मीरजा उद्दीन मिर्जा, लखनऊ के छोटे नवाब और अपनी मां के चश्मों चिराग जब लंदन से इंडिया लौटता हैं तो लखनऊ में ही उसकी मुलाकात एक साधारण सी लड़की मनमीत मिश्रा से होती हैं । अपने पिता नवाब साहब की हर बात सिर झुकाए मान लेने वाले मीरजा की आंखों में पह... मीरजा उद्दीन मिर्जा, लखनऊ के छोटे नवाब और अपनी मां के चश्मों चिराग जब लंदन से इंडिया लौटता हैं तो लखनऊ में ही उसकी मुलाकात एक साधारण सी लड़की मनमीत मिश्रा से होती हैं । अपने पिता नवाब साहब की हर बात सिर झुकाए मान लेने वाले मीरजा की आंखों में पहली बार मनमीत के लिए बगावत नजर आयेंगी लेकिन जब उसे पता चलेगा कि मनमीत तो अपनी जिंदगी में किसी और को लिख चुकी हैं तो क्या करेगा वह ? यह तुफान क्या मीरजा और मनमीत की जिंदगी को एक साथ जोड़ देगा या नवाबी मान मर्यादा हमेशा के लिए जुदा कर देगी दो दिलों को ? क्या हो अगर मनमीत , मीरजा की जिंदगी में शामिल होने से साफ इंकार कर दे ? जानने के लिए पढ़िये - " मीत ए मीरजा "
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1970 आज की सुबह नवाबों के शहर लखनऊ में कुछ अलग सी थी । आज फिर नवाबों के भी नवाब, नवाब आसफ़ उद्दीन मिर्जा, अपनी शानो-शौकत के साथ अपनी हवेली के दीवान-ए-खास में बैठे थे। हाथ में एक नक्काशीदार पानदान, सामने रखा फ़ारसी कढ़ाई वाला हुक्का, और चारों ओर बैठे ख़ास मेहमान। उनके चेहरे पर वही पुरानी नवाबी ठसक थी, जो उनकी रगों में पीढ़ियों से चली आ रही थी। हल्की गर्मी की रात में हवेली के खुले आंगन में फ़व्वारे चल रहे थे, और कहीं दूर से ठुमरी की धीमी आवाज़ कानों में पड़ रही थी । नवाब मिर्जा साहब हमेशा से ही अपने नवाबी ठाठ के साथ ही अपनी शेरों शायरी के लिए भी जाने जाते थे । हर वक्त उनकी हवेली में महफील जमीं रहती थी जहां वो सबके साथ बैठकर नयी ग़ज़लों का आनन्द लिया करते थे और आज फिर महफ़िल सजी थी । यह दौर वह दौर था जब लखनऊ से नवाबशाही हटाने के जुमले बड़ी चर्चा में थे लेकिन मिर्जा साहब सरकार के इस फैसले के विरोध में थे । खैर अब कुछ परिचय हो जाये …… नवाब आसफ़ उद्दीन मिर्जा, लखनऊ के नवाब अपने पिता नवाब मसीख मिर्जा की चौथी संतान थे । उनकी पहली दो संताने पैदा होने के साथ ही मर गयी और तीसरी उन्हें बेटी हुई और चौथी नवाब मिर्जा उनके लाड़ प्यार में कुछ ज्यादा ही बिगड़ गये । नवाब मिर्जा साहब को हर वो शौक था जो उस समय नवाबों की शान माना जाता था । शराब से लेकर कभी कभी तो उनकी रातें लखनऊ के सबसे बड़े कोठे , रानी बाई के कोठे पर भी गुजरती थी । जुबैदा मिर्जा , नवाबी शानौ शौकत रखने वाले मिर्जा साहब की इकलौती पत्नी जो अपनी सास के साथ जनाना महल में रहती थी । यह बचपन से नवाबी परम्पराओं की बेड़ियों में जकड़ी , एक कैद परींदे की तरह अपनी जिंदगी गुजार रही थी बस एक ही रहम था इन पर कि इनके शौहर ने दूसरी शादी नहीं की जो उस वक्त के नवाबों में बहुत आम था । …… नवाब मिर्जा ने अपने पानदान से पान का एक बीड़ा उठाया और मुंह में रखने के बाद एक शेर बोले "हयात लेके चले थे, जहाँ-ए-इश्क में हम, मगर ये क्या कि क़फ़स में गुज़ार दी हमने..." शेर के खत्म होते ही महफ़िल में बैठे मेहमानों ने तालियों से नवाब मिर्जा की तारीफ की। किसी ने "वाह-वाह" कहा, तो किसी ने "सुभानअल्लाह"। लेकिन जनाना महल से उसी तरफ आती बेगम ज़ुबैदा मिर्जा को यह शेर किसी कटाक्ष से कम नहीं लगा। कैद तो उन्होंने भी गुज़ारी थी, मगर इश्क का नाम तक न मिला। तभी उनके एक दोस्त ने कहां ….. मिर्जा साहब आप भाभीजां के इश्क में इस तरह कैद हैं लगता हैं बहुत खुबसूरत हैं वो ….. जिस पर मिर्जा साहब मुस्कराकर , “ मियां , यह हक नहीं हैं आपको कि हमारी बेगम पर यूं नजरें जमाने की गुस्ताखी करें आप ….और वैसे भी यह एक शेर हैं …. वो आगे कुछ बोलते तब तक जुबैदा बेगम भी अपनी कुछ सेविकाओं और कुछ महिलाओं के साथ वहां आ पधारी , उन्होंने लम्बा घूंघट कर रखा था फिर भी उनके आगे एक लम्बा पर्दा था और साथ ही गहनों और खुबसूरत लिबास से उनके शरीर का हर हिस्सा ढका था और वह पूरी जगह और दिवान ए ख़ास में सजी महफिल में एक बड़ा और मोटा सा पर्दा लगा था । वो एक कटाक्ष की तरह बोली … “ जनाब , इश्क हमेशा खुबसूरती से होता हैं और किसी हुस्न में वो बात नहीं जो नवाब मिर्जा को अपनी बंदिशों में कैद कर सके … आपके मिर्जा साहब बड़े रंगीन मिजाजी हैं और ऐसा कभी होता हैं क्या मियां …. भंवरा कभी एक फूल पर नहीं टिकता हैं जब वह एक फूल पर बैठ जायें तो उसका जी दूसरे फूल के लिए मचलता ही हैं । जारी हैं
वो एक कटाक्ष की तरह बोली … “ जनाब , इश्क हमेशा खुबसूरती से होता हैं और किसी हुस्न में वो बात नहीं जो नवाब मिर्जा को अपनी बंदिशों में कैद कर सके … आपके मिर्जा साहब बड़े रंगीन मिजाजी हैं और ऐसा कभी होता हैं क्या मियां …. भंवरा कभी एक फूल पर नहीं टिकता हैं जब वह एक फूल पर बैठ जायें तो उसका जी दूसरे फूल के लिए मचलता ही हैं । इतना कहते हुए वह जाकर एक जगह बैठ गयी जिसे महिलाओं के बैठने के लिएअलग से सजाया गया था। वहाँ पर्दे की ओट में रहते हुए भी उनकी आवाज़ में तल्ख़ी साफ झलक रही थी लेकिन उनकी बातों को मिर्जा साहब के अलावा कोई ना समझ सका । मिर्जा साहब ने हँसी में बात को टालने की कोशिश की, “अरे भई, हमारी बेगम भी क्या खूब ग़ज़ल कहती हैं! अब हमें भँवरा बना दिया, मगर भई, भँवरे की भी तो फितरत होती है, गुलों से मुहब्बत करने की!” जुबैदा बेगम ने धीरे से मुस्कुराकर कहा, “और गुलों की भी फितरत होती है, मुरझा जाने की, नवाब साहब… बस फर्क यह है कि कुछ फूल मुरझाने से पहले अपनी खुशबू किसी एक के नाम कर जाते हैं, और कुछ हर झोंके के साथ अपनी महक उड़ाते रहते हैं।” महफ़िल एक बार फिर जम चुकी थी , आज की यह महफ़िल साल में एक बार ही होती थी और वह मौका होता था शब ए बरात , जिस रात की महफ़िल में नवाबों की बैठक में उनकी बेगम को भी आने की आजादी थी बस शर्तें वह इन महफ़िलों का हिस्सा , पर्दे के पीछे से ही होती थी । जुबैदा बेगम को शुरू से ही ग़ज़लें लिखने का शौक रहा था और जनाना महल में उनकी भी महफ़िल होती थी और यह बात नवाब साहब अच्छे से जानते थे नवाब मिर्जा साहब बात का रुख मोड़ने के लहजे में बोले बेगम जब आप इस महफिल में हैं ही तो कुछ जुमले आप भी अर्ज कीजिए …….. जिस पर जुबैदा बेगम मुस्कराते हुए बोली , “ अर्ज किया हैं …..” जिस पर पूरी महफ़िल बोल उठी , “ इरशाद …. इरशाद …” जुबैदा बेगम आगे बोली , "इश्क़ आया था बड़े अदब से दर पे मेरे, मगर मैं ख़ामोश रहा, कोई वजह तो होगी..." हवा ने कहकहे लगाए, चाँद ने तंज़ कसा, कि अब भी दिल में उजाला है, कोई दुआ तो होगी..." पूरी महफ़िल में वाह वाह गुंज उठी और जुबैदा बेगम ने नया शेर पेश किया था "ये संगमरमर की दीवारें, ये झूमर, ये रौशनियां, किसी की क़ैद को महल का नाम दे दिया गया..." जो हक़ था कभी ख़्वाबों का, वो क़िस्सों में खो गया, इश्क़ की सदा को भी फ़रमान कर दिया गया..." नवाब साहब भी उनके इस शेर पर अपना नया जुमला पेश किया था , “ "क़िस्मत की स्याही से तक़दीर लिखी जाती है, हम ना होते तो कहानी कहीं और जा बसती… ये जो रौशन हैं दिये, ये जो महफ़िल में रंग हैं, कभी सोचो, ये उजाले किसके दम से बरक़रार हैं…” जिस पर पर्दे के पीछे से ही जुबैदा बेगम का नया कटाक्ष आया था , "रक़्स करती रही परछाइयाँ शम्स-ओ-कमर में, पर हक़ीक़त को सदा ही पर्दानशीं कर दिया गया…” इसी तरह यह महफ़िल चलती रही , महफ़िल अपने चरम पर थी, हर कोई शेर-ओ-शायरी के इस दिलचस्प मुकाबले का लुत्फ़ उठा रहा था, मगर पर्दे के पीछे बैठे जुबैदा बेगम और सामने बैठे नवाब मिर्ज़ा साहब के बीच जो अल्फ़ाज़ की जंग छिड़ी थी, उसे बस वही दोनों महसूस कर सकते थे। नवाब मिर्ज़ा साहब जुबैदा बेगम के कटाक्ष को हल्के में नहीं ले सकते थे। वह जानते थे कि यह महज़ शेर नहीं, बल्कि उनके जीवन की हकीकत पर किया गया वार था। उनके चेहरे पर हल्की मुस्कान आई, उन्होंने अपनी अंगूठी से खेलते हुए गहरी आवाज़ में शेर पढ़ा— "गुलों की चाहत तो सबको होती है, मगर हर शाख पे गुलाब नहीं खिलता…" महफ़िल में एक बार फिर वाह-वाह की आवाज़ गूंज उठी, मगर पर्दे के पीछे बैठीं जुबैदा बेगम के होंठों पर हल्की मुस्कान थी, जैसे वह पहले से इस जवाब के लिए तैयार थीं। उन्होंने नज़ाकत से अपनी उंगलियों में रेशमी दुपट्टा लपेटा और धीरे से कहा— "जिसे मौसम बदलने की आदत हो, वो शाख भी तो महकती नहीं देखी…" महफ़िल में बैठे लोग अब तक इसे महज़ एक गज़ल का हिस्सा समझ रहे थे, मगर नवाब मिर्ज़ा साहब और जुबैदा बेगम दोनों जानते थे कि यह सिर्फ़ शेर नहीं, बल्कि तलवार की एक धार थी, जो बड़े नज़ाकत से चलाई गई थी। नवाब मिर्ज़ा साहब ने अपनी नफीस शेरवानी की बाजू ऊपर की, जैसे अब यह जंग और दिलचस्प होने वाली थी। उन्होंने गहरे लहज़े में कहा— "सुनते हैं गुलशन में अब भी बहार बाकी है, मगर कुछ फूल बेज़ार से नज़र आते हैं…” यह महफ़िल इसी तरह सजती लेकिन नवाब साहब खड़े होकर बोले , “हमारे सभी मेहमानों का शुक्रिया, कि आज की इस शब-ए-बरात की महफ़िल में आपने हमारे साथ इस बेहतरीन शेर-ओ-शायरी का लुत्फ़ उठाया। यह रात ख़ास है, इबादत की है, और आज की इस ख़ूबसूरत महफ़िल को यहीं खत्म करना बेहतर होगा।" यह कहकर उन्होंने इशारे से दीवान-ए-ख़ास के सेवकों को संकेत दिया कि अब महफ़िल को समेटा जाए। महफ़िल में बैठे मेहमानों ने थोड़ी मायूसी से एक-दूसरे को देखा क्योंकि अब इस आनंद के लिए उनके हिस्से लम्बा इंतजार था । खैर कुछ वक्त में महफिल बिखर गयी लेकिन पर्दे के पीछे जुबैदा बेगम के चेहरे पर एक तंज मुस्कान थी । आखिर शब - ए - बारात के दिन उनको मौका मिलता था यूं पुरुषों की महफ़िल में शरीक होने का लेकिन ऐसा पहली बार हुआ था जब उन्होंने अपने जुमलों में यूं अपने ही शौहर नवाब साहब पर कटाक्ष