Novel Cover Image

इश्क़ मुबारक (A Contract Marriage)

User Avatar

Aarya Rai

Comments

16

Views

29217

Ratings

939

Read Now

Description

"कभी-कभी ज़िंदगी वही देती है, जिससे हम सबसे ज़्यादा भागते हैं..." इशान को शादी से चिढ़ थी — उसे लगता था ये रिश्ता सिर्फ बोझ होता है। और कशिश? उसे शादी का नाम सुनते ही एलर्जी हो जाती थी! लेकिन किस्मत ने ऐसी चाल चली, कि दोनों को शादी करनी पड़ी —...

Total Chapters (162)

Page 1 of 9

  • 1. इश्क़ मुबारक (A Contract Marriage) - Chapter 1

    Words: 2632

    Estimated Reading Time: 16 min

    सुबह लगभग सात बजे थे। विश्वनाथ गली के मोड़ पर बने मकान में, जिसके बाहर "मिश्रा निवास" लिखा था, एक आवाज़ गूंज रही थी।

    "ईशान कब तक छत पर खड़ा होकर अकेले, दूर से ही घाट को, गंगा मैया को निहारता रहेगा? शादी करके किसी ऐसी को घर ले आ, जिसके साथ घाट पर जाकर, वहाँ की खूबसूरती और सुबह के इस मनोरम दृश्य को करीब से देख सके।"

    यह आवाज़ ईशान की बड़ी बहन रजनी की थी। ईशान उस वक़्त रोज़ की तरह अपनी घर की छत पर खड़ा, खामोशी से घाट और गंगा मैया को देख रहा था। उसकी घर की छत से घाट दिखता था और ईशान की सुबह रोज़ ऐसे ही होती थी। घाट पर कई श्रद्धालु नज़र आ रहे थे, आकाश में सूरज अपनी लालिमा फैलाने लगा था और उस लालिमा से गंगा नदी का पानी भी रंग गया था।

    आकाश में मौजूद सूरज का अक्ष पानी में कुछ इस प्रकार उभर आया था, मानो जैसे एक सूरज आकाश को अपने प्रकाश से रोशन कर रहा था, तो दूसरा सूरज गंगा मैया की तह में बैठा आराम फरमा रहा था। उसका प्रतिबिम्ब उन लहरों पर बन और बिगड़ रहा था। उसकी सुनहरी किरणों से गंगा मैया का निर्मल जल सूरज सा दमक उठा था। ठंडी हवाओं के साथ गंगा नदी की लहरें भी बलखा रही थीं।

    बड़ा ही मनोरम दृश्य था वह, जब आकाश से धरती तक सब एक रंग से सराबोर था और दूर से देखने पर गंगा नदी के विशाल रूप का आकाश से संगम का नज़ारा देखने को मिलता था। गंगा की लहरों को देखकर ईशान को हमेशा से सुकून मिलता था और जैसे हर बार पीछे हटने के बाद वह लहरें पहले से ज़्यादा वेग के साथ आगे बढ़ती थीं, ताकि घाट की सीढ़ियों को पार करके अपने प्रियतम, विश्वनाथ के चरण पखार सकें। वैसे ही ज़िंदगी की हर मुश्किल से लड़कर, ईशान आगे बढ़ता था, ताकि अपने पापा का सपना साकार कर सके।

    ईशान, जो अधरों पर मुस्कान सजाए गंगा नदी और घाट को देख रहा था, रजनी की आवाज़ सुनकर उसकी मुस्कान कुछ गहरी हो गई। उसने पलट कर देखा तो रजनी पीछे ही खड़ी थी।

    "दीदी आप रोज़ यही बात, कह-कहकर थकती नहीं है?"

    ईशान की बात सुनकर रजनी ने मुँह बनाते हुए कहा, "तू सुनता ही नहीं है मेरी। कर ले ना शादी, इस घर में कोई आ जाएगी तेरा ख्याल रखने वाली, तो मैं भी अपने बारे में सोच सकूँगी। तू ही बता...और कितना इंतज़ार करवाऊँ मैं अभिषेक और उसके घरवालों को?"

    "तो क्यों करवा रही हैं आप जीजा जी से इंतज़ार? मैंने तो कहा है ना आपसे कि कर लीजिए शादी, मैं कोई बच्चा तो नहीं हूँ जो मेरे वजह से आप अपनी ज़िंदगी खराब करें। इतना बड़ा हो गया हूँ कि अपना ध्यान खुद से रख सकता हूँ। फिर किस बात की चिंता है आपको? कहो तो आज ही जाकर शादी की तारीख़ निकलवा आऊँ?"

    ईशान ने जैसे ही अपनी बात पूरी की, रजनी ने तुरंत ही एतराज जता दिया।

    "नहीं...पहले तेरी शादी होगी, फिर मेरी शादी होगी। अब तो तू, बस इतना बता कि...क्यों शादी से इतना भागता है तू?"

    उनका यह सवाल सुनकर ईशान एक पल को खामोश रह गया। उसके चेहरे पर विषाद के भाव उभर आए और आँखों में अनकहा सा दर्द और मौन शिकायत झलकने लगी, जिसे शायद वह कभी जाहिर नहीं कर सका था। फिर उसने ठंडी आह भरी और हमेशा की तरह, अपने मनोभावों को अपने मन में छुपाते हुए, बिना किसी भाव के बोला,

    "आप वजह से बखूबी वाकिफ हैं दीदी, फिर भी अनजान बनती हैं?"

    "हर लड़की माँ जैसी नहीं होती इशु।"

    रजनी के लबों से धीमे से स्वर निकले। चेहरा दर्द और नाराज़गी से भर उठा। उसकी बात सुनकर ईशान ने सहमति में सिर हिलाते हुए कहा,

    "बिल्कुल...हर लड़की माँ जैसी नहीं होती, इस बात से मैं भी पूरी तरह सहमत हूँ। पर क्या गारंटी है कि जो लड़की मेरी ज़िंदगी में आएगी, वह माँ जैसी महत्वाकांक्षी नहीं होगी और जितना मिलेगा उसी में खुश रहेगी? क्या गारंटी है कि जो पापा के साथ हुआ, वह मेरे साथ नहीं होगा? मैं भी तो उनके ही तरह मामूली सा हलवाई हूँ। ज़्यादा कमाई नहीं मेरी...मैं अपनी लाइफ पार्टनर को ऐशो-आराम की ज़िंदगी नहीं दे सकता। उसकी ज़रूरत को पूरा कर सकता हूँ, पर उसके बड़े-बड़े शौक़ पूरा करने के लिए पैसे नहीं हैं मेरे पास।

    अब आप बताइए कि कौन सी लड़की होगी, जो जितना मिलेगा उसी में खुश रहेगी, संतुष्ट रहेगी?...कौन सी लड़की ऐसे लड़के से शादी करेगी, उसके साथ खुश रहेगी? फिर मेरे पास इन झंझटों में फँसने और शादी के बाद लड़ाई-झगड़े में उलझने के लिए वक़्त नहीं है। मुझे पापा का सपना पूरा करना है। इसलिए मैं शादी नहीं करूँगा, तो आप मेरे लिए जीजा जी को और इंतज़ार मत करवाइए...और मेरी चिंता छोड़कर, उनके साथ घर बसा लीजिए।"

    ईशान ने अपनी बात पूरी की और गहरी साँस छोड़ी। रजनी ने खामोशी से उसकी बात सुनी और गंभीरता से बोली,

    "तूने अपना फैसला सुना दिया तो मेरा फैसला भी सुन ले...जब तक तू शादी नहीं कर लेता और मैं तुझे तेरी वाइफ के साथ, तेरी लाइफ में सेटल और खुश नहीं देख लेती, मैं भी शादी नहीं करूँगी।...और आज जो तूने हलवाई वाली बात कही, उसका जवाब भी सुनता जा...बहुत अंतर है तेरे और पापा में। हलवाई बनना उनकी मजबूरी थी और तेरी इच्छा...वरना तू इतना पढ़ा-लिखा है कि कहीं भी अच्छी-खासी जॉब मिल सकती है तुझे...और भूल मत, तुझे जॉब मिली थी, तूने खुद इतने अच्छे मौके को ठुकराया था।

    तेरे पास इतना दिमाग़ है कि तू इस मिठाई की मामूली सी दुकान से इतना कमा सकता है कि अपनी लाइफ पार्टनर को बेहतर ज़िंदगी दे सके...इसलिए अगर चाहता है कि मैं शादी कर लूँ तो अपनी बेकार की ज़िद छोड़कर शादी कर ले, वरना तो फिर तू सारी ज़िंदगी अकेला रहियो और तेरे साथ-साथ मैं भी सारी उम्र तन्हा काट लूँगी।"

    रजनी ने अपनी बात पूरी की और गुस्से में वहाँ से चली गई। ईशान कुछ पल परेशान वहाँ खड़ा रहा, फिर पलट कर घाट की तरफ़ देखा तो हवा का रुख बदल चुका था और गंगा की धाराएँ शायद उससे रुष्ट होकर विपरीत दिशा में बहने लगी थीं। नीचे आँगन में चहल-पहल भी शुरू हो चुकी थी।

    "मिश्रा निवास" के काले रंग के गेट से अंदर जाते हुए सामने ही बड़ा सा आँगन था। एक ओर बैठक थी, तो दूसरी ओर खाने के लिए साधारण डाइनिंग टेबल लगा हुआ था, जिसके इर्द-गिर्द लकड़ी की दस कुर्सियाँ लगी हुई थीं। ईशान और रजनी के अलावा, यहाँ उनके चाचा और बड़े पापा का परिवार भी रहता था।

    ईशान के पापा धीरज जी, भाई बीच के थे। उनके बड़े भाई थे रामविलास मिश्रा, अर्धांगिनी श्रीमती कौशल्या मिश्रा, दो बच्चे...बेटा जयधर, जिसकी शादी हो चुकी है, दिल्ली में नौकरी करता है वह और अपनी पत्नी सरिता और तीन साल के बेटे कुणाल के साथ वहीं रहता है। तीज-त्योहार में भी मुश्किल ही आता है।

    रामविलास जी के पहले सरकारी नौकरी थी। अब रिटायर हो चुके हैं तो पेंशन और बेटे के भेजे पैसे से मियाँ-बीवी का गुज़ारा होता है। साथ ही वह पास की दुकान पर काम भी करते हैं, जिससे उनका वक़्त गुज़रता है। उनकी एक बेटी भी है जया, जिनकी शादी कुछ साल पहले अमरेंद्र जी से हुई थी। ससुराल बनारस में स्थित...लंका में है...हाँ जी लंका, पर श्रीलंका नहीं। यह बनारस में मौजूद है, जहाँ BHU (बनारस और विश्व की सुप्रसिद्ध बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी) स्थित है। लंका, जहाँ के चाट, पानी पूरी पूरे बनारस में फेमस हैं।

    अब चलते हैं धीरज जी के छोटे भाई की तरफ़...सुजीत मिश्रा, उनकी अर्धांगिनी महिमा जी...सुजीत जी की अपनी साड़ियों की दुकान है जो बनारस में काफ़ी प्रसिद्ध है। उनकी जुड़वाँ बेटियाँ हैं, शुभ्रा और शुभीका। दोनों दसवीं में पढ़ रही हैं। धीरज जी की अपनी मिठाइयों की दुकान थी। कुछ साल पहले लंबी बीमारी से जूझते हुए उन्होंने अपने प्राण त्याग दिए थे और उसके कुछ वक़्त बाद से ईशान ने उनकी मिठाई की दुकान की बागडोर अपने हाथ में संभाल ली थी। उसने अपनी मेहनत से इस घाटे में डूबी दुकान को एक बार फिर पहले के पोजीशन में लाकर खड़ा कर दिया था...पर अभी उनका सफ़र शुरू ही हुआ था।

    यह है बनारस का मिश्रा परिवार...बाकी बातें बाद में जानेंगे, फिलहाल वापस कहानी पर चलते हैं।

    ईशान पहली मंज़िल पर बने अपने रूम में चला आया। नीचे तीन कमरे थे जहाँ बड़े लोग रहते थे और धीरज जी का कमरा बंद किया हुआ था। बाकी बच्चों के कमरे ऊपर की दो मंज़िलों पर बने हुए थे। साधारण सा कमरा था, एक मिडिल क्लास फैमिली में किसी के कमरे में मौजूद होती हैं, वे सभी चीज़ें यहाँ भी मौजूद थीं। एक पलंग, जिसके पीछे की दीवार पर एक फ़ोटो लगी हुई थी जिसमें धीरज जी, उनके साथ तेरह साल का ईशान और पंद्रह साल की रजनी दीदी मौजूद थीं।

    पलंग के बाएँ ओर कुछ कदमों की दूरी पर बाथरूम बना था। दाएँ तरफ़ टेबल था और साथ में बुकशेल्फ़ जिस पर कुछ किताबें रखी थीं। उसके बगल में ड्रेसिंग टेबल था और फिर लगी थी एक लोहे की अलमारी। कमरे में दो बल्ब लगे थे, जिनमें से एक अभी जल रहा था, एक पंखा और एक कूलर भी था, जिसे देखकर लग नहीं रहा था कि उसे कभी चलाया भी जाता है। कमरा साफ़-सुथरा और व्यवस्थित था, ज़्यादा बड़ा नहीं था पर सामान सलीके से अपनी जगह पर रखा था इसलिए काफ़ी अच्छा लग रहा था।

    ईशान ने अलमारी से अपने कपड़े निकाले और नहाने चला गया। कुछ देर बाद नहाकर बाहर आया और ड्रेसिंग टेबल के सामने आकर खड़ा हो गया। हल्का साँवला रंग, तीखे नयन-नक्श, माथे पर लहराते गीले बाल, गहरी भूरी आँखें, गले में महादेव का लॉकेट, दाएँ हाथ में रुद्राक्ष का ब्रेसलेट। सादे कपड़ों में भी काफ़ी आकर्षक लग रहा था।

    फ़िल्मों का हीरो नहीं था, एक सीधा-साधा सा लड़का था पर चेहरे पर आत्मविश्वास का तेज और आँखों में कुछ कर गुज़रने का जुनून नज़र आ रहा था, जो उसे उसकी उम्र के और लड़कों से जुदा कर रहा था। ईशान जल्दी से तैयार हुआ और वहीं रूम में रखी शिव जी की प्रतिमा के आगे हाथ जोड़ने के बाद नीचे पहुँचा। नीचे आँगन में पहुँचते ही किचन की तरफ़ नज़रें घुमाते हुए, उसने तेज आवाज़ में रजनी को पुकारा।

    "दीदी खाना मिलेगा या ऐसे ही चला जाऊँ?"

    अगले ही पल किचन से रजनी एक हाथ में प्लेट और दूसरे में लंच बॉक्स लेकर बाहर आई। इतने में ईशान ने वहीं आँगन में ज़मीन पर आसन बिछा लिया और उस पर बैठ गया। रजनी ने प्लेट उसके सामने रख दी और टिफ़िन साइड में रखकर वापस किचन में चली गई और कुछ पल बाद वह पानी लेकर आई और उसके पास बैठते हुए बोली,

    "इशु तू दिल्ली जाने का कह रहा था, कब जाना है तुझे दिल्ली?"

    "दो दिन बाद जाना है। पर आप पूछ रही हैं?"

    "यूँ ही पूछ लिया। तू नहीं रहेगा तो घर किसके लिए आऊँगी?...तो चौकी में ही रुक जाऊँगी।"

    रजनी की बात सुनकर ईशान के चेहरे पर गहरी उदासी छा गई। कहने को इतने लोग थे इस घर में पर फिर भी वह दोनों भाई-बहन एक-दूसरे का सहारा थे। उनकी माँ जब घर छोड़कर भागी थी, तभी से उनकी वजह से समाज में हुई बदनामी के कारण बड़े पापा और चाचा जी ने धीरज जी और उनके परिवार से सभी रिश्ते तोड़ दिए थे। घर में रहते हुए, उनका बहिष्कार कर दिया गया था।

    बाहर वालों के साथ धीरज जी के खुद के परिवार में उन्हें ज़िम्मेदार ठहराया गया था कि खुद की पत्नी को संभाल कर नहीं रख सके, उनके कारण उनके घर-परिवार, खानदान कितनी बदनामी हुई। दोनों आदमी ने उनसे पूरी तरह से बातचीत बंद कर दी थी, जबकि कौशल्या जी और महिमा जी...आदत के अनुसार पहले धीरज जी, फिर उनके बच्चों को टोका-टाकी करती ही रहती थीं। महिमा जी छोटी थी तो सामने से कम ही बोलती थी, पर कौशल्या जी को भड़काने का एक मौका नहीं छोड़ती थीं। उनके सहारे ही अपनी बात कह दिया करती थीं।

    कौशल्या जी भी एक मौका नहीं छोड़ती थीं, धीरज जी और उनके परिवार को नीचा दिखाने का। बड़ों के बीच आए मनमुटाव और आपसी बैर भाव, बच्चों तक भी पहुँच गए थे। पर शुभ्रा और शुभीका अभी तक इससे अछूती थीं। वे ईशान को अपना बड़ा भाई, तो रजनी को अपनी बड़ी बहन मानती थीं...और उनका आदर-सम्मान भी करती थीं।

    रजनी की बात सुनकर ईशान कुछ पल शून्य भाव से उसे तकता रहा, फिर गहरी साँस छोड़ते हुए बोला,

    "थाने में क्यों रखेंगी दीदी? अखिलेश काका के घर चली जाइएगा।"

    "अभिषेक भी कह रहे थे...देखती हूँ। चल तू खाना खा, फिर मुझे भी तैयार होकर थाने के लिए निकलना है।"

    ईशान ने सिर हिला दिया और खाना खाने लगा, बाकी सब डाइनिंग टेबल पर बैठकर खाना खा रहे थे पर किसी को इन दोनों से जैसे कोई मतलब ही नहीं था। ईशान खाना खाकर हाथ धोकर उठा, तो रजनी खाली प्लेट किचन में लेकर चली गई। बर्तन धोकर वह खुद अपने रूम में चली गई।

    ईशान अपना लंच लेकर बाहर पहुँचा और जैसे ही अपनी बाइक स्टार्ट करने लगा, पीछे से शुभ्रा और शुभीका ने आकर, उसकी बाइक को पकड़ लिया और एक साथ ही बोलीं,

    "भैया आप हमें छोड़कर ही चले जा रहे हैं?"

    आवाज़ सुनकर ईशान अपने ख्यालों से बाहर आया। रोज़ तो वह शुभ्रा और शुभीका को स्कूल छोड़कर, अपने काम के लिए जाता था। पर आज रजनी की बातों में ऐसा खोया कि उसको इस बात का ध्यान ही नहीं रहा था। उनकी आवाज़ सुनकर ईशान ने पलट कर पीछे देखा तो उसकी दोनों बहनें, गुब्बारे जैसा मुँह फुलाए, उसको ही देख रही थीं।

    इस घर में रजनी के बाद यही दोनों थीं, जिनसे ईशान बहुत प्यार करता था। उनकी मासूम सी शक्ल देखकर ईशान ने मुस्कुराकर कहा, "सॉरी बच्चे...आज ध्यान नहीं था, आकर बैठ जाओ। मैं छोड़ दूँगा तुम्हें स्कूल।"

    "इस बार आपके सॉरी पर आपको माफ़ कर दे रहे हैं...पर अगर दोबारा आप हमको भूले, तो हम नाराज़ हो जाएँगे आपसे और अगली बार रक्षाबंधन पर आपको राखी नहीं बाँधेंगे।"

    शुभ्रा की धमकी पर शुभीका ने भी सहमति जताई। अपनी बहनों की इस ख़तरनाक धमकी को सुनकर ईशान एक बार फिर मुस्कुरा दिया।

    "ठीक है...आगे से कभी ऐसा नहीं होगा। चलो अब जल्दी से बैठो, वरना स्कूल के लिए लेट हो जाओगे और फिर मास्टर जी छड़ी खानी पड़ेगी।"

    यह सुनते ही दोनों झट से ईशान के पीछे बैठ गईं। ईशान ने बाइक स्टार्ट की और तीनों वहाँ से निकल गए। ईशान ने पहले दोनों को स्कूल छोड़ा, फिर विश्वनाथ मंदिर की तरफ़ निकल गया। उसकी मिठाइयों की दुकान "काशी मिष्ठान भंडार" थी...दुकान अभी ज़्यादा बड़ी नहीं थी पर फ़ेमस थी। ईशान ने यह काम धीरज जी से सीखा था। इसी दुकान के बदौलत धीरज जी ने अपने दोनों बच्चों को पाला था और बचपन से ईशान उन्हें काम करते देखकर उनकी मदद करता था और धीरे-धीरे उसने उनसे सब सीख लिया।

    अपनों के तिरस्कार और लोगों के तानों के कारण धीरज जी, कम उम्र में अनेकों रोगों से ग्रसित हो गए थे और अंत में उन्होंने इस कष्ट भरी ज़िंदगी से नाता तोड़ दिया था। उनका सपना था "काशी मिष्ठान भंडार" को बढ़ाना, जो अब ईशान की आँखों में सजा था।

    ईशान ने दो लड़के रखे हुए थे काम पर। दुकान जाकर पहले उसने महादेव की मूर्ति के आगे दीप प्रज्वलित किया। दुकान में धूप-अगरबत्ती जलाई, वहाँ एक तरफ़ लगे धीरज जी की तस्वीर के आगे हाथ जोड़ने के बाद काम में लग गया। दूसरी तरफ़ उसके जाने के कुछ देर बाद रजनी भी तैयार होकर चौकी के लिए निकल गई। अब तक तो आप समझ ही गए होंगे कि रजनी इंस्पेक्टर है और अपने भाई को भेजने के बाद, अपनी ड्यूटी पर निकल गई।


  • 2. इश्क़ मुबारक (A Contract Marriage) - Chapter 2

    Words: 2452

    Estimated Reading Time: 15 min

    दिल्ली

    सुबह लगभग आठ बजे थे। द्वारका सेक्टर 8 में बना शर्मा निवास नामक तीन मंजिला घर। घर के अंदर गेट से होते हुए डाइनिंग रूम में प्रवेश किया जाता था; यहाँ एक सोफा सेट और टीवी लगा हुआ था। ड्राइंग रूम से जुड़ा हुआ किचन था, जहाँ श्रीमती जानकी देवी उस समय टिफिन पैक कर रही थीं।


    जानकी जी (शर्मा जी की पत्नी) सबके टिफिन पैक कर ही रही थीं कि एक जोड़ी कदमों की आहट के साथ किचन में एक खिलखिलाती आवाज़ गूँजी, “माँ, जल्दी से मेरा लंच दे दीजिए, वरना मैं लेट हो जाऊँगी।”


    आवाज़ का स्वर अंत तक आते-आते बदल गया। जानकी जी ने आवाज़ पहचानते हुए देखा तो उनकी नज़र कशिश पर पड़ी। कशिश ने ब्लू टॉप, ब्लैक जींस पहनी हुई थी और गले में मल्टीकलर स्कार्फ डाला हुआ था। बाएँ कंधे पर पर्स लटका हुआ था और वो घड़ी बाँधते हुए जानकी जी की ओर बढ़ रही थी।


    जानकी जी ने हैरानी से पूछा, “आज तुम इतनी जल्दी कहाँ जा रही हो?”


    कशिश रोज़ आराम से नौ बजे निकलती थी और आज आठ बजे की जल्दी की गाड़ी पकड़ रही थी, इसलिए जानकी जी हैरान थीं। कशिश ने सिर उठाकर जानकी जी को देखा और मुस्कुराते हुए कहा,


    “आज जल्दी जाना है मम्मी। अब जल्दी से मेरा टिफिन और एक पराठा रोल करके दे दो। मैं खाते-खाते चली जाऊँगी।”


    “पर आज तो तुम्हें…”


    जानकी जी इतना ही बोल पाई थीं कि कशिश ने अपना लंच और एक पराठा उठाया और झट से किचन से बाहर भाग गई।


    “आज मेरा ऑफिस जाना बहुत ज़रूरी है और बिल्कुल वक़्त नहीं है मेरे पास, इसलिए मैं आपकी बात वापस आकर सुनूंगी… बाय… बाय…”


    जानकी जी परेशान होकर उसे देखती रहीं। कशिश ने उन्हें कुछ और कहने का मौका दिए बिना किचन से बाहर निकलकर सीधे गेट की ओर बढ़ गई। वह जल्दी-जल्दी पराठा खाते हुए, तेज कदमों से गेट की ओर बढ़ रही थी और बेचैन निगाहें इधर-उधर घूम रही थीं।


    शायद वह किसी से बचकर भागने की तैयारी में थी, इसलिए जल्दी से वहाँ से निकलना चाहती थी। वह अभी गेट के पास ही पहुँची थी कि एक तेज, रौबदार, सख्त आवाज़ उसके कानों में गूँजी,


    “कशिश, कहाँ जा रही हो तुम?”


    आवाज़ सुनते ही कशिश के कदम रुक गए। उसका चेहरा पीला पड़ गया, आँखें भय से फैल गईं और चेहरे पर घबराहट साफ़ दिखाई देने लगी।


    उसने अपने पर्स की जिप को मुट्ठी में जकड़ लिया। मुँह में मौजूद निवाला बड़ी मुश्किल से गले से नीचे उतारा। सीने में दिल डर के मारे जोर-जोर से धड़कने लगा। वह अभी खुद को संभाल भी नहीं पाई थी कि फिर वही सख्त आवाज़ उसके कानों में गूँजी,


    “तुमने सुना नहीं कशिश, कुछ पूछ रहा हूँ मैं तुमसे। कहाँ जा रही हो आज तुम?”


    यह तेज़, गुस्से भरी आवाज़ सुनकर, जानकी जी भी किचन से बाहर आ गईं। उनका घबराया हुआ चेहरा यह ज़ाहिर कर रहा था कि कुछ गलत होने वाला है।


    कशिश डर के मारे आगे नहीं बढ़ सकी; उसकी हालत ख़राब थी… पर उसने किसी तरह खुद को संभाला और पीछे मुड़कर देखा, तो उससे कुछ कदमों की दूरी पर श्याम जी खड़े थे और उनका चेहरा गुस्से से लाल हो रहा था।


    कशिश ने थूक गले से नीचे उतारा और हिम्मत करके धीमी सी आवाज़ में बोली, “वो… वो… पापा… पापा आज ऑफिस…”


    बेचारी की जुबान डर के मारे काँप रही थी। इतना ही कह पाई थी कि श्याम जी की गुस्से भरी आवाज़ वहाँ गूँजी,


    “किसने इज़ाज़त दी तुमको ऑफिस जाने की?… बताया था ना मैंने तुम्हें कि आज तुम्हें देखने लड़के वाले आ रहे हैं, तो तुम आज घर पर ही रहोगी।”


    “पर पापा, वो तो आज शाम को आएंगे ना, मैं दोपहर तक वापस आ जाऊँगी… पक्का।”


    कशिश घबराई हुई सी, एक ही साँस में सब बोल गई। उसकी बात पूरी होते ही हर्ष झट से बीच में बोला,


    “इसकी बात पर विश्वास मत करना पापा, ये नहीं आएगी।”


    हर्ष की बात सुनकर कशिश ने आँखें तरेरकर उसे घूरा, पर हर्ष शातिर तरीके से मुस्कुरा रहा था। श्याम जी ने भी हर्ष की बात का समर्थन करते हुए कहा,


    “जानता हूँ मैं इस लड़की की हरकतें, इसलिए आज ये घर से बाहर कदम भी नहीं रखेगी।”


    श्याम जी ने कठोर लहज़े में अपना फैसला सुना दिया, पर कशिश उनके फैसले से सहमत नहीं थी। उसने तुरंत विरोध किया,


    “पापा, मेरा जाना ज़रूरी है, ऑफिस से छुट्टी नहीं मिलेगी मुझे।”


    “तो आज से तुम्हें ऑफिस जाने की कोई ज़रूरत नहीं है। छोड़ दो जॉब, वैसे भी कुछ महीनों के अंदर, मैं तुम्हारी भी शादी कर दूँगा। 10000-12000 हज़ार की नौकरी करने की कोई ज़रूरत नहीं है अब तुम्हें।”


    श्याम जी की बात सुनकर कशिश हैरान-परेशान हो गई। उसे विश्वास नहीं हो रहा था कि जिस जॉब के लिए उसने इतनी मेहनत की, श्याम जी ने उसे इतनी आसानी से छोड़ने को कह दिया।


    “पापा, इतनी मुश्किल से मुझे ये जॉब मिली है। मैं ऐसे कैसे जॉब छोड़ सकती हूँ?… और आप इतनी जल्दी मेरी शादी क्यों करवाना चाहते हैं?… मुझे अभी शादी नहीं करनी है।”


    कशिश आँखों में आँसू लिए, उम्मीद से उन्हें देखने लगी, पर श्याम जी के चेहरे के सख्त भाव नहीं बदले। उन्होंने कठोर स्वर में कहा,


    “मैंने तुमसे पूछा नहीं है कशिश कि तुम्हें शादी करनी है या नहीं… मैंने एक बार कह दिया कि अब तुम्हारी शादी होगी, तो मतलब होगी। अब से तुम्हें कोई जॉब करने की ज़रूरत नहीं है। जितने दिन घर में हो, घर में रहकर घर के काम सीखो। वरना ससुराल जाकर भी हमारी इज़्ज़त मिट्टी में मिला दोगी… अब जाओ अपने कमरे में। आज शाम को पाँच बजे लड़के वाले आएंगे, वक़्त पर तैयार हो जाना और याद रहे कि शाम को कोई तमाशा नहीं चाहिए मुझे।”


    अपना फैसला सुनाकर और कशिश को आँखों से ही वार्निंग देकर, श्याम जी वहाँ से चले गए। हर्ष भी अपनी जीत पर हँसते हुए, उनके पीछे-पीछे चला गया। कशिश गुस्से में पैर पटकते हुए, अपने कमरे में चली गई। घर में श्याम जी का आदेश, पत्थर की लकीर था। उनकी बात काटने की हिम्मत किसी में नहीं थी।


    कशिश ने गुस्से में अपने कमरे का दरवाज़ा ज़ोर से बंद किया और पर्स टेबल पर पटक दिया। फिर वो दौड़ते हुए बेड के पास आई। उसने अपने घुंघराले बालों को जूड़े में बाँधा और पलंग पर आराम से बैठ गई। पलंग के साइड टेबल की दराज से चिप्स, नमकीन के पैकेट निकालकर खाते हुए, वो मन ही मन भुनभुनाती रही।


    सुबह से शाम हो गई। जानकी जी कई बार कशिश के रूम का दरवाज़ा खटखटा चुकी थीं, उसे आवाज़ दे चुकी थीं… पर कशिश का गुस्सा इतना ज़्यादा था कि उसने न ही दरवाज़ा खोला और न ही जवाब दिया। श्याम जी सुबह से लड़के वालों के स्वागत की तैयारी में लगे थे। घड़ी ने शाम के साढ़े चार बजाए, तब उन्होंने कशिश के रूम का रुख किया। उन्हें देखकर जानकी जी, जो पिछले दस मिनट से रूम का दरवाज़ा खुलवाने की कोशिश कर रही थीं, वो घबराकर पीछे हट गईं।


    श्याम जी ने आँखें तरेरकर उन्हें घूरा और गुस्से में दाँत पीसते हुए बोले,


    “ये सब आपकी वजह से हो रहा है। अगर इतना पढ़ाया ना होता इसे, तो आज ये दिन नहीं देखना पड़ता है हमें। कहा था हमने आपको कि इस जिद्दी और बदतमीज़ लड़की को काबू में रखिए… पर आपने हमारी एक नहीं सुनी, अब देख लीजिए… कैसे दिन प्रतिदिन इनकी बदतमीज़ी बढ़ती जा रही है। अभी भी वक़्त है, अपनी बेटी को समझा दीजिए कि शांति से शादी कर ले। अभी तो अच्छा लड़का ढूँढ रहे हैं उनके लिए, पर अगर इनकी यही हरकतें रहीं और उन्होंने हमारे गुस्से को ललकारा, तो जो मिलेगा उसी से शादी करवाकर, अपने सर का बोझ उतार लेंगे हम।”


    जानकी जी ने उनका गुस्सा देखकर और उनकी धमकी सुनकर तुरंत ही सहमति में सिर हिलाया, पर वो कुछ कह पातीं, उससे पहले ही तेज आवाज़ के साथ रूम का दरवाज़ा खुल गया और सामने खड़ी कशिश गुस्से और फ्रस्ट्रेशन से चीख पड़ी,


    “मैं शादी नहीं करूंगी।”


    जानकी जी और श्याम जी दोनों की नज़रें कशिश की तरफ़ गईं। कशिश का लहज़ा और उसकी बात श्याम जी के गुस्से को और भड़का गई; उन्होंने गुस्से से उसे घूरा और दाँत पीसते हुए सवाल किया,


    “क्या कहा आपने?”


