ज़र ट्रेलावनी, डॉक्टर लिवेसी, और बाकी सब लोगों ने मुझसे कहा कि ट्रेज़र आइलैंड की पूरी कहानी लिखो, शुरू से आखिर तक। बस उस आइलैंड का असली रास्ता नहीं बताना है, क्योंकि अभी भी वहां खजाना छुपा हुआ है। तो मैं, 17_ के साल में, अपनी कलम उठाता हूं और उस टाइम... ज़र ट्रेलावनी, डॉक्टर लिवेसी, और बाकी सब लोगों ने मुझसे कहा कि ट्रेज़र आइलैंड की पूरी कहानी लिखो, शुरू से आखिर तक। बस उस आइलैंड का असली रास्ता नहीं बताना है, क्योंकि अभी भी वहां खजाना छुपा हुआ है। तो मैं, 17_ के साल में, अपनी कलम उठाता हूं और उस टाइम की बात बताता हूं जब मेरे पापा "एडमिरल बेनबो" नाम का होटल चलाते थे। वो गहरे भूरे रंग का बूढ़ा नाविक, जिसके चेहरे पर कट का निशान था, वो पहली बार हमारे यहां आकर रहने लगा था।
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बयान - १ शाम ढल रही थी, अँधेरा छा रहा था। सुनसान मैदान में, एक पहाड़ी के नीचे, दो शख्स, वीरेंद्रसिंह और तेजसिंह, एक पत्थर की चट्टान पर बैठे आपस में बातें कर रहे थे। वीरेंद्रसिंह की उम्र इक्कीस-बाईस वर्ष होगी। वे नौगढ़ के राजा सुरेंद्रसिंह के इकलौते पुत्र थे। तेजसिंह, राजा सुरेंद्रसिंह के दीवान जीतसिंह का पुत्र और कुँवर वीरेंद्रसिंह का मित्र था। वह बड़ा चालाक और फुर्तीला था। कमर में सिर्फ़ खंजर बाँधे, बगल में बटुआ लटकाए, हाथ में एक कमंड लिए, वह बड़ी तेज़ी से चारों ओर देखता और बातें करता रहा। उनके सामने एक घोड़ा, कसा-कसाया, एक पेड़ से बंधा हुआ था। कुँवर वीरेंद्रसिंह ने कहा – “भाई तेजसिंह, देखो, मुहब्बत भी क्या बुरी बला है, जिसने इस हद तक पहुँचा दिया। कई बार तुम विजयगढ़ से राजकुमारी चंद्रकांता की चिठ्ठी मेरे पास लाए और मेरी चिठ्ठी उन तक पहुँचाई। इससे साफ़ ज़ाहिर है कि जितनी मुहब्बत मैं चंद्रकांता से रखता हूँ, उतनी ही चंद्रकांता मुझसे रखती है। हालाँकि हमारे राज्य और उनके राज्य के बीच सिर्फ़ पाँच कोस का फ़ासला है, फिर भी हम लोगों के लिए कुछ नहीं बन पाता। देखो, इस ख़त में भी चंद्रकांता ने यही लिखा है कि जिस तरह बने, जल्दी मिल जाओ।” तेजसिंह ने उत्तर दिया – “मैं हर तरह से आपको वहाँ ले जा सकता हूँ, मगर एक तो आजकल चंद्रकांता के पिता महाराज जयसिंह ने महल के चारों ओर सख्त पहरा बैठा रखा है, दूसरे उनके मंत्री का पुत्र क्रूरसिंह उस पर आदेशक हो रहा है। ऊपर से उसने अपने दोनों गुर्गों को, जिनका नाम नाज़िम अली और अहमद ख़ान है, इस बात की ताकीद कर दी है कि वे लोग महल की निगरानी करते रहें। क्योंकि आपकी मुहब्बत का हाल क्रूरसिंह और उसके गुर्गों को बखूबी मालूम हो गया है। चाहे चंद्रकांता क्रूरसिंह से बहुत नफ़रत करती है और राजा भी अपनी लड़की अपने मंत्री के पुत्र को नहीं दे सकता, फिर भी उसे उम्मीद बंधी हुई है और आपका लगाव बहुत बुरा मालूम होता है। अपने बाप के ज़रिए उसने महाराज जयसिंह के कानों तक आपकी लगावट की बात पहुँचा दी है और इसी कारण पहरे की सख्त ताकीद हो गई है। आपको ले चलना अभी मुझे पसंद नहीं, जब तक कि मैं वहाँ जाकर षड्यंत्रकारियों को गिरफ़्तार न कर लूँ।” “इस वक्त मैं फिर विजयगढ़ जाकर चंद्रकांता और चपला से मुलाक़ात करता हूँ, क्योंकि चपला चंद्रकांता की सखी है और चंद्रकांता को जान से ज़्यादा मानती है। इसके सिवाय इस चपला के, मेरा साथ देने वाला वहाँ कोई नहीं है। जब मैं अपने दुश्मनों की चालाकी और कार्यवाही देखकर लौटूँगा, तब आपके चलने के बारे में राय दूँगा। कहीं ऐसा न हो कि बिना समझे-बूझे काम करके हम लोग वहीं गिरफ़्तार हो जाएँ।” वीरेंद्र – “जो मुनासिब समझो करो, मुझे तो सिर्फ़ अपनी ताकत पर भरोसा है, लेकिन तुमको अपनी ताकत और चालाकी दोनों पर।” तेजसिंह – “मुझे यह भी पता लगा है कि हाल ही में क्रूरसिंह के दोनों गुर्गे नाज़िम और अहमद यहाँ आकर पुनः हमारे महाराजा के दर्शन कर गए हैं। न मालूम किस चालाकी से आए थे। अफ़सोस, उस वक्त मैं यहाँ नहीं था।” वीरेंद्र – “मुश्किल तो यह है कि तुम क्रूरसिंह के दोनों गुर्गों को फँसाना चाहते हो और वे लोग तुम्हारी गिरफ़्तारी की फ़िक्र में हैं। परमेश्वर कुशल करे। ख़ैर, अब तुम जाओ और जिस तरह बने, चंद्रकांता से मेरी मुलाक़ात का इंतज़ाम करो।” तेजसिंह फ़ौरन उठ खड़े हुए और वीरेंद्रसिंह को वहीं छोड़कर पैदल विजयगढ़ की ओर रवाना हुए। वीरेंद्रसिंह ने भी घोड़े को पेड़ से खोलकर उस पर सवार हुए और अपने किले की ओर चले गए। बयान - २ विजयगढ़ में, क्रूरसिंह अपनी बैठक में नाज़िम और अहमद दोनों गुर्गों के साथ बातें कर रहा था। क्रूरसिंह – “देखो नाज़िम, महाराज का यह ख्याल है कि मैं राजा होकर मंत्री के लड़के को कैसे दामाद बनाऊँ, और चंद्रकांता वीरेंद्रसिंह को चाहती है। अब कहो, मेरा काम कैसे निपटेगा? अगर सोचा जाए कि चंद्रकांता को लेकर भाग जाऊँ, तो कहाँ जाऊँ और कहाँ रहकर आराम करूँ? फिर ले जाने के बाद मेरे बाप की महाराज क्या दशा करेंगे? इससे तो यही मुनासिब होगा कि पहले वीरेंद्रसिंह और उसके मित्र तेजसिंह को किसी तरह गिरफ़्तार कर किसी ऐसी जगह ले जाकर ख़त्म कर दिया जाए कि हज़ार वर्ष तक पता न लगे, और इसके बाद मौक़ा पाकर महाराज को मारने की फ़िक्र की जाए, फिर तो मैं झट गद्दी का मालिक बन जाऊँगा और तब अलबत्ता अपनी ज़िंदगी में चंद्रकांता से ऐश कर सकूँगा। मगर यह तो कहो कि महाराज के मरने के बाद मैं गद्दी का मालिक कैसे बनूँगा? लोग कैसे मुझे राजा बनाएँगे?” नाज़िम – “हमारे राजा के यहाँ बाहरी लोगों से ज़्यादा मुसलमान हैं, उन सभी को आपकी मदद के लिए मैं राज़ी कर सकता हूँ और उन लोगों से कसम दिला सकता हूँ कि महाराज के बाद आपको राजा मानें, मगर शर्त यह है कि काम हो जाने पर आप भी हमारे मज़हब, इस्लाम को क़बूल करें?” क्रूरसिंह – “अगर ऐसा है तो मैं तुम्हारी शर्त दिलोज़ान से क़बूल करता हूँ।” अहमद – “तो बस ठीक है, आप इस बात का इकरारनामा लिखकर मेरे हवाले करें। मैं सब मुसलमान भाइयों को दिखलाकर उन्हें अपने साथ मिला लूँगा।” क्रूरसिंह ने काम हो जाने पर मुसलमानी मज़हब अपनाने का इकरारनामा लिखकर फ़ौरन नाज़िम और अहमद के हवाले किया, जिस पर अहमद ने क्रूरसिंह से कहा – “अब सब मुसलमानों का एक दिल कर लेना हम लोगों के ज़िम्मे है, इसके लिए आप कुछ न सोचिए। हाँ, हम दोनों आदमियों के लिए भी एक इकरारनामा इस बात का हो जाना चाहिए कि आपके राजा हो जाने पर हम दोनों वज़ीर मुक़र्रर किए जाएँगे, और तब हम लोगों की चालाकी का तमाशा दिखाएँगे कि बात-की-बात में ज़माना कैसे उलट-पलट कर देते हैं।” क्रूरसिंह ने झटपट इस बात का भी इकरारनामा लिख दिया जिससे वे दोनों बहुत ही खुश हुए। इसके बाद नाज़िम ने कहा – “इस वक्त हम लोग चंद्रकांता के हालचाल की ख़बर लेने जाते हैं क्योंकि शाम का वक्त बहुत अच्छा है, चंद्रकांता ज़रूर बाग में गई होगी और अपनी सखी चपला से अपनी दिल की बातें कह रही होगी, इसलिए हमें पता लगाना कोई मुश्किल नहीं होगा कि आजकल वीरेंद्रसिंह और चंद्रकांता के बीच में क्या हो रहा है।” यह कहकर दोनों गुर्गे क्रूरसिंह से विदा हुए।