रचा था और उनके शब्दों के इस खेल को नवाब साहब के सिवा और कोई समझ भी नहीं पाया । वह जानती थी आज के दिन ही उसे बोलने की आजादी थी और जिंदगी में बढ़ती घूटन के बीच आज का यह उत्सव उनके दिल को एक ठंडक पहुंचा गया था जो उन्हें कुछ पल का सुकून दे गया । वो जनाना महल लौट आयी लेकिन आज एक बात दिलचस्प हुई। उनकी खास सेविका रुपल , जो लगभग उन्हीं के उम्र की थी वह आयने के सामने बैठी जुबैदा बेगम के गहने उतारते हुए बोली , “ बेगम साहिबा , आज तो आपने बहुत दिलचस्पी से अपने शेर प्रस्तुत किये । आपकी आवाज सच में मन मौह लेती हैं जिस पर आयने में देख अपने झुमके उतारती जुबैदा बेगम कुछ लफ्ज़ बोल ही उठी …. "लफ्ज़ों में छुपा लिया था जो हाल-ए-दिल, हर कोई वाह-वाह कर गुज़र गया... हम समझे थे कोई पढ़ेगा हमें, पर हर शख़्स बस सफ़्हा पलट गया…” रुपल ने उनकी यह ग़ज़ल सुनी, तो उसकी आंखों में हल्की नमी तैर गई। वह जुबैदा बेगम को बरसों से जानती थी, उनकी खामोशियां पढ़ना सीख चुकी थी, लेकिन आज पहली बार बेगम ने अपने दिल की बात खुद कह दी थी। उसने हल्की आवाज़ में कहा, "बेगम साहिबा, आप हमेशा अपने जज़्बात इन सफ़्हों में ही क़ैद रखेंगी क्या?" जुबैदा बेगम ने खुद को शीशे में देखते हुए अपनी बिंदी ठीक की, फिर मुस्कुरा कर बोली, "कुछ क़ैदें उम्र भर साथ रहती हैं, रुपल। नवाब साहब की महफ़िलों में जितनी चमक होती है, हमारी दुनिया उतनी ही स्याह है। औरतों को अपने ग़म सजाने की इजाज़त होती है, मिटाने की नहीं।" रुपल ने धीरे से उनके हाथ पर अपना हाथ रखा, "पर बेगम साहिबा, क्या यह महज़ एक शेर-ओ-शायरी का खेल था, या आज सच में आपने नवाब साहब से हिसाब बराबर किया?" जुबैदा बेगम ने अपने लंबे नाखूनों से ज़रदोज़ी वाले दुपट्टे का किनारा छूते हुए गहरी सांस ली। "आज पहली बार नवाब साहब को अहसास हुआ होगा कि गुलशन में एक फूल ऐसा भी है, जो अपनी मर्ज़ी से नहीं महकता... जिसे जबरदस्ती एक दीवार के पीछे रख दिया गया है।" रुपल ने हल्की मुस्कान के साथ सिर झुका लिया, "आपका आज का हर लफ्ज़, हर कटाक्ष, हर शेर... ये सब नवाब साहब ने महसूस किए होंगे, बेगम साहिबा। पहली बार वो सोच रहे होंगे कि वो भंवरा नहीं, शायद एक बंदी हैं।" जुबैदा बेगम हल्के से हंसी, लेकिन उनकी हंसी में दर्द का एक साया था। "अगर वो सच में महसूस कर पाते, तो शायद इस महफ़िल के बाद वो हमें रोकते, हमारी तरफ एक बार देखते। मगर देखो, हम जनाना महल लौट आए हैं, और वो अपनी महफ़िल में तन्हा बैठे होंगे, फिर किसी और ग़ज़ल की तलाश में।" रुपल ने धीरे से कहा, "शायद पहली बार नवाब साहब को यह समझ आया होगा कि जुबैदा मिर्ज़ा सिर्फ़ उनकी बेगम नहीं, एक शायरा भी हैं, जिनकी महफ़िल में अब तल्ख़ी आने लगी है।" जुबैदा बेगम ने अपना झुमका उतारते हुए हल्की आवाज़ में कहा— "ग़ुलाम थे, सो ग़ुलामी का शौक़ भी रख लिया, मगर हमारी बग़ावत भी लाजवाब निकली..." रुपल ने मुस्कुराकर कहा, "वाह, बेगम साहिबा!" लेकिन जुबैदा बेगम की आंखों में अब कोई शेर नहीं था, बस एक गहरी सोच थी, जो शायद नवाब मिर्ज़ा के दिल तक पहुंच गई थी । जारी हैं ...... स्टोरी को कंटिन्यू जरुर पढियेगा । जहां प्रेम के अलग ही मायने आपको देखने को मिलेगे
रात की यह महफ़िल बीत गयी थी और सुबह का सुरज हवेली में रोशनी फैला चुका था । जुबैदा बेगम हमेशा की तरह नवाबी लिबास में सजकर तैयार थी । जनाना महल में उन्हें कुछ चीजों की आजादी थी जैसे संगीत कला हो , लेखन कला और नृत्य कला और इन्हीं में उन्होंने अपनी जिंदगी खोज ली थी उनका मानना था कि जब बगावत का साहस ना हो तो वक्त के अनुसार ख़ुदको ढाल लो …. थोड़ी तकलीफ़ कम ही होगी । और शायद रियाज करना , आज उनका एक बार फिर दरीया बना था .. दर्द छूपाने का ….. बहुत कुछ मिला उन्हें नवाबों मिर्जा साहब की नवाबरानी बनकर … पर वो नहीं जिसकी एक बेगम के रुप में उनको इच्छा थी … और वक्त भी उनके इन नासूर जख्मों पर मरहम ना लगा पाया … तड़प थी , बैचेनी थी और दर्द का एक साया भी उनके होंठ एक नज़्म गुनगुना रहे थे और साथ ही उनके साथ बैठी कुछ सेविकाएं.. उस रियाज कक्ष में धून के कुछ तार छेड़ रही थी । सबकुछ तो था उनके पास … पैर दबाने से लेकर बाल सुलझाने तक , गहने पहनाने से लेकर रुप संवारने तक …हर काम के लिए सेविकाएं… पर वह नहीं जिसकी चाहत थी .. ना शौहर का प्यार ना खुली हवा .. इन सब शानो-शौकत के बदले उन्हें कैद में रहने की सजा मिली थी और वो काट भी रहीं थीं बस एक ही शख्स के लिए और वो कौन … मीरजा उद्दीन मिर्जा … उनका चश्मों चिराग वो चाँदनी में लिपटा इक ख़्वाब थी, नवाबों के महलों की महकती किताब थी। गजरा भी शरमाए जिसकी जुल्फ़ों में, सुनहरी चूड़ियों में एक मीठी साज़ थी। नज़ाकत उसकी पहचान थी रूह में तहज़ीब का मौसम बसा था, हर लफ़्ज़ में जैसे कोई नग़मा बसा था। परदे की आड़ में जहाँ कैद थी वो, फिर भी हर महफ़िल की शान थी। इश्क़ जो बंदिशों में उलझा रहा महराबों के साए में चुपचाप बैठी, दिल में मोहब्बत की लौ को समेटी। बेखबर थी वो या मजबूर थी, इश्क़ की आग में मगर चुप रही। सियासत के साए, वफ़ा की क़समें हाथों की मेंहदी में तहरीरें थीं, तक़दीर में शायद ज़ंजीरें थीं। शमशीरों के नीचे मोहब्बत दबी, सियासत ने फिर से बाज़ी जमी। एक ख्वाहिश जो अधूरी रही जुबैदा बेगम की वो मासूम आँखें, आज भी तारीख़ में सिसकती दिखें। ख़ामोश दरो-दीवार गवाही देंगे, कि इश्क़ की राहों में कांटे ही मिलेंगे। उनकी आवाज में एक अनोखी कशिश थी लेकिन यह सिर्फ जनाना महल में ही कैद रह गयी थी । कुछ दिन उन्हें खुलकर जीने का मौका मिला था क्योंकि उनकी बड़ी बेगम ( मिर्जा साहब की अम्मी ) अभी मक्का , मदिना की यात्रा के लिए गयी थी । खैर वो इसे जारी रखती तब तक रुपल उछलते हुए वहां आयी और खुशी से चिल्लायी ,“ बैगम साहिबा एक खुशखबरी हैं । आप सुनेगी तो दिल बाग बाग हो जायेगा । ” जिस पर सभी सेविकाओं को रुकने का आदेश देकर वह खड़े होते हुए मुस्कराते हुए पीछे पलटी और बोली , “ चेहरे पर इतनी रौनक , लगता हैं बहुत बड़ी खुशी हैं । ” जिस पर रुपल , “ जी बेगम साहिबा , छोटे नवाब आने वाले इतवार को लंदन से हमेशा की लिए नवाब हवेली आ रहे हैं । ” जुबैदा बेगम (मुस्कुराते हुए, पर आवाज़ में हल्का सा कंपन) – "चेहरे पर इतनी रौनक, लगता है कोई बड़ी खुशी है, रुपल?" रुपल (आंखों में चमक लिए, उत्साहित स्वर में) – "जी बेगम साहिबा! छोटे नवाब... मीरजा उद्दीन मिर्जा साहब... इस इतवार को हमेशा के लिए नवाब हवेली लौट रहे हैं!" जुबैदा बेगम के होंठों पर मुस्कान ठहर गई, लेकिन उनकी आँखों में एक पल के लिए नमी तैर गई। ये खबर उनके दिल के सबसे करीब थी, जिस पल का उन्हें बरसों से इंतजार था। आज सुबह ही तो उन्होंने अपने खुदा से दुआ मांगी थी कि उनका मीरजा जल्दी ही अपनी हवेली लौट आये । आंखें तरस जो गयी थी अपनी औलाद के सलोने मुखड़े के दीदार के लिए लेकिन यह वह दर्द था जिसे वह किसी के सामने जाहिर नहीं होने देती थी । बहुत मुश्किल था इतने सालों से ख़ुदको संभालना ….. सही में बहुत मुश्किल से काटा था यह वक्त उन्होंने और अब शायद नजरों का इंतजार मुमकिन हो पाये । जुबैदा बेगम (धीरे से, खुद से) – "मेरा चश्म-ओ-चिराग... अब घर लौट रहा है..." उन्होंने अपनी कंपकंपाती उंगलियों से हल्के से अपनी आंखों के किनारे छुए, जैसे एहसास कर रही हों कि ये कोई सपना तो नहीं। रुपल जो अपनी बेगम साहिबा की स्थति समझ रही थी वह (खुश होकर आगे बढ़ती हुई) – "बेगम साहिबा, अब तो पूरे महल में रौनक लौट आएगी! आप देखिएगा, छोटे नवाब साहब आएंगे, तो ये वीरान हवेली फिर से गुलज़ार हो जाएगी।" जुबैदा बेगम (गहरी सांस लेते हुए) – "हाँ, अब इस हवेली में फिर से क़दमों की आहट गूंजेगी... मेरे मीरजा की आहट। जिस आहट का इंतजार हमें बरसों से था ऋ " वो पल भर को खामोश हो गईं, जैसे अतीत के उन लम्हों में लौट गई हों जब वो अपने बेटे को अपने हाथों से विदा कर रही थीं। उस वक्त उनकी आंखों में नमी थी लेकिन होंठों पर मुस्कराइट इस कदर थी जैसे ख़ुद को एतबार दिला रही हों कि उनका मीरज़ा एक नेक और रास्तगो इंसान बनकर लौटेगा, और उस वक़्त उनसे ज़्यादा मस्रूर कोई न होगा। रुपल (मुस्कुराते हुए, हल्के मज़ाकिया लहजे में) – "बेगम साहिबा, अब तो आपको बस ये सोचना है कि छोटे नवाब के स्वागत में कौन-सा जोड़ा पहनेंगी!" जुबैदा बेगम ने अपनी नर्म उंगलियों से मोतियों की माला को छुआ, जो उनके गले में सजी थी, और धीमे स्वर में बोलीं। जुबैदा बेगम (हल्की मुस्कान के साथ, मगर सोच में डूबी हुई) – "जोड़ा तो पहन लूंगी, रुपल… लेकिन ये दिल कैसे संभालूं? पाँच साल गुज़र गए… मेरा मीरजा कैसा लगेगा अब? वो अब भी वही मासूम बच्चा होगा, या वक़्त ने उसे बदल दिया होगा? कैसी सूरत होगी उसकी … यह सवाल बहुत सता रहा हैं रुपल कि अगर वक्त। के साथ हमारे मीरजा के लिए हमारी मुहब्बत के मायने बदल गये … अगर दूसरे मुल्क जाकर हमारा मासूम मीरजा बदल गया तो कैसे जीयेंगे हम … हमारा आखिरी सहारा हैं हमारा मीरजा … कैसे सभालेगे हम खुदको … अगर उसे हमारी गोद से ज्यादा स्नेह नवाबों के तख्त से रहा तो …" रुपल (बेगम साहिबा की आंखों में उमड़ते जज़्बात को देखकर थोड़ा भावुक होते हुए, मगर उन्हें तसल्ली देने के लिए उत्साह बनाए रखते हुए) – "बेगम साहिबा, ऐसा मत कहिए... छोटे नवाब साहब आप ही की ममता की छांव में पले-बढ़े हैं। भले ही वो किसी और मुल्क में रहे हों, लेकिन उनका दिल तो यहीं बसा है, इस हवेली में... आपसे दूर होकर भी वो आप ही के क़रीब रहे हैं।" (जुबैदा बेगम की आंखों में हल्की नमी झलक आई, पर होंठों पर हल्की मुस्कान भी थी, जैसे रुपल की बातों ने उन्हें थोड़ी राहत दी हो।) जुबैदा बेगम (धीमे स्वर में, खुद से) – "कभी-कभी फ़ासले सिर्फ़ जिस्म के होते हैं, दिलों के नहीं… लेकिन क्या वक़्त सच में दिलों को जुदा नहीं