जहाँ एक दिल में मोहब्बत (प्यार) ने पनाह (ठिकाना) ले रखा है, वहीं एक दिल से मोहब्बत (प्यार) रूख़सत (चली) हो चुकी है। एक दिल पाक़ीज़ा (सच्चे) इश्क़ (प्यार) की तलाश (खोज) में है, तो दूसरा मोहब्बत (प्यार) को हमेशा के लिए अलविदा (विदा) कह चुका है...... जहाँ एक दिल में मोहब्बत (प्यार) ने पनाह (ठिकाना) ले रखा है, वहीं एक दिल से मोहब्बत (प्यार) रूख़सत (चली) हो चुकी है। एक दिल पाक़ीज़ा (सच्चे) इश्क़ (प्यार) की तलाश (खोज) में है, तो दूसरा मोहब्बत (प्यार) को हमेशा के लिए अलविदा (विदा) कह चुका है... यह एक ऐसी अनोखी दास्तान-ए-इश्क़ (प्यार की कहानी) है, जहाँ ख़ुदा (भगवान) की अज़ीज़ (चहेती) बंदी अपनी दुआओं (प्रार्थनाओं) से किसी की तक़दीर (किस्मत) सँवारने (बदलने) का हुनर (काबिलियत) रखती है, तो वहीं उन्हीं दुआओं (प्रार्थनाओं) में किसी को फ़ना (ख़त्म) कर देने की क़ुव्वत (ताकत) भी मौजूद है... यह दास्तान (कहानी) है रब (भगवान) से राज़ी (खुश), एक 18 साल की मासूम-ओ-नाज़ुक (सीधी-सादी और नर्म दिल) दुआ नवाब की, जो आज़माइशों (परिक्षाओं) के दरमियान (बीच) सब्र (धैर्य) और इस्तेक़ामत (मज़बूती) का पहाड़ बनी हुई है। जिसे उसके अपने ही ख़ानदान (परिवार) ने इम्तिहानों (परीक्षाओं) की आग में झोंक (डाल) दिया है, मगर उसने ख़ुद को मुकम्मल (पूरी तरह) तौर पर अपने रब (भगवान) के सुपुर्द (सौंप) कर दिया है। और दूसरी तरफ़, एक ऐसा सख़्त-मिज़ाज (गुस्सैल) नौजवान (युवक), जिसका दीन (धर्म) से कोई वास्ता (मतलब) नहीं, जो रब (भगवान) के वजूद (अस्तित्व) से इनकार (मना) कर चुका है... यह दास्तान (कहानी) है एक बड़े बिज़नेस टाइकून (बड़े बिज़नेस मैन), अज़ान शेख़ की, जो अपनी सरकश (ज़िद्दी) तबीयत (स्वभाव) और दुनियावी (सांसारिक) हिकमतों (चालाकियों) में खोया हुआ है, अनजान (बेख़बर) अपने अंजाम (अंजाम) से। तो क्या ये ज़मीन-ओ-आसमान (धरती और आसमान) कभी एक हो सकेंगे? क्या दुआ की पाक़ (सच्ची) मोहब्बत (प्यार) और मज़बूत ईमान (अटूट विश्वास) अज़ान को हक़ (सही) की राह (रास्ता) दिखा पाएंगे? या फिर अज़ान की बेबाकी (बेलौस अंदाज़) और बाग़ी (विद्रोही) फितरत (स्वभाव) दुआ के बुनियादी (मूल) यक़ीन (विश्वास) और अकीदे (धार्मिक आस्था) को हिला (डगमगा) कर रख देगी...? इश्क़ (प्यार), तक़दीर (किस्मत) और ईमान (विश्वास) के इम्तिहान (परीक्षा) की एक बेमिसाल (अनोखी) दास्तान (कहानी)...!
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"आपको ख़ुदा का वास्ता है, अब्बू जी... दरवाज़ा खोल दें! अल्लाह के लिए अम्मी जान को मत मारिए, अब्बू जी!"
एक नाज़ुक सी, बेतहाशा खूबसूरत हसीन जैसे कोई जन्नत की हूर हो, मासूम अठारह साल की लड़की, जो बेतहाशा रो रही थी, उसकी चीखें उस घर के हर कोने में गूँज रही थीं। उसकी आवाज़ दर्द और बेबसी से भरी हुई थी, हर लफ़्ज़ में डर, मोहब्बत और गुज़ारिश की तासीर थी। उसने सादा सा सफ़ेद सलवार क़मीज़ पहना हुआ था, गले मे सफ़ेद दुपट्टा था, जो आँसुओं और हवाओं की तेज़ी से बार-बार सरक जाता, और वो घबराकर उसे फिर से सँभाल लेती। सर पर हिजाब (मुस्लिम लड़कियों के द्वारा पहने जाने वाला स्कार्फ़ ) बँधा था, उसके काँपते हुए हाथ दरवाज़े को लगातार पीट रहे थे, जैसे अगर दरवाज़े को उसकी तकलीफ़ का अहसास हो जाए, तो वो ख़ुद ही खुल जाए... लेकिन अंदर से आती चीखें इस बात की गवाही दे रही थीं कि ये दरवाज़ा शायद इतनी आसानी से नहीं खुलेगा।
वहीं, उसके बराबर में खड़ा उसका भाई, फैज़, ग़ुस्से से उबल रहा था। 20 साल का एक तगड़ा नौजवान, जिसका चेहरा इस क़दर तमतमाया हुआ था, मानो किसी लावे की आँच उसमें सुलग रही हो। उसने लड़की का हाथ झटके से पकड़ा और ज़ोर से पीछे खींचते हुए कहा,
"ये सब तेरी गलती है! तुझे कितनी बार समझाया था कि अम्मी को घर से बाहर मत जाने दिया कर, लेकिन तू कभी नहीं मानती! अब देख, अब्बू को ग़ुस्सा आ गया ना? वो तुझ को कुछ कहते नहीं, लेकिन अम्मी को पीट डालते हैं! कम से कम तू ही कुछ समझदारी दिखा दिया कर!"
लड़की की डबडबाई हुई आँखों ने दर्द से अपने भाई को देखा, उसकी हिचकियाँ बढ़ गईं। वो काँपती आवाज़ में बोली,
"फैज़ भाई, ऐसी बातें मत करें... वो आपकी भी अम्मी हैं! वो तो आपके लिए ही खाने-पीने का इंतज़ाम करने गई थीं बाज़ार...!"
लेकिन फैज़ ने उसकी बात सुने बिना ही एक आड़ा-टेढ़ा मुँह बनाया, जैसे उसकी बहन की बातें उसके लिए कोई मायने नहीं रखतीं।
"तो इसमें कौन सी बड़ी बात थी? बाजार जा सकती थी लेकिन अम्मा ज़ुबेदा से बात करने किसने कहा था जानती हो ना अब्बू को उस औरत से कितनी नफ़रत है।"
वो लड़की जिसका नाम दुआ था, वो रोते हुए बोली,
"भाई वो फूफी है हमारी, अम्मी से सिर्फ तबियत जान रही थी और कुछ नहीं।"
फेज़ गुस्से से बोला,
"ज़्यदा ज़बान ना लड़ा ज़ब अब्बू जी मना कर दिए तो कर दिए, यह बहाने बनाने की कोई ज़रूरत नहीं।"
लड़की ने बेबसी से दरवाज़े की ओर देखा। अंदर से उसकी अम्मी की हल्की पड़ती चीखों की आवाज़ अब भी आ रही थी। हर चीख के साथ उसका दिल अंदर ही अंदर टूट रहा था।
"अब्बू जी, आपको ख़ुदा का वास्ता... दरवाज़ा खोल दें!"
उसकी आवाज़ अब पहले से ज़्यादा कमज़ोर हो चुकी थी... या शायद उम्मीद भी अब टूटने लगी थी।
दरवाज़े के अंदर से अब तक अम्मी की चीखें आनी कम हो गई थीं, लेकिन उनका दर्द भरा सिसकना साफ़ सुनाई दे रहा था। इसी बीच, अचानक दरवाज़ा ज़ोर से खुला और अंदर से एक बुलंद और ख़ौफ़नाक शख़्स बाहर निकला—दुआ के अब्बू जी नासिर नवाब।
उनकी आँखों में ग़ुस्से की शिद्दत थी, चेहरा तमतमाया हुआ, माथे पर बल और हाथों की उँगलियाँ मुट्ठी में जकड़ी हुईं। उनके कपड़ों पर अम्मी के आँसुओं और तकलीफ़ के निशान झलक रहे थे। उनकी भारी और डरावनी आवाज़ जैसे किसी कड़कती बिजली की तरह गूँजी,
"दुआ! तू कब तक अपनी अम्मी की तरफ़दारी करेगी, हाँ?"
दुआ, जो पहले ही सहमी हुई थी, अब अपने अब्बू की आँखों में जलते अंगारों को देखकर काँप गई। उसने हाथ जोड़ते हुए, रोते-रोते कहा,
"अब्बू जी, मैं बस आपसे इतना कह रही थी कि अम्मी की कोई गलती नहीं थी... वो तो सिर्फ़ हमारे लिए—"
लेकिन उसकी बात पूरी होने से पहले ही अब्बू जी ने ज़ोर से पास रखी लकड़ी की छड़ी ज़मीन पर मारी, जिससे फर्श पर ज़ोर की आवाज़ गूँजी और डर का माहौल और गहरा हो गया।
"चुप! अपनी अम्मी की हिमायत मत किया कर! समझी तू?" उनका चेहरा अब और भी ग़ुस्से से लाल हो गया था। "अगर मैंने फिर कभी तुझे उसकी हिमायती बनते सुना या उसकी तरह बग़ावत करते देखा, तो अंजाम अच्छा नहीं होगा!"
दुआ की साँसें अटक गईं। उसका दिल इतनी तेज़ी से धड़क रहा था, मानो अभी छाती से बाहर निकल आएगा। फैज़, जो पहले ग़ुस्से में था, अब ख़ुद भी अपने अब्बू की तेज़ आवाज़ और कड़कते लहज़े से थोड़ा सहम गया था। लेकिन साथ ही वो ख़ुश था दुआ को डाट पड़ते देख...
अब्बू जी ने दुआ की तरफ़ एक ख़तरनाक नज़र डाली और आँखें तरेरते हुए कहा,
"तू सिर्फ़ वही करेगी जो तुझे मैं कहूँगा, और जो तेरी अम्मी तुझे सिखा रही है, वो सब दिमाग़ से निकाल दे! नहीं तो तेरा भी वही हाल होगा जो अभी तेरी अम्मी का हुआ है!"
दुआ की आँखें हैरत और दर्द से छलक पड़ीं। उसका दिल चिल्ला-चिल्ला कर कह रहा था कि वो कुछ बोले, कुछ कहे, लेकिन उसके होंठ जैसे सिल चुके थे।
अब्बू जी की आँखों में अब भी वही ग़ुस्से की शिद्दत थी, लेकिन वो अब और कुछ कहे बिना तेज़ क़दमों से बाहर चले गए। उनकी भारी जूतियों की आवाज़ घर के सूने आँगन में देर तक गूँजती रही, और फिर वो दरवाज़े के बाहर निकलकर अंधेरे में ग़ायब हो गए।
दुआ जो अब तक वही ख़डी थी। उसके आँसू उसके गालों पर सूख चुके थे, लेकिन उसका जिस्म अब भी हल्के-हल्के काँप रहा था। जब अब्बू जी के जाने की आहट ख़त्म हो गई, तो उसने धीरे-धीरे अपना काँपता हुआ हाथ दरवाज़े पर रखा।
"अम्मी जान...!" उसकी आवाज़ बमुश्किल निकली, एक टूटी हुई सरगोशी की तरह।
उसने धीरे से दरवाज़ा खोला। अंदर का मंज़र देखकर उसके क़दम ज़मीन में जैसे जम गए।
अम्मी ज़मीन पर गिरी हुई थीं, उनकी चुन्नी आधी खिसक चुकी थी, चेहरे पर नीले निशान, होंठों से हल्का ख़ून झलक रहा था, और उनकी साँसें बहुत भारी लग रही थीं, जैसे ज़िंदगी के लिए एक-एक साँस लेना भी अब उनके लिए तकलीफ़ देह हो गया हो।
दुआ का कलेजा फट गया। वो एकदम से भागती हुई अम्मी के पास गई और घुटनों के बल बैठकर उन्हें अपने नाज़ुक हाथों से सँभाला।
"अम्मी! अम्मी जान, आप ठीक हैं?" उसकी आवाज़ दर्द और बेचैनी से काँप रही थी।
अम्मी ने बहुत धीरे से आँखें खोलीं, जैसे उनके पास अब इतनी भी ताक़त नहीं बची थी कि सही से देख सकें। उन्होंने बहुत मुश्किल से अपने होंठ हिलाए, और कमज़ोर आवाज़ में कहा—
"दुआ... बेटा..."
बस इतना कहकर उनकी आँखें फिर से बंद हो गईं।
"अम्मी जान! नहीं... प्लीज़, अम्मी जान, आप मेरी तरफ़ देखिए!" दुआ की आँखों से आँसुओं की धार बह निकली। उसने जल्दी से अम्मी का सर अपनी गोद में रखा और अपने दुपट्टे से उनके चेहरे के ज़ख़्मों को साफ़ करने लगी।
फैज़, जो दरवाज़े पर ही खड़ा था, अब तक शॉक में नहीं था। वो पहले भी अपनी अम्मी को इस हालत में देख रहा था। उसके चेहरे पर ना तो कोई शर्मिंदगी की परछाइयाँ नज़र आ रही थीं, ना अपनी अम्मी के लिए फिक्र...
दुआ ने फैज़ की तरफ़ देखा, आँखों में इल्तिज़ा थी।
"फैज़ भाई... पानी ले आइए... जल्दी!"
फैज़ बाहर को जाते हुए बोला,
“मुझे और भी bhut काम है सिर्फ तुम दोनों के फैसले नहीं निबटाने दिन भर।"
दुआ फेज़ की बाते सुन कर बेतहाशा तङप गई थी, उसका भाई भी उसका और उसकी माँ ka गमगुज़ार नहीं था। दुआ ने फिर से अपनी अम्मी का चेहरा देखा। उनकी साँसें अभी भी धीमी थीं, लेकिन चल रही थीं। वो अपनी अम्मी को लेटा कर भाग कर किचिन से ak गिलास पानी लाई और वापस अपनी अम्मी को उठाते हुए बोली,
"अम्मी जान, कुछ नहीं होगा आपको... मैं यहाँ हूँ... मैं आपको कुछ नहीं होने दूँगी! आप पानी पिजिए।"
उसकी आवाज़ में अब भी डर था, लेकिन उसके लफ़्ज़ों में एक अज़ीम मोहब्बत और मज़बूती भी थी। उसने अपनी अम्मी की ठंडी पड़ती हथेली को अपने हाथों में थाम लिया, और आँखें बंद करके रब से सिर्फ़ एक ही दुआ माँगने लगी—
"या अल्लाह, या मेरे मौला तू ल-शरीक है...तू ही गमज़दाओ का गम गुज़ार है, तू ही ज़िन्दगी बख्शने वाला है, तू ही मौत अता करने वाला है.. तू जानता है मेरे मौला तेरे सिवा मेरा कोई नहीं...मेरी अम्मी तेरी रहमत का ak जरिया है जो मुझे तूने अता किआ है.. मैं इस दुनिआ ए फ़ानी ने अपनी अम्मी के सहारे ही जी रही हुँ मेरे रब मेरे परवरदिगार मेरी अम्मी को बचा ले..."
अभी दुआ ने itna कहा ही था की दुआ के कानो मे हज़ारो की तादाद मे आवाज़ ak साथ आई - आमीन...
सियाह रात की ख़ामोशी में सिर्फ़ एक सिसकी की गूँज थी—एक बेटी की तड़प, उसकी बेबसी, उसका दर्द। दुआ ज़मीन पर बैठे, हाथ उठाकर अल्लाह के सामने गिड़गिड़ा रही थी। उसकी आँखों से अश्कों का सैलाब उमड़ पड़ा था, हर आँसू में दर्द के हजार अफसाने छुपे थे।
"या अल्लाह! मेरी अम्मी को शिफ़ा अता फ़रमा… उन्हें ज़िन्दगी बख़्श दे, या रब! मैं तेरी बारगाह में हाथ फैलाए आई हूँ, ख़ाली मत लौटाना…!"
उसकी रूह कांप रही थी, लफ्ज़ काँप रहे थे, मगर यक़ीन की लौ मद्धम नहीं पड़ी। उसने अपनी दुआ को आसमान की तरफ़ भेज दिया—और फिर...
अचानक...
हर तरफ़ एक नूरानी हलचल सी हुई। वह अकेली थी, मगर अचानक ऐसा महसूस हुआ जैसे फज़ा में हज़ारों लोग एक साथ बोल उठे हों—"आमीन!"
दुआ के जिस्म में झुरझुरी दौड़ गई। लेकिन उसने बिना किसी झिझक के साथ इधर-उधर देखा—कमरा सुनसान था, लेकिन आमीन की गूँज अब भी दिल की तहों में महसूस हो रही थी। यह कोई आम आवाज़ नहीं थी... यह फरिश्तों की सदा थी, जो उसकी सच्ची दुआ पर आमीन कह रहे थे।
और फिर...
अचानक ज़मीन पर पड़ी उसकी अम्मी ने एक हल्की सांस ली। दुआ की जान में जान आ गई। अम्मी जान की उंगलियाँ ज़रा सी हिलीं, उनकी पलकों में हरकत हुई और फिर... उन्होंने धीरे से आँखें खोल दीं।
"अम्मी...!"
दुआ की आवाज़ में खुशी और अश्कों की नमी थी। वह झट से आगे बढ़ी और अपनी अम्मी को सहारा देकर सीने से लगा लिया। उसकी रगों में दौड़ता खौफ एक सुकून में बदल चुका था।
"बेटा..." अम्मी की आवाज़ कमज़ोर थी, मगर उनमें एक नई ज़िंदगी झलक रही थी।
दुआ ने उन्हें नर्म बिस्तर पर लिटाया, उनके चेहरे को अपनी हथेलियों में थामा और उनकी पेशानी पर प्यार से हाथ फेरा। उसकी आँखों से अब भी आँसू गिर रहे थे, मगर ये आँसू दर्द के नहीं, शुक्राने के थे।
उसने आसमान की तरफ देखा—जैसे वहाँ कोई मौजूद हो, जिसने उसकी सुन ली हो।
"शुक्र है या खुदा! शुक्र है या मेरे अल्लाह! तूने मेरी दुआ क़बूल कर ली..."
उसकी आवाज़ में सुकून था, यक़ीन था, और सबसे बढ़कर—एक बेटी का बेइंतिहा प्यार था।
अम्मी जान की आँखें खुलते ही दुआ की रूह में हलचल मच गई। वह उन्हें सीने से लगाए फूट-फूटकर रोने लगी, जैसे उसके अंदर दबा हुआ सारा दर्द बह निकलने को मजबूर हो गया हो। उसके आँसू उसके गालों से होते हुए अम्मी के कमजोर हाथों पर गिर रहे थे।
"अम्मी...! आप मुझे छोड़कर मत जाइए... मैं आपके बिना जी नहीं सकती!" उसकी आवाज़ हिचकियों में डूब रही थी।
अम्मी जान ने कांपते हाथों से उसकी पीठ सहलाई, मगर वह अभी इतनी कमज़ोर थीं कि बोल भी नहीं पा रही थीं। उनकी आँखों में बस अपनी बेटी की बेबसी देखकर ग़म और ममता की एक लहर दौड़ रही थी।
"अम्मी, मैं बहुत मज़बूत हूँ, अभी थकी नहीं हूँ... लेकिन अब मुझसे और सहा नहीं जाता..." दुआ ने उनकी गोद में सिर रख दिया, उसकी सिसकियाँ थमने का नाम नहीं ले रही थीं।
"हमारा क्या कसूर था, अम्मी...? क्यों अब्बा जान ने हमें इस हाल में पहुँचा दिया?"
उसका जिस्म काँप रहा था, उसकी आवाज़ में ग़म और बेबसी सबकुछ था।
"मैंने कितनी बार उनसे इल्तिजा की अम्मी...! उनको सच से रूबरू भी कराया, लेकिन वो कुछ सुनने को राज़ी ही नहीं.. ”
“मुझे तो वो मनहूस समझते ही है, लेकिन आपको भी वो नहीं बख्शते।”
दुआ की आँखों में वही सारे ज़ख्म फिर से हरे हो गए थे।
"कितनी बार आप मेरे आगे ढाल बनकर खड़ी हो गईं, अम्मी! कितनी बार आपने उनकी मार खुद पर झेल ली... मुझे बचाने के लिए आप कितनी बार खुद ज़ख़्मी हो गईं... मगर उन्होंने एक बार भी हम पर रहम नहीं किया।"
उसकी उंगलियाँ अम्मी जान के हाथों को कसकर पकड़ रही थीं, जैसे डर हो कि कहीं वह फिर से उसे अकेला न छोड़ दें।
"अम्मी, क्या किसी के लिए उसकी बीवी और बेटी की कोई अहमियत नहीं होती...? क्या हम उनके लिए बस चीज़ थे, जिन्हें जब चाहा रौंद दिया, जब चाहा फेंक दिया...?"
अम्मी जान की आँखों से भी आँसू बह निकले। उन्होंने कमज़ोर आवाज़ में फुसफुसाकर कहा, "बेटा... सब्र करो..."
"सब्र......." दुआ ने तकलीफ से उनकी तरफ देखा, "अम्मी सब्र का ही दामन पकड़ा हुआ है वरना यह रूह कब की परवाज़ कर चुकी होती।"
अम्मी जान ने उसके चेहरे को अपने कांपते हाथों से छुआ और धीरे से कहा, "बेटी, इंसाफ़ हमेशा अल्लाह के हाथ में होता है..… और वो जब इंसाफ करेगा, बेहतरीन इंसाफ करेगा।"
दुआ ने उनकी आँखों में देखा—वहाँ ममता थी, दर्द था, मगर एक यक़ीन भी था।
उसने उनकी हथेलियों को चूम लिया और सिसकियों में कहा, "बेशक अल्लाह ही हमारा इंसाफ़ करेगा, और मैं खुद को इतना मजबूत बनाऊँगी कि मेरी आवाज़ उसके तक पहुंचने से पहले ही इस दुनिया में गूंज उठे..."
रात गहरी हो रही थी, मगर उस कमरे में एक नया सबेरा जन्म ले चुका था—एक ऐसी बेटी का सबेरा, जो अब सिर्फ रोने के लिए नहीं, बल्कि अपनी तक़दीर बदलने के लिए बनी थी। दुआ ने अपनी अम्मी को दवा दे कर आराम से लेटा दिया, उसके बाद उनको प्लग पर ही वज़ू करवाया, जिसके बाद वो बिस्तर पर ही नमाज़ अदा करने लगीं।
उसके बाद दुआ ने भी पास ही मुसल्ला बिछाया और खुद भी इशा की नमाज़ अदा करने लगी।
दोनों माँ-बेटियों ने दिल से नमाज़ अदा की और दोनों ही अपनी-अपनी दुआएँ कर रही थीं।
उत्तर प्रदेश
लखनऊ (आउटर एरिया)
एक नौजवान लड़का जिसकी age 30 साल की थी, जो apne कुछ दोस्तों के साथ बाहर जंगल साइड आया हुआ था।
वह लड़का बेहद हसीन था, use देख कोई नहीं कह सकता था की यह 30 की उम्र का है, वो कम उम्र का ही नौजवान नज़र आता था।
यह है अज़ान शेख...
उत्तर प्रदेश के सबसे बड़े मौलवी शेख साहब, नूर शेख के पोते...
अज़ान और उसके दोस्त जंगल में घूम रहे थे। वह थोड़ा घमंडी और बदतमीज़ लड़का था, तो उसकी बातें भी उसी अंदाज़ में हो रही थीं।
अज़ान: (अकड़ते हुए) "यार, ये जंगल भी कोई घूमने की जगह है? मैं तो बस तुम लोगों की ज़िद की वजह से आया हूँ!"
रिज़वान: "अज़ान, तुझे हर चीज़ में शिकवा क्यों होता है? देख, कितनी ताज़ा हवा चल रही है, कितना सुकून है यहाँ!"
अज़ान: (हंसते हुए) "सुकून? मुझे तो बस मच्छर काट रहे हैं और तुम यहाँ लुत्फ़ उठा रहे हो!"
फरहान: "यार, कभी-कभी क़ुदरत से भी लुत्फ़ अंदोज़ हो लिया कर! हर वक़्त अकड़ में रहना अच्छा नहीं होता।"
अज़ान: (मज़ाक उड़ाते हुए) "ओहो, तो अब तुम मुझे सिखाओगे कि मुझे कैसे रहना चाहिए?"
इमरान: "नहीं भाई, लेकिन दोस्ती में थोड़ा अपनापन और दिलचस्पी भी होनी चाहिए, तेरा रवैया तो हमेशा सख़्त ही रहता है!"
अज़ान: (थोड़ा झुंझलाकर) "अच्छा ठीक है, अब और नसीहत मत दो, चलो देखते हैं इस जंगल में कोई रोमांच है या नहीं!"
