डायन की नजर उत्तराखंड के ऊँचे, घुमावदार पहाड़ों के बीच एक छोटा-सा गाँव था — भीमगुड़ा। यह गाँव मानचित्रों पर तो छोटे अक्षरों में दर्ज था, लेकिन अपनी विचित्र घटनाओं और प्राचीन मान्यताओं के कारण इलाके में बेहद चर्चित था। बरसों से इस गाँव के लोग मानत... डायन की नजर उत्तराखंड के ऊँचे, घुमावदार पहाड़ों के बीच एक छोटा-सा गाँव था — भीमगुड़ा। यह गाँव मानचित्रों पर तो छोटे अक्षरों में दर्ज था, लेकिन अपनी विचित्र घटनाओं और प्राचीन मान्यताओं के कारण इलाके में बेहद चर्चित था। बरसों से इस गाँव के लोग मानते आए थे कि कुछ पर्वत केवल देवताओं ने नहीं, बल्कि काली शक्तियों ने भी रचे हैं। इन्हीं में से एक था— काकरपहाड़, जहाँ जाते ही पक्षी चुप हो जाते, हवा अचानक ठंडी पड़ जाती और वृक्षों की शाखाएँ साँस लेती-सी प्रतीत होतीं। भीमगुड़ा के लोग उस रास्ते से कम ही गुजरते, पर वही रास्ता गाँव को दुनिया से जोड़ता था। और उसी रास्ते पर अक्सर एक लड़की दिखाई पड़ती थी— लंबी चोटी, भूरे ऊन का शॉल, और कंधे पर जंगल की जड़ी-बूटियों से भरी टोकरी। उसका नाम था— देविका।
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उत्तराखंड के ऊँचे, घुमावदार पहाड़ों के बीच एक छोटा-सा गाँव था — भीमगुड़ा।
यह गाँव मानचित्रों पर तो छोटे अक्षरों में दर्ज था, लेकिन अपनी विचित्र घटनाओं और प्राचीन मान्यताओं के कारण इलाके में बेहद चर्चित था।
बरसों से इस गाँव के लोग मानते आए थे कि कुछ पर्वत केवल देवताओं ने नहीं, बल्कि काली शक्तियों ने भी रचे हैं।
इन्हीं में से एक था—
काकरपहाड़, जहाँ जाते ही पक्षी चुप हो जाते, हवा अचानक ठंडी पड़ जाती और वृक्षों की शाखाएँ साँस लेती-सी प्रतीत होतीं।
भीमगुड़ा के लोग उस रास्ते से कम ही गुजरते, पर वही रास्ता गाँव को दुनिया से जोड़ता था।
और उसी रास्ते पर अक्सर एक लड़की दिखाई पड़ती थी—
लंबी चोटी, भूरे ऊन का शॉल, और कंधे पर जंगल की जड़ी-बूटियों से भरी टोकरी।
उसका नाम था—
देविका।
देविका — एक विचित्र जन्म, एक अनोखी लड़की
देविका गाँव की बाकी लड़कियों जैसी नहीं थी।
न तो उसकी चाल वैसी थी, न उसकी आँखें, और न ही उसकी उपस्थिति।
गाँव में एक ही बात वर्षों से कानाफूसी में दोहराई जाती थी—
“देविका का जन्म तूफ़ानी रात में हुआ था… और उसकी आँखें इंसानी नहीं लगतीं।”
देविका की माँ, गीता, जब उसे जन्म दे रही थीं, तब आसमान में बिजली कड़क रही थी।
लेकिन वह साधारण गर्जन नहीं था।
गाँव के बुज़ुर्ग कहते थे—
“उस रात बिजली सीधे जमीन से नहीं आ रही थी… मानो धरती से आसमान की ओर जा रही हो।”
