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इंतज़ार: वो भूली दास्तां

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Archana

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पुनर्जन्म की ऐसी कहानी! जिसमें एक पैलेस के श्राप के साथ छुपा हुआ है, तीन लोगों का भूत वर्तमान और भविष्य! क्या इस जन्म में उस श्राप का अंत होगा या फिर जीत जाएगी। किसी की भूली हुई दास्तान! आशी और विक्रम प्रताप सिंह बुंदेला की अमर प्रेम कहानी

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Total Chapters (111)

Page 1 of 6

  • 1. इंतज़ार: वो भूली दास्तां - Chapter 1

    Words: 1366

    Estimated Reading Time: 9 min

    "हे भगवान!! और जाने कितने दूर मुझे चलना होगा?? अब तो एक कदम चलने की भी हिम्मत नहीं हो रही है.... प्यास से गला सूख रहा है। और पानी!! आसपास कहीं नहीं मिलने वाला.... मिस्टर विक्रम सिंह बुंदेला! तुमने यह रास्ता खुद अपने लिए पसंद किया है... तो अब भुगतो। मेरा भी दिमाग खराब हो गया था... जो ड्राइवर को गाड़ी लाने से मना कर दिया। सरप्राइज का शौक चढ़ा था ना !! तो अब खुद ही सरप्राइज हो जाओ। इस सुनसान रास्ते पर अगर गर्मी के मारे जान भी चली जाएगी तो कोई तुम्हें देखने भी नहीं आएगा।" अपने शर्ट का ऊपरी बटन खोलते हुए विक्रम ने मन ही मन सोचा।

    उसने एक नजर आग बरसाते हुए सूरज पर डाली.... पर सूरज आज इस तरह से आग बरसा रहा था कि वह किसी को भी अपने से नजरें मिलाने नहीं दे सकता था, इस धूप गर्मी और रेत से भरे रास्ते में विक्रम का हाल बेहाल हो रहा था। पूरा रास्ता सुनसान पड़ा हुआ था। इंसान तो क्या?? एक चिड़िया भी इस धूप में नहीं दिखाई पड़ रही थी... दूर-दूर तक जलती हुई रेत बिछी थी।
    उस में भी जब हवा चलती थी.... तो जलती हुई रेत सीधे शरीर पर पड़ती थी। वैसे तो विक्रम ने पूरे बदन के कपड़े पहन रखे थे, लेकिन फिर भी गर्म रेत कपड़ों के अंदर तक शरीर को जलाने की ताकत रखती थी।

    इस सुनसान रास्ते में बह रही हवा, कानों में सीटियां बजा रही थी। रह रह कर लू के साथ गर्म रेत का गुबार उठ रहा था और विक्रम को झुलसाते जा रहा था।
    जैसे-जैसे विक्रम रास्ते पर आगे बढ़ता जा रहा था, रेत के टीले काफी दूर-दूर तक बिछे हुए नजर आ रहे थे। चलते-चलते विक्रम बुरी तरह से थक गया था लेकिन ऐसा लग रहा था कि ये रेगिस्तान खत्म होने का नाम नहीं ले रहा था।

    "कहीं मैं रास्ता तो नहीं भूल गया। यही रास्ता तो मेरे हवेली तक जाता है, यह तो मुझे पूरे अच्छे तरीके से पता है। पर अब तक तो मुझे इस रेगिस्तान को पार कर लेना चाहिए था। आसपास कोई दिखाई भी तो नहीं पड़ रहा, जिससे मैं कुछ पूछूं??" विक्रम ने किसी आदमी की तलाश में अपनी नजर इधर-उधर दौड़ाते हुए सोचा।

    पर अफसोस!! दूर-दूर तक कोई नहीं था।

    तभी उसे ऐसा लगा कि किसी ने बर्फ से भी ठंडे हाथ उसके पीठ पर रख दिया है। उसकी छुवन इतनी अधिक ठंडी थी कि इस जल रहे मौसम में भी उस हाथों की ठंडक को विक्रम ने अपनी रीढ़ की हड्डी तक महसूस की थी। उसका पूरा बदन इस ठंड से कांप गया।
    विक्रम झटके से पीछे मुड़ा। लेकिन उसके पीछे कोई नहीं था। एक अनजाने डर ने विक्रम के दिल को अपने कब्जे में ले लिया था, हालांकि वह एक 25 साल का स्वस्थ नवयुवक था। पर फिर भी अपने पीछे किसी को ना पाकर, उसके दिल ने डर के मारे तेजी से धड़कना शुरू कर दिया था।
    "दिमाग खराब हो गया है मेरा!!" विक्रम ने सर झटका और आगे बढ़ने के लिए कदम बढ़ाए।

    तभी उसके कानों में किसी लड़की के खिलखिला कर हंसने की आवाज पड़ी। इसी के साथ बर्फ से भी ठंडी हवा ने विक्रम को छुआ। हवा इतनी अधिक ठंडी थी, जिसने विक्रम की हड्डियों को भी कंपा दिया था। विक्रम को एक झटका सा लगा।

    उसने तुरंत अपनी आंख खोलकर फिर से देखने की कोशिश की क्योंकि कुछ देर पहले वह जलते हुए रेगिस्तान में अकेला खड़ा था और इस समय सामने का नजारा बिल्कुल बदल चुका था। चारों ओर बड़े बड़े घने छायादार पेड़ थे, जिन से सूरज की रोशनी भी मुश्किल से जमीन तक उतर कर आ रही थी और ठंडी हवा लगातार बह रही थी।
    "यह क्या हो गया?? यह मैं अचानक कहां से कहां पहुंच गया??" वह धीरे-धीरे कदम बढ़ाते हुए आगे निकलने की कोशिश कर रहा था। पर जिधर से भी आगे निकलने की कोशिश करता था उसका रास्ता ये पेड़ रोक ले रहे थे। विक्रम ने पेड़ों के बीच से निकलने की कोशिश की। तभी उसके सामने से कुछ उड़ता हुआ आया। विक्रम तेजी से किनारे हटा और पीछे मुड़कर देखा।

    वह एक सांप था, जो कि उससे सिर्फ 4 कदम की दूरी पर गिरा था। अगर वह जल्दी से किनारे नहीं हटा होता तो निश्चित ये सांप उसे डंस गया रहता। मौत के डर ने विक्रम को एक बार फिर से कपा दिया था।
    अभी वह कुछ और सोच या समझ पाता, उसके पहले ही सांप तेजी से उसकी ओर बढ़ने लगा। अपनी जान बचाने के लिए, विक्रम तेजी से भागने लगा। भागते भागते विक्रम की सांसें उखड़ने लगी थी। पर अगर जान बचानी थी तो भागना ही था। जब भी भागते हुए पीछे मुड़कर देखने की कोशिश करता था, तो अब सिर्फ वही एक सांप नहीं, बल्कि उसके साथ कई जहरीले काले सांप पेड़ों की जड़ में अपने बिल से निकल कर, उसके तरफ बढ़ते हुए चले आ रहे थे।
    अपनी जान बचाने के लिए विक्रम उन पेड़ों के बीच से होकर भागते जा रहा था।

    भागते भागते वह जंगल में बहुत अंदर तक चला आया था। अब उसके पैर भी जवाब दे चुके थे। अपनी बढ़ी हुई धड़कनों और उखड़ी हुई सांसो को कुछ देर के लिए शांत करने के लिए, विक्रम ने अपने घुटनों पर हाथ रखकर एक पल के लिए खुद को सामान्य करने की कोशिश की।

    पर ऐसा लग रहा था कि अभी भी वह खुद को संभाले नहीं पा रहा था। मौत का डर उसके अंदर तक बैठ गया था।

    तभी उसकी आंखों के सामने एक खूबसूरत सा हाथ आया। विक्रम ने हाथ बढ़ाकर उस हाथ को थामना चाहा, तभी उसकी नजर उस लड़की के चेहरे पर गई। जाने क्यों?? यह चेहरा उसे जाना पहचाना सा लगा। राजस्थानी पोशाक, घाघरा चोली पहने हुए लड़की का चेहरा घूंघट में था, पर झीने घूंघट के अंदर से भी उसका चेहरा झलक रहा था।

    "पानी...." उस लड़की के हाथ में लिए हुए सोने के घड़े को देखकर विक्रम को अपने प्यास का एहसास हुआ। पानी शब्द सुनते ही लड़की के होठ रहस्यमई ढंग से मुस्कुराए।

    "यह राजस्थान है, कुंवर सा। यहां सबसे ज्यादा कीमती पानी ही होता है। बोलो पानी की कीमत क्या दोगे।" लड़की के होठों से निकला। घुंघट से झलकता हुआ मनमोहक चेहरा, आवाज इतनी मधुर थी जैसे कि कानों में घंटियां बजा रही हो। विक्रम तो जैसे सम्मोहन में फस गया था।

    "कुछ भी ले लेना, पर अभी पानी दो.... वरना मेरी जान निकल जाएगी...." बेखुदी में विक्रम ने कहा।

    "याद रहेगा ना!!" लड़की ने अपने दोनों हाथों में अपना घड़ा लेते हुए पूछा।

    "आजमाइश शर्त हैं, आजमा लेना। ठाकुर हूं, अपनी जुबान से नहीं फिरूंगा।" विक्रम ने धीरे से मुस्कुराते हुए कहा।

    लड़की ने घड़े से पानी विक्रम के हाथों के प्याले में गिराना शुरू किया। लड़की के रूप और सौंदर्य में उलझे हुए विक्रम ने पहला ही घूंट पीते, बुरा सा मुंह बनाया। विक्रम को पानी का स्वाद अजीब सा लगा।

    उसकी नजर अपने हाथों पर गई.... जहां लड़की अपने घड़े से पानी गिरा रही थी। पर उसके हाथों में घड़े में से निकल रहा पानी नहीं, बल्कि खून भरा था। विक्रम ने तुरंत अपने हाथ खोल दिए। वह घबरा कर, दो कदम पीछे हुआ।

    "खून.... कौन है तुम?? यहां क्या कर रही हो??" विक्रम के होठों से निकला।

    अचानक से उस लड़की का रूप और आसपास का माहौल पूरी तरह से बदल गया। विक्रम के कानों में एक आवाज गूंजी,

    "तुम्हारा इंतजार है....."

    विक्रम झटके से उठ कर बैठ गया। उसने अपने आसपास देखा, वह राजस्थान में नहीं बल्कि न्यूयॉर्क में था। वह ना जाने पिछले कितने सालों से यही सपना देखता आ रहा था, और सपने में वह राजस्थान पहुंच जाता था। जबकि वह अपने लग्जरियस बेडरूम में सोया हुआ था और इंडिया से उसे यहां आए हुए, करीब 15 साल हो चुके थे।

    फुल स्पीड पर एसी चल रहा था, लेकिन विक्रम का पूरा बदन पसीने से नहाया हुआ था। दिल की धड़कन इतनी तेज स्पीड से भाग रही थी जैसे वह बिना रुके मिलो दौड़कर, ट्रेडमिल पर आया हो। विक्रम ने सामने वॉल क्लॉक पर नजर डाली, सुबह के 5:00 बज रहे थे। उसने अपने सर को दोनों हाथों में थाम कर खुद को शांत करने की कोशिश की। लेकिन अभी भी कानों में वही आवाज गूंज रही थी।

    "तुम्हारा इंतजार है....."

  • 2. इंतज़ार: वो भूली दास्तां - Chapter 2

    Words: 1400

    Estimated Reading Time: 9 min

    रॉयल्स बुंदेला
    ग्रुप ऑफ इंडस्ट्रीज का ऑफिस
    न्यूयॉर्क (अमेरिका)

    सुबह के 10 बज रहे थे... सभी एंप्लॉय आ चुके थे और पूरी बिल्डिंग में अफरा-तफरी मची हुई थी, जैसे कि कोई इंस्पेक्शन की टीम आने वाली हो। सब तेजी से अपना काम निपटाने पर पड़े थे। सब अपना हंड्रेड परसेंट वर्क कंप्लीट करने पर जुटे थे।

    कई टेबल पर वर्कर्स का भी झुंड जमा था। यह वो थे जिनका काम लगभग पूरा हो चुका था। सभी के चेहरे पर खुशी वाले भाव थे। पिछले कई दिन से कंपनी के शेयर के भाव आसमान छू रहे थे। यह जाहिर तौर पर एक अच्छा संकेत था, पर ऑफिस वालों की असली मुश्किल आज उनके बॉस के कड़क और गुस्सैल स्वभाव को लेकर थी, जिसके कारण पूरे ऑफिस में आर्मी रूल फॉलो किया जा रहा था। कहीं भी कोई गलती की गुंजाइश नहीं थी। कोई यह नहीं चाहता था कि उसके एक काम से सर का मूड बिगड़े और पूरे ऑफिस को इस खुशी में मिलने वाले दमदार बोनस का नुकसान हो। इस कारण पूरा ऑफिस एक ग्रुप की तरह काम कर रहा था। जिन लोगों के काम पूरे नहीं हुए थे, दूसरे एम्प्लॉय उसमें उनकी मदद कर रहे थे।

    तभी एक चमचमाती हुई ब्लैक ऑडी गाड़ी आकर दफ्तर के सामने लगी।

    गाड़ी के दफ्तर के सामने रुकते ही, गार्ड ने तेजी से बढ़ कर दरवाजा खोला और गाड़ी में से करीब चौबीस साल का नवयुवक निकला। 6 फीट से कुछ अधिक हाइट, मस्कुलर बॉडी, थोड़ी हल्की बड़ी हुई सेव और दुनिया भर की कठोरता चेहरे पर थी। सर से पांव तक उसने ब्लैक कलर का ही कॉम्बिनेशन पहन रखा था। बस हाथ में चमचमाती हुई सोने की चेन वाली राडो की लिमिटेड एडिशन वाली घड़ी थी और ब्लैक सूट पर लगाया हुआ सोने का कलम, जिसमें कि हीरे जड़े हुए थे और उन हीरो से ही उस पर R लिखा हुआ था।

    युवक ने एक नजर सामने खड़ी दस मंजिला इमारत पर डाली और सीधे ऑफिस गेट से चला गया। ड्राइवर ने गाड़ी ले जाकर पर्सनल पार्किंग में लगा दी।

    ऑफिस तक पहुंचने के लिए उस युवक ने पर्सनल लिफ्ट का यूज किया। लिफ्ट में जाते ही उसने अपना हाथ स्कैनर पर रख दिया और दसवें फ्लोर का बटन दबा दिया।

    यह है मिस्टर विक्रमसिंह बुंदेला।

    अपने माता-पिता को एक रोड एक्सीडेंट में सात साल की उमर में गवाने के बाद, मात्र 16 साल की उम्र में विक्रम ने बिजनेस की दुनिया में अपना पहला कदम रखा था।

    फिलहाल में उसके परिवार के नाम पर सिर्फ एक दादी मां सा जीवित है, बाकी उसके परिवार की मृत्यु एक रोड एक्सीडेंट में हो गई है। सारी दुनिया इस रोड एक्सीडेंट को एक हादसा या फिर श्राप समझती है, पर विक्रम को लगता है कि अब कोई हादसा या श्राप नहीं बल्कि सोची समझी साजिश थी।

    हालांकि जैसे-जैसे समय बीत रहा था, विक्रम को कुछ परछाइयां परेशान कर रही थीं। अधिकतर विक्रम को डरावने सपने आते थे, पर फिर भी वह इन सब चीजों को मानने के लिए बिल्कुल तैयार नहीं था। अपने मन के डर को अपने अंदर ही दबाते हुए विक्रम ने अपने चेहरे पर गंभीरता का नकाब पहन रखा था। वह डरना नहीं चाहता था, बल्कि अपने व्यक्तित्व से लोगों को डराने में यकीन रखता था।

    9 साल की उम्र में जब विक्रम के साथ यह हादसा हुआ था, तब उसके पापा के ममेरे भाई समर्थ सिंह ने और एक खास वफादार पुष्कर सिंह ने आगे बढ़कर रॉयल्स बुंदेला की पूरी जिम्मेवारी उठाई। विक्रम को इस लायक बनाया कि वह समय आने पर पूरे रॉयल्स बुंदेला एंपायर का भार उठा सके। विक्रम ने भी अपने आप को साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी।

    3-4 साल की कड़ी मेहनत के बाद ही, मात्र 20 साल की उम्र में ही उसने अपने आप को दुनिया के सबसे सफलतम बिज़नेस मैन की लिस्ट में शामिल कर लिया था। इसके बाद के बाकी 5 सालों में उसने इतनी मेहनत की थी जिसके बदौलत आज उसकी कंपनी दुनिया की टॉप फाइव कंपनियों में एक है। माइनिंग से लेकर कंस्ट्रक्शन तक, होटल चेन, शॉपिंग मॉल से लेकर इंटरटेनमेंट और गेमिंग तक में इनकी कंपनी ने वर्ल्ड मार्केट में अपनी अच्छी पकड़ बनाई थी।

    पिछले एक सप्ताह से वह अपने वर्ल्ड टूर पर निकला हुआ था और इसी दौरान उन्होंने करीब 4 कंपनियों को ओवरटेक किया था और कई कंपनियों के साथ अच्छे बिजनेस कॉन्ट्रैक्ट साइन किए थे, जिससे इस पूरे बुंदेला ग्रुप ऑफ इंडस्ट्रीज को काफी फायदा होने वाला था। इस कारण इस टाइम मार्केट में इनकी कंपनी के शेयर इतनी तेजी से उछले थे कि इन्होंने पिछले 20 साल से लगातार शीर्ष स्थान पर रहने वाली कंपनी को भी पीछे छोड़ दिया था।

    इनकी यह पर्सनल लिफ्ट केवल इन्ही के स्कैनिंग से काम करती थी। इनके अलावा किसी को भी इस लिफ्ट को यूज करने की परमिशन नहीं थी। यह इनकी अच्छी आदत कह लो या बुरी, इन्हें अपनी पर्सनल लिफ्ट भी किसी के साथ शेयर करना पसंद नहीं।

    दसवें फ्लोर पर इनका ऑफिस है। लिफ्ट सीधे जाकर दसवें फ्लोर पर रुकी। गेट के ओपन होते ही दरवाजे के ठीक सामने इनकी सेक्रेटरी मिस सोफिया, उम्र इक्कीस साल, खड़ी थी।

    "गुड मॉर्निंग सर" सोफिया ने सर झुका कर गुड मॉर्निंग विश किया। जवाब में विक्रम ने अपने सर को हल्का सा हिलाया और आगे बढ़ने लगा।

    "यहां ऑफिस में और सब कुछ कैसा चल रहा है, मिस सोफिया?" विक्रम ने सोफिया से पूछा।

    "सब कुछ बढ़िया है सर, कांग्रेचुलेशन, हमारी कंपनी वर्ल्ड की टॉप कंपनी में आ गई है। सारे इंप्लाइज इस चीज को लेकर बहुत उत्साहित हैं और आपको कांग्रेचुलेशन करना चाहते हैं।" सोफिया तेजी से बोली।

    मिस्टर बुंदेला ने उनके बधाई का जवाब भी देना जरूरी नहीं समझा और तेजी से आगे अपने केबिन की तरफ बढ़ चले। सोफिया उनके पीछे दौड़ती भागती हुई उनसे आज के शेड्यूल के बारे में जा रही थी। केबिन पर के दरवाजे पर पहुंचकर मिस्टर बुंदेला ने सोफिया की तरफ देखा, जिसका साफ तौर पर इशारा था कि विक्रम अब स्ट्रांग ब्लैक कॉफी पीना चाहता है। सोफिया उनकी आंखों के इशारे को समझ गई और उसने तेजी से सिर हिला कर कहा, "ओके सर, मैं लाती हूं।"

    सोफिया तेजी से बाहर निकल गई।

    विक्रम ने अपने केबिन का दरवाजा खोला। वाइट और ब्लैक के कांबिनेशन में उसका केबिन शीशे की तरह साफ और सजा हुआ था। उसके केबिन का इंटीरियर डेकोरेशन और साज-सज्जा विक्रम के टेस्ट को बता रही थी। विक्रम ने एक गहरी सांस छोड़ी और अपना पहला ही कदम आगे अंदर की ओर बढ़ाया। तभी उसे अचानक ऐसा लगा कि उसके पैरों ने के नीचे कुछ रखा हुआ था, जो कि उसके पैरों से ठोकर पाते ही गिर गया है।

    विक्रम ने भी हैरानी के साथ नीचे देखा। नीचे फर्श पर एक सोने का लोटे की आकार का छोटा सा कलश औंधे मुंह गिरा पड़ा था। विक्रम ने गुस्से में सोफिया को आवाज देना चाहा, लेकिन अचानक से उसे ऐसा लगा जैसे उसने इस स्वर्ण कलश को पहले भी देख रखा है। अभी विक्रम अपने दिमाग पर जोर डालकर उस स्वर्ण कलश को याद करने की कोशिश कर रहा था कि तभी जो नजारा उसके आंखों के सामने आया, उसने विक्रम के रौंगटे खड़े कर दिए।

    उस कलश से निकलकर सैकड़ों छोटे-बड़े सांप, बिच्छू उसके पूरे केबिन में रेंग रहे थे। एक अनजाने डर ने फिर से विक्रम को अपने गिरफ्त मे ले लिया। वह चीखना और चिल्लाना चाहता था, लेकिन उसकी आवाज उसके अंदर ही घुट कर रह गई। डर के मारे विक्रम पसीने पसीने होने लगा।

    अर्जुन, पीछे मुड़कर अपने केबिन से बाहर निकलना चाहता था, लेकिन आश्चर्य की बात थी कि वह पहले ही कदम में अपने केबिन के बिल्कुल बीचो-बीच पहुंच चुका था और चारों तरफ से सांप और बिच्छू उसे घेरे हुए थे। सब अब विक्रम की तरफ ही बढ़े आ रहे थे। विक्रम ने भागने के लिए बाहर की ओर लेना चाहा, तभी एक सांप उसके पैरों से लिपट गया। विक्रम ने जोर से अपना पैर जमीन पर पटका, फिर भी कोई फायदा नहीं हुआ, बल्कि उस सांप ने और जोर से उसके पैरों को जकड़ लिया था। इसके साथ बाद कई सांप लगातार उसके शरीर पर चढ़ने लगे थे। विक्रम की हालत डर से खराब होने लगी। तभी एक सांप हवा में उड़ता हुआ उसकी तरफ आया और बिल्कुल उसके कानों के पास से होकर गुजर गया। विक्रम झटके से किनारे हटा और तुरंत पीछे मुड़कर देखा।

    ऐसा लग रहा था कि कानों के पास हवा में एक आवाज गूंज रही थी।

    "तुम्हारा इंतजार है...."

