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प्रेममय

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Ravina Sastiya

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Description

यह कहानी है दो दिलों की—एक,जो भक्ति में डूबा है, और दूसरा,जो प्रेम में बंधा है।एक का संसार उसके आराध्य के इर्द-गिर्द घूमता है,जबकि दूसरे के लिए वही संसार उसकी सांसों का कारण बन चुका है।यह कहानी एक ऐसे सफर की है, जहाँ भक्ति और प्रेम एक-दूसरे से टकराते...

Characters

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वासु

Hero

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अनन्या

Advisor

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किशोरी

Heroine

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पार्थ

Side Hero

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सुभिका

Healer

Total Chapters (101)

Page 1 of 6

  • 1. प्रेममय - Chapter 1

    Words: 4809

    Estimated Reading Time: 29 min

    किशोरी शर्मा, हल्के भगवा रंग की साड़ी पहने हुए, मंदिर के प्रांगण में बैठी थी। उसके हाथ में एक खूबसूरत सा मोर पंख था, जिसे वह बार-बार अपनी उंगलियों में घुमा रही थी, मानो उस मोरपंख में ही उसकी सारी दुनिया बसी हो। उसने मोरपंख को धीरे-धीरे अपनी उंगलियों से सहलाया, जैसे वह कृष्ण को स्पर्श कर रही हो। किशोरी के होठों पर एक मनमोहक मुस्कान थी।

    किशोरी के आस-पास कुछ वृद्धजन बैठे थे, जिन्हें किशोरी बड़े ही प्रेम से कृष्ण की लीलाओं के बारे में बता रही थी।

    तभी मंदिर में एक लड़का अंदर आया। उसकी निगाहें सीधा किशोरी पर टिक गईं।

    यह वासु था, वासु त्रिवेदी, जो किशोरी से प्रेम करता था। वासु ने एक सफेद रंग की शर्ट और नीले रंग की जींस पहनी हुई थी। उसके घुंघराले बाल माथे पर बिखरे हुए थे। और होठों पर एक प्यारी सी मुस्कान थी, जो किशोरी को देखते ही और ज्यादा गहरी हो गई।

    अगर कोई वासु की आँखों में झाँकता, तो उसे वहाँ सिर्फ एक ही चेहरा दिखाई देता—किशोरी का। जैसे वह हमेशा से उसकी आँखों का हिस्सा हो, जैसे हर पल उसकी आँखों में ही बसी हो। उसकी आँखें इतनी गहरी थीं कि अगर कोई उन्हें देख लेता, तो उसे ऐसा लगता कि वह एक नीले समुंदर में तैर रहा है, और समुंदर में सिर्फ एक नाव चल रही है—वह नाव किशोरी के ख्यालों की थी। अगर वासु को देखना हो तो समझिए जैसे एक चाँद हो, जो पूरे आसमान में अपनी रौशनी बिखेरता हो, लेकिन उसकी रौशनी सिर्फ एक ही दिशा में हो—किशोरी की ओर।

    वासु ने अपने मन में कहा,
    "किशोरी, तू भक्ति में बावरी है, तो मैं तुममें ही बावरा।
    तू पूजा करे कन्हैया की,
    लेकिन!
    मेरे लिए तो तू ही मेरा कन्हैया है।
    तू जो हर सुबह कन्हैया नाम लेती है,
    मैं तो हर रात तेरी यादों में खो जाता हूँ।
    तू कन्हैया भक्ति में शांत रहती है,
    लेकिन!
    मेरे दिल में तू ही एक तूफ़ान बन जाती है।"

    वासु ने एक नज़र किशोरी के आस-पास बैठी वृद्धों को देखा, जो उसे बड़े ध्यान से सुन रहे थे।

    वासु एक स्तंभ से टिक कर खड़ा हो गया और बड़े ही प्रेम से किशोरी को निहारने लगा।

    थोड़ी देर बाद, जब वे वृद्धा लोग वहाँ से चले गए, तो वासु किशोरी के पास जाने लगा। हर एक कदम पर वासु का दिल तेजी से धड़क रहा था।

    वासु ने सीधा किशोरी की आँखों में देखा। एक पल के लिए ऐसा लगा जैसे समय ठहर सा गया हो। न जाने क्या था वासु की इन आँखों में, कि किशोरी चाहकर भी अपनी नज़रें नहीं हटा पाती थी।

    किशोरी के पास जाकर वासु ने कहा, "राधे-राधे किशोरी।"

    वासु को देखकर किशोरी मुस्कुरा दी और कहा, "राधे-राधे वासु।"

    वासु अचानक से ही किशोरी के पैरों की ओर झुका और झुककर उसके पैर छू लिए।

    किशोरी झट से एक कदम पीछे हट गई और बोली, "ये तुम क्या कर रहे हो वासु? पुरुष स्त्रियों के पैर नहीं छूते! तुम मुझे पाप की भागीदारी बना रहे हो वासु।"

    किशोरी की इस मूर्खतापूर्ण बातों पर वासु हल्का सा मुस्कुरा दिया।

    वासु ने उत्तर दिया, "कौन सा पाप? कैसा पाप किशोरी? मैं तो बस अपने भगवान के चरण स्पर्श कर रहा था। क्या भगवान के चरण स्पर्श करने से भी पाप लगता है क्या?"

    किशोरी ने कहा, "वासु! भगवान की मूर्ति वहाँ है, उस ओर...और तुम यहाँ मेरे पैर स्पर्श कर रहे हो।"

    वासु फिर हल्का सा मुस्कुरा दिया, "पर मेरा भगवान तो तुम ही हो ना।"

    किशोरी की आँखें बड़ी हो गईं। उसे कुछ समझ में नहीं आया कि वासु की इस बात का क्या उत्तर दे। किशोरी की आँखें आश्चर्य से बड़ी हो गईं। वह न तो हँस सकी और न ही कुछ बोल सकी।

    थोड़ी देर की चुप्पी के बाद किशोरी ने धीरे से कहा, "वासु, तुम्हारी बातें सुनकर ऐसा लगता है जैसे तुम मेरी पूजा कर रहे हो, लेकिन मैं तो एक साधारण मानव हूँ। भगवान कहीं और हैं, और उनकी पूजा अलग तरीके से की जाती है।"

    वासु ने नर्म स्वर में उत्तर दिया, "किशोरी, भगवान की पूजा केवल मूर्तियों तक सीमित नहीं होती। वे हमारे मन और भावनाओं में भी होते हैं। और जब मैं तुम्हारे पास आता हूँ, तो मुझे ऐसा लगता है कि तुम ही मेरी भक्ति का केंद्र हो।"

    किशोरी एक बार फिर असमंजस में पड़ गई।

    "राधे-राधे! अब मैं चलता हूँ, नहीं तो आज फिर से मम्मी से डाँट पड़ेगी।" इतना कहकर वासु मुस्कुराते हुए जाने लगा और किशोरी उसे देखती ही रह गई।

    किशोरी ने वासु को जाते हुए देखा और उसकी आँखों में कुछ असमंजस था। फिर उसने राधा-कृष्ण की मूर्ति की ओर मुड़कर कहा, "प्रभु, क्या यही है प्रेम का सच्चा स्वरूप? क्या प्रेम की परिभाषा इसी तरह की जाती है, कि एक मानव दूसरे को भगवान मान ले?"

    वह थोड़ी देर के लिए चुप रही, और फिर धीरे से बोली, "मुझे समझ में नहीं आ रहा कि मैं वासु की भावनाओं को कैसे समझूँ। क्या यह सच्चा प्रेम है, या बस एक भावुकता की लहर? मेरे मन में उलझन है, प्रभु।"

    फिर उसने धीरे-धीरे अपनी आँखें बंद कीं और मन ही मन प्रार्थना करने लगी। मंदिर का वातावरण शांत और दिव्य था। किशोरी के दिल में एक गहरा सुकून था, पर उसकी सोच अभी भी वासु की बातों में उलझी हुई थी।

    किशोरी ने भगवान की मूर्ति को देखकर कहा:

    कान्हा, तू तो प्रेम की मूरत है, तू ही बता, इस उलझन को मैं कैसे सुलझाऊँ, क्या रास्ता पकड़ूँ? वासु का प्रेम सच्चा है, ये भी अब मुझे समझ आता है, पर तेरी भक्ति से अलग हो पाऊँ, ऐसा भी नहीं लगता है।

    श्री राधा रानी, तू ही कुछ मार्ग दिखा, प्रेम की इस उलझन को कैसे सुलझाऊँ, ये समझा। तू तो प्रेम की देवी है, प्रेम की सच्ची परिभाषा, तेरे बिना, प्रेम का ये बंधन मैं कैसे जानूँ, कैसे समझूँ?

    वासु का प्रेम सच्चा और निर्मल है, वो कहता है कि मैं ही उसकी कृष्ण, मैं ही उसकी लीला। पर मैं तो केवल तुझमें ही बसी हूँ, तुझसे अलग होकर कैसे कोई और प्रेमी स्वीकार कर पाऊँ?

    हे कृष्ण कन्हैया मुझे इस उलझन से सुलझन का मार्ग दो प्रभु।

    किशोरी हाथ जोड़कर प्रभु के सामने आँखें बंद करके खड़ी थी। थोड़ी देर बाद उसने अपनी आँखें खोलीं और निरंतर प्रभु को देखती रही....उसकी आँखों से आँसू बहने लगे।


    किशोरी ने ध्यान लगाया, और उसने अपनी आत्मा में गहराई से उतरने की कोशिश की। उसे अपने मन में एक अंतर्द्वंद्व का अनुभव हो रहा था। क्या वह अपनी भावनाओं को वासु के प्रति प्रकट कर सकती थी? क्या यह सही होगा? क्या उसका प्रेम उसकी भक्ति को प्रभावित करेगा? उसकी सोच में ये सवाल गूंजते रहे।

    “हे कन्हैया,” उसने मन ही मन कहा, “क्या मैं अपनी भक्ति को छोड़कर वासु के प्रेम को स्वीकार कर लूँ? क्या प्रेम और भक्ति एक ही हो सकते हैं, या दोनों के बीच कोई दीवार खड़ी है?”

    उसने एक गहरी साँस ली और अपने मन की शांति को वापस पाने का प्रयास किया। वह जानती थी कि भक्ति एक गहरा और पवित्र बंधन है, जो केवल उसके और कृष्ण के बीच है। वह अपने हर प्रार्थना में कृष्ण से यही मांगती थी—उनकी कृपा, उनके आशीर्वाद, और उनके सानिध्य में रहने का सौभाग्य।

    लेकिन अब, वासु के प्यार के साथ उसकी भक्ति के बीच की यह दीवार उसे परेशान कर रही थी। उसने कृष्ण की मूर्ति को ध्यान से देखा, जैसे वह उससे जवाब मांग रही हो। “प्रभु, मैं चाहती हूँ कि तुम मुझे इस उलझन से बाहर निकालो। मैं नहीं चाहती कि वासु का प्रेम मेरी भक्ति को प्रभावित करे। मुझे बताओ, क्या मैं दोनों को संतुलित कर सकती हूँ?”

    किशोरी ने अपनी आँखें बंद कीं और एक गहरी साँस ली। मंदिर की शांति में उसके मन की उथल-पुथल और भी तेज हो गई। वह सोच रही थी, "नहीं, मैं अपने भक्ति के मार्ग से नहीं भटकूंगी। प्रेम मेरी भक्ति को कम कर देगा।" यह विचार ही उसे डराता था।

    वासु जब वापस मंदिर में आया तो किशोरी के शब्द सुनकर वहीं रुक गया था...वासु की आँखों से आँसुओं की बाढ़ बह पड़ी थी और वह बिना कुछ कहे मंदिर से बाहर निकल पड़ा।

    वासु ने हल्के से कहा:

    तू जो दीवानी है श्याम भक्ति में,
    हम तो तेरे ही प्रेम में बावरे हो गए हैं,
    तू गंगा के जैसे निर्मल और पवित्र है,
    तो हम तुझमें मिलकर जैसे यमुना बह चले हैं।
    तू श्याम के रंग में रँगी हुई,
    हम तो तेरे मन के कोरे कागज हो गए।
    तू श्याम की मुरली की मीठी तान,
    हम तेरी धुन पे जैसे बावरे हो गए।
    तू जिसे श्याम का प्यार मिला,
    हम तो बस तेरा दीदार करने को तरसते रहे,
    तू हर रोज़ मंदिर में रंग भरती रही,
    और हम तेरे पीछे धूप-से जलते रहे।
    तू श्याम की भक्तिन, वो तेरा प्रिय,
    हम तो बस नाम भर के प्रेमी हो गए,
    तेरे हर आँसू में उसका ही अक्स दिखा,
    हम तो तेरी मुस्कान के भी तरस गए।
    तू जो आरती में दीप जलाए,
    हम वो बुझी बाती बनकर रह गए,
    तू जिसे मिला मोहन का साथ,
    हम तो अधूरे ख्वाबों में उलझे रह गए।
    तू भक्ति के चरम पर पहुँची,
    और हम तुझमें ही प्रेम का मंदिर बना गए।


    वासु के लिए किशोरी ही उसकी दुनिया थी। उसके मन में किशोरी के प्रति एक ऐसा प्रेम था जो उसे अपने हर काम में, हर सोच में, हर कदम में प्रेरित करता था। किशोरी की भक्ति उसके लिए एक प्रेरणा थी, लेकिन वह इस भक्ति को समझते हुए भी उसे केवल एक भक्ति की सीमा में नहीं देख सकता था। वासु के लिए किशोरी सिर्फ एक भक्त नहीं, बल्कि एक अद्वितीय प्रेम थी, जिसे उसने अपने दिल में भगवान का स्थान दिया था। वासु ने किशोरी को हमेशा ही उसकी भक्ति में खोया हुआ देखा था, लेकिन उसके लिए यह भी सच्चाई थी कि उसका प्रेम ही उसकी भक्ति का रूप ले चुका था।

    "किशोरी, तुम कृष्ण को पूजती हो, उन्हें अपना सब कुछ मानती हो, लेकिन मेरे लिए तुम ही मेरी कृष्ण हो। तुम्हारी भक्ति में जो शक्ति है, वह मुझे हमेशा तुम्हारी ओर खींचती है। तुम इस बात को नहीं समझ सकती कि मैं तुम्हें देखता हूँ तो मुझे लगता है, मैं खुद किसी भक्त के समान तुम्हारे सामने नतमस्तक हूँ। तुम मेरी पूजा हो, मेरी आस्था हो। जैसे तुम कृष्ण को पाती हो, वैसे ही मैं तुम्हारे प्रेम में खुद को पाता हूँ।"

    आगे क्या होगा जानने के लिए अगले भाग का इंतज़ार करते रहिए साथ ही समीक्षा भी करते रहिए।

  • 2. प्रेममय - Chapter 2

    Words: 2590

    Estimated Reading Time: 16 min

    वासु की आँखों से बहते आँसू उसके दिल की गहराइयों की दास्तान थे। बिना एक शब्द बोले, वह मंदिर से बाहर निकल आया और धीरे-धीरे चलने लगा। वासु के मन में किशोरी के शब्दों की गूंज थी, और उसकी आँखों से आँसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे। वह अब एक बगीचे में पहुँचा।

    "किशोरी, क्या मैं तुम्हारे प्रेम के लिए इतना महान नहीं हो सकता? क्या मेरी भावनाएँ केवल एक भावुकता की लहर हैं?"

    वासु ने ऊपर आसमान में देखा और कहा, "हे राधा रानी, तू तो प्रेम की मूरत है, तू ही प्रेम की परिभाषा है। तूने विरह की अग्नि में भी प्रेम का अमृत बरसाया है। पर किशोरी, वो क्यों नहीं समझती मेरे प्रेम को? हाँ, क्यों? मैंने तो उसकी पूजा में अपना जीवन समर्पित कर दिया, फिर भी वो मेरे इस सच्चे प्रेम को क्यों नहीं पहचानती?

    तूने तो कन्हैया के बिना भी प्रेम को अमर कर दिया, विरह में भी उसके प्रेम की सुगंध से ब्रज को महका दिया। पर किशोरी, वो क्यों नहीं समझती कि मेरे लिए, वो ही मेरी राधा, वो ही मेरी कन्हैया है?

    हे राधा रानी, तूने तो अपने प्रेम से सारा जगत जीत लिया, फिर मेरी किशोरी क्यों नहीं देखती मेरे हृदय का प्रेम? क्यों वो अपने कान्हा से ही बंधी रहती है? क्यों नहीं वो मेरे प्रेम के मर्म को समझ पाती?

    मैंने उसके लिए अपने प्रेम को कृष्ण माना, पर उसके हृदय में बस वही बसा हुआ है, उसका कान्हा। तू ही बता, राधा रानी, मैं अपनी भावनाओं को कैसे व्यक्त करूँ? कैसे उसे समझाऊँ कि मेरा प्रेम भी सच्चा और अमर है?

    हे राधा रानी, तूने भी तो कन्हैया के बिना प्रेम को अपनाया था, फिर मेरी किशोरी को क्यों नहीं दिखता, मेरे प्रेम का ये अद्भुत रूप, ये निश्छल समर्पण? अब तू ही कुछ कर, उसे मेरी ओर एक बार देखना सिखा।

    वासु की पीड़ा अनकही और अनसुनी रह गई। उसका प्रेम उसकी आँखों में, उसकी हर साँस में बसता था। पर किशोरी की भक्ति के आगे, वो खुद को छोटा पाता था, और सोचता था, क्या उसका प्रेम कभी उसके दिल तक पहुँच पाएगा?

    वासु बगीचे में बैठकर अपनी पीड़ा और भावनाओं को संयमित करने का प्रयास कर रहा था। धीरे-धीरे उसकी आँखें शांत हुईं और उसके आँसू सूख गए थे, हालाँकि उसकी आँखें अभी भी लाल थीं। उसने गहरी साँस ली और अपने आप को संयमित करने के लिए ध्यान केंद्रित किया। उसने अपनी आँखें बंद कर लीं। जैसे ही उसने अपनी आँखें बंद कीं, उसके सामने वही किशोरी का चेहरा आ गया, भक्ति में लीन किशोरी। ना चाहते हुए भी वासु मुस्कुरा दिया।

    तभी वासु को एक जानी-पहचानी आवाज़ सुनाई दी।

    "अरे ओ वासु! तुझे तेरी मम्मी ढूंढ रही है।" ये आवाज़ पार्थ की थी। पार्थ वासु का इकलौता दोस्त था जो वासु को समझता था, उसके प्रेम को समझता था।

    पार्थ ने जब वासु की लाल आँखें देखीं तो वो दौड़कर वासु के पास आ गया और बोला, "तू फिर किशोरी को याद कर रहा है, है ना?" पार्थ ने हांफते हुए वासु के पास आकर कहा। उसकी लाल आँखें देखकर पार्थ को समझने में देर नहीं लगी कि वासु फिर से उसी दर्द में डूबा हुआ है।

    "कितनी बार समझाया, वासु! वो तेरे लिए नहीं बनी है। उसकी दुनिया अलग है, उसकी भक्ति अलग है।"

    वासु ने गहरी साँस लेते हुए अपनी निगाहें ज़मीन पर टिका लीं। उसकी आवाज़ धीमी और थकी हुई थी, "पार्थ, मैं उससे दूर भागने की कोशिश करता हूँ, पर उसकी भक्ति... उसकी श्रद्धा मुझे हमेशा खींच लाती है। वो सिर्फ़ कृष्ण की है, और मैं यह समझता हूँ, लेकिन फिर भी... मेरे दिल का क्या करूँ? ये जो भावनाएँ हैं, इन्हें कैसे रोकूँ? उसने मेरी आत्मा को छू लिया है।"

    पार्थ ने वासु के कंधे पर हाथ रखा, "यार, समझने की कोशिश कर... किशोरी के लिए कृष्ण सिर्फ़ भगवान नहीं, उसके जीवन का केंद्र हैं। तुझे उससे प्रेम हुआ है, लेकिन उसने तो अपने आप को पहले ही किसी और को समर्पित कर दिया है। तू उसके जीवन में कहाँ फिट होगा?"

    वासु ने एक थकी हुई हँसी दी, "यही तो सवाल है, पार्थ। शायद कहीं भी नहीं। पर क्या मैं उसके बिना जी सकता हूँ? उसकी भक्ति, उसका समर्पण—ये सब मुझे किसी अनजानी दुनिया में ले जाते हैं। मैं उसे कैसे भूल सकता हूँ?"

    पार्थ ने उसकी तरफ़ गहरी नज़र डाली और फिर थोड़ी सख्ती से बोला, "वासु, तुझे खुद को संभालना होगा। देख, मैं ये नहीं कह रहा कि तेरा प्यार झूठा है। पर किसी ऐसे इंसान से प्रेम करना, जो तुझे उस नज़र से कभी देख ही नहीं सकता, ये खुद से अन्याय नहीं तो और क्या है?"

    वासु की आँखों में एक बार फिर से आँसू आ गए। उसकी आवाज़ कांपने लगी, "तुम नहीं समझते, पार्थ। वो सिर्फ़ एक लड़की नहीं है। उसकी भक्ति ने मुझे भी कृष्ण के करीब ला दिया है। मैं उससे दूर नहीं जा सकता, जैसे राधा कृष्ण से दूर नहीं जा सकती थीं, वैसे ही मैं किशोरी से दूर नहीं जा सकता।"

    पार्थ ने गहरी साँस ली और थोड़ा शांत होकर बोला, "यार, ये प्रेम और भक्ति की बातें बड़ी जटिल होती हैं। मगर तू खुद को ही तोड़ रहा है। देख, कभी-कभी हमें अपने दिल की बातें खुद से ही समझनी पड़ती हैं। शायद तूने किशोरी के रूप में वो पा लिया, जिसकी तुझे ज़रूरत थी—एक प्रेरणा, एक समर्पण, लेकिन शायद उसे किसी रिश्ते का नाम देना सही नहीं है।"

    वासु ने सिर हिलाया, जैसे वह खुद इस बात से जूझ रहा हो। उसने धीरे-धीरे कहा, "शायद तुम सही हो, पर क्या प्रेम को कोई नाम देना ज़रूरी होता है? क्या मैं उसे बस उसकी भक्ति के रूप में प्यार नहीं कर सकता?"

    पार्थ: "और वो? उसने कभी तुझे उस नज़र से देखा है? नहीं वासु, उसे सिर्फ उसका कान्हा दिखता है। तेरा ये प्यार एकतरफा है, और तू खुद को इस पीड़ा में झोंक रहा है।"

    वासु ने आँखें नीचे कर लीं, उसकी भरी हुई साँसें धीमी हो गईं। "पार्थ, मैं जानता हूँ कि किशोरी के लिए उसके कान्हा ही सब कुछ हैं। लेकिन मेरे दिल का क्या? क्या मैं अपनी भावनाओं को नकार सकता हूँ? मैं उसे कैसे भूल जाऊँ?"

    पार्थ ने वासु के कंधे पर हाथ रखा, "भूलना आसान नहीं है, मैं मानता हूँ। पर तूने खुद देखा है न, हर बार जब तू उससे मिलता है, वो तुझे हमेशा भक्त की तरह ही देखती है, प्रेमी की तरह नहीं। क्या तू अपने दिल को और जख्म देना चाहता है?"

    वासु की आँखों में दर्द साफ झलक रहा था। "पार्थ, वो मेरी पूजा का केंद्र है। मैं उसे नहीं देखता सिर्फ एक इंसान के रूप में, वो मेरे लिए मेरी भक्ति की मूरत है। अगर उसकी भक्ति कान्हा के लिए है, तो मेरा प्रेम उसके लिए उतना ही पवित्र है।"

    पार्थ ने गहरी साँस ली और फिर धीरे से कहा, "वासु, तुझे अपनी भावनाओं का सम्मान करना चाहिए, लेकिन एकतरफा प्रेम तुझे सिर्फ और सिर्फ दर्द ही देगा। तुझे आगे बढ़ना होगा, या फिर इस पीड़ा में डूबते रहना होगा।"

    वासु ने धीरे-धीरे सिर हिलाया, लेकिन उसकी आँखों में अभी भी किशोरी की छवि थी। उसने कहा, "मुझे नहीं पता पार्थ, मुझे नहीं पता कि मैं कैसे उसे भूल सकता हूँ। उसका हर शब्द, उसकी हर मुस्कान मेरे दिल में बसी हुई है। एक पल के लिए भी उसे खो देने का डर मुझे चुभता है।"

    पार्थ ने एक पल चुप रहकर वासु को देखा, फिर गंभीरता से कहा, "नहीं, वासु। पर मैं तुझे इस दर्द में नहीं देख सकता। तू अपने आप को इस तरह खत्म कर रहा है।"

    पार्थ का स्वभाव वासु के विपरीत चुलबुला और मस्तमौला था। वह हर बात में मजाक ढूंढ लेता और माहौल को हल्का-फुल्का बना देता। जब भी वासु अपने गहरे दर्द में डूबा होता, पार्थ अपनी शरारतों से उसकी तंद्रा तोड़ने की कोशिश करता। उसकी बातें तीर की तरह सटीक और मजाकिया होतीं, लेकिन उनमें एक गहरी समझ भी छिपी रहती।

    "ओ वासु महाराज, एक सलाह दूँ?" पार्थ ने वासु के सिर पर हल्के से चपत मारते हुए कहा।
    वासु ने उसे घूरा, "क्या है, पार्थ?"

    "अरे सुन, ये रोना-धोना तू बाद में करना, पहले मेरी एक सलाह सुन। एक महान प्रेम कथा लिखने की सलाह—'वासु और किशोरी: एकतरफा प्रेम की अनोखी दास्तान'। ये बेस्टसेलर बनेगी, यार!" पार्थ ने नकली गंभीरता से कहा और फिर खुद ही ठहाका मारकर हँसने लगा।

    वासु ने थकी हुई आवाज़ में कहा, "पार्थ, ये मजाक का वक्त नहीं है।"

    "अरे, मैं कौन सा तेरा भगवान कृष्ण के मंदिर का पुजारी बनने का मौका छीन रहा हूँ? बस ये समझने की कोशिश कर रहा हूँ कि तू अपने दिल के दर्द को इतना बड़ा ड्रामा क्यों बना रहा है।"

    वासु ने खीझते हुए कहा, "पार्थ, मेरी भावनाएँ कोई ड्रामा नहीं हैं।"

    "हाँ, हाँ, तेरी भावनाएँ ड्रामा नहीं हैं, वो तो रामलीला है। बस राम का नाम हटाकर किशोरी डाल दो।" पार्थ ने फिर से मजाक उड़ाते हुए वासु की गर्दन में हाथ डाल दिया।

    वासु हल्की मुस्कान रोकने की कोशिश करते हुए बोला, "पार्थ, तू कभी सीरियस नहीं हो सकता, है ना?"
    पार्थ ने तुरंत जवाब दिया, "अरे भाई, ज़िंदगी सीरियस होने के लिए नहीं बनी। तेरा रोना-धोना देखकर कृष्ण भगवान भी सोच रहे होंगे कि 'वाह, ऐसी भक्तिभावना तो मैंने भी नहीं देखी।'"

    पार्थ का यही अंदाज वासु को परेशान भी करता था और सहारा भी देता था। वो जानता था कि पार्थ की हर चुलबुली बात के पीछे एक सच्चा दोस्त छिपा है, जो उसे उसके दर्द से निकालने की हर संभव कोशिश कर रहा है।

    अचानक, पार्थ ने हल्के से मुस्कुराते हुए कहा, "अब चल, तुझे तेरी मम्मी ढूंढ रही है। वो तेरे लिए टेंशन में है, और तू यहां बैठा किशोरी के ख्यालों में खोया है।"

    वासु ने आँखें मूंद लीं और फिर खोलते हुए कहा, "हाँ, चल। लेकिन किशोरी... उससे जुड़े ख्याल... मैं नहीं जानता, पार्थ, मैं इससे कैसे निकलूँगा।"

    पार्थ ने उसका हाथ पकड़कर खींचा, "बस! आज नहीं, चल अभी। और हाँ, थोड़ी देर के लिए किशोरी को भूल, तेरी मम्मी तुझे ढूंढ रही है, चल तेरी मम्मी का दिल मत तोड़ अभी।"

    वासु ने मजबूरी में मुस्कान दी और अपने आँसू पोछते हुए पार्थ के साथ चल पड़ा।

    'वो प्रेम ही क्या, जहाँ नैनों से अश्रु न बहे' सच्चा प्रेम वही है जो दिल की गहराइयों को छू जाए, जहाँ भावनाएँ इतनी प्रबल हों कि आँखों से बहने वाले अश्रु भी प्रेम का एक हिस्सा बन जाएँ। अश्रु केवल दुःख का प्रतीक नहीं होते; वे कभी-कभी प्रेम, खुशी और आत्मिक संतोष की पराकाष्ठा भी होते हैं। यह प्रेम की सबसे पवित्र अवस्था होती है, जहाँ हर आँसू एक दुआ, एक प्रार्थना और एक अनकही कहानी बनकर बहता है। ऐसा प्रेम दुर्लभ है, और जिसे यह अनुभव होता है, वह दुनिया का सबसे भाग्यशाली व्यक्ति होता है। इसमें त्याग है, समर्पण है, और एक अनोखी गहराई है, जो इंसान को खुद से परे ले जाकर एक दिव्य अनुभूति से जोड़ देती है।

    वासु की आँखों में एक गहरी नीरवता थी, जैसे वो कुछ बेशुमार सोच रहा हो। उसने अचानक मुस्कुराते हुए पार्थ की तरफ देखा और कहा, "पार्थ, तूने कभी सोचा है, प्रेम एक लहर की तरह क्यों होता है?"

    पार्थ ने चौंकते हुए उसे देखा, "क्या मतलब?"

    वासु ने अपनी आवाज़ में हल्की सी गहरी समझ को छिपाते हुए कहा, "तू देख, लहर और सागर का क्या रिश्ता है। लहर हमेशा सागर से जन्मती है, उसकी सीमाओं से बाहर निकलने के लिए हर पल संघर्ष करती है। लेकिन सागर उसे वापस अपने अंदर समेट लेता है। यही प्रेम होता है। कभी लहर बनकर हम संघर्ष करते हैं, अपनी भावनाओं के साथ लड़ते हैं, लेकिन अंत में जब हम अपने प्रेम में खो जाते हैं, तो सागर की तरह उसे अपने अंदर समेट लेते हैं।"

    पार्थ ने सिर हिलाया और थोड़ा चिढ़ते हुए कहा, "अब ये प्यार-व्यापार ने तुझे कवि भी बना दिया क्या? सागर और लहर... क्या बकवास है?"

    "नहीं, यह बकवास नहीं है, पार्थ," वासु ने गंभीरता से कहा, "यह मेरी भावनाएँ हैं। प्रेम सिर्फ दर्द नहीं है, यह एक अनकहा समंदर होता है, जो हमें बहाकर कहीं दूर ले जाता है।"

    पार्थ ने झकझोरते हुए कहा, "अरे, यार! तू तो जाने क्या-क्या सोचे बैठा है। तेरी मम्मी तुझे ढूंढते-ढूंढते यहाँ न आ जाए... चल जल्दी, और ज़्यादा गहराई में मत सोच।"

    वासु ने चिढ़ते हुए कहा, "तू कभी समझेगा नहीं, पार्थ। जब दिल में इतना कुछ होता है, तो शब्द कम पड़ जाते हैं।"

    "यही तो है तेरी समस्या, यार! तू शब्दों में खो जाता है, और मैं प्रैक्टिकल हूँ। ठीक है, समझा? चल अब, नहीं तो तेरी मम्मी का तो पता नहीं लेकिन मेरी मम्मी गुस्सा हो जाएगी।" पार्थ ने उसे खींचते हुए कहा।

    वासु ने हल्की मुस्कान के साथ पार्थ को देखा, लेकिन उसकी आँखों में वो गहरी उलझन अभी भी थी। "पार्थ, तू सच में समझता है कि मैं बस शब्दों में खो जाता हूँ?" उसने थोड़ा रुकते हुए पूछा।

    पार्थ ने सिर झुकाया, "हाँ, और मैं तेरे बारे में फिक्शनल ड्रामा नहीं देखना चाहता। ये रोमांटिक टेंशन तुझे कहीं नहीं ले जाएगी। तेरी मम्मी इंतज़ार कर रही होगी, और तुझे ये सब छोड़कर उसे ध्यान देना चाहिए।"

    "ठीक है," वासु ने मुस्कुराते हुए कहा, लेकिन फिर एक पल के लिए वह रुक गया। "लेकिन... कभी तो मुझे ऐसा लगता है, जैसे किशोरी की आँखों में एक अलग दुनिया बसती है। जैसे वो खुद अपने कान्हा में खोई रहती है, और मैं... मैं सिर्फ एक बाहरी छाया की तरह हूँ।"

    "अबे, तू तो आर्टिफिशियल लेवल तक सोचने लग गया है!" पार्थ ने हँसी के साथ कहा, "वो तुझे अपनी भक्त ही समझेगी, प्रेमी नहीं। और इस सच्चाई को कब समझेगा?"

    वासु ने गहरी साँस ली, और फिर धीरे से कहा, "मैं समझता हूँ, पार्थ। लेकिन यह सिर्फ एक साधारण बात नहीं है। यह दिल की बात है, जो मैं कभी नहीं छोड़ सकता।"

    पार्थ ने उसकी ओर मुड़ते हुए कहा, "तो तुझे इस दिल की बात को छोड़कर कुछ प्रैक्टिकल करना चाहिए। प्रेम, आस्था और भक्ति सब ठीक है, लेकिन अगर तू खुद को इसी में घेर लेगा, तो तेरा जीवन सिर्फ अफ़सोसों का बोझ बन जाएगा।"

    वासु चुप रहा, उसकी आँखों में असमंजस था। उसे लगा जैसे वह किसी गहरे समंदर में डूबने जा रहा है, और पार्थ उसका हाथ पकड़कर उसे बचाने की कोशिश कर रहा था।

    वासु और पार्थ धीरे-धीरे चल रहे थे, जब अचानक से पार्थ के ऊपर पानी गिर गया। पानी पूरी तरह से पार्थ पर गिर गया, जबकि वासु जो थोड़ा पीछे चल रहा था, वह बच गया।

    पार्थ ने झट से अपनी आँखें बंद कर लीं, और जब उसने महसूस किया कि उसके पूरे शरीर पर पानी गिर चुका है, तो उसकी भौंहें गुस्से में तन गईं। उसने गुस्से में आसमान की तरफ़ देखा और फिर तुरंत ऊपर छत की ओर देखा, जहाँ एक लड़की खड़ी थी। उसके हाथ में खाली बाल्टी थी, और वह अपनी एक उंगली मुँह में डालकर शरारत भरी मुस्कान के साथ पार्थ को देख रही थी।

    और अब कहानी में एक नई शरारत के साथ एक लड़की का आगमन हुआ है, जिसने पार्थ को गुस्से में ला दिया। क्या यह लड़की वासु और पार्थ की कहानी में कोई नया मोड़ लाएगी? क्या वासु किशोरी को भुलाकर आगे बढ़ पाएगा, या फिर उसकी भक्ति और प्रेम उसे और गहरे भावनाओं में डुबो देंगे?

    आगे क्या होगा, जानने के लिए अगले भाग का इंतज़ार करते रहिए। साथ ही समीक्षा भी करते रहिए।

    राधे राधे 🪷

  • 3. प्रेममय - Chapter 3

    Words: 2143

    Estimated Reading Time: 13 min

    वासु और पार्थ धीरे-धीरे चल रहे थे। अचानक पार्थ पर पानी गिर गया। पानी पूरी तरह से पार्थ पर गिरा, जबकि वासु, जो थोड़ा पीछे चल रहा था, बच गया।

    पार्थ ने झट से अपनी आँखें बंद कर लीं। जब उसने महसूस किया कि उसके पूरे शरीर पर पानी गिर चुका है, तो उसकी भौंहें गुस्से में तन गईं। उसने गुस्से में आसमान की तरफ देखा और फिर तुरंत ऊपर छत की ओर देखा। वहाँ एक लड़की खड़ी थी। उसके हाथ में खाली बाल्टी थी, और वह अपनी एक उंगली मुँह में डालकर शरारत भरी मुस्कान के साथ पार्थ को देख रही थी। वह और कोई नहीं, बल्कि सुभिका थी।

    "ये क्या किया तूने, सुभिका?" पार्थ ने गुस्से से चिल्लाते हुए कहा।

    "अरे ओ, मैं तो बस पौधों को पानी दे रही थी, तुम बीच में क्यों आ गए?" सुभिका ने अपनी आँखें मिचमिचाते हुए मासूमियत से कहा।

    "तू पौधों को पानी दे रही थी या मुझे?" पार्थ ने अपने भीगे हुए कपड़ों की तरफ इशारा करते हुए कहा।

    सुभिका ने अपनी हंसी रोकने की कोशिश की, लेकिन उसकी आँखों की चमक से पता चल रहा था कि यह सब उसने जानबूझकर किया था।

    "अरे, गलती से बाल्टी से पानी नीचे गिर गया। अब मैं क्या करूँ? तुम ऐसे गुस्से में क्यों हो रहे हो?" उसने शरारत भरे अंदाज में कहा।

    "सुभिका, ये तेरी गलती थी! तू हर बार मेरे साथ ऐसा ही करती है। मैं तुझसे इसका बदला लूँगा! देख लेना तू।" पार्थ ने गुस्से में अपनी मुठ्ठियाँ भींच लीं।

    "अरे वाह! बदला लेने की बातें कर रहे हो! पहले तो खुद को सुखा लो, फिर बदला लेना।" सुभिका ने अपने हाथों से हवा में उड़ाते हुए कहा।

    वासु, जो अभी तक इस पूरी घटना को चुपचाप देख रहा था, ने अचानक हंसते हुए कहा, "पार्थ, तू हर बार फंस जाता है। लगता है इस बार सुभिका ने फिर से तुझे नहला दिया।"

    "तू भी हंस ले, वासु! पर देखना, इस बार मैं सुभिका को छोड़ने वाला नहीं हूँ।" पार्थ ने वासु की तरफ गुस्से में देखा।

    "पहले खुद को तो सुखा ले। फिर बदला लेना!" वासु ने मजाक करते हुए कहा।

    "अरे, पार्थ! तुम तो ऐसे गुस्सा कर रहे हो, जैसे मैं तुम्हें जानबूझकर भीगा रही हूँ। वैसे भी, तुम नहाते कब हो, तुम्हारे लिए अच्छा है, मैंने तुम्हें नहला दिया।" सुभिका ने भी अपनी हंसी दबाते हुए कहा।

    यह सुनते ही पार्थ का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुँच गया।

    "तू रुक, सुभिका! आज मैं तुझे सबक सिखाकर रहूँगा।" उसने गुस्से से कहा।

    "अरे वाह! देखो, देखो पार्थ साहब गुस्से में हैं! चलो, अब भागते हैं!" सुभिका ने मुस्कुराते हुए उसे चिढ़ाया।

    और इतना कहकर सुभिका दौड़ लगा दी। वह छत से नीचे उतरते हुए सीढ़ियों की तरफ भागी। पार्थ ने तुरंत उसके पीछे दौड़ लगाई, लेकिन वह पूरी तरह से भीगा हुआ था, जिससे उसकी दौड़ थोड़ी धीमी हो गई।

    वासु हंसते हुए वहीं खड़ा रहा। उसे पता था कि सुभिका और पार्थ की नोकझोंक तो पूरे मोहल्ले में मशहूर थी। जहाँ भी ये दोनों मिलते, वहाँ कोई न कोई नई कहानी बन जाती। उनकी लड़ाई का सिलसिला कभी खत्म नहीं होता था।

    एक बार मोहल्ले के कोने वाली किराने की दुकान पर सुभिका और पार्थ का सामना हो गया। सुभिका एक लंबी लिस्ट लेकर आई थी, जिसमें हर छोटी-बड़ी चीज़ लिखी थी। पार्थ भी अपनी माँ के कहने पर कुछ सामान लेने आया था।

    जैसे ही पार्थ दुकान पर पहुँचा, उसने देखा कि सुभिका अपनी लिस्ट लेकर दुकान के अंदर खड़ी है और दुकानदार को एक-एक सामान गिनवा रही है।

    "सुभिका, तुमने ये दुकान खरीदी है क्या? आधा घंटे से अंदर हो और अब तक सामान खत्म नहीं हुआ?" पार्थ ने झुंझलाकर कहा।

    "पार्थ, तुम्हें जल्दी है तो दूसरी दुकान पर चले जाओ। यहाँ मैं पहले आई हूँ, और पहले मेरा काम होगा।" सुभिका ने पलटकर कहा।

    "चाचा, पहले मेरा सामान दे दीजिए। ये तो सारी दुकान खरीदने के मूड में लग रही है। मुझे बस दो-तीन चीज़ें चाहिए।" पार्थ ने गुस्से में दुकान के मालिक से कहा।

    "चाचा, देखिए, मैं पहले आई थी। पहले मेरा सामान पूरा कीजिए।" सुभिका ने अपनी लिस्ट लहराते हुए कहा।

    "अच्छा, तो तुमने ही ये नियम बनाया है? लगता है, तुम्हें 'पहले आओ, पहले पाओ' का नियम थोड़ा ज्यादा ही पसंद है।" पार्थ ने मुस्कुराते हुए कहा।

    "अरे भैया, दोनों चुप हो जाइए! मैं दोनों का सामान निकालता हूँ।" दुकानदार बेचारा दोनों की बहस से तंग आकर बोला।

    लेकिन जब दुकानदार सामान निकालने लगा, तो पार्थ ने अचानक कहा, "चाचा, मुझे ये चिप्स का पैकेट चाहिए।"

    "वो पैकेट मैं पहले ले रही हूँ। आपने देखा नहीं, मैंने पहले इशारा किया था।" सुभिका ने तुरंत जवाब दिया।

    "तुम्हारा इशारा देखा तो नहीं, लेकिन तुम्हारी आदत ज़रूर देख ली है। हर जगह हक जमाने की।" पार्थ ने चिढ़कर कहा।

    अंत में, दुकानदार ने चिप्स का पैकेट दोनों में से किसी को न देकर एक बच्चे को दे दिया, जो वहीं खड़ा था। दोनों की लड़ाई पर दुकान के बाकी ग्राहक हँसने लगे।

    सुभिका और पार्थ के झगड़े सिर्फ दुकान तक ही सीमित नहीं थे।

    अभी कुछ दिन पहले ही मंदिर में विशेष पूजा हो रही थी। पार्थ अपनी माँ राधिका जी के साथ आया था, और उसकी माँ ने उसे प्रसाद का थाल लेकर लाइन में खड़े होने के लिए कहा।

    "माँ, इतनी लंबी लाइन है। आपको पता है, मैं लाइन में खड़ा होने वालों में से नहीं हूँ।" पार्थ ने झुंझलाते हुए कहा।

    "पार्थ, भगवान के घर में सब बराबर हैं। लाइन में लगना ही पड़ेगा। जाओ!" पार्थ की माँ ने उसे आँखें दिखाते हुए कहा।

    पार्थ मजबूरी में थाल लेकर लाइन में खड़ा हो गया। ठीक उसी समय सुभिका भी मंदिर आई। उसने हल्की गुलाबी कुर्ती पहनी थी और सिर पर सफेद दुपट्टा लिया हुआ था। उसे देखते ही पार्थ को चिढ़ाने का एक और मौका मिल गया।

    जैसे ही सुभिका लाइन में लगी, पार्थ ने पीछे मुड़कर कहा, "अरे वाह, सुभिका! अब तो तुम भगवान को भी अपने नियम-कायदे सिखाने आ गई हो।"

    "पार्थ, तुम्हें अगर ज्यादा बोलने का शौक है, तो माइक लेकर खड़े हो जाओ। वैसे भी तुम्हारी आवाज़ इतनी तेज़ है कि भगवान तक पहुँच ही जाएगी।" सुभिका ने अपनी आँखें तरेरते हुए कहा।

    "मुझे तो लगता है, भगवान भी तुम्हें देखकर सोचते होंगे कि क्यों इसे धरती पर भेजा। इतना झगड़ालू इंसान मैंने कभी नहीं देखा।" पार्थ ने हँसते हुए कहा।

    "पार्थ, अपनी जुबान संभालो। मंदिर में हो, यहाँ भगवान सब देख रहे हैं।" सुभिका ने नाराज़गी दिखाते हुए कहा।

    "हाँ, भगवान देख रहे हैं कि तुम मुझसे फिर झगड़ रही हो। वैसे, तुम्हारा प्लान क्या है? प्रसाद के बाद भी कुछ बखेड़ा करने का इरादा है?" पार्थ ने सिर खुजलाते हुए कहा।

    इतने में पुजारी जी ने प्रसाद का वितरण शुरू कर दिया। पार्थ ने जल्दी से अपना थाल आगे बढ़ाया और सुभिका से पहले प्रसाद लेने की कोशिश की। लेकिन सुभिका कहाँ पीछे रहने वाली थी। उसने थाल आगे कर दिया और कहा, "पुजारी जी, पहले मुझे दीजिए।"

    "बेटा, भगवान के घर में कोई पहला या आखिरी नहीं होता। दोनों को साथ में प्रसाद मिलेगा।" पुजारी जी ने दोनों की हरकतों को देखकर मुस्कुराते हुए कहा।

    "साथ में क्यों? मैं इसे नहीं जानता। इसे अलग दीजिए।" पार्थ ने नाराज़गी से कहा।

    "मैं भी इसको जानना नहीं चाहती। मुझे तो बस प्रसाद चाहिए।" सुभिका ने तुरंत पलटकर कहा।

    अंत में पुजारी जी ने दोनों को एक ही थाल में प्रसाद देकर कहा, "अब झगड़ा बंद करो। भगवान के घर में शांति से रहो।"

    दोनों ने अनमने मन से प्रसाद लिया और एक-दूसरे को घूरते हुए बाहर आ गए।

    पार्थ और सुभिका के झगड़े यहीं खत्म नहीं होते। एक बार गर्मी के दिनों में मोहल्ले की गली में नल का पानी चालू था। बच्चे खेल रहे थे, और बड़े-बूढ़े अपनी बाल्टियाँ भरने में लगे थे।

    पार्थ अपनी बाल्टी लेकर पानी भर रहा था, तभी सुभिका अपनी बाल्टी लेकर आई और उसकी बाल्टी के आगे रख दी।

    "ये क्या कर रही हो? लाइन में लगने का नाम सुना है?" पार्थ ने भौंहें उठाते हुए कहा।

    "मुझे जल्दी है, पार्थ। तुम्हें तो वैसे भी कोई और काम नहीं होता। थोड़ा इंतजार कर लो।" सुभिका ने बेफिक्री से कहा।

    "अच्छा! तो अब तुम मुझे आलसी भी बोल रही हो? रुको, मैं तुम्हें दिखाता हूँ।" पार्थ ने गुस्से में कहा।

    इतना कहकर पार्थ ने सुभिका की बाल्टी में भरा हुआ पानी अपनी बाल्टी में डाल दिया। सुभिका ने घबराकर अपनी बाल्टी खींच ली।

    "पार्थ! ये क्या कर रहे हो? तुम हमेशा हरकतें करते रहते हो।" सुभिका बोली।

    "तुम्हें जल्दी थी न? लो, तुम्हारी बाल्टी अब खाली है। जल्दी भर लो।" पार्थ ने हँसते हुए कहा।

    सुभिका ने गुस्से में पार्थ की बाल्टी को पलट दिया। दोनों की इस लड़ाई पर आसपास खड़े लोग हँस-हँसकर लोटपोट हो गए।

    यही सब सोच कर वासु ने अपना सिर हिला दिया।

    "इन दोनों का हर बार का यही है।" वासु ने मन ही मन कहा।

    सुभिका ने सीढ़ियाँ उतरते हुए पार्थ की तरफ चिल्लाकर कहा, "पार्थ, तुमसे तो मैं तेज़ भाग सकती हूँ! पहले अपने कपड़े सुखा लो, फिर मुझे पकड़ने की सोचो!"

    "रुक जा, सुभिका! मैं तुझे छोड़ने वाला नहीं हूँ।" पार्थ ने गुस्से में जोर से कहा।

    "अरे, मज़ाक था! इतना गुस्सा क्यों हो रहे हो?" सुभिका हँसते हुए बोली।

    वासु ने देखा कि अब दोनों एक दूसरे के पीछे दौड़ रहे थे।

    "यार, ये दोनों कभी सुधरेंगे नहीं।" वह मुस्कुराते हुए बोला।

    "तुम दोनों खेलो अपनी पकड़म पकड़ाई ....मैं तो चला अपने घर।" कहकर वासु अपने घर की ओर जाने लगा।

    जैसे ही सुभिका एक मोड़ पर मुड़ी, पार्थ ने तेज़ी से उसकी तरफ दौड़ लगाई। लेकिन अचानक ही, सुभिका एक पत्थर पर पैर फिसलने से गिरने लगी। पार्थ, जो गुस्से में था, तुरंत अपनी गुस्से वाली भावनाओं को छोड़कर भागकर उसकी मदद के लिए आगे बढ़ा। उसने उसे गिरने से पहले ही पकड़ लिया।

    सुभिका ने चौंकते हुए पार्थ की तरफ देखा।

    "देखा, ये सब तेरी शरारतों का नतीजा है। तू हमेशा खुद को ही मुसीबत में डाल लेती है।" पार्थ ने उसे स्थिर करते हुए कहा।

    सुभिका का दिल तेजी से धड़क रहा था और वो एकटक पार्थ को देखे जा रही थी।

    पार्थ ने जब देखा की सुभिका उसे एकटक देखे जा रही है तो पार्थ ने उसके चेहरे के सामने चुटकी बजा दी और कहा, "ओ हेलो मैडम....कहा खो गई।"

    "ओह, कुछ नहीं! मैं बस सोच रही थी कि तुमने आज मुझे कैसे पकड़ लिया।" सुभिका ने झट से अपने होश में आते हुए कहा।

    "क्यों? क्या सोच रही थी कि हमेशा की तरह तू बच जाएगी? इस बार नहीं!" पार्थ ने उसे थोड़ा मुस्कुराते हुए कहा।

    "अरे, छोड़ो भी! वैसे भी, तुम तो हमेशा से हीरो बनने की कोशिश में लगे रहते हो। आज मौका मिल गया तो नाटक शुरू कर दिया!" सुभिका ने एक बार फिर शरारत भरी मुस्कान के साथ कहा।

    "हीरो? अगर मैं न होता तो तू अभी तक जमीन पर पड़ी होती। अब ये नाटक बंद कर और मेरी बात सुन, अगली बार पानी गिराने से पहले सोचना।" पार्थ ने उसकी बात पर हंसते हुए कहा।

    "ओ हो! इतनी सी बात का इतना बड़ा मुद्दा बना दिया। चलो, मान लिया गलती हो गई। लेकिन तुम तो ऐसे बर्ताव कर रहे हो, जैसे मैं तुम्हें रोज़ पानी में नहलाती हूँ।" सुभिका ने चिढ़ाते हुए जवाब दिया।

    "और अगर मैं तुझे रोज़ ही नहलाने लगूं तो?" पार्थ ने उसकी ओर झुकते हुए कहा।

    "हिम्मत है तो करके दिखाओ! मैं भी देखती हूं कौन रोज़ किसको नहलाता है!" सुभिका ने आँखें तरेरते हुए कहा।

    "तो ठीक है, अब तैयार रहना। अगले हफ्ते मैं तुझ पर पानी गिराऊंगा, और तब देखता हूं, तू कैसे भागती है।" पार्थ ने चैलेंज करते हुए कहा।

    "ओहो! अब तुम मुझसे बदला लोगे? चलो, देखते हैं। वैसे भी, पार्थ, तुम्हारा बदला लेने का रिकॉर्ड तो बड़ा ही खराब है।" सुभिका ने आँखें मिचमिचाते हुए कहा।

    "तू देखना सुभिका, ये रिकॉर्ड इस बार मैं ज़रूर सुधारूंगा। अब भागने की कोशिश मत करना, तुझे इसका जवाब ज़रूर मिलेगा!" पार्थ ने अपनी बांहें मोड़कर कहा।

    "चलो, देखते हैं। पर पहले खुद को तो सुखा लो, वरना ठंड लग जाएगी और बदला लेने से पहले ही बीमार पड़ जाओगे।" सुभिका ने शरारत से जवाब दिया।

    "सुभिका! ये तो हद हो गई। अब मैं सच में तुझे छोड़ने वाला नहीं हूँ!" पार्थ ने उसकी इस बात पर झूठा गुस्सा दिखाते हुए कहा।

    और इतना कहते ही, दोनों एक बार फिर भागने लगे, इस बार सुभिका हंसते हुए पहले से तेज दौड़ रही थी, और पार्थ उसके पीछे-पीछे।

    पार्थ का गुस्सा और सुभिका की शरारतें उनकी खासियत हैं, और हर बार, ये दोनों एक-दूसरे के करीब आ ही जाते हैं, चाहे हालात कुछ भी हों।

    आगे की कहानी में पार्थ का बदला क्या रूप लेगा? और क्या सुभिका इस बार बच पाएगी, या पार्थ वाकई उसे सबक सिखा देगा?

    ये जानने के लिए अगले भाग का इंतजार जरूर कीजिए, और अपनी समीक्षा देकर हमें बताइए कि आपको यह भाग कैसा लगा!

    राधे राधे! 🪷

  • 4. प्रेममय - Chapter 4

    Words: 2820

    Estimated Reading Time: 17 min

    पार्थ ने उसकी इस बात पर झूठा गुस्सा दिखाते हुए कहा, "सुभिका! ये तो हद हो गई। अब मैं सच में तुझे छोड़ने वाला नहीं हूँ!"

    और इतना कहते ही, दोनों एक बार फिर भागने लगे। इस बार सुभिका हंसते हुए पहले से तेज दौड़ रही थी, और पार्थ उसके पीछे-पीछे।

    सुभिका हँसते-हँसते भाग रही थी। अचानक उसकी नजर सामने बैठे हुए औरतों के झुंड पर पड़ी। उनके बीच में उसकी सौतेली माँ, मालती जी, सबसे आगे बैठी हुई थीं। उनका चेहरा गुस्से और घृणा से भरा हुआ था। सुभिका के कदम अनायास ही रुक गए, और पार्थ, जो उसके पीछे भाग रहा था, वह भी रुक गया।


    मालती जी ने कड़कते हुए कहा, "वाह, सुभिका! ये दिन देखना बाकी रह गया था कि मेरी बेटी मोहल्ले में इस तरह लड़कों के साथ हँसी-मजाक करती फिरेगी! शर्म नहीं आती तुझे?"

    सुभिका ने सिर झुका लिया। उसकी आँखों में बेबसी और शर्म की परछाई थी। वह कुछ कह पाती, उससे पहले ही एक दूसरी औरत, जो मालती जी की सहेली थी, तंज कसते हुए बोली, "अरे मालती बहन, तुम्हारी बेटी ने तो सारे गाँव की लड़कियों को नाक कटवा दी! देखो तो कैसे लड़कों के साथ हँसते-हँसते भाग रही थी। मालती, कैसे संस्कार दिए हैं तूने अपनी बेटी को?"

    मालती जी की आँखों में क्रोध उभर आया।

    उन्होंने सुभिका को घूरते हुए कहा, "जवान लड़की होकर इस तरह सड़क पर लड़कों के साथ दौड़ रही है? शर्म लिहाज तो बेच खा गई है ना तू! अरे करमजली, कम से कम मेरी इज्जत का तो ख्याल रखती।"

    सुभिका के चेहरे से शरारत अचानक गायब हो गई। उसकी आँखों में आँसू छलकने लगे। उसकी सौतेली माँ के ताने हमेशा उसे भीतर तक चोट पहुँचाते थे, और इस बार भी ऐसा ही हुआ।

    औरतों का झुंड, जो अब तक खामोश था, मालती जी की बातों से सहमति जताते हुए एक-एक करके ताने मारने लगा।

    "अरे! आजकल की लड़कियाँ तो हद कर देती हैं मालती। न कोई शर्म, न कोई हया!"

    "बिलकुल सही कहा। ऐसे खुलेआम लड़कों के साथ घूमना कोई संस्कार है क्या?"

