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शौहर

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Devika ..

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तीन तलाक और हलाला के विरूद्ध एक लड़ाई की कहानी इस उपन्यास का सबसे महत्वपूर्ण संदेश यह है कि डर, दबाव, और असमानता को चुनौती देना संभव है। चाहे वह परिवार, समाज, या राजनीतिक रसूख का दबाव हो—एक व्यक्ति की हिम्मत और सच्चाई समाज को बदल सकती है। बहनों...

Total Chapters (3)

Page 1 of 1

  • 1. शौहर - Chapter 1

    Words: 1313

    Estimated Reading Time: 8 min

    मोरादाबाद के पुराने मोहल्ले में शाम ढल चुकी थी। गलियों के ऊपर पीली स्ट्रीट लाइटें ऐसे टिमटिमा रही थीं जैसे कोई थकी हुई साँस धीरे-धीरे छूट रही हो। पुराने घरों के बीच बनी संकरी राहों पर आज कुछ ज़्यादा ही सन्नाटा था—जैसे शहर किसी आने वाली आंधी का इंतज़ार कर रहा हो।

    इसी मोहल्ले के एक पुराने मकान की दूसरी मंज़िल पर, खिड़की के पास बैठी थी मरियम—28 साल की, शांत स्वभाव की, लेकिन भीतर से आग की तरह दहकती हुई एक स्त्री। उसने हमेशा यही सीखा था कि “औरत को चुप रहना चाहिए… घर का मामला घर में रहना चाहिए।” मगर उसकी आँखों में जो बेचैनी थी, उससे साफ़ लगता था कि कुछ टूटा है… और इस बार शायद पूरी तरह।

    कमरे के अंदर घड़ी की टिक-टिक गूंज रही थी, मगर मरियम के कानों में सिर्फ़ वो तीन शब्द बार-बार हथौड़े की तरह बज रहे थे—

    “तलाक… तलाक… तलाक।”

    ये शब्द आज शाम उसके शौहर फैज़ान ने गुस्से में चीखकर कहे थे।

    मरियम अब तक काँप रही थी। उसने यह तीन शब्द सिर्फ़ किसी मुहावरे की तरह सुने थे, या कभी अख़बार की किसी खबर में। लेकिन जब ये तीन शब्द एक स्त्री की ज़िंदगी पर गिरते हैं, तो वे महज़ शब्द नहीं रहते—वे किसी की दुनिया उखाड़कर फेंक देते हैं।

    मरियम ने घुटनों को बाँहों में दबाते हुए आँसू रोकने की कोशिश की।
    वो सोच भी नहीं पा रही थी कि कुछ ही घंटों में उसकी पहचान—उसका घर—उसकी इज़्ज़त—सब कुछ एक आदमी के गुस्से की भेंट चढ़ गया।

    उसे याद था—गुस्से की वजह क्या थी?

    बस एक बात…

    बस इतना कि मरियम ने फैज़ान को अपने नौकरी करने के फैसले के बारे में बताया था।

    “औरत की जगह घर है,” फैज़ान ने कहा था।

    “और आदमी की जगह औरत की ज़िंदगी पर हुकूमत करना नहीं,” मरियम ने धीरे से जवाब दिया—वही जवाब जिसने उसकी दुनिया जलाकर रख दी।

    मरियम ने सिर उठाया।
    अंदर कहीं एक आखिरी उम्मीद बाकी थी कि शायद यह सब किसी तरह टल जाए… शायद फैज़ान लौट आए… शायद वो कह दे कि सब गुस्से में हुआ… शायद…

    लेकिन पता था—शायदें हमेशा कमजोर होती हैं।
    कमज़ोर… ठीक वैसे ही जैसे समाज औरत की आवाज़ को मानता है।

    कुछ ही देर बाद दरवाज़े पर दस्तक हुई।
    मरियम चौंककर उठी।

    दरवाज़ा खोला तो सामने फैज़ान की अम्मी हाजरा बेगम खड़ी थीं—चेहरे पर बनावटी दया की परतें, और भीतर वही पुरानी कठोरता।

    “मरियम, सामान बाँध लो। जब तलाक हो गया, तो अब इस घर में रहने का कोई हक नहीं।”

    मरियम का दिल ज़ोर से धड़का।

    “अम्मी, फैज़ान ने गुस्से में कहा था… क्या इस्लाम में गुस्से का तलाक मान्य है? मौलवी साहब कहते हैं कि—”

    हाजरा बेगम ने हाथ उठाकर उसे चुप करा दिया।

    “औरतें बहुत पढ़-लिख गई हैं, अब इन्हें मौलवी की भी ज़रूरत नहीं? जो मेरा बेटा कह चुका, वही हुक्म है।”

