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सर्पिणी – शाप और प्रतिशोध

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Devika ..

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दिल्ली की सर्द रातें शहर की भागदौड़ को एक अजीब-सी ठहराव देती हैं। घड़ी में रात के 2:47 बजे थे। बाहर सड़कों पर धुंध चिपकी हुई थी, और हल्की हवा खिड़की के शीशों पर एक मधुर-सा कंपन पैदा कर रही थी। अन्विता बिस्तर पर लेटी थी, करवटें बदलती, जैसे किसी अदृश्य...

Total Chapters (11)

Page 1 of 1

  • 1. सर्पिणी – शाप और प्रतिशोध - Chapter 1

    Words: 1121

    Estimated Reading Time: 7 min

    दिल्ली की सर्द रातें शहर की भागदौड़ को एक अजीब-सी ठहराव देती हैं।
    घड़ी में रात के 2:47 बजे थे।
    बाहर सड़कों पर धुंध चिपकी हुई थी, और हल्की हवा खिड़की के शीशों पर एक मधुर-सा कंपन पैदा कर रही थी।

    अन्विता बिस्तर पर लेटी थी, करवटें बदलती, जैसे किसी अदृश्य बेचैनी ने उसकी नींद की डोर पकड़ी हुई हो।
    दिन भर की थकान के बावजूद उसे नींद नहीं आ रही थी।
    और जब आती भी, उसे एक ही जगह ले जाती—
    एक मंदिर।
    एक टूटा, अंधेरा, प्राचीन सर्पमंदिर।

    आज भी वही हुआ।

    उसकी पलकों ने जैसे ही गहरी नींद का स्पर्श महसूस किया—
    दुनिया बदलने लगी।

    एक क्षण में वह अपने कमरे में नहीं,
    बल्कि एक घने, पथरीले, समय से घायल जंगल में खड़ी थी।

    टहनियों पर मकड़ी के जाले चमक रहे थे,
    हवा ठंडी और भारी थी,
    और चारों ओर फैलती नमी में मिट्टी और काई की महक भर गई थी।

    जगह अनजानी थी…
    लेकिन भयावह रूप से परिचित।

    जमीन उसके पैरों के नीचे ठंडी थी,
    जैसे बरसों से सूरज की रोशनी उसे छू ही न पाई हो।

    कुछ दूरी पर बहते पानी की आवाज़ थी—
    छल-छल, धीमी, लेकिन स्पष्ट।

    और अचानक उस आवाज़ के बीच…

    फुफ्फ्फ्फ्फ्फ्फ…

    एक फुफकार।

    अन्विता ठिठक गई।

    हवा एक पल को भारी लगने लगी,
    मानो जंगल ने सांस रोकी हो।

    उसने धीरे-धीरे आगे कदम बढ़ाया।
    पत्तियाँ उसके पैरों के नीचे टूटकर चरमराईं,
    और हर चरमराहट उसके दिल की धड़कन तेज़ कर रही थी।

    पेड़ों के पीछे—
    उसे एक टूटा हुआ ढांचा दिखा।

    वह मंदिर था।

    मंदिर किसी पुराने, भूले-बिसरे साम्राज्य का अवशेष लगता था।
    ऊँचे स्तंभ, जिन पर नागों की आकृतियाँ उकेरी थीं—
    कुछ साफ़, कुछ समय की मार से मिट चुकीं।

    दीवारों पर काई चढ़ी थी,
    लिपटी हुई बेलें दीवारों को पूरी तरह निगल रही थीं।
    मध्य में एक चौड़ी सीढ़ी थी,
    जो भीतर के गर्भगृह तक जाती थी।

    जैसे-जैसे अन्विता आगे बढ़ती,
    मंदिर की ठंडी हवा उसके कानों से टकराती,
    और वह फुफकार—
    धीमी… फिर तेज़… फिर गहरी होती चली जाती।

    मंदिर के ठीक सामने खड़े होकर
    उसे महसूस हुआ कि यह कोई साधारण स्थान नहीं।

    उसका सीना अनजाने डर से भर गया।

    लेकिन उससे भी ज्यादा…
    एक अजीब-सी खींच उसे आगे खींच रही थी।

    जैसे यह मंदिर उसे पहचानता हो।

    गर्भगृह के भीतर एक विशाल मूर्ति थी—
    आधा स्त्री,
    आधा सर्प।

    स्त्री का चेहरा पत्थर पर इतना सुगठित था मानो किसी ने उसे अपनी आत्मा से तराशा हो।
    उसकी आँखें…
    खुली थीं।
    और उनमें पीली चमक थी—
    गहरी, भयावह, जीवित जैसी।

    सर्प का शरीर उसके पीछे लिपटकर ऊपर तक फैला था,
    शल्कों पर उकेरी गई रेखाएँ इतना गहराई से और वास्तविक थीं
    कि अन्विता को लगा—
    यह मूर्ति चल भी सकती है।

    मूर्ति के सामने एक गोल पत्थर की वेदी थी,
    जिस पर काले धुएँ के कण अभी भी हवा में मंडरा रहे थे—
    जैसे वहाँ किसी ने अभी-अभी कोई पूजा की हो।

    अन्विता का दिल गले तक आ गया।

    वह धीमी आवाज़ में फुसफुसाई—
    “मैं… यहाँ क्यों हूँ?”

    और तभी—
    मूर्ति की आँखों में चमक उभरी।

    “त्वस्स्स्स्स…”
    फुफकार सीधा उसी मूर्ति से आई।

    अन्विता के होंठ सूख गए।
    उसके पैरों की उंगलियाँ तक सुन्न हो गईं।

    अचानक गर्भगृह की ज़मीन से एक आवाज़ आई—

    सर्र्र्र्र्र्र…

    अन्विता ने पलटकर देखा।

    एक लंबा, चमकीला, भयावह सर्प
    छाया की तरह सरकता हुआ उसकी ओर आ रहा था।

    उसकी त्वचा गहरे नीले और हरे रंग के मिश्रण जैसी थी,
    उसकी आँखें पिघले सोने जैसी।

    सर्प पूरी तरह से इंसानी ऊँचाई तक उठ गया।

    उसका फन इतना चौड़ा था
    कि छत पर पड़ी रोशनी भी ढक गई।

    अन्विता चीखना चाहती थी,
    लेकिन आवाज़ नहीं निकली।

    सर्प उसे देख रहा था—
    ऐसे जैसे वह अन्विता को किसी पिछले जन्म से जानता हो।

    और फिर…

    सर्प ने फुफकारते हुए मूर्ति की ओर देखा—
    जैसे वह किसी आदेश का इंतज़ार कर रहा हो।

    मूर्ति…
    अब पूरी तरह जीवित लग रही थी।

    उसकी खोखली आँखे धधकती रोशनी छोड़ रही थीं,
    जैसे वह अन्विता को देख रही हो…
    और पहचान रही हो…

    हवा में एक स्त्री की आवाज़ घुलने लगी—

    “अवनि…
    तू आखिर लौट आई…”

    यह आवाज़ नहीं थी,
    यह फुसफुसाहट नहीं थी,
    यह…
    जैसे उसके ख़ून के अंदर से उठकर बाहर निकल रही थी।

    अन्विता पीछे हट गई।
    “मैं… अवनि?
    मैं अन्विता हूँ।
    मैं यहाँ कैसे… क्यों…?”

    हवा गरम हो गई।
    जेसे मंदिर जीवंत हो उठा हो।

    “स्मृति दब जाती है,
    पर रक्त…
    कभी अपना अतीत नहीं भूलता।”

    अन्विता रो पड़ी।
    “कौन हो तुम!? और मैं यहाँ क्यों हूँ?”

    मूर्ति की आँखों में चमक और तेज़ हो गई।

    “तू उत्तराधिकारी है…
    सर्पिणी वंश की।
    तेरी वापसी भविष्य का द्वार खोलती है।”

    अन्विता का दिल धड़कना भूल गया।

    उसे लगा जैसे मंदिर खुद
    उसकी नसों में कुछ लिख रहा हो।

    गर्भगृह के बीच अचानक ज़मीन में कम्पन हुआ—
    हल्का, पर सिहरन भर देने वाला।

    मूर्ति के पीछे छाया बड़ी होने लगी,
    फैलती गई,
    और एक रूप लेने लगी।

    यह किसी मानव का आकार नहीं था।
    न पूरी तरह सर्प।
    न पूरी तरह स्त्री।
    एक मिश्रण…
    एक प्राचीन सत्ता।

    उसकी आँखें कोयले से भी गहरी थीं।
    उसके चारों तरफ धुआँ घूम रहा था।

    उसने अपनी लंबी, पतली उंगली अन्विता की ओर उठाई—

    और फुफकार में लिपटा एक शब्द हवा में तैर गया—

    “जाग…”

    एक तीखी रोशनी पूरे मंदिर में फैल गई।

    अन्विता की आँखें चुभने लगीं।
    उसने चीख मारने की कोशिश की,
    लेकिन रोशनी ने सब डूबो दिया।

    एक पल में रोशनी गायब…
    और अगली ही सांस—

    वह अपने कमरे में थी।

    उसकी सांसें तेज़-तेज़ चल रही थीं।
    माथा पसीने से भीगा।
    दिल सीने में धड़क-धड़क गूँज रहा था।

    उसने इधर-उधर देखा।
    कमरा शांत था।
    लेकिन…

    उसके हाथ कांप रहे थे।
    उसकी उंगलियाँ अभी भी उस सर्प की ठंडी हवा महसूस कर रही थीं।

    कमरे में हल्की गूँज जैसे रेंग रही थी—

    फुफ्फ्फ्फ्फ़…

    अन्विता ने तुरंत लाइट ऑन की।
    कुछ नहीं।

    लेकिन…
    उसके बिस्तर के ठीक पास
    फ़र्श पर एक हरी धूल पड़ी थी।
    चमकीली…
    जैसे किसी शल्क (सर्प की त्वचा) का अंश।

    उसकी आँखें फैल गईं।

    “नहीं… यह सपना नहीं था…”

    उसने डरते हुए अपने गले को छुआ।

    और वह जम गई—

    उसकी त्वचा पर
    एक बेहद हल्की,
    सूक्ष्म,
    सर्प-आकृति सी रेखा उभर आई थी।

    जैसे कोई अदृश्य शक्ति
    उसकी पहचान पर
    पहली मुहर लगा गई हो।


    8. उस रात का अंत… जो शुरुआत थी
    घड़ी में अब 3:01 बजे थे।

    बाहर हवा बदल रही थी,
    लेकिन कमरे में जो ठंड थी
    वह किसी और ही दुनिया की थी।

    अन्विता ने खुद को कंबल में लपेट लिया,
    लेकिन मन में एक ही सवाल गूंज रहा था—

    “यह मंदिर कौन-सा था?
    और क्यों मुझे बुला रहा है?”

    लेकिन उससे भी डरावना सवाल था—

    “सर्पिणी वंश…
    क्या सचमुच…
    मेरा कोई अतीत है?”

    उस रात उसकी आँखों से नींद गायब हो गई।

    क्योंकि उसके भीतर
    कुछ जाग चुका था—
    कुछ ऐसा जिसकी गूँज आने वाले दिनों में
    पूरी दुनिया को हिला देगी।


    कमेंट्स

  • 2. **गायब होती नागिन** – बिस्तर पर दिखी हरी नागिन और उसका रहस्यमय गायब होना - Chapter 2

    Words: 1071

    Estimated Reading Time: 7 min

    कमरे में हल्की धूप दीवारों पर चढ़ती हुई फैल रही थी, मगर अन्विता की आँखों में रात अभी भी बसी हुई थी। उसका दिल अभी भी तेज़ धड़क रहा था—जैसे कहीं दूर मंदिर की वही फुफकारें फिर सुनाई देने वाली हों। उसने तकिए से सिर उठाया तो लगा जैसे बिस्तर पर कोई हल्का-सा कंपकंपाहट का कंपन हुआ हो। वह चौंककर सीधी हो गई।

    कमरा शांत था, हवा स्थिर थी, और बाहर सुबह का मामूली शोर था—पर उसके भीतर कुछ हिल रहा था।
    उसने धीरे-धीरे चादर हटाई… और अगले ही पल उसकी साँस हलक में अटक गई।

    बिस्तर के ठीक बीचोबीच, जहाँ कुछ देर पहले उसकी हथेली टिकी हुई थी, वहाँ एक हरी चमक लहरा रही थी। शुरू में उसे लगा कि ये कोई रोशनी का प्रतिबिंब है—पर नहीं, यह कुछ चल रहा था… साँस ले रहा था।

    एक हरी नागिन।

    उसका शरीर हल्का-सा फैला हुआ, जैसे अभी-अभी किसी करवट में हो।
    उसकी त्वचा… हरा नहीं, बल्कि पन्ना-सा दैदीप्यमान हरा।
    नागिन का सिर उसकी ओर उठा हुआ—और दो चमकती सुनहरी आँखें उसे ऐसे देख रही थीं जैसे उसे पहले से जानती हों।

    अन्विता की रीढ़ में एक सिहरन दौड़ गई। वह पलभर चाहकर भी हिल न सकी। ना वह चीख पाई, ना भाग पाई।

    नागिन धीरे-धीरे उसकी ओर सरकने लगी।

    अन्विता की साँस तेज़ हो गई। उसे लगा कि उसका पूरा शरीर किसी अदृश्य जाल में जकड़ गया है।
    नागिन का फन थोड़ा उठा और उसने अपनी सुनहरी आँखों से उसे ऐसे देखा जैसे कोई प्रश्न पूछ रही हो—या कोई पहचान रही हो।

    और उसी क्षण…
    एक और बात महसूस हुई—

    डर से ज़्यादा एक अजीब-सी परिचित गर्माहट।

    जैसे यह पहली मुलाक़ात नहीं…
    जैसे यह वही नागिन हो…
    जो रात भर उसके सपने में सर्पमंदिर की दीवारों पर फुफकारती थी।

    उसने काँपते हुए फुसफुसाया—

    “तू… तू यहाँ कैसे?”

    नागिन रुकी।
    उसकी आँखें एक क्षण को और गहरी चमकीं।
    और फिर अचानक—

    वह कंपकंपाने लगी।
    पूरी देह एक अनोखी रोशनी में धुंधलाने लगी।
    मानो उसका आकार स्थिर नहीं था—जैसे वह यहाँ किसी और दुनिया से आई हो, और वापसी की रस्सी उसे खींचने लगी हो।

    अन्विता ने घबराकर हाथ बढ़ाया, बिना समझे कि ऐसा क्यों कर रही है, बस एक अजीब-सी खिंचाव… एक जुड़ाव उसे उस दिशा में खींच रहा था।

    उसे लगा कि उसके उँगलियों ने नागिन की चमड़ी को छुआ।
    लेकिन छूते ही—

    शssssss…

    नागिन हवा की तरह बिखर गई।
    एक पन्ना-सी चमक कमरे में घूमकर अचानक गायब हो गई—जैसे वह कभी थी ही नहीं।

    बाकी बच गया—

    सिर्फ़ एक हल्की सर्प-सुगंध… और बिस्तर पर दो छोटे, बेहद छोटे हरे शल्क—जैसे किसी की उपस्थिति का अंतिम प्रमाण।

    अन्विता बोली भी नहीं पाई।
    उसका शरीर अभी भी काँप रहा था, पर उसके भीतर डर कम और रहस्य ज़्यादा था।

    वह झुककर उन छोटे-से शल्कों को उठाना चाहती थी, पर तभी दरवाजे पर खटखटाहट हुई और उसकी चौंक निकल पड़ी।

    “अन्विता?”—उसकी माँ की आवाज़।

    वह हड़बड़ाकर खड़ी हुई, चादर को ज़ोर से खींचकर बिस्तर पर फैला दिया और जल्दी से शल्कों को तकिए के नीचे छुपा दिया।

    “हाँ… हाँ माँ, उठ गई।”

    दरवाजा खुला, माँ अंदर आईं और बोलीं—“इतनी देर तक सोई रही? चेहरा उतरा हुआ लग रहा है। ठीक हो?”

