगम से तो मिलवाएँगे ना?" — सिकंदर ने मुस्कुराकर कहा।
"बिलकुल, ज़रूर मिलवाऊँगा।" — कबीर ने धीमे स्वर में जवाब दिया।
जब प्रोग्राम समाप्त हुआ, तो सभी लोग खाना खा रहे थे। लॉन में कुर्सियाँ लगाई गई थीं और हर कोई अपने-अपने ग्रुप में बैठकर खाने का आनंद ले रहा था।
उसी दौरान , हवा, हिना, साबिहा — तीनों लड़कियाँ एक जगह बैठी हुई थीं और धीमे-धीमे बातें कर रही थीं। तभी फरीदा उठकर हिना और हवा के पास आई और ज़रा तंज भरे अंदाज़ में बोली —
"क्या हुआ हिना? आज तुम और कबीर नहीं नाचे? कोई तो बात है!"
उसकी बात पर हिना ने हल्का-सा मुस्कुराकर नजरें नीचे झुका लीं। कुछ बोली नहीं।
फरीदा ने फिर बात हवा की तरफ मोड़ दी —
"और तुम, हवा! तुमने तो पूरे प्रोग्राम में सबका नाम अनाउंस किया। हर किसी को स्टेज पर बुलाया, सबको नचाया... फिर हिना और कबीर का नाम अनाउंस क्यों नहीं किया? क्या हुआ था?"
उसकी मुस्कान में चिढ़ाने वाला अंदाज़ साफ था। वह जानबूझकर दाँत दिखाकर बातें कर रही थी।
फिर फरीदा गहरी साँस ली और ठंडी आवाज़ में बोली —
"हां, मगर तुम भी करती भी तो क्या? जो लड़का निकाह के वाले दिन ही गायब हो गया हो, वह नाचता कैसे?"
"कबीर तो होटल की डील के लिए बाहर गया था, वो उसी की बात कर रही थी।" —
फिर खुद ही अपनी बात पर मुस्कुरा दी —
"खैर, छोड़ो। देख मेरा अरहान आज शाम को कैसे नाचा! सबकी नज़रे उसी पर थी।"
वो इधर-उधर देखते हुए बोली —
"और मेरी बेटी ... कितनी सुंदर लग रही है ना आज? उसका जोड़ा और मेकअप देखो — शाहरुख तो बस उसी को देख रहा था!"
वो जानबूझकर अपनी तारीफ़ करते हुए सबको चिढ़ा रही थी। उसकी आवाज़ में गर्व और तंज दोनों साफ महसूस हो रहे थे।
फरीदा फुफी वहां से चली गई थी।
"हिना का दिल सचमुच अजीब सा हो गया था। कहकशां, मेहरून्निशा और हिना — इन तीनों लड़कियों की कल ही एक साथ शादी हुई थी। कहकशां और निशा अपने-अपने शहरों में खुश नज़र आ रही थीं। उन्हें अपने पतियों का भरपूर ध्यान और तवज्जो मिल रही थी। लेकिन कबीर... वह कहीं भी हिना के आसपास नहीं था।"
"हिना ने अपने अंदर ही एक ठंडी सांस भरी — ‘अच्छा ही है कि वह मुझसे दूर है। वैसे भी, मुझे क्या दिलचस्पी है उसमें।’"
हिना जानती थी कि वह दूसरों लड़कों जैसा नहीं हैं। वह शायद ही कभी उसे सबके सामने वह इज्जत देगा जो दूसरी लड़कियों को अपने शौहर से मिलती थी।
अगली सुबह सभी लोग अपने-अपने कामों में लगे हुए थे। चाहे वे पिछली रात कितनी भी देर से लौटे हों, लेकिन ब्रेकफास्ट की टेबल पर घर का नियम हमेशा की तरह लागू था—सभी को मौजूद होना था।
जैसे ही कबीर डाइनिंग टेबल पर आया, उसने सबको सलाम किया और फिर साबिहा और हवा की तरफ देखते हुए कहा,
"मुझे लगता है शादी अब खत्म हो चुकी है। अब तुम्हारे एग्ज़ाम्स आने वाले हैं, इसलिए पढ़ाई पर ध्यान देना चाहिए।"
"जी भाई, यह बात सही है," हवा बोली।
फिर उसने सईद मिर्जा में कहा, " कहकशां के भी एग्ज़ाम्स होने वाले हैं, चाचा जान, आप उससे भी बात कर लीजिए!"
