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मैं हारी!

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Tasneem Kauser

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इश्क़ एक ऐसा जज़्बा है जहां अंजाम की परवाह नहीं की जाती वहीं ममता एक ऐसा एहसास है जहां इश्क़ की भी बाज़ी लगा दी जाती है। ये कहानी छे किरदारों के इर्द गिर्द घूमती नज़र आती हैं। सभी क़िरदार एक दूसरे से जुदा होकर भी जुड़े हुए है। इश्क़ की बाज़ी में किसकी ह...

Total Chapters (37)

Page 1 of 2

  • 1. मैं हारी! - Chapter 1

    Words: 1069

    Estimated Reading Time: 7 min

    आज उसकी आँख खासी देर से खुली थी। यही वजह थी की उसकी एक नज़र दीवार पे लगी घड़ी की तरफ़ थी तो एक नज़र ख़ुद ही अपने अक्स को देखती आईने पे। ब्लू जीन्स के उपर सफ़ेद रंग की ढीली ढाली टॉप पहने वह अपने हुस्न से आईने को भी शरमाने पे मजबूर कर रही रही। आईना दिल थाम कर उसका अक्स ख़ुद पर ग़ालिब कर रहा था और वह?... ख़ुद से बेनियाज़ अपनी तैयारी में लगी हुई थी। उसके हाथ बड़ी उजलत में जल्दी जल्दी चल रहे थे। उसने जैसे तैसे अपने लंबे बालों पे ब्रश फेरा। कलाई पे घड़ी बांधी, कंधे पे बैग डाला और अपने कमरे से निकल गई। "अम्मी देर हो रही है... कैंटीन में कुछ खा लुंगी।" उजलत में कह कर घर से निकल गई थी। ज़ायरा बेटी को आवाज़ देती रह गई थी। "पलवशा.... पलवशा....!" उनके आवाज़ देने का कोई फ़ायदा नहीं था... उसकी गाड़ी की आवाज़ आई थी मतलब के वो जा चुकी थी। ज़ायरा को बेटी की हरकत पे गुस्सा आया था मगर अब खाली घर में किस पे निकाल सकती थी सो टेबल पे पड़ा ग्लास उठा कर पानी पीने लगी। दो दिनों से मिनी भी काम पे नहीं आ रही थी ऐसे में वह पहले से ही झुंझलाई हुई थी। **** अभी पलवशा कॉलेज के अंदर दाख़िल ही हुई थी जब उसे हाफती काँपती अदिति अपनी तरफ़ आते हुए दिखी और उसने जो उस से कहा तो उसके काँधे पे टँगा बैग सरक कर ज़मीन पे जा गिरा।  "पलवशा, सिम्मी ने सुसाइड कर ली।" अदिति ने लगभग रोते हुए उसके होंश उड़ाये थे।  वह बेयकिनी से एक टक अदिति को देख कर रह गई। उसे यकीन करना बहुत मुश्किल हो रहा था। भला कैसे आता उसे यकीन? आख़िर खुदकुशी थी कोई मामूली चीज़ नहीं! " कहां.....कहां है सिम्मी?" पलवशा ने लड़खड़ाती हुई आवाज में उससे पूछा था।  "हॉस्पिटल... सब उसे सिटी हॉस्पिटल लेकर गए है।" अदिति ने रोते हुए कहा था और पल्वशा ने ये सुनते ही दरवाज़े के बाहर दौड़ लगा दी थी। उसके पीछे पीछे अदिति भी दौड़ी थी। पलवशा ने पार्किंग से अपनी गाड़ी निकाली और अदिति भी उसके साथ सवार हो गई।  दोनों जब हॉस्पिटल पहुंचे तो उनकी मुलाक़ात सिमी के हॉस्टल वालों से हुई जो उसे यहाँ लेकर आए थे।  पलवशा की आँखें मुसलसल बरस रही थी। कुछ दिन पहले की ही तो बात थी जब उसका और सिम्मी का ज़ोरदार झगड़ा हुआ था। पलवशा उसे समझा समझा कर थक चुकी थी... जब सिम्मी की दीवांगी उस से बर्दाशत नहीं हुई तो बहस ने तूल लेकर झगड़े का रूप इख़्तियार कर लिया। और इस झगड़े की वजह थी मोहब्बत.... नहीं सिर्फ़ मोहब्बत नहीं....बल्कि एक तरफ़ा मोहब्बत! ***** "साहिबा बी....जल्दी चलें बड़ी बी आपको कब से बुला रही है।" दरवाज़े पे खड़ी खैरा तीसरी बार साहिबा को बुलाने आई थी। जो पेट के बल अपने मसहरी पर लेटी रिसाला के पन्नों पे लिखे हुर्फ़ों को अपने अंदर ज़हन में जज़्ब कर रही थी। "आ रही हूँ खैरा... " साहिबा ने भी तीसरी दफ़ा उसे यही जवाब दिया था। "कब से तो यही सुन रही हूँ... इधर आप नहीं जा रही उधर बड़ी बी मेरी जान को आ रही है। जल्दी कीजिए वरना दर्जिन चली जाएगी।" खैरा ने तंग आकर आखिर झुंझला कर उससे कहा था। "तुम उसे दो कप चाय और पिला दो खेरा फिर वह नहीं जाएगी।" वैसे ही औन्धी लेटी हुई उसने अपने पैरों को ऊपर उठाया था जिसकी वजह से पीले सलवार की चोड़ी मोहरी नीचे ढलक गई थी और इसकी वजह से उसकी सफेद पिंडलियों नुमाया हो गई थी। यह देख खैरा जल्दी से आगे बढ़ी थी और उसके सलवार की मोहरी को खींचकर ऊपर उठाया था और उसकी पिंडलियों को छुपाया था यह देख साहिबा एकदम से सीधी हो गई थी। "क्या है खैरा?....क्यों सर पर सवार हो? कहां ना आ रही हूं।" साहिबा ने चिढ़ कर कहा था। "बीबी जी आप तो आ ही जाएंगी लेकिन अगर आपके आने से पहले बड़ी बी इस कमरे में आ गई और उन्होंने आपकी यह सफेद सफेद पिंडलियों देख ली तो कम से कम 4 घंटे के लिए इस हवेली में कयामत आ जाएगा। उन्होंने कितनी दफा आपसे कहा है कि इन चौड़ी मोहरियों वाले पजामे ना सिलवाया करें। सिलवाती आप है और डाँट बेचारी दर्जिन सुन जाती है।" खैरा ने कहने के साथ-साथ उसके पलंग पर बिखरे सामानों को समेटना शुरू कर दिया था और साहिबा उसकी बातों को नाक पर से मक्खी की तरह उड़ा कर वापस से रिसाले में खो गई थी। "और यह बाल इन्हें जरा समेट कर रखा करें ....कहीं नजर लग गई तो फिर तरह-तरह के टोटके करती फिरेंगे.... और हमारी नाक में दम अलग।" उसके सामानों को जगह पर रखने के बाद खैरा ने उसे देखा था और अब उसके बालों पर तब्सिरा कर रही थी। मगर अब साहिबा सुन ही कहां रही थी उसका तो पूरा ध्यान  रिसाले के एक नवल में चल रही हीरोइन की दर्द भरी इश्क की दास्तान पर उलझा हुआ था। खैरा ने ख़फ़गी से साहिबा को देखा था और नहीं में अपना सर हिलाती एक बार फिर से बड़ी बी के पास ये पैग़ाम लेकर चल दी थी की "साहिबा बी थोड़ी देर में आ रही है।" अभी थोड़ा ही वक़्त गुज़रा था जब खैरा एक बार फिर से साहिबा के कमरे में आई थी और अपना नाक मूंह थोड़ा चढ़ा कर आई थी क्योंकि उसे पता था इस दफ़ा साहिबा का कैसा रद्दे अमल होने वाला है? "साहिबा बी इस दफा छोटी बी आपको बुला रही है।" खैरा का इतना कहना था कि साहिबा ने रिसाला को बंद करके एक तरफ फेंका था और बड़े जल्दबाजी में पलंग के नीचे पड़े अपने चप्पल में अपने पर उड़सती हुई कैमरे से निकल गई थी। *** स्वेट विकिंग जिम वेस्ट पहनने वह पसीने से सराबोर पंचिंग बैग पर लगातार मुक्कों की बरसात किये जा रहा था। जाने किस बात का गुस्सा था...जो वह निकाल रहा था? गुस्सा था या फिर कुछ और ही बात थी? उसूल.... या फिर... बेड़ी। चाहे जो भी था वो उसूल की बेड़ियाँ पहनने वालों में से था। अपने इरादों का पक्का था और शायद इसलिए उसूल परस्त भी.... बिल्कुल अपने खानदान की तरह.... जान चली जाए मगर ज़ुबान की शान ना जाए। दिल और दिमाग में अलग ही धकड़ पकड़ चल रही थी और साथ ही साथ पंचिंग बैग पे उसका मुक्का भी... और ना जाने कितनी देर तक ये सिलसिला जारी रहता अगर उसका नाम कोई ना पुकारता। "यामीर... यामीर...!" आगे जारी है:-

  • 2. मैं हारी! - Chapter 2

    Words: 1181

    Estimated Reading Time: 8 min

    "ये है आज कल की नस्ल...ऐसी हो रही है आज कल की औलाद....ये है ज़माना!... " हाशिम ख़ान ने अख़बार को तह लगाते हुए कहा था। उसी वक़्त यामीर नाश्ते की मेज़ पे आया था। अपने वालिद के मूंह से वह ये तब्सिरा सुन चुका था। " अस्सलाम वालेकुम बाबा।" सलाम करने के साथ-साथ उसने अपनी कुर्सी भी संभाली थी। "वालेकुम अस्सलाम जीते रहो।" बेटे को देखकर हाशिम खान का थोड़ी देर पहले अखबार को पढ़ाते हुए जला खून सेरों के हिसाब से बढ़ गया था। "औलाद इसे कहते हैं नेक, फरमाबरदार, उसूलों पर जान निछावर कर देने वाले। ज़ुबान के आगे अपने दिल को काट देने वाले।" हाशिम खान ने बगल में बैठी अपनी अम्मा को देख कर बड़े फ़ख्रिया अंदाज में कहा था। अम्मा भी यमीर को देख कर मुस्कुरा उठी थी। " माशाल्लाह बोलो हाशिम माशाल्लाह ....अल्लाह नज़रे बद से बचाए।" अम्मा ने प्यार भरी नजरों से यामीर को देखते हुए कहा था। अपनी ऐसी तारीफ पर यमीर को कभी समझ नहीं आता था के वह कैसे रद्दे अमल का इजहार कर? खुश होए, शर्माए, या चुप रहे। वह बस सोच में पड़ जाता था। इतना भरोसा, इतनी उम्मीदें... यह सारे जैसे उसके पैरों की बेड़ियां थी। बचपन से यही सुनता आया था और अब सुन सुन कर जैसे पत्थर का हो गया था। कोई जज्बात जागते ही नहीं थे...कोई एहसास दिल में पनपता ही नहीं था.... उसकी जिंदगी जैसे एक टास्क सी हो कर रह गई थी। उसे लगता था वह पैदा ही बस इसी टास्क को पुरा करने के लिए हुआ है। उसे बस हर हाल में उस टास्क को पूरा करना है.....यही उसकी जिंदगी का मकसद है। " तो क्या सोचा तुमने मशीनों के बारे में?" हाशिम साहब अब पूरी तरह यामीर की तरफ मुतावज्जोह हो गए थे। "मेरे ख्याल से सुपरवाइजर सही कह रहा है। मशीन वाक़ई बहुत obsolete हो चुकी है। उन्हें हटाना ही बेहतर रहेगा। मशीनें पुरानी होने की वजह से power consumption ज़्यादा है और मज़दूरों की जान पर भी खतरा है।" यामिर ने अपने प्लेट में पराठा लेते हुए कहा था। उसकी बात सुनकर हाशिम खान सहमत होकर अपना सर हिला रहे थे। "तुम्हारे पेपर कब शुरू हो रहे है?" हाशिम खान को अचानक से याद आया था। "अभी एग्जैक्ट डेट का तो पता नहीं मगर अगले महीने मानकर चलिए।" यामीर ने जवाब दिया था। "तो एक कम करो...तुम्हारे एग्जाम के खत्म होते ही सारी नई मशीनरी फैक्ट्री में इंस्टॉल हो जानी चाहिए....ये जिम्मेदारी मैं तुम्हें देता हूं।" हाशिम खान ने रौब्दार अंदाज में कहा था। "जी बाबा।" यामिर ने बड़े अदब से इस जिम्मेदारी को कबूल किया था। "मैं तो कहती हूं क्या जरूरत है इस पेपर वेपर में सर खपाने की। जिस तरह अटेंडेंस के लिए इंतजाम कर लिया है उसी तरह इस पेपर का भी इंतजाम कर लो, अपनी जगह किसी और को बैठा दो या फिर कुछ पैसे वैसे देकर फर्स्ट क्लास की डिग्री ले लो।" अम्मा ने कुछ चिढ़ कर लापरवाह अंदाज में यमीर से कहा था। उनकी बात सुनकर यामिर मुस्करा उठा था। "ऐसा नहीं होता दी जान।" यामीर ने मुस्कुरा कर अपनी दादी से कहा था। "अब ये सुनो... ये मुझे सिखा रहा है... अरे तेरा चाचा कभी कॉलेज गया था?... फिर भी बी.ए. फर्स्ट क्लास से पास है। कैसे?... तेरे बाप की बदोलत।" दी जान जोश में आ गई थी। "वो ज़माना और था दी जान।" यामीर ने दी जान को प्यार से देखते हुए जवाब दिया था। "ज़माना चाहे कोई भी हो? आगे बढ़ते ज़माने को जो रोक दे... हम उन लोगों में से है... ये बात कभी मत भूलना।" दी जान ने दबे लफ़्ज़ों में फिर ज़ो कुछ जता दिया था। यामीर को खामोश होना पड़ा। **** साहिबा किसी नाज़ुक सी हिरनी की तरह दौड़ती, नौकरों से टकराती, बचती, संभलती, अपने लंबे दुपट्टे के साथ साथ लंबे बालों को लेहराती छोटी बी के कमरे में पहुंची थी और अब जा कर अपनी साँसें बहाल की थी। "क्या हो गया साहिबा?" छोटी बी उसे देखकर हैरान और परेशान हुई थी। साहिब अपनी बेतरतीब साँसों को बहाल करने की ज़द में लगी हुई थी... उन्हें जवाब क्या ख़ाक देती? छोटी बी परेशानी के आलम में छोटे से टेबल की तरफ़ बढ़ी थी जिस पर पानी का जग और ग्लास रखा हुआ था। उन्होंने जल्दी से गिलास में पानी अंडेला था और उसे लेकर साहिबा के पास आई थी। साहिब ने तुरंत ग्लास थाम लिया था और एक सांसों में ही कई घूँट अपने अंदर उतारे थे। पानी पीते ही जान में जान आई तो कहा था। "भरजाई(भाभी), तुम ने ही तो बुलाया था।" साहिबा ने अपनी भरजाई को मोहब्बत लुटाती निगाहों से देखा था। "हां बुलाया था....मगर इसका मतलब यह तो नहीं कि तुम ऐसी हालात में आओ कि मेरी जान निकल जाए और मैं खुद ही भूल जाऊं कि मैंने तुम्हें बुलाया था।" छोटी बी ने नाराजगी से कहा था। "भरजाई ऐसा तो ना बोलो... तुम को मेरी भी उम्र लग जाए।" साहिबा तड़प कर छोटी बी के गले लग गई थी। छोटी बी ने भी उसे अपने सीने से भींच लिया था। "चलो छोड़ो यह सब....अब जरा ये देखो की मैंने तुम्हें बुलाया किस लिए था।" छोटी बी साहिबा को खुद से अलग करके अलमारी की तरफ बढ़ी थी और उसमें से कुछ पेपर्स निकले थे, जिसे देखकर साहिबा की आंखें फटी की फटी रह गई थी। "भरजाई!" बेयकिनी से निकला था। **** वह अभी भी नाश्ता कर रहा था जब उसका फोन बज उठा था। उसने मोबाइल की स्क्रीन पर एहसन का नाम देखा और उसने उसकी कॉल को काट दी। हाशिम खान को बेटे पर एक दफा फिर से फ़ख़्र हुआ। थोड़ी ही देर के बाद फिर से एहसन का कॉल आया और यामीर ने एक दफा फिर से कॉल काट दी और साथ ही साथ फोन को साइलेंट मोड पर भी कर दिया। फिर जब तीसरी दफा भी एहसन की कॉल आई तो हाशिम खान ने उसे फोन उठाने के लिए कहा। यामीर ने फोन उठा लिया। "तू कहाँ है?" ना सलाम ना दुआ एहसन ने सीधा सवाल किया। " वालेकुम अस्सलाम।" दी जान के सामने निकम्मे दोस्त का भरम रखा था वरना एक घंटे का लेक्चर कहीं नहीं जाता। एहसान को हैरानी हुई थी उसके सलाम के जवाब पर जो उसने किया ही नहीं था। खैर ये वक़्त इन सब बातों में उलझने का नहीं था। " कहां है तू?"  एहसन ने पूछा था। "नाश्ता कर रहा हूँ।" "सामने दी जान और बाबा है?" फिर से सवाल। "हाँ।" मुख्तसर सा जवाब। "हट जा वहाँ से।" मशवरे से नवाज़ा। "जल्दी बोलो।" मशवरा झटका। "सुनेगा तो गुस्से से पागल हो जाएगा।" एहसन ने चेतावनी दी। यामीर तुरंत यकीन ले आया। गुस्से का तेज़ तो वो था। गुस्से में क्या कर बैठता उसे ख़ुद पता नहीं होता। "बाद में बात करता हूँ।" यामीर ने कह कर कॉल काट दी थी। अंदर बेसुकुनी के होते हुए चेहरे पर इत्मीनान सजा कर नाश्ता करता रहा और फिर अपने कमरे में जा कर एहसन को कॉल लगाया। "अब बक।" गुस्से में कहा। "मुबारक हो मेरे यार एक और खुदकुशी तेरे इश्क़ के नाम की गई।" एहसन ने मज़े लेते हुए कहा। "व्हाट?" यामीर गुस्से और बेयकिनी से चीख़ पड़ा। आगे जारी है:-