    "शादी की उम्र हो गई है, लेकिन देखो इसे, लड़कों के साथ इधर-उधर मस्ती कर रही है।"

    सुभिका का दिल डूबने लगा। उसकी आँखों में आँसू और तेजी से बहने लगे, लेकिन वह अपने आँसुओं को रोकने की कोशिश कर रही थी। उसका चेहरा सफेद पड़ गया था, और उसकी शरारत भरी मुस्कान अब कहीं खो गई थी।

    पार्थ, जो अब तक सुभिका के साथ मज़ाक कर रहा था, अचानक गंभीर हो गया। उसने देखा कि सुभिका पूरी तरह से टूट चुकी थी, और उन औरतों के तानों ने उसकी आत्मा को गहरे तक चोट पहुँचाई थी। पार्थ ने एक कदम आगे बढ़ाया और सुभिका के करीब आकर उसकी पीठ थपथपाई।

    सुभिका की माँ मालती जी ने अब पार्थ की तरफ रुख करते हुए कहा, "और तुम? तुम यहाँ क्या कर रहे हो इसके साथ? तुम क्या समझते हो, इस तरह लड़कियों के साथ घूमना ठीक है?"

    पार्थ ने शांत लेकिन दृढ़ स्वर में कहा, "आंटी जी, आप गलत समझ रही हैं। सुभिका और मैं बस मज़ाक कर रहे थे। इसमें कुछ भी गलत नहीं है।"

    मालती जी ने घूरते हुए जवाब दिया, "मज़ाक? इस उम्र में लड़कियों के साथ इस तरह खुलेआम मज़ाक करना सही है? तुम्हें शर्म नहीं आती?"

    पार्थ ने अपनी आवाज और दृढ़ कर ली, "आंटी जी, हर चीज़ को गलत नजरिए से देखना भी सही नहीं है। आप सब जो सोच रही हैं, वो गलत है। हम सिर्फ दोस्त हैं और थोड़ा मस्ती कर रहे थे। इसमें कुछ भी गलत नहीं था।"

    एक और औरत, जो मालती जी के पास बैठी थी, ताने मारते हुए बोली, "दोस्ती? हाँ, हाँ, आजकल की ये 'दोस्ती' हमसे ज्यादा कौन समझेगा!"

    मालती जी ने फिर से सुभिका की ओर देखते हुए कहा, "घर चलो! अब बस बहुत हो गया। जवान लड़की होकर इस तरह की हरकतें बर्दाश्त नहीं की जा सकतीं। मैं तेरे पिताजी से बात करूंगी।"

    सुभिका, जो अब तक अपनी भावनाओं को दबाने की कोशिश कर रही थी, टूटकर बोल पड़ी, "मैंने कुछ गलत नहीं किया, माँ! आप क्यों हमेशा मुझे गलत समझती हैं?"

    मालती जी की आँखें और तीखी हो गईं, "चुप रह तू, सुभिका! जवान लड़की को कुछ समझ नहीं आता, और ऊपर से जबान भी लड़ाती है! चल घर चुपचाप!"

    सुभिका की आँखों से अब आँसू बेतहाशा बहने लगे।

    पार्थ ने उसे संभालने के लिए आगे बढ़ते हुए कहा, "आंटी, मैं जानता हूँ कि आप नाराज हैं, लेकिन आप गलत समझ रही हैं। सुभिका ने कुछ भी ऐसा नहीं किया जिससे उसे शर्मिंदा होना चाहिए।"

    मालती जी ने उसे गुस्से से देखा और बोली, "तुम तो रहने ही दो! तुम्हारे जैसे लड़के ही तो लड़कियों को बिगाड़ते हैं।"

    कहकर मालती जी सुभिका को खींच कर ले जाने लगीं। सुभिका का चेहरा झुका हुआ था और उसकी आँखों से आँसू अब भी बह रहे थे।

    पार्थ को खुद पर ही बहुत गुस्सा आ रहा था कि आखिर क्यों वह सुभिका के पीछे भागा और अब... पार्थ को अब एहसास हो रहा था कि उसकी छोटी सी मस्ती ने सुभिका को कितनी बड़ी मुश्किल में डाल दिया था। उसे खुद पर गुस्सा आ रहा था कि आखिर उसने क्यों सुभिका के साथ यूँ सरेआम मस्ती की, जब वह जानता था कि उसकी सौतेली माँ मालती जी कितनी कठोर हैं। पर पार्थ एक ऐसा इंसान नहीं था जो अपनी गलती पर चुपचाप बैठ जाए।

    सुभिका चुपचाप खड़ी थी, उसकी आँखें अब आँसू से भरी हुई थीं। हर ताना उसके दिल पर चोट कर रहा था, लेकिन उसके पास कोई जवाब नहीं था। पार्थ, जो अब तक चुपचाप इस सबको देख रहा था, आखिरकार आगे आया। उसकी आँखों में गुस्सा साफ झलक रहा था।

    "बस कीजिए आप सब!" पार्थ की आवाज़ तेज़ और सख्त थी। औरतों का झुंड एक पल के लिए चौंक गया। पार्थ ने अपनी बात जारी रखी, "आप लोगों को बस मौका चाहिए किसी को नीचा दिखाने का। ये आपकी बेटी नहीं है, सुभिका तो इस गाँव की सबसे होनहार लड़की है। पढ़ाई में अव्वल, हर जगह नाम रोशन किया है इसने। और आप इसे ताने दे रही हैं सिर्फ इसलिए कि ये हंसते हुए दौड़ रही थी?"

    मालती जी गुस्से से बोलीं, "तू चुप रह, पार्थ! ये हमारे घर का मामला है। तुझे बीच में बोलने की ज़रूरत नहीं।"

    पार्थ ने सीधा उनकी आँखों में देखा और कहा, "मालती आंटी, अगर आप इसे अपनी बेटी मानतीं, तो शायद इस तरह सबके सामने इसे बेइज्जत न करतीं। और ये 'घर का मामला' तब तक है, जब तक आप इसे बंद दरवाज़ों के पीछे सुलझातीं। सबके सामने इसे शर्मिंदा करना क्या सही है?"

    मालती जी एक पल को ठिठक गईं, लेकिन उनकी सहेली ने फिर तंज कसते हुए कहा, "अरे लड़के, तू इसकी इतनी तरफदारी क्यों कर रहा है? कुछ चक्कर-वक्कर तो नहीं है तुम्हारे बीच?"

    पार्थ ने गहरी सांस ली और उनकी तरफ गंभीरता से कहा, "आप जैसी सोच रखने वाले लोग ही समाज को पीछे ले जाते हैं। एक लड़का और लड़की दोस्त नहीं हो सकते, क्या? और अगर हो भी, तो ये उनका निजी मामला है। आप सबको दूसरों की इज्जत उछालने का हक किसने दिया?"

    सुभिका ने धीरे से पार्थ का हाथ पकड़ा और कहा, "पार्थ, रहने दो। इनसे बहस करना बेकार है।"

    लेकिन पार्थ ने उसकी तरफ देखा और कहा, "नहीं, सुभिका। ये ज़रूरी है। तुम्हें चुप रहकर सहना नहीं चाहिए। अगर तुम खुद के लिए खड़ी नहीं होगी, तो ये लोग हमेशा तुम्हें दबाने की कोशिश करेंगे।"


    इन चुगलखोर आंटियों का हर बार का वही पुराना रिवाज था, हमेशा किसी न किसी लड़की की इज्जत पर उंगली उठाना। उनके पास किसी को नीचा दिखाने के लिए हमेशा कुछ न कुछ तर्क होते थे। और सुभिका, जो अपनी हँसी-मज़ाक और अपनी मासूमियत के कारण कई बार इन आंटियों का निशाना बन चुकी थी, आज फिर से उनके शब्दों से घायल हो गई थी। लेकिन इस बार, कुछ अलग था। कुछ था जो सुभिका की नज़रों में बदलाव लाने वाला था।

    वहीं, मोहल्ले में एक और लड़की रहती थी, जो सुभिका से उम्र में थोड़ी बड़ी थी। उसका नाम सोनाली था। उसकी जिंदगी का हर पल एक डर और कंटीले रास्ते से गुजरता था, और यही बात उसे मोहल्ले की दूसरी औरतों के निशाने पर ले आती थी।

    सोनाली की उम्र सुभिका से कुछ ज्यादा थी, लेकिन उसकी जिंदगी में हमेशा ही समस्याएँ थीं। उसकी शादी की बात हमेशा उठाई जाती थी। सोनाली की माँ को कई बार मोहल्ले के लोगों ने कहा था, "अब सोनाली की शादी कर दो, यही सही रहेगा।" मोहल्ले की औरतें यह बात बार-बार उठाती थीं, जैसे उनकी ज़िंदगी का कोई मतलब नहीं था सिवाए शादी के। सोनाली, जो हमेशा एक संवेदनशील और समर्पित लड़की रही थी, उन तानों से बहुत प्रभावित हो चुकी थी। हर बार उसे यही सवाल सुनने को मिलता था कि "कब होगी शादी?" या "क्या अच्छा लड़का मिलेगा?"

    सोनाली की माँ भी अब परेशान हो चुकी थी। वह चाहती थी कि उसकी बेटी खुशहाल जीवन जी सके, लेकिन मोहल्ले की औरतों की बातों ने उसे भी कभी-कभी असहज कर दिया था। "लड़की के लिए सबसे जरूरी है शादी," मोहल्ले की एक औरत ने कहा था, "क्या वह अच्छे घर में जाएगी या नहीं, यह भी देखना ज़रूरी है।"

    इन सवालों ने सोनाली की ज़िंदगी को उलझन में डाल दिया था। वह समझ ही नहीं पा रही थी कि क्या शादी ही उसकी पूरी पहचान है? वह एक हंसमुख, समझदार और आत्मनिर्भर लड़की थी, लेकिन फिर भी वह हर रोज़ सुनती थी, "सोनाली को जल्दी से जल्दी शादी करनी चाहिए।"

    समाज ने उसे यह सिखाया था कि अगर एक लड़की शादीशुदा नहीं है, तो उसकी कोई कीमत नहीं है। उसे किसी का सम्मान नहीं मिलेगा, उसे हमेशा "अधूरी" समझा जाएगा। वह महसूस करने लगी थी कि समाज सिर्फ उसे अपनी आँखों से देखने की कोशिश करता था, लेकिन उसे समझने की कोशिश कोई नहीं करता था। उसकी मेहनत, उसकी खुशियाँ, उसकी इच्छाएँ, ये सभी उसके लिए गौण थीं। समाज सिर्फ यह जानना चाहता था कि वह कितनी जल्दी एक "घरवाली" बनेगी।

    एक दिन सोनाली ने अपनी माँ से कहा, "माँ, क्या मेरी शादी ही मेरे अस्तित्व का एकमात्र उद्देश्य है?" माँ कुछ नहीं बोलीं, बस चुपचाप बैठी रही।

    सोनाली की आँखों में सवाल थे, दिल में दर्द और आत्मग्लानि का एक सागर था। उसे यह समझने में वक्त लग गया कि समाज उसके बारे में क्या सोचता है, लेकिन वह इस भ्रम से बाहर निकलने की कोशिश कर रही थी। वह चाहती थी कि लोग उसकी पहचान को उसकी मेहनत, उसके संघर्ष, और उसकी खुशियों से समझें, न कि उसकी शादी से। लेकिन फिर भी, समाज की सड़ी-गली सोच और परिवार की चुप्पी ने उसे अंदर ही अंदर तोड़ दिया था।

    वह एक संवेदनशील लड़की थी, जो अपनी पहचान को खुद से पहले कभी नहीं मान पाई। वह हमेशा दूसरों के लिए जीती रही थी—अपने माता-पिता की उम्मीदों के लिए, समाज की तानों के लिए। लेकिन किसी ने उसकी आंतरिक पीड़ा को समझने की कोशिश नहीं की। मोहल्ले की औरतों के ताने, हर बार यह पूछना कि "शादी कब करोगी?", जैसे उसे यह एहसास दिलाते थे कि वह सिर्फ और सिर्फ इस एक भूमिका में फिट बैठ सकती है।

    एक दिन सोनाली की पीड़ा अपने चरम पर पहुँच गई। वह अपने कमरे में अकेली बैठी थी, अपने आप से सवाल कर रही थी कि क्या उसकी ज़िंदगी का कोई मतलब है? क्या वह सिर्फ एक शादीशुदा महिला के रूप में समाज की नज़र में "पूर्ण" हो सकती है? उसकी आत्मा टूट चुकी थी, और वह कहीं न कहीं यह मानने लगी थी कि शायद वह इन तानों और उम्मीदों के बोझ तले कभी मुक्त नहीं हो पाएगी।

    उसने सोचा कि अगर वह चली जाती है, तो शायद यह सब रुक जाएगा—सभी ताने, सभी सवाल, और समाज का वह बोझ जो उसे हर दिन महसूस होता था। उसने महसूस किया कि वह इस दुनिया में कुछ करने के बजाय बस एक प्रतीक बन गई थी, एक लड़की जो किसी के सपने पूरे करने के लिए थी, न कि खुद के।

    एक सुबह सोनाली ने यह निर्णय लिया कि वह सब कुछ छोड़ देगी। वह अपने आप को किसी ऐसी जगह छोड़ आई, जहाँ उसे लगता था कि उसकी पीड़ा और दर्द समाप्त हो सकते हैं। आत्महत्या करने से पहले, उसने अपनी माँ को एक पत्र लिखा था—"माँ, मुझे माफ कर देना, पर मैं यह और नहीं सह सकती। मैं सिर्फ एक लड़की नहीं, अपनी पहचान चाहती थी, लेकिन इस समाज में वह कभी नहीं मिल सकती।"

    यह खबर मोहल्ले में आग की तरह फैल गई।

    सोनाली की आत्महत्या के बाद मोहल्ले में एक अजीब सी खामोशी छा गई थी। लोग हिलते हुए कदमों से उसकी यादों में खोए हुए थे, लेकिन एक हफ्ते बाद वही पुरानी बातें फिर से शुरू हो गईं। मोहल्ले की औरतें फिर से एकजुट हो गईं, और उनकी जुबां से वही सवाल निकल रहे थे—"कब होगी शादी?" उन्हें सोनाली की मौत के बारे में सोचने की फुर्सत नहीं थी, क्योंकि उनकी नज़रों में एक लड़की की असल पहचान सिर्फ शादी थी।

    अब इस बार, मोहल्ले में हर वो लड़की निशाने पर थी, जो शादी के बंधन में नहीं बंधी थी, चाहे वह जवान हो या थोड़ी बड़ी। सुभिका भी इस दबाव का शिकार थी। उसकी हँसी-मज़ाक और आत्मविश्वास अब उन औरतों की नज़र में गलत था।

    समाज की सोच हमेशा वही पुरानी होती है, जो खुद को बदलने के बजाय दूसरों को बदलने की कोशिश करती है। किसी भी लड़की की मेहनत, उसकी कामयाबी, उसकी खुशियाँ या उसकी मासूमियत, इन सबसे ज़्यादा अहम उसके जीवन की परिभाषा नहीं होती है। लेकिन यह समाज कभी नहीं समझता। उसे बस अपनी नज़र से हर चीज़ देखनी होती है, और जब वह किसी को अपनी मान्यताओं के खिलाफ चलता हुआ देखता है, तो उसे शर्मिंदा करना अपना हक समझता है।

    अब, सुभिका के साथ जो हो रहा था, वो भी कुछ कम नहीं था। मालती जी ने तो हमेशा उसे ऐसे ताने दिए थे कि उसका दिल टूट जाए, लेकिन एक चीज़ थी, जो सुभिका को सोनाली की तरह कभी नहीं बनने देती थी - उसका आत्मविश्वास। सुभिका जानती थी कि वह किसी से कम नहीं है, और वह अपनी ज़िंदगी अपने तरीके से जीने का हक रखती है। भले ही मोहल्ले की औरतें उसे यह सब कहें, लेकिन वह जानती थी कि वह अपनी जगह सही है।

    सुभिका ने ठान रखा था कि, "समाज की सोच बदलने के लिए एक कदम उठाना होता है, फिर धीरे-धीरे एक पूरी राह बदलती है।"

    तब से, इन मोहल्ले की औरतों का निशाना सुभिका बन गई थी। हर गली से गुजरते हुए उसे उनके फुसफुसाने की आवाजें सुनाई देती थीं, जैसे वह कहीं छिपी हुई हो और उन्हें यह महसूस हो कि वह उनके टारगेट से बाहर नहीं निकल सकती।

    वहीं दूसरी तरफ वासु अपने कमरे में बैठा हुआ था और खिड़की के बाहर देख रहा था। तभी दरवाजे पर उसकी मम्मी की दस्तक हुई और वह अंदर आकर कहती हैं, "क्या हुआ रे! किस सोच में डूब गया कि तुझे तेरी मम्मी का भी ख्याल नहीं आ रहा।"

    वासु झट से मुड़ गया और अपनी मम्मी से बोला, "अ...अरे मम्मी कुछ नहीं वो मैं यही सोच रहा था कि मुझे शहर के बाहर से कॉलेज नहीं करना...मतलब कि मैं यहीं से कॉलेज करना चाहता हूँ।"

    वासु की मम्मी ने कहा, "अरे बेटा शहर के बाहर बहुत ही अच्छा कॉलेज है और अगर तू वहाँ से कॉलेज करेगा तो देखना कितना बड़ा आदमी बन जाएगा। और यहाँ अपने शहर में तो कोई भी ढंग का कॉलेज नहीं है और अगर तू यहीं से पढ़ाई करेगा तो लोग क्या कहेंगे कि तेरे पापा जी के पास तो कितना पैसा है और वो अपने इकलौते बेटे को यहीं से एक लोकल कॉलेज से पढ़ाई करवा रहे हैं।"

    वासु की मम्मी की बात सुनकर वासु की आँखों में हल्की बेचैनी उभर आई। उसने खिड़की के बाहर नज़र डालते हुए गहरी साँस ली, फिर अपनी मम्मी की ओर पलटा और संयमित स्वर में बोला, "मम्मी, मैं समझता हूँ कि शहर के बाहर के कॉलेज अच्छे हैं, लेकिन हर चीज़ बड़ा आदमी बनने से ही तय नहीं होती। कभी-कभी जो चीज़ हमारे दिल के करीब होती है, वो भी जरूरी होती है। मैं यहीं अपने शहर से कॉलेज करना चाहता हूँ क्योंकि... क्योंकि मैं यही चाहता हूँ।"


    आपने देखा कि कैसे पार्थ और सुभिका की छोटी-सी मस्ती ने इतना बड़ा बवाल खड़ा कर दिया, और समाज के ताने सुभिका के दिल को कितनी गहराई से चोट पहुँचा गए। साथ ही, वासु अपने जीवन के एक बड़े फैसले को लेकर असमंजस में है। आगे की कहानी में आपको देखना है कि क्या पार्थ अपनी गलती सुधारने का कोई तरीका ढूँढेगा? और वासु अपनी मम्मी को कैसे समझा पाएगा कि उसके लिए बड़ा आदमी बनने से ज्यादा, अपने दिल की बात सुनना जरूरी है।

    क्या सुभिका की सौतेली माँ की सख्ती सुभिका को और भी कमजोर करेगी, या फिर वह खुद को समाज की इन बेड़ियों से बाहर निकाल पाएगी? और वासु का निर्णय क्या उसके जीवन की दिशा बदल देगा?

    आगे की कहानी के लिए जुड़े रहिए, और अपनी प्रतिक्रियाएँ साझा करते रहिए!

    राधे राधे 🪷

  • 5. प्रेममय - Chapter 5

    Words: 4261

    Estimated Reading Time: 26 min

    वासु की मम्मी उसकी बात सुनकर थोड़ी चौंकीं। उन्होंने एक कदम आगे बढ़ाते हुए कहा, "अरे वासु, तू समझ नहीं रहा। ये कोई छोटी बात नहीं है। इकलौता बेटा, अगर लोकल कॉलेज से पढ़ाई करेगा तो लोग क्या कहेंगे? हमारी इज्जत पर सवाल उठेंगे। हर कोई ये कहेगा कि हमारे पास पैसा होते हुए भी हमने तुझे अच्छे कॉलेज में नहीं भेजा।"

    वासु ने अपनी मम्मी की ओर देखा। उसकी आँखों में गहरी चिंता झलक रही थी, लेकिन उसके दिल में किशोरी का ख्याल ही हावी था। वो किशोरी, जिसकी हर मुस्कान वासु के लिए पूजा की तरह थी; वो किशोरी, जिससे दूर होने की बात ही वासु को तोड़ देती थी। उसने खुद को थोड़ी हिम्मत देते हुए कहा, "मम्मी, मैं जानता हूँ कि आप और पापा मेरे लिए हमेशा अच्छा ही सोचते हैं। लेकिन मैं यहां खुश हूँ, मैं यहां पढ़ना चाहता हूँ। मुझे शहर से बाहर जाने का मन नहीं है।"


    वासु की मम्मी ने उसकी आँखों में गहराई से झाँका। उन्होंने महसूस किया कि वासु अपनी बात पर अड़ा हुआ है। उनका गुस्सा थोड़ा बढ़ने लगा। "वासु, तुझमें इतनी जिद कब से आ गई? हमने तो कभी तुझे किसी चीज़ की कमी नहीं होने दी। तेरा हर सपना पूरा किया है, फिर अब तू क्यों जिद कर रहा है? तुझे बाहर जाना ही होगा, बस!"

    वासु ने मम्मी के चेहरे पर गुस्सा देखा, लेकिन उसने ठान लिया था कि इस बार वह अपनी बात पर अटल रहेगा। उसने अपनी भावनाओं को एक पल के लिए स्थिर करते हुए कहा, "मम्मी, हर चीज़ पैसों और इज्जत से नहीं नापी जाती। कभी-कभी हमें अपनी खुशियों के लिए भी फैसले लेने पड़ते हैं। मुझे यहां रहकर पढ़ाई करनी है, और यही मेरी आखिरी बात है। मैं नहीं चाहता कि मैं किसी बड़े कॉलेज में जाऊं और यहां से दूर हो जाऊं।"

    वासु की मम्मी अब थोड़ा और गंभीर हो गईं। उन्होंने कठोर स्वर में कहा, "तू ये क्या कह रहा है? आखिर क्यों तुझे यहां से इतना मोह है? तुझे बाहर जाने में क्या परेशानी है? वहां की पढ़ाई, वहां की दुनिया, तेरा करियर सब अच्छा हो जाएगा। और ये भी ध्यान रख, तेरी ये जिद हमें समाज में नीचा दिखा सकती है।"

    वासु ने एक क्षण को गहरी सांस ली और फिर अपनी मम्मी की ओर सीधे नजरों से देखा। "मम्मी, बात सिर्फ पढ़ाई की नहीं है। बात है कि यहां मैं खुश हूँ। यहां मुझे वो सब मिलता है जो मुझे चाहिए... और...."

    "बस ... मैं तेरी कोई बात नहीं सुनूंगी ....तू जायेगा मतलब जायेगा ही ...नही तो फिर मैं तुझसे कभी बात नहीं करूंगी।" वासु की मम्मी गुस्से से बोलीं।

    वासु की मम्मी दनदनाती हुई, वासु की बात सुने बिना बाहर चली गई।


    वासु की मम्मी का स्वभाव हमेशा से ऐसा था, जो समाज और लोगों के विचारों को सबसे पहले तरजीह देती थीं। वह हमेशा यही सोचतीं कि समाज क्या कहेगा, लोग उनके परिवार को कैसे देखेंगे। उनकी ज़िंदगी की सबसे बड़ी चिंता यही थी कि किसी भी परिस्थिति में उनका परिवार और उनका नाम समाज में सम्मानित रहे। वे बहुत ही सख्त थीं और अपनी बात पर अड़ जाती थीं, लेकिन इस सख्ती के पीछे उनका एक मातृत्व का प्यार भी था, जो हमेशा अपने परिवार की भलाई की चिंता करता था।

    उनकी आँखों में हमेशा यही चिंता होती कि उनका बेटा सही रास्ते पर चले और उनके परिवार की इज्जत बनी रहे। एक माँ के रूप में, वासु की मम्मी ने अपने बेटे को हर सुख-सुविधा दी थी। उसने वासु के हर कदम पर उसके सपनों को पूरा करने की कोशिश की थी, लेकिन उस प्यार में कुछ ऐसा था जो उसे कभी भी 'समाज' और 'शोहरत' से बाहर नहीं जाने देना चाहता था। उसके लिए, वासु का शहर में रहकर पढ़ाई करना और समाज के मानकों से हटकर कोई फैसला लेना, यह सब उसे अस्वीकृत सा लगता था।

    "समाज क्या कहेगा?" यह वाक्य हमेशा उसकी जुबां पर रहता था। वह सोचती थी कि अगर वासु ने लोकल कॉलेज से पढ़ाई की, तो लोग कहेंगे कि उनके पास पैसा होते हुए भी उन्होंने अपने बेटे को अच्छे कॉलेज में नहीं भेजा। यह उनके लिए सबसे बड़ी चिंता का विषय था। वह चाहती थी कि वासु का करियर और भविष्य कुछ ऐसा हो, जिससे समाज में उनकी प्रतिष्ठा बनी रहे।

    लेकिन इसके बावजूद, उसकी ममता कभी खत्म नहीं होती थी। वह अपने बेटे को हमेशा चाहते हुए भी उस पर किसी तरह का दबाव डालती थी। उसकी आँखों में एक गहरी भावनात्मक चिंता थी, जो वासु के भले के लिए थी। वह चाहती थी कि उसका बेटा हमेशा खुश रहे, लेकिन इस खुशी के लिए वह कभी-कभी अपनी सीमाओं से बाहर जाकर भी फैसले लेती थी।

    वासु की मम्मी, जितनी सख्त दिखती थीं, उतनी ही नर्म और प्यार से भरी हुई थीं। जब वह अपने बेटे के लिए किसी चीज़ पर अड़ जाती थीं, तो उसके पीछे उनका अपार प्यार और चिंता होती थी। वह कभी नहीं चाहती थीं कि उनका बेटा किसी गलत दिशा में जाए, और यही कारण था कि जब वासु ने उनकी बात नहीं मानी, तो उनका गुस्सा भड़क उठा। लेकिन उसी गुस्से में भी एक गहरी ममता छिपी हुई थी, जिसे वासु ने महसूस किया था।

    उनकी माँ का व्यक्तित्व दो अलग-अलग पहलुओं से बना था—एक ओर वह अपने बेटे के भविष्य के लिए बहुत चिंतित थीं, और दूसरी ओर वह एक सच्ची माँ की तरह अपने बेटे के फैसलों को समझने की कोशिश करती थीं। वह जानती थीं कि समाज की राय और इज्जत मायने रखती है, लेकिन वे यह भी समझती थीं कि बेटे का सुख और खुशी सबसे ज़रूरी है।

    वह यह मानती थीं कि एक माँ का काम अपने बेटे के लिए रास्ता चुनना नहीं, बल्कि उसे उस रास्ते पर चलने के लिए हिम्मत देना होता है। लेकिन कभी-कभी वह अपनी खुद की उम्मीदों और समाज की दबावों में इतनी बुरी तरह उलझ जाती थीं कि वह अपने बेटे की खुशी को भूल जाती थीं।

    वैसे तो वह अपने बेटे के लिए हर कदम पर खड़ी रहती थीं, लेकिन कभी कभी उन्हें ये नहीं समझ आता था कि हर फैसला उनके बेटे का खुद का होना चाहिए, और वह उस फैसले में खुश रहे, चाहे वह समाज के मानकों से मेल खाता हो या नहीं। जब वासु ने अपनी बात पर अड़ते हुए उन्हें यह समझाया, तो उनका दिल थोड़ा पिघला, लेकिन उनका गुस्सा फिर भी हावी हो गया।

    उनकी ममता और समझदारी का संघर्ष हमेशा ऐसा ही था। जब उन्हें लगता कि उनका बेटा गलत दिशा में जा रहा है, तो वह उसे डाँटतीं और समझातीं। और जब वह महसूस करतीं कि उनका बेटा सचमुच अपनी राह पर है, तो उनका दिल राहत से भर जाता था।

    वासु की मम्मी का प्यार एक आंधी जैसा था—कभी तेज़, कभी हल्का, लेकिन हमेशा उसी दिशा में था, जहाँ उनका बेटा सुरक्षित और खुश रहे। उनके दिल में वासु के लिए गहरी ममता थी, जो कभी नहीं खत्म होने वाली थी, भले ही उनकी सख्ती कभी-कभी उसे आहत कर देती थी। उनके लिए वासु की खुशी और उसकी जिद को समझना उतना ही जरूरी था, जितना कि समाज में इज्जत बनाए रखना।

    उनकी दुनिया के दोनों पहलू हमेशा एक दूसरे से टकराते रहते थे, लेकिन अंत में वह हमेशा यही चाहतीं कि उनका बेटा अपने फैसलों में खुश और संतुष्ट रहे, और इसके लिए वह अपनी सख्ती से कभी नहीं हिचकिचाती थीं।


    वासु अपनी मम्मी को दरवाजे से जाते हुए देखता रहा; उसकी आँखों में हल्की नमी उभर आई। मन में किशोरी की छवि और अपनी मम्मी की कठोर बातों के बीच फंसा हुआ, वह खिड़की के पास जाकर खड़ा हो गया। बाहर बारिश की बूंदें गिर रही थीं, और उसी बारिश के साथ उसके दिल में बसा दर्द भी शब्दों में ढलने लगा।

    वासु ने गहरी सांस ली, मानो उसके दिल का दर्द बारिश की बूंदों के साथ बह रहा हो। पर भीतर ही भीतर, वो जानता था कि अब उसे एक बड़ा फैसला लेना है।


    वही दूसरी तरफ, किशोरी मंदिर से बाहर आई, तो बारिश की बूंदें उसके चेहरे पर गिरने लगीं। उसकी आँखों में अब भी मंदिर के दीये की लौ और भगवान की प्रतिमा की छवि बसी हुई थी। वह आसमान की ओर देखती रही, जैसे बारिश उसकी आत्मा को शांति देने की कोशिश कर रही हो, लेकिन उसके भीतर कहीं गहरी उथल-पुथल थी। उसकी पलकें बारिश की बूंदों से भारी हो गईं, पर उसके दिल में कुछ और ही चल रहा था। वह वासु के प्रेम से अंजान थी या फिर जानबूझकर उसे अनदेखा कर रही थी, क्योंकि उसकी भक्ति में उसका कृष्ण कन्हैया ही सब कुछ था।

    किशोरी के मन में हर दिन, हर पल, बस उसके कान्हा का ध्यान था। उसकी प्रार्थना, उसकी भक्ति, उसके विचार — सब कुछ कृष्ण में लीन थे। जब भी वह कृष्ण की मूरत के सामने बैठती, उसके दिल में सुकून की एक अनोखी लहर दौड़ जाती। उसे लगता था कि संसार में सब कुछ व्यर्थ है, केवल उसके कान्हा की भक्ति ही सच्ची है। उसकी आँखों में कृष्ण की छवि बसी थी, और यही उसे संसार से दूर रखता था।

    बारिश के बीच दौड़ते हुए, उसने खुद से कहा, "वासु? मैं उसे क्यों सोचूँ? मेरी दुनिया तो मेरे कान्हा में है।"

    लेकिन वासु का ख्याल बार-बार उसके मन के कोने में आकर उसे बेचैन कर देता था। किशोरी जानती थी कि वासु उससे प्रेम करता है, लेकिन वह खुद इस प्रेम को समझने या स्वीकार करने को तैयार नहीं थी। उसके लिए यह कोई साधारण बात नहीं थी।

    वह खुद से धीरे-धीरे बोलने लगी, "वासु को समझना चाहिए, मेरा प्रेम मेरी भक्ति सिर्फ मेरे कृष्ण के लिए है। उसका प्यार... शायद सही हो, लेकिन मेरे लिए ये संसारिक प्रेम कुछ नहीं। मुझे तो बस कृष्ण की भक्ति में ही सुख मिलता है।"

    किशोरी की रफ़्तार अब धीमी हो चुकी थी। वह मंदिर से काफी दूर आ गई थी और उसकी साँसें तेज़ हो रही थीं। बारिश की बूंदों के बीच, वह धीरे-धीरे चलने लगी। उसकी सोच एक बार फिर उसे कृष्ण की मूरत के पास ले गई। मंदिर में बिताया हर पल, वह दीपक की जलती लौ, और भगवान की शांति—सब कुछ उसे वासु से दूर खींचता था।

    "मंदिर में कदम रखते ही मानो एक शांति की चादर हर तनाव, हर दुख पर बिछ जाती है। यह अनुभव हमने भी कभी न कभी महसूस किया ही है, जहाँ दुनिया की हर फिक्र मंदिर की उस शांतिमा में खो जाती है। मंदिर में जाकर दिल कितना हल्का हो जाता है। वहां ऐसा लगता है कि दुनिया की हर समस्या छोटी पड़ गई हो, और जो कुछ भी अंदर की उथल-पुथल है, वो किसी दिव्य शक्ति के आगे अपने आप शांत हो गई हो।"


    दूसरी ओर, वासु भी उस क्षण अपने दिल में उथल-पुथल को झेल रहा था। बारिश की बूंदें उसकी खिड़की से बहकर नीचे गिर रही थीं, जैसे उसकी हर भावना का भार खुद में समेटे हुए हों। उसके दिल में किशोरी का विचार गहरा हो गया था, और वह एक पल के लिए भी उस ख्याल से खुद को दूर नहीं कर पा रहा था।

    उसने खिड़की से बाहर देखते हुए मन ही मन ठान लिया, "अगर किशोरी की भक्ति उसकी ताकत है, तो मेरा प्रेम भी मेरी शक्ति है। मैं उसे पाऊँ या नहीं, पर उसे खोने नहीं दूँगा।"


    क्योंकि वासु तो अपने दिन की शुरुआत से ही किशोरी को हर चीज़ में ढूँढने लगता है। सुबह उठते ही वह सोचता है कि "आज किशोरी को देखकर दिन शुभ होगा।" उसे बस इतनी तसल्ली चाहिए कि किशोरी मुस्कुराती हुई उसे एक बार देख ले। वो चाहे कितने भी लोगों के बीच हो, उसकी आँखें हमेशा किशोरी को ढूँढती रहती हैं।

    जब भी वासु किसी तकलीफ से गुजरता है, उसे बस यही लगता है कि अगर किशोरी उसके पास होती तो सब ठीक हो जाता। यहाँ तक कि अगर उसे कभी चोट भी लग जाए, तो वो ये सोचकर खुश हो जाता है कि "काश किशोरी को ये चोट दिखे और वो उसकी फिक्र करे।" उसकी हर तकलीफ में उसे बस किशोरी के साथ की तलाश रहती है।


    वासु को बारिश की बूंदों में किशोरी की मुस्कुराहट दिखती है, चाय के कप में उसकी हँसी की मिठास, और यहाँ तक कि हवा में किशोरी की खुशबू। अगर कोई गीत सुन लेता है, तो उसे लगता है कि "ये गीत तो किशोरी के लिए ही लिखा गया है।" वो इतनी गहराई से जुड़ा है कि हर छोटी चीज़ में किशोरी की मौजूदगी को महसूस करता है।


    वासु की सबसे बड़ी खुशी यही है कि किशोरी खुश रहे। चाहे उसकी खुशी में वासु की कोई जगह हो या न हो, वो बस इस बात से संतुष्ट हो जाता है कि किशोरी मुस्कुरा रही है। अगर उसे लगता है कि उसकी वजह से किशोरी की तकलीफ बढ़ सकती है, तो वो खुद को दूर करने के लिए भी तैयार रहता है। उसके प्रेम में स्वार्थ का एक कण भी नहीं है।


    वासु को अक्सर लगता है कि किशोरी के बिना उसकी जिंदगी अधूरी है। अगर कभी वो किशोरी को न देख पाए तो बेचैन हो उठता है, उसे ऐसा लगता है जैसे उसकी साँसें थम जाएंगी। उसकी यह बेचैनी इतनी गहरी है कि लोग उसे देखकर कहते हैं, "वासु तो सच में बावरा हो गया है।"

    जब भी कोई वासु की आँखों में देखता है, तो उसे किशोरी के लिए उस बेमिसाल प्यार की झलक मिलती है। उसकी आँखों में किशोरी के प्रति ऐसा अटूट प्रेम और सम्मान है, जैसे वो उसकी दुनिया का केंद्र हो। चाहे वासु कितना भी चुप क्यों न रहे, उसकी आँखें हमेशा वही कह देती हैं जो उसके दिल में है।

    वासु का यह प्रेम सिर्फ पाना नहीं, बल्कि देना जानता है। उसकी दुनिया का हर रंग, हर एहसास, हर ख्वाब बस किशोरी के इर्द-गिर्द ही घूमता है। वो उसकी पूजा करता है, उसकी इज्जत करता है और उसे हर हाल में खुश देखना चाहता है। वासु का प्रेम सच्चे प्रेम की उस पराकाष्ठा को छूता है, जो खुद को भुलाकर, सिर्फ अपने प्रेम के अस्तित्व में ही रम जाता है।

    वासु ने अपनी डायरी उठाई और उसमें एक कविता लिखने लगा:

    तू जैसे उस दीपक की लौ है, जो अंधेरे में भी अपनी रौशनी से राह दिखाता है,
    हम जैसे उस दीप के चारों ओर घूमते संजीवनी प्राण हैं।
    तू जैसे चाँद की चाँदनी है, जो रात की नीरवता में भी चाँदनी से सब कुछ रौशन कर देती है,
    हम जैसे उस चाँदनी के साथ सागर की लहरें हैं, तू हर लहर में समाती जाती है।

    तू जैसे सूरज की किरण है, जो सुबह की ताजगी लाती है,
    हम जैसे तुझसे जुड़ी हुई छाँव हैं, जो तेरे बिना नहीं ठहर सकती।
    तू जैसे उस वृक्ष की जड़ है, जो धरती के अंछुए हिस्सों में जीवन देती है,
    हम जैसे उस वृक्ष की शाखाएँ हैं, जो तुझसे ही अपने अस्तित्व का अहसास करती हैं।

    तू जैसे हर नदी की धारा है, जो सागर तक पहुँचने का रास्ता बनाती है,
    हम जैसे उस धारा के सहारे चलने वाले नाविक हैं, तू ही हमारी दिशा, तू ही हमारा किनारा है।
    तू जैसे सर्दी में एक गर्माहट है, जो बर्फीले रास्तों को भी पिघला देती है,
    हम जैसे उस गर्मी के सहारे ठंड से लड़ते, रुकते नहीं, बढ़ते जाते हैं।

    तू जैसे हर फूल की खुशबू है, जो किसी भी बगिया में बसी हो,
    हम जैसे उस बगिया के हर रंगीन फूल हैं, जो तुझसे ही सुंदरता पाते हैं।
    तू जैसे संगीत की मीठी धुन है, जो दिलों को शांत करती है,
    हम जैसे उस संगीत के सुर हैं, जो तू जोड़े तो ही सार्थक होते हैं।

    तू जैसे प्रचंड आंधी में भी शांत समुद्र है,
    हम जैसे उस समुद्र के शांत पानी हैं, जो तुझसे ही अपना अस्तित्व पाता है।
    तू जैसे नदियों की वह धारा है, जो सदियों से बहती रहती है,
    हम जैसे उस धारा के किनारे खड़े रहने वाले जीव हैं, जो तुझसे कभी दूर नहीं जा सकते।

    तू सारा ब्रह्मांड है, तू वो अनंत शक्ति है,
    हम सिर्फ उस शक्ति के एक अंश हैं, जो तुझसे मिलकर पूरा होता है।


    वासु ने अपनी डायरी बंद कर दी और कुछ देर के लिए उसकी नजरें उस पर गड़ी रही। डायरी की ऊपरी सतह पर बने कमल के फूल ने उसकी सारी संवेदनाओं को जैसे एक साथ समेट लिया था। वह पुरानी तरह की डायरी थी, लेकिन उसकी बनावट बिल्कुल नई और साफ-सुथरी थी। डायरी का पृष्ठ मोटा और मज़बूत था, उसके ऊपर बारीकी से उकेरा हुआ कमल का फूल, जो उसकी पूरी सुंदरता में बेतहाशा बिखरा हुआ था, जैसे इस डायरी में छिपे हर शब्द की गहरी भावना हो।

    कमल का फूल, जो पानी में खिलते हुए किसी शुद्धता और नयापन का प्रतीक होता है, ठीक वैसे ही यह डायरी वासु के प्रेम की शुद्धता और गहराई का प्रतीक थी। फूल की पंखुड़ियाँ इतनी नाजुक थी कि हर एक विवरण उस पर बड़ी सोच-समझ से उकेरा गया था। कमल के अंदर एक साधारण सुंदरता और साथ ही एक असाधारण ताकत भी थी, जैसे वासु का प्रेम - जो नाजुक था, मगर उसकी ताकत को कोई नहीं समझ सकता था।

    वह कुछ पल उस कमल के फूल को निहारता रहा, जैसे वह उन शब्दों को महसूस करने की कोशिश कर रहा हो, जिन्हें उसने अपने दिल की गहराई से लिखा था। उस डायरी के अंदर उसकी सारी भावनाएँ समाई हुई थीं, और वह सोच रहा था कि क्या कभी किशोरी भी उसकी इन भावनाओं को समझ पाएगी? क्या वह उस कमल के फूल को देखेगी और उसे समझेगी, जैसे वह उसे समझता था?

    डायरी के पृष्ठों के किनारे हल्के से सफेद रंग के धब्बे थे, जैसे किसी पुराने किताब के पन्नों पर समय ने अपनी छाप छोड़ी हो। लेकिन वह छाप इस डायरी को और भी ज्यादा खास बना रही थी। जैसे वासु का प्रेम, जो समय की कसौटी पर परखा गया था, फिर भी अपनी पूरी सुंदरता के साथ जीवित था। डायरी की मोटी पंक्तियाँ और उन पर बने उकेरे हुए डिज़ाइन इस बात का प्रतीक थे कि वासु ने अपनी भावनाओं को पूरी ईमानदारी से लिखा था, जैसे वह अपनी आत्मा को बाहर निकालकर उन पन्नों में रख रहा हो।

    कमल के फूल के चारों ओर हल्की सी सोने की धारा बनी हुई थी, जो उसे और भी रॉयल और विशेष बना देती थी। वासु के हाथ में वह डायरी कुछ इस तरह महसूस हो रही थी, जैसे वह किसी अवर्णनीय खजाने को अपने हाथों में पकड़ रहा हो। उसने धीरे से उसे फिर से खोला और एक और कविता लिखने के लिए कलम उठाई, क्योंकि उसे लगता था कि किशोरी की मुस्कान में बसी उसकी आत्मा की कोई कविता कभी भी पूरी नहीं हो सकती।


    थोड़ी देर बाद...


    किशोरी अपने आंगन में पौधों को पानी दे रही थी। चारों ओर पक्षियों की चहचहाहट और हल्की-सी ठंडी हवा बह रही थी। तभी पड़ोस की दो पंद्रह साल की लड़कियां दौड़ती हुई आईं।

    "किशोरी दीदी!" उनमें से एक ने मुस्कुराते हुए कहा, "आपसे कुछ पूछना है।"

    किशोरी ने पानी का घड़ा एक ओर रखते हुए कहा, "आओ, बैठो। क्या पूछना है?"

    "माखन चोरी को लोग शरारत कहते हैं। क्या ये सच में चोरी थी?" पहली लड़की ने पूछा।

    "माखन चोरी सिर्फ शरारत नहीं थी। वो एक संदेश था। माखन उस समय संपत्ति का प्रतीक था, और जिनके घर में माखन अधिक होता था, वे उसे जमा करके रखते थे। कान्हा जी ने दिखाया कि धन-संपत्ति को बांटना चाहिए, उसे जरूरतमंदों तक पहुंचाना चाहिए। उनकी माखन चोरी में एक दैवीय न्याय छिपा था।" किशोरी ने कहा।


    "रासलीला को लेकर लोग सबसे ज्यादा सवाल करते हैं। क्या वो सच में गलत था?" दूसरी लड़की ने सवाल किया।

    "रासलीला? वो तो प्रेम की सबसे पवित्र अभिव्यक्ति थी। रासलीला का मतलब है आत्मा का मिलन। गोपियां अपने सारे बंधन छोड़कर भगवान के प्रेम में मग्न हो गईं। कान्हा जी ने सिखाया कि सच्चा प्रेम देह से परे होता है। रासलीला एक साधना थी, जहां हर आत्मा ने ईश्वर से जुड़ने का अनुभव किया। जो इसे गलत समझते हैं, वे इसकी गहराई को नहीं समझ पाए।" किशोरी ने गंभीर होकर कहा।


    "और गोवर्धन पर्वत उठाने का क्या मतलब था, दीदी?" पहली लड़की ने उत्साहित होकर पूछा।

    "वो तो भगवान का सबसे बड़ा संदेश था। जब इंद्र देव ने अहंकार में आकर गोकुलवासियों पर बारिश और तूफान भेजा, तो कान्हा जी ने गोवर्धन पर्वत उठाकर दिखाया कि सच्ची शक्ति भक्ति और एकता में है। उन्होंने सिखाया कि जब हम अपने सामूहिक प्रयास और विश्वास से आगे बढ़ते हैं, तो कोई भी आपदा हमें नुकसान नहीं पहुंचा सकती।" किशोरी ने मुस्कुराते हुए कहा।



    "लोग सुदामा जी की कहानी को तो बहुत अच्छा मानते हैं। इसमें क्या खास है?" दूसरी लड़की ने कहा।

    "सुदामा जी की कहानी हमें सिखाती है कि सच्ची मित्रता में धन, दौलत, और स्थिति का कोई महत्व नहीं। सुदामा जी गरीब थे, लेकिन कान्हा जी ने उन्हें ऐसा सम्मान और प्रेम दिया, जो किसी राजा को भी नहीं मिलता। ये सिखाता है कि प्रेम और समर्पण ही असली धन है।" किशोरी ने प्यार भरे स्वर में कहा।

    "और वो कहानी, जब द्रौपदी का चीरहरण हो रहा था? लोग कहते हैं कि भगवान ने उन्हें पहले क्यों नहीं बचाया?" पहली लड़की ने सहमते हुए पूछा।

    "कान्हा जी ने कभी किसी का कर्म नहीं छीना। उन्होंने द्रौपदी को खुद अपनी मदद के लिए पुकारने का अवसर दिया। जब द्रौपदी ने अपने सभी प्रयास कर लिए और अंत में भगवान को पुकारा, तभी उन्होंने सहायता की। इसका संदेश है कि ईश्वर तब तक मदद नहीं करते जब तक हम स्वयं प्रयास नहीं करते। और जब हम समर्पण करते हैं, तब ईश्वर हमारी रक्षा अवश्य करते हैं।" किशोरी ने कहा।



    "और महाभारत के युद्ध में गीता का ज्ञान? वो क्यों दिया गया, दीदी?" दूसरी लड़की ने कहा।

    "गीता का ज्ञान तो पूरी मानवता के लिए था। अर्जुन धर्म संकट में थे, जब उन्हें अपने ही अपनों के खिलाफ लड़ना पड़ा। कान्हा जी ने उन्हें यह सिखाया कि जीवन में कर्म करना हमारा धर्म है, और परिणाम की चिंता किए बिना अपने कर्तव्य का पालन करना ही सच्चा मार्ग है। यह ज्ञान हमें हर परिस्थिति में सही निर्णय लेने और अपने कर्म को ईश्वर को समर्पित करने की शिक्षा देता है।" किशोरी ने कहा।



    "लेकिन दीदी, जब कृष्ण जी ने अपने ही वंश को खत्म होते देखा, तो उन्होंने उसे क्यों नहीं रोका?" पहली लड़की ने आश्चर्य से पूछा।

    "यह लीला यह सिखाती है कि संसार में हर चीज नश्वर है। कान्हा जी ने अपने वंश के विनाश को रोका नहीं, क्योंकि यह समय का चक्र था। उन्होंने दिखाया कि जब अहंकार और गलतियां हद पार कर जाती हैं, तो उन्हें मिट जाना चाहिए, चाहे वह खुद का वंश क्यों न हो। उन्होंने यह भी सिखाया कि ईश्वर भी अपने नियमों का पालन करते हैं।" किशोरी ने गहरी नजरों से देखते हुए कहा।

    "दीदी, कान्हा जी की 16,108 पत्नियों के बारे में लोग कई बातें कहते हैं। क्या यह सच है? और इसका क्या अर्थ है?" दूसरी लड़की ने हिचकिचाते हुए पूछा।

    किशोरी मुस्कुराईं और कहा, "ये प्रश्न बहुत गहराई लिए हुए है। कान्हा जी की 16,108 पत्नियां प्रतीकात्मक हैं। इसका मतलब समझने के लिए हमें उनकी कथाओं को आध्यात्मिक दृष्टि से देखना होगा।"

    लड़कियां उत्सुकता से उनकी ओर देख रही थीं। किशोरी ने आगे कहा, "दरअसल, यह संख्या आत्माओं की है। 16,108 वे आत्माएं हैं, जो भगवान कृष्ण से जुड़ीं। ये वे आत्माएं थीं, जिन्हें नरकासुर ने बंदी बना लिया था। कृष्ण जी ने उन्हें मुक्त कराया। जब वे महिलाएं समाज में लौटने से डर रही थीं, क्योंकि समाज उन्हें स्वीकार नहीं करता, तब कान्हा जी ने उन्हें अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार कर लिया। यह समाज को सिखाने का तरीका था कि हर व्यक्ति का सम्मान होना चाहिए, चाहे वह किसी भी परिस्थिति से गुजरा हो।"

    "लेकिन दीदी, क्या वह वास्तव में हर एक को अपना समय देते थे?" पहली लड़की ने आश्चर्य से पूछा।

    "यही भगवान की लीला है। कृष्ण केवल एक व्यक्ति नहीं हैं; वे सर्वव्यापी हैं। वे हर आत्मा के साथ व्यक्तिगत रूप से जुड़े रह सकते हैं। इसे समझने के लिए भौतिक दृष्टिकोण को छोड़कर आध्यात्मिक दृष्टि अपनानी होगी। वे हर एक पत्नी के साथ उस समय उपस्थित होते थे, जब वह उन्हें पुकारती थी। यह सिखाता है कि ईश्वर हर जगह और हर किसी के साथ होते हैं।" किशोरी ने उत्तर दिया।


    दोनों लड़कियां शांत हो गईं। किशोरी ने कहा, "कान्हा जी की हर लीला में एक सीख है। लोग अगर केवल बाहरी रूप देखते हैं, तो उन्हें कुछ चीजें गलत लग सकती हैं। लेकिन जब आप उनके कार्यों की गहराई में जाएंगे, तो आपको समझ आएगा कि वो हर पल हमें कुछ सिखा रहे थे।"

    "आपने सब कुछ इतना अच्छे से समझाया, दीदी। अब हम कभी कान्हा जी की लीलाओं को गलत नहीं समझेंगे।" लड़कियों ने सिर हिलाया और कहा।

    "याद रखना, जो दिखता है, हमेशा वही सच नहीं होता। कान्हा जी के जीवन को समझने के लिए उनकी भक्ति में डूबना पड़ता है।" किशोरी ने मुस्कुराते हुए कहा।

    लड़कियां मुस्कुराती हुई चली गईं। किशोरी फिर से पौधों को पानी देने में लग गईं, लेकिन उनके मन में कान्हा जी की लीलाओं की गूंज देर तक चलती रही।


    आपने देखा कि वासु और किशोरी के बीच के विचार और भावनाएँ कितनी उलझी हुई हैं। एक तरफ वासु का किशोरी के प्रति अटूट प्रेम है, जो उसे अपने माता-पिता के फैसलों के खिलाफ खड़ा कर देता है। दूसरी तरफ किशोरी है, जो अपनी भक्ति में इस कदर डूबी हुई है कि वह संसारिक प्रेम को स्वीकार करने से घबरा रही है।

    किशोरी के मन में कृष्ण के प्रति असीम भक्ति प्रेम है, और यही उसे वासु से दूर रखता है। परंतु, क्या किशोरी वास्तव में अपने दिल की सच्चाई से अनजान है, या वह जान-बूझकर उसे अनदेखा कर रही है? वहीं, वासु अपने जीवन का सबसे बड़ा फैसला लेने के कगार पर खड़ा है, और उसकी यह जिद्द क्या उसे किशोरी के करीब लाएगी या और दूर कर देगी?

  • 6. प्रेममय - Chapter 6

    Words: 5057

    Estimated Reading Time: 31 min

    "तेरे प्रेम में खोकर हम सब कुछ भूल बैठे हैं,
    तेरी यादों के सहारे ही हर दर्द को सह पाए,
    तू जो है, कृष्ण की तरह निराकार,
    मेरे दिल की धड़कन में,
    बस गया है वो प्यारा,
    किशोरी तेरा ही नाम।"


    वासु ने कहा, "मुझे आज भी याद है किशोरी, वो दिन... वो दिन जब मैं और तुम पहली बार मिले थे।"


    किशोरी तब 14 साल की थी और वह रोज़ अपने पिता पंडित मनोहर जी के साथ मंदिर जाती थी। वहाँ पहुँचते ही वह भगवान की मूर्तियों के सामने अपनी आँखें बंद कर लेती और पूरी श्रद्धा से प्रार्थना करती। एक दिन, उसने अपने पिताजी से कहा,
    "पापा, मुझे भी भगवान जी की आरती अपने हाथों से करनी है।"


    पंडित जी ने उसकी मासूमियत पर मुस्कुराते हुए कहा,
    "बेटा, तू भी करेगी... एक ना एक दिन वो दिन भी आएगा जब इस मंदिर के हर कोने में तू अपनी भक्ति को बाँधेगी।" किशोरी की आँखों में एक चमक थी, उसकी भक्ति और विश्वास उसे सबसे अलग बनाते थे।


    हालाँकि, स्कूल में किशोरी की कहानी थोड़ी अलग थी। वह पढ़ाई में कभी भी दिलचस्पी नहीं लेती थी। 8वीं कक्षा में वह फेल हो गई थी और उसे फिर से उसी कक्षा में बैठना पड़ा। जब वह वापस 8वीं कक्षा में बैठी, तो उसकी वही पुरानी आदतें जारी रहीं—कक्षा में उसकी कॉपी के हर पन्ने पर भगवान कृष्ण की आकृति बनी होती। उसके लिए पढ़ाई का मतलब केवल भगवान कृष्ण के चित्र बनाना और उनकी भक्ति में डूबे रहना था।


    किशोरी की इस आदत से टीचर बेहद परेशान रहते थे। एक दिन, कक्षा में टीचर ने गुस्से में कहा,
    "किशोरी! तुम्हें पढ़ाई में कोई दिलचस्पी नहीं है, सिर्फ कृष्ण ही कृष्ण बनाती रहती हो। स्कूल का नाम डुबा देगी यह लड़की!"


    वासु की मुलाक़ात किशोरी से उस दिन हुई जब किशोरी वापस फिर से 8वीं कक्षा में फेल हो गई और उसे वापस फिर से 8वीं कक्षा में बैठना पड़ा। किशोरी वासु से उम्र में पूरे 2 साल बड़ी थी।


    8वीं कक्षा... सब बच्चे हल्ला-गुल्ला मचा रहे थे जैसे कि वह कोई क्लास न हो, बल्कि कोई मछली मार्केट हो।
    तभी एक बच्चे ने कहा,
    "अरे अरे सब चुप हो जाओ...प्रिंसिपल सर आ रहे हैं।"


    सब बच्चे एकदम से चुपचाप अपनी-अपनी जगह बैठ गए जैसे कि कुछ हुआ ही नहीं। क्लास में प्रिंसिपल का आना बहुत ही बड़ी बात थी। लेकिन उससे भी बड़ी हैरानी की बात यह थी कि प्रिंसिपल सर के साथ एक लड़की थी; दो छोटी बनाई हुई, स्कूल ड्रेस पहने हुए और मासूम सा चेहरा लिए हुए।


    8वीं कक्षा के सभी बच्चे उस लड़की को घूर कर देख रहे थे क्योंकि कभी भी प्रिंसिपल ऐसे किसी भी बच्चे को स्पेशली क्लास में लेकर नहीं आए थे।
    प्रिंसिपल ने कहा,
    "गुड मॉर्निंग स्टूडेंट्स!"