    श्याम जी बहुत गुस्से में लग रहे थे, पर कशिश भी उनकी बेटी थी और इस वक़्त अपने बाप के सामने, गुस्से से लाल-पीली हुई खड़ी थी। इस बार कशिश जरा भी नहीं घबराई और उनकी निगाहों से निगाहें मिलाते हुए निर्भिकता से बोली,


    “मैं शादी नहीं करूंगी।”


    ‘चटाक’ कशिश की बात खत्म होते ही, ये तेज़ आवाज़ वहाँ गूँजी। यह चाँटा श्याम जी ने कशिश को मारा था। थप्पड़ इतना जोरदार था कि कशिश का छोटा सा सिर एक ओर को झुक गया, उसका हाथ उसके गाल पर चला गया। एक पल को सर चकरा गया उसका, कान सुन्न पड़ गया, आँखें छलक आईं। उसके गोरे-गोरे गाल पर श्याम जी की उंगलियों का निशान साफ़ दिख रहा था।


    जानकी जी ने ये मंज़र देखकर घबराकर अपने मुँह पर हाथ रख लिया। कशिश अब भी कमज़ोर नहीं पड़ी; उसने पानीली निगाहों से श्याम जी को देखा और रुँधे गले से पर तेज आवाज़ में बोली,


    “आज आप एक क्या, दस थप्पड़ मार लीजिए मुझे, चाहे मुझे जान से ही मार दीजिए, पर मैं तब भी यही कहूँगी कि मैं शादी नहीं करूँगी।”


    श्याम जी ने उसकी बात सुनकर गुस्से में भड़कते हुए, एक बार फिर उस पर हाथ उठाना चाहा… पर इस बार जानकी जी जल्दी से उनके बीच में आ गईं और घबराकर श्याम जी को देखने लगीं।


    “क्या करते हैं जी? कोई बाप, अपनी जवान बेटी पर हाथ उठाता है क्या?”


    “किसी की बेटी, ऐसे अपने बाप से नज़रें मिलाकर, ऐसी बेशर्मी भी नहीं दिखाती। इसकी हिम्मत कैसे हुई हमारी बात काटने की?… हमारे ख़िलाफ़ जाने की?… हमसे जुबान लड़ाने की?… हम कुछ कहते नहीं, तो अपनी मनमानी करते हुए, बहुत सर चढ़ गई है, आज हम इन्हें दिखाते हैं कि हम कौन हैं।”


    उनकी बातें सुनकर डर के मारे जानकी जी की हालत ख़राब हो गई। उन्होंने घबराकर कहा,


    “बच्ची हैं जी, मैं समझा दूँगी उसे। वक़्त हो गया है जी, आप जाकर मेहमानों को देखिए, मैं कशिश को तैयार करके लाती हूँ। वो लड़के वालों के सामने आ जाएगी और कुछ करेगी भी नहीं। वही करेगी जो आप चाहते हैं।”


    जानकी जी ने श्याम जी का ध्यान कशिश से हटाकर, मेहमानों की तरफ़ खींचा, तो श्याम जी का ध्यान भी उस तरफ़ गया। लेकिन उनका गुस्सा अभी काम नहीं हुआ था। उन्होंने गुस्से से लाल आँखों से पीछे खड़ी कशिश को घूरा और दाँत पीसते हुए बोले,


    “इसी में भलाई है इनकी, अगर हमारी बात मानेंगी तो इज़्ज़त से विदा होगी इस घर से। वरना जैसे-तैसे शादी तो हम करवाकर रहेंगे उनकी। चाहे फिर उनके साथ ज़बरदस्ती ही क्यों न करनी पड़े… आप समझा दीजिए अपनी बेटी को कि लड़कों वालों के सामने कोई तमाशा ना करें… और वही करें जो हम कह रहे हैं। अगर आज इन्होंने कुछ गलत किया, तो दो दिन के अंदर उनकी शादी करवाकर, इस घर से निकाल देंगे और दोबारा कभी यहाँ कदम भी नहीं रखने देंगे।”


    श्याम जी, कशिश और जानकी जी को धमकाकर, वहाँ से गुस्से में चले गए। जानकी जी ने पलटकर कशिश को देखा और उसके गाल को प्यार से सहलाते हुए दुखी मन से बोलीं,


    “क्यों अपने बाप से जुबान लड़ाती हो?… देखा आज हाथ उठा दिया तुम पर।”


    उनकी बात सुनकर कशिश ने नम आँखों से उन्हें देखा और रुँधे स्वर में बोली,


    “मैं शादी नहीं करूँगी माँ।”


    “क्यों ज़िद्द कर रही है बेटा? अभी जाँच-पड़ताल कर रहे हैं। अगर आप ऐसे करेंगी तो किसी भी राह चलते आवारा लड़के से शादी करवा देंगे आपकी। अपनी मम्मी की बात मान लीजिए और शांत हो जाइए। जैसा वो कहते हैं वैसा ही कीजिए, वर्ना वो हमारी भी नहीं सुनेंगे।”


    जानकी जी ने उसे समझाने की कोशिश की; इस बार कशिश कुछ नहीं बोली। बस जानकी जी का हाथ हटाकर, गुस्से में पैर पटकते हुए अंदर चली गई। आँखों में एक आँसू नहीं गिरने दिया उसने। उसके पीछे जानकी जी ने भी कमरे में कदम रखा और वहाँ का हाल देखकर उन्होंने अपना सर पकड़ लिया,


    “ये क्या हाल बनाया है कशिश तुमने कमरे का?”


    कशिश के बेड से लेकर, रूम में हर जगह चीज़ों के खाली रैपर फैले हुए थे। कशिश खाने की शौकीन थी और जब परेशान या दुखी होती है, तो और ज़्यादा खाती थी, इसलिए रूम में अपना स्टॉक जमा कर रखा था उसने। आज उसने दिन भर में अपना पूरा स्टॉक खाली कर दिया था और खाली पैकेट पूरे रूम में फैले हुए थे।


    जानकी जी का सवाल सुनकर, कशिश ने बेड पर पड़ा कुरकुरे का पैकेट उठाया, जो आधा खाली था और कुरकुरे मुँह में भरते हुए बोली, “भूत लड़ी थी मुझे, तो खा लिया थाला।”


    कशिश का मुँह भरा होने के कारण, शब्द साफ़-साफ़ बाहर नहीं निकल सके, पर जानकी जी उसकी बात समझ गईं और आगे बढ़कर उसके हाथ से कुरकुरे का पैकेट लेते हुए कहा,


    “बस करो कशिश। इतनी बाहर की चीज़ खाना ठीक नहीं। जाओ जाकर हाथ-मुँह धोकर आओ, जल्दी से तैयार होना है तुम्हें… लड़के वाले आते ही होंगे, अगर देर हुई तो तुम्हारे पापा फिर गुस्सा करेंगे।”


    अपने पापा का ज़िक्र सुनते ही, कशिश का मुँह बन गया और वो जानकी जी के बहुत कहने पर पैर पटकती हुई बाथरूम में जाते हुए मन ही मन बोली,


    “जो करना है कर लो आप लोग… पर मैं शादी नहीं करूँगी। मैं यहाँ रहूँगी ही नहीं, तो किसकी शादी करवाएँगे आप लोग?… मुझे आपके और दीदी जैसी ज़िंदगी नहीं जीनी है… मैं भाग जाऊँगी यहाँ से, मर जाऊँगी… पर कभी शादी नहीं करूँगी।”


    कशिश मन ही मन फैसला कर चुकी थी। इसके बाद वो अच्छे बच्चे की तरह, जानकी जी की बात मानती गई। कुछ देर में लड़के वाले आ गए। कशिश को किसी शोपीस की तरह उनके सामने बिठाया गया। कशिश से सवाल-जवाब किए गए।


    ये सब करीब दो घंटे चला। फिर वो लोग वापस चले गए और कशिश इस अनचाहे मुसीबत से छुटकारा पाकर अपने रूम में चली आई। उसके दिमाग में कुछ तो चल रहा था, पर क्या, ये बस वही जानती थी।


    कशिश और इशान दो अलग-अलग जगह पर अपनी-अपनी मुश्किलों से घिरे थे। कैसी होगी इनकी पहली मुलाक़ात?… और कैसे शुरू होगी उनकी प्रेम कहानी?… जानने के लिए पढ़ते रहिए “इश्क़ मुबारक”

    जल्द ही…

  • 3. इश्क़ मुबारक (A Contract Marriage) - Chapter 3

    Words: 1790

    Estimated Reading Time: 11 min

    तीन दिन बाद (नई दिल्ली रेलवे स्टेशन)


    सुबह छः बज रहे थे। प्लेटफ़ॉर्म पर दिल्ली से आगरा जाने वाली वंदे भारत एक्सप्रेस खड़ी थी। लगभग सभी यात्री अपनी-अपनी सीट पकड़ चुके थे और ट्रेन किसी भी समय चलने वाली थी। इस ट्रेन में विंडो सीट पर ईशान बैठा था। कल वह किसी काम से दिल्ली आया था और अब उसे वापस जाना था। अपने साथ एक छोटा सा ट्रैवलिंग बैग, यानी बैकपैक, लाया था जो उसके बगल में रखा हुआ था।


    कुछ देर में ट्रेन चलने लगी। विंडो सीट पर बैठा ईशान खिड़की से बाहर पीछे छूटते प्लेटफ़ॉर्म को देख रहा था। तभी अचानक एक मीठी सी आवाज़ उसके कानों में गूँजी।


    "एक्सक्यूज़ मी।"


    ईशान की निगाहें आवाज़ की ओर घूम गईं। सामने बीस-इक्कीस साल की एक लड़की खड़ी थी, जिसका पूरा चेहरा स्कार्फ़ से ढँका था; बस उसकी बड़ी-बड़ी काली कजरारी आँखें ही दिखाई दे रही थीं।


    "जी," ईशान ने सवालिया निगाहों से उसे देखा। उसके सवाल को समझते हुए, लड़की ने विंडो सीट की ओर इशारा किया।


    "क्या आप थोड़ा साइड हट सकते हैं?… मुझे विंडो सीट के पास बैठना है।"


    "ये आपकी सीट है?"


    ईशान ने तुरंत सवाल किया। उस लड़की ने बगल वाली सीट की तरफ़ इशारा करते हुए कहा, "ये मेरी सीट है, पर मुझे विंडो सीट पर बैठना है… प्लीज़…"


    उस लड़की की आँखें छोटी-छोटी सी हो गईं। उसने बड़े ही प्यार से ईशान से साइड हटने का अनुरोध किया। उसके विनम्र अनुरोध को ईशान ठुकरा नहीं सका और सिर हिलाते हुए बगल वाली सीट पर बैठ गया। यह देखकर लड़की शायद मुस्कुराने लगी थी, जिसका अनुमान ईशान ने उसकी चमकती आँखों से लगाया। लड़की झट से विंडो सीट पर बैठ गई और पीठ पर टाँगा बैग अपनी गोद में रख लिया। उसके बाद उसने पीछे छूटते प्लेटफ़ॉर्म को देखा और अपनी आँखें बंद करके हाथ जोड़ते हुए बोली,


    "हे महादेव… अब मेरी ज़िंदगी की नैया आपके हवाले है, पार लगवा दीजिएगा भोलेनाथ… अपनी छोटी सी, नादान भक्त पर अपनी कृपा दृष्टि बनाए रखिएगा प्रभु… मुझे सही-सलामत अपनी नगरी पहुँचा दीजिएगा और कोई जुगाड़ लगवा दीजिएगा इस दुखियारी का, नहीं तो गंगा मैया में डुबकी लगा लेनी है मुझे… बस फिर मुझे अपनी शरण में ले लीजिएगा शिव शंभू। आपके सिवाय आपकी इस छोटी सी, नादान भक्त का, अब कोई सहारा नहीं है प्रभु… कृपया बनाए रखिएगा।"


    आम तौर पर लोग प्रार्थना मन ही मन करते हैं, पर वह लड़की बाकी लोगों से कुछ जुदा सी थी। वह ऐसे बात कर रही थी, जैसे भगवान शिव उसकी बातें सुनने को सामने ही विराजे हों। महादेव ने सुनी हों या नहीं, पर उसके बगल में बैठे ईशान ने अनजाने में ही उसकी पूरी बात सुन ली थी और अजीब नज़रों से उस लड़की को देखने लगा था।


    लड़की ने महादेव से अपनी सिफ़ारिश लगाई, फिर गहरी साँस छोड़ते हुए अपनी आँखें खोलीं। उसने अब जाकर अपने चेहरे से स्कार्फ़ हटाया और बैग की चेन खोलकर उसमें से एक चिप्स का पैकेट निकालकर फाड़ दिया। और जैसे ही खाने के लिए चिप्स हाथ में लिया, किसी की नज़रों को खुद पर महसूस करते हुए, उसने निगाहें घुमाईं और ईशान की निगाहों से जा टकराईं।


    "क्या हुआ… तुम मुझे ऐसे घूर क्यों रहे हो? क्या मैं तुम्हें दूसरे ग्रह की एलियन लग रही हूँ?"


    लड़की आँखें बड़ी-बड़ी करके भौंहें चढ़ाए उसे देखने लगी। उसका सवाल सुनकर ईशान ने सकपकाते हुए उस पर से निगाहें हटा लीं और सामने देखने लगा। लड़की ने भौंहें सिकोड़कर ईशान को घूरा, फिर अपने हाथ में पकड़े चिप्स के पैकेट को देखा और अगले ही पल पैकेट उसकी ओर बढ़ाते हुए बोली,


    "ओ मिस्टर अजनबी, चिप्स खाओगे?"


    ईशान ने तिरछी नज़र से पहले उसे देखा, फिर चिप्स के पैकेट को देखकर इनकार में सिर हिला दिया। लड़की ने अपने पैकेट को आगे कर दिया और प्यारी सी मुस्कान लबों पर बिखेरते हुए बोली,


    "खा लो यार… अभी ही खरीद के लाई हूँ, कुछ मिलाया नहीं है मैंने अब तक इसमें… और खुद को लकी समझो जो… द ग्रेट कशिश शर्मा तुमसे अपने चिप्स शेयर कर रही है, वो भी सिर्फ़ इसलिए क्योंकि तुमने मुझे अपनी विंडो सीट दी है। वरना मैं किसी को अपने खाने की चीज़ हाथ भी नहीं लगाने देती।"


    बिल्कुल सही सुना आपने, यह हमारी बातूनी लड़की कशिश ही थी।


    कशिश की बात सुनकर ईशान ने निगाहें घुमाकर उसे देखा, तो कशिश ने क्यूट सी शक्ल बनाकर अपनी पलकों को फड़फड़ाया और आँखों से ही पैकेट की ओर इशारा किया। एक बार फिर, जाने क्यों, पर हमारे सीधे-सादे ईशान ने इनकार करके उसका दिल नहीं दुखाया। उसने पैकेट से एक चिप्स का टुकड़ा निकाल लिया और बिना किसी भाव के बोला,


    "शुक्रिया।"


    "मेंशन नॉट यार… अच्छा एक बात बताओ, नाम क्या है तुम्हारा और कहाँ जा रहे हो तुम?" कशिश ने चहकते हुए सवाल किया और अधरों पर सौम्य सी मुस्कान सजाए, आँखों में चमक समेटे ईशान को जवाब के इंतज़ार में देखने लगी।


    कशिश का सवाल सुनकर ईशान ने अजीब नज़रों से उसे देखा। उसके चेहरे के भावों को पढ़ते हुए, कशिश ने तुरंत ही मासूम सी शक्ल बनाकर कहा,


    "बॉस, कुछ गलत मत समझना… मैं उस टाइप की लड़की बिल्कुल नहीं हूँ और न ही मुझे लड़कों में कोई दिलचस्पी है। वो तो साथ में बैठे हैं, इसलिए नाम पूछ लिया… यू नो… नाम पता होगा तो बात करने में आसानी रहेगी और जगह पूछा ताकि जान सकूँ कि हमारा साथ कहाँ तक लिखा है?… वैसे पहले मैं ही बता देती हूँ… मेरा नाम कशिश है… कशिश शर्मा… और मैं बनारस जा रही हूँ। अब तुम्हारी बारी… चलो अपना नाम बताओ, कहाँ तक साथ रहने वाले हो तुम मेरे?"


    कशिश ने बोलना शुरू किया, तो आदतन बोलती ही चली गई और ईशान आँखें बड़ी-बड़ी कर उसे अचंभित सा देखता रह गया। कशिश अपनी बात पूरी कर लबों पर गहरी सौम्य मुस्कान सजाए उसे देखने लगी। शायद ईशान ने पहली बार इतनी बोलने वाली लड़की देखी थी, जो एक अजनबी लड़के के साथ भी इतनी सहज है और खुलकर बात कर रही है… इसलिए वह कुछ हैरान था। उसने गहरी साँस छोड़ी और गंभीरता से बोला,


    "ईशान मिश्रा… जहाँ आप जा रही हैं, वहीं जाना है मुझे।"


    यह सुनते ही कशिश चमकती आँखों से उसे देखते हुए फट से बोली,


    "तुम भी अपना घर छोड़कर भागकर, मेरे आराध्य महादेव की नगरी बनारस जा रहे हो?"


    कशिश उत्सुकता में अपनी ही धुन में मगन बोलती ही चली गई। ईशान ने उसकी बात सुनी, तो उसकी आँखों की पुतलियाँ फैल गईं और मुँह से हैरानी से निकला,


    "व्हाट्?"


    इतना काफ़ी था कशिश को अपनी गलती का एहसास करवाने के लिए। उसने अपने लबों को दाँतों तले दबा लिया और मन ही मन खुद को कोसने के बाद, ईशान को देखकर खिसियानी हँसी हँसते हुए बोली,


    "लगता है… तुमने मेरी बात को, कुछ ज़्यादा ही सीरियसली ले लिया। मैं तो मज़ाक कर रही थी… हे…हे…है…ह…"


    ईशान भौंहें सिकोड़कर शक भरी नज़रों से उसे देखने लगा। वहीं कशिश ने उससे नज़रें चुराते हुए चेहरा विंडो की ओर घुमा लिया और अपनी आँखें भींच लीं। कुछ पल बाद उसने चोर नज़रों से ईशान को देखा… तो वह अपने फ़ोन में कुछ कर रहा था और चेहरे पर गंभीर भाव मौजूद थे। कशिश कुछ पल अचरज भरी निगाहों से उसे देखती रही, फिर उसकी बाँह को अपनी उंगली से छूते हुए बोली,


    "ओये मिश्रा जी… सुनो तो।"


    अपने लिए किसी अंजान से यह संबोधन सुनकर ईशान ने चौंकते हुए निगाहें घुमाकर उसे देखा। कशिश ने आँखें बड़ी-बड़ी करके उसे देखते हुए, मासूमियत बिखेरते हुए कहा,


    "तुम मुस्कुराते क्यों नहीं हो?… जब से मैं आई हूँ, तुम मुँह सड़ाए बैठे हो… मुस्कुराना नहीं आता क्या तुम्हें?… क्या तुम्हारी ज़िंदगी में बहुत सारा दुख है, जो हमेशा सीरियस चेहरा बनाकर रहते हो?… पर प्रॉब्लम तो सबकी ज़िंदगी में होती है… अब मुझे ही देख लो… कितनी सारी प्रॉब्लम हैं मेरी ज़िंदगी में। ट्रेन में बैठ गई हूँ, पर जाऊँगी कहाँ नहीं मालूम?… क्या करूँगी नहीं पता?… आगे क्या होगा नहीं मालूम… फिर भी कितनी खुश हूँ… पता है, इंसान को ना… हँसते-मुस्कुराते रहना चाहिए, फिर मुस्कुराने में कौन से पैसे लगते हैं?… फ़्री की है, जितना चाहे मुस्कुराओ, कोई नहीं रोक सकता। तुम भी मुस्कुराया करो… मुस्कुराना अच्छा होता है सेहत के लिए… खून बनता है। दुनिया में इतने लोग हैं खून जलाने और चूसने के लिए… कम से कम खुद ऐसा चेहरा बनाकर, अपना खून मत जलाओ… चलो जल्दी से मुस्कुराकर दिखाओ मुझे।"


    एक बार फिर कशिश शुरू हुई तो बोलती ही चली गई। हैरानी की बात थी कि ईशान उसके लिए बिल्कुल अंजान था, फिर भी उसके साथ इतनी फ़्रैंक थी। बेझिझक उससे बातें कर रही थी। उसे सुझाव दे रही थी। वैसे कह तो वह बिल्कुल सही थी… पर उसकी बातें सुनकर ईशान ने कुछ ख़ास प्रतिक्रिया नहीं दी।


    ईशान कुछ पल खामोशी से उसे देखता रहा, फिर उस पर से निगाहें फेर लीं। यह देखकर कशिश का मुँह छोटा सा हो गया। उसने मुँह बिचकाकर ईशान को देखा, फिर नासमझी से सिर हिलाते हुए, अपना ध्यान अपने चिप्स पर लगा दिया और बाहर देखते हुए मुस्कुराकर चिप्स खाने लगी।


    इसके बाद कुछ देर तक उन दोनों में कोई बातचीत नहीं हुई। घड़ी ने आठ बजाए और अचानक ही कशिश का फ़ोन बज उठा। यह सुनकर कशिश ने पॉकेट से फ़ोन निकालकर देखा, तो स्क्रीन पर ‘पापा’ नाम दिखाई दे रहा था।


    कशिश की मुस्कान एकदम से गायब हो गई, चेहरे का रंग उड़ गया, माथे पर पसीने की बूँदें उभर आईं और घबराई निगाहों से, फ़ोन के स्क्रीन को देखते हुए कशिश जल्दी-जल्दी चिप्स खाने लगी। बगल में बैठा ईशान, बड़े ही ध्यान से उसे देख रहा था।


    फ़ोन बजता रहा… पर कशिश ने कॉल रिसीव नहीं किया। जैसे ही बेल बजनी बंद हुई, उसने तुरंत फ़ोन स्विच ऑफ करके बैग में सबसे नीचे रख दिया। फिर उसने अपने बाएँ हाथ में रिंग फ़िंगर में मौजूद अंगूठी देखी और उसे उतारकर सीट के नीचे फेंक दिया। सोने की नई-नई चमचमाती अंगूठी थी, जो बीते दिन ही सगाई में उसके होने वाले पति ने उसे पहनाई थी। वह तो सगाई ही नहीं करना चाहती थी, पर भागने का मौका न मिलने पर मजबूरी में उसे सगाई करनी पड़ी थी। लेकिन शादी से बचने के लिए वह बीती आधी रात को हिम्मत करके घर से भाग गई थी।


    ईशान ने जब उसे सोने की अंगूठी फेंकते देखा, तो चौंक गया। साथ ही साथ कुछ परेशान भी हो गया। कशिश परेशान और घबराई हुई सी, कुछ पल अपने हाथों की उंगलियों को तोड़ती-मरोड़ती रही, फिर उसने खुद को संभाल लिया। ईशान उसकी हर हरकत को गहराई से देख रहा था, पर फ़िलहाल खामोश था।


    क्रमशः…

  • 4. इश्क़ मुबारक (A Contract Marriage) - Chapter 4

    Words: 1521

    Estimated Reading Time: 10 min

    घड़ी ने दोपहर के बारह बजाये थे। लंच हो चुका था। ईशान ने अपना टिफ़िन निकाला और जैसे ही पहला निवाला खाने लगा, उसकी नज़र कशिश पर पड़ी, जिसकी निगाहें उसके टिफ़िन पर टिकी हुई थीं। उसकी ललचाई निगाहों को अपने टिफ़िन पर टिके देखकर ईशान ने औपचारिकता से पूछा,

    "खाना है आपको?"

    ईशान को तो लगा था कि कशिश इनकार कर देगी, क्योंकि सुबह से वह बैठी-बैठी कुछ न कुछ खाती ही रही थी। एक सेकंड के लिए भी उसने मुँह चलाना बंद नहीं किया था, पर कशिश का जवाब उसकी उम्मीद के विपरीत था। उसके पूछते ही कशिश ने झट से सहमति में सिर हिलाते हुए कहा,

    "हाँ… मुझे ज़ोरों की भूख लगी है। पता है, तीन दिन से मैंने ठीक से खाना नहीं खाया है।"

    कशिश ने अपना दुखड़ा सुनाया और दयनीय शक्ल बनाकर उसे देखने लगी। उसकी बात सुनकर ईशान चौंकते हुए बोला,

    "सुबह से इतनी चीज़ें खाकर भी आपको भूख लगी है?"

    "हाँ, तो चीज़ें खाई हैं ना… खाना थोड़े ही खाया है। इन चीज़ों से तो बस मन संतुष्ट होता है, पेट थोड़े ही भरता है। पेट तो खाने से भरता है, फिर मैं इतना बोलती हूँ… तो वो सब खाया हुआ तो कब का पच भी गया… और तुम्हें नहीं पता?… बाहर की चीज़ों का अलग पेट होता है और खाने का अलग पेट होता है।"

    कशिश खुद में ही बड़बड़ाने लगी थी। ऐसे-ऐसे तर्क दे रही थी, जिनका कोई तुक ही नहीं था। ईशान का सिर घूम गया उसकी उल्टी-सीधी, बेसिर-पैर की, अतरंगी बातें सुनकर। उसकी बातों के प्रकोप से खुद को बचाने के लिए उसने तुरंत टिफ़िन उसकी तरफ़ बढ़ा दिया और उसकी बात काटते हुए बोला,

    "लीजिए… आप ही खा लीजिए, आपको ज़्यादा ज़रूरत है।"

    कशिश को ईशान का उसकी बात काटना बिल्कुल पसंद नहीं आया, उसने बुरा सा मुँह बनाया। अगले ही पल, खाना देखकर मुस्कुरा उठी।

    "कितने अच्छे हो तुम।"

    उसने झट से पराठे का एक निवाला लिया और ईशान की तरफ़ देखकर बोली, "तुम नहीं खाओगे?"

    "नहीं… मुझे भूख नहीं है, आप खा लीजिए।"

    ईशान का जवाब सुनकर कशिश ने बेफ़िक्री से सिर हिलाया और टिफ़िन लेकर मज़े से पराठे खाने लगी। ईशान की नज़र लगातार उसके चेहरे पर बनी हुई थी। पराठे खाते हुए उसका छोटा सा चेहरा, ताज़े फूलों सा खिला हुआ था और लबों पर मोहिनी मुस्कान फैली हुई थी।

    देखते ही देखते कशिश ने सारा टिफ़िन खाली कर दिया, फिर टिफ़िन ईशान की तरफ़ बढ़ाया। ईशान ने तुरंत ही हड़बड़ी में अपनी निगाहें उससे हटा लीं।

    कशिश ने टिफ़िन उसकी तरफ़ बढ़ाया और मुस्कुराकर बोली, "खाने के लिए थैंक यू… तुमने मेरा भूखा पेट भरा, देखना महादेव तुम्हारे सारे प्रॉब्लम सॉल्व कर देंगे… मेरी बहुत पटती है उनसे, वो मेरी सारी बातें सुनते हैं… मेरे बेस्ट फ़्रेंड हैं ना, इसलिए मैं उनसे कहूँगी कि तुम्हारी जो भी प्रॉब्लम है, उसको सॉल्व कर दें और तुम्हें मुस्कुराने की वजह दें।"

    कशिश की मासूमियत भरी बातें सुनकर ईशान के लबों पर अनायास ही हल्की मुस्कान उभर आई। जिसका एहसास उसे खुद को नहीं हुआ, पर कशिश उसकी मुस्कान देखकर चहक उठी।

    "ओये होए… कितने अच्छे लगते हो, तुम मुस्कुराते हुए… मुस्कुराते रहा करो।"

    ईशान के कानों में कशिश के शब्द पड़े, तो पहले तो वह खुद चौंक गया। लबों पर से मुस्कान फिसल गई। उसने कोई जवाब नहीं दिया, टिफ़िन लेकर अपने बैग में रखा। फिर कशिश की तरफ़ मुड़ते हुए गंभीर स्वर में सवाल किया,

    "तुम अपने घर से भागकर आई हो?"

    ईशान का सवाल सुनकर कशिश के चेहरे का रंग उड़ गया। उसने तुरंत इनकार में सिर हिलाया और बाहर देखने लगी। एक बार फिर घबराहट में वह अपनी उंगलियों को तोड़ने-मरोड़ने लगी थी। ईशान कुछ पल खामोशी से उसे निहारने के बाद बोला,

    "देखो कशिश… वैसे तो मैं तुम्हें नहीं जानता… और ना ही यह जानता हूँ कि इतना बड़ा कदम क्यों उठाया है तुमने… पर फिर भी यही कहूँगा तुमसे, कि वजह चाहे जो हो… पर इस तरह अपने घर और परिवार को छोड़कर भागना ठीक नहीं है।"

    कशिश ने उसकी बात सुनते ही ईशान की तरफ़ निगाहें घुमाईं और नाराज़गी से बोली,

    "जानती हूँ मैं कि यह ठीक नहीं… पर अगर मैं नहीं भागती, तो वह ज़बरदस्ती मेरी शादी उस चपड़गंजू की शक्ल वाले लकड़बग्घे से करवा देते… और मुझे शादी नहीं करनी। मैं उन्हें समझा-समझाकर थक गई… पर कोई मेरी बात समझने को तैयार ही नहीं है।

    ज़बरदस्ती सगाई करवा दी उन्होंने मेरी। अगर नहीं भागती, तो शादी करवाकर मुझे उस घर भेज देते, जहाँ नहीं जाना चाहती मैं… अब तुम बताओ, जब मेरा मन शादी को तैयार नहीं, तो कैसे कर लूँ शादी?… मुझे तो समझ नहीं आता कि सब शादी के पीछे क्यों पड़े रहते हैं?… शादी के अलावा भी ज़िंदगी में बहुत कुछ है करने को… पर नहीं… उनके लिए शादी ही सब कुछ है।

    अरे कोई समझता क्यों नहीं कि बिना शादी की ज़िंदगी ज़्यादा अच्छे से जी जा सकती है, पर नहीं, सबको मेरी हरी-भरी खिलखिलाती ज़िंदगी में चरस बोने की जल्दी लगी है… जब तक मुझे पूरी तरह तबाह-बर्बाद नहीं कर लेते… मेरी ज़िंदगी की झाड़ नहीं मार देते, उन्हें चैन नहीं पड़ेगा… मैं उन्हें समझा-समझाकर थक गई, कि नहीं करनी मुझे शादी… तो नहीं करनी… पर वो कुछ सुनने और समझने को तैयार ही नहीं, इसलिए भाग गई मैं घर से।"

    कशिश इतनी परेशान और निराश थी कि एक ही साँस में सब बोल गई। ईशान ने उसकी बातें सुनीं, तो उसकी परेशानी को खुद से जोड़ने लगा और कुछ पल खामोशी के बाद उसने अगला सवाल किया,

    "तुम्हें शादी क्यों नहीं करनी है?… मतलब कोई तो वजह होगी, जो शादी से इतनी प्रॉब्लम है तुम्हें और उससे बचने के लिए तुमने इतना बड़ा कदम उठा लिया?"

