वेदांशी का दिल अथर्व की मासूमियत की ओर खिंचता है, उसकी सादगी और निश्छल प्रेम उसे आकर्षित करता है। लेकिन हर बार जब वह अथर्व के करीब जाने की कोशिश करती है, पृथ्वी की तीखी नजरें और उसका जुनून वेदांशी को उलझन में डाल देता है। वेदांशी के लिए चुनाव... वेदांशी का दिल अथर्व की मासूमियत की ओर खिंचता है, उसकी सादगी और निश्छल प्रेम उसे आकर्षित करता है। लेकिन हर बार जब वह अथर्व के करीब जाने की कोशिश करती है, पृथ्वी की तीखी नजरें और उसका जुनून वेदांशी को उलझन में डाल देता है। वेदांशी के लिए चुनाव मुश्किल होता जा रहा है। क्या वह अथर्व की मासूमियत को चुनेगी, या पृथ्वी के जुनून का जवाब देगी? क्या वह अपने दिल की सुनेगी, या फिर नियति उसे किसी और दिशा में ले जाएगी? उनकी कहानी में आगे क्या होगा, यह तो आने वाला समय ही बताएगा.... पढ़िए "आईं लव यू"
वेदांशी
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अथर्व
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पृथ्वी
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जुलाई का महीना चल रहा था।
12वी कक्षा के बाहर सत्रह साल की तीन लड़कियां खड़ी थी।
वो थीं –वेदांशी, अहाना, और कशिश।
उनमें सबसे आगे खड़ी थी वेदांशी शास्त्री।
वो टॉपर टाइप लड़की नहीं थी, लेकिन पूरे स्कूल की सबसे नॉटी और ड्रामेबाज़ स्टूडेंट ज़रूर थी।
उसकी आँखों में हमेशा एक शरारती चमक रहती, मानो हर बात को मज़ाक बना देना उसकी आदत हो।
पढ़ाई से ज़्यादा उसे कहानियाँ सुनाना, ड्रॉइंग करना और क्लास के बीच में अचानक हँस पड़ना पसंद था।
टीचर्स के लिए वो “हमेशा परेशान करने वाली स्टूडेंट” थी, लेकिन दोस्तों के लिए “जान से भी प्यारी”।
आज भी बारिश में उसने अपनी आधी नोटबुक फाड़ कर काग़ज़ की नावें बना कर बारिश के पानी में बहा दी थीं ।
और इस वक्त वो अपनी दोनों सहेलियो के साथ फिजिक्स की क्लास के बाहर खड़ी थी।
“अबे, तू बोल न!” – अहाना ने वेदांशी को कोहनी मारी।
“नहीं रे, तू बोल…” – वेदांशी ने झट से कहा और नोटबुक सीने से कस कर पकड़ ली।
कशिश पीछे से धीरे से हँस रही थी, उसकी आँखों में वही चमक थी, जैसे कोई बड़ा मज़ाक करने वाली हो।
“अरे, इतना डर किस बात का… मैं हूँ न।”
और अगले ही पल उसने वेदांशी को हल्का-सा धक्का दिया।
वेदांशी लड़खड़ाती हुई क्लासरूम के गेट के सामने आ गई।
उसकी बड़ी-बड़ी आँखें पहले तो कशिश पर गुस्से से ठहरीं, लेकिन फिर जैसे ही उसने सामने सर को देखा उसके दिल की धड़कन रुक-सी गई।
सामने फिजिक्स सर पहले से ही ब्लैकबोर्ड के पास खड़े थे।
उनकी आँखों में वही सख़्त नज़रें… जैसे गलती करने वाले को वहीं पकड़ लें।
“क्या ड्रामा है ये?” – उनकी भारी आवाज़ गूँजी।
वेदांशी ने धीरे-से कहा,“मे… आई कमिंग सर?”
“लेट क्यों आई हो?” – सर की कड़क आवाज़ गूँज उठी।
क्लास में बैठे बच्चे साइलेंट थे, सबको इंतज़ार था कि ड्रामा क्वीन वेदांशी शास्त्री अब कौन-सी नई कहानी सुनाएगी।
वेदांशी ने एक पल को नोटबुक सीने से कसकर पकड़ी, फिर आँखें झपकाते हुए बोली।
“सर… एक्चुअली…” – उसने धीरे से कहा, “सर… वो… रास्ते में एक छोटी-सी क्यूट सी बिल्ली बारिश में भीग रही थी। कांप रही थी वो ठंडी से, तो सर मुझे लगा शायद उसे सर्दी हो जाएगी ठंडी से तो..."
कहते-कहते उसके चेहरे पर इतना मासूम एक्सप्रेशन था, मानो अभी रो ही दे।
क्लास की आधी लड़कियाँ “awww” मोड में चली गईं।
लड़के हँसी रोकने लगे।
सर ने भौंहे उठा कर पूछा,“तो?”
“तो सर… मैंने अपनी छतरी उसके ऊपर कर दी… थोड़ी देर उसको कॉर्नर में ले जाकर बैठाया… जब तक वो सूख न जाए।
फिर… अचानक वो क्यूटू बिल्ली भाग गई।
मैं भी उसके पीछे भागी…… और फिर… लेट हो गई।”
पूरे क्लास में दबे सुरों में हँसी फैल गई।
वेदांशी ने इनोसेंट एक्सप्रेसन के साथ आख़िरी तीर छोड़ा,
“सर… आप ही सोचिए… अगर मैं उस क्यूटू बिल्ली को भीगते हुए छोड़ देती तो… गिल्ट से पढ़ाई ही नहीं कर पाती।”
कुछ बच्चों ने "वाह वाह" करके ताली तक बजा दी।
फिजिक्स सर ने गुस्से से पूरी क्लास को घूरा, और फिर भारी साँस लेकर बोले,“ओके… अंदर आओ।”
वेदांशी ने तुरंत “थैंक्यू सर ” कहा और अंदर घुस गई।
उसके पीछे अहाना और कशिश भी बिलकुल चोरों की तरह फटाफट अंदर सरक आईं।
पूरे क्लास की निगाहें उन तीनों पर थीं।
लेकिन सबसे अलग थी… लास्ट बेंच पर बैठी एक जोड़ी आँखें।
अथर्व अवस्थी।
लास्ट बेंच पर बैठे अथर्व अवस्थी की नज़रें लगातार वेदांशी पर थीं।
वो हल्का-सा मुस्कुराया और मन ही मन बोला,“इस लड़की को बहाने बनाने का अवार्ड मिलना चाहिए… और एक्टिंग का भी।”
क्लास के अंदर अब सर ब्लैकबोर्ड पर लिखने लगे थे।
लेकिन लास्ट बेंच पर बैठा अथर्व अवस्थी अपनी कॉपी से ज़्यादा चोर नजरों से वेदांशी को देख रहा था।
ये पहली बार नहीं था जब उसने वेदांशी शास्त्री को देखा था।
असल में… वो उसे जानता था।
वो मोहल्ला, जहाँ अथर्व रहता था...उसके घर के सामने ही एक बड़ा-सा ग्राउंड था।
बारिश के दिनों में उस ग्राउंड में हमेशा पानी भर जाता, और छोटा-सा तालाब जैसा बन जाता।
हर कोई उस जगह से दूर ही रहता था, मगर…
वेदांशी नहीं।
वो हमेशा हाथ में नोटबुक या कोई काग़ज़ लेकर उस तालाब के पास आ जाती।
फिर … वो घंटों कागज़ की नावें बनाकर पानी में छोड़ती रहती।
अथर्व ने कितनी ही बार अपनी खिड़की से उस नज़ारे को देखा था।
कितनी ही बार उसे लगा था कि ये लड़की अलग है… बाकियों जैसी नहीं।
वेदांशी को याद करता हुआ वो इतना डूब गया कि क्लासरूम की आवाज़ें तक धुंधली पड़ गईं।
अचानक...
“ओए… ओए उठ!” उसके बगल में बैठे तनय ने उसके कंधे को झकझोर दिया।
अथर्व चौंक कर सीधा बैठा।
“क्या हुआ?”
तनय बोले, “सर तेरे से सवाल पूछ रहे हैं बे!”
अथर्व ने पलकें झपकाईं, तभी सामने से फिजिक्स सर की भारी आवाज़ गूँजी,“अथर्व अवस्थी! मेरे सवाल का जवाब दीजिए।”
अथर्व ने सर को देखा, फिर बोर्ड की तरफ।
पूरा बोर्ड सर के सॉल्व किए हुए डेरिवेशन से भरा हुआ था।
अथर्व का दिमाग बिल्कुल ब्लैंक हो गया।
“सर…” अथर्व कन्फ्यूज था।
"हां बोलो!"सर को लगा अथर्व आंसर बोलेगा।
“सर… सवाल क्या था?”
सर गुस्से से भड़क उठे।
“सवाल? सवाल क्या था? पूरी क्लास में दिनभर गप मार सकते हो, क्रिकेट मैच के स्कोर बता सकते हो, लेकिन पढ़ाई का नाम आते ही दिमाग में छेद हो जाता है… है न?”
पूरे क्लास के बच्चे साँस रोके बैठे थे।
अथर्व ने घबराकर कॉपी खोलने की कोशिश की, लेकिन पन्ने उलटते-उलटते और भी गड़बड़ा गया।
“मिस्टर अवस्थी!” – सर ने डंडा डेस्क पर पटका।
ठाक्क!
आवाज़ ऐसी गूँजी कि पूरी क्लास में सन्नाटा छा गया।
अथर्व एकदम सीधा खड़ा हो गया।
“अब खड़े रहिए ऐसे ही, जब तक क्लास खत्म नहीं होती!”
सर गुस्से से बोले।
पूरा क्लास एकदम शांत पड़ गया था।
सिर्फ ब्लैकबोर्ड पर चॉक के रगड़ने की चक-चक और पंखे की घुर्र-घुर्र आवाज़ सुनाई दे रही थी।
वेदांशी ने धीरे से अपनी नोटबुक खोली, लेकिन नज़रें बार-बार पीछे की ओर घूम जातीं।
लास्ट बेंच पर खड़ा अथर्व सिर झुकाए, अपनी गलती पर पछता रहा था… या फिर शायद सोच रहा था कि "अब ये वेदांशी हँसेगी जरूर!"
लेकिन नहीं इस बार हँसी नहीं आई।
इस बार तो मिस ड्रामा क्वीन का मूड ऑफ़ था।
जैसे-तैसे क्लास खत्म हुई।
सर ने चॉक नीचे रखा, गहरी साँस ली और बोले ,
“पूरी क्लास! आज सब लोग एक्स्ट्रा होमवर्क करेंगे… और हाँ, कोई भी बहाना नहीं चलेगा। सबकी कॉपी चेक होगी।”
“बट सर!” – पीछे से किसी ने धीरे से कहा।
“नो बट्स, नो इफ्स!” – सर गरजे। “थैंक यू क्लास।”
और फिर वो बाहर चले गए।
जैसे ही सर बाहर गए, क्लास में दबी-दबी फुसफुसाहटें शुरू हो गईं।
किसी ने सिर खुजाया, किसी ने आह भरी।
पर सबसे ज़्यादा गुस्सा तो अब वेदांशी के चेहरे पर था।
उसने अपनी नोटबुक पटक दी, बाल पीछे किए और बोली ,
“अब तो नहीं छोड़ूंगी इस अवस्थी को!”
अहाना ने मुस्कुराते हुए पूछा, “क्यों, अब क्या किया उसने?”
“क्या किया?” – वेदांशी ने आँखें तरेरीं।
“इस महानुभाव की वजह से पूरी क्लास को होमवर्क करना पड़ेगा! और सर को तो बस मौका चाहिए था गुस्सा निकालने का!”
अहाना भी आलसपन से बोली, “तो अब क्या प्लान है मैडम शास्त्री?”
वेदांशी की आँखों में वही शरारती चमक लौटी।
उसने धीरे से कहा,
“अब प्लान ये है कि इस अवस्थी की ऐसी बैंड बजाऊँगी न… कि अगली बार से फिजिक्स क्लास में सिर्फ फिजिक्स ही पढ़े, ड्रामा नहीं।”
कशिश ने उत्सुकता से पूछा, “मतलब क्या करेगी?”
वेदांशी ने पेन को घुमाते हुए शैतानी मुस्कान दी —
“बस देखती जा।”
ब्रेक का टाइम था।
क्लास के बच्चे शोर मचाते हुए बाहर निकल गए थे ,कोई कैंटीन की तरफ भागा, कोई पानी की बोतल लेकर गलियारे में।
लेकिन लास्ट बेंच पर…
अथर्व अवस्थी बिल्कुल चुप बैठा था।
उसके सामने खुली कॉपी पर आधा लिखा डेरिवेशन था, लेकिन नज़रें… बाहर खिड़की की तरफ जमी हुई थीं।
वो सोच ही रहा था कि तभी —
ठाक्क!
किसी ने उसकी टेबल पर ज़ोर से हाथ पटका।
अथर्व चौंका।
उसने सिर घुमाया… और सामने खड़ी थी वेदांशी शास्त्री।
चेहरा गुस्से से लाल, बालों की कुछ लटें गालों से चिपकी हुईं, और आँखों में वही तूफ़ान जो किसी को भी हिला दे।
“तू!” — उसने उंगली उसकी तरफ़ उठाई,
“तू ना… बड़ा मासूम बनता है, है न?”
अथर्व कुछ बोलता उससे पहले ही वो झुक कर बोली,
“तेरी वजह से पूरी क्लास को एक्स्ट्रा होमवर्क मिला है! समझा तू? पूरी क्लास को!”
वो बोलती जा रही थी, लेकिन उसके शब्द जैसे अथर्व के लिए हवा में घुलते जा रहे थे ।
“मैं तुझसे बात कर रही हूँ, मिस्टर अवस्थी!” – वेदांशी ने फिर ज़ोर से कहा, “ऐसे क्या देख रहा है?”
अथर्व अचानक होश में आया।
“क्या?” – वो हड़बड़ा कर बोला।
वेदांशी ने तुनक कर कहा,“अरे, सुन भी रहा है न तू?!”
अथर्व हल्के से मुस्कुराया,
धीरे से बोला, “हम्म… सुन तो रहा हूँ…”
“तो जवाब दे न!” — वो और झुंझला गई।
अथर्व ने एक पल रुककर कहा,
“बस सोच रहा हूँ… इतनी सुंदर आँखों में गुस्सा भी कितना अच्छा लगता है।”
वेदांशी की बोलती बंद होगई।
उसके चेहरे पर कुछ पल के लिए एकदम शांति छा गई।
फिर अचानक वो पीछे हटते हुए बोली,
“ओए… लाइन मारने की कोशिश मत कर, समझा?!”
अथर्व मुस्कुराया,
“नहीं… मैं तो बस ऑब्ज़र्व कर रहा हूँ।”
“ऑब्ज़र्व?” – वेदांशी ने तिलमिला कर कहा।
कंटिन्यू.....
“ओए… लाइन मारने की कोशिश मत कर, समझा?!”
अथर्व मुस्कुराया,
“नहीं… मैं तो बस ऑब्ज़र्व कर रहा हूँ।”
“ऑब्ज़र्व?” – वेदांशी ने तिलमिला कर कहा,
अथर्व हड़बड़ा कर बोला, “नहीं… कुछ नहीं!”
उसने कॉपी झट से बंद कर ली, जैसे पकड़ा गया हो किसी चोरी में।
वेदांशी ने भौंहें चढ़ाईं, और उंगली उसकी तरफ़ तान दी,
“हद में रहा कर तू, समझा! ज़्यादा स्मार्ट बनने की कोशिश मत करना।”
अथर्व मुस्कुरा दिया।
वो वैसे भी बहुत शांत लड़का था… बोलता कम, सुनता ज़्यादा।
और अब सामने थी वेदांशी शास्त्री तूफ़ान की तरह बोलती हुई।
वेदांशी और भड़क गई।
“हँस क्यों रहा है? मैं जो बोल रही हूँ वो जोक लग रहा है क्या?”
“नहीं,” — अथर्व ने धीरे से कहा,
“बस ये सोच रहा हूँ कि गुस्से में भी तुम क्यूट लगती हो।”
वेदांशी का मुँह खुला रह गया।
दो सेकंड के लिए उसकी सारी बातें जैसे वहीं अटक गईं।
फिर बोली —
“क्या?! ओए! फ्लर्ट करने की हिम्मत कैसे हुई तेरी?”
अथर्व ने मासूमियत से कहा,
“फ्लर्ट नहीं कर रहा… सच बोल रहा हूँ।”
तभी घंटी बजी .... ट्रिंग्ग्ग!
ब्रेक ख़त्म हो चुका था।
कॉरिडोर की सारी चहल-पहल अचानक गायब हो गई और बच्चे अपनी-अपनी सीटों पर लौटने लगे।
टीचर भी क्लास में आ चुके थे।
वेदांशी भी झट से अपनी जगह पर बैठ गई, अब भी चेहरे पर गुस्से की लकीरें थीं।
अथर्व ने धीरे से अपनी कॉपी खोली, पेन निकाला, और ऐसे एक्ट करने लगा जैसे वो पूरे ब्रेक में बस नोट्स ही लिख रहा था।
अगले दिन––
हिंदी का पीरियड था लेकिन आज क्लासरूम कुछ ज़्यादा ही शांत था।
कारण?
मिश्रा सर आज स्कूल नहीं आए थे।
तो मतलब — आज कोई पढ़ाई नहीं, कोई टेस्ट नहीं, कोई डाँट नहीं।
फिर भी क्लास में था एक बंदा… जो सबको साइलेंट रखवाने की ज़िम्मेदारी लिए घूम रहा था — क्लास मॉनिटर, पृथ्वी।
“स्स्स्श्श्श! सब शांति रखो!” — वो बार-बार अपनी आवाज़ ऊँची करता,
“जिसने भी आवाज़ की न, नाम बोर्ड पर लिख दूँगा!”
क्लास में बैठे सब स्टूडेंट्स धीरे-धीरे हँसी रोकने की कोशिश कर रहे थे।
और दूसरी ओर, थर्ड रो की मिडल बेंच पर बैठी थी —
वेदांशी शास्त्री।
उसके दोनों साइड में उसकी पार्टनर इन क्राइम — अहाना और कशिश।
वेदांशी ने ऊँघते हुए अपनी नोटबुक पर पेन से डूडल्स बनाते हुए कहा,
“यार… ये हिंदी पीरियड हमेशा इतना साइलेंट क्यों होता है? बिना टीचर के भी साइलेंस!”
अहाना मुस्कुराई,
“क्योंकि मॉनिटर पृथ्वी है, जो खुद को हेड बॉय समझता है।”
कशिश ने फुसफुसाते हुए कहा,
“पता नहीं क्यों, पर ये चुप्पी बहुत बोरिंग है।”
वेदांशी ने आँखें ऊपर उठाईं,
"एग्जेक्टली! मतलब बिना आवाज़ के क्लास तो मुर्दाघर लग रहा है।”
तभी पृथ्वी दूर से बोला,
“वेदांशी शास्त्री! क्या बात कर रही हो?”
वेदांशी ने तुरंत पेन मुँह में दबाया,
“न-नहीं सर—मेरा मतलब, मॉनिटर जी—मैं तो बस… हिंदी में सोच रही थी।”
पूरी क्लास हँस पड़ी।
पृथ्वी ने घूरते हुए कहा,
“ पिन-ड्रॉप साइलेंस!”
वही अथर्व चोरी-चोरी अपनी सीट से वेदांशी को देख रहा था।
हर बार जब वो मुस्कुराती, अथर्व के चेहरे पर भी एक हल्की मुस्कान आ जाती।
वो इतना खो गया था कि उसे पता ही नहीं चला कब
वेदांशी अचानक पीछे मुड़ी और उनकी आँखें टकराईं।
अथर्व ने तुरंत नज़रें नीचे कर लीं,
लेकिन अब देर हो चुकी थी।
वेदांशी ने हल्के से मुँह बना लिया,
“ये अवस्थी घूर क्यों रहा है मुझे?”
कशिश ने हँसी दबाते हुए कहा,
“शायद उसे तेरा नया हेयरस्टाइल पसंद आ गया।”
वेदांशी ने झट से पेन डेस्क पर पटका,
“तू चुप रह यार कशिश!”
वेदांशी की ये छोटी-सी हरकत ज़्यादा देर तक छुप नहीं पाई —
पृथ्वी, जो अब तक पूरी क्लास में “शांति बनाए रखो!” का पोस्टर बना घूम रहा था,
अचानक उसकी डेस्क के सामने आ खड़ा हुआ।
“वेदांशी शास्त्री…” — उसने अपने हाथ पीछे बाँधते हुए कहा,
“लगता है तुम्हें पिन-ड्रॉप साइलेंस का मतलब दोबारा समझाना पड़ेगा।”
वेदांशी ने तुरंत मासूम-सा चेहरा बनाया,
“नहीं पृथ्वी जी, मैं तो बस नोटबुक में लिख रही थी, देखो न—” (उसने झट से अपनी नोटबुक बंद कर ली, क्योंकि उसमें दिल का डूडल बना था 😅)
पृथ्वी ने भौंहें चढ़ाईं,
“नोटबुक दिखाओ!”
वेदांशी ने झट से नोटबुक पीछे खींच ली,
“क्यूँ दिखाऊं? मेरी प्राइवेट प्रॉपर्टी है ये!”
पृथ्वी ने गुस्से में कहा,
“इनफ वेदांशी! हर बार मज़ाक उड़ाने की आदत हो गई है तुम्हें। अब बताओ, क्या लिख रही थी?”
वेदांशी ने नाक सिकोड़ते हुए कहा,
“आपको क्या करना है, मॉनिटर साहब?”
“मुझे क्लास में डिसिप्लिन देखना है,” — पृथ्वी ने ताव में कहा,
“और तुम हमेशा गड़बड़ी करती हो। अब बताओ, नोटबुक में क्या है?”
वेदांशी ने किताब सीने से चिपकाते हुए कहा,
“नहीं दिखाऊँगी!”
लेकिन पृथ्वी ने अचानक वेदांशी की नोटबुक झट से छीन ली।
“अब बस! दिखाओ क्या लिखा है!” — उसने कड़क आवाज़ में कहा।
वेदांशी ने झट से नोटबुक खींचने की कोशिश की, लेकिन पृथ्वी ने पकड़ रखा था।
“छोड़ो, छोड़ो!” — वेदांशी चिल्लाई, लेकिन दोनों की छीनाझपटी के बीच नोटबुक का कवर फट गया, और पन्ने बिखर गए।
वेदांशी की आँखों में आंसू भर आए।
और अगले ही पल उसने सुबकना शुरू कर दिया।
वेदांशी की आंखों में आंसु देख अथर्व की आँखें गुस्से से लाल हो गईं। उसने तुरंत उठने की कोशिश की, लेकिन तभी—
वेदांशी ने अपनी मिल्टन स्टेनलिस स्टील बॉटल उठाई, जो उसने बेंच के नीचे रखी थी।
और फिर पूरी ताकत से पृथ्वी के सिर की ओर फेंक दी।
बोतल सीधे पृथ्वी के सिर पर लगी और बहुत ही जोर से।
पूरी क्लास में एक पल के लिए समय रुक सा गया। बच्चे अपने-अपने सीटों पर चौंक गए, कुछ की आँखें फैल गईं, कुछ के मुंह खुले रह गए।
पृथ्वी सिर पकड़कर पीछे झुका हुआ था।
अहाना और कशिश मुंह कर हाथ रखे वेदांशी को देख रहे थे।
अगले दिन —
सारे स्टूडेंट्स के कान खड़े हो गए थे, जब पता चला कि वेदांशी और पृथ्वी को प्रिंसिपल ऑफिस में बुलाया गया है।
वेदांशी और पृथ्वी दोनों अब प्रिंसिपल ऑफिस में खड़े थे।
वेदांशी और पृथ्वी दोनों के पेरेंट्स भी वहाँ मौजूद थे।
पृथ्वी के सिर पर सफेद पट्टी बंधी हुई थी,
और चेहरे पर वही “मैं-तो-बेचारा-हूँ” वाला एक्सप्रेशन।
साफ़ दिख रहा था।
“मिस वेदांशी शास्त्री,” — प्रिंसिपल की भारी आवाज़ गूँजी —
“आपने स्कूल के अंदर किसी स्टूडेंट को फिज़िकल हर्ट किया है। ये बहुत सीरियस मेटर है।”
वेदांशी कुछ बोलने ही वाली थी कि
पृथ्वी के पिता, मि. कपूर जो सूट-बूट पहने हुए थे, कुर्सी से उठे।
“सर, ये बात बर्दाश्त से बाहर है,” उन्होंने कहा।
“हमारा बेटा तो शांत और पढ़ाकू बच्चा है। और इस लड़की ने इसे मारा! बोतल से! क्या यही सिखाया जा रहा है यहाँ?”
वेदांशी के पेरेंट्स भी वहाँ मौजूद थे —
उसकी माँ की आँखों में चिंता थी, पिता ने बस गहरी साँस ली।
“सर…” — वेदांशी के पिता ने धीमे से कहा —
“वो बच्ची है, गलती हो गई होगी।”
मि. कपूर तुरंत बोले,
“गलती?! ये गलती नहीं है, ये अपराध है! मेरे बेटे को जोर से चोट लगी है।”
उन्होंने पृथ्वी की पट्टी की तरफ़ इशारा किया,
“देखिए सर, कैसे पट्टी बंधी है! डॉक्टर ने कहा है कि उसे दो दिन आराम करना चाहिए।”
वेदांशी का धैर्य अब टूट रहा था।
वो धीरे से बोली —
“सर… अगर आपने देखा होता तो पता चलता कि पहले किसने बद्तमीज़ी की थी।”
प्रिंसिपल ने गुस्से में कहा,
“मिस शास्त्री! अब आप अपने काम का बचाव कर रही हैं?”
वेदांशी ने सिर ऊँचा किया,
“नहीं सर, बस सच्चाई बता रही हूँ। उसने मेरी नोटबुक छीन ली थी, मेरे ड्रॉइंग्स फाड़ दिए थे, सबके सामने मज़ाक बनाया। मैं बस… कंट्रोल नहीं कर पाई।”
पृथ्वी की माँ ने झट से कहा,
“तो अब हमारी गलती है? हमारे बेटे ने नोटबुक देख ली, तो इसके बदले सिर फोड़ देगी?”
वेदांशी ने सीधा जवाब दिया —
“वो सिर नहीं… अहंकार फूटा था।”
पूरा कमरा सन्न रह गया।
प्रिंसिपल ने चश्मा उतारकर टेबल पर रख दिया,
“इनफ ड्रामा!”
वो फिर बोले —
“मिस वेदांशी, आपको एक हफ़्ते के लिए सस्पेंड किया जा रहा है। और अगर दोबारा ऐसा कुछ हुआ, तो एक्सपल्शन के लिए हमें मजबूर होना पड़ेगा।”
वेदांशी के पिता चुप थे।
वो समझ गए कि अब कुछ कहना बेकार है।
पृथ्वी के पिता ने मुस्कुराते हुए कहा,
“थैंक यू, सर। हमें स्कूल पर भरोसा था कि आप इंसाफ़ करेंगे।”
पृथ्वी ने वेदांशी को देख तिरछी मुस्कान दी।
वेदांशी ने आँखें तरेरीं,
लेकिन जवाब नहीं दिया।
कंटिन्यू.....
शाम का समय था।
अथर्व अपने कमरे में खिड़की के पास बैठा था, उसके हाथ में खुली कॉपी थी, पर निगाहें कहीं और थीं।
मन में बस एक ही खयाल घूम रहा था —
“वेदांशी को सस्पेंड कर दिया…”
उसने आह भरी,
कॉपी बंद की, और कुर्सी से उठ गया।
खिड़की से बाहर झाँका तो वही पुराना ग्राउंड दिखा … जो अब हरियाली से भरा था।
और तभी —
अथर्व की नज़र किसी पर जाकर ठहर गई।
वो थी — वेदांशी शास्त्री।
वो धीरे-धीरे चलती हुई उस तालाब के पास आ रही थी,
जहाँ बरसात के बाद पानी फिर भर गया था।
उसने आज एक येलो कलर की फ्रॉक पहनी थी,
जो हवा के झोंकों के साथ हल्के-हल्के उड़ रही थी।
वो जाकर उस पुराने पत्थर पर बैठ गई,
जहाँ वो पहले कागज़ की नावें छोड़ा करती थी।
उसके बालों की कुछ लटें चेहरे पर गिर आईं,
पर उसने उन्हें हटाने की भी कोशिश नहीं की।
बस नीचे देखती रही —
उस पानी की ओर, जो सूरज की किरणों में सुनहरा लग रहा था।
अथर्व खिड़की के पास खड़ा,
उसे देखता रहा —
बिलकुल वैसे ही जैसे हर बार देखता था।
अथर्व के कदम अपने-आप खिड़की से हटकर दरवाज़े की तरफ़ बढ़े।
वो नहीं जानता था कि वहाँ जाकर वो क्या कहेगा…
पर वो जानता था —
उसे वहाँ होना चाहिए।
वो नीचे उतरा,
धीरे-धीरे तालाब की तरफ़ चला गया।
वो अब बस कुछ कदम दूर था —
और सामने, पत्थर पर बैठी वेदांशी।
वो बिल्कुल बेख़बर थी कि कोई उसे देख रहा है —
कि कोई उसके हर इमोशन को महसूस कर रहा है।
अथर्व धीरे-धीरे उसके पास पहुँचा।
पैरों की आहट सुन वेदांशी ने हल्का-सा सिर घुमाया — और जैसे ही उसने उसे देखा, चेहरा तमतमा उठा।
“तू यहाँ क्या कर रहा है?” — उसने तीखे लहज़े में कहा,
“ मेरा पीछा कर रहा है?”
अथर्व ठिठक गया,
“नहीं… बस ऐसे ही… टहलने आया था।”
वेदांशी ने आँखें सिकोड़ते हुए कहा,
“टहलने आया था? और सीधा यहीं आकर रुक गया? क्या तालाब के आस-पास ही ऑक्सीजन ज़्यादा मिलती है?”
अथर्व मुस्कुराया,
“शायद… या फिर शांति।”
वेदांशी ने झट से नज़रें फेर लीं,
“शांति? मेरे आसपास रहकर किसी को शांति नहीं मिलती, समझा? सबको टेंशन ही मिलती है!”
“मुझे नहीं।” — अथर्व ने धीरे से कहा।
वेदांशी ने भौंहें चढ़ाईं,
“क्या मतलब?”
अथर्व ने एक पल उसकी ओर देखा —
“मतलब… जब तुम पास होती हो न, तो हर शोर धीमा लगने लगता है।”
वेदांशी ने गुस्से में पत्थर पर हाथ मारा,
“ओए! तेरे पास कोई काम-धंधा नहीं है क्या? हर बार इतनी फिल्मी बातें क्यों करता है?”
अथर्व हल्के से हँसा,
“शायद इसलिए कि ज़िंदगी भी फिल्म जैसी लगती है जब तुम आस-पास होती हो।”
“बस!” — वेदांशी उठ खड़ी हुई,
“एक और डायलॉग मारा न तूने, तो मैं तुझे झील में फेंक दूँगी!”
अथर्व ने हाथ उठाकर कहा,
“ठीक है बाबा, नहीं बोलूँगा।”
वेदांशी ने झुंझलाकर अपनी फ्रॉक नीचे तक ठीक की —
हवा में उड़ती लहरें उसने हाथों से थाम लीं।
फिर झुककर पास से एक छोटा-सा पत्थर उठाया…
और छपाक!
उसे तालाब में फेंक दिया।
फिर दूसरा उठाया —
फिर तीसरा —
हर पत्थर के साथ जैसे उसका गुस्सा थोड़ा-थोड़ा बाहर निकल रहा था।
अथर्व बस उसे देखता रहा।
वो हवा में उड़ते वेदांशी के बालों को, सूरज की किरणों में चमकती उसकी आँखों को,
और हर बार पत्थर फेंकने के बाद चेहरे पर आती “अब चैन मिला” वाली झलक को…
वो बस चुपचाप देखता रहा।
वेदांशी ने चौथा पत्थर फेंका ही था कि अचानक उसकी नज़र अथर्व पर पड़ी।
वो ठिठक गई —
फिर झट से बोली,
“क्या है? ऐसे घूर क्यों रहा है?”
अथर्व जैसे हड़बड़ा गया,
“न-नहीं तो… मैं… मैं बस देख रहा था कि… पत्थर कितनी दूर गया।”
वेदांशी ने आँखें तरेरीं,
“झूठा! तू मेरे फेस को देख रहा था?”
अथर्व ने हिचकिचाते हुए सिर खुजाया,
“न-नहीं तो…”
वेदांशी ने आँखें और सिकोड़ लीं —
फिर अचानक वो तेज़ी से दो कदम बढ़ाकर सीधे अथर्व के सामने आ खड़ी हुई।
अथर्व एक पल को पीछे हटने ही वाला था कि
वो ठिठक गया —
क्योंकि अब वेदांशी का चेहरा बिलकुल उसके सामने था।
उसने ठोड़ी थोड़ा-सा ऊपर उठाई ताकि वो उसकी आँखों में देख सके —
क्योंकि अथर्व उससे काफ़ी लंबा था।
उन दोनों के बीच बस कुछ इंच का फ़ासला रह गया था।
वेदांशी ने भौंहें चढ़ाईं,
“एईई… ये क्या?” — उसने उंगली से इशारा करते हुए कहा,
“तेरा फेस तो पूरा लाल हो गया!”
अथर्व झेंप गया,
चेहरे पर हाथ फेरा और नज़रें चुरा लीं,
“क-कुछ नहीं… धूप लग रही है इसलिए शायद।”
वेदांशी हँस पड़ी,
“धूप? शाम के पाँच बजे धूप? वाह! क्या लॉजिक है तुम्हारा।”
अथर्व ने धीरे से कहा,
“तो फिर तुम ही बता दो, क्या वजह है?”
वेदांशी ने नकली सोचने का नाटक किया —
उंगली ठोड़ी पर रखकर बोली,
“हम्म… शायद डर गया होगा मुझसे?”
अथर्व बस मुस्कुरा दिया।
वेदांशी ने उसे ऊपर से नीचे तक देखा —
फिर थोड़ा और पास आकर बोली,
“सुन… एक बात पूछूँ?”
अथर्व ने हल्की मुस्कान के साथ कहा,
“हम्म, पूछो।”
वो उसके चेहरे को ध्यान से देखने लगी,
भौंहें चढ़ाकर बोली —
“तू ये बताना ज़रा… क्या लगाता है अपने फेस पर?”
अथर्व थोड़ा चौंका,
“क्या मतलब?”
वेदांशी ने गंभीरता से कहा,
“मतलब ये कि इतना साफ़, इतना चमकता हुआ फेस है तेरा और
देख मेरा फेस —
सुबह उठो तो डल, स्कूल से आओ तो टैन, और रात में तो बस पांडा आईज!”
अथर्व हँस पड़ा।
वेदांशी ने उसका हँसना सुना तो तुरंत मुँह बना लिया —
पैर ज़मीन पर पटके और बोली,
“अबे हँस क्यों रहा है तू?”
अथर्व ने हँसी रोकने की कोशिश की, पर फिर भी होंठों के कोनों में मुस्कान तैर ही गई।
“न-नहीं… कुछ नहीं…”
वेदांशी ने हाथ बाँध लिए सीने पर,
“कुछ नहीं मतलब? मैंने तेरी तारीफ की, और तू हँस रहा है मुझ पर?”
अथर्व ने धीरे से सिर हिलाया,
“अरे नहीं! तूमने तारीफ नहीं की, तूमने तो अपने फेस की शिकायत की थी।”
वेदांशी की आँखों की चमक एक पल में मंद पड़ गई।
“मेरा फेस भी तुम्हारे जैसा होता न…” — उसने धीमे से कहा,
“…तो मैं भी प्रीटी होती।”
वो ज़मीन की तरफ़ देखने लगी।
हवा में उसके बाल हल्के से उड़ रहे थे,
पर उसने उन्हें रोकने की कोशिश भी नहीं की।
उसकी उंगलियाँ फ्रॉक के किनारे से खेलती रहीं,
जैसे वो अपने अंदर की झिझक को छिपा रही हो।
अथर्व ने गहरी साँस ली और धीरे से बोला —
“किसने कहा कि तुम प्रीटी नहीं हो?”
