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मै सिर्फ तुम्हारी हु

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Aarushi Thakur

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ये कहानी है एक सिंपल सी लड़की साँझ की जिसके लिए अपने परिवार से बढ़कर कोई नहीं  और दूसरी तरफ सात्विक स्मार्ट, चार्मिंग और डेसिंग ।  । एक रोज किस्मत इन दोनों को सामने लेकर आयी और सात्विक को पहली नजर मे हो गया साँझ से प्यार क्या कभी इनके प्यार परवान चढ़ेगा...

Total Chapters (14)

Page 1 of 1

  • 1. मै सिर्फ तुम्हारी हु - Chapter

    Words: 535

    Estimated Reading Time: 4 min

    वक्रतुण्ड महाकाय सूर्यकोटि समप्रभ निर्विघ्नं कुरु मे देव सर्वकार्येषु सर्वदा।

    "ये कहानी है एक सिंपल सी लड़की साँझ की, जिसके लिए उसके परिवार से बढ़कर कुछ नहीं। दूसरी तरफ है सात्विक — स्मार्ट, चार्मिंग और डैशिंग। एक रोज़ किस्मत इन्हें आमने-सामने ले आई और सात्विक को साँझ से पहली नज़र में ही प्यार हो गया।
    क्या उनका प्यार परवान चढ़ेगा?
    क्या इन दोनों के बीच कोई रिश्ता बनेगा?
    क्या होगा जब साँझ को मिल जाएगा कोई ऐसा, जो उसे हद से ज्यादा चाहे?
    क्या वे दोनों कभी करीब आ पाएंगे?
    या फिर साँझ की ज़िंदगी में कोई और आ जाएगा?
    या इनके रास्ते हमेशा के लिए जुदा हो जाएंगे?

    जानने के लिए पढ़िए — "मैं सिर्फ तुम्हारी हूँ!""




    यह कहानी है हमारी साँझ की —

    (हाइट 5'5", रंग गेहुआँ, काली आँखें, लंबे काले घने बाल, और पतली सी हमारी साँझ। उम्र — 17 साल।)

    साँझ के परिवार में हैं — उसकी दादी शांति देवी, (दादाजी अब नहीं हैं, पर उनका नाम और इज्जत समाज में आज भी बनी हुई है), पापा कन्हैया मिश्रा और माँ राधिका मिश्रा, बड़ा भाई अतुल मिश्रा, चाचा संतोष मिश्रा, चाची कांता मिश्रा, और उनकी दो बेटियाँ दिशा और रिचा।

    यह है हमारी साँझ का संयुक्त परिवार — जो संयुक्त होते हुए भी वास्तव में संयुक्त नहीं है।

    साँझ का परिवार — यानी कन्हैया जी, राधिका जी, साँझ और अतुल — पहले पंजाब में रहते थे। वहाँ उनका अपना छोटा-सा घर भी था। लेकिन साँझ अब यहाँ पढ़ने के लिए आ गई है क्योंकि उसका परिवार धीरे-धीरे यहाँ शिफ्ट होना चाहता है।

    अतुल विदेश जाना चाहता है, और बाहर जाने से पहले वह चाहता है कि उसके माता-पिता बिहार लौट जाएँ — ताकि उन्हें कोई तकलीफ़ ना हो।

    लोग अपना घर-बार छोड़कर किसी और जगह तभी जाते हैं जब कोई मजबूरी हो… या फिर कुछ और कारण होते हैं।
    क्या वजह थी? वो तो आगे कहानी में पता चलेगा…
    तो चलिए, आगे बढ़ते हैं।
    फिलहाल कन्हैया जी और उनका परिवार अपने गाँव वाले घर आ गए हैं।

    कुछ दिनों पहले वे अपने भाई के यहाँ थे, वहीं उन्होंने साँझ के एडमिशन की बात चलाई थी।

    अब जब गाँव आ गए हैं, तो मामी का फ़ोन आया है कि "रुपाली के साथ जाकर आज ही एडमिशन करवा लो, उसने किसी से बात की है, आज एडमिशन हो जाएगा।"

    अब आते हैं हमारे हीरो पर —
    सात्विक झा।
    रंग साफ, गहरी काली आँखें — ऐसी कि कोई देखे तो उनमें खो जाए।
    गुस्सा कम आता है, लेकिन जब आता है तो तूफान ला देता है।
    उम्र — 21 साल।
    हाइट — 6'1''।

    बिहार की एक यूनिवर्सिटी के बोर्ड ऑफ ट्रस्टी के बेटे हैं। यूनिवर्सिटी का नाम है सत नारायण इंस्टिट्यूट (काल्पनिक नाम)।
    पिता का नाम — आदर्श झा, जो न सिर्फ यूनिवर्सिटी बोर्ड के ट्रस्टी हैं, बल्कि उसी कॉलेज के प्रिंसिपल भी हैं।
    माँ का नाम — रमा झा।
    सात्विक पढ़ाई में तेज़ है, और फिलहाल  एक स्टेट फुटबॉल चैंपियनशिप के लिए सिलेक्ट हुआ है।

    अब आगे की कहानी... अगले भाग में
    आपसे एक गुज़ारिश है —
    कृपया अपने सुझाव और राय ज़रूर दीजिएगा,
    ताकि मुझे आगे लिखने की प्रेरणा मिलती रहे।
    अगर कोई गलती हो तो कृपया बताइए,
    ताकि मैं उसे सुधार सकूँ और बेहतर लिख सकूँ।

    धन्यवाद। 🙏
    आरुषि ठाकुर ✍🏻

  • 2. मै सिर्फ तुम्हारी हु - Chapter 1

    Words: 875

    Estimated Reading Time: 6 min

    तो चलिए, कहानी को शुरू करते हैं... अब आगे —

    "माँ, मैं जा रही हूँ," साँझ ने कहा।

    उसने नीले रंग का सूट-पलाज़ो पहना था। बालों को साइड में करके एक चोटी बनाई थी। बिल्कुल सिंपल तरीके से तैयार हुई थी — न कोई मेकअप, न कोई दिखावा।

    "अरे रुक! तेरा कॉलेज का पहला दिन है... तेरे लिए दही-चीनी खा ले। भगवान करे आज तेरा एडमिशन हो ही जाए," राधिका जी ने दही-चीनी की कटोरी से एक चम्मच भरकर साँझ के मुँह के आगे करते हुए कहा।
    साँझ ने भी चुपचाप अपना मुँह खोल लिया।
    राधिका जी ने दही से भरा चम्मच उसके मुँह में रखते हुए कहा,
    "बेटा, कॉलेज जा रही है... अच्छे से पढ़ाई करना, ठीक है?"

    साँझ ने हँसते हुए कहा, "मम्मा, आज तो बस फॉर्म जमा करवाने जा रहे हैं। पढ़ाई कहाँ से आ गई बीच में? और पहले ये तो देखना है कि फॉर्म मिलते भी हैं या नहीं... आप भी ना!"

    राधिका जी हल्का सा मुस्कराईं और बोलीं,
    "तू ऐसे क्यों बोल रही है? हो जाएगा एडमिशन। और अगर नहीं हुआ तो क्या हुआ, कॉलेज खत्म थोड़ी ही हो गए हैं? मामा हैं ना, वो कुछ करेंगे। और उनसे भी नहीं हुआ तो फिर पंजाब में ही एडमिशन करवा दूंगी। ठीक है?"
    कन्हैया जी ने कहा, "अच्छा बेटा, तुम जाओ।"

    साँझ ने सिर हिलाया और वहाँ से जाने लगी, तभी पीछे से आवाज़ आई, "ए पागल, रुक!"

    साँझ ने मुड़कर घूरते हुए देखा और कहा, "तू ही पागल! फिर मुँह बनाते हुए बोली, "बोल क्या है?"
    अतुल ने कहा, "कहाँ जाना है? बता, मैं छोड़ देता हूँ।"

    साँझ ने कहा, "अरे, नार्मल सी बात है... मामा के यहाँ ही जा रही हूँ, रुपाली के साथ।"

    अतुल ने मुस्कराते हुए कहा, "चल, बैठ।"

    साँझ ने उसे देखते हुए थोड़ी शरारत से पूछा, "पर भाईजी, तुम्हें रास्ता पता है? मतलब, सच में वहाँ तक छोड़ आओगे?"
    "नहीं, मैं भी जा रहा हूँ तुम्हारे साथ," अतुल ने कहा।

    "तू कहाँ जाएगा? वैसे भी दो दिन बाद तो निकलना ही है। इसे जाने दे, अभी इसका जाना ज़रूरी है," राधिका जी ने आवाज़ लगाते हुए कहा, "संतोष भइया, आप इसे रास्ते में छोड़ दीजिएगा।"
    "जी भाभी," संतोष जी बाहर आते हुए बोले।
    साँझ भी उनके साथ जाकर बाइक पर बैठ गई। और वे दोनों घर से निकल गए।

    दूसरी तरफ —
    सात्विक फोन पर बात करते हुए बोला,
    "कहाँ रह गया तू? मैं कब से इस 'S. N. कॉलेज' के बाहर तेरा इंतज़ार कर रहा हूँ!"
    "तू है कि आने का नाम ही नहीं ले रहा। एक तो ऊपर से इतनी गर्मी... और तेरे चक्कर में आधे घंटे से खड़ा हूँ। जल्दी आ, वरना आज बहुत पिटेगा!"
    फोन के दूसरी तरफ से आवाज़ आई, "आ गया भाई... बस पाँच मिनट!"

    "तुम्हारे ना लड़कियों जैसे हाल हैं — पाँच मिनट, पाँच मिनट करता रहता है, जो खत्म ही नहीं होते" सात्विक ने झुंझलाते हुए कहा।

    उधर, साँझ रुपाली के घर पहुँची।
    संतोष जी बाइक लेकर वहाँ से चले गए और साँझ अंदर आ गई। क्योंकि वे अपने काम के लिए लेट हो रहे थे। प्राइवेट बैंक में जॉब करते हैं, इसलिए साँझ को पता था कि उन्हें रोकना ठीक नहीं होगा, इसीलिए उसने अंदर आने को नहीं कहा।

    साँझ अंदर आते हुए बोली, "प्रणाम मामी।"
    रुपाली की माँ मुस्कुराते हुए बोलीं, "खुश रहो बेटा।"
    "मामी, वो... रुपाली?" साँझ ने पूछा।
    "अंदर कमरे में है, चली जाओ," रुपाली की माँ ने कहा।

    साँझ कमरे में गई और बोली, "ए! तू अभी तक तैयार भी नहीं हुई? जाने का मन है कि नहीं? तेरे कारण मैं इतनी सुबह-सुबह आ गई हूँ!"

    रुपाली ने मुस्कुराते हुए कहा, "जाना है न, तेरा ही इंतज़ार कर रही थी।"

    "अच्छा छोड़, पहले जा कर तैयार हो जा," साँझ ने कहा।

    "तू पानी पियेगी?" रुपाली ने पूछा।

    "नहीं, पहले तू तैयार हो ले," साँझ ने जवाब दिया।

    "ओके ओके, जा रही हूँ... पहले कपड़े तो निकाल लूँ!" रुपाली ने हँसते हुए कहा।

    रुपाली ने अलमारी से कपड़े निकाले और वॉशरूम में चली गई। उसी वक्त, रुपाली की माँ कमरे में आईं और साँझ से पूछा, "और बेटा, पानी पियोगी?"

    "जी मामी," साँझ ने मुस्कुरा कर कहा।

    कुछ ही देर में रुपाली वॉशरूम से बाहर आई। साँझ ने उसे देखा और बोली, "जल्दी कर, कितना टाइम लगाएगी?"

    "कर रही हूँ यार!" रुपाली ने हँसते हुए जवाब दिया।
    रुपाली जल्दी-से तैयार हो गई। उसने ब्लैक जीन्स और ग्रे रंग का लॉन्ग टॉप पहना था। बालों को ऊपर बाँध कर पोनीटेल बनाई थी और आँखों में हल्का काजल लगाया था।

    रुपाली ने साँझ को देखते हुए पूछा, "कैसी लग रही हूँ?"

    साँझ ने एक नजर उसे देखा और मुस्कुराते हुए कहा, "बहुत सुंदर लग रही हो।"

    "वो तो मैं हूँ," रुपाली ने हंसी में कहा।

    साँझ ने चिढ़ाते हुए कहा, "तो पूछा क्यों?"

    "बस, अच्छा लगता है यार," रुपाली ने थोड़ी शरारत से कहा।

    साँझ ने रुपाली से कहा, "अच्छा, चल अब बहुत लेट हो गया है!"

    "अरे यार, तू टेंशन मत ले, मैं हूँ ना! चल, अब चलते हैं," रुपाली ने कहा।


    क्या रुपाली और साँझ का एडमिशन हो पाएगा? क्या वे समय पर पहुँचेंगे? सात्विक किसका इंतजार कर रहा था?

    आज के लिए अलविदा 🙏

    प्रणाम!

    कृपया अपने विचार जरूर दीजिएगा, ताकि मुझे आगे लिखने की प्रेरणा मिल सके और मुझे मेरी गलती भी बताइए, जिसे मैं सुधार सकूँ।
    ~आरुषि ठाकुर ✍🏻

  • 3. मै सिर्फ तुम्हारी हु - Chapter 2

    Words: 1046

    Estimated Reading Time: 7 min

    जय श्री राम 🙏🏻

    अब आगे,
    कॉलेज के लिए निकलते हुए दोनों ने दरवाज़ा खोला ही था कि पीछे से रुपाली की माँ की आवाज़ आई, "बच्चे, कुछ खा तो लो। खाली पेट मत जाया करो।"
    रुपाली ने पलटकर मुस्कराते हुए कहा, "नहीं माँ, आज भूख नहीं है।"
    माँ की आँखों में हल्की सी चिंता झलक गई। फिर भी उन्होंने प्यार से कहा, "ठीक है, पर ध्यान से जाना।"
    "ओके माँ," रुपाली ने हल्के से सिर हिलाते हुए कहा।
    फिर दोनों बाहर निकलीं। सड़क पर कुछ पल खड़ी रहीं, फिर एक ऑटो रोका और एस.एन. कॉलेज की ओर रवाना हो गईं।

    रुपाली ने ऑटो वाले से कहा, "भइया, जल्दी करिए।"
    ऑटो वाला मुस्कराते हुए बोला, "मैडम, ऑटो है हवाई जहाज़ नहीं। चला तो रहा हूँ, उड़ा तो सकता नहीं हूँ।"
    रुपाली ने चिढ़कर कहा, "ठीक है, ठीक है, बातें मत बनाओ... ऑटो चलाओ हाँ!"
    फिर साँझ की ओर देखते हुए वह बोली, "मैं आदित्य को फोन करती हूँ।"
    साँझ ने हाँ में सिर हिला दिया।
    रुपाली ने मोबाइल निकाला और कॉल मिलाते हुए कहा, "हेलो।"
    दूसरी तरफ से आवाज़ आई, "हाय... तेरे ही फोन का इंतज़ार कर रहा था।"
    रुपाली हँसते हुए बोली, "अच्छा! मुझे याद कर रहे थे? वैसे मैं हूँ ही याद रखने वाली चीज़।"

    "हो गया तुम्हारा?" आदित्य ने थोड़े गुस्से में कहा।

    "तुम मुझ पर गुस्सा कर रहे हो?" रुपाली ने थोड़ी तेज़ आवाज़ में कहा।
    "तुम मुझ पर गुस्सा कैसे कर सकते हो, आदि?" वह बोली, आवाज़ में नाराज़गी साफ़ झलक रही थी।
    "तुमने टाइम देखा है? क्या पता है तुम्हें, कितनी देर हो चुकी है?" आदित्य ने तीखे लहजे में कहा।
    रुपाली ने जवाब दिया, "हाँ तो? तुमने ही तो कहा था — 'ईज़ीली हो जाएगा तुम्हारा एडमिशन!'"

    आदित्य ने कहा, "हाँ, पर इसका ये मतलब थोड़ी है कि इतनी देर कर दो। खैर, अब कहाँ हो?"
    "अभी तो गोल चौक पार किया है," रुपाली ने जवाब दिया।
    आदित्य बोला, "तुम बस कॉलेज पहुँचो, मैं वहीं आ रहा हूँ।"
    "ओके," कहकर रुपाली ने कॉल काट दिया।
    साँझ ने मुस्कराते हुए पूछा, "क्या हुआ, मिस झा?"
    "कुछ नहीं, बस भड़क गया था," रुपाली ने मुँह बनाकर कहा।

    "तेरी हरकतें ही ऐसी हैं कि कोई भी भड़क जाए," साँझ ने कहा।
    "हाहाहा... वेरी फनी!" रुपाली ने ताना मारते हुए कहा।
    "अच्छा फनी था? पर मुझे तो इसमें हँसी नहीं आई। चल एक काम कर, तू ही हँस ले... तेरा मूड ठीक हो जाएगा," यह कहकर साँझ मन ही मन हँसने लगी।
    रुपाली ने कहा, "मिस मिश्रा, आप हमारा कुछ ज़्यादा मज़ाक नहीं बना रही क्या?"
    "अच्छा! मैं मज़ाक बना रही हूँ? मुझे तो पता ही नहीं था," मासूम सा चेहरा बनाते हुए साँझ ने कहा।
    उधर, आदित्य कॉलेज के बाहर आ चुका था। उसने गेट के पास खड़े एक लड़के के कंधे पर हाथ रखा।
    जैसे ही वो लड़का पलटा, आदित्य ने कानों पर हाथ रखकर कहा, "सॉरी-सॉरी-सॉरी! मैं जानता हूँ, बहुत लेट हो गया हूँ। पर आज देख लेना, जो कहा था वो कर ही दूंगा। और हाँ, दो सीट रिज़र्व रखना... प्लीज़!"