    ईशान का सवाल सुनकर कशिश कुछ पल खामोशी से उसे देखती रही, फिर परेशान सी बोली,

    "मुझे डर लगता है… मेरे आस-पास जितने भी शादीशुदा लोगों को मैंने देखा है, सब दुखी हैं… पता है, हमारे किरायेदार हैं, वह अपनी पत्नी के साथ ज़बरदस्ती करते हैं, उन्हें मारते-पीटते भी हैं… मेरी खुद की मम्मी घुट-घुटकर अपनी ज़िंदगी जी रही हैं। शादी के बाद वह सब कुछ पापा की मर्ज़ी से करती हैं। हर चीज़ के लिए उन पर आश्रित हैं, उनकी अपनी कोई इच्छा, कोई शौक ही नहीं। यहाँ तक कि उनसे अपनी बात कहने की आज़ादी भी छिन गई है।

    मेरी दो बड़ी बहनें हैं। दोनों की शादी हो गई और शादी के बाद उनकी आज़ादी तक छिन गई है। अपने मन का कुछ नहीं कर सकतीं, कहीं जा नहीं सकतीं। इतनी रूढ़िवादी फैमिली है कि दोस्तों से बात तक करना मंज़ूर नहीं… शादी के कुछ वक़्त बाद ही बड़ी दीदी को बच्चा हो गया और दूसरी की शादी को कुछ ही महीने हुए हैं और वह भी गर्भवती है… दोनों की अरेंज मैरिज थी, जीजू को ठीक से जानती तक नहीं थीं। फिर भी इतनी जल्दी बच्चा हो गया… शादी के बाद उनका अपने ही शरीर पर हक़ नहीं है, इनकार नहीं कर सकतीं वे अपने पति को…

    ऐसा थोड़े ही होता है… जिनको जानते नहीं, उस पर खुद पर अधिकार कैसे दे सकते हैं?… मुझे यह सब सोचकर ही बहुत डर लगता है, इसलिए मुझे शादी नहीं करनी। मैं खुद को घर-गृहस्थी में नहीं फँसा सकती, मुझसे नहीं जी जाएगी ऐसी ज़िंदगी।"

    कशिश का डर आजकल की लगभग 50% से ज़्यादा लड़कियों के मन में पाया जाता है और इसमें गलती उनकी नहीं… उसके परिवार, आस-पास के माहौल, परिवेश जिसमें वह रहती है… उसका होता है।

    ईशान उसकी परेशानी समझ पा रहा था। कशिश की बात पूरी होने के बाद उसने गंभीरता से कहा,

    "अपनी जगह तुम ठीक हो… पर सोचा है कि अब कहाँ जाओगी?… और क्या करोगी?"

    कशिश ने निगाहें घुमाकर उसे देखा और प्यारी सी शक्ल बनाकर बोली,

    "पता नहीं… जहाँ महादेव लेकर जाएँगे, चली जाऊँगी। कोई रास्ता नहीं दिखा, तो गंगा मैया में डुबकी लगा लूँगी।"

    कशिश ने बड़ी ही बेफ़िक्री से जवाब दिया, पर उसकी बात सुनकर ईशान की हवाइयाँ उड़ गईं। सिर चकरा गया, उसने परेशान निगाहों से उसे देखते हुए कहा,

    "तुम पूरी की पूरी पागल हो… वैसे तुम चाहो तो मैं तुम्हारी मदद कर सकता हूँ। मेरी दीदी इंस्पेक्टर हैं, उनके पास लेकर चलता हूँ। तुम उनको सब बताना, वे तुम्हारे माँ-बाप को समझा देंगी… तो वे तुम पर शादी का दबाव बनाना बंद कर देंगे।"

    जैसे ही ईशान ने अपनी बात पूरी की, कशिश ने तुरंत ही इनकार में सिर हिला दिया।

    "बिल्कुल नहीं… तुम्हारी दीदी मुझे वापस उस घर में छोड़ आएंगी और वे लोग मुझे इमोशनल ब्लैकमेल करके मेरी शादी करवाकर मेरी ज़िंदगी बर्बाद कर देंगे… क्योंकि चाहे दुनिया इधर-उधर हो जाए, पर अगर मैं वहाँ रही, तो मेरी शादी करवाकर ही रहेंगे। इससे अच्छा तो मुझे गंगा मैया में डुबकी ही लगा लेनी चाहिए।"

    कशिश बुरा सा मुँह बनाकर उसे देखने लगी। ईशान कुछ पल खामोशी से उसे देखते हुए उसकी बातों के बारे में गहराई से सोचता रहा, फिर गंभीर स्वर में बोला,

    "शादी करोगी मुझसे?"

    ईशान की बात सुनकर कशिश आँखें फाड़े और मुँह खोले… हैरान-परेशान सी उसे देखने लगी। क्या जवाब देगी कशिश ईशान के इस सवाल का? ईशान ने आखिर कशिश से यह सवाल ही क्यों किया? जानने के लिए बने रहिए मेरे साथ और पढ़ते रहिए “इश्क़ मुबारक।”

  • 5. इश्क़ मुबारक (A Contract Marriage) - Chapter 5

    Words: 1879

    Estimated Reading Time: 12 min

    "शादी करोगी मुझसे?"

    ईशान का सवाल सुनकर कशिश ने पहले तो आँखें फाड़ दीं और मुँह खोला। हैरान-परेशान सी, वह उसे देखती रही। फिर अगले ही पल हैरानगी से बोली,

    "दिमाग खराब हो गया है तुम्हारा? ...ये क्या बकवास कर रहे हो तुम? ...तुम्हें खुद को समझ आ रहा है? शादी मैं, वो भी तुमसे...अगर मुझे शादी ही करनी होती तो मैं घर से भागती ही क्यों?"

    गनीमत थी कि उन दोनों के अलावा वहाँ आस-पास कोई नहीं था। वरना कशिश की तेज आवाज़ में कहीं इन बातों के कारण वे दोनों आकर्षण का केंद्र बन गए होते। ईशान को शायद कशिश से इसी प्रतिक्रिया की उम्मीद थी। उसने गहरी साँस छोड़ी और शांत स्वर में आगे बोला,

    "कुछ भी सोचने से पहले, मेरी पूरी बात सुन लो। मैंने सब जानकर भी अगर तुम्हें शादी के लिए कहा, तो कुछ तो सोचा ही होगा मैंने।"

    कशिश शांत हुई और भौंहें सिकोड़ते हुए उसे घूरने लगी। ईशान ने अपनी बात आगे जारी रखते हुए गंभीरता से कहा,

    "तुम शादी नहीं करना चाहती, पर तुम्हारी फैमिली तुम्हारी शादी के पीछे पड़ी है...और मुझे भी शादी नहीं करनी, पर मेरी दीदी का दबाव है मुझ पर।...अगर मैं शादी नहीं करूँगा तो वो भी शादी नहीं करेंगी। हम दोनों की परेशानी एक सी है और मेरी समझ में हम दोनों की परेशानी का सबसे अच्छा हल ये है कि हम दोनों आपस में शादी कर लें...पर सिर्फ़ झूठी शादी। बाकी सबके लिए हम पति-पत्नी होंगे, पर हमारे बीच पति-पत्नी जैसा कोई रिश्ता नहीं होगा और ये नाटक बस कुछ वक्त के लिए चलेगा।

    मेरी दीदी की शादी हो जाएगी तो हम अलग हो जाएँगे। मेरे पास बहाना होगा कि एक बार शादी टूटने के बाद दोबारा शादी नहीं करूँगा, दीदी भी मुझे फ़ोर्स नहीं कर सकेंगी और शादी के बाद तुम्हारा भी तुम्हारी फैमिली से पीछा छूट जाएगा। मुझसे अलग होने के बाद तुम सुकून से अपनी मर्ज़ी से अपनी ज़िंदगी जीना। हम दोनों की प्रॉब्लम सॉल्व हो जाएगी और हम दोनों आज़ाद होंगे।"

    ईशान ने अपनी बात और उसके फैसले के हर पहलू को कशिश को समझाया। उसकी बात ने कशिश को सोचने पर मजबूर कर दिया। वह कुछ पल गहराई से उसकी बातों के बारे में सोचती रही, फिर भौंहें चढ़ाते हुए बोली,

    "बात तो तुम्हारी ठीक है...पर तुम शादी क्यों नहीं करना चाहते?"

    "मेरी कोई पर्सनल वजह है जो मैं तुम्हें नहीं बता सकता। तुम बताओ, इस नाटक में साथ दोगी मेरा? इससे हम दोनों का ही फायदा है, तो अच्छे से सोचकर जवाब देना।"

    इसके बाद कुछ पल उनके बीच गहरी खामोशी छाई रही। ईशान जवाब के इंतज़ार में उसे देख रहा था, जबकि कशिश अपनी ही सोच में घूम रही थी। उसने अच्छे से सब बातों के बारे में सोचा, फिर ईशान को देखकर हामी भरते हुए बोली,

    "ठीक है...मैं नाटक करने के लिए तैयार हूँ। वैसे भी मुझे एक ठिकाना चाहिए रहने के लिए। कुछ वक़्त तुम्हारे घर में रह लूँगी और इस नाटक से शादी नाम की मुसीबत से पीछा भी छूट जाएगा मेरा...पर तुम आगे चलकर अपनी बात से मत मुकरना...और कहीं नाटक को सच समझकर मेरे साथ, कुछ ऐसा-वैसा करने की कोशिश मत करने लगना...और ना ही पति जैसे रोक-टोक लगाना मुझ पर, वरना मैं तुम्हारी दीदी को सब सच बता दूँगी।"

    कशिश चेतावनी भरी नज़रों से उसे घूरने लगी। उसकी धमकी सुनकर ईशान ने गंभीरता से कहा,

    "इसकी चिंता करने की तुम्हें कोई ज़रूरत नहीं है। न तो मैं अपनी कही बात से मुकरूँगा, न ही तुम पर कोई रोक-टोक और पाबंदियाँ लगाऊँगा...और न ही मैं तुम्हारे करीब आने की कोशिश करूँगा। तुम बस इतना याद रखना कि सबकी नज़र में तुम मेरी पत्नी होगी...तो ऐसा-वैसा कुछ मत करना, जिससे किसी को भी हमारे रिश्ते पर शक हो।

    मेरे परिवार की इज़्ज़त तुमसे जुड़ेगी...तो तुम्हें मेरे घर की मान-मर्यादा और प्रतिष्ठा को ध्यान में रखते हुए, कोई भी काम करना होगा। तुम्हें ऐसा कुछ करने की इज़ाज़त नहीं होगी जिससे हमारे रिश्ते पर सवाल उठे या मेरे परिवार की इज़्ज़त पर दाग लगे।"

    ईशान ने गंभीरता से कशिश को अपनी बात समझाई और शायद कशिश उसकी बातों की गहराई में छुपे मतलब को समझ भी गई थी। उसने झट से सहमति में सिर हिलाया और सौम्य सी मुस्कान लबों पर सजाते हुए बोली,

    "ठीक है...मैं इन सभी बातों का ध्यान रखूँगी। तुम्हें अभी तक नहीं पता कि आखिर कशिश शर्मा किस खिलाड़ी का नाम है?...तुम्हें एहसास ही नहीं कि कितनी टैलेंटेड बंदी से पाला पड़ा है तुम्हारा। मैं बीवी बनने की इतनी बढ़िया एक्टिंग करूँगी कि देखना तुम भी सोच में पड़ जाओगे...कि ये सब नाटक है या हमारी शादी सच में हुई है।"

    कशिश अपने मुँह अपनी तारीफ़ करते हुए, खुद पर इतराते हुए, बड़े ही अदा से अपने माथे पर आते बालों को फूँक मारकर पीछे करते हुए, मुस्कुरा दी। उसकी इस अदा पर ईशान भी मुस्कुराए बिना न रह सका। उसने कशिश के आगे हाथ बढ़ाते हुए कहा,

    "तो डील डन हुई...हम मेरी दीदी की शादी हो जाने तक शादीशुदा होने का नाटक करेंगे, फिर हमारे रास्ते अलग-अलग हो जाएँगे। उसके बाद न हमारा कोई रिश्ता रहेगा और न ही हम एक-दूसरे की ज़िंदगी में वापिस शामिल होने की कोशिश करेंगे।"

    कशिश ने उसकी बात सुनकर मुस्कुराकर उसके आगे बढ़े हाथ को थाम लिया, "डन...डना...डन...डन"

    फिर अगले ही पल उसके दिमाग में कुछ आया और उसकी वो खिली हुई मुस्कान फीकी पड़ गई। उसने परेशान लहजे में कहा,

    "ईशान...अगर मेरे पापा को पता चला कि मैंने भागकर शादी की है...तो पहले वो तुम्हें मार देंगे, फिर मेरी जान ले लेंगे।"

    अपने पापा का ज़िक्र करते हुए कशिश की आँखों में अजीब सा खौफ़ नज़र आ रहा था। चेहरे पर घबराहट के भाव उभर आए थे। ईशान ने उसके चेहरे के बदलते भाव को नोटिस किया, फिर उसकी हथेली पर अपनी पकड़ कसते हुए गंभीरता से बोला,

    "उनकी चिंता तुम मत करो। उन्हें मेरी दीदी संभाल लेंगी। वो तुम्हारा या मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकेंगे। फ़िलहाल उनसे बड़ी प्रॉब्लम, दीदी को हमारे रिश्ते के लिए कन्विन्स करना है और उसके लिए कोई बढ़िया सी कहानी सोचनी पड़ेगी। वरना उनका पुलिस वाला दिमाग, एक सेकंड में हमारे झूठ को पकड़ लेगा।"

    रजनी का ज़िक्र करते हुए, ईशान के माथे पर चिंता की लकीरें उभर आईं...और चिंता करना जायज़ ही था। दो-तीन दिन पहले तक, वह शादी के नाम से भी दूर भागता था और आज अचानक शादी करके जाएगा...तो सवाल तो उठेंगे ही।

    दोनों इसी बारे में सोच रहे थे, इतने में ट्रेन अपने गंतव्य पर पहुँच गई। वाराणसी जंक्शन पर ट्रेन रुकी तो ईशान उठकर खड़ा हो गया,

    "पहले ट्रेन से नीचे उतरों, फिर सोचते हैं कुछ।"

    कशिश ने झट से सिर हिला दिया और दोनों ट्रेन से नीचे उतर गए। ट्रेन में बैठे-बैठे ईशान थक गया था, तो अपने हाथ-पैर स्ट्रेच करने लगा। वहीं कशिश वहाँ लगे चेयर पर बैठ गई और बिस्कुट का पैकेट निकालकर बिस्कुट खाते हुए सोचने लगी। कुछ देर बाद ईशान भी उसके बगल में आकर बैठ गया तो कशिश ने तुरंत बिस्कुट का पैकेट उसकी तरफ़ बढ़ा दिया, लेकिन ईशान ने इंकार में सिर हिला दिया। कशिश ने भी उस पर ज़्यादा ध्यान नहीं दिया और बेफ़िक्री से कंधे उचकाते हुए, मज़े से अपने बिस्कुट खाने लगी।

    कुछ देर उनके बीच गहरी खामोशी छाई रही। दोनों अपने-अपने दिमाग के घोड़े दौड़ाते रहे, फिर अचानक ही कशिश के दिमाग में कुछ आया...और उसने झट से सिर ईशान की तरफ़ घुमा लिया।

    "मेरे दिमाग में एक जबरदस्त आइडिया आया है।"

    "बोलो," ईशान ने उसकी तरफ़ सिर घुमाते हुए कहने का इशारा कर दिया।

    कशिश हौले से मुस्कुराई, फिर गहराई से सोचते हुए बोली,

    "तुम्हारी दीदी पुलिस में है...तो उन्हें सच बता देते हैं कि आज हम ट्रेन में पहली बार मिले, मेरे पापा मेरी मर्ज़ी के खिलाफ़ मेरी शादी करवा रहे थे इसलिए मैं घर से भाग गई। स्टेशन पर मुलाक़ात हुई और तुमने इतनी मदद की मेरी। मुझे तुम पसंद आ गए और तुम्हें भी मैं पसंद आ गई...और फिर हमने शादी कर ली। अगर तुम्हारी दीदी शक करें, तो कह देना कि उनकी ज़िद की वजह से तुमने जल्दबाजी में शादी कर ली और मैंने भी तुम्हें फ़ोर्स किया। वरना मेरे पेरेंट्स मुझे लेकर चले जाते और ज़बरदस्ती मेरी शादी किसी और से करवा देते।"

    कशिश ने बहुत सोचने-समझने के बाद ये तरीका निकाला था और अब अपने इस सुझाव को पूरे विश्वास के साथ ईशान को देने के बाद, अपने तेज दिमाग पर इतराने लगी थी। ईशान कुछ पल उसे यूँ ही देखता रहा, फिर उसने सिर हिला दिया। उसके बाद कशिश को ऊपर से नीचे तक देखते हुए बोला, "कोई ढंग के कपड़े हैं तुम्हारे पास...सूट या साड़ी?"

    "नहीं," कशिश ने तुरंत ही इंकार में सिर हिला दिया। ईशान पहले तो उसका जवाब सुनकर चौंक गया, फिर उसके बैग को देखते हुए उसने भौंहें चढ़ाईं,

    "तो इस बैग में क्या भरकर लाई हो?"

    कशिश ने उसके सवाल पर अपने बैग की चैन खोलकर बैग उसकी तरफ़ बढ़ा दिया। ईशान ने बैग को देखा तो चौंक गया। पूरे बैग में खाने-पीने की चीज़ें भरी थीं, बस पीछे एक जोड़ी कपड़ा दिख रहा था, वो भी जींस जैसा कुछ था।

    ईशान के हैरानी भरे एक्सप्रेशन देखकर, कशिश ने क्यूट सी शक्ल बना ली,

    "ज़्यादा सामान लेकर भागती तो भागने में दिक्क़त होती, इसलिए एक जोड़ी कपड़े और डॉक्यूमेंट लेकर भागी थी। यहाँ आते हुए ही रास्ते में कुछ खाने-पीने की चीज़ें ले लिया क्योंकि भूखी नहीं रहा जाता मुझसे। कपड़ों में भी जींस-टॉप है क्योंकि साड़ी नहीं पहनती मैं...और सूट-सलवार में दुपट्टा संभालते हुए भाग नहीं सकती। जींस कम्फ़र्टेबल रहती है, तो वही ले ली...पर तुम मेरे कपड़ों के बारे में क्यों पूछ रहे हो?"

    कशिश ने मासूमियत बिखेरते हुए सफ़ाई पेश की...और अंत में भौंहें चढ़ाकर सवालिया निगाहों से ईशान को देखने लगी। उसकी बात सुनकर, ईशान ने बेबसी से सिर हिलाते हुए कहा,

    "कुछ नहीं...चलो पहले तुम्हारे लिए ढंग के कपड़े लें, जिसे पहनकर तुम मेरी पत्नी बनकर मेरे घर जा सको...और झूठी शादी को सच्ची साबित करने का इंतज़ार भी करना होगा।"

  • 6. इश्क़ मुबारक (A Contract Marriage) - Chapter 6

    Words: 1238

    Estimated Reading Time: 8 min

    कशिश ने मासूमियत से सफाई पेश की और अंत में भौंहें चढ़ाकर, सवालिया निगाहों से शान को देखा। उसकी बात सुनकर ईशान ने बेबसी से सिर हिलाया और कहा,

    "कुछ नहीं। चलो पहले तुम्हारे लिए ढंग के कपड़े लेते हैं, जिसे पहनकर तुम मेरी पत्नी बनकर मेरे घर जा सको। और झूठी शादी को सच्ची साबित करने का इंतज़ार भी करना होगा।"

    कशिश ने सिर हिला दिया और बिस्कुट खाते हुए उसके पीछे-पीछे चल दी। ईशान पहले उसे बनारसी साड़ियों की दुकान में ले गया और कशिश की पसंद की दो-तीन साड़ियाँ उसे दिलाईं। ब्लाउज सिलने के लिए भी दे दिए, पर उसमें समय लगता, इसलिए उसने अभी के लिए कशिश को कुछ सूट दिला दिए, ताकि घर में पहन सके। सारा सामान लेकर, उसने एक सूट देकर उसे बदलने के लिए भेज दिया और खुद पेमेंट करने चला गया।

    करीब दस मिनट बाद कशिश वहाँ आई। ईशान की नज़र उस पर पड़ी तो एक पल के लिए उसकी निगाहें उस पर ठहर गईं। डार्क रेड कलर का प्यारा सा अनारकली बनारसी सूट पहना था उसने। उसके गोरे रंग पर लाल रंग बहुत खिल रहा था। कंधे से कुछ नीचे तक घुंघराले बाल खुले थे। आँखें सितारों सी चमक रही थीं और लबों पर मोहिनी मुस्कान फैली हुई थी।

    बाएँ कंधे पर दुपट्टा डाला हुआ था, जो खुला था। दुपट्टे को लहराते हुए कशिश इठलाती हुई उसकी ओर बढ़ रही थी। एक पल के लिए ईशान की निगाहें उस पर ठहर गईं, पर जल्दी ही उसने खुद को संभाला और निगाहें फेर लीं। कशिश खिलखिलाते हुए ईशान के सामने आकर खड़ी हो गई और बड़ी ही अदा से दुपट्टे को हवा में लहराते हुए, उसके सामने गोल-गोल घूमने लगी।

    "कैसी लग रही हूँ मैं?"

    ईशान, जो खुद को फ़ोन में व्यस्त दिखाने की कोशिश कर रहा था, ने निगाहें उठाकर उसे देखा और बिना किसी भाव के बोला,

    "ठीक लग रही हो।"

    इसके बाद एक पल ठहरकर उसने गंभीरता से कहा,

    "कशिश, वैसे तो मैं तुम पर कोई रोक-टोक नहीं लगाऊँगा, पर उस घर में मेरे अलावा और भी लोग रहते हैं, इसलिए सबके सामने तुम्हें सूट और साड़ी ही पहननी होगी। कम से कम एक-दो महीने तक तो संस्कारी बहू बनकर रहना होगा। कमरे में तुम जैसे चाहो रह सकती हो, वहाँ मैं तुम पर कोई बंदिशें नहीं लगाऊँगा।"

    ईशान की यह बात सुनकर कशिश की मुस्कान फीकी पड़ गई और उसने नाराज़गी से मुँह फुला लिया।

    "ऐसे थोड़ी होता है? तुमने कहा था कि मैं जैसे चाहूँ रह सकूँगी। मुझे तो साड़ी पहननी भी नहीं आती, अपने घर में मैं लोअर टी-शर्ट पहनकर रहती थी और तुम मुझे सूट, साड़ी पहनने को कह रहे हो।"

    "बस कुछ वक्त की बात है कशिश। थोड़ा एडजस्ट कर लो। शुरू-शुरू में जीन्स और लोअर पहन लेना, तो सब बातें बन जाएँगी।"

    ईशान ने उसे समझाने की कोशिश की। उसकी बात सुनकर कशिश ने बुरा सा मुँह बनाकर सहमति में सिर हिला दिया। वहाँ से निकलकर ईशान उसे लेकर सुनार के पास पहुँचा और उसके लिए छोटा सा सिंपल सा मंगलसूत्र ले लिया। श्रृंगार की दुकान से सिंदूर खरीदा। फिर दोनों चीजें कशिश को दे दीं। कशिश ने थोड़ा सा सिंदूर अपनी मांग में सजाया और मंगलसूत्र पहन लिया।

    ईशान ने अब कशिश को ऊपर से नीचे तक देखा, फिर आगे बढ़ते हुए बोला,

    "चलो, दीदी का सामना करना है।"

    ईशान ने जैसे ही आगे बढ़ने को कदम बढ़ाए, कशिश ने झट से उसकी बाँह पर से शर्ट की बाजू पकड़ते हुए उसे आगे जाने से रोक दिया। ईशान पहले तो चौंक गया, फिर सिर घुमाकर कशिश को देखते हुए सवाल किया,

    "क्या हुआ?"

    कशिश ने उसका सवाल सुनकर अपने निचले होंठ को बाहर निकाला और क्यूट सी शक्ल बनाकर बोली,

    "भूख लगी है।"

    ईशान कशिश की बात सुनकर शॉक्ड रह गया और आँखें बड़ी-बड़ी करके हैरानी से उसे देखने लगा। कशिश ने बदले में मुँह बिचकाते हुए अपनी पलकें झपका दीं। ईशान ने बेबसी से सिर हिला दिया, फिर गहरी साँस छोड़ते हुए बोला,

    "बोलो क्या खाना है?"

    ईशान के सवाल पूछते ही कशिश ने झट से सामने की तरफ उंगली से इशारा कर दिया। ईशान ने उसकी उंगली की दिशा में निगाहें घुमाईं तो उसकी नज़रें चाट की दुकान पर चली गईं। उसने एक नज़र चाट की दुकान को देखा जहाँ काफी भीड़ थी, फिर तिरछी निगाहों से कशिश की ओर देखा, जो सितारों सी चमकती आँखों से दुकान को देखते हुए अपने होंठों पर जीभ फिरा रही थी। ईशान ने गहरी साँस छोड़ते हुए सिर हिला दिया।

    "चलो।"

    ईशान ने जैसे ही कहा, कशिश का चेहरा खुशी से खिल उठा। वह चहकते हुए उसके साथ चलने लगी। ईशान ने उसे चाट दिलाई तो कशिश ने मजे से चटकारे लेते हुए चाट खाने लगी। पेट पूजा के बाद, दोनों अपनी मंज़िल के लिए निकल गए।


    शाम के पाँच बजने को थे। रजनी अपने केबिन में बैठी कोई फ़ाइल पढ़ रही थी, तभी हवलदार उसके केबिन में आया और उसके आगे आदर से सिर झुकाते हुए बोला,

    "मैडम, बाहर आपके भाई आए हैं और उनके साथ कोई लड़की भी है। वे आपसे मिलना चाहते हैं।"

    रजनी उसकी बात सुनकर चौंक गई और हैरानी से बोली,

    "ईशान आया है? वह भी किसी लड़की के साथ?"

    "जी मैडम।"

    हवलदार ने तुरंत हामी भरी। रजनी पहले सोच में पड़ गई कि ईशान किसे लेकर यहाँ आया होगा? फिर सिर हिलाते हुए बोली,

    "अंदर भेज दो उन्हें।"

    हवलदार हामी भरकर बाहर चला गया। कुछ ही मिनट बाद, एक बार फिर दरवाज़े पर दस्तक हुई तो रजनी ने फ़ाइल साइड में रखते हुए कहा,

    "अंदर आ जाओ ईशान।"

    अगले ही पल दरवाज़ा खुला और कशिश के साथ ईशान ने वहाँ कदम रखा। रजनी की तेज नज़रों से कुछ भी छुपा नहीं रह सका। कशिश की मांग में भरा सिंदूर, गले में पहना मंगलसूत्र और उसकी हथेली, जिसे ईशान ने थामा हुआ था, सब रजनी ने देख लिया और इसके साथ ही उसके चेहरे के भाव सख्त हो गए। एक नज़र कशिश को देखने के बाद उसने निगाहें ईशान की तरफ घुमाईं और भौंहें सिकोड़ते हुए बोली, "ये लड़की कौन है ईशू?"

    ईशान के लिए रजनी का "ईशू" शब्द सुनकर, एकाएक कशिश की हँसी छूट गई। जिससे रजनी के साथ-साथ ईशान की नज़रें भी उसकी तरफ़ घूम गईं। कशिश ने तुरंत अपनी हँसी कंट्रोल की और मुस्कुराकर बोली, "सॉरी...वो ईशू नाम आमतौर पर लड़कियों का होता है...इसलिए हँसी आ गई।"

    कशिश की बात सुनकर ईशान आँखें छोटी-छोटी करके उसे घूरने लगा। ईशान को गुस्से में देखकर कशिश को अपनी भूल का एहसास हुआ और तुरंत ही उसने अपनी "निंजा टेक्निक" अपनाई और एकदम मासूम सी शक्ल बनाकर खड़ी हो गई, ताकि ईशान उस पर गुस्सा न कर सके।

  • 7. इश्क़ मुबारक (A Contract Marriage) - Chapter 7

    Words: 1248

    Estimated Reading Time: 8 min

    ईशान गुस्से में कशिश को कुछ कहने ही वाला था, तभी उसके कानों में रजनी की सख्त आवाज़ पड़ी।

    "उन्हें घूरना बंद कीजिए ईशान और हमारे सवाल का जवाब दीजिए। कौन है यह लड़की और इन्हें लेकर आप यहां क्यों आए हैं?"

    ईशान ने आँखें तरेरकर कशिश को घूरते हुए, आँखों से ही उसे चेतावनी दी। फिर उसकी निगाहें रजनी की तरफ़ घूम गईं और उसने चेहरे पर गंभीर भाव लाते हुए जवाब दिया।

    "ये कशिश है दीदी। पिछली बार जब मैं दिल्ली गया था, तब इत्तेफ़ाक़ से मुलाक़ात हो गई थी हमारी। कशिश को पहली नज़र में मैं पसंद आ गया था। उसने मुझे अपने दिल की बात कही भी, पर मैंने इंकार कर दिया। आप तो जानती हैं, प्यार और शादी जैसे शब्दों पर विश्वास नहीं मुझे... इसलिए मैंने उसके प्यार को ठुकरा दिया था। आज जब मैं वापस आ रहा था, तब इत्तेफ़ाक़ से फिर से मेरी कशिश से मुलाक़ात हुई और उसने बताया कि उसके पेरेंट्स ज़बरदस्ती उसकी शादी करवा रहे हैं, इसलिए वो घर से भाग कर आई है।

    आज फिर उसने मुझसे शादी करने को कहा कि अगर मैं उससे शादी नहीं करूँगा तो उसके पेरेंट्स उसकी शादी किसी और से करवा देंगे और मेरे अलावा किसी और से शादी करने के बजाय ये अपनी जान देना पसंद करेगी। आप भी मुझ पर शादी के लिए दबाव बना रही थीं, तो आपकी ज़िद पूरी करने के लिए और कशिश की जान बचाने के लिए मैंने उससे शादी कर ली है।"

    ईशान सहजता से अपनी पूरी बात करने के बाद चुप हो गया। रजनी ने खामोशी से और बड़े ही ध्यान से उसकी पूरी बात सुनी, फिर निगाहें कशिश की ओर घुमाईं, जो आँखें फाड़े और मुँह खोले अचंभित सी ईशान को देखे जा रही थी। उसके एक्सप्रेशन काफी थे, यह सच बयां करने के लिए कि ईशान की बातों में कितनी सच्चाई है?

    रजनी ने एक नज़र कशिश को देखा, फिर वापस से ईशान की ओर निगाहें घुमाते हुए भौंहें चढ़ाते हुए सवाल किया।

    "अच्छा, तो आपने शादी कर ली...और कब की आपने शादी?...कहाँ की?"

    "मंदिर में," ईशान ने एक बार फिर गंभीरता से जवाब दिया।

    "चलिए ठीक है, मान लेते हैं आपकी बात...तो जरा यह बताइए कि इतनी भी क्या जल्दी थी आपको कि आप शादी के बाद हमें बताने आए हैं?"

    "कशिश की ज़िद थी, उसको डर था कि अगर देर की तो उसके पेरेंट्स हम तक पहुँच जाएँगे, इसलिए रेलवे स्टेशन के पास के मंदिर में ही हमने शादी कर ली।"

    ईशान ने एक बार फिर बड़ी ही सफ़ाई से झूठ को सच बनाकर रजनी के सामने परोस दिया।

    रजनी अब कुछ पल गहरी निगाहों से ईशान को देखती रही, पर उसके चेहरे पर झलकते कॉन्फ़िडेंस को देखकर उसके झूठ का अंदाज़ा नहीं लगा सकी। फिर उसने कशिश की तरफ़ निगाहें घुमाते हुए कहा।

    "आप क्या कहेंगी इस बारे में? क्या ईशान सच कह रहा है?"