वेदांशी ने चौंककर ऊपर देखा —
उसकी आँखों में थोड़ा-सा हैरान होना था, और थोड़ा-सा अविश्वास भी।
“मतलब?” — उसने धीमे से पूछा।
अथर्व ने अपना सिर झुकाया और अपने चेहरे को वेदांशी के चेहरे के स्तर तक लेकर आता।
“…प्रीटी तो वो होती है, जो किसी के मन में बस जाए।”
वेदांशी ने आंखे उठाई।
और कुछ पल तक उसे बस देखती रही।
हवा हल्के से उसके बालों को उड़ा रही थी,पर उसकी आँखें टिकी थीं सिर्फ़ अथर्व पर।
फिर अचानक —
वो ठहाका मारकर हँस पड़ी।
अथर्व चौंक गया।
“अरे… क्या हुआ?” — उसने घबराकर पूछा।
वेदांशी हँसते-हँसते दो कदम पीछे हटी,
“कुछ नहीं… बस… तू!” — उसने हँसी रोकते हुए कहा,
“तू इतना सीरियस होकर वो ‘मन में बस जाने’ वाला डायलॉग बोल रहा था…
जैसे कोई रोमांटिक हीरो!”
अथर्व ने पलकें झपकाईं,
“क्या? मैं तो बस सच कह रहा था।”
वेदांशी ने नकली भाव से सिर हिलाया,
“हाँ हाँ।”
फिर उसने नकल उतारी —
आवाज़ को थोड़ा भारी बनाकर बोली,
“‘प्रीटी वो होती है… जो किसी के मन में बस जाए…’
उफ़्फ़! भगवान, किसी ने सुना होता तो सोचता मूवी का सीन चल रहा है!”
अथर्व ने भौंहें उठाईं,
“अच्छा? तो मतलब तूम मुझ पर हँस रही हो?”
वेदांशी ने कंधे उचकाए,
“नहीं, तेरे डायलॉग पर।"
अथर्व कुछ पल तक चुप रहा —
बस उसकी हँसी को देखता रहा।
वो पहली बार इतने करीब से वेदांशी को देख रहा था —
बिना किसी झगड़े, बिना किसी तकरार के।
आज पहली बार वो उससे सच में बात कर रही थी।
अचानक, वेदांशी की हँसी एकदम थम गई।
चेहरे पर वही पुरानी तुनक झलक आई,
और उसने झट से कहा —
“बस अब बहुत हुआ, तू मुझसे बात क्यों कर रहा है?”
अथर्व ने चौककर देखा,
“क्या मतलब?”
वेदांशी ने आवाज़ ऊँची की,
“मतलब ये कि… तुझे कोई और काम नहीं है क्या?
हर बार सामने आ जाता है!”
अथर्व ने शांत लहज़े में कहा,
“वेदांशी, मैं बस—”
“बस क्या?” — उसने बीच में काटा,
“तू सोचता है कि तुझे बहुत समझ है? सबके दिल की बात जान लेता है?”
अथर्व ठिठक गया।
वेदांशी की आँखों में जो पहले शरारत थी,
अब वहाँ सिर्फ़ गुस्सा और झुंझलाहट बची थी।
वेदांशी ने दो कदम पीछे हटे अथर्व को घूरते हुए कहा —
“तो सुन… मैं कोई ओपन बुक नहीं हूँ, समझा?
हर किसी को मेरे अंदर झाँकने का हक़ नहीं है!”
अथर्व ने धीरे से कहा,
“मैं झाँकने नहीं आया था, बस…”
“बस क्या?” — वेदांशी फिर बोली,
“मुझे समझने आया था?"
अथर्व ने होंठ भींच लिए।
वो कुछ कहना चाहता था, पर शब्द गले में अटक गए।
वेदांशी ने मुँह फेर लिया,
आवाज़ अब काँपने लगी थी —
“सबको लगता है मैं बहुत बोलती हूँ, बहुत ऐटिट्यूड दिखाती हूँ…
पर किसी ने ये नहीं सोचा कि शायद मैं बस…”
वो रुक गई।
गहरी साँस ली।
“बस क्या?” — इस बार अथर्व ने पूछा।
वेदांशी ने आँखें बंद कीं,
फिर धीरे से बोली,
“…बस थक गई हूँ।”
अथर्व ने पहली बार उसके चेहरे पर वो नमी देखी —
जो हँसी के नीचे छिपी रहती थी।
उसने धीमे से कहा,
“थक गई किससे?”
वेदांशी ने ठंडी हँसी हँसी,
“सबसे। स्कूल वालों से, क्लास वालों से…
यहाँ तक कि खुद से भी।”
अथर्व कुछ कहना चाहता था,
कुछ ऐसा जो उसे सुकून दे सके,
पर उससे पहले ही —
वेदांशी ने झटके से रुमाल निकाला,
आँखें पोंछीं,
और बोली,
“तू बस मुझे अकेला छोड़ दे, प्लीज़।”
अथर्व ने धीमे से सिर हिलाया,
“ठीक है…”
वेदांशी ने बिना उसकी ओर देखे कहा,
“और हाँ… अगली बार हीरो बनने की ज़रूरत नहीं है, ठीक है?
किसी को जरूरत नहीं तेरी बड़ी-बड़ी बातों की।”
उसका लहज़ा फिर से तेज़ हो गया था।
अथर्व बस उसे देखता रहा —
तब तक जब तक कि वो तेज़ी से पलटकर वहाँ से चली नहीं गई।
अब वहाँ बस अथर्व था।
उसने गहरी साँस ली,
अपने बालों पर हाथ फेरा और बुदबुदाया,
“ये टॉपिक तो कहीं से कहीं चला गया…”
वो ठंडी हँसी हँसा —
“मैं तो बस बात करने आया था…
और अब देखो.....”
उसने ज़मीन पर पड़ा एक छोटा कंकड़ उठाया,
फेंक दिया पानी में —
छपाक!
छपाक की आवाज़ के साथ ही पानी में गोल-गोल लहरें उठीं —
बिलकुल वैसी ही, जैसी अभी-अभी वेदांशी ने उसके दिल में छोड़ी थीं।
कंटिन्यू.....
अगले दिन —
क्लास में माहौल कुछ अलग ही था।
हर कोई वेदांशी के सस्पेंशन की बातें कर रहा था।
कुछ को अफ़सोस था, कुछ मज़े ले रहे थे,
और कुछ बस तमाशा देख रहे थे।
पर एक चेहरा था जो पूरे दिन मुस्कुराता घूम रहा था —
पृथ्वी।
क्लास मॉनिटर होने के नाते उसे लगा जैसे उसने कोई महान काम कर दिया हो।
टीचर आते ही उससे कुछ भी पूछते,
तो वो गर्व से सीना तानकर कहता —
“सर, मैंने तो पहले ही कहा था, वेदांशी हमेशा क्लास डिस्टर्ब करती है!”
बाकी बच्चे उसकी हाँ में हाँ मिलाते रहे।
पर एक को यह सब बिलकुल बर्दाश्त नहीं था —
अथर्व।
वो पीछे की सीट पर बैठा था,
किताब खुली थी, पर नज़रें शब्दों पर नहीं थीं।
हर बार जब पृथ्वी हँसकर कुछ बोलता,
उसका खून खौल उठता।
अथर्व ने धीरे से बेंच पर उंगलियाँ थपथपाईं —
बस खुद को काबू में रखने की कोशिश।
लेकिन जब पृथ्वी ने ज़ोर से कहा —
“अब तो क्लास शांति से चलेगी, बिना ड्रामा क्वीन के!”
…तो सब्र की डोर टूट गई।
अथर्व कुर्सी पीछे धकेलते हुए खड़ा हुआ।
“पृथ्वी ! ड्रामा क्वीन बोला तूने उसे?”
पृथ्वी ने भौंहें उठाईं,
“हाँ, बोला। क्या कर लेगा?
सस्पेंड हुई है वो गलती उसकी ही थी!”
अथर्व ने धीरे से कहा,
“गलती? या तू चाहता था कि वो फँसे?”
पृथ्वी ने ठहाका मारा,
“देखो ज़रा! हीरो बन रहा है उसके लिए?”
वो आगे बढ़ा, और बोला —
“भाई, तू समझता क्या है खुद को?
गलती करी है तो सस्पेंड हुई वो। मैंने कुछ नहीं किया।”
अथर्व ने ठंडी नज़र से कहा,
“गलती तेरी भी थी पृथ्वी।”
क्लास के सभी बच्चे अथर्व और पृथ्वी को देख रहे थे।
पृथ्वी हँसते हुए बोला,
“चल छोड़, तू भी तो उसी के पीछे घूमता रहता है…
कहीं क्रश-व्रश तो नहीं है?”
पूरा क्लास “ऊऊऊ…” करके हँस पड़ा।
अथर्व बोला,
“अपनी ज़ुबान संभाल पृथ्वी… वरना…”
पृथ्वी ने मुँह पर नकली डर का हावभाव बनाया,
“वरना क्या करेगा तू?”
अथर्व ने बिना कुछ बोले बस डेस्क पर हाथ मारा —
धम!
क्लास एकदम से शांत हो गई।
अथर्व वैसे भी क्लास में शांति से रहने वाला लड़का था।
ना किसी से ज़्यादा बातें, ना किसी के झगड़ों में दखल।
पर आज...
आज वो खुद भी खुद पर हैरान था।
उसके हाथ अब भी हल्के-हल्के काँप रहे थे।
क्लास में सन्नाटा छाया था,
यहाँ तक कि फैन की घूमती आवाज़ तक तेज़ लग रही थी।
पृथ्वी की मुस्कान अब गायब थी।
उसने आस-पास देखा,
शायद किसी टीचर के आने का डर उसे रोक रहा था।
“देख… ये हाथ उठाने वाला स्टाइल न, अपने पास रख,” —
उसने धीमे मगर चुभते लहज़े में कहा,
“वरना तुझे भी सस्पेंड करवा दूँगा। वो भी पूरा महीना।”
अथर्व उसकी आंखों में देख कर बोला,
“सस्पेंड करवा देगा?"
पृथ्वी मुस्कुराया —
वो वही मुस्कान थी जो किसी को नीचा दिखाने के बाद आती है।
धीरे-धीरे बोला,
“हाँ… करवा दूँगा।
तू सोचता है मैं कुछ नहीं कर सकता?
मॉनिटर हूँ मैं इस क्लास का।
टीचर्स मेरी बात मानते हैं।
और वैसे भी…” — उसने ठुड्डी ऊपर उठाई और बोला—
“वेदांशी जैसी लड़कियों के साथ ऐसा ही होना चाहिए।”
उसकी बातें इतनी ज़हरीली थीं कि
अथर्व का दिल जैसे भीतर से जल उठा।
पृथ्वी ने आगे कहा,
“तूने तो बस उसे दो-चार बार देखा है न?
मैं रोज़ झेलता था उसका नाटक।
हर वक्त टीचर्स के सामने ड्रामा,
हर चीज़ में तेज बनने का शौक…
आखिरकार अब मिली सज़ा उसे । सस्पेंड होकर घर बैठी होगी।”
अथर्व की मुट्ठियाँ कस गईं।
दिल जैसे ज़ोर-ज़ोर से धड़क रहा था —
गुस्से से नहीं, बल्कि बेबसी से।
वो जानता था, पृथ्वी झूठ बोल रहा है,
फिर भी पूरा क्लास उसकी बातों पर सिर हिला रहा था।
पृथ्वी को अपनी ही आवाज़ पर नशा-सा चढ़ गया था।
वो मुस्कुराता हुआ बोला —
“जानता है अथर्व, ऐसी लड़कियाँ बस ध्यान चाहती हैं।
हर दिन कोई नया ड्रामा, कोई नई कहानी।
टीचर्स को मूर्ख बनाना तो जैसे उसका टैलेंट था!”
क्लास में कुछ हँसी की आवाज़ें गूँज उठीं।
पृथ्वी ने गर्दन घुमाकर सबको देखा —
“देखो न, अब क्लास कितनी शांत है…
ना कोई बहस, ना कोई बकवास।
सुकून आ गया यार!”
अथर्व ने धीरे से कहा —
“सुकून? या डर?”
पृथ्वी ठिठका।
“क्या मतलब?”
अथर्व आगे बढ़ा, उसकी आँखें सीधी पृथ्वी में धँस गईं।
“मतलब ये कि…
तू हमेशा उसी से जलता था।
वो तुझसे बेहतर बोलती थी,
बेहतर सोचती थी,
और जब सबकी नज़रें उस पर जाती थीं,
तो तेरी आँखों में सिर्फ़ जलन दिखाई देती थी।”
पृथ्वी उसे घूर कर बोला,
“अरे पागल हो गया है क्या? जलन? मुझको? उससे?”
अथर्व बोला,
“हाँ, जलन।"
पृथ्वी की आँखों में अब गुस्सा उतर आया था।
“तुझे बड़ा फर्क पड़ रहा है न उस लड़की के नाम पर?”
अथर्व ने चुप रहना बेहतर समझा,
पर उसकी खामोशी ही पृथ्वी के लिए और ईंधन बन गई।
“क्या बात है, हीरो?” — पृथ्वी मुस्कुराया,
“कहीं तू सच में वेदांशी के लिए फीलिंग्स-वीलिंग्स तो नहीं पाल बैठा?”
क्लास में फिर से हल्की हँसी फूटी।
पृथ्वी को जैसे मज़ा आने लगा था।
अथर्व ने एक गहरी साँस ली —
“बस कर पृथ्वी।”
पृथ्वी हँसते हुए बोला —
“ फीलिंग्स कैसे नहीं होगी!
वो तो हर लड़के से बातें करती थी,
क्लास की अटेंशन क्वीन जो थी!”
अथर्व की नज़र अब उसके चेहरे से नहीं हट रही थी।
पृथ्वी का हर शब्द, हर हँसी, जैसे आग की लपट बनकर उसकी सहनशीलता को जला रही थी।
“पृथ्वी बस… और एक शब्द भी मत बोल।”
पृथ्वी ने मुस्कुरा कर कहा —
“ओह! देखो देखो, हीरो को गुस्सा आ गया!”
वो बाकी बच्चों की तरफ मुड़ा,
“अब समझ आया सबको?
ये सारा ड्रामा इसलिए कर रहा था क्योंकि इसे वेदांशी से प्यार है!”
क्लास ठहाकों से गूँज उठा —
“ओओओओओओओ!”
तभी अचानक क्लास का दरवाज़ा धड़ाम से खुला और मिश्रा सर की आवाज आई —
“क्लास में इतना शोर क्यों हो रहा है!?”
टीचर, मिश्रा सर, गुस्से से दरवाज़े पर खड़े थे।
पूरी क्लास में सन्नाटा फैल गया।
अभी जो बच्चे ठहाके लगा रहे थे,
अब सिर झुकाकर कॉपी पर कुछ ऐसे देखने लगे
जैसे नोट्स लिखने में बहुत व्यस्त हों।
पृथ्वी झट से अपनी सीट पर बैठ गया,
किताब खोल ली, जैसे वो बड़े ध्यान से पढ़ रहा हो।
अथर्व भी अपनी डेस्क पर बैठ गया।
मिश्रा सर ने चारों ओर देखा —
“बताओ! कौन हँस रहा था?”
क्लास एकदम चुप।
सिर्फ़ फैन की घूमने की आवाज़ सुनाई दे रही थी।
सर ने ज़ोर से कहा —
“मैंने पूछा, कौन हँस रहा था?”
कोई जवाब नहीं आया ।
सभी बच्चे अपनी नज़रें नीचे किए बैठे थे।
मिश्रा सर धीरे-धीरे चलते हुए बीच में आए,
उनकी नज़र सीधे पृथ्वी और अथर्व पर पड़ी —
क्योंकि दोनों के चेहरों पर अब भी थोड़े अलग हावभाव थे।
“पृथ्वी! तुम क्लास मॉनिटर हो न?” —
सर ने ठंडी आवाज़ में पूछा।
पृथ्वी तुरंत खड़ा हुआ,
“जी… सर।”
“तो बताओ, ये हल्ला किस बात का था?”
पृथ्वी ने निगलते हुए कहा,
“वो सर… बस… बच्चे थोड़ा मज़ाक कर रहे थे।”
“मज़ाक?” — मिश्रा सर की आवाज़ ऊँची हुई।
“कैसा मज़ाक?
पृथ्वी की निगाहें नीचे झुक गईं।
मिश्रा सर ने सख़्त नज़र से कहा —
“पृथ्वी! मैं पूछ रहा हूँ, इतना शोर किस बात का था?”
पृथ्वी ने तुरंत नकली मासूमियत ओढ़ ली।
“सर, वो… कुछ नहीं था सर, बस… बच्चे थोड़ी बहस कर रहे थे।कल वाले ग्रुप प्रोजेक्ट को लेकर।”
मिश्रा सर ने भौंहें सिकोड़ लीं —
“कौन सा प्रोजेक्ट?”
पृथ्वी ने बिना रुके बोलना जारी रखा,
“वो सर, एनवायरनमेंटल अवेयरनेस वाला प्रोजेक्ट…
अथर्व कह रहा था कि पोस्टर मुझे बनाना चाहिए,
पर बाकी बच्चे चाहते थे कि कोई और बनाए।
बस उसी बात पर थोड़ा डिस्कशन हो गया।
लेकिन अब सब क्लियर है सर, हमने सुलझा लिया।”
उसने हल्की सी बनावटी मुस्कान के साथ कहा —
“सॉरी, सर… नेक्स्ट टाइम नो नॉइस।"
मिश्रा सर ने अथर्व की ओर देखा —
“क्या ये सच है अथर्व?”
अथर्व ने कुछ पल तक चुप रहाफिर बोला,
“…जी, सर।”
मिश्रा सर ने गहरी साँस ली,
“ठीक है… लेकिन अगली बार, क्लास से बाहर तक आवाज़ नहीं आनी चाहिए।"
पूरा क्लास एक साथ बोला —
“यस, सर।”
मिश्रा सर ने सिर हिलाया,
“अब सब लोग किताब निकालो,
पेज नंबर 42 खोलो।”
क्लास दोबारा शांत हो गई।
पृथ्वी अब अपनी सीट पर बैठा मुस्कुरा रहा था,
जैसे उसने एक बार फिर माहौल अपने हिसाब से पलट दिया हो।
वो पीछे मुड़ा और अथर्व को देख धीरे से बोला,
“देखा? कब, कैसे क्या बोलना है… यही फर्क है मुझमें और बाकी सबमें।”
अथर्व ने गहरी सांस छोड़ी,
“अगर झूठ भी इतनी सफ़ाई से कहा जाए, तो सच को साबित करने के लिए हिम्मत से ज़्यादा समझ चाहिए…”
क्लास खत्म हुई तो अथर्व अपनी जगह से धीरे-धीरे उठा,
बैग में कुछ ढूँढने का नाटक करते हुए बाहर निकल आया।
दिल अभी भी तेज़ धड़क रहा था — गुस्से से नहीं, किसी और बेचैनी से।
वो जानता था —
पृथ्वी ने जो कहा, वो झूठ था।
पर वो ये भी जानता था कि अगर वो अब कुछ बोलेगा,
तो बात फिर वहीँ पहुँच जाएगी — “वेदांशी के लिए खड़ा होता है।”
वो कॉरिडोर की खिड़की के पास जाकर खड़ा हो गया।
उसी वक्त पीछे से आवाज़ आई —
“हीरोजी, आज बड़ा सोच में डूबे लग रहे हो।”
अथर्व ने पलटकर देखा —
वो आरव था, उसका दोस्त।
“ मैने सुना तू मॉनिटर से भिड़ गया था?”
अथर्व ने सांस छोड़ी ,
“कुछ वैसा ही समझ ले।”
आरव ने चिप्स का पैकेट खोला,
“भाई, एक बात बोलूँ?”
“बोल।”
"पृथ्वी से उलझकर फायदा क्या?”
अथर्व ने बिना सोचे कहा,
“फायदा नहीं, ज़रूरत है।”
आरव ने चौंककर पूछा,
“क्या करने का सोच रहा है तू?”
अथर्व ने गहरी साँस ली —
“कल… मैं स्कूल नहीं आने वाला।”
आरव ने पलकें झपकाईं,
“मतलब?”
अथर्व ने कहा —
“हाँ, नहीं आना मुझे स्कूल।”
आरव ने भौंहें चढ़ाईं,
“क्या मतलब? भाई, तू ऐसा सोच भी कैसे सकता है?”
अथर्व कुछ नहीं बोला तो आरव उसे घूरते हुए बोला,"“भाई… सच बता, फीलिंग्स है तुझे वेदांशी के लिए?"
अथर्व ने बस नजरे चुरा ली।
आरव आंखे छोटी छोटी करते हुए बोला ,
“भाई तूने मुझे कभी बताया ही नहीं!”
अथर्व अब भी चुप ही रहा।
आरव नाराजगी से आगे बोला ,
“हर बार जब मैं पूछता था कि कोई लड़की पसंद है क्या,
तो तू बोलता था — ‘नहीं रे।’
और अब तू वेदांशी के लिए पूरे जग से भिड़ने चला है!?”
अथर्व ने गहरी साँस ली,
“आरव, बात पसंद की नहीं है।”
“तो फिर?” — आरव ने झुंझलाकर कहा,
“फिर क्या है ये?
तू क्लास में सबके सामने उस पृथ्वी से भिड़ गया,
अब कह रहा है कि स्कूल नहीं आएगा —
और बोलता है बात पसंद की नहीं है?
भाई… सच में, तू मुझे हर बार मूर्ख बना रहा था!” — उसने तेज़ आवाज़ में कहा।
कंटिन्यू.....
शाम का समय था।
वेदांशी अपने कमरे में बैठी थी।
आज सस्पेंशन की वजह से वो स्कूल नहीं गई, लेकिन फिर भी खबरें उसे उसके दोस्तों से मिल रही थीं।
वेदांशी की दोनों सहेलियाँ — अहाना और कशिश — उसके सामने बैठी थीं।
वे उत्सुकता और थोड़ी शरारत के साथ उसे क्लास के हालात सुना रही थीं।
“वेदांशी… आज क्लास में क्या हुआ! तू नहीं जानती!” — अहाना ने आँखें चमकाते हुए कहा।
“हाँ, सच में! पृथ्वी ने…” — कशिश बीच में टोकते हुए बोली, “मतलब, तू समझ ही रही है न !”
वेदांशी ने अपनी भौंहें सिकोड़ लीं और मुंह बनाते हुए बोली —
“हुंह… इस पृथ्वी के बच्चे को तो मैं…”
कशिश ने सहमति में सिर हिलाया —
“अरे पूरा क्लास हँस रहा था… और अथर्व?”
वेदांशी ने अचानक दोनों सहेलियों की ओर देखा, और उसका मुंह तिरछा हो गया —
“अथर्व…? वो क्या?”
अहाना ने जल्दी से जवाब दिया —
"अरे वो तुझे पसंद करता है। "
अहाना की बात सुनते ही वेदांशी के चेहरे पर झटका सा लग गया।
उसकी आँखें बड़ी हो गईं, और उसने झट से दोनों सहेलियों की तरफ आँखें फाड़ते हुए कहा —
“क्या… क्या कह रही हो तुम लोग! अथर्व मुझे पसंद करता है? ये कैसा मज़ाक है?"
कशिश बोली—
“नहीं वेदांशी, सच! सच में… उसने ये सब कहा कि…”
वेदांशी ने बीच में टोकते हुए आँखें घुमाईं —
“रुको! रुको! मैं तो अब तक यही सोच रही थी कि वो सिर्फ़ मुझे इरिटेट कर रहा था!
और ....फू! तुम लोग ये कह रहे हो कि…वो मुझे पसंद करता है?”
वेदांशी के मुंह से यह शब्द जैसे अभी-अभी गिरे थे, क्लास में हुई हर नोंक-झोंक की झलक उसकी आँखों में ताज़ा हो गई।
“हम्म… मुझे पसंद करता है?” — उसने धीरे से खुद से कहा, जैसे शब्दों का वजन अभी-अभी समझ में आया हो।
उसके दिल की धड़कन अचानक तेज़ हो गई।
अहाना और कशिश उसे देखते रह गईं।
अचानक वेदांशी की आँखों में झटका सा आया।
उसका चेहरा खीझ से सिकुड़ गया, और उसने दोनों सहेलियों की ओर घूरते हुए कहा —
“ कितना बेहूदा मजाक है ये !”
अथर्व से आज तक वेदांशी ने ढंग से बात नहीं करी थी। कहाँ वेदांशी जैसी मस्तीखोर लड़की और कहाँ वो भोंदू सा अथर्व... दोनों बिलकुल अलग! और अब, ये दोनों कह रही हैं कि वो उसे पसंद करता है? यह बात वेदांशी के गले से नीचे नहीं उतर रही थी।
"मुझे न ये सब मज़ाक लग रहा है। अथर्व कभी ऐसा नहीं कर सकता," वेदांशी ने अपनी ही बात दोहराई।
कशिश ने कहा, "अरे, सच में! उसने कहा था कि..."
अहाना ने कशिश को बीच में रोकते हुए कहा, "छोड़ कशिश, वेदांशी को खुद ही सोचने दे।"
वेदांशी दोनों सहेलियों को घूरती रही। उसके दिमाग में विचारों का बवंडर चल रहा था। क्या सचमुच अथर्व उसे पसंद करता है? और अगर हाँ, तो क्यों? उसे तो अथर्व हमेशा से एक सिरदर्द ही लगता था।
अगले ही पल, वेदांशी के चेहरे पर एक शरारती मुस्कान आ गई।
अहाना ने तुरंत भाँप लिया —
“ओय ये मुस्कान… ये मुस्कान मतलब तेरे दिमाग में कोई खिचड़ी पक रही है!”
वेदांशी ने तुरंत होंठ दबाते हुए मासूम-सी शक्ल बनाई —
“ना… कुछ नहीं!”
कशिश ने हाथ बाँधकर कहा —
“झूठ मत बोल! तेरे चेहरे की मुस्कान बता रही है कि तू कुछ न कुछ तो सोच ही रही है।”
वेदांशी ने आँखें घुमाईं और मज़ाकिया लहजे में बोली —
“बड़ा क्या सोचूंगी यार… बस ये संस्पेंशन खत्म हो और फिर स्कूल जाऊँगी और उस अथर्व महाराज से हिसाब बराबर करूँगी।”
अहाना ने मुस्कुराते हुए पूछा —
“मतलब?”
वेदांशी ने तकिया उठाकर दोनों पर फेंका —
“मतलब जो मेरे बारे में कुछ सोचता है, उसे उसी की भाषा में जवाब मिलेगा!”
कशिश ने आँखें मिचमिचाते हुए मुस्कुराकर कहा —
“ओहो! उसी की भाषा में जवाब? मतलब समझ रही है न अहाना…”
अहाना हँसते हुए बोली —
“हाँ हाँ… अब तो लग रहा है वेदांशी के दिल में घंटियाँ बजनी शुरू हो गई हैं!”
वेदांशी ने तुरंत तकिया उठाया और दोनों पर झपटी —
“तुम दोनों को ना… अभी बताती हूँ मैं!”
कशिश और अहाना हँसते हुए भागीं, और वेदांशी उनके पीछे तकिया लेकर दौड़ी —
“रुको तुम दोनों! हद करती हो यार, बस मज़ाक उड़ाओ मेरा!”
कशिश पीछे मुड़कर बोली —
“अरे तो फिर क्यों लाल हो रही है गालों से, हाँ? कुछ कुछ तो हो रहा है दिल में तेरे !”
“क्यायायाया?!” — वेदांशी चिल्लाई,
“कसम खाती हूँ कशिश, अगर पकड़ में आ गई न तो…”
वो आधी बात कह ही रही थी कि फिसल कर अपने ही तकिए पर गिर गई।
अहाना और कशिश हँसी के मारे दोहरी हो गईं —
“देखो! खुद गिर रही है और हमें धमकी दे रही है!”
वेदांशी उठी, बालों को कान के पीछे सरकाया,
और रौबदार आवाज़ में बोली —
“अब बस! कल से तुम दोनों का मेरे घर में आना बंद!”
अहाना हँसी रोकते हुए —
“हाँ हाँ, बिल्कुल! अब तो हम रोज़ आएँगे, और तेरे ‘अथर्व बाबू’ के किस्से भी लाएँगे!”
कशिश ने तुरंत आगे कहा—
“हाँ! ताकि तेरे गाल ऐसे ही लाल होते रहें रोज़-रोज़!”
वेदांशी ने आँखें तरेरीं, तकिया उठाया और बोली —
“बस्स्स! अबकी बार सच में मार दूँगी!”
दोनों सहेलियाँ ठहाके लगाती हुई दरवाज़े की ओर भागीं।
वेदांशी उनके पीछे चिल्लाई —
“भागो भागो! वरना आज सच में हड्डियाँ टूट जाएँगी!”
दोनों के जाने के बाद।
वेदांशी ने गहरी साँस ली, और आईने में खुद को देखा।
बाल बिखरे हुए थे, गाल सच में लाल हो चुके थे।
वो खुद से मुस्कुराई —
“पता नहीं क्यों... पर आज दिल कुछ अजीब कर रहा है।”
एक हफ़्ते बाद...
सुबह का वक्त था।
वेदांशी आज पूरे हफ़्ते बाद स्कूल जा रही थी।
रेडी होने के बाद सामने आईने में खुद को देखा।
चेहरे पर हल्की-सी मुस्कान आ गई।
“चल वेदांशी… आज सबको दिखा देना कि सस्पेंशन भी तेरा चार्म नहीं तोड़ सकता!” — उसने खुद से कहा और बैग उठाकर निकल गई।
बाहर गेट पर अहाना और कशिश पहले से उसका इंतज़ार कर रही थीं।
कशिश बोली —
“वेदांशी! आज तो तू कमाल लग रही है, देख लेना क्लास में सबकी नज़रें तुझपर ही होंगी।”
अहाना ने मुस्कुराते हुए कहा —
“और कोई ख़ास नज़र भी शायद…”
वेदांशी ने तुरंत घूरते हुए कहा —
“अहाना… अगर तू ‘अथर्व’ का नाम लेने वाली है न, तो यहीं से लौट जा।”
तीनों हँसते हुए स्कूल की ओर चल पड़ीं।
क्लास में जैसे ही दरवाज़ा खुला —
पूरा माहौल जैसे एक पल को थम गया।
हर बच्चा अचानक चुप हो गया।
वेदांशी अपने यूजुअल कॉन्फिडेंट अंदाज़ में क्लास में दाख़िल हुई, लेकिन सबकी निगाहें उसी पर थीं।
कशिश ने धीरे से फुसफुसाया —
“देखा… सब तुझे ही देख रहे हैं।”
वेदांशी मुस्कुराई —
“हूँह… देखने दो। याद तो किया ही होगा सबने।”
वो अपनी सीट की तरफ़ बढ़ी, और तभी उसकी नज़र पड़ी —
वही खिड़की के पास वाली बेंच…
जहाँ हमेशा की तरह अथर्व बैठा था।
सिर झुकाए, कुछ लिखने में व्यस्त।
वो पलभर को रुकी।
उसने उम्मीद की थी शायद आज वो उसकी तरफ देखेगा, कुछ बोलेगा…
पर नहीं।
अथर्व ने बस एक हल्की-सी नज़र उठाई —
वेदांशी को देखा, फिर जैसे कुछ हुआ ही न हो,
वो वापस अपनी कॉपी में झुक गया।
वेदांशी के चेहरे की मुस्कान हल्की-सी ठिठक गई।
दिल में कुछ चुभा सा।
“हुंह… एटीट्यूड दिखा रहा है अब? अच्छा खासा ड्रामा करके मुझे पसंद करने की बातें फैलवाई थीं… और अब देखो, मुझे देख कर भी नज़रें फेर लीं?” — उसने मन ही मन सोचा।
वो अपनी सीट पर जाकर बैठ गई, लेकिन उसका ध्यान अब किताबों में नहीं था।
क्लास में टीचर आईं, बच्चों की बातें शुरू हुईं,
पर वेदांशी की निगाहें बार-बार अथर्व की तरफ़ जा रही थीं।
हर बार वो यही देखती —
वो खिड़की के बाहर झाँकता, कुछ सोचता, फिर नोट्स लिखता।
ना हँसी, ना शरारत, ना वो यूजुअल इरीटेशन जो वो हर दिन देता था।
कशिश ने धीरे से उसे कुहनी मारी —
“अब तू ही देख रही है अथर्व को ..!"
वेदांशी हड़बड़ाई —
“नहीं… मै क्यों देखने लगी उसे।”
तभी पृथ्वी, बोला —
“वेदांशी मैडम… बड़े दिन बाद दर्शन दिए आपने। क्लास मिस कर दी थी आपने, हम सबको आपकी शरारतें याद आ रही थीं।”
उसके लहजे में मज़ाक और थोड़ी चिढ़ भी थी।
वेदांशी ने हल्की-सी मुस्कान दी —
“हाँ, और लगता है तुम्हें मेरी कुछ ज्यादा ही याद आई थी पृथ्वी, तुम्हारे चेहरे पर साफ़ साफ लिखा है।”
पृथ्वी ने मुँह बनाते हुए कहा —
“हुँह… बड़े दिनों बाद तो लौटी हो, और आते ही एटीट्यूड चालू!”
क्लास में हल्की-सी हँसी गूँज उठी।
वहीं अथर्व ने भी यह सब सुना, लेकिन कुछ नहीं कहा।
वो बस कलम से किताब पर कुछ लकीरें खींचता रहा।
वेदांशी ने भौंहें उठाईं —
“तो क्या चाह रहे हो, लाल कालीन बिछा दूँ तुम्हारे लिए?”
सभी बच्चे फिर हँस पड़े।
पृथ्वी थोड़ी देर तक कुछ बोल नहीं पाया, पर फिर अचानक बोला —" वेदांशी! तू नहीं थी तो क्लास बड़ा शांत था… बस एक बंदा था जो तेरा नाम सुनते ही पागल सा हो जाता था…”
वेदांशी की हँसी आधी रुकी, आधी फिसली।
“बंदा?” — उसने आँखें सिकोड़ते हुए कहा।
“कौन बंदा?”
पृथ्वी ने नाटकीय अंदाज़ में इधर-उधर देखा और फिर इशारा किया —
सीधे उस बेंच की तरफ़, जहाँ अथर्व बैठा था।
क्लास में ओओओ! की आवाज़ गूँज उठी।
अथर्व ने धीरे से सिर उठाया, तो देखा कि सबकी नज़रे बाद उसी पर है।वो बस चुप ही बैठा रहा।
वेदांशी की नजरे भी अथर्व पर चली गई थी।
वो उम्मीद कर रही थी कि शायद वो कुछ कहेगा — कुछ बोलेगा, कुछ सफाई देगा —
पर वो बस शांति से बैठा, अपनी कॉपी पर उँगलियाँ फेरता रहा।
कंटिन्यू....
ब्रेक टाइम…
क्लास खाली होते ही बच्चे बाहर भाग गए।
अथर्व ने धीरे से अपनी कॉपी बंद की, बैग की चेन चढ़ाई और बिना किसी की तरफ़ देखे उठकर दरवाज़े की ओर बढ़ गया।
वो बस क्लास से बाहर निकल ही रहा था कि—
ठक!
दरवाज़े पर कोई खड़ा था।
अथर्व की चाल रुक गई।
उसने ऊपर देखा—
वेदांशी दोनों हाथ बांधकर, पूरा रौब लेकर, दरवाज़े के बिल्कुल सेंटर में खड़ी।
चेहरे पर हल्का-सा गुस्सा… और आँखों में वो चमक जिसे देखकर अथर्व का गला सूख गया।
अथर्व एक सेकंड के लिए रुक गया…
और उसी पल—
धक-धक। धक-धक।
उसके दिल की धड़कन तेज़ हो चुकी थी।
वो थोड़ा पीछे हुआ, रास्ता निकालने की कोशिश की—
लेकिन वेदांशी ने फिर एक कदम आगे बढ़कर उसका रास्ता पूरी तरह रोक दिया।
“कहाँ जा रहे हो?” — वेदांशी ने भौंहें उठाईं।
अथर्व ने धीरे से पलकें झपकाईं, नज़रें नीचे कर लीं।
“…ब्रेक है… बाहर…”
वेदांशी ने हाथ खोलकर कमर पर रखे, चेहरा उसके बिल्कुल सामने ले जाकर कहा—
“बाहर?
