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Junoon-E-Ishq (जुनून-ए-इश्क़)

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Aman Kushwaha

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Description

"Junoon-E-Ishq" प्यार और नफरत की जंग में कौन जीतेगा— दिल, या अतीत की कड़वी सच्चाई? अभिषेक ठाकुर, एक ऐसा नाम जिससे शहर का हर शख्स कांपता है। अंडरवर्ल्ड का सबसे खतरनाक खिलाड़ी, जो अपने दुश्मनों के लिए काल और अपने अपनों के लिए ढाल है। उसकी...

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ज़ोया राठौड़

Heroine

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अभिषेक ठाकुर।

Hero

Total Chapters (7)

Page 1 of 1

  • 1. Junoon-E-Ishq (जुनून-ए-इश्क़) - Chapter 1

    Words: 0

    Estimated Reading Time: 0 min

    रात का वक्त। मुंबई के बाहरी इलाके में एक सुनसान फैक्ट्री के अंदर हल्की-हल्की स्ट्रीट लाइट की रोशनी पड़ रही थी। चारों तरफ सन्नाटा था, मगर यह सन्नाटा तूफान से पहले की शांति थी। हवा में बारूद और खून की गंध घुली हुई थी। एक लंबा-चौड़ा आदमी, काले सूट में, भारी बूट्स पहने अंदर दाखिल हुआ। उसकी चाल में एक अजीब-सा ठहराव था, मगर उसकी आँखों में वो चमक थी जिससे सामने वाला कांप जाए। वो अभिषेक ठाकुर था। सामने स्टील की कुर्सी पर एक आदमी बंधा हुआ तड़प रहा था। उसका चेहरा खून से सना था, होंठ कटे हुए, आँखें सूजी हुईं, और सांसें उखड़ी हुई थीं। पास ही अभिषेक का सबसे खास आदमी, अली, खड़ा था, हाथ में लोहे की रॉड लिए। "बता, कौन भेजा था तुझे?" अभिषेक ने बेहद ठंडी आवाज़ में पूछा। आदमी ने हिम्मत जुटाकर थूक निगला। "मैं कुछ नहीं बताऊँगा..." अगले ही पल, अली ने लोहे की रॉड उसके घुटने पर मारी। क्रैक! हड्डी टूटने की आवाज़ चारों तरफ गूंज गई। आदमी दर्द से चीख उठा, मगर अभिषेक की आँखों में कोई दया नहीं थी। "मुझे झूठ पसंद नहीं। तेरी जान मेरी मुट्ठी में है। आखिरी मौका दे रहा हूँ..." वो आदमी कांप रहा था। उसने डरते-डरते जवाब दिया, "रफीक... रफीक भाई ने भेजा था..." नाम सुनते ही अभिषेक की आँखों में नफरत की लकीरें खिंच गईं। "तो खेल शुरू हो चुका है?" उसी वक्त, फैक्ट्री के बाहर तेज़ ब्रेक लगने की आवाज़ आई। "भाई! दुश्मनों ने धावा बोल दिया!" अली ने फौरन गन निकाल ली। अगले ही सेकंड, गोलियों की बारिश शुरू हो गई। चारों ओर से गोलियाँ चलने लगीं। अभिषेक ने तुरंत कवर लिया और अपनी गन निकालते ही पहला निशाना लिया— धाय! एक आदमी ज़मीन पर गिरा। उसके लोग पूरी ताकत से लड़ रहे थे, मगर रफीक का गैंग भारी संख्या में था। खून के छींटे हवा में उड़ रहे थे। अभिषेक ने गुस्से में दो और लोगों को शूट किया। फैक्ट्री में लाशों का ढेर लगने लगा। अचानक, एक ग्रेनेड अंदर फेंका गया। "भाई, कवर लो!" अली चिल्लाया। अभिषेक ने झट से एक मेज पलटकर खुद को बचा लिया। तेज़ धमाके से फैक्ट्री की दीवारें हिल गईं। धुआं छंटते ही अभिषेक उठा, और एक-एक कर गोलियाँ बरसाने लगा। पांच मिनट बाद... सब शांत हो चुका था। चारों तरफ खून ही खून था। "रफीक को बता दो..." अभिषेक ने अपनी गन लोड करते हुए कहा, "अब खेल मैं खेलूंगा!" शहर की जगमगाती रोशनी के पीछे अंधेरे की एक और दुनिया बसी थी— अंडरवर्ल्ड। जहाँ हर फैसला गोलियों से होता था और हर वफादारी की कीमत खून से चुकाई जाती थी। पिछली रात अभिषेक ठाकुर ने रफीक के आदमियों का खात्मा कर दिया था, मगर यह जंग अभी खत्म नहीं हुई थी। रफीक का अड्डा - धारावी धारावी की एक सुनसान बिल्डिंग के ऊपर बने पेंटहाउस में रफीक अपने गुर्गों के साथ बैठा था। उसके चारों तरफ उसके खास आदमी थे— शाहिद, तौसीफ, और बब्लू। टेबल पर शराब और सिगार रखे थे, मगर माहौल में बेचैनी थी। शाहिद, जो हमेशा शांत रहता था, इस वक्त गुस्से में था। "भाई, ठाकुर ने हमारे आठ आदमी मार दिए! हमें जवाब देना होगा!" रफीक ने सिगार का कश लिया और धीरे से मुस्कुराया। "अभी नहीं। ठाकुर को लगता है कि उसने खेल जीत लिया, मगर असली चाल अभी चली ही नहीं गई है।" तौसीफ ने पूछा, "तो फिर?" रफीक ने टेबल पर पड़ी एक तस्वीर उठाई— अभिषेक ठाकुर का सबसे वफादार आदमी, अली। "इसके जरिए ठाकुर तक पहुंचेंगे। पहले इसे हटाओ।" शाहिद ने सिर हिलाया, "समझ गया, भाई।" --- ठाकुर का गैरेज - अगली रात अभिषेक अपनी ब्लैक एसयूवी के पास खड़ा था। अली उसके पास आया, "भाई, सब कुछ क्लियर है। फैक्ट्री वाले एरिया में अब कोई खतरा नहीं।" अभिषेक ने सिगरेट का धुआं छोड़ते हुए कहा, "खतरा खत्म नहीं हुआ, अली। रफीक जवाब देगा। ये लड़ाई लंबी चलेगी।" अचानक, गैरेज के बाहर गोलियों की आवाज़ गूंज उठी। "भाई! हमला हुआ है!" अली ने फौरन गन निकाली, मगर इससे पहले कि वो कुछ करता, एक गोली उसके सीने में जा लगी। "अली!" अभिषेक गरजा, मगर तब तक चार और गोलियाँ अली के शरीर को चीर चुकी थीं। अली नीचे गिरा, खून से लथपथ। अभिषेक के अंदर गुस्से का सैलाब फूट पड़ा। उसने फौरन अपनी गन निकाली और छिपे हुए हमलावरों पर गोलियाँ बरसानी शुरू कर दीं। पहला आदमी— धाय! दूसरा— धाय! तीसरा— गोली सीधी उसके माथे पर जा लगी। अंधाधुंध फायरिंग के बीच हमलावर भागने लगे। मगर तब तक अभिषेक ने उनका चेहरा देख लिया था— शाहिद और उसके लोग। अभिषेक ने अली को उठाने की कोशिश की, मगर उसके शरीर से जिंदगी की आखिरी सांसें निकल चुकी थीं। उसकी आँखों में खून उतर आया। "रफीक, अब मैं तुझे जिंदा नहीं छोड़ूंगा..." रफीक ने हमेशा सोचा था कि वो इस शहर का राजा है। मगर वो भूल गया था— अभिषेक ठाकुर सिर्फ दुश्मनों को हराने में यकीन नहीं रखता, वो उन्हें मिटाने में यकीन रखता है। उस रात, रफीक अपने वेयरहाउस में बैठा था। चारों ओर उसके सबसे भरोसेमंद आदमी खड़े थे— लेकिन डर उनके चेहरे पर साफ झलक रहा था। वो जानते थे, ठाकुर का बदला अधूरा नहीं रहता। अचानक, वेयरहाउस की लाइट्स झपकने लगीं। माहौल में अजीब-सी घबराहट थी। तभी एक गार्ड चीखा— "भाई! ठाकुर के आदमी अंदर घुस चुके हैं!" गोलियों की बौछार शुरू हो गई। चारों तरफ चीख-पुकार मच गई। रफीक के आदमी एक-एक कर गिरने लगे। धुएं, खून और चीखों के बीच, अभिषेक ठाकुर ने एंट्री ली। उसकी आँखों में मौत की आंधी थी। रफीक का आखिरी पल... रफीक ने भागने की कोशिश की, मगर तभी... धप्प! एक लोहे की रॉड उसकी टांग पर आ गिरी। हड्डी टूटने की आवाज़ आई, और रफीक ज़मीन पर गिर पड़ा। दर्द से बिलबिलाते हुए उसने ऊपर देखा— अभिषेक उसके सामने खड़ा था, हाथ में एक तेज़धार कटार। "भागेगा कहाँ, कुत्ते?" रफीक की साँसें तेज़ हो गईं। "ठाकुर, सुन... ये सब सिर्फ बिज़नेस था। तुझे जो चाहिए, ले ले। मगर मुझे छोड़ दे!" अभिषेक मुस्कुराया— वो ठंडी, मौत से भरी मुस्कान। "मैं जो चाहता था, वो तूने छीन लिया। अब तुझे भी वैसा ही महसूस कराऊँगा।" अभिषेक ने धीरे-धीरे कटार को रफीक की हथेली में घोंप दिया। रफीक चीखा, मगर ठाकुर ने कोई रहम नहीं किया। "तूने मेरे आदमी मारे, मेरा भाई अली मरा। अब तू भी धीरे-धीरे मरेगा।" उसने कटार को घुमा दिया— खून बहने लगा, चीखें गूँज उठीं। इसके बाद, ठाकुर ने छोटे-छोटे कट लगाने शुरू किए— घाव छोटे थे, मगर दर्द असहनीय। रफीक की आँखों में अब सिर्फ दहशत थी। "ठाकुर... मार डाल... एक ही बार में!" अभिषेक ने उसकी गर्दन पकड़कर कहा, "इतनी आसानी से नहीं। तूने अली को बहुत तड़पाया था... अब तू भी वैसे ही तड़पेगा।" इसके बाद उसने ब्लो टॉर्च उठाई— और धीरे-धीरे रफीक की उंगलियाँ जलानी शुरू कर दीं। चीखें इतनी भयानक थीं कि दीवारें काँप गईं। रफीक अब लगभग बेहोश हो चुका था, मगर अभिषेक के लिए यह काफी नहीं था। उसने रफीक को घसीटकर एक बड़े हुक से लटका दिया ठाकुर ने एक मोटा, जंग लगा चाकू निकाला और धीरे-धीरे... रफीक की चमड़ी उतारनी शुरू कर दी। रफीक अब तक जितना चीखा था, वो कुछ भी नहीं था। उसकी आँखों से आँसू बह रहे थे, मगर ठाकुर की आँखों में सिर्फ नफरत थी। आखिरी सांस से पहले, रफीक ने हाँफते हुए कहा, "ठाकुर... तुझे भी किसी दिन... ऐसा ही तड़पना पड़ेगा..." अभिषेक ने उसके कान में फुसफुसाया, "तू ये देखने के लिए जिंदा नहीं रहेगा।" और फिर... "धाय!" एक गोली, सीधा उसके सिर में। रफीक का शरीर झटके से हिलकर शांत हो गया। खून टपकता रहा, मगर ठाकुर के चेहरे पर कोई शिकन नहीं आई। उसने अपनी बंदूक घुमाई और कहा, "खेल खत्म।" अब मुंबई पर सिर्फ एक नाम राज करता था— "अभिषेक ठाकुर।" रफीक की मौत को दो हफ्ते बीत चुके थे। अब शहर में सिर्फ एक ही नाम गूंजता था— अभिषेक ठाकुर। मगर ताकत के साथ दुश्मन भी बढ़ते हैं, और किस्मत ऐसे खेल खेलती है, जिसका अंदाजा किसी को नहीं होता। उस रात, अभिषेक अपने पेंटहाउस के सबसे ऊपरी फ्लोर पर खड़ा शहर को देख रहा था। दूर समंदर में उठती लहरें उसे उसकी खुद की ज़िंदगी की तरह लग रही थीं— बेसब्र, बेकाबू, और खतरनाक। तभी फोन बजा। "भाई, Inferno में कोई लड़की तुमसे मिलने आई है। कह रही है कि बहुत जरूरी बात करनी है।" अभिषेक ने एक पल सोचा, फिर ठंडी आवाज़ में कहा, "नाम पूछा?" "ज़ोया... ज़ोया राठौड़।" Inferno, जहाँ सिर्फ वही लोग आते थे, जो या तो पावरफुल थे, या मरने की हिम्मत रखते थे। अभिषेक क्लब के अंदर दाखिल हुआ। चारों तरफ तेज़ संगीत, शराब और नाचते हुए लोग। मगर उसकी नजरें सीधी सामने थीं— वो लड़की, जिसने खुद को ज़ोया राठौड़ कहा था। हल्के भूरे बाल, हेज़ल ब्राउन आँखें, और मासूम सा चेहरा। मगर कुछ अजीब था उसमें। उसकी चाल में एक ठहराव था, जैसे वो इस दुनिया से अजनबी नहीं थी। वो अकेली एक टेबल पर बैठी थी। सामने रखे ग्लास को वो हल्के-हल्के हिला रही थी, मगर उसकी आँखें इधर-उधर हर किसी की हलचल को बारीकी से परख रही थीं। अभिषेक ने कदम बढ़ाए और उसके सामने कुर्सी खींच कर बैठ गया। "नाम सुना नहीं मैंने तुम्हारा।" ज़ोया ने हल्की मुस्कान के साथ सिर झुकाया, "और मैंने तुम्हारा बहुत सुना है, मिस्टर ठाकुर।" अभिषेक ने सिगार जलाया, धुआं उसकी तरफ उड़ाया और संजीदगी से पूछा, "मुझसे क्या चाहिए?" ज़ोया ने गहरी साँस ली। "एक सौदा करना है तुमसे।" अभिषेक हँसा, "सौदा? तुम्हें पता भी है कि तुम किससे बात कर रही हो?" ज़ोया ने बिना झिझक के जवाब दिया, "जिस आदमी ने अभी कुछ दिन पहले मेरे भाई को मार डाला।" अचानक माहौल जम सा गया। क्लब का शोर अब भी था, मगर दोनों के बीच अजीब सी खामोशी छा गई। अभिषेक की आँखों में ठंडक आ गई, "रफीक तुम्हारा भाई था?" ज़ोया ने धीरे से सिर हिलाया। अभिषेक ने बिना पलक झपकाए कहा, "तो फिर तुम यहाँ बदला लेने आई हो?" ज़ोया ने उसकी आँखों में गहराई से झाँका और फुसफुसाई, "शायद... या शायद तुम्हारे साथ जुड़ने के लिए।" अभिषेक ने उसके चेहरे को गौर से देखा। वो झूठ नहीं बोल रही थी, मगर उसके इरादे भी साफ नहीं थे। "और अगर मैं मना कर दूँ?" ज़ोया ने मुस्कुराकर कहा, "तो फिर मुझे किसी और रास्ते से तुम्हारे करीब आना पड़ेगा।" अभिषेक ने सिगार बुझाया और ठंडी आवाज़ में कहा, "खेल खेलना चाहती हो, ज़ोया? तो याद रखना, मेरे खेल में या तो जीत होती है... या मौत।" ज़ोया ने आँखों में वही चमक लिए कहा, "तो फिर देखते हैं, ये खेल हमें कहाँ तक ले जाता है।" कहानी जारी रहेगी.......