    “पर—”

    “और हाँ,” हाजरा ने आगे कहा, आँखें सँकरी करते हुए, “अगर इस घर में लौटना चाहती हो… तो सब जानती हो कि क्या करना पड़ेगा।”

    मरियम का दिल सिहर उठा।

    वो जानती थी हाजरा किसकी तरफ़ इशारा कर रही है—

    हलाला।

    तलाक के बाद उसी फैज़ान से दोबारा निकाह करने के लिए मरियम को पहले किसी और मर्द से शादी करनी होगी… उसके साथ रात बितानी होगी… फिर तलाक लेकर फिर से फैज़ान से निकाह करना होगा।

    मरियम के पूरे शरीर में घृणा की लहर दौड़ गई।

    क्या एक औरत की इज़्ज़त मज़ाक है?

    क्या उसके जिस्म को एक कागज़ की तरह इधर-उधर पास किया जा सकता है?

    क्या उसके जीवन का मूल्य बस इतना है कि वह किसी पुरुष के गुस्से का हिसाब अपने शरीर से चुकाए?

    उसने हाजरा की ओर देखा—सीधी, ठंडी, दृढ़ नजरों से।

    “मैं हलाला नहीं करूँगी,” मरियम ने साफ आवाज़ में कहा।

    हाजरा बेगम का चेहरा तमतमा उठा।
    “अगर फैज़ान के घर लौटना है तो करना पड़ेगा।”

    मरियम ने धीमे पर भारी शब्दों में कहा—
    “और अगर नहीं लौटना चाहूँ तो?”

    कुछ पल की खामोशी।

    हाजरा ने व्यंग्य से कहा, “तो दुनिया देख लेगी कि तलाकशुदा औरत का अंजाम क्या होता है। मायके भेज देती हूँ। वहीं का बोझ बनकर रहो जिंदगी भर।”

    इससे पहले कि मरियम कुछ कहती, हाजरा पलटकर नीचे उतर गई।
    मरियम दरवाज़े के पास ही खड़ी रह गई—जैसे जमीन उसके पैरों से खिसक गई हो।


    ---

    उसी रात, अपनी छोटी-सी संदूकची में कपड़े रखते हुए मरियम का हाथ काँप रहा था।
    हर कपड़ा उठाते हुए उसे वो दिन याद आ रहा था जब उसने इन्हें पहना था—फैज़ान के साथ बाज़ार की सैर, ईद का दिन, पहली सालगिरह… हर याद उसके दिल पर घाव की तरह बैठी थी।

    तभी कमरे में उसकी छोटी बहन सना हांफती हुई पहुँची।

    “अप्पी! ये क्या सुन रही हूँ? फैज़ान भाई ने सच में…?”

    मरियम ने सना को सीने से लगा लिया।
    “हाँ, सना। कह दिया।”

    सना की आँखों में गुस्सा तड़प रहा था।
    “लेकिन ये गलत है! इस्लाम में नाइंसाफी की इजाज़त नहीं है! ये तीन तलाक वाली बात को हमारी जैसी औरतों पर थोपकर लोगों ने खुद कानून बना लिए हैं! मौलवी साहब से बात करो!”

    मरियम ने कड़वा सा सच कहा—
    “बहुत से मौलवी वही कहेंगे जो मर्द सुनना चाहते हैं, सना।”

    सना ने मरियम के हाथ थाम लिए—
    “अप्पी, तुम अकेली नहीं हो। मैं हूँ।”

    मरियम की आँखें भर आईं।
    वक्त ऐसा था जब अपनी बहन का हाथ किसी सहारे से कम नहीं लगा।


    ---

    मायके में भी माहौल अच्छा नहीं था।
    अब्बू बीमार, अम्मी चिंता में डूबी, और समाज की वह नज़रों का बोझ जो तलाकशुदा औरत को ही दोषी मानता है।

    मरियम जब घर पहुँची तो अम्मी की आँखें भर आईं।

    “मरियम… मेरी बच्ची… हम क्या कर सकते थे?”
    अम्मी की आवाज़ काँप रही थी।

    मरियम ने उन्हें शांत किया—
    “अम्मी, मैंने कुछ गलत नहीं किया। गलती सिर्फ़ इतनी थी कि मैंने अपनी एक ज़िंदगी जीने की इच्छा जताई।”

    अब्बू ने खांसते हुए कहा—
    “बेटी, हम तुम्हारे साथ हैं। लेकिन समाज… लोग… रिश्तेदार… बहू-बेटियों के सामने तुम्हारा उदाहरण देंगे…”

    “और मैं चाहती हूँ कि दें,” मरियम ने दृढ़ता से बीच में कहा, “क्योंकि चुप रहना ही तो हमारी सबसे बड़ी हार है।”

