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अनकही डोर

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Ravina Sastiya

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साज़िशों में उलझी थी, मेरी ज़िंदगी की डोर, वो रहस्यमयी निगाहें, थीं मेरे दिल का शोर । दूरियों में भी थे, मोहब्बत के निशान, मगर उसकी सच्चाई ने, बदल दिया  सारा जहान।

Total Chapters (41)

Page 1 of 3

  • 1. अनकही डोर - Chapter 1

    Words: 1222

    Estimated Reading Time: 8 min

    साज़िशों में उलझी थी मेरी ज़िंदगी की डोर,
    वो रहस्यमयी निगाहें, थीं मेरे दिल का शोर।
    दूरियों में भी थे मोहब्बत के निशान,
    मगर उसकी सच्चाई ने बदल दिया सारा जहान।

    आस्था अपने कमरे में बैठी हुई थी।

    वह स्वयं से कह रही थी, "शादी? और वो भी दैविक रायचंद से? ये माँ आखिर चाहती क्या हैं? दैविक रायचंद का नाम सुनते ही लोगों के चेहरे पर डर क्यों आ जाता है? उसने कभी न किसी से बात की, न किसी के सामने खुलकर हँसा। और अब... ये शादी?"

    आस्था अपनी सौतेली माँ आशा के कमरे में पहुँची। आशा दीवार के पास खड़ी होकर अपने फ़ोन पर कुछ देख रही थी। आस्था गहरी साँस लेते हुए अपनी सौतेली माँ के कमरे के दरवाजे के सामने खड़ी हो गई। दिल की धड़कनें तेज़ हो चुकी थीं। उसका मन एक पल के लिए चाहता था कि वह दरवाजा खटखटाए बिना ही लौट जाए, लेकिन अंदर उठते सवालों और उलझनों ने उसे रुकने नहीं दिया। आखिरकार, उसने हल्के से दरवाजे पर दस्तक दी और दरवाजा खोला।

    अंदर आशा एक हाथ में फ़ोन पकड़े दीवार के पास खड़ी थी। उनके चेहरे पर गंभीरता साफ़ झलक रही थी, और उनकी आँखें फ़ोन की स्क्रीन पर पूरी तरह जमी हुई थीं। आस्था ने धीरे से कहा,
    "माँ, आपसे बात करनी है।"

    आशा ने बिना कोई भाव दिखाए फ़ोन से नज़रें हटाईं और आस्था की ओर देखा। उनके चेहरे पर हल्की सी मुस्कान आई, जो हमेशा दिखावे की होती थी। आस्था जानती थी कि उनकी मुस्कान में कभी भी वो अपनापन नहीं होता जो एक माँ की मुस्कान में होना चाहिए। सौतेली माँ होने का दर्द उसे अक्सर महसूस होता था, लेकिन आज की बात अलग थी—आज की बातें और ज़्यादा परेशान करने वाली थीं।

    आशा ने बिना किसी उत्सुकता के कहा,
    "क्या बात है, आस्था? अब क्या परेशानी है?"

    आस्था ने एक पल के लिए अपने शब्दों को संयमित किया और फिर धीरे से कहा,
    "माँ, ये शादी... दैविक रायचंद से? आप ये सब क्यों कर रही हैं? मैं उसे जानती भी नहीं, और आप चाहती हैं कि मैं उसकी पत्नी बन जाऊँ? उसके बारे में लोग अजीब बातें कहते हैं।"

    आशा ने फ़ोन को टेबल पर रखा और थोड़ी सख्ती से कहा,
    "आस्था, ये सब तुम्हारे भले के लिए है। दैविक रायचंद एक बहुत बड़ा नाम है, उसकी संपत्ति, उसका रसूख... ये सब तुम्हारी ज़िंदगी को संवार देगा। तुम्हें चिंता करने की ज़रूरत नहीं है, बस अपनी किस्मत पर भरोसा करो।"

    आस्था ने गुस्से से जवाब दिया,
    "किस्मत? माँ, मैं कोई गुड़िया नहीं हूँ, जिसे आप किसी के भी हाथों में सौंप दें। दैविक रायचंद कौन है, ये आप जानती हैं, पर मैंने आज तक उसकी एक मुस्कान तक नहीं देखी! और लोग उसके बारे में जो कहते हैं, वो सब..."

    आशा ने आस्था की बात को बीच में ही काटते हुए कहा,
    "लोगों की बातों पर मत जाओ, आस्था। वो सब बकवास है। सच तो ये है कि दैविक के साथ तुम्हारी शादी तुम्हारे लिए एक सुनहरा मौका है। और वैसे भी, एक दिन तो तुम्हें शादी करनी ही होगी, तो इससे अच्छा और कौन हो सकता है?"