करता, रुपल?" रुपल (हौले से मुस्कराते हुए) – "अगर मोहब्बत सच्ची हो तो वक़्त भी बेबस हो जाता है, बेगम साहिबा। आप देखिएगा, छोटे नवाब साहब जब हवेली में कदम रखेंगे, तो सबसे पहले उनकी निगाहें आपको ही ढूंढेंगी।" जुबैदा बेगम ने गहरी सांस ली, जैसे खुद को यकीन दिला रही हों। फिर, अपने चेहरे को हल्के से थामकर, उन्होंने रुपल की तरफ़ देखा और मुस्कुराईं, लेकिन उनकी मुस्कान में अब भी इंतज़ार की कसक थी।) जुबैदा बेगम (हल्की मुस्कान के साथ) – "अगर वो हमें पहले की तरह गले लगा ले, तो शायद हमारी रूह को सुकून मिल जाएगा, रुपल…" (रुपल ने आगे बढ़कर एक गुलाबी शाल उठाई और उसे जुबैदा बेगम के कंधों पर रख दिया, जैसे उन्हें स्नेह और सुरक्षा का एहसास करा रही हो। रुपल (हौसला देते हुए) – "बेगम साहिबा, ममता का रिश्ता वक्त का मोहताज नहीं होता। आप देखिएगा, जैसे ही वो हवेली में कदम रखेंगे, सब कुछ पहले जैसा महसूस होगा। आपकी एक झलक से ही वो आपके आंचल की खुशबू पहचान लेंगे।" (जुबैदा बेगम ने हल्के से सिर हिलाया, लेकिन उनके चेहरे पर संतोष और उलझन का संगम था। वो अपनी जगह से उठीं और धीमे कदमों से झरोखे तक जा पहुँचीं, जहाँ से हवेली का मुख्य आंगन दिखता था।) जुबैदा बेगम (आसमान की तरफ देखते हुए, खुद से बुदबुदाती हुईं) – "या अल्लाह… मेरे मीरजा को सलामत रखना, उसे दुनिया की ठोकरें मत देना… और अगर उसने बदल भी लिया हो खुद को, तो उसकी माँ का प्यार उसकी रूह तक पहुँचा देना।" (रुपल ने झरोखे के पास खड़ी अपनी बेगम को देखा और हल्के से मुस्कुराई। वो जानती थी कि ये इंतज़ार आसान नहीं था, मगर अब हवेली के वीरान दरो-दीवार फिर से आबाद होने वाली थी जारी हैं ..... मीरजा साहब लंदन से भारत लौट रहे हैं तो कैसा होगा आगे का यह सफर ? मनमीत और मीरजा की मुलाकात कैसी होगी ? जानने के लिए पढ़ते हिये - मीत ए मीरजा
लंदन की सड़कों पर आज भी वही पुरानी चहल पहल थी लेकिन इन सब से दूर एक फ्लैट में कुछ शांति सी पसरी थी । एक लडका जिसका नाम मयंक मिश्रा था वह दुःखी होकर , " क्या तुम थोडे दिन और नहीं रुक सकते हो " जिस पर उसका दोस्त मीरजा उद्दीन मिर्जा हंसते हुए , " हम्म , बात तो सही हैं आपकी लेकिन फिर कुछ दिन बाद क्या ? आप खुद भी जानते हैं मयंक कि आप हमे ज्यादा दिन तक नहीं रोक सकते हैं फिर यह जिद्द .... हमे कभी भी किसी से इतना लगाव नहीं रखना चाहिए , मयंक कि उससे दूर होना मुश्किल हो जाये । " मयंक दुःखी होकर , " तुम्हें ऐसा क्यो लगता हैं मीर ? जानता हूं कि तुम्हारा दिल पत्थर का हैं लेकिन मैं तो बहुत नरमदिल हूं ना और इस वक्त मैं बहुत दुःखी हूं तो क्या तुम मेरे लिए यही नहीं रुक सकते हैं । तुम्हें यही पर भी अच्छी जाॅब मिल सकती हैं । क्या तुम इतने मजबूर हो कि तुम्हें इंडिया लौटना ही होगा । " मीरजा अपने भाव छूपाते हुए , " हम्म , लेकिन हर किसी की कुछ मजबूरीया होती हैं । आप इंडिया नहीं लौट सकते क्योंकि आपको अपने परिवार को अच्छी जिंदगी देनी हैं और हम यहां नहीं रुक सकते हैं क्योंकि हमें अपने अब्बू की जिम्मेदारीया संभालनी हैं और ....." जिस पर मयंक बैचेनी से , " और क्या ....." मीरजा अपनी पैकिंग रोकते हुए कुछ सोचकर , " हमारी अम्मी ...... उनकी आंखें हमारे इंतजार में अपने कमरे की चौखट पर ही टिकी होगी । हम एक दिन भी देर से पहुंचे तो वो अपनी जान दे देगी मयंक ....." मयंक , " तुम मुझसे मिलने आओगे ।" मीरजा , " हम्म , वक्त मिला तो जरुर आयेगे लेकिन एक बात सच कहे .... इन अनजान लोगों के बीच , एक आप ही तो थे जो हमें अपनेपन का एहसास कराते रहे हैं । आप को हम कभी नहीं भूलेगे और हमेशा आपसे बात करते रहेंगे लेकिन आपको हमसे वादा करना होगा कि आप जब भी इंडिया लौटे हमसे जरुर मिलेगे । " मयंक , " ठीक हैं , मैं तुमसे बात करता रहूंगा लेकिन अभी अपनी बहिन से बात करके आता हूं । बहुत दिनों बाद आज अभी उसका काॅल आने वाला हैं । " मीरजा , " ठीक हैं , हम जब तक पैकिंग कर लेते हैं । " मयंक जाते हुए खुद से , " तुम बहुत साफदिल हो मीरजा काश मैं , तुम्हे अपनी बहन के लिए चुन पाता लेकिन धर्म की गहरी खाई हमारे ख्वाब को अभी पुरा नहीं होने दे सकती हैं । " इधर मीरजा खुद से ही , " हम बहुत जल्द आपके सामने होगे अम्मी और वादा हैं हमारा आपसे हम सब कुछ बदलेगे और शुरुआत खुदके ही महल से करेगे । " " फिर सिर झटककर, " हमे माफ करना मयंक पर शायद ही अब कभी तुमसे मुलाकात होगी क्योंकि जिस जगह से हमारे तालुक्कात हैं वह जगह कभी हमारी दोस्ती को नहीं अपना सकती हैं और आपको मरते हुए देखने से अच्छा हैं हम आपको खोकर आपकी दोस्ती के लिए तडपे । वैसे भी नवाबी खानदान में पैदा होने से ही हमारे ऊपर बेड़ियां जकडी जा चुकी हैं । बस खुदा एक रहमत बरसाये हम पर कि आपकी हर ख्वाहिश पुरी हो । " लखनऊ शहर रानी बाई का कोठा , आज हमेशा की तरह ही चमचमाती लाइटों से जगमगा रहा था और रानी बाई कोठे के चोक में अपने लोहे के झूले पर बिछी गद्दी पर बैठी , आज फिर किसी तवायफ का मोलभाव कर रही थी । रानी बाई , " देखो सेठ ! जरीन हमारे कोठे की सबसे खुबसूरत और कमसिन तवायफ हैं । उम्र चाहे पचास पार हो लेकिन उसके लिए मर्दों की कमी नहीं हैं । इसलिए उसके साथ रात बिताने के लिए तुम्हें किमत तो चुकानी होगी और फिर ...... तालाब अपने पिनी की एक बूंद देने से भी कतराने लगे तो प्यासे का क्या होगा ? " सेठ कुछ सोचकर , " ठीक हैं रानी बाई लेकिन हमारी सेवा में कोई कमी नहीं रहनी चाहिए । " रानी बाई , " कोठे पर आकर ऐसी बात नहीं किया करते हैं सेठ ! " इधर चोक के ऊपर ही एक कमरे की खिड़की पर एक औरत सीधे पल्ले की जगमगाती साडी पहने खडी थी । उम्र से लगभग पचास साल के करीब होगी लेकिन शरीर से तीस की ही लग रही थी । खुबसूरती ऐसी कि चांद भी शरमा जाये लेकिन आंखों में घोर उदासी लिये वह खिड़की के बाहर लखनऊ की तंग गलियों को निहार रही थी । जिनमें चहल पहल अक्सर रात के अंधेरों में ही दिखती थी । दिन के उजालों में यहां सन्नाटा पसरा रहता था । तभी एक उसी के उम्र की महिला वहां आते हुए , " जरीन , रानी बाई आज फिर तुम्हारी बोली लगाने को हैं । मुझे लगता हैं कि अब तुम्हारी उम्र इन सब के लिए नहीं रही हैं ।बिमार शरीर कब तक साथ देगा , तुम्हें कभी तो अपने लिए आवाज उठानी चाहिए । तुम उन्हें मना क्यों नहीं करती हो । " जरीन मुस्कुराकर खिड़की से बाहर देखते हुए— "उम्र की चादर में जो सिलवटें पड़ी हैं, वो किस्मत के धागों से बुनी गई हैं । मना कर भी दूं तो क्या फर्क पड़ेगा, यहां औरतों की बोली सदियों से लगी है ।" वह औरत आह भरते हुए बोली, "लेकिन जरीन, तुम्हारे जैसी औरत इस कोठे की जंजीरों में क्यों बंधी है? तुम तो बहुत हिम्मती थी । " जरीन , " इसमें कुछ अजीब तो नहीं ......" वह औरत "हर किसी के लिए लड़ जाने वाली जरीन अगर खुद पर बात आने पर चुप्पी साध ले तो बात कुछ तो हैं । " जरीन हंसकर , " लड़कर जाउंगी कहां । तवायफ मर्द के बिस्तर पर सजते हुए ही अच्छी लगती हैं मरियम । अगर वह खुदके अधिकार मांगने लगे तो शरीर और होठ के साथ रुह कुचलने में वक्त नहीं लगता हैं । तुम्हें क्या लगता हैं सबकुछ आसान होता हैं .... नहीं बिल्कुल नहीं .... मान लो लड़ भी गयी और किसी तरह यहां से आजाद भी हो गयी लेकिन फिर क्या ... यहां हर रात सिर्फ एक मर्द होता हैं और बाहर एक साथ सौ भेड़िए होगे जिन्हें हमारे शरीर से नहीं खुदकी हवश पूरी करने से मतलब होगा । प्यासे के सामने समुद्र हो तो भी वह प्यास नहीं बुझा सकता हैं क्योंकि समुद्र का खारापन सहने की क्षमता नहीं होती हैं उसमे ....और अब हयमे भी नहीं हैं और कुछ सहने की ..... वैसा भी जिंदगी बची ही कितनी हैं , कुछ पल सुकून के हो तो ही काफी हैं पर मुझे नहीं लगता कि वो भी कभी नसीब होगे ....." वह कुछ देरी शांत रही और फिर खिडकी के पास की नक्काशी को अपने ठंडे हाथों से छूते हुए बोली , - "मुकद्दर के ताले की चाबी नहीं होती, जिस्म की कैद में रूह आज़ाद नहीं होती । हसरतें भी बिकती हैं इस बाज़ार में, हर तवायफ की कोई फरियाद नहीं होती ।" वो औरत आखिरी कोशिश में जरीन की ओर देखते हुए बोली, "लेकिन अब तो वक्त आ गया है जरीन, तुम्हें इस कैद से निकलना ही होगा। कब तक इस बेदर्द दुनिया की सौदेबाजी सहती रहोगी?" जरीन हल्के से हंसी, मगर उसकी हंसी में दर्द घुला था । "कैद से निकलूं भी तो जाऊं कहां, जहां जाऊंगी वही तमाशा बना देंगे । इस कोठे से बाहर भी एक बाजार है, लोग खरीदेंगे, मगर दाम छुपा देंगे ।" वो औरत कुछ कहने ही वाली थी कि तभी नीचे से रानी बाई की आवाज आई— "जरीन! तैयार रहना, आज रात तुम्हारा नया ग्राहक आने वाला है।" जरीन ने गहरी सांस ली और खिड़की से बाहर देखा— लखनऊ की वो तंग गलियां, जो दिन में खामोश रहती थीं, रात होते ही रौनक से भर जाती थीं। "इक रोज़ सबकुछ छोड़ जाऊंगी, इक रोज़ इस गली से दूर चली जाऊंगी । मगर जब तक सांसें बाकी हैं, इस शहर की किस्मत बनकर जी जाऊंगी ।" इधर सब कुछ शांत सा था ऐसा लग रहा था लेकिन यह तुफान से पहले की शांति थी । लखनऊ के साधारण सी सड़क के चौक पर एक लडकी साधारण सा सलवार कमीज़ पहने खड़ी थी । ऐसा लग रहा था कि वो किसी का इंतजार कर रही हैं । कुछ देर बाद एक लडकी हांपते हुए वहा आती हैं और चिल्लाते हुए , " मनमीत मिश्रा , अगर तुमने ऐसा करने की सोची भी तो मैं सब कुछ तबाह कर दूंगी । तुम्हारी जिंदगी में बहुत भूचाल होगा । मैं कभी तुम्हारे इस फैसले में साथ खड़े होने वाली नहीं हूं ।" मनमीत अपनी मोहक मुस्कान चेहरे पर सजाये एक पल को आसमान को देखती हैं और फिर मुस्कराते हुए , " सिमरन , साथ तो तुम्हें देना ही होगा ...और एक बात ... हम आसमान में उड़ने के ख्वाब देखते हैं क्योंकि अपने ऊपर इतना तो विश्वास हैं हमें कि यह आसमान हमें कभी गिराने वाला नहीं हैं " जारी हैं ... ... अगला चैप्टर मीरजा और मीत के नाम होगा ...
