Novel Cover Image

A Love Contract

User Avatar

kumkum Anuragi

Comments

2

Views

226

Ratings

12

Read Now

Description

क्या हो जब मोहब्बत मुकम्मल होकर भी मुकम्मल ना हो इसकी ऐसी तासीर जो पूरी होकर भी अधूरी रहेगी यह कहानी है आरम्भ अग्निहोत्री और नंदिता की । इश्क में उलझे दो दिलों की तकरार , जिसका मिलना तो मुमकिन हुआ लेकिन इश्क किस्मत में ना टिक सका । अपनो की खातिर लिय...

Total Chapters (16)

Page 1 of 1

  • 1. A Love Contract - Chapter 1

    Words: 2138

    Estimated Reading Time: 13 min

    Love Contract 1



    कमरा अंधेरे में डूबा था, लेकिन उसमें मौजूद नशे की तपिश दीवारों से टकराकर लौट रही थी। हल्की-हल्की शराब की महक हवा में घुली हुई थी, और सांसों की आवाज़ें उस माहौल को और भी भारी बना रही थीं।



    लड़की लड़खड़ाते कदमों से कमरे की ओर बढ़ी, दरवाजे को हल्का-सा धकेलते ही उसने देखा कि वह पहले से अधखुला था। अंदर घुसते ही वह अचानक किसी के नंगे, गर्म पीठ से टकरा गई। लड़का धीरे-से मुड़ा, उसकी आँखें नशे से आधी झुकी हुई थीं, मगर सामने खड़ी लड़की को देखते ही उनमें एक अजीब-सी सख्ती उभर आई।



    "क्या कर रही हो यहाँ?" उसकी भारी, कड़क आवाज़ कमरे की खामोशी चीर गई।



    लड़की मुस्कुराई, उसकी मदहोश आँखें लड़के के चेहरे पर जाकर टिक गईं। उसने अपनी नाज़ुक हथेलियाँ लड़के के चेहरे पर रख दीं और धीमे से फुसफुसाई—



    "तुम कितने खूबसूरत हो... तुम्हें देखते ही मेरा दिल मेरे बस में नहीं रहता।"



    लड़के की आँखें संकरी हुईं, यह पहली बार था जब कोई बिना झिझक उसके इतने करीब आया था। उसके लहज़े में जो चाहत की खुमारी थी, उसने उसे हैरान कर दिया।



    लड़का हल्का-सा झुका और अपनी उँगलियाँ लड़की के चेहरे पर फिराने लगा। "और क्या-क्या होता है मुझे देखकर?" उसकी आवाज़ में एक अजीब-सा खिंचाव था।



    लड़की की धड़कनें बेकाबू हो गईं। उसने धीरे-से लड़के की गर्दन के पीछे उँगलियाँ फेरीं और उसकी आँखों में झांकते हुए बोली—



    "तुम्हारी आँखें... इतनी गहरी हैं कि मुझे लगता है जैसे मैं उनमें डूब रही हूँ..."



    लड़के के होंठों पर एक हल्की-सी मुस्कान आई, मगर वह अब भी शॉक में था। वह किसी लड़की को अपने करीब आने नहीं देता था, लेकिन आज... आज कुछ अलग था।



    लड़की की सांसें उसकी ठुड्डी के पास गर्माहट बिखेर रही थीं। उसने हल्के-से अपनी उँगलियाँ लड़के के होंठों पर फिराईं, उसकी मदहोश आँखों में चाहत थी।



    "तुम्हारे होंठ... ये बहुत खूबसूरत हैं," लड़की ने धीमे से कहा, "इन्हें देखकर तो खाने का दिल करता है।"



    लड़के की आँखों में एक तीखी चमक उभरी। उसने लड़की की कलाई पकड़कर उसे अपने करीब खींचा। "इन्हें खाना चाहती हो?" उसकी आवाज़ गहरी और उन्माद से भरी हुई थी।



    लड़की ने सिर हिलाया। उसकी मासूमियत और नशे की मदहोशी ने उसे और भी बेकाबू बना दिया था। उसकी उँगलियाँ अब भी लड़के के चेहरे पर खेल रही थीं। लड़के ने गहरी सांस ली और उसके गुलाबी होंठों के बेहद करीब जाकर फुसफुसाया—



    "अगर एक बार मेरे करीब आ गई, तो फिर मुझसे दूर जाना तुम्हारे लिए नामुमकिन हो जाएगा।"



    इसके बाद उसके होंठ लड़की के होंठों से टकरा गए। गर्म, मुलायम, और नशीले। लड़की की सांसें तेज़ हो गईं, उसकी उँगलियाँ लड़के के बालों में धंस गईं।



    लड़का उसके जिस्म के हर एहसास को अपने करीब महसूस कर रहा था। उसके हाथ लड़की की कमर से होते हुए उसकी पीठ पर फिसले, और वह उसे और करीब खींचने लगा। लड़की के होंठों की मिठास, उसकी मदहोश आहें, सब कुछ जैसे उसे अपनी गिरफ्त में लेने लगा था।



    लड़की की उँगलियाँ अब लड़के की चौड़ी छाती पर सरक रही थीं, उसकी सांसें और गहरी हो गई थीं। लड़के ने उसके बालों को पीछे किया, उसकी गर्दन पर हल्के-से होंठ रखे। लड़की का बदन सिहर उठा, और उसकी उँगलियाँ लड़के की पीठ पर कस गईं।



    यह रात लंबी थी… और दोनों की धड़कनों की रफ़्तार इसे और भी बेचैन बना रही थी।



    कमरे में हल्की रोशनी भी नहीं थी, लेकिन सांसों की तपिश और बदन की गर्माहट से माहौल भरता जा रहा था। लड़की का बदन हल्का-सा कांप रहा था, मगर उसकी आँखों में नशे का वही खुमार था, जो उसके होंठों पर खेलती मुस्कान में भी झलक रहा था।



    लड़के की उंगलियाँ लड़की की नर्म हथेलियों से उसके कंधों तक आईं, फिर धीरे-से उसकी गर्दन पर फिसलने लगीं। उसकी साँसें अब और भारी हो गई थीं। लड़के ने उसकी ठोड़ी को हल्का-सा ऊपर किया और अपनी उंगलियों से उसकी गरदन को सहलाते हुए फुसफुसाया—



    "तुम्हारी स्किन... इतनी नर्म है, जैसे रेशम..."



    लड़की की धड़कनें और तेज़ हो गईं।



    उसके होंठों से अब भी शराब की हल्की-सी खुशबू आ रही थी, जो लड़के को और भी बेकाबू कर रही थी। उसकी उंगलियाँ अब लड़की की कमर पर फिसल रही थीं, और वह उसके करीब झुकते हुए बोला—



    "मैं तुम्हें महसूस करना चाहता हूँ..."



    लड़की ने अपनी आँखें बंद कर लीं। लड़के ने धीरे-से अपने होंठ उसकी गर्दन पर रख दिए, और जैसे ही उसने पहला हल्का चुंबन दिया, लड़की के बदन में एक हल्की-सी सिहरन दौड़ गई।



    लड़के के होंठ अब उसकी कॉलरबोन से नीचे की तरफ फिसल रहे थे, उसकी सांसें लड़की की त्वचा पर हल्के-से गर्मी बिखेर रही थीं। लड़की की उंगलियाँ लड़के की पीठ पर कस गईं, और उसकी मदहोश आवाज़ धीमे से निकली—



    "तुम्हारी हर छुअन... मुझे पागल कर रही है..."



    लड़का मुस्कुराया, लेकिन उसने अपनी उँगलियों से लड़की की कमर को और कसकर पकड़ लिया।



    "तो फिर इसे रोकना मत," उसने धीरे से कहा।



    इसके बाद उसने लड़की को हल्के से बिस्तर पर गिरा दिया, और खुद उसके ऊपर झुक गया। उसकी उँगलियाँ अब लड़की की जांघों पर फिसल रही थीं, और होंठ उसके कंधों से होते हुए नीचे की तरफ बढ़ रहे थे।



    हर स्पर्श, हर किस... लड़की की सांसों को और भी भारी बना रही थी।कमरा अब सिर्फ उनकी मदहोश आहों से गूंज रहा था…



    लड़की के बदन पर हल्की-सी सिहरन दौड़ रही थी। उसके रोंगटे खड़े हो गए थे, लेकिन उसकी आँखों में नशे की हल्की-सी परत अब भी थी, जैसे उसे इस लम्हे की हकीकत और ख्वाब में कोई फर्क न लग रहा हो।



    लड़के की उंगलियाँ अब उसकी जांघों से होते हुए धीरे-से ऊपर बढ़ने लगीं। उसके होंठ अब भी उसकी त्वचा को छूते हुए उसकी सांसों में उतर रहे थे। लड़की की साँसें गहरी हो गईं। उसकी नाजुक उंगलियाँ लड़के के बालों में उलझ गईं, जैसे वह उसे खुद से दूर नहीं जाने देना चाहती थी।



    "तुम्हारी ये छुअन…" लड़की की आवाज़ कंपकंपा गई। "मुझे खुद में खोने पर मजबूर कर रही है…"



    लड़का हल्का-सा मुस्कुराया, लेकिन उसकी आँखों में अब एक अलग-सी लपट थी। उसने लड़की की कमर पर अपनी पकड़ और मजबूत कर दी, उसे अपने और करीब खींचते हुए उसके कान के पास फुसफुसाया—



    "अगर मैं तुम्हें पूरी तरह खो जाने दूं, तो क्या तुम खुद को मुझे सौंप दोगी?"



    लड़की ने अपने होंठ हल्के से भींच लिए। उसकी साँसें लड़के के गाल से टकरा रही थीं। उसने धीरे से अपनी आँखें खोलीं और लड़के की नीली आँखों में झाँका। वहाँ सिर्फ एक सवाल नहीं था, वहाँ एक इंतजार था—उसके जवाब का।



    लड़की ने धीरे से अपना चेहरा आगे बढ़ाया, और अपने होंठों को लड़के के होंठों पर रख दिया।



    एक मुलायम, लेकिन गहरी किस।



    लड़का चौंक गया, मगर अगले ही पल उसने लड़की की पीठ पर अपनी उंगलियाँ गड़ा दीं, उसे और कसकर पकड़ लिया।



    अब उसकी हर छुअन और भी गहरी होती जा रही थी। उसकी उंगलियाँ लड़की की कमर से होते हुए उसकी नंगी पीठ पर फिसलने लगीं। उसकी उँगलियों की गर्मी लड़की की त्वचा पर पिघल रही थी, और उसकी साँसें लड़की की गर्दन पर जलती हुई महसूस हो रही थीं।



    "अब तुम मुझसे दूर नहीं जा सकती," लड़के ने उसके होठों पर हल्की काट छोड़ते हुए कहा। "मैंने तुम्हें अपने करीब बुलाया है… अब मैं तुम्हें जाने नहीं दूंगा।"



    लड़की की आँखें हल्की-सी भीग गईं, मगर उसमें अब भी एक नशा था।



    लड़के की उंगलियाँ अब लड़की के हर हिस्से को महसूस कर रही थीं, उसकी त्वचा पर अपने अधिकार की छाप छोड़ रही थीं।कमरे की हवा अब और भी भारी हो चुकी थी।उनकी मदहोश साँसें एक-दूसरे में उलझ गई थीं।



    लड़की की साँसें अब तेज़ हो रही थीं, उसकी पलकों की हल्की कंपन इस बात की गवाह थी कि वह इस नशे में खुद को पूरी तरह खो चुकी थी। लड़के की उँगलियाँ उसकी पीठ पर एक धीमी लय में चल रही थीं, जैसे कोई कलाकार कैनवास पर अपनी पसंदीदा पेंटिंग बना रहा हो।



    लड़की ने अपनी उंगलियाँ लड़के की गर्दन के इर्द-गिर्द लपेट दीं, उसकी हल्की सी पकड़ में एक अजीब-सा आकर्षण था, मानो वह उसे पूरी तरह अपने करीब खींचना चाहती हो।



    "मुझे कभी जाने दोगे?" लड़की ने धीमे से फुसफुसाया, उसकी आँखें अब भी अधखुली थीं।



    लड़के ने हल्का-सा मुस्कुराकर उसके होंठों के करीब अपना चेहरा लाया और बेहद धीमी आवाज़ में कहा—



    "अब तुम्हें मुझसे कोई दूर नहीं कर सकता..."



    यह कहते ही उसके होंठ लड़की की गर्दन पर उतर आए। वह बेहद नर्मी और गहराई से उसे चूम रहा था, जैसे उसकी त्वचा से अपनी पहचान दर्ज कर रहा हो। लड़की का बदन हल्का-सा कांपा, और उसने खुद को लड़के की बाहों में ढीला छोड़ दिया।



    उसकी उँगलियाँ अब लड़की की पीठ से नीचे की तरफ फिसलने लगीं, उसकी नर्म कमर को अपने स्पर्श से महसूस करते हुए। लड़की की साँसें और तेज़ हो गईं, उसने अपनी उँगलियाँ लड़के की पीठ पर गड़ा दीं।



    लड़के ने हल्के-से उसके होंठों को अपने होंठों में समेट लिया, जैसे कोई सबसे कीमती चीज़ को अपने अंदर कैद कर लेना चाहता हो।



    उसके होंठ अब लड़की के कंधों तक उतर आए थे, उसकी कोमल त्वचा पर अपनी दबी हुई साँसों की गर्मी छोड़ते हुए। लड़की के बदन में सिहरन दौड़ गई, और उसने खुद को लड़के की पकड़ में और समेट लिया।



    "तुम्हारी हर गहरी सांसे..." लड़की ने हल्की आवाज़ में कहा, "मुझे पागल कर रही है।"



    लड़का हल्के से हंसा, उसकी उंगलियाँ अब लड़की की नंगी पीठ पर अपनी छाप छोड़ रही थीं। उसने लड़की को पलट दिया और उसके चेहरे को अपने दोनों हाथों में थाम लिया। उसकी गहरी, मदहोश आँखों में कुछ ऐसा था, जो लड़की को और डुबो रहा था।



    लड़के ने लड़की के होंठों को अपनी गिरफ्त में लिया, इस बार ज्यादा गहराई से, ज्यादा अधिकार से। लड़की का बदन उसकी पकड़ में पूरी तरह ढल चुका था।



    उसके बाद, कमरे में बस उनकी भारी होती साँसों की आवाज़ थी, उनकी रूह तक उतरती हुई छुअन की गर्मी थी।



    रात और भी गहरी हो चुकी थी… लेकिन उनके बीच जो हो रहा था, वह इस रात से कहीं ज्यादा गहरा था।





    लड़की की साँसें बेकाबू हो रही थीं, और लड़के की आँखों में एक अजीब-सा खिंचाव था, जैसे वो इस पल को हमेशा के लिए अपने भीतर समेट लेना चाहता हो। उसके होंठ लड़की की गर्दन के पास ठहर गए, और हल्के-से कांपते हुए उसने उसकी नाजुक त्वचा पर एक गहरी, मखमली छुअन छोड़ दी। लड़की की पलकों ने हल्का कंपन किया, और उसकी उंगलियाँ खुद-ब-खुद लड़के की शर्ट को जकड़ने लगीं।



    लड़के के होंठ उसके कंधे से नीचे की तरफ खिसकते गए, उसकी हर छुअन लड़की के भीतर एक अलग एहसास को जगा रही थी। उसकी सांसें गर्म हो गई थीं, दिल की धड़कनें इतनी तेज़ कि कमरे की नीरवता में भी गूंज रही थीं। लड़के की उँगलियाँ लड़की की कमर के इर्द-गिर्द घूम रही थीं, उसकी नर्म, गर्म त्वचा को हल्के-हल्के महसूस कर रही थीं।



    लड़की के शरीर में एक मीठी सी बेचैनी समा रही थी। उसने हल्के से सिर झुका लिया, जैसे खुद को इस एहसास के हवाले कर देना चाहती हो। लड़के ने धीरे से उसकी ठोड़ी उठाई, उसकी आँखों में देखा—वो आँखें जो उस वक्त चाहत, नशे और कुछ अनकहे जज़्बातों से भरी हुई थीं।



    "तुम्हें एहसास भी है, तुम मुझसे क्या करवा रही हो?" लड़के की आवाज़ धीमी मगर भारी थी, जैसे उसकी धड़कनें भी इस आग में जल रही हों।



    लड़की हल्के से मुस्कुराई, उसकी उंगलियाँ लड़के की गर्दन पर कस गईं। "शायद..." उसकी आवाज़ फुसफुसाहट से ज़्यादा कुछ नहीं थी, लेकिन उस फुसफुसाहट में भी एक मोहक खिंचाव था।



    लड़के ने अब उसे पूरी तरह से अपने करीब कर लिया। उनके बीच अब कोई फासला नहीं था। उसकी गर्म हथेलियाँ लड़की की पीठ पर फिसलने लगीं, हर छुअन एक मीठी सिरहन छोड़ रही थी। लड़की की साँसें लड़के के कंधे पर बिखरने लगीं, और उसने अपने होठों से उसके कानों के पास हल्की छुअन दी—इतनी धीमी, इतनी कोमल कि लड़की के पूरे शरीर में एक झुरझुरी दौड़ गई।



    लड़के ने धीरे से उसे बिस्तर पर लिटा दिया, उसकी उंगलियाँ लड़की की बाहों को सहलाने लगीं, और उसका चेहरा अब लड़की के चेहरे के बेहद करीब था। उसकी सांसें, उसकी महक, उसके स्पर्श—सब कुछ उस लम्हे को और मदहोश बना रहे थे।



    "अगर अब भी पीछे हटना चाहती हो तो बोलो..." लड़के की आवाज़ अब और भी भारी हो गई थी।



    लड़की ने हल्के से सिर हिलाया। उसकी आँखों में कोई झिझक नहीं थी, बस एक अजीब-सा सम्मोहन था, जिसने उसे पूरी तरह से लड़के के हवाले कर दिया था।



    लड़के ने हल्के से मुस्कुराते हुए उसके होठों को अपने होठों से सील कर लिया। एक नर्म, मदहोश कर देने वाला एहसास, जो वक्त को रोक देने की ताकत रखता था। कमरे में अब बस दो दिलों की धड़कनें गूंज रही थीं, और वो दोनों एक-दूसरे में खो चुके थे—हर फासला मिट चुका था, हर एहसास हकीकत बन चुका था।



    To be countinue ✍🏻 ✍🏻 ✍🏻 

    Don't forget to like share comment guy's 

  • 2. A Love Contract - Chapter 2

    Words: 2694

    Estimated Reading Time: 17 min

    Love Contract 2



    अगली सुबह...



    जब उस लड़की की आँखें खुलीं, तो धूप की हल्की किरणें पर्दों से छनकर उसके चेहरे पर पड़ रही थीं। लेकिन उसकी नज़रें धुंधली थीं, जैसे किसी गहरे ख़्वाब से जागी हो। वो पलकों को बार-बार झपकाने लगी, मगर चीज़ें अब भी साफ़ नहीं दिख रही थीं।



    उसका सिर भारी था, जैसे रात किसी तूफ़ान ने उसके भीतर दस्तक दी हो। उसने धीरे से हिलने की कोशिश की... लेकिन तभी—



    "आह..."

    उसके मुँह से एक धीमी, दर्दभरी चीख निकल पड़ी।



    उसके पूरे बदन में अजीब-सा दर्द समाया हुआ था। हर अंग थका हुआ, हर नस में बोझिलपन था। जैसे किसी ने उसे हज़ार टुकड़ों में तोड़कर फिर से जोड़ा हो।



    उसने खुद को उठाने की कोशिश की, लेकिन उसके हाथ काँप रहे थे। जैसे ही उसने चादर को हटाया, उसकी आँखें फटी की फटी रह गईं—उसका शरीर लाल निशानों से भरा हुआ था... होंठ सूजे हुए, गर्दन पर हल्के नीले निशान... और सबसे ज़्यादा दर्द उसके भीतर कहीं था... वहाँ जहाँ रात की कहानी लिखी गई थी।



    उसने खुद को नज़र भर देखा—उसकी रूह तक कांप गई।



    "क्या... क्या हो गया मेरे साथ?"

    उसके होंठ बमुश्किल ये सवाल बुदबुदा पाए।



    उसकी सांसें तेज़ हो रही थीं, दिल की धड़कनें अब भी उस रात की लय में थीं। उसने झट से पास रखा कम्फर्टर खींचकर खुद को ढका, जैसे किसी ने उसे देख लिया हो।



    फिर वो बिस्तर से उतरने लगी, लेकिन जैसे ही पाँव ज़मीन पर रखा, फिर से एक चीख—



    "उह...!"

    उसका शरीर अब उसकी बात नहीं मान रहा था।



    वो लड़खड़ाते हुए खड़ी हुई, और पास रखे वॉशरूम की ओर बढ़ी। हर कदम जैसे उसके लिए सदियों जितना लंबा था।



    आईने में जब उसने खुद को देखा... उसकी आँखें नम थीं। बाल बिखरे हुए, होंठों पर रात के निशान, गालों पर पिघले हुए आँसू के धब्बे...



    उसने खुद को छुआ, जैसे यक़ीन करना चाह रही हो कि वो सपना नहीं था।



    "मैं... मैं सच में...?"

    उसकी आवाज़ टूट रही थी।



    उसे कुछ याद नहीं था—ना रात की बात, ना वो जज़्बात, ना वो लम्हे। पर उसका शरीर हर एक पल को चीख-चीखकर बयां कर रहा था।



    लड़की जैसे-तैसे खुद को समेटते हुए वॉशरूम से बाहर आई। उसके बदन पर अब भी दर्द की लहरें दौड़ रही थीं, हर कदम जैसे कांटों पर चलने जैसा था। वो नज़रें झुकाए, लड़खड़ाते क़दमों से आगे बढ़ी और ज़मीन पर बिखरे हुए अपने कपड़ों को ढूँढने लगी।



    हर कपड़ा उसके हाथ में आने से पहले ही एक ताज़ा याद बनकर उसके ज़हन में दस्तक देता—शायद कोई बटन जो ज़ोर से टूटा था, शायद कोई कपड़ा जो रात के तूफान में ज़्यादा नहीं बच पाया था।



    वो कपड़े समेट रही थी… और साथ ही खुद को भी।



    उसके कांपते हाथ एक-एक कर सब कुछ अपने सीने से लगाते गए। उसने इस पर ध्यान नहीं दिया कि कमरे की खामोशी में किसी और की साँसें भी शामिल हैं... कि उसके अलावा वहाँ कोई और भी मौजूद हो सकता है।



    शायद वो ये मान चुकी थी कि अब यहाँ कुछ बचा नहीं… कि अब उसे बस निकल जाना है।



    उसकी आँखों में अब भी रात की थकावट तैर रही थी, पर चेहरा सख़्त हो गया था… एक ऐसी लड़की का जो टूट तो गई थी, लेकिन बिखरने से पहले खुद को समेटना जानती थी।



    उसने एक नज़र बिस्तर की तरफ़ डाली—जहाँ सिलवटें अब भी रात की कहानी कह रही थीं, जहाँ तकिये पर उसके उलझे बालों की कुछ लटें अब भी पड़ी थीं।



    उसने आँखें फेर लीं।



    और फिर अपने कपड़ों को जैसे-तैसे कैरी करते हुए दरवाज़े की तरफ़ बढ़ी, बिना इस बात पर गौर किए कि उस कमरे में वो अकेली नहीं थी।



    तभी…

    उसके पाँव थम गए।



    उसके काँपते कानों में एक आवाज़ गूंज उठी—

    धीमी… लेकिन इतनी गूंजदार कि उसकी रूह तक को हिला दे।



    "Why are you scared, my sweetheart?"



    ये आवाज़ किसी आम इंसान की नहीं थी… उसमें एक सनक थी… एक पागलपन… और वो जूनून जो किसी भी हद तक जा सकता था।



    लड़की की रूह सिहर उठी।



    उसके जिस्म पर पड़े ज़ख़्म तो अब तक बोल ही रहे थे, लेकिन इस आवाज़ ने जैसे उसके भीतर की हर टूटन को फिर से खरोंच दिया।



    वो धीरे-धीरे मुड़ी…

    कमरे के अंधेरे को चीरती वो आवाज़ अब उसी के पीछे खड़ी थी।



    एक काला साया…

    जो शांति से नहीं, बल्कि एक ख़ौफ़नाक ठहराव के साथ उसके बहुत क़रीब खड़ा था।



    उसकी आँखें अब थोड़ी साफ़ देख पा रही थीं, और सामने खड़ा वो लड़का…

    जिसकी आँखों में नींद नहीं,

    बल्कि पागलपन की चमक थी।



    उसने फिर कहा—

    "तुम डरी हुई लग रही हो… लेकिन डर तो वहाँ होता है जहाँ भरोसा टूटे, और तुमने तो खुद मुझे चूना था, kitten..."



    उसके लहज़े में पागलपन के साथ एक मोहब्बत भी थी—

    वो मोहब्बत जो किसी को पाने से ज़्यादा, उसे कभी ना खोने की दीवानगी में बदल चुकी थी।



    लड़की का गला सूख गया।



    उसके हाथ से उसके कपड़े फिसल कर ज़मीन पर गिर पड़े,

    और अब उसकी साँसें उसकी अपनी ही धड़कनों से तेज़ सुनाई दे रही थीं।



    उसने एक क़दम पीछे हटाने की कोशिश की…

    पर अगले ही पल उस लड़के ने कमरे की कुंडी घुमा दी।



    “अब जब इतनी हसीन रातें साथ बिता ली हैं,तो सुबह यूं चुपके से चली जाओगी?”उसकी आवाज़ अब नशीली नहीं,बल्कि डरावनी मीठास से भरी हुई थी।



    लड़की पूरी तरह काँप रही थी… उसके घुटनों में ताकत नहीं बची थी। दिल की धड़कनें जैसे उसके कानों में धमक रही थीं। हर सांस भारी हो चुकी थी, जैसे गले में कोई ताला लग गया हो। उस लड़के की आँखों में एक अजीब जुनून था—शांत लेकिन भीतर ही भीतर सुलगता हुआ, जैसे हर पल फटने को तैयार ज्वालामुखी।



    "तुम्हें मुझसे डर क्यों लग रहा है?"

    उसने नर्म, मगर बर्फ-सी ठंडी आवाज़ में पूछा।



    लड़की की आँखों से पानी बह रहा था। वो बस फटी-फटी आँखों से उसे देखे जा रही थी, जैसे सामने कोई राक्षस खड़ा हो। उसका दिमाग झनझना रहा था—कल तक जो अपने आप में संपूर्ण थी, एक मासूम, भोली, और स्वाभिमानी लड़की… आज वो खुद को किसी अजनबी आईने में देख रही थी।



    “कल तक मैं पवित्र थी…”

    उसने कांपती आवाज़ में फुसफुसाया,

    “आज मैं एक अपवित्र, टूटी हुई लड़की हूं… जिसकी इज़्ज़त, उसका अपना हिस्सा... उसी से छीन लिया गया…”



    लड़का कुछ नहीं बोला। उसकी आँखें एकटक बस उसे देख रही थीं, जैसे वो उसकी टूटन को चुपचाप पी रहा हो। कमरे की खामोशी अब बोझ बन चुकी थी। बाहर की हल्की धूप खिड़की से छनकर अंदर आ रही थी, लेकिन कमरे में अंधेरे जैसा सन्नाटा पसरा था।



    लड़की ने धीरे से अपने कपड़े खुद में लपेटे और एक काँपती सी साँस ली। "मैं सिर्फ एक रात नहीं हारी, मैंने खुद को खो दिया है..." उसकी आवाज़ टूट रही थी।



    लड़का अब भी उसकी ओर देख रहा था, मगर उसमें अब कोई पछतावा नहीं था, सिर्फ एक सनकी तसल्ली… जैसे वो जानता था कि अब वो उसे कभी नहीं छोड़ पाएगी — क्योंकि जो टूट चुका हो, उसे जोड़ने के लिए या तो वही इंसान चाहिए होता है… या फिर हमेशा की तरह वो टुकड़े ही रह जाते हैं।



    उस लड़की की डरी हुई, कांपती हुई आँखें जैसे उसके सामने कोई आम लड़का नहीं… बल्कि कोई कयामत खड़ी हो।



    वो अब तक ये नहीं जानती थी कि जिसे वो अजनबी समझ रही थी, वो कोई मामूली इंसान नहीं था।



    वो था — आारंभ अग्निहोत्री।

    India's Most Eligible Bachelor, जिसे मीडिया "The Coldest Flame of the Corporate World" कहती थी। एक ऐसा नाम, जिसकी तस्वीरें हर बिज़नेस मैगज़ीन के कवर पर होती थीं। जिसकी सादगी में भी दुनिया झुक जाती थी और जिसके एक साइन से करोड़ों की डील्स फाइनल हो जाती थीं।



    पर आज…

    वो आरंभ, जो अब तक एक पवित्र, untouched bachelor कहलाता था…

    वो, जो अब तक सिर्फ अपने काम से मोहब्बत करता था…

    आज वो खुद अपनी सारी हदें पार कर चुका था।



    उसने खुद अपनी ही 'एलिजिबिलिटी' को मिट्टी में मिला दिया था।

    आज वो भी किसी का पहला बन चुका था।

    और शायद… वो पहली बार किसी के इतना क़रीब आया था कि खुद को ही खो बैठा था।



    कमरे की ठंडी हवा अब दोनों की साँसों को थामे हुए थी।



    आरंभ ने उस लड़की की ओर देखा…

    वो कुछ कह नहीं पा रहा था — जैसे उसकी जुबां पर भी कोई ताला लग चुका हो।



    वो उसके गालों पर लटके हुए बालों को एक नरमी से हटाते हुए बोला:



    "तुमने मुझे वो बना दिया जो मैं कभी बनना ही नहीं चाहता था..."



    लड़की ने एक पल को उसकी ओर देखा, उसकी आँखों में आँसू की नमी और एक टूटी हुई खामोशी थी।



    "और फिर भी... मैं तुम्हें खोना नहीं चाहता..."

    उसके शब्द हवा में गूंज रहे थे।



    आरंभ को आज पहली बार समझ आ रहा था कि किसी को छूना और किसी को महसूस करना — इन दोनों में क्या फर्क होता है।और शायद लड़की भी पहली बार समझ रही थी कि कभी-कभी एक पल… एक रात… किसी की पूरी ज़िंदगी बदल सकती है।



    उसकी आवाज़ काँप रही थी, और आँखों से ठहरे आँसू अब ज़मीन पर गिर चुके थे।

    वो लड़की, जो कल तक खुद को समझ नहीं पाई थी, आज एक ऐसे आदमी के सामने खड़ी थी जो उसकी सच्चाई पर शक कर रहा था — उसके वजूद पर सवाल खड़ा कर रहा था।



    "हमें तो बिल्कुल भी नहीं चाहिए था ये सब..."

    उसकी जुबान लड़खड़ा रही थी,

    "किसी ने हमें फँसाया है... हम आपकी जासूसी नहीं कर रहे, और न ही किसी ने हमें आप तक भेजा है।"

    उसके आँसू अब रुकने का नाम नहीं ले रहे थे।



    "आपको यकीन नहीं है, तो आप हमारे बारे में सब कुछ पता करवा सकते हैं। हम खुद नहीं जानते कि हम यहाँ कैसे पहुँचे, बीती रात हमारे साथ क्या हुआ, हमें कुछ याद नहीं..."

    वो लगभग गिड़गिड़ा रही थी।



    "प्लीज़... हमें जाने दीजिए। हम किसी से भी आपके बारे में कुछ नहीं कहेंगे। हम सिर्फ वापस अपने आप में लौटना चाहते हैं... प्लीज़..."



    वो लड़की अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाई थी…

    कि तभी आरंभ ने एक झटके से आगे बढ़कर उसका कंधा पकड़ा — उसकी पकड़ में नफरत थी, ग़ुस्सा था… और कहीं गहराई में… एक अनकहा डर।



    "बस!"

    उसका स्वर भारी और ठंडा था।

    "क्या तुम्हें लगता है, मैं इतना मासूम हूँ कि इन घिसे-पिटे डायलॉग्स पर यकीन कर लूं?"



    वो उसकी आँखों में झाँकता गया, जैसे हर परत को छान लेना चाहता हो।



    "कौन हो तुम? और क्यों हो तुम मेरे करीब?"



    उसका चेहरा अब बिल्कुल पास था, वो उसकी साँसों की गर्मी महसूस कर सकती थी।

    पर अब वो डर से कांप रही थी, उसकी घबराई हुई साँसें, उस कमरे की हवा को भारी बना रही थीं।



    अगले पल उसने अपनी नज़रे झुका लीं, जैसे खुद के वजूद से शर्मिंदा हो…



    "लगता है तुम्हें ज़्यादा ही TV सीरीज़ और नॉवेल्स की आदत है,"

    आरंभ की आवाज़ अब ठंडी नहीं रही थी — वो तपिश लिए हुए थी, ताने की तरह चुभती हुई।

    "उसी की तरह तुम भी एक मासूम बनने का नाटक कर रही हो? एक रात किसी political leader या CEO के साथ बिताकर सुबह-सुबह खुद को 'अछूता' और 'मासूम' बताना… Seriously?"

    उसने कड़वी मुस्कान के साथ उसकी आँखों में देखा।



    "How is this even possible?"

    वो आगे बढ़ा, अब उनके बीच की दूरी मिट चुकी थी।



    "लेकिन मुझ पर ये ड्रामा काम नहीं करेगा…"

    उसने धीमे मगर कड़वे स्वर में कहा,

    "तुम्हारी ये मासूमियत अब मेरे सामने सिर्फ एक झूठ है, एक परछाई है।"



    लड़की काँप उठी… वो चाहती थी कुछ कह सके, पर जैसे आवाज़ गले में अटक गई हो।



    "और रही बात virginity की…"

    उसने उसकी ठुड्डी को ऊपर किया, उसकी आँखों में झाँकते हुए बर्फ जैसी सख्ती से कहा:

    "तो सुनो, बीती रात सिर्फ तुमने नहीं — मैंने भी खोई है अपनी virginity…"

    एक पल की चुप्पी… बस साँसों की खामोशी बीच में थी।



    "इसलिए अब तुम्हारे जिस्म पर सिर्फ मेरा हक़ है… तुम्हारे आँसुओं पर, तुम्हारी मुस्कान पर, तुम्हारे डर पर — सिर्फ मेरा…"



    "नफ़रत हो या मोहब्बत…"

    उसकी आवाज़ अब एक जुनूनी राग में बदल चुकी थी,

    "अब तुम्हारी हर साँस मेरी मर्ज़ी से चलेगी… और उस रात की हर याद सिर्फ मेरी अमानत है…"



    वो उसके बेहद करीब आ चुका था — इतनी नज़दीक कि अब लड़की को उसकी हर साँस में उसका पज़ेसिव इश्क़ महसूस होने लगा था।



    "और याद रखना,"

    आरंभ की आँखों में अब जुनून के साथ कोई और गहराई थी,



    लड़की की साँसें तेज़ थीं… आवाज़ काँप रही थी लेकिन हिम्मत अब भी ज़िंदा थी।



    "माना, मुझसे ग़लती हुई है…"

    उसने अपने होंठों को भींचते हुए कहा,

    "लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि मैं खुद को हमेशा के लिए तुम्हारे हवाले कर दूँ! मैं तुम्हें जानती तक नहीं आरंभ… और ना ही…"



    "आगे एक शब्द भी मत कहना!"

    आरंभ की आँखों में इस बार बस आग थी। उसने एक झटके में उसकी कमर को इतनी ताक़त से पकड़ा कि लड़की के मुँह से दर्द की एक सिसकी निकल गई।



    "जानती नहीं?!"