    “हाँ… बस थोड़ा अजीब सपना देखा था।”

    “रात-रात भर पढ़ती रहती हो। चलो नीचे नाश्ता कर लो।”

    माँ चली गईं, पर अन्विता वहीं खड़ी रही।
    दरवाजा बंद होने की आवाज़ के बाद उसने धीमे से तकिए के नीचे हाथ डालकर वो दोनों शल्क निकाले।

    वे ठंडे नहीं थे।
    बल्कि… हल्के गर्म।
    जैसे उनमें कुछ जीवित हो।

    उसके मन में रात वाला सर्पमंदिर चमक उठा, जहाँ सांपों की मूर्तियाँ जीवंत लग रही थीं, और दीवारों से प्राचीन फुसफुसाहट गूंज रही थी।
    साथ ही एक गहरी, आकर्षक आवाज़—जिसका चेहरा उसे याद नहीं, पर एहसास आज भी उसकी त्वचा पर था।

    वह सोचने लगी—

    क्या ये सब वही सपना जारी है?
    या सपना ही असली था, और यह दुनिया उसमें हस्तक्षेप कर रही है?

    उसने शल्कों को हाथ में लिया और उन्हें खिड़की की रोशनी की ओर उठाया।
    धूप के पड़ते ही वे ऐसे चमके जैसे पत्थर नहीं, कुछ दिव्य हो—कुछ बेहद प्राचीन।

    उसे लगा कि कहीं दूर से वही फुफकारें फिर सुनाई दे रही हों।
    लेकिन कमरा शांत था।
    बस उसके भीतर की धड़कन तेज़ थी।

    कुछ देर बाद वह नीचे नाश्ता करने गई, लेकिन उसका ध्यान हर पल कमरे की ओर खिंचता रहा।
    बार-बार ऐसा लगा कि कोई उसकी गर्दन के पीछे से रहस्यमय निगाहों से उसे देख रहा है।

    नाश्ते की मेज़ पर भी वह खोई रही।
    माँ ने दो बार उसे पुकारा—उसे पता ही नहीं चला।

    लेकिन असली झटका तब लगा जब वह वापस कमरे में आई।

    कमरा वैसे ही था जैसे छोड़ा था—बस एक बात छोड़कर…
    वह जैसे ही दरवाजे के अंदर आई, उसे लगा कि हवा में हल्का-सा साँप-त्वचा जैसा स्पर्श तैर रहा है।

    उसने तुरंत बिस्तर की तरफ देखा।

    तकिए के ऊपर एक हरी लकीर खिंची हुई थी—मानो कोई वहाँ से सरककर गया हो।
    दूसरा, चादर के किनारे एक बेहद हल्की फुफकार की आवाज़… इतनी धीमी कि शायद कोई और सुन भी नहीं पाता।

    अन्विता ने धीरे से चादर उठाई, दिल धड़क रहा था, साँसें रोक रखी थीं।
    और जैसे ही चादर का किनारा ऊपर हुआ—

    एक ठंडी लहर उसकी रीढ़ के नीचे उतरी।

    नीचे कुछ नहीं था।
    न नागिन।
    न चमक।
    न कोई निशान।

    सब कुछ गायब, पूरी तरह शांत।
    सिर्फ़ एक बेहद पतली, लगभग अदृश्य हरी धूल—जैसे कोई दूसरे लोक का अस्तित्व यहाँ क्षणभर रुका और फिर लौट गया हो।

    अन्विता फर्श पर बैठ गई।
    उसके हाथ कांप रहे थे, पर डर का रंग अब बदल चुका था।

    अब यह सिर्फ़ रहस्य नहीं था—
    यह किसी का बुलावा था।
    किसी ऐसी शक्ति का, जो उसके सपनों से निकलकर वास्तविकता में कदम रख चुकी थी…
    किसी ऐसी नागिन का, जो उससे कुछ कहना चाहती थी, कुछ दिखाना चाहती थी—या शायद… उसे वापस बुला रही थी उस मंदिर की ओर।

    वह धीरे से बोली, लगभग फुसफुसाहट में—

    “तू कौन है… और मेरे पास क्यों आई है?”

    कमरे में कोई जवाब नहीं था।
    पर हवा में एक हल्की गर्माहट उठी—

    जैसे कोई अदृश्य साँप अभी भी उसके चारों ओर घूम रहा हो।

    और उस अनदेखी उपस्थिति के बीच…
    अन्विता की आँखों में अचानक वही चमकदार सुनहरी आँखें उभर आईं—जो उसे सपनों में देख रही थीं।
    जो अभी कुछ देर पहले उसके कमरे में थीं।

    यह पहली मुलाक़ात नहीं थी।
    कुछ गहरा, बहुत गहरा, उससे जुड़ा हुआ था—जिसे वह अभी समझ नहीं पा रही थी।

    लेकिन एक बात तय थी—

    रहस्य अभी शुरू हुआ था।
    और नागिन…
    फिर आएगी।




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  • 3. **अजनबी की सुनहरी आंखें** – कॉलेज में अर्जेय का प्रवेश - Chapter 3

    Words: 1077

    Estimated Reading Time: 7 min

    सुबह की हल्की-सी गरमी और ठंडी हवा की मिलीजुली खुशबू कॉलेज कैंपस में फैल रही थी। छात्रों की बातचीत, चहल-पहल, और नई शुरुआत का जोश हर तरफ महसूस हो रहा था।
    लेकिन अन्विता—वह आज भी पिछली दो रातों की घटनाओं के बोझ से दबी हुई थी।

    उसने गहरी साँस ली और कैंपस के गेट से अंदर कदम रखा।
    उसकी आँखें भले ही सामने देख रही थीं, पर दिमाग कहीं और—अपने कमरे की हरी लकीर, तकिए पर बिखरी धूल, और वह नागिन की सुनहरी आँखें जो उसे ऐसे देख रही थीं जैसे उसे पहचानती हों।

    वह सोच में डूबी थी कि तभी किसी ने उसके कंधे पर हल्की थपकी दी।

    “हे, अन्वी! कल क्लास में क्यों नहीं आई?”

    यह उसकी दोस्त नेहा थी—हमेशा की तरह पूरे जोश से भरी।

    अन्विता ने हल्की मुस्कान दी, “बस… तबियत ठीक नहीं थी।”
    कहना चाहती थी—मेरे कमरे में एक नागिन आई थी, पर वह खुद भी इसे ज़ोर से बोलने से डर रही थी।

    नेहा ने भौंहें उठाईं, “तू ठीक है ना? लग नहीं रही तू ठीक। कोई टेंशन है?”

    “नहीं… कुछ नहीं।”

    वह आगे बढ़ी, पर उसका कदम भारी था।
    उसके भीतर कुछ था—एक बेचैनी, एक अनजाना खिंचाव।
    जैसे कुछ होने वाला हो।
    कुछ बड़ा… कुछ डरावना… या शायद कुछ ऐसा, जिससे उसकी ज़िंदगी बदलने वाली हो।

    कैंटीन के पास पहुँचते ही अचानक सारे छात्रों की नज़र एक दिशा में घूम गई।
    हल्की-सी सरसराहट, फिर आसपास की धीमी-धीमी फ़ुसफुसाहट—

    “कौन है यह?”
    “नया स्टूडेंट लगता है…”
    “ओह माय गॉड, कितना… अलग-सा है!”

    अन्विता ने चाहकर भी ध्यान न देने की कोशिश की, लेकिन भीड़ किसी चुंबकीय खिंचाव की तरह उस ओर खिंची जा रही थी।
    वह जिज्ञासा रोक नहीं पाई और उसने गर्दन उठाकर देखा।

    भीड़ के बीच खड़ा एक लड़का सामने की ओर बढ़ रहा था।

    लंबा, शांत, और उसके आस-पास एक अजीब-सा ठंडा-गर्म माहौल।
    काले कपड़े, कंधों तक फैले हल्के लहराते बाल…
    और—सबसे अजीब, सबसे झकझोरने वाला—

    उसकी आँखें।
    सुनहरी।
    ठीक वैसी ही चमकती हुई जैसी… उस नागिन की थीं।

    अन्विता की साँस वहीं रुक गई।

    उसका दिल धड़कते-धड़कते अचानक थम-सा गया, फिर बेहिसाब तेज़ होने लगा।
    वह पलकें झपकाना भी भूल गई।

    क्या वह…
    नहीं।
    यह कैसे हो सकता है?

    लड़का धीमे कदमों से गुजर रहा था, पर उसके आसपास की हवा मानो बदल जाती—हल्की, शांत, और फिर भी गहरी।
    उसमें कुछ था… कोई छिपी हुई शक्ति… कोई पुरानी, अनजानी ऊर्जा।

    और वह सीधा उसी दिशा में आ रहा था जहाँ अन्विता खड़ी थी।

    नेहा ने फुसफुसाकर पूछा, “ओह! यह वही नया लड़का होगा जिसके बारे में सब बात कर रहे थे! देख… उसकी आँखें कैसी हैं, चमक रही हैं! लेंस होंगे क्या?”

    अन्विता ने धीमे, लगभग जमे हुए स्वर में कहा, “नहीं… लेंस नहीं हैं।”

    उसे खुद नहीं पता था कि उसने ऐसा क्यों कहा, लेकिन उसकी आवाज़ सच्चाई को पहचान चुकी थी।

    लड़का अब बहुत करीब था।
    इतना करीब कि उसकी सुनहरी आँखों की चमक पूरी तरह साफ़ दिख रही थी—अद्भुत, परलौकिक, लगभग सम्मोहित करने वाली।

    और जैसे ही वह उनके पास से गुज़रा, उसकी नज़र सीधे… सिर्फ़… अन्विता पर पड़ी।

    एक पल के लिए सब रुक गया—
    कॉलेज की आवाज़ें, नेहा की बातें, हवा, धूप… सब कुछ।
    सिर्फ़ उसकी और उस अजनबी की आँखों के बीच एक अदृश्य संवाद—कुछ ऐसा जो अन्विता समझ नहीं पा रही थी, लेकिन महसूस कर रही थी।

    वह मुड़ा नहीं, बस चलते-चलते बहुत हल्की आवाज़ में बोल गया—

    “तुम ठीक हो, अन्विता?”

    उसकी रीढ़ में जैसे किसी ने बर्फ का पानी डाल दिया।
    वह जड़ हो गई।

    वह… उसका नाम कैसे जानता है?

    नेहा ने तुरंत इधर-उधर देखा, “उसने… तेरे बारे में बोला? तुम्हारी पहचान है क्या?”

    अन्विता ने बस सिर हिलाया।
    “नहीं… मैंने उसे कभी नहीं देखा। कभी नहीं।”

    पर उसका दिल कह रहा था कुछ और।
    कुछ भयानक रूप से सच्चा।
    वही आवाज़… वही एहसास… वही सुनहरी रोशनी…

    क्या यह वही है जो सपनों में था?
    क्या यह वही है जो रात को कमरे में था?
    क्या यह वही नागिन है… जो रूप बदलकर उसके सामने खड़ा है?

    उसके सिर में हल्की चक्कर-सी दौड़ गई।
    वह फौरन क्लास की तरफ़ चली, जैसे वहाँ जाना ही उसकी सुरक्षित जगह हो, पर हर कदम पर उसे लगा वह लड़का अभी भी उसे देख रहा है—पीछे से, हवा के रास्ते, एक अनदेखी दुनिया से।

    क्लास में बैठते ही उसने अपना बैग मेज़ पर रखा और गहरी साँस ली।
    पर तभी…

    धीरे से किसी की चाल अंदर सुनाई दी।
    कदम धीमे, पर गूंज जैसे ज़मीन में उतरती हो।

    वह नजर उठाती है—और वही सुनहरी आँखों वाला लड़का अंदर आता है।
    और सीधे… वही सीट चुनता है जो उसके ठीक बगल में खाली थी।

    कमरा गूंज रहा था, पर अन्विता को सिर्फ़ उसका बैठना सुनाई दे रहा था।

    प्रोफेसर ने क्लास शुरू करने से पहले पूछा, “Yes, new student? Introduce yourself.”

    लड़का खड़ा हुआ।

    “अर्जेय…”

    बस इतना ही।
    न पूरा नाम, न कुछ और।

    और तभी—उसकी सुनहरी आँखें किसी पुराने सर्प-देव प्रतिमाओं जैसी चमकीं।

    अन्विता का दिल धक-से रुक गया।

    अर्जेय।

    नाम ऐसा जो उसने कभी नहीं सुना…
    फिर भी इतना परिचित कि जैसे सदियों पुरानी स्मृति का एक हिस्सा हो।

    अर्जेय बैठ गया, और उसके बगल में हल्की गर्माहट फैल गई—जैसे किसी सर्प की देह से निकलती गर्मी।

    धीरे से, बिना उसकी ओर देखे, वह बोला—

    “तुम डर रही हो।”

    अन्विता सिहर उठी।
    “मैं… क्यों डरूँ?”

    उसने हल्की मुस्कान दी। मुस्कान में रहस्य था, खतरा था, और एक अजीब आकर्षण भी।

    “क्योंकि तुम मुझे पहचानती हो।
    हालाँकि तुम्हें याद नहीं है।”

    अन्विता की उंगलियाँ ठंडी पड़ गईं।
    “मैं… तुम्हें नहीं जानती।”

    “लेकिन पहले तुमने मेरी आँखों में ऐसे देखा है… जैसे मंदिर की दीवारों पर सर्प देखते हैं।”

    उसने एक पल को साँस रोक ली।
    उसकी आँखें फैल गईं—

    वह सपना…
    वह सर्पमंदिर…
    वह सुनहरी आँखें…

    अर्जेय धीरे से फुसफुसाया—

    “तुम्हारे सपने… सिर्फ़ सपने नहीं हैं, अन्विता।”

    और अगला वाक्य और भी गहरा—

    “और वह नागिन… जिसने तुम्हें छुआ था… वह अकेली नहीं है।”

    ज़मीन उसके पैरों तले हिल गई।
    उसके हाथ काँप गए।
    उसका दिल तेज़ हो गया।

    वह कुछ कहने वाली थी, पर तभी क्लास की घंटी बजी—और अर्जेय उठकर बाहर जाने लगा।

    अन्विता ने आवाज़ दी—

    “रुको…”

    वह मुड़ा।
    धीमे-धीमे उसकी सुनहरी आँखों में वही चमक लौटी—

    “मैं रुका हुआ ही हूँ। बहुत समय से।”

    और वह बाहर चला गया।

    अन्विता वहीं बैठी रह गई—काँपती हुई, सांसें टूटी हुई, और मन में एक ही सवाल—

    अर्जेय कौन है?
    और वह मेरे सपनों… और उस नागिन… से कैसे जुड़ा है?

    सवालों के जवाब उससे दूर नहीं थे।
    वे खुद उसके पास आ चुके थे—

    सुनहरी आँखों में छिपे हुए।


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  • 4. अर्जेय के आसपास अन्विता को अजीब ऊर्जा महसूस होना - Chapter 4

    Words: 1021

    Estimated Reading Time: 7 min

    कॉलेज की घंटी अभी-अभी बजी थी, लेकिन अन्विता को लग रहा था जैसे समय ठहर गया हो। उसके कानों में अभी भी वही आवाज़ गूंज रही थी—अर्जेय की धीमी, स्थिर, रहस्यमय आवाज़…

    “तुम्हारे सपने… सिर्फ सपने नहीं हैं, अन्विता।”

    “और वह नागिन… अकेली नहीं है।”

    ये शब्द उसके भीतर बिजली की तरह गिरे थे।

    उसके हाथ अब भी हल्के काँप रहे थे।

    वह क्लास से बाहर आई, लेकिन जितना बाहर आई, उतनी ही अंदर डूबती चली गई—अपने सवालों में, अपने डर में, और उस अजीब आकर्षण में जो अर्जेय की मौजूदगी के साथ आ रहा था।

    सीढ़ियों के पास नेहा उसे मिली, उत्साह में चहकते हुए—“अरे! वह नया लड़का… अर्जेय! कितना अजीब है ना? और उसकी आँखें! तूने नोटिस किया?”

    अन्विता के कदम रुक गए।

    वह चाहकर भी कुछ नहीं बोल पाई।

    उसके होंठ हिले, पर शब्द नहीं निकले।

    नेहा ने उसका चेहरा देखा और तुरंत शांत हो गई।

    “ओह… तू फिर से खोई हुई लग रही है। सच में कुछ तो गड़बड़ है।”

    अन्विता ने सिर झुकाया—“बस… थोड़ा अजीब लग रहा है।”

    “क्या हुआ? उसकी नजरें अजीब लगीं?”

