He was leaving behind the long, dark, never ending roads and now he could see his destination from a distance. 'Murad Kothi', standing within a radius of ten thousand yards on the side of the road, even today compels every passerby to praise the dedi... He was leaving behind the long, dark, never ending roads and now he could see his destination from a distance. 'Murad Kothi', standing within a radius of ten thousand yards on the side of the road, even today compels every passerby to praise the dedication of its builders. His eyes fell on 'Murad Kothi' and a beautiful smile spread on his face. He increased the speed of the car. Reaching very close to the main gate of 'Murad Kothi', he braked the car with a loud 'Chaayan' sound!
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तेज़ रफ्तार से अपनी मंजिल की जानिब दौड़ रही थी। सर्दियों का आगाज़ सूरज की तपिष को मद्धम कर रहा था। धीरे-धीरे बहती हवाओं में घुली मौसमी फूलों की खुषगवार महक फज़ा को मज़ीद खूबसूरत बना रही थी। उसने हाथ बढ़ा कर ए.सी. बन्द किया और गाड़ी का शीषा नीचे कर दिया। मद्धम-मद्धम चलती हवाओं ने उसके रेशमी बालों को बिखेर दिया था। वो ड्राइव करते-करते ही अपने बाल ठीक करने लगा साथ ही साथ वो अपने होठोें को घुमाकर सीटी बजाने में भी मसरूफ था। तवील...स्याह, कभी ना खत्म होनी वाली सड़कों को वो पीछे छोड़ता आ रहा था और अब उसे अपनी मन्जिल़ दूर से ही नज़र आ रही थी। सड़क के किनारे दस हज़ार गज़ के दायरे में खड़ी ‘मुराद कोठी’ आज भी अपने तामीर करने वालों के जौ़क़ की दाद देने पर हर राहगीर को मजबूर कर ही देती थी। उसकी नज़र ‘मुराद कोठी’ पर पड़ी और लब पर एक मआनीखे़ज सी मुस्कान फैल गई। गाड़ी की रफ्तार उसने मजी़द बढ़ा दी। ‘मुराद कोठी’ के मेनगेट के बिल्कुल पास पहुंच कर एक जो़रदार चांय......की आवाज़ के साथ उसने गाड़ी को ब्रेक लगाया! मरियम जावेद उस वक़्त मुराद कोठी के अन्दर जदीद अन्दाज़ में सजी हुई लहीम-शहीम लॉबी में लगे बेश कीमती सोफे पर टिकी किसी किताब के मुताअल्ले में मसरूफ थी। ज़रूरत से ज्यादा बड़ी इस लॉबी की सामने से इन्ट्री थी, दाईं जानिब कतार में कई कमरे बने हुए थे, बाएं जानिब किचन, डाइनिंग और स्टडी थी। दोगुनी ऊंचाई पर पड़ी लॉबी की छत पर लम्बे-लम्बे फानूस लटक रहे थे और लॉबी के दरमियान से ऊपर जाती गोल सीढ़ी इस इमारत के नक्श को शहनशाही अन्दाज अता कर रही थी। दीवारों पर लगे पेन्ट, मॉर्डन पेन्टिंग, एन्टीक डीकोरेशन पीसेज़, खिड़कियों पर लगे लम्बे-लम्बे पर्दे ज़मीन पर बेहद खूबसूरत और बेशकीमती कालीनें, एक-एक चीज़ इस कोठी में रहने वालों के शौक़ व