कहानी एक लडकी के इंतकाम की...
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एक भयानक तंत्र जो ना कभी देखा ना ही सुना होगा। ऐसा शक्तिशाली तंत्र जो अकाट्य और बहुत ही घातक था। जिसका आह्वान मैंने किया था बिना ये सोचे समझे के इसके क्या क्या दुष्परिणाम हो सकते हैं। पर अब जब मैं स्वयं इस का एक भाग बन गई तभी समझ आया कि प्रतिशोध एक ऐसा भाव है जो दूसरे से पहले स्वयं का नाश करवाता है। "माँ…!! पापा…!!! देखो तो कौन आया है? आपकी बेटी पूरे चार साल बाद वापस आई है, और किसी को भी उसकी पड़ी ही नहीं है।" स्नेहा बाहर से चिल्लाते हुए अंदर आई और जो दिखाई दिया वो बहुत ही दर्दनाक था। पूरे घर में मातम पसरा हुआ था। सभी घरवालों के शव कतार में रखें थे। माँ, पापा, भाई, भाभी और मेरी प्यारी राधू…! चाचा,चाची, बुआ और पता नहीं कौन कौन से रिश्तेदारों से घर भरा पड़ा था। जिनकी जरूरत थी बस वही नहीं थे। सभी बहुत ही आश्चर्य में थे के स्नेहा कैसे बच गई? उसे भी तो साथ ही नहीं मरना था। सभी आपस में कानाफूसी करने लगे थे। मैं दुःखी,बेजान और टूटी हुई वही सबको सूनी आँखों से देख रही थी। "माँ उठो ना…!! सुनो ना अब से ऐसा नहीं होगा। अब कहीं भी नहीं जाऊंगी। उठो…!!!" अपनी माँ को झिंझोड़कर चिल्लाई। "पापा…! आप तो उठ जाओ ना।कोई अपनी बेटी से ऐसे मजाक करता है।" "भाई ऽऽऽऽ भाभी ऽऽऽऽ आप लोग भी ऐसा करोगे मेरे साथ। इसीलिए मुझे रोज रोज आने को बोलते थे। मैं तो आपको सरप्राइज देने आई थी और आप सब ने तो मुझे कभी ना भरने वाला घाव दे दिया।" स्नेहा एक एक करके सभी को हिलाते हुए उठाने की नाकाम कोशिश कर रही थी। अंत में छोटी सी राधा को गोद में लेकर उठाने की कोशिश करते हुए कहा, " राधु ऽऽ राधु ऽऽ तू तो उठ जा बेटा। मेरी गुड़िया है ना… बुआ की बात नहीं मानेगी… उठ जा बेटा…!!" सबको ऐसे देखकर ही स्नेहा अपनी सुध-बुध खो बैठी थी। यंत्र चलित सी सबके हिसाब से उनके कहे अनुसार काम किए जा रही थी। सभी शवों को अंतिम संस्कार के लिए ले जाने का समय हो रहा था और घरवालों में बहस। सभी की नजर उनकी संपत्ति पर थी सब चाहते थे कि अंतिम संस्कार से पहले ही अपना हिस्सा निश्चित कर ले। "स्नेहा बेटा…! अंतिम संस्कार का समय हो गया है। अब श्मशान के लिए निकलना होगा। चाची, बुआ सभी यही है। तुम भी अपना ध्यान रखना।" बूढ़े चाचा ने सहानुभूति दिखाते हुए कहा। अचानक ना जाने क्या हुआ था कि स्नेहा झटके से उठ खड़ी हुई और कहा, " मुखाग्नि मैं दूँगी…!!" सभी कानाफूसी करने लगे और फिर एक बुजुर्ग ने कहा, "ऐसा नहीं हो सकता। लड़कियों का श्मशान प्रवेश वर्जित है और तुम मुखाग्नि की बात कर रही हो।" "तो कौन देगा…? मैं ही इस परिवार की अंतिम सदस्य हूं।" स्नेहा ने दृढ़ता से कहा। बहुत बहस के बाद भी बेमन से सबने स्नेहा की बात को स्वीकार कर लिया। अंतिम संस्कार के बाद सभी अपने अपने घरों को लौट गए। रह गई थी तो केवल स्नेहा, अपने सवालों के साथ जिनके जवाब नहीं थे। थे तो केवल सवाल अनगिनत और असीम! "इतनी जल्दी क्यों थी सबको अंतिम संस्कार की?? सभी की एक साथ ही मृत्यु कैसे हुई, यहां तक कि राधु भी?? सभी के चेहरे मुझे देखकर ऐसे क्यूँ हो गए थे जैसे साक्षात यमराज सामने खड़े हो???" स्नेहा ने मन ही मन सोचा। "सभी की हत्या हुई है…!!" एक डरावनी आवाज गूंजी जिसने स्नेहा को भी डरा ही दिया था। "अ...अ...आपको क...क..कैसे पता??" स्नेहा इस अप्रत्याशित घटना से डर गई थी तो हकलाते हुए पूछा। "हा ऽऽऽऽ हा ऽऽऽऽ हा ऽऽऽऽ" एक भयानक अट्टहास गूंजा। " क… क...कौन है??" स्नेहा ने डरते हुए पूछा। "कुआं कभी प्यासे के पास नहीं आता, प्यासे को ही आना पड़ता है।" फिर से वही भयानक आवाज गूंजी। "मैं प्यासी नहीं हूँ...समझे तुम…!!!" स्नेहा चीखी। "तो शायद तुम अपने परिवार की मौत भूल गई हो।" उस आवाज ने कहा। "कुछ भी नहीं भूली हूँ मैं ऽऽऽ।" स्नेहा ने चीख कर अपने कान बंद कर लिये। "तब शायद तुम्हें भूल ही जाना चाहिए क्योंकि प्रतिशोध तुम्हारे बस का नहीं!" आवाज फिर गूंजी। "जानना नहीं चाहोगी कौन था जिसने स्वर्ग को श्मशान में बदल दिया?" "कौन हैं..? जो भी कोई है उसे मैं खुद ही नरक का द्वार दिखाऊंगी!" स्नेहा ने गुस्से में चिल्ला कर जवाब दिया। "और तुम्हें मेरी मदद करने की क्यों पड़ी है? तुम्हारा क्या फायदा होगा इससे?" स्नेहा ने दर्द भरी आवाज में पूछा। "क्यूँ मेरे जख्मों पर नमक छिड़क रहे हो? चाहते क्या हो? स्नेहा ने फिर दुखी होकर पूछा। "हम दोनों को एक दूसरे की जरूरत है। दोनों के कारण अलग अलग है।" इस बार थोड़ी शांत आवाज में जवाब मिला। "तुम मेरी मदद करोगे… कब…? क्यों…? कैसे…???" स्नेहा ने फिर पूछा। "बस कर लड़की अभी सही समय नहीं है ये सब बात करने का। वैसे भी अभी सब तुझे ही देख रहे हैं। पागल समझ रहे हैं सब तुझे।" आवाज ने मजाकिया लहजे में कहा। स्नेहा ने इधर-उधर देखा तो सभी उसे ही घूर रहे थे। स्नेहा को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था उसे तो बस अभी उसके परिवार के हत्यारे की जानकारी चाहिए थी जो उस आवाज के पास थी। लोग उसे पागल समझ कर आपस में ही बातें करने लगे थे। "बेचारी… शायद घरवालों का सदमा लगा है।" एक बूढ़ा आदमी बोला। "नहीं काका… कोई भूत प्रेत का चक्कर लगता है।" एक आदमी ने जवाब दिया। "नहीं भाई… सुना है पूरा का पूरा परिवार ही ख़त्म हो गया। ये तो थी नहीं यहाँ वरना कोई रोने वाला भी नहीं बचता।" एक और आदमी ने दुखी होकर कहा। "मैंने सुना है कत्ल हुआ है सबका। कोई कुछ बोलने को तैयार नहीं है। कुछ तो बहुत ही बड़ा कांड हुआ है।" किसी आदमी ने कहा " तुम्हें कैसे पता…?" सभी झटके के साथ उसकी तरफ घूम गए और उससे पूछा। "अरे भाई मैंने वहां के नौकरों को बात करते सुना था। कह रहे थे कि सभी बहुत खुश थे कल। कोई बहुत ही खास आने वाला था तो इसलिए सबको छुट्टी दी थी। पर अचानक ऐसा क्या हुआ जो ये सब हो गया।" उस आदमी ने जवाब दिया। "और पता है सभी नौकर भी बड़े दुखी थे। बोल रहे थे कि इतने अच्छे लोग थे के उनमे और अपने परिवार में कभी कोई भेदभाव नहीं करते थे। सभी के सुख-दुख में हमेशा साथ देते थे। बहुत ही अच्छा परिवार था। बड़े ही धार्मिक और दानी थे। भगवान उनकी आत्मा को शान्ति प्रदान करे।" ये कहते हुए उसने अपने हाथ जोड़कर ऊपर की तरह देखा। सभी ने हाथ जोड़कर उनकी आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना की। स्नेहा शांति से उनकी बातें सुन रही थी कि उसे आवाज के बारे में याद आया तो, "तुमने बताया नहीं कौन था वो? किसने किया है??" शांत भाव से पूछा। "शाम को तुम्हें सब कुछ बताऊंगा और तुम्हें भी मेरा काम करना होगा। ये भी याद रखना की एक बार हाँ बोल कर तुम पीछे नहीं हट सकती। अच्छे से सोच लेना। अभी के लिए तुम्हारा जल्दी घर पहुँचना जरूरी है वहाँ इसका तुम्हें शायद कुछ अंदाजा हो जाए कि तुम्हारे परिवार के साथ क्या हुआ होगा?" आवाज ने कहा जिसके अन्दर एक निर्देश छुपा था। "क्या…??? क्या है घर पर? कहना क्या चाहते हो?? क्यूँ जाऊँ मैं घर? हैं कौन मेरा वहाँ जिसके लिए जाऊँ?" स्नेहा ने चिढ़कर पूछा। "ना जाओ फिर…! तुम्हें खुद तुम्हारी चिंता नहीं तो मैं क्यूँ करूँ? बेवकूफ लड़की अभी नहीं गई तो अपने परिवार के हत्यारे का ही साथ देगी, उसकी इच्छापूर्ति में। बाकी निर्णय तेरा है।" आवाज ने धमकी भरे स्वर में कहा। स्नेहा ने एक पल सोचा और कहा, "मैं घर जा रही हूँ, पर तुम मुझे कब और कहाँ मिलोगे?" "रात बारह बजे तुम्हें यहीं आना होगा बिना किसी को कुछ भी पता चले। आगे का रास्ता मैं स्वयं तुम्हें बताता जाऊँगा।" आवाज ने निर्देश दिया। स्नेहा सुनकर थकी हारी अपने घर चल दी। "कभी कल्पना भी नहीं की थी कि ऐसा दिन भी जीवन में आएगा कि अपने ही परिवार को ऐसे देखना होगा। उनकी लाशों को देखना पड़ेगा।उनकी चिता को अग्नि देनी होगी इन्हीं हाथों से।" अपने हाथों की तरफ देखते हुए सोच रही थी। "माँ… पापा… भाई...भाभी… राधु…!!! जिसने भी आप लोगों की ये दशा की वो भी खून के आंसू रोयेंगे। छोड़ूंगी नहीं किसी को भी।" स्नेहा मन ही मन संकल्प लेते हुए सड़क पर पहुँच गई थी। तभी किसी ने उसे पकड़कर अपनी तरफ खींचा तब उसका ध्यान टूटा। "क्या कर रही थी बेटा? परिवार के पास जाने की जल्दी है क्या?" एक बूढे दिखने वाले आदमी ने कहा। "आप मुझे जानते हो? कैसे??" स्नेहा ने पूछा। "बेटा तुम्हारे परिवार ने मेरा बहुत साथ दिया था। अब मेरी बारी है तुम्हारी मदद करने की।" बुढ़े ने जवाब दिया। "तुम पहले मेरे घर चल कर कुछ खा-पी लो। फिर तुम्हें घर छोड़ दूँगा।" बुढ़ा आदमी फिर बोला। "नहीं काका...! आपने इतना सोचा उसके लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद। मुझे अब घर जाना होगा। बहुत कुछ ऐसा है जो मेरी नज़रों से छुपा है। बस वही पता लगाना है।" स्नेहा ने हाथ जोड़कर बूढे आदमी से कहा। "मैं तुम्हारे साथ चलता हूँ बेटा। शायद कुछ मदद कर पाऊँ।" बुढ़ा आदमी बोला। स्नेहा और बुढ़ा दोनों साथ में स्नेहा के घर के लिए निकल गए और जल्दी ही दोनों घर के सामने थे। गेट पर चौकीदार बैठा था जो उनका पुराना चौकीदार तो नहीं था। नए चौकीदार को देखते ही स्नेहा का माथा ठनका। "यहां नया चौकीदार पुराने वाले काका कहाँ गए?" स्नेहा ने मन में सोचा। फिर उसने बूढे से कहा, "काका आप इस चौकीदार से पूछकर आओगे क्या की पुराना चौकीदार कहाँ गया?" "क्यूँ...क्या बात है बेटा? कोई परेशानी है क्या?" बूढे ने कहा। "आप पूछकर तो आओ… फिर बताती हूँ।" "ठीक है बेटा अभी आया।" कहकर वो बुढ़ा चौकीदार के पास जाकर कुछ बात करने लगा और जल्दी ही वापस आ गया। "उसे तो नौकरी से निकाल दिया गया,बेटा...आज ही।" बूढे ने कहा। स्नेहा कुछ सोच में डूब गई और जल्दी ही कुछ सोचकर कहा, "काका चलो मेरे साथ!" और बूढे को लेकर घर के पीछे वाले हिस्से की तरफ चल दी। "काका…! आप यही मेरा इंतजार करना मैं देखती हूँ, ये सारा चक्कर क्या है?" स्नेहा ने कहा और पास के पेड़ से होते हुए घर के अंदर चली गई। नीचे से कुछ झगड़े की आवाजें आ रही थी। स्नेहा दबे पांव नीचे की सीढ़ियों की तरफ चल रही थी। अचानक कुछ जोरदार आवाज कान में पड़ गई। "तुम सब भूल रहे हो वो लड़की अभी भी ज़िंदा हैं। इस परिवार की बेटी और इस सारी संपत्ति की कानूनी वारिस।" आवाज ने कहा। एक और आवाज गूंजी, "तो नहीं रहेगी…….!" स्नेहा के हाथ से टकराकर एक फ्लॉवर वास नीचे गिरा और तेज आवाज हुई। सभी ऊपर की ओर दौड़ पड़े ….
फ्लॉवर वास की आवाज़ से सभी चौक गये। सबको खतरे का अंदेशा हुआ। सबको अपनी योजनाओं पर पानी फिरता नज़र आया। इतनी मेहनत करने के बाद इस तरह सबकुछ हाथ से निकलने देने के लिए कोई भी तैयार नहीं था।सभी ऊपर की तरफ़ दौड़े। ये स्नेहा के लिये ये मुसीबत बढ़ाने वाला था। अचानक उसके दिमाग ने काम करना शुरू कर दिया। आसपास कुछ ऐसा ढूंढने लगी जिससे थोड़ी देर के लिए ही सही उसपर से ध्यान हट जाये ताकि सब जान सके। पर अभी तक कुछ मिला ही नही था। उनलोगों के सीढियों तक आने की आवाज़ आई। तभी वही श्मशान वाली रहस्यमय आवाज गूंजी, "बेवकूफ लड़की…!!!" आवाज डरावने स्वर में बोली। "तुझे यहाँ ऐसे आने के लिए किसने कहा था? अपने ही घर में कोई चोरों की तरह आता है क्या? उन लोगों ने देख लिया तो पड़ी होगी किसी मुर्दाघर में लावारिस की तरह।" आवाज ने फिर कहा। "हे महाकाल…!! किस मूर्ख लड़की की मदद करने चला था। जिसे स्वयं ही संकट को न्यौता देने का शौक है।" "अब जल्दी कर तेरे सामने एक चित्र टंगा है, जल्दी से अपनी हथेली उस पर रख दे। देर की तो मैं भी कुछ नहीं कर पाउंगा।" आवाज ने कहा। "पर…!!!" स्नेहा ने पूछा। "व्यर्थ की बातों में समय नष्ट मत करो।सभी प्रश्नों के उत्तर शाम को मिल जाएंगे। अभी जितना कहा है उतना करो जल्दी।" आवाज ने आदेश दिया। स्नेहा भाग कर पेंटिंग के पास गई। वो एक प्राकृतिक झरने की पेंटिंग थी। जैसे ही स्नेहा ने पेंटिंग को छुआ। वो खुद अब पेंटिंग का एक हिस्सा थी। अचंभित थी कि कैसे हुआ? स्नेहा सब कुछ देख और सुन पा रही थी वही से। तभी सब एक एक कर के ऊपर पहुंचे। सब हैरान थे कि जब कोई है ही नहीं यहाँ तो फ्लावर वास कैसे गिरा? "राहुल(चाचा का बेटा) तुम छत पर देखो। अनुज (बुआ का बेटा)तुम स्टोर में… अरुणा(चाची) तुम कमरों में देखो और जीजी(गीता) बालकनी में ढूंढो। मैं यहाँ हॉल में देखता हूँ।" अखिलेश जी (चाचा)ने कहा। सब ने हाँ कहा और ढूंढने चल दिये। जितना बड़ा घर था उतनी ही बड़ी छत भी थी, बहुत ही खूबसूरत। छत पर टेरेस गार्डन बना हुआ था। खूबसूरत झूला, बैठने के लिए टेबल कुर्सियां रखी थी। छत के किनारे किनारे सुंदर फूलों के गमले रखे थे। बहुत तरह के रंग-बिरंगे फूलों से पूरी छत सुंदर बगीचा दिखाई दे रही थी। एक तरफ सुंदर स्विमिंग पूल बना हुआ था। जिसमें आर्टिफिशियल कमल के फूल तैर रहे थे और कुछ बत्तख भी तैर रही थी। राहुल छत पर पहुंचा... उसने गमलों के आसपास और छत से नीचे झांक कर भी देखा कोई नहीं था वहां। फिर वह छत के दूसरी तरफ एक छोटी झोपड़ी बनी थी बत्तखों के लिए। उसके आसपास देखा झोपड़ी के अंदर देखा। वहाँ पर कोई नहीं था। सभी जगह अच्छे से देखने के बाद राहुल थक कर थोड़ी देर कुर्सी पर शांत बैठ गया। वहीं नीचे स्टोर रूम में बहुत सा पुराना सामान पड़ा था। बहुत सी अलमारियां, बक्से, पुराना सोफा, पुराना घर का सामान पड़ा था। सब कुछ अच्छे से ढ़का हुआ था। अनुज ने हर एक कोने को ठीक से देखा। बड़े सामान पर ढ़के कपड़े को उठाकर भी देखा पर वहां कुछ भी ऐसा नहीं था जिस पर शक किया जा सकता था। अरुणा जी ऊपर कमरों में ढूंढ रही थी। जिनमें एक कमरा स्नेहा का था। स्नेहा का कमरा साफ सुथरा और ठीक से व्यवस्थित था। एक तरफ अलमारी, ड्रेसिंग टेबल जिस पर बहुत सा मेकअप का सामान रखा था। खिड़की खुली थी उस पर पर्दा लगा हुआ था अरुणा जी ने पर्दा हटा कर बाहर देखा, कोई नहीं था वहां। फिर उन्होंने बाथरूम का गेट खोल कर वहां भी चेक किया। वहां पर भी कोई नहीं था। वह वापस आ गई और दूसरे कमरे में चली गई। दूसरा कमरा स्नेहा के भाई भाभी का था। दरवाजे के बिल्कुल सामने एक डबल बेड रखा था। बेड के पीछे दीवार पर एक बड़ी सी दोनों की शादी की तस्वीर लगी थी। उस कमरे की खिड़कियां बंद थी। अलमारी के पीछे, बेड के नीचे भी देखा वहां भी कुछ नहीं था। बाथरूम भी चेक किया पर कहीं कुछ नहीं मिला। वही अखिलेश जी ने पूरा हॉल ढूंढ लिया था। कहीं भी किसी को भी कुछ नहीं मिला था। हॉल के एक तरफ से ऊपर जाने के लिए सीढ़ियां बनी थी सभी कमरों के दरवाजे भी हॉल में खुलते थे। हॉल के बाहर की तरफ एक बालकनी थी जिस पर पर्दे लगे थे। हॉल के बीचों बीच सोफे और सेंटर टेबल रखी थी। दीवारों पर सुंदर पेंटिंग्स लगी थी। हॉल के कौनो में सजावटी पौधों के गमले रखे थे। गीता जी बालकनी में ढूंढ रही थी पर बालकनी में भी फूलों के गमले और सजावटी पौधों के अलावा कुछ नहीं था। तभी अचानक से बालकनी के कोने में बैठी काली बिल्ली गीता जी के ऊपर कूदी और गीता जी की जोर से चीख निकल गई। सभी ढूंढने में लगे हुए थे कि गीता जी की चीख सुनकर दौड़ते हुए बालकनी में पहुंच गए। वहीं पेंटिंग में बैठी स्नेहा, पेंटिंग में ही बने एक सेब के पेड़ से सेब तोड़ कर खा रही थी। और उन सभी को परेशान देखकर खुश हो रही थी। सभी ने बिल्ली को देखकर चैन की सांस ली। "जीजी बिल्ली थी...मुझे लगा कहीं स्नेहा तो नहीँ आ गई। कहीं उसे सब पता तो नहीं चल गया। हमारी मेहनत पर पानी फिर जाएगा।" अरुणा जी ने राहत की साँस लेते हुए कहा। "ऐसे कैसे भाभी पानी फिरने देंगे। इतनी प्लानिंग इसलिए थोड़ी की थी। आप चिंता ना करो। कुछ नहीं होगा।" गीता जी ने भी उन्हें समझाते हुए कहा। "और क्या… बुआ इतनी जल्दी थोड़ी सबकुछ बर्बाद होने देगी।" राहुल ने कहा। "प्लानिंग में माँ और छोटी मामी का कौन हाथ पकड़ सकता हैं। वैसे भी स्नेहा घर आई होती तो चौकीदार बताता तो सही। पुराना थोड़ी ही है जो उनका वफादार था। बैठी होगी अभी भी अपने परिवार को रोते वहीं शमशान में।" अनुज ने हँसते हुए कहा। अनुज की बात सुनकर सभी हँसने लगे। और हँसते हुए वापस हॉल की ओर चल पड़े। जँहा आगे की प्लानिंग के बारे में बात कर रहे थे। उनकी बातें सुनकर ही स्नेहा को बहुत ज्यादा गुस्सा आ रहा था। आगे की प्लानिंग क्या होगी यही सुनने के लिये ही स्नेहा वही छुपी रही। बाहर अंकल को स्नेहा की चिंता हो रही थी पर इस वक़्त इंतजार के अलावा कुछ और कर भी नहीं सकते थे। साथ ही उन्हें किसी की नजर में आने सभी बचना था। बस हाथ जोड़कर भगवान से प्रार्थना कर रहे थे कि अंदर स्नेहा सुरक्षित हो। अंदर हॉल में सभी आगे के प्लान के बारे में बातें कर रहे थे। "पहले स्नेहा का कुछ इलाज करना पड़ेगा। वरना संपत्ति का स भी नही देखने को मिलेगा। देखा नही सबने कैसे बोली थी, मुखाग्नि मैं दूँगी। हुह… बडी आई सारी प्रॉपर्टी की वारिस।" गीता जी ने मुँह बनाकर कहा। "हाँ जीजी… बिल्कुल ठीक बोल रही हो। बचपन से ही देखा नहीं आपने कितनी तेज़ हैं। मजाल के कोई उसकी एक कील तो ले ले। उसे पता चला तो राम ही जाने क्या बवंडर उठाएगी।" अरुणा जी ने थोड़ी टेंशन में कहा। "क्या माँऽ आप भी कैसी बात करते हो, आज की हालत देखी थी बेचारी की। जब तक उसे कुछ समझ आएगा तब तक सब कुछ हमारी मुट्ठी में होगा।" राहुल ने हँसकर कहा। "हाँ भइया… अब बस बड़े मामाजी की वसीयत खुलने का इंतजार है और फिर सबकुछ कैसे अपने पास आएगा उस बारे में बात करेंगे।" अनुज ने कहा। "वसीयत कब खुलेगी अनुज...!! बात हुई थी तुम्हारी वकील से।" बहुत देर से चुप बैठे अखिलेश जी ने पूछा। "जी मामा जी… वकील बोला था कि तीन दिन बाद खुलेगी। पर एक बात कहूँ?" अनुज बोला। "हाँ कहो क्या बात हैं।" अखिलेश जी ने कहा। " मामा जी वकील कुछ ज्यादा ही चालाक है। जब सब कुछ हो रहा था,तब उसकी नजरें हम सभी के ऊपर थी। उसको शायद शक हो गया है।" अनुज आगाह करते हुए कहा। " एक काम करो, उस वकील पर नजर रखो…! कहीं लास्ट मोमेंट पर आकर हमारे सारे प्लान में गड़बड़ी ना कर दे।"अखिलेश जी ने कहा। "जी मामा जी...!! मैंने अपने एक आदमी को उस वकील के पीछे लगा दिया है। वह वकील की हर हरकत पर नजर रखेगा और उसकी पल-पल की खबर हमें देता रहेगा।" अनुज ने कहा। " अच्छा किया अनुज और एक बात बताओ राहुल तुम क्या कर रहे हो?" अखिलेश जी ने राहुल से पूछा। "जी... जी पापा आप कुछ कह रहे थे।" राहुल ने कहा। "तुमनें पता किया स्नेहा अभी तक क्यों नहीं आई? वही श्मशान में ही है या कहीं और चली गई है? चौकीदार को कहा था... कि कोई आए तो जितनी जल्दी हो सके अंदर बताएं।" अखिलेश ने राहुल से पूछा। "जी पापा... चौकीदार से बोल दिया था कुछ भी हो... कोई भी आये तो वह सबसे पहले हमें बताएगा। यहां तक कि स्नेहा भी आये तो भी पहले हमें बताएं और उसे यह भी बोल दिया है की कोई पूछे तो यही बताएं कि पुराना चौकीदार बीमार है। तो उसकी जगह थोड़े दिन वही आएगा।" राहुल ने जवाब दिया। "ठीक है अब सब आराम करो जा के।" अखिलेश जी ने कहा। सभी अपने अपने कमरे में आराम करने चले गये। स्नेहा मन में ही बडबडाइ और सिर पर हाथ रखकर बोली, "अब इस पेंटिंग से बाहर कैसे निकलूँगी?" उस रहस्यमय आवाज ने आदेशात्मक लहजे में कहा, "अपना दायां पग बाहर रखो!" स्नेहा ने वैसा ही किया। बाहर पैर रखते ही दीवार से फर्श तक सीढ़ियां थी जिनसे होते हुए स्नेहा वापस हॉल में आ गई। स्नेहा के वापस आते ही सीढ़ियां गायब हो गई। आवाज ने कहा, "बिना देर किए तुरंत बाहर निकलो।" आदेश सुनते ही स्नेहा तुरंत पेड़ से उतरकर बाहर आ गई। बूढ़े अंकल वही टेंशन में घूम रहे थे। "कितनी देर लगा दी बेटा…! तुम ठीक तो हो ना। चोट तो नहीं लगी।" अंकल ने घबराकर पूछा। "मै ठीक हूँ अंकल…! आप टेंशन मत करो। अब मैं अंदर जा रही हूँ। आप भी घर जाओ और रेस्ट करो। कोई भी प्रॉब्लम होगी तो आपको फोन कर लूँगी… ठीक है ना।" स्नेह ने कहा। "ध्यान रखना अपना… मैं चलता हुँ।" बूढ़े अंकल ने कहा और अपना फ़ोन नंबर देकर चले गए। स्नेहा ने एक लंबी सांस ली और अंदर चल दी। अंदर जाते समय चौकीदार ने उसे रोक दिया और पूछा, "आपको किससे मिलना है?" स्नेहा ने कहा, " यह मेरा ही घर है। आप कौन हैं...? और जो चौकीदार अंकल यहां रहते थे वह कहां गए?" चौकीदार ने जवाब दिया, "वह मेरे चाचा है, वह बीमार हो गए हैं तो कुछ दिन उनकी जगह मैं ही आऊंगा।" स्नेहा ने पूछा, "अब मैं अंदर जा सकती हूं या अभी भी कोई सवाल जवाब बाकी है।" चौकीदार ने कहा, "आप थोड़ा इंतजार कर लीजिए । मैं अभी पूछ कर बता देता हूं।" और वह अपने केबिन की तरफ चला गया जहां से उसने अंदर फोन लगाया और कुछ बातें की। फिर फोन रखकर वापस आया और उसे स्नेहा से कहा, "आप जा सकती हैं। मेरी बात हो गई है, उन्होंने कहा कि आपको अंदर भेज दू।" स्नेहा को इस सब से बहुत तेज गुस्सा आ रहा था पर कर क्या सकती थी। फिलहाल तो उसे केवल अपने परिवार के हत्यारे को ढूंढना था। तो वह चुपचाप घर के अंदर चली गई। घर बहुत ही सुंदर था। सफेद संगमरमर का बना हुआ घर, जिसके चारों तरफ बड़े फलदार पेड़ लगे थे। रंग बिरंगे फूलों के पौधे जिनमें उनके पसंदीदा गुलाब, रजनीगंधा, चमेली, रातरानी और भी पता नहीं कौन-कौन से थे। पर आज सब उदास लग रहे थे, क्योंकि उनकी रौनक जिनसे थी वही आज इस घर में नहीं थे। पूरे दिन चहकने वाली चिड़िया भी आज शांत थी। पूरे दिन जिन पक्षियों का जमावड़ा लगा रहता था, आज वह भी शांत रहकर अपना दुख व्यक्त कर रहे थे। घर क्या था कोठी थी। महल जैसी आलीशान दो मंजिला कोठी थी। जितनी शानदार बाहर से थी,उतनी ही खूबसूरत वह कोठी अंदर से भी थी। बड़ा सा हॉल खूबसूरत इंटीरियर, एंटीक शो पीस और बहुत ही खूबसूरत पेंटिंग्स जो देखने पर ऐसी लगती थी मानो अभी बोल पड़ेगी। मैटेलिक ग्रे कलर की दीवारें, वाइट सोफे, क्लासिक कांच का सेंटर टेबल। स्नेहा को अपने परिवार की बहुत याद आ रही थी। जहां पूरे घर में उनकी यादें बिखरी पड़ी थी। सोफे पर बैठकर की गई पापा के साथ बातें, पूरे हॉल में भाई के साथ की गई धमा-चौकड़ी, किचन में मम्मी को परेशान करना या फिर भाभी का गृह प्रवेश हर चीज उसे याद आ रही थी। जब पहली बार राधु जब घर आई थी... कितना सुंदर सजाया था। कितने खुश रहना था यह सोचते सोचते उसकी आंखों में आंसू आ गए। इतने में सभी परिवार वाले बाहर हॉल में इकट्ठा हो गए। सभी स्नेहा को झूठी सहानुभूति जता रहे थे। बुआ और चाची तो उसे देख कर स्नेहा को गले लगा कर रोने ही लगी। चाचा ने उन्हें डांट कर चुप करवाया और कहा, "बंद करो यह रोना-धोना। जो बचा है उसका ध्यान रखो। ध्यान रखो स्नेहा का... सुबह से कुछ खाया पिया भी नहीं उसने। उसे कुछ खिलाओ और आराम करने दो।" स्नेहा ने खाने से मना कर दिया पर सबने उसे रो-धोकर थोड़ा कुछ खाने पर मजबूर कर दिया। खाना खाकर वह अपने कमरे में आराम करने चली गई और सभी चाचा के कमरे में आगे की प्लानिंग करने इकट्ठे हो गए। सभी स्नेहा को रास्ते से हटाने का प्लान कर रहे थे।सोच रहे थे कि सबसे बड़ी मुसीबत है यह। स्नेहा अपने कमरे में टहल रही थी। सोच रही थी, "कैसे लोग हैं बस प्रोपर्टी चाहिए? कैसे मगरमच्छ के आँसू बहा रहे थे। हुह बड़े आये चिंता करने वाले। परिवार के ना होने का फायदा उठाने की सोच रहे हैं मैं देखती हूँ कैसे मिलती है प्रोपर्टी।" वही अखिलेश जी के कमरे में सब इकट्ठा होकर स्नेहा का क्या करना है वही सोच रहे थे। गीता जी ने कहा, "एक काम करते है कि वकील को अपने साथ मिला लेते है ताकि हमें प्रॉपर्टी आराम से मिल जाए।" अरुणा जी ने कहा, "या फिर उसको गायब करवा देते हैं। अपने इतने लोग कोई ना कोई ये काम तो कर ही देगा।" फिर राहुल की तरफ देखते हुए पूछा,"कोई है जो इतनी सफाई से स्नेहा को गायब करवा दे ताकि किसी को पता भी ना चले।" राहुल ने कहा, "मां…! ऐसा तो कोई नहीं हैं जानकारी में। क्योंकि सबसे बड़ी बात तो ये है कि किसी को पता ना चल जाए। फिर राहुल ने अनुज से कहा, "अनुज तुम क्या कहते हो?" अनुज जो काफी देर से कुछ सोच रहा था राहुल की बात सुनकर एकदम से चौक गया और कहा, "भैया ऐसा कुछ करते है, जिससे सांप भी मर जाए और लाठी भी ना टूटे। उसके लिए स्लो प्वाइजन जैसा कुछ ट्राई करें। या फिर कुछ ऐसा ढूंढते हैं। जिससे पुलिस का शक हम पर ना आए क्योंकि इस समय स्नेहा को कुछ हुआ तो सारा शक हम ही पर आएगा। पूरी प्रॉपर्टी का जो सवाल है।" "चुप करो... तुम सब.. फालतू के प्लान बना रहे हो। सबसे सही यह रहेगा कि पहले वसीयत सुनें उसके बाद स्नेहा को कैसे ठिकाने लगाना है? उसका पूरा प्लान मेरे पास है। कब, क्या, और कैसे करना है? किस को क्या करना है, सब कुछ समय आने पर अपने आप सबको पता चल जाएगा। तब तक शांत रहो और ऐसा कुछ मत करना, जिससे हमारा बना बनाया खेल चौपट हो जाए।" वही स्नेहा अपने कमरे में घूमती हुई उस रहस्यमई आवाज के बारे में सोच रही थी। सोच रही थी, "आखिर है कौन? मुझसे चाहता क्या है?? क्यों मेरी मदद कर रहा है और उसे कैसे पता... कि मेरे मां पापा का कातिल कौन है.. ? आखिर है क्या चीज़…?? अब 12:00 बजे बुलाया है, तो जाना ही पड़ेगा। यह भी तो देखना है कि वह कर क्या सकता है। एक बार उसे देख लूं फिर एक इस चाचा, बुआ एंड पार्टी से निपट लूंगी। क्योंकि हो ना हो इस पूरे कार्यक्रम में सबसे बड़ा हाथ चाचा एंड पार्टी का ही है। पहले से मुझे यह लोग पसंद नहीं थे और अब तो सर पर ही आकर बैठ गए।" थक कर स्नेहा अपने बेड पर बैठ गई और कब क्या करना है और कातिलों का पता कैसे लगाना है। लेट कर उसी बारे में सोच रही थी सोचते सोचते उसकी आंख लग गई। तब उसने रात में सपना देखा कि एक काला साया उसकी तरफ बढ़ रहा है। उसे मारने के इरादे के साथ। उस साये ने पास आकर तकिया उठा लिया और स्नेहा के मुंह पर रखकर दबा दिया। स्नेहा कुछ नहीं कर पा रही थी, उसकी धड़कन बढ़ ही गई थी और पसीने आ रहे थे। अचानक झटके से उसकी आंख खुल गई घड़ी में 11:30 बज रहे थे। कितना डरावना सपना था ना वह। पर अब सपने से डरने का नहीं बल्कि श्मशान में जाने का समय था। स्नेहा ने मन ही मन संकल्प किया कि आज उस रहस्यमय आवाज से इस सबका कारण जान कर ही रहूंगी। ऐसा सोचकर स्नेहा घर से निकल गई। और घर से श्मशान जाने को निकालने पर बाहर एक ऑटो इंतजार करते मिला। "तुम स्नेहा हो ना…! बाबा ने तुम्हें सही सलामत उनके पास पहुँचाने का आदेश दिया है।" ऑटो चालक ने कहा। स्नेहा के बैठते ही ऑटो हवा से बात करते हुए श्मशान की ओर चल दिया…….