    अब्बू पहली बार मुस्कुराए।
    उनकी आँखों में एक अनकहा गर्व था।


    ---

    रात गहरी हो चुकी थी।

    मरियम अपने कमरे में अकेली बैठी थी।
    मोबाइल बार-बार चमक रहा था—फैज़ान के मैसेज नहीं… बल्कि उसे मिलने वाले ताने, सलाहें, धमकियाँ।

    “औरतें ज्यादा पढ़ जाएँ तो घर बिगड़ता है।”
    “हलाला कर लो, सब ठीक हो जाएगा।”
    “तलाक के बाद अब कौन अपनाएगा तुम्हें?”
    “मर्द के खिलाफ खड़े होकर जीत नहीं सकती।”

    हर संदेश एक तीर की तरह दिल पर लग रहा था।

    कुछ देर बाद सना अंदर आई, हाथ में एक कागज़ लिए।

    “अप्पी… ये देखो।”
    यह एक अख़बार की कटिंग थी।

    शीर्षक—
    “महिलाओं ने उठाई आवाज़: तीन तलाक और हलाला पर सवाल”

    मरियम ने पूरी खबर पढ़ी।
    उसके जैसे दर्द से गुज़री कई औरतें अब सामने आ रही थीं—कोर्ट जा रही थीं—अपने हक की लड़ाई लड़ रही थीं।

    मरियम की आँखों में हल्की चमक उभरी।

    “अप्पी,” सना ने कहा, “क्या तुम भी लड़ोगी? अदालत में? कानून के सामने? दुनिया के सामने?”

    मरियम धीरे से उठी।
    खिड़की की तरफ़ गई।
    रात का अंधेरा शांत था… लेकिन कहीं दूर कोई नई सुबह जन्म ले रही थी।

    उसने पूरा साहस समेटकर कहा—

    “हाँ, सना।
    मैं लड़ूँगी।
    अपने लिए नहीं—उन सब औरतों के लिए, जिन्हें आज भी हलाला और तीन तलाक के नाम पर चुप कराया जाता है।”

    उसकी आवाज़ मजबूत थी।

    सना ने उत्साह से कहा—
    “तो कल से तैयारी शुरू!”

    मरियम ने गहरी साँस ली।

    यह रास्ता आसान नहीं था।
    फैज़ान उसकी इज्ज़त खराब करने, उसे गुमराह साबित करने की हर कोशिश करेगा।
    मौलवी उसे गलत ठहराएँगे।
    समाज सवाल पूछेगा।
    रिश्तेदार दूरी बना लेंगे।

    लेकिन मरियम अब टूटने वाली नहीं थी।

    उसने उस रात खुद से एक वादा किया—

    “अब किसी मरियम को हलाला की आग में नहीं जलने दूँगी।”

    उसी क्षण, एक औरत जन्मी—
    जो सिर्फ़ तलाकशुदा पत्नी नहीं…
    बल्कि न्याय की लड़ाकू थी।

    और उसके जीवन की यह लड़ाई बस अब शुरू हुई थी।


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  • 2. शौहर - Chapter 2 <br>मोहल्ले में आग—“मरियम अदालत जा रही है!”

    Words: 1342

    Estimated Reading Time: 9 min

    सुबह का सूरज अभी पूरी तरह उगा भी नहीं था कि मरियम ने अपनी दुपट्टे को कंधे पर ठीक किया और आईने में खुद को देखा। उसकी आँखों में नींद कम, और उम्मीद ज़्यादा थी। वो जानती थी—आज का दिन उसके जीवन की सबसे बड़ी जद्दोजहद की शुरुआत होगा।

    नीचे रसोई में सना नाश्ता बना रही थी। जैसे ही मरियम उतरी, सना ने मुस्कराकर कहा,
    “अप्पी, तैयार हो? आज हमें लीगल एड सेंटर जाना है।”

    मरियम ने सिर हिलाया।
    “हाँ। आज से लड़ाई की पहली दस्तक होगी।”

    अम्मी दरवाज़े के पास तस्बीह हाथ में लिए खड़ी थीं।
    “बेटी, अल्लाह भला करे। मैं दुआ कर रही हूँ।”

    मरियम ने अम्मी को गले लगाया।
    यह गले लगना किसी ढाल से कम नहीं लगा—जो उसे हर तीर और हर ताने से बचाता रहा।


    ---

    ⚖ कोर्ट का पहला कदम

    लीगल एड सेंटर बड़ा नहीं था।
    लेकिन वहां आने वाली महिलाएँ बड़ी कहानियाँ लेकर आती थीं—किसी की टूटी हड्डियाँ, किसी के टूटे सपने, किसी का छिना हुआ सम्मान, किसी की जलती हुई चुप्पी।

    रिसेप्शन पर बैठी एक लड़की ने पूछा,
    “किस केस के लिए आई हैं?”