    कशिश जो अब तक आँखें फाड़े, मुँह खोले...हैरान-परेशान सी ईशान को देखे जा रही थी। अपना नाम सुनकर उसने चौंकते हुए, रजनी की तरफ़ निगाहें घुमाईं और हड़बड़ी में सहमति में सिर हिलाया।

    "जी...जी दीदी, ये सच बोल रहे हैं।"

    झूठ बोलते हुए शुरू में कशिश की ज़ुबान लड़खड़ा गई, पर जल्दी ही उसने खुद को संभाल लिया।

    रजनी ने दोनों को देखा, फिर गहरी साँस छोड़ते हुए गंभीरता से बोली।

    "अब आप दोनों ने शादी कर ली है तो हम कर ही क्या सकते हैं? पर ऐसे भाग कर शादी करना हमें ठीक नहीं लगा...तो हमने सोचा है कि कशिश की माँ-बाप से बात करके, उनकी रज़ामंदी के साथ, सारे समाज के सामने, आप दोनों का विवाह संपन्न करवाया जाए।"

    रजनी की बात सुनकर कशिश के चेहरे का रंग ही उड़ गया, वहीँ ईशान भी कुछ हड़बड़ा गया।

    "इसकी क्या ज़रूरत है दीदी? शादी तो हो गई है और फिर वो लोग इस रिश्ते के लिए नहीं मानेंगे।"

    "तब भी हम एक बार उनसे बात ज़रूर करेंगे और अगर वो नहीं मानते हैं तो हम आप दोनों की शादी करवाएँगे और साथ ही आपके रिश्ते को कानूनन रजिस्टर करवाकर, उसे मान्यता भी दिलवाएँगे।"

    ईशान का पासा उल्टा पड़ा और अब दोनों अपने फैलाए झूठ के जाल में फँसने लगे। कशिश आँखें बड़ी-बड़ी करके घबराए हुए सी ईशान को देखने लगी। ईशान की हालत भी कुछ ऐसी ही थी। उसने भी कहाँ यह सोचा था कि शादी के इस झूठे नाटक को सच साबित करने के लिए उन्हें असल की शादी करनी पड़ जाएगी। इसके लिए वो बिल्कुल भी तैयार नहीं था। उसने फिर कुछ कहने को मुँह खोला, पर वो कुछ बोल पाता, उससे पहले ही रजनी के आगे के शब्द उसके कानों से टकराए।

    "ईशान, हमारी बात सुनकर आपके चेहरे पर परेशानी के भाव क्यों आ गए? आप दोनों ने तो पहले ही शादी कर ली है, फिर अब हमारे हिसाब से दोबारा शादी करने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए आप दोनों को...कहीं ऐसा तो नहीं कि आप शादी का नाटक करके, हमें भ्रमित करने की कोशिश कर रहे हैं, इसलिए असली की शादी का सुनकर परेशान हो गए?"

    रजनी ने जैसे ही अपनी बात पूरी की, ईशान ने तुरंत इंकार में सिर हिलाते हुए कहा, "नहीं दीदी...ऐसी तो कोई बात नहीं। मैं तो बस इसलिए बोल रहा था कि हम दोनों एक-दूसरे को पसंद करते हैं और शादी भी कर चुके हैं, फिर दोबारा शादी की क्या ज़रूरत है?"

    "आपको भले ज़रूरत नहीं है, पर हमें ज़रूरत है। आप खुद सोचिए ऐसी शादी को कौन मानेगा जिसका कोई साक्षी नहीं, कोई गवाह नहीं? क्या कहेंगे हम सबको कि भागकर शादी करके आए हैं आप? हम आप दोनों की वजह से अपने परिवार की इज़्ज़त पर आँच नहीं आने दे सकते। इसकी वजह आप बखूबी समझते हैं ईशान...इसलिए हम खुद आप दोनों की शादी करवाएँगे।

    आज कशिश पापा जी के घर में रुकेगी, कल सुबह दिल्ली जाकर इनके माता-पिता से बात करेंगे और अगर वो राजी होते हैं तो धूमधाम से आप दोनों की शादी करवाएँगे और अगर ऐसा संभव न हो सका, कशिश के माता-पिता नहीं माने तो यहाँ आकर मंदिर में अपनी आँखों के सामने, हम आप दोनों का विवाह संपन्न करवाएँगे।"

    रजनी अपना फैसला सुना चुकी थी। अपने बिछाए झूठ के जाल में दोनों ऐसे फँसे कि कुछ कहने की स्थिति में ही ना रहे। कशिश ने घबराकर ईशान के हाथ पर अपनी पकड़ कस दी, तो ईशान की निगाहें कशिश की तरफ़ घूम गईं। इसके साथ ही ईशान के कानों में एक बार फिर रजनी की आवाज़ पड़ी।

    "वैसे ईशान, आपको कशिश में ऐसा क्या नज़र आया कि आपने शादी करने जैसा बड़ा फैसला इतनी जल्दबाजी में ले लिया, वो भी हमें बताए बगैर?"

    ईशान ने सवाल सुनकर चौंकते हुए उन्हें देखा तो रजनी गहरी निगाहों से उसे ही देख रही थी।


    क्या जवाब देगा ईशान इस सवाल का और उनका झूठ कहाँ लेकर जाएगा उन्हें? ... जानने के लिए पढ़ते रहिए "इश्क़ मुबारक"

  • 8. इश्क़ मुबारक (A Contract Marriage) - Chapter 8

    Words: 2114

    Estimated Reading Time: 13 min

    अब तक हमने पढ़ा था कि कशिश और ईशान अपने झूठ में फँसे हुए नज़र आ रहे थे। उस पर रजनी ने ईशान से ऐसा सवाल किया, जिसका जवाब दे पाना उसके लिए दुनिया का सबसे मुश्किल काम था।

    कशिश घबराई हुई थी, परेशान निगाहों से ईशान को देखने लगी और रजनी की गहरी निगाहें भी उसके चेहरे पर टिकी थीं। ईशान कुछ पल खामोशी से रजनी के सवाल का जवाब सोचता रहा, फिर सवाल पर गहन विचार करने के बाद गंभीरता से बोला,

    "मैं आपको पहले ही बता चुका हूँ कि मुझे नहीं, कशिश को मुझसे प्यार है और उसके पेरेंट्स का प्रेशर था उस पर, जिसकी वजह से वह अपनी जान देना चाहती थी। उसकी जान बचाने के लिए मैंने उसके प्यार को accept किया है और इतनी जल्दबाजी में शादी उसके पेरेंट्स और आपकी ज़िद की वजह से की।

    अब आप कहेंगी कि मैं तो किसी कीमत पर शादी के लिए तैयार नहीं था। फिर इतनी जल्दबाजी में और कशिश से ही शादी क्यों की? तो आपके इस सवाल का जवाब भी मैं दे देता हूँ आपको।"

    इसके बाद ईशान एक पल को रुका, फिर गहरी साँस छोड़ते हुए आगे बोलना शुरू किया,

    "कशिश को इन दो मुलाक़ातों में जितना मैंने जाना है, वह और लड़कियों जैसी नहीं है। वह बड़ी-बड़ी महँगी-महँगी चीजों का शौक नहीं रखती, बल्कि छोटी-छोटी चीजों और बातों में खुशियाँ ढूँढ लेती है। इसका दिल भी साफ़ है, बच्चों जैसी मासूम है यह, उसके मन में कोई छल-कपट या स्वार्थ नहीं है।....... कशिश कभी धोखा नहीं देगी मुझे, फिर अपने वजह से मैं आपको सारी ज़िन्दगी अकेले तो बताने नहीं दे सकता था। आपकी ज़िद के लिए शादी तो करनी ही थी मुझे, कशिश मुझे अपने हिसाब से ठीक लगी, हम साथ में रह सकते हैं और उसके साथ मैं अपनी ज़िन्दगी बिताने का सोच सकता हूँ। बस इसलिए मैंने कशिश के प्यार को एक्सेप्ट कर लिया।"

    ईशान ने इतने कॉन्फिडेंस के साथ, बेहद सहजता से ये सब बातें कहीं कि एक पल को कशिश भी सोच में पड़ गई। रजनी ने ईशान की पूरी बात सुनी, फिर गंभीरता से बोली,

    "ईशू, तेरी बातों पर भरोसा कर रही हूँ पर याद रखियो कि अगर मुझे कभी पता चला कि यह सब सिर्फ़ एक नाटक था जो तूने मेरे लिए किया था, ताकि मैं शादी कर लूँ, तो उसी पल से तुम्हारा और मेरा रिश्ता ख़त्म हो जाएगा।....... तुम्हारे इतने बड़े धोखे को मैं कभी माफ़ नहीं करूँगी और शादी मैं तभी करूँगी, जब मुझे पूरी तरह से विश्वास हो जाएगा कि मेरे बाद कशिश तुम्हारा ध्यान रख सकती है और तुम खुश हो उसके साथ।"

    रजनी की बात सुनकर ईशान के माथे पर चिंता की लकीरें उभर आईं। एक पल वह कुछ कह न सका, फिर खुद को संभालते हुए सौम्य मुस्कान लबों पर सजाकर बोला,

    "मैं कभी आपके विश्वास को ठीक नहीं पहचानूँगा दीदी। मुझे आपकी शर्त भी मंज़ूर है।"

    जहाँ रजनी के चेहरे पर राहत के भाव उभर आए, वहीं उसका जवाब सुनकर कशिश के चेहरे का रंग ही उड़ गया। रजनी ने एक नज़र कशिश को दिखाया, फिर अपनी चेयर से उठते हुए बोली,

    "आप दोनों बाहर आइये, हम इंतज़ार कर रहे हैं।"

    ईशान ने सहमति में सिर हिलाया और कशिश का हाथ थामे उनके पीछे जाने को पलटा। पर ईशान एक कदम भी आगे बढ़ पाता, उससे पहले ही कशिश ने उसका हाथ झटकते हुए, उसकी हथेली से अपनी हथेली छुड़ा ली। ईशान ने चौंकते हुए पलटकर उसको देखा तो कशिश आँखें छोटी-छोटी करके गुस्से भरी निगाहों से उसे घूर रही थी।

    "क्या बकवास कर रहे थे ये तुम अपनी दीदी के सामने?....... मैंने बताया था ना कि मुझे शादी से डर लगता है....... शादी, प्यार जैसे शब्दों पर मुझे विश्वास नहीं, ये सब बस दिखावा होता है.... जो शादी के बाद कहाँ गायब होता है, किसी को मालूम नहीं चलता और शादी तो बस अपने घर में फ्री की नौकरानी लाने के लिए करते हैं। जिसके पास दो काम होते हैं....... पहला, उस इंसान की नौकरानी बनकर उसके और उसके घर के सारे काम करना और दूसरा, उसकी शारीरिक ज़रूरतें पूरी करके बच्चे पैदा करना....... और मुझे अपनी ज़िन्दगी बर्बाद करने का कोई शौक नहीं है............

    ना तो मुझे अपनी आज़ादी खोकर किसी के घर की नौकरानी बनना है, ना ही किसी के उपभोग की वस्तु बनकर अपने वजूद को मिटाना है और ना ही बच्चे पैदा करने की मशीन बनना है।....... मैं किसी कीमत पर शादी नहीं करूँगी। अभी के अभी तुम अपनी दीदी से बात करके, यह तमाशा यहीं ख़त्म करो, नहीं तो मैं जाकर उन्हें सारी हकीकत बता देती हूँ।"

    कशिश इतने गुस्से में थी कि नॉन स्टॉप बोलती ही चली गई और अपना फैसला भी सुना दिया। एक साँस में इतना बोलने की वजह से उसकी साँस फूल गई थी। अभी उसकी गुस्से और नाराज़गी भरी निगाहें ईशान पर टिकी थीं। जैसे ही वह अपनी बात कहकर चुप हुई, ईशान ने गंभीर लहज़े में कहा,

    "तुम ऐसा कुछ नहीं करोगी। जो जैसा चल रहा है, वैसा ही चलेगा। अब अगर दीदी के सामने सच्चाई आई तो उनके मन को ठेस पहुँचेगी और मुझ पर से उनका विश्वास उठ जाएगा, जो मैं किसी कीमत पर होने नहीं दे सकता। इसलिए अब हमें यह नाटक करना ही होगा, पर जो होगा सिर्फ़ नाटक होगा। भले ही शादी असली होगी पर सिर्फ़ तब तक के लिए जब तक कि मेरी दीदी की शादी नहीं हो जाती। उसके बाद मैं तुम्हें डिवोर्स दे दूँगा और हम दोनों इस रिश्ते से आज़ाद हो जाएँगे।

    सारा ब्लेम भी मैं अपने ऊपर ले लूँगा और तुम बिना किसी परेशानी के मुझसे दूर जाकर, अपनी ज़िन्दगी अपनी मर्ज़ी से पूरी आज़ादी के साथ बिता सकोगी....... और एक बात मैं अभी ही साफ़ कर देता हूँ कि पति-पत्नी हम बाकी लोगों के लिए होंगे पर हमारे बीच वैसा कोई रिश्ता नहीं होगा।....... तुम्हें डरने या घबराने की बिलकुल ज़रूरत नहीं है। तुम बिलकुल निश्चिंत रहो क्योंकि मैं ना तो तुम पर कभी हाथ उठाऊँगा, ना अपने घर की नौकरानी बनाकर रखूँगा, ना तुम पर कोई पाबंदी लगाऊँगा और ना ही तुम पर पति होने का हक़ जताऊँगा।

    मैं कभी तुम्हारे करीब आने की कोशिश नहीं करूँगा क्योंकि मुझे तुममें तो क्या, दुनिया की किसी लड़की में कोई दिलचस्पी नहीं है।"

    "हाँ तो लड़कों में दिलचस्पी होगी ना।" कशिश छूटते ही बोल पड़ी। उसके बात सुनकर ईशान की आँखें हैरानी से फैल गईं, आँखें बड़ी-बड़ी करके उसे देखते हुए अचंभित सा बोला,

    "What nonsense is this....... दिमाग खराब हो गया है तुम्हारा?....... मालूम भी है तुम्हें कि क्या बकवास की है तुमने अभी-अभी....... मतलब क्या हुआ कि मुझे लड़कियों में दिलचस्पी नहीं तो लड़कों में दिलचस्पी होगी....... I am a straight boy, फिर मुझे लड़कों में क्यों दिलचस्पी होगी?"

    ईशान हैरानी और गुस्से से मिले-जुले भाव चेहरे पर लिए कशिश को घूरने लगा। उसकी बात सुनकर कशिश ने बेफ़िक्री से कंधे उचकाते हुए जवाब दिया,

    "मुझे क्या पता?........... तुम्हीं ने कहा कि तुम्हें मुझमें तो क्या, दुनिया की किसी लड़की में कोई दिलचस्पी नहीं है....... तो मुझे लगा कि ज़रूर फिर तुम्हें लड़कों में दिलचस्पी होगी... पर लड़के से शादी तो नहीं कर सकते इसलिए सब नाटक कर रहे हो।"

    कशिश की बात सुनकर ईशान ने अपना सिर पकड़ लिया और खीझते हुए बोला,

    "You are totally mad....... तुम्हें इतनी सीरियस माहौल में भी मज़ाक सूझ रहा है। इतनी बकवास बातें आती कहाँ से हैं तुम्हारे दिमाग में?"

    "वहीं से जहाँ से तुम्हारे दिमाग में आती है और जब तुम शादी जैसे रिश्ते का मज़ाक कर सकते हो मेरे साथ.... तो मैं क्यों नहीं कर सकती?"

    कशिश ने तल्खी भरे लहज़े में जवाब दिया और गुस्से भरी नज़रों से उसे घूरने लगी। उसका गुस्सा, फ़्रस्ट्रेशन सब उसके शब्दों में झलक रहा था और कहीं न कहीं अपनी जगह वह और उसका गुस्सा दोनों ही ठीक था और इस बात का एहसास ईशान को भी था। पर अब तीर कमान से निकल चुका था, उसे वापिस लेना नामुमकिन था। जो सिचुएशन बनी थी, अब उसे जैसे-तैसे संभालना था और इसके लिए सबसे पहले कशिश को समझाना था जो इस वक़्त काफी भड़की हुई थी।

    ईशान ने अपने बालों में अपनी उंगलियों को फँसाते हुए अपना सिर ऊपर किया। कुछ गहरी साँस छोड़ते हुए खुद को शांत किया, फिर कशिश को देखकर गंभीरता से बोला,

    "देखो कशिश.... मैं जानता हूँ कि शादी कोई मज़ाक नहीं है। जानता हूँ कि जो कर रहा हूँ, गलत कर रहा हूँ.... पर इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं है मेरे पास। शादी और प्यार पर मुझे बिलकुल भरोसा नहीं है, मैं शादी के बंधन में बंधकर किसी के साथ अपनी पूरी ज़िन्दगी नहीं बिता सकता.... पर अपने वजह से अपनी दीदी को सारी ज़िन्दगी तन्हा भी नहीं देख सकता। इसलिए उनके लिए मुझे यह करना ही होगा और इतने आगे आकर अब पीछे हटना नामुमकिन है।

    तुम तो वैसे भी मरने की तैयारी में थी तो इससे तुम्हारा भी तो फ़ायदा है ना। इस नकली शादी से तुम्हें तुम्हारी फैमिली से छुटकारा मिल जाएगा, फिर कोई तुम्हें शादी करने के लिए फ़ोर्स नहीं करेगा। मुझसे शादी के बाद भी तुम वैसे रह सकोगी, जैसे रहना चाहती हो।

    पति होकर भी मैं हक़ नहीं जताऊँगा तुम पर और एक बार दीदी की शादी हो जाए तो मैं तुम्हें इस रिश्ते से आज़ाद कर दूँगा। फिर हमारे रास्ते अलग-अलग हो जाएँगे और मैं तुम्हें पैसे भी दे दूँगा। तुम अपनी नई ज़िन्दगी शुरू कर लेना। तुम्हें अपनी जान नहीं देनी पड़ेगी और मेरी भी प्रॉब्लम सॉल्व हो जाएगी। बस कुछ वक़्त नाटक करना है।"

    कशिश ने खामोशी से और बड़े ही ध्यान से उसकी बात सुनी, फिर गहरी निगाहों से उसे देखते हुए बोली,

    "ठीक है। मैं शादी करूँगी तुमसे.... पर उससे पहले तुम्हें मुझे वजह बतानी होगी कि तुम शादी क्यों नहीं करना चाहते? क्यों यह नाटक खेल रहे हो?..... जब अपनी दीदी से इतना ही प्यार करते हो तो क्यों उन्हें धोखा दे रहे हो? उनके साथ विश्वासघात कर रहे हो?"

    "वह मेरी पर्सनल बात है, मैं तुम्हें नहीं बता सकता।"

    इतना कहकर ईशान ने अपना चेहरा फेर लिया। कशिश कुछ पल उसके चेहरे के भावों को गंभीर निगाहों से देखती रही, फिर उसकी हथेली को थामते हुए बोली,

    "तुम भी क्या याद रखोगे कि कितनी दिलदार लड़की से पाला पड़ा था तुम्हारा, तुम भी मेरी तरह महादेव के भक्त हो.... बस इसलिए इस नाटक में तुम्हारा साथ दे रही हूँ....... पर अपनी बात पर से मुकर मत जाना। वरना महादेव की सौगंध, उनका त्रिशूल तुम्हारी छाती के आर-पार कर दूँगी।"

    कशिश खुद पर इतराई फिर उसे आँखें दिखाने लगी। पहले तो ईशान उसकी बात, या यूँ कहें कि उसकी धमकी सुनकर चौंक गया, फिर कशिश की बचकानी धमकी और चेहरे के भाव को देखकर अनायास ही उसके लबों पर हल्की मुस्कान उभर आई।

    "महादेव की सौगंध, अपना किया हर वादा निभाऊँगा। तुम्हारी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ कभी तुम्हारे करीब नहीं आऊँगा और जो अपने वचन से मुकर गया तो शौक से महादेव का त्रिशूल मेरे सीने के आर-पार कर देना.... रुकूँगा नहीं तुम्हें।"

    ईशान की बात सुनकर कशिश खिलखिला उठी,

    "चलो, तुम्हारी दीदी इंतज़ार कर रही होगी और रास्ते में कुछ खिला भी देना मुझे, इतनी टेंशन में और इतना बोलने से भूख लग गई है मुझे।"

    इस बार ईशान उसकी बात सुनकर हैरान नहीं हुआ क्योंकि अब कशिश की खाने की क्षमता का अंदाज़ा लग चुका था उसे। दोनों साथ में बाहर पहुँचे तो रजनी उनका इंतज़ार करती मिली। तीनों पुलिस जीप में बैठे और जीप विश्वनाथ मंदिर के विपरीत दिशा में चल पड़ी, जहाँ अभिषेक अपने मम्मी-पापा और छोटी बहन के साथ रहता था।

    क्या सच में ईशान और कशिश शादी के बंधन में बंध जाएँगे? उनका प्लान कामयाब होगा या किस्मत कुछ और ही खेल खेलने वाली है उनके साथ?

  • 9. इश्क़ मुबारक (A Contract Marriage) - Chapter 9

    Words: 1974

    Estimated Reading Time: 12 min

    कशिश ने कहा, "चलो तुम्हारी दीदी इंतज़ार कर रही होगी और रास्ते में कुछ खिला भी देना। मुझे इतनी टेंशन में और इतना बोलने से भूख लग गई है।"

    इस बार ईशान उसकी बात सुनकर हैरान नहीं हुआ क्योंकि अब कशिश की खाने की क्षमता का अंदाज़ा लग चुका था उसे। दोनों साथ में बाहर पहुँचे तो रजनी उनका इंतज़ार करती मिली। तीनों पुलिस जीप में बैठे और जीप विश्वनाथ मंदिर के विपरीत दिशा में चल पड़ी, जहाँ अभिषेक अपने मम्मी-पापा और छोटी बहन के साथ रहता था।

    मम्मी माधुरी जी, पापा अरविंद जी और छोटी बहन शिखा। अरविंद जी धीरज जी के बचपन के दोस्त थे। उनके अपने परिवार ने उनके मुश्किल की घड़ी में उनका साथ छोड़ दिया था, पर अरविंद जी ने उनके अंतिम घड़ी तक दोस्ती के रिश्ते को बखूबी निभाया था। उनकी सरकारी नौकरी थी और अभिषेक की भी सरकारी नौकरी थी। अभिषेक और रजनी हमउम्र थे और बचपन में ही उनका रिश्ता जुड़ना तय हो गया था। इत्तेफ़ाकन दोनों बच्चे साथ खेलते-कूदते बड़े हुए और बचपन की दोस्ती वक़्त के साथ प्यार में बदल गई। दोनों की रज़ामंदी से उनका रिश्ता पक्का कर दिया गया। सगाई भी हो चुकी थी, पर शादी से पहले धीरज जी दुनिया को अलविदा कह गए।

    रजनी ने ईशान के लिए शादी करने से इनकार कर दिया था, अभिषेक को कहा भी था कि किसी और लड़की से शादी कर ले, पर वह और उसका परिवार आज भी इंतज़ार कर रहे थे और इसी इंतज़ार को खत्म करने के लिए, अपनी दीदी का प्यार लौटाने के लिए, ईशान इतना बड़ा नाटक करने को तैयार हो गया था।

    बनारस की संकरी गलियों से निकलते हुए जीप अभिषेक के घर के बाहर आकर रुकी। आगे से रजनी और पीछे से कशिश और ईशान साथ ही बाहर निकले। शाम का वक़्त था, तो अभिषेक के घर पर सब मौजूद थे और आँगन में बैठकर परिवार के साथ वक़्त बिता रहे थे। रजनी के अंदर आने से पहले ही नौकर ने सबको आगंतुकों के आने की सूचना दे दी और घर की होने वाली बहू के आने की खबर सुनकर, सभी उसके स्वागत में उठकर खड़े हो गए। अभी वे गेट की ओर कुछ कदम बढ़े ही थे कि उनकी नज़र गेट से अंदर आते रजनी, ईशान और कशिश पर पड़ी। जहाँ रजनी और ईशान को देखकर वे सभी प्रसन्न हो गए, वहीं उनके साथ आती कशिश को देखकर कुछ-कुछ असमंजस में पड़ गए।

    कशिश को वे जानते नहीं थे और ना ही पहले कभी उसको यहाँ देखा था। उस पर उसकी मांग में भरा सिंदूर, गले में मौजूद मंगलसूत्र और सबसे बड़ी बात ईशान का उसका ऐसे हक़ से हाथ थामना, सब की परेशानी और हैरानी की वजह बन गई थी। ईशान के साथ आज तक रजनी के अलावा किसी लड़की को नहीं देखा था उन्होंने, इसलिए कुछ अचंभित से थे वे।

    तीनों अंदर आए। रजनी ने अरविंद जी और माधुरी जी का आदर सहित चरण स्पर्श करके उन्हें प्रणाम किया, तो दोनों ने उसे आशीर्वाद दे दिया। शिखा "भाभी" पुकारते हुए उसके गले लग गई। रजनी के बाद ईशान कशिश के साथ आगे बढ़ा, पर इससे पहले कि वह कशिश के साथ उनके पैर छू पाता, अरविंद जी ने कशिश की तरफ़ इशारा करते हुए ईशान को देखते हुए पूछा,

    "ईशान ये कौन है आपके साथ?"

    हालाँकि कशिश का यह रूप और उसे ईशान के साथ देखकर, सिर्फ़ उन्हें ही नहीं बाकी सब को भी कहीं ना कहीं उनके रिश्ते का अंदाज़ा हो गया था, पर शायद उनका दिमाग इस हकीकत को स्वीकार नहीं कर पा रहा था। इसलिए उन्होंने सीधे ईशान से ही सवाल कर लिया, पर जवाब में ईशान कुछ कहता, उससे पहले ही रजनी ने कशिश के कंधे को एक तरफ़ से थामते हुए, सबको देखकर गंभीर स्वर में कहा,

    "पापा जी ये कशिश है... कशिश मिश्रा... ईशान की पत्नी।"

    रजनी ने जैसे ही आखिरी के शब्द कहे, वहाँ खड़े लोगों के चेहरे के रंग ही उड़ गए। किसी को भी अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ। उनकी हैरान, परेशान, अविश्वास भरी निगाहें ईशान की तरफ़ घूम गईं। अभिषेक जो रजनी को देख रहा था, उसकी बात सुनकर बेचैनी से अचंभित सा ईशान को देखने लगा।

    "ईशान, रजनी क्या कह रही है? तुमने शादी कर ली... कब... कैसे और हमें बताया क्यों नहीं? कशिश कौन है?... कहाँ से है और तुमने अचानक से शादी कैसे कर ली?"

    "उसने ये शादी मेरे लिए की है।"

    रजनी के शब्द सुनकर एक बार फिर सब चौंक गए। रजनी ने पहले ईशान और उसके बीच शादी को लेकर जो बहस हुई थी, उसके बारे में उन्हें बताया। फिर ईशान ने जो कहानी उसे सुनाई थी, वह कहानी सबको सुना दी। अभी भी किसी को विश्वास नहीं हो रहा था, पर ईशान रजनी को जितना प्यार करता था, वे इन बातों के सच होने पर एतबार कर सकते थे। सारी बात सबको बताने के बाद रजनी ने अरविंद जी को देखकर कहा,

    "पापा जी आप तो जानते हैं, अगर ईशान के इस तरह से शादी करने की बात घर में सबके और लोगों के सामने आई तो क्या होगा?... फिर दोनों ने जिस तरह से शादी की, वह भी सही नहीं था, पर शायद तब हालात ही ऐसे रहे होंगे। फिर अभी दोनों ही बच्चे हैं, दुनियादारी की समझ नहीं उन्हें, तो भावनाओं में बहकर उन्होंने यह कदम उठा लिया और मैं उनके इस भूल को सुधारना चाहती हूँ।...

    अभी कशिश को लेकर घर जाना ठीक नहीं होगा, इसलिए आज की रात उन्हें यहाँ रहने दीजिए। कल सुबह मैं दोनों के साथ दिल्ली जाकर कशिश के माता-पिता से बात करूँगी। अगर उनकी इस रिश्ते के लिए हाँ होती है तो सबकी रज़ामंदी से समाज के सामने कशिश और ईशान की शादी करवा देंगे... और अगर वे नहीं मानें तो यहाँ आकर मंदिर में दोनों की दोबारा शादी करवा देंगे। जिससे किसी को उनके रिश्ते पर सवाल उठाने का मौका ना मिले।"

    रजनी ने बहुत सोचने-समझने के बाद इस परेशानी का यह हल निकाला था। अरविंद जी ने उसकी बात सुनी, फिर कुछ पल सोचने के बाद गंभीरता से बोले,

    "आपने बिल्कुल सही सोचा है बेटा। कशिश बहू आज यहाँ आराम से रहेंगी, कल आपके साथ हम भी चलेंगे बहू के माता-पिता से बात करने और उन्हें मनाने की पूरी कोशिश करेंगे। अगर वे मानते हैं तो धूमधाम से दोनों की दोबारा शादी करवा देंगे और अगर नहीं मानते हैं तो हम कशिश बहू के पिता के तौर पर उनका कन्यादान करेंगे और धूमधाम से उन्हें इस आँगन से विदा करेंगे। इससे किसी को ईशान और उनके रिश्ते पर कोई सवाल उठाने का मौका नहीं मिलेगा।"

    अरविंद जी की बात सुनकर, रजनी ने मुस्कुराकर सहमति में सिर हिलाया। अरविंद जी धीरज जी के जाने के बाद से, उनके लिए एक ज़िम्मेदार पिता होने का फ़र्ज़ निभाने में कभी पीछे नहीं हटे थे। आज अगर धीरज जी ज़िंदा होते तो उनका भी यही फैसला होता और अरविंद जी ने जब यह बात कही... तो ऐसा लगा मानो बाप का साया अब भी उनके सर पर मौजूद है, जो किसी परिस्थिति में अपने बच्चों को अकेला नहीं छोड़ते।

    माधुरी जी ने कशिश-ईशान को चौखट के बाहर भेजा और नए-नए शादीशुदा जोड़े की आरती उतार कर स्वागत किया। कशिश-ईशान ने साथ में अरविंद जी और माधुरी जी के पैर छूकर उनका आशीर्वाद लिया। अभिषेक के पैर छूने को झुके, पर उसने एक बड़े भाई के तरह दोनों को गले से लगा लिया। आखिर में शिखा की बारी आई। वह कशिश के सामने आकर खड़ी हो गई। रजनी ने सब की तरह कशिश को उससे भी मिलवाया। उसने पहले तो दोनों को शादी की बधाई दी, फिर कशिश को देखकर मुस्कुराते हुए बोली,

    "भाभी आप तो बहुत सुंदर हैं, बिल्कुल टीवी में दिखने वाली हीरोइन जैसे।"

    "चल झूठी... हीरोइन मेरे जैसी थोड़े ही होती है। वे तो खंभे जैसी लंबी-लंबी होती हैं, परफेक्ट फिगर, बॉडी शेप होता है उनका। इतनी सुंदर-सुंदर होती हैं, उनके बाल भी रेशम के धागे होते हैं। इतनी अमीर होती हैं वे, मेरे जैसे थोड़े ही होती हैं।"

    इतनी देर से शांत खड़ी कशिश, मौका मिलते ही एकदम से बोल पड़ी। उसकी बातें सुनकर सब हैरानी से आँखें बड़ी-बड़ी करके उसे देखने लगे। वहीं ईशान ने बेबसी से अपना सिर हिला दिया। उसका जवाब सुनकर पहले तो हैरान हुई, फिर प्यारी सी मुस्कान लबों पर सजाते हुए बोली,

    "भाभी आप तो बड़ी मजाकिया हैं।"

    "वो तो मैं हूँ।" कशिश ने बड़ी ही अदा से अपने गालों पर अटखेलिया दिखाती लटों को फूँक मारकर पीछे किया और खुद पर ही इतराने लगी। बाकी सब भी अब मुस्कुरा उठे। वहीं कशिश फिर बोल पड़ी,

    "वैसे तुम्हें बोलना पसंद है? मुझे तो बोलने का बड़ा शौक है, पर किसी के पास वक़्त ही नहीं होता मेरी बातें सुनने का। तुम बात करोगी मुझसे? आज मैं यहीं रहूँगी और हम दोनों सारी रात बैठकर ढेर सारी बातें करेंगे। साथ में स्नैक्स भी खाएँगे, बहुत सारे हैं मेरे पास। वैसे तो मुझे अपने खाने की चीज़ बाँटना जरा भी पसंद नहीं, पर तुम मुझे बहुत क्यूट लगी इसलिए मैं तुम्हारे साथ शेयर कर लूँगी और हम ढेर सारी मस्ती भी करेंगे... मुझे तो खाना, डांस करना, सोना, गाने सुनना बड़ा पसंद है।"

    कशिश जो एक बार शुरू हुई तो चुप होने का नाम ही नहीं लिया उसने। अब तक एकदम शांत खड़ी थी वह और अब एकाएक उसको इतनी बात करते देखकर, सभी कुछ हैरान हो गए। ईशान जो उसकी बकबक सुनकर कुछ खीझ उठा था, उसने उसे चुप करवाने के लिए उसकी हथेली को हल्का सा दबा दिया। जिससे कशिश बोलते-बोलते चुप हो गई और उसके मुँह से हल्की सी सिसकी निकल गई। उसने सर घुमाकर नाराज़गी से अपने बगल में खड़े ईशान को देखा और बच्चों जैसे मुँह फुला लिया,

    "मेरा हाथ क्यों दबा रहे हो? दर्द हो रहा है मुझे... हाथ छोड़ो मेरा।"

    "तुम अपनी जुबान संभालो, तब से चकचर लगी हो। थकती नहीं बोलते-बोलते? साँस भी लेती हो या बस बोलती ही चली जाती हो? थोड़ी देर भी चुप नहीं रह सकती तुम? कम से कम जगह और हालात ही देख लो।"

    ईशान नाराज़गी से, पर धीमे स्वर में उसे समझाना चाहा। पर कशिश तो कशिश थी। उसने कभी अपने माँ-बाप की नहीं सुनी तो ईशान की क्या सुनती? उसने ईशान का हाथ झटक दिया और हल्के गुस्से से बोल पड़ी,

    "मैं क्यों देखूँ कुछ भी और तुम होते कौन हो मुझे चुप करवाने वाले? मुझे बोलना पसंद है, मैं तो बोलूँगी। पता है इतनी देर से मैं चुप थी, मेरे बेचारे होंठ बोलते-बोलते कितने बेचैन और बेताब हैं, मेरा पेट दुखने लगा है। ऊपर से तुमने मुझे खिलाया भी नहीं और अब डाँट भी रहे हो... ऐसे थोड़े होता है।"

    कशिश के चेहरे पर गहरी उदासी और दुख के बादल छा गए। आँखों में बेबसी झलकने लगी और वह लटकाए नाराज़गी से उसे देखने लगी। ईशान अब कुछ बोल नहीं सका। कशिश की बात सुनकर माधुरी जी उसके पास चली आई और प्यार से उसके सर पर हाथ फेरते हुए सवाल किया,

    "आपको भूख लगी है?"