घर से निकलते ही बाहर एक ऑटो स्नेहा का इंतज़ार कर रहा था। ऑटो चालक ने कहा, "आप स्नेहा हो ना! बाबा ने आपको लाने के लिए बोला है। जल्दी बैठ जाओ...आप पहले ही देर से आई हो।" स्नेहा जल्दी ही उस ऑटो में बैठ गई। ऑटो जल्दी ही हवा से बातें करने लगा। बीच-बीच में ड्राइवर बाबा की तारीफों के पुल बांधे जा रहा था जिससे स्नेहा को खीज हो रही थी। "शांत हो जाओ… और बंद करो तुम्हारा बाबा पुराण। दिमाग की वैसे ही बैंड बजी पड़ी है। तुम्हारा बाबा पुराण खत्म होने का नाम नहीं ले रहा।" स्नेहा ने खीज कर डांटने हुए कहा। ड्राइवर एकदम चुप हो गया और ऑटो चलाने पर ध्यान लगा लिया। थोड़ी देर बाद स्नेहा ने पूछा, "सुनो…! कितनी दूर और जाना हैं?" इसपर ड्राइवर फिर से चहक कर बोला, "मैडम जी, बस थोड़ी देर में पहुंच ही गए समझो। श्मशान तो बस कहने के लिए ही है। बाकी बाबा के ठाठ तो रजवाड़ों के जैसे है। पता है कितने बड़े बड़े लोग हाथ बांधकर खड़े रहते हैं। आप बहुत खास होगी मैडम जी जो बाबा ने खुद आपको लेने मुझे भेजा है।" स्नेहा ने फिर से घूर कर देखा। ड्राइवर ने स्नेहा को घूरते देख चुप रहना ही ठीक समझा। स्नेहा का स्वभाव ऐसा नहीं था। बहुत ही सुलझी हुई और समझदार थी पर परिवार की मौत और उस रहस्यमय आवाज ने इस समय उसे अंदर तक से हिलाकर रख दिया था। इस सबके कारण क्रोध उसके ऊपर हावी हो रहा था। अंधेरे में ऑटो कहां जा रहा था कुछ पता ही नहीं चल रहा था। जल्दी ही ऑटो रुक गया और ड्राइवर ने कहा, "मैडम इससे आगे आपको पैदल ही जाना होगा। ऑटो नहीं जा पाएगा।" स्नेहा ने ऑटो वाले को पैसे दिए और खुद बाबा तक पहुंचने का रास्ता ढूंढने लगी। तब फिर वही रहस्यमय आवाज़ आई, "सीधे चलते जाओ… जहां भी मुड़ना होगा मैं तुम्हें बता दूंगा।" स्नेहा सीधे चलती जा रही थी। घना जंगल जैसा प्रतीत हो रहा था। घने पेड़ देखने पर ऐसा लगता था जैसे साक्षात दैत्य सामने खड़े हो। बड़े बड़े दैत्य जो अपने हाथों को फैलाए हुए आक्रमण को तैयार। हर पग पर चर्ररर…चर्ररर… की आवाज सुनाई दे रही थी। साथ में कभी-कभी झींगुर और छिपकलियों की आवाज भी माहौल को डरावना बना रही थी। "ये कैसी जगह है? डर से ज्यादा तो टेंशन हो रही हैं कहीं से कोई खतरनाक जानवर आकर सामने ही ना खड़ा हो जाए। बस अब आवाज के स्थान पर जल्दी पहुंच जाऊँ।" स्नेहा ने मन में सोचा। "बाएं मुड़ जाओ… उसके सौ कदम बाद दाएं मुड़ना। फिर कुछ दूरी पर एक बड़ा सा बरगद है। वहां पर एक आसन रखा होगा और एक काला कपड़ा भी। आगे के निर्देश वही पर मिलेंगे। समय कम है शीघ्रता करो।" आवाज ने आदेश दिया। स्नेहा ने अपनी गति को थोड़ा और तेज कर दिया। उसे भी अपने प्रश्नों के उत्तर पाने की जल्दी थी। जल्दी से स्नेहा पेड़ के पास पहुंच गई और आसन और कपड़े को उठा लिया। उठा कर सोच ही रही थी कि आवाज फिर से गूंजी, "आसन बिछा कर पालथी मारकर बैठ जाओ। कपड़ा आँखों पर बांध लो और जब तक बोला ना जाए खोलना नहीं है।" स्नेहा आवाज के निर्देशों का पालन करती जा रही थी और मन में सोच रही थी, "इतना भी क्या सस्पेंस बनाना… मैं कौन सा किसी को उसके अड्डे के बारे में कुछ बता दूंगी? स्नेहा ने आवाज के कहे अनुसार आसन पर बैठकर आँखों पर पट्टी बाँध ली। और आगे के निर्देशों का इंतजार करने लगी। थोड़ी देर बाद आवाज फिर से गूंजी, "अब तुम आंखें खोल सकती हो लेकिन…! एक बात पूछनी थी तुमसे।" स्नेहा तो पट्टी खोलने का ही इंतजार कर रही थी कि आवाज सुनकर कुछ असमंजस में पड़ गई। "कौन सी बात…? कहना क्या चाहते हो?" स्नेहा ने पूछा। "तुमने मेरे बारे में सोचा तो होगा ही जैसे कौन हूँ…? कैसा दिखता हूँ? कौन सी जगह रहता हूँ?" आवाज ने मजाकिया स्वर में पूछा। "हूह… पूछ तो ऐसे रहा हैं जैसे मेरे बोलने पर युवराज पद्मनाभ बन जाएगा और यह जगह सिटी पैलेस।" स्नेहा मन में बडबडाइ। "जैसा तुम्हें अच्छा लगे…!!!" आवाज ने कहा। फिर चुटकी बजाई और स्नेहा को आंखें खोलने का निर्देश दिया। "अब तुम आंखें खोल सकती हो…!" आवाज सुनकर स्नेहा ने अपनी आंखों से पट्टी हटा दी। एक मिनट के लिए तो स्नेहा को कुछ दिखाई नहीं दिया पर जैसे ही उसकी आंखें नॉर्मल हुई आसपास देख कर आश्चर्य से चौड़ी हो गई। वो सच में सिटी पैलेस ही था। सिटी पैलेस जयपुर में स्थित राजस्थानी व मुगल शैलियों की मिश्रित रचना है। राजाओं की पुरानी निवास स्थली जो पुराने शहर के बीचों बीच है। भूरे संगमरमर के स्तंभों पर टिके नक्काशीदार मेहराब, सोने व रंगीन पत्थरों की फूलों वाली आकृतियों से अलंकृत है। संगमरमर के दो नक्काशीदार हाथी प्रवेश द्वार पर प्रहरी की तरह खड़े है। जिन परिवारों ने पीढ़ी-दर-पीढ़ी राजाओं की सेवा की है। वे लोग गाइड के रूप में कार्य करते है। पैलेस में एक संग्राहलय है जिसमें राजस्थानी पोशाकों व मुगलों तथा राजपूतों के हथियार का बढ़िया संग्रह हैं। इसमें विभिन्न रंगों व आकारों वाली तराशी हुई मूंठ की तलवारें भी हैं। जिनमें से कई मीनाकारी के जड़ऊ काम व जवाहरातों से अलंकृत है तथा शानदार जड़ी हुई म्यानों से युक्त हैं। महल में एक कला दीर्घा भी हैं जिसमें लघु चित्रों, कालीनों, राजसी साजो सामान के साथ-साथ अरबी, फारसी, लेटिन व संस्कृत की दुर्लभ खगोल विज्ञान की रचनाओं का भी उत्कृष्ट संग्रह है। जो कि सवाई जयसिंह द्वितीय ने विस्तृत रूप से खगोल विज्ञान का अध्ययन करने के लिए प्राप्त की थी। वह सिटी पैलेस का ही एक कमरा था वह, सर्वतो भद्रा!! सर्वतो भद्रा एक अद्वितीय वास्तुशिल्प की विशेषता है। असामान्य नाम भवन के रूप को संदर्भित करता है। सर्वतो भद्रा एक मंजिला, चौकोर, खुला हॉल है, जिसके चारों कोनों में, संलग्न कमरे हैं। सर्वतो भद्र का एक प्रयोग दीवान-ए-ख़ास, या हॉल ऑफ़ प्राइवेट ऑडियंस के रूप में किया जाता था, जिसका अर्थ था कि शासक का एक अधिक निजी, अंतरंग स्थान। 'जीवित विरासत' कहना ज्यादा ठीक होगा इसे। सार्वजनिक क्षेत्रों और निजी निवास के बीच अपने स्थान के कारण, यह पारंपरिक रूप से जयपुर के महाराजाओं के राज्याभिषेक अनुष्ठान जैसे महत्वपूर्ण निजी कार्यों के लिए उपयोग किया जाता रहा है। मैं खड़ी आंखे फाड़ कर पागलों की तरह सब कुछ देख रही थी। विश्वास नहीं हो रहा था कि सत्य है या छलावा। "क्या देख रही हो, यहीं तो मुझसे मिलना चाहती थी ना।" आवाज ने कहा। स्नेहा ने झटके से मुड़ कर देखा तो सामने एक 22-25 साल का लड़का खड़ा था। गोरा रंग, चमकदार भूरी आंखे सम्मोहित कर देने वाली थी, कद करीबन छह फुट दो इंच होगा, कसरत करके बनाया हुआ शरीर और उसपर घुंघराले बाल। व्हाइट हंटर शर्ट के साथ ब्राउन ब्रीचेज्। वो किसी भी लड़की को आकर्षित करने में समर्थ लग रहा था। एक पल को तो स्नेहा भी मोहित हो गई थी। "यही रूप तो देखना चाहती थी ना…!" उस लड़के ने स्नेहा के आगे चुटकी बजाते हुए उसका ध्यान तोड़ते हुए कहा। स्नेहा उस लड़के के ऐसा करते ही सकपका गई। वो बिल्कुल भूल ही गई थी कि उससे मिलने आई ही क्यूँ थी। "अब मजाक छोडकर असल मुद्दे पर आते हैं। मुझे तुम पर आसक्ति हो गई है। तुम्हारा जन्म जिस समय में हुआ है तंत्र शास्त्र के अनुसार तुम एक महान भैरवी बनने के गुण है। तुम्हारे परिवार को भी तंत्र के द्वारा ही मारा गया है। यदि तुमने उनका विधि विधान से तर्पण और बाकी संस्कार नहीं किए तो वो लोग भी उसी तंत्र का एक अंग बन जाएंगे।" उस लड़के ने कहा। "क्या बकवास कर रहे हों ऐसा कैसे होता है…? सब मनगढ़ंत बात है।" स्नेहा ने कहा। "तंत्र में कुछ भी मनगढ़ंत नहीं होता लड़की। कल तुमसे मैंने बात की वो भी तंत्र का ही एक भाग था। जो अभी तुम देख रही हो उसे तंत्र की भाषा में इंद्रजाल कहते है। मुझे तंत्र साधना के लिए एक शक्तिशाली भैरवी की आवश्यकता है और तुम्हें अपने परिवार की हत्या का प्रतिशोध चाहिए। 'एक हाथ दे एक हाथ' ले वाला ही नियम चलेगा यहां तो।" उस लड़के ने बोलना खत्म करते हुए एक प्रश्न स्नेहा की तरफ उछाल दिया। स्नेहा असमंजस में इधर-उधर देख रही थी। आँखों की पुतलियाँ भी तेजी से घूमकर उसकी व्याकुलता को दिखा रही थी। "चलो तुम्हारा निर्णय लेना और सरल बना देते हैं।" कहते हुए उस लड़के ने दीवार की तरफ हाथ करके कुछ मंत्र बुदबुदाये। दीवार पर कुछ धुंधली आकृतियां दिखाई देने लगी थी। धीरे-धीरे आकृतियाँ स्पष्ट हो रही थी और स्नेहा की आंखें बड़ी। स्नेहा के घर का दृश्य दीवार पर चल रहा था। सभी घरवाले बहुत खुश दिखाई दे रहे थे। स्नेहा के पापा आज बहुत ज्यादा खुश थे। उन्होंने सभी नौकरों को आज विशेष उपहार दे कर छुट्टी दी थी। स्नेहा की माँ रसोई में मिठाइयां बना रही थी और राधु तो पूरे घर में नाचती घूम रही थी। पापा घर की सजावट में लगे थे। माँ ने जल्दी ही मिठाइयां बना कर पूजा घर में आरती की थाल तैयार कर रही थी। जल्दी ही पापा की सजावट पूरी हो गई थी और वो बार बार माँ को जल्दी करने के लिए बोल रहे थे। "यार… तुम औरतें ना बहुत देर लगाती हो। वो लोग आते ही होंगे और अभी तुम्हारा काम ही खत्म नहीं हुआ। ऐसे कैसे चलेगा।" स्नेहा के पापा ने बड़बड़ाते हुए उसकी माँ से कहा। "हाँ क्यूँ नहीं मेरे तो दस बीस हाथ है ना। सबको आज ही छुट्टी देनी थी। आपने स्नेहा को बताया।" स्नेहा की माँ भी बडबडाई। "हाँ कॉल किया था उठाया नहीं उसने। अरे... रे... राधु बेटा आप कहाँ जा रहे हो।" राधु को गोद में लेते हुए स्नेहा के पापा ने कहा। इतने में बाहर गाड़ी रुकने की आवाज़ आई तो स्नेहा के पापा बाहर की तरफ राधु को गोद में लिए हुए ही दौड़े। गाड़ी से स्नेहा के भाई भाभी उतरे। दोनों के चेहरे खुशी से चमक रहे थे। "अरे कहाँ हो… आ गए आपके लाडले…! जल्दी आओ भाई।" स्नेहा के पापा अधीर होकर चिल्ला उठे। स्नेहा की माँ जल्दी से आरती की थाल लेकर बाहर आई और अपने बेटे बहु को दरवाजे पर ही रोक दिया, "आरती से पहले अंदर नहीं आने दूंगी।" कहते हुए आरती उतारकर दोनों को अंदर ले आई और सोफ़े पर बैठा दिया। "हिलना मत यहां से मैं अभी आई।" कहकर जल्दी से रसोई की तरफ चली गई। स्नेहा के भाई भाभी दोनों सोफ़े पर बैठकर मुस्करा रहे थे और राधु वहीं धमा-चौकड़ी मचा रही थी। पापा भी पास ही खड़े प्यार से उन्हें ही निहार रहे थे। "नजर मत लगाना मेरे बच्चों को।" स्नेहा की माँ ने वापस आते हुए कहा और बच्चों की नजर उतारने लगी। "हां... तुम्हारे बच्चे मेरे तो दुश्मन है। मेरी तो नजर लगेगी ही।" स्नेहा के पापा ने कहा। स्नेहा की भाभी ने कहा, "मां आप बैठो और आराम करो। कितनी भाग दौड़ लगा रखी है आपने।" स्नेहा का भाई बोला, "सुनो... सुनो... सुनो…! आज एक नहीं चार-चार खुशखबरीयां है। पहली राधु का छोटा बहन या भाई आने वाला है। यह तो आपको पता ही है। दूसरी खुशखबरी यह है की हमारी कंपनी को साल की बेस्ट कंपनी और पापा को बेस्ट बिजनेसमैन ऑफ द ईयर का अवार्ड मिलने वाला है। तीसरी शाम तक या फिर सुबह स्नेहा घर वापस आ रही है। और चौथी और आखिरी खुशखबरी यह है कि स्नेहा के लिए एक रिश्ता आया है। हम सब उन्हें बहुत अच्छे से जानते भी हैं। मैंने कल उन्हें डिनर के लिए इनवाइट भी कर लिया है। हम सब लड़के से और उसके परिवार से मिल भी लेंगे और स्नेहा को भी मिला देंगे। अगर सब कुछ ठीक रहा तो जल्दी स्नेहा की शादी कर देंगे। है ना सब कुछ कितना अच्छा... सब कुछ कितना अच्छा जा रहा है ना…! है ना मां…!!!" सभी खुशी खुशी बातें कर रहे थे। हंसी मजाक चल रही थी। तभी स्नेहा की भाभी ने कहा, "मां हम खाना लगा देते हैं।" और रसोई की तरफ चल दी। अचानक स्नेहा की भाभी कुछ पूछने के लिए बाहर आई तो जोर से उसकी चीख निकल गई। चीखने की आवाज सुनते ही सभी उसी तरफ देखने लगे जिस तरह तरफ स्नेहा की भाभी देख रही थी। उस तरफ देखते ही सबकी सभी की आंखें डर के कारण बड़ी हो गई थी। दरवाजे पर कोई परछाई जैसी खड़ी थी।
दरवाजे पर कोई परछाई जैसी खड़ी थी। एक स्त्री परछाई… काले वस्त्र, क्रूर चेहरा, घुटने तक आते घुंघराले बाल, क्रोध से भरे लाल नेत्र और चेहरे पर मृत्यु देव के समान प्राण हरने को आतुर भाव। सभी घरवाले देख कर भयग्रस्त दिखाई दे रहे थे, केवल राधु के अलावा। सबके मुंह से आवाज भी नहीं निकल रही थी। राधु उसे देखकर उसकी तरफ दौड़ी उसका हाथ पकड़ कर अपनी तोतली वाणी में कहा, "आंनती आप… अनदल आओ ना… मेला थोता बाबू आएदा ना… है ना तो…माँ ने ना… माँ ने तुछ बनाया है।" फिर अपनी दादी को देखते हुए पूछा, "माँ ता बनाया है…?" सभी राधु को उस डरावनी औरत से ऐसे बात करते देख बहुत ज्यादा डर रहे थे। उसे इशारे से वापस अपने पास बुला रहे थे। पर थी तो बच्ची ही ना और वो भी उस परिवार की जहां अतिथि देवो भवः की परंपरा रही है। राधु ने फिर पूछा, "बताओ ना…? ता बनाया था तबते लिए…!" "म… मि...मिठाई… मिठाइयां बनाई थी बेटा…!" स्नेहा की माँ ने डरते डरते राधु को अपनी तरफ आने का इशारा करते हुए कहा। "हाँ… मिताई बनाई। आपते लिए...तलो ना…!" राधु ने उस औरत को खींचते हुए कहा। उस डरावनी औरत ने अपनी लाल-लाल आँखों से राधा को घूर कर देखा। उसके चेहरे के भाव थोड़े बदल रहे थे। पर राधु तो राधु थी... डर जाए वो बच्चे कैसे? उन्हें तो मृत्यु की गोद में भी आनंद ही मिलता है। "अले आनती आपती आथ मे ताता हो दइ। आओ मै दवाई लदा दू।" राधु ने प्यार से उसे अंदर खींचते हुए कहा। उस औरत के चेहरे के भाव पल पल बदल रहे थे कभी सौम्य तो कभी रौद्र। अचानक कोई आवाज गूंजी और उस औरत के चेहरे पर विनाशकारी रौद्र भाव स्थायी हो गए। उस औरत ने झटके से राधु को उठा कर फेंक दिया। वह दूर सामने की दीवार पर टकराई और जोर से चीखी, "माँ…!!!" और सब शांत हो गया। राधु को फेंकता देखते ही सबकी चीख निकल गई। सब जोर से चिल्ला उठे… "र...रा...राधुऽऽऽऽऽ…!!!" सभी एक साथ चीखें। सभी लोग राधु की तरफ दौड़े। उसके सर से खून ऐसे बह रहा था मानो पानी हो। सभी उसे हिलाकर देख रहे थे। आवाजें दे रहे थे... "राधूऽऽऽऽ राधूऽऽऽऽऽ उठो बेटा…!!" राधु की माँ ने हिलाते हुए आवाज दी। सभी के आँखों से आँसू बह रहे थे और एक दूसरे की तरफ सदमे में देख रहे थे। यह दृश्य देखते देखते ही स्नेहा जोर से चीख पड़ी। "राऽऽऽऽ धूऽऽऽऽ…!!!" उस लड़के ने चुटकी बजाकर दृश्य को वही रोक दिया। स्नेहा से बोला, "कि अभी तो शुरुआत है... बाकी सब भी देख लो... फिर निर्णय लेना कि तुम्हें उनसे बदला लेना है... या फिर नहीं…??? ऐसे कमजोर नहीं हो सकती तुम।" लड़के ने चुटकी बजाकर उस दृश्य को फिर से शुरू कर दिया। राधु की मां ने जोर से चीखकर कहा, "क्या बिगाड़ा था मेरी बच्ची ने तुम्हारा…? वह तो कितने प्यार से तुम्हें पूछ रही थी?? और तुमने...तुमने क्या किया…?? क्या किया तुमने उसके साथ मार डाला मेरी बच्ची को…???" उस औरत के चेहरे पर कोई भाव नहीं थे। वह बाकी परिवार की तरफ बढ़ती जा रही थी।उसका अगला निशाना स्नेहा की भाभी थी। जब स्नेहा की भाभी उसके ऊपर चिल्ला रही थी। तब उस औरत ने आकर स्नेहा की भाभी का हाथ पकड़ लिया और हाथ को झटके से उखाड़ दिया। सब लोग राधु को छोड़कर स्नेहा की भाभी की तरफ दौड़े। खून का फुहारा कंधे से उस जगह छूट गया जहां से बांह उखड गई थी। वह एक तरफ दर्द के कारण बैठ गई। दर्द के कारण मुँह से आवाज भी नहीं निकल रही थी। सभी स्नेहा की भाभी तक पहुंचते उससे पहले ही उस औरत ने स्नेहा की भाभी को बालों से पकड़कर उठा दिया। अपने नाखूनों से उसके पेट को चीर डाला सभी उसे ऐसा करते देख सन्न रह गए थे। पूरे घर में स्नेहा की भाभी की चीखें गूंज रही थी। वो लोग समझ भी नहीं पा रहे थे। जहां थोड़ी देर पहले नवजीवन के आगमन की खुशियां थी वहीं अब मौत का तांडव हो रहा था। वो औरत निर्विकार भाव से बाकी तीनों को देख रही थी। बारी बारी हर एक को मानो अगली बारी किसकी होनी चाहिए उसके बारे में निर्णय ले रही थी। अगला नंबर स्नेहा की माँ का था जो उनमे सबसे कमजोर दिख रही थी, टूटी हुई, दुखी और रोती हुई। औरत स्नेहा की मम्मी की तरफ धीरे-धीरे आगे बढ़ रही थी और बाकी घरवाले स्नेहा की मां को लेकर धीरे धीरे पीछे खिसक रहे थे। वह औरत उन सब से थोड़ी तेज थी, उसने झटके से स्नेहा की मम्मी का गला पकड़ लिया। स्नेहा के पापा और भाई उन्हें बचाने के लिए उस औरत को रोक रहे थे पर उसे रोक नहीं पा रहे थे। वह कोई साधारण स्त्री नहीं थी ऐसा लग रहा था जैसे साक्षात् मृत्यु एक औरत के रूप में वहां आ गई थी। उस औरत की पकड़ स्नेहा की मम्मी की गर्दन पर कसती ही जा रही थी। स्नेहा की मम्मी की आंखें बाहर की तरफ निकलने लगी थी। पूरे चेहरे की नसें तन कर दिखने लगी थी। बाकी शरीर ढीला पड़ रहा था। स्नेहा का भाई उस औरत को रोकने के लिए उसे कमर से पकड़ कर पीछे खींच रहा था पर जैसे उस औरत पर कोई फर्क ही नहीं पड़ रहा था। अचानक से उस औरत ने अपने बाएं हाथ से स्नेहा के भाई को एक तरफ धक्का दे दिया। स्नेहा का भाई स्नेहा के पापा के ऊपर गिर पड़ा। उस औरत ने स्नेहा की मम्मी की गर्दन पर पकड़ और मजबूत कर दी। जिससे उनकी गर्दन की हड्डी एक झटके से टूट गई और और उनका सर धड़ से अलग हो गया। एक ही झटके से पूरे घर में खून ही खून के छींटे उड़ गए। कुछ छीटें उस औरत के मुंह पर गिरे, कुछ स्नेहा कर भाई और स्नेहा के पापा के चेहरों पर भी गिरे। उनके चेहरे खून से सन गए। वह लोग उस खून को देखकर लगभग विक्षिप्त जैसे ही हो गए। उसके बाद उस औरत ने स्नेहा के भाई को पैर से पकड़ लिया और घसीटते हुए ले जाने लगी। स्नेहा के पापा उसके भाई का हाथ पकड़ कर उससे विपरीत दिशा में खींच रहे थे। उस औरत की पकड़ बहुत मजबूत थी और शक्ति में भी स्नेहा के पापा से बहुत ज्यादा थी। स्नेहा के पापा खुद उसके पीछे घिसटते जा रहे थे। उस औरत ने एक जगह रुक कर स्नेहा कर भाई को आगे की तरफ उछाल दिया। उस झटके से स्नेहा के पापा एक तरफ गिर गए। स्नेहा का भाई दूसरी तरफ रखें एक एंटीक फ्लावर वास से टकरा गया। वह वॉच पीतल का बना हुआ था जिससे टकराकर स्नेहा के भाई के सिर से खून बहने लगा। स्नेहा के पापा दौड़ कर उसके भाई के पास जाने लगे तभी उस औरत ने उन्हें पीछे से पकड़ लिया। उसके हाथों में स्नेहा के पापा की शर्ट के साथ साथ उनकी पीठ का मांस भी आ गया था। स्नेहा के पापा को उनकी पीठ पर तेज जलन महसूस हुई पर उस पर ध्यान ना देते हुए वह स्नेहा के भाई की तरफ दौड़े। स्नेहा का भाई बेहोश हो चुका था। तब उस औरत ने स्नेहा के पापा की रीड की हड्डी तोड़ते हुए पीठ से ही उनका दिल बाहर निकाल लिया और उसे यूं ही जमीन पर फेंक दिया। खुद सोफ़े पर बैठकर स्नेहा के भाई के होश में आने का इंतजार करने लगी। जैसे बेहोशी में किसी को मारना उसके लिए अनुचित हो। थोड़ी ही देर में स्नेहा के भाई को होश आ गया। वह इधर उधर ऐसे देख रहा था, जैसे नींद से जागने पर सब कुछ पहले जैसा हो जाएगा। स्नेहा के भाई ने सामने देखा तो उसके पापा का क्षत-विक्षत शरीर पड़ा था। जिसे देखकर उसके मुंह से चीख निकल गई। उसकी आवाज सुनते ही वह औरत मानो नींद से जाग जाग गई और स्नेहा के भाई की तरफ बढ़ी। उसने नीचे बैठ कर स्नेहा के भाई को अपने पैरों के नीचे दबा दिया। खुद उसके भाई के उपर बैठ गई और शरीर से उसकी खाल धीरे धीरे अलग करने लगी। स्नेहा का भाई चीख भी नहीं पा रहा था। उसकी आंखों से दर्द के कारण केवल आंसू बह रहे थे। धीरे धीरे उसकी दर्द सहन करने की क्षमता कम होती जा रही थी। उसका शरीर शिथिल पड़ता जा रहा था फिर भी औरत नहीं रुकी। मानो कोई संकेत दे रहा था और वह उसका अनुसरण कर रही थी। जल्दी ही काफी सारी खाल उसने स्नेहा के भाई के शरीर से उतार दी थी। पूरा सीना केवल मांस और खून से सना हुआ दिखाई दे रहा था। अब उस औरत ने खाल उतारना बंद कर दिया। अब वह स्नेहा के भाई की एक-एक पसलियां तोड़ रही थी। स्नेहा का भाई दर्द के कारण ना तो चीख पा रहा था, ना ही हिल पा रहा था। जल्दी ही स्नेहा का भाई भी मृत्यु को प्राप्त हुआ। वह औरत उठ खड़ी हुई और पूरे घर में घूम घूम कर देखने लगी कि कोई और तो नहीं बचा था। चारों तरफ देखकर जब कोई नहीं मिला तो वह औरत हॉल के पीछे भी जाकर खड़ी हो गई और चारों तरफ देखते हुए गायब हो गई। दृश्य के खत्म होते हैं दीवार पर अंधेरा छा गया। स्नेहा फूट-फूट कर रोने लगी। तब उस तांत्रिक लड़के ने कहा, "तुम जानती हो... वह औरत कौन थी?" "वह एक बहुत ही शक्तिशाली तंत्र शक्ति कृत्या थी जो तंत्र शास्त्र में बहुत ही शक्तिशाली और विध्वंसक प्रवृत्ति की शक्ति होती है। जिसका कोई काट नहीं।" उस तांत्रिक ने आगे कहा। स्नेहा रोते हुए उसी की तरफ नासमझी वाले भावों के साथ देख रही थी। "कृत्या… क्या है ये कृत्या? मैं समझी नहीं कुछ।" स्नेहा ने पूछा। तब उस तांत्रिक ने विस्तार में कृत्या के विषय में बताना शुरू किया। "कृत्या संसार की प्रबलतम शक्ति है । यह कठिन से कठिन कार्य करने में समर्थ है क्योंकि मानव शरीर पंच तत्वों से निर्मित होता है, पर कृत्या का निर्माण मात्र तीन तत्वों से होता है। इसलिए इसकी शक्ति अप्रतिम है और इसका वेग मन से भी ज्यादा तीव्र है।" "ज्यादातर शत्रु संहार के लिए ही कृत्या का प्रयोग किया जाता है ,परंतु अपने निजी स्वार्थ के लिए इसका प्रयोग नहीं करना चाहिए। यह साधना परम श्रेष्ठ होती है पर इसके प्रयोग में सावधानी भी उतनी ही रखनी पड़ती है। कृत्या दैवीय सहायक होती है और इसका गलत प्रयोग भी भारी नुकसान दे सकता है।" "और भी बहुत कुछ है इस विद्या के बारे में। अगर तुम मेरी भैरवी बनती हो तो ही मैं तुम्हें बता सकता हूं। क्योंकि इससे ज्यादा बताना किसी भी साधारण मनुष्य के लिए हितकारी नहीं है। अब तुम अगर तंत्र साधना के मार्ग पर चलती हो तो हर तंत्र विद्या के बारे में तुम्हें विस्तार से जानकारी दे सकता हूं। हर चीज तुम्हें सिखाने के साथ वह सिद्धियां तुम्हें मिल भी सकती हैं।" तांत्रिक ने कहा। स्नेहा ने पूछा, "यह तो पता चल गया है कि मेरे परिवार की हत्या कैसे हुई? पर ये कहाँ पता चला की हत्या किसने करवाई? कृत्या खुद से तो नहीं आई होगी... किसने यह सब करवाया है?" तांत्रिक ने कहा, "यह सब तुम्हारे चाचा, चाची और बुआ की सहायता से तुम्हारे पिताजी के एक पुराने व्यापारिक प्रतिद्वंदी ने किया है।" स्नेहा ने कहा, "अगर यह हुआ है.. तो क्या तुम मुझे वो भी दिखा सकते हो?" तांत्रिक ने कहा, "बिल्कुल दिखा सकता हूं... क्यों नहीं…? पूरी घटना को अगर तुम्हें दिखाता हूं... तो उसमें काफी समय बीत जाएगा। हो सकता है सुबह ही हो जाए। तुम्हें समय पर वापस घर पर पहुंचना होगा।" "मैं केवल यह दिखा देता हूं कि तुम्हारे परिवार ने उसकी सहायता कैसे की? और उसने किस की सहायता से यह मारण तंत्र किया तुम्हारे परिवार पर? क्योंकि मनुष्य को बोलने से ज्यादा देखने पर विश्वास होता है। रुको तुम्हें अभी दिखाता हूं।"
ऐसा कह कर तांत्रिक ने कुछ मंत्र फुसफुसाए और दीवार की तरफ इशारा कर दिया। जल्दी ही वहां पर एक दृश्य चलने लगा। एक आलीशान कमरा, महंगा फर्नीचर, दिन के उजाले में एक-एक चीज ऐसे चमक रही थी जैसे हीरा चमकता है रोशनी पड़ने पर। एक बहुत ही बड़ी और महंगी दिखने वाली कुर्सी पर एक आदमी बैठा कुछ काम कर रहा था। जिसमें उसके चाचा, चाची और बुआ मिलने गए। उन लोगों के बीच कुछ बातें हुई और उसकी बुआ ने एक पोटली निकाल कर दी। उस पोटली में घर के सभी सदस्यों की एक एक वस्तु थी। जिसमें उसके पापा का पैन, मां की पायल, भाई की कफ-लिंक्स, भाभी की अंगूठी और छोटी राधु की एक गुड़िया थी। उस पोटली को देने के बाद चाचा ने कहा, "हमने उस परिवार पर तंत्र करने के लिए उनकी प्रिय वस्तु आपको दे दी है। आपको उनके व्यापार से मतलब है और हमें उनकी संपत्ति से। पूरा व्यापार हम आपको सौंप देंगे और जो भी उसकी कीमत होगी वह आप हमें दे देना।" दृश्य वहीं समाप्त हो गया स्नेहा अनिश्चितता के भावों के साथ उस तांत्रिक को देख रही थी। फिर तांत्रिक ने दूसरा दृश्य देखने के लिए स्नेहा को इशारा किया। स्नेहा फिर से दीवार की तरफ देखने लगी। दूसरा दृश्य शुरू हो गया। वह व्यक्ति जो स्नेहा के चाचा, बुआ से मिला था। एक अजीब से स्थान पर गया। जहां धुंआ ही धुंआ था। चारों तरफ मानव कंकाल पड़े थे, कुछ विचित्र सी आकृतियां जमीन पर बनी हुई थी। एक यज्ञ वेदी थी, जिसमें से कुछ विचित्र धूँआ दिखाई दे रहा था। एक विचित्र सा व्यक्ति जिसकी लंबी-लंबी जटाऐं, मटमैला शरीर, मृगछाल पहने, आंखें बंद किये उस हवन कुण्ड के सामने बैठा था। वह व्यक्ति उस तांत्रिक के पास गया तो तांत्रिक ने आंखें बंद करे हुए ही कहा, "आओ पुत्र…! विराज क्या तुम उस परिवार के सभी सदस्यों की एक एक वस्तु ले आए हो?" विराज ने हाथ जोड़कर कहा, "जी प्रभु... मैं सब कुछ ले आया हूं। जैसा आपने बताया था ठीक वैसा ही किया है। पर गुरुदेव उस परिवार की एक बेटी है जो काफी समय से परिवार से अलग रहती है। उसका कारण तो नहीं पता पर उस लड़की की कोई भी वस्तु नहीं मिली है।" तब उस तांत्रिक गुरुदेव ने कहा, "कोई बात नहीं बेटा...!! तेरा काम इन्हीं वस्तुओं से हो जाएगा। मैं प्रयास करूंगा कि वो लड़की वापस कभी ना लौटे।" इतना कहकर विराज उस सामान की पोटली को वही रख कर वापस लौट गया। उस तांत्रिक ने उस सभी सामान से तंत्र क्रिया कर उससे एक भयंकर मारक तंत्र का निर्माण किया। दृश्य खत्म हो गया और दीवार फिर से दीवार की तरह दिखने लगी। तब तांत्रिक ने कहा, "अब तुम्हारा क्या कहना है। अब तुम मेरी भैरवी बनना चाहती हो। या फिर अपने परिवार के हत्यारों को यूं ही खुला छोड़ कर अपनी भी मृत्यु को आमंत्रित करना चाहती हो…! निर्णय तुम्हारा होगा।" स्नेहा ने कहा, " मुझे यह सब देख कर बहुत ही ज्यादा गुस्सा आ रहा है।" फिर एक गहरी सांस लेकर कहा, "मैं आपकी भैरवी बनने के लिए तैयार हूं। मुझे किसी भी कीमत पर अपने परिवार की इतनी भयानक मौत का बदला चाहिए। इन लोगों की भी इतनी ही या इससे भी ज्यादा भयानक मौत होनी चाहिए। वह मौत मैं खुद उन्हें अपने हाथों से देना चाहती हूं।" तब उस तांत्रिक ने कहा, "तुम अभी क्रोध में हो। तुम घर जाओ.. आराम करो। शीघ्र ही तुम्हें उनकी आगे की योजना का पता चलेगा। जब तक तुम्हारे परिवार के सदस्यों का अंतिम संस्कार विधि पूर्वक पूरा नहीं होता तब तक तुम्हें उन पर नजर रखनी होगी। क्योंकि अगर उनके श्राद्ध और तर्पण विधि पूर्वक नहीं हुए तो वह उसी तंत्र में कैद होकर रह जाएंगे। तुम अच्छी तरह से कल तक विचार कर लो और यह भी अच्छे से सोच लो कि तुम्हें आगे करना क्या है। क्योंकि तुम्हारा निर्णय तुम्हारे आने वाले जीवन का की दिशा निर्धारित करेगा। ऐसा बताकर तांत्रिक ने कहा, "स्नेहा रात काफी हो गई है। मैं तुम्हें तुम्हारे घर पहुंचा देता हूं। जब भी तुम्हें मेरी सहायता की आवश्यकता होगी तुम्हें उचित समय पर निर्देश मिलते रहेंगे। कोई भी कार्य गुस्से में आकर मत करना। उन्हें भी ये बिल्कुल भी शक मत होने देना कि तुम्हें उनके बारे में सब कुछ पता है। क्योंकि वह तांत्रिक बहुत ही ज्यादा शक्तिशाली है। मैं उसका सामना तो कर सकता हूं पर पक्का नहीं के उससे जीत ही जाऊँ। अगर तुम्हारी कोई वस्तु उनके पास पहुंच गई तो फिर मैं भी तुम्हारी कुछ सहायता नहीं कर पाऊंगा।" "तुम्हारे साथ साथ मेरा भी कार्य अपूर्ण रह जाएगा अब आगे क्या करना है वह ध्यान से सुनो…" तांत्रिक ने स्नेहा को कुछ गुप्त बातें बताई। जिनसे जब तक स्नेहा शांत मन से किसी निर्णय पर नहीं पहुंचती है तब तक स्नेहा का बचाव हो सके। तांत्रिक ने स्नेहा को आंखें बंद करने के लिए आदेश दिया। स्नेहा ने आंखें बंद की अचानक से ही तेज हवा अपने शरीर पर महसूस हुई। एक पल बाद जैसे ही स्नेहा ने आंखें खोली वह अपने कमरे में थी। जब स्नेहा ने आंखें खोली वह अपने कमरे में थी। तब उसे आवाज आई, "तुम्हें जब भी मुझसे मिलना हो तब इस काले कपड़े का एक छोटा सा टुकड़ा काटकर जला देना। मुझ तक संदेश पहुंच जाएगा।" "मेरी वाणी तुम्हें आगे के निर्देश देगी जिससे हमारी भेंट पुनः हो सके। अब इस कपड़े और आसन को छुपा कर रख दो क्योंकि अगर किसी के हाथ लगा तो तुम्हारे प्राणों पर संकट बढ़ जाएगा।" इतना बोलते ही वह आवाज शांत हो गई। स्नेहा अपने कमरे में आराम करने लगी लेटे लेटे वह यही सोच रही थी कि क्या... उस तांत्रिक की बात मानना ठीक होगा? सोचते सोचते स्नेहा की आंख लग गई। जब स्नेहा सो रही थी। तब उस कमरे में वही भयानक औरत जिसने स्नेहा के पूरे परिवार की निर्मम हत्या की थी वह स्नेहा की तरफ धीरे धीरे बढ़ रही थी। पास आकर स्नेहा के सिरहाने के पास बैठ गई। उसके तेज नाखूनों वाली उंगलियां स्नेहा के चेहरे पर चल रही थी। स्नेहा को उन नाखूनों की चुभन अनुभव हुई। स्नेहा ने आंखें खोल कर देखा तो वही डरावनी औरत स्नेहा के सिरहाने बैठी थी। अपनी लाल आंखों से स्नेहा को देख कर ऐसे मुस्कुराई जैसे कोई बाघ अपने पंजे में दबे मृग को देख कर प्रसन्न होता है। स्नेहा उसे देख कर बहुत ज्यादा डर गई। एयर कंडीशनर की ठंडक में भी पसीने से भीग गई थी। घबराहट से उसका गला सूख रहा था। शरीर में हिलने की ताकत तक नहीं लग रही थी। मुँह से आवाज बाहर नहीं निकल रही थी। चाह कर भी चिल्ला नहीं पा रही थी। इसी कारण आँखों से बेबसी के आंसू बह रहे थे और अपने जीवन का अंत भी महसूस कर रही थी। स्नेहा को उस तांत्रिक की याद आई जिसने उसकी सहायता का आश्वासन दिया था पर अभी तो वो भी कुछ नहीं कर रहा था। ये सोचकर और भी दुखी हो रही थी। स्नेहा ने फिर एक बार मरने से पहले सहायता के लिए उसे पुकारने की सोची। इस बार उसकी जोरदार चीख निकल गई। "बऽऽऽऽऽऽचाऽऽऽऽऽऽऽऽओऽऽऽऽऽऽऽऽ…!!" चीखते ही उसकी आंख खुल गई। "हाश…!! सपना था…!" स्नेहा ने मन ही मन अपने आपको समझाते हुए कहा। घर के बाकी सभी लोग भागते हुए स्नेहा के कमरे में पंहुचे। सबने स्नेहा को सही-सलामत देखा तो उससे सवाल करने लगे। "क्या हुआ… स्नेहा तुम चीखी क्यूँ???" अखिलेश जी ने पूछा। "क्या बात हैं स्नेहा बेटा…? इतनी डरी हुई क्यूँ हो?" गीता जी ने झूठी सहानुभूति दिखाते हुए पूछा। "सब ठीक तो है बेटा…? कुछ हुआ हो तो हमें बता सकती हो।" अरुणा जी ने स्नेहा के सिर पर हाथ फेरते हुए पूछा। फिर अरुणा जी और गीता जी स्नेहा के बेड पर बैठकर स्नेहा के पैर पर हाथ रखकर सांत्वना देने लगी। राहुल और अनुज दोनों गुस्से और खीज के साथ स्नेहा को देख रहे थे। स्नेहा ने कहा, "मैं ठीक हुँ…!! आप परेशान ना हों कुछ बुरा सपना देख कर थोड़ा घबरा गई थी। अब सब ठीक है आप सब भी आराम कीजिए।" "कोई बात नहीं बेटा… हम यही है। तुम चिंता मत करो। कोई भी जरूरत हो तो आवाज लगा देना।" अखिलेश जी ने कहा। "हुह… मेरे ही घर में रहकर मुझे ही मेहमान बना रहे हैं।" स्नेहा ने मन ही मन सोचा और सबसे कहा, "आप सब चिंता ना करें… मैं ठीक हुँ अब। आप सब भी आराम कर लीजिए।" सभी एक-एक कर के अपने कमरों में चले गए। जल्दी ही स्नेहा भी सो गई। सुबह जब स्नेहा उठी तो उसे पता चला। उसके पापा की वसीयत पढ़ी जाने वाली है आज। स्नेहा थोड़ा दुखी हो गई थी पर जल्दी ही उसने अपने आपको सम्भाल लिया। शाम को वकील साहब घर आए। सभी हॉल में ही उनका इंतजार कर रहे थे। "आइए... बैठिए… वकील साहब!" अखिलेश जी ने उठकर वकील साहब का स्वागत करते हुए कहा। और किसी को चाय-नाश्ता लाने के लिए कहा। वकील साहब ने कहा, "नहीं... नहीं... रहने दीजिए! चाय नाश्ते की कोई जरूरत नहीं है। बस आप स्नेहा बिटिया को जल्दी बुला दीजिए ताकि वसीयत पढ़ी जा सके।" थोड़ी देर में स्नेहा भी बाकी लोगों के साथ वसीयत सुनने के लिए हॉल में आकर बैठ गई। वकील साहब ने वसीयत पढ़ना शुरू किया। "मैं अनुराग पुत्र श्री गोविंद प्रसाद... अपने पूरे होशो हवास में अपनी सभी पूरी चल अचल संपत्ति 2 बराबर हिस्सों में अपने दोनों बच्चों में बांटता हूं। जिसमें घर दोनों ही बच्चों का होगा। व्यापार मेरा बेटा आशुतोष संभालेगा। स्नेहा उसमें चाहे तो आशुतोष की मदद कर सकती है और अगर अपना अलग व्यापार करना चाहे तो आशुतोष से मदद ले सकती है।" इस तरह कुछ जरूरी बातें बता कर वकील साहब ने वसीयत बंद कर दी। सभी के चेहरे उतर गए थे। सब सोच रहे थे कि वसीयत में उन्हें भी कुछ मिलेगा। वकील साहब ने कहना शुरू किया, "अब आशुतोष और उसका परिवार भी इस दुनिया में नहीं है। तो आशुतोष के हिस्से की भी पूरी संपत्ति स्नेहा के नाम अपने आप हो जाती है। पूरी बात यह है कि अनुराग जी की पूरी चल अचल संपत्ति बैंक बैलेंस और गहने सभी स्नेहा को दिए जाते हैं।" वकील साहब वसीयत पढ़कर चले गए स्नेहा भी उठकर अपने कमरे में चली गई। बाकी परिवारजन वही हाॅल में बैठकर संपत्ति हाथ से जाने का शोक मना रहे थे। गीता जी ने कहा, "यह तो सब कुछ स्नेहा के नाम चला गया। अब हम क्या करेंगे…?" इस पर अरुणा जी बोली, "जीजी यह तो गलत बात है। इस पूरे संपत्ति में से हमें तो कुछ तो मिलना चाहिए था।" अखिलेश ने कहा, "अभी शांत रहो... जल्दी किसी दूसरे वकील से मिलकर इस प्रॉपर्टी के बारे में बात करते हैं और यह कोशिश करते हैं की पूरी प्रॉपर्टी हमें ही मिले। बस स्नेहा का कुछ परमानेंट इलाज ढूंढना होगा।" सब बातें ही कर रहे थे कि स्नेहा के कमरे से बहुत तेज से तोड़फोड़ और सामान इधर-उधर गिरने की आवाजें आ रही थी। सभी दौड़कर स्नेहा के कमरे की तरफ गए। कमरे में स्नेहा अपना सारा सामान एक-एक करके उठाकर फेंक रही थी। जैसे उसे कोई नुकसान पहुंचाना चाहता हो और वह उस पर उस सामान से हमला कर रही थी। पूरा कमरा अस्त-व्यस्त दिख रहा था। ड्रेसिंग टेबल पर रखा सारा सामान पूरे कमरे में बिखरा पड़ा था। कहीं तकिए, कहीं चादर और कहीं टेबल लैंप पड़ा था। स्नेहा किसी पर चिल्ला-चिल्ला कर जो सामान हाथ में आ रहा था, उसे फेंक रही थी। सब उसके फेंके जाने वाले सामान से बचते हुए वहां खड़े थे। अखिलेश जी स्नेहा के पास जा उसके कंधे पर हाथ रख कर बोले, "स्नेहा बेटा यह क्या कर रही हो…? यह सारा सामान इधर उधर क्यों फेंक रही हो…???" स्नेहा ने कहा, "चाचा जी…! आप देखो…!!! सामने वह औरत खड़ी है ना...। मुझ पर हमला करना चाह रही है। मैं बस उसे रोकने के लिए यह सब फेंक रही हूं। आप देखिए ना वह यहीं आ रही है…! आपको...आपको उसकी आवाज नहीं सुनाई दे रही... इतना चिल्ला रही है।"