इस इस पर सईद मिर्जा ने कहा
"अब उसकी शादी हो चुकी है। उसे आगे पढ़ाई जारी रखने की कोई जरूरत नहीं है।"
कबीर ने शांत स्वर में जवाब दिया,
"लेकिन चाचा जान, अपनी ग्रेजुएशन तो वह पूरी कर ही सकती हैऔर आजकल पढ़ाई की कितनी अहमियत है आप अच्छे से जानते हैं।।"
देखो कबीर अब उसकी शादी हो चुकी है
और मुझे नहीं लगता कि हमें उनकी लाइफ में दखल देना चाहिए---सईद मिर्जा ने कहा। दादा जाना और दादी जान ने भी उसकी बात से सहमत है कि सईद मिर्जा सही कह रहा है।
प्लीज मेरी सीरीज पर कमेंट करें साथ में रेटिंग भी दे आपको मेरी सीरीज कैसी लग रही है कमेंट में बताएं मुझे फॉलो करना और रिव्यू देना याद रखें
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एग्ज़ाम्स नज़दीक आ चुके थे, इसलिए हिना, हवा और साबिहा तीनों ही अपनी पढ़ाई में पूरी तरह डूब चुकी थीं। कबीर अब हमेशा सुबह जल्दी निकल जाता था। वह नाश्ते के समय भी शायद ही किसी से मिलता, और रात को काफी लेट आता।
उधर, शाहरुख और मेहरुन्निसा अपनी नई ज़िंदगी में खुश थे। दोनों हनीमून के लिए कश्मीर गए थे। पंद्रह दिन बाद जब वे लौटे, तो उनके चेहरे पर एक अलग ही चमक थी।
वहीं अहमर और कहकशा भी हनीमून पर विदेश गए हुए थे। जाने से पहले वे मिर्ज़ा फैमिली से मिलने आए थे। उनके साथ फरीदा फुफी भी थीं। उस ने बार-बार यह बात साबिहा और उसकी सलिमा बेग़म को बड़े फख्र से बताई कि कहकशा विदेश जा रही है — और अगर साबिहा की शादी अहमद से हुई होती, तो शायद वह भी विदेश जाती।
साबिहा ने इन सब बातों को अनदेखा कर दिया था। उसने किसी बात का जवाब नहीं दिया, और अपना ध्यान सिर्फ पढ़ाई में लगाए रखा।
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हिना का पिछला दिन कबीर से भी आमना-सामना नहीं हुआ था। न ही कबीर ने उसे कोई मैसेज भेजा। उस के एग्ज़ाम अच्छे चल रहे थे — सिर्फ एक पेपर और बचा था उसका।
तभी हवा उसके पास आई, जिसके एग्ज़ाम अब खत्म हो चुके थे।
"क्या बात है आपा, आप क्या सोच रही हैं?" हवा ने पूछा।
"कुछ नहीं हवा," हिना ने हल्की मुस्कान के साथ कहा, "बस सोच रही थी कि मेरे एग्ज़ाम भी जल्द ही खत्म हो जाएंगे, फिर आगे मास्टर्स में एडमिशन लेना है।"
"तो यह तो अच्छी बात है ना! आप पढ़ना चाहती हैं," हवा ने कहा।
"हां, वैसे मुझे भी अब एक बात करनी है," हवा ने धीमे स्वर में कहा।
"क्यों, क्या हुआ?" हिना ने चौंक कर पूछा।
"आपको तो पता है, फैक्ट्री का काम इन दिनों बहुत बढ़ गया है। अब्बा थोड़े परेशान रहते हैं," हवा ने धीमे स्वर में कहा।
