एक रिवाज़... जो आज भी ज़िंदा है। हिमाचल की पहाड़ियों के बीच बसा एक गांव,जहां आज भी एक लड़की की शादी घर के सभी बेटों से होती है। और इस बार बारी थी 18 साल की मासूम धीर्ति की। मासूम, शांत स्वभाव की धीर्ति ने कभी सोचा भी नहीं था कि उसकी किस्मत में पांच प... एक रिवाज़... जो आज भी ज़िंदा है। हिमाचल की पहाड़ियों के बीच बसा एक गांव,जहां आज भी एक लड़की की शादी घर के सभी बेटों से होती है। और इस बार बारी थी 18 साल की मासूम धीर्ति की। मासूम, शांत स्वभाव की धीर्ति ने कभी सोचा भी नहीं था कि उसकी किस्मत में पांच पति लिखे होंगे। पांचों राठौड़ भाई! अधिराज, अघोर, अर्यमान, अनय, और अयांश। हर किसी के पास अपना दर्द था, अपनी आग थी… और धीर्ति पर अधिकार जताने का अपना अलग तरीका। पर क्या ये रिश्ता सिर्फ रिवाज़ था? या हर रात धीर्ति के सपनों को निगल जाने वाला कोई डरावना सच? आख़िर किस भाई का प्यार सच्चा था, और कौन उसके मासूम मन के साथ खेल रहा था? क्या धीर्ति खुद को बचा पाएगी? या फिर वो इस पांच हिस्सों में बंटी दुनिया का हिस्सा बन जाएगी… हमेशा के लिए? पढ़िए “The Bride of Five Brothers
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हिमाचल की बर्फ से ढकी वादियों में बसा एक पुराना गांव… जहां अब भी हवाओं में रिवाज़ों की बू महसूस होती थी। देवताओं की धरती कहलाने वाले इस गांव के बीचोंबीच, एक विशाल पुरानी हवेली के आंगन में मंडप सजा था। देसी फूलों की माला, धूप की भीनी महक और मंत्रों की आवाज़ ने माहौल को रहस्यमय बना दिया था।
और उस मंडप के ठीक बीचोंबीच बैठी थी एक मासूम सी 18 साल की लड़की धीर्ति।
लाल जोड़े में लिपटी, शर्म और डर से कांपती हुई। उसके माथे पर तिलक था, और आँखों में वो मासूमियत… जैसे किसी नाज़ुक परिंदे को पिंजरे में बंद कर दिया गया हो।
धीर्ति की उंगलियां कांप रही थीं… घूंघट के नीचे से वो कभी पंडित को देखती, कभी आस-पास के चेहरों को। पर जिन चेहरों से उसकी नज़र बार-बार टकरा रही थी… वो थे पाँच राठौड़ भाइयों के चेहरे।
पाँचों उसके ठीक सामने बैठे थे…
दूल्हे की तरह सजकर।
शेर की तरह सन्नाटे में घात लगाए हुए।
चलिए कहानी आगे बढ़ाने से पहले पांचो भाई और धीर्ति के बारे जान लेते है!
अधीराज सिंह राठौड़ - राठौड़ परिवार का सबसे बड़ा बेटा, उम्र 32, 6" हाइट, गोरा रंग! यह एशिया के नंबर 1 बिजनेसमैन है साथ ही अंडरवर्ल्ड के बेतहास बादशाह! इन्हे देख दुश्मनो की पतलून गीली हो जाती है! स्वभाव से हद से ज्यादा रूड और गुस्सैल भी है! जिन्हे थोड़ा भी गलती पसंद नहीं है!
अघोर सिंह राठौड़ - यह 30 साल के है, और पेसे से एक वकील है! हाइट 6", गोरा रंग, यह भी अपने भाई की तरह अंडरवर्ल्ड से जुड़े है! वहीं इनका स्वभाव भी काफ़ी गुस्सैल है! इन्हे गुस्सा बहुत जल्दी आता है और ज़ब गुस्सा आता है तो फिर यह कुछ नहीं देखते!