    उस लड़के ने अपनी आँखों से गॉगल्स हटाए और गुस्से से उसे घूरते हुए बोला, "दो घंटे से तेरा वेट कर रहे हैं, और अब आकर ऊपर से बोल रहा है कि सीट भी रिज़र्व रखें? क्यों बे, तेरे बाप का कॉलेज है क्या?"

    आदित्य ने मुस्कराते हुए कहा, "अरे भाई, गुस्सा क्यों हो रहे हो? हमारे बाप का ना सही, तेरे बाप का तो है ना कॉलेज... तो थोड़ा एडजस्ट कर ले, प्लीज़।"
    "नहीं!" उसने साफ़ मना करते हुए कहा, "तुम्हारी गर्लफ्रेंड है, तुम जानो!"

    आदित्य ने हँसते हुए सात्विक की ओर देखा और बोला, "तुम्हारी गर्लफ्रेंड नहीं है ना, इसलिए ऐसे बोल रहे हो। जब होगी ना, तब पता चलेगा... हहह!"

    हाँ, ये और कोई नहीं, हमारा हीरो — सात्विक ही है।

    सात्विक ने ताना मारते हुए कहा, "हो गया तेरा? हमें तुम्हारी तरह नहीं पड़ना — आज एक, कल दूसरी, परसों तीसरी!"

    थोड़ा रुककर वो फिर बोला, "अच्छा, एक सीट तो समझ आया... पर दूसरी किसके लिए?"
    आदित्य ने तपाक से कहा, "उसकी बहन है... मेरा मतलब, उसकी कजिन है, फुआ की लड़की।"

    सात्विक ने चिढ़कर कहा, "वैसे, सब का ठेका तू ही ले कर रखता है... मेरे सिर क्यों डाल देता है? कभी कुछ, कभी कुछ!"

    आदित्य ने रिक्वेस्टिंग टोन में कहा, "अरे भाई, बस एक बार और... प्लीज़!"
    "और ये एक और बार, कितनी बार और रिपीट होगा?" सात्विक ने पूछा।
    आदित्य कुछ बोलता, उससे पहले ही गेट के पास से आवाज आई।
    "आदि!" रुपाली ने आदित्य को हवा में हाथ हिलाते हुए आवाज़ लगाई।
    आदित्य मुस्कराते हुए बोला, "आ गई!"
    सात्विक जैसे ही पलटने वाला था, सामने से किसी ने उसे आवाज़ दी, "सात्विक भइया!"
    सात्विक ने पलटते हुए कहा, "हाँ, कहो नीरज?"
    "भइया, आपको प्रिंसिपल सर ने बुलाया है," नीरज ने कहा।
    "ठीक है, चलता हूँ," सात्विक ने कहा।
    आदित्य ने हंसते हुए कहा, "अरे भाई, मेरा काम तो छोड़ दिया!"
    "नीरज, जा कर उन दोनों को दो एक्स्ट्रा फॉर्म दिलवा दे," सात्विक ने नीरज से कहा।
    "पर भइया, वो एडमिशन तो बंद हो चुका है। जो टाइम आज के लिए था, वो तो अब ओवर हो गया है," नीरज ने कहा।

    "हाँ, लेकिन मेरी बात हो चुकी है। तुम बस मेरा नाम ले लेना या फिर मेरी फोन पर बात करवा देना," सात्विक ने कहा।

    "चलो आदि," सात्विक ने आदित्य से कहा।

    आदित्य ने कहा, "अरे रुक, माना कि जाना है, पर पहले तो उन्हें समझा दूं। उन्हें तो कुछ पता ही नहीं होगा।"
    "एक तो तेरा इंतजार करते-करते इतना टाइम हो गया, ऊपर से अभी तक तेरे नखरे ख़त्म नहीं हुए," सात्विक ने कहा।

    आदित्य ने मुस्कराते हुए कहा, "बस एक मिनट, उसे सब समझा देता हूँ।"
    आदित्य ने रुपाली को बताया कि नीरज के साथ चली जाए। फिर वापस आकर उसने सात्विक से कहा, "चल भाई, चले!"
    सात्विक ने सिर हिलाकर हाँ में जवाब दिया और दोनों वहां से निकल पड़े।
    दोनों प्रिंसिपल के ऑफिस की ओर चल पड़े।
    इधर, साँझ और रुपाली नीरज के पीछे-पीछे चल दीं।

    सात्विक और आदित्य प्रिंसिपल के ऑफिस क्यों गए?

    साँझ क्यों बिहार शिफ्ट हो रही थी?

    इन सवालों के जवाब जानने के लिए पढ़ते रहिए, "मैं सिर्फ तुम्हारी हूँ!"

    आज के लिए अलविदा 🙏
    प्रणाम 🙏

    प्लीज़, अपने ओपिनियन जरूर दीजिएगा, ताकि मुझे आगे लिखने की प्रेरणा मिले और कोई भी गलती हो तो उसे सुधार सकूँ। 🙏

    ~आरुषि ठाकुर ✍🏻

  • 4. मै सिर्फ तुम्हारी हु - Chapter 3

    Words: 1097

    Estimated Reading Time: 7 min

    जय श्री राम 🙏🏻
    अब आगे,
    नीरज ने कहा, "इस तरफ, इस तरफ आओ।"
    वे दोनों उसी ओर चल दीं।
    रिसेप्शन पर पहुंचने के बाद नीरज ने कहा, "अलका।"
    "हाँ, बोल," अलका ने कहा।
    सांझ और रुपाली सोच रही थीं कि ये ऐसे कैसे बात कर सकता है।
    "अच्छा, वो तुम्हारी सात्विक भाई से बात हुई थी?" नीरज ने कहा।
    "हाँ, वो मैंने निकलवा दिए हैं। ये फॉर्म भर के तुम उधर राइट साइड वाले ऑफिस में जमा कर देना," अलका ने कहा।
    "ओके," नीरज ने जवाब दिया।
    नीरज ने उन दोनों को फॉर्म देते हुए कहा, "इन्हें भर लो। और अगर कोई हेल्प चाहिए तो मुझे बता देना, मैं कर दूंगा।"
    उन्होंने फॉर्म लिया और भरने लगीं। पर तभी रुपाली ने कहा, "आप ही कर दीजिए... हेल्प प्लीज़।"
    नीरज ने कहा, "दीजिए, मैं कर देता हूँ।"
    वो सारी डिटेल्स पूछता गया और रुपाली बताती गई।
    फॉर्म भर जाने के बाद नीरज ने पूछा, "अच्छा, यहां फोटो लगानी है। क्या आप फोटो लेकर आए हो?"
    रुपाली ने सिर हिलाते हुए कहा, "हाँ।"
    "ओके, यहां चिपका दीजिए," नीरज ने कहा। फिर साँझ की ओर रुख करते हुए पूछा, "आपको कोई हेल्प चाहिए?"
    "जी हाँ," साँझ ने कहा, "यहां समझ नहीं आ रहा कि ग्रेड कैसे लिखूं—परसेंटेज में या नंबर में?"
    "दीजिए," नीरज ने साँझ के हाथ से फॉर्म लेकर भरना शुरू किया और उससे मार्क्स पूछने लगा।
    उसने 12वीं का सर्टिफिकेट हाथ में लेते हुए कहा, "आप पंजाब से यहाँ?"
    "हाँ, क्यों? आ नहीं सकती?" साँझ ने मुस्कुराते हुए कहा।
    "अरे नहीं, ऐसी बात नहीं है," नीरज ने जल्दी से सफाई दी।
    "पर आप यहाँ क्यों आईं?"

    "बस... मन किया," साँझ ने कंधे उचका कर कहा। फिर थोड़ी हँसी दबाते हुए बोली, "आप इतनी इन्वेस्टिगेशन क्यों कर रहे हो? पहले ये काम कर लो, फिर तसल्ली से सब बता दूंगी। क्योंकि वैसे ही बड़ी मुश्किल से एडमिशन मिल रहा है — तरले मिन्नतें करके।"

    "वो तो बस ऐसे ही पूछा... वैसे, पंजाब में कहाँ रहती थीं आप?" नीरज ने बात आगे बढ़ाते हुए कहा।
    साँझ ने उसे घूरा — जैसे आँखों ही आँखों में कह रही हो, "पहले फॉर्म जल्दी से भर दो और जमा करवा दो, बाकी बातें बाद में आराम से करेंगे।"
    "करता हूँ..." नीरज ने उसकी वो लुक देखकर फटाफट कहा।
    दूसरी तरफ — प्रिंसिपल ऑफिस
    आदित्य और सात्विक दोनों प्रिंसिपल के ऑफिस में खड़े थे।

    "तुम दोनों को प्रैक्टिस करने का मन है या नहीं? कॉलेज की चैंपियनशिप सिर पर है — और तुम दोनों, आदित्य और सात्विक, जानते हो कि टीम को लीड कर रहे हो। फिर भी इतनी लेट?
    और सात्विक... तुमसे तो मुझे ये उम्मीद नहीं थी!"

    "सॉरी सर, आगे से ऐसा नहीं होगा," सात्विक ने कहा।
    "अच्छा सात्विक, एक और बात — क्या तुमने दो सीट पहले से रिज़र्व की थीं?" प्रिंसिपल ने पूछा।
    "जी, सर," सात्विक ने कहा।
    "और वो क्यों?" प्रिंसिपल सर ने सख़्त लहजे में पूछा।
    "वो... सर..." सात्विक को कोई बहाना नहीं सूझ रहा था।
    "वो — क्या?" प्रिंसिपल ने उसकी तरफ सीधी नज़र डालते हुए कहा।
    "सर... वो..." सात्विक ने धीरे से कहा।
    "I am waiting for your answer," प्रिंसिपल ने ठंडी लेकिन गंभीर आवाज़ में कहा।
    "तुम्हें पता है, मेरे पास श्रीज जी का फ़ोन आया था," प्रिंसिपल सर ने गुस्से में कहा। "वो सीटें मैंने पहले ही अलॉट कर दी थीं। सीटें लगभग फुल थीं, और ऊपर से तुमने आकर वो दोनों सीट किसी और को दे दीं। क्यों?"

    आदित्य ने झट से कहा, "वो सर... आप श्रीज झा की बात कर रहे हैं?"

    प्रिंसिपल ने उसे घूरते हुए कहा, "हाँ। क्यों?"
    "सर, वो श्रीज झा की ही बेटी और भांजी हैं," आदि ने कहा।
    "क्या? लेकिन तुम ये कैसे जानते हो? क्या वो तुम्हारी कोई रिश्तेदार हैं?" प्रिंसिपल सर ने हैरानी और संदेह से पूछा।

    ____

    नीरज ने सांझ को उसका फॉर्म देते हुए कहा "लीजिए, हो गया!"

    फिर उसने साँझ की तरफ देखा और मुस्कराते हुए कहा,
    "अब आप खुश?"
    साँझ ने हल्के से सिर हिला दिया, जैसे कह रही हो, "हाँ, अब ठीक है।"
    तभी रुपाली का फ़ोन बजा। उसने कॉल रिसीव करते हुए कहा, "जी, पापा?"
    दूसरी तरफ से श्रीज जी की आवाज़ आई, "बेटा, मेरी बात हो गई है एस.एन. कॉलेज के प्रिंसिपल से। तुम्हारा एडमिशन हो जाएगा वहाँ। अब तुम साँझ को लेकर घर आ जाओ, हम कल चलेंगे।"
    **श्रीज जी, रुपाली के पापा, कुछ दिन पहले रुपाली से यह सुन चुके थे कि उसे कॉलेज में एडमिशन चाहिए था, और साँझ को भी एडमिशन करवाना था। लेकिन सभी कॉलेजों में एडमिशन क्लोज हो चुके थे। तब श्रीज जी ने खुद प्रिंसिपल से बात की, और रुपाली ने खुद आदित्य से मदद मांगी।**
    "पर पापा, मेरी एक फ्रेंड है, उसके भाई से कहकर यहाँ एडमिशन ले लिया है," रुपाली ने कहा।
    "अच्छा, ठीक है... फिर मुझे तो किसी ने भी नहीं बताया। कोई बात नहीं, घर पर इस बारे में बात करते हैं। फिलहाल तुम दोनों अपना काम करो और घर आ जाओ," श्रीज जी ने कहा।
    "जी पापा," रुपाली ने कहा।
    "क्या हुआ?" साँझ ने पूछा।
    "कुछ नहीं, उन्होंने यहाँ के प्रिंसिपल से बात कर ली हमारे एडमिशन के लिए, इस वजह से फोन आया था," रुपाली ने साँझ को बताया।
    "क्या मामा गुस्से में थे?" साँझ ने पूछा।
    "फोन पर तो लगा नहीं, पर कह नहीं सकते," रुपाली ने कहा।
    "अच्छा, चलिए, आप दोनों को कैंपस दिखा दूँ?" नीरज ने पूछा।
    "नहीं, रहने दीजिए। हम लेट हो रहे हैं, कॉलेज शुरू होगा तब देख लेंगे," रुपाली ने मना करते हुए कहा।
    "ओके, फीस जमा आप कल तक करवा देना, मैंने इस बारे में बात कर ली है," नीरज ने फिर से कहा।
    "ओके, ओके," रुपाली ने हड़बड़ाते हुए कहा, और साँझ का हाथ पकड़कर बाहर आ गई।
    "क्या रुपाली इतनी घबराई क्यों है?" साँझ ने कहा।

    "हम कल पापा के साथ आ जाएंगे, फीस जमा करवाने। कहीं उन्हें यह न लगे कि हमें बिना बताए दोनों अकेले ही आ गए हैं, और खासकर तेरे लिए। मुझ पर बस गुस्सा न हो, क्योंकि क्या पता, तेरे लिए वो खुद आकर बात करने वाले हों। मेरा तो पीजी था, पर तेरा ग्रेजुएशन है, और ऊपर से तुम अलग स्टेट से आई हो, तो कुछ और डिस्कशन होगा?" रुपाली ने एक सांस में अपनी सारी व्यथा कह सुनाई।




    क्या कहेगा आदित्य प्रिंसिपल से कि वह उन्हें कैसे जानता है? क्या करेंगे श्रीज जी? क्या वह गुस्सा होंगे या नहीं?

    जानने के लिए पढ़िए "मै सिर्फ तुम्हारी हूँ।"
    मिलते हैं अगले भाग में। आज के लिए बस इतना ही।
    प्रणाम 🙏
    कृपया अपना ओपिनियन जरूर दीजिएगा, जिससे मुझे आगे लिखने की प्रेरणा मिले और अगर कोई गलती हो तो बताइए, ताकि मैं उसे सुधार सकूँ।
    🙏

    ~आरुषि ठाकुर ✍🏻

  • 5. मै सिर्फ तुम्हारी हु - Chapter 4

    Words: 1119

    Estimated Reading Time: 7 min

    जय श्री राम 🙏🏻
    अब आगे,
    "तुमने बताया नहीं, आदित्य?" प्रिंसिपल ने दुबारा से पूछा।
    "वो..." आदित्य ने बस इतना ही कहा था कि तभी एक लड़का दौड़ते हुए प्रिंसिपल ऑफिस के बाहर आकर खड़ा हो गया और बोला, "May I come in, sir?"
    प्रिंसिपल ने उसकी ओर कड़े भाव से देखते हुए कहा, "Come in।"
    फिर आदित्य और सात्विक की तरफ देखते हुए बोले, "तुम दोनों जाओ। प्रैक्टिस के लिए पहले ही बहुत समय बर्बाद कर चुके हो।"
    उधर साँझ और रूपाली घर पहुँचे।
    उन्हें देखकर श्रीज जी गुस्से में बोले, "हो आई! कर आई अपनी मनमानी! मैंने कहा था कि मैं ले चलूँगा, पर नहीं..."

    तभी साँझ का फोन बजा। कृष्णा जी की बाँसुरी वाली रिंगटोन थी। सबकी नज़र उसी पर चली गई। मामी भी आवाज़ सुनकर बाहर आ गईं।
    साँझ जबरदस्ती मुस्कुराते हुए बोली, "वो माँ का फोन है।"

    साँझ ने फोन उठाया, "हाँ माँ?"
    दूसरी तरफ से आवाज़ आई, "हो आई कॉलेज से?"
    साँझ थोड़ा दूर जाते हुए धीरे से बोली, "माँ, मामा ने कहा था कि वो खुद बात करेंगे… तो आपने इतनी जल्दी क्यों मचा रखी थी?"
    दूसरी ओर से राधिका जी ने कहा, "मैंने क्या किया? तेरी मामी ने कहा कि रुपाली करवा लेगी, और तेरा मामा तो बड़ा फास्ट है—जो हर काम जल्दी कर देता है। इसलिए उसी के भरोसे बैठी रह गई थी। तू समझी?"