    सभी बच्चे एक साथ खड़े हो गए और एक ही लंबे से सुर में कहने लगे,
    "गुड्ड्ड मॉर्निंगगगगग सररररर!"


    प्रिंसिपल ने कहा,
    "ये किशोरी है तुम्हारी नई क्लासमेट।"


    किशोरी ने हल्की सी मुस्कान के साथ सभी बच्चों को देखा, उसकी आँखों में एक मासूमियत थी, जो तुरंत सभी का ध्यान आकर्षित कर रही थी। वासु ने भी अपनी सीट से झाँक कर किशोरी को देखा। कक्षा में एक हल्की सी फुसफुसाहट फैल गई। बच्चे अपनी जगह से उठकर किशोरी की ओर देखने लगे, उनके चेहरों पर कौतूहल और उत्सुकता की झलक थी।


    एक बच्चे ने धीरे से कहा,
    "कितनी प्यारी है न ये?"


    दूसरे बच्चे ने चिढ़ाते हुए कहा,
    "देखो प्यारी नहीं है वो, ध्यान से देख उसकी हाइट तुझसे और मुझसे बड़ी है... इतनी बड़ी लड़की अब हमारी क्लास में!"


    किशोरी ने थोड़ी घबराहट के साथ अपनी जगह पर जाकर बैठने की कोशिश की, लेकिन उसकी चुप्पी और सादगी ने उसे सभी से अलग बना दिया।


    प्रिंसिपल ने कहा,
    "किशोरी, तुम्हें हमारी कक्षा में शामिल होने में कोई दिक्कत तो नहीं होगी?"


    किशोरी ने संकोच के साथ सिर झुकाया, पर उसके मुँह से एक भी शब्द नहीं निकले। प्रिंसिपल ने सिर झुका कर सभी को इशारा किया कि क्लास को शुरू किया जाए और बाहर चले गए। बच्चों की निगाहें किशोरी पर ही टिकी थीं। थोड़ी देर बाद क्लास में मिश्रा सर आए। सभी बच्चों ने उठकर मिश्रा सर को गुड मॉर्निंग विश किया और फिर अपनी-अपनी जगह बैठ गए। मिश्रा सर ने एक नज़र पूरी क्लास में डाली, फिर जैसे ही उनकी नज़र किशोरी की तरफ पड़ी, मिश्रा सर की आँखों में गुस्से की ज्वाला फूट पड़ी।


    "ए किशोरी! तू फिर से 8वीं में फेल हो गई?"


    मिश्रा सर ने जैसे ही कहा, सभी बच्चे आपस में खुसुर-फुसुर करने लगे। क्लास में हड़कंप मच गया। सभी बच्चों ने एक-दूसरे को हैरान और उलझन भरी निगाहों से देखा। वासु की नज़र किशोरी के चेहरे पर ही टिकी थी।


    मिश्रा सर ने किशोरी की ओर गुस्से से देखा और कहा,
    "क्या तुझे पढ़ाई में कोई दिलचस्पी नहीं है? कितनी बार कह चुके हैं कि ध्यान लगाओ।"


    मिश्रा सर के शब्द जैसे ही किशोरी पर पड़े, कक्षा में एक हलचल सी मच गई। बच्चों ने एक-दूसरे को देखना शुरू किया, उनकी आँखों में आश्चर्य और दिलचस्पी की झलक थी। लेकिन किशोरी का चेहरा पूरी तरह से शांत और स्थिर था। मिश्रा सर की नज़रें किशोरी के चेहरे पर गड़ी हुई थीं, उनकी गुस्से भरी आवाज में कोई नरमी नहीं थी।


    "तू फिर से 8वीं फेल हो गई?" उन्होंने जोर से कहा, जैसे कि यह वाक्य खुद ही एक दंड हो। किशोरी ने अपने झुके हुए सिर को थोड़ा सा ऊँचा किया और हल्की सी मुस्कान के साथ मिश्रा सर की ओर देखा। उसकी मुस्कान में एक प्रकार की ठंडक थी। मिश्रा सर का क्रोध और बढ़ गया जब किशोरी ने उनकी किसी भी बात का कोई जवाब नहीं दिया।


    मिश्रा सर ने तेज आवाज में कहा,
    "वासु!"


    वासु एकदम से हड़बड़ा गया और जल्दी से खड़ा हो गया,
    "यस सर!"


    मिश्रा सर ने कहा,
    "तुम क्लास मॉनिटर हो ना...किशोरी को अपने साथ बैठाओ और उसे पढ़ाना होगा। इसको समझाना होगा कि पढ़ाई ज़रूरी है, नहीं तो ये लड़की स्कूल का नाम डुबा देगी।"


    वासु एकदम चौंक गया, लेकिन अगले ही पल उसके चेहरे पर प्यारी मुस्कान आ गई, जब किशोरी ने वासु की तरफ देखा... लेकिन किशोरी के चेहरे पर अब भी कोई भाव नहीं था। मिश्रा सर ने बिना कुछ कहे किशोरी का बस्ता वासु की बेंच पर पटक दिया। यह असामान्य था कि कोई शिक्षक बिना किसी अतिरिक्त शब्द के इतनी कठोरता दिखाए, लेकिन वासु को इस पर चिंता हुई। उसने बस्ता को ध्यानपूर्वक उठाया और किशोरी की ओर देखा, जो शांत और असहाय सी खड़ी थी।


    किशोरी धीरे-धीरे चलकर वासु के पास आकर बैठ गई। वासु की टेबल पर पहले से ही किताबों और नोटबुक्स का ढेर था। उसने जल्दी से अपनी चीज़ें एक तरफ खिसकाईं ताकि किशोरी के लिए जगह बन सके।


    वासु ने हल्की मुस्कान के साथ किशोरी की तरफ देखा और धीरे से कहा,
    "हाय, मैं वासु। क्लास मॉनिटर हूँ। कोई भी दिक्कत हो तो मुझे बताना।"


    किशोरी ने उसकी तरफ एक नज़र डाली, लेकिन कुछ नहीं कहा। उसकी चुप्पी ने वासु को थोड़ा असहज कर दिया।


    मिश्रा सर ने ब्लैकबोर्ड पर गणित का सवाल लिखते हुए कहा,
    "अब मैं जो पढ़ा रहा हूँ, वो सब नोट करो। किशोरी, ध्यान देना, ये तुम्हारे लिए भी है।"


    किशोरी ने धीरे-से सिर हिलाया और किताब खोल ली। मिश्रा सर ने सवाल समझाना शुरू किया, लेकिन उनके शब्दों से ज़्यादा क्लास के बच्चों का ध्यान किशोरी और वासु पर था। कुछ बच्चे हँस रहे थे, तो कुछ फुसफुसा रहे थे।


    एक लड़की ने अपनी सहेली के कान में कहा,
    "देख, वासु के साथ कैसे शांत बैठी है। वरना अब तक रोने लगती।"


    वासु को हैरानी हुई कि किशोरी के चेहरे पर अब भी कोई भाव नहीं थे। उसने सोचा, "ये लड़की इतनी शांत क्यों रहती है? इसे गुस्सा भी नहीं आता क्या?"


    दूसरी ने जवाब दिया,
    "अरे, ये लड़की ना बहुत अजीब है। न हँसती है, न कुछ बोलती है।"


    वासु ने बच्चों की इन फुसफुसाहटों को सुना, लेकिन अनदेखा कर दिया। उसने किशोरी की ओर झुककर कहा,
    "डरो मत, ये सब ऐसे ही बात करते हैं। पढ़ाई में मैं मदद करूँगा। ओके?"


    किशोरी ने हल्का सा सिर हिलाया, लेकिन उसकी आँखें अब भी किताब में ही गड़ी हुई थीं। मिश्रा सर ने आधे घंटे तक पढ़ाया और फिर क्लास के बच्चों को कुछ सवाल हल करने को दिए।


    "जो सवाल हल नहीं कर सकेगा, उसे मैं डबल होमवर्क दूँगा। किशोरी, तुम्हारे लिए ये आखिरी मौका है। अगर अब भी फेल हुई तो..."


    उन्होंने वाक्य अधूरा छोड़ दिया, लेकिन उनकी आवाज में धमकी साफ झलक रही थी। मिश्रा सर के जाते ही क्लास में एक बार फिर हलचल मच गई। बच्चे एक-दूसरे से बातें करने लगे।


    "ये फिर से फेल हो जाएगी," एक लड़के ने कहा।
    "अरे, चुप! ये लड़की कुछ अलग लगती है।"
    "अलग क्या? अजीब है बस।"


    वासु ने उनकी बातों को सुना और झल्लाहट में बोला,
    "चुप हो जाओ सब! कोई अपनी पढ़ाई पर ध्यान नहीं देता, बस दूसरों के बारे में बातें करनी हैं।"


    उसके इस गुस्से से पूरी क्लास शांत हो गई।


    वासु ने धीरे से किशोरी से कहा,
    "अगर तुम्हें कुछ मदद चाहिए हो, तो मुझे बताना। मैं यहाँ हूँ।"


    किशोरी ने अब भी कुछ नहीं कहा और चुपचाप अपनी एक किताब निकाल ली और उसने किताब खोली और उसमें कुछ लिखने लगी। वासु ने एक नज़र देखा कि आखिर किशोरी लिख क्या रही है। वासु ने देखा कि किशोरी अपनी किताब के पन्नों पर "जय श्री कृष्णा" लिखकर पूरा पेज भर रही थी।


    वासु ने धीरे से कहा,
    "ओह! अब समझा मैं!"


    फिर वासु ने आगे कहा,
    "तुम्हें कान्हा जी पसंद हैं ना इसीलिए तुम ये उनका नाम लिख रही हो।"


    किशोरी ने एकदम से अपनी पेन कसकर पकड़ ली और वासु की तरफ देखा और अपना सिर हाँ में हिला दिया। वासु के चेहरे पर लंबी सी मुस्कान आ गई। कक्षा में बाकी बच्चे अब धीरे-धीरे किशोरी के बारे में अपनी बातों को कम करने लगे थे, क्योंकि वासु का शांत और स्नेहपूर्ण व्यवहार धीरे-धीरे सबका ध्यान खींच रहा था। किशोरी ने अपनी किताब के पन्ने पर कान्हा जी के नाम को धीरे-धीरे और भी सुंदरता से लिखना शुरू किया, जैसे कि हर शब्द में अपने दिल की गहराई को प्रकट कर रही हो।


    "क्या तुम कान्हा जी से कभी बात करती हो?" वासु ने उत्सुकता से पूछा।


    किशोरी ने सिर झुका लिया और धीरे से कहा,
    "हाँ, कभी-कभी। जब भी मैं उदास होती हूँ या कुछ समझ नहीं आता, मैं उनसे बात करती हूँ। उनके साथ मेरी बातें बहुत खास होती हैं।"


    वासु ने उसकी बातों को ध्यान से सुना और फिर कहा,
    "हाँ, मेरी मम्मी कहती है कि कान्हा जी बच्चों की बातें जल्दी से सुन लेते हैं।"


    वासु की बातें सुनकर किशोरी की आँखों में एक हल्की चमक आ गई। वह धीरे से मुस्कुराई और बोली,
    "आपकी मम्मी सच कहती हैं। कान्हा जी हमेशा हमारे साथ होते हैं, हमें कभी अकेला नहीं छोड़ते।"


    वासु ने झट से अपना एक हाथ आगे बढ़ाया और कहा,
    "तो फिर तुम मुझसे फ्रेंडशिप करोगी?"


    किशोरी ने अपना सिर ना में हिलाकर कहा,
    "नहीं... मैं सिर्फ कान्हा जी की फ्रेंड हूँ... और किसी की नहीं।"


    वासु का चेहरा उतर गया, लेकिन उसने जल्दी से खुद को संभाला। उसने मुस्कुराते हुए कहा,
    "ठीक है, अगर तुम सिर्फ कान्हा जी की फ्रेंड हो, तो ठीक है... लेकिन मैं हमेशा यहाँ हूँ, अगर तुम्हें कभी भी किसी बात में मदद चाहिए हो तो।"


    किशोरी ने उसकी बातों को सुना और एक बार फिर हल्की मुस्कान के साथ सिर झुका लिया। वासु ने किशोरी की ओर देखा, जो अपनी कॉपी में कृष्ण की तस्वीर बना रही थी, और उसके चेहरे पर हल्की सी मुस्कान थी। ना जाने क्या खिंचाव महसूस कर रहा था वासु किशोरी की इस मुस्कान में।


    ऐसे ही दिन बीतते गए, पर किशोरी में कोई सुधार नहीं आया। रोज़ की रोज़ टीचर से डाँट खाना उसकी आदत सी हो गई थी और उसे इस चीज़ से बिलकुल भी फ़र्क नहीं पड़ता था। वासु को बहुत ही गुस्सा आता था जब कोई टीचर या कोई बच्चा किशोरी को कुछ बोलता, तब... और वासु हमेशा किशोरी की ही तरफ़दारी करता, किन्तु किशोरी को तो कोई प्रभाव ही नहीं पड़ता।


    विज्ञान का पीरियड शुरू हो चुका था। शास्त्री सर कक्षा में आते ही अपनी आदत के मुताबिक सभी बच्चों को चुप बैठने का आदेश दे चुके थे। क्लास में पिन ड्रॉप साइलेंस था। सभी बच्चे अपने-अपने साइंस की किताबें खोल चुके थे। किशोरी हमेशा की तरह अपनी जगह पर चुपचाप बैठी थी। उसकी आँखें किताब पर थीं, लेकिन मन कहीं और। वह पन्ने पलटती जा रही थी, मानो समझने का प्रयास कर रही हो, पर असल में वह टीचर की बातों से कटे हुए अपने ही ख्यालों में खोई थी।


    शास्त्री सर ने अचानक से उसकी तरफ़ देखा और कहा,
    "किशोरी! खड़ी हो जाओ!"


    किशोरी चौंकी। उसने धीमे से खड़े होकर कहा,
    "जी सर।"


    शास्त्री सर ने गुस्से में पूछा,
    "मैंने जो पढ़ाया, वह समझा या नहीं?"


    किशोरी ने धीमे से कहा,
    "नहीं सर।"


    यह सुनते ही शास्त्री सर का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुँच गया। उन्होंने गुस्से में अपनी छड़ी डेस्क पर मारी और बोले,
    "कितनी बार कहा है ध्यान से पढ़ाई करो! रोज़ डाँट खाती हो, रोज़ सज़ा मिलती है, लेकिन कोई सुधार नहीं। आज मैं तुम्हें ऐसी सज़ा दूँगा कि ज़िन्दगी भर याद रहेगी।"


    पूरी क्लास सन्न रह गई। बच्चों के चेहरों पर डर और उत्सुकता के मिले-जुले भाव थे। वासु, जो किशोरी के ठीक बगल में बैठा था, पहले ही सतर्क हो चुका था। उसने महसूस किया कि शास्त्री सर कुछ कठोर करने वाले हैं।


    शास्त्री सर ने गुस्से में कहा,
    "तुम बेंच के ऊपर चढ़ो और अपने हाथ ऊपर उठाओ। जब तक मैं कहूँ, वैसे ही खड़ी रहना।"


    किशोरी ने कुछ नहीं कहा। उसने चुपचाप बेंच पर चढ़कर अपने हाथ ऊपर कर लिए। पूरी क्लास में फुसफुसाहट शुरू हो गई। बच्चे हँसने लगे। किसी ने कहा,
    "देखो, कितनी बड़ी लड़की, लेकिन कितनी बार सज़ा खाती है!"


    दूसरे ने जोड़ा,
    "इस बार शायद इसे स्कूल से निकाल देंगे।"


    वासु को यह सब सुनकर बहुत गुस्सा आ रहा था। उसने खुद को संभालने की कोशिश की, लेकिन बच्चों के ताने और हँसी उसे और चुभने लगे। वासु ने अचानक से अपनी किताब बंद की और खड़ा हो गया।


    "सर!" उसने तेज आवाज में कहा। शास्त्री सर ने गुस्से में उसकी ओर देखा।


    "क्या बात है वासु?"


    वासु ने दृढ़ता से कहा,
    "सर, यह ठीक नहीं है। किशोरी को आप सबके सामने सज़ा देना क्यों ज़रूरी है? अगर वह समझ नहीं पाती, तो इसका मतलब यह नहीं कि आप उसे शर्मिंदा करें।"


    शास्त्री सर को उसकी बात पर और गुस्सा आ गया।


    "तुम उसे बचाने की कोशिश कर रहे हो, वासु? क्या तुमने भी सवाल का जवाब पढ़ा?"


    वासु ने कहा,
    "हाँ सर। आप मुझसे पूछ लीजिए। लेकिन मेरी बात यह है कि अगर कोई बच्चा कमज़ोर है, तो उसे सबके सामने शर्मिंदा करना सही तरीका नहीं है।"


    क्लास में सन्नाटा छा गया। किसी ने कभी टीचर से इस तरह बात करने की हिम्मत नहीं की थी। शास्त्री सर कुछ पल तक वासु को घूरते रहे। फिर उन्होंने कहा,
    "अगर तुम्हें इतना ज्ञान है, तो किशोरी को तुम ही पढ़ा दो। देखूँ, कैसे सुधार लाते हो।"


    वासु ने तुरंत कहा,
    "ठीक है, सर। मैं उसे पढ़ाऊँगा। लेकिन कृपया आप इसे अब सज़ा मत दीजिए। वह वैसे ही बहुत शर्मिंदा है।"


    शास्त्री सर ने झल्लाते हुए कहा,
    "ठीक है। लेकिन अगर इस बार भी उसने कुछ नहीं सीखा, तो सज़ा तुम दोनों को मिलेगी।"


    उन्होंने किशोरी को बेंच से उतरने का आदेश दिया। किशोरी चुपचाप नीचे उतरी और अपनी सीट पर बैठ गई। क्लास के बाद, जब सभी बच्चे अपने-अपने ग्रुप्स में हँसते और बातें करते बाहर निकल गए, वासु ने किशोरी की ओर देखा।


    वासु अभी भी किशोरी को ही देख रहा था और मन ही मन सोच रहा था कि इस लड़की को कैसे समझाएँ। किशोरी को यह समझ नहीं आया कि यह लड़का, जो कक्षा में सबका ध्यान खींचता था और जिसे हर कोई पसंद करता था, अब उसे क्यों देख रहा है।


    वासु ने धीरे से कहा,
    "किशोरी, अगर तुम थोड़ा-सा भी ध्यान पढ़ाई पर लगाओगी तो शायद हम दोनों के लिए ही अच्छा होगा।"


    किशोरी ने बिना कोई जवाब दिए, अपनी कॉपी में फिर से कृष्ण का चित्र बनाना शुरू कर दिया। वासु के लिए यह एक चुनौती थी—एक ऐसी लड़की को पढ़ाई के प्रति प्रेरित करना, जो केवल भगवान कृष्ण की भक्ति में ही मग्न थी। वासु ने मन ही मन ठान लिया कि चाहे जो हो, वह किशोरी को पढ़ाई में मन लगाने के लिए प्रेरित करेगा। उस दिन से उसकी किशोरी के साथ एक अनोखी यात्रा शुरू हुई, जिसमें वह अपने तरीके से उसे पढ़ाई में ध्यान लगाने की कोशिश करता, लेकिन किशोरी हर बार उसे अपने भक्ति के रास्ते की याद दिला देती। धीरे-धीरे, वासु को किशोरी की मासूमियत और सच्ची भक्ति से एक अलग तरह का लगाव होने लगा, जो उसकी अब तक की सोच से परे था।


    धीरे-धीरे दिन बीतने लगे। वासु ने सोचा कि, "शायद मैं इसे समझा पाऊँ।"


    वासु ने धीरे से कहा,
    "किशोरी, अगर तुम थोड़ी पढ़ाई कर लो तो तुम्हारे पापा भी खुश होंगे। सोचो, अगर तुम अच्छे नंबर लाओगी, तो तुम्हारी भक्ति में भी कोई कमी नहीं आएगी।"


    किशोरी ने उसकी ओर देखा, उसकी आँखों में कोई दिलचस्पी नहीं थी। उसने जवाब दिया,
    "मैं तो बस कान्हा के लिए ही पढ़ सकती हूँ। बाकी सब बेकार है।" और वह फिर से अपने चित्र बनाने में लग गई।


    वासु को एहसास हुआ कि किशोरी को सामान्य तरीके से समझाना मुश्किल होगा। उसने एक नई रणनीति अपनाने का सोचा। वासु ने किशोरी के करीब जाकर कहा,


    "ठीक है, अगर तुम कान्हा के लिए पढ़ोगी, तो मैं तुम्हें हर सवाल का जवाब कान्हा की कहानियों के ज़रिए दूँगा। कैसा रहेगा?"


    किशोरी ने वासु की बात पर गौर किया। उसके चेहरे पर थोड़ी उत्सुकता दिखाई दी।


    "अच्छा, तो फिर बताओ, ये गणित का सवाल कान्हा की कथा से कैसे जुड़ सकता है?"


    वासु ने मुस्कुराते हुए कहा,
    "देखो, जैसे कान्हा ने माखन चुराने के लिए अलग-अलग उपाय किए, वैसे ही गणित के सवाल को हल करने के लिए भी हमें अलग-अलग तरीके आजमाने होते हैं। कभी हम सीधे हल करते हैं, कभी उलझे हुए तरीके से।"


    किशोरी ने थोड़ी सोचकर कहा,
    "अच्छा, तो फिर समझाओ।"


    वासु ने महसूस किया कि उसकी योजना काम कर रही है। वह किशोरी को धीरे-धीरे गणित और विज्ञान के सवालों में कान्हा की कहानियों का जिक्र करते हुए पढ़ाने लगा। इस बीच, किशोरी को यह भी एहसास होने लगा कि वासु उसे समझने की कोशिश कर रहा है। उसे भी यह अच्छा लगने लगा कि कोई उसकी भक्ति का सम्मान करते हुए उसे पढ़ाई में मदद कर रहा है।


    वासु ने किशोरी को विज्ञान के सूक्ष्मजीव (Microorganisms) चैप्टर को समझाने का निश्चय किया। वह जानता था कि किशोरी को भगवान कृष्ण की लीलाओं का बहुत प्रेम था, और अगर वह इसे कृष्ण की लीला से जोड़कर समझाए, तो शायद वह इस चैप्टर को समझने में रुचि दिखाएगी। तो, वासु ने एक नई रणनीति अपनाई।


    वह किशोरी के पास आया और कहा,
    "किशोरी, आज हम सूक्ष्मजीवों के बारे में पढ़ेंगे। लेकिन मैं इसे कृष्ण की लीला से जोड़कर समझाऊँगा, ताकि तुम्हें यह और भी दिलचस्प लगे।"


    किशोरी ने वासु की बात सुनी और फिर थोड़ी सी उत्सुकता से उसकी तरफ़ देखा,


    "तो, सूक्ष्मजीवों के बारे में कान्हा की लीला से क्या जुड़ा है?" उसने पूछा।


    वासु ने मुस्कुराते हुए कहा,
    "देखो, कृष्ण की लीलाओं में बहुत सारी छोटी-छोटी घटनाएँ और तत्व होते थे, जिन्हें समझना थोड़ा कठिन हो सकता था। जैसे कृष्ण ने माखन चोरी की लीला में बहुत छोटी-मोटी चीज़ों का ध्यान रखा। यह छोटे-छोटे तत्व ही बड़े परिणामों का कारण बनते थे। ठीक वैसे ही, सूक्ष्मजीव भी बहुत छोटे होते हैं, लेकिन उनके प्रभाव से बहुत बड़े बदलाव हो सकते हैं।"


    किशोरी ने सिर झुकाया और सोचने लगी,


    "तो, जैसे कृष्ण की छोटी-छोटी लीलाओं का बड़ा प्रभाव था, वैसे सूक्ष्मजीवों का भी कोई बड़ा असर होता है?"


    वासु ने कहा,
    "बिलकुल! जैसे कृष्ण ने अपनी लीलाओं में माखन चोरी की और गोवर्धन पर्वत उठाया, ये सभी घटनाएँ छोटी थीं, लेकिन उनके पीछे का कारण और उद्देश्य बहुत बड़ा था। सूक्ष्मजीव भी छोटे होते हैं, लेकिन उनका जीवन और कार्य बहुत महत्वपूर्ण होते हैं।"


    किशोरी ने ध्यान से सुना, तो वासु ने उसे सूक्ष्मजीवों के बारे में और विस्तार से समझाना शुरू किया।


    "सूक्ष्मजीव वो अदृश्य जीव होते हैं, जिन्हें हम अपनी आँखों से नहीं देख सकते। ये बैक्टीरिया, वायरस, फंगस, और प्रोटोजोआ जैसे होते हैं। हालाँकि ये बहुत छोटे होते हैं, पर इनका हमारे जीवन में बहुत बड़ा प्रभाव पड़ता है।"


    वह आगे कहने लगा,
    "जैसे कृष्ण ने अपनी लीला में हर छोटी चीज़ का महत्व समझाया, वैसे ही सूक्ष्मजीवों का भी हर पहलू महत्वपूर्ण होता है। उदाहरण के लिए, बैक्टीरिया होते हैं जो हमारे शरीर के अंदर अच्छे और बुरे दोनों काम करते हैं। ठीक वैसे, जैसे कृष्ण ने हर स्थिति में भगवान का नाम लिया और हर कार्य को धार्मिक रूप से सही किया।"


    किशोरी ने थोड़ी देर सोचा और फिर पूछा,
    "तो, क्या सूक्ष्मजीवों का हमारे जीवन में कोई अच्छा प्रभाव भी हो सकता है?"


    वासु ने मुस्कुराते हुए कहा,
    "बिलकुल! जैसे कृष्ण ने माखन चुराकर गाँववालों के दिलों में आनंद फैलाया था, वैसे ही कुछ बैक्टीरिया हमारे शरीर के लिए फायदेमंद होते हैं। जैसे हमारे पेट में अच्छे बैक्टीरिया होते हैं, जो खाना पचाने में मदद करते हैं। वे हमारे स्वास्थ्य को बनाए रखने में सहायक होते हैं।"


    किशोरी ने कुछ और सवाल पूछा,
    "लेकिन क्या सभी सूक्ष्मजीव अच्छे होते हैं?"


    वासु ने गहरी साँस ली और कहा,
    "नहीं, सभी सूक्ष्मजीव अच्छे नहीं होते। जैसे कृष्ण की लीलाओं में राक्षस और दानव भी होते थे, वैसे ही कुछ सूक्ष्मजीव बुरे भी होते हैं, जैसे वायरस और कुछ प्रकार के बैक्टीरिया जो बीमारी फैलाते हैं। ये सूक्ष्मजीव हमारे शरीर को नुकसान पहुँचा सकते हैं, ठीक वैसे जैसे राक्षस कृष्ण की राह में आने की कोशिश करते थे।"


    किशोरी ने सिर झुका लिया,


    "तो, जैसे कृष्ण ने राक्षसों से लड़कर अपने भक्तों को बचाया, वैसे हमें भी इन बुरे सूक्ष्मजीवों से बचने के उपाय ढूँढने होंगे।"


    वासु ने खुश होकर कहा,
    "बिलकुल! जैसे कृष्ण ने अपने भक्तों की रक्षा की, वैसे हमें भी अपनी सुरक्षा के उपाय अपनाने चाहिए। हमें अपने हाथ धोने चाहिए, साफ़ पानी पीना चाहिए, और स्वच्छता बनाए रखनी चाहिए ताकि बुरे सूक्ष्मजीव हमें नुकसान न पहुँचा सकें।"


    फिर वासु ने एक और उदाहरण दिया,
    "कृष्ण ने माखन चुराने के लिए बहुत बुद्धिमानी से उपाय किए थे, ठीक वैसे ही, वैज्ञानिक भी सूक्ष्मजीवों के बारे में जानने और समझने के लिए बहुत से उपाय करते हैं, ताकि हम उनसे बच सकें और उनका सही उपयोग कर सकें।"


    किशोरी ने अब पूरी तरह से ध्यान दिया और उसने कहा,
    "समझ गई! जैसे कृष्ण ने हर छोटे से छोटे काम को बड़ी चतुराई से किया, वैसे हमें भी सूक्ष्मजीवों को समझकर, उनके प्रभाव को जानकर, अपनी सेहत का ध्यान रखना चाहिए।"


    वासु ने खुशी से कहा,
    "अब तुम समझ रही हो, किशोरी! सूक्ष्मजीव छोटे होते हैं, लेकिन उनका प्रभाव हमारे जीवन में बहुत बड़ा होता है। और जैसे कृष्ण की लीलाएँ हमारी जीवन की दिशा बदल देती हैं, वैसे ही सूक्ष्मजीव भी हमारे स्वास्थ्य और जीवन पर बड़ा असर डाल सकते हैं।"


    किशोरी ने मुस्कुराते हुए कहा,
    "धन्यवाद वासु! अब मुझे सूक्ष्मजीवों का महत्व समझ में आ गया है।"


    वासु ने खुश होकर कहा,
    "जब भी तुम किसी छोटी चीज़ को देखो, याद रखो कि वह कभी-कभी बहुत बड़ी चीज़ का हिस्सा होती है, जैसे कृष्ण की लीलाएँ और सूक्ष्मजीव।"


    किशोरी ने पहली बार रुचि दिखाते हुए अपनी किताब खोली। उसने कहा,
    "ठीक है, मुझे अब इसके सवाल हल करने दो। लेकिन तुम वादा करो कि हर पाठ को कान्हा जी की कहानी से जोड़कर समझाओगे।"


    वासु ने हँसते हुए कहा,
    "पक्का वादा! अब चलो, अगले सवाल पर काम शुरू करते हैं।"


    कई हफ्ते इसी तरह बीते। किशोरी की कॉपी में अब केवल कान्हा के चित्र ही नहीं, बल्कि वासु की मेहनत का फल भी नज़र आने लगा। उसके नंबर सुधरने लगे, और स्कूल के शिक्षक भी यह देखकर हैरान रह गए कि किशोरी ने पढ़ाई में थोड़ी-बहुत दिलचस्पी दिखाना शुरू कर दिया है।


    इसी तरह वासु ने किशोरी को कोशिकाओं के बारे में भी पढ़ाने का एक नया तरीका सोचा। उसने सोचा कि अगर वह इस पाठ को भी कृष्ण की लीलाओं का संदर्भ देकर उसे समझाएगा, तो शायद किशोरी को यह आसानी से समझ में आ जाएगा।


    "किशोरी, अगर तुम कान्हा की लीलाओं से जुड़कर कोशिकाओं के बारे में समझोगी, तो यह तुम्हारे लिए ज़्यादा आसान हो सकता है।"


    किशोरी ने सिर उठाया और थोड़ी उत्सुकता से उसकी तरफ़ देखा। वासु ने फिर शुरू किया:


    "देखो, जैसे कान्हा ने गोवर्धन पर्वत उठाकर गोकुलवासियों की रक्षा की, वैसे ही हमारी कोशिकाओं में भी एक संरचना होती है, जो हमारे शरीर की रक्षा करती है। हम जो भी खाते हैं, पीते हैं, वह सब कोशिकाओं में जाता है और कोशिकाएँ उसे शरीर तक पहुँचाती हैं। जैसे गोवर्धन पर्वत ने गोकुलवासियों को बचाया, वैसे ही हमारी कोशिकाएँ हमारे शरीर को बचाती हैं।"


    किशोरी की आँखों में चमक आ गई। उसने ध्यान से सुना और फिर वासु से पूछा,


    "तो क्या शरीर की सभी कोशिकाएँ एक जैसे काम करती हैं?"


    वासु ने मुस्कुराते हुए कहा,
    "नहीं, बिलकुल नहीं। जैसे कान्हा की लीलाओं में हर भगवान का अलग कार्य होता है, वैसे ही हमारे शरीर की कोशिकाएँ भी अलग-अलग कार्य करती हैं। कुछ कोशिकाएँ खून को शरीर में फैलाती हैं, कुछ कोशिकाएँ हमारी हड्डियों को मज़बूत बनाती हैं, और कुछ कोशिकाएँ हमारे दिमाग के कार्यों को नियंत्रित करती हैं।"


    किशोरी ने अब पूरी तरह से ध्यान दिया और उसकी आँखों में एक नई समझ दिखाई देने लगी।


    "तो जैसे कान्हा की हर लीला का उद्देश्य होता है, वैसे ही हमारी कोशिकाओं का भी

  • 7. प्रेममय - Chapter 7

    Words: 1791

    Estimated Reading Time: 11 min

    वासु ने खुद को किशोरी से दूर रखने की कई बार कोशिश की, लेकिन हर बार असफल रहा। जब भी वह उसके साथ होता, उसके मन में एक अनजानी सी हलचल होती, जैसे किसी अदृश्य डोर से वह किशोरी की ओर खिंचता चला जा रहा था।

    किशोरी का कृष्ण के प्रति समर्पण देखकर वासु के मन में श्रद्धा की भावना जागी। उसे किशोरी का वह सादगी भरा रूप पसंद आने लगा था, जो उसने पहले कभी किसी में नहीं देखा था। वह अक्सर सोचता, "कैसे कोई इतनी आसानी से अपने सारे दुख, सारी चिंताएँ भगवान के सामने रखकर हल्का हो सकता है? उसकी यह निष्कपट भक्ति मुझे क्यों इतनी प्यारी लगती है?"

    एक दिन जब किशोरी अपनी आँखें बंद करके कृष्ण को याद कर रही थी, वासु कुछ दूरी पर खड़ा होकर उसे निहार रहा था। उसके होठों पर मुस्कान थी, आँखों में चमक, और उसका चेहरा किसी दिव्य शक्ति से प्रकाशित हो रहा था।

    वह मन ही मन बुदबुदाया, "किशोरी, तुम सच में अनोखी हो। इस संसार के मोह-माया से दूर, सिर्फ अपने कृष्ण के प्रति समर्पित। और मैं... मैं तो बस तुम्हें देखकर ही तुम्हारे जैसा बनना चाहता हूँ। तुम्हारी भक्ति में कुछ ऐसा है, जो मेरे मन को छू जाता है।"

    वासु के मन में धीरे-धीरे यह भावना गहराने लगी कि उसकी यह अनजानी खिंचाव और किशोरी की भक्ति के प्रति यह आकर्षण शायद प्रेम ही है। लेकिन उसने इस प्रेम को पवित्रता से सींचने का निश्चय किया। उसने अपने दिल से कहा, "किशोरी के लिए मेरे मन में जो प्रेम है, वह किसी सांसारिक प्रेम से अलग है। यह एक ऐसा प्रेम है, जो मुझे भी उस कृष्ण के करीब ले जाने की कोशिश कर रहा है, जिसके लिए वह इतनी गहराई से समर्पित है।"

    और इस तरह, वासु के दिल में किशोरी के प्रति यह पहली प्रेम की भावना, बिना किसी अपेक्षा के, एक अनकही कसम की तरह गहराती चली गई। वह जानता था कि किशोरी उसे शायद एक मित्र से अधिक कुछ न समझे, लेकिन उसके दिल में यह एहसास कहीं गहरे उतर चुका था कि वह किशोरी के प्यार में धीरे-धीरे कृष्ण को पाने की यात्रा कर रहा है।

    वह अब हर रोज़ किशोरी के पास बैठता, उसकी बातों में, उसकी आँखों की चमक में कृष्ण को ढूँढने की कोशिश करता। उसका मन अब उसके लिए एक नया रास्ता चुन चुका था – एक ऐसा रास्ता, जहाँ प्रेम, भक्ति और समर्पण एक साथ चल रहे थे, और वासु धीरे-धीरे उस प्रेम में खुद को खो रहा था, जिसे वह अब तक समझ भी नहीं पाया था।


    वासु हमेशा से ही पढ़ाई के साथ-साथ कला में भी बहुत अच्छा था। उसकी ड्राइंग बुक हमेशा उसके साथ रहती थी, जिसमें वह अक्सर सुंदर चित्र बनाता था। किशोरी ने पहली बार वासु की ड्राइंग बुक को देखा, जिसमें कृष्ण का एक सुंदर चित्र बना हुआ था। चित्र में भगवान कृष्ण अपने हाथों में बांसुरी लिए मुस्कुरा रहे थे, और उनकी आँखों में एक अद्भुत शांति थी।

    किशोरी को यह चित्र इतना पसंद आया कि वह अपनी पढ़ाई की आदतों को भूलते हुए वासु के पास पहुँची। उसने पहली बार सामने से उससे बात की, "मुझे ये चाहिए।"
    वासु थोड़ा चौंका, क्योंकि किशोरी उससे कभी सीधे सामने से बात नहीं करती थी। वह उसे थोड़ा बहुत तो जान ही गया था, उसकी भक्ति और भगवान कृष्ण के प्रति उसकी अटूट निष्ठा से वो भली भांति वाकिफ था।

    वासु ने मुस्कुराते हुए कहा, "तुम्हें यह सच में पसंद आया?"
    किशोरी ने सिर हिलाया और कहा, "हाँ, मुझे कान्हा बहुत प्यारे लगते हैं।"

    वासु ने बिना देर किए अपनी ड्राइंग बुक से वह पन्ना फाड़ा और किशोरी को दे दिया। किशोरी ने पहली बार वासु को ध्यान से देखा। उसने महसूस किया कि वासु में भी भगवान के प्रति गहरा प्रेम था।


    ऐसे ही दिन बीतते गए और अब किशोरी वासु से सामने से थोड़ी बहुत बातें कर ही लेती थी।

    एक दिन, जब कक्षा में ब्रेक चल रहा था, किशोरी ने वासु से कहा, "तुम सच में बहुत अजीब हो, वासु। तुम मुझे पढ़ाते भी हो, और मेरे भगवान की कहानियाँ भी सुनाते हो।"

    वासु ने हँसते हुए कहा, "क्योंकि मैं जानता हूँ कि तुम्हारी ताकत और कमजोरी दोनों कान्हा ही हैं।"

    किशोरी ने हल्की मुस्कान के साथ कहा, "तुम्हारे साथ रहकर लगता है कि जैसे कान्हा खुद मेरे पास हैं।"

    वासु को उस पल कुछ महसूस हुआ—शायद किशोरी की भक्ति ने उसे भी प्रभावित कर दिया था। उसे एहसास हुआ कि प्रेम केवल पाने का नाम नहीं है, बल्कि समर्पण का भी एक रूप है। उसने किशोरी को सिर्फ पढ़ाने का ही नहीं, बल्कि उसकी भक्ति में और गहराई से उतरने का भी संकल्प लिया।


    ऐसे ही वार्षिक परीक्षा का समय भी आ गया।


    अब किशोरी वासु से ठीक से बात करती थी, पर उसकी एक शर्त थी—किसी भी बातचीत की शुरुआत 'जय श्री कृष्णा' या 'राधे राधे' से ही होती। वासु के दिल में किशोरी के प्रति प्रेम दिन-प्रतिदिन बढ़ता गया। उसने किशोरी के प्रति अपने सच्चे भावों को जाहिर करने के लिए सही समय की प्रतीक्षा की।


    किशोरी की अब पढ़ाई में रुचि जग गई थी किंतु उसका कृष्ण प्रेम अभी भी अटूट था।

    किशोरी ने 8वीं कक्षा पास कर ली, जिस वजह से सारे के सारे टीचर आश्चर्यचकित थे, लेकिन मन ही मन खुश भी थे कि किशोरी अपनी पढ़ाई में रुचि दिखा रही है।


    कुछ समय बाद, स्कूल में एक फैंसी ड्रेस प्रतियोगिता का आयोजन हुआ। हर छात्र अपने-अपने कपड़े तैयार कर रहा था और अपनी प्रस्तुति की तैयारी कर रहा था। किशोरी का मन हमेशा भगवान कृष्ण की भक्ति में ही रहता था, इसलिए उसने सोच रखा था कि वह राधा के रूप में भाग लेगी। जब उसने यह बात अपने पापा, पंडित मनोहर जी, को बताई, तो उन्होंने गर्व से मुस्कुराते हुए कहा, "बेटा, तू राधा बनकर इस स्कूल में कृष्णा भक्ति का संदेश फैला देगी।"

    किशोरी की माँ ने हमेशा उसे राधा और कृष्ण की कहानियाँ सुनाई थीं। उसकी माँ का मानना था कि राधा और कृष्ण का प्रेम ही सच्चे प्रेम का प्रतीक है। इसलिए किशोरी के मन में भी राधा और कृष्ण के प्रति गहरी श्रद्धा थी।

    वासु, जो इस प्रतियोगिता में कृष्ण का रूप धारण करने वाला था, अपने कपड़े और बांसुरी के साथ पूरी तैयारी में जुटा हुआ था। जब उसने सुना कि किशोरी राधा के रूप में भाग ले रही है, तो वह खुश हुआ। उसने सोचा, "शायद इस बार हम मंच पर भी साथ आ सकें।"


    फैंसी ड्रेस प्रतियोगिता का दिन आ गया। स्कूल का ऑडिटोरियम रंग-बिरंगी रोशनी और सजावट से जगमगा रहा था। हर कोई अपनी-अपनी पोशाक में शानदार दिख रहा था, लेकिन सबसे ज्यादा ध्यान खींचने वाले वासु और किशोरी थे। किशोरी ने राधा की पोशाक पहन रखी थी – हल्के गुलाबी और सफेद रंग की लहंगा-चोली, माथे पर बिंदी, और हाथों में रंगीन चूड़ियाँ। उसकी आँखों में सादगी और भक्ति का अद्भुत भाव था। दूसरी ओर, वासु ने भगवान कृष्ण के रूप में पीले रंग की धोती, नीला अंगवस्त्र और मोरपंख वाला मुकुट धारण किया हुआ था। उसकी बांसुरी और मुस्कान ने उसकी पोशाक को और भी प्रभावी बना दिया था।

    जैसे ही किशोरी मंच के पीछे तैयार हो रही थी, उसकी नज़र वासु पर पड़ी। वासु बिल्कुल कान्हा जैसा लग रहा था – मानो चित्र से सजीव हो गया हो। किशोरी के मन में एक अनजानी सी खुशी ने जन्म लिया। वासु ने भी उसे देखा और उसकी ओर मुस्कुराते हुए बांसुरी बजाने का अभिनय किया। किशोरी के चेहरे पर हल्की मुस्कान तैर गई, और वह मन ही मन भगवान कृष्ण को धन्यवाद देने लगी कि उन्होंने उसे इतना अच्छा दोस्त दिया, जो उनके प्रति उसकी भक्ति को समझता था।

    जैसे ही प्रतियोगिता शुरू हुई, एक के बाद एक छात्र अपने-अपने किरदारों में मंच पर आए। दर्शक तालियों की गड़गड़ाहट से उनका स्वागत कर रहे थे। फिर बारी आई वासु की। उसने मंच पर प्रवेश किया, बांसुरी हाथ में पकड़े हुए। उसकी चाल धीमी और गरिमापूर्ण थी, मानो वह साक्षात कान्हा ही हो। मंच पर पहुँचते ही उसने बांसुरी को होंठों से लगाया और बजाने का अभिनय किया। उसकी आँखों में वही शांत मुस्कान थी, जैसे चित्र में थी। दर्शक उसकी प्रस्तुति से मंत्रमुग्ध हो गए।

    फिर किशोरी की बारी आई। उसने मंच पर आते ही दोनों हाथ जोड़कर भगवान कृष्ण का अभिवादन किया और अपनी आँखों में भक्ति का अद्वितीय भाव लेकर प्रस्तुति दी। उसका अभिनय इतना स्वाभाविक था कि दर्शकों को लगा मानो राधा स्वयं उनके सामने आ गई हो।

    जैसे ही किशोरी ने अपनी प्रस्तुति समाप्त की, वासु मंच पर उसकी ओर बढ़ा। दोनों ने मंच के बीचों-बीच एक-दूसरे को देखा, मानो कृष्ण और राधा का मिलन हो रहा हो। दर्शक तालियों से गूँज उठे। वासु और किशोरी की जोड़ी ने पूरे ऑडिटोरियम का दिल जीत लिया था। प्रतियोगिता के अंत में, वासु और किशोरी को 'सर्वश्रेष्ठ युगल' का पुरस्कार मिला।

    प्रतियोगिता के बाद, किशोरी और वासु मंच से उतर कर साथ बैठे।
    किशोरी ने मुस्कुराते हुए कहा, "तुम सच में बहुत अच्छे कृष्ण बने थे।"

    वासु ने जवाब दिया, "और तुम भी राधा जैसी ही लग रही थी – सजीव और पवित्र।"

    किशोरी ने उसकी बांसुरी की ओर इशारा करते हुए कहा, "तुम्हें पता है, कृष्ण की बांसुरी सिर्फ राधा के लिए ही बजती थी।"

    वासु हँसते हुए बोला, "और आज भी वही हुआ।"

    किशोरी ने उसे चुपचाप देखा।

    राधा का श्याम बोलूँ तुझे, या रुक्मिणी का कहूँ,
    या कहूँ तुझे मीरा का श्याम, प्यारे, कौन नाम धरूँ?
    कहीं तू बंसीधर गोपाल, कहीं तू मुरली मनोहर,
    साँवरिया, तेरे प्रेम में सब जग को कैसे बाँध रखूँ?
    कभी तू राधा का प्यारा, कभी रुक्मिणी का प्रीतम,
    मीरा के मन मंदिर का तू, है तू सबकी आत्मा का रीतम।
    ब्रज की गलिन में तू मोहन, हर दिल में तेरी बसावट,
    तू ही मोहन, तू ही माधव, हरि तू ही सबके भटकाव का निवारण।
    श्याम तेरी लीला अपरम्पार, कोई कैसे जाने रे,
    कभी गोकुल में बाल-गोपाल, कभी रणधीर बन आवे रे।
    नाम तेरा लाखों प्यारे, कोई कैसे बाँध ले ये दिल में,
    राधा का श्याम कहूँ तुझको, या मीरा का मोहन रे।

    उसके मन में कुछ शब्द उभरे, लेकिन वह कह नहीं पाई। वासु ने भी उसकी आँखों में देखा, मानो दोनों के बीच बिना कहे ही बहुत कुछ कहा जा रहा हो। उस पल में, किशोरी और वासु के बीच एक अनकही समझ बनी, जो केवल कृष्ण और राधा की भक्ति से उपजी थी।


    अब सवाल यह उठता है कि क्या किशोरी कभी वासु के इन अनकहे भावों को समझ पाएगी? क्या वह भी वासु के प्रेम को उसी श्रद्धा से स्वीकार करेगी जैसे उसने कृष्ण को किया है? और वासु, जो किशोरी की भक्ति को ही प्रेम मानता है, क्या कभी अपने दिल की बात कह पाएगा?

    इस कहानी के अगले मोड़ में वासु और किशोरी के रिश्ते की गहराई और नई चुनौतियाँ सामने आएंगी।

    आगे जानने के लिए जुड़े रहिए और अपनी प्रतिक्रिया ज़रूर दीजिए।

    राधे-राधे!

  • 8. प्रेममय - Chapter 8

    Words: 4210

    Estimated Reading Time: 26 min

    सुबह-सुबह मंदिर के घंटे की आवाज और भजन की मधुर ध्वनि वातावरण को पवित्र बना रही थी। किशोरी हर दिन अपने पिता पंडित मनोहर जी के साथ मंदिर जाती थी। वह मंदिर के मुख्य प्रांगण में बैठकर भजन गुनगुनाती और ध्यान लगाती थी।


    वासु ने जब से किशोरी के बारे में जाना था, तब से उसकी आदत बन गई थी कि वह भी रोज सुबह मंदिर आने लगा था। पहले तो उसे लगता था कि वह महज किशोरी की मदद करने या उसे समझाने के लिए आ रहा है, लेकिन धीरे-धीरे वह महसूस करने लगा था कि किशोरी की भक्ति में कुछ खास था, जो उसे खींच रहा था।


    एक दिन पंडित मनोहर जी ने वासु को कहा,
    "बेटा वासु, आज किशोरी को घर तक छोड़ देना। मैं किसी काम से शहर के बाहर जा रहा हूँ।"
    वासु ने तुरंत हामी भर दी।
    "जी पंडित जी, आप निश्चिंत रहें। मैं उसे सही-सलामत घर पहुँचा दूँगा।"


    किशोरी ने धीरे से वासु की ओर देखा और कुछ नहीं कहा। उसकी आँखों में वही शांत सी मासूमियत थी।


    जैसे ही वासु और किशोरी मंदिर से लौट रहे थे, उनके रास्ते में पड़ोस की आंटी, जिन्हें सब 'लक्ष्मी आंटी' कहते थे, अचानक सामने आ गईं। लक्ष्मी आंटी का स्वभाव था कि वे हर किसी की जिंदगी में ताने और नसीहतों का तड़का लगाना अपना अधिकार समझती थीं।


    उन्होंने किशोरी को देखते ही आँखें मटकाईं और कहा,
    "ओ किशोरी, बड़ी मीरा बनी फिर रही है आजकल। सुबह-शाम मंदिर, भजन, भगवान... अरे पढ़ाई-लिखाई भी ज़रूरी है। या फिर सोच लिया है कि भगवान ही आकर तुझे पास कर देंगे?"


    वासु, जो अब तक शांति से खड़ा था, लक्ष्मी आंटी की ये बात सुनते ही तुनक गया। उसने तुरंत कहा,
    "आंटी जी, भगवान पास करवाएंगे कि नहीं, ये तो भगवान जाने, लेकिन आपको टॉप करवा सकते हैं अगर आप भी मंदिर जाकर भजन करने लगें।"


    लक्ष्मी आंटी थोड़ी सकपकाईं।
    "अरे, ये लड़का! मैं तो बस कह रही थी..."
    वासु ने फिर झट से जवाब दिया,
    "हाँ, आप तो बस कह रही थीं, लेकिन आपको भी पता है कि मीरा बनने के लिए बहुत बड़ा दिल चाहिए, जो शायद हर किसी के पास नहीं होता।"


    किशोरी ने चुपचाप अपने सिर को हल्का सा झुका लिया। वह जानती थी कि वासु ने जो कहा, वह उसकी तरफदारी में था, लेकिन वह ऐसे तानों की आदी थी।


    लक्ष्मी आंटी ने खिसियाते हुए कहा,
    "अच्छा, अच्छा! मैं तो बस समझा रही थी।"
    वासु ने मुस्कराते हुए कहा,
    "आंटी जी, समझाने का ठेका आपने ले रखा है क्या? भगवान भी आपको देखकर सोचते होंगे कि ये महिला मुझसे ज्यादा उपदेश देती है।"


    आंटी गुस्से में बड़बड़ाते हुए वहाँ से चली गईं। किशोरी ने वासु की ओर देखा और कहा,
    "तुमने ऐसा जवाब क्यों दिया? उन्हें बुरा लग सकता है।"
    वासु ने हल्की हँसी के साथ कहा,
    "अगर बुरा न लगे, तो जवाब का मज़ा ही क्या? और वैसे भी, मैं तुम्हारी तरफदारी कर रहा था। अब तुम्हें तो शुक्रिया कहना चाहिए था।"


    किशोरी ने सिर झुका लिया और धीमे से मुस्कुरा दी।


    रास्ते में चलते हुए वासु फिर से बोलने लगा,
    "वैसे किशोरी, मैं सोच रहा हूँ कि लक्ष्मी आंटी जैसे लोग भगवान से भी ज्यादा समय दूसरों पर निगरानी करने में लगाते हैं। उन्हें अपना CCTV कैमरा खोलकर अपना मंदिर बना लेना चाहिए।"


    किशोरी ने हल्का सा हँसते हुए कहा,
    "तुम हमेशा ऐसी बातें क्यों करते हो? सबके सामने तर्क करने की क्या ज़रूरत है?"
    वासु ने सिर हिलाते हुए जवाब दिया,
    "तुम नहीं समझोगी। मेरी आदत है कि मैं सही की तरफदारी करता हूँ। और वैसे भी, अगर मैं तुम्हारी तरफदारी नहीं करूँगा, तो और कौन करेगा?"


    किशोरी ने उसकी ओर देखा और मुस्कुरा दी।


    जैसे ही वे किशोरी के घर पहुँचे, वासु ने मुस्कराते हुए कहा,
    "लो, तुम्हारा घर आ गया। अब कल सुबह मंदिर में मिलते हैं। और हाँ, अगर किसी और ने ताने मारे, तो मैं फिर से उनकी क्लास लेने आ जाऊँगा।"


    किशोरी ने हल्की मुस्कान के साथ कहा,
    "तुम्हें हर जगह बहस करने की आदत है। पर फिर भी, धन्यवाद।"
    वासु ने हँसते हुए कहा,
    "अरे, धन्यवाद की कोई ज़रूरत नहीं। तुम मेरी दोस्त हो, और दोस्ती में ऐसे छोटे-मोटे काम तो होते ही रहते हैं।"


    किशोरी ने पहली बार उसे मुस्कान के साथ अलविदा कहा।


    कभी तुमसे बात करने का मन करता है,
    कभी तुम्हारी आँखों में खो जाने का मन करता है।
    तुम्हारी मुस्कान जैसे सुबह की किरण हो,
    जो मेरे दिल में उम्मीदों के फूल खिला देती है।
    हर पल तुम्हारे पास रहने का ख्वाब है,
    लेकिन शब्दों में कहने की हिम्मत नहीं है।
    बस ये दिल चाहता है,
    तुमसे कभी अपनी बात कहूँ।
    लेकिन डरता हूँ कि तुम्हारी आँखों में,
    अपने जज्बातों का जवाब न देख पाऊँ।
    कभी तुम्हारे पास बैठकर,
    तुम्हारी बातें सुनने का मन करता है,
    तुम्हारे सन्नाटे में भी,
    कुछ अनकही सी बातें कहने का मन करता है।
    कभी सोचता हूँ, तुमसे कुछ कहूँ,
    लेकिन फिर खुद से सवाल करता हूँ,
    क्या तुम इसे समझ पाओगी?
    क्या तुम इसे महसूस कर पाओगी?
    तुम हो मेरी धड़कन, मेरी साँस,
    तुमसे जुड़े हर पल में कुछ खास है,
    तुमसे कहना है बहुत कुछ,
    लेकिन क्या तुम मेरी ख़ामोशी को समझ पाओगी?
    चाहे वो तुमसे मिलकर कोई बात हो,
    या फिर तुमसे बिना कुछ कहे दूर रहना हो,
    तुम हमेशा मेरे दिल के करीब रहोगी,
    क्योंकि तुम्हारी यादों में,
    मैं हर दिन एक नया सपना जीता हूँ।

    —वासु


    वासु ने ये कविता अपनी किताब में छुपा दी थी, उम्मीद करता था कि कभी ये शब्द किशोरी तक पहुँचेंगे, मगर वो कभी कह नहीं सका।


    जिस दिन किशोरी स्कूल नहीं आती थी, वासु का चेहरा जैसे मुरझा जाता था। पूरे दिन उसकी आँखों में एक खास गुमसुम सी उदासी होती थी, जैसे वह कुछ खो चुका हो। ये दिन उसके लिए किसी सर्द, बेजान हवाओं की तरह होते थे, जो उसे हर कदम पर ठंडक का एहसास दिलाते थे। उसके लिए स्कूल का हर घंटा एक बोझ सा महसूस होता था, क्योंकि किशोरी के बिना स्कूल की हर गतिविधि मायने नहीं रखती थी।


    वह हमेशा अपनी नज़रें किशोरी के बेंच की ओर मोड़ता था, जैसे उसकी आँखों में कोई खोज हो, लेकिन उसकी जगह हमेशा खाली होती थी। जैसे ही वह अपने दोस्तों के साथ बैठता था, उनकी बातें उसे सुनी-सुनी लगती थीं। उसे लगता था जैसे उसकी दुनिया में कोई कमी हो, और वह कमी सिर्फ किशोरी के पास बैठने से ही पूरी हो सकती थी।


    कभी-कभी तो उसे ऐसा लगता था कि स्कूल में कुछ भी करना बेकार सा हो गया है। उसे हर कोने में किशोरी की यादें बसी होती थीं—उसका मुस्कुराना, उसकी बातें, उसकी छोटी सी हँसी, और उन पलों की यादें जब दोनों चुपचाप एक दूसरे के साथ होते थे।


    उस दिन, जब किशोरी नहीं आई थी, वासु का मन बहुत उदास था। वह कमरे में इधर-उधर देखता था, कभी अपने दोस्तों की तरफ, तो कभी खिड़की से बाहर का दृश्य देखता था। लेकिन कुछ भी उसे संतुष्ट नहीं कर पा रहा था। उसकी आँखों में एक बेवजह सी बेचैनी थी। जैसे उसे कुछ ज़रूरी चीज़ का एहसास हो, जो खो गया हो।


    वह अपनी डायरी की तरफ देखता था, जो अब उसकी सबसे करीबी चीज़ बन चुकी थी। उसमें लिखी हुई उसकी भावनाएँ, जो शायद कभी किशोरी तक नहीं पहुँच सकेंगी, हर शब्द उसे जैसे चुभते थे। उसे याद आया कि उसने अपनी डायरी में एक और कविता लिखी थी:

    "कभी तुम्हारे पास बैठकर,
    तुम्हारी बातें सुनने का मन करता है,
    तुम्हारे सन्नाटे में भी,
    कुछ अनकही सी बातें कहने का मन करता है।
    कभी सोचता हूँ, तुमसे कुछ कहूँ,
    लेकिन फिर खुद से सवाल करता हूँ,
    क्या तुम इसे समझ पाओगी?
    क्या तुम इसे महसूस कर पाओगी?"