आर्यमान सिंह राठौड़ - यह 28 के है, 6", गोरा रंग, पेसे से एक डॉक्टर है, और स्वभाव के काफ़ी अच्छे!
अयांश सिंह राठौड़- यह 28 साल के है और आर्यमान के जुड़वाँ भाई है, हाईट 6", गोरा रंग! यह पेसे से बहुत बड़े प्रोडूसर है! कहने को तो यह आर्यमान के जुड़वाँ भाई है लेकिन दोनों के स्वभाव में जमीन आसमान का फर्क है! इसे अपने पैसे का बहुत घमंड है! और यह हर चीज सुंदरता से तोलते है!
अनय सिंह राठौड़ - यह अपने भाइयो में सबसे छोटे है जिस कारण यह सभी के लाडले है! उम्र 26 साल, 6" फुट , गोरा रंग! देखने में काफ़ी स्मार्ट! और फ़्लर्टी किस्म के इंसान है! यह पेसे से एक सुपरस्टार है!
धीर्ति - यह इस कहानी की नायिका और जान दोनों है! उम्र 18, 5'4" की हाइट, गोरा रंग, बड़ी गुड़िया जैसी आँखे! लम्बे कमर तक़ आते बाल! देखने में किसी मासूम छोटी बच्ची जैसी! इसे बचपन से यही सिखाया गया है की इसे अपने सारे पतियों को हमेशा ख़ुश रखना है और बच्चे पैदा करना है! और यही कारण है की धीर्ति की सोच भी ऐसी है!
मंडप की चौखट के बीचोंबीच धीर्ति राठौड़ लाल जोड़े में सिमटी बैठी थी। उसके दोनों ओर बैठने वाले पांचों राठौड़ भाई उसकी मासूमियत को अपनी सख्त निगाहों से चीरते नज़र आ रहे थे। उसका पतला सा शरीर साड़ी के नीचे काँप रहा था, और वो काँप उस तक ही सीमित नहीं था — उसकी साँसें भी धड़कनों के साथ उलझने लगी थीं।
पंडित की आवाज़ ने जैसे सन्नाटा चीर दिया —
"अब पाँचों वर, वधू की मांग में सिंदूर भरें..."
धीर्ति की आँखें फटी की फटी रह गईं।
पाँचों भाइयों ने एक-एक कर सिंदूर की चुटकी उठाई।
उनकी उंगलियों से उठाया गया गाढ़ा लाल सिंदूर जैसे खुद एक जंग का ऐलान था।
धीर्ति की मांग पर जब पहला हाथ पहुँचा, तो काँपती लड़की ने पलकें बंद कर लीं।
जैसे-जैसे हर भाई ने अपनी चुटकी भर सिंदूर उसकी मांग में भरी, कुछ कण ज़मीन पर गिरे… और कुछ… उसकी छोटी सी नाक की कोमल रेखा पर।
लाल रंग की पाउडर जैसी बारीक परत जैसे ही उसकी नाक पर आकर टिकी, धीर्ति की साँस थम सी गई।
उसने हल्के से आँखें बंद कीं —
ना जाने डर से या उस बोझ से, जिसे उसके सिर पर बिना पूछे लाद दिया गया था।
अब पाँचों वर… वधू के गले में मंगलसूत्र पहनाएं…"
पंडित की आवाज़ धीर्ति के कानों में ऐसे गूंजी जैसे कोई डरावना सच फिर से दोहराया जा रहा हो।
धीर्ति सुन्न थी।
बिलकुल निढाल… एकदम मौन।
उसके इर्द-गिर्द पाँचों राठौड़ भाई खड़े थे —
अधिराज… अघोर… अर्यमान… अनय… और अयांश।
सबकी आँखों में सिर्फ़ हक़ था।
जैसे वो एक इंसान नहीं, बल्कि एक चीज़ थी… जिसकी अब हिस्सेदारी तय होनी थी।
एक ही मंगलसूत्र — काले मोतियों की महीन माला में जड़ा डायमंड… जिसमें 'A' चमक रहा था।
'A' — जो सिर्फ नाम नहीं, उनके 'अधिकार' की पहचान थी।
धीर्ति की पलकों ने अब तक हिम्मत नहीं की ऊपर उठने की।
नर्म गर्दन अब भी सजी हुई थी, पर अब उसमें हल्की थरथराहट आ चुकी थी।
और फिर… पाँचों की सख्त उंगलियाँ एक साथ उसके गले के पास आईं।
मंगलसूत्र उसके कोमल तन से छुआ… और धीर्ति कांप गई।
एक सिहरन ने उसे भीतर तक झकझोर दिया।
उसके होंठ थरथराए… पर आवाज़ ना निकली।
उसके गले में ज़ंजीर बांधी जा रही थी…
पर दिल की ज़ंजीरें पहले ही बंध चुकी थीं।
धीर्ति अब भी चुप थी… पर उसकी ख़ामोशी चीख रही थी।
और पाँचों भाई?