    विक्रम को एक जबरदस्त झटका सा लगा। तभी उसके कंधे पर किसी ने हाथ रखा।

  • 3. इंतज़ार: वो भूली दास्तां - Chapter 3

    Words: 1423

    Estimated Reading Time: 9 min

    अपने आप को पूरी तरह से सांप और बिच्छू के बीच में घिरा हुआ पाकर विक्रम बुरी तरह से डर गया था। उसने कहीं सुन रखा था कि अपने डर से तुम जितना डरोगे, उतना ही यह डर तुम्हारे ऊपर हावी होता जाएगा। इसलिए अपने डर पर अपना कंट्रोल किया करो। क्योंकि डर के आगे जीत है.... इसलिए वह अपने इस डर से डरना नहीं चाहता था... वह बाहर से खुद को सामान्य रखने की कोशिश कर रहा था, लेकिन फिर भी उसका सारा बदन पसीने से नहा चुका था।

    दिल की धड़कन बुलेट ट्रेन की स्पीड से भाग रही थी और उसके कानों में अभी तक वह आवाज गूंज रही थी "तुम्हारा इंतजार है...."
    जिसने कि विक्रम के रोए रोए को खड़ा कर दिया था।

    उसने झटके से मुड़ कर आवाज की दिशा में देखना चाहा, लेकिन वहां कोई नहीं था। तभी अचानक उसे अपने कंधे पर किसी के हाथ का दबाव महसूस हुआ। कहीं वो आवाज वाली लड़की उसके पीछे तो नहीं!! ऐसा सोच कर ही विक्रम बुरी तरह से डर गया था। उसे याद आ रहा था कि वह लड़की शुरू में देखने में तो बहुत सुंदर लगती है। बड़ी-बड़ी कजरारी, मृगनयनी आंखें..... खड़ी नाक, और उस पर चमकता हुआ हीरे का लॉन्ग, भींगे लाल गुलाब की पंखुड़ियों जैसे होंठ, लेकिन तुरंत ही उसकी शक्ल डरावनी हो जाती है....

    काली काली कजरारी उसकी आंखें, जिनमें डूबने का मन करता है। वह आंख जलते हुए अंगारों के समान लाल लाल खून से भरी हुई दिखाई देने लगती है। वह खूबसूरत चेहरा, जिसे अपनी आंखों के रास्ते दिल में बसाने का मन करता है, वह चेहरा बिल्कुल भयानकता की हद तक डरावना हो जाता है, जिसमें जगह जगह से उतरी हुई स्किन दिखाई पड़ती है, वहां पर साफ-साफ हड्डी और कई जगह खून से सने हुए मांस दिखाई पड़ते हैं। भींगे लाल गुलाब की पंखुड़ियों जैसे होंठ, जिन का रस पीने की इच्छा, खुद ब खुद दिल के अंदर जाग जाती है, जिन्हें देखकर ही किसी के मन में प्यास जग जाए। उन होठों से टपकता हुआ खून, किसी के दिल के अंदर डर पैदा करने के लिए काफी थे।

    उस लड़की की भयानक शक्ल याद आते ही विक्रम के शरीर ने झुरझुरी सी ली, पर फिर भी वह हिम्मत करके उस लड़की का सामना करने के लिए, झटके से पीछे मुड़ा। वह आज उसे जाने नहीं देना चाहता था। वह जानना चाहता था कि आखिर उस लड़की को उसका इंतजार क्यों है?? लेकिन.... सामने उसके बचपन का दोस्त और भाई विकल्प खड़ा था। विकल्प को सामने देखकर विक्रम ने अपनी आंखें बंद कर ली।

    "क्या हुआ भाई?? तू ठीक तो है ना!!" विकल्प के शब्दों में विक्रम के लिए उसका फिक्र साफ साफ दिखाई दे रहा था। विक्रम ने एक गहरी सांस छोड़ते हुए अपनी आंखें खोली और विकल्प से कुछ बताना चाहा, "वह, वह....."
    "क्या वह, वह!!! क्या हुआ?? आखिर तू इतना घबराया और डरा हुआ क्यों है??" विकल्प ने विक्रम के चेहरे पर एक गहरी नजर डालते हुए उससे पूछा उसने कमरे में लगे हुए एसी की तरफ देखा।

    "अब बोलेगा भी कि क्या बात है?? 16 डिग्री टेंपरेचर में तुझे इस तरह से पसीना क्यों आ रहा हैं??" विकल्प ने हाथ बढ़ाकर विक्रम का चेहरा चाहा। विक्रम झटके से एक कदम पीछे हुआ, तभी उसकी नजर सामने फर्श पर गई। उसकी आंखें हैरत से फैल गई।
    अभी तो यहां पर सैकड़ों सांप बिच्छू रेंग रहे थे, लेकिन अब यहां पर कुछ नहीं था। पूरा फर्श बेशकीमती टाइल्स से सजा हुआ, बिल्कुल शीशे की तरह साफ था।
    "अरे भाई बताएगा भी?? क्या बात है?? तू इस तरह से नीचे फर्श पर क्या देख रहा है?? कुछ गिर गया है क्या??" विकल्प ने पूछा।

    लेकिन विक्रम के मुंह से तो कोई जवाब ही नहीं निकल रहा था। वह हैरत से आंखें फाड़े हुए ही फर्श की तरफ देख रहा था। वह तो विकल्प को फर्श दिखा कर बताना चाहता था कि वह क्या देख रहा था?? और क्यों डरा हुआ था?? लेकिन अब वह उससे वह क्या बताता कि वह किस लिए डर गया था?? यहां सामने तो कुछ भी दिखाई नहीं पड़ रहा था!!
    विक्रम समझ गया था कि हमेशा की तरह उसका डर उसके ऊपर हावी हो चुका था, जोकि एक छलावा की तरह से उसे छलकर, उसके दिल में अपना डर बैठा कर, निकल चुका था।

    विक्रम ने एक गहरी सांस ली और अपने मन में उन चीजों को सोचने लगा जो कि अभी अभी उसने जागती आंखों के साथ देखा था। वह उसका भ्रम नहीं था। आज उसने कोई डरावना सपना नहीं देखा था, बल्कि उसने खुली आंखों के साथ आज इस कमरे में उस सोने के कलश को देखा था। यह वही सोने का लोटे की आकार वाला कलश था, जो कि हमेशा उस लड़की के हाथ में होता था, जिसमें से पानी की जगह खून निकलता था। लेकिन आज उसमें से निकल रहे काले काले घिनौने और डरावने, जमीन पर रेंगते हुए सांप और बिच्छू उसने देखे थे।

    एक सांप तो उसके पैर पर भी चढ़ कर आया था, जिसकी जकड़न अभी भी विक्रम अपने पैरों पर महसूस कर पा रहा था। फिर अचानक से झटके में ही सब कुछ ऐसे कैसे गायब हो सकता है?? क्या वो जागती आंखों से ही आज सपना देख रहा था?? या फिर उसने सब कुछ जागते हुए ही, अपनी आंखों से सच-सच देखा है!! क्या था और क्या नहीं?? विक्रम इस चीज को समझ नहीं पा रहा था। उससे अपना सर घूमता हुआ महसूस हो रहा था। ऐसा लग रहा था जैसे कि कमरे की छत उसके सर के ऊपर नाच रही हो।

    विक्रम को चक्कर आने लगे, ऐसा लगा कि वह बेहोश होकर वहीं पर गिर जाएगा। वह कुछ बोलने और कहने की हालत में भी नहीं था। उसने अपना सर पकड़ लिया। विकल्प उससे कुछ कह रहा था, लेकिन उसे कुछ सुनाई भी नहीं पड़ रहा था, क्योंकि कानों में भी अभी भी सीटिया बजाती हुई उस लड़की की आवाज गूंज रही थी, जिसने की विक्रम के कानों के परदे अंदर तक सुन कर दिए थे।

    "लगता है कि तेरी तबीयत ठीक नहीं है!! दिन रात काम के पीछे पागल हुआ रहता है!! कितनी बार कहा है कि थोड़ा आराम भी कर लिया कर। कम से कम अपनी सेहत का ख्याल तो कर लिया कर, लेकिन तुझे कहां किसी की सुननी होती है?? मेरे साथ आ।" विकल्प ने विक्रम की ऐसी हालत देखते हुए उसका हाथ पकड़ा और उसे वही बिछे हुए सोफे पर बिठाया।

    विक्रम कुछ समझने की भी हालत में नहीं था। वह ट्रांस सी हालत में, विकल्प के साथ सोफे की पर बैठ गया। विकल्प ने एक गिलास पानी उसके आगे बढ़ाया।
    विक्रम ने हैरानी से विकल्प की तरफ देखा। विक्रम को प्यास तो लगी थी लेकिन उसकी हिम्मत पानी के ग्लास को लेने की नहीं हो रही थी। उसके मन में अभी भी डर बैठा हुआ था। कहीं अब पानी से भरा हुआ गिलास खून के गिलास में ना बदल जाए?? आंखों में अजनबीयत का भाव लिए हुए वह कभी पानी के गिलास की तरफ देखता था, तो कभी विकल्प की तरफ।

    "ऐसे क्या देख रहा है तू?? ऐसा लग रहा है, जैसे मुझे पहचान भी नहीं रहा है.... चल पानी पी ले। तुझे कुछ रिलैक्स महसूस होगा।" विकल्प ने उसे इस तरह के अजीबोगरीब बिहेव को करते हुए देखकर टोका।
    विक्रम ने डरते हुए ही एक घूंट पानी पिया, लेकिन यह पानी ही था, खून नही। विक्रम ने एक राहत की सांस ली और झटके में पानी का गिलास खाली कर दिया और फिर से विकल्प के आगे बढ़ा दिया।
    विक्रम की प्यास को देखते हुए, विकल्प ने फिर से उसका ग्लास पानी से भर दिया। 2 गिलास पानी पीने के बाद विक्रम खुद को रिलैक्स महसूस कर रहा था।

    एक साथ इतने सारे डरावने दृश्य को देखकर अगर कोई कमजोर दिल का आदमी होता तो शायद उसका वहीं पर हार्ट फेल हो जाता या फिर उसका बेहोश होना तो बिल्कुल निश्चित था, लेकिन ये डरावने सपने बचपन से ही विक्रम को परेशान कर रहे थे। आज तो इन सपनों ने वास्तविकता का रूप लेकर उसके सामने से भी आकर डराना शुरू कर दिया था।
    विक्रम अभी भी मन में इन्हीं सब चीजों को सोच रहा था, पर विकल्प आंखों में कई सवाल लिए हुए, विक्रम के चेहरे को गौर से देख रहा था। आज भी विक्रम के पास इन सवालों का कोई जवाब नहीं था। उसे खुद कुछ नहीं मालूम था तो वह विकल्प को क्या बताता?? इसलिए विकल्प के आंखों के सवाल को नजरअंदाज करते हुए विक्रम ने विकल्प से पूछा, "तू यहां क्या कर रहा है??"

    "तेरा इंतजार....." विकल्प ने कहा।

  • 4. इंतज़ार: वो भूली दास्तां - Chapter 4

    Words: 1437

    Estimated Reading Time: 9 min

    दो गिलास पानी पीने के बाद विक्रम खुद को अब कुछ रिलैक्स महसूस कर रहा था।
    "तू यहां क्या कर रहा है?" पानी के खाली गिलास को टेबल पर रखते हुए विक्रम ने विकल्प से पूछा।
    "तेरा इंतजार....." विकल्प ने कहा।
    "तेरा इंतजार...." इस शब्द ने तो फिर से विक्रम को उन्हीं अंधेरी गलियों में धकेल दिया, जिससे कि वह बाहर निकल कर अभी-अभी आया था। वह बुरी तरह से चौंक उठा।
    "क्या.... क्या मतलब है तेरा?" विक्रम ने घबराते हुए तेजी से पूछा।

    "रिलैक्स भाई, रिलैक्स!" विक्रम को इस तरह से घबराते हुए देखकर विकल्प ने उसके कंधे पर हाथ रख कर उसे रिलैक्स करने की कोशिश की।
    लेकिन आज विक्रम को तो जैसे इन सब चीजों से कोई फर्क ही नहीं पड़ रहा था। इंतजार शब्द ने तो उसकी सामान्य हुई धड़कनों को भी बहुत तेजी से बढ़ा दिया था। उसने अपनी घबराहट छिपाते हुए कुछ कड़े शब्दों में विकल्प से पूछा, "क्या कर रहा था तू?"
    "तेरा इंतजार कर रहा था...." विकल्प ने इस बात जरा जोर से कहा।

    "धीरे बोल, सुनता है मुझे!! लेकिन मेरा इंतजार आखिर तू किस लिए कर रहा था?" विक्रम ने पूछा।
    "मैं तेरी वह नकचढ़ी गर्लफ्रेंड नहीं हूं, जो तेरी जेब खाली करने के लिए इंतजार कर रहा था," विकल्प में चिढ़ते हुए कहा।
    जवाब में विक्रम ने उसे हल्के गुस्से से घूरा।
    "इस तरह से मुझे मत देख, मुझे डर लगता है, लगता है जैसे कि आंखों से ही जला कर खत्म कर देगा। कभी इन बड़ी-बड़ी आंखों से आरती मैडम को भी डरा दिया कर, जो फेवीकोल की तरह तुझ से चिपकी हुई रहती है....." विकल्प ने जैसे नाक पर से मक्खी उड़ाते हुए कहा। वही विक्रम तिरछी नजर से उसकी तरफ देख रहा था।

    "मुझे तुझसे कुछ जरूरी काम था और कुछ बताना था, इसीलिए तेरा इंतजार कर रहा था।" विक्रम को इस तरह से अपनी ओर देखता हुआ पाकर विकल्प ने तेजी से आने का कारण बताया।
    "अब बता भी दे, या उसके लिए किसी मुहूर्त का इंतजार कर रहा है कि मैं तुझे दो चार हाथ लगाऊं और तेरे मुंह से रिकॉर्डर की तरह सारी बातें निकले!" विक्रम ने विकल्प को हल्की डांट लगाई।

    "बताता हूं, बताता हूं.... एक ही पल में अपना टेंपर क्यों लूज कर देता है?? लेकिन पहले तू यह बता कि तू इतना घबराया हुआ क्यों है?" विकल्प ने गौर से विक्रम के चेहरे की तरफ देखते हुए पूछा।
    तभी कमरे के दरवाजे पर नॉक हुई। विकल्प और विक्रम का ध्यान उधर चला गया। तब तक विक्रम ने अपने आपको खुद से संभाल भी लिया था।

    "यस कमिंग....." विक्रम ने कहा।
    मिस सोफिया विक्रम की कॉफी लेकर आई थी। उसने कॉफी को सावधानी से टेबल पर रख दिया और विक्रम से कुछ पूछने के लिए अभी मुंह खोला ही था कि विक्रम ने उसे आंखों के इशारे से जाने के लिए कहा। विकल्प गौर से यह सब देख रहा था। सोफिया के यहां आने से जितना एक्साइटेड हुआ था, उतना ही उसने सोफिया को जाते हुए देख कर बुरा सा मुंह बनाया।

    "मिस सोफिया, एक कप कॉफी मुझे भी मिलेगी?" सोफिया को जाते हुए देखकर उसने पीछे से आवाज लगा दी।
    जाते-जाते सोफिया खुशी से चहकते हुए पीछे मुड़ी, "ऑफकोर्स सर।"
    वह अपनी खुशी में भी दो चार शब्द और कह जाती, लेकिन विक्रम की गहरी ठंडी आंखों ने उसके सारे उत्साह पर पानी फेर दिया था। उसने अपनी आंखें नीचे झुका ली।
    "तो फिर मेरी पसंद का एक कड़क दमदार कॉफी, आपके खूबसूरत हाथों की हो जाए।" विकल्प ने सीधे-सीधे सोफिया से फ्रैंक किया।

    सोफिया ने एक झुकी हुई नजर विक्रम पर डाली जो कि गुस्से में सोफिया की तरफ देख रहा था और किसी भी पल उसे फायर कर सकता था। वही विकल्प पलके बिछाए हुए, दिल थामे सोफिया के होठों से निकलने वाले जवाब का इंतजार कर रहा था।
    "अभी लाती हूं, सर।" विक्रम की नजरों की ताव को समझते हुए, सोफिया ने तेजी से केबिन से निकलने में ही अपनी भलाई समझी।

    "यह सब क्या था?" सोफिया के जाते ही विक्रम ने विकल्प से पूछा।
    "क्या था?" विकल्प में अनजान बनते हुए विक्रम का सवाल उसी से कर दिया।
    "मैंने तुझे पहले ही कहा है कि अपनी ये बेसिर पैर की हरकत बाहर ही छोड़कर आया कर। लेकिन तू मेरी ही सेक्रेटरी से, मेरे ही ऑफिस में मेरे सामने फ्रैंक कर रहा था?" विक्रम ने सीधे होते हुए विकल्प से पूछा।

    "बिल्कुल नहीं!! मेरी इतनी मजाल!!" विकल्प ने सरेंडर की पोजीशन में अपने दोनों हाथ खड़े कर दिए।
    "वह तो उसने तेरे लिए कॉफी लाई, और मैंने अपने लिए कॉफी मंगवाई।" विकल्प ने लापरवाही से जवाब दिया।
    विक्रम अभी भी उसे तेज नजरों से देख रहा था। इसलिए विकल्प ने टॉपिक चेंज करने में ही अपनी भलाई समझी।

    "चलो!! यह सब छोड़। पहले यह बता?? जब मैं इस केबिन में आया था, तो तेरी शक्ल पर 12:00 क्यों बजे थे?" विकल्प ने घुमा फिरा कर बात फिर से वही पहुंचा दी।
    लेकिन अब तक विक्रम पूरी तरह से खुद को संभालने की कोशिश में कामयाब हो चुका था।
    "पता था मुझे, दिन भर इधर-उधर नैन मटक्का करने से यही होना था!!" विक्रम ने कहा।

    "क्या मतलब तेरा?" विकल्प ने थोड़े हैरत और आश्चर्य के मिले-जुले भाव के साथ पूछा।
    "तू जो यह आती-जाती लड़कियों ताड़ते रहता है ना !! इसी कारण तेरी आंखें समय से पहले धोखा दे चुकी हैं। इससे पहले की तेरी आंखें, पूरी तरह से तुझे धोखा दे जाए। अपनी आंखों का इलाज करवा ले।" विक्रम टेबल पर से अपनी कॉफी का मग उठाते हुए कहा।
    "तेरा कहने का यह मतलब है कि जब मैं इस केबिन में आया था और तू बुरी तरह से घबराकर, पसीने से नहाया हुआ था। वह सब मेरी आंखों का धोखा है?" विकल्प ने पूछा।

    "और नहीं तो क्या!! बेवजह अनुमान लगाना बंद कर। मैं कोई घबराया हुआ नहीं था। बल्कि थोड़ी थकान है, और बाकी तेरी बातों से पक चुका हूं।" विक्रम अपने सर को हाथों से मसलते हुए कहा।
    "वह तो दिख ही रहा है....." विकल्प ने आराम से कहा।
    "क्या दिख रहा है?" विक्रम ने पूछा।
    "समझ में नहीं आता है भाई!! आखिर तू काम का इतना स्ट्रेस क्यों लेता है?? दिन-रात मशीन की तरह काम किए जाता है।" विकल्प ने कुछ नागवारी से कहा।

    "तेरे समझ में कुछ नहीं आएगा भी नहीं!! खैर, इन सब बातों को छोड़। तू बता, तू मेरा इंतजार क्यों कर रहा था?" इंतजार शब्द कहते-कहते विक्रम कुछ रुक सा गया था।
    "हां, वह तो मैं भूल ही गया था। पापा का फोन आया था।" विकल्प ने बताया।
    "समर्थ काकोसा का?? क्या कह रहे थे वह?" विक्रम ने पूछा।
    "कहेंगे क्या?? मुझ पर गुस्सा हो रहे थे, तूने अपने साथ मुझे ले जाने से इंकार कर दिया था.... और ऊपर से तेरी सिक्योरिटी भी वहां पर उतनी अच्छी नहीं थी, इसलिए उन्हें तेरी चिंता हो रही थी।" विकल्प ने मुंह बनाते हुए बताया।

    "और...." विक्रम ने कॉफी का घूंट लेते हुए पूछा।
    "और क्या?? तू तो अपना फोन स्विच ऑफ करके बैठ गया था और अब तेरे सारे फोन कॉल्स मेरे ही फोन पर आ रहे थे... पुलकित काकोसा का भी फोन आया था।" विक्रम ने बताया।
    "वह क्या कह रहे थे?"

    "कहेंगे क्या?? तूने उनसे राजगढ़ सिटी प्रोजेक्ट को फिर से ओपन करने के लिए कहा था। उन्होंने गवर्मेंट से बात की थी। उधर से पॉजिटिव रिस्पॉन्स आया है। उन्हें इस सिटी प्रोजेक्ट को रिओपन करने में कोई प्रॉब्लम नहीं है, बस कुछ कॉन्ट्रैक्ट को नए सिरे से बनवाना होगा और कुछ को रेवेन्यू करवाना होगा। इन सब चीजों को फाइनल करने के लिए, वहां पर तेरी जरूरत पड़ेगी। फाइल्स पर सिग्नेचर करने के लिए उन्हें बस, तुम्हारा इंतजार है......" विकल्प ने आराम से बताया।

    "तुम्हारा इंतजार है....." इन शब्दों ने विक्रम के कानों में फिर से सीटियां बजानी शुरू कर दी। आखिरी घूंट लेने के लिए होठों तक जाता हुआ कॉफी का मन वहीं पर रुक गया और विक्रम का हाथ कांपने लगा।
    विक्रम की नजर अपने कांपते हुए हाथ पर गई और अगले ही पल उसे अपने कॉफी के मग में कुछ अलग सा दिखाई पड़ा। विक्रम को ऐसा लगा जैसे कि उस कॉफी के मग में, अब कॉफी नहीं, खून भरा है।

    विक्रम के पूरे बदन में डर से एक सनसनी सी दौड़ गई। उसके हाथों से छूट कर कॉफी का मग नीचे गिर गया और उस में से निकलकर, खून पूरे केबिन में फैल गया था। विक्रम को अब पूरे केबिन में केवल खून ही खून बिखरा हुआ दिखाई पड़ रहा था। विक्रम ने डर से अपनी आंखें बंद कर ली।

  • 5. इंतज़ार: वो भूली दास्तां - Chapter 5

    Words: 1421

    Estimated Reading Time: 9 min

    कॉफ़ी की जगह, मग में खून देखकर विक्रम बुरी तरह से घबरा गया था। उसके हाथ कांपने लगे और उसके हाथों से छूट कर कॉफी का मग जमीन पर नीचे गिर गया। पूरे फर्श पर खून ही खून बिखर गया।
    अभी इस बिखरे हुए खून में से जहरीले कीड़े, सांप, बिच्छू, निकलकर उसकी ओर बढ़ रहे होंगे, ऐसा सोच कर ही विक्रम का पूरा शरीर डर से सनसना उठा। उसके पूरे बदन में एक डर की झनझनाहट सी फैल गई। अपने आपको इन सब चीजों से बचाने के लिए विक्रम ने अपनी आंखें कसकर बंद कर ली और अपने हाथों से सोफे के हत्थे को जोर से पकड़ लिया।

    वहीं विकल्प झटके से उठ कर खड़ा हो गया। उसे समझ में नहीं आया कि आखिर विक्रम ने कॉफी का मग क्यों छोड़ दिया? क्या विक्रम किसी बात पर गुस्सा गया है? वैसे तो विक्रम गुस्से में चीजों की तोड़फोड़ नहीं करता था, तो फिर अचानक से ऐसा क्यों? विकल्प सोच रहा था।

    विकल्प ने एक नजर नीचे फर्श पर टूटे हुए कॉफी के मग पर डाली और दूसरी नजर विक्रम के चेहरे पर, जिसने अपनी आंखें बंद कर रखी थी। उसके चेहरे से साफ-साफ पता चल रहा था कि वह बहुत ही तनाव में है। तनाव की खींची हुई लकीरें उसके चेहरे पर साफ-साफ देखी जा सकती थीं और आंखें बंद करके जैसे विक्रम अपने अंदर चल रहे इस तूफान को शांत करने की कोशिश में लगा है।

    अचानक से जैसे विकल्प को विक्रम की इस हालत का कारण समझ में आ गया। उसने विक्रम के कंधे पर हाथ रखा।
    "जिन चीजों को याद करने से दिल को दर्द पहुंचता है, तो उन्हें याद रखने की जरूरत ही क्या है? भूल क्यों नहीं जाता बीती बातों को?"