तुम ऐसा कुछ नहीं करने वाली मनमीत...... जिस पर मनमीत ने कहां था कि .." राह में कांटे बहुत मिलेगे पार तो करना होगा जिंदगी इतनी आसान नहीं होती हैं हर दांव जीतना तो होगा " सिमरन, " तुम्हें क्या लगता हैं वकालत करने के बाद तुम सबकी सोच बदल सकती है तो ऐसा बिल्कुल नहीं हैं क्योंकि कुछ लोगों को सजा दिलवाने से कुछ नहीं होगा मनमीत , इस राह में कांटे नहीं हैं लोगों के शब्द हैं जो तुम्हारा जीना मुश्किल कर देगे । याद हो तो अकेली हो ... इस सफर में कोई तुम्हारे साथ नहीं खड़ा हैं और जिन लोगों के साथ कोई खड़ा नहीं होता ...वो लोग बहुत बुरी तरह गिरते हैं और जहां तुम खडी हो और जिस सफर पर तुम आगे बढने वाली हो वहां से मुझे तुम्हारी किस्मत हो या तकदीर सबकुछ साफ नजर आती हैं और सब कुछ जानते बुझते मैं तुम्हें खुशी के साथ इस दलदल में नहीं दकेल सकती हूं । "" मनमीत ने हंसते हुए आसमान में देखा पहले तो फिर उस चोक पर से जहां अलग अलग दिशाओं में चार रास्ते थे उन सब पर चलती कुछ इक्का दुक्का गाड़ियों के साथ कुछ चलते तांगे और बैलगाड़ीयां फिर उसकी नजरे साइड की कुछ दुकानों पर गयी जहां कचौड़ी के साथ गर्मागर्म जलेबियां निकल रही थी । वहां पर कुछ लोगों की भीड़ थी और फिर उसकी नजरे सिमरन पर गयी । कुछ देर तो वह कुछ नहीं बोली फिर कुछ शांत और गंभीर भाव से बोली , " जिंदगी में आज तक कोई भी चीज हमें आसानी से नहीं मिली हैं सिमरन ... तो कैसे सोच ले कि आगे की जिंदगी आसानी से गुजरेगी । वैसा भी इतने संघर्षों के बाद अब आसानभरी जिंदगी हमें पसंद भी नहीं आयेगी । इन सब दकियानूसी सोच के कारण ही आज हमारी मतलब मनमीत मिश्रा की यह हालत हैं और हम नहीं चाहते कि आगे कोई मनमीत मिश्रा बने । जिसकी जिंदगी में नीरसता और दिल सिर्फ पत्थर का बन जाये । हम चाहते हैं कि कुछ कर पाये ऐसी लड़कीयों के लिए और इसके लिए इस भूचाल को अपनी जिंदगी में स्वीकार तो करना पड़ेगा वरना जिंदगी के आखिरी दिनों में भी हमें सुकून नहीं मिलेगा और हमने सुना हैं कि ......" मनमीत ने गहरी सांस ली और अपनी आंखें बंद कर कुछ पलों के लिए खामोश रही, फिर मुस्कुराकर सिमरन की ओर देखा—एक ऐसी मुस्कान, जिसमें दृढ़ निश्चय था, हौसला था, और एक अटूट विश्वास झलक रहा था। "हमने सुना है कि इतिहास वही लोग रचते हैं जो तूफानों से लड़ने की हिम्मत रखते हैं, जो अपने डर को अपनी ताकत बना लेते हैं, जो इस समाज के बनाए हुए दायरों को तोड़कर नई राहें बनाते हैं। तुम कहती हो कि इस सफर में मैं अकेली हूं, पर सिमरन, क्रांति की शुरुआत हमेशा अकेले ही होती है। शुरू में लोग हंसते हैं, मजाक उड़ाते हैं, फिर वही लोग तुम्हारी ताकत बन जाते हैं। और अगर गिर भी गई तो क्या? गिरकर उठना भी तो एक कला है, और हम वो लोग हैं जो गिरकर संभलना जानते हैं, क्योंकि हमें पता है कि इस दुनिया को सिर्फ देखने वाले नहीं, बल्कि बदलने वाले चाहिए। अगर मेरी तक़दीर में अंधेरा लिखा है, तो मैं उस अंधेरे को भी अपनी रोशनी से रोशन कर दूंगी। अगर मेरे रास्ते में कांटे बिछाए गए हैं, तो मैं उन्हीं कांटों से अपनी मजबूती का सेहरा बुनूंगी। मुझे पता है कि ये राह आसान नहीं है, पर जब तक मेरे अंदर सांसें हैं, मैं हार मानने वालों में से नहीं हूं। और एक दिन, सिमरन, तुम खुद कहोगी— मनमीत मिश्रा अकेली नहीं थी, उसके पीछे एक नई पीढ़ी खड़ी थी, जो उसकी राह पर चलने के लिए तैयार थी!" सिमरन समझ चुकी थी कि अब वह नहीं रुकने वाली । वह सब कुछ करेगी जो उसे करना हैं और अब वह उसे रोक नहीं सकती हैं और अगर उसने , उसे रोकने की बेवजह कोशिशें की तो शायद वह मनमीत की दोस्ती भी खो देगी और वह जानती थी कि मनमीत जैसी दोस्त शायद ही उसे फिर कभी मिलेगी जो उसके हर बुरे वक्त में उसके साथ खड़ी थी । इसलिए उसने खुशी से कहां , " ठीक हैं बस ईश्वर से एक ही कामना हैं कि तुम इस राह में चलते हुए एक दिन अपनी मंजिल को पा लो । " लेकिन मनमीत मिश्रा तो अपने ख्यालों में गुम थी वह खुद से ही , "नवाब आसफ़ उद्दीन मिर्जा, एक दिन मैं तुम्हारी इस नवाबशाही , इस शानो-शौकत और इस बादशाहत को खत्म करके रहूंगी । बहुत जल्द अपना यह ख्वाब पुरा करुंगी । तुम्हारी वजह से मुझे अपनी जिंदगी में इतनी मुश्किले उठानी पड़ी हैं । हर दिन रोते हुए गुजारा , हर राह में कांटे सहे , हर दिन ताने सुने , इन सब का बदला तो होगा । फिर होगे - आंसु , दर्द ,ताने , कांटे सब कुछ होगा लेकिन इस बार यह सब कुछ सहने वाले तुम होंगे ना कि मैं .... जिस दिन तुम्हारी यह झूठी शान मिट्टी में मिली ... उस दिन मुझे सुकून की नींद नसीब होगी और शायद इस धरती पर आखिरी दिन भी ...." उसे होश आया था सिमरन के हिलाने पर जो उससे कह रही थी , " मनमीत अब कहां गुम हो ...." मनमीत हंसती हुए , " कुछ नहीं , आजकल होश रहता ही कहां हैं । " जिस पर सिमरन , " कचौड़ी खाये ।" मनमीत भी हम्म में सिर हिलाते हुए कचौड़ी की दुकान की तरफ बढ़ जाती हैं । सिमरन भी उसके साथ चलते हुए , " शुरुआत कहां से करोगी । " मनमीत , " दिल्ली जाकर पहले अपनी वकालत की डिग्री लायेगे और इसके लिए हमें कल निकलना हैं और परसो हम वापिस लखनऊ होगे । अपने पापा के घर के बाहर वाले कमरे में अपना कार्यालय खोलेगे अपने नाम से और फिर शुरू करेंगे अपना सफर .... देखना सिमरन हम हर औरत , हर लड़की , हर गरीब को अपने अधिकारों के लिए लडना सिखायेगे । हर कोशिश करेगे कि हमारे होते किसी के साथ अन्याय न हो । " फिर इसके बाद मनमीत हल्के से मुस्कुराई उसकी आँखों में एक चमक थी। उसने सिमरन की ओर देखा और गहरी आवाज़ में कहा, "दोस्ती वो नहीं जो हर हाल में साथ दे, दोस्ती वो है जो हर सच को समझे। जो खामोशी में भी दिल की बात सुन ले, जो गिरते हुए हाथ थाम ले। रास्ते चाहे मुश्किल हों या आसान, साथ निभाने की बस हो एक पहचान। कभी ख़्वाबों की हकीकत बने, तो कभी दर्द की राहत बने। ऐसी ही है हमारी दोस्ती सिमरन, ना कोई शर्त, ना कोई उम्मीद, बस एक यकीन कि तुम हर हाल में मेरे साथ खड़ी होगी।" सिमरन की आँखों में नमी थी क्योंकि मनमीत तो हमेशा उसके इस यकीन पर खरी उतरी थी लेकिन उसने खुद को संभालते हुए "और ये यकीन हमेशा बना रहेगा, मनमीत " जिस पर मनमीत उसे उम्मीद भरी निगाहों से देखती हैं जिस पर सिमरन भी हां में सिर हिलाते हुए , ""मैं हमेशा तुम्हारे साथ रहूगी । जब भी लगे कि थक गयी हो और दिल भर चुका हैं तो बस एक बार याद करने कि देर रहेगी । तुम्हारी यह दोस्त हमेशा तुम्हारे साथ रहेगी जिसके सामने तुम बेझिझक अपना दिल खोलकर रख सकती हो । जो तुम्हें जज नहीं करेगी तुम्हारे फैसलों के लिए ... जिससे तुम सबकुछ बता सकती हो जो भी तुम्हारे दिल में भरा हो । वो बस खामोशी और विश्वास के साथ सुनेगी " जुबैदा बैगम आज बगीचे में घूम रही थी । आज उनके साथ उनकी सेविकाएं और रुपल कोई नहीं थी वह इस वक्त फूलों के बाग में थी और उनकी नजरे गुलाब के फूलों पर टिकी थी ।ओस में भीगे फूल सूरज की पहली किरणों में चमक रहे थे, जैसे हर तूफान झेलकर भी मुस्कुरा रहे हों। उन्होंने धीरे से एक गुलाब की पंखुड़ियों को छुआ। कितनी नाज़ुक थीं, कितनी मुलायम... पर इसकी हिफ़ाज़त के लिए कितने नुकीले काँटे मौजूद थे! एक फीकी मुस्कान उनके होंठों पर आई, और फिर उनकी आँखों में कहीं एक कसक उतर आई। "गुलाब की हिफ़ाज़त काँटे कर लेते हैं, हर तूफान से लड़कर उसे संभाल लेते हैं। मगर औरत की हिफ़ाज़त कौन करेगा, जो हर नज़र से उसे बचा ले?" शेर खत्म होते ही उनके लफ्ज़ जैसे हवा में घुल गए। उन्होंने गुलाब की डाली को छोड़ा, पर काँटों ने उनकी उंगलियों को हल्का सा छू लिया। एक हल्की चुभन हुई, मगर जुबैदा बेगम के चेहरे पर शिकन तक नहीं आई। उन्होंने अपनी उंगलियों को देखा—खून की एक हल्की बूंद छलक आई थी। उन्होंने ठंडी हवा में गहरी सांस भरी और खुद से बुदबुदाईं— "शायद यही औरत की किस्मत है… जितनी नाज़ुक, उतनी ही लहूलुहान!" फिर वो पलटीं और धीमे क़दमों से महल की ओर बढ़ गईं। पीछे बाग़ में वही गुलाब खिलते रहे, और काँटे... हमेशा की तरह, अपनी जगह अडिग खड़े रहे। हर दिन की तरह यह दिन भी बीत गया और अगला दिन भी बीत गया और आज सुबह से दिल्ली रेलवे स्टेशन पर चहल पहल सी थी काले रंग की साडी जिसपर सफेद धारियां बनी थी उसे पहने हुए वह अपने हाथ में एक साधारण सा बैग थैला लिये लखनऊ वाली ट्रेन में बैठ चुकी थी । जारी हैं ......