उनकी नज़रों में अब सिर्फ़ एक एहसास था—
ये हमारी है… सिर्फ हमारी!"
“शादी सम्पन्न हुई…”
पंडित जी की गंभीर आवाज़ जैसे धीर्ति के दिल की धड़कनों पर आखिरी ठप्पा मार गई।
बस कुछ पल में सब कुछ बदल चुका था…
लाल जोड़े में बैठी धीर्ति की आंखों से गालों तक दो बूंद आंसू चुपचाप बह निकले…
ना किसी ने पोछे, ना किसी ने पूछे।
सामने पांचों राठौड़ भाई खड़े थे—
हर एक की आंखों में कुछ अलग, पर हर एक की नज़रों में एक समान जज़्बा…
अधिकार।
धीर्ति बस बैठी रही… कांपती हुई, चुपचाप।
पलकों के नीचे उसकी दुनिया अंधेरे में डूबी थी।
“अब उठ बेटी… विदाई का समय है…”
किसी औरत की नरम आवाज़ उसके कानों में पड़ी, पर दिल को चीर गई।
धीर्ति उठी तो सही, लेकिन उसके पांव जैसे ज़मीन में गढ़े थे।
“बड़ी भाग्यशाली है तू धीर्ति… गांव की द्रौपदी बनी है… पांचों राठौड़ भाइयों की दुल्हन… अब तू हमारी गांव की रानी है!”
किसी औरत ने पीछे से कहा, जैसे उसके कंधे पर कोई ताज रख रही हो।
धीर्ति ने नजरें नहीं उठाईं, बस हल्की सी सिसकी होठों से फिसल गई।
उसी पल उसकी मामी उसे एक ओर खींच ले गईं, एक कोने में…
चेहरे पर वही पुरानी चिढ़, वही तीखी जुबान।
“ज्यादा आंसू मत बहा धीर्ति! आज तेरी किस्मत खुली है… राठौड़ भाइयों की बीवी बनी है तू! अब अगर दोबारा कभी अपनी ये मनहूस शक्ल लेकर मायके लौटी ना… तो समझ लेना दरवाज़े बंद मिलेंगे! अपने पतियों को खुश रखना… बिस्तर पे भी… और इज़्ज़त से भी!"
धीर्ति की सांसें अटक गईं…
दिल जैसे किसी ने मुठ्ठी में भरकर कस दिया हो।
उसने मामी की आंखों में देखा… और फिर खुद को अंदर से खोता चला गया।
ना किसी ने उसे प्यार दिया,
ना किसी ने पूछा कि वो तैयार थी भी या नहीं।
बस, एक परंपरा की डोर में बांधकर उसे गांव की ‘मालकिन’ बना दिया गया था।
मालकिन… पर अपनी किस्मत की गुलाम।
धीर्ति की आंखें फिर भी नीची थीं…
क्योंकि उसके आंसू अब बह नहीं रहे थे,
वो तो दिल के किसी कोने में चुपचाप बैठ गए थे… जैसे वो खुद।
“बहू को लेकर हवेली पहुंचो…!”
