दृष्टि दीक्षित—एक साधारण-सी दिखने वाली लेकिन बेहद महत्वाकांक्षी लड़की। उसके सपनों का दायरा छोटा नहीं था। बचपन से ही उसने चाहा था कि वह अपने पैरों पर खड़ी हो, अपनी पहचान बनाए और लोगों को यह साबित कर सके कि किसी लड़की का अस्तित्व सिर्फ घर की चार दीवारी... दृष्टि दीक्षित—एक साधारण-सी दिखने वाली लेकिन बेहद महत्वाकांक्षी लड़की। उसके सपनों का दायरा छोटा नहीं था। बचपन से ही उसने चाहा था कि वह अपने पैरों पर खड़ी हो, अपनी पहचान बनाए और लोगों को यह साबित कर सके कि किसी लड़की का अस्तित्व सिर्फ घर की चार दीवारी तक सीमित नहीं है। किताबें, मेहनत और आत्मविश्वास उसका सबसे बड़ा सहारा थे। उसके लिए शादी जीवन का लक्ष्य कभी नहीं रहा था, बल्कि वह तो उसे अपने सपनों को रोकने वाली जंजीर मानती थी। लेकिन ज़िंदगी अक्सर वही करवट लेती है, जिसकी कोई कल्पना भी नहीं करता। दृष्टि के माता-पिता और समाज की मजबूरियाँ उसे अचानक से एक ऐसे रिश्ते में बाँध देती हैं, जिसकी उसने कल्पना तक नहीं की थी। उसका विवाह होता है आकाश अग्निहोत्री से—एक नाम, जो शहर में सिर्फ उसकी दौलत, ताक़त और रौब के लिए ही नहीं बल्कि उसके क्रूर और घमंडी स्वभाव के लिए भी जाना जाता था। आकाश एक ऐसा इंसान था, जिसके लिए रिश्ते, भावनाएँ और मानवीयता महज़ दिखावे से ज़्यादा कुछ नहीं थे। वह मानता था कि दुनिया सिर्फ ताक़त और पैसे से चलती है, और इंसानियत उसके सामने बेकार है। उसकी नज़रों में शादी भी एक डील से बढ़कर कुछ नहीं थी। उसके अहंकार और अड़ियल रवैये ने हर किसी को उससे दूर कर रखा था। दृष्टि का मासूम और सादा व्यक्तित्व आकाश के इस ठंडे और निर्दयी स्वभाव से टकराता है। वह खुलकर जीना चाहती थी, अपने सपनों को पंख देना चाहती थी, लेकिन आकाश की छाया उसके हर कदम पर भारी पड़ती है। हर दिन उसके लिए एक परीक्षा बन जाता है—क्या वह आकाश के घमंड और कठोर व्यवहार के बीच अपनी असली पहचान बचा पाएगी? शुरुआती दिनों में दृष्टि के लिए यह रिश्ता एक कैद से ज़्यादा कुछ नहीं लगता। लेकिन धीरे-धीरे, जब वह आकाश की आँखों के पीछे छिपे अतीत और उसके ज़ख़्मों की परतों को देखने लगती है, तो उसे एहसास होता है कि उसका यह पति बाहर से चाहे कितना भी पत्थरदिल क्यों न लगे, भीतर कहीं बहुत गहरा अंधेरा और अकेलापन समेटे हुए है। यह कहानी है एक मासूम लड़की की, जो अपने सपनों और रिश्तों के बीच फँसकर संघर्ष करती है। यह कहानी है उस आदमी की, जिसने दुनिया के सामने खुद को निर्दयी और अड़ियल साबित कर दिया, लेकिन अंदर ही अंदर वह भी किसी के अपनापन की तलाश में है। क्या दृष्टि अपने सपनों और अपने जीवन को आकाश के इस अहंकार और निर्दयता की दीवारों के पीछे खो देगी? या फिर वही बन पाएगी, जो इस पत्थर जैसे आदमी के दिल की बर्फ़ को पिघलाकर उसमें इंसानियत और प्रेम की लौ जगा दे? "एक रिश्ते की कैद, दो आत्माओं की लड़ाई और प्रेम की तलाश…" यही है आकाश और दृष्टि की कहानी।
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मुंबई की सुबह हमेशा की तरह चहल-पहल से भरी हुई थी। अरब सागर की लहरें दूर कहीं अपनी रफ्तार में थपेड़े मार रही थीं, पर शहर की सड़कों पर गाड़ियों की भागमभाग, ट्रैफ़िक का शोर और हॉर्न की आवाज़ें माहौल को और भी जीवंत बना रही थीं। इसी हलचल के बीच समुद्र किनारे बने एक बेहद आलीशान और हाई-फाई कॉलेज का नज़ारा देखते ही बनता था।
यह कॉलेज मुंबई के उन चुनिंदा कॉलेजों में गिना जाता था जहाँ पढ़ने का सपना हर स्टूडेंट देखता, लेकिन हक़ीक़त में कदम रखने का हक सिर्फ उन्हीं को मिलता जिनके पास दौलत, रुतबा और थोड़ी-सी किस्मत का साथ होता। विशाल कैंपस, हरे-भरे लॉन, चमचमाती इमारतें और हर कोने में मॉडर्न आर्ट का जलवा – यह कॉलेज अपने आप में किसी आलीशान महल से कम नहीं था।
उस सुबह भी, हमेशा की तरह, कैंपस के लॉन और रास्तों पर स्टूडेंट्स का शोर गूंज रहा था। कोई दोस्तों के साथ गपशप में मस्त था, कोई गिटार बजाकर अपने ग्रुप का सेंटर ऑफ अट्रैक्शन बना हुआ था, तो कोई फैशन शो की तरह रैंप वॉक करता-सा कैंपस में घूम रहा था।
तभी कॉलेज के मुख्य गेट पर अचानक एक लंबी-चौड़ी, चमचमाती काली रंग की लग्ज़री कार आकर धीमे से रुकी। उसके टायरों की हल्की चरमराहट ने जैसे पूरे कैंपस का ध्यान अपनी ओर खींच लिया।
भीड़ का शोर थम गया। लड़कियाँ फुसफुसाने लगीं, और लड़के अपने-अपने कदम रोककर देखने लगे।
कार का दरवाज़ा खुला और बाहर उतरी एक लड़की – पारुल कपूर।
वह सिर्फ एक नाम नहीं थी, बल्कि कॉलेज में एक ब्रांड जैसी शख़्सियत थी। लम्बे खुले बाल, हल्की लहराती लटें, स्टाइलिश गॉगल्स, हाई-फैशन ड्रेस और आत्मविश्वास से भरी चाल – पारुल कपूर जब भी कैंपस में आती, तो लगता जैसे किसी फिल्म की हीरोइन ने रेड कार्पेट पर एंट्री ली हो।
पारुल का नाम सुनते ही लोग जानते थे कि वह मुंबई के मशहूर बिज़नेसमैन, विशाल कपूर की इकलौती बेटी है। दौलत, शोहरत और लाइफस्टाइल उसके हर हाव-भाव में झलकता था।
आज भी, जब उसने गाड़ी से बाहर कदम रखा, तो लड़कियों की आँखों में जलन और लड़कों की आँखों में दीवानगी की चमक एक साथ नज़र आई।
“देखो, पारुल कपूर आ गई…”
“वाह यार, क्या क्लास है इसकी!”
“कपड़े देखे तुमने? सीधा मिलान फैशन वीक वाली फीलिंग आ रही है।”
ऐसी फुसफुसाहटें भीड़ में गूँज उठीं।
पारुल ने अपनी एंट्री का पूरा असर महसूस करते हुए, हल्की सी स्माइल दी। वह ठीक उसी अंदाज़ में चल रही थी जैसे पूरा कैंपस उसका अपना हो। लेकिन तभी, उसने अचानक पलटकर कार की ओर देखा और कुछ ऊँची आवाज़ में बोली –
“दृष्टि! अब और कितनी देर लगाएगी? बाहर आ ना, सब तुझे भी देखने का इंतज़ार कर रहे हैं।”
भीड़ ने एक-दूसरे की तरफ़ हैरानी से देखा।
कार का दूसरा दरवाज़ा धीरे-धीरे खुला। और फिर बाहर उतरी हमारी कहानी की हीरोइन – दृष्टि दीक्षित।
हल्के गुलाबी रंग के चूड़ीदार सूट में, दुपट्टे की नाज़ुक पल्लू सँभालते हुए, वह बड़ी मासूमियत से कार से बाहर उतरी। उसकी चाल में पारुल जैसी ठसक नहीं थी, मगर एक ऐसी सादगी थी जो दिल पर सीधा असर करती थी।
दृष्टि का चेहरा बिना मेकअप के भी इतना खिलता हुआ था कि जैसे भोर की पहली किरण ने धरती को छुआ हो। काजल से सजी बड़ी-बड़ी आँखें, चेहरे पर हल्की-सी झिझक और मुस्कान में छुपी मासूमियत – वह खूबसूरती की वो परिभाषा थी जिसे कोई भी देखे तो दिल में हलचल सी उठे।
भीड़ की नज़रें अब पारुल से हटकर दृष्टि पर ठहर गईं।
“कौन है ये लड़की?”
“नई लगती है… लेकिन कितनी प्यारी है ना!”
“लगता है मिडिल क्लास बैकग्राउंड से है… कपड़े तो वैसे ही हैं। लेकिन खूबसूरती… कमाल!”
लोगों की फुसफुसाहटें साफ़-साफ़ सुनाई दे रही थीं।
दृष्टि सचमुच एक मिडिल क्लास परिवार से आई थी। उसके पिता एक छोटे-से ऑफिस में क्लर्क थे और माँ गृहिणी। उसने अपने सपनों को साधारण ज़िंदगी के बीच ही पाला था। लेकिन उसके चेहरे पर जो आत्मा की सच्चाई झलकती थी, वह किसी भी महंगे फैशन और स्टाइल से कहीं ज्यादा चमकदार थी।
और यह नज़ारा सबसे दिलचस्प तब हो गया जब लोगों ने देखा कि पारुल और दृष्टि – जो दो बिल्कुल अलग दुनिया से आई थीं – सबसे अच्छी सहेलियाँ थीं।
पारुल ने हंसते हुए दृष्टि का हाथ पकड़ा और बोली –
“देखा? सब तुझे ही घूर रहे हैं। मैं कहती थी ना, मेरी बेस्ट फ्रेंड ब्यूटी क्वीन से कम नहीं!”
दृष्टि ने हल्की-सी शर्म से मुस्कुराते हुए कहा –
“छोड़ ना पारुल, सब मज़ाक बना रहे होंगे।”
“अरे पगली!” पारुल ने उसका गाल हल्के से खींचा, “तू समझती ही नहीं… तेरे जैसी सिंपल ब्यूटी आजकल किसी के पास नहीं। और वैसे भी… तेरे बिना तो ये कॉलेज अधूरा लगता।”
दोनों सहेलियाँ खिलखिलाकर हंस पड़ीं।
भीड़ ने यह दृश्य देखा तो कईयों की आँखों में और भी हैरानी भर गई।
“यार, सोचो… पारुल कपूर जैसी रॉयल लड़की और ये मिडिल क्लास सीधी-सादी लड़की – इतनी अच्छी दोस्त कैसे?”
“यही तो कमाल है भाई… दोस्ती दिल से होती है, पैसे से नहीं।”
पारुल और दृष्टि दोनों हाथ में हाथ डाले आगे बढ़ने लगीं। कॉलेज की सीढ़ियों की ओर बढ़ते उनके कदमों से पूरा कैंपस मानो और भी चहक उठा।
रास्ते में उन्हें जान-पहचान वाले लड़के-लड़कियाँ मिलते, कोई “हाय पारुल!” कहकर रुकता, कोई दृष्टि की तरफ़ देखकर मुस्कुरा देता। पारुल सबको अपने स्टाइलिश अंदाज़ में जवाब देती, जबकि दृष्टि बस हल्की सी मुस्कान दे देती।
दोनों की बातचीत में वही बचपन वाली गर्मजोशी थी।
“आज लेक्चर बड़ा बोरिंग होगा, मैं पहले से ही सोच रही हूँ।” – पारुल ने नाक सिकोड़ते हुए कहा।
दृष्टि हंस पड़ी – “तुझे तो वैसे भी पढ़ाई से एलर्जी है।”
“हाँ, और तू तो हमेशा टीचर्स की फेवरेट बनना चाहती है।” – पारुल ने छेड़ा।
“तो क्या करूँ, मुझे पढ़ाई सच में अच्छी लगती है।” – दृष्टि ने मासूमियत से जवाब दिया।
उनकी हंसी की गूंज सीढ़ियों तक पहुँच चुकी थी।
लेकिन…
जैसे ही दोनों क्लासरूम के करीब पहुँचीं, अचानक भीड़ में एक अजीब सी हलचल हुई। कई लोग रुक गए। कुछ फुसफुसाने लगे। नजरें अब सिर्फ पारुल और दृष्टि पर टिक गई थीं, लेकिन इस बार उन नजरों में उत्सुकता से ज्यादा रहस्य छुपा था।
पारुल और दृष्टि दोनों ने एक-दूसरे की तरफ़ देखा। उनके कदम अब भी क्लास की ओर बढ़ रहे थे… लेकिन उन्हें अंदाज़ा भी नहीं था कि आज वो क्लास तक पहुँच नहीं पाएंगी।
क्लासरूम के दरवाज़े पर कदम रखते ही दृष्टि ने राहत की साँस ली। कैंपस का वह हंगामा, सबकी निगाहें और फुसफुसाहटें अब पीछे छूट चुकी थीं। यहाँ, क्लास के भीतर, उसे बस पढ़ाई की गंभीरता और किताबों की महक चाहिए थी ।
कमरा बड़ा था—सामने एक स्मार्ट-स्क्रीन लगी हुई, चारों तरफ लकड़ी की चमचमाती टेबलें और आरामदायक कुर्सियाँ। खिड़कियों से आती धूप ने कमरे को सुनहरे रंग में नहला दिया था। कई स्टूडेंट्स पहले से ही वहाँ मौजूद थे—कोई किताबों में झुका था, कोई मोबाइल पर चैटिंग कर रहा था, तो कुछ ग्रुप में बैठकर हंसते-ठिठोली कर रहे थे ।
पारुल और दृष्टि ने एक कोने की टेबल चुनी।
“आज की क्लास लंबी होगी लगता है…” – पारुल ने बोर होते हुए कहा।
दृष्टि ने मुस्कराकर जवाब दिया – “तू चिंता मत कर, नोट्स मैं बना दूँगी।”
“तू ना… टीचर्स की चहेती। तेरे साथ रहकर लगता है मैं भी थोड़ी पढ़ाकू बन जाऊँगी।” – पारुल खिलखिला पड़ी।
उनकी हंसी सुनकर पास बैठे कुछ स्टूडेंट्स मुस्कुराए, लेकिन उतनी ही जल्दी सब फिर अपनी-अपनी बातों में उलझ गए।
क्लास का माहौल एकदम सामान्य था। हर कोई अपने-अपने अंदाज़ में मस्त था।
और तभी…
दरवाज़े पर अचानक जोरदार धक्का हुआ।
पूरे क्लासरूम में खामोशी छा गई। सबकी निगाहें एक साथ दरवाज़े की ओर उठीं।
वहाँ खड़ा था – आकाश अग्निहोत्री।
लंबा कद, चौड़े कंधे, महंगे कपड़े, ब्रांडेड घड़ी और आँखों में बेशर्मी से भरा हुआ आत्मविश्वास। वह किसी भी एंगल से कॉलेज का सबसे “पर्फेक्ट लड़का” लग सकता था – और यही उसकी सबसे बड़ी ताकत भी थी।
लेकिन जो लोग उसे सच में जानते थे, वे समझते थे कि यह चमकता हुआ चेहरा भीतर से कितना अंधेरा समेटे हुए है।
आकाश अग्निहोत्री, मुंबई के सबसे बड़े बिज़नेसमैन राजीव अग्निहोत्री का बेटा। दौलत और ताकत का ऐसा वारिस, जिसे कभी किसी चीज़ की कमी नहीं रही। और शायद इसी वजह से वह बिगड़ैल, अहंकारी और हर चीज़ को खेल समझने वाला इंसान बन गया था।
क्लास में उसकी एंट्री मानो किसी फिल्म का सीन हो।
जैसे ही वह भीतर आया, लड़कियों के चेहरे खिल उठे।
“ओह माय गॉड, आकाश…”
“इतना लेट भी आए तो भी सबसे स्टाइलिश लगता है।”
“काश एक बार मुझसे बात कर ले।”
लड़कियाँ आहें भरने लगीं। उनकी आँखों में चाहत साफ़ झलक रही थी। लड़के भी उसे देखकर खामोश हो गए। कोई उसकी कॉन्फिडेंस से जल रहा था, तो कोई उसकी रॉयल लाइफ़स्टाइल का दिवाना था।
आकाश ने कमरे में नजर दौड़ाई। जैसे किसी बादशाह ने अपनी प्रजा को देखा हो। उसकी आँखों में वही अकड़ थी—जैसे सब यहाँ सिर्फ उसे देखने के लिए मौजूद हों।
लेकिन अगले ही पल, उसकी नज़र ठहर गई।
सीधे… दृष्टि दीक्षित पर।
वह चुपचाप बैठी थी, सामने किताब खोले हुए, पर उसकी आँखों में हल्की-सी बेचैनी झलक गई। उसने महसूस किया था कि आकाश उसे घूर रहा है।
पारुल ने हल्की-सी फुसफुसाहट में कहा –
“ओह-हो, आज फिर तेरे पीछे पड़ा लगता है।”
दृष्टि ने भौंहें चढ़ाकर कहा –
“प्लीज़, ये लड़का मुझे बिल्कुल पसंद नहीं। हमेशा बेवजह मेरे पीछे पड़ा रहता है।”
आकाश ने मुस्कराकर धीमे कदम बढ़ाए। उसकी मुस्कान में शरारत से ज्यादा तिरस्कार छुपा था।
वह सीधे दृष्टि की टेबल की ओर चला आया।
पूरे क्लास में फुसफुसाहट होने लगी।
“देखो… फिर वही शुरू होने वाला है।”
“आकाश और दृष्टि की टक्कर… मज़ा आएगा।”
दृष्टि ने मन ही मन गहरी सांस ली। वह अच्छी तरह जानती थी – आकाश वही है जिसने कई बार उसे सबके सामने नीचा दिखाने की कोशिश की थी। वह हमेशा उसे कहता कि—
"तुम बहुत साधारण हो। इस कॉलेज में तुम्हारी कोई जगह नहीं। ऐसी शक्ल देखकर मैं तो पलटकर देखना भी पसंद न करूँ।”
ये बातें दृष्टि के दिल को चोट पहुँचाती थीं, लेकिन उसने हमेशा अनसुना करने की कोशिश की। फिर भी, आकाश उसकी ओर खिंचा चला आता था – क्यों? शायद इस सवाल का जवाब खुद उसे भी नहीं मालूम था।
आकाश अब उसकी टेबल के पास आ चुका था।
वह हल्के से झुका और मुस्कराकर बोला –
“तो… मिस मिडिल क्लास, आज फिर वही पुराने कपड़े? सच कहूँ, तुम्हें देखकर मेरा मूड खराब हो जाता है।”
क्लास में कुछ लड़कियों ने हंसकर उसका साथ दिया।
पारुल ने गुस्से में कहा –
“बस करो आकाश! हर बार यही ड्रामा करना ज़रूरी है क्या?”