और जैसे ही देविका ने पहली बार रोना शुरू किया, काकरपहाड़ की दिशा से एक भयंकर चीख गूँजी थी…
जिसे आज भी कई लोग डायन की चीख मानते थे।
देविका के जन्म के बाद से ही गाँव के लोग उसे अजीब नज़रों से देखते रहे।
पर उसकी माँ हमेशा एक ही बात कहती—
“मेरी बेटी में भगवान की देन है, किसी अपशकुन की नहीं।”
लेकिन गीता की उस बात पर कोई विश्वास नहीं करता था।
देविका की आँखें नीली थीं—
पर सामान्य नीली नहीं।
उनकी पुतलियों में मानो धुएँ-सी लहरें घूमती रहती थीं, जैसे भीतर कोई तूफ़ान छिपा हो।
कुछ लोग कहते थे—
“इन आँखों में देखो तो जैसे अंदर खिंच जाते हो…”
कुछ कहते—
“ये आँखें मन पढ़ लेती हैं…”
कुछ डरकर कहते—
“डायन की नज़र है इसमें…”
पर देविका खुद नहीं जानती थी कि उसकी आँखें ऐसी क्यों हैं।
वह तो बस इतना जानती थी कि जब वह किसी व्यक्ति को बहुत देर तक देख लेती, तो उसे उस व्यक्ति के भाव, दर्द और कभी-कभी उसके भूतकाल की छाया तक महसूस होने लगती थी।
यह शक्ति वह किसी को नहीं बताती थी।
गाँव पहले ही उसे अछूत-सा मान चुका था, वह और डर को बढ़ावा नहीं देना चाहती थी।
4. गाँव का डर — और देविका की दुनिया
देविका पहाड़ की ढलान पर बने एक छोटे से कच्चे घर में अपनी माँ के साथ रहती थी।
पिता उसके बचपन में ही पहाड़ में एक दुर्घटना में खो गए थे—
कुछ लोग कहते थे यह दुर्घटना नहीं थी,
बल्कि काकरपहाड़ पर रहने वाली ‘छाया’ का काम था।
गाँव की औरतें अक्सर जब देविका और उसकी माँ के घर के पास से गुजरतीं, तो फुसफुसातीं—
“इसी की वजह से तो गाँव में मुसीबतें आती हैं…”
“पहाड़ की डायन इसके जन्म के वक्त चीखी थी… क्या पता क्या रिश्ता हो…”
और देविका अपनी माँ का हाथ थामकर सब सह लेती।
लेकिन अंदर से वह टूटती…
हर एक नज़र उसे चुभती।
मगर उसके भीतर एक और दुनिया थी—
वह दुनिया जो उसकी आँखें दिखाती थीं।
उसे पेड़ों में छिपी हरियाली से ज्यादा, उनकी सड़न और दर्द दिखता था।
उसे इंसानी चेहरों पर मुस्कान से ज्यादा, उनके छुपे हुए भय और रहस्य दिखते थे।
और कभी-कभी, जब हवा बहुत ठंडी चलती और सूरज बादलों में ढक जाता—
तब उसे पहाड़ों की दरारों से निकलती काली परछाइयाँ नज़र आतीं।
लोग कहते थे कि वह भ्रम है।
पर देविका जानती थी—
वह भ्रम नहीं… चेतावनी है।
देविका अक्सर अकेली जंगल चली जाती थी।
वहाँ उसे डर नहीं लगता था, उल्टा उसे लगता था कि पेड़ उसे पहचानते हैं…
जैसे उससे बात करते हों।
एक बार, जब वह करीब आठ साल की थी, जंगल में खो गई थी।
गाँव वाले पूरी रात ढूँढते रहे,
पर सुबह वह खुद घर लौट आई—
बिल्कुल शांत, आँखों में वैसी ही धुँधली नीली चमक।
जब उसकी माँ ने पूछा,
“कहाँ थी?”