    विकल्प की आवाज सुनकर, विक्रम जैसे इन काले अंधेरे, खौफनाक मंज़र से निकल कर बाहर आया। उसने एक गहरी सांस लेते हुए अपने आप को संभालने की कोशिश की। फिर धीरे से अपनी आंखें खोल दी और अब खाली आंखों से फर्श को देखे जा रहा था। हमेशा की तरह फर्श बिल्कुल साफ था। केवल थोड़ी सी कॉफी और मग के टूटे हुए टुकड़े बिखरे पड़े थे। विक्रम उन्हें बहुत ध्यान से देख रहा था, जैसे मग के टूटे हुए टुकड़े, उसे उसकी हालत का अंदाज़ा दिला रहे थे। उसकी हालत भी तो यही हो गई थी, वह अंदर से बुरी तरह से टूट चुका था।

    "ऐसे फर्श पर, इतने ध्यान से क्या देख रहा है?" विकल्प ने पूछा।
    विक्रम ने कोई जवाब नहीं दिया, बल्कि जाने उन छोटे-छोटे टुकड़ों के बीच विक्रम क्या खोजने की कोशिश कर रहा था? उसने अपना हाथ मग के एक टुकड़े की ओर बढ़ा दिया। विकल्प ने उसका हाथ बीच में ही पकड़ लिया।
    "अरे रहने दे भाई! मुझे पता है कि तू साफ-सफाई पसंद है, लेकिन यह टुकड़े तुझे लग सकते हैं। और वैसे भी हमारे पास नौकरों की कमी नहीं है। एक मिनट रुक जा, मैं मिस सोफिया को बुला देता हूं, वह साफ कर देंगी," विकल्प ने तेजी से कहा।

    "तुझे पता है भाई! यह टूटे हुए मग के टुकड़े मुझ पर हंस रहे हैं!" बेखुदी में विक्रम बोले गया।
    "क्या?" विकल्प को तो हैरत हुई।
    "हां भाई! यह टूट कर बिखरे हुए टुकड़े, मुझे मेरी हालत का पता दे रहे हैं। इनकी और मेरी हालत बिल्कुल एक जैसी है," कहते-कहते विक्रम एक पल के लिए रुका।
    "इस मग के टूटे हुए टुकड़ों को तो मिस सोफिया इकठ्ठे करके फेंक देंगी। लेकिन मैं अपने दिल का क्या करूं? इस तरह से टुकड़ों में टूट कर बिखरा पड़ा है कि मैं उसके टुकड़े भी नहीं समेट पा रहा हूं, क्या करूं मैं उसका? क्या उन टुकड़ों का? जो हर पल मेरे दिल को छेद रहे हैं? क्या उन्हें भी समेट कर बाहर फेंक दूं?" विक्रम ने विकल्प से पूछा।

    विकल्प, विक्रम की हालत समझ रहा था। उसके पास विक्रम के इस सवाल का कोई जवाब नहीं था।
    "मुझसे यह नहीं हो पाएगा!" विक्रम ने बेबसी से अपना सर अपने दोनों हाथों में थाम लिया।
    "पागल हो गया है क्या भाई तू? तू समझने की कोशिश क्यों नहीं करता? जो बीत गई सो बात गई। तू ही कहता है ना कि आज की दुनिया में इतना कंपटीशन है कि अगर हम एक पल के लिए कहीं सांस लेने के लिए भी रुक जाते हैं तो हम इस जमाने की दौड़ में बहुत पीछे रह जाएंगे। तो फिर क्यों? क्यों आज तक तूने अपने आप को वही रोक कर रखा है? क्यों नहीं निकल जाता उन यादों से बाहर!" विकल्प ने विक्रम को कंधों से पकड़ कर पूछा।

    विकल्प की बात सुनकर विक्रम ने फीके से मुस्कुरा कर उसकी तरफ देखा।
    "राजगढ़ की याद! अगर इतना ही दर्द देती हैं, तो क्यों नहीं भूल जाता उन्हें? क्यों फिर जानबूझकर तू वही जाना चाहता है? फिर से उसी प्रोजेक्ट में हाथ डालना चाहता है," विकल्प ने पूछा।
    "क्योंकि मुझे सच जानना है!" विक्रम ने पूरे कॉन्फिडेंस के साथ कहा।
    "कौन सा सच जानना चाहता है भाई तू? जो कि सिर्फ एक छलावा है! जिसका कोई पता नहीं, वह कब आंखों के आगे आकर लोगों को छलकर निकल जाता है?" विकल्प ने पूछा।
    "हां मैं उसी छलावे को देखना चाहता हूं...." विक्रम अपनी जगह से उठकर खड़े होते हुए बोला।

    "चल तेरी भी बात मान ली थी वह एक छलावा है हालांकि मेरा दिल कभी भी इस चीज को मानने को तैयार नहीं होता कि मां सा और पापा सा की डेथ एक रोड एक्सीडेंट में हुई थी। वह भी किसी भूत-प्रेत के चक्कर में या फिर किसी छलावे के चक्कर में? मेरा दिल जाने क्यों बार-बार यह कहता है कि यह एक सोची समझी साजिश थी," विक्रम ने दो कदम आगे बढ़ते हुए कहा। विक्रम की बात सुनकर विकल्प ने अपने होठों को कसकर बंद कर लिया। सच तो यह था कि उसका भी दिल इस बात को कभी मानने को तैयार नहीं होता था कि राजगढ़ हवेली के साथ कोई श्राप जुड़ा हुआ है या फिर वहां पर कोई बुरी आत्मा का साया है।

    लेकिन अपने पापा सा( समर्थ सिंह राणा) के डर से वो खुलकर इस बारे में कुछ कह भी नहीं सकता था। लेकिन विक्रम हर चीज को देखते हुए, समझते हुए यहां तक कि अपने साथ हो रहे, इन हादसों के बाद भी इस चीज को मानने से इंकार कर रहा था।

    "मैं जानना चाहता हूं कि आखिर वह चीज क्या है? और क्यों इस तरह से हमारे ही पीछे पड़ी है? आखिर हमने क्या बिगाड़ा है उसका? और वह हमसे क्या चाहती हैं? जब तक हम प्रॉब्लम के अंदर तक जाकर प्रॉब्लम की जड़ का पता लगाने की कोशिश नहीं करेंगे, तब तक लोग हमें प्रॉब्लम से इसी तरह से डराते रहेंगे। इसी डर से बड़ी मा सा ने मुझे खुद से, अपने घर से पिछले 15 सालों से दूर रखा है," विक्रम ने कहा।

    "ऐसी बात नहीं है भाई! मैंने कई बार इशारों इशारों में पापा सा से इस बारे में बात करने की कोशिश की है, कोशिश की है कि मैं उनसे कुछ जानकारी निकलवा सकूं। लेकिन उन्होंने तो मुझे बुरी तरह से डांट दिया और साफ कहा है कि कोई श्राप और कोई अभिशाप नहीं है। बड़ी मा सा ने सिर्फ तुझे पढ़ने के लिए यहां भेजा है। और जहां राम वहीं पर लक्ष्मण। मैं तेरे बिना नहीं रह सकता, इस कारण जबरदस्ती मैं तेरे पीछे पीछे यहां भी चला आया। फिर तूने अपना बिजनेस यहां सेटल कर लिया। और अभी तक फिलहाल में हमें ऐसा कोई मौका नहीं मिल पाया कि हम वापस इंडिया जा सके.... सिम्पल," विकल्प ने विक्रम को समझाना चाहा।

    "ऐसा तुझे लगता है मेरे भाई! जबकि यह सच नहीं है। घरवाले बिल्कुल नहीं चाहते कि मैं वापस से राजगढ़ जाऊं। मैंने उस रात बड़ी मा सा और समर्थ काकोसा की बात सुनी थी। बड़ी मा सा ने साफ-साफ कहा था कि अगर उन्हें इस श्राप का डर नहीं होता, तो वह मुझे अपने से दूर कभी जाने नहीं देती," विक्रम ने बताया।

    "लेकिन उसका नतीजा क्या निकला? क्या उस श्राप ने मेरा पीछा छोड़ दिया है? या वह श्राप मेरे ऊपर नहीं आ रहा? नहीं मेरे भाई! ऐसा कुछ भी नहीं है। राजगढ़ हवेली का श्राप या फिर वो डर, मुझे आज भी डराने की कोशिश करता है," विक्रम ने कहा।
    "क्या?" विक्रम के मुंह से इतनी बड़ी बात सुनकर विकल्प को तो हैरत के झटके मिले।
    "क्या कह रहा है तू? मुझे साफ-साफ बता.... कौन तुम्हें डरा रहा है? या फिर किसने तुम्हें डराने की कोशिश की है?" विकल्प बेचैन हो उठा।

  • 6. इंतज़ार: वो भूली दास्तां - Chapter 6

    Words: 1429

    Estimated Reading Time: 9 min

    "क्या कह रहा है तू?? मुझे साफ-साफ बता.... कौन तुम्हें डरा रहा है?? या फिर किसने तुम्हें डराने की कोशिश की है??" विकल्प बेचैन हो उठा।

    "मुझे भला कौन डरा सकता है?? जिसे खुद अपने होने का डर, दूसरों के दिल में बैठाना अच्छा लगता हो। तू तो जानता ही है कि मुझे डर नहीं लगता। लेकिन हां, बचपन से ही मुझे कुछ इंक्लूजन आते हैं। कुछ धुंधली, उलझी हुई यादें, जिसमें कि मैं खुद को हमेशा ही मुसीबतों में घिरा हुआ पाता हूं। हर तरफ एक चमकदार सोने के कलश से निकलते हुए सांप, बिच्छू, खून और एक भयानक शक्ल वाली औरत दिखाई पड़ती है।

    पहले तो यह सब चीजें, मुझे सपने में दिखाई देते थे, जोकि अलग अलग तरीके से मेरे दिल के अंदर बैठना चाहते थे, पर जब मैंने सिरे से अपने मन के वहम को नकार कर, आगे बढ़ना चाहा, तो अब उन सपनों ने सोते जागते, उठते बैठते हर तरह से मुझ पर हावी होने की कोशिश करनी शुरू कर दी है।
    यह सब ने मुझे आगे बढ़ने नहीं देते और जब पीछे लौट कर, जब इन सब चीजों को याद करने की कोशिश करता हूं, अपने बीते हुए दिनों में लौटने की कोशिश करता हूं, तो सब कुछ मुझे जाना पहचाना सा लगता है। ऐसा लगता है जैसे कि राजगढ़ कोई मेरा इंतजार कर रहा है और हर वक्त कानों में यह बात कहती है, "तुम्हारा इंतजार है...."

    इस शब्द इंतजार ने मुझे बेचैन करके रख दिया है। मैं कुछ समझ नहीं पाता। इन डरावने सपनों की जाल में मैं पूरी तरह से उलझ कर रह गया हूं।" विक्रम ने अपनी परेशानी को हल्के में ही विकल्प को बताया। आखिर अपनी परेशानी को अब तक वह अपने अंदर समेटे रह सकता था?? विक्रम को अब अपना कोई एक ऐसा साथी चाहिए था, जो कि उसे और उसकी प्रॉब्लम को समझ सके, ना कि इसे उसका दिमागी फितूर कहकर उसका मजाक उड़ाए। और ऐसे में विकल्प से ज्यादा भरोसेमंद, उसके लिए कोई नहीं था।

    "क्या??" विक्रम के मुंह से इतनी बड़ी बात सुनकर विकल्प को तो हैरत के झटके मिले।
    "तेरे कहने के मुताबिक कि जब से तू इंडिया से यहां अमेरिका आया है तब से आज तक तेरे साथ यह सब कुछ बचपन से होता चला आ रहा है और तू मुझे आज बता रहा है?? क्या तूने मुझ पर इतना भी भरोसा करना जरूरी नहीं समझा था?? भाई, तू मेरा भाई है..... हम दोनों के बीच में खून का रिश्ता होने के साथ-साथ, दोस्ती का सबसे मजबूत रिश्ता भी है, जिससे कि हम दोनों एक दूसरे से अपने दिल का हाल खुलकर कह सके। मैं अपनी सारी बातें तुझसे बताता था और अभी तक बताता भी हूं, लेकिन कभी भी तूने मुझसे यह कहना जरूरी नहीं समझा कि तू किन हालातों से गुजर रहा है??" विकल्प को विक्रम से ढेरों शिकायत थी।

    "भाई मेरे पहले तू मेरी बात को समझने की कोशिश कर!!" विक्रम ने विकल्प को बीच में रोकते हुए कहा।

    "क्या समझने की कोशिश करूं?? मेरा खुद का भाई, जिस पर कि मैं आंख बंद करके भरोसा करता हूं, वह मुझ पर भरोसा नहीं करता!! मुझसे अपनी सारी बातें, सारी प्रॉब्लम्स छुपा लेता है। हां बता मुझे तो मुझे क्या समझाना चाहता है??
    भाई मेरे!! मैं अपने जन्म से लेकर आज तक तेरे साथ हूं, और जब कभी भी मैंने तुझे से रातों में उठकर जागने के बारे में पूछा तो तू हमेशा ही ये बहाना बनाकर टालता रहा कि तुझे बड़ी मां सा और घरवालों की याद आ रही है। जब कभी भी तू पसीने में लथपथ रातों को उठ कर परेशान होता था, तो मुझे यह कह कर बहला देता था कि तेरी आंखों के आगे, बड़े बाबा सा के भयंकर एक्सीडेंट का सीन घूम रहा है, जिसके कारण तू परेशान है। तूने कभी भी मुझसे अपनी ओरिजिनल परेशानी बतानी जरूरी नहीं समझी.... और आज जब, पानी हद से आगे बढ़ गया, तो तू मुझे यह सब कुछ बता रहा है??" विक्रम हैरान होने के साथ-साथ परेशान भी था और साथ में विक्रम के लिए चिंता उसकी बातों से भी झलक रही थी। अर्जुन, विकल्प की बातों को समझ रहा था।

    विकल्प को तो याद भी नहीं कि वह कब से विक्रम के साथ था। वह विक्रम के पापा सा, यानी कि राणा अभिमन्यु प्रताप सिंह बुंदेला के ममेरे भाई समर्थ सिंह बुंदेला का बेटा था। दोनों की परवरिश बचपन से ही, एक साथ एक ही घर में एक ही छत के नीचे हुई और दोनों भाइयों में, भाइयों का रिश्ता तो था ही, हमउम्र होने के कारण, दोस्ती का रिश्ता भी पनप गया था।
    घर से लेकर बाहर तक सब विकल्प को, विक्रम का लक्ष्मण ही कहते थे और विकल्प को, आज तक इस चीज की खबर भी नहीं हुई थी कि उसका भाई किन परिस्थितियों से जूझ रहा है?? अपनी लापरवाही पर, विकल्प को अपने आप पछतावा होने लगा।

    "देख, तू अपने आप को ब्लेम करना बंद कर दे। पहले मेरी बात सुन ले, मैं समझता हूं कि तुझे कंप्लेन करने का पूरा हक है। लेकिन तू मेरी भी प्रॉब्लम समझने की कोशिश कर। आखिर में, मैं तुझसे क्या बताता?? कि विक्रम सिंह बुंदेला, जिसकी एक नजर उसके दुश्मनों को भी डराने के लिए काफी है, वह खुद अपने मन के डर से डरा हुआ है, जो की ओरिजिनल में कुछ है ही नहीं!! कोई परेशानी ही नहीं है, सिर्फ एक मन का वहम है। जो कोई भी मेरी इस प्रॉब्लम को सुनेगा ना!! वह मुझे मेंटली डिस्टर्ब कहेगा.... सब यही कहेंगे कि कामकाजी किस ड्रेस लेने के कारण विक्रम सिंह बुंदेला कम उम्र में ही पागल हो गया है....." विक्रम ने अब जाकर विकल्प से पूरी बात खुल कर बताई।

    "तू कब से दुनिया की परवाह करने लगा भाई?? दुनिया तेरे सोच के पीछे चलती है। जहां तक तेरी सोच जाती है, वहां तक तो बड़े-बड़े की सोच नहीं जाती। तू कब से दुनिया की सोच के पीछे चलने लगा.... कोई तुझे मेंटली डिस्टर्ब नहीं कहेगा। इस दुनिया में जिस तरह से तेरा, मेरा हम सब लोगों का एक एक्जिस्टेंस है, अस्तित्व है, उसी तरह से इस दूसरी दुनिया का भी एक एक्जिस्टेंट है। मैं तुझ से कई बार इस मैटर पर बात करना चाहता था, लेकिन मेरी बात को तू हवा में उड़ा देता था और पापा सा मुझे डांट डपट कर चुप करा देते हैं। तू मान या ना मान!! यह सब चीजें होती हैं।" विकल्प ने अपनी बात कही।

    "यानी कि तू इन सब चीजों के अस्तित्व पर विश्वास रखता है??" विक्रम ने पूछा।
    "बिल्कुल रखता हूं भाई!!"
    "तो फिर तुझे यह भी लगता होगा कि मेरे पापा सा की डेथ इसी श्राप की वजह से हुई??" विक्रम ने अगला सवाल किया।
    "हां, कभी-कभी मेरा मन ये कहता है कि बड़े बाबा सा के एक्सीडेंट में इन सब चीजों का भी हाथ था..." विकल्प ने आंखें झुकाते हुए कहा।

    "बिल्कुल नहीं!!! पापा सा की डेथ नही हुई थी, बल्कि उनका मर्डर हुआ था, जोकि पूरी तरह से एक सोची समझी साजिश थी और यह बात में पूरे दावे के साथ कह सकता हूं क्योंकि अगर यह सब चीजें जानलेवा होतीं, तो यह बचपन से मुझे डराने की कोशिश कर रही हैं और अब तक मेरी जान ले चुकी रहतीं।" विक्रम खड़े होते हुए बोला।

    "मैं तेरी वह बात भी मानने को तैयार हूं कि बड़े बाबा सा की मौत किसी एक्सीडेंट में नहीं हुई बल्कि एक सोची समझी साजिश थी, लेकिन मेरा मन इस बात से भी नहीं नकार सकता की तेरे साथ जो कुछ भी हो रहा है वह उस श्राप का हिस्सा नहीं है।" विकल्प ने विक्रम को समझाते हुए कहा।

    "तो फिर ठीक है!! तू ही अब मुझे बता कि अपने मन के इस डर को या फिर उस श्राप को अपने से दूर करने का क्या रास्ता खोजना चाहिए? आखिर कोई तो रास्ता होगा, इस श्राप से बचने का?? या फिर इस डर को काबू करने का? क्योंकि मेरी जिंदगी का सीधा सा फंडा है, या तो प्रॉब्लम को तोड़ दो या फिर खुद टूट कर बिखर जाओ। दोनों ही कंडीशन में जीत तुम्हारी होती है।" विक्रम ने मजबूती से कहा।
    "मतलब?"