    अन्विता का दिल धड़क उठा।

    जवाब देने का मतलब सब सच बताना था—लेकिन उसे खुद पता नहीं था कि सच क्या है।

    “नहीं, कुछ नहीं… छोड़ न।”

    वह नेहा को छोड़कर आगे बढ़ गई।

    उसकी चाल तेज़ थी, almost भागने जैसी।

    लेकिन जैसे ही उसने कॉलेज के बगीचे के रास्ते पर कदम रखा, हवा अचानक बदल गई।

    ठंडी।

    धीमी।

    और उसमें एक अजीब-सी सनसनाहट… जैसे बहुत पतली, बहुत हल्की फुफकार हवा में घुली हो।

    उसके कदम रुक गए।

    उसने गर्दन मोड़ी—कौन था?

    कोई नहीं।

    पेड़ थे, उनके नीचे पड़ी धूप थी, पत्तों का हल्का-सा झूमना था… बाकी सब सामान्य था।

    पर उसकी त्वचा में वही परिचित झुरझुरी उठी…

    ठीक वैसी जैसी उसे रात को महसूस हुई थी जब वह हरी नागिन उसके बिस्तर पर थी।

    जैसे कोई अदृश्य उपस्थिति उसके आस-पास घूम रही हो।

    वह घबराकर आगे बढ़ी।

    दो कदम चलकर रुकी।

    फिर पीछे मुड़कर देखने लगी—क्या उसका पीछा हो रहा है?

    फिर—अचानक—उसके ठीक पीछे से एक धीमी आवाज़ आई।

    “तुम मुझसे भाग क्यों रही हो?”

    अन्विता का दिल ज़ोर से उछल पड़ा।

    वह मुड़ी—

    और वहाँ…

    पेड़ की छाया में…

    धूप के रेशों से बनी सुनहरी चमक में…

    अर्जेय खड़ा था।

    उसकी आँखें इतनी चमक रही थीं कि लगा जैसे रोशनी उसके भीतर से निकल रही हो, बाहर नहीं पड़ रही।

    अन्विता एक पल के लिए पूरी तरह जड़ हो गई।

    “म… मैं भाग नहीं रही,” उसने हकलाते हुए कहा।

    अर्जेय धीरे-धीरे उसकी ओर आया।

    उसके हर कदम के साथ हवा का तापमान बदलता—कभी हल्का ठंडा, कभी हल्का गरम—जैसे उसके शरीर से कोई ऊर्जा बह रही हो।

    “तुम डर महसूस कर रही हो,” उसने कहा।

    उसकी आवाज़ में कोई आरोप नहीं था—सिर्फ़ हल्की-सी चिंता।

    पर वही चिंता भी किसी प्राचीन सर्प की फुफकार की तरह उसके कानों में गूंज उठी।

    “मैं… डर नहीं रही,” उसने कहा, लेकिन उसकी काँपती उंगलियाँ उसे धोखा दे रही थीं।

    अर्जेय ने बिना मुस्कुराए, शांत नज़रों से उसे देखा—ऐसी नज़रों से जैसे वह उसकी आत्मा के भीतर झाँक रहा हो।

    “तुम्हें मेरी मौजूदगी भारी लग रही है, है ना?”

    अन्विता ने होंठ भींच लिए।

    क्या यह सच था?

    हाँ… अर्जेय के आसपास खड़े होना… मानो कोई अदृश्य ऊर्जा क्षेत्र उसके चारों ओर फैला हो।

    जैसे हवा उसके इर्द-गिर्द एक अलग ताल में चल रही हो।

    जैसे उसकी धड़कनें उसकी धड़कनों के साथ तालमेल बनाने की कोशिश कर रही हों।

    “तुम्हारे पास आते ही सब अजीब क्यों लगने लगता है?”

    वह पूछे बिना रह नहीं सकी।

    अर्जेय एक कदम और करीब आया।

    और उसी क्षण अन्विता ने महसूस किया—

    एक तेज़ कम्पन।

    ज़मीन नहीं हिली थी—पर उसके भीतर कुछ हिला था।

    जैसे कोई सोया हुआ हिस्सा जागने लगा हो।

    अर्जेय की आवाज़ बहुत धीमी, लेकिन बहुत गहरी थी—

    “क्योंकि तुम मुझे महसूस कर सकती हो।”

    “क्या मतलब?”

    “तुम जैसी लड़कियाँ… सामान्य नहीं होतीं।”

    वह विस्मित होकर उसे देखती रही।

    अर्जेय की आँखें कुछ पल के लिए और अधिक चमकीं—एक गहरी, सुनहरी लौ की तरह।

    “मेरी ऊर्जा… तुम्हें प्रभावित करती है।

    और तुम्हारे भीतर भी… कुछ ऐसा है जो मेरे पास आने पर जाग जाता है।”

    अन्विता ने तुरंत दो कदम पीछे लिए।

    “नहीं… यह सब कुछ… असंभव है! मैं बस एक साधारण लड़की हूँ।”

    “नहीं,” अर्जेय ने शांत स्वर में कहा।

    “तुम साधारण नहीं हो।

    तुम्हें सपने आते हैं, है ना?”

    अन्विता की साँस रुक गई।

    “तुम्हें कैसे पता?”

    “क्या तुमने आज सुबह अपने कमरे में कुछ अजीब नहीं देखा?”

    उसकी आँखें चौड़ी हो गईं।

    अर्जेय से यह कोई अनुमान नहीं था—

    यह जैसे वह सब देख रहा था।

    “तुमने… मेरे कमरे में—”

    अर्जेय ने धीरे से सिर हिलाया।

    “मैं नहीं गया था।

    पर जो गई थी… उसे मैं पहचानता हूँ।”

    अन्विता के भीतर सिहरन फैल गई।

    उसके कान बजने लगे।

    दुनिया धुंधली पड़ने लगी।

    अर्जेय ने अचानक हाथ आगे बढ़ाया—

    “रुको, साँस लो। यह ऊर्जा तुम्हें भारी लग रही है। मैं थोड़ा दूर जाता हूँ।”

    वह एक कदम पीछे गया—

    और उसी पल अन्विता के भीतर फैल चुकी तनाव की लहर जैसे छूमंतर हो गई।

    उसका सिर साफ़ होने लगा।

    दिल की धड़कन सामान्य हुई।

    वह अवाक उसकी ओर देखती रही।

    “ये… ये क्या था?”

    अर्जेय की नजरें उस पर टिक गईं।

    “मेरी उपस्थिति।

    मेरी ऊर्जा।

    और तुम्हारे भीतर छिपा वह हिस्सा… जो अभी जागना शुरू हुआ है।”

    “क्या तुम इंसान हो?”

    उसके मुँह से सवाल अचानक फिसल गया।

    अर्जेय कुछ क्षण चुप रहा।

    फिर बोला—

    “मैं तुम्हारे सवाल का उत्तर तब दूँगा… जब तुम तैयार हो जाओगी।”

    वह मुड़ा और जाने लगा।

    लेकिन जाते-जाते उसने ठहरकर एक वाक्य और कहा—

    “और हाँ… जो तुमने अपने कमरे में देखा था…

    वह फिर आएगी।

    क्योंकि तुम्हारे भीतर जो जाग रहा है…

    उसे उसकी ज़रूरत है।”

    अन्विता ठिठक गई।

    उसकी रगों में एक ठंडी गर्म लहर दौड़ गई।

    अर्जेय मुड़कर बोला—

    “यह सब अभी शुरुआत है, अन्विता।

    पहचान की पहली चिनगारी…”

    वह रुक गया।

    उसकी आँखें धूप में फिर चमकीं—

    सुनहरी, जीवित, और खतरनाक।

    “…अब जलने लगी है।”

    और वह भीड़ में ऐसे खो गया जैसे कभी था ही नहीं।

    अन्विता वहीं खड़ी रह गई—

    हवा में अभी भी उसकी ऊर्जा का हल्का कंपन था,

    यह बताने के लिए कि उसकी ज़िंदगी अब साधारण नहीं रहने वाली।

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  • 5. दादी की संदूकची** – पुराना संदूक, नागमणि और फुफकारती छाया - Chapter 5

    Words: 1372

    Estimated Reading Time: 9 min

    रात धीरे-धीरे गाँव पर उतर रही थी। हवा में ठंडक थी, और पीपल के पेड़ के पत्ते किसी गुप्त भाषा की तरह सरसराहट में कुछ कह रहे थे। अन्विता खिड़की के पास खड़ी थी, उसकी आँखें सड़क की ओर लगी थीं जहाँ अँधेरे में सिर्फ एक लैम्पपोस्ट की रोशनी हिलती-डुलती सी दिख रही थी।

    उसका मन बेचैन था—शायद कॉलेज, शायद अर्जेय, शायद वे अजीब घटनाएँ जो पिछले दो दिनों से उसकी ज़िंदगी पर कब्ज़ा किए बैठी थीं।

    लेकिन आज की बेचैनी सिर्फ़ कॉलेज या सपनों की वजह से नहीं थी…

    **आज दादी का कमरा अपने आप खुला था।**

    इस घर में दादी की मृत्यु के बाद किसी ने उस कमरे को छुआ तक नहीं था।

    माँ कहती थीं, *“उस कमरे में दादी की चीजें यूँ ही रहने दे; उनके जाने के बाद कोई चीज़ हटाना अच्छा नहीं।”*

    पर आज वह कमरा…

    दरवाज़ा आधा खुला पड़ा था।

    अन्विता का दिल धक-धक करने लगा।

    वह धीरे-धीरे उस कमरे की ओर बढ़ी। लकड़ी का फर्श हर कदम पर कराहता हुआ आवाज़ कर रहा था। कमरे के भीतर हल्की धूल थी, पर एक अजीब-सी महक—हल्दी, कपूर और किसी पुराने इत्र जैसी—अब भी हवा में थी।

    कमरे का कोना अन्विता को सबसे ज़्यादा खींच रहा था।

    वहीं दादी की **पुरानी संदूकची** रखी थी।

    वही संदूक जिसमें कभी दादी ने छिपाकर कई चीज़ें रखी थीं।

    बचपन में वह इसे खोलना चाहती थी, पर दादी कहती—

    “यह संदूक हर किसी के लिए नहीं है, बिटिया। इसमें वो चीज़ें हैं जो समय आने पर ही खुलती हैं।”

    और आज…

    वह संदूक खुद-ब-खुद थोड़ा खुला पड़ा था।

    अन्विता वहीं बैठ गई।

    धीरे से ढक्कन उठाया।

    संदूक से हल्की-सी रोशनी निकली।

    सामान वही था—चंदन की डलियाँ, पुराने कपड़े, दादी की पीतल की पूजा की थाली…

    लेकिन सबसे नीचे…

    एक छोटा लकड़ी का डिब्बा रखा था।

    डिब्बा ऐसा था जिसे उसने पहले कभी नहीं देखा।

    ढक्कन पर साँप की आकृति उभरी हुई थी—दो आँखें चमकती हुई।

    अन्विता का गला सूख गया।

    उसने एक पल को सोचा कि इसे छोड़ दे। बाहर से हवा ने खिड़की को थपथपाया, और अचानक वही धीमी फुफकार…

    जो पिछले दो दिनों से उसके सपनों में गूंजती थी…

    फिर सुनाई दी।

    उसके हाथ खुद-ब-खुद डिब्बे की ओर बढ़ गए।

    डिब्बा खोलते ही अंदर से तेज़ सुनहरी रोशनी फूट पड़ी।

    अन्विता चौंक गई, हाथ पीछे खींच लिया—पर रोशनी धीरे-धीरे शांत हो गई।

    अब उसके सामने था—

    **नागमणि।**

    एकदम असली।

    किसी खेल की चीज़ नहीं।

    वही नागमणि जिसकी बातें कहानियों में सुनी थीं, पौराणिक कथाओं में पढ़ी थीं।

    पर उसकी चमक…

    मानो किसी जीवित चीज़ की तरह धड़क रही थी।

    अन्विता ने उँगली बढ़ाकर बस हल्के से छुआ।

    जैसे ही उसका स्पर्श हुआ—

    धीईईम….

    कमरा अचानक अँधेरे में बदल गया।

    चारों ओर हवा घूमने लगी।

    दीवारों पर साए बनने लगे—लंबे, लहराते, मानो किसी विशाल साँप के हों।

    एक भारी, गर्भर आवाज़ कमरे में गूँज उठी—

    **“तुम लौट आई हो… अन्विता…”**

    अन्विता का कलेजा उछल कर गले में आ गया।

    वह चीखना चाहती थी, पर आवाज़ जैसे गले में अटक गई।

    साया और भी करीब आया।

    उसका आकार धीरे-धीरे स्पष्ट होने लगा—किसी स्त्री जैसा, पर उसकी निचली देह लहराती हुई… नाग के शरीर की तरह।

    अन्विता डर के मारे जमीन पर पीछे हटने लगी।

    साया बोला—

    **“यह मणि अब तुम्हारी है… जैसे पहले भी थी…”**

    अन्विता का दिल तेज़ी से धड़क रहा था।

    उसने सिर हिलाकर कहा—

    “क…कौन हो तुम?

    मैंने तुम्हें पहले कभी नहीं देखा!”

    साया फुफकारा—

    **“तुम्हें याद नहीं…

    लेकिन ख़ून याद रखता है।”**

    अगले ही पल तेज़ हवा चली और साया एक पलक में गायब।

    कमरा फिर सामान्य।

    नागमणि फिर शांत।

    सब कुछ जैसे किसी ने कुछ पल के लिए रोककर फिर चलाया हो।

    अन्विता हाँफ रही थी।

    पसीने से भीगी हुई हथेलियाँ काँप रही थीं।

    उसे लगा—वह संदूक बंद करके यहाँ से भाग जाए।

    पर तभी उसने देखा—

    संदूक में दादी की एक डायरी भी रखी थी।

    पीली पड़ी हुई, किनारे घिसे हुए, पन्ने पुराने—पर वही डायरी जो दादी हर रात अपने सिरहाने रखती थीं।

    अन्विता ने उसे उठाया।

    पहला पन्ना खोला।

    अंदर दादी की लिखावट थी—

    *“अगर यह डायरी तुझे मिले, तो समझ ले कि वह समय आ चुका है…

    तू सिर्फ़ इंसान नहीं है, बेटी।

    तू वही है जो मेरी माँ थी, और उनकी माँ…

    हमारे कुल की सर्पिणी…”*

    अन्विता की आँखें फटी रह गईं।

    उसके पैरों तले जमीन खिसक गई।

    सर्पिणी?

    वह?

    कैसे?

    क्यों?

    उसने जल्दी से दूसरा पन्ना खोला लेकिन उससे पहले खिड़की जोर से खुली—

    धड़ाम!

    हवा के साथ वही फुफकारती चाल अंदर घुसी।

    अन्विता ने डर के मारे डायरी सीने से लगा ली।

    कमरे के बाहर से माँ की आवाज़ आई—

    “अन्वी! क्या कर रही हो भीतर? दरवाज़ा खुला क्यों है?”

    अन्विता ने हड़बड़ाकर संदूक बंद किया।

    डायरी और नागमणि दोनों को अपने दुपट्टे में लपेट लिया और जल्दी से खड़ी हो गई।

    माँ कमरे में आईं तो वहाँ सब सामान्य था।

    बस धूल का एक छोटा भंवर अभी भी हवा में घूम रहा था।

    “कमरे में मत आया कर,” माँ ने थोड़ा कठोर होकर कहा।

    “यह कमरा… ठीक नहीं है।”

    अन्विता उनकी आँखों में झाँककर पूछना चाहती थी—क्यों?

    क्या माँ जानती हैं यह सब?

    लेकिन उसके होंठ खुल ही नहीं पाए।

    माँ ने दरवाज़ा बंद किया और उसे अपने कमरे की ओर भेज दिया।

    अन्विता कमरे के अंदर आई।

    दरवाज़ा बंद किया।

    दुपट्टे से डायरी और नागमणि निकाली।

    दोनों चीज़ें उसकी तकदीर की तरह टेबल पर पड़ी थीं—एक चुप, एक चमकदार…

    दोनों रहस्यों से भरी।

    यह सवाल अन्विता के भीतर कई सालों से किसी बंद कमरे की तरह अंधेरे में पड़ा था—मैं कौन हूँ?

    लेकिन आज, जब उसने दादी की दी हुई नागमणि अपनी हथेली में थाम रखी थी, यह सवाल पहली बार इतने ज़ोर से उसके भीतर उठ खड़ा हुआ था। इतना कि दिल की धड़कनें तक जवाब देने में असमर्थ लग रही थीं।

    “दादी… आपने मुझे यह रास्ता क्यों दिया?

    मैं कौन हूँ…?”