    उसने फुसफुसाते हुए कहा, लेकिन उसकी फुसफुसाहट में भी एक दहाड़ छुपी थी।



    "तो फिर बीती रात... वो सब किसके साथ था?"

    उसने लड़की की आँखों में झाँकते हुए कहा — जैसे वो उसे guilt के समुंदर में डुबो देना चाहता हो।



    "तुम सोचती हो मैं तुम्हें ऐसे ही जाने दूँगा?"

    आरंभ की पकड़ अब और कस चुकी थी,

    "नहीं… अब जब तुम मेरी हो चुकी हो, तो पूरी तरह से मेरी रहोगी। तुम्हारा अतीत, तुम्हारा आज और तुम्हारा हर आने वाला कल — सब पर सिर्फ मेरा हक़ होगा।"



    लड़की का दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगा था, आँखों में डर और आँसू एकसाथ उमड़ पड़े।



    "तुम चाहो या ना चाहो, अब हम दोनों की किस्मत एक-दूसरे से बंध चुकी है…"

    उसकी आवाज़ अब कुछ धीमी ज़रूर हुई थी, पर वो जुनून और सनक पहले से कहीं ज़्यादा गहराई से उतर चुकी थी।



    "और एक बात याद रखना…"

    उसने धीरे से उसके कान के पास आकर कहा,

    "जिस दिन तुमने मेरी ज़िन्दगी से खुद को अलग करने की कोशिश की, उसी दिन तुम्हारी दुनिया का सबसे डरावना चैप्टर शुरू होगा…"



    आरंभ ने उस नाज़ुक लड़की को सधे हुए हाथों से उठाया, जैसे वह कोई शीशे की गुड़िया हो। उसकी आँखें अब भी डर से भरी थीं, पर आरंभ की आँखों में कोई दया नहीं थी — बस एक ठंडी, सुलगती हुई सनक थी।



    "चलो, अब थोड़ा civilized गेम खेलते हैं..."

    उसने सख्त लहज़े में कहा और उसे धीरे-धीरे सोफे पर बिठा दिया।



    उसके सामने मेज़ पर एक भारी-सी फाइल रखी थी, जिसे उसने उठाया और लड़की की गोद में रखा।



    "ये रहा तुम्हारा future..."

    आरंभ की आवाज़ में ऐसा ठहराव था जैसे वो पहले से तय कहानी सुना रहा हो।

    "15 मिनट हैं तुम्हारे पास — contract पढ़ो... समझो... और फिर sign करो।"



    लड़की की उंगलियाँ काँप रही थीं, उसने एक झलक फाइल पर डाली। पहला ही शब्द उसकी रूह तक को हिला गया:



    "Love-Bond Contract."



    उसके होंठ सूख गए। उसने कांपते हुए पूछा,

    "ये… ये क्या है?"



    आरंभ ने मुस्कराकर जवाब दिया — वो मुस्कान जो एक शिकारी शिकार को देखकर देता है।



    "यही तो है वो डोर, जिससे अब तुम मेरे साथ हमेशा के लिए बंधने वाली हो।"

    "इस पेपर में लिखा है — तुम सिर्फ मेरी हो… मेरे साथ रहोगी… मेरी मर्ज़ी से हँसो, रोओ, बोलो… यहाँ तक कि सांस भी लो।"



    लड़की की आँखें खुली की खुली रह गईं।



    "और अगर साइन नहीं किया?"

    उसने खुद को समेटते हुए धीमे से पूछा।



    आरंभ अब सोफे पर एक पैर पर दूसरा पैर चढ़ा कर, पूरी ठसक के साथ बैठ गया। उसकी निगाहें उस पर जम चुकी थीं — जैसे शतरंज की बाज़ी में राजा अब सिर्फ चाल देख रहा हो।



    "तब तुम्हारी दोस्त..."

    उसकी आवाज़ अचानक खामोश हो गई।

    "वो जो अकेली है, तुम पर जान देती है… शायद उसका नाम तुम्हारे नाम के आगे आने से पहले ही... मिटा दिया जाए।"



    उसकी आँखों में अब जज़्बात नहीं थे, बस आग थी।



    "सुबह का नाश्ता 15 मिनट बाद है — और मैं punctual आदमी हूँ।"

    उसने अपनी घड़ी की ओर देखते हुए कहा,

    "इसलिए सोच समझकर फैसला लेना… क्योंकि इसके बाद कोई ‘Undo’ का बटन नहीं होगा।"

    To be countinue ✍🏻 ✍🏻 ✍🏻 

    क्या लड़की इस कांट्रैक्ट को पढ़कर हिम्मत जुटा पाएगी? या उसका डर आरंभ के इस पागलपन के आगे झुक जाएगा?

     के बाद अपनी चाल चलेगी या sign करेगी मजबूरी में?

  • 3. A Love Contract - Chapter 3

    Words: 2405

    Estimated Reading Time: 15 min

    Love Contract 3



    पंद्रह मिनट बीत चुके थे।



    नंदिता की आँखें अब भी उस कांट्रैक्ट पेपर पर टिकी थीं — उसकी पलकें थमी हुई थीं, जैसे वक्त की रफ्तार वहीं रुक गई हो।

    हर पंक्ति, हर शब्द उसे किसी काले फंदे की तरह लिपटते जा रहे थे।

    "तुम अब सिर्फ आरंभ की हो..."

    "तुम किसी और से मिल नहीं सकती..."

    "तुम्हारा हर emotion, हर relationship अब सिर्फ इसी इंसान के नाम है..."



    उसके होंठ सूख चुके थे। वो चाहकर भी कुछ बोल नहीं पा रही थी।

    और सामने —

    आरंभ, किसी शाही नवाब की तरह breakfast कर रहा था।

    जैसे कोई युद्ध जीत चुका हो और अब बस अपनी जीत का स्वाद चख रहा हो।

    उसके लंबे पतले हाथ, हर डिश को बड़ी नज़ाकत से छूते, और फिर होठों तक लाते।

    वो इत्मीनान... वो arrogance... वो elegance...

    सब कुछ उसे इंसान कम, कोई royalty ज़्यादा बना रहा था।



    नंदिता की नजरें अटक गई थीं।



    एक क्षण को वो सब कुछ भूल चुकी थी — अपनी हालत, डर, तकलीफ...

    बस उस चेहरे को देख रही थी जो क्रूर भी था, लेकिन बेहद हसीन।

    जो पागलपन से भरा था, लेकिन उतना ही आकर्षक।

    वो चेहरे से नफ़रत करना चाहती थी... लेकिन शायद वो उस चेहरे से खुद को अलग भी नहीं कर पा रही थी।



    तभी —

    "Miss Nandita."

    एक ठंडी आवाज़ उसके कानों में तीर सी उतरी।



    "पंद्रह मिनट हो चुके हैं।"

    आरंभ अब अपनी कुर्सी से उठ चुका था।

    उसने एक और फाइल उसके सामने झटके से गिराई —

    "यह Final Copy है — इसे sign कीजिए।"



    उसकी आवाज़ में अब कोई softness नहीं थी।

    बस authority थी। एक आदेश, जिसपर सवाल की कोई जगह नहीं।



    "मुझे पता है आपका फैसला क्या होगा। और हाँ..."

    वो थोड़ा झुककर नंदिता के बेहद पास आया,

    "अगर आपने sign किया — तो आप मेरी होंगी। और अगर नहीं किया..."

    वो उसकी आँखों में झाँकते हुए बोला,

    "...तो फिर आप किसी की नहीं होंगी।"



    नंदिता ने कांपते हाथों से जैसे ही कॉन्ट्रैक्ट पेपर पर दस्तख़त किए, उसकी पलकों के नीचे से एक थकी हुई, टूटी हुई सांस फिसली। उस पल वो कोई आम लड़की नहीं रही — वो अब किसी की मिल्कियत बन चुकी थी। उसकी आँखों में मौजूद वो मासूमियत, अब मजबूरी की एक चुप्पी में तब्दील हो चुकी थी।



    आरंभ ने अपने धीमे मगर सख़्त अंदाज़ में कहा —

    "Well done, Mrs. Aarambh Agnihotri."

    और उसने अपनी उँगलियों की नर्म चटक के साथ सामने रखा बेल बजाया।



    तुरंत ही भारी दरवाज़ा खुला, और एक तेज़-तर्रार कद का लड़का अंदर दाखिल हुआ। हल्की दाढ़ी, कैज़ुअल ब्राउन जैकेट, और आंखों में एक ठंडी सी चमक। उसने सिर झुकाया और बोला,

    "Good morning, Sir."



    आरंभ ने उसकी तरफ देखा, और फिर अपना चेहरा नंदिता की ओर मोड़ा — उसके चेहरे पर अब कोई शिकन नहीं थी, बस एक गहरी सनक और अधिकार की परत बैठी थी।



    "Rudra, behave. This is your Lady Boss now — Mrs. Aarambh Agnihotri. Greet her properly."



    रुद्र के चेहरे पर एक झटका सा पड़ा, जैसे उसकी आंखों के सामने अचानक कोई शतरंज की चाल बदल गई हो। उसने नंदिता की ओर देखा, जो अब तक एक कोने में सिमटी हुई थी — उसकी आंखों में अब भी अधूरे सवाल थे, और होठों पर जमी हुई चुप्पी।



    रुद्र ने सिर झुकाया, और धीरे से कहा,

    "Good morning... Ma'am."



    नंदिता की आंखें भर आईं। वो बस खड़ी रही — ठंडी, खोई हुई, और अब एक ऐसी दुनिया का हिस्सा, जहां हर चीज़ की क़ीमत तय होती है। और इस बार क़ीमत थी — उसकी आज़ादी।

    नंदिता इस वक़्त आरंभ की गाड़ी में बैठी थी। उसकी आंखों में कोई जज़्बात बाकी नहीं बचे थे। सब कुछ, जैसे उस एक रात में जलकर राख हो गया हो। अब वो कुछ भी नहीं कह रही थी—ना सवाल, ना शिकायत। बस चुप। एक सन्नाटा था, जो उसकी सांसों से भी भारी लग रहा था।



    वो अब आरंभ के इशारों पर चलने वाली कठपुतली बन चुकी थी। न "ना" कहने की हिम्मत बची थी, न किसी विकल्प की उम्मीद।



    गाड़ी क़रीब एक घंटे से चल रही थी, रास्ते की धूप अब उसकी पलकों को बोझिल कर चुकी थी। और फिर, आधे घंटे बाद... जब उसने धीरे से अपनी आंखें खोलीं, तो सामने एक सफेद संगमरमर का मंदिर खड़ा था—शिव-पार्वती का प्राचीन मंदिर।



    इस मंदिर को वो बहुत अच्छे से जानती थी। हर सुबह यहां आरती होती थी, और कभी वो भी छुपकर वहां तक आया करती थी। लेकिन आज... आज वो खुद अपनी ही किस्मत की बलि बनने आई थी।



    आरंभ ने बिना कुछ कहे उसका हाथ पकड़ा और सीढ़ियों की ओर बढ़ा।

    आज नंदिता पूरी दुल्हन की तरह सजी हुई थी। लाल रंग की साड़ी में, आंखों में काजल की गहराई, और लाज से भीगी हुई चुप्पी।

    वहीं, आरंभ ने भी लाल और सफेद रंग की भारी शेरवानी पहन रखी थी—एक राजा की तरह, जो अपनी रानी को लेने आया हो... मगर राजसी शान से ज़्यादा उसके चेहरे पर एक अजीब-सी सनक थी।



    मंदिर के प्रांगण में पहुंचते ही उन्होंने देखा—वहां हवन-कुंड के पास कई बॉडीगार्ड खड़े थे, और उनके सामने बैठी थी एक तेज़-तर्रार बुज़ुर्ग महिला — आरंभ की दादी माँ।



    उनकी आंखें पंडित जी से मंत्रों की गूंज में व्यस्त थीं, जब अचानक उन्होंने मंदिर के दरवाज़े की ओर देखा...



    वो पल, जैसे पूरी हवाओं ने सांस रोक ली हो।

    उनकी आंखों में आरंभ का चेहरा उभर आया... लेकिन साथ ही किसी लड़की की परछाईं भी।



    "आरंभ!" दादी माँ ने सख़्त आवाज़ में कहा। "यह क्या बेहूदी हरकत है? हमें अचानक इस तरह क्यों बुलाया गया है? यह लड़की कौन है?"



    लेकिन आरंभ ने उनकी बात बीच में ही काट दी। उसकी आंखें अब एक आग बन चुकी थीं।



    "दादी माँ..." उसकी आवाज़ में ऐसा ठहराव था कि पूरा वातावरण थम गया।

    "...अभी नहीं। शादी के बाद आपके हर सवाल का जवाब मिलेगा।"



    इतना कहकर उसने पंडित जी को इशारा किया।

    वो दोनों मण्डप के पास पहुंचे और चुपचाप बैठ गए।



    घंटियां बजने लगीं। मंत्र गूंजने लगे।

    नंदिता के होंठ अब भी कांप रहे थे, लेकिन उसकी आत्मा जैसे किसी शोर में खो गई थी।

    हर फेरा, उसकी आज़ादी को एक-एक करके लीलता जा रहा था।



    और अंत में... जब आरंभ ने उसकी मांग में सिंदूर भरा और मंगलसूत्र पहनाया, तो पंडित जी ने घोषणा की—

    "शादी संपन्न हुई। अब से आप दोनों पति-पत्नी हैं।



    अब नंदिता सिर्फ नंदिता नहीं रही।



    अब वो बन चुकी थी — 'Mrs. Aarambh Agnihotri'.

    आरंभ की दुनिया में कैद, उसके नाम से जकड़ी हुई एक लड़की, जिसकी तक़दीर अब महज़ एक दस्तख़त नहीं, बल्कि एक सिंदूर की लकीर में कैद हो चुकी थी।



    नंदिता इस वक़्त “आग्निहोत्री हवेली” के अंदर एक कमरे में बंद थी।



    उसे आरंभ की दादी माँ ने ख़ुद आराम करने को कहा था, मगर नंदिता में अब कुछ भी महसूस करने की ताक़त नहीं बची थी।

    वो इतनी ज़्यादा सदमे में थी कि अब तक उसने दादी माँ की तरफ़ एक बार भी नज़र उठाकर नहीं देखा था।

    वो उस कमरे की दीवारों से लिपटी चुप्पी में खुद को समेटे बैठी थी—जैसे ख़ामोशी उसके अंदर समा गई हो।



    उसी वक़्त हवेली के हॉल में एक तूफ़ान उठ चुका था।



    दादी माँ और आरंभ आमने-सामने खड़े थे।

    दोनों के चेहरे भावशून्य थे, मगर आँखों में एक युद्ध छिपा था।



    "आरंभ! ये क्या बेहूदी हरकत है?!"

    दादी माँ की आवाज़ पूरे हॉल में गूंज गई।

    "कौन है वो लड़की? और तुमने इस तरह अचानक उससे शादी क्यों की?

    उसे देखकर तो लग रहा था, वो तुम्हें जानती तक नहीं।

    क्या तुमने जबरदस्ती की है उससे शादी करने की?

    क्या यही संस्कार दिए हैं मैंने तुम्हें, कि किसी मासूम लड़की को ज़बरदस्ती अपने नाम से बाँध लो?!"



    उनकी आवाज़ में गुस्से के साथ दर्द भी था, जैसे किसी माँ का भरोसा टूटा हो।



    आरंभ ने कुछ पल उनकी आँखों में देखा, फिर शांत भाव से उनके कंधों को पकड़ा और उन्हें पास के सोफ़े पर बैठा दिया।

    ख़ुद उनके सामने ज़मीन पर घुटनों के बल बैठ गया।



    "दादी माँ... क्या वो वही लड़की नहीं थी,

    जिसे कुछ दिन पहले आपने देखा था और मेरे लिए पसंद किया था?"

    आरंभ की आवाज़ अब गहराई में डूबी थी।

    "आपने ही तो कहा था— ‘काश ये लड़की इस घर की बहू बने, तो ये घर स्वर्ग बन जाए।’

    तो मैंने सोचा, क्यों ना मैं आपका और इस घर का सपना पूरा कर दूँ...?"



    आरंभ के शब्द जैसे ही ख़त्म हुए,

    दादी माँ ने हल्के से उसके सिर पर मारते हुए कहा—



    "तू नालायक! तुझे मेरी बातें कैसे पता चल जाती हैं?

    ज़रूर तेरे उस प्यारे जासूस ने तुझे सब बताया होगा,

    वही जो हर वक़्त तेरी जासूसी करता फिरता है..."



    लेकिन फिर उनका चेहरा गंभीर हो गया।

    "पर बेटा, ये जो तूने किया है... ये ठीक नहीं किया।

    तूने देखा नहीं—वो कितनी मासूम है।

    उसके चेहरे पर वो रौशनी, वो नूर जो मैंने पहले देखा था... आज वो ग़ायब है।

    क्या हुआ है उसे? मुझे सच बता।"



    दादी माँ की आँखों में अब चिंता थी।



    आरंभ ने गहरी साँस ली।

    फिर मुस्कुराते हुए, लेकिन आँखों में वही पुरानी सनक और अधिकार लिए कहा—



    "दादी माँ... आपको तो खुश होना चाहिए।

    आपकी ख्वाहिश मैंने पूरी कर दी—आपको बहू मिल गई।

    अब आप आराम से अपनी बहू के साथ 'सास-बहू' वाली दुनिया और साज़िशें रच सकती हैं।"



    दादी माँ को चुप देखकर, उसने मुस्कुराते हुए अपनी बात में एक और तीर जोड़ दिया—



    "वैसे याद दिला दूँ,

    रात के दस बज चुके हैं... और आज मेरी Wedding Night है।

    मतलब... सुहागरात।

    हमने अब तक डिनर भी नहीं किया।

    आप डिनर कर लीजिए, अपनी दवा लीजिए,

    और मैं भी आपकी प्यारी बहू को खाना खिलाकर,

    अब अपनी सुहागरात पर focus करता हूँ।"



    आरंभ ने कहा और बिना दादी माँ की इजाज़त या जवाब का इंतज़ार किए,

    वहाँ से सीधा तेज़ कदमों से बाहर निकल गया।



    दादी माँ बस उसे जाते हुए देखती रह गईं।



    उनकी आँखों में हैरानी थी,

    और होठों से निकला एक अधूरा वाक्य—

    "तू... नालायक... अब तो तू पूरी तरह से बेशर्म हो चुका है!

    मुझे तो लगता था, तुझे सिर्फ अपने प्यारे जासूस में दिलचस्पी है... लेकिन..."



    उन्होंने वाक्य अधूरा छोड़ दिया।



    उनकी आँखें नम थीं।



    लेकिन उस नमी में ग़ुस्सा नहीं था—बल्कि ममता छुपी थी।

    वो आरंभ की पीठ की ओर देखते हुए मुस्कुराईं, जैसे सालों की चिंता अचानक हल्की हो गई हो।



    असल में, दादी माँ कई सालों से आरंभ की शादी करवाना चाहती थीं।

    मगर आरंभ हर बार साफ़ मना कर देता—ना कोई लड़की पसंद आती, ना ही शादी का इरादा जताता दादी माँ के मन में शक बैठ चुका था।

    हर बार जब वो शादी से इनकार करता, उन्हें लगता—"कहीं मेरा पोता... लड़कियों में नहीं, लड़कों में तो...?"और आज, अचानक उसकी शादी हो गई,वो भी इतनी मासूम लड़की से...दादी माँ अब सिर्फ हैरान नहीं थीं—वो राहत महसूस कर रही थीं।

    बिलकुल, अब जो सीन हम लिखने जा रहे हैं — वो कहानी का सबसे इंटेंस, डार्क और इमोशनली ड्राइविंग मोमेंट है। ये “Wedding Night” है, लेकिन इसमें फूलों की सेज, शर्मीली दुल्हन और रोमांटिक मोमेंट्स नहीं होंगे...

    बल्कि दो टूटे हुए किरदारों की खामोश जंग होगी।

    एक वो लड़की जिसे मजबूरन किसी अजनबी के नाम से बाँध दिया गया,

    और



    हवेली के उस कमरे का दरवाज़ा धीरे से खुला...



    आरंभ भारी कदमों से भीतर दाखिल हुआ।

    कमरा हल्के पीले गुलाबों से सजा था, दीवारों पर मोमबत्तियों की लौ कांप रही थी,

    लेकिन उस कमरे में अगर कुछ नहीं था—तो वो था सुकून।



    नंदिता, सिर झुकाए पलंग के किनारे बैठी थी।



    उसके बाल खुलकर उसकी पीठ पर बिखरे थे,

    शरीर पर लाल साड़ी का पल्लू ढीला सा गिरा था, जैसे कोई रंग जबरन उड़ा दिया गया हो।

    उसकी आँखें फर्श पर जमी थीं, लेकिन वहाँ कुछ भी देखने लायक नहीं था—

    क्योंकि उसकी दुनिया उसी वक़्त रुक गई थी, जब उसे 'Mrs. Aarambh Agnihotri' बना दिया गया था।



    आरंभ कमरे का दरवाज़ा बंद करता है,

    और धीमे-धीमे उसके पास आता है।



    "शादी... हो चुकी है,"

    उसने कुछ दूरी से कहा।



    नंदिता चुप रही।



    "और अब..."

    वो नज़दीक आया,

    "...अब हमारा रिश्ता मुकम्मल होना चाहिए, है ना, Mrs. Agnihotri?"



    उसके शब्दों में कोई लाड़, कोई अपनापन नहीं था—

    बल्कि एक ठंडी साजिश थी,

    जैसे कोई बाज़ अपने शिकारे को देख रहा हो।



    नंदिता ने उसकी तरफ देखा—आँखें नम थीं, लेकिन उनमें डर नहीं था।

    सिर्फ़ एक सवाल था—



    "क्या यही था तुम्हारा बदला?"



    आरंभ ठिठक गया।



    "क्योंकि मैंने तुम्हारी बात नहीं मानी थी?

    क्योंकि मैंने उस दिन तुम्हें थप्पड़ मारा था?

    या फिर इसलिए... क्योंकि मेरी हिम्मत हुई थी तुम्हारी आँखों में आँखें डालकर बोलने की?"



    आरंभ ने उसकी तरफ देखा,

    लेकिन अब उसकी आँखों में जुनून नहीं था... बल्कि एक अजीब सा खालीपन था।



    "बदला?"

    उसने धीमे से दोहराया।

    "नंदिता... अगर ये बदला होता, तो मैं तुम्हें अपनी बीवी नहीं बनाता...

    मैं तुम्हें इस हवेली में लाता ही नहीं।"



    वो पास आया, और पलंग पर बैठ गया,

    उसके बेहद पास... लेकिन उसे छुए बिना।



    "तुम्हें पता है... मेरी ज़िंदगी में सब कुछ था—पैसा, पावर, काबिलियत...

    पर जो नहीं था, वो था किसी का सच्चा साथ।

    हर किसी ने मुझे किसी मक़सद से चाहा,

    तुम ही एक थी... जो मुझसे लड़ी थी।

    बिना डरे। बिना किसी लालच के।"



    नंदिता ने एक कड़वी हँसी के साथ कहा—



    "और तुमने उसी हिम्मत को तोड़ने के लिए मुझे बंदी बना लिया?"



    "बंदी?"

    आरंभ झुका, उसका चेहरा बस कुछ इंच की दूरी पर था।

    "नंदिता... ये रिश्ता बंदीगिरी नहीं है।

    ये एक कॉन्ट्रैक्ट है—जहाँ तुमने साइन किया था।"



    उसकी आवाज़ में एक अजीब सा सन्नाटा था,

    जैसे कोई अदालत में गवाही दे रहा हो।



    "लेकिन मैं भूल गया था..."

    उसने नंदिता की आँखों में झाँकते हुए कहा,

    "...कि काग़ज़ों पर दस्तखत से कोई रिश्ता नहीं बनता।

    रिश्ता... साँसों से बनता है,

    जो तुम्हारे पास अब भी मेरी नहीं हैं।"



    कमरे में कुछ देर खामोशी रही।



    फिर अचानक आरंभ खड़ा हुआ।



    "मैं तुम्हें छू भी सकता था,

    तुम्हारा हर हक़ ले सकता था जो इस शादी ने मुझे दिया है।

    लेकिन नहीं...

    मैं जानता हूँ, जब तक तुम्हारा मन, तुम्हारा दिल मेरे साथ नहीं है—

    तब तक ये सेज एक ‘रहवास’ है,

    ना कि एक मिलन।"



    उसने दीवार से अपनी जैकेट उठाई,

    और दरवाज़ा खोलते हुए कहा—



    "तुम आज रात अकेली सो सकती हो,

    लेकिन याद रखना...

    मैं तुम्हारे जिस्म से नहीं, तुम्हारी रूह से जीतना चाहता हूँ।"



    आरंभ चला गया।



    दरवाज़ा बंद हुआ।



    नंदिता का दिल तेज़ी से धड़क रहा था।

    उसने खुद को बाँध कर रखा था,

    लेकिन एक आँसू चुपके से उसकी पलकों से गिरा—



    ना आरंभ के लिए...

    ना खुद के लिए...

    बल्कि उस मासूमियत के लिए,

    जो इस रिश्ते की पहली रात से ही बुझा दी गई थी।



    To be countinue ✍🏻✍🏻✍🏻

  • 4. A Love Contract - Chapter 4

    Words: 2674

    Estimated Reading Time: 17 min

    Love Contract 4

    Agnihotri Mansion

    अगली सुबह |

    जब नंदिता की आँखें खुलीं,

    तो उसने खुद को उसी फूलों से सजे बेड पर अकेला पाया।



    कमरे की खिड़की से हल्की धूप अंदर आ रही थी,

    पर वो धूप भी उसे तपिश जैसी लग रही थी।



    उसने धीरे से करवट बदली—

    आरंभ वहाँ नहीं था।

    ना कमरे में उसकी कोई आहट थी,

    ना उसकी मौजूदगी का कोई निशान।



    बस एक हल्का सा गुलाब उसकी तकिये के पास रखा था—सूखा हुआ।



    नंदिता ने उठकर चारों तरफ देखा,

    फिर खुद को आईने में देखा।

    सिंदूर अब भी उसकी माँग में था,

    और गले में मंगलसूत्र की जंजीर उसकी साँसों से उलझ रही थी।



    "तो ये है मेरी सुबह... एक ऐसी शादी की सुबह,

    जिसमें ना विदाई की रुलाई थी,

    ना किसी ने 'नई दुल्हन' कहकर पुकारा।"

    उसने मन ही मन सोचा।



    अचानक दरवाज़े पर एक हल्की सी दस्तक हुई।



    "बीबी जी..."

    एक उम्रदराज़ नौकरानी अंदर आई।

    "दादी माँ ने आपको बुलाया है... नाश्ते पर।"



    नंदिता ने चुपचाप सिर हिलाया,

    और अलमारी से एक सिंपल सूट निकालकर तैयार होने लगी।

    साड़ी का भारीपन अब उसे कैद जैसा लग रहा था।

     Dining Hall



    नीचे हॉल में दादी माँ पहले से बैठी थीं,

    उनकी आँखों में हज़ार सवाल थे…

    पर चेहरा वही पुराना था—सख्त और संयमित।



    नंदिता जब नीचे आई,

    तो सबकी निगाहें उस पर थीं।

    एक नई बहू की तरह नहीं—बल्कि जैसे कोई रहस्य कमरे में दाखिल हुआ हो।



    दादी माँ ने धीरे से हाथ से इशारा किया—

    "इधर आओ बेटा।"



    नंदिता पास जाकर बैठी,

    पर उसकी नज़रें अब भी झुकी थीं।



    "रात कैसी बीती?"

    दादी माँ ने पूछा, मानो कुछ जानना चाहती हों।



    नंदिता ने होंठ भींच लिए—

    "ठीक थी।"



    "ठीक?"

    दादी माँ ने गौर से देखा।

    "क्या आरंभ ने तुम्हें कोई तकलीफ़ तो नहीं दी?"



    इस बार नंदिता ने पहली बार सीधे उनकी आँखों में देखा।



    "तकलीफ़?"

    उसकी आवाज़ हल्की थी पर साफ़।

    "नहीं... उन्होंने मुझे कोई तकलीफ़ नहीं दी,

    पर कोई अपनापन भी नहीं दिया।"



    दादी माँ चुप रहीं।

    उनकी आँखों में एक अजीब सी बेचैनी थी।

    शायद उन्हें ये अंदाज़ा नहीं था कि आरंभ की ये शादी इस तरह शुरू होगी—

    बिना एहसासों के, सिर्फ़ एक फैसले की तरह।



    "तुम फिक्र मत करो,"

    उन्होंने हाथ बढ़ाकर नंदिता के सिर पर रखा,

    "मैं आरंभ से बात करूँगी।

    वो ज़िद्दी है, पर दिल का बुरा नहीं है।

    तुम्हें ये घर... और ये रिश्ता,

    अपना बनाना होगा।"



    नंदिता ने सिर झुका लिया।



    लेकिन उसके मन में अब भी सवाल था—

    क्या वाकई ये रिश्ता कभी अपना हो पाएगा?

    या वो सिर्फ़ ‘Mrs. Agnihotri’ के नाम से ही जानी जाएगी—बिना किसी असली पहचान के?

    बिलकुल… अब इस सीन को और भी इन्टेंस, इमोशनल और डार्क टोन के साथ पेश करते हैं—जहाँ एक तरफ़ नंदिता अकेली सुबह का सामना कर रही है, वहीं दूसरी तरफ़ आरंभ एक और जहान की ओर उड़ चला है… अपने उसी ठंडे, बिज़नेस मिज़ाज के साथ।





    ---



    दूसरी तरफ़ — Private Jet | Somewhere in the Sky



    दूसरी तरफ़ आरंभ इस वक्त अपने प्राइवेट जेट में बैठा था।

    कमरे की रोशनी मद्धम थी,

    खिड़कियों से बाहर बादलों का झुंड तेज़ी से गुजर रहा था—

    जैसे वक़्त खुद भाग रहा हो।



    उसके सामने उसका असिस्टेंट 'अभय' खड़ा था—

    चेहरे पर उलझन साफ़ झलक रही थी।



    "सर…"

    अभय ने थोड़ी हिचकिचाहट के साथ कहा,

    "आप… शादी की पहली सुबह ही,

    मिटिंग के लिए देश से बाहर जा रहे हैं?

    क्या… क्या ये ज़रूरी था?"



    आरंभ ने एक लंबी साँस ली,

    और अपनी घड़ी की ओर देखा—

    Rolex की टिक-टिक उसके अंदर की बेचैनी से मेल खा रही थी।



    "ज़रूरी…?"

    उसने आँखें उठाकर अभय की तरफ़ देखा।

    "इस दुनिया में ज़रूरी क्या होता है अभय?

    शादी, प्यार… या काम?"



    अभय चुप रहा।



    आरंभ ने अपने जैकेट की कॉलर ठीक की और धीमे स्वर में कहा—

    "मैंने उस लड़की से शादी इसलिए नहीं की कि मैं उसे मोहब्बत करता हूँ…

    मैंने किया क्योंकि वो अब 'Agnihotri' है।

    और जो चीज़ मेरे नाम से जुड़ जाए,

    उसकी हिफाज़त मेरी जिम्मेदारी होती है।"



    "लेकिन सर… उसने तो आपको पहली सुबह ढूंढा भी नहीं… आपसे कोई सवाल नहीं किया…"



    आरंभ की आँखों में एक पल को ठहराव आया।



    "क्योंकि वो समझदार है।

    वो जानती है—मैं कौन हूँ,

    और मुझे किस तरह की दुनिया में रहना पड़ता है।"



    फिर उसने एक गिलास में रेड वाइन उड़ेली,

    और धीमे स्वर में कहा—

    "शायद… वो भी मेरी तरह टूट चुकी है।

    इसलिए अब हम दोनों को जोड़ने के लिए कुछ बचा नहीं…

    बस निभाना है—'Agnihotri' के नाम की लाज।"जेट के इंजन की आवाज़ अब और तीव्र हो गई थी।बाहर आसमान गहरा हो रहा था,और भीतर एक रिश्ता—हर पल और खाली।



    Agnihotri Mansion —

    Breakfast Table | 



    ब्रेकफास्ट नज़दीक ही खत्म हो चुका था।

    डाइनिंग टेबल के सिरों पर दो शख्स बैठे थे—

    एक दादी माँ, जिनके चेहरे पर वर्षों का अनुभव, धर्म और सख़्ती की लकीरें थीं।

    और दूसरी ओर नंदिता, जो अब Agnihotri परिवार की बहू तो बन चुकी थी,

    मगर उसकी आँखें आज भी अपने असली वजूद को तलाश रही थीं।



    कमरे में एक अजीब सी चुप्पी पसरी हुई थी।

    नंदिता की निगाहें बस कमरे की दीवारों, झूमर, और उन तस्वीरों पर घूम रही थीं जो हर दीवार पर 'शाही इतिहास' की गवाही देती थीं—

    मगर उनमें उसका कोई अक्स नहीं था।



    दादी माँ ने अचानक उसकी ओर देखा।



    उनकी आवाज़ धीमी थी, मगर उसमें एक ठहराव, अपनापन और ममता की महीन परत थी।



    > "बेटा… तुम कहाँ से हो? तुम्हारा नाम क्या है? मतलब… तुम्हारी पहचान क्या है? कौन हो तुम?"







    ये सवाल सीधे नंदिता के सीने से आ टकराए।

    उसने चुपचाप अपनी निगाहें ज़मीन से उठाईं,

    और एक हल्की सी मुस्कान अपने होंठों पर लाकर कहा—



    > "पहली बार… किसी ने इन दो दिनों में मुझसे ये सवाल किया है।

    वरना तो ऐसा लग रहा था जैसे अब मैं सिर्फ़ 'Agnihotri परिवार की बहू' बनकर रह गई हूँ।

    जैसे मेरा कोई बीता वजूद ही न रहा हो…"







    उसकी आवाज़ में एक चुप दहाड़ थी—

    एक ऐसा दर्द जो वो बयां नहीं कर रही थी, बस जज्ब कर रही थी।



    फिर उसने गहरी साँस ली और खुद को थोड़ा संभालते हुए कहा—



    > "मेरा नाम नंदिता सिंह शेखावत है।

    मैं राजस्थान से हूँ… वहीं की रेत में मेरा बचपन और रुतबा दोनों पले हैं।"







    उसके चेहरे पर अब दर्द की जगह गौरव था।

    जैसे नाम लेते ही उसकी रीढ़ सीधी हो गई हो…

    जैसे वो फिर से 'किसी की बहू' नहीं, बल्कि 'अपनी पहचान' बन गई हो।



    दादी माँ ने एक पल को ठहरकर उसका चेहरा देखा… और उनकी भौंहें सिकुड़ गईं।

    उनके चेहरे पर पहचान का एक झटका था।



    > "क्या… आप?"