    वासु को लगा कि इस कविता में जितनी भावनाएँ थीं, वह उन शब्दों से बाहर नहीं निकल पा रही थीं। उसे अक्सर यह ख्याल आता था कि क्या किशोरी कभी उसे पूरी तरह से समझ पाएगी, क्या वह उसकी दिल की बातों को महसूस कर पाएगी।


    कभी-कभी, जब वह दोस्तों के बीच होता था और किशोरी की अनुपस्थिति का एहसास उसे और भी गहरे तक छू जाता था, वह अचानक खड़ा हो जाता था, और अपनी आँखें चुपके से किशोरी के बेंच की ओर घुमा देता था। दिल में एक ख्वाहिश पलती रहती थी—"क्या वो आ जाएगी? क्या उसकी एक झलक मुझे मिल पाएगी?"


    और जब किशोरी उसे दिख जाती थी, तो मानो वासु की खोई हुई धड़कन फिर से लौट आती थी। उसकी आँखों में एक अजीब सी चमक आ जाती थी, जैसे कोई गुमशुदा खजाना मिल गया हो। उसकी आँखें हमेशा किशोरी की तलाश करती थीं, और जैसे ही वह किशोरी को देखता था, उसका चेहरा अचानक से खिल उठता था, जैसे बर्फ पर सूरज की पहली किरण आ जाए। वासु को ऐसा लगता था जैसे सारी दुनिया की खुशी उसे उसी पल में मिल गई हो।


    किशोरी को देखते ही उसके दिल में एक हलचल सी मच जाती थी, जैसे सागर की लहरें किनारे से टकराती हैं। उसे ऐसा लगता था, जैसे कोई जादू हो, जो उसकी धड़कनों को तेज कर दे। हर बार जब किशोरी सामने आती थी, वह खुद को हवा के झोंके की तरह महसूस करता था, जो कहीं भी उड़ने को तैयार हो। यह अहसास उसकी रगों में बहती हुई ताजगी की तरह था, जैसे कोई मीठा, ठंडा पानी जो प्यास को शांत कर दे।


    वासु का चेहरा अचानक से सूरज के प्रकाश की तरह चमक उठता था। वह किशोरी को देखते हुए अपने अंदर कुछ अलग महसूस करता था, जैसे उसके दिल में एक नई जिंदगी का जन्म हो। उसकी आँखों में वह मासूमियत और सच्चाई होती थी, जो सिर्फ किसी सच्चे प्रेमी की आँखों में होती है। वासु ने कभी किसी से इतना प्यार नहीं किया था, और किशोरी के सामने आते ही, उसकी सारी दुनिया रुक सी जाती थी।


    "कभी किशोरी को देखकर उसे लगता था, जैसे सारे जहाँ की खुशियाँ उसे मिल गई हों।" वासु की आँखों में उस वक्त वही चमक होती थी, जैसे कोई छोटा बच्चा अपने पसंदीदा खिलौने को पाकर खुश हो जाता है। उसकी मुस्कान में जैसे हर एक सपना बसा होता था, और उस मुस्कान को देखकर ही वासु का दिल सुकून महसूस करता था। वह बेज़ुबान था, लेकिन उसकी आँखों से वह सब कुछ कह जाता था जो उसके दिल में था।


    कभी-कभी तो उसे ऐसा लगता था कि अगर किशोरी उसे मुस्कुराकर देखे, तो जैसे पूरी दुनिया की परेशानियाँ चुटकी में गायब हो जाएँ। उसके सामने आते ही वासु का दिल इस कदर तेज़ धड़कने लगता था, जैसे कोई तो तेज़ी से दौड़ रहा हो।


    तंद्रा टूटते ही, वासु को यह अहसास होता था कि वह अपनी दुनिया से बाहर आ चुका है। जैसे कोई बंद दरवाज़ा अचानक खुल जाए और रोशनी की एक किरण भीतर प्रवेश कर जाए।


    यह वासु के लिए हमेशा एक मुश्किल पल होता था, क्योंकि वह किशोरी से अपनी भावनाएँ नहीं कह सकता था। लेकिन उसके चेहरे की हर मुस्कान, उसकी हर छोटी सी बात, उसकी हर आँखों की झलक, वासु के दिल में एक नई उम्मीद का दीप जलाती थी। उसे ऐसा लगता था कि किशोरी ने भी उसे देखा है, उसकी भावनाओं को महसूस किया है। जैसे किसी फिल्म का दिलचस्प सीन हो, जिसमें दोनों एक-दूसरे को समझते हैं, लेकिन शब्दों की कमी हो।


    उसके दिल में यह घुटन थी कि क्या किशोरी कभी उसकी बातें समझ पाएगी? क्या वह कभी उस प्रेम को महसूस कर पाएगी जो वासु ने खुद को खोकर उसे दिया था? लेकिन वासु यह जानता था कि प्यार कोई दबाव नहीं होता, यह तो एक अदृश्य रिश्ता होता है, जो दिलों से दिलों तक बिना शब्दों के पहुँचता है।


    कभी जब किशोरी पास होती थी, तो उसे लगता था कि वह हवा में उड़ रहा हो, और कभी जब वह दूर होती थी, तो उसे अपने पैरों को ज़मीन पर टिकाने में भी मुश्किल हो रही होती थी। किशोरी के बिना वह अपना अस्तित्व खो बैठता था। जैसे सूरज बिना दिन के, चाँद बिना रात के, और जैसे नदी बिना बहाव के। किशोरी उसके लिए सब कुछ थी। वह सिर्फ अपनी चुप्पी में ही उसे कह नहीं सकता था, लेकिन उसकी आँखों की गहराई में सब कुछ था।


    "कभी किसी को प्यार में खो जाने जैसा एहसास होता है।" और वासु को यही एहसास था, वह किशोरी में खो जाता था। किशोरी के हर कदम, हर हँसी में उसे कुछ अलग ही दुनिया नज़र आती थी, और यही उसे बार-बार उस ओर खींच लाता था।


    ...


    जहाँ किशोरी के पिता मनोहर जी पंडित थे और माता गृहणी थीं तो वहीं वासु के पिता गाँव के मुखिया थे और माता गृहणी थीं...वासु और किशोरी दोनों ही अपने-अपने माता-पिता की इकलौती संतान थे।


    एक दिन की बात है जब वासु के घर यानी कि मुखिया जी के घर महंत कृष्णानंद जी आने वाले थे। जिसमें वो एक कथा सुनाने वाले थे।


    किशोरी और उसके पिता मनोहर जी भी उस कथा में आए हुए थे। वासु ने जब किशोरी को देखा तो वो तो खुश ही हो गया।


    कृष्णानंद जी की कथा सुनकर किशोरी की आँखों से आँसू बह पड़े।


    कृष्णानंद जी ने जब किशोरी को रोते हुए देखा तो उन्होंने कहा,
    "इस संसार में बहुत कम लोग होते हैं जो प्रभु की याद में रोते हैं....तुम्हारी बेटी भाग्यशाली है पंडित मनोहर।"


    पंडित मनोहर, जो अब तक चुपचाप सुन रहे थे, ने धीरे से कहा,
    "आपका आशीर्वाद है, कृष्णानंद जी। मेरी बेटी को आपने जो समझाया, वह अमूल्य है। वह प्रभु की याद में रोती है और यही उसकी सबसे बड़ी शक्ति है।"


    कृष्णानंद जी मुस्कुराए,
    "तुम्हारी बेटी भाग्यशाली है, पंडित मनोहर। उसकी भक्ति ही उसके जीवन का मार्गदर्शन करेगी।"


    कृष्णानंद जी की आँखों में एक गहरी चमक थी, जैसे वह भविष्य के किसी अनदेखे रहस्य को देख रहे हों। उन्होंने जब वासु को देखा तो उन्होंने वासु को भी अपने पास बुलाया और वासु के सिर पर हाथ रखते हुए कहा,
    "बेटे, तेरे भाग्य में बहुत दुख है, परंतु तू बहुत मज़बूत है। जीवन की असली लड़ाई वही होती है जब इंसान खुद से खुद की लड़ाई लड़ता है। इस जन्म में तुम्हारा उद्देश्य सिर्फ अपना जीवन जीना नहीं है, बल्कि उन लोगों को भी सबक सिखाना है जो प्रेम को केवल एक भावना समझते हैं।"


    वासु की आँखें उठीं और उसने कृष्णानंद जी की ओर देखा, जैसे उनकी हर बात को आत्मसात कर रहा हो। कृष्णानंद जी ने अपनी बात जारी रखते हुए कहा,
    "तुम्हें इस जन्म में प्रेम का एक आधुनिक उदाहरण बनना है। प्रेम सिर्फ पाने का नाम नहीं है, बल्कि देने का, समर्पण का और त्याग का भी है। यह लड़ाई कठिन होगी, बहुत कठिन...परंतु यही तुम्हारा मार्ग है...तुम्हें लड़ना है खुद से खुद की लड़ाई को।"


    वासु ने धीमे स्वर में कहा,
    "लेकिन महंत जी, मुझे कैसे पता चलेगा कि मैं सही मार्ग पर हूँ?"


    कृष्णानंद जी ने उत्तर दिया,
    "जब तुम अपने भीतर शांति पाओगे, जब तुम्हारे मन में प्रेम के साथ-साथ कर्तव्य का भी एहसास होगा, तब समझना कि तुम सही मार्ग पर हो। हर दुख, हर चुनौती तुम्हें और मज़बूत बनाएगी। इस संसार में तुम्हारा उद्देश्य सिर्फ प्रेम की परिभाषा बदलना है—क्योंकि सच्चा प्रेम वही है जो हर परिस्थिति में अडिग रहे, चाहे वह कैसी भी हो।"


    वासु ने कृष्णानंद जी की बातों को मन में उतारा और एक नई ऊर्जा के साथ अपने संकल्प को और दृढ़ किया। अब उसे यह समझ आ गया था कि उसका जीवन एक साधना है—एक ऐसी साधना, जिसमें उसे खुद को जीतना है, अपने प्रेम को समझना है और दूसरों को प्रेम का सच्चा अर्थ सिखाना है।


    पंडित मनोहर ने थोड़े चिंतित स्वर में कहा,
    "महंत जी, मेरी बेटी... क्या उसके लिए भी यह संघर्ष इतना ही कठिन होगा?"


    कृष्णानंद जी ने गंभीरता से कहा,
    "पंडित जी, जो तुम्हारी बेटी भी एक विशेष आत्मा है, और उसका मार्ग भी कठिनाइयों से भरा होगा, परंतु वह भी अपने भक्ति, प्रेम और श्रद्धा के माध्यम से अपना स्थान बनाएगी। यह दुनिया उसे भी देखेगी और सीखेगी।"


    वासु ने अपनी आवाज को मज़बूत करते हुए कहा,
    "महंत जी, अगर यह मेरा भाग्य है, तो मैं इससे लड़ूँगा। चाहे जो भी हो जाए, मैं अपने प्रेम और अपने कर्तव्य को निभाने के लिए तैयार हूँ।"


    कृष्णानंद जी ने अपने आशीर्वाद देते हुए कहा,
    "तुम्हारा संकल्प ही तुम्हारी सबसे बड़ी शक्ति है, वासु। याद रखो, प्रेम और कर्तव्य का मार्ग कठिन है, परंतु जो इस पर चलते हैं, वे अमर हो जाते हैं। जाओ, और अपनी कहानी लिखो—एक ऐसी कहानी जो आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा बने।"


    वासु ने सिर झुकाकर कृष्णानंद जी के चरण छुए और अपनी यात्रा के लिए दृढ़ संकल्प के साथ आगे बढ़ गया, यह जानते हुए कि उसका जीवन एक अनंत कथा का हिस्सा बनने वाला है, जहाँ प्रेम, त्याग और कर्तव्य की धारा एक साथ बहती है।


    ऐसे ही दिन बीतते गए और वासु और किशोरी 12वीं कक्षा में आ गए थे। वासु का प्रेम किशोरी के लिए बढ़ता ही गया, वहीं किशोरी की कृष्ण भक्ति और ज़्यादा अटूट होती गई।


    लेकिन किशोरी, वासु के अपने प्रति प्रेम से अंजान थी।


    एक दिन जब 12वीं का आखिरी पेपर था तब वासु ने निर्णय लिया कि वो किशोरी को अपने प्रेम के बारे में बताकर ही रहेगा।


    वासु ने सोचा कि अब वह अपने दिल की बात किशोरी से कहेगा। परीक्षा के बाद, एक सुनसान से कोने में वासु ने किशोरी को बुलाया। उसकी आँखों में एक अजीब सी चमक थी, दिल धड़क रहा था।

    "किशोरी, आज मैं तुमसे कुछ ऐसा कहने वाला हूँ जो बहुत समय से मेरे दिल में है, लेकिन कहने की हिम्मत कभी नहीं जुटा पाया।"


    किशोरी ने उसे ध्यान से देखा, लेकिन कुछ नहीं कहा। उसकी आँखों में वही मासूमियत थी, और वह वासु की बात का इंतज़ार करने लगी।


    वासु ने गहरी साँस ली और किशोरी की आँखों में देखते हुए धीरे-धीरे बोलना शुरू किया, जैसे हर शब्द उसके दिल से निकलकर किशोरी तक पहुँच रहा हो।

    "किशोरी," उसकी आवाज में एक अजीब-सा कम्पन था, जो उसके भावनाओं की गहराई को दिखा रहा था। "मैं जानता हूँ कि तुम्हारा पूरा जीवन कृष्ण की भक्ति के लिए समर्पित है। तुम्हारे चेहरे की वो शांति, तुम्हारी आँखों की वो चमक, सब कुछ तुम्हारी भक्ति की ताकत को दर्शाते हैं। मैं तुम्हें कभी बदलने की कोशिश नहीं करूँगा, और सच कहूँ तो मैं तुम्हें बदलना चाहता भी नहीं। तुम्हारी यही भक्ति मुझे तुम्हारी तरफ़ खींचती है।"


    वह एक पल के लिए रुका, जैसे अपने शब्दों को ध्यान से चुन रहा हो। फिर उसने आगे कहा,
    "लेकिन मैं तुमसे ये कहना चाहता हूँ कि मेरे दिल में तुम्हारे लिए जो भावना है, वो सिर्फ़ मोह नहीं है। ये प्रेम है, किशोरी। ऐसा प्रेम जो सिर्फ़ पाने की लालसा नहीं करता। मैं तुम्हें कभी अपने लिए माँगने की हिम्मत भी नहीं कर सकता। लेकिन मैं...मैं तुम्हारा होना चाहता हूँ, तुम्हारे आस-पास रहना चाहता हूँ। बस इतना ही।"


    किशोरी, जो अब तक चुपचाप सुन रही थी, उसकी आँखें हल्के से झुकी हुई थीं। वासु ने एक हल्की सी मुस्कान के साथ कहा,
    "मुझे पता है, किशोरी, कि तुम्हारा दिल सिर्फ़ कृष्ण के लिए धड़कता है। और मैं इसे बदलना नहीं चाहता। मैं सिर्फ़ तुम्हारे उस संसार का हिस्सा बनना चाहता हूँ, जहाँ तुम्हारी भक्ति का संगीत बजता है। मैं बस इतना चाहता हूँ कि जब भी तुम कृष्ण का नाम लो, तो वहाँ मेरी थोड़ी-सी जगह हो...भले ही सिर्फ़ एक दोस्त के रूप में।"


    किशोरी ने अब वासु की ओर देखा। उसकी आँखों में एक गहरी चमक थी, जैसे वह वासु की बातों को समझने की कोशिश कर रही हो। उसकी भक्ति का रंग और उसकी मासूमियत दोनों उसकी आँखों में झलक रहे थे। उसने धीरे से कहा,
    "वासु, तुम जो कह रहे हो, वो मैं समझ सकती हूँ। लेकिन मेरा ये जीवन सिर्फ़ और सिर्फ़ कान्हा के लिए है। मेरी भक्ति ही मेरा संसार है। मैं जानती हूँ कि तुम मेरे लिए कितना महसूस करते हो, लेकिन मैं तुम्हारे इस प्रेम का उत्तर नहीं दे सकती।"


    वासु ने उसकी बात को ध्यान से सुना। उसने सिर हिलाते हुए हल्की मुस्कान के साथ कहा,
    "किशोरी, मुझे तुम्हारा उत्तर चाहिए ही नहीं। मुझे तुम्हारा प्रेम भी नहीं चाहिए। मैं तो सिर्फ़ तुम्हारा होना चाहता हूँ। मैं तुम्हारी भक्ति का सम्मान करता हूँ, और तुम्हारी उस दुनिया का हिस्सा बनने की कोशिश भी नहीं करूँगा। लेकिन मैं हमेशा तुम्हारे साथ रहूँगा, तुम्हारे हर कदम पर। अगर तुम गिरोगी, तो तुम्हें संभालने के लिए मैं हमेशा तुम्हारे साथ खड़ा रहूँगा।"


    किशोरी का चेहरा गंभीर हो गया। उसने अपने शब्दों को चुनते हुए कहा,
    "वासु, मैं नहीं चाहती कि मेरी भक्ति और तुम्हारे प्रेम के बीच तुम्हें कोई संघर्ष करना पड़े। मैं चाहती हूँ कि तुम अपने जीवन में आगे बढ़ो। तुम्हारे बहुत सारे सपने हैं, जिनका पीछा करना तुम्हारी ज़िम्मेदारी है।"


    वासु ने धीरे-धीरे कहा,
    "किशोरी, मेरे लिए सबसे बड़ा सपना तुम हो। और अगर तुम्हारे साथ रहकर तुम्हारी भक्ति का हिस्सा बनना मेरी नियति है, तो मैं इसे खुशी-खुशी स्वीकार करूँगा।"


    किशोरी ने हल्के से सिर हिलाया और कहा,
    "वासु, तुम्हारा प्रेम बहुत सुंदर है। लेकिन मैं चाहती हूँ कि तुम इसे किसी ऐसी दिशा में ले जाओ, जो तुम्हारे जीवन को नए आयाम दे सके। मेरी भक्ति मेरी अपनी राह है, और मैं उसमें किसी और को शामिल नहीं कर सकती।"


    वासु ने उसकी बातों को समझते हुए एक लंबी साँस ली और कहा,
    "ठीक है, किशोरी। मैं तुम्हारे फैसले का सम्मान करता हूँ। लेकिन जब भी तुम्हें मेरी ज़रूरत होगी, मैं हमेशा तुम्हारे पास रहूँगा। चाहे तुम्हें इसका एहसास हो या न हो, मैं तुम्हारे लिए हमेशा तुम्हारे कृष्ण के दूत की तरह खड़ा रहूँगा।"


    किशोरी ने उसकी आँखों में देखा और मुस्कुराते हुए कहा,
    "जय श्री कृष्ण।"
    वासु ने भी मुस्कुरा कर उत्तर दिया,
    "जय श्री कृष्ण।"


    किशोरी के प्रति उसका प्रेम अभी भी अटूट था, लेकिन अब वह प्रेम स्वार्थ से मुक्त था।


    किशोरी ने मुस्कुराते हुए "जय श्री कृष्ण" कहा और वासु की आँखों में देखती रही। उस पल में किशोरी की मासूमियत और उसकी भक्ति का रंग वासु के दिल में और गहरा हो गया। वासु ने भी हल्के से मुस्कुराते हुए जवाब दिया, "जय श्री कृष्ण।"


    किशोरी धीरे-धीरे वहाँ से चली गई। उसकी स्कूल की दो चोटियाँ हल्के-हल्के हिल रही थीं, जैसे हवा में उसका विश्वास और भक्ति भी झूम रहे हों। वासु वहीं खड़ा रह गया, उसकी नज़रें किशोरी के पीछे जाती उसकी छवि पर अटकी थीं। उसकी मासूमियत, उसकी सादगी और उसकी भक्ति—ये सब कुछ वासु के दिल को और जकड़ चुके थे।


    जैसे ही किशोरी गेट के पास पहुँची, उसकी एक चोटी का हेयरबैंड अचानक ढीला होकर नीचे गिर गया। उसे शायद इसका एहसास भी नहीं हुआ, क्योंकि वह बिना रुके आगे बढ़ती रही। वासु की नज़र उस हेयरबैंड पर पड़ी। वह तुरंत नीचे झुका और हेयरबैंड को उठाकर अपनी हथेली में रख लिया।


    वासु ने उस हेयरबैंड को देखा। यह साधारण सा कपड़े का एक बैंड था, लेकिन अब यह वासु के लिए अनमोल हो चुका था। उसने उसे संभालकर अपनी जेब में रखा, जैसे वह कोई अमूल्य खजाना हो। उसकी आँखों में हल्की नमी थी, लेकिन साथ ही एक शांत मुस्कान भी थी।


    किशोरी के जाने के बाद वासु ने गहरी साँस ली। वह अपने मन से बातें करने लगा,
    "किशोरी, तुम्हारे लिए मेरा प्रेम किसी स्वार्थ पर नहीं टिका है। मैं जानता हूँ कि तुम्हारा जीवन कृष्ण के लिए समर्पित है, लेकिन मैं इस सत्य को भी जानता हूँ कि तुम्हारा हर कदम, हर साँस मुझे और ज़्यादा प्रेरित करती है।"


    वासु ने धीरे-धीरे उस हेयरबैंड को अपनी किताब के अंदर रखा, जैसे वह अब उसकी जिंदगी का एक हिस्सा बन गया हो। उसने खुद से वादा किया,
    "मैं तुम्हारे साथ नहीं रह सकता, लेकिन तुम्हारे लिए जीना सीखूँगा। तुम्हारी भक्ति से प्रेरणा लेकर अपने जीवन को भी कुछ अर्थ दूँगा।"


    वह वहीं कुछ पल खड़ा रहा, हवा में किशोरी की भक्ति और अपनी यादों को महसूस करता हुआ। स्कूल की घंटी बज चुकी थी, बच्चे अपनी-अपनी दिशाओं में जा रहे थे, लेकिन वासु की दुनिया वहीं थम गई थी।


    उसने अपने बैग को कंधे पर टाँगा और धीमे कदमों से स्कूल के गेट की ओर बढ़ा। हर कदम के साथ उसका दिल किशोरी के लिए और ज़्यादा नतमस्तक हो रहा था।


    वह हेयरबैंड अब सिर्फ़ एक साधारण चीज़ नहीं रह गई थी। यह वासु के लिए किशोरी की यादों का प्रतीक बन गया था। वह हर रात उस हेयरबैंड को अपनी किताब से निकालता था, उसे देखता और महसूस करता था कि वह किशोरी के कितने करीब है।


    कई दिनों तक वह उसी गली से गुज़रता था, उम्मीद करता था कि कहीं किशोरी दिख जाए। लेकिन हर बार वह खुद को समझाता था,
    "यह प्रेम सिर्फ़ पाने का नाम नहीं है, यह तो उसकी भक्ति में अपने आपको जोड़ने का नाम है।"


    दूसरी ओर, किशोरी को कभी पता भी नहीं चला कि उसका एक हेयरबैंड वासु की जिंदगी का अहम हिस्सा बन गया है। वह अपनी भक्ति में डूबी रहती थी, और वासु की भावनाओं से अनजान थी।


    लेकिन वासु जानता था कि उसका प्रेम किशोरी की भक्ति को कभी चुनौती नहीं देगा। वह किशोरी को दूर से देखकर खुश रहता था।


    आपने देखा कि वासु और किशोरी के बीच का प्रेम केवल एक साधारण प्रेम कथा नहीं है, बल्कि यह आत्मा का गहरा बंधन है। वासु ने प्रेम के असली अर्थ को समझा—त्याग, समर्पण, और सच्चे प्रेम का वह स्वरूप जो स्वार्थ से परे है। किशोरी की कृष्ण भक्ति और वासु का अडिग प्रेम, दोनों ने एक-दूसरे को नया दृष्टिकोण दिया। इस कहानी में आगे और भी मोड़ आएंगे, जहाँ वासु और किशोरी अपने जीवन के महत्वपूर्ण निर्णयों का सामना करेंगे।


    कहानी का अगला भाग क्या होगा? वासु अपने प्रेम को किस प्रकार परिभाषित करेगा? क्या किशोरी अपने हृदय की सुनकर वासु को अपने जीवन का हिस्सा बनाएगी?


    आगे की कहानी के लिए जुड़े रहें, और अपनी समीक्षा देना न भूलें।

    राधे राधे 🪷

  • 9. प्रेममय - Chapter 9

    Words: 2478

    Estimated Reading Time: 15 min

    वास्तव में, वासु के लिए वह हेयरबैंड एक अमूल्य वस्तु बन चुका था। हर दिन, वह उसे अपनी किताबों में, अपनी नोटबुक्स के बीच रखा करता था और जब भी कोई कठिनाई आती, वह उस हेयरबैंड को देखता और किशोरी की भक्ति की याद करता था। उसे लगता था जैसे किशोरी का कोई न कोई रूप हमेशा उसके पास होता, जैसे एक आशीर्वाद, जो उसे हर मुसीबत से उबारने की शक्ति देता था।

    एक दिन, वासु अपने कमरे में बैठा हुआ था, पढ़ाई में खोया हुआ। अचानक, उसे महसूस हुआ कि वह हेयरबैंड उसे कहीं नज़र नहीं आ रहा था। उसने बैग और अपनी किताबों को पलट लिया, लेकिन वह कहीं नहीं मिला। वासु के मन में एक अजीब सी घबराहट होने लगी। उसका दिल धड़कने लगा, जैसे कुछ बहुत अहम चीज़ खो गई हो।

    वह तुरंत खड़ा हुआ और पूरे कमरे में इधर-उधर देखना शुरू कर दिया। वह अपना सिर पकड़ कर सोचने लगा,
    "क्या मैंने उसे कहीं गिरा दिया? या फिर कहीं इधर-उधर रखा था?"
    उसे थोड़ी चिंता हुई, लेकिन वह जल्दी ही खुद को संभालने की कोशिश करने लगा।

    "नहीं, मुझे यह समझना होगा कि वह सिर्फ एक हेयरबैंड नहीं है, यह किशोरी की यादों का हिस्सा है," उसने खुद से कहा, फिर भी घबराहट कम नहीं हो रही थी। वह कमरे में हर कोने को छान मारता रहा, लेकिन वह हेयरबैंड कहीं भी नज़र नहीं आया।

    अचानक, उसकी नजरें उस छोटे से बेड के नीचे पड़ी धूल और सामान पर पड़ीं। वासु ने बिना देर किए बेड के नीचे झांका, और एक पल बाद उसकी नजरें उस छोटे से कपड़े के बैंड पर पड़ीं, जो बिल्कुल सही जगह पर पड़ा था। वह हेयरबैंड वही था, जो अब तक उसकी यादों और प्रेरणा का स्रोत बन चुका था।

    वासु ने गहरी सांस ली और उसे उठाकर अपनी हथेली में रखा। वह धीरे-धीरे उसे महसूस करने लगा, जैसे वह खुद किशोरी के पास हो। उसकी आँखों में हल्का सा आंसू चमक रहा था, लेकिन यह आंसू दुख के नहीं, बल्कि संतुष्टि और आत्मशांति के थे।

    "किशोरी, तुम्हारी भक्ति और तुम्हारी यादें मेरे साथ हैं," उसने फुसफुसाते हुए कहा। "तुम्हारा यह छोटा सा हेयरबैंड, अब मेरे जीवन की सबसे बड़ी प्रेरणा बन चुका है। मैं इसे कभी खोने नहीं दूंगा।"

    वासु ने धीरे-धीरे हेयरबैंड को अपनी हथेली में पकड़े रखा और उसकी नाजुकता को महसूस किया। वह सोचने लगा कि अगर यह फिर से कहीं गुम हो गया, तो उसका दिल कितना टूट जाएगा। यह सिर्फ एक हेयरबैंड नहीं था; यह किशोरी की भक्ति और उसकी मासूमियत का प्रतीक बन चुका था। यह उसके लिए एक संजीवनी बूटी की तरह था, जो उसे हर कठिनाई से उबारने का काम करता था।

    वह अपने कमरे में घूमते हुए विचारों में खो गया।
    "अगर यह फिर से गुम हो गया तो...? क्या होगा?"
    उसने अपने दिल की गहराई में यह सवाल उछाला। उसने सोचा,
    "नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। मुझे इसे हमेशा अपने पास रखना है, ताकि हर वक्त मुझे किशोरी की यादें और उसकी भक्ति की प्रेरणा मिलती रहे।"

    वह अचानक ही एक विचार से चौंका।
    "अगर यह फिर से गुम हो गया, तो क्या मैं इसका कोई और रूप बना सकता हूँ?"
    उसने सोचा। उसके मन में एक नई सोच आई—
    "क्या अगर मैं इस हेयरबैंड को ब्रेसलेट में बदलवा लूं?"

    इस विचार ने उसे एक नई उम्मीद दी। वह तुरंत उठ खड़ा हुआ और अपने कमरे की डेस्क पर पड़ी एक डायरी में विचारों को लिखने लगा।
    "अगर मैं इस हेयरबैंड का ब्रेसलेट बनवाता हूँ, तो मैं हमेशा इसे पहन सकता हूँ, और ऐसा होने पर, किशोरी की यादें हमेशा मेरे साथ रहेंगी।"

    लेकिन फिर उसे एक सवाल आया,
    "क्या यह सच में ब्रेसलेट बन पाएगा?"
    वह चिढ़ते हुए खुद से सवाल करता रहा,
    "यह तो सिर्फ एक साधारण कपड़े का बैंड है, क्या इसे सच में ब्रेसलेट की शक्ल दी जा सकती है?"

    वह इस बारे में सोचना शुरू कर दिया। उसे पता था कि यह कोई सोने या चांदी का ब्रेसलेट नहीं होगा, लेकिन इसका अर्थ और उसका महत्व बहुत बड़ा होगा। उसने सोचा, "अगर इसे कढ़ाई से तैयार किया जाए, तो क्या यह ब्रेसलेट एक अनमोल चीज़ नहीं बन सकती?" उसने कल्पना की कि उस ब्रेसलेट में वही छोटे-छोटे मोती या धागे लगाए जा सकते हैं जो उसे किशोरी की भक्ति से जोड़ते हैं।

    वासु ने अगले दिन ही एक पुराने ज्वैलरी शॉप पर जाकर ब्रेसलेट बनाने का विचार व्यक्त किया। दुकानदार ने उसे आश्वासन दिया कि ऐसा कोई काम किया जा सकता है, बशर्ते वह इसे अच्छे से डिज़ाइन कराए। वासु ने मन ही मन सोचा, "यह ब्रेसलेट किशोरी की भक्ति की साकार रूप होगी, जो हमेशा मेरे साथ रहेगी।"

    दिन बीतते गए, और वासु ने ब्रेसलेट बनाने के लिए काम शुरू कर दिया। और जब ब्रेसलेट तैयार हुआ, तो वह इसे देखकर हैरान रह गया। वह साधारण सा बैंड, अब एक सुंदर ब्रेसलेट बन चुका था।

    ब्रेसलेट पर छोटे-छोटे मोती ऐसे लगे हुए थे, जैसे सितारे आसमान की गहराई में टंके हों। इसके बीच में चांदी का एक कमल का फूल बना हुआ था। फूल के ठीक नीचे चांदी का मोर अपने पंख फैलाए बैठा हुआ था, जो किसी देवत्व की झलक जैसा प्रतीत हो रहा था। मोर के पंखों में नीले और हरे रंग की बारीक नक्काशी थी, जो इसे जीवंत बना रही थी। उसके ठीक नीचे एक छोटा सा घुंघरू लटक रहा था, जो हल्की-सी हवा में भी मधुर आवाज निकालता, मानो किशोरी के भजन की धुन हो।

    वासु ने ब्रेसलेट को अपने हाथ में पहना और मुस्कुराया।

    शाम का समय था, और सूरज की आखिरी किरणें आकाश को सुनहरे रंग में रंग रही थीं। वासु अपने कमरे में बैठा हुआ था, उसकी मेज पर किताबों और पेन-पेंसिल का जंजाल था, लेकिन उसकी नजरें उन सभी से हटकर सिर्फ एक चीज़ पर थी—उसकी स्केचबुक।

    उसने धीरे से स्केचबुक खोली और पहले पन्ने पर नजर डाली। पहले पन्ने पर वही चित्र था, जिसे उसने बहुत पहले बनाया था। यह चित्र कृष्ण और राधा का था, लेकिन वह चित्र वासु के लिए किसी सामान्य चित्र से कहीं ज्यादा था।

    एक दिन किशोरी की माँ का अचानक निधन हो गया। घर में शोक की लहर फैल गई, और हर कोई किशोरी की ओर देख रहा था, उसकी आँखों से आंसू की उम्मीद में। लेकिन किशोरी की आँखें शांत थीं, जैसे उसमें कोई तूफान नहीं, बल्कि एक गहरी शांति हो। वह अपनी माँ के पार्थिव शरीर के पास खड़ी थी, हाथ जोड़कर, आँखें बंद किए हुए। लोगों के चेहरे पर आश्चर्य और चिंता के भाव थे।

    "ये कैसी बेटी है? अपनी माँ के मरने पर भी रो नहीं रही," किसी ने धीमे स्वर में कहा।

    "लगता है जैसे पत्थर की हो गई है," दूसरे ने जोड़ते हुए कहा।

    लेकिन किशोरी चुप रही। उसने आँखें खोलीं और धीमे स्वर में कहा, "माँ की आत्मा अब परमात्मा से मिल गई है। यह देह केवल एक आवरण थी, जिसने अपना समय पूरा कर लिया है। हमारे आँसू उसे मुक्त नहीं करेंगे, बल्कि उसकी यात्रा को कठिन बना देंगे।"

    लोगों को यह सुनकर और भी आश्चर्य हुआ। कुछ ने आपस में फुसफुसाना शुरू कर दिया, "लगता है लड़की सनक गई है। गीता का बहुत प्रभाव पड़ गया है इस पर।"

    पिछले 2 महीने में किशोरी ने पूरे मन से 'भगवत गीता' का अध्ययन किया था। उसे इस शास्त्र से बहुत शांति मिली थी। माँ के जाने के बाद, उसने खुद को भक्ति में समर्पित कर दिया। वह घंटों भगवान के नाम का जाप करती, और गीता के श्लोकों का अर्थ समझने में लगी रहती।

    कुछ लोग ताने मारने लगे, "देखो तो, मीरा बनी फिर रही है ये छोरी। अपनी माँ का दुख भी नहीं मना रही।"

    लेकिन किशोरी के चेहरे पर एक अडिग शांति थी। वह अपने आराध्य के नाम में लीन रहती और उन तानों को अनसुना कर देती।

    किशोरी के चेहरे पर शांति की छाया देख, गाँव के कुछ लोग और भी ताने मारने लगे। उनके मन में यह सवाल उठने लगा कि एक लड़की अपनी माँ के निधन पर ऐसे शांत कैसे रह सकती है। क्या यह सामान्य था, या फिर वह सच में गीता के प्रभाव में आकर अपने मानवीय संवेदनाओं को नकारने लगी थी?

    "क्या फायदा ऐसी भक्ति का?" एक औरत ने कहा, "माँ की मौत पर भी इसे कोई ग़म नहीं है। गीता पढ़ने से इंसान को सच्चे रिश्तों का कोई एहसास नहीं होता क्या?"

    "हाँ, बिलकुल!" एक औरत ने जोड़ा, "अब इसके दिल में केवल भगवान की भक्ति रह गई है, इंसानियत और भावना की कोई अहमियत नहीं। ये तो मीराबाई के जैसे बन गई है, जिसे सिर्फ भगवान की भक्ति से कुछ नहीं चाहिए।"

    किशोरी की चुप्पी ने सबको और भी अधिक उत्तेजित कर दिया।
    "क्या ये लड़की बिल्कुल पत्थर दिल हो गई है?" एक बुजुर्ग ने कहा, "ऐसी भी क्या भक्ति, जो अपने माँ-बाप के दुख को न समझे?"

    "पंडित बाप की बेटी है, अब खुद भगवान का नाम जपने लगी है। घर के कामों में भी कोई मदद नहीं करती होगी।" एक औरत ने व्यंग्यात्मक अंदाज में कहा।

    कुछ लोग उनके घर की ओर देख रहे थे और कमेंट कर रहे थे, "देखो, किसे अपने रिश्तों की कोई अहमियत नहीं है। गीता पढ़ने का नतीजा यही होता है कि इंसान अपनों के दर्द को भी नहीं समझता। ये लड़की अब पूरे गाँव में सिर उठाकर चलेगी, क्योंकि खुद को भगवान का प्रिय समझने लगी है।"

    लेकिन किशोरी की चुप्पी अभी भी वैसी की वैसी थी। उसने किसी भी ताने का जवाब नहीं दिया। उसकी आँखों में कोई घबराहट नहीं थी, न ही उसमें कोई दुख था।

    "क्या इसे कभी एहसास होगा?" किसी ने कहा, "क्या यह कभी महसूस करेगी कि माँ के बिना उसका जीवन अधूरा हो गया है?"

    किशोरी के दुख और शांति को देख कर वासु का दिल द्रवित हो गया। उसने देखा कि उसकी प्यारी किशोरी अपनी माँ के निधन पर भी न केवल शांत है, बल्कि गहरी भक्ति में लीन है। किशोरी की इस भक्ति और समर्पण को देखकर वासु की आत्मा भी छू गई।

    पंडित मनोहर जी की बेटी की भक्ति और शांति ने उनके मन को गहराई से छू लिया। कभी-कभी वे सोचते कि क्या किशोरी सचमुच उनकी बेटी है, क्योंकि उसकी भक्ति और समर्पण का स्तर उनके अपने अनुभव से कहीं अधिक था। उन्होंने महसूस किया कि किशोरी ने केवल अपने परिवार की उम्मीदों को नहीं, बल्कि अपने पिताजी की आस्था की भी एक नई परिभाषा दे दी थी।

    वही वासु ने भी बहुत कुछ सीखा... इस छोटी सी किशोरावस्था की आयु में वासु ने भी किशोरी की भक्ति और शांति को देखकर महसूस किया कि उसने जीवन के एक गहरे सत्य को समझ लिया है, जो बहुत कम लोगों को ही समझ में आता है। किशोरी की यह भक्ति केवल एक धार्मिक आदत नहीं, बल्कि जीवन के उद्देश्य और समझ का हिस्सा थी।

    तू जो कृष्ण के सानिध्य में सुखी रही,
    हम उस सुख की तलाश में दर-दर भटके,
    तू जब प्रेम के राग में बसी,
    हम अपनी तन्हाई में घुलते गए।

    तू जो भगवद गीता के श्लोकों में बसी,
    हम अपनी राहों में उन शब्दों का अर्थ ढूंढते रहे,
    तू जब श्याम के दर्शन में मगन रही,
    हम उनकी छवि को बस अपनी आँखों में ही ढूंढते रहे।

    तू जो प्रीत की रजनी में रौशन हुई,
    हम उस रात की चाँदनी में बस तुझसे जुड़ने की आस लगाए बैठे रहे,
    तू जो हर रोज़ श्याम की पूजा में खो जाती,
    हम तो उसी पूजन की यादों में अपना अस्तित्व भूलते रहे।

    वासु का एक भी दिन ऐसा नहीं जाता था जब वह किशोरी को देखे बिना रह सके। उसे जैसे आदत सी हो गई थी, उस मासूम लड़की के चेहरे को देखे बिना उसका दिन पूरा ही नहीं होता था। सुबह-सुबह जब सूरज की पहली किरण उसके चेहरे पर पड़ती और उसकी आँखें धीरे-धीरे खुलतीं, उसकी सबसे पहली सोच यही होती कि वह कैसे किशोरी को देख सकेगा।

    वासु का दिन यूँ तो आम दिनों की तरह ही होता, पर किशोरी को देखे बिना वह खुद को अधूरा महसूस करता। रोज़ सुबह वह अपने काम में व्यस्त होता, लेकिन उसकी नज़रें उस जगह का पता करती रहतीं जहाँ से किशोरी का आना-जाना होता था। जैसे ही किशोरी मंदिर की ओर जाती दिखती, वासु का चेहरा खिल उठता।

    किशोरी मंदिर में जाकर जब भगवान कृष्ण के सामने सिर झुकाती, तब वासु दूर से उसे देखता रहता। उसे महसूस होता मानो किशोरी की भक्ति में ऐसा कुछ है जो उसके दिल को खींचे जाता है। वासु के लिए वह नजारा किसी देवता की पूजा करने जैसा होता था। किशोरी की वह शांत मुस्कान, उसकी भोली आँखें और कृष्ण के प्रति उसका अद्वितीय प्रेम वासु के दिल को छू जाता।

    दिनभर के कामों में भी वासु का मन वहीं अटका रहता। उसे किशोरी का चेहरा, उसकी नन्हीं-नन्हीं चूड़ियाँ, उसके हाथों में थामी माला, और कृष्ण के लिए उसके चेहरे पर आई हल्की सी मुस्कान हर वक़्त याद आती रहती। कई बार तो वह अपनी किताबों में भी खो जाता, पर दिमाग़ में कहीं ना कहीं किशोरी की छवि तैरती रहती।

    शाम को जब सूरज ढलने लगता और आसमान लालिमा से भर जाता, तो वासु को एक अजीब सी बेचैनी घेर लेती। उसे लगता अगर आज उसने किशोरी को नहीं देखा, तो कुछ अधूरा रह जाएगा। वह जल्दी से उस जगह पहुँच जाता जहाँ अक्सर किशोरी मिलती थी।

    वहाँ पहुँचते ही उसकी आँखों की चमक और मुस्कान लौट आती। वह दूर से ही खड़ा होकर उसे देखता रहता और दिल में कई सवाल उठते,
    "क्या वह कभी मुझे भी ऐसे ही देखेगी? क्या उसके दिल में भी मेरे लिए कोई जज़्बात होंगे?"
    लेकिन अगले ही पल वह खुद पर मुस्कुरा देता, मानो कह रहा हो,
    "उसका प्यार तो केवल कृष्ण से है, और मैं उसी की परछाई देखकर खुश हूँ।"

    इस तरह दिन गुज़रते जाते और वासु का दिल किशोरी को देखे बिना कभी शांत नहीं होता। उसके दिल में एक खामोश सी मोहब्बत बसती थी, जो बिना किसी उम्मीद के भी हर दिन किशोरी को देखना चाहती थी।

    आपने देखा कि किस तरह किशोरी की भक्ति और समर्पण ने न केवल उसके परिवार, बल्कि पंडित मनोहर जी और वासु के जीवन को भी गहराई से प्रभावित किया। किशोरी की माँ के निधन के बाद उसकी शांति और धैर्य ने लोगों को चकित कर दिया, लेकिन उसकी भक्ति ने उसे एक अद्वितीय शक्ति और समझ दी। इस घटना ने किशोरी और उसके पिता के रिश्ते को एक नई दिशा दी और वासु को भी जीवन का एक नया दृष्टिकोण समझने में मदद की।

    किशोरी की इस यात्रा का प्रभाव केवल उसके व्यक्तिगत जीवन तक सीमित नहीं रहा, बल्कि उसने अपने आस-पास के लोगों को भी नई प्रेरणा और सीख दी है। उसकी भक्ति केवल एक धार्मिक अभ्यास नहीं, बल्कि जीवन के गहरे अर्थ और उद्देश्य को समझने का एक मार्ग बन गई है।

    आगे की कहानी में हम देखेंगे कि किशोरी की भक्ति और जीवन की इस यात्रा का आगे क्या परिणाम होगा। क्या वासु उसकी भक्ति में और गहराई से समर्पित होगा? और कैसे पंडित मनोहर जी और किशोरी का रिश्ता और विकसित होगा? जानने के लिए बने रहिए और अपनी प्रतिक्रिया जरूर दें!

  • 10. प्रेममय - Chapter 10

    Words: 2434

    Estimated Reading Time: 15 min

    वासु को वह दिन याद आया जब किशोरी ने बड़े ही प्रेम से भगवान श्री कृष्ण के लिए मोतियों की एक माला बनाई थी। वह दिन उसके दिल में गहरे तक बस गया था। किशोरी ने बड़ी मेहनत और ध्यान से मोती एक-एक करके धागे में पिरोए थे, जैसे वह भगवान के लिए अपनी श्रद्धा और भक्ति का रूप दे रही हो।


    "किशोरी ने उस माला को भगवान के चरणों में चढ़ाने के लिए बनाया था, और वह कितनी खुश थी," वासु ने धीरे से सोचा। उसकी आँखों में एक नमी सी आ गई, लेकिन उसने इसे जल्दी से पोंछ लिया, जैसे वह किसी मीठी याद को दिल में छिपा रहा हो।


    किशोरी मंदिर की सीढ़ियाँ चढ़ने ही वाली थी, जब अचानक उसके हाथ से मोतियों की माला गिर गई। जैसे ही माला फर्श पर गिरी, मोतियाँ एक-एक कर बिखरने लगे, जैसे कृष्ण की भक्ति के छोटे-छोटे प्रतीक बिखर रहे हों। किशोरी का चेहरा पूरी तरह से सफेद पड़ गया, जैसे उसे अपने दिल की गहरी चोट महसूस हो रही हो। उसकी आँखों में उदासी की लहर दौड़ गई, और वह चुपचाप उन टूटे हुए मोतियों को उठाने लगी।


    वासु दूर से देख रहा था। वह तुरंत अपनी जगह से हड़बड़ी में खड़ा हुआ और किशोरी के पास दौड़ते हुए पहुँचा।


    "क्या हुआ किशोरी?" वासु ने चिंतित होकर पूछा।
    किशोरी कुछ नहीं बोली। वह सिर्फ बिखरे हुए मोतियों को उठाती रही, जैसे वह खुद से लड़ रही हो, जैसे वह किसी न अपूर्णता को अपने भीतर समेटने की कोशिश कर रही हो।


    "तुम परेशान मत हो, मैं हूँ न!" वासु ने कहा, उसकी आवाज में ढांढस था।
    लेकिन किशोरी के चेहरे पर कोई भी हलचल नहीं आई। वह बस एक-एक करके उन टूटे हुए मोतियों को उठाती रही, मानो वह खुद को पुनः जोड़ने की कोशिश कर रही हो।


    "किशोरी, देखो!" वासु ने कहा, "तुम्हारी भक्ति और भगवान से जुड़ा हर कण, हर तत्व, कभी नहीं टूट सकता। यह माला टूट गई, लेकिन तुम देखो, इस माला के टूटने से कुछ नहीं बदलने वाला। यह भगवान के चरणों में जाने वाली भक्ति की तरह है। जो सच में भक्ति करता है, वह अपने आस्था और विश्वास में कभी कमी नहीं आने देता। माला टूट सकती है, लेकिन भक्ति का रास्ता कभी नहीं रुकता।"


    किशोरी चुपचाप उसकी बात सुनती रही। उसकी आँखों में अब एक हल्की सी नमी थी, लेकिन अब वह टूटे हुए मोतियों को देखती हुई मुस्करा भी रही थी। वासु ने एक पल को सोचा और फिर उसके पास आकर कहा, "तुम्हारी भक्ति इस माला से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है, किशोरी। यह तो बस एक प्रतीक है, लेकिन तुम्हारा विश्वास एक सागर की तरह गहरा है।"


    किशोरी की आँखों में अब एक हल्की सी चमक आ गई थी। उसने सिर झुकाकर कहा, "धन्यवाद वासु।"


    वह पल वासु को आज भी याद था, जब किशोरी ने उस टूटे हुए मोतियों के साथ भी भगवान को समर्पण किया था, जैसे वह जानती थी कि श्रद्धा के रूप में सच्ची भक्ति कभी टूट नहीं सकती। उस दिन के बाद से, वासु ने समझ लिया था कि भक्ति एक भावना होती है, जो किसी रूप या चीज़ से बंधी नहीं होती।


    वासु की आँखों से आँसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे। वह उन पुरानी यादों को याद करके और भी भावुक हो गया।


    बाहर बारिश थम चुकी थी, लेकिन उसके दिल में उमड़ते भावनाओं का सैलाब अभी भी बरकरार था।


    उसने फिर से अपनी कलाई पर ब्रेसलेट को देखा, जो किशोरी के भक्ति के रूप में उसकी जिंदगी में हमेशा के लिए बसी हुई थी। "आज भी, तुम मेरे साथ हो किशोरी, और तुम हमेशा मेरे साथ रहोगी।"


    किशोरी खुद से बड़बड़ाते हुए कह रही थी, "वासु क्यों नहीं समझता? मेरा प्रेम तो मेरे कान्हा के लिए है। मैं उसे ये कैसे समझाऊं कि मुझे इस दुनिया का मोह नहीं है?"


    किशोरी के मन में अब कई सवाल घूमने लगे थे। उसने सोचा, "क्या ये सही है कि मैं वासु के प्रेम को नज़रअंदाज कर रही हूँ? क्या ये मेरी भक्ति के खिलाफ है?"


    किशोरी का मन जैसे दो दिशाओं में बंट चुका था। एक ओर वासु का सच्चा प्रेम था, जो उसे खींचता था, और दूसरी ओर उसका कान्हा, जो उसकी आत्मा का सच्चा साथी था।


    "अगर मैं वासु को कुछ कहती हूँ, तो वह टूट जाएगा। लेकिन मैं उसे झूठी उम्मीद भी नहीं दे सकती। उसे समझना होगा कि मेरा जीवन तो मेरे कृष्ण के नाम समर्पित है।"


    यही सब सोचते हुए वह अपने कमरे में चली गई और अपने गीले कपड़े बदल कर खिड़की के पास चटाई बिछाकर बैठ गई और सामने अपनी भगवत गीता खोल ली।


    उसने अपनी आँखें बंद करी और खो गई अपनी भक्ति की दुनिया में। लेकिन वहाँ किशोरी को कुछ और ही दिखा।


    किशोरी अपने घर के दरवाजे पर खड़ी थी जब उसे दूर से वासु आता दिखा। बारिश की हल्की बूंदों के बीच, वासु उसके पास आया। उसकी आँखों में बेइंतहा प्यार था, और साथ ही कुछ सवाल भी।


    "किशोरी, तुम इतनी भीग गई हो... क्या तुम्हें खुद को कोई परवाह नहीं है?"


    किशोरी ने उसकी ओर देखा, उसकी आँखों में दर्द साफ झलक रहा था। वह कुछ कहने की कोशिश कर रही थी, पर शब्द उसके होंठों तक नहीं आ पा रहे थे।


    "किशोरी, मैं जानता हूँ कि तुम्हारे दिल में मेरे लिए कुछ है। पर तुम मुझे क्यों नहीं बताती? क्या तुम मुझसे दूर जाना चाहती हो?"


    किशोरी ने गहरी सांस ली और फिर धीरे से कहा, "वासु, तुम जो महसूस करते हो, मैं उसकी कद्र करती हूँ। लेकिन मेरा दिल... मेरा दिल तो मेरे कान्हा के लिए धड़कता है। मैं तुम्हारे प्यार को समझती हूँ, पर मेरे लिए भक्ति और प्रेम एक ही जगह पर नहीं रह सकते।"


    "तो क्या तुम मेरे प्यार को ठुकरा रही हो? क्या मैंने तुम्हारे दिल में कभी कोई जगह नहीं बनाई?"


    किशोरी ने आँसुओं से भरी आँखों से उसकी ओर देखा, "वासु, मैं जानती हूँ कि तुम्हारा प्यार सच्चा है। पर मेरे दिल में केवल मेरे कान्हा की जगह है। मैं तुम्हें धोखा नहीं देना चाहती। मैं तुम्हारे साथ कभी वो नहीं कर सकती, जो तुम मेरे लिए महसूस करते हो।"


    वासु का चेहरा एक पल के लिए शांत हो गया। उसने महसूस किया कि किशोरी के लिए उसका प्रेम हमेशा अधूरा रहेगा, क्योंकि वह खुद किसी और के प्रति समर्पित थी।


    "किशोरी, अगर तुम्हारा दिल कान्हा के लिए है, तो मैं कभी तुम्हें उस भक्ति से दूर नहीं कर सकता। पर याद रखना, मेरा प्रेम सच्चा है, और मैं हमेशा तुम्हारे लिए खड़ा रहूँगा, चाहे तुम मेरे साथ रहो या नहीं।"


    किशोरी ने आँखें बंद करके एक गहरी साँस ली। उसका मन अब शांत था, क्योंकि उसने अपने दिल की बात साफ कर दी थी।


    किशोरी ने आँखें खोलते ही खुद को फिर से अपने कमरे में पाया। उसके हाथ में भगवत गीता खुली थी, लेकिन मन अब भी उलझनों में डूबा हुआ था। उसने अपनी दृष्टि बाहर बारिश की ओर मोड़ी। बारिश की बूंदें खिड़की के कांच पर टकरा रही थीं, मानो उसकी बेचैनी को प्रतिबिंबित कर रही हों। उसने गहरी साँस ली और सोचा, "ये जो अभी हुआ... क्या ये मेरा भ्रम था? या फिर मेरे मन की किसी गहरी ख्वाहिश ने मुझे ये दिखाया?"


    उसके भीतर द्वंद्व छिड़ा हुआ था। एक ओर वासु का निश्छल प्रेम था, जो उसकी मासूमियत से दिल में बस गया था, और दूसरी ओर उसका कान्हा, जिसकी भक्ति में वो पूरी तरह डूबी हुई थी। उसने मन ही मन सोचा, "वासु की भावनाओं का अनादर करना क्या सही होगा? पर मैं उसके प्रेम को कैसे स्वीकार कर सकती हूँ, जब मेरा समर्पण तो केवल मेरे कान्हा के लिए है?"