    पर कमरे में सिर्फ़ सन्नाटा था।

    दादी की पुरानी चौकी, उन पर पड़ी सफ़ेद रजाई, और उनका खाली तकिया—सब जैसे बिना आवाज़ दिए अन्विता को देख रहे थे।

    मानो उसके सवाल हवा में तैर रहे हों, और कमरा उन्हें निगल चुका हो।

    कोई जवाब नहीं आया।

    बस अचानक… नागमणि हल्के से चमकी।

    इतनी धीमी रोशनी कि लगा कहीं दूर, बहुत दूर किसी ने एक फुसफुसाहट छोड़ी हो, जो बिना आवाज़ के उसके तक पहुँच गई।

    “तू वही है… जिसे जगना था…”

    अन्विता ने हड़बड़ाकर नागमणि को कसकर पकड़ लिया।

    उस चमक में कुछ था—कुछ ऐसा जिसे उसने पहले कभी महसूस नहीं किया था। जैसे कोई अदृश्य हाथ उसके भीतर सोई किसी चीज़ को छूकर चला गया हो।

    उसका सीना भारी होने लगा।

    साँसें तेज़।

    और मन में अजीब-सी खामोशी।

    वह खिड़की के पास जाकर खड़ी हो गई।

    बाहर रात गहरी थी।

    पेड़ों की शाखें हवा में ऐसे हिल रही थीं मानो किसी रहस्य की ओर इशारा कर रही हों।

    आसमान में बादल धीरे-धीरे सरक रहे थे, और चाँद कभी दिखता, कभी छुप जाता—ठीक वैसे ही जैसे अन्विता को अभी अपनी पहचान लग रही थी… आधी दिखाई, आधी छुपी।

    उसका हाथ अब भी नागमणि पकड़े हुए था, और पत्थर की सतह गर्म महसूस होने लगी थी।

    जैसे वह सिर्फ़ पत्थर नहीं, बल्कि किसी जीवित चीज़ की तरह धड़क रहा हो।

    “जगना?

    कौन सा जगना…?”

    अन्विता के मन में सवाल उठे।

    पर इस बार उसने खुद महसूस किया कि जवाब शायद दादी नहीं देंगी… जवाब उसके भीतर छिपा है—बस जागने का वक़्त अब आया है।

    एक अजीब-सी बेचैनी उसकी नसों में दौड़ने लगी।

    शरीर हल्का महसूस होने लगा।

    गर्दन के पीछे हल्की-सी सिहरन।

    उसने पलकें बंद कीं।

    और तभी…

    किसी अनदेखी धुन की तरह, एक नई ऊर्जा उसके अंदर दौड़ पड़ी।

    न कोई आवाज़, न कोई रोशनी—बस एक एहसास, जो उसके दिल की धड़कन के साथ तालमेल बिठाता जा रहा था।

    मानो उसकी रगों में खून नहीं, कोई पुरानी शक्ति जाग उठी हो।

    वह धीरे से फुसफुसाई—

    “मेरे भीतर क्या है… दादी?”

    किसी ने जवाब नहीं दिया, लेकिन हवा ज़रूर बदली।

    अपने साथ अजनबी-सी महक लाई।

    और कमरे में ठंड बढ़ गई, जैसे कोई परछाईं उसके ठीक पास से गुज़री हो।

    अन्विता ने आँखें खोल दीं।

    वह समझ गई—

    आज रात सिर्फ़ यादें नहीं जागीं…

    कुछ और भी जागा है।

    कुछ जो उससे जुड़ा है।

    कुछ जो उसे उसकी असली पहचान तक ले जाएगा।

    उसकी ज़िंदगी अब वैसी नहीं रह सकती थी।

    नागमणि की धड़कन जैसी हल्की गर्मी उसे याद दिला रही थी—

    यह बस शुरुआत है।

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  • 6. नागमणि का ताप – मणि पहनते ही शरीर में उबलती शक्ति - Chapter 6

    Words: 1079

    Estimated Reading Time: 7 min

    रात इतने सन्नाटे में डूबी थी कि जैसे पूरा गाँव नींद में नहीं, किसी गहरी तंद्रा में सोया हो।

    अन्विता अपने कमरे में अकेली बैठी थी, सामने रखी दादी की डायरी और वही रहस्यमय नागमणि— जिसकी हल्की, धड़कती चमक पूरे कमरे में किसी जिंदा जुगनू की तरह फैल रही थी।

    उसकी उंगलियाँ कई बार उस तक जातीं…

    फिर रुक जातीं।

    मन जैसे डर और आकर्षण के बीच झूल रहा था।

    क्या मैं इसे छू भी सकती हूँ?

    पहन सकती हूँ?

    दादी ने क्यों रखा था इसे?

    और वह छाया… कौन थी?

    डायरी के पन्ने हवा से फड़फड़ाए, मानो दादी खुद कह रही हों—

    “पढ़ो… आगे पढ़ो…”

    अन्विता ने दूसरा पन्ना खोला।

    लिखावट थोड़ी काँपती हुई थी, शायद दादी के आखिरी वर्षों में लिखी हुई:

    “नागमणि कोई रत्न नहीं, अग्निशक्ति है।

    इसे धारण करने वाला सर्पकुल का उत्तराधिकारी कहलाता है।

    लेकिन इसे पहनने से पहले जान ले—

    यह शक्ति देती है,

    पर बदले में…

    तेरा पुराना रूप, तेरी पुरानी पहचान सब ले लेती है।”

    अन्विता का दिल एक पल को थम-सा गया।

    पुराना रूप?

    पहचान?

    क्या मतलब?

    उसने आगे पढ़ा—

    “जिस दिन तू इसे पहनेगी, उस दिन तेरे भीतर सुप्त शक्ति जाग जाएगी।

    ताप पहले subtly आएगा… फिर बढ़ता जाएगा।

    ध्यान रहे—

    यह ताप आशीर्वाद भी है,

    और… चेतावनी भी।”

    अचानक नागमणि की चमक थोड़ा और तेज़ हुई।

    मानो उसकी सांसें सुन रही हो।

    अन्विता ने उसे हाथ में उठाया।

    पत्थर ठंडा नहीं था—

    गर्म था।

    हल्का नहीं—

    धड़क रहा था।

    थोड़ा काँप भी रहा था, जैसे किसी विशाल जीव का नन्हा-सा दिल उसके हाथों में बंद हो।

    डर की जगह उसके भीतर एक अजीब-सी खामोशी उतरने लगी।

    वह जानती थी…

    आज रात इसे पहनना शायद उसकी किस्मत में लिखा है।

    उसने दुपट्टा हटाया।

    गले को छुआ।

    और नागमणि का धागा गले में डाल दिया।

    पहले कुछ नहीं हुआ।

    बस हल्की गरमाहट।

    लेकिन कुछ ही पलों में—

    आग!

    जैसे किसी ने उसकी नसों में लावा भर दिया हो।

    दिल इतना तेज़ धड़कने लगा कि उसे लगा छाती फट जाएगी।

    गला गर्म हो गया, फिर कंधे, फिर बाजू…

    पूरा शरीर उबलने लगा।

    “आआह—!!”

    चीख निकली पर आवाज़ बाहर नहीं गई।

    कमरे की हवा भारी हो गई थी, जैसे सन्नाटा उसकी आवाज़ को निगल गया हो।

    वह बिस्तर पर गिर पड़ी।

    हथेलियाँ जमीन पर टिकाए, शरीर काँप रहा था।

    “यह… क्या हो रहा है मुझको…”

    उसकी नसें चमक रही थीं—

    हाँ, सच में चमक रही थीं।

    जैसे त्वचा के अंदर नीली और सुनहरी रोशनी एक-दूसरे का पीछा कर रही हो।

    कलाई में एक लहर उठी, फिर कंधों तक… फिर रीढ़ के नीचे तक।

    उसने महसूस किया—

    रीढ़ की हड्डी जैसे किसी लंबी, ठंडी चीज़ की तरह खिंच रही हो।

    पीठ में तेज़ फुसफुसाहट-सी हुई, मानो कोई आकार बदलने की शुरुआत कर चुका हो।

    उसने ज़ोर से आँखें खोलीं।

    कमरे में धुआँ सा फैला था।

    हर सांस जल रही थी।

    और तभी…

    उसकी आँखें पानी से नहीं भरीं—

    सुनहरी हो गईं।

    काँच के सामने रखी अलमारी में उसे अपना प्रतिबिंब दिखा।

    एक पल के लिए वह खुद को पहचान ही नहीं पाई।

    पुतलियाँ लंबी…

    साँप जैसी।

    और आँखें—

    ठीक वैसी…

    जैसी अर्जेय की।

    उसका दिल ठहर गया।

    “न… नहीं… यह मैं नहीं हूँ…”

    पर शरीर उसकी बात नहीं सुन रहा था।

    ताप बढ़ता ही जा रहा था।

    वह उठी, बेड से नीचे उतरी।

    हाथ अलमारी पर टिकाए।

    साँसें खो रही थीं।

    तभी अचानक—

    नागमणि से एक ऊँची, करारी फुफकार निकली।

    कमरा हिल गया।

    पर्दे उड़ने लगे।

    दीवारों पर छाया उभरकर फर्श पर लंबी हो गई।

    उसी छाया की आकृति…

    जिसे उसने दादी के कमरे में देखा था।

    छाया धीरे-धीरे आकार ले रही थी—

    एक स्त्री का चेहरा…

    पर निचला हिस्सा पूरी तरह से सर्पाकार।

    अन्विता पीछे हट गई, लड़खड़ाते हुए।

    “क… क्या तुम वही हो?”

    उसकी आवाज़ काँप रही थी।

    छाया हँसी।

    वह हँसी… जो किसी इंसान की नहीं हो सकती।

    “हाँ…

    तू जाग चुकी है।

    नागमणि तुझको स्वीकार चुकी है।”

    अन्विता ज़मीन पर बैठ गई।

    दोनों हाथों से गर्दन पकड़ ली—नागमणि अब उसके गले में चिपक सी गई थी।

    “यह निकले ही नहीं… निकल क्यों नहीं रही—!!”

    उसने ज़ोर से खींचा—

    पर मणि चमक उठी और धागा कठोर हो गया, जैसे लोहे की बनी हो।

    छाया बोली—

    “कभी नहीं निकल पाएगी।

    अब तू सर्पकुल की उत्तराधिकारी है, अन्विता।

    नागमणि ने तेरा चयन कर लिया है।”

    थरथराती हुई आवाज़ में अन्विता बोली—

    “लेकिन… मैं कोई सर्पकुल की नहीं!

    मैं बस… मैं एक साधारण लड़की हूँ!”

    छाया पास आकर फुसफुसाई—

    “अगर साधारण होती…

    तो वह लड़का तुझके आसपास क्यों चमकता?”

    अन्विता की साँस रुक गई।

    अर्जेय का चेहरा उसकी आँखों में तैर गया—

    उसकी सुनहरी आँखें, उसकी विचित्र ऊर्जा, उसकी अचानक उपस्थिति…

    छाया बोली—

    “तुम दोनों जुड़े हो।

    और तुम जितना छुपोगी…

    नागमणि उतनी ही तेज़ जगेगी।”

    पर इससे पहले कि अन्विता कुछ पूछती—

    छाया अचानक धुएँ में बदल गई और हवा में लुप्त हो गई।

    कमरा शांत।

    बस उसकी साँसें भारी और काँपती हुईं।

    धीरे-धीरे ताप कम हुआ।

    नसों की चमक फीकी पड़ी।

    लेकिन उसकी आँखें—

    अब भी पूरी तरह सामान्य नहीं थीं।

    हल्की सुनहरी आभा उनमें घुली हुई थी।

    वह बिस्तर पर गिर पड़ी।

    हाथ में नागमणि पकड़े, जो अब उसकी त्वचा का हिस्सा बन चुकी थी।

    उसने थके हुए स्वर में कहा—

    “यह मेरे साथ… क्यों हो रहा है?”

    पर जवाब में सिर्फ़ खामोशी थी।

    और खिड़की के बाहर—

    दूर कहीं…

    एक और सुनहरी आँखें चमकीं।

    किसी ने उसे देखा।

    पहचाना।

    और बुदबुदाया—

    “वह जाग चुकी है…”

    वही आवाज़…

    जो अर्जेय की थी।

    उस रात अन्विता को ज़रा-सा भी अंदाज़ा नहीं था कि उसकी ज़िंदगी किस दिशा में मुड़ चुकी है।

    दिन भर की उलझनें, दादी की रहस्यमयी बातें, और नागमणि की वह चमक—सब जैसे किसी अनदेखे रास्ते का दरवाज़ा खोल चुके थे। वह सोच रही थी कि बस एक और अजीब-सी रात है, जो गुजर जाएगी। पर उसे क्या पता था कि यह वही रात है, जिसने उसके जीवन की रेखा बदल दी है।

    अब उसका एक सिरा अतीत के उस गहरे, सड़े हुए श्राप से जुड़ चुका था, जिसकी जड़ें पीढ़ियों से उसके ख़ून में बहती आई थीं—चुपचाप, अनदेखी, लेकिन बेहद ताकतवर।

    और दूसरा सिरा… उस अटूट भाग्य में बंध चुका था जहाँ से लौटना अब उसके हाथ में नहीं था। वह राह उसे खींच रही थी—धीरे, पर बहुत दृढ़ता से—मानो कह रही हो कि आगे जो भी है, उसे पूरा करना ही होगा।

    कमरे की हवा भारी थी, रात की खामोशी बेहद गहरी, और अन्विता के दिल में एक अजीब-सी कसक—जो बताती थी कि वह अब एक साधारण लड़की नहीं रही।

    उस रात उसने सोचा था कि वह सो जाएगी।

    लेकिन असल में…

    वह जाग चुकी थी।

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  • 7. जंगल का रहस्य – अर्जेय का अन्विता को पहली बार शहर से दूर ले जाना - Chapter 7

    Words: 1264

    Estimated Reading Time: 8 min

    सुबह की धूप खिड़की से झाँक रही थी, पर अन्विता को नींद नहीं आ रही थी।

    रात भर वह बेचैनी में करवटें बदलती रही थी—नागमणि का ताप धीरे-धीरे तो कम हो गया था, पर उसका अवशेष अब भी शरीर में किसी अदृश्य आग की तरह घूम रहा था।

    बार-बार ध्यान उन्हीं दृश्यों पर जा रहा था—

    सुनहरी होती उसकी आँखें, नसों में दौड़ती रोशनी, और वह छाया…

    जो कहती थी कि वह “सर्पकुल की उत्तराधिकारी” है।

    यह सब क्या था?

    क्यों उसके साथ हो रहा था?

    उसे जवाब चाहिए था।

    लेकिन सबसे पहले उसे कॉलेज जाना था—कम से कम सामान्य दिखने की कोशिश करने के लिए।

    सड़क पर चलते हुए भी वह असहज महसूस कर रही थी।

    ऐसा लग रहा था जैसे किसी की निगाहें लगातार उसका पीछा कर रही हों—उतनी तीखी नहीं कि डर लगे, लेकिन इतनी तीव्र कि दिल बेचैन हो उठे।

    वह कॉलेज के गेट के पास पहुँची ही थी कि अचानक किसी ने धीरे से उसका रास्ता रोका।

    अर्जेय।

    आज भी वैसा ही—

    सफेद शर्ट, हल्की हवा में हिलते काले बाल, और सबसे ज्यादा चुभती हुई उसकी सुनहरी आँखें।

    अन्विता वहीं ठिठक गई।

    अर्जेय ने उसके चेहरे को देखकर पूछा—

    “तुम ठीक हो?

    तुम्हारी आँखें… थकी हुई लग रही हैं।”

    अन्विता को लगा, अगर उसने कुछ बोल दिया तो उसके अंदर का सच होठों पर आ जाएगा।

    फिर भी उसने कहा—

    “मैं ठीक हूँ। बस… नींद नहीं आई।”

    अर्जेय धीरे से मुस्कुराया।

    वह मुस्कान अजीब तरह की थी—मालूम नहीं क्यों, पर इसमें सामान्यता कम और जानना ज्यादा था।

    “तुम्हारी ऊर्जा… आज अलग है।”

    उसने धीरे से कहा।

    अन्विता चौंक गई।

    “क्या?”

