ये कहानी है देव सिंह राठौर और रोज अग्रवाल की । देव सिंह राठौर जिसके बिना बिजनेस वर्ल्ड का एक पत्ता भी नही हिलता उसे बिजनेस किंग के नाम से जानते है। वो एक जिद्दी घमंडी और सनकी इंसान था, वो बस अपनी बात मनवाना जानता था। अनजाने में उसकी नजर रोज पर पड़ी औ... ये कहानी है देव सिंह राठौर और रोज अग्रवाल की । देव सिंह राठौर जिसके बिना बिजनेस वर्ल्ड का एक पत्ता भी नही हिलता उसे बिजनेस किंग के नाम से जानते है। वो एक जिद्दी घमंडी और सनकी इंसान था, वो बस अपनी बात मनवाना जानता था। अनजाने में उसकी नजर रोज पर पड़ी और वो उसकी सनक बन गयी। जिसके बाद वो कैसे भी कर के रोज को पाना चाहताथा।ए रोज ! जो बेहद खूबसूरत और सुलझी हुई अनाथ लड़की थी।रोज अनजान थी देव के अस्तित्व से। क्या होगा जब रोज को एहसास को होगा देव के अस्तित्व के बारे में?क्या देव का जूनून बनेगा रोज के लिए मुसीबत
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रोज अग्रवाल की ज़िंदगी किसी आम लड़की जैसी कभी नहीं रही। जिस उम्र में बच्चे माँ-बाप की उँगली पकड़कर स्कूल जाते हैं, उसी उम्र में उसने अपने माता-पिता को खो दिया। वो महज़ एक साल की थी, जब उसका संसार बिखर गया। अनाथालय ही उसका घर बन गया, और वहाँ की कठोर दीवारें ही उसका परिवार।
बचपन में कई बार उसने देखा था कि कैसे त्योहारों पर दूसरे बच्चों के घर से लोग उन्हें लेने आते थे, रंग-बिरंगे कपड़े पहनाते थे, तोहफ़े देते थे। लेकिन उसके लिए त्योहार बस अनाथालय की चारदीवारी और वही पुराने कपड़े थे। हाँ, वहाँ की दयालु मैट्रन कभी-कभी उसे कह देती थीं — “रोज, तुम बहुत सुंदर हो, तुम्हें देखो तो लगता है मानो किसी परी की तस्वीर हो।” लेकिन रोज हमेशा मुस्कुराकर रह जाती थी। उसने बचपन में ही सीख लिया था कि किसी भी चीज़ की उम्मीद करना, फिर न मिलना, सबसे बड़ा दर्द होता है।
धीरे-धीरे समय बीता। रोज बड़ी होती गई। उसके चेहरे की मासूमियत अब और भी निखर गई थी। उसके गालों पर हल्की-सी मुस्कान हमेशा रहती थी, आँखों में चमक और बालों की लटें उसके मासूम चेहरे को ढँक लेती थीं। पर सबसे अलग था उसका स्वभाव। ज़िंदगी ने चाहे कितनी भी मुश्किलें दी हों, लेकिन रोज के अंदर कड़वाहट नाम की चीज़ नहीं थी। वह दूसरों के लिए जीना जानती थी, मदद करना जानती थी, और अपने दुख को मुस्कान के पीछे छुपाना भी।
कॉलेज में पढ़ाई करते हुए वह पास के एक छोटे-से बुकस्टोर में पार्ट-टाइम जॉब करती थी। किताबें ही उसका असली सहारा थीं। किताबों की खुशबू, पुराने पन्नों की सरसराहट और उनमें छिपी कहानियाँ — यही सब रोज की ज़िंदगी का हिस्सा थे। वह कहती थी — “किताबें इंसान का सबसे अच्छा दोस्त होती हैं, क्योंकि ये कभी धोखा नहीं देतीं।”
बुकस्टोर में अक्सर कुछ लोग आकर उससे बातें कर लेते थे। उसकी विनम्रता और सलीका सबको पसंद आता। लेकिन रोज हमेशा एक दूरी बनाए रखती। उसे पता था कि लोग आते-जाते रहते हैं, पर ज़िंदगी में ठहराव सिर्फ़ खुद की मेहनत से आता है।
रोज का सपना था कि वह पढ़ाई पूरी करके खुद का एक छोटा-सा कैफ़े और लाइब्रेरी खोले, जहाँ लोग किताबें पढ़ें, कॉफ़ी पिएं और सुकून महसूस करें। वह सोचती थी कि दुनिया चाहे कितनी भी तेज़ क्यों न भागे, उसे लोगों को थोड़ी देर ठहरने की जगह देनी है।
लेकिन उसे क्या पता था कि उसकी यह मासूम-सी ख्वाहिशें, उसकी यह सादगी और उसकी यह मासूमियत किसी ऐसे इंसान की नज़र में आने वाली है, जो अपनी जिद्द के लिए पूरी दुनिया से लड़ सकता है।
उस रात रोज देर तक बुकस्टोर में रुकी थी। बाहर हल्की-हल्की बारिश हो रही थी। सड़क पर कुछ ही लोग थे। रोज ने अपनी किताबें समेटीं और बैग कंधे पर डाल लिया। उसने छाता खोला और धीरे-धीरे चलते हुए अनाथालय की तरफ बढ़ गई।
रास्ते में उसे हमेशा एक अजीब-सी शांति मिलती थी। रात का अँधेरा, सड़क किनारे टिमटिमाती लाइटें, बारिश की बूंदें और दूर से आती गाड़ियों की आवाज़ — सब उसे किसी अधूरी कहानी का हिस्सा लगते। वह सोचती थी कि शायद किसी दिन कोई उसकी अधूरी कहानी पूरी करेगा।
लेकिन उस रात, किसी और की नज़रें उसे चुपचाप देख रही थीं।
सड़क किनारे खड़ी एक काली गाड़ी की शीशे के पीछे से कोई उसकी चाल, उसके चेहरे की मासूमियत और उसकी हर हरकत पर नज़र रखे हुए था। उसकी आँखों में अजीब-सा जुनून था।
गाड़ी के अंदर बैठा शख्स कोई आम आदमी नहीं था। वह था — देव सिंह राठौर।
देव सिंह राठौर — बिज़नेस वर्ल्ड का बादशाह। लोग उसे बिज़नेस किंग कहते थे। कहा जाता था कि उसकी मर्ज़ी के बिना इस शहर में एक पत्ता भी नहीं हिलता। उसका साम्राज्य इतना बड़ा था कि लोग उसके नाम से ही काँप जाते थे।
देव की ज़िंदगी में सबकुछ था — दौलत, शोहरत, ताक़त। लेकिन इन सबके बावजूद उसके अंदर एक खालीपन था, जिसे वह कभी भर नहीं पाया। वह सनकी था, घमंडी था और जिद्दी भी। जो चीज़ उसे पसंद आ जाती, उसे पाने के लिए वह कुछ भी कर सकता था।
और उस रात, उसकी नज़र रोज पर पड़ी।
बारिश की बूंदों के बीच चलती हुई रोज, उसके हाथ में छाता, आँखों में मासूमियत और चेहरे पर सादगी की चमक — देव के लिए यह नज़ारा किसी नशे से कम नहीं था। उसने अपनी आँखें बंद कीं और फिर खोला। उसके होंठों पर हल्की-सी मुस्कान थी।
“अब यह लड़की मेरी सनक बनेगी।” — उसने धीरे से खुद से कहा।
रोज अनजान थी। उसे नहीं पता था कि कोई उसे देख रहा है। उसके लिए यह बस एक आम रात थी। लेकिन यह रात उसकी ज़िंदगी की सबसे बड़ी कहानी की शुरुआत बन चुकी थी।
देव सिंह राठौर... नाम सुनते ही बिज़नेस जगत के लोग सहम जाते थे। उसका व्यक्तित्व ही कुछ ऐसा था कि लोग उसकी मौजूदगी में साँस लेने से भी डरते। वह सिर्फ़ बिज़नेस मैन नहीं था, वह एक बादशाह था — और उसके इशारे पर पूरा साम्राज्य चलता था।
दिल्ली के बीचोंबीच बनी उसकी गगनचुंबी बिल्डिंग “राठौर एंपायर” शहर की सबसे ऊँची इमारतों में गिनी जाती थी। काँच की दीवारों वाली उस बिल्डिंग में रोज़ हज़ारों लोग काम करते, लेकिन सबके सिर पर एक ही साया था — देव सिंह राठौर का।
देव अपनी ज़िंदगी में बेहद सख्त और अनुशासनप्रिय था। उसके ऑफिस में देर से आने वाला आदमी दोबारा वहाँ नज़र नहीं आता। उसके सामने झूठ बोलने की हिम्मत किसी में नहीं थी। लोग कहते थे कि देव की नज़र इंसान के चेहरे से उसके झूठ तक पहुँच जाती है।
उसका अंदाज़ ही कुछ और था। महंगे सूट, आँखों में ठंडा लेकिन खतरनाक सन्नाटा, और हर वक़्त होंठों पर हल्की-सी मुस्कान जो किसी को भी असहज कर दे। देव की एक ही आदत थी — जो चीज़ उसे चाहिए, उसे वह हर हाल में हासिल करता। चाहे सामने वाला मान जाए या उसकी ज़िंदगी तबाह क्यों न हो।
उसके पास सबकुछ था — पैसा, ताक़त, दौलत, शोहरत। लेकिन उसके अंदर का खालीपन कभी मिट नहीं सका। लोग कहते थे कि देव ने कभी सच में किसी से मोहब्बत नहीं की। उसके लिए रिश्ते भी सौदे से ज़्यादा कुछ नहीं थे।
लेकिन उस रात, बारिश में छाते के नीचे चलती हुई एक लड़की ने उसके अंदर कुछ ऐसा जगा दिया, जिसकी उसने कभी उम्मीद नहीं की थी।
देव की नज़र रोज पर पड़ी थी। उस पल से रोज उसकी सनक बन गई।
गाड़ी के शीशे से उसे देखते हुए देव के दिमाग में कई ख्याल घूमने लगे।
"कौन है ये लड़की? कहाँ रहती है? किसकी है? नहीं… अब ये मेरी है।"
उसने अपनी आँखें बंद कीं और महसूस किया कि उसकी सांसें तेज़ हो गई हैं। किसी ने पहली बार उसकी दुनिया की शांति को तोड़ा था।
अगले ही दिन सुबह, देव अपने ऑफिस पहुँचा। उसकी मीटिंग थी देश के बड़े इंडस्ट्रियलिस्ट्स के साथ। कमरे में बैठे तमाम लोग उसके आने का इंतज़ार कर रहे थे। जैसे ही देव अंदर आया, सब खड़े हो गए। उसकी चाल, उसका आत्मविश्वास और उसकी आँखों का तेज़ सबको चुप करा देता।
“बैठो,” उसने हल्के स्वर में कहा, और सब फिर अपनी सीट पर बैठ गए।
मीटिंग शुरू हुई। करोड़ों के डील पर चर्चा हुई। लेकिन आज देव का मन कहीं और था। उसके सामने लोग बातें कर रहे थे, पर उसका दिमाग उस लड़की की ओर अटका हुआ था।
मीटिंग खत्म होते ही उसने अपने सबसे भरोसेमंद आदमी, रघु को बुलाया। रघु वही था, जिस पर देव आँख बंद करके भरोसा करता था।
“कल रात एक लड़की दिखी मुझे… बारिश में… छाता लेकर चल रही थी,” देव की आवाज़ ठंडी थी लेकिन उसके अंदर की बेचैनी साफ झलक रही थी।
रघु ने सिर झुकाकर कहा, “आप बताइए, मालिक। कहाँ और कब?”