    मरियम ने एक धीमी मगर मजबूत आवाज़ में कहा—
    “अन्याय के खिलाफ़। तीन तलाक और हलाला के खिलाफ़।”

    लड़की ने चौंककर उसे देखा।
    शायद ये उन मामलों में से था जिनमें समाज खुद बंट जाता है।

    “आपकी वकील मैडम सहर होंगी। पाँच मिनट में मिलेंगी।”

    सना ने धीरे से कहा,
    “अप्पी, अच्छा हुआ। कोई आखिर सुनने वाला तो मिलेगा।”

    मरियम ने हल्की मुस्कान दी।
    “हाँ, लेकिन लड़ाई सुनने से आगे की है… मानने की है।”


    ---

    👩‍⚖ वकील सहर फ़ारूक़ से मुलाक़ात

    सहर एक युवा, तेज नज़र वाली वकील थी।
    उसकी मेज पर कानून की किताबें थीं और दीवार पर लिखा हुआ था—

    “कानून—औरत का नहीं, इंसान का हक होता है।”

    सहर ने मरियम को देखते ही कहा,
    “आप ही मरियम हैं?”

    मरियम ने सिर हिलाया।

    “मुझे आपकी कहानी बता दी गई है। लेकिन मैं आपसे सुनना चाहती हूँ… बिना रोके, बिना डरे।”

    मरियम ने सब कुछ बताया—तलाक के तीन शब्द, समाज का दबाव, हलाला का ज़िक्र, फैज़ान की गुस्सैल सोच, सास की तंगदिली… और यह भी कि वह अब पीछे नहीं हटेगी।

    सहर ने गहरी साँस ली।
    “मरियम, आपकी लड़ाई आसान नहीं है। मौलवी, समाज, यहां तक कि कई रिश्तेदार आपके खिलाफ़ खड़े होंगे। आपको बदनाम किया जाएगा। कहना पड़ेगा—क्या आप इसके लिए तैयार हैं?”

    मरियम ने बिना झिझक कहा—
    “हाँ। क्योंकि मेरी लड़ाई अकेली नहीं है। मेरे पीछे वो सब औरतें हैं जिन्हें आवाज नहीं मिली।”

    सहर मुस्कुरा दी।
    “अच्छा। फिर यह केस हम सिर्फ़ आपके लिए नहीं लड़ेंगे… बल्कि एक मिसाल बनाएँगे।”


    ---

    🕌 मोहल्ले में आग—“मरियम अदालत जा रही है!”

    उस दिन दोपहर होते ही खबर पूरे मोहल्ले में फैल गई।

    “मरियम केस करेगी!”
    “अपने शौहर पर?”
    “मौलवी साहब ने सुना तो कह रहे थे—औरतों के बिगड़ने की निशानी है!”
    “अब्बू-अम्मी कैसे झेलेंगे ये सब?”
    “किसी मर्द के खिलाफ़ अदालत? ये औरत पागल हो गई है!”

    हर घर, हर दालान में चर्चा थी।

    दुकानों पर बैठे मर्द चाय के साथ उसी पर बातें कर रहे थे।

    हाजी बशीर ने ताना मारते हुए कहा,
    “अरे भाई, किसी औरत को ज्यादा पढ़ा दो तो यही होगा।”

    एक दूसरा बोला,
    “हलाला से साफ़ इनकार? ये तो सीधे शरियत को चुनौती है!”

    किसी ने खाली आवाज़ में कहा—
    “अब देखें, कोर्ट क्या करता है… और मौलवी साहब कैसे छोड़ेंगे इसे?”

    मरियम की तरफ़ निगाहें तीर बनकर फेंकी जा रही थीं।

    सना यह सब सुनकर गुस्से से लाल हो गई।
    “अप्पी, ये लोग तुम्हारे बारे में यूँ बातें करते हैं जैसे तुमने गुनाह कर दिया हो!”