    अर्जेय पास आया।

    इतना पास कि उसे उसकी साँस महसूस हो सके।

    “मैं… महसूस कर सकता हूँ।”

    अन्विता का दिल एक धड़कन छोड़ गया।

    उसने नजरें चुरा लीं।

    “मुझे… क्लास में जाना है।”

    वह जल्दी से मुड़ गई, पर अर्जेय ने उसका हाथ हल्के से पकड़ लिया।

    हल्के स्पर्श से भी उसे लगा जैसे भीतर बिजली सी दौड़ गई हो—उस ताप ने एक पल के लिए अपना सिर उठाया।

    अन्विता ने हाथ खींच लिया।

    “अर्जेय… प्लीज़।”

    वह कुछ क्षण उसे देखता रहा और फिर बोला—

    “आज क्लास मत आओ।”

    उसकी आवाज़ अजीब रूप से शांत थी।

    “मुझे तुम्हें एक जगह ले जाना है।”

    अन्विता चौंकी।

    “कहाँ?”

    “जहाँ तुम्हें जाना चाहिए था… बहुत पहले।”

    उसके भीतर कई सवाल उठे।

    डर भी हुआ, गुस्सा भी… पर कहीं न कहीं—एक खिंचाव, एक अजीब भरोसा भी।

    “मैं क्यों चलूँ तुम्हारे साथ?” उसने पूछा।

    अर्जेय ने बस इतना कहा—

    “क्योंकि तुम जवाब ढूँढ रही हो।

    और वो जवाब… शहर में नहीं मिलेंगे।”

    अन्विता का दिल धड़कना भूल गया।

    अर्जेय कैसे जानता था कि वह क्या सोच रही है?

    “चलोगी?”

    उसने हाथ आगे बढ़ाया।

    अन्विता ने कुछ क्षण उस हाथ को देखा।

    धीमी-धीमी हवा बह रही थी, पेड़ के पत्ते हिल रहे थे, पर उसके दिमाग में सिर्फ़ एक ही आवाज़ गूंज रही थी—

    “जवाब…”

    उसने धीरे से सिर हिला दिया।

    “ठीक है।

    दो घंटे… बस इतना समय चाहिए तुम्हारे।”

    अर्जेय एक पल उसे देखता रहा, फिर मुस्कराया।

    “चलो।”

    दोनों कॉलेज से बाहर निकल गए।

    सड़क पार की, बस स्टॉप से आगे बढ़ते हुए शहर के शोर-शराबे से दूर जाते हुए।

    यह रास्ता वह पहचानती नहीं थी—न तो कॉलेज वाली सड़क, न बाज़ार की भीड़।

    जैसे कोई अनजाना रास्ता ही चुन रखा हो।

    अन्विता ने पूछा—

    “हम कहाँ जा रहे हैं?”

    अर्जेय ने उत्तर देने के बजाय बस कहा—

    “जहाँ जंगल शुरू होता है।”

    जंगल।

    शब्द सुनकर ही उसके भीतर अजीब-सी गूँज उठी—सपनों वाला वही घना अंधेरा जंगल, पत्थर का पुराना मंदिर, फुफकारें…

    और अचानक उसे लगा कि यह सब पहले भी हुआ है।

    कहीं… किसी जन्म में?

    चंद मिनट बाद शहर की आख़िरी इमारतें पीछे रह गईं और हरे पेड़ों ने रास्ता पकड़ लिया।

    हवा अब ठंडी थी।

    सन्नाटा एकदम अलग।

    “यह जंगल… कौन सा है?”

    अन्विता ने पूछा।

    “शहर से कोई पाँच किलोमीटर दूर।”

    अर्जेय बोला।

    “लेकिन तुम्हारी समझ में यह दूरी शायद… अलग लगेगी।”

    वे चल रहे थे और जंगल घना होता जा रहा था।

    पत्तों पर धूप छनकर गिर रही थी, हवा का ताप ठंड में बदल रहा था।

    अन्विता की साँसें गहरी हो रहीं थीं।

    यह जगह… अजीब तरह से जानी-पहचानी लग रही थी।

    अर्जेय चलते-चलते रुक गया।

    “अन्विता।”

    “हाँ?”

    अर्जेय ने उसे ध्यान से देखा।

    उसकी आँखें थोड़ी चमक उठीं—वही सुनहरी, गहरी, रहस्यमय चमक।

    “तुम्हें यहाँ कुछ महसूस हो रहा है?”

    अन्विता ने धीरे से कहा—

    “हाँ… जैसे कोई मुझे पुकार रहा हो।”

    अर्जेय हल्का-सा झुककर बोला—

    “इस जंगल की मिट्टी… तुम्हारी है।”

    अन्विता का दिल धक से गिर गया।

    “तुम्हारा क्या मतलब?”

    अर्जेय ने उसकी आँखों में झाँकते हुए कहा—

    “तुमने जो देखा था…

    जो महसूस किया था…

    जो ताप रात को तुम्हारे भीतर उठा था…

    उसका स्रोत यहीं है।”

    नागमणि उसके गले से हल्के-हल्के तपने लगी।

    जैसे जंगल की हवा उससे बात कर रही हो।

    “तुम यह सब कैसे जानते हो?”

    अन्विता फुसफुसाई।

    अर्जेय की आँखों में एक अजीब-सी चमक आई—गहरी, गंभीर, और थोड़ी दर्दभरी।

    “क्योंकि मैंने यह सब पहले भी देखा है।

    किसी और में।

    बहुत वर्षों पहले।”

    हवा रुक सी गई।

    पेड़ खामोश हो गए।

    अन्विता ने काँपती आवाज़ में पूछा—

    “तुम… इंसान नहीं हो, है ना?”

    अर्जेय ने कोई मुस्कान नहीं दी।

    उसने सिर्फ़ इतना कहा—

    “अगर मैं सच कह दूँ… तो क्या तुम भाग जाओगी?”

    “मुझे नहीं पता…”

    अन्विता फुसफुसाई।

    “पर झूठ मत बोलना।”

    अर्जेय ने गहरी सांस ली और कदम आगे बढ़ाया।

    वह इतना पास आ गया कि दोनों के बीच सिर्फ़ धड़कनों का फासला रह गया।

    उसने कहा—

    “मैं वो हूँ… जो तुम्हें पहचानता है।

    और तुम वो हो…

    जिसके जागने का इंतज़ार सदियों से था।”

    अन्विता ने उसकी आँखों में देखा—

    उनमें सिर्फ़ सुनहरी चमक नहीं थी…

    एक जंगल था, एक अँधेरा, एक प्राचीन रहस्य।

    अर्जेय ने उसका हाथ पकड़ा—इस बार उसने विरोध नहीं किया।

    “चलो।

    तुम्हें उस जगह ले चलता हूँ… जहाँ पहला सच छिपा है।”

    वह उसे जंगल के भीतर और गहराई तक लेकर गया।

    पेड़ों के बीच से हवा सरसराती हुई निकलती, कहीं किसी पक्षी की आवाज़, कभी दूर से आती फुसफुसाहट—ये सब मिलकर एक रहस्यमय धुन बना रहे थे।

    कुछ देर बाद वह एक पुराने, काई से ढके पत्थर के सामने रुका।

    पत्थर पर उकेरी थी सर्प की आकृति—

    वही मूर्ति जिसे अन्विता ने अपने सपने में देखा था।

    उसका गला सूख गया।

    सांसें तेज़ हो गईं।

    नागमणि फिर चमकने लगी।

    अर्जेय धीरे से बोला—

    “याद है?

    तुम यहीं आई थी…

    कभी बहुत पहले।”

    अन्विता ने काँपते स्वर में कहा—

    “मैं आज पहली बार यहाँ आई हूँ…”

    अर्जेय ने उसकी ओर देखा।

    उसकी आवाज़ फुसफुसाहट में बदल गई—

    “नहीं, अन्विता।

    तुम पहले भी यहाँ आई हो।

    तुम इसी मंदिर की…

    रक्षक थीं।”

    उसके पैरों के नीचे जमीन डोल गई।

    आंखों के सामने वही जंगल, वही पत्थर, वही फुफकार—सब घूमने लगा।

    अर्जेय उसके करीब आया और बहुत धीमी आवाज़ में बोला—

    “और मैं…

    इस मंदिर का अभिशप्त प्रहरी हूँ।”

    जंगल ने जैसे उसकी बात सुनकर एक ठंडी सांस ली।

    अन्विता स्तब्ध थी।

    उसकी दुनिया जैसे एक झटके में बदल गई थी।

    और इसके पहले कि वह कुछ पूछ सके—

    जंगल के भीतर कहीं से भारी, गूँजती हुई फुफकार उठी।

    “ये आवाज़…”

    अन्विता बुदबुदाई।

    अर्जेय की आँखें अचानक चौकन्नी हो गईं।

    उसने उसका हाथ कसकर पकड़ा।

    “समय कम है।

    हमें अभी नीचे जाना होगा।

    क्योंकि वह… जाग चुका है।”

    “कौन?”

    अन्विता ने हड़बड़ा कर पूछा।

    अर्जेय ने बमुश्किल फुसफुसाया—

    “वही… जिसका श्राप तुम्हारी नसों में दौड़ रहा है।”

    जंगल अचानक बेचैन होने लगा।

    पेड़ काँपे।

    हवा भारी हो गई।

    मानो कोई बहुत पुराना, बहुत शक्तिशाली सर्प फिर से अपनी नींद से उठ रहा हो।

    और अन्विता के गले की नागमणि—

    अब तेज़ तपने लगी थी।

    सच का दरवाज़ा खुल चुका था।

    वापसी का रास्ता अब नहीं था।

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  • 8. पुरातन शाप की पहली झलक – अर्जेय का आधा सच बताना - Chapter 8

    Words: 1533

    Estimated Reading Time: 10 min

    जंगल की ठंडी हवा अब गहराई पकड़ चुकी थी। सूरज पूरी तरह ढल चुका था और आसमान में नीली-काली धुंध फैल गई थी। पेड़ों की पत्तियों पर ओस चमकने लगी थी, जैसे किसी अदृश्य हाथ ने उन पर नरम काँच की परत चढ़ा दी हो। हवा में एक अजीब-सी ऊर्जा भरी थी—थोड़ी बेचैनी, थोड़ी रहस्य, और थोड़ी… चेतावनी।

    अन्विता अभी भी चट्टान के किनारे खड़ी थी, जहाँ से हरी घाटी दूर-दूर तक दिखाई देती थी। पर उसके मन में हिरासत केवल उसी दृश्य की नहीं थी, बल्कि उस भीषण झटके की थी जो कुछ देर पहले अर्जेय की आँखों से बिजली की तरह निकला था। वह दृश्य बार-बार याद आ रहा था—उसकी सुनहरी आँखें अचानक चमक उठना, उसके शरीर का तापमान बदलना, और हवा में फैलती वो अजीब कम्पन।

    वह अर्जेय की तरफ मुड़ी, उसकी आवाज़ हल्की काँप रही थी।

    “तुम… तुम कौन हो, अर्जेय? ये क्या था?”

    अर्जेय कुछ पल शांत रहा। उसके चेहरे पर वही गंभीरता थी जो पहले कभी अन्विता ने नहीं देखी थी—जैसे वह खुद से लड़ रहा हो, जैसे कोई सच उसकी जीभ पर आने से पहले सौ बार सोच रहा हो। पेड़ों की छाया उसके चेहरे पर रेंग रही थी, उसके भावों को और भी रहस्यमय बना रही थी।

    आखिरकार, उसने गहरी साँस भरी।

    “अन्विता… मैं तुम्हें बहुत कुछ बताना चाहता हूँ। लेकिन पूरा सच अभी नहीं कह सकता।”

    अन्विता का दिल धड़का।

    “क्यों? क्या तुम सोचते हो कि मैं डर जाऊँगी?”

    अर्जेय ने धीरे से सिर हिलाया।

    “नहीं। तुम दूसरी लड़कियों जैसी नहीं हो… तुम सिर्फ़ डरने वाली इंसान नहीं हो। लेकिन—कुछ बातें जान लेने का मतलब होता है… उनका हिस्सा बन जाना।”

    “कौन-सी बातें?” अन्विता की आवाज़ अब तीखी और बेचैन थी।

    अर्जेय एक कदम आगे बढ़ा। हवा उसके चारों ओर हल्का-सा घूमने लगी—जैसे प्रकृति उसके इंतज़ार में हमेशा खड़ी हो।

    “आज तुमने देखा… मेरे अंदर कुछ है। ऐसा कुछ, जो इंसान नहीं है। ऐसा कुछ, जो सदियों से चला आ रहा है।”

    “तो बताओ! तुम क्या हो?”

    अन्विता की आँखों में अब डर से ज्यादा गुस्सा था—वही गुस्सा, जो किसी को सच से दूर रखा जाए तो पैदा होता है।

    अर्जेय ने क्षणभर के लिए आँखें बंद कीं, फिर बोला—

    “मैं… एक शाप का वाहक हूँ।”

    जंगल एकदम शांत हो गया। झींगुरों की आवाज़, पत्तों की सरसराहट, हवा की फुसफुसाहट—सब रुक गई मानो कहानी खुद सुनने खड़ी हो गई हो।

    “किस शाप का?”

    अन्विता ने धीमे से पूछा, उसकी आवाज़ में अब तनाव अधिक था।

    अर्जेय की आँखों में चमक आई—वही सुनहरी चमक जिसे अन्विता अब तक समझ नहीं पाई थी।

    “एक पुरातन नाग-शाप… जो मेरे जन्म से पहले का है।”

    अन्विता का दिल अचानक तेज़ धड़कने लगा। “नाग-शाप?”

    अर्जेय उसके करीब आया लेकिन दूरी बनाए रखी।

    “हाँ। और ये सिर्फ़ कोई साधारण शाप नहीं… बल्कि ऐसा शाप जो एक पूरी वंशरेखा को निगल चुका है।”

    वह थोड़ा रुका, मानो यादें उसे भीतर से काट रही हों।

    “हज़ारों साल पहले, जब सर्प-वंश और मानव-वंश एक दूसरे से दूर रहते थे, तब एक युद्ध हुआ था। गलती इंसानों की थी… लेकिन कीमत सर्पों ने चुकाई।”

    अन्विता ध्यान से सुन रही थी, पर उसकी आँखों में अजीब चमक थी—जैसे कोई छुपी स्मृति जाग रही हो, जैसे ये शब्द पहली बार नहीं सुने जा रहे।

    अर्जेय ने जारी रखा—

    “उस युद्ध में एक महाशक्तिशाली नागिन थी… उसकी शक्ति अपार थी, उसकी आत्मा अग्नि से भी तेज़। उसका नाम था… काशिरा।”

    नाम सुनते ही अन्विता की साँस अटक गई।

    “काशिरा…”

    नाम जैसे उसकी नसों में उतर गया, जैसे किसी ने उसके हृदय पर आग लिख दी हो।

    अर्जेय ने उसकी प्रतिक्रिया पर ध्यान दिया, पर कुछ कहा नहीं।

    “काशिरा को धोखे से घायल किया गया। और उसने अपने मरते-मरते अपने ख़ून पर शाप लिखा—एक ऐसा शाप जिसे हर जन्म में उसके वंश के कुछ चुने हुए लोग ढोएँगे। वही शाप… जो मुझ तक पहुँचा है।”

    अन्विता काँपते हुए बोली—

    “तो तुम नाग हो?”

    अर्जेय ने धीरे से मुस्कुराया—एक उदास, टूटी हुई मुस्कान।

    “नहीं। और हाँ भी। मैं पूरा मानव भी नहीं, पूरा नाग भी नहीं। मैं दोनों का भार हूँ। आधा सत्य, आधा श्राप।”

    अन्विता चुप हो गई। उसके मन में हजार सवाल घूम रहे थे—क्यों उसे अर्जेय के पास अजीब ऊर्जा महसूस होती है? क्यों उसकी सुनहरी आँखें उसे डराने की बजाय खींचती हैं? क्यों रातों में उसे सपना आता है कि वह किसी प्राचीन मंदिर के सामने खड़ी है?

    अर्जेय ने उसकी आँखों में देखते हुए कहा—

    “मैंने तुम्हें जंगल इसलिए लाया ताकि तुम खुद महसूस करो कि तुम अलग हो। यहाँ की हवा तुम्हें बुलाती है, है ना?”

    अन्विता ने अनजाने में सिर हिलाया।

    “देखा?”

    अर्जेय के स्वर में हल्की निराशा थी।

    “तुम खुद को सामान्य मानती हो। पर तुम सामान्य नहीं हो।”

    “क्या मतलब?”