यह कह कर स्नेहा ने अपने कान अपने हाथों से तेजी से बंद कर लिये और घुटनों के बल झुक कर जमीन पर बैठ गई। सभी उसे ऐसे देख कर थोड़ा परेशान हो गए और एक एक करके कमरे से बाहर निकल गए। सभी हाॅल में बैठकर स्नेहा की हालत के बारे में बात कर रहे थे। गीता जी ने कहा, "यह स्नेह पागल तो नहीं हो गई। अब कौन अपने कमरे का सामान ऐसे पागलों की तरह फेंकता है?" इस पर अरुणा जी ने कहा, "जीजी देखा नहीं आपने कैसे किसी ना दिखने वाले वाली औरत को सारा सामान फेंक-फेंक कर मार रही थी। मुझे लगता है... शायद सदमा लगा है पूरे परिवार की मौत का।" अनुज ने कहा, "मां... ऐसा भी तो हो सकता है कि वह सच बोल रही हो। उसे सच में कोई दिखाई दे रहा हो।" अखिलेश जी ने कहा, "ऐसा है तो यह हमारे लिए बहुत ही खुशी की बात है। क्योंकि अगर सच में ऐसा है... तो जरूर विराज जी ने ही स्नेहा का कोई इलाज करवाया होगा। आज के बाद हम में से कोई भी स्नेहा को कुछ भी करने की कोशिश नहीं करेगा। यह सब तो विराज जी करवा देंगे। हमें तो बस प्रॉपर्टी से मतलब है... स्नेहा जिए या मरे हमें उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। आगे से आप सब लोग भी ध्यान रखना।" राहुल ने कहा, "जी पापा मेरे हिसाब से भी स्नेहा को उसी की हाल पर छोड़ देना अच्छा रहेगा। धीरे धीरे खुद ही उसकी हालत बिगड़ जाएगी। हम डॉक्टर से सर्टिफिकेट बनवा लेंगे कि वह पागल हो गई है और प्रॉपर्टी की देखभाल करने में असमर्थ है। कोर्ट से पूरी संपत्ति अपने नाम ट्रांसफर करवा लेंगे।" सभी यही सोच कर खुश होने लगे थे। अखिलेश जी ने कहा, "ठीक है... यही करेंगे…! अब सब लोग अपने अपने कमरे में जाकर आराम करो। अभी वैसे भी कोई काम नहीं है तो आराम ही कर लो।" वही स्नेहा अपने कमरे के सामान को समेटते हुए बड़बड़ा रही थी, "ना जाने क्या-क्या और करना पड़ेगा इस पूरे चाचा एंड कंपनी के चक्कर में। कितनी सफाई करनी पड़ रही है।" स्नेहा अपना कमरा साफ करके बेड पर लेट गई और जल्दी सो गई। स्नेहा की हालत दिन पर दिन बिगड़ती जा रही थी उसे वह औरत लगभग पूरे समय दिखने देखने लगी थी। कभी हाॅल में, कभी किचन में, कभी सीढ़ियों पर स्नेहा उसे देखकर डर जाती थी। चीजों को फेंकने लगती या फिर कभी खुद के बाल नोचने लगती या कानों पर हाथ रखकर चीख पड़ती थी। जल्दी तेरहवीं का दिन भी आ गया था उस दिन पूजा के लिए बहुत से रिश्तेदार भी आए थे। चाचा चाची, बुआ, राहुल और अनुज तो थे ही राहुल की पत्नी और बेटी भी आई थी। जल्दी ही पूजा होने वाली थी। चाचा एंड कंपनी इसी बात का इंतजार कर रहे थे कि कब स्नेहा का वही पागलों वाला ड्रामा शुरू हो। क्योंकि फायदा इसमें उन लोगों का ही था। स्नेहा सबके सामने वैसे व्यवहार करती और अगर स्नेहा के साथ कुछ भी होता तो रिश्तेदारों को जवाब नहीं देना पड़ता। स्नेहा खुद सबके सामने अपनी हरकतों से ही पागल सिद्ध हो जाती। उन लोगों का काम आसान हो जाता। जल्दी ही पूजा निर्विघ्न संपन्न हो गई। सभी रिश्तेदार अपने अपने घर चले गए। इस पूरे प्रकरण से चाचा एंड कंपनी थोड़े से दुखी थे कि सभी रिश्तेदारों के सामने स्नेहा को वह औरत देखने का दौरा क्यों नहीं पड़ा। अगर पड़ जाता तो वह स्नेहा के साथ संपत्ति के लिए कुछ भी करते तो रिश्तेदार इसमें उनका साथ देते। पर यह सोचकर शांत हो गए कि कोई बात नहीं वह डरावनी औरत अपना काम ठीक से करेगी। उसके परिवार की तरह स्नेहा का भी काम अच्छे से खत्म करेगी। स्नेहा अपने कमरे में चली गई। स्नेहा बहुत उदास और भावुक हो रही थी, उसे अपने परिवार की बहुत ही ज्यादा याद आ रही थी। इसलिए वह रोने लगी जब उसे रोते थोड़ी देर हो गई। तब वही रहस्यमय तांत्रिक की आवाज गूंजी, "तुम यहां रो कर अपने आप को कमजोर साबित कर रही हो... और वहां सब लोग तुम्हारी मौत की राह देख रहे हैं। अब समय आ गया है जब तुम्हें मेरे प्रस्ताव पर निर्णय लेना होगा। तुम्हें आज ही यह सोचना होगा... कि तुम्हें आगे करना क्या है…?" इस पर स्नेहा बोली, "सोचने विचारने के लिए कुछ बचा ही नहीं है। मेरा निर्णय पहले से ही आपको ज्ञात है। मैं आपके प्रस्ताव के अनुसार आपकी भैरवी बनने के लिए तैयार हूं।" तब उस तांत्रिक ने कहा, "ठीक है…! तो फिर आज रात हम मेरे स्थान पर मिलेंगे। क्योंकि पिछली बार जिस जगह और जिस रूप में हम मिले थे। वह सब तुम्हारी कल्पना के अनुसार मैंने बनाए थे। पर जब तुमने भैरवी बनने के लिए सोच ही लिया तो तुम्हें यह भी पता होना चाहिए कि आगे चलकर तुम्हें कहां रहना होगा…?? किन परिस्थितियों में रहना होगा…??? क्योंकि एक बार आगे बढ़कर बीच साधना से वापस जाना संभव नहीं है।" स्नेहा ने कहा, "बीच साधना से मैं भी वापस नहीं जाऊंगी। अगर इस पूरे प्रकरण से मुझे मेरे माता-पिता, भाई भाभी और राधु की हत्या का बदला लेने का मौका मिलता है तो मैं किसी भी कीमत पर वह बदला लूंगी। चाहे फिर उस बदले की कीमत मेरी जान ही क्यों ना हो। अगर मर भी गई तो भी उनसे बदला तो मैं लेकर ही रहूंगी। और वो विराज और उसका गुरु अगर यह समझते है कि वो यह सब करके बच जाएंगे तो यह उनकी सबसे बड़ी गलती है।" तभी उस रहस्यमई आवाज ने टोका, "चुप करो लड़की…!!! तुम जानती भी हो... जिस तांत्रिक ने तुम्हारे परिवार पर वह तंत्र किया था? वह कितना शक्तिशाली है…! यहां तक की अगर मैं उनसे लड़ने की कोशिश करूं तो भी उनका कुछ नहीं कर पाऊंगा। क्योंकि उनकी शक्तियां असीम है। मैं उसको तभी काट सकता हूं जब मेरे पास कुछ विशिष्ट साधनाओं के लिए मेरी भैरवी मेरे साथ हो। इसीलिए मैंने तुम्हें इस काम के लिए चुना।" तभी स्नेहा के कमरे के दरवाजे पर एक दस्तक हुई। वह रहस्यमय आवाज शांत हो गई और स्नेहा ने उठकर दरवाजा खोला। सामने राहुल की पत्नी खाने की थाली लेकर सामने खड़ी थी और उसकी बेटी पीहू उसके पीछे से छुप छुपकर झांक रही थी। पीहू को देखकर स्नेहा को राधु की याद आ गई थी। पीहू भी राधु की तरह ही चंचल, मस्त-मौला और गोलू-मोलू थी। पीहू को देखकर स्नेहा की आंखें भर आई और स्नेह रोने लगी। राहुल की पत्नी कमरे में आई और आकर खाने की थाली वहीं बेड के किनारे टेबल पर रख दी। पीहू राहुल की पत्नी प्रीति के पल्लू को पकड़कर उसके पीछे पीछे अंदर आ गई। प्रीति ने स्नेहा को चुप करवाया और खाना खाने के लिए कहा, "स्नेहा आप कुछ खा लो। आपने कल भी कुछ नहीं खाया था।" पीहू छुप छुप कर स्नेहा को देख रही थी। तब प्रीति ने पीहू से कहा, "पीहू बेटा ये आपकी बुआ है। स्नेहा बुआ…! आप बुआ से बात करो तब तक मम्मा दादी और दादू को भी खाना परोस कर आती है।" ये बोलकर प्रीति वहां से चली गई। पीहू स्नेहा को अजीब सी नज़रों से देख रही थी। वो पहली बार स्नेहा से मिल रही थी इसलिए थोड़ा सा शर्मा रही थी। स्नेहा ने पीहू को अपने पास बुलाया और गोद में बिठाते हुए पूछा, "पीहू बेटा... मैं बुआ... स्नेहा बुआ…! आप मुझे नहीं जानते ना…! पर पता है... आप बहुत क्यूट हो और मुझे बहुत अच्छी भी लगती हो। मैं आपको अच्छी नहीं लगी क्या??" इस पर पीहू ने कहा, "नहीं...नहीं... आप तो बहुत सुंदर हो। मुझसे बहुत प्यार से भी बात कर रही हो फिर आप मुझे अच्छी क्यों नहीं लगोगी। हां पर अगर आप मुझे चॉकलेट दोगी तो हम फ्रेंड्स बन सकते हैं। पर आपको मुझे बाहर घुमाने भी ले जाना होगा। पापा तो कहीं लेकर ही नहीं जाते। दादा-दादी भी नहीं जाने देते आप मुझे ले चलोगे।" स्नेहा ने पीहू के गाल खींचते हुए कहा, "हां... बिट्टू हम घूमने चलेंगे। ज़ू भी जाएंगे और राइड पर भी।" पीहू ने खुश होते हुए बहुत ही ज्यादा उत्साहित होकर कहा, "सच्ची बूई... हम चलेंगे ना... घूमने पक्का लेकर चलोगे ना मुझे…! हम आप... है ना... हम वहां पर ना... आइसक्रीम भी खाएंगे। बड़े वाले राइड में भी…!" स्नेहा ने कहा, "हां बिट्टू…! हम चलेंगे।" इतने में स्नेहा को वही डरावनी औरत दिखाई दी जो खिड़की में एक पैर अंदर और एक पैर बाहर लटका कर बैठी थी। स्नेहा एकदम से डर गई। उसने पीहू को वहां से चले जाने के लिए कहा, "पीहू…! पीहू... !बेटा आप फटाफट मम्मी के पास जाओ। जल्दी…!!!" पीहू ने मासूमियत से पूछा, "क्या हुआ बूई…???आप डर क्यों रहे हो... कौन है??? अगर आपको कोई भूत डरा रहा है ना... तो मैं ना... उसे ना... मार के भगा दूंगी।" इतने में स्नेहा को वही राधु वाला खौफनाक मंजर याद आ गया था। उसने पीहू को धक्का देते हुए कहा, "पीहू जल्दी जाओ मम्मी बुला रही है आपको जाऽऽऽओऽऽऽ…!!!" पीहू स्नेहा को इस हालत में छोड़कर जाना नहीं चाहती थी और दूसरी तरफ वो डरावनी औरत खिड़की से अंदर आ गई। धीरे धीरे स्नेहा की तरफ बढ़ने लगी। स्नेहा डर के कारण कांप रही थी। पीहू उसे छोड़कर जाने के लिए तैयार नहीं थी। स्नेहा नहीं चाहती थी कि जैसा राधु के साथ हुआ वही पीहू के साथ दोहराया जाए। क्योंकि कुछ ही समय में स्नेहा पीहू से बहुत ही ज्यादा जुड़ाव महसूस कर रही थी। उसे पीहू में राधु दिखने लगी थी। एक तरफ वो औरत लगातार स्नेहा के पास आए जा रही थी। अचानक स्नेहा जोर से चीख पड़ी। उसकी चीख सुनकर पीहू भी डर गई और रोने लगी। स्नेहा की आवाज सुनकर सभी घरवाले दौड़ते हुए कमरे में पहुंचे। स्नेहा को कान पर हाथ रखे, घुटने में सर छुपा कर चिल्लाते देख और पीहू को रोता देख सभी एक बार को तो टेंशन में आ गए थे। सभी को वहां पर स्नेहा पर गुस्सा आ रहा था कि वह ऐसा नाटक क्यों कर रही है…? कुछ समय पहले अखिलेश जी ने विराज से फोन पर बात की थी। तब विराज ने उन्हें बताया था... कि गुरु जी ने स्नेहा पर कोई भी तंत्र नहीं किया है। अब सभी लोग इसी बात से परेशान थे कि अगर यह सब विराज के गुरु जी ने नहीं किया है तो आखिर स्नेहा कर क्या रही है। स्नेहा लगातार चीखे जा रही थी और सभी उसे देख रहे थे। थोड़ी देर बाद स्नेहा ने गर्दन उठाकर देखा तो सभी लोग उसे देख रहे थे। बुआ, चाची, चाचा, राहुल, अनुज, प्रीति और सबसे ज्यादा डरी हुई और टेंशन में पीहू दिखाई दे रही थी। क्योंकि पीहू भी स्नेहा से बहुत ज्यादा प्यार करने लगी थी। उसे स्नेहा को ऐसे डरा हुआ देख कर बुरा लग रहा था। स्नेहा ने चारों तरफ देखा तो उसे वह डरावनी औरत अब नहीं दिख रही थी। स्नेहा ने थोड़ी राहत की सांस ली। सभी लोग मन में बड़बड़ाते हुए अपने-अपने कमरों में चले गए। स्नेहा को अब सच में डर लगने लगा था। वह सोच रही थी, "कहीं सच में यह औरत उसी विराज के गुरु जी ने तो मुझे मारने के लिए नहीं भेजी।" ऐसा सोचते हुए उसे याद आया उस रहस्यमय आवाज ने उसे एक काला कपड़ा दिया था। जिसे जलाने पर रहस्यमय आवाज से संपर्क किया जा सके। स्नेहा ने अपने सामान में से वह कपड़ा ढूंढ कर निकाला और उसका एक टुकड़ा काट कर जला दिया। उस टुकड़े के जलते ही वो रहस्यमयी आवाज फिर से गूंजी, "क्या हुआ लड़की…! तुमने इस समय मुझे क्यों याद किया…?? हम तो आज रात वैसे भी मिलने वाले थे।" स्नेहा ने कहा, "इतने दिनों से मुझे वही औरत जिसने मेरे परिवार को मारा। वह पूरे दिन, पूरे घर में दिखाई दे रही है…! अभी थोड़ी देर पहले भी वह मेरी तरफ आ रही थी। उसे देख कर मैं डर गई... मुझे लगता है... यह सब उस तांत्रिक का किया धरा है।" तब उस रहस्यमय आवाज ने कहा, "ऐसा हो तो नहीं सकता क्योंकि तुम्हारी कोई भी वस्तु तुम्हारे किसी भी घर वाले ने विराज तक या विराज के गुरुजी तक नहीं पहुंचाई है... तो यह सब उनका किया तो नहीं हो सकता। फिर भी तुम जब रात को मुझसे मिलने आओगी। तब हम इस बात पर विस्तार से चर्चा करेंगे।" इतना बोल कर वह आवाज शांत हो गई और स्नेह वही टेंशन में बैठी रह गई। सभी अपने अपने कमरे में बैठे स्नेहा की इस हालत पर ही बात कर रहे थे। अखिलेश जी ने कहा, "तेरहवीं की पूजा के बाद मेरी विराज जी से बात हुई थी। उन्होंने कहा था कि उनके गुरु जी ने स्नेहा के ऊपर किसी भी तरह के तंत्र का प्रयोग नहीं किया है। " गीता जी ने कहा, "अगर यह सब विराज और उसके गुरु जी ने नहीं किया है। तो किसने किया है…??" अरुणा ने कहा, "जीजी मुझे तो ऐसा लगता है कि स्नेहा को सदमा लगा है। हमें उसे किसी डॉक्टर के पास ले जाना चाहिए।" तब राहुल ने कहा, "मम्मी आप बिल्कुल सही बोल रही हैं। अगर स्नेहा को कुछ नहीं भी हुआ है तो हमें सर्टिफिकेट तो मिल ही जाएगा कि उसकी दिमागी हालत ठीक नहीं है।" इतने में प्रीति ने कहा, "मम्मी जी एक काम करते हैं... स्नेहा को वह डरावनी औरत कभी-कभी दिखाई दे रही है। हम किसी डॉक्टर के साथ मिलकर स्नेहा के लिए दवाई लिखवा दें और वह दवाई स्नेहा को देते रहें। जिससे स्नेहा को वह औरत दिखना कम ना हो बल्कि पूरे टाइम दिखना स्टार्ट हो जाए। उससे हमारा फायदा ही होगा और हम किसी बड़े डॉक्टर को दिखा कर उसकी दिमागी हालत के लिए सर्टिफिकेट बनवा लेंगे। उससे सांप भी मर जाएगा और लाठी भी नहीं टूटेगी।" सभी लोग प्रीति की बात से सहमत हो गए। जल्दी ही रात हो गई और स्नेहा जल्दी-जल्दी उस रहस्यमय आवाज से मिलने के लिए तैयार होने लगी। वह नहीं चाहती थी कि किसी को भी उसके बाहर जाने का पता चले। इसलिए उसने जादुई आसन का सहारा लिया और आसन पर बैठकर आंखों पर वही काला कपड़ा बांध लिया पर इस बार आसन ने काम नहीं किया। स्नेहा अपने ही कमरे में बैठी थी। स्नेहा ने फिर से उस काले कपड़े को जलाया और उस रहस्यमय आवाज से सवाल पूछा, "इस बार यह आसन काम क्यों नहीं कर रहा है…???" स्नेहा बहुत ही परेशान हो गई थी। रहस्यमय आवाज ने तो कहा था कि ये हमेशा काम करेगा फिर अब क्यूँ नहीं कर रहा क्या रहस्यमय व्यक्ति ने भी मेरा साथ छोड़ दिया…???
स्नेहा अपने ही कमरे में बैठी थी। स्नेहा ने फिर से उस काले कपड़े को जलाया और उस रहस्यमय आवाज से सवाल पूछा, "इस बार यह आसन काम क्यों नहीं कर रहा है…???" रहस्यमय आवाज ने कहा, "कोई बात नहीं तुम उसी श्मशान में पहुंचो जहां तुम्हारे परिवार का अंतिम संस्कार किया गया था। मैं वहीं तुमसे मिलूंगा। फिर हम हमारे स्थान पर साथ में चलेंगे। स्नेहा ने जल्दी से नीचे जाकर सबसे कहा, "आज मेरी तबीयत ठीक नहीं है... तो दवाई लेकर सोने जा रही हूं। प्लीज कोई भी मुझे जगाने मत आना।" इतना कहकर स्नेहा वापस अपने कमरे में चली गई क्योंकि अब स्नेहा को समझ आ गया था कि इस समय कोई भी जादुई आसन या कुछ भी उसकी सहायता नहीं करने वाला है। उसे आज तांत्रिक से मिलने जाने के लिए बहुत टाइम चाहिए होगा। इसलिए उसने सबसे झूठ बोलकर यह टाइम लिया। स्नेहा ने अपने कमरे की खिड़की से होते हुए पेड़ पर चढ़कर घर से बाहर निकल गई। बाहर से एक ऑटो में बैठ कर श्मशान के लिए चली गई कुछ ही देर में स्नेहा श्मशान में पहुंच गई। स्नेहा वहीं बैठ कर उस आवाज वाले व्यक्ति का इंतजार कर रही थी। सामने से एक 35 साल के आसपास का आदमी चल कर आ रहा था। उस आदमी ने लाल रंग की धोती पहनी हुई थी, बाएं पैर में एक कड़ा पहना था। सांवले रंग का वह आदमी कसरती शरीर का मालिक था, ऐसा लग रहा था जैसे उसने घंटों कसरत करके वह शरीर बनाया था। बालों के पीछे की तरफ ले जाकर छोटा सा जुड़ा बनाया हुआ था। चेहरे पर हल्की दाढ़ी और मूंछ थी। वह व्यक्ति अगर इस वेशभूषा में नहीं होता तो निश्चित ही कोई भी स्त्री उस पर मोहित हो सकती थी। वह व्यक्ति धीरे-धीरे स्नेहा के पास आ रहा था। जब वह स्नेहा से 20 मीटर दूरी पर रह गया तो अचानक वहीं पर खड़ा हो गया। उसकी आंखों का रंग गहरा लाल होने लगा। वह कुछ मंत्र पढ़ने लगा। स्नेहा को उसके मंत्र नहीं सुनाई दे रहे थे पर आभास हो रहा था कि कुछ गड़बड़ जरूर थी। तांत्रिक वहीं से स्नेहा को घूर कर देखा और अपने मंत्रों से अपने हाथों में थोड़ी सी राख मंगवा कर स्नेहा के चारों तरफ वहीं से एक गोल घेरा बना दिया। उसने स्नेहा से कहा, "मेरे घेरा पूरा करने से 1 मिनट पहले ही इस घेरे से बाहर निकल जाना।" स्नेहा ने नासमझी के भाव से उसे देखा पर तांत्रिक के चेहरे पर कुछ विचित्र भाव देखकर उस समय कुछ भी पूछना उचित नहीं समझा। बस तांत्रिक के कहे अनुसार स्नेहा बाहर निकल गई। स्नेहा के निकलते ही तांत्रिक ने वह घेरा पूरा बना दिया। बाहर निकलते ही तांत्रिक स्नेहा पर जोर से चिल्लाया, "पता है क्या साथ लेकर घूम रही हो…?? अगर जरा भी चूक हो जाती तुमसे तो आज तुम्हारे घरवालों के साथ-साथ तुम्हारी भी तेरहवीं होती…!" स्नेहा अभी भी आंखों में नासमझी के साथ तांत्रिक को देख रही थी। उसे तांत्रिक की बातें कम ही समझ आती थी। तांत्रिक ने कहा, "यह जगह यह सब बात करने के लिए ठीक नहीं है। फिलहाल तुम जितनी जल्दी हो सके मेरे साथ चलो।" स्नेहा और तांत्रिक वहां से चल दिए। थोड़ी दूर जाने पर वहां एक नदी बह रही थी। वह तांत्रिक नदी के पानी पर चलकर नदी पार कर गया। स्नेहा वही खड़ी रह गई... उसे समझ नहीं आ रहा था कि पानी पर से कैसे चल कर जाए…? तांत्रिक ने कड़ी आवाज में स्नेहा से कहा, "वहां खड़े रहने के लिए साथ नहीं लाया था। जल्दी से चलकर इस पार पहुंचो। मेरी तंत्र शक्ति उसे वहां ज्यादा देर नहीं रोक पाएगी।" स्नेहा ने जैसे ही नदी में पैर रखा उसने देखा वह भी नदी पर चल पा रही थी। स्नेहा जल्दी ही नदी पार कर गई। दूसरी पार जाकर स्नेहा ने तांत्रिक से पूछा, "आप किसकी बात कर रहे थे…? अगर वह जो कोई भी थी वो उस घेरे को पार कर सकती है... तो इस नदी को पार नहीं कर सकती…???" तब तांत्रिक बोला, "नहीं…! यह नदी बहुत ही पवित्र नदी है। कोई भी दुष्ट शक्ति इस नदी को पार नहीं कर सकती। वैसे भी मेरा आश्रम और मेरी तंत्र स्थली यहीं है तो हमें यहीं आना था।" "शायद तुम जानना चाहती होगी कि मैं उस तांत्रिक को इतना कैसे जानता हूं? वह इसलिए क्योंकि उस तांत्रिक ने धोखे से मेरे गुरु जी की हत्या करके उनकी सारी सिद्धियों को छीन लिया। और वह जो कृत्या थी वह भी मेरे गुरु जी ने सिद्ध की थी। जब तक वह मेरे गुरुजी के पास थी तब तक वो शुभ शक्ति थी। उस तांत्रिक ने अपनी कुटिल बुद्धि से उस शुभ शक्ति को अशुभ और दुष्ट शक्ति में बदल दिया।" तांत्रिक ने दुखी होते हुए कहा। फिर तांत्रिक ने आगे कहा, "सोचने वाली बात यह है... कि उस तांत्रिक ने तुम पर अपने किसी भी तंत्र का प्रयोग नहीं किया है। फिर भी वह औरत तुम्हें दिखाई दे रही है... तुम्हारे आसपास है... ऐसा कैसे हो सकता है।" यह सुनकर स्नेहा भी थोड़ी टेंशन में आ गई। वहीं तांत्रिक भी गंभीर मुद्रा में कुछ सोचने लगा। थोड़ी देर वहां पर बिल्कुल सन्नाटा था मरघट जैसी शांति फैली थी। झींगुरों और कीड़े मकोड़ों की आवाजें आ रही थी। थोड़ी ही देर में तांत्रिक ने घबराकर पूछा, "स्नेहा…!!! तुमने किसी ऐसी चीज को छुआ था जो कुछ संदिग्ध हो…!!!" स्नेहा ने मना कर दिया, "नहीं… मैंने किसी भी चीज को हाथ नहीं लगाया है।" स्नेहा के पैर में एक पायल पड़ी थी... जो उसी पल जोर से चमकने लगी थी। उसी समय उस चमक पर तांत्रिक की नजर पड़ गई। तांत्रिक ने स्नेहा से पूछा, "यह पायल… यह पायल कैसी है…? तुम्हारे पैर में…???" स्नेहा ने कहा, "यह मेरी मां की पायल है…!!" तांत्रिक ने पूछा, "यह तो एक ही है... दूसरी कहां है…?" स्नेहा ने कहा, "दूसरी मुझे नहीं पता... यह मेरी मम्मी की पसंदीदा पायल है। मेरी नानी ने उन्हें गिफ्ट की थी। मैं बहुत दुखी थी तो यह पायल मुझे मिली... और मैंने पहन ली। इसे पहनने से मुझे मेरी मां के आसपास ही होने का आभास हो रहा है... बहुत ही ज्यादा सुरक्षित महसूस हो रहा है।" तांत्रिक ने फिर ध्यान लगाकर उस पायल की जोड़ी ढूंढने की कोशिश की तो उसे पता चला कि उस पायल की जोड़ी की दूसरी पायल स्नेहा के चाचा और बुआ ने विराज को दी थी। उससे वह पायल विराज के गुरुजी के पास पहुंच गई थी। उस पायल के जरिए तंत्र प्रहार स्नेहा की मां पर किया था। उसकी जोड़ी की दूसरी पायल स्नेहा के पैर में थी। इसलिए स्नेहा को वह डरावनी औरत दिखाई दे रही थी। पर कुछ ऐसी बात थी जो तांत्रिक को भी पता नहीं चल पा रही थी। पर कुछ तो कारण था जिस के कारण से अभी तक उस डरावनी औरत ने स्नेहा को कोई भी नुकसान नहीं पहुंचाया था। वह बात केवल अब वही डरावनी औरत बता सकती थी। तांत्रिक ने कहा, "स्नेहा जिस पायल के जरिए तुम्हारी मां पर वह तंत्र प्रहार किया गया था। वह पायल इसी पायल की जोड़ी की ही दूसरी पायल थी। इसलिए वह प्रहार शायद तुम पर भी असर दिखा रहा है। पर सोचने वाली बात ये है कि उस औरत ने अभी तक तुम्हें कोई भी नुकसान क्यों नहीं पहुंचाया…? अब यह तो वही औरत बता पाएगी। क्योंकि जो तंत्र प्रहार हुआ है और जो औरत तुम्हें दिखाई दे रही है। उसके बारे में विराज के गुरु को भी कोई जानकारी नहीं है।" स्नेहा ने परेशान होकर तांत्रिक से पूछा, "क्या मतलब है... इस पायल के कारण वो औरत मुझे दिखाई दे रही है…! यह कैसे... और यह कैसे पता चलेगा... कि उसने अभी तक मुझे कोई नुकसान क्यों नहीं पहुंचाया??" तब तांत्रिक ने कहा, "यह बात तो तुम्हें खुद उस औरत से पूछनी पड़ेगी। जो हर समय तुम्हारे आसपास ही रहती है और समय-समय पर तुम्हें दिखाई देती है। शायद वह तुम्हें नुकसान नहीं पहुंचाना चाहती पर तुम से संपर्क करके कुछ बताना जरूर चाहती है।" तब से स्नेहा ने कहा, "मैं… मैं उससे कोई बात नहीं करने वाली…!! मेरे परिवार को मारा है उसने... और क्या पता उन्हीं के कहने पर मुझे भी मारना चाहती हो और उसे मौका नहीं मिल रहा हो।" तांत्रिक ने हंसते हुए कहा, "वह कोई मामूली औरत नहीं है... जिसे तुम्हें मारने के लिए मौका ढूंढना पड़ेगा। अगर वह तुम्हें मारना चाहती तो जिस दिन तुम्हें पहली बार दिखाई दी थी उसी दिन मार देती। उस दिन भी तो वह तुम्हारे सिरहाने बैठकर तुम्हें स्पर्श कर रही थी। तभी वह तुम्हें मार सकती थी पर नहीं मारा... कारण तो वही बता सकती है। तुम यह बात मानो या ना मानो।" स्नेहा ने कहा, "उस औरत को छोड़ो आप मुझे अपनी भैरवी बनाने की बात कह रहे थे। मैं उस बात के लिए तैयार हूं। आप बस बताइए कि मुझे करना क्या है…!" तांत्रिक ने कहा, "जब तक उस औरत का सत्य सामने नहीं आ जाता है तब तक यह विचार भूल ही जाओ। क्योंकि जहां पर तुम जाओगी वह औरत तुम्हारे साथ ही रहेगी और तुम्हारे साथ ही मेरी साधना स्थली पर भी जाएगी। कोई भी बंधन उसे एक पहर से ज्यादा नहीं रोक सकता। इसलिए जब तक हमें उस औरत का उद्देश्य पता नहीं चलता है। तब तक... तुम्हें भैरवी बनने के लिए इंतजार करना ही होगा।" स्नेहा ने कहा, "ऐसा कैसे हो सकता है…???" तब तांत्रिक ने समझाते हुए कहा, "स्नेहा संसार में होने वाले प्रत्येक घटना के पीछे कोई ना कोई ठोस कारण अवश्य होता है। इसके पीछे भी कोई ठोस कारण अवश्य होगा। जो हमें भी शीघ्र ही पता करना होगा।" स्नेहा ने कहा, "ठीक है... मैं उस औरत से बात करने के लिए तैयार हूं... पर आपको इस बात की गारंटी देनी पड़ेगी कि वो औरत मुझे किसी भी तरह का कोई नुकसान नहीं पहुंचाएगी। और आपको मेरी उस औरत से रक्षा करनी होगी।" तांत्रिक ने कहा, "यह करने में मैं तुम्हारी मदद कर सकता हूं।" ऐसा कहकर तांत्रिक ने आंख बंद करके मंत्र जाप करते हुए हाथ आगे बढ़ाया। उसके हाथ में एक लाल रंग का चमकदार धागा प्रकट हुआ। तांत्रिक ने स्नेहा वह धागा उसकी बायीं बांह पर बांध दिया और कहा, "यह रक्षा सूत्र तुम्हारी उस औरत से रक्षा करेगा... अब तुम शीघ्र अति शीघ्र वापस उसी श्मशान में चले जाओ... वरना वह औरत इस जगह आ जाएगी। उस औरत का यहां आना उचित नहीं है। किसी भी तांत्रिक की साधना स्थली पर ऐसे किसी और का आना...या इस प्रकार की शक्ति का आना उचित नहीं।" स्नेहा ने हां में सिर हिलाया और वापस श्मशान में पहुंच गई। स्नेहा ने वहां पहुंचकर देखा तो उसे वह डरावनी औरत वहीं दिखाई दी। स्नेहा ने उसे अनदेखा करते हुए ऑटो पकड़ा और वापस घर आ गई। उसी तरह पेड़ से चढ़कर वापस अपने कमरे में आ गई। सुबह जब स्नेहा उठी तो पीहू पूरे घर में धमाचौकड़ी मचाती दिखाई दी। उसे देख कर स्नेहा का मन बहुत खुश हो गया। स्नेहा पीहू को सब कुछ भूल कर देख रही थी। तब पीहू स्नेहा के सामने आकर खड़ी हो गई और उसके आंखों के सामने हाथ हिला कर बोलने लगी, "बूईऽऽऽऽ बूईऽऽऽ बूईऽऽऽऽऽऽऽ….!!!" पीहू की आवाज से स्नेहा का ध्यान टूटा। फिर स्नेहा उसे कहने लगी, "हां बिट्टू... मेरी गुड़िया... पीहू तुम कुछ बोल रही थी…?" पीहू ने उत्साहित होते हुए पूछा, "बूई... आप मुझे ज़ू ले जाने वाली थी और राइड पर भी जाने वाले थे हम... नहीं जाएंगे क्या…???" स्नेहा ने देखा सभी घरवाले उसकी तरफ अजीब सी नजरों से देख रहे थे। स्नेहा ने कहा, "मैंने कल पीहू को जू और राइड पर ले जाने का प्रॉमिस किया था। तो मैं और पीहू आज हम दोनों घूमने जाने वाले हैं।" पीहू ने अपने दादा दादी और पापा की तरफ सवालिया नजरों से देखा… मानो आंखों से ही जाने के लिए परमिशन मांग रही हो। पीहू वैसे भी उन सबको कुछ खास पसंद नहीं थी। क्योंकि वह लोग बेटा चाहते थे और उनके घर में पीहू आ गई। केवल प्रीति ही पीहू को चाहती थी। स्नेहा के पूछने पर सभी लोग बिना जवाब दिए अपने अपने कमरे में चले गए। तब स्नेहा ने प्रीति से पूछा, "प्रीति…! क्या मैं पीहू को बाहर ले जा सकती हूं…??" प्रीति नहीं चाहती थी कि स्नेहा पीहू को लेकर जाए पर पीहू को इतना उत्साहित देखकर उसने मना नहीं किया। सभी घरवाले यह सोच कर थोड़े निश्चिंत थे कि अगर स्नेहा को कुछ हुआ तो साथ ही में पीहू भी से भी छुटकारा मिल जाएगा। प्रीति को भी यह नहीं लगेगा कि हम पीहू से छुटकारा पाना चाहते थे। थोड़ी देर में स्नेहा और पीहू दोनों तैयार होकर स्नेहा की कार फेवरेट कार जो रेड कलर की माज़ेराती थी। उसमें बैठ कर घूमने निकल पड़े। सबसे पहले स्नेहा और पीहू ने वहीं पास के रेस्टोरेंट से नाश्ता किया। नाश्ता करने के बाद दोनों जू घूमने चले गए। वहां उन्होंने बहुत से जानवर देखें। वहां पर बाघ, शेर, चीते, हाथी, लोमड़ी, भालू, सियार और बहुत सारे पक्षी और सांपों की बहुत सी प्रजातियां भी देखी थी। स्नेहा तो पीहू को खुश देखकर ही खुश हो रही थी। पीहू को सबसे ज्यादा बाघ को उसके छोटे शावकों के साथ खेलते देखकर बहुत मजा आ रहा था। वह कभी उन्हें देखकर उछलती तो कभी उन छोटे बाघ शावकों को गोद में लेने के लिए मचल उठती थी। एक बाघ के पिंजरे के सामने खड़े होकर पीहू ने स्नेहा से कहा, "बूईऽऽऽ वह छोटू टाइगर बहुत क्यूट है ना... वह मुझे वो टाइगर चाहिए... मुझे छोटू के साथ खेलना है।" और ऐसा कहते हुए स्नेहा का हाथ पकड़कर खींचते हुए उसे बाघ के पिंजरे के पास लेकर जाने लगी। स्नेहा ने कहा, "पीहू बेटा... वह छोटू टाइगर बहुत छोटू है ना... वो उसकी मम्मी के बिना कैसे रहेगा... आप अपनी मम्मी के बिना रह सकते हो क्या…?" इस पर पीहू ने सिर झुकाकर कहा, "मैं बिना अपनी मम्मी के कैसे रह सकती हूं... मैं बहुत छोटी हूं ना…!" तो स्नेहा ने समझाया, "बेटा यह छोटू भी तो बहुत छोटा है ना और वैसे भी टाइगर वाइल्ड एनिमल होता है। उसे घर पर नहीं रख सकते ना।" स्नेहा के प्यार से समझाने पर पीहू मान गई। स्नेहा की नजर बाघ के पिंजरे के पीछे खड़ी उसी डरावनी औरत पर गई। स्नेहा ने पीहू का हाथ जोर से कस कर पकड़ लिया और पीहू से कहा, "पीहू बेटा... पीहू बेटा चलो जल्दी बहुत देर हो रही है ना।" स्नेहा फटाफट पीहू को लेकर वहां से बाहर निकल गई। उस समय दोपहर हो चली थी। पीहू ने कहा, "बूई... मुझे बहुत भूख लगी है चलो ना चलकर कुछ खाते हैं।" स्नेहा ने पीहू से पूछा, "पीहू बेटा क्या खाना है... आपको???" पीहू ने कहा, "बूई... मुझे ना… म्म्म्म्म….. पिज़्ज़ा खाना है। पता है... मुझे कोई भी पिज़्ज़ा खाने नहीं लेकर जाता।" स्नेहा ने प्यार से पीहू के सिर को सहलाते हुए कहा, "ठीक है बिट्टू…! हम पिज्जा खाने चलते हैं।" पीहू और स्नेहा दोनों पिज़्ज़ा हट पर पिज़्ज़ा खाने चले गए उन दोनों ने दो मीडियम साइज चीज बस्ट पिज़्ज़ा ऑर्डर किया। पिज़्ज़ा आने से पहले एक वेटर ने स्नेहा को एक चिट लाकर दी। स्नेहा ने कन्फ्यूज होते हुए वो चिट खोल कर देखा तो उसमें लिखा था… "आज रात 12:00 बजे अपने घर की छत पर मिलो" क्रमशः……..