बाक़ी दोस्त मुस्कुरा दिए और आगे बढ़ गए। अज़ान भले ही घमंडी और बदतमीज़ था, मगर उसके दोस्त उसे अच्छे से जानते थे और उसकी आदतों को बख़ूबी समझते थे।
वो लोग कुछ दूर चले ही थे कि एक फ़क़ीर अज़ान के करीब आ कर बोला, "अल्लाह की राह मे कुछ दे दे बच्चा, अल्लाह तेरा भला करेगा।"
अज़ान हस कर बोला, "वाह, दू मैं और भला वो करेगा, किआ लॉजिक है?"
वो फ़क़ीर अज़ान की बात सुन बोला, "बेशक वही है जो तुझको मुझको देता है, अगर वो ना दे तो तू भी कुछ नहीं और अगर वो दे दे तो मैं इस मुल्क़ का बादशाह बन जाऊँ।"
अज़ान हस्ते हुए बोला, "वाह क्या बात कही, मतलब मंग भी रहे हो मुझसे और खुद को मुल्क़ का बादशाह भी bta रहे हो.. क्या क्या हाल हो गया है तुम लोगो का, क्या काम धाम करते नहीं, आ जाते हो मांगने।"
फ़क़ीर समझ जाता है की यह लड़का गुमराही पर है। वो मुस्कुराते हुए कहता है, "बेटा मैं समझ गया अभी तुम गुमराह हो, जिस दिन तुमको सीधी राह पर ले जाने के लिए कोई आएगा, तुम खुदा की राह मे पैसे क्या जान भी देने को तैयार हो जाओगे। अब इजाज़त दो, अल्लाह hafiz..."
दुआ और उसकी माँ दोनों नमाज़ पढ़ रही थीं। दुआ मुसल्ले पर बैठी, बड़े अदब से नमाज़ अदा करती है। नमाज़ खत्म करने के बाद, उसने अपने दोनों हाथ उठाए, अपना सर झुका लिया और गहराई से दुआ माँगने लगी। उसकी आँखो में अश्क़ (आंसू) थे।
दुआ-
"या रबुल इज़्ज़त, ए मेरे रब, ऐ मेरे परवरदिगार! तू बड़ा रहमत वाला है, तू रहम करने वाला है, तू करीम है। हम सब तेरे बंदे हैं, तेरी प्यारी मख़लूक़ (creation) हैं। तू ही हमारा मालिक है, हमारे हालात का सबसे बेहतर जानने वाला है। तेरे सिवा हम किसे अपना दर्द सुनाएँ?
या मेरे मौला! मेरे हाल से तू वाक़िफ़ है। जो भी हालात मुझ पर गुज़र रहे हैं, वह तुझसे छुपे नहीं हैं। ऐ मेरे परवरदिगार! मैं हर हाल में सब्र करने की कोशिश करती हूँ, लेकिन मेरी माँ की हालत देखकर मेरा दिल बैठ जाता है। मेरी माँ, बस मुझसे यही कहती हैं कि मैं उनके लिए सब्र की दुआ करूँ।
या अल्लाह! मेरी माँ को सब्र अता कर, उन्हें हर मुश्किल से निजात दे। उनके हक़ में सबसे बेहतरीन फ़ैसला कर, ताकि वह बेहतर हो सकें। या अल्लाह! मेरे वालिद को अक़्ल दे, वह गुमराही में भटक गए हैं। या मौला! उन्हें सही राह दिखा, उन्हें हिदायत दे, ताकि वह सच्चाई और नेक रास्ते पर आ सकें।"
दुआ की आँखों से आँसू गिरते हैं, लेकिन उसकी आवाज़ में यक़ीन और उम्मीद बनी रहती है।
दूसरी तरफ, दुआ की अम्मी, जो इस वक़्त ज़ख़्मी हालत में थीं, बिस्तर पर बैठकर नमाज़ अदा कर रही थीं। उन्होंने अपनी नमाज़ मुकम्मल की, फिर दोनों हाथ उठाए और ग़म से भरी लेकिन सुकून वाली आवाज़ में दुआ माँगने लगीं।
अम्मी:
"ए मेरे मौला! ए मेरे परवरदिगार! मैंने हमेशा तुझसे सब्र और शुक्र ही माँगा है, और आज भी वही माँगूँगी। या अल्लाह! जिस सब्र से तूने मुझे नवाज़ा, वही सब्र मेरी बेटी को भी अता कर। जो शुक्र तूने मुझे सिखाया, वही शुक्र मेरी बेटी के दिल में भी पैदा कर।
या अल्लाह! मैं जानती हूँ कि जिसे तू चाहता है, नेक राह दिखाता है, और जिसे चाहता है संभाल लेता है..या रब! तू तक़दीर बदलने वाला है, और इस दुनिया में तूने मुझको जिस मक़सद के लिए भेजा है, वह पूरा हो चूका है।
या अल्लाह! अब मुझे महसूस हो रहा है कि इस दुनिया में मेरा वक़्त बहुत कम बचा है। बहुत जल्द इस दुनिया से मेरी रुखसाती (विदा) होने वाली है।
या मेरे मौला! मेरी बेटी दुआ को अपनी हिफ़ाज़त में रखना। वह जिस बुलंदी पर पहुँच गई है, उसे इसका अंदाज़ा भी नहीं है। मैंने फ़रिश्तों को उसकी दुआओं पर आमीन कहते सुना है। या अल्लाह! तूने उसे अपनी बेहतरीन बंदियों में शामिल कर लिया है, तेरी निगाह-ए-करम उस पर बनी हुई है।
मैं इस दुनिया में जिस मक़सद से आई थी, वह पूरा हो चुका है। मेरा मक़सद सिर्फ़ दुआ को इस दुनिया में लाना था, और दुआ का मक़सद क्या है, वह तू बेहतर जानता है। मैंने अपने शिकम (कोख) से दुआ को जन्म दिया और अपना फ़र्ज़ पूरा कर दिया।
फ़ैज़ भले ही मेरे शिकम से पैदा नहीं हुआ, वह मेरा बेटा नहीं है, लेकिन या अल्लाह! मैंने उसे अपना दूध पिलाया है, उसे अपनी औलाद की तरह पाला है। उस पर अपनी निगाह-ए-करम रखना, उसे हिदायत देना, और उसे भटकने न देना।"
अम्मी की आँखों से आँसू बहते रहे, लेकिन उनके लफ़्ज़ों में एक अजीब सुकून और रज़ामंदी थी।
दूसरी तरफ जंगल में,
आज़ान बेहद ग़ुस्से में था।
आज़ान (ग़ुस्से से): "क्या यार! ये सारे फ़क़ीर, बाबाओं ने मेरा ही ख़ून पिया हुआ है! एक तरफ़ दादा जानी (दादाजी) हैं जो मेरा ख़ून पीते रहते हैं और अब ये और लोग आ गए!"
इतने में अचानक उसका फ़ोन बजता है। वो स्क्रीन पर देखता है – कॉल दादा जानी की ही है। वो एक ठंडी साँस लेता है, एक ग़ुस्से भरा (गुस्से से भरा) मैसेज लिखता है लेकिन भेजता नहीं। फिर फोन रिसीव करता है।
फ़ोन पर बातचीत
आज़ान: "आस्सलामु अलैकुम (इस्लामिक अभिवादन: तुम्हें सलामती मिले) दादा जानी।"
शेख़ साहब (गंभीर आवाज़ में): "वअलैकुम अस्सलाम (तुम पर भी सलामती हो)। ये क्या हरकत है आज़ान? घर में क़ुरआन ख़्वानी (क़ुरआन पढ़ने की रस्म) हो रही है, ख़ुदा (ईश्वर) और उसके रसूल (संदेशवाहक) का ज़िक्र हो रहा है, और तुम घर से ही ग़ायब (लापता) हो?"
आज़ान (बेज़ारी से): "दादा जानी, आपको पता है ना कि मुझे ये सब समझ नहीं आता! जो ज़बान (लैंग्वेज) मुझे समझ नहीं आती, उसे मैं क्यों पढ़ूँ? क्यों सुनूँ?"
शेख़ साहब अज़ान की बात से गुस्सा हो जाते है और use समझाने की कोशिश करते है।
शेख़ साहब (ग़ुस्से को दबाते हुए): "आज़ान, ये कोई बात नहीं होती! पढ़ना आता है तुम्हें, समझने की कोशिश करो। ये ख़ुदा का कलाम (ईश्वर का संदेश) है।"
आज़ान (तंज़ से हँसते हुए): "ख़ुदा का कलाम है ये आप कहते हो, आपके बुज़ुर्ग (पूर्वज) कहते हैं, लेकिन मैं कैसे मान लूँ?"
शेख़ साहब (सख़्ती से): "हम तुम्हें हज़ार बार दलाइल (तर्क) दे चुके हैं, फिर भी तुम वही बात दोहराते हो!"
आज़ान उनकी बात पर इंकार कर देता है।
आज़ान (ज़िद में): "लेकिन मुझे समझ नहीं आती आपकी दलाइल (तर्क)! अगर ख़ुदा (ईश्वर) वाक़ई है, तो आए मेरे सामने! मुझे अपना दीदार (दर्शन) कराए। उसका जो कलम है वह मुझे खुद अपनी जबान से सुनाएं.."
शेख़ साहब (हैरान होकर): "मआज़अल्लाह! (ईश्वर की पनाह!) कैसी बातें कर रहे हो तुम, आज़ान! क्या ख़ुदा (ईश्वर) नज़र आने वाली चीज़ है? और भूलों मत इस्लाम की जो पहली बुनियाद है उसमें यही कहा गया है कि खुदा और उसके रसूल पर बिन देखे ईमान लाया जाए।"
आज़ान (चिढ़कर): "तो फिर मैं क्यों मानूँ उसकी मौजूदगी? बस इसलिए कि बुज़ुर्गों (पूर्वजों) ने कहा? और रही इस्लाम की पहली बुनियाद की बात तो मुझे नहीं यकीन.."
शेख़ साहब को अब अपनी कोशिश नाकाम होती नज़र आति है।
शेख़ साहब के चेहरे पर मायूसी छा जाती है। वो जानते हैं कि आज़ान इस बहस को मानने वाला नहीं। वो एक गहरी साँस लेते हैं और नर्मी से बोलते हैं।
शेख़ साहब (दर्द भरी आवाज़ में): "आज़ान, हम तुम्हारे लिए दुआ (प्रार्थना) करेंगे कि तुम्हें हिदायत मिले। परवरदिगार ए आलम जल्द ही तुम्हें नेक रास्ते पर चलाने के लिए किसी फ़रिश्ते को भेजें जो तुम्हें खुदा पर यकीन दिला सके।"
आज़ान (हँसकर): "शौक से कीजिए दादा जानी। लेकिन जब तक ख़ुदा (ईश्वर) ख़ुद मुझसे आकर बात नहीं करता, मैं नहीं मानने वाला!"
शेख़ साहब खामोश हो जाते हैं। आज़ान के चेहरे पर बग़ावत (विद्रोह) साफ़ दिखती है। फ़ोन कट जाता है।
दिन गुज़र रहे थे, मगर दुआ की अम्मी की सेहत (स्वास्थ्य) में ज़रा भी सुधार (बेहतर होना) नहीं हो रहा था। इस बार दुआ के अब्बू (पिता) ने उन्हें इतना मारा था कि उनकी पसली (रिब) टूट चुकी थी और साथ ही उनका हाथ भी शिकस्त (फ्रैक्चर) हो गया था। मगर ये बात दुआ की अम्मी ने उस पर आशकारा (ज़ाहिर) नहीं होने दी। वो अपनी इस तकलीफ़ (दर्द) पर सब्र (धैर्य) कर रही थीं, क्योंकि उन्हें अंदाज़ा हो गया था कि उनका वक़्त-ए-रुख़सत (इस दुनिया से जाने का समय) क़रीब है और वो अपनी बेटी को किसी भी तरह की परेशानी (तनाव) में नहीं देखना चाहती थीं। मगर कहते हैं ना, जैसे माँ से बेटी की तकलीफ़ नहीं मख़फ़ी (छुप) सकती, वैसे ही बेटी से माँ का दर्द (तकलीफ़) भी मस्तूर (गुप्त) नहीं रह सकता। दुआ अपनी अम्मी की बिगड़ती हालत (गिरती सेहत) देखकर फिक्रमंद (चिंतित) रहने लगी। वो अब खुद से ज़्यादा अपनी माँ के लिए मलूल (दुखी) रहती। नमाज़ में खुदा से मुनाजात (दुआ) करती, अपनी माँ की सेहतयाबी (स्वास्थ्य लाभ) की इल्तिजा करती। जब जब वो नमाज़ पढ़कर अपनी माँ पर दम (प्रार्थना के बाद फूँकना) करती, तो उनकी माँ को एक रूहानी सुकून (आध्यात्मिक शांति) मिलता और ऐसा महसूस होता कि उनके बदन का दर्द-ओ-तकलीफ़ (पीड़ा) कम हो गई हो, मगर फिर दूसरी नमाज़ का वक़्त आते-आते उनका दर्द फिर शिद्दत (तेज़ी) से लौट आता। इस तरह, दुआ की इल्तिजा-ए-दुआ (प्रार्थना की विनती) और उसके सब्र के ज़रिए दुआ की अम्मी अपने दर्द से रिहाई (मुक्ति) पा रही थीं, मगर उनकी जिस्मानी कुव्वत (शारीरिक ताकत) उस दर्द को बर्दाश्त (सहन) नहीं कर पा रही थी।
दिन गुज़र रहे थे, मगर दुआ की अम्मी की सेहत में ज़रा भी सुधार नहीं हो रहा था। इस बार दुआ के अब्बू ने उन्हें इतना मारा था कि उनकी पसली टूट चुकी थी और साथ ही उनका हाथ भी शिकस्त हो गया था। मगर ये बात दुआ की अम्मी ने उस पर आशकारा नहीं होने दी। वो अपनी इस तकलीफ़ पर सब्र कर रही थीं, क्योंकि उन्हें अंदाज़ा हो गया था कि उनका वक़्त-ए-रुख़सत क़रीब है और वो अपनी बेटी को किसी भी तरह की परेशानी में नहीं देखना चाहती थीं।
मगर कहते हैं ना, जैसे माँ से बेटी की तकलीफ़ नहीं मख़फ़ी रह सकती, वैसे ही बेटी से माँ का दर्द भी मस्तूर नहीं रह सकता। दुआ अपनी अम्मी की बिगड़ती हालत देखकर फिक्रमंद रहने लगी। वो अब खुद से ज़्यादा अपनी माँ के लिए मलूल रहती। नमाज़ में खुदा से मुनाजात करती, अपनी माँ की सेहतयाबी की इल्तिजा करती। जब जब वो नमाज़ पढ़कर अपनी माँ पर दम करती, तो उनकी माँ को एक रूहानी सुकून मिलता और ऐसा महसूस होता कि उनके बदन का दर्द-ओ-तकलीफ़ कम हो गई हो, मगर फिर दूसरी नमाज़ का वक़्त आते-आते उनका दर्द फिर शिद्दत से लौट आता।
इस तरह, दुआ की इल्तिजा-ए-दुआ और उसके सब्र के ज़रिए दुआ की अम्मी अपने दर्द से रिहाई पा रही थीं, मगर उनकी जिस्मानी कुव्वत उस दर्द को बर्दाश्त नहीं कर पा रही थी।
रात के वक़्त दुआ अपनी अम्मी के पास बैठी उनकी खिदमत कर रही थी। उनकी तबीयत नासाज़ थी, इसलिए दुआ उनकी हर ज़रूरत का ख़्याल रख रही थी। तभी दरवाज़े पर ज़ोर से दस्तक हुई।
दुआ चौंक गई, इतनी रात गए कौन आ सकता है? उसने अपनी अम्मी की तरफ़ देखा, तो उन्होंने आँखों से इशारा किया कि देख लो कौन है।
दुआ दरवाज़े की तरफ़ बढ़ी और हल्की आवाज़ में पूछा, "जी, कौन?"
बाहर से एक जानी-पहचानी, लेकिन कुछ हिचकिचाती हुई आवाज़ आई—
"बेटी दुआ, मैं हूँ... ज़ुलेखा।"
ज़ुलेखा बानो!
दुआ के चेहरे का रंग उड़ गया। उसका दिल तेज़ी से धड़कने लगा। उसके दिमाग़ में पिछली बार की घटना किसी बदबूदार धुएँ की तरह छा गई। सिर्फ़ बाज़ार में मामूली मुलाक़ात पर उसके अब्बू ने अम्मी को बेदर्दी से मारा था। और आज, ज़ुलेखा फूफी उनके दरवाज़े पर आ गई थीं!
"या अल्लाह!" दुआ ने मन ही मन कहा और एक गहरी साँस लेते हुए दरवाज़ा खोला।
दुआ- "अस्सलामोलैकुम फूफी जान।"
ज़ुलेखा बानो के चेहरे पर शफक़त और चिंता दोनों थे। उन्होंने प्यार से दुआ का हाथ थाम लिया।
ज़ुलेखा - "वालकुमास्सलाम। मेरी बच्ची कैसी है?" उन्होंने नरम आवाज़ में पूछा, "और अम्मी कहाँ हैं? रोज़ बाज़ार में दिख जाती थीं, लेकिन उस दिन के बाद से तो मिली ही नहीं।"
इतनी सी बात सुनते ही दुआ की आँखों में आँसू छलक आए। उसकी गर्दन झुक गई, जैसे कोई बड़ा बोझ उठाए हो। वह सुबकते हुए बोली—
"फूफी जान, अल्लाह के लिए आप यहाँ से चली जाएँ!"
ज़ुलेखा बानो सकते में आ गईं।
"बेटी, क्या हुआ? क्यों रो रही हो?" उन्होंने दुआ की पीठ पर हाथ फेरते हुए पूछा।
दुआ ने अपने होंठ भींचे, आँसू पोंछे और धीरे से कहा—
"फूफी, पिछली बार जब अम्मी ने बस आपसे बात की थी, तब अब्बू ने उन्हें बहुत मारा था... बहुत। मैं अब और नहीं देख सकती।"
दुआ की आवाज़ में ऐसा दर्द था कि ज़ुलेखा बानो का दिल काँप गया। उन्होंने उसकी नम आँखों में देखा और समझ गईं कि यह डर कितना गहरा है।
"मेरी बच्ची..." उन्होंने आगे कुछ कहने के लिए मुँह खोला, लेकिन दुआ ने उनके हाथ कसकर पकड़ लिए।
"नहीं फूफी, प्लीज़... यह एहसान कर दीजिए। आप अम्मी से मत मिला कीजिए। मैं नहीं चाहती कि वो फिर तकलीफ़ में आएँ।"
ज़ुलेखा बानो की आँखें भी भीग गईं। उन्होंने दुआ का सिर प्यार से चूम लिया और भारी क़दमों से दरवाज़े से वापस मुड़ गईं।
दुआ देर तक वही खड़ी रही, अपनी धड़कनों की गूँज सुनती रही...
दुआ ने अपनी फूफी को अंदर लेने से मना तो कर दिया था, लेकिन उसके दिल में एक संगीन बोझ था, एक एहसास कि अब्बू के डर से कब तक वो अपनी माँ को इस कशमकश में देखती रहेगी और जो उसके मुश्फिक़ हैं, उन्हें मना करती रहेगी।
ज़ुलेखा बानो की दुआ के अब्बू से सिर्फ़ इस वजह से रंजिश थी कि ज़ुलेखा बानो हमेशा दुआ की अम्मी की हमदर्द थीं। ज़ुलेखा बानो जानती थीं कि दुआ की अम्मी किस अख़लाक़ की औरत थीं। उनकी नेकनामी दूर-दूर तक थी। मोहल्ले में आज तक किसी ने उनके चेहरे की झलक तक नहीं देखी थी। वो अपने पर्दे की पूरी पाबंद थीं और यही काम दुआ भी करती थी।
मोहल्ले की बहुत ही कम औरतें थीं जिन्होंने दुआ को देखा था, और मर्द तो दुआ के चेहरे से परिचित होने से रहे, किसी मर्द ने आज तक दुआ को ना देखा था सिवाए उसके अब्बू, भाई, दादा और नाना के। वो अपने चाचा मामा से भी पर्दा करती थी लेकिन दुआ के अब्बू अपनी बहन से सिर्फ़ इस वजह से अदावत पाल बैठे थे कि वो उनकी तरफदारी करने के बजाय उनकी बेगम की मुआयिदत करती थीं।
दुआ भी यही सब सोच रही थी कि तभी उसके कानों में एक बेहद शांत और कानों को सुकून देने वाली आवाज़ गूंजती है, "कब तक, कब तक तुम इस तरीके से डरोगी? क्या अपनी माँ के हक के लिए आवाज़ नहीं उठाओगी? क्या इस्लाम में यही हुक्म है कि आदमी चाहे औरत को कितना भी पीट ले, लेकिन औरत सिर्फ बर्दाश्त करती रहे?"
आवाज़ आगे कहती है, "क्या इस्लाम ने मर्द को इतनी इजाज़त दी है? क्या इस्लाम इजाज़त देता है आदमियों को औरत पर सितम करने की और औरत को सिर्फ हुक्म देता है सब्र करने की? ध्यान दो इस बात पर, दुआ। यह दुनिया तुम्हें इस्लाम का एक गलत पाठ पढ़ा रही है। इस्लाम में कभी भी औरत पर हाथ उठाने वाले आदमी पर रहम नहीं किया गया। बात की गहराई को समझो।"
आवाज़ आगे कहती है, "अगर अपनी माँ के जीते जी तुम उनके हक के लिए नहीं लड़ सकी, तो क्या फायदा तुम्हारी बेटी होने का? जाके पूछो इस्लाम के रेहनुमाओ से क्या इस्लाम औरत को इस हद तक मजबूर रहने को कहता है? अगर आज तुमने ये आवाज़ नहीं उठाई, तो आगे कोई भी ये आवाज़ नहीं उठा पाएगा।"
लखनऊ शहर, शेख विला में इस वक़्त चहल-पहल थी क्योंकि आज सभी लोग बरेली शरीफ़ जाने वाले थे। बरेली शरीफ़ को हिन्दुस्तान में एक बाबरकत शहर माना जाता है। यहाँ पर वलियों का बड़ा करम रहा है और कई आलिम-ए-दीन इसी शहर से उठकर पूरी दुनिया में फैले हैं।
फिलहाल, शेख साहब आज़ान के दादा आज बरेली शरीफ़ एक अज़ीम हस्ती से मिलने जा रहे थे। उनका बरेली जाने का सिर्फ़ एक ही मकसद था—अपने भटके हुए पोते को सही राह दिखाना, उसे इस्लाम की हक़ीक़त से रुबरू कराना, उसे ख़ुदा की पहचान कराना और इस्लाम का सही मतलब समझाना। इसी काम के लिए बड़े शेख साहब अपने पोते अज़ान और उसकी अम्मी आमना बेग़म को लेकर बरेली शरीफ़ के लिए रवाना होने वाले थे, लेकिन अभी तक अज़ान अपने कमरे से बाहर नहीं आया था। घर के आँगन में सब लोग तैयार थे, लेकिन अज़ान अभी तक अपने कमरे में बंद था।
शेख साहब ने कहा, "बीबी अमना देखो, ये आपके साहबजादे कहाँ रह गए? आपने उन्हें कल बता दिया था ना कि हमें सुबह ही बारेली शरीफ के लिए निकलना है?"
अमना बीबी, जो कि शेख साहब से कुछ दूरी पर ही खड़ी थी, वो अपने सर के दुपट्टे को संभालते हुए बोली, "जी बाबा जानी, मैंने उसे बता दिया था और उसने हर बार की तरह इंकार भी कर दिया था, लेकिन मैंने उसे अपनी कसम देके राजी कर लिया था।"
शेख साहब ने एक गहरी साँस लेकर कहा, "अल्लाह बेहतर जाने, कि हमारे घर का ये चिराग कब रास्ते पर आएगा? हमें तो डर लगता है, हमारी आने वाली नस्लें गुमराही पर ना चली जाएं।"
अमना बीबी, शेख साहब को तसल्ली देते हुए बोली, "आप घबराए ना बाबा जानी, अल्लाह कोई ना कोई फरिश्ता भेज ही देगा हमारी रहनुमाई के लिए।"
फिर कुछ सोचकर बोली, "बाबा जानी, मैं क्या कह रही थी? क्यों ना हम उसका निकाह करा दें किसी ऐसी दीनदार लड़की से?"
शेख साहब ने एक गहरी साँस लेकर कहा, "आप क्या चाहती हैं कि हम एक गुमराह इंसान को दीनदार के पल्ले बाँधकर उसका काम और बिगाड़ दें? और क्या वो मानेगा? कभी नहीं! इस निकाह के लिए कभी राजी नहीं होगा। और आप ये आने-जाने के काम अपनी कसम देकर करवा लेती हैं, लेकिन अगर आपने निकाह के लिए उसे जोडर दिया तो आप जानती हैं, वो मरना पसंद करेगा, लेकिन निकाह नहीं करेगा... क्योंकि निकाह से उसकी बहुत बुरी यादें जुड़ी हैं।"
शेख साहब ये कहते हैं तो बीबी अमना के चेहरे पर एक उदासी छा जाती है, जिसे देखकर लगता था कि उन्हें अपने बहुत ही दर्द भरे दिन याद आ गए हों। अभी और शेख साहब बात कर ही रहे थे कि ऊपर सीढ़ियों से एक "लोवर" और "टी-शर्ट" में अंगड़ाई लेते हुए नीचे आता है।
"गुड मॉर्निंग एवरीवन," ये कहने के बाद सीधे "डाइनिंग टेबल" पे जाकर बैठ जाता है।
"सलीम बाबा, प्लीज़ ज़रा मेरे लिए एक कॉफी बना देंगे?"