  • 2. Junoon-E-Ishq (जुनून-ए-इश्क़) - Chapter 2

    Words: 1824

    Estimated Reading Time: 11 min

    अभिषेक ठाकुर का हर लम्हा प्लान किया हुआ होता था। उसकी ज़िंदगी में कुछ भी बेवजह नहीं था। लेकिन आज, जब वो ज़ोया को देख रहा था, तो उसके दिमाग में पहली बार कोई उलझन पैदा हो रही थी। वो अब भी उसके सामने बैठी थी— हल्के भूरे बाल, गहरी हेज़ल ब्राउन आँखें, और चेहरे पर अजीब सा ठहराव। उसने काले रंग की ड्रेस पहनी थी, जो उसकी गोरी त्वचा पर और भी निखर रही थी। उसकी पतली, नाज़ुक उंगलियाँ ग्लास के किनारे को हल्के से छू रही थीं, जैसे कोई राज़ अपने अंदर समेटे बैठी हो। अभिषेक की नज़रें उस पर जमी थीं। उसके चेहरे की मासूमियत के पीछे कुछ छिपा था— एक ऐसा अंधेरा, जो उसे और भी खूबसूरत बना रहा था। "तो तुम मेरे पास आई क्यों?" अभिषेक ने ठंडी आवाज़ में पूछा। ज़ोया ने उसकी आँखों में झाँका। "शायद किस्मत हमें मिलाना चाहती थी।" अभिषेक मुस्कराया, लेकिन उसकी मुस्कान में हल्का सा खतरनाक पैनापन था। "किस्मत?" उसने धीरे से कहा, फिर झुककर ज़ोया के और करीब आया। उसके चेहरे से सिर्फ कुछ इंच की दूरी पर रुककर उसने फुसफुसाया, "मैं किस्मत पर यकीन नहीं करता, ज़ोया। जो मैं चाहता हूँ, उसे पाने के लिए मैं अपनी किस्मत खुद लिखता हूँ।" ज़ोया के होंठ हल्के से कांपे, मगर उसकी आँखें अब भी निडर थीं। "शायद इसलिए तुम मुझे और दिलचस्प लगते हो।" अभिषेक की उंगलियाँ धीरे से टेबल के ऊपर नाचने लगीं। उसके अंदर कुछ अजीब हो रहा था। उसने कई औरतों को देखा था, कई उनके करीब आया था— मगर ये लड़की कुछ अलग थी। वो उसके करीब झुकने का सोच ही रहा था कि तभी ज़ोया ने हल्के से कहा, "वैसे, ये जो आँखों में जमी ठंडक है... ये कब पिघलती है?" अभिषेक को ऐसा लगा जैसे किसी ने उसे चैलेंज कर दिया हो। उसने धीरे से हाथ बढ़ाया और ज़ोया के चेहरे के पास अपनी उंगली लाकर रोक दी। "पिघलती नहीं," उसने हल्के से मुस्कराकर कहा, "मगर जो इसे छूने की कोशिश करता है, वो खुद जल जाता है।" ज़ोया ने एक पल के लिए उसकी आँखों में देखा, फिर हल्की मुस्कान के साथ धीरे से बोली, "तो फिर देखते हैं... कौन पहले जलता है।" मुंबई की वो रात ठंडी थी, मगर अभिषेक के अंदर कुछ और ही आग जल रही थी। Inferno क्लब की मुलाकात के बाद से उसके दिमाग में ज़ोया की तस्वीर अटक गई थी। वो अक्सर औरतों को अपने करीब आने से पहले ही परख लेता था— उनकी चाल, उनकी आँखों में छिपे इरादे, उनके झूठ। मगर ज़ोया… वो अब तक एक पहेली बनी हुई थी। आज वो फिर आई थी। इस बार Inferno में नहीं, उसके घर में। पेंटहाउस के बड़े हॉल में हल्की रोशनी थी। महंगे ब्रांडेड शराब की बोतलें साइड टेबल पर रखी थीं, और बीच में एक लंबा काँच का टेबल। पीछे काले पर्दों के पीछे से शहर की रोशनियाँ टिमटिमा रही थीं। अभिषेक सोफे पर बैठा था, उसके हाथ में जलता हुआ सिगार। और सामने— ज़ोया। काली सिल्क की साड़ी में, उसके खुले बालों की लटें चेहरे पर गिर रही थीं। उसकी आँखों में एक अजीब सी उदासी थी, मगर उसके होंठों पर खेलती हल्की मुस्कान किसी रहस्य की तरह लग रही थी। अभिषेक ने सिगार का एक लंबा कश लिया और ठंडी नज़रों से बोला, "मुझे अब भी नहीं पता कि तुम मुझसे क्या चाहती हो, ज़ोया।" ज़ोया धीरे-धीरे उसकी तरफ बढ़ी। उसकी चाल में वो ठहराव था, जिसे देखकर कोई भी आदमी फिसल सकता था। "क्या सच में नहीं जानते?" उसकी आवाज़ धीमी थी, मगर उसमें एक अजीब सा आकर्षण था। अभिषेक ने उसे एक पल के लिए देखा। फिर अचानक उसने अपना सिगार ऐशट्रे में बुझाया और झटके से ज़ोया की कलाई पकड़ ली। ज़ोया चौंक गई, मगर घबराई नहीं। अभिषेक ने उसे अपनी तरफ खींच लिया, इतनी नज़दीक कि अब उनके बीच सिर्फ साँसों की गर्मी थी। "तुम खेल खेल रही हो, ज़ोया।" उसकी आवाज़ में हल्की खतरे की झलक थी। "लेकिन इस खेल में जल जाने की आदत डाल लो।" ज़ोया के चेहरे पर हल्की मुस्कान उभरी। "हो सकता है, मैं पहले से ही जल रही हूँ, अभिषेक।" उसकी आँखों में जो गहराई थी, उसने अभिषेक के दिमाग में हलचल मचा दी। उसने धीरे से ज़ोया की कलाई छोड़ी, मगर उसकी उंगलियाँ अब भी उसकी त्वचा को महसूस कर रही थीं। ज़ोया ने धीरे से पीछे हटते हुए कहा, "मैं तुम्हारे करीब इसलिए आई हूँ, क्योंकि तुमसे दूर जाना अब मुमकिन नहीं रहा।" अभिषेक की आँखें अब भी उसे घूर रही थीं। "अगर ये एक चाल है, ज़ोया... तो याद रखना, मैं तुम्हें माफ नहीं करूँगा।" ज़ोया ने हल्की मुस्कान के साथ कहा, "तो फिर मुझे पकड़ लो, ताकि मैं कहीं जा न सकूँ।" अभिषेक की आँखों में पहली बार नफ़रत और आकर्षण का एक अजीब सा मेल था। उसने अपनी उंगलियाँ धीरे से ज़ोया की ठुड्डी के नीचे टिकाईं, उसकी गर्दन तक खींचते हुए उसने हल्की आवाज़ में कहा, "तुम बहुत खतरनाक हो सकती हो, ज़ोया।" ज़ोया ने हल्के से फुसफुसाया, "तो फिर देखो ना, कितनी?" कमरे की हल्की रोशनी में ज़ोया अब भी वहीं खड़ी थी, उसके चेहरे पर वही हल्की मुस्कान, वही रहस्यमयी ठहराव। अभिषेक ने बहुत से चेहरे देखे थे—डर, नफ़रत, चालाकी, वफादारी—मगर ज़ोया की आँखों में जो था, वो उसने पहले कभी नहीं देखा था। एक अजीब खामोशी कमरे में फैल गई। अभिषेक की उँगलियाँ अब भी ज़ोया की ठुड्डी पर थीं, मगर अब उनका स्पर्श और भी गहरा, और भी खतरनाक हो गया था। उसने ज़ोया को हल्के से अपनी ओर खींचा, उनके बीच अब सिर्फ सांसों का फ़ासला था। "तुम मेरे करीब क्यों आना चाहती हो, ज़ोया?" उसकी आवाज़ गहरी और रहस्यमयी थी। ज़ोया ने बिना पलक झपकाए जवाब दिया, "क्योंकि तुमसे दूर जाने की अब हिम्मत नहीं रही।" अभिषेक के होंठों पर हल्की सी मुस्कान उभरी, मगर उसकी आँखें अब भी नर्म नहीं हुई थीं। "या फिर ये सिर्फ एक और साज़िश है?" उसने धीरे से कहा, उसकी उँगलियाँ अब ज़ोया की गर्दन पर सरक रही थीं, जैसे किसी शिकारी ने अपने शिकार को पकड़ लिया हो। ज़ोया ने हल्की सांस भरी। "अगर ये साज़िश है तो तुम ही बताओ, क्या तुम खुद इस खेल में नहीं फँस रहे?" अभिषेक के चेहरे पर हल्का सा तनाव उभरा। उसने अपनी उँगलियाँ ज़ोया की गर्दन से हटाईं, मगर उसकी कलाई अचानक ज़ोया के कमर पर आ गई, और उसने उसे एक झटके में अपनी तरफ खींच लिया। "मैं कभी नहीं फँसता, ज़ोया।" अब उनके बीच कोई फासला नहीं था। ज़ोया का दिल तेज़ी से धड़कने लगा, मगर उसने अपना संयम नहीं खोया। उसकी उँगलियाँ हल्के से अभिषेक के कॉलर तक गईं, और उसने धीरे से कहा, "फिर तो तुम्हें कोई फर्क नहीं पड़ेगा अगर मैं यहाँ से चली जाऊँ?" अभिषेक के होंठों पर हल्की मुस्कान आई, मगर इस बार उसमें खतरनाक गहराई थी। "जाओ।" उसका जवाब सुनकर ज़ोया का चेहरा हल्का सा सख्त हुआ। उसने अभिषेक की पकड़ से खुद को छुड़ाया, मगर जैसे ही वो मुड़ी, अभिषेक ने एक झटके से उसकी कलाई पकड़ ली। "मगर याद रखना, ज़ोया…" उसकी आवाज़ अब पहले से और भी ठंडी थी, "एक बार जो मेरे पास आता है, वो फिर मुझसे दूर नहीं जा सकता।" ज़ोया ने उसकी आँखों में देखा। "अगर मैं तुम्हारी दुनिया में आई हूँ, अभिषेक…" उसने धीमे से कहा, "तो शायद अब मेरा लौटना भी मुमकिन नहीं।" अभिषेक की पकड़ हल्की हुई, मगर उसकी आँखों में वही कशमकश थी—ये लड़की सिर्फ एक और खेल थी, या फिर वो अब सच में उसकी कमजोरी बन रही थी? कमरे में खामोशी थी, मगर हवा में एक अजीब सा जुनून तैर रहा था। रात के अंधेरे में सिर्फ़ हल्की रोशनी जल रही थी। शहर सो रहा था, मगर अभिषेक ठाकुर और ज़ोया राठौड़ के दिलों में तूफ़ान मचा हुआ था। अभिषेक ने अब भी ज़ोया की कलाई थाम रखी थी। उसकी पकड़ धीमी थी, मगर उसमें एक अजीब-सा हक़ झलक रहा था—जैसे वो उसे छोड़ना नहीं चाहता, मगर रोकने का कोई ठोस बहाना भी नहीं था। "क्यों रुकी तुम?" उसकी आवाज़ में वही गहराई थी, वही दावा, जिसे कोई ठुकरा नहीं सकता था। ज़ोया ने हल्के से सिर उठाया। उसकी हेज़ल ब्राउन आँखें, जो अब तक दर्द और रहस्य से भरी थीं, इस वक्त किसी और ही कशमकश में थी। "शायद इसलिए कि तुम्हारे पास से जाने का मन नहीं कर रहा…" उसके लहज़े में हल्की तपिश थी। अभिषेक ने हल्की सी मुस्कान दी। ये लड़की उसे समझ नहीं आ रही थी, मगर शायद पहली बार किसी ने उसे समझने की कोशिश भी नहीं की थी। उसकी उँगलियाँ धीरे-धीरे ज़ोया की कलाई से फिसलीं और उसकी कमर पर आ टिकीं। "तुम्हें डर नहीं लगता?" ज़ोया ने धीमी साँस ली। "डर सिर्फ़ उन लोगों को लगता है, जो हार जाने से डरते हैं।" अभिषेक ने हल्के से उसकी ठोड़ी ऊपर की। अब उनके चेहरे के बीच सिर्फ़ सांसों का फासला था। "तो फिर आज़मा लो, ज़ोया..." उसकी आवाज़ अब और गहरी हो चुकी थी। "देखते हैं, कौन पहले हारता है?" ज़ोया की आँखों में हल्का कंपन आया। उसने चाहा कि खुद को पीछे कर ले, मगर अभिषेक की मौजूदगी ने उसे कैद कर लिया था। एक शिकारी और उसका शिकार—मगर यहाँ शिकारी कौन था, ये दोनों ही नहीं जानते थे। अभिषेक की उंगलियाँ अब ज़ोया की पीठ पर फिसलने लगीं। उसके स्पर्श में दावा था, अधिकार था, मगर जबरदस्ती नहीं। ज़ोया की सांसें तेज़ होने लगीं। उसकी नज़रों में हल्की नर्मी आई, मगर उसने खुद को काबू में रखा। अभिषेक ने हल्के से उसके बालों को पीछे किया, उसकी उंगलियाँ अब उसकी गर्दन पर नर्मी से खेल रही थीं। "तुम्हें मुझसे दूर रहना चाहिए, ज़ोया।" ज़ोया ने उसकी आँखों में देखा। "क्या तुम चाहते हो कि मैं जाऊँ?" अभिषेक चुप रहा। कभी किसी ने उससे सवाल नहीं किया था, हमेशा सिर्फ़ उसके जवाब माने जाते थे। "अगर नहीं चाहते…" ज़ोया ने हल्के से कहा, "तो मुझे रोक क्यों नहीं लेते?" अभिषेक के होंठों पर एक हल्की, मगर खतरनाक मुस्कान आई। उसकी उंगलियाँ अब और मजबूत हो गईं। उसने ज़ोया को एक झटके में अपनी तरफ खींच लिया। "क्योंकि मुझे तुम्हें रोकने की जरूरत नहीं पड़ेगी..." उसने उसके कान के पास फुसफुसाया, "तुम खुद नहीं जा पाओगी, ज़ोया।" उसकी साँसों की तपिश ज़ोया के गालों को छू रही थी। कमरे में सन्नाटा था, मगर उनके बीच की नज़दीकियाँ अब कोई फासला नहीं रहने दे रही थीं। ज़ोया हिलने ही वाली थी कि तभी दरवाज़े पर एक ज़ोरदार आवाज़ हुई। अभिषेक ने एक झटके से खुद को पीछे किया। उसकी आँखों में फिर से वही सख्त ठहराव लौट आया था। "बॉस!" बाहर से एक आदमी की आवाज़ आई। ज़ोया ने एक गहरी सांस ली और खुद को सँभाला। अभिषेक ने उसकी आँखों में देखा, उसकी आँखें कुछ और कह रही थीं—जैसे ये कहानी अभी खत्म नहीं हुई थी। "आज के लिए काफी है..." उसने हल्के से कहा। "मगर ये खेल अभी बाकी है, ज़ोया।" ज़ोया हल्की सी मुस्कुराई और दरवाजे की ओर बढ़ गई। मगर जाते-जाते उसने एक बार फिर पलटकर देखा, उसकी आँखों में अब सिर्फ़ एक ही सवाल था—क्या वो इस खेल में वाकई फँस चुकी थी? कहानी जारी रहेगी.....