पिज़्ज़ा आने से पहले एक वेटर ने स्नेहा को एक चिट लाकर दी। स्नेहा ने कन्फ्यूज होते हुए वो चिट खोल कर देखा तो उसमें लिखा था… "आज रात 12:00 बजे अपने घर की छत पर मिलो" स्नेहा थोड़ी सी परेशान हो गई थी। उस चिट को देखते हुए सोच रही थी… "ऐसा कौन हो सकता है... जो मुझे मेरे ही घर की छत पर रात को 12:00 बजे मिलने बुला रहा है। उसने यहां पर चिट क्यों भिजवाई।" स्नेहा अपने में ही खोई हुई थी तभी उनका आर्डर आ गया। पीहू स्नेहा को हिलाते हुए बोलने लगी, "बूईऽऽऽ बूईऽऽऽ हमारा पिज़्ज़ा आ गया।" स्नेहा ने हडबडाते हुए कहा, "क्या हुआ बिट्टू... कुछ चाहिए…?" इस पर पीहू ने अपने सर पर अपना हाथ मारते हुए कहा, "बूई आप इतनी थक गई हो कि यहां बैठे बैठे ही सो गई। पता है पिज़्ज़ा ठंडा हो गया और आप सो रही हो।" स्नेहा ने कहा, "हां बिट्टू थोड़ा सा थक गई थी। कोई बात नहीं... पहले हम पिज़्ज़ा खाते हैं... उसके बाद राइड पर जाएंगे। फिर हम रात को खाना बाहर ही खाएंगे। फिर घर चलेंगे ठीक है।" पीहू बहुत खुश हो गई और खुशी-खुशी पिज़्ज़ा खाने लगे लगी। पूरा दिन घूमने के बाद पीहू और स्नेहा 8:00 बजे घर पहुंचे। उस समय सब लोग खाना खा रहे थे। प्रिती ने पिहू और स्नेहा से खाने के लिए पूछा, "सही टाइम पर आ गए। आ जाओ खाना ठंडा हो रहा है।" तो पीहू ने चहकते हुए कहा, "नहीं मम्मा हम तो खाना खा कर आए हैं। आपको पता है हमने क्या क्या खाया…? हमने पिज़्ज़ा, पास्ता, चोको-लावा केक, फ्रेंच फ्राइज़ और बर्गर भी खाया।" फिर कुछ सोचते हुए स्नेहा से पूछा, "बूईईई और वो लास्ट में क्या खाया था…???" इतने क्यूट एक्सप्रेशंस देखकर स्नेहा के चेहरे पर एक बड़ी सी मुस्कान आ गई स्नेहा ने पीहू के सर को सहलाते हुए कहा, "बिट्टू हमने बुढ़िया के बाल खाए थे।" "ईईई…यूऽऽऽऽऽ बुढ़िया के बाल कौन खाता है…?? वो तो कितने कलरफुल थे और मीठे भी वो बुढ़िया के बाल नहीं हो सकते बस।" तब प्रीति ने हंसते हुए कहा, "पीहू बेटा... उन्हें बुढिया के बाल ही कहते हैं। " पीयू ने मुंह बनाया और चुपचाप कमरे में चली गई। उसके जाने के बाद प्रीति और स्नेहा दोनों जोर से हंस पड़ी। स्नेहा भी अपने कमरे में चली गई। बहुत थक गई थी इसलिए उसने सोचा, "थोड़ी देर आराम कर लेती हूं।" स्नेहा चेंज करके अपने बेड पर लेट गई। पर उसे नींद नहीं आ रही थी। वह बार-बार उस चिट के बारे में ही सोच रही थी। थोड़ी देर सोचते-सोचते उसकी आंख लग गई। उसने अचानक कुछ डरावना सपना देखा और हडबडाते हुए उठ गई। घड़ी में देखा तो 12:00 बजने में केवल 8 मिनट ही बाकी बचे थे। जल्दी से बेड से उठते हुए बड़बड़ाने लगी, "अच्छा हुआ जो उस डरावने सपने के कारण नींद खुल गई। वरना जान ही नहीं पाती कि वह चिट भेजने वाला है कौन??" यह बड़बड़ाते हुए स्नेहा छत की तरफ दबे पांव जाने लगी। उसे डर था कि कोई उसे इस समय छत पर जाते हुए ना देख ले। अगर कोई देख लेता है तो उसके आजकल के व्यवहार के कारण उसे छत से धक्का देकर सबके सामने यह सिद्ध कर देंगे कि डरावनी औरत के कारण स्नेहा ने खुद छत से छलांग लगा दी। स्नेहा छत पर पहुंची तो उसने देखा छत के दरवाजे पर ताला लगा देखा। स्नेहा ने सोचा, "यहां तो कभी भी ताला नहीं होता आज क्यों है…?" स्नेहा जैसे ही उस ताले के लिए चाबी जाने लगी वैसे ही एक हल्की सी कट् की आवाज आई। स्नेहा ने पलट कर देखा तो वह ताला खुला हुआ दिखाई दिया। स्नेहा थोड़ा परेशान हो गई थी। फिर भी उसने सोचा कि जाकर देखें तो सही ऐसा कौन है जिसने बैठे-बैठे मेरी परेशानी हल कर दी? स्नेहा दरवाजा खोल कर छत पर चली गई। स्नेहा ने पूरी छत पर देख लिया उसे कोई दिखाई नहीं दिया। स्नेहा ने सोचा, "जब आ ही गई हूं तो थोड़ी देर ताजी हवा में बैठकर थोड़ी देर इंतजार कर लेती हूं। अगर कोई नहीं आएगा तो वापस चले जाएंगे। स्नेहा पौंड के पास लगे झूले पर बैठ गई और झूलते हुए उसका इंतजार करने लगी, जिसने चिट भेजी थी। बैठे-बैठे थोड़ी देर हो गई… स्नेहा ने सोचा, "शायद किसी ने मजाक किया होगा।" स्नेहा वापस अपने कमरे में जाने लगी। स्नेहा वापस छत के दरवाजे पर पहुंचे तो वही डरावनी औरत दरवाजे पर खड़ी थी। स्नेहा एक बार को तो बहुत ज्यादा डर गई थी। वह डरावनी औरत बोली, "मेरा तुम्हें डराने का कोई मकसद नहीं है। मैं तो बस तुम्हारी मदद लेना चाहती हूं।" स्नेहा पहले तो बहुत ज्यादा डरी हुई थी पर उस औरत की बात सुनकर परेशान हो गई। उस औरत ने दोबारा बोलना शुरू किया, "मेरा नाम रत्नमंजरी है। यह जो पायल तुमने पहनी है... वो पायल मेरी ही थी। मैंने अपने लिए बनवाई थी जो बाद में मैंने अपनी बेटी को दी और उसने अपनी बेटी को। ऐसे ही चलते-चलते यह पायल आज तुम्हारे पैर में हैं।" डरावनी औरत के बोलना बंद करते ही स्नेहा ने अपने पैर को देखा स्नेहा के पैर में पहनी पायल अभी भी चमक रही थी। स्नेहा कभी अपने पैरों को देख रही थी तो कभी उस औरत को…!! बहुत ही ज्यादा असमंजस में थी, स्नेहा…! उस औरत ने फिर से बोलना शुरू किया, "स्नेहा तुम मेरी ही वंशज हो। जब इस पायल की जोड़ी की दूसरी पायल उस तांत्रिक के पास पहुंची। तभी उस तांत्रिक को यह पता चल गया था यह पायल मेरी है।" स्नेहा ने डरते हुए रत्नमंजरी से पूछा, "यह पायल आपकी है। इतने समय जैसा आप बोल रही हैं कि यह पायल आपने अपनी बेटी को दी... उन्होंने अपनी बेटी को और उन्होंने अपनी बेटी को। तो उस हिसाब से तो आपकी उम्र बहुत ज्यादा होगी। और आप अभी तक ऐसे ही घूम रही हैं आपका दोबारा जन्म नहीं हुआ?" रत्नमंजरी ने कहा, "मेरी मृत्यु कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में हुई थी। मेरे परिवार को मेरी मृत्यु के बारे में कुछ पता नहीं चला था। तो उन्होंने विधिवत अंतिम संस्कार, पिंडदान जैसी कोई भी मृत्यु पश्चात की जाने वाली, कोई भी मेरी आत्मा की शांति के लिए पूजा नहीं करवाई थी। इसीलिए मेरी आत्मा अतृप्त घूम रही है। जब वो पायल उस तांत्रिक आत्मानंद के हाथों में पहुंची तभी उसे आभास हो गया था की इस पायल की असली स्वामिनी यानी मैं एक अतृप्त आत्मा हूं।" अब स्नेहा को रत्नमंजरी के बारे में जानने की उत्सुकता हो रही थी। वह रत्नमंजरी के बारे सब कुछ जानना चाहती थी। स्नेहा ने रत्नमंजरी से पूछा, "तो फिर आपकी मृत्यु हुई कैसे थी? आपके घर वालों को कैसे पता नहीं चला?" तब रत्नमंजरी ने बोलना शुरू किया, "यह आज से लगभग 300 वर्ष पुरानी बात है। उस समय हमारा परिवार कुशवाहा वंश बहुत ही प्रसिद्ध था अपने शौर्य और पराक्रम के लिए। राजस्थान के एक छोटे से शहर भवानीपुर में हमारा राज था। वह अंग्रेजों का समय था... पूरे भारत पर अंग्रेजों की सत्ता थी। उस समय हमारे परिवार में केवल एक कन्या का जन्म हुआ था। रत्नमंजरी…!!! वह मैं थी... मुझे पूरे परिवार में सबसे ज्यादा लाड और प्यार से पाला था। सभी राजपूतों वाले गुण घुड़सवारी, तीरंदाजी, युद्ध कौशल, नृत्य,संगीत हर एक कला में निपुण थी मैं…!! मेरे विवाह योग्य होने पर मेरा विवाह पास ही सम्राट अरिजीत सिंह के साथ करवा दिया गया। मेरे ससुराल में सभी बहुत अच्छे थे और मेरा बहुत ध्यान रखते थे। शीघ्र ही मैं गर्भवती हो गई थी। उस समय मैं एक बेटी की मां बनना चाहती थी। परंतु राजकुल में प्रथम बालक लड़का ही होना चाहिए... ऐसी गलत धारणाएं भी थी। उस समय मैं बहुत प्रसन्न थी। मैंने उस समय अपने लिए बहुत ही सुंदर पायलों की जोड़ी बनवाई थी। जिसे मैं धरोहर के रूप में अपनी बेटी को देना चाहती थी। मुझे पुत्री की प्राप्ति भी हुई थी पर राज परिवार की उस गलत धारणा के कारण जन्म लेते ही मेरी बेटी की हत्या कर दी गई। मुझे यह बताया गया कि मैंने एक मरी हुई बेटी को जन्म दिया था। मुझे इस बात का बहुत ही ज्यादा सदमा लगा था। मेरा व्यवहार पागलों जैसा हो गया था। ना किसी से बोलना-चालना और ना ही अपने कक्ष से बाहर जाना। शीघ्र ही मैंने अपने पति के दूसरे विवाह की बातें दबी छुपी आवाज में होते सुनी। कला वह मेरी प्रिय सखी भी थी और विवाह में मेरे साथ ही मेरे ससुराल आई भी आई थी। रजवाड़ों की परंपरा थी की पुत्री के साथ में दासियों को भी भेजा जाता था। इसी कारण कला को भी मेरे साथ भेजा गया था पर वह दासी से ज्यादा मेरी एक प्रिय सखी थी। कला ने मुझे आकर बताया, "रत्ना अरिजीत सिंह जी के दूसरे विवाह की बातें होने लगी हैं। अगर तू ऐसे ही शोक मगन रही तो... एक दिन अपनी पुत्री के साथ-साथ अपने प्रेम से भी हाथ धो बैठेगी।" मेरे पति मुझे बहुत ही प्रेम करते थे उन्होंने दूसरे विवाह के लिए मना कर दिया। परंतु सभी यह बोलकर उन्हें बाध्य कर रहे थे कि रत्नमंजरी अब पागल हो गई है... वह इस वंश को वारिस नहीं दे सकती। मेरे पति इस बात से बहुत आहत हुए। उस रात वो हमारे कमरे में आए और फूट-फूट कर रोने लगे। मेरी अवस्था बहुत खराब थी फिर भी अपने सामने अपने प्रेम को रोता हुआ कैसे देख सकती थी। मेरे पति ने मुझसे कहा, "मंजरी मैं ज्यादा दिन सबको रोक नहीं पाऊंगा। तुम समझने की कोशिश करो... मैं तुम्हारे अलावा किसी और से विवाह करने के बारे में सोच भी नहीं सकता हूं।" मुझे इस बात से बहुत दुख हुआ कि मैं अपने दुख में यह भी भूल गई हूं... कि संतान अकेले मैंने ही नहीं अरिजीत ने भी खोई थी। मुझे अपने प्रेम के लिए अपने दुख से निकलना ही होगा। मैंने शीघ्र ही अपने पुराने प्रेम भरे दिनों को वापस लाने की सोच ली थी। उस पायल को अभी भी अपने ह्रदय से लगा कर रखा था क्योंकि वह मेरी पुत्री के लिए मेरी प्रेम धरोहर थी। जब भी मुझे अपनी पुत्री की कमी महसूस होती थी। मैं उस पायल को पहन कर उसे अपने आसपास ही महसूस करने लगी थी। थोड़े ही समय के बाद मैंने दो पुत्रों को जन्म दिया। पर मेरे मन में अभी भी एक पुत्री की कामना थी। जब मैं तीसरी बार गर्भवती हुई तब मैंने यज्ञ, हवन, पूजन-पाठ सभी कुछ किया था... एक पुत्री के लिए। भगवान ने मेरी पूजा का फल मुझे पुत्री के रूप में दिया। वह धीरे धीरे बड़ी हो रही थी और हम सब उसकी प्रेम और बालपन से भरी बातें, उसकी नटखट शैतानियों से प्रसन्न हो रहे थे। उसके पिता की तो जान ही उसने बसती थी। बड़े ही प्यार से उसका नाम अनंता रखा था। दोनों भाई उसे ऐसे संभालते थे जैसे पलकें नेत्रों को संभालती हैं। सब कुछ बहुत ही अच्छा चल रहा था। एक दिन मैंने हमारे महल के एक कमरे से कुछ गुप्त मंत्रणा जैसी फुसफुसाहट सुनी। महल के ही कुछ लोग हमारे विरुद्ध षड्यंत्र रच रहे थे। उन्होंने कुछ तांत्रिक अनुष्ठान महल में गुप्त रूप से आयोजित किया था। उसके विषय में ही वह लोग उस दिन बात कर रहे थे। एक आदमी ने कहा, "हमारी अंग्रेज सरकार से बात हो गई है। वह यह बोल रहे हैं कि अगर अरिजीत और उसके पुत्रों को मार्ग से हटा दिया जाए... तो इस राज्य के नए राजा के रूप में हमारे पुत्र का राजतिलक वह स्वयं करवाएंगे।" एक स्त्री स्वर गूंजा जिस ने कहा, "स्वामी अगर रत्नमंजरी जीवित रही तो यह भी हमारे लिए संकट की ही बात होगी। " मैं यह सब सुनकर एक पल के लिए डर गई थी पर यह सोच कर की क्षत्राणियां किसी भी ऐसी परिस्थिति में ऐसे डर कर हार नहीं मान सकती। उस स्त्री ने फिर से कहा, "आने वाली अमावस्या को महल में एक बड़ा अनुष्ठान आयोजित होने वाला है। उस अनुष्ठान का लाभ उठाकर अरिजीत सिंह और उसकी परिवार का अंत कर देंगे।" रत्नमंजरी ने यह सब सुना तो वह दबे पांव वापस अपने कक्ष में आ गई। रात भर वह यही सोचकर सो नहीं पाई की अपने परिवार की रक्षा कैसे करूं। मैंने अपने भाइयों को गुप्त रूप से पत्र भेजकर गुप्त रूप से आने के लिए न्योता दिया। अमावस्या के 2 दिन पहले मेरे भाई मेरे ससुराल अपने छद्म देश में भेष में पहुंचे थे। अमावस्या की रात को ही मैंने अपने दोनों बेटे और अपनी प्रिय अनंता को गले लगाया और यह पायल अनंता को देते हुए कहा, "पुत्री यह तेरी मां की प्रेम धरोहर है तेरे लिए। तू इस धरोहर को अपनी आने वाली पीढ़ी को पहुंचा देना। और सदैव यह याद रखना कि तेरी मां संसार में सबसे अधिक प्रेम तुझसे ही करती है।" और अपने बेटों को कहा, "तुम आज से अनंता का पालन पोषण अपनी बहन नहीं अपनी पुत्री समझ कर करना। वापस किसी भी परिस्थिति में यहां लौटकर मत आना और जब तक समर्थ ना हो जाओ तब तक किसी को भी यह मत बताना कि तुम सम्राट अरिजीत सिंह जी की संतान हो।" ऐसा कहकर अपने बच्चों को फिर से गले लगाया और अपने भाइयों के साथ गुप्त मार्ग से अपने मायके भेज दिया। किसी को भी इस बात की जानकारी ना हो इसलिए मैंने स्वयं महल में अनुष्ठान के एक दिन पहले आग लगा दी और यह सिद्ध कर दिया कि मेरे तीनों बच्चे उस आग की भेंट चढ़ गए। मुझे ऐसा करने में बहुत दुख हुआ पर यह झूठ मेरे बच्चों के जीवन से बड़ा नहीं था। ऐसा करने पर उन लोगों को मुझ पर संदेह हो गया था। उन्होंने अरिजीत की मेरी आंखों के सामने निर्मम हत्या कर दी। यह जानने के लिए कि सच में उस आग में मेरे बच्चे जलकर मरे कि नहीं।
रत्नमंजरी ने आगे बताना शुरू किया… उसने कहा, "जब मेरे पति की हत्या कर दी गई। उसके बाद वह मैं अपनी सखी कला के साथ वहां से भाग निकली। क्योंकि मुझे उस समय अपनी जान की परवाह नहीं थी पर अपनी मातृभूमि की सुरक्षा की चिंता अवश्य थी। बहुत दूर जंगलों में जाकर हमें एक घर दिखाई दिया। कला ने मुझे उस घर में रुकने के लिए कहा। "रत्ना तुम इस घर में रुको... यह घर मेरे पिताजी ने मेरे लिए बनवाया था। इस घर में एक तहखाना भी है जिसका रास्ता, यहां के मुख्य द्वार से बाएं हाथ पर एक चित्र बना है, उसे घुमाने पर खुलता है। तुम यहां सुरक्षित रहोगी और जब तक मैं वापस ना आऊं... यहां से कहीं भी मत जाना।" मैं कला के कहे अनुसार उस तहखाने में चली गई। कला के जाने के कुछ समय बाद ही कुछ सशस्त्र सैनिक उस घर में घुस आए। मैंने उनका सामना भी किया... पर वह लोग लगभग तीस-चालीस थे। मैंने पंद्रह-बीस सैनिकों को मारा भी पर अचानक से किसी ने पीठ पीछे से मेरे सर पर एक प्रहार किया। जिस कारण मैं एक पल के लिए कमजोर पड़ गई। जब मैंने पलट कर देखा तो कला और मेरे सास- ससुर सामने थे। मुझे बहुत आश्चर्य हुआ कि कला जो मेरी सबसे प्रिय सखी थी उसी ने मेरे साथ ऐसा क्यों किया…?? मेरे सास-ससुर उन्होंने अरिजीत के साथ मुझे और मेरे बच्चों को मारने का षड्यंत्र कैसे रचा…??? मैं सोच ही रही थी कि मेरे ससुर ने कहा, "रत्ना... रत्ना... तुम सोच रही होंगी कि हमने माता-पिता होते हुए भी तुम्हारे पति और बच्चों के साथ तुम्हारी हत्या का षड्यंत्र कैसे रचा…? तो सुनो... अरिजीत मेरा पुत्र…!" मेरे ससुर ने मेरी सास तरफ देखते हुए कहा, " नही...नहीं...हमारा पुत्र नहीं था। वह इस राज्य के महाराज श्री भगवंत सिंह जी का इकलौता पुत्र था। मैं तुम्हारे ससुर का छोटा भाई... जब उनकी मृत्यु हुई थी। तब मेरे पिता जीवित थे उन्होंने ही अरिजीत का राजतिलक करवा दिया था। जिस गद्दी को मुझे मिलना चाहिए था वह गद्दी मिली अरिजीत को…! इसलिए मैं अभी तक सही समय की प्रतीक्षा कर रहा था। पर अब जब वह सही समय है तो... मैंने अपने पुत्र और उस राजगद्दी के बीच के कांटे को सदा-सदा के लिए हटा दिया। मैंने कला की तरफ देखा तो कला मुझे विस्मयकारी मुस्कान के साथ दिखाई दी। कला एक विजयी मुस्कान के साथ मुझे देख रही थी। मैंने कला से पूछा, "इन सबके पास तो राजगद्दी का मोह था। मेरे परिवार की हत्या के पीछे... पर तुम्हारा क्या स्वार्थ था इसमें…?" तो मेरी सास ने हंसते हुए कहा, "यही साम्राज्य की भावी महारानी है... और तुम भावी महारानी से इस प्रकार बात नहीं कर सकती।" मैंने दुख और क्षोभ के साथ कला को देखा तो कला ने कहा, "राजकुमारी रत्नमंजरी…!!! सदैव मैं तुम्हारी दासी बन कर रही हूं। सदैव तुमसे ज्यादा योग्य होते हुए भी मुझे तुम्हारी उतरन ही मिली। अब जब मुझे अवसर मिला है... महारानी बनने का... तो मैं किसी भी मूल्य पर इस अवसर को नहीं खो सकती। और वैसे भी कुँवर अरिहंत मुझसे अत्यंत प्रेम करते हैं। अपने प्रेम और अपने स्वप्न के लिए कोई भी मूल्य चुकाना इतना बड़ा भी नहीं है। बस वह मूल्य तुम और तुम्हारा परिवार था।" ऐसा कहकर तीनों ने मुझ पर तलवार से वार किए। अपनी प्रिय सखी के विश्वासघात ने मुझे बहुत ज्यादा तोड़कर रख दिया था। मेरी हत्या कर दी गई थी पर जब मुझ में कुछ सांसे शेष बची थी। तभी मैंने प्रतिज्ञा की थी कि जब तक इन लोगों से अपने परिवार की हत्या का प्रतिशोध नहीं ले लूंगी चैन से नहीं रहूंगी। उसके कुछ समय बाद तक का मुझे कोई भान नहीं है। पर जब मुझे ध्यान आया तब कला उस साम्राज्य की महारानी बन चुकी थी। मैंने उस पूरे परिवार को निर्ममता से मौत के घाट उतार दिया। इसके बाद भी मुझे शांति नहीं मिली। मैंने अपने आप को प्रभु भक्ति में समर्पित कर दिया था। क्योंकि उनकी हत्या के बाद मुझे जो दंड भगवान के न्यायालय में मिला था उसके अनुसार जब तक मैं अपने पापों का प्रायश्चित नहीं करूंगी... तब तक मेरी मुक्ति नहीं होगी। मैं वही प्रायश्चित के रूप में भगवान के भजन कीर्तन लगी थी कि यह पायल उस दुष्ट तांत्रिक आत्मानंद के पास पहुंच गई। आत्मानंद ने उस पायल से यह ज्ञात कर लिया कि मेरी आत्मा बहुत ही ज्यादा शक्तिशाली हो गई है। इस पायल के मोह के कारण वह मुझे तंत्र क्रिया से अपने वश में कर सकता है।" इतनी देर से स्नेहा चुपचाप रत्नमंजरी की बात सुन रही थी। अब वह रत्नमंजरी से सवाल करना चाहती थी। उसने रत्नमंजरी से पूछा, "आपको अपने वश में करना चाहता है... तो क्या आपने मेरे परिवार की हत्या नहीं की…? अब यह मत बोलना कि आपने नहीं की है।" तब रत्नमंजरी ने कहा, "यह सत्य है कि मैंने तुम्हारे परिवार की हत्या नहीं की। तुम्हारे परिवार की हत्या आत्मानंद की भेजी कृत्या ने की है। मैं उस समय जागृत नहीं थी तो मैं तुम्हारे परिवार की कोई भी सहायता नहीं कर पाई। अभी भी मैं उस तांत्रिक के पूर्ण रूप से वश में तो नहीं पर फिर भी उसके अधिकार में हूं। दो महीने बाद मेरी मृत्यु का दिन आने वाला है। उस दिन वह एक विशेष अनुष्ठान का आयोजन करने वाला है। उस दिन उस विशेष अनुष्ठान से वह मुझे और भी शक्तिशाली बनाकर अपने वश में कर लेगा। उसके बाद वह जैसा चाहेगा वैसा मैं करने के लिए विवश हो जाऊंगी। क्योंकि इस पायल की जोड़ी की दूसरी पायल उसके पास है।" स्नेहा ने कहा, "तो तुम मुझसे क्या चाहती हो... और तुम मुझे क्यों दिख रही हो…??" रत्नमंजरी ने कहा, "स्नेहा उस पायल की दूसरी जोड़ी की पायल तुमने पहनी है... तुम्हारा जन्म एक विशेष समय पर हुआ है। जिस कारण तुम मुझे मुक्ति दिलवाने में सहायता कर सकती हो... और तुम्हारे पास आने का सबसे बड़ा कारण तो तुम्हारे पैर में पहनी हुई यह पायल है।" स्नेहा ने कहा, "ठीक है…! मैं आपकी सहायता करने की कोशिश करूंगी... पर उससे पहले जिसने मेरी सहायता की है... मुझे उनसे बात करके देखना होगा कि हम आपकी सहायता कर भी सकते हैं या नहीं कर सकते हैं।" रत्नमंजरी ने हां में सर हिलाया और कहा, "अगर तुम मेरी सहायता करती हो तो मैं भी तुम्हारे परिवार की हत्या का प्रतिशोध लेने में तुम्हारी सहायता करूंगी। वैसे भी इतने दिनों से मैं तुम्हारी ही सहायता कर रही थी।" स्नेहा ने कहा, "मुझे पागल बनाकर... सबके सामने आपने मुझे पागल तो घोषित करवा ही दिया है। इसमें का कौन सी सहायता हुई…?" रत्नमंजरी ने कहा, "अगर मैं तुम्हें बार-बार दिखाई ना दे रही होती तो तुम्हारा परिवार उस आत्मानंद के साथ मिलकर कब का तुम्हें रास्ते से हटाने का षड्यंत्र रच चुके होते।" स्नेहा ने कहा, "वह नहीं रच सकते थे... पूरी प्रॉपर्टी मेरे पापा की वसीयत के हिसाब से मेरे नाम पर है। जब तक प्रॉपर्टी उन्हें नहीं मिलती है... तब तक वह मुझे कुछ भी नहीं कर सकते…!" स्नेहा के ऐसा कहते ही रत्नमंजरी ने जोर से अट्टहास करते हुए कहा, "किस प्रॉपर्टी की बात कर रही हो... वही प्रॉपर्टी जिसके कागजों पर तुम्हारे अंगूठे के निशान वह पहले ही ले चुके हैं।" स्नेहा ने अजीब से भावों के साथ रत्नमंजरी को देखा और पूछा, "क्या मतलब है आपका?" तब रत्नमंजरी ने कहा, "जिस दिन मैं तुम्हें पहली बार दिखाई दी थी... उससे कुछ समय पहले ही तुम्हारे चाचा ने तुम्हारे नींद में होते हुए पूरी संपत्ति के कागजों पर तुम्हारे अंगूठे के निशान ले लिए थे। और जिस दिन वकील वसीयत सुनाने आया था। उसी दिन शाम को तुम्हें नशे की दवा पिलाकर तुमसे उन कागजों पर हस्ताक्षर करवा लिए थे।" स्नेहा को याद आ रहा था जब वकील अंकल चले गए थे। तब उसकी चाची दूध लेकर कमरे में आई थी। कहने लगी, "बेटा तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं है आजकल। तुम गर्म दूध पियो तुम्हें अच्छा लगेगा और तुम्हें ठीक से नींद भी आएगी।" वह दूध पीकर स्नेहा पूरी रात आराम से सोई थी। पर सुबह जब उठी थी तो उसका सर कुछ भारी भारी लग रहा था। पर स्नेहा ने ज्यादा ध्यान नहीं दिया और उसे नॉर्मल ही लिया। अब उसे पता चल रहा था कि उस दिन उसके सर भारी होने का कारण क्या था। अब स्नेहा खुद को ठगा हुआ महसूस कर रही थी। इस पर रत्नमंजरी ने कहा, "तुम चिंता मत करो वह कागज अब उन लोगों के काम के भी नहीं है। क्योंकि मैंने उन कागजों से तुम्हारे हस्ताक्षर और अंगूठे के निशान मिटा दिये है। इसीलिए तो अब यह सोच रहे हैं कि मेरे कारण तुम शीघ्र अति शीघ्र पागल घोषित हो जाओ। और पूरी संपत्ति उनके नाम हो जाए।" स्नेहा ने कृतज्ञता से रत्नमंजरी की तरफ देखा और कहा, "मैं आपको वचन तो नहीं दे सकती परंतु मैं आपकी सहायता करने के लिए हर संभव प्रयास करूंगी। अभी मैं चलती हूं शीघ्र ही शीघ्र ही जो व्यक्ति आपसे पहले मेरी सहायता कर रहा है। उससे मिलकर आपकी सहायता के विषय में मैं बात करूंगी।" ऐसा कहकर स्नेहा वापस अपने कमरे में आ गई और आकर रत्नमंजरी की बातों पर विचार करने लगी। उसने सोचा, "इस समय सबसे उचित यही रहेगा कि मैं आराम करूं कल मैं उस रहस्यमय आवाज वाले व्यक्ति से मिलकर रत्नमंजरी के बारे में बता दूंगी। अपने भैरवी बनके अपने परिवार की हत्या के प्रतिशोध के बारे में भी बात करूंगी।" ऐसा सोचते-सोचते स्नेहा सो गई। सुबह स्नेहा उठी और अपने रोज के काम निपटा कर अपने पिता के ऑफिस चली गई। वहां जाकर उसे यह पता लगा कि उसके चाचा ने उसके पापा के विश्वसनीय लोगों को नौकरी से हटा दिया था। और उन लोगों को रख लिया था जो यहां रह कर विराज के लिए काम कर रहे थे। यह सब बातें भी ऑफिस पहुंचने पर रत्नमंजरी ने स्नेहा को बताई थी। यह भी बताया कि एक व्यक्ति है जो तुम्हारे पिता का सबसे ज्यादा वफादार था। उसका नाम प्रखर था। प्रखर स्नेहा के पिता के बचपन के मित्र थे। जब स्नेहा के पिता ने यह व्यापार शुरू किया था तभी से प्रखर उनकी सहायता कर रहे थे। और स्नेहा के पिता की समय-समय पर उचित मार्गदर्शन देकर सहायता भी करते थे। प्रखर की सहायता से स्नेहा के पिता ने इस व्यापार को इस ऊंचाई तक पहुंचाया था। स्नेहा ने प्रखर जी को ऑफिस में बुलवाया और उनसे कहा, "अंकल पापा के बाद इस पूरे बिजनेस को मैं अकेले नहीं संभाल सकती। इस बिजनेस को डूबने से बचाने में आपको मेरी हेल्प करनी होगी।" इस पर प्रखर जी ने कहा, "स्नेहा बेटा... तुम्हारे पापा और मैं... हम दोनों ही बचपन के दोस्त थे। हर अच्छी-बुरी घड़ी में हम दोनों साथ रहे हैं। हर समय देखा है। इस समय जब तुम्हें और इस बिजनेस को मेरी सबसे ज्यादा जरूरत है तब मैं इसे ऐसे नहीं छोड़ सकता।" स्नेहा ने कहा, "अंकल सबसे पहले काम कीजिए जितने भी लोग यहां नए आए हैं या फिर पुराने हैं। आप उनमें से सबसे पहले उन लोगों का पता लगाइए जो हमारे विश्वसनीय हैं या बन सकते हैं। उसके बाद हम उन लोगों को छोड़कर बाकी सब को हटा देंगे। पहले हम इतना करते हैं... बाकी आगे प्लान क्या रहेगा उसके बारे में हम समय-समय पर बात करते रहेंगे। जब तक अंकल हम लोग, उन लोगों का पता नहीं लगा लेते जो विराज के साथ मिलकर हमें नुकसान पहुंचा रहे हैं। हमें सतर्क रहकर बिना उनकी नजर में आए यह काम करना होगा। वरना चाचा कुछ भी करके हमारे पूरे प्लान की पर पानी फेर देंगे।" इन सब बातों के बाद प्रखर जी वापस जाने लगे तो स्नेहा ने कहा, "अंकल जी... एक मिनट... एक बात और है।" प्रखर जी ने पूछा, "हां बेटा... कहो…!" स्नेहा ने कहा, "अंकल हमें एक कंप्यूटर एक्सपर्ट भी चाहिए जो हैकर हो... क्योंकि अगर विराज के आदमी हमारी कंपनी में है... तो उन्होंने हमारे सारे सिक्योरिटी सिस्टम को हैक कर लिया होगा। हमारी कॉन्फिडेंशियल बातें भी उनके पास होंगी। प्लीज आप जितना जल्दी हो सके यह सब कुछ अरेंज करें।" प्रखर ने "हां" कहा और वह वापस चले गए। प्रखर के जाने के बाद स्नेहा ने सबको ऐसे दिखाया कि उसकी और प्रखर की जोरदार लड़ाई हुई थी। स्नेहा सब कुछ अब खुद से देखेगी। जल्दी स्नेहा वापस घर पहुंची... घर पहुंचते ही पीहू उसके सामने आ गई और स्नेहा को लाड करने लगी। स्नेहा भी पीहू को लाड कर रही थी कि स्नेहा दोबारा से चीख उठी…! पहले की ही तरह सामान इधर-उधर उठाकर फेंकने लगी। आवाज सुनकर प्रीति और पूरा परिवार वहां दौड़कर पहुंच गए। प्रीति ने पीहू को गोद में उठाकर अपने गले से लगा लिया। पीहू रोने लगी थी और सारा परिवार मन ही मन खुश होकर स्नेहा को देख रहा था। थोड़ी देर बाद स्नेहा नॉर्मल हुई और अपने कमरे में चली गई। वहां जाकर स्नेहा ने चैन की सांस ली और सोचा, "चलो अच्छा हुआ उन्हें शक नहीं हुआ।" स्नेहा सुबह से बहुत थक गई थी और थोड़ा आराम करना चाहती थी। स्नेहा ने थोड़ी देर आराम करने का सोचा और सो गई। स्नेहा जब सो रही थी तब रत्नमंजरी ने आकर उसे जगाया और कहा, "उठो स्नेहा... उठो... यह समय सोने का नहीं है। आत्मानंद को पता चल गया है कि तुम वापस आ गई हो और इस व्यापार को संभालने की स्थिति में भी हो। आज वह एक अनुष्ठान करने वाला है ताकि तुम्हें नुकसान पहुंचा सके। मुझे जैसे ही पता चला मैं तुम्हें बताने के लिए आ गई हूं। मैं इस समय तुम्हारी कोई भी सहायता करने में असमर्थ हूं। अब केवल तुम्हारा वह शुभचिंतक... वही तुम्हारी सहायता कर सकता है।" स्नेहा बहुत ही ज्यादा परेशान हो गई थी उसे समझ में नहीं आ रहा था कि क्यों उसकी मुसीबतें खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही थी। वह चाहती थी कि जल्दी से सब कुछ खत्म हो जाए पर यहां तो रोज नई मुसीबत आकर सामने खड़ी हो जाती थी। कुछ देर सोचने के बाद स्नेहा ने वह काला कपड़ा निकाला और उसका एक टुकड़ा जलाया। थोड़ी देर तक कोई आवाज नहीं आई तकरीबन 15 मिनट इंतजार करने के बाद स्नेहा ने उस काले कपड़े का एक और टुकड़ा जलाया। पर फिर आधा घंटा बीत गया और कोई भी आवाज नहीं आई। अब स्नेहा थोड़ा-थोड़ा थोड़ा टेंशन में आने लगी थी। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था कि स्नेहा ने उस कपड़े को जलाया हो और कोई भी प्रत्युत्तर ना मिला हो।
कुछ देर सोचने के बाद स्नेहा ने वह काला कपड़ा निकाला और उसका एक टुकड़ा जलाया। थोड़ी देर तक कोई आवाज नहीं आई तकरीबन 15 मिनट इंतजार करने के बाद स्नेहा ने उस काले कपड़े का एक और टुकड़ा जलाया। पर फिर आधा घंटा बीत गया और कोई भी आवाज नहीं आई। अब स्नेहा थोड़ा-थोड़ा टेंशन में आने लगी थी। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था कि स्नेहा ने उस कपड़े को जलाया हो और कोई भी प्रत्युत्तर ना मिला हो। स्नेहा की टेंशन बढ़ती जा रही थी। एक तरफ आत्मानंद का अनुष्ठान और दूसरी तरफ रहस्यमय आवाज वाला व्यक्ति कोई प्रतिउत्तर नहीं दे रहा था। समझ नहीं आ रहा था कि करे तो क्या करें? स्नेहा ने खुद ही रहस्यमय आवाज वाले व्यक्ति की साधना स्थली जाने का निश्चय किया। स्नेहा ने अपने कमरे को अंदर से बंद कर खुद खिड़की के रास्ते बाहर जाने का निश्चय किया। रत्नमंजरी से कहा, "मैं मेरे उस शुभचिंतक रहस्यमय आवाज वाले व्यक्ति से मिलने जा रही हूं। वैसे तो यहां कोई आएगा नहीं, अगर फिर भी कोई आता है तो आप संभाल लीजिएगा।" ऐसा कह कर स्नेहा फटाफट से उस रहस्यमय आवाज वाले व्यक्ति की साधना स्थली के लिए निकल गई। इस समय उसे आत्मानंद के अनुष्ठान के बारे में बताना जरूरी था। स्नेहा जैसे-तैसे करके उस श्मशान तक तो पहुंच गई पर उससे आगे जाने में स्नेहा को डर लग रहा था। फिर भी स्नेहा ने अपना मन कड़ा करते हुए आगे जाने का निश्चय किया। वह धीरे-धीरे आगे बढ़ रही थी। माहौल डरावना और रहस्यमयी होता जा रहा था। जंगली जीव जंतुओं की आवाजें स्नेहा को डरा रही थी। जंगली कुत्ते और बिल्लियों के रोने की आवाज़ माहौल में भय पैदा कर रही थी। पर फिर भी स्नेहा अपने लक्ष्य की ओर बढ़ती जा रही थी। थोड़ी दूर जाने पर स्नेहा को नदी के बहने की ध्वनि सुनाई दी और स्नेहा ने अपने पैर तेजी से उस तरफ बढ़ा दिये। शीघ्र ही स्नेहा नदी के सामने खड़ी थी। उसे समझ नहीं आ रहा था कि इस बार नदी पार कैसे की जाए? स्नेहा ने जैसे ही अपना पैर आगे बढ़ाया नदी के जल ने उसे रास्ता दे दिया। नदी ने वही बहना बंद करके अपना जल दो भागों में बांट दिया। और बीच में स्नेहा के चलने के लिए जमीन बच गई थी। नदी भी जैसे चाहती थी कि स्नेहा जल्दी से उस तांत्रिक के पास पहुंच जाये बिना समय व्यर्थ किए। स्नेहा यह देख कर बहुत ही ज्यादा आश्चर्यचकित हो गई थी, पर फिर भी उसने ज्यादा समय नष्ट ना करते हुए जल्दी ही नदी पार करने का सोच कर अपने पैर आगे बढ़ा दिये। नदी पार करते ही स्नेहा उसी स्थान पर पहुंच गई थी। जहां से कल उस रहस्यमय आवाज वाले व्यक्ति ने उसे वापस भेजा था। स्नेहा को समझ नहीं आ रहा था कि आगे किस तरफ से जाया जाए। स्नेहा सोच रही थी कि... उसके पास से एक तेज हवा का झोंका गुजरा। स्नेहा ने उसे जंगल में चलने वाली सामान्य हवा समझ कर अनदेखा कर दिया। पर थोड़ी देर बाद ऐसा दोबारा हुआ। फिर भी स्नेहा को कुछ भी समझ नहीं पाई थी। स्नेहा वहीं खड़ी थी कि अबकी बार वह हवा का झोंका स्नेहा के चारों तरफ गोल-गोल चक्कर काटने लगा। उस हवा के बहाव में स्नेहा को ऐसा लगा कि कोई धक्का देकर उसे एक तरफ ले जाने का प्रयत्न कर रहा था। स्नेहा ने सोचा, "शायद यह हवा का झोंका मुझे वही ले जाने का प्रयास कर रहा है जहां मुझे जाना है।" अबकी बार स्नेहा उस हवा के बहाव के साथ ही आगे बढ़ने लगी। आस पास क्या हो रहा था... स्नेहा को कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था। कुछ दूरी पर आगे बढ़कर स्नेहा उस हवा के झोंके से मुक्त हो गई। चारों तरफ देखने का उसे केवल घने पेड़ ही पेड़ नजर आ रहे थे। माहौल बहुत ही डरावना बना हुआ था। जब हवा के झोंके से स्नेहा मुक्त हुई, तो उसे ऐसे लगा कि जैसे किसी ने उसके कान में कुछ फुसफुसाया हो। स्नेहा ने फिर ध्यान लगाने की कोशिश की तो उसे हवा की आवाज के साथ एक और स्वर सुनाई दिया। "स्नेहा ऽऽऽऽऽऽ…! स्नेहा ऽऽऽऽऽऽ…! स्नेहा ऽऽऽऽऽऽ…!!! यहां से सीधे दो सौ कदम चलने के बाद एक खाली मैदान जैसा दिखाई देगा। उस मैदान के बीचो-बीच खड़े होकर तुम्हें तीन बार काल भैरव का जाप करना होगा। तभी तुम्हें वह स्थान दिखाई देगा जहां तुम्हें जाना है।" इतना कहकर हवा की आहट बंद हो गई। स्नेहा ने वैसा ही करने का निश्चय किया। क्योंकि इस तरह की रहस्यमय चीजों की अब आदत हो चली थी। स्नेहा ने दो सौ कदम चलने पर एक मैदान देखा। वह मैदान उजाड़- रेगिस्तान जैसा दिखाई दे रहा था। बीचो बीच पहुंचकर स्नेहा ने काल भैरव के मंत्र का जाप करना शुरू कर दिया। जो वह हवा स्नेहा के कान में बोल रही थी और स्नेहा उसका अनुसरण कर रही थी। "धर्मध्वजं शङ्कररूपमेकं शरण्यमित्थं भुवनेषु सिद्धम्। द्विजेन्द्र पूज्यं विमलं त्रिनेत्रं श्री भैरवं तं शरणं प्रपद्ये।।" जाप पूरा होते ही आसपास के माहौल में एक तीव्र परिवर्तन शुरू हो गया। चारों तरफ हवा का वेग बहुत ही तीव्र था। बहुत तेजी से हवा चारों तरफ गोल-गोल घूम रही थी। लगभग दस मिनट बाद वह हवा शांत हुई। स्नेहा ने देखा... वह जहां खड़ी थी वह एक श्मशान जैसा दिखाई दे रहा था। बहुत सी चिताऐं जल रही थी और चिताओं के बीच कोई बैठा हुआ दिखाई दे रहा था। चिताओं के आसपास मांस के जलने की तेज गंध आ रही थी। जो बिल्कुल भी सहन करने जैसी नहीं थी। इतना होने के बाद भी चिताओं के बीच बैठा आदमी बिना किसी परेशानी के लगातार वहीं बैठा हुआ था। तीन-चार काले कुत्ते वही बैठकर उस आदमी की रखवाली कर रहे थे। कुत्ते देखने में इतने बड़े और शक्तिशाली लग रहे थे के अगर बाघ भी सामने आ जाए तो उसे भी एक बार डर कर पीछे हटना पड़े। उन कुत्तों ने स्नेहा को देखा, उनके देखते ही स्नेहा के शरीर में कंपन शुरू हो गया और डर के कारण रोंगटे खड़े हो गए। पर जब कुत्तों ने स्नेहा को अनदेखा कर दिया तब स्नेहा के साँस में साँस आई और स्नेहा ने आगे बढ़ने की सोची। स्नेहा जैसे ही आगे बढ़ने को हुई एक अग्नि चक्र प्रकट हो गया मानो उस बैठे व्यक्ति की सुरक्षा कर रहा हो। जैसे उसे स्नेहा कोई हानि पहुंचाना चाहती थी। स्नेहा ने महाकाल भैरव का नाम लिया और आगे पैर बढ़ा दिया। अग्नि उसे ऐसे स्थान दे रही थी जैसे अब वह स्नेहा को जानने लगी थी। स्नेहा को आगे जहां जाना था, उसका भी मार्ग अग्नि दिखा रही थी। स्नेहा के पैरों के दो पग आगे से अग्नि आगे-आगे चलकर से मार्ग दिखाने लगी। लगभग बीस-तीस कदम चलने पर अग्नि गायब हो गई। अब स्नेहा ने अपना आगे पग बढ़ाया तो रहस्यमय आवाज फिर सुनाई पड़ी। आवाज कह रही थी, "सीधे आकर सामने जो आसन लगा है, वहां आकर बैठ जाओ।" स्नेहा ने वहां देखा जहां वह आदमी बैठा था। वह आदमी वही था, जो कल उससे मिला था। स्नेहा ने जैसे ही उसकी तरफ चलना शुरू किया। वैसे ही स्नेहा को महसूस हुआ कि कुछ देर पहले जहां स्नेहा को मांस जलने की दुर्गंध आ रही थी, वहां अब रातरानी और मोगरे की महक बिखरी हुई थी। स्नेहा ने एक गहरी सांस भरकर उस महक को अपने अंदर समेटना शुरू कर दिया। एक गहरी सांस के बाद स्नेहा