    किशोरी के भीतर की ये उलझन उसे शांत नहीं रहने दे रही थी। उसने गीता के पन्ने पलटते हुए एक श्लोक पर नज़र डाली:


    "योगस्थ: कुरु कर्माणि संगं त्यक्त्वा धनञ्जय।"
    (कर्म करते रहो, फल की चिंता मत करो।)


    किशोरी ने श्लोक को पढ़ा और उसके अर्थ पर विचार किया। उसने मन ही मन सोचा, "शायद यही सही रास्ता है। मैं जो महसूस करती हूँ, उसे सच्चाई के साथ जीना होगा। पर वासु को भी सही बात बतानी होगी, ताकि वो अपने जीवन में आगे बढ़ सके।"


    वह खिड़की से उठकर आईने के सामने खड़ी हो गई। अपनी गीली बालों को पीछे करते हुए उसने सोचा, "वासु के साथ मेरा रिश्ता कभी उस रूप में नहीं हो सकता, जैसा वो चाहता है। मैं उसे झूठी उम्मीदें देकर उसके साथ अन्याय नहीं कर सकती।"


    किशोरी ने तय किया कि उसे वासु से मिलकर इस स्थिति को साफ़ करना होगा। लेकिन कैसे? उसने अपने मन में ये सवाल दोहराया।


    किशोरी खिड़की से दूर हटकर जैसे ही अपने बिस्तर की ओर बढ़ी, अचानक उसे खिड़की के बाहर एक हलचल महसूस हुई। उसने पलट कर देखा तो मोर मयूर अपनी खूबसूरत पंखों को फैलाए खड़ा था। बारिश की बूंदों से उसके पंख और भी चमक रहे थे। मयूर, किशोरी का प्रिय साथी, उसकी ओर ऐसे देख रहा था जैसे उसे कुछ कहना हो। यह मोर बचपन से किशोरी के साथ था। एक बार किशोरी ने इसे जंगल में घायल अवस्था में पाया था, तब से यह हमेशा उसके साथ रहता था।


    "मयूर! तुम भी न, हमेशा सही वक्त पर आते हो।"


    किशोरी ने मोर के पंखों को धीरे से सहलाया और उसे अपने पास बुलाया। जैसे ही मयूर ने अपना सिर किशोरी के हाथों पर रखा, किशोरी को लगा कि वह उसकी उलझन को समझ रहा है। वह जैसे किशोरी की बेचैनियों का उत्तर ढूंढ़ने आया हो। मयूर हमेशा से किशोरी के दुख-सुख का साथी रहा था, और आज भी उसने आकर किशोरी के मन को कुछ शांति दी।


    किशोरी ने अपनी आँखें बंद कीं और फिर से भगवत गीता के उस श्लोक पर ध्यान दिया जिसे उसने कुछ समय पहले पढ़ा था:


    "योगस्थ: कुरु कर्माणि संगं त्यक्त्वा धनञ्जय।"


    इसका अर्थ उसे धीरे-धीरे स्पष्ट होने लगा। उसे महसूस हुआ कि कृष्ण यही समझाना चाहते हैं कि व्यक्ति को अपने कर्म को निष्काम भाव से करना चाहिए, बिना किसी आसक्ति के। जो होना है, वह होगा, लेकिन उसे अपने रास्ते पर दृढ़तापूर्वक चलना है।


    "वासु का प्रेम सच्चा है, लेकिन मेरी भक्ति उससे भी बड़ी है। मुझे अपने पथ पर बिना किसी मोह के चलना होगा। मेरे कर्म का फल चाहे कुछ भी हो, पर मेरा कर्तव्य यही है कि मैं अपने भावों के प्रति सच्ची रहूँ।"


    तभी मयूर ने अपनी चोंच से किशोरी के हाथ को हल्का सा छुआ, जैसे उसे याद दिला रहा हो कि वह अकेली नहीं है। किशोरी ने मोर की तरफ़ देखा और हल्के से मुस्कुराई। उसे यह एहसास हुआ कि यह मोर, उसकी भक्ति और उसकी उलझनों के बीच एक माध्यम है, जो उसे हर कदम पर सही दिशा दिखाता है।


    "शायद कान्हा ने ही तुम्हें मेरे पास भेजा है, मयूर। तुम हमेशा सही वक्त पर आते हो और मेरी उलझनों का हल देते हो।"


    किशोरी ने एक बार फिर से भगवत गीता के श्लोकों को पलटा और इस बार उसे एक और श्लोक मिला, जिसने उसके मन की शांति को और मजबूत किया:


    "कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।"

    (तुम्हारा अधिकार केवल कर्म करने में है, फल की चिंता मत करो।)


    इस श्लोक ने किशोरी के मन में दृढ़ता भर दी। उसने निर्णय लिया कि वह वासु से साफ़-साफ़ बात करेगी। उसे इस भ्रम में रखना सही नहीं होगा। लेकिन उसे यह भी समझाना होगा कि उसका प्रेम उसकी भक्ति के आड़े नहीं आ सकता।


    किशोरी ने मयूर को अपने पास बैठाया और धीरे-धीरे उसकी पंखों को सहलाते हुए मन ही मन कहा, "वासु को सच्चाई से रूबरू कराना मेरा धर्म है। लेकिन मैं उसे दुखी नहीं करना चाहती। मैं चाहती हूँ कि वो भी अपने जीवन में खुशी ढूंढे, ठीक वैसे ही जैसे मैं अपनी भक्ति में ढूंढ रही हूँ।"


    इतने में किशोरी को लगा कि मयूर ने उसकी ओर देखा और अपनी आँखों से मानो कुछ कहने की कोशिश की। किशोरी ने फिर से आँखें बंद कीं और कृष्ण के प्रति अपनी भक्ति में खो गई।


    किशोरी का मन अब और दृढ़ हो चुका था। उसे अब यह साफ़ हो चुका था कि चाहे जो भी हो, उसे अपने कर्म पथ पर बिना किसी मोह या आसक्ति के चलते रहना होगा। उसके जीवन का हर कदम कृष्ण को समर्पित है।


    तभी किशोरी के पास मयूर आया और उसने अपनी चोंच से उसके हाथ को हल्का सा छुआ। किशोरी ने हल्की मुस्कान के साथ मयूर की ओर देखा और फिर एक श्लोक पढ़ा:


    "श्रीभगवानुवाच: कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।"


    इस श्लोक ने किशोरी के मन की उलझनों को शांत कर दिया।


    किशोरी के मन में यह स्पष्ट हो गया कि उसे अपनी भक्ति, अपने प्रेम, और अपने जीवन के कर्मों को बिना किसी फल की इच्छा के करना होगा। वासु का प्रेम सच्चा है, लेकिन उसे किसी भी निर्णय से पहले यह सोचने की आवश्यकता नहीं है कि इसके परिणाम क्या होंगे। उसे केवल अपने सत्य और अपने धर्म के अनुसार चलना है।


    "मैं वासु से सच्चाई कहूँगी, चाहे उसके बाद जो भी हो। मेरे कर्तव्य में मेरा अधिकार है, लेकिन उसके परिणाम पर नहीं। मुझे केवल वही करना है जो सही है, और बाक़ी मेरे कान्हा पर छोड़ देना है।"


    वहीं दूसरी तरफ, वासु अपने कमरे में बैठा था, उसकी आँखों में भी वही उलझन थी। वह किशोरी की बातों को समझने की कोशिश कर रहा था। उसने खुद से कहा, "किशोरी का कान्हा के प्रति ये प्रेम... क्या मैं इसे कभी समझ पाऊंगा? मैं जानता हूँ कि उसका दिल कहीं और बसा हुआ है, फिर भी मैं क्यों उसकी ओर खींचा चला जाता हूँ?"


    वासु का मन भी एक ही सवाल से जूझ रहा था—क्या उसका प्रेम किशोरी के दिल में जगह बना सकता है, या उसे उसे हमेशा दूर से ही चाहना होगा?

  • 11. प्रेममय - Chapter 11

    Words: 3297

    Estimated Reading Time: 20 min

    बाहर बारिश तेज हो रही थी, और सुभिका अपने कमरे में चुपचाप बैठी सिसक रही थी। उसकी आँखों से आंसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे। उसकी माँ मालती जी के शब्द, जो उसके दिल में गहराई से चुभ गए थे, अभी भी उसके दिमाग में गूंज रहे थे। सुभिका की मनःस्थिति इतनी खराब थी कि उसे बारिश की आवाज भी असहनीय लग रही थी।

    तभी कमरे का दरवाजा झटके से खुला, और मालती जी, गुस्से से भरी हुई, अंदर आ गईं। उनका चेहरा गहरे आक्रोश से भरा हुआ था। उन्होंने सुभिका को देखा जो एक कोने में सिकुड़ी हुई बैठी थी।

    "अरे ओ करमजली, यहाँ बैठे आराम नहीं करना है तुझे?" मालती जी की आवाज तीखी और कठोर थी। "घर में बर्तन धोने के काम पड़े हैं। और तू यहाँ आराम से बैठी है, जैसे सब कुछ ठीक हो गया हो!"

    सुभिका ने सिर झुकाकर बिना कुछ कहे अपनी स्थिति स्वीकार कर ली। उसकी आँखों में अभी भी आंसू थे, और उसकी आत्मा थकी हुई महसूस हो रही थी। उसने गुस्से और निराशा से भरी हुई माँ की बातों का उत्तर देने की कोशिश नहीं की। वह जानती थी कि मालती जी का गुस्सा शांत करने का कोई तरीका नहीं है।

    मालती जी ने कमरे में और भी घुसते हुए कहा, "जैसे तेरे लिए घर का काम कोई महत्व नहीं है, वैसे ही इस घर में तेरे लिए हमारे परिवार की इज्जत भी कोई मायने नहीं रखती है समझी। तेरी यही हरकतों की वजह से हमारा सिर झुका हुआ है।"

    सुभिका ने धीरे-धीरे उठते हुए कहा, "माँ, मैंने कुछ गलत नहीं किया। मैंने बस अपने दोस्त के साथ थोड़ी मस्ती की थी।"

    मालती जी ने उसकी बातों की ओर ध्यान नहीं दिया और एक गुस्से में भरी आवाज में कहा, "शर्म नहीं आती तुझे? तू अपनी ज़िंदगी के बारे में सोचना नहीं जानती और बाहर के लोगों को दिखाने की इतनी चिंता है। घर के काम करना तेरा फर्ज़ है और तुझे इसे बिना शिकायत के करना होगा।"

    सुभिका ने अपने आँसू पोंछते हुए, हिम्मत जुटाते हुए कहा, "मैं कर दूँगी, माँ।"

    "फिर जल्दी कर, काम का समय चला जा रहा है," मालती जी ने आदेशात्मक स्वर में कहा और कमरे से बाहर चली गईं।

    सुभिका ने जैसे ही माँ के जाने के बाद अपने आँसू पोंछे, उसने खुद को संयमित करने की कोशिश की। उसने सोचा कि शायद ये सब कुछ समय के साथ सही हो जाएगा।

    वह बर्तन धोने के लिए रसोई में गई। बारिश की आवाज बाहर से आ रही थी, और उसे ऐसा लगा जैसे वह हर बर्तन के साथ अपने दर्द को धो रही हो। उसके हाथ बर्तन धोते-धोते सुन्न हो गए थे, और उसकी आत्मा में गहरे गहरे दर्द की लहरें उठ रही थीं।

    बर्तन धोते समय, वह सोचने लगी कि उसकी और पार्थ की मस्ती में कोई बड़ी बात नहीं थी, लेकिन मालती जी का गुस्सा और उनकी कठोर बातें उसे अंदर से तोड़ रही थीं। वह यह भी समझने लगी कि उसके गुस्से का कारण केवल उसका व्यवहार नहीं था, बल्कि शायद पारिवारिक तनाव और अपेक्षाएँ भी थीं।

    जब वह बर्तन धोकर फिनिश्ड करती है, उसने अपने आपको एक नई सोच में डालने का प्रयास किया। उसने महसूस किया कि उसकी माँ का गुस्सा उसकी भलाई के लिए नहीं, बल्कि एक अनजानी चिंता और दबाव का परिणाम था।

    मालती जी का गुस्सा और उसके कठोर शब्दों ने उसे भीतर से मजबूत बनाने का काम किया।

    बारिश की बूँदों में गुम हो गई मेरी हंसी,
    गुस्से के समंदर ने ढक लिया मेरे दिल की हर खुशी को।
    फिर भी छुपा लूँगी दर्द को अपने दिल के कोने में,
    आखिर इस मुश्किल घड़ी में भी ढूँढ लूँगी खुद को कहीं।
    मेरे आंसू भी बह गए, पर दिल की धड़कन वही रही हैं।
    मेरी उम्मीदें हैं बसी, इन आंसुओं के पीछे,
    जिंदगी की इस जंग को भी जीत लूँगी, एक दिन, यकीन है मुझे।


    सुभिका की सौतेली माँ, मालती जी, का स्वभाव वाकई बहुत सख्त था। वह एक ऐसी महिला थीं, जिनकी नज़र में घर के काम, समाज की प्रतिष्ठा और परिवार की इज्जत सबसे ऊपर थी। सुभिका उनके लिए हमेशा एक बोझ ही रही, चाहे वह खुद को कितनी भी मेहनत से साबित करने की कोशिश करती, मालती जी का दिल नहीं बदलता था।

    मालती जी का हमेशा यही मानना था कि सुभिका को हर समय मेहनत करनी चाहिए और समाज में उसका नाम ऊँचा होना चाहिए, चाहे वह इसके लिए अपनी खुशियाँ और इच्छाएँ दांव पर लगा दे। वह अक्सर यह कहकर सुभिका को ताने देतीं, "तुम्हारे जैसी लड़कियाँ समाज की नज़रों में नहीं आ सकतीं। दूसरों की तरह तुम्हें भी अपनी इज्जत की कीमत समझनी चाहिए।" मालती जी का यह रवैया सुभिका के लिए हर रोज़ एक नए तनाव का कारण बनता था।

    सुभिका को मालती जी की बातों से समझने की कोशिश करते हुए, उसकी आँखों में और भी दर्द भरता गया। वह सोचती, "क्या सच में समाज के ताने और परिवार की प्रतिष्ठा ही सब कुछ है?" उसकी माँ का गुस्सा हर बार उसे आत्मनिर्भर बनाने के नाम पर उसे कमजोर बना जाता था। मालती जी को सुभिका की भावनाओं, उसकी थकान, या उसकी मानसिक स्थिति से कोई फर्क नहीं पड़ता था। वह हमेशा उसे यह याद दिलाती रहतीं कि "तुम्हारे जैसे लड़कियों को दुनिया में किसी ने कुछ समझा नहीं है, और घर का काम भी तुम्हारे लिए कोई अहमियत नहीं रखता।"

    सुभिका, जो अंदर से बहुत संवेदनशील थी, इन शब्दों को आत्मसात करती जाती थी। उसे कभी भी मालती जी से प्यार या समर्थन की उम्मीद नहीं थी। वह जानती थी कि माँ का गुस्सा कभी नहीं थमेगा, और जो भी वह करे, उसे कभी संतुष्टि नहीं मिलेगी। हर बार जब सुभिका किसी समस्या से जूझती, मालती जी उसके दर्द को समझने के बजाय उसे और भी कठोर शब्दों से सजा देतीं।


    सुभिका का दिल भारी था, लेकिन वह यह समझने की कोशिश कर रही थी कि शायद मालती जी का गुस्सा सिर्फ उसकी भलाई के लिए है। लेकिन सच्चाई यह थी कि यह गुस्सा उसकी भावनाओं पर हमेशा एक बोझ बनकर रहता था। उसकी हर गलती को परिवार की इज्जत से जोड़ दिया जाता था, और यह बात उसे हमेशा अंदर से तोड़ देती थी।

    मालती जी का स्वभाव हमेशा ऐसा ही था — किसी भी बात पर गुस्से से भरी, हर काम में दबाव डालने वाली, और सुभिका की हर छोटी सी गलती को इतना बढ़ा-चढ़ा कर पेश करतीं, जैसे वह कुछ गलत कर रही हो। "तुम्हारी जैसी लड़कियों को समाज में इज्जत नहीं मिल सकती," यह शब्द उसके दिमाग में बार-बार गूंजते रहते थे।


    दूसरी ओर, पार्थ अपने घर लौटने के बाद भी सुभिका के साथ हुई घटना के बारे में लगातार सोच रहा था। वह आत्मग्लानि और चिंता से ग्रस्त था कि उसकी मस्ती ने सुभिका को कितनी मुश्किल में डाल दिया था। सुभिका के चेहरे पर आँसू और उसकी सौतेली माँ मालती जी के ताने उसकी आत्मा को झकझोर रहे थे।

    पार्थ ने अपने कमरे में जाकर बिस्तर पर बैठते हुए खुद को असहाय महसूस किया। वह सोचने लगा कि क्या वह सुभिका की मदद कर सकता था या क्या उसे सुभिका की स्थिति को ठीक से समझा नहीं था। उसकी आत्मग्लानि ने उसे इस बात पर मजबूर किया कि वह अपनी गलती को सुधारने का प्रयास करे।

    रात को, जैसे ही पार्थ को नींद आई, उसकी आँखों के सामने सुभिका का आंसू भरा चेहरा बार-बार आ रहा था। उसे यह समझ में आ रहा था कि उसकी शरारत ने सुभिका की ज़िंदगी में कितना बड़ा तूफान खड़ा कर दिया था।

    रात की खामोशी में, पार्थ की आत्मा में उठते तूफान को नियंत्रित करना मुश्किल हो रहा था। उसकी आँखों के सामने सुभिका का आंसू भरा चेहरा बार-बार घूम रहा था, और उसे अपने किए पर गहरी पश्चाताप हो रही थी।

    यही सब सोचते सोचते पार्थ ना जाने कब नींद के आगोश में चला गया...ये उसे खुद को भी पता नहीं चला।


    अगले दिन सुबह बारिश के बाद का वातावरण बेहद ताजगी भरा था। चिड़ियों की चहचहाहट और मिट्टी की सौंधी खुशबू से पूरा माहौल महक रहा था। वासु के पापा और मम्मी दोनों डायनिंग टेबल पर नाश्ता कर रहे थे। वासु के पापा ने नाश्ते के बीच में वासु के बारे में पूछा, "अरे ओ भाग्यवान! वासु नहीं उठा क्या अभी तक?"

    वासु की मम्मी ने धीमे स्वर में कहा, "मुझे क्या पता, तुम्हारा लाड़ला तुम्हीं जानो।"

    वासु के पापा ने हंसते हुए कहा, "अरे भाई, ऐसा क्या हुआ कि तुम खुद के लाडले को अब मेरा लाडला कह रही हो? मुझे तो उसकी जिद का पता है, लेकिन कभी ऐसा नहीं हुआ कि वह बिना वजह न उठे।"

    वासु की मम्मी ने चुप्पी साध ली। उनका चेहरा भी कुछ नाखुश लग रहा था।

    तभी वासु सीढ़ियाँ उतरते हुए नीचे आया और बिना कुछ बोले बाहर की तरफ जाने लगा। वासु के पापा ने कहा, "अरे वासु! बिना नाश्ता किए ही जा रहा है क्या! चल आ जल्दी से नाश्ता कर।"

    वासु मना करने ही वाला था कि उसके पेट से गड़गड़ की आवाज आई और वह सीधे डायनिंग टेबल पर बैठ गया।

    वासु के पापा अपने बेटे वासु के इस अजीब व्यवहार से आश्चर्यचकित थे...पापा ने एक नज़र अपनी पत्नी पर डाली जो वासु को घूर कर देख रही थी। पापा जी को बात समझते देर नहीं लगी कि ज़रूर कुछ न कुछ खलबली मची होगी अपनी पत्नी और बेटे के बीच।

    पापा जी ने स्थिति को समझते हुए कहा, "अरे! अब बताओ, आखिर क्या बात है?"

    मम्मी जी ने अपने गुस्से को बर्तनों के खड़कने से बाहर निकाला। उन्होंने चाय की केतली को जोर से रखकर कहा, "हमारी इज्जत, समाज की बातों की चिंता, और ये...ये वासु है कि समझता ही नहीं! ये वासु, हमेशा अपनी जिद पर अड़ा रहता है।"

    वासु ने अपने गुस्से और निराशा को एक तरफ रखते हुए जवाब दिया, "मम्मी, आप हमेशा समाज और इज्जत की बातें करती हैं, लेकिन मेरे दिल की बात सुनने की कोशिश कभी नहीं की। मैं यहां खुश हूँ, मुझे यहां पढ़ाई करनी है। बाहर जाने का मन नहीं है।"

    मम्मी जी ने गुस्से में बर्तन को एक बार फिर खड़काया और कहा, "तू समझता ही नहीं। ये सब बातें समाज में इज्जत की होती हैं। और तू...तू है कि अपनी जिद पर अड़ा है। तेरी पढ़ाई की वजह से हमें समाज में मज़ाक का सामना करना पड़ेगा।"


    पापा जी ने चाय की प्याली को हाथ में लेते हुए गुस्से को शांत करने की कोशिश की और कहा, "अरे! इतनी सी बात पर इतना हंगामा क्यों? वासु कह रहा है कि वह यहीं पढ़ाई करना चाहता है, तो उसे यहीं रहने दो। समाज की बातों को लेकर इतना तनाव क्यों?"

    मम्मी जी ने चाय की प्याली को मजबूती से टेबल पर रख दिया और गुस्से से बोलीं, "इतनी आसान बात नहीं है, मुखिया जी। समाज की सोच बदलने में समय लगता है, और हमें हमेशा अपनी इज्जत का ख्याल रखना पड़ता है। हम सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था, और अब ये सब बर्बाद हो जाएगा।"

    पापा जी ने शांत स्वर में कहा, "अरे, लेकिन अगर वासु खुश है और यहीं पढ़ाई करना चाहता है, तो हमें उसे उसका रास्ता चुनने का मौका देना चाहिए। इतनी छोटी बात को लेकर इतना बवाल क्यों?"

    मम्मी जी ने गुस्से से सिर झुका लिया और कहा, "छोटी बात नहीं है। समाज की नज़र में हम पर सवाल उठेंगे। लोग कहेंगे कि हमारे पास पैसे होते हुए भी हम उसे अच्छे कॉलेज में नहीं भेज सके। यह हमारी इज्जत का मामला है।"

    वासु ने अपनी मम्मी की ओर देखा और कहा, "मम्मी, मुझे अपनी पढ़ाई और भविष्य के बारे में सोचना है। अगर मैं यहां खुश हूँ और मुझे यहीं पढ़ाई करनी है, तो क्या यह मायने नहीं रखता?"

    पापा जी ने गहरी सांस ली और कहा, "देखो, वासु की बात मानना शायद आसान नहीं है, लेकिन कभी-कभी हमें अपने बच्चों की खुशियों का सम्मान करना चाहिए।"


    लेकिन पापा जी को नहीं पता था कि पत्नी से पंगे लेना मतलब साक्षात् यमराज के दर्शन लेना। पत्नी तो आखिर पत्नी ही होती है...अपनी बातों पर अडिग।

    मम्मी जी ने गुस्से से बर्तनों को खड़काते हुए कहा, "यह बहुत आसान है कहने में, लेकिन हमें समाज में कैसे दिखाया जाएगा? क्या यह हमारी ज़िम्मेदारी नहीं है कि हम अपने बच्चों को सबसे अच्छा मौका दें?"

    पापा जी ने एक गहरी निगाह डाली और कहा, "समाज की सोच से ज्यादा महत्वपूर्ण है कि हमारे बच्चे खुश रहें और हमें उनके फैसलों का सम्मान करना चाहिए।"

    मम्मी जी ने गुस्से में कहा, "आप हमेशा इस तरह की बातें करते हैं, लेकिन अंततः यही होता है कि समाज हमारे ऊपर उंगली उठाता है।"

    पापा जी ने धीरे से कहा, "देखो, मैं समाज की सोच को बदलने की कोशिश कर रहा हूँ। अगर हम खुद अपनी सोच में बदलाव लाएं, तो शायद समाज भी बदल जाएगा।"

    मम्मी जी ने अपने गुस्से को बाहर निकालते हुए कहा, "आपका यह सोच हमें सही दिशा में नहीं ले जाएगी। समाज की नज़रों में गिरने के बजाय हम बेहतर विकल्प चुन सकते हैं।"

    वासु ने अपने दिल की गहराई से कहा, "मम्मी, मैं समझता हूँ कि आप और पापा मेरे लिए सबसे अच्छा चाहते हैं, लेकिन मुझे अपनी खुशियों का भी ख्याल रखना है।"

    पापा जी ने अंत में कहा, "चलो, अगर वासु यहीं रहकर पढ़ाई करना चाहता है, तो हम उसे उसकी खुशियों का सम्मान देना चाहिए। हमें समाज की बातों को अपने परिवार की खुशियों से ज्यादा महत्व नहीं देना चाहिए।"

    मम्मी जी ने गुस्से में कहा, "अगर ऐसा ही है, तो मुझे समाज की बातों का जवाब देने के लिए तैयार रहना पड़ेगा।"

    पापा जी ने अपनी पत्नी को शांत करते हुए कहा, "समाज की बातों से ज्यादा महत्वपूर्ण है कि हम अपने बच्चों की खुशियों का सम्मान करें।"


    मम्मी जी ने आखिरी शब्द सुनकर गुस्से से तमतमाते हुए मुखिया जी की ओर देखा। उनके हाथों में पकड़ी कड़छी को जमीन पर पटकते हुए बोलीं, "तुम्हें तो बस अपने बेटे की खुशी दिखती है, लेकिन मेरी ज़िंदगी और मेरी इज्जत का क्या? समाज में कितने लोगों ने हमारे ऊपर सवाल उठाएंगे? जब लोग कहेंगे कि हमारा इकलौता बेटा बाहर नहीं पढ़ा, तो क्या कहोगे तुम?"

    पापा जी ने गहरी सांस लेते हुए कहा, "देखो, जब तक हम खुद अपनी सोच नहीं बदलेंगे, तब तक समाज को भी बदलने का कोई मौका नहीं मिलेगा। मैं मानता हूँ कि समाज की चिंता होती है, लेकिन हमें अपने बच्चों की खुशियों से समझौता नहीं करना चाहिए।"

    मम्मी जी ने कटाक्ष भरे शब्दों में कहा, "अरे वाह! क्या बात है! अब तुम समाज सुधारक बन रहे हो? जब मैं कह रही थी कि मेरे लिए डायमंड का हार दिला दो, तब तुम्हें समाज की फिक्र नहीं थी। तब तुमने कहा था कि क्या ही करोगी डायमंड के हार का। और अब बेटे की बात पर तुम समाज को बदलने की बातें कर रहे हो!"

    पापा जी ने थोड़ा झुंझलाते हुए कहा, "तुम हर बात को घुमा कर मुझ पर क्यों डाल देती हो? हार की बात अलग थी। यहाँ बात वासु की है...हमें अपने बच्चों की खुशी और उनकी इच्छाओं का सम्मान करना चाहिए।"

    मम्मी जी ने अपनी चाय की प्याली उठाकर गुस्से से कहा, "तुम्हें समझ में नहीं आता कि समाज की नज़रों में गिरने का मतलब क्या होता है। लोग बातें बनाएंगे। और फिर हमारे घर का माहौल कैसे प्रभावित होगा, इसका अंदाज़ा भी है तुम्हें?"

    वासु, जो अब तक चुप था, अचानक उठकर बोला, "मम्मी! अगर समाज के डर से हमें अपने सपनों और खुशियों की कुर्बानी देनी पड़े, तो फिर क्या फायदा? मैंने हमेशा आपकी बातें मानी हैं, लेकिन इस बार मैं अपना भविष्य खुद चुनना चाहता हूँ।"

    मम्मी जी ने एक पल के लिए वासु की ओर घूरते हुए कहा, "तू समझता क्या है? जितना देखा है, उतना ही सोचता है। हमने समाज में अपना नाम बनाने के लिए कितनी मेहनत की है, उसका तुझे कोई अंदाज़ा भी है?"

    वासु ने गुस्से से कहा, "मुझे अपनी पढ़ाई और अपने सपनों का ख्याल रखना है, मम्मी। मैं यहीं रहकर पढ़ाई करूँगा, चाहे समाज कुछ भी कहे।"

    मम्मी जी गुस्से से कांपने लगीं, उनकी आवाज कांपते हुए ऊँची हो गई, "अगर तुझे यही करना था, तो फिर मुझे क्यों नहीं बताया पहले? अब जाकर सबके सामने हमें शर्मिंदा करेगा?"

    पापा जी ने थोड़ा कड़ा स्वर अपनाते हुए कहा, "बस! अब इस बात को और बढ़ाने की ज़रूरत नहीं है। वासु ने फैसला कर लिया है, और हमें उसका सम्मान करना चाहिए। समाज हमेशा बातें बनाएगा, लेकिन हमारे बच्चों की खुशी और उनका भविष्य ज्यादा मायने रखता है।"

    मम्मी जी ने चाय की प्याली इतनी जोर से टेबल पर पटकी कि वह गिरकर टूट गई, "अगर वासु यहीं रहेगा, तो मुझे समाज का सामना खुद करना पड़ेगा। और याद रखना, अगर कोई उंगली उठाएगा, तो मैं तुम्हें दोष दूंगी, मुखिया जी!"

    पापा जी ने शांत स्वर में जवाब दिया, "समाज की उंगलियां जितनी मर्जी उठ जाएं, मैं तैयार हूँ। लेकिन मैं अपने बेटे की खुशी से समझौता नहीं करूँगा।"


    पापा जी का स्वभाव हमेशा से ही समझदार और विचारशील था। वह समाज के दबावों से ज्यादा अपने परिवार की खुशी और उनके भविष्य को महत्व देते थे। उनका मानना था कि जीवन का असली उद्देश्य आत्म-संतोष और खुशी है, न कि समाज की झूठी मान्यताओं और परंपराओं का पालन करना। वासु के मामले में भी उनकी सोच पूरी तरह से यही थी। वह जानते थे कि वासु की ज़िंदगी उसकी अपनी है, और जो वह चुनेगा, वही सही होगा।

    पापा जी ने शांत स्वर में कहा, "देखो, समाज के बारे में चिंता करने से पहले हमें यह समझना चाहिए कि जो बच्चे हमसे प्यार करते हैं, वे अपनी ज़िंदगी में वही करेंगे जो उन्हें सही लगता है। वासु के लिए यह कदम ज़रूरी है, क्योंकि वह अब बड़ा हो गया है और उसकी अपनी सोच है। हम उसे खुश देखना चाहते हैं, और इसका मतलब यह नहीं कि हमें समाज के डर से उसकी इच्छाओं को कुचल देना चाहिए।"

    मम्मी जी ने उनकी बातों को सुनकर गहरी सांस ली, लेकिन उनकी आँखों में असंतोष था। उन्होंने कहा, "मैं समझती हूँ कि तुम वासु को खुश देखना चाहते हो, लेकिन क्या तुम नहीं देख रहे हो कि हम एक सम्मानित परिवार हैं? समाज की नज़रों में हमारी इज्जत सबसे महत्वपूर्ण है। अगर वासु ने अपना रास्ता चुना तो लोग हमारी छवि को नुकसान पहुँचाएंगे।"

    पापा जी ने गहरी और संजीदा आवाज में उत्तर दिया, "समाज की नज़रों में इज्जत सिर्फ नकली दिखावे से नहीं आती। इज्जत आती है अपने आत्म-सम्मान से, और वह हर इंसान के भीतर होना चाहिए। हमारा परिवार एक दूसरे की भावनाओं का सम्मान करता है। मुझे नहीं लगता कि हमें किसी की बातें सुनकर अपने बच्चों की खुशी से समझौता करना चाहिए।"

    वासु, जो अब तक चुप था, धीरे-धीरे पापा जी के पास आया और कहा, "पापा, आपने हमेशा मुझे समझा है, और मैं चाहता हूँ कि आप मेरी सोच का भी सम्मान करें। मैं जानता हूँ कि समाज का डर बहुत बड़ा होता है, लेकिन मैं अपनी ज़िंदगी को अपने तरीके से जीना चाहता हूँ। मैं अब बड़ा हो चुका हूँ, और मुझे अपनी खुशियों को चुनने का अधिकार है।"

    पापा जी ने उसे गले लगा लिया और कहा, "वासु, मैं हमेशा तुम्हारे साथ हूँ। तुम्हारी खुशी मेरी खुशी है, और तुम्हारी इच्छाओं का सम्मान करना मेरा कर्तव्य है। तुम वही करो जो तुम्हारे दिल में सही लगे, मैं तुम्हारे साथ खड़ा रहूँगा।"


    मम्मी जी चुप हो गईं। वह समझ तो गईं थीं कि अब उनका विरोध करना किसी काम का नहीं था, क्योंकि पापा जी का फैसला उनके लिए अंतिम था। वह हमेशा की तरह एक दृढ़ नायक की तरह खड़े थे, और उन्होंने परिवार के हर सदस्य की खुशी और संतोष को प्राथमिकता दी थी। उन्होंने वासु के फैसले का समर्थन किया और समाज की हर उंगली का सामना करने का संकल्प लिया।

    आगे क्या होगा जानने के लिए अगले भाग का इंतज़ार करते रहिए साथ ही समीक्षा भी करते रहिए।

  • 12. प्रेममय - Chapter 12

    Words: 3087

    Estimated Reading Time: 19 min

    बारिश के बाद का वातावरण एक नई ताजगी से भरा हुआ था, लेकिन इसके साथ ही कई जगह गहरे गड्डे हो गए थे और उनमें पानी भर गया था। जगह-जगह कीचड़ भी जम गया था, जो चलने में मुश्किल पैदा कर रहा था। वासु ने सोचा कि उसे इस समय मंदिर की ओर तेजी से बढ़ना चाहिए, ताकि वह किशोरी के दर्शन कर सके और अपनी खुशी को पूरी तरह से महसूस कर सके।


    वासु ने अपने कदम बढ़ाए और कीचड़ भरे रास्ते पर चलने लगा। चप्पल की हर खटखटाहट के साथ उसके पैरों में गहरी फिसलन महसूस हो रही थी। वह रास्ते की फिसलन को नजरअंदाज करता हुआ, ध्यान केंद्रित करके चलने लगा। बारिश की बूंदें उसके माथे पर गिर रही थीं, लेकिन वह इन छोटी-छोटी बाधाओं को टालते हुए आगे बढ़ता गया।


    दूसरी ओर, मंदिर के पास भजन कीर्तन की ध्वनि स्पष्ट रूप से सुनाई दे रही थी। पवित्र वातावरण और भजन की आवाज़ ने वासु की आत्मा को सुकून और आनंद प्रदान किया। मंदिर के पास पहुँचते ही उसने एक गहरी सांस ली और अपने गीले कपड़ों को झाड़ते हुए मंदिर में प्रवेश किया।


    मंदिर के अंदर पहुँचकर, वासु ने देखा कि किशोरी के चारों ओर कुछ नन्हे-मुन्ने बच्चे इकट्ठा थे। उनकी आँखों में जिज्ञासा और चहक थी। वे किशोरी की ओर ध्यान लगाकर सुन रहे थे। किशोरी ने एक मीठी मुस्कान के साथ बच्चों को देखा और बोली, "तुम लोगों को पता है, तुम्हारी मम्मी भी तुम्हें कान्हा के रूप में देखती हैं। क्योंकि कान्हा ने जब अपना जीवन जीया, तो इस प्रकार जिया कि आज भी माताएँ अपने बच्चों में नन्हे कान्हा को पाती हैं।"


    बच्चों ने उत्सुकता से पूछा, "दीदी कान्हा के बारे में और बताओ ना?"


    किशोरी ने अपने शब्दों में भक्ति और प्रेम की मिठास घोलते हुए कहा, "कान्हा ने जब प्रेम किया, तो ऐसा किया कि आज भी कोई ऐसा प्रेम नहीं कर पाया और आज तक सभी लोग अपने प्रेमी में कान्हा को ढूंढते हैं। कान्हा ने हमें सिखाया कि प्रेम में त्याग होना चाहिए, और यही प्रेम हमें हमारे परिवार से जोड़ता है।"


    एक छोटे बच्चे ने कहा, "क्या कान्हा ने कभी किसी को दुखी किया?"


    किशोरी ने सिर हिलाते हुए कहा, "नहीं, बच्चे। कान्हा ने हमेशा खुशी बाँटी। वह हमेशा दूसरों की मदद करने के लिए तैयार रहते थे। जब उन्होंने अर्जुन को गीता का ज्ञान दिया, तो उन्होंने उसे यह सिखाया कि जीवन में कठिनाइयाँ आएंगी, लेकिन अगर हम सच्चाई और धर्म के मार्ग पर चलें, तो हम हर मुश्किल को पार कर सकते हैं। लेकिन आज भी उनके जैसा शिक्षक कोई नहीं है। उनकी शिक्षाएँ सदैव हमारे जीवन में प्रेरणा देती हैं।"


    वह धीरे-धीरे बच्चों को समझाने लगी, "कान्हा ने सिखाया कि हमें कभी भी अपने कर्तव्यों को भूलना नहीं चाहिए। उन्होंने अर्जुन को अपने संघर्ष का सामना करने के लिए प्रोत्साहित किया। उन्होंने कहा कि सच्चा धन तो हमारे कर्म हैं, और हमें हमेशा अपने कर्मों पर ध्यान देना चाहिए।"


    बच्चों ने ध्यान से सुना और फिर एक और बच्चा बोला, "तो क्या हम भी कान्हा की तरह अच्छे बन सकते हैं?"


    किशोरी ने मुस्कुराते हुए कहा, "बिल्कुल!"


    उसकी बात सुनकर बच्चे खुशी से किलकारी भरने लगे। उनमें से एक बच्चा बोला, "हम भी कान्हा की तरह बनेंगे और दूसरों की मदद करेंगे!"


    वहीं, वासु ने किशोरी की बातों को ध्यान से सुना। उसकी आँखों में गर्व और प्रेम की चमक थी। उसे एहसास हुआ कि किशोरी न केवल बच्चों को कान्हा की बातें सिखा रही है, बल्कि उनकी सोच को भी सही दिशा दे रही है।


    बच्चों के साथ बातें करते हुए, किशोरी ने उन्हें बताया, "याद रखना, सच्चा प्रेम और करुणा कभी भी छोटे या बड़े नहीं होते। जो भी तुम करते हो, दिल से करो। यही कान्हा की सीख है।"


    बच्चों ने एक सुर में कहा, "हम समझ गए, दीदी!" फिर उन्होंने खुशी-खुशी कान्हा का नाम लेकर तालियाँ बजाईं।


    वासु ने यह सब देखकर महसूस किया कि किशोरी का प्रेम केवल उसे ही नहीं, बल्कि हर एक को प्रभावित करता है।


    वासु ने सोचा, "किशोरी में वह सब कुछ है जो एक सच्चे भक्त में होना चाहिए—भक्ति, प्रेम, करुणा और ज्ञान।"


    फिर किशोरी ने बच्चों से कहा, "अब तुम सब कुछ गाकर सुनाओ, जो तुमने मुझसे सीखा है।" बच्चों ने उत्साह से एक भजन गाना शुरू किया, "कन्हैया मुझको बचाना, मैं हूँ तेरा दीवाना।"


    फिर बच्चों ने कहा, "दीदी अब आप सुनाओ!"


    किशोरी ने अपनी आँखें बंद कर लीं और गाने लगीं:

    "मुझे पता है,
    तू हर जगह है, सिर्फ मंदिर की मूरत में नहीं।
    तू है इस सृष्टि के हर कण में,
    हर जीव के मन में, हर धड़कन में बसा है।

    लोग कहते हैं, तू पत्थर की मूरत में रहता है,
    पर मैं जानती हूँ, तू उन आँखों में भी बसता है,
    जो प्रेम से तुझे देखती हैं, जो आस्था से झुकती हैं।
    तेरी मूरत तो बस एक जरिया है,
    तेरी मौजूदगी को महसूस करने का बहाना है।

    तू तो उस किसान की मेहनत में है,
    उस माँ की ममता में है, जो अपने बच्चे को पालती है।
    तू उस प्रेमी के हृदय में है, जो अपने प्रेम की धड़कनों में तुझे पाता है,
    तू उस शिशु की मुस्कान में है, जो बिना बोले भी तुझे महसूस कर लेता है।

    मंदिर की मूरत में तो बस तेरी एक झलक है,
    तेरा असली स्वरूप तो हर जगह फैला है।
    मैं जानती हूँ, तू मेरे हर सांस में है,
    हर आंसू में, हर हंसी में, हर उम्मीद में बसा है।

    कहीं तू हवा की ठंडक में है,
    कहीं तू सूरज की गर्मी में, कहीं बारिश की बूंदों में।
    तेरी मूरत में तो मैं तुझे देखती हूँ,
    पर असल में तू हर उस जगह है,
    जहाँ सच्चे मन से कोई तुझे याद करता है।

    तू मूरत में नहीं,
    तू तो मेरे मन में, मेरी आत्मा में है,
    हर उस जगह जहाँ प्रेम, भक्ति और सच्चाई है।
    क्योंकि तू सर्वत्र है, सबका आधार है,
    और हर जगह तेरा ही प्यार है।"


    भजन की इन पंक्तियों ने वासु को जैसे एक नई ऊर्जा से भर दिया। किशोरी की भव्यता और उसकी आवाज़ की पवित्रता ने मंदिर की दीवारों को एक अनोखा आभास प्रदान किया। वासु ने देखा कि किशोरी का चेहरा शांत और दिव्य आभा से भरा हुआ था, मानो वह खुद भगवान के साथ एक अनन्त संवाद में लीन हो।


    वासु धीरे से मंदिर के एक कोने में जाकर बैठ गया और उसकी आँखें बंद कर लीं।


    तू जो नदियों की तरह बहती रही,
    हम तुझमें समा जाने की आस लगाए बैठे,
    तेरी भक्ति में जो अनंत शक्ति थी,
    हम तो बस तेरे कदमों की धूल बने बैठे।

    तू जो श्याम के संग नाचती रही,
    हम तो खामोशी से तुझे देखते रहे,
    तेरी आवाज़ में जो मीठी तान थी,
    हम उसकी गूंज में अपनी जिंदगी खोते गए।

    तू श्याम के चरणों में लहराती रही,
    हम तेरी चाहत में बंधे रहे,
    तेरी मूरत में समाया जो प्रेम था,
    हम उसकी परछाईं को ही अपने मन में जीते रहे।

    तू जो गीता के हर श्लोक में बसी,
    हम अपने मन के बेजान शब्दों में उलझे रहे,
    तेरी भक्ति ने तुझे परमात्मा बना दिया,
    हम तो तेरे प्रेम में सीखने की चाहत में खोते रहे।
    तू जिसकी भक्ति में समर्पण था,
    हम खुद को प्रेम की राह में खोते रहे।

    तू जो श्याम के रंग में रंगी,
    हम अपनी पहचान खोते गए,
    तू जो उनकी मूरत बन गई,
    हम उनकी धड़कन में गुम होते गए।


    मंदिर का वातावरण बहुत ही शांत और मंत्रमुग्ध करने वाला था। भजन की धुन के साथ-साथ, मंद रोशनी और धूप की किरणें मंदिर के अंदर फैली हुई थीं।


    वासु ने महसूस किया कि इस पल ने उसे पूरी तरह से बदल दिया है। उसकी सारी चिंताएँ और संघर्ष जैसे मंदिर की पवित्रता में समाहित हो गए थे।


    भजन समाप्त होते ही, किशोरी ने आँखें खोलीं और उसकी दृष्टि वासु पर पड़ी।


    वासु की आँखें अभी भी बंद थीं, मानो भजन बंद होने के बाद भी उसके कानों में गूंज रहे हों।


    किशोरी की आँखें वासु पर ही टिकी थीं… उसके कानों में वासु के शब्द गूंज पड़े… जो वासु उससे हर वक्त कहता था।

    "तुम भक्ति में बावरी हो किशोरी, तो हम तुममें ही बावरे हैं,
    किशोरी तू पूजा करे कन्हैया की, हमरे लिए तो तू ही हमारा कन्हैया है।"


    वासु की आवाज़ की गूंज, उसकी उन बातों की गूंज, अब किशोरी के दिल की गहराई में छिपी चिंताओं और सवालों को और भी तेज कर रही थी।


    वासु ने अपनी आँखें खोलीं… उसकी आँखें किशोरी की आँखों से जा मिलीं।


    वासु की आँखों में एक सम्मोहन सा था, जो किशोरी को एक अजीब सी स्थिति में डाल रहा था। वासु की आँखें जैसे उसके दिल की हर धड़कन को महसूस कर रही थीं, और उसकी सच्चाई और भावनाओं को पूरी तरह समझ रही थीं।


    किशोरी के मन में वासु की दृष्टि के प्रभाव से एक अजीब सा सम्मोहन हो रहा था। उसकी आत्मा में एक हलचल सी मच रही थी। किशोरी ने महसूस किया कि वासु की आँखों में एक खास प्रकार का आकर्षण था, जो उसे अपनी ओर खींच रहा था। यह आकर्षण उसके भीतर एक नई चेतना का संचार कर रहा था, लेकिन यह उसकी भक्ति और उसकी आत्मिक प्रतिबद्धता के साथ टकरा रहा था।


    वासु ने धीरे-धीरे उठकर किशोरी की ओर कदम बढ़ाए। उसकी चाल में एक गहरी भावनात्मक प्रगति थी, जैसे वह किशोरी के दिल की गहराइयों को छूने के लिए ही चला आ रहा हो। उसकी आँखों में एक प्रकार की कसम, एक अनकही बात छिपी हुई थी, जो किशोरी को निरुत्तर कर रही थी। किशोरी के मन में एक तूफान उठ रहा था—एक ओर वह वासु के प्रेम को महसूस कर रही थी, दूसरी ओर उसकी भक्ति और संकल्प उसे रोक रहे थे।


    किशोरी ने अचानक होश में आकर सोचा, "नहीं, मुझे वासु से छिपना चाहिए। उसकी बातों का असर मेरे दिल पर हो रहा है, और मैं अपनी भक्ति और आत्मिक प्रतिबद्धता से विचलित हो रही हूँ।" उसके दिल में उठ रहे द्वंद्व ने उसे सचेत कर दिया था कि वासु की ओर बढ़ते कदमों से उसे खुद को दूर रखना होगा।


    लेकिन वासु अब उसके सामने खड़ा था। किशोरी को कुछ भी समझ नहीं आ रहा था।


    वासु के चेहरे पर अब भी वही निश्छल मुस्कान थी… वह नीचे झुका और किशोरी के चरण स्पर्श कर लिए।


    किशोरी मानो बुत बनकर अपनी जगह जम सी गई।


    वासु उठा और किशोरी के सामने हाथ जोड़ लिए और बोला, "राधे राधे! किशोरी।"


    किशोरी ने धीमे से कहा, "राधे राधे! वासु।"


    वासु मुड़ा और जाने लगा। किशोरी के हाथ खुद-ब-खुद वासु को रोकने के लिए बढ़ गए किन्तु उसके होंठ खुल नहीं रहे थे, उसके शब्द कुछ बोलने के लिए उसका साथ नहीं दे रहे थे। वह वासु की पीठ को देखती रही।


    किशोरी की आँखों में असमंजस और भावनाओं का समुद्र था।


    अचानक से वासु पलटा और किशोरी की ओर देखा। उसकी आँखों में एक अजीब सी तीव्रता थी, मानो वह किशोरी के दिल की हर बात को सुन सकता हो। किशोरी की आँखें नमी से भरी हुई थीं, और उसकी चुप्पी में एक गहरी उदासी का संकेत था। वासु ने एक गहरी साँस ली और धीरे-धीरे किशोरी के पास पहुँचा।


    किशोरी की आँखों में एक अंतहीन दुविधा थी। उसने अपने दिल की गहराइयों में छिपी भावनाओं को महसूस किया, लेकिन वासु की बातें उसे सीधे भगवान श्री कृष्ण के प्रति अपनी भक्ति के धर्म से जोड़ रही थीं।

    किशोरी: "वासु, भक्ति भगवान की की जाती है। यह हमारे आत्मा का एक पवित्र संबंध है, जिसे किसी भी व्यक्तिगत प्रेम के लिए नहीं तोड़ा जा सकता।"

    वासु: "मगर किशोरी, मेरा भगवान तो तुम ही हो। तुमसे बढ़कर कोई नहीं है मेरे लिए।"

    किशोरी: "वासु, अगर तुम सच में भगवान के भक्त हो, तो क्या तुम चाहोगे कि भगवान तुमसे रूठ जाएं?"

    वासु: "तो फिर रूठने दो। अगर भगवान मुझसे रूठते हैं, तो मैं इसे स्वीकार कर लूँगा।"

    किशोरी: "तुम मेरी बात को समझ क्यों नहीं रहे हो, वासु? भगवान के साथ हमारी भक्ति का संबंध बहुत पवित्र है। तुम और मैं यह रिश्ता नहीं तोड़ सकते।"

    वासु: "क्या तुम अपने कान्हा की पूजा करना छोड़ सकती हो, किशोरी?"

    किशोरी: "नहीं, वासु।"

    वासु: "तो फिर मैं भी अपने भगवान की पूजा कैसे छोड़ दूँ?"


    किशोरी चुप हो गई, उसकी आँखें गहरी सोच में खो गईं। वासु के शब्दों ने उसके दिल के कोने-कोने को छू लिया था। वह अपने भीतर की उठती भावनाओं और भक्ति की गहराई को समझने की कोशिश कर रही थी, लेकिन उसकी आत्मा में एक उलझन थी। वासु की उपस्थिति और उसके शब्द उसकी भक्ति के समर्पण को चुनौती दे रहे थे, जिससे वह तृप्त और अशांत दोनों ही महसूस कर रही थी।

    किशोरी: "वासु, तुम क्या चाहते हो?"

    वासु: "मैं तुम्हारी भक्ति का सम्मान करता हूँ। मैं बस तुम्हारे साथ चलना चाहता हूँ। मुझे पता है मेरा प्रेम तुम्हारी भक्ति के सामने नगण्य लग सकता है, लेकिन मैं चाहता हूँ कि हम दोनों साथ चलें। मैं जानता हूँ कि तुम्हारी भक्ति तुम्हारी आत्मा का हिस्सा है, और मैं उसे समझता हूँ। मैं केवल इतना चाहता हूँ कि तुम मेरी जिंदगी में मेरी साथी बनो, और हम साथ में अपने-अपने धर्म और प्रेम को संभाल सकें।"

    किशोरी: "वासु, लेकिन मेरे लिए भक्ति सर्वोपरि है। क्या तुम मेरे धर्म को समझ सकोगे?"

    वासु: "मैं समझता हूँ कि भक्ति तुम्हारे जीवन का अभिन्न हिस्सा है। लेकिन क्या हम एक-दूसरे के प्रेम को भी समझने का प्रयास नहीं कर सकते? मैं चाहता हूँ कि तुम्हारी भक्ति और हमारा प्रेम दोनों साथ-साथ चलें, बिना एक-दूसरे की पवित्रता को नुकसान पहुँचाए।"

    किशोरी: "भक्ति एक अन्य मार्ग है, और प्रेम एक अन्य। दोनों का एक साथ चलना कठिन होता है, विशेषकर जब भक्ति की गहराई इतनी पवित्र हो। क्या तुम सच में यह समझ सकते हो कि मेरे लिए भक्ति की क्या महत्ता है?"

    वासु: "मैं समझता हूँ, किशोरी। भक्ति तुम्हारी आत्मा की आवाज़ है, और मैं उसे हमेशा सम्मानित करूँगा। लेकिन क्या तुम यह मानोगी कि प्रेम भी एक रूप में भक्ति हो सकता है? हम दोनों एक-दूसरे की जिंदगी में आकर अपने-अपने धर्म का पालन कर सकते हैं। मैं तुम्हें समझने की कोशिश करूँगा, और तुम्हारी भक्ति के महत्व को स्वीकार करूँगा।"

    किशोरी: "लेकिन यह असंभव है, वासु। भक्ति और प्रेम कभी भी एक साथ नहीं चल सकते, खासकर जब भक्ति का संबंध भगवान से हो।"


    वासु ने अपना सिर झुका लिया और धीरे-धीरे कदम बढ़ाए। उसके चेहरे पर निराशा और दुख के संकेत थे। उसने किशोरी की आँखों में एक आखिरी बार देखा और बिना एक शब्द कहे, चुपचाप वहाँ से चला गया।


    किशोरी ने देखा कि वासु की पीठ की ओर जाते हुए, उसकी आँखों में एक शून्य सा खिंचाव था। उसके दिल में एक खालीपन और एक अप्रस्तुतिकता का अहसास हो रहा था। वह अपनी भावनाओं को समझने और उसे स्वीकार करने के प्रयास में लगी रही, लेकिन वासु के जाने के बाद उसे एक गहरा मानसिक और भावनात्मक संघर्ष महसूस हुआ।


    वासु ने जब किशोरी की बातें सुनीं, उसके दिल में तूफ़ान उमड़ पड़ा। वह जानता था कि उसका प्रेम भक्ति से कमतर नहीं, लेकिन किशोरी की भक्ति भगवान के प्रति उसकी आस्था का एक पवित्र हिस्सा थी। जब वह अकेला होकर चल पड़ा, उसकी भावनाएँ शब्दों में ढलने लगीं।

    “तेरी आँखों में जो मैंने प्रेम देखा,
    वो तो एक भक्ति का रूप था,
    तू कहती है भक्ति सबसे ऊँची,
    मैं कहता हूँ प्रेम भी कम नहीं,
    तू कहती है प्रेम और भक्ति का संगम नहीं हो सकता,
    पर मेरे दिल का क्या, जो तुझसे जुदा हो नहीं सकता।
    अगर ये प्रेम भी भक्ति का हिस्सा नहीं,
    तो फिर ये दिल का प्रेम खुदा के करीब क्यों है सही?
    मैं खुद को मिटा दूँगा तेरी राहों में,
    बस तू अपने कदमों में मुझे थाम ले।”


    लेकिन वासु के दिल में कहीं न कहीं एक हल्की सी उम्मीद अभी भी बाकी थी—शायद, किसी दिन, किशोरी उसकी भावनाओं को समझेगी और उसे अपने जीवन में स्वीकार करेगी।


    वासु यही सब सोचते हुए मंदिर के पीछे बने तालाब की ओर चला गया।


    यह तालाब बहुत ही बड़ा था और इसके अंदर बहुत ही सुंदर कमल के पुष्प खिले हुए थे।


    एक अलग ही शांति महसूस होती थी इस तालाब के किनारे।


    तालाब के किनारे बहुत सारे बड़े-बड़े पत्थर थे, जिस पर लोग अक्सर बैठते थे।


    लेकिन इस वक्त बहुत ही कम लोग इस शांति को महसूस करने तालाब के किनारे आते थे।


    जिनमें वासु अक्सर यहीं आता था। और घंटों तालाब के पानी में खिले हुए कमल के पुष्पों को निहारता रहता था।


    और वह आज भी एक पत्थर पर बैठ गया, और उसकी आँखें कमल के फूलों पर टिकी थीं, जो पानी की सतह पर सौम्यता से तैर रहे थे। उसकी आत्मा में एक अजीब सी शांति थी, जो उसे इस तालाब के किनारे हर बार महसूस होती थी।


    उसने आकाश की ओर देखते हुए मन ही मन कहा:

    वासु: "आसमान, क्या तुम मुझे समझ सकते हो? इस विशालता में क्या कोई जगह है, जहाँ मैं किशोरी की भक्ति और मेरे प्रेम के बीच के इस अटूट संघर्ष को सुलझा सकूँ? क्या इस धरती पर ऐसा कोई रास्ता है, जो भक्ति की पवित्रता को तोड़े बिना प्रेम को स्वीकार करे?"


    आसमान के नीले विस्तार में जैसे कोई अनकही बात छुपी हो, वासु ने एक गहरी साँस ली और अपनी भावनाओं को शब्दों में ढालने की कोशिश की:

    वासु: "किशोरी, मैं समझता हूँ कि तुम्हारी भक्ति तुम्हारे जीवन का अभिन्न हिस्सा है। लेकिन क्या तुम मानोगी कि प्रेम भी एक प्रकार की भक्ति हो सकता है? जब मैं तुम्हारे पास होता हूँ, तो जैसे मैं खुद को खुदा के करीब महसूस करता हूँ। तुम्हारी आँखों में जो प्रेम है, क्या वह प्रेम भी तुम्हारी भक्ति के पवित्र सागर में एक अद्वितीय रंग नहीं भरता?"


    उसने आकाश की ओर देखते हुए कहा:

    वासु: "तुम्हारे बिना मेरा हृदय अधूरा है। यह प्रेम, यह चाहत, यह हर लम्हा जो तुम्हारे साथ बिताना चाहता हूँ, क्या यह सब कुछ भी भक्ति का हिस्सा नहीं हो सकता? जब मैं तुम्हारे पास होता हूँ, तो मेरे दिल की धड़कनें तुम्हारे प्रेम के साथ गूँथ जाती हैं। क्या यह प्यार भी एक तरह की भक्ति नहीं हो सकती?"