लेकिन दृष्टि चुप रही। उसने सिर झुका लिया और किताब में आँखें गड़ा दीं।
आकाश को उसका चुप रहना और भी मज़ा दे रहा था।
वह दो कदम और आगे बढ़ा…
उसकी निगाहें अब सिर्फ दृष्टि पर थीं।
और…
उसके कदमों की आहट, क्लास का भारी माहौल और दृष्टि की धड़कनों की तेज़ी – सब थम जाते हैं।
क्लासरूम में माहौल कुछ पल के लिए ठहर-सा गया था।
आकाश अग्निहोत्री की नजरें सीधे दृष्टि पर जमी हुई थीं। उसका वही बेपरवाह-सा अंदाज़, जिसमें आत्मविश्वास से ज्यादा घमंड झलकता था, किसी को भी असहज कर देता।
दृष्टि ने किताब के पन्नों में नजरें गड़ाए रखीं, लेकिन उसे साफ़ महसूस हो रहा था कि आकाश उसके बेहद करीब आ चुका है। उसकी मौजूदगी ही जैसे हवा को भारी कर रही थी।
धीरे-धीरे वह दृष्टि की टेबल के बिल्कुल पास आकर खड़ा हो गया। हाथ जेब में, चेहरे पर एक आधी-अधूरी मुस्कान और आँखों में वही पुराना तिरस्कार। ऐसा लग रहा था जैसे अभी कुछ कहकर वह फिर सबके सामने उसे अपमानित करने वाला हो।
पारुल ने भी सिर उठाकर देखा, लेकिन उसके चेहरे पर कोई खास असर नहीं था। वह जानती थी, आकाश का यही अंदाज़ है—लड़कियों पर लाइन मारना और दूसरों को नीचा दिखाना।
दृष्टि ने गहरी सांस ली। अबकी बार वह चुप नहीं रहने वाली थी।
उसने धीरे से किताब बंद की, और सीधी आँखों में देखकर बोली—
“अपनी बकवास यहाँ मत शुरू करना, आकाश। वरना आज तुम्हारी खैर नहीं।”
उसकी आवाज़ भले धीमी थी, लेकिन उसमें इतनी सख़्ती थी कि पलभर को क्लास में बैठे कई लोग चौंक गए।
सबकी नज़रें उन दोनों पर टिक गईं।
आकाश हंसा।
“ओह, मिस सिंपल दीक्षित… आज तो मूड में है। अच्छा लगा, कम से कम इस बार जवाब तो दिया।”
लेकिन तभी, जैसे उसे मज़ा ही आ गया हो, उसने अचानक पारुल की ओर कदम बढ़ा दिए।
“हाय पारुल…” – उसने बेहद कैज़ुअल अंदाज़ में कहा, जैसे दोनों पुराने दोस्त हों।
पारुल ने हल्की-सी मुस्कान के साथ जवाब दिया –
“हाय आकाश… कैसी चल रही लाइफ?”
उसके चेहरे पर वही बिंदासपन था। पारुल वैसे भी ज्यादा सीरियस लड़की नहीं थी। उसके लिए लड़का-लड़की की बातें बस मज़ाक और टाइमपास होती थीं। उसे किसी से खास फर्क नहीं पड़ता था।
आकाश उसकी इस कैज़ुअलनेस से और भी निडर हो गया।
“बिलकुल शानदार, और अब तो और भी… क्योंकि तुमसे बात हो गई।”
क्लास में कुछ लड़कियाँ फिर से हंसने लगीं। माहौल हल्का-हल्का गॉसिप में बदलने लगा।
लेकिन इस बार दृष्टि का खून खौल उठा।
उसने गुस्से में पारुल का हाथ खींचा और तेज़ आवाज़ में कहा—
“इससे बात करने की ज़रूरत नहीं है, पारुल! ये बहुत ही घटिया इंसान है। चुपचाप अपनी सीट पर बैठो।”
पूरे क्लासरूम में सन्नाटा छा गया।
सभी की नज़रें अब दृष्टि पर थीं—किसी की आँखों में हैरानी, किसी में ताज्जुब और किसी में मज़ाक।
पारुल ने एक पल के लिए दृष्टि को देखा और फिर हंस पड़ी।
“अरे छोड़ ना यार… बेचारा ‘हाय’ ही तो कह रहा था। उसमें क्या गलत है?”
दृष्टि ने उसे घूरकर देखा। उसकी आँखों में गुस्सा और नाराज़गी साफ़ झलक रही थी।
“तू समझती क्यों नहीं पारुल… ये लड़का सिर्फ मुसीबत है। इससे जितनी दूर रहो उतना अच्छा।”
पारुल उसकी बातों पर सिर झुकाकर हल्का-सा मुस्कराई। वह जानती थी कि दृष्टि बहुत सीरियस है और आकाश का नाम सुनते ही उसका गुस्सा सातवें आसमान पर पहुँच जाता है। लेकिन उसके अपने लिए ये सब ज्यादा मायने नहीं रखता था।
उधर आकाश…
वह ये सब देख रहा था। दृष्टि की आँखों में गुस्सा देखकर उसके चेहरे पर एक अजीब-सी मुस्कान आ गई।
जैसे कोई शिकारी अपनी शिकार की ताकत पहचान ले।
उसने बिना कुछ कहे, बस चुपचाप अपनी टेबल की ओर कदम बढ़ा दिए।
चलते-चलते उसने एक बार पीछे मुड़कर दृष्टि की तरफ देखा।
वो नज़रें सीधी दिल को चीरने जैसी थीं—घमंड से भरी हुई, लेकिन कहीं गहराई में छुपा हुआ कोई अनजाना भाव भी उनमें चमक रहा था।
दृष्टि ने भी उसे घूरकर देखा, मानो कह रही हो—“मुझसे दूर रहो।”
आकाश मुस्कराया और अपनी सीट पर जाकर बैठ गया।
उसके बगल में पहले से बैठी एक लड़की तुरंत उसकी तरफ झुक गई।
“लेट क्यों आए आज?” – उसने प्यारेपन से पूछा।
“बस… तुम्हारा इंतज़ार कर रहा था।” – आकाश ने आंख मारते हुए जवाब दिया।
लड़की खिलखिलाकर हंस पड़ी और दोनों बातचीत करने लगे।
कभी धीमे सुरों में, कभी हल्की हंसी के साथ।
लेकिन इस पूरे समय… उसकी आँखें बार-बार दृष्टि की तरफ उठ रही थीं।
जैसे वह चुपचाप उसका हाल देखना चाहता हो।
दृष्टि ने किताब खोलकर सामने देखना शुरू कर दिया। उसने तय कर लिया था कि वह अब इस लड़के की परवाह नहीं करेगी। लेकिन भीतर ही भीतर उसका दिल तेज़ धड़क रहा था। आकाश की नज़रें उसे बार-बार असहज कर रही थीं।
पारुल धीरे से बोली –
“इतना गुस्सा मत कर, यार। ये आकाश है… इसे इग्नोर करने में ही भलाई है।”
दृष्टि ने बिना कुछ कहे बस पन्ने पलटे। उसकी आँखों में जिद थी।
और तभी…
क्लासरूम का दरवाज़ा खुला।
भीतर आए प्रोफेसर मेहरा—कॉलेज के सबसे सख़्त और अनुभवी प्रोफेसर।
उन्हें देखते ही पूरा क्लास एकदम खामोश हो गया।
कोई मुस्कराहट, कोई गॉसिप, कोई चुपचाप चल रही बातें—सब रुक गईं।
प्रोफेसर ने अपनी चश्मे के पीछे से सबको देखा और ठंडी आवाज़ में कहा—
“गुड मॉर्निंग, स्टूडेंट्स। आज से हमारी नई सेशन की शुरुआत है। मुझे उम्मीद है, आप सब गंभीरता से पढ़ाई करेंगे।”
क्लास में सन्नाटा छा गया।
लेकिन कुछ दिलों में हलचल अब भी जारी थी—खासकर दृष्टि और आकाश के।
क्लासरूम में प्रोफेसर मेहरा की आवाज़ गूंजने लगी थी।
“स्टूडेंट्स, इस सेशन में आपको सिर्फ़ किताबें याद नहीं करनी हैं, बल्कि सोचने की आदत भी डालनी है । असली शिक्षा वही है, जो दिमाग को खोलती है।”
उनकी भारी आवाज़ पूरे हॉल में फैल गई। सभी बच्चे अब सीधे बैठ गए थे। कुछ नोटबुक खोल रहे थे, कुछ तेज़ी से पेन घुमा रहे थे।
दृष्टि ने अपने सामने कॉपी रखी और लिखना शुरू कर दिया। उसकी पेन की नोक कागज़ पर एकदम साफ़ और सीधी लकीर खींच रही थी। उसके चेहरे पर वही गंभीरता थी। मानो इस नए सेशन को वह पूरे मन से पकड़ लेना चाहती हो।
पारुल, उसके बगल में, थोड़ी कम सीरियस थी। वह कॉपी पर इधर-उधर डिज़ाइन बनाते हुए कभी-कभी सुनती, कभी बस इधर-उधर नज़रें घुमाती।
लेकिन उधर, पीछे की तरफ…
आकाश अग्निहोत्री का ध्यान कहीं और था। उसके पास बैठी लड़की—नेहा—बड़ी उत्सुकता से लेक्चर सुन रही थी। लेकिन आकाश?
वह कभी उसकी कर्ली बालों को देखता, कभी कानों में झूलती झुमकियों को। फिर जैसे ही मौका मिलता, हल्के-हल्के मज़ाक करता।
“इतना सीरियस क्यों देख रही हो?” – उसने नेहा से फुसफुसाकर कहा।
नेहा ने उसे इग्नोर किया, पर होठों पर हल्की मुस्कान आ ही गई।
आकाश को यही तो चाहिए था।
लेकिन, बीच-बीच में उसकी नज़रें बार-बार सामने की तरफ चली जातीं। वहाँ—किताब में झुकी हुई दृष्टि। उसकी गंभीरता, उसके लिखने का ढंग, और आँखों में वही कड़ाई… आकाश के लिए जैसे एक चुनौती थी।
वह सोचता—“ये लड़की इतनी अकड़ में क्यों रहती है? बाकी सब हंसते हैं, मुस्कराते हैं… ये क्यों दीवार बनी फिरती है? इसे तो तोड़ना पड़ेगा।”
प्रोफेसर मेहरा ने अचानक सवाल पूछा—
“आप बताइए मिस दीक्षित… शिक्षा का असली उद्देश्य क्या है?”
दृष्टि ने बिना हड़बड़ाए सिर उठाया और शांत स्वर में कहा—
“शिक्षा हमें सिर्फ़ रोज़गार पाने लायक नहीं बनाती, बल्कि इंसान बनाती है। हमें सोचने, समझने और सही-गलत का फर्क करने की ताक़त देती है।”
पूरा क्लासरूम एक पल को चुप हो गया। प्रोफेसर मेहरा की आँखों में संतोष की चमक आ गई।
“वेरी गुड। यही जवाब मैं सुनना चाहता था।”
आकाश ने आँखें घुमाईं। उसके होंठों पर तिरस्कार भरी मुस्कान आ गई।
“ओह… मिस सिंपल दीक्षित फिर से हीरोइन बन गईं।” – उसने नेहा के कान में फुसफुसाया।
नेहा ने हल्की हंसी दबा ली।
लेक्चर का वक्त धीरे-धीरे खत्म हुआ। घंटी बजी तो क्लास में राहत की सांस गूँज गई। किताबें बंद हुईं, बच्चे उठकर इधर-उधर बातों में लग गए।
दृष्टि और पारुल ने भी सामान समेटा और बाहर निकलने लगीं।
कैंटीन का माहौल
कॉलेज कैंटीन हमेशा की तरह शोर और चहल-पहल से भरी हुई थी।
कहीं लड़के जोर-जोर से क्रिकेट पर बहस कर रहे थे, कहीं लड़कियाँ सेल्फ़ी खींच रही थीं।
फूड-काउंटर पर लंबी लाइन थी, और कॉफ़ी मशीन के सामने तो मानो मिनी भीड़ लगी थी।
दृष्टि और पारुल भी वहाँ पहुँचीं।
“मुझे तो बहुत भूख लगी है, पहले कॉफ़ी ले लेते हैं।” – पारुल ने कहा।
दृष्टि ने सिर हिलाया।
दोनों लाइन में खड़ी हो गईं।
कुछ देर इंतज़ार के बाद उनकी बारी आई।
पारुल ने दो कप कॉफ़ी ली। एक अपने लिए, और दूसरा दृष्टि के लिए।
वे दोनों ट्रे लेकर बाहर निकलने ही वाली थीं कि अचानक कोई तेज़ कदमों से वहाँ आ गया।
आकाश।
उसकी नज़र सीधी ट्रे पर पड़ी।
बिना कुछ कहे, उसने झटके से ट्रे से एक कप उठाया और अपने हाथ में ले लिया।
“थैंक्यू, मिस दीक्षित। मेरे लिए इतनी टेंशन लेने की ज़रूरत नहीं थी।” – उसने शरारती अंदाज़ में कहा।
पारुल हक्का-बक्का रह गई।
दृष्टि का चेहरा गुस्से से तमतमा गया।
“ये क्या बदतमीज़ी है? वो कॉफ़ी मेरी थी!” – उसने तेज़ आवाज़ में कहा।
आकाश ने बेपरवाही से कप होठों तक ले जाकर घूंट लिया।
“अब तो मेरी है।” – उसने आँख मारते हुए जवाब दिया।
आसपास खड़े कुछ लड़के-लड़कियाँ हंसने लगे।
पारुल ने धीरे से दृष्टि की कलाई पकड़कर कहा—
“छोड़ ना… जाने दे।”
लेकिन दृष्टि का गुस्सा अब रुकने वाला नहीं था।
उसने सीधा आकाश के सामने खड़े होकर कहा—
“तुम्हें शर्म नहीं आती? हर बार मुझे परेशान करने का नया तरीका निकालते हो। क्या समझते हो खुद को?”
आकाश ने बिल्कुल शांत चेहरा बनाए उसकी आँखों में देखा।
“मैं तो बस कॉफ़ी पी रहा हूँ। इतनी-सी बात पर इतना गुस्सा? तुम सच में बहुत ओवररिएक्ट करती हो।”
“ओवररिएक्ट?” – दृष्टि ने तिलमिलाकर कहा।
“तुम्हें लगता है ये मज़ाक है? किसी की चीज़ छीन लेना, सबके सामने बेइज़्ज़त करना… तुम्हें फर्क ही नहीं पड़ता?”
आकाश ने कंधे उचकाए।
“नहीं।”
उसके लहजे में वही घमंड और निडरता थी।
मानो दुनिया की कोई भी बात उसे हिला नहीं सकती।
दृष्टि के होंठ गुस्से से काँपने लगे।
वह कुछ और कहने ही वाली थी कि पारुल ने बीच में आकर उसे खींच लिया।
“बस कर, दृष्टि। ये तो और मज़ा लेगा। चल, बैठते हैं।”
दृष्टि ने गहरी सांस ली, और मजबूरी में अपनी बात रोक ली।
लेकिन उसके चेहरे पर साफ़ लिखा था—यह झगड़ा यहीं खत्म नहीं होगा।
उधर आकाश…
वह बड़े मज़े से कॉफ़ी पी रहा था।
लेकिन उसकी आँखें?
वो अब भी दृष्टि पर ही टिकी हुई थीं।
जैसे उसने एक नया खेल शुरू कर दिया हो—और उसका असली मज़ा अभी बाकी हो।
कॉलेज का मैदान दोपहर की धूप में हल्का-हल्का चमक रहा था।
कहीं हरी घास पर ग्रुप में बैठे स्टूडेंट्स मज़ाक कर रहे थे, कहीं कुछ किताबों में डूबे थे, तो कहीं खेलकूद में मसरूफ़ ।
चारों तरफ चहल-पहल थी।
लड़कियाँ हंसते हुए पिकनिक-स्टाइल में बैठी थीं, कुछ लड़के क्रिकेट खेल रहे थे, और बास्केटबॉल कोर्ट पर तेज़ शोर गूंज रहा था।
लेकिन इन सबसे अलग…
मैदान के एक कोने में, नीम की छाँव तले, दृष्टि अपने नोट्स फैलाए बैठी थी।
उसके पास पेन, हाईलाइटर और मोटी किताबें खुली हुई थीं। वह ध्यान से लेक्चर के पॉइंट्स दोहरा रही थी और साथ-साथ कॉपी में लिख रही थी।
पारुल थोड़ी दूर एक ग्रुप के साथ हंस-खेल रही थी।
दृष्टि को वैसे भी अकेले पढ़ने की आदत थी। उसके लिए यह वक्त सबसे अच्छा था—हल्की हवा, खुला मैदान और शांति।
लेकिन शांति कब तक टिकती…?