    "ओ हो माँ! अब यहाँ वो गुस्से हो रहे  हैं। कहते हैं—'खुद ही कर लो काम, मैं तो कुछ नहीं हूँ'!" साँझ ने कहा।
    “फ़ोन दे उसे ज़रा, मै बात करती हु,” राधिका जी ने कहा।

    साँझ श्रीज जी के पास गई और अपना फ़ोन आगे करते हुए धीमे से बोली, “मामा, मम्मी बात करना चाहती हैं।”

    श्रीज जी ने फ़ोन लिया और बोले, “प्रणाम, दीदी!”

    दूसरी ओर आवाज़ आई, “खुश रहो! अच्छा, तू बच्चों को डाँट कर चली गई, तो क्या हुआ? कल जाकर काम करवा आना—उन्होंने बस फीस का फॉर्म भरा है, तो तू ही देखेगी ना? तो कल चला जाना।”

    श्रीज जी ने कहा, “तू ही सबको शह देती रहती है।”
    राधिका जी ने कहा, “देख, बच्चे हैं। अच्छा, कल आ रही हो, और फिर रविवार को हम तीनों चलेंगे।”
    श्रीज जी ने पूछा, “कल आ रही हो? पर मुझे तो कहा गया था कि परसो आओगी।”
    राधिका जी बोली, “हाँ! कल ही आ जाऊँगी। यहाँ सब से मिलकर फिर रविवार को हम  चले जायँगे। "
    “ठीक है, रखता हूँ।” ऐसा कहते हुए श्रीज जी ने फोन रख दिया।
    “चल, रुपाली, अंदर चलते हैं,” साँझ ने कहा।
    रुपाली ने मामा से अपना फोन वापस लिया और दोनों अंदर चल पड़े। उनके मामा अभी बैठक में ही बैठे थे। साँझ और रुपाली कमरे के अंदर आ गए।
    “बच गए आज,” रुपाली ने अपने सीने पर हाथ रखकर तसल्ली से खुद को शांत करते हुए कहा।

    तभी रूम में अंकित आया। अंकित, रुपाली का छोटा भाई था, और साँझ की उससे बहुत बनती थी। दोनों की उम्र लगभग समान थी, इसलिए उनकी बहुत अच्छी दोस्ती थी।

    (अब आप सोच रहे होंगे कि फिर रुपाली को दीदी क्यों नहीं कहती? दरअसल, साँझ ने हमेशा से उसे 'रुपाली' ही कहा, तो अब मुँह से 'दीदी' नहीं निकलता, बस इसलिए। अब वापस स्टोरी पर आते हैं...)

    अंकित हंसते हुए अंदर आया, "क्या हुआ, पापा ने डांटा नहीं?"
    रुपाली हंसते हुए बोली, "नहीं, फुआ ने बचा लिया।"
    "वैसे, तुझे डांट पड़वा दूं? तू कहे तो," साँझ ने अंकित को चिढ़ाते हुए कहा।
    अंकित ने जवाब दिया, "पागल है क्या? उस गबर सिंह को भड़काना मत।"
    साँझ ने कहा, "यार, ऐसा नहीं है। फालतू में डरते हो, कुछ भी तो नहीं कहा। ऐसे तो मेरी मम्मी भी डांटती है।"

    रुपाली ने कहा, "क्योंकि तुझे डांटते नहीं हैं, और हमें... चल, छोड़। भूख लगी है।"

    “मम्मी, खाना क्या बनाया है?” रुपाली ने कमरे से ही आवाज़ लगाई।
    नीतू जी ने किचन से जवाब दिया, “रुक—पहले पापा को चाय दे आ।”
    “नहीं, हम नहीं जा रहे,” रुपाली ने साफ इंकार करते हुए कहा, “आप चली जाइए।”
    नीतू जी ने तेज आवाज़ में कहा, “खाना चाहिए तो चुपचाप चाय देकर आ—जल्दी जा।”
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    मम्मी....!” रुपाली ने खीझते हुए नीतू जी की तरफ देखा, फिर चाय का कप उठाया और बैठक में जाने की बजाय वापस अपने कमरे में आ गई।
    “अरे, मेरे लिए चाय लाई हो? दो ना,” साँझ ने खुश होते हुए कहा।
    “अरे, रुक!” रुपाली ने कहा।
    “क्यों, क्या हो गया?” साँझ ने  हैरानी के साथ पूछा।
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    “यह पापा के लिए है—जा, पापा को दे आ,” रुपाली ने साँझ के सामने कप बढ़ाते हुए कहा।

    साँझ ने मुँह बनाते हुए कहा, “मैं नहीं जा रही—थक गई हूँ, तुम ही जाकर दे आ, मुझे तो आराम भी नहीं मिला।”
    रूपाली ने सांझ को घूरा तो साँझ ने अंकित की तरफ देखते हुए आदेश दिया, “जा, अंकित, तुम ही दे आ।"

    इतना कहते ही अंकित अचानक खड़ा हो गया और बोला, “मैं नहीं जा रहा, मुझे काम है,” फिर अपने कमरे में भाग गया।

    “साँझ ने मुँह बनाते हुए कहा, “कुत्ता!”

    रुपाली बोली, “देख, आज डाँट पड़ी है न? अब अगर मैं फिर जाऊँगी तो—समझ रही है? ऊपर से चाय भी ठंडी हो रही है। चली जा, प्लीज़!”

    साँझ ने कहा, “अच्छा, दे।” फिर ट्रे उठाकर चाय मामा के पास ले गई।
    श्रीज जी ने साँझ के हाथों से चाय ली, फिर साँझ से पूछा, "कैसा लगा कॉलेज?"

    "क्या मामा, कुछ नहीं देखा। रुपाली जल्दी ले आई क्योंकि शायद आप गुस्सा हो गए थे इस बात पे," साँझ ने कहा।

    "अगर गई थी तो देख कर आती। क्या फायदा हुआ जाने का?" श्रीज जी ने कहा।
    फिर वह वहां से वापस रुपाली के कमरे में आ गई। अब से वह कमरा साँझ का भी हो गया, क्योंकि वह भी यहीं रहने वाली थी।
    रुपाली ने पूछा, “चाय दे आई?”
    “हाँ,” साँझ ने जवाब दिया।
    “खाले,” रुपाली ने अपनी प्लेट की तरफ इशारा करते हुए खाने को कहा।
    नहीं, भूख नहीं है। और परवल की सब्ज़ी तो बिल्कुल नहीं खानी मुझे," साँझ ने कहा।

    "तो फिर खाएगी क्या? चावल बन रहे हैं, दाल और आलू की भुजिया भी है—वो खाऊंगी," सांझ ने खुश होते हुए कहा।

    इधर शहर में…
    "सात्विक यार, मज़ा आ गया भाई!" आदित्य ने कहा।

    "अच्छा! तो रोज आया कर, तेरी वजह से हमें भी डांट पड़ गई," सात्विक ने आदित्य से कहा।
    "अरे, नीरज नहीं आया आज? उसके बाद है ना?" आदित्य ने पूछा।
    "हाँ, पता नहीं क्यों नहीं आया। कल पूछ लेंगे। चल, अब घर चलते हैं," यह कहकर सात्विक अपनी जीप से घर की ओर चला गया।

    जानने के लिए पढ़िए "मै सिर्फ तुम्हारी हूँ।"
    मिलते हैं अगले भाग में। आज के लिए बस इतना ही।
    प्रणाम 🙏
    कृपया अपना ओपिनियन जरूर दीजिएगा, जिससे मुझे आगे लिखने की प्रेरणा मिले और अगर कोई गलती हो तो बताइए, ताकि मैं उसे सुधार सकूँ।
    🙏
    ~आरुषि ठाकुर ✍🏻

  • 6. मै सिर्फ तुम्हारी हु - Chapter 5

    Words: 1113

    Estimated Reading Time: 7 min

    जय श्री राम 🙏🏻
    अब आगे,

    सात्विक अपने घर पहुंचा, मेन गेट खोलते हुए उसने अपनी जीप अंदर की और घर के अंदर का  दरवाजा खोलकर चाबी घुमाते हुए अंदर आ रहा था।
    तभी किचन से निकलती हुई रमा जी ने सात्विक को आवाज लगाई, "कहाँ से आ रहे हो?"
    सात्विक ने कहा, "प्रैक्टिस करके और कहाँ जाऊँगा, माँ?"
    "ठीक है, तेरे पापा रूम में वेट कर रहे हैं, जा उनसे मिल ले," रमा जी ने कहा।
    "क्या? पर क्यों?" मुँह बनाते हुए सात्विक ने कहा।
    और मन में सोचते हुए उसने कहा, "अब हमने क्या किया यार। जाना तो पड़ेगा, बेटे, चल चलते हैं।"
    सात्विक अपने पापा के रूम की तरफ बढ़ गया। रूम के बाहर आकर उसने अपने आप को मोटिवेट किया और अंदर गया।
    "जी पापा, आपने बुलवाया था हमें?" सात्विक ने अपने पापा से कहा।
    आदर्श झा, "हाँ! अंदर आ जाओ।"
    सात्विक अंदर आया तो आदर्श जी ने कहा, "बैठो।"
    आदर्श जी ने कहा, "तुम अपनी प्रैक्टिस पर ध्यान नहीं दे रहे हो।"
    "पापा, हम ध्यान दे रहे हैं," सात्विक ने कहा।
    "अच्छी बात है, वैसे भी हमने कुछ और कहने के लिए बुलाया था," आदर्श जी ने सात्विक से कहा। उन्होंने एक नजर सात्विक पर डाली, फिर अपनी चेयर से उठकर खिड़की की तरफ गए।
    हाथ पीछे बाँधे, बाहर की तरफ देखते हुए उन्होंने कहा, "कल श्रीज झा के बच्चे इस कॉलेज में आ रहे हैं। हम नहीं चाहते कि उन बच्चों के साथ कुछ भी गलत हो या कोई उन्हें परेशान करे। मुझे किसी भी तरह की शिकायत नहीं चाहिए। अपने उन आवारा दोस्तों से भी कह देना।"
    सात्विक उनकी बात सुन रहा था। उसने धीमे स्वर में कहा, "जी पापा।"
    "ठीक है, फ्रेश होकर बाहर आ जाओ," यह कहकर कदमों से डाइनिंग हॉल की तरफ बढ़ गए।

    सात्विक वहीं कुछ पल खामोश खड़ा रहा। उसने एक लंबी साँस ली और खुद से बुदबुदाया, "हह... हमारे दोस्त इन्हें 'आवारा' लगते हैं।"  फिर अपने सर को हल्का-सा झटकते हुए बेमन से अपने कमरे की तरफ बढ़ गया।
    अगला दिन।
    शाम को साँझ का फोन बजा — "भाई जी" स्क्रीन पर चमक रहा था। वह हल्के-से मुस्कराई और कॉल उठा लिया। कॉल उठाते ही वह डायरेक्ट बोली, "अरे, कब तक आओगे? और मम्मी को फोन देना ना!"
    अतुल ने हँसते हुए कहा, "वो काम कर रही हैं, तेरी तरह थोड़ी हैं... वेलड़ कहीं की!"
    साँझ ने मुँह बनाते हुए कहा, "हूँ... तो कब तक आओगे?"
    तभी अतुल के पास बैठे कन्हैया जी ने मुस्कुराते हुए कहा, "अभी तो हम यहाँ हैं, तो इतनी बेचैन हो। जब हम नहीं होंगे तो कैसे रहोगी?"

    "वही तो मैं कह रही हूँ, मैं नहीं रहना। मुझे आपके साथ जाना है," साँझ ने सुबकते हुए कहा।
    कन्हैया जी ने कहा, "पागल लड़की, रो मत! हम आ रहे हैं ना, और कुछ ही समय में आ जाएंगे। फिर तेरी पढ़ाई खराब हो रही है, इसलिए यहाँ एडमिशन करवा रहे हैं।"
    "अच्छा, अभी रख, हम आकर बात करते हैं," कन्हैया जी ने आगे कहा।
    साँझ ने कहा, "जल्दी आना," यह कहकर फोन रख दिया।

    सब उसे देख रहे थे, उसके चेहरे पर उदासी साफ झलक रही थी। पर किसी ने कुछ नहीं कहा। बस इतना पूछा, "कब तक आएंगे?"
    साँझ ने कहा, "हां भाई, कह रहा थाकि मम्मी तैयारी कर रही हैं।"
    "तैयारी कर रही हैं?" अंकित ने हैरान होकर पूछा।
    "हाँ, सामान पैक कर रहे होंगे ना; और मेरा सामान भी तो उधर ही है, मैं तो चाचा के साथ आई थी ना," साँझ ने जवाब दिया और फिर अपने कमरे में चली गई।
    साँझ ने कमरे से रुपाली को आवाज दी, "रुपाली!"
    जो बाहर ही थी, अंदर आकर उसने कहा, "हाँ, क्या हुआ?"
    "कपड़े चाहिए," साँझ ने कहा।
    रुपाली ने अपने कपड़े साँझ को दिए। साँझ ने उन्हें देखा और कहा, "ये तो ढीले होंगे मुझे।"
    "हाँ तो, कुछ खाया कर," रुपाली ने मज़ाक उड़ाते हुए कहा।
    इस बार साँझ ने जवाब नहीं दिया क्योंकि वह उदास थी। उसने कहा, "हट, सामने से, मैं देखती हूँ।"
    साँझ ने रुपाली की अलमारी से एक सूट निकाला और कहा, "ये ठीक है।"
    "मामी, इसे थोड़ा कस दो, मैं ये डाल लूँगी," साँझ ने कहा।
    नीतू जी ने कहा, "साँझ, मेरा हाथ खाली नहीं है, तुम खुद चाप लो।"

    साँझ ने सिलाई मशीन देखी और वहाँ जाकर बैठ गई। उसने आवाज लगाते हुए कहा, "रुपाली, इसमें धागा तो लगा नहीं है, कैसे लगाते हैं? लगा दे ना।"
    रुपाली ने कहा, "कितना तंग करती हो तुम!"
    "हाँ तो, मदद नहीं कर सकती?" श्रीज जी ने गुस्से भरी आवाज में रुपाली से कहा।
    "लग गए तेरे!" रुपाली ने मन में कहा।
    "दे कर दूँ, हट तू!" रुपाली ने साँझ से कपड़ा लेते हुए कहा। साँझ ने वो कपड़े रुपाली को दे दिए।
    श्रीज जी ने नीतू जी से पूछा, "खाना बना लिया या नहीं?"
    नीतू जी ने भड़कते हुए कहा, "बना तो रही हूँ, कितना काम है! अकेले ही करना पड़ता है... ये बनाओ, वो बनाओ!"
    श्रीज जी ने मन में सोचा, "क्यों कहा कुछ मैंने?" फिर उन्होंने नीतू जी से कहा, "अच्छा, ठीक है, खाना बनाओ!"
    कुछ घंटों बाद,

    श्रीज जी, साँझ और रुपाली के साथ प्रिंसिपल के केबिन में बैठे थे। सभी प्रोसीजर पहले ही पूरे हो चुके थे।

    प्रिंसिपल ने कहा, "इनको कॉलेज भी तो देखना होगा, तो जाओ, जाकर कॉलेज देख लो तुम तीनों।"

    (यहाँ क्लियर कर दूँ कि श्रीज जी ने अंकित का एडमिशन भी यहीं करवा दिया था। अब तीनों एक ही कॉलेज में पढ़ेंगे। वैसे, अंकित दूसरा कॉलेज जाना चाहता था क्योंकि उसके दोस्त वहाँ थे, लेकिन श्रीज जी ने कहा, "तीनों एक साथ रहोगे तो अच्छा होगा।" इसलिए आदर्श जी से रिक्वेस्ट करके अंकित को भी यहीं एडमिशन दिलवा दिया।)

    श्रीज जी ने कहा, "आदर्श जी, हमें बच्चों के रहने का भी इंतजाम करना है। तो अगर आपकी नज़र में कोई रूम हो, तो बताइए।"

    आदर्श जी ने कहा, "अरे, इसमें बताने वाली क्या बात है श्रीज जी, हमारे घर के ऊपर जो कमरा है, वह खाली है। तीन कमरे हैं। एक में हमारा बेटा स्टडी करता है, बाक़ी दो खाली हैं। तो आप बच्चों को वहीं शिफ्ट कर देना। कॉलेज भी नज़दीक पड़ेगा यहाँ से।"

    क्योंकि जहाँ श्रीज जी रहते हैं, वहाँ से कॉलेज की दूरी 2 घंटे की थी, इसलिए आने-जाने में समय बर्बाद होता था। इसी कारण बच्चों के लिए भी नज़दीक में रूम ढूंढ रहे थे।

    तो क्या करेंगे श्रीज जी? क्या वो आदर्श जी की बात मान जाएंगे?