तो देविका ने केवल इतना कहा—
“पेड़ मुझे रास्ता दिखा रहे थे, माँ… उन्होंने मुझे छुपा भी लिया था।”
गाँव वाले इसे “डरावना” कहते थे।
माँ इसे “चमत्कार”।
और देविका…
उसे केवल यह पता था कि जंगल उसे किसी और वजह से चाहता है—
एक ऐसी वजह जिसे वह अभी समझ नहीं पाई थी।
देविका उस दिन दूसरे दिनों की तरह ही जंगल में गई थी।
ठंडी हवा पत्तों को हिला रही थी।
महीनों से सूखे तालाब में अचानक पानी उभर रहा था।
और आसमान में काले बादल बेहद नीची उड़ रहे थे।
देविका अपनी आँखों से पेड़ों की छाल पर छिपे हल्के धब्बों को पढ़ रही थी—
हर धब्बा मानो किसी पुरानी आत्मा की छाया था।
तभी उसे लगा कोई उसे देख रहा है।
पहले उसने सोचा कोई जानवर होगा।
पर फिर हवा अचानक बिलकुल स्थिर हो गई।
पत्तों की खड़खड़ाहट बंद।
हवा रुकी।
पक्षी मौन।
और अगले क्षण—
उसने पेड़ की शाखाओं पर एक काली आकृति देखी।
लंबी…
पतली…
मानो बिना हड्डियों की…
झुककर उसे देखती हुई।
देविका सन्न रह गई।
उसकी आँखें अनजाने में नीली चमकने लगीं।
और तभी वह आकृति फुसफुसाई—
“तू आ गई…
देविका…”
देविका की रीढ़ में ठंड उतर गई।
वह पहली बार था
जब उसे एहसास हुआ—
उसकी आँखें केवल देखती नहीं…
कुछ चीज़ों को जगा भी देती हैं।
शाम होते ही गाँव में चर्चा फैल गई—
“देविका को काकरपहाड़ की परछाई ने पुकारा है!”
“यही तो हम कहते थे — यह लड़की अपशकुन है!”
गाँव के बुजुर्गों ने माँ को चेतावनी दी—
“अपनी लड़की को संभाल ले गीता।
उसकी आँखें मुसीबत बुलाती हैं।”
पर माँ ने आँखों में आँसू लाकर कहा—
“मुसीबत उसकी नहीं…
तुम्हारी सोच की है।”
लेकिन बात यहीं खत्म नहीं हुई।
उस रात देविका को नींद नहीं आई।
बार-बार उसकी आँखों के सामने वही काली आकृति उभरती—
और उसके शब्द गूंजते—
“तू आ गई… देविका…”
मानो कोई उसे वर्षों से खोज रहा था।
मानो उसके जन्म से ही उसके पीछे कोई अदृश्य नज़र लगी हुई थी…
और देविका जानती थी—
यह सब अभी बस शुरुआत है।
पहाड़ जाग चुका है।
कहीं न कहीं…
किसी अंधेरे में…
डायन की नज़र उस पर टिकी है।
कमेंट्स
भीमगुड़ा गाँव पर उस रात कुछ अलग सन्नाटा उतर आया था।
जैसे हवा थम गई हो, जैसे पहाड़ साँस रोककर खड़ा हो, और जैसे घाटी के पार कोई अदृश्य आँखें गाँव की हर झोपड़ी को देख रही हों।
देविका उस रात जल्दी ही सोने की कोशिश कर रही थी, पर नींद उसके पास भटककर भी नहीं आती।
उसके कानों में बार-बार वही फुसफुसाहट गूँजती—
**“तू आ गई… देविका…”**
कमरे के कोने में लगी मिट्टी की दीवारों पर छाया अजीब आकार लेती दिखाई पड़ रही थी।
कभी लंबी, कभी टेढ़ी, कभी टूटी हुई… जैसे हवा नहीं, बल्कि कोई **अदृश्य उँगलियाँ** उन्हें दबा-मोड़ा कर रही हों।
देविका ने बगल में सोई माँ को देखा।
गीता थककर सो चुकी थी।
उसके चेहरे पर वही शांति थी जो हमेशा रहती थी, पर देविका को लगा जैसे माँ के माथे पर उस रात साया थोड़ा ज़्यादा गहरा था।
उसने धीरे से फुसफुसाया—
“माँ…?”