आकाश की एंट्री
उधर बास्केटबॉल कोर्ट पर आकाश अग्निहोत्री अपने दोस्तों के साथ था।
उसके हाथों में बॉल थी, और चेहरे पर वही बेपरवाह मुस्कान।
वह शॉट पर शॉट मार रहा था, दोस्त चीयर कर रहे थे।
“वाह आकाश! क्या थ्रो मारा है!” – किसी ने कहा।
आकाश ने बॉल फिर से हवा में घुमाई और उछाल दी।
लेकिन इस बार उसकी नज़र सामने के मैदान पर गई।
वहीं… पेड़ के नीचे, अकेली बैठी दृष्टि।
किताब में झुकी, मानो दुनिया से बेख़बर।
आकाश के होंठों पर अजीब-सी मुस्कान आ गई।
“देखते हैं… कितनी सीरियस पढ़ाई हो रही है।”
उसने ज़रा ज्यादा ज़ोर से बॉल फेंकी।
बॉल सीधा टप्पा खाती हुई दूर जा गिरी—और जाकर लगी दृष्टि की किताब से।
किताब उछलकर दूर जा गिरी।
दृष्टि चौंक उठी।
उसने घबराकर पन्ने समेटे, फिर अचानक उसकी नज़र उस बॉल पर पड़ी।
आकाश हंसते हुए उसकी तरफ बढ़ रहा था।
“सॉरी मिस दीक्षित… बॉल ज़रा हाथ से फिसल गई।” – उसने ऐसे कहा, जैसे सब अनजाने में हुआ हो।
दृष्टि ने गुस्से से उसकी तरफ देखा।
“फिसली थी… या जानबूझकर फेंकी थी?”
आकाश ने कंधे उचकाए।
“क्या फर्क पड़ता है? अब बॉल तो मुझे वापस दे दो।”
उसकी आवाज़ में वही अहंकार था।
टकराव
दृष्टि ने बॉल उठाई।
वह गुस्से से खड़ी हुई और उसकी ओर बढ़ी।
“बॉल चाहिए?” – उसने दाँत भींचकर कहा।
आकाश मुस्कराया।
“हाँ, चाहिए। आखिर खेलना है मुझे।”
“पहले सुन लो…” – दृष्टि ने तीखे स्वर में कहा।
“तुम्हें लगता है सब तुम्हारा मज़ाक सहने के लिए बैठे हैं? कभी क्लास में, कभी कैंटीन में, अब मैदान में भी… तुम्हें क्या लगता है, पूरी दुनिया तुम्हारे तमाशे के लिए बनी है?”
आकाश ठहाका मारकर हंसा।
“ओह! फिर से लेक्चर… तुम सच में पढ़ाई से फुर्सत निकालकर मुझे डाँटने की ट्रेनिंग लेती हो क्या?”
पास खड़े उसके दोस्तों ने भी हंसना शुरू कर दिया।
दृष्टि का खून खौल उठा।
उसने बॉल को जोर से जमीन पर पटका।
फिर अपने पेन-नाइफ़ से बॉल का किनारा खरोंच दिया।
चुर्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र…
बॉल से हवा निकलने की आवाज़ आई।
कुछ ही सेकंड में बास्केटबॉल पिचक गई।
पूरा ग्राउंड एक पल के लिए चुप हो गया।
सभी की नज़रें दृष्टि और आकाश पर टिक गईं।
आकाश का चेहरा जैसे सख़्त पड़ गया।
उसकी आँखों की चमक गायब होकर आग में बदल गई।
“तुमने… मेरी बॉल फाड़ी?”
दृष्टि ने सीधे उसकी आँखों में देखते हुए कहा—
“हाँ। अगली बार मेरी किताबों पर मत फेंकना वरना।”
उसकी आवाज़ में ठंडा गुस्सा था।
आकाश का गुस्सा
आकाश के दोस्तों ने उसे पकड़ने की कोशिश की।
“छोड़ यार… चल नई बॉल ले लेंगे।”
लेकिन आकाश के चेहरे पर पागलपन उतर आया था।
उसके लिए कोई उसकी चीज़ छू ले, यह भी बर्दाश्त नहीं था। और यहाँ तो दृष्टि ने सबके सामने उसकी बॉल फाड़ दी थी।
उसने गहरी सांस ली।
उसके होंठों पर हल्की-सी मुस्कान लौट आई—पर वह मुस्कान अब खतरनाक थी।
“ठीक है… मिस दीक्षित। अब खेल शुरू हुआ है।”
उसकी आवाज़ धीमी थी, लेकिन उसमें छुपा गुस्सा सबको सुनाई दे रहा था।
दृष्टि ने भी पीछे नहीं हटते हुए कहा—
“खेलना है, तो खेल लो। लेकिन याद रखना… मैं चुपचाप सहने वालों में से नहीं हूँ।”
दोनों की आँखें एक-दूसरे में टकराईं।
पूरा मैदान जैसे उस टकराव की गर्मी महसूस करने लगा।
जहाँ आकाश अंदर ही अंदर गुस्से से उबल रहा है और दृष्टि अपनी किताबें उठाकर वापस बैठ जाती है।
लेकिन माहौल में अब साफ़ था—यह लड़ाई यहीं खत्म नहीं होने वाली।
मैदान में खामोशी की लकीर छोड़कर दृष्टि वापस अपनी किताबें समेटकर बैठ गई थी। उसके चेहरे पर गुस्सा अब भी तना हुआ था, लेकिन उसने खुद को पढ़ाई में वापस झोंक दिया।
उधर, आकाश अग्निहोत्री ने अपने हाथ में पिचकी हुई बॉल घुमाई और गुस्से से उसे दूर फेंक दिया।
“डैम इट…” – उसने धीमे स्वर में कहा, और पलटकर अपने दोस्तों की तरफ बढ़ गया।
दोस्तों का जमघट
आकाश के सबसे करीबी दो दोस्त थे – कबीर और रजत।
दोनों उसके साथ बचपन से चले आ रहे थे और कॉलेज में भी उसी के साए में रहते थे।
कबीर ने उसकी पीठ थपथपाई।
“भाई… छोड़ भी दे। तू क्यों इस सिंपल सी लड़की के पीछे पड़ा है? कॉलेज में सैकड़ों लड़कियाँ घूम रही हैं। किसी एक ने तेरी बॉल फाड़ दी तो क्या हुआ?”
आकाश की आँखों में आग जल रही थी।
उसने धीमे, मगर धारदार स्वर में कहा—
“तुम लोग नहीं समझते। इसने मेरी बॉल नहीं फाड़ी… इसने मेरी इज़्ज़त फाड़ी है। सबके सामने। पूरे मैदान में हिम्मत किसकी थी जो आकाश अग्निहोत्री को चुनौती दे? और उसने दी। वो भी आँखों में आँखें डालकर।”
रजत हंस पड़ा।
“अरे, तू भी ना… तू इसे ज़रूरत से ज्यादा सीरियस ले रहा है।”
आकाश ने अचानक उसका हाथ कसकर पकड़ा।
उसकी पकड़ में इतना गुस्सा था कि रजत तिलमिला उठा।
“आकाश… छोड़ यार…”
“सुनो दोनों।” – आकाश की आवाज़ अब फुसफुसाहट जैसी थी, लेकिन उसमें ज़हर घुला हुआ था।
“ये लड़की नहीं जानती कि उसने किससे पंगा लिया है। आकाश अग्निहोत्री नाम है मेरा। मैं यहाँ सिर्फ खेलने-कूदने नहीं आया। इस कॉलेज की धड़कन मेरे इशारों पर चलती है। और अब ये लड़की… इसकी धड़कनें मैं बिगाड़ दूँगा।”
षड्यंत्रकारी इरादे
कबीर ने जिज्ञासा से पूछा—
“लेकिन करेगा क्या? तू कह तो बड़ा रहा है, पर तरीका क्या होगा?”
आकाश के होंठों पर खतरनाक मुस्कान खिंच गई।
उसने आंखें सिकोड़कर दूर बैठी दृष्टि की तरफ देखा, जो किताब में खोई हुई थी।
“तरीका?…
तरीका बताने से खेल का मज़ा खत्म हो जाएगा। बस इतना समझ लो—उसका इस कॉलेज में रहना, पढ़ना, सांस लेना… सब हराम कर दूँगा। हर कदम पर उसे महसूस होगा कि उसने गलत इंसान से टकराने की गलती की है।”
कबीर और रजत एक-दूसरे को देखने लगे।
रजत ने आधे मज़ाक में कहा—
“यार, तू तो सच में विलेन मोड ऑन कर चुका है। कहीं ऐसा ना हो कि ये तूफान तुझ पर ही भारी पड़ जाए।”
आकाश ने ठंडी हंसी छोड़ी।
“मुझ पर कोई भारी नहीं पड़ सकता। खासकर ये ‘मिस सिंपल दीक्षित’ जैसी लड़की तो बिल्कुल भी नहीं। वो अपने आप को बहुत होशियार समझती है। पढ़ाई में टॉपर होगी, लेक्चर में वाहवाही लूट लेगी… पर असली दुनिया में… उसे दिखाऊँगा कि ताक़त किसकी कहलाती है।”
कबीर ने सिर खुजाते हुए कहा—
“पर भाई, ये कॉलेज है, यहाँ सब चीज़ें खुली आँखों के सामने होती हैं। अगर तूने कुछ बड़ा किया, तो प्रोफेसर मेहरा या प्रिंसिपल तक बात पहुँच जाएगी।”
आकाश ने उसकी बात काट दी।
“कबीर… जब मैं चलता हूँ, तो पूरा सिस्टम मेरे हिसाब से चलता है। प्रोफेसर से लेकर छोटे स्टाफ तक… सब मेरे बाप का नाम जानते हैं। आकाश अग्निहोत्री से पंगा लेना आसान नहीं है। और इस लड़की को ये सबक बहुत जल्द मिल जाएगा।”
शिकार की तैयारी
उसने जेब से सिगरेट निकाली और लाइटर से जलाकर कश लिया।
धुआँ छोड़ते हुए वह बोला—
“तुम लोग सोच भी नहीं सकते मैं क्या कर सकता हूँ। मैं उसे डराऊँगा, तोड़ुगा । उसे धीरे-धीरे एहसास होगा कि यहाँ की हर गली, हर क्लास, हर कॉरिडोर उसके खिलाफ़ खड़ा है। दोस्त उसका साथ छोड़ेंगे, प्रोफेसर उस पर शक करेंगे, और एक दिन… उसे खुद अपने कदमों से इस कॉलेज को छोड़ना पड़ेगा।”
कबीर और रजत सन्न रह गए।
कबीर ने हकलाते हुए कहा—
“मतलब… तू पूरा प्लान कर चुका है?”
आकाश ने आँखें तरेरकर उसकी तरफ देखा।
“प्लान?… प्लान तो मैं तब बताऊँगा जब ज़रूरत होगी। अभी बस इतना जान लो—ये खेल शुरू हो चुका है। और इसका हर मूव मैं तय करूंगा।”
दोस्तों की सहमति
रजत ने धीरे से मुस्कान दी।
“भाई, तेरे तेवर देखकर तो लग रहा है ये लड़की सच में बड़ी मुसीबत में पड़ने वाली है।”
कबीर ने भी हामी भरी।
“हाँ यार… वैसे भी तूने अब तक जिसे निशाना बनाया है, वो कभी सीधा खड़ा नहीं हो पाया।”
आकाश ने गहरी सांस ली और धुएँ का आखिरी छल्ला हवा में छोड़ा।
उसके होंठों से शब्द निकले—
“ये लड़की जिंदगी भर याद रखेगी कि उसने आकाश अग्निहोत्री से पंगा क्यों नहीं लेना चाहिए था। और जब ये कॉलेज छोड़ेगी, तो लोग इसे नाम लेकर मिसाल देंगे—कैसे एक अकड़ू लड़की ने अपनी अकड़ की कीमत चुकाई।”
उसकी आँखों में अब जुनून चमक रहा था।
दूर से नज़र
उधर पेड़ के नीचे दृष्टि को अहसास हुआ कि कोई उसे घूर रहा है।
उसने सिर उठाया—और देखा कि आकाश और उसके दोस्त हंसते-बतियाते हुए उसी की तरफ देख रहे थे।
दृष्टि का दिल एक पल को धड़क उठा।
लेकिन उसने तुरंत सिर झुका लिया और कॉपी पर पेन चला दिया।
उसके मन में ख्याल आया—
“ये लड़का… मुझे चैन से पढ़ने क्यों नहीं देता? आखिर इसे मुझसे दिक़्क़त ही क्या है?”
लेकिन उसे क्या पता…
अब उसकी ज़िंदगी सिर्फ़ पढ़ाई तक सीमित नहीं रहने वाली थी।
आकाश अग्निहोत्री ने खेल की बिसात बिछा दी थी।
जहाँ आकाश अपने दोस्तों के सामने षड्यंत्रकारी इरादों का ऐलान करता है, और दृष्टि अनजाने में उस तूफ़ान के बीच फँसने वाली है जिसका उसे अभी अंदाज़ा तक नहीं है।
दोपहर की क्लास ख़त्म हो चुकी थी।
लंबे लेक्चर के बाद सभी स्टूडेंट्स कॉरिडोर में भीड़ की तरह निकल रहे थे।
किताबें, बैग, हंसी-ठिठोली की आवाज़ें पूरे माहौल को भर रही थीं।
दृष्टि और पारुल भी साथ-साथ निकल रही थीं।
दोनों के हाथों में कॉपियाँ और बैग थे।
पारुल हंसते हुए बोली—
“यार, ये शर्मा सर न… इतना बोरिंग पढ़ाते हैं कि मुझे नींद आने लगती है। अच्छा हुआ तू बगल में थी, वरना मैं तो सो ही जाती।”
दृष्टि मुस्कराई।
“हाँ, लेकिन जो लिखवाया है, सब इम्पॉर्टेंट है। तुझे आज रात नोट्स बना दूँगी।”
दोनों बातें करते हुए सीढ़ियों की ओर बढ़ ही रही थीं कि तभी सामने से तीन लड़कियाँ आईं।
उनमें से एक—नेहा—जो कॉलेज में हमेशा बातों-बातों में दूसरों को नीचा दिखाने के लिए मशहूर थी, अचानक रुक गई और पारुल से टकरा गई।
अफवाह की शुरुआत
नेहा ने बैग सँभालते हुए कहा—
“ओह, सॉरी… दिखा नहीं।”
फिर अचानक उसकी नज़र पारुल पर टिकी।
“वैसे पारुल, एक बात पूछूँ?” – उसने थोड़ा बनावटी अंदाज़ में कहा।
पारुल ने भौंहें उठाईं।
“हाँ, पूछ।”
नेहा ने इधर-उधर देखा, फिर धीमे से बोली—
“यार, मेरे पास इस बार फीस भरने के लिए पैसे नहीं हैं। घर की हालत थोड़ी खराब चल रही है। तू न… प्रिंसिपल सर से बात करके मेरी फीस माफ़ करवा दे। वैसे भी… वो तेरे अंकल लगते हैं ना? तूने खुद कहा था कभी।”
पारुल चौंक गई।
“क्या? ये कैसी बात कर रही है?”
नेहा ने आगे कहा—
“अरे, छुपा क्यों रही है? तूने ही तो बताया था कि प्रिंसिपल अंकल की वजह से ही दृष्टि का एडमिशन हुआ है। वरना इतनी महंगी कॉलेज में वो कैसे पढ़ सकती? इसलिए तो कह रही हूँ, मेरे लिए भी थोड़ी हेल्प कर दे।”
गुस्से का फव्वारा
यह सुनते ही दृष्टि वहीं रुक गई।
उसका चेहरा गुस्से से लाल हो गया।
“नेहा! अपनी ज़ुबान संभाल कर बात कर।” – उसने तीखे स्वर में कहा।
“मेरा एडमिशन किसी सिफारिश से नहीं हुआ। मैंने खुद अपनी मेहनत और मेरिट पर जगह बनाई है। पारुल का इसमें कोई हाथ नहीं है।”
पारुल ने भी झुंझलाकर कहा—
“हाँ नेहा, तू बकवास क्यों कर रही है? मैंने कब कहा कि प्रिंसिपल मेरे अंकल हैं? बस इतना है कि वो हमारे पुराने फैमिली फ्रेंड हैं, बस। और दृष्टि का एडमिशन? वो टॉपर है! उसकी सीट तो पहली लिस्ट में ही पक्की हो गई थी।”
नेहा थोड़ा सकपका गई।
“अरे… सॉरी, मुझे लगा कि…”
दृष्टि ने उसे बीच में काटा।
“लगा क्या? तुम्हें अफवाह फैलाने में मज़ा आता है। औरों के बारे में झूठ बोलकर तुम खुद को बड़ा समझती हो? शर्म आनी चाहिए।”
नेहा के चेहरे का रंग उड़ गया।
वो हड़बड़ाकर बोली—
“ठीक है, सॉरी। मैं बस मज़ाक कर रही थी।”
और वह जल्दी से अपनी सहेलियों के साथ वहाँ से निकल गई।
गुस्से के बादल
नेहा के जाते ही दृष्टि वहीं खड़ी रह गई।
उसका गुस्सा अभी शांत नहीं हुआ था।
उसने पारुल की तरफ देखा—
“देखा? लोग कैसी-कैसी बातें बना लेते हैं। मुझे ये बिल्कुल अच्छा नहीं लगा। कोई कहे कि मैं सिफारिश से आई हूँ… ये मेरे लिए सबसे बड़ा अपमान है। मैं अपनी मेहनत से यहाँ तक पहुँची हूँ, और कोई मेरी मेहनत पर शक करे… ये मैं बर्दाश्त नहीं कर सकती।”
पारुल ने उसे शांत करने की कोशिश की।
“दृष्टि, शांत हो जा। ऐसे लोगों की परवाह नहीं करनी चाहिए। नेहा जैसी लड़कियाँ तो हर जगह मिलती हैं। इनका काम ही होता है अफवाह फैलाना।”
लेकिन दृष्टि ने आह भरते हुए कहा—
“नहीं पारुल, ये बात मेरे दिल को लग गई है। मुझे क्यों झूठा साबित किया जा रहा है? अगर कल को सबको यही लगने लगे कि मैं किसी की सिफारिश से पढ़ रही हूँ, तो मेरी असली मेहनत का क्या मतलब?”