बयान - 3 कुछ दिन बाकी थे। चंदरकांता, चपला और चंपा बाग में टहल रही थीं। भीनी-भीनी फलों की महक धीमी हवा के साथ दिमलकर तबीयत को खुश कर रही थी। तरह-तरह के फल दिखलाई दे रहे थे। बाग के पश्चिम की तरफ वाले आम के घने पेड़ों की बहार और उसमें से अस्त होते हुए सूरज की किरणों की चमक एक अजीब ही मजा दे रही थी। फलों की क्यारियों में अच्छी तरह सिंचाई की गई थी और फलों के दरख्त भी अच्छी तरह पानी से धोए हुए थे। कहीं गुलाब, कहीं चमेली, कहीं बेला, कहीं मोगरे की क्यारियाँ अपना-अपना मजा दे रही थीं। एक तरफ बाग से सटा हुआ ऊँचा महल और दूसरी तरफ सुंदर-सुंदर बुलबुलियाँ अपनी बहार दिखला रही थीं। चपला, जो चालाकी के फन में बड़ी तेज और चंदरकांता की प्यारी सखी थी, अपने चंचल हाव-भाव के साथ चंदरकांता के संग दिलचस्प चारों ओर घूमती और तारीफ करती हुई खुशबूदार फलों को तोड़-तोड़कर चंदरकांता के हाथ में दे रही थी, मगर चंदरकांता को वीरेंदरसिंह की जुदाई में ये सब बातें कम अच्छी लग रही थीं। उसे तो दिल बहलाने के लिए उसकी सखियों ने जबरदस्ती बाग में खींच लाया था। चंदरकांता की सखी चंपा तो गुच्छा बनाने के लिए फल तोड़ती हुई मालती लता के कुंज की तरफ चली गई। लेकिन चंदरकांता और चपला धीरे-धीरे टहलती हुई बीच के फव्वारे के पास जाकर उसकी चक्करदार धारों से निखरते हुए जल का तमाशा देखने लगीं। "न मालूम चंपा किधर चली गई?" चपला ने पूछा। "कहीं इधर-उधर घूमती होगी," चंदरकांता ने उत्तर दिया। "दो घड़ी से ज्यादा हो गया, तब से वह हम लोगों के साथ नहीं है," चपला बोली। "देखो, वह आ रही है," चंदरकांता ने कहा। "इस वक्त तो उसकी चाल में फ़र्क मालूम होता है," चपला ने टिप्पणी की। इतने में चंपा ने आकर फलों का एक गुच्छा चंदरकांता के हाथ में दिया और कहा, "देखिए, यह कैसा अच्छा गुच्छा बना लाया हूँ। अगर इस वक्त कुँवर वीरेंदरसिंह होते तो इसको देख मेरी कारीगरी की तारीफ करते और मुझे कुछ इनाम भी देते।" वीरेंदरसिंह का नाम सुनते ही एकाएक चंदरकांता का अजीब हाल हो गया। भली-भली बातें फिर याद आ गईं, कमल मुख मुरझा गया, ऊँची-ऊँची साँसें लेने लगी, आँखों से आँसू टपकने लगे। धीरे-धीरे कहने लगी, "न मालूम विधाता ने मेरे भाग्य में क्या लिखा है? न मालूम मैंने उस जन्म में कौन-से ऐसे पाप किए हैं जिनके बदले यह दुःख भोगना पड़ रहा है? देखो, विपता को क्या धुन समाया है। कहते हैं कि चंदरकांता को कुँवारी ही रखेगा। हाय! वीरेंदर के विपत्ति ने शादी करने के लिए कैसी-कैसी खुशामदें कीं, मगर शक्त क्रूर के बाप कुपथसिंह ने उसे ऐसा कुछ बस में कर रखा है कि कोई काम नहीं होने देता, और उधर कम्बख़्त क्रूर अपनी ही लड़की लगाना चाहता है।" एकाएक चपला ने चंदरकांता का हाथ पकड़कर जोर से दबाया, मानो चुप रहने के लिए इशारा किया। चपला के इशारे को समझकर चंदरकांता चुप हो गई और चपला का हाथ पकड़कर फिर बाग में टहलने लगी, मगर अपना रूमाल उसी जगह जान-बूझकर गिराती गई। थोड़ी दूर आगे बढ़कर उसने चंपा से कहा, "सखी, देख तो, फव्वारे के पास कहीं मेरा रूमाल गिर पड़ा है।" चंपा रूमाल लेने फव्वारे की तरफ चली गई। तब चंदरकांता ने चपला से पूछा, "सखी, तुम्हें बोलते समय मुझे एकाएक क्यों रोका?" चपला ने कहा, "मेरी प्यारी सखी, मुझे चंपा पर शक हो गया है। उसकी बातों और चेहरे से मालूम होता है कि वह असली चंपा नहीं है।" इतने में चंपा ने रूमाल लाकर चपला के हाथ में दिया। चपला ने चंपा से पूछा, "सखी, कल रात को मैंने तुझको जो कहा था सो तूने किया?" चंपा बोली, "नहीं, मैं भूल गई।" तब चपला ने कहा, "भला वह बात तो याद है या वह भी भूल गई?" चंपा बोली, "बात तो याद है।" तब फिर चपला ने कहा, "भला दोहराकर मुझसे कह तो सही, तब मैं जानूँगी कि तुझे याद है।" इस बात का जवाब न देकर चंपा ने दूसरी बात छेड़ दी जिससे शक की जगह यकीन हो गया कि यह चंपा नहीं है। आखिर चपला यह कहकर कि मैं तुझसे एक बात कहूँगी, चंपा को एक किनारे ले गई और कुछ मामूली बातें करके बोली, "देख तो चंपा, मेरे कान से कुछ बदबू तो नहीं आती? क्योंकि कल से कान में दर्द है।" नकली चंपा चपला के फेर में पड़ गई और फौरन कान सूँघने लगी। चपला ने चालाकी से बेहोशी की बूटी कान में रखकर नकली चंपा को सूँघा दी जिसके सूँघते ही चंपा बेहोश होकर गिर पड़ी। चपला ने चंदरकांता को पुकारकर कहा, "आओ सखी, अपनी चंपा का हाल देखो।" चंदरकांता ने पास आकर चंपा को बेहोश पड़ी हुई देख चपला से कहा, "सखी, कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारा ख्याल धोखा ही निकले और पीछे चंपा से शरमाना पड़े।" "नहीं, ऐसा नहीं होगा।" कहकर चपला चंपा को पीठ पर लादकर फव्वारे के पास ले गई और चंदरकांता से बोली, "तुम फव्वारे से छल्लू भर-भर पानी इसके मुँह पर डालो, मैं धोती हूँ।" चंदरकांता ने ऐसा ही किया और चपला खूब रगड़-रगड़कर उसका मुँह धोने लगी। थोड़ी देर में चंपा की सूरत बदली और साफ़ नादान की सूरत निकली। देखते ही चंदरकांता का चेहरा गुस्से से लाल हो गया और वह बोली, "सखी, इसने तो बड़ी बेअदबी की।" "देखो तो, अब मैं क्या करती हूँ।" कहकर चपला नादान को फिर पीठ पर लादकर बाग के एक कोने में ले गई, जहाँ बूढ़े बरगद के नीचे एक छोटा-सा तहखाना था। उसके अंदर बेहोश नादान को ले जाकर गिरा दिया और अपने ऐयारी के बटुए में से मोमबत्ती निकालकर जलाई। एक रस्सी से नादान के पैर और दोनों हाथ पीठ की तरफ खूब कसकर बाँधे और डिब्बे से लखलखा निकालकर उसे सूँघाया, जिससे नादान ने एक छींक मारी और होश में आकर अपने को कैद और बेबस देखा। चपला कोड़ा लेकर खड़ी हो गई और मारना शुरू किया। "माफ़ करो, मुझसे बड़ा कसूर हुआ, अब मैं ऐसा कभी न करूँगा, बल्कि इस काम का नाम भी न लूँगा।" इत्यादि कहकर नादान चीख़ने और रोने लगा, मगर चपला कब सुनने वाली थी? वह कोड़ा जमाती ही गई और बोली, "सब्र कर, अभी तो तेरी पीठ की खुजली भी न मिटी होगी। तू यहाँ क्यों आया था? क्या तुझे बाग की हवा अच्छी लग रही थी? क्या बाग की सैर को जी चाहा था? क्या तू नहीं जानता था कि चपला भी यहाँ होगी? हरामज़ादे के बच्चे, बेईमान, अपने बाप के कहने से तूने यह काम किया? देख, मैं उसकी भी तबीयत खुश कर देती हूँ।" यह कहकर फिर मारना शुरू किया, और पूछा, "सच बता, तू कैसे यहाँ आया और चंपा कहाँ गई?" मार के खौफ़ से नादान को असल हाल कहना ही पड़ा। वह बोला, "चंपा को मैंने ही बेहोश किया था, बेहोशी की दवा छिड़ककर फलों का गुच्छा उसके रास्ते में रख दिया जिसको सूँघकर वह बेहोश हो गई, तब मैंने उसे मालती लता के कुंज में डाल दिया और उसकी सूरत बनाकर उसके कपड़े पहन तुम्हारी तरफ़ चला आया। लो, मैंने सब हाल कह दिया, अब तो छोड़ दो।" चपला ने कहा, "ठहर, छोड़ती हूँ।" मगर फिर भी दस-पाँच कोड़े और जमा ही दिए, यहाँ तक कि नादान बिलबिला उठा, तब चपला ने चंदरकांता से कहा, "सखी, तुम इसकी निगरानी करो, मैं चंपा को ढूँढ़कर लाती हूँ। कहीं वह पाजी झूठ न कहता हो।" चंपा को खोजती हुई चपला मालती लता के पास पहुँची और बत्ती जलाकर ढूँढ़ने लगी। देखा कि सचमुच चंपा एक झाड़ी में बेहोश पड़ी है और बदन पर उसका एक लत्ता भी नहीं है। चपला उसे लखलखा सूँघाकर होश में लाई और पूछा, "क्यों दिमाग़ कैसा है, खा गई न धोखा।" चंपा ने कहा, "मुझे क्या मालूम था कि इस समय यहाँ ऐयारी होगी? इस जगह फलों का एक गुच्छा पड़ा था जिसको उठाकर सूँघते ही मैं बेहोश हो गई, फिर मालूम नहीं क्या हुआ। हाय, हाय। न जाने किसने मुझे बेहोश किया, मेरे कपड़े भी उतार दिए, बड़ी लागत के कपड़े थे।" वहाँ पर नादान के कपड़े पड़े हुए थे जिनमें से दो-एक लेकर चपला ने चंपा का बदन ढँका और तब यह कहकर कि "मेरे साथ आ, मैं उसे दिखलाऊँ जिसने तेरी यह हालत की," चंपा को साथ ले उस जगह आई जहाँ चंदरकांता और नादान थे। नादान की तरफ़ इशारा करके चपला ने कहा, "देख, इसी ने तेरे साथ यह भलाई की थी।" चंपा को नादान की सूरत देखते ही बड़ा क्रोध आया और वह चपला से बोली, "बहन, अगर इजाजत हो तो मैं भी दो-चार कोड़े लगाकर अपना गुस्सा निकाल लूँ?" चपला ने कहा, "हाँ-हाँ, जितना जी चाहे इस मूर्ख को कोड़े लगाओ।" बस फिर क्या था, चंपा ने मनमाने कोड़े नादान को लगाए, यहाँ तक कि नादान घबरा उठा और जी में कहने लगा, "खुदा, क्रूरसिंह को गारत करे जिसकी बदौलत मेरी यह हालत हुई।" आखिरकार नादान को उसी कैदखाने में कैद करके तीनों महल की तरफ़ रवाना हुईं। यह छोटा-सा बाग जिसमे ऊपर लिखी बातें हुईं, महल से सटा हुआ उसके पिछवाड़े की तरफ़ पड़ता था और खासकर चंदरकांता के टहलने और हवा खाने के लिए ही बनवाया गया था। इसके चारों तरफ़ मुसलमानों का पहरा होने के सबब से ही अहमद और नादान को अपना काम करने का मौका मिल गया था।