    "इसका मतलब तो उस दिन समझ में आएगा, जब इस श्राप का मुझसे आमना सामना होगा। तब देखते हैं कौन किसके दिल में अपना डर बैठाने में कामयाब होता है?? उस दिन या तो यह श्राप हमेशा हमेशा के लिए बुंदेला परिवार से खत्म हो जाएगा या फिर खत्म हो जाएगा बुंदेला खानदान!!" विक्रम की आंखों में एक अजब सी मौत से भी लड़ने की, गहरी चमक थी, जिसको देखकर एक पल के लिए विकल्प भी डर सा गया।

  • 7. इंतज़ार: वो भूली दास्तां - Chapter 7

    Words: 1099

    Estimated Reading Time: 7 min

    राजगढ़ रियासत
    राजस्थान (भारत।)

    जिस समय बिक्रम, विकल्प से अपनी आप बीती सुना रहा था, उस समय भले ही अमेरिका में दिन निकला हुआ था, पर भारत में रात का समय था। विक्रम की दादी मां सा राजगढ़ की राजमाता शतरूपा देवी अपने आलीशान बुंदेला पैलेस में, एक नरम मुलायम बिस्तर पर आराम से सो रही थी। आने वाले हर एक खतरे से अनजान, वह चैन की नींद ले रही थी।

    राजाओं के राजसी शासन से लेकर आज के लोकतांत्रिक व्यवस्था तक, समय भले ही बदला था, लेकिन इस राजगढ़ रियासत के शाही परिवार और शाही बुंदेला पैलेस की शान ओ शौकत में कोई बदलाव नहीं आया था। ये पैलेस आज भी उसी दमखम के साथ खड़ा था, जितने दमखम के साथ अंग्रेजों के शासन काल में था या फिर उस समय, जब पूरे राजगढ़ में बुंदेला का राज था।

    कहते हैं कि जो समय के बदलाव के अनुसार अपने आप को नहीं बदलता, समय उसका नामोनिशान मिटा देती है। लेकिन बुंदेला परिवार ने बदलते समय के अनुरूप, अपने आप को हमेशा ही तैयार रखा था। जिसके कारण जहां कि आसपास के और पड़ोसी रियासतों का नामोनिशान मिट गया था, राजगढ़ रियासत के बुंदेला परिवार ने आज भी अपना रुतबा हर क्षेत्र में बरकरार रखा था।

    पहले जहां रियासत की आमदनी का स्रोत राजस्व और कर वगैरह थे, आज बुंदेला परिवार के दूरगामी सोच के परिणाम स्वरूप, बुंदेला ग्रुप ऑफ इंडस्ट्रीज, बुंदेला एंपायर जैसी कई कंपनियां जिनका स्वामित्व, मालिकाना हक केवल बुंदेला के हाथों में था, अच्छा खासा अरबों, खरबों डॉलर का टर्नओवर देती थी। आज के डेट में, इंडिया के ही नही बल्कि वर्ल्ड के टॉप टेन कंपनी में से एक कंपनी "रॉयल्स बुंदेला" थी और बुंदेला परिवार वर्ल्ड टॉप टेन हाईएस्ट रिच फैमिली में से एक था।

    पीढ़ी दर पीढ़ी ने ना सिर्फ अपना रुतबा बल्कि, आज भी अपनी खानदानी परंपरा को कायम रखा था। विक्रम सिंह बुंदेला इस समय, इस पूरे राजगढ़ रियासत का उत्तराधिकारी था। या फिर ऐसा कहिए कि वह अपनी रियासत का एक बेताज बादशाह था।

    आज से करीब 16 साल पहले, एक रोड एक्सीडेंट में, अपने इकलौते बेटे और बहू को खोने के बाद, शतरूपा देवी ने एक बार फिर से पूरे राजगढ़ की कमान अपने हाथों में ले ली थी। अपने इकलौते पोते और राजगढ़ रियासत के अंतिम बचे हुए वारिस "विक्रम सिंह बुंदेला" को उत्तराधिकारी घोषित करके, उसे पढ़ने के लिए इंडिया से बाहर भेज दिया और खुद उसकी अनुपस्थिति में, पूरे बुंदेला का कार्यभार अपने भतीजे समर्थ सिंह और खास वफादार पुलकित सिंह के साथ मिलकर, उन्होंने संभाल लिया था।

    मात्र 16 साल की उम्र में जब विक्रम ने बिजनेस की दुनिया में कदम रखा, तो शतरूपा देवी ने बिजनेस वर्ल्ड से रिटायरमेंट ले लिया। अब उनका सारा समय पूजा-पाठ और राजनीति में सक्रिय था। आज भी बुंदेला परिवार की मुखिया, राजमाता शतरूपा देवी का राजनीति में अच्छा खासा दमखम था। राज्य में भले ही सरकार किसी भी पार्टी की बने, उसकी बागडोर अभी भी शतरूपा देवी अपने हाथों में रखती थी।

    शतरूपा देवी करीब 60 साल की एक खूबसूरत और सौम्य महिला थी। इस वक्त भी कोई उनके चेहरे को देखकर कह सकता था कि उम्र ने उन पर असर डाला था लेकिन बहुत नाम मात्र का। इस वक्त भी उनके चेहरे पर गिनती से 2-4 झुर्रियां ही पड़ी थी, जोकि उनके मैचरनेस को दिखाती थी। कोई भी इस खूबसूरत चेहरे को देखकर कर सकता था कि यह चेहरा जवानी के दिनों में कितना खूबसूरत होगा? इस उम्र में भी, उनके बाल कमर तक लंबे थे और उनके शरीर के सुडौल बनावट, उनके मेंटेनेंस को दिखा रहा था।

    करीब रात के 12:00 बजे शतरूपा देवी को अचानक से अपना गला प्यास से सूखता हुआ महसूस हुआ। प्यास लगने के कारण उनकी नींद खुल गई। इस लग्जरियस बेडरूम में लाइट बल्ब की हल्की-हल्की फैली हुई थी और इस समय शतरूपा देवी के बदन पर एक हल्के रंग की नरम मुलायम रेशमी साड़ी थी। शतरूपा देवी ने टटोलते हुए बेड स्विच से साइड में रखा हुआ टेबल लैंप जलाया। अब कमरे में अच्छी खासी तो नही पर कुछ रोशनी हो चुकी थी।

    ये रोशनी इतनी तो हो ही चुकी थी कि कमरे में रखी हुई हर एक चीज, बहुत साफ-साफ नजर आ रही थी। बुंदेला पैलेस अपने नाम के अनुरूप ही एक खूबसूरत शाही महल था और उसका हर एक कमरा, बुंदेला खानदान के शाही शौक और अपार धन-संपत्ति का खुद ब खुद बोलता हुआ नायाब नमूना था। कमरे को आधुनिक सुविधाओं के साथ-साथ शाही शानो शौकत को ध्यान में रखते हुए सजाया गया था। कमरे में हर चीज एंटीक पीस की लगी हुई थी। कमरे के फर्श से लेकर दीवार तक, बेशकीमती टाइल्स लगे हुए थे।

    कमरे के छत पर खूबसूरत कारीगरी की गई थी। दरवाजे, खिड़कियों पर मोटे-मोटे खूबसूरत महंगे परदे लटक रहे थे और सब से तो इस इस कमरे के आकर्षण का केंद्र इस कमरे के बीचो-बीच लगा हुआ झूमर था, जो कि विदेश से मंगाया गया था और उसकी कीमत करोड़ों में थी। साइड बेड लैंप के जलते ही, जब उसकी रोशनी जरूरत पड़ी, तो केवल रिफ्लेक्शन ऑफ लाइट से यह झूमर इस कदर सात रंगों में चमकने लगा था, जिसने इस पूरे कमरे की खूबसूरती को एक अलग ही इंद्रधनुष का सतरंगी लुक दे दिया था। जब इस झूमर में लगे हुए बल्ब को अगर जलाया जाता तो, शायद उसकी खूबसूरती से सीधे ही इंद्रधनुष कमरे में उतर आया गया रहता।

    "अचानक से आज मुझे आधी रात को इतना प्यास क्यों लग रहा है?" शतरूपा देवी ने अपने गले को छूते हुए अपने आप से कहा।

    "लगता है कि आज मैं पानी पीना भूल गई हूं।" शतरूपा देवी ने मन ही मन सोचते हुए कहा। उन्हें खाना खाने के आधे घंटे के बाद पानी पीने की आदत थी। उन्होंने आंख बंद करके याद करने की कोशिश की और तुरंत ही उन्हें याद आ गया कि उन्होंने पानी तो पी लिया था। फिर अचानक से प्यास क्यों लग गई? वह भी इस कदर, जैसे कि उन्होंने आज पूरे दिन पानी ना पिया हो।

    "हो सकता है कि आज सब्जी में कोई मसाला तेज होगा। टेस्ट के कारण मुझे समझ में नहीं आया और मैंने खा लिया। अब उसी के कारण मेरा गला प्यास से जल रहा है। खैर, जो भी हो! पानी तो पीना ही होगा। बिना पानी पिए ना ही प्यास जाएगी और ना ही ये जलन।" शतरूपा देवी धीरे से अपने पलंग से उठ कर खड़ी हुई और पैरों में उन्होंने अपने नरम मुलायम स्लीपर डालें। धीरे-धीरे कमरे में बिछे हुए कीमती कॉर्पोरेट पर चलती हुई, कमरे में ही रखे हुए छोटे फ्रिज की तरफ आई। शतरूपा देवी ने पानी पीने के लिए फ्रिज खोला, पर फ्रिज देखकर वह बिल्कुल हैरान रह गई थी।

  • 8. इंतज़ार: वो भूली दास्तां - Chapter 8

    Words: 1055

    Estimated Reading Time: 7 min

    "हे भगवान!! ऐसा कैसे हो सकता है कि आज किसी भी बोतल में पानी नहीं है??" फ्रिज में लाइन से बोतल सजे हुए थे, लेकिन करीब 12 बोतल में से किसी एक भी बोतल में, एक बूंद भी पानी नहीं था। शतरूपा देवी को बड़ी हैरानी हुई।

    "ऐसा कैसे हो सकता है?? क्या पारो पानी भरकर रखना भूल गई थी?? यह पारो भी ना!! दिन पर दिन भुलक्कड़ और कामचोर होती जा रही है। इससे तो मैं सुबह पूछूंगी, अच्छे से इसकी क्लास लगाऊंगी। पर इस समय क्या करूं?? इस समय किसी को जगाना भी अच्छा नहीं होगा। खुद ही जाकर किचन से पानी ले लेती हूं।" मन में सोचती हुई शतरूपा देवी अपने कमरे में से निकल कर किचन की ओर चल पड़ीं।

    "कमाल है!! आज घर के सारे नौकर कहां हैं?? ऊपर से निर्मला भी किचन में नहीं है...." शतरूपा देवी अपने कमरे में से निकल कर किचन तक चली आई थीं, लेकिन उन्हें कोई नहीं मिला था। यहां तक कि रसोई का काम करने वाली नौकरानी निर्मला भी नहीं थी और रसोई घर में एकदम घना अंधेरा छाया हुआ था। अंधेरे में हाथों से टटोलकर शतरूपा देवी ने किचन में लगे हुए स्विच बोर्ड से बल्ब जलाना चाहा तो, ऐसा लगा कि जैसे कोई उनके कानों के पास से तेजी से उड़ता हुआ जाकर, गैस स्टोव के पास बैठ गया है। शतरूपा देवी झटके से उधर मुड़ी और देखने की कोशिश की।

    "यह क्या था??"

    अंधेरे में कुछ साफ नजर तो नहीं आया, पर दो चमकती हुई डरावनी आंखें उन्हें ही घूर रही थीं। उन्हें दो गहरी आंखें, बल्ब की तरह चमकती हुई दिखाई पड़ रही थीं, जिन्होंने शतरूपा देवी के पूरे बदन में रीढ़ की हड्डी तक एक सिहरन पैदा कर दिया था।

    "कौन!!! कौन है वहां पर???" अपनी पूरी ताकत इकट्ठी करते हुए शतरूपा देवी ने पूछा, लेकिन उधर से कोई जवाब नहीं आया, बल्कि उन आंखों की चमक अब उन्हें अपने चेहरे पर चुभने लगी थी। जैसे वह आंखें शतरूपा देवी की आंखों से अंदर दिल तक उतर कर, उनके अंदर अपना डर बैठाने में कामयाब हो रही थीं।

    "कौन है वहां पर??? मैं कह रही हूं सामने आओ। कौन है किचन में???"

    तभी कोई उनके पीछे से उड़ता हुआ, बिल्कुल उनके पास होते हुए तेजी से निकला। शतरूपा देवी का दिल एक पल के लिए धड़कना भूल गया था।

    एक साथ इतने सारे डरावने मंजर को देखकर शतरूपा देवी की हालत खराब हो रही थी। हालांकि वो एक राजपूतानी थीं, राजगढ़ रियासत की राजमाता थीं। ना सिर्फ उनका व्यक्तित्व प्रभावशाली था, बल्कि खुद भी एक मजबूत दिल की औरत थीं। कठिन से कठिन परिस्थिति में भी मजबूती से खड़े रहना जानती थीं। तभी तो उन्होंने अपने पति को खोने के बाद, इकलौते जवान बेटे और बहू की मौत के गम से पूरी तरह से टूटने के बावजूद भी अपने आप को बिखरने नहीं दिया।

    अपने पोते विक्रम और इस राजगढ़ की विरासत के लिए, दुनिया की नजरों में खुद को संभाल कर, आज मजबूती से इस मुकाम पर खड़ी थीं।

    लेकिन फिर भी, यह शायद एक ऐसी घटना थी.... या फिर ऐसी घटनाओं की शुरुआत थी.... जिनकी कड़वी और भयानक यादें आज भी उनके अंतर्मन में कहीं सोई हुई थीं। आज, अभी जो कुछ भी हुआ था, उसने उनके दिल के अंदर बरसों से सोए हुए इस डर को थपकी देकर जगाने का काम किया था।

    "नहीं, नहीं। ऐसा कुछ भी नहीं है। यह सब कुछ मेरे मन का वहम है। लगता है कि मैंने कुछ ज्यादा ही सोच लिया है। उस घटना के तो काफी साल बीत चुके.... अब उसकी परछाई हमारे जीवन में कहीं नहीं है। यहां पर तो मेरे अलावा कोई है भी नहीं!! तो फिर और क्या होगा...." अपने दिमाग के सारे अंदेशों को दूर हटा कर उन्होंने खुद को संभालते हुए, अपने आप को रिलैक्स करने के लिए अपनी आंखें बंद कर लीं।

    अभी भी रसोई घर में काफी घना अंधेरा था और आंखों को कुछ दिखाई नहीं पड़ रहा था। तो उन्होंने उंगलियों के सहारे ही दीवार को छूने की कोशिश की। जल्दी उन्हें किचन का उस किनारे का दीवार मिल गया, जिधर कि स्विच बोर्ड लगाया गया था। अपना घर होने के कारण उन्हें दीवार ढूंढने में कोई ज्यादा दिक्कत नहीं हुई।

    अभी उनके हाथों की उंगलियां अंधेरे में ही दीवार पर लगे हुए स्विच बोर्ड को टटोलने में लगी हुई थीं कि तभी उनके कानों में एक साथ कहीं दूर सियारों के रोने की आवाज पड़ी और इसी के बीच में उन्हें उल्लू के बोलने की भी आवाज सुनाई पड़ी, जो कि कहीं उनके करीब ही बैठकर बोल रहा था।
    अंधेरी काली रात में इन डरावनी आवाजों ने उस दरवाजे को पकड़कर जोर से खड़खड़ा दिया था, जिसे शतरूपा देवी ने आज से करीब 15, 16 साल पहले अपने सीने में दफन करके कस कर बंद कर दिया था।

    "नहीं!! ऐसा नहीं हो सकता।" शतरूपा देवी ने अपने मन के डर को काबू करने की कोशिश में अपने आप को दिलासा दिया, लेकिन यह आवाज तेजी से उनकी ओर बढ़ती चली आ रही थी।
    अब शतरूपा देवी बुरी तरह से डर गई थीं, और उन्होंने अपनी आंखें खोल दीं।
    जैसे-जैसे यह आवाजें उनके कानों के नजदीक आ रही थीं, वैसे-वैसे दिल की धड़कन बुलेट ट्रेन की स्पीड से शोर मचाती हुई तेजी से भागने लगी थी, ऐसा लग रहा था कि मानो दिल निकल कर बाहर आ जाएगा। अपनी बढ़ी हुई धड़कनों को काबू करने के लिए दिल पर हाथ रख लिया। बड़ी मुश्किल से उनके होठों से निकला....

    "कौन है यहां पर??? मैं कह रही हूं सामने आओ। कौन है किचन में???"

    अंधेरे में कुछ साफ नजर तो नहीं आया, पर दो चमकती हुई डरावनी आंखें उन्हें ही घूर रही थीं। उन्हें दो गहरी आंखें, बल्ब की तरह चमकती हुई दिखाई पड़ रही थीं, जिन्होंने शतरूपा देवी के पूरे बदन में रीढ़ की हड्डी तक एक सिहरन पैदा कर दिया था। एक पल के लिए तो शतरूपा देवी डर गई थीं, लेकिन अगले ही पल, शायद उंगलियों को स्विच बोर्ड मिल गया था। उन्होंने लाइट ऑन कर दिया।

    सामने स्लैब पर एक बड़ा सा उल्लू बैठा हुआ, उन्हें ही घूर रहा था। लाइट के ऑन होते ही वह उल्लू रसोई घर में से खिड़की से होता हुआ बाहर अंधेरों में उड़ गया। शतरूपा देवी का दिल धक से रह गया।

  • 9. इंतज़ार: वो भूली दास्तां - Chapter 9

    Words: 1064

    Estimated Reading Time: 7 min

    उल्लू को उड़कर बाहर जाते हुए देख कर शतरूपा देवी ने एक राहत से भरी गहरी सांस ले कर छोड़ी।
    "मैं भी ना!! क्या-क्या सोच लेती हूं, बेवजह के डर से ही आज मुझे अपना हार्ट फेल करवा लेना था। ये तो भगवान की दया थी कि मुझे स्विच बोर्ड मिल गया और जिस से डर रही थी मैं वह एक उल्लू था।" सुमित्रा देवी को अब खुद ही अपनी बेवकूफी पर अफसोस आया और उन्होंने धीरे धीरे अपने आप को काफी हद तक संभाल लिया था।

    स्विच बोर्ड के पास खड़े होकर शतरूपा देवी ने एक पूरी नजर किचन में दौड़ाई। सब कुछ बिल्कुल साफ़ था। कहीं भी कोई चीज बिखरा या फैला हुआ नहीं था। इंडो वेस्टर्न कल्चर में बना हुआ किचन, अपने आप में अपनी राजसी कहानी कह रहा था। शतरूपा देवी अपनी आंखों से ही कुछ खोजते हुए, पूरे किचन का अच्छे से जायजा ले रही थी।

    शायद वो, यह देख रही थी कि कहीं और कुछ तो नहीं छुपा हुआ है। तभी अचानक से उनके कानों में जोर से दरवाजा खुलने और उतनी ही तेजी से बंद होने की आवाज सुनी। दरवाजे को इस कदर पटक कर बंद किया गया था, जैसे किसी ने बहुत तेज गुस्से में किया हो। वह आवाज ऐसी इतनी तेज थी, जिससे कि लगा कि कानों के आसपास ही कोई तेज बम फूटा हो। इतनी तेज आवाज से, कान भी एक पल के लिए सुन पड़ गए थे। तभी फिर अचानक से ऐसा लगा कि कानों के पास से, एक ठंडी हवा उन्हें छू कर निकली हो। इस बर्फ सी ठंडी सर्द हवा ने, उनके कानों को छूते हुए अपनी ठंडक, उनकी रीढ़ की हड्डी तक पहुंचा दी थी। वह एक पल के लिए वो इस ठंडे एहसास से कांप गई। शतरूपा देवी झटके से पीछे मुड़ी।

    उल्लू जिस खिड़की से उड़कर गया था, वह खिड़की अभी भी खुली हुई थी और खिड़की के पल्ले अभी भी हवा से खेल रहे थे। सुमित्रा देवी ने अपने सर पर अपना हाथ रख लिया।
    "यह उर्मिला भी ना!! दिन पर दिन लापरवाह होती जा रही है.... किचन की खिड़की बंद करना भी भूल गई.... अब खिड़की खुली रहेगी तो रात के समय में उल्लू चमगादड़ सब अंदर आएंगे ही।" नौकरानी को कोसती हुई शतरूपा देवी खिड़की बंद करने के लिए आगे बढ़ने लगी।

    "भगवान का शुक्र है कि केवल उल्लू ही अंदर आया था, वरना रात के अंधेरे में, इस तरह से खिड़की खुली रहेगी तो बरसात के मौसम में "कुछ भी" आ सकता था।" शतरूपा देवी के दिमाग में "कुछ भी" के लिए सही शब्द सांप और बिच्छू ही आए थे। लेकिन, इन सब चीजों के नाम दिमाग में आते ही, वह बुरी तरह से कांप गई थी.... दिल और दिमाग एक साथ, अंधेरी काली परछाइयों के डर से कहीं दूर अलग-अलग दिशाओं में भागने लगा था। इसलिए उन्होंने अपने आप को इस शब्द को कहने से भी रोक लिया था।

    "पता नहीं क्या हो गया है?? लग रहा है जैसे कि दिमाग खराब हो गया है मेरा!! आज केवल उल्टे सीधे ख्याल दिमाग में आ रहे हैं। मेरी मति मारी गई थी जो कि मैं पानी पीने के लिए नीचे उतरकर किचन में आई। मुझे वही से इंटर कॉम दबाकर पारो से पानी मांग लेना चाहिए था। अब आधी रात को इस तरह से आत्माओं की तरह भटकती फिरूंगी, तो उन्हीं सबके ख्याल ना दिमाग में आएंगे।" शतरूपा देवी ने अपने उल्टे सीधे दिमागी ख्यालों को झटकने के लिए अपने आप को ही बुरी तरह से डाटा।

    "मैं किचन में सिर्फ पानी पीने के लिए आई थी और अब सिर्फ पानी लेकर, मुझे अपने कमरे में चले जाना है। बाकी सब कुछ मैं कल सुबह देखूंगी और इन नौकरों को तो मैं सुबह खबर लेती हूं। लग रहा है जैसे घोड़े हाथी बेचकर सब सोए हुए हैं कि इतनी आवाज हो रही है फिर भी किसी की नींद नहीं खुल रही। इस गार्ड को तो देखो, आज तो कॉरिडोर की भी लाइट अच्छे से नहीं जल रही। लैंपपोस्ट के लैंप तो केवल बहुत मुश्किल से अपनी ही शक्ल दिखा पा रहे हैं.... रास्ता क्या दिखाएंगे?? और तो और पैलेस के अंदर बाहर सब जगह की लाइट्स ऑफ करके इन लोगों ने रख दी है।" शतरूपा देवी को नौकरों पर भी गुस्सा आ रहा था। और उनका गुस्सा बढ़ाने का काम कर रही थी, ये खिड़की!! जो कि बंद होने का नाम ही नहीं ले रही थी। वह जितना ही इसे खींचकर बंद करने की कोशिश करती थी। चिटकिनी उतनी ही जाम महसूस हो रही थी।

    "छोडूंगी नहीं मैं इन लोगों को!! कल सुबह एक एक की खबर लूंगी। अच्छे से क्लास लगाऊंगी, और इन लापरवाही का हिसाब किताब भी साफ करती हूं...." बोलते हुए किसी तरह से उन्होंने खिड़की बंद करके एक राहत की सांस छोड़ी।
    फ्रिज में से पानी की बोतल निकालने के ख्याल से वो पीछे किचन की तरफ मुड़ी। सामने का नजारा देखकर वहीं पर शॉक्ड हो कर रह गई।

    खिड़की बंद कर के जैसे ही, शतरूपा देवी वापस किचन की ओर फ्रिज में से पानी की बोतल निकालने के लिए पलटती हैं, सामने का नजारा देखकर उनकी आंखें हैरत से फैल जाती हैं।
    "यह कहां आ गई मैं??" अचानक ही उनके होठों से निकला।
    देखते ही देखते सब कुछ बदल गया रहता है। वह तो अपनी इंडो वेस्टर्न स्टाइल में सजी हुई लग्जरियस किचन में खड़ी थी पर अचानक से कहां आ गई?? ये उनका किचन तो क्या?? उनके पैलेस का सर्वेंट क्वार्टर का रूम भी नहीं था।

    यह एक बहुत पुरानी झोपड़ी का कमरा था। कमरे की दीवार मिट्टी की बनी थी हुई और छत भी शायद लकड़ी और मिट्टी के खप्परेलो के साथ, घास फूस का ही था। जगह-जगह से दीवारों मिट्टी टूट कर गिरी हुई थी। ऐसा लग रहा था कि जैसे कि यह दीवार खुद अपना बोझ उठाने में नाकाम हो रहे थे तो छत का भोज कैसे थाम सकते थे कभी भी ये हद से ज्यादा पुरानी झोपड़ी गिर सकती थी। रोशनी के लिए कमरे में ही बनाए हुए एक छोटे से मिट्टी के तख्ते पर, एक मिट्टी का टिम टिम आता हुआ दिया जल रहा था। उसकी रोशनी इतनी मद्धम थी कि वह अपने आसपास से ही बहुत मुश्किल से रोशनी भी बिखेर पा रहा था। बाकी पूरे कमरे में अंधेरे का ही साम्राज्य था।

    शतरूपा देवी का मुंह हैरत से खुला रह गया था।
    "हे भगवान मैं यह कहां आ गई!!"