    उन्होंने कुछ कहने की कोशिश की, पर शब्द अटक गए।







    नंदिता ने उनकी आँखों में झाँका—एक सधी हुई परख के साथ।

    उसने उनकी बातों को वहीं काटते हुए ठहराव भरी आवाज़ में कहा—



    > "हमें पता है, दादी माँ, आप क्या कहना चाहती हैं।

    लेकिन जैसा आप सोच रही हैं, वैसा कुछ नहीं है।

    हम वो नहीं हैं… जो आप समझ रही हैं।"







    इस बार उसकी आँखों में एक अलग चमक थी—

    जैसे कोई औरत अपने अतीत के आरोपों से खुद को अलग करते हुए

    अपने गर्व को जिंदा रख रही हो।



    इतने में एक सर्वेंट आकर झुका और बोला,



    > "मालकिन, दवाई का टाइम हो गया है।"







    नंदिता ने सिर हिलाया, फिर खुद उठकर दादी माँ की तरफ़ बढ़ी।

    उसने बड़ी नरमी से उनकी कुर्सी के पास खड़ी होकर कहा—



    > "आइए दादी माँ, चलिए कमरे में…

    आपकी दवाइयाँ वक़्त पर लेनी चाहिए।

    आपने मुझसे सवाल किया, इसलिए मैं जवाब देने की हिम्मत कर पाई।

    दादी माँ चुपचाप उठीं…

    उनकी आँखों में अब न सख़्ती थी, न सवाल—

    बस एक उलझन थी… और शायद, एक डर कि कहीं उनका पोता

    किसी ऐसे अतीत से न जुड़ गया हो जिससे Agnihotri नाम की नींव हिल जाए।



    एक हफ़्ता बाद –

     Agnihotri Mansion



    Agnihotri हवेली में जैसे कोई उजास उतर आया था…

    पिछले एक हफ़्ते में वहाँ सब कुछ बदल गया था।



    जहाँ कभी हवाओं में चुप्पी और सवाल मंडराते थे,

    अब वहाँ नंदिता की मौजूदगी एक सुकून बनकर छा गई थी।



    दादी माँ – जो पहले अक्सर खामोश रहा करती थीं,

    अब हर वक्त किसी न किसी बहाने नंदिता को अपने पास बुला लेतीं।

    उनके होठों पर जो मुस्कान पिछले महीनों से गायब थी,

    वो अब लौट आई थी – और ये किसी दवा का असर नहीं था,

    ये सिर्फ और सिर्फ नंदिता के प्यार और सेवा का कमाल था।



    सुबह की शुरुआत – नंदिता के गाए भजन और आरती की लौ से होती,

    और शाम – उसके हाथों से बने खाने की सौंधी महक में डूब जाती।



    वो हर उस काम को करती थी

    जो एक बहू को करना चाहिए —

    न बिना शिकायत, न किसी बनावटीपन के।

    सारे सर्वेंट्स, माली, ड्राइवर, कुक —

    हर कोई अब उसे आदर से "छोटी मालकिन" कहने लगा था।



    दादी माँ की सेहत,

    जो बीते कुछ महीनों से गिरती जा रही थी,

    अब धीरे-धीरे संवरने लगी थी।

    उनकी आँखों में चमक थी, आवाज़ में गर्मजोशी और दिल में एक अजीब सा सुकून…



    > जैसे बरसों बाद किसी घर में ‘घरवाली’ लौटी हो।







    पर इस पूरे बदलाव में एक नाम,

    जो अब तक हवेली की दीवारों से भी ग़ायब था…

    वो था — आरंभ अग्निहोत्री।



    नंदिता ने अब तक उसका नाम नहीं लिया था —

    न किसी से सवाल किया,

    न किसी ख्वाहिश का इज़हार किया।



    > ना उसने यह जानने की कोशिश की कि उसका पति कहाँ है,

    और ना ही यह चाहा कि वो लौटकर आए।







    कभी-कभी दादी माँ के चेहरे पर मासूम सवाल तैर जाते थे,

    मगर नंदिता की मुस्कुराहट में उन्हें जवाब मिल जाता…



    > "शायद कुछ रिश्ते सवालों से नहीं, खामोशियों से ही जिए जाते हैं…"







    नंदिता ने अब इस हवेली को, इस नाम को,

    और इसके हर सदस्य को बिना किसी शर्त, दिल से अपना लिया था।

    वो अब न सिर्फ़ इस घर की बहू थी,

    बल्कि इस घर की रूह बन चुकी थी।



    पर उसके दिल में कहीं एक छोटा सा कोना

    अब भी सूना था…

    एक ऐसी जगह जिसे वो खुद भी छूना नहीं चाहती थी।



    > क्योंकि वहाँ एक ही नाम गूंजता था — आरंभ।







    और आज, जब आरंभ को गए पूरा एक हफ़्ता हो चुका था,

    तो नंदिता ने पहली बार खुद से यह सवाल किया—



    > "क्या मैं सच में चाहती हूँ… कि वो लौटे?"

    शायद नहीं…क्योंकि उसकी गैरमौजूदगी ने जो जगह छोड़ी थी,

    उसे अब नंदिता ने खुद से भरना सीख लिया था।



    Agnihotri Mansion —

    15 दिन बाद



    वक़्त जैसे रुक गया था…

    या फिर इतनी तेज़ी से भाग गया कि किसी को उसकी आहट तक महसूस नहीं हुई।



    आरंभ को गए पंद्रह दिन हो चुके थे।

    और इन पंद्रह दिनों में नंदिता ने न एक शिकायत की, न कोई सवाल।

    उसने घर को, दादी माँ को, और अपनी ज़िम्मेदारियों को पूरी तरह अपना लिया था…

    मगर खुद को? शायद कहीं पीछे छोड़ आई थी।



    आज की दोपहर, हवेली के किचन में

    नंदिता अपने थके हुए हाथों से दादी माँ के लिए मिल्क शेक बना रही थी।



    उसके माथे पर पसीने की बूंदें चमक रही थीं,

    चेहरा थकावट से बुझा हुआ था,

    और आँखों में वो पुराना सा चमकता आत्मविश्वास…

    अब थोड़ा थका हुआ महसूस हो रहा था।



    वो बेतहाशा कुछ ढूँढ रही थी —

    शायद खुद को…

    शायद अपने मन के उस कोने को जहाँ दर्द दबा पड़ा था…

    या शायद कोई जवाब,

    जिसे उसने अब तक किसी से पूछा तक नहीं था।



    > "आख़िर मुझे हो क्या रहा है?" — ये सवाल अब उसके ज़ेहन में बार-बार गूंज रहा था।







    पिछले एक हफ्ते से, उसका शरीर जवाब दे रहा था।

    कभी सर घूमता, कभी जी मचलता,

    और कभी बिना बात के दिल घबराने लगता।



    वो चाहती थी कि किसी को न पता चले।

    वो नहीं चाहती थी कि दादी माँ चिंतित हों,

    या कोई उस पर तरस खाए।



    इसी उधेड़बुन में जब वो मिल्क शेक का ब्लेंडर चला रही थी,

    तभी अचानक—



    > "झन झन..."







    ब्लेंडर उसके हाथ से छूट गया,

    कांच ज़मीन पर बिखर गया,

    और उससे पहले कि कोई कुछ समझ पाता —

    नंदिता खुद भी लड़खड़ाकर ज़मीन पर गिरने लगी।



    पर शायद खुदा को उसकी हालत पर रहम आ गया था।

    किचन में मौजूद दाई माँ और एक मेड ने फुर्ती से उसे थाम लिया।



    > "छोटी मालकिन!"

    "बाप रे! बीबी जी...! पानी लाओ कोई!"







    एक अफरा-तफरी मच गई —

    सारे स्टाफ दौड़ पड़े, किसी ने डॉक्टर को कॉल किया,

    तो किसी ने दादी माँ को पुकारा।



    नंदिता बेहोशी की हालत में ज़मीन पर पड़ी थी —

    उसके चेहरे पर पीली सी परछाईं थी…

    और होंठों पर कोई अनकही सी थकान।



    दूसरी तरफ…

    यूक्रेन की बर्फ से ढकी वादियों के बीच,

    आरंभ अग्निहोत्री अपने प्राइवेट विला की खिड़की के पास खड़ा था।

    बर्फ के हल्के फाहे जैसे उसके दिल के किसी कोने को छूते हुए लग रहे थे,

    मगर भीतर कुछ था जो नर्म नहीं… बेहिसाब बेचैन था।



    उसका चेहरा थका हुआ था।

    आँखों में नींद नहीं,

    बल्कि कुछ अनकहा सवाल था।



    > "पहले तो कभी ऐसा नहीं हुआ..."

    "फिर आज ही बेचैनी क्यों?"

    "ऐसा क्यों लग रहा है... जैसे कोई पुकार रहा हो?"







    उसकी आवाज़ फुसफुसाहट जैसी थी।

    बातें आधी अधूरी — जैसे खुद से लड़ रहा हो।



    वो पलटा — और उसकी नज़र रूद्र पर पड़ी,

    जो कुछ कदम पीछे खड़ा उसकी हर हरकत को चुपचाप देख रहा था।



    > "रुद्र..."

    "दादी माँ ठीक तो हैं?"

    "उन्हें कुछ हुआ तो नहीं?"







    आरंभ की आवाज़ में वो ठहराव नहीं था जो हमेशा रहता था।

    आज उसकी आवाज़ में डर था… और कशिश भी।



    रूद्र, जो उसका विश्वासपात्र था,

    ने तुरंत जवाब दिया, बिना एक पल की देर किए:



    > "नहीं सर, बड़ी मैडम बिल्कुल ठीक हैं।"

    "डॉक्टर की रिपोर्ट के मुताबिक उनकी सेहत पहले से कहीं बेहतर है।"

    "पिछले पंद्रह दिनों में उन्होंने रिकवर भी बहुत अच्छा किया है।"







    आरंभ ने लंबी सांस ली… लेकिन चैन फिर भी नहीं आया।



    वो खिड़की के बाहर फिर देखने लगा —

    पर अब बर्फ का गिरना भी उसे सुंदर नहीं लग रहा था।

    हर सफ़ेद फाहा जैसे उसके सीने पर कोई बोझ डाल रहा हो।



    > "रुद्र…"

    "कभी-कभी ऐसा क्यों होता है कि…

    सब कुछ सही होने के बावजूद,

    दिल बेचैन हो उठता है?"

    "जैसे किसी ने तुम्हें पुकारा हो… बहुत दूर से…"

    "और तुम चाहकर भी लौट न सको।"







    रूद्र चुप रहा।

    उसने देखा,

    आरंभ की उंगलियाँ अपनी शादी की अंगूठी को बार-बार छू रही थीं।



    शायद उसका दिल… अब उससे कुछ कहने लगा था।

    जिसकी आवाज़ उसने अब तक अनसुनी की थी। 



    5 years letters,

    हवेली के लॉन में हलकी सी गुनगुनी धूप फैली थी।

    और वहीं… सामने खड़ी थी एक नन्ही सी रानी…



    चार साल की छोटी सी बच्ची,

    जिसने गुलाबी और सफेद फूलों वाला फ्रॉक पहन रखा था,

    बालों में दो छोटी-छोटी चोटी और उनमें जड़े हुए रिबन…

    जैसे कोई परी ज़मीन पर उतर आई हो।



    उसके हाथों में थी एक लंबी सी छड़ी — जो उसके कद से भी बड़ी थी।

    मगर वो उसे इतनी शान और मजबूती से पकड़े हुए थी,

    मानो कोई शाही कमांडर हो जो सेना का नेतृत्व करने आई हो।



    उसने एक हाथ अपनी कमर पर टिकाया,

    और दूसरी हाथ में पकड़ी छड़ी को ज़ोर से ज़मीन पर पटका।



    ‘ठक!’



    सामने खड़े सभी सर्वेंट्स — जो मुस्कुराते हुए उसके नखरे देख रहे थे —

    अचानक एकदम सावधान मुद्रा में खड़े हो गए।



    छोटी सी बच्ची ने अपनी बड़ी-बड़ी गोल गोल आँखों से

    सबको ऐसे घूरा जैसे पूछ रही हो,

    "तुम लोग हो कौन?"



    और फिर अपनी तोतली, मगर रौबदार आवाज़ में बोली —



    > “आप साब… अंशिका को परेसान करतें है।”

    “Anshi अब सबको… पुनीश करेगी!”







    उसकी मासूम गुस्से वाली शक्ल देख कर

    हर किसी का दिल हँसी और प्यार से भर गया।



    एक मेड धीरे से हँसते हुए बोली —



    > “अरे नहीं नहीं… हम तो बस आपकी हेल्प कर रहे थे, Princess Anshi!”







    मगर Anshika का रौब बरकरार था।



    उसने फिर से छड़ी ज़मीन पर पटकी और कहा —



    > “ना! झूठ बोले! झूठ बोले तो… बहुत बड़ी सजा मिलेगी!”

    “Anshi बोले तो बोले… फाइनल बोले!”







    और फिर जैसे कुछ सोचकर अपनी छोटी उंगली से ठुड्डी सहलाई,

    फ्रॉक को ज़रा सा झटका दिया और गरजती हुई बोली —



    > “सबको... No chhutti today!”

    “Punishment Time!!”



    To be countinue ✍🏻✍🏻✍🏻 



    Don't forget to like share comment guy's 

  • 5. A Love Contract - Chapter 5

    Words: 2042

    Estimated Reading Time: 13 min

    Love Contract 5


    Airport,

    एक छोटी सी बच्ची, जिसकी आँखों में शरारत और चेहरे पर मासूमियत की बेशकीमती मुस्कान थी, धीरे से एक कार से उतरी। वो खुद में ही मगन, धीरे-धीरे इधर-उधर झाँक रही थी — जैसे किसी खजाने की खोज में निकली हो।

    उसने चुपके से चारों तरफ देखा, और फिर पीछे मुड़कर देखा — शायद ये तय कर रही थी कि उसके पीछे कोई आ तो नहीं रहा।



    "श्श्श... सबको pata bhi नहीं चलेगा कि अनशी यहाँ है!"

    उसने अपनी नन्हीं उँगली होंठों पर रखी और मुस्कुरा दी।



    सामने एक बड़ा सा गेट दिखा — एकदम चमचमाता। उसकी आँखें एकदम चमक उठीं।



    "इतना बड़ा दरवाज़ा? ज़रूर यहीं से परी लोग अंदर जाते होंगे!"

    वो फुसफुसाई और नन्हे-नन्हे कदमों से दौड़ पड़ी।



    उसकी हाइट इतनी छोटी थी कि किसी का ध्यान भी उस पर नहीं गया। भीड़भाड़ वाले एयरपोर्ट में वो चुपचाप मुस्कुराते हुए अंदर पहुँच गई। उसकी आँखों में इतनी चमक थी जैसे पूरी दुनिया उसकी जादुई जगह हो।



    "कितने लोग हैं... और सब इतने बोर! कोई खेल क्यों नहीं रहा?"



    उसने नज़रें घुमाईं और देखा — एक कपल, रेस्टिंग चेयर पर बैठा, एक-दूजे की आँखों में खोया हुआ।

    उसने भौंहें उठाईं और होंठ सिकोड़ते हुए कहा —

    "उफ्फ! ये लोग भी ना... प्यार-प्यार खेल रहे हैं, जैसे अनशी को कुछ दिखता नहीं!"



    वो चुपके से उनके पास गई और नीचे झुककर उनके जूतों के फीते आपस में बाँध दिए। फिर अपनी ही हँसी में डूबते हुए बोली —

    "हो गया! अब अनशी तो मज़े लेगी!"

    और दोनों हाथों से अपनी हँसी दबा ली।



    वो वहाँ से इधर-उधर घूमती रही, आँखें अब और चमक रही थीं —

    "अब देखते हैं कौन पकड़ पाता है अनशी को!"



    घूमते-घूमते वो प्राइवेट जेट के इलाके तक पहुँच गई। चारों तरफ सिक्योरिटी, प्लेन और चमकदार काँच की दीवारें — मगर अंशिका के चेहरे पर अब भी वही मुस्कान थी।"यहीं से उड़ेंगी अनशी... बिलकुल परी की तरह!"

    राइवेट जेट का दरवाज़ा खुला।

    जैसे ही "Exit" नाम की उस प्राइवेट फ्लाइट से पहला कदम नीचे रखा गया, हर किसी की नज़रें अपने-आप उस शख्स पर टिक गईं।



    वो एक आदमी था—ऊँचा कद, परफेक्ट सूट में सजा हुआ, उसके चेहरे पर वो ठंडा सा ऐटिट्यूड था जो डर भी पैदा करे और रहस्य भी।

    उसके चारों तरफ बॉडीगार्ड्स थे — काले सूट में, इयरपीस लगाए हुए, हर दिशा में अलर्ट निगाहों से देख रहे थे। मगर सबकी नज़र उस आदमी पर ही अटकी थी।

    और उसके बाजू में — एक लड़की।



    उसने उस आदमी का हाथ कुछ इस तरह थामा हुआ था, जैसे पूरी दुनिया से उसे छीन लिया हो।

    लाल रंग की, घुटनों से ऊपर की ड्रेस — इतना टाइट कि उसकी चाल भी चीख रही थी कि ये लड़की सिर्फ शो-पीस है। उसके होठों पर गहरे लाल रंग की लिपस्टिक, आँखों में डार्क काजल, और पलकों पर ढेर सारा आईशैडो — जैसे मेकअप के नीचे कोई चेहरा ही न हो।



    उसके लंबे बाल हवा में उड़ रहे थे, और उसकी चाल में नज़ाकत कम, नाटक ज़्यादा था।

    उसने उस आदमी की बाजू को ज़ोर से थाम रखा था — मानो दिखाना चाहती हो कि "ये मेरा है।"



    उसकी आँखें चारों तरफ घूम रही थीं — हर किसी को ऐसे घूरते हुए जैसे कोई जजमेंटल रॉयल क्वीन हो। और उस आदमी की तरफ देखकर उसने धीमे से मुस्कराते हुए कहा:



    "Baby... I think media वालों को बुला लेना चाहिए था, इस entry की तो value ही मिस हो गई!"



    मगर वो आदमी — चुप रहा। उसकी आँखें किसी को खोज रही थीं... कोई चेहरा... कोई साया... और शायद — कोई दर्द।

    बॉडीगार्ड्स अभी कुछ समझ पाते, इससे पहले ही एक छोटी सी बच्ची उनके पैरों के बीच से निकलकर उस आदमी के सामने आ गई।



    उसने दौड़ते हुए उस आदमी के पैरों को कसकर पकड़ लिया — जैसे वो सालों से बिछड़ी हो और अचानक अपनी दुनिया पा ली हो।

    उसके हाथ उस आदमी के जूतों को ऐसे जकड़े हुए थे, मानो अगर अब छोड़ा, तो फिर कभी नहीं मिलेगा।



    वो बच्ची काँप रही थी, उसकी छोटी-सी नाक सुड़क रही थी, और उसकी आवाज़ — टोटल मासूमियत से भरी, तोतली सी — पूरे माहौल को अचानक सन्नाटे में बदल चुकी थी।



    "Aap kahan chale gaye the mujhe chhodkar... aapko toh promise kiya tha ki kabhi door nahi jaoge..."



    उस बच्ची का चेहरा अभी भी झुका हुआ था — बाल उसकी आंखों पर झूल रहे थे, लेकिन उसकी आवाज़... सीधा उस आदमी के सीने में जा घुसी।



    वो आदमी... ठहर गया।

    उसने झुककर उस बच्ची का चेहरा देखने की कोशिश की — उसकी आंखें अचानक किसी भूले हुए सच को याद करने लगीं।



    वहीं खड़ी उस औरत का चेहरा सख्त हो गया। उसकी उंगलियों की पकड़ ढीली पड़ने लगी।

    उसने हौले से फुसफुसाकर कहा:



    “Who the hell is this kid?”



    लेकिन अब किसी के पास जवाब नहीं था...

    क्योंकि उस बच्ची की आंखों में जो नमी थी, वो किसी एक्टिंग से पैदा नहीं होती।



    और फिर धीरे-धीरे उसने अपनी मासूम आंखें ऊपर उठाईं —

    वो चमक, वो मासूमियत, वो सवाल...



    उसने देखा सीधा उस आदमी की आंखों में और कहा—



    "Main Anshika hoon... aur aap mere daddy ho... hai na?"



    दूसरी तरफ — Agnihotri Mansion,



    सुबह से ही हवाओं में एक अजीब सी बेचैनी थी।

    वो हवाएं जो कभी दादी माँ की खिड़की के पर्दों से खेला करती थीं, आज उन्हें भी किसी अनजाने डर ने थाम लिया था।



    नंदिता—

    आज सुबह से ही उसका दिल जोर-जोर से धड़क रहा था।

    जैसे कोई अनहोनी बस दरवाज़े पर खड़ी हो।

    वो बार-बार दादी माँ के पास जा रही थी, उनसे कुछ कहने की कोशिश करती, फिर चुप हो जाती।



    “दादी माँ... मुझे पता नहीं क्यों, अजीब सी घबराहट हो रही है... कहीं कुछ गलत तो नहीं हो रहा?”

    उसकी आवाज़ कांप रही थी। आँखें बार-बार दीवार घड़ी पर टिक जातीं, और हर टिक-टिक उसकी बेचैनी को और बढ़ा देती।



    और शायद सबसे बड़ी वजह...

    अनशिका।



    सुबह से ही वो उसे पूरे घर में ढूंढ रही थी — बगीचे में, कमरे में, दादी माँ के मंदिर वाले कोने में — लेकिन कहीं नहीं मिली।

    एक पल को लगा शायद किचन में होगी अपनी प्यारी सी नर्सरी फिज़ में, लेकिन वहां भी नहीं...



    और जब से वो नहीं दिखी थी, तब से नंदिता का दिल जैसे हलक़ में अटक गया था।



    “इतनी छोटी सी बच्ची... और घर में कहीं नहीं है? कोई देख क्यों नहीं रहा उसे?”

    उसने लगभग चीखते हुए स्टाफ को डांट दिया था, पर असली ग़ुस्सा खुद पर था—कि कैसे वो इतनी देर तक उसे ढूंढ न पाई।



    उसका चेहरा पीला पड़ चुका था। हाथ काँप रहे थे।

    आख़िरकार वो सीढ़ियों से उतरती हुई फिर से दादी माँ के पास आई और घुटनों के बल बैठ गई।



    “दादी माँ... मैं डर रही हूँ। अनशिका ठीक तो है ना?”



    दादी माँ ने थमे हुए स्वर में उसकी हथेली थामी, और बोलीं:



    “बेटा... कोई हमें छोड़कर जाता नहीं... वो अगर हमसे दूर है, तो खुदा ने उसे किसी वजह से वहाँ भेजा है जहाँ उसका पहुँचना ज़रूरी है।”



    नंदिता की आँखें छलक उठीं।

    कहीं दिल के किसी कोने में उसे यकीन था — अनशिका जहां भी है, कोई तो होगा जो उसे थाम लेगा।लेकिन सवाल ये था — क्या वो वक़्त पर थाम पाएगा?

    ीं कि वो भी अंदर से टूटी हुई हैं।



    लेकिन…

    वो अपनी इस टूटन को नंदिता से छुपा रही थीं।

    क्योंकि उन्हें पता था, इस वक्त अगर कोई बिखर सकता है तो वो नंदिता थी। और एक माँ अगर टूट जाए… तो बच्ची को ढूँढने की हिम्मत कौन करेगा?



    “बेटा... चिंता मत कर,”

    उन्होंने धीमे से नंदिता की पीठ पर हाथ फेरते हुए कहा,

    “मैंने अपने सारे बॉडीगार्ड्स को लगा दिया है। पूरे शहर में अनशिका को ढूंढा जा रहा है। हमें बस यकीन बनाए रखना है... वो बहुत समझदार बच्ची है। भोलेनाथ हमारी बिटिया की रक्षा करेंगे।”



    दादी माँ की आवाज़ में कांपन थी, मगर उनकी आंखों में विश्वास।

    वो जानती थीं कि डर को अगर हवा दी गई, तो सब कुछ बिखर जाएगा।



    पर अंदर ही अंदर...

    वो हर साँस के साथ शिव का नाम ले रही थीं —

    "ॐ नमः शिवाय... मेरी अनशिका जहाँ कहीं भी हो, उसे अपनी छाया में रखना भोलेनाथ..."



    हर सेकंड जैसे सैकड़ों साल लग रहे थे।



    कमरे में सन्नाटा था, बस घड़ी की टिक-टिक और दिल की धड़कनों की आवाज़…



    और कहीं न कहीं…

    किसी कोने में, किसी मंत्र के कंपन में,

    उम्मीद अब भी ज़िंदा थी — क्योंकि ‘महादेव’ अब भी थे। 



    एयरपोर्ट...



    एयरपोर्ट का माहौल इस वक्त पूरी तरह से बिगड़ चुका था।

    शादी की सुरक्षा को देखते हुए, सिक्योरिटी फोर्स ने लगभग सभी आम यात्रियों को बाहर निकाल दिया था।

    भीड़ छँट चुकी थी—सिर्फ़ बचे थे कुछ खास लोग, बॉडीगार्ड्स… और वही छोटी बच्ची, जो अब एक बार फिर वापस लौटी थी।

    साथ में वही लड़की भी… जिसकी आंखों में गुस्सा उबाल मार रहा था।



    वो लड़की तेज़ी से आगे बढ़ी और दूर खड़ी उस बच्ची को देख कर ऊँची आवाज़ में चीख़ पड़ी,

    “तुम... तुम तो किसी गाड़ी की सीट पर बैठने लायक भी नहीं हो… और मेरे बॉयफ्रेंड का हाथ पकड़ने की औक़ात रखती हो?”



    “पता नहीं किस गंदे खून से निकली हो तुम... तुम जैसी लड़कियाँ सिर्फ़ दूसरों के रहम पर ज़िंदा रहती हैं!”



    उसकी आवाज़ में ज़हर था, और शब्दों में घृणा।



    वो लड़की बोल ही रही थी कि अचानक...

    "धक्का!"



    उस बच्ची ने उसकी बातों से झल्लाकर उसे ज़ोर से धक्का दे दिया।



    वो लड़की लड़खड़ाई, गिरने ही वाली थी कि तभी…

    एक साया, एक तेज़ कद-काठी वाला आदमी, एक झटके में उसके पास आया।

    उसने उसे गिरने से पहले ही अपनी मजबूत बाहों में थाम लिया—और अपने सीने से लगाकर एकदम जड़ हो गया।



    सारे बॉडीगार्ड्स चौंक कर एक पल के लिए वहीं थम गए।



    वो कोई आम आदमी नहीं था... उसकी आँखों में एक अलग ही गहराई थी।

    उसके कपड़े, उसकी मौजूदगी, उसके हाथों की पकड़… सब कुछ इतना रॉयल, इतना प्रभावशाली था कि कोई भी कुछ कहने से पहले दो बार सोचता।



    वो लड़की अब खामोश थी, उसकी सारी जहरीली बातें उसी के हलक में अटक गई थीं।



    और उस आदमी के चेहरे पर…



    ...एक सुकून था।

    ऐसा सुकून, जो किसी को बरसों बाद मिले अपने हिस्से के चाँद जैसा लगता है।



    उसने बच्ची को अपनी बाँहों में इस तरह थामा था, जैसे वो उसके दिल का टुकड़ा हो।

    आँखें भीग रही थीं, हाथ काँप रहे थे, लेकिन उसकी पकड़ में कोई कमजोरी नहीं थी… सिर्फ़ अपनापन था।



    शायद उसे आज वो मिल गई थी, जिसका इंतज़ार उसकी रूह सालों से कर रही थी।





    वो आदमी अभी भी उस बच्ची को अपने सीने से लगाए खड़ा था।

    उसकी आँखें नम थीं, और बाँहें काँप रही थीं... लेकिन दिल को एक अजीब सुकून मिल रहा था।

    मानो वर्षों की तन्हाई आज एक मासूम की गर्माहट में पिघल रही हो।



    तभी...



    किसी ने पीछे से उसकी बाजू को कसकर पकड़ा।



    एक तीखी, झनझनाती हुई आवाज़ उसके कानों में पड़ी —

    "A.M.! What the hell are you doing?"

    "तुम इस गंदगी को अपने सीने से क्यों चिपका रहे हो?"



    वो लड़की अब आग बबूला थी।

    उसके शब्दों में ज़हर था...

    नफ़रत ऐसी, जो किसी मासूम पर भी रहम ना करे।



    "पता नहीं ये कौन है, किस गंदे खून की निशानी है... इसे अभी उतारो और चलो मेरे साथ।"

    "यहाँ इस गंदगी के पास खड़े होना भी मेरे लिए बर्दाश्त के बाहर है!"



    कुछ पल के लिए सन्नाटा छा गया…



    वो आदमी चुपचाप उस बच्ची के सिर पर हाथ फेरता रहा… लेकिन उसकी आँखों की कोर अब लाल हो चुकी थीं।

    उसने धीरे से उस लड़की की तरफ देखा—एक नज़र, जो सीधा उसकी आत्मा को भेद दे।



    फिर झटके से उसकी कलाई अपने बाजू से अलग की और गरजती आवाज़ में कहा—



    "Stay. Away. From. Me."



    "और दोबारा मुझे छूने की कोशिश मत करना... वरना अंजाम क्या होगा, तुम अच्छी तरह जानती हो।"



    वो लड़की सन्न रह गई।



    उसकी आँखों की दहशत और चेहरे की चुप्पी बता रही थी—ये वही आदमी था, जो मुस्कुराता कम था… मगर जब गुस्से में आता था, तो कहर बन जाता था।



    सारे बॉडीगार्ड्स अब उस बच्ची की तरफ़ झुक गए थे।

    कोई उसे गले लगा रहा था, कोई उसकी हथेली पकड़कर कुछ पूछने की कोशिश कर रहा

     था…



    और A.M.—वो अब भी उस बच्ची को अपनी छाती से लगाए खड़ा था...

    जैसे कह रहा हो—



    "अब कोई तुझसे तुझे छीन नहीं सकता..."



    To be countinue ✍  



    Don't forget to like share comment guy's 

  • 6. A Love Contract - Chapter 6

    Words: 1662

    Estimated Reading Time: 10 min

    Love Contract 6


    एयरपोर्ट, 

    वहीं उस आदमी के बॉडीगार्ड्स ने उस मेकअप से पुती हुई औरत को ज़ोर से पीछे खींच लिया, जैसे ही उसने उस मासूम बच्ची की तरफ़ बढ़ने की कोशिश की। उस वक़्त वो आदमी हल्की सी मुस्कुराहट के साथ उस छोटी सी बच्ची को देख रहा था, जो उसके सीने से लिपटी हुई थी, उसकी मासूम गर्माहट को अपनी रूह तक महसूस कर रहा था। वो दोनों एक-दूसरे में इस कदर खोए हुए थे जैसे वक़्त थम गया हो।

    लेकिन अचानक—

    एक पल में ही सब कुछ बदल गया।

    उसके आसपास खड़े बॉडीगार्ड्स घुटनों के बल ज़मीन पर गिर पड़े, और ठीक उसी वक़्त, किसी ने एक झटके में उस बच्ची को उसकी बाँहों से छीन लिया। सब कुछ इतनी तेज़ी से हुआ कि वो आदमी कुछ समझ ही नहीं पाया। जब तक वो होश में आता, बहुत देर हो चुकी थी।

    वो बच्ची अब उसकी बाँहों से दूर जा चुकी थी।

    एक पल में ही उसकी आँखों में आग सुलग उठी। उसकी मुट्ठियाँ खुद-ब-खुद भींच गईं, और चेहरा ग़ुस्से की तपिश से लाल हो गया।

    उसने अपनी आग उगलती आँखों से सामने खड़े उस शख़्स को देखा जिसने उस बच्ची को अब अपने सीने से चिपका रखा था। वो सिर झुकाए खड़ा था, लेकिन उसके कपड़ों पर खून के निशान थे — शायद उस झड़प में कुछ चोट लगी थी।

    आरंभ अग्निहोत्री का चेहरा देखते ही ग़ुस्से से तमतमा उठा। उसकी आवाज़ बर्फ जैसी ठंडी थी, लेकिन हर शब्द में जलता हुआ लावा बह रहा था—

    "क्या तुम अपनी औक़ात भूल चुके हो?"
    "मेरा ही नमक खाकर मुझसे ही ग़द्दारी कर रहे हो?"

    सामने खड़ा शख़्स — जो दादी माँ का पर्सनल बॉडीगार्ड था और जिसे उन्होंने अंशिका की सुरक्षा के लिए खासतौर पर हायर किया था — वो एक वेल-ट्रेंड प्रोफेशनल था। वह हर मुश्किल हालात को बग़ैर घबराए संभालने का हुनर रखता था। आरंभ की तीखी बातों से उसके दिल में ज़रूर कुछ टूटा, लेकिन उसने अपने चेहरे पर कोई भाव नहीं आने दिया।

    सिर झुकाकर बेहद सधे हुए लहज़े में उसने जवाब दिया—

    "सॉरी मास्टर... लेकिन हम आपके लिए नहीं, हमारी प्रिंसेस के लिए लॉयल हैं।"
    "हम उनके पर्सनल बॉडीगार्ड हैं।"

    वो आरंभ को अच्छे से जानता था — और ये भी कि वो खुद उसी ट्रेनिंग सेंटर से ट्रेंड होकर निकला था जहाँ से ये बॉडीगार्ड। इसलिए वो जानता था कि अगला पल कितना ख़तरनाक हो सकता है।

    उसकी बात सुनकर आरंभ की आँखों में पहले शक की एक चिंगारी उठी, और फिर गुस्से का तूफ़ान उमड़ पड़ा। उसने बर्फीली आँखों से उस बॉडीगार्ड को घूरा — और वक़्त जैसे एक पल को थम सा गया।

    आरंभ की आँखों की लपटें अब उस बॉडीगार्ड की आत्मा तक उतर चुकी थीं। माहौल में एक अजीब-सी सिहरन थी। इमारत की दीवारें तक जैसे थरथरा उठी हों। वो नन्ही-सी बच्ची अभी भी ज़की की बाँहों में थी, लेकिन अब उसकी साँसें तेज़ थीं... वो डर गई थी।

    "नाम क्या है तुम्हारा?"
    आरंभ की आवाज़ इतनी ठंडी थी जैसे मौत खुद उसके होंठों से फिसल रही हो।

    बॉडीगार्ड ने सिर झुकाए ही कहा, "ज़की..."

    आरंभ ने एक कदम और आगे बढ़ते हुए कहा—
    "ज़की..."
    "तुम्हारी वफ़ादारी ने आज पहली बार मुझे चौंकाया है। लेकिन याद रखना— जो मेरी इजाज़त के बिना उस छोटी सी बच्ची तक पहुँचने की कोशिश करेगा... वो ज़िंदा नहीं बचेगा..."

    इस बार ज़की ने पहली बार आरंभ की आँखों में सीधा देखा। अब उसकी आँखों में भी कुछ था— वो डर नहीं था, वो थी... एक कसम।

    "छोटी सी बच्ची...? जिस मासूम को आपने कभी एक नज़र देखना तक गवारा नहीं किया... आज उसकी हिफाज़त पर सवाल उठा रहे हैं?"
    "अगर वाकई कोई रिश्ता होता, तो वो आपके सामने नहीं, आपकी दुनिया से कोसों दूर होती।"

    ये शब्द जैसे आरंभ के सीने में आग बनकर धँस गए।

    उसने तेज़ी से ज़की की कॉलर पकड़ी और झटके से उसे दीवार से दे मारा। बच्ची ज़मीन पर गिरने ही वाली थी कि पीछे से एक और शख्स आया— एक लंबा, साया सा चेहरा... वो बच्ची को सम्हालते हुए ज़की के सामने खड़ा हो गया।

    "बस बहुत हुआ..."

    उसकी आवाज़ में न ग़ुस्सा था, न डर... लेकिन उसमें एक ऐसी authority थी जिसने आरंभ तक को एक पल के लिए रोक दिया।

    "अगर आप दुश्मनों की तरह बर्ताव करेंगे, तो फिर वफ़ा की उम्मीद मत रखिए, सर..."