बयान - 4 तेजसिंह वीरेंद्रसिंह से विदा होकर विजयगढ़ पहुँचे और चंद्रकान्ता से मिलने की कोशिश करने लगे, मगर कोई तरकीब नहीं बैठ पाई, क्योंकि पहरे वाले बड़ी होशियारी से पहरा दे रहे थे। आदिखर सोचने लगे कि क्या करना चाहिए? रात चाँदनी थी, अगर अंधेरी रात होती तो कमंद लगाकर ही महल के ऊपर जाने की कोशिश की जाती। आदिखर तेजसिंह एकांत में गए और वहाँ अपनी सूरत एक चौबदार जैसी बनाकर महल की द्योढ़ी पर पहुँचे। देखा कि बहुत से चौबदार और प्यादे बैठे पहरा दे रहे हैं। एक चौबदार से बोले- "यार, हम भी महाराज के नौकर हैं, आज चार महीने से महाराज हमको अपनी अदालत में नौकर रखा है, इस वक्त छुट्टी थी, चाँदनी रात का मज़ा देखते टहलते इस तरफ़ आ निकले, तुम लोगों को हुक्का पीते देख जी में आया कि चलो दो फुँक हम भी लगा लें, अफीम खाने वालों को हुक्के की महक अच्छी लगती है, आप लोग भी जानते ही होंगे।" "हाँ-हाँ, आइए, बैठिए, हुक्का पीजिए।" कहकर चौबदार और प्यादों ने हुक्का तेजसिंह के आगे रखा। तेजसिंह ने कहा- "मैं हिंदू हूँ, हुक्का तो नहीं पी सकता, हाँ, हाथ से ज़रूर पी लूँगा।" यह कह चिलम उतार ली और पीने लगे। उन्होंने दो फुँक हुक्के के नहीं दिए थे कि खांसना शुरू किया, इतना खांसा कि थोड़ा-सा पानी भी मुँह से निकल गया और तब कहा- "दियाँ, तुम लोग अजीब कड़वा हुक्का पीते हो? मैं तो हमेशा सरकारी हुक्का पीता हूँ। महाराज के हुक्काबदार से दोस्ती हो गई है, वह बराबर महाराज के पीने वाले हुक्के में से मुझको दिया करता है, अब ऐसी आदत पड़ गई है कि सिवाय उस हुक्के के और कोई हुक्का अच्छा नहीं लगता।" इतना कह चौबदार बने तेजसिंह ने अपने बटुए में से एक चिलम हुक्का निकालकर दिया और कहा- "तुम लोग भी पीकर देख लो कि कैसा हुक्का है।" भला चौबदारों ने महाराज के पीने का हुक्का कभी क्यों दिया होगा? झट हाथ फैला दिया और कहा- "लाओ भाई, तुम्हारी बदौलत हम भी सरकारी हुक्का पी लें। तुम बड़े किस्मत वाले हो कि महाराज के साथ रहते हो, तुम तो खूब चैन करते होंगे।" यह नकली चौबदार (तेजसिंह) के हाथ से हुक्का ले लिया और खूब दोहरा जमाकर तेजसिंह के सामने लाए। तेजसिंह ने कहा- "तुम सुलगाओ, फिर मैं भी ले लूँगा।" अब हुक्का गुड़गुड़ाने लगा और साथ ही गप्पें भी उड़ने लगीं। थोड़ी ही देर में सब चौबदार और प्यादों का सर घूमने लगा, यहाँ तक कि झटकते-झटकते सब औंधे होकर गिर पड़े और बेहोश हो गए। अब क्या था, बड़ी आसानी से तेजसिंह फाटक के अंदर घुस गए और नज़र बचाकर बाग में पहुँचे। देखा कि हाथ में रोशनी लिए सामने से एक लौंडी चली आ रही है। तेजसिंह ने फुर्ती से उसके गले में कमंद डाली और ऐसा झटका दिया कि वह चिल्ला न सकी और ज़मीन पर गिर पड़ी। तुरंत उसे बेहोशी की बूँदें सुंघाईं और जब बेहोश हो गई तो उसे वहाँ से उठाकर किनारे ले गए। बटुए में से सामान निकाल, मोमबत्ती जलाई और सामने आईना रख अपनी सूरत उसी के जैसी बनाई, इसके बाद उसको वहीं छोड़ उसी के कपड़े पहन महल की तरफ़ रवाना हुए और वहाँ पहुँचे जहाँ चंद्रकान्ता, चपला और चंपा दस-पाँच लौंडियों के साथ बातें कर रही थीं। लौंडी की सूरत बनाए तेजसिंह भी एक किनारे जाकर बैठ गए। तेजसिंह को देख चपला बोली- "क्यों केतकी, जिस काम के लिए मैंने तुझको भेजा था क्या वह काम तू कर आई जो चुपचाप आकर बैठ गई है?" चपला की बात सुन तेजसिंह को मालूम हो गया कि जिस लौंडी को मैंने बेहोश किया है और जिसकी सूरत बनाकर आया हूँ उसका नाम केतकी है। नकली केतकी- "हाँ, काम तो करने गई थी मगर रास्ते में एक नया तमाशा देख तुमसे कुछ कहने के लिए लौट आई हूँ।" चपला- "ऐसा? अच्छा तूने क्या देखा, कह?" नकली केतकी- "सभी को हटा दो तो तुम्हारे और राजकुमारी के सामने बात कह सुनाऊँ।" सब लौंडियाँ हटा दी गईं और केवल चंद्रकान्ता, चपला और चंपा रह गईं। अब केतकी ने हँसकर कहा- "कुछ इनाम तो दो, खुशखबरी सुनाऊँ।" चंद्रकान्ता ने समझा कि शायद वह कुछ वीरेंद्रसिंह की खबर लाई है, मगर फिर यह भी सोचा कि मैंने तो आज तक कभी वीरेंद्रसिंह का नाम भी इसके सामने नहीं दिया, तब यह क्या मामला है? कौन-सी खुशखबरी है जिसके सुनाने के लिए यह पहले ही से इनाम माँगती है? आदिखर चंद्रकान्ता ने केतकी से कहा- "हाँ-हाँ, इनाम दूँगी, तू कह तो सही, क्या खुशखबरी लाई है?" केतकी ने कहा- "पहले दे दो तो कहूँ, नहीं तो जाती हूँ।" यह कह उठकर खड़ी हो गई। केतकी के ये नखरे देख चपला से रहा नहीं गया और वह बोल उठी- "क्यों री केतकी, आज तुझको क्या हो गया है कि ऐसी बढ़-बढ़कर बातें कर रही है। लगाऊँ दो लात उठ के।" केतकी ने जवाब दिया- "क्या मैं तुझसे कमज़ोर हूँ जो तू लात लगाएगी और मैं छोड़ दूँगी।" अब चपला से रहा नहीं गया और केतकी का झोंटा पकड़ने के लिए दौड़ी, यहाँ तक कि दोनों आपस में गँठ गईं। इत्तफ़ाक़ से चपला का हाथ नकली केतकी की छाती पर पड़ा जहाँ की सफ़ाई देख वह घबरा उठी और झट से अलग हो गई। नकली केतकी- (हँसकर) क्यों, भाग क्यों गई? आओ लड़ो। चपला अपनी कमर से कटार निकालकर सामने आई और बोली- "ओ ऐयार, सच बता तू कौन है, नहीं तो अभी जान ले डालती हूँ।" इसका जवाब नकली केतकी ने चपला को कुछ नहीं दिया और वीरेंद्रसिंह की चिट्ठी निकालकर सामने रख दी। चपला की नज़र भी इस चिट्ठी पर पड़ी और गौर से देखने लगी। वीरेंद्रसिंह के हाथ की लिखावट देख समझ गई कि यह तेजसिंह है, क्योंकि सिवाय तेजसिंह के और किसी के हाथ वीरेंद्रसिंह कभी चिट्ठी नहीं भेजेंगे। यह सोच-समझ चपला शर्मा गई और गर्दन नीची कर चुप हो गई, मगर जी में तेजसिंह की सफ़ाई और चालाकी की तारीफ़ करने लगी, क्योंकि सच तो यह है कि तेजसिंह की मुहब्बत ने उसके दिल में जगह बना ली थी। चंद्रकान्ता ने बड़ी मुहब्बत से वीरेंद्रसिंह का खत पढ़ा और तब तेजसिंह से बातचीत करने लगी। चंद्रकान्ता- "क्यों तेजसिंह, उनका मिजाज तो अच्छा है?" तेजसिंह- "मिजाज क्या खाक अच्छा होगा? खाना-पीना सब छूट गया, रोते-रोते आँखें सूज आईं, दिन-रात तुम्हारा ध्यान है, बिना तुम्हारे मिले उनको कब आराम है। हज़ार समझाता हूँ मगर कौन सुनता है। अभी उसी दिन तुम्हारी चिट्ठी लेकर मैं गया था, आज उनकी हालत देख फिर यहाँ आना पड़ा। कहते थे कि मैं खुद चलूँगा, किसी तरह समझा-बुझाकर यहाँ आने से रोका और कहा कि आज मुझको जाने दो, मैं जाकर वहाँ बंदोबस्त कर आऊँ तब तुमको ले चलूँगा जिससे किसी तरह का नुकसान न हो।" चंद्रकान्ता- "अफ़सोस। तुम उनको अपने साथ न लाए, कम-से-कम मैं उनका दर्शन तो कर लेती? देखो यहाँ क्रूरसिंह के दोनों ऐयारों ने इतना उधम मचा रखा है कि कुछ कहा नहीं जाता। पिताजी को मैं कितना रोकती और समझाती हूँ कि क्रूरसिंह के दोनों ऐयार मेरे दुश्मन हैं मगर महाराज