  • 10. इंतज़ार: वो भूली दास्तां - Chapter 10

    Words: 1039

    Estimated Reading Time: 7 min

    यह एक बहुत पुरानी झोपड़ी का कमरा था। कमरे की दीवार मिट्टी की बनी हुई थी और छत भी शायद लकड़ी और मिट्टी के खप्परैलों के साथ घास-फूस की ही थी। जगह-जगह से दीवारों की मिट्टी टूट कर गिरी हुई थी। ऐसा लग रहा था कि जैसे कि यह दीवार खुद अपना बोझ उठाने में नाकाम हो रही थी, तो छत का बोझ कैसे थाम सकती थी। कभी भी यह हद से ज्यादा पुरानी झोपड़ी गिर सकती थी। रोशनी के लिए कमरे में ही बनाए हुए एक छोटे से मिट्टी के तख्ते पर, एक मिट्टी का टिमटिमा आता हुआ दिया जल रहा था। उसकी रोशनी इतनी मद्धम थी कि वह अपने आसपास भी बहुत मुश्किल से रोशनी बिखेर पा रहा था। बाकी पूरे कमरे में अंधेरे का ही साम्राज्य था।

    तभी एक तेज बदबूदार हवा का झोंका उनकी नाक से टकराया। पूरे कमरे में एक सड़ी हुई बदबूदार दुर्गंध फैली हुई थी। यह बदबू ऐसी थी जैसे कि कहीं चमड़ा जल रहा था या फिर बालों के जलने की दुर्गंध थी। पर जो भी हो, यह दुर्गंध शतरूपा देवी के बर्दाश्त के बाहर थी। शतरूपा देवी को उस दुर्गंध से घुटन जैसी महसूस हो रही थी।

    वह जितनी जल्दी हो सके वहां से निकल कर बाहर भाग जाना चाहती थी, खुली हवा में सांस लेना चाहती थी। वरना इस सड़ी हुई दुर्गंध ने तो उनका सांस लेना भी दूभर कर दिया था। इस दुर्गंध से उनका जी मिचला रहा था। उन्हें उल्टी करने का मन हो रहा था। किसी तरह से अपनी उबकाई को रोकते हुए, उन्होंने अपनी जगह पर खड़े होकर ही पूरे कमरे में नजर दौड़ाई।

    अंधेरे में सब कुछ तो साफ-साफ नहीं दिख रहा था, पर उन्होंने अंधेरे में भी देखने की कोशिश की। धीरे-धीरे उनकी आंखें इस अंधेरे में भी कुछ-कुछ चीजों को देखने में कामयाब हो चुकी थीं। तभी उन्हें ऐसा लगा कि दूसरी ओर की दीवार में शायद एक दरवाजा है, जहां से बाहर की चांदनी छिटक कर दरवाजे के नीचे से अंदर आ रही है। दरवाजे के नीचे फैली हुई रोशनी से ही उन्हें इस दरवाजे के वहां होने का अनुमान हुआ था।

    वह वहां से निकलने का प्रयास करने लगीं। वह तेजी से अपने कदम बढ़ाते हुए दीवार की तरफ जा ही रही थीं कि तभी अंधेरे में उनका पैर किसी चीज से टकराया और एक जोरदार हड्डी के टूटने जैसी आवाज हुई। ऐसा लगा कि उनके पैर में भी शायद इस हड्डी के टूटे हुए टुकड़े अंदर तक चुभ रहे थे। उन्होंने नीचे झुक कर देखना चाहा, पर अंधेरे में कुछ भी साफ नजर नहीं आ रहा था। तो उन्होंने नीचे झुक कर अपने पैरों के पास से वह टुकड़ा उठा लिया।

    उस टुकड़े को उन्होंने उलट-पुलट कर उस दिए की टिमटिमाती हुई रोशनी में देखना चाहा। उसको देखते ही उनके होश उड़ गए।

    "यह तो एक इंसानी खोपड़ी का हिस्सा है। पर ये यहां कैसे?" एक डर ने शतरूपा देवी को अपने अंदर जकड़ लिया था।

    शतरूपा देवी ने तेजी से अपने हाथ में लिए हुए उस हड्डी के टुकड़े को झटके से अपने से दूर फेंक दिया। लेकिन वह हड्डी का टुकड़ा जाकर किसी दूसरी हड्डी से टकराया और कमरे में दो हड्डियों के एक साथ बजने की आवाज हुई। आवाज इतनी तेज हुई थी जैसे लगा कि एक जोरदार विस्फोट हुआ है। एक तो इतनी तेज आवाज और ऊपर से इस विस्फोट के साथ एक काला धुआं भी पूरे कमरे में फैल गया था। डर के मारे शतरूपा देवी की चीख निकल ही जाती लेकिन उन्होंने अपने होठों पर अपनी चीख को दबाने के लिए अपना हाथ रख लिया था।

    कुछ देर के बाद यह काला धुआं धीरे-धीरे साफ होने लगता है और अब तक अंधेरे में देखने में कामयाब हो चुकी आंखों से, उन्हें पूरे कमरे के फर्श पर सिर्फ इंसानी खोपड़ियाँ दिखाई पड़ने लगती हैं। ऐसा लग रहा था कि जैसे कि किसी ने उन्हें केवल इंसानी खोपड़ियों के बीच में खड़ा कर दिया है। जिधर भी नजर जाती थी, केवल इंसानी खोपड़ियाँ और हड्डियां ही नजर आ रही थीं। शतरूपा देवी डर के मारे कांपने सी लग जाती हैं।

    उनकी दिल की धड़कन बढ़ने लगती है, लेकिन फिर भी उन्होंने हिम्मत से काम लेते हुए, किसी तरह से वहां से बाहर निकलने की कोशिश करनी शुरू कर दी। किसी तरह से उन इंसानी खोपड़ियों के बीच में, तो कहीं उन खोपड़ियों के ऊपर ही अपना पैर जमाते हुए, धीरे-धीरे निकलकर वह उस दरवाजे के नजदीक तक आने में कामयाब हो जाती हैं, जहां से बाहर की चांदनी छिटक कर अंदर हल्की-हल्की दरवाजे के नीचे से आ रही थी।

    दरवाजे पर आकर उन्होंने अपना वह हाथ अपने मुंह पर से हटाया जोकि उन्होंने अपनी आ रही उकाई को रोकने के लिए रखा था। हाथ हटाते ही फिर वह तेज दुर्गंध उनके नाक से टकराई और इस बार उसने उनके दिमाग तक को सुन्न कर रख दिया था। खुद को संभालते हुए उन्होंने किसी तरह से अपने दोनों हाथ पूरी ताकत के साथ दरवाजे को खोलने के लिए बढ़ाए।

    जैसे ही उन्होंने दरवाजे को खोलने के लिए अपना हाथ बढ़ाया, तभी अचानक से एक बिच्छू तेजी से उनके हाथों पर चढ़ने लगा। अपने आप को बिच्छू के डंक से बचाने के लिए उन्होंने अपने हाथों को झटकना शुरू कर दिया। लेकिन वह बिच्छू उनके हाथों पर रेंगता हुआ आगे बढ़ रहा था और शतरूपा देवी को अपने पूरे शरीर में उस बिच्छू के चलने से गनगनाहट सी महसूस हो रही थी। इस गनगनाहट से उनके शरीर का रोम-रोम खड़ा हो गया था। शतरूपा देवी को ऐसा लग रहा था कि एक साथ कई जहरीले कीड़े अब धीरे-धीरे उनके ऊपर चढ़ते जा रहे हैं। उन्होंने पूरी हिम्मत के साथ अपने दूसरे हाथ से उस बिच्छू को पकड़कर अपने से दूर झटक दिया।

    अब शतरूपा देवी वहां पर एक पल के लिए भी नहीं रुक सकती थीं। इस अंधेरे में कुछ भी साफ-साफ दिखाई तो पड़ नहीं रहा था, लेकिन ऐसा जरूर आभास हो रहा था कि चारों तरफ से जहरीले कीड़े और बिच्छू ने उन्हें घेर रखा है।
    किसी तरह से अपने आप को बचाते हुए उन्होंने एक ही झटके में दरवाजे को खोल दिया।

    पर क्या वह इसके बाहर आ सकीं?
    जानने के लिए करें अगले भाग का इंतजार...

    हर हर महादेव 🙏

  • 11. इंतज़ार: वो भूली दास्तां - Chapter 11

    Words: 1027

    Estimated Reading Time: 7 min

    दरवाजे के खुलते ही तेज चंद्रमा की चांदनी ने उनके पूरे बदन को नहला दिया था। वह अभी बाहर की तरफ अपना एक कदम बढ़ा ही रही थी कि झोपड़ी के दरवाजे की छत पर से लटके हुए एक बड़े से अजगर ने, अपना भयंकर बड़ा सा मुंह खोल कर, उनकी तरफ एक जहरीली फुंफकार छोड़ते हुए अपना मुंह बढ़ा दिया। उस फुंफकार की लहर इतनी तेज थी कि एक पल के लिए उस गर्म आग जैसी हवा से शतरूपा देवी के चेहरे के साथ-साथ पूरा बदन झुलस गया था। शतरूपा देवी ने अपने कदम झटके से पीछे लिए, अगर उन्होंने तेजी से अपने आप को पीछे की तरफ नहीं लिया होता तो शायद वह अब तक इस विशाल अजगर के मुंह में समा गई रहती।

    इस अचानक से आई हुई मौत को देखकर, शतरूपा देवी के हाथ पैर बिल्कुल ठंडे पड़ गए थे। वह अपनी ही जगह पर कांपने लगी थी। तभी उनके सामने एक हाथ बढ़ता हुआ आया।
    चंद्रमा की इस रोशनी में, उनको सहारा देने के लिए बढ़े हुए इस हाथ को उन्होंने गौर से देखा। यह हाथ, उन्हें बहुत जाना पहचाना सा लगा।

    फिर उन्हें याद आया कि इस हाथ को तो वो कभी भी नहीं भूल सकती थी। चारों तरफ से सर पर नाच रही इस मौत की घड़ी में भी, इस हाथ को देखकर उनके डूबते हुए मन को जैसे तिनके का सहारा मिल गया था। उस हाथ को थामने के लिए, जैसे ही उन्होंने अपना हाथ बढ़ाया, उस हाथ ने खुद आगे बढ़ कर उन्हें तेजी से बाहर की ओर खींच लिया और झटके से छोड़ दिया। शतरूपा देवी मुंह के बल बाहर आकर गिरी।

    घुटनों में बहुत तेज चोट लगी थी। लेकिन फिर भी अपने दर्द को बर्दाश्त करते हुए, उन्होंने उठने के लिए पहले अपना चेहरा उठाया। हाथों को ऐसा आभास हो रहा था जैसे कि उन्होंने बर्फ की सिल्ली को छू लिया है। खून जमा देने वाले इस ठंड के एहसास से ही हाथ सुन्न पड़ गए थे। उन्होंने अपनी आंखों के सामने पड़ी हुई उस चीज को देखा, जिसे कि उनके हाथों में टच किया था। आंखों के सामने पड़े हुए लाश को देखकर, उनकी एक जोरदार चीख निकल गई।

    चारों तरफ से सर पर मौत नाच रही थी और वह मौत भी ऐसी डरावनी और भयानक थी, जिसको देख कर शतरूपा देवी जैसी मजबूत दिल वाली औरत के भी होश उड़ गए थे।
    तभी अचानक से इस अंधेरे में, उनकी मदद के लिए एक हाथ बढ़ता हुआ आया, जिसने उन्हें इस अंधेरे से खींच कर बाहर रोशनी में लाकर पटक दिया था। शतरूपा देवी अभी अपने आप को संभाल कर उठने की कोशिश कर रही थी कि उन्होंने अपनी आंखों के आगे कफन में लिपटे हुए अपने पति की लाश को देखा।

    देखते ही देखते कफन में लिपटी हुई लाश बुरी तरह से सड़ने और गलने लगी। लाश के ऊपर से ओढ़ाया हुआ कफन, जगह-जगह से फटकर लाश की विकृत दशा को पूरी तरह से दिखाने लगा था।
    जहां झोपड़ी के बाहर पहले चांद की चांदनी छिटकी हुई थी और एक हल्की हल्की ठंडी हवा बह रही थी, वहीं अब धीरे धीरे आसपास के माहौल में एक मनहूसियत के साथ-साथ सड़ी हुई दुर्गंध फैलने लगी थी। धीरे-धीरे इस जगह को भी अब किसी नकारात्मक शक्ति ने अपने घेरे में ले लिया था।

    रात के अंधेरे में, अगर हवा भी चलती थी तो पत्तियों की सरसराहट कानों के पास एक शोर सा मचाती थी। अब शतरूपा देवी को, इन पत्तियों की सरसराहट के साथ-साथ दूर कहीं सियार और कुत्तों के रोने की आवाज सुनाई पड़ रही थी। एकाएक शांत माहौल में इस तरह से सियार और कुत्तों के रोने से मनहूसियत के साथ साथ, डर का माहौल भी बन रहा था।

    शतरूपा देवी ने गौर से अपने पति की लाश की तरफ देखा। वह आगे हाथ बढ़ा कर उनको छूना चाहती थी। उनके पास होने का एहसास महसूस करना चाहती थी। लेकिन अब, अपनी आंखों से इस लाश की बुरी दुर्गति को देखने के बाद उनकी हिम्मत नहीं हो रही थी। उनके पति की मृत्यु तो हार्टअटैक से हुई थी और अपने पति की लाश पहचानने में वह कोई भी गलती नहीं कर सकती थी। वह दावे के साथ कह सकती थी कि यह लाश उनके पति की ही हैं। लेकिन अभी जो उनके आंखों के सामने लाश पड़ी हुई थी, उसने पल भर में ही अपना रूप ऐसा विकृत कर लिया था कि अब बिल्कुल पहचान में नहीं आ रहा था।

    जगह जगह से लाश को कीड़ों ने नोच कर खाया था और अभी भी उनके बदन पर सैकड़ों घिनौने कीड़े, छोटे छोटे काले सांप और बिच्छू रेंग रहे थे, जो की बुरी तरह से इस लाश को नोच नोच और भी खतरनाक बनाने में जुटे हुए थे।

    अपने पति की लाश की ऐसी दुर्दशा देख कर शतरूपा देवी की आंखों के आगे वह दिन लौट आया, जब उनके पति को हार्ट अटैक आया था, वह बार-बार यही चिल्ला रहे थे, "कोई मुझे इन सांप बिच्छू से बचाओ..." हॉस्पिटल ले जाने में उनकी डेथ हो गई थी और डॉक्टरों ने वहां उन्हें मृत घोषित कर दिया।

    शतरूपा देवी को समझ में नहीं आ रहा था कि इस साफ-सुथरे बदन में कहां सांप बिच्छू है?? और कहां से उनके शरीर से वह हटाए?? लेकिन असली विडंबना तो हॉस्पिटल से लाश लेकर लौटते समय शुरू हुई थी। हॉस्पिटल से घर लेकर आने तक के बीच में ही लाश की इससे भी ज्यादा बुरी दुर्गति हो गई थी, जिसके कारण लाश को घर भी नहीं लाया जा सका था, बीच रास्ते से ही उन्हें फ्यूनरल पार्लर हाउस के लिए भेज दिया गया था।

    शतरूपा देवी उन्हीं दिनों में लौट गई थी। वह पागलों की तरह चीखने और चिल्लाने लगी। एक-एक करके, तेजी से वो अपने पति के शरीर से इन कीड़ों को पकड़ पकड़ कर बाहर निकाल कर फेंकने की कोशिश कर रही थीं, और चिल्ला रही थी, "नहीं!! ऐसा नहीं हो सकता!! नहीं!! छोड़ दो मेरे पति को।"
    कीड़े को निकाल कर बाहर फेंकने में ही अचानक से उनका हाथ उनके पलंग के साइड में रखे हुए बेडलैंप से टकराया। लैंप से उन्हें झटका लगा और शतरूपा देवी होश में आते हुए तेज़ी से उठ कर बैठ गई।

  • 12. इंतज़ार: वो भूली दास्तां - Chapter 12

    Words: 1037

    Estimated Reading Time: 7 min

    शतरूपा देवी अपने सपने से जाग उठी थी।

    इस समय वो अपने लक्जरियस बेडरूम में थी। बेडरूम में नाइट बल्ब की हल्की रोशनी फैली हुई थी और सब कुछ उसमें बिल्कुल क्लियर दिखाई दे रहा था। शतरूपा देवी ने हाथ बढ़ाकर बेडस्विच से साइड लैंप ऑन कर दिया। पूरे कमरे में एक अच्छी खासी रोशनी हो गई थी, जिससे कि पूरा कमरा दिखाई पड़ रहा था। कमरा बिल्कुल साफ था। कहीं भी कोई भी सांप, बिच्छू तो दूर, गंदगी और धूल भी नहीं थी। अपने आप को सुरक्षित अपने कमरे में पाकर शतरूपा देवी को कुछ हिम्मत मिली। वो आंखें फाड़-फाड़ कर चारों तरफ देखने का प्रयास कर रही थी कि सही में वह अपने कमरे में ही है या फिर अभी भी किसी भ्रम में, या फिर पुरानी झोपड़ी में ही है??

    होश में आने के बाद भी उनका बदन थर-थर कांप रहा था। उन्होंने अपने घुटने मोड़कर अपना सर उनके बीच में टिका दिया।
    "हे भगवान!! क्या यह एक सपना था?? इतना बुरा सपना??" शतरूपा देवी को अभी भी विश्वास नहीं हो रहा था कि उन्होंने एक बुरा सपना देखा था।

    "सब कुछ कितना सजीव और आंखों के ही आगे हो रहा था। आज करीब 15-16 साल के बाद शमशेर फिर से मेरे सपने में आए थे। फिर से वही दिन लौट रहे हैं। यह बुरे सपने!! इन बुरे सपनों ने तो मेरा पीछा छोड़ दिया था। तो फिर आज क्यों बरसों के बाद मुझे वही सपना दिखाई पड़ा?? अब कौन सी अनहोनी होने वाली है। हे महादेव!! मेरी मदद करो। मुझे अब कुछ समझ में नहीं आ रहा है कि अब मैं क्या करूं?? इन्हीं सब से इस खानदान के अंतिम चिराग को बचाने के लिए, मैंने अपनी जिंदगी के इकलौते सहारे को भी अपने से इतना दूर रखा है। तब फिर क्यों यह सब हमारा पीछा नहीं छोड़ते?? अब क्या करूं?? मेरे बच्चे की रक्षा करना प्रभु।"

    "दो-दो बार टूट कर मैं बिखर चुकी हूं। पति की इस दर्दनाक मृत्यु के बाद, अपने इकलौते जवान बेटे-बहू की लाश देखना भी मेरे लिए बहुत मुश्किल था। बहुत मुश्किल से मैंने सिर्फ अर्जुन के लिए खुद को संभाला है, और अब फिर ऐसा कुछ भी हुआ, तो मैं अपने आप को नहीं समेट पाऊंगी। प्रतापगढ़ राजवंश का तो नामोनिशान मिट जाएगा।" शतरूपा देवी घुटनों में अपना सर दिए हुए फूट-फूट कर रो रही थी और भगवान से अपनी मदद के लिए गुहार लगा रही थीं। इस वक्त अगर कोई उनकी हालत देख लेता तो यह बिल्कुल विश्वास नहीं कर सकता था कि यह वही शतरूपा देवी है, जिनकी एक आंख के इशारे से प्रदेश की सरकार तक हिल जाती है। वो बहुत ही मिसरेबल कंडीशन में दिखाई दे रही थी। रोते-रोते शतरूपा देवी की हिचकियां बंध गई और उन्हें प्यास का एहसास हुआ। उन्होंने अपने सेलफोन पर समय देखा। सुबह के 4:00 बजने वाले थे। अभी जो कुछ भी उनके साथ हुआ था, उसको याद करके शतरूपा देवी के रोंगटे खड़े हो गए। उनकी हिम्मत खुद से उठ कर पानी लेने की भी नहीं हो रही थी।

    लेकिन सुबह सुबह उठकर जो वर्क आउट करने की उनकी आदत थी, किसी भी मौसम में जल्दी बिस्तर छोड़ देती थी, उसके कारण उन्हें अब बेड पर भी बैठा नहीं जा रहा था। कमरे में फुल स्पीड में एसी चलने के बाद भी उन्हें बेचैनी महसूस हो रही थी। प्यास से अलग गला सूख रहा था, ऐसा लग रहा था कि अगर तुरंत पानी नहीं मिला तो उनकी जान चली जाएगी।
    किसी तरह से हिम्मत करते हुए, उन्होंने बेड के नीचे अपना पैर रखा और धीरे धीरे चलते हुए खिड़की के पास आई। झोपड़ी के दरवाजे को खोलने के बाद, जो कुछ भी हुआ था उसकी याद आते ही अब उनकी हिम्मत, खिड़की के दरवाजे को खोलने की भी नहीं हो रही थी। कांपते हुए हाथों से उन्होंने अपना हाथ खिड़की की तरफ बढ़ाया और झटके से खोल दिया। एक ताजी हवा के ठंडे झोंके ने उनके पूरे शरीर को नहला दिया। उसी समय पास ही कहीं मंदिर में जोरदार शंख बजने की आवाज सुनाई पड़ी।

    एक पल के लिए तो शतरूपा देवी शंख की आवाज से भी डर गई, लेकिन जब उनके कानों को यह अहसास हुआ कि ये मंदिर के शंख की आवाज है, तो उस पवित्र ध्वनि को अपने अंदर समेटते हुए उन्होंने अपनी आंखें बंद कर ली। इस पवित्र शंख की आवाज के साथ, धीरे-धीरे वातावरण में एक मधुर कंठ से निकले, शिव स्तुति के स्रोत भी तैरने लगे।
    एक पल के लिए तो शतरूपा देवी शंख की आवाज से भी डर गई, लेकिन जब उनके कानों को यह अहसास हुआ कि ये मंदिर के शंख की आवाज है, तो उस रूहानी आवाज़ को अपने अंदर समेटते हुए उन्होंने अपनी आंखें बंद कर ली।

    जब मन में बहुत ज्यादा उलझन चल रही हो, तो कहीं भी कुछ भी अच्छा नहीं लगता। वही हाल इस समय शतरूपा देवी का था। रात के सपने ने उन्हें इस तरह से उलझा दिया था कि वह बहुत घबरा रही थीं। इस कारण इस खूबसूरत, सुहानी सुबह का भी उन पर कोई असर नहीं हो रहा था। पर बात वहां पर यह होती है कि "हारे को हरिनाम", जब इंसान सब जगह से हार जाता है तो अंत में उसे भगवान ही दिखाई पड़ते हैं।

    पैलेस के ईशान कोण पर बने हुए इस मंदिर में, सुबह सुबह कुलगुरु अपनी पत्नी के साथ भगवान शिव का अभिषेक कर रहे थे। मंदिर में माइक लगा होने के कारण, सुबह-सुबह वहां के सारे मंत्रों के उच्चारण को महल में साफ-साफ सुना जा सकता था। शतरूपा देवी तो नए मॉडर्न कल्चर वाली औरत थी। ज्यादा पूजा-पाठ में उनका भी मन नहीं लगता था। पर हां, अपनी सांस्कृतिक और विरासत के रूप में मिली हुई धरोहर को संभालना उन्हें आता था। इसलिए अभी भी इस पैलेस में वह डेली रूटीन के सारे काम होते थे जो कि उनके सास ससुर के समय में भी होते थे। खुद रोज पूजा नहीं कर सकती थी, इसलिए मंदिर में पुजारी अप्वाइंट कर रखा था।

    इस पवित्र शंख की आवाज के साथ, धीरे-धीरे वातावरण में एक मधुर कंठ से निकले, शिव स्तुति के बोल भी तैरने लगे थे।
    "दुनिया से जो हारा, तो आया तेरे द्वार।
    यहां से भी जो हारा, कहां जाऊंगा सरकार!!"