  • 3. Junoon-E-Ishq (जुनून-ए-इश्क़) - Chapter 3

    Words: 1909

    Estimated Reading Time: 12 min

    कमरे में एक अजीब सा सन्नाटा पसरा था, मगर इस खामोशी में भी एक अनकही हलचल थी। हवा में महंगे सिगार और व्हिस्की की हल्की खुशबू घुली हुई थी। बारिश की बूँदें शीशों पर गिर रही थीं, और उनके पीछे खड़ा था अभिषेक ठाकुर—अपनी गहरी भूरी आँखों से सामने बैठी जोया को देखता हुआ। जोया इस माहौल में असहज महसूस कर रही थी। उसने इस अंधेरे और ताकतवर दुनिया से हमेशा दूरी बनाए रखी थी, मगर अब वह खुद उसी के बीच आकर खड़ी हो गई थी। उसके लंबे भूरे बाल उसके चेहरे पर गिर रहे थे, और उसकी हल्की हेज़ल आँखों में डर नहीं, बल्कि एक अजीब सी जिज्ञासा झलक रही थी। अभिषेक ने धीरे-से अपनी सिगार को ऐशट्रे में दबाया और टेबल से उठते हुए जोया की ओर बढ़ा। उसका कद, उसकी चाल, और उसकी निगाहें इतनी मजबूत थीं कि किसी को भी कांपने पर मजबूर कर दें, मगर जोया की साँसें सिर्फ भारी हुईं, कमजोर नहीं। "डर नहीं लगता तुम्हें?" अभिषेक की आवाज में हल्की ठंडक थी, मगर उसके अंदर की बेचैनी उसकी आँखों में साफ दिख रही थी। जोया ने अपनी जगह से हिलते हुए हल्की सी मुस्कान दी, मगर उसके होंठ कांप गए। "अगर डर लगता, तो यहाँ न होती।" अभिषेक ने एक गहरी सांस ली और उसके करीब आकर झुक गया। जोया को उसकी साँसों की गर्मी अपने चेहरे पर महसूस हुई। उसकी दिल की धड़कन तेज हो गई, मगर उसने अपनी नजरें झुका लीं। "तुम्हें पता है, जोया... जो मेरे करीब आता है, वो मुझसे दूर नहीं जा सकता," अभिषेक की आवाज में एक हल्का-सा खतरा था, मगर उसमें एक अनकही कशिश भी थी। जोया ने सिर उठाया और उसकी आँखों में देखा। "शायद मैं अपवाद हूँ।" अभिषेक के चेहरे पर हल्की मुस्कान आई, मगर उसकी आँखों में एक गहरी चमक थी। उसने धीरे से अपना हाथ बढ़ाया और जोया की ठोड़ी को हल्के से छूते हुए उसका चेहरा अपनी ओर किया। "तुम्हें नहीं पता, तुम क्या कह रही हो," अभिषेक फुसफुसाया। जोया ने उसकी पकड़ से खुद को छुड़ाने की कोशिश नहीं की, मगर उसकी आँखों में एक चुनौती थी। "और तुम्हें नहीं पता, मैं क्या करने में सक्षम हूँ।" कमरे का माहौल भारी हो गया था। दोनों के बीच की दूरी खत्म हो रही थी, मगर उनके मन की उलझनें अभी भी बनी हुई थीं। अभिषेक को जोया के करीब आकर महसूस हुआ कि यह लड़की सिर्फ खूबसूरत नहीं है, यह उसके लिए खतरनाक भी हो सकती है। और शायद इसी खतरे ने उसे उसकी ओर और भी खींच लिया था। जोया ने हल्के से पीछे हटते हुए कहा, "मुझे जाना चाहिए।" अभिषेक ने एक लंबी सांस ली और अपने होंठों पर हल्की मुस्कान लाते हुए कहा, "जाने की इजाजत तो मिल जाएगी, मगर क्या खुद को मुझसे दूर रख पाओगी?" जोया बिना कुछ कहे दरवाजे की ओर बढ़ी, मगर उसके दिल की धड़कनें इस बात की गवाही दे रही थीं कि शायद अभिषेक सही कह रहा था। कमरे में हल्की पीली रोशनी फैली थी। बाहर तेज बारिश हो रही थी, और उसकी बूंदें शीशों पर गिरकर एक अजीब-सी खामोशी को और गहरा कर रही थीं। सोफे पर बैठी जोया का दिल तेजी से धड़क रहा था। वो यहाँ क्यों रुकी थी? क्या उसे अब जाना नहीं चाहिए? मगर उसके पैरों ने जैसे उसकी बात मानने से इंकार कर दिया था। अभिषेक ठाकुर दरवाजे के पास खड़ा था, अपने शर्ट के ऊपर के दो बटन खोलते हुए। उसकी आँखों में एक अलग-सा पागलपन था, एक आग जो उसे खींच रही थी, मगर वो खुद को रोक भी रहा था। "तुम जानती हो न, जोया..." अभिषेक की आवाज गहरी और भारी थी, "यह खेल खतरनाक है।" जोया ने उसकी तरफ देखा। उसकी साँसें तेज हो रही थीं, मगर वो कमजोर नहीं लग रही थी। उसने होंठों पर हल्की मुस्कान लाते हुए कहा, "शायद मुझे खतरे की आदत हो गई है।" अभिषेक के चेहरे पर एक शैतानी मुस्कान आई। वो धीरे-धीरे आगे बढ़ा, जैसे कोई शिकारी अपनी शिकार को देख रहा हो। उसकी गहरी भूरी आँखें जोया के चेहरे से उसके हौले से कांपते होंठों तक टिक गईं। "आदत?" उसने फुसफुसाया, "या फिर चाहत?" जोया की साँस अटक गई। अभिषेक अब उसके बिल्कुल करीब था, उसके चेहरे से कुछ ही इंच की दूरी पर। "तुम मुझसे दूर जाना चाहती हो, मगर तुम्हारी आँखें कुछ और कह रही हैं," अभिषेक ने उसकी ठोड़ी को हल्के से उठाते हुए कहा। जोया ने खुद को छुड़ाने की कोशिश की, मगर उसकी उंगलियों की पकड़ मजबूत थी। "मैं..." जोया कुछ कहने वाली थी, मगर उसके शब्द अधूरे रह गए, क्योंकि अगले ही पल अभिषेक ने उसे दीवार से सटा दिया। उसका एक हाथ दीवार के सहारे था, और दूसरा जोया की कमर पर। "बोलो," अभिषेक ने धीरे से कहा, उसकी आवाज में एक कच्चा सा जुनून था। जोया की आँखें उसकी आँखों से मिलीं, और उसे लगा जैसे वो किसी गहरे अंधेरे में गिर रही हो। अभिषेक ने धीरे से अपना चेहरा झुकाया, उसके गालों पर हल्की-सी गर्म साँस महसूस हुई। "तुम्हें मुझसे डर नहीं लगता, जोया?" जोया की साँसें बेकाबू हो रही थीं। उसने अपने होंठ भींच लिए। "शायद डर और जुनून में ज्यादा फर्क नहीं होता," उसने धीरे से कहा। अभिषेक के होंठों पर एक हल्की मुस्कान आई। उसकी उंगलियाँ जोया की पीठ पर धीरे से रेंग रही थीं, जैसे वो हर अहसास को अपनी उँगलियों में कैद कर लेना चाहता हो। कमरे की हवा भारी हो चुकी थी। "तुम्हें मुझसे दूर रहना चाहिए," अभिषेक ने धीरे से कहा। "तो फिर मुझे जाने दो," जोया ने धीमे स्वर में कहा, मगर उसकी आवाज में खुद ही विश्वास नहीं था। अभिषेक ने उसकी ठोड़ी को ऊपर उठाया और उसकी आँखों में झाँकते हुए कहा, "नहीं। अब मैं तुम्हें जाने नहीं दूँगा।" जोया ने अपनी आँखें बंद कर लीं। उसने खुद को गिरने दिया। इस आग में जलने दिया। यह जुनून था, यह अंधेरा था, मगर यह नफरत नहीं थी। यह कुछ और था। कुछ ऐसा, जिससे बचा नहीं जा सकता था। जोया वहां से चली जाती है सूरज की हल्की किरणें कमरे की खिड़की से अंदर आ रही थीं, लेकिन रात के तनाव की छाया अब भी हवा में तैर रही थी। जोया बिस्तर से उठ चुकी थी, मगर उसकी आँखों में अब भी वो बेचैनी थी जो रात के अधूरे खेल से बची रह गई थी। वो शीशे के सामने खड़ी होकर अपने घने, खुले बालों को ठीक कर रही थी, लेकिन उसकी सोच किसी और ही दिशा में चल रही थी। उसकी हल्की मुस्कान में एक रहस्य छुपा था। वो जोya राठौर थी, मगर अब वो सिर्फ एक आम लड़की नहीं थी—वो खुद एक खतरनाक खिलाड़ी थी। एक ऐसी खिलाड़ी जो अपने पत्ते तब तक नहीं खोलती जब तक सामने वाले को पूरी तरह बेनकाब न कर दे। "खेल अभी शुरू ही हुआ है, ठाकुर," उसने धीमे से खुद से कहा और अपनी बंदूक उठाई। दूसरी तरफ, अभिषेक ठाकुर अपने ऑफिस के अंधेरे कमरे में बैठा था। उसकी आँखें कंप्यूटर स्क्रीन पर टिकी थीं, जहाँ कुछ नाम चमक रहे थे। ये वो लोग थे जो उसकी सत्ता के खिलाफ गुप्त रूप से साजिश रच रहे थे। "समझते क्या हैं ये लोग?" उसने धीरे से कहा, मगर उसकी आवाज़ में एक ठंडापन था। उसके सामने कुछ लोग घुटनों के बल गिड़गिड़ा रहे थे, उनके चेहरे डर से पीले पड़ चुके थे। "साहब, हमें माफ कर दीजिए... हमने कुछ नहीं किया..." एक आदमी काँपते हुए बोला। अभिषेक उठा, उसकी चाल में एक शिकारी की नजाकत थी। उसने उस आदमी के गाल पर हल्की सी थपकी दी और कहा, "माफी? जब मौत सामने खड़ी हो, तब माफी का क्या मतलब?" अगले ही पल, कमरे में एक चीख गूंज उठी। अभिषेक ने अपनी बंदूक सीधा उस आदमी के माथे पर रखी और बिना पलक झपकाए ट्रिगर दबा दिया। "एक खत्म... अब बाकी बचे दो।" जो दो और लोग बंधे हुए बैठे थे, उनकी आँखों में मौत का डर था। अभिषेक ने उनमें से एक को बालों से पकड़कर ऊपर खींचा और धीमे से बोला, "तुम्हें क्या लगा, मैं तुम्हारी गद्दारी को नजरअंदाज कर दूँगा?" "नहीं, साहब... प्लीज... हमसे गलती हो गई।" अभिषेक ने बिना कोई जवाब दिए अपनी जेब से एक ब्लेड निकाली और उसके चेहरे पर एक हल्की सी लकीर खींच दी। खून की धार बह निकली, मगर अभिषेक के चेहरे पर कोई भाव नहीं था। "गलतियाँ माफ की जा सकती हैं, मगर धोखा नहीं।" इसके बाद जो हुआ, वो इतना बेरहम था कि कमरे में मौजूद लोगों की चीखें भी सुनाई देना बंद हो गईं। खून की बूँदें फर्श पर गिर रही थीं, और अभिषेक ने अपनी जैकेट के आस्तीन से अपने हाथ साफ किए। वहीं दूसरी ओर, जोया अपने नए ठिकाने पर पहुँच चुकी थी। ये जगह किसी गुप्त तहखाने जैसी थी—मेटल की दीवारें, कंप्यूटर स्क्रीन, और कुछ लोग जो उसके इशारों पर काम कर रहे थे। एक आदमी ने उसके पास आकर कहा, "मैम, सब तैयार है। बस आपके इशारे का इंतजार है।" जोया ने अपनी बंदूक टेबल पर रखी और एक गहरी सांस ली। "अभिषेक ठाकुर को लगता है कि वो इस शहर का राजा है," उसने हल्के से कहा। "मगर अब इस खेल में एक और खिलाड़ी आ चुका है।" उसने कंप्यूटर स्क्रीन की तरफ देखा जहाँ अभिषेक की तस्वीर चमक रही थी। "अब मैं दिखाऊँगी कि असली खेल कैसे खेला जाता है।" अंधेरे कमरे में एक हल्की रोशनी टिमटिमा रही थी। जोया अपने सामने रखे नक्शे को ध्यान से देख रही थी। उसके दिमाग में एक नई योजना तैयार हो रही थी—एक ऐसा जाल जिसमें अभिषेक ठाकुर खुद फँस जाए। उसने अपने सामने बैठे आदमी की ओर देखा, जो उसकी टीम का सबसे तेज़ दिमाग वाला सदस्य था। "सब कुछ क्लियर है?" उसने ठंडे लहज़े में पूछा। आदमी ने सिर हिलाया। "हाँ, मैम। हमें सिर्फ आपके इशारे का इंतज़ार है।" जोया की आँखों में हल्की सी चमक आई। "शुरुआत करो। मुझे अभिषेक ठाकुर को ये एहसास कराना है कि अब उसे हर कदम सोच-समझकर रखना होगा।" दूसरी ओर, अभिषेक ठाकुर अपने ऑफिस में खड़ा था। उसके सामने दो आदमी सिर झुकाए खड़े थे। "मुझे रिपोर्ट चाहिए," उसने गहरी आवाज़ में कहा। आदमी ने काँपते हुए जवाब दिया, "साहब, हमें यकीन है कि कोई आपके खिलाफ धीरे-धीरे साजिश रच रहा है। हमारे कुछ लोग अचानक गायब हो गए हैं।" अभिषेक ने गहरी सांस ली और अपनी बंदूक टेबल पर रख दी। "कौन कर रहा है ये सब?" "हमें अभी तक साफ जानकारी नहीं मिली, मगर..." आदमी ने रुककर कहा, "शायद जोया राठौर इसके पीछे हो सकती है।" अभिषेक की आँखों में एक सिहरन दौड़ गई। उसकी पकड़ अपनी बंदूक पर और मजबूत हो गई। "जोया..." उसने धीरे से नाम दोहराया। "अगर ये सच है, तो उसे इसका अंजाम भुगतना पड़ेगा।" रात का समय था। अभिषेक अपनी गाड़ी से बाहर निकला। उसके पीछे उसके वफादार लोग थे। उसे कुछ खबर मिली थी—आज रात एक सौदा होने वाला था, और वो सौदा किसी और ने नहीं, बल्कि जोया ने तय किया था। "मुझे अंदर जाने दो," अभिषेक ने अपने लोगों को आदेश दिया। जैसे ही वह अंदर पहुँचा, उसे लगा कि कुछ गड़बड़ है। कमरे में अजीब-सी खामोशी थी। अचानक लाइट बंद हो गई, और चारों ओर अंधेरा छा गया। अभिषेक चौकन्ना हो गया। उसकी बंदूक तुरंत उसके हाथ में थी। "ये कौन-सा खेल है?" उसने गुस्से से कहा। एक धीमी हँसी कमरे में गूँजी। "ये वही खेल है, जो तुमने सालों से खेला है, ठाकुर। मगर इस बार, शिकारी शिकार बन चुका है।" अगले ही पल, एक धमाका हुआ और अभिषेक का पूरा ऑपरेशन तहस-नहस हो गया। "जोया..." उसने गुस्से से बुदबुदाया। "अब ये जंग शुरू हो चुकी है।" कहानी जारी रहेंगी.....