कुछ नहीं सुनते, क्योंकि क्रूरसिंह ने उनको अपने वश में कर रखा है। मेरी और कुमार की मुलाक़ात का हाल बहुत कुछ बढ़ा-चढ़ाकर महाराज को किस तरह समझा दिया है कि महाराज उसे सच्चा बादशाह समझ गए हैं, वह हरदम महाराज के कान भरा करता है। अब वे मेरी कुछ भी नहीं सुनते, हाँ आज बहुत कुछ कहने का मौका मिला है क्योंकि आज मेरी प्यारी सखी चपला ने नादिम को इस पिछवाड़े वाले बाग में गिरफ़्तार कर लिया है, कल महाराज के सामने उसको ले जाकर तब कहूँगी कि आप अपने क्रूरसिंह की सच्चाई को देख लीजिए, अगर मेरे पहरे पर मुकर्रर किया ही था तो बाग के अंदर जाने की इजाजत किसने दी थी?" यह कहकर चंद्रकान्ता ने नादिम के गिरफ़्तार होने और बाग के तहखाने में कैद करने का सारा हाल तेजसिंह से कह सुनाया। तेजसिंह चपला की चालाकी सुनकर हैरान हो गए और मन-ही-मन उसको प्यार करने लगे, पर कुछ सोचने के बाद बोले- "चपला ने चालाकी तो खूब की मगर धोखा खा गई।" यह सुन चपला हैरान हो गई। "हाय राम! मैंने क्या धोखा खाया?" पर कुछ समझ में नहीं आया। आदिखर रहा नहीं गया, तेजसिंह से पूछा- "जल्दी बताओ, मैंने क्या धोखा खाया?" तेजसिंह ने कहा- "क्या तुम इस बात को नहीं जानती थीं कि नादिम बाग में पहुँचा तो अहमद भी ज़रूर आया होगा? फिर बाग ही में नादिम को क्यों छोड़ दिया? तुमको मुनासिब था कि जब उसको गिरफ़्तार किया ही था तो महल में लाकर कैद करती या उसी वक़्त महाराज के पास भिजवा देती, अब ज़रूर अहमद नादिम को छुड़ा ले गया होगा।" इतनी बात सुनते ही चपला के होश उड़ गए और बहुत शर्मिंदा होकर बोली- "सच है, बड़ी भारी गलती हुई, इसका किसी ने ख्याल नहीं किया।" तेजसिंह- "और कोई क्यों ख्याल करता। तुम तो चालाक बनती हो, ऐयार कहलाती हो, इसका ख्याल तुमको होना चाहिए था कि दूसरों को...? खैर, जाके देखो, वह है या नहीं?" चपला दौड़ी हुई बाग की तरफ़ गई। तहखाने के पास जाते ही देखा कि दरवाज़ा खुला पड़ा है। बस फिर क्या था? यकीन हो गया कि नादिम को अहमद छुड़ा ले गया। तहखाने के अंदर जाकर देखा तो खाली पड़ा हुआ था। अपनी बेवकूफ़ी पर अफ़सोस करती हुई लौट आई और बोली- "क्या कहूँ, सचमुच अहमद नादिम को छुड़ा ले गया।" अब तेजसिंह ने छेड़ना शुरू किया- "बड़ी ऐयार बनती थी, कहती थी हम चालाक हैं, होशियार हैं, ये हैं, वो हैं। बस एक अहम् ऐयार ने नाकों में दम कर दिया।" चपला झँझला उठी और चिढ़कर बोली- "चपला नाम नहीं जो अबकी बार दोनों को गिरफ़्तार कर इसी कमरे में लाकर बेहिसाब जदियाँ न लगाऊँ।" तेजसिंह ने कहा- "बस तुम्हारी करिगरी देखी गई, अब देखो, मैं कैसे एक-एक को गिरफ़्तार कर अपने शहर में ले जाकर कैद करता हूँ।" इसके बाद तेजसिंह ने अपने आने का पूरा हाल चंद्रकान्ता और चपला से कह सुनाया और यह भी बतला दिया कि फलाँ जगह पर मैं केतकी को बेहोश करके डाल आया हूँ, तुम जाकर उसे उठा लाना। उसके कपड़े मैं नहीं दूँगा क्योंकि इसी सूरत से बाहर चला जाता हूँ। देखो, सिवाय तुम तीनों को यह हाल और किसी को न मालूम हो, नहीं तो सब काम बिगड़ जाएगा। चंद्रकान्ता ने तेजसिंह से ताकीद की- "दूसरे-तीसरे दिन तुम ज़रूर यहाँ आया करो, तुम्हारे आने से हिम्मत बनी रहती है।" "बहुत अच्छा, मैं ऐसा ही करूँगा।" कहकर तेजसिंह चलने को तैयार हुए। चंद्रकान्ता उन्हें जाते देख रोकर बोली- "क्यों तेजसिंह, क्या मेरी किस्मत में कुमार की मुलाक़ात नहीं बनी है?" इतना कहते ही गला भर आया और वह फूट-फूट कर रोने लगी। तेजसिंह ने बहुत समझाया और कहा कि देखो, यह सब बखेड़ा इसी वास्ते किया जा रहा है जिससे तुम्हारी उनसे हमेशा के लिए मुलाक़ात हो, अगर तुम ही घबरा जाओगी तो कैसे काम चलेगा? बहुत अच्छी तरह समझा-बुझाकर चंद्रकान्ता को चुप कराया, तब वहाँ से रवाना हो केतकी की सूरत में दरवाज़े पर आए। देखा तो दो-चार प्यादे होश में आए हैं, बाकी चित्त पड़े हैं, कोई औंधा पड़ा है, कोई उठा तो है मगर फिर झटका ही जाता है। नकली केतकी ने डाँटकर दरबानों से कहा- "तुम लोग पहरा देते हो या ज़मीन सँघते हो?" इतनी अफीम क्यों खाते हो कि आँखें नहीं खुलतीं, और सोते हो तो मुँह से बाजी लगाकर। देखो, मैं बड़ी रानी से कहकर तुम्हारी क्या दशा कराती हूँ।" जो चौबदार होश में आ चुके थे, केतकी की बात सुनकर सन्न हो गए और लगे खुशामद करने- "देखो केतकी, माफ़ करो, आज एक नालायक सरकारी चौबदार ने आकर धोखा देकर ऐसा ज़हरीला हुक्का दिया दिया कि हम लोगों की यह हालत हो गई। उस पागल ने तो जान से मारना चाहा था, अल्लाह ने बचा लिया नहीं तो मारने में क्या कसर छोड़ी थी। देखो, रोज तो ऐसा नहीं होता था, आज धोखा खा गए। हम हाथ जोड़ते हैं, अब कभी ऐसा देखो तो जो चाहे सज़ा देना।" नकली केतकी ने कहा- "अच्छा, आज तो छोड़ देती हूँ मगर खबरदार। जो फिर कभी ऐसा हुआ।" यह कहते हुए तेजसिंह बाहर निकल गए। डर के मारे किसी ने यह भी नहीं पूछा कि केतकी तो कहाँ जा रही है।
बयान - 5 अहमद, जो बाग के पेड़ पर बैठा था, ने देखा कि चपला नजिम को गिरफ्तार कर महल में ले जाया गया। वह सोचने लगा कि चंदरकांता, चपला और चंपा—बस यही तीनों महल में गई हैं। नजिम इन सबके साथ नहीं गया, तो ज़रूर वह इस बगीचे में ही कहीं कैद होगा। यह सोचकर वह पेड़ से उतरा और इधर-उधर ढूँढ़ने लगा। जब वह उस तहखाने के पास पहुँचा जिसमें नजिम कैद था, तो भीतर से चिल्लाने की आवाज़ आई। उस आवाज़ को सुनकर उसने पहचान लिया कि नजिम की आवाज़ है। तहखाने का दरवाज़ा खोलकर वह अंदर गया। नजिम को बँधा पाकर झट से उसने उसकी रस्सी खोली और तहखाने के बाहर आकर बोला— "चलो जल्दी, इस बगीचे के बाहर हो जाएँ, तब सब हाल सुनें कि क्या हुआ।" नजिम और अहमद बगीचे के बाहर आए और चलते-चलते आपस में बातचीत करने लगे। नजिम ने चपला के हाथ में फँस जाने और कोड़ा खाने का पूरा हाल बताया। अहमद— "भाई नजिम, जब तक पहले चपला को हम लोग न पकड़ लेंगे, तब तक कोई काम नहीं होगा, क्योंकि चपला बड़ी चालाक है और धीरे-धीरे चंपा को भी तेज़ कर रही है। अगर वह गिरफ्तार नहीं की जाएगी, तो थोड़े ही दिनों में एक की दो हो जाएंगी। चंपा भी इस काम में तेज़ होकर चपला का साथ देने लायक हो जाएगी।" नजिम— "ठीक है, खैर, आज तो कोई काम नहीं हो सकता, मुश्किल से जान बची है। हाँ, कल पहले यही काम करना है, यानी जिस तरह से हो चपला को पकड़ना और ऐसी जगह छिपाना है जहाँ पता न लगे और अपने ऊपर किसी को शक भी न हो।" ये दोनों आपस में धीरे-धीरे बातें करते हुए चल रहे थे। थोड़ी देर में, जब वे महल के अगले दरवाज़े के पास पहुँचे, तो देखा कि केतकी, जो कुमारी चंदरकांता की लौंडी है, सामने से आ रही थी। तेजदिसंह, जो केतकी के वेश में चल रहा था, ने नजिम और अहमद को देखते ही पहचान लिया और सोचने लगा कि भले मौके पर ये दोनों मिल गए हैं और अपनी भी सूरत अच्छी है। इस समय इन दोनों से कुछ खेल करना चाहिए और बन पड़े तो दोनों नहीं, एक को तो ज़रूर ही पकड़ना चाहिए। तेजदिसंह जान-बूझकर इन दोनों के पास से होकर निकल गया। नजिम और अहमद भी यह सोचकर उसके पीछे हो लिए कि देखें कहाँ जाती है? नकली केतकी (तेजदिसंह) ने मुड़कर देखा और कहा— "तुम लोग मेरे पीछे-पीछे क्यों चले आ रहे हो? जिस काम पर मुकर्रर हो, उस काम को करो।" अहमद ने कहा— "किस काम पर मुकर्रर हैं और क्या करें? तुम क्या जानती हो?" केतकी ने कहा— "मैं सब जानती हूँ। तुम वही काम करो जिसमें चपला के हाथ की ज़दियाँ नसीब हों। जिस जगह तुम्हारे लिए एक लौंडी तक मददगार नहीं है, वहाँ तुम्हारे लिए क्या होगा?" नजिम और