    फिर उसने धीरे-धीरे अपना सिर झुकाया और खुद से कहा:

    "शायद मुझे खुद को और तुम्हें समझने के लिए समय चाहिए। लेकिन मेरा प्रेम तुम्हारे लिए, हमेशा वही रहेगा, जो पहले था। अगर भक्ति और प्रेम के बीच कभी कोई मिलन संभव हो, तो मैं हमेशा तुम्हारे साथ रहना चाहूँगा।"


    थोड़ी देर बाद वासु को आभास हुआ कि कोई उसके पास आकर बैठ गया है।


    वासु भली-भांति जानता था कि यह कौन है।


    वासु के चेहरे पर मुस्कान आ गई।

  • 13. प्रेममय - Chapter 13

    Words: 4591

    Estimated Reading Time: 28 min

    सुबह की धूप धीरे-धीरे घर में दाखिल हो रही थी। पार्थ ने अपनी आँखें खोलीं और देखा कि घड़ी 10 बजे का संकेत दे रही थी। आलस्य से बिस्तर से उठकर वह बाथरूम की ओर बढ़ा।

    नहाने के बाद पार्थ ने एक सफेद शर्ट और काले रंग की पैंट पहनी। आईने में खुद को देखकर उसने एक हल्की मुस्कान दी।

    जैसे ही वह हॉल में आया, उसकी माँ राधिका जी पोछा लगा रही थीं। पार्थ के गीले फर्श पर आते ही उनके चेहरे पर गुस्सा साफ नज़र आया।

    "ओ नालायक! अभी-अभी पोछा लगाया है मैंने और तूने सब का सब गंदा कर दिया!" राधिका जी ने तुनककर कहा।

    पार्थ ने थोड़ी शरारती मुस्कान के साथ कहा,
    "अरे मम्मी, थोड़ी सी धूल-मिट्टी तो होगी ही न आपके इस चांद जैसे फर्श पर।"

    "अरे, कभी ये पोछा लगाकर देखना, कितनी मेहनत लगती है! लेकिन नहीं, तुझे तो क्या ही समझ आएगा," राधिका जी ने अपनी आवाज ऊँची करते हुए कहा। "अकेली माँ कितना काम करती है, लेकिन तुझे क्या ही फर्क पड़ता है।"

    पार्थ ने खुद से ही बड़बड़ाते हुए कहा,
    "हो गई ये मम्मी फिर से अपनी "मम्मी पुराण कथा" सुनाने के लिए।"

    राधिका जी ने कहा,
    "अरे वासु से कुछ सीखा कर... कितना मासूम और समझदार है वो... और तू नालायक... तू तो उठता ही कुंभकर्ण की तरह है।"

    पार्थ ने अपनी माँ की बातों को अनसुना करते हुए आगे बढ़ने की कोशिश की।

    पार्थ ने अपने मन में कहा,
    "मम्मी तुम नहीं जानती कि वासु खुद कितना नासमझ है।"

    "मम्मी क्या आप वासु की तुलना मुझसे कर रही हो?" पार्थ ने मज़ाक में कहा। "क्या मैं इतना बुरा हूँ?"

    पार्थ ने अपनी पलकें झपकाते हुए मस्ती भरे अंदाज़ में कहा।

    राधिका जी ने उसे घूर कर देखा।

    पार्थ ने एक हल्की मुस्कान के साथ कहा,
    "यार मम्मी, क्या आप मुझे वासु की तरह एक 'सुपर स्टूडेंट' बनाने की योजना बना रही हैं? क्या आप चाहती हैं कि मैं भी किताबों में ही डूबा रहूँ?"

    राधिका जी ने आँखें तिरछी करते हुए कहा,
    "किताबों में डूबना तो दूर की बात है, तू तो बिस्तर पर ही डूबा रहता है। क्या तुझे पता भी है कि सुबह उठने के क्या-क्या फ़ायदे हैं?"

    "हाँ मम्मी, मुझे पता है कि सुबह उठना ज़रूरी है... ख़ासकर तब जब सुबह का नाश्ता पहले से ही तैयार हो," पार्थ ने चुटकी लेते हुए कहा।

    "तू तो नालायक है!" राधिका जी ने गुस्से में कहा। "अरे मैं सोचती हूँ कि कब तुझे समझ में आएगा कि मेहनत का फल भी मीठा होता है।"

    "मम्मी, अगर मेहनत का फल इतना मीठा है, तो मुझे तो आज ही एक बड़ा मीठा ख़जूर खिला दो। शायद उसके बाद मैं कुछ-कुछ सोचने लगूँ," पार्थ ने कहा।


    राधिका जी का स्वभाव बिल्कुल पार्थ जैसा था, और शायद यही कारण था कि दोनों के बीच अक्सर नोक-झोंक होती रहती थी। राधिका जी, जो एक मज़बूत और ज़िम्मेदार महिला थीं, अपने परिवार के लिए हर काम करती थीं, लेकिन साथ ही उनकी मस्ती और शरारत भी उनकी पहचान का हिस्सा थी। वह कभी भी गंभीरता से काम करने वाली, बिल्कुल सख्त महिला नहीं थीं।

    राधिका जी को बचपन में जितना शरारती और मस्तमौला होने की आदत थी, वह अब भी वही स्वभाव दिखाती थीं। घर में किसी काम को करते हुए अगर थोड़ी सी मस्ती का मौका मिलता, तो वह उसे छोड़ती नहीं थीं। जैसे पार्थ को कभी भी छोटे-छोटे मज़ाकिया अंदाज़ में चिढ़ाना, ठीक वैसे ही राधिका जी भी खुद को कभी गंभीरता से नहीं लेती थीं। वह अक्सर पार्थ के साथ मज़ाक करतीं, उसे हल्के-फुल्के ताने देतीं, और जब वह गुस्से में होतीं, तो भी उनका गुस्सा चुटकुलों और मज़ाक में लिपटा हुआ होता था।

    राधिका जी को पार्थ की शरारतों का बिल्कुल अहसास था, क्योंकि वह भी बचपन में उसी तरह की शरारतें करती थीं। जब पार्थ उनसे कुछ ख़तरनाक मज़ाक करता, तो राधिका जी भी उसे उलझाते हुए अपनी खुद की शरारतों का जवाब देतीं, और यह सिलसिला दिन-प्रतिदिन बढ़ता जाता।


    राधिका जी का दिल बड़ा था, और उन्होंने हमेशा पार्थ को उसकी मर्ज़ी से जीने की स्वतंत्रता दी। वह कभी भी उसे किसी चीज़ के लिए मजबूर नहीं करती थीं, बल्कि उसे यह सिखाया था कि खुद के विचारों के साथ जीने का मज़ा कुछ और होता है। पार्थ ने भी राधिका जी से यही सीखा था—कभी भी अपनी खुशियाँ किसी और के ख़्यालों के ऊपर न डालें, और जो दिल कहे, वही करें।


    हालाँकि राधिका जी काफी मस्तमौला थीं, लेकिन जब बात आती थी पार्थ के अनुशासन की, तो वह काफी सख्त हो जातीं। पर उनका गुस्सा भी बहुत प्यार भरा होता था, जैसे पार्थ को उठाने के लिए उन्हें कभी-कभी कड़ी बातें करनी पड़ती थीं, लेकिन उनकी सख्ती में भी एक ममता छुपी होती थी। जब पार्थ आलसी बनकर बिस्तर से उठने के लिए तैयार नहीं होता था, तो राधिका जी का गुस्सा खुद उनके चेहरे पर मुस्कान के रूप में बदल जाता था।


    राधिका जी ने हमेशा पार्थ को यह सिखाया कि ज़िंदगी में मेहनत करनी पड़ती है, लेकिन उनका तरीका थोड़ा अलग था। वह खुद भी कभी किसी बात को लेकर बहुत गंभीर नहीं होती थीं, पर अपनी मेहनत के बाद वह पार्थ से यही उम्मीद करती थीं कि वह भी ऐसा ही कुछ सीखे। कभी वह पार्थ को कहती थीं, "तू खुद देख, मैंने कितनी मेहनत की है इस घर को चलाने के लिए, पर क्या कभी तूने इसे समझा?" यह बातें हमेशा पार्थ को सोचने पर मजबूर कर देती थीं, लेकिन वह भी जानते थे कि यह सब उनका अंदाज़ था, जो बेशक सख्त होता, पर बेहद प्यार से भरा हुआ था।


    राधिका जी की स्वभाव में एक और ख़ास बात थी कि वह हमेशा पार्थ को चिढ़ाने का मौका ढूँढ़ती थीं। वह जानती थीं कि पार्थ पर कभी भी गंभीरता से दबाव नहीं डालना चाहिए, बल्कि उसके साथ हँसी-मज़ाक और छोटी-छोटी बातों के ज़रिए उसे जीवन के अहम पहलुओं की ओर ले जाया जा सकता है। यह स्वभाव ही था जो पार्थ को हमेशा उन्हें अपनी "मम्मी पुराण कथा" सुनने के बाद भी दिल से प्यार करता था।


    कुल मिलाकर, राधिका जी का स्वभाव पार्थ से बिल्कुल मेल खाता था—दूसरों के कामों में हस्तक्षेप किए बिना अपनी शरारतें और मस्ती करना, ज़िम्मेदारी के साथ जीवन जीना, और उन सभी चीजों को जोड़ते हुए दुनिया को हँसी और प्यार से देखना।


    वही दूसरी तरफ...

    वासु ने बिना मुड़े ही कहा,
    "मयूर, तुम यहाँ हो! तुम्हें किशोरी ढूँढ रही होगी न?"

    वह मोर, जिसे किशोरी ने मयूर नाम दिया था, धीरे-धीरे वासु के पास आकर बैठ गया। उसकी नीले-हरे पंखों की चमक और उसकी चाल में एक ख़ास तरह की गरिमा थी।

    जिस तरह मयूर किशोरी के बहुत करीब था, उसी तरह मयूर वासु के भी बहुत करीब था, और दोनों के बीच एक अनकही सी समझ थी।

    मयूर अपने सुंदर पंख फैलाकर थोड़ी देर तक शांत रहा, मानो वासु की चिंता और उलझनों को महसूस कर रहा हो। वासु ने उसकी तरफ़ देखा और हल्की सी मुस्कान के साथ कहा,
    "मयूर तुम बहुत भाग्यशाली हो।"

    मयूर ने अपनी गर्दन झुका दी, मानो वासु की बात समझ गया हो। उसकी आँखों में चमक और समझ थी, जैसे वह वासु की हर भावना को समझ रहा हो। वह धीरे से वासु के पास जाकर उसके कंधे से हल्के से सिर रगड़ने लगा, और वासु ने उसके पंखों को सहलाते हुए कहा,
    "तुम्हें पता है, मयूर, कभी-कभी मैं खुद को तुम्हारी तरह समझता हूँ—हमेशा किशोरी के पास रहना चाहता हूँ, उसकी भक्ति में खोया रहना चाहता हूँ, लेकिन मेरे और उसके बीच हमेशा एक दूरी रहती है।"

    मयूर ने वासु की बातों को महसूस किया, और अचानक उसने अपना सिर उठाकर आसमान की तरफ़ देखा। तालाब के किनारे हल्की ठंडी हवा बह रही थी, और उस हवा में मयूर के पंख लहराने लगे। वासु ने उसकी इस प्रतिक्रिया को गौर से देखा और उसकी आँखों में एक ख़ास चमक दिखी, मानो मयूर उसे कुछ बताना चाहता हो।

    वह फिर से आसमान की ओर देखता रहा, और कुछ ही पलों में, वह अपने सुंदर पंख फैलाकर नाचने लगा। मयूर का नाचना देखकर वासु की आँखों में भी हल्की चमक आई। वह समझ गया कि मयूर उसे खुश करने की कोशिश कर रहा है। मयूर का यह नृत्य उसकी तरह ही भक्ति से भरा हुआ था, जो उसे याद दिला रहा था कि जीवन में भक्ति और प्रेम की यात्रा में भी समर्पण किया जा सकता है।

    वासु ने मयूर को नाचते हुए देखा और वह जानता था कि किशोरी की भक्ति केवल कान्हा के प्रति थी, लेकिन वासु के दिल में भी एक ऐसा ही प्रेम था, जो निस्वार्थ था। वह मयूर के नृत्य को देखकर मुस्कुरा दिया और मन ही मन सोचने लगा,
    "शायद मयूर मुझसे यही कहना चाह रहा है कि प्रेम में भी आनंद है, चाहे वह एकतरफ़ा ही क्यों न हो।"

    थोड़ी देर बाद, मयूर ने अपना नृत्य समाप्त किया और शांत भाव से वासु के पास बैठ गया। वासु ने उसे अपनी गोद में उठा लिया और उसके पंखों को सहलाते हुए कहा,
    "तुम सही हो, मयूर। शायद मुझे भी अपने प्रेम में खुशी ढूँढनी चाहिए।"

    मयूर ने अपनी आँखें बंद कर लीं, मानो वासु की बातों से सहमत हो।

    वासु ने महसूस किया कि किशोरी से उसका प्रेम किसी बाधा या संघर्ष का नाम नहीं था। वह प्रेम उसकी आत्मा का एक हिस्सा बन चुका था। और जैसे मयूर ने अपने पंख फैलाकर नाचते हुए भक्ति में आनंद लिया था, वैसे ही वासु को भी अपने प्रेम को स्वीकार करके उसका आनंद लेना था।

    वह सोचने लगा,
    "मैं किशोरी के जीवन में हमेशा रहूँगा, चाहे वह मुझे स्वीकार करे या न करे। उसकी भक्ति, उसकी मासूमियत और उसकी निष्कपटता में मुझे अपने जीवन का एक उद्देश्य मिला है।"

    मयूर ने उसकी गोद से उछलकर तालाब के किनारे फिर से उड़ान भरी और अपने पंखों को हवा में फैलाते हुए तालाब के चारों ओर चक्कर लगाने लगा। वासु ने उसे उड़ते हुए देखा तो वासु के चेहरे पर मुस्कान आ गई।


    वही दूसरी तरफ...

    पार्थ सुभिका के बारे में सोचते हुए धीरे-धीरे जा रहा था। उसके मन में सुभिका की सौतेली माँ मालती जी द्वारा लगाई गई फटकार की गूँज अभी भी ताज़ा थी। वह सोच रहा था कि कैसे उसकी मस्ती ने सुभिका को इतनी बड़ी मुश्किल में डाल दिया था। तभी उसने देखा कि सुभिका अपनी सहेलियों के साथ हैंडपंप पर कपड़े धो रही थी और साथ ही पानी उछाल-उछाल कर मस्ती कर रही थी।

    सुभिका की हँसी की आवाज़ और उसकी शैतानी भरी मुस्कान पार्थ को चौंका देने वाली थी। पार्थ ने सोचा,
    "क्या यही वही सुभिका है जिसे उसकी माँ ने इतनी फटकार लगाई थी? और अब यह बिना किसी चिंता के मस्ती कर रही है?"

    पार्थ ने खुद से कहा,
    "मैं ही पागल था जो इसके बारे में इतना सोच रहा था। यह सुभिका महारानी को तो देखो, कितनी मस्ती कर रही है जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो।"

    वह सोच ही रहा था कि फिर उसने अपना सिर झटकाकर वापस जाने के लिए मुड़ा ही था कि अचानक उसका पैर कीचड़ में फिसल गया और वह एक पानी के गड्ढे में गिर पड़ा।

    एक ज़ोरदार छपाक की आवाज़ आई और पानी में गिरने के साथ ही, पार्थ की सारी चिंताएँ और भावनाएँ भी तिरोहित हो गईं।

    सुभिका ने जैसे ही छपाक की आवाज़ सुनी, उसने पार्थ को गिरते देखा और जोर-जोर से ठहाके लगाकर हँस पड़ी। पार्थ ने खुद को कीचड़ से बाहर निकालने की कोशिश की, लेकिन उसकी स्थिति काफी हास्यास्पद थी।


    पार्थ, जो अब पूरी तरह से कीचड़ में लथपथ था, बुरी तरह झुंझला गया। उसके कपड़े पानी और मिट्टी से सने हुए थे, और चेहरा गुस्से से लाल हो रहा था। सुभिका और उसकी सहेलियाँ उसे देखकर हँसी रोकने की नाकाम कोशिश कर रही थीं।

    सुभिका ने ठहाका लगाते हुए कहा,
    सुभिका: "पार्थ जी, ये क्या हाल बना लिया आपने? कहीं ये नया फैशन तो नहीं? अगर है, तो हमें भी बता दो।"

    सहेलियाँ भी हँसी से दोहरी हो रही थीं। एक ने चुटकी ली,
    सहेली: "सुभिका, लगता है पार्थ भाई साहब ने सोचा होगा कि कीचड़ का ये रंग उन पर खूब जंचेगा।"

    पार्थ ने गुस्से में दाँत भींचते हुए कहा,
    पार्थ: "बहुत मज़ाक हो गया! अब चुप रहो, वर्ना देख लेना..."

    सुभिका ने शरारती अंदाज़ में पूछा,
    सुभिका: "देख लेंगे? क्या देख लेंगे, पार्थ जी? आपको तो देखकर ही ऐसा लगता है जैसे आप हमसे माफ़ी माँगने आए थे और ऊपर से गिफ़्ट में ये कीचड़ शो भी दे दिया।"

    पार्थ (चिल्लाते हुए): "सुभिका की बच्ची, चुप हो जा! वरना—"

    सुभिका ने उसकी बात काटते हुए कहा,
    सुभिका: "वरना क्या? अब आप हमें कीचड़ में गिरा देंगे? वैसे, ट्राय कर लो, लेकिन पहले खुद तो उठ जाओ।"

    ये सुनकर सभी सहेलियाँ जोर-जोर से हँसने लगीं। पार्थ ने झुंझलाकर उठने की कोशिश की, लेकिन कीचड़ में फिसल कर फिर से धड़ाम से गिर गया।

    सहेलियों में से एक ने मज़ाक करते हुए कहा,
    सहेली: "लगता है पार्थ भाई को ये कीचड़ बहुत पसंद आ गया है। अब इन्हें यहाँ से हटाना मुश्किल होगा।"

    पार्थ ने गुस्से में कहा,
    पार्थ: "तुम सब हँसने के अलावा और कुछ करती भी हो? मदद करने की जगह तमाशा देख रही हो।"

    सुभिका: "अरे महाराज, हम क्या मदद करें? आपको कीचड़ में गिरने का इतना शौक है कि हमारी मदद से भी कुछ नहीं होगा। वैसे, अगर आप चाहें, तो हम आपको साबुन और पानी ला देते हैं।"

    पार्थ: "बस बहुत हो गया, सुभिका! अब मैं तुम्हें सबक सिखाकर ही रहूँगा।"

    सुभिका उसकी धमकी सुनकर मुस्कुराई और बोली,
    सुभिका: "पहले खुद की हालत तो सुधार लो, महाराज। और हाँ, घर जाकर अपनी मम्मी से मत कहना कि सुभिका ने तुम्हें परेशान किया। वरना तुम्हें और फटकार पड़ेगी।"

    सहेलियों ने फिर से जोर-जोर से ठहाके लगाए। पार्थ ने झुंझलाकर उठने की कोशिश की, लेकिन कीचड़ में फिसल कर फिर से गिर गया। पार्थ ने झुंझलाकर वहाँ से चल दिया। लेकिन उसके जाते वक़्त सुभिका ने एक बाल्टी पानी उसके पीछे उछाल दी।

    पानी से भीगे हुए पार्थ ने पलटकर देखा और चिल्लाया,
    पार्थ: "तुम पागल हो क्या? अब तो पक्का तुमसे बदला लेकर रहूँगा!"

    सुभिका (हँसते हुए): "बदला? अरे पहले गिरने से बचना सीख लो, पार्थ बाबू। बदला तो बाद में ले लेना!"


    सुभिका की हँसी और शरारती मुस्कान पार्थ के गुस्से को और भड़का रही थी। वह चुपचाप गड्ढे के पास पड़ा एक मटका उठाता है और उसे कीचड़ वाले पानी से भरने लगता है।

    सुभिका, जो अभी भी अपनी हँसी रोक नहीं पा रही थी, बोली,
    सुभिका: "अरे पार्थ बाबू, अब आप मटका लेकर पूजा करने वाले हो क्या? या फिर कीचड़ का अर्पण करने वाले हो?"

    सहेलियाँ यह सुनकर हँसने लगीं, लेकिन जब उन्होंने पार्थ को मटके में पानी भरते देखा, तो उनकी हँसी अचानक रुक गई। एक ने कहा,
    सहेली: "अरे सुभिका, मुझे लगता है पार्थ सच में कुछ गड़बड़ करने वाला है। मैं तो जा रही हूँ!"

    बाकी सहेलियाँ भी अपना सामान उठाकर भागने लगीं।

    सुभिका (घबराकर): "अरे कहाँ भाग रही हो? अकेला छोड़कर जा रही हो मुझे?"

    सहेलियों में से एक ने पीछे मुड़कर कहा,
    सहेली: "सॉरी, सुभिका! लेकिन पार्थ भाई का गुस्सा हम नहीं झेल सकते। तू संभाल ले!"

    अब वहाँ सिर्फ़ पार्थ और सुभिका बचे थे। पार्थ ने मटका ऊपर उठाया और मुस्कुराते हुए कहा,
    पार्थ: "अब तुम्हारी हँसी बंद कराता हूँ, सुभिका महारानी!"

    सुभिका ने उसकी बात सुनी तो तुरंत पीछे हटने की कोशिश की, लेकिन पार्थ ने मटके से पानी का झोंका उसकी तरफ़ उछाल दिया। सुभिका पूरी तरह भीग गई और उसके कपड़े कीचड़ से सने हुए थे।

    सुभिका (चिल्लाते हुए): "पार्थ! तुम पागल हो गए हो क्या? देखो, मेरे कपड़े ख़राब कर दिए!"

    पार्थ (हँसते हुए): "अभी तो शुरुआत है, सुभिका। ये बदला है तुम्हारी उन सब शरारतों का!"

    सुभिका ने गुस्से में आकर अपनी चप्पल उतारी और पार्थ की तरफ़ फेंक दी, लेकिन पार्थ तेज़ी से बच गया।

    सुभिका (चीखते हुए): "रुको, मैं तुम्हें छोड़ूँगी नहीं!"

    सुभिका ने इधर-उधर देखा, लेकिन वहाँ कोई मदद करने वाला नहीं था। तभी पार्थ ने उसके पास जाकर उसका हाथ पकड़ लिया।

    पार्थ (मुस्कुराते हुए): "भागने की कोशिश मत करो। अब तो तुम्हें मुझसे माफ़ी माँगनी पड़ेगी।"

    सुभिका (गुस्से में): "माफ़ी? तुम्हें तो मुझसे माफ़ी माँगनी चाहिए! मेरी सहेलियों के सामने मुझे बेइज़्ज़त किया, और अब ये सब!"

    पार्थ: "सहेलियों की बात छोड़ो। अब यहाँ सिर्फ़ तुम और मैं हैं। और तुम जानती हो, तुम्हारी ये मस्ती मुझ पर भारी पड़ती है।"

    सुभिका ने उसके हाथ से खुद को छुड़ाने की कोशिश की, लेकिन पार्थ ने उसे जाने नहीं दिया।

    सुभिका: "पार्थ, मैं कहती हूँ, मेरा हाथ छोड़ो! वरना..."

    पार्थ (शरारती अंदाज़ में): "वरना क्या? अब और क्या करोगी, सुभिका जी?"

    सुभिका ने गुस्से में पैर पटका और कहा,
    सुभिका: "तुम एक दिन मुझसे माफ़ी माँगोगे, पार्थ। याद रखना!"

    पार्थ ने उसकी आँखों में देखते हुए कहा,
    पार्थ: "अच्छा, देखते हैं।"

    यह सुनकर सुभिका का गुस्सा थोड़ा ठंडा पड़ गया, लेकिन उसने तुरंत अपने भावों को छुपा लिया और बोली,
    सुभिका: "ज़्यादा भाव मत खाओ, पार्थ। अभी तुमसे बदला लेना बाकी है!"

    पार्थ ने उसे जाने दिया, और सुभिका गुस्से से पैर पटकती हुई वहाँ से चली गई। लेकिन जाते-जाते उसने पलटकर देखा, और पार्थ की मुस्कराहट ने उसे थोड़ा चौंका दिया।

    सुभिका (मन में): "ये पार्थ आखिर इतना क्यों परेशान करता है? लेकिन उसकी ये मुस्कान... उफ्फ़!"

    दूसरी तरफ़, पार्थ अपने कपड़े झाड़ते हुए खुद से बड़बड़ाया,
    पार्थ: "ये लड़की जितना तंग करती है, उतनी ही प्यारी भी लगती है। पर ये उसे कैसे बताऊँ?"

    पार्थ ने कीचड़ से लथपथ अपनी शर्ट को झाड़ते हुए हल्की मुस्कान के साथ कहा,
    पार्थ (मन में): "परेशान तो ये मुझे करती है, लेकिन दिल को भी अजीब सुकून देती है। पता नहीं, ये उसकी शरारतें हैं या उसकी बड़ी-बड़ी आँखें, जो मुझे हमेशा उलझाए रखती हैं। पर अगर मैं इसे कह दूँ, तो ये तो आसमान सिर पर उठा लेगी।"

    वह अपने गीले बालों को पीछे करता हुआ धीरे-धीरे हैंडपंप की ओर बढ़ा और पानी से हाथ-मुँह धोने लगा।

    पार्थ (खुद से): "अरे नहीं, पार्थ! तुझे इससे दूर रहना चाहिए। ये लड़की मुसीबतों का पिटारा है। पर... जब ये गुस्से में अपनी नाक फुलाती है ना, तो कसम से... कितना क्यूट लगती है।"

    उसने पानी के छींटे मारकर अपना चेहरा साफ़ किया और पीछे पलटकर उस रास्ते को देखा, जहाँ से सुभिका अभी-अभी गुस्से में पैर पटकती हुई गई थी।

    पार्थ (हँसते हुए): "और इस गुस्से वाली रानी को क्या कहूँ? नफ़रत दिखाती है, पर हर बार मुझे और करीब खींच लेती है। लगता है, मेरा बदला लेने का बहाना भी ख़त्म हो गया। अब इसे तंग करने का कोई नया तरीका ढूँढना पड़ेगा।"

    पार्थ ने अपनी भीगी हुई शर्ट को झाड़ा और फिर सिर झटकते हुए धीरे-धीरे घर की ओर बढ़ने लगा। रास्ते में उसने फिर से खुद से बात शुरू कर दी,

    पार्थ: "पता नहीं, ये अपनी सहेलियों के सामने मुझे इतना क्यों बेइज़्ज़त करती है। पर दिल पर क्यों नहीं लगती उसकी बातें? उल्टा अच्छा लगता है, जब वो मुझे तंग करती है। क्या ये... ये वही फीलिंग है, जिसके बारे में सब कहते हैं? नहीं, नहीं! पार्थ, तू पागल हो गया है। ये बस मस्ती है। बस मस्ती।"

    लेकिन उसकी मुस्कराहट कुछ और ही बयां कर रही थी। पार्थ ने खुद को संभालने की कोशिश की, लेकिन हर बार जब वह सुभिका की हँसी और उसकी शरारती बातें याद करता, उसकी मुस्कराहट और गहरी हो जाती।

    पार्थ (मन में): "मुझे तो ये भी नहीं पता कि ये जो मैं महसूस कर रहा हूँ, वो सच में क्या है। पर एक बात पक्की है—सुभिका मेरी ज़िंदगी का वो हिस्सा बन चुकी है, जिसे मैं चाहकर भी अनदेखा नहीं कर सकता।"

    पार्थ (खुद से): "अब देखना, सुभिका। अगली बार जब तुम मुझे परेशान करोगी, तो मैं तुम्हें ऐसा जवाब दूँगा कि तुम भी सोचोगी कि ये पार्थ इतना स्मार्ट कब से हो गया!"

    वह अपनी इस सोच पर खुद ही हँस पड़ा।


    सुभिका तेज़ी से पैर पटकते हुए अपने घर की तरफ़ जा रही थी। उसकी सफ़ेद कुर्ती और जीन्स कीचड़ से सने हुए थे, और उसके बालों में भी पानी की बूँदें लटक रही थीं। चेहरा गुस्से से लाल हो रहा था, लेकिन उसकी आँखों में अजीब-सी उलझन थी।

    सुभिका (मन में): "ये पार्थ! खुद को क्या समझता है? हर बार मेरी ज़िंदगी में तूफ़ान लाने आ जाता है। मेरी सहेलियों के सामने मुझे बेइज़्ज़त कर दिया। और ये हँसी? उफ्फ़! उसकी वो शरारती मुस्कान... न जाने क्यों मुझे चिढ़ाने के साथ-साथ अंदर से परेशान भी करती है।"

    वह रास्ते में चलते-चलते रुक गई और अपनी हालत को देखकर झल्लाने लगी।

    सुभिका (खुद से): "और देखो मेरी हालत! पूरी कीचड़ में लिपटी हुई हूँ। घर पहुँचते ही माँ से डाँट पड़ेगी। लेकिन नहीं, पार्थ से बदला तो लेकर ही रहूँगी।"

    वह अपनी चप्पल को हाथ में पकड़कर झाड़ने लगी, लेकिन उसके मन में बार-बार पार्थ का चेहरा आ रहा था।

    सुभिका (मन में): "पर ऐसा क्यों होता है कि जब वो मुझे परेशान करता है, तो गुस्से के साथ-साथ... दिल कहीं अंदर से खुश भी हो जाता है? नहीं, नहीं! ये क्या सोच रही हूँ मैं? मुझे तो उससे नफ़रत करनी चाहिए। वो तो हर बार मुझे चिढ़ाने का मौका ढूँढता है।"

    कुछ ही देर में वह अपने घर के पास पहुँच गई। लेकिन घर के दरवाज़े पर रुकते हुए उसने पलटकर उस रास्ते की ओर देखा, जहाँ वह और पार्थ खड़े थे।

    सुभिका (धीरे से): "लेकिन वो हमेशा इतना शरारती क्यों रहता है? कभी तो सीरियस हो जाया करे। और वो मुस्कान... उफ्फ़, कितना ख़तरनाक लड़का है।"

    घर के अंदर जाते ही उसकी माँ ने उसकी हालत देखकर आँखें बड़ी कर लीं।

    माँ: "अरे, ये क्या हाल बना रखा है, सुभिका? कहाँ चली गई थी?"

    सुभिका (घबराते हुए): "माँ, वो... गलती से पानी गिर गया।"

    माँ (शक करते हुए): "गलती से पानी? या फिर किसी की शरारत?"

    सुभिका: "माँ! आप भी बस... मैं नहा लूँगी।"

    कमरे में जाकर उसने अपनी भीगी हुई कुर्ती उतारी और शीशे के सामने खड़ी हो गई। बालों को तौलिये से सुखाते हुए उसने खुद को देखा।

    सुभिका (मन में): "पार्थ ने तो हद कर दी आज। लेकिन उसकी आँखों में कुछ अलग था। जैसे वो मुझे परेशान करने के बहाने बस मुझे देखना चाहता हो। नहीं, ये क्या सोच रही हूँ मैं? वो तो बस... बदमाश है, और कुछ नहीं।"

    वह बिस्तर पर लेट गई और आँखें बंद करने की कोशिश करने लगी। लेकिन जैसे ही उसने आँखें मूँदीं, पार्थ की मुस्कराहट उसकी यादों में उभर आई।

    सुभिका (मन में): "उसकी वो मुस्कान... हर बार मुझे गुस्सा भी दिलाती है और... पता नहीं क्यों, अच्छा भी लगता है। पर मैं उसे छोड़ूँगी नहीं! कल मैं अच्छे से उसकी क्लास लूँगी।"

    उसने तकिये को कसकर पकड़ा और धीरे से मुस्कुराई, लेकिन फिर तुरंत खुद को डाँट दिया।

    सुभिका (खुद से): "नहीं! कोई मुस्कुराना-वुस्कुराना नहीं। पार्थ को उसकी हरकत का जवाब देना ही पड़ेगा।"

    पर दिल के किसी कोने में एक हल्की सी गर्माहट थी, जो खुद सुभिका को भी समझ नहीं आ रही थी।


    वही दूसरी तरफ़...

    किशोरी मंदिर की चौखट पर बैठी हुई थी। उसकी आँखें बंद थीं, और उसके होठों पर एक अदृश्य सी पीड़ा छाई हुई थी। जैसे ही हल्की ठंडी हवा उसके चेहरे से टकराई, उसके मन में एक गहरी बेचैनी उठी। उसकी आत्मा मानो किसी अनकही पुकार के लिए तड़प रही थी, और वह केवल कान्हा से जुड़ने की कोशिश कर रही थी।

    मंदिर के भीतर दीप जल रहे थे, और उनकी धीमी रोशनी मूर्ति पर पड़ रही थी। कान्हा की मूर्ति के सामने बैठी किशोरी ने अपनी पलकों को धीरे से झपकाया और कान्हा की ओर देखते हुए बोलना शुरू किया, मानो वह उनसे सीधे संवाद कर रही हो।

    किशोरी: "कान्हा, इस संसार का मोह मुझसे दूर हो चुका है। मेरी आत्मा केवल तुम्हारी खोज में है। जबसे मैंने होश संभाला, मुझे यही सिखाया गया कि जीवन में मोह, माया, रिश्ते सभी कुछ महत्वपूर्ण हैं। लेकिन मेरे लिए सब कुछ तुम हो। कोई भी रिश्ता, कोई भी बंधन मेरी आत्मा को संतुष्ट नहीं कर सकता, सिवाय तुम्हारे। किंतु कान्हा, वासु! उसकी बातें सदैव मुझे निरुत्तर कर देती हैं।"

    उसकी आवाज में एक गहरी उदासी थी, लेकिन साथ ही एक अद्वितीय शांति भी थी, जो उसकी भक्ति और समर्पण का प्रतीक थी। उसकी आँखों से बहते आँसुओं ने मंदिर के शीतल फर्श पर अपना स्थान बना लिया, लेकिन उसके चेहरे पर मुस्कान बनी रही, मानो वह इस दुःख को भी कान्हा के चरणों में अर्पित कर रही हो।

    किशोरी: "कभी-कभी मैं सोचती हूँ, कान्हा, क्या तुम मेरी पुकार सुनते हो? क्या तुम जानते हो कि मेरा दिल सिर्फ़ तुम्हारे लिए धड़कता है? लोग मुझसे कहते हैं कि यह संसार छोड़कर जाना आसान नहीं होता। लेकिन तुम मुझे बताओ, कान्हा, क्या सच में यह संसार किसी के लिए महत्वपूर्ण हो सकता है जब उसकी आत्मा तुम्हारे साथ हो?"

    उसने अपने हाथों से अपनी गोद में पड़ी माला को उठाया और उसकी उंगलियों में धीरे-धीरे मोतियों को फेरने लगी। हर मोती के साथ उसकी धड़कनें मानो कान्हा की ओर बढ़ती जा रही थीं। उसकी आँखों में चमक थी, जो उसके अटूट विश्वास को दिखाती थी।

    किशोरी: "कान्हा, मेरे मन में एक ही इच्छा है—तुम्हारी छांव में जीवन बिताना। यह संसार, इसके लोग, इसके संबंध… सब मुझे बोझिल लगते हैं। तुम ही हो जो मेरी आत्मा को संतोष दे सकते हो। तुम ही हो जिनके बिना यह जीवन अधूरा है।"

    वह थोड़ी देर के लिए चुप हो गई, मानो उसकी आत्मा अब उसके शब्दों से आगे बढ़ चुकी हो। वह अपनी भक्ति में इतनी लीन

  • 14. प्रेममय - Chapter 14

    Words: 3494

    Estimated Reading Time: 21 min

    वासु ने एक गहरी सांस ली और तालाब के किनारे धीरे-धीरे चलता रहा। उसके मन में एक असमंजस चल रहा था। उसने मयूर के नृत्य में आनंद देखा था, पर उसका दिल अभी भी किशोरी के प्रति अपने प्रेम को पूरी तरह से छोड़ने को तैयार नहीं था। वह जानता था कि किशोरी की भक्ति सच्ची थी, लेकिन उसके दिल की चाहतें उसे शांत नहीं बैठने दे रही थीं।

    कुछ कदम आगे बढ़ने के बाद, उसने अचानक ठहरकर मयूर की तरफ देखा। मयूर अभी भी तालाब के किनारे उड़ रहा था, मानो उसे बुला रहा हो। वासु ने हल्की सी आवाज में पुकारा, "मयूर, रुक जाओ।"

    मयूर ने उसकी आवाज सुनी और तुरंत अपनी उड़ान धीमी कर दी। वह वासु की ओर मुड़ा और फिर से उसके पास आकर बैठ गया, मानो समझ गया हो कि वासु के दिल में कुछ और बातें बाकी हैं।

    "मयूर," वासु ने कहा, "तुम तो किशोरी के साथ ही रहते हो, ना? तुम तो उसके सबसे करीब हो। तुम जानते हो, उसके मन में क्या चल रहा है। क्या तुम समझते हो मेरा प्रेम? देखो, मैं तुम्हें समझाने की कोशिश भी नहीं करूँगा, क्योंकि तुम मुझसे ज्यादा समझदार हो। लेकिन फिर भी... काश, किशोरी भी तुम्हारी तरह मुझे समझ पाती।"

    वासु का मन किशोरी की बातों में उलझा हुआ था। उसने कभी सोचा भी नहीं था कि प्रेम और भक्ति की ये टकराहट उसे इतना असहाय बना देगी। उसने मोर की आँखों में देखा, मानो उसमें किशोरी की झलक पाने की कोशिश कर रहा हो।

    "तुम्हें पता है, मयूर," वासु ने कहा, "जब मैं किशोरी की आँखों में देखता हूँ, तो मुझे वहाँ सिर्फ शांति दिखती है, एक ऐसी शांति जो मैं कभी नहीं छू सकता। और मैं जानता हूँ कि वही शांति उसकी भक्ति का हिस्सा है। लेकिन मेरा प्रेम उससे अलग नहीं है, मयूर। मेरा प्रेम भी पवित्र है। फिर भी... क्यों वो नहीं समझती? क्यों उसे लगता है कि मेरा प्रेम केवल एक मोह है?"

    मोर शांत खड़ा रहा, मानो वह वासु की हर बात सुन रहा हो और समझ रहा हो। उसकी आँखों में एक गहरी शांति थी, और उसकी सुंदरता वासु के मन को कुछ पल के लिए हल्का कर रही थी। वासु ने अपनी हथेलियों से मोर के पंखों को सहलाया, और उसकी आँखों में हल्की सी चमक आ गई।

    "मयूर," वासु ने कहा, "तुम हर दिन उसके साथ रहते हो, उसकी भक्ति के साक्षी हो। क्या तुम्हें कभी लगा कि किशोरी के दिल में मेरे लिए कोई जगह हो सकती है? या क्या उसकी भक्ति इतनी ही अडिग है कि उसमें किसी और के लिए कोई स्थान ही नहीं बचा? मुझे नहीं पता... शायद तुमसे ये पूछना भी व्यर्थ है, लेकिन क्या करूँ? मेरा दिल इतना उलझा हुआ है कि जवाब ढूँढने की कोशिश भी मुझे थका देती है।"

    वासु ने मयूर को देखा और फिर उसकी आँखों में कुछ भावनाएं उभर आईं।

    "मयूर," वासु ने कहा, "मैं समझता हूँ कि प्रेम में खुशी ढूँढनी चाहिए, लेकिन यह इतना आसान क्यों नहीं लगता? किशोरी की भक्ति ने उसे मुझसे दूर कर दिया है, और मैं जानता हूँ कि मैं उसे उसके कान्हा से दूर नहीं कर सकता। लेकिन मेरे हृदय में जो प्रेम है, वह क्यों शांत नहीं होता?"

    उसने मयूर के सिर पर धीरे से हाथ रखा और फिर उसकी आँखों में देखा, मानो मयूर से कुछ जवाब पाने की कोशिश कर रहा हो। मयूर ने अपनी आँखें झपकाई और फिर से वासु के कंधे से सिर रगड़ने लगा। वासु उसकी इस सरलता से थोड़ा मुस्कुरा दिया, लेकिन उसकी आँखों में एक गहरी बेचैनी थी।

    "तुम बहुत भाग्यशाली हो, मयूर," वासु ने कहा, "तुम किशोरी के सबसे करीब हो, उसके हर दिन का हिस्सा हो। और मैं यहाँ... केवल दूर से देख सकता हूँ, उसकी भक्ति को समझ सकता हूँ, लेकिन उसके हृदय में अपनी जगह कभी नहीं बना सकता।"

    मयूर ने उसकी बातें सुनकर हल्का सा सिर हिलाया, मानो उसे दिलासा देने की कोशिश कर रहा हो। वासु ने एक गहरी सांस ली और फिर आसमान की ओर देखा। उसकी आँखों में अब कुछ और भावनाएं जाग रही थीं—एक अदृश्य लड़ाई, जिसमें उसका दिल और दिमाग उलझे हुए थे।

    "कभी-कभी मैं सोचता हूँ," वासु ने कहा, "क्या मुझे इस प्रेम को छोड़ देना चाहिए? क्या मुझे किशोरी की भक्ति में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए? लेकिन जब भी मैं ऐसा सोचता हूँ, मेरा हृदय मानता ही नहीं।"

    वह चुप हो गया, मानो उसके दिल की आवाज़ कहीं खो गई हो। मयूर ने उसकी तरफ देखा और फिर अचानक तालाब के पानी में झांकने लगा। वासु ने भी उसकी ओर देखा और फिर उसकी समझ में आया कि मयूर उसे कुछ इशारा कर रहा था।

    "क्या तुम मुझे कुछ बताने की कोशिश कर रहे हो, मयूर?" वासु ने पूछा।

    मयूर ने पानी में अपनी चोंच से हल्का सा स्पर्श किया, और फिर उसकी तरफ देखते हुए पंख फैलाए। वासु ने ध्यान से देखा और उसके मन में एक ख्याल आया—क्या वह अपने प्रेम को जल की तरह बहने दे?

    "शायद तुम सही हो, मयूर," वासु ने कहा, "प्रेम को रोका नहीं जा सकता, जैसे पानी को रोका नहीं जा सकता। उसे बहने देना होता है, चाहे वह जिस दिशा में भी जाए।"

    वह तालाब के किनारे बैठ गया और पानी में अपने प्रतिबिंब को देखने लगा। उसकी आँखों में अब हल्की शांति आने लगी थी। वह जानता था कि किशोरी का दिल हमेशा कान्हा के लिए धड़कता रहेगा, और उसे उस भक्ति को स्वीकारना ही होगा।

    वासु ने फिर से मयूर की ओर देखा और उसे बुलाते हुए कहा, "मयूर, शायद यही प्रेम की सच्चाई है—कभी-कभी हमें उसे बहने देना होता है, और कभी-कभी हमें सिर्फ उसे महसूस करना होता है, बिना किसी उम्मीद के।"

    मयूर ने उसकी बात सुनी और फिर से उसकी गोद में चढ़ गया। वासु ने उसे सहलाते हुए धीरे-धीरे कहा, "मैं हमेशा किशोरी के पास रहूँगा, उसकी भक्ति की छांव में। और शायद यही मेरे प्रेम की सच्चाई है।"

    मयूर ने अपनी आँखें बंद कर लीं, और वासु के दिल में अब एक नई शांति बस गई थी। उसने महसूस किया कि प्रेम में केवल पाने की नहीं, बल्कि उसे खुले दिल से महसूस करने की शक्ति होती है।

    वासु ने आसमान की ओर देखा और हल्की मुस्कान के साथ कहा, "शायद यह सही समय है, मयूर, अपनी प्रेम की यात्रा को स्वीकारने का।"

    मयूर ने उसकी ओर देखा और फिर तालाब की ओर उड़ान भर दी। वासु ने उसे जाते हुए देखा और फिर तालाब के किनारे उठकर अपनी राह पर चलने लगा, अब वह अपने दिल में किशोरी के प्रति अपने प्रेम को पूरी तरह से स्वीकार चुका था।

    "प्रेम सच्चा तभी होता है, जब उसमें पाने की इच्छा ना हो, केवल देने की हो। शायद यही सबक था मेरे लिए। किशोरी की भक्ति उसकी पहचान है, और मैं उसकी भक्ति को अपने प्रेम से चुनौती नहीं दे सकता। अगर उसे केवल भगवान के लिए जीना है, तो मैं उसके जीवन में अपनी कोई जगह नहीं ढूँढूँगा," वासु ने धीरे से, खुद से कहा।

    "शायद यही सही है, मयूर। प्रेम में त्याग भी तो है, और अगर मेरा प्रेम सच्चा है, तो मुझे उसे जबरन नहीं जताना चाहिए। मुझे उसकी भक्ति के मार्ग में नहीं आना चाहिए। शायद यही मेरी भूमिका है—दूर से उसे देखना, उसकी खुशी में अपनी खुशी ढूँढना। लेकिन हाँ, इतना तो तय है, मैं कभी भी उसे भूल नहीं पाऊँगा।"

    "काश, किशोरी समझ पाती कि मेरा प्रेम भी उतना ही शुद्ध है जितना उसकी भक्ति। मैं उसके मार्ग में बाधा नहीं बनना चाहता, मैं तो बस उसके साथ रहना चाहता हूँ... उसकी भक्ति की छाँव में, उसकी मुस्कान में। लेकिन अब मुझे समझ आ रहा है कि कुछ प्रेम ऐसे होते हैं जिन्हें सिर्फ महसूस किया जा सकता है, पाना जरूरी नहीं। शायद यही मेरी परीक्षा है, मयूर। कृष्ण ने भी तो प्रेम किया था, पर राधा हमेशा उनके साथ नहीं रहीं।"


    सुबह का समय था। हल्की-हल्की फुहारें गिर रही थीं, और आकाश में काले बादलों ने घना आवरण बना लिया था। मंदिर के चारों ओर पेड़-पौधों पर जमी ओस की बूँदें चमक रही थीं। हवा में ठंडक और ताजगी दोनों का ही एहसास था। किशोरी के मन में बेचैनी थी, क्योंकि उसके पिता, पंडित मनोहर जी, काफी बीमार चल रहे थे। उनका स्वास्थ्य बिगड़ता जा रहा था, और आज वह मंदिर नहीं आ सके थे। किशोरी ने यह निर्णय लिया कि वह आज मंदिर जाकर आरती करेगी।

    किशोरी मंदिर की ओर तेजी से कदम बढ़ा रही थी। जैसे ही वह मंदिर पहुँची, उसकी निगाहें भगवान कृष्ण की मूर्ति पर पड़ीं। उसके दिल में कान्हा के प्रति अपार भक्ति उमड़ आई। वह जल्दी से मंदिर के गर्भगृह में गई और आरती की तैयारी करने लगी। थाल में दीये, फूल और कपूर सजाए हुए थे।

    लेकिन जैसे ही किशोरी ने आरती का थाल अपने हाथों में उठाया और मंजीरा बजाते हुए भजन की तैयारी करने लगी, तभी कुछ पुरुष और महिलाएं, जो मंदिर में पहले से मौजूद थे, उसकी ओर तिरछी नजरों से देखने लगे। उनमें से एक अधेड़ उम्र की महिला धीरे से फुसफुसाई, "लड़कियाँ आरती करती हुईं अच्छी नहीं लगतीं। ये काम पुरुषों का होता है।"

    दूसरे लोगों ने भी उसकी बात पर सिर हिला दिया। एक वृद्ध पुरुष ने कड़वी आवाज़ में कहा, "यह काम पंडितों का है, लड़कियों का नहीं। मंदिर की पवित्रता बनाए रखनी चाहिए।"

    किशोरी को यह सुनकर ठेस पहुँची। उसकी आँखों में आँसू आ गए, पर उसने उन्हें अंदर ही रोक लिया। उसके दिल में अब भी भगवान के प्रति अपार प्रेम और समर्पण था, लेकिन इन तानों ने उसके कदमों को कुछ देर के लिए जकड़ लिया। वह कुछ कहने के लिए अपना मुँह खोलने ही वाली थी कि तभी एक छोटी सी बालिका, लगभग आठ-नौ साल की, मंदिर के अंदर आई। उसका चेहरा मासूम सा था। वह सीधे उन लोगों के पास गई जो किशोरी को ताने मार रहे थे।

    उस बालिका ने साहस से भरी आवाज़ में कहा, "क्या भगवान सिर्फ पंडितों और पुरुषों के होते हैं? क्या कृष्ण ने कभी कहा कि केवल पुरुष ही उनकी आरती कर सकते हैं? नहीं, कान्हा तो उन सबके हैं, जो उन्हें सच्चे दिल से प्रेम करते हैं।"

    उसकी आवाज़ में मासूमियत थी, लेकिन शब्दों में गंभीरता और सच्चाई थी। सभी लोग उसकी बात सुनकर चौंक गए। वह लड़की उनकी आँखों में सीधा देख रहा था, मानो सच्चाई को उनके दिलों तक पहुँचा रहा हो।

    उसने फिर कहा, "जब भगवान कृष्ण ने गोपियों का प्रेम स्वीकार किया, जब उन्होंने राधा के साथ रास रचाया, तो क्या उन्होंने कभी यह सोचा कि वो पुरुष नहीं थीं? नहीं! कृष्ण ने कभी भेदभाव नहीं किया। तो फिर आप लोग क्यों कर रहे हैं? क्या भगवान के प्रेम और भक्ति में कोई जाति, कोई लिंग, कोई वर्ग हो सकता है?"

    लोगों के चेहरे पर कोई जवाब नहीं था। उनकी आँखों में झिझक थी। बालिका ने अपनी मासूम आँखों से सभी को देखा और फिर किशोरी की ओर मुड़ी, जिसने अब तक अपने आँसू छिपाए हुए थे। उसने किशोरी के पास जाकर उसका हाथ थामा और कहा, "दीदी, आप आरती कीजिए। आपके अंदर सच्ची भक्ति है, और भगवान कृष्ण केवल वही देखते हैं। उनके लिए सबसे महत्वपूर्ण है दिल की पवित्रता, न कि ये नियम और कायदे जो लोग बनाते हैं।"

    किशोरी को उस छोटी लड़की की बातों में सच्चाई और हिम्मत का अहसास हुआ। उसकी आँखों में एक नई चमक आई। उसने आरती का थाल फिर से उठाया और भगवान कृष्ण की मूर्ति के सामने खड़ी हो गई। उसकी आवाज में अब न केवल भक्ति थी, बल्कि आत्मविश्वास भी था। उसने मंजीरे को बजाना शुरू किया और पूरे समर्पण के साथ आरती गाने लगी:

    "श्री कृष्ण गोविन्द हरे मुरारी,
    हे नाथ नारायण वासुदेवा।"

    उसकी आवाज पूरे मंदिर में गूंज उठी, और सभी लोग, जो पहले उसे ताने मार रहे थे, अब शांत होकर उसकी आरती में सम्मिलित हो गए। वे अपनी पिछली बातों पर शर्मिंदा थे।

    उस नन्ही बालिका ने मुस्कुराते हुए अपनी जीत को देखा और धीरे-धीरे मंदिर से बाहर चली गई। उसकी मासूम बातें और निष्कलंक हृदय ने वह कर दिखाया था जो कोई बड़ा भी शायद न कर पाता।

    किशोरी ने आरती पूरी की, और उसकी आँखों से अब आंसू नहीं, बल्कि भगवान कृष्ण के प्रति प्रेम और आस्था की धारा बह रही थी।

    किशोरी ने आरती समाप्त की और अपने दिल में एक नई ऊर्जा का अनुभव किया। उसे उस नन्ही बालिका की बातों ने प्रेरित किया था। अब वह उसकी खोज में थी, लेकिन मंदिर में उस बालिका का कहीं पता नहीं था। वह मंदिर के आंगन में इधर-उधर देखती रही, पर उसका कहीं अता-पता नहीं था।

    तभी अचानक, पीछे से एक आवाज सुनाई दी, "अरे, दीदी, क्या मुझे ढूंढ रही हो?" किशोरी ने मुड़कर देखा, और वह नन्ही बच्ची फिर से उसके सामने खड़ी थी। उसकी आँखों में चमक और चेहरे पर एक मासूम मुस्कान थी।

    "तुम्हारा नाम क्या है, बच्ची?" किशोरी ने पूछा, "और तुम इतनी बड़ी-बड़ी बातें कैसे कर सकती हो?"

    "मेरा नाम वैभवी है," उस नन्ही बच्ची ने मुस्कुराते हुए कहा, "और मैं तो आपके लिए ये बांसुरी लेने गई थी।" उसने अपनी पीठ पर बंधी एक छोटी सी झोली को खोला और उसमें से एक बांसुरी निकाली।

    किशोरी ने आश्चर्य से बांसुरी को देखा। यह साधारण बांसुरी नहीं थी; यह बहुत ही खूबसूरत थी। उस पर रंग-बिरंगे पैटर्न बने हुए थे, और उसकी सतह पर सोने की परत चढ़ी हुई थी। लेकिन सबसे अद्भुत बात यह थी कि उसके एक छोर पर एक सुंदर मोर का आकार बनाया गया था, जो बांसुरी के साथ संगम कर रहा था।

    "यह तो बहुत खूबसूरत है, वैभवी!" किशोरी ने कहा, उसकी आँखें चमक उठीं। "क्या तुमने यह खुद बनाई है?"

    "जी हाँ!" वैभवी ने गर्व से कहा। "मैंने इसे अपने हाथों से बनाया है। जब मैंने आपको आरती करते देखा, तो मुझे लगा कि आप इसे पसंद करेंगी। बांसुरी में मोर इसलिए बनाया है क्योंकि कान्हा को मोर बहुत पसंद हैं।"

    किशोरी ने बांसुरी को लेकर उसे प्यार से छुआ। उस बांसुरी में वैभवी की मेहनत और भक्ति की महक थी। "तुमने इसे बहुत सुंदर बनाया है," किशोरी ने कहा। "क्या तुम मुझे सिखा सकती हो कि इसे कैसे बजाना है?"

    "बिल्कुल!" वैभवी ने खुशी से कहा। "लेकिन पहले, इसे कान्हा को अर्पित करना चाहिए। तब हम इसे बजाना शुरू कर सकते हैं।"

    किशोरी ने बांसुरी को अपने दिल के करीब रखा और कहा, "हाँ, सबसे पहले इसे भगवान कृष्ण को समर्पित करते हैं। फिर हम इसे मिलकर बजाएंगे।"

    वे दोनों मंदिर के गर्भगृह में गईं। किशोरी ने बांसुरी को भगवान कृष्ण की मूर्ति के सामने रखा और पूरे श्रद्धा से कहा, "हे कान्हा, यह बांसुरी आपके प्रेम में समर्पित है। इसे बजाने की शक्ति मुझे दे।" उसकी आँखें नम थीं, लेकिन इस बार आँसू खुशी के थे।

    "अब चलो, हम इसे बजाते हैं," वैभवी ने कहा, और दोनों ने मंदिर के आंगन में बैठकर बांसुरी के लिए एक छोटा सा स्थान बनाया।

    किशोरी ने बांसुरी को होंठों के बीच रखा और धीरे-धीरे उसमें से आवाज निकालने की कोशिश की। कुछ असफल प्रयासों के बाद, अंततः एक मधुर धुन निकली। वैभवी ने मुस्कुराते हुए कहा, "वाह, दीदी! बहुत अच्छा बजा रही हो!"