"हां, ये बात तो मैं भी जानती हूं," हिना ने सहमति में सिर हिलाया। "बंटवारे के बाद जो ज़िम्मेदारियां पहले अब्बा नहीं निभाते थे, अब उन्हें वही भी देखनी पड़ रही हैं।"
"तो तुम क्या करना चाहती हो इसमें?" हिना ने आगे पूछा।
"मैं फैक्ट्री जॉइन करना चाहती हूं," हवा ने आत्मविश्वास से जवाब दिया।
हिना ने कुछ पल उसे देखा, फिर हल्के से मुस्कुराते हुए बोली, "सही बात है। तुम्हें अब्बा की मदद करनी चाहिए। वैसे भी, तुम्हें तो इन सब बातों में दिलचस्पी भी है।"
"हां आपा," हवा ने उत्साह से कहा, "मैं मैथ और इकोनॉमिक्स के साथ ग्रेजुएशन कर ही रही थी। और अब मुझे गाड़ी चलाना भी सीखना है।"
हवा की बातें सुनकर हिना मुस्कुरा उठी। "इतनी सारी बातें — इस घर में सब कुछ आसानी से हो सकेगा?" वह थोड़ा सोचते हुए बोली, "अब्बा तो मान भी जाएंगे, मगर तुम जानती हो, दादा जान और बाकी फैमिली..."
"मगर मैं सुबह बात करूंगी," हवा ने आत्मविश्वास से कहा, "अब मैं पीछे नहीं हटने वाली।"
हिना ने उसकी आंखों में दृढ़ता देखी और बस एक हल्की सी दुआ दिल में मांगी — काश इस बार हवा की उड़ान कोई न रोक पाए।
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मगर जो भी हो, हिना को यक़ीन नहीं था कि ये सब इतनी आसानी से हो जाएगा।
अगली सुबह सब लोग एक साथ ब्रेकफ़ास्ट टेबल पर मौजूद थे। पूरी फ़ैमिली के बिज़नेस का बंटवारा हो चुका था। हर किसी ने अपनी-अपनी जिम्मेदारियाँ संभाल ली थीं, लेकिन इसके बावजूद पूरा परिवार अब भी एक साथ ही रहता था। खाना भी एक ही किचन से बनता था और सब मिलकर खाते थे।
हवा ने पहले ही अपने अब्बा — वकार मिर्ज़ा — से बात कर ली थी कि वह अपने फ्री टाइम में फैक्ट्री जाना चाहती है, ताकि कुछ काम सीख सके और उनकी मदद कर सके। उनके अब्बा को इससे कोई आपत्ति नहीं थी, लेकिन हवा जानती थी कि बात सिर्फ अब्बा से नहीं बनेगी — इस घर में अगर कोई लड़की कुछ नया करना चाहती है, तो बाकी घरवालों की राय लेना ज़रूरी था। वैसे भी, लड़कियों को इस घर में ज़्यादा फैसले लेने की छूट नहीं थी।
ब्रेकफ़ास्ट के दौरान हवा ने अपने अब्बा और हिना की तरफ देखा। हिना की हल्की सी नज़र मिलते ही, हवा ने साहस जुटाया और अपने अब्बा — वक़ार साहब — की ओर मुख़ातिब हुई।
"अब्बा, मुझे सबसे एक बात करनी है," उसने धीरे से कहा।
वक़ार साहब ने सभी की ओर देखा और बोले, "बात तो मुझे भी करनी है।"
उसी वक़्त शाहरुख जो टेबल पर मौजूद था, बोला, "मैं भी कुछ कहना चाहता हूं।"