    अन्विता एक कदम पीछे हट गई।

    “तुम्हारे भीतर भी कुछ है… जो सोया हुआ है। और आज जब तुमने नागमणि पहनी, तो वह जागने लगा।”

    अन्विता का दिल तेज़ी से उछला।

    “नागमणि…? मतलब… इसका संबंध तुमसे है?”

    अर्जेय एक पल चुप रहा। उसकी आँखों में संघर्ष था।

    “सच तो ये है… नागमणि तुमसे ज्यादा जुड़ी है, मुझसे नहीं।”

    यह सुनते ही अन्विता को लगा जैसे जमीन उसके पैरों के नीचे फिसल रही है।

    लेकिन पल भर बाद उसने साहस जुटाकर पूछा—

    “मुझसे कैसे जुड़ी है? क्या मैं भी… तुम्हारी तरह…?”

    अर्जेय तुरंत बोला—

    “नहीं! बिल्कुल नहीं। तुम मेरे जैसे नहीं हो। तुम शापग्रस्त नहीं—तुम चुनी हुई हो।”

    अन्विता स्तब्ध रह गई।

    “चुनी हुई? किस चीज़ के लिए?”

    अर्जेय की आवाज़ धीमी हो गई।

    “उस शाप को पूरा करने के लिए… या तोड़ने के लिए।”

    अन्विता का सिर चकरा गया।

    “मैं क्यों? मेरा इस सब से क्या रिश्ता है?”

    अर्जेय पास आया, उसका चेहरा गंभीर था।

    “ये मैं अभी नहीं बता सकता। क्योंकि अगर मैं सब बता दूँ… तो मेरा नियंत्रण टूट जाएगा। और तब मैं तुम्हें सुरक्षित नहीं रख पाऊँगा।”

    अन्विता की साँसें भारी हो गईं।

    “तो तुम मुझसे सच छुपा रहे हो?”

    अर्जेय ने नजरें झुका लीं।

    “हाँ… कुछ हिस्सा। क्योंकि पूरा सच अभी तुम्हें चोट देगा।”

    एक पल की खामोशी।

    जंगल फिर से अपनी आवाज़ों में लौट आया—दूर किसी उल्लू की आवाज़, हवा की सरसराहट, और पत्तों से गिरती ओस की बूंदें।

    अन्विता ने अर्जेय की ओर देखा।

    “क्या तुम मुझसे डरते हो?”

    उसकी बात सुनकर अर्जेय चौंक गया—

    “डरता? मैं? तुमसे?”

    उसके होंठों पर हल्की-सी मुस्कान आई—

    “अन्विता, मैं तुमसे नहीं डरता… मैं इस बात से डरता हूँ कि तुम क्या हो सकती हो।”

    “और वो क्या हो सकती हूँ?”

    अन्विता की आँखें चमक उठीं।

    अर्जेय ने उसकी आँखों में देखा—गहराई से, जैसे वहाँ कोई दबी हुई चीज़ ढूँढ रहा हो।

    “तुम… इस शाप की अंतिम कुंजी हो। तुममें वो शक्ति है जो सदियों में एक बार जन्म लेती है।”

    अन्विता का मन सन्न हो गया।

    उसके कानों में अर्जेय की आवाज़ गूंज रही थी।

    उसके सपने… उसके डर… उसकी नसों में कभी-कभी दौड़ती गर्मी…

    उसकी दादी का वही संदूक…

    और वो हरी नागिन जो बिस्तर पर दिखी थी…

    सब कुछ अचानक अर्थ पाने लगा।

    “तो तुम मुझसे इसलिए नहीं दूर हो… बल्कि मेरे पास इसलिए हो?”

    अन्विता ने पूछा।

    अर्जेय के चेहरे पर पीड़ा उभर आई।

    “हाँ… और नहीं भी। सच कहूँ तो, मैं तुम्हारे पास इसलिए हूँ क्योंकि मेरा भाग्य… और तुम… एक-दूसरे में उलझे हुए हैं। लेकिन ये बंधन सिर्फ़ भाग्य का नहीं है। इसमें कुछ और भी है…”

    उसने अन्विता की ओर एक लंबी, गहरी नजर डाली।

    “कुछ ऐसा… जिसे मैं खुद समझ नहीं पा रहा।”

    अर्जेय की आवाज़ टूटती हुई लगी।

    “तुमसे दूर रहना असंभव है। लेकिन पास रहना… तुम्हारे लिए खतरा हो सकता है।”

    अन्विता की धड़कनें तेज़ हो गईं।

    “तो बताओ अर्जेय—तुम मुझे क्यों बचा रहे हो? आखिर मैं तुम्हारे लिए कौन हूँ?”

    अर्जेय कुछ कहना चाहता था… उसके होंठ हिले… पर आवाज़ नहीं निकली। मानो कोई अदृश्य शक्ति उसे रोक रही हो।

    अचानक हवा तेज़ हो गई।

    पेड़ ज़ोर से हिलने लगे।

    जंगल में फुफकार जैसी आवाज़ गूंजी।

    अन्विता डरकर पीछे हटी।

    “ये हवा… ये आवाज़… ये पहले कभी नहीं सुनी!”

    अर्जेय तुरंत सतर्क हो गया।

    उसकी सुनहरी आँखें चमक उठीं।

    “वे जाग गए हैं।”

    “कौन?” अन्विता की आवाज़ काँप गई।

    अर्जेय की आवाज़ भारी थी—

    “वे… जो तुम्हें ढूँढ रहे थे।

    वे… जो तुम्हारी शक्ति को चाहते हैं।

    वे… जो इस शाप का असली चेहरा हैं।”

    अन्विता का दिल तेज़ी से धड़क रहा था।

    अर्जेय ने उसका हाथ थाम लिया।

    “अन्विता… अब हमें तुरंत यहाँ से जाना होगा। किसी भी कीमत पर।”

    हवा और तेज़ हुई।

    फुफकारों की गूँज अब करीब आ रही थी—जैसे सैकड़ों साँप एक साथ सरक रहे हों।

    अन्विता के रोंगटे खड़े हो गए।

    “अर्जेय… मैं डरी हुई हूँ।”

    अर्जेय ने उसका चेहरा थामकर धीरे से कहा—

    “डरो मत। जब तक मैं हूँ, कोई तुम्हें छू भी नहीं सकता।”

    उसकी आँखें अचानक तेज़ सुनहरी चमक में बदल गईं।

    “और अब… तुम्हें सच का पहला हिस्सा मिल चुका है।”

    “लेकिन असली सच…

    वो अभी बाकी है।”

    और तभी—

    जंगल की काली छायाओं से दो चमकती हुई आकृतियाँ उभर आईं।

    लंबे, चमकीले, सर्पाकार स्वरूप…

    उनकी आँखें लाल अंगारों की तरह जल रही थीं।

    अन्विता ने चीख दबाई।

    “ये… कौन हैं?”

    अर्जेय ने उसे पीछे धकेला—

    “ये शाप के रक्षक हैं… और तुम पर इनकी नजर पहली बार पड़ी है।”

    आसमान काले बादलों से भर गया।

    हवा फुफकारने लगी।

    अर्जेय की आवाज़ गूंजी—

    “अन्विता… पीछे देखो मत।

    बस दौड़ो।

    क्योंकि अब असली खेल शुरू हो चुका है।”

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  • 9. स्मृतियों के टुकड़े – सोते हुए अन्विता का पहला पूर्वजन्म दृश्य - Chapter 9

    Words: 1341

    Estimated Reading Time: 9 min

    रात बहुत गहरी हो चुकी थी।

    जंगल से भागने के बाद अर्जेय ने अन्विता को एक पुरानी, वीरान-सी कोठी में लाकर रुकने को कहा था। जगह सुनसान थी—दीवारों पर बेलें चढ़ी हुई, टूटी खिड़कियाँ, कटते हुए चिराग की रोशनी, और चारों ओर फैली हुई पुरानी, सीलन भरी गंध। पर अभी यह सब अन्विता की चिंता नहीं थी। उसका दिल अभी भी तेज़ धड़क रहा था, हाथ काँप रहे थे, और मन में वही सवाल घूम रहे थे—

    वे सर्पाकार छायाएँ कौन थीं?

    वे उसे क्यों ढूँढ रही थीं?

    और… वह कौन है?

    अर्जेय ने बहुत कोशिश की उसे शांत करने की, लेकिन उसके चेहरे की गंभीरता ने उसकी बेचैनी और बढ़ा दी थी।

    “तुम आराम करो,” अर्जेय ने धीमी आवाज़ में कहा, “तुम्हें इसकी ज़रूरत है।”

    अन्विता ने उसे देखना चाहा—उसकी आँखों में उस चमक की झिलमिलाहट अब भी थी।

    वो जानती थी, अर्जेय उससे बहुत कुछ छुपा रहा है।

    वो यह भी जानती थी कि वह उसे झूठ नहीं बोल रहा, बस… पूरा सच से रोक रहा है।

    थकान इतनी भारी थी कि अन्विता प्रतिरोध नहीं कर पाई। वह कमरे के एक पुराने पलंग पर लेट गई—लकड़ी कर्कश आवाज़ करती रही, जैसे कोई बीते सालों की पीड़ा सुना रही हो।

    अर्जेय दरवाज़े के पास खड़ा रहा, उसकी निगरानी करते हुए।

    कुछ ही पलों में अन्विता की आँखें भारी हुईं।

    उसने एक आखिरी बार अर्जेय को देखा—

    उसकी आँखें जैसे कह रही थीं:

    “मैं यहीं हूँ। तुम सुरक्षित हो।”

    और फिर…

    वह नींद में डूब गई।

    लेकिन वह नींद सामान्य नहीं थी।

    जैसे ही उसकी चेतना धुंधली हुई, किसी ने उसके मन पर दस्तक दी।

    एक ठंडी सी फुसफुसाहट, कहीं दूर से आती…

    “वेला…”

    नाम सुनकर अन्विता की साँस रुक गई।

    उसने कभी यह नाम नहीं सुना था—कम से कम इस जन्म में नहीं।

    पर फिर भी…

    नाम उसके दिल में कहीं गहराई में उतरता गया, जैसे कोई घर लौट आया हो।

    और अचानक—

    पूर्वजन्म का द्वार खुल गया।

    सबसे पहले प्रकाश आया—गहरा, सुनहरा, जो अनंत तक फैला हुआ था। फिर धुंध जिसकी परतें सिकुड़ने लगीं। और फिर… दृश्य उभरने लगे।

    अन्विता अब किसी मंदिर के सामने खड़ी थी।

    यह वही मंदिर था जिसे वह अपने सपनों में देखती रही थी—सर्पों की आकृतियाँ से भरा हुआ विशाल पत्थर मंदिर। उसकी दीवारों पर साँपों की कलात्मक नक्काशी, और मुख्य द्वार के ऊपर स्थापित तीन-फन वाला विशाल पत्थर नाग। मंदिर से एक भीषण ऊर्जा उठ रही थी—गर्म, सांस लेती हुई, जीवित।

    अन्विता ने अपने पैरों की ओर देखा—

    वे इस जन्म वाले पैरों से अलग थे।

    उसके पाँवों में चांदी के पायल थे, और उसकी त्वचा थोड़ी-सी… चाँदनी जैसी उजली।

    वह खुद को मंदिर के पत्थरों में प्रतिबिंबित देख पाई—

    उसकी आँखें अब हरी थीं, गहरी—जैसे किसी नागों के कुण्ड की छाया हों।

    उसकी पोशाक अलग थी—प्राचीन काल की रेशम की पीली साड़ी, सुनहरी किनारों से घिरी।

    और तभी एक भारी स्वर उसके पीछे गूंजा—

    “वेला, तुम देर से आई हो।”

    अन्विता—या वेला—मुड़ी।

    वहाँ एक युवक खड़ा था।

    लंबा, दिव्य, और उसके शरीर के चारों ओर सुनहरी लहरें-सी उठ रही थीं।

    उसकी आँखें—हाँ, ठीक अर्जेय जैसी सुनहरी—पर उनसे कहीं अधिक तेज़, कहीं अधिक प्रकाशमान।

    वह उसे देखकर मुस्कुराया।

    “तुम्हें डरने की ज़रूरत नहीं।”

    वेला ने उसकी ओर एक कदम बढ़ाया।

    “प्रवाह… मैं तैयार हूँ। मुझे उसका सामना करना ही होगा।”

    अन्विता का दिल जोर से धड़क गया—

    प्रवाह!

    नाम सुनते ही उसके भीतर कुछ जागा—क्या यह अर्जेय का पूर्वजन्म था?

    क्या वह इसी रूप में था?

    प्रवाह उसके पास आया, उसकी आँखें नरम पड़ गईं।

    “वेला, तुम मेरी छाया हो। मैं तुम्हें अकेला कैसे जाने दूँगा?”

    वेला ने उसकी ओर हाथ बढ़ाया।

    “शाप मुझसे जुड़ा है, तुमसे नहीं।”

    प्रवाह हँसा—गहरी, शांत हँसी।

    “शाप हम दोनों से जुड़ा है। तुम यह जानती हो।”

    अचानक हवा में एक झुलसती गर्मी उठी।

    मंदिर के द्वार पर प्रतीक्षा कर रही छायाएँ हिलने लगीं—लंबी, सर्पाकार, भयावह।

    वेला का चेहरा कठोर हो गया।

    “वे आ गए हैं…”

    प्रवाह ने आगे बढ़कर उसे पीछे किया।

    “मैं उनका पूरा सामना करूँगा।”

    वेला चिल्लाई—

    “नहीं! यह मेरा कार्य है! मेरे रक्त ने शाप को जन्म दिया था। मुझे ही इसका अंत भी करना होगा।”

    प्रवाह ने उसका चेहरा थामा, उसके माथे पर हाथ रखा—एक ऐसा स्पर्श जो सुरक्षा का, प्रेम का, और एक अनंत बंधन का प्रतीक था।

    “अगर तुम गिरी… तो मैं भी गिरूँगा। हम अलग नहीं हैं, वेला।

    हम कभी अलग नहीं रहे।”

    वेला की आँखें नम हो गईं।

    पर दृढ़ता अब भी बनी रही।

    “आज… किसी एक को मरना पड़ेगा।

    और मैं जानती हूँ कि वह कौन होगा।”

    प्रवाह की आँखों का प्रकाश मंद पड़ गया।

    “तुम ऐसा क्यों कहती हो?”

    वेला बोली—

    “क्योंकि यह शाप मेरे पूर्वजों का है।

    तुम्हारा कोई दोष नहीं।

    मैं तुम्हें इसमें नहीं खींच सकती।”

    प्रवाह ने उसके कंधों को पकड़ा।

    “वेला, प्रेम और भाग्य को अलग नहीं किया जा सकता। मैं जहाँ भी जाऊँगा, तुम साथ चलोगी—यह नियति है।”

    हवा में अचानक एक तेज़ कंपन उठी।

    धरती काँपी।

    मंदिर की मूर्तियों से जली हुई फुफकारें निकलने लगीं।

    “प्रवाह… वे आ गए!”

    अचानक चार विशाल, काले नागाकार छायाएँ मंदिर के द्वारों से निकलीं।

    उनकी आँखें लाल अंगारों की तरह थीं।

    उनकी त्वचा ज़हरीली धातु जैसी चमक रही थी।

    सर्प-रक्षक!

    वही जिन्हें अर्जेय ने आज जंगल में देखकर अन्विता को भागने को कहा था।

    प्रवाह आगे बढ़ा—

    “वेला, पीछे रहो!”

    पर वेला आगे आई—

    “नहीं। अब मैं पीछे नहीं रहूँगी।”

    और तभी—

    एक नागाकार छाया बिजली की तरह उन पर झपटी।

    वेला ने अपनी आँखें बंद कीं।

    उसकी हथेली से सुनहरी रोशनी फूटी—और इतनी तीव्र कि पूरा मंदिर चमक उठा!

    छाया पीछे धकेल दी गई।

    पर प्रकाश के साथ ही… वेला का शरीर काँप गया।

    ऊर्जा उसके भीतर उमड़ने लगी—प्रबल, अनियंत्रित, विस्फोटक।

    प्रवाह चिल्लाया—

    “वेला! तुम बहुत अधिक ऊर्जा इस्तेमाल कर रही हो!”