हर दिन की तरह यह दिन भी बीत गया और अगला दिन भी बीत गया और आज सुबह से दिल्ली रेलवे स्टेशन पर चहल पहल सी थी काले रंग की साडी जिसपर सफेद धारियां बनी थी उसे पहने हुए वह अपने हाथ में एक साधारण सा बैग थैला लिये लखनऊ वाली ट्रेन में बैठ चुकी थी । ट्रेन में बैठी मीत अपने आने वाले सफर के बारे में सोच रही थी । मुश्किल था सफर उसका जानती थी वह लेकिन जिद्दी मन को कौन समझाता कि मंजिल ही वही थी उसकी जिसका ठगर कांटों से भथा था । साहस की कमी नहीं थी मनमीत में , कमी थी तो अकेलापन... जो हमेशा उसके हिस्से आया और तभी उसकी नजर अपने साइड की सीट पर गयी जहां शायद एक परिवार ही बैठा था । एक नवविवाहिता युवती और एक युवक और सामने एक अधेड़ उम्र की महिला बैठी सामने बैठी युवती पर चिल्ला रही थी वह महिला गुस्से से और तेज आवाज में बोल रही थी इसलिए मनमीत का ध्यान उस तरफ ही चला गया .. महिला चिल्लाते , " इतनी बेशर्मी कहां से लायी तुम .. अभी तो अपने लल्ला से ब्याह के लाए हैं और अभी से गैर मर्दों पर नजरे टिकने लगी हैं तेरी ... तुमायी तो खैर नहीं घर चलों तुम ... तुमाये माई बापू ने यही संस्कार सिखाये हैं की दूसरों पर नजरे टिकाती फिरो । " वह युवती समझाने की कोशिश कर रही जी लेकिन वह महिला जो अपने शब्दों से ही अपना परिचय दे रही थी शायद उस नवविवाहित युवती की सास थी उस पर लगातार चिल्लाये जा रही थी जैसे किसी पर गलती से नजर चले जाने पर एक बहुत बड़ा गुनाह हो गया था उसके हाथों ... खैर यह तो आम था चारों तरफ और मनमीत के लिए आज फिर एक बार यह समझना आसान हो गया था कि इस पुरुष प्रधान समाज में शायद हमेशा औरतों को नीचा दिखाया गया लेकिन ऐसा क्यों हुआ ? इस प्रशन के उत्तर में एक यह भी था कि हमारे इस समाज में औरतें ही औरतों की सबसे बड़ी दुश्मन होती हैं । वह चाहें कितना भी दर्द झेल ले लेकिन अपनी अगली पीढ़ी को भी उसी दर्द और जिल्लत में खींच लेती हैं । खुद पर चाहे बुरी गुजर रही हो लेकिन वह खुद ही एक औरत को गुनाहों के कटघरे में खड़ा कर देती हैं । अधिकतर जब एक औरत का बीच रास्ते में तमाशा बनता हैं तो उसकी इज्जत का पहला कतरा तार तार करने में सबसे पहले एक स्त्री ही खड़ी होती हैं । वह खुद नहीं चाह सकती कि उसकी बेटी पढ़ें लिखे ... क्यों ? तो जवाब यही होता हैं कि वह भी नहीं पढ़ी लिखी फिर भी वह भी अनपढ़ रहकर भी तो जिंदगी गुजार रही हैं और अगर बेटी को पढ़ा लिखा दिया तो क्या वैसे भी ब्याह के बाद चुल्हा ही संभालेगी । खैर मनमीत खुद मानती थी यह बात कि इस तरह वह सारा दोष स्त्रीयों पर तो नहीं मढ़ सकती लेकिन गलती अगर पुरुषों की माने तो स्त्रीयों की गलती नहीं हैं इस कटू सत्य को आंखें बंद कर झुठलाया तो नहीं जा सकता हैं । कैसे ना माने ...एक मां होने के नाते वह अपनी बेटी को ससुराल में समझौते करना तो सिखा देती हैं लेकिन आत्मसम्मान के साथ नहीं जीना सिखा पाती हैं और सिखा भी कैसे पायेगी ? जब वह तो हमेशा खुद आत्मसम्मान के साथ जीना नहीं सिख पायी तो कैसे सिखायेगी लेकिन ऐसा कुछ कहकर एहसास भी नहीं दिलती कि ... तुम्हारे साथ कुछ बुरा हो तो डरना मत , मैं तुम्हारे साथ खड़ी हूं और जिस दिन यह हो गया ना उस दिन सच में स्त्रियों की जिंदगी संवरने वाली थी और मनमीत औरतों में यही साहस भरना चाहती थी पर देखना यह था कि वह अपनी मंजिल के कितने करीब जा पाती हैं क्योंकि इस सफर में उसकी मुलाकात ऐसे लोगों से होने वाली थी । जो उसकी राहों में कांटे बिछाने का काम जरुर करेगे और हमेशा उसे खुदके नीचे दबाने की कोशिश करेगे क्योंकि सुनती हैं वह हर जगह ... किसी स्त्री का कोई अधिकार नहीं की वह किसी पुरुष के साथ या उसके आगे खडी हो । खैर इन सब से ध्यान हटाने के लिए उसने अपने थैले में से एक डायरी और कलम निकाल ली । डायरी का कवर बहुत ही खुबसूरती से सजा था । वह गहरी सांस भरकर उस डायरी के पन्ने बड़ी सावधानी से पलटने लगी जैसे बहुत खास हो वो उसके लिए .... उस डायरी के हर पन्ने पर बड़ी खुबसूरती से कुछ शब्द उकेरे गये थे । आखिर एक पन्ने पर वह रुक ही गयी और कलम से कुछ शब्द उकेरने लगी । सोचती हूं यह कि हालातों की मारी हूं। सहेजना था मुझे भी स्वाभिमान, पर ढोंगी इज्जत के बोझ झेल रही हूं। क्या स्त्री हूं भी या नहीं मैं? बचपन से सुनी थीं कहानियां, रानी लक्ष्मीबाई की, सावित्रीबाई की, सोचा था मैं भी बनूंगी कुछ ऐसी, अपना स्वाभिमान ना बिकनें दूंगी पर चौखट के भीतर ही सिमट गई इच्छाएं मेरी, पर अब सोचती हूं क्या स्त्री हूं भी या नहीं मैं बाबुल ने कहा - "बेटी, सहना सीखो", ससुराल में सुना - "समझौता ही जीवन है", दहलीज पर कदम जो रख दिये सपने बाहर ही साथ छोड़ चुके, हाथों में चुड़िया क्या भरी कलम से साथ छूट गया , अब सोचती हूं स्त्री हूं भी या नहीं में ? समय बदल रहा है,कहते हैं सब, पर मेरा मन पूछे - किसके लिए? पुरुषों के लिए या स्त्रीयों के लिए , आज फिर एक स्त्री जिंदा जल गयी एक मामूली दहेज के लिए , घर से बाहर निकलूं तो उंगलियां उठती, घर में रहूं तो बलवान पहचान नहीं अब सोचती हूं स्त्री हूं भी या नहीं मैं ? सोचती हूं यह... कि हालातों की मारी हूं, या फिर अपनों ने घोंटी जिंदगी मेंरी बिछाई बेड़ियों में जकड़ी नारी हूं मैं, पर अब भी सोचती हूं, स्त्री हूं भी या नहीं मैं ? अब उसे सुकून सा मिला था । मन में दबी हुई बातें इंसान को अन्दर से खोखला कर देती हैं लेकिन अगर वही बाते मन से बाहर निकल जाये तो असीम शांति और सुकून का अनुभव होता हैं । मनमीत अब बाहर देख रही थी तभी एक आदमी साधारण से पेंट और कमीज़ पहने उसके सामने वाली सीट पर आकर बैठ गया । उसके हाथ में एक साधारण सा थैला था लेकिन उसमें से आती खुशबू ने मनमीत को एहसास दिलाया कि शायद उस थैले में खाना हैं । खैर मनमीत की नजरे जैसे ही उस शख्स के चेहरे पर गयी लेकिन उसे ऐसा लगा कि उसका चेहरा और कपड़े आपस में मेल नहीं खा रहे हैं लेकिन जैसे ही मनमीत की नजरे एक पल के लिए उसके चेहरे पर टिकी वह शख्स मुस्करा दिया और यही पल मनमीत को असहज कर गया । मनमीत फिर बाहर देखने लगी और वह शख्स आंखें बंद कर सीट से सिर टिका गया । ऐसा मनमीत को लग रहा था लेकिन वह तो बस सोने का नाटक कर रहा था पर उसकी नजरे मनमीत पर टिकी थी । उसकी नजरे मनमीत पर टिकी थी लेकिन इसका कारण उसकी खुबसूरती नहीं कुछ और था .... मनमीत ने उस शख्स को आंखे बंद करे सीट से सिर टिकाए सोते देख एक पल के लिए उसे ऊपर से नीचे देखा , उसने खादी कलर की सी कमीज और काले रंग का पेट पहना था और पैरों मे साधारण सी चप्पलें थी । उसने अपने थैले को बाजू में इस तरह भींच रखा था जैसे कोई छिन लेगा लेकिन जल्दी ही उससे नजरे हटा वह अपनी डायरी को बैग में रखने लगी और आंखे मीचकर बैठ गयी । ट्रेन में फैलते शोर के बीच उसे कुछ पल की शांति चाहिए थी । लेकिन तभी उस शख्स ने अपनी आंखें खोलीं और सीधे मनमीत की ओर देखा। इस बार उसकी नजरों में हल्की सी शरारत थी, जैसे वह कुछ कहना चाहता हो "आपकी कविता अच्छी थी," अचानक उस शख्स ने कहा। जैसे हैं मनमीत के कानों में यह स्वर पड़े वह चौंक कर उठ बैठी और जैसे ही सामने देखा उसे समझ आ गया कि यह उससे सामने बैठे उस शख्स ने ही कहां था । मनमीत चौंक गई। "कौन सी कविता?" उसने सामान्य बनने की कोशिश की। हालांकि वह सामान्य नहीं थी । उसे हैरानी थी और सोच में भी पड़ गयी कि यह उससे कहां गया हैं लेकिन आज तक उसने कभी किसी लडके से बात नहीं की थी और यह उसे असहज कर गया पर वह किसी तरह खुद को संभालकर बोली लेकिन अपनी असहजता को उसने चेहरे पर नही आने दिया । "जो आपने अपनी डायरी में लिखी थी," उसने मुस्कुराते हुए कहा। मनमीत को झटका लगा। उसने तो इसे पढ़कर तुरंत बंद कर दिया था। तो क्या यह शख्स उसकी डायरी पढ़ रहा था? लेकिन ऐसा कैसे हो सकता था डायरी तो हर पल उसके पास ही थी और अब उसने अपने सवाल को पूछ ही लिया "आपने मेरी डायरी पढ़ी?" उसकी आवाज में हल्का गुस्सा झलक रहा था। "नहीं," वह शख्स हंसा, "हमने सिर्फ सुना था। जब आप लिख रही थीं, तब आप हल्की आवाज में शब्द दोहरा रही थीं। और वैसे भी, यह कोई चोरी नहीं है, आपकी भावनाएं इतनी गहरी थीं कि शब्द खुद-ब-खुद मन तक पहुंच गए। मनमीत ने गहरी सांस ली। वह हैरान थी कोई उसकी कविता सुनकर , उसके लक्ष्य का पता इतना सटीक कैसे लगा सकता हैं तो क्या सामने बैठे इस शख्स में लोगों के भाव पढने की शक्ति हैं या फिर वह सिर्फ ढोंग रच रहा हैं । अगर वह उसके लिए खतरा बना तो .... पर वह भी तो हार नहीं मान सकती हैं । "तो आपको क्या लगा, मैं स्त्री हूं या नहीं?" उसने हल्के व्यंग्य के साथ पूछा। शख्स कुछ सेकंड तक चुप रहा, फिर गंभीरता से बोला, "आप सिर्फ स्त्री नहीं हैं, आप आवाज हैं। एक ऐसी आवाज जो कई स्त्रियों के दिलों में दबी पड़ी है। और अगर आपने यह आवाज उठाने की ठान ली है, तो यकीन मानिए, आप अपनी मंजिल तक जरूर पहुंचेंगी। स्त्रीयों को हमेशा ही समझौते करने पडते हैं । वह कभी जाहिर ही नहीं कर पाती कि उनके मन में क्या चल रहा हैं । ऐसे में आप उनके लिए लड़ना चाहती हैं । वैसे बहुत मुश्किल सफर चुन लिया हैं आपने पर अगर आप कभी अपने इस सफर को सफल बना पायी तो बहुत खुश होगे हम कि आपकी वजह से स्त्रियां इतना साहस जूटा पायी कि वह खुदके लिए और खुदके अधिकारों के लिए लडने की हिम्मत रखती हैं । वह सक्षम हैं खुदका भला सोचने के लिए ...." इस बार मनमीत ने पहली बार उसे ध्यान से देखा। उसकी आंखों में अजीब सा विश्वास था और साथ ही उसके लिए प्रशंसा के भाव थी । जैसे वह उसकी जिद्द, उसके सफर और उसके संघर्ष को समझता हो। वह अजनबी होकर भी अजनबी नहीं लग रहा था । "आप कौन हैं?" मनमीत ने आखिरकार पूछा। शख्स मुस्कुराया, "अभी तो सिर्फ एक सफर के साथी हैं वो भी लखनऊ तक , बाकी परिचय सफर के साथ-साथ हो जाएगा।" जारी हैं कृप्या रेटिंग दे और कमेंट करके बताइए कि आपको कहानी कैसी लग रही हैं .....
आगे .......... मनमीत को अब उस शख्स से बात करने की इच्छा होने लगती हैं इसलिए वह , " वैसे स्त्रीयों को लेकर यह आपकी सोच ही हैं या फिर आप बस दिखावा कर रहे हैं । " जिस पर वह शख्स मुस्कराते हुए , " जिस तरह का यह दौर हैं आप की बात हमे समझ आ रही हैं । ऐसा हो सकता कि आजकल लोग दिखावा पसंद जिंदगी जीना पसंद करते हैं जहां पर उनके मुंह पर कुछ और होता है और मन में कुछ और होता है पर हमें आप ऐसा नहीं मान सकती भरोसा रखें हमारी सोच स्त्रियों को लेकर इससे भी कहीं उम्दा है । यह हमारी अम्मी की परवरिश है कि हम कभी भी स्त्रियों को तौहीन भरी नजरों से नहीं देख सकते । " जिस पर मनमीत , " लगता है आपको अपनी मां से बहुत लगाव हैं । " जिस पर वह शख्स , " हर बच्चे को मां से लगाव होता ही हैं । " मनमीत , " बहुत पुराने दौर में चल थहे हो जनाब ..... अगर हर बच्चे को मां से लगाव होता तो हमारे देश में वृध्दाश्रम नहीं होते ।