  • 4. Junoon-E-Ishq (जुनून-ए-इश्क़) - Chapter 4

    Words: 1695

    Estimated Reading Time: 11 min

    रात के अंधेरे में फैली हुई साज़िश अब खुलने लगी थी। जोया ने पहला वार कर दिया था, और अब उसे सिर्फ एक चीज़ का इंतज़ार था—अभिषेक ठाकुर की प्रतिक्रिया। अभिषेक अपने एक सुरक्षित ठिकाने में बैठा था। उसकी आँखों में गुस्से की लपटें थीं। उसके सामने एक आदमी अधमरा पड़ा था, जिसे उसने खुद अपने हाथों से पीटा था। "कौन था अंदर से जो मेरे खिलाफ काम कर रहा था?" आदमी हाँफते हुए बोलने की कोशिश कर रहा था, मगर उसकी जुबान लड़खड़ा रही थी। अभिषेक ने एक ठंडी मुस्कान के साथ उसे देखा। फिर उसने अपनी बंदूक निकाली और उसे आदमी की कनपटी पर रख दिया। "अब सिर्फ दो ऑप्शन हैं—या तो सच बता, या फिर मरने के लिए तैयार हो जा।" आदमी ने काँपते हुए कहा, "जोया राठौर... उसने तुम्हारे लोगों को खरीद लिया है... तुम्हारे ही गैंग में से कुछ लोग अब उसके लिए काम कर रहे हैं..." अभिषेक की आँखें सिकुड़ गईं। "तो ये खेल यहाँ तक पहुँच चुका है?" दूसरी ओर, जोया अपने लोगों के साथ एक नए मिशन की प्लानिंग कर रही थी। उसने अपने नक्शे पर निशान लगाते हुए कहा, "अब अगला हमला हमें वहाँ करना है, जहाँ ठाकुर को सबसे ज्यादा तकलीफ होगी।" उसके साथी ने पूछा, "मतलब?" जोया ने हल्की मुस्कान के साथ कहा, "ठाकुर की सबसे बड़ी ताकत उसकी नफरत है, मगर वो भूल गया है कि मैं उसे नफरत से ही खत्म कर सकती हूँ।" सुबह के तीन बजे थे। अभिषेक अपने सबसे भरोसेमंद लोगों के साथ एक गुप्त ठिकाने पर पहुँचा, जहाँ उसके कुछ वफादार साथी छुपे हुए थे। लेकिन जैसे ही वह अंदर गया, वहाँ का नज़ारा देखकर उसकी आँखों में खून उतर आया। सभी लोग मरे पड़े थे। दीवार पर खून से लिखा था— "अब शिकारी ही शिकार बनेगा। - जोया" अभिषेक ने दीवार को घूरा। उसकी उंगलियाँ मुट्ठी में बदल गईं। "अब बस बहुत हो गया " अगली रात, जोया अपने नए ठिकाने पर थी। उसके कुछ आदमी पहरा दे रहे थे, मगर फिर भी उसके मन में एक अजीब-सी बेचैनी थी। तभी, एक गोली हवा में सीटी बजाते हुए उसके पास से गुजरी और उसके सामने की दीवार में धँस गई। जोया ने तुरंत पिस्टल निकालकर देखा, मगर वहाँ कोई नहीं था। लेकिन जब उसने दीवार पर देखा, तो वहाँ एक नोट चिपका हुआ था— "अब खेल खत्म करने का वक्त आ गया है। तैयार हो जाओ, जोया। - ठाकुर" जोया मुस्कुराई "आखिरकार, असली लड़ाई अब शुरू होगी।" रात का सन्नाटा चीखों और गोलियों की आवाज़ से टूट चुका था। शहर के बाहरी इलाके में बने एक पुराने गोदाम में, दो दुश्मन अब आमने-सामने थे—अभिषेक ठाकुर और जोया राठौर। जोया के आदमी कम नहीं थे। उन्होंने पूरे इलाके को अपने कब्जे में ले लिया था, मगर अभिषेक ठाकुर को हराना इतना आसान नहीं था। "ठाकुर! आज तू नहीं बचेगा!" जोया के सबसे वफादार आदमी ने चिल्लाते हुए गोली चलाई। मगर उससे पहले ही अभिषेक के निशानेबाजों ने उसे ढेर कर दिया। धड़धड़धड़धड़!!! चारों तरफ गोलियों की बौछार शुरू हो गई। धुआं, चीखें, लाशें—हर तरफ बस खून ही खून था। जोया ने एक कोने में छुपते हुए अपने लोगों को इशारा किया, "पीछे से वार करो, ये लड़ाई अब खत्म करनी होगी!" उसके कुछ आदमी पीछे से अभिषेक के लोगों पर हमला करने लगे। मगर ठाकुर के लड़ाकों को धोखा देना आसान नहीं था। अभिषेक खुद अपनी गन लोड करते हुए आगे बढ़ा। उसकी आँखों में गुस्से की ज्वाला थी। "जोया! बाहर आ जा! ये छुपने का खेल अब खत्म!" जोया ने अपने चेहरे से खून पोंछते हुए कहा, "आज तुझे मिटाकर ही दम लूँगी!" गोदाम के बीचों-बीच दोनों आमने-सामने खड़े थे। जोया ने बंदूक उठाई और अभिषेक की तरफ निशाना साधा। "अभी भी वक्त है, ठाकुर। अगर जिंदा रहना चाहता है तो यहाँ से चला जा।" अभिषेक ने ठंडी हँसी हँसी, "मेरे दुश्मनों के लिए मैं जिंदा नहीं, मौत बनकर आता हूँ।" और अगले ही पल उसने अपनी पिस्टल से जोया की बंदूक पर निशाना साधते हुए ट्रिगर दबा दिया— "धाँय!" जोया की बंदूक हाथ से छूटकर गिर गई। उसने अभिषेक को घूरा, मगर इससे पहले कि वह कुछ कर पाती, अभिषेक ने झटके से उसे पकड़ लिया। "अब ये खेल खत्म, जोया!" जोया ने खुद को छुड़ाने की कोशिश की, मगर अभिषेक की पकड़ किसी शिकारी के पंजे जैसी मजबूत थी। "छोड़ मुझे, ठाकुर!" "इतनी आसानी से नहीं। अब तू वहीं जाएगी जहाँ मैं चाहूँगा।" जोया के बचे हुए आदमी अब या तो मारे जा चुके थे या भाग चुके थे। अभिषेक ने जोया को जबरदस्ती अपनी गाड़ी में डाला और दरवाजा बंद कर दिया। "अब तू मेरी बंदी है, जोया। तुझे वहीं ले जाऊँगा जहाँ तेरा अंत लिखा जाएगा।" जोया ने उसकी तरफ देखा, उसकी आँखों में गुस्सा और घृणा थी। "ये लड़ाई अभी खत्म नहीं हुई, ठाकुर।" अभिषेक ने एक आखिरी बार उसकी आँखों में देखा और मुस्कुराया, "मेरे लिए तो ये अब शुरू हुई है।" गाड़ी ने तेज़ रफ्तार पकड़ी और अंधेरे में समा गई… अंधेरे रास्तों पर दौड़ती काली SUV किसी भूखे दरिंदे की तरह आगे बढ़ रही थी। अंदर का माहौल खौफनाक था—जोया की कलाईयों पर जंजीरें कस चुकी थीं, और अभिषेक ठाकुर उसकी बगल में बैठा था, सिगार जलाते हुए। गाड़ी के अंदर धुआं फैल रहा था, लेकिन जोया के चेहरे पर डर नहीं, बस गुस्सा था। "अगर तू सोच रहा है कि मुझे कैद करके तू जीत गया, तो ये तेरी सबसे बड़ी भूल होगी, ठाकुर!" जोया की आवाज में वही चुनौती थी, जो उसने हमेशा रखी थी। अभिषेक ने उसकी तरफ देखा और हल्का-सा हंसा। "कैद? नहीं जोया, ये कैद नहीं… ये तो सिर्फ शुरुआत है।" जोया ने जंजीरों को खींचने की कोशिश की, लेकिन उसकी पकड़ मजबूत थी। "मुझे कहाँ ले जा रहा है?" उसने तीखे लहजे में पूछा। अभिषेक ने बाहर देखते हुए कहा, "वहाँ, जहाँ तू अपने घमंड के टुकड़े देख सकेगी।" गाड़ी एक सुनसान हवेली के गेट पर रुकी। चारों तरफ घना जंगल था, और अंदर जाने पर पुरानी दीवारों से घिरी एक अंधेरी कोठरी दिखाई दी। अभिषेक के आदमी तुरंत गाड़ी के पास आए और जोया को बाहर खींच लिया। "छोड़ो मुझे!" जोया ने विरोध किया, लेकिन एक ठोकर से उसे ज़मीन पर गिरा दिया गया। अभिषेक धीरे-धीरे उसकी तरफ बढ़ा और झुकते हुए बोला, "इतनी जल्दी हार मान ली?" जोया ने गुस्से से उसके चेहरे पर थूक दिया। सन्नाटा छा गया। अभिषेक ने अपनी हथेली से अपना चेहरा पोंछा और ठंडी आवाज़ में बोला, "गलती कर दी, जोया। बहुत बड़ी गलती।" अगले ही पल उसने जोया का जबड़ा पकड़कर उसे दीवार से लगा दिया। "अब मैं तुझे दिखाऊँगा कि असली दर्द क्या होता है। मगर जोया इतनी कमजोर नहीं थी। जैसे ही अभिषेक पीछे हटा, उसने बिजली की तेजी से अपनी टांग घुमाई और उसके एक आदमी को ज़मीन पर गिरा दिया। "ये खेल अभी खत्म नहीं हुआ, ठाकुर!" फायदा उठाकर जोया ने अपने बंधन तोड़ने की कोशिश की, लेकिन तभी अभिषेक ने उसे फिर से पकड़ लिया। "बस बहुत हुआ," उसने गुस्से में कहा और अपने आदमियों को इशारा किया। जोया के हाथ फिर से बांध दिए गए। अभिषेक ने उसकी आँखों में झांकते हुए कहा, "अब तू वहीं रहेगी, जहाँ मैं चाहूँगा। और अगली बार, मैं तेरे साथ और भी ज्यादा बेरहम होऊँगा।" जोया के चेहरे पर कोई डर नहीं था, सिर्फ नफरत। "तू मुझे तोड़ नहीं सकता, ठाकुर!" अभिषेक मुस्कुराया। "देखते हैं, कब तक नहीं टूटती।" और फिर हवेली के बड़े लोहे के दरवाजे बंद हो गए… अंधेरी कोठरी में सिर्फ एक बल्ब जल रहा था, जिसकी हल्की रोशनी जोया के चेहरे पर पड़ रही थी। उसके हाथ अब भी रस्सियों से बंधे थे, और बदन पर चोटों के हल्के निशान दिख रहे थे। मगर उसकी आँखों में अब भी वही आग थी—न झुकने की, न हार मानने की। अभिषेक दरवाजे के पास खड़ा था, उसकी आँखों में एक अजीब-सी नफरत और चाहत दोनों थीं। वो धीरे-धीरे आगे बढ़ा और जोया के सामने आकर झुक गया। "अब भी तेरी हिम्मत नहीं टूटी?" उसने धीमी मगर ठंडी आवाज़ में कहा। जोया हल्के से हंसी, "तू लाख कोशिश कर ले, मैं तेरे सामने कभी नहीं झुकूँगी।" अभिषेक ने उसकी हंसी पर प्रतिक्रिया नहीं दी, बस अपना हाथ बढ़ाया और उसके जबड़े को अपनी मजबूत पकड़ में ले लिया। "झुकाने की जरूरत ही क्या है, जब मैं तुझे अपने ही तरीके से तोड़ सकता हूँ?" उसकी आँखों में एक अजीब-सी क्रूरता थी। जोया ने अपनी साँसें रोकीं, मगर उसने अपनी आँखों में डर नहीं आने दिया। अभिषेक ने अपनी उंगलियाँ उसके गाल पर फिराईं, फिर धीरे से उसकी गर्दन पर अपनी पकड़ मजबूत कर दी। "ये तेरी सजा है, जोया। तूने मुझे चुनौती दी, अब मैं तुझे हर उस दर्द से गुजारूंगा, जिससे तुझे तकलीफ हो।" उसने अपनी पकड़ ढीली की और धीरे से उसके चेहरे के पास झुक गया, मगर उसके होंठों को छूने के बजाय उसने उसकी गर्दन पर अपने दांत गड़ा दिए। जोया का शरीर झटके से काँपा, मगर उसने कोई आवाज़ नहीं निकाली। अभिषेक हंसा, "इतना सब होने के बाद भी तू जिद्दी बनी रहेगी?" उसने उसकी जंजीरों को और कस दिया, फिर उसके बालों को अपनी उंगलियों में लपेटकर पीछे खींचा। "आज नहीं, जोया... आज तुझे तेरा घमंड छोड़ना ही पड़ेगा।" जोया ने उसके हाथ झटकने की कोशिश की, मगर रस्सियाँ इतनी मजबूत थीं कि वो हिल भी नहीं सकी। अभिषेक ने धीरे से उसके होंठों के करीब आकर फुसफुसाया, "कभी-कभी दर्द ही सबसे खूबसूरत एहसास होता है, है ना?" फिर उसने एक झटके से उसके चेहरे को ऊपर किया और उसकी गर्दन पर अपने होंठ फिरा दिए—इतनी निर्दयता से कि जोया का पूरा बदन काँप गया। मगर वो हारी नहीं। "अगर तू सोच रहा है कि मैं इस दर्द से टूट जाऊँगी, तो तू गलत सोच रहा है, ठाकुर।" अभिषेक ने उसके कान में हल्की आवाज़ में कहा, "देखते हैं… कितनी देर में तू सच बोलेगी।" और फिर वो कुछ और बेरहम होने वाला था… मगर तभी दरवाजे पर किसी ने दस्तक दी। अभिषेक ने गहरी साँस ली और एक आखिरी बार जोया की आँखों में देखा, "अभी के लिए छोड़ रहा हूँ, लेकिन अगली बार… तू खुद मेरे आगे गिड़गिड़ाएगी।" फिर वो पीछे हटा और दरवाजे की तरफ बढ़ गया, मगर जोया की आँखों में अब भी वही नफरत जल रही थी। "ये लड़ाई अभी खत्म नहीं हुई, ठाकुर…" उसने खुद से कहा। कहानी जारी रहेगी.....