  • 3. मैं हारी! - Chapter 3

    Words: 1062

    Estimated Reading Time: 7 min

    "मुबारक हो मेरे यार एक और खुदकुशी तेरे इश्क़ के नाम की गई।" एहसन ने मज़े लेते हुए कहा। "व्हाट?" यामीर गुस्से और बेयकिनी से चीख़ पड़ा। इसके आगे वह चाह कर भी कुछ बोल नहीं पाया था। "तुझसे मिलने आई थी ना सिम्मी ?....ऐसा क्या कह दिया बेचारी से की अपनी जान देने पर मजबूर हो गई।" एहसान ठीक ठाक मज़े ले रहा था। "बची या चल बसी?" उसके मज़े ने यमीर को तपा कर रख दिया था। उसने गुस्से में उस से पूछा था मगर दिल में मलाल भर गया था। "बच गई।" हँसता हुआ लहजा था। "कसम से दिल कर रहा है अपने हाथों से उसकी जान ले लूँ।" उसके बचने की ख़बर मिलते ही सारा मलाल भाप बन कर उड़ गया था। "वह बेचारी तो इसको भी गनिमत समझेगी कि तुम्हारी मोहब्बत ना सही तुम्हारे हाथों से मौत ही मिल जाए। मौत के बहाने ही सही तुम्हारा दीदार हो जाये।" एहसन का अलग ही फलसफा जारी था। "वैसे कहा क्या था तुमने उसे...?मैं बस यह जानना चाहता हूं।" एहसन पुरा इंटरटेनमेंट चाहता था। "चलो शहर में गले पड़ती थी तो मैं बर्दाश्त कर लेता था। यहां गांव में मूंह उठा कर चली आई मुझसे मिलने के लिए। मैंने गुस्से में अच्छा खासा सुना दिया तो बर्दाश्त नहीं कर पायी। मुझसे कह रही थी की जान दे दूंगी.....मैंने कहा शौक से दे दो मगर पहले यहाँ से दफ़ा हो जाओ। मुझे क्या पता था की सच मुच मरने चल देगी।" यामीर को सिम्मी की बेवकूफ़ी पर एक बार फिर से गुस्सा आ गया था। "आख़िर क्यूँ तोड़ता है तो इन बेचारियों का दिल... अच्छी भली लड़की तो है सिम्मी.... खैर तेरी किस्मत अच्छी है जो ये बच गई। पिछले साल नीलम बेचारी तो सच में अल्लाह को प्यारी हो गई थी। उसका अंजाम देख कर भी तेरा दिल नहीं पिघला। तेरी जगह मैं होता तो अपने दिल को बराबर हिस्सों में तक़्सीम कर के सभी हसीनाओं को थमा देता।" एहसन अब भी संजीदा होने का नाम नहीं ले रहा था। उसकी बात पे यामीर कुछ नहीं बोल सका। क्या कहता उसके पास कोई जवाब था ही नहीं। यामिर की खामोशी को महसूस कर के एहसन को उसके दिली हालात का अंदाजा हो गया था। जब ही उसने माहौल को हल्का-फुल्का बनाने के लिए आगे कहा था। "उमर बोरकान अल गाला के बारे में सुना है तुमने?... अरे वही जिसे सौदी अरब से इसलिए निकाला गया था क्योंकि वह ज़रूरत से ज़्यादा हैंडसम था। वैसे तो तू ज़्यादा कॉलेज आता नहीं मगर फिर भी मुझे लगता है कॉलेज मैनेजमेंट को भी तेरा कॉलेज में आना बैन करवा देना चाहिए। खामाख्वा में लड़कियां अपनी जान देने पे तुली है...." एहसन अभी जाने और क्या क्या उस से कहता यामीर ने उसकी बात सुन कर चिढ़ से कॉल काट दी थी। **** "कॉलेज का फॉर्म?... तुम्हारे पास कैसे आया?" साहिबा की आँखें हैरत के मारे उबल पड़ी थी। "यह मत पूछ कि किस मशक्कत से मंगवाया है बस शुक्र मना की मंगवा लिया।" छोटी बी ने मुशक्कत लफ़्ज़ पर ज़ोर देते हुए कहा था। "सिर्फ फॉर्म आने से क्या हो जाएगा भरजाई...कॉलेज में दाखिला लेने की इजाजत थोड़ी ना मिलेगी?" साहिबा ने उदास होकर कहा था। "दाखिला लेने की इजाजत भी मिल जाएगी क्योंकि मैं चुप थोड़ी ना बैठूंगी। मैं तुम्हारा दाखिला हर हाल में करवा कर रहूंगी आखिर कितनी मेहनत से पढ़ाई की है तुमने ...इतने अच्छे नंबरों से पास हुई हो...मैं उसे ज़ाया जाने नही दूंगी।" छोटी बी ने प्यार से उसकी थोडी को पकड़ा था। "लाला (भाई) मान जाएंगे?" साहिबा मशक़ूक़ हुई। "मानना पड़ेगा... वरना तेरी भरजाई रूठ जाएगी।" छोटी बी ने उसकी सुतवाँ (पतली) नाक को प्यार से दबाते हुए कहा। साहिबा को अपनी इस चंद माह पहले आई हुई भरजाई पर ख़ुद से भी ज़्यादा यकीन था। **** "ये एडमिशन फॉर्म कहाँ से आया तुम्हारे पास?" बैरम ने हैरानी के साथ छोटी बी से पूछा था। "सीबु आया था ना शहर से उसी से मंगवाया।" उसने घर के एक नौकर का नाम लिया। बैराम ने बेयकिनी से उसे देखा। " तुम्हें सब कुछ पता है फिर भी?....एडमिशन फॉर्म मंगवा लेने से एडमिशन नहीं हो जाती। तुम खामाख्वा में उसके सपनों को बढ़ावा दे रही हूं। तुम्हें इस घर के रीति रिवाज....इस गांव के नियमों का पता है.... मैंने तुमसे कभी कुछ नहीं छुपाया .... शुरू से तुम्हें हर कुछ बताता आया हूं। मत दो उसके सपनों को "पर" आखिरकार कट दिए जाएंगे। फिर उसे बहुत ज्यादा तकलीफ होगी।" बैरम ख़ान को छोटी बी की बेवकूफ़ी पर गुस्सा आया था। " यह कैसा जाहिलों वाला नियम है इस गांव का, इस घर का। मुझे तुमसे यह उम्मीद नहीं थी बैरम. ... " अभी छोटी बी कह ही रही थी कि बैरम खान ने उन्हें आंख उठा कर देखा था और छोटी बी को अपनी गलती का एहसास हो गया था कि उसने क्या गलत कह दिया? होठों पर खुद ही एक तंज़िया मुस्कुराहट उभर आई थी....आंखों में पानी भी उतर आया था। "कि तुम्हारा नाम लेने तक की इजाजत नहीं है...." आँखों से आँसू छलक पड़ा था। "क्या फायदा हुआ तुम्हारे इतने पढ़े-लिखी होने का की तुम गांव के दक्यानुसी और जाहिल सोच को बदल नहीं सकते। तुम पढ़ लिखकर भी इन्हीं लोगों में से हो। सबके सामने अपनी बीवी का नाम नहीं ले सकते.....  उसे नजर भर कर देख नहीं सकते ....चलो सबके सामने तो छोड़ो ...अकेले में भी तुम मेरा नाम नहीं लेते....तुम ऐसे तो नहीं थे। मैंने ऐसे शख्स से तो मोहब्बत नहीं की थी।" वह साहिबा के लिए दलील पेश करने आई थी, उसके हक के लिए लड़ने आई थी, उसका हक दिलाने आए थी मगर खुद अपने हक के लिए रोने बैठ गई थी। बैरम उस से अपनी आंखें चुराने पर मजबूर हो गए थे। "मुझसे अगर तुम शिकवा कर रही हो इस बात पर तो यह बिल्कुल गलत कर रही हो। शिकवा नहीं करो क्योंकि मैंने तुमसे कोई झूठ नहीं कहा था। तुम्हें बहला फुसला कर शादी नहीं की थी....मैने सारी हकीकत तुम से बयाँ की थी। अपने घर के बारे में, अपने गांव के बारे में सब कुछ बताया था। और तुमने उस वक़्त बोहत बड़ी बड़ी बातें की थी कि मेरी मोहब्बत की खातिर तुम हर तरह, हर हाल में खुद को एडजस्ट कर लोगी। मैं अगर तुम्हारे साथ रहा तो तुम क़ैद में भी ख़ुशी ख़ुशी अपनी ज़िंदगी गुज़ार दोगी।" बैरम खान ने शिकवे भरे लहजे में उसे उसकी कही हुई बातों को याद दिलाया था। आगे जारी है:-

  • 4. मैं हारी! - Chapter 4

    Words: 1056

    Estimated Reading Time: 7 min

    "अगर मैंने तुम्हारी मोहब्बत में इस कैदखाने को चुन लिया है तो क्या तुम मुझसे मोहब्बत नहीं करते कि मेरी घुटन, मेरी तकलीफ से तुम्हें कोई फर्क नहीं पड़ता?" छोटी बी ने रोते हुए अफसोस के साथ कहा था। बैरम खान को इस बात पर गुस्सा आया था। वह तुरंत उसके सामने से हट गया था। "अगर इतनी ही घुटन और तकलीफ है तुम्हें तो मुझे छोड़ दो मुझे, खुला ले लो मुझ से। भले ही यह हमारे खानदान की रिवायत के खिलाफ है मगर मैं तुम्हारी खातिर इस रवायत को भी बदल दूंगा।" बैरम खान ने का कद्रे गुस्से में कहा था। उसका चेहरा तुरंत सुर्ख हो गया था। "तुम मुझे छोड़ने के लिए खानदान की रिवायत बदल सकते हो मगर मुझे अपने साथ रखने के लिए नहीं बदल सकते?....और अब मैं तुम्हें छोड़कर कहां जाऊंगी जब के तुम्हारा हिस्सा मेरे वजूद के अंदर पल रहा है साँसे ले रहा है।" छोटी बी अफ़सोस में रोते हुए मुस्कुराहट के साथ अपने पेट पर हाथ फेरते हुए कहा था और ये सुन बैरम खान एक झटके से मुड़ा था। कुछ लम्हें छोटी बी को हैरानी से देखे गया फिर आगे बढ़ कर उसे अपने सीने से लगा लिया। **** "जानते हो बैरम तुम क्या कह रहे हो?" बड़ी बी सुनते के साथ भड़क उठी थी। बैरम खान का चेहरा देखते ही कुछ सोच में पड़ गई थी। "नहीं... मेरा सवाल ग़लत है... तुम सब कुछ जानते हो... मगर तुम्हारी बीवी कुछ नहीं जानती.... इसलिए हम अपने ख़ानदानों में शादी करते है, अपने गाँव में करते है, अपने जैसों में करते है... क्योंकि बाहर वालों को इतनी अकल ही नहीं होती के घर की रिवायतों को समझें और उन पर चलें।" बड़ी बी ने अपने गुस्से को काबू में करते हुए कहा था। वह समझ चुकी थी की बैरम खान की ज़ुबान से छोटी बी का पैग़ाम निकल रहा है। "मगर अम्मा.... " बैरम खान उनसे बोलने को हुए ही थे की बड़ी बी ने एक बार फिर उनकी बात काट दी थी। "अपनी बीवी को समझाओ बैरम पठान्टोली की लड़कियां आठवी जमात से ज़्यादा नहीं पढ़ती क्योंकि गाँव में हाई स्कूल नहीं है। फिर भी हमने साहिबा को आई.ए. करवा दिया अब इस से ज़्यादा के ख़्वाब ना देखे। ज़ोरावर आई ए फ़ैल है अगर ऐसे मैं साहिबा उस से ज़्यादा पढ़ लेगी तो हमारे लिए परेशानी खड़ी हो जाएगी। कहीं ये रिश्ता ना टूट जाए और तुम्हें पता है जिस लड़की का रिश्ता टूट जाता है उसे फिर कोई जानने वाला नहीं पूछता। दूसरा रिश्ता बड़ी मुश्किल से मिलता है वो भी कैसे? अपनों से कमतर में बेटी ब्याहनी पड़ती है, कभी कभी तो लड़कों को मूंह बोले दाम में खरीदना पड़ता है और कभी कभी तो ये भी नहीं मिलता। साहिबा के ससुराल वालों को तो पहले ही साहिबा के आई ए करने पर ऐतराज़ था। मैंने ख़ुद साहिबा को कितना समझाया था की मत दे आई ए के पेपर और अगर दे भी रही है तो फ़ैल हो जाइयों मगर नहीं! सब तेरी बीवी का पढ़ाया हुआ है...उसके दिमाग़ में फ़ितूर भर दी है तेरी बीवी ने।"  अम्मा ने अच्छी ख़ासी सुना कर रख दी थी। बैरम खान अपनी माँ का अदब करते हुए बीवी के लिए बुरा भला सुन रहे थे। कुछ लम्हों के लिए ख़ामोशी छा गई थी। बड़ी बी ने अपना हुक्का गुड़गुड़ाया था। कमरे का सकूत टूटा था। "क्या सूझी थी तुझे बैरम जो शहर से इसे उठा लाया। एक से एक बढ़कर लड़कियाँ थी हमारे खानदान में, हमारे गाँव में। भला हो साहिबा के ससुराल वालों का के अब तक साहिबा का रिश्ता जोड़े हुए है वरना कोई और होता तो....." बड़ी बी ने अपने ग़मों में डुबकी लगाते हुए कहा ही था की बैरम खान उनका ध्यान इस तरफ से हटाने के लिए उनकी बात को काटते हुए कहा था। "अम्मा... आप दादी बनने वाली हैं।" बैरम खान ने झट से कहा था। उनका ख्याल था की बड़ी बी ये सुनते ही ख़ुशी से झूम उठेंगी मगर ऐसा कुछ नहीं हुआ था बल्कि बड़ी बी ने तो बक़ायदा अपनी छाती पीट ली थी। "हाय! कितनी बेशर्म है... ऐसी बातें कोई अपने मियाँ से कहता है?....मैं क्या मर गई थी?.... साहिबा भाग गई थी?... दुनिया में ऐसी ख़बर सब से पहले अपनी सास, नंदों, जेठानी देवरानी या घर की किसी औरतों को बताई जाती है। अगर हमें ना बताना था तो अपनी उस पर कट्टी माँ को फोन कर के बता देती और वो हमें .... लेकिन नहीं बेशर्मी दिखाये बिना शाहरियों का पानी तक हज़म नहीं होता। बुला उसे मेरे कमरे में अभी पूछती हूँ।" क्या सोचा था क्या हो गया? बैरम खान सोच रहे थे और यही सोचते हुए वह कमरे से निकल गए थे। *** शुक्र था की अब सिम्मी खतरे से बाहर थी फिर भी पलवशा का मन भारी भारी हो रहा था क्योंकि अभी तक उसकी सिम्मी से बात नहीं हुई थी। सिम्मी की सुसाइड का सुनकर ही वह दहल गई थी अगर उसे कुछ हो जाता तो पूरी जिंदगी पछता रही होती कि उस से सुलाह किए बिना ही वह इस दुनिया से चली गई। दिल ही दिल में उसने यामीर नाम को खूब गालियाँ दी थी। हाँ नाम को ही तो दे सकती थी। अभी तक उसने उसे देखा कहाँ था? एक ही कॉलेज में होने के बावजूद कभी उस से आमना सामना नहीं हुआ था। वह बी बी ए की स्टूडेंट थी और यामीर एम बी ए का। उपर से जनाब कॉलेज ही मुश्किल से आते थे फिर भी कॉलेज भर में काफी शोहरत रखते थे। अपनी दिल फ़रेब खुबसुरती और बेपरवाह तबियत की वजह से। जिस दिन भूले भटके कॉलेज आ जाते तो कॉलेज के हर कोने में चर्चे शुरू हो जाते। उस दिन जो लड़कियाँ कॉलेज नागा की होती घंटों अफ़सोस में डूब कर पछताती। ये भी इत्तेफ़ाक़ था की कॉलेज में कई बार मौजूद होने के बावजूद वह कभी यामीर से नहीं मिली थी। इसके पीछे दो वजह थी। एक तो उसकी अम्मी ने उसे लड़कों से दूर रहने की तअकीद की थी और दूसरी वह खुद अपने एटीट्यूड में रहती थी और यामिर की शोहरत कभी-कभी उसे बहुत खलती थी। वह यही सोचती थी की "ऐसे भी क्या सुर्खाब के पर लग गए हैं जो लड़कियां पागल हुई जाती है" और उसका यह फलसफा था कि जिस सिम्त दुनिया बेवकूफ़ों की तरह भागती है उस सिम्त पलवशा नज़र भी डालना पसंद नहीं करती। आगे जारी है:-

  • 5. मैं हारी! - Chapter 5

    Words: 1132

    Estimated Reading Time: 7 min

    पलवशा जैसे ही अस्पताल से बाहर निकली थी, अस्पताल के बाहर हर रोज़ की तरह वही आदमी उसे थोड़ी दूरी पर दिखा था। उसे देखकर पलवशा के अंदर तक कड़वाहट उतर आई थी। उसने चिढ़ कर कुछ ख़ुद ही में बड़बड़ाया था और अपनी कार का दरवाज़ा खोल कर ड्राइविंग सीट संभाल ली थी। थोड़ी ही देर के बाद वह अपने घर पहुंच चुकी थी घर में दाखिल होते ही उसने अपनी अम्मी को फोन पर किसी को झड़ते हुए सुना था। "नहीं जरूरत है तुम्हारे पैसों की...हमारा पीछा छोड़ दो....हमें सुकून से जीने दो....मैं अपनी बेटी की परवरिश कर सकती हूं और बहुत अच्छे तरीके से कर सकती हूँ.... " वह रवानगी में कहे जा रही थी जब ही उन्हें अपने पीछे पलवशा की आमद का एहसास हुआ था उन्होंने मुड़कर देखा था और अपने पीछे पलवशा को पाया था। उन्होंने दो लम्हें उसका चेहरा देखा और फिर में बिना कुछ कहे कॉल काट दी थी। पलवशा थकान के एहसास के साथ सोफे पर ढेर हो गई थी। "आज जल्दी आ गई?" ज़ायरा ने थोड़ी देर की ख़ामोशी के बाद उस से पूछा था। " क्योंकि मैं कॉलेज नहीं गई थी।" पलवशा ने बंद आंखों के साथ कहा था। " क्यों?" ज़ायरा तुरंत परेशान हो गई थी। "क्योंकि मैं हॉस्पिटल मे थी...." अभी पलवशा कह ही रही थी की ज़ायरा अपनी जगह से उठकर परेशान सी उसके करीब आई थी। "क्यों....क्या हो गया तुम्हें?" ज़ायरा परेशान सी जल्दी-जल्दी उसे अपने हाथों से टटोल कर देख रही थी। "मुझे कुछ नहीं हुआ अम्मी.... मैं ठीक हूँ....मेरी वह दोस्त है ना सिम्मी...." पलवशा ने मां को इत्मिनान दिलाते हुए कहा था। "कौन सिम्मी?" ज़ायरा ने ना समझी में पूछा था। "हाँ, अम्मी आप उसे नहीं जानती..." पलवशा को अचानक ही ख़्याल आया था। "वह मेरे डिपार्टमेंट की नहीं है। वह एमबीए की स्टूडेंट है और मुझसे सीनियर भी है मगर मेरी बहुत अच्छी दोस्त है।" पलवशा ज़ायरा को बताने के लिए तुरंत उठ बैठी थी। " हां चलो ठीक है वह तुम्हारी अच्छी दोस्त है मगर यह तो बताओ उसे हुआ क्या है?" ज़ायरा ने पलवशा के घूमा फिरा कर करने वाली बातों से तंग आकर कहा था। यह सुनकर पलवशा थोड़ा हिचकिचाइ थी दरअसल उसे पता था सच सुनने के बाद उसकी अम्मी का कैसा रद्देअमल होगा! "मम्मी क्या है ना.....हमारे कॉलेज में एक लड़का है .... सिम्मी उसी से मोहब्बत करती थी। उस लड़के ने उसे इनकार कर दिया तो वह बर्दाश्त नहीं कर पाए और.... और उसने ..... उसने सुसाइड करने की कोशिश की।" पलवशा ने बहुत धीमे लहजे में कहा था। और पलवशा की बात सुनकर वाकई ज़ायरा का मूड बुरी तरह से बिगड़ा था। "तुम्हें मना करती हूं पलवशा ऐसी लड़कियों से दोस्ती मत रखा करो। पता नहीं कैसी -कैसी लड़कियां होती है जो लड़कों के लिए अपनी जान देने पर उतारू हो जाती है?" ज़ायरा ने चिढ़कर कहा था। पलवशा मां का चेहरा देखती रह गई थी फिर हिम्मत करके मां से कहा था। "नहीं अम्मी सिम्मी बहुत अच्छी लड़की है और मेरी दोस्ती उससे इसलिए हुई क्योंकि वो मुझे अपनी तरह लगती है। मेरी तरह उसका भी उसकी मम्मी के सेवा कोई नहीं है। मतलब वो अपने नानी के घर में रहती है। लेकिन मेरी तरह ही उसके सभी रिश्ते बस नाम के हैं। वह मेरी तरह ही बहुत तनहा है।" पलवशा ने ठहर ठहर कर माँ से कहा था। "तुमसे किसने कहा कि तुम्हारा कोई नहीं है?" ज़ायरा को सिमी के बारे में सुनकर बहुत गुस्सा आया था सो वह अपना गुस्सा अब बेटी पर निकाल रही थी। " ऐसे रिश्तों का होना ना होना क्या मायने रखता है?" पलवशा ने डरते डरते कहा था। ज़ायरा उसकी बात सुनकर चुप हो गई थी। फिर कुछ सोच कर उन्होंने कहा था "और यह कैसी लड़की है जो अपनी मां को तनहा छोड़कर एक अनजान लड़के के प्यार में मरने चली गई थी?" पलवशा समझ गई थी अब चार-पांच घंटे की फुर्सत है। उसकी मां बिना थके मोहब्बत के खिलाफ घंटों लेक्चर देने के लिए शुरू हो चुके हैं। उसने एक गहरी साँस भरी थी और हमेशा की तरह इस लेक्चर को अपने ज़हन में उतारने के लिए तैयार हो गई थी। *** "अम्मा मैंने साहिब का दाख़िला करवा दिया कॉलेज में।" बैरम खान में उन्हें बड़े इत्मिनान से इत्तिला दी थी। "बैरम दिमाग खराब हो गया तुम्हारा? कल हमारी बात हुई थी ना और मुझे पूरा याद है कि मैंने तुम्हें इस बात को अपने दिमाग से निकलने को कहा था।" बड़ी बी बिल्कुल भड़क उठी थी। "नहीं अम्मा...मैं इस बात को दिमाग़ से नहीं निकाल सकता।साहिबा ने बहुत अच्छे नंबरों से पास किया है अगर वह चाहती है पढ़ना तो हमारा फर्ज है के हम उसे पढ़ाएं।" बैरम खान ने बड़ी बी को समझाते हुए कहा था। "बैरम तुम समझ क्यों नहीं रहे हो?... साहिब के ससुराल वाले कभी इस बात के लिए नहीं मानेंगे।" बड़ी भी गुस्से से पागल हो रही थी। "वह कौन होते हैं मानने वाले और ना मानने वाले? जब तक साहिबा इस घर में है तब तक हम उसकी जिंदगी का फैसला करेंगे और वही करेंगे जो उसके लिए बेहतर होगा।" बैरम खान को भी इस दफा गुस्सा आ गया था। "जोरावर आई ए फेल है। वह और उसका खानदान कैसे इस बात को तस्लीम करेगा कि उसकी बीवी, उनकी बहू बेटे से ज्यादा पढ़ी लिखी है?" बड़ी बी ने एक बार फिर से उसे समझाने की कोशिश की थी। "यह हमारा मसाला नहीं है। अगर वह कम पढ़ा लिखा है और उन्हें इतनी ही तकलीफ़ है तो अपने बेटे को जाकर पढ़ाए। उनके बेटे की खातिर हम अपनी बेटी की पढ़ाई रोक दे यह मुझे मंजूर नहीं।" बैरम खान ने भी जैसे अपना आखिरी फै़सला सुनाया था। "यह तुम नहीं बोल रहे बैरम तुम्हारी जुबान से तुम्हारी वह शहरी बीवी बोल रही है।" बड़ी बी तिलमिला उठी थी। "आपको जो समझना है आप समझे।" बैरम ख़ान ने अपने मन में सोचा था। "देख लेना एक दिन तुम्हारी बीवी इस घर को ले डूबेगी। और हमें उसके बदले बहुत भारी कीमत चुकानी पड़ेगी।" अम्मा बैरम खान को अगाह करने की नाकाम कोशिश कर रही थी मगर बैरम खान अपने कानों में जैसे तेल दिए बैठे थे। रिवायत परस्त तो वो भी थे मगर पहली रिवायत तोड़ कर शहर में अपनी पसंद की लड़की से शादी करके उन में जैसे कहीं ना कहीं हिम्मत आ गई थी। एक रिवायत उन्होंने मोहब्बत को पाने के लिए तोड़ी थी और दूसरी अपनी औलाद के लिए तोड़ने जा रहे थे। छोटी बी के वजूद में उनकी औलाद पल रही थी। ऐसे में छोटी बी को खुश रखना उनकी सब से बड़ी ज़िम्मेदारियों में से एक था। ये तो सिर्फ़ साहिबा के कॉलेज में दाखिले की बात थी... इस वक़्त अगर छोटी बी इस घर के रिवाज़ों के खिलाफ़ उन से कुछ और भी मांग लेती तो वो भी उसे दे देते। आगे जारी है:-