ने देखा जहां वह खड़ी थी, वहां विभिन्न रंगों से रंगोलियां और विभिन्न प्रकार के यंत्र बने हुए थे। बहुत सी हवन सामग्रियां उन रंगोलियां के बीच रखी थी। उन हवन सामग्रियों के सामने एक हवन कुंड बना हुआ था। हवन कुंड के चारों तरफ कुछ आकृतियां बनी हुई थी, जैसे किसी देवता के यंत्र के मध्य में वह हवन कुंड स्थापित किया गया था। हवन कुंड में उठने वाली तेज ज्वालाएं इतनी विशाल थी कि विश्वास ही नहीं होता था कि वह ज्वाला हवन कुंड से उत्पन्न हवन की अग्नि थी। बीच-बीच में वही तांत्रिक कुछ मंत्र जाप करते हुए आहुतियां हवन कुंड में डालते जा रहा था। स्नेहा जब उस स्थान से हिली नहीं तो उस तांत्रिक ने गंभीर आवाज में कहा, "तुम्हें बैठने के लिए संकेत किया था, परन्तु शायद तुम्हें अब अपने जीवन से मोह नहीं रहा। पर मुझे मेरे कार्य में व्यवधान पसंद नहीं है। तुम जल्दी से जल्दी सामने नीलकमल वाले स्थान पर जाकर बैठ जाओ और हां... आंखें भी बंद कर लेना। और जब तक मैं ना कहूं तब तक किसी भी परिस्थिति में आंखें नहीं खुलनी चाहिए।" स्नेहा ने कहा,"परऽऽऽ…!" तांत्रिक ने अपनी तेज आंखों से उसे चुप रहने का संकेत किया और वापस अपने मंत्र जाप में व्यस्त हो गया। मंत्र जाप पूरा करने के बाद उस तांत्रिक ने महाकाल भैरव की स्तुति की। ॐ देवराजसेव्यमानपावनाङ्घ्रिपङ्कजं व्यालयज्ञसूत्रमिन्दुशेखरं कृपाकरम् नारदादियोगिवृन्दवन्दितं दिगंबरं काशिकापुराधिनाथ कालभैरवं भजे… स्तुति पूरी होने के बाद तांत्रिक ने स्नेहा की तरफ देखा और कहा, "तुम क्या कहना चाहती हो अब कहो…?" स्नेहा ने जल्दी ही डरते हुए बोलना शुरू किया "मैंने उस काले कपड़े को कितनी बार जलाया था? बताओ... पर आप मेरे उस कपड़े को जलाने का जवाब क्यों नहीं दे रहे थे?" तांत्रिक ने कहा, "मैं उस समय अनुष्ठान में बैठा था और उस समय उस स्थिति में नहीं था कि तुम्हें उत्तर दे सकूं।" स्नेहा ने कहा, "आपको पता है, आत्मानंद मेरी हत्या के लिए आज एक विशेष अनुष्ठान कर रहा है। इसीलिए मैं आपसे संपर्क करना चाहती थी। अगर इस बीच मुझे कुछ हो जाता तो... उसका तंत्र मेरे प्राण हर लेता तो…?" इस पर तांत्रिक ने जोर का अट्टहास किया और कहने लगा, "जिस पूजा में... जिस विधि में... अभी तुमने भाग लिया था। वह तुम्हारी ही रक्षा के लिए की गई थी। मुझे पता चला कि आत्मानंद तुम्हारे ऊपर आज किसी मारण तंत्र का प्रयोग करने वाला है। पर... तुम्हें कैसे पता चला कि आत्मानंद आज तुम पर तंत्र प्रहार करने वाला है?" स्नेहा ने उस तांत्रिक को रत्नमंजरी के बारे में सब कुछ बता दिया। यह भी बताया कि रत्नमंजरी की शक्तियों को प्राप्त करने के लिए दो महीने बाद एकादशी के दिन आत्मानंद एक विशेष पूजा करने वाला था। इस पूजा के बाद रत्नमंजरी की सभी शक्तियां आत्मानंद की होंगी। तांत्रिक ने कहना शुरू किया, "देखो स्नेहा हम रत्नमंजरी की मदद कर सकते हैं और उसकी मुक्ति के लिए भी कोई अनुष्ठान कर सकते हैं। अगर तुम चाहो उसकी सहायता लेना तो तुम्हें केवल उसी की सहायता से अपना प्रतिशोध लेना होगा। इस काम में मैं तुम्हारी सहायता नहीं कर पाऊंगा या यह कह लो कि मैं तुम्हारी सहायता नहीं करना चाहता। क्योंकि रत्नमंजरी एक अतृप्त आत्मा है, अगर हमने उसकी सहायता ली तो उसकी मुक्ति का मार्ग अवरुद्ध हो जाएगा। यह नियम विरुद्ध होगा कि जिस आत्मा की मुक्ति के लिए हम पूजा पाठ कर रहे हैं, उसी आत्मा से लोगों की हत्या करवाएं। यह मेरा मानना है... तुम क्या चाहती हो? इस पर अभी तुम्हें और विचार करना होगा।" स्नेहा ने कहा, "आपको जैसा उचित लगे... हम वैसा ही करेंगे। हम रत्नमंजरी की मुक्ति के लिए प्रार्थना करेंगे और जो भी उचित पूजा-पाठ होगी, वह भी करके जल्दी से जल्दी उसे मुक्त करवाने की कोशिश करेंगे। उसके बाद तो आप मुझे दीक्षा देगें ना…?" तांत्रिक ने कहा, "मैं उचित मुहूर्त देखकर तुम्हें बता देता हूं कि किस दिन रत्नमंजरी की मुक्ति के लिए हम पूजा करेंगे और कौन सा दिन तुम्हारी साधना शुरू करने के लिए सबसे अच्छा रहेगा…?" उसके बाद तांत्रिक ने कुछ देर ध्यान लगाया और कहा, "दो दिन बाद रत्नमंजरी की मुक्ति पूजा करने के लिए उत्तम दिन है। उस दिन मोक्षदायिनी एकादशी है, उसी दिन हम रत्नमंजरी की मुक्ति के लिए प्रार्थना करेंगे। उसके दो दिन बाद तुम्हारी साधना शुरू करने के लिए श्रेष्ठ दिन है तब तक तुम अपने जो भी काम है, उन्हें पूरा कर लो। साधना के बीच कोई भी विघ्न या तुम्हारे मन में कोई भी मोह या उच्चाटन नहीं आना चाहिए।" "अब तुम वापस अपने घर जा सकती हो।" स्नेहा ने कहा, "पर आत्मानंद दोबारा मेरे ऊपर कोई तंत्र प्रहर करने का प्रयास करेगा तो…?" तब तांत्रिक ने कहा, "जो आज उसने किया था उसको तो हमने विफल कर दिया है। उसे कल तक ही इस बात का पता चलेगा कि उसका तंत्र विफल हो गया है। अगले प्रहार से बचने के लिए मैं तुम्हें एक सुरक्षा चक्र प्रदान कर देता हूं वह जब तक तुम अपने काम खत्म करके दीक्षा के लिए आओगी तब तक, वह सुरक्षा चक्र किसी भी प्रकार के तंत्र मंत्र प्रभाव से तुम्हारी रक्षा करेगा।" "और यहां आने के बाद कोई भी तंत्र प्रभाव प्रभावी नहीं होगा... क्योंकि हम जहां साधना करते हैं उस स्थान का बंधन कर देते हैं। इसलिए तुम निश्चिंत होकर जाओ और जल्दी से ही अपने सारे कार्य समाप्त कर लो।" तांत्रिक ने आगे कहा। स्नेहा ने तांत्रिक की बात मान ली और उन्हें प्रणाम करके वापस अपने घर आ गई। वहां पर रत्नमंजरी ने स्नेहा से पूछा, "स्नेहा अब तुम सुरक्षित हो... तुम्हारी बात हुई... अब तुम पर कोई संकट तो नहीं है…?" स्नेहा ने उन्हें आश्वासन दिया और कहा, "अब मुझ पर कोई संकट नहीं है। मुझे मेरे शुभचिंतक ने एक सुरक्षा चक्र प्रदान किया है, जिससे कोई भी तंत्र मंत्र प्रभाव मुझ पर नहीं पड़ेगा।" रत्नमंजरी को भी यह महसूस होने लगा था। क्योंकि उसे इस स्नेहा के पास आने पर एक विशेष आभा और तेज अनुभव हो रहा था। रत्नमंजरी एक अतृप्त आत्मा होते हुए भी भली आत्मा थी। स्नेहा ने कहा, "उन्होंने यह भी कहा है कि दो दिन बाद हम आपकी मुक्ति के लिए पूजा करेंगे।" रत्नमंजरी ने प्रसन्न होते हुए पूछा, "सच में दो दिन बाद मैं मुक्त हो जाऊंगी…!!!" फिर एक पल रुक कर रत्नमंजरी ने परेशान होते हुए कहा, "अगर दो दिन में में मुक्त हो जाऊंगी तो... मैं तुम्हारी सहायता कैसे कर पाऊंगी।" स्नेहा ने कहा, "आप परेशान ना होइए... मैं स्वयं उनसे अपने परिवार की हत्या का बदला लूंगी। दो दिन बाद हम आपकी मुक्ति के लिए पूजा करेंगे। अब आप निश्चिंत हो जाइए।" तब रत्नमंजरी कुछ सोचने लगी और सोचते-सोचते वहां से गायब हो गई। स्नेहा ने इस बात का ज्यादा ध्यान नहीं दिया। तांत्रिक का दिया सुरक्षा चक्र, उसकी रक्षा करेगा यह विश्वास स्नेहा में निश्चिंतता भर रहा था। इसलिए स्नेहा निश्चिंत होकर सो गई। सुबह स्नेहा जब अपने ऑफिस पहुंची तो उसने देखा पूरा ऑफिस अस्त व्यस्त था। सारे जरूरी कागज पूरे फ्लोर पर फैले हुए थे। कंप्यूटर की हार्ड डिस्क गायब थी। सब कुछ ऐसे अस्त-व्यस्त दिख रहा था, जैसे किसी ने जल्दबाजी में कुछ जरूरी चीजें चुराने की कोशिश की थी। पूरा ऑफिस स्टाफ टेंशन में वहीं खड़ा था। किसी की भी अंदर जाने की हिम्मत नहीं हो रही थी। पुलिस को पहले ही खबर कर दी गई थी, और पुलिस वहां पहुंचने ही वाली थी। स्नेहा बाहर खड़ी यह सोच रही थी कि अब यह सब क्या हो गया अब इसे कैसे ठीक करेंगे…
स्नेहा ऑफिस के बाहर खड़ी खड़ी सोच ही रही थी कि अब क्या किया जाए…? इतने में पुलिस वहां आ पहुंची पुलिस ने छानबीन की और सीसीटीवी कैमरा के फुटेज चेक करने चली गई। फुटेज चेक करने के बाद स्नेहा के पास आकर पूछताछ करने लगे। पुलिस इंस्पेक्टर ने स्नेहा से पूछा, "मैडम आपको किसी पर शक है? इस तरह का काम कौन कर सकता है?" स्नेहा ने कहा, "नहीं सर मुझे इस बारे में कोई भी जानकारी नहीं है। अगर इस बारे में कुछ मिलता है तो वह या तो सीसीटीवी फुटेज से पता चलेगा, या फिर हमारे सिक्योरिटी गार्ड बता पाएंगे कि यहां कौन आया था?" सब कुछ जानने के बाद पुलिस ने आश्वासन दिया कि जल्दी इस बारे में जांच पड़ताल करके आपको सूचित कर देंगे। पुलिस कागजी कार्रवाई करके वापस चली गई। स्नेहा ने कॉन्फ्रेंस रूम में सारे स्टाफ को बुलाया और कहा, "स्टाफ मेंबर... आप सबको यहां जो भी कुछ हुआ है वह दिखाई दे रहा है। इस सब में बाहर वाले का कोई हाथ नहीं हो सकता। जो भी किया है... जिसने भी किया है... वह यहीं का कोई मेंबर है। अगर आप चाहते हैं कि सब की नौकरी ना जाए... तो जो भी कोई है, सामने आ जाओ। नहीं तो मैं खुद सबको नौकरी से निकाल दूंगी।" सारे स्टाफ में यह सुनते ही कानाफूसी शुरू हो गई सब बड़बड़ाने लगे कि यह कैसे हो सकता है। हम क्यों करेंगे यह सब??? स्नेहा ने फिर कड़क आवाज में कहा, "जो कोई भी है उसके लिए यह लास्ट वार्निंग है, या तो कल तक खुद से सरेंडर कर दे... नहीं तो मैं अपने हिसाब से ढूंढ कर निकाल लूंगी... पर यह ध्यान रखना कि अगर मैंने ढूंढा तो जो भी कोई इसके पीछे है। उसे कहीं और काम करने लायक नहीं छोडूंगी।" सारा स्टाफ एक बार को डर गया पर फिर भी लोगों ने बातें करना शुरू कर दिया। कहने लगे, देखो दो दिन की आई हुई हमें नौकरी से निकालेगी और हमें धमकी दे रही है। पर स्नेहा ने किसी की एक ना सुनी और सबको बिना किसी चीज को हाथ लगाए वापस अपने अपने घर जाने के लिए कह दिया। स्नेहा ने कहा, "आप सब लोग आज घर जा सकते हैं। कोई भी अपने डेस्क पर किसी भी चीज को हाथ नहीं लगाएगा। जो जैसा है उसे वैसा ही छोड़कर, आप लोग घर चले जाइए। जो भी होगा मैं देख लूंगी। अब आप लोग जा सकते है... यहां से।" सारा स्टाफ एक-एक करके वापस घर चला गया। स्नेहा अपने केबिन में थोड़ा टेंशन में बैठी थी। स्नेहा ने खुद से सिक्योरिटी गार्ड्स को बुलाकर पूछताछ भी की थी पर उसका कोई भी रिजल्ट नहीं निकला। थोड़ी देर बाद प्रखर जी स्नेहा के केबिन में आए। आकर उन्होंने कहा, "स्नेहा बेटा कैसा रहा आज का सब कुछ…?" इस पर स्नेहा ने कहा, "अंकल जी आप तो देख ही रहे है सब कुछ। पेपर्स, कंप्यूटर की हार्ड डिस्क और जरूरी कागज ऑफिस से गायब है। सीसीटीवी फुटेज में कोई भी गड़बड़ नहीं दिखाई दे रही है और किसी के भी अनजान के कोई फिंगरप्रिंट नहीं मिले।" तब प्रखर जी ने कहा, "स्नेहा बेटे हम ऐसे किसी को भी नौकरी से निकालते तो हमारी कंपनी के लिए परेशानी वाली बात हो सकती थी। इस पूरे वाकये के बाद हम किसी को भी नौकरी से निकाल सकते हैं। उसके ऊपर हमें किसी को जवाब नहीं देना होगा।" स्नेहा ने कहा, "वह तो ठीक है अंकल…!" प्रखर जी ने कहा, "आओ स्नेहा बेटे... हम बाहर चलकर बात करते हैं।" प्रखर जी और स्नेहा दोनों ऑफिस से बाहर स्नेहा की कार से चल दिए। कार शहर से बाहर एक घर पर जाकर रुकी। प्रखर जी के पीछे-पीछे स्नेहा गाड़ी से उतरी और घर के अंदर चली गई। वो घर बहुत ज्यादा बड़ा तो नहीं था पर फिर भी ठीक-ठाक था। लगभग 5 या 6 कमरे, एक बड़ा सा हॉल, एक किचन लेट-बाथ और नार्मल घर में होने वाली सभी चीजें वहां रखी थी। प्रखर जी ने एक कमरे की तरफ स्नेहा को चलने का इशारा किया। कमरे के अंदर बहुत सारे कंप्यूटर्स, हार्ड-डिस्क, फाइल्स और जरूरी कागजात के साथ-साथ दो लड़के बैठे हुए थे। जो कंप्यूटर कुछ काम कर रहे थे। स्नेहा ने सवालिया नजरों से प्रखर जी की तरफ देखा तो उन्होंने कहा, "जैसे कि हमारी कल बात हुई थी। हमें केवल हमारे वफादार लोगों की जरूरत है और विराज के वफादार, उनको हमें काम से हटाना है। हमें कंप्यूटर हैकर की भी जरूरत है तो सारी प्रॉब्लम का सॉल्यूशन यह रहा। यह दोनों लड़के कंप्यूटर जीनियस है, इन्होंने हमारे पूरे सिक्योरिटी सिस्टम को चेक कर लिया है। कहीं भी कोई भी लूप नहीं मिला है। ये लोग फिर भी सिक्योरिटी के लिए ये सब कर रहे हैं ।इन्होंने शुरू से सिक्योरिटी सिस्टम को स्टार्ट किया है और कुछ नये फंक्शंस और फीचर्स भी डाल दिए हैं। ताकि कोई भी छेड़खानी होने पर हमें तुरंत इस बात का पता चल जाएगा।" स्नेहा ने आश्चर्य और तारीफ के मिले-जुले भावों के साथ प्रखर जी से कहा, "यू आर जीनियस अंकल…!!! इतनी जल्दी इतनी अच्छी प्लानिंग... कोई नहीं कर सकता था। अंकल एक काम और है पर उसके लिए हम कहीं बैठ कर बात करते हैं।" स्नेहा ने आसपास देखते हुए कहा। फिर स्नेहा और प्रखर जी बाहर हाॅल में आकर बैठ गए। स्नेहा ने कहा, "अंकल इस बिजनेस को आपको ही संभालना पड़ेगा। मैं इस बिजनेस को नहीं चला पाऊंगी। दो दिन बाद मैं वापस जा रही हूं तो इस बिजनेस की जिम्मेदारी अब से आपकी है। मैं समय-समय पर आती रहूंगी पर यहां नहीं रह पाऊंगी।" प्रखर जी ने कहा, "पर बेटा यह कैसे पॉसिबल होगा।" स्नेहा ने कहा, "अंकल जो भी बिजनेस राइवल्स है या जो भी हमारे दुश्मन है। मैं उन्हें देख लूंगी पर बिजनेस की जिम्मेदारी आप ही को उठानी पड़ेगी। और मैं सोच रही हूं की प्रॉपर्टी भी एक ट्रस्ट के नाम कर दूं, वह ट्रस्ट अनाथ बच्चों के लिए काम करेगी। उनके लिए बैटर एजुकेशन और उनके फ्यूचर के लिए हम लोग काम करेंगे। अगर वह बच्चे चाहे तो आगे चलकर हमारी कंपनी में अपना योगदान दे सकते हैं।" प्रखर जी ने कहा, "बेटा सोच तो काफी अच्छी है तुम्हारी। पर क्या यह पॉसिबल होगा…?" स्नेहा ने कहा, "बिल्कुल अंकल आप फिलहाल के लिए इस बिजनेस की जिम्मेदारी संभाल लीजिए। फिर हम इस पूरी संपत्ति के लिए एक ट्रस्ट बनाकर कोई व्यवस्था देखेंगे।" प्रखर जी बिजनेस संभालने के लिए मान गए थे। प्रखर जी ने कहा, "ठीक है बेटा... मैं यह पूरा बिजनेस संभालने के लिए तैयार हूं पर इस पूरे बिजनेस की कर्ता-धर्ता तुम ही रहोगी। मैं केवल तुम्हारा रिप्रेजेंटेटिव बनकर रहूंगा।" स्नेहा भी इस बात के लिए तैयार हो गई। स्नेहा ने कहा, "अंकल कल से यह बिजनेस आपका है और आप ही को संभालना है। मैं कुछ समय के लिए आकर जो भी जरूरी कागज है उन पर साइन कर दूंगी। फिर आप अपने हिसाब से डिसीजन ले पाएंगे।" यह बातें करते हुए स्नेहा और प्रखर जी वापस आ गए। वापस आकर स्नेहा अपने वकील के पास गई और अपनी संपत्ति से रिलेटेड अपनी वसीयत बनवा दी। उसके हिसाब से उस संपत्ति का 10% पीहू को दिया और अगर यह भी लिखवाया कि अगर स्नेहा की मृत्यु किसी भी संदिग्ध परिस्थिति में होती है, तो सारी संपत्ति एक ट्रस्ट के नाम चली जाएगी। ऐसा लिखवाकर स्नेहा वापस आ गई। स्नेहा घर पहुंच कर सीधा अपने कमरे में चली गई। अपने कमरे में बैठकर सोचने लगी कि आगे और क्या-क्या काम बाकी है। जो उसे अपनी तंत्र साधना शुरू करने से पहले पूरे करने हैं। स्नेहा को याद आया उसकी मां ने एक बार उससे फोन पर बताया था कि वह कोई पूजा करवाना चाहती हैं। स्नेहा ने सोचा, "कि बस अब यह पूजा करवा दूं उसके बाद मेरे पास कोई भी जिम्मेदारी नहीं बचेगी। " उसने पंडित जी को फोन लगाकर कल घर में पूजा रखवा दी। सारा सामान और पूजा की तैयारी के लिए पंडित जी से ही बोल दिया। स्नेहा अब निश्चिंत होकर सो सकती थी। तो उसने सोचा अब आराम कर लिया जाए। दूसरे दिन सुबह स्नेहा जल्दी उठ गई थी, उसने सभी घरवालों को बता दिया कि आज घर में पूजा रखवाई है। आप लोग चाहें तो पूजा में हिस्सा ले सकते है। अगर ना चाहो तो जहां चाहे, वहां जा सकते हैं ऐसा कहकर स्नेहा पूजा की तैयारियों में लग गई। थोड़ी देर में पंडित जी आ गए और पूजा करवाने लगे। चाचा, बुआ और उनका परिवार मन मार कर पूजा में बैठे। पूजा के बाद स्नेहा ने पंडित जी को भोजन और दक्षिणा देकर विदा किया और खुद भी अपने कमरे में आराम करने चली गई। स्नेहा ने सोचा, "बस कल का दिन है... जब हम रत्नमंजरी की आत्मा की शांति के लिए पूजा करने वाले हैं।" वह यह सोच कर खुश थी कि कल रत्नमंजरी को मुक्ति मिल जाएगी। तभी उसे याद आया कि कल से रत्नमंजरी ना तो दिखाई दी थी ना ही कोई संकेत दिया था कि वह कहां गई थी। स्नेहा ने सोचा, "शायद हो सकता है... अपने महल को आखिरी बार देखने गई हो मुक्ति से पहले या फिर इतने समय से जहां थी वहीं आखिरी बार समय बिताने गई होंगी।" यह सोच कर स्नेहा सो गई। रत्नमंजरी वहां आई और स्नेहा से बहुत ही प्यार से मिली। स्नेहा ने उनसे शिकायती स्वर में कहा, "आप सुबह से कहां थी…? आज दिखी भी नहीं... कहां चली गई थी?" रत्नमंजरी बोली, "नहीं तो...मैं कहीं भी नहीं गई थी। बस यही आस पास थी।" स्नेहा ने पूछा, "आप खुश तो हो ना।" तब रत्नमंजरी ने कहा, "मैं खुश क्यों नहीं होऊंगी… मैं बहुत ज्यादा खुश हूं।" स्नेहा ने कहा, "मैं बस पूछ रही हूं। आपकी कोई अंतिम इच्छा जो आप जाने से पूर्व पूरा करना चाहती हो।" तब रत्नमंजरी ने स्नेहा का सर प्यार से सहलाते हुए कहा, "नहीं अब कोई इच्छा नहीं है... पर जाने से पहले, मैं तुम्हें कुछ देना चाहती हूं और तुम उसके लिए मना नहीं करोगी।" ऐसा कहते ही स्नेहा की नींद खुल गई। स्नेहा ने सोचा, "मैं भी कितनी बेवकूफ हूं, आज दिन भर से रत्नमंजरी दिखाई नहीं दी, तो मैं खुद उनके सपने देखने लगी।" यह सोचते हुए स्नेहा फिर से सो गई। दूसरे दिन स्नेहा कुछ समय के लिए ऑफिस गई और वहां सारे पेपर साइन करके प्रखर जी को दे दिए। ताकि उसकी अनुपस्थिति में बिजनेस में कोई भी रुकावट ना आए और सीधे उस रहस्यमय आवाज वाले व्यक्ति के श्मशान के लिए निकल गई। अबकी बार स्नेहा को वहां पहुंचने में कोई भी परेशानी नहीं हुई। वहां गई तो स्नेहा ने देखा पूजा की सारी तैयारियां हो चुकी थी। दिन में देखने पर वह जगह बहुत ही खूबसूरत दिखाई दे रही थी। हालांकि चिताओं की भस्म अभी भी वहां थी और कुछ चिताएं जल भी रही थी। माहौल में बोझिलता या डरावनापन बिल्कुल भी नहीं था। एक गहन शांति और मन को प्रफुल्लित करने वाली सुगंधित पवन बह रही थी। सामने ही महाकाली और श्मशान के अधिष्ठाता देव भगवान महाकाल भैरव का भव्य मंदिर था। शायद रात के अंधेरे के कारण पहले यह मंदिर स्नेहा को दिखाई नहीं दिया था पर अब सब कुछ बहुत अच्छे से दिखाई दे रहा था। आज भी उस रात की तरह ही जमीन में बहुत से अष्टदल कमल, षोडशदल कमल, कुछ यंत्र, हवन सामग्री और कुछ विशेष पूजन सामग्री भी वहां रखी थी। बीचोंबीच हवन कुंड बना हुआ था, उसके आसपास भी रंगोली और फूलों से सजावट की गई थी। पर उस रहस्यमय आवाज वाले व्यक्ति का कोई अता पता नहीं था। स्नेहा वहीं बैठ कर उसका इंतजार करने लगी। कुछ ही देर बाद सामने से कोई आता दिखाई दिया। उस व्यक्ति ने लाल रंग की धोती, एक पैर में कड़ा, एक हाथ में एक विशेष प्रकार का चिमटे जैसा औजार था, जो उसके साथ चलने पर एक विशेष ध्वनि उत्पन्न कर रहा था। दूर से देखने पर उसके शरीर पर पानी की बूंदे, सूर्य के प्रकाश में हीरे के समान चमक रही थी। केशों पर भी पानी की बूंदे चमक रही थी, ऐसा लग रहा था मानो वह व्यक्ति अभी-अभी स्नान करके आ रहा हो। वह व्यक्ति धीरे-धीरे पास आ रहा था। स्नेहा की नजरें उसी व्यक्ति पर जमी हुई थी। पहली बार स्नेहा को उसे देखकर एक अजीब सा आकर्षण अनुभव हो रहा था। शायद उस व्यक्ति का तेज ही इतना अनुपम था कि जो भी देखे उस पर मोहित हो जाए। वह व्यक्ति स्नेहा के नजदीक आया तो स्नेहा एकटक मंत्रमुग्ध भाव से उसे ही देख रही थी। उसने पास आकर स्नेहा से पूछा, "स्नेहा… स्नेहा... यह तुम क्या कर रही हो?" स्नेहा ने हड़बड़ा कर जवाब दिया, "कुछ नहीं... कुछ नहीं... हम यहां आज रत्नमंजरी की आत्मा की शांति के लिए पूजा करने वाले थे ना।" उस आवाज ने कहा, "करने वाले थे नहीं... करने वाले हैं। पर उस पूजा के लिए तुम्हें यह पायल मुझे देनी पड़ेगी और इस पायल से अपना मोह छोड़ना होगा।" स्नेहा ने पायल निकालकर उस व्यक्ति को दे दी। स्नेहा ने पूछा, "इतना समय हो गया है पर अभी तक मुझे आपका नाम तक नहीं पता है।" "जल्दी ही मैं तुम्हें दीक्षा देने वाला हूं... तो मेरा नाम क्या है? इससे कोई अंतर नहीं पड़ता... अंतर केवल इस बात से पड़ता है कि आज के बाद तुम मुझे गुरुदेव कह कर संबोधित करोगी। वैसे मेरा नाम अच्युतानंद है।" स्नेहा ने झुक कर उनके चरण स्पर्श किए। उन्होंने रत्नमंजरी की आत्मा की शांति के लिए पूजा शुरु कर दी। जल्दी ही वह पूजा समाप्त हो गई। पूजा के समाप्त होते ही रत्नमंजरी वहां प्रकट हो गई। उसके चेहरे से बहुत ही करुणा थी, रत्नमंजरी हाथ जोड़कर अच्युतानंद को अपनी कृतज्ञता प्रकट कर रही थी। रत्नमंजरी ने कहा, "प्रभु आपने मेरी इतने वर्षों की तपस्या को नष्ट होने से बचा लिया। आपने मेरे हाथों बहुत से दुष्कर्म होने से भी बचा लिए। अन्यथा पता नहीं कितने समय तक मुझे आत्मानंद के हाथों की कठपुतली बनकर पता नहीं क्या क्या बुरे कर्म करने पड़ते। आपने मेरी बहुत ज्यादा सहायता की है। उसके लिए मैं आपका जितना भी आभार करूं उतना कम है। इसलिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद…!!" रत्नमंजरी ने स्नेहा से कहा, "स्नेहा तुम मेरी वंश में जन्मी हो... यह पायल तो अब तुम्हारे पास नहीं रह पाएगी, पर मैं बहुत कुछ तुम्हें अपनी प्रेम धरोहर के रूप में देना चाहती हूं।" ऐसा कहकर रत्न मंजरी ने अपने दोनों हाथ जोड़कर भगवान से कुछ प्रार्थना की फिर स्नेहा से कहा, "अंतिम बार मैं तुम्हें छूकर तुम्हें कुछ देना चाहती हूं…!!" स्नेहा ने अपने गुरुदेव की तरफ देखा तो अच्युतानंद ने पलक झपका कर अपनी आज्ञा प्रदान की। स्नेहा ने आगे बढ़कर अपने हाथ रत्नमंजरी की तरफ बढ़ा दिए। रत्नमंजरी ने स्नेहा के हाथ पकड़ लिए, उसके हाथ पकड़ते ही स्नेहा के शरीर में एक विचित्र सा विद्युत प्रवाह शुरू हो गया। रत्नमंजरी ने कहा, "यह मेरी तरफ से तुम्हारे लिए अंतिम भेंट…!!!" ऐसा कहकर रत्नमंजरी एक दिव्य प्रकाश में विलुप्त हो गई और स्नेहा वहीं पर बेहोश होकर गिर पड़ी…
रत्नमंजरी ने कहा, "यह मेरी तरफ से तुम्हारे लिए अंतिम भेंट…!!!" ऐसा कहकर रत्नमंजरी एक दिव्य प्रकाश में विलुप्त हो गई और स्नेहा वहीं पर बेहोश होकर गिर पड़ी… जब स्नेहा की आंखें खुली तो स्नेहा ने देखा, वह किसी बड़े से कमरे जैसी जगह में थी। दीवार सफेद रंग की थी और दीवारों पर कुछ विशेष आकृतियां बनी हुई थी। आकृतियां भी सफेद रंग की ही दिखाई दे रही थी। आकृतियां मानो ऐसी लग रही थी जैसे कोई देव राक्षसों के अंत के लिए अवतार लेकर उनसे युद्ध कर रहा था। छत पर भी कुछ विशेष प्रकार के यंत्र बने दिखाई दे रहे थे। स्नेहा ने एक पल को आंखें खोलकर फिर बंद की, उसे लगा जैसे वह कोई सपना देख रही थी। दोबारा आंखें खोलने पर आसपास का माहौल वैसा ही दिखाई दे रहा था। स्नेहा ने गर्दन घुमा कर देखा तो उसके पैरों की तरफ एक बड़ा सा दरवाजा था। उस दरवाजे से बाहर आसमान में तारे दिखाई दे रहे थे। जहां वह लेटी हुई थी, वहां पर बहुत ही ज्यादा शांति का अनुभव हो रहा था। एक विशेष सुगंध फैली हुई थी। स्नेहा ने अपने हाथों से फर्श को छूकर देखा तो, फर्श पर भी कुछ बना हुआ महसूस हुआ। जैसे फर्श के पत्थर पर कुछ उकेरा गया हो। यह सब स्नेहा को बहुत ही आनंद प्रदान कर रहा था। स्नेहा एकदम से उठ कर बैठ गई और आसपास के माहौल को गर्दन घुमा कर देखने लगी। स्नेहा ने देखा जिस तरफ उसका सिरहाना था उस तरफ मां भगवती महाकाली की एक विशाल प्रतिमा स्थापित थी। प्रतिमा बहुत ही रौद्र भाव की लग रही थी। उनकी जीभ बाहर निकली हुई थी मानो संसार के सभी दुष्टों का रक्त पीकर भी उनकी क्षुधा शांत नहीं हुई। चेहरे पर बहुत ही क्रोध जैसे भाव थे। परंतु नेत्रों से करुणा की वर्षा हो रही थी। शरीर पर बाघम्बर धारण किए हुए, नर मुंडो की माला गले में सुशोभित हो रही थी। चरण कमलों के नीचे भगवान भोलेनाथ की प्रतिमा थी। नीलांजना देवी भगवती भले ही अपने रौद्र रूप में दिखाई दे रही थी, पर उनके स्वरूप में ममता, करुणा और दया के ही भाव प्रधान दिखाई दे रहे थे। उन्हीं के बाएं हाथ की तरफ श्मशान के अधिष्ठाता देव, बाबा काल भैरव की प्रतिमा थी। उनकी प्रतिमा, एक प्रतिमा ना होकर एक लिंग रूप में थी, जिस पर सिंदूर चढ़ा हुआ था। अपने आप को मंदिर में देखकर स्नेहा को अपार शांति और हर्ष का अनुभव हो रहा था। ऐसा लग रहा था कि संपूर्ण जीवन वह ऐसे ही मां के चरणों में बैठ कर बिता सकती थी। आज स्वयं को वहां देख कर स्नेहा यह भूल ही गई थी कि वह अभी-अभी कुछ दिनों पूर्व ही अपनी मां को खो चुकी थी। जगत जननी मां के मंदिर में उसे ऐसे ही आभास हो रहा था, जैसे वह अपनी मां की ही गोद में बैठी हो। मां ने भी उसे ऐसे संभाल लिया था, जैसे बाहर से लड़ाई में पिट कर आए बच्चे को मां अपने आंचल में संभाल लेती है। स्नेहा बस ऐसे ही मां की प्रतिमा की तरफ भाव विभोर होकर देख रही थी कि एक आवाज आई... "तुम उठ गई स्नेहा... अब कैसा लग रहा है…?" स्नेहा ने पलट कर देखा तो अच्युतानंद जी उसके सामने खड़े थे। स्नेहा के नेत्रों से आनंद अश्रु बह रहे थे। अच्युतानंद जी ने कहा, "स्नेहा तुम सुबह से मूर्छित हो... यह कुछ फल लाया हूं। इन्हें ग्रहण करो और फिर अपने घर चली जाओ।" स्नेहा ने भाव विभोर होते हुए कहा, "गुरुदेव आपने यहां लाकर मेरे जीवन की क्षुधा शांत कर दी है। कुछ खाने की कोई भी अभिलाषा नहीं है। बस आप मुझे वापस जाने के लिए ना कहो…!! वापस जाने के नाम ऐसा लग रहा है, जैसे कोई गाय के भूखे बछड़े को उसकी मां से दूर ले जाकर बांधना चाहता हो।" अच्युतानंद जी ने कहा, "पर स्नेहा…!! तुम्हें जाना तो होगा। क्योंकि केवल 1 दिन है, जिसे तुम अपने हिसाब से बाहर बिता सकती हो। उसके बाद तुम्हें कठोर और संयमित जीवन व्यतीत करना होगा।" स्नेहा ने कहा, "जी गुरुदेव…! परंतु केवल आज की रात मैं मां की गोद में बिताना चाहती हूं। कल का पूरा दिन और रात मैं बाहर अपनी जिम्मेदारियां पूरी करने में व्यतीत कर दूंगी। आज मां को छोड़कर जाने का बिल्कुल भी मन नहीं है।" अच्युतानंद जी ने कहा, "ठीक है फिर तुम कुछ फलाहार कर लो और यही विश्राम करो। मैं बाहर अपनी कुटिया में जाकर विश्राम करता हूं। क्योंकि कल का पूरा दिन तुम्हारी साधना की तैयारी में निकलने वाला है।" ऐसा कहकर अच्युतानंद जी फल वही रख कर बाहर चले गए। स्नेहा ने वह फल भाव से पहले मां को और भगवान काल भैरव को को अर्पित किए फिर स्वयं खाए। उसके बाद मां की प्रतिमा को निहारती रही... निहारते-निहारते कब नींद आ गई, उसे खुद ही पता नहीं चला। सुबह किसी के बाल सहलाने से स्नेहा की नींद खुली। उसे लगा कि उसकी मां उसे सुबह-सुबह जगाने आई थी, पर जब स्नेहा को यह याद आया कि उसकी मां अब उसके पास नहीं थी और वह मंदिर में थी। तो स्नेहा झट से उठ कर बैठ गई। चारों तरफ गर्दन घुमा कर देखने पर स्नेहा को कोई भी दिखाई नहीं दिया। स्नेहा की नजर मां की प्रतिमा पर गई तो उनके चेहरे से पर एक ममतामयी मुस्कान दिखाई दी। स्नेहा को लगा कि शायद मां ही उसे सुबह-सुबह जगाने के लिए वहां आई थी। स्नेहा ने मां को प्रणाम किया, फिर बाबा काल भैरव को प्रणाम कर मंदिर से बाहर आ गई। बाहर अच्युतानंद जी ध्यान में लगे हुए थे। ध्यान मग्न होते हुए ही उन्होंने अपने हाथ से स्नेहा को रुकने का इशारा किया। दस मिनट बाद अपनी पूजा पूर्ण कर कहा, "स्नेहा अभी तुम अपने घर चली जाओ और कल ठीक शाम पांच बजे वापस यहां आ जाना। क्योंकि साधना शुरू करने का शुभ मुहूर्त रात को 10:00 बजे का है। उससे पहले बहुत सी तैयारियां और बहुत कुछ तुम्हें जानना और बताना आवश्यक है। तो तुम ठीक समय पर यहां पर पहुंच जाना।" ऐसा कहकर अच्युतानंद जी वापस ध्यान मग्न हो गए। स्नेहा ने उन्हें प्रणाम किया और वापस अपने घर आ गई। घर पहुंच कर स्नेहा ने देखा सभी लोग नाश्ता कर रहे थे। उसके घर में कदम रखते ही पीहू दौड़ कर उसके पास आ गई। स्नेहा ने पीहू को गोद में उठा लिया और उसे लाड करने लगी। पीहू भी स्नेहा के गले लगी हुई थी और गले लगे हुए ही स्नेहा से पूछा, "बूईईई आप कल पूरे दिन कहां थी?" स्नेहा ने कहा, "बेटा कल बूई की एक फ्रेंड बहुत ज्यादा बीमार हो गई थी। तो वही उन्हीं के पास थी।" पीहू ने परेशान होते हुए पूछा, "बूईईई अब आपकी फ्रेंड ठीक हैं।" स्नेहा ने कहा, "हां बेटा... अब वह ठीक है और वह अपनी मम्मी के पास चली गई है।" स्नेहा ने ऐसा कहते हुए पीहू को गोद से उतारा और हाथ पकड़ कर डाइनिंग टेबल की तरफ ले गई। उसे चेयर पर बैठा कर कहा, "पीहू बेटा…! आप नाश्ता करो बुई अभी आती है।" इस पर अखिलेश जी ने भी कहा, "स्नेहा जल्दी आना हम सब नाश्ते के लिए तुम्हारा इंतजार कर रहे हैं।" स्नेहा ने कहा, "कोई बात नहीं चाचा जी, आप सब लोग नाश्ता कीजिए मुझे थोड़ा टाइम लगेगा।" ऐसा कहकर स्नेहा अपने कमरे में चली गई। वहां जाकर स्नेहा जल्दी से तैयार हुई और ऑफिस के लिए निकल गई। ऑफिस जाकर स्नेहा ने देखा, आज ऑफिस काफी साफ सुथरा और व्यवस्थित दिखाई दे रहा था। स्टाफ में केवल दो या चार लोग दिखाई दे रहे थे। सभी जाकर स्नेहा से कहने लगे, "सॉरी मैडम…!! आपको इतना सब कुछ देखना और झेलना पड़ा। पर इस सब में हमारी कोई भी गलती नहीं थी। यह सब केवल कुछ लोग लोगों के कारण हुआ है। हम आगे से ट्राई करेंगे कि आपको या इस कंपनी को हमारे कारण कोई भी नुकसान उठाना नहीं पड़े।" स्नेहा ने कहा, "मुझे भी आप लोगों से सॉरी बोलना चाहिए, क्योंकि गेहूं के साथ कभी-कभी घुन भी पिस जाता है। मगर फिर भी आप इसे अपनी ही कंपनी समझ कर काम कीजिए। आज से यह पूरी कंपनी प्रखर जी ही संभालेंगे... तो आपको जो भी कोई प्रॉब्लम हो... आप उनसे कह सकते हैं वह आप लोगों का अच्छे से ध्यान रखेंगे। ठीक वैसे ही जैसे पापा और भाई आप लोगों का ध्यान रखते थे। आप बस उन्हें वैसे ही सपोर्ट करते रहिएगा जैसे आप पापा और भाई को सपोर्ट करते थे।" ऐसा कहकर स्नेहा अपने केबिन में चली गई। स्नेहा के केबिन में जाने के थोड़ी देर बाद प्रखर जी उसकी केबिन में आए गए। स्नेहा प्रखर जी के साथ कुछ देर अपने बिजनेस से संबंधित बातचीत करती रही। प्रखर जी ने कहा, "स्नेहा बेटा…! बिज़नस तो मैं संभाल लूंगा पर साइनिंग अथॉरिटी तुम्हारे पास ही रखो।" स्नेहा ने कहा, "ठीक है अंकल।" प्रखर जी ने कहा, "कुछ अपकमिंग प्रोजेक्ट्स है और कुछ जरूरी पेपर्स जिन पर तुम्हारे साइन चाहिए।" ऐसा कहकर प्रखर जी ने बाहर किसी को फोन करके सारे कागज लाने को कहा। जल्दी ही एक आदमी सारे पेपर्स लेकर आ गया। पेपर साइन करते हुए स्नेहा ने कहा, "अंकल मुझे कुछ टाइम लग जाएगा वापस आने में। तब तक के लिए आप अकाउंटेंट को बुलवाकर कुछ चेक बुक और ऑनलाइन ट्रांजेक्शन के लिए फॉर्म साइन करवा लीजिए ताकि मेरे पीछे से किसी की भी पेमेंट या सैलरी लेट ना हो।" प्रखर ने स्नेह के कहे अनुसार अकाउंटेंट को बुलाकर चेक और फॉर्म्स साइन करवा लिए। पूरा दिन स्नेहा का इसी तरह बहुत ही ज्यादा व्यस्त बीता। स्नेहा ने सोचा, "कल का दिन मैं पीहू के साथ ही बताऊंगी।" स्नेहा जब घर आई तो ऑलरेडी रात के 10:00 बज चुके थे। स्नेहा थकी हुई थी तो जल्दी खाना खाकर सो गई। सुबह जब स्नेहा उठी तो स्नेहा ने आवाज दी, "पीहूऽऽऽऽ पीहूऽऽऽऽ बेटाऽऽऽऽ…!!! कहां हो…!" स्नेहा कुर्सी पर बैठे-बैठे आवाज दे रही थी कि पीहू ने पीछे से आकर स्नेहा की आंखें बंद कर दी और पूछने लगी, "बूईईई बताओ आपकी आंखें किसने बंद की है…??" स्नेहा ने अपने हाथों से उन छोटे-छोटे हाथों को छुआ और पीहू को प्यार से आगे की तरफ खींचते हुए कहा, "यह तो मेरी छोटी सी, स्वीट सी, एंजेल है।" और पीहू के पेट में गुदगुदी करने लगी। पीहू बहुत जोर से हंसे जा रही थी। स्नेहा ने पूछा, "पीहू बेटा…! आप आज बूई के साथ मूवी देखने चलोगी क्या?" स्नेहा ने फिर पीछे से आती हुई प्रीति से पूछा, "प्रीति क्या मैं आज पीहू को बाहर घुमाने ले जाऊं? हम लोग एक कार्टून मूवी देखने जाने की सोच रहे हैं।" प्रीति ने मना किया, "स्नेहा बुरा मत मानना... पर ऐसे रोज-रोज बाहर जाकर पीहू की आदतें खराब हो जाएंगी।" स्नेहा ने कहा, "नहीं होंगी फिर भी मैं केवल आज के लिए ही कह रही हूं। उसके बाद हम 2 महीने तक कहीं भी बाहर नहीं जाएंगे।" पीहू ने जब यह सुना तो वह उसकी मम्मी से कहने लगी, "प्लीज मम्मा... जाने दो ना... हम पक्का दो महीने बाहर नहीं जाएंगे। प्लीज मम्मा... मैं जाऊं क्या?" पीहू ने भोली थी शक्ल बनाते हुए प्रीति से पूछा, तो प्रीति मना नहीं कर पाई। प्रीति ने कहा, "ठीक है... आज जा सकती हो पर फिर बाद में 2 महीने तक तुम कहीं भी घूमने नहीं जाओगी।" पीहू ने प्रीति को गले लगाते हुए किस किया और कहा, "आप वर्ल्ड की बेस्ट मम्मा हो... आई लव यू सोऽऽ मच।" प्रीति ने कहा, "बस... बस... ज्यादा मस्का लगाने की जरूरत नहीं है। जाओ और जल्दी से तैयार हो जाओ।" पीहू अपने कमरे की तरफ भागी तो प्रीति ने कहा, "अरे रुको मैं आ रही हूं। मैं ही तो तैयार करूंगी तुम्हें। स्नेहा तुम भी तैयार हो जाओ, मैं अभी पीहू को तैयार करके लाती हूं।" इतना कहकर प्रीति भी पीहू के पीछे चली गई। स्नेहा और पीहू तैयार होकर मूवी देखने के लिए चल दिए। रास्ते में दोनों ने कुछ स्नैक्स खाए और फिर मूवी की टिकट लेकर हॉल में चले गए। अंदर जाकर पीहू ने कहा, "बूईईई हम ना बड़ा वाला पॉपकॉर्न भी लेंगे और साथ में कोल्ड ड्रिंक भी।" स्नेहा ने कहा, "हम पॉपकॉर्न तो ले लेंगे पर बेटा कोल्ड ड्रिंक नहीं। कोल्ड ड्रिंक नहीं पीनी चाहिए, वह बहुत हार्मफुल होती है। अब आप कोल्ड ड्रिंक के लिए जिद नहीं करोगे, नहीं तो हम वापस जाते टाइम पिज्जा नहीं खाएंगे।" पीहू पिज़्ज़ा के नाम बहुत खुश हो गई और कोल्ड ड्रिंक ना लेने के लिए मान गई। उन्होंने साथ में टॉम एंड जेरी और मोटू और पतलू की मूवी देखी। मूवी देख कर बाहर आते समय पीहू बहुत खुश लग रही थी। साथ ही साथ स्नेहा भी क्योंकि आज उसने पीहू के साथ बहुत अच्छा समय बिताया था। स्नेहा और पीहू दोनों पिज्जा खाकर वापस घर के लिए निकल गई। रास्ते में गाड़ी एक फ्लाईओवर से गुजर रही थी कि अचानक गाड़ी को एक झटका लगा और गाड़ी आधी फ्लाईओवर के नीचे लटक गई...