जौ़क़ और बेइन्तिहा दौलत की खुलकर नुमाईश कर रही थी। पर इन सब ऐश व इशरत और लवाज़मात से बेनयाज़ मरियम जावेद की निगाहें किताब पर लिखी तहरीर पर जमीं हुई थीं। ‘हां सुनो दोस्तों! जो भी दुनिया कहे उसको परखे बिना मान लेना नहीं सारी दुनिया ये कहती है पर्वत पे चढ़ने की निस्बत उतरना सहल है किस तरह मान लें? तुमने देखा नहीं! सरफराजी़ की धुन में कोई आदमी जब बुलन्दी के रास्ते पे चलता है तो सांस तक ठीक करने को रूकता नहीं और उसी शख्स का, उम्र की सीढ़ियों से उतरते हुए पांव उठता नहीं इसलिए दोस्तों! जो भी दुनिया कहें उसको परखे बिना मान लेना नहीं। ज़ीशान हैदर की गाड़ी को गेट पर देखते ही गेट पर खड़े दरबान ने उसे जा़ेरदार सलाम दागा़ और हाथ में लिया रिमोट गेट के जानिब करके बटन दबा दी, स्लाइडिंग गेट एक जानिब सरक गया। जी़शान हैदर ने गाड़ी अन्दर की ओर बढ़ा दी। इन्टरलाकिंग टाइल से बने पाथवे को पार करता वो गैराज की ओर बढ़ गया जहां तीन गाड़ियां पहले से खड़ीं थीं, उसने अपनी गाड़ी पार्क की और चाबी का छल्ला उगंली में घुमाता, सीटी बजाता वो कोठी के पोर्च की तरफ आ गया। पोर्च के क़रीब पहुंच कर एक भरपूर निगाह उसने पूरी इमारत पर डाली और दिल ही दिल में इस कोठी में रहने वालों की क़िस्मत पर रश्क़ करके रह गया। चमचमाते सफेद रंग की ये ऊंचे-ऊंचे महराबों वाली कोठी किसी को भी मुतास्सिर कर सकती थी। कोठी के मेन गेट के बिल्कुल सामने बहुत बड़ा सा लॉन था जो ज़्यादातर विलायती फूलों की खुश्बू से मुअत्तर रहता था और कोठी के दांए जानिब हदे निगाह तक सब्ज मैदान था जिसके तीन तरफ ऊंचे-ऊंचे दरख़्त लगे हुए थे और एक तरफ पाथवे बना हुआ था। कोठी के बाएं जानिब सर्वेन्ट क्वार्टस थे। जी़शान हैदर ने बड़ी हसरत भरी निगाह चारों तरफ घुमाई थी। ‘‘या...खुदा तेरा निजा़म तू तो समझे...! जब तू किसी को देने पर आता है तो छप्पर की क्या औका़त तू तो आर.सी.सी. स्लैब तक फाड़ कर दे देता है...नसीब अपना-अपना...’’ ‘नसीब अपना-अपना’ उसने बड़ी गहरी सांस लेते हुए कहा और फिर कॉल बेल पर हाथ रख दिया। लॉबी में बैठी मरियम ने घड़ी की जानिब देखा और बड़बड़ाती दरवाजा़ खोलने उठ गई। ‘‘आ गए सन्डे खराब करने...’ इससे पहले की वो दरवाजे़ तक पहुंचती तब तक दो-तीन बार घंटी बज चुकी थी। ‘उफ...ओह...ये बन्दा भी अजीब है घंटी से चिपक ही गया। सब्र तो छूकर नहीं गुज़रा है इन्हें। अब बन्दा चल कर ही आएगा ना...पंख तो लगे नहीं है जो उड़ कर पहुंच जाए। एक तो बिना बुलाए महमान ऊपर से इतना भाव...’’ जी़शान हैदर की उजलत पर वो मजी़द उकता गई। अच्छा खा़सा किताब पढ़ रही थी डिस्टर्ब हो गई। बड़ी झिल्लाहट के साथ उसने बढ़ कर दरवाजा़ खा़ेला था। ‘‘घर के नौकर छुट्टी पर गए है क्या?’’ उसकी तरफ देखे बिना ही पूछता हुआ वो अन्दर दाखि़ल हो गया ‘‘नहीं तो’’ ‘‘तो फिर तुम क्यों दरवाजा़ खोलती हो हमेशा’’ लहजे में थोड़ी सी चिढ़ थी ‘‘वो बस यूं ही’’ वो गड़बड़ाई ‘‘इस घर में हो तो इस घर के तौर-तरीके़ भी सीख़ लो, मालिक और नौकर में फर्क़ होता है। मालिक काम करता नहीं करवाता है’’ वो सोफे पर बैठ कर न्यूज़ पेपर पलटते हुए बोला ‘‘पर मैं मालिक नहीं हूं’’ ‘‘इस घर की फर्द तो हो’’ उसकी सादगी से कही बात पर वो मजी़द चिढ़ गया ‘‘खै़र जाने दो, तुम कभी ऊँचा सोच ही नहीं सकती हो’’ ‘‘दूसरों के दम पर ख्वाब नहीं देखे जाते मिस्टर जी़शान हैदर’’ उसका लहजा भी तल्ख़ हो गया। ‘‘हुंह...वहीं पुराने ज़माने के घिसे-पिटे ख्यालात, आदर्श, स्वाभिमान, फलान...ढिमका और जाने क्या-क्या। मैडम आज के तेज़ रफ्तार ज़माने में इस क़िस्म के नज़रियों की मय्यत उठ चुकी है। इतना धीरे मत चलो की इस ज़माने की रफ्तार को छू भी ना सको’’ लहजा तन्ज़ में पूरी तरह डूबा हुआ था। ‘‘मशवरे का शुक्रिया, वैसे आप को ज़रूरत तो नहीं है, फिर भी एक मशवरा मैं भी देती हूं, इतना ऊंचा मत उड़ों कि गिरो तो दुबारा उठने के का़बिल भी ना बचो’’ ‘‘शुक्रिया, पर मुझे आपके मशवरे की ज़रूरत नहीं है’’ न्यूज़ पेपर मेज़ पर रखते हुए, उसने एक बनावटी मुस्कान चेहरे पर सजा कर ये जुमला अदा किया और बेजा़री से कन्धे उचकाता हुआ स्टडी की तरफ बढ़ गया। वो उसे जाता देखती रही वो स्टडी में जाकर दरवाजा़ भेड़ चुका था। वो भी मेन डोर बन्द करने के लिए पलटी ही थी कि युसूफ और हफ्सा दरवाजे़ से दाखि़ल होते नज़र आ गए। ‘‘जी़शान आया है?’’ यूसुफ ने दाखि़ल होते ही पूछा ‘‘हंू, स्टडी में हैं’’ ‘‘लो आ गए आपके यार, अब पूरा सन्डे दोस्ती निभाईए’’ मरियम के जवाब पर हफ्सा ने मुस्कराते हुए यूसुफ ने कहा ‘‘पूरा सन्डे कहां? आधा दिन तो पहले ही आपके नाम हो चुका है बेगम साहिबा’’ ‘‘माज़रत चाहते हैं, आपके दोस्त का हक़ मार लिया हमने’’ यूसुफ के शिकवे पर हफ्सा मजी़द मुस्कराई ‘‘चलो मुआफ किया’’ यूसुफ दरियादिली दिखाता हुआ स्टडी की तरफ बढ़ गया। ‘‘दोस्ती से बढ़कर कुछ नहीं इन दोनों के लिए’’ ‘‘किसी गै़र की घर में इस हद तक दख़ल अच्छी नहीं है आपी’’ ‘‘यूसुफ के लिए वो सगों से कम नहीं, अनेवेज़ लीव इट यार, रहमत बाबा से कह दो कि हम लोगों को कॉफी पिला दें’’ उसकी सन्ज़ीदगी देखकर हफ्सा ने बात टाली और शॉपर्स उठकर कर अपने कमरे के जानिब बढ़ गई। मरियम बड़े गा़ैर से उसे जाता देखती रही। किसी भी अन्दाज़ से वो दोनों सगी बहने नहीं लगती थी। हफ्सा का हर अन्दाज़ हर तरीका़ उसे दूसरों से अलग करता था। ठहर-ठहर के हर क़दम बढ़ाती हफ्सा किसी मलिका से कम नहीं लगती थी। उसके लिबास का एक-एक धागा उसकी रईसी की दास्तान सुनाता था। नजा़कत से पहने हुए बेश़कीमती जे़वर उसके जे़ब व जी़नत का खा़स हिस्सा होते थे। उसका