    मरियम ने धीमे से कहा,
    “सना… समाज बदलाव से डरता है। स्क्रीन पर हक़ की बातें पसंद करते हैं, पर अपने मोहल्ले में वही हक़ किसी औरत को नहीं देख सकते।”


    ---

    ⚡ फैज़ान की वापसी — और वार

    शाम को जब मरियम घर लौटी, दरवाज़े के बाहर हलचल थी।

    फैज़ान…
    अपने तीन दोस्तों के साथ…
    खड़ा था।

    उसकी आँखों में गुस्सा, अहंकार और बदले की आग थी।

    “तो… तुम अब मुझे अदालत में ले जाओगी?”
    फैज़ान चीखा।

    मरियम ने हिम्मत से कहा—
    “हाँ। क्योंकि जो तुमने किया, वो न इंसाफ है, न धर्म।”

    फैज़ान हँसा—एक कड़वी, नीची हँसी।
    “तुम क्या समझती हो? अदालत मेरे घर की बात में दखल देगी? तीन तलाक हो गया है—ख़त्म! तुम अब कुछ नहीं।”

    मरियम शांत रही।

    फैज़ान आगे बढ़ा, आवाज तेज़—
    “और ये जो तुम हलाला से मना कर रही हो… इसका मतलब क्या है? तुम किसी और मर्द के पास नहीं जाओगी… और मेरे पास लौटना चाहती हो?”

    मरियम ने दृढ़ स्वर में कहा—
    “मैं किसी मर्द की जागीर नहीं हूँ। किसी गुस्से में बोले गए तीन शब्द मेरे भविष्य का फैसला नहीं कर सकते।”

    फैज़ान का चेहरा लाल पड़ गया।

    उसने चिल्लाकर कहा—
    “अगर अदालत गई… तो मैं तुम्हें बदनाम कर दूँगा। तुम्हारे कैरेक्टर पर उंगली उठाऊँगा। कहूँगा कि तुमने किसी से…!”

    उसके शब्द जहरीले थे।
    सना आगे बढ़ी और बोली—
    “फैज़ान भाई! बस करो!”

    फैज़ान ने ताना मारकर कहा—
    “तुम दोनों बहनें आजकल बड़ी शरीफ बनने चली हो!”

    मरियम ने पहली बार ऊँची आवाज में कहा—
    “फैज़ान! तुम जो चाहो कह लो। बदनाम कर लो। लेकिन मैं फिर भी रुकने वाली नहीं। मैं अदालत जाऊँगी।”

    फैज़ान दाँत पीसते हुए बोला—
    “ठीक है।
    देखते हैं तुम्हारी ये बहादुरी कितने दिन चलती है।”

    और वो गुस्से से चला गया।


    ---

    💔 रात की आँधी—अम्मी का डर और अब्बू का साहस

    अम्मी रोती हुई आईं।
    “मरियम… क्यों कर रही हो ये सब? वो मर्द है… हम जानते हैं वो तुम्हें तकलीफ़ देगा। तुम केस कर दोगी तो वो हमारा जीना हराम कर देगा।”

    अम्मा की आँखों में वही सदियों पुराना डर था—
    समाज का डर। मर्द का डर। इल्ज़ामों का डर।

    मरियम ने उनके हाथ थाम लिए।
    “अम्मी, अगर आज मैं डर गई… तो कल किसी औरत को भी खड़े होने की हिम्मत नहीं मिलेगी।”

    तभी अब्बू कमरे में आए।
    धीरे से बोले—
    “अम्मी… मरियम सही कर रही है। हमने हमेशा गलत सहा, इसलिए गलत बढ़ता गया।”

    मरियम ने अब्बू की ओर देखा।
    उनकी आँखों में आँखें डालकर उन्हें सहारा देती हुई एक मुस्कान उभरी।


    ---

    📣 पहला नोटिस

    अगले दिन सहर ने फैज़ान को नोटिस भेज दिया—

    “तलाक की वैधता, तीन तलाक की गैर-कानूनी घोषणा, हलाला के दबाव और मानसिक उत्पीड़न के मामले में अदालत में पेश हों।”

    इस नोटिस के साथ ही मोहल्ले में भूचाल आ गया।

    मौलवी कासमी ने मस्जिद में एलान किया—
    “आजकल कुछ औरतें शरियत को चुनौती दे रही हैं। ये गलत है। मर्द का हक़ है तलाक देना।”

    लोग बँट गए—
    कुछ मौलवी के साथ,
    कुछ मरियम के साथ,
    कुछ चुप…
    कुछ बेचैन।

    कई औरतें रात में मरियम के दरवाज़े पर आईं।

    एक बूढ़ी माँ बोली—
    “बेटी, तूने हिम्मत दिखाई है। हमने कभी नहीं दिखाई। अल्लाह तेरे साथ हो।”

    एक युवा लड़की ने कहा—
    “अप्पी, किसी को तो बोलना ही था। हम सब तुम्हारी तरफ़ हैं।”

    मरियम की आँखें भर आईं।
    उसने महसूस किया—वो अकेली नहीं है।
    उसकी आवाज़ कई आवाज़ों की गूँज बन चुकी थी।


    ---

    🌩 फैज़ान की तैयारी—अलग किस्म की लड़ाई

    घर लौटते हुए उसके दोस्त हँसते हुए बोले—
    “उस औरत को सबक सिखाओ।”
    “कह दो वो घर से भागी थी।”
    “कह दो किसी से संबंध था।”
    “कोर्ट झूठ नहीं पहचानता।”