रास्ते में गाड़ी एक फ्लाईओवर से गुजर रही थी कि अचानक गाड़ी को एक झटका लगा और गाड़ी आधी फ्लाईओवर के नीचे लटक गई... स्नेहा बहुत ज्यादा डर गई थी। उसे डर अपने लिए नहीं पीहू के लिए लग रहा था। स्नेहा ने सोचा, "अगर पीहू को कुछ हो गया तो…??" वह पीहू को किसी भी कीमत पर खोना नहीं चाहती थी। पर पीहू बिल्कुल भी डरी हुई नहीं लग रही थी। पीहू को स्नेहा पर पूरा विश्वास था। पीहू ने कहा, "हम यहां राइड पर है ना... आप डरो मत। जब झूला ऊपर जाकर अटक जाता है... तो फिर हम गिरते थोड़ी है, थोड़ी देर बाद वापस आराम से नीचे आ जाते है। आप टेंशन मत करो हम ठीक से रोड पर वापस चलने लगेंगे।" स्नेहा को यह सब सुनकर बहुत हिम्मत मिली। स्नेहा ने गुस्से में सीट के पीछे की तरफ एक मुक्का मारा, उसके कारण झटके से गाड़ी वापस रोड पर आ गई। सभी लोग जो आसपास खड़े होकर स्नेहा की लटकती हुई गाड़ी देख रहे थे, अब वह सब झटके से वापस रोड पर आई हुई, उस गाड़ी को देखकर हैरान थे। वह लोग यह सोच रहे थे कि एकदम से ऐसा क्या हुआ जो नीचे लटकती हुई गाड़ी अपने आप वापस रोड पर चल दी। स्नेहा को भी थोड़ा अचंभा हुआ। पर पीहू ने कहा, "देखो बूईईई मैंने कहा था ना कि कुछ भी नहीं होगा। हम लटकने के बाद वापस रोड पर ठीक से चलने लगेंगे। हम लोगों को कुछ भी चोट भी नहीं आएगी। मेरी बूईईई ग्रेट है... उन्होंने एक मुक्का मार कर गाड़ी को सीधा कर दिया।" स्नेहा अभी भी हैरान परेशान होकर कभी रोड को, कभी फ्लाईओवर को और कभी गाड़ी को देख रही थी। थोड़ी देर बाद स्नेहा और पीहू वापस घर आ गए। स्नेहा ने पिहू से कहा, "पीहू बेटा आप घर पर किसी को भी यह नहीं बताएंगे कि आज हमारी कार के साथ क्या हुआ था। सब लोग डर जाएंगे ना और वैसे भी यह पीहू और बूई का सीक्रेट है।" पीहू ने हां में गर्दन हिलाते हुए कहा, "बूईईई मैं किसी को भी कुछ नहीं बताऊंगी। पर आपको ना मुझे राइड पर ले जाना पड़ेगा।" फिर से स्नेहा ने पीहू के सर पर प्यार से हाथ फेरते हुए कहा, "हां बिट्टूऽऽ हम पक्का चलेंगे…!" और फिर दोनों घर के अंदर चले गए। दोपहर के तीन बज रहे थे और पांच बजे तक स्नेहा को अच्युतानंद जी के पास श्मशान में पहुंचना था। स्नेहा ने थोड़ी देर रेस्ट किया और फिर श्मशान के लिए निकलने के लिए चेंज किया। स्नेहा ने सोचा, "दस मिनट रुक के निकलती हूं…!" स्नेहा बैठकर जाने के बारे में आंखें बंद करके सोच रही थी। स्नेहा ने दस मिनट बाद आंखें खोली तो वह हैरान रह गई। स्नेहा इस समय श्मशान में बैठी थी। थोड़ी ही दूर पर अच्युतानंद जी ध्यान में बैठे थे। सामने ही मां का मंदिर दिखाई दे रहा था। स्नेहा ने सोचा, "मैं भी ना कुछ भी सपने देखने लगी हूं। ऐसा कैसे हो सकता है कि मैं सोचूं और वहां पहुंच जाऊं। यह जरूर मेरा वहम होगा।" स्नेहा ने दो तीन बार आंखें बंद करके खोली पर, वह अभी भी श्मशान में ही थी। अबकी बार स्नेहा ने खुद को जोर से चिकोटी काटी। चिकोटी के दर्द के कारण स्नेहा जोर से चीख पड़ी... "आउचऽऽऽऽऽऽ…!!!" स्नेहा की आवाज सुनकर अच्युतानंद जी ने आंखें खोली और स्नेहा को ऐसे बेवकूफ की तरह अपने आप को चोट पहुंचाते देखकर मुस्कुरा दिए। उन्होंने स्नेहा से पूछा, "क्या हुआ स्नेहा यह तुम खुद को चिकोटी क्यों काट रही हो??" स्नेहा ने कहा, "गुरुजी…! मैं थोड़ी देर पहले अपने कमरे में बैठी थी और यहां आने के लिए निकलने की सोच रही थी। मैंने दो मिनट आंखें बंद करके खोली तो मैं यहां थी। ऐसा कैसे हो सकता है…??" अच्युतानंद जी मुस्कुरा दिए… फिर स्नेहा ने कहा, "आपको पता है गुरुदेव आज मेरे साथ क्या हुआ…?" अच्युतानंद जी ने मुस्कुराते हुए पूछा, "क्या हुआ था??" स्नेहा ने कहा, "मेरी गाड़ी फ्लाईओवर से नीचे हवा में लटक रही थी। मैं बहुत डरी हुई थी कि अचानक मैंने गुस्से में सीट पर हाथ मारा और मेरी गाड़ी जो नीचे लटकी हुई थी, एक ही झटके में रोड पर थी। गुरुदेव…! गुरुदेव यह आजकल हो क्या रहा है…???" अच्युतानंद जी ने मुस्कुराते हुए कहा, "कुछ नहीं हो रहा स्नेहा... सही समय आने पर हर एक चीज तुम्हारे सामने बिल्कुल साफ हो जाएगी।" स्नेहा अभी भी बहुत ज्यादा असमंजस में थी। उसे कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। अच्युतानंद जी ने कहा, "स्नेहा अभी के लिए वो सब छोड़ो… अभी केवल अपनी साधना पर ध्यान दो। जाओ पहले माँ और बाबा काल भैरव से आज्ञा लेकर आओ। फिर हम आगे बढ़ेंगे।" ऐसा सुनते ही स्नेहा मंदिर की तरफ चल दी। वहां पहुंचकर माँ से विनती करने लगी, "माँ मैं जानती हूं कि बदला लेने से कुछ नहीं होता। माफ़ करने वाला बड़ा होता है, पर माँ ये आज इन्होंने मेरे साथ किया है। कल किसी और स्नेहा के साथ करेंगे। इन्हें ऐसे ही छोडऩा मतलब है इन्हें बढ़ावा देना, जो मैं बिल्कुल नहीं होने दे सकती। माँ आप मेरी सहायता करना।" फिर बाबा काल भैरव की तरफ देखकर कहने लगी, "बाबा मैं जो करने जा रही हूँ, वो आपकी आज्ञा के बिना संभव नहीं है। आप मुझपर दया करे और साधना में सफलता का आशीर्वाद प्रदान करे।" ऐसी प्रार्थना कर के स्नेहा वापस अच्युतानंद जी के पास आकर खड़ी हो गई। अच्युतानंद जी ने कहा, "जाओ और जाकर नदी से स्नान कर के आओ…!!" स्नेहा ने कहा, "पर मैं तो…!!!" "सबसे पहली और अंतिम बात गुरु आज्ञा को बिना किसी तरह के प्रश्न किए मान लेना चाहिए…!" अच्युतानंद जी ने कहा। स्नेहा ने गर्दन झुका कर उनकी बात मान ली और नदी की तरफ चल दी। जल्दी ही स्नेहा नहा कर वापस आ गई। वापस आकर अच्युतानंद जी ने उसे मां के सामने एक आसन पर बिठा दिया और एक रुद्राक्ष की माला दी। और स्नेहा से कहा, "इस माला से तुम्हें सात दिन तक लगातार रोज जाप करने है। गुरु मंत्र सवा लाख जाप करने पर सिद्ध हो जाता है। किसी भी साधना में सबसे पहले गुरु मंत्र का जाप किया जाता है। इसलिए तुम सबसे पहले गुरु मंत्र का ही जाप करोगी। ये सवा लाख जाप तुम्हें एक हफ्ते में पूरे करने होंगे। अब तुम जाप करो... मैं रात में तुम से आकर मिलता हूं।" ऐसा कहकर अच्युतानंद जी वापस चले गए। स्नेहा अपने जाप में लग गई, रात को अच्युतानंद जी वापस आए और स्नेहा से कहा, "अब तुम आराम करो... सुबह छह बजे से वापस तुम्हें मंत्र जाप शुरू करना है। तो अभी कुछ खाकर आराम करो।" ऐसा कहकर स्नेहा को एक झोपड़ी दिखा दी, जो अब से स्नेहा की आश्रय स्थली, स्नेहा का कमरा या उसका महल जो चाहे कह सकते थे। उसी दिन से स्नेहा की कठिन ट्रेनिंग शुरू हो गई थी। पूरी दिनचर्या अनुशासित हो गई थी, स्नेहा सुबह से शाम तक बिना हिले डुले गुरु मंत्र के जाप में लगी रहती थी और शाम को अपनी झोपड़ी में जाकर विश्राम करती थी। शीघ्र ही उसके सवा लाख जाप पूरे हो गए और अच्युतानंद जी ने उसे अपने शिष्य रूप में स्वीकार कर लिया। उसके बाद अच्युतानंद ने स्नेहा को कहा, "स्नेहा आज के लिए तुम्हारा जाप पूर्ण हुआ। कल रात नौ बजे तुम यहां स्नान करके लाल वस्त्र पहनकर पहुंच जाना। तुम्हारी साधना को हम अगले पड़ाव में लेकर जाएंगे।" ऐसा कहकर स्नेहा को आराम करने के लिए उसकी झोपड़ी में भेज दिया। दूसरे दिन स्नेहा ठीक रात नौ बजे स्नान करके, स्वच्छ कपड़े पहन कर वही मंदिर के सामने अच्युतानंद जी के बताए अनुसार पहुंच गई। थोड़ी देर में अच्युतानंद जी भी वहां पहुंच गए। अच्युतानंद जी ने कहा, "स्नेहा अगली साधना हम मणिकर्णिका योगिनी साधना करेंगे। जो इक्कीस दिन की है और तुम्हें तीन लाख जाप इक्कीस दिन में पूरे करने हैं। यह जाप रात नौ बजे से तब तक करने होंगे जब तक कि उस दिन के जापों की संख्या पूर्ण ना हो जाए। प्रतिदिन दशांश हवन होगा, अपना भोजन तुम्हें खुद बनाना होगा। इस साधना में मौन व्रत रखना होता है, इसलिए जितना हो सके प्रयास करना कि तुम्हें बात ना करनी पड़े।" अच्युतानंद जी ने स्नेहा को क्षेत्ररक्षण, भूमि पूजन और देहबंधन करना भी बताया। मणिकर्णिका योगिनी साधना का मंत्र बताया और सारी विधि बता कर हवन विधी वे स्वयं करवाएंगे ऐसा कहकर चले गए। उस दिन का जाप पूरा हो जाने पर स्नेहा ने अच्युतानंद जी से उस साधना के बारे में जानकारी लेने के लिए पूछना चाहा। अच्युतानंद जी ने उसे बोलने से मना कर दिया और स्वयं उस साधना के विषय में बताने लगे। उन्होंने कहा, "मणिकर्णिका योगिनी साधना, एक ऐसी साधना है जिसकी सिद्धि हो जाने पर देवी साक्षात दर्शन देती है और सभी सिद्धियां प्रदान करती है। यह सिद्धि गुप्त योगिनीओं में मानी जाती है और आप इनसे जो इच्छा हो वह कार्य करवा सकते हैं। देवी स्वयं आपके कान में विराजित हो, आप को सब कुछ बताती हैं। गुप्त रूप से साधक को मां के कर्णफूल प्राप्त होते हैं। जो किसी को दिखाई नहीं देते पर यह साक्षात् होती है। साधक जब अपनी उंगलियों से मंत्र जाप करते हुए कानों में पहने हुए कुण्डलों को स्पर्श करते हैं, तो देवी योगिनी स्वयं आपके सामने प्रकट हो जाती है, यह बहुत शक्तिशाली सिद्धि है। इससे आप किसी भी व्यक्ति के कार्य और उनकी समस्याएं हल कर सकते हैं। यह सिद्धि मां पार्वती की पूर्ण शक्ति का परिचय करवाती है।" ऐसा कहकर स्नेहा की जिज्ञासा शांत की और उसे पुनः उसकी साधना बिना किसी विघ्न की के पूरी होने का आशीर्वाद दिया। स्नेहा की साधना चल ही रही थी प्रतिदिन उसे साधना के नित नए अनुभव प्राप्त हो रहे थे। कभी उसे बहुत ही तीव्र सुगंध का अनुभव होता, तो कभी बहुत ही तीव्र दुर्गंध का,सदा उसके आसपास उसे किसी के होने का आभास होता रहता था। श्मशान में रहने वाले जीवों से भी यदा-कदा साक्षात्कार हो ही रहा था। साधना ऐसे ही चल रही थी। एक दिन स्नेहा दिन में खाली थी, बैठे-बैठे उसे पीहू का स्मरण हो आया स्नेहा सोचने लगी... पता नहीं इस समय पीहू क्या कर रही होगी? स्नेहा के इतना सोचते ही स्नेहा ने स्वयं को अपने ही घर पर पीहू के कमरे में पाया। वहां पीहू अपने खिलौनों के साथ खेल रही थी। उसने खिलौने में ही अपने दोस्त बनाए हुए थे। स्नेहा उसे मंत्रमुग्ध और वात्सल्य से देख रही थी। तभी पीहू अपनी एक गुड़िया से पीहू ने कहा, चीकू... पता है स्नेहा बूई ना कहीं बाहर गई है। मुझे बता कर भी नहीं गई। मुझे... मुझे कितनी याद आ रही है बूई की, पर बूई तो पीहू को भूल ही गई हैं। कोई भी ऐसे करता है अपनी बिट्टू के साथ।" स्नेहा ने यह सुना तो वो आगे बढ़कर पीहू को गले लगाना चाहती थी, पर तभी प्रीति कमरे में आ गई। प्रीति ने पीहू से पूछा, "पीहू यह तुम किस से बातें कर रही थी?" पीहू ने कहा, "मम्मा चीकू से बात कर रही थी... मुझे बूई की याद आ रही थी। " ऐसा कहकर पीहू थोड़ा उदास हो गई। प्रीति ने चारों तरफ देखा पर सामने खड़ी स्नेहा किसी को दिखाई नहीं दे रही थी। स्नेहा को यह समझ नहीं आ रहा था कि यह सब हो क्या रहा था। थोड़ी देर बाद स्नेहा वापस अपनी उसी कुटिया में बैठी थी। स्नेहा को थोड़ा-थोड़ा समझ आ रहा था कि वह अगर वो किसी के बारे में सोचें तो वह व्यक्ति इस समय क्या कर रहा है, उसे दिखाई दे रहा था। या यूं कहें स्नेहा वहां अशरीर उपस्थित हो रही थी। स्नेहा ने सोचा, "देखते हैं... इस समय चाचा एंड कंपनी क्या कर रहे हैं…??" थोड़ी ही देर में स्नेहा विराज के केबिन में थी। विराज के सामने चाचा, बुआ और अनुज बैठे हुए थे। वह सब लोग स्नेहा को रास्ते से हटाने के बारे में ही बातें कर रहे थे। विराज ने कहा, "वैसे तो स्नेहा का अभी कुछ पता नहीं चल रहा है। इस हिसाब से हमें उससे ज्यादा कोई खतरा नहीं है।" "इस समय स्नेहा यहां नहीं है तो क्या हुआ। वह अपने पीछे अपने सारे मोहरे जमा कर गई है। ऑफिस प्रखर संभाल रहा है और उसने हमारे सारे आदमियों को हटा दिया है। संपत्ति सारी उसके नाम है ही, हमारे लिए उसको रास्ते से हटाना ही सही रहेगा।"अखिलेश जी ने कहा। गीता ने जल्दबाज़ी में कहा, "यह बिल्कुल ठीक रहेगा। हमें जल्दी से जल्दी आत्मानंद जी से मिलकर स्नेहा के बारे में कोई ना कोई इलाज करना ही होगा।" विराज ने कहा, "अभी गुरुदेव कुछ समय के लिए किसी विशिष्ट साधना में व्यस्त हैं तो यह समय उन्हें डिस्टर्ब करने के लिए ठीक नहीं होगा। मैं उनके फ्री होते ही आप लोगों को बता दूंगा। फिर हम साथ में ही गुरुदेव से मिलने उनके घर चलेंगे।" गीता ने हडबडाते हुए पूछा, "कब तक... कब तक फ्री होंगे गुरुदेव…??" विराज ने कहा, "कम से कम 15 दिन तो लगेंगे ही।" अनुज ने तपाक से कहा, "इतने सारे दिन…!!" विराज ने अनुज को तिरछी नजरों से घूरते हुए कहा, "तो... तुम्हारे हिसाब से उनकी साधना होगी…!!" गीता ने घबराते हुए कहा, "नहीं... नहीं... इसके कहने का मतलब वह नहीं था। जब भी आत्मानंद जी फ्री हो आप हमें बता दीजिएगा।" स्नेहा अब वापस अपनी कुटिया में थी। वह यह सोच रही थी कि अब जल्दी से जल्दी चाचा एंड कंपनी का इलाज करना ही होगा। स्नेहा को इतना तो समझ आ ही गया था कि अब स्नेहा चाहे तो किसी भी व्यक्ति पर दृष्टि रख सकती थी। इस समय यही स्नेहा के लिए बहुत बड़ी बात थी। स्नेहा ने सोचा, "पंद्रह दिन में तो मेरी यह साधना भी पूरी हो जाएगी। अब मुझे इन लोगों पर पंद्रह दिन तक नजर रखने की कोई जरूरत नहीं है।" स्नेहा ने इस बारे में गुरु जी को बताने का निश्चय किया और नियत समय पर अपनी साधना के लिए उसी जगह पहुंच गई। रोज की तरह उस दिन भी उस रात भी स्नेहा ने अपनी साधना पूरी की और अपनी कुटिया में विश्राम करने के लिए आ गई। स्नेहा ने अच्युतानंद जी को यह पूरी बात बताई तो उन्होंने कहा, "स्नेहा... स्नेहा यह समय इन सब बातों में दिमाग लगाने का नहीं है। यह समय तुम्हारे साधना का है तो उस पर ध्यान दो। यह सब कुछ मैं देख लूंगा।" अच्युतानंद जी के ऐसा कहते ही स्नेहा ने सब कुछ चिंता उन पर छोड़कर वापस अपनी साधना में ध्यान लगाना ही उचित समझा। वह अपनी साधना में व्यस्त हो गई। प्रतिदिन का यही क्रम चलता जा रहा था।
जल्दी ही कुछ खट्टे मीठे अनुभवों के साथ स्नेहा ने अपनी पहली साधना पूरी कर ली थी। साधना पूरी करने के बाद स्नेहा अच्युतानंद जी के पास आशीर्वाद लेने गई। स्नेहा ने कहा, "गुरुदेव आपके आशीर्वाद और मां भगवती की असीम अनुकंपा से मैंने अपनी पहली साधना पूरी कर लिया ली है।" अच्युतानंद जी ने कहा, "स्नेहा अभी तुमने पहला पड़ाव ही पार किया है। अगली साधना तुम्हें शव साधना करनी होगी और उसके लिए तुम्हें 2 दिन इंतजार करना होगा। 2 दिन के बाद तुम्हारी साधना के लिए शव नदी के पास के जंगलों में मिलेगा। तुम्हें ये 2 दिन यही रह कर या तुम चाहो तो बाहर भी जा कर बिता सकती हो।" स्नेहा ने कहा, "नहीं गुरुदेव…!! मैं कहां जाऊंगी। मुझे यह 2 दिन मां के चरणों में ही बिताने हैं, अगर आप आज्ञा दे तो।" अच्युतानंद जी ने कहा, "स्नेहा मां के पास समय बिताने में कैसी आज्ञा... अगर मां को कोई आपत्ति नहीं है, तो मुझे भला क्यों होगी। अगर यह विचार तुम्हारे तुम्हारे मन में आया है, तो अवश्य इसमें मां की इच्छा होगी। तुम अवश्य ये 2 दिन मां के सानिध्य में बता सकती हो।" गुरुदेव की यह बात सुनकर स्नेहा बहुत ही ज्यादा प्रसन्न हो गई। उस दिन स्नेहा ने मां के लिए विशेष भोग बनाया था। स्नेहा को याद आया कि आत्मानंद 15 दिनों बाद अपनी साधना से फ्री होने वाला था और सभी लोग उससे मिलने जाने वाले थे। स्नेहा ने ध्यान लगाकर देखा कि कोई उससे मिलने अभी तक गया है या नहीं। तब उसे पता चला कि शाम को वह लोग आत्मानंद से मिलने वाले थे। स्नेहा जल्दी से अच्युतानंद जी के पास गई और कहने लगी, "गुरुदेव…!! शाम को विराज, चाचा एंड कंपनी आत्मानंद से मिलने जाने वाले हैं। तब तो उन्हें मेरे यहां होने का पता चल जाएगा।" स्नेहा इस बात से थोड़ा घबरा गई थी। पर अच्युतानंद जी ने स्नेहा को तसल्ली देते हुए कहा, "स्नेहा यह अब तुम मेरे ऊपर छोड़ कर निश्चिंत हो जाओ। आत्मानंद को मैं देख लूंगा।" स्नेहा ने कहा, "गुरुदेव... क्या मैं 2 घंटे बाद आपसे आकर मिलूं। ताकि हम दोनों को ज्ञात हो सके कि आत्मानंद और चाचा वगैरा आगे क्या करने वाले हैं?" 2 घंटे बाद स्नेहा और अच्युतानंद एक जगह इकट्ठे होकर अपने सामने वह दृश्य देख रहे थे। श्मशान में आत्मानंद, विराज, अखिलेश जी और गीता बातचीत कर रहे थे। आत्मानंद ने कहा, "फिलहाल तो उस लड़की से आप लोगों को कोई भी संकट नहीं है। मैं जितना देख पा रहा हूं, वह स्वयं किसी संकट में फंसी हुई है।" आत्मानंद के इतना कहते ही स्नेहा ने अच्युतानंद की तरफ देखा तो अच्युतानंद जी ने आंखों से इशारा करके उसे चुप रहने के लिए कहा। इस पर विराज ने हाथ जोड़कर कहा, "गुरुदेव क्या हम उसे भी रास्ते से हटाने के लिए कोई प्रयत्न नहीं करेंगे क्या?" अखिलेश और गीता ने भी विराज की हां में हां मिलाई। तब आत्मानंद ने कहा, "विराज एक महीने बाद म ही मैं तुम्हें बता पाऊंगा कि हम उस लड़की के लिए कब और क्या करेंगे?" विराज ने टेंशन लेते हुए पूछा, "पर गुरुदेव... इतना समय…???" आत्मानंद ने कहा, "मुझे उसके पास कुछ अदृश्य शक्तियों का आवरण दिखाई दे रहा है। जिसे समझने के लिए मुझे कुछ समय की आवश्यकता है। उसके बाद ही हम यह पता लगा पाएंगे कि उस लड़की पर किस प्रकार के तंत्र का प्रहार करना पड़ेगा? ताकि हमें बिना किसी अतिरिक्त मेहनत के अपने सफलता प्राप्त हो।" उस दृश्य के समाप्त होने पर स्नेहा ने अच्युतानंद जी की तरफ देखा। अच्युतानंद जी ने कहा, "फिलहाल के लिए मैंने तुम्हारे आसपास एक सुरक्षा कवच का निर्माण कर दिया है। जिसके कारण उन्हें जब तक मैं ना चाहूं तब तक यह पता नहीं चलेगा कि तुम कहां हो और क्या कर रही हो? इसलिए तुम अपनी साधनाऐं शीघ्र अति शीघ्र पूरी करने की का प्रयत्न करो।" ऐसा कहकर अच्युतानंद जी ने स्नेहा को अपनी कुटिया में भेज दिया। कुटिया में आकर स्नेहा आराम ही कर रही थी कि उसके मन में एक विचार आया। स्नेहा ने सोचा, "आज मां के लिए छप्पन भोग बनाने की इच्छा है।" स्नेहा के ऐसा सोचते ही छप्पन भोग बनाने के लिए विभिन्न प्रकार की सामग्रियां उसकी कुटिया में इकट्ठी हो गई। स्नेहा आश्चर्य में ही थी पर फिर स्नेहा ने हाथ जोड़कर प्रार्थना की। "मां…!! यह छप्पन भोग बनाने का विचार मेरे मन में आया है। मां इसके लिए मैं खुद से सभी सामग्री इकट्ठा करके, अपनी मेहनत से छप्पन भोग बनाना चाहती हूं। मां... आप मेरी सहायता कर रही है, आपने मेरे लिए इतना कुछ सोचा, उसके लिए मैं बहुत आभारी हूं। पर मां इतनी दया और कर दीजिए... कि सभी सामग्री मैं खुद अपनी मेहनत से जुटा पाऊं।" स्नेहा के ऐसा बोलते ही सारी सामग्रियां अपने आप वापस लुप्त हो गई। स्नेहा अच्युतानंद जी के पास गई और उन्हें कहा, "गुरुदेव मैं मां के लिए छप्पन भोग बनाना चाहती हूं। उसके लिए सामग्रियां एकत्र करने के लिए मुझे बाहर जाना होगा। क्या मैं जा सकती हूं??" अच्युतानंद जी ने कहा, "ठीक है स्नेहा तुम जल्दी जाना और जल्दी आना मां के साथ-साथ अब मैं भी छप्पन भोग का प्रसाद लेकर ही अपना उपवास खोलूंगा।" अच्युतानंद जी से आज्ञा पाकर स्नेहा जल्दी ही बाहर की तरफ निकल गई। रास्ते भर स्नेहा यही सोच रही थी कि कैसे पैसे कमाए। ताकि अपनी पहली कमाई से मां के लिए छप्पन भोग तैयार कर सकें। स्नेहा यह सोचते हुए जा ही रही थी कि रास्ते में कुछ लड़के एक लड़की को जबरदस्ती घसीटते हुए जंगल में अंदर ले जा रहे थे। लड़की बचाने के लिए चीखे जा रही थी। पर इस घने जंगल में उसकी आवाज सुनने वाला कोई नहीं था। स्नेहा ने यह देखा तो उससे रहा नहीं गया, स्नेहा उन लड़कों के सामने पहुंच गई और गुस्से से धमकी देते हुए कहा, "तुम इस लड़की को छोड़कर, अभी की अभी यहां से निकल जाओ। वरना मैं भूल जाऊंगी कि तुम भी मनुष्य हो और तुम्हें तुम्हारे किए की ऐसी सजा मिलेगी, जो तुम तो क्या तुम्हारे परिवार वाले भी भूल नहीं पाएंगे।" वह चारों लड़के स्नेहा की तरफ देखकर हंसने लगे। वह लड़की बुरी तरह घबरा कर स्नेहा के पीछे आकर छुप गई थी। उन चारों में से एक लड़का बोला, "वैसे भी बहुत ही नाइंसाफी थी। हम चार लड़के और यह अकेली लड़की, पर कोई ना जो होता है, अच्छे के लिए होता है। अब लड़कियां भी दो हैं तो कोई दिक्कत नहीं होगी।" ऐसा कहकर चारों लड़के फिर बेशर्मी से हंसने लगे। अबकी बार एक दूसरा लड़का बोला, "वैसे भी जिसे हम उठा कर लाए हैं, ये तो उससे भी ज्यादा सुंदर है। हमें तो खुशी है कि तुम हमें यहां मिल गई।" ऐसा कहते हुए वह लोग स्नेहा की तरफ बढ़ने लगे। स्नेहा हाथ बांधकर उन्हें तेज नजरों से देखती रही, अचानक स्नेहा ने अपने कानों को छूते हुए कुछ बड़बड़ाया। स्नेहा के ऐसा करते ही तेज आंधी चलने लगी और मिट्टी उड़ने लगी। लड़के आंधी के कारण कुछ भी देख नहीं पा रहे थे। उनके पैर थोड़े-थोड़े उखड़ने लगे थे, पर फिर भी उन्होंने आकर स्नेहा का हाथ पकड़ लिया। उनके ऐसा करते ही स्नेहा ने उन लड़कों की जमकर धुलाई कर दी। वह लड़की आंखें फाड़े हुए, स्नेहा को ही देख रही थी। अच्छे से लड़कों की मरम्मत करने के बाद स्नेहा जब उस लड़की के पास पहुंची, तो स्नेहा के चेहरे को देखकर ही वो लड़की डर से बेहोश हो गई। स्नेहा ने घबराकर सोचा, "क्या हो गया…??" घबराकर पास ही नदी में स्नेहा अपनी परछाई देखने गई। एक बार को तो वह खुद भी डर गई थी। उस समय स्नेहा चेहरे से साक्षात् काली का अवतार लग रही थी। बाल हवा में उड़ रहे थे, चेहरे का रंग काला पड़ गया था, आंखों में खून उतर आया था और वो इतनी तेज थी कि मानो आंखों से ही किसी को भी चीर देने की क्षमता रखती हो। स्नेहा खुद भी एक पल को देखकर डर गई फिर उसने मां से प्रार्थना की। तब स्नेहा फिर से पहले जैसे दिखने लगी। स्नेहा ने उस लड़की को उठाया और हॉस्पिटल ले गई और वहां जाकर उसे एडमिट करवा दिया। फिर डॉक्टर से कहा, "इसे होश आ जाए तो आप प्लीज उसके घर खबर करवा दीजिएगा?" और वहां से वापस जाने लगी। बाहर कॉरिडोर में कुछ लोगों में बहस हो रही थी। डॉक्टर उन लोगों को समझाने की कोशिश कर रहे थे, पर वह लोग समझने के लिए ही तैयार नहीं थे। स्नेहा ने उन लोगों से जाकर पूछा। उनमें से एक आदमी बोला, "हमारा बेटा 15 दिन से इस हॉस्पिटल में भर्ती है... यह लोग ना तो उसकी हालत के बारे में कुछ बता रहे हैं... ना ही यह बता रहे हैं कि वह कब तक ठीक होगा? यह तो गलत बात है ना…!" इस पर डॉक्टर ने कहा, "मैडम उस लड़के को पता नहीं क्या हुआ है। वह लड़का ट्रीटमेंट को रिस्पॉन्ड ही नहीं कर रहा है। तो हम कैसे बता सकते हैं कि वह कब तक ठीक होगा?" स्नेहा ने कुछ सोच कर कहा, "डॉक्टर…!! क्या मैं उस लड़के से मिल सकती हूं।" डॉक्टर ने पूछा, "क्या हुआ मैडम…?? कोई प्रॉब्लम…?" स्नेहा ने कहा, "नो... नो डॉक्टर...बस 5 मिनट के लिए आप मुझे उस से मिलवा दीजिए। शायद मैं आपकी कोई हेल्प कर पाऊं।" इतना कहने पर डॉक्टर ने कहा, "आप आइए मेरे साथ…!"और स्नेहा को उस लड़के के रूम में लेकर चला गया। वह रूम एक फाइव स्टार होटल का लग्जरी रूम जैसा दिख रहा था। चारों तरफ लाइफ सर्पोटिंग सिस्टम लगे हुए थे। बेड पर लड़का किसी राजा महाराजा की तरह लेटा हुआ था, पर उसमें जीवन के लक्षण दिखाई नहीं दे रहे थे। स्नेहा ने मां का स्मरण करते हुए अपने कानों को छुआ, तो स्नेहा के कान में आवाज आई, "स्नेहाऽऽऽऽ यह लड़का केवल जंगल में मिलने वाली एक विशेष जड़ी को सुंघाने से ही ठीक हो सकता है। किसी प्रकार अगर वह जड़ी लाकर तुम इसे सुंघा दो तो यह उसी समय उठ जाएगा।" स्नेहा ने शांत भाव से डॉक्टर से कहा, "डॉक्टर क्या मैं इससे 2 घंटे बाद आकर फिर से मिल सकती हूं।" डॉक्टर ने कहा, "मैडम... उससे कुछ नहीं होने वाला है। फिर भी आप चाहती हैं तो मैं स्टाफ से कह कर 5 मिनट के लिए आपके मिलने की व्यवस्था कर सकता हूं।" स्नेहा ने उसे धन्यवाद दिया और बाहर लड़के के परिवार वालों के पास आकर खड़ी हो गई। उनसे कहा, "आपके बेटे की हालत इतनी भी खराब नहीं है, पर अगर आप चाहें तो मैं इसकी मदद कर सकती हूं।" इस पर एक आदमी हाथ जोड़कर बोला, "बेटा अगर तुम ऐसा कर सकती हो तो तुम्हारी दया होगी।" स्नेहा ने उन्हे रोकते हुए कहा, "नहीं… नहीं अंकल दया तो मां की चाहिए। मैं केवल एक प्रयास करना चाहती हूं, ताकि मेरे मन में यह संतोष रहे कि मैंने किसी का जीवन बचाने के लिए प्रयास किया।" ऐसा कहते ही स्नेहा जंगल के लिए निकल गई। उसकी सिद्धि स्नेहा की सहायता कर रही थी। स्नेहा जंगल में वह जड़ी ढूंढ रही थी कि उसके कानों में एक आवाज गूंजी, "स्नेहाऽऽऽऽ आगे उन झाड़ियों के बीच एक चमकदार बैंगनी रंग का पौधा है। उस पौधे के फूल को तुम उस लड़के को सुंघा देना... वह जल्दी ठीक हो जाएगा।" उस आवाज से ऐसी आज्ञा पाकर स्नेहा ने मां को धन्यवाद दिया और जल्दी ही वह फूल लेकर हॉस्पिटल पहुंच गई। हॉस्पिटल में स्नेहा ने उस लड़के को फूल सुंघाया... तो उस लड़के की पलकों और हाथों की उंगलियों में कुछ हरकत हुई। जिसे देखते ही नर्स भागकर डॉक्टर को बुला लाई। डॉक्टर ने स्नेहा से कहा, "यह आपने कैसे किया है?" स्नेहा ने कहा, "बस डॉक्टर... थोड़ा सा आयुर्वेद का ज्ञान है और मां की कृपा…!! उन्हीं के कारण यह ठीक हो पाया है।" ऐसा कहकर स्नेहा बाहर निकल गई। बाहर आते ही लड़के के परिवार वालों ने स्नेहा को घेर लिया। अब तक उन्हें भी अपने बेटे के ठीक होने की खबर मिल गई थी। उस लड़के की मां हाथ जोड़कर कहने लगी, "बेटा…!! तुम हमारे जीवन में आशा की किरण बनकर आई हो। तुम्हारे कारण हमारा बेटा ठीक हो पाया है। अगर तुम्हें कभी भी कोई भी जरूरत हो तो हमारे पास निसंकोच आ जाना। हमें तुम्हारे लिए कुछ करके खुशी होगी।" फिर उन्होंने स्नेहा के सिर पर हाथ फेरते हुए पूछा, "बेटा तुम्हें कहीं जाना है... मैं ड्राइवर से कह कर छुडवा दूं।" तो स्नेहा ने कहा, "नहीं... आंटी जी मैं केवल एक दिन के लिए कुछ काम ढूंढने निकली थी। बस अब यहां से जाकर अपने लिए काम ढूंढूगीं।" इसपर लडके के पिता ने कहा, "तुम्हें काम ढूंढने की क्या जरूरत है? तुमने आज मेरे बेटे की जान बचाई है। उसके लिए तुम चाहो तो हमेशा के लिए हमारी कंपनी में काम कर सकती हो।" स्नेहा ने कहा, "नहीं अंकल... मुझे केवल आज के लिए ही काम की आवश्यकता है।" उस लड़के की मां ने कहा, "ठीक है बेटा तुम ऐसा करो... आज के लिए मेरे बेटे का ध्यान रख लो।" स्नेहा उनकी बात मानकर उस दिन उस लड़के का ध्यान रखने के लिए ही हॉस्पिटल में रुक गई। अगले दिन जब स्नेहा वापस जाने लगी तो लड़के की मां ने स्नेहा को एक लिफाफा पकड़ाया। स्नेहा ने उसे खोल कर देखा तो उसमे दो लाख रुपए थे। स्नेहा ने पांच हजार रुपए रखकर बाकी वापस कर दिये और कहा, "मुझे केवल इतने ही पैसों की जरूरत थी।" वह पांच हजार रुपए लेकर हॉस्पिटल से बाहर निकल गई। सभी लोग उसे देखते ही रह गए। हॉस्पिटल से निकलकर स्नेहा ने छप्पन भोग बनाने के लिए सारा सामान खरीदा और वापस अपनी कुटिया की तरफ चल दी। कुटिया में पहुंचकर स्नेहा ने सबसे पहले स्नान किया फिर मां के लिए छप्पन भोग बनाना शुरू कर दिया। ,,,,,क्रमश,,,,
जब सब बन गया तो स्नेहा ने मां की थाल सजाने के लिए थाल ढूंढना शुरू किया। स्नेहा बाहर गुरुजी के पास पूछने गई और यह बताने गई कि उसके मन में मां के लिए छप्पन भोग बनाने की इच्छा थी, तो सारी सामग्री उसकी कुटिया में ही प्रकट हो गई थी। पर स्नेहा ने खुद की मेहनत के पैसों से ही स्नेहा ने छप्पन भोग की सामग्री की व्यवस्था की थी। अब बस केवल एक बड़े थाल की ही आवश्यकता थी, जिससे वह मां के भोग के लिए थाल सजा सके। स्नेहा ने अच्युतानंद जी से कहा, "गुरुदेव मैंने मां के लिए छप्पन भोग तैयार किया हैं। पर एक थाल का अभाव है, जिसमें भोजन परोस कर मां को खिला सकूं।" अच्युतानंद जी ने कहा, "तुम्हारी कुटिया में चलकर ही देखते हैं कि कितने बड़े थाल की आवश्यकता होगी।" ऐसा कहकर दोनों स्नेहा की कुटिया की तरफ चल दिए। वहां जाकर देखा तो एक बड़ा सा थाल रखा हुआ था। बहुत सी कटोरियों में बहुत से व्यंजन परोसे जा चुके रहे थे। और बहुत सी कटोरियां ऐसे ही खाली थी। चूल्हे पर खीर का बर्तन रखा हुआ था और बीच-बीच में उस खीर को हिलाया जा रहा था। पर वहां कोई भी नहीं था, स्नेहा को याद आया तो उसने अच्युतानंद जी से कहा, "गुरुदेव मैं तो खीर बनाना भूल ही गई थी... मैं यह भूल ही गई थी कि मां के भोग के लिए खीर भी आवश्यक है। पर देखो मां कितनी दयालु है, उन्होंने मेरी इच्छा पूरी करने के लिए स्वयं ही खीर बना दी।" गुरुदेव अच्युतानंद और स्नेहा ने उस दिव्य शक्ति को प्रणाम किया जो उस समय खीर बना रही थी। खीर के बनते ही स्नेहा उस बड़े थाल को लेकर मां के मंदिर की तरफ जल्दी चल दी। एक थाल अच्युतानंद जी के पास था जो बाबा काल भैरव के लिए भोग के लिए था। गुरुदेव ने वह थाल बाबा काल भैरव को अर्पण किया और दूसरा थाल स्नेहा मां के सामने लेकर बैठ गई। मन ही मन विनती करने लगी, "मां मैंने आप ही की इच्छा से, आप ही के लिए छप्पन भोग बनाने की कामना की थी। जो आपने खीर बनाकर पूरी भी की। अब आप इसे भोग रूप में स्वीकार करें।" ऐसा कहकर मन ही मन विनती करने लगी। मां का भोग लगाने के बाद स्नेहा ने प्रसाद अच्युतानंद जी को दिया और फिर स्वयं खाया। प्रसाद खाने के बाद दोनों को ऐसा लगा, मानो वर्षों की भूख और प्यास शांत हो गई और मन आनंद से भर उठा। भोजन के बाद अच्युतानंद जी ध्यान में मग्न हो गए और स्नेहा वही मंदिर में बैठकर मां के प्रेम का आनंद उठाती रही। दो दिन के बाद अच्युतानंद जी ने स्नेहा को बुलाकर कहा, "स्नेहा आज तुम्हें दोपहर में नदी के पास वाले जंगल में जाना होगा। वहां तुम्हारी साधना के लिए तुम्हें शव प्राप्त होगा। उसे लेकर तुम्हें यहां आना होगा।" अच्युतानंद जी की आज्ञा से स्नेहा जंगल में अपनी साधना के लिए शव ढूंढने निकल पड़ी। ढूंढते- ढूंढते उसे शाम होने आई थी। अचानक एक जगह बहुत सी चील और कौवों को मंडराते देख, स्नेहा उस ओर गई। वहां पर एक 22-24 साल का लड़का पेड़ पर फांसी के फंदे में लटका हुआ था। स्नेहा ने कोशिश करके सावधानीपूर्वक उसे पेड़ से उतारा। पर इतनी दूर तक शव को ले जाने की सामर्थ्य स्नेहा में नहीं थी। स्नेहा सोच ही रही थी कि कोई उस शव को उठाकर स्नेहा के साथ-साथ चल पड़ा। एक बार को तो स्नेहा को लगा कि कोई और उस शव को ले जा रहा था, पर जल्दी उसे ज्ञात हो गया कि उसी के लिए इस शव को ले जाया जा रहा था। स्नेहा आगे-आगे और वह शक्ति शव को लेकर पीछे-पीछे अच्युतानंद जी के पास पहुंचे। उनके पास पहुंचते ही उस शव को जो भी उठा कर ला रहा था, उसने सावधानी से नीचे रख दिया। स्नेहा ने अच्युतानंद जी से कहा, "गुरुजी आपकी आज्ञा अनुसार शव आ गया है। आगे की विधि बताइए…?? पर मैं एक बात जाना चाहती हूं... क्या अगर हम इस शव को साधना के लिए प्रयोग कर लेंगे तो इसके परिवार वाले इसे नहीं ढूंढेंगे? इसका अंतिम संस्कार कैसे होगा?" अच्युतानंद जी ने कहा, "ऐसी कोई बात नहीं है... यह लड़का पास ही के गांव के रहने वाला एक लकड़हारा है। प्रेम में धोखा मिलने के कारण इसने आत्महत्या की थी। हमें ऐसे ही अकाल मृत्यु प्राप्त शव की ही आवश्यकता थी। शव साधना के लिए अकाल मृत्यु प्राप्त शव ही उपयुक्त होता है। इसलिए इसे ढूंढने कोई नहीं आएगा। हमारी साधना पूर्ण हो जाने के पश्चात, हम स्वयं इसे अग्नि को समर्पित कर देंगे।" अच्युतानंद जी ने फिर से स्नेहा से कहा, "रात्रि 10:00 बजे स्वयं स्नान करके और शव को स्नान करवा कर श्मशान में पहुंच जाना। फिर अच्युतानंद जी ने बताना शुरू किया… "वीर साधन प्राचीन काल की तंत्र शाखा की ही एक सिद्धि है, इसे ही शव साधना भी कहते है। इसमें चारों दिशाओं में रक्षा हेतु गुरु, बटुक भैरव, योगिनी और श्री गणेश की आराधना की जाती है। भैरव और भैरवी की साधना भी इसमें आवश्यक मानी जाती है। वहीं सभी दिशाओं के दिगपाल की आराधना भी आवश्यक है। भोग स्वरुप बकरे या मुर्गे की बलि देने के साथ ही शराब चढ़ाना भी अनिवार्य है। शव को भी यह चीजें अर्पित की जाती है। कुछ ही समय में देखते ही देखते यह भोग समाप्त हो जाता है। इस साधना के पूर्ण होते-होते शव भी बोलने लगता है। साधना पूर्ण होने पर तुम्हें वह सिद्धी प्राप्त हो जाएगी जिसके लिए शव साधना करवाई जा रही है। कई बार आधी रात बीतेते-बीतते शव की आंखें भी विचलित होने लगती है और उसके शरीर में कई परिवर्तन एक साथ देखे जा सकते हैं। लेकिन इन भयावह और खतरनाक दृश्यों को देखते हुए भी तुम्हारा मन लक्ष्य से नहीं हटना चाहिए। तुम्हें मंत्रोच्चार जारी रखना होगा, ताकि साधना को पूर्ण किया जा सके।" स्नेहा ने सारी बात ध्यान से सुनी और उन्हें पूरा करने का आश्वासन भी अच्युतानंद जी को दिया। अच्युतानंद जी ने आगे कहा, "यह साधना बहुत ही घातक भी हो सकती है। अगर यह साधना करते रहे वक्त कोई भी गलती होती है तो साधना करने वाले का भोग शव स्वयं करता है। इसलिए हर एक छोटी चीज का तुम्हें ध्यान रखना होगा और अपनी सुरक्षा का भी। ध्यान रखना किसी भी चीज से डरना नहीं है। मैं सदैव तुम्हारी सुरक्षा के लिए यही रहूंगा, फिर भी किसी भी मूल्य पर तुम्हें यह साधना पूरी करनी ही होगी।" ऐसा कह कर अच्युतानंद जी ने शव साधना से संबंधित सारे विधि विधान स्नेहा से पूरे करवाए। स्नेहा ने जल्दी सारे आवश्यक पूजन देह बंधन, शिखा बंधन, स्थान बंधन करते हुए स्नेहा ने शव के ऊपर बैठकर मंत्र जाप आरंभ कर दिया। अच्युतानंद जी के बताएं हर एक नियम और चरण को पूरा करते हुए शीघ्र ही अपनी साधना पूरी कर ली। साधना के पूरा होते ही अच्युतानंद जी वहां आ गए और उन्होंने स्नेहा को साधना सफलतापूर्वक संपन्न करने पर आशीर्वाद दिया। स्नेहा के साथ के साथ मिलकर उस शव