  • 5. Junoon-E-Ishq (जुनून-ए-इश्क़) - Chapter 5

    Words: 2008

    Estimated Reading Time: 13 min

    कमरे में हल्की रोशनी थी। दीवारों पर अंधेरा पसरा था, और कोने में रखे जलते दीए की लौ बस एक धुंधली परछाईं बना रही थी। जोया अब भी ज़ंजीरों से बंधी थी, मगर उसकी आँखों में अब भी वही बगावत थी। अभिषेक ठाकुर उसके सामने खड़ा था—उसकी आँखों में जुनून था, मगर वो प्यार नहीं था… वो एक अजीब-सा पागलपन था, जो मोहब्बत और नफरत के बीच कहीं अटका हुआ था। अभिषेक ने धीरे-धीरे उसके करीब आकर उसकी ठोड़ी को अपनी उंगलियों से उठाया। "अब भी तेरी हिम्मत बाकी है?" उसकी आवाज़ में एक अजीब-सा सुकून था, जैसे उसे जोया की तकलीफ में मज़ा आ रहा हो। जोया ने अपनी साँसें अंदर खींचीं, मगर उसने कोई जवाब नहीं दिया। अभिषेक हल्का सा हंसा, फिर उसने धीरे से अपनी उंगलियाँ उसकी गर्दन पर फिराईं, लेकिन ये छूना कोई प्यार नहीं था, ये एक शिकारी का स्पर्श था—जो अपने शिकार को कमजोर महसूस कराना चाहता था। "तूने मुझे चुनौती दी, जोया…" वो फुसफुसाया, "अब मैं तुझे वो हर एहसास दूँगा, जो तुझे हिला कर रख देगा।" जोया की आँखों में फिर भी वही नफरत थी। अभिषेक ने एक झटके से उसके बालों को पकड़कर पीछे खींचा। "अब भी इतनी हिम्मत?" उसने उसकी गर्दन के करीब झुकते हुए कहा। जोया की सांसें तेज़ हो गईं, मगर उसने दर्द को नफरत में बदल दिया। "तू जो करना चाहता है, कर ले, मगर मैं नहीं टूटूंगी।" उसकी आवाज़ कमजोर नहीं थी। अभिषेक ने हल्की मुस्कान दी, फिर उसने धीरे-धीरे उसकी कलाई की ज़ंजीरें खोल दीं। जोया के हाथ अब आज़ाद थे, मगर उसके शरीर में इतनी ताकत नहीं थी कि वो उठ सके। "देख जोया…" उसने धीरे से उसके कान में कहा, "मैं तुझे छूऊँगा भी, तुझे तोड़ूंगा भी, मगर ये तेरा सजा होगी, कोई इनाम नहीं।" उसने एक झटके से उसे अपनी बाहों में खींच लिया, उसकी उंगलियाँ इतनी कसकर पकड़ रही थीं कि शायद अगले दिन उसकी कलाई पर नीले निशान पड़ने तय थे। जोया ने अपने होंठ भींच लिए, मगर उसकी आँखें अब भी लड़ रही थीं। अभिषेक ने उसकी कमर पर अपनी पकड़ और मजबूत की और उसे अपनी ओर खींच लिया। उनके बीच अब कोई दूरी नहीं थी। उसकी सांसें जोया के चेहरे को छू रही थीं, मगर उसमें कोई नरमी नहीं थी—बस एक पागलपन था, जो उसे उसकी हद तक तोड़ना चाहता था। "तुझे तकलीफ होगी, जोया…" उसने हल्के से उसके गाल पर अपनी उंगलियाँ फिराते हुए कहा, "मगर तुझे इसकी आदत डालनी होगी।" जोया ने अपनी आँखें बंद कर लीं। कमरे में हल्की सी चाँदनी छिटकी हुई थी, लेकिन वो रोशनी किसी सुकून का एहसास नहीं दे रही थी। अभिषेक ने जोया को दीवार के साथ खड़ा कर दिया था, उसकी कलाईयाँ अब भी ज़ंजीरों से बंधी हुई थीं। उसकी आँखों में एक अजीब सी चमक थी—जैसे वो जोया को तोड़ने के लिए कोई नया तरीका ढूंढ रहा हो। "तूने मुझे इतना नाराज़ क्यों किया, जोया?" अभिषेक ने धीरे से उसके कान के पास फुसफुसाया, उसकी सांसें जोया के गाल को छू रही थीं। "मैं तुझे चाहता हूँ, लेकिन तू हमेशा मुझे दूर धकेलती है।" जोया ने अपनी आँखें बंद कर लीं, लेकिन अभिषेक ने उसकी ठोड़ी को अपनी उंगलियों से पकड़कर उसे मजबूर किया कि वो उसकी आँखों में देखे। "मुझे देख, जोया। मैं तेरा हूँ, और तू मेरी। ये सच्चाई है जिससे तू भाग नहीं सकती।" उसने जोया की कलाई की ज़ंजीरें खोल दीं, लेकिन उसके हाथों को अपने हाथों में कसकर पकड़ लिया। "तू मेरे बिना अधूरी है, जोया। तू जितना मुझसे दूर भागेगी, उतना ही तुझे दर्द होगा।" अभिषेक ने उसे अपनी ओर खींचा, उसकी कमर पर अपनी पकड़ मजबूत करते हुए। "मैं तुझे छूऊँगा, तुझे महसूस करूँगा, लेकिन ये तेरे लिए सजा होगी। तूने मुझे चोट पहुँचाई है, और अब मैं तुझे वही एहसास दूँगा।" उसने जोया के होंठों के पास अपना चेहरा लाया, लेकिन उसका चुंबन कोमल नहीं था—वो एक तरह का दंड था। उसने जोया के होंठों को अपने दांतों से काटा, जिससे उसके होठों से खून की एक बूंद निकल आई। "देख, जोया, ये मोहब्बत नहीं है। ये तेरी सजा है। तूने मुझे तोड़ा है, और अब मैं तुझे तोड़ूंगा।" जोया ने अपनी आँखें खोलीं, उसकी आँखों में अब भी वही जंग थी। "तू जो करना चाहता है, कर ले। मैं नहीं डरती।" अभिषेक ने हल्की सी मुस्कान दी, फिर उसने जोया के गाल पर अपनी उंगलियाँ फिराईं। "तू बहुत मजबूत है, जोया। लेकिन मैं तुझे और तोड़ूंगा, जब तक तू मेरी नहीं हो जाती।" उसने जोया को अपनी बाहों में कसकर भींच लिया, उसकी सांसें तेज हो गईं। "तू मेरी है, जोया। और मैं तुझे कभी नहीं छोड़ूंगा।" जोया की आँखें खुलीं, तो उसने खुद को एक नए कमरे में पाया। दीवारें गहरे ग्रे रंग की थीं, फर्श पर मुलायम मगर ठंडा संगमरमर बिछा था। बड़ी खिड़कियाँ थीं, मगर लोहे की मोटी ग्रिल ने उन्हें किसी पिंजरे का एहसास दिया। कमरे में रखी हर चीज़ महँगी थी—सिल्क की चादरें, ऊँचे शीशे वाला दरवाजा, और कोने में रखी एक आरामदायक कुर्सी। लेकिन आज़ादी की कमी इसे एक शानदार जेल बना रही थी। अभिषेक ने धीरे-धीरे उसके हाथों की रस्सियाँ खोल दीं। "अब तू यहाँ रहेगी," उसने ठंडे लहजे में कहा। "बाहर जाने की कोशिश मत करना। यहाँ से भागना नामुमकिन है। ये बंगला बुलेटप्रूफ भी है और साउंडप्रूफ भी। कोई तुझे सुनने या देखने नहीं आएगा।" जोया ने कलाई को सहलाया जहाँ रस्सी के निशान अभी भी थे। उसकी आँखों में गुस्सा था, मगर उसने खुद को शांत रखा। "मुझे यहाँ क्यों लाया है?" उसने सीधे अभिषेक की आँखों में देखते हुए पूछा। अभिषेक थोड़ा मुस्कुराया, मगर उसकी मुस्कान में हल्की-सी क्रूरता झलक रही थी। "तुझे काबू में करने के लिए। तू जितना भागने की कोशिश करेगी, उतना ही मैं तुझे अपने पास रखूँगा।" जोया ने एक तिरछी मुस्कान दी। "क्या तुझे सच में लगता है कि मैं यहाँ तेरा हुक्म मानने वाली हूँ?" अभिषेक ने बिना कुछ कहे अपने हाथ से दरवाजा खोला और बाहर जाने लगा। मगर जाने से पहले उसने एक नजर जोया पर डाली। "तू चाहे जो सोचे, लेकिन यहाँ से बाहर जाने का तुझे कोई रास्ता नहीं मिलेगा। और हाँ," उसने दरवाजे के पास रुकते हुए कहा, "मेरा बटलर तेरा ध्यान रखेगा। मैं कुछ दिनों के लिए बिज़नेस ट्रिप पर जा रहा हूँ।" जोया ने कोई जवाब नहीं दिया। उसकी आँखें अभिषेक को घूरती रहीं, मगर अंदर ही अंदर उसका दिमाग अब एक नई योजना पर काम कर रहा था। अभिषेक दरवाजे को लॉक करता चला गया, और जोया के होंठों पर एक हल्की मुस्कान आई। "अब खेल शुरू होता है," उसने खुद से कहा। जोया ने कमरे की हर चीज़ को गौर से देखा। ये कोई आम बंगला नहीं था, बल्कि एक किले की तरह सुरक्षित जगह थी। बुलेटप्रूफ दीवारें, मजबूत दरवाजे और साउंडप्रूफ खिड़कियाँ—अभिषेक ने उसे पूरी तरह से कैद कर दिया था। लेकिन जोया जानती थी कि हर क़ैद में एक कमज़ोर कड़ी होती है। वो धीरे से बिस्तर से उठी और कमरे का मुआयना करने लगी। अलमारी में कुछ महँगे कपड़े रखे थे, शायद उसके लिए। पास की टेबल पर एक वाइन ग्लास और खाने की ट्रे थी, जो शायद बटलर ने रखी होगी। तभी दरवाजा हल्का-सा खुला। एक अधेड़ उम्र का आदमी अंदर आया। उसकी चाल धीमी थी, मगर आँखों में सतर्कता थी। "मैडम, सर ने कहा है कि मैं आपका ध्यान रखूँ," उसने विनम्रता से कहा। जोया ने बिना हिले उसे घूरा। "नाम क्या है?" "रघु," बटलर ने सिर झुकाया। जोया ने सोचा कि अगर उसे यहाँ से बाहर निकलना है, तो रघु ही उसका पहला कदम हो सकता है। "ठीक है, रघु," उसने मुस्कुराकर कहा, "अभिषेक ने तुझे मेरा ध्यान रखने को कहा है, लेकिन क्या उसने ये कहा कि मैं यहाँ हमेशा रहूँ?" रघु ने कुछ नहीं कहा, लेकिन उसकी आँखों में हल्की-सी झिझक दिखी। "तू यहाँ कब से है?" जोया ने सवाल किया। "करीब पंद्रह साल से," रघु ने जवाब दिया। जोया उसकी आँखों में देखने लगी। "मतलब तूने बहुत कुछ देखा होगा। अभिषेक को भी अच्छे से जानता होगा।" रघु ने सिर हिलाया। जोया ने धीरे से उसकी ओर कदम बढ़ाया। "अगर तुझे मौका मिले, तो क्या तू इस जेल से किसी को आज़ाद करेगा?" रघु ने कुछ पल सोचा, फिर हल्की-सी मुस्कान दी। "अगर सही कारण हुआ, तो शायद।" जोया ने गहरी सांस ली। अब उसे बस रघु का भरोसा जीतना था। बाहर अंधेरा गहरा हो रहा था, लेकिन जोया के दिमाग में एक नई योजना जन्म ले रही थी। अगर उसे अभिषेक से बदला लेना है, तो पहले उसे इस कैद से बाहर निकलना होगा। और इसके लिए उसे रघु को अपनी तरफ करना पड़ेगा। बंगले में कैद हुए दो दिन हो चुके थे। जोया को हर चीज़ की सुविधा दी गई थी—लक्ज़री फर्नीचर, स्वादिष्ट खाना, और महंगे कपड़े। मगर एक चीज़ जो उसे नहीं मिली थी, वह थी आज़ादी। बंगले के बाहर कई गार्ड तैनात थे, और हर दरवाज़े पर सुरक्षा कैमरे लगे थे। लेकिन जोया ने देखा था कि सिर्फ एक इंसान अंदर-बाहर आता था —रघु। "अगर मुझे भागना है, तो सबसे पहले रघु को अपनी तरफ करना होगा," जोया ने मन ही मन सोचा। उस शाम, जब रघु खाना लेकर आया, तो जोया ने उससे बातचीत शुरू की। "रघु, तुझे लगता है कि मैं यहाँ खुश हूँ?" उसने धीरे से पूछा। रघु ने सिर झुका लिया। "सर ने कहा है कि आपको यहाँ कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए।" जोया हल्के से हंसी। "क्या सच में तुझे लगता है कि किसी को कैद करके खुश रखा जा सकता है?" रघु ने कोई जवाब नहीं दिया। "तू कब से अभिषेक के लिए काम कर रहा है?" जोया ने उसकी आँखों में झाँका। "पंद्रह साल हो गए, मैडम," रघु ने जवाब दिया। "फिर तो तुझे पता होगा कि वो कितना खतरनाक हो सकता है," जोया ने धीरे से कहा। रघु ने सिर हिलाया। "हाँ, मगर सर की कुछ मजबूरियाँ भी हैं।" जोया को ये सुनकर दिलचस्पी हुई। "मजबूरियाँ?" रघु ने कुछ नहीं कहा। लेकिन जोया समझ गई कि रघु के पास कुछ ऐसा राज़ है, जिसे वो बताने से डरता है। "मुझे तेरा भरोसा जीतना होगा," उसने सोचा। अगले दिन, जोया ने रघु के लिए कुछ अलग किया। जब वह खाना लेकर आया, तो जोया ने खुद उसे खाने के लिए बुलाया। "रघु, तू रोज़ मेरे लिए खाना लाता है, लेकिन मैंने तुझे कभी खाते नहीं देखा," उसने कहा। रघु झिझका, "मैडम, ये मेरा काम है।" "आज बैठकर मेरे साथ खा।" रघु कुछ देर सोचता रहा, फिर धीरे से बैठ गया। "तेरी फैमिली कहाँ है?" जोया ने धीरे से पूछा। रघु ने लंबी साँस ली। "गाँव में। एक बेटा है, लेकिन... वो मुझसे नफरत करता है।" "क्यों?" "क्योंकि मैं अभिषेक ठाकुर के लिए काम करता हूँ," रघु ने उदास होकर कहा। जोया ने इस पर गौर किया। "शायद ये मेरी जीत की पहली सीढ़ी हो सकती है," उसने सोचा। अगली रात, जब रघु कमरे में आया, तो जोया उसके करीब गई। "अगर तुझे मौका मिले, तो क्या तू मेरे लिए एक खत गाँव भेज सकता है?" रघु चौक गया। "मैडम, सर को पता चला तो..." "उन्हें पता नहीं चलेगा," जोया ने हल्की मुस्कान के साथ कहा। "क्या तुझे लगता है कि मैं इस कैद में हमेशा रह सकती हूँ?" रघु कुछ नहीं बोला। "तू मेरे बेटे की उम्र का है, रघु।" रघु ने अचानक उसकी ओर देखा। "मैं तुझे एक बेटे की तरह देख सकती हूँ। मगर तू क्या मुझे एक माँ की तरह देख सकता है?" रघु के चेहरे पर कुछ भाव बदले। उसने धीरे से सिर झुका लिया। "क्या लिखना है?" उसने धीरे से पूछा। जोया की पहली जीत हो चुकी थी। अगले दो दिन तक, जोया ने अपने चारों ओर नजर रखी। उसने देखा कि रघु के अलावा, सिर्फ दो गार्ड अंदर आते थे। "अगर मैं रघु को अपने पक्ष में कर लूँ, तो मेरे लिए बाहर निकलना मुश्किल नहीं होगा," उसने सोचा। अगली रात, जब रघु खाना लाने आया, तो जोया ने मौका देख लिया। "रघु, मैं तुझ पर भरोसा करती हूँ। अब तुझे भी मुझ पर करना होगा," उसने धीमे से कहा। रघु ने गहरी साँस ली। "मैडम, आप क्या चाहती हैं?" "बस थोड़ी सी आज़ादी," जोया ने मुस्कुरा कर कहा। रघु ने कुछ नहीं कहा, लेकिन उसकी आँखों में हल्की सहमति दिखी। कहानी जारी रहेगी.....