    आरंभ की साँसें अब भारी हो गई थीं। उसकी उंगलियाँ काँप रही थीं, लेकिन ये डर नहीं था— ये था टूटता हुआ एक रिश्ता, जो शायद कभी बना ही नहीं।

    वो कुछ पल खामोश रहा... फिर धीमी आवाज़ में फुसफुसाया—

    "उसे यहाँ से ले जाओ... लेकिन याद रखना, ज़की..."
    "जिस दिन उस मासूम को मेरी ज़रूरत पड़ी... तुमसे पहले मैं उसके पास पहुँच जाऊँगा। चाहे तुम उसे पहाड़ों के पीछे छुपा दो, या अपनी जान में... आरंभ अग्निहोत्री का नाम हवाओं में बहता है।"
     दोपहर का वक्त, 

    सड़क पर धूप फैली थी। गर्म हवा शीशों से टकराकर वापस लौट रही थी, लेकिन कार के अंदर AC की ठंडी हवा चल रही थी। ज़की ड्राइविंग सीट पर बैठा था, चेहरे पर वही पुराना संजीदगी और फिक्र का साया। पीछे सीट पर बैठी छोटी सी अंशिका, अपने दोनों पैरों को सीट पर टिकाकर बैठी थी। गोद में एक पुरानी डॉल थी, जो उसके चेहरे जितनी ही मासूम लग रही थी।

    "आप कहाँ ले जा रहे हो मुझे?"
    उसने थोड़ी रूठी आवाज़ में पूछा।

    ज़की ने नजरें शीशे से हटाए बिना कहा—
    "सेफ जगह पे। जहाँ कोई तुम्हें परेशान ना करे।"

    "सेफ जगह...? वहाँ चॉकलेट मिलेगी?"

    ज़की ने धीमे से मुस्कुरा दिया, "हाँ, अगर तुम अच्छे से वहाँ तक पहुँच गईं तो दो टॉफी पक्की।"

    "मुझे दो नहीं पाँच चाहिए!"
    बच्ची ने अपनी उँगलियाँ फैलाते हुए ज़ोर देकर कहा।

    "अरे वाह, डील से पहले ही शर्तें?"

    "मैं छोटी हूँ, मुझे सब माफ़ है। मम्मा कहती थीं।"

    ज़की का मन हल्का सा काँपा। मम्मा का ज़िक्र आते ही उसकी आँखें एक पल को मद्धम हुईं।

    "मम्मा कहाँ हैं?"
    बच्ची ने पूछा, बिल्कुल सीधे।

    अब ज़की की चुप्पी थोड़ी लंबी हो गई।

    "वो... बहुत दूर हैं अभी..."

    "जैसे आकाश में?"
    उसकी आँखों में कुछ गहराई थी, जो उसकी उम्र से कहीं बड़ी लग रही थी।

    "हाँ... ठीक वैसे ही।"

    फिर बच्ची थोड़ी देर शांत रही। खिड़की से बाहर देखती रही... और फिर अचानक बोली—

    "आप बहुत सीरियस रहते हो। हँसते क्यों नहीं?"

    "ताकि तुम ज़्यादा बोल सको।"
    ज़की ने सीधा जवाब दिया।

    "हह्ह... आप पागल हो।"
    उसने मुँह फुला लिया, लेकिन आँखों में हँसी थी।

    फिर कुछ सेकंड बाद उसने कहा—

    "वैसे... आप मेरे पापा तो नहीं हो न?"

    ज़की का पैर ब्रेक पर थोड़ी देर के लिए धीमा हुआ। उसने धीरे से रियर व्यू मिरर में देखा।

    "नहीं... मैं तुम्हारा पापा नहीं हूँ।"

    "फिर भी आप मुझे ऐसे ले जा रहे हो जैसे पापा ले जाते हैं।"

    "क्योंकि... जो पापा नहीं हैं, वो भी किसी की हिफाज़त कर सकते हैं।"

    अंशिका थोड़ी देर सोचती रही, फिर बोली—

    "तो अब आप मेरे ज़ाकी अंकल हो?"

    ज़की ने पहली बार मुस्कराते हुए कहा—
    "हाँ। ज़की अंकल..."

    "तो ठीक है। ज़ाकी अंकल, आपको मेरी शर्तें माननी पड़ेंगी।"

    "अब क्या नया फरमान है, मैडम?"

    "एक— मुझे हर रोज़ दो टॉफी चाहिए। दो— मुझे डराने की मनाही है। और तीन— जब तक मम्मा नहीं मिलतीं, आप मेरे साथ रहोगे।"

    ज़की ने कार को तेज़ किया, आँखों में चमक आई और दिल में कुछ पिघलता हुआ सा महसूस हुआ।

    "Done. Contract sign हो गया।"

    "हाँ, लेकिन साइन कहाँ किया आपने?"
    बच्ची ने मासूमियत से पूछा।

    ज़की ने एक हाथ बढ़ाया, उसकी छोटी उँगली को अपनी उँगली से जोड़ा और कहा—

    "यही होता है Pinky Promise..."

    बच्ची खिलखिला दी। अब दोपहर की धूप में भी कार के अंदर एक नन्हीं सी छाँव उतर आई थी।
    एयरपोर्ट पार्किंग एरिया |

    धूप तेज़ थी, लेकिन आरंभ अग्निहोत्री की आँखों में उससे भी ज़्यादा तेज़ जलन थी। वो वहीं खड़ा था—बिलकुल स्थिर। आसपास का शोर, उठती गाड़ियों की आवाज़ें, आसमान में मंडराता कोई प्लेन… सब कुछ जैसे किसी दूर की दुनिया का हिस्सा लग रहा था। उसकी आँखों के सामने बस एक ही चेहरा बार-बार घूम रहा था—वो मासूम चेहरा, जो हूबहू उसके बचपन की परछाई था।

    "ये... मुमकिन नहीं..."

    उसके होंठ हिले, पर आवाज़ जैसे अंदर ही कहीं दब गई थी।

    उसके चारों तरफ खड़े उसके बॉडीगार्ड्स, जो कभी 'India’s most elite protection unit' कहलाते थे, अब शर्म और अपराध की भावना से सिर झुकाए खड़े थे। ज़मीन पर धूल में गिरा उनका वो साथी—जिसे आरंभ ने अपनी आँखों के सामने एक ही झटके में गिरते देखा था—अब एक बुरा सपना लग रहा था।

    आरंभ ने गहरी साँस ली, अपनी नज़रों को घुमाया और ठंडी, मगर बेहद कटीली आवाज़ में बोला—

    "C-सेक्शन में... एक महीने की ट्रेनिंग—Nonstop. Without leave."
    "क्योंकि अगर मेरी इजाज़त के बिना कोई मेरी परछाईं तक छूने की कोशिश करे, तो उसे ज़िंदा रहना का हक़ नहीं होता... समझे?"

    उसकी आँखों में गुस्सा नहीं, बल्कि घृणा थी—Disgust.

    बॉडीगार्ड्स ने कुछ नहीं कहा। वे जानते थे, ये कोई सज़ा नहीं, बल्कि निर्मम हुक्म था। एक ऐसा आदेश जो उनके अस्तित्व को फिर से परखने वाला था।

    आरंभ ने एक बार फिर गहरी साँस ली और तेज़ कदमों से आगे बढ़ने लगा।

    उसके ठीक पीछे चल रहा था रुद्र—वही जो कभी उसका साया समझा जाता था। उसकी चाल धीमी थी, लेकिन चेहरे पर घबराहट और अनगिनत सवालों की छाया साफ़ थी। वो समझ नहीं पा रहा था कि एक बच्ची, एक अनजान बॉडीगार्ड और एक मास्टरमाइंड के बीच का ये जाल... आखिर किसने बुना?

    आरंभ चलते-चलते रुका नहीं, लेकिन उसकी आवाज़ पीछे गूँज गई—

    "पता करो... वो बच्ची कौन है। और उस बॉडीगार्ड को किसने हायर किया?"
    "क्योंकि जहाँ तक मुझे याद है, उसे तो मैंने दादी माँ की सिक्योरिटी के लिए रखा था। फिर... वो वहाँ कैसे...?"

    उसकी आवाज़ फट गई थी। जैसे कोई पुराना ज़ख्म ताज़ा हुआ हो।

    रुद्र ने तुरंत रिस्पॉन्स दिया—

    "शाम तक हर डिटेल आपकी टेबल पर होगी, सर..."

    आरंभ ने सिर झुकाया। उसकी साँसें गहरी होती जा रही थीं।

    "उसे कोई और नहीं, मेरा अतीत छू रहा है, रुद्र..."

    "और ये अतीत... शायद अब apna बनकर लौट आया है।"

    To be countinue ✍🏻 ✍🏻 ✍🏻 

  • 7. A Love Contract - Chapter 7

    Words: 2303

    Estimated Reading Time: 14 min

    Love Contract 7


    अग्निहोत्री मेंशन, दोपहर का समय।

    हॉल के कोने में दो औरतें बैठी थीं—एक माँ और एक दादी। लेकिन इस वक़्त दोनों की आँखों में माँ होने की पीड़ा एक सी थी।

    नंदिता का चेहरा सड़क की धूल की तरह थका हुआ था। उसकी आँखों से आँसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे। उसकी उँगलियाँ बार-बार साड़ी के पल्लू को भींच रही थीं, जैसे किसी टूटे हुए वजूद को पकड़ने की आख़िरी कोशिश हो।

    दादी माँ ने उसे एकटक देखा और बहुत ही सधी हुई, धीमी आवाज़ में कहा,
    "बेटा... शांत हो जाओ। हँसी हमारी है। मिल जाएगी। बस तुम अपने मन को इस तरह मत तोड़ो।"

    लेकिन दादी माँ की बात खत्म भी नहीं हुई थी कि नंदिता ने भर्राई हुई आवाज़ में तुरंत जवाब दिया—

    "कैसे शांत हो जाऊँ दादी माँ...? ये सब मेरी वजह से हुआ है। मैं उसे अकेला छोड़कर बाहर क्यों गई? अगर मैं यहाँ होती तो... तो शायद वो आज हमारे पास होती। सब मेरी गलती है। मेरी एक छोटी सी लापरवाही ने मेरी जान, मेरी बच्ची को मुझसे दूर कर दिया।"

    उसके शब्दों में आत्मग्लानि थी, पश्चाताप था... और सबसे ज़्यादा एक टूटी हुई माँ की लाचारी थी।

    वह वहीं सोफे पर झुककर बैठ गई, अपने हाथों में चेहरा छुपाते हुए फूट-फूटकर रोने लगी।

    उसकी रुलाई ऐसी थी जैसे दिल के हर कोने से कोई चीख़ निकल रही हो।

    दादी माँ की आँखें भी नम थीं।
    उन्होंने धीरे से नंदिता के बालों में हाथ फेरा—वही हाथ जो कभी बेटे के सिर पर आशिर्वाद देने उठे थे और आज बहू के आँसू पोंछने के लिए काँप रहे थे।

    "मुझे पता है, मेरी बच्ची... तेरे दिल में कितने काँटे चुभे हैं। ये दर्द वही समझ सकता है, जिसने माँ होकर अपनी औलाद को खोया हो।"

    "मैं समझ सकती हूँ... लेकिन मैं उसे कम नहीं कर सकती।"

    फिर उन्होंने नंदिता का चेहरा अपने हाथों में थाम लिया और बेहद यक़ीन भरे स्वर में कहा—

    "बस एक बात याद रख... अंशिका जहाँ भी होगी, सही-सलामत होगी। मेरा दिल कहता है वो ठीक है। माँ-बेटी का रिश्ता सिर्फ शरीर से नहीं होता... रूह से होता है। और तेरी रूह अब भी उसे महसूस कर सकती है। बस तू हिम्मत मत हार। "

    अग्निहोत्री मेंशन – शाम 6 बजे।

    दिन भर की थकान और बेचैनी अब साँझ की हल्की नमी में घुल रही थी। आसमान में बादल मंडरा रहे थे, जैसे कोई पुराना ग़म फिर से उमड़ आया हो। हवाओं में एक बेचैन सरसराहट थी, और बिजली रह-रह कर आकाश को चीरती जा रही थी, जैसे क़िस्मत की किसी पुरानी ग़लती को कोस रही हो।

    और तभी...

    अग्निहोत्री मेंशन के बड़े गेट पर एक कार आकर रुकी।

    कार की तीखी आवाज़ ने अंदर लिविंग हॉल में बैठे दादी माँ और नंदिता के कानों में भूचाल-सा भर दिया। दोनों एक-दूसरे की आँखों में देखने लगीं—एक अनकहा डर और एक अधूरी उम्मीद।

    कार से बाहर निकलते ही ज़की ने चारों तरफ़ नज़र डाली, फिर तुरंत दूसरी तरफ़ घूमकर अंशिका को अपनी गोद में उठा लिया।
    वो बच्ची जैसे थकी हुई थी, लेकिन सुरक्षित थी। उसकी साँसें ज़की की छाती पर धीमे-धीमे चल रही थीं।

    धीरे-धीरे मेंशन की ओर कदम बढ़ाते हुए, ज़की का चेहरा गंभीर था।
    उसकी आँखों में अब भी वो जिम्मेदारी थी, जैसे उसने किसी बहुत बड़ी क़ीमत पर इस बच्ची को वापस लाया हो।

    शाम का माहौल, बिजली की कड़क और हवाओं की फुसफुसाहट जैसे इस पल की गवाही दे रहे थे।

    भीतर, जैसे ही कार की आवाज़ सुनी,
    दादी माँ और नंदिता बिना एक पल गँवाए दरवाज़े की ओर भागीं।

    "ज़की..."
    उनकी साँसें तेज़ थीं, आँखें नम, और दिल में एक ही सवाल—क्या वो है...? क्या वाकई वो हमारी अंशिका है...?

    ज़की अब तक मेंशन के मेन डोर के पास पहुँच चुका था।
    उसने जैसे ही नंदिता को देखा, उसका चेहरा हल्का सा स्ट्रेट हुआ।
    वो कुछ कहना चाहता था, लेकिन कुछ कह न सका।

    और फिर...
    नंदिता की नज़र ज़की की गोद में पड़ी उस नन्हीं जान पर पड़ी—अंशिका... उसकी बेटी... उसकी जान... उसकी दुनिया।

    साँसें थम गईं।

    नंदिता ने दौड़कर एक झटके में अंशिका को अपनी बाहों में भर लिया।
    जैसे उसकी रूह फिर से उसके जिस्म में लौट आई हो।

    "अंशिकाआआ..."

    वो नाम अब कोई पुकार नहीं, एक सिसकी बन चुका था।

    वो फूट-फूट कर रो पड़ी।
    उसका शरीर काँप रहा था, हाथ अंशिका के बालों में थे, चेहरा उसकी छोटी-सी गर्दन में छुपा हुआ था।

    "माफ़ कर दे बेटा... माफ़ कर दे... माँ तुझे छोड़कर नहीं जाना चाहती थी... मेरी जान... मेरी बच्ची..."

    वहीं पीछे खड़ी दादी माँ की आँखों से भी आँसू बह निकले।
    उन्होंने आसमान की ओर नज़र उठाई और कहा,
    "शुक्र है भोलेनाथ... तूने मेरी अंशिका को वापस भेज दिया..."

    उस शाम, हवाओं ने सुकून की साँस ली।
    बिजली की कड़क जैसे मौन हो गई।
    और मेंशन की दीवारों ने एक माँ की रुलाई को, एक दादी की प्रार्थना को और एक अजनबी की वफ़ादारी को अपने सीने में दर्ज कर लिया।

    अंशिका, जो गाड़ी में ही मम्मा की ऊँगली थामे, निश्चिंत होकर सो चुकी थी—जैसे इस तीन दिन की दौड़-भाग और डर अब थम चुका हो।

    लेकिन जैसे ही उसने अपनी माँ की सिसकी भरी आवाज़ सुनी,
    उसकी छोटी-सी, गोल-मटोल आकृति एक झटके से हल्की सी हिली।

    नींद में डूबी पलकों ने काँपते हुए खुलने की कोशिश की...
    और फिर वो दो बड़ी-बड़ी मासूम आँखें, जिनमें चमक अब भी बाकी थी, धीरे-धीरे खुलीं।

    "मम्मा..."
    उसने अपनी नींद से भरी हुई मीठी, चहकती आवाज़ में कहा।

    उस एक शब्द ने जैसे समय थाम दिया हो।
    नंदिता की आँखों से अभी भी आँसू बह रहे थे, लेकिन इस बार उन आँसुओं में ग़म नहीं था—ये सुकून था... राहत थी... अपनी 'जान' को वापस पा लेने की सच्ची ख़ुशी थी।

    उसकी मुस्कान टूटी नहीं—बिल्कुल भी नहीं।
    बल्कि अब वो आँसुओं के साथ खिल रही थी।
    उसने अपनी बच्ची को और कसकर सीने से लगा लिया।

    "हां मेरी बच्ची, मम्मा यहीं है... देखो... तुम्हारे पास है।"
    नंदिता की आवाज़ काँप रही थी, लेकिन उसका लहजा जैसे बरसों पुरानी ममता की तपिश से भीगा हुआ था।

    अंशिका ने अपनी माँ का चेहरा ध्यान से देखा।
    और फिर अचानक उसके नन्हें माथे पर शिकन उभर आई।
    उसकी आँखें सिकुड़ गईं, और उसके होंठ ग़ुस्से में मुड़ गए।
    उसने अपने छोटे-छोटे हाथ नंदिता के गालों पर रख दिए और उनके आँसू पोंछते हुए मासूम लेकिन ग़ुस्से से भरी आवाज़ में कहा:

    "किसकी हिम्मत हुई मेरी मम्मा को रुलाने की?"
    "मैं उसे छोड़ूंगी नहीं! उसकी तो चटनी बना दूंगी... अरे चिंगम का भर्ता बना डालूंगी!"

    वहाँ खड़े सभी लोग—दादी माँ, ज़की, —सब एक पल को चौंक गए।
    फिर नंदिता की हँसी रुलाई के साथ मिलकर बाहर आ गई।
    उसकी बच्ची...
    तीन दिन की तड़प के बाद भी, वही नटखट अंदाज़... वही मासूम ग़ुस्सा...

    दादी माँ ने मुस्कराते हुए आँखें आसमान की ओर उठाईं और कहा—
    "भोलेनाथ, इस बच्ची की ज़ुबान में मिठास और साहस दोनों दिया है... सदा इसे यूँ ही महफूज़ रखना..."

    उस शाम मेंशन की दीवारों ने एक और कहानी अपने भीतर क़ैद कर ली—एक माँ की ममता, एक बच्ची की मासूमी, और उस बंधन की ताकत जो सिर्फ़ खून से नहीं, रूह से जुड़ा होता है।

    दादी माँ ने सबको एक-एक करके देखा और अपनी गहरी, स्थिर आवाज़ में कहा—
    "चलो... अब तो अंशिका भी ठीक है, और वो हमेशा के लिए हमें मिल गई है।"

    उनकी आवाज़ में थकान थी, लेकिन राहत भी।
    "अंदर चलो, थोड़ा आराम करो।"

    उनके कहने पर सभी लोग धीमे-धीमे मेंशन के अंदर जाने लगे।
    Nandita ,जो अब तक अंशिका को अपने साथ लेकर चल रही थी, उसने धीरे से उसे गोद में संभालते हुए कहा,
    "चलो गुड़िया, अब मम्मा के साथ आराम करेंगे।"

    लेकिन तभी, दादी माँ जैसे ही जाने को मुड़ीं,
    उनकी नज़र जकी पर पड़ी—
    वह अब भी वहीं खड़ा था, एकदम मूर्तिवत...

    दादी माँ की भौंहें सिमट गईं।
    उनकी आँखों में ऐसा सवाल था जैसे कह रही हों—
    "क्यों थमे हुए हो इस तरह? कुछ बात है क्या?"

    जकी उनके इशारे को समझ गया।
    उसने तुरंत सिर झुका लिया और धीमे लेकिन ठहरे हुए लहजे में कहा—
    "बड़ी मैडम... हमें एयरपोर्ट पर मास्टर मिले थे।"

    बस इतना सुनना था...
    दादी माँ का चेहरा कठोर हो गया।
    उनके चेहरे की सभी नसें जैसे तन गई हों।
    उनके होंठ भिंच गए और हाथों की मुठ्ठियाँ कस गईं।

    कुछ पल चुप्पी रही... फिर उन्होंने अपनी तीखी, गूंजती हुई आवाज़ में कहा:

    "विला की सिक्योरिटी टाइट करो... और अगर वो आदमी दोबारा यहाँ आने की कोशिश करे—"

    उन्होंने एक लंबा साँस खींचा...
    और फिर अपने शब्दों को काँपते हुए तल्ख़ अंदाज़ में कहा:

    "कह देना... उनकी दादी पाँच साल पहले ही मर चुकी हैं। अब ये विला उनके लिए नहीं, और ना ही इस घर की चौखट। वो फिर यहाँ आने की कोशिश ना करे..."

    उनके शब्दों में सिर्फ़ गुस्सा नहीं था...
    बल्कि कोई बहुत पुराना, गहरा ज़ख्म भी था—एक ऐसा रिश्ता जो अब नामुमकिन बन चुका था।

    जकी ने उनकी बात पर सिर झुका लिया और पीछे हट गया।

    मेंशन के गलियारों में सन्नाटा गूंज रहा था,
    और उस सन्नाटे के पीछे छिपे थे—
    अतीत के कुछ ऐसे राज़... जो अब सिर उठाने लगे थे।



    दादी माँ ने जैसे ही अपने तीखे शब्दों को खत्म किया और हल्का-सा मुड़ने लगीं,
    तभी उनके कानों में एक जानी-पहचानी आवाज़ गूंज उठी—

    "क्या सच में... हमारा रिश्ता इतना कमज़ोर था?"

    "या फिर उस लड़की ने आपके दिल-दिमाग़ में मेरे लिए इतनी नफ़रत भर दी...
    कि आप आज अपने ही पोते का चेहरा देखने तक से इंकार कर रही हैं?"

    ये आवाज़ किसी और की नहीं,
    बल्कि आरंभ अग्निहोत्री की थी—
    जो ठीक जकी के पीछे खड़ा था।

    उसने एक हाथ अपनी दोस्त की पॉकेट में डाला हुआ था,
    और दूसरे हाथ में अपना कोट और टाई थामे हुए था।
    चेहरा थका हुआ था,
    लेकिन आँखों में तेज़ सवालों की आँधी थी।

    उसका चेहरा देखकर कोई भी समझ सकता था—
    वह रातों से सोया नहीं है,
    और शायद सालों से यह सवाल अपने सीने में दबाए फिर रहा था।
    लेकिन आज... आज वो जवाब लिए बग़ैर जाने वाला नहीं था।

    दादी माँ की आँखें जैसे वहीं जम गईं।
    उन्होंने धीरे से गर्दन उठाई और सामने देखा—
    वो चेहरा... वही चेहरा...
    जो कभी उनके बुढ़ापे का सहारा था,
    अब उनके लिए एक पराया सा हो चुका था।

    आरंभ की आँखें उनकी आँखों में गढ़ गईं।

    "क्या इतना ही हल्का था आपका भरोसा मुझ पर?"
    उसकी आवाज़ काँपती नहीं थी... लेकिन गहराई से लहूलुहान थी।
    "कि किसी की बातों में आकर आपने मुझे हमेशा के लिए अपने दिल से निकाल दिया?"

    कुछ पल के लिए सन्नाटा छा गया।
    दादी माँ ने होंठ भींचे...
    और फिर बस अपनी नज़रें फेर लीं।

    लेकिन आरंभ ने फिर कहा—

    "आपने सिर्फ मुझे नहीं छोड़ा... आपने मेरे हर उस सवाल को छोड़ दिया जो आपकी गोद में पला था।
    क्या इतना ही था हमारा रिश्ता?"

    जैसे ही उसके शब्द हवा में बिखरे,
    दादी माँ की उँगलियाँ काँप उठीं...
    उनकी आँखें अब नम होने लगी थीं।
    पर उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया।

    जकी, जो अब तक एक गवाह की तरह खड़ा था,
    उसने धीरे से सिर झुका लिया।

    और तभी... आरंभ ने आख़िरी वार किया—

    "मैं चला जाऊँगा... पर इस बार बिना जवाब लिए नहीं।
    अगर आप आज भी मुझे अपना नहीं मानतीं, तो मुझे आँखों में देख कर कह दीजिए।
    वरना मैं मान लूँगा कि जो रिश्ता आपने कभी बनाया था,
    वो आज भी मेरे लिए सच्चा है..."

    अब माहौल और भारी हो चुका था।
    हर दीवार... हर पर्दा... हर सांस... ठहर चुकी थी।


    स्टडी रूम

    कमरे की खिड़कियों से हलकी रोशनी अंदर आ रही थी,
    पर माहौल में पसरा सन्नाटा चीख़ रहा था।
    दादी माँ एक गुनहगार की तरह सिर झुकाए बैठी थीं,
    और सामने आरंभ, अपनी सीट से थोड़ा आगे झुककर
    उन्हें गहरी, काँपती हुई नज़रों से घूर रहा था।

    एक लंबा मौन तोड़ते हुए,
    उसने ग़ुस्से से भरी, दबे हुए दर्द से चटखती आवाज़ में कहा—

    "क्या जवाब है आपके पास?"
    "आपने मुझसे इतनी बड़ी बात क्यूँ छुपाई?"

    "क्या आपको नहीं पता… इस पल का मैंने कितने सालों से इंतज़ार किया है?"

    उसका लहजा काँप रहा था—ग़ुस्से से,
    लेकिन उसके शब्दों के पीछे छिपा दर्द,
    कमरे की हर दीवार को थर्रा रहा था।

    "आख़िर कौन-सी कमी रह गई थी मेरे प्यार में?"
    "जो आपने मेरे साथ इतना बड़ा विश्वासघात किया?"

    दादी माँ ने धीरे से नज़रें उठाईं,
    उनकी आँखें भर आई थीं—
    शायद जवाब में कुछ कहने की हिम्मत जुटा रही थीं।

    धीरे से उन्होंने कहा—

    "हम मजबूर थे बेटा… अगर हम ऐसा न करते तो तुम्हारी जान को ख़तरा था।
    हम तुम्हें खोना नहीं चाहते थे… भले ही..."

    उनके शब्द अधूरे थे… कांपते हुए…

    लेकिन तभी आरंभ ने ग़ुस्से में उन्हें बीच में ही टोक दिया—

    "मजबूरी?"
    "पिछले पाँच सालों से मैं यही सुनता आया हूँ—मजबूरी!"

    उसकी आवाज़ अब ऊँची हो गई थी,
    हर शब्द जैसे सीधा दादी माँ के दिल को चीर रहा था।

    "इन पाँच सालों में आपने जो भी कहा… मैंने आँख मूँदकर माना।
    लेकिन इस बार नहीं!"

    "इस बार मैं आपकी कोई बात नहीं मानूंगा!"

    अब उसकी साँसें तेज़ हो चुकी थीं,
    उसकी आँखें नम हो गई थीं, लेकिन आवाज़ अब भी मज़बूत थी—

    "आपने मुझसे ये क्यों छुपाया कि मेरी एक बेटी है?"

    "मुझे उसका चेहरा देखने का हक़ नहीं था?"
    "क्या उसे गोद में लेने का, उसकी पहली मुस्कान देखने का,
    पहली बार 'पापा' सुनने का…
    क्या वो भी आपसे इजाज़त लेकर होता है?"

    "उसे पैदा होते ही मुझे उसे महसूस करना चाहिए था…
    और आपने मुझे उससे पाँच साल तक दूर रखा…"

    आरंभ की आँखें अब पूरी तरह भर चुकी थीं।
    उसके गालों पर आंसू बहने लगे,
    लेकिन उसकी जुबान पर अब भी ताज्जुब, तकलीफ़ और ग़ुस्से का सैलाब बह रहा था।

    "आपने मुझे एक ज़िंदा लाश बना दिया, दादी…"
    "एक बाप को उसकी बेटी से दूर करके आपने सिर्फ मेरी नहीं,
    मेरी आत्मा की भी हत्या की है।"

    स्टडी रूम का सन्नाटा अब भारी हो चुका था।
    दादी माँ की आँखों से भी टप-टप आँसू बहने लगे…
    पर वो अब कुछ नहीं कह सकीं।

    To be countinue 

  • 8. A Love Contract - Chapter 8

    Words: 1967

    Estimated Reading Time: 12 min

    Love Contract 8





    Study room, 

    दादी माँ सदमे में खड़ी रह गई थीं।

    आरंभ के शब्दों की धार ने उनकी आत्मा तक को चीर दिया था।

    उनकी आँखों में आँसू थे, होंठ काँप रहे थे, पर आवाज़ टूट रही थी।



    "हम जानते हैं बेटा… हमने जो किया, वो ग़लत था…"

    "लेकिन उसमें तुम्हारी भलाई थी, तुम्हारे परिवार की…"



    उनके शब्द अधूरे ही थे कि आरंभ ने ठंडी लेकिन तल्ख़ आवाज़ में उन्हें बीच में ही रोक दिया।



    "भलाई?"



    उसका चेहरा अब भी शांत था, पर आवाज़ में ज़हर भर आया था।



    "मुझे दिख रहा है दादी माँ… आपकी वो ‘भलाई’!"



    "पहले आपने जबरदस्ती एक लड़की की ज़िंदगी तबाह कर दी…

    और जब उससे भी दिल नहीं भरा, तो मेरी मासूम बच्ची को उसके बाप की परछाई से भी दूर रखा।"



    "क्या यही है आपकी ‘भलाई’?"



    उसकी आँखें अब नम थीं, लेकिन उनमें जलती आग और भी गहरी हो चुकी थी।



    "आपने उसे ये तक नहीं बताया कि उसका बाप कौन है।

    अगर मैं अचानक आज यहाँ ना आता… अगर मेरी बेटी मुझे एयरपोर्ट पर न मिलती…

    तो शायद आज भी मुझे ये तक मालूम ना होता कि मैं एक बाप बन चुका हूँ!"



    आरंभ की साँसें तेज़ चल रही थीं, उसकी आवाज़ काँप रही थी—ग़ुस्से और दर्द से।



    दादी माँ कुछ कहने को आगे बढ़ीं ही थीं,

    कि तभी—



    स्टडी रूम का दरवाज़ा ज़ोर से खुला,

    और कमरे की भारी, भट्टी जैसी फिज़ा में

    एक मासूम, चहकती हुई आवाज़ गूंज उठी—



    "Daddy! Are you there? I’m very happy today…

    Ek hi din mein aapse do-do baar मुलाकात हो गई!"



    कमरे में जैसे कोई उजाला भर गया हो।

    उस मासूम की हँसी जैसे आरंभ के भीतर की सारी जंग उतर गई हो।



    दादी माँ चुप हो गईं। आरंभ वहीं ठिठक गया।



    पलटकर देखा तो दरवाज़े पर खड़ी थी—

    Anshika Aarambh Agnihotri

    उसकी बेटी।

    उसका नाम पुकारती हुई।

    उसकी तरफ दौड़ती हुई।



    और उस आवाज़ ने जैसे

    आरंभ के चेहरे से सारा ग़ुस्सा छीन लिया।



    अभी कुछ पल पहले जिस चेहरे पर आग जल रही थी,

    अब वहाँ एक चमकती मुस्कान थी।

    उसकी आँखों में नमी थी,

    पर होंठों पर एक बेइंतिहा मोहब्बत भरी मुस्कराहट।



    उसने जल्दी से अपनी आँसू छुपाते हुए सिर हिलाया—

    "Haha… My Princess! Main hoon…

    Main hi hoon tumhara Daddy!"



    और वो दौड़ पड़ी… उसकी गोद में।

    एक बाप और बेटी के बीच सालों का जो फासला था,

    आज वो महज़ कुछ क़दमों में मिट gyA .





    आरंभ ने अंशिका को सीने से भींच रखा था।

    उसकी आँखों से निकलते आँसू अंशिका के नाज़ुक कंधे पर गिर रहे थे,

    जैसे हर एक बूँद सालों से दबी एक सिसकी का बोझ लिए उतर रही हो।



    उसने अपनी बच्ची को कसकर सीने से लगाया जैसे कहीं फिर खो न जाए,

    जैसे आज उसकी अधूरी दुनिया मुकम्मल हो गई हो।



    इतने सालों बाद,

    पहली बार उसने अपने बच्चे को छूआ था,

    उसके दिल की परतों में जो जज़्बात सालों से जमे थे,

    आज वो एक-एक कर टूट रहे थे, बह रहे थे।



    सुबह अंशिका से हुई मुलाक़ात सिर्फ़ एक मोड़ थी—

    वक़्त की चाल थी।

    पर अब… अब वो उसे "अपनी बेटी" कह सकता था।

    अब वो उसका सच था। उसकी पहचान थी। उसकी वजह।



    और उसी क्षण…



    अंशिका ने महसूस किया

    कि उसके कंधे पर कोई नम सी चीज़ पड़ रही है।

    उसने धीमे से सिर घुमाया,

    अपने नन्हे-नन्हे हाथों से आरंभ के गालों को थामा,

    और अपनी बड़ी-बड़ी आँखों को सिकोड़ते हुए,

    काँपती मासूम आवाज़ में पूछा—



    "Daddy… what happened?

    Why are you crying?"



    उसके स्वर में नाज़ था, भोलेपन की मिठास थी,

    और वो सच्चाई थी जिसे कोई झूठ दबा नहीं सका।



    आरंभ उसे बस देखता रहा।

    जैसे उसकी मासूमियत ने एक ही पल में

    उसके सारे घावों पर मरहम रख दिया हो।



    वो बच्ची…

    जिसे कभी उसने जन्म लेते नहीं देखा,

    जिसके पहले कदम की आवाज़ कभी सुनी नहीं,

    वो आज उसे देख रही थी,

    अपने पापा को रोता हुआ देख रही थी।



    वो वहीं थी… उसके सामने…

    उसकी ज़िंदगी की सबसे कीमती चीज़।



    दूर खड़ी दादी माँ,

    ये मंज़र देख रही थीं।

    आँखों से ख़ुशी और पछतावे के आँसू साथ-साथ बह रहे थे।

    उनके चेहरे पर एक ठहरी हुई टीस थी—

    शायद वो सालों पुराना कोई ऐसा सच जानती थीं,

    जिसे उन्होंने आज तक बाँटने की हिम्मत नहीं की।



    पर आरंभ ने उन्हें देखा भी नहीं।



    उसकी नज़रें बस अंशिका पर थीं।



    उसने उसके गालों को चूमा,

    अपने लरजते होठों से कहा—



    "कुछ नहीं, Princess…

    आज पहली बार मेरी गोद में आई हो ना,

    इसलिए अपने आँसू रोक नहीं पाया…

    तुम्हें क्या बताऊँ…

    मैंने तुम्हें कितना miss किया है…"



    आरंभ का इतना कहना था कि

    अंशिका की बड़ी-बड़ी आँखें और भी खुल गईं।

    उसने एक ज़ोरदार ठहाका लगाया और कहा—



    "बस इतनी सी बात, Daddy?

    आपको पता है ना…

    Anshika Baby ने भी आपको बहुत miss किया!"



    उसने मासूमियत से कहा,

    अपनी तुतलाती ज़ुबान में,

    उस दिल को छू जाने वाली आवाज़ में—



    "पर मम्मा और दादी माँ कहती थीं

    कि आप important काम के लिए बाहर गए हैं।

    जब आपका काम ख़त्म होगा,

    तब आप हमें मिलने आओगे…"



    आरंभ ने उसकी बात सुनी,

    और जैसे किसी ने उसके अंदर के तूफ़ान को शांत कर दिया हो।

    वो हल्के से मुस्कुराया,

    पर आँखें अब भी भीगी थीं।



    एक बात उसके दिल में गहराई तक उतर गई—



    उसकी बेटी उसके बारे में जानती थी।

    और किसी ने भी उसके बारे में

    कोई बुरा लफ़्ज़ उस बच्ची के सामने नहीं कहा था।



    हर चीज़ उसे बेहतर रंगों में दिखाई गई थी।



    पर एक सवाल उसके सीने में चुभ गया—



    "क्या मैं इन सबका हक़दार था?"