  • 6. मैं हारी! - Chapter 6

    Words: 1142

    Estimated Reading Time: 7 min

    अगले ही दिन गुस्से से आग बबूला होते यामीर शहर आया था ताकि सिम्मी का दिमाग़ दुरुस्त कर सके। उससे अच्छी खासी सुना सके। सिम्मी की बेवकूफी ने उसके रातों की नींद हराम करके रख दी थी। वह रात भर सो नहीं पाया था इस मलाल में कि अगर उसे कुछ हो जाता तो फिर सिम्मी की मां का क्या होता? वह खुद अपने परिवार वालों को क्या जवाब देता? कितनी बदनामी होती है उसकी? "तुमसे मोहब्बत करूं मैं?....जो खुद अपनी मां की नहीं हुई....एक गैर लड़के के लिए अपनी जान देने चली गई....उस मां के बारे में नहीं सोचा जिसने उसे पाला है? ऐसी लड़की से मोहब्बत करूं मैं? तुम खुद अपने दिल से पूछो....तुम हो मोहब्बत किए जाने के लायक?" वह सर-ता-पा आतिश फ़िशां बना सिम्मी पर फट पड़ा था। हॉस्पिटल के बेड पे लेटी सिम्मी का दिल किया था की वह मर जाए। उस हरजाई का चेहरा उसकी आँखों में धुंधला पड़ गया था के आँखों में आँसू भर चुके थे। दांतों तले अपने होंठों को दबाए वह अपने कर्ब को ज़ब्त करने की नाकाम कोशिश कर रही थी। दिल मलाल और दुख से फटा जा रहा था। वहीं दूसरी तरफ़ पल्वशा कॉलेज जाने से पहले सिम्मी से मिलने चली आई थी के visting hour यही था और दूसरा शाम के वक़्त। मगर सिम्मी के कमरे के बाहर अपने दोस्तों का जमघटा देख कर वह ख़ुद भी हैरान हो गई थी। " क्या हुआ तुम लोग यहां क्यों खड़ी हो? अंदर जाने नहीं दे रहे क्या? लेकिन विजिटिंग आर तो अभी ही है।" पल्वशा ने हैरानी से पूछा था। "यामीर आया है सिम्मी से मिलने और वह सिम्मी से अकेले में बातें करना चाहते हैं।" अदिति ने जवाब दिया था। ये सुन कर पल्वशा की पेशानी सिलवटज़दा हो गई थी। "ओह! तो जनाब को अब ख़्याल आया है! यही फ़िक्र और कदर वह पहले कर लिया होता तो आज सिम्मी हॉस्पिटल के बेड पे पड़ी ना होती। आज अगर उसे कुछ हो जाता तब फिर यामीर साहब क्या करते? उसे कहां देखने जाते?.... जहन्नुम में?" पल्वशा ने गुस्से से अपने दांतों को किचकिचाते हुए कहा था। "कौन जानता है वह अंदर हमदर्दी के बोल ही बोल रहा हो?.... जिस तरह वह गुस्से में कमरे के अंदर गया था मुझे तो डर है की वह उसे ज़लील कर के मौत के घाट ही ना उतार दे।" अदिति ने पल्वशा की खुशफहमी दूर की थी। "यामीर खान का पसंदीदा मशगला ही यही है। पहले लड़कियों का दिल लूटना फिर हरजाई बनकर उनसे बेपरवाही बरतना और फिर उन्हें ज़लील कर के मौत के घाट उतरने पे मजबूर कर देना।" ये किरन ने कहा था। यामीर पर उसे भी टूट कर गुस्सा आ रहा था। "तो तुम लोग उसका हुक्म क्यों मान रही हो? उसने कहा कि कमरे से बाहर रहो और तुम लोग मान गए? अंदर चलो और उसे जलील करके हम सब बाहर निकलते हैं।" पल्वशा ने किसी लीडर की तरह सब में जोश भरना चाहा था फिर भी किसी ने उसकी हाँ में हाँ नहीं मिलाई थी। सब ख़ामोशी से उसका चेहरा देखते रह गए थे। "क्या हुआ तुम सभी को? उसके पीठ पीछे तो इतना कुछ कह रही थी अभी उसके मुंह पर कुछ कहने की किसी की हिम्मत नहीं पड़ रही....रको ... मैं ख़ुद देखती हूँ।" पल्वशा को गुस्सा आ गया था। "पल्वशा रुक जाओ... उसने जब मना किया है तो फिर अंदर जाने की कोई तुक नहीं बनती।" अदिति ने समझाया था मगर पल्वशा आगे बढ़ कर दरवाज़ा खोल चुकी थी। "क्यूँ पीछे पड़ी हो मेरे?... सीधी तरह से बात समझ नहीं आती? मोहब्बत तो दूर की बात है मैं तो तुम्हें पसंद भी नहीं करता। जब तुम्हें साफ़ साफ़ मना कर चुका था तो फिर क्या सोच कर मूंह उठा कर मेरे गाँव चली आई थी? तुम्हारे अंदर सेल्फ रिस्पेक्ट नाम की कोई चीज है कि नहीं? साफ़ लफ़्ज़ों में कहना तो दूर की बात अगर मुझे किसी लड़की ने इशारे से भी इंकार किया होता तो उसकी तरफ़ देखना तो दूर की बात मैं उसकी तरफ़ थूकना भी पसंद नहीं करता।" यामीर उस पर मुसलसल वार पर वार किये जा रहा था। अपने मूंह से शोले बरसा रहा था। सिम्मी को ज़लालत (अपमान) की इंतेहा तक पहुंचा रहा था। अपने अंदर का गुबार बाहर निकालने में उसने एक लम्हा भी ज़ाया नहीं की थी। बस लगातार उसे ज़लील किये जा रहा था। "और तुम ने क्या सोचा था? तुम्हारे मरने की ख़बर सुन कर मैं मजनू बन जाऊंगा। तुम्हारी कब्र पे आँसू बहा कर रोज़ फूल चढ़ाने आऊंगा। अरे मैं तुम जैसी लड़कियों की कब्र पर जाकर लात मारने तक की भी ज़हमत ना करू जो ज़िंदगी को किसी ग़ैर के एक तरफ़ा मोहब्बत में गवा देती हो। अगर फिर से मरने का ख़्याल आये तो ज़रा अच्छी तरह से कोशिश करना की बचने का कोई चांस ना रहे और ये भूल कर भी मत सोचना की तुम्हारे मरने पे मुझे ज़र्रा बराबर भी अफ़सोस होगा।" यामीर ने अपने हद दर्जा (बहुत अधिक, उच्चतम स्तर गुस्सा) गुस्से से सिम्मी को हद दर्जा ज़लालत में पहुंचा दिया था। इतना ज़लील किया था की रोना तो वो कब का भूल चुकी थी अब तो ये आलम था की यामीर से नज़रें भी नहीं मिला पा रही थी। और पल्वशा जो अंदर जा कर यामीर को खरी खरी सुनाने की सोच रही थी वह ख़ुद दरवाज़ा आधा खोले वहीं पे जम सी गई थी। चाह कर भी उसके कदम अंदर नहीं बढ़ पाए थे। ज़ुबान पर भी जैसे क़ुफ़्ल (ताला) लग गया था और ये क्यूँ हुआ था उसे ख़ुद भी पता नहीं था। बस एक चीज़ जो उसे महसूस हो रही थी वो थी हैरांगी। पल्वशा हैरान थी की किसी लड़के को ख़ुद पर, अपनी ज़ात पर इतना गुरूर भी हो सकता है? जो किसी के दिल को दिल नहीं समझता। कोई उसके लिए मर रहा है और उसे इस बात से कोई फ़र्क नहीं पड़ता बल्कि वो इतनी आसानी से उसे दुबारा मरने के लिए मशवरा भी दे रहा है। उसे दरवाज़े पे देख कर बाकियों को भी हिम्मत मिली थी...कुछ बोलने की नहीं बल्कि अंदर का तमाशा देखने की। सब उसके अगल बगल और पीछे खड़े दरवाज़े से अंदर झांक रहे थे। पल्वशा सिम्मी को साफ़ देख सकती थी लेकिन चूंकि यामीर की पीठ दरवाज़े के सामने थी इसलिए वह आज भी उसका चेहरा नहीं देख पाई थी। सिर्फ जीन्स के उपर उसकी ब्राउन लेदर जैकेट में मल्बोस उसकी पीठ दिख रही थी। यामीर अपना सारा गुबार निकाल कर जाने के लिए मुड़ा था। ये देख अदिति ने तुरंत दरवाज़ा पुरा बंद कर दिया था। सारी लड़कियां भागी थी सिर्फ पल्वशा अभी भी अपनी हैरांगी में खड़ी रह गई थी जब ही अदिति को उसका ध्यान आया और उसने उसे पकड़ कर दरवाज़े के सामने से खींचते हुए हटाया था। उसी वक़्त दरवाज़ा खुला था और यामीर बिना किसी पे नज़र डाले गुस्से से तन फ़न करता वहाँ से निकल गया था। आगे जारी है:-

  • 7. मैं हारी! - Chapter 7

    Words: 1037

    Estimated Reading Time: 7 min

    "इस गांव की लड़कियां आठवीं जमात के बाद पढ़ नहीं पाती क्योंकि आठवीं जमात के ऊपर हमारे गांव में स्कूल ही नहीं है। लड़के दूर पढ़ने के लिए चले जाते हैं मगर लड़कियां कैसे जाएं?.. इसलिए उनकी पढ़ाई रोक दी जाती है। एक तो दूर दराज स्कूल ऊपर से बस और मोटरों के धक्के... मगर हमारे घर में सहूलियत थी। घर में गाड़ी थी और ड्राइवर भी इसलिए हमने साहिबा को आगे तक पढ़ा दिया। आई ए करने के बाद साहिबा इस गाँव की सब से पढ़ी लिखी लड़की है।" रात को बैरम खान बिस्तर पर लेटे अपनी बाह का तकिया छोटी बी के सर के नीचे रखे उन्हें बता रहे थे। " क्या गांव में आठवीं जमात की बाद कोई स्कूल नहीं है?"  छोटी बी को हैरानी हुई थी। "हां ...नहीं है।" बैरम खान ने छोटी बी की हैरानी पर ठंडी सांस भरी थी। "तो आप लोग क्या कर रहे है? क्यों नहीं खोल रहे यहाँ कोई स्कूल?" छोटी बी उनके बाँह पर से अपने सर को उठाकर अब बिस्तर पे उठ बैठी थी। "आराम से।" उसके झटके से उठने पर बैरम खान को उनकी फिक्र हुई थी। "मैं कुछ पूछ रही हूं आपसे?" छोटी बी ने बैरम खान की बात को नजरअंदाज करके अपना ही सवाल किया था। "हम क्यों खोलें स्कूल? यह काम हमारा नहीं सरकार का है।" बैरम खान ने थोड़ा तंग आते हुए कहा था। "इस गांव में कानून तो आप सब चलाते हैं और स्कूल खोलने का वक्त आया तो सरकार याद आ गई? बहुत अजीब बात है!" छोटी बी ने तंज़ किया था। बैरम खान लाजवाब हो गए थे। "अगर लड़कियों का लड़कों से ज़्यादा पढ़ाना इस गाँव के लोगों के अना (ego) का मसला है फिर तो स्कूल होने की वजह से यहाँ के वो भी लड़के पढ़ाई करेगे जो नहीं करना चाहते या जो पढ़ाई को ज़रूरी नहीं समझते क्योंकि उन लड़कों के घर वालों को ये डर रहेगा की गाँव की लड़कियाँ लड़कों से ज़्यादा आगे ना  पढ़ ले। कम से कम इसी compettition की वजह से बच्चों में तालीम तो बढ़ेगी और मुझे पुरा यकीन है जैसे लोगों में तालीम आयेगी सारी दक्यानुसी (आउट डेटेड) सोच खत्म हो जाएगी। और मुझे ये भी यकीन है गाँव में स्कूल आने की देर है यहाँ की हर लड़कियाँ पढ़ाई करेंगी क्योंकि लड़कियों को पढ़ने का शौक होता है।" छोटी बी होंठों पे मुस्कान लेकर जैसे अपने आँखों के सपने बैरम खान की आँखों पे रख रही थी। बैरम खान मुस्कुराते हुए उनके चमकते हुए चेहरे को देखते रह गए थे। "कभी कभी लगता है तुम से शादी कर के मैंने बोहत बड़ी गलती कर दी।" बैरम खान ने मुस्कुरा कर कहा था। । " कोई हैरानगी की बात नहीं है. ...ऐसा लग सकता है क्योंकि मुझे भी कभी-कभी ऐसे ही लगता है।" छोटी बी ने भी वैसे ही मुस्कुरा कर जवाब दिया था जिसे सुनकर बैरम खान खुलकर हंस दिए थे और हंसते चले गए थे उनकी हंसी में छोटी बी की हंसी भी शामिल हो गई थी। *** छोटी बी का पलंग कपड़ों के देर से भरा हुआ था और उन ढेरों के बीच में साहिबा बैठी हुई थी। उसे छोटी बी के कपड़े बहुत पसंद थे इसलिए छोटी बी अपने सारे नए कपड़े जो उन्होंने कभी नहीं पहने थे साहिबा के सुपुर्द (हवाले) कर रही थी क्योंकि वह कॉलेज जाने वाली थी। "साहिबा इसे भी एक दफ़ा पहन कर देख लेना...यह भी बहुत अच्छे हैं।" छोटी बी ने कपड़ों के ढेर में से एक बॉटल ग्रीन रंग का सूट निकला था जिसके गले और दामन में शीशों के साथ धागों की खूबसूरत एंब्रोइडरी की हुई थी। "हाँ भरजाई, ये तो बोहत अच्छा है।" साहिबा की आँखें चमक उठी थी। तुरंत छोटी बी के हाथ से वो सूट लिया था। फिर कुछ सोच कर उदासी से कपड़े वापस रख दिए थे। "क्या हुआ?" छोटी बी ने उसका खिला चेहरा मुरझाते देख कर पूछा था। "तुम ने सारे नये और अच्छे जोड़े मुझे दे दिया तो फिर तुम्हारे पास क्या बचेगा?" साहिबा ने मासूमियत से कहा था। "अल्हम्दुलिल्लाह मेरे पास बहुत सारे हैं.... और तुम्हें लगता है कुछ महीनो के बाद मुझे ये कपड़े आएंगे?" उन्होंने हंसकर प्रेगनेंसी की वजह से अपने भरते हुए बदन की तरफ इशारा करते हुए कहा था। "भरजाई तुम बहुत अच्छी है....आप मेरे लिए किसी फरिश्ते से कम नहीं है।" " घुटन क्या होती है साहिबा ये मुझे यहां आकर पता चला। अगर मेरी वजह से इस घुटन से किसी को आजादी मिलती है तो फिर मुझे लगेगा जैसे मुझे खुली फ़िज़ा में सांस लेने का मौका मिल गया।" छोटी बी ने प्यार से साहिबा के सर पर हाथ फेरते हुए कहा था। साहिबा भी जज्बाती हो गई थी तुरंत छोटी बी के गले लग गई। छोटी बी उसके सर को सहलाती रही। थोड़ी देर के लिए खामोशी छा गई थी फिर कुछ सोच कर छोटी बी ने ही इस खामोशी को तोड़ा था। "साहिबा इस आज़ादी का कभी ग़लत फ़ायदा मत उठाना वरना सब मुझे कसूरवार समझेंगे। सब कहेंगे छोटी बी की वजह से ही सब कुछ हुआ है।" छोटी बी ने संजीदगी से कहा था। "मैं ऐसा कुछ नहीं करूँगी भरजाई....तुम ख़ुद देख लेना।" साहिबा ने तुरंत छोटी बी से अलग होकर कहा था। छोटी बी उसकी बात पर इत्मिनान से मुस्कुरा दी थी। *** "आख़िर ये शख्स ख़ुद को समझता क्या है?... इतना गुरूर... इतना घमंड...!" पलवशा अपने दोस्तों के बीच यामीर की बात कर रही थी। " वह उस लायक है कि उसे खुद पर गुरुर हो।" स्मिता ने कहा था। "ऐसा क्या देख लिया है तुम लोगों ने उस में?" पल्वशा को अपनी दोस्त पर गुस्सा आया था। "सारी गलतियाँ तुम जैसी लड़कियों की ही है जो खामाख्वा उसे अपने हवासों पर मुसल्लत (हावी) किया हुआ है। बिला वजह ही उसे मगगुरुर बना दिया है। अरे अगर आंख उठाकर उसकी तरफ़ नहीं देखती फिर देखती की उसका सारा घमंड कहां जाता है? यही वजह है की मुझे उसकी तरह नज़र डालना भी गवारा नहीं होता। लेकिन नहीं तुम लोग उसे देख कर ठंडी आहें भर्ती हो और वो ठंडी आँहें... " पल्वशा फिर से लीडर बनी सब को भाषण दे रही थी बल्कि यामीर के लिए अपने दिल में चिढ़ को बयान कर रही थी जब ही माशा ने उसकी बात काटते हुए कहा था। आगे जारी है:-