    हर हर महादेव 🙏

  • 13. इंतज़ार: वो भूली दास्तां - Chapter 13

    Words: 1046

    Estimated Reading Time: 7 min

    दुनिया से जो हारा, तो आया तेरे द्वार।
    यहां से भी जो हारा, कहां जाऊंगा सरकार!!"
    इस जाने पहचाने भजन के बोल, जब उनके कानों में पड़े, तो वह इस पर सोचने लगीं।

    "सच ही तो है!! जब हम चारों ओर से परेशान हो जाते हैं, तभी हमें अंत में भगवान की याद आती है। अपनी तरफ से मैंने इस श्राप से बचने के लिए और उसके इस अफेक्ट को खत्म करने के लिए सारी कोशिश करके देख ली, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ है। अब केवल एक भगवान का ही रास्ता बचता है। कहा जाता है कि भगवान एक साथ सारे रास्ते नहीं बंद करता और जब सारे रास्ते बंद हो जाते हैं तो भी, उम्मीद की एक छोटी सी ही सही, लेकिन खिड़की तो जरूर खोल देता है। मुझे अब इस खिड़की वाले ऑप्शन पर अब जरूर सोचना चाहिए। आखिर कब तक मैं इस तरह से मेन प्रॉब्लम से भागती रहूंगी?

    काफी टाइम से विक्रम भी इंडिया आने को कह रहा है। आखिर में कब तक उसे बहाने बना बना कर वहां पर रोके रखूंगी?? उसकी जड़े यहां पर है, और उसका मन अपने घर वापस आने का है। इससे पहले कि विक्रम खुद से इंडिया आ कर फिर से इन सब चीजों में हाथ लगाए!! या फिर कोई भी अनहोनी हो, उसके पहले मुझे खुद यहां का मैटर Sort Out कर देना चाहिए। जितनी जल्दी हो सके, मुझे पहले की तरह इस समस्या का कोई सॉलिड Solution तो ढूंढना ही पड़ेगा और मुझे इसके लिए कुलगुरू से बात करनी ही होगी, अब मैं इसे ज्यादा दिन तक के लिए टाल नहीं सकती।" खिड़की पर खड़ी शतरूपा जी अपने मन में सोच रही थीं।

    धीरे-धीरे रात की भयानकता, अंधेरे के साथ-साथ इस राजमहल में फैली हुई मनहूसियत भी छंट रही थीं। जैसे-जैसे मंत्रों की ध्वनि तेज होती जा रही थी, इस मनहूसियत को समेटकर एक पवित्र वातावरण बना रही थी। इस पॉजिटिव, होली एनर्जी को अपने अंदर समेटने के लिए शतरूपा देवी ने अपने आंखों को बंद करते हुए, वहीं पर खिड़की के पास खड़े होकर ही अपने हाथ जोड़ दिए।
    हल्की-हल्की आती हुई ठंडी हवा ने जैसे ही दिमाग पर से बोझ हटाना शुरू किया, इसी तरह से शतरूपा देवी को भी धीरे-धीरे नींद आनी शुरू हो गई।

    इतना भी ध्यान नहीं रहा कि आज 9:00 बजे उनकी "रॉयल्स बुंदेला जयपुर" में एक इंपॉर्टेंट मीटिंग है। दिमाग में केवल कल रात का सपना और विक्रांत की सिक्योरिटी घूम रही थी। अब अपने पोते को, इन सब चीजों की बलि चढ़ते हुए नहीं देख सकती थीं।

    "शतरूपा!" शतरूपा देवी को खिड़की के पास काउच पर ही सोए हुए देखकर उनकी नौकरानी पारो ने धीरे से हिलाया। पारो उनकी नौकरानी होने के साथ-साथ बचपन की सहेली भी थी। इस प्रतापगढ़ पैलेस में वो, शतरूपा देवी के साथ ही उनके पीहर से आई थी। इस कारण अभी तक इन दोनों के बीच में मालिक और नौकरानी का रिश्ता बन ही नहीं पाया था। इस राजमहल में लगातार हो रहे हादसे ने, शतरूपा देवी को घर परिवार सब से अकेला भी कर दिया था। ऐसे में पारो, उनकी सहेली होने के साथ-साथ हमदर्द और राजदार भी थी।

    "क्या है !!" हल्के से झुंझलाते हुए शतरूपा देवी ने आंखें खोल दीं।
    "वह तो तुम मुझे बताओगी कि आखिर यह क्या है??" पारो ने शतरूपा देवी की मौजूदा हालत पर इशारा किया।
    "कहां क्या है?? कुछ है क्या??"

    एक तो शतरूपा देवी रात भर सोई नहीं थीं, दूसरे डर से उनकी हालत भी खराब थी और अभी भी पारो ने उन्हें हल्की नींद में से जगा दिया था, इसलिए वह पारो की बात समझ नहीं पाई थीं। दर असल, पारो ने हाथों से इशारा शतरूपा देवी की हालत पर किया था लेकिन कुछ ना समझते हुए शतरूपा देवी तेजी से, घबराते हुए उठ कर बैठ गईं। उन्हें ऐसा लगा जैसे कि पारो उन्हें जमीन पर कुछ दिखा रही है या फिर काउच पर कुछ रेंग रहा है।

    काउच पर से उतरने के बाद भी जब शतरूपा देवी के दिल का डर खत्म नहीं हुआ, तो उन्होंने अपने कपड़े को झाड़ना शुरू कर दिया। ऐसा लग रहा था कि कुछ उनके कपड़े पर चला गया है और वह उसे झटकने की कोशिश कर रही हों। पारो चुपचाप उन्हें ऐसा करते हुए देख रही थी। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर यह कर क्या रही है??
    "दूर हटो मुझसे!! छोड़ो मुझे!! कोई तो मेरी मदद करो।" शतरूपा देवी बार-बार अपनी साड़ी झटकते हुए उसमें लगे हुए किसी चीज को निकालने की कोशिश कर रही थीं।

    "शतरूपा! पागल हो गई हो क्या तुम?? यह क्या कर रही हो?? यहां कुछ नहीं है..." पारो ने धीरे से शतरूपा देवी को समझाना चाहा लेकिन शतरूपा देवी को तो मानो कुछ सुनाई नहीं पड़ रहा था। वह इस तरह से अपनी साड़ी पर लगे हुए रेशम के वर्क को नोच कर फेंकना चाह रही थीं, जैसे कि उस पर कुछ लगा हुआ हो, कीड़े बिच्छू रेंग रहे हों।
    "बस करो शतरूपा!! यहां कुछ भी नहीं है...." पारो ने शतरूपा देवी को कंधों से पकड़ कर जोर से हिला दिया।

    पारो के हिलाने पर शतरूपा देवी कुछ होश में आई और आंखों में सवाल लिए हुए पारो की तरफ देखने लगीं।

    "यह क्या कर रही हो तुम?? मैं तो तुमसे बस यह जानना चाह रही थी कि आखिर अपना बेड छोड़कर तुम यहां काउच पर क्यों सोई हो?? और तुम हो कि...." शतरूपा देवी को इस तरह से घबराए हुए देख कर पारो ने उन्हें कंधों से पकड़कर फिर से काउच पर बिठाया।

    "बस, रात को ऐसे ही नींद नहीं आ रही थी, तो यहां पर चली आई थी, और पता नहीं कब यहां पर इतनी अच्छी नींद आ गई थी कि कुछ ध्यान ही नहीं रहा, तुमने अचानक से जगाया तो घबरा गई थी ।" इधर उधर देखते हुए शतरूपा देवी ने बहाना बनाया।

    बचपन से साथ रही पारो, शतरूपा देवी के हर एक हरकत से वाकिफ थी, वह समझ गई कि शतरूपा देवी कुछ ना कुछ छुपा रही हैं।

    "चलो मान लिया शतरूपा! कि तुम सच कह रही हो कि तुम्हें नींद नहीं आ रही थी इसलिए तुम खिड़की के पास आई थी। लेकिन जिस तरह से तुम घबराते हुए उठी हो, यह तो नॉर्मल नहीं था। सच-सच बताओ, बात क्या है??" पारो ने जैसे शतरूपा देवी स्कैन करते हुए पूछा।

    हर हर महादेव 🙏

  • 14. इंतज़ार: वो भूली दास्तां - Chapter 14

    Words: 1173

    Estimated Reading Time: 8 min

    "अरे!! सही बता रही हूं, कोई बात नहीं है। और नहीं तो क्या तुझसे झूठ क्यों बोलूंगी?? रात काफी टाइम तक मुझे नींद नहीं आ रही थी। AC के बावजूद भी उमस जैसी महसूस हो रही थी। गर्मी लग रही थी। पहले तो सोचा कि कुछ देर बगीचे में ही लेती हूं। मन हल्का हो जाएगा। लेकिन फिर अकेली जाती, तो भी तेरे सवाल शुरू हो जाते और तू आराम से सो रही थी, इसलिए जगाना भी सही नहीं था। इसलिए बाहर ना निकलने को सोचकर, यही खिड़की खोल लिया था। अब मुझे सपना थोड़ी आ रहा था कि मुझे यहां पर देखते ही तेरे सवालों की पिटारी खुल जाएगी। वरना मैं तो यहां सोती भी नहीं।" शतरूपा देवी तेजी से उठ कर खड़ी हुई।

    "चल कोई बात नहीं!! तू बताना नहीं चाहती तो मैं भी तुझसे जोर दबाव देकर पूछूंगी नहीं। घड़ी देख!! सुबह के 8:00 बज गए हैं, और 9:00 बजे तेरी शायद रॉल्स बुंदेला में मीटिंग है। जल्दी से तैयार होकर नीचे आजा। सब तेरा नाश्ते पर इंतजार कर रहे हैं। पुलकित और समर्थ भी आ चुके हैं।" शतरूपा देवी की हालत को देखकर पारो ने भी ज्यादा कुछ कुरेदना सही नहीं समझा।

    "ओह माय गॉड!! अरे ओ मेरी प्यारी पारो। अगर तू ना होती, तो मेरा क्या होता??" शतरूपा देवी ने लगभग अपने सर को पीटने के अंदाज में कहा।

    "अब क्या किया मैंने??" पारो ने नासमझी में पूछा।

    "अरे!! तूने तो मुझे ध्यान दिलाया, वरना मुझे तो ध्यान ही नहीं था कि आज दोपहर के 1:00 बजे मेरी वीडियो कांफ्रेंसिंग में विक्रम के साथ मीटिंग है। पिछले 1 हफ्ते से वह वर्ल्ड वाइड टूर में निकला हुआ था।" घड़ी को देखते ही शतरूपा देवी तेजी से हरकत में आई। वर्कआउट का टाइम निकल चुका था इसलिए तेजी से वाशरूम की तरफ बढ़ गई।

    बाहर पारो उनके कमरे को साफ कर रही थी और वह अंदर तेजी से नहाते हुए काफी कुछ सोच रही थी और इसमें सबसे ज्यादा इंपॉर्टेंट उनकी विक्रम के साथ वीडियो कॉन्फ्रेंस में होने वाली मीटिंग थी।

    "आज से बड़ा जल्दी तैयार हो गई, वरना तुझे नहाने में भी कम से कम 1 घंटे का समय लगता था।" शतरूपा देवी को तेजी से बाथरूम से निकलते हुए देखकर पारो ने कहा।

    "अरे हां!! बताया तो आज ऑफिस में विक्रम से मेरी मीटिंग है...." अपनी कलाई पर घड़ी बांध देवी शतरूपा देवी बोली।

    "और इसीलिए कल रात उसके फोन का इंतजार करते हुए, जाने कब तू सो गई?? या फिर ऐसा हुआ कि सारी रात तुझे नींद नहीं आई, सुबह जाकर तुझे नींद आई है।"

    "ऐसी बात नहीं है!! कल मेरी विकल्प से बात हुई थी। विक्रम थका हुआ था और आते ही सो चुका था, इसलिए उससे बात नहीं हो सकी बाद में उसने रात में फोन करने को चाहा भी होगा, तो मैं सो गई थी।" शतरूपा देवी ने तेजी से जवाब दिया।

    "सच में तू सो गई थी?? या फिर पूरी रात उसके फोन का इंतजार कर रही थी?? और फिर काउच पर बैठे-बैठे ही तुझे सुबह में नींद ने घेर लिया था।" पारो ने एक गहरी नजर शतरूपा देवी पर डालते हुए कहा, जिनके चेहरे से, उदासी छुपाए नहीं छुप रही थी।

    "अरे नहीं!! ऐसा कुछ नहीं है, मेरी विकल्प से बात हो गई थी, तो मैं रिलैक्स थी। बस, मुझे नींद नहीं आ रही थी। तू भी ना बिल्कुल पीछे पड़ जाती है। अच्छा!! मेरा फोन मिल नहीं रहा था, विकल्प से बात करने के बाद यहीं कहीं रखा था।" शतरूपा देवी ने बात बदलना चाहा।

    "यहीं कहीं रखा था या फिर विक्रम से बात ना हो पाने के कारण गुस्से में कही फेंक दिया था??" पारो ने कुछ जताते हुए शतरूपा देवी के फोन के तलाश में इधर उधर नजर दौड़ाई।

    वही शतरूपा देवी को पारो की बात सुनकर कल की सारी बातें जेहन में ताजा हो गई थी। करीब 2 या 3 साल से भी ऊपर हो चुके थे, जब से विक्रम ने उनसे फोन पर ही बात करना छोड़ रखा था। कल भी लाख कोशिश के बावजूद भी, शतरूपा देवी की विक्रम से बात नहीं हो पाई थी। विकल्प ने कई बार फोन कॉन्फ्रेंस पर लेने की भी कोशिश की थी, जिससे कि कम से कम शतरूपा देवी, विक्रम की आवाज ही तो सुन ले। लेकिन विक्रम तो जैसे उनकी धड़कनों की भी आवाज पकड़ लेता था, उसने फोन काट दिया था। अपने फोन पर तो उसने शतरूपा देवी का तो नंबर ही ब्लॉक कर के रखा था।

    और यही कारण था जिसके चलते विक्रम का नंबर कई दिनों से बंद आ रहा था और विकल्प को उससे मिलने उसके ऑफिस जाना पड़ा था।

    "यह ले तेरा फोन!! किस्मत इसकी अच्छी थी, जो तेरे फोड़ने की चाह के बावजूद भी, इस बार बच गया है।" पारो ने शतरूपा देवी के आगे उनका फोन बढ़ाया।

    फोन नीचे कार्पेट पर फंसा हुआ मिला था। भगवान का शुक्र था, जोर से पटकने के बावजूद भी नर्म और मुलायम कॉर्पोरेट होने की वजह से, फोन सही सलामत था।

    "मेरा तो जी चाहता है कि सबसे पहले तुझे ही उठाकर बाहर फेंक दूं, लेकिन अफसोस!! मेरे चाहने से कुछ नहीं होने वाला।" शतरूपा देवी नाराजगी से बोली।

    "मानती हूं तेरे अंदर गुस्सा है, तो गुस्सा उसको दिखा ना!! जो सच में तेरी इस हालत का जिम्मेदार है। पता नहीं इस बेजान फोन पर अपना गुस्सा उतार कर तुझे क्या मिलता है?? जो तेरे इस गुस्से का हकदार है, उसका तो तू नाम ही नहीं लेना चाहती। जो तेरे प्यार का हकदार है, उसे तो तूने सात समंदर पार भेज दिया है और जब वह यहां आना चाहता है, तो तू उसे आने देना नहीं चाहती। आखिर तू चाहती क्या है?? बस यही मुझे समझ में नहीं आता।" पारो ने चिढ़ते हुए कहा।

    पारो की बात को नजरअंदाज करते हुए शतरूपा देवी ने अपने फोन पर नजर डाली।

    "इस पर तो रेड बैटरी शो हो रहा है।" शतरूपा देवी झुंझलाते हुए बोली।

    "चिंता मत कर, मैंने तेरा दोनों पावर बैंक चार्ज कर रखा है। यह ले ले। और फोन भी चार्ज में लगा देती हूं, जब तक तू नाश्ता करेगी। तब तक तेरा फोन भी चार्ज हो जाएगा। तू बस नीचे चल आराम से नाश्ता कर, सब तेरा इंतजार कर रहे हैं।" पारो तो जैसे उनके लिए हर समस्या का समाधान रखे हुए थी।

    पारो को अपना इतना ध्यान रखते हुए, देखकर शतरूपा जी के मन में गिल्टी सा फील होने लगा। आखिर पारो की कहीं, कभी भी कोई गलती भी नहीं थी। बल्कि पारो, तो हमेशा उनके सुख-दुख में उनकी परछाई बनकर साथ खड़ी रही थी। जबकि जन्म जन्म साथ निभाने का वादा करके लोग बीच भॅवर में अकेला छोड़ गए थे।

    "कोई मेरा इंतजार नहीं कर रहा पारो! इंतजार तो मेरे नसीब में लिखा गया है, पारो! किसी को भी मेरा इंतजार नहीं, सब को उसी का इंतजार है...."

    "सिर्फ!! और सिर्फ उसी का इंतजार है...." कहते हुए शतरूपा देवी की आंखें नम हो गई।

    इस शब्द इंतजार ने पारो के दिल को भी उस जाने पहचाने डर के अहसास से धड़का दिया था।

    हर हर महादेव 🙏

  • 15. इंतज़ार: वो भूली दास्तां - Chapter 15

    Words: 1062

    Estimated Reading Time: 7 min

    "कोई मेरा इंतजार नहीं कर रहा पारो! इंतजार तो मेरे नसीब में लिखा गया है, पारो! किसी को भी मेरा इंतजार नहीं, सब को उसी का इंतजार है....सिर्फ उसी का इंतजार है...." कहते हुए शतरूपा देवी की आंखें नम हो गईं। इस शब्द 'इंतजार' ने पारो के दिल को भी उस जाने पहचाने डर से धड़का दिया था।

    "यह क्या पागलों की तरह कह रही है तू?? किसको किसका इंतजार है??" पारो जैसे शतरूपा देवी की बात समझ कर भी नहीं समझना चाहती थी।

    "और नहीं तो क्या कहूं पारो!! सबको विक्रम के इंडिया आने का इंतजार है। विक्रम सिंह बुंदेला को भी इस चीज का इंतजार है कि मैं खुद अपने मुंह से उसे इंडिया आने के लिए कहूं। जब तक मैं खुद उसे इंडिया नहीं बुलाऊंगी, तब तक वह इंडिया नहीं आएगा, और अपनी बात मनवाने के लिए उसने मुझसे बात करना तक छोड़ रखा है। वह नहीं समझता कि मैंने आखिर क्यों उसे अपने से दूर करके रखा है?? वह मेरे जीने का एकमात्र वजह है, फिर भी मैंने उसे अपने से दूर रखा है। आखिर इसके पीछे कोई तो रीज़न होगा ना!! वह क्यों नहीं, इसे समझने की कोशिश करता है??