कोई जवाब नहीं।
देविका ने चुपचाप करवट बदली और आँखें बंद कर लीं।
पर उसके भीतर बस एक ही सवाल घूम रहा था—
**“वह आकृति मुझे नाम लेकर क्यों पुकार रही थी?”**
कुछ देर बाद देविका को लगा कि वह नींद में जा रही है।
पर वह नींद नहीं थी—
वह एक गहरा, अनजाना खिंचाव था।
जैसे कोई उसे नीचे की ओर खींच रहा हो।
जैसे उसकी आत्मा को कोई हवा से पकड़कर खींच रहा हो।
उसने आँखें खोलने की कोशिश की, पर पलकें भारी थीं।
शरीर सुन्न।
आवाज़ बंद।
और तभी—
कोई **ठंडी उँगलियाँ** उसके गाल को स्पर्श करती-सी महसूस हुईं।
नहीं… यह सपना नहीं था।
यह छाया थी।
यह स्पर्श था।
देविका की साँस रुक गई।
उसने सुना—
एक हल्की फुसफुसाहट।
बहुत पास से।
जैसे किसी का चेहरा उसके चेहरे के बिलकुल करीब हो।
**“देख…
मैं यहीं हूँ…”**
देविका की धड़कन तेज़ हो गई।
वह चीखना चाहती थी, पर आवाज़ गले में फँस गई थी।
और तभी उसे महसूस हुआ—
उसका शरीर पलंग से ऊपर उठने लगा है।
हाँ।
वह हवा में तैर रही थी।
उसकी चोटी नीचे लटक रही थी, शॉल का सिरा हवा में लहरा रहा था…
और उस काली ताकत की पकड़ और गहरी होती जा रही थी।
अब उसकी आँखें खुल गईं—
लेकिन उसने जो देखा, वह किसी बुरे सपने से भी अधिक भयावह था।
कमरे की छत के पास, एक कोने में
**अंधकार का गुच्छा** घूम रहा था।
जैसे धुआँ, पर धुएँ जैसा नहीं।
जैसे चिपका हुआ अंधेरा, जो खुद जीवित हो।
धीरे-धीरे उस अंधेरे के बीच से **दो पीली, चमकदार आँखें** उभरीं।
लंबी…
पतली…
मानो किसी जानवर की नहीं—
किसी ***अधमरी प्रेतात्मा*** की हों।
ओठ नहीं थे, पर फिर भी उसकी आवाज़ आई—
**“देविका…”**
देविका हवा में ठहरी हुई, डर से पत्थर बनी हर चीज़ देख रही थी।
नज़र ने उसके चेहरे को पहचाना…
और मुस्कुराने जैसी एक ऐंड़ी-सी लहर अंधकार में फैली।
**“तुझे बुला रही थी…
तेरे आने का इंतज़ार था…”**
देविका ने काँपते हुए कहा—
“क… कौन हो तुम?”
अंधकार की परछाईं नीचे उतरी।
दीवार से नीचे, फिर पलंग की ओर…
फिर सीधी देविका के सामने।
और उसने कहा—
**“जिसकी नज़र तुझे मिली है…
मैं वही हूँ।”**
देविका की रीढ़ में बिजली दौड़ गई।
**नज़र।**
वही जिसके बारे में दादी की कहानियों में सुना था—
वह शक्ति जो या तो वरदान होती है…
या एक भयानक अभिशाप।
देविका ने काँपते हुए पूछा—
“तुम मुझसे क्या चाहती हो?”
अंधकार के भीतर से आवाज़ आई—
**“मुझे पूरा कर…
मुझसे जुड़…
फिर तुझे भी सब दिखेगा…”**
देविका ने महसूस किया कि उसकी आँखें अपने-आप चमक उठी हैं।
नीली धुँधली लहरें उसकी पुतलियों में फैलने लगीं।
उसके भीतर से एक गर्म रोशनी फूटने लगी, मानो कोई प्राचीन शक्ति जाग रही हो।
नज़र पीछे हट गई।
आवाज़ में ठंडापन आ गया—
**“हाँ… ऐसी ही शक्ति थी… उसकी भी।”**
देविका को उस वक़्त समझ नहीं आया वह किसकी बात कर रही है।
पर उसे महसूस हुआ कि नज़र उससे सिर्फ डर नहीं रही—
वह उसे **पहचान रही है**।
और यह पहचान सहज नहीं…
बहुत पुरानी…
बहुत गहरी थी।
देविका हवा में तैरती हुई अचानक तेज़ी से नीचे गिरी—
लेकिन ज़मीन से टकराने से पहले ही ठहर गई।
उसके चारों ओर **नीली रोशनी का एक चक्र** बन गया था।
और नज़र उस चक्र को छू नहीं पा रही थी।
उसने गुस्से में चीख मारी—
एक ऐसी चीख जिससे खिड़कियाँ काँप गईं, मिट्टी की दीवारें हिल गईं।
देविका की माँ नींद से चौंककर उठ गई।
“देविका!”