इतना भाग क्यों रहे हो मुझसे?”
अथर्व ने होंठ भींच लिए।
उसने फिर रास्ता बनाने की कोशिश की, पर वेदांशी ने हाथ फैलाकर उसे फिर रोक दिया।
“थोड़ा रुक जाओ, बात करनी है तुमसे।”
अथर्व के कदम वहीं जम गए।
उसने धीरे से कहा—
“क… किस बारे में?”
वेदांशी ने गर्दन तिरछी करके उसे देखा—
“किस बारे में?
ये तो तुमसे बेहतर कोई नहीं जानता, अथर्व अवस्थी।”
अथर्व की साँस अटक गई।
उसने घबराते हुए इधर-उधर देखा—
कॉरिडोर में कुछ बच्चे जा रहे थे, कुछ खड़े होकर उन्हें देख रहे थे।
वेदांशी और करीब गई।
"मुझे… बस सच जानना है।”
अथर्व की धड़कन फिर तेज़ हो गई।
“कौन-सा… सच?”
वेदांशी ने उसकी आँखों में आँखें डालकर कहा—
“वही सच…
जो सारी क्लास बोल रही है…
जो पृथ्वी बोल रहा है…
जो अहाना-कशिश कह रही थीं…”
अथर्व ने गहरी साँस ली… हल्का-सा पीछे हटने की कोशिश की…
लेकिन वेदांशी ने उसके कॉलर को पकड़ लिया।
हाँ, कॉलर।
वो भी हल्के से।
पर इतना कि अथर्व के दिल ने उलटी छलाँग मार दी।
“अथर्व…
क्या तुम सच में… मुझे पसंद करते हो?”
कॉरिडोर की आवाज़ें जैसे एक पल को गायब हो गईं।
अथर्व का चेहरा एकदम लाल।
होंठ काँपे…
गला सूख गया…
और उसने हल्का-सा सिर झुकाते हुए कहा—
“वेदांशी… मैं—”
वेदांशी ने आँखें सिकोड़कर कहा—
“हाँ?
बोलो।
सच-सच बोलो।”
अथर्व ने उसकी तरफ़ देखा…
जैसे हिम्मत जुटा रहा हो…
उसके होंठ खुले—
“मैं… शायद…”
वेदांशी ने तुरंत कहा—
“शायद?
या पक्का?”
अथर्व की नज़रें उसकी आँखों में अटक गईं…
दिल की धड़कन इतनी तेज़ कि वो खुद सुन सकता था।
उसे लगा, अगर वो अभी भी कुछ न बोला…
तो शायद ये पल फिर कभी न मिले।
एक लंबी साँस लेते हुए—
अथर्व ने धीरे-धीरे कहा—
“पक्का…”
वेदांशी एक पल को सन्न।
उसकी उँगलियाँ कॉलर पर से ढीली हो गईं।
उसका दिल भी एक सेकंड के लिए रुका…
उसने खुद को संभालते हुए कहा—
“मतलब… तुम सच में मुझे—”
अथर्व ने बहुत हल्के से सिर हिलाया।
वेदांशी की साँस अटक गई।
और इससे पहले कि वो कुछ कहती—
पृथ्वी दूर से चिल्लाया—
“ओएओए!
अथर्व-वेदांशी!
ये ब्रेक में कॉरिडोर में रोमांस हो रहा है क्या?!”
वेदांशी ने झट से हाथ छोड़ दिया।
अथर्व पीछे हट गया।
वेदांशी ने पृथ्वी को घूरते हुए चिल्लाया—
“तेरी तो—!!”
पृथ्वी भाग गया।
और पीछे खड़े बच्चे कान दबाते हुए हँसते हुए हट गए।
अब कॉरिडोर खाली था…
बस वेदांशी और अथर्व ही थे वहां।
अथर्व का चेहरा… हल्का गुलाबी हो चुका था।
वेदांशी उसके सामने खड़ी थी।
उसकी साँसें तेज़, चेहरा लाल… पर गुस्से वाला लाल नहीं…
अजीब-सा, काँपता हुआ… जो वो खुद भी समझ नहीं पा रही थी।
अथर्व ने हिम्मत करते हुए धीरे से कहा—
“वेदांशी… प्लीज़… अभी जो मैंने कहा… वो मज़ाक नहीं था।
मैं सच में—”
वेदांशी ने अचानक अपनी आँखें बड़ी कीं।
उसने झट से अपना हाथ बढ़ाया और—
चटाक्क्क!!
अथर्व का सिर एक तरफ़ झटका खा गया।
गाल गुलाबी से सीधा सुर्ख हो गया।
कॉरिडोर की हवा तक थम गई।
अथर्व ने चुपचाप अपना गाल पकड़ा…
आँखें फटी हुईं…
वो कुछ समझ ही नहीं पाया कि अभी हुआ क्या है।
वेदांशी भी कुछ सेकंड के लिए शॉक में थी।
उसके हाथ खुद काँप रहे थे।
वो चिल्लाई नहीं…
बस करीब आकर, दाँत भींचकर बोली—
“ये सब… ये सब तुम्हारे वजह से हुआ है!
पूरी क्लास—
पूरी क्लास मुझे छेड़ रही थी…”
अथर्व घबराकर बोला—
“वेदांशी… मैंने किसी को कुछ नहीं बताया… मैने कभी—”
वेदांशी उसे उंगली दिखाते बोली—
“एक और शब्द बोला न… फिर दूसरा भी खा लोगे!”
अथर्व तुरंत चुप।
वेदांशी एक पल चुप रही…
फिर सिर नीचे कर फुसफुसाई—
“मुझे बताना था तो सीधा बताते…
ये अफवाहें फैलाने का क्या मतलब था?”
अथर्व चौंका— “अ… अफवाहें?
वेदांशी, मैंने नहीं—”
वेदांशी ने फिर उसका कॉलर पकड़ लिया—
“मत बोलो!
किसी ने मुझे बताया कि तुमने खुद कहा था कि तुम मुझे पसंद करते हो!”
अथर्व के चेहरे पर आश्चर्य उभरा—
“मैंने…?
मैंने कब—”
वो बोल पाता उससे पहले—
वेदांशी ने गुस्से में आँखें घुमाई, साँस भारी लेते हुए बोली—
“चुप!
अभी के अभी चुप!”
अथर्व ने दोनों होंठ भींच लिए।
एक सेकंड… दो सेकंड… तीन…
और फिर अचानक—
वेदांशी की उँगलियाँ उसकी कॉलर की पकड़ पर से ढीली पड़ गईं।
उसका गुस्सा… धीरे-धीरे पिघलने लगा।
उसने लंबी साँस ली…
“अथर्व…”
अथर्व ने धीरे से उसे देखा।
“तुमने सच में… सच में ये सब कहा?” वो बोली।
अथर्व ने बहुत ही धीमी आवाज़ में कहा—
“हाँ…
सच में।”
वेदांशी की आँखें उसकी आँखों पर टिक गईं।
उसका गुस्सा जैसे पिघलकर कहीं हवा में उड़ गया।
वो धीमे से बोली—
“पागल…”
अथर्व को लगा अब शायद वो फिर मारेगी।
उसने हल्का-सा सिर पीछे कर लिया, जैसे पहले से तैयारी कर ली हो।
पर…
वेदांशी ने सिर्फ एक कदम पास जाकर उसके गाल की लाल प्रिंट को देखा—
और धीरे से बोली—
“जोर से तो नहीं लगा?”
अथर्व एकदम हक्का-बक्का।
“…न-न-नहीं…”
(जबकि लगा ज़रूर था)
वेदांशी अपने होंठ काटते हुए बोली—
“अच्छा है।
अगली बार और जोर से मारूँगी।”
अथर्व — “अगली बार??”
वेदांशी ने आँखें तरेरी— “हाँ!
अगर फिर कोई अफवाह उड़ती मिली न…
तो !”
अथर्व ने तुरंत सिर हिलाया—
“नहीं! नहीं! कसम! मैं कुछ नहीं कहूँगा!”
वेदांशी हँस पड़ी।
पर फिर उसके चेहरे पर वो पुराना वाला एटीट्यूड आ गया।
वेदांशी उसके बेहद… बेहद करीब आई।
इतनी करीब कि अथर्व को उसकी साँस अपने चेहरे पर महसूस हो रही थी।
उसने कॉलर छोड़ दिया था, लेकिन उसकी उँगलियाँ अब भी हवा में काँप रहीं थीं… जैसे वो खुद को रोक रही हो कि कहीं फिर पकड़ न ले।
वेदांशी ने उसकी आँखों में देखते हुए, धीमे… मगर रौब में कहा—
“और सुनो…”
अथर्व का दिल धक-धक-धक।
“ह… हाँ?” — वो बोला।
वेदांशी ने कहा—
“आज के बाद…
अगर किसी ने भी मेरे बारे में कुछ बोला न…”
वो ज़रा पीछे हटी…
अपने दाएँ हाथ से उसका ही गाल हल्का-सा पकड़कर बोली—
“…तो तुम्हें मै छोडूंगी नहीं । समझे?”
अथर्व ने घबराकर सिर हिलाया—
“समझ गया… समझ गया।”
वेदांशी ने पलकें झपकाईं…
वो मुस्कुराई नहीं,
लेकिन आँखें जरूर मुस्कुरा रहीं थीं।
“और एक बात,” — वो बोली।
अथर्व ने फिर साँस रोक ली— “क-कौन-सी?”
वो धीरे से बोली—
“जो तुमने कहा न…”
अथर्व का गला सूख गया—
“क-क्या?”
वेदांशी ने उसकी आँखों में आँखें डालकर कहा—
“‘पक्का’ वाला जो कहा…”
अथर्व की साँस अटक गई।
वेदांशी एक पल रुकी…
फिर हल्के से मुस्कुराई
और बोली—
“उसका हिसाब…
मैं बाद में लूँगी।”
अथर्व ने सांस रोक ली।
उसने सोचा था कि शायद ये डाँट है… या धमकी…
लेकिन वेदांशी की आवाज़ में कुछ और ही था—
कुछ अजीब-सा…
कुछ ऐसा, जिससे उसकी रीढ़ तक सिहर गई।
वो सीधी हुई, फिर उसकी शर्ट की कॉलर ठीक करते हुए बोली—“अब जाओ।
ब्रेक खत्म होने वाला है।”
अथर्व ने चौंककर कहा—
“तुम? तुम नहीं चल रही?”
वेदांशी ने बालों को झटका—
“मैं?
मैं तो जा रही हूँ… लेकिन…”
वो उसकी तरफ झुककर आँखें सिकोड़ते बोली—
“क्लास में आकर अपने एक्सप्रेशन्स छुपा लेना।
वरना सबको पता चल जाएगा कि तुम किससे पिटकर आए हो।”
अथर्व शर्म से जमीन देखने लगा।
“मैं… मैं छुपा लूँगा।”
वेदांशी ने मुस्कुराते हुए कहा—
“अच्छा।”
वो मुड़ी… दो कदम चली…
फिर रुकी।
पीछे मुड़कर बोली—
“और हाँ, अथर्व…”
अथर्व ने धीरे से सिर उठाया…
नज़रें फिर मिलीं,उसकी आँखों में उतनी ही बेचैनी… उतना ही डर… और उतनी ही उम्मीद थी।
वेदांशी ने उसी धीमी, मीठी पर एटीट्यूड वाली आवाज़ में कहा—“अगली बार…”
अथर्व की उंगलियाँ सहमकर उसकी शर्ट पकड़ने लगीं—
“अगली बार क्या…?”
वेदांशी ने मुस्कान दबाते हुए कहा—
“अगली बार ऐसे ‘शायद’ बोलते न…”
वो अचानक पास आई और उसकी गर्दन के पास झुककर फुसफुसाई—
“…तो मैं थप्पड़ नहीं, कुछ और करूँगी।”
अथर्व की आँखें फट गईं।
चेहरा लाल से चटख गुलाबी हो गया।
कान गर्म।
“…क-क्या मतलब?”
उसकी आवाज़ काँप गई।
वेदांशी पीछे हट गई।
उसी अंदाज़ में भौंह उठाकर बोली—
“मतलब…
तुम्हें खुद पता चल जाएगा।”
अथर्व — “वेदांशी… ये... ये क्या मतलब हो सकता है?”
वेदांशी ने हँसते हुए उसकी हालत देखी—
“आँखें मत फाड़ो।
कोई खतरनाक चीज़ नहीं करूँगी… शायद।”
अथर्व — “शायद?? फिर से??”
वेदांशी ने होंठ सिकोड़कर कहा—
“हाँ।
तुम्हारे ‘शायद’ का बदला।
इक्वल।”
अथर्व ने आह भरी—
“मुझे लग रहा है मैं मरने वाला हूँ…”
वेदांशी ने उंगली से उसके गाल की चोट को हल्के से छूकर कहा—
“इतनी आसानी से नहीं।
पहले हिसाब बराबर होगा।”
अथर्व — “कौन-सा हिसाब??”
वेदांशी मुस्कुराई।
“तुमने क्लियर कहा कि तुम मुझे…
पक्का पसंद करते हो।”
अथर्व की साँस थम गई।
वेदांशी बोली—
“उसका जवाब मैं अभी नहीं दूँगी।”
अथर्व — “क… क्यों?”
वेदांशी ने उंगली उसके होंठों के पास ले जाकर कहा—
“क्योंकि तुम्हें थोड़ी देर तक तड़पना चाहिए।”
अथर्व का दिल — धक!
वेदांशी ने ठुड्डी ऊपर की और एक आखिरी लाइन मारी—
“और हाँ…
क्लास में मेरी तरफ देखना मत।
वरना मैं भी मुस्कुरा दूँगी…
और फिर कंट्रोल मुझसे रहेगा नहीं।”
अथर्व तो वहीं जड़ हो गया।
वेदांशी घूमी…
धीरे-धीरे कॉरिडोर से आगे बढ़ने लगी।
अथर्व बस उसे जाता देखता रहा…
उसकी चाल…
उसकी शरारत…
उसके बालों की लहर…
सब कुछ जैसे स्लो मोशन में।
वो अचानक रुकी।
मुड़ी।
और बोली—
“और अगर वाकई मुझे इतना पसंद करते हो…”
अथर्व की धड़कन रुक गई।
वेदांशी ने आँखों में चमक भरकर कहा—
“…तो प्रूव करना पड़ेगा।”
अथर्व — “कैसे…?”
वेदांशी ने बस इतना कहा—
“देखेंगे।”
और फिर वो मुड़कर चली गई।
अथर्व वहीं खड़ा रहा—
दिल को पकड़े हुए,
गाल को सहलाते हुए,
और दिमाग में एक ही लाइन गूंजती हुई—
“प्रूव करना पड़ेगा…”
उसके पैरों में जैसे जान ही नहीं थी।
वो दीवार से टिककर धीरे से बोला—
“ये लड़की…
मुझे मार ही डालेगी…”
और वहाँ से धीरे-धीरे क्लास की ओर चल दिया—
वहीँ, जहाँ वेदांशी ने कहा था कि
“एक्सप्रेशन छुपा लेना…”
कंटिन्यू....
पूरे दिन…
हाँ, बिल्कुल पूरे दिन…
अथर्व बेचारे की हालत किसी स्टक सॉफ्टवेयर जैसी रही।
क्लास चल रही थी, टीचर पढ़ा रहे थे…
पर उसका दिमाग सिर्फ वही लाइन में अटका पड़ा था—
“प्रूव करना पड़ेगा…”
उसे खुद समझ नहीं आ रहा था कि इसका मतलब क्या है।
क्या करना पड़ेगा?
कैसे प्रूव करना है?
वो कब प्रूव करेगा??
और दूसरी—
“क्लास में मेरी तरफ देखना मत…”
समस्या ये थी…
वो देखने से खुद को रोकने की कोशिश करता—तब भी आँखें भागकर वही पहुँच जातीं।
और सबसे बुरा?
वेदांशी एकदम नार्मल थी।
कॉपी में लिख रही, टीचर के सवालों के जवाब दे रही,
दोस्तों से हँसकर बात कर रही…
पूरे दिन यही चलता रहा—
टीचर आते
लिखाते
स्टूडेंट्स शोर करते
पृथ्वी कमेंट मारता
अहाना-कशिश खुसुर-पुसुर करतीं।
पर वेदांशी?
एक बार…
एक बार भी अथर्व की तरफ नहीं मुड़ी।
ना तो वो गुस्सा दिखा रही थी,
ना ही मुस्कान,
ना ही एटीट्यूड…
जैसे वेदांशी अथर्व की एग्जिस्टेंस ही भूल गई हो।
अथर्व का दिल मायूस हो गया।
उसके दिमाग में सिर्फ वही फुसफुसाहट घूमती रही—
“…उसका हिसाब मैं बाद में लूँगी…”
“…तुम्हें तड़पाना चाहिए…”
“…प्रूव करना पड़ेगा…”
और बेचारा अथर्व…
पूरी ईमानदारी से तड़प रहा था।
छुट्टी की बेल बजते ही बच्चे ऐसे बाहर निकले जैसे किसी ने जेल का गेट खोल दिया हो।
आज वेदांशी ...वो हमेशा की तरह सबसे पहले निकल गई।
किसी से कुछ बोले बिना।
ना किसी तरफ देखे बिना।
अथर्व बस अपनी सीट पर बैठा रह गया।
बैग तो उसने उठा लिया था…
पर हाथों में पकड़ा ही रह गया।
दिल जैसे वहीं अटक गया था वेदांशी की बेंच पर।
वो धीरे-धीरे उठा…
और बिना आवाज़ किए
वेदांशी की खाली कुर्सी के पास जाकर खड़ा हो गया।
कुर्सी आधी पीछे खिसकी थी।
टेबल पर उसका पेन कैप गिरा हुआ था।
अथर्व की सांस अजीब-सी भारी लगी।
उसकी उंगलियाँ टेबल की लकड़ी पर धीरे से फिसलीं…
और दिमाग में वही शब्द घूम गए—
“प्रूव करना पड़ेगा…”
बहुत कुछ पूछना था उसे।
बहुत कुछ कहना था।
बहुत कुछ समझना था।
लेकिन वो…
सीधे निकल गई।
क्लास अब पूरी खाली थी।
और अथर्व अकेला…
उसकी सीट के सामने खड़ा था।
तभी—
दरवाज़े से एक सिर अंदर झाँका।
“ओए चल!”
अथर्व मुड़ा तो देखा आरव खड़ा था दरवाजे के पास।
उसका सबसे करीब दोस्त।
आरव ने भौंहें ऊपर उठाकर कहा—
“क्या कर रहा है अकेला?
किसी को घूर रहा था क्या?”
अथर्व सकपका गया,
“नहीं… बस… निकल रहा था।”
आरव अंदर आया,
कंधे से बैग सरकाते हुए बोला—
“चुपचाप बैग उठाकर खड़ा है…
और मैं जानता हूँ तू किसकी सीट के पास खड़ा था।”
अथर्व ने नज़रें चुरा लीं।
“ज्यादा मत सोच।”
आरव हँसा—
“अच्छा?”
अथर्व उससे नजरे चुराते हुए दरवाज़े की तरफ बढ़ गया।
“चल न… घर चलते हैं।”
आरव उसके पीछे-पीछे चला।
“ठीक है, पर पहले ये बता—
वो जा क्यों इतनी जल्दी रही थी आज?”
अथर्व कुछ नहीं बोला बस अपने कदम तेज कर लिए।
उसने अपने कदम इतने तेज कर लिए थे कि आरव को दौड़ना पड़ा।
अथर्व तेज कदमों से जा ही रहा था कि
तभी…
कॉरिडोर से तेज़ कदमों की आवाज़ आई।
दोनों ने मुड़कर देखा।
अहाना और कशिश भागते हुए नीचे की सीढ़ियों की ओर जा रही थीं, और उनके पीछे—
वेदांशी।
उसके बाल हवा में उड़े हुए थे...हाथ में पानी की बॉटल पकड़े हुए ...चेहरा थोड़ा थका हुआ था।
वो तेज़ी से चलती हुई पास से निकली।
अथर्व की साँस फिर अटक गई।
वो एक सेकंड को थम गया।
वेदांशी ने इस बार भी उसकी तरफ़ नहीं देखा।
वो बस सीधे निकल गई।
आरव हँस पड़ा—
“देख लिया?कैसे इग्नोर करके गई है!”
अथर्व बस चुप।
उसका गला जैसे अपने आप भारी हो गया।
वो बस वेदांशी को दूर जाते देखता रहा।
वो सीढ़ियों से नीचे गई…
फिर कॉरिडोर मुड़ते-मुड़ते
अचानक…
एक पल के लिए रुकी।
अथर्व की साँस रुक गई।
वो मुड़ी।
एक सेकंड।
बस एक सेकंड।
उसकी नज़रें अथर्व की नज़रों से मिलीं।
और…
वो हल्का-सा मुस्कुराई।
बहुत हल्का।
इतना हल्का कि आरव को दिखा भी नहीं।
अथर्व वहीं जम गया जैसे किसी ने पूरा सिस्टम फ्रीज़ कर दिया हो।
लेकिन अगले ही पल—
वेदांशी ने चेहरा तुरंत मोड़ लिया
और सीधी बाहर निकल गई।
अथर्व अभी भी उसी जगह खड़ा था।
दिल अजीब-सी धड़कनों में उलझा हुआ।
आरव उसे घूरता रह गया—
“ये क्या था? जम क्यों गया था तू?”
अथर्व बस हल्का-सा, बेबस-सा मुस्कुराया।
“कुछ नहीं…”
“कुछ नहीं?”
आरव ने उसकी बांह को पकड़कर खींचा।
“इतने प्यार से घूर रहा था तू उसे जैसे वो रुककर तेरे हाथ पकड़ने वाली हो!”
अथर्व ने लंबी साँस ली,
फिर सीढ़ियों की तरफ बढ़ गया।
“चल… निकले।”
दोनों नीचे उतर रहे थे कि आरव अचानक बोला—
“वैसे एक बात बता…”
अथर्व ने बिना देखे कहा—
“क्या?”
आरव ने भौंहें सिकोड़कर पूछ लिया—
“ये वेदांशी तो जल्दी चली गई थी ना?
फिर ये हमारे बाद कैसे निकली?”
अथर्व ने कदम रोक दिए।
उसके दिमाग में अचानक वही इकलौती शक की लाइन आई।
वो धीरे से बोला—
“शायद… वो प्रिंसिपल ऑफिस गई थी।”
आरव चौंक गया—
“क्यों??”
अथर्व ने एक पल सोचा,
फिर चलते हुए बोला—
“शायद....! सस्पेंशन के बाद की पहली क्लास है न उसकी…
तो कोई फॉर्मैलिटी, साइन… पता नहीं।”
आरव ने “ओह…” कहकर सिर हिलाया।
“सही है। सस्पेंडेड बच्चों को तो पहले दिन बुलाया जाता है ऑफिस में फॉर्मेलिटी पूरी करने।”
अथर्व बाहर गेट की तरफ बढ़ गया।
पर उसके दिमाग में सिर्फ एक पिक्चर चल रही थी—
वेदांशी का पीछे मुड़ना।
वो एक सेकंड।
वो एक नजर।
और… वो हल्की-सी मुस्कान।
कुछ देर बाद....
अथर्व अपने घर पहुँचा तो गेट खुलते ही उसे अजीब-सी बेचैनी महसूस हुई।
दिमाग में अभी भी वही एक सेकंड वाली मुस्कान घूम रही थी…
उसे लग रहा था जैसे उसके पूरे दिन की भारी साँसें अब जाकर हल्की हुई हों।
जैसे ही उसने जूते उतारे, वो बिना इधर-उधर देखे, सीधे अपने कमरे की ओर निकल गया।
वो नहीं चाहता था कि किसी से बात करे।
ना माँ से,
ना पापा से…
खासकर पापा से, जिनसे उसका रिश्ता हमेशा से थोड़ा कड़वा–थोड़ा दूर वाला रहा था।
लेकिन किस्मत को आज भी मज़ाक करना था—
अभी वो सीढ़ी चढ़ने ही वाला था कि—
“अथर्व!”
पापा की भारी आवाज़ ने उसका कदम वहीं जड़ कर दिया।
वो धीरे से रुका।
दिल में वही पुराना-सा डर, वही असहजता उभर आई।
धीरे से मुड़कर देखा—
पापा हॉल में सोफे पर बैठे थे।
ऑफिस की शर्ट अभी भी पहनी हुई,
चेहरा हमेशा की तरह सख़्त, और बिना मुस्कान वाला लिए ।
“हाँ… पापा?”
अथर्व की आवाज़ हल्की-सी काँप गई।
पापा ने भौंहें सिकोड़ लीं,
“इतनी लेट कैसे आया? क्लास के बाद कही गया था क्या?”
अथर्व ने होंठ भींचे।
“नहीं… नहीं पापा… छुट्टी के बाद सीधा आ गया।”
पापा ने उसकी आँखों में झाँककर देखा—
वो ऐसी निगाह थी जिससे अथर्व हमेशा असहज हो जाता था,
जैसे हर बात पर सवाल,
हर हरकत पर शक।
“बिना नमस्ते किए ऐसे ही कमरे में घुस रहा था?”
पापा ने सीधी निगाह से पूछा।
अथर्व का गला सूख गया।
“सॉरी… नमस्ते पापा।”
पापा ने बस हल्का-सा सिर हिलाया,
पर वो सख़्ती वही की वही रही।
“स्कूल में कुछ हुआ क्या?”
पापा ने अचानक सवाल दाग दिया।
अथर्व ने पलकें झपकाईं।
एक पल के लिए वेदांशी का चेहरा सामने आया—
उसकी आँखें, उसकी हँसी, और उसकी वो हल्की मुस्कान…
फिर पापा की आवाज़ ने दिवास्वप्न तोड़ दिया।
“पूछ रहा हूँ, कुछ हुआ क्या?”
अथर्व जल्दी से बोला—
“नहीं पापा… सब ठीक है।”
पापा ने चाय का कप उठाया,
एक लंबा घूंट भरा,
और सीधे बोले—
“अथर्व, देख… तुम्हारी पढ़ाई पर बहुत असर पड़ रहा है।
मैंने नोटिस किया है—
तू आजकल बहुत परेशान-परेशान रहता है।"
अथर्व ने आँखें नीचे कर लीं।
दिल में चुभन-सी उठी।
परेशान तो हूँ… लेकिन वजह आप कभी समझोगे नहीं…
पापा ने आगे कहा—
“किसी लड़के से झगड़ा हुआ?
या… किसी लड़की की वजह से ध्यान भटक रहा है?”
अथर्व का दिल एकदम ऊपर-नीचे होने लगा।
लड़की की वजह से?
अगर पापा को एक सेकंड के लिए भी वेदांशी का नाम पता चल गया,
तो… बस युद्ध छिड़ जाएगा…
उसने तुरंत कहा—
“नहीं पापा! ऐस—ऐसा कुछ भी नहीं है।”
पापा की आँखें संदेह से सिकुड़ गईं।
“पक्का?”
“हाँ पापा। बस… थोड़ा थक गया हूँ।”
एक पल की खामोशी हुई।
पापा ने फिर कहा—
“ठीक है… जा।
कमरे में जा, पढ़ाई कर।
12th के बच्चे हैं तुम।
पूरा ध्यान दिया करो अपनी लाइफ पर।”
अथर्व ने हल्का-सा सिर हिलाया।
“जी।”
वो मुड़कर अपने रूम की तरफ बढ़ गया।
वहीं दूसरी तरफ.....
वेदांशी जैसे ही घर पहुँची, उसके कदम वैसे ही हल्के थे जैसे पूरे दिन किसी ने उसके दिल में चुपके से गुलाब की पंखुड़ियाँ भर दी हों।
वो सीढ़ियाँ दो-दो करके चढ़ी…
और अपने रूम का दरवाज़ा—
धड़ाम!
खोलकर ऐसे घुसी जैसे किसी ने उसके पीछे स्पीकर पर "हुआ है आज पहली बार" बजा रखा हो।
रूम में घुसते ही उसने बैग बेड पर फेंका,
जूते को पैरों से झटका,
और खुद घूम-घूमकर हवा में हाथ घुमाने लगी।
वो… मुस्कुरा रही थी।
बिना वजह के।
उसके गाल थोड़े लाल थे,
बाल थोड़ा बिखरे,
और आँखों में…
अजीब-सी चमक थी।
खुश थी?
हाँ।
बहुत खुश थी।
पर वजह?
वो खुद भी स्वीकार नहीं कर रही थी।
बेड पर बैठते ही उसने तकिया उठाया—
और चेहरे पर रखकर हल्के से चीखी,
“उफ़्फ्फ्फ्फ् क्या है ये!!”
फिर झट से सिर बाहर निकाला।
चेहरा पूरा लाल, मुस्कान कानों तक—
“क्या हो रहा है मुझे???”
उसका दिमाग वही एक सेकंड में अटका था—
वो एक सेकंड
जब उसने पीछे मुड़कर अथर्व को देखा था।
और वो एक हल्की-सी… बहुत हल्की-सी मुस्कान।
वो फिर हँस पड़ी।
“पागल है ये लड़का… बिलकुल पागल…”
वो उठकर आईने के सामने खड़ी हुई।
अपने चेहरे को देखती रही—
“मैं क्यों हँस रही हूँ?
क्यों अच्छा लग रहा है?
क्यों… ये सब ठीक लग रहा है?”
उसके सिर में जैसे दो छोटे-छोटे कैरेक्टर लड़ रहे थे—
एक बहुत एटीट्यूड वाला:
“वजह? वजह कुछ नहीं! कोई पसंद-वसंद नहीं!”
दूसरा बहुत ईमानदार वाला:
“बस अच्छा लगा… क्योंकि वो… वो… अच्छा है।”
वेदांशी ने खुद की नाक पकड़ ली।
“मैं पागल हो रही हूँ क्या??
मुझे क्यों लग रहा है कि…
कोई मुझे पसंद करता है और…”
उसकी मुस्कान खुद-ब-खुद गहरी हो गई।
“…और वो कोई, कोई और नहीं…
अथर्व है।”
उसका दिल “ठक” से उछला।
वो बेड पर वापस बैठ गई, पैर ऊपर खींचकर।
तकिया गले लगा लिया।
10th की याद उसके दिमाग में आई—
जब पहली बार उसे पता चला था कि क्लास में एक लड़का है जिसका नाम “अथर्व” है।
जो हमेशा चुप रहता था।
हमेशा अपनी ही दुनिया में।
हमेशा थोड़ी दूरी पर।
“10th में मुझे सिर्फ नाम पता था…”
उसने खुद से कहा, जैसे कोई कन्फेशन चल रहा हो।
“और अब…
अब मुझे पता है कि वो…
वो मुझे देखता है।
ध्यान देता है।
मेरे मूड्स समझता है।
और… चुपचाप मुझे पसंद भी करता है।”
उसने खुद को चिढ़ाया—
“बस बस बस! वेदांशी संभल.
तू उसे पसंद नहीं करती—
बस… बस… अच्छा लगता है।
थोड़ा।
बहुत थोड़ा।
बहुत–बहुत—सा थोड़ा!”
पर अगला ही पल वो खुद पर हँस पड़ी।
खिड़की की तरफ गई, पर्दा हटाया, बाहर देखा—
आसमान वैसे ही था,
हवा वैसे ही थी,
सब कुछ रोज जैसा ही था।
लेकिन उसके अंदर कुछ बदल चुका था।
और वो इसे मान नहीं रही थी।
पर मुस्कान?
वो कह रही थी—
"हाँ…
तुझे अच्छा लगा।
बहुत अच्छा।”
वेदांशी अभी भी खिड़की के पास खड़ी थी।
पर्दा उसके हाथों में था… और दिल उसकी धड़कनों में उलझा हुआ।
हवा उसके बालों में अटककर जैसे कुछ फुसफुसा रही थी—
कुछ ऐसा, जो वो सुनना तो नहीं चाहती थी…
पर सुन चुकी थी।
कंटिन्यू.....
अगले दिन सुबह…
बारिश का महीना अपना पूरा रौब दिखा रहा था।
सुबह-सुबह ही आसमान बादलों से भरा हुआ था—
हल्की-हल्की बूंदें गिर रही थीं,
कभी रुकतीं,
कभी अचानक तेज़ हो जातीं।
क्लास में…
अहाना और कशिश पहले से मौजूद थीं।
पर वेदांशी?
वो खिड़की के पास खड़ी थी।
हल्की बरसती बारिश काँच पर बह रही थी,
और उसकी उंगलियाँ काँच पर छोटे-छोटे गोल बना रही थीं,
जैसे कुछ सोच रही हो…
या… किसी का इंतज़ार।
उसके बाल बारिश की नमी से थोड़े फूले हुए थे।
वो एकदम खोई हुई लग रही थी—
पर उसकी आँखें बार-बार दरवाज़े की तरफ उठ रही थीं।
और तभी—
अथर्व क्लास में दाखिल हुआ।
वेदांशी की उंगलियाँ काँच पर रुक गईं।
वो अनायास ही पलटी…
और उसकी नज़र सीधा अथर्व पर जा अटकी।
वो भी उसे देख रुक गया।
वेदांशी की आँखों में एक सेकंड के लिए वही कल वाली चमक आ गई—
पर अगले ही पल उसने खुद को संभाल लिया,
और चेहरा थोड़ी नाराज़गी वाले एटीट्यूड में मोड़ लिया।
अहाना ने कान में कहा—
“आज तो कुछ झलक आया इसके चेहरे पे!”
कशिश दबे हँसी—
“लगता है रात भर नहीं सोई!”
अथर्व अपनी सीट पर गया।
बैठा।
पेन निकाला।
पर हाथ काँप रहा था थोड़ा।
उसकी आँखें फिर एक बार वेदांशी तक गईं और वो भी चुपके से।
तभी… टीचर आए।
केमिस्ट्री टीचर, पांडे सर....
बारिश हो, तूफान हो उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता था।
“स्टूडेंट्स!”
वे जोर से बोले,
“आज हम सरप्राइज़ टेस्ट लेंगे।”
क्लास एकदम हिली।
“अरे क्या सर!”
“अभी तो बारिश में आए हैं हम!”
“हमारे बैग भी भीगे हुए हैं!”
पांडे सर ने हाथ उठाया—
“चुप्प्प्प!
बहाने नहीं!
12th के छात्रों को हर समय तैयार रहना चाहिए।
टेस्ट होगा— और अभी होगा!”
कशिश ने सिर पकड़ा।
अहाना ने आह भरी।
अथर्व ने पेन और मजबूती से पकड़ लिया।
जैसे ही पांडे सर ने पेपर बांटने शुरू किए,
पृथ्वी अचानक कुर्सी से ऐसे उछला जैसे पीछे से किसी ने करंट दे दिया हो।
“सर, मैं कर दूँ पेपर डिस्ट्रिब्यूट!”
उसने इतना जोर से कहा कि आधी क्लास चौंक गई।
पांडे सर ने उसे देखते हुए कहा—
“हाँ-हाँ, तू कर दे।
वैसे भी तेरी एनर्जी टेस्ट वाले दिन ही दिखती है।”
पृथ्वी गर्व से कंधे उचकाते हुए आगे बढ़ा।
जैसे कोई सैनिक जंग के मैदान में जा रहा हो।
बच्चे खुसुर-पुसुर करने लगे—
“लो, आ गया आज का टीचर नंबर 2…”
“अब शुरू होगी इसकी जासूसी।”
“देख लेना, पेपर देते-देते दस लोगों को टोक देगा!”
पृथ्वी ने पेपर बाँटना शुरू किया—
पर पेपर बाँटने से ज्यादा,
सच में वो लोगों को टोकने में व्यस्त था।
“ऐ, तू हँस क्यों रहा है? टेस्ट है ये!”
“रिंकी, केमिस्ट्री की नोटबुक अंदर रख… मैं देख रहा हूँ सब।”
क्लास में हल्की हँसी फैल गई,
पर पृथ्वी को तो जैसे आज अपने असिस्टेंट-टीचर वाले रोल में ही मज़ा आ रहा था।
पेपर वेदांशी के पास पहुँचा।
वेदांशी ने बिना ऊपर देखे ले लिया।
पृथ्वी ने उसके पेपर पर नज़र डाली और बोला—
“तैयार हो?