  • 6. Junoon-E-Ishq (जुनून-ए-इश्क़) - Chapter 6

    Words: 2308

    Estimated Reading Time: 14 min

    सूरज ढल चुका था, और रात अपनी चादर बिछा रही थी। ज़ोया अब उस अजीबो-गरीब बंगले में अकेली थी—एक ऐसा घर जो बाहर से जितना खूबसूरत था, अंदर से उतना ही डरावना। बुलेटप्रूफ और साउंडप्रूफ। एक कैदखाने जैसा महल। अभिषेक उसे यहाँ लाकर जा चुका था। जाते-जाते उसने सिर्फ इतना कहा था— "ये जगह अब तेरा नया ठिकाना है, ज़ोया।" उसके शब्द अब भी ज़ोया के कानों में गूंज रहे थे। कमरे में हल्की रोशनी थी, मगर वो रोशनी ज़ोया के मन में फैले अंधेरे को दूर नहीं कर पा रही थी। उसने पूरे बंगले को देखने की कोशिश की, मगर हर जगह कैमरों की निगरानी थी। खिड़कियाँ मोटे शीशे से ढकी थीं, और दरवाज़े इलेक्ट्रॉनिक लॉक से बंद। "ये आदमी मुझे कैद में रखना चाहता है?" ज़ोया ने खुद से कहा, उसकी आँखों में गुस्से की चमक थी। लेकिन वो ज़ोया थी। जोया राठौर। जिसे कोई भी क़ैद में नहीं रख सकता था। उधर, अभिषेक अपनी बिजनेस ट्रिप पर जा चुका था, मगर उसका दिमाग अभी भी ज़ोया में उलझा था। वो अपनी कार में बैठा था, खिड़की से बाहर अंधेरे को घूरते हुए। उसके हाथ में एक गिलास था, जिसमें हल्की सी शराब थी, मगर वो उसे छू भी नहीं रहा था। "ज़ोया… तू मेरे खिलाफ क्यों गई?" उसे ज़ोया की आँखें याद आईं—वो आँखें जिनमें नफरत भी थी, मगर कहीं न कहीं एक अधूरी चाहत भी। "सर, हमें एक दिक्कत आ गई है," उसके बॉडीगार्ड ने अचानक कहा। "क्या?" "आपके दुश्मनों का एक ग्रुप आपके बिजनेस पर अटैक करने की प्लानिंग कर रहा है। हमें उन्हें रोकना होगा।" अभिषेक ने गहरी सांस ली और गाड़ी से बाहर निकला। उसकी आँखों में अब कोई भावनाएँ नहीं थीं—बस एक ठंडी, बेरहम आग। "जिसे भी रोकना है, रोक दो। जिसे मिटाना है, मिटा दो।" उसने अपने आदमियों को इशारा किया। अगली कुछ घंटों में उस शहर में कई खून बहने वाले थे। इधर ज़ोया को समझ आ गया था कि ये बंगला सिर्फ एक जेल नहीं था। ये एक चैलेंज था। अभिषेक ने उसे यहाँ रखकर ये सोच लिया था कि वो अब उसकी हो जाएगी। मगर ज़ोया कभी किसी की नहीं हुई थी। "अगर वो मुझे यहाँ रख सकता है, तो मैं यहाँ से भाग भी सकती हूँ।" उसने एक कोने में लगे कैमरे को देखा, फिर हल्की मुस्कान आई। "खेल अभी खत्म नहीं हुआ है, ठाकुर।" बंगले की खिड़कियों से बाहर घना अंधेरा फैला हुआ था। ज़ोया बिस्तर के किनारे बैठी थी, लेकिन उसकी आँखों में नींद का नामो-निशान नहीं था। उसके सामने एक चुनौती थी—कैसे इस कैद से निकला जाए? "अभिषेक ठाकुर... तुझे लगता है तू मुझे इस पिंजरे में बंद कर सकता है?" वो हल्की सी मुस्कान के साथ खड़ी हुई। बंगले का स्ट्रक्चर मजबूत था। अभिषेक ने इसे बुलेटप्रूफ और साउंडप्रूफ बनवाया था, यानी यहाँ से भागना नामुमकिन था। मगर नामुमकिन शब्द ज़ोया की डिक्शनरी में नहीं था। उसने बंगले के हर हिस्से को ध्यान से देखना शुरू किया। कैमरे: पूरे घर में हाई-टेक कैमरे लगे थे। हर कोने पर। सिक्योरिटी: गेट पर अभिषेक के खास आदमी खड़े थे। लॉक सिस्टम: दरवाज़े और खिड़कियाँ इलेक्ट्रॉनिक लॉक से बंद थीं। सिर्फ एक ही रास्ता: किचन के वेंटिलेशन सिस्टम के ज़रिए बाहर जाया जा सकता था। "ये रही मेरी चाबी," उसने धीरे से कहा। अब बस सही समय का इंतजार था। अगले दिन बटलर आया। अभिषेक ने ज़ोया की देखभाल के लिए उसे रखा था। "मैडम, आपको कुछ चाहिए?" बटलर ने सिर झुकाकर पूछा। "हाँ," ज़ोया ने हल्की मुस्कान दी। "थोड़ा टाइम अकेले का।" बटलर ने अजीब नज़रों से देखा, फिर बोला, "सर ने कहा है कि आपको कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए। आप यहाँ से बाहर नहीं जा सकतीं, लेकिन आपको हर चीज़ मिलेगी।" "अच्छा?" ज़ोया ने अपनी हेज़ल ब्राउन आँखों से उसे देखा। "मतलब तुम भी मुझे कैद करने में उसका साथ दोगे?" बटलर चुप रहा। रात के 2 बजे। हर जगह सन्नाटा था। गार्ड्स गेट पर थे, मगर अंदर कोई नहीं था। ज़ोया धीरे से उठी, बिना आवाज़ किए किचन की तरफ बढ़ी। वेंटिलेशन सिस्टम। उसने एक छोटा सा चाकू लिया और स्क्रू खोलने लगी। कुछ ही मिनटों में वो अंदर घुस गई। रास्ता छोटा था, मगर ज़ोया पतली थी। वो धीरे-धीरे आगे बढ़ी। बस थोड़ा और... लेकिन तभी... अलार्म बज उठा! बीप-बीप-बीप! हर जगह रेड लाइट्स जल उठीं। अभिषेक ने सिक्योरिटी टाइट कर दी थी! गार्ड्स भागते हुए अंदर आए। "मैडम! आप क्या कर रही हैं?" ज़ोया ने एक गहरी सांस ली। ये कोशिश नाकाम रही। अभिषेक को खबर मिलती है सुबह, फ्लाइट में बैठे हुए अभिषेक के फोन पर कॉल आया। "सर, ज़ोया ने भागने की कोशिश की थी।" अभिषेक के होठों पर हल्की सी मुस्कान आई, मगर उसकी आँखों में गुस्सा चमक उठा। "तुम लोग उसे रोक नहीं पाए?" "नहीं सर, हमने उसे पकड़ लिया, लेकिन..." "लेकिन क्या?" "वो डर नहीं रही थी, सर। उसने कहा कि वो फिर से भागेगी।" अभिषेक की उंगलियाँ फोन पर कस गईं। "तुम सब बेकार हो। मैं खुद वापस आ रहा हूँ।" ज़ोया और अभिषेक का आमना-सामना शाम को, जब ज़ोया अपने कमरे में बैठी थी, दरवाज़ा खुला। अभिषेक ठाकुर वापस आ गया था। उसके चेहरे पर कोई गुस्सा नहीं था, बल्कि एक ठंडा सुकून था। "तो, तूने भागने की कोशिश की?" ज़ोया ने आँखें मिलाई। "हाँ। और दोबारा करूँगी।" अभिषेक मुस्कुराया। वो उसकी हिम्मत से चिढ़ता भी था और उसे पसंद भी करता था। वो आगे बढ़ा और ज़ोया के बेहद करीब आ गया। "तू जितनी बार भागेगी, उतनी ही बार मैं तुझे पकड़ूँगा।" ज़ोया ने गहरी सांस ली। "और मैं जितनी बार पकड़ी जाऊँगी, उतनी बार कोशिश करूँगी।" अभिषेक ने उसके चेहरे को हल्के से छुआ। "तुझे समझ नहीं आ रहा, ज़ोया। मैं तुझे छोड़ूँगा नहीं।" "तो फिर देख, ठाकुर, ये जंग अभी खत्म नहीं हुई।" जोया के लिए समय जैसे ठहर सा गया था। अभिषेक उसे एक विशाल, बुलेटप्रूफ और साउंडप्रूफ बंगले में ले आया था। यह कोई साधारण जगह नहीं थी—चारों तरफ ऊँची दीवारें, सुरक्षा कैमरे, और हर कोने पर गार्ड तैनात थे। बाहर की दुनिया से पूरी तरह कटा हुआ, यह बंगला एक सुनहरा पिंजरा था, और जोया अब इस पिंजरे में क़ैद थी। अभिषेक ने धीरे से उसके हाथों की रस्सियाँ खोलीं और बिना कोई भावना दिखाए कहा, "अब तुम यहाँ रहोगी। तुम्हारे पास सब कुछ होगा—आराम, सुरक्षा, और हर सुविधा। पर तुम यहाँ से बाहर नहीं जा सकती।" जोया ने उसकी आँखों में देखा, उन आँखों में जो कभी उसके लिए प्यार से भरी थीं, अब वहाँ एक अजीब-सा पागलपन था। "तुम मुझे क़ैद नहीं कर सकते, अभिषेक। मैं कोई गुड़िया नहीं हूँ, जिसे तुम अपनी मर्ज़ी से रखो या फेंको।" अभिषेक हल्के से मुस्कुराया, मगर उस मुस्कान में चेतावनी थी। उसने अपनी जैकेट उतारते हुए कहा, "मैंने तुम्हें कैद नहीं किया, जोया। मैं बस तुम्हारी सुरक्षा सुनिश्चित कर रहा हूँ।" जोया ने एक कदम पीछे हटाया, लेकिन अभिषेक ने उसकी कलाई पकड़ ली और धीरे से उसे अपने करीब खींच