    क्या मैं उस मासूम के भरोसे के क़ाबिल हूँ?

    क्या मैं उस मोहब्बत का हक़दार हूँ

    जिसे मैं सालों से जान ही नहीं पाया…?



    Aarambh अब भी अपनी नन्ही सी जान Anshika को सीने से लगाए खड़ा था। उसकी आँखें भीगी थीं, मगर चेहरा किसी फख्र से चमक रहा था। वो मासूम बच्ची उसकी ज़िंदगी का सबसे हसीन सच बनकर उसकी बाहों में थी। उसके होंठों पर जो मुस्कान थी, वो किसी जंग जीत लेने जैसी थी।



    तभी...



    "ठाक..."

    Study room का दरवाज़ा एक बार फिर खुला।



    और इस बार दरवाज़े पर Nandita खड़ी थी।



    पाँच साल बाद...

    पाँच साल बाद उसकी आँखों ने Aarambh को देखा था।

    और वो भी... उस मासूम को गोद में उठाए हुए।



    Nandita के क़दम वहीं थम गए।

    एक क्षण के लिए जैसे उसका दिल धड़कना ही भूल गया। साँसें जम गईं। वो Aarambh को देख रही थी, पर उसकी नज़रें सिर्फ़ Anshika पर टिकी थीं... उस बच्ची पर, जिसे उसने दुनिया से छुपाकर रखा था, सीने से लगाकर पाला था... और आज वही बच्ची अपने बाप की गोद में थी।



    उसके चेहरे से सारा रंग उड़ गया।

    उसकी आँखों में डर उतर आया, होंठ काँपने लगे।

    पलकों के किनारे भीगने लगे और गाल ज़र्द पड़ने लगे।



    "अगर Anshika को सच पता चल गया तो?"

    "अगर Aarambh ने उसे ठुकरा दिया तो?"

    "अगर वो मेरी तरह उसे भी अधूरा छोड़ गया तो?"



    ये ख्याल जैसे उसके अंदर बम की तरह फट रहे थे।



    अचानक वो तेज़ी से आगे बढ़ी।

    बिना कुछ कहे, बिना कुछ सोचे—एक झटके में Anshika को Aarambh की गोद से खींच लिया।



    Aarambh एकदम सन्न रह गया।



    Nandita कुछ भी नहीं बोली... बस उसे लेकर चल दी।

    लेकिन उसके क़दम लड़खड़ा रहे थे, आँखे फटी-फटी सी, और उसकी रगों में दौड़ता डर साफ़ महसूस हो रहा था।



    पर दो ही कदम चले थे कि...



    Aarambh ने उनका हाथ पकड़ लिया।

    एक ही झटके में Nandita और Anshika दोनों को अपनी बाहों में भर लिया।



    "Enough..."

    उसकी आवाज़ धीमी थी, मगर उसमें दर्द था, ललक थी, और शायद मोहब्बत भी।



    Nandita का चेहरा Aarambh के सीने से लग चुका था।

    उसकी साँसे तेज़ हो चुकी थीं, पर उसने कोई विरोध नहीं किया।

    वो काँप रही थी... मगर अब किसी और की बाँहों में।



    Aarambh ने एक गहरी साँस ली, और फिर उनके चेहरे की ओर देखा।



    Nandita की आँखें डरी हुई थीं।

    पर उस डर के नीचे एक मोहब्बत छुपी थी जो कभी कही नहीं गई थी।

    उसके चेहरे पर वो सारा डर साफ़ दिखाई दे रहा था—जैसे कोई माँ अपनी बच्ची को खोने के डर से काँप उठे।



    तभी...



    Anshika की छोटी-सी हँसी फूट पड़ी।



    "Hehehe... Daddy, Mamma, aap dono kitne funny ho!"



    उसकी वो नन्ही-सी हँसी जैसे Study Room की हर दीवार से टकराई और सन्नाटे को चीरती हुई पूरे घर में गूँज गई।



    Study room के बाहर खड़े सारे नौकर, जो चुपचाप उस नज़ारे को देख रहे थे, उनके होठों पर भी मुस्कान आ गई।



    लेकिन Aarambh और Nandita के चेहरों पर सिर्फ़ ख़ामोशी थी।



    एक मौन... जो बहुत कुछ कह रहा था।



    Anshika अब Aarambh की गोद में थी, और उसी गोद में Nandita भी जैसे थम सी गई थी।



    Aarambh ने हल्के से मुस्कराकर Anshika के गाल को चूमा और Nandita की तरफ़ देखकर सिर्फ़ इतना कहा—



    "अब कोई Anshika को हमसे जुदा नहीं कर सकता।"



    और पहली बार, Nandita की आँखें भी जवाब में मुस्कुरा उठीं।

    भीगी हुई पलकों के पीछे, वो सच भीग रहा था जिसे उन्होंने पाँच साल तक छुपाकर रखा। 

    Study Room — Midnight Silence.



    आरंभ जा चुका था… लेकिन कमरे की रूह में अब भी उसकी मौजूदगी बाकी थी।



    दादी माँ वहीं कुर्सी पर बैठी थीं, चुपचाप… निश्चल।

    उनकी आँखों में आँसू तो थे, पर वे बह नहीं रहे थे—जैसे पत्थर बन चुकी पलकों के नीचे अब आँसुओं को भी डर लगता हो बह जाने का।



    वो देख रही थीं आरंभ को, जिसकी बाहों में नंदिता और उसकी बेटी थी।

    एक माँ अपने बेटे को देख रही थी… लेकिन उस नज़रे में कोई दावा नहीं था, बस एक दर्द भरी स्वीकारोक्ति थी।



    आरंभ ने पीछे मुड़कर एक बार भी नहीं देखा।

    उसने दादी माँ की ओर देखने की ज़रूरत ही नहीं समझी।

    जैसे सब कह दिया हो अब तक के हर खामोश लम्हे ने।

    वह चुपचाप सीधा अपने कमरे की ओर बढ़ गया, लेकिन उस चुप्पी में एक चीख थी—जिसे सिर्फ दादी माँ सुन सकती थीं।



    खिड़की के पार आकाश में चाँद बादलों से आँखमिचोली खेल रहा था।

    दादी माँ ने एक बार आरंभ की ओर देखा, फिर आकाश की ओर।



    धीरे से उनकी काँपती आवाज़ टूटी…



    "हमें पता है… जो किया, वो गलत किया।

    अगर उसे सच्चाई पता चली… तो शायद वो हमसे नफ़रत करने लगे।

    पर हम मज़बूर थे, बहुत मज़बूर।"



    उनकी आवाज़ मानो हर शब्द के साथ टूट रही थी, लेकिन उन टुकड़ों में एक सच्चाई थी जिसे अब वो और छिपा नहीं सकती थीं।



    "हमें अपना वंश बचाना था… और उसे आगे बढ़ाना था।

    अगर हम ऐसा नहीं करते… तो तुम पर ख़तरा था, आरंभ।

    तुम नहीं समझते… लेकिन अब समझोगे, क्योंकि अब तुम्हारे पास भी एक औलाद है।"



    उनकी आँखों में आसमान की ओर देखते हुए नमी थी—पछतावे की, डर की, और एक अधूरी दुआ की।



    "तुम हमारे खून से हो… हमारी औलाद की औलाद।

    कितना प्रेम किया है तुमसे, शायद तुम कभी जान न सको।

    लेकिन आज… शायद समझ सको।

    हमें आशा है… अब भी तुमसे।"



    वो रुकीं… साँस गहरी ली… जैसे कोई सालों से दबी बात ज़ुबां तक लाकर फिर निगल रहा हो।



    "पर एक बात…

    उन्हें ये सच कभी पता नहीं चलना चाहिए।

    हम नहीं चाहते कि वो भी… हमें उसी तरह नज़रअंदाज़ करें, जैसे तुम करते हो।

    हम… इन आख़िरी गिनती की साँसों में सुकून की मौत मरना चाहते हैं।

    हम बस… अपना परिवार चाहते हैं, हँसी-ख़ुशी वाला परिवार।

    और उम्मीद है, बेटा… तुम वो परिवार हमें ज़रूर दोगे।"



    इतना कहकर दादी माँ धीरे से उठीं।

    उनके दोनों

    हाथ काँप रहे थे, लेकिन उनकी कमर अब भी सीधी थी—जैसे सालों का बोझ अब भी झुका न सका हो।



    दो पर्सनल मेड्स पास आ गईं, उन्होंने दादी माँ को सहारा दिया।

    वो चलने लगीं…

    धीमे-धीमे… एक-एक कदम जैसे कोई सदी पार कर रही हों।



    पर जाते-जाते भी उनकी निगाह उस खिड़की पर थी—जहाँ चाँद अब भी बादलों से जूझ रहा था।

    To be countinue ✍🏻 ✍🏻 ✍🏻 



    Don't forget to like share comment guy's 

  • 9. A Love Contract - Chapter 9

    Words: 1881

    Estimated Reading Time: 12 min

    Love Contract 9

    Aarambh का कमरा — पाँच साल बाद की पहली साँस



    आरंभ... पाँच साल बाद अपने कमरे में दाख़िल हुआ।



    दरवाज़े की चौखट पर खड़ा हुआ तो उसकी आँखें जैसे वहीं अटक गईं…

    वो कमरा, जो कभी उसके अकेलेपन की गवाही देता था… आज एक घर लग रहा था।

    उसके होंठों पर मुस्कराहट थी—बड़ी, गहरी और भीगी-सी।

    ऐसी मुस्कराहट जो दिल के कोने से निकली हो, किसी पुराने ज़ख़्म पर मलहम-सी।



    कमरे की दीवारें जो कभी कोयले-सी काली होती थीं, अब आसमान-सी नीली थीं।

    जैसे किसी ने अंधेरे में उम्मीद का रंग भर दिया हो।



    और बस वो नहीं…

    उसकी दुनिया की दो सबसे प्यारी तस्वीरें—Anshika और Nandita Aarambh Agnihotri—हर कोने में बसी थीं।

    हर फ्रेम में मुस्कराते चेहरे, हर तस्वीर में मोहब्बत की एक दास्तां।

    कुछ तस्वीरें candid थीं—अनशिका की हँसी उड़ती हुई, नंदिता की उस पर झुकी नज़रों में ममता घुली हुई।

    और कुछ तस्वीरें आरंभ के साथ थीं—जिनमें वो उन्हें अपनी गोद में लिए, उनकी बाहों में समाए… जैसे उसने सारी दुनिया को थाम रखा हो।



    आरंभ वहीं खड़ा रह गया।

    ग़ौर से हर एक चीज़ को देखता रहा।

    कमरे की सजावट बेहद साधारण थी, लेकिन हर छोटी-बड़ी चीज़ में एक गहरा अपनापन छुपा था।



    Antique वुडन फर्नीचर, खिड़की के पास रखा एक बग़ैर आवाज़ का झूला,

    मेज़ पर रखी अनशिका की पहली किताब, नंदिता के हाथों की लिखी कुछ चिट्ठियाँ…

    हर चीज़ जैसे कह रही थी—‘तुम्हारा इंतज़ार हुआ था।’



    कमरे में कदम रखते ही उसका दिल जैसे काँप गया…

    आँखें थमी हुई थीं, चेहरा शांत… लेकिन सीना भारी।



    वो कुछ देर तक बस देखता रहा।

    उसने अनशिका को और नंदिता को ज़रा और अपने सीने से भींचा…

    जैसे डर हो कि कहीं ये सपना ना हो।

    उसके होठों से एक धीमा फुसफुसाया हुआ जुमला निकला—"मैं वापस आ गया…"



    और उस पल,

    उसके अंदर की हर अधूरी ख़ामोशी पूरी हो चुकी थी।

    कमरा अब सिर्फ चार दीवारें नहीं था—अब वो उसका घर था। 





    आरंभ अब भी दरवाज़े की चौखट पर खड़ा था।

    कमरे की सजावट, तस्वीरें, रंग—सब कुछ दिल में उतर रहा था… और फिर, एक नन्ही आवाज़ ने उसे उसकी ही सोचों से बाहर खींच लिया।



    "Daddy, what happened? Aap is tarah se door par kyun khade hain?"

    छोटी सी अनशिका ने अपने नन्हे-नन्हे हाथों से उसके गालों को छूते हुए मासूमियत से पूछा।

    उसकी आवाज़ में वो ही तो थी—मासूमियत, तोतलापन, और अनकही मोहब्बत।



    आरंभ की आँखें तुरंत उस पर टिक गईं…

    उसकी छोटी-सी “princess” जो उसकी गोद में थी, उसे अपनी भोली आँखों से ऐसे देख रही थी जैसे सारी दुनिया को समझना चाहती हो।



    पास ही, नंदिता, जो अब तक आरंभ की गहराई से भरी आँखों को देख रही थी,

    एक झटके में नज़रें फेर लीं।

    चेहरा थोड़ी देर के लिए सख़्त हुआ…

    शायद उसके अंदर कुछ हिल गया था… या शायद वो अब भी खुद को रोक रही थी कि कहीं उसकी आँखों की नमी छलक न जाए।



    आरंभ ने खुद को संयत किया…

    फिर अपनी बेटी की मासूम आँखों में झाँका, और धीमी आवाज़ में कहा—

    "बस princess… मैं देख रहा था कि यहां आकर कितना सुकून मिल रहा है…

    जिस सुकून की तलाश में मैं दर-दर भटकता रहा…

    वो सुकून… मेरे इतने करीब होकर भी,

    इतना दूर था कि मैं चाहकर भी उसके पास नहीं जा सका…"



    उसकी आवाज़ में दर्द था… और उस दर्द में राहत छुपी थी।

    जैसे अब उसे सुकून ने छू लिया हो।



    लेकिन सामने बैठी अनशिका…

    बिलकुल मासूमियत की मूर्ति…

    उसने अपनी भौंहें सिकोड़ लीं।

    छोटे-छोटे होंठ गोल करते हुए, pout बनाते हुए, एकदम confusion से बोली—

    "Daddy… aapne itni saari baatein bol di…

    lekin mere toh silk ke upar se gayi…

    mujhe kuch samajh hi nahi aaya aapne kya kaha!"



    और उस पल…

    आरंभ और नंदिता दोनों की हँसी छूट गई—वो हँसी जो थकी हुई थी, मगर सच्ची थी।

    वो हँसी जिसमें सारे दर्द, सारी दूरियाँ, और सारी उलझनों के बावजूद एक नई शुरुआत की हल्की सी दस्तक थी। 



    जैसे ही अनशिका ने देखा कि उसके मम्मी-पापा उसी पर हँस रहे हैं,

    उसकी बड़ी-बड़ी भोली आँखें अचानक छोटी हो गईं।

    होठों को गोल किया, भौंहें सिकोड़ लीं, और अगले ही पल…



    “बुआआआआ…!!!”

    जोर की एक दहाड़ के साथ वो ऐसे रोने लगी जैसे

    किसी ने उसका दिल तोड़ दिया हो…



    कमरे में अचानक मासूम रुदन की गूंज भर गई।

    वो इस तरह सिसक-सिसक कर रो रही थी जैसे किसी ने उससे उसकी सबसे प्यारी चीज़ छीन ली हो।

    ऐसी मासूमियत भरी ड्रामा queen वो सिर्फ आरंभ की बेटी हो सकती थी।



    आरंभ और नंदिता, जो अभी दो सेकंड पहले हँसी में लीन थे,

    एकदम सन्न पड़ गए।



    नंदिता तो अपनी बेटी की ये नाटकबाज़ी देखकर एकदम खामोश रही।

    उसकी आँखों में हल्की मुस्कान तैर गई — जैसे उसे पहले से पता हो कि

    अब ये सीन ड्रामा में बदलेगा।



    लेकिन आरंभ…

    आरंभ तो घबरा ही गया।

    उसके चेहरे से रंग उड़ गया, और चिंता की लकीरें एक पल में उभर आईं।



    “Princess… क्या हुआ?”

    वो झट से आगे बढ़ा,

    नंदिता और अनशिका — दोनों को अपनी गोद से उतारा

    और अनशिका को अपनी बाहों में खींच लिया।

    उसे कसकर सीने से लगाते हुए पूछा—



    “आप इस तरह क्यों रो रही हैं?

    क्या आपको कहीं चोट लगी?

    क्या आपको दर्द हो रहा है?

    क्या मेरी किसी बात से आपको बुरा लग गया, princess?

    बोलिए न, क्या हुआ आपको?”



    उसकी आवाज़ एक पिता की आवाज़ नहीं थी,

    बल्कि एक टूटते दिल की थी…

    जो अपनी बेटी की एक बूँद आँसू भी बर्दाश्त नहीं कर सकता।



    लेकिन दूसरी ओर…

    अनशिका को असली में कुछ हुआ ही नहीं था।

    उसे तो बस… थोड़ा attention चाहिए था।



    उसे खुद समझ नहीं आ रहा था कि क्यों रो रही है,

    लेकिन आरंभ की घबराहट, उसकी आँखों की बेचैनी,

    और वो हल्का-सा कांपता हुआ स्पर्श…

    सब कुछ उसे साफ़ महसूस हो रहा था।



    वो अब भी थोड़ा सिसक रही थी, लेकिन आँखें अब आरंभ के चेहरे पर टिकी थीं।

    वो पल भर में जान गई थी कि

    उसके आँसू आरंभ की जान निकाल रहे हैं।



    पास ही बैठी नंदिता अब भी चुप थी।

    वो देख रही थी—एक बाप-बेटी के बीच वो रिश्ता जो शब्दों से परे होता है।



    आरंभ और अनशिका — दोनों ने जैसे उसकी मौजूदगी को भूल ही गए थे।

    लेकिन नंदिता को शिकायत नहीं थी,

    क्योंकि जो वो देख रही थी… वो हर औरत का सपना होता है।



    तभी,

    छोटे-छोटे नकली आँसू पोंछते हुए,

    अपनी बड़ी-बड़ी नाराज़ आँखों से अनशिका ने आरंभ की तरफ देखा, और बोली—



    “Aap donon ne milke mera mazaak udaya…

    mujhe pareshaan kiya…

    main aap donon se kutti hoon!

    अब मैं आपसे बात नहीं करूंगी!”



    उसकी टोटली हुई आवाज़, नकली रोने की नमी और मासूम गुस्सा…

    इतना प्यारा था कि

    आरंभ का चेहरा एकदम मुस्कान से भर गया —

    लेकिन इस बार उसने हँसी रोकी।



    क्योंकि princess नाराज़ थी… और उसे मनाना ज़रूरी था। 



    अनशिका की दहाड़ मारकर रोने की आवाज़

    जैसे ही पूरे कमरे में गूंजी—

    महल के सन्नाटे में जैसे तूफ़ान उठ गया।



    दरवाज़े पर खड़ी थीं—दादी माँ।

    उनके पीछे...

    महल का सारा सर्विंग स्टाफ एक कतार में खड़ा था।



    सबके चेहरे पर हल्की मुस्कान थी,

    लेकिन आँखों में हैरानी का रंग साफ़ झलक रहा था।

    कई सालों से इस घर में काम करने वाले ये लोग

    आरंभ को उस रूप में देख ही नहीं पाए थे,

    जो अब उन्हें सामने दिख रहा था।



    सामने एक बाप था—घबराया हुआ, परेशान, हड़बड़ाया हुआ।

    जिसकी आँखें सिर्फ़ अपनी बेटी के आँसुओं में उलझी थीं।



    दादी माँ, जो अब तक अपने बेटे को एक

    दूरी बनाए रखने वाला, संयमित और कठोर इन्सान मानती थीं,

    आज उसी बेटे को देखकर…

    खुद सन्न रह गईं।



    उनकी आँखें नम हो आईं।



    कमरे के अंदर…

    आरंभ की बेचैनी अब भी जारी थी।

    वो बार-बार अनशिका से पूछ रहा था—



    "क्या हुआ princess?

    आप रो क्यों रही हैं?

    किसी ने कुछ कहा?

    कहीं चोट लगी क्या?

    मुझे बताइए न…!"



    लेकिन अनशिका ने अब तक मुँह फुलाया हुआ था।

    उसे देख कर तो ऐसा लग रहा था जैसे

    किसी ने उसकी गुड़िया छीन ली हो।



    और इस सबके बीच—

    सर्विंग स्टाफ जो कमरे के बाहर खड़ा था,

    वो एक-दूसरे की तरफ देखकर मुस्कुरा रहा था।



    "कौन सोच सकता था कि Aarambh Agnihotri...

    जिसकी एक नज़र से लोग काँप जाते थे…

    वो अपनी बेटी की एक चीख पर इतना घबरा सकता है।"



    उनके लिए ये देखकर पचा पाना मुश्किल था।

    पर सच यही था—

    अब वो 'Aarambh sir' नहीं रहे…

    अब वो बस Anshika के पापा थे।



    और ये सब तो सिर्फ़ कुछ घंटे पहले ही शुरू हुआ था।



    अब तक तो उसे अपनी बेटी से मिले हुए 12 घंटे भी नहीं हुए थे।

    लेकिन इतने कम वक़्त में ही

    वो बेटी, उसके दिल की धड़कन बन चुकी थी।



    दादी माँ अब भी खामोश खड़ी थीं।

    उनकी नज़रों में गर्व भी था,

    प्यार भी था…

    और कहीं न कहीं…

    गुज़रे वक़्त की कसक भी थी।



    कमरे के बाहर और भीतर—

    हर कोई इस सीन को चुपचाप देख रहा था,

    क्योंकि यहाँ

     शब्दों की ज़रूरत नहीं थी,

    बस एक रिश्ते की गर्माहट सब कह रही थी। 





    (अंशिका मुंह फुलाकर बैठी है, आंखें नम हैं, लेकिन नज़रों में शरारत झलक रही है। आरंभ पास आकर उसके बराबर में बैठता है।)



    आरंभ (धीरे से):

    अरे मेरी राजकुमारी... अब क्या हो गया? इतना बड़ा मुंह फुलाकर कौन-सी दुनिया में जाने की तैयारी है?



    अंशिका (नाक चढ़ाकर):

    मैं... डैडी लैंड जा रही हूँ!



    आरंभ (हैरानी से):

    डैडी लैंड? ये कौन-सी जगह है?



    अंशिका (आंखें मटकाकर):

    जहाँ सबके पापा अपनी बेटी को सिर आंखों पर बिठाकर रखते हैं…

    ना कि उसका मज़ाक उड़ाते हैं!



    आरंभ (हँसी रोकते हुए):

    ओहो… और वहाँ की वीज़ा फीस कितनी है राजकुमारी?



    अंशिका (नकली आंसू पोंछते हुए):

    एक प्यारी-सी किस… एक जोरदार झप्पी… और एक सॉरी चॉकलेट!



    आरंभ (जैसे बहुत बड़ी बात सुन ली हो):

    अरे बाप रे! ये तो बहुत महंगी वीज़ा है…

    मुझे तो लोन लेना पड़ेगा।



    अंशिका (गुस्से से):

    मैं बता रही हूँ डैडी… अगर आपने अभी मेरी माँग नहीं मानी,

    तो मैं आपका नाम डैडी से बदलकर श्रीमान आरंभ अग्निहोत्री कर दूंगी!

    फिर मत कहना… “बेटा!”



    आरंभ (हाथ जोड़ते हुए):

    हे भगवान! ये धमकी है या इमोशनल ब्लैकमेल?



    अंशिका (घूंघट की एक्टिंग करते हुए):

    मैं एक दुखी राजकुमारी हूँ…

    जिसके पापा उसे हँसाने के बजाय उस पर हँसते हैं…

    मैं अपने कमरे में जा रही हूँ, और कभी बात नहीं करूँगी!



    (वो उठने का नाटक करती है, आरंभ झट से उसे पकड़ लेता है और गोद में उठा लेता है)



    आरंभ (मुस्कुराकर):

    ठीक है ठीक है! वीज़ा फीस तैयार है!



    (एक किस उसके माथे पर, एक टाइट हग और जेब से निकालकर छोटा-सा चॉकलेट)



    आरंभ:

    सॉरी मेरी क्वीन… अब तो बात करोगी न?



    अंशिका (चॉकलेट लेते हुए, मुस्कुराकर):

    हूँ… बात तो करूँगी…

    लेकिन मम्मी को भी सॉरी बोलना पड़ेगा…

    क्योंकि उन्होंने भी मेरे दर्द पर हँसी उड़ाई थी!



    (नंदिता जो दूर से ये सब देख रही होती है, वो हँसते हुए पास आती है और अंशिका को किस करती है)



    नंदिता:

    लो बाबा… मम्मी भी सॉरी!

    अब तो राजकुमारी जी का मूड ठीक हो गया?



    अंशिका (गर्व से सीना तानकर):

    मुझे डैडी लैंड नहीं जाना…

    मुझे यहीं रहना है…

    बस ऐसे ही फुल टाइम पैंपरिंग चाहिए!



    आरंभ (हँसते हुए):

    तू एक दिन देश की राष्ट्रपति बनेगी… लेकिन नियम सिर्फ पैंपरिंग का ही होगा!



    अंशिका (मुँह बनाकर):

    और चॉकलेट का

    भी! तीनों ज़ोर से हँस पड़ते हैं… और कमरे में फिर से रौनक लौट आती है…



    To be countinue ✍🏻 ✍🏻 ✍🏻 



    Don't forget to like share comment guy's 

  • 10. A Love Contract - Chapter 10

    Words: 2080

    Estimated Reading Time: 13 min

    Love Contract 10

    अग्निहोत्री मेंशन, 



    अंशिका को खाना खिला कर नंदिता ने उसे धीरे से सुला दिया था। कमरे की रोशनी धीमी कर, उसने उसकी लहराती ज़ुल्फ़ों पर हाथ फेरा और एक हल्की-सी मुस्कान उसके मासूम चेहरे पर उभर आई। फिर वो चुपचाप खड़ी हुई और एक नज़र अपनी नन्ही सी दुनिया पर डालती हुई तकिये की ओर बढ़ी — जहाँ उसका पर्स रखा था।



    धीरे से पर्स उठाया, और बिना आहट किए जैसे ही पलटी, बाहर जाने को कदम बढ़ाया ही था कि...



    किसी ने एक झटके में उसे पीछे खींच लिया।



    एक पल को तो ज़मीन उसके पैरों तले खिसकती सी लगी... और अगले ही पल वो कटी हुई पतंग की तरह उसके सीने से आकर टकरा गई।



    आरंभ...



    उसकी आँखों में जैसे कोई अधूरी तसल्ली थी। बाँहें उसके चारों ओर मज़बूती से कस चुकी थीं — जैसे वो डर रहा हो कि अगर उसने थोड़ी भी ढील दी, तो नंदिता दोबारा उससे छिन जाएगी।



    नंदिता एक पल को सिहर गई।

    धड़कनों ने अपनी रफ़्तार तेज़ कर दी। वो चाहकर भी खुद को उससे अलग नहीं कर सकी।



    आरंभ के लफ़्ज़ नहीं निकले, लेकिन उसकी आँखों में सवाल था... शिकवा था... और कुछ ऐसा, जो शब्दों में कभी बयान नहीं किया जा सकता।



    नंदिता की पलकों में झलकती उलझन, आरंभ की बाज़ुओं में बंधी बेबसी,

    वो एक पल… सब कुछ कह गया।





    आरंभ की बाँहों में फंसी नंदिता जैसे सांस लेना ही भूल गई थी। कुछ पल पहले तक जो एकदम शांत था, अब उसकी आँखों में कोई अलग ही तूफ़ान था।



    वो धीरे-धीरे उसकी तरफ झुका। उसकी नज़रों में शरारत थी... लेकिन उसमें छुपा हक़ भी बहुत साफ़ झलक रहा था।



    "क्या तुम 'कॉन्ट्रैक्ट' का हर्फ़ भूल चुकी हो?"

    आरंभ की आवाज़ बेहद शांत थी, लेकिन उसमें छिपी हुई तीखी गूंज ने नंदिता के रोंगटे खड़े कर दिए।



    नंदिता ने उसकी आँखों में झाँका। उसकी पलकें भारी थीं, होंठों पर सन्नाटा और चेहरे पर वो उलझन जो खुद को बयान नहीं कर पा रही थी।

    पर उसने जवाब नहीं दिया… सिर्फ ख़ामोशी से उसके सीने से थोड़ा सा दूर होने की कोशिश की।



    आरंभ ने उसकी ये कोशिश महसूस की, और अगले ही पल उसकी पकड़ थोड़ी और कस गई।



    "चलो…"

    उसने नर्म लहजे में, मगर आँखों में साफ़ हुक्म लिए कहा —

    "मुझे जल्दी से गले लगाओ… और फिर मेरे होठों पर एक चुम्मा दो।"



    उसकी मुस्कान हल्की थी, लेकिन नज़रों में जो इरादा था, वो बिल्कुल साफ़ था।



    नंदिता की साँसें तेज़ हो चुकी थीं।

    उसकी आँखें पलट कर आरंभ की आँखों से टकराईं — जहाँ एक अजीब-सा इश्क़, अधिकार और दर्द सब एक साथ थे।



    आरंभ का चेहरा बेहद करीब था।

    उसकी गहरी भूरी आँखें जैसे नंदिता की रूह में उतर रही थीं।

    जब उसने ये कहा, तो उसकी नीचे झुकी पलकें थोड़ी उठीं, होंठ थोड़े झुके, और उसकी जॉलाइन की हल्की नसें उभर आईं।



    उसके चेहरे पर एक ठहराव था... लेकिन आँखों में बेचैनी।

    एक ऐसा मेल, जिसे कोई अनदेखा नहीं कर सकता।



    नंदिता का चेहरा तमतमा गया।

    उसकी हल्की काँपती पलकें नीचे झुकीं।

    उसके होठों पर आ रही कंपकंपी को उसने दाँतों से दबा लिया… पर उसकी नज़रें अब भी आरंभ से भटक नहीं पा रही थीं।



    नंदिता ने आरंभ की बात सुनी, और फिर धीमे से अपनी झुकी हुई पलकों को ऊपर उठाया। उसकी आँखों में अब वो पुरानी ख़ामोशी नहीं थी। वहाँ कुछ और था—एक सुलगती हुई आग, जो अब राख नहीं रहना चाहती थी।



    उसने अपने स्वर को कठोर किया, और उसकी आवाज़ में एक ऐसा दबदबा था, जिसे नकारा नहीं जा सकता था।



    "क्या आपको वाक़ई लगता है कि अब मैं सिर्फ़ आपके उस कॉन्ट्रैक्ट से बंधी हुई हूँ?"

    वो बोली, जैसे लावा धीरे-धीरे बाहर आ रहा हो।



    आरंभ के चेहरे पर हल्की-सी मुस्कान आ गई—ठंडी, तंजभरी और गहराई से भरी हुई।



    उसने झटके से उसकी कमर पर अपनी पकड़ और कस दी, जैसे वो उसे अपनी साँसों के जितना क़रीब खींच लेना चाहता हो।

    उसने नंदिता को अपने सीने से कुछ और सटाते हुए उसकी गर्दन के पीछे से पकड़ लिया… और फिर बहुत धीरे से उसके चेहरे को अपने चेहरे के बेहद क़रीब लाकर उसकी आँखों में झाँका।



    अब इन आँखों में वह पुरानी बेबसी नहीं थी… वहाँ शोले थे, जलते हुए अंगारे—ऐसे अंगारे जो सामने वाले को खाक कर सकते थे।

    आरंभ उन आँखों को देख मुस्कराया। उसकी अंगुली उसके होठों के कोने पर बहुत धीमी, बहुत जानदार हरकत से फिसली।



    "Interesting… Very interesting..."

    उसने बेहद ठहराव और नज़ाकत से कहा।



    फिर उसने थोड़ा झुककर उसकी साँसों को महसूस करते हुए फुसफुसाया—

    "जंगली बिल्ली अब पंजा मारना भी सीख चुकी है..."



    उसके लहज़े में हँसी नहीं, एक अनकही चुनौती थी—जिसे नंदिता ने अपने चेहरे पर उभरते तमतमाहट से स्वीकार कर लिया।





    आरंभ की बातों से उखड़कर, नंदिता ने अपने नुकीले शब्दों का तीर चलाया।

    "तो आपने क्या समझा? कि मुझे सिर्फ़ पंजा मारना आता है... और खिसियाना आता है?"

    उसकी आवाज़ में एक कड़वाहट थी, पर वो सिर्फ़ गुस्से की नहीं थी—वो अपने अस्तित्व की घोषणा थी।



    वो एक क़दम और आगे बढ़ी, उसकी आँखें अब आरंभ की आँखों में नहीं—उसकी आत्मा में देख रही थीं।



    "मैं वो हूँ जो हार तक ले जाने वालों को भी नोच डालने की ताक़त रखती है। चाहे वो जानवर हो या इंसान।"



    फिर कुछ पल के लिए सन्नाटा छा गया... बस उन दोनों की साँसें थीं—भारी, धीमी, और जलती हुई।



    नंदिता ने एक गहरी साँस खींची... और अचानक पूरे ज़ोर से खुद को आरंभ की गिरफ़्त से छुड़ाया। उसके चेहरे पर अब सिर्फ़ आग नहीं थी—अब वहाँ चुनौती थी।



    "और याद रखना..."

    उसने ठहरकर कहा, "आइंदा कभी मेरा रास्ता काटने की कोशिश मत करना... वरना तुम जानते हो, काली बिल्ली अगर रास्ता काट जाए—तो बर्बादी पक्की होती है।"



    उसके शब्दों ने हवा को चीर डाला।



    वो जाने को मुड़ी ही थी कि...



    ...एक बार फिर, आरंभ, जैसे किसी ज़िद्दी साये की तरह, पीछे से उस पर लिपट गया।



    इस बार उसका स्पर्श धीमा था, पर असरदार।

    उसका हाथ, धीमे से नंदिता की खुली कमर पर आकर टिक गया। साड़ी के पतले कपड़े के नीचे से उसकी चमकती, दूध जैसी गोरी त्वचा पूरी तरह सामने थी।



    आरंभ के ठंडे हाथ का स्पर्श नंदिता की त्वचा पर पड़ा, और उसका पूरा बदन सिहर उठा।



    उसकी आँखें पल भर में ही बंद हो गईं… साँसें अनियंत्रित होने लगीं… रोंगटे खड़े हो गए…



    वो खुद को काबू करने की कोशिश कर रही थी, लेकिन आरंभ के छूने मात्र से, जैसे वर्षों से दबी कोई टीस, कोई चाह, कोई भूख… बाहर निकलने को तड़प उठी।



    आरंभ भी अब उसकी पीठ के पीछे खड़ा, उस एहसास को उतने ही गहराई से जी रहा था।

    उसकी आँखें भी बंद हो चुकी थीं… होंठों पर एक सुकून की लहर थी… पाँच साल बाद किसी खोई हुई चीज़ को महसूस कर लेने की तृप्ति।



    उन दोनों के बीच अब शब्दों की नहीं… साँसों की बातचीत हो रही थी। 





    आरंभ ने उसकी कमर पर से हाथ हटाया नहीं था… बल्कि धीरे-धीरे अपनी हथेलियों से उसकी पीठ को छूते हुए उसके कान के करीब झुक आया।

    उसकी आवाज़, एक धीमी फुसफुसाहट बन गई थी… गर्म साँसें नंदिता की गर्दन को छू रही थीं।



    "तुम्हें पता है, नंदिता…"

    उसके शब्द अब सिरहन बन चुके थे, "जब तुम गुस्से में होती हो ना… तो और भी ज़्यादा खूबसूरत लगती हो। तुम्हारी ये आँखें… जैसे जंग के मैदान में आग लिए खड़ी हों, और मैं हर बार हारना चाहता हूँ…"



    उसने धीमे से नंदिता की ज़ुल्फों को पीछे किया,

    "तुम्हारी ये गर्दन, तुम्हारा काँपता बदन… मुझे ऐसा लगता है जैसे मेरी साँसें वहीं अटक जाएँ…"



    लेकिन इससे पहले कि वो और कुछ कह पाता…



    नंदिता ने एक झटके में खुद को छुड़ाया।



    उसने तेज़ी से उसकी तरफ पलटकर देखा—आँखें सुलगती हुई अंगारों जैसी, और होठ कांपते हुए गुस्से से भरे।



    "बस कीजिए मिस्टर आरंभ अग्निहोत्री!"