    किशोरी ने वैभवी की सराहना सुनकर अपनी आत्मविश्वास को और भी बढ़ता हुआ महसूस किया। वह बांसुरी के मधुर सुरों में खोई हुई थी, लेकिन वैभवी की मासूम आवाज ने उसे चौंका दिया।

    "दीदी," वैभवी ने एक गंभीरता के साथ कहा, "भक्ति और प्रेम दोनों एक ही हैं। जब हम सच्चे दिल से किसी से प्रेम करते हैं, तब हम अपने भीतर भक्ति का अनुभव करते हैं। जैसे कान्हा के प्रति हमारी भक्ति, वैसी ही हमारे प्रेम में भी पवित्रता होनी चाहिए।"

    "लेकिन वैभवी," किशोरी ने थोड़ी असमंजस में कहा, "भक्ति तो केवल भगवान के प्रति होती है। प्रेम तो एक अलग भावना है।"

    "नहीं, दीदी," वैभवी ने मुस्कुराते हुए कहा, "जब हम अपने दिल से प्रेम करते हैं, तो वह भी एक तरह की भक्ति होती है। जैसे राधा ने कान्हा के लिए अपने जीवन का सब कुछ त्याग दिया। उनके प्रेम में भक्ति का तत्व है। जब हम किसी से सच्चा प्रेम करते हैं, तो हम उन्हें भगवान की तरह मानते हैं।"

    किशोरी कुछ सोच में पड़ गई। उसे वैभवी की बातें थोड़ी गहरी लग रही थीं। "परंतु प्रेम तो कभी-कभी दुख भी देता है," उसने कहा, "भक्ति तो हमेशा सुख देती है।"

    "सही कहा," वैभवी ने कहा, "लेकिन जब हम प्रेम करते हैं, तो उसका हर पहलू हमें सिखाता है। सुख में हमें आनंद मिलता है, और दुख में हमें सिखाता है कि हमें किस प्रकार आगे बढ़ना है। कान्हा ने राधा के साथ जो प्रेम किया, उसमें सुख और दुख दोनों थे। लेकिन अंततः वह प्रेम ही था जो सब कुछ जीत गया।"

    वासु ने मंदिर के द्वार पर कदम रखा। और किशोरी की नज़रें वासु पर टिक गईं।

    "दीदी, मैं चलती हूँ," वैभवी ने मुस्कुराते हुए कहा, "मेरा दोस्त मुझे ढूंढ रहा होगा। वह आपका बहुत बड़ा फैन है, इसलिए मैं आपके लिए यह बांसुरी लेकर आई हूँ।"

    "कौन है तुम्हारा दोस्त, वैभवी?" किशोरी ने हैरानी से पूछा, "क्या तुम मुझे उसके बारे में कुछ बता सकती हो?"

    लेकिन वैभवी ने हंसते हुए कहा, "नहीं, दीदी! अब मुझे जाने दो।" और बिना कोई जवाब दिए, वह तेजी से मंदिर के आंगन से बाहर दौड़ पड़ी। लेकिन वैभवी जाते-जाते वासु को एक नज़र देखकर मुस्कुरा दी।

    वासु के चेहरे पर मुस्कान थी और वो किशोरी के सामने हाथ जोड़कर खड़ा हो गया और बोला, "राधे राधे, किशोरी!"

    "राधे राधे, वासु!" किशोरी ने मुस्कराकर कहा।

    वासु नीचे झुका और किशोरी के चरण स्पर्श कर लिए।

    वासु ने किशोरी के चरण स्पर्श कर लिया, और जब वह उठकर खड़ा हुआ, तो उसकी आँखों में एक गहरी आस्था और प्रेम साफ झलक रहा था।

    "किशोरी," वासु ने धीरे से कहा, "तुम्हारे लिए मेरी भक्ति अटूट है, लेकिन यह प्रेम भी उसी का हिस्सा है।"

    किशोरी ने वासु की बातों को सुनकर कुछ पल के लिए चुप्पी साध ली। उसके मन में वैभवी की बातें गूंजने लगीं— "प्रेम भी एक प्रकार की भक्ति है।" लेकिन किशोरी के लिए प्रेम और भक्ति अलग-अलग थे। वह इस उलझन में थी कि वासु का प्रेम उसे उसकी भक्ति से दूर ले जा रहा है या उसे और करीब ला रहा है।

    "वासु," किशोरी ने गंभीर स्वर में कहा, "मेरे लिए भक्ति ही सबसे बड़ी सच्चाई है। प्रेम मेरे रास्ते में बाधा बन सकता है।"

    वासु ने सिर झुकाते हुए कहा, "मैं समझता हूँ, किशोरी। लेकिन मैं सिर्फ इतना कहूंगा कि प्रेम भी ईश्वर का एक रूप है। जिस तरह तुम कान्हा से प्रेम करती हो, मैं तुमसे करता हूँ। और अगर मेरा प्रेम तुम्हारी भक्ति में बाधा डाल रहा है, तो मैं पीछे हट जाऊंगा।"

    किशोरी की आँखों में हल्की सी नमी आ गई। उसने वासु की सच्ची भावना को महसूस किया, लेकिन फिर भी वह अपने मन की उलझनों से बाहर नहीं आ पाई। वैभवी की बातें, वासु का प्रेम, और उसकी अपनी भक्ति—ये सभी मिलकर उसे और भी ज्यादा उलझन में डाल रहे थे।

    "मैं समझ नहीं पा रही हूँ, वासु," किशोरी ने धीरे से कहा। "मैं अभी भी वैभवी की बातों को पूरी तरह से समझ नहीं पाई हूँ। क्या प्रेम और भक्ति वास्तव में एक हो सकते हैं?"

    वासु ने किशोरी को आश्वासन देते हुए कहा, "समय तुम्हें सब कुछ समझा देगा, किशोरी। मैं बस इतना जानता हूँ कि मेरा प्रेम तुम्हारे लिए कभी भी तुम्हारी भक्ति के बीच नहीं आएगा।"

    किशोरी ने उसकी ओर देखा, और एक हल्की मुस्कान उसके चेहरे पर आई। लेकिन फिर भी, उसके मन में सवाल थे, जिनका उत्तर अभी तक नहीं मिला था।


    सुबह के 10 बज रहे थे, और पार्थ अपने बिस्तर पर गहरी नींद में सो रहा था। उसके कमरे में हल्की रोशनी फैल रही थी, और चिड़ियों की चहचहाहट उसके कानों में गूंज रही थी। अचानक उसकी माँ, राधिका जी, कमरे में झाड़ू लगाते हुए आईं। जब उन्होंने पार्थ को सोते हुए देखा, तो उनका सारा गुस्सा बाहर निकल आया और पार्थ पर फूट पड़ा।

    "अरे, ओ नालायक! तू अभी तक सो रहा है? देख कितना समय हो गया है?" राधिका जी ने तेज आवाज में कहा।

    पार्थ ने अपने कानों को तकिए से ढक लिया, जैसे वह सुनना ही नहीं चाहता। लेकिन राधिका जी को और गुस्सा आ गया। उन्होंने झाड़ू को एक किनारे रखा और पार्थ पर जलती हुई नज़र डाली।

    "तू तो बेवकूफ है! अरे कम से कम मंदिर जाया कर सुबह जल्दी उठ कर लेकिन नहीं, तुझे तो यहां कुंभकर्ण जैसे सोना ही आता है.... अरे ओ नालायक उठ...कम से कम मंदिर जाने से तेरे ये सारे पाप तो धुल जाएंगे!" राधिका जी ने ताना मारा।

    "अरे मम्मी, थोड़ी देर सोने दो, यार! मुझे नींद आ रही है," पार्थ ने झुंझलाते हुए कहा।

    "अच्छा! तो क्या सोते रहना तेरे लिए सही है?" राधिका जी ने तुनकते हुए कहा, "तेरा दोस्त वासु रोज मंदिर जाता है, तू उससे कुछ सीख ले।"

    "ओह, माँ! वासु की बातें मत शुरू करो!" पार्थ उठा और बाथरूम की ओर जाते हुए कहा।

    "जा, अब जल्दी से नहा ले! और सुन आज तू मंदिर जायेगा," मम्मी ने फिर से कहा।

    पार्थ खीझ कर बाथरूम में घुस गया और गेट जोर से बंद कर दिया।

  • 15. प्रेममय - Chapter 15

    Words: 2252

    Estimated Reading Time: 14 min

    पार्थ ने एक काले रंग की टीशर्ट और काली पैंट पहनी और अपने कमरे से बाहर निकल आया। उसने अपनी मम्मी राधिका जी से कहा, "मम्मीईईईई! मैं जा रहा हूँ मंदिर अपने पाप धोने।"

    राधिका जी ने पार्थ को ऊपर से नीचे तक देखा और बोली, "हूह्ह्ह्ह बेवकूफ! क्या तू ये काले कपड़े पहनकर जायेगा मंदिर?"

    पार्थ ने लापरवाही से, बड़े ही एटीट्यूड में कहा, "अरे यार मम्मी! ये काले कपड़े मुझ पर जचते हैं। मैं इन काले कपड़ों में एकदम हीरो लगता हूँ।"

    "हीरो?" राधिका जी ने तंज करते हुए कहा। "तेरे हीरो बनने का टाइम नहीं है। कम से कम आज तुझे थोड़ा सज-धजकर जाना चाहिए। मंदिर में लोग क्या कहेंगे?"

    पार्थ ने एक शरारती मुस्कान के साथ जवाब दिया, "अरे मम्मी, लोग मेरे कपड़ों से नहीं, मेरे इरादों से मुझे देखेंगे। और वैसे भी, भगवान तो मेरे दिल को देखेंगे।"

    "दिल को देखने का काम तो भगवान का है, ओ नालायक! लेकिन तेरा काम है कि तू अच्छा दिखे," राधिका जी ने कहा। "कम से कम कुछ तो समझदारी से पहनना सीख।"

    "जैसे आप हमेशा कहती हैं, 'आत्मा की शुद्धता ही असली चीज़ है।' तो मैं अपनी आत्मा को साफ करने जा रहा हूँ।" पार्थ ने जोर से कहा और अपनी मम्मी की बात सुने बिना जल्दी से घर से बाहर निकल गया ताकि उसे उसकी मम्मी का भाषण न सुनना पड़े।

    पार्थ घर के बाहर निकला और गली के नुक्कड़ तक पहुँचते ही अपनी बड़बड़ाहट शुरू कर दी। "उफ्फ मम्मी भी ना! हर बात पे टोका-टोकी। लगता है मैं उनके सिर पर कोई 'ताजमहल' बनवा बैठा हूँ।" उसने अपनी काली टी-शर्ट और पैंट पर एक नज़र डाली और बोला, "अरे भाई, ये कपड़े तो स्टाइल का 'तुरुप का इक्का' हैं। और मम्मी को लगता है मैं किसी 'रामलीला' में राक्षस बनकर जा रहा हूँ!"

    रास्ते में चलते-चलते उसने फिर खुद से कहा, "मुझे तो समझ नहीं आता, मंदिर में कपड़े देखकर भगवान प्रसन्न होंगे या भक्त की श्रद्धा देखकर? मम्मी को कौन समझाए कि भगवान को कपड़ों से कोई लेना-देना नहीं, वो तो सीधे दिल में झाँकते हैं। और मेरा दिल? मेरा दिल तो एकदम 'दूध का धुला' है।" उसने मुस्कुराते हुए अपनी टी-शर्ट के कॉलर को उठाया और कहा, "भले ही मम्मी को मैं 'काले कम्बल में सफेद बिल्ली' लगूँ, लेकिन मैं तो अपना खुद का 'सुपरहीरो' हूँ।"

    गली के मोड़ पर पहुँचते ही उसे एक पड़ोसी अंकल दिख गए। अंकल ने उसे काले कपड़ों में देखकर कहा, "पार्थ बेटा, ये क्या? मंदिर जा रहे हो या 'पिक्चर की शूटिंग' करने?" पार्थ ने झट से जवाब दिया, "अंकल जी, आजकल हर जगह शूटिंग जैसा ही माहौल है। मैं मंदिर जा रहा हूँ 'दिल की सफाई' करने।"

    अंकल मुस्कुराते हुए बोले, "अच्छा बेटा, लेकिन मंदिर में थोड़ा सलीके से जाना चाहिए।"

    पार्थ ने मन ही मन सोचा, "अरे बाबा! अब ये अंकल भी मेरी 'राधिका मम्मी पार्ट 2' बन गए हैं।"

    उसने अंकल को 'जी अंकल' कहकर टाल दिया और अपनी राह पकड़ ली।

    जैसे ही मंदिर के पास पहुँचा, उसने अपने काले कपड़ों को झाड़ते हुए कहा, "चल पार्थ, अब 'पाप का घड़ा' लेकर भगवान के पास चल। हो सकता है भगवान को भी मेरी टी-शर्ट पसंद आ जाए। आखिरकार, भगवान भी तो फैशन-सेवी होंगे, वरना नारद मुनि का वो 'शानदार स्टाइल' कहाँ से आया?"

    मंदिर के बाहर ही उसे पुजारी जी की नजरें अपने कपड़ों पर महसूस हुईं। पुजारी जी ने कुछ कहने के लिए मुँह खोला ही था कि पार्थ बोल पड़ा, "पंडित जी, कपड़ों पर ध्यान मत दीजिए। मैं तो सीधा भगवान जी से 'एक्सक्लूसिव माफी' माँगने आया हूँ।" पुजारी जी हँसते हुए बोले, "जैसा तुम्हारा दिल, वैसा तुम्हारा दर्शन।"

    पार्थ मंदिर की सीढ़ियों पर चढ़ते-चढ़ते वासु के बारे में सोचने लगा। उसकी आँखों में एक हल्की सी चिंता झलक रही थी, लेकिन चेहरे पर वही शरारती मुस्कान। "वासु भी न, एकदम पागल है," उसने खुद से कहा। "किशोरी के लिए इतना सब कुछ करता है, और वो उसे देखती भी नहीं।"

    वह वासु की एकतरफा मोहब्बत को समझता था, लेकिन उसकी समझ में ये नहीं आता था कि वासु क्यों खुद को इस तरह की तकलीफ में डाल रहा है। हर सुबह मंदिर जाना, किशोरी के आसपास मंडराना, उसकी भक्ति में डूबे हुए चेहरे को निहारना—ये सब वासु का रोज का रूटीन बन चुका था। किशोरी के लिए उसकी आँखों में जो प्यार था, वो पार्थ ने कई बार महसूस किया था। पार्थ अक्सर उसे चिढ़ाता था, "भाई, इतना गहरा प्यार और इतना सारा इंतज़ार? कब तक यूँ ही खामोश रहोगे?"

    लेकिन वासु हमेशा गंभीरता से कहता, "प्यार में सब्र जरूरी है। किशोरी के दिल में भगवान हैं, और जब तक उसकी नजर मुझ पर नहीं पड़ती, तब तक मैं उसे तंग नहीं कर सकता।"

    पार्थ को वासु की ये बातें कभी समझ में नहीं आईं। उसे लगता था कि वासु को अपने दिल की बात कह देनी चाहिए, और शायद किशोरी उसकी सच्चाई समझकर उसे स्वीकार कर ले। लेकिन वासु, उसके मुताबिक, "दिल की बात समय से पहले कहकर सब कुछ नहीं बिगाड़ सकता।"

    मंदिर पहुँचते ही पार्थ ने देखा कि वहाँ पहले से ही काफी भीड़ थी। महिलाएँ रंग-बिरंगे परिधानों में भगवान की पूजा करने आई थीं, और बच्चे मंदिर के आसपास खेल रहे थे। पार्थ ने एक नज़र अपने ऊपर डाली और फिर आस-पास के लोगों को देखा। उसने सोचा, "सच में, सब मुझसे अलग दिख रहे हैं। पर मुझे क्या फर्क पड़ता है?"

    वह धीरे-धीरे मंदिर के गर्भगृह की तरफ बढ़ा। जैसे ही वह भीतर पहुँचा, उसकी नज़र किशोरी पर पड़ी। किशोरी हमेशा की तरह भगवा रंग की साड़ी में लिपटी हुई, अपने दोनों हाथ जोड़े, आँखें बंद किए ध्यानमग्न खड़ी थी। उसकी भक्ति की गहराई पार्थ को हमेशा चौंका देती थी। वह हर दिन मंदिर में भगवान कृष्ण के आगे ऐसे खड़ी होती, जैसे उन्हीं से सजीव संवाद कर रही हो। उसकी भक्ति में एक ऐसी तन्मयता थी कि पार्थ के कदम अनायास ही धीमे पड़ गए।

    किशोरी की भक्ति को देख पार्थ के दिल में एक हलचल सी मची। उसने खुद से कहा, "ये लड़की... हर बार मुझे सोचने पर मजबूर कर देती है। इसका भगवान के प्रति प्रेम कुछ और ही है।" पार्थ ने अपनी शरारती मुस्कान दबाने की कोशिश की, लेकिन उसके अंदर का मस्तमौला स्वभाव उसे रोक नहीं पाया। उसने हल्के से मुस्कुरा कर किशोरी के पास जाकर धीरे से कहा, "अरे ओ भगत जी, इतना ध्यान से भगवान को देखोगी, तो भगवान भी शरमा जाएँगे।"

    किशोरी ने उसकी बात को सुना, पर अपनी आँखें नहीं खोलीं। वह उसी मुद्रा में खड़ी रही, मानो उसकी सारी दुनिया भगवान में ही समाहित हो। पार्थ ने थोड़ी और कोशिश करते हुए कहा, "तुम्हारे इस साड़ी में दर्शन और भी प्यारे हो रहे हैं। लगता है भगवान कृष्ण भी अब तुम्हें देखकर खुद को रोक नहीं पाएँगे।"

    अब किशोरी ने धीरे से अपनी आँखें खोलीं, पर उनकी गहराई में कोई नाराजगी नहीं थी, बल्कि शांति और गंभीरता थी। उसने शांत स्वर में कहा, "पार्थ, भगवान को चिढ़ाने का कोई फायदा नहीं है। उनका प्रेम तो अनंत है, और वे किसी के कपड़ों या बातों से प्रभावित नहीं होते।"

    पार्थ ने हँसते हुए जवाब दिया, "तो तुम ही बताओ, मैं भगवान को कैसे प्रभावित करूँ? तुम तो जानती हो कि मैं बहुत कोशिश करता हूँ।"

    किशोरी ने हल्का सा मुस्कुराते हुए उसकी ओर देखा और कहा, "भगवान को प्रभावित करने के लिए प्रयास की नहीं, सच्ची श्रद्धा की ज़रूरत होती है। तुम्हारी ये शरारतें भगवान को नहीं, तुम्हारे दोस्तों को पसंद आ सकती हैं, पर भगवान को नहीं।"

    पार्थ को उसके शब्द कुछ चुभे, लेकिन उसने अपनी लापरवाही नहीं छोड़ी। "अच्छा, तो तुम कह रही हो कि मेरा दिल साफ नहीं है?"

    किशोरी ने उसकी ओर देखकर बड़े ही गंभीर स्वर में कहा, "दिल साफ है, पार्थ। पर उसे साफ रखना पड़ता है। दिखावा और शरारत एक तरफ, और भक्ति एक तरफ।"

    उसकी बातें पार्थ को भीतर तक झकझोर गईं, पर वह अभी भी मजाक के मूड में था। उसने हँसते हुए कहा, "ठीक है भगत जी, मैं तो भगवान को अपने स्टाइल में ही मनाऊँगा। तुम देखती रहो।"

    इतना कहकर पार्थ ने मंदिर में प्रवेश किया और सीधे भगवान की मूर्ति के पास जाकर खड़ा हो गया। उसने सिर झुकाकर भगवान को प्रणाम किया, पर उसके चेहरे पर वही लापरवाही थी। उसकी आँखों में वह गंभीरता नहीं थी, जो किशोरी की आँखों में थी। पार्थ ने अपनी जेब से कुछ सिक्के निकाले और दानपेटी में डालते हुए भगवान से मन ही मन कहा, "हे भगवान! मम्मी ने आज सुबह मेरा खून पीकर मुझे यहाँ भेजा है। अब तो आप ही मुझे बचा लीजिए। और हाँ, ये काले कपड़े अगर आपको पसंद आए हों, तो मम्मी को सपने में जाकर समझा दीजिए कि स्टाइल में रहना भी एक कला है। और हाँ, किशोरी को ये बताइए कि मैं भी दिल से भक्ति करता हूँ, अपने स्टाइल में।"

    जैसे ही उसने भगवान से अपनी अनोखी प्रार्थना खत्म की, वह पलटा और देखा कि किशोरी उसे घूर रही थी। पार्थ ने अपनी गर्दन को हल्का सा झटका देते हुए कहा, "अरे भगत जी, इतनी गहरी नज़रें मत डालो मुझ पर, कहीं भगवान खुद जल-भुन न जाएँ।"

    किशोरी ने अपनी साड़ी का पल्लू ठीक करते हुए कहा, "पार्थ, तुम्हारी बातें कभी-कभी इतनी बचकानी लगती हैं कि लगता है जैसे किसी बच्चे से बात कर रही हूँ।"

    पार्थ ने आँखें चौड़ा करके जवाब दिया, "बच्चा? अरे भगत जी, मेरी मम्मी कहती हैं कि मैं बड़ा हो गया हूँ, और तुम्हें तो पता है मम्मियों की बातें कभी गलत नहीं होतीं!"

    किशोरी ने मुस्कुराते हुए सिर हिला दिया। "तुम्हारी मम्मी ठीक कहती होंगी, लेकिन तुम्हारी हरकतें देखकर लगता है कि तुम्हारी उम्र उल्टी गिनती में चल रही है। भगवान भी सोचते होंगे कि इसे बनाया कैसे है?"

    पार्थ ने झूठा गंभीर चेहरा बनाते हुए कहा, "भगवान सोचते होंगे, ‘पार्थ जैसा दूसरा कोई मॉडल बनाया तो कंपनी बंद हो जाएगी।’ अब बताओ, मैं यूनिक हूँ कि नहीं?"

    "यूनिक तो हो," किशोरी ने मुस्कुराते हुए कहा, "लेकिन तुम्हारी यूनिकता से ज़्यादा तुम्हारी बातें सिरदर्द कर देती हैं।"

    पार्थ ने नकली आह भरते हुए कहा, "भगत जी, सही कहा, सिर का दर्द तो मैं हूँ ही।"

    किशोरी ने सिर हिलाते हुए कहा, "पार्थ, भगवान जानें कि तुम्हें इतना बोलने की शक्ति कहाँ से मिलती है। और तो और, मंदिर की घंटियाँ भी तुम्हारे सामने शांत हो जाती हैं।"

    पार्थ ने तुरंत उत्तर दिया, "घंटियाँ इसलिए शांत हैं, क्योंकि उन्हें पता है कि पार्थ बोल रहा है, और जब पार्थ बोलता है, तो बाकी सब सुनते हैं।"

    किशोरी ने सिर पकड़ लिया। "तुम्हारे तर्कों का जवाब देना तो ऐसा है जैसे दीवार से भिड़ना।"

    पार्थ ने तुरंत कहा, "अरे भगत जी, दीवार से भले ही भिड़ जाओ, लेकिन पार्थ से मत भिड़ना। मैं दीवार नहीं, पूरा किला हूँ। और हाँ, ये किला हमेशा मज़ाक की फुल डिलीवरी करता है।"

    तभी एक बच्चा मंदिर के पास खेलते-खेलते पार्थ की तरफ भागता हुआ आया और बोला, "भैया, ये फूल गिर गया था। आपको चाहिए?"

    पार्थ ने फूल को देखा और कहा, "अरे ये तो मेरे लिए है! भगवान ने भिजवाया होगा। किशोरी, देखो भगवान मुझे अपने खास भक्त के रूप में पहचानते हैं।"

    पार्थ ने फूल हाथ में लिया और नकली भावुकता से उसे किशोरी के सामने लहराते हुए कहा, "देखा भगत जी, भगवान भी मेरी भक्ति को समझ गए हैं। अब तुम्हारे ऊपर है कि तुम मुझे गंभीरता से कब लेने वाली हो।"

    किशोरी ने फूल को देखा और फिर शांति से बोली, "पार्थ, भगवान ने फूल ज़रूर तुम्हें भेजा होगा, लेकिन शायद ये तुम्हें समझाने के लिए है कि भक्ति में दिखावा नहीं होता।"

    पार्थ ने एक नाटकीय अंदाज़ में अपनी आँखें मटकाते हुए कहा, "अरे भगत जी, आप तो ऐसे कह रही हैं जैसे मैं भक्ति में कोई नाटक कर रहा हूँ। मेरी भक्ति तो सीधी-सच्ची है, जैसे काले बादलों से बारिश गिरती है।"

    किशोरी ने अपनी साड़ी का पल्लू थोड़ा और ठीक करते हुए कहा, "पार्थ, तुम्हारी भक्ति तो वैसे ही है जैसे खीर में नमक। न सही ढंग से खाते बनती है और न छोड़ते।"

    पार्थ ने तुरंत अपनी आँखें मटकाते हुए जवाब दिया, "वाह भगत जी, ये तो मान लिया कि मेरी भक्ति स्वादिष्ट है, बस अब तुम्हें इसे पचाना सीखना पड़ेगा।"

    तभी पार्थ ने मंदिर के कोने में लगे घंटों की ओर इशारा करते हुए कहा, "देखो भगत जी, ये घंटियाँ मुझे देखकर कितनी खुश हो रही हैं। जैसे ये कह रही हों, ‘पार्थ, तू ना होता, तो मंदिर की रौनक ही गायब हो जाती।’"

    किशोरी ने शांत स्वर में कहा, "पार्थ, घंटियाँ भगवान की आराधना के लिए हैं, तुम्हारी चुटकुलों के लिए नहीं।"

    पार्थ ने झट से जवाब दिया, "भगवान भी हँसते होंगे भगत जी, वरना इतनी शानदार दुनिया कैसे बनाते? और मेरी बात मानो, भगवान मुझे देखकर सोचते होंगे, ‘वाह, ऐसा भक्त बनाना तो कला है!’"

    किशोरी ने गहरी साँस लेते हुए कहा, "पार्थ, तुम्हारी बातों का जवाब देना ऐसा है जैसे खाट में छेद भरना। जितना कोशिश करो, उतना सिरदर्द बढ़ता है।"

    पार्थ ने तुरंत ताली बजाते हुए कहा, "वाह भगत जी, आपने तो दिल खुश कर दिया। लेकिन देखो, मैं भी ऐसा इंसान हूँ, जो हर छेद में से रास्ता बना लेता है। आखिर पार्थ हूँ!"

    किशोरी ने हल्की मुस्कान के साथ कहा, "पार्थ, तुम्हारी ये बातें ऐसी हैं, जैसे सूखी रोटी पर मक्खन लगाना। ऊपर से तो चमकदार, लेकिन अंदर से खाली।"

    पार्थ ने नकली दुखी चेहरा बनाते हुए कहा, "भगत जी, ये तो हद है। मुझे सूखी रोटी कहकर अपमानित कर दिया। लेकिन ठीक है, मैं भी अपनी बातों से मक्खन लगाना जानता हूँ।"

    आगे क्या होगा, जानने के लिए अगले भाग का इंतज़ार करते रहिए। साथ ही समीक्षा भी करते रहिए।

  • 16. प्रेममय - Chapter 16

    Words: 1647

    Estimated Reading Time: 10 min

    पार्थ मंदिर से बाहर निकलते ही बगीचे की ओर जाने लगा। उसे पता था कि वासु इस वक्त वहीं होगा, अपनी दुनिया में खोया हुआ। पार्थ की चाल में वही हल्का सा स्वैग था, और उसका मन अभी भी किशोरी की बातों में उलझा हुआ था।

    लेकिन तभी उसके कानों में एक जानी-पहचानी आवाज गूंजी।
    "प्लीज़... मुझे जाने दो!"
    आवाज कुछ घबराई हुई थी।

    पार्थ ने रुककर ध्यान से सुना और फिर उस दिशा में बढ़ा, जहाँ से आवाज आ रही थी। एक छोटी गली में जाकर उसने देखा कि सुभिका, कुत्तों के झुंड से घिरी हुई थी। कुत्ते उसे चारों तरफ से घेरकर भौंक रहे थे, और सुभिका डर के मारे कांप रही थी। उसकी आवाज में हताशा थी।
    "प्लीज़, मुझे जाने दो।"

    वह कंपीटिशन के रेस में हारे हुए धावक जैसी हताश लग रही थी।

    पार्थ ने मौका देखते ही एक शरारती मुस्कान के साथ सोचा,
    "आज तो बड़ा मजा आएगा!"

    सुभिका और पार्थ का रिश्ता काफी तकरार भरा था; दोनों की हर मुलाकात में किसी न किसी बात पर झगड़ा हो जाता था। और आज पार्थ को मौका मिल गया था उसे चिढ़ाने का। वह धीरे-धीरे गली की तरफ बढ़ा, अपने फोन से वीडियो रिकॉर्ड करने की तैयारी करते हुए, और दूर से ही चिल्लाया।
    "अरे सुभिका महारानी! क्या हो रहा है? ये कुत्ते तो बड़े प्यारे लग रहे हैं, इनसे डर क्यों रही हो?"

    सुभिका ने उसकी आवाज सुनते ही गुस्से में उसकी तरफ देखा।
    "पार्थ! मदद करो ना, इन कुत्तों को हटाओ। ये बहुत डरावने हैं!"
    उसकी आवाज में डर के साथ-साथ कुछ झल्लाहट भी थी, जैसे वह जानती हो कि पार्थ इस मौके का मजा लेने वाला है।

    पार्थ ने हंसते हुए कहा,
    "अरे यार, कुत्ते तो भगवान के प्यारे जीव होते हैं। ये तुझे कुछ नहीं कहेंगे। वैसे भी, तू इतनी बहादुर है, सुभिका।"

    सुभिका का गुस्सा अब उसकी घबराहट पर हावी हो रहा था।
    "पार्थ! अगर तूने इन कुत्तों को हटाया नहीं, तो मैं तुझे नहीं छोड़ूंगी!"
    उसने एक धमकी भरे अंदाज में कहा, लेकिन उसकी आवाज अभी भी कंपकंपा रही थी।

    पार्थ अब पूरी तरह से मजे के मूड में था। उसने कुत्तों की ओर देखकर कहा,
    "देखो भाई लोग, हमारी सुभिका मैडम को जाने दो। वरना ये तुम पर भी चिल्ला सकती हैं!"
    कुत्तों ने एक-दो बार भौंककर फिर शांत हो गए, लेकिन अभी भी सुभिका के करीब थे।

    सुभिका की हालत खराब थी, और उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करे। उसने चिल्लाते हुए कहा,
    "पार्थ! अगर तू अभी नहीं आया, तो मैं... तो मैं तेरा सिर फोड़ दूंगी, समझा?"

    पार्थ ने शरारती अंदाज में जवाब दिया,
    "अरे, सिर फोड़ना छोड़, पहले इनसे जान बचा। और हाँ, तेरे डरने का वीडियो बनाकर इंस्टाग्राम पर डालूँ क्या? कैप्शन होगा: 'जब शेरनी कुत्तों से डर गई!'"

    सुभिका का गुस्सा अब उसके डर पर भारी पड़ने लगा। उसने लगभग चिल्लाते हुए कहा,
    "पार्थ...!"

    इससे पहले कि सुभिका अपनी बात पूरी कर पाती, पार्थ ने अपने बैग से बिस्कुट का पैकेट निकाला और कुत्तों की ओर फेंक दिया।

    "अरे दोस्तों, ब्रेकफास्ट करो और हमारी सुभिका मैडम को छोड़ दो।"

    कुत्ते बिस्कुट की ओर भागे और सुभिका को अकेला छोड़ दिया। सुभिका ने राहत की साँस ली, लेकिन पार्थ की तरफ पलटकर ऐसे देखा जैसे कह रही हो,
    "अब तेरी खैर नहीं।"

    पार्थ उसकी तरफ आया और मुस्कुराते हुए बोला,
    "देखा? हो गई मदद। लेकिन मैं बता रहा हूँ, तुझे कुत्तों से इतना डरने की जरूरत नहीं है। ये तो सिर्फ प्यार से भौंक रहे थे।"

    सुभिका ने पार्थ को घूरते हुए कहा,
    "तू हमेशा मुझे तंग करने के मौके ढूंढता है, है ना?"

    पार्थ ने शरारती मुस्कान के साथ जवाब दिया,
    "अरे, तू खुद ही ऐसे मौके दे देती है। वैसे, तू इतनी बहादुर है, लेकिन कुत्तों से इतना डर क्यों?"

    सुभिका ने गुस्से में पैर पटका और बोली,
    "मैं किसी से भी नहीं डरती, समझा! और तुझसे तो बिल्कुल भी नहीं!"

    पार्थ ने हँसते हुए कहा,
    "अच्छा अच्छा, मैं मान गया। लेकिन अगली बार कुत्तों से इतना मत डरना, वरना फिर मैं वीडियो बनाकर वायरल कर दूंगा।"

    सुभिका पैर पटकते हुए बोली,
    "पार्थ, तू दुनिया का सबसे बड़ा सरदर्द है। भगवान ने तुझे बनाते वक्त जरूर कहा होगा कि इसे एक्स्ट्रा शरारत का पैकेट डालकर भेजो।"

    पार्थ ने तुरंत जवाब दिया,
    "और तुझे बनाते वक्त भगवान ने कहा होगा, 'इसे कुत्तों का डर और गुस्से की फुल डोज़ दे दो।' वैसे तेरा गुस्सा देखकर मुझे लगता है, तू सिर्फ कुत्तों से ही नहीं, मुझे भी काट लेगी।"

    सुभिका ने उसकी बात को गंभीरता से लेते हुए कहा,
    "तूने अगर ऐसा कुछ भी किया, तो मैं तुझे...!"
    लेकिन इससे पहले कि वह कुछ और कह पाती, पार्थ तेजी से बगीचे की ओर भाग गया, हंसता हुआ।

    सुभिका उसकी हरकतों से परेशान होकर वहीं खड़ी रही, लेकिन अंदर ही अंदर उसे भी एहसास हुआ कि पार्थ उसे हमेशा तंग करता है, पर कभी उसे किसी मुश्किल में अकेला नहीं छोड़ता।

    सुभिका गुस्से में पैर पटकते हुए खुद से बड़बड़ाने लगी। उसकी आँखों में अभी भी कुत्तों का खौफ था, लेकिन पार्थ की शरारतों ने उसके गुस्से का पारा और चढ़ा दिया था।

    "ये पार्थ! भगवान ने इसे भेजा ही मुझे परेशान करने के लिए है। हर बार कुछ ना कुछ नया ड्रामा करेगा और फिर हंसता हुआ भाग जाएगा। ये समझता क्या है खुद को? सुपरहीरो?"
    उसने अपने दुपट्टे को ठीक करते हुए बड़बड़ाया और गली के कोने में खड़े होकर कुत्तों को नफरत भरी नजरों से देखा।

    "कुत्ते भी शायद इसे अपना साथी मानते हैं। तभी तो ये ऐसे आराम से उनके बीच घुसकर मुझे बचा लेता है। और फिर मुझे ताना मारने का मौका ढूंढता है। अगली बार ना, मैं इसे... मैं इसे छोड़ूंगी नहीं! इसका सारा स्वैग उतार दूंगी।"

    सुभिका ने आसमान की ओर देखते हुए कहा,
    "हे भगवान! क्या मुझे एक भी दिन चैन से जीने का हक नहीं? कुत्ते, पार्थ, और ये उसकी बेवकूफियां... मुझे सब से आज़ादी चाहिए।"

    कुछ ही दूरी पर बगीचे से आती पार्थ की हंसी ने उसके गुस्से को और बढ़ा दिया।
    "देखो, कैसे हंस रहा है। जैसे अभी-अभी कोई बहुत बड़ी जंग जीत ली हो।"

    पार्थ बगीचे की ओर बढ़ते हुए अब तक सुभिका के साथ हुई मजेदार घटना को याद करके मुस्कुरा रहा था।

    पार्थ बगीचे की ओर बढ़ते हुए खुद से बड़बड़ाता जा रहा था।

    हर कदम के साथ उसकी मुस्कान और बढ़ रही थी, और उसे ऐसा लग रहा था कि जैसे उसने सुभिका को हराकर कोई महाकाव्य जीत ली हो।

    "अरे, ये सुभिका भी ना... बस, एकदम मुसीबत की पुड़िया है।"
    पार्थ ने खुद को फिर से तसल्ली दी,
    "लेकिन क्या मजा आया! सच में, जैसे कुत्ते नहीं, सुभिका ही खुद मेरे सामने मेरा शिकार बनकर खड़ी थी।"

    उसने एक शरारती हंसी छोड़ी और बड़बड़ाया,
    "अब सुभिका समझेगी कि पार्थ के आगे सब बिन पंख के बत्तख हैं! खैर, उसे तो मुझसे भिड़ने की आदत हो गई है। वो तो पगली है, जो हर वक्त मुझे तंग करने के मौके ढूंढती रहती है।"

    पार्थ अपनी दिमागी यात्रा में खोया हुआ था।
    "हां, यह भी सच है कि जबसे सुभिका आई है, मेरी ज़िन्दगी में नया रोमांच आ गया है। जैसे कोई बोरिंग फिल्म हो, और अचानक उसमें बीच में कोई सुपरस्टार कूद जाए!"

    "क्या बोलू? दिल तो कहता है कि उसे कोई दिन चैन से रहने दे, पर फिर मन कहता है, 'अरे यार, मस्ती तो करनी है!' वैसे भी, अगर मैं नहीं हंसी दूंगा तो कौन हंसी देगा?"
    पार्थ ने खुद से कहा और खुद ही हंसी में लोटपोट हो गया।

    "और फिर यह क्या! कुत्तों से डरती हुई वह, और मैंने उसे बचाकर जो स्वैग दिखाया, वह तो किसी फिल्म के हीरो से कम नहीं था।"

    लेकिन जैसे ही उसने बगीचे में आगे कदम रखा, उसकी आँखें वासु की तरफ गईं। वासु एक बेंच पर बैठा हुआ था, और उसके हाथ में उसकी स्केचबुक थी। पार्थ ने देखा कि वासु बड़े ध्यान से किसी का चित्र बना रहा था। उसने थोड़ा और पास जाकर देखा, तो समझ गया कि वह कोई और नहीं बल्कि किशोरी थी, जिसका चेहरा वासु अपनी पूरी आत्मा से कागज पर उकेर रहा था।

    पार्थ थोड़ी देर तक चुपचाप खड़ा रहा, उसे गौर से देखता रहा। वासु की आँखों में एक अलग सी तन्मयता थी, और उसकी हर रेखा में एक गहराई थी, जैसे वह किशोरी के चेहरे की हर छोटी-बड़ी बारीकी को अपने दिल से महसूस कर रहा हो। पार्थ को देखकर थोड़ी हैरानी हुई कि वासु का यह नया शौक कब शुरू हुआ। वह सोचने लगा,
    "ये वासु तो एकदम आर्टिस्ट निकला!"

    पार्थ ने चुप्पी तोड़ते हुए कहा,
    "भाई, क्या बात है! ये तो कमाल का आर्ट है। ऐसा लग रहा है कि किशोरी सामने ही खड़ी है।"

    वासु अचानक से चौंक गया; उसे पता भी नहीं चला था कि पार्थ कब आकर उसके बगल में खड़ा हो गया था। उसने एक पल के लिए पार्थ को देखा, फिर एक हल्की मुस्कान के साथ स्केचबुक बंद करते हुए बोला,
    "किशोरी का चेहरा ऐसा है कि उसे निहारते रहो तो रेखाएँ खुद-ब-खुद बनती जाती हैं।"

    पार्थ ने उसकी स्केचबुक को हाथ में लेते हुए कहा,
    "अरे वाह! लेकिन भाई, ये प्यार में डूबा हुआ आर्ट तो बड़ा खतरनाक है। कहीं तू इस कागज पर ही ना फंस जाए!"

    वासु ने उसकी बात को हल्के में लेते हुए कहा,
    "पार्थ, तुम नहीं समझोगे। ये सिर्फ स्केच नहीं है, ये मेरी भावना है। मैं किशोरी को कभी परेशान नहीं करना चाहता, लेकिन जब उसे इस तरह से कागज पर उकेरता हूँ, तो मुझे लगता है कि मैं उसे समझ रहा हूँ, उसके करीब हूँ।"

    पार्थ ने एक गहरी साँस लेते हुए मजाकिया अंदाज में कहा,
    "यार वासु, तू तो कुछ ज्यादा ही फील कर रहा है। प्यार करना अच्छी बात है, लेकिन मेरे यार किशोरी के लिए उसकी भक्ति ही सर्वोपरि है! फिर तू उसकी याद में आँसू बहाता रहता है। और मुझसे तेरी यह हालत देखी नहीं जाती।"


    आगे क्या होगा जानने के लिए अगले भाग का इंतज़ार करते रहिए। साथ ही समीक्षा भी करते रहिए।

  • 17. प्रेममय - Chapter 17

    Words: 1627

    Estimated Reading Time: 10 min

    वासु ने सिर झुकाते हुए कहा, "मैं जानता हूँ, उसका भगवान में जो प्यार है, वो इतना शुद्ध है कि मैं उसमें खलल कभी नहीं डाल सकता।"

    पार्थ ने थोड़ी देर चुप रहकर वासु के इस गहरे प्यार को समझने की कोशिश की। वह जानता था कि वासु का प्यार सच्चा था, लेकिन यह भी जानता था कि उसका यह तरीका शायद हमेशा काम न आए।

    पार्थ ने फिर से उसकी स्केचबुक खोली और किशोरी का स्केच देखते हुए कहा, "तू वाकई में पागल है। यह जो तूने किशोरी का स्केच बनाया है, यह तुझसे ज़्यादा प्यार जताता है। लेकिन कभी-कभी प्यार सिर्फ़ देख लेने से समझ में नहीं आता, उसे कहने की भी ज़रूरत होती है।"

    "प्यार कहने के लिए नहीं, महसूस करने के लिए होता है, पार्थ।" वासु मुस्कुराते हुए बोला।

    "अरे वाह! बड़ा फिलॉसफर बन गया है तू।" पार्थ ने उसकी बातें सुनकर अपनी आदत के मुताबिक़ मज़ाक में कहा।

    वासु सिर्फ़ हल्का मुस्कुराया, जैसे उसकी बात का कोई जवाब न हो, लेकिन उसके चेहरे पर जो गहराई थी, उसने पार्थ को सोचने पर मजबूर कर दिया। वह समझता था कि वासु का यह प्यार उसके दिल में कितनी गहराई से बसा हुआ है, लेकिन उसके तरीके से पार्थ हमेशा असहमत रहता था। वह चाहता था कि वासु कुछ कदम उठाए, कुछ कहे, क्योंकि पार्थ की नज़र में यह इंतज़ार अनिश्चितता से भरा हुआ था।

    वासु फिर से अपनी स्केचबुक में खो गया, लेकिन इस बार पार्थ ने उसे गंभीरता से टोकते हुए कहा, "भाई, तेरे इस इंतज़ार में एक दिन तू खुद को कहीं खो न दे। प्यार में पहल करनी पड़ती है, वरना तुझे बाद में पछतावा होगा।"

    वासु ने पार्थ की ओर देखा, उसकी आँखों में एक गहरी समझ और सुकून था। उसने शांति से कहा, "मैं जानता हूँ, पार्थ। लेकिन मेरा यकीन है कि जब सही वक़्त आएगा, किशोरी खुद मेरी भावनाओं को समझेगी।"

    पार्थ ने थोड़ी देर तक वासु की बातों को सुना और फिर खुद से ही बड़बड़ाया, "यार, तू तो पूरी तरह से भगवान भरोसे बैठा है। मैं तो कहता हूँ, थोड़ा मॉडर्न बन और यह भगवान वाली बातों को कुछ देर के लिए छोड़कर हकीकत में कुछ कर।"

    "तेरे लिए यह सिर्फ़ भगवान और प्रेम की बातें हैं, लेकिन मेरे लिए यही हकीकत है। मैंने अपनी ज़िन्दगी किशोरी के साथ ऐसे ही जोड़ ली है। मुझे पता है कि वह मेरे प्रेम को एक दिन समझेगी।" वासु ने हँसते हुए कहा।

    "भाई, मैं मानता हूँ कि तेरा प्रेम सच्चा है, लेकिन सच्चाई से भी पहले उसे बताना पड़ेगा कि तू क्या महसूस करता है...कितना दर्द सहता है तू...यह इस प्यार-व्यापार के चक्कर में तेरी आँखें हमेशा आँसुओं से भरी हुई और लाल रहती हैं। वरना तू ऐसे ही स्केच बनाता रहेगा, और किशोरी शायद कभी तुझे उस नज़र से देखेगी ही नहीं।" पार्थ ने ठंडी साँस लेकर कहा।

    वासु ने सिर हिलाते हुए कहा, "मुझे उसकी खुशी चाहिए, पार्थ। अगर उसके लिए मेरे प्यार की कोई जगह नहीं है, तो भी मैं खुश हूँ कि वह भगवान के साथ खुश है। मैं उस खुशी में अपनी खुशी देखता हूँ।"

    पार्थ को वासु की बातें सुनकर निराशा तो होती थी, लेकिन कहीं न कहीं वह उसकी गहरी सोच और उसके संयम की इज़्ज़त भी करता था। वासु के शब्दों में इतनी शांति और सच्चाई थी कि पार्थ चाहकर भी ज़्यादा कुछ नहीं कह पाया। वह अपनी शरारती मुस्कान को थोड़ी देर के लिए किनारे रखते हुए गंभीर हुआ और बोला, "तू जानता है, मैं तुझे तंग करता हूँ क्योंकि तू मेरा दोस्त है, और मैं नहीं चाहता कि तू इस तरह चुप रहकर खुद को किसी भ्रम में फँसा ले। लेकिन अगर तेरा यह तरीका सही है, तो मैं तुझे पूरी तरह से सपोर्ट करता हूँ।"

    वासु ने उसकी बातों पर मुस्कुराकर सिर हिलाया और फिर स्केचबुक के पन्नों को पलटते हुए किशोरी का एक और स्केच बनाने लगा। पार्थ ने देखा कि वह अब भी उसी निष्ठा के साथ उसकी हर रेखा को अपने हाथों से उकेर रहा था।

    पार्थ ने वहाँ से उठने का मन बनाया, लेकिन तभी उसकी नज़र बगीचे के दूसरी तरफ़ पड़ी। किशोरी वहाँ से गुज़र रही थी, उसके हाथों में कुछ फूल थे और उसकी चाल में वही शांति थी, जो हमेशा वासु को अपनी तरफ़ खींचती थी। पार्थ ने देखा कि वासु ने अभी तक उसे नहीं देखा था, वह अब भी अपनी स्केचबुक में डूबा हुआ था।

    पार्थ ने देखा कि मयूर, किशोरी का मोर, धीरे-धीरे वासु की तरफ़ बढ़ रहा था। वह मोर पूरे बगीचे में सबसे ख़ास था, और सभी उसे प्यार से "मयूर" कहते थे। यह मोर किशोरी का प्रिय था, और वह अक्सर बगीचे में घूमता रहता था, कभी-कभी किशोरी के साथ और कभी अकेले। लेकिन एक ख़ास बात यह थी कि मयूर वासु से भी उतना ही लगाव रखता था जितना किशोरी से।

    मयूर धीरे-धीरे वासु के पास पहुँचा और अपने पंख फैलाकर उसके चारों ओर घूमने लगा, जैसे वह उसे खुश करने के लिए अपने नृत्य का प्रदर्शन कर रहा हो। वासु को अचानक अपने पैरों के पास हलचल महसूस हुई। उसने स्केचबुक से ध्यान हटाकर नीचे देखा, तो मयूर को देखकर उसकी आँखों में खुशी झलक उठी।

    "तू भी आ गया? आज किशोरी की याद में तू भी मुझसे मिलने चला आया, क्या?" वासु ने प्यार से मयूर के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा। मयूर ने अपनी गर्दन हिलाकर मानो उसकी बात का जवाब दिया हो।

    पार्थ यह सब दूर से देख रहा था और अंदर ही अंदर थोड़ा चिढ़ भी रहा था। उसे मयूर की यह अदा बिलकुल नहीं भाती थी, ख़ासकर तब जब मयूर उसे पूरी तरह से नज़रअंदाज़ कर देता था। उसने मन ही मन सोचा, "यह मोर भी ना, वासु से इतना प्यार करता है, और मुझे तो जैसे देखना भी पसंद नहीं।"

    "अरे मयूर, तू तो मुझे भूल ही गया। अब तेरा दोस्त सिर्फ़ वासु ही रह गया क्या?" पार्थ ने मज़ाकिया अंदाज़ में चिढ़ाते हुए कहा।

    मयूर ने जैसे पार्थ की बात को पूरी तरह नज़रअंदाज़ कर दिया। उसने अपनी लंबी गर्दन घुमाई, पार्थ की ओर एक बार देखा भी नहीं, और फिर से वासु के पास जाकर उसके पंखों से उसके पैरों को हल्के से छूने लगा, मानो कह रहा हो कि सिर्फ़ वह ही उसका सच्चा दोस्त है।

    पार्थ और ज़्यादा चिढ़ गया। उसने मयूर की तरफ़ मज़ाक में कहा, "अरे तू भी बड़ा सेलेक्टिव हो गया है, भाई! वासु से ही दोस्ती करेगा क्या? मुझे इग्नोरेंस की हद तो देखो इस मयूर की!"

    वासु ने पार्थ की चिढ़ को महसूस करते हुए हँसते हुए कहा, "पार्थ, मयूर को तुझसे कुछ नाराज़गी है शायद। तू उसे इग्नोर करने की कोशिश मत कर, वरना यह तुझ पर भी अपने पंखों का हमला कर सकता है।"

    "अरे मैं किसी मोर से नहीं डरता, और वैसे भी यह तो किशोरी का ख़ास है। शायद वह जानता है कि मैं तुझे तंग करता हूँ, इसलिए मुझसे दूरी बनाकर रखता है।" पार्थ ने अपनी शरारती मुस्कान के साथ जवाब दिया।

    "शायद! लेकिन देख भाई, तू जितना चाहे मुझे तंग कर, मयूर से उलझने की ग़लती मत करना। यह तुझे सच में चिढ़ाने में माहिर है।" वासु ने हँसते हुए कहा।

    पार्थ ने मयूर की तरफ़ देखा, और जैसे ही वह आगे बढ़ा, मयूर ने अपने पंख फैलाकर उसे एक तरह से चेतावनी दी, कि वह पास न आए। पार्थ रुक गया और मन ही मन खीझते हुए सोचा, "यह वाकई मुझे चिढ़ाने में एक्सपर्ट है।"

    "देख मयूर, तुझसे मैं कुछ नहीं कह रहा, लेकिन अगर तूने मुझे नज़रअंदाज़ किया तो मैं भी तेरी शिकायत किशोरी से कर दूँगा।" पार्थ ने चिढ़ते हुए कहा।

    मयूर ने उसकी धमकी को जैसे सुना ही नहीं, और वह फिर से वासु के इर्द-गिर्द मँडराने लगा। पार्थ ने वासु की ओर देखा, जो अब तक मयूर के साथ पूरी तरह से घुलमिल चुका था। वासु की यह गहरी कनेक्शन उसे कहीं न कहीं सुकून भी देती थी, और यही देखकर पार्थ ने हल्का सा मुस्कुरा दिया।

    लेकिन चिढ़ अभी भी बाकी थी। उसने अपनी जेब से बिस्कुट का एक टुकड़ा निकालकर मयूर की तरफ़ बढ़ाने लगा, "आ जा मयूर! दोस्ती कर लेते हैं।"

    मयूर ने एक पल के लिए पार्थ की ओर देखा, फिर अचानक से अपनी गर्दन घुमाई और बिस्कुट की तरफ़ बिलकुल ध्यान नहीं दिया।

    "यह तो हद ही हो गई! अब मुझसे दोस्ती भी नहीं करेगा?" पार्थ अब और चिढ़ते हुए बोला।

    "छोड़ दे भाई, यह तेरे जैसे लोगों के लिए नहीं है। यह सिर्फ़ सच्चे दिल वालों को पहचानता है।" वासु ने हँसते हुए कहा।

    "अरे वाह! तो अब मैं सच्चा दिल वाला नहीं रहा? चलो, आज से मेरी तुझसे भी दुश्मनी।" पार्थ ने उसे चिढ़ाते हुए जवाब दिया।

    वासु मुस्कुराया और कहा, "तू चाहे जो कह, लेकिन मयूर तुझे कभी इग्नोर करना बंद नहीं करेगा। यह किशोरी का है, और किशोरी का मतलब..." उसने वाक्य अधूरा छोड़ दिया, लेकिन पार्थ समझ गया कि वासु का क्या मतलब था।

    पार्थ ने थोड़ी देर तक अपनी चिढ़ को संभालने की कोशिश की, फिर अचानक से बोला, "अच्छा भाई, तुझे और मयूर को छोड़ता हूँ। मैं तो अब जा रहा हूँ अपनी दुनिया में, और देखना, अगली बार मयूर भी मेरे साथ आएगा!"

    वासु ने हँसते हुए उसकी पीठ थपथपाई और कहा, "तू कोशिश कर, पार्थ! कभी न कभी मयूर भी तुझे अपनाएगा।"

    "तू बस देखता जा!" पार्थ ने उसे आँख मारते हुए कहा और वह वहाँ से निकल गया, लेकिन जाते-जाते उसकी नज़र फिर से किशोरी पर पड़ी, जो बगीचे के दूसरी ओर फूलों को चुन रही थी।

  • 18. प्रेममय - Chapter 18

    Words: 1602

    Estimated Reading Time: 10 min

    पार्थ बगीचे में खड़ा था, मन में कई ख्याल घूम रहे थे। उसकी निगाह उस किशोरी पर टिकी हुई थी जो फूलों के बीच धीरे-धीरे आगे बढ़ रही थी।

    पार्थ किशोरी को देख रहा था, मन में उलझे हुए ख्याल घूम रहे थे। तभी अचानक उसकी पीठ से जोरदार टक्कर हुई।

    वह अपनी ही सोच में खोया हुआ था कि अचानक उसकी पीठ से जोरदार टक्कर हुई। वह लड़खड़ाते हुए थोड़ा आगे बढ़ा और पीछे मुड़कर देखा। उसकी टक्कर किसी और से हुई थी, और वह कोई और नहीं, बल्कि सुभिका थी।

    "अरे!" उसने चौंकते हुए कहा। "सुभिका?"

    सामने खड़ी सुभिका उसे गुस्से से देख रही थी। उसकी आँखों में नाराजगी साफ झलक रही थी। "देख नहीं सकते क्या? इतनी बड़ी जगह है, और तुम यहीं खड़े हो!" उसने झुंझलाते हुए कहा।

    पार्थ ने उसकी गुस्से से भरी आँखें देखीं और अपने चिरपरिचित अंदाज में मुस्कुराते हुए जवाब दिया, "अरे, मैं तो बस... हवा खा रहा था। लेकिन तुम यहाँ कैसे?"

    सुभिका गुस्से से बोली, "मैं यह कैसे...ये प्रश्न का उत्तर मैं बताना जरूरी नहीं समझती! और हाँ, ये मत समझना कि कुत्तों वाली घटना मैं भूल गई हूँ।"

    पार्थ को पहले तो समझ नहीं आया कि यह अचानक क्या हो गया, लेकिन उसकी शरारत फिर जाग गई।
    "अरे, देखो कौन आया! मिस सुभिका, आप इतनी गुस्से में क्यों हैं? मेरे जाने के बाद कहीं फिर से कुत्तों ने परेशान तो नहीं किया?"

    सुभिका ने पार्थ की इस बात पर और भी झल्लाते हुए कहा, "पार्थ, तू न एक दिन बहुत पछताएगा! मैं तुझे छोड़ूंगी नहीं!" उसकी आँखें गुस्से से लाल हो रही थीं, और पार्थ को देखकर ऐसा लग रहा था जैसे वह उसकी गर्दन ही मरोड़ देगी।

    पार्थ ने उसकी बातों का जवाब बड़ी शरारत से दिया, "अरे, गुस्सा क्यों कर रही हो? मैं तो तुम्हारी मदद कर रहा था, वो भी बिना किसी शर्त के।"

    सुभिका ने उसकी इस बात पर और भी नाराज होते हुए कहा, "मदद? वो भी तू? तुझे अगर सच में मेरी मदद करनी होती, तो पहले ही उन कुत्तों को भगा देता, ना कि वीडियो बनाने की सोचता!"

    पार्थ ने उसकी इस बात पर मजाक में हंसते हुए कहा, "अरे यार, वीडियो तो तुम्हारी बहादुरी को दिखाने के लिए बना रहा था। क्या पता, कुत्तों के सामने तुम एकदम शेरनी की तरह खड़ी दिखतीं!"

    सुभिका का गुस्सा अब अपने चरम पर था। उसने पास पड़े एक पत्थर को उठाकर पार्थ की तरफ दिखाया और कहा, "अगर तूने अब और कुछ कहा, तो मैं ये पत्थर तेरे सिर पर दे मारूंगी!"