    कशिश ने अपना निकला हुआ होंठ बाहर निकाला और बेहद दुखी, उदास चेहरा बनाकर सहमति में सिर हिला दिया। उसकी मासूमियत सबका मन मोह गई। माधुरी जी मुस्कुराईं, फिर शिखा को देखकर बोलीं,

    "शिखा बेटा भाभी को अपने रूम में लेकर जाओ और हाथ-मुँह धुलवा दो।"

    शिखा ने झट से सिर हिला दिया, फिर कशिश को अपने साथ लेकर जाते हुए मुस्कुराकर बोली,

    "चलिए भाभी, चलकर हाथ-मुँह धो लीजिए, फिर माँ के हाथ का बना स्वादिष्ट खाना खाने को मिलेगा। उसके बाद हम ढेर सारी बातें और खूब मस्ती करेंगे। आपको पता है... मैं तो घर में बिल्कुल अकेले पड़ जाती हूँ, पर अब आप आ गई हैं ना, तो बड़ा मज़ा आएगा... खूब पटेगी हमारी।"

    कशिश भी उसकी बात सुनकर खुश हो गई। इतनी देर में सभी समझ गए थे कि कशिश एक हँसमुख और चंचल स्वभाव की लड़की है और कहीं ना कहीं अब ईशान और कशिश के रिश्ते को लेकर कुछ निश्चिंत भी हो गए थे। ईशान के स्वभाव के अनुसार उसे ऐसी ही ज़िंदादिल लड़की की ज़रूरत थी।

  • 10. इश्क़ मुबारक (A Contract Marriage) - Chapter 10

    Words: 1903

    Estimated Reading Time: 12 min

    अब तक हमने पढ़ा था कि ईशान और कशिश के रिश्ते को रजनी और अभिषेक के परिवार ने स्वीकृति दे दी थी और अगले दिन कशिश के घर जाकर बात करने का निर्णय लिया गया था। अब आगे...


    अभिषेक ईशान से इस बारे में कुछ बात करना चाहता था, पर कर नहीं पाया। सब ने साथ में रात का खाना खाया। फिर कशिश को वहाँ छोड़कर ईशान रजनी के साथ चला गया, और कशिश जरा भी उदास नहीं हुई। कुछ ही देर में, अपने स्वभाव के कारण, वह लगभग सभी से खूब घुल-मिल गई थी। शिखा से तो उसकी दोस्ती भी हो गई थी; उन्हें देखकर कोई नहीं कह सकता था कि वे कुछ देर पहले ही मिले हैं। ऐसा लग रहा था जैसे वे सालों से एक-दूसरे को जानते हों। सगी बहनों जैसी जुगलबंदी थी उनके बीच। दोनों का स्वभाव एक-सा था, और खाने की मेज पर उनकी मीठी-चटपटी मज़ेदार बातों का सबने खूब आनंद उठाया था।


    रात के खाने के बाद माधुरी जी ने कशिश को शिखा के साथ उसके कमरे में आराम करने के लिए भेज दिया, जहाँ दोनों काफी देर तक बातें, मस्ती-मज़ाक करती रहीं, फिर सो गईं। कशिश को ध्यान तक नहीं था कि कितने वक़्त बाद उसने किसी से इतनी बातें की थीं और दिल से इतनी खुश थी। जहाँ कशिश हर चिंता-फ़िक्र और परेशानी को भुलाकर बेफ़िक्र सी सो रही थी, वहीं अगले दिन क्या होगा, इस चिंता में ईशान की रात बेचैनी से कटी।


    जैसा उसने सोचा था, कुछ भी वैसा नहीं हो रहा था, पर फिर भी एक उम्मीद थी कि जो होगा, महादेव की कृपा से ठीक ही होगा।


    अगला दिन शुरू हुआ। ईशान छत के किनारे, मुंडेर के पास खड़ा, दूर-दूर तक फैली गंगा मैया के विशाल रूप, चंचल लहरों और घाट पर लगते श्रद्धालुओं की भीड़ को देखते हुए मन ही मन विचार करने लगा कि क्या वह जो कर रहा है, वह सही है? क्या शादी जैसे पवित्र रिश्ते को सौदा बनाना, अपनों को धोखा देना ठीक है?


    काफी देर तक सोचने और आत्म-मंथन करने के बाद भी उसे इन सवालों का कोई जवाब न मिल सका, तो उसने अपने दिल को दिलासा दिया कि जो कर रहा है, वह रजनी की खुशी के लिए कर रहा है, तो सब ठीक है। फिर भी उसका मन शांत नहीं हो रहा था। आज उसके चेहरे पर वह रोज़ वाला सुकून और अधरों पर मुस्कान कहीं नज़र न आ सकी। उसने खुद को समझाया और नहाने चला गया।


    दूसरे तरफ़, कशिश रात को देर से सोई थी और कई दिनों बाद बिना किसी चिंता-फ़िक्र के सुकून भरी नींद में खोई हुई थी। वैसे भी नींद से गहरी यारी थी उसकी, तो सुबह के 9:00 बजने पर भी उसकी नींद नहीं खुली। शिखा नहाकर तैयार होकर कॉलेज के लिए निकल चुकी थी। माधुरी जी ने भी पहले कशिश को यह सोचकर नहीं उठाया कि थकी हुई होगी, इसलिए नींद नहीं खुली होगी। उन्होंने अपने सारे काम निपटाए; इतने में ईशान भी रजनी के साथ वहाँ आ गया। अभिषेक नाश्ता करके ऑफिस भी जा चुका था; अरविंद जी भी नाश्ता कर चुके थे।


    माधुरी जी ने सबको बिठाया, फिर खुद कशिश को जगाने चली गईं। कशिश के कमरे में पहुँचकर जब उन्होंने देखा कि कशिश पूरे बिस्तर पर अपने हाथ-पैर फैलाए उलटी पड़ी हुई सोने में लगी है, तो अनायास ही उनके लबों पर सौम्य सी मुस्कान सज गई।


    वह कशिश के पास आकर बैठ गईं और प्यार से उसके सर पर हाथ फेरते हुए बोलीं,
    "कशिश बेटा.. उठ जाओ, सुबह हो गई है।"


    कशिश गहरी नींद में थी। माधुरी जी के ममता भरे स्पर्श को अपनी माँ का स्पर्श समझकर वह नींद में ही उनकी गोद में सर रखकर लेट गई और उनके पेट व कमर पर अपनी बाहों को लपेटे हुए नींद में ही बड़बड़ाने लगी,
    "माँ, बहुत नींद आ रही है। थोड़ी देर और सोने दीजिए ना।"


    माधुरी जी समझ गईं कि कशिश नींद में उन्हें अपनी माँ समझ रही है। वे एक पल को चुप रहकर सोचती रहीं कि कितना गहरा रिश्ता रहा होगा उसका अपनी माँ से, और उसके यूँ घर छोड़कर चले आने से उसकी माँ की क्या दशा होगी? फिर उन्होंने मन ही मन आज सब ठीक होने की कामना की और दोबारा कशिश के सर पर प्यार से हाथ फेरते हुए बोलीं,
    "कशिश बेटा, नीचे सभी आ चुके हैं, आपका इंतज़ार कर रहे हैं। जल्दी से उठ जाइए बेटा। फिर आपको नाश्ता करके निकलना भी है, वरना ट्रेन छूट जाएगी आपकी।"


    यह सब बातें कशिश के कानों में पड़ीं, तब उसे नींद में ही एहसास हुआ कि अब वह अपने घर में नहीं है। कल जो भी हुआ, सब उसे एक-एक करके याद आने लगा और अगले ही पल में वह एकदम चौंकते हुए उठकर बैठ गई। उसके अचानक उठने से माधुरी जी घबरा गईं; कशिश भी पहले आँखें बड़ी-बड़ी करके उन्हें देखने लगी, फिर खुद को सामान्य करते हुए बोली,
    "सॉरी आंटी... वो मैं भूल गई थी कि अपने घर पर नहीं हूँ, बस इसलिए जरा हैरान हो गई थी।"


    माधुरी जी भी अब तक सामान्य हो गई थीं। उन्होंने प्यार से उसके गाल सहलाए और मुस्कुराकर बोलीं,
    "कोई बात नहीं बेटा, आदत नहीं आपको... हो जाता है ऐसा कभी-कभी। आप इसकी चिंता छोड़िए और जल्दी से नहाकर तैयार होकर नीचे आ जाइए।"


    कशिश ने झट से सहमति में सर हिला दिया और कल जो ईशान ने उसे कपड़े दिलाए थे, उन्हें लेकर बाथरूम में चली गई। माधुरी जी ने कमरा व्यवस्थित किया और वहाँ से नीचे चली आईं।


    कशिश जल्दबाजी में नहाकर तैयार होकर नीचे पहुँची, पर हॉल में बैठे लोगों पर नज़र पड़ते ही उसके आगे बढ़ते कदम ठिठक गए। सब की नज़रों को खुद पर देखकर वह थोड़ा असहज भी हो गई। माधुरी जी जो वहीं मौजूद थीं, उसे देखकर तुरंत उसके पास चली आईं और उसके रूप को देखकर चिंता भरे स्वर में बोलीं,
    "ये क्या बहू... नई-नई शादी हुई है आपकी और आपने न माँग सिंदूर लगाया, न मंगलसूत्र। बिना किसी साज-शृंगार के ही यहाँ आ गई। लगता है आपको कुछ भी मालूम नहीं। शादीशुदा लड़कियों को अपनी सुहाग की निशानियों को कभी खुद से दूर नहीं करना चाहिए, अभिशगुण माना जाता है। आप वापस अपने कमरे में जाइए, हम वहीं आते हैं। आपको तैयार कर देंगे।"


    माधुरी जी ने एक माँ के तरह बड़े ही ममता और प्यार से उसे समझाया। कशिश को अब याद आया कि वह शादीशुदा है... कम से कम बाकियों के लिए तो शादीशुदा ही है, और शादी के बाद अपनी दीदी को देखा था उसने, कैसे सोलह श्रृंगार करके रहती थी, इसलिए जानती तो सब थी, पर जल्दबाजी में ध्यान ही नहीं दिया उसने। अपनी गलती समझते हुए उसने सर झुका लिया और धीमी सी आवाज़ में बोली,
    "माफ़ कीजिएगा, जल्दबाजी में ध्यान नहीं रहा।"


    "कोई बात नहीं बेटा, आपके लिए भी तो अचानक सब बदल गया है, तो थोड़ा वक़्त लगेगा इस नए रिश्ते के अनुरूप खुद को ढालने में, और हम आपको डाँट तो नहीं रहे। बस समझा रहे हैं कि सुहागन लड़की को हमेशा सज-सँवरकर रहना चाहिए, और कुछ नहीं भी तो सिंदूर और मंगलसूत्र तो होना ही चाहिए... चलिए आप चलिए, हम आते हैं आपके पास, तैयार कर देंगे आपको।"


    माधुरी जी ने एक बार फिर बड़े ही प्यार से उसे समझाया। कशिश ने उनकी बातें सुनकर सर हिला दिया। जाने से पहले एक बार चोर नज़रों से ईशान को देखा, जो भावहीन सा उसे ही देख रहा था, फिर जल्दी से वहाँ से चली गई।


    माधुरी जी भी अपने कमरे में चली गईं। करीब बीस मिनट बाद वे कशिश को वापस वहाँ लेकर आईं। लाल बनारसी साड़ी, बीच की माँग निकालकर बालों को चोटी बनाई हुई थी, माँग को सुरख सिंदूर से सजाया गया था। माथे पर दोनों भौंहों के बीच छोटी सी लाल बिंदी जगमगा रही थी, होठों पर लाली, काँच की लाल चूड़ियों से भारी कलाई, पैरों में पायल। बिल्कुल नई-नवेली दुल्हन जैसे सोलह श्रृंगार किए, कशिश आज अलग ही कशिश बिखेर रही थी। बला की खूबसूरत लग रही थी वह; उस पर उसकी झुकी पलकें कहर ढा रही थीं।


    ईशान की नज़र उस पर पड़ी, तो एक पल को वह उसकी कशिश में खो सा गया, पर जल्दी ही उसने खुद को संभाला और उस पर से निगाहें फेर लीं।


    बाकी सब उसे देखकर मुस्कुरा दिए, पर कशिश के मन का हाल बस वही समझ रही थीं। नाटक की शादी में इतना कुछ करना, उसे बहुत अजीब लग रहा था और साथ ही इतने लोगों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ करने का दुःख भी था, पर अब कुछ भी करने या सोचने का कोई फ़ायदा नहीं था। तीर कमान से निकल चुका था। झूठ का जो जाल उन्होंने फैलाया था, अब उससे बाहर निकलने का कोई रास्ता ही नहीं था उनके पास। जिस नाटक का आगाज़ उन्होंने मिलकर किया था, अब उसे उसके अंजाम तक पहुँचाना ही था।


    बाकी सब तो खा चुके थे, तो माधुरी जी ने कशिश को खाना खिलाया। उसके बाद ईशान और कशिश, रजनी व अरविंद जी के साथ स्टेशन के लिए निकल गए। स्टेशन पहुँचकर वे दिल्ली के लिए रवाना हो गए। सारे रास्ते अरविंद जी और रजनी कशिश से उसके परिवार के बारे में पूछते रहे। कशिश दिखा नहीं रही थी, पर घर वापस जाने के नाम पर उसके हवा टाइट थी और उसी घबराहट में वह सारे रास्ते कुछ न कुछ खाती ही रही, जिसे ईशान ने नोटिस भी किया और कहीं न कहीं वह उसके मन के हाल को समझ भी रहा था, पर अनजान बने बैठा रहा।


    शाम के वक़्त वे दिल्ली पहुँचे। दिल्ली स्टेशन पर कदम रखते ही कशिश के सीने में जोरों से धड़कनें होने लगीं; उसने ईशान की हथेली को कस के पकड़ लिया, जिससे आगे बढ़ते ईशान के कदम ठहर गए। उसने चौंकते हुए पलटकर उसको देखा और निगाहें कशिश की घबराहट भरी निगाहों से टकरा गईं।


    "मुझे वापस ले चलो, प्लीज़... तुम जो कहोगे, मैं सब करूँगी। बस मुझे उस घर में वापस मत लेकर जाओ। मुझे वापस से वहाँ नहीं जाना।... तुम मेरे पापा को नहीं जानते, मैं सगाई के बाद घर से भागी हूँ। वे मुझे ज़िंदा नहीं छोड़ेंगे... उनके लिए सबसे ज़रूरी उनकी इज़्ज़त, उनका गुरूर है... वे मुझे नहीं छोड़ेंगे, प्लीज़ मुझे वापस बनारस ले चलो।"


    कशिश बोलते-बोलते रुआँसी हो गई। कल से लेकर आज तक में उसने पहली बार कशिश को इस अवस्था में देखा था, और उसको खौफ़ से भरी आँखों को देखकर अंदाज़ा लगा पा रहा था कि अपने पापा से कितना डरती है वह। ईशान खामोशी से उसे देखता रहा; जाने क्यों, पर कशिश का डर से सना, घबराया हुआ चेहरा देखकर उसे बिल्कुल भी अच्छा नहीं लग रहा था। अनायास ही कशिश की हथेली पर उसकी पकड़ कस गई और उसने बेहद शांत लहजे में कहा,
    "रिलैक्स... मैं हूँ ना तुम्हारे साथ। भले हमारा रिश्ता सच्चा नहीं, पर मेरे रहते कोई तुम्हें नुकसान नहीं पहुँचा सकेगा। मैं हिफ़ाज़त करूँगा तुम्हारी, बस तुम शांत हो जाओ और विश्वास रखो मुझ पर।"


    जाने उसके कहे चंद शब्दों में ऐसा क्या था कि कशिश का मन एकदम शांत हो गया। ईशान ने इशारे से उसको मुस्कुराने को कहा, और कशिश उसका इशारा समझते ही खिलखिला उठी।


    टैक्सी लेकर सब कशिश के घर की तरफ़ बढ़ गए; सबके दिमाग में कुछ न कुछ चल रहा था। सबकी अपनी-अपनी उलझनें थीं और सभी आगे के बारे में कुछ न कुछ विचार कर रहे थे।


    क्या होगा आगे? क्या कशिश का डर सच साबित होगा? उसे सामने देखकर उसके पापा का कैसा रिएक्शन होगा और क्या ईशान उससे किया वादा निभा पाएगा? जानने के लिए पढ़ते रहिए "इश्क़ मुबारक"।

  • 11. इश्क़ मुबारक (A Contract Marriage) - Chapter 11

    Words: 1000

    Estimated Reading Time: 6 min

    कुछ समय बाद, चारों लोग कशिश के घर के बाहर खड़े थे। दरवाज़ा बंद था। कशिश ने ईशान का हाथ कसकर थामा हुआ था, और उसके सीने में धड़कन तेज हो रही थी। अरविंद जी ने डोरबेल बजाई; कुछ ही पल बाद दरवाज़ा खुला। सामने श्याम जी खड़े थे। उन्हें देखते ही कशिश डर के मारे ईशान के पीछे छिप गई। श्याम जी ने अरविंद जी को देखा और भौंहें सिकोड़ते हुए कठोर स्वर में बोले,

    "कौन है आप? यहाँ हमारे घर कैसे आना हुआ आपका?"

    "आप हमें नहीं जानते, पर हम आपको जानते हैं।"

    अरविंद जी ने शांत स्वर में कहा। उनकी बात सुनकर श्याम जी अजीब नज़रों से उन्हें देखने लगे। अरविंद जी ने आगे कहा,

    "कशिश आपकी बेटी है? आप ही श्याम जी हैं?"

    उन्होंने पुष्टि करना चाही, पर कशिश का नाम सुनते ही श्याम जी की त्योरियाँ चढ़ गईं। अगले ही पल उन्होंने गुस्से से भड़कते हुए कहा,

    "हम ही श्याम जी हैं, पर कशिश नाम की हमारी कोई बेटी नहीं। आप जहाँ से आए हैं, वहीं वापस जा सकते हैं।"

    इतना कहकर श्याम जी ने दरवाज़ा बंद करना चाहा, पर अरविंद जी ने उन्हें रोका।

    "भाई साहब, एक बार हमारी बात सुन लीजिये। हम जानते हैं आप उनसे नाराज़ हैं और आपका गुस्सा जायज़ है, पर इस गुस्से में उनकी एक गलती पर उन्हें पहचानने से, अपनी बेटी मानने से इंकार करके अपनी ही बेटी को पराया करना ठीक नहीं है।"

    "हमने कहा ना, हमारी कशिश नाम की कोई बेटी नहीं है। हमारी दो बेटियाँ और एक बेटा है। कशिश नाम की किसी लड़की को हम नहीं जानते; हमारा उससे कोई सम्बन्ध नहीं। इतनी सी बात समझ नहीं आती आपको?"

    श्याम जी एकदम से गुस्से में भड़क उठे और अरविंद जी पर चिल्लाने लगे। उनकी आवाज़ सुनकर अंदर से जानकी जी और हर्ष भी बाहर आ गए। जानकी जी ने परेशानी भरी निगाहों से श्याम जी को देखा और चिंता भरे स्वर में बोलीं,

    "क्या हुआ जी? क्यों इतना गुस्सा कर रहे हैं आप, और कशिश के बारे में क्या कह रहे हैं?"

    श्याम जी ने कशिश का ज़िक्र सुनकर गुस्से से धधकती आँखों से उन्हें घूरा और दाँत पीसते हुए बोले,

    "कितनी बार आपको समझाना होगा कि इस घर में कशिश का नाम लेना भी वर्जित है। उस बेशर्म भगोड़ी, कुल कलंकित लड़की का ज़िक्र भी नहीं होना चाहिए इस घर में, जिसने हमारी इज़्ज़त का तमाशा बनाकर समाज के सामने हमें बेइज़्ज़त करके भाग गई। उसकी वजह से लोगों की कैसी-कैसी बातें सुनी हैं हमने; उसने सुधाकर के सामने हमारा नाम कटवा दिया।

    ऐसी बेशर्म, बेहया और निर्लज्ज लड़की कभी हमारी बेटी नहीं हो सकती। मर गई वो हमारे लिए, और अगर दोबारा आपने हमारे सामने उस बदतमीज़, बेशर्म लड़की का नाम भी लिया, तो हम आपसे भी अपने सभी रिश्ते खत्म कर देंगे।"

    श्याम जी की बातें सुनकर जानकी जी की आँखें छलक आईं, पर वो कुछ कहने की हिम्मत नहीं कर सकीं। कशिश की आँखें भी भर आईं। रजनी जी ने श्याम जी को समझाने की कोशिश की और विनम्र भाव से बोलीं,

    "देखिए, हम जानते हैं कि कशिश ने जो किया, उसे नहीं करना चाहिए था। उसके कदम से आपको बहुत कुछ सहना पड़ा होगा, शर्मिंदगी हुई होगी, और हम इसी बारे में आपसे बात करने आए हैं।"

    श्याम जी, जो अब तक जानकी जी को घूर रहे थे, उनकी तरफ़ घूम गए और गुस्से से जबड़े भींचते हुए तेज स्वर में बोले,

    "सुना नहीं आप सबने क्या कहा हमने? कशिश नाम की किसी लड़की से हमारा कोई सम्बन्ध नहीं। इस नाम की किसी लड़की को हम नहीं जानते, तो हमारा समय बर्बाद करना बंद कीजिए और चले जाइए यहाँ से।"

    उनके चिल्लाने पर रजनी जी भी सहम गईं। पर ईशान से अब ये और बर्दाश्त नहीं हुआ। ईशान ने अपने पीछे छिपी कशिश की बाँह पकड़कर उसे सामने कर दिया और तल्ख़ी भरे स्वर में बोला,

    "क्या आप अब भी यही कहेंगे कि आप इस लड़की को नहीं जानते?"

    कशिश को सुहागन के रूप में देखकर तीनों लोग सुन्न रह गए। ईशान ने उसी तीखे लहज़े में आगे कहा,

    "कशिश पर गुस्सा दिखा रहे हैं आप कि उसने भागकर आपकी इज़्ज़त पर दाग लगा दिया, पर असली ग़ुनहगार तो आप लोग हैं, जिन्होंने उसे इतना बड़ा कदम उठाने पर मजबूर किया। वो अपनी मर्ज़ी से अपना घर-परिवार छोड़कर नहीं भागी थी, बल्कि उसकी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ जबरदस्ती उसकी शादी करवाने के फ़ैसले ने उसे ऐसा करने पर मजबूर किया था।"

    ईशान ने उन्हें आईना दिखा दिया था। उसकी बातें श्याम जी के ग़ुरूर को आहत कर गईं, और गुस्से में उन्होंने कशिश का गला पकड़ लिया। ये देखकर सब की आँखें हैरानी से फैल गईं। श्याम जी बड़ी ही बेरहमी से उसका गला दबाते हुए गुस्से से गुर्राए,

    "ये सब तेरी वज़ह से हो रहा है, हरामज़ादी... मैं पहले से जानता था कि तू एक न एक दिन हमारी इज़्ज़त ज़रूर नीलाम करेगी। आज पता चल गया मुझे कि ऑफिस जाने के बहाने बाहर जाकर क्या करतूतें कर रही थी तू, और क्यों शादी के ख़िलाफ़ थी... यार-पाला हुआ था बाहर तूने, और हमारे पीठ पीछे इस लड़के से चक्कर चल रही थी। इसी के लिए शादी से पहले घर से भागकर सबके सामने हमें जलील किया ना तूने।

    तेरी वज़ह से इस छोकरे की इतनी हिम्मत हो रही है कि इस लहज़े में बात कर रहा है हमसे, हमारा अपमान कर रहा है... सब तेरी करनी है... शर्म नहीं आई तुझे इस लड़के के साथ अय्याशी करते हुए, लाज नहीं आई हमारे संस्कारों और परवरिश का सरेआम तमाशा बनाते हुए... तेरी हिम्मत इतनी बढ़ गई कि बेशर्मों की तरह भागकर शादी करके इस लड़के के साथ यहाँ चली आई... अब छोड़ूँगा नहीं तुझे..."

    वो जाने कितनी गंदी-गंदी बातें बोल रहे थे, और हर्ष उन्हें उकसा रहा था। जानकी जी रोते हुए कशिश को छुड़ाने की कोशिश कर रही थीं; तीनों लोग कशिश को छुड़ाने में लगे थे। पर श्याम जी के सर पर खून सवार था।

    वो उसे छोड़ने को तैयार नहीं थे। कशिश का पूरा चेहरा लाल हो गया और साँस फूलने लगी थी।




    To be continued.....

  • 12. इश्क़ मुबारक (A Contract Marriage) - Chapter 12

    Words: 1379

    Estimated Reading Time: 9 min

    जानकी जी रोते हुए कशिश को छुड़ाने की कोशिश कर रही थीं; सामने खड़े तीनों लोग बस कशिश को छुड़ाने की कोशिश में लगे थे। पर श्याम जी के सर पर खून सवार था।

    वो उसे छोड़ने को तैयार ही नहीं थे। कशिश का पूरा चेहरा लाल हो गया और साँस फूलने लगी थी। उसकी हालत देखकर ईशान ने पूरा जोर लगाकर, गुस्से में चिल्लाते हुए, उन्हें कशिश से दूर धकेल दिया। कशिश निढाल सी जमीन पर गिर गई, तो रजनी उसे संभालने लगी।

    ईशान का गुस्सा कशिश की हालत देखकर काबू से बाहर जा चुका था। उसने गुस्से में श्याम जी की कॉलर पकड़ ली और चिल्ला पड़ा,

    "इंसान नहीं, जल्लाद हैं आप... अब समझ आया मुझे कि कशिश यहाँ आने से इतना डर क्यों रही थी। जिस घर में इंसान नहीं, कसाई रहते हैं, वहाँ भला वो कैसे आती? ज़रूर आपकी ही वजह से घर छोड़कर भागी होगी वह... आपकी हिम्मत कैसे हुई उसकी तकलीफ पहुँचाने की?... अब आपकी बेटी नहीं, मेरी पत्नी है। आपकी उम्र और रिश्ते का लिहाज करके छोड़ रहा हूँ आपको, पर अगर आप में से कोई मुझे दोबारा कशिश के आसपास भी दिखा या उसे चोट पहुँचाने की कोशिश भी की, तो सबको जेल की हवा खिलाने में एक सेकंड का समय नहीं लगेगा मुझे...

    आज और अभी से कशिश का इस घर और इस घर में रहने वाले लोगों से कोई रिश्ता नहीं। दोबारा कभी गलती से भी इसके आसपास नज़र आए, तो अटेम्प्ट टू मर्डर के केस में सीधा जेल जाओगे, और ये समझने की गलती बिलकुल मत करना कि वो अकेली है, तो जो चाहे कर लोगे उसके साथ, वो अकेली नहीं है, उसके साथ मैं खड़ा हूँ। वो अब पत्नी है मेरी, और उस तक पहुँचने से पहले मुझसे टकराना होगा आपको, और महादेव की सौगंध, अगली बार छोड़ूँगा नहीं, ये याद रखना।"

    उसने गुस्से में उन्हें अंदर की तरफ धकेल दिया, जिससे श्याम जी कुछ कदम पीछे चले गए। वो गुस्से से गुज़रते हुए वापस ईशान की तरफ बढ़े, पर इससे पहले कि वो ईशान तक पहुँच पाते, रजनी ने अपनी पिस्तौल निकालकर उन पर तान दिया; गुस्से से लाल आँखों से उन्हें घूरते हुए कठोर लहजे में बोली,

    "सोचना भी मत उसे छूने की, वरना एक इंस्पेक्टर के सामने दो लोगों पर जानलेवा हमला करने के जुर्म में जेल पहुँचा दूँगी आपको, और इतनी धाराएँ लगाऊँगी कि बाकी की ज़िंदगी जेल की सलाखों के पीछे कटेगी।"

    रजनी की धमकी सुनकर हर्ष और श्याम जी दोनों ही चौंक गए। ईशान कशिश के पास बैठ गया, जो अभी भी तेज-तेज साँस ले रही थी और काफी डरी-सहमी हुई सी लग रही थी। फिर ईशान ने उसके कंधे पर हाथ रखा और परेशान भरी निगाहों से उसे देखते हुए चिंता भरे स्वर में बोला, "कशिश, तुम ठीक हो?"