दोस्ती पर सवाल
पारुल ने उसका हाथ पकड़कर कहा—
“देख, मैं तुझे साफ़ बता रही हूँ। मैंने कभी भी किसी के लिए ऐसा दावा नहीं किया। न ही तेरे लिए, न अपने लिए। प्रिंसिपल सर मेरे अंकल नहीं हैं, बस फैमिली फ्रेंड हैं। और अगर कभी किसी को मदद चाहिए होगी, तो मैं उनसे रिक्वेस्ट ज़रूर करूँगी—लेकिन करना-ना करना उनके ऊपर होगा। समझी?”
दृष्टि ने सिर झुकाकर धीरे से कहा—
“मुझे पता है, पारुल। तू ऐसा कभी नहीं करेगी। पर फिर भी… मुझे ये बातें अच्छी नहीं लगतीं। मैं नहीं चाहती कि लोग हमारी दोस्ती पर ऊँगली उठाएँ।”
पारुल हल्का सा मुस्कराई, लेकिन उसकी मुस्कान में कसक थी।
“लोगों का तो काम है बोलना, दृष्टि। तू क्यों इतना सोच रही है? अगर हम हर अफवाह पर ध्यान देंगे, तो अपनी ज़िंदगी जी ही नहीं पाएंगे।”
दृष्टि ने चुपचाप उसकी तरफ देखा।
फिर अचानक धीमे स्वर में कहा—
“कभी-कभी लगता है… शायद मैंने तेरे साथ दोस्ती करके गलती कर दी। तभी लोग मुझे तेरे नाम से जोड़कर बातें बनाते हैं।”
पारुल के चेहरे पर ठेस पहुँची।
उसने रुककर दृढ़ आवाज़ में कहा—
“पागल है तू! तेरे मुँह से ये सुनने की उम्मीद नहीं थी। दोस्ती बोझ नहीं होती, दृष्टि। लोग चाहे कुछ भी कहें, पर मैं और तू… हम जानती हैं कि सच्चाई क्या है। तो प्लीज़… ऐसे मत सोच।”
दृष्टि चुप रही।
उसके चेहरे पर अब भी नाराज़गी थी, लेकिन आँखों में कहीं न कहीं ग्लानि भी झलक रही थी।
कॉरिडोर खाली होने लगा था।
नेहा और उसकी सहेलियाँ कब की जा चुकी थीं।
पारुल और दृष्टि धीरे-धीरे सीढ़ियों से नीचे उतर रही थीं।
माहौल में चुप्पी थी।
दृष्टि के मन में नेहा के शब्द अब भी गूंज रहे थे।
वहीं, पारुल सोच रही थी—क्या उनकी दोस्ती इतनी मज़बूत है कि ये अफवाहें उसे तोड़ न पाएँ?
जहाँ दोस्ती की मज़बूत डोर पर पहली बार एक दरार-सी महसूस होने लगी थी।
दोपहर की क्लासेज़ का बोझ उतर चुका था। दोनों सहेलियाँ – दृष्टि और पारुल – अपने-अपने बैग घर रखकर शाम को मॉल निकल आईं।
शहर का सबसे बड़ा शॉपिंग मॉल रोशनी से जगमगा रहा था। एंट्रेंस पर काँच की बड़ी स्लाइडिंग डोर, चारों तरफ ब्रांडेड स्टोर्स, हँसते-खिलखिलाते लोग और चॉकलेट, परफ्यूम की मिली-जुली खुशबू हवा में तैर रही थी।
पारुल हमेशा की तरह बेहद एक्साइटेड थी। उसके कदम तेज़ थे और आँखें चमक रही थीं।
“चल, आज पूरा दिन सिर्फ अपने लिए है। क्लास-वर्क, नोट्स, टेंशन सब बाद में।”
दृष्टि हल्की मुस्कान के साथ पीछे-पीछे चली।
“तुझे पता है, मुझे ऐसे महंगे-महंगे मॉल में आना कभी अच्छा नहीं लगता। चीजें देखती हूँ तो लगती हैं जैसे मेरी पहुँच से बाहर हों।”
पारुल ने उसका हाथ पकड़ लिया।
“बस यही तो दिक्कत है तुझमें। तुझे हर चीज़ में दाम ही दिखता है, वैल्यू नहीं। चल, आज देखती हूँ, तु मुझे कैसे मना करती।”
शॉपिंग का रंग
सबसे पहले वे एक ब्रांडेड क्लॉथिंग स्टोर में दाख़िल हुईं। अंदर हल्की इंग्लिश म्यूज़िक बज रही थी। लकड़ी के हेंगरों पर सजी रंग-बिरंगी ड्रेसेज़, शो-केस में हाई-फैशन गाउन और शीशों में जगमगाती रोशनी—सब कुछ इतना आकर्षक कि दृष्टि थोड़ी देर तक बस चारों ओर देखती रह गई।
पारुल सीधे एक रैक की तरफ बढ़ी और एक-एक करके कपड़े ट्राई करने लगी। कभी नीला गाउन, कभी क्रीम कलर की फ्रॉक, तो कभी रेड ड्रेस उठाकर शीशे के सामने खुद को देखती।
“वाह! ये देख… कितना क्लासी लग रहा है।” पारुल ने एक ऑफ-शोल्डर ड्रेस पहनकर बाहर आते हुए कहा।
दृष्टि हँस पड़ी।
“तू तो किसी मॉडल से कम नहीं लग रही।”
कुछ ही देर में पारुल के हाथों में पाँच-छह ड्रेस थीं। फिर अचानक उसने एक हल्के पिंक कलर की ड्रेस उठाई और दृष्टि की तरफ बढ़ाते हुए बोली—
“ये तेरे लिए। बिल्कुल तुझ पर जँचेगी।”
दृष्टि ने चौंककर पीछे हटते हुए कहा—
“न-नहीं, मैं ये नहीं ले सकती। इतनी महंगी ड्रेस मेरे लिए नहीं है, पारुल।”
पारुल ने भौंहें चढ़ाईं।
“क्यों? मेरी दोस्त होकर इतनी दूरियाँ रख रही है?”
दृष्टि ने धीरे से कहा—
“दूरी नहीं… बस अपनी हैसियत जानती हूँ। मैं खुद अपनी कमाई से लेना चाहती हूँ, किसी और से गिफ्ट नहीं।”
पारुल ने ड्रेस उसकी तरफ और बढ़ाई।
“एक बात बता, अगर मेरी जगह तू होती और तू शॉपिंग कर रही होती, तो क्या तू मुझे ड्रेस नहीं दिलवाती?”
दृष्टि एक पल को चुप रही, फिर हल्की आवाज़ में बोली—
“हाँ, दिलवाती… लेकिन इतनी महंगी शायद नहीं।”
पारुल हँस पड़ी।
“तो फिर इतनी सोच क्यों? महंगा-सस्ता हमारी दोस्ती के बीच कभी नहीं आना चाहिए। मैं तुझसे कुछ उम्मीद रखती हूँ, तू मना करेगी तो मुझे बुरा लगेगा। ये ड्रेस तेरे लिए ही है, समझी?”
दृष्टि ने पारुल की आँखों में सच्चाई देखी। वह जानती थी कि पारुल उसे दिल से खुश करना चाहती है। आखिरकार उसने ड्रेस हाथ में ले ली।
“ठीक है… लेकिन सिर्फ इसलिए ले रही हूँ क्योंकि तू कह रही है।”
पारुल ने चैन की साँस ली और मुस्कराते हुए कहा—
“बस, यही चाहिए था मुझे। तूने मेरी दोस्ती की इज़्ज़त रख ली।”
शाम का पल
दोनों ने थोड़ी और शॉपिंग की—जूते, एक्सेसरीज़, कुछ किताबें। मॉल की गलियों में घूमते हुए वे हँसती-बतियाती रहीं।
शाम ढल रही थी। मॉल की छत पर लगी लाइट्स अब और चमकने लगीं। बाहर कॉफ़ी शॉप से आती महक ने उनके कदम रोक दिए।
“चल, कॉफ़ी पीते हैं।” पारुल ने कहा।
दृष्टि मान गई। वे कॉफ़ी कप हाथ में लेकर मॉल की लॉबी में बैठ गईं। माहौल बिल्कुल हल्का था, जैसे सुबह की सारी टेंशन गायब हो गई हो।
लेकिन तभी…
अनपेक्षित टकराव
सीढ़ियों की ओर से एक परिचित चेहरा उनकी नज़र में आया।
आकाश अग्निहोत्री।
उसकी चाल पहले जैसी आत्मविश्वासी थी। लेकिन इस बार वह अकेला नहीं था। उसके साथ एक लड़की थी—लंबे खुले बाल, स्टाइलिश ड्रेस और चेहरे पर अजीब-सी चमक।
दोनों शायद मूवी देखकर बाहर निकल रहे थे। आकाश के हाथ में पॉपकॉर्न का पैकेट था और लड़की उसकी बाँह में बाँह डाले हँस रही थी।
दृष्टि और पारुल दोनों कुछ पल के लिए वहीं रुक गईं। नज़रें जैसे जमी रह गईं।
आकाश की नज़र भी उन पर पड़ी। उसकी चाल एक पल को धीमी हुई, लेकिन उसने कुछ कहा नहीं। बस हल्का-सा सिर झुकाकर आगे बढ़ गया।
माहौल अचानक भारी हो गया।
कॉफ़ी के कप से उठती भाप के बीच दृष्टि का दिल अजीब-सी कसक से भर गया।
पारुल चुप थी, और दृष्टि… बस उसी टकराव की गूँज में खोई रह गई।
शाम की भीड़ और जगमगाती लाइट्स के बीच उस पल की खामोशी जैसे किसी अधूरी कहानी का पहला इशारा थी।
मॉल की भीड़भाड़ में, रोशनी से जगमगाती दुकानों और हँसी-ठिठोली के बीच, उस पल जैसे सबकुछ थम गया था।
दृष्टि और आकाश की नज़रें एक-दूसरे से टकराईं।
दोनों की आँखों में वही पुराना गुस्सा, वही अनकहा ताना, वही चुनौती चमक रही थी।
मानो दुनिया की सारी भीड़ गायब हो गई हो और बस उनके बीच ही कोई अनदेखा रणभूमि खड़ी हो।
आकाश हल्की मुस्कान के साथ आगे बढ़ा।
उसकी चाल में वही अकड़ थी। उसकी बाँह पर टिकी लड़की अब भी उसकी हर बात पर मुस्करा रही थी।
वह दृष्टि और पारुल के बिल्कुल सामने आ खड़ा हुआ।
“अरे वाह!” – उसने तंज कसा।
“तो आज मिस दीक्षित भी अमीरों वाले मॉल में शॉपिंग करने आई हैं? लगता है इनकी लाइफ़स्टाइल भी अब बदल रही है। वैसे…”
वह दृष्टि को ऊपर से नीचे तक देखता हुआ बोला—
“ये सारी शॉपिंग तो तुम्हारी फ्रेंड ने ही करवाई होगी, है ना? आखिर तुम्हें तो अपनी पढ़ाई की किताबों से फुर्सत ही कहाँ होती है, और पैसे… वो तो शायद अब भी दूसरों पर डिपेंड करते हो?”
उसके शब्द हवा में किसी ज़हर की तरह फैल गए।
पारुल ने सुनते ही चौंककर आकाश को घूरा।
लेकिन दृष्टि… उसका चेहरा पल भर में गुस्से से तमतमा उठा।
उसकी साँसें तेज़ हो गईं।
दिल में जैसे किसी ने आग लगा दी हो।
उस पर कोई उँगली उठाए, ये कहे कि वह लालची है, दूसरों पर निर्भर है—यह वह किसी कीमत पर बर्दाश्त नहीं कर सकती थी।
मॉल का माहौल अचानक सन्नाटे में बदल गया।
लोगों की निगाहें उस तरफ घूमने लगीं।
आकाश अब भी उसी बेतकल्लुफ़ अंदाज़ में खड़ा था।
“वैसे मिस दीक्षित, तुम्हें मानना पड़ेगा—तुम्हारी फ्रेंड का taste बहुत अच्छा है। वरना तुम तो…”
वह अपनी बात पूरी करता, उससे पहले ही—
चटाक!
दृष्टि का हाथ हवा को चीरता हुआ उसके गाल पर पड़ा।
थप्पड़ की आवाज़ पूरे मॉल में गूँज गई।
पारुल तक सन्न रह गई।
आकाश का चेहरा एकदम सुर्ख हो गया।
उसकी आँखों में हैरानी थी, गुस्सा था, और साथ ही भीड़ की फुसफुसाहट भी उसे चुभ रही थी।
चारों तरफ लोग रुककर देखने लगे थे।
कुछ के होंठों पर दबा-दबा-सा आश्चर्य, कुछ के चेहरे पर सवाल।
लेकिन दृष्टि को इन सबसे फर्क नहीं पड़ा।
उसने तड़पते स्वर में कहा—
“चुप रहो, आकाश! अगर अगली बार मुझे लालची कहने की कोशिश भी की, तो सिर्फ थप्पड़ नहीं—मेरे शब्द भी तुम्हें बहुत चोट पहुँचाएँगे। मैंने अपनी ज़िंदगी की हर चीज़ मेहनत से पाई है। किसी से चीज़ें कभी नहीं माँगी। समझे तुम?”
उसकी आवाज़ में इतनी दृढ़ता थी कि आकाश पलभर को बोल ही न सका।
भीड़ अब और गहरी फुसफुसाहट करने लगी।
“देखा? लड़की ने लडके को…”
“इतना ज़ोरदार थप्पड़…”
“शायद लडके ने कुछ गलत कहा होगा…”
पारुल ने आगे बढ़कर दृष्टि का हाथ थामा।
“चल यहाँ से।”
दृष्टि की आँखों में अब भी आग जल रही थी।
वह पलटे बिना, बिना किसी और शब्द के, सीधे बाहर की ओर बढ़ गई।
उसके कदम तेज़ थे।
मानो वह उस पल, उस जगह और उस अपमानजनक ताने से जितनी जल्दी हो सके दूर भागना चाहती हो।
पारुल उसके पीछे-पीछे चली।
आकाश वहीं खड़ा रहा।
उसका गाल अब भी जल रहा था—थप्पड़ से भी ज्यादा, उस अपमान से जो उसे सबके सामने झेलना पड़ा था।
उसकी गर्लफ्रेंड भी हैरान थी, कुछ कह नहीं पा रही थी।
लेकिन उसकी आँखों में अब सिर्फ एक ही बात साफ़ थी—
यह थप्पड़ सिर्फ एक थप्पड़ नहीं था…
यह एक ऐसी चुनौती थी जिसे वह कभी नहीं भूलेगा।
मॉल के बाहर आते हुए दृष्टि और पारुल के कदम तेज़ थे ।
दृष्टि के चेहरे पर अब भी गुस्से की लपटें थीं। उसका हाथ हल्का-सा काँप रहा था—वही हाथ जिसने कुछ देर पहले पूरे मॉल के बीचों-बीच आकाश को थप्पड़ जड़ा था।
भीड़ अब भी उस घटना की गूँज में उलझी थी, पर दोनों सहेलियाँ बिना कुछ बोले गाड़ी की ओर बढ़ गईं।
पीछे छूटा आकाश
मॉल के भीतर, आकाश वहीं खड़ा रह गया था।
उसके गाल पर थप्पड़ का लाल निशान अब तक बाकी था। लेकिन उससे कहीं ज्यादा उसकी आँखों में जलन थी—अपमान की, चोट की, और बदले की।
उसके साथ खड़ी लड़की—रिया—हैरान थी।
वह घबराकर बोली—
“आकाश, प्लीज़… इतना गुस्सा मत करो। सबके सामने… हाँ, उसने किया ग़लत, पर तुम भी तो… शायद तुमने ज़्यादा बोल दिया।”
आकाश ने उसकी तरफ़ घूरकर देखा।
उसकी नज़रें इतनी तेज़ थीं कि रिया एक पल को चुप हो गई।
“रिया,” – उसकी आवाज़ दबे हुए ज्वालामुखी जैसी थी,
“आज जो हुआ न… ये सिर्फ़ एक थप्पड़ नहीं था। इसने मेरी पूरी इज़्ज़त, मेरा पूरा अहम मॉल की फ़र्श पर पटक दिया है। और इसका बदला मैं ज़रूर लूँगा। चाहे कुछ भी करना पड़े, मैं दृष्टि दीक्षित को ऐसा गिराऊँगा कि पूरी दुनिया देखे।”
रिया ने उसके हाथ को पकड़ना चाहा,
“पर… आकाश…”
आकाश ने झटका देकर उसका हाथ हटा दिया।
“तुम नहीं समझोगी। ये मेरी लड़ाई है। और जब तक मैं दृष्टि को नीचा दिखा कर उसकी अकड़ नहीं तोड़ता, तब तक मुझे चैन नहीं आएगा।”
इतना कहकर वह गुस्से से बाहर निकल गया।
रिया वहीं खड़ी रह गई—हैरान, टूटी हुई और असहाय।
उसके पीछे बस आकाश की तेज़ कदमों की आवाज़ गूँज रही थी।
गाड़ी में सन्नाटा
उधर, मॉल से निकलकर पारुल और दृष्टि अपनी कार में बैठ चुकी थीं।
कार ड्राइवर चला रहा था और दोनों पीछे की सीट पर थीं।
गाड़ी के अंदर अजीब-सी चुप्पी थी।
सिर्फ़ एसी की धीमी आवाज़ और बाहर से आती ट्रैफिक की हल्की गूँज थी।
पारुल ने हिम्मत करके धीरे से कहा—
“दृष्टि… तुझे इतना गुस्सा करने की ज़रूरत नहीं थी। मुझे पता है, आकाश ने गलत कहा, पर सबके सामने… वो थप्पड़…”
दृष्टि ने तुरंत उसकी बात काट दी।
“मैंने कहा था ना, मुझे तेरे साथ ऐसे मॉल में नहीं आना चाहिए था। लेकिन तू कभी मानती ही नहीं। देख लिया न नतीजा?”