राठौड़ खानदान की मुखिया… गांव की असली मालकिन, अपने रौबीले और आदेशात्मक लहज़े में कहती हैं।
न ज़रा सी नरमी… न कोई मुस्कान।
जैसे ये शादी कोई रस्म नहीं, बल्कि एक सौंपा गया दायित्व हो।
पांचों पोतों की ओर नज़र डालते हुए वो आगे बढ़ीं, और अपने लिए दूसरी गाड़ी में जाकर बैठ गईं।
ठीक वैसे ही जैसे वो हर बार करती हैं—हुक्म देती हैं… और फिर अकेली चल देती हैं।
धीर्ति, जो अब तक घूंघट में खुद को समेटे बैठी थी, कांपते हाथों से अपना लहंगा थोड़ा ऊपर खींचती है ताकि चल सके।
उसकी चाल में नर्मी थी, उसकी रफ्तार में डर…
गाड़ी की तरफ बढ़ते हुए उसकी नज़रें बार-बार धरती को देख रही थीं… जैसे वो खुद से कह रही हो — “अब यही ज़मीन तेरी दुनिया है।”
पांचों भाई अपनी-अपनी जगह पर बैठ चुके थे।
अधीराज और अधोर आगे की सीट पर विराजमान थे — दोनों ही कड़क चेहरे, किसी भी इमोशन से परे।
पीछे की सीट पर तीनों भाई—आर्यमान, अयांश और अनय पहले से बैठे हुए थे।
धीर्ति थोड़ी हिचकिचाई।
उसकी मासूम आंखों में सवाल था — "अब मैं कहां बैठूं?"
वो धीरे से पीछे झांकी, और फिर समझ गई…
तीनों सीटें भर चुकी थीं।
वो बस थोड़ा और पीछे हटने लगी कि तभी…
“बैठ जाओ मेरी गोद में…”
आर्यमान की आवाज़ आई।
नरम, मोहक, और थोड़ी सी शरारती।
धीर्ति का दिल जैसे ज़ोर से धड़का।
उसका चेहरा लज्जा से और लाल हो गया।
वो ना में सिर हिलाना चाह रही थी… पर जुबान से कुछ निकला नहीं।
“गांव वाले तो चले गए, लेकिन शर्म अब भी वैसी ही है?” — आर्यमान ने धीमी मुस्कान के साथ पूछा।
धीर्ति की उंगलियां अपनी कलाई की चूड़ियों से खेलने लगीं…
उसका मन जैसे ज़ोर से कह रहा था — “नहीं बैठ सकती… कैसे बैठूं…”
पर तभी…
“पूरी रात नहीं है हमारे पास… जल्दी बैठ!”
अधीराज की भारी, खौफनाक और क्रोध से भरी आवाज़ गूंजी।
एक पल को जैसे सब थम गया।
धीर्ति के नाज़ुक कंधे कांप उठे।
उसकी आंखों में पानी तैर आया…
उसकी सांसें तेज़ हुईं, और वो कांपते हुए आर्यमान की तरफ झुकी।
धीरे से, सिसकते हुए, वो उसकी गोद में बैठ गई।
आर्यमान ने अपनी बाहें उसके चारों ओर फैलाकर उसे थाम लिया,
पर नज़रों में कोई शरारत नहीं थी…
बस एक अजीब सी गहराई थी — जैसे वो खुद भी नहीं जानता, ये सब कितना सही है।
धीर्ति ने अपने होंठ दबा लिए, आंखें भींच लीं,
और खुद को एक और परंपरा के हवाले कर दिया…
अब वो सिर्फ राठौड़ भाइयों की पत्नी नहीं थी,
अब वो… राठौड़ हवेली की चौखट में बंधी एक परछाई थी...!!
क्रमशः.....