खैर आपको क्या लगता हैं इस बारे में ....." जिस पर वह शख्स मुस्कराते हुए , " हमे लगता हैं या नहीं लगता हैं इससे फर्क ही नहीं पड़ता हैं । फिर भी हमे लगता है कि हर सिक्के के दो पहलू होते हैं । हर बार औलाद गलत नहीं होती हैं । कभी कभी मां बाप भी गलत हो सकते हैं । " मनमीत को उस शख्स की बातें दिलचस्प लगने लगी थीं। उसकी सोच और शब्दों का चयन दर्शाता था कि वह केवल बातें बनाने वाला आदमी नहीं था, बल्कि सच में अपने विचारों पर विश्वास रखता था। उसने हल्की मुस्कान के साथ पूछा, "तो आपके हिसाब से हर बार औलाद ही गलत नहीं होती, कभी-कभी मां-बाप भी गलत हो सकते हैं? क्या आप इसे ज़रा और स्पष्ट कर सकते हैं?" वह शख्स हल्के से सिर हिलाते हुए बोला, "बिल्कुल। देखिए, हर माता-पिता अपने बच्चों के लिए बुरा नहीं सोचते, लेकिन कभी-कभी उनकी परवरिश में अनजाने में ही सही, ऐसी गलतियां हो जाती हैं जो औलाद को उनसे दूर कर देती हैं। जब तक बच्चा उनकी हर बात मानता है, तब तक वह अच्छा होता है, लेकिन जैसे ही वह अपनी सोच, अपनी पसंद-नापसंद जाहिर करने लगता है, तब टकराव शुरू हो जाता है।" मनमीत ने गहरी सांस लेते हुए कहा, "आपकी बात में दम है। हर कहानी में सिर्फ एक पक्ष नहीं होता, कई बार हालात भी इंसान को बदल देते हैं। लेकिन फिर भी, मां-बाप को अकेला छोड़ देना क्या सही है?" वह शख्स हल्के से मुस्कुराया, "यही तो बात है। हर रिश्ते में समझदारी होनी चाहिए। अगर माता-पिता बच्चों की भावनाओं को समझें और बच्चे भी माता-पिता के त्याग को पहचानें, तो शायद वृध्दाश्रम जैसी जगहों की जरूरत ही न पड़े। लेकिन यह भी सच है कि हर मां-बाप सही नहीं होते और हर औलाद गलत नहीं होती।" मनमीत उसकी बातों को ध्यान से सुन रही थी। उसे महसूस हुआ कि यह शख्स सिर्फ सतही बातें नहीं कर रहा था, बल्कि गहराई से सोचने वाला इंसान था। उसने हल्के अंदाज में पूछा, "बड़ी समझदारी वाली बातें करते हैं आप, लेकिन मुझे यह बताइए, क्या आप कभी किसी वृद्धाश्रम गए हैं?" वह शख्स थोड़ी देर चुप रहा, फिर एक लंबी सांस लेते हुए बोला, "हां, एक बार गया था... और वहां एक बुजुर्ग महिला से मेरी मुलाकात हुई थी, जिन्होंने मुझे कुछ ऐसा कहा जो मैं कभी नहीं भूल सकता।" मनमीत की जिज्ञासा बढ़ गई। उसने उत्सुकता से पूछा, "क्या कहा था उन्होंने?" वह शख्स मुस्कुराया, लेकिन उसकी आँखों में हल्की सी गंभीरता थी। उसने कहा, "उन्होंने कहा था, 'बेटा, जब अपने ही पराए हो जाएं, तो फिर गैरों से कोई क्या शिकायत करे?' " मनमीत को यह सुनकर अजीब सा एहसास हुआ। उसने हल्की आवाज़ में कहा, "कभी-कभी कुछ रिश्ते मजबूरी में टूटते हैं, और कभी कुछ रिश्ते स्वार्थ में।" वह शख्स सिर हिलाते हुए बोला, "बिल्कुल। और यही जीवन की सच्चाई है। लेकिन सवाल यह है कि हम किस ओर खड़े हैं – मजबूरी की तरफ या स्वार्थ की तरफ?" अब मनमीत के पास इसका कोई सीधा जवाब नहीं था। उसने बस धीरे से कहा, "आपकी बातें सोचने पर मजबूर कर देती हैं।" वह शख्स मुस्कुराया, "अगर कोई बात दिल तक पहुंचे और सोचने पर मजबूर कर दे, तो समझिए कि वह सिर्फ सुनी नहीं गई, बल्कि महसूस भी की गई है।" इसके आगे उनमें कोई बाते नहीं हुई क्योंकि मनमीत अब अपनी सोच में उलझ चुकी थी । ट्रेन की हल्की झिलमिलाती रोशनी में मनमीत की आँखें खोई हुई थीं, मानो वह अपने भीतर चल रहे अनगिनत सवालों के बादल में डूबी हुई हो। खिड़की से झांकती हुई रात की चुप्पी उसके दिल की उलझी बातों को बयां कर रही थी। उसी डिब्बे में सामने बैठे उस शख्स की नजरें मनमीत पर स्थिर थीं—उसकी मुस्कान में एक गहरी सोच छिपी थी, जैसे वह भी उन अनकही दास्तानों को समझने की कोशिश में लगा हो। वह लगातार एकटक उसे ही देख रहा था । दोनों अपने-अपने संसार में इतने डूब गए थे कि ट्रेन की रफ्तार, यात्रियों की हल्की-हल्की बातें, और यहां तक कि बाहर गुजरते हुए अजनबी सब कुछ एक मधुर धुन की तरह पीछे छूट गया। मनमीत की सोच उस शख्स की कही बातों के बीच उलझी हुई थी, जबकि वह शख्स अपनी नज़रें बस मनमीत की झलक में खोए हुए था। एक अजीब खामोशी उनके बीच दूरी खिंच देती हैं , जहां बिना शब्दों के भी कई कहानियाँ बयाँ हो जाती थीं। ऐसे ही एक पल में, बिना किसी चेतावनी के, ट्रेन लखनऊ रेलवे स्टेशन पर पहुँच गई। दोनों ने अचानक अपने आस-पास का हाल देखा—भीड़, घोषणा की आवाज़ें, और स्टेशन की हलचल ने उन्हें उस समय के सचेत कर दिया। पर इस उलझे मिज़ाज में, उन्हें यह एहसास भी न हुआ कि कब ये सफर अपना मुकाम पा गया। लखनऊ के इस स्टेशन पर कदम रखते ही, दोनों की आँखों में एक नई चमक आई। शायद यह सफर उन अनकहे सवालों का जवाब ढूंढने की शुरुआत थी, या फिर सिर्फ एक पल की मीठी खामोशी थी, जहाँ दिल की बातें शब्दों से भी आगे निकल जाती थीं। मनमीत ने अपना सामान उठाने से पहले सामने खडे उस शख्स को देखकर कहां , " आपसे मिलकर बहुत अच्छा लगा । कभी लगा नहीं था आप जैसे शख्स से मुलाकात होगी पर अब लगता हैं आज भी अच्छाई कही तो बसती हैं तभी मेरी मुलाकात आप जैसी शख्सियत से हुई । वैसे अब तो सफर भी खत्म हो गया तो क्या आप हमे अपना नाम नहीं बता सकते हैं । "
जिस पर वह शख्स मुस्कराते हुए , " हमारा नाम मीरजा हैं । आप मीर भी बुला सकती हैं । दुआ करेगे कि आपसे फिर मुलाकात हो । "
जिस पर मनमीत मुस्कराते हुए , " और हमारा नाम हैं मनमीत "
इतना कहकर वह अपना थैला उठाये स्टेशनसे बाहर निकल गयी लेकिन कुछ किमती वो भूलकर जा चुकी थी । इधर जैसे ही मीरजा अपना बैग उठाने लगा , उसे नीचे वही डायरी पड़ी हुई मिली जिसमें मनमीत लिखा करती थी ।
मीरजा खुद से , " लगता हैं डायरी यही भूल गयी वो पर यह तो उनके लिए बहुत किमती हैं । हमें इसे लौटाना होगा , इतनाकहकर वह फटाफट ट्रेन से बाहर निकलने को भागा "
प्लेटफॉर्म पर भीड़ उमड़ रही थी। लोग अपने गंतव्य की ओर बढ़ रहे थे, किसी को जल्दी थी, किसी को इंतजार था। लेकिन मीरजा को किसी से कोई मतलब नहीं था—उसे तो सिर्फ एक चेहरा तलाशना था। उसकी नज़रें हर ओर दौड़ रही थीं, स्टेशन के हर कौने को टटोलते हुए वह दौडा जा रहा था । सांसों के भारीपन से उसका दिल बेसब्री से धड़क रहा था।
"मनमीत... कहाँ हो तुम?"
वह स्टेशन के गेट की ओर भागा, इधर-उधर देखा, हर गुजरते चेहरे में उसे वही तलाश थी। उसने उम्मीद नहीं छोड़ी, बार-बार नज़रें दौड़ाई, लेकिन वह कहीं नहीं थी।
मीरजा के कदम धीरे-धीरे ठहरने लगे। उसके अंदर अजीब सी बेचैनी थी, एक अधूरेपन का एहसास, जो धीरे-धीरे गहराता जा रहा था।
उसने लंबी सांस ली और आसमान की ओर देखा, जैसे किसी अनदेखी ताकत से जवाब मांग रहा हो। फिर उसकी नज़रें हाथ में पकड़ी डायरी पर गईं। उसकी उंगलियां उसे हल्के से सहलाने लगीं, जैसे यह कोई अनमोल चीज़ हो, जिसे वह संजोकर रखना चाहता हो।
"तो क्या ये हमारी आखिरी याद होगी आपसे, मनमीत?" उसने धीरे से बुदबुदाया।
एक अजीब सा दर्द उसके अंदर उतर रहा था—ऐसा नहीं कि यह कोई गहरा रिश्ता था और ना ही यह था कि उन्हें मिले जमाना हो गया और ना ही यह कि वो एक दुसरे को जानते थे लेकिन कुछ तो था, जो उन्हें इस सफर में बांध चुका था। फिर दर्द क्यों महसूस हो रहा था । ऐसा लग रहा था मीरजा को कि एक अनकही कहानी, जो अधूरी रह गई थी।
फिर उसकी आँखों में हल्की मुस्कान तैर गई।
"शायद हमारी दुआ कबूल हो गई… तुम फिर मुलाकात होगी, मनमीत। कहीं न कहीं, किसी न किसी मोड़ पर..."
और फिर, वह डायरी अपने सीने से लगाए, भारी कदमों से स्टेशन की भीड़ में खो गया—पर इस बार, उसकी आँखों में अधूरी ख्वाहिशों का एक नया सफर था।
आगे .......
मनमीत अपने घर में बैठी परेशानी से सारा थैला बिखेर चुकी थी और परेशानी से यहां से वहां चक्कर लगा रही थी ।
सिमरन उसके परेशान चेहरे को ही देख रही थी आखिर में वह झुंझलाते हुए , " अब इतनी परेशानी की वजह जान सकती हूं मैं , मनमीत। "
मनमीत परेशानी से सामने रखी कुर्सी पर बैठते हुए , " हमारी डायरी , वो खो गयी । पता नहीं कहां गिर गयी । तुम तो जानती हो ना कि जिंदगी बसती हैं हमारी उसमे .... पहली बार हम लापरवाह हो गये और वो डायरी हमसे खो गयी ....."
सिमरन , " हम्म , बात तो परेशानी वाली ही हैं । जिन चीजों की अहमियत जिंदगी में सबसे ज्यादा हो और वो हमसे जुदा हो जाये तो परेशान होना लाजिमी हैं लेकिन तुमने उसे खो कहां दिया ....."
मनमीत उदासी से , " ट्रेन में हमने डायरी निकाली थी कुछ लिखने के लिए लेकिन.... हमने संभाल कर रखी थी । पता नहीं कैसे वो कही रह गयी । शायद थैले से गिरी होगी । "
सिमरन , " हम्म ..... डायरी तुम्हारी किस्मत में हुई तो तुम तक पहुंच ही जायेगी लेकिन..अभी के लिए अपनी भावनाओं को संभालो और एक नयी डायरी ले लो । "
मनमीत भी , " शायद तुम सही कह रही हो .... लिखें बिना हमे चैन मिलेगा नहीं और अगर वो डायरी ना मिली तो हमे ....हम एक डायरी खरीद ही लेंगे ...."
नवाब हवेली
नवाब हवेली में आज चहल-पहल थी । सारी हवेली बहुत अच्छे से सजायी गयी थी । जगह जगह रंगोली बनी हुई थी । हर नौकर नये कपड़ों में सजा था और नवाब साहब भी अपने नवाबी ढाठ बाठ के साथ अपने बेटे के स्वागत के लिए तैयार थे ।
इधर जुबैदा बेगम ने भी जनाना महल सजवा दिया था ।
इस वक्त वह अपने मखमली दुपट्टे पर हाथ फेरते हुए अपने आप में बुदबुदा रही थी ।
"माँ का दिल वो आईना है, जो सिर्फ़ औलाद को देखे,
उसकी हँसी में खुद को पाए, उसके ग़म में आँसू बहाए।"
"माँ का प्यार वो ख़ुशबू है, जो हर दम साथ रहे,
औलाद की राहों में महक बिछाए, पर खुद धूप सह ले।"
"माँ का प्यार वो दुआ है, जो बिना कहे कुबूल हो,
औलाद की सलामती मांगे, और खुदा भी सुनने को मजबूर हो।"
"माँ का प्यार वो चिराग़ है, जो आँधियों में भी जले,
औलाद के हर अंधेरे में, अपनी रोशनी का सहारा दे।"
"जाना है गर जन्नत क्या है, माँ की बाहों में सो कर देख,
वो प्यार ही रब की रहमत है, उसे महसूस कर, खो कर देख।"
तभी रुपल अन्दर आते हुए , " बेगम साहिबा , छोटे नवाब हवेली में अपने कदम रख चुके हैं । आज तो जनाना महल महफ़िल से सज उठना चाहिए । "
जिस पर जुबैदा बेगम मुस्कराते हुए , " क्या जानती नहीं रुपल जो यूं हंसी में खेल रही हो । नवाबों की बेगमों को मर्दों की महफ़िल में शरीक होने की इजाजत नहीं होती हैं । खैरे अपने चिराग से तो मिल लेंगे हम .... ज्यादा देर उन्हें अपनी आंखों से नदारद नहीं देख सकते हैं लेकिन .... अफसोस तो रहेगा कि इन बेड़ियों में इस कदर बंधे हैं कि अपनी औलाद को सुकून से निहारने का वक्त भी नहीं मिलता हैं । "
इधर मीरजा के कदम पडते ही नवाब महल ढोल की आवाज में रम चुका था । खुद नवाब साहब अपने बेटे के गले लगने को तैयार खडे थे । मीरजा को देखते ही , वो उसे खुद के गले लगाते हुए , " लगता हैं वहां जाकर हमारा बेटा अपने अब्बू को भूल ही गया । सदियों में एक दो संदेश आते थे और वो भी कुछ पल के लिए । आज जो सुकून मिला वो शब्दों में बयां ना पायेगा हमसे "
"तेरी यादों की खुशबू से, हर शाम महकती रही,
तेरी राह तकते-तकते, ये आँखें भी थकती रही।
जिन गलियों में तेरी हँसी गूँजा करती थी,
आज भी हवाएँ उसी धुन में बहकती रही।
अब लौट आया है मेरा चिराग़, मेरी आँखों की रोशनी,
तेरे बिना ये हवेली भी वीरान सी लगती रही।
तेरे कदमों की आहट में ही सुकून मिलता है,
तेरी बाहों में आने की हसरत दिल में मचलती रही।
बरसों की दूरी का ग़म अब मिट ही जाएगा,
तेरा अब्बू तुझे देखकर जी भर के मुस्कराएगा।"
नवाब साहब ने इतना कहकर मीरजा को फिर से गले से लगा लिया।
चारों ओर ढोल-नगाड़ों की आवाज़ गूँज रही थी, मगर नवाब साहब की आँखों में बस अपने बेटे के लौट आने की खुशी के आँसू थे।
हर कोई हैरान था .... नवाब साहब के इस नर्मदिल के साथ तो उनका पहली बार सामना हुआ था वरना ऐसा दृश्य देखना लगभग नामुमकिन ही था ।
खैर जनाना महल में भी यह खबर पहुंच चुकी थी और जुबैदा बेगम तो हैरान नही थी इस बात से कि अपनी औलाद के गले लगते ही नवाब साहब कि आंखों में आसूं आ गये । वो खुद से , " खैर हमे आपसे यह उम्मीद तो नहीं थी कि आप समर्पण का भाव भी रख सकते हैं लेकिन अच्छा लगा जानकर कि आप किसी के लिए तो वफादार हैं । काश इस वफादारी से हम भी रुबरु होते । एक बाप का सहारा होता हैं बेटा और जब वह कंधा मिल जाये तो फिर किसी और सहारे की चाहत नहीं होती हैं लेकिन कभी कभी डर सा लगता हैं अगर इस महल की दिवारो में बगावत की आंधी चली तो यह महल सबसे पहले किसे खोयेगा - औलाद के लिए बाप की मोहब्बत ? या फिर एक नवाब का गुरुर ? पर कुछ भी हो , हम तो हर हाल में अपना एक हिस्सा खो ही देंगे । " इतना कहते हुए उनकी नजरे छत पर लगे झरोखे से उस और उठ गयी जहां महफ़िल सजी थी उसने दिल के टुकड़े के आने की खुशी में पर नवाब महल की बेड़ियों में जकड़ी जुबैदा बेगम अपनी औलाद को सीने से भी नहीं लगा सकती थी । कैसी परम्परा थी जो उन्हें अपने बेटे से मिलने से भी रोक रही थी ।
..........