पारुल सकपका गई।
“लेकिन… मैं तो बस चाहती थी तुझे खुश करूँ। एक दिन अपने लिए जिएं, पढ़ाई-टेंशन से अलग।”
दृष्टि ने खिड़की से बाहर देखते हुए गुस्से में कहा—
“खुश? किस चीज़ की खुशी? जब कोई मुझे सबके सामने लालची कहे, दूसरों पर निर्भर कहे? ये मेरे लिए मौत जैसा है, पारुल। तू समझती क्यों नहीं?”
पारुल ने धीरे से उसका हाथ पकड़ लिया।
“मैं समझती हूँ, दृष्टि। तूने अपनी ज़िंदगी में सब कुछ मेहनत से पाया है। किसी के ताने, किसी के झूठ से तेरी मेहनत कम नहीं हो जाती। पर गुस्से में तूने खुद को बहुत चोट पहुँचाई। आकाश जैसे लोगों पर इतना ध्यान मत दे।”
दृष्टि ने धीरे-धीरे उसकी तरफ देखा।
उसकी आँखें अब भी गुस्से से भरी थीं, लेकिन कहीं न कहीं पारुल की बातों में सुकून भी था।
कुछ पलों तक दोनों चुप रहीं।
फिर दृष्टि ने गहरी साँस लेते हुए कहा—
“ठीक है… मान जाती हूँ। लेकिन पारुल, एक वादा कर—अब से मुझे ऐसे जगहों पर जबरदस्ती मत खींचकर ले जाना।”
पारुल ने हल्की मुस्कान के साथ सिर हिलाया।
“ठीक है, वादा। लेकिन तू भी वादा कर, कि तू ऐसे अफवाहों और ऐसे लोगों को खुद पर हावी नहीं होने देगी।”
दृष्टि ने उसकी हथेली को थाम लिया।
“वादा।”
गाड़ी शहर की सड़कों से गुजरती हुई आगे बढ़ती रही।
बाहर शाम की लाइटें जगमगा रही थीं, पर गाड़ी के अंदर अभी भी कहीं न कहीं दोनों के मन में उस थप्पड़ की गूँज बाकी थी—जो न सिर्फ़ एक जवाब था, बल्कि आने वाले तूफ़ान का भी इशारा।
शाम गहराने लगी थी।
मॉल की घटना के बाद गुस्से से तपता हुआ आकाश सीधे अपने घर पहुँचा ।
उसके चेहरे पर थप्पड़ की लाली अब भी थी,लेकिन उससे कहीं ज़्यादा उसके अंदर का आक्रोश जल रहा था।
घर का माहौल
आकाश जैसे ही ड्रॉइंग रूम में दाखिल हुआ, उसकी माँ—रीना अग्निहोत्री—ने तुरंत उसे देखा।
रीना हमेशा की तरह खूबसूरती से तैयार थीं, क्योंकि थोड़ी देर बाद उन्हें अपने पति के साथ एक पार्टी में जाना था।
लेकिन बेटे को देखते ही उनके चेहरे पर चिंता की लकीरें उभर आईं।
वो उठकर उसके पास आईं और ध्यान से उसके गाल की ओर देखने लगीं।
“अरे बेटा… ये क्या हुआ?” – उन्होंने हैरानी से पूछा।
“गाल तो पूरा लाल है। किसी मच्छर ने काट लिया है क्या? या फिर… कहीं गिर तो नहीं गया तुम?”
आकाश ने हल्की-सी हँसी हँसी, लेकिन उस हँसी में तंज था।
उसने गहरे स्वर में कहा—
“हाँ माँ… एक मच्छर ही समझ लो।
लेकिन ये कोई आम मच्छर नहीं है।
ये ऐसा मच्छर है जो बार-बार मेरे सामने भिनभिनाता रहता है।
ना उसे भुला सकता हूँ, ना उसे छोड़ सकता हूँ।
कभी न कभी… इस मच्छर को मसाला ज़रूर पड़ेगा।”
उसकी आँखों में जलती हुई आग साफ झलक रही थी।
रीना उसे कुछ और पूछना चाहती थीं, लेकिन आकाश अचानक पलटा और अपने कमरे की ओर बढ़ गया।
उसके कदम भारी थे और दरवाज़ा बंद करने की आवाज़ पूरे घर में गूँज गई।
माँ की हैरानी
रीना वहीं खड़ी रह गईं।
उनके चेहरे पर उलझन थी।
वो बुदबुदाईं—
“मच्छर?…
आख़िर ये किसके बारे में कह रहा था?
क्या वाकई किसी ने इसे चोट पहुँचाई है… या फिर ये किसी और बात को छिपा रहा है?”
उनका मन बेचैन हो उठा।
बेटा इतना गुस्से में बहुत कम दिखा था।
उसकी आँखों में जो नफ़रत झलक रही थी, उसने रीना का दिल काँपा दिया।
पिता का आगमन
तभी पीछे से गहरी आवाज़ आई—
“रीना! अरे… यहाँ खड़ी-खड़ी किसका इंतज़ार कर रही हो? हमें देर हो रही है।”
ये आवाज़ थी आकाश के पिता—प्रकाश अग्निहोत्री
—की।
कड़े चेहरे वाले, बिज़नेस टाइकून, जिनकी पहचान पूरे शहर में थी।
वो सूट-बूट में तैयार खड़े थे, हाथ में कार की चाबी थी।
रीना ने धीरे से उनकी तरफ़ मुड़कर कहा—
“वो… मैं सोच रही थी कि आकाश… उसका गाल लाल क्यों है। उसने कहा कि मच्छर ने काटा है। लेकिन…”
प्रकाश ने हल्की-सी हँसी में बात टाल दी।
“अरे, तुम भी न… बच्चों के हर छोटे-छोटे झगड़े पर इतना क्यों सोचती है?
लड़का जवान है, कॉलेज जाता है। कभी दोस्तों से भिड़ गया होगा, कभी गिर गया होगा।
ये सब उम्र का हिस्सा है। चलो, हमें पार्टी के लिए देर हो जाएगी। वैसे भी बाहर ड्राइव में टाइम लगेगा।”
रीना अभी भी सोच में डूबी हुई थीं।
लेकिन पति के आग्रह पर उन्होंने खुद को सँभाला और धीरे-धीरे उनके साथ बाहर निकल गईं।
कमरे की दीवारों के पीछे
दूसरी ओर, अपने कमरे में आकाश अकेला खड़ा था।
उसने आईने में अपना चेहरा देखा।
गाल अब भी लाल था।
उसने मुट्ठियाँ भींच लीं और आईने में अपने ही चेहरे को घूरते हुए बोला—
“दृष्टि…
तूने सबके सामने मुझे नीचा दिखाया है।
मेरी इज़्ज़त, मेरा घमंड, सबको मिट्टी में मिला दिया है।
लेकिन मैं तुझे चैन से जीने नहीं दूँगा।
ये थप्पड़… मेरी रग-रग में जल रहा है।
और इसका बदला… मैं लेकर रहूँगा।”
उसकी आवाज़ कमरे की चारदीवारियों में गूँज उठी।
आईने के सामने खड़ा आकाश अब सिर्फ़ एक आहत लड़का नहीं था, बल्कि बदले की आग में जलता हुआ इंसान बन चुका था।
कमरा अब भी गुस्से से तपता हुआ था।आकाश की सांसें तेज़ चल रही थीं। उसका चेहरा आईने में लाल-सा चमक रहा था—थप्पड़ का निशान नहीं, बल्कि उसके अहंकार पर लगे ज़ख्म का असर था।
वो बिस्तर पर बैठा ही था कि तभी उसका फोन बज उठा। स्क्रीन पर उसके जिगरी दोस्त करण का नाम चमक रहा था।
आकाश ने कॉल उठाते ही बिना हिचकिचाए कहा,
“क्या है?”
दूसरी तरफ़ से करण की आवाज़ आई—
“भाई… रात जवान है, और तेरे गुस्से का इलाज भी डिस्को ही है। आ जा। सब तेरा इंतज़ार कर रहे हैं। तेरे बिना तो कोई सीन ही नहीं बनता। डांस फ्लोर तेरे बिना अधूरा लगता है।”
आकाश ने गहरी सांस ली। गुस्से की आँच अब भी भीतर जल रही थी, मगर उसने खुद को संभालते हुए कहा—
“ठीक है। तूने बोला है तो आ रहा हूँ।”
उसने शर्ट बदली, काले रंग की जैकेट पहनी, बालों को स्टाइल में सेट किया और बाहर निकल पड़ा। उसकी चाल में गुस्से का तेवर और स्टाइल का रुआब दोनों झलक रहे थे।
डिस्को का रंग
डिस्को के बाहर महंगी गाड़ियों की लाइन लगी हुई थी। जैसे ही आकाश की कार दरवाज़े पर रुकी, बाउंसरों ने तुरंत दरवाज़ा खोला। उसका नाम और रुतबा शहर भर में जाना जाता था।
अंदर जाते ही तेज़ म्यूज़िक, चमचमाती लाइट्स और डांस करती भीड़ ने माहौल को गरमा दिया। लेकिन भीड़ के बीच अचानक जब आकाश अंदर आया—तो मानो सारा ध्यान उसी पर टिक गया।
उसके कदमों में वो ठसक थी कि मानो पूरा फ्लोर उसी का हो। काली जैकेट के साथ सफ़ेद शर्ट, हाथ में हल्की-सी चेन, और आँखों में किलर लुक—जिससे हर कोई बस देखता ही रह गया।
कुछ लड़कियाँ, जो बार के पास खड़ी थीं, फुसफुसाने लगीं—
“वो देखो… आकाश अग्निहोत्री आया है।”
“उफ़्फ़… कितना रॉयल लगता है। उसका एटीट्यूड ही उसकी सबसे बड़ी स्टाइल है।”
आकाश मुस्कुराया नहीं, बस हल्की-सी नज़र घुमाई। लेकिन उसकी वो नज़र ही लड़कियों के दिलों पर बिजली की तरह गिरी।
दोस्तों के बीच
डांस फ्लोर के एक कोने में करण और बाकी दोस्त पहले से ही बैठे थे। आकाश जैसे ही उनकी तरफ़ बढ़ा, सब खड़े होकर उसका स्वागत करने लगे।
“आ गया शेर!” – करण ने गले लगाते हुए कहा।
बाकी दोस्तों ने भी तालियाँ बजाईं।
आकाश ने सोफ़े पर ऐसे बैठने का अंदाज़ दिखाया मानो ये जगह उसी के लिए बनी हो। एक पैर दूसरे पर चढ़ाया, हाथ में ग्लास उठाया और दूसरी कुर्सी पर हाथ फैलाकर बैठ गया। उसका हर मूवमेंट एक रॉयल कमांड जैसा था—आसपास की भीड़ उसे देख-देखकर हीरो मान रही थी।
लड़कियों का दीवाना अंदाज़
कुछ ही देर में लड़कियों का ग्रुप उसके टेबल के आस-पास मंडराने लगा।
एक लड़की मुस्कुराते हुए बोली—
“हाय आकाश… तुमने तो आते ही पूरी डिस्को की रौनक बढ़ा दी।”
आकाश ने हल्की-सी मुस्कान दी, लेकिन उसके चेहरे पर वही किलर एटीट्यूड कायम रहा।
“मैं जहाँ जाता हूँ… रौनक अपने आप चली आती है।” – उसने धीमे लेकिन भारी स्वर में कहा।
उसकी इस लाइन ने लड़कियों को और भी दीवाना बना दिया।
डांस फ्लोर पर तूफ़ान
करण ने कहा—
“चल भाई, गुस्सा भूल और डांस फ्लोर हिला दे।”
आकाश उठ खड़ा हुआ। उसके उठने का अंदाज़ ही ऐसा था कि लोग देखने लगे। उसने जैकेट का बटन खोला, हल्के से कॉलर उठाया और फ्लोर पर कदम रखे।
जैसे ही म्यूज़िक बदला, आकाश का डांस शुरू हुआ।
उसका डांस रफ़्तार से नहीं, बल्कि अंदाज़ से भरा था। हर मूवमेंट में उसका गुस्सा, उसका रुतबा और उसका चार्म साफ़ झलक रहा था।
लड़कियाँ चीखने लगीं,
“Wooow… आकाश! You rock!”
उसके हर स्टेप पर तालियाँ गूंज रही थीं। लड़कियाँ उसके चारों तरफ़ घिरने लगीं, कोई उसका हाथ पकड़ने लगी, कोई बस उसकी तरफ़ देखे जा रही थी।
आकाश का चेहरा अब भी गंभीर था। लेकिन भीतर कहीं उसे मज़ा आ रहा था कि वो इस भीड़ में भी सुप्रीम है—सबकी नज़रें सिर्फ़ उसी पर हैं।
भीतर का तूफ़ान
लेकिन डांस और शोरगुल के बीच भी, उसके दिमाग़ में वो एक ही चेहरा घूम रहा था—दृष्टि का।
वो थप्पड़, वो अपमान, वो गुस्सा… सब उसके दिल में जल रहा था।
उसने डांस करते हुए भी मन-ही-मन कहा—
“देखना दृष्टि… तुझे इस भीड़ के बीच भी नींद नहीं आएगी।
तूने मेरी इज़्ज़त मिट्टी में मिलाई है।
अब तुझे पूरे शहर में मेरे नाम से डर लगेगा।”
उसकी आँखें फिर से लाल होने लगीं।
रात का समापन
करीब एक घंटे तक आकाश और उसके दोस्तों ने डिस्को का मज़ा लिया। शराब के पैग, म्यूज़िक की धड़कनें और लड़कियों का दीवानापन—सब मिलकर आकाश की रात को चमकदार बना रहे थे।
लेकिन जब वो अपने सोफ़े पर वापस बैठा, तो चेहरा फिर से ठंडा और सख्त हो गया।
उसने अपने दोस्तों की तरफ़ देखा और धीरे से कहा—
“आज तो बस शुरुआत है।
अब खेल असली होगा।
जो भी मेरे रास्ते में आएगा… उसे कुचल दूँगा।”
उसके इस अंदाज़ ने दोस्तों के दिलों में भी हल्की-सी दहशत भर दी।
आकाश अब सिर्फ़ गुस्से में नहीं था।
वो अब बदले की आग में तपता हुआ शेर बन चुका था,
जो आने वाले वक्त में किसी को भी बख़्शने वाला नहीं था।
डिस्को की लाइट्स अब और तेज़ चमक रही थीं । म्यूज़िक की बीट्स हॉल को हिला रही थीं, लेकिन दृष्टि के दिल की धड़कन उनसे कहीं ज़्यादा तेज़ थी।
आकाश अपने दोस्तों के बीच बैठ चुका था। एक हाथ में ग्लास था, दूसरे हाथ से वो कभी बालों को झटकता, कभी टेबल पर उँगलियाँ बजाता। ऊपर से हँसी-मज़ाक करता दिखता था, लेकिन उसकी नज़रें हर पल दृष्टि पर ही अटकी हुई थीं।
दूर से ताने
उसने अपने दोस्तों से धीरे से कहा—
“देखो, वो देखो… कितनी अजीब लग रही है न? डिस्को में अंब्रेला सूट!
लगता है नानी माँ को सीधे यहाँ ले आई हो। हाहाहा…”
उसके दोस्त ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगे।
उनकी हँसी डांस फ्लोर के शोर में भी साफ़ सुनाई दे रही थी।
कभी वो उँगली से उसकी ड्रेस की तरफ़ इशारा करता, कभी दोस्तों को कुछ कहकर हँसाता और फिर दृष्टि को घूरकर डेविल स्माइल देता।
मानो वो यह जताना चाहता हो कि—मैंने तुझे यहाँ सबके सामने नीचा दिखा दिया है।
दृष्टि के कान लाल हो गए। उसने बार-बार पारुल को कहा—
“चलो न… मुझे घर जाना है। मेरा यहाँ मन नहीं लग रहा।”
लेकिन पारुल ने पहले उसे समझाया—
“Ignore कर यार… ये लड़का हमेशा से बदतमीज़ है। तू क्यों टेंशन लेती है? हम आए हैं तो थोड़ा म्यूज़िक एंजॉय कर लेते हैं।”
दृष्टि ने चुपचाप सिर हिला दिया। लेकिन भीतर उसका मन और बेचैन हो रहा था।
टूटा हुआ मूड
करीब आधे घंटे तक दोनों ने वहीं खड़े-खड़े म्यूज़िक सुना, थोड़ी बहुत बातें कीं।
लेकिन आकाश के ठहाकों और दूर से उसकी लगातार तानों ने माहौल बिगाड़ दिया।
पारुल ने आखिर हार मान ली। उसने ग्लास टेबल पर पटकते हुए कहा—
“बस अब बहुत हुआ। यार, इस आदमी ने तो पूरा मूड खराब कर दिया। अब यहाँ रुकने का कोई फायदा नहीं है। चल, घर चलते हैं।”
दृष्टि ने राहत की सांस ली।
“हाँ पारुल, मैं भी यही चाहती थी। चलो।”
डिस्को से बाहर
दोनों जल्दी-जल्दी डिस्को से बाहर निकलीं। बाहर की ठंडी हवा ने दृष्टि को थोड़ी राहत दी।
पारुल की कार पहले से खड़ी थी। ड्राइवर ने दरवाज़ा खोला। दोनों पीछे की सीट पर बैठ गईं।
कार स्टार्ट होते ही पारुल ने गुस्से में कहा—
“ये आकाश है कौन आखिर? खुद को क्या समझता है? जैसे पूरी दुनिया उसी की है!”