गीता ने चीखकर अपनी बेटी को पकड़ा—
पर जैसे ही उसने स्पर्श किया, नीली रोशनी गायब हो गई और देविका माँ की गोद में गिर पड़ी।
नज़र ने अंतिम बार फुसफुसाया—
**“तू मेरी है…
और मैं फिर आऊँगी…”**
फिर वह दीवार में समा गई—
जैसे कभी थी ही नहीं।
सिर्फ एक बदबूदार ठंडी हवा उसके जाने का सबूत छोड़ गई।
माँ ने देविका को कसकर पकड़ लिया।
“क्या हुआ बेटा? कौन था यहाँ? कहाँ गई थी तू?”
देविका रो पड़ी।
कमजोरी से, डर से, और अपने ही भीतर के उस अजीब **प्रकाश** से जिसे वह नियंत्रित नहीं कर पा रही थी।
“माँ… कोई था कमरे में।
काली छाया… उसने मेरा नाम लिया… उसने मुझे हवा में उठा लिया…”
गीता का चेहरा सफेद पड़ गया।
उसने तुरंत देविका को अपने सीने से लगा लिया।
“किसी से कहना मत यह बात।
गाँव वाले इसे कुछ और समझेंगे…”
देविका ने सिर हिलाया, पर उसका मन भीतर से काँप रहा था।
वह समझ चुकी थी—
जो आज रात हुआ है, वह किसी साधारण प्रेत का खेल नहीं।
यह वही **नज़र** है जिसके बारे में पहाड़ों की बुज़ुर्ग कहानियाँ कहती थीं कि—
**“नज़र चुनती नहीं… वह वारिस खोजती है।”**
अगली सुबह देविका की आँखों के नीचे हल्के नीले घेरे थे—
पर उसकी पुतलियाँ और भी गहरी नीली थीं।
जैसे रात की घटना ने उनमें कोई नई परत जोड़ दी हो।
माँ ने उसके माथे को छुआ—
बुखार नहीं था।
पर उसकी त्वचा पर एक अजीब **ठंडक** थी।
माँ बोली—
“आज जंगल मत जाना।
आज घर पर रहना।”
देविका ने कुछ नहीं कहा।
वह बिस्तर से उठी और खिड़की के पास जाकर खड़ी हो गई।
बाहर सूरज निकला हुआ था,
पर सुबह की ठंडी किरणें उसे अब वैसे नहीं लग रही थीं।
पेड़ों की छाल पर
उसे धब्बे नहीं—
उनके भीतर छिपी **हिलती छायाएँ** दिखाई दे रही थीं।
हवा की आवाज़ सुनाई नहीं दे रही थी—
सिर्फ उसके नीचे छुपी फुसफुसाहटें सुनाई दे रही थीं।
और दूर, काकरपहाड़ की चोटी पर—
वह आकृति खड़ी थी।
वही जो रात वाले अंधकार से बनी थी।
वह अब दिन में भी दिखाई दे रही थी।
देविका की साँस अटक गई।
वह आकृति दूर से उसे ही देख रही थी।
एक लम्बी, टेढ़ी मुस्कान उसके चेहरे पर फैलते हुए…
और अपने काले हाथ से उसने इशारा किया—
**“फिर मिलेंगे…”**
देविका ने खिड़की बंद कर दी।
यह सिर्फ रात का डर नहीं था—
**यह पीछा था।**
यह दावा था।
और शायद…
यह शुरुआत थी उस जुड़ाव की जिसे देविका समझने से पहले ही उसकी किस्मत ने स्वीकार कर लिया था।
अब देविका जान चुकी थी—
**डायन की नज़र उससे जुड़ चुकी है।**
वह उससे बच नहीं सकती।
नज़र उसे देख रही है, पुकार रही है…
और धीरे-धीरे उसका हिस्सा बना रही है।
कमेंट्स
पिछली रात की घटना सिर्फ देविका तक सीमित नहीं रही।
सुबह जैसे ही सूरज पहाड़ों के ऊपर चढ़ा, गाँव में अजीब हलचल फैलने लगी।
गाँव के कोने वाली कच्ची झोपड़ी के पास रहने वाली लक्ष्मी ने बताया—
“रात को मेरी खिड़की खुद-ब-खुद खुल गई… किसी ने साँस ली हो जैसे…”
दूसरी तरफ़ बूढ़े पंडित नारायण ने दावा किया—
“काकरपहाड़ पर फिर से वो काली परछाई दिखी है! गाँव पर कोई बड़ा साया मंडरा रहा है।”
कुछ लोग तो इतना तक बोलने लगे—
“ये सब *देविका* की वजह से हो रहा है।
उसकी आँखों में कुछ है… कुछ अशुभ!”