    फैज़ान ने सिगरेट सुलगाते हुए कहा—
    “मैं वही करूँगा।
    और उसे साबित कर दूँगा कि औरतें मर्द से नहीं जीत सकतीं।”

    आधी रात।
    मरियम अपने कमरे में अकेली बैठी थी।

    टेबल पर नोटिस की कॉपी थी।
    मीडिया की अफवाहें भी शुरू हो चुकी थीं।
    कई रिश्तेदारों ने फोन उठाना छोड़ दिया था।

    लेकिन मरियम की आँखों में एक अजीब-सी रोशनी थी।

    उसने दुआ के लिए हाथ उठाए और बोली—

    “हे मालिक…
    अगर मेरी आवाज़ से किसी एक औरत को भी न्याय मिल जाए,
    तो मेरी ये लड़ाई सफल हो जाएगी। मैं नहीं डरूँगी।
    अब चाहे पूरी दुनिया मेरे खिलाफ़ क्यों न खड़ी हो जाए।”

    कमरे के बाहर सना खड़ी सुन रही थी।
    उसने धीरे से कहा—

    “अप्पी…
    यही लहजा किसी क्रांति का पहला कदम होता है।”

    मरियम ने खिड़की खोली।
    बाहर अँधेरा था।
    मगर उसे यकीन था—
    इस अँधेरे के बाद एक सुबह जरूर आएगी।

    और यह लड़ाई अब उसकी नहीं—हर मरियम की लड़ाई बनने वाली थी।


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  • 3. शौहर - Chapter 3 <br>“पहली पेशी, पहला तूफ़ान”

    Words: 1314

    Estimated Reading Time: 8 min

    अदालत का बरामदा सुबह-सुबह लोगों से भरने लगा था।
    मोरादाबाद की जिला अदालत आज कुछ ज़्यादा ही हलचल में थी—क्योंकि आज एक ऐसा मामला सुना जाना था, जिससे शहर का हर कोना हिल गया था।

    मरियम बानो बनाम फैज़ान अंसारी
    मामला—
    ➤ तीन तलाक की वैधता
    ➤ हलाला के दबाव
    ➤ मानसिक और धार्मिक उत्पीड़न

    लोगों को लगा था कि यह मामला सिर्फ़ एक औरत और उसके शौहर का झगड़ा होगा।
    लेकिन मरियम ने इस लड़ाई को व्यक्तिगत से सामाजिक बना दिया था।


    ---

    अदालत की सीढ़ियाँ — एक औरत का इम्तिहान

    मरियम ने गहरी सांस ली और अदालत की सीढ़ियाँ चढ़ने लगी।
    उसके कदम धीमे लेकिन स्थिर थे।

    सना उसके साथ थी—
    “अप्पी, डर लग रहा है?”

    मरियम ने हल्की मुस्कान दी—
    “हाँ… पर डर के आगे जो है, वही तो मेरा सच है।”

    अम्मी और अब्बू भी पीछे-पीछे चल रहे थे।
    अम्मी लगातार दुआ पढ़ रही थीं,
    और अब्बू अपनी छड़ी पर टिके हुए भी सीधे खड़े थे—जैसे बेटी की हिम्मत उनका सहारा बन गई हो।

    अदालत के बाहर मीडिया खड़ी थी—कैमरे, माइक, तेज़ रोशनी।
    “मरियम जी, आप तीन तलाक के खिलाफ़ क्यों उतरी हैं?”
    “क्या आप हलाला को पूरी तरह खारिज करती हैं?”
    “फैज़ान ने कहा है कि आप अच्छा चरित्र नहीं रखतीं—क्या कहेंगी?”

    मरियम ने शांत स्वर में जवाब दिया—
    “मेरा चरित्र अदालत तय करेगी।
    लेकिन मेरा अधिकार मैं खुद तय करूँगी।”

    कैमरों की फ्लैश चमक उठी।

    उसी भीड़ के बीच फैज़ान अपने साथ दो वकील और तीन दोस्तों के साथ धड़धड़ाता हुआ आया।
    चेहरे पर वही घमंड, वही विश्वास कि अदालत, समाज, कानून—सब उसके पक्ष में होंगे।

    फैज़ान ने मरियम को देखकर ताना मारा—
    “सारा शहर तमाशा देखने आया है। खुश हो?”