पिछली बार तो तुझे कुछ नहीं आया था… आज देखेंगे।”
वेदांशी ने बस मुंह मोड़ लिया उससे।
पृथ्वी जैसे ही अथर्व की डेस्क तक पहुँचा…
उसका चेहरा वैसे ही खिल गया जैसे उसे कोई मौका मिल गया हो मज़ाक उड़ाने का।
पेपर आगे बढ़ाते हुए उसने ऊँची आवाज़ में कहा—
“तोओओ… श्रीमान चुप्पे बादशाह!”
“पढ़ कर आए भी हो आज? या फिर हमेशा की तरह किस्मत-भरोसे बैठे हो?”
क्लास की आधी नज़रें तुरंत उनकी तरफ उठ गईं।
अथर्व ने बिना कुछ बोले पेपर पकड़ लिया।
हल्की सी गर्दन नीचे कर ली—
जैसे वो किसी झगड़े में पड़ना ही नहीं चाहता।
पर पृथ्वी को तो बस आज मौका चाहिए था।
वो और पास झुक कर बोला—
“देख, अगर मुश्किल लगे तो बता देना…
मैं पांडे सर को बोल दूँ कि तुम्हारे लिए एग्ज़ाम आसान वाला दे दें।”
उसने हँसकर अपनी ही बात पर ताली बजा दी।
पीछे से कुछ लड़के भी दो सेकंड के लिए खिलखिला दिए।
अथर्व की उँगलियाँ पेन पर कस गईं।
उसने धीरे से कहा,
“पृथ्वी… प्लीज़। टेस्ट शुरू होने दे।”
पृथ्वी ने जैसे सुना ही नहीं।
“अरे यार, मैं तो बस पूछ रहा हूँ…"
तभी।
पांडे सर की भारी, गूँजती हुई आवाज़ आई—
“पृथ्वी!
यह क्या तमाशा लगा रखा है तुमने?”
पृथ्वी की हँसी वहीं अटक गई।
पांडे सर गुस्से में उसकी तरफ बढ़े।
“पेपर बाँटने भेजा था तुम्हें,
ड्रामा करने नहीं।
टेस्ट हो रहा है टेस्ट!समझे?”
पृथ्वी की गर्दन धीरे-धीरे नीचे गिर गई।
“अब चुपचाप जाओ और अपनी सीट पर बैठो,”
पांडे सर ने सख़्ती से कहा।
पृथ्वी मुंह बनाते हुए अपनी सीट की तरफ जाने लगा तभी—
पांडे सर ने फिर आवाज दी—
“और एक बात,
अगर एक शब्द भी किसी को परेशान करते सुना ना…
मैं तुम्हें बाहर खड़ा कर दूँगा। समझे?”
इस बार पृथ्वी “हाँ सर…” वाली आज्ञाकारी आवाज़ में सिर झुकाया
और अपनी सीट पर जाकर बैठ गया।
क्लास में हल्की दबी मुस्कानें फैल गईं।
अथर्व ने धीरे से साँस छोड़ी।
उसके कंधे थोड़ा ढीले हुए।
और वेदांशी?
उसकी आँखें एक पल को बस अथर्व पर ही अटकी रहीं—
जैसे चुपचाप पूछ रही हों…
“ठीक हो?”
अथर्व ने बहुत हल्के से—
बस एक पल के लिए—
पलकें उठाकर उसकी तरफ देखा।
वो छोटी सी नज़र, वेदांशी के दिल में बिजली की तरह लगी।
फिर उसने तुरंत नजरें फेर लीं
और पेन उठा लिया।
पांडे सर बोले—
“सब लोग!
अब टेस्ट शुरू !”
टेस्ट खत्म हुआ।
पांडे सर क्लास से बाहर निकल गए।
पांडे सर के जाने के बाद अहाना ने अपनी कमर को पकड़कर स्ट्रेच किया—
“उफ्फ्फ्फ़… ये सरप्राइज़ टेस्ट ना… सीधा हार्ट अटैक देते हैं!”
कशिश ने हँसते हुए कहा—
“और पृथ्वी!
आज तो उसकी हालत देखनी बनती थी!
इतना चुप वो कब रहा है लाइफ में?”
वेदांशी ने भी सहमति से सिर हिला दिया।
तभी....
“चलो फिज़िक्स लैब!”
फिज़िक्स टीचर मिश्रा सर लम्बी आवाज़ में बोले,
“रोल नंबर्स के हिसाब से नीचे लैब में आ जाओ!
आज प्रैक्टिकल करेंगे, देर मत करो अब!”
सभी बच्चे सीढ़ियों की तरफ भागने लगे।
अहाना और कशिश आगे बढ़ गईं।
वेदांशी भी उनके पीछे…
लेकिन उसकी चाल थोड़ी धीमी थी।
अथर्व सबसे पीछे चल रहा था।
उसके मन में बस एक ही चीज़ घूम रही थी—
वेदांशी ने आज उसे जिस तरह देखा… क्या वो सच में उसके लिए परेशान थी?
फिज़िक्स लैब में....
लैब में मेज़ों पर उपकरण पहले से रखे थे—
रेजिस्टेंस बॉक्स, बैटरी, गैल्वेनोमीटर, स्लाइड वायर ब्रिज…
मिश्रा सर बोले—
“आज का एक्सपेरिमेंट है—
ओहम्स लॉ वेरिफिकेशन। दो-दो के ग्रुप में बट जाओ सब!”
बस…
और यहाँ से ही शुरू हुआ असली ड्रामा।
अहाना तुरंत कशिश के साथ खड़ी हो गई।
पृथ्वी ने अपने दो दोस्तों को पकड़ लिया—
“चलो-चलो मेरे साथ!”
उसे तो पता था कोई उसे खुद नहीं चुनेगा, तो इसीलिए वो खुद ही चुनने चला आया अपना पार्टनर ।
धीरे-धीरे सभी के पार्टनर बनते गए…
सिवाय दो लोगों के।
अथर्व
और
वेदांशी।
दोनों दो अलग दिशाओं में खड़े थे—
पर हवा ही कुछ ऐसी थी कि सबकी आँखें अब इन्हीं दोनों पर थीं।
अथर्व नीचे देख रहा था—
पेन से मेज़ खुरचते हुए…
वेदांशी का चेहरा शांत था,
पर उसके सीने में दिल थोड़ी रफ़्तार बढ़ाकर धड़क रहा था।
मिश्रा सर ने चश्मा ठीक करते हुए कहा—
“अरे? दो लोग अभी भी बिन पार्टनर के?”
क्लास की नज़रें और तीखी हो गईं।
अहाना ने कशिश को कोहनी मारी—
“हो गया! आज तो बोल-चाल पक्की!”
कशिश धीरे से फुसफुसाई—
“इन्हें साथ काम करते देखना… मज़ा आएगा।”
-
मिश्रा सर ने फैसला दिया…
“तो ठीक है,”
सर बोले,
“अथर्व और वेदांशी—
तुम दोनों एक ग्रुप।
टेबल नंबर 3।”
क्लास में हल्की “ओह्ह्हो…” टाइप आवाज़ें उठीं।
वेदांशी ने एकदम तेज़ नज़र उठाकर सबको घूरा
तो सब तुरंत चुप हो गए।
अथर्व धीरे से टेबल नंबर 3 की ओर चला।
वेदांशी भी दूसरी तरफ से उसी टेबल की ओर बढ़ी।
दोनों आमने-सामने खड़े हुए।
एक पल के लिए
बिना कुछ बोले
सिर्फ एक-दूसरे को देखा।
अथर्व ने हौले से कहा—
“…स्टार्ट करें?”
वेदांशी ने हल्की सी साँस ली—
“हाँ, करते हैं।”
उसके हाथ उपकरणों को सेट करने लगे—
पर उंगलियाँ आज ज़रा ज्यादा तेज़ चल रही थीं।
अथर्व भी थोड़ी दूरी बनाकर खड़ा था…
जैसे उसे डर था कि वो कुछ गलत न कह दे।
पर तभी—
वेदांशी ने उसकी तरफ देखा,
धीरे से बोली—
“क्लास में…
तुम ठीक थे न?”
अथर्व चौंका।
दिल एकदम जोर से धड़का।
उसने वेदांशी की आँखों में झाँका—
“ठीक तो…नहीं था…”
वो आगे बोलने लगा,“लेकिन तुम थीं वहाँ… इसलिए ठीक हो गया।”
वेदांशी ने तुरंत मुँह दूसरी तरफ कर लिया—
जैसे उसके गालों पर आती गरमी किसी को दिख न जाए।
उसने स्लाइड वायर ब्रिज के नॉब को यूँ ही बेवजह घुमाया,
हालाँकि उसे पता था वो पहले से सेट है।
अथर्व को समझ ही नहीं आया कि उसने इतना सीधा कैसे बोल दिया।
वो खुद भी थोड़ा हड़बड़ा गया,
और झट से गैल्वेनोमीटर की सुई पर नज़र गड़ाकर खड़ा हो गया—
जैसे बहुत बड़ा वैज्ञानिक बन गया हो।
वेदांशी ने खुद को सँभालते हुए कहा—
“फालतू की बातें मत करो…
पहले कनेक्शन देखो ठीक लगा है या नहीं।”
अथर्व ने हल्के से मुस्कुराते हुए कहा—
“हाँ, हाँ… कनेक्शन।”
वो तार जोड़ने लगा पर इतना नर्वस था कि
प्लग उल्टी साइड लगा दिया।
वेदांशी ने धीमे से, बिना ऊपर देखे कहा—
“उल्टा लगाया है।”
अथर्व ने झट से हाथ पीछे खींचा—
“ओह… हाँ…”
और फिर सीधा लगाया।
थोड़ी देर तक दोनों चुपचाप काम करते रहे।
गैल्वेनोमीटर की सुई धीरे-धीरे झूल रही थी।
अथर्व ने धैर्य से सुई को शून्य पर लाने की कोशिश की—
पर उसका हाथ काँप रहा था।
वेदांशी ने उसकी कलाई पर हल्की उँगली रखकर कहा—
“रुको…
हाथ ऐसे पकड़ा जाता है।”
अथर्व का दिल जैसे सीधा कान तक धड़क उठा।
उसकी साँसें एक पल को रुकीं।
वेदांशी ने उसका हाथ सीधे किया—
और फिर हट गई।
“अब ट्राय करो,”
उसने सामान्य आवाज़ में कहा।
अथर्व ने फिर कोशिश की—
और इस बार सुई सही जगह आ गई।
“हूँ…” वेदांशी हल्का-सा मुस्कुराई,
“अच्छा किया।”
अथर्व ने धीमे से कहा—
“थैंक्स…
और…
तुम भी अच्छा करती हो,”
फिर जैसे उसे अपनी ही बात भारी लग गई,
वो जल्दी से बोला—
“मतलब… एक्सपेरिमेंट वाला ‘अच्छा’। बस वही।”
वेदांशी ने आँखें सिकोड़कर उसकी तरफ देखा—
“मुझे पता है तुम क्या बोल रहे थे।”
अथर्व ने तुरंत नज़र फेर ली—
“न…नहीं… तुम गलत समझ रही हो।”
वेदांशी अब हल्के से हँसी—
“ओके ओके… अगर कह रहे हो तो मान ही लेती हूँ।”
दोनों वापस काम में लग गए।
अहाना कशिश वो दोनों अपनी टेबल से गर्दन ऐसे निकाल-निकालकर देख रही थी जैसे पूरा एक्सपेरिमेंट इन्हीं दोनों पर हो रहा हो।
अहाना कशिश को फुसफुसा रही थी—
“देख…देख… उनके हाथ टच हुए थे !”
कशिश पलटकर बोली—
“मुझे तो पिछली जनम की प्रेम कहानी वापस आती दिख रही!"
थोड़ी देर बाद…
मिश्रा सर टेबल नंबर 3 पर आए—
“हाँ, हो गया?
रीडिंग लो और ग्राफ बनाओ।”
अथर्व पढ़ने में लग गया,
वेदांशी नोटबुक में लिखने लगी।
सर चले गए…
और दोनों फिर थोड़ी देर चुप रहे।
फिर वेदांशी ने धीरे से कहा—
“अथर्व…”
अथर्व ने झट से नज़र ऊपर उठाई—
“हाँ?”
वेदांशी एक सेकंड रुकी…
फिर बोली—
“क्लास में…
जब पृथ्वी तुम पर चिल्ला रहा था…”
उसने गहरी साँस ली,
“मुझे अच्छा नहीं लगा।”
अथर्व का दिल जैसे खुलकर उजाला हो गया।
वो बस बहुत धीरे से बोला—
“इसलिए पूछ रही थीं… कि मैं ठीक हूँ?”
कंटिन्यू....
“क्लास में…
जब पृथ्वी तुम पर चिल्ला रहा था…”
उसने गहरी साँस ली,
“मुझे अच्छा नहीं लगा।”
अथर्व का दिल जैसे खुलकर उजाला हो गया।
वो बस बहुत धीरे से बोला—
“इसलिए पूछ रही थीं… कि मैं ठीक हूँ?”
वेदांशी ने आँखें झुका लीं—
“…हाँ।”
अथर्व ने हल्की मुस्कान दबाते हुए कहा—
“मैं ठीक हूँ।
क्योंकि तुमने पूछा।”
वेदांशी ने उसे घूरा—
“फिर वही लाइनें?”
अथर्व हल्का सा पीछे हट गया। “अरे नहीं… मतलब… मैं बस… सच बोल रहा हूँ।”
“तुम… कभी-कभी बहुत सीधे हो जाते हो अथर्व।”
अथर्व ने पलकें झपकाईं— “सीधा होना बुरा है?”
वेदांशी ने होंठ दबाते हुए कहा— “बुरा नहीं बल्कि खतरनाक है।”
अथर्व एक पल के लिए बिलकुल शांत हो गया। उसके चेहरे पर वो मासूम-सी उलझन आ गई— “मेरे में क्या खतरनाक है?”
वेदांशी बोली,“सीधे लोग…आजकल के ज़माने में…लोग उन्हें बेवकूफ़ समझते हैं।”
अथर्व का हाथ वहीं रुक गया जहाँ वो रीडिंग लिख रहा था।
वो धीरे से उसकी तरफ देखने लगा—
“बेवकूफ़?”
“हाँ।
जो दिल की बात मुँह पर बोल दे…
जो किसी के साथ गलत ना करे…
जो किसी का दिल टूटे तो परेशान हो जाए…
ऐसे लोग अब रेयर हैं।”
उसने हल्का-सा कंधा उचकाया—
“और रेयर चीज़ों को लोग समझ नहीं पाते।
तो या तो मज़ाक बनाते हैं…
या अंडरस्टीमेट करते हैं।”
अथर्व कुछ पल तक उसे देखता रहा।
“और तुम?तुम भी… मुझे ऐसा ही समझती हो?”
वेदांशी एक पल को चुप हो गई।
“नहीं।
मैं तुम्हें बेवकूफ़ नहीं समझती।”
अथर्व आगे कुछ कह पाता उससे पहले—
वेदांशी बोल पड़ी—
“मैं बस ये कह रही हूँ कि
तुम बहुत इनोसेंट हो…
बहुत साफ़ दिल के।
और ऐसे लोग…
इस दुनिया में जल्दी हर्ट हो जाते हैं।”
अथर्व की नज़रें उसके चेहरे से हट ही नहीं रही थीं।
उसने हल्की-सी मुस्कान रोकते हुए पूछा—
“तो… तुम मुझे इसलिए वॉर्न कर रही हो?”
वेदांशी ने आँखें सिकोड़ दीं—
“वॉर्न नहीं…
सिर्फ बता रही हूँ।
और हाँ…
सीधे लोग बेवकूफ़ नहीं होते।
बस… दूसरों से अलग होते हैं।”
अथर्व मुस्कुरा दिया।
“अगर अलग होने का मतलब
तुम्हारी नज़र में अच्छे लगना है…”
वो थोड़ा झुककर बोला—
“तो मुझे अलग रहना स्वीकार है।”
वेदांशी का दिल अचानक तेज़ धड़क गया।
वो तुरंत सीधी खड़ी होकर बोली—
“ओह हेलो—
इतनी सी बात पर उड़ना मत शुरू कर देना!”
अथर्व हँस पड़ा—
“मैं उड़ नहीं रहा…
बस तुमने पहली बार
मेरे बारे में अच्छा बोला है।”
वेदांशी ने मुँह बना लिया।
क्लास खत्म हुई।
मिश्रा सर ने कहा—“ठीक है सब लोग, लैब की चीज़ें अपनी जगह रखो और ऊपर क्लास में वापस जाओ। जल्दी!”
इसी के साथ और फिर सब दरवाजे की तरफ बढ़ने लगे।
अहाना और कशिश आगे ही खड़ी थीं।
“वेदांशी चल!” — कशिश ने हाथ हिलाते हुए उसे आवाज़ दी।
वेदांशी ने एक पल पीछे देखा…
जहाँ अथर्व अभी भी अपनी नोटबुक बंद कर रहा था।
बस दो सेकंड के लिए।
फिर वो झट से पलटी
और तेज़ कदमों में अहाना-कशिश के साथ चल दी।
अहाना ने उसकी चाल देखकर आँखें तरेरी—
“ओहहो… इतनी रफ़्तार?
पीछे कोई पीछा कर रहा है क्या?”
कशिश हँस पड़ी—
“या… किसी से भाग रही है?”
वेदांशी ने तुरंत हड़बड़ी में कहा—
“पागल हो क्या दोनों?
चलो चुपचाप ऊपर क्लास में।”
पर उसकी आवाज़ में वो हल्की-सी गर्मी थी…जो सिर्फ तभी आती है जब कोई पकड़ा जाने से डर रहा हो।
अहाना और कशिश ने एक-दूसरे को देखके सब समझ लिया।
अथर्व धीरे-धीरे लैब से बाहर निकला।
सीढ़ियों की तरफ बढ़ते हुए उसने ऊपर देखा।
वेदांशी,
जो आमतौर पर आराम-आराम से चलती थी,
आज दो सीढ़ियाँ एक साथ चढ़ रही थी
जैसे कोई उससे सवाल ना पूछ ले।
अथर्व के होंठों पर एक हल्की, लाज से भरी मुस्कान आ गई।
कुछ देर बाद....
ब्रेक टाइम पर पूरी 12th की भीड़ ऐसे बाहर निकली
जैसे किसी ने सबको एक साथ आज़ाद कर दिया हो।
हल्की-हल्की बारिश अभी भी हो रही थी,
ओपन-कॉरिडोर में हवा ठंडी थी,
और बच्चे अपने-अपने ग्रुप के साथ
तिफ़िन लेकर बैठ गए थे।
अहाना, कशिश और वेदांशी तीनों
कॉरिडोर के कोने में बैठीं थीं।
कशिश ने चटनी वाला सैंडविच निकाला—
“आज तो बारिश का मज़ा दुगुना है।”
अहाना ने हँसते हुए वेदांशी को छेड़ा—
“और किसी का दिन आज तिगुना अच्छा जा रहा है।”
वेदांशी भौंहें चढ़ा दी—
“कशिश, समझा यार इसको!”
सब तिफ़िन खा रहे थे
कि तभी—
स्टाफ रूम की तरफ से एक आवाज़ आई—
“सब बच्चे ध्यान दें!!”
पूरा कॉरिडोर पल भर में शांत हो गया।
एक सीनियर स्टाफ, छतरी बंद करते हुए
बारिश से भीगा हुआ अंदर आया।
वो तेज़ आवाज़ में बोला—
“ध्यान से सुनो सब!
क्लासेज़ आज की यहीं खत्म की जा रही हैं!”
क्लास में हल्की-हल्की फुसफुसाहट फैल गई।
“क्या? सच में?”
“बारिश की वजह से होगा!”
“याय!!”
स्टाफ ने आगे कहा—
“बाकी की सभी पीरियड्स कैंसल हैं।
अभी तुरंत,
सब बच्चे अपने-अपने घर जाएँगे।
किसी को भी कैंपस में रुकने की अनुमति नहीं है।
बसें आधे घंटे में आएँगी।
जो लोकल आते हैं, वे तुरंत निकलें।”
उतना कहकर वो आगे बढ़ गया।
अहाना उछल पड़ी—
“ओएमजी! छुट्टी? आज??”
कशिश ने ताली बजाई—
“थैंक गॉड! बाकी की क्लास से जान बच गई!”
वेदांशी हल्का मुस्कुराई,
पर उसकी नज़र…
अनजाने ही… भीड़ में अथर्व को ढूँढ़ रही थी।
अथर्व अपना बैग टाँगे क्लास से बाहर निकला।
वेदांशी ने उसे आते ही देख लिया।
पर जैसे ही उसकी नज़रें एक सेकंड अटकीं…
उसने तुरंत चेहरा दूसरी तरफ कर लिया—
ऐसे जैसे उसे बिल्कुल फर्क नहीं पड़ता।
पर दिल की धड़कन?
वो तो उसी पल तेज़ हो गई थी।
अहाना ने धीरे से कुहनी मारी—
“आ गया… देख ले, देख ले…।”
वेदांशी आँखें तरेरने लगी—
“देख भी लूँ तो तुम दोनों को क्या प्रॉब्ल—”
पर उसकी बात वहीं रुक गई,
क्योंकि अथर्व उनके ठीक सामने से गुजर रहा था।
कशिश ने वेदांशी की पीठ पर हाथ रखा—
“तो फिर…
अब तू कब मानेंगी कि तू उसे थोड़ा-सा…
बस थोड़ा-सा… पसंद करने लगी है?”
वेदांशी ने अचानक तिफ़िन बंद किया,
अपने बाल कानों के पीछे सरकाए
और उठ खड़ी हुई—
“चलो, बैग ले आती हूँ…
बसें आने ही वाली होंगी।”
अहाना और कशिश दोनों उसकी तरफ देखकर मुस्कुराईं,
जैसे वो उसके हर बहाने के पार देख सकती हों।
कशिश ने चिढ़ाते हुए कहा—
“हमने पूछा था— ‘पसंद?’”
वेदांशी ने हड़बड़ाकर बैग टाँगते हुए कहा—
“पसंद? पता नहीं, कशिश…”
वो चलते हुए क्लास की ओर बढ़ी,
दोनों उसके पीछे-पीछे।
वो धीमे, थके से स्वर में बोली—
“ये उम्र पढ़ाई-लिखाई की है…
और मुझे नहीं पता हमारा फ्यूचर क्या है…”
क्लासरूम के दरवाज़े से अंदर कदम रखते हुए
वो हल्की-सी रुकी…
“पसंद… प्यार…
मेरे लिए दोनों अलग नहीं हैं।”
उसने कुर्सी पर रखी अपनी नोटबुक उठाई।
“इंसान पहले पसंद होता है…
फिर वही पसंद … प्यार बन जाती है।”
अहाना ने हँसते हुए पूछा—
“तो फिर?
तुझे वो पसंद है?”
वेदांशी ने एक साँस ली,
धीरे से, सचमुच खुद से पूछते हुए—
“…मुझे नहीं पता।”
“जब मैं उसके पास होती हूँ…
तो लगता है कि वो अलग है।”
कशिश ने आँखें बड़ी करते हुए कहा—
“और जब वो पास नहीं होता तब?”
वेदांशी बैग की ज़िप खींचते-खींचते ठहर गई।
कुछ सेकंड चुप रही।
बहुत धीरे से बोली—
“…तब भी… पता नहीं क्यों…
उसकी हरकते याद आती रहती हैं।”
अहाना और कशिश एक-दूसरे को ऐसे देखने लगीं
जैसे उन्हें तो पहले से पता था।
वेदांशी बोली—“वो… अच्छा लड़का है।”
अहाना और कशिश तुरंत चुप हो गईं।
वेदांशी आगे बोली—
“उसकी जगह कोई और होता…”
वो क्षणभर रुकी, जैसे अंदर ही अंदर कुछ स्वीकार कर रही हो—“…तो मैं उसे इग्नोर ही कर देती।”
अहाना ने भौंहें उठा लीं—
“मतलब… अथर्व को इग्नोर नहीं कर पाती?”
“नहीं,”
वो बहुत धीरे बोली—
“करने की कोशिश करती हूँ…
पर वो… वो वैसा है ही नहीं कि उसे इग्नोर किया जा सके।”
कशिश हँसते-हँसते बोली—
“तो कहानी यहीं से शुरू होती है?”
वेदांशी ने तुनककर बोला—
“कुछ शुरू नहीं हो रहा, कशिश!”
अहाना फुसफुसाई—
“शुरू हो रहा है… बस तू खुद मान नहीं रही।”
वेदांशी ने बैग कंधे पर रखा और दरवाज़े की ओर बढ़ने लगी।
पर जाते-जाते एक पल के लिए ठहर गई—
“…वो अच्छा है।
बहुत अच्छा।
और शायद… इसी वजह से मुझे डर लगता है।”
कशिश ने हैरान होकर पूछा—
“डर? किस बात का?”
वेदांशी ने उनकी ओर मुड़कर कहा—
“डर इस बात का…
कि कहीं मैं उसे उम्मीदें दे दूँ…
और फिर मैं खुद ही… उसे हर्ट कर दूँ।”
अहाना का चेहरा नरम पड़ गया।
“वेदांशी…”
वेदांशी हल्की मुस्कान देकर बोली—
“ बसें आने ही वाली होंगी।
चलते हैं।”
कंटिन्यू....
अगले दिन…
वेदांशी अपनी बेंच पर बैठी थी।
आज उसकी आँखें भारी थीं…
कई बार पलकें बंद हो जातीं
और वो अचानक खुद को झटका देती—
क्यूँकि वो रात भर सोई ही नहीं थी।
दिमाग में बस एक ही नाम घूम रहा था—
अथर्व।
उसके बोलने का तरीका,
उसकी वो मासूम उलझन,
और वो एक लाइन—
“अगर तुम्हारी नज़र में अच्छे लगना अलग होना है…
तो मुझे अलग रहना स्वीकार है।”
वो बार-बार गूँज रही थी।
मिश्रा सर कुछ समझा रहे थे,
लेकिन वेदांशी की पेन नोटबुक पर बस चल रही थी
बिना किसी मतलब के—
छोटी-छोटी लाइन्स, गोल-गोल पैटर्न…
जैसे उसके दिमाग का तूफ़ान
पन्ने पर उतरने की कोशिश कर रहा हो।
अहाना ने धीरे से फुसफुसा कर बोली—
“रात को सोई नहीं थी क्या तू?”
वेदांशी ने तुरंत सीधी होकर कहा—
“सोई थी… थोड़ा।”
कशिश ने पीछे से झुककर उसके कान में कहा—
“थोड़ा? या बिलकुल नहीं?”
वेदांशी ने होंठ काटकर नजरें फेर लीं।
उसी पल…
मिश्रा सर बेतकल्लुफ़ी से बोले—
“जो लोग प्रेज़ेंट नहीं हैं,
उनके नाम मैं बाद में पूछ लूँगा।
अभी नोट्स लिखो सब।”
वेदांशी का दिल जाने क्यों
थोड़ा-सा धक् से रह गया।
उसने धीरे से पूछा—
“अथ..अर्थव वो… आया नहीं?”
अहाना ने कंधे उचकाए—
“लगता तो है कि नहीं आ रहा वो आज।”
कशिश ने देखा कि
वेदांशी की उंगलियाँ
कितनी बेचैनी से टेबल पर चल रही थीं।
तभी किसी के कदमों की आवाज सुनाई दी।
वेदांशी की नज़रें
अपने आप दरवाज़े की ओर घूम गईं—
उम्मीद…
एक छोटी-सी उम्मीद
कि शायद… वही हो।
उसका दिल सचमुच
एक पल रुक-सा गया।
पर—
मायूसी उसी सेकंड उतर आई।
क्लास में आया कोई और नहीं,
बस स्टाफ का एक मेंबर था—
रजिस्टर और कुछ नोटिस हाथ में लिए।
वेदांशी का चेहरा बुझ गया।
स्टाफ ने सर उठाए बिना कहा—
“मिश्रा सर, ये फाइलें मैडम ने भेजी हैं।
साइन कर दीजिए।”
स्टाफ चले गया,
और सर ने फिर से पढ़ाना शुरू कर दिया।
लेकिन वेदांशी सुन ही नहीं पा रही थी।
वो अपनी नोटबुक पर
सिर्फ एक नाम लिख रही थी…
Ath—
और फिर जल्दी से उसे काट देती।
कुछ सेकंड बाद
फिर लिखती—
Ar—
और फिर काट देती।
कशिश ने धीरे से कहा—
“लगे हाथ बता दूँ—
ऐसे मौसम में ना,
आधा स्कूल तो बीमार ही हो जाता है।”
अहाना ने भी सिर हिलाया—
“हाँ यार…
कल बारिश कितनी तेज हुई थी,
और वो भी पूरा भीग गया था न?”
वेदांशी की गर्दन एक झटके में घूमी—
“कौन?”
दोनों एकसाथ बोली —
“ अथर्व!”
वेदांशी एकदम चुप…
उसका दिमाग तुरंत याद करने लगा—
ब्रेक में…
हल्की-हल्की बारिश…
अथर्व हाथ में बैग लिए कॉरिडोर से गुजर रहा था…
उसका शर्ट भीगा हुआ था…
बालों से पानी टपक रहा था…
वेदांशी ने अनजाने में होंठ भींच लिए।
कशिश बोली—
“ तबियत खराब होना तो नॉर्मल है ऐसे मौसम में। या तो
गला बैठ गया होगा उसका या फिर… बुखार हो गया होगा।”
वेदांशी ने ये सुनते ही
नज़रें नीचे कर लीं—
पर उसके चेहरे की टेंशन
छुप ही नहीं पा रही थी।
वेदांशी ने अपनी उंगलियाँ रोक लीं।
दिल में जैसे किसी ने
सुई चुभो दी हो।
“बुखार…”
बस यही शब्द उसके कानों में घूमता रह गया।
उसने गर्दन झुका ली,
नोटबुक की खाली लाइनें धुंधली लग रहीं थीं…
क्योंकि उसकी आँखें हल्की-सी भर आई थीं
और उसने खुद भी नोटिस नहीं किया।
कुछ सेकंड बाद,
उसने खुद को सँभालते हुए
धीरे से बैग से पानी की बोतल निकाली।
ढक्कन खोला, पर पी नहीं पाई।
अहाना ने धीरे से उसका कंधा छुआ—
“ए… इतना टेंशन मत ले।
हो सकता है बस हल्की सी तबियत खराब हो गई हो।
आ जाएगा कल।”
तभी अचानक—
क्लासरूम के बाहर
तेज़ खाँसी की आवाज आई।
वेदांशी का सिर
फौरन दरवाज़े की तरफ़ मुड़ा।
अहाना और कशिश भी देखने लगीं।
कुछ सेकंड तक
बस खाँसी की आवाज ही आई…
और फिर कोई धीरे-धीरे चलता हुआ क्लास की तरफ बढ़ा।
वेदांशी का दिल धड़कने लगा।
कदम…
और करीब हुए…
वेदांशी ने अपनी पेन पकड़ कस ली।
और फिर—
दरवाज़ा हल्के से धक्का खाकर खुला।
क्लास में जो दाख़िल हुआ,
उसे देखकर
थोड़ी राहत भी मिली…
और थोड़ी हैरानी भी।
हां वो अथर्व ही था।
लेकिन…
वो वैसा नहीं था जैसा रोज़ होता था।
उसका चेहरा फ़ीका लग रहा था…
बाल थोड़ा बिखरे हुए थे…
आवाज़ बैठी हुई—
“म… मे आई कम इन,सर …?”
मिश्रा सर ने चश्मा उठाकर देखा—
“तुम? इतनी लेट?”
अथर्व ने सिर झुका लिया —"सॉरी सर!"
मिश्रा सर ने तेज आवाज़ में कहा—
“सॉरी नहीं चाहिए, वजह बताओ! इतनी लेट क्यों आए हो?”
अथर्व ने अचानक रुक कर सिर झुकाया।
कहना चाहता तो बहुत कुछ था…
लेकिन शब्द जैसे कहीं खो गए हों।
क्लास में सबकी निगाहें उस पर टिकी थीं।
वेदांशी की धड़कन इतनी तेज थी कि उसे आवाज़ भी नहीं सुनाई दे रही थी।
अथर्व की उंगलियाँ झिझक रही थीं।
क्या कहे…?
“सर, मैं… बस…”
वो रुक गया।
दिल में हलचल बढ़ रही थी,
आंखों में नमी आ गई…
और गले में आवाज़ अटक सी गई।
वो खुद से पूछ रहा था—
क्या जो रात में हुआ वो सच में किसी को सुनाना सही है?
अथर्व ने धीरे-धीरे कहा—
“सर… रात भर… घर में… थोड़ी… परेशानी हो गई थी।”
उसकी आवाज़ हिचक रही थी।
मिश्रा बोले—
“परेशानी? किस तरह की?”
अथर्व को लगा कि उसने घर में परेशानी बोलके गलती कर दी।
दरअसल, कल शाम को मम्मी और पापा की तीखी बहस हुई थी,
जिसमें पापा ने गुस्से में अथर्व के ऊपर ही हाथ उठा दिया थाऔर वो रात भर सो भी नहीं पाया था।
और यही वजह थी कि आज वो स्कूल लेट आया था।
अथर्व को चुप देख मिश्रा सर ने एक लंबी सांस ली और बोले—
“ठीक है। अंदर आ जाओ, अपनी सीट पर बैठो। और ब्रेक में मुझसे मिलना।”
अथर्व ने धीरे से सिर हिलाया और अपनी सीट की तरफ बढ़ गया।
अगली क्लास थी… पांडे सर की।
कल पांडे सर ने अचानक केमिस्ट्री का सरप्राइज़ टेस्ट लिया था तो अब वो मार्क्स बताने वाले थे।
क्लास में पांडे सर ने चश्मा सीधे नाक पर टिका लिया,
फाइल खोलते हुए कहा—
“चलो बच्चों, कल का टेस्ट मैने देखा… कुछ बच्चों ने अच्छे मार्क्स लाए हैं, कुछ ने… वैसे ही हर बार जैसे।”
वेदांशी का दिल धक से रह गया।
उसने कल टेस्ट ठीक से हल किया भी था, या नहीं…
उसे याद ही नहीं आ रहा था।
अथर्व का चेहरा अभी भी उतरा हुआ ही था।
पांडे सर ने एक-एक नाम पढ़ना शुरू किया—
“अहाना… 18/20… बहुत अच्छे!”
“कशिश… 16/20… ठीक है।”
वेदांशी की सांसें थम गईं।
अब उसका नाम आने वाला था।
“वेदांशी… 17/20… ठीक है। अच्छे मार्क्स।”
वेदांशी की आँखों में हल्की राहत झलकी।
और फिर…
अथर्व का नाम आया।
“अथर्व… 12/20।”
क्लास में हल्की हँसी फैल गई।
वेदांशी की नज़रें अपने आप अथर्व की तरफ़ घूम गईं।
अथर्व ने चेहरे को नीचे झुका लिया।
होंठ कसकर दबा लिए।
पांडे सर ने गंभीर होकर कहा—
“अथर्व, ये मार्क्स उम्मीद से कम हैं। क्यों? बताओ।”
अथर्व ने थोड़ा हिचकते हुए सिर उठाया।
वो कुछ बोलना चाहता था…
लेकिन फिर खुद को रोक लिया।
पांडे सर ने धीरे से कहा—
“अथर्व बेटा, कुछ समझ ना आए तो मुझसे पूछ लिया करो। 12वीं बोर्ड है जानते हो न।”
अथर्व ने हां में गर्दन हिला दी।
पांडे सर ने गहरी सांस ली,
“ठीक है, अगले बार बेहतर करना। अब सभी अपनी नोटबुक खोलो, अगला टॉपिक शुरू करते हैं।”
और फिर ब्रेक की घंटी बजते ही…
वेदांशी की सांसें अटक गईं।
क्योंकि अब समय था अथर्व का मिश्रा सर से मिलने का।
अथर्व तुरंत मिश्रा सर से मिलने चला गया और वही वेदांशी अथर्व के आने का वेट करने लगी।
कुछ देर बाद उसे अथर्व वापस क्लास की तरफ आते दिखा।
जैसे ही अथर्व क्लासरूम में आया—
वो तुरंत उसके सामने खड़ी हो गई,
रास्ता रोक लिया।
अथर्व ने साइड से निकलने की कोशिश की…
लेकिन वेदांशी फिर सामने आ गई।
अथर्व ने धीरे से कहा—
“मुझे अंदर जाने दो…”
वेदांशी ने तुरंत आँखें तरेरते हुए कहा—
“नहीं! नहीं जाने दूंगी!”