अहमद केतकी की बात सुनकर दंग रह गए और सोचने लगे कि यह तो बड़ी चालाक मालूम होती है। अगर हम लोगों के मेल में आ जाए, तो बड़ा काम निकले। इसकी बातों से मालूम भी होता है कि कुछ लालच देने पर वह हम लोगों का साथ देगी। नजिम ने कहा— "सुनो केतकी, हम लोगों का तो काम ही चालाकी करने का है। हम लोग अगर पकड़े जाने और मरने-मारने से डरें, तो कभी काम न चले। इसी की बदौलत खाते हैं, बात-की-बात में हज़ारों रुपये मिलते हैं, खुदा की मेहरबानी से तुम्हारे जैसे मददगार भी मिल जाते हैं, जैसे आज तुम मिल गईं। अब तुमको भी मुनासिब है कि हमारी मदद करो, जो कुछ हमको मिलेगा उससे हम तुमको भी हिस्सा देंगे।" केतकी ने कहा— "सुनो जी, मैं उम्मीद पर जान देने वाली नहीं हूँ, वे कोई दूसरे होंगे। मैं तो पहले दाम लेती हूँ। अब इस वक्त अगर कुछ मुझे दो, तो मैं अभी तेजदिसंह को तुम्हारे हाथ गिरफ्तार करा दूँ, नहीं तो जाओ, जो कुछ करते हो, करो।" तेजदिसंह की गिरफ्तारी का हाल सुनते ही दोनों की तबीयत खुश हो गई। नजिम ने कहा— "अगर तेजदिसंह को पकड़वा दो, तो जो कहो हम तुमको दें।" केतकी— "एक हज़ार रुपये से कम मैं हरगिज़ न लूँगी। अगर मंज़ूर हो, तो लाओ रुपये मेरे सामने रखो।" नजिम— "अब इस वक्त आधी रात को मैं कहाँ से रुपये लाऊँ? हाँ, कल ज़रूर दे दूँगा।" केतकी— "ऐसी बातें मुझसे न करो, मैं पहले ही कह चुकी हूँ कि मैं उधार सौदा नहीं करती, लो मैं जाती हूँ।" नजिम— (आगे से रोककर) "सुनो तो, तुम खफ़ा क्यों होती हो? अगर तुमको हम लोगों का ऐतबार न हो, तो तुम इसी जगह ठहरो, हम लोग जाकर रुपये ले आते हैं।" केतकी— "अच्छा, एक आदमी यहाँ मेरे पास रहे और एक आदमी जाकर रुपये ले आओ।" नजिम— "अच्छा, अहमद यहाँ तुम्हारे पास ठहरता है, मैं जाकर रुपये ले आता हूँ।" यह कहकर नजिम ने अहमद को वहीं छोड़ दिया और आप खुशी-खुशी क्रूरदिसंह की तरफ़ रुपये लेने को चला गया। नजिम के चले जाने के बाद थोड़ी देर तक केतकी और अहमद इधर-उधर की बातें करते रहे। बात करते-करते केतकी ने दो-चार इलायची बटेर से निकालकर अहमद को दीं और आप भी खाईं। अहमद को तेजदिसंह के पकड़े जाने की उम्मीद में इतनी खुशी थी कि कुछ सोच न सका और इलायची खा गया, मगर थोड़ी ही देर में उसका सिर घूमने लगा। तब उसे समझ आ गया कि यह कोई ऐयार (चालाक) है जिसने धोखा दिया। चट से कमर से खंजर खींचकर, बिना कुछ कहे, उसने केतकी को मारा, मगर केतकी पहले से होशियार थी। दाँव बचाकर उसने अहमद की कलाई पकड़ ली जिससे अहमद कुछ न कर सका। बल्कि जरा ही देर में बेहोश होकर वह जमीन पर गिर पड़ा। तेजदिसंह ने उसका मुँह बाँधकर, चादर में गठरी कसी और पीठ पर लादकर नौगढ़ का रास्ता लिया। खुशी के मारे वह जल्दी-जल्दी कदम बढ़ाते हुए चला गया, यह भी ख्याल था कि कहीं ऐसा न हो कि नजिम आ जाए और पीछा करे। इधर नजिम रुपये लेने के लिए गया तो सीधे क्रूरदिसंह के मकान पर पहुँचा। उस समय क्रूरदिसंह गहरी नींद में सो रहा था। जाते ही नजिम ने उसे जगाया। क्रूरदिसंह ने पूछा— "क्या है जो इस वक्त आधी रात के समय आकर मुझे उठा रहे हो?" नजिम ने क्रूरदिसंह से अपनी पूरी कहानी, यानी चंदरकांता के बाग में जाना और गिरफ्तार होकर कोड़े खाना, अहमद का छुड़ा लाना, फिर वहाँ से रवाना होना, रास्ते में केतकी से मिलना और हज़ार रुपये पर तेजदिसंह को पकड़वा देने की बातचीत तय करना वगैरह सब खुलासा हाल कह सुनाया। क्रूरदिसंह ने नजिम के पकड़े जाने का हाल सुनकर कुछ अफ़सोस तो किया, मगर पीछे तेजदिसंह के गिरफ्तार होने की उम्मीद सुनकर वह उछल पड़ा और बोला— "लो, अभी हज़ार रुपये देता हूँ, बल्कि खुद तुम्हारे साथ चलता हूँ।" यह कहकर उसने हज़ार रुपये संदूक में से निकाले और नजिम के साथ हो लिया। जब नजिम क्रूरदिसंह को साथ लेकर वहाँ पहुँचा जहाँ अहमद और केतकी को छोड़ा था, तो दोनों में से कोई न मिला। नजिम तो सन्न हो गया और उसके मुँह से झट यह बात निकल पड़ी कि "धोखा हुआ।" क्रूरदिसंह— "कहो नजिम, क्या हुआ?" नजिम— "क्या कहूँ, वह ज़रूर केतकी नहीं कोई ऐयार था जिसने पूरा धोखा दिया और अहमद को तो ले ही गया।" क्रूरदिसंह— "खैर, तुम तो बाग में ही चपला के हाथ से पिट चुके थे। अहमद बाकी था, सो वह भी इस वक्त कहीं जाकर खाता होगा, चलो छुट्टी हुई।" नजिम ने शक मिटाने के लिए थोड़ी देर तक इधर-उधर खोज भी की, पर कुछ पता न लगा। आखिर रोते-पीटते दोनों ने घर का रास्ता लिया। बयान - 6 तेजदिसंह को दिव्यगढ़ की तरफ़ भेजकर वीरेंदरदिसंह अपने महल में आए, मगर किसी काम में उनका दिल न लगता था। हरदम चंदरकांता की याद में सिर झुकाए बैठे रहना और जब कभी दिनरात हो जाना, तो चंदरकांता की तस्वीर अपने सामने रखकर बातें किया करना, या पलंग पर लेट मुँह ढाँपकर रोना, बस यही उनका काम था। अगर कोई पूछता, तो बातें बना देते थे। वीरेंदरदिसंह के बाप सुरेंदरदिसंह को वीरेंदरदिसंह का सब हाल मालूम था, मगर क्या करते, कुछ बस नहीं चलता था, क्योंकि दिव्यगढ़ का राजा उनसे बहुत ज़बर्दस्त था और हमेशा उन पर हक़ूमत रखता था। वीरेंदरदिसंह ने तेजदिसंह को दिव्यगढ़ जाते वक़्त कहा था कि "तुम आज ही लौट आना।" रात बारह बजे तक वीरेंदरदिसंह ने तेजदिसंह की राह देखी। जब वह न आया, तो उनकी घबराहट और भी ज़्यादा हो गई। आखिर अपने को सम्भाला और मशहरी पर लेटकर दरवाज़े की तरफ़ देखने लगे। सवेरा होने ही वाला था कि तेजदिसंह पीठ पर एक गठ्ठा लादे हुए आ पहुँचा। पहरे वाले इस हालत में उसे देखकर हैरान थे, मगर खौफ़ से कुछ कह नहीं सकते थे। तेजदिसंह वीरेंदरदिसंह के कमरे में पहुँचकर देखा कि अभी तक वे जाग रहे हैं। वीरेंदरदिसंह तेजदिसंह को देखते ही उठ खड़े हुए और बोले— "कहो भाई, क्या ख़बर लाये हो?" तेजदिसंह ने वहाँ का सब हाल सुनाया, चंदरकांता की चिट्ठी हाथ पर रख दी, अहमद को गठरी खोलकर दिखा दिया और कहा— "यह चिट्ठी है और यह सौगात है।" वीरेंदरदिसंह बहुत खुश हुए। चिट्ठी को कई बार पढ़ा और आँखों से लगाया, फिर तेजदिसंह से कहा— "सुनो भाई, इस अहमद को ऐसी जगह रखो जहाँ किसी को मालूम न हो। अगर जयदिसंह को खबर लगेगी, तो फ़साद बढ़ जाएगा।" तेजदिसंह— "इस बात को मैं पहले से सोच चुका हूँ। मैं इसको एक पहाड़ी खोह में रख आता हूँ जिसको मैं ही जानता हूँ।" यह कहकर तेजदिसंह ने फिर अहमद की गठरी बाँधी और एक प्यादे को भेजकर देवीदिसंह नामी ऐयार को बुलाया, जो तेजदिसंह का शागिर्द, दिली दोस्त और रिश्ते में साला लगता था, तथा ऐयारी के फ़न में भी तेजदिसंह से किसी तरह कम न था। जब देवीदिसंह आ गए, तब तेजदिसंह ने अहमद की गठरी अपनी पीठ पर लाद ली और देवीदिसंह से कहा— "आओ, हमारे साथ चलो, तुमसे एक काम है।" देवीदिसंह ने कहा— "गुरु जी, वह गठरी मुझे दो, मैं चलूँ, मेरे रहते यह काम आपको अच्छा नहीं लगता।" आखिर देवीदिसंह ने वह गठरी पीठ पर लाद ली और तेजदिसंह के पीछे चल पड़े। वे दोनों शहर के बाहर ही जंगल और पहाड़ियों में पेचीदे रास्तों में जाते-जाते दो कोस के करीब पहुँचकर एक अंधेरी खोह में घुसे। थोड़ी देर चलने के बाद कुछ रोशनी दिखी। वहाँ जाकर तेजदिसंह ठहर गए और देवीदिसंह से बोले— "गठरी रख दो।" देवीदिसंह— (गठरी रखकर) "गुरु जी, यह तो अजीब जगह है, अगर कोई आए भी, तो यहाँ से जाना मुश्किल हो जाएगा।" तेजदिसंह— "सुनो देवीदिसंह, इस जगह को मेरे सिवाय कोई नहीं जानता। तुमको अपना दिली दोस्त समझकर ले आया हूँ। तुम्हें अभी बहुत कुछ काम करना होगा।" देवीदिसंह— "मैं आपका ताबेदार हूँ, आप गुरु हो क्योंकि ऐयारी तुम ही ने मुझे सिखाई