    कशिश ने उसका सवाल सुनकर सर घुमाकर उसे देखा और अगले ही पलकें झुकाते हुए सहमति में सर हिला दिया, पर ईशान उसकी आँखों में आई नमी को देख चुका था, लेकिन वो समझ नहीं सका कि कैसे उसे सांत्वना दे? उसने कशिश को उठाकर खड़ा किया, फिर रजनी को देखकर बोला,

    "दीदी, चलिए यहाँ से। यहाँ कशिश का परिवार नहीं, जल्लाद रहते हैं। इन्हें कुछ कहने का कोई फायदा नहीं।"

    रजनी अभी भी श्याम जी को घूर रही थी। उसने पिस्तौल वापस अंदर रख ली। इसके साथ ही श्याम जी में फिर हिम्मत आ गई और उन्होंने बेहद नफ़रत से कहा,

    "चलो जाओ हमारे घर से, और अगर अपनी जान प्यारी हो, तो दोबारा कभी चौखट पर कदम मत रखना।"

    कशिश पलकें झुकाए खड़ी रही। ईशान और रजनी दोनों उन्हें गुस्से से घूरने लगे, पर श्याम जी किसी की परवाह न करते हुए गुस्से में दनादन करते हुए अंदर चले गए। हर्ष भी उनके साथ चला गया। जानकी जी जो तब से मजबूर सी खड़ी तमाशा देख रही थीं, उन्होंने अब कशिश को देखा और प्यार से उसके सर को सहलाते हुए बोलीं,

    "आप जानती थी ना अपने पापा को? फिर जब एक बार इस कैद से आज़ाद हो गई थी, तो क्यों आई यहाँ वापस? चली जाइए बेटा, यहाँ से दूर चली जाइए और दोबारा कभी लौटकर यहाँ मत आइएगा।"

    उन्होंने भावुक होकर प्यार से उसके माथे को चूमा, फिर उसका हाथ पकड़कर उसे ईशान की हथेली पर रखते हुए उसे देखकर बोलीं,

    "कशिश को जानते हैं हम। हमें हमारी बच्ची पर पूरा विश्वास है कि वो कभी ऐसा कोई काम नहीं कर सकती जिससे उनकी माँ की परवरिश पर सवाल उठे। नहीं जानते कि आप दोनों का रिश्ता कैसे जुड़ा, पर अब जब आपने इसका हाथ थाम ही लिया है, तो ज़िंदगी भर उनका साथ निभाएगा। थोड़ी नादान है, बचपना भी बहुत है इनमें अब भी, पर दिल की अच्छी है, आपको शिकायत का मौका नहीं देंगी।"

    "जो लड़की अपने माँ-बाप की नहीं हुई, वो किसी और की क्या होगी? यहाँ हमारी इज़्ज़त नीलाम की, अब जिस घर जाएगी, जाने उस घर का क्या करेगी? खैर, जो करना हो करें। हमें उनसे कोई मतलब नहीं, बस जाने से पहले अपना कचरा भी लेकर जाए हमारे घर से, हमें नहीं चाहिए। इनके और इनसे जुड़ी किसी चीज़ के लिए हमारे घर में कोई जगह नहीं है।"

    अचानक आई श्याम जी की नफ़रत भरी आवाज़ सुनकर जानकी जी घबराकर पीछे हट गईं। बाकी लोग भी घबराकर हड़बड़ाहट में पीछे हट गए, क्योंकि उन्होंने वहाँ एक बड़ा सा बैग फेंक दिया था, जो गिरने की वजह से खुल गया था और उसमें रखे कशिश के कपड़े आसपास बिखर गए थे।

    कशिश जल्दी ही नीचे बैठ गई और अपने कपड़े बैग में रखकर उसे बंद करने लगी। इतने में हर्ष ने कुछ किताबें, टॉयज़ और एक और बैग वहाँ लाकर पटक दिया और जानकी जी को अंदर लेकर कशिश के मुँह पर दरवाज़ा बंद कर दिया गया।

    शायद पहले से उसका सामान पैक कर लिया गया था और फेंकने की तैयारी में ही थे। कशिश ने किताबें, छोटे-छोटे टॉयज़ को दूसरे बैग में डाला और बड़ा सा टेडी अपनी बाहों में भरकर सिसकने लगी। अगले ही पल उसने खुद से अपनी हथेलियों से अपने आँसू पोछे और उस बड़े से टेडी को लेकर उठकर खड़ी हो गई। अरविंद जी तो यहाँ जो हुआ वो देखकर हतप्रभ से खड़े ही रह गए। शायद पहले कभी उन्होंने ऐसा कुछ नहीं देखा था और जो कुछ देर पहले हुआ, वो उनकी कल्पना से भी परे था। इसलिए वो इतने हैरान थे।

    रजनी भी यहाँ जो हुआ उससे हैरान रह गई थी, क्योंकि कोई पिता अपनी बेटी के साथ ऐसा भी बर्ताव कर सकता है, ये उनकी कल्पना से परे की बात थी। ईशान भी काफी गुस्से में था और उसकी निगाहें कशिश पर टिकी थीं। रजनी ने कशिश को देखा और चिंता भरे स्वर में पूछा,

    "कशिश, तुम ठीक हो?"

    कशिश ने सर घुमाकर उन्हें देखा और मुस्कुराकर सर दिया, पर उस मुस्कान में उसका दर्द झलक रहा था। रजनी उसकी भावनाओं को समझ पा रही थी; उसने सांत्वना देते हुए कहा,

    "तुम यहाँ जो भी हो, उसे दिल से मत लो। ये परिवार वैसे भी परिवार कहलाने के लायक नहीं है। अब से तुम हमारे परिवार का हिस्सा हो।"

    उसकी बात सुनकर कशिश एक बार फिर बस मुस्कुराकर रह गई और फिर अपने दोनों बैगों को उठाते हुए बोली,

    "अब हम कहाँ जाएँगे?"

    "सुबह की ट्रेन है, तो स्टेशन पर ही रात का खाना खाकर वेटिंग रूम में रुक जाएँगे और सुबह वापस बनारस के लिए निकल जाएँगे। वहाँ जाकर हम तुम्हारी ईशान के साथ धूमधाम से शादी करवाएँगे। आज से हमारा घर ही तुम्हारा मायका होगा और हम पूरी कोशिश करेंगे एक अच्छे पिता बनने की।"

    अरविंद जी ने प्यार से उसके सर पर हाथ फेरते हुए जवाब दिया। शायद पहली बार किसी मर्द ने पिता के रूप में इतने प्यार से उसके सर पर हाथ फेरा था, इसलिए कशिश कुछ भावुक हो गई, पर बाहर से सहज बनी रही और सहमति में सर हिलाते हुए अपना टेडी और दोनों बैग को पकड़ने लगी, पर बीच में ही ईशान उसकी कलाई पकड़कर उसे रोक लिया।

    "रहने दो, तुम अपना टेडी संभालो, बैग मैं ले लेता हूँ।"

    कशिश ने सर घुमाकर उसे देखा और बेफ़िक्री से सर हिलाते हुए टेडी को अपनी बाहों में थामे आगे बढ़ गई। ईशान अचरज से उसे देखता ही रह गया। कितनी जल्दी वो नॉर्मल हो गई थी! जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो! फिर सर हिलाकर बैग थामते हुए बाकी सब के साथ चल दिया।



    To be continued.....

  • 13. इश्क़ मुबारक (A Contract Marriage) - Chapter 13

    Words: 1365

    Estimated Reading Time: 9 min

    रात का वक्त था। अभिषेक उस दिन मिश्रा निवास आया था। उस समय ईशान और अभिषेक दोनों छत पर, कोने में खड़े थे। ईशान खामोशी से घाट की तरफ देख रहा था, जहाँ उस समय लोग नहीं थे; गंगा की चंचल धारा भी शांत थी। चांद की रोशनी में गंगा मैया का निर्मल जल अलग ही चांदनी बिखेर रहा था, मन को शांत करने वाला मनोरम दृश्य था। पर ईशान के मन में एक तूफ़ान सा उठ रहा था।

    अभिषेक कुछ पल खामोशी से उसके चेहरे के भावों को पढ़ने की कोशिश करता रहा, फिर उसके कंधे पर हाथ रखते हुए सवाल किया,

    "परेशान हो किसी बात से?"

    अभिषेक का सवाल सुनकर ईशान ने घूम कर उसे देखा, पर बोला, "कुछ नहीं।" उसका स्वभाव ही ऐसा था; वो जल्दी से किसी से अपने मन की बात साझा नहीं करता था। कुछ पल इंतज़ार के बाद अभिषेक ने ही आगे कहा,

    "कशिश को लेकर परेशान हो? पापा ने बताया वहाँ क्या हुआ। मैं भी जानकर हैरान था कि कोई पिता अपनी जवान बेटी के साथ ऐसा सुलूक कैसे कर सकता है? कशिश इस वक्त कितने दर्द और तकलीफ में होगी, इसका अंदाजा भी लगाना मुश्किल हो रहा है मेरे लिए। इतनी सी उम्र में उसने इतना दर्द, दुख, तकलीफ अपनी मुस्कान के पीछे छुपाना सीख लिया है। ये जानकर और भी पीड़ा हो रही है। शायद उसे आदत है इन सबकी, इसलिए वो मुस्कुराकर सब बर्दाश्त कर गई।

    अब आप सोच रहे होंगे कि मैं आपको ये सब क्यों कह रहा हूँ? इसके पीछे वजह है, ईशू।…… इस घटना से अंदाजा लगाया जा सकता है कि अब तक कशिश कैसी जिंदगी जीती आ रही है। उसे प्यार की ज़रूरत है और एक जीवनसाथी के रूप में उसकी जिंदगी की इस कमी को आपको ही पूरा करना होगा।"

    ईशान, जो तब से खामोशी से उसकी बात सुन रहा था, वो वापस घाट की तरफ मुड़ गया और गंगा मैया के विशाल रूप के अंतिम छोर को ढूँढने की नाकाम सी कोशिश करते हुए भावहीन सा बोला,

    "मैं क्या किसी को प्यार दूँगा, जीजा जी? जब प्यार शब्द पर मुझे विश्वास ही नहीं? वैसे भी कशिश को मेरी या किसी की कोई ज़रूरत नहीं है। उसे खुद को संभालना बहुत अच्छे से आता है और वो बहुत खुश है खुद के साथ। उसे मेरे या किसी के सहारे की कोई ज़रूरत नहीं है।"

    "ये तो बहुत अच्छी बात है, ईशू, कि कशिश अपने साथ खुश रहना और खुद को संभालना जानती है, पर इसका ये मतलब नहीं कि उसे किसी अपने के सहारे की चाहत भी नहीं।…… ईशू, इस दुनिया में दो तरह के लोग होते हैं; पहले वे जो बात-बात पर रोकर, चिल्लाकर अपना दर्द बाहर निकाल लेते हैं और हमेशा सहारे की तलाश में रहते हैं।

    दूसरे तरह के लोग होते हैं जो अपना सारा दर्द अपने अंदर छुपाकर या तो बाहर से खामोश हो जाते हैं, जैसे आप हैं, या फिर दर्द में मुस्कुराना सीख लेते हैं, जैसे कशिश है, और दोनों ही सूरत में वो अंदर दबा दर्द उस इंसान को खोखला करता जाता है। वे किसी पर निर्भर नहीं होना चाहते, पर सबसे ज़्यादा सहारे की ज़रूरत उन्हें ही होती है। उन्हें किसी ऐसे अपने की ज़रूरत होती है जो उन्हें उस दर्द से आजाद कर सके, उनके ज़ख्म पर प्यार का मरहम लगा सके, और कशिश और आप अब ऐसे रिश्ते में बंधने जा रहे हैं जहाँ आप दोनों को ही एक-दूसरे का सहारा बनना है, एक-दूसरे के ज़ख्मों का मरहम बनकर अतीत से जुड़े दर्द को मिटाना है, साथ मिलकर जिंदगी के सफ़र को लबों पर मुस्कान के साथ तय करना है।

    हमें नहीं पता कि आपने कशिश से शादी करने का फ़ैसला क्यों लिया और ना ही हमें कुछ जानना है। हम बस आपसे इतना कहना चाहते हैं कि कशिश अच्छी लड़की है। वो आपके लिए एक बेहतर जीवनसाथी साबित होगी, तो इस रिश्ते को दिल से निभाइएगा। रही बात प्यार पर विश्वास न होने की, तो हम ये बात पूरे दावे के साथ कहते हैं कि कशिश के साथ बस थोड़ा वक़्त बिताने के बाद आपको उनसे प्यार भी होगा और प्यार पर आपका विश्वास भी लौट आएगा।"

    आखिरी की बात अभिषेक ने इतने विश्वास के साथ कही कि ईशान हैरानी से उसे देखने लगा, पर कुछ नहीं बोला। इसके बाद उनके बीच कुछ और बातें हुईं, फिर अभिषेक वहाँ से चला गया। ईशान भी अपने कमरे में चला आया। एक बार फिर, ना चाहते हुए भी, उसके दिमाग में कशिश का ख्याल घूमने लगा था। कुछ तो था जो उसे कशिश की तरफ़ खींच रहा था, पर अभी ईशान इस बात से पूरी तरह अनजान था। आधी रात के बाद जाकर उसे नींद आई, जबकि कशिश उस दिन फिर शिखा के साथ सुकून से सोई।

    अगले दो दिन कब बीते, किसी को पता ही नहीं चला। मिश्रा निवास से कोई भी शादी के पक्ष में नहीं था, इसलिए हल्दी-मेहँदी-शादी की बाकी छोटी-मोटी रस्में अरविंद जी के घर पर ही हुईं। उस दिन उनकी शादी का दिन था। उस दिन भी मिश्रा परिवार से कोई मंदिर नहीं पहुँचा था, पर इस बात से ईशान को कोई फ़र्क ही नहीं पड़ा था। महादेव के सामने दोनों ने पूरे विधि-विधान के साथ शादी के पवित्र परिणय सूत्र में बंध गए।

    दो ऐसे लोग जो शादी से दूर भागते थे, आज ना चाहते हुए भी वे इस अटूट बंधन में बंध चुके थे। दोनों के मन का हाल एक सा था; "ये सब नाटक है," ये कहकर वे अपने दिल को सांत्वना ज़रूर दे रहे थे, पर कहीं ना कहीं दोनों को आभास था कि चाहे नाटक के लिए ही सही, पर शादी तो उन्होंने कर ही ली है। चाहे माने या ना माने, पर अब वे पति-पत्नी हैं।

    शादी के बाद उन्होंने शादी के रजिस्ट्रेशन के पेपर पर भी साइन किए और कानूनी तौर पर पति-पत्नी बन गए। हालाँकि शादी का सर्टिफ़िकेट आने में वक़्त लगना था, पर वे अब सामाजिक, कानूनी और धार्मिक रूप से शादीशुदा थे। पहले उन्होंने अपने आराध्य का, फिर माधुरी जी और अरविंद जी का आशीर्वाद लिया। पंडित जी ने भी उन्हें आशीर्वाद दिए। अभिषेक, रजनी, शिखा ने भी उन्हें बधाई दी। शादी निर्विघ्न संपन्न होने के बाद वहाँ से सब मिश्रा निवास चले आए।

    दोनों आदमी उस वक़्त घर पर नहीं थे। औरतें अपने कमरों में बंद थीं, पर शुभ्रा और शुभीका अपनी नई भाभी के स्वागत के लिए बड़ी ही उत्साहित और खुश थीं। दोनों ही बड़ी ही बेसब्री से उनका इंतज़ार कर रही थीं। घर पहुँचने पर माधुरी जी ने ही कशिश का गृह प्रवेश करवाया। शादी के बाद की रस्में करवाने के बाद, कशिश की मुँह-दिखाई के लिए आस-पास की औरतें भी आई थीं।

    इन्हीं सब में रात हो गई। रामविलास जी और सुजीत जी घर आए तो सही, पर ना नई बहू का चेहरा देखा और ना ही उन्हें आशीर्वाद दिया। मुँह फेरकर अपने-अपने कमरों में चले गए। ये कशिश ने भी नोटिस किया।

    कुछ देर बाद कशिश को ईशान के कमरे में बिठा दिया गया। बाकी सब घर चले गए। ईशान कमरे में जाने की जगह छत पर गहरे सन्नाटे के बीच खामोश खड़ा था, जबकि उसके अंदर एक तूफ़ान उठ रहा था। रजनी ने खाना बनाया, फिर एक थाली में खाना निकालकर ईशान के कमरे में चली आई। वहाँ कशिश पलंग के सिरहाने से टेक लगाकर बैठे-बैठे ही सो रही थी। पर ईशान वहाँ नहीं था। रजनी ने हर जगह ईशान को ढूँढा, पर जब ईशान कहीं नहीं दिखा, तो उसने अपना सर पकड़ लिया।

    आज फिर ईशान छत पर खड़ा घाट की ओर देख रहा था और बीते दिनों के बारे में सोच रहा था कि कैसे उसने इन दिनों हर वो चीज़ की जो वो कभी करना नहीं चाहता था और अब ना चाहते हुए भी कशिश के साथ शादी के बंधन में बंध गया है। जब अचानक उसके कानों में रजनी की नाराज़गी भरी आवाज़ पड़ी,

    "ईशू, मैंने आपको कशिश के पास रहने को कहा था ना, फिर आप यहाँ क्या कर रहे हैं?"

    ईशान आवाज़ सुनकर चौंकते हुए अपने ख्यालों से बाहर आया और पलटकर देखा तो रजनी उसके ठीक पीछे हाथ बाँधे खड़ी उसे ही घूर रही थी।

    To be continued...

    कैसी लग रही है आपको स्टोरी कॉमेंट करके बताए और पसन्द आ रही हो तो इसे लाइक और मुझे फॉलो करना न भूले।

  • 14. इश्क़ मुबारक (A Contract Marriage) - Chapter 14

    Words: 1367

    Estimated Reading Time: 9 min

    "ईशू, मैंने आपको कशिश के पास रहने को कहा था ना, फिर आप यहाँ क्या कर रहे हैं?"

    ईशान आवाज़ सुनकर चौंकता हुआ अपने ख्यालों से बाहर आया और पलटकर देखा। रजनी उसके ठीक पीछे हाथ बाँधे खड़ी थी, उसे घूर रही थी।

    ईशान अचानक उसे वहाँ देखकर सकपका गया और हड़बड़ाहट में बोला,

    "मैं बस जा ही रहा था, दीदी।"

    इतना कहकर उसने तुरंत जाने के लिए कदम बढ़ा दिए। रजनी कुछ पल खामोशी से उसे देखती रही, फिर उसने पीछे से ही आवाज़ देकर कहा,

    "आप दोनों का खाना कमरे में रखा है। कशिश आपका इंतज़ार करते-करते सो गई, तो उन्हें जगा दीजिएगा और साथ में खाना खा लीजिएगा।"

    ईशान ने सिर हिलाया, फिर उसे भी खाने को कहकर वहाँ से चला गया। उसके जाने के बाद रजनी ने परेशान, उदास लहजे में खुद से कहा,

    "हमारे लिए कशिश से इस रिश्ते में तो बंध गए हैं आप, पर जाने आपके दिल कब जुड़ेंगे और कब हम आपको और कशिश को एक साथ खुशहाल जोड़े की तरह देखेंगे?"

    रजनी ने मन ही मन महादेव से प्रार्थना की, फिर खुद भी नीचे चली आई।

    दूसरी तरफ़ ईशान को आज पहली बार अपने ही कमरे में आने से हिचकिचाहट हो रही थी। होती भी क्यों न? आखिर अब तक जिस कमरे में वो अकेला रहा करता था, अब उसमे उसके साथ कोई और भी रहने वाला था। अब उसे अपने कमरे को किसी और के साथ बाँटना था और वो कोई और रिश्ते में उसकी पत्नी थी, जिसका उस पर, उसके कमरे पर और उससे जुड़ी हर चीज़ पर बराबर हक़ था।

    एक पल को उसके कदम दरवाज़े के बाहर ठिठक गए, पर फिर रजनी की बात याद करते हुए उसने दरवाज़ा खोलकर अंदर चला आया। कमरे में पहला कदम रखते ही उसकी नज़रें सामने बिस्तर पर चली गईं, जहाँ कशिश बैठे-बैठे सो रही थी।

    इतनी देर में पहली बार ईशान ने इतने ध्यान से कशिश को देखा था कि एक पल को उसकी नज़रें उसके चाँद से खूबसूरत, मासूम से चेहरे पर ठहर गई थीं।

    लाल बनारसी साड़ी, जूड़े में बंधे बाल, जिनमें से निकलती कुछ छोटी-छोटी लटें उसके चेहरे पर आठखेलियाँ दिखा रही थीं। माँग-टीका एक ओर लुढ़क गया था, जिससे बीच की माँग में भरा सुर्ख़ सिंदूर इठराते हुए अपनी मौजूदगी जाहिर कर रहा था। माथे पर लगी छोटी सी लाल बिंदी आकाश में तारों जैसी चमक रही थी। घनी पलकें झुकी हुई थीं और वो गहरी नींद में ही मुँह चला रही थी।

    शायद कुछ सपना देख रही थी। कानों में माधुरी जी के दिए सोने के झुमके इठला रहे थे, गले में मंगलसूत्र के साथ गर्दन से चिपका सोने का हार भी मौजूद था। मेहँदी रची कलाइयों में लाख का भरा-भरा चूड़ा पहना हुआ था, पैरों में पड़ी पाजेब गुमसुम से मुँह फुलाए बैठी थीं।

    दुल्हन के रूप में सोलह श्रृंगार किए कशिश बेहद खूबसूरत और प्यारी लग रही थी। ईशान एक पल को उसकी खूबसूरती में खो सा गया, पर जल्दी ही वो होश में लौट आया। पहले तो खुद पर ही हैरान हुआ, फिर सिर झटकते हुए कशिश की तरफ़ कदम बढ़ा दिए।

    कशिश हर बात से बेखबर गहरी नींद में खोई हुई थी। ईशान ने उसे जगाने के लिए हाथ आगे बढ़ाया, पर अगले ही पल हाथ वापस पीछे करते हुए उसे दूर से ही पुकारा,

    "कशिश, उठ जाओ, खाना खा लो।"

    कशिश पर कोई असर ही नहीं हुआ। वो वैसे ही सोती रही। ईशान ने कुछ और कोशिश की, फिर भी जब कशिश टस से मस नहीं हुई, तो हारकर ईशान ने कशिश की बाँह को पकड़कर हल्के से हिलाया,

    "कशिश, खाना खा लो, फिर चेंज करके सो जाना।"

    बाँह हिलाते ही कशिश ने एकदम से चौंकते हुए अपनी आँखें खोल दीं। उसके अचानक जागने से और नींद से चूर बड़ी-बड़ी गुलाबी आँखों को देखकर ईशान भी चौंक सा गया और एक कदम पीछे को हटते हुए बोला,

    "मैं…… मैं बस जगा रहा था, खाना खाने के लिए।"

    ईशान ने हड़बड़ी में तुरंत ही सफ़ाई दे डाली कि कहीं कशिश उसे अपने पास देखकर कुछ गलत न समझ बैठे। पर कशिश शायद अभी पूरी तरह से नींद से नहीं जगी थी, इसलिए पहले तो वो नींद से भरी नशीली आँखें बड़ी-बड़ी करके अचरज से ईशान को देखने लगी, फिर वापस अपनी आँखें मूँद लीं।

    नींद उसके सर पर हावी हो रही थी। नींद से बोझिल पलकें एक बार फिर झुक चुकी थीं। एक बार फिर कशिश गहरी नींद में सो चुकी थी। पहले उसके अचानक जागने से और फिर वापिस सोने से ईशान चौंक गया था।

    पहले तो वो आँखों की पुतलियाँ फैलाए हैरान-परेशान सा उसे देखता रहा, फिर उसने साइड में रखे जग से थोड़ा सा पानी अपनी अँगुली में भरा और कशिश के चेहरे पर डाल दिया। अगले ही पल कशिश ने हड़बड़ाते हुए अपनी आँखें खोल दीं और सामने खड़े ईशान को देखकर, गुस्से में नथुने फूलते हुए नाराज़गी से बोली,

    "बहुत बुरे हो तुम, मुझे चैन से सोने भी नहीं देते।"

    "देवी जी, मैं आपको सोने से नहीं रोक रहा हूँ, बस इतना कह रहा हूँ कि पहले खाना खा लो, कपड़े बदल लो, फिर आराम से सो जाना, और प्लीज़ लेटकर सोना, कहीं बैठे-बैठे सोने के चक्कर में पलंग से नीचे गिर गई, तो 1 से 4 कशिश बन जाओगी।"

    ईशान ने खीझते हुए अपनी बात पूरी की और अलमारी से कपड़े लेकर कमरे से अटैच्ड बाथरूम में चला गया। कशिश कुछ देर तक तो सड़ा सा मुँह बनाकर उसे घूरती रही, फिर उठकर ड्रेसिंग टेबल के सामने आकर खड़ी हो गई। अपने हसीन मनमोहन रूप को देखकर एक पल को वो खुद भी चौंक गई, फिर मुस्कुराई और धीरे-धीरे सारे गहने उतारने लगी।

    ईशान जब कपड़े बदलकर वापस आया, तो कशिश कपड़े लेकर बाथरूम में चली गई। जब नहाकर कपड़े बदलकर बाथरूम से बाहर आई, तो ईशान जमीन पर बिस्तर करता नज़र आया। ये देखते ही कशिश की आँखें हैरानी से बड़ी-बड़ी हो गईं और वो एकदम से तेज आवाज़ में बोल पड़ी,

    "तुम नीचे बिस्तर क्यों कर रहे हो? मैं नीचे नहीं सोऊँगी।"

    "आपको कोई नीचे सोने को नहीं कह रहा है, ये बिस्तर मैं अपने ल…….. " ईशान कहते-कहते अचानक ही चुप हो गया जब उसकी नज़र कशिश पर पड़ी।

    कार्टून प्रिंट का नाइट ड्रेस पहने वो इस वक़्त बिलकुल छोटी सी, क्यूट सी बच्ची लग रही थी। सब गहने उतार चुकी थी, वो बस माँग में भरा सिंदूर झलक रहा था और गले में मंगलसूत्र। फिर भी बहुत खूबसूरत लग रही थी।

    ईशान, जो उसकी बात का जवाब दे रहा था, वो कशिश की बड़ी-बड़ी आँखों की गहराइयों में खोने लगा था, तभी उसके कान में कशिश की चहकती हुई आवाज़ पड़ी और वो एकदम से होश में लौटा।

    "अच्छा हुआ जो तुम नीचे सोने वाले हो। वैसे भी ये सब नाटक तुम्हारे लिए हो रहा है, तो सैक्रिफाइस भी तो तुम्हें ही करना चाहिए ना।"

    उसकी बात सुनकर ईशान ने बस सिर हिला दिया और वापस अपने काम में लग गया। कशिश जाकर बिस्तर पर बैठ गई और ईशान को देखकर बोली,

    "लाओ, मेरा खाना दो।"

    "मेरा नहीं, हमारा…… एक ही प्लेट है, तो साथ ही खाना होगा, और बिस्तर पर खाना मना है, तो नीचे आकर खाना खाओ।"

    ईशान ने जैसे ही कहा, कशिश ने आँखें बड़ी-बड़ी करके उसे देखते हुए तुरंत ही सवाल कर दिया,

    "क्यों? बिस्तर पर खाने में क्या बुराई है?"

    "जिस बिस्तर पर सोते हैं, उस पर खाना खाने से बुरे सपने आते हैं।"

    ईशान ने वजह बताई जो कशिश को कुछ खास समझ तो नहीं आई, पर ईशान की बात मानते हुए वो बिस्तर से नीचे उतर गई। जमीन पर बैठकर दोनों ने साथ ही खाना खाया, फिर कशिश शांति से बिस्तर पर जाकर पसर गई और ईशान को देखकर बोली,

    "लाइट बंद मत करना, मुझे अंधेरे से डर लगता है।"

    "ठीक है, अब सो जाओ।"

    ईशान ने बिना किसी बहस के उसकी बात मान ली। उसने हामी भरी, तो कशिश एक बार फिर मुस्कुरा उठी।

    "Good night।"

    "Good night।" ईशान ने जवाब दिया और बर्तन लेकर नीचे चला गया। कुछ देर बाद लौटा तो कशिश पूरे बिस्तर पर पसरी सोने में लगी थी।

    ईशान ने कम्बल झाड़कर आकर जमीन पर लेटते हुए अपनी बाँह को मोड़कर अपनी आँखों पर रख लिया। उसे लाइट बंद करके सोने की आदत थी, तो नींद जरा देर से और मुश्किल से आई।


    To be continued…

  • 15. इश्क़ मुबारक (A Contract Marriage) - Chapter 15

    Words: 820

    Estimated Reading Time: 5 min

    ना चाहते हुए भी कशिश और ईशान शादी के बंधन में बंध चुके थे। बीती रात कशिश ईशान के कमरे में, उसकी पत्नी के अधिकार से, उसके साथ सोई थी।

    कशिश पलंग पर लेटते ही अपनी ख्वाबों की दुनिया में खो गई थी, जबकि ईशान जरा देर से सोया था। इसलिए रोज़ सुबह जल्दी उठने वाले ईशान की आज नींद नहीं खुली।

    कशिश को वैसे भी देर तक सोने की आदत थी। घड़ी सुबह के 8:00 बजा रही थी। बनारस की सुबह गंगा आरती और शंखनाद के मधुर स्वर से हुई थी, पर ईशान की सुबह अभी तक नहीं हुई थी। रजनी ने भी उन दोनों को परेशान नहीं किया। पहले वो खुद सब काम निपटाकर तैयार हो गई, फिर ईशान के कमरे की ओर बढ़ी।

    ईशान गहरी नींद में सोया हुआ था। अचानक उसके कान में दरवाज़े के खटखटाने की आवाज़ पड़ी और रजनी ने पुकारा,

    "ईशू, और कितना सोएगा आज? सुबह के 8:00 बज गए हैं, दुकान नहीं जाना क्या तुम्हें?"

    रजनी के शब्द सुनते ही ईशान नींद से जाग गया और झटके से उठकर बैठ गया। उसने घड़ी में समय देखा और हड़बड़ाहट में उठकर दरवाज़े की ओर बढ़ गया। पर कुछ कदम आगे जाने पर उसे कुछ याद आया और वो जल्दी से जाकर बिस्तर उठाकर पलंग पर रख दिया। फिर अपने कपड़े और बालों को ठीक करते हुए दरवाज़ा खोला।

    "सॉरी दीदी, पता नहीं कैसे, पर आज नींद नहीं खुली।"

    ईशान ने रजनी को सफ़ाई दी। वो खुद हैरान और शर्मिंदा था क्योंकि पहले कभी इतनी देर नहीं हुई थी। वो वक़्त का पाबंद था और सुबह जल्दी उठ जाता था। उसकी बात सुनकर रजनी मुस्कुराई।

    "माफ़ी मांगने की ज़रूरत नहीं है आपको। हम समझते हैं, थक गए होंगे, इसलिए नींद नहीं खुली होगी। इसलिए हमने भी आपको पहले नहीं जगाया, पर अब काफ़ी देर हो गई है, तो हमें आना पड़ा। वैसे कशिश जग गई है या अभी सो रही है?"