अथर्व ने नजरे उठा उसकी ओर देखा,
वो बस एक पल के लिए उसके चेहरे को निहारता रहा।
फिर उसने धीरे-धीरे दूसरी तरफ नज़र कर ली।
उसकी इस हरकत पर वेदांशी की भौंहें चढ़ गईं।
“अर्थव!” उसने थोड़ी तेज आवाज में कहा।
अथर्व हक्का-बक्का होकर उसे देखने लगा।
उसके दिल में हल्की बेचैनी थी, और वही बेचैनी वेदांशी को और झकझोर रही थी।
क्लासमेट्स जानते थे अथर्व पसंद करता है वेदांशी को।
लेकिन वेदांशी खुद अभी तक अपने अंदर की फीलिंग्स को समझ नहीं पाई थी।
वो बस अब इस पागल लड़के के साथ बहस करना चाहती थी…
जो सुबह से उतरा हुआ चेहरा लिए घूम रहा है।
वेदांशी ने गहरी सांस ली, और धीरे से कहा—
"मुझे पता है तुम बिल्कुल भी ठीक नहीं हो!"
अथर्व बोला—“नहीं… मैं…मै ठीक हु।”
उसके झूठ पर वेदांशी ने उसे घूरते हुए कहा—
“सुनो,” उसने थोड़ी तेज आवाज़ में कहा,
“शाम को मिलना मुझसे… मैं उस तालाब के पास आऊँगी आज…
समझे?”
उसका अंदाज़ ऐसा था, मानो वो उसे ऑर्डर दे रही हो।
अथर्व बोला ,“ठीक है...मैं आऊँगा।”
वेदांशी घूरते हुए ही बोली,“और देर मत करना, नहीं तो मुझे गुस्सा आ जाएगा।”
अथर्व ने बस गर्दन हिला दी।
वेदांशी मुस्कुरा दी।
अथर्व ने हल्की-सी सांस छोड़ी और धीरे से बोला—
“अब… साइड दोगी? मुझे अंदर जाना है…”
वेदांशी ने हाथ बाँधकर उसकी तरफ देखा— “हां दूँगी… पर पहले…”
वो पास आई, बिल्कुल तीन कदम की दूरी पर रुककर बोली—
“…रुको, दो मिनट।”
अथर्व की आँखों में उलझन तैर गई।
“अब क्या…?”
कंटिन्यू....
अथर्व ने हल्की-सी सांस छोड़ी और धीरे से बोला—
“अब… साइड दोगी? मुझे अंदर जाना है…”
वेदांशी ने हाथ बाँधकर उसकी तरफ देखा— “हां दूँगी… पर पहले…”
वो पास आई, बिल्कुल तीन कदम की दूरी पर रुककर बोली—
“…रुको, दो मिनट।”
अथर्व की आँखों में उलझन तैर गई।
“अब क्या…?”
वेदांशी ने धीरे से अपनी स्कर्ट की जेब में हाथ डाला।
अथर्व की नज़रें एक सेकंड के लिए उसके हाथ पर चली गईं वो भी अनजाने में।
वेदांशी को थोड़ी सी शर्म भी आई, और थोड़ा गुस्सा भी—
“ओये… ऐसे मत देखो! कुछ गलत नहीं कर रही हूँ मैं!”
अथर्व एकदम झेंप गया—
“मैं… मैं कहाँ देख रहा था?”
वेदांशी ने आँखें तरेरी—
“ओहो सच में ? फिर कहा देख रहे थे ?”
अथर्व ने होंठ दबाकर नीचे देखा।
उसका चेहरा अब और भी ज़्यादा मासूम लग रहा था।
वेदांशी का दिल थोड़ा पिघल गया।
उसने जेब से धीरे-धीरे एक छोटी सी चॉकलेट निकाली—
गोल्डन रैपर वाली।
वो चॉकलेट अपनी हथेली पर रखकर बोली—
“ये लो।”
अथर्व ने चौंककर उसकी तरफ देखा—
“ये… मेरे लिए?”
वेदांशी ने नज़रें चुराते हुए ‘हां’ में सिर हिलाया।
अथर्व बेहद धीरे से बोला— “पर… क्यों?”
“क्योंकि…
सुबह से तुम्हारा चेहरा देखके…
मुझे अच्छा नहीं लग रहा था।”
अथर्व एक पल के पलकों को झपकाना भूल गया।
वेदांशी ने चॉकलेट उसकी हथेली पर रख दी।
अथर्व के हाथ बेहद ठंडे थे।
“देखो… मैं डॉक्टर नहीं हूँ,
लेकिन…
अगली बार अगर कुछ भी हो ना…”
वो थोड़ा झुककर बहुत धीमी आवाज़ में बोली—
“…मुझसे बोल दिया करो।
मेरे सामने ड्रामा मत किया करो कि ‘मैं ठीक हूँ’।
समझे?”
अथर्व के चेहरे पर अब जाकर मुस्कान आई थी।
“समझ गया।”
वेदांशी ने तुरंत कहा— “और चॉकलेट आज ही खाना! जेब में डालकर घूमना मत। समझे ?”
अथर्व ने चॉकलेट को देखते हुए कहा— “ठीक है… खा लूंगा।”
फिर धीरे से बोला—
“…थैंक्यू।”
वेदांशी के काँधे अनजाने में ढीले हो गए।
वो भी मुस्कुरा दी।
फिर अथर्व ने सिर हिलाया और अंदर जाने लगा।
वो तीन कदम चला भी नहीं था कि—
“अथर्व!”
वेदांशी ने फिर बुलाया।
अथर्व पलटा—
“हाँ?”
“…तालाब के पास… शाम को आना मत भूलना।”
“नहीं भूलूँगा।”
और वो धीरे से अंदर चला गया।
वेदांशी वहीं खड़ी उसे जाते हुए देखती रह गई…
शाम का समय....
तालाब के पास..
वेदांशी वहाँ सबसे पहले पहुँच गई थी।
उसके दिल में अजीब-सा घबराहट थी…
जैसे कुछ बहुत ज़रूरी होने वाला हो।
वो बार-बार अपनी चोटी ठीक कर रही थी,
कभी हाथों को रगड़ती,
कभी पानी की ओर देखती हुई अचानक पीछे पलट जाती—
“कहीं आ तो रहा है ना…?”
उसने खुद से ही पूछा।
और तभी…
उसने देखा अथर्व आ रहा था।
वेदांशी को देखते ही
वो एक पल के लिए वहीं रुक गया।
वेदांशी ने हाथ बांधकर पूछा—
“क्यों देर की?”
अथर्व ने धीरे से कहा— “अ… वो मम्मी ने कुछ काम पकड़ा दिया था। "
वेदांशी धीरे-धीरे उसके पास आई।
“अथर्व… सुबह तुम…
बहुत परेशान लग रहे थे।”
अथर्व ने नज़रें झुका लीं।
“मैं ठीक हूँ।”
उसने वही झूठ दोबारा बोला।
वेदांशी ने एक लंबी सांस ली
और उसके बिल्कुल सामने आकर खड़ी हो गई।
“कितनी बार बोला है?
ये ‘मैं ठीक हूँ’ वाला डायलॉग
मुझपर नहीं चलेगा।”
अथर्व ने पहली बार उसकी आँखों में देखा।
कुछ पल…
बस देखते रहा।
फिर हौले से बोला—
“कल घर में…
थोड़ी टेंशन हो गई थी।”
वेदांशी ने पूछा—
“किस तरह की टेंशन?”
अथर्व चुप।
वो अचानक पीछे देखने लगा, पानी की ओर।
गला बैठ गया था…
और कुछ याद आते ही उसकी आँखें हल्की-सी भर आईं।
वेदांशी का दिल कस गया।
वो धीरे-धीरे उसके पास आई
और बहुत नरमी से बोली—
“अथर्व… देखो मेरी तरफ़।”
अथर्व ने नज़रें उठाईं।
वेदांशी ने और पास जाकर कहा—
“तुम मुझसे झूठ क्यों बोलते हो?
सुबह से देख रही हूँ तुम्हे।”
अथर्व की आवाज़ काँप गई—
“मैं…
किसी को क्या बताऊँ, वेदांशी…”
“मुझे बताओ।”
अथर्व ने बहुत देर बाद धीरे से कहा—
“…कल पापा गुस्से में थे।
बहुत।”
वेदांशी का दिल धक से रह गया।
अथर्व आगे बोला—
“मम्मी-पापा की लड़ाई हुई।
और…
पापा ने…
मुझपर भी—”
वो रुक गया।
आवाज़ टूट गई।
आँखें लाल हो गईं।
वेदांशी ने बिना सोचे
उसका हाथ पकड़ लिया।
अथर्व चौक गया…
उसने तुरंत हाथ हटाने की कोशिश की—
“वेदांशी… रहने दो…”
लेकिन वेदांशी ने उसका हाथ और कसकर थाम लिया।
“नहीं।
अब कुछ मत बोलना।”
तुम्हें चोट लगी?
बताओ कहा लगी!”
अथर्व ने विरोध किया— “मैं ठीक हूँ, सच में—”
वेदांशी भड़क उठी—
“बस!! एक बार और ‘ठीक हूँ’ बोला ना तुमने…
तो सच में तालाब में धक्का दे दूँगी तुम्हें!”
अथर्व की आँखें फैल गईं।
फिर… हल्की सी हँसी उसके होंठों पर आ गई।
“तुम इतने गुस्से में भी क्यूट लगती हो…”
वो धीमे से बुदबुदाया।
वेदांशी का चेहरा एकदम लाल—
“ओए! अभी फ्लर्ट मत करना।
पहले बताओ—चोट लगी है न?”
अथर्व ने बहुत धीरे से कहा—
“थोड़ी…”
वेदांशी का दिल कसकर धड़क उठा।
“कहाँ?”
उसने पूछा।
अथर्व ने अपना बांह हल्का-सा उठाया।
कुहनी के पास लाल निशान था।
वेदांशी का चेहरा पलभर में नरम पड़ गया।
“अथर्व…
तुमने सुबह बताया क्यों नहीं…”
वेदांशी उसकी चोट को देख ही रही थी
कि अचानक अथर्व ने बहुत हल्की आवाज़ में कहा—
“वेदांशी…”
वो रुकी।
चेहरा उठाकर उसकी तरफ देखा।
“जानती हो न मैं…
मैं तुम्हें पसंद करता हूँ।”
वेदांशी का दिल एक पल को रुक गया।
सांस भी थम-सी गई।
अथर्व आगे बोला—
“और तुम…
तुम तो मुझे दोस्त भी नहीं मानती।
इसीलिए…
मैं कुछ नहीं बोलता।
बस…
दूर रहता हूँ।
ताकि तुम्हें बुरा न लगे।”
वेदांशी एकदम चुप।
अथर्व ने नजरें झुका लीं।
“तुम्हारी लाइफ में शायद मैं…
कुछ भी नहीं हूँ।”
वो धीमे से बोला—
“इसलिए…
अपने बारे में बताने का हक भी कहाँ है मेरे पास…”
ये सुनकर
वेदांशी का दिल जैसे किसी ने मरोड़ दिया हो।
“अथर्व… मेरी तरफ देखो।”
अथर्व ने हौले-से नजरें उठाईं।
वो बोली—
“किसने कहा तुम कुछ नहीं हो?”
अथर्व ने उसकी तरफ देखा।
वो आगे बोली ,“सुनो…
तुम्हारे बारे में सोचते-सोचते
मैं रात भर सोई नहीं हूँ।”
अथर्व की आँखें चौड़ी हो गईं।
उसके होंठ थोड़े खुले—
जैसे उसे समझ न आए
कि उसने सच में सुना क्या।
वेदांशी ने और धीरे कहा—
“और तुम बोल रहे हो
कि मैं तुम्हें दोस्त भी नहीं मानती?”
उसने हल्की-सी नाराज़ हँसी छोड़ी—
“पागल हो क्या?
सुबह से तुम्हारा मूड देखकर
मुझे क्यों तकलीफ हो रही थी फिर?”
अथर्व चुप…
बस उसकी तरफ देखता रहा।
वेदांशी का गला भर आया—
“तुम्हें लगता है कि
तुम्हारे पास मुझे बताने का हक नहीं?”
वो अचानक उसकी बाँह पकड़कर बोली—
“ मेरे ऊपर दुनिया का सबसे ज्यादा हक है तुम्हारा, समझे?”
अथर्व की आंखों ने नमी आ गई।
लेकिन वेदांशी रुकी नहीं—
“और सुनो…”
उसकी आवाज़ बहुत धीमी हो गई—
“…पसंद करने वाली बात पर…
मैंने अभी कुछ नहीं कहा है।
क्योंकि…
मैं भी खुद नहीं समझ पा रही हूँ
कि मुझे क्या महसूस हो रहा है।”
अथर्व की आँखों में हल्की उम्मीद चमकी।
वेदांशी पास आकर बोली—
“लेकिन एक बात तय है…
तुम मेरे लिए ‘कुछ नहीं’
कभी नहीं रहे।”
अथर्व ने धीरे से पूछा—
“तो…
मैं क्या हूँ तुम्हारे लिए?”
वेदांशी मुस्कुरा दी।
अजीब-सी शरमीली मुस्कान।
“शायद…
वो इंसान…
जिसके बारे में सोचते-सोचते नींद नहीं आती।”
अथर्व का दिल एकदम से तेज़ धड़कने लगा।
उसने कुछ कहने की कोशिश की—
“वेदांशी… मैं—”
वेदांशी ने उंगली उसके सामने रख दी—
“बस।
अभी कुछ मत बोलो।”
फिर उसने धीरे से कहा—
“चोट दिखाओ…
पहले ये ठीक करेंगे।
उसके बाद…
जो कहना है न—
आराम से कहना।”
अथर्व मुस्कुरा दिया।
वो मुस्कान…
जो सुबह से कहीं गायब थी।
कंटिन्यू...
तीन दिन बीत चुके थे।
वेदांशी का सस्पेंशन अब पिछली बात बन चुका था।
क्लास फिर से पहले जैसा हो गया था—
बच्चे हँसते, बातें करते,
टीचर्स भी जैसे सब भूल चुके थे।
पर एक इंसान था
जो कुछ भी नहीं भूला था—
पृथ्वी।
अगले दिन सुबह…
वेदांशी क्लास में सबसे पहले पहुँच गई थी।
चेहरे पर बड़ी सी मुस्कान लिए,
हाथ में डस्टर पकड़े वो ब्लैकबोर्ड साफ कर रही थी—
पूरी तल्लीनता से।
जैसे कोई पेंटिंग हो
और वह उसे चमका रही हो।
बोर्ड की धूल हवा में उड़ रही थी
और उसके बालों की लटे बार-बार उसके चेहरे पर आ रही थी
जिसे वो झुंझलाकर पीछे करती जा रही थी।
क्लास धीरे-धीरे भर रही थी।
कुछ ने मुस्कुराकर वेदांशी को देखा,
कुछ बस अपने काम में लगे रहे।
उसी समय—
पृथ्वी अंदर आया।
उसने वेदांशी को बोर्ड साफ करते देखा,
और उसके होंठों पर वही पुरानी,
खुली हुई
घमंडी मुस्कान आ गई।
बेंच पर बैठते हुए बोला—
“वाह…
देखो तो ज़रा!
सस्पेंशन से वापस आकर
काम भी बदल गया इसका!”
क्लास के दो-तीन लड़के धीरे से हँस दिए।
वेदांशी रुकी।
उसके हाथ में डस्टर थम गया।
पर उसने पलटकर देखा भी नहीं।
बस बोर्ड साफ करती रही।
पृथ्वी को चुप रहना कहाँ आता था?
वो आगे बोला—
“ये सब क्यों कर रही हो?
टीचर को इम्प्रेस करोगी क्या?
या फिर…
डर है कि कहीं दुबारा सस्पेंड न हो जाओ?”
क्लास एकदम शांत।
सब जानते थे ये बात चुभेगी।
वेदांशी ने धीरे से बोर्ड पर आखिरी लाइन साफ की।
डस्टर नीचे रखा।
फिर घूमकर पृथ्वी की तरफ देखा।
चेहरे पर मुस्कान नहीं थी।
पर गुस्सा भी नहीं।
बस… एक शांति।
एक मायूसी।
वो बोली—
“पृथ्वी…
तुम्हें कोई फर्क नहीं पड़ता न
दूसरों की भावनाओं से?”
पृथ्वी ने भौंह उठाई—
“ओहो… आज फिर डायलॉग शुरू?”
वेदांशी ने गहरी सांस ली।
“मैं बोर्ड साफ कर रही थी
क्योंकि क्लास गंदी लग रही थी।
किसी को इम्प्रेस करने का शौक नहीं है मुझे।”
पृथ्वी व्यंग्य से बोला—
“ओह…
अब बहुत सज्जन बन रही हो?
सस्पेंशन ने संस्कार सीखा दिए क्या?”
दो-तीन बच्चे फिर हँस पड़े।
वेदांशी एक कदम आगे बढ़ी।
“अगर तुम्हें लगता है
कि एक हफ्ता घर पर रहकर
मैं डर जाऊँगी…
तो तुम गलत हो।”
पृथ्वी ने सीट पर टांग फैलाते हुए कहा—
“डर तो तुम्हें लगना चाहिए।
क्योंकि अब क्लास में सब जानते हैं
कि तुम्हें सज़ा क्यों मिली थी।”
वेदांशी ने ठंडी आवाज़ में कहा—
“सज़ा मिली थी
क्योंकि तुमने झूठ बोला था।”
क्लास अचानक शांत।
पृथ्वी की मुस्कान गायब।
एक पल को उसकी गर्दन अकड़ गई।
“क्या कहा तुमने?”
वेदांशी के चेहरे पर दृढ़ता थी—
“सुना नहीं?
गलती मेरी नहीं थी।
तुम्हारी चाल थी वो।”
क्लास में कुछ बच्चे फुसफुसाए।
अथर्व जो अभी-अभी अंदर आया था,
दरवाज़े पर ही ठहर गया।
पृथ्वी हँसा—
“अरे वाह!
अब तो इल्ज़ाम भी लगाने लगी!”
वेदांशी अब भी शांत।
उसने आँखों में आँखें डालकर कहा—
“इल्ज़ाम नहीं।
सच बोल रही हु मैं।”
पृथ्वी ताने मारते हुए बोला—
“चलो मान लिया…
पर तुम क्या कर लोगी?
टीचर मेरी सुनते हैं।
और तुम…
तुम बस ड्रामा करती हो।”
वेदांशी एक पल रुक गई।
फिर बोली—
“ड्रामा?"
वेदांशी ने “ड्रामा?” कहा ही था
कि तभी—
अथर्व क्लास में दाख़िल हुआ।
उसके हाथ में नोटबुक थी,
पर जैसे ही उसने सामने का नज़ारा देखा—
वेदांशी और पृथ्वी की बहस—
उसके कदम रुक गए।
उसकी भौंहें सिकुड़ गईं।
चेहरा एकदम गंभीर…
जैसे अंदर से कोई चिंता उठी हो।
पृथ्वी ने भी उसे देख लिया।
और बस—
उसे तो चिंगारी मिल गई आग लगने को।
वो बेंच पर और पीछे टिकते हुए
उच्चे स्वर में बोला—
“देखो!
आ गया अथर्व अवस्थी!”
अथर्व ने कुछ नहीं कहा।
बस वेदांशी की तरफ देखा जैसे पूछ रहा हो—“तुम ठीक हो?”
वेदांशी ने भी एक सेकंड उसकी तरफ देखा,
पूरा गुस्सा, तकलीफ़, सब एक पल को नरम पड़ गया।
पृथ्वी को तो और मौका मिल गया।
वो ज़ोर से बोला—
“अरे वेदांशी!
बोलो!
बताओ सबको…
कितना ‘स्पेशल’ है ये तुम्हारे लिए?”
अथर्व ने कुछ कहना चाहा ही था कि वेदांशी बोल पड़ी—
“पृथ्वी…अगर तुम्हे लगता है कि तुम अथर्व और मेरा नाम साथ में जोड़ोगे और .... "
उसकी बात खत्म होने से पहले ही पृथ्वी ने ताना मारा—
“ओह, ओह,
अब तो खुलकर बोल रही हो!
सबको पता है कि ये तुम्हें—”
वो वाक्य पूरा करता
उससे पहले—
वेदांशी तड़ाक से बोल पड़ी—
“हाँ!
सब जानते हैं कि ये मुझे पसंद करता है!
तो?”
अथर्व ने तुरंत सिर उठाकर वेदांशी को देखा...
आँखें एकदम चौड़ी हो गई उसकी।
पृथ्वी खिलखिला उठा—
“तो??
मतलब मानती हो?
तुम्हे फर्क पड़ता है?”
वेदांशी ने उसकी तरफ कदम बढ़ाया।
चेहरा एकदम गंभीर।
गुस्सा आँखों में चमक रहा था।
“हाँ।
फर्क पड़ता है।”
पृथ्वी थोड़ा चौंका,
पर फिर भी ताने मारते बोला—
“ओहो!
पसंद करता है न! तो क्या …”
उसकी बात खत्म होने से पहले वेदांशी ने
उसकी बोलती बंद कर दी—
“तो तुम्हे जलन क्यों हो रही है?”
पूरा क्लास शॉक्ड।
पृथ्वी जैसे हक्का-बक्का।
उसे जवाब ही नहीं मिल रहा था।
वेदांशी आगे बोली—
“हाँ, पृथ्वी…
अथर्व मुझे पसंद करता है।
ये बात सबको पता है।
लेकिन तुम क्यों तिलमिला रहे हो?
क्यों हर बार इसी बात पर
मुझे चिढ़ाते हो?
किसने हक दिया तुम्हें?”
पृथ्वी थूक निगल गया।
उसका चेहरा लाल हो गया ,
गुस्से से नहीं…
बल्कि शर्म से।
वहीं अथर्व का चेहरा सफ़ेद, और बाक़ी क्लास पूरा दंग हो गया था।
वेदांशी बिना झिझके पृथ्वी की आँखों में देखते हुए बोली—
“हाँ, मुझे फर्क पड़ता है। और अगर तुम्हें इससे प्रॉब्लम है, तो वो तुम्हारी प्रॉब्लम है… मेरी नहीं।”
क्लास में कुछ बच्चों ने
हल्की-सी “ओहो…” की आवाज़ निकाली।
पृथ्वी ने होंठ भींच लिए, उसकी उंगलियाँ बाक़ायदा डेस्क पर जोर से दब गईं।
“तुम… तुम मुझसे इस तरह बात कर रही हो एक सस्पेंडेड—”
वेदांशी ने बीच में ही काट दी उसकी बात —
“चुप हो जाओ, पृथ्वी।”
अथर्व को तो समझ ही नहीं आ रहा था कि वो सपना देख रहा है या सच।
उसकी सांसें तेज़ हो गई थीं।
“और सुनो... अथर्व मुझे पसंद करता है, तो तुम्हें क्या दिक्कत? तुम्हारा क्या जाता है?”
पृथ्वी भड़कने की कोशिश में बोला—
“मुझे?
मुझे क्या दिक्कत होगी भला?!”
वेदांशी ने तुरंत पलटकर कहा—
“अच्छा? फिर हर बार इसी बात पर क्यों अटक जाते हो? क्यों बार-बार उसी बात का मज़ाक उड़ाते हो? क्यों तिलमिलाते हो
जब मैं अथर्व से बात करूँ?”
क्लास में फिर स्वर गूंजा “ओह्ह्ह्ह्ह—”
वेदांशी ने अब बातों का आखिरी तीर चलाया—
“सच बोलूं पृथ्वी? तुम्हें दिक्कत इसलिए है
क्योंकि अथर्व तुमसे ज्यादा
भरोसेमंद है। सीधा है। इंसान अच्छा है।
और तुमसे ये बात हज़म नहीं होती।”
अथर्व को विश्वास ही नहीं हुआ कि कोई उसके लिए इतने लोगों के सामने ऐसे खड़ा हो सकता है।
वेदांशी पीछे मुड़ी, अपनी सीट की तरफ बढ़ने लगी।
क्लास के सारे बच्चे
पृथ्वी को हक्का बक्का देखकर समझ चुके थे कि
आज
वेदांशी ने
उसकी पूरी बोलती बंद कर दी थी।
वेदांशी अपनी सीट तक पहुँची,
बेंच पर बैठी ही थी कि—
ठॉक!
डोर अचानक खुला।
अंदर आईं
क्लास टीचर— मीरा मैम।
उनकी एंट्री का टाइमिंग
इतना परफेक्ट था
कि क्लास के आधे बच्चे
हँसी रोकने के लिए होंठ दबाने लगे।
मैम ने चश्मा ठीक किया, पूरी क्लास को देखा, और बोलीं—
“क्लास में इतना सन्नाटा क्यों है? कोई मरा है क्या?”
किसी की हिम्मत नहीं हुई आवाज़ निकालने की।
बस पृथ्वी था
जिसके माथे पर पसीना आ रहा था
मानो वही मरा हो।
मीरा मैम की नजर घूमते हुए
ठीक उसी पर जाके रुकी —
“पृथ्वी।
क्यों चेहरा ऐसा सूजा हुआ है? क्या हुआ?”
पृथ्वी एक सेकंड को
अकड़कर बैठ गया— “न-न नथिंग मैम...”
मैम ने सिर हिलाया, फिर पूरे क्लास पर निगाह डाली और बोलीं—“और हाँ—
आज से
सभी स्टूडेंट के ग्रुप बनेंगे और वो ग्रुप स्टडी करेंगे।
इज देट क्लियर?”
पूरे क्लास ने एक साथ “यस मैम!” कहा।
कुछ देर बाद
क्लास शुरू हो गई।
बच्चे लिखने लगे, मैम पढ़ाने लगीं,
लेकिन…
अथर्व।
वो अपनी कॉपी में कुछ नहीं लिख रहा था, बस अपनी पेंसिल घुमाते हुए
वेदांशी की तरफ
चुपचाप देखे जा रहा था।
वो खुद भी नहीं समझ पा रहा था
कि उसे अभी क्या महसूस हो रहा था— शॉक? खुशी? या कुछ और…
जो वह पहले कभी नहीं समझ पाया था।
वेदांशी को भी
उसकी निगाहों का एहसास था।
पर वह नजरें मिलाकर
पल भर में झुका लेती थी ।
क्लास चल रही थी,
बच्चे नोट्स लिख रहे थे,
मीरा मैम समझा रही थीं—
लेकिन पृथ्वी?
उसका दिमाग तो कहीं और ही था।
वह अब सिर्फ एक चीज़ सोच रहा था—
बदला।
वेदांशी ने उसे सबके सामने हरा दिया था,
उसकी इज्ज़त मिट्टी में मिला दी थी,
और सबसे बड़ी बात—
अथर्व से उसे कंपेयर भी कर दिया।
उसी समय—
मीरा मैम ने किताब बंद की और बोलीं—
“पृथ्वी!
यू आर द क्लास मॉनिटर…
तो ग्रुप भी तुम ही बनाओगे।
हर ग्रुप में चार-चार बच्चे होंगे।
और कोई शिकायत नहीं सुनूंगी।
अंडरस्टूड?”
ये सुनते ही पृथ्वी के चेहरे पर एक बहुत ही खतरनाक मुस्कान फैल गई।
“यस मैम।”
मीरा मैम ने आगे कहा —
“पृथ्वी, स्टूडेंट्स के नाम लेकर ग्रुप बनाना शुरू करो।”
पृथ्वी सीधा खड़ा हुआ।
गला साफ किया।
फिर—
जैसे पहला वार वहीं कर देना चाहता हो—
उसने सबसे पहले नाम लिया—
“ग्रुप नंबर 1 में होंगे…
राधिका, सौरव, भावना… और अथर्व।”
अथर्व ने हल्का-सा भौचक्का चेहरा बनाया।
उसने सोचा था शायद उसे वेदांशी के साथ रखा जाएगा।
पृथ्वी ने उसकी तरफ देखे बिना अगला नाम पढ़ दिया—
जैसे उसे चिढ़ाना ही मकसद हो।
वेदांशी ने धीरे से सिर नीचे कर लिया।
एक आशंका अब साफ थी—
वो उसे अकेला कर देगा।
या किसी ऐसे ग्रुप में फेंक देगा जहाँ सब उसे परेशान करेंगे।
अब पृथ्वी ने दूसरा ग्रुप बनाना शुरू किया।
उसने नाम पढ़ा—
“ग्रुप नंबर 2 में होंगे…
कशिश, अहाना, रोहन…”
पूरी क्लास वेदांशी की तरफ देखने लगी—
सब सोच रहे थे कि अब इसका नाम लेगा।
पृथ्वी ने आखिरी नाम लिया—
“…और पार्थ।”
वेदांशी का नाम नहीं।
क्लास में हलचल-सी हुई।
एक-दो बच्चे फुसफुसाए—
“उसका नाम क्यों नहीं ले रहा?”
पर पृथ्वी पूरी तरह शांत था।
इतना शांत कि डर लगने लगे।
अब तीसरा ग्रुप—
“ग्रुप नंबर 3—
अनुभव, कविता, तनीषा… और…”
वो रुका।
उसकी आँखें सीधे वेदांशी पर टिकीं।
वेदांशी के दिल की धड़कन तेज़।
अथर्व के हाथ में पकड़ी पेंसिल रुक गई।
पृथ्वी के होंठों पर गंदी-सी मुस्कान चढ़ी—
“…और यशपाल।”
पूरा क्लास सुन्न।
यशपाल—
क्लास का सबसे बदनाम,
सबसे गुस्सैल,
सबसे रूड लड़का।
जिससे लड़कियाँ दूर ही रहती थीं।
और वेदांशी…?
उसका नाम अब भी नहीं आया।
अथर्व सीट पर अधीरता से हिला।
उसकी आँखों में साफ गुस्सा था।
वो बोलने ही वाला था कि—
“मैम—”
लेकिन पृथ्वी ने चौथा ग्रुप घोषित किया—
“और ग्रुप नंबर 4 में होगा…
सिर्फ एक स्टूडेंट।”
पूरा क्लास साँस रोककर सुन रहा था।
वेदांशी की अंगुलियाँ डेस्क के कोने पर कस गईं।
पृथ्वी की आवाज़ धीमी, मगर नुकीली—
“वेदांशी।”
क्लास में छपाक जैसा शोर उठा।
“अकेली?” “ये क्या?” “एक बंदा एक ग्रुप में कैसे?”
मीरा मैम ने भौंहें चढ़ाईं—
“पृथ्वी, ये क्या मज़ाक है?
एक स्टूडेंट अकेला कैसे रहेगा?”
पृथ्वी बोला—
“मैम…
ग्रुप वर्क में
हर ग्रुप को एक सेपरेट टॉपिक मिलेगा।
वेदांशी बहुत टैलेंटेड है…
हैंडल कर लेगी सब।”
पूरी क्लास को पता था—
ये टैलेंट वाली बात नहीं।
ये साफ-साफ पृथ्वी का बदला था।
वेदांशी के चेहरे पर कोई एक्सप्रेशन नहीं आया।
लेकिन…
अथर्व का धैर्य अब फट चुका था।
वो अचानक खड़ा हुआ और बोला—
“मैम, ये गलत है।
वेदांशी को अकेला क्यों रखा जा रहा है?”
क्लास ने वाह जैसा भाव दिखाया।
सबको लगा अब तो तूफ़ान आएगा।
मीरा मैम ने पृथ्वी को घूरकर देखा—
“एक्सप्लेन, पृथ्वी.”
पृथ्वी बोला—
“मैम, आप ही ने कहा था—
नो कम्प्लेंट।
आई मेक द ग्रुप्स।
दैट्स ऑल।”
मैम कुछ पल चुप रहीं…
फिर बोलीं—
“पृथ्वी… तुम किस ग्रुप में हो?”
क्लास ने एक-दूसरे की तरफ देखा—
ये सवाल अनपेक्षित था।
पृथ्वी के चेहरे पर पल भर को गड़बड़ वाला एक्सप्रेशन आया,
लेकिन उसने तुरंत अकड़ दिखाते हुए कहा—
“मैम, मुझे किसी ग्रुप की ज़रूरत नहीं।
आई ऐम द टॉपर।
मैं अकेला ही...”
उसका वाक्य पूरा भी न हुआ कि
मीरा मैम ने हाथ उठाकर उसे चुप कराया।
“बस।”
मैम की आवाज़ इस बार सख़्त थी—
“तुम टॉपर हो या राष्ट्रपति,
इससे मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता।”
पृथ्वी की अकड़ धीरे-धीरे पिघलने लगी।
मैम आगे बोलीं—
“क्लास में हर स्टूडेंट को बराबरी से ट्रीट किया जाएगा।
और तुम… तुम स्पेशल नहीं हो ..समझे ?”
पृथ्वी ने मुँह खोला—
“मैम… वो…मैं तो बस—”
मीरा मैम ने उसकी बात फिर काट दी।
उनकी उंगली सीधी वेदांशी की तरफ उठी—
“पृथ्वी, तुम वेदांशी के साथ ग्रुप में रहोगे।
बस तुम दोनों।
ग्रुप नंबर 4 — वेदांशी और पृथ्वी।”
पृथ्वी का चेहरा लाल ,पीला, सफ़ेद
सब कुछ हो गया।
उसे समझ ही नहीं आया कि
उसकी प्लानिंग कैसे उसी पर पलट गई।
कंटिन्यू....
मीरा मैम क्लास से निकल गईं।
डोर बंद हुआ—
और जैसे ही टक की आवाज़ आई,
क्लास में दबी-दबी हँसी, फुसफुसाहटें
और सरसराहट फैल गई।
लेकिन तीन लोग बिल्कुल
चुप बैठे थे—
वेदांशी।
अथर्व।
पृथ्वी।
सबके चेहरे अलग-अलग कहानी कह रहे थे—
पृथ्वी का चेहरा
मानो किसी ने कैमिकल छिड़क दिया हो—
लाल → नीला → सफ़ेद
सब रंग एक-साथ।
अथर्व उसे तो अब भी फिक्र हो रही थी वेदांशी की।
और वेदांशी…
वो बस शांति से बैठी थी।
अगली क्लास फ्री थी।
और ये बात जैसे ही बच्चों को पता चली—
पूरी क्लास हवा की तरह इधर-उधर बिखर गई।
लेकिन—
अथर्व की सीट के पास
दो लड़कियाँ पहुँच गईं।
राधिका और भावना,
वही दोनों जो उसके ग्रुप में थीं।
दोनों मुस्कुरा रही थीं
इतनी “मीठी” कि
चाशनी से भी ज्यादा।
राधिका पहले बोली—
“हेलो अथर्व…
हम एक ही ग्रुप में हैं ना?
सोच रहे थे…
अगर तुम लीड करोगे तो प्रोजेक्ट परफेक्ट बनेगा।”
अथर्व थोड़ा पीछे हटकर बोला—
“अ..अच्छा?”
भावना ने सीट के पास खड़े होकर कहा—
“हाँ, और वैसे भी…
तुम बहुत रिस्पांसिबल लगते हो।”
अथर्व की उंगलियाँ कॉपी के कोने को
बार-बार मोड़ने लगीं।
चेहरा लाल हो रहा था—
शर्म से नहीं…
अनकंफर्टेबल होने से।
वो धीरे से बोला—
“उह… थैंक्स लेकिन…
हम बाद में—”
“अरे नहीं, अभी ही डिस्कस कर लेते हैं ना!”
राधिका ने तेज़ी से कहा,
और वो उसकी डेस्क के पास
थोड़ी और झुक गई।
अथर्व तो पीछे खिसक मे गया।
उधर… वेदांशी।
वो अपनी सीट पर अकेली बैठी
नोट्स लिखने की कोशिश कर रही थी।
पर पेन चल ही नहीं रहा था।
उसका ध्यान बार-बार
अथर्व की तरफ खिंच रहा था।
और जब उसने देखा—
दोनों लड़कियाँ
अथर्व के इतने पास खड़ी हैं,
हँस रही हैं,
उसे ‘रिस्पांसिबल’, ‘क्यूट’,
और पता नहीं क्या-क्या बोल रही हैं…
वेदांशी की आंखे सिकुड़ गई।
उसने धीरे से सोचा—
“क्या ज़रूरत है इन दोनों को
इतना झुक-झुक के बात करने की?”