    यह 15 साल, कलेजे पर पत्थर रखकर मैंने कैसे बिताए है?? वह क्यों नहीं इसे समझने की कोशिश करता है?? वह चाहता है कि मैं उसे समझने की कोशिश करूं, जबकि यह नहीं जानता कि मैं उसे अच्छी तरह से समझ रही हूं। यह लड़का अपने पापा और अपने दादा, दोनों की तरह ही जिद्दी होता जा रहा है। जिस तरह से उन लोगों ने हमारी कुछ नहीं सुनी और अपने मन का ही किया। उसी तरह से यह भी अपनी मनमर्जी पर उतर गया है।

    मुझसे बात ना करके अपना गुस्सा दिखाना, ये उसका नहीं उसके पापा और उसके दादाजी का भी तरीका था। इसी तरीके से इन लोगों ने भी मुझसे अपनी बात मनवाई थी। लेकिन अब नहीं!! अब मैं किसी के सामने नहीं झुकूंगी। थोड़ी देर की खुशी के लिए, मैं पूरे जीवन भर का दुख अपने लिए नहीं लिख सकती।" शतरूपा देवी गुस्से में बोले जा रही थी।

    "ऐसी बात नहीं है शतरूपा! तू हर बात का उल्टा ही क्यों सोचती है?? उससे बात करने की कोशिश तो कर, इतने दिन से वह घर परिवार सब से दूर रहा है, उसका भी दिल करता होगा कि अपने देश आए। अपने घर परिवार में, अपने लोगों के बीच आए। जब वह कह ही रहा है, तो सिर्फ कुछ दिन के लिए ही बुला ले और फिर वापस भेज देना। आखिर उसका काम भी तो वहीं विदेश में ही जमा हुआ है ना!! आखिर अपना काम छोड़कर वह कितने दिनों तक यहां रह सकेगा???" पारो ने शतरूपा देवी को समझाते हुए बीच का रास्ता निकालने के लिए कहा।

    "ऐसा कुछ नहीं है पारो!! ऐसा तुझे लग रहा है कि वह अपने घर परिवार, अपने रियासत और अपने देश में वापस कुछ दिन के लिए मिलने के लिए आना चाहता है। जबकि मैं बहुत अच्छी तरीके से जानती हूं कि यह इंडिया क्यों आना चाहता है??" शतरूपा देवी एक अजीब सी बेचैनी के साथ, अपनी जगह से उठकर खड़े होते हुए बोली।

    "अच्छा तो ठीक है!! तब तू ही बता दे मुझे, जब वह अपने घर परिवार और देश से मिलने नहीं आना चाहता, तो फिर आखिर क्यों आना चाहता है इंडिया??" पारो ने भी आराम से पूछा।

    "वह इंडिया सिर्फ इसलिए आना चाहता है कि फिर से वह राजगढ़ मेडीसिटी प्रोजेक्ट पर हाथ लगा सके। उस राजगढ़ मेडिसिटी प्रोजेक्ट पर!! जिसके कारण इसके दादाजी की उसके पापा की, इसकी मां की और ना जाने कितने, हमारे परिवार के लोगों की जान गई??" अपनी बेचैनी में शतरूपा देवी बोले गई।

    "ये क्या कह रही है तू शतरूपा? होश में तो है ना!! किस मेडिसिटी प्रोजेक्ट का तूने नाम ले लिया?? तू जानती है ना!! वहां पर क्या है?? तू जानते समझते हुए उसे ऐसा करने कैसे दे सकती है? उसे इस तरह आग से खेलने क्यों दे सकती है?" पारो को जबरदस्त हैरानी थी।

    "मैं तो सब जानती हूं और समझती भी हूं, इसलिए तो कलेजे पर पत्थर रखकर उसे अपने से दूर रखा है। लेकिन वह ना कुछ जानता है, और ना कुछ समझने को तैयार है। इस प्रोजेक्ट से ही दूर रखने के लिए, मैं उसे इंडिया आने से मना कर रही हूं। मैंने इस प्रोजेक्ट को बिल्कुल ठंडे बस्ते में रख कर बंद कर दिया था लेकिन वह फिर से इसे रिओपन करवाना चाहता है.. वह इंडिया हम लोगों से मिलने के लिए आना नहीं चाहता, बल्कि वह यहां सिर्फ आग से खेलने के लिए आना चाहता है। उस आग से खेलने के लिए आना चाहता है जिस आग में पहले ही मेरा पूरा हंसता खेलता परिवार जल चुका है।

    तू तो जानती है, इन्हीं सब चीजों के लिए मैंने उस लड़के विक्रांत को भी यहां से दूर किया। बहुत मुश्किल से मैंने अपने विक्रम को बचाया है, और मैं अपने जीते जी ऐसा होने नहीं दूंगी। मैं अपने विक्रम को इस आग से खेलने नहीं दूंगी। भले ही विक्रम के इंतजार में, मेरी आंखें खुली की खुली रह जाएं, लेकिन फिर भी मैं कभी भी विक्रम को इंडिया आने की परमिशन नहीं दूंगी।" शतरूपा देवी एक मजबूत डिसीजन लेते हुए बोली।

    पारो कहीं ना कहीं शतरूपा देवी की बातों कंपलीटली एग्री कर रही थी। वह भी ये जरूर चाहती थी कि विक्रम, राजगढ़ आए। लेकिन वापस अपने घर परिवार में आए। इस तरह से आग से खेलने के लिए नहीं आए। उस जमीन के, उस प्रोजेक्ट के लिए तो बिल्कुल ना आए। पर विक्रांत का नाम इतने सालों के बाद सुनकर वह कुछ असहज सी हो गई थी।

    "सच कहूं तो मेरे दिल को भी उस दिन का इंतजार है, जब मेरा पोता 15 साल के बाद इंडिया आएगा। 3 साल हो गए, विक्रम को मैंने वीडियो कॉल पर भी नहीं देखा!! ना ही मैंने उसकी आवाज भी सुनी!! इन कानों को अभी भी उसकी आवाज सुनने का इंतजार है, ऐसा लगता है कि अभी कहीं से निकल कर आएगा और कहेगा, "बड़ी मां सा, आप यहां क्या कर रही है?? चलिए, मुझे भूख लगी है। मैं आपका इंतजार कर रहा हूं....." ऐसा लगता है कि कभी-कभी इन शब्दों को सुनने की चाह लिए ही, आंखें ना बंद हो जाए।" शतरूपा देवी तो जैसे अपना दिल खोलकर पारो के सामने रख रही थी।

  • 16. इंतज़ार: वो भूली दास्तां - Chapter 16

    Words: 1032

    Estimated Reading Time: 7 min

    शतरूपा देवी तो जैसे अपना दिल खोलकर पारो के सामने रख रही थीं।

    लेकिन ऐसा नहीं था कि पारो उनके दिल के दर्द से अनजान थी। वह समझती थी कि वह चाहे कितनी भी कोशिश कर ले, परिवार!! परिवार होता है। जिस तरह से शतरूपा ने एक-एक करके अपने सारे परिवार वालों को खो दिया है कि अब खुद के अकेले रह जाने का डर, उसके अंदर इस तरह से समा चुका है कि वह विक्रम को लेकर कोई भी रिस्क नहीं लेना चाहती हैं। और कहीं ना कहीं पारो जानती थी कि उनका डर भी बिल्कुल सही है। भले ही विदेश में पढ़ा लिखा, मॉडर्न कल्चर का अर्जुन, इस चीज को मानने के लिए तैयार नहीं होता था या फिर इन सब चीजों के बारे में जानता नहीं था। लेकिन इन लोगों ने तो खुद उस चीज को अपने ऊपर गुजरते हुए देखा था, ये कैसे आंखों देखी हुई उस भयानक सच्चाई पर, विश्वास नहीं करतीं?

    "तू कुछ ज्यादा ही सोच रही है सुचित्रा। ऐसा नहीं हो सकता। उस घटना को वैसे भी 15 से 16 साल बीत गए हैं। इन 15 सालों में तो उन चीजों का कोई जिक्र भी नहीं आया। सब कुछ नॉर्मल ही चल रहा है। जब सब कुछ सामान्य हो चुका है तो फिर तू, आज क्यों उस चीज को पकड़ कर बैठी है?? क्यों नहीं आगे बढ़ती तू?? भूल जा पुरानी बातों को, आगे कदम बढ़ा दे..." एक बार पारो ने अपने आप को मजबूत करके शतरूपा देवी को उन अंधेरों से निकालना चाहा।

    पारो की बात सुनकर शतरूपा देवी तीखे मुस्कुरा दीं।

    "तुझे क्या लगता है पारो। मैं आज तक उन्हीं गलियों में भटक रही हूं?? मैंने खुद को बाहर निकालने की कोई कोशिश नहीं की। नहीं पारो!! मैंने शमशेर से वादा किया था कि मैं उन अंधेरी गलियों की मुसाफिर कभी नहीं बनूंगी, और अपने बेटे को भी बनने नहीं दूंगी। लेकिन मैं ऐसा नहीं कर पाई। अभिमन्यु ने मेरी एक बात भी नहीं सुनी। मैं खुद अपने बेटे को भी नहीं रोक पाई। और कल रात का तू पूछ रही थी ना!! कि मैं काउच पर क्यों सोई थी?" शतरूपा देवी ने काउच की तरफ इशारा करते हुए पूछा। पारो ने हां में सर हिलाया।

    "कल रात, यह अंधेरे, मुझे खुद अंधेरी डरावनी भयानक गलियों में लेकर गए थे।

    मैं चाहे कुछ भी कर लूं, मेरा अतीत मेरा पीछा नहीं छोड़ने वाला। कल रात भी मैं उन्हीं अंधेरी गलियों में दफन हो जाती। लेकिन शमशेर!! शमशेर ने मेरे आगे अपना हाथ बढ़ाया और मुझे अंधेरों से निकाला और खुद खुद हमेशा हमेशा के लिए उन्हीं अंधेरों में दफन हो गए।" कहते हुए शतरूपा देवी के आंखों से दो बूंद आंसू छलक पड़े।

    "पर ऐसा हुआ कैसे?" पारो को अभी भी हैरानी थी।

    "पर ऐसा हुआ कैसे?" शतरूपा देवी की बात सुनकर पारो को अभी भी हैरानी थी।

    जबकि शतरूपा देवी इतनी मुश्किल में भी तीखे मुस्कुराते हुए, मजबूती से खड़ी थीं। शतरूपा देवी की मुस्कुराहट से एक पल के लिए पारो भी उलझ गई थी।

    "मेरा कहने का मतलब यह है कि यह सब कुछ तो खत्म हो गया था ना!! अभिमन्यु और उसकी दुल्हन की मौत के बाद, कुल गुरु ने इतनी बड़ी पूजा करवाई थी। यह डरावने सपनों से लेकर उन भयानक चीजों का सारा सिलसिला थम गया था। उसके बाद से यह 15 साल तो हमारे शांति से ही बीते हैं। इन 15 सालों में, तूने तो क्या?? इस पूरे महल में भी, किसी ने भी कोई सपना नहीं देखा और ना ही कुछ हकीकत बन कर सामने आया। तो फिर अचानक से ऐसा क्या हो गया?" पारो ने हैरान होते हुए पूछा।

    "सिलसिला थम गया था पारो!! खत्म नहीं हुआ था। यह सिलसिला इसलिए थम गया था, क्योंकि हमने विक्रम को यहां से इन सब चीजों से दूर कर दिया था। लेकिन सालों के बाद फिर से, विक्रम के ही कारण, उन सभी सिलसिलो की शुरुआत हो चुकी है।" शतरूपा देवी पारो की तरफ देखते हुए बोलीं।

    "क्या?? विक्रम के कारण!! पर विक्रम ने क्या किया?? वह बेचारा तो सात समंदर दूर बैठा हुआ है। उसे तो इन सब चीजों की जानकारी भी नहीं।" पारो को इस तरह से शतरूपा देवी का विक्रम को ब्लेम करना बिल्कुल पसंद नहीं आया था।

    भले ही शतरूपा देवी, विक्रम की सगी दादी थीं लेकिन पारो ने भी विक्रम को कम प्यार नहीं किया था। अपने इन्हीं हाथों से उसने शतरूपा देवी के बेटे अभिमन्यु प्रताप सिंह बुंदेला और फिर विक्रम सिंह बुंदेला को भी पाला था।

    "पता था कि तू उसी का फेवर करेगी। लेकिन यह बात मेरी बिल्कुल सच है। वह सात समंदर पार बैठे-बैठे भी वह काम कर रहा है, जो काम हम यहां इंडिया रहकर भी करना नहीं चाहते, पारो!! उसने राजगढ़ मेडिसिटी प्रोजेक्ट के लिए काम लगाने के लिए जरूर सोचा होगा या फिर कुछ ना कुछ ऐसा इस से रिलेटेड फाइल वर्क में, जरूर किया होगा जो कि अब तक मेरी जानकारी में नहीं है। वरना इस तरह से कुछ नहीं होता।" शतरूपा देवी हल्के गुस्से में बोलीं।

    पारो नासमझी में, शतरूपा देवी की बातें सुन रही थी।

    "तू कहती थी ना कि यह लड़का अपने बाप का और दादा से अलग है। नहीं!! यह उन्हीं बुंदेला का ही खून है। और उनके जैसा ही एक नंबर का जिद्दी है। यह लड़का अपनी जिद में खुद को तो बर्बाद कर ही लेगा, लेकिन इस बार इसके बर्बाद होने के साथ साथ, पूरा राजगढ़ राजवंश भी खत्म हो जाएगा। इस बात को यह समझना ही नहीं चाहता।" शतरूपा देवी के चेहरे पर गुस्से, दुख, हताशा और छटपटाहट के सब कुछ जानते हुए भी कुछ करने का मन कर रहा था।

    "एक ही सांस में बिना सोचे समझे इतना किसी के बारे में अनुमान लगा लेना सही नहीं होता। शुभ शुभ बोल शतरूपा!!" शतरूपा देवी की बात सुनकर पारो कुछ डर सी गई।

    "मेरे शुभ और अशुभ बोलने से क्या होता है पारो?? होना तो वही होगा, जो इन लोगों ने सोच रखा है और जब इस जिद्दी लड़के विक्रम ने सीधे बर्बादी का ही सोच रखा है.. तो बर्बादी ही होगी ना!! आज इस बार बर्बादी को हम भी नहीं रोक सकेंगे, कोई भी नहीं रोक सकेगा..."

  • 17. इंतज़ार: वो भूली दास्तां - Chapter 17

    Words: 1036

    Estimated Reading Time: 7 min

    "मेरे शुभ और अशुभ बोलने से क्या होता है पारो?? होना तो वही होगा, जो इन लोगों ने सोच रखा है और जब इस जिद्दी लड़के विक्रम ने सीधे बर्बादी का ही सोच रखा है.. तो बर्बादी ही होगी ना!! आज इस बार बर्बादी को हम भी नहीं रोक सकेंगे, कोई भी नहीं रोक सकेगा..."

    "यह क्या पागल जैसी बात करने लगी तू!! परेशान मत हो, सब ठीक हो जाएगा। भगवान पर भरोसा रख। तू एक बार ठंडे दिमाग से अच्छे से विक्रम को समझाने की कोशिश करना, मेरा बच्चा बहुत अच्छा और समझदार है। देखना! तेरे समझाने से वह अपनी जिद छोड़ देगा।" पारो ने शतरूपा देवी को समझाते हुए कहा। लेकिन अंदर ही अंदर उसका मन भी बहुत डर रहा था।

    "इसीलिए तो आज समय से ऑफिस जाना चाहती हूं, और आज विक्रम को भागने का कोई मौका भी नहीं देना चाहती। ताकि आमने-सामने उससे इस मैटर पर खुलकर बात कर सकूं। अब तक तो उसने मेरी बात करने की हर एक कोशिश को सुनने से भी इंकार कर रखा है। वह यह नहीं समझता कि जितना उसे इंडिया आने के लिए मेरी परमिशन का इंतजार है, उतना ही मुझे उसे जिंदा सही सलामत अपने सामने देखने का इंतजार है।

    वह क्या सोचता है कि मेरे अंदर इच्छा नहीं होती अपने पोते को अपनी आंखों के सामने देखने की?? उसे अपने हाथों से छूकर उसके चेहरे को नजर भर देखने की?? मेरी दिल की इच्छा थी कि मैं उसे अपनी आंखों के सामने बड़े होते हुए देखूं। और आज जब वह बड़ा हो गया है तो उसका घर बसते हुए देंखू। उसके बच्चों को देखूं, अपने गोद में उन्हें खिलाऊं।

    ..... लेकिन इन सबके बीच में मैं यह बात नहीं भूल सकती कि हम सबके इंतजार से बड़ा तो उसका इंतजार है, जो कि सदियों से एक श्राप बन कर हमारे परिवार के ऊपर, इस राजगढ़ राज महल के ऊपर मंडरा रहा है। उसे सिर्फ और सिर्फ विक्रम के इंडिया आने का इंतजार है। ताकि वह हमारे विक्रम पर अपना जाल डाल सके...." अपना लैपटॉप उठाते हुए शतरूपा देवी बोलीं।

    पारो उनकी बात समझ रही थी। उसके दिमाग में बहुत कुछ चल रहा था, लेकिन अभी चूंकि शतरूपा देवी को ऑफिस के लिए लेट हो रही थी इसलिए वह ज्यादा कुछ बोलना नहीं चाहती थी।

    "क्या हुआ!! अब क्या सोच रही है तू??" शतरूपा देवी ने पूछा।

    "कुछ खास नहीं!! पर जरूरी ही हैं।" पारो बात टालते हुए बोली।

    "खास नहीं है, लेकिन जरूरी है। अब यह दोनों वर्ड अलग अलग कैसे हुए??" शतरूपा देवी ने हैरानी से पूछा।

    "बताती हूं, आज तू ऑफिस से आ जा। तो फिर इस मैटर पर बात करते हैं। यह बातें इतनी खास नहीं है जितना कि तेरा आज विक्रम से मिलना है और बात जरूरी इसलिए है क्योंकि शायद इससे ही कोई रास्ता निकल आए। जिससे कि हम विक्रम को इंडिया आने से रोक सके। या फिर उसे सेफली बुला सके।" पारो ने कहा, शतरूपा देवी ने समझते हुए हां में सिर हिलाया।

    विक्रम सिंह बुंदेला ने अपनी जिद से इन दोनों को परेशान कर रखा था। दोनों ही जबरदस्त उलझन में थीं। इस बात से अनजान कि कोई दरवाजे पर खड़े होकर खतरनाक तेवरों से इन दोनों को घूर रही थी।

    बातें करती हुई पारो की नजर अचानक से उस लड़की पर पड़ी। उसने आंखों के इशारे से शतरूपा देवी को दरवाजे की तरफ देखने के लिए कहा।

    "क्या बड़ी मां सा और पारो मां!! आप दोनों तो बात करने में ऐसे उलझ जाती हैं कि बिल्कुल याद नहीं रहता कि कोई नीचे आपका बेसब्री से इंतजार भी कर रहा है। अब क्या अपने आने के इंतजार में उसे ऊपर टंगवा कर ही मानेंगी??" करीब 21 साल की मासूम और बेहद खूबसूरत सी लड़की आशी ने अपनी बड़ी बड़ी आंखों में शिकवा भरते हुए शतरूपा देवी और पारो की तरफ देखा।

    उसके अंदाज ने शतरूपा देवी और पारो को इस मुसीबत की घड़ी में भी मुस्कुराने पर मजबूर कर दिया।

    "यहां क्या कर रही है कॉलेज नहीं जाना क्या??" आशी को देखते ही पारो ने मीठी सी डांट लगाई।

    जिसको सुनकर आशी ने बुरा सा मुंह बनाया।

    "जाना तो है, लेकिन कहते हैं ना भूखे भजन नहीं होंगे रे गोपाला। तो पढ़ाई क्या खाक होगी? मैं भी भूखे पेट कॉलेज जा नहीं सकती थी।" आशी ने अपने पेट पर हाथ रखते हुए बिल्कुल क्यूट पप्पी फेस बनाकर कहा।

    उसके अंदाज़ पर शतरूपा देवी खोल कर मुस्कुरा पड़ीं।

    "अरे बेटा!! तो ब्रेक फास्ट कर लेना चाहिए था ना..." शतरूपा देवी ने प्यार से आशी के सर पर हाथ फेरते हुए कहा।

    "आपके बिना??" आशी ने अपनी बड़ी बड़ी मासूम आंखों में ढेर सारा प्यार और आश लेकर शतरूपा देवी से पूछा।

    "नहीं, नहीं!! उसके बिना तू क्यों खाएगी?? उसके बिना तेरे पेट में खाना थोड़ी जाएगा?? वह तो पड़ोस वाले शिवाक्षी के पेट में चला जाएगा।" पारो चढ़ती हुई बोली।

    "देख लीजिए, बड़ी मां सा।" आशी, शतरूपा देवी में चिपकती हुई बोली।

    "तुम भी ना पारो!! जब देखो बच्ची को बोलती ही रहती हो।" शतरूपा देवी मुस्कुराते हुए बोलीं।

    "तेरी बच्ची!! अब बच्ची नहीं रही। पूरे 21 साल की हो गई है। कल ही ये बात, इसकी मां भी कह रही थी। कुछ दिन में अगले घर जाने का भी समय हो जाएगा और इसकी हरकतें तो देखो। बिल्कुल छोटी बच्ची वाली है।" पारो तो जैसे आज शतरूपा देवी के सामने ही आशि की क्लास लगाने के लिए तैयार थी।

    "अरे!! बस भी करो पारो। अब वह जमाना बीत गया, जब ससुराल का नाम सुनते ही लड़कियां कांपने लगती थी। मेरी आशी बहुत अच्छी है। लाखों में एक है। जिसके घर जाएगी, उसका घर अपने व्यवहार से ही रोशन कर देगी।" शतरूपा देवी अपनी आशी के खिलाफ एक बात भी सुनने को तैयार नहीं थीं।

    "यह बात तो तेरी भी मैं मानती हूं कि उसका व्यवहार लाखों में एक है। लेकिन सिर्फ अच्छे व्यवहार से पेट नहीं भरता। उसके लिए कुछ खाना बनाना भी आना होता है। लेकिन तेरी बातों से तो ऐसा लगता है कि इसके व्यवहार से ही उन लोगों का पेट भर जाएगा। रोटी खाने की तो जरूरत ही नहीं पड़ेगी।" आशि की तारीफ करते करते पारो ने तंज का टुकड़ा जोड़ ही दिया।

  • 18. इंतज़ार: वो भूली दास्तां - Chapter 18

    Words: 1018

    Estimated Reading Time: 7 min

    "यह बात तो तेरी भी मैं मानती हूं कि उसका व्यवहार लाखों में एक है, लेकिन सिर्फ अच्छे व्यवहार से पेट नहीं भरता। उसके लिए कुछ खाना बनाना भी आना होता है। लेकिन तेरी बातों से तो ऐसा लगता है कि इसके व्यवहार से ही उन लोगों का पेट भर जाएगा। रोटी खाने की तो जरूरत ही नहीं पड़ेगी।" आशी की तारीफ करते-करते पारो ने तंज का टुकड़ा जोड़ ही दिया।

    "अरे बस भी करो! तुम तो जैसे हाथ धोकर मेरी बेटी के पीछे पड़ गई हो। हमारी आशी को ऐसा घर नहीं मिलेगा, जहां दिन रात उसे काम करवाया जाए। हमारी आशी तो एक पैलेस से निकलकर दूसरे पैलेस में ही जाएगी। वहां कोई इसे किचन में नहीं भेजने वाला।" शतरूपा देवी ने आशि की साइड ली।

    "वही तो बड़ी मां सा, पूरे घर में सिर्फ एक आप ही हो जो मुझे समझती हो। वरना बाकी सब तो बस, मुझे भगाने के लिए ही तैयार रहते हैं।" मुंह बनाती हुई आशी ने शतरूपा देवी से पारो की शिकायत लगाई।

    "यह बात भी तूने सही कही छोरी! सारे घर वालों के पास कोई काम धाम तो बच ही नहीं रह गया है, तो वह बेचारे करेंगे भी क्या? सारे लाठी लेकर तेरे पीछे ही पड़े रहते हैं। यह बातें भूल जाते हैं कि उनके सारे काम तो पहले ही तू निपटा देती है।" पारो हंसते हुए बोली।

    "मैंने ऐसा कब कहा कि मैं सारे घर वालों के काम अकेले ही खत्म कर देती हूं। मेरे खुद के अकेले का काम तो बिना किसी की सहायता के कंप्लीट नहीं होते तो फिर इतनी बड़ी बात मैंने कब कही!" आशी सोचते हुए बोली। पारो ने मुस्कुराते हुए शतरूपा देवी को आशि की तरफ देखने का इशारा किया।

    "अरे बस भी कर पारो। हो गया। तू भी ना! उम्र हो चली है, लेकिन बच्चों के साथ बच्ची ही बनी रहती है।" शतरूपा देवी ने पारो को हाथ के इशारे से शांत रहने के लिए कहा। फिर आशि की तरफ मुड़ी।

    "क्या बात है बेटा? तुम मुझे क्यों खोज रही थी?"