है। अगर मेरी जान की ज़रूरत पड़े, तो मैं देने को तैयार हूँ।" तेजदिसंह— "सुनो और जो बातें मैं तुमसे कहता हूँ, उनका अच्छी तरह ख्याल रखो। यह सामने जो पत्थर का दरवाज़ा देखते हो, इसको खोलना सिवाय मेरे कोई भी नहीं जानता, या फिर मेरे उस्ताद, जिन्होंने मुझे ऐयारी सिखाई, वे जानते थे। वे तो अब नहीं हैं, मर गए। इस समय सिवाय मेरे कोई नहीं जानता, और मैं तुमको इसका खोलना बता देता हूँ। जिस-जिस को मैं पकड़कर लाया करूँगा, इसी जगह लाकर कैद किया करूँगा जिससे किसी को मालूम न हो और कोई छुड़ा भी न ले जा सके। इसके अंदर कैद करने से कई दिनों तक हाथ-पैर बाँधने की ज़रूरत नहीं रहेगी, सिर्फ़ हिफ़ाज़त के लिए एक खुलासी बेड़ी उनके पैरों में डाल देनी पड़ेगी जिससे वह धीरे-धीरे चल-फिर सकें। कई दिनों के खाने-पीने की भी फ़िक्र तुमको नहीं करनी पड़ेगी क्योंकि इसके अंदर एक छोटी-सी कुदरती नहर है जिसमें बराबर पानी रहता है, यहाँ मेवों के दरख़्त भी बहुत हैं। इस ऐयार को इसी में कैद करते हैं। बाद में महाराज से यह बहाना करके कि आजकल मैं बीमार रहता हूँ, अगर एक महीने की छुट्टी मिले तो आबोहवा बदल आऊँ, महीने भर की छुट्टी ले लो। मैं कोशिश करके तुम्हें छुट्टी दिला दूँगा। तब तुम भेस बदलकर दिव्यगढ़ जाओ और बराबर वहीं रहकर इधर-उधर की ख़बर दिया करो। जो कुछ हाल हो मुझसे कहा करो और जब मौका देखो, तो बदमाशों को गिरफ्तार करके इसी जगह लाकर उनको कैद भी किया किया करो।" और भी बहुत-सी बातें देवीदिसंह को समझाने के बाद तेजदिसंह दरवाज़ा खोलने चले। दरवाज़े के ऊपर एक बड़ा-सा चेहरा शेर का बना हुआ था जिसके मुँह में हाथ बखूबी जा सकता था। तेजदिसंह ने देवीदिसंह से कहा— "इस चेहरे के मुँह में हाथ डालकर इसकी ज़ुबान बाहर खींचो।" देवीदिसंह ने वैसा ही किया और हाथ-भर के करीब ज़ुबान खींच ली। उसके खींचते ही एक आवाज़ हुई और दरवाज़ा खुल गया। अहमद की गठरी लिए हुए दोनों अंदर गए। देवीदिसंह ने देखा कि वह बहुत खुलासा जगह, बल्कि कोस भर का साफ़ मैदान है। चारों तरफ़ ऊँची-ऊँची पहाड़ियाँ जिन पर किसी तरह आदमी चढ़ नहीं सकता, बीच में एक छोटा-सा झरना पानी का बह रहा है और बहुत से जंगली मेवों के दरख़्तों से अजब सुहावनी जगह मालूम होती है। चारों तरफ़ की पहाड़ियाँ, नीचे से ऊपर तक छोटे-छोटे करंज, घुमची, बेर, मकोइया, चिरौंजी वगैरह के घने दरख़्तों और लताओं से भरी हुई हैं। बड़े-बड़े पत्थर के ढेर मस्त हाथी की तरह दिखाई देते हैं। ऊपर से पानी गिर रहा है जिसकी आवाज़ बहुत भली मालूम होती है। हवा चलने से पेड़ों की सरसराहट और पानी की आवाज़ तथा बीच में मोरों का शोर और भी दिल को खींच लेता है। नीचे जो चश्मा पानी का पश्चिम से पूरब की तरफ़ घूमता हुआ बह रहा है, उसके दोनों तरफ़ जामुन के पेड़ लगे हुए हैं और पके जामुन उस चश्मे के पानी में गिर रहे हैं। पानी भी चश्मे का इतना साफ़ है कि जमीन दिखाई देती है, कहीं हाथ भर, कहीं कमर बराबर, कहीं उससे भी ज़्यादा होगा। पहाड़ों में कुदरती खोह बने हैं जिनके देखने से मालूम होता है कि मानों ईश्वर ने यहाँ सैलानियों के रहने के लिए कोठरियाँ बना दी हैं। चारों तरफ़ की पहाड़ियाँ ढलवाँ और बनिस्बत नीचे के, ऊपर से ज़्यादा खुलासा थीं और उन पर बादलों के टुकड़े छोटे-छोटे शादीमानों का मज़ा दे रहे थे। यह जगह ऐसी सुहावनी थी कि वर्षों रहने पर भी किसी की तबीयत न घबराए, बल्कि खुशी मालूम हो। सुबह हो गई। सूरज निकला। तेजदिसंह ने अहमद की गठरी खोली। उसका ऐयारी का बटुआ और खंजर जो कमर में बँधा था, ले लिया और एक बेड़ी उसके पैर में डालने के बाद उसे होश में लाया। जब अहमद होश में आया और उसने अपने को इस दिलचस्प मैदान में देखा, तो यकीन हो गया कि वह मर गया है और फिरिश्ते उसको यहाँ ले आए हैं। वह कलमा पढ़ने लगा। तेजदिसंह के उसके कलमा पढ़ने पर हँसी आई। बोले— "दिलीप साहब, आप हमारे कैदी हैं, इधर देखिए।" अहमद ने तेजदिसंह की तरफ़ देखा, पहचानते ही उसकी जान सँक गई। उसे समझ आ गया कि तब न मरे तो अब मरे। बीवी केतकी की सूरत आँखों के सामने फिर गई। खौफ़ ने उसका गला ऐसा दबाया कि एक हाँफ़ भी मुँह से न निकल सका। अहमद को उसी मैदान में चश्मे के किनारे छोड़कर दोनों ऐयार बाहर निकल आए। तेजदिसंह ने देवीदिसंह से कहा— "इस शेर की ज़ुबान जो तुमने बाहर खींच ली है, उसी के मुँह में डाल दो।" देवीदिसंह ने वैसा ही किया। ज़ुबान उसके मुँह में डालते ही जोर से दरवाज़ा बंद हो गया और दोनों आदमी उसी पेचीदे राह से घर की तरफ़ रवाना हुए। पहर भर दिन चढ़ा होगा, जब ये दोनों लौटकर वीरेंदरदिसंह के पास पहुँचे। वीरेंदरदिसंह ने पूछा— "अहमद को कहाँ कैद करने ले गए थे जो इतनी देर लगी?" तेजदिसंह ने जवाब दिया— "एक पहाड़ी खोह में कैद कर आया हूँ। आज आपको भी वह जगह दिखाऊँगा, पर मेरी राय है कि देवीदिसंह थोड़े दिन भेस बदलकर दिव्यगढ़ में रहे। ऐसा करने से मुझे बड़ी मदद मिलेगी।" इसके बाद वह सब बातें भी वीरेंदरदिसंह को कह सुनाईं जो खोह में देवीदिसंह को समझाई थीं और जो कुछ राय ठहरी थी, वह भी कहा जिससे वीरेंदरदिसंह ने बहुत पसंद किया। स्नान-पूजा और मामूली कामों से फुर्सत पाकर दोनों आदमी देवीदिसंह को साथ लिए राजदरबार में गए। देवीदिसंह ने छुट्टी के लिए अर्ज़ किया। राजा देवीदिसंह को बहुत चाहते थे, छुट्टी देना मंज़ूर न था। कहने लगे— "हम तुम्हारी दवा यहीं कराएँगे।" आखिर वीरेंदरदिसंह और तेजदिसंह की सिफ़ारिश से छुट्टी मिल गई। दरबार बख़ास्त होने पर वीरेंदरदिसंह राजा के साथ महल में चले गए और तेजदिसंह अपने पिता जीतदिसंह के साथ घर आए, देवीदिसंह को भी साथ लाए और सफ़र की तैयारी कर उसी समय उनको रवाना कर दिया। जाते वक़्त उन्हें और भी बातें समझा दीं। दूसरे दिन तेजदिसंह अपने साथ वीरेंदरदिसंह को उस घाटी में ले गया जहाँ अहमद को कैद किया था। कुमार उस जगह को देखकर बहुत ही खुश हुए और बोले— "भाई, इस जगह को देखकर तो मेरे दिल में बहुत-सी बातें पैदा होती हैं।" तेजदिसंह ने कहा— "पहले-पहल इस जगह को देखकर मैं तो आपसे भी ज़्यादा हैरान हुआ था, मगर गुरु जी ने बहुत कुछ हाल वहाँ का समझाकर मेरी दिलजमी कर दी थी, जो किसी दूसरे वक़्त आपसे कहूँगा।" वीरेंदरदिसंह इस बात को सुनकर और भी हैरान हुए और उस घाटी की कहानी जानने के लिए ज़िद करने लगे। आखिर तेजदिसंह ने वहाँ का हाल जो कुछ अपने गुरु से सुना था, कहा, जिससे सुनकर वीरेंदरदिसंह बहुत प्रसन्न हुए। तेजदिसंह ने वीरेंदरदिसंह से कहा कि वे इतना खुश क्यों हुए और यह घाटी कैसी थी, यह सब हाल किसी दूसरे मौके पर बयान किया जाएगा। वे दोनों वहाँ से रवाना होकर अपने महल आए। कुमार ने कहा— "भाई, अब तो मेरा हौसला बहुत बढ़ गया है। जी में आता है कि जयदिसंह से लड़ जाऊँ।" तेजदिसंह ने कहा— "आपका हौसला ठीक है, मगर जल्दी करने से चंदरकांता की जान का खौफ़ है। आप इतना घबराते क्यों हैं? देखिए तो क्या होता है? कल मैं फिर जाऊँगा और मालूम करूँगा कि अहमद के पकड़े जाने से दुश्मनों की क्या कहानी हुई, फिर दूसरी बार आपको ले चलूँगा।" वीरेंदरदिसंह ने कहा— "नहीं, अब की बार मैं ज़रूर चलूँगा, इस तरह एकदम डरपोक होकर बैठे रहना मर्दों का काम नहीं।" तेजदिसंह ने कहा— "अच्छा, आप भी चलिए, हर्ज क्या है, मगर एक काम होना ज़रूरी है, जो यह कि महाराज से पाँच-चार रोज़ के लिए शिकार की छुट्टी लीजिए और अपनी सरहद पर डेरा डाल दीजिए। वहाँ से कुल ढाई कोस चंदरकांता का महल रह जाएगा, तब हर तरह का सुभीता होगा।" इस बात को वीरेंदरदिसंह ने भी पसंद किया और आखिर यही राय पक्की ठहरी। कुछ दिन बाद वीरेंदरदिसंह ने अपने पिता सुरेंदरदिसंह से शिकार के लिए आठ दिन की छुट्टी ले ली और थोड़े-से अपने दिली आदमियों को, जो ख़ास उन्हीं के ख़दमती थे और उनको जान से ज़्यादा चाहते थे, साथ ले रवाना हुए। थोड़ा-सा दिन बाकी था तब नौगढ़ और दिव्यगढ़ के सिवाये पर इन लोगों का डेरा पड़ गया। रात भर वहाँ मुक़ाम रहा और यह राय ठहरी कि पहले तेजदिसंह दिव्यगढ़ जाकर हाल-चाल ले आएँ।