देव ने उसे पूरा पता बताया। “पता लगाओ, वो लड़की कौन है, कहाँ रहती है, और उसके बारे में सबकुछ मुझे चाहिए।"
रघु को देव के आदेश की गंभीरता समझ आ गई थी। वह जानता था कि मालिक जब किसी चीज़ पर अटक जाता है, तो फिर उसके लिए नामुमकिन जैसी कोई चीज़ नहीं होती।
उस रात, जब रोज अनाथालय पहुँची, वह बिल्कुल अनजान थी कि उसकी हर हरकत पर अब किसी और की नज़र है।
रोज ने किताबें अपने कमरे में रखीं, कपड़े बदले और खिड़की के पास जाकर बैठ गई। बाहर अब बारिश थम चुकी थी। आसमान में कुछ तारे दिख रहे थे। उसने लंबी साँस ली और आँखें बंद कर लीं।
वो सोच रही थी कि ज़िंदगी अगर थोड़ी आसान होती, तो कितना अच्छा होता। कभी-कभी उसके दिल में यह कसक उठती थी कि काश उसके पास भी परिवार होता। लेकिन उसने खुद को संभालना सीख लिया था।
दूसरी तरफ, उसी रात देव अपने महल जैसे घर की बालकनी में खड़ा था। हाथ में शराब का गिलास, आँखें आसमान की ओर। उसके दिमाग में सिर्फ़ एक ही तस्वीर थी — रोज की।
“अब देखना, रोज अग्रवाल… तुमसे मिलने का वक्त मैं खुद तय करूँगा। तुम नहीं जानतीं कि किसकी नज़र तुम पर पड़ी है।”
उसके होंठों पर एक सनकी मुस्कान फैल गई।
सुबह की हल्की धूप खिड़की से छनकर रोज़ के कमरे में आ रही थी। वो हमेशा की तरह जल्दी उठी, बालों को बाँधकर शीशे के सामने खड़ी हुई और खुद से बोली,
“आज का दिन अच्छा होगा, रोज़। तुम्हें मेहनत करनी है, अपने सपने पूरे करने हैं।”
रोज़ के लिए हर दिन एक नई चुनौती होता था। अनाथालय से कॉलेज तक की दूरी, फिर पार्ट-टाइम जॉब, और फिर देर रात लौटना — यही उसकी दिनचर्या थी। लेकिन उसके चेहरे की मुस्कान कभी फीकी नहीं पड़ती थी।
उस दिन भी वो किताबों से भरा बैग लेकर बुकस्टोर पहुँची। बुकस्टोर उसका सबसे प्यारा ठिकाना था। किताबों की खुशबू, पुरानी कहानियाँ, और ग्राहकों से मिलने वाली मुस्कानें उसके दिल को सुकून देतीं।
“गुड मॉर्निंग रोज़!” दुकान के मालिक शर्मा अंकल ने मुस्कुराते हुए कहा।
“गुड मॉर्निंग अंकल!” रोज़ ने मुस्कुराकर जवाब दिया और काउंटर पर किताबें सजाने लगी।
उस दिन बुकस्टोर में हल्की भीड़ थी। कॉलेज के कुछ स्टूडेंट्स आए, ऑफिस जाने वाले लोग भी किताबें ले रहे थे। रोज़ सबको बड़ी तसल्ली और विनम्रता से हैंडल कर रही थी।
लेकिन उसे क्या पता था कि बाहर सड़क किनारे खड़ी एक गाड़ी से उसकी हर हरकत देखी जा रही थी।
देव सिंह राठौर, अपनी ब्लैक SUV में बैठा, रोज़ को देख रहा था। उसकी आँखों में वही सनक, वही जुनून था। उसके लिए रोज़ अब कोई आम लड़की नहीं रही थी। वो उसकी चाहत बन चुकी थी।
देव की निगाहें रोज़ के चेहरे से हट ही नहीं रही थीं। वो देख रहा था कि कैसे वो मुस्कुराकर ग्राहकों से बात करती है, कैसे किताबों को बड़े प्यार से संभालती है।
देव के चेहरे पर हल्की मुस्कान आई।
“ये मासूमियत... ये सादगी... अब ये सिर्फ़ मेरी होगी।”
उसने अपने ड्राइवर से कहा, “गाड़ी यहीं रोक कर रखो। मैं बाहर नहीं जाऊँगा। बस देखता रहूँगा।”
उस शाम जब बुकस्टोर बंद हुआ, रोज़ ने किताबें समेटीं और निकल पड़ी। देव की नज़रें अब भी उसका पीछा कर रही थीं।
लेकिन आज कुछ अलग हुआ।
जैसे ही रोज़ सड़क पर पहुँची, अचानक उसकी चप्पल का स्ट्रैप टूट गया। वो लड़खड़ाई और नीचे झुककर चप्पल सँभालने लगी। तभी उसके पीछे से एक लंबा-चौड़ा आदमी उसकी ओर बढ़ा। रोज़ घबराई, लेकिन उसने धीरे से कहा —
“मदद चाहिए?”
रोज़ ने सिर उठाया। उसके सामने रघु खड़ा था — देव का खास आदमी।
रोज़ ने हल्की मुस्कान दी, “नहीं, मैं संभाल लूँगी। शुक्रिया।”
रघु ने कुछ नहीं कहा, बस सिर हिलाया और धीरे से वापस चला गया। लेकिन उसने सबकुछ देख लिया था।
गाड़ी के अंदर बैठा देव मुस्कुराया।
“तो ये है उसकी आवाज़… इतनी मासूम… इतनी कोमल।”
रात को जब रोज़ अनाथालय लौटी, उसने इस छोटी-सी घटना को बस यूँ ही भुला दिया। उसके लिए यह एक आम दिन था।
लेकिन देव के लिए ये पहला कदम था। उसने अपने अंदर तय कर लिया था कि बहुत जल्द रोज़ उसकी ज़िंदगी में आएगी — चाहे उसकी मर्ज़ी हो या ना हो।
उस रात देव ने रघु को बुलाया।
“सबकुछ पता करो उसके बारे में। उसका अतीत, उसका वर्तमान, उसके सपने… सब। और अगर किसी ने उसे छूने की कोशिश की तो याद रखना, वो अब मेरी है।”
रघु ने सिर झुका लिया, “जी मालिक।”
रात गहरी हो गई थी। रोज़ खिड़की के पास बैठी थी, आसमान की ओर देख रही थी। उसे लग रहा था कि जैसे हवा में कोई अनजानी आहट है, कोई उसकी ओर देख रहा है।
उसने हल्की साँस ली और खुद से बोली,
“पता नहीं क्यों, आज मन बेचैन है।”
लेकिन वो नहीं जानती थी कि ये बेचैनी उसकी ज़िंदगी का सबसे बड़ा तूफ़ान बनने वाली है।
सुबह की ठंडी हवा रोज़ के चेहरे को छू रही थी। वो कॉलेज जाने की तैयारी में थी। आज उसने हल्की नीली ड्रेस पहनी थी, बालों को खुला छोड़ दिया था। आईने में खुद को देखकर मुस्कुराई। वो जानती थी कि उसकी ज़िंदगी कठिन है, लेकिन उसने हमेशा कोशिश की कि वो अपने चेहरे पर मुस्कान बनाए रखे।
कॉलेज का दिन सामान्य ही था। क्लास, नोट्स, लाइब्रेरी। लेकिन आज बार-बार उसे ऐसा महसूस हो रहा था जैसे कोई उसकी ओर देख रहा हो। कभी-कभी उसकी नज़र खिड़की से बाहर चली जाती, पर वहाँ कोई नहीं होता। उसने खुद को समझाया, “शायद मैं ही ज़्यादा सोच रही हूँ।”
लेकिन उसे क्या पता था कि उसका यह डर सच था।
कॉलेज के गेट से थोड़ी दूर पर एक काली कार खड़ी थी। कार के अंदर देव सिंह राठौर बैठा था, उसकी आँखें रोज़ पर टिकी थीं।
देव ने कभी किसी को देखने में इतना वक्त नहीं लगाया था। लेकिन रोज़ उसके लिए अलग थी। वो मानो किसी किताब का अनछुआ पन्ना थी, जिसे वो अपने नाम लिखना चाहता था।
उसने धीरे से बुदबुदाया,
“तुम्हें अब मेरे बिना रहना नहीं पड़ेगा, रोज़। तुम्हें पता भी नहीं है कि किसकी नज़र तुम पर है।”
उसके पास ताक़त थी, दौलत थी, और अब एक सनक भी।
शाम को जब रोज़ बुकस्टोर पहुँची, तो वहाँ पहले से ही एक ग्राहक खड़ा था। लंबा-चौड़ा, महंगे कपड़ों में। उसने कुछ किताबें चुनीं और रोज़ से कहा,
“क्या आप मुझे ये पैक कर देंगी?”
रोज़ ने मुस्कुराते हुए किताबें पैक कीं। लेकिन उसकी आँखें उस ग्राहक की नज़रों से परेशान हो गईं। वो आदमी बार-बार उसे घूर रहा था।
“लो जी।” रोज़ ने पैकिंग करके किताबें आगे बढ़ाईं।
“शुक्रिया,” उस आदमी ने कहा और बाहर चला गया।
रोज़ ने राहत की साँस ली, लेकिन उसे नहीं पता था कि वही आदमी देव का भेजा हुआ था। उसका काम सिर्फ़ इतना था — रोज़ को देखना, उसके बारे में जानना, और देव को खबर देना।
उस रात देव अपने घर के ऑफिस में बैठा था। सामने रोज़ की कुछ तस्वीरें रखी थीं — कॉलेज जाते हुए, बुकस्टोर में काम करते हुए, और अनाथालय में बच्चों के साथ।
देव ने तस्वीरों को देखते हुए मुस्कुराया।
“इतनी सादगी… इतनी मासूमियत… तुम्हें समझ ही नहीं आएगा रोज़ कि तुम अब मेरी हो चुकी हो।”
रघु कमरे में आया और बोला,
“मालिक, हमने सब पता लगा लिया है। रोज़ अग्रवाल, अनाथ, अनाथालय में पली-बढ़ी, कॉलेज की पढ़ाई कर रही है। पार्ट-टाइम जॉब करती है बुकस्टोर में। सपने हैं, लेकिन हालात उसके रास्ते में दीवार बनकर खड़े हैं।”
देव ने गहरी साँस ली।
“सपने पूरे करने की जिम्मेदारी अब मेरी होगी। लेकिन… उसके लिए उसे मेरे पास आना होगा।”
रोज़ उसी समय अपने कमरे की खिड़की पर बैठी थी। बाहर चाँदनी फैली थी। उसे अचानक फिर वही बेचैनी महसूस हुई। जैसे कोई उसे देख रहा हो, जैसे कोई उसका पीछा कर रहा हो।
उसने खिड़की बंद कर दी और बिस्तर पर लेट गई।
“पता नहीं क्यों, इन दिनों मुझे अजीब-सा डर लग रहा है।”
लेकिन रोज़ यह नहीं जानती थी कि यह डर किसी कल्पना का हिस्सा नहीं, बल्कि उसकी ज़िंदगी में धीरे-धीरे दस्तक देने वाला तूफ़ान था।
देव ने आख़िरी बार तस्वीरों को देखा और मुस्कुराया।
“रोज़… अब खेल शुरू होता है।”
रोज़ उस दिन बुकस्टोर में अकेली थी। शर्मा अंकल किसी काम से बाहर गए थे और दुकान की पूरी ज़िम्मेदारी उसी पर थी। शाम का समय था। बाहर हल्की बारिश हो रही थी।
रोज़ ने खिड़की से बाहर देखा और मुस्कुराई। बारिश उसे हमेशा सुकून देती थी। किताबों और बारिश की खुशबू — यही उसकी सबसे प्यारी चीज़ें थीं।
वो एक पुरानी किताब पलट रही थी कि तभी दरवाज़े पर लगी घंटी बजी।
टिंग-टिंग…
रोज़ ने सिर उठाया।
दरवाज़े से अंदर आया एक लंबा-चौड़ा शख्स। महंगा सूट, सधे हुए कदम, आँखों में ठंडा लेकिन गहरा सन्नाटा। उसकी मौजूदगी इतनी भारी थी कि जैसे पूरे कमरे की हवा रुक गई हो।
रोज़ ने अनजाने में उसकी ओर देखा और कुछ पल के लिए उसकी साँसें थम गईं। यह शख्स किसी आम ग्राहक जैसा नहीं था।
वो था — देव सिंह राठौर।
देव की आँखें सीधे रोज़ पर टिकी थीं। वो धीरे-धीरे उसकी ओर बढ़ा। हर कदम जैसे गूंज रहा था। रोज़ के हाथ किताब पर जमे रह गए।
“आपको… कौन-सी किताब चाहिए?” रोज़ ने हिम्मत करके कहा।
देव मुस्कुराया, लेकिन उसकी मुस्कान अजीब-सी थी। जैसे वो जवाब देने नहीं, सवाल पूछने आया हो।
“मुझे… वो किताब चाहिए, जिसमें मासूमियत हो… और थोड़ी जिद भी।” उसकी आवाज़ धीमी लेकिन भारी थी।
रोज़ चौंक गई। उसने कभी किसी ग्राहक को ऐसे अजीब शब्दों में किताब मांगते नहीं देखा था।
“माफ़ कीजिए, मैं समझी नहीं…” रोज़ ने हल्के स्वर में कहा।
देव पास आया और काउंटर पर झुक गया। उसकी आँखें सीधे रोज़ की आँखों में थीं।
“तुम समझ जाओगी… धीरे-धीरे।”
रोज़ को अजीब-सी घबराहट हुई। उसने जल्दी से शेल्फ से एक उपन्यास निकाला और आगे बढ़ा दिया।
“ये किताब… शायद आपको पसंद आए।”
देव ने किताब नहीं ली। उसने बस रोज़ का हाथ देखा, जो किताब पकड़े हुए था।
उसने धीरे से कहा,
“हाथ काँप क्यों रहे हैं? डरती हो मुझसे?”