उसका पैर
टेबल के नीचे
बेचैनी से हिलने लगा।
अब वेदांशी का ताप धीरे-धीरे चढ़ रहा था।
उसने अपनी कॉपी बंद की,
और धीमे-धीमे
अथर्व की तरफ देखने लगी।
दोनों लड़कियाँ अब भी—
“तुम बहुत स्मार्ट हो…”
“तुम्हारी राइटिंग अमेजिंग है…”
“तुम प्रेजेंटेशन भी दे देना ना…”
और अथर्व उसे बोलते ही नहीं बना —
“वो… मै… एक्चुअली…
अभी क्लास फ्री है—
आई मीन… बाद में—”
वो एकदम बच्चा बन गया था।
वेदांशी की आँखें
धीरे-धीरे सिकुड़ गईं।
दिल में एक ही आवाज़ उभरी—
“ ये बेवकूफ इतना गुमसुम क्यों बैठा है?”
“मुझे पसंद करने वाले की तरफ कोई भी लड़की ऐसे आ जाए....”
"बिल्कुल नहीं!"
उसके अंदर एक गर्म लपट उठने लगी।
उसने पेन मेज पर पटका।
आवाज़ सुनकर
अथर्व ने तुरंत उसकी तरफ देखा।
अहाना ,कशिश ने भी देखा—
और उनके चेहरे पर
“ओहहो ?”
वाली मुस्कान आ गई।
वेदांशी ने हल्की-सी भौंह उठाई,
बिल्कुल शांत चेहरा रखा …
लेकिन आँखों में जलन इतनी साफ
कि दूर से भी दिख रही थी।
राधिका और भावना
दोनों ने वेदांशी को ऐसे देखा
जैसे वो कोई एग्ज़ामिनर हो
और ये दोनों कॉपी चेक करवाने आई हों।
वेदांशी धीरे-धीरे उठी।
उसके उठने का अंदाज़
ना तेज़ था, ना नॉर्मल—
बल्कि…
ऐसा जैसे कोई लावा फटने से पहले
चुपचाप किनारे फिसल रहा हो।
वो एक-एक कदम
उनकी तरफ बढ़ने लगी।
क्लास में दो-तीन लड़के फुसफुसाए—
“ओए, ओए, ओए… अब कुछ होगा।”
अहाना ने कशिश की कलाई पकड़ी—
“देख… वेदांशी का ‘मैं नहीं सहूँगी’ मोड ऑन हो गया है।”
अथर्व ने दोनों लड़कियों से
थोड़ा और हटने की कोशिश की—
“वो… मै—
मेरा मतलब…
हम बाद मे—”
पर राधिका ने हाथ मे पेन घुमाते हुए कहा—
“इट्स ओके, अथर्व…
तुम जितने शाई हो, उतने ही स्वीट भी।”
भावना ने भी कहा—
“हाँ, और वैसे भी
तुम्हारी फोकसिंग स्किल्स बहुत अच्छी हैं…
हमारा पूरा ग्रुप परफेक्ट बनेगा।”
अथर्व ने घबराकर गर्दन मोड़ी—
और तभी…
वेदांशी ठीक उनके पास आकर खड़ी हो गई।
राधिका और भावना
दोनों चुप हो गई।
वेदांशी ने अपने हाथ बाँध लिए
और बहुत ही ठंडी,
बहुत ही कंट्रोल्ड आवाज़ में बोली—
“कितना टाइम ले रही हो ग्रुप डिस्कशन में?
किस टॉपिक पर बात चल रही थी?”
राधिका ने बनावटी मुस्कान दी—
“वो बस…
ग्रुप डिवाइड हुआ है ना, तो—”
वेदांशी ने आँखें हल्की उठाईं—
“ग्रुप डिवाइड हुआ है…
तो ग्रुप की तरफ जाओ।”
भावना बोली, थोड़ी अकड़ में—
“हम सिर्फ—”
वेदांशी ने एक कदम और आगे बढ़ाया,
अथर्व के बिल्कुल पास।
इतना पास कि राधिका-भावना
खुद-ब-खुद पीछे हट गईं।
“मैंने सुना नहीं?”
राधिका ने किताब उठाई—“अ… हाँ… चलो भावना।”
उनके जाते ही
अथर्व ने धीरे से बोला—
“…थ-थैंक्स?”
वेदांशी ने
धीमे से उसकी तरफ देखा।
“थैंक्स किस बात का?”
अथर्व बोला —“उम… वो…
तुम...”
वेदांशी चिढ़ कर बोली—
“अगर तुम्हें ये पसंद है
कि कोई भी लड़की
तुम्हारे पास आकर
तुम्हें स्वीट, रिस्पांसिबल, स्मार्ट बोले…
तो पहले ही बता दो।”
अथर्व की आँखें बड़ी हो गईं।
“…क-क्या?
न…नहीं!
मुझे नहीं पसंद—
वो तो बस—
मैं तो—
मुझे—”
वो बुरी तरह हकलाने लगा।
वेदांशी अचानक झुककर
उसके डेस्क पर हाथ रखा,
“हाँ?
बताओ?”
अथर्व ने धीरे से कहा—
“…मुझे अच्छा नहीं लगता।”
वेदांशी ने गर्दन हल्की तिरछी की—
“क्यों?”
अथर्व ने पलकें झुकाईं।
धीरे से,
बहुत धीरे से बोला—
“क्योंकि…
जब तुम पास होती हो
तब किसी और का पास आना
अजीब लगता है।”
क्लास में पास में बैठी तीन-चार लड़कियों ने
हाथ मुँह पर रखकर कहा—
“ओह माय गॉड…”
वेदांशी की साँस एक पल को अटक गई।
चेहरा गुस्से से नहीं…
बल्कि कुछ और से
लाल हो गया।
वेदांशी अचानक झुककर
अथर्व की डेस्क पर रखी उसकी पेंसिल उठा ली।
“…अच्छा।”
अथर्व घबरा गया—
“व-वो… वो मेरी—”
वेदांशी ने पेंसिल को अपनी उंगलियों में घुमाते हुए
बहुत ही सख़्त, पर अंदर से थोड़ी जलन भरी आवाज़ में कहा—“हाँ पता है। तुम्हारी ही है।
और तब भी तुम्हारी ही रहेगी… जब कोई और लड़की
इसे उधार लेने की कोशिश ना करे।”
“वेदांशी… ऐसा नहीं है…
मैं… मैं बस—”
वेदांशी ने हल्की भौंह उठाई—
“बस क्या?
तुम्हें बोलना नहीं आता क्या?
या इन दोनो के ‘स्वीट’, ‘क्यूट’, ‘रिस्पांसिबल’ वाले डायलॉग सुनकर तुम्हारी जुबान फ्रीज हो जाती है?”
“न-नहीं! मैं तो बस…
मुझे अच्छा नहीं लगता ऐसे…
मुझे समझ नहीं आता कि—”
वेदांशी धीमे से बोली—
“समझ नहीं आता…
या बोल नहीं पाते
क्योंकि तुम बहुत शर्मीले हो?”
अथर्व ने थूक निगला।
“मैं… मैं शर्मीला नहीं हूँ…”
वेदांशी टेढ़ा मुस्कुराई ।
“ओह?
शर्मीले नहीं हो?
फिर क्या हो?”
अथर्व ने नज़र झुका ली।
“बस…
मैं…
जब तुम पास आती हो तो…”
“तो?”
वो बहुत धीरे बोला—
“तो… मैं कुछ भी
ठीक से बोल नहीं पाता…”
एक सेकंड के लिए
वेदांशी की आँखों का गुस्सा पिघला।
वो नरम हो गई।
बहुत नरम।
लेकिन उसने खुद को सँभाला
और फिर ठंडी आवाज़ में बोली—
“ठीक है।
तो अगली बार किसी लड़की ने
तुम्हारे पास आकर
तुम्हें स्मार्ट, स्वीट, क्यूट कहा…
तो चुप मत बैठे रहना।
उसे साफ बता देना…”
अथर्व ने मासूमियत से पूछा—
“क-क्या बता देना?”
वेदांशी की आँखें
सीधे उसकी आँखों में टिक गईं—
“…कि ये सब बातें
सिर्फ एक ही लड़की बोलेगी।
उसके अलावा कोई नहीं।”
अथर्व की बोलती बंद।
वो सिर्फ उसे देखता रहा।
वेदांशी ने पेंसिल उसकी तरफ बढ़ाई—
“ये लो।
और इसे संभालकर रखना।
कहीं कोई और लड़की
‘उधार’ माँगने न आ जाए।”
अथर्व ने पेंसिल ली,
उसकी उंगलियाँ हल्की-सी
वेदांशी की उंगलियों से छू गईं।
वेदांशी झट से सीधी खड़ी हो गई
और अपनी सीट पर वापस गई।
अहाना और कशिश ने
उसकी तरफ देखते हुए
एक साथ कहा—
“ओह्ह्हो
किसी को जलन हुई है…”
वेदांशी ने पेन उठाया और बोली—
“चुप।
दोनों चुप।”
और उधर—
अथर्व अभी भी
अपनी पेंसिल को ऐसे घूर रहा था
जैसे वो दुनिया की सबसे कीमती चीज़ हो।
अगले दिन…
ग्रुप वर्क का पहला दिन था।
हर ग्रुप अपने-अपने कोनों में जा चुका था।
वेदांशी।
वो आज बिल्कुल शांत थी।
इतनी शांत कि
क्लास के दो–तीन लड़के बोल पड़े—
“आज मौसम थोड़ा खतरनाक है।”
लेकिन असली तूफ़ान तो
पृथ्वी के अंदर उमड़ रहा था।
वो वेदांशी के पास आकर
जोर से बोला—
“सुनो!
मैं तुम्हारे साथ जबर्दस्ती ग्रुप में डाला गया हूँ…
इसका ये मतलब नहीं कि मैं हर बात मानूँगा।”
अथर्व ने सिर उठाया।
कशिश और अहाना की गर्दनें
एकदम ऑटोमैटिक वेदांशी की तरफ घूम गईं।
वेदांशी ने धीरे से कहा—
“तो?”
पृथ्वी झुँझला गया—
“तो ये कि… आज शाम मेरे घर आ जाना।
प्रोजेक्ट वहीं डिस्कस करेंगे।”
पूरी क्लास:
“उउउउउउउउउउह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह!”
अथर्व का पेन हाथ से छूटकर गिर गया।
लेकिन—
वेदांशी चौंकी नहीं।
ना ही गुस्सा हुई और ना ही कुछ बोली।
वो बस
आँखें उठा कर पृथ्वी को सीधे देखती रही।
पृथ्वी ने नाक सिकोड़कर कहा—
“अब घूर क्यों रही हो?”
वेदांशी ने बहुत शांत आवाज़ में कहा—
“तुम्हारे घर नहीं आने वाली मैं...
हम यहीं स्कूल में ही काम कर लेंगे।”
पृथ्वी ने कंधे उचका दिए—
“ग्रुप वर्क है।
करना तो पड़ेगा।
और वैसे भी…
क्लास में तो तुम सुनती ही कहाँ हो?”
वेदांशी की आँखें सिकुड़ गईं।
उसने पेन टेबल पर रख दिया—
“देखो पृथ्वी…मैं तुम्हारे घर नहीं आने वाली।”
पृथ्वी ने तेज़ आवाज़ में कहा—
“मुझे फर्क नहीं पड़ता तुम आना चाहती हो या नहीं…
ग्रुप वर्क है तो आना पड़ेगा!”
अहाना धीरे से बोली—
“ये लड़का आज पिटेगा।”
लेकिन असली रिएक्शन अथर्व के फेस पर था।
उसकी आँखें कड़क हो चुकी थीं।
चेहरा…
इतना गहरा ठंडा कि क्लास में पहले कभी किसी ने नहीं देखा था।
पृथ्वी बोला ही था—
“तुम्हें मेरा इन्वाइट समझ नहीं आया क्या?”
कि तभी—
अथर्व उसके और वेदांशी के बीच आ खड़ा हुआ।
और बोला ,“उसने कहा ना… नहीं आएगी।”
पृथ्वी गुस्से से सुलगता हुआ मुड़ा।
“तुम बीच में क्यों आ रहे हो?”
अथर्व ने उसकी आँखों में देखते हुए कहा—
“क्योंकि तुम समझ नहीं रहे हो।”
पृथ्वी ने नज़रें ऊपर-नीचे कीं,
हँसने जैसा फेस बनाया—
“ओह, तो वेदांशी को बचाने आए हो?”
अथर्व झट से बोला,
“नहीं।
मैं बस वही दोहरा रहा हूँ
जो उसने कहा है।”
वेदांशी ने प्यार भरी नजर से
अथर्व की तरफ देखा।
पृथ्वी हँसते हुए बोला—
“अब तुम मुझे समझाओगे ? "
इस बार वेदांशी बोली—
“अथर्व को जानने की जरूरत नहीं है बल्कि तुम्हें जरूरत ये समझने की है कि मैं तुम्हारे घर नहीं जाऊँगी।”
पृथ्वी बोला—“…और अगर मैं कहूँ कि ये ग्रुप का काम है?”
वेदांशी तालिब—“तो मैं कहूँगी…
क्लास में काम हो सकता है।”
पृथ्वी बोला—“मैं घर पर ही करूंगा!”
वेदांशी बोली—“तो अकेले कर लेना।”
कंटिन्यू ...
स्कूल से घर लौटते टाइम…
वेदांशी, अहाना और कशिश तीनों सहेलियां सड़क के फुटपाथ पर पैदल चल रही थीं।
कशिश और अहाना
वेदांशी के दोनों तरफ चल रही थीं।
तीनों ने बैग एक-सा ही
साइड में टांगा हुआ था।
ठंडी हवा चल रही थी
लेकिन वेदांशी का मूड गरम तवे जैसा था।
“साला मूर्ख! बेवकूफ़! ढक्कन कहीं का!
कौन बोलता है किसी लड़की को ऐसे ‘मेरे घर आ जाना’ ??
बाप की हवेली है क्या उसकी!?”
अहाना ने हां में हां मिलाई—
“सही में…
इतना कॉन्फिडेंट कौन होता है बे?”
कशिश बोली—
“वो कॉन्फिडेंट नहीं…वो पगला है पगला।
दिमाग हिला रखा है उसने।”
वेदांशी गुस्से में हवा की तरह बोल रही थी—
“मैं अगर एक बार भी कह दूँ ना
कि ‘नहीं आऊँगी’
तो मतलब ‘नहीं आऊँगी’
ये ज़िद किसलिए?
मेरे बाप से ज़्यादा कंट्रोलिंग बनने चला है?”
अहाना—
“तूने बिल्कुल सही बोला था क्लास में…
‘अकेले कर लेना’ वाली लाइन तो लिटरली मस्त थी।”
वेदांशी हाथ हवा में उड़ाते हुए बोली—
“मुझे तो एक थप्पड़ मारने का मन कर रहा था उसके मुंह पे।
ऐसी बातें करता है कि… उफ्फ्फ!”
कशिश ने बड़ी मासूमियत से पूछा—
“गुस्सा तो पृथ्वी पर है…
पर तू छटपटा क्यों रही थी जब राधिका और भावना
अथर्व के पास खड़ी थीं?”
वेदांशी उखड़ गई—
“कशिश… प्ले मत कर।
मेरा मूड पहले से खराब है।”
अहाना ने शरारती मुस्कान के साथ कहा—
“नहीं, नहीं…
ये तो इंपोर्टेड एनालिसिस है।”
कशिश बोली—
“हाँ…
क्योंकि गुस्सा सिर्फ पृथ्वी पर नहीं,
थोड़ा-बहुत तो ‘अथर्व’ पर भी था…”
वेदांशी ने रुककर दोनों को घूरा—
“मेरे पास मत आना दोनों।
मैं मार दूँगी।”
दोनों जोर से हँस पड़ीं।
उन्हें हंसते हुए देख वेदांशी ने दाँत भींचकर कहा—
“चुप रहो तुम दोनों।
और वो अथर्व बेवकूफ कुछ बोल नहीं पाता
तो इसका मतलब ये नहीं
कि कोई भी लड़की
उसके ऊपर लटक जाए।”
अहाना हँसते-हँसते बोली—
“और तूने तो
उसकी पेंसिल ऐसे उठाई थी
जैसे प्रॉपर्टी पेपर्स उठा रही हो!”
वेदांशी चिल्लाई—
“अरे पेंसिल उसकी थी,
और वो दोनो ले रही थीं,
तो मैं—
वेदांशी कुछ और बोलती
उससे पहले ही—
पीछे से किसी ने “अरे हे!” कहा।
तीनों घूमीं तो
देखा सामने से अथर्व चला आ रहा था।
बैग एक कंधे पर,
बाल बिखरे हुए,
और चेहरा… वही दुनिया भर की मासूमियत लिए।
अहाना और कशिश ने एक-दूसरे को कोहनी मारी।
वही वेदांशी का चेहरा
0.2 सेकंड में
गुस्से से नॉर्मल,
और नॉर्मल से
थोड़ा उलझा हुआ सा हो गया।
वो बोली—
“तुम यहाँ क्या कर रहा हो?”
अथर्व ने धीरे से कहा—
“मैं…
तुम्हारे पीछे आ रहा था।”
कशिश ने गर्दन टेढ़ी की—
“क्यों?”
अथर्व मासूमियत से बोला—
“साथ चल लेते…ऐसे ही।”
अहाना ने कंधे उचका दिए—
“अच्छा ‘ऐसे ही’?
या फिर किसी से बाते करनी है?"
अथर्व का चेहरा एकदम लाल हो गया—
“न-नहीं!मैं तो बस…”
अथर्व घबराहट में
अपनी शर्ट की स्लीव को
बार-बार पकड़ रहा था।
वेदांशी ने हाथ कमर पर रखकर पूछा—
“हाँ?
क्या बात करनी थी?”
अथर्व हड़बड़ा गया—
“व-वो… मतलब…
कुछ नहीं… बस…
तुम तीनों जा रही थीं तो…
मैंने सोचा…
मैं भी…”
कशिश फुसफुसाई—
“कोई इसे वाई-फाई दे दो,सिग्नल अटक रहे हैं इसके।”
अहाना बोली—
“या फिर हॉटस्पॉट ऑटोमेटिक
वेदांशी से ही ऑन हो रहा है।”
दोनों खुद ही जोर से हँस पड़ीं।
अथर्व और भी लाल।
वेदांशी ने भौंहें चढ़ाकर कहा—
“तुम दोनों को मैं सच में मार दूँगी।”
दोनों चुप हो गईं,
पर मुस्कान नहीं गई।
वेदांशी ने फिर
अथर्व की तरफ देखा—
“तो?”
अथर्व ने धीरे से कहा—
“मुझे…
तुमसे…
एक बात करनी थी।”
ये सुनते ही
अहाना और कशिश
एक कदम पीछे हट गईं।
कशिश ने धीरे से कहा—
“हम लोग दुकान पर चिप्स लेने जा रहे हैं…
तुम दोनों ‘आहिस्ता’ आना।”
अहाना ने आँख मारते हुए कहा—
“प्यार भरी बाते करना।”
और फिर दोनों भाग गईं।
अब वेदांशी और अथर्व
फुटपाथ पर अकेले थे।
वेदांशी ने धीमे से कहा—
“हाँ…
क्या बात करनी थी?”
अथर्व ने होंठ काटे।
नज़र झुकाई।
और बैग का स्ट्रैप कसकर पकड़ लिया—
“तुम…
आज क्लास में…
गुस्सा मत हुआ करो।”
वेदांशी—
“…क्यों?”
अथर्व—
“क्योंकि…
जब तुम गुस्से में होती हो…
मुझे डर लगता है।”
वेदांशी के चेहरे पर
एक पल के लिए झटका सा आया—
“तुम मुझसे डरते हो?”
अथर्व ने सिर हिलाया—
“नहीं…
डर नहीं…
बस… अच्छा नहीं लगता।”
वेदांशी ने बाँहें मोड़ लीं—
“अच्छा नहीं लगता…
या फिर तुम्हें उन दोनो लड़कियों
के पास खड़े होना अच्छा लगता है?”
अथर्व—
“अरे नहीं!
नहीं!
मुझे उनके साथ खड़ा होना बिल्कुल अच्छा नहीं लगता!”
वेदांशी—
“हाँ, मैंने देखा।
इतने चुपचाप बैठे थे
जैसे किसी ने टाइम-फ्रीज़ कर दिया हो।”
अथर्व—
“…मैं बस…
मुझे समझ नहीं आता
ऐसे समय पर क्या बोलूँ।”
वेदांशी—
“तो बोल दिया करो।
स्पष्ट।
सीधा।”
अथर्व—
“क्या?”
वेदांशी—
“ये कि…
तुम किसी और की बातें
सुनने के लिए उपलब्ध नहीं हो।”
अथर्व के कदम वहीं रुक गए।
उसने धीरे से पूछा—
“मतलब…?”
वेदांशी ने नज़र घुमाई,
पर आवाज़ धीमी और साफ़—
“मतलब…
किसी और लड़की को
तुम्हारे पास आने का
हक़ नहीं है।”
अथर्व—
“क्यों?”
वेदांशी ने सीधा उसकी आँखों में देखा—
“क्योंकि…
मैं हूँ।”
अथर्व की हालत अब ऐसी हो गई थी कि वो फुटपाथ पर जैसे जड़ हो गया—
न हिल पाया,
न बोल पाया,
बस वेदांशी को ही देखता रह गया।
वेदांशी ने नज़रें झुका लीं।
उसके कान हल्के लाल हो गए।
अथर्व बहुत धीरे से बोला—
“तुम…
तुम मतलब…
तुम्हें फर्क…”
वो वाक्य पूरा भी नहीं कर पाया।
वेदांशी ने तेजी से कहा—
“हाँ!
फर्क पड़ता है।
बहुत पड़ता है।
अब खुश?”
वेदांशी ने ये बोल तो दिया था—
“हाँ! फर्क पड़ता है। बहुत पड़ता है।”
पर जैसे ही शब्द मुँह से निकले,
उसे खुद ही शर्म आ गई।
अथर्व का चेहरा कैसे एकदम लाल पड़ गया था।
वातावरण कुछ ज्यादा ही रोमांटिक हो रहा था,
जिससे बचने के लिए
वेदांशी ने तुरंत बात मोड़ने की कोशिश की—
“वैसे… तुम मुझे कब से पसंद करते हो?”
“म-मतलब?” — वो बोला।
वेदांशी ने हाथ बांधकर कहा— “हमेशा से तो नहीं ना?
कबसे? ये बताओ।”
अथर्व ने नीचे देखा,
थोड़ी देर चुप रहा,
फिर बेहद धीरे से बोला—
“पता नहीं…
शायद…
पहले दिन से।”
वेदांशी की आँखें फैल गईं—
“पहले दिन से?!”
अथर्व ने हल्की-सी शर्म में मुस्कुराकर सिर हिलाया— “हाँ…
जब तुम क्लास में आई थीं
और सीट ढूंढते-ढूंढते
मेरे पास वाले बेंच पर बैठ गई थीं…
तब ही।”
वेदांशी—
“ओह… वो तो इसलिए बैठी थी
क्योंकि बाकी सब सीटें भरी थीं।”
अथर्व ने नरमी से कहा—
“मुझे पता है…
पर…
मेरे लिए वो दिन…
खास था।”
वेदांशी ने तुरंत गला साफ़ किया—
“अच्छा-अच्छा…
और क्यों पसंद करते हो?
मतलब…
ऐसा क्या है मुझमें?”
“तुम…
गुस्सा करती हो,
लड़ती हो,
बहुत बोलती हो…
पर पता है…
जब तुम हँसती हो न…
तो सब कुछ अच्छा लगने लगता है।”
वेदांशी बस उसे देखती रही।
“ तो फिर तुमने मुझे पहले क्यों नहीं बताया ये ?"
अथर्व ने कंधे उचकाए—
“तुम हमेशा मुझे डाँटती रहती थीं।
और…मैं डर जाता था।”
वेदांशी बोली,
“और अब ?
क्या तुम्हे अब भी डर लगता है?”
अथर्व ने बहुत हल्का सा सिर उठाकर कहा—
“…हां।”
वेदांशी रुक गई।
एकदम रुक गई।
उसने उसे घूरा—
“अब क्यों डर लगता है??”
अथर्व ने उसके चेहरे को देखकर
धीमी साँस ली—
“क्योंकि…
अब तुम बहुत…
बहुत ज़्यादा…
इंपोटेंट लगती हो।”
कंटिन्यू.....
स्कूल से घर पहुँचते ही
वेदांशी ने बैग बेड पर फेंका,
जूते उतारते-उतारते ही खुद से बड़बड़ाई—
“ह्म्म्फ़…
क्या हो गया था मुझे उसके सामने ?”
वो अपनी कॉपी लेकर होमवर्क करने बैठी,
पर पेन पकड़ते ही
उसके दिमाग में…
अथर्व घूमने लगा ।
वो धीमे से मुस्कुराई—
“कितना क्यूट है यार वो…
बिल्कुल बच्चा सा।
और बात भी कैसे करता है…
इतनी प्यारी…
इतनी सीधी…”
कॉपी खुली थी
पर दिमाग खुलकर
उसी फुटपाथ वाले सीन में घूम रहा था।
वो खुद को ही डाँटने लगी—
“पढ़ाइ कर वेदांशी!
2 दिन बाद फिर से टेस्ट है !
अथर्व…अथर्व…अथर्व…
बस यही याद मत रख!”
फिर भी—
पेज पर लिखने की जगह
उसी की छोटी-सी स्माइल
उसकी आँखों में घूम गई।
वो थोड़ी देर पेन घुमाती रही।
"उफ्फ्फ़…कितना प्यारा है वो!”
वो खुद का ही चेहरा ढँककर मुस्कुराने लगी—
“हद है…
इतना भी क्यूट कोई कैसे हो सकता है?”
कुछ मिनट बाद
उसने कॉपी पर कुछ लिखा लेकिन लाइन आधी ही लिखी थी
कि दिमाग ने फिर अथर्व के बालों पर फोकस कर लिया।
“ओह माय गॉड…
और उसके बाल…”
वो अपने आप से फुसफुसाई—
“इतने बिखरे हुए रहते हैं…
जैसे अभी-अभी नींद से उठा हो।
और जब वो नीचे देखता है न…
तो बस…
पेट में तितलियाँ उड़ जाती हैं।”
वो अजीब-अजीब सा महसूस करने लगी।
चेहरा गर्म हो गया।
अगली सुबह रविवार था।
वेदांशी अभी उठी ही थी कि
नीचे किचन से उसकी मम्मी की आवाज़ आई—
“वेदू!
जल्दी तैयार हो जा बेटा।
आज मोहल्ले में शारदा जी के यहाँ पूजा है।
सबको बुलाया है उन्होंने।”
वेदांशी ने तकिया मुँह पर दबाते हुए कराह मारी—
“उफ्फ्फ्फ़्फ़्फ़…
बस यही कमी थी!
शारदा आंटी के घर पूजा!”
वो तुरंत बिस्तर पर सीधी बैठ गई।
“मम्मी, मैं नहीं जाऊँगी!
प्लीज।
आप लोग चले जाओ न!
मुझे बहुत काम है…”
उसकी मम्मी सीढ़ियों से ऊपर आईं—
“काम?
कौन सा काम?”
वेदांशी ने झट से कहा—
“होमवर्क!
टेस्ट है!
बहुत सारा सिलेबस भी बचा है!”
मम्मी ने भौंहें चढ़ाई—
“ वेदू पढ़ाई होती रहेगी ,अभी तेरी उम्र ही क्या हुई है!”
“क्-क्या मतलब?”
मम्मी मुस्कुराईं—
“मतलब ये, बेटा, कि अभी तेरी उम्र ही है थोड़ा-बहुत घूमने-फिरने, लोगों से मिलने-जुलने की।
पूजा-वूजा में जाया कर।
घर में बंद रहकर क्या करेगी?”
वेदांशी ने चादर अपने पैरों पर लपेट ली, मुँह बिचकाते हुए बोली—
“मम्मी… पर शारदा आंटी…
वो मुझे जब भी देखती हैं न…
ऐसा लगता है जैसे मेरा पूरा कैरेक्टर स्कैन कर रही हों।”
मम्मी हँस पड़ीं—
“अरे पगली, वो ऐसी ही हैं।
सब बच्चों से ऐसी ही बात करती हैं।
तू ही इतना ओवरथिंक करती है।”
वेदांशी ने गुस्से-नाक-फुलाए अंदाज़ में कहा—
“वो बार-बार मेरे गाल पकड़ने की कोशिश करती हैं।
इतना… इतना खींचती हैं कि दर्द हो जाता है।”
मम्मी ने सिर हिलाया—
“ओहो… ये वजह है?”
वेदू ने तुरंत गर्दन हिलाकर "हां" कहा।
मम्मी हँस पड़ीं-"अच्छा बाबा... मैं तेरे पास ही बैठूंगी। शारदा जी तुझे कुछ नहीं कहेंगी।"
वेदांशी ने आँखें गोल कर लीं-"मम्मी, आप हमेशा ऐसा कहती हो... और फिर वहाँ जाकर मुझे अकेला छोड़ देती हो!"
मम्मी अलमारी के सामने खड़ी हुईं, दरवाज़ा खोलकर कपड़ों की हैंगर हिलाने लगीं।
दो-तीन सलवार सूट सरकाते हुए बोलीं—
“हम्म… ये वाला ठीक रहेगा।”
उन्होंने हल्का पीच-कलर का सूट बाहर निकाला, उस पर नाज़ुक कढ़ाई थी।
वेदांशी का चेहरा और लंबा पड़ गया।
“मम्मी प्लीज़ ये मत… मैं बोरिंग नहीं लगना चाहती!”
मम्मी ने सूट हाथ में पकड़े-पकड़े वेदांशी की तरफ देखा और बोलीं—
“तो फिर तू बता, क्या पहनना है?”
वेदांशी ने तुरंत अलमारी में झाँककर एक और ड्रेस निकाली—
हल्का-सा लैवेंडर फ्रॉक-टाइप कुर्ती।
मम्मी ने एक सेकंड देखा…
फिर भौं उठाई—
“अच्छा… ये पहनकर जा रही है?”
वेदांशी ने शर्माते हुए धीमे से कहा—
“हाँ… इसमें मैं थोड़ी… अच्छी लगती हूँ।”
मम्मी ने वेदांशी की बात सुनी,
फिर उसकी हाथ में पकड़ी लैवेंडर कुर्ती को ऊपर से नीचे तक एक बार स्कैन किया…
और फिर बिना एक भी सेकंड सोचे—
“नहीं।”
वेदांशी की आँखें फैल गईं—
“क्या मतलब नहीं? मैं यही पहनूँगी!”
मम्मी ने सिर हिलाया—
“मैने कहा न... नहीं मतलब नहीं ।”
वेदांशी का मुँह देखो तो लगा जैसे किसी ने उसकी चॉकलेट छीन ली हो—
“मम्मी प्लीज़… ये अच्छा लगता है मुझ पर!”
मम्मी ने सूट उसके सामने लहराया—
“और ये क्या है?
ये सूट भी अच्छा ही लगता है!”
वेदांशी ने कराहते हुए कहा—
“मम्मी ये सूट बहुत ट्रडिशनल है…”
मम्मी ने हाथ ऊपर उठाकर वही पीच वाला सूट लहराया और बोलीं—
“बस!
ये ही पहनेगी तू।”
लगभग 1 घंटे बाद…
शारदा आंटी के घर…
पीच वाला सूट पहनकर
वेदांशी का मूड पहले से भी ज़्यादा
टकोर-टकोर हो चुका था।
जैसे ही वो लोग शारदा आंटी के घर पहुँचे—
दूर से ही पंडित जी की मंत्र-ध्वनि
और 15–20 आंटियों की “अरे नमस्ते जी!”
वाली आवाज़ें मिलने लगीं।
उसकी मम्मी तो अंदर जाते ही
आंटियों के बीच ऐसे घुल-मिल गईं थी।
वेदांशी ने धीरे से आँखें घुमाईं—
“ह्म्म्म…
मुझे तो बोला था साथ बैठूंगी…अब देख लो खुद ही अकेला छोड़ कर बातों में लग गई ।”
वह चुपचाप एक कोने में जाकर बैठ गई,
जहाँ एक छोटा सा सोफ़ा था
और उसके पास दीवार पर
शारदा आंटी की बेटी की शादी का बड़ा-सा फ्रेम।
वेदांशी ने गहरी साँस ली—
“उफ्फ़… कितना हुआ होगा…
जस्ट पाँच मिनट?
नहीं, शायद दो ही हुए होंगे…”
वो अंदर ही अंदर बोर होते-होते
अपनी उंगलियाँ मरोड़ने लगी।
फिर उसने इधर-उधर देखा—
आंटियाँ सब पूजन में व्यस्त थीं,
मम्मी कहीं नज़र नहीं आ रही थीं,
और शारदा आंटी एक कमरे से दूसरे कमरे
ऐसे घूम रही थीं
जैसे CCTV सर्वे कर रही हों।
वेदांशी का दिल धड़क गया—
“नहीं!
ये अगर मुझे पकड़कर
‘अरे कित्ती बड़ी हो गई’ वाला गाल वाला अटैक कर दिया न…
मैं भाग जाऊंगी कसम से।”
उसने हल्का-सा खिसककर
सोफ़े के पीछे की तरफ जगह बनाई,
फिर पूरी साइड से निकलते हुए
धीरे-धीरे गार्डन की ओर चल दी।
वेदांशी ने बाहर आते ही
एक लंबी साँस भरी—
“हूँम्म्म…
कम से कम यहाँ तो शांति है।”
वो गार्डन के बीच वाले
पत्थर की पगडंडी पर चलने लगी।
उसकी पीच वाली चुन्नी
हल्की हवा में उड़ रही थी।
वो नाराज़गी में चुन्नी ठीक करती हुई जा ही रही थी
कि तभी…
वो सब तरफ देखती हुई गार्डन के पास लगी झूलों वाली जगह की तरफ बढ़ी।
वेदांशी ने एक झूले को हाथ से पकड़ा,
हल्का-सा धक्का दिया,
फिर खुद उस पर बैठ गई।
उसने पैरों को थोड़ा आगे-पीछे किया,
झूला धीरे-धीरे हिलने लगा।
“चलो… कम से कम थोड़ी शांति तो मिली।”
लेकिन—
अचानक पीछे से किसी के कदमों की आवाज़ आई।
वेदांशी झूला हिलाते-हिलाते रुक गई।
भौं चढ़ी—
“कौन है अब?
शारदा आंटी तो नहीं…?”
उसका दिल थोड़ी देर के लिए रुक-सा गया।
उसने झट से पीछे मुड़कर देखा—
लेकिन वहाँ…
कोई खड़ा था।
जिसे उसने आने का अंदाज़ा भी नहीं लगाया था।
कंटिन्यू.....
वेदांशी झूले पर बैठी थी,
पैर हल्के-हल्के झूला हिला रहे थे…
हवा उसके पीच-सूट की चुन्नी उड़ा रही थी।
पीछे से कदमों की आहट बढ़ती गई।
वेदांशी का दिल एक सेकंड के लिए फ्रीज़।
वेदांशी ने झट से पीछे देखा—
और उसकी आँखें
इतनी बड़ी हो गईं
जैसे दुनिया का सबसे बड़ा प्लॉट ट्विस्ट उसके सामने आ गया हो।
पृथ्वी ।
हाँ।
पृथ्वी।
उसी गार्डन में।
उसी पूजा में।
उसी पीच-सूट वाली वेदांशी के सामने।
वो खड़ा था।
येलो कुर्ता पैंट पहने,
बाल एकदम अच्छे से सेट किए हुए …
“…तुम!?”
पृथ्वी हाथ बांधे बोला— “हम्म।”
वेदांशी चौंकते हुए — “तुम यहाँ क्या कर रहे हो??
ये शारदा आंटी का घर है!
तुम—तुम—तुम यहाँ क्यों!?”