तोेे मेरे प्यारे रीडर्स पहला चैप्टर कैसा लगा! यह मेरी पहली novel है तो सपोर्ट करना मत भूलना! और मुझे सपोर्ट करन भी मत भूलना 😊 लाइक, शेयर, कमेंट और फॉलो कर दीजियेगा
धीर्ति आर्यमान की गोद में सिमटी हुई थी, जैसे कोई डरी-सहमी बिल्ली बारिश से बचने के लिए किसी की गोदी में आ छुपती हो। रात का वक़्त था, सड़कों पर सन्नाटा पसरा था, बस गाड़ी की लाइट्स और उसके टायरों की आवाज़ ही थी जो इस खामोशी को चीर रही थी।
गाड़ी के अंदर माहौल उतना ही भारी था जितना बाहर का मौसम ठंडा। धीर्ति की आंखों में डर अब भी साफ़ झलक रहा था, और आर्यमान ने उसे वैसे ही अपनी मज़बूत बाहों में समेट रखा था, जैसे किसी टूटी गुड़िया को संभाल रहा हो।
पर धीर्ति को आराम से बैठा नहीं जा रहा था। उसकी पोजिशन कुछ अजीब सी हो रही थी, वो थोड़ी सी हिली—बस हल्का सा—पर वो एक हलचल आर्यमान की धड़कनों को अनजाने ही तेज़ कर गई। उसके चेहरे पर जैसे एक अजीब सी बेचैनी तैर गई।
धीर्ति ने धीरे से ऊपर देखा—मासूम बड़ी-बड़ी आंखों में डर, उलझन और थोड़ी सी हैरानी—
"हमें… नीचे कुछ चुभ रहा है…" उसने मासूमियत से कहा, जैसे कोई बच्ची अपनी माँ से कोई छोटी सी शिकायत कर रही हो।
आर्यमान का चेहरा एक पल को बिल्कुल सख्त हो गया, फिर जैसे रंग बदलने लगा। उसके होंठों पर शब्द आते-आते रुक गए… और उसने नज़रे फेर लीं। उसका गला साफ़ करने की कोशिश नाकाम रही थी।
"धीर्ति… बैठो… सीधा…" उसकी आवाज़ में एक अजीब सी खींच थी।
और तभी सामने बैठा अनय फूट पड़ा—जोर-जोर से हँसी रोकते-रोकते पेट पकड़ कर हँसने लगा।
"अरे देवीजी… आपने तो आर्यमान को भस्म कर ही दिया!" अनय हँसी रोकते हुए बोला, "पहली बार देखा है कि हमारे भैया की जुबान भी बंद हो सकती है!"
धीर्ति कुछ समझ नहीं पाई। वो घबरा कर अनय को देखने लगी, फिर अपनी पोजिशन… और फिर मासूम सी नज़रों से आर्यमान की तरफ़ देखा।
"क्या हुआ?" धीर्ति की आवाज़ में वही भोलापन था, जिससे आर्यमान अब तक सबसे ज़्यादा डरता आया था।
आर्यमान ने बस अपना सिर पीछे टिकाया, आंखें बंद कर लीं और मन ही मन खुद को कोसने लगा—
'इस लड़की की मासूमियत ही तो सबसे ज़्यादा खतरनाक है…'
कुछ ही देर में उनकी गाड़ी रुकती है — एक आलीशान, शाही हवेली के सामने, जिसके हर पत्थर में रौब और रुतबा घुला हुआ था। हवेली इतनी बड़ी थी कि धीर्ति का मासूम मन सहम सा गया, और उसने तुरंत ही अपनी साड़ी का पल्लू सिर पर खींचते हुए घूंघट ओढ़ लिया।
धीर्ति की उंगलियाँ काँपीं...
उसने उम्मीद भरी नज़रों से आर्यमान के साथ-साथ बाकी भाइयों को देखा, लेकिन आर्यमान को छोड़कर बाकी चारों बिना कुछ कहे, बिना मुड़े, हवेली की ओर बढ़ गए।
धीर्ति की पलकों पर नमी उतर आई।
लेकिन उसी पल, आर्यमान ने उसका नाज़ुक हाथ अपने मजबूत हाथों में थाम लिया। धीर्ति ने उसकी ओर देखा — उसकी आँखों में सुकून था... और वादा भी।
" तू अकेली नहीं है," आर्यमान की आँखों ने कहा, "मैं हूँ तेरे साथ।"
धीरे-धीरे दोनों चौखट तक पहुँचे।
हवेली के दोनों तरफ़ भारी-भरकम पहरेदार खड़े थे, बंदूकें थामे, जैसे ये कोई किला हो — दुल्हन का नहीं, रानियों का स्वागत हो रहा हो। आसपास के लोग फुसफुसा रहे थे, पर दादी की मौजूदगी में किसी की हिम्मत नहीं थी ज़्यादा बोलने की।
तभी…
"रुकिए!"