उस घर का शेफ जिसको सब "सलीम बाबा" कहते थे, वो तुरंत "जी मालिक" कहकर किचन में घुस जाते हैं।
शेख साहब को इस हालत में देख बहुत गुस्सा आता है। शेख साहब की हालत को बखूबी समझ रही थी, इसलिए वो तुरंत उसके पास जाकर कहती हैं, "ये क्या बेहूदा हरकत है? ना सलाम ना दुआ, ये क्या अंग्रेजी तहज़ीब अपना लिया है तुमने?"
"मॉम, प्लीज़ अब आप सुबह-सुबह शुरू मत होइएगा, मेरे सर में बहुत दर्द है, रात 2-4 एक्स्ट्रा पेग हो गए थे।"
अज़ान जैसे ही ये कहता है, शेख साहब का गुस्सा अपने चरम सीमा पर पहुँच जाता है। वो उसे देखकर गुस्से में कहते हैं, "हम आधे घंटे में निकलने वाले हैं। अपने इस शराबी जुआरी बेटे को समझा दें कि हमारे साथ चले, वरना..."
अज़ान जिसका सर बहुत ज्यादा फट रहा था, वो शेख साहब को देखकर गुस्से में कहता है, "दादा जानी, ये क्या आपका रोज़-रोज़ का झाड़ है? हाँ, कभी यहाँ कभी वहाँ। अरे खुदा को ढूँढना इतना मुश्किल है क्या कि आप मुझे गली-गली, शहर-शहर लेके घूमते पड़ते हैं?"
"फिर आप कहते हैं कि मैं खुदा को मानु… हूँ??? और आपको खुदा से मिलाने मुझे जगह-जगह लेके फिरना पड़ता है?"
"और वो खुदा कैसा जो मेरी लाइफ पर मेरे शोक पर रोक लगाए? मैं नहीं मानता और ना ही मुझे कहीं जाना है।"
अज़ान ये कहके वहाँ से जाने ही वाला होता है कि आमना बीबी उसका हाथ पकड़ के रोकने लगती हैं, लेकिन अज़ान उनका हाथ झटक कर वापस कमरे की तरफ चल देता है। शेख साहब का अब दिल रोने लगा था, उनकी आँखों से आँसू गिरने लगते हैं। वो अपने हाथों को उठाकर दुआ करते हैं, "या अल्लाह, तू सब जानता है, हमें जिस गुनाह की सजा मिल रही है, हम ये भी बहुत अच्छे तरीके से जानते हैं, लेकिन मेरे मौला, मैं अपनी आने वाली नस्लों को बर्बाद नहीं होने दे सकता, अपने बेटे की खता की सजा मैं अपने पोते को नहीं दे सकता, मेरे मौला रहम कर, रहनुमाई कर।"
आमना बीबी जो कि अज़ान के पीछे जा रही थी, वो शेख साहब की बातें सुनकर वहीं रुक जाती हैं और शेख साहब के पास आकर कहती हैं, "बाबाजानी आप परेशान ना हो, अल्लाह बड़ा मेहरबान है, वो रहम जरूर करेगा।"
शेख साहब ने कहा, "इंशाअल्लाह…जैसा तुम कहती हो वैसा ही हो, फिलहाल को रहने दो, तुम हमारे साथ बारेली शरीफ चलो।"
आमना बीबी इस वक्त शेख साहब की हालत को बहुत अच्छे तरीके से समझ रही थी, इसलिए वो सर को हाँ में हींलाकर कहती है, "जी बाबाजानी, मैं अपना हिजाब पहनकर आती हूँ, आप कार में चलकर बैठें।"
शेख साहब बाहर की तरफ चल देते हैं और अमीना बीवी अपने कमरे की तरफ चल देती है… कमरे की तरफ जाते हुए उनकी नजर ऊपर रेलिंग पर खड़े गुस्से में आग बबूला हुए अज़ान पर पड़ती है, जो उन लोगों को ही देख रहा था। बीवी अमीना उसे नजरअंदाज कर अपने कमरे की तरफ चल देती है, और अज़ान वहाँ से गुस्से में ही अपने कमरे में चला जाता है।
दूसरी तरफ दुआ के घर में, दुआ ने अपनी अम्मी को नाश्ता करा कर दवा दे दी थी। दुआ की अम्मी के दर्द में कतई भी आराम नहीं था, लेकिन वो अपने खुदा के नाम पर सब्र कर रही थी। अभी वो दोनों बैठे ही थे कि घर का दरवाजा खुलता है और दुआ के अब्बू अंदर आते हैं। दुआ का दिल धक से हो जाता है, क्योंकि दुआ के अब्बू और दुआ के भाई दोनों ही हफ्तों तक घर नहीं आते थे। और जब भी वो घर आते थे तो कुछ ना कुछ कयामत लेकर आते थे। आज भी दुआ को यही लग रहा था कि दुआ के अब्बू कोई ना कोई हरकत करेंगे। दुआ ने जैसे ही अपने अब्बू को देखा, वो खड़ी होकर बोली, "अस्सलामोअलेकुम! आप कैसे हैं? आपके लिए कुछ लेकर आऊँ?"
दुआ के अब्बू, दुआ को देखकर बोले, "नहीं, मुझे तुझसे नहीं, इससे चाहिए।"
दुआ अपनी अम्मी की तरफ देखती है। क्योंकि दुआ के अब्बू का इशारा उसकी अम्मी की तरफ होता है, दुआ की अम्मी उठने की कोशिश करती है, तो दुआ उन्हें सहारा देकर उठाकर बिठाती है।
"जी मुझसे आपको क्या चाहिए?"
दुआ के अब्बू बोले, "वो जो अब्बू जी ने तुमको सोने का हार दिया था, वो दो मुझे।"
दुआ की अम्मी हैरानी से बोलीं, "लेकिन वो तो अब्बू जी ने दुआ की शादी के लिए दिया था।"
दुआ के अब्बू गुस्से में बोले, "जब होगी तब होगी, अभी मुझे चाहिए। मैं फरजाना को देना चाहता हूँ, आज फरजाना का सालगिरह है, तो मुझे उसे गिफ्ट देना है।"
दुआ की अम्मी दर्द से बोलीं, "दुआ के अब्बू जी, ये दुआ के लिए रखा हुआ है, अगर वो भी आप उसको दे देंगे तो मेरी बच्ची के निकाह के वक्त के लिए कुछ ना बचेगा।"
दुआ के अब्बू गुस्से में तिलमिला जाते हैं और आगे बढ़कर एक थप्पड़ दुआ की अम्मी को मार देते हैं। "ज्यादा मुझे सबक सिखाने की जरूरत नहीं है, समझी? जो मैं कहता हूँ, कर।" ये कहते हुए दुआ के अब्बू अम्मी के बिस्तर के नीचे से अलमारी की चाबी निकालते हैं और तिजोरी से वो गहने निकाल लेते हैं। जैसे ही वो जाने वाले होते हैं, दुआ की अम्मी उन्हें आवाज़ देकर कहती हैं, "सुनिए, मेरी सुन लीजिए। अगर आपको फरजाना इतनी पसंद है, तो खुदा के लिए उससे निकाह कर लीजिए। मैं आपको इजाजत देती हूँ दूसरे निकाह की, लेकिन ये नाजायज रिश्ता मत बनाइए उसके साथ।"
अभी दुआ कि अम्मी ने इतना कहा हीं था कि…
सन्नाटे की गूंज
कमरे की हवा में ग़ुस्से की तपिश भरी हुई थी। दुआ के अब्बू दरवाज़े तक पहुँच चुके थे, मगर जैसे ही दुआ की अम्मी की नम आवाज़ ने उनकी पीठ पर दस्तक दी, वो ठिठक गए। उनकी आँखों में शोले भड़क उठे। वो पलटे और ग़ुस्से से तमतमाए चेहरे के साथ बोले—
"हाँ, निकाह कर लूँ और ज़िन्दगी भर के लिए अपने गले बाँध लूँ? जैसे तुझे अब्बू जी ने मेरे गले बाँध दिया? (जैसे उन्होंने मेरे सिर पर ज़बरदस्ती डाल दिया)। पता नहीं क्या देखकर तुझसे निकाह करने को कह दिया मेरे अब्बू ने! और मैं आज तक तुझे अपने घर में बर्दाश्त कर रहा हूँ। अगर अब्बू जी ने तुझसे निकाह ना कराया होता तो तुझे कब का छोड़ चुका होता! और रही फर्ज़ाना से निकाह की बात, तो नहीं करूँगा निकाह? मैं सबके साथ ऐसे ही रहूँगा! तुझे जो समझना है, जो करना है, कर! आयी समझ में?"
दुआ की अम्मी का जिस्म काँप उठा। आँसू उनकी आँखों से बहते हुए उनके गालों पर फैल गए। उन्होंने अपने दोनों हाथ दुआ में उठाते हुए दर्द से आह भरी—
"या अल्लाह।"
फिर कहा - "खुदारा खुदा से तो डरो! कैसी बातें कर रहे हैं आप? जानते हैं, खुदा इन बातों से नाराज़ हो जाता है!"
मगर दुआ के अब्बू के चेहरे पर कोई असर नहीं पड़ा। वो हिकारत से मुस्कुराए और तल्ख़ लहजे में बोले—
"खुदा को नाराज़ कर रहा हूँ तो मना लूँगा, कर लूँगा? मेरा खुदा मुझे माफ़ कर देगा, लेकिन तेरी बातों में मैं नहीं आऊँगा!"
दुआ की अम्मी ने ग़म से भरी आवाज़ में कहा—
"ये इस तरह माफी खुदा नहीं देता!"
और फिर…
"थप्पड़!!!!"
कमरे की दीवारें तक इस भयानक आवाज़ से कांप उठीं। दुआ की अम्मी के चेहरे पर ज़ोरदार तमाचा पड़ा। उनका नाज़ुक जिस्म पीछे की तरफ़ झटके से लहराया। आँखों के आगे अंधेरा छा गया।
लेकिन... यह सिर्फ़ एक थप्पड़ नहीं था! यह एक दर्दनाक लम्हा था, जिसने उनकी रूह को हिला कर रख दिया।
और फिर…
खून!
उनकी सफ़ेद चादर पर लाल धब्बे उभरने लगे। उनके सर में एक अजीब सा तेज़ दर्द उठा। उनकी नज़रों के आगे धुंध छाने लगी।
"अम्मी!!!!"
दुआ की चीख़ हवाओं में गूंज उठी।
वो बदहवास होकर अपनी माँ की तरफ़ लपकी। उनके काँपते हाथ उनकी अम्मी का लहूलुहान बदन थामने की कोशिश कर रहे थे।
"या अल्लाह! अम्मी, आपको क्या हुआ? अम्मी, आप ठीक हैं ना?"
दुआ की आवाज़ सिसकियों में बदल गई। उसकी माँ की धीमी होती साँसें, उसकी दुनिया उजाड़ रही थीं।
कमरा अब भी वहीं था, दीवारें वहीं थीं, लेकिन उसमें फैली नफ़रत और ज़ुल्म की गूंज, कयामत ढा गई…
दूसरी तरफ शेख साहब बरेली शरीफ तशरीफ़ ला चुके थे।
शेख साहब, अपनी उम्र के तजुर्बे और वकार के साथ, दरगाह-ए-आला हज़रत के सायादार अहाते में दाख़िल होते हैं। चारों तरफ रूहानी सुकून बिखरा हुआ था। मज़ार शरीफ पर जलते हुए चिराग़ों की रौशनी और उर्दू-फारसी में लिखे गए आयतों से सजी दीवारें एक अजीब तरह की पाकीज़गी का एहसास करा रही थीं।
आज़ान कि अम्मी दरगाह से कुछ दूरी पर मौजूद सराए खाने पर रुकी हुई थीं।
दरगाह के एक गोशे में, जहाँ नूरानी माहौल और ख़ुशबूदार हवा थी, वहीँ एक बुज़ुर्ग और अजीम हस्ती बैठे थे। उनकी आँखों में इरफानी रोशनी और चेहरे पर ख़ास नूर झलक रहा था। शेख साहब एहतराम से आगे बढ़ते हैं, उनके सामने अदब से झुकते हैं और अपना मक़सद बयान करते हैं—अपने बेटे की परेशानी और पोते की बदतहज़ीबी का ज़िक्र करते हैं।
वो अज़ीम बुज़ुर्ग नर्म लहजे में मुस्कुराते हुए शेख साहब के कांधे पर हाथ रखते हैं। उनकी आँखों में एक अजीब सी तसल्ल्ली थी, जैसे हर दर्द का इलाज उनके पास हो।
"बेशक, आपका सवाल ही आपको यहाँ तक खींच लाया है, और यकीन मानिए, आपको आपके सवालों के जवाब भी यहीं मिलेंगे। लेकिन..." उन्होंने कुछ लम्हों का वक्फ़ा लिया और फिर एक तह किया हुआ कागज़ निकालकर शेख साहब की तरफ बढ़ाया।
"इस पते पर जाइए। वहाँ एक मस्जिद है। जुमे की नमाज़ अदा कीजिए। जब नमाज़ मुकम्मल हो जाएगी, तो आपको वो इंसान मिलेगा जो आपके पोते के इलाज का बाइ’स बनेगा।"
शेख साहब ने वह काग़ज़ तसलीम किया, उसे गौर से देखा, फिर बुज़ुर्ग के चेहरे की तरफ निगाह उठाई। उनके दिल में एक नया इत्मीनान जाग उठा था। वह उनके दोनों हाथों को अदब से थामकर चूमते हैं और कहते हैं,
"आपकी जुबान से निकले अल्फ़ाज़ हमारे लिए हुक्म हैं। अब हमें यकीन हो गया कि हमारे बेटे की मुश्किल दूर होगी और हमारे पोते को शिफ़ा मिलेगी।"
बुज़ुर्ग हल्की सी मुस्कान के साथ सर हिलाते हैं, और शेख साहब पूरे यकीन के साथ वहाँ से निकल पड़ते हैं, उनकी आँखों में उम्मीद का दीया रोशन था…
दुआ का घर
दुआ अपनी माँ के सिरहाने बैठी थी। उनकी पट्टी कर दी गई थी, लेकिन उनकी हालत बेहद नाज़ुक हो चुकी थी। उनकी आँखें खुली थीं, वो सब कुछ देख रही थीं, सुन रही थीं, महसूस कर रही थीं, लेकिन जिस्म में कोई ताक़त बाक़ी नहीं थी।
दुआ अपनी माँ की ये हालत देखकर बहुत ही ज़्यादा परेशान थी। तभी उसके कानों में वही आवाज़ फिर गूँजी—
"कहा था ना, उठा लो अपनी माँ के लिए कोई क़दम, वरना कल को लोग इस्लाम के बारे में यही कहेंगे कि इस्लाम सिर्फ़ औरतों पर ज़ुल्म करने का नाम है। इस्लाम ने औरतों को जो हुक़ूक़ दिए हैं, उन्हें सब दबा के रखते हैं। जाओ, जाकर पूछो इन इस्लाम के आलिमों से—क्या इस्लाम मर्द को इजाज़त देता है कि वो औरत को इस क़दर परेशान करे?"
दुआ उस आवाज़ को सुनकर अपने आँसू पोंछती है। फिर अपने दादा के ज़माने की एक पुरानी व्हीलचेयर निकालती है, उसमें अपनी माँ को बिठाती है और उनके बराबर बैठ जाती है।
जोहर का वक़्त था। मस्जिदों से अज़ान की आवाज़ें बुलंद हो रही थीं। दुआ वुज़ू कर के नमाज़ अदा करती है और सजदे में जाकर दुआ माँगती है—
"ऐ मेरे मौला! आज तुझसे कोई शिकवा नहीं, कोई शिकायत नहीं। आज मैं इस दुनिया से शिकायत करने जा रही हूँ। तूने हमारे लिए जो क़ानून बनाए, वो लाजवाब और बेहतरीन हैं, लेकिन इस दुनिया ने उन्हें किस नज़र से देखा, आज मैं इस दुनिया को आईना दिखाने जा रही हूँ। ऐ मेरे मौला, मुझे हिम्मत दे! मैं आज सिर्फ़ अपनी माँ के लिए नहीं, हर उस औरत के लिए आवाज़ उठाने जा रही हूँ, जो इस्लाम के नाम पर मर्दों के ज़रिए सताई जाती हैं, जबकि हक़ीक़त तो ये है कि इस्लाम में औरत को नाराज़ करने की भी इजाज़त नहीं है।"
यह कहकर दुआ अपने चेहरे पर हाथ फेरती है, अपना नक़ाब ठीक करती है और अपनी माँ का भी नक़ाब सही से बाँध देती है। फिर वह व्हीलचेयर को आगे बढ़ाते हुए घर से बाहर निकली।
मस्जिद के बाहर
जब दुआ अपनी माँ को लेकर घर से निकली, तो मोहल्ले के हर शख़्स की नज़र उन दोनों पर पड़ी। जो लोग मस्जिद से आ-जा रहे थे, वो उन्हें देखकर हैरान थे। इस घर से पहले कभी दो औरतों को एक साथ बाहर निकलते नहीं देखा गया था—और आज एक व्हीलचेयर पर थी और दूसरी उसे खींचते हुए ला रही थी।
लेकिन दुआ ने किसी की भी परवाह नहीं की। वह अपनी माँ की व्हीलचेयर को सीधे मोहल्ले की सबसे बड़ी मस्जिद—जामा मस्जिद—के दरवाज़े तक ले आई और वहीं रोक दी।
फिर उसने अपनी आवाज़ को थोड़ा भारी किया और बुलंद आवाज़ में कहा—
"अस्सलामु अलैकुम!"
उसकी आवाज़ सुनकर मस्जिद में आते-जाते मर्दों की नज़र उस पर चली गई। उसकी आवाज़ कुछ अलग लग रही थी—क्योंकि दुआ ने अपनी आवाज़ बदलकर मर्दों जैसी बना ली थी।
सबने उसके सलाम का जवाब दिया। दुआ ने उसी बुलंद आवाज़ में कहा—
"मुझे इस मस्जिद के इमाम साहब और हर उस शख़्स से बात करनी है जो कुरआन का इल्म रखता है। अगर वो लोग अभी मुझसे बाहर आकर बात नहीं करेंगे, तो मैं और मेरी अम्मी क़यामत के रोज़ उनका दामन पकड़कर अल्लाह से शिकायत करेंगे कि उन्होंने हमारी बातें नहीं सुनीं!"
दुआ की बात सुनकर मस्जिद में हलचल मच गई। मुसलमान जानते हैं कि क़यामत के रोज़ किसी का दामन पकड़कर शिकायत करना कितना ख़तरनाक मंजर होगा।
इमाम साहब तक ये ख़बर पहुँच गई। वह मस्जिद में मौजूद कुछ बुज़ुर्गों के साथ बाहर आए।
सवालों की शुरुआत
इमाम साहब कुछ कहने ही वाले थे कि दुआ ने पहले ही बोलना शुरू कर दिया—
"अस्सलामोअलैकुम,,,
इमाम साहब, सबसे पहले मैं आपसे माज़रत चाहती हूँ कि मुझे अपने घर से मस्जिद तक का सफ़र तय करना पड़ा। लेकिन आप इत्मिनान रखें, मैंने अपनी रूह और अपने बदन दोनों का पर्दा किया है, और ये आवाज़ भी मेरी असल आवाज़ नहीं है। मैं यहाँ बोलने नहीं आती, लेकिन आज ज़रूरी था, इसलिए आना पड़ा।"
इमाम साहब ने पर्दे की अहमियत का एहसास किया और नर्म लहजे में बोले—
"वालेकुमस्सलाम
बेटी, कहो। ऐसी क्या बात है जो तुम हम सबको क़यामत के मैदान तक खींचकर ले जाना चाहती हो?"
दुआ ने अपनी माँ की तरफ़ इशारा किया और कहा—
"इमाम साहब, ये मेरी अम्मी हैं। ये जिंदा तो हैं, लेकिन एक जिंदा लाश बन चुकी हैं। इनमें जान बाक़ी नहीं रही..."
इतना सुनते ही मस्जिद में मौजूद लोग हैरत में पड़ गए। दुआ के अब्बू और उसका भाई, जो वहीं नमाज़ अदा करने आए थे, तुरंत बाहर आए और ग़ुस्से में बोले—
"कमबख़्त लड़की! तुझे कुछ शर्म-हया है कि नहीं? खानदान की इज़्ज़त मिट्टी में मिला रही है? हमारे ख़ानदान की औरतें घर से बाहर नहीं निकलतीं!"
यह कहते हुए उसके वालिद ने दुआ पर हाथ उठाने की कोशिश की, लेकिन वहाँ मौजूद लोगों ने उन्हें रोक लिया।
दुआ अपने अब्बू की चीख़-पुकार और भाई की ग़ुस्से से भरी आवाज़ से ज़रा भी नहीं घबराई। वह वहीं खड़ी रही और इमाम साहब की तरफ़ देख कर बोली—
"आज मैं आपसे सिर्फ़ कुछ सवाल करने आई हूँ।"
इमाम साहब अब तक दुआ के अब्बू और भाई की हरकत देखकर मामला काफ़ी हद तक समझ चुके थे। लेकिन वह देखना चाहते थे कि ये नौजवान लड़की उनसे क्या सवाल करना चाहती है।
इमाम साहब बोले—
"बेशक बेटा, सवाल करो। अगर मेरे पास जवाब हुआ, तो ज़रूर दूँगा।"
दुआ ने पहला सवाल किया—
"इस्लाम में औरत का क्या मक़ाम है? क्या आप बता सकते हैं?"
इमाम साहब मुस्कुराए और बोले—
"औरत का मक़ाम बहुत आला है। जब मर्द को जन्नत में पैदा किया गया, तो उसे वहाँ भी सुकून नहीं मिला। फिर अल्लाह ने उसकी पसली से औरत को पैदा किया। औरत का मक़ाम इतना बुलंद रखा कि उसके आने से उस मर्द को जिसे जन्नत की वादियों मे सुक़ून नही मिला use उस औरत के सिर्फ देखने भर se दिल को सुकून मिला। हमारे इस्लाम मे है अगर औरत नाराज़ हो जाये तो use प्यार मोहब्बत se समजाया जाये क्यू की जिस घर की औरत रोती है उस घर se बरकत उठ जाती है।"
दुआ मुस्कुराकर बोली—
"ये बातें हम सब जानते हैं, लेकिन क्या हमें ये हक़ीक़त में दिया जाता है? अल्लाह ने हमें जो हक़ूक़ दिए हैं, वो हमें मिलते भी हैं?"
इमाम साहब बोले—
"इस्लाम ने औरतों को बेपनाह हक़ दिए हैं। हम आदमियों को इबादत के लिए घर से निकल कर मस्जिद तक का सफर तय करना पड़ता है और औरत के लिए जहाँ वो मुसलला बिछा de वो मस्जिद है, जहाँ वो इबादत कर सकती है।"
दुआ ने हल्की मुस्कान के साथ कहा—
"सुभहानअल्लाह..अल्लाह! अल्लाह का करम है कि उसने हमें इतने बड़े मुक़ाम से नवाज़ा। लेकिन अब मेरा दूसरा सवाल—दुनिया की नज़र में औरत का क्या मक़ाम है?"
इमाम साहब मुस्कुराते हुए बोले—
"दुनिया की नज़र में भी वही मक़ाम है जो इस्लाम ने दिया है।"
दुआ ने ना में सर हिलाते हुए कहा—
"नही इमाम साहब नही..इमाम साहब, अगर आपको दुनिया में औरत का असली मक़ाम देखना है, तो आपको एक औरत से ही पूछना पड़ेगा। की उसको इस दुनिया में किस जगह पर रखा हैँ.."
दुआ आगे इमाम साहब से कहती है,
"ख़ैर, ये छोड़ें, आप मेरे अगले सवाल का जवाब दें, क्या इस्लाम में चार शादियाँ आदमी पर फ़र्ज़ कर दी गई हैं कि आदमी चाहे तो चार आदमियों के साथ 4 निकाह करके ख़ुश रह सकता है?"