    जानने के लिए पढ़ते रहिए — "मैं सिर्फ तुम्हारी हूँ।"
    मिलते हैं अगले भाग में। आज के लिए बस इतना ही।

    प्रणाम! 🙏

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    ~ आरुषि ठाकुर ✍🏻

  • 7. मै सिर्फ तुम्हारी हु - Chapter 6

    Words: 1186

    Estimated Reading Time: 8 min

    जय श्री राम 🙏🏻

    अब आगे,

    क्योंकि आने-जाने में ही 4 घंटे लग जाते हैं, इसलिए वे कॉलेज के पास घर लेने वाले थे।
    "ठीक है, एक बार हम आपके घर देख लेते हैं और बच्चों से बात कर लेते हैं," श्रीज जी ने आदर्श जी से कहा।

    तीनों कॉलेज कैंपस में घूम रहे थे।
    अंकित ने साँझ और रुपाली को देखते हुए, अपने हाथ के इशारे से दूसरी तरफ दिखाते हुए कहा, "चल, उधर कितनी भीड़ लगी है, वहां पर।"
    "नहीं, वहां नहीं जाना," साँझ ने मना करते हुए कहा।

    रुपाली ने जोर देते हुए कहा, "अरे चल ना! पापा ने ही तो कॉलेज घूमने को कहा है, चल चल।"
    यहां कुछ सुधार किए गए हैं, ताकि वाक्य अधिक स्पष्ट और सही हों:

    फिर साँझ का हाथ पकड़कर, जबरदस्ती उसे अपने साथ वहां ले गई।
    तीनों उधर खड़े थे, फुटबॉल मैच की प्रैक्टिस चल रही थी। सब चिल्ला रहे थे, हर जगह सात्विक का ही नाम गूंज रहा था। कई लोगों ने हाथ में उसके नाम का बैनर पकड़ रखा था।
    साँझ को कोई इंट्रेस्ट नहीं था, वह अनमने मन से वहां खड़ी थी।
    तभी प्रैक्टिस मैच में लड़ाई हो गई।
    क्योंकि जब आदित्य गोल करने जा रहा था, तो उनकी अपोजिट टीम के खिलाड़ी ने उसे गिरा दिया। क्योंकि वह चाहता था कि उस कॉलेज से उसे लीड करने का मौका मिले। उसने फुटबॉल तो सात्विक को मारनी चाही, पर पैर ट्विस्ट होने के कारण आदित्य को लग गई।"
    सात्विक ने गुस्से में उस लड़के का कॉलर पकड़ते हुए कहा, "यू अंश, तूने जानबूझकर किया ना?"
    अंश ने कान के पास आते हुए कहा, "किया है तो क्या करेगा?"
    "जान से मार दूंगा!" यह कहकर सात्विक ने अंश के चेहरे पर एक मुक्का मार दिया।
    वहां पर खड़े लोग भागकर ग्राउंड से चले गए। अंश वहां से भागने लगा, और सात्विक उसके पीछे दौड़ा।
    अंश जब भाग रहा था, उसका धक्का साँझ को लगा। साँझ आगे को धक्का लगने के कारण सात्विक के साथ उसके ऊपर गिर गई। साँझ ने आँखें बंद कर ली थीं। सात्विक का गुस्सा और ज़्यादा बढ़ गया। वह गुस्से में कुछ बोलने वाला ही था।
    पर उसने तभी साँझ का चेहरा देखा और उसे देखते हुए कहा, "मेरे इतने पास आकर क्या करने का इरादा है, मैडम?" यह बात उसने उसके कान के पास आकर कही थी।
    साँझ ने अचानक अपनी आँखें खोलीं और सात्विक को घूरने लगी। रुपाली ने साँझ के पास जाकर उसे उठाया। साँझ तो अभी भी सात्विक को ही घूर रही थी। सात्विक के चेहरे पर अब स्माइल थी। जैसे कुछ हुआ ही ना हो!
    तभी वहाँ प्रिंसिपल और श्रीज जी आ गए। साँझ तब तक खड़ी हो चुकी थी। दोनों एक-दूसरे को देख रहे थे, बस फर्क ये था कि साँझ घूर रही थी और सात्विक स्माइल दे रहा था।"
    "मैं ठीक हूँ, वो उन्हें..." साँझ ने सात्विक के हाथ की तरफ इशारा किया।
    सभी ने जब उसके हाथ की तरफ देखा, तो श्रीज जी ने कहा, "अरे बेटा, तुम्हारे हाथों में चोट आई है।"
    सात्विक को तो पता ही नहीं चला कि गिरते वक्त उसके हाथों में चोट आई थी।
    "शायद कोई नुकीली चीज लग गई है," श्रीज जी ने कहा।
    आदित्य को भी चोट लगी हुई थी, दोनों को मेडिकल डिपार्टमेंट में भेज दिया गया।
    वहीं प्रिंसिपल ने श्रीज जी से कहा, "आप हमारे साथ आइए, मैं आज ही आपको घर दिखा देता हूँ, सब देख लीजिए। फिर जैसा आपको ठीक लगे।"
    "आदित्य और सात्विक मेडिकल रूम में थे। आदित्य ने सात्विक को देखते हुए कहा, "क्या था वो?"
    सात्विक ने उसे अपनी तरफ यूं मुस्कुराते हुए देखा और कहा, "क्या था?"
    "तुम ज्यादा बनो मत, हमने देखा कैसे तुम उसे घूर रहे थे," आदित्य ने कहा।
    सात्विक ने कहा, "मैं कहां? घूर रहा था, वही घूर रही थी।"
    "हाँ, तुम उसे ताड़ोगे तो वह तो घूरेगी ही ना," आदित्य ने सात्विक का मजाक बनाते हुए कहा।
    "चल, चुप कर! कुछ नहीं है ऐसा। मैं भला क्यों उसे ताड़ने लगा?" सात्विक ने उसे गुस्से में घूरते हुए कहा।
    "हाँ, अब गुस्सा आ रहा है, तब सब भूल गया," आदित्य ने वापस से तंज करते हुए कहा।
    "तुम चुप रहो, अब पता नहीं पापा क्या करेंगे?" सात्विक ने टेंस होते हुए कहा ।
    "उधर श्रीज जी आदर्श जी के साथ उनके घर आ गए। तीनों बच्चे भी साथ में थे। रमा जी किचन से चाय लेकर आईं। "कविता, कुछ पकौड़े भी तले हैं, वो भी लेकर बाहर आना," रमा जी ने आवाज लगाते हुए कहा।

    चाय पीने के बाद, आदर्श जी ने कहा, "चलिए, ऊपर वाला रूम दिखा दूँ।"

    वो लोग ऊपर गए, दो रूम एक साथ थे, अंदर ही किचन था। उन्होंने अच्छा घर देखा, तब आदर्श जी ने कहा, "तो कैसा लगा बच्चों आपको ये घर?"
    "अंकित ने कहा, "घर ठीक है, हम अपना सामान यहां ले आएंगे।"

    साँझ ने कहा, "संडे को शिफ्ट कर लेंगे यहां सामान, अभी घर चलते हैं।"

    "हाँ, तो संडे ही आएंगे, तुम्हें क्या लगा, अभी फिर से आएंगे?" रुपाली ने साँझ के कान में धीरे से कहा।

    "नहीं! मुझे पता है, बस अब थक गई हूँ, इसलिए अभी घर चलते हैं ना," साँझ ने थके हुए लहजे में रुपाली को धीरे से कहा।
    "ठीक है, अब हम अपने घर चलते हैं। संडे को बच्चे सब यहां आ जाएंगे," श्रीज जी ने आदर्श जी से कहा।
    आदर्श जी ने कहा, "ठीक है, जैसा आपको ठीक लगे, आप लोग ये चाबी रख लीजिए।" आदर्श जी ने चाबी श्रीज जी को दे दी, उसके बाद वे लोग वहां से अपने घर के लिए चल दिए।
    "सात्विक घर आया, रमा जी ने सात्विक के हाथ पर पट्टी देखी तो चिंता के साथ पूछा, "अरे बेटा, क्या हुआ तुझे?"
    "नहीं, कुछ नहीं हुआ, ठीक है," सात्विक ने कहा।
    उसके बाद, वह सीधा ऊपर की ओर चला गया। अपने स्टडी रूम में आकर वहां लगे बेड पर लेट गया।
    बेड पर लेटकर उसने आँखें बंद कर लीं। और फिर से उसे साँझ का उसके ऊपर होने का अहसास हो रहा था।
    "आखिरकार तुम मुझे मिल ही गई," सात्विक ने साइड में रखे तकिए को उठाकर सीने से लगा कर कसते हुए कहा, "चलो अच्छा है, पास रहोगी अब।"
    "वहीं दूसरी तरफ,
    सब घर पहुँच गए, साँझ के मम्मी, पापा और भाई भी आ गए। साँझ उनके पास भागकर गई और अपनी मम्मी के गले मिल गई।

    "आ गए आप लोग?" साँझ ने अपनी माँ से कहा।

    "आना ही था, नहीं तो तुम क्या ही करती?" अतुल ने छेड़ते हुए कहा।

    "अच्छा, ये सब छोड़, सब हो गया ना कॉलेज का?" राधिका जी ने पूछा।

    "हाँ, हो गया," श्रीज जी ने कहा।

    "संडे को तुम्हारी ट्रेन है ना, तो ये तीनों भी संडे को वहां रूम पर शिफ्ट हो जाएंगे," श्रीज जी ने आगे कहा।"


    "क्या सात्विक साँझ से पहले भी मिल चुका है? क्या उसके दिल में साँझ के लिए कोई एहसास है?"
    जानने के लिए पढ़ते रहिए — "मैं सिर्फ तुम्हारी हूँ।"
    मिलते हैं अगले भाग में। आज के लिए बस इतना ही।

    प्रणाम! 🙏

    कृपया अपने सुझाव और विचार ज़रूर साझा कीजिएगा।
    आपके फीडबैक से मुझे आगे लिखने की प्रेरणा मिलती है, और अगर कोई गलती हो, तो कृपया बताइएगा, ताकि मैं उसे सुधार सकूँ।

    ~ आरुषि ठाकुर ✍🏻

  • 8. मै सिर्फ तुम्हारी हु - Chapter 7

    Words: 1208

    Estimated Reading Time: 8 min

    जय श्री राम 🙏🏻
    अब आगे,

    वही सात्विक अब भी आँखें मूंदे उस पल को जी रहा था, जब उसने पहली बार साँझ की एक झलक पाई थी।
    करीब पंद्रह दिन पहले की बात है — सात्विक स्टेशन पर आदित्य के साथ खड़ा था।

    "अरे, अभी तक ट्रेन नहीं आई!" आदित्य ने बेचैनी से घड़ी की ओर देखते हुए कहा। "उफ़! और कितना इंतज़ार करना पड़ेगा?" उसने झुंझलाते हुए पैर पटके।
    तभी स्टेशन पर अनाउंसमेंट गूंजा —
    "यात्री गण कृपया ध्यान दें, अमृतसर से आने वाली और जलपाईगुड़ी जाने वाली ट्रेन प्लेटफ़ॉर्म नंबर एक पर पहुँच गई है।"

    आदित्य ने खुश होकर कहा, "आ गई ट्रेन, भाई! चलो, इस तरफ़ — S1 के पास।"


    सात्विक ने नज़रें उठाईं। सामने ट्रेन से उतरती हुई एक लड़की दिखाई दी। उसकी निगाहें उसी  लड़की पर जाकर ठहर गईं। उसके हाथ में एक हल्के भूरे रंग का पर्स था। लंबे घने बालों की चोटी बनी थी, जो थोड़ी बिखरी हुई सी थी। एक हाथ में फोन थामे वह सीढ़ियाँ उतरती रही, और नीचे पहुँचते ही किनारे आकर रुक गई।
    उसने हल्की बेचैनी के साथ इधर-उधर नजरें दौड़ाईं — जैसे किसी अपने को ढूंढ रही हो।

    तभी उसके पास एक औरत आकर खड़ी हो गई। दोनों आपस में कुछ बातें करने लगीं।
    औरत ने लड़की से कहा, "फोन करके पता कर ले, वह कहाँ है।"

    उस लड़की के ठीक बगल में एक लड़का आकर खड़ा हो गया। उसके हाथ में एक बैग था, मगर भीड़भाड़ और हलचल के बीच सात्विक उसका चेहरा ठीक से देख नहीं पाया।
    थोड़ी ही देर में एक और आदमी भी उनके पास आ खड़ा हुआ, जिसके कंधे पर दूसरा बैग टिका हुआ था।

    सात्विक की नज़रें अब भी उस लड़की पर ही टिकी हुई थीं। उसके चेहरे पर हलकी सी थकान थी, फिर भी उसकी आँखों में एक अलग सी चमक थी, जैसे लंबे सफर के बाद किसी अपनों से मिलने की बेचैनी हो।
    "अरे भाई, S1 आगे है... चल इस तरफ़!" आदित्य ने उसका कंधा झकझोरते हुए कहा।

    सात्विक चौंका, मगर कदम जैसे जड़ हो गए थे।
    दिल जैसे कह रहा था — "रुक जा... बस एक पल और..."

    तभी अचानक उसकी जेब में पड़ा मोबाइल फोन तेज़ी से बजने लगा।

    सात्विक ने उस पर से ध्यान हटाकर फ़ोन की तरफ नज़र डाली। स्क्रीन पर "राज" नाम फ्लैश हो रहा था।
    उसने कॉल अटेंड करते हुए सामने की ओर देखा, तो वह लड़की गायब थी।
    उसने फौरन नज़रें चारों तरफ दौड़ाईं, पर कहीं भी उसका कोई निशान नहीं था। तभी फ़ोन के दूसरी तरफ से राजवीर की आवाज़ आई, "कहाँ अटक गया भाई?"

    "अबे, आ गए हैं हम, बस उस तरफ ही बढ़ रहे हैं," सात्विक ने इरीटेट होकर  कहा।
    फ्लैशबैक एंड
    सात्विक को उसके नाम का तब पता नहीं चला था। लेकिन जब वह कॉलेज में उसके ऊपर गिरी और रुपाली ने उसका नाम लिया —
    तभी उसे उसके नाम का पता चला।
    "साँझ..." इतना कहकर उसने अपनी आँखें खोल लीं।

    नीचे, रमा जी आदर्श जी को खाना परोस रही थीं।
    आदर्श जी ने कहा, "रमा जी, वो आपके नवाबज़ादे अभी तक नहीं आए।"

    रमा जी ने जवाब दिया, "वो आ गया है जी, ऊपर अपने कमरे में है।"
    आदर्श जी ने बिना किसी भाव के कहा, "ठीक है... नीचे बुलाइए उसे, वो भी आकर खाना खा ले।"

    रमा जी ने थाली में परोसी सब्ज़ी पर नज़र टिकाए हुए धीमे स्वर में कहा,"जी, अभी बुलवाती हूँ," और फिर हल्की सी ऊँची आवाज़ में पुकारा, "कविता!"
    कविता, जो रसोई में काम कर रही थी, जल्दी से अपने हाथ पोंछती हुई बाहर आई।
    "जी दीदी, आपने बुलाया?" उसने हल्के मुस्कुराते हुए पूछा।
    "अंदर का काम हो गया?" रमा जी ने नज़रे मिलाए बिना पूछा, मानो मन अभी भी किसी और खयाल में उलझा हो।
    "हाँ दीदी, बस बर्तन धोने हैं," कविता ने कहा।

    "ठीक है, जाओ ऊपर से सात्विक को बुला लाओ," रमा जी ने उससे कहा।

    "पर दीदी... बाबा को गुस्सा आ जाएगा अगर उनके कमरे में चले गए तो," कविता ने थोड़ा झिझकते हुए कहा।

    आदर्श जी ने हल्की खीझ के साथ कहा, "अपने ही तो उसे छूट दे रखी है... कभी भी किसी पर गुस्सा कर दो।"
    रमा जी ने कहा, "तुम जाओ अंदर काम खत्म कर लो।  मैं उसे बुला लाती हूँ।"
    यह कहकर वह ऊपर, सात्विक के कमरे की ओर चली गईं।
    उन्होंने दरवाज़ा खोला और भीतर आकर आवाज़ लगाई,
    "सात्विक!"
    सात्विक ने सिर उठाया और अपनी माँ को देखा, "जी माँ?"
    "बेटा, चलो... आकर खाना खा लो। फिर जो करना है, कर लेना,"रमा जी ने नरम लहजे में कहा।
    "माँ, क्या पापा ने खाना खा लिया?" सात्विक ने अपनी माँ से पूछा।
    "खा रहे हैं... उन्होंने कहा कि तुम भी आकर खा लो। चलो नीचे," रमा जी ने कहा।
    "माँ, आपके उस खड़ूस पति ने न... फिर से कुछ न कुछ सुना ही देंगे हमें। इसलिए अभी नहीं जाना," सात्विक ने थोड़ा चिढ़ते हुए कहा।

    रमा जी हँसी रोकते हुए बोलीं, "चल पागल! ऐसा नहीं कहते — पापा हैं तुम्हारे। हम जा रहे हैं नीचे, तुम आ जाना ठीक है? ज़्यादा टाइम मत लगाना, नहीं तो फिर सच में गुस्सा हो जाएंगे।"
    यह कहकर रमा जी नीचे चली गईं।
    "और आता ही क्या है उन्हें..." सात्विक ने धीरे से कहा।
    ___
    श्रीज जी का घर
    "मम्मी, क्या बना रही हो?" साँझ ने रसोई में खाना बनाती राधिका जी की ओर देखा।
    "आलू और बैंगन की सब्ज़ी बना रही हूँ," राधिका जी ने मुस्कुराकर जवाब दिया।
    "पर आप क्यों बना रही हैं? आप भी तो थक गई होंगी ना..." साँझ ने चिंता जताते हुए कहा।
    "हाँ तो फिर तुम ही बना लो," राधिका जी ने हल्के व्यंग्य के साथ कहा।
    "अरे, मुझे बनाना आता होता तो मैं बना देती," साँझ ने हँसते हुए जवाब दिया।
    "अच्छा छोड़, आटा ही गूंध दे," राधिका जी ने उसे देखते हुए कहा।
    "ठीक है... कहाँ है आटा?" साँझ ने राधिका जी की ओर देखते हुए पूछा।
    "मामी से पूछ ले, मुझसे क्या पूछ रही है?" राधिका जी ने हल्की चिढ़ के साथ कहा।

    साँझ अपनी मामी के पास छत पर गई। मामी कुछ सामान निकाल रही थीं।
    "मामी, आटा कहाँ है?" साँझ ने मामी की ओर देखते हुए पूछा।
    "रसोई घर में ही है — नीचे जो ड्रम है ना, उसी में," मामी ने सिर उठाकर साँझ की ओर देखते हुए कहा।
    "अच्छा मामी, ये क्या कर रही हो?" साँझ ने उत्सुकता से पूछा।
    "दो दिन बाद दीदी जा रही है ना, तो सोचा थोड़ी-बहुत तैयारी कर लूं," मामी ने कहा।
    "ओह..." इतना कहकर साँझ नीचे आ गई और रसोई में जाकर आटा एक बर्तन में निकालकर आँगन में आकर गूंधने लगी। तभी अतुल, जो बाहर कहीं से आ रहा था, आँगन में साँझ को देखकर चौंक गया।
    उसने मजाकिया अंदाज़ में कहा, "अरे! ये चमत्कार कैसे हो गया?"
    साँझ ने कोई जवाब नहीं दिया।
    रसोई में सब्ज़ी बना रही राधिका जी ने यह देखा और तुरंत टोका, "क्यों तंग कर रहा है उसे? काम कर रही है, फिर भी चैन नहीं लेने देता!"