रोज़ ने झटके से हाथ पीछे कर लिया।
“न-नहीं… बस ठंड लग रही है।”
देव हल्के से हँस पड़ा। उसकी हँसी में अजीब-सा सन्नाटा था।
“ठीक है… मैं ये किताब ले जाता हूँ।”
उसने किताब उठाई और जेब से पैसे निकाले। लेकिन उसने पैसे काउंटर पर नहीं रखे। उसने उन्हें रोज़ के हाथ में थमा दिया।
रोज़ का दिल तेजी से धड़कने लगा। उसे समझ नहीं आ रहा था कि इस अजनबी शख्स की मौजूदगी इतनी भारी क्यों लग रही है।
देव ने किताब उठाई और बाहर जाने लगा। दरवाज़े पर पहुँचकर उसने मुड़कर एक आख़िरी नज़र डाली।
“मिलते हैं… रोज़।”
रोज़ हक्का-बक्का रह गई।
“आप… मेरा नाम जानते हैं?”
देव की आँखों में वही सनक चमक उठी।
“हाँ… और बहुत जल्द तुम मेरे बारे में भी सब जान जाओगी।”
इतना कहकर वो बाहर चला गया। दरवाज़े की घंटी फिर बजी, और रोज़ के कानों में उसकी आवाज़ गूंजती रह गई।
रोज़ काउंटर पर बैठ गई। उसका दिल तेज़ी से धड़क रहा था।
“वो कौन था? और मेरा नाम उसे कैसे पता?”
उस रात रोज़ ने खिड़की से आसमान देखा। उसे लगा जैसे कोई अनजाना साया उसकी ज़िंदगी के दरवाज़े पर दस्तक दे चुका है।
दूसरी तरफ, देव अपनी गाड़ी में बैठा था। उसके होंठों पर वही सनकी मुस्कान थी।
“तो आखिरकार… हमारी मुलाक़ात हो ही गई, रोज़। अब खेल और दिलचस्प होगा।”
रोज़ उस रात देर तक सो नहीं सकी। बिस्तर पर लेटी रही, पर आँखों के सामने बार-बार वही चेहरा घूम रहा था — महंगे सूट वाला आदमी, गहरी नज़रें, भारी आवाज़, और जाते-जाते कहा गया वो वाक्य:
“मिलते हैं… रोज़।”
वो कैसे उसके नाम को जानता था? उसने तो कभी उससे मुलाक़ात तक नहीं की थी। या फिर… क्या उसने कहीं से उसके बारे में पता लगाया था? यह सोचकर ही रोज़ का दिल दहल गया।
सुबह वो थकी-थकी सी उठी। आईने में खुद को देखकर बोली,
“रोज़, तुम पागल हो रही हो। शायद ये सब बस तुम्हारा भ्रम है। लोग आते-जाते रहते हैं। उस आदमी ने नाम… हो सकता है दुकान से सुना हो।”
वो खुद को समझाने की कोशिश कर रही थी, लेकिन उसके दिल का डर गहराता जा रहा था।
उस दिन कॉलेज में भी उसका मन नहीं लगा। दोस्त बातें कर रहे थे, हँस रहे थे, लेकिन रोज़ हर वक्त बेचैन रही। बार-बार उसे लगता जैसे कोई उसे देख रहा हो।
और सचमुच… उसकी नज़रें गलत नहीं थीं।
कॉलेज गेट से थोड़ी दूरी पर खड़ी काली SUV में वही शख्स बैठा था — देव सिंह राठौर।
उसकी आँखें रोज़ के हर हावभाव पर टिकी थीं।
देव ने हल्की मुस्कान दी।
“डर रही हो… अच्छा है। डर इंसान को तोड़ता है, और टूटे हुए इंसान को संभालना आसान होता है।”
उसके लिए ये सब एक खेल था। एक सनकी खेल।
शाम को रोज़ बुकस्टोर पहुँची। दुकान में काम करते हुए भी उसका ध्यान बार-बार दरवाज़े की ओर जाता रहा। वो डर रही थी कि कहीं फिर से वही आदमी न आ जाए।
लेकिन आज देव खुद नहीं आया। उसकी जगह एक डिलीवरी बॉय आया और काउंटर पर एक बड़ा पैकेट रख गया।
“ये आपके लिए है, मैडम। नाम लिखा है — रोज़ अग्रवाल।”
रोज़ चौंक गई। उसने पैकेट खोला। अंदर एक बेहद खूबसूरत, महंगी किताब थी — लेदर कवर में बंधी हुई। लेकिन जब उसने किताब खोली, तो उसके पहले पन्ने पर सोने के अक्षरों से लिखा था —
“For the girl who doesn’t know she is my story… – D.S.R.”
रोज़ के हाथ काँप गए। उसका चेहरा सफेद पड़ गया।
“D.S.R.?” उसने बुदबुदाया।
उसका मन काँप उठा। उसे अब यक़ीन हो गया था कि ये कोई मज़ाक नहीं है। कोई उसकी ज़िंदगी में सचमुच कदम रख चुका है।
वो किताब बंद करके पीछे हट गई। दुकान में खामोशी छा गई। उसके कानों में वही भारी आवाज़ गूंजने लगी —
“तुम समझ जाओगी… धीरे-धीरे।”
रोज़ की आँखों में आँसू आ गए।
“आख़िर ये कौन है? और क्यों मेरे पीछे पड़ा है?”
रात को वो खिड़की के पास बैठी थी। हवा बह रही थी, लेकिन उसका दिल कांप रहा था। उसे लगा जैसे अँधेरे में कोई उसे देख रहा है।
वो खिड़की बंद करने ही वाली थी कि उसे दूर सड़क किनारे वही काली SUV दिखी। कार का शीशा काला था, लेकिन रोज़ को महसूस हुआ कि अंदर से कोई उसे देख रहा है।
उसके होंठ काँपे,
“हे भगवान… ये आखिर कौन है?”
दूसरी तरफ, कार के अंदर देव बैठा था। हाथ में वही किताब थी जिसकी एक कॉपी उसने रोज़ को भेजी थी। उसकी आँखों में जुनून की आग थी।
“डरना शुरू कर दिया है रोज़… बहुत जल्द तुम मेरी बाहों में भी आओगी। अब यह सिर्फ़ वक्त का खेल है।”
उसके होंठों पर वही सनकी मुस्कान थी।
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रोज़ के लिए पिछले कुछ दिन किसी बुरे सपने जैसे बीते। उस अजनबी आदमी की मौजूदगी, उसकी नज़रें, और फिर वो महंगी किताब जिस पर लिखा था “D.S.R.” — ये सब उसके दिल को अंदर तक हिला चुका था।
आज उसने तय किया कि वो इस रहस्य को सुलझाएगी। आखिर ये “D.S.R.” है कौन?
कॉलेज की लाइब्रेरी में बैठी रोज़ ने इंटरनेट पर खोज शुरू की। उसने गूगल सर्च में टाइप किया:
“D.S.R. initials business world”
कुछ सेकंड में स्क्रीन पर नाम उभर आया —
“देव सिंह राठौर – बिज़नेस किंग, राठौर एंपायर के मालिक।”
रोज़ की साँसें अटक गईं। स्क्रीन पर देव की तस्वीर थी। वही चेहरा… वही आँखें… वही शख्स जिसने बुकस्टोर में कदम रखा था।
उसके हाथ काँप गए।
“तो ये… वही है… देव सिंह राठौर! बिज़नेस किंग… जिसके बारे में अख़बारों में लिखा जाता है, जिसके नाम से लोग डरते हैं।”
उसका दिमाग सुन्न हो गया।
“लेकिन वो मेरे पीछे क्यों पड़ा है? मैं तो उसकी दुनिया का हिस्सा भी नहीं हूँ।”
उसने जल्दी से लैपटॉप बंद किया और गहरी साँस ली। दिल तेजी से धड़क रहा था। उसे लगा जैसे चारों ओर उसकी परछाईं फैली हो।
शाम को रोज़ बुकस्टोर पहुँची। लेकिन आज उसका मन बिल्कुल भी काम में नहीं लग रहा था। हर ग्राहक पर उसकी नज़रें जातीं, हर दरवाज़े की घंटी बजने पर उसका दिल काँप जाता।
करीब सात बजे दुकान बंद करने के बाद जब वो बाहर निकली, तो सड़क पर वही काली SUV खड़ी थी।
इस बार रोज़ ठिठक गई। उसका दिल जोर-जोर से धड़कने लगा। गाड़ी का शीशा धीरे-धीरे नीचे उतरा। और अंदर वही चेहरा नज़र आया।
देव सिंह राठौर।
उसकी नज़रें सीधे रोज़ की आँखों में थीं।
देव ने हल्की मुस्कान दी और धीरे से बोला,
“अब तो तुम जान ही चुकी हो, रोज़… मैं कौन हूँ।”
रोज़ के पैर काँप गए। उसने जल्दी से नजरें फेर लीं और तेज़ कदमों से आगे बढ़ने लगी। लेकिन पीछे से देव की आवाज़ गूंज उठी —
“भाग सकती हो मुझसे? रोज़… दुनिया मेरे नाम से काँपती है। और तुम सोचती हो कि तुम मुझसे बच जाओगी?”
रोज़ रुक गई। उसकी आँखों में आँसू आ गए, लेकिन उसने हिम्मत जुटाई और पलटकर देखा।
“आपको क्या चाहिए मुझसे? मैंने आपका क्या बिगाड़ा है?” उसकी आवाज़ काँप रही थी।
देव गाड़ी से उतरा। उसके कदम भारी और सधे हुए थे।
वो रोज़ के बिल्कुल पास आया और धीमे स्वर में बोला,
“तुम्हें समझ नहीं आएगा, रोज़। ये न चाहत है, न मोहब्बत… ये मेरी सनक है। और जो मेरी सनक बन जाए, वो किसी और का हो ही नहीं सकता।”
रोज़ के चेहरे पर डर साफ झलक रहा था। वो कुछ कहना चाहती थी, लेकिन शब्द गले में अटक गए।
देव ने उसकी आँखों में झाँकते हुए कहा,
“तुम्हें सोचने का वक़्त दूँगा… लेकिन याद रखना, तुम अब मेरी हो। चाहे मानो या न मानो।”
इतना कहकर वो वापस गाड़ी में बैठा और गाड़ी तेजी से आगे बढ़ गई।
रोज़ वहीं खड़ी रही। उसकी आँखों से आँसू बह निकले।
“हे भगवान… ये मेरे साथ क्या हो रहा है? ये आदमी कौन है… और मैं इससे कैसे बचूँ?”
रात को खिड़की से आसमान देखते हुए रोज़ ने मन में ठान लिया —
“मुझे इससे लड़ना होगा। मैं उसकी सनक का हिस्सा नहीं बन सकती।”
लेकिन उसके दिल में डर गहराता जा रहा था। क्योंकि अब उसे पता चल चुका था कि ये कोई आम इंसान नहीं… बल्कि देव सिंह राठौर है। और उससे टकराना आसान नहीं।
रोज़ उस रात बिल्कुल सो न सकी। आँखें मूँदती तो बार-बार वही चेहरा सामने आ जाता — देव सिंह राठौर। उसकी आँखों में जो जुनून था, वो किसी आग से कम न था।
सुबह उठकर उसने खुद से वादा किया,
“मुझे उससे दूर रहना है। चाहे कुछ भी हो, मैं उसकी ज़िंदगी का हिस्सा नहीं बनूँगी।”
वो कॉलेज गई तो दोस्तों ने नोटिस किया कि रोज़ चुप-चुप है। उसकी सबसे करीबी दोस्त सिम्मी ने पूछा,
“क्या हुआ रोज़? तुम इतनी परेशान क्यों लग रही हो?”