इमाम साहब दुआ के सवाल का जवाब देते हुए कहते हैं,
"इस्लाम में 4 शादियों की इजाज़त है, लेकिन यह फ़र्ज़ नहीं है। बल्कि, यह एक ख़ास सूरत में दी गई इजाज़त है। कुरआन में सूरह अन-निसा की आयत 3 में कहा गया है,
'अगर तुम्हें लगता है कि तुम यतीम लड़कियों के साथ इंसाफ़ नहीं कर सकते, तो जिन औरतों से तुम्हें पसंद हो, जो तुम्हारे लिए मुनेसिब हों, 2 या 3 या 4 तक निकाह कर सकते हो। लेकिन अगर तुम्हें लगता है कि तुम उनके बीच इंसाफ़ नहीं कर सकते, तो सिर्फ़ 1 ही से निकाह करो। यह तुम्हें ज़रूरत से ज़्यादा झुकाव से बचाने में मदद करेगा।'
"इस आयत से यह वाज़ेह होता है कि 4 शादियों की इजाज़त दी गई है, लेकिन यह केवल उन लोगों के लिए है जो यतीम लड़कियों की परवरिश करने में क़ाबिल हैं और उन्हें इंसाफ़पूर्ण तरीक़े से सुलूक करने की सलाहीयत रखते हैं। इसके अलावा, इस्लाम में निकाह के लिए कुछ शराइत भी हैं, जैसे कि शौहर को अपनी बीवी के साथ इंसाफ़ सुलूक करना चाहिए, उन्हें बराबर हुक़ूक़ देना चाहिए, और उनकी ज़रूरतों का ख़याल रखना चाहिए। इसलिए, 4 शादियों की इजाज़त इस्लाम में दी गई है, लेकिन यह केवल उन लोगों के लिए है जो इसके लिए अहल हैं और जो अपनी बीवियों के साथ इंसाफ़ सुलूक कर सकते हैं।"
दुआ आगे कहती है,
"बेशक, मेरा रब सबके हक़ में बेहतर करम करने वाला है। इमाम साहब, अब मेरा अगला सवाल यह है, क्या इस्लाम में पर्दा सिर्फ़ औरत के लिए है? क्या मर्दों का पर्दे से कोई ताल्लुक़ नहीं?"
दुआ की बात सुनकर इमाम साहब मुस्कुराते हुए कहते हैं,
"बिल्कुल, आपकी बात बिल्कुल सही है। कुरआन में साफ़ तौर पर कहा गया है कि पर्दा सिर्फ़ औरतों के लिए नहीं, बल्कि मर्दों के लिए भी फ़र्ज़ है।"
"कुरआन में सूरह अन-नूर की आयत 30 में कहा गया है,
'मुस्लिम मर्दों से कहो कि वे अपनी निगाहें नीची रखें और अपने जिस्म की हिफ़ाज़त करें। यह उनके लिए अधिक पाकीज़ा है। बेशक, अल्लाह अपने बंदों के अमल से अच्छी तरह वाक़िफ़ है।'
"इस आयत से यह वाज़ेह होता है कि पर्दा सिर्फ़ औरतों के लिए नहीं, बल्कि मर्दों के लिए भी फ़र्ज़ है। मर्दों को भी अपनी निगाहें नीची रखनी चाहिए और अपने जिस्म की हिफ़ाज़त करनी चाहिए।"
दुआ ने पूछा, "अगर कोई व्यक्ति जानबूझकर गुनाह करे और यह सोचकर करे कि बाद में तौबा कर लूंगा, तो क्या उसकी माफी कबूल होगी?"
इमाम साहब जवाब देते हैं:
"इस सवाल का जवाब हमें कुरआन और हदीस दोनों में मिलता है।
कुरआन में सूरह अन-निसा (4:110) में कहा गया है:
"जो कोई बुराई करे या अपने ऊपर जुल्म करे और फिर अल्लाह से माफी मांगे, तो वह अल्लाह को बड़ा माफ करने वाला और रहमत वाला पाएगा।"
लेकिन इसी सूरह की एक और आयत (4:18) में यह भी बताया गया है:
"उनकी तौबा कबूल नहीं होती जो बुरे कर्म करते हैं और जब मौत सामने आ जाती है, तो कहते हैं, अब मैं तौबा करता हूं।"
इसी तरह हदीस में भी मिलता है:
रसूलुल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फरमाया:
"सच्ची तौबा वही है जो गुनाह छोड़ने के पक्के इरादे के साथ हो, न कि जानबूझकर गुनाह करने और बाद में माफी मांगने की सोच के साथ।"
मतलब,
अगर कोई व्यक्ति यह सोचकर गुनाह करता है कि बाद में तौबा कर लूंगा, तो यह अल्लाह की रहमत को हल्के में लेने जैसा है। अल्लाह बेहद रहमदिल है, लेकिन तौबा की शर्त यह है कि वह सच्चे दिल से हो, न कि धोखा देने की नीयत से। अगर गुनाह जानबूझकर किया जाए और तौबा महज़ एक दिखवे और खुद को तसल्ली देने के लिए हो, तो उसकी माफी कबूल नहीं होगी।"
दुआ आगे कहती है,
"आपने मेरे सवालों का वही जवाब दिया जो मैंने ख़ुदा के क़लाम से पढ़ा, जो मैंने क़ुरआन से पढ़ा, जो मैंने शरीयतकी किताबों से पढ़ा। लेकिन ये ज़माना तो मुझे कुछ और ही दिखा रहा है।"
"यहाँ एक ग़रीब बीवी के होते हुए उसे तनहा छोड़ दिया जाता है, उसकी हालात जानते हुए भी उसे मोहताज बना दिया जाता है। आदमी एक मालदार औरत पर निगाह रखता है और फिर दावा करता है कि क़ुरआन ने उसे 4 शादियों की इजाज़त दी है।"
दुआ आगे कहती है, "बल्कि आज के जमाने के मर्द तो इससे भी आगे पहुँच गए हैं, वो शादी किए बगैर औरतों से संबंध रख रहे हैं और सिर्फ इसलिए बीवी की जिम्मेदारी ना पड़े, कई औरतों के साथ ऐयाशी करते हैं और कहते हैं खुदा से बाद मे माफी मांग लेंगे।
"अपने घर की औरतों को पर्दे में रखकर, दूसरों की औरतों पर नजर डालता है। किसी लड़की को बंद लिबास में भी इस तरह देखता है जैसे वो बेलिबास हो।"
फिर दुआ ने गहरी साँस ली, मस्जिद में मौजूद लोगों पर नज़र डाली और बोल पड़ी—
"मेरा सबसे अहम सवाल यह है कि क्या मर्द जात में ही कोई कमी है? या हमारा समाज ही ऐसा है जो मर्द जात की हर गलती को नजरअंदाज करता है?"
"आज इस मस्जिद में जितने लोग हैं, क्या कोई मुझसे यह कह सकता है कि उसने राह चलती किसी लड़की को नजर उठाकर नहीं देखा? कोई 1 भी मेरे सामने आकर अपने दिल पर हाथ रखकर ख़ुदा को गवाह बनाकर यह कह सकता है कि उसने कभी भी किसी लड़की को देखकर हसरत नहीं भरी?"
मस्जिद में सन्नाटा छा गया। जितने लोग वहाँ मौजूद थे, सबके सर झुक गए। कोई कुछ कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाया।
साहब, दुआ की यह बात सुनकर ख़ामोश रह गए...
दूसरी तरह शेख विला में,
अज़ान का room
लखनऊ, दूसरी तरफ—
कमरे में हल्की रोशनी थी। (अम्मी) माँ की आवाज़ फ़ोन से गूंज रही थी— "बेटा, देखो अपनी माँ की तसल्ली के लिए नमाज़ (prayer) अदा कर लेना। जुम्मा (Friday) का दिन है, जुम्मे की नमाज़ बड़ी बरकत (blessing) की नमाज़ होती है। इसे छोड़ना अच्छी बात नहीं है।"
फ़ोन पकड़ने वाले हाथ में हल्की सी बेचैनी थी। उसने गहरी सांस ली और आँखें बंद कर लीं। "मॉम, आप मुझसे ज़बरदस्ती मत किया करें। आप जानती हैं ना, मुझे ये पसंद नहीं। अगर कोई और कहता तो कब का इग्नोर कर देता, लेकिन आप मेरी माँ हैं, इसलिए चुप हूँ।"
अम्मी की आवाज़ में अब भी वही मोहब्बत थी— "बेटा, माँ के लिए इतना तो कर ही सकते हो। तुम्हें यकीन ना हो, लेकिन तुम्हारी माँ को तो यकीन है उस परवरदिगार-ए-आलम (Lord of the Universe) पर।"
उसने झुंझलाते हुए कहा— "ओके ओके, अब ये राग दोबारा मत अलापना। पढ़ लूँगा, बस आप लोग अपना काम करो और मुझे इन सब बातों के लिए फ़ोन मत किया करो।"
कहकर उसने फोन काट दिया और बेड पर फेंक दिया।
कमरा किसी मुस्लिम लड़के के कमरे जैसा नहीं था। वहाँ एक रॉकिंग बैंड सेटअप, गिटार और दूसरे इंस्ट्रूमेंट रखे थे। म्यूजिक उसका जुनून था—लेकिन ये कोई सूफ़ी या कव्वाली नहीं, बल्कि हार्डकोर पॉप और रॉक था। कमरे में एक मिनी बार भी था, जो उसके अम्मी-अब्बू को नहीं पता था। ड्रिंक (alcohol consumption) करने की आदत से सब वाकिफ़ थे, लेकिन ये गुप्त कमरा सिर्फ़ उसी को मालूम था।
वो बेड पर लेट गया। पास रखा हेडफोन (headphones) उठाया और कानों में लगाते हुए बुदबुदाया— "अम्मी का रोज़-रोज़ यही ड्रामा है। दिमाग़ खराब कर दिया है। पता नहीं मैं ही क्यों अच्छा बनने की कोशिश करता हूँ। बाहर जाना था, लेकिन नहीं... अम्मी को तभी हार्ट अटैक (heart attack) आना था जब मेरा बाहर जाने का प्लान था। कब तक ये सब बर्दाश्त करना पड़ेगा?"
गाने चलाए और धीरे-धीरे सबकुछ भूलने लगा। कुछ ही देर में गहरी नींद आ गई। लेकिन नींद में भी सुकून नहीं था—वो ख़्वाब (dream) देखने लगा।
ख़्वाब में वो अकेला था... एक अंधेरे, वीरान जगह पर। हर तरफ़ ख़ामोशी (silence) थी। और फिर... कुछ ऐसा हुआ जो हक़ीक़त से ज़्यादा डरावना था।
ख़्वाब (dream) का अजीब मंज़र—
अज़ान ख़्वाब में देखता है कि वो चारों तरफ़ वहशी दरिंदों (wild beasts), अजीब-ओ-गरीब कीड़े-मकोड़ों (creepy insects) और भयानक मख़लूक़ात (creatures) से घिरा हुआ है। हर तरफ़ हैवानियत (brutality) का आलम है, मानो उसने जहन्नुम (hell) का कोई गड्ढा देख लिया हो।
वो बेतहाशा (desperately) डर जाता है, इधर-उधर हाथ-पैर मारता है, लेकिन उसकी मदद के लिए कोई नहीं आता। हैवान (monsters) उसे नोच रहे हैं, कीड़े (insects) उसे काट रहे हैं, और वो इस दर्द और खौफ़ (fear) से बुरी तरह झटपटाने (trembling) लगता है।
तभी अचानक...
एक पाक नूर (divine light) की सफ़ेद रोशनी उसके सामने नज़र आती है। वो रोशनी ऐसी थी जैसे अंधेरे में सूरज निकल आए। इस रोशनी के बीच से एक ख़ातून (lady) सफेद लिबास (white attire) में नज़र आती है। उसकी चाल में सुकून था, चेहरे पर नूर (radiance) था। वो मुस्कुराते हुए अज़ान के पास आती है और उसका हाथ थाम लेती है।
बिना कुछ कहे...
बस उसे वहाँ से बाहर निकाल लाती है। अज़ान के अंदर जितना भी खौफ़ था, सब मिट गया। वो ख़ातून की ख़ूबसूरती देखता ही रह जाता है। उसकी जैसी हुस्न (beauty) वाली औरत उसने कभी नहीं देखी थी। वो उसके सहर (charm) में खो जाता है।
वो लड़की उसका हाथ पकड़कर उसे एक ख़ूबसूरत वादी (beautiful valley) में ले आती है। ये जगह किसी जन्नत (paradise) से कम नहीं थी। वहाँ एक नहर (stream) बह रही थी, और वो ख़ातून उसके साथ किनारे पर बैठ जाती है।
अज़ान बस उसे देखता रहता है। उसकी आँखें उस ख़ातून से एक पल के लिए भी नहीं हटतीं। वो इंतज़ार करता है कि शायद वो कुछ बोलेगी। अज़ान भी कुछ कहने के लिए लब खोलता (tries to speak) है, लेकिन उसकी जबान ही नहीं खुलती।
और फिर...
वो ख़ातून हल्की मुस्कुराती है... और धीरे-धीरे हवा में तब्दील (vanishes into air) होकर गायब हो जाती है।
अज़ान हैरान रह जाता है।
"ये कौन थी? जो मुझे उस वहशत (horror) से निकालकर यहाँ इस जन्नत जैसी जगह छोड़ गई?"
जैसे ही वो ख़ातून गायब होती है, अज़ान का ख़्वाब टूट जाता है। वो हड़बड़ाकर (startled) उठकर बैठ जाता है। उसके माथे (forehead) पर अब भी पसीने की बूंदें (drops of sweat) जमी थीं।
उसका दिल तेज़ी से धड़क (heart pounding) रहा था, और वो अभी भी उस ख़्वाब के असर में था...
जैसे ही वो नींद से बेदार (जगता) होता है, उसे वो ख्वाब याद आने लगता है। नींद से उठने के बाद भी उस लड़की के चेहरे को वो भूल नहीं पाया था, उस खौफनाक मंजर को भी वो नहीं भूल पा रहा था, और ना ही उन वादियों की खूबसूरती को वो भूल पाया था। वो ये सब सोच ही रहा था तभी उसके उसे अपने दादा जानी की एक बात याद आती है, "जन्नत वो खूबसूरत जगह है जहाँ इंसान को बेतहाशा सुकून मिलता है, जन्नत से खूबसूरत जगह ना तो इस दुनिया में है ना कहीं और। जन्नत की खूबसूरती का एक हिस्सा भी अगर दुनिया में आ जाए तो ये दुनिया खूबसूरती से मालामाल हो जाए।"
वहीं वो आगे कहते हैं, "और जहन्नुम, जहन्नुम वो जगह है जहाँ की हैवानियत, जहाँ की बुराई, जहाँ की बदबू, जहाँ की आग, जहाँ की सजा, जहाँ की यातना, जहाँ की हर एक चीज़ इंसान को उसके गुनाहों की सजा दिलाने के लिए बनाई गई है।"
अज़ान को अपने दादा जान की बातें याद आती हैं...
लेकिन फिर अपनी ही सोच पर वो सर झटक कर कहता है, "ये सब बातें मेरे दिमाग में इसलिए बैठी हुई है क्योंकि दादा जानी हर वक्त मुझे बस यही बातें बताते रहते हैं - जन्नत, जहन्नुम, ये सब कुछ नहीं होता।"
फिर कुछ सोच कर ऊपर की तरफ देखता है और कहता है, "चलो ठीक है, अगर ये जो लड़की मैंने ख्वाब में देखी है, ये इस दुनिया में मिली और अगर ये मेरी जिंदगी में शामिल हो गई तो मैं इस जन्नत, जहन्नम, फरिश्ते, जिन इन सब पर भी यकीन कर लूंगा, और हो सकता है मुझे खुदा भी पे यकीन आ जाए।"
फिर अपना दिमाग झटक कर हस कर कहता है, "तू भी अज़ान कैसी बाते कर रहा है? ख्वाब कब से सच होने लगे?"
ये बात पर खुद का सर झटक कर बाथरूम की तरफ हस्ता हुआ चला जाता है, अपनी किस्मत से अंजान कि ये ख्वाब उसकी जिंदगी में एक तूफान लाकर उसको शांत करने वाला था।
दुआ इमाम साहब के सामने खड़ी थी, उसकी आवाज़ में सदियों से चली आ रही रूढ़ियों के खिलाफ बगावत थी। उसने गहरी सांस ली और कहना शुरू किया,
"हमारे समाज की सबसे बड़ी बदनसीबी (दुर्भाग्य) यही है कि मर्द की गलतियों को उसका हक़ (अधिकार) बना दिया जाता है। मर्द गाली दे सकता है, क्योंकि वो मर्द है। मर्द हाथ उठा सकता है, क्योंकि वो मर्द है। मर्द दूसरा निकाह (विवाह) कर सकता है, मर्द किसी औरत से मोहब्बत (प्रेम) कर सकता है, मर्द अपनी बीवी (पत्नी) को छोड़कर किसी और से शादी कर सकता है। मर्द अगर अपनी औलाद (बच्चे) पर ज़ुल्म (अत्याचार) करे, तो भी लोग उसे माफ़ कर देते हैं, लेकिन औरत... औरत अगर एक लकीर भी लांघ जाए, तो सारा समाज उसके खिलाफ खड़ा हो जाता है।"
उसकी आवाज़ में तल्खी (कड़वाहट) थी, और उसकी आँखों में वो सारे सवाल थे, जिनका जवाब कोई नहीं देना चाहता था।
"औरत शादी से पहले बाप की इज़्ज़त (सम्मान) होती है। उसके हर फैसले पर बाप का हक़ होता है। वो वही करेगी जो उसके माँ-बाप चाहेंगे, चाहे वो फैसला उसके हक़ (अधिकार) में हो या उसके खिलाफ। यह सच है कि कोई माँ-बाप अपनी बेटी के लिए बुरा नहीं सोचते, लेकिन क्या हर बार उनकी सोच सही होती है? अगर बेटी पर शक करना, उसे घर की चारदीवारी में क़ैद (कैद) कर देना, उसे उसकी पसंद से महरूम (वंचित) कर देना—अगर ये सब सही है, तो गलत क्या है?"
दुआ के चेहरे पर अब दर्द साफ झलक रहा था, उसकी आँखें आँसुओं से भीग चुकी थीं, लेकिन उसके लफ्ज़ (शब्द) अब भी तलवार की तरह तेज़ थे।
"जब औरत शादीशुदा (विवाहित) होती है, तो उसके लिए ज़िंदगी और मुश्किल हो जाती है। अगर उसका शौहर (पति) अच्छा हुआ, तो वो उसके नसीब (भाग्य) की बात मानी जाती है। लेकिन अगर वो बुरा निकला—अगर वो उसे सताए, गालियाँ दे, मारपीट करे, उसके हक़ छीन ले—तो भी लोग कहते हैं, 'सब्र (धैर्य) करो, यही तुम्हारी तक़दीर (किस्मत) है।' अगर मर्द बिगड़ा हुआ है, तो उसकी हर गलती को माफ कर दिया जाता है, लेकिन औरत अगर एक बार भी आवाज़ उठाए, तो उसे बागी (विद्रोही) कह दिया जाता है।"
अब दुआ की आवाज़ काँपने लगी थी, लेकिन उसके लफ्ज़ अब भी मजबूत थे।
"और जब औरत माँ बनती है, तो हालात (परिस्थितियाँ) और बदल जाते हैं। माँ एक मुक़द्दस (पवित्र) रिश्ता है, लेकिन आज की औलाद (संतान) ने इस रिश्ते की अहमियत (महत्त्व) खत्म कर दी है। माँ, जिसने औलाद को नौ महीने अपनी कोख में रखा, जिसने हर दर्द सहा, जिसने हर मुश्किल में अपने बच्चों को अपने सीने से लगाया, वही माँ आज बेबस खड़ी होती है। औलाद बड़ी हो जाती है, माँ की कुर्बानियाँ (बलिदान) भूल जाती है, उसे बोझ समझने लगती है। क्या यही है माँ का मुक़ाम (स्थान)?"
इतना कहकर दुआ की आवाज़ टूट गई। आँसू उसके गालों पर बहने लगे, और वहाँ मौजूद हर आदमी शर्म से सिर झुकाए खड़ा था। लेकिन एक शख्स था, जो दुआ की बातों को बड़े गौर से सुन रहा था। उसकी आँखों में कुछ था—शायद जवाब, शायद सवाल, या शायद एक नया इरादा...
इमाम साहब ने दुआ की बात गौर से सुनी, उनकी आँखों में ग़म (दुःख) और तजुर्बे (अनुभव) की गहराई थी। उन्होंने नर्मी से कहा,
"बेटी, तुम्हारी बात बिल्कुल सही है। लेकिन ये क़ानून (नियम) किसी एक इंसान के बनाने से नहीं बने। इसमें पूरा मुआशरा (समाज) ज़िम्मेदार है। ये तमाम ग़लत रस्में (परंपराएँ) और रवायतें (रीतियाँ) जो औरतों पर ज़ुल्म (अत्याचार) करती हैं, ये सब हमारी खुद की बुनियाद (नींव) रखी हुई चीज़ें हैं।"
दुआ ने गहरी सांस ली और कहा,
"बस यही सोचकर हम हर ग़लत रवायत (परंपरा) को अपनाते चले जाते हैं कि 'एक हमारे बदलने से क्या होगा?' लेकिन अगर हम अपने घर से शुरुआत करें, तो जाहिर सी बात है कि ये मुआशरा (समाज) खुद-ब-खुद बदल जाएगा। हर इंसान अगर अपने घर में इन नाइंसाफ़ियों (अन्यायों) को खत्म करने की ठान ले, तो यह ज़ालिम (निर्दयी) रवायतें ख़त्म हो सकती हैं।"
इमाम साहब ने गहरी सोच में डूबकर कहा,
"ख़ुदा गवाह है, बेटी! मैंने तुम्हारी बातें दिल से सुनी हैं और दिल से ही इन पर गौर (ध्यान) भी करूँगा। यह मेरा तुमसे वादा है कि मैं इन मुद्दों पर अमल (कार्रवाई) भी करूँगा।"
दुआ ने इमाम साहब की आँखों में झाँका, जैसे देखना चाहती हो कि वो वाक़ई (वास्तव में) उसे समझ रहे हैं या नहीं। फिर उसने अपना असल मक़सद (उद्देश्य) सामने रखा,
"मुझे अपनी माँ के हक़ (अधिकार) मे आसानी चाहिए।"
इमाम साहब, जो पहले ही इस मामले की संजीदगी (गंभीरता) को महसूस कर रहे थे, आगे बढ़कर बोले,
"बेटा, बताओ! तुम्हारी अम्मी (माँ) के साथ क्या नाइंसाफ़ी (अन्याय) हुई है? हम उन्हें इंसाफ़ दिलाने की पूरी कोशिश करेंगे।"
दुआ ने ठहरकर कहा,
"मैं अपनी माँ के लिए इंसाफ़ नहीं, बल्कि उनकी रिहाई (मुक्ति) माँगने आई हूँ। उनके हक़ (अधिकार) का फ़ैसला मेरा परवरदिगार-ए-आलम (संपूर्ण ब्रह्मांड का पालनहार) करेगा। मुझे बस इस मुआशरे (समाज) से इतना चाहिए कि मेरी माँ को आज़ाद कर दिया जाए। मेरे अब्बू (पिता) से कहिए कि वो मेरी अम्मी को तलाक़ (विवाह विच्छेद) दे दें, ताकि जब मेरी माँ अपने रब (ईश्वर) के घर जाए, तो वो किसी मर्द की सरपरस्ती (संरक्षण) में ना हो, बल्कि खुदा की सच्ची बंदी (भक्त) बनकर जाए।"
दुआ की आवाज़ में वो दर्द था, जिसे कोई महसूस किए बिना नहीं रह सकता था। उसकी अम्मी, जो एक कोने में व्हील चेयर पर से यह सब सुन रही थीं, उनकी आँखों से आँसू बह निकले। उनके दिल से बस एक ही दुआ निकली,
"या खुदा! तू सबसे बेहतरीन फ़ैसला करने वाला है, तू हर चीज़ को बेहतर करने वाला है। तू मेरी बेटी के हक़ में सबसे अच्छा फ़ैसला कर। मेरी बेटी नादान है लेकिन तेरी सच्ची बंदी है मेरे मौला मैंने अपना फैसला पहले भी तेरे ऊपर छोड़ा था अभी भी तेरे ऊपर ही छोड़ रही मैं तो इतनी मजबूर हो गई हूं परवरदिगार कि मैं अपने लब से कुछ कह भी नहीं सकती मैं जानती हूं मेरे मौला मेरा आखिरी वक्त करीब है और किसी भी वक्त मैं इस दुनिया ए फ़ानी ( खत्म होने wali )को अलविदा कहने वाली लेकिन मरने से पहले मैंने अपने शौहर को माफ कर दिया मेरे मौला, मुझे उनसे कोई शिकायत नहीं क्योंकि उन्होंने मेरे हाथ में कितना भी गलत क्यों ना किया हो लेकिन उनके बदौलत मुझे दुआ जैसी तेरी एक पाकीज़ह बंदी मिली,,,, मैं जानती हूं मेरी बेटी इस दुनिया में तेरे किसी काम को अंजाम देने आई है बस मेरे बाद मेरी बेटी को अपने हिफाजत में रखना और अपने हर इम्तिहान में उसे हिम्मत ओ सब्र देना.. "
इधर दुआ की अम्मी जिनको अपनी मौत का पूरा अंदाजा हो गया था वह खुदा से अपनी बेटी की हक में दुआओं में लगी थी..
दूसरी तरफ दुआ का आप दुआ की बातों को सुनकर आग बबूला हो गया था...