उसने मेहरुन्निसा की तरफ देखा और फिर दादा जान की ओर मुख़ातिब होकर बोला, "असल में, मैं फैक्ट्री स्टार्ट कर रहा हूं। उसका सेटअप शुरू होने वाला है, और फूफा जान — — मेरी उसमें मदद कर रहे हैं।"
"तो मैं कुछ दिनों के लिए मेहरुन्निसा के साथ उसके मायके, यानी ससुराल में रहने जा रहा हूं।"
यह सुनकर सबकी निगाहें उसकी तरफ मुड़ गईं।
"मगर तुम्हें वहां जाकर रहने की क्या ज़रूरत है? काम तो तुम यहीं से भी कर सकते हो," उसके अब्बा सईद मिर्ज़ा ने गंभीरता से पूछा।
"असल में, फूफा जान चाहते हैं कि हम कुछ वक्त वहां रहें। इससे मुझे उनके साथ काम समझने और तालमेल बैठाने में आसानी होगी।" शाहरुख ने शांति से जवाब दिया।
"बेटा, मगर वहां रहने की ज़रूरत क्यों?" दादा जान बोले।
"नाना जान, हम कौन-सा हमेशा के लिए वहां जा रहे हैं। बस कुछ हफ़्तों के लिए। और वैसे भी मेरा मन है," मेहरुन्निसा ने मुस्कराते हुए कहा।
दादा जान ने कुछ पल चुप रहकर सिर हिलाया और कहा, "मैं कुछ नहीं कहूंगा। जिसे जैसे अच्छा लगे।"
उनकी आवाज़ में छिपा असंतोष सबने महसूस किया, मगर उन्होंने खुद को संयमित ही रखा।
उधर, अहमद मिर्ज़ा — वकार से कहा, "अब बात तुम्हारी अधूरी रह गई , आप कुछ कह रहे थे।"
इसी दौरान, सबको सलाम करता हुआ कबीर भी आकर टेबल पर बैठ गया। बहुत दिनों बाद वह ब्रेकफ़ास्ट के वक़्त सबके बीच बैठा था। चेहरे पर हल्की थकान थी, मगर साथ ही एक सुकून भी — शायद इसलिए कि आज वह फैमिली के साथ कुछ वक्त बिता पा रहा था।
इसी दौरान, सबको सलाम करता हुआ कबीर भी आकर टेबल पर बैठ गया। बहुत दिनों बाद वह ब्रेकफ़ास्ट के वक़्त सबके बीच बैठा था। चेहरे पर हल्की थकान थी, मगर साथ ही एक सुकून भी — शायद इसलिए कि आज वह फैमिली के साथ कुछ वक्त बिता पा रहा था।
"आज तुम जल्दी नहीं गए?"
अहमद साहब ने पूछा।
"हां, आज थोड़ा आराम है अब्बा। सिकंदर पिछले हफ्ते दिल्ली गया हुआ था, तो सारा काम मेरे ऊपर आ गया था।"
कबीर ने धीरे से जवाब दिया, "कल वो लौट आया है। अभी होटल में ही रुका हुआ है, तो मैं थोड़ी देर से भी निकलूं तो चल जाता है।"
"होटल में? उसने कोई घर नहीं लिया यहाँ?"
दादा जान ने हैरानी से पूछा।
"असल में, वो एक पेंटहाउस देख रहा है। मगर अब तक कोई जगह पसंद नहीं आई, इसलिए होटल में ही रुक रहा है।"
कबीर ने शांति से समझाया।
सलीमा बेगम ने बीच में टोकते हुए कहा,
"वो तुम्हारे साथ काम करता है, तो हमारे यहाँ भी तो रुक सकता है। रोज़ होटल में रहना क्या ठीक है?"