    आगे क्या होता है ये जानने के लिए पढ़ते रहिए — "मैं सिर्फ तुम्हारी हूँ।"
    मिलते हैं अगले भाग में। आज के लिए बस इतना ही।

    प्रणाम! 🙏

    कृपया अपने सुझाव और विचार ज़रूर साझा कीजिएगा।
    आपके फीडबैक से मुझे आगे लिखने की प्रेरणा मिलती है, और अगर कोई गलती हो, तो कृपया बताइएगा, ताकि मैं उसे सुधार सकूँ।

    ~ आरुषि ठाकुर ✍🏻

  • 9. मै सिर्फ तुम्हारी हु - Chapter 8

    Words: 1232

    Estimated Reading Time: 8 min

    जय श्री राम 🙏🏻
    अब आगे,

    खाना तैयार है, साँझ। पापा और मामा को खाना दे दे," राधिका जी ने कहा।

    "आप निकाल दो, मैं दे आती हूँ," साँझ ने कहा।
    राधिका जी ने दोनों की थाली निकाल दी। साँझ ने उन्हें खाना दे दिया। सबने खाना खा लिया। अब साँझ अपने कमरे में रुपाली के साथ थी।

    रुपाली ने अचानक कहा, "साँझ, वो जो लड़का था..."
    साँझ ने उसे हैरानी से देखा।
    "अरे वही, जिसके ऊपर तू गिरी थी!" रुपाली ने चुटकी ली।
    "क्या यार!" साँझ ने कहा, थोड़ी झुंझलाहट के साथ। "तू ऐसे भी कह सकती थी न — 'जिसको चोट लगी थी', या 'जिसने उस लड़के की पिटाई की थी'। तुझे बस मेरा गिरना ही याद रहा?"
    "अरे... मेरी माँ! गुस्सा क्यों हो रही है?" रुपाली ने साँझ को शांत करते हुए कहा। "हम तो बस पूछ रहे हैं ना..."
    "अच्छा, अब आगे बोल — उस लड़के का क्या? मतलब मुझसे उसके बारे में क्यों पूछ रही है?" साँझ ने एक भौं ऊपर उठाते हुए कहा।
    रुपाली थोड़ा नज़दीक आई और धीमे स्वर में बोली, "क्या तू उसे जानती है?"
    थोड़ी ऊंची आवाज़ में साँझ के मुँह से निकला, "अरे...!"
    रुपाली ने जल्दी से हाथ से इशारा करते हुए कहा, "धीरे बोल पागल! किसी ने सुन लिया तो डांट मुझे ही पड़ेगी!"
    "किससे?" साँझ ने कहा।
    "ये कैसे सवाल पूछ रही है, गब्बर सिंह से?" रुपाली ने फनी सा मुँह बनाते हुए कहा।
    "हाँ तो मैं भी तो यही पूछूँगी — ये कैसे सवाल पूछ रही है! मैं उसे जानती ही नहीं। और मुझे आए हुए टाइम ही कितना हुआ है?" साँझ ने जवाब दिया।
    "ओह... पर आजकल सोशल मीडिया का ज़माना है। तो शायद कभी बात हुई हो, क्योंकि जैसे वो तुझे देख रहा था, हमें तो कुछ गड़बड़ लगी," रुपाली ने हँसते हुए कहा।
    "ओ... गड़बड़ क्वीन, चल हट! मुझे सोना है, नींद आ रही है," यह कहकर साँझ बेड पर लेट गई और आँखें बंद कर लीं।

    रुपाली ने एक नज़र साँझ को देखा और फिर बेड के दूसरी तरफ आकर लेट गई।
    साँझ ने आँखें बंद कर ली थीं, पर नींद अभी भी दूर थी। रुपाली की साँसें धीरे-धीरे गहरी होती जा रही थीं — वो सोने लगी थी।

    साँझ करवट बदलते हुए सोचने लगी,
    "क्यों इतनी बार उसका चेहरा दिमाग में आ रहा है?
    अरे, मैं तो उसे जानती भी नहीं... और वो... वो भी अजीब था।
    पहले गिरने के बाद एकदम गुस्सा हुआ और  फिर मुझे देख अजीब तरह से मुस्कुराने। नज़रें भी कितनी गहरी थीं उसकी..."

    साँझ ने झट से अपनी आँखें खोलीं और खुद को डांटते हुए कहा, "पागल हो गई है क्या! सो जा अब। बेकार के ख्याल..."
    वो तकिए को थोड़ा कस कर पकड़ी और ज़बरदस्ती आँखें बंद कर लीं।
    पर मुस्कान की हल्की लकीर उसके चेहरे पर खुद-ब-खुद आ गई थी, जिसे वो खुद भी महसूस नहीं कर पाई।

    ____
    सात्विक नीचे आया। रमा जी अब भी उसका इंतज़ार कर रही थीं। "इतना समय लगता है नीचे आने में?" रमा जी ने सात्विक से कहा।
    "माँ, जब हम नीचे आ रहे थे तो बीच में फोन आ गया था, तो रुक गए और बात करने लगे थे। अच्छा अब खाना दो, भूख लगी है," सात्विक ने अपनी माँ की ओर प्यार से देखते हुए कहा।

    "कविता, खाना दे दो बबुआ को। हम जा रहे हैं आराम करने," यह कहकर रमा जी अपने कमरे में चली गईं।

    सात्विक ने खाना खाया और वह भी ऊपर अपने कमरे में आ गया।
    कमरे का दरवाज़ा बंद करते ही वह खिड़की के पास आकर खड़ा हो गया। बाहर हल्की ठंडी हवा चल रही थी।

    उसने सिर टिका लिया खिड़की के फ्रेम पर और सोचा,
    "अब कल तुम भी कॉलेज आओगी ना...?"

    एक हल्की सी मुस्कान उसके चेहरे पर आ गई।
    सोचते-सोचते उसकी आँखों के सामने फिर वही पल घूम गया —
    जब साँझ उसके ऊपर गिर गई थी, और फिर उसे घूरने लगी थी।
    "क्या वो भी मुझे याद कर रही होगी?"
    सात्विक के दिल ने अनजाने में सवाल किया।

    उसने खुद को झटका दिया,
    "पागल हो गया हूँ क्या मैं...? बस एक मुलाक़ात में!"

    पर दिल कहाँ मानने वाला था। धीरे-धीरे वो बिस्तर पर आकर लेट गया और छत की तरफ ताकने लगा।
    नींद उसकी आँखों से दूर थी... लेकिन एक मीठी-सी बेचैनी उसके दिल में घर कर चुकी थी।

    सात्विक सुबह-सुबह तैयार था। उसने आदित्य को फोन लगाया।
    "हैलो! आदि... भाई जल्दी से आ जा, आज भी टाइम लगाएगा क्या?" सात्विक ने उत्साह के साथ कहा।
    "आ रहे हैं भाई, तुमने तो ठीक से उठने भी नहीं दिया," आदित्य ने मुँह बनाते हुए कहा।
    "चलो, बहुत सो लिए तुम! अब जल्दी उठो। पंद्रह मिनट में हमारे घर पर चाहिए," सात्विक ने फोन रखते हुए कहा।


    इधर,
    "साँझ, उठ ना," राधिका जी ने कहा।
    "हाँ उठ रही हूँ... उफ़ माँ, आज तो सोने दीजिए," साँझ ने करवट बदलते हुए कहा।
    "चलो चलो, इतना नहीं सोते," राधिका जी ने कहा, फिर रुपाली को उठाते हुए बोलीं, "रुपाली, तू भी उठ, जल्दी करो दोनों!"
    यह कहकर राधिका जी कमरे से बाहर चली गईं। कुछ समय बाद दोनों तैयार हो गईं।
    "मामी, अंकित कहाँ है?" साँझ ने अंकित को ढूंढ़ते हुए अपनी मामी से पूछा।
    नीतू जी ने कहा, "पता नहीं कहाँ चला गया है ये लड़का।"
    साँझ फिर घर से बाहर आकर, बरामदे में बैठे अपने पापा से बोली, "पापा, अपने अंकित को देखा है?"
    "क्यों, क्या हुआ, बच्चा?" कन्हैया जी ने कहा।
    "कुछ खाने का मन है, भाई भी नजर नहीं आ रहा। वैसे भी, वो सुनता तो है नहीं, तो अंकित से कहूँगी, वो ला देगा," साँझ ने आराम से अपने पापा से कहा।
    "वो दोनों खेत की तरफ गए हैं," कन्हैया जी ने कहा।
    साँझ ने आगे कहा, "ओह... अच्छा, आप चाय पियोगे?"

    कन्हैया जी ने कहा, "हाँ, पिएंगे। बनाने जा रही हो क्या?"
    "हाँ, अच्छा बाकियों से भी पूछ लेती हूँ," साँझ ने कहा और बाकियों से पूछने चली गई।
    ___
    "तुम अब आ रहे हो, कब से बुला रहा था तुम्हें!" सात्विक ने गुस्से में कहा।
    "अरे भाई, हम तैयार नहीं थे ना, टाइम तो लगता ही है," आदित्य ने थोड़ा प्यार से समझाते हुए कहा।
    "हाँ साले, लड़की है ना तू!" सात्विक ने गुस्से में कहा।
    "अच्छा, गाली बाद में दे देना... चलो अब," आदित्य ने कहा।
    "हाँ चलो," सात्विक ने कहा।
    दोनों जाने लगे। सीढ़ियों से नीचे आ रहे थे, तभी रमा जी ने उन्हें जाते हुए देखा।
    "अरे सात्विक, चल, आ खाना खा ले!" रमा जी ने ऊपर सीढ़ियों से उतरते हुए सात्विक को कहा।
    "नहीं माँ, हम बाहर खा लेंगे। आप फ़िक्र मत करिए," सात्विक सीढ़ियों से नीचे आकर अपनी माँ के चेहरे को प्यार से छूते हुए कहा।

    "अरे, ऐसे कैसे? आओ, खा के जाना, चल अंदर," रमा जी ने सात्विक से कहा।

    "नहीं माँ, आलरेडी इस गधे की वजह से लेट हो गए हैं," सात्विक ने आदित्य के सिर पर चपत लगाते हुए कहा।

    "अरे... तू ना हमें हल्के में मत ले," आदित्य ने अब चिढ़ते हुए कहा।
    "अच्छा चल, अब, माँ हम जा रहे हैं," ये कहकर सात्विक ने जीप का दरवाजा खोला और उसे स्टार्ट करने लगा।



    आगे क्या होता है ये जानने के लिए पढ़ते रहिए — "मैं सिर्फ तुम्हारी हूँ।"
    मिलते हैं अगले भाग में। आज के लिए बस इतना ही।

    प्रणाम! 🙏

    कृपया अपने सुझाव और विचार ज़रूर साझा कीजिएगा।
    आपके फीडबैक से मुझे आगे लिखने की प्रेरणा मिलती है, और अगर कोई गलती हो, तो कृपया बताइएगा, ताकि मैं उसे सुधार सकूँ।

    ~ आरुषि ठाकुर ✍🏻

  • 10. मै सिर्फ तुम्हारी हु - Chapter 9

    Words: 1355

    Estimated Reading Time: 9 min

    जय श्री राम 🙏🏻
    अब आगे,

    सात्विक और आदित्य कॉलेज के लिए रवाना हो गए। सात्विक के दिल में एक ही ख्वाहिश थी — शायद आज साँझ उसे फिर से दिख जाए।

    कॉलेज के गेट पर जीप रुकी। सात्विक फुर्ती से नीचे उतरा और चलते-चलते आदित्य से बोला, "जा कर जीप पार्किंग में लगा दे," फिर अपनी घड़ी को एडजस्ट करते हुए तेज़ कदमों से आगे बढ़ गया।

    "अरे भाई, वेट तो कर!" आदित्य ने पीछे से आवाज़ दी, लेकिन सात्विक के कानों तक वो पुकार जैसे पहुँची ही नहीं।

    कॉरिडोर में कदम रखते ही उसकी नज़रें इधर-उधर भटकने लगीं। साँझ कहीं दिखी नहीं, लेकिन नज़र नीरज पर पड़ी। सात्विक को याद आया कि साँझ का एडमिशन फॉर्म नीरज ने ही भरा था, इसलिए उसने तुरंत नीरज को हाथ के इशारे से अपने पास बुला लिया।
    ___

    इधर साँझ ने सब से पूछ लिया था, "चाय पियोगे?" हमेशा की तरह सबने 'हाँ' में सिर हिलाया... सिवाय अतुल के।

    तभी अंकित और अतुल बाहर से अंदर आते दिखे।

    साँझ ने नज़दीक आते ही मुस्कराकर कहा, "अंकु, तू चाय पिएगा? वैसे... मैं तो तेरा ही इंतज़ार कर रही थी कब से... पर छोड़, अब जाने दे।"

    अंकित थोड़ा चौंका, "अच्छा, बता क्या हुआ?" उसने पूछा।

    "अरे, जाने दे अब... मन नहीं है बताने का। चाय पीनी है कि नहीं, ये बता," साँझ ने कहा।

    "हाँ, पिएंगे ना! अच्छी-सी बनाना। और हाँ, हम ऊपर हैं, तो ऊपर ही आ जाना," अंकित ने मुस्कराकर कहा।


    "हाँ, और कुछ?" साँझ ने हल्के तंज के साथ पूछा।

    "नहीं, बस तू ऊपर आ जाना," अंकित ने मुस्कराते हुए कहा और अतुल के साथ छत की ओर चल पड़ा। पीछे-पीछे रुपाली भी चली गई।

    साँझ रसोई में लगी रही। चाय बनने की खुशबू जैसे पूरे माहौल को सुकून दे रही थी। उसने बारी-बारी से सबको कप पकड़ाए और फिर खुद की चाय लेकर छत की ओर बढ़ गई।

    छत पर पहुँची तो देखा, अतुल पहले ही बिस्कुट की प्लेट पर टूट पड़ा था। प्लेट में बस अब इक्का-दुक्का बचे थे।

    "तूने सब खा लिए क्या?" साँझ ने आँखें तरेरते हुए पूछा।

    "नहीं, नहीं!" अतुल ने बिस्कुट मुँह में दबाते हुए कहा, "मैं तो बस गिन रहा था... कितने बचे हैं।"

    सब हँस पड़े।

    साँझ ने एक बिस्कुट उठाया और अपनी चाय में डुबोते हुए बैठ गई। तभी अंकित ने अतुल से पूछा, "अच्छा अतुल, तू कहाँ जाने वाला है?"
    "मैं सोच रहा हूँ, लंदन जाऊँ," अतुल ने कहा।

    "वैसे पंजाब में तो सब कनाडा जाते हैं, तो मुझे लगा कि तुम भी वहीं जाओगे," अंकित ने मुस्कराते हुए कहा।

    "अरे नहीं भाई, वो लोग जाएँ। मुझे तो वहाँ का मन ही नहीं है," अतुल ने साफ़ साफ कहा।

    दूसरी तरफ, कॉलेज में...


    "जी भईया, बुलाया आपने?" नीरज ने थोड़े नर्वस होकर सात्विक के पास आकर पूछा।

    "परसो तुमने दो लड़कियों का फॉर्म भरा था, उन्होंने क्या लिया है?" सात्विक ने गंभीरता से पूछा, जैसे कुछ और जानने की कोशिश कर रहा हो।

    नीरज ने सिर झुकाया और थोड़ा सोचते हुए बोला, "भईया जी, उन दोनों ने अलग-अलग क्लासेज ज्वाइन की हैं।"

    "हाँ, तो कौन सी?" सात्विक ने नीरज के चेहरे पर नज़र गड़ाए हुए पूछा।

    "भईया जी, एक ने M.Com और दूसरी ने Bachelor's of Mass Communication में एडमिशन लिया है," नीरज ने कहा।

    "अच्छा, ठीक है, तुम जाओ," सात्विक ने कहा। तभी आदित्य कार पार्क कर के सात्विक के पास आकर बोला, "हमें कहते थे कि GF के पीछे पागल है, और तुम?"