रोज़ ने हल्की हँसी के साथ कहा,
“कुछ नहीं… बस नींद पूरी नहीं हुई।”
लेकिन अंदर से वो टूट रही थी।
उसने तय किया कि अब से वो बुकस्टोर में कम से कम वक्त बिताएगी। पढ़ाई पर ध्यान देगी और जल्दी घर लौट आएगी। उसे लगा कि शायद इससे वो देव से बच पाएगी।
लेकिन देव कोई साधारण आदमी नहीं था।
शाम को जब वो जल्दी-जल्दी घर लौट रही थी, तो उसने देखा कि गली के कोने पर कुछ आदमी खड़े हैं। महंगे कपड़े पहने हुए, काले चश्मे लगाए। वो उसे अजीब सी नज़रों से देख रहे थे।
रोज़ का दिल धक से रह गया। उसने कदम तेज़ कर दिए। पीछे मुड़कर देखा तो वो लोग हँसते हुए इशारा कर रहे थे, लेकिन पीछे नहीं आए।
घर पहुँचकर उसने दरवाज़ा बंद किया और खुद को तकिये में छुपा लिया। आँखों से आँसू निकल पड़े।
“वो हर जगह है… मैं कहाँ जाऊँ?”
अगले दिन कॉलेज में एक और घटना घटी। उसके क्लास खत्म होने के बाद जब वो बाहर आई, तो गेट पर एक बड़ा सा गुलदस्ता रखा था। उस पर कार्ड में लिखा था:
“तुम चाहे जितनी दूर भागो, रोज़… मेरी नज़रें तुम्हारा पीछा करती रहेंगी। – D.S.R.”
अब उसके दोस्त हैरान थे। सिम्मी ने पूछा,
“ये कौन है? कोई तुम्हें प्रपोज कर रहा है?”
रोज़ के चेहरे पर डर साफ दिख रहा था। उसने गुलदस्ता उठाने से इनकार कर दिया और जल्दी से वहाँ से निकल गई।
लेकिन देव की पकड़ और कसती जा रही थी।
रोज़ ने बुकस्टोर छोड़ने का मन बनाया। मालिक से कहा,
“सर, मुझे कुछ दिनों की छुट्टी चाहिए।”
मालिक ने हैरानी से पूछा,
“अरे लेकिन क्यों? तुम तो बहुत जिम्मेदारी से काम करती हो।”
रोज़ ने बहाना बना दिया,
“बस… घर में कुछ समस्या है।”
वो चाहती थी कि देव के सामने कम आए। लेकिन उसी रात उसे एहसास हुआ कि उससे बचना आसान नहीं है।
उसके घर के बाहर वही काली SUV खड़ी थी। पर इस बार कार का शीशा थोड़ा नीचे था और रोज़ साफ देख पाई — अंदर देव खुद बैठा था।
उसकी नज़रें ठंडी और स्थिर थीं।
रोज़ का दिल कांप उठा। उसने खिड़की बंद कर ली और खुद को कमरे में कैद कर लिया। लेकिन उसकी साँसें भारी हो गईं।
“ये आदमी पागल है… ये मुझे छोड़ने वाला नहीं।”
दूसरी तरफ, देव अपनी कार में बैठा मुस्कुरा रहा था।
“दूरी? रोज़, तुम कोशिश कर सकती हो… लेकिन मैं तुम्हारे चारों तरफ़ एक ऐसा घेरा बुन रहा हूँ, जिससे निकलना नामुमकिन है।”
उसने मोबाइल उठाया और किसी को कॉल किया,
“उसके कॉलेज और घर के रास्तों पर नज़र रखो। मैं चाहता हूँ कि वो हर वक्त मेरे होने का एहसास करे।”
फोन रखते ही उसकी आँखों में वही जुनून चमक उठा।
रोज़ धीरे-धीरे समझ रही थी कि अब ये लड़ाई आसान नहीं होगी। ये सिर्फ़ उसकी आज़ादी की नहीं, उसकी ज़िंदगी की लड़ाई थी।
रोज़ की ज़िंदगी अब डर का दूसरा नाम बन चुकी थी। हर गली, हर कोना, हर परछाईं उसे देव की मौजूदगी का एहसास दिलाती थी। वो चाहकर भी चैन से साँस नहीं ले पा रही थी।
उस रात वो बिस्तर पर लेटी थी, लेकिन नींद आँखों से कोसों दूर थी। बार-बार वही SUV, वही ठंडी नज़रें और वही आवाज़ कानों में गूंज रही थी —
“तुम अब मेरी हो, रोज़।”
उसने खुद से कहा,
“नहीं! मैं चुप नहीं रह सकती। मुझे कुछ करना होगा। मुझे मदद माँगनी होगी।”
सुबह कॉलेज पहुँचते ही उसने अपनी दोस्त सिम्मी को सब कुछ बता दिया। हर घटना, हर गुलदस्ता, वो किताब और आखिरकार देव सिंह राठौर का नाम।
सिम्मी हक्का-बक्का रह गई।
“क्या? देव सिंह राठौर? वही बिज़नेस किंग? रोज़… तुम मज़ाक कर रही हो क्या?”
रोज़ की आँखों में आँसू थे।
“क्या तुम्हें लगता है मैं इतना बड़ा झूठ बोल सकती हूँ? वो मेरी ज़िंदगी बर्बाद कर रहा है, सिम्मी।”
सिम्मी ने उसका हाथ थामा और कहा,
“ठीक है। हम पुलिस के पास चलते हैं। अब बहुत हो गया।”
शाम को दोनों नज़दीकी थाने पहुँचीं। रोज़ ने सारी बातें बताईं — किताब, गुलदस्ता, गाड़ी, और खुद देव सिंह राठौर का सामना।
थानेदार ने सब ध्यान से सुना। लेकिन जैसे ही उसने नाम सुना — “देव सिंह राठौर” — उसका चेहरा बदल गया।
उसने कुर्सी पर पीछे टिकते हुए कहा,
“बिटिया, तुम समझती नहीं हो। वो आदमी कोई आम इंसान नहीं है। शहर का सबसे ताक़तवर बिज़नेसमैन है। उसके खिलाफ़ बोलने से पहले सौ बार सोचना पड़ता है। हम तुम्हारी शिकायत लिख भी दें, तो ऊपर से ऑर्डर आ जाएगा कि केस बंद करो।”
रोज़ की आँखें चौड़ी हो गईं।
“तो आप कह रहे हैं कि मैं चुपचाप उसकी सनक झेलती रहूँ?”
थानेदार ने आह भरते हुए कहा,
“हम तुम्हें सीधी सलाह देंगे… ऐसे लोगों से उलझना मत। ये तुम्हारे बस की बात नहीं है।”
रोज़ का दिल टूट गया। उसने आँसू रोकते हुए कहा,
“धन्यवाद, सर। अब मैं समझ गई हूँ कि मुझे खुद ही अपनी लड़ाई लड़नी होगी।”
सिम्मी ने बाहर आकर उसे गले लगा लिया।
“डर मत रोज़। मैं हूँ तुम्हारे साथ।”
लेकिन अंदर ही अंदर रोज़ जानती थी — देव का दबदबा इतना है कि उसके खिलाफ खड़ा होना आसान नहीं।
रात को जब वो घर लौटी, तो दरवाज़े पर एक और पैकेट रखा था। उसका दिल धक से रह गया। काँपते हाथों से उसने पैकेट खोला।
अंदर एक खूबसूरत फ्रेम था, जिसमें उसकी तस्वीर लगी थी। वही तस्वीर जो उसने अपने कॉलेज के आईडी कार्ड के लिए खिंचवाई थी।
नीचे लिखा था:
“अब तुम मेरी हो… सिर्फ मेरी। – D.S.R.”
रोज़ के हाथों से फ्रेम गिर पड़ा। आँसू उसके गालों पर बह निकले।
“वो हर जगह है… उसकी नज़रें मेरे हर कदम पर हैं। आखिर मैं कहाँ जाऊँ?”
दूसरी तरफ, उसी SUV में देव आराम से बैठा था। उसके हाथ में रोज़ का एक और फोटो था।
वो मुस्कुराते हुए बोला,
“पुलिस? दोस्तों की मदद? रोज़… तुम अब समझ जाओ। कोई तुम्हें मुझसे बचा नहीं सकता। तुम जितनी कोशिश करोगी, उतना ही और फँसती जाओगी।”
उसकी आँखों में वही पागलपन चमक रहा था।
रोज़ ने फ्रेम ज़मीन पर गिरा दिया था। उसके काँपते हाथ अब गुस्से में बदल चुके थे।
“नहीं! मैं और डर कर नहीं जी सकती। अगर ये आदमी सोचता है कि मैं उसकी कठपुतली बन जाऊँगी, तो वो गलत है। अब मुझे इसका सामना करना ही होगा।”
उसने खुद को शीशे में देखा। चेहरे पर डर था, लेकिन आँखों में अब एक अजीब सी हिम्मत भी झलक रही थी।
अगले दिन रोज़ ने कॉलेज से छुट्टी ली और सीधा राठौर एंपायर की बिल्डिंग पहुँच गई। वो शहर की सबसे ऊँची और आलीशान इमारतों में से एक थी। चारों ओर सिक्योरिटी गार्ड्स खड़े थे।
रोज़ ने रिसेप्शन पर जाकर कहा,
“मुझे देव सिंह राठौर से मिलना है।”
रिसेप्शनिस्ट ने उसे ऊपर से नीचे तक देखा और ठंडी आवाज़ में बोली,
“क्या आपके पास अपॉइंटमेंट है?”
रोज़ ने गहरी साँस ली।
“नहीं। लेकिन उन्हें बता दीजिए… रोज़ अग्रवाल आई है।”
कुछ ही देर बाद रिसेप्शनिस्ट के चेहरे का भाव बदल गया। उसने फोन काटा और मुस्कुराते हुए कहा,
“कृपया ऊपर आइए, मिस अग्रवाल। सर आपका इंतज़ार कर रहे हैं।”
रोज़ चौंक गई।
“इंतज़ार कर रहे हैं? कैसे? क्या उसे पहले से पता था कि मैं आऊँगी?”
लिफ्ट से ऊपर पहुँचते ही उसके कदम भारी हो गए। आलीशान कॉरिडोर, दीवारों पर महंगे पेंटिंग्स और सामने बड़ा सा दरवाज़ा जिस पर लिखा था —
“देव सिंह राठौर – Chairman & Founder.”
रोज़ ने दरवाज़ा खोला।
अंदर देव अपनी कुर्सी पर बैठा था। हाथ में व्हिस्की का ग्लास, सामने फैली हुई फाइलें और पीछे काँच की दीवार से दिखता पूरा शहर।
उसकी नज़र जैसे ही रोज़ पर पड़ी, उसने मुस्कुराकर कहा,
“आख़िरकार… मेरी रोज़ खुद चलकर मेरे पास आ ही गई।”
रोज़ का खून खौल उठा।
“मैं तुम्हारे पास अपनी मर्ज़ी से नहीं आई हूँ, देव सिंह राठौर। मैं यहाँ आई हूँ ये बताने कि तुम्हारी ये सनक गलत है। मैं कोई चीज़ नहीं हूँ जिसे तुम खरीद लोगे।”
देव धीरे-धीरे उठा। उसके कदम फर्श पर गूँज रहे थे। वो रोज़ के पास आकर रुका और उसकी आँखों में झाँकते हुए बोला,
“गलत? रोज़… मेरी दुनिया में सिर्फ दो चीज़ें होती हैं — जो मेरी है और जो मुझे बनानी है। और तुम… मेरी हो।”
रोज़ ने काँपते हुए लेकिन सख़्त आवाज़ में कहा,
“तुम्हें लगता है तुम्हारे पैसे और ताक़त से सबको झुकाया जा सकता है? लेकिन मैं नहीं झुकूँगी। समझे?”