इधर मनमीत की आंखों में नमी थी । वो और समायरा अभी एक लकडी की तख्ती पर सफेद कलर से लिख रही थी - वकील साहिबा मनमीत मिश्रा । इसके बाद वो दोनों उसे मनमीत के घर के आगे लगा देती हैं और मनमीत की आंखों में तो उस तख्ती पर लिखे अपने नाम को देखकर आंसु ही आ गये ।
वो एक ऊपर देखती हैं और खुद से , " हम आज बहुत खुश हैं पिताजी , आपके सपने की तरफ एक कदम बढा दिया हमने ..... बहुत जल्द ही वो दिन आयेगा जब हम इस समाज से कुछ कुरुतियों को जरुर दूर कर देगे बस आप इसी तरह हमारी हिम्मत और साहस बनाए रखीयेगा । " फिर वह समायरा से कहने लगी , " समायरा , अब सब कुछ ठीक लग रहा हैं । "
नवाब साहब से मिलने के बाद , मीरजा भरी महफिल छोडकर जनाना महल के विशेष कक्ष में आ जाता हैं जहां उसे अपनी अम्मी से मिलने की इजाजत थी । कुछ पल में ही उसकी अम्मी जुबैदा बेगम ने रुपल के साथ कदम रखा , रुपल तो जा चुकी थी लेकिन मीरजा ने झुककर जुबैदा बेगम के पैर छू लिए ।
जिस पर जुबैदा बेगम चौंकते हुए पीछे हट गयी ।
जारी हैं ....
अगर आप कहानी पढ रहे हैं तो प्लीज रेटिंग्स जरुर दे और बताइए कि कहानी , आपको कैसी लग रही हैं ।
आगे ......
" "आप शायद भूल रहे हैं मीरजा कि जिस धर्म से आप आते हैं वहां पैर नहीं छूए जाते हैं , सलाम किया जाता हैं । नवाब होकर ऐसी हरकते आप पर जंचती नहीं हैं " इतनाकहकर जुबैदा बैगम पीछे हट चुकी थी ।
जिस पर मीरजा मुस्कराते हुए , " आप जानती हैं अम्मी , हमे एक दोस्त मिला था विदेशी मुल्क में , उसने एक बार हमसे कहां कि जब हम अपने बड़ों के पैर छूते हैं तो उनके करीब होने का अहसास होता हैं और सलाम में वो अहसास शायद नहीं होते हैं । हमने उसकी बातों को सोचा और महसूस किया कि सलाम करकर हम सामने वाले को इज्जत देते हैं । उसके लिए अपना आदर भाव दिखाते हैं लेकिन सच में आज जब आपके पैर छुए तो लगा जैसे बहुत करीब हैं आप हमारे .... आप जानती हैं आप हमारे लिए जरुरी हैं या ऐसा भी नहीं हैं कि हम अपने धर्म की इज्जत नहीं करते हैं या फिर ऐसा नहीं हैं कि हम आपकीबात का अनादर करना चाहते हैं पर यह तो सच हैं ना कि खुद के धर्म को ऊंचा दिखाने के लिए हम दूसरे धर्म को नीचा नहीं दिखा सकते हैं । "
मीरजा के मुंह से ऐसी बाते सुनकर , जुबैदा बेगम के होंठों पर मुस्कान छा गयी ।
उन्होंने मुस्कुराते हुए कहां , " फक्र हो रहा हैं अपनी औलाद पर कि इतनी उम्दा सोच पायी हैं आपने कि बस दिल से यह निकल रहा हैं
"गुमां था हमें कि रस्मों में ही रिवायत बसती है,
पर तूने दिखाया कि सोच में भी इबादत पलती है।
तेरे अल्फ़ाज़ों में जो सादगी और अदब झलकता है,
वो बताता है कि तालीम नहीं, तर्ज़े-फिक्र असर करता है।"
"फिर उन्होंने मीरजा के सिर पर हाथ फेरा और कहा,
"बेटा, अगर हर सोच ऐसी हो जाए, तो फिर मज़हब फ़साद नहीं, फसाना बन जाए।"
जिस पर मीरजा अदब से उनके आगे सिर झुकाते हुए , " आप जानती हैं अम्मी , हमारो शब्दों में आपकी तालीम झलकती हैं और एक दिन हम सभी की यह सोच बदलने में जरुर कामयाब होगे कि धर्म और मजहब से बड़ा भी कुछ होता हैं इस धरती पर और वो हैं इंसानियत का रिश्ता । हम वादा करते हैं कि एक दिन हम इस मजहब की सोच को थोड़ा सा बदलने में जरुर कामयाब होगे कि हर औरत को भी मर्दों के समान अधिकार मिले । "
" "और उस दिन आपकी अम्मी इस कौम की सबसे खुशकिस्मत अम्मी होगी , जिन्हें आप जैसा चिराग मिला । " " इतना कहते हुए जुबैदा बैगम रो पड़ी।
जिस पर मीरजा उनके आंसु पोछते हुए , " इन आंसुओं के आपके नयनों में कोई जगह नहीं होनी चाहिए नवाब रानी क्योंकि आपका मीरजा कभी भी अपनी अम्मी को नहीं भूलेगा चाहे वजह कुछ भी हो । "
फिर इसके बाद कुछ रुककर ," अब हमे जाना होगा , आप तो जानती हैं नवाबों के नियम , हम ज्यादा देर आपसे मिल नहीं सकते हैं और इसकी सजा आपको मिले हमे यह भी मंजूर नहीं हैं । "
इतना कहकर मीरजा जा चुका था लेकिन जुबैदा बैगम सिर्फ उसकी पीठ देखती रही और ठंडी आह भरकर " आपका जोश हमें अपने जवानी के दिन याद दिलाता हैं मीरजा , यही जोश और यही चमक हमारी आंखों में भी होती थी लेकिन वक्त के साथ हमें समझ आया कि जिस वक्त हम औरतों की मर्दों की बराबरी तक के ख्वाब देखते थे वह दौर हमारा बचपना भर था । हकीकत की इस दुनिया ने हमें आसमान से जमीन तक लाकर रख दिया जहां औरतों के पैर सिर्फ इज्जत नाम के खौखले अर्फ की बेड़ियों से जकड़े हैं और बहुत जल्द यह दुनिया, यह मजहब तुम्हें भी हकीकत की दुनिया में लाकर रख देगा और हम नहीं चाहेंगे उस वक्त आप अपनी अम्मी की तरह हार मान ले । हम चाहते हैं कि आप हर हाल में सिर उठाये खड़े रहे क्योंकि इसका अंदेशा तो हैं हमें कि आने वाले वक्त में तुम्हारे खिलाफ, तुम्हारे अब्बु भी खड़े होगे । " जुबैदा बेगम एक ऐसी शख्सियत थी जिनके शब्दों का किसी के पास काट नहीं था । वह अधिकतर खामोश रहती थी और जब बोलती तो सामने वाला उनके शब्दों को काटने के काबिल नहीं बचता था । खुद नवाब साहब , उनसे नहीं जीत पाते और अंत में खामोश रह जाते लेकिन जुबैदा बेगम की आवाज उस चारदिवारी में बंद होकर रह गयी ।
इन सब बातों को तीन महिने बीत गये ।
मनमीत अपने वकालात के ऑफिस में बैठी थी जो उसका घर भी था । इस वक्त वो निराश लग रही थी और उसके सामने बैठी समायरा सिर्फ उसे परेशान होते देख रही थी आखिर वो बोल ही पड़ी, " मनमीत मिश्रा के चेहरे पर उदासी जच नहीं रही हैं । अब क्या बात हुई पता भी हैं तुम्हें अपने भाईजान की सगाई छोड़कर यहां सिर्फ आपके लिए आए हैं हम । "
मीत परेशानी से सिर झुकाए, " अब तुमसे कुछ कैसे छूपा सकते हैं समायरा । हमें अपने नाम की तख्ती टांके आज तीन महिने हो गये लेकिन अभी तक एक केस नहीं मिला । लोग चाहते ही नहीं अपने अधिकारों के लिए लड़ना। अब कल की ही बात हैं हम घर ही आ रहे थे तब पास ही एक औरत लगभग अठारह की होगी नहीं , औरत नहीं लड़की, उसको उसका पति बुरी तरह मार रहा था । हमने पुलिस कम्पलेंट करने के लिए कहां और यह भी कहां कि हम खुद उसका केस लड़ेंगें वो भी मुफ़्त में और उस आदमी से छूटकारा दिलायेगे लेकिन वो हम पर ही भड़क उठी "
उसके इतना कहते ही समायरा की हंसी छूट गयी और वह हंसते हुए , " सही में तुमने ऐसा कहां पर क्या तुम्हें अब तक लगता था कि यह सब इतना आसान होगा । जैसा यह दौर हैं ना वकील साहिबा इस दौर में सबसे पहले वो ही तुम्हारे खिलाफ खड़ा होगा , जिसके लिए तुम पुरी दुनिया से लड़ रही हो । तुम्हें क्या लगता हैं कि सब कुछ आसान होगा । तुम उन्हें बताओगी कि औरतों के पास अधिकार बहुत हैं और वो तुम्हारे साथ मिलकर समाज से लड़ेंगी सिर्फ इसलिए कि उन्हें उनके अधिकार मिले तो वकील साहिबा , लगता हैं अब तक गहरे सपने में हैं आप । यह जो समाज हैं ना बहुत चालाक हैं । उसने औरतों की मानसिकता बना दी हैं कि पुरुषों के बीना उनका कोई अस्तित्व नहीं हैं ना सम्मान हैं ना इज्जत हैं और यह बात अब उनके जहन में बहुत अच्छे से छप चुकी हैं कि पति परमेश्वर होता हैं और परमेश्वर की हर इच्छा , पाप को सहन करना गुलाम का कर्तव्य होता हैं । वो क्या हैं ना भक्त तो वो बन नहीं सकती हैं । दुर्गा , काली , गौरी सब सिर्फ मंदिर तक अच्छी लगती हैं बाहर सिर्फ गुंगी गाय ही भाती हैं सबको "
मनमीत सिर्फ खामोशी से उसकी बाते सुन रही थी । वह समायरा के रुकतेही बोली , " तुम्हें क्या लगता हैं हमें यह सब नहीं मालुम हैं । सब कुछ बहुत अच्छे से मालुम हैं कि लेकिन कोशिश करना चाहते थे इसलिए सामने से मदद का हाथ बढाया लेकिन भूलहो गयी हमसे जो उनके लिए लड़ने जा रहे थे , जिन्हें खुद नहीं लड़ना । "
समायरा , " बात तो यह भी हैं ना कि तुम भी एक औरत हो और औरत पर भरोसा कौन करता हैं । डर गहरी खाई हैं मनमीत , जो इंसान की मौत का कारण भी बन जाता हैं । "
द
इधर रानी बाई कोठे पर गहरा कोहराम मचा था । जरीन जो हमेशा अपने कमरे में बंद रहती थी । वह आज गायब थी और इससे रानी बाई की सांसे बिल्कुल अटकी हुई थी । आज बडी किमत लगायी थी उन्होंने उस कमसिन तवायफ की लेकिन वो तो पिंजरे से रिहा पता नहीं कहां घूम रही थी ।
लखनऊ की तंग गलियों से गुजरते हुए वह बार बार पीछे देख रही थी । घबराहट और पसीना पूरे बदन पर छाया था लेकिन चेहरे पर एक अलग चमक थी ।
एक जगह आकर रुक गयी थी वह और गहरी सांसे लेने लगी । चेहरा बिल्कुल लाल हो गया था लेकिन वो बुर्के में ढका हुआ था । वह अपना चेहरा आसमान की तरफ करती हैं तभी एक और बुर्का पहना वजूद उसके करीब खड़ा हो जाता हैं ।
"आज इतने अरसे बाद यूं मुलाकात की वजह " इतना कहकर वह बुर्का पहनी औरत किसी तरफ बैठने की जगह तलाशने लगती हैं ।
"कुछ मुलाकातें बेवजह भी होनी चाहिए , अमारा " इतना कहकर वह उस दूसरी शख्स का हाथ पकडती हैं और उस तंग गली से बाहर आने लगती हैं ।
"पर तुमसे मुलाकातें बेवजह नहीं हो सकती हैं , जरीन " इतना कहकर वह उससे हाथ छुड़ा लेती हैं और एक तरफ आने का इशारा करती हैं ।
""हकीकत इससे अलग हैं अमारा , मेरी क़िस्मत ने मेरे लिए यही चुना था जो मुझे मंजूर करना ही था । तुम यह बताओ कैसी हैं वो ? जिसके लिए बोझ की तरह ढो रही हूं खुदको " इतनाकहकर वह आसमान में कुछ तलाशने लगी ।
"वो तो ठीक हैं , उसको सभी खुशियां मिले इसके लिए ख़ुदको उजाड़ दिया तुमने और तुम्हें दर्द मिले इसके लिए सबकुछ उजाड़ दिया उसने । कैसा रिश्ता हैं ना तुम दोनों का और सबकी समझ से परे भी और तुम्हारे कहने पर मैंने वो कर दिया । जिसके लिए आज सबकी नजरों में बुरी बन गयी मैं । खैर तुमसे दोस्ती निभाने के लिए , मैं तो कुछ भी कर सकती हूं लेकिन तुमसे नफरत निभाने के लिए कोई सबकुछ हारने को तैयार हैं । " इतना कहकर अमारा गहरी सांसे लेने लगी । एक ही सांस में बोलने से उसकी सांसे फूल गयी थी
"लगता हैं उम्रदराज हो गयी हो " , इतना कहकर जरीन उसे संभालने की कोशिश करने लगी ।
अमारा ने कुछ पल देखा और , " पर तुम्हारे साथ , ऐसा नहीं लगता हैं । वैसे कोठे की रौनक और सबसे कमसिन तवायफ जरीन को आज लखनऊ की खुली तंग गलियों में सांसे लेकर कैसा लग रहा हैं । "
धीरे बोलो अमारा , दिवारों के कान होते हैं । आज मैं बहस करने नहीं आयी हूं अमारा बस आखिर बार तसल्ली करना चाहती हूं कि जिनके लिए खुदको इस दलदल में ढकेला, वो सब कैसे हैं क्योंकि पता नहीं दिल घबराता हैं । सांसों में एक डर सा बसा हैं कि ज्यादा वक्त नहीं मेरे पास "
जिस पर अमारा की आंखों से आंसु निकलने लगे , वो ख़ुदको काबु रखते हुए , " सब कुछ ठीक हैं जरीन और मुझे नहीं लगता कि कभी कोई तुम्हें याद भी करेगा लेकिन अफसोस हमेशा रहेगा मुझे कि अपनी दोस्त के लिए मैं कुछ नहीं कर पायी । "
"तुमने मेरे लिए बहुत कुछ किया अमारा लेकिन मेरी किस्मत खराब निकली । एक दलदल से निकली तो दूसरे में आ फंसी। जिंदगी के हसीन लम्हें बस कुछ पल के लिए चले बाक़ी तो बस दर्द भरे निकले । जिसके घाव शायद दफ़न होने के बाद भी ना भर पाये । "
तुम्हें एक बार कोशिश करनी चाहिए उनसे मिलने की ।क्या पता तुम्हारी परिस्थितियों के बारे में जानने पर उनकी नफरत कुछ कम हो । तुम भी जानती हो ना कि किसी की नफ़रत के साथ दफ़न होना भी सुकून नहीं पहुंचा सकता हैं
"उनसे मिलना तसल्ली की बात है अमारा,
मगर डर है, उनके लफ़्ज़ों में अब नाम भी न होगा हमारा।
जिनकी नज़रों में उम्रभर एक दाग़ थे हम,
उनकी याद में मर जाना भी शायद गुनाह होगा ,हमारे लिए ।
मेरे हिस्से की नफ़रत मैं हँस के जी चुकी हूँ,
अब खुदा से दुआ है — मेरा ज़िक्र भी कभी न आये उनकी दुआओं में भुला के।" जरीन के शब्दों से साफ जाहिर था कि अब वह टूट चुकी हैं ।
अमारा अब माहौल बदलने के लिए , " अब हम कब मिलने वाले हैं ।"
शायद कभी नहीं हैं क्योंकि अब मौत करीब सी लगती हैं । इतना कहकर वह उठते हुए , " अब मुझे चलना चाहिए । अल्लाह से दुआ हैं कि हर जन्म तुम ही मित्र के रुप में मिलों क्योंकि एक यही रिश्ता अंत तक रहा मेरे साथ । " जरीन तो चलीगयी लेकिन अमारा बस उसकी पीठ निहारती रही । वह खुद से ,
" शायद खुदा को तुम पर तरस आये तो , तुम्हारी यह दुआ कुबूल हो क्योंकि जिंदगी ने तुम्हें दर्द के सिवा कुछ भी नहीं दिया और शायद खुदा ने भी नहीं "
इतना कहकर वह भी लखनऊ की उन तंग गलियों में कही गायब सी हो गयी ।
जारी हैं ......