"बात आपकी सही है अम्मी, मगर ये एक-दो दिन की बात नहीं है। और फिर घर में इतनी लड़कियाँ हैं… ऐसे में अगर वो हमारे यहाँ रहेगा तो हमें इन पर और पाबंदियाँ लगानी पड़ेंगी।"
कबीर ने साफ़ कहा।
उसकी बात पर हिना ने चुपचाप उसकी ओर देखा, जो अब तक अपने ब्रेकफास्ट में व्यस्त होने का नाटक कर रही थी।
"बिलकुल ठीक कह रहे हो।"
वकार मिर्जा ने समर्थन में सिर हिलाया।
"कम से कम हमारे घर की लड़कियाँ घर में तो खुलकर रह सकें… बाहर तो पहले से ही हज़ार पाबंदियाँ हैं।"
उनकी बात सुनकर दादा साहब और सईयद साहब दोनों चुप हो गए।
दोनों के विचार लगभग एक जैसे थे,
मगर अहमद मिर्जा साहब इन दिनों अपने बेटे की वजह से थोड़ा बदलते जा रहे थे।
"तुम कुछ कह रहे थे वकार, तुम्हारी बात बीच में रह गई थी,"
अहमद साहब ने फिर से पूछा।
वकार ने एक नज़र हवा पर डाली, फिर हल्की-सी ठंडी सांस लेकर बोले,
"असल में… हवा मेरे साथ काम करना चाहती है।"
एकदम से कमरे में सन्नाटा सा छा गया।
"मतलब?"
सईयद साहब बोले। उन्हें इस बात का सीधा अर्थ समझ नहीं आया था।
हवा और हिना ने एक-दूसरे की तरफ देखा।
किसी को उम्मीद नहीं थी कि कोई उनकी बात मानेगा।
साबिहा भी चुपचाप सबकी बातें सुन रही थी।
हवा की ओर देखकर, आयान ने इशारे से पूछा — ‘कया ?’
हवा ने हल्का-सा सिर हिला दिया।
तभी तैमूर और शाहरुख सहित घर के सभी लोग बाकर साहब की तरफ़ देखने लगे।
"तुम ऑफिस जॉइन करना चाहती हो?"
इस सब के बीच कबीर बोला। वह सब समझ चुका था।
"जी, भाई जान।"
हवा ने धीरे से कहा।
"मेरे कहने का मतलब यह है कि अगर किसी को कोई एतराज ना हो, तो हवा जब फ्री हो, तो फैक्ट्री और ऑफिस में मेरे साथ आ सकती है।"
वकार साहब ने फिर दोहराया।
शगुफ्ता बेगम ने अपने पति और बेटी की ओर देखा।
उन्हें अब भी यकीन नहीं था कि यह बात इतनी आसानी से मानी जाएगी।
इससे पहले कि कोई और कुछ कहता, कबीर फिर बीच में बोल पड़ा —
"सही बात है आपकी, चाचा।
अब हवा की छुट्टियाँ शुरू हो गई हैं, कॉलेज लगने में टाइम है।
थोड़ा-बहुत काम सीख लेगी तो क्या बुरा है?"
उसने जानबूझकर बात को समाज की तुलना से जोड़ा —
"दुनिया कहाँ से कहाँ पहुंच गई है।
लोगों की लड़कियाँ बिज़नेस संभाल रही हैं, चांद तक पहुंच गई हैं…
और हमारे यहाँ देखो — लड़कियाँ अकेले गाड़ी भी नहीं चला सकतीं।"
कबीर का अंदाज़ साफ़ था —
वह हवा का साथ देना चाहता था,
और चाहता था कि दादा जान इस बात को नकारें नहीं।
थोड़ा रुककर उसने फिर कहा,
"मगर याद रखना, तुम्हें ऑफिस आना-जाना सिर्फ़ अब्बा के साथ ही करना होगा।
समझी तुम?"