दृष्टि ने खिड़की से बाहर देखते हुए धीमी आवाज़ में कहा—
“मैं भी नहीं जानती पारुल… समझ ही नहीं आता ये लड़का अपने आप को क्या समझता है।
हर बार ऐसे सामने आ जाता है… और हर बार मुझे नीचा दिखाने की कोशिश करता है।
पता नहीं, इसका असली मसला है क्या।”
पारुल ने झुंझलाकर कहा—
“तुझे थप्पड़ वाला सीन याद है न? लगता है उसी का बदला ले रहा है। लेकिन ऐसा बदला तो कोई इंसानियत वाले इंसान ले ही नहीं सकता।”
दृष्टि ने आँखें बंद कर लीं। उसके भीतर एक अजीब डर था, लेकिन साथ ही गुस्सा भी।
रास्ते की बातें
कार शहर की सड़कों से गुजर रही थी। बाहर नीयॉन लाइटें चमक रही थीं, लेकिन कार के भीतर माहौल भारी था।
पारुल बार-बार वही दोहराती रही—
“इस आदमी से तेरा पाला क्यों पड़ा? इतने लड़के हैं कॉलेज में, सब ठीक-ठाक हैं। लेकिन ये… ये तो पागल है।
दृष्टि, प्लीज़, आगे से इसका सामना मत करना। Avoid कर।”
दृष्टि ने धीमी आवाज़ में कहा—
“कोशिश तो करती हूँ, लेकिन न जाने क्यों… हर जगह ये सामने आ ही जाता है।
जैसे मेरी ज़िंदगी को उसने अपनी जिद बना लिया हो।”
दोनों चुप हो गईं। सिर्फ़ कार का इंजन और सड़क का शोर सुनाई दे रहा था।
घर का मोड़
कुछ देर बाद कार दृष्टि के घर के बाहर रुकी।
पारुल ने उसका हाथ दबाया।
“चल, अब तू घर जा। और ज्यादा मत सोच। मैं भी घर जा रही हूँ। कल क्लास में मिलते हैं।”
दृष्टि ने हल्की मुस्कान दी और कहा—
“थैंक्स पारुल… तू न होती तो मैं आज अकेली यहाँ बिल्कुल टूट जाती।”
पारुल ने उसे गले लगाया और फिर ड्राइवर से बोली—
“चलो, अब मेरे घर चलो।”
दृष्टि की बेचैनी
दृष्टि अपने घर के गेट से अंदर चली गई। उसके कदम भारी थे।
उसके दिमाग़ में अब भी आकाश की डेविल स्माइल घूम रही थी।
उसके ताने, उसकी हँसी, उसका दबंग अंदाज़—सब जैसे उसके कानों में गूंज रहे थे।
उसने दरवाज़ा बंद किया, कमरे में गई और सीधे आईने के सामने खड़ी हो गई।
आईने में उसका चेहरा थका हुआ और आँखें नम नज़र आ रही थीं।
वो खुद से बुदबुदाई—
“आख़िर क्यों? क्यों हर बार मुझे ही निशाना बनाता है?
क्या सिर्फ़ एक थप्पड़ की वजह से?
या फिर… इसके पीछे कुछ और है?”
उसके दिल में सवालों का तूफ़ान था। लेकिन जवाब कहीं नज़र नहीं आ रहा था।
पारुल का सफ़र
उधर, पारुल की कार तेज़ी से सड़कों पर दौड़ रही थी।
वो खिड़की से बाहर देख रही थी, लेकिन मन में बार-बार वही गुस्सा उमड़ रहा था।
“आकाश… तुझे क्या प्रॉब्लम है?
ना जाने खुद को क्या समझता है!
लेकिन मैं तुझे बता दूँ… तूने जिस फ्रेंड को छेड़ा है, वो मेरी सबसे बेस्ट फ्रेंड है।
अब अगर तूने उसे फिर परेशान किया… तो मैं तुझे छोड़ूँगी नहीं।”
उसके होंठों पर दृढ़ता थी।
रात का अंत
पारुल अपने घर पहुँची, कार से उतरी और भीतर चली गई।
लेकिन उसके दिल में अब भी आकाश का नाम गूंज रहा था।
इधर, दृष्टि अपने कमरे में बिस्तर पर लेट चुकी थी, लेकिन आँखें खुली थीं।
वो बार-बार सोच रही थी—
“क्या सच में मेरी ज़िंदगी अब आकाश की पकड़ में फँस गई है?”
और दूसरी ओर…
डिस्को के कोने में अब भी आकाश बैठा था। उसके हाथ में अधूरी ड्रिंक थी, और आँखों में वही डेविल स्माइल।
उसने दोस्तों से कहा—
“अब खेल और मज़ेदार होगा।
वो भाग सकती है, लेकिन बच नहीं सकती।”
उसकी हँसी देर रात की खामोशी में गूंज उठी।
रविवार की सुबह थी। मुंबई की भाग-दौड़ से भरी सड़कों पर उस दिन का ट्रैफ़िक कुछ हल्का था, लेकिन दीक्षित परिवार का छोटा-सा घर अपनी ही रफ्तार से ज़िंदा था। घर वैसा ही था जैसा एक आम मिडिल क्लास फैमिली का होता है—चार कमरों का फ्लैट, दीवारों पर हल्के रंग का पेंट, पुराना सोफ़ा, और डाइनिंग टेबल जिस पर हमेशा अख़बार, चाय के कप और किसी न किसी की किताबें बिखरी रहती थीं।
ड्रॉइंग रूम में उसके पिताजी, रमेश दीक्षित, हमेशा की तरह रविवार की आदत पूरी कर रहे थे—कुर्सी पर बैठे हुए अख़बार में डूबे हुए। उनकी ऐनक थोड़ी-सी नीचे खिसक गई थी और वे हर तीसरे पन्ने पर हल्की आवाज़ में “हूँ…” कहकर रुक जाते थे।
किचन से बर्तनों की हल्की खनक और मसालों की खुशबू आती थी। उसकी माँ, सुधा दीक्षित, नाश्ता बनाने में व्यस्त थीं। वहीं, कमरे से तेज़ हंसी और मेकअप किट की आवाज़ें आ रही थीं। छोटी बहन, मनीषा , इस समय आईने के सामने बैठी लिपस्टिक और काजल लगाने की जिद कर रही थी। उसकी उम्र बस 17 साल थी, लेकिन उसे लगता था कि बिना मेकअप उसके चेहरे पर कोई आकर्षण नहीं।
दृष्टि अपने कमरे से बाहर आई तो सीधे पापा के पास जाकर खड़ी हो गई। उसके चेहरे पर हल्की-सी बेचैनी थी।
“पापा, आज का अख़बार मुझे दीजिए।”
रमेश जी ने अख़बार से नज़रें उठाकर बेटी को देखा।
“क्या हुआ बेटा? आज तो बड़ी जल्दी अख़बार की याद आ गई। कोई खास खबर छपी है क्या?”
दृष्टि थोड़ी झिझकते हुए बोली, “पापा… वो, बाद में बताऊँगी। पहले आप अख़बार दीजिए।”
रमेश जी ने भौंहें चढ़ाकर उसे अख़बार पकड़ाया और चुपचाप उसे देखते रहे।
दृष्टि जल्दी-जल्दी पन्ने पलटने लगी, मानो किसी ख़ज़ाने की तलाश हो। कुछ सेकंड में उसने उस पन्ने पर उंगली रखी और ठहर गई। उसके चेहरे पर एक चमक आ गई थी।
इतने में माँ किचन से चाय लेकर आईं। कप रखते हुए उन्होंने हल्की मुस्कान के साथ कहा,
“अरे बेटा, आज तो कमाल है। रोज़ सुबह-सुबह तेरे पापा अख़बार में डूबे रहते हैं और तू उन्हें छेड़ती रहती है। आज तू खुद अख़बार पढ़ रही है? क्या बात है?”
दृष्टि तुरंत उठी और लगभग बच्चों जैसी खुशी से बोली,
“माँ… मुझे मिल गया! मुझे नौकरी मिल गई है। देखिए, यहां पर विज्ञापन छपा है। यह वाली नौकरी पक्की मेरे लायक है। मैं ज़रूर जाकर इसका इंटरव्यू दूँगी।”
इतना कहते ही कमरे का माहौल बदल गया।
पापा का चेहरा गंभीर हो गया। उन्होंने ऐनक उतारकर टेबल पर रख दी।
“बेटा, ये सब क्या है? तुम्हें इस उम्र में नौकरी की क्या ज़रूरत है? तुम्हारा काम अभी सिर्फ पढ़ाई करना है। नौकरी की टेंशन मत लो, मैं हूँ ना सब संभालने के लिए।”
माँ ने भी सिर हिलाकर कहा,
“हाँ, बिल्कुल। तुम बस पढ़ाई पर ध्यान दो। अभी से नौकरी के पीछे भागोगी तो आगे कैसे बड़ी पढ़ाई कर पाओगी?”
दृष्टि कुछ कह पाती उससे पहले मनीषा अपने कमरे से भागकर बाहर आई। उसकी आँखों में जिज्ञासा चमक रही थी।
“दीदी, क्या मिल गया? कोई खजाना मिली है क्या?”
दृष्टि ने अख़बार की ओर इशारा किया,
“हाँ, मनीषा! देख, यहां पर लिखा है—फ्रेशर्स के लिए ऑफिस असिस्टेंट की नौकरी। मुझे पक्का यकीन है कि मैं इसमें सफल हो जाऊँगी।”
मनीषा ने उत्साह से ताली बजाई, लेकिन तभी पापा की भारी आवाज़ गूँजी,
“बस बहुत हुआ। दृष्टि, ये सब तुम्हें करने की ज़रूरत नहीं है। तुम्हें समझ क्यों नहीं आता कि अभी तुम्हारा समय पढ़ाई का है। नौकरी का नहीं।”
कमरा अचानक सन्नाटे में डूब गया। माँ की आँखों में चिंता थी, पापा के चेहरे पर कठोरता, और मनीषा के चेहरे पर हैरानी।
लेकिन दृष्टि के दिल में एक अलग ही जिद पल रही थी। वह अख़बार को कसकर पकड़ते हुए चुपचाप डाइनिंग टेबल पर बैठ गई।
उसकी आँखें अब भी उस विज्ञापन पर टिकी थीं, और मन में सिर्फ एक ही आवाज़ गूँज रही थी—
“मुझे ये नौकरी करनी ही है… चाहे कुछ भी हो जाए।”
सुबह की हल्की धूप अब खिड़की से अंदर आ चुकी थी । अख़बार के उस छोटे-से विज्ञापन ने पूरे घर का माहौल बदल दिया था। दृष्टि अब भी टेबल पर बैठी थी, उसकी आँखें उसी पन्ने पर अटकी थीं, जैसे वह काग़ज़ का टुकड़ा ही उसके सपनों की चाबी हो।
पापा ने गहरी साँस लेकर कहा,
“दृष्टि, मैंने साफ़ कहा न… अभी तुम्हें नौकरी की कोई ज़रूरत नहीं है। तुम्हारा ध्यान सिर्फ पढ़ाई पर होना चाहिए।”
दृष्टि ने पापा की तरफ देखा। उसकी आँखों में आँसू थे, लेकिन उनमें एक अडिग चमक भी थी।
“पापा… मैं पढ़ाई छोड़ नहीं रही। मैं बस यह नौकरी करना चाहती हूँ ताकि घर का थोड़ा बोझ कम कर सकूँ।”
माँ ने भौंहें चढ़ाकर कहा,
“बेटा, यह कैसी बात है? घर का बोझ तुम्हें क्यों उठाना है? तुम्हारे पापा हैं, हम दोनों हैं। तुम्हें बस अपने करियर की फिक्र करनी चाहिए।”
दृष्टि चुप रही, फिर धीरे से बोली,
“माँ… पापा सब अकेले कब तक करेंगे?”
कमरे में फिर से सन्नाटा छा गया। पापा ने अख़बार को एक तरफ रखा और कुर्सी पर पीछे टिक गए।
“तुम्हें लगता है कि मैं अपने परिवार का खर्च नहीं उठा सकता?” उनकी आवाज़ में चोट थी।
दृष्टि तुरंत उनकी ओर झुकी,
“नहीं पापा! ऐसा बिल्कुल नहीं है। आप तो हमारे लिए हमेशा ढाल बने रहे हैं। लेकिन… मैंने भी आपकी थकान देखी है। महीने के आख़िर में आपका माथा कितनी बार पसीने से भीगता है, मैंने देखा है। आपके हाथ में पगार आने से पहले ही बिजली, किराया, मनीषा की फीस, मेरी किताबें, माँ की दवाइयाँ—सबका हिसाब बंधा होता है। और आप मुस्कुराकर हमें यह सब महसूस भी नहीं होने देते। लेकिन मैं देखती हूँ पापा… सब देखती हूँ।”
माँ ने चुपचाप उसकी ओर देखा। उसकी आँखों में अपनापन था, लेकिन चिंता भी गहरी थी।
दृष्टि ने बात आगे बढ़ाई,
“पापा, मनीषा अभी स्कूल में है। उसकी पढ़ाई पर खर्चा और बढ़ेगा। मैं कॉलेज में हूँ, और मेरे कोर्स की किताबें भी सस्ती नहीं आतीं। माँ की दवाइयाँ भी हर महीने चाहिए। आप ही बताइए, यह सब सिर्फ आप अकेले कब तक संभालेंगे? अगर मैं थोड़ा-सा हाथ बँटा दूँ तो क्या बुरा होगा?”
मनीषा, जो अब तक चुप थी, अचानक बोल पड़ी,
“हाँ पापा! दीदी सही कह रही है। मैंने भी देखा है कि कभी-कभी आप देर रात तक बैठे रहते हैं, बस हिसाब-किताब जोड़ते रहते हैं। अगर दीदी नौकरी कर लेगी तो इसमें गलत क्या है?”
पापा ने अपनी छोटी बेटी की तरफ देखा और फिर गहरी नज़र से दृष्टि को देखा।
“बेटा, मैं चाहता हूँ कि तुम बिना किसी चिंता के सिर्फ पढ़ो, ताकि तुम्हारा भविष्य उज्ज्वल हो। लेकिन तुम अभी से नौकरी में लग जाओगी तो पढ़ाई पर असर पड़ेगा।”
दृष्टि ने धीमे लेकिन ठोस स्वर में कहा,
“पापा, पढ़ाई मेरे लिए सबसे अहम है। मैं वादा करती हूँ कि कभी उसे नज़रअंदाज़ नहीं करूँगी। यह नौकरी बस कुछ घंटों की है, पार्ट-टाइम। मुझे सिर्फ इतना चाहिए कि मैं भी अपनी तरफ़ से योगदान दे सकूँ। मुझे अच्छा नहीं लगता कि माँ की दवाइयों के लिए आपको कितनी बार सोच-समझकर खर्च करना पड़ता है।”
यह कहते हुए दृष्टि की आवाज़ भर्रा गई। माँ की आँखें भी नम हो गईं। उन्होंने धीरे से कहा,
“दृष्टि… तू तो सचमुच बहुत सयानी हो गई है।”
पापा थोड़ी देर तक चुप रहे। फिर उन्होंने अपना चश्मा उतारकर मेज़ पर रखा और बेटी को ध्यान से देखा।
“तुम्हारी बातों में सच्चाई है, लेकिन नौकरी इतनी आसान नहीं होती। वहाँ जिम्मेदारियाँ होती हैं, दबाव होता है। क्या तुम यह सब संभाल पाओगी?”