    "ओहो बड़ी मां! पारो मां की बातों में तो मुझे यह भी याद नहीं रहा कि मैं आपको यहां किस लिए बुलाने आई थी? हां, याद आया।" अपने सर पर जोर देते हुए आशी कुछ याद आने पर तेजी से चिल्लाई।

    "नीचे मम्मी, आपको नाश्ते के लिए बुला रही हैं, पापा और काकोसा भी वहीं पर आपका वेट कर रहे हैं। चलिए जल्दी।" आशी ने लगभग हाथ पकड़कर शतरूपा देवी को उठाते हुए कहा।

    "यह क्यों नहीं कहती, उन लोगों से ज्यादा तू शतरूपा का इंतजार कर रही थी। बिना शतरूपा को खिलाए पेट नहीं भरने वाला तेरा।" पारो ने मुस्कुराते हुए कहा।

    "आपके ही विक्रम कुंवर सा ने मुझसे कहा था बड़ी मां सा का ध्यान रखने के लिए।" आपके शब्द पर जोर देते हुए, कुछ जता कर आशी ने पारो से कहा।

    आशी के इस अंदाज पर पारो ने अपने गाल पर हाथ रखकर मुस्कुराते हुए आशि की तरफ देखा।

    "हां! तू तो, कुंवर सा की सारी बातें जो मानती है..." पारो ने मुस्कुराते हुए कहा।

    "बस बस! ज्यादा ख्याली पुलाव मत पकाइए।" आशी समझ गई कि पारो आगे क्या कहने वाली है इसलिए तेजी से बोलते हुए उसने अपनी साइड क्लियर की।

    "अगर वह ना भी कहते तब भी हम अपनी बड़ी मां सा का ध्यान जरूर रखते। उनकी तरह अपनी बड़ी माशा को अकेले रोने के लिए छोड़ नहीं जाते। चलिए! बड़ी मां सा। अगर हम इनकी बातों का जवाब देने बैठ गए, तो ब्रेकफास्ट लंच का टाइम हो जाना है, तब भी इनके सवाल जवाब खत्म नहीं होंगे।" आशी लगभग खींचते हुए शतरूपा देवी को नीचे लेकर जाने लगी।

    "अच्छा! रुको तो सही बेटा! तुम चलो, मैं आ रही हूं।" दरवाजे के पास पहुंचकर जैसे शतरूपा देवी को कुछ याद आया।

    "अब क्या है बड़ी मां सा!" आशी ने लगभग उबते हुए बुरा सा मुंह बनाया।

    "कुछ जरूरी सामान है बेटा! ऑफिस के लिए भी लेट हो रहा है," शतरूपा देवी ने प्यार से आशि का गाल छूकर उसको मनाते हुए समझाया।

    "ओके ओके आई एम गोइंग, पर आप जल्दी आना, वरना आज मुझे कॉलेज के लिए पक्का लेट हो जाना है।" आशी ने शतरूपा देवी को याद दिलाते हुए, तेजी से नीचे सीढ़ियों की राह ली।

    "मेरी आशी, मेरे जीने की आशा! विक्रम तुम्हें मेरी जिम्मेवारी देकर नहीं गया, बल्कि मैं इस इंतजार में बैठी हूं कि कब विक्रम आए और उसे मैं तुम्हारी जिम्मेवारी सौंप कर निश्चिंत हो जाऊं।" शतरूपा देवी ने मुस्कुराते हुए धीरे से कहा, जो कि वही खड़ी पारो को सुन गया।

    "वैसे ख्याल तो घने चोखो है हुकुम सा!"

    पारो की बात सुनकर शतरूपा देवी ने हैरानी से पारो की तरफ देखा। पारो खिलखिला कर हंस पड़ी।

    "यह ख्याल तो तुम्हारा बड़ा ही अच्छा है शतरूपा! पर मुझे पता नहीं था कि तू ऐसा भी सोचती है!"

    "क्या मतलब तुम्हारा? मैं ऐसा सोच नहीं सकती!"

    "नहीं? सोच सकती है लेकिन इतने समय से सोच जाएगी मैंने सोचा नहीं था। ऐसी लड़की तो पूरे राजस्थान में क्या? पूरी दुनिया में तुम्हें ढूंढने से भी ना मिलने वाली। रंग रूप, नैन नक्श से लेकर पढ़ने में भी अव्वल है और दिल की भी पूरी साफ है। कुल खानदान सब देखा भाला और अच्छा है। मैं तो कहती हूं कि इस रिश्ते को हाथ से जाने ना दे। जितनी जल्दी हो सके विक्रम को बुलाकर आशी और उसके फेरे पड़वा ही दो।" पारो ने कहा।

    "मैं भी यही सोच रही हूं, बस एक बार विक्रम और पुलकित का भी मन जानना चाहती हूं।" शतरूपा देवी मुस्कुराते हुए बोली।

    "हां, पर एक बार विक्रम से पूछ जरूर लो, आजकल के बच्चे हैं। अपनी मर्जी से ही सब कुछ करना चाहते हैं। वरना मुझे तो नहीं लगता कि पुलकित को इस रिश्ते से इनकार होगा। अच्छा चलो! नीचे चलते हैं..." पारो ने कहा।

    दोनों नीचे आराम से सीढ़ियों से उतर कर आई, जहां डाइनिंग टेबल पर पूरा परिवार उनका इंतजार कर रहा था, लेकिन अंदर रसोई में एक और अनहोनी भी उनका इंतजार कर रही थी।

    हर हर महादेव 🙏

  • 19. इंतज़ार: वो भूली दास्तां - Chapter 19

    Words: 1025

    Estimated Reading Time: 7 min

    रॉयल्स बुंदेला फैमिली

    सीढ़ियों पर खड़े होकर शतरूपा देवी ने एक बार डाइनिंग टेबल पर जमे हुए अपने इस नए परिवार को देखा। अपने परिवार को खो देने के बाद अब बस यही लोग बच गए थे जो कि शतरूपा देवी की खाली जिंदगी में रंग भरते थे और परिवार के नाम पर कहने के लिए अपने थे। इन लोगों की हंसी और जिंदगी के रस से भरी बातों ने ही तो ना सिर्फ शतरूपा देवी के अकेलेपन को काफी हद तक कम कर रखा था, बल्कि इस पैलेस को भी मनहूस होने से बचा कर रखा था। वरना विक्रम के जाने के बाद तो शतरूपा देवी इस बड़े से पैलेस में बिल्कुल तन्हा रह गई थी।

    ऐसा नहीं था कि केवल विक्रम ही उनका परिवार था। पर हां! जो दूसरा था उसका नाम भी उन्हें पसंद नहीं था क्योंकि उन्होंने उसे कभी भी अपना नाम देना पसंद नहीं आया था, पर वह उसका हक था जो किसी न किसी तरह से उसे मिल ही चुका था और यही चीज उनके अंदर चिढ़ मचा चुकी थी जिसके कारण उन्होंने उसे अपनी मिल्कियत हाथ में आते ही सबसे पहले इस घर से बाहर निकाल फेंका था।

    डाइनिंग टेबल पर सबसे पहले समर्थ सिंह बैठे थे। वह शतरूपा देवी के भाई के बेटे यानी कि भतीजे थे। विकल्प इन्हीं का बेटा था, जो कि विक्रम के साथ इस वक्त न्यूयॉर्क में था। कभी अभिमन्यु प्रताप सिंह और समर्थ सिंह के बीच में भी ऐसी ही दोस्ती थी जैसे कि आज के डेट में विक्रम और विकल्प के बीच में थी। अभिमन्यु प्रताप सिंह के जाने के बाद समर्थ ने आगे बढ़कर अभिमन्यु के हिस्से की जिम्मेवारी उठाई थी और अपनी बुआ सा को अकेले ना छोड़ने के ख्याल से हमेशा हमेशा के लिए आकर यहीं पर राजगढ़ में ही रहने लगे थे। उसके बाद उनके सामने वाले चेयर पर पुलकित सिंह बैठे थे जो कि समर्थ सिंह के ही हम उम्र थे।

    समर सिंह, अभिमन्यु प्रताप सिंह और पुलकित सिंह तीनों एक ही क्लास में थे। स्कूल से लेकर यूनिवर्सिटी तक इन लोगों की दोस्ती फेमस थी और इसी दोस्ती में पुलकित सिंह ने विदेश जाकर काम करने की बजाए अपने दोस्त के रॉयल्स बुंदेला ग्रुप में काम करना एक्सेप्ट कर लिया था। हालांकि इसके पीछे भी बहुत बड़ी कहानी थी। अभिमन्यु प्रताप ने पुलकित सिंह की इस नई दुनिया को बचाने में बहुत ज्यादा हेल्प की थी। इस कारण पुलकित ने अपनी पूरी जिंदगी अपने दोस्त के नाम लिख दी थी।

    वरना उनके पास बुंदेला ग्रुप से भी ज्यादा अच्छे ऑफर थे, पर जब उन्होंने अपना बेस्ट बुंदेला ग्रुप के लिए लगाया तो मात्र 4-5 सालों में ही बुंदेला ग्रुप देश के टॉप टेन को टक्कर देने लगा था और फिलहाल में तो वर्ल्ड के टॉप टेन में यह शामिल था, जिसका पूरा श्रेय पुलकित सिंह को जाता था।

    समर्थ सिंह जहां रॉयल फैमिली से जुड़े हुए सारे सिक्योरिटी के मामले देखते थे, वही पुलकित सिंह पूरी तरह से रॉयल्स बुंदेला का बिजनेस देखते थे। अभिमन्यु प्रताप सिंह के ही खास भरोसेमंद दोस्त होने के साथ-साथ उनके समय से आज तक विक्रम की एब्सेंस में और साथ में उसके बालिग होने तक पुलकित सिंह ने ही पूरा बिजनेस संभाल रखा था।

    पुलकित सिंह के दो बच्चे हैं, आशी और अंशुमन दोनों जुड़वा हैं और उम्र में करीब 21 साल के। खूबसूरत सी आशी जहां चुलबुली और नटखट है वही स्मार्ट एंड गुड लुकिंग अंशुमन एक समझदार लड़का है और अब अपनी पोस्ट ग्रेजुएशन की पढ़ाई कंप्लीट करने के साथ-साथ रॉयल्स बुंदेला का बिजनेस भी देखने में अपने पापा की मदद करता है।

    शतरूपा देवी को डाइनिंग टेबल पर आते हुए देखकर सभी उनका रिस्पेक्ट प्रेजेंट करते हुए अपने अपने जगह से उठकर खड़े हो गए। शतरूपा देवी ने मुस्कुराते हुए सबको गुड मॉर्निंग विश किया और फिर शतरूपा देवी के बैठते ही सब अपनी अपनी जगह पर बैठ गए।

    पुलकित सिंह की वाइफ नव्या सिंह और समर्थ सिंह की वाइफ दामिनी सिंह ने सबको ब्रेकफास्ट सर्व करना शुरू किया। यह इस रॉयल फैमिली का पुराना सिस्टम था, किचन में खाना हमेशा महाराज जी बनाते थे जो कि इस पूरा फैमिली के पुराने सेफ थे। उनकी मदद के लिए एक खास नौकरानी उर्मिला रखी गई थी। खाना सबसे पहले भगवान के भोग से लेकर गौमाता तक के लिए निकाला जाता था, उसके बाद ही घरवालो को परोसा जाता था। खाना सर्व करने का सारा काम नव्या जी और दामिनी जी के ऊपर ही था।

    सब का ब्रेकफास्ट लगभग कंपलीट ही हो चुका था लेकिन आशी अभी भी एक ही ब्रेड में अब तक उलझी हुई थी।

    "आशी!! नाश्ता करने के लिए कहा गया नाश्ते को देखने के लिए नहीं। जल्दी करो।" अंशुमन ने आशी को टोका। आशी को आराम से नाश्ते के साथ खेलते हुए देखकर अंशुमन को झुंझलाहट हो रही थी।

    "आशी !! मैं अंतिम बार कह रहा हूं, इस तरह से ब्रेड के साथ खेलना बंद करो और जल्दी से अपना नाश्ता फिनिश करो। हम कॉलेज के लिए लेट हो रहे हैं।" अंशुमन ने घड़ी पर नजर डालते हुए परेशान होकर आशी से कहा लेकिन क्या मजाल थी जो आशी की सुस्त चाल में कोई कमी आई हो। वह तो आराम से एक-एक बाइट तोड़कर ब्रेकफास्ट का मजा लेते हुए खा रही थी।

    "आशी, थोड़ा फास्ट करो!! तुम्हें कॉलेज के लिए लेट हो रही है..." ना चाहते हुए भी नव्या जी ने आशी को टोका क्योंकि वह जान रही थी कि अगर उन्होंने बीच में इसे नहीं रोका तो आज ब्रेकफास्ट के टेबल पर ही दोनों भाई-बहन के बीच में महाभारत हो जाना है।

    "ऑफहो मम्मा!! आप ही कहती है ना कि खाना चबा चबाकर खाना चाहिए... इस तरह से खाती हो जैसे कि ट्रेन छूट रही हो.. ऐसे में खाना अच्छे से डाइजेस्ट नहीं होता और कई सारी बीमारियां होने की प्रोबेबिलिटी बढ़ जाती है.... इसलिए आप मेरा आराम से खाने का मूड है। जरा सुगर का जार पास कीजिएगा, प्लीज।" आशी ने नव्या जी की तरफ अपना हाथ बढ़ाते हुए कहा।

    उसकी इस हरकत पर जहां शतरूपा देवी पुलकित सिंह समेत सब मुस्कुरा दिए, वही अंशुमन जलकर रह गया और नव्या जी का दिल अपना सर पीट लेने का हो रहा था।

    हर हर महादेव 🙏

  • 20. इंतज़ार: वो भूली दास्तां - Chapter 20

    Words: 1191

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    "मेरा नाश्ता हो गया है, मैं आशी को लेकर कॉलेज जा रहा हूं और आशी को छोड़ते हुए ऑफिस चला आऊंगा," अंशुमन ने नैपकिन से अपना मुंह साफ करते हुए पुलकित सिंह से कहा।

    "टाइम का ध्यान रखना!! आज मीटिंग में तुम्हारा होना भी जरूरी है," पुलकित सिंह ने याद दिलाया।
    अंशुमन ने हां में सिर हिलाया। अंशुमन ने एक नजर आशी पर डाली जो कि अभी आराम से जूस की सिप ले रही थी।

    "आशी!! मैं लास्ट टाइम कह रहा हूं। अगर दो मिनट में तुम अपना नाश्ता फिनिश करके बाहर पार्किंग में नहीं आई, तो मैं तुम्हें छोड़ कर चला जाऊंगा," अंशुमन अपनी जगह से उठकर खड़े होते हुए बोला।

    आशी आराम से जूस घुट-घुट करके गले से नीचे उतार रही थी। अंशुमन की वार्निंग पर चिढ़ गई। उसने अपना जूस टेबल पर रख दिया।

    "देख रहे हैं ना पापा!! भाई का टॉर्चर दिन पर दिन मेरे ऊपर बढ़ता जा रहा है," पप्पी फेस बनाते हुए आशी ने पुलकित सिंह से अंशुमन की शिकायत लगाई।

    "हां तो क्या गलत है?? तुम्हारी वजह से उसे रोज देर हो जाती है। पहले तुम्हें कॉलेज छोड़ता है फिर पापा के पास उसे ऑफिस जाना होता है," नव्या जी ने बीच में बोलते हुए कहा।

    "इसका क्या मतलब है अपनी गाड़ी का रौब दिखाएगा कि उसके पास गाड़ी है और मेरे पास नहीं!!" झूठ में रोने जैसा मुंह बनाती हुई आशी ने असल मुद्दे की बात कह डाली थी, जिसकी वार्निंग नव्या जी को उनके सिक्स्थ सेंस ने पहले ही दे दी थी। उन्होंने आंखें छोटी करके आशी की तरफ देखा।

    आशी पर तो जैसे कोई असर ही नहीं हो रहा था, वह आराम से पुलकित सिंह से अपनी कंप्लेंट सुनाई जा रही थी।

    "भाई मुझ पर अपना सीनियरिटी दिखाने का एक भी मौका हाथ से जाने नहीं देता है। आप देख रहे हैं ना!! आपके सामने कैसे मुझे सुना कर गया, जैसे कि मैं कॉलेज जाने के लिए उस पर डिपेंड हूं।"

    आशी की बात सुनकर, नव्या जी ने अपनी आंखें बंद कर लीं। वह जानती थी कि आशी ड्रामा क्यों कर रही है?? लेकिन वह बिल्कुल नहीं चाहती थीं कि उसकी इस नई डिमांड पर कोई भी उसे एक नई स्पेशल गाड़ी ला कर दे। एक तो उन्हें आशी की ड्राइविंग का कोई भरोसा नहीं था, दूसरा, उसकी मनमौजी नेचर को वो अच्छे से जानती थीं। गाड़ी लेकर देने का मतलब था कि वह जो दिन में दो-चार बार उसकी शक्ल भी देख लेती थीं वह भी गायब हो जाती।

    "बात तो तुम्हारी बिल्कुल सही है आशी!! तुम दोनों साथ में जाते हो, अंशुमन पहले तुम्हें कॉलेज छोड़कर ऑफिस के लिए आता है। ऐसे में रोज उसे भी लेट हो जाती है। और तुम भी कहती हो कि रोज कॉलेज के लिए तुम्हें भी लेट होती है और आते वक्त तुम्हें गाड़ी का इंतजार करना पड़ता है। कभी-कभी अंशुमन फ्री नहीं होता, तो तुम्हें ड्राइवर के साथ आना पड़ता है। ऐसे में मैं सोच रहा था कि.... तुम्हारे लिए एक परमानेंट अरेंजमेंट कर दी जाए," पुलकित सिंह सोचते हुए अभी अगले ऑप्शन के बारे में बात कर ही रहे थे कि नव्या जी तेजी से बोल पड़ीं।

    "इसकी बातों में बिल्कुल मत आइएगा। अगर यह सुबह टाइम से उठे और टाइम से नाश्ता कर ले, तो यह कभी लेट नहीं होगी और ना ही अंशुमन को इस पर इस तरह से चिल्लाना पड़ेगा। अब जाओ!! अपना दूध लेकर रास्ते में पी लेना।" किसी को भी आशी के फेवर में बोलने का मौका देने से पहले ही नव्या जी ने आशी को आर्डर सुना दिया।

    "अपनी सुबह की अच्छी नींद बर्बाद करने के बाद जाने की प्रॉब्लम तो सॉल्व हो जाएगी, लेकिन आने की कैसे होगी??" बुरा सा मुंह बनाती हुई आशी उठ कर खड़ी हुई।

    "अगर मैं अर्ली मॉर्निंग उठ भी जाऊं तो मेरी जाने की प्रॉब्लम सॉल्व हो सकती है, लेकिन आने की नहीं!! आने को तो फिर वही होगा ना। मुझे वेट करना पड़ेगा या फिर अपनी किसी फ्रेंड से लिफ्ट ले कर आना पड़ेगा," आशी ने मुंह बनाते हुए कहा।

    "किसी से लिफ्ट लेकर आने की जरूरत ही क्या है??" नव्या जी ने तुरंत पूछा।

    "हैं!! तो क्या आप चाहती हैं कि मैं घर लौट कर नहीं आऊं?? मैं वही कॉलेज में ही रह जाऊं?? वह भी आप, आज बता ही दीजिए कि आपको अगर मुझसे प्रॉब्लम है और ऐसा ही अगर चाहती है तो फिर मैं कॉलेज के हॉस्टल में ही रह जाऊंगी," आशी ने अपनी बड़ी-बड़ी आंखें मासूमियत से गोल-गोल घुमाते हुए पूछा।

    "मेरा कहने का यह मतलब नहीं था कि तुम कॉलेज में ही रह जाओ, तुम कॉलेज गेट पर अंशुमन का वेट भी कर सकती हो। पर किसी अननोन पर्सन से लिफ्ट लेने की कोई जरूरत नहीं है। जमाना बहुत खराब हो चुका है और तुम को लेकर हम कोई रिस्क नहीं ले सकते हैं। समझ गई ना तुम!!" नव्या जी ने चेताया।

    "इसे कहते हैं इमोशनल अत्याचार!! जो कि सब मेरे ऊपर ही किए जाते हैं। उसको तो कोई कुछ नहीं कहता। 7 मिनट बड़े होने का फायदा उठाते हुए, उसे गाड़ी भी दे दी गई और मुझसे मेरी स्कूटी की चाबी भी छीन ली गई और अब रोज उनके साथ-साथ, इनकी भी बात सुनो। हाय रे मेरे दुख!! खत्म क्यों नहीं होते??" आशी ने बुरा सा मुंह बनाते हुए कहा।

    ऐसा लग रहा था कि सारी दुनिया के अत्याचार उसी पर किए जाते हों।

    "तुम अच्छी तरह से जानते हो कि तुम्हारी स्कूटी की चाबी क्यों वापस ली गई थी?? और अगर तुम अब यह नहीं चाहती कि मैं तुम्हारा यूनिवर्सिटी जाना भी बंद कर दूं तो चुपचाप चली जाओ," नव्या जी ने कहा।

    "हां हां जा रही हूं..." आशी एक पप्पी फेस बनाते हुए कहा।

    "कल अंशुमन बिजी था, तो मैंने ड्राइवर को टाइम से तुम्हारे यूनिवर्सिटी भेज दिया था तो फिर तुम वहां पर क्यों प्रेजेंट नहीं थी?? काफी देर तक तुम्हें ड्राइवर ने ढूंढा और फिर वापस आ गया," पुलकित सिंह ने कुछ सोचते हुए आशी से पूछा।

    "अब यह भी गलती मेरे ही खाते में लिख दीजिए कि कल सर ने 25 मिनट क्लास पहले छोड़ दी थी और मेरा रोड पर आते-जाते के नमूनों को देखने में कोई इंटरेस्ट नहीं था। इसलिए मैं अपने फ्रेंड के साथ पास वाले कैफेटेरिया में चली गई थी।"

    "बात तो सही है तुम्हारी, प्रॉब्लम तो तुम्हें सच में हो रही है," पुलकित सिंह सोचते हुए बोले।

    "कोई प्रॉब्लम नहीं हो रही है, बल्कि सारे प्रॉब्लम ये खुद ही क्रिएट करती है और अब चुपचाप जल्दी से जाओ। वरना अगर अंशुमन आज तुम्हें छोड़कर चला गया, तो फिर तुम्हारे पास का कोई ऑप्शन नहीं बचेगा।" आशी को कुछ कहने का मौका दिए हुए बिना ही नव्या जी ने उसे जाने को कहा क्योंकि बाहर अंशुमन ने गाड़ी के हॉर्न हाथ रख दिए थे जो कि लास्ट साइन था कि अब वह चला जाएगा। मुंह बनाती हुई आशी अपना बैग लेकर जाने को हुई।

    "बाय बाय, फिर मिलते हैं।"

    शतरूपा देवी सब कुछ देख कर मुस्कुरा रही थीं। कुछ तो जरूर उनके दिमाग में चल रहा था और उनकी यही मुस्कुराहट नव्या जी को परेशान कर रही थी।