    वासु, जो अब तक मयूर के साथ हंसी-मजाक देख रहा था, बीच-बचाव करते हुए बोला, "अरे-अरे, रुक जाओ, सुभिका। पार्थ तो बस मजाक कर रहा है।"

    सुभिका ने वासु की ओर देखा और कहा, "तुम्हें पता भी है, ये मुझे कितना परेशान करता है? आज इसने मुझे कुत्तों से मरवा ही दिया था!"

    पार्थ ने चुटकी लेते हुए कहा, "अरे, मैं तो देख रहा था कि तुम कितनी बहादुर हो। वैसे भी, कुत्ते सिर्फ प्यार से भौंक रहे थे।"

    सुभिका ने गुस्से में पैर पटकते हुए कहा, "प्यार से भौंक रहे थे? तू और तेरी बातें!"

    फिर वह पलटी और पार्थ को घूरते हुए बोली, "पार्थ, अगर तूने फिर से मुझे इस तरह तंग किया, तो मैं तुझे छोड़ने वाली नहीं हूँ!"

    पार्थ ने हंसते हुए जवाब दिया, "ठीक है, ठीक है! अगली बार मैं खुद कुत्तों से तुझे बचाने आऊंगा, प्रॉमिस!"

    सुभिका ने उसकी इस बात पर और भी गुस्से में उसकी तरफ देखा और बिना पार्थ की तरफ देखे वासु की तरफ मुड़कर बोली, "वासु तुमने किशोरी दीदी को देखा क्या? पंडित जी कह रहे थे कि वो इसी तरफ आई थी।"

    वासु की आँखें पहले से ही किशोरी पर टिकी हुई थीं। वह देख रहा था कि कैसे वह हर फूल को ध्यान से देखती और फिर चुनती। वासु के चेहरे पर गहरी मुस्कान थी, लेकिन उसके मन में कई ख्याल भी चल रहे थे।

    वासु कुछ कह पाता, उससे पहले ही पार्थ ने इशारे से कहा, "वो उधर हैं, फूलों के पास।"

    सुभिका ने पार्थ की बात को नजरअंदाज करते हुए वासु की ओर देखा, "वासु, सच बताओ, क्या वो उधर है?"

    वासु ने धीरे से सिर हिलाया और कहा, "हाँ, वो फूलों के पास है।"

    सुभिका बिना कुछ कहे गुस्से में पैर पटकते हुए किशोरी की ओर बढ़ने लगी। पार्थ ने उसकी झल्लाई चाल देखकर हल्की-सी हंसी दबाते हुए वासु से कहा, "यार, सुभिका का गुस्सा कभी खत्म होगा भी या नहीं?"

    वासु ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया, "पार्थ, तू जानबूझकर आग में घी डालता है और फिर ये सवाल करता है!"

    पार्थ अभी भी सुभिका को जाते हुए देख रहा था और फिर वासु की तरफ मुड़कर बोला, "यार, ये लड़की बहुत दिलचस्प है। इसका गुस्सा और मेरी शरारत की जोड़ी तो बहुत सही बैठती है!"

    वासु ने सिर हिलाते हुए कहा, "तू हमेशा उसे चिढ़ाता रहता है, लेकिन एक दिन वो तुझे सच में पीट देगी।"

    पार्थ ने हंसते हुए कहा, "अरे यार, वो दिन आने दे, फिर देखेंगे! अभी तो इस सबका मजा ले रहे हैं।"

    वासु ने हल्की मुस्कान के साथ उसकी बातें सुनीं और फिर अपनी स्केचबुक में वापस खो गया। पार्थ ने उसे कुछ देर तक देखा, फिर उसने मयूर की तरफ एक आखिरी बार देखा और फिर उस तरफ देखा जहाँ सुभिका किशोरी से कुछ बातें कर रही थी।

    इधर सुभिका तेजी से किशोरी के पास पहुँची और कहा, "दीदी, आप यहाँ क्या कर रही हैं? पंडित जी कब से आपको ढूंढ रहे हैं।"

    किशोरी ने सुभिका की बात सुनकर हल्की मुस्कान के साथ जवाब दिया, "मैं बस फूल चुनने आई थी। पंडित जी से कहना, मैं थोड़ी देर में आती हूँ।"

    फिर उसने सुभिका को थोड़ा करीब बुलाया और कहा, "लेकिन ये गुस्सा क्यों, सुभिका? पार्थ ने फिर कोई शरारत की?"

    सुभिका ने गहरी सांस लेते हुए कहा, "दीदी, उस लड़के का कोई भरोसा नहीं। कभी कुत्तों से परेशान कर देता है, तो कभी अपनी बेतुकी बातों से। मुझे तो लगता है, वो मेरा खून खौलाने के लिए ही पैदा हुआ है!"

    किशोरी मुस्कुराते हुए बोली, "वो बस तुम्हें चिढ़ाने के लिए करता है। लेकिन मुझे लगता है, तुम्हारे गुस्से से उसे और मजा आता है।"

    सुभिका ने हल्की नाराजगी के साथ कहा, "दीदी, आप भी उसकी साइड ले रही हैं। अच्छा, चलिए अब।"

    किशोरी ने उसकी बात सुनते हुए धीरे से फूलों की टोकरी उठाई और सुभिका से कहा, "तुम जाओ, मैं बस आ ही रही हूँ।"

    सुभिका कुछ देर बाद बगीचे में वापस आई। इस बार उसका चेहरा पहले की तरह गुस्से से तमतमाया हुआ नहीं था, लेकिन पार्थ को देखते ही उसकी भौहें फिर से तन गईं। उसने एक बार पार्थ को घूरकर देखा, मानो उसे चुपचाप चेतावनी दे रही हो कि उसकी शरारतों का असर अब और नहीं चलेगा।

    पार्थ, जो अभी भी मयूर के साथ वासु से बातें कर रहा था, जैसे ही सुभिका को आते हुए देखा, उसकी शरारत फिर से जाग उठी। उसने मुस्कुराते हुए कहा, "अरे, देखो तो कौन आया! कुत्तों वाली बहादुर शेरनी फिर से मैदान में उतरी है।"

    सुभिका उसकी बात को पूरी तरह नजरअंदाज करते हुए मयूर के पास आ गई और उसके खूबसूरत पंखों को प्यार से सहलाने लगी। मयूर, जो अब तक पार्थ और वासु के साथ आराम से बैठा हुआ था, सुभिका को देखते ही अपनी गर्दन उठाकर उसके पास आ गया। मयूर ने अपनी नर्म चोंच से सुभिका की ओर सिर झुकाया।

    पार्थ, जो अब तक अपनी शरारत भरी बातों से सुभिका को छेड़ने की कोशिश कर रहा था, मयूर का यह व्यवहार देखकर थोड़ा चौंक गया। "ओहो, मयूर को तो अपनी शेरनी मिल गई!" उसने मजाक में कहा, "लगता है, मयूर भी अब वासु को छोड़कर सुभिका के साथ जाएगा।"

    सुभिका ने मयूर के पंखों को और प्यार से सहलाते हुए पार्थ को घूरकर देखा। उसकी आँखों में अब गुस्से की जगह एक शांत दृढ़ता थी। वह अब चिढ़ी हुई नहीं लग रही थी, बल्कि उसके चेहरे पर एक ठंडक भरी गंभीरता थी। उसने पार्थ की ओर बिना एक शब्द कहे देखा, लेकिन उसकी नज़रों में वही संदेश था—"अब और मज़ाक नहीं सहा जाएगा।"

    मयूर भी जैसे सुभिका के मनोभावों को समझ रहा था। उसने अपनी चोंच से उसके हाथों को हल्के से छुआ, जैसे उसे सांत्वना दे रहा हो। सुभिका ने मयूर की ओर देखते हुए हल्की सी मुस्कान दी, जो शायद पार्थ को और चिढ़ाने का ही संकेत था।

    पार्थ ने उसे देखकर अपनी हंसी रोकते हुए कहा, "अरे भाई, लगता है मयूर को सच्चा प्यार मिल गया! मुझे भी सीखना पड़ेगा कि यह कैसे हुआ?"

    सुभिका ने धीरे से मयूर के पंखों को सहलाते हुए कहा, "प्यार दिखाने की चीज नहीं होती, पार्थ। जो महसूस करता है, वही समझता है। और रही बात मयूर की—तो वह तुम्हारी तरह दिखावे में यकीन नहीं करता।"

    पार्थ ने उसकी इस गंभीर बात पर थोड़ा असमंजस में होते हुए कहा, "अरे, यह क्या? आज तो सब मुझे यही ज्ञान दे रहे हैं... पहले वासु... फिर तुम! मैं तो मज़ाक कर रहा था।"

    सुभिका ने शांत स्वर में कहा, "मज़ाक हर बात का नहीं होता, पार्थ। कभी-कभी गहरी बातें भी समझनी चाहिए।"

    पार्थ, जो अब तक हर बार सुभिका को छेड़कर हंसता था, इस बार थोड़ा झेंप गया। उसे महसूस हुआ कि आज की सुभिका कुछ अलग थी। उसने हल्की सी मुस्कान दी और वासु की तरफ देखा, जो अब भी अपनी स्केचबुक में खोया हुआ था, लेकिन पार्थ और सुभिका की इस छोटी-सी नोंकझोंक को ध्यान से सुन रहा था।

    आगे क्या होगा, जानने के लिए अगले भाग का इंतज़ार करते रहिए। साथ ही समीक्षा भी करते रहिए।

  • 19. प्रेममय - Chapter 19

    Words: 4049

    Estimated Reading Time: 25 min

    सुभिका का यह नया रूप पार्थ के लिए थोड़ा अजीब था। वह हमेशा उसे गुस्से में देखने का आदी था, लेकिन आज उसकी बातें अलग थीं। पार्थ ने उसके चेहरे पर एक गहरी संजीदगी देखी, जो उसे थोड़ा असहज कर रही थी।


    सुभिका ने मयूर के पंखों को और नजाकत से सहलाते हुए कहा, "प्यार और इज्जत दोनों ही ऐसी चीजें हैं जो जबरदस्ती नहीं मिलतीं। इनकी कद्र करने की आदत होनी चाहिए। तुम हमेशा मुझे चिढ़ाते रहते हो, पार्थ, लेकिन कभी-कभी तुम्हारी बातों में वो कड़वाहट होती है जिसे मैं कभी-कभी नज़रअंदाज़ नहीं कर पाती।"


    पार्थ को सुभिका की बात सुनकर महसूस हुआ कि शायद उसने कभी गंभीरता से सोचा ही नहीं कि उसकी शरारतें किसी को किस तरह महसूस करा सकती हैं। उसने हंसते हुए माहौल को हल्का करने की कोशिश की।
    "अरे, तुम तो ऐसे बोल रही हो जैसे मैं हमेशा बुरा ही करता हूं। मैं तो बस थोड़ी मस्ती करना चाहता था।"


    सुभिका ने अपनी आँखें उठाकर पार्थ की ओर देखा। उसकी नज़रें सीधी पार्थ की आँखों में धँसीं, मानो कोई संदेश देना चाह रही हों। उसने धीरे से कहा, "हर मस्ती मजेदार नहीं होती, पार्थ। कभी-कभी तुम्हारे कहे शब्द ज़्यादा असर छोड़ जाते हैं। और आजकल, तुम समझ नहीं रहे कि कब मज़ाक हद पार कर जाता है।"


    पार्थ ने पहली बार सुभिका के इस रूप को देखा था। उसे यह एहसास हो रहा था कि शायद वह कुछ ज़्यादा ही कर चुका था। वासु, जो अब तक चुपचाप यह सब सुन रहा था, ने भी महसूस किया कि सुभिका की बातें सही थीं। उसने हल्की मुस्कान के साथ पार्थ को धीरे से छेड़ा।
    "देख लिया, भाई? अब बात सिर्फ़ कुत्तों तक सीमित नहीं रही।"


    पार्थ ने वासु की बात का जवाब देते हुए कहा, "हाँ यार, मुझे अब समझ में आ रहा है कि मैं थोड़ा ज़्यादा चला गया था।" उसने सुभिका की ओर देखा और कहा, "सॉरी यार, अगर मैंने कभी तुम्हारे दिल को ठेस पहुँचाई हो। मैं तो बस मज़ाक कर रहा था, लेकिन शायद वो मज़ाक गलत वक़्त पर था।"


    सुभिका ने पहली बार पार्थ के इस सॉरी को सुनकर हल्की सी मुस्कान दी। उसने मयूर के पंखों को हल्के से सहलाया और कहा, "बस इतनी सी बात थी। माफ़ी से सब कुछ ठीक हो जाता है, लेकिन सच्ची माफ़ी चाहिए, दिखावे वाली नहीं।" उसकी मुस्कान अब पूरी तरह से शांति की ओर इशारा कर रही थी।


    पार्थ को इस बार लगा कि उसने सुभिका को सच में समझा। उसने गहरी साँस ली और कहा, "अरे हाँ, आज से मैं सुधार लाऊँगा। अब मैं सिर्फ़ सही वक़्त पर मज़ाक करूँगा, प्रॉमिस!"


    सुभिका ने सिर हिलाते हुए कहा, "मयूर से सीखो कुछ! वो सभी की इज़्ज़त करता है।"


    पार्थ ने अपनी नज़र तिरछी करके कहा, "हा हा! सिर्फ़ मुझे छोड़कर ये मोर सबकी इज़्ज़त करता है।"


    वासु ने अपनी स्केचबुक उठाई और खड़ा हो गया और हंसते हुए बोला, "तेरी हरकतें ही ऐसी होती हैं पार्थ! चलो मैं चलता हूँ... मुझे पिताजी ने मार्केट से कुछ सामान लाने के लिए कहा था।"


    इतना कहकर वासु जाने के लिए खड़ा हुआ। वासु के पीछे मयूर भी चल पड़ा।


    पार्थ ने जैसे ही वासु को जाते देखा, उसकी एक शरारत फिर से जाग उठी। उसने पास में खिले गुलाब के एक खूबसूरत फूल को तोड़ा और सुभिका की ओर बढ़ाया।


    सुभिका ने फूल को देख तो लिया, लेकिन उसके दिल की धड़कनें तेज़ हो गईं।


    "पार्थ, तुम ये क्या कर रहे हो?" सुभिका का दिल तेज़ी से धड़क रहा था।


    पार्थ ने गहरी साँस ली और थोड़ी गंभीरता से बोला,
    "सच्चाई ये है कि मैं हमेशा..."


    सुभिका का दिल तेज़ी से धड़क रहा था। उसके माथे पर पसीना छलक आया।


    पार्थ ने सुभिका के घबराहट वाले चेहरे को देखा फिर बोला, "सच्चाई ये है कि मैं हमेशा... हमेशा मज़ाक में रहा हूँ, लेकिन अब मुझे समझ में आ रहा है कि तुम्हारी भावनाओं का ध्यान रखना कितना ज़रूरी है। इसलिए ये फूल तुम्हारी माफ़ी का प्रतीक है। सुभिका, ये फूल ले और मुझे माफ़ कर दे।"


    सुभिका ने फूल को देखकर अपनी भावनाओं को काबू में करने की कोशिश की, लेकिन उसका दिल तेज़ी से धड़क रहा था। उसने खुद से कहा, "अरे पगली, तू भी क्या-क्या सोच रही थी?"


    पार्थ ने जब देखा कि वह थोड़ी घबरा रही है, लेकिन उसके चेहरे पर एक अनकही सुंदरता थी, पार्थ ने फूल उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा, "ये फूल तेरे लिए है। इसे पकड़ और मुझे माफ़ कर!"


    सुभिका ने अपने काँपते हुए हाथों से फूल पकड़ा।


    पार्थ ने जब सुभिका के काँपते हुए हाथों को देखा तो पार्थ ने झट से कहा, "एक मिनट... एक मिनट..."


    सुभिका ने पार्थ की तरफ़ देखा।


    पार्थ ने अपनी आँखें छोटी-छोटी करके कहा, "कहीं तू कुछ और तो नहीं सोच रही थी ना... मतलब कि ये गुलाब-वुलाब के फूल, अक्सर ये लैला-मजनू एक-दूसरे को देते हैं। कहीं तू कुछ गलत-सलत तो नहीं सोच रही थी ना! क्योंकि ये बेचारे फूल को तो सबने बेफ़ालतू में ही बदनाम किया हुआ है इन लोगों ने।"


    सुभिका ने पार्थ की बात सुनकर एक पल के लिए सोचा। उसके मन में एक हलचल चल रही थी। पार्थ का मज़ाकिया अंदाज़ और गंभीरता का ये मिश्रण उसे कुछ अजीब लगा। लेकिन उसने खुद को संभालते हुए कहा, "नहीं, पार्थ। मैं ऐसा कुछ नहीं सोच रही।"


    पार्थ ने शरारती अंदाज़ में अपनी भौंहें उठाते हुए कहा, "अच्छा, ऐसा कुछ नहीं सोच रही? तो फिर ये पसीना क्यों छलक रहा है, सुभिका जी? कहीं अंदर ही अंदर कुछ... खिचड़ी तो नहीं पक रही?"


    सुभिका ने जल्दी से अपने माथे से पसीना पोछा और गुस्से में जवाब दिया, "पार्थ! मैं पसीने से परेशान हूँ, और तू इसे खिचड़ी कह रहा है? तुझे अपनी हरकतों का जवाब देना होगा!"


    पार्थ ने हंसते हुए कहा, "जवाब तो दूँगा, महारानी। लेकिन पहले ये बताओ, मेरी माफ़ी मंज़ूर है या नहीं?"


    सुभिका ने गुलाब को देखा और एक पल के लिए उसकी खूबसूरती में खो गई। फिर उसने धीरे से कहा, "अगर सच में सुधार लाने की बात कर रहे हो, तो माफ़ी मंज़ूर है।"


    पार्थ ने राहत की साँस ली। "ये सुनकर अच्छा लगा। तुम जानती हो, मैं सिर्फ़ मज़ाक करता हूँ तेरे साथ, लेकिन तुम मेरी शरारतों को समझ ही नहीं पाती हो बुद्धू।"


    सुभिका ने गहरी साँस ली और एक पल के लिए चुप रही। फिर उसने अपनी आँखें छोटी करते हुए, गुस्से में आकर कहा, "क्या कहा तुमने मुझे... बुद्धू? हाँ! तुमने मुझे बुद्धू कहा?"


    पार्थ ने थोड़ा चौंकते हुए, अपनी आँखें बड़ी कीं, "अरे, अब बुद्धू को बुद्धू ही कहूँगा ना!"


    सुभिका ने गुस्से में फूल पार्थ के हाथों में थमा दिया, और उसका चेहरा इस वक़्त लाल हो गया था। वह मुँह फुलाए हुए, बिना एक शब्द बोले, जाने लगी। उसकी हर कदम की आहट में गुस्से की झलक साफ़ नज़र आ रही थी। पार्थ ने देखा कि सुभिका ने न सिर्फ़ फूल को मज़बूती से उसके हाथ में थमाया था, बल्कि उसकी हरकतों को नज़रअंदाज़ करके वह तेज़ कदमों से आगे बढ़ रही थी, जैसे वो पार्थ से हर चीज़ से उब चुकी हो।


    पार्थ के दिल में हलचल मच गई। उसे यह एहसास हुआ कि शायद उसने फिर से एक सीमा पार कर दी थी। उसने गहरी साँस ली और फिर सुभिका के पीछे-पीछे भागते हुए कहा, "अरे यार, सॉरी सॉरी! तुम्हारा मूड तो ऐसा था, लगा मज़ाक कर लूँ।"


    सुभिका ने अपने कदम और भी तेज़ कर दिए, लेकिन पार्थ ने उसे पीछे से और परेशान करना शुरू कर दिया। "सॉरी ना यार, प्लीज़ रुक तो सही।"


    सुभिका ने पीछे मुड़कर पार्थ की ओर देखा, उसके चेहरे पर अब भी गुस्सा था, लेकिन उसकी आँखों में एक हल्का सा कश्मकश था, जो यह संकेत दे रहा था कि वह खुद भी यह महसूस कर रही थी कि शायद वह कुछ ज़्यादा सख्त हो गई है। लेकिन उसके मन में अब भी पार्थ की शरारतों के प्रति एक गहरी चिढ़ थी।


    "तुम एक दिन मेरा खून पी जाओगे, पार्थ!" सुभिका ने एक गहरी साँस ली और उसके गुस्से से भरी आवाज़ में कहा, "तुम कभी सुधर नहीं सकते। हमेशा वही पुराने मज़ाक।"


    पार्थ ने अपनी आवाज़ को थोड़ा नरम करते हुए कहा, "सच में सॉरी यार, मुझे नहीं पता था कि तुम इतनी सीरियस हो जाओगी। तुमसे मज़ाक करने का तो मेरा इरादा कभी नहीं था।"


    सुभिका ने फिर से चलने की गति बढ़ा दी, "नहीं, तुमसे कोई बात नहीं करनी, समझे! मैं जा रही हूँ।"


    लेकिन पार्थ ने उसे हाथ पकड़ लिया और हल्का सा मुस्कुराते हुए कहा, "ठीक है, ठीक है, चली जाना... लेकिन ये बेचारे गुलाब के फूल की क्या ही गलती... इसे तो लेकर जा अपने साथ।"


    सुभिका ने उसे आँखों में गहरी नज़रों से देखा, फिर धीरे से अपना हाथ उसके हाथ से छुड़ाते हुए कहा, "ओह, तो तुम्हें अभी भी इस गुलाब के फूल की फ़िक्र है... है ना।"


    पार्थ ने अपनी हँसी को रोकते हुए कहा, "हाँ।"


    सुभिका ने पार्थ की बातों को सुना, फिर गहरी साँस लेकर अपना रास्ता बदल लिया और बिना कुछ कहे, फिर से तेज़ कदमों से चलने लगी।


    पार्थ ने देखा कि सुभिका ने फिर से उसके सामने से अपनी नज़रें हटा लीं, और वह जानता था कि अब बात को हल्के में लेना आसान नहीं होगा। उसकी नटखट शरारतें अब सुभिका पर भारी पड़ चुकी थीं। लेकिन फिर भी, उसने दिल से तय किया कि वह इस बार सुभिका को मनाएगा। उसने एक बार फिर उसकी ओर बढ़ते हुए, खुद को थोड़ा गंभीर बनाया और कहा, "तुम जानती हो, तुम भी बड़ी अजीब हो। गुस्से में कितनी भी झूठी नाराज़गी दिखाओ, अंदर से तुम मुझे माफ़ कर ही देती हो।"


    सुभिका ने चुपचाप चलते हुए उसकी बातों को अनसुना करने की कोशिश की, लेकिन उसका गुस्सा अब भी भरपूर था। "मुझे तुमसे कोई बात नहीं करनी, पार्थ?" वह थोड़ी रुककर कहने लगी, "मुझे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि तुम मज़ाक कर रहे हो या नहीं।"


    सुभिका की बातों से साफ़ था कि वह अब भी गुस्से में थी, लेकिन पार्थ जानता था कि यह गुस्सा केवल सतह पर था। उसके दिल में कहीं न कहीं उसके लिए एक नरमाई और प्रेम की हलचल ज़रूर थी, जो वह खुद भी समझने की कोशिश कर रही थी।


    पार्थ ने धीरे से अपने कान पकड़ लिए, जैसे खुद को शरारतों से बचाने का प्रयास कर रहा हो। उसकी आँखों में अब एक गंभीरता थी, जो पहले कभी नज़र नहीं आई थी। "सुभिका," उसने अपनी आवाज़ को हल्का सा नरम करते हुए कहा, "तुम सही कह रही हो। मुझे तुमसे सच में बहुत कुछ सीखना है। मेरी नासमझी के कारण तुम्हें तकलीफ़ पहुँची है, और मुझे इस बात का गहरा अफ़सोस है।" उसने एक पल के लिए खुद को शांत किया और फिर धीरे से बोला, "क्या तुम मुझे माफ़ कर सकती हो?"


    सुभिका ने अचानक ही रुककर उसकी ओर देखा, और उसकी आँखों में गहरी कशमकश थी।


    सुभिका के दिल में हलचल मच रही थी। पार्थ की शरारतें, उसके मज़ाक, और हरकतें उसे अक्सर परेशान करती थीं, लेकिन उसके दिल के किसी कोने में एक नरम अहसास भी था, जिसे वह खुद से भी छिपाने की कोशिश करती थी।


    पार्थ अब भी उसके सामने खड़ा था, कान पकड़े हुए, लेकिन उसकी आँखों में इस बार सच में पछतावा था। सुभिका ने उसकी तरफ़ देखा, फिर हल्के से हँसी, लेकिन वह हँसी जल्द ही गायब हो गई।


    उसने खुद से कहा, "ये पार्थ... हर बार ऐसी हरकतें करता है। मुझे गुस्सा आता है, लेकिन फिर भी मैं उसे माफ़ कर देती हूँ। क्यों? क्या सच में उसके लिए मेरे दिल में कुछ है? नहीं, ये सब पागलपन है।"


    लेकिन उसके दिल की धड़कनें और उसके भीतर उठते सवाल उसे बार-बार परेशान कर रहे थे।


    पार्थ ने उसकी चुप्पी को तोड़ते हुए कहा, "अरे यार, अब तो कुछ बोल दो। ऐसा मत देखो, जैसे मैं दुनिया का सबसे बड़ा अपराधी हूँ।"


    सुभिका ने उसे घूरते हुए कहा, "तुम समझते क्यों नहीं पार्थ? हर बार तुम्हारी शरारतें मुझे परेशान करती हैं। हर बार मैं सोचती हूँ, अब नहीं... अब तुमसे बात नहीं करूँगी। लेकिन फिर तुम्हारी बातों में फँस जाती हूँ। मुझे खुद नहीं पता, क्यों!"


    पार्थ ने उसकी आँखों में झाँकते हुए कहा, "क्योंकि तुम जानती हो कि मैं दिल से बुरा नहीं हूँ। और सच कहूँ तो तुम्हारे गुस्से वाला चेहरा भी मुझे प्यारा लगता है।"


    सुभिका का चेहरा हल्का सा लाल हो गया। उसने अपनी नज़रें नीचे झुका लीं और खुद को शांत करने की कोशिश की।


    उसके मन में एक अजीब सी बेचैनी थी। वह पार्थ की ओर देखकर सोच रही थी, "क्यों ये लड़का हर बार मेरी ज़िंदगी में हलचल मचा देता है? क्यों मुझे उसकी हर बात में एक ईमानदारी दिखती है, जो शायद वो खुद भी नहीं समझता? क्या मैं... क्या मैं उसे पसंद करने लगी हूँ?"


    लेकिन उसने तुरंत अपने आप को संभालते हुए कहा, "पार्थ, मैं कोई फूल नहीं हूँ, जिसे तुम तोड़कर मनमाने तरीके से मना लो। मैं इंसान हूँ, और मेरी भावनाएँ हैं। तुम्हें समझना होगा कि हर बार तुम्हारी हरकतें मुझे चोट पहुँचाती हैं।"


    पार्थ ने गहरी साँस ली और धीरे से कहा, "सुभिका, मुझे पता है कि मैं हर बार हद पार कर देता हूँ। लेकिन मैं सच में चाहता हूँ कि तुम मुझे माफ़ कर दो। और... शायद तुम समझ भी लो कि मेरी शरारतों के पीछे कुछ और भी है।"


    सुभिका ने उसकी तरफ़ देखा और कहा, "कुछ और? क्या मतलब है तुम्हारा?"


    पार्थ ने हल्के से मुस्कुराते हुए कहा, "शायद ये समझने के लिए तुम्हें थोड़ा वक़्त चाहिए। और शायद... मुझे भी।"


    सुभिका ने उसकी बातों को नज़रअंदाज़ करने की कोशिश की, लेकिन उसके दिल में कहीं न कहीं पार्थ की बातों ने एक बीज बो दिया था।


    वह पार्थ की ओर देखकर सोचने लगी, "क्या ये शरारती लड़का वाकई समझ पाएगा कि मेरे दिल में क्या चल रहा है? और अगर समझ भी गया, तो क्या वो उसे कभी महसूस करेगा?"


    पार्थ ने सुभिका के ख़्यालों में खोए चेहरे को देखकर कहा, "तुम इतनी गहरी सोच में क्यों हो? ऐसा लग रहा है, जैसे कोई बड़ा फ़ैसला लेने वाली हो।"


    सुभिका ने उसे झिड़कते हुए कहा, "तुम्हारे जैसे पागल के बारे में सोचना बंद करना ही सबसे बड़ा फ़ैसला होगा।"


    पार्थ ने उसे चिढ़ाते हुए कहा, "ओह, तो अब तुमने मान लिया कि मैं तुम्हारे दिमाग में रहता हूँ। वाह!"


    सुभिका ने उसे गुस्से में एक झप्पी मारते हुए कहा, "चुप रहो, पार्थ!" और तेज़ कदमों से वहाँ से चली गई।


    लेकिन वह जितनी दूर जा रही थी, उतना ही उसका दिल उसकी ओर खिंचता जा रहा था। पार्थ की मुस्कान, उसकी बातें, और उसकी शरारतें अब उसकी ज़िंदगी का हिस्सा बन चुकी थीं।


    और अब वह समझ चुकी थी कि उसके लिए पार्थ सिर्फ़ एक दोस्त नहीं था। अब वो धीरे-धीरे उसकी ज़िंदगी का सबसे खूबसूरत अहसास बन रहा था।


    हल्की-हल्की बारिश की बूँदें ज़मीन पर गिरने लगी थीं। आसमान में बादल घिर आए थे, और मौसम में एक अजीब सी ठंडक थी। पार्थ ने अपने बालों को पीछे किया और गहरी साँस लेते हुए आसमान की ओर देखा।


    "क्या हो रहा है मुझे?" उसने खुद से कहा। "ये सुभिका हर बार मेरी सोच में क्यों आ जाती है? उससे लड़ना, उसे चिढ़ाना, और फिर उसकी नाराज़गी दूर करना... ये सब तो मेरे लिए मज़े की बात थी। लेकिन अब... अब ऐसा लगता है जैसे वो मेरी ज़िंदगी का एक हिस्सा बन गई है। और मैं ये समझ नहीं पा रहा कि ये सब क्या है।"


    बारिश तेज़ होने लगी थी। पार्थ ने अपने बैग को सिर पर रखते हुए घर की तरफ़ कदम बढ़ाए। उसके मन में सुभिका की तस्वीर बार-बार उभर रही थी। उसकी नाराज़गी, उसका गुस्सा, और फिर उसकी वो हल्की सी मुस्कान... हर एक चीज़ उसे अपनी ओर खींच रही थी।


    "शायद मैं कुछ ज़्यादा ही सोच रहा हूँ," पार्थ ने खुद को समझाने की कोशिश की। "वो हमेशा से गुस्से वाली रही है। मैं तो बस उसे छेड़ता हूँ। इसमें प्यार-व्यापार जैसा कुछ नहीं है। हाँ... बिल्कुल नहीं!"


    लेकिन उसके दिल ने उसकी बात मानने से इंकार कर दिया।


    घर पहुँचते-पहुँचते बारिश तेज़ हो चुकी थी। पार्थ ने अपने कपड़े बदलकर खिड़की के पास जाकर बाहर झाँकते हुए कहा, "पागल हूँ मैं। वो लड़की है, जो हर छोटी बात पर गुस्सा हो जाती है। और मैं... मैं उसे हँसाने के लिए कुछ भी कर जाता हूँ। लेकिन क्यों? क्यों हर बार उसकी हँसी मुझे सुकून देती है?"


    उसने खिड़की से बाहर देखा। पानी की बूँदें शीशे पर टकरा रही थीं, और उसके दिमाग में सुभिका की आवाज़ गूंज रही थी:
    "तुम्हारे जैसे पागल के बारे में सोचना बंद करना ही सबसे बड़ा फ़ैसला होगा।"


    पार्थ मुस्कुरा दिया। "अरे यार, ये लड़की मुझे पागल बना देगी। लेकिन क्या वो भी कभी मेरे बारे में सोचती होगी? क्या उसके गुस्से के पीछे भी कुछ और है? या फिर मैं ही बेवजह सोच रहा हूँ?"


    उधर, सुभिका अपने कमरे में बैठी थी। बारिश की बूँदों की आवाज़ उसके कानों में गूंज रही थी। उसकी आँखें किताब पर थीं, लेकिन उसका ध्यान कहीं और था।


    "पार्थ..." उसने धीमे से कहा। "क्यों वो लड़का मेरी हर बात पर हावी हो जाता है? क्यों उसकी शरारतें अब परेशान करने के बजाय अच्छी लगने लगी हैं? क्या ये वही है, जो मैं सोच रही हूँ?"


    बारिश की ठंडी हवा खिड़की से अंदर आ रही थी। उसने खिड़की बंद की और बिस्तर पर लेट गई। उसकी आँखें बंद थीं, लेकिन दिमाग में पार्थ की मुस्कान और उसकी शरारतें घूम रही थीं।


    दूसरी ओर, पार्थ ने अपने कमरे की लाइट बंद की और बिस्तर पर लेट गया। उसने तकिए पर सिर रखते हुए आसमान की ओर देखा और धीमे से मुस्कुराया।


    "शायद... शायद ये बस एक शुरुआत है। लेकिन अगर ये शुरुआत है, तो आगे क्या होगा?"


    बारिश की बूँदें धीमे-धीमे धरती पर गिर रही थीं। पेड़ों से टपकती पानी की धार, ठंडी हवाओं का झोंका और वातावरण में मिट्टी की सौंधी खुशबू सब कुछ किसी स्वप्न सा प्रतीत हो रहा था। आसमान पर काले बादल छाए हुए थे, और हल्की-हल्की गड़गड़ाहट के बीच मयूर अपनी चोंच वासु के हाथ पर फिरा रहा था।


    वासु ने मुस्कुराते हुए कहा, "क्या हुआ मयूर? किशोरी के पास जाना है क्या?"
    मयूर ने गर्दन हिलाकर जैसे "हाँ" का इशारा किया। वासु उसकी समझदारी पर आश्चर्यचकित हुआ और हल्की हँसी में बोला, "लेकिन इस समय किशोरी मंदिर में तो शायद ही होगी।"
    मयूर ने अपनी चोंच से एक दिशा की ओर इशारा किया, मानो उसे यकीन हो कि किशोरी कहाँ है।


    वासु ने गहरी साँस लेते हुए कहा, "ठीक है, चलो देखते हैं।"
    मयूर बारिश की हल्की बूँदों को महसूस करते हुए नाचता-झूमता आगे बढ़ने लगा। वासु भी उसके पीछे-पीछे चल पड़ा।


    वासु का चेहरा बारिश में जैसे चाँद की चाँदनी में नहाया हुआ था। उसके माथे पर बिखरे गीले बाल, जिन पर बारिश की बूँदें मोती सी चमक रही थीं, जैसे आकाश का प्यार उसकी देह पर उतर आया हो। होठों पर खिली मुस्कान, मानो वो किशोरी से मिलने का बेसब्री से इंतज़ार कर रहा हो।


    उसकी शर्ट, जो गीली होकर उसके शरीर से चिपक चुकी थी, उसके मज़बूत शरीर की हर एक रेखा को स्पष्ट रूप से दिखा रही थी, जैसे धरती पर गिरते पानी की बूँदों से उभरी मिट्टी की खुशबू हो।


    रास्ते में दोनों एक हरे-भरे जंगल से होकर गुज़रे। बड़े-बड़े पेड़, जिनकी शाखाओं पर पानी की बूँदें लटक रही थीं, जैसे प्रकृति ने उन्हें मोती से सजाया हो। हर तरफ़ हरियाली थी, और पक्षियों की चहचहाहट एक अद्भुत संगीत पैदा कर रही थी।


    जैसे ही वासु और मयूर ने जंगल के एक खुले हिस्से में कदम रखा, वहाँ का नज़ारा मंत्रमुग्ध कर देने वाला था। बीच में एक साफ़ स्थान था, जहाँ से एक हल्की धुंध उठ रही थी। उस धुंध के बीच किशोरी दिखाई दी।


    किशोरी ने वही हल्के नारंगी रंग की सूती साड़ी पहनी हुई थी जिस पर सफ़ेद धागे से कढ़ाई की हुई थी, जो बारिश में हल्की भीग चुकी थी। उसकी साड़ी के किनारे ज़मीन से टकरा रहे थे, और उसके लंबे खुले बाल हवा के साथ लहरा रहे थे। उसकी आँखें बंद थीं, और वह "कृष्ण-कृष्ण" के स्वर के साथ अपने ही भावों में खोकर नृत्य कर रही थी।


    उसकी हर हरकत में एक लय थी। कभी वह अपने दोनों हाथ ऊपर उठाती, तो कभी अपने पैरों से ज़मीन पर ऐसे ताल देती कि लगता मानो धरती भी उसकी पूजा में झूम रही हो। उसकी कलाईयों पर खनकती वो मोतियों सी चूड़ियाँ और पैरों की वो पतली लड़ी वाली पायल जिस पर छोटे-छोटे से घुँघरू लगे हुए थे, जिसकी मधुर आवाज़ बारिश की रिमझिम को और अधिक मधुर बना रही थी।


    वासु ने यह दृश्य देखा, तो उसकी आँखें अपलक हो गईं। उसकी चाल धीमी हो गई, और उसके पैर जैसे खुद-ब-खुद किशोरी के नृत्य की ताल में थिरकने लगे। वह पास आकर रुक गया और मंत्रमुग्ध होकर किशोरी के चेहरे को देखता रहा।


    मयूर, जो वासु से आगे था, किशोरी के पास जाकर उसकी परिक्रमा करने लगा। वह भी अपनी सुंदर पूँछ फैलाकर नाचने लगा। किशोरी ने आँखें खोलीं और मयूर को देखा। उसकी मुस्कान और भी गहरी हो गई। वह नाचते-नाचते वासु की ओर देखती है और उसकी आँखों में एक सवाल छोड़ती है।


    वासु, जो अब पूरी तरह से खो चुका था, अपने पैरों को रोक नहीं सका। वह किशोरी के करीब जाकर नाचने लगा। दोनों का नृत्य बारिश के संगीत के साथ मिलकर ऐसा दृश्य बना रहा था, मानो राधा और कृष्ण स्वयं इस दृश्य में जीवंत हो उठे हों।


    अचानक, भजन की आवाज़ तेज़ हो गई, और ऐसा लगा जैसे पूरा जंगल उनकी भक्ति में शामिल हो गया हो।


    वासु, जो अब पूरी तरह से किशोरी के नृत्य और भक्ति में खो चुका था, उसके होंठों से बिना किसी चेतना के भजन गाने लगे। "हरे कृष्णा, हरे कृष्णा, कृष्ण कृष्णा, हरे हरे!" उसकी आत्मा पूरी तरह से किशोरी की भक्ति में समा गई।


    किशोरी के चेहरे पर एक गहरी मुस्कान थी, और वासु की आँखों में वह प्रेम था, जो कभी शब्दों में व्यक्त नहीं हो सकता।


    वह धीमे-धीमे गाने लगा:
    "जो राधा के साथ नाचे, वो कृष्ण के पास जाए, जो कृष्ण के साथ नाचे, वो राधा के पास आए।"


    वही दूसरी तरफ़ सुभिका...


    "पार्थ..." उसने धीमे से खुद से कहा। "क्या वजह है कि मैं उससे इतनी जल्दी नाराज़ हो जाती हूँ और फिर उतनी ही जल्दी माफ़ भी कर देती हूँ? क्यों वो मेरी हर बात का जवाब एक शरारत भरे अंदाज़ में देता है, लेकिन उसकी आँखों में हमेशा ईमानदारी दिखती है?"


    उसने खिड़की से बाहर देखा और धीरे-धीरे मुस्कुरा दी।


    "उसकी शरारतें मुझे परेशान करती हैं, लेकिन उन्हीं शरारतों में उसकी मासूमियत भी झलकती है। जब वो मुझे छेड़ता है, तो ऐसा लगता है जैसे वो जानबूझकर मुझे अपनी तरफ़ खींच रहा हो। और मैं... मैं हर बार उसकी बातों में फँस जाती हूँ। क्या ये प्यार है?"


    सुभिका ने अपने दिल पर हाथ रखा। उसकी धड़कन तेज़ हो रही थी। उसने सिर हिलाया, जैसे खुद को समझाने की कोशिश कर रही हो।


    "नहीं, ये प्यार नहीं हो सकता। पार्थ तो हर किसी से ऐसे ही पेश आता है। वो सबको छेड़ता है, हँसाता है। लेकिन फिर... वो मुझसे इतनी बार माफ़ी क्यों माँगता है? क्यों मेरी नाराज़गी उसे इतनी परेशान करती है? और मैं... मैं क्यों उसकी माफ़ी सुनकर हमेशा पिघल जाती हूँ?"


    उसके मन में सवालों का एक तूफ़ान था।


    फिर उसे पार्थ के वो शब्द याद आए:
    "शायद मेरी शरारतों के पीछे कुछ और भी है।"


    सुभिका ने अपने माथे पर हाथ रखा। "क्या मतलब था उसका? क्या वो मुझे कुछ कहना चाहता है, जो कह नहीं पा रहा? या मैं ही कुछ ऐसा महसूस कर रही हूँ, जो समझने से डर रही हूँ?"


    बारिश तेज़ हो गई थी। सुभिका ने खिड़की बंद की और खुद को बिस्तर पर फेंक दिया। वह सोच रही थी कि क्या पार्थ भी इन बातों को लेकर उतना ही उलझा हुआ है जितना वह खुद है।


    उसने तकिए में चेहरा छिपाते हुए खुद से कहा,
    "पार्थ, अगर तुम्हारी शरारतों के पीछे सच में कुछ है, तो एक दिन मैं उसे समझ लूँगी। लेकिन अगर ये सिर्फ़ तुम्हारा मज़ाक है, तो मुझे खुद को संभालना होगा। मैं इस उलझन में ज़्यादा दिन नहीं रह सकती।"


    उसकी आँखें धीरे-धीरे बंद हो गईं, लेकिन उसके दिल में पार्थ की छवि अब भी जीवंत थी।


    पार्थ की बातें, उसकी हरकतें, और उसकी वो नटखट हँसी... सब कुछ जैसे उसके दिल पर अपना कब्ज़ा जमा चुके थे।


    आगे क्या होगा जानने के लिए अगले भाग का इंतज़ार करते रहिए साथ ही समीक्षा भी करते रहिए।

  • 20. प्रेममय - Chapter 20

    Words: 1796

    Estimated Reading Time: 11 min

    प्रेम वो नहीं जो मंज़िल तक पहुँचाए,
    प्रेम वो है जो हर राह पे संग निभाए।
    तू जो खुश है, वही मेरा प्रेम कहलाए।
    तेरी हर सांस में कान्हा का नाम हो,
    मैं दूर से देखूँ, यही मेरा काम हो।
    तेरी भक्ति का आकाश जितना ऊँचा है,
    उतनी ही गहरी मेरी चाहत है।
    मैं जानता हूँ, तेरी भक्ति अडिग है,
    फिर भी, मेरे दिल में जो प्यार का दरिया है,
    वो यूँ ही हमेशा बहता रहेगा।
    कभी बिना कुछ पाए, फिर भी लहराता रहेगा।


    वासु का रोज़ का काम अब किसी नियम की तरह बन चुका था। कॉलेज जाने से पहले, वह हर दिन सुबह जल्दी उठा और सबसे पहले मंदिर में किशोरी के दर्शन किए। क्योंकि उसे पता था कि किशोरी उसे मंदिर में ही मिलेगी। किशोरी की भक्ति में जो गहराई और शांतिपूर्णता थी, वह वासु को दिनभर की ऊर्जा देती थी। किशोरी का कृष्ण के प्रति अडिग प्रेम, वासु के दिल में एक हलचल पैदा करता था। वह किशोरी के पास खड़ा रहता और उसकी पूजा-अर्चना को दूर से देखता, जैसे वह स्वयं कृष्ण से कुछ प्राप्त कर रहा हो। किशोरी का ध्यान उस वक्त न तो वासु पर था, न ही किसी और पर, उसकी आँखें बस कृष्ण के रूप में मग्न थीं।


    आज भी, कॉलेज में अपनी खाली क्लास में बैठा, वासु अपनी पुरानी आदत के मुताबिक अपनी डायरी में कुछ बातें लिख रहा था। उसने कल की बातें लिखीं, जो किशोरी से जुड़ी थीं। कैसे वह दिनभर उसकी भक्ति में खोई रहती है, कैसे उसकी मुस्कान वासु के दिल को छू जाती है।


    वासु की लेखनी में एक खास अहसास था, वह किशोरी के बारे में जितना लिखता, उतना ही खुद को उसकी दुनिया से जुड़ा हुआ महसूस करता। लेकिन आज कुछ और था। जैसे ही उसने अपना ध्यान डायरी से हटाकर चारों ओर देखा, पार्थ उसके पास आकर बैठ गया।
    "यार, तू यहाँ क्या कर रहा है?" वासु ने चौंकते हुए कहा।


    "तू तो बड़ा शायर बन गया है, वासु। ये क्या लिख रहा है?" पार्थ ने हल्की मुस्कान के साथ उसकी डायरी में झांकते हुए कहा। उसकी आवाज़ में चिढ़ और मजाक का तड़का था।
    "कुछ नहीं यार, बस कुछ बातें दिल में थीं, जो लिख दीं।" वासु ने उसे नजरअंदाज करते हुए धीरे से कहा।


    पार्थ ने फिर भी अपनी जिज्ञासा का पीछा नहीं छोड़ा। वह वासु के पास बैठते हुए कहने लगा,
    "यार, हमेशा यही लड़की, किशोरी।"
    वासु ने एक गहरी साँस ली और कहा,
    "पार्थ, तू समझ नहीं पाएगा। ये सिर्फ कोई लड़की नहीं है, ये एक एहसास है। मुझे उसके आसपास की हवा भी शांत लगती है।"


    पार्थ चुपचाप उसकी बातें सुनने लगा।


    "देख पार्थ, तू मुझसे मजाक तो कर सकता है, लेकिन जो प्यार मैं महसूस करता हूँ, वह मेरे लिए बहुत निजी है।" वासु ने डायरी बंद करते हुए कहा।


    "तेरे दिल में जो भी है, मैं जानता हूँ, लेकिन यार, कभी खुद से पूछ, तू जो महसूस करता है, क्या वह सिर्फ एक इमोशन है या फिर एक मंजिल?" पार्थ ने मुस्कराते हुए कहा।


    वासु का चेहरा अचानक गंभीर हो गया। पार्थ की बातों ने उसे झकझोर दिया था। वह चुपचाप सोचने लगा, क्या वह सच में किशोरी को अपनी मंजिल मानता है? क्या वह उस प्रेम को केवल एक भावना के तौर पर महसूस कर रहा है, या फिर वह उस प्रेम के साथ अपनी पूरी ज़िंदगी जीने का ख्वाब देखता है?


    कुछ देर बाद, वासु ने फिर से सिर झुकाकर कहा,
    "प्रेम केवल भावना नहीं है, यह एक रास्ता भी है। और मैं... इस रास्ते पर चलने को तैयार हूँ।"


    "अब यह सुनकर लग रहा है कि तुम उस लड़की के पीछे अपनी ज़िंदगी बर्बाद कर दोगे।" पार्थ ने एक लंबी साँस ली और हंसते हुए कहा।


    लेकिन वासु ने इस बार उसे नहीं टोका। वह अपनी भावनाओं में और भी डूबता जा रहा था। उसकी ज़िंदगी अब सिर्फ किशोरी के इर्द-गिर्द ही नहीं, बल्कि उन सच्चे रिश्तों के बारे में भी सोचने लगी थी जिन्हें वह बना सकता था।


    वसु ने डायरी फिर से खोली और लिखा, "प्रेम में कभी मंज़िल नहीं होती, यह एक यात्रा होती है, और मैं इस यात्रा में शामिल होने के लिए तैयार हूँ।"


    अब उसकी आँखों में एक नयी रोशनी थी, एक नयी उम्मीद थी। पार्थ को उसकी चुप्पी ने समझा दिया कि वासु अब सिर्फ किशोरी के प्रति अपने प्रेम को महसूस नहीं कर रहा, बल्कि वह उस प्रेम को जीने की तैयारी कर रहा था।


    दिन बीतते गए...


    हर दिन तालाब के किनारे बैठकर, वह किशोरी को देखता, जब वह अपनी प्रार्थना में मग्न होती। उसकी आँखों में कृष्ण के प्रति भक्ति की ऐसी गहराई थी, जिसे वासु दूर से निहारता और अपनी चाहत को महसूस करता। किशोरी उसकी उपस्थिति से अनजान थी, उसकी दुनिया बस उसके कान्हा तक सीमित थी। पर वासु के लिए, उसकी हर मुस्कान, उसकी हर प्रार्थना के शब्द, एक नया जीवन लेकर आते थे।


    कई बार वासु ने खुद से सवाल किया—आखिर क्यों वह इस प्रेम को निभा रहा है, बिना किसी उम्मीद के? क्यों वह हर दिन किशोरी की भक्ति को देख, अपने प्रेम को त्याग कर रहा है? लेकिन इन सवालों के जवाब में वासु को केवल एक शांति मिलती—किशोरी की खुशी।


    "मेरा प्रेम किसी परिणाम की तलाश में नहीं है। मुझे बस उसकी भक्ति को देखना है, उसकी खुशी में अपना सुख ढूंढना है। ये प्रेम शायद मेरा इम्तिहान है, और इस इम्तिहान में मुझे सिर्फ देना है, कुछ भी माँगे बिना।"


    किशोरी हर दिन अपने कान्हा की मूरत के सामने बैठकर घंटों प्रार्थना करती। उसकी आँखों में भक्ति की ऐसी चमक होती कि वासु उसे देखते ही रह जाता। उसने कभी किशोरी से कुछ नहीं माँगा, न कोई सवाल किया।


    क्योंकि उसे पता है कि...किशोरी की भक्ति उसकी पहचान है। और वो उसके प्रेम को किसी मोह की तरह नहीं देख सकता। उसके दिल में केवल कान्हा के लिए जगह है, और वासु को उसे वैसे ही अपनाना होगा।


    दिन बीतते गए और वासु का प्रेम किशोरी के प्रति और गहरा होता गया। वह जानता था कि उसका प्रेम किशोरी तक कभी नहीं पहुँच पाएगा, लेकिन फिर भी उसने अपनी भावनाओं को बहने दिया। किशोरी की भक्ति उसके लिए एक प्रेरणा बन गई, और उसका प्रेम त्याग और निस्वार्थता की राह पर चलता रहा।


    कई बार वासु सोचता था कि क्या कभी किशोरी उसे समझ पाएगी, या क्या उसकी भक्ति के पीछे कहीं उसके लिए भी कोई भावना छिपी है? लेकिन हर बार, वासु अपने दिल को शांत करता और खुद से कहता—


    "शायद यही मेरा प्रेम है—उसे देखना, उसकी भक्ति का सम्मान करना, बिना किसी अपेक्षा के। प्रेम तो वो है जो बिना किसी वजह के निभाया जाए, जैसे कृष्ण और राधा का प्रेम।"


    किशोरी की भक्ति के सामने वासु का प्रेम मौन था, लेकिन उतना ही गहरा। वह जानता था कि उसका स्थान किशोरी की दुनिया में नहीं है, फिर भी वह उसे हर दिन अपनी प्रार्थना में देखता, उसके साथ महसूस करता।


    वासु तालाब के किनारे बैठा था, मयूर उसके पास ही खड़ा था, जैसे उसकी हर सोच को सुन रहा हो। पानी की लहरों में किशोरी की छवि नज़र आ रही थी, मानो वह वासु के दिल में बसे हर एहसास को बयां कर रही हो। वासु की आँखों में एक हल्की सी उदासी थी, जो उसके भीतर के संघर्ष को साफ़ झलकाती थी। उसने धीरे-धीरे तालाब की ओर देखा, और वहाँ खिलते कमल के फूलों को देखकर एक पल के लिए ठिठक गया।


    उसने हाथ बढ़ाकर तालाब से एक सुंदर गुलाबी कमल का पुष्प तोड़ा, और फिर मयूर की ओर देखकर कहा,
    "मयूर, क्या तुम मेरे लिए एक काम करोगे?"


    मयूर ने उसकी आँखों में देखा, जैसे वह वासु की हर बात को समझ रहा हो। वासु ने हल्के से कमल का फूल उठाया और उसे मयूर की ओर बढ़ाते हुए कहा,
    "ये पुष्प मेरे भगवान, अर्थात किशोरी के चरणों में रखना। मैं जानता हूँ कि किशोरी इसे अपनी भक्ति के भाव से स्वीकार करेगी, और शायद ये पुष्प मेरे प्रेम का प्रतीक बनकर उसके कान्हा के चरणों में समर्पित हो जाएगा।"


    मयूर ने बिना कोई देर किए, अपनी गर्दन झुका दी और वासु से पुष्प ले लिया। उसके पंखों की चमक वासु की आँखों में एक आशा का संचार कर रही थी। वासु ने मयूर के सिर को हल्के से सहलाते हुए कहा,
    "तुम हर दिन किशोरी के पास होते हो, उसकी भक्ति का साक्षी बनते हो। मैं नहीं जानता कि मेरे प्रेम की कोई जगह है या नहीं, लेकिन इस पुष्प के माध्यम से मैं अपनी भावनाएँ व्यक्त करना चाहता हूँ।"


    वासु की बातें उसके दिल की गहराई से निकली थीं। वह जानता था कि किशोरी के दिल में केवल कान्हा के लिए जगह है, लेकिन फिर भी उसका दिल किशोरी की भक्ति को समझते हुए उसे प्रेम करता रहा। मयूर ने पुष्प को संभाल लिया और तालाब के किनारे से उड़कर किशोरी की ओर बढ़ने लगा, जो मंदिर के भीतर कान्हा की मूर्ति के सामने प्रार्थना में मग्न थी।


    मंदिर की ओर जाते हुए, मयूर ने अपने पंख फैलाए, और हवा में धीरे-धीरे ऊपर उठने लगा। वासु दूर से उसे निहार रहा था, उसकी आँखों में एक उम्मीद थी कि शायद यह कमल का फूल उसकी भावनाओं का संदेश बनकर किशोरी तक पहुँच जाएगा।


    मंदिर के अंदर—


    किशोरी अपनी आँखें बंद किए, कान्हा के चरणों में बैठी थी। उसकी भक्ति का आलोक उसके चेहरे पर फैला हुआ था, और उसकी साँसों में केवल कान्हा का नाम बसा था। मयूर ने मंदिर के दरवाजे से प्रवेश किया और सीधे कान्हा की मूर्ति के पास पहुँचकर कमल का पुष्प किशोरी के चरणों के पास रख दिया।


    किशोरी ने अपनी आँखें धीरे-धीरे खोलीं और कमल का पुष्प देखा। उसकी आँखों में एक हल्की सी मुस्कान आई, मानो वह इस पुष्प को भगवान का आशीर्वाद समझ रही हो। उसे नहीं पता था कि यह पुष्प वासु के प्रेम का प्रतीक था, जो उसकी भक्ति के आकाश में बिना किसी शोर के समर्पित हुआ था।


    वासु मंदिर के बाहर खड़ा यह दृश्य देख रहा था। उसकी आँखों में अब एक गहरी शांति थी।


    "शायद यही मेरी भूमिका है—उसकी भक्ति में अपनी जगह खोजना, बिना किसी उम्मीद के। ये पुष्प केवल एक प्रतीक है, पर मेरे लिए ये मेरी भावनाओं का सबसे पवित्र रूप है। किशोरी की खुशी में ही मेरा सुख है, और यही मेरे प्रेम की परिभाषा है।" वासु:


    मयूर वापस लौट आया और वासु के पास आकर फिर से बैठ गया। वासु ने उसकी आँखों में देखा और मुस्कुराते हुए कहा,
    "धन्यवाद, मयूर। तुमने मेरा संदेश पहुँचा दिया। अब मुझे और कुछ नहीं चाहिए।"


    वासु ने एक गहरी साँस ली और आसमान की ओर देखा। उसे अब अपने दिल की बेचैनी का जवाब मिल गया था। प्रेम सिर्फ पाने का नाम नहीं है, बल्कि देने और समर्पित करने का नाम है।


    आगे क्या होगा जानने के लिए अगले भाग का इंतज़ार करते रहिए साथ ही समीक्षा भी करते रहिए।