पृथ्वी बड़े ही एटीट्यूड से बोला — “अ… वो…
शारदा आंटी… मेरी मम्मी की… कज़न हैं।”
वेदांशी का मुँह खुला का खुला रह गया।
उसने झूले को रोकना चाहा लेकिन घबराहट में
उसका पैर फिसल गया—
“ओह—शिट—!”
उसका बैलेंस बिगड़ा,
झूला पीछे की तरफ झटका खाकर गया,
और अगली ही सेकंड—
वेदांशी लगभग गिर ही गई थी—
पर—
एक्जेक्टली उसी पल
पृथ्वी ने आगे बढ़कर
उसकी कलाई और कमर पकड़ ली।
झूले की जंजीरें खड़खड़ाईं…
वेदांशी की चुन्नी हवा में हल्की घूमी…
और वो
सीधी पृथ्वी की बाँहों में आकर
अटक गयी।
उसकी आँखें
डर की वजह से
अपने आप बंद हो गई थीं।
पृथ्वी ने पहली बार
उसे इतने क़रीब से देखा था।
इतना क़रीब…
कि वो उसकी पलकों पर टिके
हल्के-मोटे काजल की लाइन तक देख पा रहा था।
उसके गालों की गर्माहट
उसके हाथों तक महसूस हो रही थी।
उसके बालों से आती
लैवेंडर शैम्पू की स्मेल
सीधे पृथ्वी की साँसों में उतर रही थी।
कुछ सेकंड…
बस कुछ सेकंड…
दोनों वैसे ही रुके रहे।
वेदांशी ने धीरे से
काँपती आवाज़ में कहा—
“…छ–छोड़ो मुझे…”
पृथ्वी ने हल्की-सी मुस्कान दबाई—
“पहले आँखें खोलो।”
वेदांशी ने पलकें खोलीं—
और जैसे ही खुलीं…
दोनों की नज़रें
सीधे…
टकराईं।
जैसे ही वेदांशी को होश आया कि वो कहाँ और किसके इतने पास है—
उसका दिमाग झट से ऑन हो गया।
उसने तुरंत पृथ्वी की छाती पर हाथ रखा और तेज़ धक्का दिया—
“दूर हटो!!”
पृथ्वी दो कदम पीछे लड़खड़ा गया,
पर बैलेंस संभाल लिया।
वो झूले से खड़ी होकर
झट से अपनी चुन्नी ठीक करने लगी—
जैसे चुन्नी नहीं, इज़्ज़त ठीक कर रही हो।
पृथ्वी ने दोनों हाथ ऊपर कर दिए,
जैसे पुलिस ने पकड़ लिया हो।
“अरे! हेलो!”
वो हँसते हुए बोला,
“मैंने बचाया है, अपहरण नहीं किया।”
वेदांशी तमतमाकर बोली—
“मुझे बचाने की कोई ज़रूरत नहीं थी!
मैं खुद संभल जाती!!”
पृथ्वी ने भौं उठाई—
“हाँ, बिल्कुल…
तभी तो पाँच सेकंड में तुम्हारी आँखें बंद हो गई थीं,
और तुम हवा में उड़ती चप्पल की तरह गिर रही थीं।”
वेदांशी ने ताना मारा—
“ हां तो गिरने देते न ! तुम्हारी हेल्प की कोई ज़रूरत नहीं है मुझे।”
पृथ्वी की भौंह चढ़ गई, लेकिन उसके होंठों पर हल्की-सी मुस्कान भी थी—
“ये जो तुम्हारा एटीट्यूड है न… पूरी क्लास में किसी में भी नहीं है।”
वेदांशी पलटकर तुरंत बोली—
“और तुम्हारा ओवर-कॉन्फिडेंस… पूरे स्कूल में नहीं होगा।”
पृथ्वी की आँखे एक सेकंड को चमकीं। वो एक कदम करीब आया— “शायद…
इसीलिए तुम मुझे इतनी नोटिस करती हो।”
वेदांशी की नज़रें सख़्त हो गईं।
“चाहो तो सपना देख लो
पर मैं तुम्हें नोटिस भी नहीं करती।”
पृथ्वी ने हाथ जेब में डाले, आँखें नीचे कर हल्के हँसते हुए बोला—“…झूठ बोलती हो तुम।”
वेदांशी झुँझलाई—
“क्या?!”
पृथ्वी ने उसकी तरफ गहराई से देखा—
“जब मैं क्लास में तुमसे बात करता हूँ
तुम्हारी आँखें सिकुड़ जाती हैं।”
“जब मैं तुम्हें चिढ़ाता हूँ
तुम थोड़ा-सा होंठ काट लेती हो।”
“…और अभी—
अभी भी तुम्हारी साँस फूल रही है।”
वेदांशी की आंखे चौड़ी हो गई।
“तुम्हें लगता है मैं तुम्हें नोटिस करती हूँ?"
पृथ्वी उससे दो कदम दूर खड़ा था, लेकिन उसकी बातों ने वेदांशी को ऐसे झटका दिया था जैसे किसी ने कान के पास चटपटा पटाखा फोड़ दिया हो।
उसकी साँस सच में हल्की-सी तेज़ थी—
पर उसका दिमाग तुरंत अथर्व की तरफ भाग गया।
उसकी मासूम स्माइल। उसकी झिझकी हुई नज़रें। उसके उलझे बाल। वो धीमा-धीमा बोलने का तरीका…
वो पृथ्वी जैसा तो बिल्कुल भी नहीं ।
“तुम्हें लगता है मैं तुम्हें नोटिस करती हूँ?
सीरियसली?”
पृथ्वी बोला—"लगता नहीं… बल्कि साफ साफ दिखता है तुम्हारे फेस से।”
वेदांशी हँस पड़ी—
वो भी उस टाइप की हँसी
जो सामने वाले की बात का मज़ाक बना दे।
वेदांशी की हँसी
पृथ्वी को चुभ गई।
उसका दिल जोर से धड़क रहा था—
खुद ही समझ नहीं पा रहा था कि क्यों।
वेदांशी पलटी और चुन्नी संभालते हुए जिस रस्ते से आई थी उधर ही आगे बढ़ गई।
“अरे, रुको तो सही!”
पृथ्वी ने उसे रोकना चाहा
लेकिन वेदांशी ने उसकी ओर नज़र भी नहीं डाली और चुपचाप आगे जाने लगी।
पृथ्वी वहीं खड़ा रह गया।
जगह जैसे उसके पैरों से चिपक गई हो।
उसकी मुस्कान
धीरे-धीरे
पिघलकर गायब हो गई।
“सीरियसली…?”
उसने खुद से बहुत धीरे कहा।
वेदांशी ने उसकी तरफ देखा भी नहीं।
बस…
चली गई।
ऐसे जैसे
पृथ्वी कोई इंसान नहीं,
बस हवा में उड़ता हुआ पत्ता हो
जिसकी तरफ देखने की भी ज़रूरत न हो।
पृथ्वी की आँखें सिकुड़ गईं।
उसके गले में एक कसाव सा आ गया।
दिल जैसे…
हल्का सा चोट खा गया हो।
उसके अंदर पहली बार
एक अजीब सा अहसास उठा—ना गुस्सा…ना मज़ाक…ना चिढ़ाना…
कुछ ऐसा
जो उसे खुद समझ नहीं आ रहा था।
जैसे किसी ने उसके सीने में
हल्की-सी चुभन रख दी हो।
वो दो कदम पीछे चला,
पर ठहर गया।
उसकी नज़रें
वेदांशी की जाती हुई पीठ पर टिकी हुई थीं—
उसके चलते कदम,
उसकी उड़ती चुन्नी,
उसकी वो बेपरवाही…
सब कुछ
पृथ्वी को अंदर से कचोटने लगा।
“मैंने उसे गिरने से बचाया …और उसे… एक सेकंड भी फर्क नहीं पड़ा?”
और उसी सेकंड
पृथ्वी का दिल
एक ऐसा फैसला ले चुका था
जिससे उनकी कहानी सीधी नहीं…
और उलझने वाली थी।
अगले दिन – स्कूल में…
स्कूल का गेट अभी पूरी तरह खुला भी नहीं था, और वेदांशी पहले से ही अंदर खड़ी थी। हैरानी वाली बात ये नहीं थी कि वो आज जल्दी आई थी
हैरानी वाली बात ये थी कि वो अकेली आई थी।
वो आज जानबूझकर घर से जल्दी निकल आई थी। ना कशिश को बताया, ना अहाना को।
क्यों?
क्योंकि उसे आज सिर्फ एक इंसान से बात करनी थी।
अथर्व।
उसे खुद भी नहीं पता था कि वो अथर्व से क्या बात करेगी...
बस इतना पता था कि... आज उससे बात करनी है।
फिर उसने जानबूझकर उसी जगह जाकर खड़े होने का फैसला किया जहाँ अक्सर अथर्व खड़ा रहता था— लाइब्रेरी के सामने वाला पेड़।
वो वहीं दीवार से टिककर खड़ी हो गई और ऐसे दिखाने लगी जैसे उसे किसी का इंतज़ार नहीं…
जबकि दिल अंदर से ड्रम की तरह बज रहा था।
एक मिनट… दो मिनट… पाँच मिनट…
तभी उसके पीछे से एक हल्की-सी आवाज़ आई—
“तुम… इतनी जल्दी कैसे?”
वेदांशी का दिल एक सेकंड को उछल ही गया।
ये आवाज सुन वो तुरंत वो पलटी।
और सामने था — अथर्व।
आज वो हमेशा की तरह ही क्यूट लग रहा था।
“मैं… बस… ऐसे ही…” वेदांशी ने तुरन्त नज़रें हटा लीं।
“ऐसे ही?” अथर्व हल्का-सा मुस्कराया, “तुम तो रोज लेट आती हो… आज पहले पहुँच गई…”
वेदांशी को समझ नहीं आया कि क्या जवाब दे।
उसने बस कंधे उचका दिए— “मन किया आ जाऊँ जल्दी।”
अथर्व ने एक सेकंड तक उसे देखा। फिर थोड़ा धीरे से बोला—
“…क्या तुम मेरा इंतज़ार कर रही थी?”
वेदांशी झट से बोली— “न-नहीं! बिल्कुल नहीं!”
अथर्व की हल्की मुस्कान थोड़ी गहरी हो गई।
“अच्छा…”
कुछ सेकंड के लिए दोनों चुप खड़े रहे।
वही अजीब-सी चुप्पी जो बातों से भी ज्यादा बोल रही थी।
फिर वेदांशी ने ही हिम्मत करके पूछा—
“तुम… कल… ठीक थे?”
अथर्व थोड़ा हैरान हुआ— “कल? हाँ… क्यों?”
“नहीं मतलब…” वेदांशी शब्द ढूँढ रही थी "तुम्हारे घर में सब ठीक है न ?”
अथर्व का चेहरा ये सुनते ही एक सेकंड के लिए बदल गया।
बस… एक पल के लिए।
उसकी आँखों की चमक हल्की-सी फीकी पड़ी, होंठों के किनारे खिंच गए, और नज़रें ज़मीन पर टिक गईं।
जैसे अचानक किसी ने उसके मन के किसी चोट वाले हिस्से को छू लिया हो।
लेकिन फिर, अगले ही पल उसने होंठों को जबरदस्ती ऊपर खींचा और हल्की, फीकी-सी हँसी हँस पड़ा—
“…हाँ, सब ठीक है,” उसने जल्दी से कहा।
लेकिन
उस “ सब ठीक है” में वो सच्चाई नहीं थी।
एक अजीब-सी थकान थी,
एक छुपी हुई परेशानी,
जो वो किसी के सामने लाना नहीं चाहता था।
वेदांशी ये समझ गई।
कुछ तो है।
कुछ ऐसा… जिसके बारे में वो अभी बताना नहीं चाहता।
उसका मन हुआ वहीं कह दे—
‘झूठ मत बोलो… बताओ क्या हुआ है?’
पर उसने सवाल नहीं किया, जानबूझकर।
“अभी नहीं…”
उसने मन-ही-मन सोचा।
“ये सही वक्त नहीं है…
वो खुद बताएगा, जब तैयार होगा।”
अथर्व ने नज़रें चुरा लीं।
लाइब्रेरी के सामने वाले पेड़ की छाल पर
उंगलियों से कुछ अनजान-सा खुरचने लगा।
“वैसे…” वेदांशी ने माहौल हल्का करने के लिए कहा,
“आज तुम थोड़ा लेट आए हो।”
“हाँ… वो थोड़ा लेट उठा था आज ,” वो बोला।
फिर उसने थोड़ी हिम्मत जुटाकर पूछा—
“…और तुम? आज अकेली कैसे?”
वेदांशी के दिल की धड़कन एक बार फिर तेज़ हो गई।
“मैं… बस… घूमते-घूमते जल्दी निकल आई,” उसने लापरवाही दिखाते हुए कहा।
लेकिन मन ही मन सोच रही थी —" मैं सिर्फ तुम्हारे लिए आई हूँ, तुम्हें ये कैसे बताऊँ?
अथर्व ने उसकी तरफ देखा।
कुछ सेकंड तक ऐसे देखा जैसे कुछ कहना चाहता हो।
लेकिन फिर…
वो खामोश रह गया।
“…लेट हो रहा है, क्लास का टाइम हो गया,” उसने अचानक कहा,
“चलो अंदर चलते हैं।”
वेदांशी ने बस अपना सिर हिला दिया।
वो दोनों साथ-साथ स्कूल की बिल्डिंग की ओर चलने लगे ।
वेदांशी के दिमाग में एक ही बात गूंज रही थी —
" इसके घर में जरूर कुछ गलत चल रहा है…
और मुझे पता लगाना ही होगा…
पर अभी नहीं…
सही वक्त आने पर।"
उधर, अथर्व चलते-चलते सोच रहा था —
"ये लड़की… क्यों हर बार मेरे दिल में तूफान मचा जाती है…
पास आती है तो डर लगता है…
दूर जाती है तो और ज़्यादा…"
उसे ये भी नहीं पता था कि
वेदांशी उसकी सबसे बड़ी कमजोरी बनती जा रही थी।
और कहीं दूर से…
एक जोड़ी आँखें उन्हें जाते हुए देख रही थीं।
पृथ्वी।
उसकी मुट्ठी हल्की-सी भींच गई।
कंटिन्यू....
पृथ्वी की आँखों के सामने
वेदांशी और अथर्व साथ-साथ चल रहे थे…
हँस नहीं रहे थे…
बातें भी नहीं कर रहे थे…
फिर भी…
उनके बीच कुछ ऐसा था
जो बहुत साफ दिख रहा था।
एक ऐसा कनेक्शन
जो पृथ्वी को अंदर से जलाने लगा।
उसकी मुट्ठियाँ और भी कस गईं।
जबड़े सख़्त हो गए।
उसने देखा
वेदांशी कैसे थोड़ासा झुककर
अथर्व से कुछ कह रही थी…
और कैसे
अथर्व का चेहरा हल्का-सा मुस्कुरा उठा…
वो मुस्कान
पृथ्वी की छाती में सीधे वार कर गई।
— — — — — — —
उधर वेदांशी और अथर्व…
स्कूल की सीढ़ियाँ चढ़ रहे थे।
“हमारी क्लास आज सेकंड फ्लोर पे है ना?”
अथर्व ने पूछा।
“हाँ…”
वेदांशी ने सिर हिलाया।
दोनों की चाल धीरे-धीरे स्लो हो चुकी थी। जैसे कोई भी नहीं चाहता था
कि ये साथ चलना खत्म हो।
“वेदांशी…?”
अथर्व ने अचानक उसका नाम लिया।
“हम्म?”
वो एक सेकंड के लिए रुका। कुछ कहना चाहता था
पर फिर चुप हो गया।
“क्या हुआ?”
वेदांशी हल्की-सी मुस्कान के साथ बोली।
“नहीं… कुछ नहीं…”
वो नज़रें चुराता हुआ बोला
“बस ऐसे ही…”
वेदांशी को उसकी वो झिझक
बहुत प्यारी लगती थी।
“…अगर कुछ है तो बोल सकते हो…”
वो बोली
“मैं बिल्कुल भी बुरा नहीं मानूंगी। ”
अथर्व हल्की-सी हँसी हँसा।
“पक्का?”
वो मज़ाक में बोला।
“पक्का…!”
वेदांशी ने सिर झटका।
वही पल था
जब उसकी नज़र पीछे चली गई—
और सामने
सीढ़ियों के नीचे
पृथ्वी खड़ा था।
वो उन्हीं को देख रहा था।
सीधे…वो भी बिना पलक झपकाए।
उसकी आँखों में ना मज़ाक था
ना मुस्कान
ना एटीट्यूड…
सिर्फ एक अजीब-सी आग थी।
वेदांशी का चेहरा
तुरंत सख़्त हो गया।
उसने जानबूझकर
नज़रें घुमा लीं।
जैसे वो वहाँ था ही नहीं।
अथर्व ने भी उसकी बदली हुई बॉडी लैंग्वेज नोटिस की।
“क्या हुआ?”
उसने धीरे से पूछा।
“कुछ नहीं…”
वेदांशी बोली
“…चलो।”
वो आगे बढ़ गई।
और ये देखकर
पृथ्वी का खून
और खौल गया।
उसने एक कदम आगे बढ़ाया…
फिर दूसरा…
“वेदांशी!”
उसने ऊँची आवाज़ में कहा।
पूरा कॉरिडोर
एक सेकंड के लिए शांत हो गया।
स्टूडेंट्स रुक गए।
कुछ लोग घूमकर देखने लगे।
वेदांशी ने रुककर
धीरे-धीरे पीछे देखा।
“क्या है?” वो ठंडी आवाज में बोली।
पृथ्वी उसके सामने आकर खड़ा हो गया।
इतना पास…
कि हवा तक भारी लगने लगी।
“कॉरिडोर में ड्रामा मत करो,”
वो धीमी आवाज़ में बोला
“बात करनी है तुमसे।”
वेदांशी ने भौं एकदम ऊपर चढ़ा दी—
“पर मुझे तुमसे कोई बात नहीं करनी।”
“पर मुझे करनी है।”,वो बोला।
“पर मैं तो नहीं सुनना चाहती।”
उसके इस जवाब पर
चारों तरफ से “ऊउऊ…” की हल्की-सी आवाज़ आई।
पृथ्वी की आँखें और भी गहरी हो गईं।
“एक मिनट ....प्लीज़।”
वेदांशी ने एक बार
अथर्व की तरफ देखा।
अथर्व चुप था। पर उसकी आँखों में हल्की-सी टेंशन नजर आ रही थी।
“ठीक है,”
वेदांशी ने आखिर कहा“सिर्फ एक मिनट ही।”
वो पृथ्वी के साथ
थोड़ा एक साइड में चली गई जहाँ लोग कम थे।
“बोलो अब।”
उसने साफ कहा।
पृथ्वी ने गहरी साँस ली—
“कल…” उसकी आवाज़ धीमी थी “…तुम ऐसे चली गई जैसे मैंने कुछ किया ही नहीं।”
वेदांशी ने ठंडी हँसी हँसी—
“वैसे तुमने किया भी क्या था?"
“मैंने तुम्हें गिरने से बचाया था।” वो बोला।
“तो क्या मुझे ताज पहनाना चाहिए तुम्हारे सर पर?",वो चिढ़ कर बोली।
पृथ्वी का गुस्सा
धीरे-धीरे दर्द में बदल गया।
“बात वो नहीं है…”
वो थोड़ा टूटी हुई आवाज़ में बोला“बात ये है कि… तुमने एक बार भी पीछे मुड़के नहीं देखा…”
वेदांशी चुप हो गई।
“क्यों देखती? तुम मेरे लिए कोई खास नहीं हो, पृथ्वी।”
ये शब्द
सीधे उसके सीने में लगे।
कुछ सेकंड वो कुछ बोल ही नहीं पाया।
“फिर वो अथर्व?”
वेदांशी की आँखों में तुंरत चमक आ गई।
“वो तुम्हारी तरह नहीं है।”
पृथ्वी के होंठों पर एक फीकी सी मुस्कान आ गई।
“तो अब क्लियर हो ही गया…”
“क्या?”वो हाथ बांधे बोली।
“कि तुम भी उसे पसंद करती हो।”पृथ्वी बोला।
वेदांशी ने उसकी आँखों में आँखें डालकर
बिलकुल सीधा जवाब दिया—
“हाँ… करती हूँ उसे पसंद।”
ये जवाब
पृथ्वी के दिल पर किसी वार से कम नहीं था।
एक पल के लिए उसके चेहरे के सारे रंग उड़ गए।
“तुम… सच में?”
उसकी आवाज़ इस बार सख़्त नहीं…
बल्कि कुछ भारी-सी थी।
“हाँ, सच में,”
वेदांशी ने बिल्कुल शांत स्वर में कहा।
ये सुनकर पृथ्वी ने एक पल के लिए आँखें बंद कर लीं।
असल बात ये थी कि…
जबसे पूरी क्लास को पता चला था कि अथर्व
वेदांशी को पसंद करता है
तबसे पृथ्वी बेचैन रहने लगा था।
उसे खुद समझ नहीं आ रहा था कि
उसे बुरा
अथर्व से लग रहा है…
या खुद से।
वही दूसरी तरफ —
अथर्व दूर खड़ा
सब कुछ देख रहा था।
वो बस…
वेदांशी के चेहरे के भाव पढ़ने में लगा था।
उसने देखा
कैसे वेदांशी का चेहरा सख़्त था
पर आँखों में हल्की-सी चोट भी थी।
कैसे वो खुद को मजबूत दिखाने की कोशिश कर रही थी
पर अंदर से काँप भी रही थी।
और तभी…
अथर्व के दिल में एक अजीब-सा ख्याल आया—
"ये बाहर से जितनी स्ट्रॉन्ग है, अंदर से उतनी ही नाज़ुक भी है…"
वही बात
उसे और ज़्यादा पसंद आने लगी…
उधर पृथ्वी आगे बोला—
“टीचर को पता चला तो फिर से सस्पेंड हो जाओगी…”
उसकी आवाज़ में अब चिंता कम
और हक़ जताने वाला लहज़ा ज़्यादा था।
वेदांशी चिढ़कर हँसी—
“तुम्हें क्या? पिछली बार तुमने ही तो मुझे सस्पेंड करवाया था ना…
याद है मुझे सब…” फिर उसने उँगली उठाकर उसकी तरफ इशारा किया—
“हुंह… बड़ा आया क्लास मॉनिटर!”
पृथ्वी के चेहरे पर एक पल के लिए अपराध-बोध सा उतर आया
लेकिन फिर तुरंत संभल गया—
“मैंने तुम्हारे भले के लिए किया था,”
उसने तर्क दिया।
“मेरा भला या अपना इगो?”
वेदांशी ने तीखा सवाल फेंका
“क्योंकि मुझे तो दोनों में फर्क साफ दिखता है।”
पृथ्वी कुछ सेकंड चुप रहा।
उसकी उँगलियाँ बेचैनी में हिलने लगीं।
वेदांशी चिढ़कर मुड़ी और तेज़ कदमों से आगे बढ़ने लगी।
“तुमसे बात करना भी मेरी सबसे बड़ी गलती है…”
वो धीमे से बुदबुदाई।
लेकिन हर शब्द
पृथ्वी के कान तक साफ पहुँच गया।
वो वहीं खड़ा रहा।
आँखें उसकी पीठ पर टिकी रहीं।
पृथ्वी को समझ नहीं आ रहा था कि उसे ये क्या हो रहा है…
वेदांशी से वो हमेशा लड़ता रहता था।
वो भी हर बार उसे बराबर का जवाब देती थी।
दोनों की नोंक-झोंक तो जैसे रोज़ की आदत थी।
पर आज…
कुछ अलग था।
उसका किसी और को पसंद करना…
“वो जिसे चाहे पसंद करे… मुझे क्या…”
उसने खुद से कहा।
मगर दिल उसी पल भारी हो गया।
कहीं… बहुत अंदर…
एक चुभन-सी उठी।
उसने मुट्ठी को फिर से कस लिया।
“मुझे क्या…”
उसने दोहरा कर फिर कहा।
उधर…
वेदांशी तेज़ी से कॉरिडोर पार कर रही थी।
उसका दिल भी जोर-जोर से धड़क रहा था।
“हुंह! प्रॉब्लम क्या है इसे मुझसे?”
वो खुद से बड़बड़ाने लगी।
…वो आगे बढ़ती जा रही थी।
और तभी…
उसे सामने
अथर्व खड़ा हुआ दिखा।
वो वहीं रुका हुआ था
जहाँ वो उसे छोड़कर आई थी।
वेदांशी रुक गई।
उसकी आँखें सीधी
अथर्व के चेहरे पर टिक गईं।
वो चेहरा…
अब भी उतना ही मासूम था।
वेदांशी की चिढ़ी हुई शक्ल देखकर
अथर्व का चेहरा
और भी ज़्यादा नरम पड़ गया।
उसकी भौहें हल्की-सी सिकुड़ीं,
जैसे वो धीरे से पूछ रहा हो —
“तुम ठीक हो ना…?”
…वेदांशी का मन एक पल के लिए सच में कर गया
कि अभी… यहीं…
सबके सामने
वो इस क्यूट-से लड़के के गले लग जाए।
उसकी सारी अकड़, सारी चिड़चिड़ाहट
उसकी एक मासूम–सी शक्ल देखकर पिघलने लगी थी।
पर ये स्कूल था।
और चारों तरफ बच्चे
आते–जाते…
घूरते…
फुसफुसाते…
वेदांशी ने जल्दी से
अपने जज़्बातों को अंदर ही अंदर कस लिया।
उसने बस इतना ही कहा— “चलो… क्लास में।”
बस दो शब्द।
पर उसके पीछे छुपा सुकून
अथर्व ने महसूस कर लिया।
“ओ…के।”
वो हल्का-सा मुस्कुरा कर बोला।
दोनों फिर से
साथ-साथ चलने लगे…
वेदांशी झिंझोड़ते हुए बोली— “तुम वहाँ खड़े क्यों थे वैसे?”
अथर्व ने मासूमियत से कंधे उचकाए— “वो पृथ्वी… मुझे नहीं पसंद…
और तुम्हारी और उसकी तो रोज़ ही बहस होती रहती है न…”
उसकी आवाज़ धीरे-धीरे और सॉफ्ट हो गई,
“…तो मैं रुका ही रहा… क्योंकि उसके साथ तुम्हारा मूड बहुत खराब हो जाता है…”
…वेदांशी के होंठ खुलने को आए…
पर शब्द… जैसे अटक गए।
उसका दिल तो बहुत कुछ बोलना चाहता था—
“तुम इतने अच्छे क्यों हो?”
“तुम ऐसा मत किया करो…”
“मुझे सच में अजीब लग रहा है…”
पर जुबान…
बस चुप रह गई।
“कुछ बोलोगी?”
अथर्व ने हल्के से पूछा।
“नहीं… कुछ नहीं…”
वो जल्दी से नज़रें चुराती हुई बोली
“…चलो, लेट हो रहे हैं।”
दोनों क्लास के दरवाज़े के सामने आ गए थे।
अथर्व ने दरवाज़ा खोला और एक तरफ होकर कहा— “आफ्टर यू, मैडमजी ।”
वेदांशी उसकी इस हरकत पर हल्की-सी मुस्कुरा दी और अंदर चली गई।
क्लास लगभग आधी भर चुकी थी।
कशिश और अहाना पहले से अपनी सीट पर थीं।
वेदांशी को देखते ही कशिश और अहाना ने नाराजगी से मुंह मोड़ दिया।
वेदांशी की नज़र जैसे ही उन पर पड़ी, उसका दिल और ज़ोर से धड़कने लगा।
उसे याद आया…
आज वो बिना बताए अकेली चली आई थी।
वो धीरे-धीरे उनके पास आई।
“कशिश…सॉरी यार…बस आज थोड़ा जल्दी निकल गई थी… बताना भूल गई…”
कशिश ने तुरंत अपने दोनों हाथ कानों पर रख लिए।
“लालालालाला… हम कुछ नहीं सुन रहे…”
उसने बच्चों की तरह मुँह बना लिया।
अहाना ने भी उसी की नकल करते हुए कान बंद कर लिए— “नो सॉरी, नो एक्सप्लनेशन…”
वेदांशी का चेहरा उतर गया।
“अरे यार… ऐसे मत करो…”
उसने हल्के-से उनके कंधे पर हाथ रखा
“गलती हो गई मुझसे…”
लेकिन दोनों ऐसे बैठी थीं
जैसे उसे वहाँ देखकर भी नहीं देख रही हों।
और तभी…
क्लास का दरवाज़ा ज़ोर से खुला।
“गुड मॉर्निंग क्लास।”
पूरी क्लास एक साथ खड़ी हो गई— “गुड मॉर्निंग मैम।”
टीचर अंदर आईं…
…और उनके ठीक पीछे-पीछे
पृथ्वी भी हाथ में अटेंडेंस रजिस्टर लिए हुए आया।
टीचर की नज़र तुरंत वेदांशी पर गई।
“वेदांशी, अपनी सीट पर जाकर बैठो। क्लास शुरू हो हो चुकी है।”
वेदांशी ने कशिश और अहाना की तरफ देखा…
वो अब भी ऐसे ही मुँह फेरे बैठी थीं।
दिल में एक हल्की-सी टीस उठी
पर उसने कुछ कहा नहीं।
धीरे से बैग उठाया…
और जाकर
दूसरी बेंच पर अकेले बैठ गई।
टीचर पढ़ाने लगीं—“तो जैसा कि आपने पिछले पीरियड में पढ़ा था…”
पर वेदांशी का दिमाग
कहीं और ही था…
वेदांशी ने धीरे से
अपनी आँखें बंद कीं।
“आज तो सच में सब गड़बड़ हो गया है…”
वो बुदबुदाई।
लेकिन तभी…
अचानक उसकी बेंच पर
एक छोटा-सा, मुड़ा हुआ पेपर आकर गिरा।
वेदांशी चौंकी।
धीरे से
वो पर्ची उठाई…
और खोली।
उसमें बस दो लाइनें थीं…
“उदास मत होओ…साइड में मैं हूँ, याद है न।”
नीचे एक छोटा-सा स्माइली बना था — 🙂
वेदांशी की नज़र
धीरे-धीरे
अथर्व की तरफ उठी…
कंटिन्यू....
टीचर की आवाज़ पूरे क्लासरूम में गूँजी—
“तो जैसे हमने लास्ट पीरियड में डिस्कस किया था… जो-जो स्टडी ग्रुप्स बनाए गए थे, वो सब ठीक से काम कर रहे हैं न?”
कुछ बच्चे सिर हिलाने लगे। कुछ ने हल्की-हल्की “यस मैम” भी कहा।
टीचर की नज़र अटेंडेंस रजिस्टर पर गई… फिर एक-एक नाम पढ़ते हुए बोलीं—
“कशिश, अहाना… आपका ग्रुप?”
“यस, मैम…”
“पृथ्वी, वेदांशी… तुम लोगों का?”
जैसे ही ये नाम एक साथ लिए गए, क्लास में अचानक एक हल्की-सी हलचल फैल गई। कुछ बच्चों ने तुरंत वेदांशी की तरफ देखा, कुछ ने पृथ्वी की तरफ।
वेदांशी बिना एक्सप्रेशन के अपनी कॉपी में खाली पन्ना घूरने लगी।
पृथ्वी खड़ा हो गया।
“मैम… ये वेदांशी मेरी बाते सुनती ही नहीं है,” उसकी आवाज़ में झुंझलाहट साफ थी “मैं इसे कुछ समझाता हूँ तो बस इसका मुंह बन जाता है…”
पूरा क्लास एकदम शांत हो गया।
सबकी नज़र अब सिर्फ वेदांशी पर थी।
टीचर की भौंहें तन गईं। “वेदांशी? क्या ये सच है?”
“मैम…” वो आराम से खड़ी हुई “वो मुझे समझाता नहीं है। ऑर्डर देता है।”
क्लास से एकदम “ओह…” की आवाज़ आई।
पृथ्वी की आँखें सिकुड़ गईं।
“मैं ऑर्डर नहीं देता, मैं बस—”
टीचर ने ज़ोर से टेबल पर पेन रखा।
“साइलेंस!”
वो दोनों को बारी-बारी से देखने लगीं।
“अगर तुम्हें साथ में काम करना है, तो दोनों को एक-दूसरे की सुननी होगी।”
टीचर ने दोनों को बारी-बारी से देखते हुए गहरी साँस ली…
फिर क्लास की तरफ नज़र घुमाई और बोलीं—
“कंटिन्यू करते हैं…”
“क्योंकि स्टडी ग्रुप का मतलब झगड़ा नहीं… को-ऑपरेशन है।”
फिर उनकी उँगली सीधे अटेंडेंस रजिस्टर पर गई।
“और एक बात साफ कर दूँ…”
टीचर की आवाज़ अब थोड़ी नर्म पर प्रभावशाली थी—
“इस क्लास में अगर किसी के सबसे ज़्यादा मार्क्स आते हैं…
तो वो पृथ्वी है।”
पूरा क्लास एक बार फिर से हलचल में आ गया।
कुछ बच्चों ने सर हिलाकर हामी भरी
कुछ ने चुपके से पृथ्वी की तरफ देखा।
“पृथ्वी हमेशा टॉप 3 में रहता है।”
“डिसिप्लिन्ड है…फोकस्ड है…और जिम्मेदार भी।”
पृथ्वी का चेहरा नॉर्मल ही रहा।
टीचर की नज़र अब धीरे से…
वेदांशी की तरफ गई।
“और वेदांशी…”
उन्होंने हल्की-सी मुस्कान के साथ कहा—
“तुम लकी हो… जो तुम्हारे ग्रुप में ऐसा पार्टनर है।”
वेदांशी का दिल एक अजीब-सी गति से धड़कने लगा।
उसने धीरे से सिर झुका लिया।
“अगर तुम दोनों साथ मिलकर ठीक से पढ़ाई करो…”
“तो यकीन मानो— ये जोड़ी क्लास की सबसे स्ट्रॉन्ग जोड़ी बन सकती है।”
“पृथ्वी…”
टीचर ने कहा
“तुम्हारी जिम्मेदारी है कि तुम वेदांशी को गाइड करो…
और वेदांशी— तुम्हें उसकी रिस्पेक्ट करनी होगी।”
सारा क्लास साँस रोक कर ये सीन देख रहा था।
वेदांशी की नज़र
अनजाने में
धीरे-धीरे
पृथ्वी की तरफ उठ गई।
सिर्फ एक सेकंड के लिए।
पृथ्वी भी उसे ही देख रहा था।
वेदांशी ने फौरन नज़रें वापस झुका लीं।
मैम के जाने के बाद क्लास में जो सन्नाटा था… वो अचानक टूट गया।
टीचर के कदमों की आवाज़ जैसे ही कॉरिडोर में दूर हुई, पूरी क्लास में फिर से फुसफुसाहटें शुरू हो गईं।
कोई इधर देख रहा था, कोई उधर…
पर सबकी आँखें बस एक ही तरफ टिक-टिक कर जा रही थीं — पृथ्वी और वेदांशी की तरफ।
और पृथ्वी… अपनी सीट पर बैठा…
पेन्सिल घुमाने में लगा था…
जैसे अभी-अभी जो कुछ भी हुआ… उसे फर्क ही नहीं पड़ा हो।
उधर,
वेदांशी चुपचाप अपनी कॉपी खोलकर पन्ने को घूर रही थी।
तभी उसकी बेंच के पास हल्की-सी परछाईं गिरी।
वो सिर उठाकर देखती है…
अथर्व खड़ा था।
वो चुपचाप उसकी खाली बेंच की तरफ इशारा करते हुए बोला—“यहाँ बैठ सकता हूँ क्या?”
वेदांशी ने बस हल्का-सा सिर हिलाया —
“हम्म…”
अथर्व बैठ गया।
कुछ सेकंड साइलेंस के बाद… उसने धीरे से पूछा—
“तुम ठीक हो?”
वेदांशी ने आँखें घुमाकर नकली मुस्कान चिपका ली—
“मैं ठीक ही रहती हूँ… दुनिया खराब है बस…
लेकिन आज… सच में बहुत इरिटेटिंग दिन है…”
अथर्व ने उसकी तरफ देखा—
“पृथ्वी की वजह से?”