दृष्टि ने आत्मविश्वास से सिर हिलाया,
“हाँ पापा, मैं संभाल लूँगी। आपने और माँ ने मुझे हमेशा सिखाया है कि मुश्किल वक्त में पीछे नहीं हटना चाहिए। यही तो सही समय है जब मैं अपने परिवार के लिए कुछ कर सकती हूँ।”
मनीषा फिर से ताली बजाकर बोली,
“वाह दीदी! मैं तो पहले से ही तुम्हारी फैन हूँ।”
माँ मुस्कुराईं, लेकिन उनकी मुस्कान के पीछे एक हल्की चिंता अब भी छिपी थी।
“बेटा, हमें गर्व है कि तू इतनी समझदार सोच रखती है। लेकिन पापा सही कह रहे हैं—पढ़ाई पर असर नहीं आना चाहिए। अगर तू यह साबित कर सके कि पढ़ाई और नौकरी दोनों साथ में कर पाएगी, तभी हम तुझे अनुमति देंगे।”
दृष्टि ने तुरंत कहा,
“ठीक है माँ। मैं आपको वादा करती हूँ कि मेरे ग्रेड्स पहले जैसे ही रहेंगे। बल्कि और बेहतर होंगे। बस मुझे एक मौका दीजिए।”
पापा ने बेटी की आँखों में देखा—वहाँ डर नहीं था, सिर्फ आत्मविश्वास था।
उन्होंने धीरे से मुस्कुराते हुए कहा,
“ठीक है। जाओ, इंटरव्यू दो। देखो, अगर सचमुच यह नौकरी तुम्हारे लिए सही हुई, और तुम्हारे कॉलेज पर असर नहीं पड़ा, तो मैं तुम्हारा सबसे बड़ा सपोर्टर बनूँगा।”
दृष्टि की आँखें खुशी से चमक उठीं। उसने दौड़कर पापा को गले लगा लिया।
“थैंक यू पापा! आप देखना, मैं आपको कभी निराश नहीं करूँगी।”
माँ ने भी उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा,
“भगवान करे तेरी मेहनत रंग लाए। तू हमारी शान है, दृष्टि।”
मनीषा उत्साहित होकर बोली,
“दीदी, अब तो मैं स्कूल में सबको बताऊँगी कि मेरी दीदी नौकरी करने जा रही है। लोग कहेंगे कि दृष्टि दीक्षित कितनी कूल है।”
सभी हँस पड़े।
उस छोटे-से घर में उस दिन उम्मीद की नई रोशनी उतर आई थी। अख़बार का वह छोटा-सा विज्ञापन अब पूरे परिवार के लिए नई शुरुआत का प्रतीक बन चुका था।
दृष्टि के मन में सिर्फ एक ही ख्याल गूँज रहा था—
“अब मैं सिर्फ उनकी बेटी नहीं रहूँगी… अब मैं उनका सहारा भी बनूँगी।”
मुंबई की सुबह धीरे-धीरे अपनी रफ़्तार पकड़ रही थी। खिड़की के पर्दे से छनकर आती हल्की धूप कमरे में सुनहरी लकीरें खींच रही थी। अलार्म की मध्यम सी आवाज़ ने दृष्टि की नींद तोड़ी। उसने धीरे-धीरे आँखें खोलीं, फिर हाथ बढ़ाकर अलार्म बंद कर दिया।
कमरे में एक हल्की-सी शांति थी। बगल वाले बेड पर उसकी छोटी बहन मनीषा अब भी गहरी नींद में सोई हुई थी। उसके चेहरे पर मासूमियत थी, और तकिये से आधा चेहरा ढँका हुआ था। उसकी साँसों की धीमी लय पूरे कमरे में फैल रही थी।
दृष्टि कुछ देर तक उसे देखती रही। मन ही मन सोचा—
“कितनी निश्चिंत है ये… बिल्कुल बच्चों जैसी। और मैं? अभी से जिंदगी की टेंशन में उलझी जा रही हूँ।”
वह धीरे से उठी, ताकि रिया की नींद न टूटे। अलमारी खोली, कपड़े निकाले और बाथरूम में चली गई। पानी की ठंडी बौछारें उसके चेहरे से नींद की आख़िरी परत भी धो गईं। दर्पण में उसने खुद को देखा—आँखों में हल्का-सा आत्मविश्वास झलक रहा था। शायद पिछली रात का पापा से मिला वादा ही उसकी हिम्मत का कारण था।
वह जल्दी-जल्दी नहाकर, साफ़-सुथरे कपड़े पहनकर तैयार हो गई। कॉलेज बैग में नोटबुक्स और पेन पहले ही रखे थे, बस एक पानी की बोतल डालनी थी। बालों को हल्का-सा संवारकर, उसने अपने चेहरे पर हल्की मुस्कान डाल ली।
इतने में बिस्तर पर हलचल हुई। मनीषा ने करवट ली और धीरे-धीरे आँखें खोलीं। आँखें मलते हुए उसने देखा कि दृष्टि तैयार खड़ी है।
“अरे दीदी… ये क्या? तुम तो पूरी रेडी हो गई और मैं तो अभी-अभी उठी हूँ।”
दृष्टि ने मुस्कुराते हुए कहा,
“हाँ रानी साहिबा, तुम्हारी नींद का तो कोई अंत ही नहीं। तुम्हें तो अगर मैं उठाऊँ भी न, तो दोपहर तक सोती रहो।”
मनीषा ने तकिया पकड़कर उसकी ओर फेंकने का नाटक किया।
“दीदी, बस करिए! कल रात को मैंने भी पढ़ाई की थी, तभी देर से सोई।”
दृष्टि ने हँसते हुए कहा,
“हाँ, हाँ… मुझे सब पता है। तुम्हारी पढ़ाई किताब से ज़्यादा मोबाइल की स्क्रीन पर होती है।”
मनीषा खिलखिलाकर हँसी और उठकर बैठ गई।
“तो क्या हुआ? पढ़ाई भी तो वहीं होती है—नोट्स भी वहीं, क्लास ग्रुप भी वहीं।”
दृष्टि ने उसका सिर सहलाते हुए कहा,
“चलो मान लिया। लेकिन मेरी जान, अभी तुम्हारा स्कूल थोड़ी देर से है, इसलिए तुम आराम से उठना। मैं जा रही हूँ कॉलेज।”
मनीषा ने थोड़ी मासूमियत से कहा,
“दीदी, आप सुबह-सुबह इतनी मेहनत क्यों करती हो? अभी तो कॉलेज जाना है, फिर नौकरी भी करोगी। थक नहीं जाओगी?”
दृष्टि ने मनीषा की आँखों में देखते हुए जवाब दिया,
“थकान तब लगती है जब इंसान मजबूरी में कुछ करता है। मैं तो खुशी से कर रही हूँ। और जब घर की जिम्मेदारी का ख्याल हो, तो थकान की जगह सिर्फ तसल्ली मिलती है।”
मनीषा कुछ पल चुप रही, फिर मुस्कुराई,
“आप सचमुच सुपरहीरो जैसी हो, दीदी। मैं तो सोचती हूँ जब मैं बड़ी हो जाऊँगी न, तब आपके जैसी बनना चाहती हूँ।”
दृष्टि ने प्यार से उसके गाल खींच लिए।
“बस पढ़ाई पर ध्यान दो और सही समय पर उठो। वरना मैं तुम्हारी सुपरहीरो नहीं रहूँगी, बल्कि डाँटने वाली टीचर बन जाऊँगी।”
दोनों बहनों ने एक-दूसरे को देख हँसी रोकने की कोशिश की, लेकिन फिर ठहाका लग ही गया।
मनीषा ने तकिये से सिर टिकाकर आँखें बंद कर लीं।
“ठीक है, जाओ दीदी। मैं थोड़ी देर और सो लेती हूँ। आप फिकर मत करो, मैं टाइम पर स्कूल के लिए रेडी हो जाऊँगी।”
दृष्टि ने बैग कंधे पर टाँगा और दरवाजे की ओर बढ़ी। लेकिन जाने से पहले उसने फिर से मुड़कर मनीषा के सिर पर हाथ फेरा और धीरे से कहा,
“मेरी छोटी शैतान बहन… भगवान करे तेरे सारे सपने पूरे हों। और हाँ, मम्मी-पापा का ख्याल रखना जब तक मैं कॉलेज में हूँ।”
मनीषा ने आधी नींद में ही मुस्कुराकर जवाब दिया,
“जी मैडम। बाय… लव यू।”
“लव यू टू,” दृष्टि ने धीमे स्वर में कहा और दरवाज़ा खोलकर बाहर निकल गई।
ड्रॉइंग रूम में पापा अभी तक अख़बार पढ़ रहे थे और माँ किचन में नाश्ता बना रही थीं।
“अरे दृष्टि, इतनी जल्दी निकल रही हो? नाश्ता तो कर लो,” माँ ने आवाज़ दी।
“माँ, मैं रास्ते में कुछ खा लूँगी। आज पहली लेक्चर बहुत ज़रूरी है, लेट नहीं होना चाहती।”
पापा ने अख़बार से नज़र उठाकर बेटी को देखा। उनकी आँखों में गर्व और चिंता दोनों झलक रहे थे।
“ठीक है बेटा, जाओ। लेकिन ध्यान रहे, खुद को ज़्यादा थकाना मत।”
दृष्टि ने हल्की मुस्कान के साथ कहा,
“जी पापा। आप फिक्र मत कीजिए। मैं सब संभाल लूँगी।”
माँ ने बैग में उसके लिए पराँठे का डिब्बा रख दिया।
“यह ले जा, भूखी मत रहना।”
“थैंक यू माँ!” दृष्टि ने बैग सँभालते हुए कहा और बाहर निकल पड़ी।
बाहर सड़क पर हल्की चहल-पहल शुरू हो चुकी थी। लोग अपने-अपने काम के लिए निकल रहे थे। ऑटो, बसें और रिक्शों की आवाज़ें उस इलाके की पहचान थीं। दृष्टि तेज़ क़दमों से सड़क पार करके बस स्टॉप की ओर बढ़ी।
उसके मन में एक अलग-सी ऊर्जा थी। कल रात का पापा से मिला भरोसा, मनीषा की मासूम बातें और माँ का दिया डिब्बा—सब मिलकर उसे और मज़बूत बना रहे थे।
वह सोच रही थी—
“आज सिर्फ एक नया दिन नहीं है। आज मेरी जिंदगी का नया सफर शुरू हो रहा है। कॉलेज, पढ़ाई, और जल्द ही नौकरी—सब साथ लेकर चलना है मुझे। और मैं जानती हूँ, मैं यह कर सकती हूँ।”
बस स्टॉप पर खड़ी होकर उसने आने वाली बस की तरफ नज़रें गड़ा दीं। उसकी आँखों में अब सपने भी थे और उन सपनों को पूरा करने की हिम्मत भी।
उस सुबह की रोशनी में दृष्टि दीक्षित सिर्फ एक कॉलेज जाने वाली लड़की नहीं लग रही थी—वह अपने परिवार का सहारा बनने का पहला कदम उठाने वाली बेटी थी।
मुंबई की सुबह धीरे-धीरे अपनी रफ़्तार पकड़ रही थी। खिड़की के पर्दे से छनकर आती हल्की धूप कमरे में सुनहरी लकीरें खींच रही थी। अलार्म की मध्यम सी आवाज़ ने दृष्टि की नींद तोड़ी। उसने धीरे-धीरे आँखें खोलीं, फिर हाथ बढ़ाकर अलार्म बंद कर दिया।
कमरे में एक हल्की-सी शांति थी। बगल वाले बेड पर उसकी छोटी बहन मनीषा अब भी गहरी नींद में सोई हुई थी। उसके चेहरे पर मासूमियत थी, और तकिये से आधा चेहरा ढँका हुआ था। उसकी साँसों की धीमी लय पूरे कमरे में फैल रही थी।
दृष्टि कुछ देर तक उसे देखती रही। मन ही मन सोचा—
“कितनी निश्चिंत है ये… बिल्कुल बच्चों जैसी। और मैं? अभी से जिंदगी की टेंशन में उलझी जा रही हूँ।”
वह धीरे से उठी, ताकि रिया की नींद न टूटे। अलमारी खोली, कपड़े निकाले और बाथरूम में चली गई। पानी की ठंडी बौछारें उसके चेहरे से नींद की आख़िरी परत भी धो गईं। दर्पण में उसने खुद को देखा—आँखों में हल्का-सा आत्मविश्वास झलक रहा था। शायद पिछली रात का पापा से मिला वादा ही उसकी हिम्मत का कारण था।
वह जल्दी-जल्दी नहाकर, साफ़-सुथरे कपड़े पहनकर तैयार हो गई। कॉलेज बैग में नोटबुक्स और पेन पहले ही रखे थे, बस एक पानी की बोतल डालनी थी। बालों को हल्का-सा संवारकर, उसने अपने चेहरे पर हल्की मुस्कान डाल ली।
इतने में बिस्तर पर हलचल हुई। मनीषा ने करवट ली और धीरे-धीरे आँखें खोलीं। आँखें मलते हुए उसने देखा कि दृष्टि तैयार खड़ी है।
“अरे दीदी… ये क्या? तुम तो पूरी रेडी हो गई और मैं तो अभी-अभी उठी हूँ।”
दृष्टि ने मुस्कुराते हुए कहा,
“हाँ रानी साहिबा, तुम्हारी नींद का तो कोई अंत ही नहीं। तुम्हें तो अगर मैं उठाऊँ भी न, तो दोपहर तक सोती रहो।”
मनीषा ने तकिया पकड़कर उसकी ओर फेंकने का नाटक किया।
“दीदी, बस करिए! कल रात को मैंने भी पढ़ाई की थी, तभी देर से सोई।”
दृष्टि ने हँसते हुए कहा,
“हाँ, हाँ… मुझे सब पता है। तुम्हारी पढ़ाई किताब से ज़्यादा मोबाइल की स्क्रीन पर होती है।”
मनीषा खिलखिलाकर हँसी और उठकर बैठ गई।
“तो क्या हुआ? पढ़ाई भी तो वहीं होती है—नोट्स भी वहीं, क्लास ग्रुप भी वहीं।”
दृष्टि ने उसका सिर सहलाते हुए कहा,
“चलो मान लिया। लेकिन मेरी जान, अभी तुम्हारा स्कूल थोड़ी देर से है, इसलिए तुम आराम से उठना। मैं जा रही हूँ कॉलेज।”
मनीषा ने थोड़ी मासूमियत से कहा,
“दीदी, आप सुबह-सुबह इतनी मेहनत क्यों करती हो? अभी तो कॉलेज जाना है, फिर नौकरी भी करोगी। थक नहीं जाओगी?”
दृष्टि ने मनीषा की आँखों में देखते हुए जवाब दिया,
“थकान तब लगती है जब इंसान मजबूरी में कुछ करता है। मैं तो खुशी से कर रही हूँ। और जब घर की जिम्मेदारी का ख्याल हो, तो थकान की जगह सिर्फ तसल्ली मिलती है।”
मनीषा कुछ पल चुप रही, फिर मुस्कुराई,
“आप सचमुच सुपरहीरो जैसी हो, दीदी। मैं तो सोचती हूँ जब मैं बड़ी हो जाऊँगी न, तब आपके जैसी बनना चाहती हूँ।”
दृष्टि ने प्यार से उसके गाल खींच लिए।
“बस पढ़ाई पर ध्यान दो और सही समय पर उठो। वरना मैं तुम्हारी सुपरहीरो नहीं रहूँगी, बल्कि डाँटने वाली टीचर बन जाऊँगी।”
दोनों बहनों ने एक-दूसरे को देख हँसी रोकने की कोशिश की, लेकिन फिर ठहाका लग ही गया।
मनीषा ने तकिये से सिर टिकाकर आँखें बंद कर लीं।
“ठीक है, जाओ दीदी। मैं थोड़ी देर और सो लेती हूँ। आप फिकर मत करो, मैं टाइम पर स्कूल के लिए रेडी हो जाऊँगी।”
दृष्टि ने बैग कंधे पर टाँगा और दरवाजे की ओर बढ़ी। लेकिन जाने से पहले उसने फिर से मुड़कर मनीषा के सिर पर हाथ फेरा और धीरे से कहा,
“मेरी छोटी शैतान बहन… भगवान करे तेरे सारे सपने पूरे हों। और हाँ, मम्मी-पापा का ख्याल रखना जब तक मैं कॉलेज में हूँ।”
मनीषा ने आधी नींद में ही मुस्कुराकर जवाब दिया,
“जी मैडम। बाय… लव यू।”
“लव यू टू,” दृष्टि ने धीमे स्वर में कहा और दरवाज़ा खोलकर बाहर निकल गई।
ड्रॉइंग रूम में पापा अभी तक अख़बार पढ़ रहे थे और माँ किचन में नाश्ता बना रही थीं।
“अरे दृष्टि, इतनी जल्दी निकल रही हो? नाश्ता तो कर लो,” माँ ने आवाज़ दी।
“माँ, मैं रास्ते में कुछ खा लूँगी। आज पहली लेक्चर बहुत ज़रूरी है, लेट नहीं होना चाहती।”
पापा ने अख़बार से नज़र उठाकर बेटी को देखा। उनकी आँखों में गर्व और चिंता दोनों झलक रहे थे।
“ठीक है बेटा, जाओ। लेकिन ध्यान रहे, खुद को ज़्यादा थकाना मत।”
दृष्टि ने हल्की मुस्कान के साथ कहा,
“जी पापा। आप फिक्र मत कीजिए। मैं सब संभाल लूँगी।”
माँ ने बैग में उसके लिए पराँठे का डिब्बा रख दिया।
“यह ले जा, भूखी मत रहना।”
“थैंक यू माँ!” दृष्टि ने बैग सँभालते हुए कहा और बाहर निकल पड़ी।
बाहर सड़क पर हल्की चहल-पहल शुरू हो चुकी थी। लोग अपने-अपने काम के लिए निकल रहे थे। ऑटो, बसें और रिक्शों की आवाज़ें उस इलाके की पहचान थीं। दृष्टि तेज़ क़दमों से सड़क पार करके बस स्टॉप की ओर बढ़ी।
उसके मन में एक अलग-सी ऊर्जा थी। कल रात का पापा से मिला भरोसा, मनीषा की मासूम बातें और माँ का दिया डिब्बा—सब मिलकर उसे और मज़बूत बना रहे थे।
वह सोच रही थी—
“आज सिर्फ एक नया दिन नहीं है। आज मेरी जिंदगी का नया सफर शुरू हो रहा है। कॉलेज, पढ़ाई, और जल्द ही नौकरी—सब साथ लेकर चलना है मुझे। और मैं जानती हूँ, मैं यह कर सकती हूँ।”
बस स्टॉप पर खड़ी होकर उसने आने वाली बस की तरफ नज़रें गड़ा दीं। उसकी आँखों में अब सपने भी थे और उन सपनों को पूरा करने की हिम्मत भी।
उस सुबह की रोशनी में दृष्टि दीक्षित सिर्फ एक कॉलेज जाने वाली लड़की नहीं लग रही थी—वह अपने परिवार का सहारा बनने का पहला कदम उठाने वाली बेटी थी।
सुबह की धूप अब तक कॉलेज के बड़े-बड़े गेट और गलियारों में फैल चुकी थी। पेड़ों के पत्तों पर हल्की धूप चमक रही थी और हर तरफ़ छात्रों की भीड़-भाड़ का माहौल था। दृष्टि और पारुल साथ-साथ चलते हुए अपनी क्लासरूम की ओर बढ़ रही थीं। पारुल हमेशा की तरह अपनी चहकती हुई आवाज़ में कुछ न कुछ बोल रही थी, और दृष्टि आधी बातें सुनते-सुनते अपनी सोच में कहीं और ही खोई हुई थी।
क्लासरूम का दरवाज़ा खुला और जैसे ही दोनों अंदर दाख़िल हुईं, वहां की हलचल थम-सी गई। कुछ बच्चे किताबों में झुके हुए थे, कुछ आपस में गपशप कर रहे थे, तो कुछ अपने मोबाइल में व्यस्त थे। लेकिन उसी कोने में, खिड़की के पास की सीट पर, आकाश अग्निहोत्री बैठा था—अपनी हमेशा वाली ठंडी, मगर पैनी नज़र के साथ।
दृष्टि की नज़र जैसे ही उस पर पड़ी, उसने अपना चेहरा थोड़ा सख़्त कर लिया। पारुल ने हल्के से कोहनी मारी, "देख, वो फिर से तुझे ही घूर रहा है।"
दृष्टि ने भौंहें चढ़ाकर कहा, "ये इंसान कभी सुधर ही नहीं सकता।"
आकाश की नज़रों में कुछ ऐसा था, जो दृष्टि को बेचैन कर देता था। जैसे वह उसे सिर्फ़ देख ही नहीं रहा, बल्कि उसकी परतों के पार झाँकने की कोशिश कर रहा हो। उस पल को तोड़ते हुए, उसके पास एक लड़की आकर बैठ गई। वह लड़की बाकी सब से बिल्कुल अलग थी—आत्मविश्वास से भरी हुई, बोल्ड और इतनी ग्लैमरस कि पूरी क्लास की नज़रें उसकी तरफ़ टिक जाएं।
आकाश ने उस लड़की की तरफ़ हल्की मुस्कान फेंकी और धीमी आवाज़ में कुछ कहा। लड़की खिलखिलाकर हँस पड़ी, जैसे उसकी हर बात उसके लिए किसी जादू से कम न हो। दोनों की नज़दीकियाँ इतनी साफ़ झलक रही थीं कि दृष्टि का माथा तन गया।
वह अपने आप से बुदबुदाई, "इस इंसान को ज़रा भी शर्म नहीं है… क्लास में सबके सामने इस तरह की हरकतें!"