हवा ने धीमे से सिर हिलाया।
उसकी आँखों में हल्की-सी चमक थी —
जैसे पहली बार उसे किसी ने हौसला दिया हो।
जिस तरह से कबीर ने बात की थी, हिना के दिल को वह बात सबसे ज्यादा छू गई थी। शायद हवा को भी वह शब्द उतने गहरे नहीं लगे होंगे, जितने हिना को।
हिना की आंखें लगातार कबीर की ओर टिक गई थीं — बिना पलकें झपकाए, बिना किसी झिझक के। उसे होश ही नहीं था कि वह कहां बैठी है, या ये कि उसका इस तरह किसी को देखना—वो भी सबके सामने—लोगों को कैसा लगेगा।
तभी अचानक, हिना के मोबाइल पर एक मैसेज आया। हिना ने तो मैसेज देखा नहीं, लेकिन हवा, जो उसके बिल्कुल पास बैठी थी, उसकी स्क्रीन पर नज़र डाल चुकी थी।
उसने हल्के से अपनी कोहनी हिना की पसली में मारी।
हिना हल्के से चौंकी और उसकी ओर देखा। हवा ने मुस्कुराते हुए स्क्रीन की ओर इशारा कर दिया।
मैसेज में लिखा था:
> "क्या बात है बेगम साहिबा,
आज मैं कुछ ज़्यादा स्मार्ट लग रहा हूँ क्या?
जो आपकी नज़रें मुझसे हट ही नहीं रहीं... 😉"
ये मैसेज कबीर का था।
हिना के चेहरे पर शर्म की एक हल्की सी लहर दौड़ गई। उसने जल्दी से मोबाइल नीचे किया और कबीर की ओर देखा। कबीर पहले से उसकी ओर देख रहा था। उसकी मुस्कान में एक अपनापन था, एक शरारत थी... और शायद... कुछ एहसास भी।
हिना को समझ नहीं आ रहा था कि कैसे रिएक्ट करे। उसने झेंपकर चारों ओर देखा, फिर मुस्कुराकर नजरें फेर लीं।
शायद मोहब्बत की शुरुआत कुछ इसी तरह होती है — धीरे-धीरे, चुपचाप, किसी हल्की सी मुस्कान में छिपकर।
हिना के दिल में कुछ हुआ था… कुछ नया, कुछ अजीब, कुछ अनकहा।
उस रिश्ते को दुनिया ने पहले ही एक नाम दे दिया था।
मगर हिना का दिल अब जाकर धड़कना शुरू कर रहा था — कबीर के नाम पर।
और सबसे खास बात ये थी कि… हिना को अब खुद ये एहसास नहीं था कि वह कब कबीर के लिए सोचने लगी थी।
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शायद मोहब्बत की शुरुआत कुछ इसी तरह होती है — धीरे-धीरे, चुपचाप, किसी हल्की सी मुस्कान में छिपकर।
हिना के दिल में कुछ हुआ था… कुछ नया, कुछ अजीब, कुछ अनकहा।
उस रिश्ते को दुनिया ने पहले ही एक नाम दे दिया था।
मगर हिना का दिल अब जाकर धड़कना शुरू कर रहा था — कबीर के नाम पर।
और सबसे खास बात ये थी कि… हिना को अब खुद ये एहसास नहीं था कि वह कब कबीर के लिए सोचने लगी थी।
दादी जान (गुस्से में):
"मगर लड़कियाँ वहाँ मर्दों के बीच क्या करें? हमारे ज़माने में तो चादर पे चादर ओढ़कर बाहर निकलते थे। मजाल थी कि कोई चेहरा तो छोड़ो, हाथ-पैर भी देख ले! अब तुम लड़कियाँ पढ़ने-लिखने लगी हो, तो इसका मतलब ये तो नहीं कि जो मन में आए, वही करने लगो!"