आगे ....
गर्मी के दिनों की बात ही अलगहोती हैं । दिन की गर्मी जितनी तपाती हैं रात की ठंडक , उतनाही सुकून पहुचाती हैं । मनमीत आज पहली बार इतनी रात को घर से बाहर निकली थी । डरी हुई थी तो थी वह कि कुछ गलत ना हो जाये क्योंकि लखनऊ एक सुरक्षित जगह नहीं बची थी । इस वक्त , उसने दुप्पटा ओढ़ कर रखा था ताकि उसका चेहरा ना दिखे और साथ ही उसके हाथ कांप रहे थे । मनमीत एक वकील थी और साथ ही अपनी मर्जी की मालिक भी पर जब बात औरत के मन की होती हैं तो अंदर एक डर तो छिपा ही होता हैं ।
चारों तरफ तुफान की नर्मी छायी थी और बार बार होती पत्तों की सरसराहट उसके अंदर एक अलग ही भय उत्पन्न कर रही थी तभी उसे किसी की दबी चीख सुनाई दी और जैसे ही उसकी नजरें चारों तरफ गयी , उसकी सांसे ही अटक गयी । चारों तरफ अंधेरा और दूर दूर तक उस कच्ची सड़क के दोनों तरफ सिर्फ घने पेड़ और उनमें भी दूर दूर तक एक आदमी नहीं दिख रहा था और एक बार फिर उसे दबी सी चीख सुनाई दी और वह उस आवाज का पीछा करने लगी और जैसे ही वह उस तरफ गयी तो सामने एक खंडर में एक आदमी एक सतरह साल के लगभग लड़की को हाथ पकड़ कर खिंच रहा था । उस लड़की के चेहरे और हाथों पर खरोंचों के निशान के साथ कपड़े भी जगह जगह से फट गये थे ।
इस तरह के नजारे से मनमीत का पहली बार सामना हुआ था और घबराहट से उसके हाथ कांपने लगे , डर से वो जाने के लिए पीछे मुड़ने लगी लेकिन फिर रुक सी गयी और सोचने लगी कि एक तरफ वह वकील बनकर लोगों को इंसाफ दिलाने का काम करना चाहती थी और आज दूसरी तरफ जब उसे किसी को इंसाफ दिलाने का मौका मिला तो वो पीठ दिखाकर भागने का सोच रही थी तो क्या यही उसकी वो बड़ी बड़ी बाते थी जो किया करती थी ।क्या किसी को इंसाफ दिलाने के लिए उसका वकील होना जरुरी था ? उसके मन से सिर्फ एक आवाज आ रही थी - नहीं , उसे सिर्फ एक इंसान बनने की जरुरत थी ।
आज यह काली रात मनमीत की जिंदगी का एक नया अध्याय शुरू करने वाली थी । सबसे पहले उसने गहरी सांस ली और अपने साथ लाये थैले में से एक काली ओढ़नी निकालकर पहन ली और हिम्मत करके एक पास रखी लकड़ी का डंडा उठाया और धीरे धीरे आगे बढ़ने लगी। उस आदमी की पीठ , मनमीत की तरफ थी और उसने बुरी तरह से उस लड़की का हाथ और मुंह दबोच रखा था । मनमीत ने पूरी ताकत लगा कर वह डंडा उसके सिर पर मार दिया पर उसने इतनी भी ताकत से नहीं मारा था कि वह मर ही जाता लेकिन इस पल के लिए वह दर्द से कहराते हुए नीचे घिर गया और तब तक मनमीत उस लड़की का हाथ पकडकर उस कच्ची सड़क पर भागने लगी । रात के इस सन्नाटे में उसे अब अंधेरे का नहीं उस आदमी का डर लग रहा था और इस वक्त उसे सिर्फ और सिर्फ एक सुरक्षित जगह चाहिए थी ।
मीरजा आज बहुत दिनों बाद नवाब महल से बाहर निकला था और उसका दिल बड़ा बैचेन था और रात की बहती ठंडी हवा भी उसके कलेजे को सुकून नहीं पहूंचा सकती थी और पूराने जमाने की कार चलाते हुए वह आज शाम की ही घटना में खो गया ..
शामका समय था जब वह हमेशा की तरह मनमीत की उस डायरी को पड़ रहा था ।
रिश्ते वही अच्छे होते हैं, जो दिल से निभाए जाएँ,
जहाँ हर लफ़्ज़ में अपनापन हो, और जज़्बात मुस्काए जाएँ।
जिम्मेदारी समझ कर जो रिश्ता निभाया जाता है,
वक़्त के साथ वो बस इक बोझ बनकर रह जाता है।
बेमन से जो साथ चले, वो हमसफ़र नहीं होते,
रूह से जुड़ें जो रिश्ते, वही असल में सही होते।
दिल का हो संग, तो राहें आसान बन जाती हैं,
वरना दिखावे की दुनिया में साँसें भी थक जाती हैं।
वह अगला पन्ना पलटता तब तक उसे एक सेवक बुलाने आ गया और कुछ देर बाद वह अपने अब्बू, नवाब मिर्जा साहब के सामने खड़ा था जो उससे कह रहे थे कि वो चाहते हैं कि वह उनके दोस्त की बेटी आहिरा कुरैशी से निकाह कर ले क्योंकि अब उसकी उम्र निकाह के लायक हो गयी थी लेकिन मीरजा , जो कभी न तो निकाह के लिए तैयार था और ना ही आहिरा उसे बचपन से पसंद थी ।
उसकी नज़रों में आहिरा एक मगरुर , घमंडी और लापरवाह लड़की थी जिसे अपने बाप की दौलत पर बड़ा घमंड था और ऐसी लड़की अगर उसकी जिंदगी में आती तो वह सिर्फ एक खंडर जमीन बनकर रह जाता ।
मीरजा को समझ थी कि उसके अब्बू बड़े ही जिद्दी किस्म के इंसान थे और अगर वह उनको साफ मना करता तो वह उसके पीछे पड़ जाते और किसी तरह उसका निकाह , आहिरा से ही करवाकर मानते इसलिए उसने अभी के लिए बात टालने के उद्देश्य से - अब्बू अभी हमारा निकाह करने का कोई मन नहीं हैं और आप तो जानते हैं ना कि अभी हमें अपनी जिंदगी में किसी की दखदांजी पसंद नहीं हैं लेकिन एक उम्र के बाद हमें भी ठहरना होगा और तब हम आहिरा के बारे में जरुर सोचेंगे ।इतनाकहकर वह निकल तो गया वहां से लेकिन अब उसका मन बहुत बैचेन था । जैसे बहुत किमती उससे छूट रहा हो और जैसे ही मीत नाम उसके होंठों पर आया , उसका मन अपने आप शांत हो गया और इसी के साथ वह वर्तमान में लौट आया ।
मीरज़ा की गाड़ी अब पुराने शहर की तंग गलियों से निकल कर उस वीरान रास्ते की ओर बढ़ रही थी जहाँ मनमीत का डर, उसका हौसला बन गया था। वो रास्ता जो किसी को भी खौफ़ज़दा कर दे, वहाँ उस लड़की ने इंसानियत की एक नई मिसाल क़ायम की थी। और मीरज़ा... उसकी सोच अभी भी उसी डायरी के लफ़्ज़ों में उलझी हुई थी, जहाँ हर सफ़्हे पर एक ख़ामोश चीख़ छुपी थी।
कभी-कभी ख़ामोशी भी सदा बन जाती है,
औरत जब बोले ना, तब भी फ़साना बन जाती है।
इंसाफ़ की राह मुश्किल ज़रूर है,
मगर जब जज़्बा हो दिल में, तो हर तूफ़ान आसान लगने लगता है।
वह उस डायरी पर एक हाथ से हाथ फेरते हुए , खुद से ही - आप वो आवाज हैं मीत जो हर किसी को खौफजदा कर दे । अपनी अम्मी के बाद आप वह पहली औरत हैं जो हमारे मन पर एक गहरी छाप छोड़ गयी । आपकी यह डायरी हमें औरतों की दर्द भरी जिंदगी के उन पन्नों से मिलाती हैं जो लोगों की नजरों में कभी आये भी नहीं होगे । वो चीख जो हमेशा खामोशी की परतों में दब जाती हैं या फिर वह दर्द जो सिर्फ घूटकर रह जाता हैं .. नहीं जानती आप कि आपने हमें क्या किमती दिया हैं ? लेकिन आपकों हम अपनी जिंदगी में जरुर शामिल करके रहेंगे । जानते हैं रास्ता कठीन हैं लेकिन हम भी कच्चे खिलाड़ी नहीं ... आप हमारी रुह में क्षमा चुकी हैं और रुह शरीर से जुदा हो जाये तो सिर्फ सांसे ही निकलते हैं शरीर से ।
लखनऊ की तंग गलियों में गायब हुई जरीन अब कोठे पर पहूंची थी । चेहरे को नकाब से जरुर ढक रखा था उसने लेकिन उसमें से आती इत्र की खुशबू आज एकबार फिर उस कोठे को महका गयी जो लगभग बीस साल से जरीन का आशियाना था । अमारा से मिलना उसका मक़सद नहीं था लेकिन उससे मिलकर किसी के बारे में जानना उसका मकसद था और तब से वह सुकून महसूस कर रही थी लेकिन जैसे। ही उसने कोठे के उस बड़े से आंगन में कदम रखा तो आज फिर तमतमाते चेहरे के साथ रानी बाई हाथ में पान का बीड़ा लिए अपने झूले पर बैठी थी और जैसे ही जरीन ने अंदर कदम रखा
जारी हैं .....
आगे ....
मनमीत अभी भी उस लड़की को पकड़े भाग रही थी और उस सुनसान सड़क पर वह पीछे मुड़ मुडकर देख रही थी कि वह आदमी पीछा तो नहीं कर रहा । उस सुनसान सड़क पर उसे दूर दूर तक कोई नहीं दिख रहा था । इस वक्त उसके दिमाग में सिर्फ एक चीज चल रही थी कि किसी भी तरह उसे , उस लड़की को बचाना था ।
इधर मीरजा अपनी ही सोच में गुम सिर्फ कार चला रहा था और अचानक ही हैडलाइट के फोकस में उसे अचानक ही अपनी कार के सामने दो लड़कियां दिखाई दी और अचानक से उसे कार में ब्रैक लगाना पड़ा ।
और ब्रेक लगते ही उसने गहरी सांस ली क्योंकि उन दोनों लड़कियों को कुछ नहीं हुआ था ।
वह हड़बड़ी में कार से बाहर निकला । इधर डर और घबराहट के मारे उस लड़की को अपने पीछे कर दिया और खुद आगे आकर खड़ी हो गयी । उस अंधेरी रात में , उसे सिर्फ एक लम्बे चौड़े आदमी की परछाई दिखाई दी जो कार से निकलकर उनकी तरफ भी बढ़ रहा था ।