लिया। "मुझसे दूर मत भागो, जोया," उसकी आवाज़ में गहराई थी, "तुम जानती हो कि जितना मुझसे दूर जाओगी, मैं तुम्हें उतना ही पास खींच लूँगा।" जोया ने उसकी पकड़ से छूटने की कोशिश की, मगर अभिषेक ने उसे कसकर पकड़ लिया। उसकी पकड़ सख्त थी, मगर उसके स्पर्श में एक अजीब सा जुनून था। "तुम क्या चाहते हो?" जोया की आवाज़ में गुस्सा था, मगर कहीं न कहीं उसमें एक छुपी हुई कमजोरी भी थी। "मैं वही चाहता हूँ जो हमेशा से मेरा था—तुम।" अभिषेक की आँखों में जुनून था, जैसे वो उसे अपने शब्दों से जकड़ लेना चाहता हो। जोया ने अपने होंठ भींच लिए, मगर अभिषेक ने उसकी ठोड़ी को हल्के से ऊपर उठाया। "तुम्हें पता है, जोया," उसने धीरे से कहा, "मैं तुम्हें बस अपने पास रखना चाहता हूँ। तुम्हें अपने से दूर होते देखना मुझे बर्दाश्त नहीं।" जोया ने कोई जवाब नहीं दिया। उसकी साँसें तेज़ हो गई थीं। अभिषेक का स्पर्श ठंडा नहीं था, बल्कि उसमें एक अजीब-सी गर्मी थी, जो उसे बेबस कर रही थी। फिर, अचानक, अभिषेक ने उसे एक झटके से अपने करीब खींच लिया। उनकी आँखें मिलीं—एक जंग छिड़ चुकी थी, एक तरफ नफरत और दूसरी तरफ मोहब्बत। "तुम मुझसे नफरत करती हो, है ना?" अभिषेक ने धीमी आवाज़ में कहा। जोया ने उसकी आँखों में देखते हुए जवाब दिया, "हाँ।" अभिषेक मुस्कुराया, मगर उसकी मुस्कान में दर्द था। "झूठ मत बोलो। तुम्हारी आँखें तुम्हारी जुबान से ज्यादा सच्ची हैं।" जोया ने अपना चेहरा घुमा लिया, मगर अभिषेक ने उसे फिर से अपनी तरफ किया। उसके अंगूठे ने जोया के गाल को हल्के से सहलाया। "एक दिन तुम खुद मानोगी, जोया, कि तुम भी मुझे चाहती हो। और उस दिन, मैं तुम्हें अपने प्यार से तोड़ दूँगा।" कमरे में सन्नाटा था। सिर्फ उनकी साँसों की आवाज़ थी। जोया का दिल तेज़ी से धड़क रहा था, मगर वो खुद को संभाल रही थी। अभिषेक ने आखिरकार उसकी कलाई छोड़ी और पीछे हटते हुए कहा, "मैं बिज़नेस ट्रिप पर जा रहा हूँ। मेरे बटलर को तुम्हारी देखभाल का जिम्मा सौंप दिया है। तुम्हें यहाँ किसी चीज़ की कमी नहीं होगी।" जोया ने एक गहरी साँस ली। "और अगर मैं यहाँ से भाग जाऊँ?" अभिषेक ने एक खतरनाक मुस्कान दी। "तो मैं तुम्हें वापस लाकर और भी ज्यादा करीब रखूँगा।" वो मुड़ा और दरवाज़े की ओर बढ़ गया। मगर जाने से पहले उसने एक आखिरी बार जोया की तरफ देखा। "याद रखना, जोया, ये क़ैद नहीं है। ये मेरा प्यार है। और एक दिन तुम खुद मानोगी कि ये प्यार ही तुम्हारी सबसे बड़ी ताकत है।" दरवाज़ा बंद हुआ, और जोया अकेली रह गई—मगर क्या वाकई अकेली? या फिर अभिषेक की मौजूदगी अब भी उसकी धड़कनों में थी? जोया ने कमरे की दीवारों को देखा, जो ऊँची थीं और मजबूत भी। कोई खिड़की नहीं, बाहर जाने का कोई रास्ता नहीं। यह सिर्फ़ एक महलनुमा पिंजरा था, जहाँ हर चीज़ थी, मगर आज़ादी नहीं। उसने गहरी साँस ली और खुद को शांत करने की कोशिश की, मगर अभिषेक के शब्द अब भी उसके कानों में गूंज रहे थे—"एक दिन तुम खुद मानोगी कि तुम भी मुझे चाहती हो।" उसने ग़ुस्से में सोफे पर पड़ा तकिया उठाया और ज़मीन पर फेंक दिया। "पागल आदमी!" तभी दरवाज़ा खुला, और बटलर अंदर आया। "मैडम, सर ने कहा था कि अगर आपको किसी चीज़ की ज़रूरत हो तो आप मुझे बता सकती हैं।" जोया ने बिना उसकी तरफ देखे कहा, "मुझे अकेला छोड़ दो।" बटलर ने हल्का सिर झुकाया और चुपचाप कमरे से बाहर चला गया। जोया धीरे-धीरे बिस्तर पर बैठ गई। उसके मन में हज़ारों सवाल थे। क्या अभिषेक ने सच में उसे यहाँ इसलिए रखा था कि वह उसे चाहता था? या यह सिर्फ़ उसकी सनक थी? समय बीतता गया। रात गहराने लगी। जोया खिड़की की तरफ बढ़ी, जहाँ से सिर्फ़ ऊँची दीवारें दिख रही थीं। उसकी आँखें अंधेरे में कहीं खो गईं। "तुम्हें इस खिड़की से बाहर देखने की कोई ज़रूरत नहीं है।" जोया की साँसें तेज़ हो गईं। वो मुड़ी और देखा—अभिषेक दरवाज़े पर खड़ा था। "तुम…? तुम तो बिज़नेस ट्रिप पर गए थे!" अभिषेक ने हल्की मुस्कान दी और कमरे में दाखिल हुआ। "हां, पर मैं इतनी दूर भी नहीं था कि तुम्हें अकेला छोड़ दूं।" जोया ने ग़ुस्से से उसकी तरफ देखा, "तुम्हें क्या लगता है कि मुझे इस सोने के पिंजरे में डालकर तुम मेरा प्यार जीत लोगे?" अभिषेक ने कदम बढ़ाया और जोया के ठीक सामने खड़ा हो गया। "तुम्हारे प्यार को जीतने की ज़रूरत नहीं, जोया। वो पहले ही मेरा है। बस तुम्हें इसे समझने में वक्त लग रहा है।" जोया ने उसकी तरफ देखा, उसकी भूरी आँखों में जुनून की वो आग थी, जिससे वो बचना चाहती थी। अभिषेक ने धीरे से उसकी ठोड़ी को ऊपर किया। "मुझसे नफरत करने की बहुत कोशिश कर चुकी हो, अब एक बार मुझसे प्यार करने की कोशिश भी कर लो।" जोया ने उसकी पकड़ से बचने की कोशिश की, मगर अभिषेक ने उसकी कमर पर हाथ रखकर उसे और करीब खींच लिया। "जब भी तुम मुझसे दूर जाने की सोचती हो, तुम्हारी आँखें तुम्हारी सच्चाई बयां कर देती हैं।" जोया ने उसकी पकड़ से निकलने की कोशिश की, मगर वो जितना छूटने की कोशिश करती, अभिषेक उसे उतना ही पास खींच लेता। उसकी उंगलियाँ जोया के चेहरे पर हल्के से फिसलीं। "मैं तुम्हें तकलीफ नहीं देना चाहता, जोया," उसकी आवाज़ में एक अलग सा एहसास था। "मगर मैं तुम्हें खो भी नहीं सकता।" उसने जोया को बेड के पास धकेला, मगर उसके स्पर्श में ज़ोर नहीं था—बल्कि एक अजीब-सी नरमी थी, जो उसके गुस्से से मेल नहीं खाती थी। जोया की साँसें तेज़ हो गईं, मगर उसने अपने ग़ुस्से को नहीं छोड़ा। "तुम्हें लगता है कि जबरदस्ती से तुम मेरा दिल जीत लोगे?" अभिषेक ने हल्की मुस्कान दी। "मैं तुम्हें जबरदस्ती से नहीं चाहता, जोया। मैं तुम्हें सिर्फ़ तुम्हारी सच्चाई से रूबरू करवा रहा हूँ।" उसने जोया के चेहरे के करीब आकर उसकी आँखों में देखा, फिर उसके बालों को हल्के से छूकर पीछे किया। उसकी उंगलियाँ जोया के गाल पर फिरीं, जहाँ हल्की गुलाबी रंगत उभर आई थी। "जब भी मैं तुम्हारे करीब आता हूँ, तुम्हारी साँसें तेज़ हो जाती हैं। क्या ये भी नफरत है?" जोया ने कुछ नहीं कहा, मगर उसकी आँखें अब भी जंग लड़ रही थीं। अभिषेक ने धीरे से उसके होंठों के पास अपना चेहरा लाया, मगर वो उसे छूने से पहले रुक गया। "तुम्हारे पास एक आखिरी मौका है, जोया। अगर तुम चाहो तो मुझे रोक सकती हो। मगर अगर तुमने कुछ नहीं कहा, तो मैं इसे तुम्हारी ख़ामोशी की इजाज़त समझूँगा।" कमरे में सिर्फ़ उनकी साँसों की आवाज़ थी। जोया की आँखें बंद हो गईं। उसने कुछ नहीं कहा। और यही उसकी सबसे बड़ी हार थी। अभिषेक की मुस्कान और गहरी हो गई। "मैं जानता था…" उसने धीरे से कहा और अपनी उंगलियों से जोया के चेहरे को महसूस किया। जोया का दिल ज़ोर से धड़क रहा था। क्या यह उसकी हार थी, या फिर वो खुद भी यही चाहती थी? यह रात सिर्फ़ एक एहसास की शुरुआत थी—एक ऐसी मोहब्बत, जो नफरत की ज़ंजीरों में जकड़ी थी, मगर फिर भी आज़ाद होने के लिए छटपटा रही थी।