    "मैं क्या? पापा ने हमें कहा था उनका ध्यान रखना, वही कर रहे हैं," सात्विक ने कहा।

    "जाने दो तुम, पापा ने कहा," आदित्य ने मुँह बनाकर कहा।

    "अच्छा, चल, पूछ अपनी वाली से कहा है?" सात्विक ने आदित्य के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा।

    "क्या है?" आदित्य ने मुँह बनाया और कॉल लगाने लगा।

    लेकिन दूसरी तरफ से कॉल पिक नहीं हुआ, क्योंकि वे सब छत पर बैठकर चाय और बिस्कुट का आनंद ले रहे थे। हंसी-मजाक में डूबे, बातचीत में खोए हुए थे।

    नीतू जी ने रुपाली को आवाज़ लगाई, "रुपाली..."

    "हाँ मम्मी," रुपाली ने छत से ही आवाज़ दी।

    "रुपाली, तेरा फोन कब से बज रहा है!" नीतू जी ने कहा। "यार, साँझ, जा ना नीचे से फोन ला दे मुझे।" रुपाली ने साँझ से कहा।

    "हम्म, ठीक है," साँझ ने कहा, चाय के खाली कप को उठाया, ट्रे में वापस रखा और नीचे चली गई।

    साँझ नीचे आ गई, उसने कप किचन में रखा और फिर अपने कमरे में जाकर रुपाली का फोन चार्जर से निकाला ही था कि तभी फोन फिर से रिंग हुआ।

    उसने रुपाली का फोन ऊपर जाकर दे दिया और खुद वापस नीचे आ गई।

    रुपाली भी नीचे आ गई, क्योंकि वह फोन अतुल और अंकित के सामने तो उठा नहीं सकती थी। जब रुपाली रूम में आई, तो साँझ ने कहा, "नीचे ही आना था तो फोन ऊपर क्यों मंगवाया?"

    रुपाली ने फोन उठा लिया था। यह बात आदित्य ने भी सुन ली थी। रुपाली चुप रहने को कह रही थी। साँझ ने फिर कुछ नहीं कहा और बिस्तर में घुसकर सोने के लिए लेट गई।

    "हाँ, बोलो, फोन क्यों किया? तुम्हें पता है न कि फोन खराब है, चार्ज करती हूँ और जल्दी ही खत्म हो जाता है," रुपाली ने कहा।

    "तुम कहाँ हो?" आदित्य ने सीधे मुद्दे पर आते हुए कहा।


    "घर, क्यों?" रुपाली ने पूछा।

    "अरे बस ऐसे ही, कॉलेज नहीं आई, इसलिए," आदित्य ने कहा।

    "हाँ, वो कल फुआ सब जा रहे हैं, तो थोड़ा काम है बस," रुपाली ने कहा। इतने में ही फोन कट गया। "ओह तेरी! इस फोन को तोड़ने का मन कर रहा है, कल से परेशान कर दिया इसने!" रुपाली ने गुस्से में फोन को देखते हुए कहा।

    साँझ ने आंखें खोली और रुपाली से बोली, "दौरा-दुरा पड़ा है क्या? अकेले बड़बड़ाई जा रही है।"

    रुपाली ने मुँह बनाया और बोली, "फोन फिर डिस्चार्ज हो गया।"

    "Awww... कितना बुरा हुआ ना," साँझ ने तंज कसते हुए कहा।

    रुपाली ने कहा, "तेरा मुँह क्यों बना है?"

    "कुछ नहीं यार, परसो हम लोग वहाँ शिफ्ट हो जाएंगे और मम्मी, पापा और भाई जी सब चले जाएंगे। मुझे भी जाना है," साँझ ने छोटा सा मुँह बना कर कहा।



    दूसरी तरफ, कॉलेज में,

    आदित्य ने सारी बात बताई जो अभी रुपाली के साथ की थी। "इसका मतलब वो... लड़की, आई मीन साँझ, वो भी चली जाएगी?" सात्विक ने चौंकते हुए पूछा।

    "देख भाई, पूरी बात तो हमें नहीं पता। पर उसने कहा है कि फुआ सब... इसका मतलब सब ही होगा," आदित्य ने कहा।

    "ऐसे कैसे जाएगी? एडमिशन लिया है, पढ़ाई करनी है या नहीं उसे?" सात्विक ने फिर से कहा, और माथे पर शिकन डालते हुए, "बिलकुल नहीं! ये कैसे हो सकता है?"

    "सात्विक, तू हमसे क्या पूछ रहा है? हम कौन से उसके भाई हैं जो सब पता होगा हमें?" आदित्य ने कहा। "पर हां, तेरे पापा  को सब पता होगा। उन्हीं से पूछ ले।"
    @
    "पागल है क्या? वो हमें क्यों बताएंगे? यार, हम इतना तैयार हो के आए थे कि उसे आज पटा ही लेंगे। हमें क्या पता था कि वो तो हमें छोड़ कर जा रही है?" सात्विक ने कहा।

    आदित्य हंसते हुए बोला, "ह ह, हा हा... तेरा मुँह कैसा अजीब लग रहा है, एकदम फनी!"

    "तुमको हम फनी दिखाई दे रहे हैं? हमारा दिल जुड़ा ही नहीं और टूट पहले ही गया," सात्विक ने कहा।

    "तू और तेरा दिल, चल ग्राउंड में प्रैक्टिस ही करते हैं," आदित्य ने हंसते हुए ही कहा।

    "अरे, हमें चोट लगी है, यही बहाना दिए थे कोच सर को कि कल की प्रैक्टिस में नहीं आएंगे। हमें लगा वो हमें मिलेगी, बात-वात होगी। पर वो तो आई ही नहीं," सात्विक ने कहा, और उसकी आवाज़ में अब एक उदासी छिपी हुई थी।



    क्या होगा जब साँझ को पता लगेगा कि कोई उसके इंतजार में है? क्या करेगी साँझ फिर? क्या होगा दोनों तरफ से प्यार या रहेगा एकतरफा?



    आगे क्या होता है ये जानने के लिए पढ़ते रहिए — "मैं सिर्फ तुम्हारी हूँ।"
    मिलते हैं अगले भाग में। आज के लिए बस इतना ही।

    प्रणाम! 🙏

    कृपया अपने सुझाव और विचार ज़रूर साझा कीजिएगा।
    आपके फीडबैक से मुझे आगे लिखने की प्रेरणा मिलती है, और अगर कोई गलती हो, तो कृपया बताइएगा, ताकि मैं उसे सुधार सकूँ।

    ~ आरुषि ठाकुर ✍🏻

  • 11. मै सिर्फ तुम्हारी हु - Chapter 10

    Words: 1281

    Estimated Reading Time: 8 min

    जय श्री राम 🙏🏻
    अब आगे,

    "ठीक है, तो हम चलते हैं फिर," यह कहकर आदित्य प्रैक्टिस ग्राउंड की ओर चला गया और सात्विक वहाँ से घर लौट आया। घर आते ही वो सीधा अपने कमरे में चला गया। "ऐसे कैसे जा सकती हो तुम हमें छोड़कर? यार, अभी तो मिली हो," सात्विक ने खुद से कहा।

    दूसरी ओर, श्रीज जी के घर...

    "साँझ, ये बैग में रख देना ज़रा," नीतू जी ने प्यार से कहा।

    "मामी, इसमें क्या है?" साँझ ने जिज्ञासा से पूछा।

    "अरे, परिकिया है... और ठेकुआ भी। तेरे मामा को बहुत पसंद है ना, इसलिए सोचा भेज दूँ," नीतू जी मुस्कराते हुए बोलीं।

    फिर उन्होंने तेज आवाज़ लगाई, "रुपाली! मिला कि नहीं?"

    अंदर से हल्की झुंझलाहट भरी आवाज़ आई, "नहीं माँ, कुछ दिखाई नहीं दे रहा। कहाँ रखती हो आप? खुद ही आकर देख लो ना।"

    "इस लड़की को कुछ मिल जाए तो बड़ी मेहरबानी होगी।" नीतू जी ने हँसते हुए कहा, "साँझ, तुम ज़रा सब कुछ अच्छे से देख लो। कुछ रखना है तो रख दो, ये न हो कि कुछ छूट जाए। और माँ कहाँ है तुम्हारी?"

    "पता नहीं मामी, जब से दोपहर बाद उठी हूँ, मैंने उन्हें देखा ही नहीं," साँझ ने मुंह बनाते हुए कहा।

    "पता नहीं दीदी भी कहाँ चली जाती हैं, फिर कल हरबराहट करेंगी," नीतू जी ने कहते हुए अपने कदम छत की ओर बढ़ा दिए।

    साँझ ने सामान समेटा और कमरे से बाहर निकली। इधर-उधर नज़र दौड़ाई, पर कोई दिखाई नहीं दिया तो वह दूसरे कमरे की ओर चली गई।

    दूसरे कमरे में कन्हैया जी और श्रीज जी न्यूज़ देख रहे थे। साँझ वहाँ जाकर बोली, "पप्पा, आपने मम्मा को देखा है?"

    "कल हम शहर जा रहे हैं न, तो उन्होंने कहा कि डेरा पर जो मामी हैं, उनसे मिलने गई हैं," कन्हैया जी ने एक नजर सांझ की तरफ देख कर जवाब दिया।

    "ओह, तभी कहूँ कि कहाँ चली गईं। अच्छा पप्पा, आपके कपड़े कहाँ हैं? जो मम्मा ने धोकर रखे हैं, मैं मोड़ देती हूँ," साँझ ने कहा।

    "मुझे नहीं पता, जब तुम्हारी मम्मी आएँगी तो उनसे पूछ लेना," कन्हैया जी ने कहा और दोबारा न्यूज़ देखने लगे।

    साँझ उस कमरे से निकलकर वापस अपने कमरे में आ गई। तभी रुपाली भी कमरे में आ गई और साँझ को ऐसे आराम से बैठे फोन चलाते हुए देख कर बोली, "तुमने अपना सामान अलग कर लिया या नहीं?"
    "क्यों? कल कर लेंगे ना वहाँ पर," साँझ ने अपना ध्यान फोन में लगाए हुए ही कहा।

    "अभी ही कर लो। कल शाम को पहुँचेंगे, फिर सामान भी सेट करना होगा और संडे को सुबह-सुबह स्टेशन जाना है, तो कब करोगी?" रुपाली ने समझाते हुए कहा।

    "हाँ साँझ, तुम भी सामान अलग कर के रुपाली के बैग में ही रख लो। नहीं तो आख़िरी वक़्त में सब गड़बड़ ही होगी," नीतू जी ने सांझ की बात सुन ली तो कमरे में आते हुए कहा। 

    "हम्म, ठीक है... पर एक बार मम्मा आ जाएँ। क्योंकि मुझे नहीं पता किस बैग में रखा है। और अगर मैंने हाथ लगाया तो कुछ खराब हो गया, तो मम्मा डाँटेंगी," साँझ ने कहा।


    दूसरी तरफ,

    "ये सात्विक अभी तक नहीं आया," रमा जी ने अपने आप से कहा।

    "क्या हुआ रमा जी? आप इतनी परेशान क्यों लग रही हैं?" आदर्श जी ने सामने रखे सोफे पर बैठते हुए पूछा।

    "कुछ नहीं जी... रात होने वाली है और..." रमा जी बोलते-बोलते चुप हो गईं। उन्होंने नजरे उठा कर आदर्श जी की तरफ देखा।

    "और क्या? आपका बेटा अभी तक आया नहीं है ना?" आदर्श जी ने  कहा।

    "जी, हम फोन भी मिलाते जा रहे हैं। पता नहीं कहाँ चला गया," रमा जी ने परेशान होते हुए कहा।

    "और चढ़ाइए सर पर," आदर्श जी ने तंज कसते हुए कहा।

    रमा जी परेशान-सी वहाँ से चली गईं। वे कुछ नहीं बोलीं, तो आदर्श जी ने उनकी ओर देखते हुए हल्की तेज आवाज़ में, ताकि रमा जी सुन सकें, कहा, "अच्छा ज़्यादा चिंता न करें। आपने आदित्य को फोन किया?"

    "नहीं, नहीं किया हमने," रमा जी वापस पलटकर पास आते हुए बोलीं।

    "तो आदित्य को फोन कीजिए और पूछिए कहाँ है, क्योंकि दोनों ज़्यादातर साथ में ही रहते हैं," आदर्श जी ने कहा।

    सात्विक उधर, नदी के किनारे आकर बैठा हुआ है। एकदम शांत नदी का बहाव, बगल में उसकी जीप खड़ी है। आस-पास कोई नहीं है — सिर्फ सन्नाटा और बहते पानी की आवाज़।

    रमा जी ने आदर्श जी की बात मानते हुए आदित्य को फोन मिलाया, "हेलो... आदित्य।"

    दूसरी तरफ से आदित्य ने फोन को उठाते हुए कान से लगाकर कहा, "जी चाची प्रणाम, कहिए क्या हुआ?"

    "बेटा, सात्विक वहाँ है क्या?" रमा जी ने परेशानी भरी आवाज में कहा।

    आदित्य ने बहाना बनाते हुए कहा, "हाँ चाची, यहाँ ही है। वो ना, उसका फोन डिस्चार्ज हो गया था, तो चार्जिंग में लगा दिया है। फिलहाल, अभी बाहर गया है कुछ सामान लाने। हम ही भेज दिए थे। आता है तो बात करवाते हैं आपसे।"

    "हाँ ठीक है, बात करवाना हमसे जब आएगा तो," रमा जी ने इतना कहा और फोन रख दिया। आदर्श जी ने कहा, "हो गई तसल्ली, अब हमें खाना मिलेगा, बहुत भूख लगी है हमें।"

    "जी, अभी लाती हूँ," ये कह रमा जी किचन में चली गईं।

    आदित्य को पता था इस वक्त कहाँ होगा सात्विक, इसलिए वह भी नदी के किनारे आ गया।

    "अरे भाई, तुम यहाँ बैठे हो और उधर चाची परेशान हो रही हैं। वैसे हमें पता था तुम हमें यहाँ ही मिलोगे," आदित्य ने सात्विक के पास आकर बैठते हुए कहा।

    "यहां पर सकून मिलता है आदि, बस इसलिए आ गया, ऐसा ही सकून उसे देख कर मिला था पर...," सात्विक ने सामने की तरफ देखते हुए कहा।

    "पर क्या?" आदित्य ने सात्विक की तरफ सिर घुमाते हुए कहा।

    "आदि, हमें ना कभी लगा ही नहीं कि किसी को देख कर उससे प्यार हो जाएगा, पर जब उसे देखा..." उसके बारे में सोचते हुए सात्विक ने प्यारी सी स्माइल दी और बोला, "एकदम मासूम चेहरा, भोलेपन से भरी, ऐसे जैसे कितनी इनोसेंट है। पर जब इस दिन उसने घूरा, तो लगा, खा ही जाएगी। जानना चाहते हैं हम उसे करीब से।"

    "अरे, तुमको उसका नंबर निकलवा के दे सकते हैं अगर तुम कहो," आदित्य ने सात्विक से जल्दी से कहा।

    "चल, जाने दे, उठ, घर जाना है, माँ वेट कर रही है ना," सात्विक वहां से उठते हुए बोला और अपनी जीप की तरफ बढ़ गया।

    "अरे भाई, तू सोच ना, हम कर सकते हैं ऐसा," आदित्य भी वहां से उठा और सात्विक के पीछे-पीछे जाते हुए बोला।

    "पहले अपने गेम पे फोकस करते हैं, उसके बाद हम डिसाइड करेंगे। और कल टीम के साथ तैयार रहना, इन्फॉर्म कर दो ग्रुप में, कल पटना जाना है," सात्विक ने जीप स्टार्ट की और वहां से आगे बढ़ा दी तो आदित्य ने अपनी आवाज को तेज करते हुए  कहा, "वो तो हम कर देंगे। पर तुम्हारी प्यार की गाड़ी को भी आगे बढ़ाएंगे, देखना। उसे तुम्हारी जिंदगी में ले आएंगे।"

    सात्विक अपने घर के रास्ते में था और पुराने गाने चला रखे थे:

    "पहला पहला प्यार है,
    पहली पहली बार है,
    पहला पहला प्यार है,
    पहली पहली बार है,
    जान के भी अंजाना,
    कैसा मेरा यार है..."