देव हँस पड़ा। उसकी हँसी ठंडी और सनकी थी।
“न झुकोगी? देखना… धीरे-धीरे तुम्हें एहसास होगा कि मेरी पकड़ से कोई बच नहीं सकता। पुलिस? दोस्त? ये सब तुम्हें बचा नहीं सकते।”
रोज़ ने आँखों में आँसू रोकते हुए कहा,
“तो सुन लो… चाहे तुम कितनी भी कोशिश कर लो, मैं तुम्हारी सनक का हिस्सा नहीं बनूँगी।”
देव उसके बेहद पास आकर फुसफुसाया,
“और यही तुम्हारी सबसे बड़ी भूल होगी।”
रोज़ तेजी से मुड़ी और बाहर निकल गई। उसके कदम काँप रहे थे, लेकिन दिल में अजीब सी राहत थी — उसने पहली बार सीधे उसका सामना किया था।
पीछे देव खिड़की से शहर को देख रहा था। उसकी आँखों में एक ठंडी चमक थी।
“खेल तो अब शुरू हुआ है, रोज़। देखते हैं… आखिर में जीत मेरी होती है या तुम्हारी।”
ऑफिस से बाहर निकलते हुए रोज़ के कदम काँप रहे थे, लेकिन उसके दिल में एक हल्की सी उम्मीद भी थी।
“मैंने उससे नज़रें मिलाकर साफ कह दिया है। शायद अब वो समझ जाएगा कि मैं उसकी सनक का हिस्सा नहीं बन सकती।”
उस रात रोज़ ने थोड़ी राहत की नींद ली। महीनों बाद उसने महसूस किया कि डर से ज्यादा उसकी हिम्मत काम आई थी।
लेकिन अगले ही दिन कॉलेज में सबकुछ बदल गया।
क्लास खत्म होते ही प्रिंसिपल ने उसे अपने ऑफिस बुलाया। रोज़ हैरान थी। दरवाज़ा खोलते ही उसने देखा कि प्रिंसिपल के साथ कुछ अनजाने लोग बैठे हैं। महंगे सूट पहने, चेहरे पर ठंडी सख़्ती।
प्रिंसिपल ने मुस्कुराते हुए कहा,
“रोज़, ये लोग राठौर एंपायर से हैं। तुम्हें खास तौर पर बुलाया गया है। तुम्हें उनकी कंपनी में इंटर्नशिप ऑफर हो रही है। यह तुम्हारे लिए बड़ा मौका है।”
रोज़ के चेहरे का रंग उड़ गया।
“तो ये उसका नया खेल है?”
उसने तुरंत कहा,
“सर, मुझे इस इंटर्नशिप में कोई दिलचस्पी नहीं है।”
प्रिंसिपल के चेहरे पर सख़्ती आ गई।
“सोच लो, रोज़। ऐसे मौके बार-बार नहीं आते। और राठौर एंपायर का नाम मना करना… समझ रही हो न, इसके नतीजे?”
रोज़ ने काँपते दिल से कहा,
“मुझे माफ़ कीजिए सर, लेकिन मेरा जवाब वही रहेगा।”
वो ऑफिस से बाहर निकल गई। उसके कानों में पीछे से धीमी आवाज़ गूँजी —
“देखते हैं, कब तक टालोगी।”
उसका दिल फिर से डर से भर गया।
शाम को जब वो सिम्मी से मिली, तो सब बताया।
सिम्मी गुस्से से बोली,
“ये आदमी तो पूरी तरह पागल है। कॉलेज, दोस्त, सब पर दबाव डाल रहा है। लेकिन रोज़, तुम अकेली नहीं हो। मैं तुम्हारे साथ हूँ।”
रोज़ ने आँसू भरे आँखों से कहा,
“सिम्मी, डर यही है कि वो तुम्हें भी नुकसान पहुँचा सकता है। मैं नहीं चाहती कि मेरी वजह से कोई और तकलीफ झेले।”
सिम्मी ने उसका हाथ थाम लिया,
“अगर हम डरते रहे तो वो जीत जाएगा। हमें लड़ना ही होगा।”
लेकिन रोज़ के लिए हालात और कठिन होते जा रहे थे।
अगले ही दिन बुकस्टोर के मालिक ने उसे बुलाया।
“रोज़, मुझे बहुत अफसोस है। पर मैं तुम्हें और काम पर नहीं रख सकता। ऊपर से दबाव है… समझ रही हो।”
रोज़ की आँखों से आँसू फूट पड़े।
“तो अब मेरी रोज़मर्रा की ज़िंदगी भी उसकी वजह से टूट रही है।”
घर लौटते वक्त रास्ते में फिर वही SUV खड़ी दिखी। इस बार देव खुद बाहर खड़ा था। उसके चेहरे पर वही ठंडी मुस्कान।
“देखा रोज़? मैंने कहा था न… कोई तुम्हें मुझसे बचा नहीं सकता। तुम्हारी दुनिया धीरे-धीरे बिखर रही है। और जब सब तुम्हें छोड़ देंगे, तब तुम्हें समझ आएगा… तुम्हारे पास सिर्फ मैं ही रहूँगा।”
रोज़ ने काँपते हुए कहा,
“तुम इंसान नहीं, राक्षस हो!”
देव ने बस हल्की हँसी हँसी और SUV में बैठ गया।
“राक्षस ही सही… लेकिन तुम्हारा राक्षस।”
गाड़ी धूल उड़ाती हुई चली गई और रोज़ वहीं टूटकर ज़मीन पर बैठ गई।
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रोज़ अपने कमरे में किताब के पन्ने पलट रही थी, लेकिन दिमाग कहीं और भटक रहा था। पिछले कुछ दिनों में देव ने उसके कॉलेज, बुकस्टोर और यहाँ तक कि उसके घर तक पर दबाव डाल दिया था। अब उसके पास छुपने की कोई जगह नहीं बची थी।
तभी फोन बजा। स्क्रीन पर कोई नंबर सेव नहीं था। रोज़ ने डरते-डरते रिसीव किया।
“तैयार हो जाओ, रोज़,” उस तरफ से देव की भारी आवाज़ आई।
“आज रात तुम मेरी पार्टी में आ रही हो।”
रोज़ का दिल धड़कने लगा।
“नहीं! मैं कहीं नहीं आऊँगी। समझे आप?”
देव हँस पड़ा।
“पार्टी में पूरा शहर आएगा—बिज़नेस टायकून, पॉलिटिशियन, मीडिया। मैं चाहता हूँ सबको दिखाना कि तुम मेरी हो। और तुम आओगी… चाहो या न चाहो।”
कॉल कट गया।
रोज़ काँप उठी। उसने तय कर लिया था कि नहीं जाएगी। लेकिन रात को जैसे ही बाहर कदम रखा, उसके घर के सामने काली SUV खड़ी थी। गार्ड्स ने विनम्र लेकिन सख़्त लहजे में कहा,
“मैडम, सर इंतज़ार कर रहे हैं।”
रोज़ को मजबूरी में गाड़ी में बैठना पड़ा। कुछ ही देर में वो पहुँच गई एक भव्य होटल में जहाँ रोशनी झिलमिला रही थी। अंदर म्यूज़िक, हँसी और शैंपेन की आवाज़ गूँज रही थी।
देव बीच हॉल में खड़ा था, काले सूट में, चारों ओर कैमरे और मीडिया। जैसे ही रोज़ अंदर दाख़िल हुई, उसकी नज़र देव पर पड़ी। उसकी आँखों में वही सनकी चमक थी।
देव उसकी ओर बढ़ा, और सबके सामने उसका हाथ पकड़ लिया।
“लेडीज़ एंड जेंटलमेन,” उसने ऊँची आवाज़ में कहा,
“मिलिए… रोज़ अग्रवाल से। Soon-to-be… मेरी।”
पूरा हॉल तालियों और सरगोशियों से गूँज उठा।
रोज़ का चेहरा शर्म और गुस्से से लाल हो गया। उसने हाथ छुड़ाने की कोशिश की,
“आप पागल हैं! ये सब क्या कर रहे हैं?”
देव ने झुककर उसके कान में फुसफुसाया,
“याद रखो, रोज़… ये मेरी दुनिया है। यहाँ तुम्हारी नहीं चलेगी, सिर्फ मेरी।”
रोज़ गुस्से से पीछे हट गई। वो भीड़ में खो जाना चाहती थी। लेकिन इसी बीच एक अजनबी आदमी उसके पास आया। वो देव के किसी बिज़नेस पार्टनर जैसा लग रहा था। उसने शरारती मुस्कान के साथ कहा,
“हाय, रोज़। पहली बार देख रहा हूँ तुम्हें। सच कहूँ, तुम बहुत खूबसूरत हो।”
रोज़ ने ठंडी नज़र से देखा और दूर जाने लगी। लेकिन उस आदमी ने उसका रास्ता रोक लिया और धीरे से उसके हाथ में एक ग्लास थमा दिया।
“Relax, डार्लिंग… पार्टी का मज़ा लो।”
रोज़ ने मना करना चाहा, लेकिन भीड़ और कैमरों के बीच वो दबाव में आ गई। उसने बस गिलास पकड़ लिया। थोड़ी देर बाद उसे चक्कर आने लगे। आँखें धुंधली होने लगीं।
“ये क्या हो रहा है… मुझे इतना भारीपन क्यों महसूस हो रहा है?”
वो लड़खड़ाते कदमों से भीड़ से दूर जाने लगी। तभी देव की नज़र उस पर पड़ी। उसने तुरंत उसे थामा।
“रोज़! क्या हुआ तुम्हें?”
रोज़ की आँखें आधी बंद थीं। उसने कमजोर आवाज़ में कहा,
“गिलास… उसमें कुछ था…”
देव का चेहरा सख़्त हो गया। उसने अपने गार्ड्स को इशारा किया।
“उस आदमी को ढूँढो! अभी के अभी!”
गार्ड्स दौड़ पड़े। देव ने रोज़ को अपनी बाहों में उठाया और भीड़ की परवाह किए बिना उसे ऊपर होटल के प्राइवेट सूट में ले गया।
रोज़ आधी बेहोश थी। उसके होंठ काँप रहे थे।
“कृ… कृपया… मुझे घर जाने दो…”
देव ने उसके माथे पर हाथ रखकर धीरे से कहा,
“चुप… मैं हूँ न। कोई तुम्हें छू भी नहीं सकता।”
उसकी आवाज़ पहली बार सख़्ती से ज्यादा परवाह भरी लगी।
रोज़ ने धुंधली आँखों से देव को देखा। वो उसे हमेशा एक राक्षस लग रहा था, लेकिन इस पल… उसके चेहरे पर चिंता साफ झलक रही थी।
धीरे-धीरे उसकी चेतना धुंधली पड़ गई। और रात… उनकी ज़िंदगी का सबसे बड़ा मोड़ बन गई।
रोज़ अपने कमरे में किताब के पन्ने पलट रही थी, लेकिन दिमाग कहीं और भटक रहा था। पिछले कुछ दिनों में देव ने उसके कॉलेज, बुकस्टोर और यहाँ तक कि उसके घर तक पर दबाव डाल दिया था। अब उसके पास छुपने की कोई जगह नहीं बची थी।
तभी फोन बजा। स्क्रीन पर कोई नंबर सेव नहीं था। रोज़ ने डरते-डरते रिसीव किया।
“तैयार हो जाओ, रोज़,” उस तरफ से देव की भारी आवाज़ आई।
“आज रात तुम मेरी पार्टी में आ रही हो।”
रोज़ का दिल धड़कने लगा।
“नहीं! मैं कहीं नहीं आऊँगी। समझे आप?”