देविका इन्हें सुनती थी।
लेकिन बोलती कुछ नहीं।
ऊपर से माँ की सख्त हिदायत थी—
“किसी से कुछ मत कहना।
जो तूने देखा… वो सिर्फ तू जानती है।
दुनिया नहीं समझेगी।”
सही भी था।
दुनिया हमेशा उन बातों से डरती है जिन्हें समझ नहीं पाती।
और देविका…
अब खुद को भी समझ नहीं पा रही थी।
देविका के अंदर कोई हलचल थी।
एक अजीब-सी बेचैनी।
मानो कोई उसकी नसों में रेंग रहा हो…
कभी गर्म, कभी बर्फ़ जैसा ठंडा।
माँ जड़ी-बूटियाँ पीसते हुए बोली—
“तुझे बुरा सपना आया होगा, बस।”
देविका ने नज़रें झुका लीं।
अगर सिर्फ सपना होता तो क्या उसकी आँखें आज इतनी **गहरी नीली** होतीं?
क्या कमरे में अब भी हल्की ठंडी गंध बाकी होती?
क्या वह हर आवाज़ के नीचे छिपी *फुसफुसाहटें* सुन सकती?
नहीं…
कुछ जाग चुका था।
और यह जागरण सिर्फ उसका नहीं था—
**नज़र का भी था।**
देविका घर के पीछे बहने वाली छोटी नदी के पास बैठी थी।
पानी साफ था, पर उसकी आँखों में नदी की सतह पर अजीब परतें दिख रही थीं—
किसी के पुराने दुख,
किसी की मृत यादें,
किसी की अधूरी दुआएँ।
वह घबराकर पीछे हट गई।
“यह क्या हो रहा है… मेरे साथ?”
उसी समय उसे लगा—
जैसे हवा में कुछ हलचल हुई है।
मानो कोई उसे छूकर गया हो।
उसने चारों तरफ़ देखा—
कुछ नहीं।
फिर उसका ध्यान टिक गया—
सबसे ऊँची चट्टान पर।
पहाड़ के किनारे खड़ा एक आदमी।
बहुत दूर।
इतना दूर कि नज़र से भी पहचान न हो।
पर देविका की आँखें जैसे उस पर *खींची* गईं।
और फिर—
यह पहली बार हुआ।
जैसे ही उसकी दृष्टि उस आदमी पर ठहरी,
दुनिया उसके आस-पास धुंधली पड़ गई।
हवा धीमी।
धड़कन भारी।
और उसके सामने एक पूरी नई तस्वीर उभर आई—
वह आदमी…
कहीं और खड़ा।
किसी और जगह।
जैसे देविका उसकी आँखों से देख रही हो।
उसने देखा—
वह आदमी एक अँधेरी गुफा में उतर रहा है।
हाथ में पुराना लालटेन।
पीछे फुसफुसाती हवा।
और गुफा के भीतर, दीवार पर उकेरा चिन्ह—
**वही चिन्ह
जो देविका की आँखों की पुतलियों में
धुँधली लहर की तरह घूमता था।**
देविका काँप उठी।
“मैं यह कैसे देख सकती हूँ…?
यह व्यक्ति इतना दूर है… इतना दूर…”
उसने आँखें झपकाईं—
और दृश्य टूट गया।
सामने सिर्फ पहाड़ की चट्टान थी…
और वह आदमी अब वहाँ नहीं था।
देविका के होठों से एक ही शब्द निकला—
**“मैंने… उसे देखा।”**
अचानक उसे याद आया—
रात में नज़र ने क्या कहा था:
**“तुझे भी सब दिखेगा…”**
क्या यह उसी का प्रभाव था?
क्या यह शक्ति… एक उपहार थी?
या एक जाल?