    उसकी आवाज़ कमरे की दीवारों से टकराकर लौट आई।



    "आपको क्या लगता है? कि आप दो मीठी बातें करेंगे, दो पल करीब आएँगे और मैं सब कुछ भूल जाऊँगी? भूल जाऊँगी कि आपने मेरे साथ क्या किया? कि आपने मुझे मजबूर किया, बांधा, नाम दिया—बिना मेरी मर्ज़ी के?!"



    वो एक क़दम उसके करीब आई, चेहरा उसके बेहद पास, लेकिन प्यार के लिए नहीं—अपमान और आक्रोश के लिए।



    "अगर आपको लगता है कि मैं भी उन औरतों जैसी हूँ जो आपकी नज़रों से पिघल जाएँगी, तो सुन लीजिए… नंदिता ना बिकती है, ना झुकती है!"



    उसकी आवाज़ काँपी नहीं, लेकिन आँखों में आँसू उभर आए थे। उसने खुद को पलटकर उस दर्द से बचाना चाहा, लेकिन आरंभ की आँखें अब वहीं रुक गई थीं—उसके उस टूटते गुस्से में… और उस छुपे हुए प्यार में।



    ---



    नंदिता पलटकर चल पड़ी थी… तेज़ क़दमों से… लेकिन उसका दिल काँप रहा था। हर क़दम पर, उसकी साँसें भारी होती जा रही थीं, और आँखों के कोनों पर आँसू बेकाबू होने को बेताब थे।



    "नंदिता…!"

    आरंभ की आवाज़ पीछे से आई, टूटती हुई, बेसाख़्ता।



    वो रुकी, लेकिन पलटी नहीं।

    आरंभ धीरे-धीरे उसकी ओर बढ़ा, जैसे कोई शिकारी नहीं, कोई शिकस्ता आशिक़ अपने गुनाह की माफी माँग रहा हो।



    "एक पल… बस एक पल रुक जाओ…"

    उसकी आवाज़ में पहली बार गुरूर नहीं था… मोहब्बत की मासूमियत थी।



    "तुम जो चाहो, वो सुनने को तैयार हूँ। डाँटो… गुस्सा करो… मारो तक… लेकिन ऐसे मत जाओ, जैसे मैं कोई अजनबी हूँ।"



    नंदिता ने गहरी साँस ली। उसका बदन काँप रहा था।

    उसने धीरे से मुड़कर उसकी आँखों में देखा—आँखें लाल थीं, और दिल… जैसे एक तूफ़ान से जूझ रहा हो।



    "तो क्या सुनोगे?"

    उसकी आवाज़ अब भी काँप रही थी, लेकिन उसमें एक नर्मी थी जो कहीं गहराई में थी।



    "सुनोगे कि तुम्हारा हर छूना मेरे वजूद को जला देता है?"

    "सुनोगे कि तुम्हारे होने से मुझे नफ़रत होनी चाहिए—but damn it! मेरे दिल को तुमसे अलग करना अब मुमकिन ही नहीं रहा!"



    उसने एक पल को अपनी मुट्ठियाँ भींच लीं और फिर चिल्लाई—



    "मैं तुमसे प्यार नहीं करती आरंभ!… नहीं करती! तुम्हारा और मेरा रिश्ता सिर्फ नफरत का है। और हमेशा रहेगा। "



    और ठीक उसी पल… उसकी आँखों से आँसू बह पड़े।



    आरंभ चुपचाप देखता रहा, आँखें झुकी हुईं… और फिर धीरे से उसके पास आया, और फुसफुसाया—



    "मैं जानता हूँ… तुम खुद से भी झूठ बोल रही हो।"



    वो लम्हा भारी था… दो दिल, दो ज़िदें, और एक छुपी हुई मोहब्बत।





    आरंभ की बात सुनकर नंदिता के होंठों पर एक अजीब सी मुस्कुराहट उभरी—कहीं कटाक्ष से भरी, कहीं दर्द से।

    उसने उसकी ओर देखा, और बोली—

    "मैं खुद से झूठ बोल रही हूँ?… ये तुम्हारी सबसे बड़ी गलतफहमी है, आरंभ।"



    उसकी आँखों में नमी थी, लेकिन लफ्ज़ों में आंधी।



    "हमारा रिश्ता सिर्फ और सिर्फ नफ़रत का है। और मैं तुमसे नफ़रत करती हूँ। तुम्हारे कारण मेरी ज़िंदगी एक ऐसी दलदल में फँस गई जिससे बाहर निकलने की कोई राह नहीं बची। तुमने सब कुछ छीन लिया… मेरा आत्मसम्मान… मेरी आज़ादी…"



    वो कहते-कहते अचानक रुक गई। उसकी आँखें डबडबाई हुई थीं, लेकिन उसने खुद को समेटा…

    मुदी, और जाने लगी।



    दोनों के बीच घना सन्नाटा था।

    कोई कुछ नहीं कह पाया… शायद शब्द कम पड़ गए थे, या जज़्बात ज़्यादा थे।



    तभी...

    एक मासूम सी आवाज़ ने उस सन्नाटे को तोड़ दिया—



    "मम्मा… डैडी… कम विद मी… मुझे नहीं करनी निन्नी… प्लीज़ कम…"



    छोटे-छोटे पायजामे में सजी अंशिका, उनींदी आँखों के साथ कमरे के दरवाज़े पर खड़ी थी।

    उसकी आवाज़ में मासूमियत की मिठास थी… और उसकी नींद से भीगी पलकें, जैसे चाँदनी में चमक रही हों।

    उसका चेहरा नींद की नरमी से खिला-खिला लग रहा था—चाँद की हल्की रौशनी में वो किसी फ़रिश्ते जैसी नज़र आ रही थी।



    उसकी अधखुली आँखें सीधे अपने मम्मा-पापा को देख रही थीं।

    वो नन्हीं जान, जिसे इस उम्र में सपनों में खोया होना चाहिए था—अपने मम्मी-पापा के झगड़े ने उसे जगा दिया था।



    उसे देखकर, नंदिता और आरंभ… दोनों जैसे पिघल गए।



    सारे शिकवे, सारे सवाल, सारा गुस्सा—एक पल में जैसे पानी हो गया।



    दोनों साथ में दौड़ते हुए उसके पास पहुँचे—बिलकुल एक जैसे—एक ममता की पुकार में, दूसरा पश्चाताप की।



    अंशिका ने अपने नन्हे हाथ फैला दिए और कहा—

    "कम… दोनों… अब लड़ाई नहीं… निन्नी नहीं करनी… बस आप दोनों के साथ सोना है…"



    आरंभ और नंदिता… दोनों उसके दाएँ-बाएँ बैठ गए।

    अंशिका ने मुस्कुराकर अपनी दोनों बाँहें उनके गले में डाल दीं, और अपना चेहरा नंदिता की गोद में छुपा लिया।



    आरंभ ने नज़ाकत से उसका माथा चूमा।

    नंदि

    ता ने अपनी उँगलियों से उसके बालों को सुलझाया।



    वो एक पल… तीन टूटे हुए दिलों को बाँध रहा था—

    एक नन्हीं सी जान ने जो सिखा दिया…

    कि प्यार का मतलब सिर्फ साथ होना नहीं… एक-दूसरे की ज़रूरत बन जाना होता है।



    To be countinue ✍🏻✍🏻✍🏻 



    Don't forget to like share comment guy's 

  • 11. A Love Contract - Chapter 11

    Words: 1668

    Estimated Reading Time: 11 min

    Love Contract 11

    ब्रेकफास्ट टेबल, हवेली का आँगन, सुबह की हल्की धूप



    दादी माँ पूजा करके सीधा ब्रेकफास्ट टेबल पर आकर बैठी थीं। उनके सामने तुलसी का चौरा था, और एक हाथ में रुद्राक्ष की माला। लेकिन उनकी निगाहें हर दो मिनट पर हवेली की सीढ़ियों की ओर उठती थीं — मानो किसी खास के इंतज़ार में हों।



    कुछ ही देर में नंदिता वहाँ आई — सिर झुकाए, बाल खुले, आँखों में भारी नींद की परछाई अब भी बाकी थी। वो दादी माँ के पास खड़ी हो गई और धीरे से बोली —



    "दादी माँ… माफ कर दीजिए… थोड़ी देर हो गई… पता नहीं कैसे आँख ही नहीं खुली…"



    उसकी आवाज़ में शर्मिंदगी थी, और चेहरा ऐसा जैसे धरती फट जाए और वो उसमें समा जाए। उसने अभी अपनी बात पूरी भी नहीं की थी कि तभी एक तीखी लेकिन प्यारी, शरारती और मासूम आवाज़ गूंज उठी —



    "हां भई… कैसे खुलती आपकी आँखें? जब आप दोनों एक-दूसरे से ऐसे चिपक कर सो रहे थे!"



    सबकी नजरें उस छोटी सी आवाज़ की तरफ घूम गईं।



    वहाँ खड़ी थी छोटी सी ansika, दोनों हाथ कमर पर और आंखें ऐसी सिकुड़ी हुईं जैसे किसी प्राइवेट सीक्रेट को दुनिया के सामने ला दिया हो।



    "और मुझे तो एक किनारे कर दिया गया… इसलिए तो मेरी आंख जल्दी खुल गई… और फिर मैंने ही आप लोगों को उठाया वरना आप दोनों तो आज दोपहर तक भी नहीं उठते!"



    उसके मासूम आरोपों में एक नटखट बच्ची की पूरी शिकायत भरी हुई थी।



    नंदिता का चेहरा शर्म से और भी लाल हो गया — वो नीचे और झुक गई।

    दादी माँ ने जैसे ही Hansika की ये बात सुनी, उनके चेहरे पर एक अलग ही चमक दौड़ गई।

    उनकी मुस्कान अब उनके होठों तक नहीं, बल्कि आँखों तक पहुंच चुकी थी।

    उन्होंने धीरे से अपनी माला टेबल पर रखी और फिर नंदिता की तरफ देखा —

    एक नज़र जो सैकड़ों शब्द बोल गई।



    नंदिता की हालत उस वक्त किसी नई दुल्हन जैसी थी जो पहली बार सास के सामने रंगे हाथों पकड़ी गई हो।



    दादी माँ ने प्यार से उसकी ठोड़ी उठाई, उसकी आँखों में देखा और हौले से कहा —



    "अब देर से उठी हो तो क्या हुआ… जब कोई पूरे मन से पहली बार चैन की नींद सोए, तो नींद भी देर से खुले तो अच्छा लगता है।"



    नंदिता ने आँखें उठाईं, पहली बार। और उन्हें देखकर एक सुकून की लहर उसके चेहरे पर दौड़ गई।



    "और वैसे भी," दादी माँ ने अब शरारत से मुस्कराते हुए कहा, "मुझे तो ansika की बातों से पूरी रिपोर्ट मिल गई है कि रात कैसे बीती!"



    तभी सामने से आरंभ आता है — हाथ में ansika का छोटा सा स्कूल बैग और उसमें रखा हुआ लंच बॉक्स।

    उसने सफेद शर्ट पहन रखी थी, बाल हल्के गीले और चेहरा थोड़ा सा थका हुआ… लेकिन उसमें एक अलग चमक थी। शायद एक नई ज़िम्मेदारी निभाने की।



    "Madam तैयार है… खुद पापा ने स्कूल के लिए तैयार किया है आज।"



    आरंभ ने मुस्कराकर कहा और ansika को गोद में उठा लिया।



    ansika ने चहकते हुए कहा —

    "और पापा ने मेरे बाल भी बनाए! देखो दादी माँ!"



    दादी माँ ने दोनों को गौर से देखा और फिर नज़रें झुकाकर मंद-मंद मुस्काई…

    "अब मेरी मुराद पूरी हो गई। ये नज़ारा तो साक्षात शिव-पार्वती और  Ashok sundari जैसा है।"



    और तभी उन्होंने धीरे से अपनी माला उठाई, और आँखें बंद करके मन ही मन एक प्रार्थना की —

    "हे भोलेनाथ, अब इन्हें कोई नज़र न लगे… ये पल सदा के लिए ठहर जाए।" 



    छोटी-सी अंशिका अब तक आरंभ की गोद में बिल्कुल रानी की तरह बैठी थी, लेकिन जैसे ही उसने ‘स्कूल’ शब्द सुना — उसकी भौंहें ऐसे सिकुड़ गईं जैसे किसी ने उसकी पसंदीदा चॉकलेट छीन ली हो।



    उसने तुरंत अपनी छोटी-सी कमर पर हाथ रख लिए और आरंभ को इस तरह घूरने लगी जैसे वो उसके सारे सपनों का दुश्मन हो।



    “डैडी…”

    उसकी प्यारी-सी, थोड़ी सी तुतलाती आवाज़ में शिकायत बहुत साफ झलक रही थी —

    “मैंने क्या कहा था कमरे में? मुझे पिकनिक पर जाना है… ना कि स्कूल! स्कूल तो मैं रोज़ जाती हूँ, लेकिन आप लोगों के साथ पिकनिक… वो तो ख़ास होता है।”



    आरंभ उसकी मासूमियत पर मुस्कुरा तो पड़ा, लेकिन उसने खुद को गंभीर दिखाने की कोशिश की।



    अंशिका ने अपनी बात बिना रुके जारी रखी —

    “आज मेरे सारे दोस्तों के पापा उन्हें स्कूल छोड़ने जा रहे हैं… पिकनिक पर जा रहे हैं… और आप हैं कि मुझे स्कूल भेजने की तैयारी कर रहे हो!”

    उसने होंठ फुला लिए और अपने गालों को और भी गोल कर लिया।



    “आप फिर से किसी बिज़नेस टूर पर चले गए तो मैं आपसे फिर नहीं मिल पाऊँगी…”



    अब उसका गला भर आया था, मासूम सी आँखें भीगी-भीगी लगने लगीं, लेकिन उसकी ज़िद अभी भी उतनी ही मज़बूत थी —



    “मुझे भी आपके साथ पिकनिक पर जाना है… मुझे स्कूल नहीं जाना… मुझे आप दोनों के बीच बैठकर छोटी-सी फैमिली पिकनिक करनी है… बस!”



    आरंभ ने उसे सीने से लगा लिया, और उसकी नन्ही-सी नाक पर अपनी नाक सटा कर प्यार से बोला:



    “ठीक है मेरी राजकुमारी... आज स्कूल कैंसिल! आज हम दोनों — मम्मा को भी ज़बरदस्ती साथ लेकर — शाही पिकनिक पर चलेंगे। बस तुम मुस्कुराओ…”



    अंशिका का चेहरा एकदम खिल गया। उसने झटपट आरंभ के गाल पर एक ज़ोरदार प्यारा सा चुंबन दे मारा और तेज़ी से बोली:



    “येस्स्स! आई लव यू डैडी… लेकिन मम्मा से नाराज़ हूँ... उन्होंने मुझे किनारे कर दिया था!”



    पास ही खड़ी नंदिता झेंप गई, लेकिन चेहरे की मुस्कुराहट छुप नहीं सकी।



    सभी ने मिलकर नाश्ता किया। दादी माँ की आँखों में अंशिका की चहक और आरंभ की हल्की मुस्कान ने जैसे फिर से एक नई रौशनी जगा दी थी। सबके चेहरों पर सुकून था, लेकिन दो लोगों के बीच अब भी वो चुप्पी थी जो बिना बोले बहुत कुछ कह रही थी।



    आरंभ ने जैसे ही लिविंग हॉल में कदम रखा, उसने अपने असिस्टेंट को फोन करके सारी पिकनिक की प्लानिंग कुछ ही मिनटों में निपटा दी थी — लोकेशन, फूड, गाड़ी, सबकुछ।



    वो सीधा सबके बीच आया और अपनी वही रौबदार, लेकिन आज कुछ हल्की सी आवाज़ में बोला —



    "सब लोग तैयार हो जाइए... आधे घंटे में निकलना है।"



    इतना कहकर उसने अंशिका को गोद में उठाया और एक जोरदार मुस्कान के साथ हवा में झुलाते हुए बोला —

    “चल मेरी रानी, तेरा हक़ पूरा करने का टाइम आ गया।”



    अंशिका खिलखिला पड़ी और उसके चेहरे पर जीत का सुकून दिख रहा था।



    पर वहीँ... पास खड़ी नंदिता।



    सुबह से अब तक एक बार भी उनकी और आरंभ की नज़रें ढंग से नहीं मिली थीं। शब्द तो जैसे दोनों के बीच कहीं गुम हो गए थे। चुप्पी किसी दीवार की तरह उनके बीच खड़ी थी। awkwardness हवा में घुली थी, पर दोनों ही उसे साफ महसूस कर पा रहे थे।



    नंदिता ने एक नज़र आरंभ और अंशिका पर डाली — बाप-बेटी की जोड़ी आज किसी परी कथा जैसी लग रही थी। दिल में एक अजीब सी टीस उठी, और फिर उसने गहरी साँस ली। वो चुपचाप कमरे की ओर बढ़ गई। शायद खुद को थोड़ा सँभालने, शायद खुद से कुछ कहने।



    दादी माँ, जो वहीं सोफ़े पर बैठी थीं, इस पूरे दृश्य को बहुत गौर से देख रही थीं। उनका मन अंदर से थोड़ा दुखी था — आरंभ अब भी उनसे नाराज़ था, और ये बात उन्हें चुभ रही थी। लेकिन फिर भी, अपने पोते को अपनी बेटी और नातिन के साथ देखना... वो भी इस तरह से... उनके लिए यह पल किसी वरदान से कम नहीं था।



    उन्होंने लंबी गहरी साँस ली, और खुद से बुदबुदाईं —

    “चलो… अब मेरी आरंभ ने कम से कम अपना परिवार तो अपना लिया।”



    फिर धीरे-धीरे उन्होंने उठते हुए अपनी छड़ी सँभाली, और बिना किसी को डिस्टर्ब किए, अपने कमरे की ओर चल पड़ीं।

    उम्र अब उन्हें इन भागदौड़ वाली पिकनिक की इजाज़त नहीं देती थी, और वह किसी कीमत पर उन तीनों का यह अनमोल समय बिगाड़ना नहीं चाहती थीं।



     कार के अंदर | रास्ते में पिकनिक के लिए जाते हुए



    बाहर धूप खिली थी, रास्ते पेड़ों से ढका हुआ और हल्की हवा कार की खिड़कियों से अंदर झाँक रही थी।



    ड्राइवर सीट के पीछे वाली लाइन में – आरंभ और नंदिता साथ बैठे थे।



    बीच में अंशिका मस्ती कर रही थी, कभी मम्मी की गोद में, तो कभी डैडी के कंधे पर झूल रही थी। लेकिन दोनों बड़ों के बीच एक हल्का-सा तनाव अब भी मौजूद था। नज़रे चुराना और शब्दों से बचना — यही हो रहा था।



    कुछ पल यूँ ही बीत गए, जब अचानक नंदिता ने खिड़की की ओर देखते हुए कहा —

    "आपको सुबह उठकर सबसे पहले मुझे कुछ कहना था..."



    आरंभ ने पल भर उसे देखा, फिर नज़रें सामने कर लीं —

    "सुबह उठकर खुद से नज़र मिला पाना ही बहुत था।"



    नंदिता थोड़ा सिटपिटाई।

    "कम से कम ये तो कह सकते थे कि… थैंक यू।"



    आरंभ ने हल्की सी मुस्कान के साथ कहा —

    "किस बात का?"



    नंदिता की आँखें भर आईं, लेकिन आवाज़ शांत रही —

    "कि मैंने आपका हर हुक्म… बिना सवाल किए माना… यहां तक कि खुद को भी भुला दिया… आपके नाम के आगे Mrs. लगने के लिए।"



    आरंभ ने उसकी तरफ देखा, कुछ कहने ही वाला था कि बीच से अंशिका की आवाज़ आई —

    "मम्मी-पापा! देखो ना… वो जो पहाड़ दिख रहा है न… वहाँ चलेंगे न?"



    दोनों ने पलटकर उसे देखा, और एक पल को जैसे हर चीज़ थम गई।



    नंदिता ने मुस्कुराने की कोशिश की और उसका माथा चूमा।

    आरंभ ने भी उसकी ऊँगली थामी और बोला —

    "जहाँ तू कहेगी, वहीं चलेंगे प्रिंसेस।"



    फिर उसने एक हल्की-सी नजर नंदिता की तरफ डाली और धीमे से बोला —

    "Thanks... सिर्फ इस रिश्ते को निभाने के लिए नहीं, उसे जिंदा रखने के लिए भी।"



    नंदिता ने कुछ पल उसकी आँखों में देखा, और फिर सिर झुकाकर खिड़की की तरफ देखने लगी, लेकिन होंठों पर एक सुकून भरी हल्की सी मुस्कान तैर रही थी।



    कार

     अब ऊँचाई की ओर बढ़ रही थी... और शायद उन दोनों के बीच भी कुछ टूटे तार जुड़ने लगे थे।



    To be countinue 



    Don't forget to like share comment guy's 

  • 12. A Love Contract - Chapter 12

    Words: 1668

    Estimated Reading Time: 11 min

    Love Contract 12

    ब्रेकफास्ट टेबल, हवेली का आँगन, सुबह की हल्की धूप



    दादी माँ पूजा करके सीधा ब्रेकफास्ट टेबल पर आकर बैठी थीं। उनके सामने तुलसी का चौरा था, और एक हाथ में रुद्राक्ष की माला। लेकिन उनकी निगाहें हर दो मिनट पर हवेली की सीढ़ियों की ओर उठती थीं — मानो किसी खास के इंतज़ार में हों।



    कुछ ही देर में नंदिता वहाँ आई — सिर झुकाए, बाल खुले, आँखों में भारी नींद की परछाई अब भी बाकी थी। वो दादी माँ के पास खड़ी हो गई और धीरे से बोली —



    "दादी माँ… माफ कर दीजिए… थोड़ी देर हो गई… पता नहीं कैसे आँख ही नहीं खुली…"



    उसकी आवाज़ में शर्मिंदगी थी, और चेहरा ऐसा जैसे धरती फट जाए और वो उसमें समा जाए। उसने अभी अपनी बात पूरी भी नहीं की थी कि तभी एक तीखी लेकिन प्यारी, शरारती और मासूम आवाज़ गूंज उठी —



    "हां भई… कैसे खुलती आपकी आँखें? जब आप दोनों एक-दूसरे से ऐसे चिपक कर सो रहे थे!"



    सबकी नजरें उस छोटी सी आवाज़ की तरफ घूम गईं।



    वहाँ खड़ी थी छोटी सी ansika, दोनों हाथ कमर पर और आंखें ऐसी सिकुड़ी हुईं जैसे किसी प्राइवेट सीक्रेट को दुनिया के सामने ला दिया हो।



    "और मुझे तो एक किनारे कर दिया गया… इसलिए तो मेरी आंख जल्दी खुल गई… और फिर मैंने ही आप लोगों को उठाया वरना आप दोनों तो आज दोपहर तक भी नहीं उठते!"



    उसके मासूम आरोपों में एक नटखट बच्ची की पूरी शिकायत भरी हुई थी।



    नंदिता का चेहरा शर्म से और भी लाल हो गया — वो नीचे और झुक गई।

    दादी माँ ने जैसे ही Hansika की ये बात सुनी, उनके चेहरे पर एक अलग ही चमक दौड़ गई।

    उनकी मुस्कान अब उनके होठों तक नहीं, बल्कि आँखों तक पहुंच चुकी थी।

    उन्होंने धीरे से अपनी माला टेबल पर रखी और फिर नंदिता की तरफ देखा —

    एक नज़र जो सैकड़ों शब्द बोल गई।



    नंदिता की हालत उस वक्त किसी नई दुल्हन जैसी थी जो पहली बार सास के सामने रंगे हाथों पकड़ी गई हो।



    दादी माँ ने प्यार से उसकी ठोड़ी उठाई, उसकी आँखों में देखा और हौले से कहा —



    "अब देर से उठी हो तो क्या हुआ… जब कोई पूरे मन से पहली बार चैन की नींद सोए, तो नींद भी देर से खुले तो अच्छा लगता है।"



    नंदिता ने आँखें उठाईं, पहली बार। और उन्हें देखकर एक सुकून की लहर उसके चेहरे पर दौड़ गई।



    "और वैसे भी," दादी माँ ने अब शरारत से मुस्कराते हुए कहा, "मुझे तो ansika की बातों से पूरी रिपोर्ट मिल गई है कि रात कैसे बीती!"



    तभी सामने से आरंभ आता है — हाथ में ansika का छोटा सा स्कूल बैग और उसमें रखा हुआ लंच बॉक्स।

    उसने सफेद शर्ट पहन रखी थी, बाल हल्के गीले और चेहरा थोड़ा सा थका हुआ… लेकिन उसमें एक अलग चमक थी। शायद एक नई ज़िम्मेदारी निभाने की।



    "Madam तैयार है… खुद पापा ने स्कूल के लिए तैयार किया है आज।"



    आरंभ ने मुस्कराकर कहा और ansika को गोद में उठा लिया।



    ansika ने चहकते हुए कहा —

    "और पापा ने मेरे बाल भी बनाए! देखो दादी माँ!"



    दादी माँ ने दोनों को गौर से देखा और फिर नज़रें झुकाकर मंद-मंद मुस्काई…

    "अब मेरी मुराद पूरी हो गई। ये नज़ारा तो साक्षात शिव-पार्वती और  Ashok sundari जैसा है।"



    और तभी उन्होंने धीरे से अपनी माला उठाई, और आँखें बंद करके मन ही मन एक प्रार्थना की —

    "हे भोलेनाथ, अब इन्हें कोई नज़र न लगे… ये पल सदा के लिए ठहर जाए।" 



    छोटी-सी अंशिका अब तक आरंभ की गोद में बिल्कुल रानी की तरह बैठी थी, लेकिन जैसे ही उसने ‘स्कूल’ शब्द सुना — उसकी भौंहें ऐसे सिकुड़ गईं जैसे किसी ने उसकी पसंदीदा चॉकलेट छीन ली हो।



    उसने तुरंत अपनी छोटी-सी कमर पर हाथ रख लिए और आरंभ को इस तरह घूरने लगी जैसे वो उसके सारे सपनों का दुश्मन हो।



    “डैडी…”

    उसकी प्यारी-सी, थोड़ी सी तुतलाती आवाज़ में शिकायत बहुत साफ झलक रही थी —

    “मैंने क्या कहा था कमरे में? मुझे पिकनिक पर जाना है… ना कि स्कूल! स्कूल तो मैं रोज़ जाती हूँ, लेकिन आप लोगों के साथ पिकनिक… वो तो ख़ास होता है।”



    आरंभ उसकी मासूमियत पर मुस्कुरा तो पड़ा, लेकिन उसने खुद को गंभीर दिखाने की कोशिश की।



    अंशिका ने अपनी बात बिना रुके जारी रखी —

    “आज मेरे सारे दोस्तों के पापा उन्हें स्कूल छोड़ने जा रहे हैं… पिकनिक पर जा रहे हैं… और आप हैं कि मुझे स्कूल भेजने की तैयारी कर रहे हो!”

    उसने होंठ फुला लिए और अपने गालों को और भी गोल कर लिया।



    “आप फिर से किसी बिज़नेस टूर पर चले गए तो मैं आपसे फिर नहीं मिल पाऊँगी…”



    अब उसका गला भर आया था, मासूम सी आँखें भीगी-भीगी लगने लगीं, लेकिन उसकी ज़िद अभी भी उतनी ही मज़बूत थी —



    “मुझे भी आपके साथ पिकनिक पर जाना है… मुझे स्कूल नहीं जाना… मुझे आप दोनों के बीच बैठकर छोटी-सी फैमिली पिकनिक करनी है… बस!”



    आरंभ ने उसे सीने से लगा लिया, और उसकी नन्ही-सी नाक पर अपनी नाक सटा कर प्यार से बोला:



    “ठीक है मेरी राजकुमारी... आज स्कूल कैंसिल! आज हम दोनों — मम्मा को भी ज़बरदस्ती साथ लेकर — शाही पिकनिक पर चलेंगे। बस तुम मुस्कुराओ…”



    अंशिका का चेहरा एकदम खिल गया। उसने झटपट आरंभ के गाल पर एक ज़ोरदार प्यारा सा चुंबन दे मारा और तेज़ी से बोली:



    “येस्स्स! आई लव यू डैडी… लेकिन मम्मा से नाराज़ हूँ... उन्होंने मुझे किनारे कर दिया था!”



    पास ही खड़ी नंदिता झेंप गई, लेकिन चेहरे की मुस्कुराहट छुप नहीं सकी।



    सभी ने मिलकर नाश्ता किया। दादी माँ की आँखों में अंशिका की चहक और आरंभ की हल्की मुस्कान ने जैसे फिर से एक नई रौशनी जगा दी थी। सबके चेहरों पर सुकून था, लेकिन दो लोगों के बीच अब भी वो चुप्पी थी जो बिना बोले बहुत कुछ कह रही थी।



    आरंभ ने जैसे ही लिविंग हॉल में कदम रखा, उसने अपने असिस्टेंट को फोन करके सारी पिकनिक की प्लानिंग कुछ ही मिनटों में निपटा दी थी — लोकेशन, फूड, गाड़ी, सबकुछ।



    वो सीधा सबके बीच आया और अपनी वही रौबदार, लेकिन आज कुछ हल्की सी आवाज़ में बोला —



    "सब लोग तैयार हो जाइए... आधे घंटे में निकलना है।"



    इतना कहकर उसने अंशिका को गोद में उठाया और एक जोरदार मुस्कान के साथ हवा में झुलाते हुए बोला —

    “चल मेरी रानी, तेरा हक़ पूरा करने का टाइम आ गया।”



    अंशिका खिलखिला पड़ी और उसके चेहरे पर जीत का सुकून दिख रहा था।



    पर वहीँ... पास खड़ी नंदिता।



    सुबह से अब तक एक बार भी उनकी और आरंभ की नज़रें ढंग से नहीं मिली थीं। शब्द तो जैसे दोनों के बीच कहीं गुम हो गए थे। चुप्पी किसी दीवार की तरह उनके बीच खड़ी थी। awkwardness हवा में घुली थी, पर दोनों ही उसे साफ महसूस कर पा रहे थे।



    नंदिता ने एक नज़र आरंभ और अंशिका पर डाली — बाप-बेटी की जोड़ी आज किसी परी कथा जैसी लग रही थी। दिल में एक अजीब सी टीस उठी, और फिर उसने गहरी साँस ली। वो चुपचाप कमरे की ओर बढ़ गई। शायद खुद को थोड़ा सँभालने, शायद खुद से कुछ कहने।



    दादी माँ, जो वहीं सोफ़े पर बैठी थीं, इस पूरे दृश्य को बहुत गौर से देख रही थीं। उनका मन अंदर से थोड़ा दुखी था — आरंभ अब भी उनसे नाराज़ था, और ये बात उन्हें चुभ रही थी। लेकिन फिर भी, अपने पोते को अपनी बेटी और नातिन के साथ देखना... वो भी इस तरह से... उनके लिए यह पल किसी वरदान से कम नहीं था।



    उन्होंने लंबी गहरी साँस ली, और खुद से बुदबुदाईं —

    “चलो… अब मेरी आरंभ ने कम से कम अपना परिवार तो अपना लिया।”



    फिर धीरे-धीरे उन्होंने उठते हुए अपनी छड़ी सँभाली, और बिना किसी को डिस्टर्ब किए, अपने कमरे की ओर चल पड़ीं।

    उम्र अब उन्हें इन भागदौड़ वाली पिकनिक की इजाज़त नहीं देती थी, और वह किसी कीमत पर उन तीनों का यह अनमोल समय बिगाड़ना नहीं चाहती थीं।



     कार के अंदर | रास्ते में पिकनिक के लिए जाते हुए



    बाहर धूप खिली थी, रास्ते पेड़ों से ढका हुआ और हल्की हवा कार की खिड़कियों से अंदर झाँक रही थी।



    ड्राइवर सीट के पीछे वाली लाइन में – आरंभ और नंदिता साथ बैठे थे।



    बीच में अंशिका मस्ती कर रही थी, कभी मम्मी की गोद में, तो कभी डैडी के कंधे पर झूल रही थी। लेकिन दोनों बड़ों के बीच एक हल्का-सा तनाव अब भी मौजूद था। नज़रे चुराना और शब्दों से बचना — यही हो रहा था।



    कुछ पल यूँ ही बीत गए, जब अचानक नंदिता ने खिड़की की ओर देखते हुए कहा —

    "आपको सुबह उठकर सबसे पहले मुझे कुछ कहना था..."



    आरंभ ने पल भर उसे देखा, फिर नज़रें सामने कर लीं —

    "सुबह उठकर खुद से नज़र मिला पाना ही बहुत था।"



    नंदिता थोड़ा सिटपिटाई।

    "कम से कम ये तो कह सकते थे कि… थैंक यू।"



    आरंभ ने हल्की सी मुस्कान के साथ कहा —

    "किस बात का?"



    नंदिता की आँखें भर आईं, लेकिन आवाज़ शांत रही —

    "कि मैंने आपका हर हुक्म… बिना सवाल किए माना… यहां तक कि खुद को भी भुला दिया… आपके नाम के आगे Mrs. लगने के लिए।"



    आरंभ ने उसकी तरफ देखा, कुछ कहने ही वाला था कि बीच से अंशिका की आवाज़ आई —

    "मम्मी-पापा! देखो ना… वो जो पहाड़ दिख रहा है न… वहाँ चलेंगे न?"