(दादी जान के इतना कहने पर, सलीमा बेगम ने चुपचाप सफगुता बेगम की तरफ देखा।)
उन्हें पहले ही अंदेशा था कि हवा को ऑफिस भेजने के मामले में दादी जान का विरोध तय है। उन्हें यह उम्मीद नहीं थी कि घर में कोई हवा के समर्थन में खड़ा होगा।
"दादी जान, ये बातें तो आपको उस समय सोचनी चाहिए थीं जब आप बंटवारे की बात कर रही थीं। तब तो आपने सबको अपने हिस्से बाँट लेने के लिए कह दिया था।"(कबीर बीच में बोल पड़ा)
"अब जब बंटवारा हो ही गया है, तो चाचा जान का बिजनेस उनकी बेटी ही देखेगी न! अगर बंटवारा नहीं हुआ होता, तो ज़रूरत ही नहीं पड़ती हवा के ऑफिस जाने की।"
(सैयद साहब ने नाराज़गी से कबीर की तरफ देखा)
"इस बात का बंटवारे से क्या मतलब है, कबीर? बात सीधी है — यह कोई मर्द-औरत का मामला नहीं, जिम्मेदारी का है।"
कबीर (शांत स्वर में):
"मैं बस इतना कह रहा हूं कि अब चाचा जान के हिस्से की जिम्मेदारी उनकी बेटी पर है। और अगर हवा इस काबिल है कि वो फैक्ट्री का काम संभाल सके, तो उसे ज़रूर करना चाहिए।
"देखिए, आप लोग जो भी फैसला करें, मैं उसमें टाँग नहीं अड़ाऊंगा। लेकिन मैं इस बात से सहमत हूं — हवा को फैक्ट्री ज्वाइन करनी चाहिए। आखिर अपने अब्बा की मदद करना औलाद का फर्ज होता है। अगर बेटा होता तो वही संभालता, अब बेटी है तो वही देखेगी।"
(इतने में शाहरुख बीच में बोल पड़ा, थोड़ा तंज भरे लहजे में)
"अगर ऐसी ही बात है, तो तुम क्यों नहीं संभालते कबीर? कल को आधा हिस्सा तुम्हें भी तो मिलेगा।"
(शाहरुख की बात पर हिना ने हैरानी से उसकी तरफ देखा। किसी बड़े ने अगर ये कहा होता, तो समझ आता, मगर शाहरुख का ऐसा बोलना अप्रत्याशित था।)
(कबीर मुस्कुराया, मगर उसका लहजा गंभीर था)
"जब मुझे हिस्सा मिलेगा, तब की तब देखी जाएगी। अभी तो वह मेरी जिम्मेदारी नहीं है। और वैसे भी मेरा खुद का काम इतना है कि मैं उसमें ही उलझा हूं।"
(थोड़ी देर रुका, फिर आगे बोला)
"मुझे लगता है कि अगर हवा इस काबिल है, तो उसे ज़रूर जिम्मेदारी उठानी चाहिए। वैसे भी हम सब अपनी-अपनी मर्ज़ी से फैसले ले रहे हैं। मैं होटल का काम करना चाहता था, तो कर रहा हूं। शाहरुख ने फैक्ट्री लगाई, वो उसकी मर्ज़ी थी। दादा जान ने सबका बंटवारा किया, वो उनकी मर्ज़ी थी। अब चाचा जान की बेटी अगर उनका बिजनेस देखना चाहती है, तो ये उसकी मर्ज़ी है।"
(कबीर ने हवा की तरफ देखा और नर्मी से कहा)
"हवा, मैं तुम्हारे साथ हूं। अगर कभी किसी किस्म की मदद की ज़रूरत हो, तो बेहिचक मुझे फोन करना।"
(इतना कहकर वह खड़ा हुआ और बाहर अपनी थार की तरफ चला गया।)
(कबीर जा चुका था, लेकिन घर के बाकी लोग अब भी वहीं बैठे थे। कमरे में एक बोझिल-सी चुप्पी थी। हवा चुपचाप खड़ी थी। तभी किसी ने कहा:)
सगुफता बेगम (दृढ़ स्वर में):
"हवा अकेले नहीं जाएगी। वह अपने अब्बा के साथ ही ऑफिस जाएगी और वहीं उनके साथ बैठकर काम सीखेगी।"(इतने में हिना की अम्मी, यानी अमित गुप्ता बेगम ने धीरे से कहा:)
"बस... थोड़ी दिलचस्पी है इसे फैक्ट्री के काम में, इसी वजह से जाना चाहती है।"
(दादी जान ने तुनककर जवाब दिया):
"भाई, जो जिसका मन है, वो करे। मैं कौन होती हूँ कुछ कहने वाली?"