बयान - 7
अहमद के पकड़े जाने से नजिम बहुत उदास हो गया था, और क्रूरसिंह को अपनी ही चिंता सताने लगी थी कि कहीं तेजसिंह उसे भी न पकड़ ले जाए। इस भय से वह सदैव चौकन्ना रहता था; परन्तु महाराज जयसिंह के दरबार में प्रतिदिन आता और वीरेंदरसिंह के विरुद्ध उन्हें भड़काता रहता था।
एक दिन नजिम ने क्रूरसिंह को यह सलाह दी थी कि वह किसी भी तरह अपने पिता कुपथसिंह को मार डाले; उसके मरने के बाद जयसिंह अवश्य उसे मंत्री बनाएँगे। उस समय उसकी हुकूमत हो जाने से सभी कार्य शीघ्र सम्पन्न होंगे।
आदि खर, क्रूरसिंह ने ज़हर दिलवाकर अपने पिता को मरवा डाला था। महाराज ने कुपथसिंह के मृत्यु पर शोक व्यक्त किया और कई दिन तक दरबार नहीं आए थे। शहर में भी कुपथसिंह के मृत्यु का शोक व्याप्त हो गया था।
क्रूरसिंह ने प्रकट रूप से अपने पिता के मृत्यु का भारी मातम किया और बारह दिनों के लिए अलग दिवस्तर जमाया था। दिन भर तो वह अपने पिता को रोता था, परन्तु रात्रि को नजिम के साथ बैठकर चंद्रकांता से मिलने तथा तेजसिंह और वीरेंदरसिंह को गिरफ्तार करने की योजना बनाता था। इन्हीं दिनों वीरेंदरसिंह ने भी शिकार के बहाने विजयगढ़ की सीमा पर डेरा डाल दिया था, जिसकी सूचना नजिम ने क्रूरसिंह को दी और कहा –
"वीरेंदरसिंह अवश्य चंद्रकांता की चिंता में आया है, अफ़सोस। इस समय अहमद ना होता, तो बड़ा काम बन जाता। खैर, देखा जाएगा।"
यह कहकर वह क्रूरसिंह से विदा होकर, टोह लेने के लिए निकल गया था।
तेजसिंह वीरेंदरसिंह से विदा होकर विजयगढ़ पहुँचे थे और मंत्री के मृत्यु तथा शहर भर में शोक छाए होने का समाचार लेकर वीरेंदरसिंह के पास लौट आए थे। यह भी खबर लाये थे कि दो दिन बाद सतक निकल जाने पर महाराज जयसिंह क्रूर को अपना दीवान बनाएँगे।
वीरेंदरसिंह: "देखो, क्रूर ने अपने बाप को मार डाला। अगर राजा को भी मार डाले तो ऐसे आदमी का क्या भरोसा?"
तेजसिंह: "सच है, वह निकम्मा जहाँ तक भी पहुँचेगा, राजा पर भी शीघ्र ही हाथ साधेगा। अस्तु, अब हम दो दिन चंद्रकांता के महल में न जाकर दरबार का ही हालचाल लेंगे। हाँ, इस बीच में यदि अवसर मिले तो देखा जाएगा।"
वीरेंदरसिंह: "सोचा सब कुछ नहीं, चाहे जो हो, आज मैं चंद्रकांता से अवश्य मुलाक़ात करूँगा।"
तेजसिंह: "आप जल्दी न करें, जल्दबाजी से कार्य बिगड़ जाते हैं।"
वीरेंदरसिंह: "जो भी हो, मैं तो अवश्य जाऊँगा।"
तेजसिंह ने बहुत समझाया, परन्तु चंद्रकांता के वियोग में उन्हें क्या सूझता था? वे नहीं माने और चलने के लिए तैयार हो ही गए थे। अंत में तेजसिंह ने कहा –
"खैर, नहीं मानते तो चलिए, जब आपकी ऐसी इच्छा है तो हम क्या करें? जो कुछ होगा देखा जाएगा।"
शाम के समय ये दोनों टहलने के लिए डेरे से बाहर निकले थे और अपने सिपाहियों से कहा था कि यदि हमारे आने में देर हो तो घबराना मत। टहलते हुए दोनों विजयगढ़ की ओर चल दिए थे।
कुछ देर रात्रि बीती होगी, जब वे चंद्रकांता के उसी नज़रबाग के पास पहुँचे जहाँ का वर्णन पहले हो चुका है।
रात्रि अंधेरी थी, इसलिए इन दोनों को बाग में जाने में कोई भय नहीं करना पड़ा था। पहरों वालों को बचाकर क़मंद फेंका और उसके द्वारा बाग के अंदर एक घने पेड़ के नीचे खड़े होकर, इधर-उधर दृष्टि दौड़ाने लगे थे।
बाग के मध्य में संगमरमर के एक साफ़ चिकने चबूतरे पर मोमबत्ती का दीपक जल रहा था। चंद्रकांता, चपला और चंपा बैठी बातें कर रही थीं। चपला बातें करती जाती थी और इधर-उधर तेज़ी से दृष्टि भी दौड़ा रही थी।
चंद्रकांता को देखते ही वीरेंदरसिंह का अजीब हाल हो गया था, बदन में कंपकंपी होने लगी थी, यहाँ तक कि वे बेहोश होकर गिर पड़े थे। परन्तु वीरेंदरसिंह की यह अवस्था देख तेजसिंह पर कोई प्रभाव नहीं हुआ था। उसने झट अपने ऐयारी बट्टे से लखलखा निकालकर सुँघा दिया और होश में लाकर कहा –
"देखिए, पराये घर में आपको इस प्रकार बेहोश नहीं होना चाहिए। अब आप अपने आप को संभालिए और यहीं ठहरिए, मैं जाकर बात कर आता हूँ, तब आपको ले चलूँगा।"
यह कहकर उन्हें उसी पेड़ के नीचे छोड़कर, उस स्थान पर गया जहाँ चंद्रकांता, चपला और चंपा बैठी थीं।
तेजसिंह को देखते ही चंद्रकांता बोली –
"क्यों जी इतने दिन कहाँ रहे? क्या इसी को मर्यादा कहते हैं? अबकी आए तो अकेले ही आए। वाह, ऐसा ही था तो हाथ में चूड़ी पहन लेते, शर्मिंदा होकर डींग क्यों मारते हैं? जब उनकी प्रेम का यही हाल है तो मैं जीकर क्या करूँगी?"
कहकर चंद्रकांता रोने लगी थी, यहाँ तक कि हिचकी बंद गई थी। तेजसिंह उसकी अवस्था देख बहुत घबराए और बोले –
"बस, इसी को नादानी कहते हैं। अच्छे से हाल भी न पूछा और लगीं रोने, ऐसा ही है तो उनको ले आता हूँ।"
यह कहकर तेजसिंह वहाँ गए जहाँ वीरेंदरसिंह को छोड़ा था और उनको अपने साथ लेकर चंद्रकांता के पास लौटे थे। चंद्रकांता वीरेंदरसिंह से मिलकर बड़ी प्रसन्न हुई, दोनों मिले और खूब रोए, यहाँ तक कि बेहोश हो गए; परन्तु थोड़ी देर बाद होश में आ गए और आपस में शिकायतें करने लगे, प्रेम की बातें करने लगे।
अब जमाने का उलटफेर देखिए। घूमता-फिरता टोह लगाता नजिम भी उसी स्थान पर आ पहुँचा था और दर से इन सभी की प्रसन्नतापूर्ण सभा देखकर जलने लगा। तुरंत ही लौटकर क्रूरसिंह के पास पहुँचा था। क्रूरसिंह ने नजिम को घबराया हुआ देखकर पूछा –
"क्यों, क्या बात है जो तुम इतने घबराए हुए हो?"
नजिम: "है क्या, जो मैं सोचता था वही हुआ। यही समय चालाकी का है, अगर अब भी कुछ न बन पाया तो बस तुम्हारी किस्मत खराब हो गई, ऐसा ही समझना पड़ेगा।"
क्रूरसिंह: "तुम्हारी बातें तो कुछ समझ में नहीं आतीं, स्पष्ट कहो, क्या बात है?"
नजिम: "स्पष्ट यही है कि वीरेंदरसिंह चंद्रकांता के पास पहुँच गया है और इस समय बाग में हँसी के क़हक़हे गूँज रहे हैं।"
यह सुनते ही क्रूरसिंह की आँखों के आगे अँधेरा छा गया था, दुनिया उदासीन मालूम होने लगी थी। जहाँ वह अपने पिता के प्रकट शोक में बैठा था, तेरह दिनों तक कहीं बाहर जाना संभव नहीं था; परन्तु इस समाचार ने उसे अपने आपे में नहीं रहने दिया था। वह तुरंत उठ खड़ा हुआ और उसी अवस्था में महाराज जयसिंह के पास पहुँचा था। जयसिंह क्रूरसिंह को इस तरह आया देख हैरान होकर बोले –
"क्रूरसिंह, सतक और पिता का शोक छोड़कर तुम्हारा इस तरह आना मुझे आश्चर्य में डाल रहा है।"
क्रूरसिंह ने कहा – "महाराज, हमारे पिता तो आप ही हैं, उन्होंने हमें जन्म दिया, पालन-पोषण आपकी कृपा से हुआ है। जब आपकी प्रतिष्ठा में कलंक लगे तो मेरी ज़िंदगी किस काम की है और मैं किस लायक जीऊँगा?"
जयसिंह: (क्रोध में आकर) "क्रूरसिंह, ऐसा कौन है जो हमारी प्रतिष्ठा बिगाड़े?"
क्रूरसिंह: "एक तुच्छ व्यक्ति।"
जयसिंह: (दाँत पीसकर) "शीघ्र बताओ, वह कौन है, जिसके सिर पर मृत्यु सवार है?"
क्रूरसिंह: "वीरेंदरसिंह।"
जयसिंह: "उसकी क्या मजाल जो मेरा मुक़ाबला करे, प्रतिष्ठा बिगाड़ना तो दूर की बात है। तुम्हारी बात कुछ समझ में नहीं आती, स्पष्ट रूप से शीघ्र बताओ, क्या बात है? वीरेंदरसिंह कहाँ है?"