    मरियम ने सीधी आँखों में देखा—
    “तमाशा तब होता है जब इंसाफ़ का गला घोंटा जाता है।
    मैं तो आज उसे बचाने आई हूँ।”

    फैज़ान चिढ़ गया।


    ---

    कोर्ट रूम नंबर 14 — पहली सुनवाई

    अदालत कक्ष बड़ा नहीं था।
    लेकिन आज भीड़ इतनी थी कि जज ने खुद कहा—

    “गवाह रहेंगे, बाकी सब बाहर खड़े रहें।”

    फिर उन्होंने चश्मा ठीक करते हुए कहा—
    “मामला संवेदनशील है। अदालत शांत रहकर सुनवाई करेगी।”

    मरियम, सना और वकील सहर अपनी सीट पर बैठे।
    फैज़ान अपने वकील के साथ दूसरी तरफ़।

    मौलवी क़ासमी भी पीछे की पंक्ति में बैठ गए—
    उनकी आँखों में अजीब-सी कठोरता और गर्व था, जैसे वे मरियम को गिरते हुए देखने आए हों।


    ---

    वकील सहर की शुरुआत

    सहर खड़ी हुईं—
    “मिलॉर्ड, मेरी मुवक्किल मरियम बानो पर उनके शौहर फैज़ान अंसारी ने गुस्से में तीन बार तलाक कहकर संबंध खत्म करने का दावा किया है।
    भारत का कानून तीन तलाक को— गैरकानूनी और दंडनीय अपराध घोषित कर चुका है।
    फिर भी मरियम पर यह थोपकर उन्हें हलाला के नाम पर यातना देने की कोशिश की जा रही है।”

    कुछ मौलवी बुदबुदाने लगे।
    सहर ने आगे कहा—

    “हलाला—कुरान की गलत व्याख्या का सबसे खतरनाक रूप है।
    इसे दबाव में करवाना अपराध है।”

    जज ने नोट्स लिखे।

    फिर सहर ने कहा—
    “मेरी मुवक्किल को तीन तलाक गुस्से में दिया गया, जो इस्लाम के अनुसार भी अमान्य है।
    और उन्हें घर से निकाल दिया गया, जो घरेलू हिंसा की श्रेणी में आता है।”

    जज ने सिर हिलाया।


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    फैज़ान का पक्ष—झूठ की पहली फसल

    फैज़ान का वकील खड़ा हुआ—
    “मिलॉर्ड, मरियम हमारी संस्कृति और शरीयत के खिलाफ़ है।
    वो पढ़-लिखकर बिगड़ गई है।
    उसने घर की ज़िम्मेदारियाँ छोड़ दीं।
    मर्द के खिलाफ़ आवाज उठाना चाहती है।
    और हम साबित करेंगे कि उसका किसी और मर्द से… संबंध था।”

    कोर्टरूम में हलचल दौड़ गई।
    सना गुस्से से उछल पड़ी—
    “झूठ है! ये सब झूठ है!”

    सहर ने उसे शांत किया।

    जज ने सख्त आवाज़ में कहा—
    “कोई बिना सबूत के आरोप न लगाए।”

    फैज़ान का वकील बोला—
    “हम सबूत पेश करेंगे।”

    फैज़ान मुस्कुराया—वो जानता था कि वह झूठ गढ़ सकता है, लोग मान ही लेते हैं।

    मरियम ने पहली बार बोलने की इजाजत मांगी।


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    मरियम की पहली आवाज़ — अदालत में गूंजती सच्चाई

    मरियम खड़ी हुई।
    उसकी आवाज़ में कंपन था, पर डर नहीं।

    “मिलॉर्ड, मेरे ऊपर चरित्र का दाग लगाया जा रहा है… क्योंकि मेरे पास आवाज है।
    क्योंकि मैंने ‘हलाला करने से इनकार’ किया।
    क्योंकि मैं किसी के गुस्से का दंड अपने शरीर से नहीं चुकाना चाहती।”

    पूरा अदालत कक्ष शांत हो गया।

    मरियम ने आगे कहा—
    “अगर आज मैं चुप रहूँगी,
    तो कल मेरे जैसी हज़ारों औरतों को भी मजबूर किया जाएगा—
    कागज़ की तरह किसी और मर्द को सौंपने के लिए।”

    उसकी आँखों से आँसू निकल आए, लेकिन स्वर अडिग था।

    “इस अदालत से सिर्फ़ इंसाफ़ नहीं माँग रही…
    बल्कि यह भी चाहती हूँ कि कोई भी मर्द अपनी मर्जी से तलाक का हथियार औरत पर न चला सके।”

    पीछे बैठी कुछ महिलाओं की आँखें भर आईं।
    मौलवी कासमी का चेहरा कस गया।

    जज उसे ध्यान से सुन रहे थे।


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    मौलवी कासमी की दखल—धर्म का सहारा या डर का?