    "पता नहीं, उसे पता है कि नहीं?" फिर खुद में मुस्कुराया और अपने घर आ गया।



    "क्या सात्विक को मॉर्निंग में पता चलेगा कि साँझ कहीं नहीं जा रही? क्या सात्विक कल मिल पाएगा या उससे पहले ही पटना चला जाएगा?"
    आगे क्या होता है ये जानने के लिए पढ़ते रहिए — "मैं सिर्फ तुम्हारी हूँ।"
    मिलते हैं अगले भाग में। आज के लिए बस इतना ही।

    प्रणाम! 🙏

    कृपया अपने सुझाव और विचार ज़रूर साझा कीजिएगा।
    आपके फीडबैक से मुझे आगे लिखने की प्रेरणा मिलती है, और अगर कोई गलती हो, तो कृपया बताइएगा, ताकि मैं उसे सुधार सकूँ।

    ~ आरुषि ठाकुर ✍🏻

  • 12. मै सिर्फ तुम्हारी हु - Chapter 11

    Words: 1239

    Estimated Reading Time: 8 min

    अब आगे,

     सात्विक ने घर के बाहर जीप रोकी और सीधे छत की ओर बढ़ गया। वह दरवाज़े से अंदर आया और ऊपर छत वाले कमरे में चला गया, क्योंकि छत पर जाने की सीढ़ियाँ बाहर थीं।

    लेकिन रमा जी को पहले ही खबर हो गई थी कि सात्विक घर आ चुका है। इसलिए वह घर से बाहर निकलीं और ऊपर उसके कमरे की ओर चल पड़ीं।

    ऊपर छत पर, रमा जी कमरे में आयीं। सात्विक अपने बिस्तर पर पेट के बल, आँखें बंद किए लेटा हुआ था। रमा जी उसके पास बैठ गईं और उसके सिर पर हाथ फेरने लगीं।

    सात्विक ने हाथों का स्पर्श महसूस किया, तो अपनी आँखें खोलते हुए बोला, “अरे माँ, आप यहाँ? और अभी तक जाग रही हैं?”

    “हाँ, तेरा ही इंतज़ार कर रही थी। तेरी जीप की आवाज़ सुनी, तो तुझे देखने बाहर आ गई। लेकिन तब तक तू ऊपर चला गया, फिर तेरे पीछे-पीछे आना पड़ा,” रमा जी ने मुस्कुराते हुए कहा।

    “माँ, आप आवाज़ दे देतीं, हम रुक जाते। आपने हमें देख लिया था तो,” सात्विक ने उठकर बैठते हुए कहा।

    “अच्छा, ये बता, खाना खाया या नहीं?” रमा जी ने उसके गाल पर प्यार से हाथ फेरते हुए पूछा।

    “हाँ माँ, हम खाकर आए हैं। आपने खाना खा लिया ना?” सात्विक ने रमा जी की ओर देखते हुए पूछा।

    “हाँ, खा लिया। अच्छा, तुम्हारे पापा ने बताया कि कल पटना जा रहे हो,” रमा जी ने बातचीत को आगे बढ़ाते हुए कहा।

    “हाँ माँ, सोमवार को मैच है। कोच सर ने कहा था कि दो दिन पहले पहुँच जाएँ, इसलिए कल निकलना होगा,” सात्विक ने समझाया।

    “ठीक है। बता दे, क्या-क्या ले जाएगा? हम तेरी पैकिंग कर देंगे,” रमा जी ने कहा और उठकर अलमारी की ओर बढ़ीं।

    “अरे माँ, रहने दीजिए ना। हम खुद कर लेंगे। आप तो सुबह से ही कुछ न कुछ करती रहती हैं। ये छोटा-सा काम हम खुद कर लेंगे,” सात्विक ने मुस्कुराते हुए रमा जी को रोक लिया।

    “अरे, कर देती हूँ ना,” रमा जी ने सात्विक से कहा।

    सात्विक बिस्तर से नीचे उतरकर अपनी माँ के कंधों को पकड़ते हुए मुस्कुराया, “अरे हमारी माता श्री, हम खुद कर लेंगे। आप परेशान मत होइए। आप जाकर आराम कीजिए।”

    “अच्छा, ठीक है,” रमा जी ने मुस्कुराते हुए कहा और कमरे से बाहर चली गईं।

    सात्विक अलमारी के पास गया और कपड़े निकालने लगा।

    **अगला दिन**
    **श्रीज जी का घर**

    “अरे साँझ, तूने अपने पापा की पैंट देखी है क्या? कल ही धोकर छत पर सुखाई थी, अब कहीं मिल नहीं रही,” राधिका जी ने छत से आवाज़ लगाई।

    “मम्मा ने मुझे बुलाया क्या?” साँझ, जो रुपाली के साथ अपने कमरे में बैठी थी, सांझ ने रुपाली की ओर देखते हुए पूछा।

    “हाँ,” रुपाली ने मुस्कुराते हुए कहा।

    “अच्छा, तू जा कर फ्रेश हो जा। मुझे भी जाना है वॉशरूम,” साँझ ने कहा और कमरे से बाहर निकल गई। फिर उसने बाहर आकर नीचे से ही आवाज़ दे कर पूछा, “हाँ माँ, क्या कहा आपने?”

    राधिका जी नीचे से कपड़े लेकर ऊपर आ रही थीं। उन्होंने कहा, “तूने अपने पापा की पैंट देखी है क्या?”

    “नहीं माँ। आपने उस कमरे में देखी, जहाँ पापा बैठे हैं?” साँझ ने दूसरे कमरे की ओर इशारा करते हुए कहा।

    “नहीं। जा देख तो सही, मैं यहाँ सामान समेट रही हूँ,” राधिका जी ने थोड़ा झुंझलाते हुए कहा।

    तभी नीतू जी आकर मुस्कुरा कर बोलीं, “कहाँ था ना आपको, आपकी माँ, अभी तो इधर-उधर घूम रही थी, और अब घबराई हुई है!”

    ये सुनकर साँझ और नीतू जी दोनों हँस पड़ीं। फिर राधिका जी भी मुस्कुराते हुए बोलीं, “अरे कहाँ घूमने गयी थी! भाभी ने बुला लिया तो जाना पड़ा। नहीं तो कहेंगे, श्रीज की बहन मिलने भी नहीं आई एक बार।”

    राधिका जी बाकी कपड़े समेटते हुए छत से नीचे आ गईं। साँझ उस कमरे में चली गई जहाँ उसने इशारा किया था।

    “अच्छा, ठीक है दीदी, खाना बना रही हूँ? क्या बनाऊं?” नीतू ने राधिका जी से पूछा।

    “जो भी ठीक लगे, वही बना देना। बस खाना हल्का ही रखना, रास्ते भर भारी भारी लगता है खुद को,” राधिका जी ने आँगन में पड़े पलंग पर कपड़े रखते हुए कहा। फिर वहीं बैठकर कपड़े तह करने लगीं।

    “माँ, ये लो, पापा की पैंट,” साँझ उस कमरे से पैंट लेकर आई और आगे बढ़ाते हुए बोली।

    राधिका जी ने कहा, “अच्छा, जा नहा ले, अब जाकर जल्दी करो। पापा ऑटो लेने गए हैं। और हाँ, सामान भी देख लेना कि कुछ रह न जाए।”

    दूसरी तरफ, सात्विक पटना जाने के लिए तैयार था। बैग उसकी पीठ पर था, और उसके चेहरे पर हल्की सी मुस्कान थी, जिसमें थोड़ी सी चिंता भी छुपी थी।

    “ओके माँ, हम जा रहे हैं,” सात्विक ने रमा जी के पैर छूते हुए कहा।

    रमा जी ने उसके सिर पर हाथ रखा और फिर उसे अपनी बाँहों में भरते हुए बोलीं, “ध्यान रखना खुद का, और अच्छे से खेलना। याद रखना, हम सब तुम्हारे साथ हैं, ओके?”

    “ओके माँ,” सात्विक ने हल्की मुस्कान के साथ कहा, फिर एक पल के लिए उसे देखा और फिर से गले लगा लिया। थोड़ी देर दोनों चुप रहे, जैसे यह पल थम सा गया हो।

    फिर सात्विक आदर्श जी के पास गया और उनके पैर छुए।

    आदर्श जी ने भी सात्विक को आशीर्वाद देते हुए कहा, “विजयी भव। पूरे मन से खेलना, और याद रखना, हमारे कॉलेज को तुम पर गर्व होना चाहिए। सबकी उम्मीदें तुम्हारे साथ हैं।”

    सात्विक ने आदर्श जी की बात सुनकर सिर हिलाया और एक बार फिर से मुस्कुरा दिया, मानो उन शब्दों से उसे और ताकत मिल गई हो।

    “जी पापा, अब हम चलते हैं,” सात्विक ने कहा। यह कहकर सात्विक घर से निकल गया। रमा जी और आदर्श जी वापस अपने घर के अंदर आ गए।

    सात्विक की पूरी टीम और कोच सर कॉलेज के बाहर उसका इंतजार कर रहे थे। सात्विक और आदित्य दोनों कॉलेज पहुँच गए और फिर वहाँ से रवाना हो गए।

    रमा जी ने आदर्श जी की ओर देखते हुए पूछा, “आप आज कॉलेज नहीं जा रहे हैं क्या?”

    आदर्श जी, जो अंदर आकर सोफे पर बैठ चुके थे और अख़बार पढ़ रहे थे, एक नजर उठाकर रमा जी को देखा और बोले, “नहीं, आज हम नहीं जा रहे। आज वे बच्चे, मेरा मतलब श्रीज, आने वाले हैं ना? उनके साथ उनकी बहन और पूरा परिवार भी आएगा क्योंकि कल वे यहीं से स्टेशन जाएँगे।”

    “अच्छा, कब तक आएँगे वे लोग?” रमा जी पास ही बैठते हुए बोलीं, उनके चेहरे पर थोड़ी उत्सुकता और हल्की-सी मुस्कान थी।

    “इतना तो पता नहीं, पर दोपहर तक आ जाएँगे। तो अब हमें यहीं रुकना ही पड़ेगा, ना,” आदर्श जी ने अख़बार को मोड़ते हुए कहा।

    “सही कह रहे हैं। नहीं तो मैं अकेले कैसे सब संभालूँगी? आप आज यहीं रुक जाइए,” रमा जी ने प्यार से कहा, जैसे उन्हें राहत मिली हो कि आदर्श जी का साथ रहेगा। यह कहते हुए वे उठीं और किचन की तरफ बढ़ गईं।

    रमा जी की हलचल में एक अजीब-सी ऊर्जा थी—मानो घर में कोई खास महमान आने वाले हों, और सब कुछ ठीकठाक करना उनकी जिम्मेदारी हो। आदर्श जी ने अख़बार को एक तरफ रखा और मुस्कुराते हुए रमा जी की तरफ देखा।


    क्या साँझ यहाँ बिहार में रह पाएगी, अपने माँ-पापा से दूर?
    कैसे मिलेंगे दोनों?
    आगे जानने के लिए अभी पढ़िए: "मैं सिर्फ तुम्हारी हूँ"

    मिलते हैं अगले भाग में।

    प्रणाम 🙏

    प्लीज, अपने ओपिनियन जरूर दीजिएगा।
    ताकि मैं आगे लिखने के लिए प्रेरित हो सकूँ और अगर कोई गलती रह गई हो, तो आप उसे बताकर सुधारने में मदद करें।
    🙏

  • 13. मै सिर्फ तुम्हारी हु - Chapter 12

    Words: 1410

    Estimated Reading Time: 9 min

    अब आगे ,

    रमा जी किचन में जाकर कुछ खाने की तैयारी करने लगीं।
    ___
    कन्हैया जी ने घर के अंदर आते ही कहा, “ऑटो वाला आ गया है। सब तैयार है ना?”

    फिर अंदर कमरे की ओर बढ़ते हुए बोले, “आप अभी तक तैयार नहीं हुईं? क्या करती रहती हैं आप?”

    राधिका जी ने अपनी साड़ी का पल्लू ठीक करते हुए कहा, “बस हो गया। सब तैयार है।” फिर उन्होंने साँझ को देखा, जो एक कोने में फोन चला रही थी।

    “अभी तक फोन ही देख रही है? जा, सामान रख दे जल्दी!”

    “पापा, ये बैग कितना भारी है! मैं कैसे उठाऊँ?” साँझ ने बैग की तरफ देखते हुए कहा, उसकी आवाज में थोड़ी-सी नाराज़गी भी थी।

    “जा जाकर भाई जी और अंकित को बुला ला,” कन्हैया जी ने उसकी बात सुनते हुए कहा। साँझ उन्हें बुलाने चली गई। कन्हैया जी सामान को उठाकर ऑटो रिक्शा में रख रहे थे।

    अंकित और अतुल भी कन्हैया जी के साथ सामान रखवाने में मदद कर रहे थे। “सांझ, ये पर्स पकड़ ले,” राधिका जी ने अपना बड़ा-सा पर्स आगे बढ़ाते हुए कहा।

    “माँ, मैं?” साँझ ने कहा।

    “क्यों, अब तुझसे ये भी नहीं उठाया जाएगा क्या? हल्का-फुल्का सामान तो उठा सकती है, इसमें मैंने पत्थर नहीं भर रखे हैं... पकड़!” राधिका जी ने थोड़ी तेज़ आवाज़ में कहा।

    साँझ आगे आई और पर्स उठा लिया। फिर उसने मामी के पैरों को छूकर प्रणाम किया। अंकित, अतुल और रुपाली ने भी नीतू जी के पैर छुए।

    नीतू जी ने सबको देखते हुए कहा, “पहुँचते ही फोन कर देना, सब लोग। रास्ता लंबा है, ख्याल रखना।”

    कन्हैया जी ऑटो के आगे की सीट पर ड्राइवर के बगल में बैठ गए। श्रीज जी दूसरी ओर से ऑटो वाले के पास जा बैठे। अतुल और अंकित पीछे, जहाँ बैग और बाकी का सामान रखा था, वहाँ बैठ गए। साँझ, राधिका जी और रुपाली बीच की सीट पर थीं।

    **शाम का समय।**
    करीब चार बजे का वक्त था। श्रीज जी, कन्हैया जी और राधिका जी, आदर्श जी के घर पहुँच गए।

    बाक़ी के चारों बच्चे अपने रिश्तेदारों के घर पर थे। दरअसल, मलिका पाठक—यानी कि रुपाली की दूसरी फुआ की बेटी और साँझ की मौसी की लड़की—इन सबसे बड़ी है। उसकी शादी हो चुकी है, और वो लोग शहर में ही रहते हैं। मलिका दीदी का एक छोटा सा बच्चा भी है।

    जब मलिका को पता चला कि मौसी और मौसा कल ही चले जाएँगे, तो मलिका ने ज़िद की, “मौसी, आपको यहीं रुकना होगा। आख़िरकार, इतने दिनों बाद आप लोग आ रहे हो!”
    राधिका जी ने भी महसूस किया कि इस बार मलिका की बात नहीं टाली जा सकती।

    इसलिए, चारों बच्चे—साँझ, अंकित, अतुल और रुपाली—मलिका दीदी के घर रुक गए। साँझ ने मन ही मन सोचा, “अच्छा है, कल का स्टेशन का सफ़र भी यहीं से आसान रहेगा।”

    मलिका दीदी का घर बच्चों के लिए एक छोटा सा उत्सव बन गया। वहाँ खिलौने बिखरे थे, बच्चा हँस-हँसकर दौड़ रहा था, और माहौल में हल्की सी गर्मजोशी थी।

    फिलहाल, राधिका जी सब अच्छे से देख रही थीं। देखे भी क्यों न! आखिरकार अपनी बेटी को किसी और जगह पर अकेले छोड़कर जो जा रही थीं।

    "दीदी, सब ठीक है," श्रीज जी ने आश्वस्त करते हुए कहा। "और अकेली थोड़ी रहेगी! अंकित और रुपाली साथ ही रहेंगे।"

    "पर... फिर भी बच्ची है," राधिका जी ने थोड़ा चिंता भरे स्वर में कहा। "कभी अकेला छोड़ा ही नहीं। दो साल बाद तो हम लोग भी यहीं आ जाएंगे। इसकी पढ़ाई में कोई डिस्टर्बेंस न हो, इसलिए यहाँ छोड़कर जा रही हूँ।"

    आदर्श जी ऊपर आए। उनके चेहरे पर हल्की मुस्कान थी। अंदर आते ही उन्होंने दीवारों को देखते हुए कहा, "कैसा लगा कमरा?"

    कन्हैया जी ने चारों ओर नजर दौड़ाते हुए धीरे से कहा, "ठीक है।"

    श्रीज जी ने मुस्कुराकर कहा, "चलिए, नीचे चलकर आराम से बात करते हैं।"
    सभी लोग धीरे-धीरे सीढ़ियां उतरते हुए नीचे लॉबी में आ गए। लॉबी में हल्की-सी रौशनी थी।

    रमा जी बाहर आईं, उनके हाथों में चाय की ट्रे थी, जिससे चाय की भीनी-भीनी खुशबू आ रही थी। कविता ने प्लेट में बिस्कुट और स्नैक्स सजा दिए और धीरे से मेज पर रख दिए।

    रमा जी ने प्यार भरे स्वर में पूछा, "भाई साहब, आप बच्चों को नहीं लाए?"

    श्रीज जी ने हल्की सी मुस्कान के साथ कहा, "वो हमारी बड़ी बहन की बेटी मलिका ने कहा कि वहीं से जाना है, तो बच्चे वहीं रुक गए।"

    आदर्श जी ने सिर हिलाते हुए कहा, "अच्छा।"

    इधर, रुपाली किचन में मलिका दीदी के साथ मिलकर खाना बनाने में मदद कर रही थी। साँझ मलिका दीदी की बच्ची के साथ खेल रही थी। अंकित और अतुल बाहर निकल गए थे घूमने के लिए।

    कुछ देर बाद वे लोग मलिका के यहाँ लौट आए।
    मलिका ने पूछा, "मौसी, देख आयी जगह कैसी है? ठीक तो है ना?"
    राधिका जी ने कहा, "हाँ, ठीक है। वहाँ से कॉलेज भी नजदीक है, तो सब ठीक ही रहेगा।"

    मलिका ने कहा, "मौसा, खाना लगा देती हूँ। खा लीजिए।"
    कन्हैया जी ने हँसते हुए कहा, "अभी रहने दो, थोड़ी देर बाद निकाल देना। अभी तो पेट में जगह नहीं है!"