    लेकिन वेला सुन नहीं पा रही थी।

    उसकी आँखें अब हरे नहीं—सुनहरी हो गई थीं।

    उसके बाल हवा में उड़ने लगे।

    उसके पैरों के नीचे ज़मीन फटने लगी।

    छायाएँ एक साथ उस पर टूट पड़ीं—

    पर वेला ने हाथ उठाया, और एक अग्नि-सर्पाकार लपट निकली—सीधे उन पर वार करती हुई।

    मंदिर की दीवारें हिलने लगीं।

    धरती से धुआँ उठने लगा।

    सर्प-रक्षक पीछे हट गए—पर हार नहीं मानी।

    और उसी क्षण…

    एक आवाज़ पूरे आकाश में गूँजी।

    “वेला! स्मरण रखो—अधूरा कर्म… अधूरा जन्म लाता है!”

    वेला चीखी—

    “मैं कर्म पूरा करूँगी!”

    पर अचानक—

    एक सर्प-रक्षक ने उसके पीछे आकर वार किया।

    वेला का शरीर आगे गिरा।

    प्रवाह ने उसे पकड़ लिया—

    “वेला!”

    वेला की साँसें टूट रही थीं।

    उसका हाथ काँप रहा था।

    उसकी आँखें धुंधली होने लगीं।

    वह फुसफुसाई—

    “प्रवाह… यह अधूरा रह गया…”

    प्रवाह की आँखें आँसुओं से भर गईं।

    “मैं तुम्हें जाने नहीं दूँगा!”

    वेला ने मुस्कुराने की कोशिश की।

    “अगर मैं गई… तो लौटूँगी।

    फिर तुमसे मिलूँगी…

    और हम इसे पूरा करेंगे।”

    और फिर—

    उसकी आँखें बंद हो गईं।

    प्रवाह ने चीख मारी—ऐसी चीख जिसका दर्द सदियों तक गूँज सकता था।

    आसमान लाल हो गया।

    हवा सिसकने लगी।

    मंदिर की दीवारें टूटने लगीं।

    प्रवाह ने वेला को अपने सीने से लगाकर कहा—

    “तुम जाओगी नहीं… तुम लौटोगी।

    मैं तुम्हारे हर जन्म की प्रतीक्षा करूँगा।”

    और पूरा दृश्य सुनहरी रोशनी में बदल गया।

    अचानक—

    अन्विता ने झटके से आँखें खोल दीं।

    उसकी साँसें तेज़ थीं।

    उसका चेहरा पसीने से भीगा था।

    उसकी उंगलियाँ काँप रही थीं।

    अर्जेय उसके पास था, उसकी आँखें चौड़ी हुई थीं—

    “अन्विता! क्या हुआ?”

    अन्विता की आँखों में आँसू थे।

    उसने अर्जेय का हाथ पकड़ लिया—

    “मैंने… मैं वहाँ थी… मैं वही थी…”

    अर्जेय हिल गया।

    “तुमने… देखा?”

    अन्विता की आवाज़ टूटती हुई थी—

    “हाँ। मेरा नाम… वेला था।

    और तुम… तुम प्रवाह थे।”

    अर्जेय की साँस अटक गई।

    उसके चेहरे का रंग उड़ा हुआ था—जैसे किसी ने उसके हजारों साल पुराने राज को खींचकर सामने रख दिया हो।

    “तो अब…”

    अन्विता फुसफुसाई—

    “मैंने हमारा पहला जन्म… देख लिया।”

    अर्जेय ने कुछ नहीं कहा।

    बस उसकी आँखों में वही सदियों पुराना दर्द फिर से उभर आया।

    अन्विता ने धीरे से कहा—

    “हम अधूरे रह गए थे… अर्जेय।

    और यही अधूरापन…

    आज भी हमारा पीछा कर रहा है।”

    अर्जेय ने उसकी ओर देखा—

    एक लंबी, गहरी, दर्द से भरी नजर से।

    “हाँ, अन्विता…

    हम अधूरे थे।

    और यही कारण है कि…

    शाप अभी भी जिंदा है।”

    कमेंट्स

  • 10. नागलोक की धुंध – सपने में पहली बार नागों के महल को साफ़ देखना - Chapter 10

    Words: 1446

    Estimated Reading Time: 9 min

    रात अपनी नमी और अँधेरे के साथ धीरे-धीरे फैल चुकी थी।

    अर्जेय वही पुरानी कोठी के दरवाज़े के बाहर खड़ा था, जबकि अन्विता भीतर गहरी सांसों के साथ सोने की कोशिश कर रही थी। दिन भर जो कुछ हुआ था—जंगल की छायाएँ, मंदिर का सच, सर्प-रक्षक, और पूर्वजन्म की झलक—सब उसे भीतर से हिला चुके थे।

    उसके मन में कहीं एक डर भी था, और उतनी ही तीव्र जिज्ञासा।

    जब उसने अर्जेय को बताया कि उसने सपने में “वेला” और “प्रवाह” को देखा—अर्जेय की आँखों में फैला सदियों का दर्द वह साफ़ पढ़ सकती थी। वह शब्दों में कुछ नहीं बोला था, लेकिन उसकी चुप्पी ही सच थी।

    अन्विता कोठी के बिस्तर पर लेट गई।

    बाहर हवा में कोठी की खिड़कियों की खड़खड़ाहट भर सुनाई दी।

    एक ठंडी साँस कमरे में घूम गई, जैसे कोई उसके पास बैठा हो… छाया की तरह, अदृश्य लेकिन मौजूद।

    धीरे-धीरे नींद उस पर हावी होने लगी।

    पर यह नींद साधारण नहीं थी।

    यह किसी और संसार का आमंत्रण थी।

    जैसे ही उसकी आँखें बंद हुईं—

    सपना शुरू हुआ।

    इस बार कोहरा पहले नहीं आया।

    पहली बार सपना बिलकुल साफ़ था।

    धुँध की जगह एक सुनहरी रोशनी का विशाल वृत्त था, जिसके बीचोंबीच एक चमकता, हरा द्वार खुल रहा था—जैसे किसी प्राचीन दुनिया का प्रवेशद्वार।

    रोशनी धीरे-धीरे आकार लेने लगी।

    एक नदी उभर आई—नीली नहीं, बल्कि पन्ने जैसी हरी, जिसके पानी में लहरें नहीं थीं, सिर्फ़ चमकदार कंपन।

    नदी के दोनों ओर चमकते काले पत्थर लगे थे, जिन पर नागों की नक्काशी उकेरी थी।

    अन्विता ने खुद को नदी के किनारे खड़ा पाया।

    उसके पैरों के नीचे ठंडी भूमि थी, लेकिन वह धरती जैसी नहीं—कुछ और… किसी अजीब धातु जैसी कठोर, फिर भी जीवित।

    उसने चारों ओर देखा।

    पहली बार उसका सपना धुँध से भरा नहीं था।

    दृश्य साफ़, भयंकर, सुंदर और रहस्यमय था।

    नदी दूर तक बहती हुई एक विशाल महल की ओर जा रही थी—नागलोक का महल।

    महल किसी इंसानी वास्तुकला जैसा नहीं था।

    यह ना ईंटों से बना था, ना पत्थरों से—बल्कि पिघले हुए काले धातु से, जिस पर हरी रोशनी बहती रहती थी।

    महल के चारों ओर हवा में उभरती-सिमटती सर्पाकार छायाएँ घूम रही थीं।

    महल की सबसे ऊँची मीनार पर एक बड़ा फनदार नाग बना था—जिसकी आँखों में हरी आग जल रही थी।

    अन्विता की साँस रुक गई।

    उसकी धड़कनें अब जोर से सुनाई दे रही थीं।

    वह जानती थी, वह जहाँ खड़ी है—वह पृथ्वी नहीं है।

    किसी ने पीछे से फुसफुसाकर कहा—

    “वेला…”

    नाम उसके मन को चीरता हुआ गुज़रा।

    उसने मुड़कर देखा।

    वहाँ एक वृद्ध स्त्री खड़ी थी—पर इंसानी नहीं।

    उसकी त्वचा दूधिया नीली थी, बाल लंबे और हरे सर्पों जैसी चमक लिए हुए, और आँखें पन्ने जैसी। उसकी पीठ से पाँच पतले, चमकदार नागफन जैसे स्तंभ निकले हुए थे—जैसे उनमें शक्ति तरल प्रकाश की तरह बह रही हो।

    अन्विता का गला सूख गया।

    “आप… कौन हैं?”

    स्त्री ने मुस्कुराया।

    “मैं नागलोक की महागुरु ‘अलाहिरा’। तुम मुझे नहीं पहचानती, क्योंकि तुम्हारा जन्म नया है… पर तुम्हारी आत्मा पुरानी है, वेला।”

    अन्विता पीछे हटना चाहती थी, पर उसके पैर भूमि से जैसे चिपक गए थे।

    “मैं वेला नहीं हूँ,” उसने काँपती आवाज़ में कहा।

    “मैं अन्विता हूँ।”

    अलाहिरा ने उसकी आँखों में झाँकते हुए कहा—

    “नाम शरीर का होता है।

    पहचान आत्मा तय करती है।

    और तुम्हारी आत्मा वही है… जिसे मैं अपनी शिष्या कहती हूँ।”

    अन्विता का दिल ज़ोर से धड़कने लगा।

    महल, नदी, सुनहरी हवा… सब कुछ धीरे-धीरे उसे घेरने लगा।

    जैसे यह संसार उसे याद कर रहा था।

    “मुझे कुछ भी नहीं पता,” अन्विता ने लगभग रोते हुए कहा,

    “मैंने बस सपना देखा… पिछले जन्म का… लेकिन…”

    अलाहिरा की आँखों में अचानक दर्द तैर गया।

    “तुमने वेला की अंतिम क्षण देख लिए…

    पर शुरुआत नहीं।”

    उसने हाथ बढ़ाया।

    “आओ, मैं तुम्हें दिखाती हूँ कि तुम कौन थीं।”

    अन्विता चाहकर भी विरोध नहीं कर पाई।

    जैसे कोई अदृश्य शक्ति उसे आगे खींच रही हो।

    अलाहिरा ने उसका हाथ पकड़ा—हाथ ठंडा था, पर कंपकंपी पैदा नहीं हुई, बल्कि एक अजीब-सी परिचित गर्माहट फैल गई।

    दोनों नदी की ओर बढ़े।

    जैसे ही वे पास पहुँचे, नदी का पानी अपने आप दो हिस्सों में बँट गया—बीच में एक रास्ता बनता हुआ, मानो पानी जीवित हो और उन्हें पहचान रहा हो।

    अन्विता की आँखें फैल गईं।

    “यह… अपने आप?”

    “नागलोक की हर शक्ति तुम्हारी पहचान रखती है,” अलाहिरा ने कहा।

    “तुम नागमणि की उत्तराधिकारी थीं।

    आज तुम उसे बस… फिर से धारण कर रही हो।”

    रास्ते पर चलते हुए वे महल के सामने पहुँच गए।

    महल के द्वार इतने विशाल थे कि शायद पहाड़ भी छोटे लगें।

    जैसे ही द्वार के पास पहुँचे, उस पर उकेरे पत्थर नागों ने आँखें खोलीं।

    उनकी हरी रोशनी अन्विता के चेहरे पर पड़ी—मानो उसकी आत्मा की जाँच कर रही हो।

    पर द्वार ने केवल एक बार कंपन किया—और फिर धीरे-धीरे खुल गया।

    भीतर का दृश्य और भी अद्भुत था।

    महल के गलियारों में हरे क्रिस्टल के लंबे स्तंभ थे, जिनमें किसी धड़कते हुए दिल जैसी रोशनी बहती रहती थी। फर्श जीवंत प्रतीत होता था, जैसे उस पर हर कदम के साथ हल्का कंपन उठता हो।

    अलाहिरा बोली—

    “यहें समय नहीं चलता।

    जो भी यहाँ है, वह शाश्वत है।

    शक्ति, स्मृतियाँ, और शाप… सब।”

    “यह शाप क्या है?” अन्विता ने पूछा।

    “यह मेरे साथ क्यों जुड़ा है?”

    अलाहिरा रुक गई।

    उसकी आँखें भारी हो गईं।

    “क्योंकि तुम्हारा वंश… नागों के प्राचीन सिंहराज ‘अलद्ध’ का वंश था।

    और उसी ने वह गलती की थी जिसका दंड आज भी तुम्हारे जन्मों को चुकाना पड़ रहा है।”

    अन्विता ने हैरान होकर पूछा—

    “कौन सी गलती?”

    अलाहिरा ने गहरी साँस ली।

    “प्रेम की।

    अलद्ध ने मनुष्य की एक स्त्री से प्रेम किया था।

    नागों और मनुष्यों का प्रेम तब वर्जित था।

    उस प्रेम का परिणाम था… वेला।”

    अन्विता का दिल एक पल को रुक गया।

    वेला।

    यानि… वह।

    अलाहिरा ने महल के दूसरे कक्ष की ओर इशारा किया।

    “देखो।”

    दीवार पर एक क्रिस्टल की आंख थी—हरी, चमकदार, जीवित।

    अलाहिरा ने उसे स्पर्श किया, और वह आँख जाग उठी।

    तुरंत हवा में चमकदार धुंध घूमने लगी।

    धुंध में दृश्य बनने लगे।

    एक युवती—वेला—काले मंदिर में प्रचंड शक्ति के साथ खड़ी थी।

    उसके पीछे एक युवा पुरुष—प्रवाह—सुनहरी आँखों वाला, एकाग्र।

    उन दोनों के चारों ओर सर्प-रक्षक मंडरा रहे थे।

    अन्विता ने खुद को कदम पीछे खींचते महसूस किया।

    अलाहिरा बोली—

    “यही पहला दृश्य है।

    पहला क्षण जब वेला को पता चला कि उसका जन्म केवल प्रेम के लिए नहीं, बल्कि एक प्राचीन युद्ध को रोकने के लिए हुआ था।”

    दृश्य और साफ़ हुआ—

    वेला अपनी हथेली से प्रकाश पैदा कर रही थी।

    प्रवाह उसके चारों ओर ढाल बनाकर खड़ा था।

    सर्प-रक्षक लगातार उस पर हमला कर रहे थे।

    “ये रक्षक आपको क्यों मारना चाहते हैं?”

    अन्विता के शब्द काँप रहे थे।

    अलाहिरा ने कहा—

    “क्योंकि वेला की शक्ति दोनों संसारों का संतुलन बिगाड़ सकती थी।

    मनुष्य और नाग—दोनों में सबसे प्रबल, सबसे अद्वितीय शक्ति।

    शाप इसी भय से जन्मा था।”

    धुंध घूमने लगी।

    दृश्य बदल गया।

    अब एक और बड़ा प्रांगण था, जहाँ नागराज अलद्ध खड़ा था—शाही, तेजस्वी, पर अत्यंत दुखी।

    उसकी आँखों में जलते हुए आँसू थे।

    वह किसी को पुकार रहा था—

    “वेला… मेरी बच्ची…”

    अन्विता के शरीर में सिहरन दौड़ गई।

    यह दृश्य उसकी आत्मा को चीर रहा था।

    अलाहिरा बोली—

    “यह तुम हो, अन्विता।

    तुम ही वह खोई हुई कड़ी हो…”

    अचानक पूरा महल हिल गया।

    दीवारें काँपीं।

    धुंध एकदम काली होकर घूमी।

    अलाहिरा घबराकर बोली—

    “हमारे पास समय नहीं—नागलोक की धुंध जाग रही है!

    तुम्हारी आत्मा को पहचान मिल गई है।

    अब सर्प-रक्षक तुम्हें ढूँढ लेंगे!”

    अन्विता ने घबराकर कहा—

    “मुझे क्या करना होगा?”

    अलाहिरा ने उसकी कलाई पकड़ ली।

    उस स्पर्श में बिजली जैसी तेज़ शक्ति थी।

    “जागो, वेला! जागो!

    नागलोक अभी तुम्हें स्वीकार नहीं करेगा—तुम अभी तैयार नहीं हो!”

    धुंध ने धीरे-धीरे महल को निगलना शुरू किया।

    अर्जेय की आवाज़ दूर से सुनाई दे रही थी—

    “अन्विता! जागो! अभी!”

    अलाहिरा की आवाज़ उसके कानों में गूंज रही थी—

    “याद रखो—

    नागलोक तुम्हें बुला रहा है…

    और जल्द ही तुम्हें वहाँ लौटना होगा।”

    धुंध सब कुछ निगल रही थी।

    महल।

    नदी।

    नागराज।

    अलाहिरा।

    सारा संसार अंधेरे में समा गया।

    अन्विता अचानक झटके से उठ बैठी।

    उसकी साँसें टूटी हुई थीं।

    चेहरा पसीने से भीगा हुआ, आँखें फटी हुई।

    अर्जेय उसके ठीक सामने बैठा था।

    “अन्विता! क्या हुआ? तुम चिल्ला रही थीं!”