को अग्नि को समर्पित कर दिया। उसके बाद स्नेहा से कहा, "स्नेहा यह साधना तुमने सफलतापूर्वक पूरी कर ली है। अब तुम जाकर अपनी कुटिया में विश्राम करो।" स्नेहा कुटिया में ना जाकर मां के मंदिर में ही चली गई और वही मां के सामने जाकर लेट गई। और मां को निहारते निहारते ही सो गई। अगले दिन अच्युतानंद जी ने स्नेहा से कहा, "स्नेहा अगली साधना हम निखिल तंत्र साधना करेंगे। यह साधना हम आज शाम से ही शुरु करेंगे। यह इक्कीस दिन की साधना है, जिसमे एक लाख मंत्रों का जाप करना होगा इक्कीस दिन में उसके बाद दशांश हवन होगा। इसलिए तुम रात को 8:00 बजे तक स्नान करके लाल वस्त्र पहन कर यही मंदिर में मिलना। आगे की विधि मैं तुम्हें उसी समय बताऊंगा।" स्नेहा बिना कोई सवाल किए उन्हें प्रणाम करके वापस अपनी कुटिया में आ गई। कुटिया में आकर सोचने लगी, "गुरुदेव मेरे लिए बहुत ही ज्यादा मेहनत कर रहे हैं। मुझे हर हालत में उनके विश्वास और उनकी मेहनत को खराब नहीं होने देना है। फिर उसने मां से प्रार्थना की... "मां आप तो सर्व ज्ञाता है, आप सबके मन की जाने वाली हैं, मुझ पर भी दया करें... और इतनी शक्ति प्रदान करें... जिससे मैं अपने गुरु जी के विश्वास को सही सिद्ध कर पाऊं। उनकी कसौटी पर खरी उतरु।" ऐसा विचार कर स्नेहा ने शाम के लिए अपने आपको तैयार करने के लिए आराम करना ही ठीक समझा। शाम को अच्युतानंद जी के बताए समय पर स्नेहा वहां पहुंच गई। उस समय अच्युतानंद जी स्नेहा की साधना में प्रयोग में आने वाली सभी वस्तुएं इकट्ठा कर चुके थे। स्नेहा ने आकर उन्हें प्रणाम किया और कहा, "गुरुदेव मुझे आशीर्वाद दें... कि मैं आपके विश्वास पर खरा उतरूं और यह सिद्धि भी सफलतापूर्वक पूरी कर पाऊं।" अच्युतानंद जी ने उसे आशीर्वाद दिया और कहा, "अब मैं तुम्हें आगे के सभी विधान बता कर चलता हूं। तुम मेरे बताए अनुसार सारे विधान पूरे करके यह साधना भी शीघ्र अति शीघ्र पूरी करो। ताकि मां धूमावती तुम्हें इतनी सफलता प्रदान करें, ताकि तुम अपने शत्रु पर विजय प्राप्त कर सको।" स्नेहा ने पूछा, "गुरुदेव क्या आप इस सिद्धि के बारे में भी मुझे बताएंगे?" अच्युतानंद जी ने कहा, "क्यों नहीं... अवश्य बताऊंगा...।" फिर कुछ देर रुक कर उन्होंने आगे बोलना शुरू किया। "साधना के क्षेत्र में दस महाविद्याओं के अन्तर्गत धूमावती का स्थान सर्वोपरि माना जाता है। इसे निखिल तंत्र भी कहा जाता है। धूमावती साधना के प्रभाव से शत्रु-नाश एवं बाधा-निवारण भी होता है। धूमावती साधना मूल रूप से तान्त्रिक साधना है। इस साधना के सिद्ध होने पर भूत-प्रेत, पिशाच व अन्य तन्त्र-बाधा का साधक व उसके परिवार पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है, बल्कि प्रबल से प्रबल बाधाओं का भी निराकरण होने लग जाता है। धूमावती का स्वरूप क्षुधा अर्थात भूख से पीड़ित स्वरूप है और इन्हें अपने भक्षण के लिए कुछ न कुछ अवश्य चाहिए। जब कोई साधक भगवती धूमावती की साधना सम्पन्न करता है तो देवी प्रसन्न होकर उसके शत्रुओं का भक्षण कर लेती है और साधक को अभय प्रदान करती हैं। धूमावती सिद्ध होने पर साधक का शरीर मजबूत व सुदृढ़ हो जाता है। उस पर गर्मी, सर्दी, भूख, प्यास और किसी प्रकार की बीमारी का तीव्र प्रभाव नहीं पड़ता है। साधक की आँखों में साक्षात् अग्निदेव उपस्थित रहते हैं और वह तीक्ष्ण दृष्टि से जिस शत्रु को देखकर मन ही मन धूमावती मन्त्र का उच्चारण करता है, वह शत्रु तत्क्षण अवनति की ओर अग्रसर हो जाता है। इससे साधक की आँखों में प्रबल सम्मोहन व आकर्षण शक्ति आ जाती है। धूमावती के सिद्ध होने पर भगवती धूमावती साधक की रक्षा करती है और यदि वह भीषण परिस्थितियों में या शत्रुओं के बीच अकेला पड़ जाता है तो भी उसका बाल भी बाँका नहीं होता है। शत्रु स्वयं ही प्रभावहीन एवं निस्तेज हो जाते हैं। इस साधना के करने से आपके जितने भी शत्रु हैं, उनका मान-मर्दन होता हैऔर जो भी आप पर तन्त्र प्रहार करता है, उस पर वापिस प्रहार कर उसी की भाषा में जबाब दिया जा सकता है। जिस प्रकार तारा समृद्धि और बुद्धि की, त्रिपुर सुन्दरी पराक्रम और सौभाग्य की सूचक मानी जाती है, ठीक उसी प्रकार धूमावती शत्रुओं पर प्रचण्ड वज्र की तरह प्रहार कर नेस्तनाबूँद करने वाली देवी मानी जाती है। यह अपने आराधक को बड़ी तीव्र शक्ति और बल प्रदान करने वाली देवी है, जो प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूपों में साधक की सहायता करती है।" अच्युतानंद जी ने आगे कहा, "स्नेहा तुम्हारे सामने कोई छोटा-मोटा तांत्रिक नहीं है, तुम्हारे सामने आत्मानंद जैसा महान तांत्रिक है। उसके लिए तुम्हें इस तरह की विभिन्न साधनात्मक शक्तियों की आवश्यकता होगी। इसलिए अभी तुम धूमावती साधना करो। उसके बाद तुम्हें और भी साधनाऐं मां के आशीर्वाद से करनी होगी। जिन्हें मैं तुम्हें इसके बाद करवाऊंगा।" स्नेहा आंखें चौड़ी करके केवल इस सिद्धि के बारे में ही सुन रही थी। उसने पूछा, "गुरुदेव…!! क्या धूमावती साधना इतनी श्रेष्ठ साधना है…??" अच्युतानंद जी ने कहा, "अवश्य है... तुम्हें आत्मानंद से सामना करने पर इस साधना की बहुत ही आवश्यकता होगी। अब तुम मां पर विश्वास करके यह साधना शुरू करो।" ऐसा कहकर अच्युतानंद जी स्नेहा को सारे जरूरी विधान बताए और सारे सुरक्षा चक्र पूरे करवा कर वापस चले गए। स्नेहा ने मां से अपनी साधना निर्विघ्न पूरी होने की विनती की और अपनी साधना में लग गई। नित नए अनुभवों के साथ स्नेहा ने धूमावती साधना भी सफलतापूर्वक पूरी कर ली। छोटी- मोटी परेशानियां तो आई, पर मां के वरद हस्त के कारण, उसे कोई भी संकट का सामना नहीं करना पड़ा। उसके बाद अच्युतानंद जी ने स्नेहा को कृत्या साधना, त्रिजटा अघोरणी साधना, पाताल भैरवी साधना और ना जाने कितनी साधनाऐं करवाई।
सारी साधनाऐं पूर्ण होने पर अच्युतानंद जी ने स्नेहा से कहा, "स्नेहा अब तुम्हारी सारी मुख्य साधनाएं जो तुम्हें आत्मानंद से सामना करने के लिए चाहिए थी। वह मैंने तुम्हे सिखा दी हैं। अब समय है उन साधनाओं के प्रयोग का और यह देखने का कि तुम्हारी साधनाऐं कितनी सफल हुई हैं?" अच्युतानंद ने कहा, "स्नेहा इन सभी साधनाओं के बाद अब तुम्हें परीक्षा के रूप में मृत शव भक्षण करना होगा। इसकी सफलता पर ही यह सुनिश्चित होगा कि तुम अपने बदले के लिए तैयार हो या नहीं?" स्नेहा ने पूछा, "गुरुदेव यह किस तरह की परीक्षा होगी… और इसमें मुझे क्या करना होगा…??" अच्युतानंद ने कहा, "स्नेहा जैसा कि नाम से ही पता चलता है कि इसमें तुम्हें मृत शव को खाना होगा... और वह भी बिना घृणा किए।" स्नेहा एक पल के लिए चौक गई थी पर फिर भी संयत होकर अच्युतानंद जी से हाथ जोड़कर कहने लगी, "गुरुदेव... अगर आप यही कहते हैं... तो ऐसा अवश्य ही होगा। आप केवल यह बताइए कि यह परीक्षा मुझे कब देनी होगी??" अच्युतानंद ने कहा, "स्नेहा यह परीक्षा तुम्हें कल ही देनी होगी।" स्नेहा ने हाथ जोड़कर विनती करते हुए कहा, "जैसी आपकी आज्ञा गुरुदेव... अगर आप चाहते हैं कि यह परीक्षा कल हो, तो कल ही यह परीक्षा होगी। इसके अलावा आपकी कोई और आज्ञा।" अच्युतानंद ने कहा, "नहीं... स्नेहा बस यही है और यह आज्ञा नहीं यह परीक्षा है, जो केवल तुम्हारी नहीं मेरी भी है। इसी परीक्षा की सफलता पर यह निर्भर करता है कि मैं एक योग्य गुरु बन पाया हूं कि नहीं?" स्नेहा ने कहा, "नहीं-नहीं गुरुदेव…! आप सदैव से एक योग्य शिक्षक की तरह मुझे मार्गदर्शन देते आए हैं। और जीवन पर्यंत मुझे इसी मार्गदर्शन की आवश्यकता रहेगी। आप एक सर्वश्रेष्ठ गुरु हैं।" ऐसा कहकर स्नेहा ने अच्युतानंद को प्रणाम किया और मां के मंदिर में चली गई। मंदिर में जाकर स्नेहा ने मां से कहा, "मां मुझे नहीं लगता कि मैं ऐसा कुछ कर पाऊंगी, पर फिर भी यह मेरे गुरु का आदेश है और मेरी परीक्षा भी। इस में सफल होने पर ही मैं भी उन दुष्टों का नाश कर पाऊंगी। जैसे आप सदैव दुष्टों का सर्वनाश करती हो। वैसे ही मुझे भी अपने परिवार के हत्यारों का सर्वनाश करना है, मां... मुझ पर दया करना कि मैं कल की परीक्षा में सफल हो पाऊं।" ऐसा कहकर स्नेहा वापस अपनी कुटिया में आकर लेट गई। लेटे-लेटे ही सारी रात निकल गई। सुबह उठकर स्नेहा ने स्नान, ध्यान और पूजन किया। उसने मां के मंदिर में जाकर अपने लिए प्रार्थना भी की और फिर अच्युतानंद के पास चली गई। उसने अच्युतानंद जी को नमस्कार करके पूछा "गुरुदेव... कल आपने मेरी परीक्षा के बारे में बताया था। तो गुरुदेव आज आप यह बताइए कि उसके लिए मुझे शव कहां से प्राप्त होगा?" अच्युतानंद जी ने कहा, "शव की व्यवस्था तुम्हें स्वयं करनी होगी और इस विषय में तो तुम्हे स्वयं सोचना होगा कि शव कहां से आएगा, कैसे आएगा और तुम कैसे अपनी परीक्षा पूरी करोगी?" स्नेहा ने अच्युतानंद जी को नमस्कार किया और कहा, "जैसी आपकी आज्ञा गुरुदेव... मैं शीघ्र अति शीघ्र शव की व्यवस्था करके इस परीक्षा को अवश्य ही पूर्ण करूंगी।" ऐसा कहकर स्नेहा शव की व्यवस्था के लिए चली गई। सब जगह ढूंढने के बाद भी शव की व्यवस्था नहीं हुई तो स्नेहा थक कर उसी जगह आकर बैठ गई। जहां पहली बार उसे अच्युतानंद जी का स्वर सुनाई दिया था। स्नेहा वही दुखी होकर बैठी थी कि थोड़ी देर बाद वहां एक शव को जलाने के लिए कुछ लोग आए थे। उन्हें पता नहीं किस बात की जल्दी थी कि बिना ठीक से अंतिम संस्कार किए ही वह लोग जल्दी में चले गए। उन्होंने केवल शव को मुखाग्नि ही दी थी। मुखाग्नि के बाद सभी शीघ्रता से चिता को ऐसे ही छोड़ कर चले गए। स्नेहा कुछ देर से ऐसे ही बैठकर उनके क्रियाकलाप देख रही थी। जब उसने देखा कि वह लोग बिना ठीक से चिता के जले ही चिता को ऐसे ही छोड़कर चले गए तो स्नेहा ने काफी सोच विचार करने के बाद यह सोचा, "उन लोगों को तो इस शव की कोई चिंता नहीं है, पर शायद यह मेरे काम आ सकता है।" ऐसा सोच कर स्नेहा ने जलती चिता से लकड़ियां उठा-उठा कर फेंकना शुरू कर दिया। इससे स्नेहा के हाथ भी जल रहे थे पर चिंता उसे केवल शव के जलने की थी। अगर पूरा शव जल गया तो… ये विचार ही स्नेहा को विचलित करने के लिए पर्याप्त था। स्नेहा ने लकड़ियां हटाने की गति और भी बढ़ा दी। वह शव जल तो गया था पर अभी इतना भी नहीं जला था कि स्नेहा के किसी काम ना आ सके। अभी केवल उसकी चमड़ी ही जली थी। स्नेहा ने उस जलते हुए शव को उठाकर नदी की तरफ दौड़ लगा दी, क्योंकि परीक्षा आज ही थी और शव की अति आवश्यकता भी थी। जल्दी से उस शव को ले जाकर नदी में डाल दिया। इस समय वह शायद सोच भी नहीं सकती थी अपनी शक्तियों के प्रयोग के बारे में। जब स्नेहा ने उस शव को नदी से बाहर निकाला तो वह बहुत ही कुरूप और डरावना दिखाई पड़ रहा था। पूरे शरीर से खाल तो जल ही चुकी थी। कहीं-कहीं से मांस भी जल गया था। पूरा शव रक्त से नहाया हुआ एक मांस के लोथडे जैसा दिखाई दे रहा था। अगर कोई कमजोर दिल वाला व्यक्ति उसे देख ले, तो शायद डर के कारण बेहोश हो जाए। स्नेहा ने उस शव को उठाया, उस समय लगभग रात के 8:00 बज गए थे। स्नेहा को वह साधना 11:00 बजे से शुरू कर करनी थी। अभी भी स्नेहा के पास काफी समय था, अपने साधनास्थल पर पहुंचने के लिए। स्नेहा ने सावधानी से उस शव को उठाया ताकि शव को कोई भी हानि न पहुंचे। स्नेहा शव को उठाकर अपनी साधना स्थली पहुंच गई। अच्युतानंद जी उसका वही इंतजार कर रहे थे। शव को देखकर अच्युतानंद जी ने स्नेहा से पूछा, "क्या तुम इसे जलती हुई चिता से उठा कर लाई हो…?" तब स्नेहा ने श्मशान में घटित सारी घटनाओं के बारे में उन्हें बताया और कहा, "गुरुदेव जब इस शव के परिजनों को ही इसकी चिंता नहीं थी और मुझे परीक्षा को सफलतापूर्वक पूरी करने के लिए इसकी अति आवश्यकता थी। तब मैंने यह निश्चय किया कि यही अब मेरी परीक्षा का साधन बनेगा।" अच्युतानंद जी ने स्नेहा को परीक्षा में सफल होने का आशीर्वाद दिया और कहा, "मां की असीम कृपा से तुम इस परीक्षा को शीघ्र ही उत्तीर्ण कर पाओ।" ऐसा कहकर अच्युतानंद जी वहां से चले गए। स्नेहा ने शव का बंधन किया और स्वयं नहा कर शुद्ध होने नदी की तरफ चली गई। शीघ्र ही स्नेहा ने स्नान करके स्वच्छ कपड़े पहन उस शव के निकट आ गई। स्नेहा ने शव के चारों तरफ सुरक्षा के लिए एक सुरक्षा चक्र का निर्माण किया। विभिन्न दिशाओं में क्षेत्रपाल, दिगपाल, भैरव और विभिन्न देवताओं का आवाह्न और स्थापना की और यथोचित भोग देकर उनकी अर्चना की। कुछ ही समय बाद मंत्रोच्चार शुरू हो गया। धीरे-धीरे मंत्रोच्चार की आवृतियां बढ़ती ही जा रही थी और साथ में बढ़ती जा रही थी उस शमशान की भयावहता। स्नेहा ने रक्त चंदन उठाकर उस शव के ह्रदय स्थल पर एक पंच कोणीय यंत्र का निर्माण किया। मंत्रोच्चार करते हुए अक्षत, पुष्प समर्पित किए। फिर एक बड़े से चाकू का पूजन किया, उसे भी अक्षत, पुष्प, गंध और भोग समर्पित किए। फिर वह चाकू उठाकर स्नेहा ने अपने माथे से लगाया। फिर रक्तबीज विनाशिनी माँ महाकाली से अपनी परीक्षा सफ़लतापूर्वक पूरी करने के लिए सहायता मांगी। माँ कालिका का ध्यान करते हुए उस शव को गले से चीरते हुए चाकू को नाभि तक ले गई। उसके बाद स्नेहा ने अपने हाथों से उस चीरे को चौड़ा किया। जिससे शव की पसलियां और अन्य भीतरी अंग दिखने लगे थे। उसका ह्रदय दिखाई देते ही स्नेहा की आंखों में चमक आ गई। उस समय स्नेहा संसार की सर्वोच्च भयावह और क्रूर स्त्री लग रही थी। उसने पसलियों को एक ही झटके से तोड़ दिया और उस देह से उसके ह्रदय को बाहर निकाल लिया। शव का ह्रदय स्नेहा की हथेली में बहुत ही डरावना और घृणित दिखाई दे रहा था। स्नेहा के हाथों से खून टपक रहा था पर उसके चेहरे पर बिल्कुल भी दया और घृणा के भाव नहीं दिखाई दे रहे थे। उसके सामने ही यज्ञ वेदी बनी हुई थी, जिसमें अग्नि जल रही थी। उसके पास ही एक खप्पर रखा हुआ था, उसमें भी अग्नि प्रज्ज्वलित थी। स्नेहा ने उस खप्पर वाली अग्नि में ह्रदय को रख दिया था। उस ह्रदय से रक्त की बूंदे टपक रही थी और खप्पर में रखने के बाद रक्त की बूंदे ऐसे नृत्य कर रही थी, जैसे किसी प्रेम धुन पर प्रेमिका, सब कुछ भूल कर प्रेम मगन हो नृत्य करती हैं। उस समय वो रक्त की बूंदे किसी भी साधारण मनुष्य के ह्रदय को समस्त जीवन के लिए भयग्रस्त कर सकती थी। उस जगह से मांस के जलने की भयंकर दुर्गंध उठ रही थी। कुछ ही पलों में स्नेहा ने उस हृदय को आग से बाहर निकाल लिया। स्नेहा ने मां को वह समर्पित करते हुए कहा, "है ऽऽऽऽ माँ ऽऽऽऽ शमशानेश्वरी ऽऽऽऽ महाकाली ऽऽऽऽ…!!! मैं यह हृदय आप को समर्पित करती हूं... और आपसे प्रार्थना करती हूं कि मेरे गुरुद्वारा मुझे दी गई परीक्षा मृत देह भक्षण में सफलता प्राप्त कर पाऊं। " ऐसा कहकर स्नेहा ने उस ह्रदय को अपने मुंह में रख लिया। मुंह में रखते समय उस ह्रदय से रक्त टपक रहा था, जो स्नेहा के हाथों से होते हुए कोहनी तक पहुंच कर जमीन पर गिर रहा था। जैसे ही स्नेहा ने उसे मुंह में रखा रक्त की बूंदे... उसके मुंह से टपकते हुए गले तक पहुंच रही थी। स्नेहा की आंखें उस समय रक्तवर्णी थी... उसे देख कर ऐसा लग रहा था कि साक्षात् श्मशानेश्वरी कंकाली माँ महाकाली स्वयं उस शव के भक्षण के लिए वहां आई हो। स्नेहा ने उस ह्रदय का भक्षण किया। उसी समय अच्युतानंद जी वहां आ गए। उन्होंने स्नेहा से कहा, "स्नेहा तुम इस परीक्षा में सफल रही हो... अब तुम आत्मानंद से अपने परिवार का प्रतिशोध लेने के लिए किसी भी तरह से तैयार हो। अब तुम्हें स्वयं यह निर्णय करना है कि तुम्हें किसको, कैसे और कब मारना है?" बस स्नेहा जब भी आत्मानंद के लिए तुम कुछ सोचो... तब यह ध्यान रखना की अकेले कुछ भी करने की मत सोचना। आत्मानंद से सामना करने के लिए हम दोनों साथ ही जाएंगे।" स्नेहा ने कहा, "अवश्य गुरुदेव... पर मैं पहले जाकर उसके शमशान को देखना चाहती हूं।" तब अच्युतानंद ने कहा, "उसके लिए तुम्हें कहीं जाने की आवश्यकता नहीं है। तुम्हें केवल अपनी साधना का प्रयोग करना है। तुम मणिकर्णिका योगिनी साधना का प्रयोग करो। मां तुम्हें इस बारे में सब कुछ विस्तार से बता देंगी। जो तुम स्वयं जाकर भी नहीं पता लगा पाओगी। वह जानकारी भी तुम्हें मां से प्राप्त हो जाएगी।" स्नेहा ने कहा, "जो आज्ञा गुरुदेव…!! मैं शीघ्र ही इस बारे में पता करके आपके साथ विचार-विमर्श करूंगी।" अच्युतानंद ने स्नेहा को एक नजर देखकर कहा, "तुम्हें अब शुद्ध होने की आवश्यकता है...!" "जो आज्ञा...!" कहकर उस शव के रक्त से रंजित स्नेहा नदी की ओर चल दी। "परंतु उसके पहले इस शव को पुनः चिताग्नि देनी होगी। अग्निहोत्र होकर ही इसका उद्धार होगा अन्यथा यह प्रेतयोनी मे चला जाएगा।" अच्युतानंद की आवाज में एक ठंडी खामोशी थी। "जी गुरुदेव...!" कहकर स्नेहा ने उस क्षत-विक्षत देह को अपने कंधे पर डाला और उस देह के रक्त से स्नान करती हुई उसी श्मशान की तरफ चल दी। श्मशान में अभी भी उस चिता की अग्नि शेष थी। स्नेहा ने उस क्षत-विक्षत शव को चिता पर लिटाया और कुछ लकड़ियां रख दी। वहां से वापस जाते समय स्नेहा सर से पांव तक रक्त से नहाई हुई थी, ऐसा लग रहा था जैसे कोई रक्तरंजित शस्त्र स्वयं चलकर चला आ रहा हो। वो किसी के भी ह्रदय में और शरीर में डर के कारण कंपन उत्पन्न कर दे, ऐसी भयानक दिखाई दे रही थी। स्नेहा स्वयं महाकाली का अवतार लग रही थी। रक्तरंजित देह, रक्त में सने हुए बालों से टपकती रक्त की बूंदे। धरती पर पग रखने पर एक बार को तो धरती भी डोल उठती थी। उस समय स्नेहा को भी अपने शरीर का भान नहीं था। स्नेहा ने जल्दी से जाकर नदी में स्नान किया। तब शायद स्नेहा को यह आभास हुआ, कि वह इतने समय में क्या-क्या कर चुकी थी। स्नेहा ने स्नान करने के बाद उस रात को विश्राम करने का ही निश्चय किया और सोचा, "आत्मानंद के विषय में गुरुजी से कल ही विस्तार से चर्चा करूंगी और उसका कब, क्या और कैसे संशोधन करना है? वह भी गुरुजी के साथ बैठकर कल ही निर्णय लूंगी।" ऐसा सोच कर स्नेहा ने रात को विश्राम करने का निश्चय कर लिया।
स्नेहा जल्दी सुबह उठ गई थी। स्नान, ध्यान, पूजा करके वह मां के की मंदिर में जा बैठी थी। आज स्नेहा का मन अत्यधिक विचलित था। स्नेहा आगे की रणनीति के बारे में ही सोच रही थी। स्नेहा को ख्याल आया कि कोई भी रणनीति बनाने से पहले एक बार गुरुजी से बात कर लेनी चाहिए। ऐसा सोचते हुए स्नेहा तुरंत अच्युतानंद जी के पास चल दी। अच्युतानंद जी उस समय ध्यान में बैठे थे। स्नेहा ने उन्हें प्रणाम किया और वही एक तरफ बैठ गई। गुरु जी को ध्यान मग्न देख कर स्नेहा ने उन्हें टोकना ठीक नहीं समझा। स्नेहा खुद भी वही शांति से बैठ गई। फिर उसने सोचा, "जब तक गुरुजी ध्यान में हैं, तब तक आत्मानंद के विषय में जानकारी एकत्र कर ली जाए।" ऐसा सोच कर स्नेहा ने अपने कानों को छूते हुए कुछ मंत्र पढ़ें और फिर नमस्कार कर कहने लगी, "मांऽऽऽ मुझे आज आत्मानंद के विषय में सभी जानकारियां चाहिए। क्या आप मेरी सहायता कर सकती हैं…??" स्नेहा के ऐसा कहते ही उस शक्ति ने स्नेहा को कुछ बताना शुरू कर दिया जिसे सुनकर स्नेहा के चेहरे के भाव पल पल बदल रहे थे, कभी स्नेहा एकदम से क्रोध में भर उठती, तो कभी निराशा उसके भावों पर हावी होने लगती, तो कभी एक दृढ़ निश्चय की चमक स्नेहा के चेहरे पर दिखाई देने लगती। शक्ति की बातें सुनने के बाद स्नेहा ने वहां के दृश्य देखने का निश्चय किया। स्नेहा ने आत्मानंद का स्मरण किया तो स्नेहा के सामने एक दृश्य चलने लगा… आत्मानंद अपने श्मशान में बैठा विराज से बातें कर रहा था। विराज ने कहा, "गुरुदेव आपको क्या लगता है... वह लड़की हमारे लिए कोई मुसीबत तो नहीं खड़ी कर सकती…??" आत्मानंद ने कहा, "वह लड़की मुसीबत खड़ी नहीं कर सकती... बल्कि स्वयं मुसीबत है। तुमने स्वयं कालरात्रि को अपने भोग के लिए आमंत्रित किया है। वह लड़की... उसमें फिलहाल प्रतिशोध की भावना प्रबल है। मैं यह तो नहीं देख पा रहा की वह है... कहां?? और क्या कर रही हैं…? पर मेरी शक्तियों द्वारा मुझे इतना ज्ञान तो अवश्य हो गया है कि वह शीघ्र ही हमारे लिए बहुत बड़ी संकट बनकर उभरेगी।" विराज ने आत्मानंद के चरण पकड़ते हुए कहा, "गुरुदेव…!! रक्षा कीजिए... मुझे यह बिल्कुल पता नहीं था कि वह लड़की इतनी घातक बनकर हमारे सामने आएगी।" आत्मानंद ने कहा, "तुमने बिल्कुल सही कहा... वह कभी भी आक्रमण कर सकती है। पर उसका पहला शिकार कौन होगा…?? यह बताना बहुत ही मुश्किल है। फिर भी मैं आज रात तुम्हारी और अखिलेश के परिवार की सुरक्षा के लिए एक अनुष्ठान रखूंगा।" विराज ने थोड़ा घबराते हुए कहा, "गुरुदेव अखिलेश के परिवार की आप चिंता ना करें। वह लड़की उसकी भतीजी है, उसे वह लोग कैसे संभालेंगे यह उनकी परेशानी है। फिलहाल आप हमारी सुरक्षा की व्यवस्था करें…!" आत्मानंद ने कहा, "ठीक है... पहले हम हमारी सुरक्षा की व्यवस्था करेंगे। उसके बाद देखेंगे किसके लिए क्या करना चाहिए और कुछ करना भी चाहिए या नहीं। आज मैं एक बहुत ही विध्वंसक शक्ति का आवाह्न करने की सोच रहा हूँ। वह शक्ति ब्रह्मास्त्र के ही जैसी है, जो कभी व्यर्थ नहीं जाती।" विराज ने खुश होते हुए कहा, "अवश्य गुरुदेव…! आप मुझे केवल यह बताइए कि आपको उस अनुष्ठान के लिए किन-किन चीजों की आवश्यकता होगी। मैं स्वयं वह चीजें आपके लिए लेकर आऊंगा।" आत्मानंद ने विराज को सामग्री लिखवाना शुरू किया। अब सब कुछ देखकर स्नेहा ने वह दृश्य बंद कर दिया। अब स्नेहा को यह पता चल गया था कि आज रात आत्मानंद कुछ भयंकर करने वाला था। उसने उसी समय कुछ निश्चय किया और शांत भाव से अच्युतानंद के ध्यान से उठने की प्रतीक्षा करने लगी। थोड़ी देर बाद अच्युतानंद ने अपनी आंखें खोली सामने स्नेहा को बैठा देखकर आश्चर्य से पूछा, "स्नेहा कुछ समस्या है... तुम इतनी सुबह यहां…??" स्नेहा ने कहा, "गुरुदेव…!! हमारे पास बहुत ज्यादा समय नहीं है। हमें शीघ्र अति शीघ्र आत्मानंद के विषय में कुछ सोचना होगा।' अच्युतानंद जी ने कहा, "स्नेहा तुम्हारी बातों से मुझे ऐसा क्यों लग रहा है कि यह कार्य भी तुम पहले ही कर चुकी हो…! तुमने शायद यह निर्णय ले लिया है कि तुम्हें सबसे पहले किस से और कैसे प्रतिशोध लेना है…??" "जी गुरुदेव…!!! मैंने यह निर्णय ले लिया है। मैं सबसे पहले आत्मानंद को ही समाप्त करना चाहती हूं। क्योंकि उसके जीवित रहते हुए वह हमारे लिए समस्या ही उत्पन्न करेगा। " स्नेहा ने हाथ जोड़कर कहा। तब कुछ सोचते हुए अच्युतानंद ने स्नेहा से पूछा, "और यह सब तुम कैसे करोगी…?" स्नेहा ने कहा, "गुरुदेव यह समय अब आमने सामने की लड़ाई का है।" यह सुनते ही अच्युतानंद की आंखें विस्मय से फैल गई। और स्नेहा से पूछने लगे, "तुम जानती भी हो... तुम क्या कह रही हो... आत्मानंद कोई छोटी-मोटी हस्ती नहीं है… तुम उससे सामने से भिड़ने जा रही हो…!" "जी गुरुदेव... मुझे आपकी सिखाई हुई विद्याओं पर पूरा विश्वास है। मैं अवश्य ही उस पर विजय प्राप्त कर लूंगी।" स्नेहा ने आत्मविश्वास से कहा। आत्मानंद ने कुछ सोचते हुए कहा, "ठीक है... पर तुम अकेले नहीं जाओगी। मैं भी तुम्हारे साथ ही में चलूंगा।" स्नेहा ने कहा, "अवश्य गुरुदेव... पर मेरी एक विनती है, आप तब तक मेरी सहायता नहीं करेंगे, जब तक उस युद्ध में मेरी हार निश्चित ना हो जाए। आत्मानंद को जब तक मैं हारा नहीं लेती तब तक मैं चैन से नहीं बैठ सकती।" अच्युतानंद ने कहा, "पर... तुम अकेली कैसे…??" स्नेहा ने कहा, "गुरुदेव आप इतना तो मुझ पर विश्वास कर ही सकते हैं।" अच्युतानंद ने गर्दन हिलाकर अपनी सहमति दे दी। स्नेहा ने उन्हें प्रणाम करके कहा, "धन्यवाद गुरुदेव अब आगे की तैयारियों के लिए मुझे अभी जाना होगा।" अच्युतानंद ने कहा, "नहीं स्नेहा…! आगे की तैयारियां मैं करूंगा। हर एक वस्तु, हर एक सामग्री मैं ही वहां लेकर चलूंगा ताकि भूल की कोई भी संभावना ना रहे।" स्नेहा ने हाथ जोड़कर प्रणाम किया और कुटिया में चली गई। कुटिया में टहलते-टहलते स्नेहा ने आगे की रणनीति तैयार कर ली थी। अब बस शाम होने की प्रतीक्षा थी। जल्दी शाम भी हो गई स्नेहा अच्युतानंद के साथ तांत्रिक आत्मानंद के ठिकाने पर जाने के लिए निकल पड़ी। उन्होंने किसी भी शक्ति का प्रयोग ना करते हुए स्वयं ही जाने का निश्चय किया था। शक्ति प्रयोग से आत्मानंद को उनकी शक्ति का अंदाजा लगाने में थोड़ी सुविधा हो जाती, जो इस समय उनके लिए ज्यादा अच्छा नहीं था। शीघ्र ही स्नेहा और अच्युतानंद जी आत्मानंद की साधना स्थली पर पहुंच गए। वह एक शमशान था, कुछ जलती हुई, कुछ अधजली और कुछ शांत हो चुकी चिताएं थी। एक जगह कुछ कुत्तों का झुंड बैठा हुआ था, शायद कुछ भोजन की तलाश में। बहुत से पेड़ भी थे, पर ऐसे लग रहे थे मानो जीवित प्रेत खड़े हो। शवों के जलने की दुर्गंध पूरे आसपास के माहौल में फैली हुई थी। पास ही से सियारों के रोने की आवाज़े आ रही थी। कुछ ही दूरी पर बैठी एक काली बिल्ली सभी चीजों पर ऐसे नजर रखे हुए थी, जैसे एक सख्त शिक्षक परीक्षा कक्ष में बैठे हर एक बच्चे पर अपनी कड़ी नजर रखता है। माहौल बोझिलता से भरा हुआ था। स्नेहा और अच्युतानंद के वहां पहुंचते ही एक अजीब सी सरसराहट माहौल में पैदा हो गई थी। जैसे किसी अजनबी के आने से घर में अफरा-तफरी का माहौल बन जाता है। शायद उस शमशान में रहने वाले जीवो को उन दोनों का वहां आना कुछ ठीक नहीं लगा। स्नेहा ने देखा तो आत्मानंद अपने अनुष्ठान की तैयारी कर रहा था। वो एक मृगचर्म पर बैठा था। सामने एक त्रिकोणीय हवन कुंड जल रहा था। कुछ विशेष प्रकार के यंत्र धरती पर बने हुए थे। कुछ विशेष हवन सामग्री वहां इकट्ठा थी। एक बड़ा काला बकरा भी वहां बंधा हुआ था। मदिरा की बोतलें, एक बड़ा सा खड़ग और विभिन्न प्रकार के मुंड भी रखे थे, जिनमें नरमुंड भी थे। स्नेहा ने सामने खड़े होकर आत्मानंद को ललकारा… "आत्मानंद ऽऽऽऽऽऽ…!!!" "अब यह समय मुझ पर तंत्र प्रहार करने का नहीं... अब तो समय अपने प्राणों की सुरक्षा करने का है…!!!" आत्मानंद ने क्रोध में उस तरफ घूरा जिस तरफ से वह आवाज आई थी। स्नेहा अंधेरे से उजाले की तरफ चल कर आ रही थी। साफ-साफ तो आत्मानंद को दिखाई नहीं दिया पर एक लंबी काली स्त्री आकृति जिसके बाल हवा में लहरा रहे थे, तेज कदमों से उसकी ही तरफ चली आ रही थी। पीछे एक और पुरुष आकृति भी दिखाई दे रही थी। वह भी उस स्त्री आकृति के पीछे-पीछे आ रही थी। धीरे-धीरे आकृतियां साफ होती जा रही थी। एक स्त्री जिसकी आंखें तलवार से भी तेज, चेहरा से क्रूरता टपक रही थी। लाल साड़ी धोती की तरह पहने हुए थी, बाएं पैर में एक कड़ा पहने हुए थी जो एक विचित्र स्वर उत्पन्न कर रहा था, बायीं बाजू पर एक अजीब सा बाजूबंद पहने थी जो कि एक चमगादड़ के पंखों से बना हुआ था। कमर पर बाघम्बर लपेटा हुआ था। बाल हवा में लहरा रहे थे। चेहरे पर साक्षात् मृत्यु तांडव कर रही थी। चाल ऐसी जैसे एक सिंहनी शिकार के लिए निकली हो। उसे देखते ही आत्मानंद के मन में भी भय व्याप्त हो गया था। उसे समझ नहीं आ रहा था कि ऐसी कौन सी स्त्री है, जो उसी के गढ़ में आकर उसे ही ललकार रही थी। आत्मानंद ने गरज कर पूछा, "कौन है…? कौन... हो तुम... और यहां क्या कर रही हो?" स्नेहा ने भी उसी स्वर में गरज कर कहा, "वही हूं…!!! जिसके परिवार को अपनी कृृत्या के प्रहार से समाप्त किया था। पर एक जीवन के सबसे बड़ी भूल कर बैठे…!!!" आत्मानंद के चेहरे पर प्रश्नवाचक भाव आ गए थे। फिर स्नेहा ने उसकी हंसी उड़ाते हुए कहा, "मुझे जिंदा छोड़ने की…!!" फिर एक तीव्र अट्टहास किया। "हाऽऽऽ हाऽऽऽऽऽ हाऽऽऽऽऽ" "अब अपने जीवन की उल्टी गिनती शुरू कर दे... नहीं…!! नहीं…!!! अब तो उल्टी गिनती भी खत्म ही हो गई। अब बस केवल तेरे अंत का समय है।" उस आवाज को सुनकर एक बार को आत्मानंद भी हिल गया। पर जल्दी ही उसने अपने आप को संयत करके कहा, "तुम तांत्रिक आत्मानंद को बहुत ही कमजोर समझने की भूल कर रही हो बच्ची। अभी तुम ना तो मेरी सिद्धियों को ना ही मुझे ठीक से जानती हो।" स्नेहा ने भी गरज कर कहा, "ठीक है... यह सही समय है, अपनी अपनी सिद्धियों के प्रदर्शन का। जो जीता, वही जीवित रहेगा…! स्वीकार है…!!!" आत्मानंद ने भी कहा, "स्वीकार है…!! पर तुम अपने जीवन की सबसे बड़ी भूल कर रही हो बच्ची…!! मेरे ही गढ़ में आकर मुझे ही ललकार रही हो। यहां की वायु भी मुझे ही सहयोग करती है और तुम वायु विपरीत दिशा में दौड़ना चाहती हो।" स्नेहा ने कहा, "आत्मानंद... वायु के वेग के साथ बच्चे दौड़ते हैं। और यह बच्ची कुछ ही देर में तुम्हें यह बता देगी कि जिस वायु के सहयोग की तुम बात कर रहे हो, वह वायु स्वयं मेरी इच्छा कैसे चलना स्वीकार करती है। अब तुम तुम्हारे अस्त्र शस्त्र सज्ज कर लो... क्योंकि मैं निहत्थे पर वार नहीं करती। तुम्हारे ही अस्त्रों से तुम्हें ही परास्त नहीं किया तो फिर मेरे इतनी मेहनत का क्या फायदा। आत्मानंद ने भी कहा, "ठीक है... तुम ऐसा चाहती हो... तो ऐसा ही सही। आज हो ही जाए द्वंद।"