    "सो रही है दीदी, वो नई जगह थी ना, रात को देर से सोई है।"

    कशिश की सफ़ाई सुनकर रजनी मुस्कुरा दी और प्यार से उसके गाल को छूकर बोली,

    "हम समझते हैं, पर अब आप उन्हें उठा दीजिए और दोनों नहा-धोकर नीचे चलिए। हमने खाना बना दिया है, आकर खा लीजिए, उसके बाद आराम कर लीजिएगा।"

    रजनी की बात सुनकर ईशान ने तुरंत इनकार कर दिया,

    "नहीं, दीदी। पहले ही लेट हो गया है, अब और नहीं सोना।"

    रजनी दोनों को जल्दी आने का कहकर चली गई। ईशान ने दरवाज़ा बंद किया और अंदर आ गया। जल्दबाज़ी में उसने कशिश पर ध्यान नहीं दिया था। अब जब वो उसे उठाने पलंग के पास आया, तो कशिश के सोने के अतरंगी तरीके को देखकर चौंक गया।

    कशिश पूरे बिस्तर पर हाथ-पैर फैलाए उल्टी पड़ी हुई थी। एक तकिया सर के नीचे, तो दूसरा चेहरे पर रखा हुआ था। खिड़की से आती धूप सीधे कशिश के चेहरे पर पड़ रही थी, इसलिए उसने चेहरे पर तकिया रख लिया था।

    सोते हुए उसे अपना होश तक नहीं था। उसका ढीला टॉप कमर से ऊपर सरक गया था, जिससे उसकी गोरी, मुलायम, पतली कमर और पेट का कुछ हिस्सा दिख रहा था।

    कशिश के निरावरण पेट पर नज़र पड़ते ही ईशान ने हड़बड़ाहट में निगाहें फेर लीं और बेड से नीचे लटके चादर को उसके ऊपर फेंक दिया। पर अगले ही पल कशिश ने नींद में एक जोरदार किक मारते हुए चादर को नीचे पटक दिया और दूसरी तरफ़ करवट लेकर सो गई।

    ईशान ने बेबसी से सर हिलाया और महादेव को याद करते हुए अपने कपड़े लेकर बाथरूम में चला गया। कुछ देर बाद नहाकर बाहर आया तो कशिश अब भी सो रही थी।

    ईशान ने बालकनी में जाकर अपने कपड़े सुखाए, फिर तौलिये से बाल पोंछते हुए कमरे में आया। घड़ी 8:30 बजा रही थी। उसने गहरी साँस ली और कशिश की ओर बढ़ा, जो अपने ख्वाबों में खोई हुई थी।

    ईशान रात के घटनाक्रम से कुछ सीख चुका था। उसने कशिश को जगाने की बेकार कोशिश नहीं की और सीधे जाकर उसके मुँह पर से तकिया हटा दिया।

    कशिश नींद में ही हाथ चलाकर तकिया ढूँढने लगी, पर जब तकिया नहीं मिला, तो उसने अपने सर के नीचे से तकिया निकालकर मुँह पर रख लिया।

    ये देखकर ईशान ने अफ़सोस भरी साँस छोड़ी और दूसरे तकिये को उसके चेहरे से हटाते हुए पुकारा,

    "कशिश, अब उठ भी जाओ। 9:00 बजने वाले हैं। दीदी नाश्ते पर इंतज़ार कर रही है।"

    कशिश का उठने का मन नहीं था, पर आखिरकार उसे उठना पड़ा। रात भर में उसके बाल उलझ गए थे। कशिश की नींद पूरी नहीं खुली थी और आँखें बंद किए हुए ही वो अपने बालों को खुजाते हुए अल्साए स्वर में बोली,

    "इतनी जल्दी सुबह क्यों हो गई? महादेव को कहो ना थोड़ी देर सूरज को अपनी जटाओं में छुपा ले। मुझे और सोना है।"

    To be continued…

    स्टोरी पसंद आ रही हो तो लाइक एंड कॉमेंट करे और मेरी दूसरी स्टोरी को भी पढ़कर देखे जो आपको मेरी प्रोफाइल पर मिल जाएंगी।

  • 16. इश्क़ मुबारक (A Contract Marriage) - Chapter 16

    Words: 1210

    Estimated Reading Time: 8 min

    "इतनी जल्दी सुबह क्यों हो गई? महादेव को कहो ना थोड़ी देर सूरज को अपनी जटाओं में छुपा ले। मुझे और सोना है।"

    कशिश नींद में ही बड़बड़ा रही थी और अजीब-अजीब से मुँह बना रही थी। उसकी बेसर-पैर की बातें सुनकर ईशान पहले तो आँखें बड़ी-बड़ी करके आश्चर्य से उसे देखने लगा, फिर खीझते हुए बोला,

    "बकवास बंद करो अपनी। पहले ही 9 बज गए हैं। फिर भी नींद पूरी नहीं हुई है तुम्हारी? अब क्या तुम्हारे लिए सारे दिन रात ही होती रहेगी ताकि तुम घोड़े-गधे-खच्चर सब बेचकर सो सको? चलो उठो और जल्दी से नहाकर तैयार हो जाओ।"

    ईशान ने कशिश को अच्छी-खासी डाँट लगा दी थी। उसकी बातें सुनकर कशिश का मूड सुबह-सुबह ही खराब हो गया। उसकी बेरुखी भरा जवाब सुनकर कशिश ने चौंकते हुए अपनी उनींदी आँखें खोलकर उसे देखा और घूरते हुए शिकायती लहज़े में बोली,

    "कितने बदतमीज़ हो तुम? जरा भी मैनर्स नहीं तुममें। इतनी क्यूट, इनोसेंट और प्यारी लड़की से कोई इतनी बेरुखी से बात करता है क्या? मुझे तुम जरा भी पसंद नहीं आए।"

    उफ़्फ़, कशिश की मासूमियत! बिल्कुल बच्चों जैसे शिकायत कर रही थी वह और बच्चों जैसे ही मुँह बिगाड़ रही थी। इस वक़्त वह इतनी क्यूट लग रही थी कि किसी का भी मन उसे प्यार करने को मचल उठे, पर ईशान के सीने में जाने क्या दिल था कि पत्थर। उसे तो कशिश पर प्यार क्या, रहम तक नहीं आया। उसने एक बार फिर बड़ी ही बेरुखी से जवाब दिया,

    "तो पसंद करने को कहा किसने है तुम्हें मुझे? मैं ऐसा ही हूँ और ऐसा ही रहूँगा। मैं किसी के लिए खुद को बदलने वाला नहीं हूँ। वैसे भी, कुछ वक़्त का साथ है हमारा, उसके बाद हमारे रास्ते अलग-अलग हो जाएँगे। तब तक मैं तुम्हें झेलने वाला हूँ, तुम भी झेल लेना मुझे।"

    ईशान की बात कशिश को जरा भी पसंद नहीं आई। वह आँखें छोटी-छोटी करके उसे नाराज़गी से मुँह फुलाए घूरने लगी। ईशान ने उसे घूरते देखकर जबड़े भींचते हुए आगे कहा,

    "अभी कुछ वक़्त तक साथ ही रहना है हमें। बहुत मौके मिलेंगे तुम्हें मुझे घूरने के लिए, तो बाद में फ़ुरसत से आराम से घूरती रहना मुझे। अभी हम पहले ही बहुत लेट हो गए हैं, तो जाकर जल्दी से नहाकर तैयार हो जाओ।"

    कशिश ने नाक-मुँह सिकोड़े और बुरा सा मुँह बनाते हुए बेड से उतरकर नाराज़गी से ईशान को देखने के बाद पैर पटकते हुए अपने बैग के पास चली आई। उसने बैग खोला और जीन्स-टॉप निकालने लगी; यह देखकर ईशान ने तुरंत ही उसे टोका,

    "ये क्यों निकाल रही हो तुम? नई-नई शादी हुई है हमारी, घर की बहू हो तुम। पहले दिन ये कपड़े पहनोगी?"

    कशिश ने उसकी बात सुनकर सिर घुमाकर उसे देखा और आँखें तरेरते हुए बोली,

    "हाँ, क्यों नहीं पहन सकती क्या?"

    "मेरे ख़्याल से तो आज तुम्हें कुछ इंडियन पहनना चाहिए, ट्रेडिशनल सा।"

    ईशान की बात सुनकर कशिश तुनकते हुए बोली,

    "पर अभी मेरे पास यही कपड़े हैं। वैसे भी, इसमें बुराई क्या है?"

    कशिश ने भौंह सिकोड़ते हुए उसे घूरा। अभी वह कुछ चिढ़ी हुई सी लग रही थी। ईशान ने अब गहरी साँस छोड़ी और शांत स्वर में बोला,

    "बुराई कुछ नहीं, पर माहौल, वक़्त और जगह देखकर इंसान को कपड़े पहनने चाहिए। आज के ओकैज़न के हिसाब से तुम्हें कुछ इंडियन पहनना चाहिए।"

    ईशान के प्यार से समझाने पर कशिश ने उसकी बात पर गौर किया, फिर क्यूट सी शक्ल बनाकर मायूसी से बोली,

    "पर मेरे पास अभी कोई सूट नहीं है और जो साड़ी आंटी ने दी है, उसे मैं पहन नहीं सकती।"

    "क्यों?" ईशान ने कशिश की बात ख़त्म होते ही सवाल किया, जिसे सुनकर कशिश ने क्यूट सी शक्ल बनाई और बड़ी ही मासूमियत से बोली,

    "मुझे साड़ी पहनना नहीं आता ना, इतनी लंबी होती है ना, तो उसके अंदर ही उलझ जाती हूँ।"

    कशिश ने अपनी परेशानी बताई और मुँह लटकाकर खड़ी हो गई। उसकी बात सुनकर ईशान ने गहरी साँस छोड़ते हुए कहा,

    "ओके, फ़ाइन, पर जो मैंने तुम्हें सूट दिलाए थे, वो कहाँ हैं?"

    "वो तो आंटी के घर पर ही रह गए। बैग में जगह ही नहीं बची थी। पता है, मेरे इतने सारे टैडी भी वहीं रह गए। उनके बिना मुझे कितना अकेला-अकेला लग रहा है। वो बेचारे भी मुझे मिस कर रहे होंगे।"

    कशिश ने झट से जवाब दिया और अपने टैडी को याद करते हुए एकदम उदास हो गई। उसे देखकर ऐसा लग रहा था जैसे उस पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा हो। ईशान की हैरानी की कोई सीमा ही नहीं रह गई थी। कशिश को देखते हुए वह मन ही मन बोल पड़ा,

    "सच में महादेव, एकदम एंटीक पीस बनाया है आपने इस लड़की को। इसके जैसा कोई दूसरा हो ही नहीं सकता, पर मुझसे किस जन्म का बैर निकाल रहे हैं, जो इस दिमाग़ से खाली लड़की को मेरी ज़िंदगी में भेज दिया है? खैर, अब आपसे क्या शिकायत करना? अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने की जगह कुल्हाड़ी पर बड़े ही शौक से अपना पैर तो मैंने खुद ही दे मारा है। अब जब तक दीदी की शादी नहीं हो जाती, इस आफ़त की पुड़िया और बकबक की दुकान को झेलना ही पड़ेगा।"

    ईशान ने पहले महादेव से शिकायत लगाई, फिर खुद को अपने इस फ़ैसले के लिए जी भरकर कोसा, खुद को ही सांत्वना भी दी। उसके बाद कशिश को देखकर बोला,

    "साड़ी छोड़ो, कोई कुर्ता वगैरह तो होगा ना तुम्हारे पास? वही पहन लो। प्लीज़ जीन्स-टॉप मत पहनना, वरना हंगामा हो जाएगा घर में आज।"

    कशिश ने कुछ कहना तो चाहा, पर ईशान के परेशान चेहरे को देखकर चुप रह गई और बैग से कुर्ता लेकर निकलकर बाथरूम में चली गई। कुछ देर बाद वह नहाकर बाहर आई और ईशान की तरफ़ बढ़ते हुए मुस्कुराकर बोली,

    "मैं नहाकर आ गई, चलो जल्दी नीचे, भूख लगी है मुझे, वह भी ज़ोरों की।"

    ईशान जो फ़ोन पर किसी से बात कर रहा था, उसने कशिश की बात सुनकर पलटते हुए उसे देखा और उसके हुलिये को देखकर हैरानी से बोला,

    "ऐसे ही जाओगी तुम नीचे? कुछ तो ख़्याल करो, कशिश। ये सब नाटक हमारे लिए है, पर बाकियों के लिए तो सब हक़ीक़त है। शादी के अगले दिन कोई लड़की ऐसे अपने ससुराल वालों के सामने जाती है क्या? साड़ी तो तुमने पहनी नहीं, कम से कम ठीक से तैयार ही हो जाओ।"

    ईशान ने बातों-बातों में उसे ताना भी मार दिया था। कशिश ने मुँह बिचोरकर उसे देखा; वहीं बदले में ईशान की घूरती निगाहें उस पर ठहर गईं। कशिश ने मासूम सा चेहरा बनाकर अपनी पलकों को झपकाते हुए उसे मस्का लगाने की कोशिश की, पर ईशान नहीं पिघला। उसने सख्त निगाहों से उसे घूरा और ड्रेसिंग टेबल की तरफ़ इशारा करते हुए बोला,

    "जाकर तैयार होओ। तभी नीचे जा सकोगी और उसके बाद ही तुम्हें खाने को कुछ मिलेगा।"

    मरता क्या न करता? कशिश भी आख़िर में उसके आगे हार गई और मुँह बनाते हुए ड्रेसिंग टेबल के पास चली आई। उसने चूड़ा पहना, झुमके पहने, माँग में सिंदूर लगाया, आँख में काजल लगाया, बालों को ठीक किया और वापस भागते हुए ईशान के पास पहुँच गई। ईशान ने उसे ऊपर से नीचे तक देखा, फिर उसका हाथ थामकर नीचे चला आया।


    कशिश का पहला दिन अपने ससुराल में कैसा होगा और उसके ऊपर कौन सी नई मुसीबतें आने वाली हैं, जानने के लिए पढ़ते रहिए मेरे साथ "इश्क़ मुबारक"।

  • 17. इश्क़ मुबारक (A Contract Marriage) - Chapter 17

    Words: 1244

    Estimated Reading Time: 8 min

    कशिश और ईशान जब तक तैयार होकर नीचे आए, घर के दोनों आदमी अपने काम पर जा चुके थे। शुभ्रा और शुभीका भी स्कूल जा चुकी थीं। बड़ी मम्मी और चाची दोनों आँगन में बैठी हुई थीं। रजनी वहाँ नहीं थी।

    रजनी ने उसे परिवार के सदस्यों के बारे में बताया था, इसलिए भले ही वो किसी को पहचानती नहीं थी, पर देखकर अंदाज़ा लगाना इतना मुश्किल नहीं था।

    कशिश ने उन्हें देखा और मुस्कुराकर उनकी ओर बढ़ गई, पर इससे पहले कि वो उनके पैर छू पाती, कौशल्या जी ने अपना हाथ आगे कर दिया और कठोर स्वर में बोलीं,

    "जहाँ हैं, वहीं रुक जाइए।"

    कशिश के आगे बढ़ते कदम ठिठक गए और वो अपनी बड़ी-बड़ी आँखें बड़ा-बड़ा किए, असमंजस भरी निगाहों से उन्हें देखने लगी। महिमा जी ने कशिश को ऊपर से नीचे तक देखा और फिर कौशल्या जी की ओर निगाहें घुमाते हुए बोलीं,

    "दीदी, देख लीजिए कैसी लड़की को ब्याह कर घर लाया है ईशान! घर की नई बहू कहीं इतनी देर तक सोई है? ये लड़की तो महारानी जैसे 9:00 बजे सोकर नीचे आ रही है। घर की मान-मर्यादा का कोई ख्याल नहीं। कोई तमीज़-तहज़ीब और संस्कार भी नहीं इनमें; देखे तो सही, शादी के अगले ही दिन कैसे कपड़े पहनकर आई है। सिंगार भी आधा-अधूरा किया है। घर की नई बहू के कहीं ऐसे लक्षण होते हैं? ये ईशान जाने कैसी लड़की को बहू बनाकर ले आया है?

    आपको याद है, सरिता जब घर आई थी, तो कैसे अगले दिन सुबह 4:00 बजे उठकर पूजा घर में आ गई थी; उसकी मधुर आवाज़ से बनारस की सुबह हुई थी, फिर पूरे परिवार के लिए कितने पकवान बनाए थे उसने। साल भर सर पर आँचल रखती थी, आज भी अपने ससुर से पर्दा करती है वह, पर छोटी बहू को तो कोई लिहाज़ ही नहीं। कोई कहने वाला ही नहीं है, घर की परम्परा-रीति-रिवाज़ों की कोई अहमियत ही नहीं रह गई है इनकी नज़रों में। ये तो हमारे खानदान का नाम डुबाने पर लगी हैं। जाने कौन से बुरे कर्म का फल है जो ये दिन देखना पड़ रहा है हमें।"

    महिमा जी बाल्टी भर-भरकर कशिश को ताने मार रही थीं और बेचारी कशिश आँखें बड़ी-बड़ी करके उन्हें ऐसे देख रही थी जैसे उनसे अपना कसूर जानना चाह रही हो। उनकी बातें सुनकर कौशल्या जी ने तीखी नज़रों से कशिश को घूरा और मुँह बिगाड़ते हुए बोलीं,

    "घर की मान-मर्यादा और संस्कारों को तो दोनों भाई-बहन ने तिलांजलि दे दी है। परिवार की इज़्ज़त पर कलंक लगाने के लिए ऐसी निर्लज्ज बहू घर लाई है। अपने पसंद की शादी है, तो हम कर ही क्या सकते हैं? किसी ने शादी से पहले जब हमारी राय लेना ही ज़रूरी ना समझा, तो अब हम क्यों कुछ कहेंगे? मनमौजी हो गए हैं दोनों भाई-बहन। अब बहू भी ऐसी ले आए हैं जिनके अंदर कोई संस्कार ही नहीं।…….तो करने दीजिए जो करना चाहते हैं।"

    "ऐसे कैसे करने देंगे, दीदी? हमारे घर की भी कोई मान-मर्यादा है। हम बड़े हैं, तो सही रास्ता हमें ही दिखाना होगा। घर की परम्पराओं के टूटने से अनर्थ हो जाएगा। हम घर के बड़े हैं, तो हमें ही घर की मान-मर्यादा और इज़्ज़त का ख्याल रखना होगा।"

    महिमा जी चिंता जताते हुए बोलीं। उनकी बात सुनकर कौशल्या जी ने तेज आवाज़ में रजनी को पुकारा,

    "रजनी!"

    उनकी आवाज़ सुनकर रजनी बाहर से दौड़ते हुए अंदर आई और हड़बड़ाहट में बोली, "जी, बड़ी माँ!"

    कौशल्या जी ने पहले उसे देखा, फिर कशिश की ओर इशारा करते हुए नाराज़गी से बोलीं,

    "छोटी बहू को कुछ सिखाया है या नहीं तुमने? किसी को भी घर ले आई हो, तो कम से कम घर के तौर-तरीके और रीति-रिवाज़ से तो अवगत करवाया होता। शादी के अगले दिन ये कैसे कपड़े पहनकर आई हैं? साड़ी नहीं पहनी, सो तो छोड़ो, सूट पर दुपट्टा तक नहीं लिया। अभी कल ही शादी करके घर आई है और सर पर पल्लू तक नहीं। श्रृंगार भी अधूरा है और ये वक़्त है नई बहू के उठने का?

    परिवार के सब जन काम पर जा चुके हैं, वैसे तो हम कुछ कहते नहीं, पर नई बहू के साथ कुछ रस्में होती हैं; सबके उठने से पहले उठकर पूजा करनी होती है, चूल्हा-पूजन करके घर के सब लोगों के लिए खाना बनाना होता है। पर आप और आपके भाई मिलकर सब रीति-रिवाज़ को तोड़ने पर आतुर हैं। एक तो जाने कौन से कुल-गोत्र की लड़की ले आए हैं घर, जिन्हें कुछ मालूम ही नहीं और आप भी उन्हें घर के रीति-रिवाज़ से अवगत नहीं करवा रही।"

    बेचारी रजनी को तो कुछ मालूम ही नहीं था। उनकी बातें सुनने के बाद उसने कशिश की ओर निगाहें घुमाईं, जिसका चेहरा एकदम लटक गया था। रजनी के कुछ कहने से पहले ही उसने मायूस, उदास चेहरा बनाकर धीमी आवाज़ में कहा,

    "मुझे साड़ी पहनना नहीं आता।"

    "कोई बात नहीं, मैं सिखा देती हूँ।"

    रजनी ने उसके उदास चेहरे को देखकर प्यार से उसके गाल को छूकर कहा, फिर कौशल्या जी को देखकर बोली,

    "हम कशिश को तैयार करके आते हैं और उन्हें सब सिखा भी देंगे। वो आकर पूजा भी कर लेंगी और खाना भी बना देंगी।"

    "अब खाना बनाकर क्या करेंगी और पूजा करने का ये वक़्त होता है? जाइए, तैयार कीजिए अच्छे से, घर के तौर-तरीकों के बारे में बता दीजिएगा। साथ ही नई बहू को कैसे रहना चाहिए, ये भी सिखा दीजिएगा और अच्छे से समझा दीजिएगा।

    कल सुबह जल्दी उठकर तैयार होकर नीचे आए; पहले पूजा करनी होगी, फिर चूल्हा-पूजन की रस्म होगी और घर के सब सदस्यों के लिए खाना भी बनाना होगा उन्हें। पर पहले ही पूछ लीजिए, खाना बनाना आता भी है इस लड़की को या नहीं?"

    कौशल्या जी ने तल्खी भरे लहजे में कहा और कशिश को अजीब नज़रों से घूरने लगीं।

    "मुझे खाना बनाना आता है।" कशिश ने उनका तंज सुनकर मुँह फुलाते हुए जवाब दिया। उसका इस तरह जवाब देना चाची जी को नागवार गुज़रा; उन्होंने तुरंत कशिश पर भड़कते हुए कहा,

    "जरा भी शर्म-हया, बड़ों का लिहाज़ बाकी है तुममें कि नहीं? ऐसे अपनी बड़ी सास को पलटकर जवाब देते हैं? और कैसे बेशर्म जैसी आँखें दिखा रही है, नज़र नीचे करो अपनी, नहीं तो अभी एक लप्पड़ लगाएँगे कान पर।"

    महिमा जी ने फटकारते हुए थप्पड़ दिखाया, जिससे सहमकर कशिश ने अपनी नज़रें झुका लीं। कशिश को बेवजह डाँट पड़ते देखकर, अब तक चुप खड़ा तमाशा देखता ईशान गुस्से में कुछ बोलने को हुआ, पर वो कुछ कह पाता, उससे पहले ही रजनी ने उसे रोक दिया,

    "ईशू, तुम्हें दुकान के लिए देर हो रही है। तुम जाओ, हम तुम्हारा खाना वहीं भेज देंगे।"

    बात बढ़ने से रोकने के लिए एक बार फिर रजनी ने ईशान को कुछ कहने नहीं दिया। ईशान ने घर की दोनों औरतों को तीखी नज़रों से घूरा और गुस्से में पैर पटकते हुए वहाँ से चला गया। रजनी ने उसके जाने के बाद गहरी साँस छोड़ी और कशिश को लेकर कमरे में चली गई।

    ईशान गुस्से में घर से जा चुका था; कशिश का पहला ही दिन महिमा जी और कौशल्या जी से 36 का आँकड़ा बन चुका था। रजनी ने अपनी ओर से बात संभालने की कोशिश तो की, पर कशिश तब तक अच्छी-खासी डाँट खा चुकी थी और ईशान भी नाराज़ होकर चला गया था।

    रजनी कशिश को लेकर कमरे में चली आई; कमरे में आते ही कशिश बिफरते हुए बोली,

    "दीदी, आप तो इतनी स्वीट हैं, पर वो दोनों बुढ़ी औरतें बहुत गंदी हैं। इतनी सी देर में इतने ताने मार दिए उन्होंने मुझे, जितने आज तक कुल मिलाकर भी मेरी मम्मी ने ताने नहीं मारे होंगे मुझे।"

    To be continued…

  • 18. इश्क़ मुबारक (A Contract Marriage) - Chapter 18

    Words: 1642

    Estimated Reading Time: 10 min

    कशिश बच्चों जैसे मुँह बनाए रजनी से शिकायत कर रही थी। "दीदी, आप तो इतनी स्वीट हैं, पर वो दोनों बुढ़ी औरतें बहुत गंदी हैं। इतनी सी देर में इतने ताने मार दिए उन्होंने मुझे, जितने आज तक कुल मिलाकर भी मेरी मम्मी ने ताने नहीं मारे होंगे मुझे। आपने देखा कैसे बोल रही थीं वो…… मुझे थप्पड़ भी मारने वाली थीं। ऐसा कोई करता है किसी के साथ? बहुत बुरे हैं वो दोनों; करेले से भी कड़वी बातें बोलती हैं और मुझे करेला बिल्कुल नहीं पसंद…… वो ना बिल्कुल हिटलर और छोटा हिटलर हैं…… मुझे वो दोनों बहुत गंदी लगीं……."

    उसकी मासूमियत भरी बातें सुनकर रजनी मुस्कुराईं। फिर उन्होंने प्यार से उसके गाल को छूकर उसे समझाया, "ऐसा नहीं कहते, कशिश। वे बड़ी हैं हमसे, तो ऐसे उनका अपमान नहीं करते। फिर वे पूरी तरह से गलत भी नहीं थीं। रिश्ते में वे तुम्हारी सास हैं और सास तो ऐसी ही होती हैं। तुम भी तो समझो कि वे पहले ही इस शादी से खुश नहीं हैं, इसलिए अपनी नाराज़गी तुम पर निकाल ली। फिर कहा तो उन्होंने ठीक ही था; तुम अब इस घर की बहू हो, घर की इज़्ज़त हो, तो तुम्हें थोड़ा संभलकर रहना होगा, घर के रीति-रिवाज़ों का सम्मान करना होगा, मान-मर्यादा बनाए रखना होगा।

    मैं मानती हूँ कि बड़ी मम्मी और चाची का व्यवहार बहुत ख़राब था, पर ज़्यादातर सासें ऐसी ही होती हैं। तुम्हें उनकी बातों को दिल पर नहीं लगाना है; उनके लिए अपने मन में कड़वाहट नहीं भरनी है। तुम उन्हें पूरी तरह से खुश या संतुष्ट नहीं कर सकतीं, पर तुम्हें अपनी तरफ़ से पूरी कोशिश करनी है कि उन्हें शिकायत का मौक़ा ना मिले और वे तुम्हें कुछ ना कह सकें। तुम चिंता मत करो, मैं तुम्हें सब सिखा दूँगी। कुछ दिन तुम्हें परेशानी होगी, फिर तो मेरे घर के माहौल में ढल जाओगी।"

    कशिश ने पलटकर कोई जवाब नहीं दिया; चुप रह गई। रजनी ने प्यार से उसके गाल को सहलाया और फिर बैग से साड़ी निकालने लगीं।

    "दीदी, ईशान कौन सी दुकान गया है?"

    रजनी कशिश को साड़ी बाँधना सिखा रही थीं, तब अचानक कशिश के दिमाग़ में रजनी की कही बात कौंध गई और उसने बिना हिचकिचाए रजनी से पूछ लिया। उसका सवाल सुनकर रजनी ने चौंकते हुए उसे देखा और समझाते हुए बोलीं, "कशिश, ऐसे अपने पति का नाम नहीं लेते। अकेले में तो फिर भी कोई बात नहीं, पर किसी और के सामने ईशान का नाम लेकर मत पुकारना उसे और जरा तमीज़ और तहज़ीब से बात करना उससे।"

    जाने क्यों, पर कशिश रजनी की हर बात बिना कोई बहस किए मान लेती थी। शायद वो इतने प्यार से समझाती थीं कि कशिश उनका दिल नहीं दुखा पाती थी। रजनी से ईशान बहुत प्यार करता था, उसका बहुत मान करता था, इसलिए कशिश भी उसकी बहुत इज़्ज़त करती थी, शायद इसलिए भी बिना कोई बहस किए उसकी बात मान लेती थी। उसने इस बार भी सर हिला दिया।

    "दीदी, मिश्रा जी कौन सी दुकान गए हैं? उनसे कहना मेरे लिए कुरकुरे लेकर आएँ; मेरा सारा खाने का सामान आंटी के घर पर छूट गया है।"

    कुछ देर चुप रहने के बाद कशिश फिर बोल पड़ी। उसकी मासूमियत भरी बात सुनकर रजनी मुस्कुराईं और उसके साड़ी का पल्लू सेट करते हुए बोलीं, "तुम्हारे मिश्रा जी चीज़ वाली दुकान नहीं गए हैं; वो तो अपनी मिठाई की दुकान में गया है।"

    "उनकी अपनी मिठाई की दुकान है?"

    कशिश ने आँखें बड़ी-बड़ी करके उसको देखते हुए सवाल किया, जिसे सुनकर रजनी ने हामी भरते हुए कहा, "हाँ, यही विश्वनाथ मंदिर के पास उसकी दुकान है; उसने बताया नहीं तुम्हें?"

    "उहूं, वो तो बस मुझ पर चिल्लाते हैं और मुझे डाँटते हैं। प्यार से तो बात ही नहीं करते। अपने बारे में कुछ बताते भी नहीं।"

    कशिश ने नाक सिकोड़ते हुए जवाब दिया और मुँह फुलाकर उसे देखने लगी। ईशान के बेरुखी भरे बर्ताव के कारण वो बहुत नाराज़ थी। उसकी बात सुनकर रजनी ने बेबसी से सर हिला दिया और उसे तैयार करते हुए बोलीं, "ऐसा ही है वो; जल्दी से किसी से घुलता-मिलता नहीं है। अपने दिल की बातें किसी से बाँटता नहीं है, सब अपने अंदर रखता है, इसलिए थोड़ा कठोर हो गया है। दिल की नाराज़गी शब्दों में कड़वाहट बनकर घुल जाती है, पर दिल का बुरा नहीं है। तुम उसके साथ थोड़ा वक़्त बिताओगी, तो समझने लगोगी उसे और जब उसे तुम पर भरोसा हो जाएगा, अपना दिल खोलकर रख देगा तुम्हारे आगे। तुम बस उसे खुश रखने की और उसे समझने की कोशिश करो। वक़्त दो इस रिश्ते को; सब ठीक हो जाएगा।"

    कशिश ने ईशान के बारे में सोचते हुए सर हिला दिया। रजनी ने उसके सर पर पल्लू रख दिया और एक बार फिर उसे समझाने लगीं, "कशिश, नीचे जाकर बड़ी मम्मी और चाची के पैर छूकर उन्हें प्रणाम करना। उनकी बात का पलटकर जवाब मत देना, निगाहें झुकाकर रखना और सर से पल्लू नहीं हटाना। बस कुछ दिन ये सब कर लो। जब शादी को थोड़ा वक़्त हो जाएगा, तो ये सब पाबंदियाँ नहीं लगाएँगे तुम पर।"

    कशिश ने सर हिला दिया। नीचे आकर रजनी के बताए अनुसार उसने दोनों औरतों के पैर छूकर प्रणाम किया, तो दोनों ने बेमन से उसे आशीर्वाद दिया और वहाँ से चली गईं। कशिश ने बुरा सा मुँह बना लिया। रजनी ने उसे खाना खिलाया, फिर खुद ईशान का खाना लेकर चली गईं। कशिश भी कमरे में चली आई, क्योंकि नीचे तो कोई था ही नहीं जिससे वो बात कर सके।

    रजनी काशी मिष्ठान भंडार पहुँचीं, तो ईशान शर्ट उतारकर एक तरफ़ रखे, छेना बना रहा था। रजनी को देखकर दुकान में काम करने वाले दोनों लड़के, रामू-रघु, ने आकर रजनी को प्रणाम किया। रजनी ने जवाब दिया, फिर ईशान के पास चली आईं, "ईशू, चलो पहले खाना खा लो।"

    "मुझे भूख नहीं है, दीदी।" ईशान ने बिना उसे देखे ही जवाब दिया और अपने काम में लगा रहा। उसके चेहरे से साफ़ जाहिर हो रहा था कि नाराज़ है वह। रजनी एक पल को खामोशी से उसको देखती रहीं, फिर उसे अपनी तरफ़ मोड़ते हुए बोलीं, "ईशू, नाराज़गी हमसे है ना, इसमें खाने का तो कोई दोष नहीं, फिर खाने से मना करके उनका निरादर क्यों कर रहे हो? हमारे वजह से खुद को क्यों तकलीफ़ दे रहे हो? चलकर खाना खा लो, फिर हमें थाने भी जाना है।"

    ईशान अब इनकार नहीं कर सका; उसने रामू को काम संभालने को कहा, फिर दुकान में बने स्टोर में चला आया, जहाँ एक तरफ़ एक चौकी भी लगी हुई थी। ईशान हाथ धोकर चौकी पर आकर बैठ गया, तो रजनी ने जल्दी से खाना थाली में लगाकर उसके सामने रख दिया और खुद उसके पास आकर बैठ गईं। ईशान खामोशी से खाना खाने लगा।

    "ईशू, क्यों इतना गुस्सा करके अपना ख़ून जलाते हो? वे हमारे अपने हैं ना? उनकी कुछ बातें ख़ामोशी से सुनने पर, अगर घर में शांति का माहौल बनता है, तो इसमें बुराई क्या है?"