देव हँस पड़ा।
“पार्टी में पूरा शहर आएगा—बिज़नेस टायकून, पॉलिटिशियन, मीडिया। मैं चाहता हूँ सबको दिखाना कि तुम मेरी हो। और तुम आओगी… चाहो या न चाहो।”
कॉल कट गया।
रोज़ काँप उठी। उसने तय कर लिया था कि नहीं जाएगी। लेकिन रात को जैसे ही बाहर कदम रखा, उसके घर के सामने काली SUV खड़ी थी। गार्ड्स ने विनम्र लेकिन सख़्त लहजे में कहा,
“मैडम, सर इंतज़ार कर रहे हैं।”
रोज़ को मजबूरी में गाड़ी में बैठना पड़ा। कुछ ही देर में वो पहुँच गई एक भव्य होटल में जहाँ रोशनी झिलमिला रही थी। अंदर म्यूज़िक, हँसी और शैंपेन की आवाज़ गूँज रही थी।
देव बीच हॉल में खड़ा था, काले सूट में, चारों ओर कैमरे और मीडिया। जैसे ही रोज़ अंदर दाख़िल हुई, उसकी नज़र देव पर पड़ी। उसकी आँखों में वही सनकी चमक थी।
देव उसकी ओर बढ़ा, और सबके सामने उसका हाथ पकड़ लिया।
“लेडीज़ एंड जेंटलमेन,” उसने ऊँची आवाज़ में कहा,
“मिलिए… रोज़ अग्रवाल से। Soon-to-be… मेरी।”
पूरा हॉल तालियों और सरगोशियों से गूँज उठा।
रोज़ का चेहरा शर्म और गुस्से से लाल हो गया। उसने हाथ छुड़ाने की कोशिश की,
“आप पागल हैं! ये सब क्या कर रहे हैं?”
देव ने झुककर उसके कान में फुसफुसाया,
“याद रखो, रोज़… ये मेरी दुनिया है। यहाँ तुम्हारी नहीं चलेगी, सिर्फ मेरी।”
रोज़ गुस्से से पीछे हट गई। वो भीड़ में खो जाना चाहती थी। लेकिन इसी बीच एक अजनबी आदमी उसके पास आया। वो देव के किसी बिज़नेस पार्टनर जैसा लग रहा था। उसने शरारती मुस्कान के साथ कहा,
“हाय, रोज़। पहली बार देख रहा हूँ तुम्हें। सच कहूँ, तुम बहुत खूबसूरत हो।”
रोज़ ने ठंडी नज़र से देखा और दूर जाने लगी। लेकिन उस आदमी ने उसका रास्ता रोक लिया और धीरे से उसके हाथ में एक ग्लास थमा दिया।
“Relax, डार्लिंग… पार्टी का मज़ा लो।”
रोज़ ने मना करना चाहा, लेकिन भीड़ और कैमरों के बीच वो दबाव में आ गई। उसने बस गिलास पकड़ लिया। थोड़ी देर बाद उसे चक्कर आने लगे। आँखें धुंधली होने लगीं।
“ये क्या हो रहा है… मुझे इतना भारीपन क्यों महसूस हो रहा है?”
वो लड़खड़ाते कदमों से भीड़ से दूर जाने लगी। तभी देव की नज़र उस पर पड़ी। उसने तुरंत उसे थामा।
“रोज़! क्या हुआ तुम्हें?”
रोज़ की आँखें आधी बंद थीं। उसने कमजोर आवाज़ में कहा,
“गिलास… उसमें कुछ था…”
देव का चेहरा सख़्त हो गया। उसने अपने गार्ड्स को इशारा किया।
“उस आदमी को ढूँढो! अभी के अभी!”
गार्ड्स दौड़ पड़े। देव ने रोज़ को अपनी बाहों में उठाया और भीड़ की परवाह किए बिना उसे ऊपर होटल के प्राइवेट सूट में ले गया।
रोज़ आधी बेहोश थी। उसके होंठ काँप रहे थे।
“कृ… कृपया… मुझे घर जाने दो…”
देव ने उसके माथे पर हाथ रखकर धीरे से कहा,
“चुप… मैं हूँ न। कोई तुम्हें छू भी नहीं सकता।”
उसकी आवाज़ पहली बार सख़्ती से ज्यादा परवाह भरी लगी।
रोज़ ने धुंधली आँखों से देव को देखा। वो उसे हमेशा एक राक्षस लग रहा था, लेकिन इस पल… उसके चेहरे पर चिंता साफ झलक रही थी।
धीरे-धीरे उसकी चेतना धुंधली पड़ गई। और रात… उनकी ज़िंदगी का सबसे बड़ा मोड़ बन गई।
रात शहर पर गहरी सन्नाटा लिए थी, पर देव के दिमाग में तूफ़ान चल रहा था। उसने उस आदमी के बारे में सब पूछताछ करवा दी थी — पार्टी में जो उसने रोज़ के गिलास में कुछ मिलाया था। CCTV, ड्राइवरों की बात, होटल के स्टाफ — सबका रेखाहीन जाल बुनकर रघु ने एक नाम पकड़ लिया था: वही शख्स जो पार्टी में रोज़ के पास आया था।
देव ने फैसला कर लिया — अब सवाल सीधे उसी से होंगे।
वो आदमी कोई बड़ी शख्सियत नहीं था; गली-मोहल्ले का एक छोटा-सा एजेंट, जो पैसे के आगे हर काम करता था। पर जिस रात उसने जो किया, उसका असर गहरा था — रोज़ की नींद, उसकी इज़्ज़त और उसके बचपन की चकनाचूर हुई हुई दुनिया में फिर से डर घुस गया।
देव ने रघु से कहा,
“आज उसे ढूँढ कर मेरे सामने ले आओ। मैं खुद पूछूँगा—किसके कहने पर उसने रोज़ को नुकसान पहुँचाने की साज़िश रची।”
रघु ने काम शुरु किया और कुछ घंटों में वह आदमी एक सुनसान गोदाम के बाहर दबोच दिया गया। साँसें तेज़, हाथ तंग लगे, पर रघु ने उसकी वीडियो कॉल रिकॉर्ड कर ली — ताकि कोई बहाना न चल सके।
गोदाम में अंदर जाने पर देव का कदम शाँत, ठंडा और पक्का था। आदमी बैठा हुआ था, हाथ बंधे, आंखों में घबराहट। रघु एक तरफ खड़ा था, कैमरा घिसटता हुआ रिकॉर्ड कर रहा था।
देव ने बिना किसी औपचारिकता के पूछा, उसकी आवाज़ बिल्कुल ठंडी थी —
“बताओ—किसके कहने पर तुमने रोज़ के गिलास में कुछ मिलाया?”
आदमी ने पहली बार खुद को सचमुच नन्हा और असहाय महसूस किया। उसकी आँखें नीची थीं। उसने कँपकँपाते हुए कहा,
“मालिक… मालकिन… मैंने पैसे लिए थे… बस पैसे। मैंने नाम नहीं पूछा। मैं किसी बड़ा आदमी के कहने पर आया था।”
देव का चेहरा और कड़ा हो गया। उसके हाथ में एक सिगरेट थी, उसने उसे अचानक दबा कर रख दिया — पर सिगरेट की आग बुझते ही उसकी आँखों में ऐसी ठंडक आई कि कमरे का तापमान बदल गया।
“कौन?” देव ने धीरे से, पर आदेश स्पष्ट स्वर में पूछा।
आदमी के होंठ फड़कने लगे। वह जानता था कि झूठ बोलना उसकी आख़िरी उम्मीद हो सकती है। पर भय और लालच का मेल उसे सही नाम बोलने पर मजबूर कर गया। उसने फुसफुसाकर एक नाम कहा — एक ऐसा नाम जिसे सुनते ही देव की आँखों में आग जैसी भड़क उठी।
देव का हाथ अंत तक कांपा नहीं। उसने एक कदम आगे बढ़ा और आदमी की तरफ़ झुककर बोला, “ठीक है।” उसकी आवाज़ में अब कोई एहसान, कोई दया नहीं थी — सिर्फ़ फैसला और एक अटल न्याय।
और फिर… सब कुछ तेजी से हुआ। देव ने अचानक अपना हथियार निकाल लिया — यह वह पल था जब वक़्त थम सा गया। कमरे की दीवारों पर पड़े शैडो लंबा हो गया। रघु की सांसें एकदम तेज़ हो गईं, कैमरा रिकॉर्ड कर रहा था, आदमी के चेहरे पर पछतावा और डर एक साथ थम गए।
एक गोलियाँ की आवाज़ हवा में टूटती सी न आई — पर विवरण मैं नॉन-ग्राफिक रखब: गोली ने आदमी को चित्त कर दिया। वह जमीन पर गिरा, कोई नाटकीय खून-खराबा का दृश्य नहीं; सिर्फ़ एक तेज़, स्पष्ट अंत — और अब हवा में खामोशी गहराई।
रघु की आँखों में shock था, पर उसने अपना काम जारी रखा — रिकॉर्डिंग चल रही थी, सब कुछ क्लियर था। देव ने बिना घबराहट के पीछे मुड़कर कहा,
“तुमने नाम ले लिया। अब जो बताया गया है, उसके अंजाम का हिसाब भी दिया जाएगा।” उसकी आवाज़ का आखिरी शब्द किसी चेतावनी की तरह ठहरा।
देव ने आदमी के पास जाकर उसका मोबाइल और जो भी सामान था, अपने पास रखवा लिया। उसने शांत, पर सख़्त अंदाज़ में कहा,
“अब तुम किसी के सामने भी कुछ न बताना। यह शहर छोटे-छोटे लोगों के लिए नहीं है।”
रघु झट से आया और सर पर हाथ फेरते हुए बोला, “मालिक—क्या करें? पुलिस?”
देव ने ठंडी निगाह उसे देखा और कहा, “अभी नहीं। इस रात्रि की खाली सन्नाटे में यह खत्म होना चाहिए। कल सब कुछ दूसरे रास्ते से संभालूंगा।”
गोदाम की खिड़की से बाहर अख़बारों की टेलीविजन लाइटें और शहर की चमक दूर तक फैली हुई दिख रही थीं — और देव के कदम उतने ही भारी और ठंडे। उसने आदमी को वहीं जमीन पर छोड़ दिया, रघु को आदेश दिए कि मौके की पूरी जांच फोटो-वीडियो के साथ संभाल ले।
जब देव बाहर निकला, रघु धीमे स्वर में बोला, “मालिक, आपने जो किया वह…”
देव ने उसे बीच में काटते हुए कहा, “ये गलत है? हो सकता है। पर मेरे तरीके हैं और मेरे सिद्धांत हैं। किसी ने मेरी तरफ़ से जो भी नुकसान पहुँचाने की कोशिश की है — मैं उसे अपने तरीके से खत्म करूँगा।”
उस रात की हवा में कुछ बदल गया था — अब सिर्फ़ डर ही नहीं, एक सन्नाटे जैसा एहसास था जो रोज़ की दुनिया से अभी-अभी छिनकर कहीं और चला गया था। देव के कदम वापस गाड़ी की ओर बढ़े। उसकी आँखों में अब कुछ और भी था — कोई सकंट, कोई अँधेरा, और साथ ही एक पक्का निश्चय कि जो हुआ, उसका हिसाब किताब बहुत बड़े स्तर पर मिटा देगा।
गोदाम के सन्नाटा अभी भी हवा में तैर रहा था। गोलियों की गूँज थम चुकी थी, पर देव के चेहरे पर कोई शिकन न थी। उसके लिए यह रोज़मर्रा का खेल था।
रघु ने धीरे-धीरे हाथ जोड़ा,
“मालिक, गाड़ी तैयार है। आदमी का हिसाब पूरा हो चुका।”
देव ने सिर्फ़ एक नज़र डाली।
“सुनो रघु, कोई सबूत बाहर नहीं जाना चाहिए। पुलिस को पहले ही मैनेज कर दो। मीडिया के कान तक अगर ये ख़बर पहुँची तो समझ लो… तुम्हारा भी हिसाब होगा।”
रघु काँप गया लेकिन सिर झुका दिया।
“समझ गया मालिक। सुबह तक सब साफ़ हो जाएगा।”
देव गाड़ी में बैठा, खिड़की से बाहर अँधेरा देखते हुए। उसकी आँखों में वही ठंडी चमक थी। एक और खेल खत्म। लेकिन आज रात के भीतर कहीं एक हल्की बेचैनी थी। रोज़ का काँपता चेहरा, उसका डर—सब बार-बार देव की सोच में उतर रहे थे।
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रोज़ अपने कमरे में बेचैन थी। सुबह से ही उसे अजीब लग रहा था। घर के पास खड़े काले सूटवाले लोग, मोहल्ले के लोगों की सरगोशियाँ… और अख़बार में छपी एक छोटी-सी खबर: “बिज़नेस पार्टी के बाद रहस्यमयी मौत।”
उसका दिल दहल गया। उसे अंदाज़ा लग गया कि ये सब उसी रात की बात है।
“हे भगवान… क्या देव ने… सच में…” उसके होंठ काँप उठे।
दरवाज़े पर दस्तक हुई। रोज़ ने चौंककर खोला तो सामने वही रघु खड़ा था। हाथ जोड़कर बोला,
“मैडम… मालिक ने कहा है कि आपको परेशान होने की ज़रूरत नहीं। जिसने आपको नुकसान पहुँचाने की कोशिश की थी… उसका हिसाब हो चुका है।”
रोज़ का चेहरा पीला पड़ गया।
“क्या मतलब…? तुम लोग… तुम लोगों ने… उसे मार दिया?”