वेदांशी कुछ पल चुप रही।
फिर बोली—
“नहीं…
उसकी वजह से नहीं…”
उसने धीरे से उसकी तरफ देखा—
“बल्कि इसलिए… क्योंकि उसकी बातों का असर अब
मुझ पर नहीं होना चाहिए…पर असर हो रहा है…”
अथर्व की भौंहें हल्की-सी सिकुड़ गईं।
“और वो मुझे पसंद नहीं…”
उसने अपनी मुट्ठी बाँध ली—
“मैं रिएक्ट नहीं करना चाहती उस पर…
लेकिन वो जानबूझकर मुझे प्रोवोक करता है…
और मैं… बेवकूफों की तरह… फँस जाती हूँ।”
अथर्व कुछ नहीं बोला।
बस उसकी बात सुनता रहा…
जैसे ये पल सिर्फ वेदांशी का हो।
फिर वो धीमे से बोला,“कुछ लोग… गुस्से में ज़्यादा अच्छे लगते हैं…”
वेदांशी ने झट से उसकी तरफ देखा।
“क्या मतलब?”
अथर्व ने बोलने के लिए मुंह खोला ही था कि
तभी…
पीछे से एक कुर्सी ज़ोर से खिसकने की आवाज़ आई।
वेदांशी मुड़ी।
सामने पृथ्वी खड़ा था।
उसकी नजरें सीधी
अथर्व और वेदांशी पर थीं।
एक सेकंड…
दो सेकंड…
और फिर वो ठंडे स्वर में बोला—
“काफी आराम से बातें हो रही हैं, लगता है…”
पूरी क्लास की नजरें फिर से उन तीनों पर टिक गईं।
वेदांशी अब धीरे-धीरे कुर्सी से सीधी बैठी।
“तुम्हें कोई प्रॉब्लम है, पृथ्वी?”उसने सीधा सवाल फेंका।
पृथ्वी ने एक फीकी हँसी के साथ जवाब दिया—
“नहीं…मुझे क्या प्रॉब्लम होगी…”
फिर वो बेंच पर हाथ रखकर थोड़ा झुका और धीरे से बोला—
“मैडम ने कहा है…मैं तुम्हारा गाइड हूँ…
तो अब अगर कोई और बीच में आएगा…”
उसकी नज़र अथर्व पर गई…“तो स्ट्रॉन्ग जोड़ी कैसे बनेगी, वेदांशी?”
अथर्व की मुट्ठियाँ कस गईं। उसने पल भर के लिए पृथ्वी को घूरा।
“पृथ्वी! मैं मान रही हूँ ना तुम्हारी बात…” वेदांशी की आवाज़ आई …
“मानूंगी तुम्हारे रूल्स भी, तुम्हारी गाइडेंस भी… बस ये तमाशा मत करो!”
“तमाशा?मैं बस तुम्हें याद दिला रहा था कि तुम्हें अपना फोकस किस पर रखना चाहिए।”
वो आगे बोला,"वैसे भी....प्रीबोर्ड शुरू होने वाले हैं दो महीने बाद...फेल हो जाओगी न तब समझ आएगा...वैसे भी ये अथर्व एवरेज ही है स्टडी में।"
अथर्व को लगा जैसे किसी ने तमाचा मारा हो।
वेदांशी ने गहरी साँस ली। "पृथ्वी, मैं समझती हूँ कि तुम क्या कहना चाहते हो, लेकिन..."
तभी, अथर्व उठ खड़ा हुआ। "वेदांशी, मुझे लगता है कि मुझे जाना चाहिए।"
वेदांशी ने उसे जाने से रोकने की कोशिश की, "अथर्व..."
लेकिन अथर्व ने उसकी बात अनसुनी कर दी और क्लास से बाहर निकल गया।
क्लास में सन्नाटा छा गया। अथर्व के जाने के बाद, पृथ्वी और वेदांशी एक-दूसरे की तरफ देख रहे थे। वेदांशी की आँखों में गुस्सा था, जबकि पृथ्वी का चेहरा नॉर्मल था।
"तुमने ऐसा क्यों कहा?" वेदांशी ने पूछा।
"मैंने सच ही तो कहा," पृथ्वी ने जवाब दिया। "तुम्हें फोकस करना चाहिए। वैसे भी इस एज में सिर्फ अट्रैक्शन होता है। "
"मुझे तुम्हारी सलाह की ज़रूरत नहीं है," वेदांशी ने कहा। "मैं अपनी पढ़ाई खुद कर सकती हूँ।"
"ज़रूरत है," पृथ्वी ने कहा। "और तुम ये अच्छे से जानती हो ।"
वेदांशी ने अपना सिर घुमाया। उसे पता था कि पृथ्वी सही कह रहा है, लेकिन वो उसे अभी सुनना नहीं चाहती थी।
"तुम हमेशा यही करते हो," उसने कहा। "मुझे नीचा दिखाते हो, मुझे कंट्रोल करने की कोशिश करते हो।"
"मैं तुम्हें कंट्रोल नहीं कर रहा हूँ," पृथ्वी ने कहा। "मैं बस तुम्हारी मदद करना चाहता हूँ।"
"मुझे तुम्हारी मदद नहीं चाहिए।"
"चाहिए। तुम मानती हो या नहीं, लेकिन तुम्हें मेरी मदद की ज़रूरत है।"
वेदांशी ने उसकी आँखों में देखा, फिर अपनी आँखों को घुमा लिया। "मुझे अकेले छोड़ दो।"
पृथ्वी ने एक गहरी साँस ली। "ठीक है।" वो अपनी सीट पर वापस चला गया।
क्लास में फिर से सन्नाटा छा गया। वेदांशी ने अपनी कॉपी खोली और पन्ने को घूरने लगी। क्या उसे पृथ्वी की बात माननी चाहिए? क्या उसे उसकी मदद लेनी चाहिए?
क्लास खत्म होने के बाद, वेदांशी ब्रेक टाइम में अथर्व को ढूंढती हुई ग्राउंड की तरफ गई। अथर्व एक बेंच पर बैठा कुछ सोच रहा था। वेदांशी के आने पर, वो नज़रें चुराने लगा।
वेदांशी ने पूछा, "क्या हुआ? तुम क्लास में वापस क्यों नहीं आए?"
अथर्व चुप रहा।
वेदांशी ने फिर पूछा, "चुप क्यों हो?"
अथर्व ने हल्की-सी साँस छोड़ी। फिर बहुत धीरे बोला —
“क्योंकि पृथ्वी… गलत नहीं था…”
वेदांशी की आँखें फैल गईं — “क्या?”
अथर्व ने उसकी तरफ़ देखे बिना कहा —
“प्री-बोर्ड्स आने वाले हैं… हमें सच में पढ़ना चाहिए… ग्रुप स्टडी करनी चाहिए…”
“और…” उसने हल्की-सी हँसी के साथ ज़मीन की तरफ़ देखा —“मैं तो वैसे भी एवरेज ही हूँ स्टडी में… मुझे ज़्यादा ध्यान देना चाहिए…”
एक पल के लिए… वेदांशी कुछ बोल ही नहीं पाई।
उसके सीने में एक अजीब-सी जलन उठी।
“तो तुम्हें लगता है कि तुम एवरेज हो?”
अथर्व ने कंधे उचका दिए — “हूँ ही तो… ये तो सच है…”
वेदांशी ने उसके सामने आकर खड़े होते हुए कहा —
“नहीं…एवरेज वो होता है जो कोशिश करना छोड़ देता है… और तुम… कोशिश करने वालों में से हो…”
अथर्व अभी भी कुछ नहीं बोला तो वेदांशी ने आगे बढ़ कर उसका हाथ पकड़ लिया।
अथर्व को जैसे करंट-सा लगा।
उसकी साँस एक पल के लिए अटक गई। दिल बेतहाशा तेज़ धड़कने लगा और उसके कान सच में लाल हो गए।
वो झटके से उसकी तरफ़ देख बैठा —
“त-तुम…?”
वेदांशी भी एक सेकंड के लिए रुक गई… उसे खुद नहीं पता था उसने ऐसा क्यों किया।
लेकिन अब जब हाथ पकड़ ही लिया था… तो छोड़ने का मन भी नहीं था।
उसने थोड़ा सा हाथ और कस लिया।
“तुम एवरेज नहीं हो, अथर्व… तुम बस खुद पर भरोसा करना भूल गए हो।”
अथर्व ने धीरे से अपना हाथ छुड़ाने की कोशिश की —
“वेदांशी… बाकी लोग देख रहे हैं…”
“देखने दो…” उसने हल्की-सी जिद के साथ कहा।
अथर्व ने नज़रें इधर-उधर घुमाईं, फिर धीरे से वेदांशी की तरफ देखा।
“मुझे क्या करना चाहिए?” अथर्व ने धीरे से पूछा।
वेदांशी ने मुस्कराते हुए कहा, "हमें पढ़ाई शुरू करनी चाहिए। चलो, कल से ग्रुप स्टडी करते हैं। पृथ्वी को भी बुलाएंगे।"
अथर्व ने थोड़ा हिचकिचाते हुए कहा, "पृथ्वी को?"
"हाँ, वो टॉपर है। और मुझे लगता है कि पृथ्वी जानता है कि हमे क्या करना है।"
अथर्व ने गहरी साँस ली। "ठीक है। लेकिन..."
"लेकिन क्या?" वेदांशी ने पूछा।
कंटिन्यू....
"लेकिन क्या?" वेदांशी ने पूछा।
अथर्व ने नजरे झुका के कहा —
“मुझे खुद से दूर तो नहीं करोगी न।”
वेदांशी का दिल जैसे वहीं रुक गया।
“मैं तुम्हें दूर क्यों करूँगी, अथर्व? तुम मेरे दोस्त हो… और…”
उसने शब्द ढूँढते हुए हल्की-सी मुस्कान के साथ कहा —
“मुझे भी हमेशा तुम्हारे साथ ही रहना है…”
अथर्व के चेहरे पर अभी भी अजीब सी बैचेनी थी।उसकी उंगलियाँ अनजाने में काँप रही थीं।
वेदांशी की नज़र सबसे पहले वहीं गई।
उसका माथा सिकुड़ गया —
“अथर्व…? तुम ठीक तो हो न…?”
लेकिन उसने कोई जवाब नहीं दिया।
अब उसके माथे पर पसीने की पतली-पतली बूंदें उभरने लगीं…
फिर एक बूंद…
फिर दूसरी…
सीधे उसकी पलक के पास से फिसलती हुई ठुड्डी तक आ पहुँची।
वेदांशी घबरा गई।
“अथर्व… प्लीज़ कुछ बोलो…”
उसने उसका हाथ कसकर पकड़ लिया।
उसकी त्वचा ठंडी हो रही थी…
पर पसीना लगातार गिर रहा था।
“हे भगवान…”
उसने उसे पकड़कर बेंच पर बैठा दिया।
“अथर्व… मेरी तरफ देखो…”
कोई हलचल नहीं हुई ।
सिर्फ उसकी तेज चलती साँसें सुनाई दे रही थी… जो अब धीमी पड़ने लगीं।
“अथर्व!!” उसका नाम अब थोड़ा तेज़ निकल पड़ा।
कुछ बच्चे मुड़कर देखने लगे।
“अथर्व क्या हुआ तुम्हें??”
पर अगले ही पल…
उसका सिर एक तरफ झुक गया…
पूरा शरीर ढीला पड़ गया…
और…
वो सीधा वेदांशी की बाहों में गिर पड़ा।
“अथर्व!!!”
उसके मुँह से एक छोटी-सी चीख निकल गई।
ग्राउंड में खेलते बच्चे दौड़ते हुए आ गए।
“कोई सर को बुलाओ!”
“मैम को बुलाओ!”
कोई पानी लाओ!”
सब आवाज़ें गड्ड-मड्ड हो गईं…
लेकिन वेदांशी के कानों में कुछ नहीं जा रहा था।
सिर्फ वही शब्द गूंज रहे थे… जो उसने कुछ मिनट पहले कहा था—
"मुझे खुद से दूर तो नहीं करोगी न…?"
और उसका खुद का जवाब—
"मुझे भी हमेशा तुम्हारे साथ ही रहना है…"
उसका दिल जैसे फटने लगा।
उसने उसके गाल थपथपाए—
“अथर्व… प्लीज़ उठो…
तुमने कहा था न… दूर नहीं जाऊँगा…
तो फिर अब क्यों जा रहे हो…?”
उसकी आवाज़ भर्रा गई।
एक और पसीने की बूंद…
सीधे अथर्व के माथे से गिरकर वेदांशी की कलाई पर जा गिरी।
तभी भीड़ को चीरते हुए
एक जाना-पहचाना स्वर आया—
“हटो… उसे सांस लेने की जगह दो…”
वेदांशी ने सिर उठाकर देखा…
पृथ्वी खड़ा था।
पृथ्वी बिना एक सेकंड गँवाए आगे बढ़ा।
उसने झुककर अथर्व का कंधा पकड़ा और उसका सिर अपने बाजू पर टिकाया।
“वेदांशी, संभालो उसके पैरों को…” उसकी आवाज़ में घबराहट छुपाने की नाकाम कोशिश थी।
वेदांशी काँपते हाथों से अथर्व के पैर पकड़ते हुए बोली —
“वो… वो ठीक हो जाएगा न, पृथ्वी…?”
“कुछ नहीं होगा उसे…” पृथ्वी ने जबरदस्ती सख़्ती दिखाते हुए कहा—
“मैं हूँ न यहाँ…”
लेकिन उसके अपने हाथ हल्के-हल्के काँप रहे थे।
दोनों ने मिलकर अथर्व को उठाया और तेज़ी से मेडिकल रूम की तरफ चल दिए।
चारों तरफ बच्चे रास्ता छोड़ते जा रहे थे।
“अथर्व… आँखें खोलो…”
वो बुदबुदाती जा रही थी“बस एक बार… मेरी तरफ देख लो…”
लेकिन कोई जवाब नहीं।
मेडिकल रूम पहुँचते ही
पृथ्वी ने पैर से दरवाज़ा खोल दिया।
“मैम!!” उसने ज़ोर से आवाज़ लगाई —
“एमरजेंसी है!”
नर्स और स्पोर्ट्स टीचर दौड़ते हुए आए।
“इसे बेड पर लिटाओ जल्दी!”
दोनों ने उसे धीरे से बेड पर सुलाया।
नर्स ने उसकी नब्ज़ चेक की।
ब्लड प्रेशर मशीन लगाई।
ऑक्सीजन का छोटा सा मास्क उसके चेहरे पर रखा।
वेदांशी दीवार के पास खड़ी काँप रही थी।
“ये सब मेरी वजह से हुआ…?”
उसने खुद से कहा।“क्या मैंने कुछ गलत कहा…?
क्या मैंने उसे किसी उम्मीद में डाल दिया…?”
अचानक—
एक सख़्त-सी आवाज़ गूँजी —
“सब बच्चे बाहर जाओ… यहाँ भीड़ मत लगाओ।”
वो सीनियर टीचर थीं। उनका चेहरा गंभीर था।
नर्स अभी भी अथर्व की नब्ज़ और साँसें जाँच रही थी।
वेदांशी बिना पलक झपकाए उसे देखे जा रही थी…
जैसे अगर एक पल के लिए भी नज़र हटाई, तो वो फिर से खो जाएगा।
तभी टीचर की नज़र वेदांशी और पृथ्वी पर पड़ी।
“तुम दोनों…”
उन्होंने सख़्ती से कहा —
“यहाँ खड़े रहने की जरूरत नहीं है।”
वेदांशी हड़बड़ा गई —
“मैम… लेकिन… उसकी हालत—”
“डॉक्टर देख लेंगे।”
टीचर ने बात काटते हुए कहा —
“तुम्हारा यहाँ कोई काम नहीं है। जाओ अपनी क्लास में।”
पृथ्वी ने धीरे से वेदांशी की तरफ देखा।
“चलो…”
वेदांशी की आँखें फिर अथर्व पर चली गईं।
उसका चेहरा अब थोड़ा शांत लग रहा था…
पर फिर भी बेहोश…
“अथर्व…”
वो बुदबुदाई —“मैं बाहर हूँ… कहीं जा नहीं रही…”
शायद वो सुन सकता था…
शायद नहीं…
फिर भारी कदमों से
वो पृथ्वी के साथ मेडिकल रूम से बाहर आ गई।
दरवाज़ा बंद हुआ…
और उसके साथ ही…
जैसे उसके दिल पर भी एक दरवाज़ा बंद हो गया।
“वो ठीक हो जाएगा न…?”
वेदांशी ने बिना उसकी तरफ देखे पूछा।
पृथ्वी ने कोई जवाब नहीं दिया।
अगले ही पल वेदांशी की सिसकी फूट गई।
वो दीवार के सहारे सरकती हुई नीचे बैठ गई। अपने घुटनों में चेहरा छुपा लिया।
“ये मेरी गलती है…” उसकी आवाज़ काँप रही थी, “मुझे उसे… मुझे उससे वो सब नहीं कहना चाहिए था…”
पृथ्वी एक पल के लिए वहीं खड़ा रहा। फिर वो धीरे से झुका। उसके सामने बैठ गया।
“वेदांशी…तुम्हारी कोई गलती नहीं है।”
वो सिर हिलाती हुई रो पड़ी। “तो फिर वो यूँ क्यों गिर गया, पृथ्वी? वो बिल्कुल ठीक था… अभी तो बातें कर रहा था मुझसे…”
पृथ्वी का जबड़ा कस लिया।
“शायद… उसे पहले से कुछ था,” वो धीरे बोला, “चक्कर आना… लो बीपी… या कुछ और…”
“नहीं…” वेदांशी ने काँपते हुए कहा, “वो तो रोज़ की तरह हँस रहा था… बस… बस आज थोड़ा अजीब था… जैसे कुछ कहना चाहता हो…”
उसने अपनी कलाई देखी… जहाँ अथर्व की पसीने की बूंद गिरी थी।
“अगर उसे कुछ हो गया ना…” उसकी साँस अटक गई, “तो मैं खुद को कभी माफ़ नहीं कर पाऊँगी…”
“कुछ नहीं होगा यार उसे,”
पृथ्वी ने धीरे से साँस छोड़ी… फिर अपनी घड़ी की तरफ देखा।
“चलो वेदांशी…” उसने फिर थोड़ी सख़्ती से कहा, “क्लास मिस हो जाएगी…और हमें बोर्ड्स की भी तैयारी करनी है…”
वेदांशी ने झट से सिर उठा लिया।
“तुम ये कैसे कह सकते हो, पृथ्वी…?” उसकी आवाज़ काँप रही थी, “वो अंदर बेहोश पड़ा है… और तुम कह रहे हो क्लास…?”
“वेदांशी…” वो धीरे बोला, “डॉक्टर और नर्स वहाँ हैं।”
“पर मैं उसे अकेला नहीं छोड़ सकती…” वो आंसुओं से भरी आंखों को पोंछते हुए बोली।
“वो अकेला नहीं है,” पृथ्वी चिढ़ कर बोला, “स्टाफ है… और कुछ देर में उसके पेरेंट्स भी आ जाएंगे। हमारे बोर्ड्स है वेदांशी…हम लोगों का पूरा फ्यूचर इसी पर टिका है… हमें पढ़ाई पर ध्यान देना चाहिए… किसी और के ऊपर नहीं…”
“किसी के ऊपर नहीं…?” वो धीरे-धीरे बोली, “वो ‘कोई’ नहीं है, पृथ्वी… वो मेरा दोस्त है…”
ये सुन पृथ्वी बोला,
“और मैं? मैं तुम्हारा क्या हूँ, वेदांशी?”
“तुम…?”
पृथ्वी थोड़ा और पास आ गया।
“हाँ। मैं!"
वेदांशी की आँखें तेज़ हो गईं।
“तुम मेरे दुश्मन हो, पृथ्वी…”
पृथ्वी ठिठक गया।
“क्या?”
“हाँ,” उसने खुद को संभालते हुए कहा,
“तुम तब मेरे साथ होते हो जब सब आसान होता है… हँसी-मज़ाक, नोक-झोंक, क्लास में झगड़ा करना , टीचर्स से बचना… लेकिन जब अथर्व बेहोश हुआ तो तुमने उसे ‘कोई ‘ कहा....वो मेरा सबकुछ है समझे तुम।"
पृथ्वी की मुट्ठियां कस गई।
उसके चेहरे के भाव बदल गए।
“तुमने अभी क्या कहा…?”
“मैं… मैं सिर्फ़ यही कह रही थी कि…”
पृथ्वी ने एक कदम और बढ़ाया, उसकी साँसें गहरी और तेज़ हो गईं।
“अथर्व तुम्हारा सबकुछ है…?”
वेदांशी ने हां में सिर हिलाया।
पृथ्वी का जबड़ा पूरी तरह कस चुका था। गर्दन की नसें उभर आई थीं।
“अथर्व… तुम्हारा सबकुछ है?” उसने दाँत भींचते हुए दोहरा कर कहा।
वेदांशी ने भी पीछे हटने की जगह खुद को और सीधा खड़ा कर लिया।
“हाँ। और इसमें तुम्हें इतना प्रॉब्लम क्यों हो रहा है?तुम्हें तो खुशी होनी चाहिए न? जिस ‘कोई’ को तुम कुछ नहीं समझते… वो मेरे लिए सबकुछ है।”
पृथ्वी का दिमाग सच में खराब हो गया।
“तुम्हें पता भी है तुम क्या बोल रही हो, वेदांशी?”
उसने पास आकर धीमी लेकिन जहरीली आवाज़ में कहा —
“वो लड़का अंदर बेहोश पड़ा है, शायद उसे कुछ सीरियस हो… और तुम उसके लिए इतना पजेसिव हो रही हो?”
“पजेसिव?”
वो हँस दी, लेकिन आँखों में आँसू तो अब थे।
“वो मेरा दोस्त है, पृथ्वी… वो मुझे पसंद करता है… और हाँ… मैं भी उसे पसंद करती हूँ। इसमें गलत क्या है?”
ये शब्द…
सीधे पृथ्वी के सीने में जाकर लगे।
पहली बार… उसे ऐसा लगा जैसे किसी ने उसकी सांसें ही छीन ली हों।
“तो फिर मैं यहाँ क्यों हूँ?” वो लगभग फुसफुसाया खुद में ही।
“तुम यहाँ इसलिए हो क्योंकि तुम्हें हर जगह ताक-झांक करने की आदत है।”वेदांशी ने गुस्से में जवाब दिया।“क्लास में, ग्राउंड में, मेरे पास… हर जगह!”
“ताक-झांक?”
वो एक पल के लिए हँसा… लेकिन वो हँसी डरावनी थी।
“तुम्हें परेशान करना मुझे शुरू से पसंद था, वेदांशी… क्योंकि तुम चिढ़ती थी… और वो तुम्हारा चेहरा…”
उसकी नज़र उसके होंठों पर जाकर रुकी —“…मुझे अच्छा लगता था।”
वेदांशी ठिठक गई।
“क्या बकवास कर रहे हो तुम…”
“बकवास?” उसकी आँखें और गहरी हो गईं।
“बकवास तब होती है… जब तुम्हें पता चले कि जिस इंसान के लिए तुम अभी रो रही हो… वो इतना भी शुद्ध नहीं है जितना तुम समझ रही हो।”
“चुप रहो!”
वेदांशी का हाथ अपने आप ऊपर उठा…
पर वो थप्पड़ नहीं मार पाई…
बस मुट्ठी बना कर काँप गया।
“अथर्व के बारे में एक शब्द भी मत बोलना…”
“क्यों?”
पृथ्वी ने उसकी कलाई पकड़ ली ... कसकर।
“हाथ छोड़ो मेरा!” उसने झटके से छुड़ाने की कोशिश की।
लेकिन उसने हाथ नहीं छोड़ा…
वो और कसता चला गया।
वेदांशी के चेहरे का रंग उड़ने लगा। उँगलियों में झनझनाहट दौड़ गई। कलाई जैसे जलने लगी थी।
“पृथ्वी… छोड़ो… दर्द हो रहा है…”
लेकिन पृथ्वी की आँखों में इस समय कोई नरमी नहीं थी। बस एक अजीब-सा पागलपन… एक दबा हुआ गुस्सा…
“तुम्हें दर्द हो रहा है?”
उसने दाँत भींचते हुए दोहराया —
“अच्छा है… कम से कम तुम्हें एहसास तो हो रहा है कुछ का…”
“क्या एहसास?!” वेदांशी ने तकलीफ में कराहते हुए पूछा, “तुम पागल हो गए हो क्या, पृथ्वी…? छोड़ो मुझे… लोग देख रहे हैं…”
कॉरिडोर में रुक-रुक कर कुछ बच्चे झाँकने लगे थे। दो लड़कियाँ फुसफुसाकर कुछ कहने लगीं।
लेकिन पृथ्वी को जैसे कुछ दिख ही नहीं रहा था।
“तुम्हें पता है… मैं रोज़ तुम्हें देखता था,”
वो बेहद धीमी, खौफनाक आवाज़ में बोला —
“जब तुम हँसती थी… जब गुस्सा करती थी… जब मुझे देखकर आँखें घुमाती थी…”
वेदांशी की साँसें तेज हो गईं।
“मैं सब सिर्फ़ मज़ाक समझती थी…” उसकी आँखें भर आईं, “पर तुम तो… तुम तो सच में…”
“हाँ।”
उसने एक पल के लिए उसकी कलाई थोड़ी ढीली की, लेकिन छोड़ी नहीं।
“मैं पागल हूँ, वेदांशी… और वो भी तुम्हारे लिए…”
वेदांशी का दिल बुरी तरह धड़कने लगा।
“लेकिन तुम्हें तो वो अथर्व पसंद है न!”
उसने करीब आकर उसके कान के पास कहा —
“वो सीधा-साधा… शरीफ… मासूम… लड़का…”
उसकी मुट्ठी फिर कस गई।
“मुझे तुमसे डर लग रहा है पृथ्वी… प्लीज़… छोड़ दो…”
एक पल के लिए…
बस एक पल के लिए…
पृथ्वी की पकड़ ढीली पड़ी।
जैसे उसकी बातों की गूँज उसके दिमाग तक पहुँच ही गई हो।
उसने अपनी मुट्ठी खोली।
वेदांशी की कलाई लाल पड़ चुकी थी… उस पर उसकी उंगलियों के निशान साफ़ दिख रहे थे।
वो दर्द से कराहकर पीछे हट गई… और अपनी कलाई सीने से लगा ली।
पृथ्वी का सीना तेज़ी से ऊपर-नीचे हो रहा था।
उसकी आँखों का पागलपन थोड़ा कम हुआ…
“मैं… मैं ये नहीं करना चाहता था…मुझे बस… गुस्सा आ गया था…”
कंटिन्यू....
कलाई को सीने से लगाए…
आँखों में डर,
साँसों में हिचकियाँ,
और बदन में काँपती रगों के साथ…
वेदांशी ने पीछे मुड़कर भी नहीं देखा।
वो बस…
भागी।
कॉरिडोर के उस सिरे से
इस सिरे तक।
हर दरवाज़ा, हर खिड़की, हर दीवार उसे घूरती-सी लग रही थी।
जैसे सबने देख लिया हो…
जैसे सब जान गए हों कि उसके साथ क्या हुआ है।
उसके कानों में अब भी गूँज रही थी—
“मैं पागल हूँ, वेदांशी… और वो भी तुम्हारे लिए…”
“नहीं… नहीं… नहीं…”
वो बुदबुदाने लगी।
उसके कदम लॉकर एरिया पर जा रुके।
वो दीवार से टिक गई…
और ज़मीन पर बैठ गई।
घुटनों में चेहरा छुपा लिया।
“ये क्या था…”
उसका बदन फिर काँपा।
“ये पृथ्वी नहीं था… ये तो… कोई और ही था…”
कलाई फिर से देखने की हिम्मत की…
वो लाल निशान अब और गहरे लग रहे थे।
उसकी आँखों से आँसू गिरकर उसी पर टपक गए।
“अगर वो मुझे इतनी ताकत से पकड़ सकता है…”
उसकी आवाज़ सिसकी में बदल गई…“तो वो कुछ भी कर सकता था…”
उसे अपने शरीर पर जैसे अपना हक़ टूटता महसूस हुआ था।
अपनी मर्ज़ी, अपनी हिम्मत,सब कुछ।
तभी दूर से:
“वेदांशी…!”
कशिश की आवाज़ आई।
वो दौड़ती हुई उसके पास आई।
“तू यहाँ बैठी है? सब तुझे ढूँढ रहे हैं! मैंने मेडिकल रूम से आते हुए देखा था तुम द—”
उसकी नज़र अचानक कलाई पर गई।
“…ये क्या है?”
उसकी आवाज़ एकदम सख़्त हो गई।
वेदांशी ने जल्दी से हाथ पीछे छुपा लिया।
“कुछ नहीं… मैं गिर गई थी…”
लेकिन आवाज़ झूठ नहीं बोल पा रही थी।
कशिश ने उसकी ठोड़ी पकड़ कर उसका चेहरा ऊपर उठाया।
“वेदांशी…सच बोल।”
“…उसने?”
“किसने?”
“पृथ्वी ने?”
बस ये नाम सुनते ही वेदांशी फिर रो पड़ी।
कशिश का चेहरा सफ़ेद पड़ गया।
“उसने तुझे मारा…?”
“नहीं…लेकिन उसने मुझे ऐसे पकड़ा… जैसे मैं उसकी कोई चीज़ हूँ…”
कशिश ने उसका हाथ पकड़ कर देखा।
फिर बिना कुछ कहे उसे अपनी बाँहों में भर लिया।
लेकिन वेदांशी के दिमाग में अब भी…
"अथर्व……वो ठीक है न?”
कशिश ने धीरे से कहा—
“वो होश में आ रहा है… डॉक्टर उसे देखने ले गए हैं…”
ये सुनकर भी
उसके दिल को सुकून नहीं मिला।
और उधर…
कॉरिडोर में…
पृथ्वी वहीं खड़ा था।
उसके हाथ खाली थे।
पर उँगलियों में अब भी…
उसकी कलाई की गर्मी का एहसास था।
वो दीवार पर मुक्का मार बैठा।
“ये मैंने क्या कर दिया…वो मुझसे डर गई…”
स्कूल की छुट्टी हो चुकी थी।
गेट के बाहर बच्चे हँसते–बोलते, शोर मचाते बाहर निकल रहे थे… पर वेदांशी के लिए सब कुछ जैसे म्यूट हो चुका था। आवाज़ें थीं… लेकिन उसे कुछ सुनाई नहीं दे रहा था।
वो बस चलती जा रही थी…
कशिश और अहाना उसके दोनों तरफ थीं।
पर उसका ध्यान… पूरी तरह से…
अथर्व पर अटका हुआ था।
उसका बेहोश चेहरा…
उसकी ठंडी पेशानी…
और उसकी कलाई पर गिरे पसीने की वो बूंद…
बार-बार आँखों के सामने आ रही थी।
अहाना ने उसके सामने हाथ हिलाकर कहा— “वेदा… वेदांशी… सुन रही है?”
कोई जवाब नहीं।
कशिश ने उसकी तरफ देखा, धीरे बोली— “इतना गुम मत हो यार…”
वेदांशी फिर भी चुप। निगाहें नीचे ज़मीन पर जमी हुईं।
अहाना ने नरम आवाज़ में कहा— “वो ठीक हो जाएगा वेदांशी… टीचर ने बोला था न, बस स्ट्रेस की वजह से बेहोशी हुई है… सीरियस नहीं है…”
“हाँ…” कशिश भी बोली — “उसकी मम्मी भी तो आ गई थीं… खुद हॉस्पिटल लेकर गई हैं… अब डॉक्टर देख लेंगे…”
ये सुनकर भी वेदांशी की चाल नहीं रुकी… न तेज़ हुई… न धीमी…
बस निर्जीव-सी आगे बढ़ती रही।
“वो क्यों इतना स्ट्रेस में था…?”
अचानक वेदांशी के होंठों से आवाज़ निकली… बहुत धीमी… जैसे खुद से बात कर रही हो।
अहाना और कशिश दोनों चुप हो गईं।
अहाना ने कशिश की तरफ देखा, जैसे इशारों में पूछ रही हो — “क्या बोलना सही है?”
कशिश धीरे-धीरे बोली— “वेदांशी… वो कल स्कूल आएगा न… तब हम उससे पूछ लेंगे कि उसे किस बात का स्ट्रेस था…”
वेदांशी के कदम एक पल को रुके।
“…आएगा?” उसकी आवाज़ में हल्की-सी उम्मीद जागी।
“हाँ यार,” अहाना ने ज़बरदस्ती मुस्कुरा कर कहा,
“दो-तीन घंटे बेहोश रहने से कोई खत्म थोड़ी हो जाता है। और तू तो जानती है… अथर्व कितना स्ट्रॉन्ग है।”
वेदांशी ने सिर हिलाया… पर दिल अब भी आशंकाओं से भरा था।
कशिश ने हल्के से उसके कंधे पर हाथ रखा और आगे बोली — “और वैसे भी… तुझे तो वो पसंद करता है… तुझे बता ही देगा वो…”
बस।
कशिश के वो शब्द जैसे उसके दिल के बंद दरवाज़े को खोल गए।
वेदांशी अचानक रुक गई।
सड़क किनारे खड़े एक पेड़ के नीचे…
वो लावा की तरह उबलते अपने दिल को थामे खड़ी रह गई।
“…मुझे भी वो पसंद है…”
अहाना और कशिश दोनों चौंककर उसकी तरफ देखने लगीं।
“क्या…?” अहाना की आवाज़ धीमी लेकिन हैरान थी।
वेदांशी ने पहली बार सिर उठाकर ऊपर आसमान की तरफ देखा।
डूबते सूरज की हल्की गुलाबी रोशनी उसके आँसुओं में चमक रही थी।
“मुझे भी अथर्व पसंद है…”
“मैं… मैं उसे कभी अकेला नहीं छोड़ूँगी…” उसकी आँखें चमक उठीं लेकिन साथ ही नमी से भरी थीं। “जिंदगीभर…साथ रहना है…”
कशिश और अहाना कुछ पल चुप रहीं।
“मुझे उसी के साथ रहना है… एंड तक…”
वेदांशी ने खुद से वादा करते हुए कहा। “मुझे पता है ये उम्र पढ़ने-लिखने की है… करियर, फ्यूचर की है… पर मुझे उसे अंदर से खुश रखना है…”
उसकी आवाज़ कांपी — “वो बहुत भोला है… वो कभी किसी को नहीं बताएगा कि उसके अंदर क्या चल रहा है… उसकी लाइफ में क्या-क्या प्रेशर है…”
अहाना ने धीरे से उसके बालों पर हाथ फेरते हुए कहा — “तो तू उसके लिए वो इंसान बन जा जिसे वो सब बता सके…”
वेदांशी की आँखों में एक हल्की मुस्कान आई।
“हाँ…” उसने सिर हिलाया। “वो मेरे साथ सेफ फील करेगा… मैं उसे प्रेशर, डर, कुछ नहीं दूँगी… सिर्फ सुकून दूँगी…”
कशिश ने थोड़ा मुस्कुरा कर चिढ़ाते हुए कहा — “मैडम जी को तो पूरा फ्यूचर प्लान भी समझ आ गया…”
वेदांशी हल्की-सी हँसी, लेकिन अगली ही साँस में उसका चेहरा फिर गंभीर हो गया।
“…बस एक डर है…”
“क्या?” अहाना ने पूछा।
“अगर कल वो स्कूल नहीं आया तो…?” उसने नीचे ज़मीन की तरफ देखते हुए कहा। “अगर उसकी हालत अभी भी ठीक नहीं हुई तो…?”
कशिश ने पूरे भरोसे से कहा — “आएगा वो, वेदा… और अगर नहीं भी आया तो हम खुद जाकर देखेंगे… समझी? लेकिन अब तू ऐसे खुद को मत तोड़…”
वेदांशी ने गहरी साँस ली…
और मन ही मन एक और दुआ माँगी —
“भगवान… बस उसे ठीक रखना…
बाकी सब मैं संभाल लूँगी…”
और दूर कहीं…
अस्पताल के कमरे में…
होश में आते ही…
अथर्व के होंठो पर
सिर्फ एक ही नाम था —
“…वेदांशी…”
उसकी बंद आँखों से
एक चुप आँसू
तकिये पर गिर गया…
कल का दिन
सब कुछ बदलने वाला था…
कंटिन्यू....