क्रूरसिंह: "आपके महल के बाग में।"
यह सुनते ही महाराज का बदन क्रोध से काँपने लगा था। वे व्याकुल होकर आदेश दिए – "अभी जाकर बाग को घेर लो, मैं कोट की राह से वहाँ जाता हूँ।"
बयान - 8
वीरेंदरसिंह चंद्रकांता से मधुर बातें कर रहे थे, चपला से तेजसिंह बातें कर रहे थे, चंपा निरीह इन लोगों का मुँह ताक रही थी। अचानक एक काला कल्लटा आदमी, सिर से पैर तक काला, लाल-लाल आँखें, लँगोटा पहने, उछलता-कूदता इन सबके बीच में आ खड़ा हुआ था। पहले तो उसने ऊपर से नीचे तक दाँत दिखाकर तेजसिंह की ओर इशारा किया, तब बोला –
"ख़बर भई, राजा को तुम्हारी सुनो गुरु जी मेरे।"
इसके बाद वह उछलता-कूदता चला गया था। जाते समय उसने चंपा का पैर पकड़कर थोड़ी दूर तक घसीटा, अंत में छोड़ दिया था। यह देख सभी हैरान और भयभीत हो गए थे कि यह दीपशाच कहाँ से आ गया? चंपा तो चीख़ उठी थी, परन्तु तेजसिंह तुरंत खड़े हुए और वीरेंदरसिंह का हाथ पकड़कर बोले –
"चलो, शीघ्र उठो, अब बैठने का समय नहीं।"
चंद्रकांता की ओर देखकर बोले –
"हम लोगों के शीघ्र चले जाने का दुःख तुम मत करना और जब तक महाराज यहाँ न आएँ, इसी प्रकार सभी बैठी रहना।"
चंद्रकांता: "इतनी जल्दी करने का कारण क्या है और वह कौन था जिसकी बात सुनकर भागना पड़ा?"
तेजसिंह: (शीघ्रता से) "अब बात करने का समय नहीं रहा।"
यह कहकर वीरेंदरसिंह को जबरदस्ती उठाया और साथ लेकर क़मंद के द्वारा बाग से बाहर हो गए थे।
चंद्रकांता को वीरेंदरसिंह का इस प्रकार चला जाना बहुत बुरा लगा था। आँखों में आँसू भर चपला से बोली –
"यह क्या तमाशा हो गया, कुछ समझ में नहीं आता। उस दीपशाच को देखकर मैं कितनी डरी, मेरे हृदय पर हाथ रखकर देखो, अभी तक धड़क रहा है। तुमने क्या सोचा?"
चपला: "कुछ ठीक समझ में नहीं आता। हाँ, इतना अवश्य है कि इस समय वीरेंदरसिंह के यहाँ आने की सूचना महाराज को हो गई है, वे अवश्य आ रहे होंगे।"
चंपा: "न मालूम मुझे उससे क्या वैर था?"
चंपा की बात पर चपला को हँसी आ गई, परन्तु वह हैरान थी कि यह क्या खेल हो गया? थोड़ी देर तक इसी प्रकार के आश्चर्यपूर्ण बातें होती रहीं, इतने में ही बाग के चारों ओर शोरगुल की आवाज़ें आने लगीं।
चपला: "बुरे संकेत दिखाई देने लगे हैं, मालूम होता है बाग को सिपाहियों ने घेर लिया है।"
बात पूरी भी न हुई थी कि सामने महाराज आते हुए दिखाई दिए थे।
देखते ही देखते सभी खड़ी हो गईं। चंद्रकांता ने आगे बढ़कर महाराज के समक्ष सिर झुकाया और कहा –
"इस समय आपके अचानक आने…"
इतना कहकर वह चुप हो रही थी।
जयसिंह: "कुछ नहीं, तुम्हें देखने को मन किया, इसीलिए आ गए। अब तुम भी महल में जाओ, यहाँ क्यों बैठी हो? ओस पड़ती है, तुम्हारी तबीयत खराब हो जाएगी।"
यह कहकर वे महल की ओर चल दिए थे।
चंद्रकांता, चपला और चंपा भी महाराज के पीछे-पीछे महल में गई थीं। जयसिंह अपने कमरे में आए और मन में बहुत लज्जित होकर कहने लगे –
"देखो, हमारी निर्दोष कन्या को क्रूरसिंह झूठा बदनाम करता है। न मालूम इस निकम्मे के हृदय में क्या समाया है, बेधड़क उस बेचारी को दोष लगा दिया। यदि कन्या सुनेगी तो क्या कहेगी? ऐसे शैतान का तो मुँह नहीं देखना चाहिए, बदले की सज़ा देनी चाहिए, जिससे फिर ऐसा नीचता न करे।"
यह सोचकर उन्होंने हरिदास नाम के एक चौबदार को आदेश दिया कि शीघ्र ही क्रूरसिंह को हाजिर करे।
हरिदास क्रूरसिंह को खोजता हुआ बाग के पास पहुँचा था, जहाँ वह अनेक लोगों के साथ प्रसन्नतापूर्वक बाग को घेरे हुए था।
हरिदास: "चलिए, महाराज ने बुलाया है।"
क्रूरसिंह घबरा उठा था कि महाराज ने क्यों बुलाया? क्या चोर नहीं मिला? महाराज तो मेरे सामने महल में चले गए थे।
क्रूरसिंह: "महाराज क्या कह रहे हैं?"
हरिदास: "अभी महल से आए हैं, क्रोध से भरे बैठे हैं, आपको शीघ्र बुलाया है।"
यह सुनते ही क्रूरसिंह घबरा गया। डरता-काँपता हुआ वह हरिदास के साथ महाराज के पास पहुँचा था।
जयसिंह: "क्यों बे क्रूर, बेचारी चंद्रकांता को इस प्रकार झूठा बदनाम करना और हमारी प्रतिष्ठा में कलंक लगाना, यही तेरा काम है? ये इतने लोग जो बाग को घेरे हुए हैं, अपने मन में क्या कहेंगे? निकम्मा, मूर्ख, पागल, तूने कैसे कहा कि महल में वीरेंदर है?"
अत्यधिक क्रोध से महाराज जयसिंह के होंठ काँप रहे थे, आँखें लाल हो रही थीं। यह दृश्य देख क्रूरसिंह की जान निकल गई, घबराकर बोला –
"मुझे तो यह सूचना नजिम ने दी थी जो वर्तमान में महल के पहरे पर नियुक्त है।"
यह सुनते ही महाराज ने आदेश दिया – "बुलाओ नजिम को।"
थोड़ी देर में नजिम भी हाजिर कर दिया गया था। क्रोध से भरे हुए महाराज के मुँह से स्पष्ट आवाज़ नहीं निकलती थी। टूटे-फूटे शब्दों में नजिम से पूछा –
"क्यों बे, तूने कैसी सूचना दी?"
उस समय भय से उसकी क्या दशा थी, वही जानता होगा, वह जीवित रहने से निराश हो चुका था। डरता हुआ बोला –
"मैंने तो अपनी आँखों से देखा था साहब, शायद किसी प्रकार भाग गया होगा।"
जयसिंह का क्रोध सहन नहीं हुआ, उन्होंने आदेश दिया – "पचास कोड़े क्रूरसिंह को और दो सौ कोड़े नजिम को लगाए जाएँ। बस इतने ही पर छोड़ देता हूँ, आगे फिर कभी ऐसा हुआ तो सिर उतार दिया जाएगा। क्रूर तू वज़ीर होने लायक नहीं है।"
अब क्या था, लगे दो तगड़े कोड़े पड़ने। उनके चीखने से महल गूंज उठा था, परन्तु महाराज का क्रोध शांत नहीं हुआ था। जब दोनों पर कोड़े पड़ चुके तो उनको महल से बाहर निकलवा दिया गया और महाराज आराम करने चले गए; परन्तु क्रोध के कारण उन्हें रात भर नींद नहीं आई थी।
क्रूरसिंह और नजिम दोनों घर आए और एक स्थान पर बैठकर झगड़ने लगे थे। क्रूर नजिम से कहने लगा –
"तेरी बदौलत आज मेरी प्रतिष्ठा मिट्टी में मिल गई। कल दीवान होने की आशा भी नहीं रही, मार खाई उसकी पीड़ा मैं ही जानता हूँ, यह तेरी ही बदौलत हुआ।"
नजिम: "मैं तुम्हारी बदौलत मारा गया, नहीं तो मुझे क्या काम था? नरक में जाती चंद्रकांता और वीरेंदर, मुझे क्या पड़ी थी जो मैं जता खाता।"
ये दोनों आपस में इस प्रकार घंटों झगड़ते रहे थे।
अंत में क्रूरसिंह ने कहा – "हम दोनों पर लानत है यदि इतनी सज़ा पाने पर भी वीरेंदर को गिरफ़्तार न किया।"
नजिम: "इसमें तो कोई संदेह नहीं कि वीरेंदर अब रोज़ महल में आएगा, क्योंकि इसी हेतु उसने अपना डेरा सीमा पार ले आया है; परन्तु अब कोई कार्य करने का उत्साह नहीं रह गया है। कहीं फिर मैं देख और सूचना देने पर वह दुबारा निकल जाए तो अबकी अवश्य ही जान से मारा जाऊँगा।"
क्रूरसिंह: "तब तो कोई ऐसी युक्ति करनी चाहिए जिससे जान भी बचे और वीरेंदरसिंह को अपनी आँखों से महाराज जयसिंह महल में देख भी लें।"
बहुत देर विचार करने के बाद नजिम ने कहा – "चुनारगढ़ महाराज शिवदत्तसिंह के दरबार में एक पंडित जगन्नाथ नामक ज्योतिषी है जो ज्योतिष भी बहुत अच्छा जानते हैं। उनके ज्योतिष करने में इतनी कुशलता है कि जब चाहो पूछ लो कि फ़लाँ व्यक्ति इस समय कहाँ है, क्या कर रहा है या कैसे पकड़ा जाएगा? वह तुरंत बता देते हैं। उनको यदि बुलाया जाए और वे यहाँ आकर कुछ दिन रहकर तुम्हारी सहायता करें तो सभी कार्य ठीक हो जाएँगे। चुनारगढ़ यहाँ से बहुत दूर भी नहीं है, कुल तेईस कोस है, चलो हम दोनों चलें और किसी भी प्रकार उन्हें ले आएँ।"
अंत में क्रूरसिंह ने अनेक हीरे-जवाहरात अपनी कमर में बाँधकर, दो तेज घोड़े मँगवाए, नजिम के साथ सवार हो उसी समय चुनारगढ़ की ओर रवाना हो गया और घर में सभी से कहा कि यदि महाराज के यहाँ से कोई आए तो कह देना कि क्रूरसिंह बहुत बीमार है।