    ये बात रजनी ने ईशान के खाना खाने के बाद कही थी। शायद उसकी नाराज़गी दूर करना चाह रही थीं, पर इसका उल्टा ही असर होता नज़र आ रहा था। ईशान के शांत चेहरे पर एक बार फिर नाराज़गी के भाव उभर आए थे।

    "अगर उनकी बातें सही हों, तो सुनने में कोई बुराई नहीं, पर उनके बेवजह के तानों को ख़ामोशी से सुनने के पक्ष में मैं बिल्कुल भी नहीं हूँ और कैसे अपने हैं वे हमारे, जो हमें सिर्फ़ ज़लील करने के लिए याद करते हैं? कल तो उन्होंने अपना चेहरा तक नहीं दिखाया। ये तक नहीं सोचा कि घर की बहू घर आई है, ऐसे में अगर परिवार वाले ही उसके स्वागत के लिए नहीं आएंगे, तो कैसा लगेगा उसे?

    आज उन्हें परिवार के रीति-रिवाज़ याद आ गए। वे भी सिर्फ़ इसलिए ताकि हमें ज़लील कर सकें, वरना उन्हें कोई फ़र्क नहीं पड़ता हमसे। मुझे तो ये समझ नहीं आता कि आप क्यों उनकी हर बात ख़ामोशी से सुनती रहती हैं? ना कभी खुद जवाब देती हैं, ना ही मुझे जवाब देने देती हैं।"

    ईशान काफ़ी ख़फ़ा और नाराज़ लग रहा था। रजनी ने उसकी पूरी बात सुनी, फिर गंभीरता से बोलीं, "ईशू, अगर बोलने से रिश्ते टूटते हैं, तो चुप्पी ही बेहतर है। फिर ज़रूरी तो नहीं कि हर बार जवाब दिया ही जाए। कभी-कभी ख़ामोशी खुद एक जवाब होती है और जब हम जवाब नहीं देते, तो वक़्त जवाब देता है।

    हम जानते हैं कि हम सही हैं, हमारे महादेव जानते हैं कि हमने कुछ गलत नहीं किया, तो वही सब संभालेंगे। वैसे भी, चाची और बड़ी माँ की पूरी बात गलत नहीं थी; हाँ, कहने का तरीक़ा और इरादा गलत था, पर बात तो सही थी कि कशिश घर की बहू है, तो उस हिसाब से उसे रहना होगा, वरना लोगों को मालूम चलेगा, तो हमारे घर की बदनामी होगी।"

    "आपसे बातों में कोई नहीं जीत सकता, दीदी; आप अपनी दलीलों से मुझे निशब्द कर देती हैं, पर दीदी, हर बार ख़ामोशी और गलत के सामने झुकना भी ठीक नहीं होता है। वैसे भी, वो परिवार नाम का एक परिवार है, वरना उस घर में दो परिवार रहते हैं और हमारे परिवार से उन्हें कोई फ़र्क नहीं पड़ता। आज सब नाम के लिए एक छत के नीचे रह ज़रूर रहे हैं, पर वो दिन दूर नहीं जब सब अलग-अलग हो जाएँगे।"

    "पर घर का बँटवारा हमारे वजह से तो नहीं होना चाहिए, ईशू। जब तक संभव है, तब तक तो हमें परिवार को जोड़े रखने की कोशिश करनी चाहिए।"

    "अब मुझे इस बारे में आपसे कोई बहस नहीं करनी है। आपको देर हो रही होगी, तो आप जाइए और मुझे भी काम करने दीजिए।"

    ईशान की बात सुनकर रजनी ने मुस्कुराकर उसके सर पर हाथ फेरा, फिर वहाँ से चली गईं। हर बार की तरह इस बार भी इस बहस का कोई नतीजा नहीं निकला और ज़हर के घूँट पीते हुए ईशान ने ख़ामोशी इख़्तियार कर ली।

  • 19. इश्क़ मुबारक (A Contract Marriage) - Chapter 19

    Words: 1667

    Estimated Reading Time: 11 min

    कशिश का ईशान के घर, मिश्रा निवास में, पहला दिन बहुत खराब शुरू हुआ था; उसे सुबह-सुबह महिमा जी और कौशल्या जी का व्याख्यान भी सुनना पड़ा था। उन दोनों का व्यवहार बहुत बुरा था, जिस कारण कशिश दिन भर में एक बार भी नीचे नहीं गई। किसी ने उसकी खबर नहीं ली। शुभ्रा और शुभीका स्कूल से आने के बाद उसके पास जाना चाहती थीं, पर महिमा जी ने उन्हें जाने नहीं दिया।

    कशिश सारा दिन कमरे में बंद, बोर होती रही; सुबह से रात के 8:00 बज गए थे। रजनी आज किसी काम में उलझी हुई थी, इसलिए घर नहीं आ सकी थी। कई दिनों से दुकान पर ज़्यादा बिक्री नहीं हो रही थी, इसलिए ईशान भी देर तक वहाँ रुका था।

    रात के करीब 9:00 बज रहे थे जब दरवाज़े पर किसी ने दस्तक दी और कशिश दौड़कर जाकर दरवाज़ा खोल दिया। सामने खड़े ईशान को देखते ही कशिश ने मुँह फुला लिया और नाराज़गी से बोली,

    "ये समय है घर आने का? पता है मैं कब से आपका इंतज़ार कर रही थी। मैं अकेले बैठे-बैठे इतनी बोर हो गई थी। आपको मालूम है, सुबह के बाद से मैंने कुछ खाया भी नहीं है; इतनी ज़ोर की भूख लगी थी मुझे। आप कुछ देर और नहीं आते, तो मैं भूख के मारे तड़प-तड़पकर मर जाती और सीधे महादेव के पास पहुँच जाती।"

    कशिश ने एक बार मुँह खोला, तो लगातार शिकायत करती रही और मुँह बिचकाकर उसे देखने लगी। पहले तो ईशान कुछ चौंक गया। शुरू में उसे कशिश की बातें समझ नहीं आईं, पर जैसे-जैसे उसे कशिश की बातें समझ आईं, उसके चेहरे के भाव बदल गए; उसकी भौंहें तन गईं।

    "तुम सुबह से कमरे में क्यों बंद हो और खाना क्यों नहीं खाया तुमने सुबह के बाद से?"

    ईशान के तेवर एकदम से बदल गए थे। अब वह काफ़ी गंभीर लग रहा था। उसके सवाल सुनकर कशिश ने क्यूट सी शक्ल बनाई और मासूमियत बिखेरते हुए बोली,

    "आपके घर में वो लेडी डॉन और छोटा लेडी डॉन हैं ना, उनसे डर लग रहा था मुझे। सुबह इतना गुस्सा किया उन्होंने मुझ पर; अगर फिर से कुछ कह देतीं, तो मुझे दुनिया भर का व्याख्यान सुनना पड़ता। मान-मर्यादा वाला भाषण सुनना पड़ता; फिर मुझे तो इस घर के बारे में कुछ मालूम भी नहीं है, इसलिए मैं सुरक्षा के लिए नीचे ही नहीं गई, ताकि ना मुझसे कोई गलती हो और ना ही उन्हें मुझे कुछ सुनाने का मौक़ा मिले।"

    कशिश ने पूरी बात उसे बताई, फिर मुँह बिचकाए, उदास निगाहों से उसे देखने लगी। कशिश की बात सुनकर उसने बेबसी से सर हिलाते हुए कहा,

    "कुछ देर रुको, मैं देखता हूँ खाने को क्या है।"

    कशिश ने तुरंत सर हिला दिया। ईशान ने कमरे में कदम तक नहीं रखा; सारे दिन का थका-हारा, आराम करने की जगह किचन में पहुँच गया। सारे बर्तन देखे, तो खाने का इतना भी खाना नहीं बचा था कि दो लोग उसे खा सकें। ईशान ने अफ़सोस भरी साँस छोड़ी और शर्ट की स्लीव्स फ़ोल्ड करते हुए लग गया एक बार फिर काम में।

    रूम में कशिश की भूख से हालत ख़राब थी। वह बेचैनी से यहाँ से वहाँ टहलते हुए ईशान का इंतज़ार कर रही थी। करीब आधे घंटे बाद ईशान ने रूम में कदम रखा, कशिश दौड़कर उसके पास पहुँच गई। ईशान के हाथ में एक ट्रे थी, जिसमें दो प्लेट और पानी का जग था। कशिश दौड़कर उसके पास चली आई और खाने की खुशबू सूँघते हुए उसने अपनी आँखें मूँद लीं। उसे देखकर मालूम चल रहा था कि कितनी भूख लगी है उसे। ईशान कुछ पल उसके चेहरे को देखता रहा, फिर अंदर आते हुए बोला,

    "अब खड़ी क्या हो? सिर्फ़ खाने की खुशबू सूँघने से ही पेट नहीं भरता; चलो आकर खाना खा लो। मैं हाथ-मुँह धोकर आता हूँ।"

    ईशान ने ट्रे को दो आसनों के बीच रख दिया और अपने कपड़े बदलकर नहाने चला गया। कुछ देर बाद जब वह नहाकर कपड़े बदलकर बाहर निकला और कशिश को देखा, तो चौंक गया। कशिश एक आसन पर बैठी, खाना खाने की जगह टकटकी लगाए, ललचाई निगाहों से खाने को देख रही थी।

    "कशिश, ये क्या कर रही हो तुम? भूख लगी थी ना तुम्हें, फिर अब खा क्यों नहीं रही?"

    ईशान का सवाल सुनकर कशिश ने निगाहें उठाकर उसे देखा और मासूमियत से बोली,

    "अकेले कैसे खा सकती हूँ मैं? आप आएंगे, तो साथ खाएँगे ना।"

    ईशान कशिश का जवाब सुनकर एक बार फिर चौंक गया और उसके सामने बैठते हुए हैरानी से बोला,

    "और ये किसने कहा तुम्हें कि तुम्हें मेरा इंतज़ार करना है? अकेले क्यों नहीं खा सकती तुम?"

    "ऐसे कैसे अकेले खा सकती हूँ मैं? आपको भी तो डिनर करना है, तो आपके बिना कैसे खा सकती हूँ मैं? फिर आपने थके होने के बावजूद मेरे लिए इतनी मेहनत की है, तो क्या मैं आपके लिए थोड़ी देर इंतज़ार भी नहीं कर सकती?"

    कशिश ने अपने फुले-फुले गालों को फुलाते हुए जवाब दिया, जिसे सुनकर ईशान कुछ पल हैरानी से उसको देखता रहा, फिर शक भरी नज़रों से उसको देखते हुए सवाल किया,

    "तुम ठीक तो हो, कशिश? भूख की वजह से कोई सदमा-वदमा तो नहीं लग गया तुम्हें? इतनी तमीज़ से कैसे बात कर रही हो तुम मुझसे और ये कैसी बहकी-बहकी बातें कर रही हो?"

    "रजनी दीदी ने कहा है कि आपसे तमीज़ से बात करूँ। आपका नाम न लूँ, वरना फिर से डाँट पड़ेगी, इसलिए मैं प्रैक्टिस कर रही हूँ और जब दोनों को डिनर करना है, तो साथ में करने में क्या बुराई है?"

    ईशान ने उसकी बात सुनकर सर हिला दिया और प्लेट अपनी तरफ़ सरकाते हुए बोला,

    "अच्छा, चलो अब बोलना बंद करो और खाना खा लो।"

    उसके इतना कहने की देर थी कि भूख से तड़पती कशिश ने झट से खाना शुरू कर दिया। सुबह से भूखी थी वह और ज़ोरों की भूख लगी थी, इसलिए अब उससे सब्र नहीं हो रहा था। जल्दी-जल्दी निवाला मुँह में भरने के चक्कर में उसका खाना गले में फँस गया और वह जोर-जोर से खांसने लगी।

    ईशान खाने की जगह उस पर निगाहें टिकाए उसे ही देख रहा था। उसने कशिश को खांसते देखकर बिना एक पल गँवाए जल्दी से पानी के गिलास में पानी डालकर गिलास उसके लबों से लगा दिया। कशिश ने थोड़ा पानी पिया, फिर गिलास पीछे हटाते हुए बोली,

    "मैं ठीक हूँ।"

    ईशान की निगाहें अब भी कशिश पर ही टिकी थीं, जो अपनी आँखों में आई नमी साफ़ कर रही थी। कशिश ने अपने आँसू साफ़ किए और वापस जैसे ही खाना शुरू किया, उसके कान में ईशान की शर्मिंदगी भरी आवाज़ पड़ी,

    "कशिश, मुझे माफ़ करना, मेरे कारण तुम्हें इतनी परेशानी हो रही है।"

    कशिश ने चौंकते हुए उसे देखा, फिर ईशान का शर्मिंदगी से झुका चेहरा देखकर सौम्य सी मुस्कान लबों पर बिखेरते हुए बोली,

    "कोई बात नहीं, मैं सब मैनेज कर लेती हूँ, आपको गिल्टी फ़ील करने की कोई ज़रूरत नहीं है।"

    अब भी ईशान के चेहरे पर पछतावे के भाव मौजूद थे। उसे सच में ये देखकर बहुत बुरा लगा था कि उसके कारण कशिश को इतनी परेशानी हुई; ये तो वह नहीं चाहता था।

    कशिश को ईशान का यूँ शर्मिंदा और दुखी होना अच्छा नहीं लगा था। उसने कुछ सोचा, फिर मुस्कुराकर बोली,

    "वैसे, मिश्रा जी, मैं आपको बताना भूल गई; आप बहुत अच्छा खाना बनाते हैं, पर आपने ये सब सीखा कहाँ से?"

    कशिश का सवाल सुनकर ईशान को कुछ बीते अच्छे लम्हे याद आ गए। वह मुस्कुराया और खोए स्वर में बोला,

    "अपने पापा से। मेरे पापा मेरे लिए और दीदी के लिए खाना बनाते थे; तब मैं उनके पास रहकर सब सीखता था ताकि उनकी मदद कर सकूँ। तुम्हें पता है, मेरे पापा बहुत मेहनत करते थे; दुकान के साथ हम दोनों भाई-बहन को भी संभालते थे। वह सारी ज़िम्मेदारी पूरी ईमानदारी से निभाते थे; कभी किसी को शिकायत का मौक़ा नहीं देते थे। दिल के भी बहुत अच्छे थे। मैं बचपन से उनके जैसा बनना चाहता था, पर बहुत अंतर है उनमें और मुझमें और बड़े होने के बाद मुझे एहसास हुआ कि मैं क्या, कोई कभी पापा जैसा बन ही नहीं सकता। वे सबसे अलग और सबसे अच्छे थे; एकदम परफेक्ट थे।"

    कशिश पहली बार ईशान को इतना खुश देख रही थी। पहली बार उसके चेहरे पर गहरी मुस्कान और खुशी झलक रही थी। पहली बार उसने कशिश को खुद से जुड़ी कोई बात बताई थी। कशिश ख़ामोशी से उसकी बात सुनती रही, फिर मुस्कुराकर बोली,

    "आप अपने पापा से बहुत प्यार करते हैं ना?"

    "सबसे ज़्यादा प्यार अगर मैं किसी से करता हूँ, तो वह अपने पापा से करता हूँ और हमेशा करता रहूँगा। वे भी बहुत प्यार करते थे मुझसे और दीदी से। हममें उनकी जान बसती थी और हम ही दुनिया थे उनकी।"

    "और आपकी मम्मी?" कशिश ने जैसे ही यह सवाल किया, ईशान के चेहरे के भाव एकदम से बदल गए। कशिश जवाब के इंतज़ार में बड़ी ही उत्सुकता से उसे देख रही थी। वहीं ईशान ने एक नज़र उसे देखा तक नहीं; वहाँ से जाने के लिए कदम बढ़ाते हुए रूखे स्वर में बोला,

    "रात बहुत हो गई है। चलकर सो जाओ; सुबह जल्दी भी उठना है।"

    ईशान वहाँ से चला गया। पीछे खड़ी कशिश आँखें बड़ी-बड़ी किए, आश्चर्यचकित सी, बस उसे देखती ही रह गई। वह समझ ही नहीं सकी कि आखिर अचानक ईशान को क्या हो गया? वह कुछ पल उस दिशा में देखती रही जहाँ ईशान गया था, फिर घाट की तरफ़ मुड़ते हुए खुद से ही बोली,

    "तुम मुझे अपने बारे में कुछ बताते क्यों नहीं? तुम ना मेरे लिए एक बंद किताब जैसे हो, जिसे पढ़ने का मन तो बहुत है मेरा, पर तुम मुझे पढ़ने ही नहीं देते।"

    कशिश ने मुँह लटका लिया और कमरे में आई, तो ईशान अपनी जगह पर सोया हुआ था। कशिश बेड पर आकर लेट गई और ईशान को देखने लगी। उसकी आँखों के सामने वह पल घूम गया जब अपने पापा के बारे में बताते हुए, उनका ज़िक्र करते हुए, ईशान मुस्कुरा रहा था। कशिश काफ़ी देर तक उसे एकटक देखती रही, फिर उसे देखते-देखते ही उसकी आँख लग गई।

  • 20. इश्क़ मुबारक (A Contract Marriage) - Chapter 20

    Words: 1816

    Estimated Reading Time: 11 min

    बीती रात कशिश और ईशान की कुछ बातें हुई थीं। ईशान ने अनजाने में अपनी ज़िंदगी के कुछ अच्छे पलों की यादें उसके साथ साझा की थीं, पर माँ का ज़िक्र होते ही उसका मूड ख़राब हो गया और वह वहाँ से चला गया। कशिश उसके अचानक बदलते रवैये को देखकर कुछ उलझन में पड़ गई और उसे देखते-देखते ही नींद की आगोश में समा गई।

    अगले दिन रजनी ने उसे सुबह पाँच बजे उठा दिया। उसको तैयार किया, फिर घर में बने मंदिर में ले आई। कशिश महादेव की भक्त थी, इसलिए पूरे दिल और श्रद्धा भाव के साथ पूजा कर रही थी। उसके मधुर स्वर में महादेव के भजन से आज बनारस की सुबह हुई थी और साथ ही मिश्रा निवास में भी सबकी सुबह उसकी सुरीली, मीठी आवाज़ में महादेव के भजन से हुई थी।

    दोनों औरतें, शुभ्रा, शुभीका, ईशान, रजनी, सब वहाँ आ गए थे; या यूँ कहें कि कशिश की सुरीली आवाज़ से सब खिंचे चले आए थे। यहाँ कशिश ने उन्हें शिकायत का कोई मौक़ा नहीं दिया, इसलिए दोनों औरतें कुछ चिढ़ी हुई थीं। दोनों आदमी वहाँ आए तक नहीं थे।

    महादेव की आरती के बाद कशिश ने सबको आरती और प्रसाद दिया। फिर रजनी के साथ, घूँघट से चेहरा ढँके, रामविलास जी के कमरे की तरफ़ बढ़ गई। अंदर रामविलास जी अपने आराम कुर्सी पर बैठे थे और किसी गहन चिंता में लीन थे। जब उनके कानों में कशिश की मीठी सी, खनकती हुई आवाज़ पड़ी,

    "बड़े पापा, मैं अंदर आ जाऊँ?"

    रामविलास जी चौंकते हुए अपने ख़्यालों से बाहर आए और निगाहें गेट की तरफ़ घुमाईं। गुलाबी बनारसी साड़ी में लिपटी, चेहरे पर घूँघट डाले, कशिश सामने ही खड़ी थी। जाने रामविलास जी के मन में क्या आया कि उन्होंने उसे मना करने की जगह, हामी भरते हुए, आने की इज़ाज़त दे दी,

    "आ जाइए।"

    कशिश को घूँघट के नीचे से कुछ दिख नहीं रहा था। वह ज़मीन को घूरते हुए कदम आगे बढ़ा रही थी। रजनी ही उसे संभालकर अंदर लेकर आई, वरना जिस हिसाब से वह साड़ी में उलझ रही थी, दो-चार कदम चलते हुए दस-पंद्रह बार मुँह के बल ज़मीन पर जा गिरती। कशिश ने आरती की थाल रामविलास जी की तरफ़ बढ़ा दी और घूँघट के नीचे से ही मुस्कुराकर बोली,

    "आरती ले लीजिए, बड़े पापा। इंसानों से नाराज़गी होती है, पर भगवान से कैसी नाराज़गी हुई, भला?"

    कशिश की बात सुनकर रामविलास जी एक पल को ठिठके, फिर उन्होंने चुपचाप आरती ले ली। कशिश ने झट से प्रसाद उनके तरफ़ बढ़ाते हुए कहा,

    "अगर प्रसाद नहीं लेंगे, तो महादेव का अपमान होगा। प्रसाद का निरादर करना घोर पाप है।"

    कशिश ने नाटकीय अंदाज़ में उन्हें डराया। एक बार फिर कशिश ने अपनी बातों से उन्हें मजबूर कर दिया। रामविलास जी ने प्रसाद भी चुपचाप ले लिया। कशिश ने बिना एक पल गँवाए, झट से उनके चरण स्पर्श कर लिए,

    "चलिए अब जल्दी से मुझे आशीर्वाद दे दीजिए। आप घर में सबसे बड़े हैं, सबसे ज़्यादा अहमियत रखते हैं और नई बहू को सबका आशीर्वाद मिलना चाहिए। अब आप मुझे आशीर्वाद दीजिए कि मैं इन रिश्तों को अच्छे से निभा सकूँ, आप सबको शिकायत का कोई मौक़ा ना दूँ और आपकी जो भी नाराज़गी है, उसे दूर कर सकूँ।"

    कशिश नॉनस्टॉप बोलती ही चली गई। उसकी बातें सुनकर रामविलास जी की निगाहें रजनी की तरफ़ घूम गईं। रजनी ने उन्हें देखा और मुस्कुराकर बोली,

    "आशीर्वाद दे दीजिए, बड़े पापा। आपके ईशान की पत्नी है। शादी में तो शामिल नहीं हुए, कम से कम आशीर्वाद ही दे दीजिए।"

    रामविलास जी एक बार फिर गहरी सोच में गुम हो गए, फिर उन्होंने कशिश को देखा, जो अभी तक उनके पैर छुए, आशीर्वाद का इंतज़ार कर रही थी। रामविलास जी थोड़ा हिचकिचाए, फिर उसके सर पर हाथ रखते हुए बोले,

    "सदा खुश रहो।"

    बस इतना ही कहा उन्होंने, पर कशिश की खुशी दुगुनी हो गई। वह उठकर खड़ी हो गई और सौम्य सी मुस्कान लबों पर बिखेरते हुए बोली,

    "बड़े पापा, आज मैं सबके लिए खाना बनाने वाली हूँ; आप आएंगे ना खाने?"

    उसका सवाल सुनकर रामविलास जी कुछ पल ख़ामोश रह गए, फिर बिना किसी भाव के बोले,

    "जाइए, हमें भी काम है।"

    उनका जवाब सुनकर कशिश का मुँह छोटा सा हो गया। रजनी भी कुछ उदास हो गई। कशिश ने घूँघट की ओट से मायूसी भरी नज़रों से रामविलास जी को देखा। जैसे ही दोनों जाने के लिए मुड़ीं, उनके कानों में रामविलास जी की आवाज़ पड़ी,

    "बहू, इतना लंबा घूँघट करने की आवश्यकता नहीं है। चलने में दिक्कत होती होगी; बस सर पर पल्लू रख लिया कीजिए।"

    कशिश, जो मुँह लटकाए, उदास और मायूस सी बाहर जा रही थी, उसका चेहरा एक बार फिर खुशी से ताज़े फूलों सा खिल उठा। रामविलास जी की बात सुनकर जहाँ रजनी कुछ हैरान हो गई, वहीं कशिश झट से उनके तरफ़ पलट गई और सर हिलाते हुए मुस्कुरा उठी,

    "जी, बड़े पापा।"

    इतना कहकर वह रजनी के साथ वहाँ से चली गई। सालों की नाराज़गी जाने आज कशिश के सामने कैसे पिघल गई थी। रामविलास जी खुद ये बात समझ नहीं सके। आज वह अपने व्यवहार पर खुद ही आश्चर्यचकित रह गए थे, पर शायद सालों पहले जो हुआ था, उसमें कशिश का कोई दोष नहीं था और ना ही उन बातों से वह किसी प्रकार से जुड़ी थी; शायद इसलिए रामविलास जी उसके साथ बेरुखी भरा व्यवहार नहीं कर सके, पर गलती तो रजनी और ईशान की भी नहीं थी। यह बात अभी समझना बाकी था उनके लिए।

    जहाँ रामविलास जी अपने व्यवहार की वजह से खुद में ही उलझ गए थे, वहीं रजनी काफ़ी खुश थी और कहीं ना कहीं उसके मन में उम्मीद की किरण जल उठी थी कि उसकी माँ की वजह से जिन रिश्तों में दरार पड़ गई थी, जिन दिलों में दूरियाँ पनप गई थीं, उसे कशिश शायद कुछ कम कर सके और इन दिलों को एक बार फिर अपनेपन के एहसास से भर सके।

    रामविलास जी के बाद कशिश सुजीत जी के कमरे में पहुँची। इस वक़्त वह पलंग पर बैठे हिसाब-किताब लिख रहे थे। रामविलास जी के कहने पर कशिश ने अपने पल्लू को थोड़ा ऊपर कर लिया था ताकि सामने देख सके और चलने में परेशानी ना हो। उसने यहाँ भी दरवाज़ा नॉक किया, जिसे सुनकर सुजीत जी का ध्यान उसकी तरफ़ चला गया। घर में नया चेहरा थी कशिश, इसलिए उन्हें उसे पहचानने में ज़्यादा मुश्किल नहीं हुई कि सामने खड़ी लड़की ही ईशान की पत्नी है।

    कशिश ने उन्हें देखा और मुस्कुराकर बोली,

    "चाचा जी, आज मैंने पूजा की है, पर आप पूजा में शामिल नहीं हुए, इसलिए मैं आपके लिए आरती लेकर आई हूँ; अंदर आकर आपको आरती दे दूँ?"

    एक तो उसकी मासूमियत से भरा प्यारा सा चेहरा, उस पर मिश्री से मीठी बोली, प्रेम से लबरेज़ अल्फ़ाज़, मासूमियत भरा आग्रह और महादेव की आरती। सुजीत जी चाहकर भी इनकार न कर सके। आखिर आरती लेने से इनकार करके अपने इष्ट देव का अपमान कैसे कर सकते थे वे?

    "आ जाइए।"

    जैसे ही उन्होंने इज़ाज़त दी, कशिश चहकते हुए जल्दी से अंदर चली आई। सुजीत जी ने आरती ली, प्रसाद ग्रहण किया, फिर उठकर अलमारी के पास चले गए। कुछ मिनट बाद फिर कशिश के पास लौटे और आरती की थाल में पैसे रख दिए। कशिश ने आदर सहित उनके भी चरण स्पर्श कर लिए,

    "मैं तो इस घर में नई आई हूँ, चाचा जी। मुझसे कैसी नाराज़गी हुई, भला? फिर रिश्ते में आप मेरे ससुर हैं और ससुर पिता समान होते हैं और पिता के आशीर्वाद पर सब बच्चों का बराबर अधिकार होता है। आप भी मुझे अपनी बेटी ना सही, बहू समझकर ही आशीर्वाद दे दीजिए।"

    रजनी कशिश की वाकपटुता की ज़बरदस्त फ़ैन हो गई थी। लोगों को अपनी मीठी-मीठी बातों में उलझाकर उनसे अपनी बात मनवाना कशिश को बखूबी आता था। यह उसका हुनर था, जो हर किसी की बस की बात नहीं। हालाँकि वह कुछ जानती नहीं थी अभी, फिर भी जितना समझी थी, उस हिसाब से अपनी तरफ़ से पूरी कोशिश कर रही थी; सिचुएशन को संभालते हुए, एक अच्छी बहू होने का फ़र्ज़ निभाने की।

    सुजीत जी ने उसके सर पर हाथ रख दिया, पर बोले कुछ नहीं। कशिश ने ज़िराफ़ जैसे गर्दन मोड़कर उन्हें देखा, फिर बच्चों जैसे गाल फुलाते हुए बोली,

    "इतनी कंजूसी भी ठीक नहीं, चाचा जी। मैंने पैर छुए हैं आपके, कुछ आशीर्वाद भी तो दीजिए, चाचा जी। ऐसे बस सर पर हाथ रखने से काम नहीं चलेगा।"

    कशिश के बिंदास नेचर देखकर सुजीत जी हैरान थे। ज़रा नहीं घबराती थी वह; जो मन में आता, बिंदास बोल जाती। बड़ों का लिहाज़ तो करती थी, पर उनके सामने गूँगा बने रहने की आदि नहीं थी। पहली ही मुलाक़ात में जिस तरह का वह उनके साथ फ़्रैंकली बिहेव कर रही थी, उनसे अपने मन की बात बेझिझक कह रही थी; वह कुछ अचंभित से उसे देखते ही रह गए।

    "चाचा जी, इतनी देर झुकी-झुकी मेरी कमर टूट जाएगी।" कशिश ने मुँह फुलाते हुए अपना दुख ज़ाहिर किया। उसकी बात सुनकर सुजीत जी अपने ख़्यालों के मायाजाल से बाहर निकले।

    "ख़ुश रहो।" इतना कहकर सुजीत जी ने उसके सर से हाथ हटा लिया, पर कशिश अब भी वैसे ही झुकी हुई थी।

    "इतने से आशीर्वाद से मैं नहीं मानूँगी। कहिए कि मैं ख़ुश रहूँ और साथ ही आप सबको भी ख़ुश रख सकूँ, एक अच्छी बहू बन सकूँ और आपकी जो भी नाराज़गी है, उसे दूर करके इस परिवार को फिर से एकजुट कर सकूँ।"

    सुजीत जी कुछ पल ख़ामोशी से उसे तकते रहे। कुछ अजीब से भाव उनके चेहरे पर मौजूद थे। कुछ पल बाद उन्होंने एक बार फिर कशिश के सर पर हाथ रख दिया,

    "महादेव आपकी हर मनोकामना पूर्ण करे।"

    इतना कहकर वे वहाँ से चले गए। कशिश भी उनका आशीर्वाद, या यूँ कहें कि अपना मनचाहा आशीर्वाद पाकर, खुशी से चहक उठी और मुस्कुराते हुए वहाँ से चली गई।


    कुछ देर बाद सब खाने के लिए इकट्ठे हुए थे और कशिश खुद खाना परोस रही थी। तभी ईशान तैयार होकर नीचे आया और आदतन किचन की तरफ़ निगाहें घुमाते हुए तेज आवाज़ में बोला,

    "दीदी, खाना ला दो।"

    खाने की मेज़ के पास खड़ी रजनी कुछ कहने ही वाली थी कि उससे पहले ही कशिश ने उसकी आवाज़ सुनकर ईशान की तरफ़ पलटते हुए कहा,

    "मिश्रा जी, सब खाने के लिए बैठ गए हैं। आप भी यहीं आ जाइए। मैं आपको भी खाना परोस देती हूँ। अब मेरे रहते आप दीदी को परेशान करें, यह अच्छा थोड़ी लगता है। वैसे भी आज मेरी पहली रसोई थी, तो मैंने खाना बनाया है। आप भी चखकर बताइए कि कैसा बना है?"

    ईशान के कानों में कशिश की आवाज़ पड़ी, तो उसने चौंकते हुए आवाज़ की दिशा में निगाहें घुमाईं। वहाँ खाने की मेज़ पर उसका पूरा परिवार खाना खाने बैठा था और सब की नज़रें इस वक़्त उस पर ही थीं। वहीं एक तरफ़ कशिश, साथ में सब्ज़ी का डोंगा और करछी लिए, खड़ी थी। उसके साथ ही रजनी भी खड़ी थी।


    आगे क्या होगा, जानने के लिए पढ़ते रहिए "इश्क़ मुबारक"