  • 8. मैं हारी! - Chapter 8

    Words: 1013

    Estimated Reading Time: 7 min

    "उसकी बेपरवाही उसे बाकी लड़कों से अलग बनाती है। यही वजह है की लड़कियां उसकी तरफ़ attract होती है.... " माशा अभी कह ही रही थी की पल्वशा ने उसकी बात काट दी। "किस मामले में अलग है वह बाकी लड़कों से?" पल्वशा ने गुस्से से पूछा था। "उसके किसी अफेयर्स की चर्चा नहीं सुनी हमने कभी। उसकी कोई गर्लफ्रेंड नहीं है। वरना तो जैसे तैसो की दर्जनों गर्लफ्रेंड्स निकल जाती है। वह एमबीए का स्टूडेंट है, दिखने में खूबसूरत है, लंबा चौड़ा मज़बूत जिस्म का मालिक, कोई कमी नहीं है उस में। ऊपर से ज़मींदार घराने से है... " माशा कह ही रही थी की फिर से पल्वशा ने उसे टोका। "ओह! तो ज़मींदार घराने से है!" पल्वशा ने तंज़िया हंसी हसी। "फिर तो एक नंबर का अय्याश होगा। वो कॉलेज आता ही कहाँ है जो तुम्हें उसके affairs और गर्लफ्रेंड्स के बारे मैं पता चले। कॉलेज को तो जैसे खरीद लिया है उसने।" "ऐसा नहीं है कि वह कॉलेज आते ही नहीं है। एग्जाम से एक महीना पहले वह लगातार कॉलेज आने लगता है। और बीच-बीच में भी आता जाता रहता है।" अदिति ने उसके इल्म में इजाफा किया था। "यह तो अच्छी बात है फिर तुम लोग खुद ही देख लेना कैसे उसके अफेयर्स के चर्चे मशहूर होते हैं।" पल्वशा ने हंस कर कहा था। "यह तुम्हारी ख़ाम ख्याली है। ऐसा कुछ नहीं होने वाला।" किरण ने पूरे यकीन के साथ कहा था। " इतना यकीन!" पल्वशा को हैरानी हुई थी। "क्योंकि वह ऐसा लड़का है ही नहीं कि किसी लड़की के चक्कर में फंस जाए।" माशा ने  एक बार फिर से कहा था। उसका एतमाद देख कर पल्वशा सोच में पड़ गई थी और फिर थोड़ी देर के बाद उसने कहा था। "शर्त लगाओगी मुझ से।" पल्वशा ने अपनी हथेली आगे की थी। माशा ने उसकी हथेली को देखा था और फिर उसे। "कैसी शर्त?" माशा समझ कर भी पूछ रही थी क्योंकि उसे पल्वशा की बात पर यकीन नहीं आया था। पल्वशा ऐसी चीजों से खुद बहुत दूर रहती थी और अभी इन सब मामलों में पड़ने की बात कर रही थी। माशा के साथ-साथ उसके बाकी दोस्त भी हैरान थे। " मैं उसे बाकी लड़कों की तरह साबित करके दिखाऊंगी। मैं बताऊंगी तुम लोगों को कि वह भी आम लड़कों के ही जैसा है जो लड़कियों को देख कर फिसल जाते है।" पल्वशा ने जैसे कोई अहद (कसम) लेते हुए कहा था। "पागल मत बनो पल्वशा। तुम्हें पता है आंटी को यह सब पसंद नहीं है।" अदिति ने उसे डांटते हुए याद दिलाया था। "मैं कौन सा उसकी मोहब्बत में पड़ने वाली हूं। मैं तो बस नाटक करने का सोच रही हूं।" पल्वशा ने लापरवाही से कंधे उचका कर कहा था। अदिति उसे फिर से समझाने वाली थी जब ही किरण ने तुरंत उसका हाथ थमते हुए कहा था। "मुझे मंज़ूर है तुम्हारी यह शर्त।" यामीर को मूंह के बल गिरते देखना किरण की अवलीन (अव्वल) ख्वाहिशों में से एक थी। "तुम यह शर्त हार जाओगी इसलिए अपना वक्त बर्बाद मत करो।" माशा ने मशवरा दिया था। " मैं यह शर्त जीत कर दिखाऊंगी और उस घमंडी यामीर का घमंड तोड़ कर रहूंगी। क्या कहा था उसने सिम्मी को? के साफ़ लफ़्ज़ों में कहना तो दूर की बात अगर उसको किसी लड़की ने इशारे से भी इंकार किया होता तो वह उसकी तरफ़ देखना तो दूर की बात उसकी तरफ़ थूकना भी पसंद नहीं करेगा।" पल्वशा जैसे अपने ज़हन में उस मंज़र को याद करती अपने दांतों को पिस्ते हुए कह रही थी। "क्लास चलते है.... टाइम हो गई है।" अदिति ने अपनी कलाई पे बंधी घड़ी को देखते हुए कहा था दरअसल वो इस बात को इस तरह खत्म करना चाहती थी। "क्लास तो लूंगी मैं उस यामीर खान की वह भी अच्छी खासी। अपने इश्क़ में उसे मजनू ना बना दिया तो मेरा नाम भी पल्वशा नहीं। उसकी सारी बेपरवाही खत्म कर दूँगी। जब तक मेरा चेहरा नहीं देख लेगा उसके दिन की शुरुआत नहीं होगी।" पल्वशा ने नफ़रत से मुस्कुराते हुए कहा था। अदिति को कुछ बोहत बुरा होने का एहसास हुआ था। अफ़सोस के साथ पल्वशा को देखती रह गई थी। "तो फिर कितने की शर्त लगाती हो?" माशा ने पूछा था क्योंकि उसे यामिर पर पूरा भरोसा था और उसे लगता था कि वही जीतेगी। "पैसों के शर्त पर किसी को मजनू बनाना मजनू की तौहीन होगी। शर्त इस बात पे होगी के अगर मैं जीती तो तुम लोगों को ये मानना पड़ेगा की यामीर बाकी लड़कों की ही तरह है और ये बात तुम लोगों को पूरे कॉलेज में बतानी होगी और तुम लोग उसकी तरफ़ नज़र उठा कर भी नहीं देखोगी।" पल्वशा ने शाहदत की उंगली (इंडेक्स फिंगर☝) उन सब की ओर फेरते हुए कहा था। "और अगर हार गई तो?" माशा को उसकी हार की पूरी उम्मीद थी। "तो तुम लोग जो कहोगी मैं वो करूँगी क्योंकि मुझे पता है मैं कभी नहीं हारूँगी, जीत मेरी ही होगी।" पल्वशा ने ऐतमाद (confidence) से कहा था। "ठीक है।" माशा ने उसके हाथ पे हाथ रखा था और फिर उसके बाद स्मिता ने भी। एक अदिति थी जो अफ़सोस के साथ अभी भी पल्वशा को देख रही थी और पल्वशा उसके हाथ आगे करने के इंतेज़ार में उसे ही देख रही थी। आख़िर कार मजबूर होकर अदिति को भी उन के हाथों के उपर अपना हाथ रखना पड़ा था। पल्वशा के होंठों पे एक फ़तेहाना मुस्कुराहट उभरी थी। *** " अम्मा मैं गाँव में स्कूल खोलने की सोच रहा हूँ।" बैरम खान उन्हें अपनी सोच से अगाह करना चाहते थे इसलिए बातों के दरमियाँ ये बात निकाल बैठे थे। "नहीं बैरम कोई फायदा नहीं है। यहाँ स्कूल नहीं चलने वाला। तुम्हारा बहुत नुकसान हो जाएगा कोई फीस नहीं भरेगा। सब को मुफ़्तखोरी की आदत हो गई है।" बड़ी बी ने दुरंदेशी दिखाई थी। "इसलिए मैं मुफ़्त का स्कूल खोलने की बात कर रहा हूँ।" बैरम खान ने इत्मिनान से कहा था। ये जानते हुए भी की ये सुनकर बड़ी बी बवाल खड़ा कर देंगी। और इसकी शुरुआत हो भी चुकी थी। बड़ी बी की आँखें हैरानी के मारे फट चुकी थी। गुस्से से उनका जबड़ा कस चुका था। आगे जारी है:-

  • 9. मैं हारी! - Chapter 9

    Words: 1092

    Estimated Reading Time: 7 min

    "नहीं यार मैंने ऑनलाइन देख लिया है। आउट ऑफ स्टॉक बता रहे हैं।" पल्वशा ने अदिति से कहा था। "फिर तो तुझे वह बुक एमजी रोड गुप्ता एंड सॉन्स बुक स्टोर पे ही मिलेगी।" अदिति ने पूरे यकीन से कहा था। "मगर वह तो यहां से बिल्कुल दूसरी तरफ है। मैं वहां पहले कभी गई भी नहीं हूं।" पल्वशा ने परेशान होते हुए कहा था। "तुम्हें तो आदत है हर छोटी-छोटी बात पर परेशान होने की। तुम्हारे पास कार है चली जाऊं। इतनी भी क्या परेशानी की बात है?" अदिति ने थोड़ा डांटे हुए कहा था। उसकी बात सुनकर पल्वशा थोड़ा सोच में पड़ गई थी, तभी अदिति ने उससे कहा था "ठीक है मुझे देर हो रही है...मैं जा रही हूं।" यह कहकर वह निकल गई थी और पल्वशा ने भी तब तक इरादा बना लिया था कि वह एमजी रोड की तरफ जाएगी। उसे वह गाइड बुक चाहिए थी क्योंकि एग्जाम नजदीक आ रहे थे। वह कॉलेज के गेट से बाहर निकल कर अब पार्किंग एरिया में अपनी गाड़ी के पास आई थी। नजर एक बार फिर उस आदमी पर पड़ी थी और उसके अंदर तक कड़वाहट उतर आया था। मूंह ही मूंह कुछ बड़बड़ाया था और ड्राइविंग सीट संभाल ली थी। जैसे ही उसने अपनी ड्राइविंग सीट संभाली वह आदमी भी अपनी कर के ड्राइविंग सीट संभाल चुका था। पल्वशा उसे नजर अंदाज करना चाहती थी मगर कर नहीं पा रही थी। साइड मिरर से वह बार-बार अपने पीछे आती हुई कार को देख रही थी और कुछ ना कुछ मुंह में बड़बड़ा रही थी। पल्वशा की कार जैसे ही मामूल के रास्ते से हटकर मोड़ कटी वैसे ही उस आदमी की कार की रफ्तार तेज हो गई थी। पल्वशा ने अब एमजी रोड के रास्ते पर अपनी गाड़ी दौड़ा दी थी और वह आदमी भी काफी तेजी से उसके कार के बराबर में आ गया था। "मैडम उस रास्ते पे आपका जाना मना है।" उस आदमी ने तेज आवाज में पल्वशा से कहा था। पलवशा उसे नजरअंदाज करते हुए अपने जबड़े को कस कर अपने गुस्से को काबू में कर रही थी। " मैडम आप कार रोकें आप आगे नहीं जा सकती।" उस आदमी ने इस दफा पहले से ज्यादा ऊंची आवाज में कही थी। उसे लगा था शायद पल्वशा ने उसकी आवाज नहीं सुनी। मगर पल्वशा तो सब कुछ सुन कर भी अंसुना कर रही थी बल्कि अब गाड़ी की स्पीड उसने पहले से काफी ज़्यादा बढ़ा ली थी। यह देख उस आदमी ने भी अपनी कार की रफ्तार बढ़ा ली थी। दोनों की कार जैसे रेस में थी। आगे पीछे आगे पीछे हो रही थी। पल्वशा उस आदमी की कर को अपने बराबर में नहीं देखना चाहती थी जबकि उस आदमी की कोशिश थी कि वह पल्वशा की कार को ही रुकवा दे और इसी में उस आदमी ने एक्सीलरेटर दबाया था और काफी तेज़ी से आगे बढ़ कर अपनी कार को दाहिना मोड़ कर ठीक पल्वशा की कार के सामने जा रुका था। पल्वशा ने भी बर्क रफ्तारी के साथ गाड़ी को ब्रेक लगाया था। उसकी गाड़ी उस आदमी की गाड़ी से टक्कर खाने से बाल बाल बची थी। *** "ओये मिर्ज़ा! वो देख...." दीपक ने उसके कंधे को टटोलते हुए कहा था जबकि नज़र उस की सामने आती हुई लड़की पे टिकी थी। शहान मिर्जा जो की दूसरी तरफ़ मूंह फेरे सिग्रेट के कश लगा रहा है उसकी बात पे एक लख्त ही मुड़ा था। और उसे देखता रह गया था जो दीपक उसे दिखाना चाहता था। इस वक्त कॉलेज के तमाम स्टूडेंट वह कर रहे थे जो वह यहां इस कॉलेज में करने आते हैं। यानी के क्लास अटेंड कर रहे थे मगर यह शाहन मिर्जा का ग्रुप था जो कॉलेज पढ़ने कम और आवारा गर्दी करने ज्यादा आते थे। पूरा कॉलेज इस ग्रुप की वजह से परेशान था और शायद इसी वजह से इस ग्रुप का कॉलेज पर दबदबा भी था। कॉरिडोर की बॉउंडरी पे वह सब बैठे सब गप्पों में मस्त थे और शाहान मिर्ज़ा सिग्रेट के कश लगाने में। "बुर्का का तो पता था, इतनी बड़ी चादर लपेटकर कौन आता है कॉलेज? ऐसा लग रहा है जैसे पलंग की चादर ओढ़ कर आ गई हो।" दीपक के बगल में बैठा आरिफ ने मजाक उड़ाते हुए कहा था। "लगता है फर्स्ट ईयर है।" रोनित ने कहा था। " यह तू कैसे कह सकता है?" दीपक को ऐतराज हुआ था। "यार पहली दफा देखा है इस चेहरे को और उसके चेहरे पर जो डर और घबराहट है उसे साफ पता चल रहा है।" रोनित ने दलील दी थी शहान मिर्जा अब भी चुप था। "तो फिर इंतजार किस बात का है? चलो चलते हैं.... " शहान मिर्जा जो कॉरिडोर के बाउंड्री पर बैठा था उस से कुदने के अंदाज़ में नीचे उतर आया था और उसके पीछे-पीछे उसके बाकी सारे साथी भी। " रुक जा ओ दिल दीवाने पूछूँ तो मैं ज़रा, अरे लड़की है या है जादू खुशबू है या नशा।" आरिफ गाते हुए आगे बढ़ा था। शहान मिर्ज़ा उस ग्रुप का लीडर था इसलिए सबसे आगे आगे था। वह लड़की अपनी ही धुन में कॉलेज की मेन बिल्डिंग की तरफ बढ़ रही थी जब भी शहान मिर्जा बर्क़ रफ्तारी के साथ उसके आगे जाकर उसका रास्ता रोका था। वह लड़की सकपका कर पीछे हटी थी अगर ना हटती तो उस से बुरी तरह टकरा जाती। "न्यू एडमिशन"? शाहान मिर्ज़ा ने सवाल पूछा था। सवाल उस से किया था मगर उसका सारा ध्यान अपनी दूसरी सिगरेट को सुलगाने में लगा हुआ था। वह लड़की घबराहट के मारे अपने कंधे पर टंगा हुआ बैग को अपनी सीने से भींच ली थी। शाहान मिर्जा सिगरेट सुलगा चुका था। सिगरेट का एक कश लेकर उसका धुआं फिजा में उड़ने के बाद अब वह उस लड़की पर मुतावज्जोह हुआ था। "बेहरी हो?" दूसरा सवाल पूछा गया था। शाहान मिर्जा के पीछे बाकी लड़के खड़े होकर मज़ा ले रहे थे।  इस सवाल पर लड़की और घबरा गई थी फिर भी उसने गर्दन हिला कर नहीं में जवाब दिया था। "तो गूंगी हो?" फिर से सवाल किया गया। "न...नहीं।" जवाब देते हुए लड़खड़ा गई थी। नज़रें नीची रखे हुई थी। शाहान नज़रें बदसतूर उसी पे टिकी हुई थी और बोहत अजीब ढंग से। "नाम क्या है?" शाहान मिर्ज़ा उसकी घबराहट को काफी दिलचस्पी से देख रहा था मगर फिर भी लहजे का रोब बरक़रार रखा था। "स... सा....ब... साहिबा।" साहिबा ने जवाब देकर एक नज़र उठाया था और तुरंत झुका भी ली थी। और शाहान?.... वह तो उसका नाम सुनकर जैसे जम सा गया था। पीछे से दोस्तों ने एक साथ बुलंद आवाज़ में छेड़ा था। "ओहो मिर्ज़ा! क्या बात है! ये रही साहिबा!" आगे जारी है:-

  • 10. मैं हारी! - Chapter 10

    Words: 1123

    Estimated Reading Time: 7 min

    पल्वशा गुस्से से पागल होती हुई कार से बाहर निकली थी। वह बंदा भी अपनी कर से निकला था। पल्वशा उसके करीब आई थी। "तुम होते कौन हो मुझे रोकने वाले? आख़िर क्या औकात है तुम्हारी? क्यों हर वक्त सर पर सवार रहते हो?" पल्वशा बोल नहीं रही थी बल्कि चीख़ रही थी। "मैडम ये मैं अपनी ख़ुशी से नहीं करता। मैं ऐसा इसलिए करता हूं क्योंकि यह खान का ऑर्डर है।" उस आदमी ने वजाहत दी थी। "खान खान ख़ान....तुम खान के गुलाम हो मगर मैं नहीं। अपने ख़ान से जा कर कह देना मेरी जिंदगी को अपनी जागीर ना समझें। मेरी मर्जी जहां होगी मैं वहां जाऊंगी। मैं भी देखती हूं मुझे आज कौन रोकता है?" पल्वशा गुस्से में बोल कर मुड़ी थी। "मैडम खान ने मुझे ताकीद की है कि मैं आपको उस एरिया के आसपास भी भटकने ना दूँ। आप पर किसी की मैली नज़र ना पड़ने दूँ।" उसे जाते देखा उसे आदमी ने जिसका नाम सलीम था पल्वशा से कहा था। "क्यों तुम्हारे खान को डर है कि मैं किसी के साथ भाग जाऊंगी, किसी के साथ आवारा गर्दी करने लगूंगी?" पल्वशा ने मुड़ कर उस से कहा था और फिर आगे बढ़ गई थी। पल्वशा की हटधर्मी देख कर सलीम फ़िक्र मंदी में डूब गया था। अगर पल्वशा उस इलाक़े की तरफ गई तो ख़ान उसे मार डालेगा और अगर उसने पल्वशा को रोकने के लिए हाथ भी लगाया तो भी खान उसका हाथ तोड़ देगा। दोनों ही सूरत में उसके लिए मुश्किलें थी। लेकिन मरने से ज्यादा बेहतर था हाथ तुड़वाना सो सलीम ने पल्वशा को रोकने की खातिर उसका हाथ पकड़ा था। और हाथ पकड़ना था की पल्वशा को जैसे आग लग गई थी। "तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मुझे छूने की? दो टके के गुलाम? अपनी औकात में रहो।" पल्वशा ने अपने हाथ को झटक कर उसके गिरफ्त से अपना हाथ छुड़ाने की कोशिश की थी मगर सलीम की पकड़ काफी सख्त थी। वो पल्वशा को अब जबरदस्ती खींचकर अपनी कार में बैठाने जा रहा था और पल्वशा उसके गिरफ़्त से आजाद होने के लिए जी तोड़ कर रही थी। "छोड़ो मुझे .... छोड़ो मुझे....मैं नहीं जाऊँगी तुम्हारे साथ।" पल्वशा चीख़ते हुए कह रही थी। दोपहर का वक्त था और वह एरिया ख़ासा सुनसान था। भरी दोपहरी थी, पूरी सड़क सुनसान थी। उस से पहले कुछ गाडियाँ आ जा रही थी मगर अभी इस वक्त एक भी गाड़ी उस रोड पर नहीं थी। लेकिन कुछ ही देर के बाद एक बाइक पास से गुज़री थी लेकिन आगे जाकर 2 मीटर की दूरी पर रुक गई थी। वह बाइक सवार अपनी बाइक से उतरा था और फिर बड़े इत्मिनान से उन दोनों के पास आकर खड़ा हो गया था। पल्वशा अपनी ही मुश्किल और परेशानियों में घिरी हुई थी। जब ही उसे उस बाइक सवार की आमद का एहसास नहीं हुआ था। चौकी तब थी जब किसी की आवाज सुनी थी और उसे किसी का गुमान हुआ था। पल्वशा ने नज़रें उठा कर देखी और देखती रह गई। "लड़की को छोड़ो।" लड़के ने इतने इत्मिनान से कहा था जैसे सलीम उसी के हुक्म के इंतेज़ार में खड़ा था। *** आज कई दिनों के बाद वह घर आया था और घर आते ही वह सीधा अपनी मां के कमरे में गया था। उसकी मां का कमरा, कमरा कम कोई स्टोर रूम ज्यादा लगता था। दुनिया जहां का कबाड़ बस उनके ही कमरे में पनाह लिए हुए था। शाहान मिर्जा जैसे ही कमरे के दरवाजे पर पहुंचे तो देखा काम वाली झाड़ू लगा रही हैं मगर दर हक़ीक़त वह झाड़ू नहीं लग रही थी बल्कि जैसे झाड़ू लगाने की रस्म अदा कर रही थी और वह भी वो रस्म जो उनसे जबरदस्ती करवाया जा रहा था। झाड़ू लगाने के बावजूद भी सारे धूल मिट्टी वैसे के वैसे पड़े थे। झाड़ू को दो दफा घसीटा था और बस उसका काम हो गया था। थोड़े बहुत धूल गर्द जो उसके झाड़ू की पनाह में आ गए थे उसे घसीटती हुई चौखट तक ले आई थी और तभी उसे शाहान मिर्जा के पैर दिखे थे। नजर उठा कर देखा और तुरंत सलाम झाड़ा "अस्सलाम वालेकुम!" " वालेकुम अस्सलाम।" सपाट चेहरा लिए शाहान मिर्जा ने जवाब दिया था और फिर कमरे के अंदर दाखिल हो गया था। नजरों से जैसे ही कमरे का जाइज़ा लिया मन एक बार फिर से खराब हो गया। बाहर से आने वाला कोई भी इस कमरे को देखकर यह नहीं कह सकता था कि यह कमरा इसी आलीशान घर का हिस्सा है। सभी को ऐसा लगता वह घर अलग है और यह कमरा अलग है। पूरा घर चकाचक कर रहा था और उसकी अपनी मां का कैमरा जो इस घर की मालकिन थी इतने बुरे हाल में था। जब घर के सरबरा को ही परवाह नहीं थी तो नौकर क्यों इतनी मेहनत करते कि उनके कमरे की सफाई सुथराई का ख्याल रखते। "शाहान! आ गया मेरा बच्चा!" अम्मी जो पलंग पर बैठी कपड़ों के ढेर को तह लगा रही थी शाहन मिर्जा के करीब आते ही उन्होंने नज़र उठा कर देखा और अपनी बाहें फैला ली थी। शाहन भी मां के आगोश में आ गया था। अम्मी ने चटाचट उसकी पेशानी चूम डाली थी। आंखें भी आंसुओं से भर गई थी। कितनी ही देर उसे अपने सीने से लगाए रखा था। "ऐसे भला कौन माओं को तड़पाता है?" अम्मी ने रोते हुए सवाल किया था। शाहान मिर्ज़ा चुप रहा। "एक ही शहर में रहते हुए तुझे देखने को तरस जाती हूं, क्या तुझ पर मेरा कोई हक़ नहीं है?" अम्मी ने गिला किया था। "कितनी दफ़ा तो कह चुका हूँ मेरे साथ चलें। मेरे साथ रहें।" शर्मिंदा था फिर भी अपना दफ़ा करना ज़रूरी था। "और मैं भी तुझे कितनी दफ़ा कह चुकी हूँ आखरी सांस इसी घर में लुंगी जहाँ तेरे अब्बू ने ली थी।" अम्मा ने एक बार फिर वही बात दोहराई थी जो वो कई दफ़ा शाहान मिर्ज़ा से कह चुकी थी। "मेरा यकीन करें अब्बू को कोई फर्क नहीं पड़ेगा आप अपनी आखिरी सांस इस घर में लें या कहीं और।" शहान ने तंज़ किया था। "अपनी हालत और अहमियत देखें आप इस घर में। कबाड़ की तरह आपको स्टोर रूम में फेंक दिया गया है।" शहान को उल्टा माँ पर गुस्सा आया था। "कैसी बातें कर रहे हो शान ये स्टोर रूम नहीं मेरा कमरा है। तुम्हारे अब्बा के साथ मैं इसी कमरे में रहती थी।" अम्मी ने मुस्कुरा कर उसकी गलतफहमी दूर करनी चाही। "कोई बात नहीं इसको उल्टा कर देते है। आपके रूम में कबाड़ को फेंक दिया है।" शहान मिर्ज़ा ने अपने दांतों को पीस कर अपने गुस्से को काबू में करने की नाकाम कोशिश की थी। उसका बस नहीं चल रहा था की वह शेर की तरह दहाड़े और घर में बैठे अपने चूहा नुमा भाई को बिल में से निकलने पे मजबूर कर दे। आगे जारी है:-