    दोनों ने पलटकर उसे देखा, और एक पल को जैसे हर चीज़ थम गई।



    नंदिता ने मुस्कुराने की कोशिश की और उसका माथा चूमा।

    आरंभ ने भी उसकी ऊँगली थामी और बोला —

    "जहाँ तू कहेगी, वहीं चलेंगे प्रिंसेस।"



    फिर उसने एक हल्की-सी नजर नंदिता की तरफ डाली और धीमे से बोला —

    "Thanks... सिर्फ इस रिश्ते को निभाने के लिए नहीं, उसे जिंदा रखने के लिए भी।"



    नंदिता ने कुछ पल उसकी आँखों में देखा, और फिर सिर झुकाकर खिड़की की तरफ देखने लगी, लेकिन होंठों पर एक सुकून भरी हल्की सी मुस्कान तैर रही थी।



    कार

     अब ऊँचाई की ओर बढ़ रही थी... और शायद उन दोनों के बीच भी कुछ टूटे तार जुड़ने लगे थे।



    To be countinue 



    Don't forget to like share comment guy's 

  • 13. A Love Contract - Chapter 13

    Words: 1906

    Estimated Reading Time: 12 min

    Love Contract 13





    शहर से दूर, एक शांत और हरियाली से घिरी झील के किनारे स्थित एक नैचुरल पिकनिक स्पॉट। दूर तक फैली खुली घास, झील के पानी पर झिलमिलाती धूप, और चारों तरफ़ चहचहाते परिंदों की आवाज़ें। एक तरफ़ छांवदार पेड़ों की कतार थी, जिनके नीचे लकड़ी की बेंचें और छोटी-छोटी झोपड़ियाँ बनी थीं। बच्चों के खेलने के लिए झूले लगे थे और थोड़ी दूरी पर बोटिंग की भी सुविधा थी। एक परफेक्ट फैमिली गेटवे।





    नीली झील के किनारे नर्म घास पर एक लाल-चेक वाली चादर बिछी थी। आसमान बिल्कुल साफ था, दूर-दूर तक हरियाली फैली हुई थी। ठंडी हवा बालों से खेल रही थी।



    ansika यानी छोटी अंशिका, दौड़ती हुई झील के किनारे तक गई —

    "देखो-देखो डैडी! पानी में मेरी परछाईं!"



    Aarambh उसकी तरफ भागा, डर के मारे —

    "अरे... ध्यान से! पानी में मत गिर जाना प्रिंसेस!"



    ansika पलटी और अकड़कर बोली —

    "मैं कोई बच्ची नहीं हूँ!"



    Aarambh ने उसकी नाक पकड़ ली —

    "अरे हाँ, तू तो मेरी बॉस बेबी है!"



    ansika ज़ोर से हँसी और उसकी गोद में चढ़ गई।



    वहीं, दूर बैठी नंदिता ये सब देख रही थी। उसके चेहरे पर हल्की सी मुस्कान थी, लेकिन उस मुस्कान के पीछे सालों का सूनापन भी था — जिसे धीरे-धीरे कोई भरने की कोशिश कर रहा था।



    तभी ansika Aarambh से बोली —

    "डैडी, आप मम्मा को भी बुलाओ ना! सब मिलके खेलते हैं!"



    Aarambh एक पल के लिए ठिठका, फिर ansika को गोद में उठाकर नंदिता के पास ले आया।



    Anshika excitement में Aarambh की गोद में उछलते हुए बोली,

    "Wowww Daddy! Yahaan to sab kuch hai... झूले भी... पानी भी... aur picnic basket bhi!"



    Aarambh हँसते हुए बोला,

    "Aur सबसे प्यारी चीज़ तो तुम्हारी मम्मा है, जो इस पिकनिक में भी इतनी खूबसूरत लग रही है, कि सूरज भी शरमा जाए..."



    Nandita ने झील के किनारे खड़े होकर Aarambh की बात सुनी, और बिना पलटे ही बोली,

    "थोड़ा कम फिल्मी हो जाइए मिस्टर, बच्ची साथ है..."



    Anshika बीच में बोल पड़ी,

    "मम्मा आप भी ना... Daddy को film chalane do, mujhe achha lagta hai जब आप दोनों ऐसे लड़ते-झगड़ते प्यार करते हो..."



    तीनों एक साथ ज़ोर से हँस पड़े।



    Aarambh ने कंबल बिछाया, picnic basket खोली और सबने मिलकर अपने हाथों से सैंडविच बनाए। Anshika के लिए Aarambh ने खुद peanut-butter spread किया और बोला,

    "Princess ke liye Daddy Chef ready hai!"



    Nandita ने Aarambh को देखा, आँखों में हल्की नमी और मुस्कान लिए। इस नज़ारे को देखकर उसका दिल एक पल को ठहर गया... उसने पहली बार Aarambh को इतनी मासूमियत और पितृत्व में देखा था।

    पर तभी Anshika बोली,

    "Mamma... aap bhi aaj mujhe spoon se khila do na... waise bhi aapko Daddy ne chef bana diya, aap meri queen ho!"



    Nandita का दिल भर आया। वो झील के किनारे बैठ गई, Anshika को अपनी गोद में लेकर खिलाने लगी। Aarambh वहीं सामने बैठकर दोनों को निहारता रहा।



    कुछ देर बाद, Anshika खेलने चली गई। झूलों की तरफ भागती उसकी मुस्कान जैसे उस पूरे माहौल को रोशन कर रही थी। Aarambh और Nandita वहीं बैठ गए। Aarambh ने धीमे से कहा,

    "कुछ लम्हें होते हैं, जो पूरी ज़िंदगी को संवार देते हैं... शायद ये पल वैसा ही है..."



    Nandita ने उसकी तरफ देखा। कोई जवाब नहीं दिया... बस उसकी उँगलियाँ Aarambh की हथेलियों से टकरा गईं — और Aarambh ने धीमे से वो हथेलियाँ थाम लीं।



    झील की हल्की हवा, पेड़ों की सरसराहट, और दिलों की गहराई... आज पहली बार Aarambh और Nandita बिना कहे भी सब कुछ कह रहे थे। 





    Anshika थोड़ी दूर बैठी झूले पर झूल रही थी और हर बार झूले से लौटकर चिल्ला रही थी,

    "Daddy! देखो मैं कितनी ऊँचाई तक जा रही हूं!"



    Aarambh मुस्कुराता हुआ दूर से उसका वीडियो बना रहा था और बीच-बीच में Nandita की तरफ भी देख लेता, जो दूसरी ओर बैठी थी... चुपचाप।



    वो सफेद सूती कुर्ते में थी, हल्की धूप में उसके गाल और माथे पर सुनहरा सा नूर उतर आया था। बाल खुले थे... लेकिन आँखें कहीं और देख रही थीं — जैसे Aarambh के पास होते हुए भी उससे कोसों दूर थीं।



    Aarambh धीरे से उसके पास गया और बहुत ही हल्के मज़ाकिया लहजे में बोला,

    "तुम्हें तो picnic का 'P' भी पसंद नहीं था... फिर ये सफेद कुर्ता पहनकर इतनी Sundar क्यों लग रही हो?"



    Nandita ने बिना उसकी तरफ देखे कहा,

    "Picnic में साथ लाने की जिद आपकी थी… Look maintain करना मेरा काम था…"



    Aarambh उसके सामने बैठ गया, थोड़ा झुककर उसकी आँखों में झांकते हुए बोला,

    "जिम्मेदारियों से ज्यादा... फासले संभाल रही हो तुम, Nandita..."



    Nandita ने धीरे से Aarambh की तरफ देखा, आँखें नम हो आई थीं… पर उसने अपने होठों पर हल्की मुस्कान लाकर खुद को सँभाला और बोली,

    "Faasle वही अच्छे लगते हैं जहाँ कोई करीब आने की कोशिश करे... यहां तो बस खामोशियाँ ही हैं, जो बिखरी पड़ी हैं।"



    Aarambh एक पल को चुप हो गया। फिर उसने बहुत ही धीमी आवाज़ में कहा,

    "तो कोशिश करने दो ना, शायद ये खामोशियाँ भी मुस्कुरा उठें..."



    और तभी पीछे से चिल्लाते हुए Anshika आ गई,

    "Mujhe भूख लगी है!!! आप दोनों वहीं बैठे रहो लड़ते रहो, मैं अकेले सब खा लूंगी!"



    वो दौड़ती हुई आई और Aarambh की गोद में चढ़ गई। Aarambh ने उसे थाम लिया और मुस्कुराते हुए कहा,

    "अब तो तुम्हारी मम्मा ही तुम्हें खिलाएंगी, मैं तो नाराज़ हूँ!"



    Anshika ने हैरानी से कहा,

    "क्यों नाराज़ हो? मम्मा ने फिर से गुस्सा किया क्या?"



    Aarambh और Nandita दोनों ही हँस पड़े। Anshika ने Aarambh की नाक पकड़ ली और बोली,

    "चलो ना दोनों माफी मांग लो एक-दूसरे से... फिर से Friends बन जाओ!"



    Aarambh ने हल्की मुस्कान के साथ Nandita की तरफ देखा और कहा,

    "सुना आपने, अब बच्चों के सामने झूठी माफ़ी तो मांगनी ही पड़ेगी…"



    Nandita उसकी ओर देखकर बोली,

    **"तो शुरुआत आप करें…"



    Aarambh थोड़ा झुककर Nandita के करीब आया और मजाकिया अंदाज़ में धीरे से उसके कान में कहा,

    "Sorry… लेकिन तुम्हें आज बहुत ज़्यादा खूबसूरत दिखने की इजाज़त नहीं है…"



    Nandita ने उसकी आँखों में झाँका, एक तीखी पर नर्म मुस्कान के साथ हल्का सा झटका दिया — लेकिन नजरें नहीं हटाईं। 



    ]



    तीनों जैसे ही अपने टिफिन खोलकर खाने में लगे थे, Anshika ने अपनी माँ के हाथ से रोटी का टुकड़ा खींचते हुए कहा,

    "मम्मा, मुझे ये वाला पनीर वाला देना… वाला जो Daddy ने बनाया था!"



    Aarambh ने हँसते हुए कहा,

    "मैंने नहीं, तुम्हारी मम्मा ने ही बनाया था… तुम्हें सिर्फ पटाना था मुझे!"



    Anshika खिलखिलाकर हँस पड़ी, लेकिन उसी पल उसके कानों में भारी कदमों की गूँज सुनाई दी। धूप में चमकती काली गाड़ियों का काफिला थोड़ा दूर आकर रुका था। और उसके बाद...



    एक आदमी निकला।

    काले सूट में, चेहरा हल्की मुस्कान में ढला हुआ, चाल में किसी राजा सा ठहराव और घमंड… चारों तरफ़ सशस्त्र बॉडीगार्ड्स ने उसे घेर रखा था, जैसे वह कोई बहुत बड़ा रसूखदार हो।



    Nandita की नजर जैसे ही उस आदमी पर पड़ी, उसके चेहरे का रंग उड़ गया।



    उसने झट से Anshika को अपनी गोद में खींच लिया और खुद को थोड़ा पीछे कर लिया — उसकी आंखों में डर और पहचान की झलक थी।



    Aarambh भी चौकन्ना हो गया। उसने फौरन अपने ईयरपीस में कुछ कहा।



    सिर्फ कुछ सेकेंड्स के भीतर, झाड़ियों से चार शार्प-ड्रेस्ड, trained bodyguards निकले, जिनका वहां होना अब तक किसी को पता भी नहीं चला था। उन्होंने फौरन Anshika और Nandita को आंतरिक घेरे में ले लिया।



    Atmosphere एकदम tense हो गया।



    Anshika ने मासूमियत से पूछा,

    "Daddy, ये Uncle कौन हैं? ये इतने सारे भैया लोगों के साथ क्यों आए हैं?"



    Aarambh ने कुछ नहीं कहा। उसकी आँखें सिर्फ उस आदमी पर थीं जो अब कुछ ही कदम की दूरी पर था —

    और फिर उसने रुककर बहुत शांत स्वर में कहा…



    "Kaise ho, Mrs. Aarambh Agnihotri… ya fir kehun… Nandita Singh Rathore?"



    ये सुनते ही नंदिता जैसे सुन्न हो गई।

    उसके हाथों की पकड़ Anshika पर कस गई… और Aarambh की सांस कुछ पल के लिए थमी।



    उसने धीरे से Anshika को पास बैठे बॉडीगार्ड को सौंपा और खुद Nandita के आगे खड़ा हो गया।



    "Naam lekar baat karna seekho... Sirf tumhari duniya mein log khामोश रहते हैं, meri duniya mein log jawab देना जानते हैं," Aarambh की आवाज़ गूंजती हुई सी निकली — वो शांत था, पर उसकी आँखें किसी भी खतरे के लिए तैयार थीं।



    वो आदमी मुस्कुराया… एक ठंडी, चालाक हँसी…



    "Toh aakhir mil hi गए tum dono… jinhें dhoondhne mein mere aadhe log lag gaye the…" .





    रुद्राक्ष सिंह राठौड़ के शब्द हवा में तैर रहे थे — "खून का रिश्ता आखिर खून का रिश्ता ही रहता है…"



    उसके ये बोल सुनते ही, नंदिता के चेहरे पर तमतमाहट दौड़ गई।

    उसने एक गहरी सांस ली, फिर बेहद सधे हुए अंदाज़ में अपनी बेटी Anshika को पास खड़े बॉडीगार्ड के हवाले किया और उसके माथे को चूमते हुए धीमे से बोली,

    "मामा बस दो मिनट में आएंगी… तुम यहीं रहना, कोई शरारत नहीं… समझीं?"



    Anshika ने मासूम आँखों से नज़रें उठाईं, माँ की आँखों में एक अलग ही चमक थी — डर और आत्मविश्वास की अजीब सी मिलावट।



    फिर नंदिता धीमे-धीमे, मगर पूरे आत्मगौरव के साथ उस आदमी की ओर बढ़ी, जो वहाँ एक राजा की तरह खड़ा था —

    और एक तेज़ झोंके की तरह, उसके ठीक सामने आकर रुकी।



    उसकी गहरी आँखों में अब ग़ुस्सा था, घृणा थी… और कहीं न कहीं, एक पुरानी कचोटती हुई टीस भी।



    "आप यहाँ क्या कर रहे हैं?"

    उसने तीखे स्वर में पूछा,

    "क्या आपको याद नहीं… कि अब हमारे बीच कुछ भी नहीं बचा?!"



    पर वो अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाई — उसका ग़ुस्सा जैसे गले में अटक गया, और वो बस अपनी मुट्ठी कसकर उसके चेहरे की तरफ़ देखने लगी।



    रुद्राक्ष हल्के से मुस्कुराया — जैसे किसी लंबे खेल का विजेता हो।



    "तुम्हारे कह देने से कोई रिश्ता खत्म नहीं हो जाता, Nandita।"

    उसने कहा,

    "खून का रिश्ता… कभी मिटाया नहीं जा सकता। तुम्हारी नज़रों में चाहे मैं जो भी हूँ, मगर मैं कौन हूँ — ये तुम्हारा दिल जानता है।"



    और तभी…



    Aarambh…

    जो अब तक सिर्फ़ हालात को परख रहा था, एक ही झटके में आगे बढ़ा —

    उसने नंदिता को अपनी ओर खींचा, उसका हाथ अपनी कमर के चारों ओर मजबूती से रखा और

    आँखें गड़ा दीं रुद्राक्ष की आँखों में।



    उसकी आवाज़ शांत थी, लेकिन हर शब्द आग उगल रहा था…



    "Mr. Rudraksh Singh Rathore…"

    "तुम अपनी हद पार कर रहे हो — और शायद भूल गए कि तुम किसके सामने खड़े हो। तुम इस वक्त Aarambh Agnihotri की बीवी से बात कर रहे हो — Mrs. Nandita Aarambh Agnihotri से। So… mind your language and behave yourself."



    रुद्राक्ष की मुस्कान अब फीकी पड़ने लगी थी…

    उसे अहसास हो गया था कि ये वही नंदिता नहीं रही — और Aarambh कोई मामूली आदमी नहीं।



    कुछ सेकेंड्स तक दोनों पुरुषों के बीच एक ख़ामोश जंग चली…

    आँखों में, हावभाव में, और इतिहास के उन अनकहे पन्नों में।



    नंदिता चुप खड़ी थी — उसका चेहरा सख़्त था, लेकिन भीतर उसकी साँसें बेतरतीब हो चुकी थीं।

    Aarambh की पकड़ उसके इर्दगिर्द कसती जा रही थी, जैसे कह रहा हो —

    "अब तुम अकेली नहीं हो।"



    और रुद्राक्ष…

    वो बस एक गहरी नज़र डालता है… और बिना कुछ

     कहे मुड़ जाता है।



    लेकिन जाते-जाते… वो कहता है —

    "तुम्हें लगता है ये कहानी खत्म हो गई है? नहीं… Nandita, असली कहानी अब शुरू होगी।"





    To be countinue 



    Don't forget to like share comment guy's 

    Kya hua readers aap logo ko story pasand nhi aa rahi h kya .. Jo readers kam ho rahe h way 

  • 14. A Love Contract - Chapter 14

    Words: 1663

    Estimated Reading Time: 10 min

    Love Contract 14

     रात का समय — Resort का प्राइवेट कॉटेज, चाँदनी से नहाया हुआ माहौल, हल्की सी ठंडी हवा...]

    Dinner तीनों ने मिलकर कर लिया था।
    अब, हल्की रौशनी में, Aarambh ने Anshika को अपनी गोद में उठा रखा था।
    वह उसे प्यार से थपकते हुए सुला रहा था, और दोनों के बीच सिर्फ नज़रों की, मुस्कानों की नर्म बातचीत चल रही थी।

    Anshika ने अपने छोटे-छोटे, आधे निकले दांतों को दिखाते हुए Aarambh की तरफ देखा और फुसफुसाई —
    "Daddy… mamma ko dekho ना… कितनी उदास लग रही हैं…
    क्या हम कुछ ऐसा करें, जिससे वह फिर से हँसने लगें?"

    Anshika की मासूम आवाज़ सुनकर Aarambh ने उसकी नन्हीं आँखों में झाँका, फिर एक मुस्कान के साथ जवाब दिया —
    "Princess, बात तो बिल्कुल सही कह रही हो…
    पर क्या तुम बता सकती हो कि हम ऐसा क्या करें, जिससे तुम्हारी mamma की मुस्कुराहट वापस आ जाए?"

    Aarambh की गंभीरता देख Anshika भी अचानक एकदम सीरियस हो गई —
    उसने अपने छोटे-छोटे हाथों से माथे पर टैप किया, जैसे वह भी किसी गहरी सोच में डूब गई हो।
    उसका ये छोटा-सा नाटक Aarambh के दिल को पूरी तरह पिघला रहा था।

    कुछ मिनटों तक सोचने का अभिनय करने के बाद, Anshika ने एकदम तेज आवाज़ में उछलते हुए कहा —
    "Daddy... IDEA!"

    उसकी आवाज़ इतनी तेज थी कि दूर बालकनी में खड़ी नंदिता भी चौंककर उनकी तरफ देखने लगी।
    उसकी भूरी आँखें सिकुड़ गईं — उसने हल्के गुस्से में नज़रों से इशारा किया जैसे कह रही हो — "क्या कर रहे हो?"

    यह देखकर Anshika ने तुरंत अपने दोनों छोटे हाथ अपने कानों पर रख लिए और भोलेपन से मुँह बनाकर बोली —
    "Sorry mamma… sorry… sorry..."
    फिर धीरे से Aarambh के सीने में छिप गई, जैसे कोई नन्हा guilty बच्चा हो।

    Aarambh उस वक्त अपनी नन्ही राजकुमारी को देख रहा था —
    उसकी मासूमियत, उसकी शरारतें, उसकी नटखट हरकतें…
    सब कुछ ऐसा था, जो दिल को एक साथ हंसी और प्यार से भर देता था।

    Aarambh ने झुककर उसके छोटे कानों के पास फुसफुसाया —
    "Princess, जल्दी बताओ, क्या idea है? हम अभी इसी वक्त उसे पूरा करेंगे!"

    Anshika ने मुस्कुराते हुए अपना मुंह Aarambh के कान के पास ले जाकर धीरे से कुछ फुसफुसाया।
    और जैसे ही उसने बात पूरी की —
    Aarambh की आँखों में चमक आ गई, और उसके होठों पर एक बड़ी-सी प्यारी मुस्कान फैल गई।

    दोनों — बाप और बेटी — conspirators की तरह मुस्कुराते रहे,
    जैसे कोई secret plan बना लिया हो,
    जिससे उनकी प्यारी नंदिता की उदासी को मिटाकर, फिर से उसकी हँसी वापस लाई जा सके।

    Nandita बालकनी में अकेली खड़ी थी।
    हवा उसके बालों से खेल रही थी, और उसकी आँखों में अनकहे दर्द की परछाइयाँ तैर रही थीं।

    तभी अचानक हल्की सी टिमटिमाती रौशनी उसके सामने जल उठी —
    छोटे-छोटे fairy lights से पूरा लॉन जगमगा उठा था।
    Nandita ने हैरानी से चारों तरफ देखा —
    और तभी सामने से Aarambh और Anshika आते दिखे।

    Anshika ने सफेद छोटी सी प्रिंसेस ड्रेस पहन रखी थी और Aarambh ने एक हल्की सी ब्लैक जैकेट।
    दोनों के हाथों में एक-एक छोटा सा गुलाब था।
    Aarambh झुककर Anshika से फुसफुसाया —
    "बस Princess, जैसे सिखाया था वैसे ही!"

    Anshika ने अपनी छोटी सी गर्दन हिलाई, फिर दोनों धीरे-धीरे Nandita के सामने आकर रुक गए।
    Nandita मुस्कुरा भी नहीं पा रही थी, उसकी आँखें आश्चर्य से भरी थीं।

    Anshika ने आगे बढ़कर अपना गुलाब नंदिता के हाथों में रखा और बोली —
    "Mamma… jab aap hanshti hain… to lagta hai jaise chand bhi zyada chamak raha ho..."

    उसकी भोली आवाज़ सुनकर Nandita की आँखें भीग गईं।

    फिर Aarambh ने अपना गुलाब नंदिता की दूसरी हथेली में रखा और बेहद गहरी, मोहब्बत भरी आवाज़ में कहा —
    "Aur jab aap rooth jaati hain… to poora aasman udaas ho jaata hai…"
    "Ham chaahte hain ki aaj raat sirf aapki muskaan chamke… aur poora aasman bhi..."

    Nandita अब खुद को रोक नहीं पाई —
    उसकी आँखों से आँसू निकल पड़े, लेकिन इस बार ये आँसू दर्द के नहीं थे, प्यार और खुशी के थे।

    फिर एक प्यारा सा music बजा — हल्का सा romantic सा soft tune।
    Aarambh ने Anshika का छोटा सा हाथ पकड़ा और दोनों ने मिलकर नंदिता के सामने एक छोटा-सा प्यारा सा नाच किया —
    जैसे कोई father-daughter fairy tale dance हो रहा हो!

    Anshika अपनी नन्हीं नन्हीं स्टेप्स में नाचती रही —
    कभी Aarambh की टांग पकड़कर घूमती, कभी उसके साथ घुमती, कभी खुद ही घूमकर अपने हाथ हवा में फैला देती।
    Aarambh भी झुककर, मुस्कुराकर, पूरे दिल से उसका साथ दे रहा था।

    वो सारा लॉन जैसे किसी सपने में बदल गया था —
    चाँदनी, गुलाब, नर्म हवा, और एक मासूम-सा डांस।

    Nandita हाथों में दोनों गुलाब थामे खड़ी थी —
    उसके होंठों पर वो खोई हुई मुस्कान लौट आई थी, जिसे Anshika और Aarambh इतनी शिद्दत से वापस लाना चाहते थे।

    डांस खत्म होते ही Anshika दौड़ती हुई नंदिता के पास आई, उसकी टाँगों से लिपट गई और बोली —
    "Mamma… ab aap muskuraayiye naa… pleaseee..."

    Aarambh भी धीरे से उसके पीछे आकर खड़ा हो गया, नर्म निगाहों से उसे देखते हुए।
    Nandita ने अपने दोनों हाथों से Anshika को गोद में उठा लिया, उसे सीने से भींच लिया और मुस्कुराते हुए उसके माथे को चूम लिया।

    फिर उसकी भीगी निगाहें Aarambh से टकराईं —
    जिसमें ना गुस्सा था, ना शिकायत — बस एक अनकहा शुक्रिया था… एक अनकहा प्यार।

    Aarambh ने हल्की सी मुस्कान के साथ अपना हाथ बढ़ाया —
    Nandita ने बिना हिचकिचाहट अपना हाथ उसके हाथ में रख दिया।

    तीनों — Aarambh, Nandita और Anshika — उस चाँदनी रात में एक खूबसूरत, टूटे दिलों को जोड़ने वाला पल जी रहे थे,
    जिसे शायद जिंदगी भर भूलना मुश्किल होता। 


    अंशिका की छोटी-छोटी प्यारी हरकतें देखकर,
    माहौल पूरी तरह से हल्का हो चुका था।

    नंदिता, जो कुछ समय पहले तक अपने बीते हुए दर्द और उदासी में डूबी थी, अब धीरे-धीरे उन सब बातों को भूलने लगी थी।
    उसकी नन्ही परी — अंशिका —
    जिस तरह खुद उसकी उदासी दूर करने के लिए इतनी मेहनत कर रही थी, उसे देखकर नंदिता के होंठों पर खुद-ब-खुद एक प्यारी मुस्कान आ गई थी।

    उसने एक झटके में अंशिका को अपनी गोद में उठा लिया,
    और उसके छोटे से चेहरे को चूमते हुए भरपूर मोहब्बत से कहा —
    "मेरा बेबी तो अब बिलकुल समझदार हो गया है!"

    नंदिता ने प्यार से उसकी नन्ही नाक पर अपनी नाक रगड़ी,
    जिससे अंशिका खिलखिलाकर हँसने लगी।
    उसकी हँसी पूरे कमरे में गूँज उठी, और नंदिता के चेहरे पर फैली मुस्कान और भी गहरी हो गई।

    फिर अंशिका अचानक नंदिता की गोद से फुर्ती से उतरी,
    तेज़ी से दौड़ती हुई आराम्भ की तरफ भागी,
    और उसके सामने पहुँचकर अपनी नन्हीं ऊँगली से इशारा करते हुए चहकते हुए बोली —

    "डैडी! मम्मा के होठों पर मुस्कान आ गई! हमारा प्लान कामयाब हो गया! हमारा आइडिया वर्क कर गया!"

    आराम्भ ने उसे झुककर अपनी बाँहों में समेट लिया,
    और उसकी जीत जैसी मुस्कुराहट को देखते हुए अपने दिल में एक अजीब-सी नर्म खुशी महसूस की।
    उसकी नन्ही बेटी ने आज सचमुच एक बिखरी दुनिया को फिर से मुस्कुराना सिखा दिया था।

    कुछ देर की मस्ती और शरारतों के बाद,
    आराम्भ की गोद में अंशिका गहरी नींद में सो चुकी थी।

    आराम्भ ने अपनी नन्ही परी को निहारा, फिर नजर घुमाकर नंदिता की तरफ देखा,
    जो अब भी बालकनी में खड़ी, खुले आसमान के नीचे टिमटिमाते तारों के बीच कहीं खोई हुई थी।

    आराम्भ ने गहरी साँस ली और उस बला की खूबसूरत लड़की को देखने लगा,
    जो अब उसकी पत्नी थी, उसके बच्चे की माँ थी।

    अपने दिल के भीतर उठते जज़्बातों को काबू में करते हुए, उसने नरम आवाज़ में कहा —
    "रात बहुत हो गई है... चलो, सो जाओ। सुबह हमें निकलना भी है।"

    आराम्भ की आवाज़ सुनकर, नंदिता ने बिना कोई बहस किए, चुपचाप उसकी बात मान ली और आगे-आगे चलने लगी।
    पीछे से आराम्भ, अपनी छोटी-सी प्रिंसेस को गोद में संभाले, उसके पीछे बढ़ा।

    रास्ते में चलते हुए, आराम्भ ने एक नजर अंशिका को देखा,
    जो गहरी नींद में थी — उसकी मासूमियत में डूबी हुई।
    एक ठंडी साँस छोड़ते हुए, अचानक उसके दिल से एक सवाल फिसल पड़ा —

    "कौन था वो शख्स...? और तुमसे इस तरह से क्यों बात कर रहा था, जैसे वो तुम्हें सालों से जानता हो?"

    आराम्भ ने सीधे और गंभीर लहजे में सवाल किया।
    उसकी आवाज में हल्का-सा कड़वापन था, जो उसे खुद भी महसूस हुआ।

    उसका सवाल सुनकर, नंदिता के होंठों पर एक व्यंग्यात्मक मुस्कान तैर गई।
    उसने बिना कोई झिझक के जवाब दिया —

    "मिस्टर अग्निहोत्री, हमारे कॉन्ट्रैक्ट में यह बात तो कहीं मेंशन नहीं थी कि मुझे आपसे अपनी हर बीती बात साझा करनी होगी।
    और रही बात कॉन्ट्रैक्ट की, तो शायद आप भूल रहे हैं कि..."

    वो अपनी बात अधूरी छोड़ते हुए, हल्के से सिर झटक कर उसे तीखी नजरों से देखने लगी।
    उसकी आँखों में वो ज्वाला थी, जो अभी कुछ देर पहले अजनबी शख्स के ज़िक्र से जागी थी।

    उसे इस तरह चुपचाप और गुस्से में देख,
    आराम्भ ने गहरी साँस ली और नरम पर तीखे शब्दों में कहा —

    "मुझे पता है कॉन्ट्रैक्ट में क्या लिखा था और कितने दिनों का था।
    लेकिन शायद तुम भूल रही हो, जिस लहजे में तुम मुझसे बात कर रही हो, वो कॉन्ट्रैक्ट की 'ड्रामा कंडीशन' में कहीं नहीं थी।
    अगर तुम्हें याद नहीं, तो चिंता मत करो... मैं कल ही अपने असिस्टेंट से कहकर तुम्हें फिर से कॉन्ट्रैक्ट की टर्म्स एंड कंडीशन्स याद दिला दूँगा।"

    आराम्भ ने शांत पर सख्त लहजे में कहा।
    तब तक दोनों बातें करते हुए कमरे तक पहुँच चुके थे।

    आराम्भ ने अंशिका को प्यार से बीचों-बीच बिस्तर पर लिटा दिया,
    और खुद बाथरूम की तरफ बढ़ गया।

    वहीं, नंदिता ने उसकी कही बातों को पूरी तरह नज़रअंदाज़ करते हुए,
    उसे एक बार देखने की भी जहमत नहीं उठाई।
    वो चुपचाप अंशिका के पास लेटी,
    उसे अपनी बाँहों में समेट लिया,
    और अपनी आँखें बंद कर लीं...
    जैसे पूरे जहान से बस अपनी नन्हीं दुनिया को बचाकर रखना चाहती हो।
     
    To be countinue 

    Don't forget to like share comment guy's 

  • 15. A Love Contract - Chapter 15

    Words: 2735

    Estimated Reading Time: 17 min

    Love Contract 15




    बाथरूम से लौटकर आराम्भ कमरे में आया।
    हल्की-हल्की रौशनी में उसकी नज़र सीधे बिस्तर पर गई,
    जहाँ नंदिता गहरी नींद में सोई हुई थी।

    उसके चेहरे पर थकावट साफ झलक रही थी —
    आँखों के किनारों पर हलकी सी थकान की परछाई,
    माथे पर अनजाना-सा शिकन,
    और होंठों पर एक बेमन मुस्कान टिक गई थी, जैसे दिनभर की जद्दोजहद के बाद वो खुद से भी हार गई हो।

    आराम्भ ने दरवाज़ा धीरे से बंद किया,
    और कुछ पल वहीं खड़ा होकर उसे निहारता रहा।

    गहरी साँस लेते हुए, उसके दिल में अजीब सी कसक उठी —
    ये वही लड़की थी जो दिनभर अपने दर्द को छुपाकर मुस्कुराती रही थी,
    जिसने अपनी नन्ही-सी परी के चेहरे पर हँसी लाने के लिए खुद को पूरी तरह भुला दिया था।

    बिना कोई आवाज़ किए,
    आराम्भ धीरे से बिस्तर की दूसरी तरफ जाकर लेट गया।

    उसकी नज़रें अब भी नंदिता के चेहरे पर टिकी थीं।
    एक अनकहा सुकून और एक अनजानी बेचैनी दोनों साथ-साथ दिल में उतर रहे थे।

    उसने तकिए पर सिर टिकाया,
    और आँखें मूँद लीं,
    लेकिन नींद उसके करीब नहीं आई।

    कमरे की खामोशी में,
    सिर्फ दिल की धड़कनें गूंज रही थीं —
    धीमी, बोझिल और एक दूसरे को अनकहे सवालों में घेरती हुईं।


    कमरे में गहरा सन्नाटा पसरा हुआ था।
    हल्की-हल्की हवा पर्दों को सहला रही थी, और चाँदनी बिस्तर पर चुपचाप उतर आई थी।

    आराम्भ चुपचाप बिस्तर पर लेटा था,
    पर उसकी आँखों में अब भी नींद नहीं थी।
    उसकी नज़रें नंदिता के बाद अब अपनी नन्ही परी अनषिका पर टिक गईं थीं,
    जो उसके बिल्कुल पास सोई हुई थी —
    अपनी छोटी-छोटी हथेलियाँ फैलाए, गोद में जैसे पूरा आसमान समेट लेना चाहती हो।

    तभी...
    आधी रात के उस नर्म सन्नाटे को अनषिका की धीमी-धीमी बड़बड़ाहट ने तोड़ दिया।

    "अब मेरे पास मेरे पापा हैं..."
    उसकी मासूम आवाज़, नींद में भी, काँप रही थी।

    आराम्भ का दिल धड़कना भूल गया।
    वो चौंककर थोड़ा सा आगे झुका,
    और ध्यान से उसकी नन्ही-नन्ही फुसफुसाहट को सुनने लगा।

    "अब मैं उन्हें कहीं जाने नहीं दूंगी..."
    अनषिका की आवाज़ भीगी हुई थी।
    उसके चेहरे पर एक मासूम सा डर था,
    जैसे खो जाने के डर से उसने अपने छोटे हाथों से तकिये को कसकर पकड़ लिया हो।

    आराम्भ का गला भींचने लगा।
    उसकी साँसें भारी हो गईं।
    उसकी बेटी, जो अभी शब्दों का सही मतलब भी नहीं जानती थी,
    इतना गहरा डर अपने भीतर समेटे सो रही थी —
    खोने का डर, अकेले छूट जाने का डर... पापा को फिर से खो देने का डर।

    "पापा... वादा करो...
    अब मुझे कभी छोड़कर नहीं जाओगे..."
    अनषिका के मासूम शब्द तीर बनकर आरम्भ के दिल में उतरते चले गए।

    आराम्भ की आँखों के कोनों में नमी तैर आई थी।
    उसने काँपते हाथों से अनषिका के सिर पर धीरे से हाथ फेरा,
    जैसे उसे यकीन दिलाना चाहता हो कि वह यहीं है,
    हमेशा रहेगा...
    कभी कहीं नहीं जाएगा।

    वो अब खुद को भीतर से टूटता हुआ महसूस कर रहा था।
    पछतावे की एक तेज़ लहर उसके सीने में उठी —
    कितनी बार उसने इस नन्ही जान को अनजाने में अनदेखा किया था,
    कितनी बार अपनी लड़ाइयों में इसकी मासूम भावनाओं को अनसुना कर दिया था।

    आज पहली बार आरम्भ को अपनी सबसे बड़ी गलती का एहसास हो रहा था।

    वो धीमे से झुका,
    और अनषिका के माथे को चूमते हुए फुसफुसाया:

    "मैं वादा करता हूँ, मेरी राजकुमारी...
    अब कभी तुझे अकेला नहीं छोड़ूँगा।
    तेरे हर सपने की हिफाज़त करूँगा।
    पापा अब हमेशा तेरे साथ रहेंगे... हमेशा।"

    आराम्भ ने उसे अपनी बाहों में भर लिया,
    और आँखें बंद कर लीं —
    एक नई कसम, एक नई ज़िम्मेदारी और टूटते पछतावे के बीच
    वह खुद से एक गहरा वादा कर रहा था।

    चाँदनी खिड़की से झाँकती रही —
    दो टूटे हुए दिल आज फिर एक नई डोर में बंध गए थे।
    अगली सुबह , 

    हल्की-हल्की धूप खिड़की से छनकर कमरे में उतर रही थी।
    सुबह की नर्मी में एक अजीब सी शांति पसरी थी —
    जैसे पूरी कायनात भी कुछ पल के लिए थम गई हो।

    छोटी सी अनषिका की पलकों में हलचल हुई।
    उसने धीरे-धीरे आँखें खोलीं,
    और खुद को आराम्भ के चौड़े सीने पर सोया हुआ पाया।

    उसने सिर थोड़ा ऊपर उठाया,
    तो देखा —
    आराम्भ ने अपने एक मजबूत बाजू से उसे थाम रखा था,
    जबकि दूसरे हाथ से नंदिता को भी सीने से भींचे हुए था।

    तीनों एक साथ...
    जैसे कोई अधूरी तस्वीर अब पूरी हो गई हो।

    आराम्भ और नंदिता के चेहरों पर एक अलग ही सुकून था —
    कोई तनाव नहीं, कोई डर नहीं,
    सिर्फ एक नर्म मुस्कान और गहरी शांति।

    अनषिका ने कुछ पल उन्हें देखा।
    उसकी छोटी-छोटी आँखों में चमक उभर आई।
    उसके नन्हे होठों पर एक शरारती मुस्कान तैरने लगी —
    जैसे कोई छोटा सा ख्वाब सच होते देख लिया हो।

    वो धीरे से कुचली,
    पर कोई हलचल न होती देख,
    वो वापस आरम्भ के सीने पर सिर टिकाकर आँखें मूँद गई।
    अब उसके दिल को तसल्ली मिल चुकी थी —
    अब उसके पापा भी थे,
    उसकी मम्मा भी,
    और उसकी छोटी सी दुनिया भी पूरी थी।

    कमरे में सिर्फ धूप का सुनहरा उजाला था,
    और एक छोटे से परिवार की मुकम्मल ख़ामोशियाँ —
    जिन्हें शब्दों की ज़रूरत नहीं थी।


    अनषिका ने अपनी बंद पलकों को धीरे-धीरे खोला।
    जैसे ही उसने होश सँभाला, एकदम से चंचलता उसके नन्हे से शरीर में समा गई।

    एक झटके से वह बिस्तर से नीचे कूदी।
    उसके छोटे-छोटे कदम — कछुए जैसे धीमे और मासूम —
    मगर नज़रों में एक अलग ही चमक थी,
    जैसे कोई बड़ा सा मिशन पूरा करना हो।

    धीरे-धीरे सरकती हुई,
    वह कमरे के एक कोने में रखे ड्रेसिंग टेबल तक पहुँची।
    वहाँ पहुँचकर उसने बड़े गर्व से अपनी नन्ही उँगलियों से एक काजल और एक लिपस्टिक उठा ली।

    उसकी आँखें अब और भी चमक उठीं,
    चेहरे पर शैतानी मुस्कान फैल गई —
    जैसे कोई बहुत बड़ी प्लानिंग कर रखी हो।

    पीछे बिस्तर पर सोए हुए आरम्भ और नंदिता —
    दोनों अब भी गहरी नींद में थे,
    बेखबर, अंजान,
    कि उनकी इस प्यारी सी नन्ही राजकुमारी के दिमाग में क्या तूफ़ान उमड़ रहा है।

    किसी को भनक तक नहीं थी कि अगले कुछ ही पलों में
    उनकी सुबह कैसे यादगार बनने वाली थी —
    एक ऐसी शरारत जो शायद उम्रभर हँसी बनकर याद रहे।

    कमरे की हवा में अब मासूम शैतानी घुल चुकी थी —
    और छोटी सी अनषिका के नन्हे कदम अब चुपके-चुपके
    अपने मम्मी-पापा की ओर बढ़ रहे थे...