वह तुरंत उन आदमियों को धक्का देता है जो उसे पड़े थे और दुआ के सामने खड़े होकर एक थप्पड़ उसके गाल पर रख देता है दुआ लड़खड़ाई जरूर लेकिन वह अपनी जगह से टस से मस नहीं हुई..
दुआ के अब्बू दुआ से -“ तू क्या समझती है तेरी मां में हीरे मोती लगे हैं जो मैं उसे अपने साथ रखना चाहता हूं वह तो मेरे बाबा जान इस मेरे पल्ले बांध दिया वरना ऐसी औरत को तो मैं कभी अपने आसपास भी na भटकने देता..
अभी तक मुझे लगता था कि तेरी मां कर ही क्या रही है जो मैं उसे छोड़ो लेकिन उसने तो मेरे लिए एक जीती जागती बगावत खड़ी कर दी और अब क्या लगता है तुझे तू अगर मुझसे नहीं भी कहती तब भी मैं तेरी मां को आप अपने घर नहीं ले जाने वाला था मैं अभी इसी वक्त तेरी मां को तलाक देता हूं तलाक देता हूं तलाक देता हूं...
दुआ ने जैसे ही यह बात सुनी उसने तुरंत काबे की तरफ मुंह करके वही भर सड़क पर शुक्र ke नफ़िल( ऐसी नमाज जिसमें खुद का शुक्र अदा किया जाता है)अदा करना शुरू कर दिए..
पूरा मजमा( भीड़) दुआ की इस हरकत पर हैरान था..
खुद दुआ का आप ही दुआ की हरकत पर हैरान था दुआ सलाम फेर कर अपनी मां के पास जाती है और घुटनों के बल बैठकर -“अम्मी जान आप आजाद हो गई..” अपनी बात कह के दुआ ने जैसे ही अपनी मां के हाथों को पकड़ा तो उसे उसके हाथ जो की चादर में छुपे हुए थे वह ठंडे होते नजर आए....
गहरी काली चादर (परदा) में लिपटी दुआ ने जैसे ही अपनी माँ की सर्द (ठंडी) हथेलियाँ महसूस कीं, उसके दिल में एक अजीब सा एहसास जागा। काँपते हुए हाथों से उसने नक़ाब को ज़रा सा हटाया और माँ के गाल पर हल्का सा स्पर्श किया। फिर अपनी थरथराती हथेलियों को माँ की नाक के पास लाकर जाँचने लगी। एक पल… दो पल… और फिर उसकी जुबान से बस एक लफ्ज़ निकला— "इन्ना लिल्लाहि व इन्ना इलैहि राजिऊन" (हम अल्लाह के हैं और उसी की तरफ लौटकर जाना है)।
चारों तरफ खड़े लोगों की नज़रें अब दुआ पर थीं। उसकी आँखों में आँसू की नमी थी, लेकिन चिल्लाने, रोने, या बेकाबू होने की कोई गुंजाइश नहीं थी। उसने अपने गीले लब (होंठ) धीरे से खोले और एक आयत (कुरान की पवित्र पंक्ति) पढ़ी। जैसे ही वो पाक लफ्ज़ उसकी ज़ुबान से निकले, वहाँ मौजूद हर इंसान के जिस्म में सिहरन दौड़ गई।
मगर इसके बाद जो हुआ, वो वहाँ खड़े हर इंसान को हैरत (आश्चर्य) में डाल गया। दुआ अपनी माँ को वैसे ही छोड़कर, वापस सजदे (इबादत की मुद्रा) में झुक गई।
अब वहाँ खड़े लोग और भी ज़्यादा हैरतज़दा (चौंक गए) थे। पहले तो समझ में आया कि माँ की रिहाई की खबर सुनकर उसने शुक्राने (आभार) की नमाज़ पढ़ी, लेकिन अब… जब उसकी माँ दुनिया से रुख़्सत (चली गई) हो गई, तब भी वो शुक्र अदा कर रही थी! ये कौन सा सब्र था? ये कौन सा तस्लीम (समर्पण) था?
नमाज़ मुकम्मल (पूरा) करने के बाद, दुआ ने अपने दोनों हाथ फ़लक (आसमान) की तरफ उठाए। उसकी आवाज़ बुलंद थी, लेकिन उसमें दर्द की एक ऐसी लहर थी जो वहाँ खड़े हर इंसान के दिल तक जा पहुँची।
"ऐ मेरे मौला (भगवान), तू बड़ा रहीम (दयालु) है, तू बड़ा करीम (उदार) है। जो करता है, बेहतर करता है। मेरी माँ की तकलीफ मुझसे नहीं देखी जाती थी और तुझसे भी नहीं देखी गई। तूने उसे दुनिया के हर दर्द से निजात (मुक्ति) दे दी। तूने उसे उन नापाक रिश्तों और बेजा (अन्यायपूर्ण) दर्द से आज़ाद कर दिया। बस मेरी एक इल्तिज़ा (प्रार्थना) है, मेरे मौला, उसकी मौत के बाद उसे आसानी देना। उसने इस दुनिया में बहुत तकलीफें सही हैं। मेरे मौला, उसे मरने के बाद कोई तकलीफ न देना... न देना!"
ये कहते हुए दुआ की आँखों से आँसू जारी हो गए। मगर उसकी सिसकियों में भी एक अजीब सुकून (शांति) था। वहाँ खड़ा हर इंसान ग़मगीन (दुखी) था। किसी की आँखें नम थीं, तो किसी के चेहरे पर अफ़सोस (पछतावा) था।
आज तक उन्होंने सब्र (धैर्य) की कहानियाँ सुनी थीं। किताबों में, तक़रीरों (भाषणों) में, इमामों (धार्मिक उपदेशकों) के मुँह से। मगर आज… उन्होंने अपनी आँखों के सामने एक साबिरा (धैर्यवान) बेटी को देखा था। एक ऐसी बेटी, जिसने तकलीफ के समंदर में डूबकर भी सब्र के साहिल (किनारे) को नहीं छोड़ा था।
वहाँ खड़ा हर इंसान रो रहा था… मगर दुआ बस अपने अल्लाह से दुआ कर रही थी।
इमाम साहब ने जब दुआ के सब्र और फ़िक्र (चिंता) को देखा, तो उनकी आँखें भीग गईं। उन्होंने धीमे क़दमों से आगे बढ़ते हुए दुआ के सिर पर हाथ रखने का इशारा किया और नम लहजे (आवाज़) में बोले,
"बेटा, आपकी माँ जन्नती (स्वर्ग में जाने वाली) हैं। जिस औरत की इतनी नेक (उत्तम) और फ़िक्रमंद (चिंताशील) औलाद हो, वो कैसे अपने गुनाहों की फ़िक्रमंद होगी? आपकी माँ जन्नती हैं, बेटा। अब अगर आपकी इजाज़त हो, तो उनकी तदफ़ीन (दफनाने की तैयारी) की इजाज़त दें।"
दुआ की बुझी हुई आँखें इमाम साहब की तरफ उठीं। उसने एक गहरी साँस ली और फिर उस साँस को अपने लहजे में समेटते हुए कहा,
"आप सिर्फ़ एक ऐलान (घोषणा) करवा दें कि मेरी फ़ूफी जुलेखा को बुला दें। मेरा वालिद (पिता) जिस घर का मालिक है, वो अब मेरी माँ का घर नहीं रहा। मैं नहीं चाहती कि मेरी माँ का जनाज़ा (मृत शरीर) उस घर से निकले। मैं चाहती हूँ कि उनका आख़िरी सफ़र मेरी फ़ूफी के घर से हो। वहीं से मेरी माँ को उनकी आख़िरी रुख़सती (विदाई) दी जाएगी।"
इमाम साहब ने दुआ की आँखों में वो यक़ीन (विश्वास) देखा जो शायद किसी मज़लूम (अत्याचार सहने वाले) की आँखों में ही हो सकता था। उन्होंने सिर झुकाकर हामी (सहमति) भरी और कुछ ही देर में मस्जिद में ऐलान हो गया।
कुछ ही मिनटों बाद, मस्जिद के दरवाज़े पर एक औरत बेसाख़्ता (बेख़बर) रोती-बिलखती हुई पहुँची। ये बीबी जुलेखा थीं— दुआ की फ़ूफी। जैसे ही उनकी निगाह व्हीलचेयर पर बैठी अपनी बहन पर पड़ी, उनके होंठों से एक हौलनाक (भयावह) सिसकी निकली।
"बाजी!!"
उन्होंने आगे बढ़कर बहन को छूने के लिए हाथ बढ़ाया, लेकिन इससे पहले ही दुआ ने उन्हें रोक दिया। उसने अपना काँपता हुआ हाथ उठाया और हल्के से सिर ना में हिलाते हुए बोली,
"नहीं, फ़ूफी... रोइए मत। आज मेरी माँ के लिए रोने का दिन नहीं है। आज मेरी माँ के हक़ में दुआ करने का दिन है। रोकर उनकी मुसीबत में इज़ाफ़ा (बढ़ोतरी) मत कीजिए। बस उनके बख़्शीश (मुक्ति) के लिए हाथ उठाइए।"
बीबी जुलेखा की आँखों से आँसू बह रहे थे, लेकिन उनकी आवाज़ जैसे ग़ुम (खो) हो गई थी। उन्होंने अपनी भतीजी को सीने से लगा लिया और बस खामोश रोती रहीं।
जैसा कि दुआ ने कहा था, उसकी अम्मी को व्हीलचेयर पर ही सँभालकर बीबी जुलेखा के घर ले जाया गया। वहाँ उनका कफन-दफ़न (दफनाने की प्रक्रिया) की तैयारी की जाने लगी। घर के एक कोने में बैठी दुआ सब कुछ देख रही थी। उसके चेहरे पर सब्र की एक अजीब सी शम'अ (रोशनी) थी, मगर दिल का तूफ़ान उसकी आँखों में नज़र आ रहा था।
तभी उसने अपने कानों की बालियाँ उतारीं, उन्हें अपनी हथेली में रखा और धीरे से अपनी फ़ूफी की तरफ़ बढ़ाया।
"फ़ूफी, मैं नहीं चाहती कि मेरी माँ किसी के सदक़े-ख़ैरात (दान-दक्षिणा) का कफ़न पहने। इसे बेच दीजिए और मेरी माँ के कफ़न-दफ़न का इंतज़ाम कीजिए।"
बीबी जुलेखा ने हैरत से अपनी भतीजी को देखा। यह एक सोलह साल की बच्ची थी, लेकिन उसकी हिम्मत और सब्र किसी क़ामिल (उत्तम) इंसान से कम नहीं था। उन्होंने दुआ की हथेलियों को थामा और काँपते हुए लहजे में बोलीं,
"बेटी, माँ-बाप के लिए इतना इख़लास (निष्ठा) बहुत कम औलाद में होता है। तू वाक़ई बहुत बड़ी बनी हुई है, मेरी बच्ची।"
दुआ ने हल्की सी मुस्कान दी, मगर वो मुस्कान दर्द में डूबी हुई थी— ऐसी मुस्कान जो सब्र और इब्तिलाआत (परीक्षाओं) की लकीरों में उलझी हुई थी।
मस्जिद से लेकर बीबी जुलेखा के घर तक, एक शख़्स था जिसकी नज़र हर लम्हा पर्दे में मौजूद दुआ पर थी। उसके हर लफ्ज़ (शब्द) से, उसके हर अमल (कर्म) से, उसके सब्र (धैर्य) से और सबसे बढ़कर उसके अल्लाह पर यक़ीन (विश्वास) से वो शख़्स मुतास्सिर (प्रभावित) हो रहा था।
ये कोई और नहीं बल्कि Sheikh साहब थे। जो नामवर (प्रसिद्ध) शख़्सियत, जिनका रसूख़ (प्रतिष्ठा) पूरे लखनऊ शहर में था। मगर आज, इस छोटी-सी लड़क़ी का बड़ा सब्र उनके दिल पर एक गहरी छाप छोड़ रहा था।
Sheikh साहब को बरेली की उस बड़ी शख़्सियत की बात याद आई, जिसने कहा था,
"दिन के नमाज़ के बाद मस्जिद से तुम्हें तुम्हारे पोते के मर्ज़ (बीमारी) का इलाज मिल जाएगा।"
वो तब इस बात को महज़ एक इत्तेफाक़ (संयोग) समझकर नज़रअंदाज़ कर चुके थे, मगर अब... अब उन्हें लग रहा था कि उनका इलाज उन्हें मिल चुका है। और वो इलाज कोई और नहीं बल्कि दुआ थी।
उनका पोता— एक ऐसा लड़का, जिसने खुदा को मानना छोड़ दिया था। जिसकी बदयक़ीनी (अविश्वास) समुंदर जितनी गहरी थी। और अब उन्हें लग रहा था कि इस गुमराह (रास्ता भटके हुए) समुंदर में एक दरख़्त (पेड़) लगाने का वक़्त आ गया था।
"दुआ..." उन्होंने दिल ही दिल में इस नाम को दोहराया।
अब जो भी हो, वो इस लड़की को अपने पोते की ज़िंदगी में शामिल करके ही रहेंगे। क्योंकि अगर इस बदयक़ीनी के समुंदर में कोई दरख़्त उग सकता था, तो वो सिर्फ़ और सिर्फ़ दुआ थी।
लेकिन ये काम आसान नहीं था।
ये बिल्कुल ऐसा था जैसे रोज़ रोशन होने वाले सूरज को किसी ऐसे अंधेरे की दुनिया में लेकर जाना, जहाँ रोशनी से नफ़रत की जाती हो।
मगर Sheikh साहब ने फैसला कर लिया था। अब जो भी हो जाए, वो दुआ को अपने पोते तक ले जाकर रहेंगे। क्योंकि अगर कोई उसके गुमराह दिल में अल्लाह की रोशनी जगा सकता था, तो वो सिर्फ़ दुआ थी।
दुआ की अम्मी के आख़िरी सफ़र की तैयारियाँ मुकम्मल (पूरी) हो चुकी थीं। कफ़न ओढ़ाकर उनका जनाज़ा तैयार किया गया, मस्जिद में नमाज़-ए-जनाज़ा (अंतिम संस्कार की विशेष प्रार्थना) की तैयारी हो रही थी। मगर इस दौरान दुआ के लबों (होंठों) से एक लम्हे के लिए भी ज़िक्र-ए-इलाही (ईश्वर की याद) और तिलावत-ए-कुरआन (कुरआन का पाठ) बंद नहीं हुआ।
उसके आँसू बेशक बह रहे थे, मगर उसकी ज़ुबान से सिर्फ अल्लाह का कलाम निकल रहा था। माशा अल्लाह, वो हाफ़िज़-ए-कुरआन (जिसे पूरा कुरआन याद हो) थी। कुरआन की हर आयत और उसका मतलब उसे ज़ुबानी याद था, और वो हर आयत अपनी माँ के हक़ (हित) में पढ़ रही थी।
जब उसकी अम्मी का जनाज़ा उठाने की तैयारी होने लगी, दुआ एक आख़िरी बार अपनी माँ के करीब आई। वो धीरे से झुकी, अपनी अम्मी के चेहरे को देखा— चेहरे पर नूर (चमक) था, जैसे तकलीफों से आज़ाद होकर सुकून पा चुकी हों।
दुआ की उंगलियाँ हल्के से कफ़न के किनारे को छू रही थीं, उसकी साँसें भारी हो चुकी थीं, मगर फिर भी उसकी ज़ुबान से सिर्फ सुकून भरे अल्फ़ाज़ (शब्द) निकले,
"अम्मी, मैं आपकी बेटी होने का हक़ अदा नहीं कर पाई, मैं आपकी मुश्किलें आसान नहीं कर पाई, मैं एक नेक (उत्तम) बेटी ना बन पाई। माँ, मुझे माफ़ कर देना, और अगर हो सके तो अब्बू और फैज़ भाई को भी माफ़ कर देना... वो दोनों नादान (मूर्ख) हैं, अम्मी, उनको माफ़ कर देना। अल्लाह के घर उनका दामन पकड़ना (उनके लिए दुआ करना), मगर उनके गुनाहों का हिसाब मत मांगना।"
दुआ की इस बात ने वहाँ मौजूद हर शख़्स की आँखें नम कर दीं। वहाँ जितने भी लोग खड़े थे, हर कोई रो रहा था। आज तक उन्होंने सिर्फ़ सब्र की कहानियाँ सुनी थीं, मगर आज उन्होंने सब्र को इंसानी शक्ल में देख लिया था— और वो शक्ल थी एक सोलह साल की लड़की की।
हर कोई ये सोच रहा था कि दुआ जैसा फ़र्ज़अंद (संतान) मिलना नसीब (किस्मत) वालों की बात होती है। मगर अफ़सोस, दुआ के वालिद (पिता) और सौतेले भाई को ये नसीब नहीं मिला।
ना ही उसका बाप जनाज़े में शामिल हुआ और ना ही उसके भाई ने अपनी माँ की आख़िरी रस्मों में कोई हिस्सा लिया।
जिनके लिए उन्होंने अपनी ज़िन्दगी लगा दी, वो ही आज उन्हें ऐसा भुला चुके थे जैसे उनका कोई वजूद (अस्तित्व) ही ना रहा हो।
मगर दुआ...
दुआ अकेले अपनी माँ की वो सारी ज़िम्मेदारियाँ निभा रही थी, जो आमतौर पर बेटे निभाते हैं।
जब जनाज़ा दरवाज़े से बाहर निकाला जाने लगा, दुआ ने खुद को संभाला और आगे बढ़कर मजमे (भीड़) में खड़े लोगों की तरफ देखा। उसकी आँखें आँसुओं से लबालब (भरी हुई) थीं, मगर उसकी आवाज़ में एक रौब (गंभीरता) था।
"ख़बरदार! मेरी माँ ने पूरी ज़िन्दगी अपने पर्दे का लिहाज़ (सम्मान) किया है, कोई भी ग़ैर मर्द (अजनबी आदमी) उनके जनाज़े को हाथ ना लगाए।"
उसकी बात सुनते ही हर किसी ने सिर झुका लिया। किसी में इतनी हिम्मत नहीं थी कि उसकी बात को टाल सके।
तभी मजमे में एक शख़्स आगे बढ़े।
अब्दुल्लाह खान साहब( दुआ ke दादा)
उनकी आँखें लाल थीं, चेहरे पर अफ़सोस और पश्चाताप (पछतावा) की गहरी लकीरें थीं।
उन्होंने दुआ के पास आकर उसके सर पर हाथ रखा। उनकी आवाज़ काँप रही थी, मगर उनकी रूह (आत्मा) तक हिल चुकी थी।
"बेटा... मैं बस अभी-अभी आया हूँ और मुझे ये सब ख़बर मिली। पहले तो मैं तुमसे और तुम्हारी अम्मी से माफ़ी चाहता हूँ।"
उन्होंने लब भींच लिए, उनकी आँखों में आँसू थे, और उनका दिल किसी बोझ से दबा हुआ था।
"मैं बहुत बड़ी गलती कर चुका हूँ, बेटा... बहुत बड़ी... मैं अब इसे सुधारना चाहता हूँ, मगर अफ़सोस नहीं कर skta...अब मैं सिर्फ़ तुम्हारे सब्र को देख सकता हूँ और खुदा से ये दुआ कर सकता हूँ कि वो तुम्हारी माँ को जन्नतुल फिरदौस (स्वर्ग) अता करे।"
दुआ ने उनकी तरफ देखा। उसकी आँखों में नफरत नहीं थी, ग़ुस्सा नहीं था... सिर्फ़ वही सुकून था, जो किसी सच्चे ईमान वाले के दिल में होता है।
वो चुपचाप मुड़ी, जनाज़े के साथ आगे बढ़ी।
Sheikh साहब वहीं खड़े रह गए, जैसे किसी गहरी सोच में डूब गए हों।
आज उन्होंने सब्र की सच्ची तस्वीर देखी थी।
आज उन्होंने अल्लाह पर यकीन की ताक़त को महसूस किया था।
आज उन्होंने जान लिया था कि अगर किसी के ईमान (धर्म में विश्वास) से किसी की दुनिया बदल सकती है, तो वो दुआ ही थी।
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दुआ आख़िरी बार अपनी माँ के जनाज़े के क़रीब आई। उसकी आँखें नम थीं, लेकिन आवाज़ में एक अजीब ठहराव था। उसने अपने दादा जान की तरफ़ देखे बिना कहा,
"दादा जान, अम्मी जान को आपसे कभी कोई शिकायत नहीं थी। आपने उनके हक़ में जो बेहतर समझा, वही किया, लेकिन शायद उनके नसीब (भाग्य) में यह सुकून नहीं था। अल्लाह को उनकी ऐश-ओ-आराम (संपन्नता) से ज़्यादा उनका सब्र (धैर्य) पसंद आया, इसलिए उनकी ज़िन्दगी आज़माइश (परीक्षा) में गुज़री। जब मेरी माँ ने आपसे कभी कोई शिकवा (शिकायत) नहीं किया, तो भला मैं कौन होती हूँ?
बस एक इल्तिजा (विनती) है – मेरी माँ के पर्दे (सतीत्व) का लिहाज़ रखा जाए। कोशिश कीजिए कि उनके जनाज़े को कोई ग़ैर (पराया) कंधा न दे और उन्हें क़ब्र में कोई ग़ैर ना उतारे।"
दुआ के दादा जान ने एक गहरी सांस ली और आगे बढ़कर उसके सर पर हाथ रखा। उनकी बूढ़ी आँखों में नमी थी।
"बेटा, बेफिक्र रहो," उन्होंने धीमे मगर मज़बूत लहजे में कहा। "तुम्हारी माँ के भाइयों को मैं ख़ुद लेकर आया हूँ। तुम्हारी माँ को कंधा देने वाले कोई ग़ैर नहीं होंगे। यह ससुर और उसके पाँच भाई मिलकर उसे सुपुर्द-ए-ख़ाक (दफ़न) करेंगे।"
दुआ ने अपना सिर उठाया और उन पाँचों चेहरों की तरफ़ देखा जो उसके मामू थे। वे चुपचाप खड़े थे, मगर उनके चेहरे पर कोई ग़म नहीं था—बस एक अजनबीपन था।
दुआ ने कुछ नहीं कहा। वह चुपचाप जनाज़े की तरफ़ मुड़ी, अपनी माँ के पलंग के pass आकर माँ के सर पर आखरी बार हल्के से हाथ रखा और एक कोने में जाकर खड़ी हो गई।
उसके दिल में एक टीस उठी। उसे याद था कि उसकी माँ और उनके इन भाइयों के बीच हमेशा एक सर्द जंग (तनाव) रही थी। उसकी माँ को कभी इन भाइयों का प्यार नसीब नहीं हुआ। और इसकी वजह?
क्योंकि उसकी माँ उनकी सगी नहीं, सौतेली बहन थी।
उनके वालिद साहब ने दो निकाह (शादी) किए थे। पहले निकाह से उनके पाँच बेटे हुए और जब पहली बीवी का इंतिक़ाल (मृत्यु) हुआ, तो उन्होंने दूसरी शादी की। इस शादी से सिर्फ़ एक औलाद हुई—दुआ की माँ।
लेकिन उस एक औलाद को कभी अपना नहीं समझा गया। सौतेले भाइयों के लिए वह हमेशा पराई रही, हमेशा बेगानी।
आज वही भाई उसकी माँ के जनाज़े के पास खड़े थे। मगर अफ़सोस, यह रिश्ता अब भी ज़िन्दा नहीं था। यह सिर्फ़ रस्म थी, जो निभाई जा रही थी।
दुआ एक कोने में खड़ी थी, अपनी माँ के रुख़्सत (विदाई) का इंतज़ार कर रही थी। बाहर से वह बिल्कुल ख़ामोश (शांत) दिख रही थी, लेकिन उसके दिल का हाल वही समझ सकता था जो एक बेटी के दर्द को महसूस कर सके। अपनी आँखों के सामने माँ का जनाज़ा (अंतिम यात्रा) उठते देखना कैसा होता है—इसका तसव्वुर (कल्पना) भी किसी के लिए आसान नहीं।
वह तन्हा थी।
ना कोई बाप जो उसे ढाँढस बँधाए, ना कोई भाई जो उसे सहारा दे। मामू थे, मगर अजनबी से। दादा थे, मगर वह भी हमेशा के लिए उसके साथ नहीं रह सकते थे—वह तो दूसरे मुल्क (देश) में बसने वाले शख़्स थे, कब तक उसका साथ निभाते?
दुआ ख़ामोश खड़ी थी, लेकिन उसकी आँखों से आँसू बहे जा रहे थे। वह सिर्फ़ सोलह साल की थी—एक मासूम बच्ची जिसे अपने ग़म को बाँटने के लिए माँ का कंधा चाहिए था, लेकिन आज वही बच्ची अपनी माँ को दूसरों के कंधों पर जाता देख रही थी।
जनाज़ा उठ गया।
धीरे-धीरे लोग पीछे हटते गए। दुआ के मामू और दादा जान ने मिलकर जनाज़े को कंधा दिया। पहले तीन मामू और दादा ने जनाज़े को मस्जिद तक पहुँचाया, जहाँ नमाज़-ए-जनाज़ा (अंतिम प्रार्थना) अदा की गई। दुआ के दादा जान ने ख़ुद नमाज़-ए-जनाज़ा पढ़ाई।
इसके बाद जनाज़े को क़ब्रिस्तान ले जाया गया। वहाँ दुआ के पाँचों मामू और दादा जान ने जनाज़े को कंधा बदल-बदल कर क़ब्र तक पहुँचाया। क़ब्र पहले से तैयार थी—बस इंतज़ार था कि मिट्टी में अमानत (समर्पित) किया जाए।
दुआ के दादा और सबसे बड़े मामू ने मिलकर जनाज़े को क़ब्र में उतारा। जैसे ही दुआ की माँ का (पार्थिव जिस्म ) मुर्दा बदन क़ब्र में उतारा गया और मिट्टी डालकर उसे ढाँप (ढक) दिया गया, वहाँ मौजूद लोगों ने दुआ के लिए हाथ उठा दिए।
और तभी...