  • 11. मैं हारी! - Chapter 11

    Words: 1294

    Estimated Reading Time: 8 min

    "लड़की को छोड़ो।" लड़के ने इतने इत्मिनान से कहा था जैसे सलीम उसी के हुक्म के इंतेज़ार में खड़ा था। "अपना रास्ता नापो।" सलीम ने गुस्से और लापरवाही मे जवाब दिया था। यह सुनकर वह लड़का गया तो नहीं मगर हां उसने अपनी आंखों से shades निकाल लिए थे और सामने खड़ी पलवशा की तरफ बढ़ाया था। पल्वशा पहले पहल तो कुछ समझ ही नहीं पाई और हैरानी से कुछ देर उसका चेहरा देखती रही और फिर वह हाथ जिस से वह सलीम की गिरफ्त से आज़ादी की कोशिश में लगाए हुई थी उसे भूल कर अब उसने एक हाथ से उस लड़के के shades को थाम लिया था। उस लड़के ने फिर उतने ही इत्मिनान से अपने कलाई पर बंधी घड़ी खोली थी और एक बार फिर से पल्वशा की तरह बढ़ाया था। पल्वशा ने उसे भी थाम लिया था। सलीम बस उसे देखे जा रहा था कि लड़का आखिर करना क्या चाह रहा है? "तुम तो समझ ही गए होगे घड़ी और shades उतारने का मेरा मकसद क्या है? तो एक बार आखिरी दफा फिर से कह रहा हूं लड़की का हाथ छोड़ दो।" उस लड़के ने फिर से कहा था। यह सुना था कि सलीम ने पल्वशा का हाथ छोड़ दिया था मगर उस लड़के के मुंह पर पंच मारने के लिए। लेकिन अभी सलीम का पंच हवा में ही था के उस लड़के ने उसके पांच को अपनी मुट्ठी में पकड़ लिया था और दूसरे हाथ से एक मुक्का उसके मुंह पर दे मारा था और वह दर्द बिलबिला उठा था। मुंह से खून निकला तो निकला था, खून के साथ साथ सलीम के दो दांत भी निकल गए थे। सलीम का दिमाग सुन्न होकर रह गया था। कुछ सेकंड्स के लिए उसे समझ ही नहीं आया कि उसके साथ हुआ क्या था? जब तक वह संभाला था और उस लड़के पर हमला करने के लिए आगे बढ़ा था तब तक उस लड़के ने दूसरा पांच फिर से उसके मुंह पर जड़ दिया था और इस बार खून नाक बहने लगा था। पल्वशा तो यह खूनी मंज़र देखकर ही दहल गई थी। वह लड़का मजबूत था तो सलीम भी कोई ऐसा वैसा नहीं था। उसने भी अच्छा खासी बॉडीबिल्डिंग कर रखी थी इसलिए दोनों में जमकर घमासान हुआ था। खून देख कर पल्वशा भी अब डर गई थी और इंतजार कर रही थी की दोनों में से कोई एक तो शांत हो जाए और इस घमासान को यहीं पर खत्म कर दे लेकिन दोनों में से कोई भी शांत होने का नाम नहीं ले रहा था। आखिरकार काफी देर के बाद सलीम ने ही हार मानी थी और उसने उस लड़के के आगे घुटने टेक दिए थे और फिर बेहोश हो गया था। वह लड़का सड़क पर नज़र दौड़ा कर अपनी मोबाइल तलाश कर रहा था जो इस लड़ाई की वजह से उसके जेब से गिर गया था। सड़क के साइड पे ही उसे अपना मोबाइल दिख गया था और अब वह उसे उठा कर सलीम के लिए एंबुलेंस को कॉल कर के उस जगह पर बुला रहा था। एंबुलेंस बुलाने के बाद वह लड़का पल्वशा की तरफ आया था जो काफी देर से उसे ही देख रही थी। तभी उसे लड़के ने हाथ बढ़ाकर अपनी Shades और घड़ी मांगी थी और तभी पल्वशा ने उसके हाथों को देखा था जिससे खून टपक रहा था। "यह क्या?.....तुम्हारा हाथ तो बुरी तरह घायल हो गया है...." पल्वशा ने उसके हाथ को देखकर हैरानी से कहा था। उसे लड़के ने उसकी बात पर ज्यादा तवज्जो नहीं दी थी और पल्वशा से कहा था, "मुझे देर हो रही है...." वह अपनी चीजों के लिए खड़ा था जो पल्वशा के हाथ में था। "हां ठीक है, देर हो रही है मगर तुम्हारा हाथ....चलो मैं तुम्हें डॉक्टर के पास ले जाती हूं।" पल्वशा ने परेशानी में कहा था। "नो....नो थैंक्स....मैं ठीक हूं। मैं चला जाऊंगा.... तुम आराम से जाओ जहां जा रही थी।" उस लड़के ने जैसे जान छुड़ाने वाले अंदाज में कहा था। "ऐसे कैसे चली जाऊं? यह चोट तुम्हें मेरी वजह से लगी है। मैं तुम्हें ऐसे नहीं जाने दूंगी और तुम बाइक कैसे चलाओगे इतनी चोट में? चलो मेरे साथ मैं तुम्हें हॉस्पिटल लेकर चलती हूं.... दो-तीन स्टीचेस तो पक्का लगेंगे।" पलवशा ने उसके हाथों का मुआइना करते हुए कहा था। वो लड़का उसकी ज़रूरत से ज़्यादा कैरिंग वाले अंदाज़ से पक रहा था। "प्लीज ट्राय टू अंडरस्टैंड मुझे देर हो रही है...इतनी भी गहरी चोट नहीं लगी है मैं घर जाकर ड्रेसिंग करवा लूंगा डोंट वरी।" उस लड़के ने फिर से जान छुड़ानी चाही थी। "बिल्कुल नहीं .... मैं तुम्हें जान नहीं दूंगी। चलो मेरे साथ।" पल्वशा ब'ज़िद हो गई थी और अब वह लड़का उसके जिद पर कुढ़ रहा था। "देखो मैं...." वह अभी गुस्से में उस से कुछ कहने ही वाला था कि पल्वशा ने उसका हाथ पकड़ा था और उसे अपनी गाड़ी की तरफ खींचा था। वह लड़का तो हक्का-बक्का रह गया था। "देखो मैं कुछ नहीं सुनूंगी तुम मेरे मोहसिन (आड़े वक्त पर काम आने वाला) हो ऐसे कैसे तुम्हारा खून बहता देखकर यहां से चली जाऊंगी।" पल्वशा उसका हाथ पकड़ कर उसे खींचते हुए कह रही थी और वह लड़का हैरान होते हुए उसके साथ खिंचा चला जा रहा था। वह उसे अपनी गाड़ी के पास ले आई थी और जाने क्यों वह लड़का भी ना चाहते हुए उसकी गाड़ी में बैठ गया था। पल्वशा अभी गाड़ी स्टार्ट करने ही वाली थी की उसे कुछ ख्याल आया था। "एक मिनट.... तुम्हारे बाइक की चाबी? तुम्हारे बाइक में ही लगी हुई है?" पल्वशा को ने उस लड़के ज़ो पूछा था। उस लड़के को भी अभी ही ख्याल आया था। उसने हाँ में सर हिलाते हुए गाड़ी से उतरना चाहा था। "1 मिनट रुको मैं लेकर आती हूं।" पल्वशा उसे रोक कर ख़ुद कार से बाहर निकल गई थी। उस लड़के की बाइक पल्वशा के कार के आगे थी और वह लड़का कार में बैठा विंड स्क्रीन से इतनी देर में पहली बार पल्वशा को गौर से देख रहा था। जीन्स के साथ ढीली सी टॉप पहने वह यकीनन उसे खूबसूरत और बा'ऐतमाद लड़की लगी थी। लंबा कद, सुडोल इकहरा (छरहरा, दुबला) बदन, सुर्ख ओ सफ़ेद चेहरा, हल्के रंग नैचरल बाल। उसकी सफ़ेद रंगत को देख कर मालूम होता था उसके बालों का रंग भी कुदरती ही होगा। जाने उस लड़के को कैसा लगा उसने झट से अपनी नज़र पल्वशा से हटा ली और दूसरी तरफ़ देखने लगा लेकिन अगले ही पल उसे हैरानी का शदीद झटका लगा था जब उसे अपनी बाइक के स्टार्ट होने की आवाज़ आई थी। उसने चौंक कर अपनी बाइक की तरफ़ देखा तो पता चला पल्वशा उसपे सवार है और वह उस बाइक को साइड पे लगा रही है। उस लड़के ने उसे हैरानी से देखा। पल्वशा उसकी बाइक को लॉक कर के दौड़ने के अंदाज़ में अपनी बाइक की तरफ़ आ रही थी। अपनी हैरानी में डूबे उस लड़के ने पास आती हुई पल्वशा का चेहरा गौर से देखा। ग़ज़ाली शहद रंग आँखें, तीखे नक्ष, मेकप से पाक ताज़गी लिए रोशन दिलकश चेहरा। "अब चलते हैं. ...अब कोई टेंशन नहीं।" पल्वशा ने खुश होकर कहा था और जैसे उस लड़के को होश में लाया था। उसने तुरंत अपनी नज़र हटाई थी। पल्वशा ने गाड़ी को टर्न दिया था और वापस से कॉलेज वाले रास्ते पर चल पड़ी थी। रास्ते पर ही एक छोटी सी क्लिनिक मिली थी। पल्वशा उस लड़के के साथ क्लिनिक में घुस गई थी। शुक्र था क्लीनिक में ज्यादा रश नहीं था इसलिए उस लड़के की ड्रेसिंग शुरू हो गई थी। वह उस लड़के के साथ-साथ थी। सारी ट्रीटमेंट और ड्रेसिंग कर देने के बाद डॉक्टर उस लड़के के लिए प्रिस्क्रिप्शन लिख रहा था और उसने उस लड़के से उसका नाम पूछा था। और उस लड़के ने अपना नाम बताया था। "यामीर ख़ान।" यह सुनना था की पल्वशा हैरत ज़दा उसे देखती रह गई थी। आगे जारी है:-

  • 12. मैं हारी! - Chapter 12

    Words: 1136

    Estimated Reading Time: 7 min

    साहिब कॉलेज से बहुत मायूस सी लौटी थी। छोटी बी जो यह सोचकर उसके इंतजार में बैठी थी के उससे पूछेगी कि कॉलेज का पहला दिन कैसा रहा उसका उदास चेहरा देखकर वह परेशान हो गई थी। "क्या हुआ?...कैसा रहा आज का दिन?...इतनी उदास क्यों?" छोटी बी ने परेशान होते हुए पूछा था। "भरजाई पूरे शहर में तुम्हें और कोई कॉलेज नहीं मिला था? बेहतर होता तुम मुझे मेरे पुराने वाले कॉलेज में एडमिशन दिलवाती जहां से मैंने आई ए किया था। साहिबा ने नाराज़गी से कहा था। "क्यों क्या हो गया?.... कॉलेज पसंद नहीं आया क्या तुम्हें? इस कॉलेज में मैंने तुम्हारा एडमिशन इसलिए करवाया था क्योंकि यह शहर का सबसे बड़ा और अच्छा कॉलेज है। तुम्हारी मार्क्स इतने अच्छे थे की आसानी से मिल गया एडमिशन वरना लोग लाइन लगते हैं इस कॉलेज में एडमिशन लेने के लिए.... लाखों में डोनेशन देते हैं।" छोटे बी परेशानी में घिरी अब उसे कॉलेज के गुण ही गिनवा रही थी के साहिबा ने उनकी बात को काटते हुए कहा था। "मुझे नहीं जाना यह कॉलेज..." साहिबा ने बच्चों की तरह मूंह फूला कर कहा था। "यह क्या बचपना है साहिबा!.....  छोटी बी ने उसे डांटा था। छोटी बी की डाँट पर साहिबा ने बड़ी-बड़ी आंखों से छोटी बी को चुपचाप घूरा था। "अब बता भी दो हुआ क्या है?" छोटी बी ने तंग आ कर कहा था। "वहां के लड़के बिल्कुल अच्छे नहीं।" साहिबा ने वैसे ही मुंह फुला कर कहा था मगर इस बार आँखें भी भर आई थी। साहिबा के मूंह से यह सुना था कि छोटी बी का दिल धक से करके रह गया था। " क्या कोई बदतमीज़ी की है उन लोगों ने तुम्हारे साथ?" छोटी बी ने उसका रुख अपनी तरफ मोड़ कर पूछा था। उनकी बात पर साहिबा उन्हें बस चुपचाप देखे गई थी। "साहिबा मैं तुमसे कुछ पूछ रही हूं?.... कुछ कहा या किया है उन्होंने तुम्हारे साथ बताओ मुझे.... मैं उन सब को सबक सिखाऊंगी .... पूरा कॉलेज हिला कर रख दूंगी।" साहिबा की अधूरी बात सुनकर ही छोटे बी का खून खौल उठा था। उनका गुस्सा देखकर साहिबा भी दंग रह गई थी। "साहिबा में कुछ पूछ रही हूं तुम से बताओ मुझे.... मैं अभी तुम्हारे लाला से जाकर कहती हूं।" छोटी बी ने उसका हाथ पकड़ कर झिंझोड़ दिया था। "भरजाई शांत हो जाओ, किसी ने कुछ नहीं किया है।" साहिबा ने परेशान होते हुए उनका हाथ पकड़ कर उन्हें शांत करना चाहा था। "तो फिर?" बड़ी बी ने हैरानी से उससे पूछा था। "कुछ नहीं..." "साहिब देखो मुझसे कुछ भी मत छुपाओ.... जो बात है सब खुलकर बताओ मुझे।" "कुछ भी नहीं भरजाई.... उन लोगों ने मुझे रोका और मेरा नाम पूछा....मैंने जैसे ही अपना नाम बताया फिर उन लड़कों ने मुझे जाने के लिए रास्ता दे दिया। बस यही बात है।" अब साहिबा छोटी बी से क्या कहती की बात तो बस इतनी थी मगर उस लड़के की नजर कुछ अजीब सी थी। "तुम सच कह रही हो साहिब बस इतनी सी बात है?" छोटी बी ने मशक़ूक़ होकर पूछा था। "हां भरजाई! बस इतनी ही सी बात है। मुझे अच्छा नहीं लगा उन लड़कों का मेरा रास्ता रोकना और मुझसे मेरा नाम पूछना।" साहिबा पहले ही छोटी बी से ये सब कह कर पछता रही थी इसलिए जल्दी से बात समेटी थी। "ठीक है आइंदा कुछ करें तो मुझे खुलकर बताना और उन लड़कों डरने की बिल्कुल भी ज़रूरत नहीं है फिर भी उन से दूर रहने की कोशिश करना।" छोटी बी ने कहा था और साहिब ने इस बात पर अपना सर हिला दिया था और फिर कुछ सोचते हुए छोटी बी का चेहरा देखने लगी थी। "अब ऐसे क्या देख रही हो?" छोटी बी ने उसके सामने से हटते हुए उससे पूछा था। "तुम मुझसे इतनी मोहब्बत करती हो भरजाई कि मेरे लिए किसी से भी लड़ सकती हो!" साहिबा ने हैरानी में डूबते हुए पूछा था। "अभी से क्या कहूं साहिबा? अल्लाह ना करे कभी यह वक्त आए कि मुझे तुम्हारे लिए किसी से लड़ना पड़े लेकिन हां अगर खुदा ना खस्ता ऐसा कभी वक्त आया तो मैं वाक़ई सब से लड़ लूंगी।" छोटी बी ने कहते हुए दराज से एक प्लास्टिक का डब्बा निकाला था। उसमें सुई और धागे थे। उन्होंने सुई में धागे को डाला और बैरम खान की शर्ट का बटन टाकने के लिए बैठ गई। "भरजाई यह क्या कर रही हो?" साहिबा ने उन्हें तुरंत रोका था। "तुम्हारे लाला की शर्ट का बटन निकल गया है, टांक रही हूँ।" साहिबा के इस से टोकने पर छोटी बी ने हैरानी से जवाब दिया था। "भरजाई जो औरत पेट से होती है उन्हें सिलाई नहीं करना चाहिए।" साहिबा ने उनकी जानकारी बढ़ाई थी। छोटी बी को कुछ समझ नहीं आया था। "क्यों?" "क्योंकि फिर बेटी पैदा होती है।" साहिबा को लगा था वह बहुत अहम जानकारी दे रही हैं मगर उसकी बात सुनकर छोटी बी जोर-जोर से हंसने लगी थी। "भरजाई में सही कह रही हूं, जो औरत पेट से होती है उन्हें सिलाई नहीं करनी चाहिए बल्कि सुई धागा भी अपने हाथों में नहीं देना चाहिए।" साहिबा ने फिर से उन्हें समझाया था और छोटी बी की हंसी पहले से और ज्यादा जोर पकड़ चुकी थी। बहुत मुश्किल से उन्होंने अपनी हंसी को काबू में किया था और फिर साहिब से कहा था, "साहिब ऐसा कुछ नहीं होता और अगर ऐसा हुआ भी तो यह तो बहुत अच्छी बात है। तुम्हें पता है ना हुजूर पाक मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने क्या कहा है जिनकी पहली औलाद बेटी होती है वह बहुत खुश नसीब होते है, तो क्या तुम नहीं चाहती कि मैं खुशनसीब बनूँ?" उनकी बात सुनकर साहिब थोड़ा झेंप गई थी "हां बात तो तुम्हारी सही है भरजाई मगर फिर भी...क्या तुम नहीं चाहती कि तुम्हारी पहली औलाद बेटा हो और तुम्हें सब सर आंखों पर बिठाये, हर जगह तुम्हारा ही चर्चा हो।" साहिबा ने दूसरा रुख दिखाया था। "मुझे ऐसे चर्चे और शोहरत नहीं चाहिए साहिबा जिसमें मेरा कोई हाथ ही नहीं हो.... बेटा या बेटी देना अल्लाह के हाथ में है, उसकी मर्जी से है मेरे सुई धागे हाथ में लेने और न लेने से नहीं।" छोटी बी ने कहते हुए बटन टाँकना शुरू भी कर दिया था। साहिबा खामोशी से कुछ देर सोचती रहे फिर उसने कहा था, "भरजाई अगर तुम्हारी बेटी हुई तो उसके लिए भी तुम्हें हर चीज के लिए लड़ना पड़ेगा, कितना लड़ोगी तुम? थक नहीं जाओगे?" साहिबा ने बड़ा मासूमाना सा सवाल किया था। उसकी बात पर छोटी बी फिर से मुस्कुरा दी थी। "अरे ऐसे वैसे लडूंगी!...मैं तो उसके हक के लिए पूरी फौज खड़ी कर दूंगी।" छोटी बी ने मजाक में कहा था। "अल्लाह ना करे भरजाई कि उसके लिए तुम्हें कोई फौज खड़ी करनी पड़े, बस दुआ करो लाला ही इस घर का निजाम बदल दे।" साहिबा ने दहल कर कहा था और साथ में उस डर के लिए दुआ भी की थी। आगे जारी है:-