एक भारी, रोबदार आवाज़ ने सन्नाटा तोड़ा।
दादीसा!
सफेद साड़ी में, माथे पर चमकता लाल टीका, चाँदी से सजे केश और हाथ में आरती की थाल लिए — जैसे रजवाड़ों की कोई रानी सामने खड़ी हो।
उन्होंने सबसे पहले अपने पाँचों पोतों को आरती उतारते हुए तिलक किया — लेकिन उनकी नजरें धीर्ति पर ही टिकी थीं।
"आज मेरी हवेली में पंचवधनियों की बहू ने पहला कदम रखा है," उनकी आवाज़ में गूंज थी, रौब था, लेकिन साथ ही एक अपनापन भी।
दादीसा ने धीर्ति के पैरों के आगे कलश और आलते से भरी थाल रख दी।
धीर्ति ने कांपते पैरो से कलश को गिराया — धीमे से — लेकिन आवाज़ गूंजी जैसे कोई ऐलान हुआ हो।
फिर वह अपने नर्म, नाजुक पैरो कोे थाल में मौजूद आलते में डुबोती है…
…और धीरे-धीरे… पांचों पतियों की मौजूदगी में उस शाही हवेली में कदम रखती है…
हर कदम पर लाल छापें बनती जाती हैं……जैसे कोई देवी अपने मंदिर में प्रवेश कर रही हो।
दादी इस वक़्त हॉल में अपने कमर पर हाथ रखे शाही ठाठ में बैठी थी, चेहरे पर वही सख्ती और हुकुम चलाने वाला तेवर। धीर्ति सहमी सी उनके सामने खड़ी थी, नज़रें ज़मीन में गड़ी हुई थीं।
“बहु! ” दादी की आवाज़ गूंजी, “अब तू इस खानदान की बहू है… और इस घर की परंपरा तुझे भी निभानी होगी।”
दादी की बातें सुन धीर्ति ने नज़रें उठाई,उसकी हल्की सी कांपती पलकें…और दिल ज़ोरों से धड़कने लगा।
“हफ्ते के पाँच दिन, तू हर एक पति के साथ रात गुजारेगी… और बाकी के दो दिन तू जिसे चाहे उसे चुन सकती है,”
यह सुनते ही हॉल में सन्नाटा छा गया।
दादी ने बात पूरी भी नहीं की थी कि धीर्ति की साँस जैसे अटक सी गई। आँखें हैरानी और डर से बड़ी हो गईं। उसके पैर वहीं जम से गए। कुछ कहने की कोशिश की, लेकिन ज़ुबान साथ छोड़ गई।
“और आज तेरी सुहागरात अधीराज के साथ होगी,” दादी ने आखिरी बात इस तरह कही जैसे कोई फैसला सुनाया हो। जिसे सुन धीर्ति की रूह तक काँप उठी।
तभी अधीराज, जो अब तक खामोश था, भारी आवाज़ में बोल पड़ा, “हमें आज ही मुंबई निकलना है, काम बहुत है…”
उसकी आवाज़ में वही रौब, वही बेरुखी थी जो धीर्ति को पहली मुलाक़ात से महसूस होती थी।
बाक़ी चारों भाइयों ने सिर हिलाकर सहमति जताई, मानो अधीराज की बात पत्थर की लकीर हो।
धीर्ति बस खड़ी रही, मासूम सी… अनजान सी… उसके चेहरे की मासूमियत किसी किताब के अधूरे पन्ने जैसी थी।
तभी दादी ने फिर से आदेश भरे लहज़े में कहा,
“ठीक है, लेकिन बहू को भी साथ ले जाओ… और अब मुझे जल्दी से परपोता दे दो!”
दादी के इस जुमले ने जैसे धीर्ति के कानों में आग भर दी। चेहरा शर्म से लाल पड़ गया, नज़रें झुक गईं… और होंठों पर मानो सैकड़ों सवाल ठिठक गए…
क्रमशः.....
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