    छोटी-सी अनषिका अपने नन्हे हाथों में काजल और लिपस्टिक लेकर चुपचाप बिस्तर की तरफ बढ़ी।
    उसकी आँखों में अब एक अलग ही चमक थी — जैसे कोई गुप्त मिशन शुरू हो चुका हो!

    सबसे पहले उसने अपने शिकार चुने —
    पहले आरम्भ, फिर नंदिता।

    आरम्भ के चेहरे पर उसने लिपस्टिक से बड़ी-बड़ी मोटी मूंछें बना दीं,
    जैसे कोई पुराने ज़माने का डरावना डॉन हो।

    फिर उसके पूरे माथे पर काजल से बड़े-बड़े घेरे बनाते हुए,
    उसे ऐसा लुक दे दिया,
    जैसे किसी फिल्म का भूतिया किरदार हो —
    जो अभी उठकर 'हहहह' करता हुआ डराने आ जाएगा!

    अब बारी थी नंदिता की —
    उसने पूरे मन से नंदिता की नाक पर लाल रंग की मोटी बिंदी बना दी,
    गालों पर दोनों तरफ से लिपस्टिक के बड़े-बड़े गोल धब्बे बना दिए,
    और उनकी दोनों भौंहों को जोड़कर एक सीधी लाइन खींच दी।

    अब बिस्तर पर सोते हुए —
    एक तरफ डॉन आरम्भ और दूसरी तरफ जोकरनुमा नंदिता —
    दोनों के चेहरे इतने भयानक और मजेदार हो गए थे
    कि खुद अनषिका भी अपने नन्हे हाथों से मुँह छुपाकर हँसी रोकने की नाकाम कोशिश करने लगी।

    उसने हँसी रोकते-रोकते पेट पकड़ लिया,
    और बिस्तर के किनारे बैठकर गोल-गोल घूमती रही।

    पूरा कमरा अब उसके शरारती ठहाकों से गूंजने लगा था।

    मगर आरम्भ और नंदिता अभी भी बेखबर थे —
    बिलकुल किसी टूटी-फूटी कलाकृति की तरह सोते हुए!

    जैसे ही कोई हिलेगा या उठेगा,
    पूरा तमाशा सामने आने वाला था —
    और तब शायद असली धमाका होना था!


    सुबह की हल्की-सी किरणें कमरे में चुपचाप दस्तक दे रही थीं।
    आरम्भ की पलकें धीरे-धीरे फड़फड़ाईं और वह हल्की नींद से जागा।
    उसने पास ही सोई नंदिता को देखा और उसके चेहरे पर मुस्कुराहट आ गई।

    Aarambh (हल्की हँसी दबाते हुए):
    "हाहाहा... नंदिता... तुम... तुम इतनी अलग क्यों लग रही हो आज?"

    उसकी हँसी थोड़ी और गहरी हो गई थी, लेकिन कुछ समझ नहीं पा रहा था।

    इतने में नंदिता ने भी कुनमुनाते हुए आँखें खोलीं।
    उसने सामने आरम्भ को देखा —
    और फिर उसके होठों पर एक चुभती हुई मुस्कान फैल गई।

    Nandita (हँसी दबाते हुए, आँखें मटकाते हुए):
    "हाहाहा... आरम्भ! ये तुम्हारा चेहरा... हाहाहा... कौनसा नया फेशियल करवाया है तुमने?"

    आरम्भ ने हैरानी से खुद को छूने की कोशिश की,
    वहीँ नंदिता के गाल फड़क रहे थे हँसी रोकने के चक्कर में।

    दोनों कुछ सेकंड तक यूँ ही एक-दूसरे को देख हँसते रहे,
    जैसे सबकुछ बेहद फनी हो।

    फिर अचानक दोनों ने लगभग एकसाथ पूछा:

    Nandita (संजीदा होकर):
    "वैसे... तुम हँस क्यों रहे हो?"

    Aarambh (भौंहे चढ़ाकर):
    "अरे... पहले तुम बताओ... तुम क्यों हँस रही हो?"

    अब दोनों के चेहरे से हँसी गायब होने लगी थी।
    अजीब-सा शक उनके चेहरे पर फैलने लगा।

    धीरे-धीरे दोनों ने पास ही लगे आइने की तरफ नज़र डाली —
    और जैसे ही उनकी नज़र आईने में अपने और एक-दूसरे के अजीबो-गरीब चेहरे पर पड़ी —

    "आआआआआआह्ह्ह्ह्ह!!!"

    एक जोरदार चिल्लाहट कमरे में गूंज उठी।
    नंदिता ने अपने चेहरे को दोनों हाथों से ढक लिया,
    और आरम्भ उल्टे पाँव पीछे हट गया जैसे किसी भूत को देख लिया हो!

    Nandita (हकबकाकर, आँखें फाड़ते हुए):
    "हे भगवान! मेरे चेहरे पर ये क्या हो गया!"

    Aarambh (सदमे में, माथा पकड़ते हुए):
    "मैं तो डर के मारे अपना नाम ही भूल गया!"

    दोनों बुरी तरह घबराए हुए,
    एक-दूसरे को और खुद को देखकर जोर-जोर से चिल्ला रहे थे —
    और तभी...

    धीरे-धीरे पलंग के कोने से एक छोटी-सी प्यारी आवाज़ आई,
    जो अपनी हँसी को छुपाने की असफल कोशिश कर रही थी।

    छोटू सी आवाज़ — किककिक... किककिककिक...

    दोनों ने चौंककर नीचे देखा —
    वहाँ बैठी थी नन्ही-सी अनशिका,
    अपने दोनों हाथ मुँह पर रखे,
    आँखों में चमक और चेहरे पर शरारत भरी मुस्कान के साथ।

    Anshika (हँसते हुए, किककिकाते हुए):
    "मम्मा-पापा... आप लोग बहुत फनी लग रहे हो!
    मैंने आपको और भी सुंदर बना दिया!!"

    उसकी भोली मुस्कान और चमकती आँखों को देखकर,
    नंदिता और आरम्भ एक पल को सारा गुस्सा भूल गए।

    Nandita (हँसी रोकते हुए, आँखों में प्यार से):
    "अरे बाप रे! ये नन्ही तो निकली सबसे बड़ी शैतान!"

    Aarambh (हँसते हुए, आंख दबाकर):
    "लगता है अब इस शैतान परी से बचना मुश्किल है!"

    अनशिका अब कूदते-कूदते उनके बीच आ गई,
    और दोनों को कसकर गले लगा लिया।

    उसके छोटे-छोटे हाथों की गरमाहट महसूस करते हुए,
    नंदिता और आरम्भ के चेहरे पर
    सिर्फ और सिर्फ एक ही चीज़ थी —
    बेहद गहरी, सच्ची मुस्कान।

    कमरे में अब शरारत, प्यार और मुस्कानों की एक नई सुबह खिल चुकी थी।


    आरम्भ और नंदिता अब भी अपने-अपने चेहरे को देख-देख कर
    हैरान हो रहे थे।
    काजल, लिपस्टिक, और अजीब-अजीब डैसाइनों से सजी उनकी शक्लें
    ऐसी लग रही थीं जैसे कोई जंगल के योद्धा हों।

    Nandita (तेज़ी से पलंग से उठते हुए):
    "आरम्भ! हमें जल्दी से अपने चेहरे धोने होंगे!
    वरना खुद को देख-देखकर हार्ट अटैक आ जाएगा!"

    Aarambh (चेहरे पर बनावटी गंभीरता लाते हुए):
    "हाँ... और अगर बाहर कोई देख लेता, तो
    समझ लेता कि हम हॉरर फिल्म की शूटिंग से निकले हैं!"

    दोनों हड़बड़ाते हुए बाथरूम की तरफ भागे।
    लेकिन किस्मत को तो और मसखरी करनी थी।

    दरवाज़ा खोलते ही
    'ठपाक!'
    दोनों एक-दूसरे से टकरा गए!

    Nandita (नाक सहलाते हुए):
    "आरम्भ! थोड़ा देखकर!"

    Aarambh (हँसी रोकते हुए, झुकते हुए):
    "तुम्हारा चेहरा देखकर तो आँखें भी डर से बंद हो गई हैं!"

    नंदिता ने गुस्से में अपनी आँखें तरेरीं,
    पर फिर खुद भी अपनी हालत सोचकर हँस दी।

    वे जैसे-तैसे अंदर पहुँचे,
    और शॉवर ऑन कर दिया।

    जैसे ही पानी गिरा —
    उनके चेहरे से रंग-बिरंगी स्याही की धाराएँ बहने लगीं।

    Aarambh (शॉवर के नीचे आँखें मींचते हुए):
    "ओह्हह्ह!
    लगता है मैंने सारी वॉटर कलर पेंटिंग अपने ऊपर कर ली है!"

    Nandita (हँसते हुए, बालों से पानी झटकते हुए):
    "और मैं तो लग रही हूँ जैसे होली खेलकर आई हूँ,
    वो भी बिना रंग खरीदे!"

    दोनों एक-दूसरे के सिर से, गाल से, नाक से
    काजल और लिपस्टिक हटाने लगे,
    लेकिन जैसे-जैसे मलते, वैसा-वैसा
    चेहरे पर नए अजीब-अजीब डिजाइन बन जाते।

    Nandita (हँसी रोकते हुए, हाथ रोककर बोलती है):
    "बस करो! वरना Picasso भी तुम्हें देखकर शरमा जाएगा!"

    Aarambh (भौहें चढ़ाते हुए, पानी में बाल पीछे करते हुए):
    "मैं तो सोच रहा हूँ,
    इस अनशिका को कलर बॉक्स गिफ्ट कर दूँ —
    'टैलेंटेड आर्टिस्ट' अवार्ड के साथ!"

    नंदिता हँसी से लोटपोट हो गई।
    उसने एक मग पानी भरकर सीधे आरम्भ के ऊपर फेंक दिया।

    'छप्पड़छप्पड़छप्पड़!'

    Aarambh (चौंककर, कड़क आवाज़ में):
    "अरे ओ धोबीघाट की महारानी!
    थोड़ा रहम भी कर लो ना!"

    Nandita (नाक सिकोड़ते हुए, मज़ाकिया लहजे में):
    "जो होली खेलता है, वो भीगने से नहीं डरता, साहब!"

    और फिर दोनों बच्चों की तरह शॉवर के नीचे नाचते हुए,
    कभी मग से पानी उड़ेलते, कभी एक-दूसरे पर छींटे मारते
    हँसी के फव्वारे बनाते रहे।

    थोड़ी देर बाद जब सारा काजल-लिपस्टिक हट चुका था,
    तो दोनों थककर दीवार के सहारे टिक गए,
    साँसें फुली हुईं और आँखों में चमक।

    Aarambh (मुस्कुराते हुए, हल्की सांसों में):
    "क्या सुबह है... और क्या आर्टिस्टिक शुरुआत!"

    Nandita (हँसते हुए, आँखों में नमी और हँसी एकसाथ लिए):
    "सबसे यादगार... और सबसे शैतानी भरी!"

    शॉवर के नीचे से गिरती पानी की बूँदें,
    उनके प्यार और मस्ती की गवाह बन रही थीं।

    कमरे से बाहर अनशिका दरवाज़े के पास खड़ी थी,
    हाथ में तौलिया लिए, और अपने प्यारे से नन्हे चेहरे पर
    शरारती मुस्कान के साथ बोल रही थी:

    Anshika (किलकारी मारते हुए):
    "मम्मा-पापा! आप लोग भी बच्चे बन गए क्या?"और फिर उसकी प्यारी सी हँसी,
    सारे jagah में गूंज उठी। 


    आरम्भ और नंदिता अभी भी शॉवर के नीचे
    एक-दूसरे का चेहरा साफ कर रहे थे,
    हँसी और शरारतों में भीगे हुए।
    पानी की बूँदें उनके बालों से फिसलती हुई गालों पर आ रही थीं,
    और मुस्कान उनकी आँखों तक फैली थी।

    तभी दरवाज़े के पास खड़ी नन्हीं अनशिका
    अपना छोटा सा तौलिया लिए खिखियाती हुई बोली:

    Anshika (मूँह बनाते हुए):
    "मम्मा! पापा!
    मुझे भी नहाना है... आप लोग मस्ती कर रहे हो मुझे बिना बुलाए!"

    नंदिता और आरम्भ एक पल के लिए एक-दूसरे को देखे,
    और फिर एक ज़ोरदार ठहाका लगाते हुए बोले:

    Nandita (हाथ फैलाते हुए):
    "आ जा राजकुमारी!
    तेरा भी वेलकम है इस पानी की दुनिया में!"

    अनशिका तौलिया एक तरफ फेंक कर दौड़ती हुई आई,
    और शॉवर के नीचे आकर एकदम से चिल्ला उठी:

    Anshika (ठिठुरते हुए, आँखें बंद करते हुए):
    "ऊईईई ठंडा ठंडा पानी!"

    Aarambh (हँसते हुए, उसके गालों पर पानी के छींटे मारते हुए):
    "अरे नहीं, ये तो गर्मजोशी वाला शॉवर है!"

    Nandita (अनशिका के भीगे बालों को सहलाते हुए):
    "अब बन गई हमारी नन्हीं जलपरी!"

    तीनों शॉवर के नीचे
    एक दूसरे पर पानी के छींटे मारते,
    हँसते, गिरते-पड़ते,
    कभी मग से पानी भर-भर के एक-दूसरे पर उड़ेलते
    खूब धमाचौकड़ी मचाने लगे।

    Anshika (पानी से खेलते हुए, शरारती आँखों से):
    "पापा! अब मेरी बारी!"
    और फिर उसने मग भरकर आरम्भ पर पूरा उड़ेल दिया।

    Aarambh (भीगते हुए, बनावटी गुस्से में):
    "ओहो! अब तो युद्ध छिड़ गया!"

    Nandita (हँसते-हँसते, अनशिका को पकड़ने की कोशिश करते हुए):
    "पकड़ो इस छोटी सी चूहिया को!"

    अनशिका फिसलती, भागती, खिलखिलाती
    बाथरूम में इधर से उधर दौड़ती रही,
    और आरम्भ-नंदिता उसे पकड़ने की कोशिश में
    आपस में ही टकरा जाते।

    'धप्प!'

    तीनों एक साथ गिर पड़े —
    आरम्भ नीचे, उसके ऊपर नंदिता, और सबसे ऊपर अनशिका!
    और तीनों की हँसी थमने का नाम ही नहीं ले रही थी।

    Anshika (हँसते-हँसते, पापा के गाल पर छोटी सी चपत मारते हुए):
    "पापा तो गद्दा बन गए!"

    Aarambh (आँखें नचाते हुए, मजाक में):
    "हां बेटा, अब तो मैं भी सॉफ्ट गद्दा बन गया हूँ!"

    Nandita (हँसते-हँसते, आँखे चमकाते हुए):
    "अब तीनों गीले गद्दे एक साथ वॉशिंग मशीन में चले जाएं क्या?"

    तीनों फिर से हँसने लगे।
    शॉवर से गिरती पानी की बूँदों के बीच,
    तीनों की मासूमियत, प्यार और अपनापन
    साफ चमक रहा था।

    थोड़ी देर मस्ती के बाद नंदिता ने अनशिका को गोद में उठाया,
    उसके भीगे बालों से पानी निचोड़ते हुए बोली:

    Nandita (प्यारे से मुस्कराते हुए):
    "चल मेरी राजकुमारी, अब तुझे फूल की तरह साफ करके तैयार करते हैं!"

    Anshika (हँसते हुए, बाहें फैलाते हुए):
    "थोड़ा और नहाते ना मम्मा-पापा!
    बहुत मज़ा आ रहा है!"

    Aarambh (नकली सोचते हुए अंदाज़ में):
    "हमारी छुटकी तो पूरी पानी की रानी निकली!"

    तीनों फिर से खिलखिलाते हुए
    धीरे-धीरे शॉवर बंद कर देते हैं।
    बाथरूम की दीवारों पर अब भी उनकी हँसी की गूँज बाकी थी।


    To be countinue 

    Don't forget to like share comment guy's 

  • 16. A Love Contract - Chapter 16

    Words: 1830

    Estimated Reading Time: 11 min

    Love Contract 16

    हेलो गाइज मैं आप लोगों की राइटर कुमकुम अनुरागी आशा है आप लोग खुश होंगे स्वस्थ होंगे । तो जैसा कि स्टोरी पर आप को क्लियर नहीं है । जो भी सारी चीजें वो जल्दी ही आने वाले चैप्टर पर क्लियर हो जाएगी। आरंभ क्यों नंदिता को छोड़ कर गया । उन दोनों के वन नाइट स्टैंड के पीछे कौन था क्या वजह थी । एवरीथिंग सब आप लोगों को पता चल जाएगा आने वाले चैप्टर पर बस आप लोग सब्र कीजिए। सब को सब चीज सही वक्त पर ही पता चलेगी। 



    अब चलिए कहानी पर आते है ....



    Agnihotri Mantion,



     दोपहर का समय 



    दोपहर की नर्म धूप

    आग्निहोत्री हवेली के गलियारों से छनकर अंदर आ रही थी।

    सारा माहौल एक अजीब सी नमी और अपनत्व से भीगा हुआ था।



    आरम्भ, नंदिता और अनशिका — तीनों हवेली में लौट आए थे।

    उनकी वापसी की खबर अब दादी माँ तक भी पहुँच चुकी थी।



    दादी माँ, अपने बड़े से आरामदायक झूले नुमा सोफे पर बैठी थीं।

    उनकी गोद में नन्ही सी, गुलाब जैसी अनशिका आराम से बैठी थी।

    दादी माँ के चेहरे पर गहरा सुकून था, और आँखों में वही ममता छलक रही थी

    जो एक लम्बे समय से किसी अपने के इंतजार में छुपी हुई थी।



    अनशिका ने मासूमियत भरी आँखों से दादी माँ की ओर देखा —

    उनकी झुर्रियों भरी हथेली को नन्हे हाथों से सहलाते हुए।



    Anshika (धीरे से, मासूम आवाज़ में):

    "दादी माँ,

    आपको पता है?

    मैं, मम्मा और पापा... तीनों पानी में खूब मस्ती किए!"



    दादी माँ की आँखों में एक पल के लिए नमी तैर गई।

    वो अपने पोते और नातिन को यूँ अपने पास देख

    जैसे बरसों बाद सूखे बग़ीचे में फूल खिल आए हों।



    Dadi Maa (हल्के हँसते हुए, प्यार से गाल थपथपाते हुए):

    "अच्छा...!

    तो मेरी नन्ही परी ने शैतानी भी की?"



    अनशिका ने शरमाते हुए गर्दन झुका ली,

    लेकिन फिर अचानक शरारती मुस्कान उसके चेहरे पर दौड़ गई।



    Anshika (कनखियों से देखते हुए):

    "थोड़ी सी!

    बस... मम्मा-पापा को गीला कर दिया!"



    पास ही खड़े कुछ सर्वेंट्स भी इस नन्हे से किस्से पर मुस्कुरा उठे थे।

    हवेली के बड़े से ड्राइंग रूम में

    फिर से रौनक लौट आई थी —

    जो जाने कब से ग़ायब थी।



    वहीं, थोड़ा दूरी पर आरम्भ और नंदिता खड़े थे।

    दोनों एक-दूसरे को देख रहे थे —

    उनकी आँखों में हल्की सी शर्मिंदगी थी,

    तो वहीं दिल के किसी कोने में एक शांत मुस्कान भी।



    Aarambh ka kamra , 





    कमरे का दरवाज़ा चुपचाप बंद हुआ।

    हल्की धूप पर्दों से छनकर अंदर आ रही थी,

    लेकिन कमरे के माहौल पर एक अजीब सी उदासी छाई थी।



    आरम्भ और नंदिता — दोनों सूखे कपड़ों में थे,

    लेकिन उनके चेहरों पर थकी थकी बेचैनी साफ झलक रही थी।



    आरम्भ ने गहरी साँस ली,

    जैसे खुद को संभालने की कोशिश कर रहा हो।

    फिर धीरे से नंदिता की तरफ बढ़ा,

    जो चुपचाप सिर झुकाए खड़ी थी।



    Aarambh (धीमे, टूटे हुए स्वर में):

    "नंदिता...

    मैं जानता हूँ...

    मुझे तुम्हें इस तरह अकेला नहीं छोड़ना चाहिए था।

    मैं... माफ़ी चाहता हूँ।"



    नंदिता,

    जो अपने सूखे बालों को उँगलियों से सुलझा रही थी,

    एक झटके में पलटी।

    उसकी आँखों में अब भी एक नमी थी —

    जो गुस्से और दुख के बीच जूझ रही थी।



    Nandita (तेज आवाज में, तिरछी नजर से देखते हुए):

    "माफ़ी...?

    आरम्भ, तुम्हारी माफ़ियाँ अब बोझ बन गई हैं।

    हर बार कोई वजह...

    हर बार कोई मजबूरी...

    पर मेरी परवाह?

    कभी सच में की भी है?"



    आरम्भ के चेहरे की रेखाएँ कस गईं।

    उसके हाथ बेसब्र से हिले,

    जैसे कुछ कहने को बेताब हों,

    पर शब्दों ने जैसे साथ छोड़ दिया।



    Aarambh (धीमे स्वर में, आँखें नीची करते हुए):

    "मैं मजबूर था, नंदिता।

    पर मेरा दिल... मेरी नीयत... तुम्हारे लिए ही थी।"



    Nandita (हँसते हुए, पर आँखों में कटुता के साथ):

    "नीयत?

    नीयत से कोई फर्क नहीं पड़ता, आरम्भ...

    जब कोई तुम्हारे साथ नहीं खड़ा होता।"



    अब उनके बीच का फासला घटते-घटते

    सिर्फ कुछ कदमों का रह गया था।

    दोनों के बीच

    ना कोई पानी, ना कोई भीगे कपड़े...

    बस भीगे जज़्बात थे,

    टूटती उम्मीदें थीं।



    Aarambh (धीरे से, उसकी कलाई थामते हुए):

    "नंदिता,

    मैंने गलती की है,

    लेकिन मैं तुम्हें खो नहीं सकता।"



    नंदिता ने नज़रें चुराने की कोशिश नहीं की,

    पर उसकी आँखों में तड़पती नमी साफ दिख रही थी।

    वो खुद को भी रोक नहीं पा रही थी —

    उसका गुस्सा, उसकी टीस, उसका टूटना — सब आँखों से झाँक रहा था।



    कमरे में बस हलकी धड़कनों की आवाज थी —

    और उन दो धड़कनों के बीच की लड़ाई।



    कमरे की दीवारें भी उस पल जैसे साँस रोककर खड़ी थीं।

    आरम्भ चुपचाप सामने खड़ा था —

    चेहरे पर शर्मिंदगी और आँखों में घना पछतावा लिए हुए।

    वहीं, नंदिता...

    अपने अंदर जमी आग को किसी तरह काबू करने की कोशिश कर रही थी।

    लेकिन जब दिल में दफ़न जख्म फटते हैं,

    तो शब्द बनकर छलक ही पड़ते हैं।



    नंदिता ने अपनी तेज़ धड़कनों को जैसे-तैसे काबू में करते हुए

    हथेलियाँ भींचीं,

    चेहरा आंसुओं से भीग चुका था,

    गला भरा हुआ था, फिर भी आवाज़ में पत्थर जैसी सख्ती थी।



    Nandita (काँपती आवाज में, उसे देखते हुए):

    "पाँच साल पहले जो हुआ...

    आज उसके लिए आप माफ़ी माँग रहे हैं?"



    आरम्भ की आँखें भर आईं।

    वह एक शब्द भी नहीं कह सका।

    बस खड़ा रहा, जैसे पत्थर बन गया हो।



    Nandita (आगे बढ़ती हुई, दर्द से कांपती हुई आवाज़ में):

    "आपके लिए 'माफ़ी' सिर्फ एक शब्द है,

    लेकिन क्या आपको पता भी है इस शब्द का मतलब?

    क्या आपको वाकई फर्क पड़ता है?"



    उसकी आवाज़ ऊँची हो गई थी,

    लेकिन टूटने से पहले की ऊँचाई जैसी —

    कमज़ोर लेकिन चीखती हुई।



    Nandita (आँखों से बहते आँसुओं के बीच):

    "पाँच साल पहले...

    आपने मेरी ज़िन्दगी बर्बाद कर दी,

    लेकिन... फिर भी आप दोषी नहीं थे।

    गलती तो मेरी थी न?"



    आरम्भ ने अपनी मुट्ठियाँ कस लीं,

    हाथ काँप रहे थे,

    आँखें शर्म से झुकी हुई थीं।



    Nandita (चीखती हुई):

    "लेकिन जब आपकी बेरुख़ी से भी दिल नहीं भरा,

    तो आपने मुझसे शादी कर ली।

    और शादी के अगले ही दिन...

    आप मुझे छोड़कर चले गए!"



    उसकी साँसें तेज़ हो गई थीं,

    शब्दों में पाँच साल का जहर घुला हुआ था।

    कमरे की हवा भारी हो गई थी।



    Nandita (टूटती हुई, पर अब भी तंज में):

    "अब जब पाँच साल बाद लौटे हैं,

    तो चाहते हैं कि मैं आपको माफ कर दूँ?

    बताइए आरम्भ...

    किस-किस बात के लिए माफ करूँ?"



    वह आगे बढ़ी —

    आरम्भ के इतने पास कि उसका आँसुओं से भीगा चेहरा साफ नज़र आने लगा।



    Nandita (काँपती पलकों के बीच से):

    "क्या उस रात के लिए,

    जब किसी ने जानबूझकर मुझे नशा दिया था?

    या उस चाल के लिए,

    जिसमें मुझे फँसाकर आपके कमरे तक पहुँचाया गया?"



    आरम्भ का सीना अंदर से चीर रहा था।

    वह सामने खड़ा था,

    लेकिन खुद को उस पल से, उस ज़ख्म से बचा नहीं पा रहा था।



    Nandita (थरथराती आवाज़ में):

    "क्या मेरी गलती सिर्फ इतनी थी कि मैं मासूम थी,

    लोगों की बातों में आ गई?

    क्या मेरी गलती थी...

    कि मैं आपसे शादी कर बैठी?"



    नंदिता की आवाज़ अब धीमी पड़ रही थी,

    लेकिन हर शब्द जैसे दिल चीरकर निकल रहा था।



    Nandita (टूटी हुई आवाज में):

    "सब मेरी ही गलती है ना?

    तो माफ़ी तो मुझे आपसे माँगनी चाहिए...

    क्योंकि मेरी वजह से आपकी ज़िन्दगी भी बर्बाद हुई।

    आप अपनी मंगेतर से शादी नहीं कर सके,

    मजबूरी में मुझे अपनाना पड़ा।

    तो फिर माफी किसे माँगनी चाहिए आरम्भ...?

    मुझे... या आपको?"



    कमरा एकदम सन्नाटे में डूब गया था।

    नंदिता का चेहरा आंसुओं से तरबतर था,

    और हर शब्द उसकी रूह के भीतर से निकला हुआ लगता था।

    वहीं आरम्भ...



    वह वहीं जड़वत खड़ा था।

    उसकी आँखें पूरी तरह से लाल हो चुकी थीं,

    जैसे भीतर आंसुओं का समुंदर उमड़ पड़ा हो,

    लेकिन वो किसी तरह उसे छलकने से रोक रहा था।



    उसके चेहरे पर पछतावे की लकीरें खिंच गई थीं,

    होठ काँप रहे थे,

    और उसकी मुट्ठियाँ इतनी भींची हुई थीं कि नसें उभर आई थीं।

    वो कुछ कहना चाहता था...

    लेकिन उसकी जुबान जैसे सिला दी गई थी।



    कमरे में सिर्फ उनकी धड़कनों की आवाज़ थी...

    और एक टूटे हुए अतीत की सिसकियाँ।



    नंदिता की बातें पूरी हो चुकी थीं। उसका चेहरा आँसुओं से तर था, दिल में पांच साल का जख्म ताज़ा हो उठा था। जैसे ही वह मुड़कर जाने लगी, आरंभ ने एक झटके से उसका हाथ पकड़ लिया।



    अपने भीतर उठते तूफ़ान को ज़बरदस्ती काबू करते हुए वह बेहद करीब आकर बुझे हुए स्वर में फुफकारा,

    "बस..! बहुत हो गया नंदिता।"

    उसकी आवाज़ में वह दर्द था, जो अब और भीतर दबाया नहीं जा सकता था।



    "आज तक मैंने अपनी ज़िंदगी में कभी किसी से माफ़ी नहीं माँगी। लेकिन तुमसे माँगी... और तुम... तुम मुझसे सवाल कर रही हो?"

    उसकी आँखों में घुलता आक्रोश और टूटन साफ़ झलक रही थी।



    "क्या तुम्हें अंदाज़ा भी है कि जिस अज़ाब से तुम गुज़री हो, उस अज़ाब से मैं भी गुज़रा हूँ? लेकिन नहीं, तुम्हें क्या पता होगा... तुम्हें तो बस इल्ज़ाम लगाना आता है... दूसरों पर उँगली उठाना आता है।"

    आरंभ का लहजा तीखा हो गया था, जैसे अब बरसों से दबा गुबार फूट पड़ा हो।



    "कभी खुद से भी पूछा है कि तुम्हारी सच्चाई क्या है? क्या तुमने कभी हकीकत से सामना करने की कोशिश की है?

    तुम्हारी दुनिया तो झूठ के महल में बसी है नंदिता... और मेरी नहीं!"

    उसके शब्द नश्तर की तरह नंदिता के दिल में उतरते जा रहे थे।



    "तुम्हें लगता है सारी गलती मेरी थी?"

    आरंभ की साँसें तेज़ थीं, आवाज़ काँप रही थी, लेकिन उसने खुद को थामे रखा।



    "ठीक है... अब मैं तुम्हें उस सच्चाई से रूबरू कराऊँगा, जिसे जानकर शायद तुम्हारे सारे इल्ज़ाम खुद शर्म से झुक जाएँ।"



    यह कहकर, उसने नंदिता का हाथ मजबूती से पकड़ा और उसे लगभग घसीटते हुए कमरे से बाहर ले आया।



    "छोड़िए मुझे... आरंभ..."

    नंदिता ने कमजोर कोशिश की, लेकिन उसकी पकड़ लोहे जैसी मज़बूत थी।



    वह उसे खींचते हुए सीधे लिविंग हॉल में ले आया, जहाँ दादी माँ बैठी थीं। सब अचानक इस दृश्य से चौंक उठे।



    आरंभ ने एक नज़र अंशिका की तरफ़ डाली और फिर एक सख्त इशारा करते हुए सख्त लहजे में कहा,

    "प्रिंसेस, मैंने तुम्हारे लिए बाहर एक प्यारा सा गिफ्ट तैयार किया है। जाओ, देखो क्या वह तुम्हें पसंद आया या नहीं।"

    उसकी आवाज़ में नकली मिठास थी, जो छुपाए गुस्से के बीच से मुश्किल से बाहर निकल रही थी।



    उसने अंशिका को प्यार से माथे पर किस किया, फिर अपने असिस्टेंट को इशारा किया कि वह अंशिका को बाहर ले जाए।



    फिर वह पलटा, और पूरे स्टाफ की ओर घूरते हुए एक ऐसी आवाज़ में आदेश दिया, जिसे सुनकर दीवारों तक में सिहरन दौड़ गई,

    "पाँच मिनट के अंदर पूरी हवेली खाली चाहिए मुझे... कोई भी नहीं रहना चाहिए यहाँ।

    और याद रहे, मेरी इजाज़त के बिना कोई भी अंदर

    कदम नहीं रखेगा... कोई भी नहीं।"



    उसकी आवाज़ में ऐसी खौफनाक दृढ़ता थी कि वहाँ मौजूद हर शख्स बिना सवाल किए फौरन हरकत में आ गया।

    कोई भी उस वक़्त आरंभ अग्निहोत्री के सामने खड़ा होने की हिम्मत नहीं कर सकता था।



    To be countinue 

    Don't forget to like share comment guy's