  • 13. मैं हारी! - Chapter 13

    Words: 1030

    Estimated Reading Time: 7 min

    हैरानी सी हैरानी थी पल्वशा हैरानी से यामीर का चेहरा देखती रह गई थी और यामिर उसकी हैरानी से बेखबर अपनी नजरें डॉक्टर के प्रिस्क्रिप्शन पर चलते हुए हाथ पर टिकाए हुई थी। तभी पल्वशा ने हैरानी से उससे पूछा था, "M.M. College of Commerce and Business Administration?" उसके सवाल पर यामिर ने चौक कर उसकी तरफ देखा था। उसके सवाल को समझ कर उसने हां मैं अपनी गर्दन हिला दी थी और वापस से डॉक्टर की तरफ़ मुतावज्ज्होह हो गया था। उसके हाँ पर पल्वशा को झटका लगा था। उसे एक और सवाल पूछने का ख्याल आया था, "MBA last year?" इस दफा हैरानी के मारे यामिर की पेशानी पे हैरानी के मारे शिकन उभर आई थी फिर भी उसने हां मैं अपना सर हिला दिया था। अब तो जैसे पलव्षा बेहोश होने को थी। लेकिन पल्वशा के इन सवालों से डॉक्टर काफी डिस्टर्ब हो गया था जब भी उसने पल्वशा से कहा था, "अब बाहर जाकर बैठिए, आपको जो भी पूछना है वह आप बाद में पूछ लीजिएगा।" डॉक्टर ने थोड़ा तुर्श लहजे में कहा था और मजबूरन पल्वशा को बाहर निकलना पड़ा था। वह वेटिंग एरिया में जाकर बैठ गई थी और उसका दिमाग अभी भी यामीर में उलझा हुआ था। थोड़ी देर के बाद यामिर डॉक्टर के रूम से बाहर निकाला था और पल्वशा फिर से हैरानी से उसका चेहरा देखती रह गई थी। पल्वशा जो यह सोचकर आई थी कि यामिर के इलाज में जितना भी खर्चा आएगा उसके सारे खर्चे वह अदा करेगी मगर वह इतनी हैरतज़दा थी कि उसे इसका ध्यान ही नहीं था। यामिर ने अंदर ही डॉक्टर को पैसे दे दिये थे। यामिर उसके थोड़ा करीब आकर उस से बोला था, "तुम्हारा बहुत शुक्रिया! तो अब मैं चलता हूं।" यामिर इतना कह कर पल्वशा के कुछ कहने के इंतेज़ार में चंद लम्हें खड़ा रहा मगर पल्वशा तो उस से कुछ कह ही नहीं पाई थी यहाँ तक उसने यामिर का शुक्रिया अदा भी नहीं किया था। यामिर उसे अजीब नजरों से उलझते हुए कुछ लम्हें और देखता रहा और फिर जाने के लिए मुड़ गया था। और पल्वशा बुत बनी वहीं पर बैठी की बैठी रह गई थी। *** "तुम्हें कितनी दफा समझाया है शहान गुस्सा से काम नहीं लेते। इस तरह घर छोड़कर चले जाने से क्या होगा बल्कि फायदा तो तेरे भाई और भाभी का ही है। देख लेना तुझे कुछ भी नहीं देंगे वह दोनों। उनके दिल में बेईमानी आ गई है। तू घर छोड़ कर चला जाएगा तो घर पर हिस्सा भी नहीं देंगे तुम्हें।" अम्मी हर बार की तरह फिर से उसे समझाने लगी थी। "ना दें मुझे कोई हिस्सा, बेहतर है दोनों अपनी कब्र में लेकर सब चले जाए।" शहान ने गुस्से में कहा था। "नौज़बिल्ला! ऐसे नहीं बोलते, भाई है तुम्हारा।" अम्मी तुरंत पलटी खाई थी। आखिर जैसा भी था, थातो बेटा ही और कोई भी मां अपने बेटे के मरने की बात नहीं सुन सकती। "मैं तो कहती हूं निम्रा की बात मान ले, क्या बुराई है उसकी बहन में? अच्छी भली तो है।" अम्मी ने उसके बालों को सहलाते हुए कहा था। वह मां के गोद में सर रखकर लेटा हुआ था। "उनकी बहन से शादी कर लूँ, ताकि उनकी एक और कॉपी इस घर में आ जाए! अभी तो उसकी बड़ी बहन ने आपके कमरे को स्टोर रूम बना दिया है छोटी बहन आ गई तो कहीं आपको घर से ही ना निकाल दे।" शहान मिर्जा ने मां की अकल पर अफसोस करते हुए तंज कर रहा था। "तू कुछ ज्यादा ही सोचता है बेटा! ऐसा कुछ नहीं होगा। तू उसकी बहन से शादी कर लेगा तो उसकी भी अना खत्म हो जाएगी। देखना सब कुछ ठीक हो जाएगा। तूने उसकी बहन को ठुकराया है इसीलिए वह ऐसा करती है। और सबसे बड़ी बात तू सही रहेगा तो सब कुछ सही रहेगा। अपने बड़े भाई की तरह अपनी बीवी की हर बात में मत आना बल्कि ये एक अच्छा मौका है इस बिखरे हुए घर को संवारने का।" अम्मी अलग ही ख्याली पुलाओ पकाती थी और उसे खाने पर मजबूर भी करती थी। "अम्मी यह भी तो हो सकता है, मैं उसके हुस्न के जाल में फंस जाऊं। वह दिन को रात कहे तो मैं रात कहूं, वह रात को दिन कहे तो मैं दिन दोहराऊं, यह भी तो हो सकता है।" अब शहान मिर्जा मजाक के मूड में लौट आया था। अम्मी ने उसके कंधे पर एक चपत लगाई थी। "बहुत बोलता है तू, चल हाथ मूंह धो ले, मैं खाना निकलती हूं।" अम्मी कह कर पलंग से उठ गई थी। "खाने नहीं आया हूँ मैं, बस आपको देखने आया हूं।" शहान ने उन्हें रोका था। **** बैरम खान ने पंचायत में स्कूल का मुद्दा उठाया था और स्कूल का नाम सुनकर गांव वालों को खुशी होने के बजाए एतराज़ होने लगा था। एक ने उठकर बैरम खान से कहा था की स्कूल से ज्यादा जरूरत इस गांव को डिस्पेंसरी की है अगर कुछ खोलना ही है तो डिस्पेंसरी खोल दो। एक दूसरे ने कहा था हर घर में बिजली का इंतजाम कर दो। उस गांव में सिर्फ बड़े जमींदारों के घर ही बिजली के बल्ब जलते थे बाकियों के घर सिर्फ बल्ब लटकता था, बिजली नहीं आती थी। सबके अलग-अलग मशवरे थे। जिसे सुनकर बैरम खान का खून खौल उठा था। "मैं यहां कोई इलेक्शन नहीं लड़ने आया हूं कि आप लोगों की डिमांड पूरी करूँ, मैं बस बताने आया हूं कि मैं स्कूल खोल रहा हूं ताकि कल को आप यह सब ना कहें कि मैंने आप लोगों की इजाजत के बिना अपनी मर्जी से गांव में कुछ किया है। गांव में डिस्पेंसरी खुलवाना है या फिर बिजली लाना है तो आप उनसे कहे जो आपके गांव का मुखिया है। मैं इस गांव का मुखिया नहीं हूं।" बैरम ख़ान ने ऊँची आवाज़ में जैसे ऐलान किया था। "गांव के मुखिया नहीं हो तो मुखिया वाले काम भी मत करो।कोई जरूरत नहीं है यहां स्कूल खोलने की।" दिलावर खान ने तुर्श लहजे में कहा था। "ठीक है मैं नहीं खोलता कोई स्कूल, बेहतर है तुम ही खोल कर दिखा दो।" बैरम खान ने उल्टा दिलावर खान से कहा था। जो यहां का मुखिया था और दिलावर खान कोई और नहीं ज़ोरावर खान का मंझला भाई था। आगे जारी है:-

  • 14. मैं हारी! - Chapter 14

    Words: 1146

    Estimated Reading Time: 7 min

    "ठीक है मैं नहीं खोलता कोई स्कूल, बेहतर है तुम ही खोल कर दिखा दो।" बैरम खान ने उल्टा दिलावर खान से कहा था। जो यहां का मुखिया था और दिलावर खान कोई और नहीं ज़ोरावर खान का मंझला भाई था। "यह तुम्हें बताने की जरूरत नहीं है बैरम खान की गांव में स्कूल खोलना है की नहीं। अगर इतना ही जरूरी होता हाई स्कूल खोलना तो मैं कब का खोल चुका होता मगर मेरे ख्याल से स्कूल खोलना अपनी आने वाली नस्लों को बरबाद करना है। स्कूल खुलेगा तो बेशर्मी बढ़ेगी। लड़का लड़की साथ में पढ़ेंगे। पढ़ाई कम और रंगरेलियां ज्यादा मनाए जाएंगे। आठवीं जमात तक स्कूल ही ठीक है। लड़कियों का उतना पढ़ना काफी है। ज्यादा पढ़ लिख लेगी तो ज्यादा दिमाग खराब होगा उनका।" दिलावर खान ने तैश में आकर कहा था क्योंकि बैरम ख़ान की बात उनकी आना को लगी थी। वह गांव का मुखिया था और उसकी बहन का होने वाला जेठ भी। मगर बैरम खान सब कुछ भूल कर उसे गांव वालों के सामने नीचा दिखा रहा था कि उसका मुखिया गांव वालों के लिए अभी तक स्कूल का कोई इंतजाम नहीं कर सका इसलिए उसने बड़ी ही भोंडी सी दलील पेश की थी के स्कूल खुलेगा तो गांव में बेशर्मी बढ़ेगी। "ठीक है अगर आप लोगों को लगता है कि स्कूल खुलने से गांव में बेशर्मी बढ़ेगी तो मैं दो अलग-अलग स्कूल खोलूंगा एक लड़कों के लिए और एक लड़कियों के लिए। अब आप में से किसी को कोई ऐतराज है तो बताएं।" बैरम खान में यह मसला भी हल कर दिया था। गांव वालों ने आपस में चर्चा शुरू कर दी थी और पूरे पंचायत में शोर बरपा हो गया था। थोड़ी देर के बाद बैरम खान फिर से बोले थे। "आप लोग चाहते हैं कि इस गांव में डिस्पेंसरी खुले में पूछता हूं क्या इससे पहले गांव में डिस्पेंसरी नहीं खुली थी? कितनी दिनों तक चली है वह डिस्पेंसरी इस गांव में? हर बार बाहर से डॉक्टर बुलाए जाते हैं और कुछ महीनो के बाद वह डॉक्टर इस गांव को छोड़कर चला जाता है क्योंकि उन्हें अपने बच्चों के लिए यहाँ कोई सहूलियत नहीं मिलती। गांव में कोई हाई स्कूल नहीं है। सड़क ठीक नहीं है। दुनिया में गिने चुने ही ऐसे डॉक्टर होंगे जो अपने बीवी बच्चों से अलग होकर आप लोगों की सेवा में पूरे साल लग रहे। आप लोग क्यों नहीं चाहते कि आपके बच्चे इतना पढ़ लिख ले की वह खुद ही डॉक्टर बन जाए। जब आप अपनी औरतों को लेकर किसी अस्पताल में लेडिस डॉक्टर को ढूंढते हैं तो आप लोगों के दिमाग में यह ख्याल क्यों नहीं आता कि आप भी अपनी बेटियों को लेडिस डॉक्टर बनाएं। और अगर आप अपनी बेटियों को लेडीज़ डॉक्टर नहीं बनाना चाहते तो फिर आपको कोई हक़ नहीं है की अपनी औरतों के लेडीज़ डॉक्टर ढूंढे।" बैरम खान की गराजदार आवाज़ पर उस हुजूम में भी जैसे सुकूत छा गया था। बैरम खान ने आगे कहा था। "आप सब जानते हैं बैरम खान अगर कुछ कहता है तो उसे कर गुजरता है। अगर आप मुझे इजाजत देंगे तब तो यहाँ इस गाँव में हाई स्कूल खुलेगा ही लेकिन अगर नहीं भी देंगे तो भी मैं यहां स्कूल खोलकर ही रहूंगा इसके लिए मुझे बड़े अफ़सरों तक जाना पड़े तो मैं जाऊंगा।" बैरम खान ने जिद्दी लहजे में जैसे ऐलान किया था और वहीं दूसरी तरफ दिलावर खान उसे नफरत भरी निगाहों से देख रहा था। "बैरम खान गांव की बात गांव में ही रहनी चाहिए। तुम्हें स्कूल खोलना है ठीक है खोल लो लेकिन एक बात याद रखना अगर इस स्कूल की वजह से कुछ भी इस गांव में कांड हुआ तो उस सब के जिम्मेदार तुम होगे और इसके लिए तुम्हें सजा भी मिलेगी।" "मैं इस बात की मंजूरी दूं या ना दूं जो इस गांव का कानून है तो है अगर कुछ हुआ तो मुझे सजा मिलेगी ही और मैं इस से पीछे नहीं हटूंगा।" बैरम खान ने ये कह कर अपनी बात मुकम्मल की थी। **** यामिर सीधा क्लिनिक से अपने बंगले में आया था और आते के साथ उसने हमीद से खाना निकालने के लिए कहा था और ख़ुद अपने कमरे में नहाने के लिए चला गया था। मेडिकल से उसने सर्जिकल ग्लव्स खरीद लिए थे। अपनी ड्रेसिंग की हुई हाथ में उसने ग्लव्स पहना था और फिर उसे टेप की मदद से उसके खुले हुए एंड को कलाई पे सील कर दिया था ताकि पानी अंदर ना जा सके। अपनी टी-शर्ट उतार कर वह जैसे ही बाथरूम में गया था दिमाग की नसें जैसे गुस्से के मारे फटती जा रही थी। खून में हजार डिग्रियों जितना उबाल आ गया था। बाथरूम के मिक्सर टैप के ऊपर किसी लड़की की इनर वियर टंगी हुई थी। यामिर गुस्से से तन-फ़न करता बाथरूम से निकला था और गरजते हुए हमीद को आवाज़ लगाई थी। हामिद बेचारा किचन से दौड़ा भागा उसके सामने प्रकट हुआ था। "जी ख़ान।" हमीद ने घबरा कर उससे पूछा था। यामिर ने गुस्से के मारे उसे बुला तो लिया था मगर उस से क्या पूछता कि उसके बाथरूम में लड़की का इनरवियर क्या कर रहा है? कुछ सेकंड खामोशी से उसने अपने गुस्से को काबू में किया और फिर हमीद से पूछा था। "चाचा कहां है?" "जी वह तो सुबह ही गांव लौट गए।" हमीद ने जल्दी से जवाब दिया था। "और वह लड़की?" यामिर ने गुस्से से पूछा था। "जी वह तो अभी भी यही है, छोटे खान के कमरे में।" "जब चाचा चला गया तो फिर वह लड़की यहां क्या कर रही है?" यामिर ने दांतों को किचकिचा कर पूछा था। अब बेचारा हमीद क्या कहता है कि वह यहां क्यों है? वह बेचारा तो नौकर ठेहरा इसलिए चुपचाप यामिर के सामने खड़ा रहा। यामिर को भी समझ आ गया कि इसमें बेचारे हामिद की क्या गलती! यामिर अब वहां से हटकर छोटे खान के कमरे में गया था। लिली लेमन येल्लो कलर की सेमी-ट्रांसपरेंट और  रिविलिंग सी नाइटी पहने हुए छोटे खान के बिस्तर पर लेटी हुई अपना मोबाइल फोन चला रही थी। यामिर पर नजर पढ़ते ही उसके होठों पर मुस्कुराहट आई थी मगर अगले ही लम्हे थोड़ा नाराजगी से उस पे हुकुम जताने वाले अंदाज़ ने कहा था, "इतनी भी तमीज नहीं किसी लड़की के कमरे में आते हैं तो पहले दरवाज़े पे दस्तक देते हैं।" लिली ने अपना फोन साइड टेबल पर रखकर एक अदा से अंगड़ाई लेते हुए कहा था। यामिर को उससे नफरत सी हुई थी। "और तुम्हें इतनी भी तमीज नहीं की किसी ग़ैर लड़के के बाथरूम में अपनी गंदगी नहीं फेंकते?" यामिर ने दांतों को पीसते हुए कहा था। "बाथरूम अपनों का हो या गैरों का उसका काम ही यही है लोगों की गंदगी छुपाना या धोना।" लिली मुस्कुरा कर कहते हुए अपने बेड से उठी थी और अब उसके बिल्कुल सामने आकर खड़ी हो गई थी। यामिर का बस नहीं चल रहा था कि वह उसका हाथ पकड़ के उसे इस घर से निकाल दे। आगे जारी है:-

  • 15. मैं हारी! - Chapter 15

    Words: 1095

    Estimated Reading Time: 7 min

    "चाचा यहां नहीं है ना, तो तुम भी अपनी शक्ल यहां से दफा कर लो।" यामिर ने दांतों को किचकिचा कर उससे कहा था। "तुम्हारे चाचा ने ही कहा है कि मैं यहां आराम से रहूं जब तक मेरा दिल चाहे।" उसने भी जताने वाले अंदाज में कहा था। "यह घर सिर्फ चाचा का नहीं है जो सिर्फ चाचा की मर्जी चलेगी, जब वह यहाँ लौट आए तब तुम भी यहां तशरीफ़ ले आना मगर मेरी मौजूदगी में तुम यहां नहीं रह सकती। अपना सामान बाँधो और दफा हो जाओ यहां से। और हां फिलहाल अपनी उस गंदगी को मेरे बाथरूम से हटाओ अभी और इसी वक्त।" यामीर गुस्से से कहकर उसके कमरे से निकल गया था। लिली को यह बेइज्जती दिल पर लगी थी, फिर भी वह उसके पीछे-पीछे उसके कमरे की तरफ चल दी थी। गुस्से से अपना इनरवियर मिक्सर टैप के ऊपर से उठाया था और वापस से छोटे खान के कमरे में आ गई थी। उसके जाते ही यामीर ने बाथ लिया था और बाथरूम से अभी नहा कर निकला ही था कि छोटे खान का फोन आ गया था। "तुमने लिली से क्या कहा है?" छोटे खान ने तुर्श लहजे में उससे पूछा था। यामीर ने एक गहरी सांस ली थी और फिर उन्हें जवाब दिया था। "मैंने उसे यहां से जाने के लिए कहा है।" यामीर ने गुस्से को पीते हुए जवाब दिया था। "नहीं तुमने उसे यह कहा कि यह घर तुम्हारा है मेरा नहीं।" उनकी बात सुनकर यामीर चौंक पड़ा था। तो लिली ने अपनी बेइज्जती का बदला झूठ बोलकर निकाला था। "चाचा मैंने ऐसा कुछ नहीं कहा है। मैंने उसे कहा यह घर सिर्फ चाचा का नहीं जो सिर्फ चाचा की मर्जी चलेगी।" यामिर ने बिना डरे बिना लाग लपेट के दो टोक लहजे में कहां था। "तो तुम्हारा मतलब है लिली झूठ बोल रही है।" छोटे खान ने तुन्नक कर कहा था। "तो आपके कहने का मतलब है कि मैं झूठ बोल रहा हूं?" यामीर को भी तैश आ गया था काफी ऊँची आवाज़ में गोया हुआ था। "अरे भड़क क्यों रहा है? मेरी बात पर तो बड़ा जवानी का खून जोश मार रहा है! लिली जैसी लड़की के सामने रहते हुए तेरा खून ठंडा क्यों पड़ जाता है? कहां जाता है तेरा ये गरम खून? अरे मैं जब तक नहीं हूं वहाँ, तू रह उसके साथ, बेचारी का भी भला हो जाएगा, वरना मेरे लौटने तक उसका धंधा तो बिल्कुल मंदा ही पड़ा रहेगा।" छोटे खान ने बेशर्मी की हदें हमेशा की तरह पार की थी। "मुझे इसकी जरूरत नहीं है।" यामीर ने गुस्से को पीते हुए कहा था। "अरे किसे जरूरत नहीं होती? सबको जरूरत होती है.... और इतना शर्मा क्यों रहा है? वह मेरी बीवी नहीं रखैल है। तू भी फायदा उठा सकता है बेझिझक।" चाचा ने बेशर्मी से हंसते हुए उस से कहा था और यामीर ने इतना सुनकर अल्लाह हाफिज कह कर फोन काट दिया था। *** क्लीनिक से घर तक का सफर पलवशा ने बेख्याली में की थी। घर आई भी तो खोई खोई सी रही। यह क्या हो गया था उसका दुश्मन उसका मोहसिन (एहसान अर्थात् उपकार करने वाला) निकला था। अब वह कैसे अपनी शर्त को पूरी कर पाएगी? समझ नहीं आ रहा था क्या करें? वह बड़ी-बड़ी हांक आई थी अपने दोस्तों के बीच। अब तो इज्जत पर बन आई थी और अना पर भी मगर दूसरी तरफ यामीर से मिलने के बाद जाने क्यों दिल इस बात पर गवारा नहीं कर रहा था कि वह अपने मोहसिन को इस खेल में शामिल करें। "हां तो क्या हुआ अगर मदद कर भी दि तो? मदद कर देने से ये कहां पर लिखा है मिलता है कि वह इंसान अच्छा ही हो। हीरो बनने का शौक होगा, आदत होगी दूसरों के फटके में टांग अड़ाने की।" उसने अपने दिल को डांटा था और अपने फैसले पर अटल रहने की कोशिश की थी। "मगर वह बुरा लड़का तो कहीं से भी नहीं लग रहा था शायद माशा ने सही कहा था, वह वाक़ई अच्छा लड़का है।" दिल की सदा फिर से सुनाई दी थी। "अच्छा लड़का है! क्या यह उसके चेहरे पर लिखा था? एक मुलाकात में कैसे जान सकती हो कि कौन अच्छा है कौन बुरा है? और वह सब छोड़ो उसकी वजह से एक लड़की की जान गई है और दूसरी लड़की मरते मरते बची है। ऐसे में वह कहां से अच्छा लड़का होगा? और रही बात एहसान करने की तो मैं कौन सा गुंडो में फंसी हुई थी कि उसने मेरी जान बचा दी और मैं इसके लिए उसका एहसान मानती नहीं थकूं।" पलवशा ने फिर से जवाब दिया था। "यह क्या अकेले में बातें कर रही हो?" वह सोफे पर बैठी खुद कलामी कर रही थी जब ही ज़ायरा किचन से निकली थी और उसे खुद में बडबडाते देखकर उसे टोका। "न....नहीं कुछ तो नहीं!... आप कहां थी इतनी देर से?" उसने लड़खड़ा कर माँ से पूछा था। "मुझे कहां होना है? किचन में थी... लेकिन तुम कहां थी?... इतनी देर कैसे हो गई?" ज़ायरा अब उसकी क्लास लेने लगी थी। "किताब लेने जा रही थी रास्ते में सलीम से बहस हो गई।" पलवशा ने थोड़ा झिझकते हुए मां से कहा था। "क्यों.... क्यों बहस हुई तुम्हारी उस से? कितनी दफ़ा कहा है मूंह मत लगा करो उन लोगों के।" मां ने फटकार लगाई थी। "एमजी रोड की तरफ जा रही थी तो सलीम ने कहा उस तरफ़ नहीं जाओ तो मुझे गुस्सा आ गया।" पलवशा ने लापरवाही से जवाब दिया। और यह सुनकर ज़ायरा का चेहरा धुआं धुआं सा हो गया था। "सही तो कह रहा था वह... क्या जरूरत थी उस तरफ जाने की?" ज़ायरा ने पहली दफा सलीम की साइड ली थी। "क्या जरूरत थी का क्या मतलब है? बता तो रही हूं किताब चाहिए थी इसलिए गई थी।" पलवशा को यकीन नहीं हुआ था अपनी मां की गैरदिमागी पर। "इतनी भी जरूरी नहीं है किताब... उस तरफ बिल्कुल मत जाना, कभी भी भूल से भी नहीं।" ज़ायरा ने तंबीह की थी। "अरे कह तो रही हूं घूमने नहीं गई थी, जरूरी था किताब लेनी थी इसलिए गई थी।" पलवशा झल्ला गई थी। "जितनी भी जरूरी हो, फेल हो जाओ लेकिन उस तरफ मत जाना कभी भी।" मां के ऐसे शदीद रद्देअमल पर पलवशा हैरान सी रह गई थी। "क्यों वहां कौन रहता है? शेर है जो मुझे खा लेगा?" पलवशा ने गुस्से में माँ से कहा था। "हां ऐसे ही कुछ समझ लो।" ज़ायरा ने जवाब दिया था और दोबारा से किचन घुस गई थी। "हाथ मूंह धो लो, खाना निकालती हूँ।" किचन से आवाज आई थी और पलवशा मां की बातों को सोचती रह गई थी। आगे जारी है:-