दोनों ने अपने-अपने अस्त्र संभाल लिये। आत्मानंद की तंत्र क्रिया की सारी व्यवस्था पहले से ही की हुई थी। स्नेहा ने भी जल्दी ही अपनी सारी हवन सामग्री, हवन कुंड, यंत्र जो भी उसे अंकित करने थे, शीघ्र ही उसने जमीन पर अंकित कर लिये। अच्युतानंद ने भी स्नेहा के पीछे बैठकर अपनी व्यवस्था जमाना शुरू कर दिया। उसे देख कर आत्मानंद ने कहा, "अपने लिए एक रक्षक भी लेकर आई हो बच्ची…!!" अभी तक उसने अच्युतानंद को नहीं देखा था। स्नेहा ने कहा, "रक्षक नहीं... तुम्हारी मौत का तांडव दिखाने के लिए अपने गुरु को लेकर आई हूं। उन्हें तो तुम जानते ही होंगे... क्योंकि जिनकी हत्या करके तुमने यह सब सिद्धियां छीनी थी। वो इन्हीं के पिता और गुरु भी थे।" आत्मानंद की आंखें फैल गई थी। उसके मुंह से केवल एक नाम निकला… "अच्युऽऽऽऽतानंदऽऽऽऽ…!!!" स्नेहा ने उसका मजाक उड़ाते हुए कहा, "बड़ी जल्दी ही तुम्हें सब कुछ याद आ गया। अच्छा है... मुझे अपना समय नष्ट नहीं करना होगा।" आत्मानंद ने शीघ्र ही अपनी सारी व्यवस्थाएं देखने के लिए एक बार फिर से हर चीज पर नजर डाली। स्नेहा ने भी आंखें बंद करके कुछ मंत्र पढ़े, जिसके पढ़ते ही एक अदृश्य शक्ति ने स्नेहा के लिए सारी व्यवस्था करना शुरू कर दिया। उसके बाद स्नेहा ने आत्मानंद से कहा, "पहला प्रहार तुम करोगे…!!" आत्मानंद ने कहा, "नहीं बच्ची... पहला प्रहार करने का अवसर मैं तुम्हें देता हूं। क्योंकि तुम छोटी हो और इस सब में नई।" स्नेहा ने गुस्से में कहा, "यह सब तुम्हें अब याद आ रहा है... उस समय तुम्हारी नीति कहां गई थी... जब तुमने अपने गुरु और मेरे परिवार की निर्दोष होते हुए भी हत्या की थी…?? अब तुम ज्यादा नीति का ज्ञान मत दो... और प्रहार करो…!" स्नेहा ने अपने कानों को छूते हुए कुछ मंत्र पढ़ें और मां को हाथ जोड़कर अपनी सहायता के लिए प्रार्थना की। स्नेहा ने मां धूमावती से कहा, "मां मैंने आपकी साधना की है… आप अपने साधक के शत्रुओं का भक्षण स्वयं करती हैं। पर मां मुझे अपने आप को सिद्ध करने का एक मौका दीजिए... अगर यह ना हो पाया, तो आप जैसा उचित समझें वैसा करें…!!" ऐसा कहकर स्नेहा ने मां से प्रार्थना की। वही आत्मानंद भी अपने इष्ट से अपनी विजय के लिए प्रार्थना करने लगा। उसने एक भयानक मंत्र का जाप करते हुए एक शक्ति स्नेहा की तरफ छोड़ी। "स्नेहा इस शक्ति से बचने के लिए... तुम्हें शमशान भैरवी से मिली हुई तुम्हारी सिद्धि का प्रयोग करना होगा... यही उस सिद्धि की काट है।" उस आवाज के ऐसा कहते ही स्नेहा ने मंत्र पढ़कर... आवाज की बताई हुई सिद्धी का प्रयोग करते हुए आत्मानंद के वार को काट दिया। आत्मानंद ने इसकी कल्पना भी नहीं की थी कि ऐसा कुछ भी हो जाएगा। आत्मानंद ने फिर कुछ मंत्रों के प्रयोग से स्नेहा पर उच्चाटन प्रहार किया। पर इससे पहले कि वह प्रयोग स्नेहा पर असर करता, आवाज ने स्नेहा को पहले ही चेता दिया था। जिसके कारण स्नेहा ने उस उच्चाटन प्रयोग को काट दिया। इसी तरह से कुछ और तंत्र प्रयोग आत्मानंद ने किए पर सभी के सभी प्रयोगों की काट समय से पूर्व ही स्नेहा को पता थी। अब आत्मानंद को बहुत ही ज्यादा क्रोध आ गया था। वह बहुत ही ज्यादा क्रोध में दिखाई दे रहा था। आत्मानंद बार-बार कुछ बड़बड़ा रहा था, क्योंकि उसकी कर्ण पिशाचिनी भी उसे स्नेहा के बारे में कोई भी जानकारी नहीं दे रही थी। अब आत्मानंद ने एक ब्रह्म पिशाच का आवाह्न किया। ब्रह्म पिशाच एक ब्राह्मण कुल की आत्मा होती है, जो अपने दुष्कर्मों के द्वारा ब्रह्म पिशाच योनि में पहुंच जाती है। यह ब्रह्म पिशाच सदैव दूसरों का अहित करने के लिए ही तत्पर रहते हैं। इसीलिए वह ऐसी ही जगह पर रहकर लोगों को दुखी और परेशान करने का मौका ढूंढते हैं। यह ब्राह्मणों के कुल में जन्म लेने के कारण कहीं भी आ जा सकते हैं, मंदिर में भी। इनसे निपटना सरल नहीं होता। जब आत्मानंद ने ब्रह्म पिशाच का आह्वान किया तो, स्नेहा के कान में देवी योगिनी ने इस बात की पूर्व सूचना दी। यह भी बताया, " स्नेहा इससे बचने के लिए केवल अग्नि बेताल ही तुम्हारी सहायता कर पाएगा। तुम शीघ्र ही अग्नि बेताल का आवाहन करो…!!" आज्ञा पाते ही स्नेहा ने तुरंत अग्नि बेताल का आवाह्न किया। दोनों शक्तियां वही श्मशान में भिड़ गए। दोनों ही बहुत ज्यादा विध्वंसक शक्तियां थी। दोनों एक दूसरे पर भारी पड़ने का प्रयास कर रही थी। जल्दी ही अग्नि बेताल ने ब्रह्म पिशाच को समाप्त कर, आत्मानंद की तरफ दौड़ लगा दी। आत्मानंद यह सब सोच कर ही भयग्रस्त हो गया और उसने अग्नि बेताल के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया। जिसके कारण अग्नि बेताल ने उसे किसी भी प्रकार की हानि पहुंचाए बगैर उसे छोड़कर अदृश्य हो गया। आत्मानंद में अगला प्रहार एक पिशाच शक्ति का किया। वह बहुत ही तेज चलने वाली स्त्री शक्ति थी जो कि शीघ्रता से अपने शिकार पर झपट कर उसका खात्मा कर देती थी। जब तक स्नेहा को उस शक्ति की काट, योगिनी बता पाती... उससे पहले ही उस शक्ति ने स्नेहा को हानि पहुंचा दी थी। हालांकि वह हानि बहुत ज्यादा बड़ी नहीं थी, फिर भी एक बड़ी सी चोट स्नेहा के माथे पर दिखाई देने लगी थी। जिससे खून भी बहने लगा था। स्नेहा ने तत्काल मां का आवाह्न किया और उस पिशाच शक्ति से बचाने की विनती की। बहुत ही जल्द आत्मानंद को अपनी पिशाच शक्ति से भी हाथ धोना पड़ा। अब तक आत्मानंद स्नेहा को बहुत ज्यादा कष्ट नहीं पहुंचा पाया था। पर उसकी बहुत सी शक्तियां और सिद्धियां इस युद्ध की भेंट चढ़ गई थी, आत्मानंद ने थोड़ी देर विचार करके एक ऐसी महान विध्वंसक शक्ति के बारे में निर्णय लिया... जो कभी भी खाली नहीं जाती थी। उसने अब अपने सबसे घातक अस्त्र कृत्या का संधान करने का निर्णय लिया। "सावधान स्नेहा यह तुम पर कृत्या का प्रयोग करने वाला है। इस प्रयोग से किसी भी प्रकार से तुम्हारी रक्षा नहीं हो सकती, पर तुम चाहो तो अपनी सिद्धि के द्वारा उससे होने वाली हानि को कम कर सकती हो। सबसे पहले तुम्हें अपनी सुरक्षा निश्चित करनी होगी…!!" उस आवाज ने कहा, वह आवाज स्वयं स्नेहा की सिद्धि मणिकार्णिका योगिनी साधना थी। जो आत्मानंद के हर एक तंत्र प्रहार से पहले स्नेहा को सतर्क कर रही थी। स्नेहा ने उसी क्षण एक तरबूज अपनी सिद्धियों द्वारा प्रकट किया, जिसे स्नेहा ने अपना नाम देकर सुरक्षा चक्र के बाहर स्थापित कर दिया। जल्दी ही कृत्या प्रकट हो गई, आत्मानंद ने अपने रक्त का भोग उसे दिया और आज्ञा देते हुए कहा, "तुम अभी के अभी जाकर स्नेहा का अंत कर दो…!" इतना सुनते ही कृत्या स्नेहा की तरफ दौड़ पड़ी। स्नेहा ने भी अपने आपको इस प्रहार के लिए तैयार किया हुआ था। कृत्या ने आगे बढ़ते ही उस तरबूज को जो स्नेहा का प्रतीक था, उठा लिया और हाथों से फोड़ दिया। आसपास हर जगह पर तरबूज का रस फैल गया। वह लाल रस रक्त की तरह दिखाई दे रहा था। उसके छीटें कृत्या के चेहरे पर भी पड़े। तरबूज के छींटों से कृत्या का डरावना चेहरा और भी ज्यादा वीभत्स दिखाई देने लगा था। कृत्या ने उस तरबूज को फोड़ते ही अगला पग जैसे ही आगे बढ़ाया... वहां पर एक मदिरा की बोतल रखी हुई थी। जो कृत्या ने उठाकर अपने हाथों से चकनाचूर कर दी। वह मदिरा बहकर उसके हाथों से नीचे होते हुए कोहनी तक बह निकली। अगला पग बढ़ाने पर एक थाल में बहुत से मिष्ठान रखे थे। कृत्या ने उनकी तरफ एक नजर देखा और उन्हें भी एक तरफ फेंक दिया। अगले पग पर एक मुर्गा बांधा हुआ था। स्नेहा ने उसे भी अपने प्रतीक रूप में स्थापित किया था। कृत्या ने उस मुर्गे को अपने पंजों में दबोच लिया उस समय वह मुर्गा बहुत ही जोर से आवाज करके फड़फड़ाने लगा था। कृत्या ने उसके सर को अपने मुंह में रखकर धड़ से अलग कर दिया, और उसके मुंड को चबाकर खाने लगी। मुर्गे के रक्त के छींटे आस पास फैल गए थे। उसके मुंड विहीन शरीर को ले जाकर अपने सर पर पकड़ लिया, जिससे निकलने वाला रक्त कृत्या को भिगो रहा था। ऐसा लग रहा था मानो वह स्वयं का रक्त अभिषेक कर रही हो। अगले पग पर एक विशाल काला मेष बंधा हुआ था। इतना सब देखने के बाद उस मेष की आंखों में भय दिखाई पड़ रहा था। कृत्या ने उसे भी एक पैर से पकड़ कर, उसका पैर उसके शरीर से अलग कर दिया। उस मेष की ह्रदय विदारक चीखें आसपास के माहौल में फैल गई थी। आत्मानंद इस वीभत्स दृश्य को देखकर प्रसन्न हो रहा था। पर उसे यह समझ में नहीं आ रहा था, कि इस स्नेहा ने इतनी सारी चीजें ऐसे इकट्ठे क्यों की थी। फिर भी उसे विश्वास था कि कृत्या प्रहार निष्फल नहीं होगा। वह उसकी सिद्धि का सबसे शक्तिशाली अंग थी। उधर कृत्या उस मेष को छिन्न-भिन्न करने में व्यस्त थी। कृत्या ने मेष के दोनों सींग भी उखाड़ कर फेंक दिए थे। अपने तेज नाखूनों से उसकी आंखें नोच रही थी। मेष अब लगभग निर्जीव ही हो गया था। उसके मुंह से आवाज आना बंद हो गई थी। पर कृत्या अभी भी उसके अंगों को नोंच नोंच कर फेंक रही थी। जब कृत्या उसे नोच कर फेंक चुकी, तब उसने स्नेहा की तरफ अपनी दृष्टि डाली। कृत्या की नजरों से स्नेहा भी भयभीत हो गई थी। पर जब स्नेहा ने उसकी दृष्टि के भावों में परिवर्तन देखा, तो वह थोड़ी आश्वस्त लगी। कृत्या ने स्नेहा की तरफ पैर बढ़ाते हुए कहा, "स्नेहा…! तुमने व्यवस्था तो बहुत अच्छी की थी। मेरा क्रोध काफी हद तक शांत भी हो गया था। पर मेरा आवाह्न तुम्हारे अंत के लिए किया गया है। जो तुमने अपने प्रतीक रूप में इतनी चीजें रखी थी, उनके कारण तुम्हें मैं तुम्हारा अंत तो नहीं करूंगी। पर तुम्हारी एक शक्ति और एक सिद्धि... उनका अंत अवश्य करूंगी।" कृत्या ने एक ठंडी और डरावनी आवाज में कहा। स्नेहा ने हाथ जोड़कर पूछा, "कौन सी शक्ति मां…!!!" कृत्या ने कहा, "तुम्हारी वही शक्ति जो तुम्हें रत्नमंजरी से प्राप्त हुई है। उनमें से एक शक्ति के कारण तुम मन की गति से पलक झपकते ही कहीं भी पहुंच सकती हो। और साथ ही साथ एक सिद्धी पाताल भैरवी वो भी तुमसे लेती हूँ।" स्नेहा ने कहा, "जैसी आपकी इच्छा मां…!! मुझे आपकी कृपा दृष्टि प्राप्त हुई, यही मेरे लिए बहुत बड़ी बात है।" इस पर कृत्या ने कहा, "स्नेहा यह दोनों सिद्धियां तुम चाहो तो दोबारा साधना करके प्राप्त कर सकती हो…!!! मैं तुम्हारी चतुराई से प्रसन्न हूं इसलिए, तुम्हें एक शक्ति प्रदान करती हूं…!! उससे तुम्हें संसार में घूमती अतृप्त आत्माएं दिखाई देंगी और तुम चाहो तो उनसे अपने वांछित काम भी करवा सकती हो।" ऐसा कहकर कृत्या वहां से अंतर्ध्यान हो गई। कृत्या के जाते ही आत्मानंद को बहुत बड़ा आघात लगा। वह सोच भी नहीं सकता था कि इस लड़की के कारण उसे अपनी इतनी बड़ी शक्ति से हाथ धोना पड़ेगा। स्नेहा कृत्या के वरदान से बहुत ही ज्यादा प्रसन्न थी, हाथ जोड़कर उनका धन्यवाद भी कर रही थी। कृत्या के जाते ही स्नेहा ने एक जोरदार अट्टहास किया और आत्मानंद से कहा, "इतनी देर से तुम मुझ पर अपने तंत्र प्रहार कर रहे हो... अब एक मौका मुझे भी मिलना चाहिए।" आत्मानंद की आंखें विस्मय और भय के कारण फटी की फटी रह गई थी। वह यह सोचने लगा था कि इस लड़की ने मेरी इतनी सारी सिद्धियों से बचाव कर लिया, पर अब पता नहीं है... यह कौन से तंत्र का प्रहार मुझ पर करेगी। आत्मानंद ने अपनी कर्ण पिशाचिनी का आह्वान किया और उससे पूछा, "यह किस शक्ति का प्रहार मुझ पर करने वाली है।" कर्ण पिशाचिनी ने आत्मानंद से कहा, "मेरी शक्तियां केवल भूत और वर्तमान को ही ज्ञात कर सकती हैं। वही मैं तुम्हें बता सकती हूं। भविष्य बताने की शक्तियां कभी भी कर्ण पिशाचिनी के पास नहीं होती है।" स्नेहा ने फिर कहना शुरू किया, "आत्मानंद मैं... तुम्हें अपनी सारी शक्तियों से अपना बचाव करने का एक मौका देती हूं तुम अपनी सारी सिद्धियों से अपने बचाव की तैयारी करो... और मैं तुम पर अपना पहला और आखिरी अंतिम प्रहार करने की तैयारी करती हूं…!!" इतना कहकर स्नेहा आंखें बंद करके अपने तंत्र प्रहार की तैयारी करने लगी। उधर आत्मानंद ने भी हड़बड़ाहट में अपनी सुरक्षा के लिए कुछ उचित प्रबंध करना शुरू कर दिया। वह जल्दी-जल्दी मंत्र पढ़कर अपने आसपास सुरक्षा के लिए यंत्र, चक्र और कुछ विचित्र सी वस्तुओं को सजाने लगा था।
स्नेहा ने मंत्र पढ़ने के बाद आसपास देखा... स्नेहा को कोई भी जीव दिखाई नहीं दे रहा था। अचानक उसके सामने से रेंगती हुई एक छिपकली निकली... छिपकली को देखते ही स्नेहा की आंखें चमक उठी। स्नेहा ने जल्दी से एक झपट्टा मारकर उस छिपकली को अपने हाथ में पकड़ लिया। उस छिपकली का मुंह स्नेहा की तरफ था और उसने अपना मुंह खोला हुआ था। छिपकली की आंखें लगभग बाहर ही आ गई थी और स्नेहा ने उन आंखों में घूर कर मंत्र जाप शुरू कर दिया। जैसे-जैसे मंत्र जाप की आवृत्तियां बढ़ती जा रही थी... छिपकली के अंदर कुछ अजीब से परिवर्तन होते जा रहे थे। छिपकली एक विचित्र आवाज में चीखने लगी थी। आमतौर पर छिपकली की आवाजें सुनाई नहीं पड़ती है... पर उस समय छिपकली की आवाज किसी भी व्यक्ति के कान के पर्दे फाड़ने के लिए पर्याप्त थी। आत्मानंद भी यह सब देख कर हैरान था... यह किस तरह के तंत्र का प्रयोग स्नेहा कर रही थी। स्नेहा को उस तरह के प्रयोग को करते हुए देखकर, आत्मानंद को उसकी काट समझ नहीं आ रही थी। फिर भी उसने दुगनी तेजी से अपने सुरक्षा चक्र को और भी मजबूत करना शुरू कर दिया। आत्मानंद को यह बिल्कुल भी पता नहीं चल रहा था कि स्नेहा करने क्या वाली है…? वह बस अपने तंत्र मंत्रों का प्रयोग कर उस तंत्र प्रहार से किसी भी प्रकार बचना चाहता था। स्नेहा ने जैसे ही उस छिपकली को जमीन पर छोड़ा, उस छिपकली ने आत्मानंद की तरफ चलना शुरू कर दिया। आधे रास्ते पर पहुंच कर गोल-गोल घूमने लगी वो इतनी तेजी से घूम रही थी कि देखने वाले की आंखे चुंधिया जाये। थोड़ी देर बाद जब छिपकली रुकी तब उस ने एक विचित्र आवाज में चीखा…. उसके चीखने के लगभग 5 मिनट बाद छिपकलियों की एक विशाल लेना वहां इकट्ठा होना शुरू हो गई। आत्मानंद जब उन्हें देखा तो... वह अपना मंत्र जाप करना भूल कर केवल फटी फटी आँखों से उस छिपकली की सेना को देखने लगा। छिपकली की सेना ने आत्मानंद के चारों तरफ गोल गोल चक्कर लगाना शुरू कर दिया था। जिस छिपकली पर तंत्र प्रयोग किया गया था, वह छिपकली सबसे आगे चल रही थी, जैसे आक्रमण के समय सेनानायक सेना का नेतृत्व करता है। लगभग सात चक्कर लगाने के बाद... छिपकलियों ने उसके सुरक्षा चक्रों को एक-एक करके नष्ट करना शुरू कर दिया। जितनी भी हवन सामग्री वहां रखी हुई थी, छिपकलियों ने उन्हें लगभग चट ही कर दिया था। वहाँ बंधे उस काले मोटे बकरे को भी चट करके केवल हड्डियों का ढांचा छोड़ दिया था। यह देख कर आत्मानंद की आत्मा उसके शरीर को छोड़ने ही तैयार हो गई थी। धीरे-धीरे छिपकलियां आत्मानंद की तरफ बढ़ रही थी। सबसे आगे चलने वाली छिपकली आत्मानंद के पीठ से चढ़ती हुई उसके सर पर पहुंच गई थी। उसके माथे से होती हुई नाक पर पहुँच गई थी। डर के कारण आत्मानंद की घिघ्घी बंध गई थी। आत्मानंद ने जैसे ही मंत्र पढ़ने के लिए मुंह खोला वह नाक पर से चलकर सीधा मुंह में चली गई। उस पहली छिपकली के आत्मानंद के मुंह में जाते ही सभी छिपकलियों ने धीरे-धीरे आत्मानंद के शरीर पर चढ़ना शुरू कर दिया। आत्मानंद ने घबरा कर चीखना शुरू कर दिया, पर उसके चीखते ही छिपकलियों उसके मुंह के रास्ते अंदर जाने लगी थी। बहुत ही छिपकलियों उसके मुंह में चली गई थी और बाकी छिपकली धीरे धीरे उसके शरीर पर चल रही थी। आत्मानंद को अपनी मृत्यु सामने ही दिखाई दे रही थी, पर इस सब के बीच में से वह अपने आसन को छोड़कर नहीं जा सकता था और वहां बैठे-बैठे भी कुछ भी करने में असमर्थ था। जो सबसे पहली छिपकली उसके मुंह में गई थी उसने आत्मानंद के ब्रह्मरंध्र से धीरे-धीरे बाहर निकलना शुरू कर दिया था। आत्मानंद की एक जोरदार चीख उस श्मशान में गूंज उठी थी। वह छिपकली उसके ब्रह्मरंध्र से बाहर निकल कर वापस स्नेहा की तरफ चल दी थी और साथ ही बह निकली थी रक्त की धारा… जो आत्मानंद के सर से बहकर आँखों, नाक और मुंह से होते हुए नीचे आ रही थी। बाकी की छिपकलियां जो आत्मानंद के मुंह से अंदर गई थी... उन्होंने भी बाहर निकलने का रास्ता ढूंढ़कर बाहर निकलना प्रारंभ कर दिया था। कुछ आंखों के रास्ते, कुछ नाक से, तो कुछ कान के रास्ते बाहर आ रही थी, और उनके साथ साथ बाहर आ रही थी रक्त की धार…!! छिपकलियां भी उस रक्त में रंग गई थी और वो रक्त उनकी भयावहता को बढ़ा रहा था। जब मुहं में गई सारी छिपकलियों बाहर आ गई... तब बाहर वाली सारी छिपकलियों ने आत्मानंद के शरीर पर पूरी तरह से अपना अधिकार जमा लिया था। आत्मानंद के शरीर के हर एक हिस्से पर लगभग दस-दस छिपकलियां चिपकी हुई थी। जो उसके शरीर से मांस को नोंच-नोंच कर खा रही थी। कोई भी अगर उस दृश्य को देख ले... तो वहां की विभत्सता के कारण वहीं पर उल्टियां करना शुरू कर दे। अब आत्मानंद के शरीर के स्थान पर केवल उसकी हड्डियों का ढांचा ही बचा था। वह छिपकली जिस पर स्नेहा ने अपने तंत्र का प्रयोग किया था वह स्नेहा के सामने आकर कुछ विशेष ध्वनियाँ निकालती हुई, फट गई उसके भी शरीर के परखच्चे उड़ गए थे। छिपकली के साथ वह स्नेहा ने किया था, ताकि वह छिपकली और किसी को नुकसान नहीं पहुंचा पाए। उसके बाद सारी छिपकलियां एक एक कर के आत्मानंद के हवन कुंड में कूद गई। उनके कुंड में कूदते ही आग के कारण उनके शरीर फट्ऽऽ फट्ऽऽ की आवाज करते हुए हवन कुंड से जलकर कर बाहर गिरने लगे थे। जब सारी की सारी छिपकलियां उस अग्निकुंड से जलकर मर चुकी थी तब श्मशान में वापस से शांति फैल गई थी। वहां का माहौल पहले की अपेक्षा अब शांत दिखाई दे रहा था। स्नेहा ने आत्मानंद का अंत जब देखा तो उसकी आंखों से आंसुओं की धार बह निकली। स्नेहा ने अपने सारे आवाहित देवताओं को विसर्जित किया। सारी शक्तियों को प्रणाम करके अपने-अपने यथा योग्य स्थानों पर जाने की विनती की। उसके बाद उसने धरती को प्रणाम करके अपने सुरक्षा चक्र से बाहर पैर निकाला। बाहर अच्युतानंद जी भी एक सुरक्षा चक्र में बैठे थे। उनकी भी आंखों से आंसुओं की धार बह रही थी और उनके चेहरे पर असीम संतोष दिखाई दे रहा था। स्नेहा ने उनके पास पहुंच कर दंडवत करते हुए कहा, "गुरुदेव आप ही की सहायता के कारण मैं अपने परिवार की हत्या का प्रतिशोध लेने में समर्थ हुई हूं। भले ही अभी यह मेरी पहली विजय है, पर यह विजय भी आप ही की है। आप ही के कारण मैं यह सब कर पाई हूं।" अच्युतानंद ने कहा,"नहीं... स्नेहा एक योग्य गुरु तभी योग्य होता है, जब उसका शिष्य कुछ अच्छा कर पाए और तुमने तो मुझे भी गुरु ऋण से मुक्ति दिलाई है। मैं चाह कर भी आत्मानंद का कुछ नहीं बिगाड़ सकता था, भले ही उससे ज्यादा सिद्धियां मेरे पास थी, पर उसकी मृत्यु तुम्हारे हाथों लिखी थी।" ऐसा कहकर अच्युतानंद ने स्नेहा को जमीन से उठा लिया। और उसके सर पर हाथ रखकर आशीर्वाद देते हुए कहा, "स्नेहा…!! तुम आज आत्मानंद को मारकर गुरु ऋण से भी मुक्त हो गई हो। मुझे मेरी गुरु दक्षिणा मिल गई है। अब तुम शीघ्र ही बाकी लोगों से भी प्रतिशोध लेकर अपना संकल्प पूरा करो।" सनेहा ने हाथ जोड़कर कहा, "अवश्य गुरुदेव…!! मैं शीघ्र ही उस संकल्प को पूर्ण करूंगी। गुरुदेव तब तक क्या मैं मां के ही चरणों में रह सकती हूं?" अच्युतानंद ने कहा, "मां के पास रहने के लिए भी तुम्हें आज्ञा चाहिए। तुम अवश्य रह सकती हो... जब तक चाहो... तब तक।" ऐसा कहकर अच्युतानंद और स्नेहा दोनों मां के मंदिर की तरफ चल दिए। आते समय दोनों के ह्रदय में प्रतिशोध की अग्नि धधक रही थी, पर जाते समय थोड़ी सी शांति की अमृत वर्षा, उस अग्नि पर हुई थी। जिससे उनके मन और मस्तिष्क शांत हो गए थे। शीघ्र ही वह दोनों मां के सामने उनके मंदिर में खड़े थे। स्नेहा जल्दी से नहा-धोकर, शुद्ध होकर मां के मंदिर में चली गई। मां को देखकर उसकी रुलाई फूट पड़ी। स्नेहा जोर-जोर से रोने लगी थी, रोते-रोते वह मां से कहने लगी, "मां... मैं बहुत निर्दयी होती जा रही हूं। पर मां आप ही बताइए वह लोग अपनी सिद्धियों का गलत उपयोग कर रहे थे। उन्होंने मेरे परिवार के अलावा और ना जाने किस-किसको क्या-क्या दुख पहुंचाया है? मां इस सब के लिए मुझे क्षमा कर दो।" स्नेहा जब रो रही थी, तभी अच्युतानंद जी मंदिर में आए और मां को प्रणाम कर, स्नेहा के सर पर नेह भरा हाथ फेर कर कहने लगे, "स्नेहा तुमने कुछ भी गलत नहीं किया है... इसलिए अपने मन पर कोई भी बोझ मत रखो... आत्मानंद इसी योग्य था कि उसे ऐसी ही भयानक मृत्यु मिले। उसने तुम्हारे परिवार के अलावा और भी परिवारों की नृशंस हत्या की थी। इसलिए तुम दुखी ना हो और कुछ खाकर विश्राम करो... तुम्हें बहुत अधिक विश्राम की आवश्यकता है, अपने मस्तिष्क को ठंडा रखने के लिए। आगे वही काम आएगा।" ऐसा कहकर अच्युतानंद जी वापस चले गए और स्नेहा वही मंदिर में बैठे-बैठे ही सो गई। सुबह जब उठी तो अपने आप को काफी हल्का और अच्छा महसूस कर रही थी। स्नेहा ने उठ कर मां को प्रणाम किया और बाहर चली गई। स्नान, ध्यान, पूजन के बाद वह अच्युतानंद जी से मिलने गई। अच्युतानंद जी ने उसे देखते ही पूछा, "अब कैसी हो...स्नेहा?" "मैं ठीक हूं... गुरुदेव।" स्नेहा ने हाथ जोड़कर कहा। "ठीक है अब आगे का कुछ सोचा है…!" अच्युतानंद ने पूछा। स्नेहा ने कहा, "जी गुरुदेव... अगला शिकार अनुज होगा... वैसे भी वो एक चरित्रहीन लड़का है तो उसे फंसाना आसान ही होगा। आज ही अनुज की मृत्यु का दिन होगा। उसके बाद विराज होगा अगला शिकार। वैसे भी आज का दिन विराज को गुरु जी याद में बिताने देते है।" अच्युतानंद ने कहा, "जैसा तुमको उचित लगे... पर जो भी करना अपना ध्यान रखकर करना।" "जी गुरुदेव... मैं अवश्य अपना ध्यान रखूंगी।" ऐसा कहकर स्नेहा वहां से चली गई। सुबह विराज जब आत्मानंद के श्मशान में पहुंचा, वहां की हालत देखकर एकदम सकते में आ गया था। उसने सोचा भी नहीं था कि कभी उसके गुरु के साथ इतना बुरा हो सकता था, पर अब इसमें कुछ भी किया नहीं जा सकता था। विराज चुपचाप वहां से वापस लौट गया और उस बात को भूलने का प्रयत्न करने लगा। विराज के मन में स्नेहा का डर बढ़ता ही जा रहा था और साथ ही घटती जा रही थी उसकी सांसे…!!! शाम के समय अनुज घर पर एक फोन आया, फोन अनुज ने उठाया था। फोन के उठते ही आवाज आई, "हेलो ऽऽऽ हेलो ऽऽऽऽ आप जो भी हैं... प्लीज मेरी हेल्प कीजिए... मुझे यहां कुछ लोगों ने किडनैप करके रखा है। वह लोग मुझे जबरदस्ती उठाकर ले आए हैं। प्लीज मेरी हेल्प कीजिए…!!" अनुज ने पूछा, "तुम कौन हो... और कहां हो…??" उस लड़की ने कहा, "मेरा नाम स्वीटी है... मेरे सत्रहवें जन्मदिन के दिन…. इन लोगों ने मुझे उठा लिया था। मैंने इन्हें बातें करते सुना... कि यह लोग मुझे किसी बड़े आदमी को बेचने वाले हैं… प्लीजऽऽऽ मुझे बचा लीजिएऽऽऽऽ…!!" अनुज ने पूछा, "तुम हो कहां…??" स्वीटी ने घबराते हुए कहा, "वह... तो... मुझे नहीं पता, पर आप इस नंबर की लोकेशन ढूंढ लो… प्लीज ऽऽऽ मेरी मदद कीजिए। वह लोग दो दिन के लिए बाहर गए हैं, जब आएंगे... तो उसी दिन मुझे बेच देंगे…!!" अनुज ने पूछा, "तो तुम्हारे पास फोन... कहां से आया…??" स्वीटी ने रोते हुए कहा, "एक गुंडा गलती से फोन को चार्ज में लगा कर भूल गया था... बड़ी मुश्किल से इसका लॉक खोला है... आप प्लीज ऽऽऽ मुझे बचा लीजिए!! पुलिस... पुलिस... को मत बताइएगा, क्योंकि उनमें से एक आदमी पुलिस वाला है। प्लीज ऽऽऽ मुझे बचा लीजिए ऽऽ…!!" अनुज ने कहा, "ठीक है…ठीक है...मैं देखता हूं…!" और फोन कट गया। अनुज ने सोचा... "उस लड़की के बारे में किसी को भी नहीं पता... और अभी है भी छोटी…!!" उसके बारे में सोच कर ही अनुज के चेहरे पर शैतानी हंसी थी। वो जल्दी में घर से बाहर निकल गया पर बाहर ही अरुणा से टकरा गया। अरुणा ने पूछा, "अनुज... इतनी जल्दी में कहां जा रहे हो?" अनुज ने कहा, "कहीं नहीं मामी मेरे एक दोस्त का फोन आया था, उसका एक्सीडेंट हो गया है तो बस उसी के पास जा रहा हूं।" ऐसा कहकर वह निकल गया। स्वीटी के फोन की लोकेशन अनुज ट्रेस कर पा रहा था। उसकी लोकेशन ट्रेस करते-करते अनुज उस घर के बाहर पहुंच गया। जब अनुज वहां पहुंचा तो लगभग रात हो चली थी। वह घर शहर से बाहर एक छोटा सा टूटा-फूटा सा मकान था। बाहर से देखने पर वह खंडहर जैसा ही दिखाई पड़ रहा था। अनुज ने सोचा, "यहां पर अगर मैं कुछ भी करता हूं… तो किसी को कुछ पता ही नहीं चलेगा... और वैसे भी वह लड़की... उस लड़की के बारे में किसी को कुछ पता नहीं है। मैं जल्दी अपना काम खत्म करके यहां से निकल जाऊंगा।" अनुज ने ऐसा सोचते हुए उस घर में कदम रखा। अंदर से वह घर बाहर जैसा ही दिख रहा था, बिल्कुल खण्डहर…!! दो कमरे, एक हॉल, टूटी फूटी सी रसोई और एक बंद कमरा। अनुज ने उस कमरे को खोला तो सामने एक बेड लगा हुआ था। उस कमरे में कोई भी खिड़की नहीं थी, केवल एक दरवाजा ही था जिस पर अनुज खड़ा था। अचानक उसके पीछे से एक तेज आवाज आई और जोरदार धक्का लगने से अनुज अंदर जाकर गिर पड़ा।
एक जोरदार धक्का लगने के बाद अनुज उस कमरे में जाकर गिरा। एक बार को तो अनुज का दिमाग हिल गया था। वह सोचने लगा था, "मैं तो यहां उस लड़की के लिए आया था। पर यहां शायद कोई और भी है।" अनुज अंदर मुंह के बल पर जाकर गिरा था। गिरने की वजह से उसका सिर चकरा रहा था, ठीक से दिखाई नहीं दे रहा था। उसने पलट कर देखा तो एक स्त्री आकृति चलकर आ रही थी, जिसके पीछे से तेज रोशनी आ रही थी। अनुज की आंखों को और भी चौंधियाने पर विवश कर रही थी। उस स्त्री को देखने का मोह अनुज को उसी तरह आंखें खोल कर देखने पर विवश कर रहा था। धीरे-धीरे वह लड़की आगे बढ़ रही थी। एक बार को देखने पर वह लड़की एक फिटेड जींस और टॉप पहने दिखाई दे रही थी। पैरों में हील्स पहनी हुई थी, जिसकी आहट अनुज को सुनाई पड़ रही थी। बाल हवा में लहरा रहे थे, उसे देखने के लिए अनुज को बार-बार अपनी आंखें खोल और बंद करनी पड़ रही थी, पर फिर भी वो लड़की अनुज को दिखाई नहीं दे रही थी। धीरे धीरे वह लड़की जैसे-जैसे पास आ रही थी, अनुज की आंखें डर से चौड़ी होती जा रही थी। मुंह खुला हुआ था, पर शब्द बाहर नहीं आ रहे थे। एकटक अनुज उसी लड़की को घूरे जा रहा था। बड़े ही मुश्किल से उसके मुंह से एक शब्द निकला…. "स्नेऽऽऽऽऽहाऽऽऽऽऽऽ…!!!" वह डर के कारण धीरे-धीरे पीछे सरक रहा था, और वह लड़की उसी की तरह धीरे-धीरे आगे बढ़ती जा रही थी। थोड़ा सा और करीब आने पर उसके हाथों में एक बड़े से फल वाला चाकू दिखाई देने लगा था। उस पर जो पड़ने वाली रोशनी, अनुज को डराने लगी थी। अनुज के मुंह से केवल दो ही शब्द निकल रहे थे… "छोऽऽऽड़ऽऽऽ दोऽऽऽऽ…!!! जाऽऽऽऽनेऽऽऽ दोऽऽऽ…!!" पर वो लड़की चाकू से खेलती हुई धीरे-धीरे अनुज की तरफ आगे बढ़ रही थी, और अनुज की जिंदगी पीछे। जब वह लड़की पूरी तरह से दिखाई देने लगी, तब अनुज को समझ में आया, यह सच में स्नेहा ही थी। अभी तक अनुज को सिर्फ उस लड़की के स्नेहा के होने का आभास था, पर अब यह बात साफ हो गई थी कि वह लड़की स्नेहा ही थी। अनुज ने उसके सामने देख कर कहा, "स्नेहाऽऽऽ तुम.!!! तुम यहां क्या कर रही हो... और यह चाकू तुम्हारे पास क्या कर रहा है…??" स्नेहा ने गुस्से से एक-एक शब्द चबाते हुए अनुज को घूर कर कहा, "तुम तो बहुत जल्दी डर गए अनुज…!! उस समय तुम लोगों को डर नहीं लगा था, जब तुमने विराज के साथ मिलकर मेरे मां, पापा, भाई, भाभी और राधु के मर्डर का प्लान बनाया था। तब तुम्हें डर नहीं लगा था... जब तुम आत्मानंद के साथ मिलकर उनके ऊपर तंत्र प्रहार कर रहे थे…??" अनुज कहने लगा, "मुझे छोड़ दो... स्नेहा... मैं भाई हूं तुम्हारा…!!!" स्नेहा ने एक जोरदार अट्टहास किया और गरज कर कहा, "भाई… हा...हा…हा…!!! तुम जानते भी हो... भाई होता कौन है…?? भाई वह होता है... जो अपनी बहन की रक्षा के लिए अपनी जान की भी बाजी लगा देता है। पर तुम वह भाई हो... जिसने हमेशा से मेरी जान लेने की कोशिश की। तुम्हें तो मेरी प्रॉपर्टी में इंटरेस्ट है ना... तो अब मैं तुम्हें भी मेरे मम्मी पापा के पास... ओह...नहीं… नहीं… वह तो स्वर्ग गए होंगे। क्योंकि तुम जैसे लोगों को इतने प्यार से जो रखा था… और तुम लोग...तुम तो नर्क में जाने के लायक भी नहीं हो, पर… छोर छोड़ो और कहीं तो जा नहीं सकते, तो नरक में ही जाओगे, और वहां का रास्ता... मैं तुम्हें दिखाऊंगी…!!!" ऐसा कहकर स्नेहा धीरे-धीरे अनुज की तरफ आगे बढ़ने लगी। अनुज धीरे-धीरे पीछे सरकते हुए दीवार से लग गया था। आगे और पीछे से सरकने का रास्ता नहीं देख कर अनुज हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाने लगा। "प्लीजऽऽऽ स्नेहाऽऽऽ छोड़ दो... मुझे भगवान के लिए छोड़ दो…!!" स्नेहा ने उसकी बात को अनसुना कर दिया... और एक भयानक हंसी हंसते हुए आगे बढ़ने लगी। स्नेहा ने बालों से पकड़कर अनुज को ऊपर उठा लिया और उसका सर दीवार पर दे मारा। अनुज के सिर से खून बहने लगा था। वह चीखते हुए सर पकड़ कर जमीन पर बैठ गया। स्नेहा ने अपने हाथ से अनुज का बांया हाथ पकड़ लिया और हाथ को कंधे से चीरती हुई चाकू को कलाई तक ले गई। अनुज जोर जोर से चीख रहा था... पर स्नेहा से अपना हाथ छुड़ा नहीं पा रहा था। उसकी हड्डियां दिखने लगी थी। स्नेहा ने उस हाथ से दिखने वाली नसों को पकड़ कर एक-एक करके धीरे-धीरे बाहर खींचना शुरू कर दिया। वह नसों को खींचती जा रही थी और अनुज की ह्रदय विदारक चीखें आसपास के माहौल में फैलती जा रही थी। उसकी चीखों से स्नेहा को बहुत ही ज्यादा शांति का अनुभव हो रहा था। थोड़ी देर बाद नसें अपने साथ-साथ बाकी शरीर का मांस भी साथ ही लेकर खींचने लगी थी। नसों के साथ बाकी शरीर के मांस के खींचने के कारण अनुज बहुत ही जोर जोर से चीखे जा रहा था। थोड़ी देर बाद दर्द के कारण अनुज का शरीर उसका साथ छोड़ने लगा था। पर स्नेहा रुकी नहीं वह लगातार नसों को खींचती जा रही थी। अब धीरे-धीरे नसें टूटने लगी थी और फर्श पर खून बिखरने लगा। अनुज का खून पूरे फर्श को लाल कर रहा था। थोड़ी देर में दर्द बर्दाश्त नहीं करने के कारण अनुज की मौत हो गई... और स्नेहा के चेहरे पर एक विजयी मुस्कान फैल गई। जल्दी स्नेहा ने वहां से जाने का इरादा कर लिया था। क्योंकि ज्यादा देर रुकने पर उसके बारे में पुलिस को खबर हो सकती थी। जो उस टाइम स्नेहा के लिए ठीक नहीं था। स्नेहा ने जैसे ही चलने का निश्चय किया, उसने देखा उसके पैर के जूतों के नीचे अनुज का खून था। अगर वह ऐसे जाती तो उसके जूते के निशान सबको दिख सकते थे। जिसके कारण स्नेहा फंस सकती थी। स्नेहा ने अपनी शक्तियों से एक जोड़ी विचित्र प्रकार के दिखने वाले जूते मंगवाए। जिनके जमीन में निशान एक बड़े से जानवर के पैर जैसे दिखें, ताकि किसी को भी स्नेहा पर शक ना हो। स्नेहा उन जूतों को पहन कर जल्दी ही बाहर निकल गई। स्नेहा ने अगला शिकार दो-चार दिन बाद करने का निश्चय किया। तब तक सबको अनुज के बारे में पता चल ही जाएगा। स्नेहा ने वह दो-तीन दिन वही मां के मंदिर में बिताने का निश्चय किया। इसी बीच स्नेहा ने विराज पर नजर रखना शुरू कर दिया था। "कब वह कहां जाता था…? कब आता था…?? और उसकी खास आदतें क्या-क्या थी??" इन सब पर स्नेहा वही मंदिर से ही नजर रख रखी थी। स्नेहा को पता चला कि… इस वक्त विराज के घर पर कोई नहीं था।उसके बच्चे विदेश में पढ़ते थे और उसकी पत्नी अधिकतर अपनी किटी पार्टी और क्लबिंग में बिजी रहती थी। फिलहाल वह अपने किसी मित्र मंडल के साथ मालदीव घूमने गई थी। रात के समय विराज अकेला घर पर होता था। 10:00 बजे बाद नौकरों को बंगले में रहने की इजाजत नहीं थी। रोज रात में नई लड़कियों का आना जाना रहता था। दरवाजे पर एक चौकीदार चौबीसों घंटे तैनात रहता था। मेन गेट पर सीसीटीवी कैमरा और बंगले के मेन डोर पर भी दो सीसीटीवी कैमरे लगे थे। जो हमेशा काम करते रहते थे। जब भी कोई लड़की बंगले में आती जाती थी उस समय कैमरे कुछ देर के लिए बंद कर दिये जाते थे। लड़कियां एक काली गाड़ी में आती थी, जिसके कांच पर ब्लैक फिल्म चढ़ी होती थी। जिससे बाहर वाला अंदर ना देख पाए कि गाड़ी में कौन बैठा है। ड्राइवर को भी उस लड़की की शक्ल देखने की इजाजत नहीं थी। ड्राइवर को बस उस गाड़ी को बंगले के मेन डोर के सामने रोकना होता था और विराज के फोन आने के बाद गाड़ी स्टार्ट करके लड़की को, जहां वह चाहे वहां वापस छोड़कर आना होता था। इस बारे में सारी बातें स्नेहा को वहां पर गई एक लड़की से पता चली थी। अब स्नेहा का प्लान फिक्स था कि स्नेहा को किस तरह अंदर जाना था और अपना काम खत्म करके जल्दी से जल्दी बाहर निकलना था…?? वह भी ऐसे कि उसकी शक्ल सीसीटीवी में दिखाई ना दे…! स्नेहा ने हर एक जानकारी को अच्छे से एनालाइज करके अपना प्लान तैयार कर लिया था। वहीं दूसरी तरफ आस-पास के माहौल में अजीब सी दुर्गंध फैली हुई थी, जो एक घर की तरफ चलने पर और भी बढ़ती जा रही थी। किसी ने उस दुर्गंध के बारे में पुलिस को खबर कर दी थी। इंस्पेक्टर अपनी एक टीम के साथ वहां पहुंचा... यह वही घर था जहां... अनुज की हत्या हुई थी…! गर्मी के कारण दो ही दिन में शरीर से बदबू आने लगी थी। गर्मी के कारण बॉडी जल्दी ही डीकंपोज होना शुरू हो गई थी। पुलिस ने घर में कदम रखा तो एक बदबू का भभका बाहर निकला। उसके कारण सभी लोगों को अपनी नाक रुमाल से अच्छी तरह से बंद करनी पड़ गई। धीरे-धीरे पुलिस ने पैनी नजर रखते हुए अंदर जाना शुरू किया। वहां पर उन्हें जमीन पर अजीब से पैरों के निशान मिले। अंदर जाने पर एक बॉडी जिससे खून बह कर सूख गया था। शरीर की नसें बाहर बिखरी पड़ी थी, आंखें डर के कारण फैली हुई थी पर उनमें भी कीड़े लग चुके थे। उस बॉडी को देखकर एक बार को तो पुलिस वालों को भी डर लग आया था। इतनी विभत्सता कोई कैसे दिखा सकता था, सभी यही सोच रहे थे। एक पुलिस इंस्पेक्टर ने कॉन्स्टेबल से कहा, "इसे चेक करो और देखो कि... कोई आईडी या कुछ फोन वगैरह इसके पास है या नहीं??" कॉन्स्टेबल ने उस बॉडी को चेक किया तो उसके पास से एक फोन बरामद हुआ। जिसमें मां की लगभग 80 मिस कॉल थी, और भी नंबरों से मिस कॉल थी। इंस्पेक्टर ने मां वाले नंबर पर फोन लगाकर उन्हें अनुज के बारे में बताया… थोड़ी देर में एक काली गाड़ी वहां झटके से आकर रुकी। उस गाड़ी में से अखिलेश, राहुल और गीता बदहवास से भागते हुए अंदर पहुंचे। अंदर उस बॉडी को देखकर गीता चीख पड़ी… "अनुऽऽऽऽजऽऽऽऽऽ…!!!" और चिल्ला कर बेहोश हो गई। अखिलेश भी एक बार को चक्कर खाकर गिरने ही वाले थे कि एक पुलिस वाले ने उन्हें संभाल लिया। राहुल भी एक बार को उस सब को देख कर सकते में आ गया था। उन्हें यह बिल्कुल भी अंदाजा नहीं था कि दो दिन से अनुज इसलिए घर वापस नहीं लौटा था। अनुज ऐसा कई बार कर चुका था। अक्सर वह अपने दोस्तों के साथ बिना बोले बाहर निकल जाता था। पर उन्होंने ऐसा नहीं सोचा था कि अनुज के साथ ऐसा कुछ हादसा भी हो सकता था। पुलिस ने उनसे जरूरी पूछताछ की। इंस्पेक्टर ने पूछा, "आप लोगों को कैसे नहीं पता कि अनुज कहाँ और कब गया था…?? वो आप लोगों को बिना बताये ही निकल जाता था???" तो अखिलेश जी ने बताया, "अनुज हड़बड़ी में बाहर निकला था... बाहर निकलते समय अरुणा जी, मेरी पत्नी से टकरा गया था। अरुणा जी ने उससे पूछा भी था कि इतनी जल्दी में कहां जा रहे हो…?? तो उसने बताया कि मेरे एक दोस्त का एक्सीडेंट हो गया है... उसी की सहायता के लिए जा रहा हूँ। मैं जल्दी ही वापस आ जाऊँगा…!!" फोन कॉल के बारे में पता चलने पर पुलिस ने अनुज के फोन को चेक किया। फोन में चेक करने पर एक अननोन नंबर उन्हें मिला था, जो किसी भी जानकारी के लिए उपयुक्त नहीं था। पुलिस ने भी खानापूर्ति करके इस केस को बंद करना ही ठीक समझा, क्योंकि किसी भी तरह के कोई भी सबूत... कोई भी जानकारी उनके हाथ नहीं लगी थी। सिवाय उन अजीब से पैरों के निशानों के… गीता जी की हालत रो-रो कर बहुत ही ज्यादा खराब हो गई थी। घर में भी मातम पसर गया था। सभी ने गीता जी को चुप कराने का प्रयास किया पर वह चुप होने का नाम ही नहीं ले रही थी। फिर अखिलेश ने जोर से गुस्से से चिल्लाते हुए कहा, "जीऽऽऽजीऽऽऽ... बस करो। आपको नहीं पता कि अनुज की हरकतें कैसी थी…?? हो सकता है किसी लड़की के चक्कर में उसके भाइयों ने अनुज की यह दुर्दशा की हो। क्योंकि जितनी बेरहमी से उसे मारा गया है... शायद अनुज ने उसकी बहन के साथ उतनी ही बेरहमी की हो।" इस पर राहुल और अरुणा जी ने भी हां में हां मिलाई। थोड़ी देर की बहस और बातचीत के बाद यह निष्कर्ष निकला कि विराज के गुरु जी से मिलकर अनुज की मौत के बारे में बात करनी चाहिए। आत्मानंद जी के बारे में बात सुनकर गीता जी को थोड़ी तसल्ली हुई थी। उसे लगा था कि शायद अनुज के बारे में अब कुछ पता चल जाएगा। अखिलेश ने विराज को कॉल किया। एक-दो रिंग्स जाने पर विराज ने फोन उठाया… विराज:- "हेलोऽऽऽ" अखिलेश जी:- "हेलोऽऽऽ विराज जी मैं... अखिलेश बोल रहा हूं। हमें आपके गुरु जी... आत्मानंद जी से मिलना है।" विराज:- "वह तो नहीं हो पाएगा... क्योंकि अब गुरुदेव नहीं रहे... किसी ने उनकी बहुत ही दर्दनाक तरीके से हत्या कर दी है।" यह सुनकर अखिलेश की हालत खराब हो गई और उसके हाथ से फोन गिर पड़ा। सभी लोग अखिलेश को ऐसे देख कर घबरा गए थे। जल्दी से राहुल ने फोन उठाया... और विराज से बात करना शुरू कर दिया… कुछ देर… हांऽऽऽ. हूंऽऽऽ… के बाद राहुल ने यह कहते हुए फोन रख दिया, "हम कल आपसे... आपके घर पर मिलते हैं…!!" फोन रखते ही गीता जी अरुणा जी घबराकर पूछने लगी... "क्या हुआ है…??" तब राहुल ने कहा, "किसी ने आत्मानंद जी की हत्या बहुत ही बेरहमी से कर दी है। इस बारे में विराज को भी कोई जानकारी नहीं है, कि उनकी हत्या किसने की है…? विराज भी इस समय बहुत ही ज्यादा टेंशन में है। मैंने उन्हें कह दिया है... कि हम कल सुबह 12:00 बजे उनके घर उनसे मिलने आ रहे हैं...