क़ब्र से एक अनोखी, मुबारक (पवित्र) ख़ुशबू आने लगी—एक ऐसी महक, जिसे पहले कभी किसी ने महसूस नहीं किया था। जैसे जन्नत की कोई रूहानी (आत्मिक) ख़ुशबू ज़मीन पर उतर आई हो।
दुआ के दादा जान की आँखों से अश्क (आँसू) जारी हो गए। वह अपने काँपते हाथों को उठा कर रब की बारगाह (दरबार) में रोते हुए दुआ करने लगे।
दुआ के दादा जान कब्र के पास बैठकर सिसक रहे थे। उनका काँपता जिस्म, झुकी हुई पीठ और अश्कों (आँसुओं) से भीगी दाढ़ी इस बात की गवाह थी कि एक बाप अपने गुनाहों की माफ़ी माँग रहा है।
वह दोनों हाथ उठाकर बारगाह-ए-इलाही (ख़ुदा के दरबार) में रोते हुए कह रहे थे—
"ऐ मेरे परवरदिगार (पालनहार), आज मैं तुझे तेरी एक अज़ीम (महान) बंदी सौंप रहा हूँ। मैं गुनहगार हूँ, ऐ मेरे मौला (मालिक), मैंने अपनी इस मासूम बच्ची को अपने नापाक (अपवित्र) बेटे के पल्ले बाँध दिया। मैं ज़ालिम हूँ, इस बच्ची का कसूरवार हूँ।
मैं उस नन्हीं जान का भी मुजरिम (अपराधी) हूँ जो अपने घर में बैठी अपनी माँ के लिए तड़प रही है। ऐ मेरे रब, भले ही ये बेटी आज हर ग़म से निजात (मुक्ति) पा गई हो, लेकिन मुझे हमेशा के लिए कर्ज़ में डुबो गई—इसकी बर्बादी का कर्ज़। मैं इसके दुखों का सबब (कारण) बना।
मेरे मौला, मुझ पर रहम कर, अगर मुमकिन हो तो मुझे माफ़ कर दे।
मैं तुझसे इल्तिजा (विनती) करता हूँ, मेरी इस बच्ची को बख़्श (माफ़) दे, इसे जन्नत में आला मुक़ाम (श्रेष्ठ स्थान) अता कर। और मेरी दूसरी बच्ची जो अब तन्हा (अकेली) रह गई है, उसके लिए सब्र को आसान बना दे।
उसकी परीक्षा उतनी सख़्त मत कर जितनी इस बच्ची की की थी।
उस पर अपनी निगाह-ए-करम (दया भरी नज़र) बनाए रख, ऐ मेरे मालिक!"
कब्रिस्तान की ख़ामोशी और दुआ की तन्हाई
धीरे-धीरे लोग जाने लगे। दुआ के मामू तो जनाज़े की रस्म पूरी करते ही वहाँ से चल दिए, जैसे उन्हें कोई परवाह ही न हो। उनके लिए यह एक रस्म थी, जो निभाई जा चुकी थी।
अब कब्रिस्तान में बस दो रूहें थीं—एक वो, जो मिट्टी के नीचे चली गई, और दूसरी वो, जो उसकी यादों में दबी बैठी थी।
दुआ के दादा जान ख़ुद को गुनहगार मानते हुए ख़ुदा से माफ़ी माँग रहे थे, और दूसरी तरफ़, दुआ अपनी माँ की याद मे बैठी कुरआन पाक की तिलावत ( पढ़ाई) कर रही थी।
वक्त बीतता जा रहा था।
दुआ ने नमाज़ की तैयारी की, वुज़ू (अभिषेक) किया, और वहीं बैठकर सजदा (साष्टांग प्रणाम) किया। उसने अपनी माँ के लिए रो-रोकर दुआएँ माँगीं, उसकी आँखों से गिरते हर आँसू में एक दर्द था, एक इल्तिजा थी।
वो घंटों तक अपनी माँ के लिए दुआ करती रही। उसकी पेशानी (माथा) सजदे में झुकी रही। हर अल्फ़ाज़ (शब्द) में एक बेटी का दर्द समाया हुआ था।
जब रात की तारीकी (अंधकार) बढ़ने लगी, तब जाकर उसने इशा की नमाज़ (रात की अंतिम प्रार्थना) अदा की। फिर से अपनी माँ के हक़ में दुआ की।
दुआ करते-करते, वह वहीं बैठी रह गई।
ख़ुदा की ज़मीन पर, अपनी माँ की याद मे —जहाँ अब उसका दिल बस गया था।
वहीं दूसरी तरफ शेख साहब आज़ान की अम्मी को ज़ुलेखा बीवी के घर भेज दिए थे अपना पैगाम लेकर और वो पैगाम क्या था? ये आपको पता चलेगा अगले अध्याय में।
उसके लिए आप लोगों को ज्यादा से ज्यादा कमेंट करने होंगे। आप लोग कमेंट नहीं करते हो, स्टोरी पढ़कर चले जाते हो। प्लीज़ कमेंट किया करो जिससे मुझे पता चले कि आप लोग मेरी स्टोरी के बारे में क्या सोचते हो।
दुआ उस जगह बैठी थी जहाँ उसकी माँ के जनाज़े (अंतिम यात्रा) को ग़ुस्ल (अंतिम स्नान) दिया गया था। वो वही जगह थी जहाँ उसने अपनी माँ को आखिरी बार अपने हाथों से छूआ था, उनके नर्म चेहरे पर हाथ फेरा था और फिर अपनी ही माँ के जिस्म को खुद ग़ुस्ल दिया था। ये एहसास, ये दर्द, ये ग़म—इसका अंदाज़ा सिर्फ वही बेटी लगा सकती है, जिसने अपनी माँ को इस हाल में देखा हो।
दुआ की आँखों से बेआवाज़ आँसू बह रहे थे। कोई कितना भी कहे कि वक़्त मरहम होता है, मगर जिस माँ की कोख में पलकर, जिसकी गोद में खेलकर, जिसके आँचल में सुकून पाकर इतनी बड़ी हुई, उसे एक पल में भुला देना तो नामुमकिन है। उसके लिए तो उसकी माँ ही सब कुछ थी—माँ भी, बाप भी। अब वो बिल्कुल यतीम (अनाथ) हो गई थी। इस एहसास ने उसे अंदर तक तोड़ दिया था।
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दूसरी तरफ...
घर के अंदर, दरवाज़े के उस पार, फ़ुरक़ान ने ज़ुलेखा का हाथ थाम रखा था। उसकी आवाज़ में ग़म और झिझक दोनों थे, "ज़ुलेखा, तुम हमारे घर के हालात जानती हो और हमारे बेटों के बारे में भी..."
ज़ुलेखा ने हैरत से उसकी तरफ देखा, "जी, ये सब तो मैं जानती हूँ, लेकिन आप ये बात मुझसे इस वक़्त क्यों कह रहे हैं?"
फ़ुरक़ान ने लंबी सांस ली, फिर आहिस्ता-आहिस्ता बोला, "क्योंकि दुआ... भाभी साहिबा की बेटी है।" उसकी आवाज़ में अदब (सम्मान) था। "भाभी साहिबा—वो औरत जिनकी मैं चाहकर भी कोई गलती नहीं निकाल सकता, जिनके किरदार पर कभी कोई शक करने की जुर्रत (हिम्मत) नहीं कर सकता। तो सोचो, उनकी बेटी कैसी होगी? मगर ज़ुलेखा, तुम हमारे बेटों को जानती हो।"
एक पल के लिए खामोशी छा गई।
फिर फ़ुरक़ान ने धीरे से कहा, "हमारे बेटे... पुलिस स्टेशन तक होकर आए हैं लड़की को छेड़ने के इल्ज़ाम में। इस तंग घर में, जहाँ सिर्फ एक कमरा है, क्या हम दुआ को रखकर सही करेंगे? क्या हम उसकी हिफ़ाज़त (सुरक्षा) कर पाएंगे? ज़रा ग़ौर (ध्यान) करो, ज़ुलेखा। बेटी अपने बाप के घर ही महफूज़ (सुरक्षित) रहती है।"
ज़ुलेखा चुपचाप उसे देखती रही। बाहर बैठी दुआ का चेहरा उसकी आँखों में घूम गया—वो चेहरा, जिस पर अभी भी आँसुओं की लकीरें थी।
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ज़ुलेखा फ़ुरक़ान की बात सुनकर सोच में पड़ गई। बात तो सही थी—ज़ुलेखा कोई बहुत अच्छे घर की मालकिन नहीं थी। हाल ही में उसने खुद भी एक दंगे (अशांति, उपद्रव) का दर्द सहा था। मगर अपने भाभी साहिबा और अपनी भतीजी दुआ के लिए उसके दिल में बेपनाह (असीमित, गहरी) मोहब्बत थी। मगर अब बात मोहब्बत की नहीं, बल्कि दुआ की हिफ़ाज़त (सुरक्षा) की थी।
ये भी सच था कि ज़ुलेखा के बेटे उसके हाथ से निकल चुके थे। अय्याशी (भोग-विलास) और आवारगी (बदचलनी) में डूब चुके थे। इस हाल में दुआ के पर्दे का हर वक़्त लिहाज़ (सम्मान) रखना और उसकी हिफ़ाज़त करना एक छोटे से घर में नामुमकिन था।
लेकिन ज़ुलेखा इस बात को भी नज़रअंदाज़ नहीं कर सकती थी कि उसके भाई ने अपनी बीवी और बेटी के साथ क्या सुलूक (व्यवहार) किया था। वो दुआ को उसके वालिद (पिता) के घर नहीं छोड़ सकती थी। उसके दिल में अजीब सी घुटन थी।
फ़ुरक़ान ने ज़ुलेखा के कंधे पर हाथ रखा और नर्मी से कहा, "मैं तुम्हारी सोच का मतलब समझ रहा हूँ, लेकिन इस वक़्त जज़्बात (भावनाएँ) से नहीं, अक़्ल (बुद्धि) से सोचने की ज़रूरत है। दुआ अपने बाप के घर ही महफ़ूज़ (सुरक्षित) रह सकती है।"
ज़ुलेखा के अंदर जैसे एक तूफ़ान उठ खड़ा हुआ। उसने ग़ुस्से में जवाब दिया, "हिफ़ाज़त? वहाँ? नहीं! वो जल्लाद (क्रूर व्यक्ति) मेरी बच्ची को जान से मार देगा! तूने देखा नहीं कि मस्जिद के बाहर वो कैसे भाभी साहिबा और दुआ पर झपटा था? मैं वहाँ नहीं थी, लेकिन मुझे सब मालूम है! सब लोगों ने मुझे बता रखा है! मैं अपनी बच्ची को अपने जीते-जी उस दरिंदे के हवाले नहीं करूँगी!"
फ़ुरक़ान ठंडी साँस लेकर बोला, "तो क्या अपने घर के जल्लाद (दरिंदा, अत्याचारी) जगाना चाहती हो? जानती हो, जवानी के जोश में शैतान (दुष्ट प्रवृत्ति) फन फैला लेता है। नौजवान पर वैसे ही क़ाबू मुश्किल होता है, और हमारे बेटे तो पहले से बिगड़े हुए हैं! मैं उस बच्ची पर कोई भी ज़ुल्म (अत्याचार) करके खुदा के घर गुनहगार (पापी) नहीं बनना चाहता। या तो मैं इतना अमीर होता कि उसे एक अलग कमरा दे सकता, लेकिन मेरी तंगहाली (ग़रीबी, सीमित संसाधन) इसकी इजाज़त नहीं देती।"
ज़ुलेखा अपने शौहर की बात समझ रही थी। मगर वो दुआ को भी जानती थी और उसके बाप को भी। वो जानती थी कि दुआ के लिए वहाँ रहना मौत के बराबर होगा।
तभी, दुआ धीरे-धीरे चलते हुए उसके पास आई। उसके चेहरे पर थकान और दर्द की परछाइयाँ थीं। उसकी आवाज़, जो पूरा दिन भारी होकर बोलने की वजह से बैठ चुकी थी, अब और भी बदली हुई लग रही थी। उसने पर्दे को ठीक करते हुए धीरे से कहा...
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उस आँगन की फिज़ा में एक अजीब सी घुटन थी। जैसे दीवारें भी इस फ़ैसले की गवाह बन रही थीं। दुआ ने अपने हिजाब (घूंघट, पर्दा) को ज़रा और सही किया, फिर अपने फूफा और फूफी की तरफ देखा। उसकी आवाज़ ठहरी हुई थी, मगर उसके लफ्ज़ों में अज़्म (दृढ़ संकल्प) की मिठास थी।
"फूफी जान, फूफा जी… फूफा साहब बिल्कुल सही कह रहे हैं। मुझे आप लोगों पर ज़्यादा वक़्त तक बोझ बनना ठीक नहीं लगता। मगर आप मेरी फिक्र न करें। मेरा रब (ईश्वर) है। कहते हैं, वालिदेन ( माँ बाप) का साया बच्चे पर हो या न हो, मगर रब अपने बंदे पर करम (अनुग्रह) करना कभी बंद नहीं करता। मेरी माँ की दुआएँ, मेरे रब का करम और उस रब के महबूब ( पैगंबर) की मोहब्बत (प्रेम) मेरे लिए काफी है।"
उसकी आँखों में आँसू नहीं थे, मगर उसके लहजे में एक ऐसी क़ुव्वत (शक्ति) थी, जिसने ज़ुलेखा और फ़ुरक़ान को खामोश कर दिया। वह धीरे-धीरे दरवाज़े की तरफ बढ़ने लगी।
"बेटा!"
ज़ुलेखा ने घबराकर दुआ का हाथ थाम लिया।
"इतनी रात में कहाँ जाओगी? ये कैसी बातें कर रही हो? रुको, मैं तुम्हारे लिए कुछ न कुछ इंतज़ाम ज़रूर करूँगी। तुम्हारी हिफ़ाज़त (सुरक्षा) मेरी ज़िम्मेदारी है!"
दुआ रुकी, मगर पीछे मुड़कर नहीं देखा। बस एक हल्की मुस्कान के साथ बोली,
"फूफी जान, मेरी अम्मी जान ने अपने आखिरी वक़्त तक रब पर भरोसा रखा। मेरी तो ज़िन्दगी अभी शुरू भी नहीं हुई, तो मैं उस पर से भरोसा कैसे छोड़ दूँ?"
अब वह उनकी तरफ पलटी।
"और वैसे भी, मेरी दुनिया तो यहाँ है ही नहीं… अम्मी जान कहा करती थीं, एक वक़्त आएगा जब रब के करम (दया) से मैं इस जगह से दूर किसी वादी (घाटी) में जाऊँगी। वो वादी जो हक़ीक़तन (वास्तव में) जन्नत होगी, मगर वहाँ तक पहुँचने का रास्ता जहन्नम (नरक) से गुज़रता होगा। मुझे उस जन्नत की तलाश में जाना है, फूफी जान। आप मुझे मत रोकिए।"
ज़ुलेखा का दिल धड़क उठा। यह लड़की कोई मामूली लड़की नहीं थी। यह किसी और ही मिट्टी की बनी थी।
दुआ ने अपने हिजाब को सही किया, गहरी साँस ली, और दरवाज़े की कुंडी खोल दी। जैसे ही दरवाज़ा खुला, उसके कदम बाहर की दुनिया में रखने से पहले ठिठक गए।
दरवाज़े के ठीक सामने अज़ान की अम्मी खड़ी थीं।
उनकी आँखों में हैरानी थी, जैसे वह कुछ समझ नहीं पा रही हों। उनके हाथ में एक पर्स था, जिसे वो कस कर पकड़ी हुई थी। मगर अब उनके हाथों की पकड़ ढीली पड़ चुकी थी, और वह सीधे दुआ को देख रही थीं।
एक पल के लिए ख़ामोशी छा गई।
आगे दुआ अनजान अज़ान की अम्मी के साथ जाएगी या nhi जाएहि तो कैसे यह एक सस्पेंस है तो कमैंट्स करो भर कर jldi कोशीश करूंगी देने की
(आज़ान अपने कमरे में बड़े सुकून से लेटा हुआ था। लैपटॉप की स्क्रीन पर एक मूवी चल रही थी, मगर यह कोई आम मूवी नहीं थी, बल्कि थोड़ी बोल्ड (अश्लील, बेहया) थी। आज़ान ने हेडफ़ोन (कान में लगाने वाला उपकरण) लगाया हुआ था और पूरी तल्लीनता से मूवी देख रहा था। उसके चेहरे पर एक अजीब-सा इत्मिनान था, जैसे वह इस गुनाह (पाप) में पूरी तरह डूब चुका हो।)
(लेकिन तभी अचानक कुछ ऐसा हुआ जिससे आज़ान का दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगा। उसकी साँसें तेज़ हो गईं और बदन में एक अजीब-सी सनसनी दौड़ गई।)
आज़ान (चौंककर, घबराए हुए): यह... यह क्या हो रहा है मुझे? मेरी धड़कन (दिल की गति, heartbeat) इतनी तेज़ क्यों हो रही है?
(वह घबराहट में तुरंत लैपटॉप बंद कर देता है, हेडफ़ोन निकालकर एक तरफ़ रखता है और अपने सीने पर हाथ रखकर महसूस करता है कि उसका दिल बहुत तेज़ी से धड़क रहा है। उसकी पेशानी (माथे) पर हल्का पसीना झलक आता है। वह बेड से उठकर खड़ा हो जाता है और अपने इर्द-गिर्द देखने लगता है, जैसे कुछ गलत हो रहा हो।)
(तभी कमरे में खिड़की के रास्ते से एक ठंडी हवा का झोंका आता है। हवा इतनी ठंडी थी कि आज़ान को अपने चेहरे और गर्दन पर इसका एहसास गहराई से होता है। वह खिड़की की तरफ़ बढ़ता है और देखता है कि बाहर मौसम अचानक ही बहुत सुहाना हो गया है। हवा की तासीर (प्रभाव) उसके दिल को सुकून देने लगी थी, मगर उसकी बेचैनी अब भी बरकरार थी।)
(आज़ान खिड़की के पास जाकर बाहर झांकता है। आसमान हल्की धुंध से घिरा हुआ था, चाँद की रोशनी मंद-मंद बिखरी हुई थी और पेड़-पौधे हवा के साथ लहरा रहे थे। यह सब उसे किसी अजूबे से कम नहीं लग रहा था। वह गहरी सांस भरकर खुद से कहता है।)
आज़ान (हैरानी से): ", यह क्या माजरा (मामला, घटना) है? इतनी ख़ूबसूरत (सुंदर), प्यारी (मोहक) और ठंडी हवा (शीतल वायु) आज तक इस ज़िले में कभी महसूस नहीं हुई। ऐसा लग रहा है जैसे यह हवा किसी और ही दुनिया की है। आखिर इन हवाओं का रुख़ मेरे लिए इतना ख़ूबसूरत (आकर्षक) कैसे हो गया?"
(आज़ान उन हवाओं के असर में खोया हुआ था। वह अभी इस बदलाव को पूरी तरह समझ भी नहीं पाया था कि दूसरी तरफ़, बरेली में...)
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(दुआ दरवाज़ा खोलती है और सामने एक नकाबपोश औरत को देखती है। वह तुरंत अदब से सलाम करती है।)
दुआ: अस्सलामु अलैकुम।
नकाबपोश औरत: वालैकुम अस्सलाम।
दुआ (नर्मी से): जी, आप कौन? आपको किसी से मिलना है?
(सामने खड़ी औरत कोई और नहीं, बल्कि अज़ान की अम्मी थीं। शेख साहब ने उन्हें दुआ की फूफी से बात करने भेजा था। लेकिन वह दरवाज़े पर खड़ी अब तक दुआ की फूफी और फूफा की बातें सुन चुकी थीं। दुआ की बातें भी उनके कानों में पड़ चुकी थीं। वह यहाँ कुछ और कहने आई थीं, मगर अब उन्होंने सोच लिया था कि क्या कहना है।)
की अम्मी (गंभीर लहजे में): बेटा, मैं लखनऊ शहर से आई हूँ। मुझे एक ख़ादिमा (सेवा करने वाली) की जरूरत है। मेरी सास जानी (सम्मानजनक शब्द, मतलब बुज़ुर्ग सास) काफी अरसे से बीमार हैं। उनकी ख़िदमत (सेवा) के लिए एक तंदुरुस्त और नेक ख़ातून (औरत) चाहिए। जो उनकी देखभाल करे, और दीनदार हो। क्योंकि मैं चाहती हूँ कि मेरी अम्मी के आसपास हर वक्त ख़ुदा (ईश्वर) की इबादत होती रहे। वह बहुत परहेज़गार (संयमी, धार्मिक) औरत हैं।
(दुआ यह सुनकर अपने सीने पर हाथ रखती है और दिल से कहती है।)
दुआ: माशाअल्लाह! यह तो बहुत ही अच्छी बात है...
(जैसे ही दुआ यह कहती है, उसके कानों में एक आवाज़ गूंजती है।)
"दुआ, बीमारों की खिदमत करना एक सवाब (पुण्य) का काम है। इसके लिए किसी और को क्यों ढूंढ रही हो? क्या यह काम तुम नहीं कर सकती?"
(यह सुनकर दुआ कुछ सोचती है, फिर तुरंत की अम्मी से कहती है।)
दुआ: अगर आपको कोई ऐतराज़ न हो, तो क्या मैं आपके साथ चल सकती हूँ?
(दुआ की बात सुनते ही पास खड़ी उसकी फूफी चौंक जाती हैं और तुरंत दुआ के पास आकर कहती हैं।)
दुआ की फूफी (गुस्से में): कैसी बातें कर रही है, दुआ? तू किसी और के घर ख़ादिमा (नौकरानी) बनकर जाएगी? तेरा दिमाग तो ठीक है न?
(दुआ अपनी फूफी को देखती है और बड़े इत्मिनान से जवाब देती है।)
दुआ: इसमें गलत क्या है, फूफी? बीमार की तीमारदारी (देखभाल) करना बहुत अच्छा काम है। और वैसे भी, मुझे सर छुपाने (रहने के लिए जगह) के लिए एक आशियाना (घर) चाहिए। यह मुझे नेक औरत लग रही हैं।
दुआ की फूफी (फिक्रमंद होकर): बरेली और लखनऊ में बहुत फर्क है। पराए शहर में किसी और के भरोसे कैसे जा सकती है?
(दुआ हल्की मुस्कराहट के साथ जवाब देती है।)
दुआ: फूफी, मैं कभी किसी इंसान के भरोसे नहीं चलती। मैं सिर्फ अपने रब (ईश्वर) के भरोसे हर काम करती हूँ। अगर यह खिदमत (सेवा) मुझे मिल रही है, तो जरूर इसमें मेरे रब की कोई रज़ा (इच्छा) होगी।
(अज़ान की अम्मी तो यही चाह रही थीं कि दुआ ही उनके साथ चले। वह दिल ही दिल में बहुत खुश हो जाती हैं और तुरंत दुआ के चादर से ढके हाथों को पकड़कर कहती हैं।)
अज़ान की अम्मी: ज़रूर बेटा, हमें आप जैसे ही वहशीयार (समझदार), परहेज़गार (धार्मिक) और रहमत बरसाने वाली (दयालु) लड़की की जरूरत थी। क्या आप हमारे साथ चलेंगी? आप जितना कहेंगी, उतना देने को तैयार हैं।
(दुआ हल्के से मुस्कराकर जवाब देती है।)
दुआ: मुझे कुछ नहीं चाहिए, बस जो भी करना है, वह अपने रब के लिए करना है। देना उसका काम है...
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(दुआ की फूफी बेचैन होकर उसका हाथ पकड़ लेती हैं। उनकी आँखों में आँसू हैं और आवाज़ दर्द से भरी हुई है।)
दुआ की फूफी (रूहासू होकर - भावुक स्वर में): दुआ, मेरी बच्ची, यह तू क्या करने जा रही है? तू इस अंजान दुनिया (अनजान दुनिया) में किसी ग़ैर (पराया, अजनबी) पर भरोसा कर रही है?