हुस्न मेकअप का मोहताज नहीं था और उसके बेपनाह हुस्न ने ही उसकी क़िस्मत के सारे बन्द दरवाजे खोल दिए थे तभी तो एक आम मिडिल क्लास घराने की होने के बावजूद ‘मुराद इन्डस्ट्रीज’ के इकलौते वारिस की शरीके हयात बनने का शर्फ हासिल हो गया था उसे और इस ‘‘मुराद कोठी’’ में आकर वो पूरी तरह से हाई सोसाइटी का हिस्सा बन चुकी थी। मरियम ने एक गहरी सांस अपने अन्दर उतारी और किचन का रूख किया। रहमत बाबा किचन में ही जानमाज़ बिछाए जो़हर की नमाज़ अदा कर रहे थे वो उनका इन्तिजा़र करने के बजाए खुद ही कॉफी बनाने लगी। जब तक कॉफी तैयार हुई रहमत बाबा फारिग़ हो चुके थे। ‘‘अरे! बिटिया आप क्यों बनाने लगी’’ ‘‘मुझे इन कामों की आदत है बाबा’’ ‘‘पर साहब पसन्द नहीं करते कि घर की औरतंे किचन का काम करें, मुझ पर नाराज़ होंगे’’ ‘‘ये कोई नाराज़ होने वाली बात है? खैर छोड़ें, आप ये कॉफी स्टडी में दे दीजिए’’ उसने एक ट्रे उनको दी और दूसरी ट्रे में दो कप रख कर हफ्सा के कमरे में आ गई। ‘‘क्या बात है मूड कुछ ख़राब लग रहा है?’’ हफ्सा ने कॉफी की घूंट लेते हुए पूछा ‘‘ये जी़शान हैदर खु़द को समझते क्या है?’’ ‘‘क्या हुआ? फिर बहस हो गई तुम्हारी उससे?’’ उसकी बात पर हफ्सा ने अन्देशा जताया ‘‘उनको मेरे मामलात में दख़ल का ह़क किसने दिया’’ लहजे से गुस्सा साफ जा़हिर हो रहा था। ‘‘गलत तो नहीं कहता वो’’ हफ्सा तकिए से टेक लगाकर इत्मिनान से बैठती हुई बोली ‘‘आप उसको हमेशा मुझ पर सबक़त देती हैं, मैं आपकी बहन हूं वो कुछ नहीं’’ उसकी बात पर मरियम चिढ़ गई ‘‘बहुत खा़स है वो भी’’ हफ्सा की बात पर मरियम ने मशकूक निगाहों से उसे देखा। लाख कोशिशों के बावजूद उसके चेहरे पर फैले तास्सुरात को वो पहचान नहीं सकी। लम्हे के सवें हिस्से में ज़हन जिस जानिब गया उस पर फौरन ही उसने लाहौल भेजा। ‘‘ऐसे क्या देख रही हो?’’ ‘‘आपी आप बदल गई हैं’’ उसके सवाल पर मरियम थोड़ी देर ख़मोश रहने के बाद बाली ‘‘बदलना पड़ता है डीयर, आठ सौ करोड़ की जागीर की मालकिन जो हूं’’ हफ्सा के लहजे में अचानक ही गुरूर आ गया था ‘‘जो इस जागीर का असली वारिस है उसे तो ज़रा भी गुरूर नहीं’’ ‘‘यू मीन यूसुफ?’’ ‘‘यस, ये जागीर यूसुफ भाई के नाम है ना?’’ ‘‘यूसुफ की हर चीज़ मेरी है’’ हफ्सा के ठोस लहजे को मरियम समझ नहीं पाई ‘‘शौहर की हर चीज़ पर बीबी का ही हक़ होता है ना, मरियम?’’ लहजा पुख़्ता था और चेहरे पर सख़्ती। ये वो हफ्सा हरगिज़ नहीं थी जो तीन साल पहले सिर्फ मरियम की बहन थी यूसुफ की बीबी नहीं। ‘‘क्या हुआ?’’ उसकी उड़ती रंगत देख हफ्सा ने पूछा ‘‘कुछ नहीं’’ ‘‘मजा़क कर रही हूं यार! तुम इतनी सीरियस क्यों हो जाती हो’’ लम्हे भर में वही पुराना लहजा लौट आया था। मरियम भी मुस्कुरा दी और ख़ाली कप लेकर कमरे से बाहर आ गई। बाक़ी आईन्दा :