  • 16. मैं हारी! - Chapter 16

    Words: 1368

    Estimated Reading Time: 9 min

    "छोटी बी आपका टेलीफोन आया है।" खैरा उसके कमरे में उसे इत्तिला देने आई थी। छोटी बी दोपहर का खाना खाकर थोड़ी देर पहले ही लेटी थी। फोन का सुन कर वह जल्दी से उठी और बड़ी बी के कमरे में जा पहुंची थी। इस घर में सिर्फ दो ही कमरों में फोन था एक बड़ी बी के कमरे में और दूसरा बैठक में। वह बड़ी बी के कमरे के बाहर खड़ी दस्तक दे रही थी और बड़ी बी ने खूंखार नजरों से उसे देखकर अंदर आने की इजाजत दी थी। वह चुपचाप आई थी और होल्ड पर रखा हुआ रिसीवर को उठाकर अपने कानों से लगाया था। बड़ी बी की नुकीली नजरें मुसलसल उस पर गड़ी हुई थी। उनकी पैनी नजरों से बचने के लिए छोटी बी ने अपना रुख मोड़ लिया था। अब बड़ी बी को सिर्फ़ उसकी पुश्त नजर आ रही थी। "हेलो!" उसने जैसे ही कहा था दूसरी तरफ से पूछा गया था। "कैसी हो? कैसी चल रही है और कितने दिन चलेगी?" ना सलाम ना दुआ सीधा ताना मारा गया था। "बहुत अच्छी हूं और बहुत अच्छी चल रही है।" तकलीफ हुई थी मगर छोटी बी ने इजहार नहीं किया था। अकड़ कर जवाब दिया था। "चलो अच्छी बात है, कई लोगों को नाख़ुश किया अपनी ख़ुशी के लिए तो खुश रहना तो बनता है। खैर! यह भी बता दो अपना मोबाइल फोन फेंक दिया या बेच दिया?" तानो तिशनों से नवाज़ने के बाद दूसरी तरफ से पूछा गया था। "ना फेंका है ना बेचा है। बस उसे बंद करके रख दिया है क्योंकि यहां पर नेटवर्क प्रॉब्लम है।" छोटी भी ने तुर्श लहजे में जवाब दिया था। और इस तुर्शि की वजह थी वो हक़ीक़त जो उन्होंने अभी झूठ कह कर छुपाई थी। फोन बंद कर के इसलिए रखा था क्योंकि बड़ी बी का मानना था की बहू को पर्सनल फोन मिलने का मतलब घर की तबाही हालांकि बैरम ख़ान माँ की बात से सहमत नहीं थे मगर चूंकि अपनी पसंद से सब से अहम एक काम कर लिया था शादी का, तो फिर बाक़ी चीज़ों को दर्गुज़र कर के कुछ वक़्त के लिए मन मारने में कोई हर्ज़ नहीं था। बैरम के समझाने पर छोटी बी ने भी अपना मन मार लिया था। वह बात कर रही थी और बड़ी बेटी के कान उनकी बात पर लगी हुई थी मगर शुक्र था छोटी बी यह सारी बातें अंग्रेजी में कर रही थी और बड़ी बी के पल्ले में कुछ भी नहीं पड़ रहा था। "बहुत अच्छे! फोन को बंद करके अलमारी में रख दो बल्कि मैं तो कहती हूं लॉकर में रख दो... लेकिन भूले भटके कभी याद आ जाए अपनी इस मां की तो साल डेढ़ साल में निकल के खबर जरूर ले लेना कि हम जिंदा है या मर गए।" फिर से ताना मारा था। छोटी बी तड़प कर रह गई थी। "मुझे ताने देने से पहले अपनी बात पर खुद गौर कर ले की खबर तो आप लोगों ने मेरी नहीं ली है कि मैं जिंदा हूं या मर गई।" छोटी बी रूहांसी हो गई थी। "क्यों लो तुम्हारी खबर? सुनी थी तुमने हमारी बात? कितना मना किया था मत जाओ उन गवारों के बीच में। मानी थी तुमने हमारी बात? अब किस मुंह से यह उम्मीद कर रही हो कि हम तुम्हारी खबर में और तुम्हारी फिक्र में घुलते रहे। तुम्हारी तरह हम नहीं है जो अपने जिंदगी को दीमक के हवाले कर दे की आओ और इसे खाकर ज़िंदगी का भूसा बना दो। तुम्हारी मां हूं, तुम्हारी उम्र से काफी बड़ी लेकिन अभी भी जिंदगी से भरपूर हूं, खुदकुशी नहीं कर सकती मैं और तुमने अपने साथ खुदकुशी ही की है। एक दिन बहुत पछताओगी तुम याद रखना मेरी बात।" माँ ने फिर से ताना मारा था या बद्दुआ दी थी? छोटी बी तड़प कर रह गई थी। इतना कुछ सुन लेने के बाद जरा सी भी हिम्मत नहीं हुई थी कि अपनी माँ को अपनी खुशखबरी सुनाए कि वह नानी बनने वाली है। बस होंठ को दांतो तले कुचल कर रह गई थी। "तुम्हें बताने के लिए कॉल किया है की कभी शहर आओ तो हमारे घर की तरफ मत जाना क्योंकि हम यह शहर छोड़ कर जा रहे हैं और एम्सटर्डम में सेटल हो रहे हैं। आज रात की flight है।" "क्या?" बड़ी बी हैरानी के मारे बेहोश हो जाने को थी। "और आप लोगों ने मुझे बताया तक नहीं!" शिकवा निकल आया था। "कैसे बताते तुमने फोन जो बंद कर रखा था और बताने से फायदा क्या था तुम कौन सा हमसे मिलने आ जाती।" वह कह जी रही थी जब छोटी बी ने तड़प कर कहा था। "मैं मिलने नहीं आ सकती थी आप तो आ सकती थी।" छोटी बी रोने लगी थी। "बहुत अच्छा! मैं तुम्हारे उस उज्जड़ जाहिल लोगों के बीच में आती? नहीं इतना हौसला नहीं है मेरे पास और तुम्हारा बाप वह कैसे बर्दाश्त करता? वह तो तुम्हारी शक्ल भी देखना गवारा नहीं कर रहा है...खैर छोड़ो यह सारी बातें.... मैं एम्सटर्डम पहुंच कर तुम्हें अपना नया नंबर दे दूंगी अगर हमसे मोहब्बत होगी तो उसे सेव कर लेना वरना कोई बात नहीं हम एक बार फिर से तुम्हारी तरफ से सबर कर लेंगे।" एक आखिरी ताना मार कर उन्होंने फोन रख दिया था। छोटी बी की आंखें आंसुओं से लबरेज थी मगर वह मुड़कर बड़ी बी को अपना चेहरा दिखाना नहीं चाहती थी इसीलिए बिना उनकी तरफ मुड़े चुपचाप कमरे से निकल जाना चाहती थी जब ही बड़ी बी ने उसे आवाज देकर रोका था। "यह जो तुम हमारे साथ कर रही हो ना बहुत गलत कर रही हो।बहू आती है तो नए घर के तौर तरीके सिखाती है ना कि उस घर के तौर तरीके अपने हिसाब से बदलती है। तुम्हारी नियत सही नहीं है लड़की, देखना तुम बहुत पछताओगे, तुम हमारे साथ बुरा करोगी तो तुम्हारे साथ उससे भी ज्यादा बुरा होगा। कभी खुश नहीं रह पाओगी तुम।" इतनी बद्दुआएँ! छोटी बी अपने लब सख़्ती से भींचे, पास खड़ी कुर्सी की पुश्त को सख़्ती से थामे अपनी बर्दाशत की कुव्वत को आज़मा रही थी। मुड़ कर अभी भी उन्होंने बड़ी बी को नहीं देखा था और बड़ी बी अपने शहंशाए तख़्त पे बैठी हाथ में हुक्का थामे अपना ग़ुबार निकाल रही थी। "तुम्हे क्या लगता है? मैं बहुत बेवकूफ हूं? अंग्रेजी में कहोगी तो मुझे कुछ समझ नहीं आएगा? तुम अंग्रेजी में कहो या फारसी में, मुझे सब पता है तुम्हारे मां-बाप तुम्हें पूछ नहीं रहे है। देखना एक दिन ऐसा होगा कि तुम्हें कुत्ता तक नहीं पूछेगा। एकदम अकेली रह जाओगी तुम और रही बात बैरम की तो यह नई-नई शादी का ख़ुमार है। एक दफा ख़ानेदारी में लग गया तो फिर सारी मोहब्बत ठंडी पड़ जाएगी। एक कोने में पड़ी रहना, उसे तकती रहना। बड़ी आई है मेरे घर की रीति रिवाज बदलने वाली। स्कूल खुलवायेगी! अरे कोई स्कूल कॉलेज नहीं खुलवा रही तुम। कोई भला नहीं कर रही इस गांव का बल्कि दुश्मन खड़ा कर रही हो तुम अपने मियाँ के लिए और हमारे लिए। समझती क्यूँ नहीं हो तुम?" छोटी बी ने मुड़कर उन्हें देखा था। आंखों में आंसू भरे हुए थे और फिर कमरे से निकल गई थी। बड़ी बी को अंदाजा नहीं था कि वह रो रही है। उसके आंसू देख कर वह चुप हो गई थी। भला उनके यहाँ रोने का रिवाज कहाँ था। मर्द हो या औरत उनके आँसू कहाँ जल्दी दिखते थे! सब एक दूसरे को ताने देते, गालियाँ भी देते मगर कोई आँसू बहा कर ख़ुद को कमज़ोर साबित नहीं करता था। वहाँ दो मौकों पर औरतें खुल के रो सकती थी, एक किसी लड़की की शादी पर और दूसरा किसी की मय्यत पर। इन दो मौकों पर अगर कोई औरत नहीं रोई तो फिर उस औरत से बुरा इस समाज में कोई नहीं था। और मर्द? उन्हें तो सिरे से रोने की जैसे इजाज़त ही नहीं थी, खुल कर ऐलानिया तो इस रीत को आम नहीं किया गया था लेकिन अगर कोई मर्द रो देता तो लोगों की हंसी का निशाना बनता... सालों तक उसके आँसू पर तब्सिरा किये जाते थे। छोटी बी की आँखों में आँसू बड़ी बी के लिए हैरानी का बाइस था। उन्हें एहसास हुआ था की शायद उन्होंने छोटी बी के साथ ज़्यादती कर दि, थोड़ी देर के लिए मलाल ने उनके दिल को जकड़ लिया था। आगे जारी है:-

  • 17. मैं हारी! - Chapter 17

    Words: 1022

    Estimated Reading Time: 7 min

    अपने कमरे में आकर छोटी बी बिस्तर पर लेटी फूट-फूट कर रोने लगी बल्कि बेतहाशा रोने लगी। पेट में बच्चा और कानों में बद्दुआ की सदा किसी का भी दिल हौल उठता, छोटी बी का भी हौल उठा था। मलाल, दुख, दर्द क्या कुछ नहीं था उनके दिल में? रोते रोते आंसुओं ने जोर पकड़ लिया था। यह वक्त ही ऐसा होता है छोटी छोटी बातों से बेतहाशा खुशियां मिलती है और छोटी छोटी ही बातों पे बेइंतेहा रोना भी आता है। मां बनने का दौर कई दरों से हो कर गुज़रता है। हर दर पर अलग एहसास खड़े होते हैं और हर एहसास में अलग जज़्बात। वह रोना नहीं चाहती थी मगर रोए जा रही थी। इतना रोई, इतना रोई की सांस भी बोझल होने लगी थी और ऐसा लगा था कि अब बेहोश हो जाएगी। उसी वक्त साहिबा किसी काम से छोटी बी के कमरे में आई थी और उसे इस हाल में देखकर परेशान हो गई थी। "भरजाइ... भरजाइ... क्या हुआ तुम्हें?" वह बड़ी तेजी से छोटी बी के करीब आई थी और उसे थाम लिया था। छोटी बी की हालत अस बस हो रही थी। उसने छोटी बी का सर अपनी गोद में रख कर उसका चेहरा थपथपाया था। "भरजाई...  भरजाई ... आंखें खोलो। अम्मा बी, खैरा...." उसने आवाज लगाई थी और थोड़ी ही देर के बाद उसके कमरे में एक मजमा लग गया था। ***** बैरम खान को खबर मिलते ही वह दौड़ा भागा पंचायत छोड़कर छोटी बी के पास आया था। बैरम खान के आते ही उसके कमरे में जमा हुआ मजमा छठ गया था। सबको हैरानी हुई थी, भला ऐसा कब होता था उसके गांव में की बीवी पेट से हो और मियां बेशर्मों की तरह उसकी खैर खबर लेने के लिए ना दिन देखे ना रात और कमरे में सब के सामने आ जाए। उनके गांव के अना परस्त मर्द सिर्फ रात के वक्त ही बीवी की मौजूदगी में अपने कमरे में जाते थे। दोपहर के वक्त भी आराम करते थे लेकिन उस वक्त उनके कमरे में बीवी का होना बेशर्मी की अलामत थी और रात में मियां का कमरे से बाहर रहना बीवी की लापरवाही की अलामत। सभी दुपट्टा मुंह दांतों में फंसाए हैरानी से बैरम खान को देखकर उनके कमरे से निकल गई थी। यह बात अलग थी के बाद में सब ने इस पर मिलकर खूब तब्सिरा भी किया था। बैरम खान तड़प कर छोटी बी के पास आए थे। "क्या हुआ तुम्हें तबीयत कैसे खराब हो गई?" वह पूछ रहे थे। छोटी बी का सुता हुआ चेहरा देख कर उनका कलेजा मुंह को आ रहा था। "कुछ नहीं हुआ.... बस ऐसी अचानक से घबराहट सी होने लगी।" छोटी बी ने सच्चाई छुपाई थी। "ऐसे कैसे घबराहट सी होने लगी? सुबह तो भली थी तुम..." बैरम खान ने हैरानी से पूछा था। "हां...वही ना.... सुबह तो अच्छी भली थी फिर पता नहीं क्या हो गया शायद थोड़ा आराम करूंगी तो ठीक हो जाएगा।" छोटी बी का दिल अभी किसी से भी बात करने को नहीं चाह रहा था इसलिए उसने आराम का कहा था ताकि बैरम खान भी अभी उसकी जान छोड़ दे। कितना अजीब वक्त था उसके लिए जब से वह यहां शादी करके आई थी तब से बैरम खान को खुद से लताल्लुक ही पाया था। छोटी बी उनकी एक प्यार भरी नजर के लिए तरसती थी मगर उस से मोहब्बत का दावा करने वाला उसके दावेदार के पास छोटी बी के लिए एक मोहब्बत भरी नजर भी नहीं थी या शायद थी मगर लोगों की नज़रों में अपना भरम बनाए रखना चाहता था। और अभी जब से बैरम खान को यह पता चला था कि वह उसके बच्चे की मां बनने वाली है बैरम खान ने सारे रीति रिवाज को जैसे ताक पर रख दिया था मगर अभी छोटी बी का ही दिल नहीं चाह रहा था की बैरम खान फिलहाल उसके पास ठहरे। और बैरम खान अभी उसे किसी हाल में भी छोड़ कर जाने को तैयार नहीं थे इसीलिए वह उठे थे आगे चलकर उन्होंने दरवाजे की कुंडी लगाई थी और वापस से छोटी बी के पास आ गए थे। उसका सर तकिये पर रखा था और उसके सर पे हल्के हाथों से थपकी देते रहे थे और थोड़ी ही देर के बाद छोटी बी को जैसे सुकून मिला था और उन्हें नींद आ गई थी। सुकून दे न सकीं राहतें ज़माने की जो नींद आई तिरे ग़म की छाँव में आई ***** "क्या हुआ साहिबा कॉलेज नहीं जाना क्या?" छोटी बी ने साहिबा से पूछा था। "तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं है भरजाई, मैं कॉलेज कैसे जाऊं?" उसकी बात पर छोटी बी ने हैरानी से उसे देखा था। "क्या हुआ है मेरी तबीयत को? यह मेरी खराब तबियत का बहाना बनाकर कॉलेज नागा करने की कोई जरूरत नहीं है।" छोटी बी नहीं उल्टा उसे डांटा था। "हां तुम क्यों समझोगी मेरी मोहब्बत को? मैं तो बस बहाना बना रही हूं।" साहिबा ने रूठ कर कहा था। "और नहीं तो क्या? बड़ी मोहब्बत है भरजाई से! मोहब्बत होती तो इस तरह बहाना बनाकर कॉलेज नागा ना करती, बल्कि भरजाई की मेहनत को समझती जो तेरे कॉलेज में दाखिला दिलाने के लिए की है मैंने।" छोटी बी ने नाराज़गी से कहते हुए खिड़की के परदे खोले थे। फिर बैरम खान के बग़ैर धुले हुए कपड़ों को इकट्ठा किया था। साहिबा उन्हें मुंह फुला कर देखती रह गई थी मगर उसकी सोच में इस वक़्त कोई और ही छन से आ गया था और वह कोई और नहीं शहान मिर्जा था। एक वजह छोटी बी की खराब तबियत थी मगर असल वजह शाहान मिर्जा था उसके कॉलेज ना जाने के पीछे। छोटी बी तो माशा अल्लाह बिल्कुल ठीक हो चुकी थी। उन्होंने अपने दिल को समझा लिया था अब जो भी है उसका बस इसी घर में है। तो क्या हुआ अगर उसका मायका सात समंदर पार जा बसा था, जिस के लिए मायका छोड़ा था वो तो साथ था। अब तो ये रिश्ता और भी ज्यादा मजबूत होने वाला था एक नई और नन्ही सी जिंदगी जो उन से जुड़ने वाली थी। बच्चे के हो जाने के बाद फिर कहां इतनी फुर्सत होती की बैठ कर मायके को सोचती और उसकी याद में आंसू बहाती। आगे जारी है:-