    मौलवी कासमी खड़े हो गए—
    “मिलॉर्ड, मैं इस शहर की मस्जिद का इमाम हूँ।
    हलाला शरीयत का हिस्सा है।
    मरियम का विरोध धर्म के खिलाफ़ है।”

    सहर ने तुरंत जवाब दिया—
    “मिलॉर्ड, भारत का संविधान किसी भी धार्मिक प्रथा को मानने देता है,
    लेकिन किसी स्त्री को मजबूर करने की इजाज़त नहीं देता।
    हलाला तभी है जब औरत खुद चाहे—
    दबाव में करना बलात्कार की श्रेणी में आता है।”

    कोर्ट में खलबली।

    जज ने मौलवी से कहा—
    “यह अदालत भारतीय कानून से संचालित होती है।
    धर्म की गलत व्याख्या अदालत में स्वीकार्य नहीं।”

    मौलवी बैठ गए—हारे हुए नहीं, मगर चिढ़े हुए।


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    अदालत का फैसला—पहली जीत, पहली उम्मीद

    दो घंटे की सुनवाई के बाद जज ने आदेश दिया—

    1. तीन तलाक का दावा prima facie अवैध माना जाता है।
    2. हलाला के लिए किसी भी प्रकार का दबाव अपराध माना जाएगा।
    3. फैज़ान को मानसिक उत्पीड़न और धमकियों के आरोप में जवाब देना होगा।
    4. अगली सुनवाई में फैज़ान चरित्रहनन के अपने आरोपों के सबूत पेश करे।
    5. तब तक मरियम को पुलिस सुरक्षा दी जाएगी।

    अदालत कक्ष में फुसफुसाहट फैल गई।

    मरियम की आँखों में चमक उभरी—यह छोटी जीत थी, मगर बड़ी लड़ाई की ओर कदम।

    सना ने उसका हाथ दबाया—
    “अप्पी, तुमने कर दिखाया!”

    सहर ने मुस्कुराकर कहा—
    “ये तो शुरुआत है। असली लड़ाई अभी बाकी है।”


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    बाहर आते ही नया तूफान

    अदालत के बाहर फैज़ान का गुस्सा चरम पर था।

    “मरियम! तुमने मेरी इज्ज़त मिट्टी में मिला दी!
    मैं तुम्हें देख लूँगा!”

    मरियम ने शांत नज़र से कहा—
    “तुम्हारी इज्ज़त तुम्हारे कर्म से बनती है,
    मेरी आवाज़ से नहीं।”

    फैज़ान को और गुस्सा आ गया।
    वो चिल्लाकर बोला—
    “अगली सुनवाई में मैं तुम्हें इतना बदनाम करूँगा कि तुम कोर्ट क्या—इस शहर में भी चेहरा नहीं दिखा पाओगी!”

    सहर बीच में आ गई—
    “धमकी देना बंद करो, फैज़ान।
    अब तुम कानून की पकड़ में हो।”

    फैज़ान ने दाँत भींचकर कहा—
    “लड़ ले मरियम! देखता हूँ कितने दिन टिकती है!”

    और गुस्से में कार का दरवाज़ा पटकते हुए चला गया।


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    रात—मरियम का मनोबल और एक अनजाना खतरा

    रात को मरियम छत पर बैठी थी।
    हवा ठंडी थी, और आसमान में कोई बादल नहीं।

    सना आई और बोली—
    “अप्पी, बहुत लोग तुम्हारे साथ खड़े हैं। सोशल मीडिया पर तुम्हारी तारीफ हो रही है।”

    मरियम ने कहा—
    “लेकिन जो लड़ाई अंदर घरों में है, वो बाहर की तालियों से नहीं जीती जाती।”

    सना ने उसका सिर अपने कंधे पर रख दिया।

    तभी गली में कोई पत्थर फेंकता है—
    धड़ाम!

    दोनों घबराकर नीचे भागती हैं।
    दरवाज़े पर एक कागज़ पड़ा था।

    कागज़ पर लिखा था—

    “लड़की… बहुत बोल रही है।
    चुप हो जा।
    नहीं तो चुप करा दी जाएगी।”

    मरियम के हाथ काँप गए।

    सना फुसफुसाई—
    “अप्पी… ये कोई धमकी है…”

    मरियम ने कागज़ को मुट्ठी में मरोड़ दिया।
    उसकी आँखों में आग थी।

    “हाँ सना… धमकी है।
    लेकिन ये डराने के लिए है।
    और डर—मैं पहले ही छोड़ चुकी हूँ।”

    उसने आसमान की ओर देखा।
    “लड़ाई अब सिर्फ़ अदालत की नहीं… समाज की भी है।
    और मैं पीछे नहीं हटूँगी।”

    रात के अँधेरे में मरियम के भीतर एक नई रोशनी जल चुकी थी।


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