रघु ने उसकी आँखों में सीधा देखा, लेकिन कुछ नहीं बोला। बस धीरे से कहा,
“मालिक ने आपको सिर्फ़ सुरक्षित रखा है। बाकी सवाल पूछने की इजाज़त नहीं है।”
रघु इतना कहकर चला गया, लेकिन रोज़ के दिल में तूफ़ान मच गया। उसका शरीर काँप रहा था।
“ये आदमी… ये देव… आखिर है क्या? क्या मैं सच में उसकी गिरफ्त में फँस चुकी हूँ?”
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उधर देव अपने ऑफिस के प्राइवेट रूम में बैठा था। बड़े-बड़े बिज़नेस टायकून, मंत्री और पुलिस अफसर उसके फोन पर बधाई दे रहे थे कि उसने पार्टी को “सफल” बनाया। किसी ने भी उस मौत पर सवाल नहीं उठाया।
देव ने सबकी बातें सुनीं और ठंडी हँसी हँस दी।
“इस शहर में मेरी इजाज़त के बिना कोई सांस भी नहीं ले सकता। रोज़ को अब समझना ही होगा।”
लेकिन फिर भी, उसकी आँखों में रोज़ का डरा हुआ चेहरा घूम गया।
उसने खुद से बुदबुदाया—
“डर अच्छा है… डर उसे मेरे करीब लाएगा। लेकिन क्या… क्या वो कभी समझेगी कि ये डर ही उसका बचाव है?”
देव का हाथ मेज़ पर पड़ा गिलास कसकर पकड़ लिया। उसके अंदर पहली बार एक अजीब-सा खालीपन गूँज उठा।
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रोज़ देर रात खिड़की पर खड़ी थी। चाँदनी उसके चेहरे पर पड़ रही थी। आँसू उसकी आँखों से बह रहे थे।
“माँ… अगर आप होतीं तो मुझे बतातीं कि क्या सही है। मैं डर से भागना चाहती हूँ, लेकिन… क्यों मुझे लगता है कि देव चाहे जितना खतरनाक हो, फिर भी वही मुझे हर बुरी नज़र से बचा सकता है?”
उसने खिड़की बंद कर दी और बिस्तर पर गिर पड़ी। उसके दिल की धड़कन तेज़ थी। डर और आकर्षण की डोर उसे उलझा रही थी।
और देव… शहर के किसी ऊँचे टावर की खिड़की से उसी रात का चाँद देख रहा था। उसकी आँखों में अँधेरा और जूनून दोनों चमक रहे थे।
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सुबह की ठंडी हवा खिड़की से अंदर आ रही थी। रोज़ ने पूरी रात नींद नहीं ली थी। आँखों में लालिमा और दिल में डर। बार-बार वही सवाल उसके दिमाग में घूम रहा था—“क्या सच में देव ने उस आदमी को मार दिया?”
उसने तय किया कि आज वो पुलिस स्टेशन जाएगी। चाहे जो हो, उसे सच्चाई जाननी है।
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पुलिस स्टेशन
रोज़ जब पुलिस स्टेशन पहुँची तो सबकी निगाहें उस पर टिक गईं। देव सिंह राठौर का नाम अब उसके साथ जुड़ चुका था। रोज़ ने काँपती आवाज़ में इंस्पेक्टर से कहा—
“मैं… मैं कल रात की पार्टी के बारे में रिपोर्ट दर्ज कराना चाहती हूँ। वहाँ किसी ने मुझे ड्रिंक में कुछ मिलाया था। और… एक आदमी था… वो अचानक गायब हो गया।”
इंस्पेक्टर ने कलम रख दी। उसकी आँखों में एक पल के लिए झिझक आई, फिर उसने धीरे से कहा—
“मैडम, ये केस हम नहीं ले सकते।”
रोज़ चौंक गई।
“क्यों? ये तो आपका काम है न? आप रिपोर्ट क्यों नहीं लिखेंगे?”
इंस्पेक्टर ने कमरे का दरवाज़ा बंद किया और धीमे स्वर में बोला—
“मैडम, उस पार्टी के पीछे कौन था, आप जानती हैं। देव सिंह राठौर। उसके खिलाफ़ कोई केस नहीं बनता। या तो गवाह गायब हो जाते हैं, या सबूत मिलते ही नहीं। और सच कहूँ तो… हम लोग भी उसकी मर्जी के खिलाफ़ कुछ नहीं कर सकते।”
रोज़ की आँखों में आँसू आ गए।
“तो क्या… मैं बिल्कुल अकेली हूँ?”
इंस्पेक्टर ने नजरें झुका लीं।
“सिर्फ़ इतना कह सकता हूँ मैडम, अगर आप सुरक्षित रहना चाहती हैं… तो राठौर से दूर मत जाइए। उसके साए से बाहर कोई भी आपका साथ नहीं देगा।”
रोज़ सदमे में वहाँ से निकल गई। उसके पैरों में जैसे जान ही नहीं थी।
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देव का दफ़्तर
शाम को देव अपने प्राइवेट दफ़्तर में बैठा था। सामने बड़ी खिड़की से शहर का नज़ारा दिख रहा था। उसके हाथ में व्हिस्की का ग्लास और दिमाग में रोज़ की तस्वीरें।
दरवाज़ा खुला और रोज़ अंदर आई। चेहरा उतरा हुआ, आँखों में नमी।
देव मुस्कुराया,
“तो पुलिस गई थी?”
रोज़ ने चौंककर कहा,
“आपको कैसे पता?”
देव ने कंधे उचकाए,
“इस शहर में कौन कहाँ जाता है, कौन क्या करता है… मुझसे छुपा नहीं रहता।”
रोज़ ने गुस्से में कहा,
“आपको लगता है ये ताकत है? ये तो कैद है! मैं कहीं भी जाऊँ, आप मेरे पीछे होते हैं। सब आपके सामने झुक जाते हैं। क्यों? आखिर क्यों?”
देव ने धीरे से ग्लास रख दिया। उसकी आँखों में पहली बार एक हल्की-सी थकान झलकी।
“क्योंकि रोज़… मैंने सब कुछ खोया है। जब मैं बच्चा था, मेरे सामने मेरे पूरे परिवार को गोलियों से भून दिया गया। मैं बच गया… और उसी दिन मैंने कसम खाई कि अब इस शहर का राजा सिर्फ़ मैं बनूँगा। ताकि कोई मेरी तरह बेबस न हो।”
रोज़ उसकी आँखों में देख रही थी। वहाँ पहली बार सिर्फ़ ठंडापन नहीं, बल्कि दर्द भी था।
देव ने धीमी आवाज़ में कहा,
“तुम कहती हो मैं पागल हूँ… सही कहती हो। लेकिन मेरा पागलपन तुम्हारी तरफ़ है। क्योंकि तुम ही हो जिसे देखकर मुझे लगता है कि मैं अब भी इंसान हूँ।”
रोज़ का दिल जोर से धड़कने लगा। उसका डर अब भी था, लेकिन उस डर के पीछे कहीं न कहीं देव का दर्द भी उसे छू रहा था।
उसने धीरे से कहा,
“आपके पास सबकुछ है देव… फिर भी आप अकेले क्यों हैं?”
देव ने उसकी तरफ़ देखा और मुस्कुराया—एक ऐसी मुस्कान जिसमें सख्ती और उदासी दोनों थीं।
“क्योंकि रोज़, ताक़त हमेशा इंसान को ताज देती है… लेकिन सुकून छीन लेती है।”
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रोज़ का मन काँप गया। उसने कभी नहीं सोचा था कि इस सनकी, घमंडी बिज़नेस किंग के पीछे इतना गहरा अतीत और अकेलापन छिपा होगा।
वो चुपचाप उठी और बाहर चली गई। लेकिन जाते-जाते उसके दिल में पहली बार देव के लिए नफ़रत के साथ-साथ… एक अजीब-सा खिंचाव भी जाग उठा।
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देव खिड़की के पास खड़ा उसे जाते हुए देखता रहा। उसकी आँखों में हल्की नमी थी। उसने खुद से कहा—
“डर और नफ़रत… धीरे-धीरे प्यार में बदल ही जाते हैं, रोज़। और उस दिन… तुम सिर्फ़ मेरी होगी।”
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सुबह की पहली किरण कमरे में घुसी तो रोज़ ने तय कर लिया—अब बहुत हो गया। देव चाहे जो हो, वो उसकी कैद से निकलकर अपनी ज़िंदगी जीएगी।
रोज़ ने जल्दी-जल्दी कपड़े पैक किए। बस ज़रूरी सामान लिया और कमरे से निकल गई। उसके कदम तेज़ थे, जैसे कोई बंद पिंजरे से आज़ाद होने के लिए भाग रहा हो।
उसने टैक्सी रोकी और कहा—
“बस स्टेशन चलिए।”
दिल में एक ही ख्याल था—“अगर मैं इस शहर से दूर निकल जाऊँ, तो शायद फिर कभी देव मुझे ढूँढ न पाए।”
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बस स्टेशन
स्टेशन भीड़ से भरा था। रोज़ ने एक टिकट लिया और कोने में बैठकर सांस ली। उसके दिल की धड़कन तेज़ थी, लेकिन आँखों में थोड़ी राहत।
“हाँ… अब मैं आज़ाद हूँ,” उसने खुद से कहा।
लेकिन तभी उसकी नज़र टिकट काउंटर के पास खड़े कुछ काले सूट वाले आदमियों पर पड़ी। उनके हाथ में वॉकी-टॉकी थी और उनकी आँखें चारों तरफ़ रोज़ को खोज रही थीं।
रोज़ का दिल धक से रह गया।
“ये… ये लोग देव के आदमी हैं।”
उसने जल्दी से चेहरा ढक लिया और भीड़ में घुलने लगी। लेकिन तभी पीछे से एक आवाज़ आई—
“मैडम, गाड़ी तैयार है।”
रोज़ ने मुड़कर देखा—रघु खड़ा था। उसके चेहरे पर हल्की-सी मुस्कान थी, लेकिन आँखों में आदेश की कठोरता।
“चलो। मालिक इंतज़ार कर रहे हैं।”
रोज़ के हाथ से टिकट गिर गया। उसके कदम जैसे जम गए हों।
“नहीं… मैं कहीं नहीं जाऊँगी।”
रघु ने ठंडी आवाज़ में कहा,
“मैडम, ये आपकी पसंद नहीं है। आपके साथ रहना ही आपकी सुरक्षा है। वरना…”
रोज़ का चेहरा सफ़ेद पड़ गया। उसे मजबूरी में उनके साथ जाना पड़ा।
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देव का सामना
कुछ देर बाद रोज़ खुद को फिर देव के सामने पाई। उसका गुस्सा फूट पड़ा।
“आपको क्या लगता है? आप मुझे कैद करके रख सकते हैं? मैं कोई खिलौना नहीं हूँ देव!”
देव ने आराम से कुर्सी पर बैठकर उसकी तरफ़ देखा।
“अगर तुम खिलौना होतीं तो मैं अब तक टूटे हुए टुकड़ों से खेल चुका होता। लेकिन तुम… तुम मेरी ज़िद हो। और मेरी ज़िद से कोई नहीं बच सकता।”
रोज़ की आँखों में आँसू भर आए।
“आपको डर नहीं लगता? इतने खून, इतनी साज़िश… सबकी ज़िंदगी आप बर्बाद कर रहे हैं।”
देव खड़ा हुआ और धीरे-धीरे उसके पास आया। उसकी आवाज़ धीमी लेकिन गहरी थी।
“डर मुझे कब का छोड़ चुका है, रोज़। और अब… तुम्हें भी डरना छोड़ना होगा। क्योंकि चाहे तुम चाहो या न चाहो, तुम्हारी दुनिया अब मेरे इर्द-गिर्द घूमेगी।”
रोज़ ने काँपते हुए कहा,
“मैं आपसे नफ़रत करती हूँ।”
देव ने उसकी आँखों में देखते हुए हल्की मुस्कान दी।
“नफ़रत… प्यार की पहली सीढ़ी है। बस चढ़ते रहो, रोज़। ऊपर पहुँचकर तुम खुद देखोगी… वहाँ सिर्फ़ मैं खड़ा हूँ।”
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रोज़ ने आँखें फेर लीं। उसका दिल अब भी डर से कांप रहा था, लेकिन कहीं गहराई में देव की बातों ने उसे छू लिया था।
वो सोच रही थी—“क्या सच में नफ़रत… प्यार में बदल सकती है?”