पारुल ने फुसफुसाकर कहा, "अरे छोड़ न, तुझे क्या लेना उससे? ऐसे लोग अपनी दुनिया में ही रहते हैं।"
लेकिन दृष्टि के लिए इतना आसान नहीं था। उसकी आँखें बार-बार आकाश और उस लड़की की ओर खिंच रही थीं, भले ही वह कोशिश कर रही थी किताब खोलकर लेक्चर पर ध्यान देने की।
उसी बीच, प्रोफ़ेसर अंदर आ गए और क्लास का माहौल बदल गया। सब बच्चे तुरंत अपनी जगह पर सीधा बैठ गए। आकाश ने भी किताब खोल ली, लेकिन उसके चेहरे पर वही ढीली-ढाली मुस्कान खेल रही थी, जैसे उसे किसी नियम या अनुशासन से कोई फ़र्क ही नहीं पड़ता।
लेक्चर शुरू हुआ, बोर्ड पर फॉर्मूलों और थ्योरीज़ की लाइनें खिंचने लगीं। बच्चे अपनी-अपनी कॉपियों में नोट्स लिखते रहे। पारुल बीच-बीच में दृष्टि को कुछ समझाती जाती, लेकिन दृष्टि का मन पढ़ाई में कम और अपने सामने हो रही नाटक जैसी स्थिति में ज़्यादा अटका हुआ था।
आकाश की आँखें बार-बार दृष्टि पर टिक जातीं, और जब भी दृष्टि की नज़र उसकी नज़रों से टकराती, वह बिना पलक झपकाए उसे देखता ही रहता। जैसे उसके मन में कुछ चल रहा हो, कोई ऐसी सोच जिसे वह दुनिया को नहीं दिखाना चाहता।
दृष्टि ने गहरी साँस ली और खुद से कहा, "नहीं… मुझे ध्यान भटकाना नहीं है। मुझे अपनी पढ़ाई और अपने सपनों पर फोकस करना है।"
क्लास का समय धीरे-धीरे बीतता रहा। प्रोफ़ेसर की आवाज़ दीवारों से टकराकर गूँजती रही, बच्चे अपनी-अपनी कॉपियों में लिखते रहे, और बाहर धूप धीरे-धीरे तेज़ होती चली गई।
आख़िरकार जब घंटी बजी और लेक्चर ख़त्म हुआ, सब बच्चे अपनी-अपनी सीट से उठने लगे। पारुल ने बैग उठाते हुए कहा, "चल, लाइब्रेरी चलते हैं। वहाँ थोड़ी पढ़ाई कर लेंगे।"
दृष्टि ने हामी भर दी, लेकिन जैसे ही उसने दरवाज़े की ओर कदम बढ़ाए, उसकी नज़र एक बार फिर आकाश पर पड़ी। वह अब भी वहीं बैठा था, किताब बंद करके उस लड़की से धीमे-धीमे बातें करता हुआ। लेकिन बीच-बीच में उसकी नज़रें अब भी दृष्टि की तरफ़ घूम जाती थीं—जैसे वह उसे जाते-जाते भी अपनी पकड़ में रखना चाहता हो।
दृष्टि ने अपने होंठ भींच लिए और पारुल के साथ बाहर निकल गई। क्लास का वह बोझिल, मगर अजीब तरह का माहौल उसके दिल में गहराता चला गया।
एक तरफ़ दृष्टि की मेहनत और सपनों का रास्ता, दूसरी तरफ़ आकाश सहगल की रहस्यमयी नज़रें और उसका उथल-पुथल भरा व्यक्तित्व।
कॉलेज की घंटी ने जैसे ही ब्रेक का ऐलान किया, क्लासरूम में एक हलचल-सी दौड़ गई। सब बच्चे अपने-अपने बैग उठाते, हँसते, गप्पें मारते कैंटीन की ओर बढ़ चले । दृष्टि और पारुल भी एक-दूसरे को देखते हुए मुस्कुराईं और बैग उठाकर बाहर निकल गईं।
कैंटीन हमेशा की तरह शोर-गुल से भरी हुई थी। कोई ग्रुप हँस-हँसकर बातें कर रहा था, तो कोई कोने की टेबल पर किताब खोलकर पढ़ाई करने का दिखावा कर रहा था। फ्राईड राइस, समोसे और चाय की खुशबू पूरे माहौल में घुली हुई थी।
पारुल ने झट से एक खाली टेबल देखी और बोली, “चल, यहाँ बैठते हैं। नहीं तो बाद में तो जगह मिलने से रही।”
दोनों ने अपनी-अपनी ट्रे उठाई, जिसमें समोसे, सैंडविच और कोल्ड ड्रिंक्स रखी हुई थीं। वे टेबल पर आकर बैठ गईं।
दृष्टि ने अपना बैग कुर्सी पर टिका दिया और समोसे पर ध्यान देने लगी। पारुल हमेशा की तरह इधर-उधर की बातें करती रही—किस प्रोफ़ेसर को आजकल गुस्सा ज़्यादा आता है, किस क्लासमेट ने नया फोन लिया है, कौन किससे बातें करता नज़र आया।
इसी बीच पारुल की नज़र दृष्टि के बैग पर पड़ी। बैग का चैन पूरा बंद नहीं था और उसमें से एक अख़बार का कोना झाँक रहा था। पारुल को थोड़ी हैरानी हुई। उसने हँसते हुए कहा, “अरे वाह! मैडम अख़बार भी साथ लेकर घूमती हैं क्या? क्या बात है, आजकल करंट अफेयर्स की तैयारी हो रही है क्या?”
दृष्टि ने जल्दी से बैग की तरफ़ देखा, पर तब तक देर हो चुकी थी। पारुल ने अख़बार निकाल ही लिया। जैसे ही उसने अख़बार खोला, उसकी आँखें उस जगह अटक गईं जहाँ एक छोटे-से जॉब ऐड पर लाल पेन से निशान लगा हुआ था।
पारुल ने अख़बार उठाकर दृष्टि की तरफ़ घूरते हुए कहा, “ये क्या है? यहाँ तो रेड मार्क किया हुआ है… और ये तो कोई पार्ट-टाइम जॉब का ऐड है न?”
दृष्टि अचानक घबरा गई। उसने ट्रे पर रखी चाय का कप उठाने का नाटक किया, लेकिन उसकी उंगलियों में हल्की-सी कंपकंपी थी।
“कुछ नहीं है… बस ऐसे ही देख रही थी।”
पारुल ने अख़बार उसकी तरफ़ बढ़ाते हुए कहा, “मुझसे झूठ मत बोल, दृष्टि। मैं तुझे बचपन से जानती हूँ। तूने इस पर रेड मार्क ऐसे ही नहीं किया। तू जॉब ढूँढ रही है, है न?”
दृष्टि ने गहरी साँस ली। उसकी आँखों में हल्की नमी-सी तैर गई, लेकिन उसने खुद को सँभालते हुए कहा, “हाँ, मैं जॉब ढूँढ रही हूँ। घर के हालात ऐसे हो गए हैं कि अब मुझे पढ़ाई के साथ-साथ कमाना भी पड़ेगा।”
पारुल हैरान रह गई। उसने अख़बार मेज़ पर रख दिया और बोली, “लेकिन क्यों? तू इतनी मेहनती है, इतनी होशियार है। तुझे तो पढ़ाई पर ध्यान देना चाहिए, आगे चलकर बड़ा नाम कमाना चाहिए। ये छोटी-मोटी जॉब करने का क्या मतलब है?”
दृष्टि ने धीरे से कहा, “तुझे लगता है मैं नहीं चाहती? मैं भी चाहती हूँ बस पढ़ूँ, सिर्फ़ अपने सपनों में खो जाऊँ। लेकिन घर में हालात वैसे नहीं हैं। पापा दिन-रात मेहनत करते हैं, अकेले हम सबको सँभालते हैं। उनकी हालत देखकर अब और चैन नहीं मिलता। अगर मैं कुछ मदद कर पाऊँ तो शायद उनका बोझ थोड़ा हल्का हो।”
पारुल की आँखें भर आईं। उसने फौरन दृष्टि का हाथ पकड़ लिया। “अगर पैसों की दिक्कत है तो मुझसे क्यों नहीं कहती? मैं तुझे मदद कर दूँगी। तुझे किसी जॉब में क्यों पड़ना है?”
दृष्टि ने हल्की मुस्कान के साथ सिर हिलाया। “नहीं पारुल, यही तो फ़र्क है। मैं किसी की मदद से नहीं, अपनी मेहनत से सब करना चाहती हूँ। मुझे अपने उसूलों पर समझौता नहीं करना। पापा ने हमेशा सिखाया है कि खुद के पैरों पर खड़े होना चाहिए। अगर मैं आज तुझसे पैसे ले भी लूँ, तो शायद मन को चैन न मिले।”
पारुल उसकी बात सुनकर कुछ पल खामोश रही। उसकी आँखों में दोस्त के लिए गर्व भी था और थोड़ी-सी चिंता भी। उसने धीरे से कहा, “तू सच में अलग है, दृष्टि। तेरे अंदर वही हिम्मत है जो हर किसी में नहीं होती। लेकिन मुझसे वादा कर, अगर तुझे कभी लगे कि तुझसे अकेले नहीं हो पाएगा, तो मुझे बताएगी। मैं तेरे साथ हूँ।”
दृष्टि ने उसके कंधे पर हाथ रखकर कहा, “ये वादा रहा। लेकिन अभी मुझे अपने रास्ते खुद बनाने हैं। यही मेरी असली जीत होगी।”
दोनों दोस्तों के बीच यह छोटी-सी बातचीत, कैंटीन के शोरगुल के बीच एक गहरी खामोशी पैदा कर गई। सामने रखे समोसे अब ठंडे हो चुके थे, लेकिन उनके बीच की दोस्ती और भी गर्म हो उठी थी।
थोड़ी देर बाद पारुल ने माहौल हल्का करने के लिए मज़ाक किया, “ठीक है, लेकिन एक शर्त है—जब तू बड़ी अफ़सर बन जाएगी न, तो मुझे अपनी पर्सनल असिस्टेंट रखना। कम से कम मुझे तो आराम से नौकरी मिल जाएगी।”
दृष्टि हँस पड़ी। “पागल! तुझे किसी की असिस्टेंट बनने की ज़रूरत नहीं, तू खुद किसी की बॉस बनेगी।”
दोनों खिलखिलाकर हँस पड़ीं। उनके चारों ओर का शोर फिर से सुनाई देने लगा—किसी टेबल पर हँसी-मज़ाक, किसी ओर से ऑर्डर पुकारती आवाज़ें, और बीच-बीच में बर्तनों की खटपट।
लेकिन इस सबके बीच दोनों की बातचीत ने एक नया मोड़ ले लिया था। दृष्टि ने अपने दिल का राज़ खोल दिया था, और पारुल अब उसके संघर्ष का हिस्सा बन चुकी थी।
कैंटीन का वह लंच ब्रेक उनके लिए सिर्फ़ खाना खाने का नहीं, बल्कि दोस्ती को और गहरा करने का वक्त बन गया था।
लाइब्रेरी की खामोशी उनके कदमों की आहट से हल्की-सी गूँज रही थी। आकाश और वह लड़की एक कोने वाली टेबल पर बैठ गए, जहाँ चारों तरफ़ किताबों की अलमारियाँ थीं और सूरज की किरणें खिड़की से हल्के सोने की तरह गिर रही थीं।
लड़की ने उसकी तरफ़ देखते हुए मुस्कुराते हुए कहा, “तुम यहाँ हमेशा इतनी गंभीर मुद्रा में क्यों रहते हो? कभी-कभी लगता है जैसे पूरी दुनिया तुम्हारे लिए बहुत हल्की हो।”
आकाश ने उसकी ओर झुककर धीरे कहा, “कभी-कभी… मैं सिर्फ़ तुम्हारे पास होना चाहता हूँ। तुम्हारे बिना ये गंभीरता और कोई चीज़ मायने नहीं रखती।”
लड़की ने उसकी आँखों में देखते हुए हौले से कहा, “तुम्हारी ये बातें… मुझे अंदर तक छू जाती हैं। लगता है जैसे मैं सिर्फ़ तुम्हारे लिए ही बनी हूँ।”
आकाश ने मुस्कान के साथ उसके हाथ को अपनी हथेली में ले लिया। उसकी आवाज़ धीमी और गर्म थी, “तुम बस यही समझ लो कि जब तुम मेरे पास होती हो, दुनिया में सिर्फ़ हम दोनों ही हैं। बाकी सब फीका पड़ जाता है।”
लड़की ने हल्की-सी हँसी में कहा, “और जब तुम मुझे ये कहते हो, तो मेरा दिल… जैसे रुक-सा जाता है। ऐसा लगता है कि सब कुछ थम गया।”
आकाश ने उसकी आँखों में झाँकते हुए कहा, “तुम्हारे लिए… मैं हर नियम, हर सीमा भूल सकता हूँ। जब मैं तुम्हें देखता हूँ, बस तुम्हारी हँसी और तुम्हारी बातें ही मायने रखती हैं।”
लड़की ने अपने बाल कान के पीछे सुलझाते हुए कहा, “आकाश, मुझे डर नहीं लगता… तुम्हारे साथ, मुझे कोई भी खतरा या दुनिया की कोई भी चिंता महसूस नहीं होती। तुम्हारी उपस्थिति में सब कुछ आसान लगता है।”
आकाश ने धीरे से कहा, “यही वजह है कि मैं हर जगह तुम्हें अपने पास रखना चाहता हूँ। तुम्हारी ये मासूमियत और आत्मविश्वास… मुझे लगातार खींचता रहता है। कभी-कभी लगता है जैसे तुम्हारे बिना मैं अधूरा हूँ।”
लड़की ने उसका हाथ कसकर थाम लिया और झुककर धीरे से कहा, “और तुम्हारे पास होते हुए… मैं खुद को पूरी तरह सुरक्षित महसूस करती हूँ। तुम्हारे शब्द, तुम्हारी नज़रे, हर चीज़ मुझे अंदर से गर्म कर देती है।”
आकाश ने उसके गाल को हल्के स्पर्श से छूते हुए कहा, “तुम्हारे पास होना… मेरे लिए सिर्फ़ खुशी नहीं, ये एक अनुभव है। जैसे हर पल मेरे दिल को तुमसे जोड़ दिया गया हो।”
लड़की ने आँखें बंद कर लीं और धीरे-धीरे कहा, “आकाश… तुम जानते हो, तुम्हारी बातें… हर बार मेरी आत्मा तक उतर जाती हैं। मैं… मैं सिर्फ़ यही चाहती हूँ कि ये पल कभी खत्म न हो।”
आकाश ने मुस्कान के साथ धीरे कहा, “तो फिर इसे खत्म मत होने दो। मैं चाहता हूँ कि हर दिन, हर पल… तुम्हारे साथ यही हो। बस तुम और मैं, और हमारी ये दुनिया।”
लड़की ने उसकी ओर झुकते हुए कहा, “और मैं… मैं बस तुम्हारे साथ होना चाहती हूँ। किसी भी दुनिया, किसी भी नियम की परवाह नहीं।”
उनकी आँखें एक-दूसरे में खो गईं। लाइब्रेरी की खामोशी उनके लिए अब सिर्फ़ एक साक्षी थी—उनकी नज़दीकियों, उनकी मुस्कानों और उनके दिलों की आवाज़ों की।
आकाश ने धीरे से कहा, “तुम्हारे बिना… कोई भी जगह इतनी खास नहीं लगती।”
लड़की ने हल्की हँसी में कहा, “और तुम्हारे साथ हर जगह जन्नत लगती है।”
दोनों की बातें, उनका स्पर्श और उनकी मुस्कान—इतनी सरल और इतनी सजीव कि जैसे समय रुक गया हो। कोई भी वहाँ मौजूद नहीं था, सिर्फ़ उनकी दुनिया और उनके दिल की भाषा।