देविका घबराए मन से घर लौटने लगी।
पर रास्ते में उसे लगा कि कोई पीछे-पीछे चल रहा है।
उसने मुड़कर देखा—
कुछ नहीं।
पर वह एहसास गया नहीं।
जैसे छायाएँ उसके साथ चल रही हों।
जैसे पहाड़ों की हवा उसके कदमों का पीछा कर रही हो।
जैसे कोई उसे पुकार रहा हो—
धीमे… बहुत धीमे:
**“दे-वि-का…”**
जब वह घर पहुँची, तो आँगन में चार औरतें खड़ी थीं।
उनमें से एक बोली—
“गीता, तेरी लड़की की आँखों में आज कुछ और ही चमक है।”
दूसरी ने फुसफुसाया—
“हमेशा कहती थी ना, कुछ गड़बड़ है इसके जन्म से ही…”
देविका ने उनकी बातें साफ सुनीं।
जब वह आगे बढ़ी, उन सबकी नज़रें उसकी आँखों पर टिक गईं।
एक पल के लिए…
देविका को एहसास हुआ कि उनकी साँसें रुक गई हैं।
उनकी पुतलियाँ फैल गईं।
जैसे वे उसकी आँखों में खिंचती चली जा रही हों।
देविका घबरा गई और नज़रें झुका लीं।
औरतें जैसे नींद से जागीं।
“देखा?
मैंने कहा था, इसकी आँखें अपशकुन वाली हैं!”
“इसे दूर रखो अपने घरों से।”
देविका का दिल टूट गया।
पर उससे भी ज्यादा…
वह डरी।
क्योंकि वह जानती थी—
उसकी आँखें अब पहले जैसी नहीं रहीं।
वे सिर्फ देखती नहीं…
**खींचती भी हैं।**
और वह जानती थी—
यह नज़र का असर था।
रात को माँ ने देविका को अपने पास बिठाया।
“पूरी सच्चाई बता, देविका।
किसी को देखा तूने आज?”
देविका ने हिचकते हुए सिर हिलाया।
“हाँ माँ… बहुत दूर खड़ा कोई आदमी।
लेकिन… मैं उसे वहाँ नहीं,
कहीं और देख रही थी।
जैसे मैं…
वहीं मौजूद हूँ।”
माँ का चेहरा पीला पड़ गया।
“क्या… उसने तुझे देखा?”
“नहीं माँ। मैंने सिर्फ उसे देखा।”
माँ ने गहरी साँस ली, फिर फुसफुसाकर बोली—
“यह तेरी आँखों की शक्ति नहीं है,
देविका…
यह *विरासत* है।”
“कौन-सी विरासत?”
माँ ने होंठ भींच लिए।
आँखों में डर उतर आया।
“वह कहानी…
जिसे मैं सालों से छुपाती आई हूँ।”
देविका के भीतर सिहरन दौड़ गई।
वह माँ के और करीब हो गई।
“माँ… कौन-सी कहानी?”
माँ ने कंपकंपाती आवाज़ में कहा—
**“तेरी आँखें…
किसी इंसान की देन नहीं।”**
देविका का दिल तेज़ी से धड़कने लगा।
“तो किसकी…?”
माँ ने उत्तर दिया—
**“उसकी…
जिससे पूरी घाटी डरती है—
डायन की नज़र।”**
उसी रात देविका की खिड़की पर हल्की दस्तक हुई।
हवा में एक गंध फैली—
सूखी मिट्टी, जली हुई लकड़ी और किसी पुरानी समाधि की।
देविका खिड़की तक गई।
हाथ काँप रहे थे।
बाहर…
दूर…
काकरपहाड़ की दिशा में…
वही आकृति खड़ी थी।
और इस बार, उसने देविका को देखकर हाथ उठाया—
धीमे, धीरे…
मानो पुकार रहा हो—
**“देख सकती है तू मुझे…
अब सुन भी सकेगी।”**
आवाज़ सिर्फ हवा नहीं—
देविका के कान में नहीं—
उसके मन में गूँजी।
देविका पीछे हट गई।
उसकी नीली आँखें एक पल के लिए चमकीं…
और पहाड़ की चोटी पर खड़ी आकृति धुँधली होकर गायब हो गई।
मगर आवाज़ की अंतिम लहर अभी भी हवा में अटकी थी—
**“आना पड़ेगा, देविका…
तू चाहे या न चाहे।”**
कमेंट्स