(दुआ अपनी फूफी की नम आँखों को देखती है। वह तसल्ली से मुस्कुराती है और बड़े इत्मिनान (संतोष) से जवाब देती है।)
दुआ: भरोसा करना ही इंसान का काम है, और उस भरोसे को क़ायम (बरकरार, बनाए रखना) रखना उसी (ईश्वर, अल्लाह) का काम है। उसने कभी मेरा भरोसा टूटने (धोखा देने) नहीं दिया है। आप बेफिक्र रहें, मुझे इनके घर एक खरोंच (ज़रा सा भी नुकसान) भी नहीं आएगी।
(दुआ की फूफी कुछ और कहतीं, इससे पहले ही अज़ान की अम्मी उनके हाथ को पकड़ लेती हैं और नरमी से पूछती हैं।)
अज़ान की अम्मी: बीवी साहेब (सम्मानजनक संबोधन), क्या आप लखनऊ शहर (Lucknow City) के बड़े शेख साहब (धार्मिक व प्रतिष्ठित व्यक्ति) को जानती हैं?
(दुआ की फूफी अपने आँसू पोंछते हुए जवाब देती हैं।)
दुआ की फूफी: जी, उनको कौन नहीं जानता? लखनऊ की जानी-मानी हस्ती (मशहूर शख्सियत) हैं वो।
(अज़ान की अम्मी हल्की मुस्कान के साथ कहती हैं।)
अज़ान की अम्मी: जी, मैं उन्हीं की बहू (पुत्रवधू, वधू) हूँ। और जिनके लिए मैं इनको लेकर जा रही हूँ, वो उन्हीं शेख साहब की "जान" (प्रिय व्यक्ति, यहाँ माँ के लिए प्रयुक्त) हैं। आप बेफिक्र रहें, यह आपकी बेटी नहीं, हमारी बेटी (अपना परिवार समझना) बनकर उस घर में रहेगी। आप इत्मिनान रखें।
(जैसे ही दुआ की फूफी यह सुनती हैं कि यह मोहतरमा और कोई नहीं, बल्कि जनाब शेख साहब के घर की एक हैं, वह तुरंत अदब (सम्मान) से उनके हाथ पकड़ लेती हैं और शर्मिंदगी से कहती हैं।)
दुआ की फूफी (झुककर): या अल्लाह (हे भगवान), इतनी बड़ी हस्ती (व्यक्ति, शख्सियत) हमारे घर आई हैं और हम इतनी गुस्ताखी (अवज्ञा, असम्मान) कर रहे थे? माफ कीजिए (क्षमा करिए)।
(वह झिझकते हुए आगे कहती हैं।)
दुआ की फूफी: आइए ना अंदर (घर के अंदर चलिए)।
(अज़ान की अम्मी हल्की मुस्कान के साथ सिर हिलाती हैं।)
अज़ान की अम्मी: नहीं, असल में (वास्तव में), हमारे बाबा जानी (सम्मानजनक रूप से ससुर के लिए), यानी कि हमारे ससुर (father-in-law), हमारा इंतज़ार कर रहे हैं। हमें अभी रात में ही सफ़र (Journey, यात्रा) करना होगा ताकि हम सुबह से पहले (Before Sunrise) अपने घर पहुँच सकें।
(वह दुआ की तरफ़ देखती हैं और नरमी से सवाल करती हैं।)
अज़ान की अम्मी: बेटा (प्रिय संतान), दुआ, क्या आप हमारे साथ अभी (तुरंत, फ़ौरन) चलेंगी?
(दुआ कुछ देर के लिए चुप हो जाती है। वह मुस्कुराती है, मगर यह मुस्कान फीकी (बेजान) होती है, दिल की हँसी नहीं। उसकी आँखों में हल्का-सा दर्द झलकता है।)
दुआ: जी ज़रूर (हाँ, निश्चित रूप से)। जब घर से बाहर (अपने आशियाने से) निकल ही गई हूँ, तो अब सफ़र भी शुरू (Journey Begin) कर ही देना चाहिए।
(दुआ अब मुड़कर अपनी फूफी को देखती है और नरमी से कहती है।)
दुआ: फूफी जान (प्रिय फूफी), मेरा सिर्फ़ एक काम कर दीजिए...
(दुआ की फूफी, अपनी बेटी समान दुआ के सिर पर हाथ रखती हैं और दर्द भरी आवाज़ में कहती हैं।)
दुआ की फूफी (नम आँखों से): bolo मेरी बच्ची...
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दुआ ने अपनी फूफी, जुलैखा बीवी, का हाथ बड़ी नर्मी से थामा। उसकी आँखों में नमी थी और लहज़ा बेहद मुनकसर (नम्र)।
दुआ (भीगी आवाज़ में):
"फुफी जान, अब्बू के घर में एक छोटा सा बक्सा रखा है... उसी में एक छोटी सी पोटली (गांठ, छोटा थैला) है।
क्या आप... क्या आप वो मेरे लिए ला सकती हैं?
अब मेरा उस घर में क़दम रखना नामुमकिन सा लगता है।
जहाँ मेरी माँ ने ज़िंदगी की आख़री साँस दर्द में ली, वहाँ मेरा दिल काँपने लगता है।
बस वो एक चीज़ है... जो मेरे नाना जानी की याद है...
क्या आप... इतना मेरे लिए कर सकती हैं?"
जुलैखा बीवी की आँखें छलक पड़ीं। उन्होंने दुआ को अपने सीने से लगा लिया, जैसे सदियों की थकन उस आलिंगन में उतर आई हो।
जुलैखा बीवी (रोते हुए):
"मैं समझ सकती हूँ, मेरी बच्ची।
तेरे दिल पे जो गुज़री है, उसे अल्फ़ाज़ बयान नहीं कर सकते।
तू फिक्र ना कर, मैं तेरी हर चीज़ हर अमानत तुझ तक पहुँचा दूँगी।"
दुआ (तेज़ी से):
"नहीं फूफी जान, सब कुछ नहीं चाहिए।
बस वो पोटली चाहिए, क्योंकि वो नाना जानी से जुड़ी है।
बाक़ी घर की कोई चीज़ मेरी नहीं रही।"
जुलैखा बीवी की रूह काँप गई। उन्होंने खुद के आँसू पोंछे, सर पर हाथ फेरा और बिना एक लफ़्ज़ और कहे, अपने घर से एक काला पर्दा ओढ़ा और निकल पड़ीं उस घर की तरफ़, जहाँ कभी उनकी भाभी की साँसें गूँजती थीं।
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वीरान घर की खामोशी
जब वो वहाँ पहुँचीं, दरवाज़ा आधा खुला था।
मगर घर में न दुआ का बाप था, न उसका भाई।
जुलैखा बीवी को कोई हैरत नहीं हुई।
उन्हें तो बरसों से इसी बात का मलाल था —
"काश की वो इंसान मेरा भाई ना होता, दुआ का बाप ना होता।"
वो अक्सर सोचतीं कि रब क्यों ऐसी औलाद देता है, जो बाप के नाम पर बदनुमा दाग़ हो।
लेकिन उन्होंने सब एहसासात को नजरअंदाज़ किया।
धीरे-धीरे वो कमरे में दाख़िल हुईं।
हर दीवार उदासी से भीगी थी, और फर्श पर खामोशी बिछी थी।
जुलैखा बीवी ने दुआ के बताए हिस्से में हाथ डाला —
और वहाँ एक बक्सा मिला, उसमें एक सफ़ेद कपड़े में लिपटी हुई छोटी सी पोटली उन्हें महसूस हुई।
उन्होंने उसे बड़ी अकीदत (श्रद्धा) से निकाला।
उस कपड़े को अपने सीने से लगाया, जैसे किसी की रूह उस में बसती हो।
जुलैखा बीवी (धीरे से बुदबुदाईं):
"ये कोई मामूली चीज़ नहीं...
ये भाभी जानी से जुड़ी यादों की ताबीर (साकार रूप) है।"
उन्होंने उस पोटली को संभाल कर अपने दुपट्टे में छुपाया, और पूरे इत्मीनान के साथ उस वीरान घर से निकलकर दुआ की तरफ़ रवाना हो गईं।
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दो औरतें, दो खामोशियाँ
उधर जुलैखा बीवी वो पोटली लेकर दुआ की जानिब रवाना थीं,
और इधर उनके घर के दरवाज़े पर,
दुआ और अज़ान की अम्मी ख़ामोशी से खड़ी थीं।
मौसम में हल्की सी ठंडक थी, मगर दिलों में जो तपिश थी,
वो उस हवा से कम ना होती।
दरवाज़े पर खड़ी अज़ान की अम्मी,
दुआ को देख रही थीं —
बिलकुल वैसे, जैसे कोई उजाला अंधेरे को देखने की कोशिश करता है।
दुआ ने अपने ऊपर सफ़ेद पर्दा ओढ़ रखा था।
उसका चेहरा पूरी तरह से ढका हुआ था,
मगर फिर भी —
अज़ान की अम्मी की आँखें उसे ऐसे निहार रही थीं जैसे पर्दे की आर भी
उसका नूर (रौशनी, उजाला) उनसे छुपा नहीं।
वो एक-टक उसे देखती जा रही थीं।
उनके दिल में कई सवालात (प्रश्न) थे,
मगर ज़ुबान पर किसी भी सवाल की हिम्मत ना थी।
दुआ, वहाँ खड़ी, सब कुछ महसूस कर रही थी।
वो जानती थी कि अज़ान की अम्मी कुछ कहना चाहती हैं।
उसकी साँसों की रफ़्तार से लेकर उसकी आँखों की गहराई तक —
सब कुछ बोल रहा था।
कुछ पल इसी ख़ामोशी में बीत गए।
फिर अचानक, दुआ ने अपने होंठ खोले — और बेहद मुलायम आवाज़ में कहा:
"क्या आप किसी बात को लेकर परेशान हैं...?
या मुझसे कुछ पूछना चाहती हैं?"
उसके लहजे में सलीक़ा (तहज़ीब, शाइस्तगी) था,
और आँखों में वो तहज़ीब जो शायद किताबों में भी ना मिले।
अज़ान की अम्मी एक दम से हड़बड़ा गईं।
जैसे उनकी चोरी पकड़ी गई हो।
"न-नहीं, नहीं बेटा... मैं तो बस... बस आपको देख रही थी।
आप... आप कितने साल की हैं?"
दुआ, बेहद इत्मीनान से बोली:
"अल्हम्दुलिल्लाह..मैं सोलह साल की हूँ।"
अज़ान की अम्मी की हैरात की इन्तहा ना थी.. यह बच्ची जो 60 साल का तजुर्बा रखती थी महज़ 16 साला बच्ची थी
फिर दुआ एक पल रुककर, (उसकी आँखों में एक संजीदगी सी उतर आई।)
"बीबी साहेब एक दरख्वास्त (निवेदन, विनती) है मेरी आपसे..."
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अज़ान की अम्मी, दुआ की दरख्वास्त सुनते ही अपने लहज़े में नर्मी और मोहब्बत लाकर बोलीं:
"जी, जी बेटा, जो कुछ भी तुम कहोगी, मैं पूरे दिल से सुनूंगी और तवज्जो (ध्यान) दूंगी।
लेकिन एक बात कहनी है — प्लीज़ मुझे ‘आप’ करके ना बुलाया करे।
मुझे अच्छा नहीं लगता, आप मुझसे वैसे ही बात करो जैसे अपने छोटो से या खदीमा से करती है।
मैं आपसे बड़ी नहीं, बस एक खदीमा हूँ।"
अज़ान की अम्मी, जो अब तक ख़ुद को संजोए खड़ी थी, थोड़ी नरम पड़ी।
उसने सर झुकाया और बहुत तहज़ीब (शिष्टाचार) से कहा:
"जैसा तुमको मुनासिब (उचित) लगे, मेरी जान।"
अज़ान की अम्मी ने उसके सर पर हाथ फेरा,
जैसे किसी उजड़े चमन की शाख़ पर बहार लौट आई हो।
"मैं तुम्हें अपनी बेटी समझती हूँ, और वैसे ही रखूँगी।"
ये कहते ही उनके चेहरे पर एक मुस्कराहट फैल गई —
सुकून भरी, माँ की मुस्कराहट।
इसी दरम्यान, जुलैखा बीवी भी आ गईं।
उनके हाथ में वो सफ़ेद कपड़े में लिपटी पोटली थी —
वही अमानत (विश्वास, धरोहर) जो दुआ ने माँगी थी।
उन्होंने वो दुआ के हवाले की,
और बिना कुछ कहे, दुआ के माथे को चूमा —
जैसे अल्फ़ाज़ ज़रूरी ही नहीं थे।
"अल्लाह हाफिज़, मेरी बच्ची,"
बस यही कहकर वो लौट गईं।
अब दुआ, अज़ान की अम्मी के साथ रवाना हुई।
उनके क़दम आगे बढ़े —
मगर दिल में एक अजीब सी बेचैनी और गहराई थी।
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शेख साहब का इंतज़ार
वो सड़क के छोर पर, एक चमचमाती काली गाड़ी में,
शेख साहब आराम से बैठे थे।
लेकिन उनका दिल बेचैन था।
वो जानना चाहते थे — क्या दुआ आएगी?
क्या अज़ान की अम्मी उसे लाने में कामयाब हो सकी होंगी?
उन्हें यक़ीन (विश्वास) नहीं था,
लेकिन जब उन्होंने दूर से दो नक़ाबपोश औरतों को आते देखा —
उनका दिल धड़क उठा।
"यही है... यही है वो..."
उनकी आँखों ने पहचान लिया —
एक उनमें से दुआ ही थी।
वो बेताब होकर गाड़ी से बाहर निकले और उनकी तरफ़ बढ़े।
उनकी आँखों में ख़ुशी का सैलाब था।
शेख साहब (मुस्कराते हुए):
"तो... आप ले आयीं दुआ को?"
लेकिन जैसे ही दुआ ने उन्हें देखा,
उसकी आवाज़ में एक सख़्ती (कठोरता) उतर आई।
वो जानबूझकर अपनी आवाज़ को गहराई में रख रही थी,
ताकि उसका असली लहज़ा कोई ग़ैर (अजनबी) ना सुन सके।
दुआ (नर्म मगर सख़्त अंदाज़ में):
"Aassalmoalekum जी आप कौन?
अज़ान की अम्मी-“ जी, ये हैं शेख साहब।.. हमारे ससुर जी।
इन्हीं की बीवी के लिए हम आपको खदीमा बनाकर लें जा रहे हैं।"
शेख साहब का चेहरा जैसे सन्न रह गया।
वो जिस लड़की को अपने पोते की हमसफ़र (जीवनसाथी) बनाना चाहते थे,
उसे उनकी बीवी की खादीमा बना के लाया जा रहा था
उनका दिल ग़ुस्से (क्रोध) से भर गया।
वो कुछ बोलने ही वाले थे,
लेकिन तभी —
अज़ान की अम्मी ने हाथ उठाकर इशारा किया,
"बस, अभी कुछ मत कहिए।"
उनकी आँखों में एक दर्दभरी इल्तिज़ा (मिन्नत, अनुरोध) थी।
और शेख साहब —
चुप रह गए।
मगर उनके दिल में जो तूफ़ान था,
वो अब सिर्फ़ उनके अंदर ही मचल रहा था...
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(शाम का वक़्त था, आसमान पर हल्की सी लालिमा छाई थी। हवाओं में ठंडक घुल चुकी थी। बरेली शरीफ़ के पुराने हवेली के बाहर, एक सादी सी गाड़ी खड़ी थी।)
(शेख साहब दरवाज़े के पास खड़े थे और उनके साथ थीं – अज़ान की अम्मी और पर्दे में पूरी तरह ढकी हुई दुआ। शेख साहब का चेहरा संजीदा (गंभीर) था, लेकिन आँखों में किसी आने वाली उम्मीद की चमक साफ़ झलक रही थी।)
अज़ान की अम्मी (नर्मी से, दुआ की तरफ़ मुख़ातिब होकर):
"बेटा, यही हैं शेख साहब... और यही हमारे हमराह (साथ चलने वाले) होंगे। हम इन्हीं की सरपरस्ती (साया, मार्गदर्शन, संरक्षण) में लखनऊ से बरेली शरीफ़ आए थे... और अब इन्हीं की सरपरस्ती में वापस जाएँगे।"
(दुआ ने अदब से सर झुकाया और धीमी आवाज़ में जवाब दिया। उसके लफ्ज़ों में तमीज़ और तहज़ीब साफ़ झलक रही थी।)
दुआ:
"जी, जैसा आपको बेहतर लगे... बस एक दरख़्वास्त (विनती, निवेदन) है आपसे।"
(अज़ान की अम्मी ने ताज्जुब से उसकी तरफ़ देखा और नर्मी से कहा)
अज़ान की अम्मी:
"बेटा, बोलिए।"
(दुआ कुछ क़दम पीछे हटती है, आवाज़ में सुकून और संजीदगी थी।)
दुआ:
"बरेली से निकलने के बाद रास्ते में जो छोटा सा जंगल नुमा इलाक़ा (जंगल जैसा क्षेत्र) आता है... वहाँ मुझे कुछ लम्हों के लिए ठहरना (रुकना) है। क्या आप मुझे इतना वक़्त देंगी?"
(अज़ान की अम्मी थोड़ा चौंक जाती हैं, उनके चेहरे पर फिक्र आ जाती है।)
अज़ान की अम्मी:
"अरे बेटा... लेकिन अब तो निकलते-निकलते रात बढ़ जाएगी... और रात के वक़्त जंगली इलाक़े में जाना... ये कोई समझदारी नहीं है।"
(दुआ ने झुककर अदब से जवाब दिया, मगर लफ़्ज़ों में यक़ीन (आत्मविश्वास) और रूहानी असर था।)
दुआ:
"जी, आपकी फिक्र मैं समझती हूँ... लेकिन ख़ुदा से डरने वाला अंधेरों से नहीं डरता। जब दिल में अल्लाह का डर और मोहब्बत हो, तो अंधेरों का ख़ौफ़ (डर) दिल से उतर जाता है। आप बस मुझे इजाज़त (अनुमति) दे दीजिए।"
(अज़ान की अम्मी उसके जवाब से मुतास्सिर (प्रभावित) होती हैं और सर हिलाकर कहती हैं)
अज़ान की अम्मी:
"ठीक है बेटा... जैसा आपको बेहतर लगे।"
(वहीं दूसरी तरफ़ शेख साहब, जो अब तक खामोश थे, दुआ की बातें सुनकर अंदर से बहुत खुश हो जाते हैं। वह दिल ही दिल में दुआ की दींदारी (धार्मिकता), उसकी सोच और उसके अदब से मुतमइन (संतुष्ट) होते हैं। उनके चेहरों पर खुशी की हल्की मुस्कान और आँखों में नमी आ जाती है।)
(वह अपने ग़म को छुपाते हुए हल्के से कहते हैं...)
शेख साहब (धीरे से):
"चलें... गाड़ी तैयार है। अगर रास्ते में रुकना ही है तो कुछ जल्दी निकल लेते हैं।"
(वह पीछे का दरवाज़ा खोलते हैं और दुआ व अज़ान की अम्मी को बैठने का इशारा करते हैं। पहले अज़ान की अम्मी गाड़ी में बैठती हैं, फिर दुआ अपने लिबास को सँभालती हुई, पर्दे में पूरी तरह ढकी हुई, बहुत सलीक़े (सज्जनता, शालीनता) से गाड़ी में दाखिल होती है।)
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(एक बात बहुत वाज़ेह (स्पष्ट) है — दुआ का चेहरा अब तक सिर्फ़ उसके अम्मी-अब्बू और थोड़ी बहुत उसकी फूफी (पिताजी की बहन) ने ही देखा है। बाक़ी दुनिया के लिए उसका चेहरा एक राज़ (गुप्त) है, क्योंकि दुआ ने अपने चेहरे को यहाँ तक कि अपनी आँखों को भी पर्दे में बहुत अच्छे से ढक रखा है। उसकी हया (लज्जा, शर्म) और परहेज़गारी (सच्चाई व संयम) उसकी सबसे बड़ी पहचान है।)
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(रात की स्याही धीरे-धीरे ज़मीन पर उतर रही थी। आसमान पर सितारे एक-एक करके चमकने लगे थे, और बरेली शरीफ़ की सरज़मीन अब पीछे छूट चुकी थी।)
गाड़ी चल पड़ी थी। और उस चलती हुई गाड़ी के साथ-साथ दुआ की ज़िंदगी का वो सफ़र भी शुरू हो चुका था, जिसके अंजाम से वो अब तक बेख़बर थी।
ये वही सफ़र था जिसके लिए उसकी माँ ने उसे इस दुनिया में लाई थी।
ये वही सफ़र था जो उसकी क़िस्मत की इबारत (कहानी) में सबसे अहम बाब (अध्याय) था।
मगर दुआ को इस सब का इल्म नहीं था — वो तो बस अपने रब की रज़ा के साथ चल रही थी।
दुआ अपने सीने से एक पुरानी सी पोटली लगाए बैठी थी — वो पोटली जो उसके नाना जान की थी, और जो उसकी माँ ने मरने से पहले उसके हवाले की थी।
उस पोटली के अंदर क्या था — दुआ नहीं जानती थी।
माँ ने बस इतना कहा था:
"इसे तावीज़ (अमूल्य सुरक्षा) समझकर हमेशा अपने क़रीब रखना, एक दिन ये पोटली तुम्हारे लिए रास्ता खोलेगी।”
दुआ ने कभी उस पोटली को खोला नहीं। वो उसे हर वक़्त अपने साथ रखती थी — जैसे कोई अपनी रूह की हिफ़ाज़त करता है।
गाड़ी की रफ़्तार बढ़ रही थी और दुआ को लग रहा था जैसे वक़्त भी उसी रफ़्तार से आगे निकल रहा है।
उसका चेहरा खामोश था लेकिन आँखें बंद करके वो हर आने वाली सांस से जैसे अपने रब से हमकलाम (बातचीत) थी।
उसके होंठ बहुत हल्के से हिल रहे थे — शायद कोई दुआ माँग रही थी, या शायद खुद को तसल्ली दे रही थी।
और तभी...
दुआ की आँखें अचानक खुलती हैं। उसने अज़ान की अम्मी से एक इल्तिजा (निवेदन) की थी — रास्ते में पड़ने वाले उस जंगल नुमा इलाक़े में कुछ वक़्त ठहरने की।
अब वो जगह क़रीब थी। गाड़ी उस मोड़ पर पहुँच चुकी थी जहाँ दुआ को रुकना था।
शेख साहब ने ड्राइवर को इशारा किया, और गाड़ी एक घने पेड़ों वाले जंगल के किनारे रुक गई।
रात की खामोशी में पत्तों की सरसराहट और दूर से किसी परिंदे की आवाज़ सुनाई दे रही थी।
दुआ गाड़ी से उतरी। उसके क़दमों में सुकून था, लेकिन निगाहों में तलाश।
वो जंगल की ओर बढ़ रही थी — जैसे किसी आवाज़ ने उसे पुकारा हो।
जैसे कोई रूहानी ताक़त उसे अपनी तरफ़ खींच रही हो।
जैसे कोई ऐसा वजूद (अस्तित्व) उससे मिलने वाला हो, जो उसका इंतज़ार सदियों से कर रहा हो।
(इस जंगल में, दुआ की मुलाक़ात एक रूहानी शख़्सियत से होने वाली थी — एक बुज़ुर्ग, जो ज़ाहिर में एक फकीर या साधु दिखते थे, मगर जिनकी आँखों में सदियों की हिकमत और दिल में इल्म का समंदर था।
उनके लफ़्ज़ों में रहस्य था, और उनका इंतज़ार अब पूरा होने वाला था...)
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(लखनऊ की रात)
कमरे में लाइट्स ऑन थीं, लेकिन फिर भी अज़ान को ऐसा लग रहा था जैसे सब कुछ धुँधला है।
उसका चेहरा लैपटॉप की स्क्रीन की रौशनी में नीला पड़ रहा था। वो बार-बार फिल्में चला रहा था — एक, दो, तीन… लेकिन कोई भी उसे टिक के देखने लायक नहीं लग रही थी।
उसकी आँखों में तंग आ चुकी रूह की थकावट थी।
उसके दिल में वो बेचैनी थी जो किसी तूफ़ान से पहले की खामोशी जैसी होती है — भारी, बोझिल, और बेजुबान।
अचानक उसने ज़ोर से कुर्सी की पुश्त से पीठ टिकाई और आँखें बंद कर लीं।
दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़क रहा था… जैसे कोई अंदर से दरवाज़ा पीट रहा हो।
"क्या हो रहा है मुझे...?" उसने खुद से पूछा।
उसे याद नहीं कि कभी ऐसा महसूस हुआ हो —
ना किसी लड़की को खोकर,
ना किसी जीत के बाद,
ना किसी गुनाह के बाद —
ये बेचैनी अजनबी थी, लेकिन गहरी थी।
जैसे कोई साया उसके आसपास मंडरा रहा हो... लेकिन दिख नहीं रहा।
तभी मोबाइल की घंटी बजती है।
अज़ान (फोन उठाते हुए): "हेलो?"
दूसरी तरफ से समीर की आवाज़ आती है — हल्की हँसी और नशे की महक लिए हुए।
समीर: "अबे सुन… आज रात का पूरा इंतज़ाम है।
शराब, शबाब और हम सब आबाद।
वही पुराना फार्महाउस।
तू भी चल, मूड फ्रेश हो जाएगा।"
अज़ान होंठों पर मुस्कान लाता है — एक शैतानी सी हसि।
अज़ान: "तुम लोग नहीं सुधरोगे ना?