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रोज़ उस दिन चुपचाप देव के कार में बैठी थी। उसका चेहरा उतरा हुआ था, लेकिन मन में हलचल। देव ने बिना कुछ कहे गाड़ी चलाई। कुछ देर बाद गाड़ी शहर के पॉश इलाके से मुड़कर तंग गलियों में जा पहुँची।
रोज़ चौंक गई।
“ये कहाँ आ गए हम?”
देव ने मुस्कुराकर कहा,
“वहीं जहाँ असली ज़िंदगी साँस लेती है।”
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बस्ती का नज़ारा
गाड़ी रुकी तो सामने एक झोपड़पट्टी थी। बच्चे मिट्टी में खेल रहे थे, औरतें पानी भरने की लाइन में खड़ी थीं। लेकिन बीच में एक नया-सा बना स्कूल था, जिसकी दीवारें ताज़ा रंगी हुई थीं।
देव ने रोज़ की तरफ़ देखा।
“चलो, तुम्हें कुछ दिखाना है।”
रोज़ हिचकिचाई, पर देव के पीछे-पीछे चली।
स्कूल के अंदर बच्चे खुशी से चिल्लाते हुए देव के पास दौड़े।
“भइया आ गए! भइया आ गए!”
देव ने झुककर बच्चों को गले लगाया, उनके सिर पर हाथ फेरा। उसके चेहरे पर वही ठंडी, खतरनाक मुस्कान नहीं थी—बल्कि एक अजीब-सी नरमी थी।
रोज़ आश्चर्यचकित होकर देखती रही।
एक टीचर पास आकर बोली—
“राठौर साहब, आपके दान से ये स्कूल चल रहा है। वरना इन बच्चों का भविष्य अंधेरे में था। किताबें, कपड़े, खाना—सब आपने दिया।”
देव ने बस सिर हिलाया।
“ये मेरा नहीं, इन बच्चों का हक़ है।”
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रोज़ की उलझन
रोज़ के दिल में हलचल मच गई।
“ये वही आदमी है जिसने कल रात किसी को गोली मार दी… और आज मासूम बच्चों के लिए भगवान बना हुआ है। आखिर असली देव कौन है?”
देव ने बच्चों के साथ खेलते हुए अचानक रोज़ की तरफ़ देखा। उसकी आँखों में हल्की शरारत थी।
“देखा रोज़? दुनिया सिर्फ़ एक चेहरा नहीं होती। कभी-कभी अंधेरे से ही रोशनी निकलती है।”
रोज़ चुप रही। उसका दिल कहना चाहता था—“तुम अच्छे हो सकते हो…” लेकिन उसकी जुबान पर बस एक सवाल आ गया।
“अगर तुम इतने अच्छे हो, तो लोगों को मारते क्यों हो? खून से डरते क्यों नहीं?”
देव का चेहरा पल भर में गंभीर हो गया।
“क्योंकि इस शहर को चलाने के लिए सिर्फ़ दया नहीं, डर भी ज़रूरी है। अगर मैं इन बच्चों को किताब दूँ और उनके घर वाले कल गोली से मर जाएँ… तो किताब किस काम आएगी? ताक़त चाहिए रोज़। ताक़त।”
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रोज़ की रात
उस रात रोज़ बिस्तर पर लेटी, नींद उससे कोसों दूर थी। उसके दिल में देव की दो तस्वीरें घूम रही थीं।
एक, खून से सना देव—ठंडी आँखें, निर्दयी हाथ।
दूसरा, बच्चों के बीच हँसता देव—ममता से भरा, नरम दिल वाला।
उसकी आँखों से आँसू बह निकले।
“कौन-सा देव असली है? और क्यों… क्यों मैं उसके करीब जाते-जाते खुद को रोक नहीं पा रही हूँ?”
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देव का वादा
देव उस समय अपनी ऊँची इमारत की बालकनी पर खड़ा था। नीचे शहर की रोशनी चमक रही थी। उसके होंठों पर हल्की मुस्कान थी।
“डर से प्यार तक का सफ़र लंबा होता है रोज़… लेकिन तुम चल चुकी हो। और इस रास्ते का अंत सिर्फ़ मेरे पास है।”
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सुबह रोज़ बगीचे में खड़ी थी। हल्की हवा चल रही थी, लेकिन उसके दिल में तूफ़ान था। कल जो उसने देखा था—देव बच्चों के साथ हँसता खेलता हुआ—उसने उसकी सोच को हिला दिया था।
उसी वक्त देव वहाँ आया। उसके हाथ में कॉफ़ी का कप था, चेहरे पर वही आत्मविश्वास भरी मुस्कान।
“सुप्रभात, रोज़।”
रोज़ ने ठंडी आवाज़ में कहा,
“आपको सब अच्छा लगता है न? बच्चों को खुश करना, मदद करना… लेकिन उसी हाथ से खून भी बहाना। आखिर आप किस तरह के इंसान हैं, देव?”
देव उसकी आँखों में सीधा देखते हुए बोला,
“सही सवाल है। मैं वो इंसान हूँ जिसे ज़िंदगी ने मजबूर किया है। अगर मैं सिर्फ़ अच्छा होता, तो आज जिंदा नहीं होता।”
रोज़ का गुस्सा भड़क गया।
“तो आप कह रहे हैं कि बुराई ज़रूरी है? आप खुद को भगवान समझते हैं?”
देव ने कॉफ़ी का घूंट लिया और धीरे से मुस्कुराया।
“भगवान नहीं… पर राजा ज़रूर। और राजा वही होता है जो फैसले लेने से न डरे—चाहे वो फैसले खून से क्यों न लिखे जाएँ।”
रोज़ ने काँपते हुए कहा,
“आप गलत हैं। डर से कोई हमेशा राज नहीं कर सकता।”
देव अचानक पास आ गया। उसकी आवाज़ गहरी हो गई।
“डर से नहीं… इज्ज़त से। और इज्ज़त उसी को मिलती है जिसके पास ताक़त हो। तुम सोचती हो लोग मेरी वजह से डरते हैं… पर सच्चाई ये है कि वो मुझे मानते भी हैं। औरतों की इज़्ज़त सुरक्षित है क्योंकि लोग जानते हैं मैं हूँ। ये स्कूल, ये अनाथालय… ये सब इसलिए है क्योंकि मैं हूँ।”
रोज़ चुप हो गई। उसके पास जवाब नहीं था। उसकी साँसें तेज़ हो रही थीं।
देव ने धीरे से कहा,
“रोज़, तुम चाहो तो मुझसे नफ़रत करो। लेकिन मेरे बिना इस शहर की हकीकत नहीं समझ सकती।”
रोज़ की आँखों में आँसू आ गए। उसने काँपते स्वर में कहा,
“मैं नफ़रत करती हूँ आपसे… लेकिन क्यों… क्यों हर बार आपके सामने हार जाती हूँ?”
देव ने उसके चेहरे से गिरता आँसू अपने अंगूठे से पोंछ दिया।
“क्योंकि सच्चाई से कोई नहीं भाग सकता, रोज़। और सच्चाई ये है कि मैं और तुम… अब एक-दूसरे से बंध चुके हैं।”
रोज़ ने उसका हाथ झटक दिया और तेज़ी से कमरे से बाहर निकल गई। लेकिन जाते-जाते उसके दिल में देव के शब्द गूंज रहे थे।
“मैं और तुम… अब एक-दूसरे से बंध चुके हैं।”
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देव अकेला बगीचे में खड़ा मुस्कुराता रहा।
“बहस करो रोज़, सवाल करो… हर जवाब तुम्हें और मेरे करीब ही लाएगा।”
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रोज़ ने तय कर लिया था कि उसे कुछ दिन देव से दूरी बनाकर रखनी होगी। वो नहीं चाहती थी कि उसकी ज़िंदगी पूरी तरह देव के इर्द-गिर्द घूमे।
सुबह उसने कैफ़े का काम सँभाला। वहाँ भीड़ लगी थी, लोग कॉफ़ी पी रहे थे, हँस रहे थे। रोज़ ने सोचा—“यही असली ज़िंदगी है। साधारण, शांत और सुरक्षित।”
लेकिन जैसे ही उसने कॉफ़ी सर्व करने के लिए ट्रे उठाई, उसकी नज़र खिड़की से बाहर पड़ी।
सड़क किनारे एक काली गाड़ी खड़ी थी। गाड़ी का शीशा आधा खुला था और अंदर देव की परछाईं साफ़ नज़र आ रही थी। उसकी आँखें सीधी रोज़ पर टिकी थीं।
रोज़ का दिल काँप उठा।
“क्या ये हर जगह मेरे पीछे रहता है?”
उसने जल्दी से नज़र फेर ली और काम में लग गई, लेकिन दिल की धड़कन तेज़ होती रही।
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शाम की सड़क
शाम को रोज़ अकेले घर लौट रही थी। उसने सोचा—“अगर मैं देव से बचना चाहती हूँ, तो मुझे नॉर्मल तरीके से जीना होगा। ऐसे डरकर नहीं।”
लेकिन तभी उसे महसूस हुआ कि कोई उसका पीछा कर रहा है। उसने मुड़कर देखा—दो आदमी काले कपड़ों में पीछे-पीछे आ रहे थे।
रोज़ ने तेज़ी से कदम बढ़ाए। उसका दिल धड़क रहा था।
“क्या ये देव के आदमी हैं? या कोई और?”
वो भागने ही वाली थी कि तभी सामने से देव की गाड़ी आकर रुकी। दरवाज़ा खुला और देव बाहर आया।
“गाड़ी में बैठो, रोज़।” उसकी आवाज़ ठंडी थी, लेकिन आँखों में गुस्सा साफ़ झलक रहा था।
रोज़ ने गुस्से में कहा—
“आपको क्या हक है हर जगह मेरा पीछा करने का? मैं कैदी नहीं हूँ!”
देव ने उसकी ओर झुकते हुए कहा—
“कैदी? नहीं। तुम मेरी जिम्मेदारी हो। और जब तक साँस लूँगा, तुम्हें किसी के भी नज़दीक नहीं जाने दूँगा।”
पीछे खड़े दोनों आदमी अचानक गायब हो गए। रोज़ समझ गई कि वो शायद देव के ही लोग थे, जो बस उसका पहरा दे रहे थे।
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रात का सपना
रात रोज़ बिस्तर पर लेटी, लेकिन नींद नहीं आ रही थी। जब आँखें बंद हुईं तो उसने सपना देखा—
वो फिर उसी पार्टी में है। ड्रिंक उसके हाथ से गिर रही है, चारों तरफ़ लोग हँस रहे हैं। अचानक सब गायब हो जाते हैं और बस देव खड़ा रह जाता है।
देव धीरे-धीरे उसकी ओर आता है, उसकी आँखों में वही गहरी चमक।
“डरो मत रोज़… अब तुम मेरी हो।”
रोज़ चीखते हुए नींद से उठ बैठी। पसीने से उसका बदन भीग चुका था। उसने साँसें सँभालने की कोशिश की।
“ये क्या हो रहा है? मैं उसे नफ़रत करना चाहती हूँ… लेकिन क्यों वो मेरे सपनों में भी छा गया है?”
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देव की सोच
उधर देव अपने कमरे की बालकनी पर खड़ा शहर की रोशनी देख रहा था। उसके चेहरे पर हल्की मुस्कान थी।
“दूरी बनाओ रोज़, जितना चाहो। लेकिन याद रखना, जितनी दूर भागोगी… उतना ही करीब आओगी। मैं तुम्हारी परछाई बन चुका हूँ।”
उसने सिगार सुलगाया और रात की खामोशी में धुएँ का छल्ला छोड़ दिया।
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