    फिर कुछ समय तक सब आपस में बातें करते रहे।
    उसके बाद खाना खाकर सब लोग सोने के लिए अपने-अपने कमरे में चले गए।

    अगला दिन…
    सुबह का समय था। मलिका ने अलमारी से एक सुंदर रेशमी साड़ी निकाली – हल्की गुलाबी रंग की, जिसमें सुनहरे बॉर्डर की कढ़ाई थी। उसने मुस्कुराते हुए साड़ी राधिका जी के सामने फैला दी और कहा, "मौसी, ये साड़ी रख ले। बहुत सुंदर है – तुझ पर बहुत अच्छी लगेगी।"

    राधिका जी ने हल्के से हाथ जोड़ते हुए कहा, "मुझे नहीं चाहिए बेटा।" और साड़ी वापस कर दी।

    मलिका ने भौंहें चढ़ाकर,"मौसी, देख फिर मैं नाराज हो जाऊंगी। तू रख इसे!" उसने जबरदस्ती साड़ी राधिका जी के हाथ में थमा दी।

    राधिका जी ने हार मानते हुए मुस्कुराकर कहा, "तू नाराज मत हो, रख लेती हूँ।"
    मलिका किचन में चली गई – रास्ते के लिए कुछ खाने का पैक तैयार करने। साँझ भी उठ कर तैयार हो गई थी।

    श्रीज जी, कन्हैया जी, राधिका जी और अतुल स्टेशन जाने के लिए चल दिए। अंकित और सांझ भी उनके साथ हो लिया, बस रूपाली को वहीं छोड़कर।

    स्टेशन पहुँचने के कुछ समय बाद ट्रेन आ गई। प्लेटफॉर्म पर हलचल तेज हो गई। लोग अपने-अपने बैग और सामान समेटते हुए जल्दी-जल्दी बोगी की ओर बढ़ने लगे।

    "अरे, चलो! आगे को चलो," कोई कह रहा था। सब लोग तेज़ी से अपनी बोगी की ओर जा रहे थे।

    साँझ की आँखों में आंसू भर आए। उसने राधिका जी को गले लगाते हुए कहा, "माँ, मैं भी चलूँ? मुझे भी ले चलो।"

    राधिका जी ने उसके सिर पर हाथ रखते हुए कहा, "पागल तेरी पढ़ाई मे डिसट्रबेन्स ना हो इसलिए जा रहे है और तू...!" फिर उन्होंने साँझ को और कसकर अपने सीने से लगा लिया।

    राधिका जी ने उसके आंसू पोंछे और प्यार से कहा,
    "अच्छा, अपना ध्यान रखना और कोई लापरवाही मत करना। मेरा प्यारा बच्चा…।" साँझ ने सिर हिलाते हुए अपनी सिसकियों को दबा लिया।

    अंकित ने कन्हैया जी और राधिका जी के पैर छूकर आशीर्वाद लिया। साँझ ने भी झुककर दोनों के पैर छुए। अतुल ने श्रीज जी के पैर छूकर प्रणाम किया।

    फिर राधिका जी, कन्हैया जी और अतुल वापस ट्रेन में चढ़ गए।
    गाड़ी चल दी। साँझ की फैमिली उससे दूर जा रही थी।
    उसके चेहरे पर परिवार से अलग होने की कसक साफ झलक रही थी। उसे लग रहा था जैसे उसकी दुनिया ही उससे दूर जा रही हो। साँझ के लिए तो उसके मम्मा, पापा और भाई ही सब कुछ थे। यहाँ कोई दिक्कत तो नहीं थी, पर दिल वहीं लगता है जहाँ सबसे ज़्यादा प्यार हो।

    श्रीज जी ने साँझ को सुबकते हुए देखा और कहा, " क्या तुम्हे यहाँ प्यार नहीं मिलता जो ऐसे रो रही हो, जैसे विदाई कर दी तुम्हारी और अब तुम कभी मिल ही नहीं पाओगी।"

    साँझ ने उदास चेहरे के साथ धीरे से कहा, "पर कब मिलूंगी, ये तो थोड़ी पता है…।"

    श्रीज जी ने हल्की मुस्कान के साथ कहा, "हाँ, बात तो ठीक है। पर अब कुछ नहीं हो सकता। चलो, अब सामान आदर्श जी के यहाँ शिफ्ट करना है।"



    कैसे रहेगी साँझ यहाँ पर अकेले? और जब सात्विक वापस घर आएगा, तो कैसी होगी उनकी मुलाकात?
    ये सब जानने के लिए पढ़िए – "मैं सिर्फ तुम्हारी हूँ"
    मिलते हैं अगले भाग में।
    प्रणाम 🙏

    कृपया अपने सुझाव और विचार ज़रूर दें, ताकि मैं आगे और बेहतर लिख सकूँ और यदि कोई त्रुटि रह गई हो, तो उसे सुधार सकूँ।
    धन्यवाद! 🙏

  • 14. मै सिर्फ तुम्हारी हु - Chapter 13

    Words: 1507

    Estimated Reading Time: 10 min

    अब आगे,
    श्रीज जी दोनों बच्चों के साथ आदर्श जी के घर आ गए।
    श्रीज जी ने कहा, "तुम दोनों यहीं ठहरो, हम रूपाली को लेकर आते हैं।"
    सांझ और अंकित अपना सामान समेटने लगे, जो वे अपने साथ लाए थे। कविता ऊपर उनके लिए चाय-नाश्ता लेकर आई और बोली, "दीदी ने आप लोगों के लिए भेजा है।"
    अंकित ने उनके हाथ से प्लेट ले ली। फिर सांझ से कहा, "आजाओ, कुछ खा लो, फिर काम कर लेना।"
    चाय पीने के बाद उन्होंने सारा सामान ठीक से जमा दिया।
    रूपाली और श्रीज जी भी बाकी का सामान लेकर आ गए, जो मलिका के यहाँ रह गया था।
    वो बच्चों के लिए कुछ खाने का सामान भी ले आए थे। इसी तरह दो दिन बीत गए। सभी सामान और वहाँ की जरूरी चीजें रखवाकर, श्रीज जी वापस गाँव आ गए।
    दूसरी तरफ,
    सात्विक और उसकी टीम प्रैक्टिस कर रहे थे। आज उनका मैच था। मैच से पहले सात्विक ने रमा जी को फोन किया।
    रमा जी ने हल्की सी नाराज़गी के साथ कहा, "आ गई हमारी याद?"
    सात्विक मुस्कुराते हुए बोला, "मां, हम आपको भूले ही कब थे? अच्छा, आप हमें आशीर्वाद दीजिए कि हमारी टीम ही जीते।"
    सात्विक ने जवाब दिया, "मां, बस आज का मैच खत्म हो जाए। फिर कल सुबह तक यहाँ से चल देंगे।"
    "ठीक है बेटा, अब हम फोन रखते हैं। बाद में बात करेंगे," रमा जी ने कहा। सात्विक ने भी "ठीक है मां" कहकर फोन रख दिया। फोन रखते ही रमा जी ने लंबी सांस ली और पीछे पलटीं, तो देखा कि दरवाजे पर सांझ खड़ी थी।
    रमा जी ने सांझ से कहा, "सांझ बेटा, आप दरवाजे पर क्यों खड़ी हो? अंदर आ जाओ।"
    सांझ कुछ देर झिझकी, फिर धीरे-धीरे अंदर आ गई।
    आंटी… मुझे चीनी चाहिए थी, वो खत्म हो गई है," सांझ ने हल्की झिझक के साथ कहा।
    रमा जी ने मुस्कुराते हुए कहा, "अच्छा, अभी लाई।"
    सांझ ने कटोरी आगे बढ़ाई और धीरे से कहा, "आंटी…"
    रमा जी ने उसके हाथ से कटोरी ली और किचन में चली गईं। तभी आदर्श जी कमरे से बाहर आए। उन्होंने सांझ को देखा और बोले, "बच्चे, तुम यहाँ क्या कर रहे हो?"
    "गुड मॉर्निंग, सर," सांझ ने मुस्कुराकर कहा।
    "गुड मॉर्निंग, बेटा। लेकिन बताया नहीं," आदर्श जी ने कहते हुए पास के सोफे पर बैठ गए।
    "सर, चीनी खत्म हो गई थी, इसलिए…" सांझ ने धीरे से बताया।
    "ओह। वैसे, तुम कॉलेज कब से जॉइन करने वाली हो?" आदर्श जी ने सवाल किया।
    रमा जी कटोरी में चीनी लेकर आईं और सांझ को देते हुए बोलीं, "ये लो, सांझ।"
    "सर, कल से," सांझ ने रमा जी के हाथ चीनी की कटोरी लेते हुए कहा।
    "बेटा, देरी अच्छी बात नहीं होती। हमें लगता है, तुम्हें आज से ही कॉलेज जाना चाहिए," आदर्श जी ने कहा।
    "अच्छा, अब बस कीजिए। आप तो उसके पीछे ही पड़ गए," रमा जी ने हल्की झुंझलाहट के साथ कहा।
    "अभी तो सेटल होने में टाइम लगेगा ना! तीनों बच्चे खुद ही सब देख रहे हैं, और आप..."
    "हमने कुछ गलत कहा क्या? सांझ, तुम बताओ – कुछ गलत कहा हमने?" आदर्श जी ने पलटकर साँझ की तरफ देखते हुए कहा।
    "सर, वैसे आपने गलत तो नहीं कहा, पर आंटी भी ठीक कह रही हैं ना। और आज ही कोई खास काम नहीं था, तो सोचा रेस्ट कर लूँ," सांझ ने शांत स्वर में कहा।
    "अच्छा, अब मैं जाती हूँ। नहीं तो रूपाली डांटेगी कि कहाँ रह गई!" कहते हुए सांझ वहाँ से निकल गई।
    रमा जी ने फिर कहा,
    "क्या आप भी उसके पीछे ही पड़ गए थे?"
    "हमने ऐसा क्या कह दिया! उसे कोई दिक्कत नहीं हुई और आप हो कि... अच्छा, चलिए, खाना दीजिए। हम तो कॉलेज जाएँ," आदर्श जी ने मुस्कुराते हुए कहा।
    सांझ ऊपर पहुँची और किचन की तरफ बढ़ी।
    "इतना टाइम कैसे लग गया?" रूपाली ने थोड़ा नाराज़ होकर पूछा।
    उसी वक्त अंकित भी वहाँ आ गया और किचन के सामने डाइनिंग टेबल पर कुर्सी खींचकर बैठ गया।
    सांझ ने जवाब दिया, "यार, कुछ नहीं। बस नीचे सर आ गए थे और कहने लगे कि कॉलेज कब से जाओगी।"
    "फिर तूने क्या कहा?" अंकित ने उत्सुकता से पूछा।
    "कुछ नहीं। कह दिया – कल से जाऊँगी। और वैसे भी आंटी आ गईं," सांझ ने कहा।
    "यार, सर की इसी वजह से मैं नहीं जा रहा था," अंकित ने थोड़ा खीझकर कहा।
    "तू चुप कर! ऐसा भी कुछ नहीं कहा उन्होंने," सांझ ने डाँटते हुए कहा और किचन से बाहर आकर अंकित के पास बैठते हुए बोली।
    रूपाली ने खाना तैयार कर दिया था और डाइनिंग टेबल पर सजा दिया।
    शाम का समय।
    सात्विक का मैच खत्म हो गया था। उनकी टीम हार गई थी। शाम का समय था। सात्विक का मैच खत्म हो चुका था। उनकी टीम हार गई थी। अंश की चाल से हार का ज़ख़्म और भी गहरा हो गया था।
    मैच खत्म होते ही सात्विक मैदान के बीच खड़ा रह गया। उसके माथे पर पसीना था और आँखों में हार का दर्द। उसने अपनी टीम के खिलाड़ियों को देखा – कुछ की नज़रें झुकी हुई थीं, कुछ ने नज़रें चुराई।
    "कैसे हो सकता है ये सब?" सात्विक के मन में यही सवाल गूँज रहा था।
    उसके हाथों ने मुँह ढक लिया। हार का कड़वा सच उसके गले में फँस गया।
    फिर उसने देखा – अंश मैदान के कोने में खड़ा था, होठों पर हल्की-सी मुस्कान लिए। सात्विक समझ गया कि ये सिर्फ खेल की हार नहीं थी, ये साज़िश थी।
    "कोई बात नहीं। अगले मैच में और मेहनत करेंगे," कोच ने आकर सांत्वना दी।
    पर सात्विक की आँखों में आँसू थे। उसने मुँह फेर लिया। उसे किसी के दिलासा की ज़रूरत नहीं थी।
    उसके मन में सिर्फ एक बात थी, "मुझे सच का पता लगाना है। अंश ने अगर मेरे ही साथियों को खरीद लिया, तो ये सिर्फ खेल की हार नहीं... ये भरोसे की हार है।"
    सात्विक ने अपनी जर्सी के कॉलर को कसकर पकड़ा।
    दरअसल, हुआ यूँ कि अंश, जो उस दिन मैच हार गया और कैप्टेन नहीं बन पाया, उसने सात्विक को नीचा दिखाने के लिए अपनी ही टीम के प्लेयरों को खरीद लिया था। उसने प्लेयरों को कह रखा था कि जानबूझकर गोल मिस कर दें, जिससे अपोजिट टीम को फायदा हो और वे जीत जाएँ।
    उसे बस सात्विक को नीचा दिखाना था – कॉलेज की रेपुटेशन से उसे कोई मतलब नहीं था।
    अपने ही साथियों के साथ मिलकर उसने सात्विक को नीचा दिखाने की साजिश रची।

    सात्विक अपने कमरे में सामान पैक कर रहा था। इस वक्त उसके चेहरे पर निराशा और झुंझलाहट साफ झलक रही थी।
    उसके हाथ एक-एक कपड़े को जैसे मजबूरी में समेट रहे थे। आदित्य चुपचाप उसके बेड पर बैठा था। उसने एक गहरी साँस ली और कहा, "ये सब उस अंश की वजह से हुआ है। वो ईज़िली गोल कर सकता था, पर उसने जानबूझकर ऐसा किया।  उसे मौका नहीं दिया गया ना लीड करने का। उसे बस तुम्हें नीचा दिखाना था।"
    सात्विक ने बैग की ज़िप को बंद किया और कुछ पल चुपचाप खड़ा रहा।
    "जाने दे, अब हम कर भी क्या सकते हैं?" उसने फीकी मुस्कान के साथ कहा।
    "तूने अपना सामान पैक कर लिया? और हार-जीत तो चलती रहती है। छोड़ दे इस टॉपिक को," सात्विक ने अपने लहज़े को सख्त बनाने की कोशिश की।
    आदित्य ने सिर झुका लिया। "हाँ, ठीक है, जा रहा हूँ… सामान पैक करने," उसने कहा और कमरे से बाहर निकल गया।
    सात्विक ने कमरे में चारों ओर नज़रें दौड़ाईं। उसने एक लंबी साँस छोड़ी।
    "हमारी ज़िन्दगी में कुछ अच्छा क्यों नहीं हो रहा? कल तुम चली गई… और अब ये गेम भी हार गया। आज तक ऐसा नहीं हुआ कि हम कभी हारे हों… पर तुम तो हमारा सुकून ही ले गई," सात्विक ने बड़बड़ाते हुए खुद से कहा।
    इधर,
    "चाची, हम आ गए!" बाहर से एक लड़की की आवाज़ सुनाई दी।
    रमा जी, जो डाइनिंग एरिया में आदर्श जी को खाना परोस रही थीं, चौंककर दरवाज़े की तरफ देखती हैं।
    स्नेहा दरवाज़े पर खड़ी थी, चेहरे पर हल्की मुस्कान और आँखों में सफर की थकान।
    "स्नेहा! माँ, आप लोग आ गए?" रमा जी की आवाज़ में राहत झलक रही थी।
    रमा जी ने जल्दी से थाली मेज़ पर रख दी और आगे बढ़कर अपनी सास के पाँव छुए।
    "सदा सुहागन रहो... मुझे तो बहुत थकावट हो गई है," दादी ने कहा।
    "माँ, आप आ रही थीं तो हमें बता देतीं, हम आपको लेने आ जाते," आदर्श जी ने अपनी माँ के पैर छूते हुए कहा।
    "हमेशा खुश रह," दादी ने आशीर्वाद देते हुए कहा और मुस्कुराईं।
    "ये हमारी तेज लड़ाकी माई कहती है, 'हम हैं ना, सब देख लेंगे'। तो हम भी आ गए। अच्छा ये बताओ, हमारा लल्ला कहाँ है?" दादी ने उत्सुकता से पूछा।

    अब देखना ये है कि साँझ और सात्विक की मुलाकात कैसे होगी?
    ये राज़ जल्द ही खुलेगा…
    🙏 प्लीज़, आप सभी अपना रिव्यू ज़रूर दिया करें,
    जिससे मुझे यह पता लग सके कि आपको यह कहानी कैसी लग रही है।
    और…
    बने रहिए साँझ और सात्विक की इस प्यारी सी लव स्टोरी के साथ —
    "मैं सिर्फ तुम्हारी हूँ।"
    आज के लिए अलविदा 🙏
    मिलते हैं अगले भाग में।
    ~ आरुषि ठाकुर ✍️