  • 18. मैं हारी! - Chapter 18

    Words: 1017

    Estimated Reading Time: 7 min

    पूरे रास्ते पर कलमा पढ़ती और दुआएं मांगती हुई आई थी कि उसका सामना फिर से शहान मिर्जा के ग्रुप से ना हो। शुक्र था के दुआ कबूल हुई थी। उसका ग्रुप उसे दिखा था मगर काफी दूर और उन में से कोई भी उठकर उसके पास नहीं आया था। साहिबा तेज रफ्तार में चलती हुई अपनी क्लास की तरफ बढ़ गई थी और दीवार के साथ टीन बेंच छोड़ कर एक खाली जगह पर बैठ गई थी। थोड़ी देर के बाद एक पतली दुबली सी लड़की क्लास में दाखिल हुई थी कुछ लम्हे खड़े होकर इधर उधर देखा था और फिर कुछ सोच कर साहिबा के पास आई थी और हेलो कहा था। साहिबा ने बोहत हौले से उसका जवाब दिया था। "क्या मैं यहां बैठ सकती हूं?" उसने इजाजत तालाब की थी। "हां ... हां जरूर।" बेंच पर रखा अपना बैग साहिबा ने जल्दी से हटा कर उसके बैठने के लिए जगह खाली की थी। वह लड़की जिसने हल्का आसमानी रंग की सलवार कमीज़ के साथ हम रंग दुपट्टा ओढ़ रखा था मुस्कुरा कर उसके बगल में बैठ गई थी। "मेरा नाम अन्वरा है और तुम्हारा?" उस लड़की ने ख़ुश होकर पूछा था। "साहिबा।" साहिबा ने भी मुस्कुरा कर जवाब दिया। "नाम तो बड़ा प्यारा है तुम्हारा!" अन्वरा ने चहक कर कहा था। साहिबा इस बार भी सिर्फ़ मुस्कुरा कर रह गई थी। थोड़ी देर के बाद क्लास शुरू हो गई और इसी दरमियाँ दोनों की हल्की फुलकी गुफ़्तगू भी चलती रही। उसकी बातों से साहिबा को खासी हिम्मत मिली थी के वह इस कॉलेज में अकेली नहीं है। अन्वरा का साथ उसे किसी क्लास खत्म होते ही अन्वरा ने कहा था। "यार भूख से दम निकला जा रहा है, चलो कैंटीन चलते है।" अन्वरा ने अपने धँसे हुए पेट पे हाथ रख कर कहा था। "लेकिन थोड़ी देर में क्लास शुरू होने वाली है।" साहिबा ने बेचार्गी से उसे याद दिलाया था। "यार क्लास को मारो गोली वरना भूख से मैं मर जाऊंगी।"  अन्वरा ने मज़लूमाना अंदाज़ इख़्तियार करते हुए कहा था। ना चाहते हुए भी साहिबा को उठकर उसके साथ चलना पड़ा था। वह दोनों कैंटीन के काउंटर पर अपना आर्डर लिखवा कर एक खाली मेज़ देख कर बैठ गई थी तभी अन्वरा को अपने पड़ोस में रहने वाली शमा दिख गई थी जो इसी कॉलेज में पढ़ती थी और साहिबा और अन्वरा से सीनियर भी थी। अन्वरा ने उसे आवाज लगाई तो शमा उसकी तरफ आ गई थी। वह दोनों बातों में मसरूफ हो गई थी साथ में पैटीज़ और सैंडविच से भी बराबर इंसाफ़ हो रहा था और साहिबा छोटे छोटे लुकमा लेकर उसे चबा कर निगलने में पांच मिनट लगा रही थी। वह हरगिज़ कमगो नहीं थी मगर ये उसकी शख्सियत का हिस्सा था की नई जगह में नए लोगों के सामने खुलने में उसे वक़्त लगता था इसलिए वह ज्यादतर चुप ही रही थी और इधर-उधर देख रही थी। थोड़ी देर के बाद शमा वहाँ से जाने को हुई थी, मेज़ पे रखी अपनी किताबें उठा रही थी तभी शहान मिर्ज़ा समेत उस का ग्रुप कैंटीन में दाख़िल हुआ था और उन्हें देखकर कैंटीन में सरगोशियां शुरू होने लगी थी। सबकी नजर उन्हें पर उठी थी। "वह क्या शान है?" अन्वरा के लबों से बेसाख्ता निकला था और साहिब भी नजर उठा कर उन चारों लड़कों को देखने लगी थी और ये देखते ही जैसे उस पे घबराहट तारी हो गई थी। "शान नहीं शहान.... शहान मिर्जा..." उन लड़कों को देखकर शमा उसे बताया था। "कौन शहान मिर्जा?" अन्वरा ने उन चारों को देखते हुए पूछा था। "वह जो दरमियां में है ना, स्मार्ट और हैंडसम सा, अरे ब्लैक टी-शर्ट वाला! वही है शहान मिर्जा, ग्रेजुएशन में हमारे कॉलेज का टॉपर हुआ करता था फिर जाने क्या ट्रेजेडी हुई इसके साथ के मास्टर्स में पिछले दो सालों से फेल होता आ रहा है और आवारा गर्दी तो मत ही पूछो.... एक नंबर का फ्लर्ट है मगर कमाल की बात है फ्लर्ट भी अपने ही मयार की लड़कियों के साथ करता है और उसकी सारी गर्लफ्रेंड एक से बढ़ कर एक होती है। वैसे उसका ग्रुप ही एक नंबर के फ़्लर्ट है। इसलिए मेरा मशवरा है इनसे थोड़ा बचकर रहना।" शमा ने मुस्कुराते हुए राजदारी से कहा था। ये सुन कर साहिबा ने तुरंत अपनी नजर उन लोगों से हटा ली थी और नजरे झुका कर अपनी प्लेट की तरफ मुतावज्जोह हो गई थी। "अरे बाप रे! बच कर तो रहना ही पड़ेगा।" अन्वरा ने डरते हुए कहा था। "ओके यार! तुम दोनों इंजॉय करो, मेरी क्लास का वक्त हो गया है।" शमा ने उनसे इजाजत लेकर वहां से निकल गई थी। "साहिबा थोड़ा जल्दी मुंह चलाओ यार वरना हमारी भी क्लास छूट जाएगी, इतने धीमे से भला कौन खाता है यार!" अन्वरा ने हंस कर उसे में टोका था। "खा तो रही हूं।" साहिबा ने मुस्कुरा कर उसे जवाब दिया था और पानी की बोतल अपने होठों से लगा ली थी तभी उसे अपने चेहरे पर किसी की नजरों की तपिश महसूस हुई थी, उसने नजर उठा कर देखा था और धक से होकर रह गई थी। शहान मिर्जा बड़ी दिलचस्पी से उसे ही देख रहा था। साहिबा का हाथ बेइख्तियार ही अपने सरकते हुए दुपट्टे की जानिब उठा था। **** पलवशा कॉलेज आई थी और पूरे कॉलेज में उसकी नज़र इधर से उधर यामीर को तलाश करती रही थी मगर वह उसे कहीं नहीं दिखा था और यह देखकर पलवशा पर अब चिड़चिड़ाहट तारी हो गई थी। वक्त वक्त की बात है और सब का वक्त बदलता है, हालात बदलते हैं, अच्छे हो या बुरे जज्बात भी बदलते हैं। और बदली तो पलवशा भी थी। कल तक जिस पलवशा को अगर यह पता चल जाता कि वह जहां पर खड़ी है वहीं आसपास यामीर भी मौजूद है तो वह मूंह ऐंठ कर वहां से हट जाया करती थी। अगर उसे पता होता उसकी बाई तरफ उसके यामीर खड़ा है तो वह पुरा दिन कॉलेज में बाई तरफ़ नजर भी नहीं डालती थी और आज यह आलम था कि वह परेशान हो हो कर उसे तलाश कर रही थी। भले ही इसके पीछे वजह कोई भी थी मगर बड़ी बोल आज अपना असर खो रही थी। आगे जारी है:-

  • 19. मैं हारी! - Chapter 19

    Words: 1019

    Estimated Reading Time: 7 min

    "क्या बात है इतनी बौखलाई बौखलाई सी क्यों फिर रही हो?" अदिति ने उसे पूछा था। "मैं भला क्यों बौखलाऊँगी?" उसने सफ़ेद झूठ बोला था फिर याद आया कि झूठ बोलने की क्या जरूरत है वजह तो है ही पास में। "अरे! उस जनाब को ढूंढ रही हूँ।" "कौन से जनाब?" अदिति का ध्यान यामीर की तरफ़ नहीं गया था। "वहीं यामीर खान, दिखाई नहीं दे रहा।" पलवशा ने झुंझला कर कहा। "तुम क्यों उसे ढूंढ रही हो?" अतिथि को याद नहीं था इसलिए उसने पूछा था। "भूल गई शर्त लगाई थी मैंने! उसे ही अंजाम देने का सोच रही हूं, शुरुआत कहीं से तो करनी होगी ना।" पलवशा ने उसे याद दिलाते हुए कहा था। अदिति खामोश हो गई थी। "पता नहीं, सुबह से तो नहीं देखा है।" थोड़ी देर के बाद उसने कुछ सोच कर कहा था। "अजीब भर्ष्ट कॉलेज है यह। महाशय बिना अटेंडेंस के एग्जाम में बैठा दिए जाते हैं। सब पैसे का जोर है इसलिए तो इतनी अकड़ है सारी अकड़ निकाल दूँगी। ऐसा शॉक दूँगी की किसी को अकड़ दिखाना तो दूर की बात, मूंह दिखाने के लायक नहीं रहेगा। ऐसा मूंह के बल गिराउंगी देख लेना।" पलवशा ने चिढ़कर कहा था। तभी पीछे से किरण आई थी और उसके कंधों के गिर्द बाजू फैला कर उसने कहा था "इंशाल्लाह" उसके इंशाल्लाह पर पलवशा मुस्कुरा उठी थी। "वैसे इस चांद का दीदार कहां हो सकता है any idea!" पलवशा ने किरण से हंसकर पूछा था। "चांद का पता तो सिर्फ चांदनी ही बता सकती है।" किरण ने भी आंख दबाकर मजाक में कहा था। "हाए! अब कहां ढूंढो उसकी चांदनी को?" पलवशा ने भी आह भर कर एक अदा से कहा तो अदिति और किरण दोनों मिलकर हंसने लगी थी। थोड़ी देर के बाद उन्हें माशा ने भी ज्वाइन कर लिया था। यहां वहां से पता लगाकर आखिरकार पलवशा को यामीर के घर का पता मिल ही गया था और अब वह कॉलेज के बाद उसके घर जाने का सोच रही थी। "अरे जा तो रही हूं मगर उस से कहोगी क्या?" स्मिता ने पूछा था। "मैं तो तुम लोगों को बताना भूल गई। कल हीरो ने मेरी मदद की थी, उसी का शुक्रिया अदा करने के बहाने से जा रही हूं।" पलवशा ने अपनी पेशानी पे एक चपत लगा कर कहा था। "कैसी मदद?" अदिति ने पूछा था मगर यही सवाल वहाँ पे खड़ी सभी लड़कियों का था। "गुंडो से बचाया था।" पलवशा ने गुंडों पर ज़ोर देते हुए कहा था। "क्या सच में!" उसकी बात पर किसी को यकीन नहीं हुआ था। "अरे यार कसम से सच कह रही हूं, मुझे खुद भी नहीं पता था की यही महाशय यामीर खान है। वह तो जब मैं उसे क्लिनिक लेकर गई और डॉक्टर ने जब उसका नाम पूछा तब मैं भी शॉक में रह गई थी। इतनी ज़ोर की शॉक लगी थी की मैं उसका शुक्र अदा तक नहीं सकी। सोच रही हूं थैंक यू कहने के बहाने से ही बात आगे बढ़ेगी। उससे मिलना जुलना और थोड़ी जान पहचान भी हो जाएगी। लेकिन एक बात तो मानना पड़ेगा अल्लाह भी मेरी मदद कर रहा है उसके घमंड को चकनाचूर करने में। वरना देखो किस तरह से ग़ैब से उसे अल्लाह ने मेरी मदद के लिए भेज दिया...." अभी पलवशा आगे कुछ और भी कहते जब ही अदिति ने उसे बीच में ही रोक कर पूछा था। "तुम उसे क्लिनिक क्यों लेकर गई थी?" उसने कद्रे हैरान होकर पूछा था। "हीरो बन रहा था, सो महाशय को अच्छी ख़ासी चोट लग गई थी।" पलवशा ने बेपरवाही से कहा था। कल रात तक पलवशा यामीर को लेकर जितना परेशान और उलझी हुई थी अभी उसका ज़रा भी रमक कहीं पर भी नहीं था। "कितनी पत्थर दिल हो यार तुम! तुम उसका शुक्र अदा भू अपने मतलब से कर रही हो। तुम किसी की मदद का यह सिला देने जा रही हो!" अदिति ने नागवरी से उससे कहा था। "और उसने जो अब तक लड़कियों को दिया है वह? उसके बारे में क्या ख्याल है तुम्हारा?" पलवशा ने पूरी रात ख़ुद को समझा बुझा कर वापस से अपनी सुई उसी जगह अटका ली थी। "तुमसे तो बात करना ही बेकार हो गया है, जो करना है करो मगर एक बात याद रखना इन सब चक्करों में कहीं तुम ही बुरी तरह फंस के ना रह जाओ। किसी को मुंह के बाल गिरने में कहीं ऐसा ना हो की तुम ही मुंह के बाल गिर जाओ।" अदिति से उसकी बेहिसि बर्दाशत नहीं हुई तो चिढ़कर कहा था। पलवशा उसे नागवारी से देखती रह गई मगर कुछ कहा नहीं। कॉलेज खत्म होने के बाद पलवशा ने एक छोटा फ्रूट का बास्केट खरीदा था और एक कैब करके यामीर के बंगले में पहुंच गई थी। ***** बैरम खान सुबह सवेरे काम के लिए निकल रहे थे जब ही छोटी बी ने उनसे कहा था, "मुझे डॉक्टर के पास जाना है।" उसकी बात सुनकर बैरम खान घबरा उठे थे, "क्या हुआ तुम्हें? तबीयत तो ठीक है ना?" उन्होंने छोटी बी को शानों से थाम कर पूछा था। "हां मैं ठीक हूं मगर डॉक्टर से चेकअप करवाना तो जरूरी है ना! सोच रही है उनसे मिल आऊँ, मुझे तसल्ली हो जाएगी।" उसकी बात सुनकर बैरम खान थोड़े ठंडा पड़ गए थे। "ठीक है तुम अम्मा बी से जाकर कह दो, वो तुम्हें ले जायेंगी।" "मैंने शादी तुमसे की है, अम्मा बी से नहीं। मेरी हर छोटी बड़ी जिम्मेदारी तुम्हारे कंधों पे होनी चाहिए ना की अम्मा बी के। मुझे डॉक्टर के यहां जाना है और तुम ही मुझे लेकर जाओगे।" छोटी बी ने गुस्से में उन्हें जताते हुए कहा था। "ये ज़िद तुम्हारी बेकार है, मैं तुम्हें लेकर नहीं जा सकता और ना ही अम्मा बी से इस बारे में कुछ कह सकता हूँ। तुम्हें ख़ुद अम्मा बी से इस बारे में बात करनी होगी।" बैरम खान ने भी इस दफ़ा ज़िद्दी लहजे में कहा था। "ना मैं उनसे कुछ कहूंगी, और ना ही उनके साथ जाऊंगी।" छोटी बी अड़ चुकी थी। "नहीं जाना है तो बैठी रहो घर पर।" बैरम खान यह कहकर गुस्से में कमरे से निकल गए थे और छोटी बी बैरम खान की इस बेरुखी पर आंसू बहा कर रह गई थी। आगे जारी है:-

  • 20. मैं हारी! - Chapter 20

    Words: 1009

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    कोई और बात होती तो वह अपनी बात पर अड़ी रहती और डॉक्टर को तब तक ना दिखाती जब तक बैरम खान खुद उसे डॉक्टर के पास ना लेकर जाते मगर यहाँ बात उसके होने वाले बच्चे की थी। हर वक्त अकड़ के रहना समझदारी नहीं होती। इंसानों में लचीलापन भी होना चाहिए और यही लचीलापन उसने आखिरकार ना चाहते हुए भी अम्मा बी के सामने इख़्तियार कर लिया था। "डॉक्टर के पास क्यों जाना है? क्या परेशानी आ गई भला? कोई तकलीफ है?" बड़ी बी ने झाड़ते हुए छोटी बी से पूछा था। "थोड़ी सी कमजोरी लग रही है।" छोटी बी ने जवाब दिया था। "तो खाओ, पीयो बीबी, किस चीज की कमी है घर में? मैं खेरा से कह दूंगी तुम्हारे लिए तुर्री (सूखे मेवों का हलवा) बना देगी और सूखे मेंवो के डब्बे तो पड़े ही होंगे तुम्हारे कमरे में। क्यों नहीं खाती?" बड़ी बी ने डांटते हुए कहा था। "वह सब तो ठीक है लेकिन मैं अपनी तसल्ली के लिए एक दफा डॉक्टर को दिखाना चाहती हूँ।" छोटी बी ने सच्चाई से कहा था। जिसे सुनकर बड़ी बी की तेवरियाँ चढ़ गई थी। "अभी कितना महीना चल रहा है? दूसरे महीना ना! ऐसी भी क्या तसल्ली करनी है बीबी। यह गांव है गांव, तुम्हारा शहर नहीं के बच्चा नहीं पैदा कर रहे की कोई अजूबा काम सर अंजाम दे रहे हों। हर दूसरे तीसरे दिन औरतें बच्चा जनती है, इस तरह सर पर सवार नहीं करती की देखो मैं बच्चा जनने जा रही हूं, पहाड़ तोड़ रही हूँ।" बड़ी बी ने फिर से तीर चलाए थे। छोटी बी उनका चेहरा देखती रह गई थी। उनके ऐसे देखने पर बड़ी बी ने फिर से कहा था। "मैं दाई को बुला दूंगी, वह जांच कर लेगी कि बच्चा ठीक है कि नहीं।" उन्होंने जैसे ये कह कर छोटी बी पर एहसान कर दिया था। छोटी बी को पता था की उनसे बहस करना दीवार से सर फोड़ने जैसा है इसलिए उन्होंने मज़ीद कुछ नहीं कहा और चुपचाप अपने कमरे आ गई। पूरा दिन मुरझाई मुरझाई पड़ी रही। शाम में जब बैरम खान मिल से लौटे तो उनका बुझा हुआ चेहरा देखकर वह खुद भी बुझ गए। सुबह अपनी ज्यादती याद आई थी। अपने कमरे में फ्रेश होने के बाद छोटी बी से बिना कुछ कहे सीधा बैठक में चले गए थे। जहां गांव के कुछ लोग हर रोज इकट्ठा हुआ करते थे। चाय नाश्ता उनका वही होता था। वह बैठक में किसी मुद्दे पर बातें करते रहे लेकिन उनका सारा ध्यान छोटे बी की तरफ ही था और उनका उदास चेहरे की तरह। बेचैन होकर जल्दी से घर के अंदर दाख़िल हुए थे। जल्द ही खाना लगाने को कहा था। खा पी कर आराम करने की गरज से अपने कमरे में लौट आए थे। छोटी बी किचन में थी। उन्होंने नौकर के ज़रिये उन्हें अपने कमरे में बुलाया था। छोटी बी जब कमरे में दाखिल हुई तो वह बिस्तर पर लेटे अखबार पढ़ रहे थे। छोटी बी का दिल तो नहीं चाहा था कि उनसे कुछ बोले मगर उन्होंने बुलाया था तो पूछना पड़ा "तुम ने मुझे बुलाया था?" उन्होंने बड़ी आहिस्तगी से पूछा था। "हां अम्मा से बात की थी तुमने?" छोटे बी कुछ लम्हे के लिए खामोशी से उनका चेहरा देखती रही। "कुछ पूछ रहा हूं तुमसे?" बैरम खान को थोड़ा गुस्सा आया था। "हां, बात की थी। उन्होंने कहा है की दाई को बुला देंगी।" उन्होंने बैरम खान की तरफ़ देखे बग़ैर जवाब दिया था। "और तुम इसलिए उदास हो?" उन्होंने छोटी बी से पूछा था। "तो तुम्हें फ़िक्र है मेरी!" छोटी बी ने उन्हें देख कर अपने मन में सोचा था। बैरम खान उनके जवाब के मुंतज़िर थे। "नहीं उदास तो नहीं हूँ, मगर कुछ अच्छा भी नहीं लग रहा।" छोटी बी कह कर बैरम खान को नज़र अंदाज़ करती तकिया ठीक करने लगी थी। बैरम खान ने उनका हाथ पकड़ लिया था और उन्हें बड़ी आहिस्तगी से खींच कर अपने करीब किया था। "क्या डॉक्टर के पास जाना इतना ज्यादा जरूरी है?" उन्होंने छोटी बी से पूछा था। "हां बहुत जरूरी है और कुछ टेस्ट भी करवाने बहुत जरूरी है।" इस जताती मोहब्बत पर छोटी बी का गला भर आया था। "क्यों?" बैरम खान ने वजह मांगी थी साथ में उसे अपने थोड़ा और करीब कर लिया था। "ऐसी हालत में हार्मोन बड़ी तेजी से बदलते हैं और हार्मोन ऊपर नीचे होने के कारण बहुत अलग-अलग तरह की बीमारियां भी पनपने लगती हैं जिसका सीधा असर मां से होते हुए बच्चे पर पड़ता है। मैं बस एक बार डॉक्टर से मिलकर अपनी तसल्ली करना चाहती हूँ की सब ठीक तो है ना। " अम्मा बी की बातों का बुरा मत माना करो, इस गाँव में जब तक बोहत ज़रूरत नहीं पड़ती कोई डॉक्टर के पास नहीं जाता, और प्रेग्नैंसी में तो शायद बोहत कम। मगर इसका ये मतलब नहीं की यहाँ बच्चे पैदा ही नहीं होते। गाँव की दाईयां बड़े बड़े डॉक्टर को फ़ैल कर देंगी।" बैरम खान उन्हें समझ रहे थे तभी छोटी बी ने उनकी बात को काटकर कहा था। "अगर मेरे अंदर कोई कमी रही या फिर मेरे बच्चे के अंदर तो यह बात दाई को कैसे पता चलेगी?" उनकी बात सुनकर बैरम खान थोड़ी देर के लिए खामोश हो गए थे। फिर उन्होंने कहा था। "मैं अम्मा बी से बात करूंगा।" बैरम खान ने उन्हें तसल्ली दी थी। छोटी बी यह सुनकर भी बहुत ज्यादा खुश नहीं हुई थी। उन्हें ज़्यादा खुशी तब मिलती जब वह कहते की "ठीक है मैं तुम्हें लेकर चलूंगा।" उनका अभी भी उदास चेहरा देखकर बैरम खान ने उनके चेहरे को अपने हाथों में थमते हुए कहा था। "यह औरतों के मामले हैं इसमें मर्द का बोलना या अमल दखल करना सही नहीं माना जाता। फिर भी मैं तुम्हारे लिए अम्मा की नजरों में बेशर्म बन कर तुम्हारी हिमायत में कहूंगा, लेकिन प्लीज ज़िद मत करना कि मैं तुम्हारे साथ चलूँ।' बैरम खान ने उन्हें समझाया था और छोटे बी ने नजरे झुका कर हामी भरी थी। इतना आसान नहीं था हर बात पर एहतिजाज करना और अपनी मनवाना। कुछ चीज़ें उन्होंने बोहत अहम चीज़ों के लिए छोड़ दी थी। आगे जारी है:-