    अन्विता का गला सूखा हुआ था।

    वह हाँफती हुई बोली—

    “मैंने…

    मैंने नागलोक देखा।

    साफ़। पूरी तरह।

    और मैं… वहाँ की थी, अर्जेय…”

    उसकी आँखों में आँसू भर आए।

    “यह सपना नहीं था।

    यह… मेरी सच्चाई थी।”

    अर्जेय कुछ क्षण उसे देखता रहा—

    उसकी आँखों में भय भी था और स्वीकृति भी।

    “हाँ,” उसने धीरे से कहा।

    “अब तुमने पहला द्वार खोल दिया है।

    अब यह सब… सिर्फ़ सपना नहीं रहेगा।”

    अन्विता ने काँपते हुए पूछा—

    “और शाप?”

    अर्जेय ने उसकी ओर देखा।

    “शाप… अब और करीब आ चुका है।”

    कमेंट्स

  • 11. सर्पिणी – शाप और प्रतिशोध - Chapter 11 <br>**गेस्ट लेक्चरर की पहचान** – अर्जेय का वंश: नागवंशी

    Words: 1574

    Estimated Reading Time: 10 min

    कॉलेज की सुबह हमेशा की तरह थी—
    चहल-पहल, कैंटीन का शोर, हँसी-मज़ाक, असाइनमेंट की भागदौड़।
    पर इस सुबह अन्विता के भीतर एक अनजाना खिंचाव था।
    नागलोक के धुंधले महल का सपनों में दिखना, उसकी नसों में फिर से जगता नीला ताप…
    सब कुछ मिलकर उसे अस्थिर कर रहे थे।

    वह कॉलेज गेट पार करते हुए बार-बार महसूस कर रही थी—
    कोई उसे देख रहा है।
    और वो कोई न तो इंसान था…
    और न ही पूरी तरह अजनबी।

    उसने गहरी साँस ली और कदम तेज़ कर लिए।


    क्लासरूम में हलचल
    आज इतिहास विभाग में “गेस्ट लेक्चर” था—सर्पकुल, प्राचीन वनवासियों, और उत्तरभारत की आदिम जनजातियों पर एक विशेष व्याख्यान।
    स्टूडेंट्स उत्साहित थे, पर अन्विता के भीतर एक अजीब बेचैनी थी।

    जैसे ही उसने क्लासरूम में कदम रखा—
    कमरे का माहौल झनझना उठा।

    सारे छात्रों के बीच अचानक फुसफुसाहट फैल गई—

    “अरे वो देखो… नया गेस्ट लेक्चरर!”
    “कितना शांत लग रहा है…”
    “आँखें… कुछ अजीब हैं ना?”

    अन्विता ने मुड़कर देखा।

    और उसकी रीढ़ में सिहरन दौड़ गई।

    वह—
    अर्जेय था।

    काले लंबे कुर्ते में, बाल खुले, आँखों में वही सुनहरी चमक…
    पर आज कुछ और था उसमें—
    कोई दबा हुआ राज, कोई भारी गहराई, जो पहले इतनी साफ़ नहीं दिखती थी।

    उसकी उपस्थिति मानो कमरे की हवा को गहरा बना रही थी।
    जो भी उसे देखता, पलभर के लिए चुप हो जाता।

    पर अर्जेय की नज़र सिर्फ़ एक बार, धीरे से उठी—
    सीधे अन्विता की आँखों में।

    वह पल कुछ ज्यादा लंबा ठहर गया।
    सब कुछ जैसे थम गया था।

    अन्विता का दिल तेज़ धड़का।
    क्या वह जानता है… कि मैंने नागलोक देखा है?
    क्या उसे पता है कि मणि मेरे भीतर जाग उठी है?

    अर्जेय ने नजरें झुका लीं।
    पर उसके चेहरे पर वही गहरी, अनकही चिंता थी—जैसे वह पहले से ही जानता हो कि अन्विता किस अवस्था से गुजर रही है।


    लेक्चर की शुरुआत
    अर्जेय ने धीरे से mic उठाया।

    “आज का विषय है—
    प्राचीन नागवंश,
    उनका इतिहास,
    और मानव समाज के साथ उनका रहस्यमयी संबंध।”

    उसकी आवाज़ शांत थी, मगर भीतर एक कंपन छुपा था।
    जैसे ये विषय उसके लिए सिर्फ़ पढ़ाने का नहीं…
    याद करने का भी हो।

    उसने बोर्ड पर लिखना शुरू किया—
    “Naga Vansh – इतिहास नहीं, विरासत”

    फिर मुड़कर बोला—

    “नागों को लोग आज भी सिर्फ़ कथाएँ समझते हैं।
    पर यह जान लो—
    हर कथा के पीछे…
    कुछ सत्य दफन होता है।”

    स्टूडेंट्स ध्यान से सुन रहे थे।
    पर अन्विता के भीतर हजार सवाल उठ रहे थे।

    अर्जेय ने जारी रखा—

    “नागवंशी लोग दो प्रकार के थे—



    सर्पजन्मा, जो स्वयं को नागों का उत्तराधिकारी मानते थे।




    मानव-नाग मिश्रित, जिनमें विशेष शक्तियाँ सुप्त रूप में रहती थीं।”




    अन्विता का दिल उछल गया।
    उसकी धड़कन तेज़ हो गई।

    अर्जेय ने बोर्ड पर एक आकृति बनाई—
    अर्धमानव, अर्धनाग।

    उसने कहा—

    “मिश्रित वंश के लोग सामान्य दिखते थे।
    पर उनकी नसों में…
    एक दिन शक्ति जागती थी।
    कभी अचानक।
    कभी किसी मणि, किसी चिन्ह, किसी स्पर्श से।”

    अन्विता को लगा जैसे वह सीधे उसकी ओर देख रहा है।

    उसकी गर्दन पर नागमणि का हल्का ताप फिर से जागा।


    अर्जेय की बातें… और अन्विता की सिहरन
    लेक्चर आगे बढ़ा।
    अर्जेय ने कई पुरानी कथाएँ बताईं।
    पर उसकी आवाज़ में हर शब्द ऐसा लगता था जैसे वह केवल कहना नहीं…
    चेतावनी दे रहा हो।

    उसने बोर्ड पर एक वाक्य लिखा—
    “हर नागवंशी शक्ति जागने के बाद अपना अतीत याद करने लगता है।”

    यह सुनते ही अन्विता की साँस अटक गई।

    कल रात का सपना—नागलोक का महल…
    उसकी नसों में नीली लपटें…
    अजनबी फुफकार…
    सब उसके दिमाग में तेजी से चमक गया।

    उसने खुद को संभालने की कोशिश की।
    पर तभी अर्जेय ने आगे कहा—

    “कुछ लोग…
    जगने के बाद सपनों में अपना पुरातन रूप देखने लगते हैं।”

    यह कहते वक्त अर्जेय की नज़रें सिर्फ़ उसी पर थीं।
    उसने छुपाने की कोशिश भी नहीं की।

    अब स्टूडेंट्स उसकी ओर देखने लगे।
    पर अन्विता की दुनिया अचानक अंदर की आग में बदल रही थी।

    क्या अर्जेय मेरे सपनों के बारे में जानता है?
    क्या उसे पता है कि मैं जाग चुकी हूँ?

    अर्जेय अचानक रुक गया, पानी पिया, और फिर धीमे स्वर में बोला—

    “और कुछ लोग…
    जिनके भीतर विरासत गहरी होती है…
    उनके सपने सिर्फ़ सपने नहीं,
    यादें होती हैं।”

    अन्विता की उंगलियाँ मेज पर जकड़ गईं।

    उसकी साँसें भारी हो गईं।


    लेक्चर के बीच अचानक हुआ परिवर्तन
    अर्जेय ने जैसे ही अगला स्लाइड लगाया—
    कमरे में अजीब-सी हरकत हुई।

    पंखे की हवा रुक गई।
    लाइटें हल्की झपकीं।
    और एक क्षण के लिए अनजानी ठंडक पूरे कमरे में फैल गई।

    स्टूडेंट्स ने इधर-उधर देखा, पर कोई नहीं समझ पाया क्या हुआ।

    पर अन्विता समझ गई—
    यह वही ऊर्जा थी…
    जो हर बार नागमणि जगने पर होती थी।

    अर्जेय ने भी महसूस किया।
    उसकी आँखें एक पल के लिए चमकीं—सुनहरी, तीखी, चेतावनी से भरी।
    जैसे कोई शक्ति उसके भीतर भी प्रतिक्रिया दे रही हो।

    उसने अपना लेक्चर बीच में रोक दिया।
    धीरे से बोला—

    “हम… थोड़ा ब्रेक लेते हैं।”

    स्टूडेंट्स बाहर निकल गए।
    कुछ हँसी-मज़ाक करते हुए।
    कुछ अपने फोन में स्टोरी बनाते हुए।

    पर अन्विता वहीं बैठी रही—
    जड़ होकर।

    अर्जेय उसके करीब आया।
    उसकी आवाज़ बहुत धीमी थी।

    “अन्विता… तुम ठीक हो?”

    वह कुछ बोल नहीं पाई।

    अर्जेय ने उसकी आँखों में देखते हुए कहा—

    “तुम्हारे भीतर की शक्ति अब पूरी तरह सुप्त नहीं है।
    आज लेक्चर के दौरान कमरे में जो हलचल हुई…
    वह तुम्हारे कारण हुई थी।”

    अन्विता काँप उठी।
    “मेरे कारण? मैंने तो कुछ किया भी नहीं!”

    अर्जेय सुनहरी आँखों से देखता रहा।
    “यही बात सबसे खतरनाक है।
    जब शक्ति जागती है…
    वह तुम्हारी इच्छा नहीं पूछती।”

    उसने पहली बार, बहुत साफ़ शब्दों में कहा—

    “तुम नागवंशी हो, अन्विता।”


    अन्विता का विरोध
    “नहीं!”
    अन्विता लगभग चिल्ला उठी।
    “मैं इंसान हूँ!
    मेरे माता-पिता, मेरा परिवार—सब सामान्य हैं।
    मैं कोई नागवंशी, कोई प्राचीन वंश की नहीं!”

    अर्जेय ने धीरे से कहा—
    “तुम्हारा परिवार… तुम्हारा जन्म…
    उन सबके बारे में तुम जितना सोचती हो, उतना नहीं जानती।”

    उसने मेज के किनारे हाथ रखा और बहुत धीमे बोला—

    “अन्विता, कुछ वंश अपने बच्चों को सच्चाई नहीं बताते।
    क्योंकि जागी हुई शक्ति…
    खतरनाक भी होती है।”

    अन्विता की आँखें भर आईं।

    “तुम यह सब क्यों कह रहे हो?
    तुम्हें क्या पता मेरे बारे में?”

    अर्जेय चुप रहा।
    उसकी आँखों में एक भारी दर्द था।

    और तभी उसे एहसास हुआ—
    अर्जेय सिर्फ़ सच नहीं जानता…
    वह उसे महसूस भी कर रहा है।


    अर्जेय का आधा सच प्रकट होना
    अर्जेय ने हल्के से साँस ली और बोला—

    “मुझे तुम्हारे बारे में इसलिए पता है…
    क्योंकि मैं भी…
    उसी वंश से हूँ।”

    अन्विता थम गई।
    उसकी धड़कन रुक सी गई।

    अर्जेय आगे बोला—

    “मैं अर्जेय नागश्याम…
    नागवंशी कुल का उत्तराधिकारी हूँ।”

    कमरा अचानक बड़ा और खाली लगने लगा।
    आवाज़ें दूर जाने लगीं।

    अन्विता ने मुश्किल से पूछा—

    “क्या… तुम… इंसान नहीं हो?”

    अर्जेय ने आँखें झुका लीं।
    “मैं दोनों हूँ।
    इंसान भी…
    और नागवंशी भी।
    और तुम भी… कुछ ऐसा ही हो।”

    अन्विता के गले में बंधी नागमणि धीमे-धीमे गर्म होने लगी।
    जैसे अर्जेय के शब्दों के साथ प्रतिक्रिया दे रही हो।

    अर्जेय ने उसे देखा।
    “यह मणि… जागृत मणि नहीं है।
    यह—चुनी हुई मणि है।
    और यह सिर्फ़ उसी के गले में धारण होती है…
    जो नागकुल की उत्तराधिकारी होती है।”

    अन्विता को लगा वह अपनी साँसों को ही भूल जाएगी।

    अर्जेय धीरे से करीब आया।
    उसकी आवाज़ में अजीब-सा डर था—

    “तुम्हारे भीतर की शक्ति
    अब सिर्फ़ तुम्हारी नहीं है…
    वह जाग चुकी है
    और उसे दुनिया से छुपाना मुश्किल हो जाएगा।”


    अन्विता का टूटना
    “नहीं…”
    “यह सब गलत है…”
    “यह नहीं हो सकता…”

    अन्विता अपने सिर को पकड़कर झुक गई।
    अर्जेय उसकी ओर बढ़ा—

    “रुको… सब ठीक होगा।”

    “मत छूओ!”
    वह चीख पड़ी।

    अर्जेय ठहर गया।
    उसकी आँखों में चोट उतर आई।

    अन्विता रोते हुए बोली—

    “तुम पहले दिन से मेरे पीछे थे, है ना?
    तुम्हें पता था कि मैं कौन हूँ!
    तुमने मेरे सपनों को, मेरी हालत को… देखा है!
    और तुमने कभी बताया क्यों नहीं?”

    अर्जेय की चुप्पी सबसे भारी थी।

    फिर उसने धीरे से कहा—

    “क्योंकि पूरा सच…
    तुम अभी सुनने की हालत में नहीं हो।
    और अगर तुम जान गईं कि तुम कौन हो—
    तुम्हारी दुनिया बदल जाएगी।”

    अन्विता ने आँसू पोंछे।
    “तुम सच क्यों नहीं बताते?
    क्यों भागते हो?
    क्यों मुझे आधा-अधूरा छोड़ देते हो?”

    अर्जेय की आँखें गहरी हो गईं।

    “क्योंकि तुम्हारे भीतर की शक्ति…
    तुम्हारी यादें…
    और तुम्हारा अतीत—
    सब मिलकर तुम्हें तोड़ देंगे, अन्विता।”

    वह पल—
    इतना सन्नाटा, इतना भारी—
    कि दीवारें भी मानो सुन रही हों।

    अर्जेय ने धीरे से कहा—

    “मैं तुम्हारी रक्षा कर रहा हूँ,
    सच छुपाकर नहीं—
    सच को सही समय पर बताकर।”

    अर्जेय ने कदम पीछे खींचे और कहा—

    “आज तुम्हें सिर्फ़ इतना जानना है—
    तुम नागवंशी हो।
    यह शक्ति तुम्हें चुनी है।
    और तुम्हारा अतीत…
    अब तुम्हें ढूँढ़ रहा है।”

    “और तुम?”
    अन्विता ने भरी आवाज़ में पूछा।
    “तुम कौन हो मेरी ज़िंदगी में?”

    अर्जेय रुका।
    एक लंबा, अजीब-सा विराम।

    फिर उसने कहा—

    “मैं वह हूँ…
    जिसे एक दिन तुम्हें सच बताना ही पड़ेगा।
    चाहे तुम्हारा दिल टूटे…
    या मेरा।”

    उसी समय उसकी आँखें हल्की सुनहरी हो उठीं—
    तेज, चमकीली, खतरनाक।

    “और अन्विता…
    जो तुमने सपनों में देखा है…
    वह सिर्फ़ शुरुआत है।”

    यह कहकर वह मुड़ गया।

    अन्विता वहीं खड़ी थी—
    हाथ काँपते हुए,
    गर्दन पर नागमणि धधकती हुई,
    और मन सवालों से भरा हुआ।

    उसका दिल कह रहा था—
    सच बहुत बड़ा है।
    बहुत पुराना।
    और… बहुत खतरनाक।

    और अर्जेय—
    उस सच का हिस्सा भी है,
    और शायद उसकी वजह भी।

    अर्जेय दूर जा रहा था
    पर अन्विता को स्पष्ट महसूस हुआ—

    उसकी कहानी अब एक सामान्य लड़की की कहानी नहीं रही।
    यह एक जागी विरासत का आह्वान था।


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