मतलब अगर मैं सोच लूँ कि मैं ये सब आज के लिए छोड़ दूँ,
तो भी तुम्हें चैन नहीं आता?"
समीर हँसते हुए: "अबे ओ मुरशिद!
जिसने हमें ये सब चखाया, अब वही तौबा कर रहा है?
तेरी वजह से ही तो ये आदतें लगीं हमें।"
(अज़ान की आँखों में हल्की चमक आती है… जैसे कोई पुराना गुनाह याद आया हो।
लेकिन वो चमक तुरंत बुझ जाती है — जैसे रौशनी को किसीने चुपके से फूंक मार दी हो।)
अज़ान (धीमे से): "ठीक है… सोचता हूँ।"
समीर: "ठीक है, बता देना। इंतज़ार रहेगा।"
फोन कट जाता है।
कमरे में फिर खामोशी छा जाती है।
लेकिन अब ये खामोशी किसी और तरह की है — भारी, डरावनी, और जान लेवा।
अज़ान खिड़की के पास जाता है। बाहर रात गहरी हो चुकी थी।
हवा चल रही थी… लेकिन वो सुकून नहीं दे रही थी,
बल्कि कानों में कोई फुसफुसाहट भर रही थी।
अज़ान के अंदर कोई चीख़ रहा था —
" क्यू रुका है जा ना वहाँ … उस तरफ़।
जो रास्ता तुझे खींच रहा है, वो तेरे ऐशो आराम का हिसाब माँगेगा।"
दूसरी तरफ उसके दिल मे पहलीं बार यह आवाज़ आती है-, “ यह रास्ता गलत है तेरे दादा भी तो यही समझाते है ना,
वो रास्ता तुझे बदल देगा… और शैतान को सबसे ज़्यादा डर इसी से होता है…"
अज़ान ने खुद को आइने में देखा —
चेहरा वैसा ही था, लेकिन नज़रें बदली हुई थीं।
जैसे किसीने उसके अंदर से नूर (रौशनी) की एक झलक छीन ली हो…
या शायद पहली बार उसमें नूर उतरने लगा हो — और यही बात शैतान को बर्दाश्त नहीं हो रही थी।
शैतान को हमेशा सबसे ज़्यादा बेचैनी तब होती है,
जब कोई गुनाहगार तौबा की दहलीज़ के करीब जाने की सोचता है।
और अज़ान… आज उस दहलीज़ पर अपना पहला कदम रखने की सोचा था।
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रात का अंधेरा लखनऊ की गलियों पर अपने सायों की चादर फैलाए हुए था। हर कोना खामोश था, मगर एक दिल था जो अंदर ही अंदर शोर मचाए जा रहा था — वो दिल अज़ान का था।
अज़ान अपने कमरे में बिस्तर पर बैठा था, मगर उसका जिस्म बेचैन था और रूह बेज़ार। वो अपनी हथेली से बार-बार अपनी गर्दन और सीने को मसल रहा था, जैसे कोई आग अंदर से उसे जला रही हो। उसने एक घूंट पानी लिया, मगर प्यास बुझी नहीं — ये प्यास जिस्म की नहीं थी, नफ़्स (خواہش – इच्छा) की थी।
अज़ान (अपने आप से बड़बड़ाते हुए):
"क्या है ये सब? क्यों आज कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा? ये वही रातें हैं... वही साया है... मगर आज कुछ अलग है। दिल जैसे खुद से ही लड़ रहा है।"
वो उठता है, लैपटॉप बंद करता है, और शीशे के सामने खुद को देखता है। आंखों में एक अजीब सी तलाश है — किसी हुस्न की, किसी लम्हे की जो उसे उस बेचैनी से राहत दे सके जो उसकी रग-रग में दौड़ रही थी।
अज़ान (फुसफुसाकर):
"शायद आज कोई ऐसी हुस्न परी (बहुत ख़ूबसूरत लड़की) मिल जाए... जो इस जलते हुए नफ़्स को ठंडक दे सके।"
वो अलमारी से अपनी जैकेट निकालता है, जेब से बाइक की चाबी उठाता है और चुपचाप दरवाज़ा खोलकर रात के अंधेरे में निकल जाता है। बाइक स्टार्ट होती है, और एक तेज़ आवाज़ के साथ वो अपने शहर की उन गलियों की तरफ निकल जाता है जहाँ से वो हर रात ‘सुकून’ की उम्मीद लेकर लौटता है, मगर खाली हाथ।
सड़कें सूनी थीं, मगर अज़ान की आंखों में एक गहरी तलाश थी। हर मोड़ पर, हर साए में, वो उस हुस्न की खोज में था जो शायद कभी उसका नफ़्स शांत कर सके। मगर वो नहीं जानता था कि नफ़्स की आग बुझती नहीं, बस और भड़कती है।
और इस रात — उसकी किस्मत में क्या लिखा है, उसे क्या मिलना है — ये तो उस जंगल की खामोशी जानती है जहाँ से दुआ का सफर शुरू हो रहा है... और शायद, अज़ान की असली आग भी।
दुआ उस वीरान और पुरसुकून (शांत) रास्ते पर ऐसे बढ़ती चली जा रही थी जैसे बरसों से जानती हो कि मंज़िल कहाँ है। लेकिन हकीकत (सच्चाई) ये थी कि वो पहली बार उस रास्ते पर कदम रख रही थी। उसकी चाल में एक यक़ीन (विश्वास) था, एक खामोशी थी, और साथ ही एक अजीब सी रूहानियत (आध्यात्मिकता)। उसके हर क़दम के साथ जंगल की फिज़ा (वातावरण) और भी गहराती जा रही थी, जैसे दरख़्त (पेड़) भी उसकी राह को पहचानते हों।
पीछे से शेख़ साहब और अज़ान की अम्मी भी कुछ फासले पर चल रहे थे। दिल में ये एहसास था कि ये लड़की जिस तरह से खामोशी में लिपटी हुई इस जंगल में बढ़ रही है, वहाँ कोई तो राज़ है जिसे वो जानने जा रही है।
कुछ ही देर में दुआ की नज़र सामने एक झोपड़ी पर पड़ी — झोपड़ी बहुत मामूली सी थी, मगर उसके बाहर से एक अजीब सी नूरानी (प्रकाशमय) रौशनी निकल रही थी। न ये आग थी, न कोई चिराग़, बल्कि ऐसा लगता था जैसे रूहानी नूर (अलौकिक रोशनी) आसमान से खुद उस चबूतरे पर उतर आया हो।
दुआ की चाल अब धीमी हो चुकी थी। वो बहुत एहतराम (सम्मान) से उस चबूतरे की तरफ़ बढ़ने लगी। चबूतरे पर एक बुज़ुर्ग (वृद्ध) शख़्स बैठे थे। सफेद ज़ुब्बा (लंबा कुरता), सफेद अमामा (पगड़ी) और चेहरे पर ऐसा सुकून जैसे बरसों की इबादत (उपासना) ने उन्हें वक़्त से भी आगे पहुंचा दिया हो। उनकी आँखें बंद थीं, होंठ हिल रहे थे — शायद तिलावत (क़ुरान की पाठ) कर रहे थे।
दुआ उनके सामने जा बैठी। उसने पर्दा (घूँघट/नक़ाब) पूरी तरह ओढ़ रखा था, फिर भी उसकी आँखों से दो मोती जैसे आँसू लुढ़ककर उसकी हथेलियों पर आ गिरे। उस बुज़ुर्ग ने अपनी आँखें खोलीं — उसमें ऐसा नूर था कि पल भर को वक़्त भी थम जाए। उन्होंने कुछ नहीं कहा, सिर्फ़ दुआ को देखा... और दुआ ने उन्हें देखा।
कोई लफ़्ज़ नहीं, कोई आवाज़ नहीं। सिर्फ़ ख़ामोशी... मगर वो ख़ामोशी भी कुछ कह रही थी।
दूर खड़े शेख़ साहब हैरानी में थे। ये मंजर (दृश्य) उन्हें अंदर तक झंझोर रहा था। एक घंटा बीत गया, मगर न दुआ ने कुछ कहा, न वो बुज़ुर्ग बोले। मगर ऐसा लग रहा था जैसे दोनों के बीच रूहें बातें कर रही हों।
इस एक मुलाक़ात ने वक़्त को बाँध लिया था। जंगल अब भी खामोश था, मगर उस खामोशी में कुछ बदल गया था — जैसे हवा में कोई दुआ घुल गई हो, जैसे किसी दरवाज़े पर दस्तक दी गई हो… रूह की दस्तक।
रात का सन्नाटा बहुत गहरा हो चुका था। जंगल की ठंडी हवाओं में एक अजीब सी खामोशी थी, लेकिन उस झोपड़ी के बाहर का चबूतरा अब भी एक अजीब रूहानी नूर (दिव्य प्रकाश) से रोशन था — बिना किसी दिया, बिना किसी आग के।
दुआ अब भी उस बुज़ुर्ग के सामने बैठी थी। उसकी आँखें आँसुओं से भरी थीं लेकिन उसके चेहरे पर डर नहीं था, बस एक अजीब सी तसल्ली और सुकून था।
करीब एक घंटे की खामोशी के बाद वो बुज़ुर्ग हल्के से मुस्कराए, और अपनी झुकी हुई हथेली दुआ के सर पर रख दी। दुआ ने आँखें बंद कर लीं और जैसे उसके अंदर कोई तूफान थम गया हो।
पहला लफ्ज़ जो उनके होंठों से निकला, वो शेख साहब को देखकर था। उन्होंने गहरी आवाज़ में कहा:
"ख़ुदा ने तुम्हें एक अमानत सौंपी है... अपने किसी भी ज़ाती मक़सद (स्वार्थ) के लिए इस बच्ची को नुकसान मत पहुँचाना।"
शेख साहब सन्न रह गए। उनके चेहरे पर ऐसा सवाल था जैसे किसी ने उनके छुपे हुए इरादों को पढ़ लिया हो।
"आपको कैसे मालूम...?" शेख साहब के लब हिले ही थे कि बुज़ुर्ग ने हाथ उठाकर उन्हें रोक दिया:
"हमें कुछ सुनना नहीं है... ना ही कुछ बताना है। जो होना है, वो होकर रहेगा। मगर जो होने वाला है, उसमें इस बच्ची को बहुत तकलीफ़ों से गुज़रना पड़ेगा। और हर उस तकलीफ़ में आपको इसका रहनुमा (मार्गदर्शक) बनना होगा, नहीं तो आप भी उस हिसाब का हिस्सा बनेंगे जिसका वक़्त अब दूर नहीं।"
शेख साहब की नज़रें झुक गईं।
इसके बाद बुज़ुर्ग ने दुआ के हाथ में रखी वो पुरानी पोटली ली — वही पोटली जो उसकी माँ ने उसे एक तावीज़ समझकर सौंपा था। बिना कुछ पूछे, बिना कुछ बोले।
और फिर उन्होंने अपने पास से एक सफेद, चमकती हुई नई पोटली निकाली — एकदम हल्की लेकिन उसका वजूद भारी था। उन्होंने वो पोटली दुआ के हाथों में रख दी और सिर्फ इतना कहा:
"अब तू तैयार है..."
दुआ की आँखों से बहते आँसू अब तेज़ हो चुके थे। उसने उस पोटली को अपने सीने से ऐसे लगाया जैसे कोई खोई हुई चीज़ फिर मिल गई हो। वो कुछ कहना चाहती थी, मगर ज़ुबान पर ताला था — जैसे उनके दरमियान जो कुछ हुआ, वो अल्फ़ाज़ से ऊपर था।
फिर वो बुज़ुर्ग झोपड़ी की तरफ मुड़े, और बिना पीछे देखे अंदर चले गए।
दुआ धीरे-धीरे उठी। उसके क़दम अब भी भारी थे, लेकिन उसमें एक अलग सी रौशनी थी। शेख साहब और अज़ान की अम्मी कुछ दूरी पर खड़े थे, सारा मंजर देखकर हैरान थे लेकिन उनकी हैसियत कुछ पूछने की नहीं थी। वे बस चुपचाप उसके पीछे-पीछे वापस गाड़ी की तरफ चल दिए।
दुआ गाड़ी में बैठते वक़्त एक आख़िरी बार उस झोपड़ी को देखती है, जहाँ से नूर निकल रहा था... और फिर नज़रें झुका लेती है।
गाड़ी चल पड़ती है… मगर अब ये दुआ वो दुआ नहीं रही थी जो जंगल में आई थी। अब वो एक अमानत थी… एक रहस्य थी… एक सफ़र की शुरुआत।
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तीन साढ़े तीन बजे का वक्त था। रात अपनी पूरी तारीकी (अंधकार) में डूबी हुई थी। अज़ान अपने गुनाहों की गर्दिश (चक्कर, घूमना) से लौट रहा था। उसकी चाल में थकावट नहीं, एक अजीब सी उलझन थी। जिस जिस्मानी लुत्फ़ (शारीरिक सुख) की तलाश में वो रात के अंधेरों में भटकता रहा, आज फिर वही तसल्ली (सुकून, संतोष) उसके हाथ नहीं लगी।
उसका चेहरा उतरा हुआ था, आँखों में सुर्ख़ी (लाली) थी और होठों पर बेनाम ख़ामोशी (चुप्पी)। जिस नफ़्स (अंदर का गंदा ख्याल, इच्छा) की आग को बुझाने के लिए उसने फिर एक बार अपनी रूह (आत्मा) को गिरवी रख दिया था, वो आग अब और भड़क गई थी।
गाड़ी मोड़ते हुए उसने घड़ी देखी — तीन बजकर सैंतीस मिनट हो चुके थे। हमेशा की तरह, अपने नाना जान की नमाज़-ए-फ़ज्र (सुबह की नमाज़) से पहले वो घर लौट आया था। ये उसका रोज़ का दस्तूर (आदत, रूटीन) था — गुनाह कर के लौट आना, और किसी को खबर तक न हो।
लेकिन आज की रात, ये दस्तूर टूटने वाला था।
जैसे ही उसने अपनी गाड़ी पोर्च में रोकी और दरवाज़ा बंद कर के घर की तरफ क़दम बढ़ाया, गेट के खुलने की एक सर्द आवाज़ उसके कानों से टकराई। उसने पलट कर देखा — शेख साहब की काली गाड़ी अंदर दाख़िल हो रही थी।
उसके चेहरे का रंग उड़ गया। झट से वो बरामदे के एक सायेदार (छायादार) कोने में जा छुपा, जहाँ रोशनी कम थी। उसकी साँसें तेज़ चल रही थीं। उसे डर था कि अगर उसके दादा ने उसे इस हालत में देख लिया, तो न सिर्फ़ उनकी आँखों में शर्मिंदगी (हिचक, शर्म) का साया उतर आएगा, बल्कि शायद उनकी निगाहों में उसका वजूद भी गिर जाएगा।
गाड़ी की रफ्तार थमी और उसका दिल जैसे किसी अनदेखे तूफ़ान की आहट सुनने लगा।
सबसे पहले ड्राइवर उतरा, फिर शेख साहब, उसके बाद आज़ान की अम्मी और आखिर में... उस तरफ़ का दरवाज़ा खुला, जहाँ दुआ बैठी थी।
दुआ ने जैसे ही गाड़ी से पहला क़दम बाहर रखा, उसके पाँव की आहट शेख विला की ज़मीन पर पड़ी। और उसी पल, अज़ान का दिल ज़ोरों से धड़कने लगा। इतनी तेज़ धड़कनें उसने कभी महसूस नहीं की थीं।
उसने महसूस किया — हवा में कोई खुशबू, कोई हल्की सी नर्मी तैर रही है। एक पाकीज़ा (पवित्र) एहसास, जो उसकी रूह को छू रहा था लेकिन छीन नहीं पा रहा था।
वो दूर से दुआ को देख रहा था — उसका पूरा जिस्म पर्दे में ढँका हुआ था। सिर्फ़ उसकी चाल और उसकी मौजूदगी थी जो किसी पाक परछाईं (पवित्र परछाई) की तरह लग रही थी।
अज़ान के ज़हन (दिमाग़) में एक सवाल गूंज रहा था —
"ये कौन है? और क्यों मेरे अंदर सब कुछ हिल सा गया है?"
उसकी आँखों में कुछ देर के लिए नशा भी उतर गया था और दिल में एक तड़प सी पैदा हो गई थी। ऐसा लग रहा था जैसे शैतान की बनाई हुई रात में, अचानक ख़ुदा का नूर (प्रकाश) उतर आया हो।
लेकिन उसे नहीं पता था —
ये सिर्फ़ एक शुरुआत थी, एक ऐसी शुरुआत जिसने उसकी तक़दीर की करवट बदलनी शुरू कर दी थी।
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आगे का chaptr jldi चाहिए तो कमैंट्स करना jldi jldi
दुआ, अम्मी और शेख साहब विला के अंदर दाख़िल हो चुके थे।
अज़ान अभी भी पोर्च के कोने में खड़ा था, छाया में, अंधेरे में। वो न हिला, न बोला। बस खड़ा रहा। उसके जिस्म (शरीर) पर हरकत नहीं थी, लेकिन अंदर… अंदर कुछ टूट रहा था, कुछ ज़ोरों से हलचल कर रहा था।
उसकी बदहवासी (घबराहट, अजीब बेचैनी) बढ़ती जा रही थी।
दिल में उठती एक अनजानी सी गर्म लहर, सांसों की रफ्तार में घुटन, और आंखों के सामने धुंध सी छाई थी। ऐसा लग रहा था जैसे उसकी रगों में दौड़ता लहू अब वही नहीं रहा। उस लड़की के कदमों की आहट, उसकी मौजूदगी, उसकी पाकीज़ा हवा... सब उसके अंदर किसी तूफान की तरह गूंज रही थी।
वो बस ख़ामोशी से वहीं खड़ा रहा। समय ठहर गया था।
करीब पंद्रह-बीस मिनट यूँ ही गुजर गए।
फिर अचानक जैसे कोई झटका लगा हो — अज़ान को होश आया। वो एकदम चौंका। उसकी आंखें तेज़ी से चारों तरफ़ घूमीं।
"क्या ये सब... सपना था?"
"वो लड़की... उसका आना... उसकी रूह से निकली हवा...?"
उसने अपने सीने पर हाथ रखा। दिल अब भी तेज़ धड़क रहा था। ये सपना नहीं था। कुछ तो था जो हुआ था।
वो एकदम अंदर की तरफ भागा — तेज़ क़दमों से, जैसे किसी खोई चीज़ को ढूंढना हो। ड्राइंग रूम, लॉबी, सीढ़ियाँ... हर जगह देखा।
लेकिन घर जैसे वीरान था।
ना शेख साहब नज़र आए, ना अम्मी, ना वो लड़की...
सब कुछ जैसे वैसा ही था, लेकिन वो लोग जैसे कभी आए ही नहीं थे।
तभी, पीछे से बर्तनों की हल्की आवाज़ आई।
वो मुड़ा — एक नौकरानी, जो घर में सुबह की फ़ज्र (सुबह की पहली नमाज़) से सफाई का काम शुरू करती थी, रसोई की तरफ जा रही थी।
अज़ान उसके पास पहुँचा, आवाज़ भरी हुई थी, लेकिन बोलना मुश्किल था।
"वो... दादा जान... अम्मी... वो लोग… आ गए?"
उसकी आवाज़ काँप रही थी।
नौकरानी ने सिर हिलाया, "जी साहब, थोड़ी देर पहले आए थे। अपने कमरों में हैं।"
अज़ान कुछ पल खामोश रहा, फिर उसने हिम्मत जुटाकर पूछना चाहा —
"और... वो... उनके साथ जो लड़की आई थी..."
लेकिन उसके लबों पर जैसे ताले लग गए थे।
होंठ काँपे, गला सूख गया, लेकिन लफ्ज़ (शब्द) नहीं निकले।
नौकरानी ने सिर झुकाया,और किचन मे चल दी,
अज़ान वहीं खड़ा रहा। और नज़र घुमा कर pure घर को देखता रहा, इस उम्मीद मे की वो लड़की शायद अब भी यही कही हों।..
लेकिन हक़ीक़त मे दुआ को अज़ान की अम्मी अपने रूम मे ले गई थी वो वही नहा धो कर फज्र की नमाज़ की तयारी मे लग चुकी थी..
अज़ान की नज़रों के सामने अभी भी उसी लड़की की परछाई घूम रही थी। एक पाक रूह (पवित्र आत्मा) की तरह वो आई थी और जैसे उसके अंदर कोई दरवाज़ा खोल गई थी… एक ऐसा दरवाज़ा जिसे वो कभी छूने की हिम्मत नहीं करता था।
वो अब भी सोचों में गुम, लहूलुहान एहसासात के बीच खड़ा था कि तभी पीछे से हल्के क़दमों की आवाज़ आई।
"अज़ान?"
नरम मगर परेशान सी आवाज़ थी — उसकी अम्मी की।
अज़ान हड़बड़ा गया।
वो झट से पलटा और उनकी तरफ देखने लगा, जैसे किसी गुनाहगार को रंगे हाथों पकड़ लिया गया हो।
"तुम यहाँ… इस वक़्त... नीचे हाल में क्या कर रहे हो, बेटा?"
अम्मी की आवाज़ में हैरानी भी थी और चिंता भी।
अज़ान अभी कुछ कह ही नहीं पाया था वो कुछ कहता उससे पहले ही आज़ान कि अम्मी की नज़रें उसके कपड़ों पर गईं — बिखरे बाल, आँखों की सुर्खी (लालिमा), और बदन से उठती शराब की बू।
उनका चेहरा फिक़ (फीका, पीला) पड़ गया।
"या अल्लाह…" वो बस इतना कह सकीं और फिर उनके हाथ जुड़ गए, "ख़ुदा का वास्ता है, अज़ान… प्लीज़ ऊपर अपने रूम मे चले जाओ। अगर तुम्हारे दादाजान ने तुम्हें इस हालत में देख लिया तो वो बरबाद कर देंगे तुम्हें भी… और हमें भी…"
अज़ान का सिर झुक गया। अम्मी के लफ़्ज़ उसकी आत्मा से टकराए लेकिन हमेशा की तरह कुछ असर ना किया उन शब्दों ने क्यू की अज़ान आज उस रूहानी लड़की की सोच में डूबा हुआ था, मगर उसकी अम्मी की आवाज़ ने उसे खींचकर ज़मीन पर ला खड़ा किया।
उसने बिना कुछ कहे सिर हिलाया और चुपचाप सीढ़ियाँ चढ़ने लगा।
उसके हर क़दम में अब भी झिझक थी, लेकिन इस बार किसी गुनाह की नहीं — किसी अनजानी कसक की।
वो लड़की… वो हवा… उसकी परछाई …
वो सब अब भी उसके साथ थीं।
वो सोच रहा था —
"अगर ये सब एक ख्वाब था… तो काश ये ख्वाब कभी खत्म ना हो।
और अगर हक़ीक़त थी…
तो क्या फिर कभी वो मुझे नज़र आएगी?"
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कमरे में दाख़िल होते ही अज़ान ने दरवाज़ा बंद किया और पीठ दीवार से लगा दी।
साँसें तेज़ थीं लेकिन अब उनमें पहले जैसा नशा नहीं था — अब उनमें खलिश (भीतर की बेचैनी) थी।
पहली बार वो सीधा बिस्तर पर गिरने की जगह बाथरूम की तरफ बढ़ा।
शॉवर खोला और ठंडा पानी उसके बदन से टकराया।
शराब की बू उसके जिस्म से धुलती जा रही थी,
लेकिन दिल पर चढ़ा हुआ वो असर — दुआ की पहली झलक का असर — वो उतर नहीं रहा था।
उसने आँखें बंद कीं, और फिर देखा —
दुआ की वो अदा,
कार का दरवाज़ा खुलना,
ज़मीन पर उसका पहला क़दम पड़ना,
और फिर वो सुकून भरी हवा (आराम देने वाली ठंडी हवा) जो जैसे सिर्फ उसी के लिए बही थी।
अज़ान की रूह काँप उठी।
"क्या वो हकीकत थी... या मैं फिर से किसी वहम (गलतफहमी) में हूँ?"
उसने पानी बंद किया और बाथरूम के शीशे में अपनी शक्ल देखी।
"आज… क्या हुआ है मुझे?"
गिले बालों के साथ वो चुपचाप खिड़की के पास आकर खड़ा हो गया।
कमरे की रौशनी बंद थी, बाहर हल्की सी नीलिमा छाने लगी थी।
तभी…
अज़ान की अज़ान शुरू हुई —
"अल्लाहु अकबर… अल्लाहु अकबर…"
उसने कभी ये लफ्ज़ इस तरह नहीं सुने थे।
क्योंकि वो कभी इस वक़्त जागा ही नहीं था।
आज पहली बार… उसका दिल धड़कते हुए ये पाक सदा (पवित्र पुकार) सुन रहा था।
अज़ान की आँखों में नमी तैर आई। ना जाने क्यू बस आगई
उसका ज़हन सवालों से भरा हुआ था,
लेकिन उन सवालों में पहली बार सुकून की हल्की झलक थी।
आज पहली बार उसने नशा करके खुद को नहीं भुलाया,
बल्कि पहली बार —
किसी को याद करके खुद को पाया।
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अज़ान की अम्मी का रूम,
दुआ......