(फिर उन्होंने गुस्से में अपनी छड़ी उठाई, और धीमे कदमों से अपने कमरे की ओर चली गईं। उनकी चाल में सख्ती और नाराज़गी दोनों थी। शायद वे चुप रहकर ही अपने विरोध को जताना चाहती थीं।)
(तभी मेहरुन्निसा ने भी अपनी बात रखी):
"वैसे जब घर में इतने लोग हैं काम सँभालने के लिए, तो हवा तुम्हें काम करने की क्या ज़रूरत है?"
(उसकी बात खत्म भी नहीं हुई थी कि शाहरुख ने फिर बोलना शुरू किया):
"मैं भी तो यही कह रहा हूं। अब औरतें मर्दों के बीच काम करेंगी, ये बात जमती नहीं। यह कोई अच्छी परंपरा नहीं है।"
(हिना हैरानी से शाहरुख की तरफ देखने लगी। यह वही इंसान था जिसे वह इस घर में सबसे ज़्यादा समझदार और आधुनिक सोच वाला मानती थी। वह सोचती थी कि शाहरुख आज के ज़माने को समझता है, लेकिन उसकी बातों से ऐसा बिलकुल नहीं लगा।)
(शाहरुख ने उसकी आगे कहा):
"वैसे मुझे ज़्यादा फर्क नहीं पड़ता। मैं तो कुछ दिनों के लिए अपनी सुसराल जा रहा हूं, थोड़ा माहौल बदलने के लिए।"
(कबीर के जाने के बाद माहौल थोड़ा बदला। तभी आयान ने मुस्कुराते हुए कहा:)
"मुझे भी लगता है कि हवा को ऑफिस जॉइन करना चाहिए। आजकल के ज़माने में यह लड़के-लड़कियों की बातें अब जमती नहीं हैं।"(उसने मुस्कुराकर हिना की तरफ देखा और फिर कहा)
"बात तो बिल्कुल सही है। तुम्हें जाना चाहिए।"
(तैमूर की बात पर बाकी लोग भी धीरे-धीरे खुलने लगे।)
(अहमद मिर्जा ने कहा):
"अगर बच्चे चाहते हैं तो ले जाया करो हवा को अपने साथ।"
(क्योंकि उनके दोनों बेटे इस बात से सहमत थे कि हवा को ऑफिस जाना चाहिए, इसलिए उन्होंने भी हामी भर देना बेहतर समझा।)
(शाहरुख और सैयद साहब हालांकि इस निर्णय के पक्ष में नहीं थे, मगर वे चुप रहे।)
(क्योंकि अब स्थिति ऐसी बन चुकी थी कि विरोध करना बेकार होता।)
(दादा जान को भी यह एहसास हो रहा था कि उन्होंने फरीदा के कहने पर बंटवारे का निर्णय कुछ जल्दबाज़ी में ले लिया था।)
(इसलिए अब उनके पास हवा को रोकने का कोई ठोस अधिकार नहीं बचा था।)
(थोड़ी देर सोचने के बाद उन्होंने गंभीर स्वर में कहा):
"ठीक है, जाया करो। मगर अपने अब्बा के साथ ही। और याद रखना — मर्दों का काम आसान नहीं होता। थोड़े ही दिनों में तुम्हारा मन भर जाएगा।"
(दादा जान की ये अनुमति हवा के लिए किसी बड़ी जीत से कम नहीं थी। उसकी आँखों में चमक आ गई और चेहरे पर मुस्कान फैल गई। वह तुरंत बोली):
"शुक्रिया अब्बा!"
(वकार साहब ने भी सिर हिलाकर अपनी सहमति जताई।)
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