  • 7. Junoon-E-Ishq (जुनून-ए-इश्क़) - Chapter 7 अहसासों की कशमकश

    Words: 2124

    Estimated Reading Time: 13 min

    रात का अंधेरा अपनी चरम सीमा पर था, लेकिन दिल्ली के बाहरी इलाके में स्थित उस गोदाम में हलचल मची हुई थी। मशीन गन की गोलियों की आवाज़ हवा में गूंज रही थी। धूल और धुएं के बीच अभिषेक ठाकुर अपनी टीम के साथ खड़ा था, उसकी आँखों में वही ठहराव था, जो किसी मौत से भी नहीं हिलता। "ये हमारी आखिरी डील है, ठाकुर!" एक भारी आवाज़ ने हवा को चीरते हुए कहा। अभिषेक ने हल्की मुस्कान दी और अपने जैकेट की आस्तीन ऊपर चढ़ाई। "मेरी डील तब खत्म होगी जब मैं चाहूँगा, तुम नहीं।" अचानक, गोलियाँ चलने लगीं। लड़ाई की शुरुआत हो चुकी थी। अभिषेक के लोग बहादुरी से लड़ रहे थे, लेकिन दुश्मनों की संख्या ज़्यादा थी। अभिषेक खुद मोर्चे पर था, एक के बाद एक दुश्मनों को गिराते हुए आगे बढ़ रहा था। लेकिन तभी, एक दुश्मन ने उसे निशाना बनाकर गोली चलाई— "ठाकुर, संभल—" जय (उसका सबसे वफादार आदमी) चिल्लाया, मगर देर हो चुकी थी। गोलियां हवा में सनसनाती हुई आईं और एक गोली अभिषेक की बाईं पसलियों के पास जा धंसी। दर्द की एक लहर उसके शरीर में दौड़ गई, मगर उसने खुद को गिरने नहीं दिया। वो अब भी खड़ा था, लड़ रहा था, लेकिन उसकी हरकतें धीमी हो गई थीं। खून उसकी काली शर्ट में फैलने लगा था, पर उसके चेहरे पर कोई शिकन नहीं थी। आखिरकार, उसके आदमी जीत गए। दुश्मनों की लाशें चारों ओर बिछी थीं। लेकिन अभिषेक अब ज़्यादा देर खड़ा नहीं रह सकता था। उसकी सांसें भारी हो रही थीं। "सर, हमें यहाँ से निकलना होगा!" जय ने उसे संभाला। अभिषेक ने उसकी ओर देखा, फिर अपनी बंदूक नीचे कर दी। "मुझे खुफिया हवेली ले चलो…" छुपा हुआ दर्द चार दिन बीत चुके थे। खुफिया हवेली एक पुराना, मगर सुरक्षित किला था, जहाँ बाहरी दुनिया की कोई खबर नहीं थी। यहाँ पर सिर्फ़ उसके सबसे वफादार लोग थे। अभिषेक के ज़ख्म अब भी खुले थे। डॉक्टर कह चुका था कि उसे आराम की सख्त ज़रूरत है, मगर वो अभिषेक ठाकुर था—आराम करना उसकी फितरत में नहीं था। "सर, आपको जोया मैडम को बता देना चाहिए," जय ने कहा। अभिषेक ने धीरे से आँखें खोलीं। वो कमरे में अकेला था, लेकिन जोया की तस्वीर उसके दिमाग में अब भी थी। "नहीं," उसकी आवाज़ ठंडी थी। "उसे कुछ मत बताना।" जय ने सिर झुका लिया। "लेकिन सर, वो पूछेगी—" "तो उसे यही बताना कि मैं बिज़नेस ट्रिप पर हूँ।" अभिषेक ने सख्ती से कहा। "वो मुझसे जितना दूर रहे, उतना बेहतर है।" जय कुछ नहीं बोला, मगर वो जानता था कि अभिषेक अपनी कमजोरी छुपाने की कोशिश कर रहा था—जोया ही वो कमजोरी थी। जोया की बेचैनी दूसरी ओर, जोया उस विशाल बंगले में थी, मगर उसका मन कहीं और था। "ये अजीब क्यों लग रहा है?" उसने खुद से पूछा। पिछले चार दिन से अभिषेक ने उससे कोई संपर्क नहीं किया था। ना फोन, ना कोई संदेश। "मुझे फर्क नहीं पड़ता," उसने खुद को समझाने की कोशिश की। "वो जहाँ भी हो, मुझे उसकी परवाह क्यों करनी चाहिए?" मगर जब बटलर से गलती से पता चला कि अभिषेक किसी "खुफिया हवेली" में है और शायद घायल है, तो उसके दिल की धड़कन तेज़ हो गई। "मुझे… चिंता क्यों हो रही है?" उसने अपनी हथेलियाँ ज़ोर से भींचीं। ये वही अभिषेक ठाकुर था, जिसे वो नफरत करने की कोशिश कर रही थी। मगर फिर भी, उसके दिल के किसी कोने में एक अजीब-सा दर्द उठ रहा था। सारा दिन वो बस यही सोचती रही—"अगर मुझे फर्क नहीं पड़ता, तो फिर ये बेचैनी क्यों?" शाम होते-होते, उसने फैसला कर लिया। "मुझे जाना होगा। मुझे खुद देखना होगा कि वो ठीक है या नहीं।" जोया खुद भी नहीं समझ पा रही थी कि वो ऐसा क्यों कर रही थी। मगर एक बात साफ़ थी—अभिषेक ठाकुर उसकी ज़िंदगी से बाहर जा चुका था, मगर उसके दिल से नहीं। क्या ये प्यार है? जोया कमरे में बेचैनी से टहल रही थी। उसकी साँसें तेज़ थीं और माथे पर हल्की पसीने की बूंदें चमक रही थीं। "ये लोग मुझे जाने क्यों नहीं दे रहे?" उसने खुद से बड़बड़ाया। जब से उसने अभिषेक को देखा था, उसका मन अजीब सी उलझन में था। वो उससे दूर रहना चाहती थी, मगर अब जब वो इतनी बुरी हालत में था, तो उसका वहाँ रहना ज़रूरी था। मगर अब सवाल यह था कि क्या उसे वहाँ रहने दिया जा रहा था उसकी मर्जी से? जोया ने फिर से दरवाज़ा खोला। जैसे ही उसने कदम बाहर रखा, बटलर सामने आकर खड़ा हो गया। "मैडम, आप बाहर नहीं जा सकतीं," उसकी आवाज़ सख्त थी। जोया ने उसे घूरा। "क्यों? ये हवेली मेरी कैदगाह बन गई है क्या?" "सर ने कहा है कि आपको यहाँ से बाहर नहीं जाने देना है," बटलर ने ठंडी आवाज़ में कहा। जोया का दिमाग घूम गया। "ये सर कौन होते हैं मेरी ज़िंदगी के फैसले लेने वाले?" उसने गुस्से में कहा। "ये आपके भले के लिए है, मैडम। बाहर हालात ठीक नहीं हैं।" जोया ने अपनी मुट्ठियाँ भींच लीं। "मुझे बाहर जाना है, तुम हट जाओ," उसने धमकाने वाले लहजे में कहा। मगर बटलर अपनी जगह से हिला भी नहीं। जोया ने हार नहीं मानी। उसने हवेली में अलग-अलग दरवाजे खोजने की कोशिश की, मगर हर बार कोई ना कोई रोक लेता। उसका मन घुटने लगा। "ये कैसा पागलपन है?" उसने एक कुर्सी पर बैठते हुए अपना सिर पकड़ लिया। हर पल उसे लग रहा था कि कुछ सही नहीं हो रहा। अभिषेक... वो उसकी हालत के बारे में सोच रही थी, पर खुद से भी सवाल कर रही थी— "मुझे इतनी तकलीफ क्यों हो रही है?" उधर, अभिषेक अपने कमरे में लेटा था। जय उसके पास बैठा था, मगर वो चुपचाप छत को घूर रहा था। "तू जानता है, जय? मैंने उसे रोक कर सही किया या गलत?" जय ने कुछ देर सोचा और फिर धीरे से कहा— "आपने अपने दिल को रोकने की कोशिश की है, जो मुश्किल है। पर मैडम को यहाँ कैद करना..." अभिषेक ने गहरी सांस ली। "वो बाहर जाती तो परेशानी में पड़ जाती। मैं उसके लिए कोई और मुसीबत नहीं चाहता।" जय ने कुछ नहीं कहा। "पर अब लगता है कि ये बंदिशें सिर्फ उसके लिए नहीं... मेरे लिए भी हैं।" अगला कदम? जोया की बेचैनी और गुस्सा बढ़ता जा रहा था। क्या वो खुद को हवेली से आज़ाद कर पाएगी? या फिर अभिषेक को इस क़ैद का एहसास होगा? कई दिनों बाद जोया खिड़की के पास खड़ी थी। सूरज की हल्की रोशनी कमरे में फैल रही थी, मगर उसके अंदर एक अजीब सी बेचैनी थी। कई दिन हो चुके थे, और अब वो इस हवेली में खुद को बंदी जैसा महसूस करने लगी थी। तभी दरवाज़ा खुला। जोया ने जैसे ही नज़रें उठाईं, उसकी साँसें थम गईं। अभिषेक। वो धीमे कदमों से अंदर आया। उसकी आँखें थकी हुई थीं, चेहरे पर हल्की दाढ़ी उग आई थी, और सबसे ज्यादा... उसके शरीर पर कई ज़ख्मों के निशान थे। जोया ने जल्दी से अपनी नज़रों को झुका लिया। "कैसी हो?" अभिषेक की आवाज़ अब भी भारी थी, मगर उसमें पहले जैसी कठोरता नहीं थी। जोया ने खुद को संयत किया और हल्की मुस्कान के साथ कहा, "जैसी तुम्हें छोड़कर गए थे, वैसी ही हूँ।" अभिषेक हल्का सा हँसा, मगर इस हँसी में दर्द छिपा था। ज़ख्मों की तकलीफ़ जोया ने एक पल के लिए उसे ध्यान से देखा। उसकी शर्ट के ऊपर पट्टियाँ बंधी हुई थीं। हल्की-हल्की चोटें उसकी गर्दन और हाथों पर भी दिख रही थीं। "तुम ठीक हो?" वो पूछना चाहती थी, मगर खुद को रोक लिया। अंदर ही अंदर उसके घाव उसे चुभ रहे थे। "तुमने मुझे देखने की कोशिश नहीं की?" अभिषेक ने धीरे से कहा, उसकी आँखों में सवाल था। जोया ने नज़रें फेर लीं। "जरूरत नहीं थी। तुम्हारे लोग मुझे बता देते थे कि तुम जिंदा हो। बस इतना ही काफी था।" अभिषेक ने उसकी आँखों को पढ़ने की कोशिश की, मगर जोया ने चेहरे पर कोई भी भाव नहीं आने दिया। कमरे में हल्की सी खामोशी छा गई। अभिषेक ने धीरे से कहा, "मैं जानता हूँ, तुमने मेरी कमी महसूस की।" जोया ने हल्की हँसी में कहा, "तुम खुद को ज़रूरत से ज़्यादा अहमियत दे रहे हो, मिस्टर ठाकुर।" मगर उसके दिल की धड़कनें तेज़ थीं। अभिषेक एक कदम आगे बढ़ा, अब वो उसके बिल्कुल करीब था। "झूठ बोलने में तुम पहले से बेहतर हो गई हो, जोया।" जोया ने जवाब नहीं दिया। अभिषेक ने अपनी उंगलियों से उसकी ठोड़ी ऊपर की, मगर इस बार उसका स्पर्श वैसा कठोर नहीं था जैसा पहले हुआ करता था। "मैं नहीं चाहता था कि तुम मुझे इस हाल में देखो," उसने धीरे से कहा। जोया का दिल तेज़ी से धड़कने लगा। छुपे हुए एहसास अभिषेक ने एक गहरी सांस ली और थोड़ा पीछे हट गया। "तुम इस हवेली से जाना चाहती हो, है ना?" उसने बिना किसी भूमिका के पूछा। जोया ने उसकी आँखों में देखा, फिर धीरे से कहा, "हाँ।" अभिषेक कुछ देर चुप रहा, फिर मुस्कराया। "तब तो तुम्हें और थोड़ा इंतज़ार करना पड़ेगा।" जोया ने गुस्से से उसे देखा। "क्या तुम मुझे कभी आज़ाद करोगे?" अभिषेक की मुस्कान फीकी पड़ गई। "शायद नहीं।" कमरे में एक गहरी खामोशी फैल गई। जोया ने अपनी मुट्ठियाँ भींच लीं, मगर वो यह स्वीकार नहीं कर पाई कि उसके दिल के किसी कोने में राहत भी महसूस हुई थी... कि अभिषेक उसे छोड़कर कहीं नहीं जा रहा था। रात गहरी थी, मगर हवेली के अंदर सब कुछ शांत था। जोया अपने कमरे में बैठी थी, मगर उसका दिमाग अशांत था। अभिषेक वापस आ चुका था, जख्मी हालत में, मगर फिर भी उतना ही ताकतवर और अहंकारी। वो खिड़की के पास जाकर खड़ी हो गई। बाहर का अंधेरा उसकी मनःस्थिति से मेल खा रहा था। वो खुद को समझ नहीं पा रही थी। जब अभिषेक दूर था, तब उसकी बेचैनी उसे चैन नहीं लेने दे रही थी। अब जब वो लौट आया था, तो उसका मन उलझनों से भर गया था। क्या ये नफरत थी? या कुछ और...? गहरी रात, अनकहे जज़्बात तभी कमरे का दरवाज़ा हल्के से खुला। जोया पलटी तो देखा, अभिषेक वहीं खड़ा था। उसकी आँखों में एक अजीब सी थकान थी, मगर फिर भी उनमें वही सम्मोहन था जो हमेशा जोया को विचलित कर देता था। "सोई नहीं?" उसकी आवाज़ भारी थी। जोया ने हल्की हंसी में कहा, "क्या तुम मुझे सच में सोता हुआ छोड़ते?" अभिषेक उसकी बात सुनकर हल्का सा मुस्कुराया, फिर धीरे से अंदर आकर दरवाज़ा बंद कर दिया। "जब से लौटा हूँ, तुम मुझसे दूर भाग रही हो। क्यों?" उसने सीधे सवाल किया। जोया ने उसे घूरा। "मैं कहीं नहीं भाग रही। और हाँ, मैं तुम्हारे लिए चिंता नहीं कर रही थी, अगर तुम यही सुनना चाहते हो तो।" अभिषेक ने एक कदम आगे बढ़ाया। "झूठ।" जोया ने नज़रें चुरा लीं, मगर वो जानती थी कि अभिषेक उसकी आंखों के पीछे छिपे सच को पढ़ सकता था। अभिषेक ने धीरे से उसका हाथ पकड़ा। उसकी उंगलियों का हल्का सा स्पर्श भी जोया के अंदर एक अजीब सी हलचल पैदा कर गया। "क्या तुम सच में नहीं चाहती थीं कि मैं लौटूं?" उसकी आवाज़ में हल्की सी चुनौती थी। जोया ने अपने हाथ छुड़ाने की कोशिश की, मगर अभिषेक ने उसकी कलाई कसकर पकड़ ली। "छोड़ो मुझे, अभिषेक!" मगर अभिषेक ने उसे खींचकर अपनी बाहों में भर लिया। जोया का दिल जोर-जोर से धड़कने लगा। उसकी सांसें अनियमित हो गईं। अभिषेक ने उसके चेहरे को अपने हाथों में लिया, उसकी उंगलियाँ जोया की कोमल त्वचा पर फिसल रही थीं। "मैं जानता हूँ, तुम मुझे चाहती हो, मगर स्वीकारने से डरती हो।" जोया ने आँखें बंद कर लीं, मगर उसकी नज़दीकियों ने उसे कमजोर कर दिया था। अभिषेक ने उसके होंठों के करीब आकर फुसफुसाया, "अगर मैं कहूं कि इन दिनों जब मैं तुम्हारे बिना था, तब मुझे भी तुम्हारी याद सताती थी?" जोया की आँखें झटके से खुल गईं। उसने उसे धक्का देने की कोशिश की, मगर अभिषेक ने उसकी कमर पकड़कर और कसकर अपनी ओर खींच लिया। जोया गहरी सांस लेने लगी। "मैं तुमसे नफरत करती हूँ, अभिषेक!" उसने गुस्से में कहा। अभिषेक ने हल्की मुस्कान दी, "तो इस नफरत का एहसास भी मुझे करवा दो।" उसके होंठ जोया के गाल के करीब आ गए, फिर उसके कान के पास। जोया के अंदर अजीब सी बेचैनी थी। उसे खुद पर गुस्सा आ रहा था कि वो खुद को रोक क्यों नहीं पा रही थी। "मैं कभी तुम्हारा नहीं होऊँगा, जोया। और तुम कभी मेरी नहीं बनोगी... है ना?" अभिषेक ने धीरे से कहा। उसने हल्का सा झटका देकर खुद को छुड़ाया और उसकी आँखों में आँसू आ गए। "तुम्हारी ज़िद मुझे बर्बाद कर देगी, अभिषेक!" अभिषेक ने उसकी आँखों में देखा और हल्की आवाज़ में कहा, "तो मुझे बर्बाद होने दो।" कमरे में गहरी खामोशी छा गई। जोया ने अपनी नज़रे झुका लीं, मगर उसके दिल ने पहली बार कबूल किया— वो चाहकर भी अभिषेक से नफरत नहीं कर सकती थी। कहानी जारी रहेंगी......