    आस्था ने एक गहरी साँस ली। उसकी आँखों में आँसू आने को थे, लेकिन उसने खुद को रोक लिया।
    "आपने कभी मुझसे नहीं पूछा कि मैं क्या चाहती हूँ, माँ। ये शादी मेरे लिए नहीं है, ये सिर्फ़ आपके लिए है, है ना?"

    आशा ने ठंडी निगाहों से उसे देखा और कहा,
    "आस्था, तुम अभी बहुत छोटी हो समझने के लिए कि क्या सही है और क्या गलत। तुम सिर्फ़ अपनी ज़िंदगी को आरामदायक बनाने के लिए ये शादी कर रही हो। दैविक के साथ तुम्हारी ज़िंदगी बदल जाएगी, और यही सब कुछ है जो मायने रखता है।"

    आस्था को अब यकीन हो गया था कि उसकी माँ कभी भी उसकी भावनाओं को नहीं समझेगी। उसने गहरी निराशा के साथ आशा की ओर देखा और फिर बिना कुछ कहे कमरे से बाहर निकल गई। उसका दिल भारी हो चुका था, और उसकी आँखों में आँसू छलकने लगे थे।

    वह सीधा अपने कमरे में गई और दरवाज़ा बंद कर दिया। बिस्तर पर बैठते ही उसने तकिए को अपनी छाती से लगा लिया और आँखें बंद कर लीं। उसके मन में बस एक ही सवाल था— "दैविक रायचंद आखिर कौन है? क्यों उसके नाम के साथ इतना सारा डर और रहस्य जुड़ा हुआ है?"

    आस्था ने याद करने की कोशिश की कि उसने दैविक को कब देखा था। एक बार उसकी हल्की सी झलक मिली थी, जब वह किसी पार्टी में अपने पिता के साथ गया था। लंबा कद, गोरी रंगत, और उसकी आँखें... उन आँखों में कुछ अजीब सा था, मानो वह दुनिया से अलग हो। उसकी मुस्कान कभी नहीं देखी, और उसके बोलने का तरीका भी एकदम गंभीर था। उसके चेहरे पर एक ऐसा भाव था जैसे उसने बहुत कुछ खो दिया हो।

    आस्था का मन अजीब उधेड़बुन में था। वह जानती थी कि इस शादी में कुछ सही नहीं था, लेकिन फिर भी उसके पास इसे रोकने का कोई रास्ता नहीं था।


    एक दिन आस्था अपनी माँ आशा के पास बैठी हुई थी, जब उसने अचानक कहा,
    "आस्था, दैविक तुमसे मिलना चाहता है। मैंने तुम्हारी शादी की डेट फ़िक्स कर दी है।"

    आस्था की आँखें हैरानी से चौड़ी हो गईं।
    "क्या? माँ, ये आप क्या कह रही हैं?" उसने असमंजस में पूछा। उसके मन में यह सवाल चल रहा था कि वह दैविक से मिलने का कोई बहाना क्यों नहीं ढूंढ पा रही थी।

    आशा ने उसकी हैरानी को नज़रअंदाज़ करते हुए आगे कहा,
    "और हाँ, यह एक कॉन्ट्रैक्ट मैरिज है।"

    आस्था ने चौंकते हुए कहा,
    "कॉन्ट्रैक्ट मैरिज? माँ, ये क्या है? क्या आप सच में ऐसा कर रही हैं?" उसकी आवाज़ में घबराहट थी। वह समझ नहीं पा रही थी कि उसकी माँ इस तरह का फ़ैसला क्यों ले रही हैं।

    आशा ने गंभीरता से जवाब दिया,
    "देखो आस्था, ये सब तुम्हारे भविष्य के लिए है। दैविक एक अमीर लड़का है, और उसके साथ शादी करके तुम अपने जीवन को एक नई दिशा दे सकोगी। यह एक समझौता है, जो दोनों पक्षों के लिए फ़ायदेमंद होगा। तुम्हें इसमें कुछ भी गलत नहीं लगना चाहिए।"

    "माँ, ये क्या चल रहा है? आपने ये क्या तय कर लिया मेरे लिए? बिना मुझसे पूछे, मेरी ज़िंदगी का इतना बड़ा फ़ैसला कैसे ले लिया?"

    "तुम्हें क्या लगता है आस्था? हमारे पास कोई और रास्ता बचा है क्या? तुम्हारे पिता के जाने के बाद से तुम्हें नहीं दिख रहा कि हमारी स्थिति कैसी हो गई है? बैंक का कर्ज़, घर के खर्चे, और ऊपर से तुम्हारी पढ़ाई। सब कुछ कैसे चलेगा?"

    "माँ, मैं समझती हूँ कि हालात मुश्किल हैं, लेकिन इसका मतलब ये तो नहीं कि आप मुझे किसी के साथ बाँध दें... और वो भी एक साल के लिए? कॉन्ट्रैक्ट मैरिज... वो भी दैविक रायचंद के साथ? ये क्या मज़ाक है?"

    "मज़ाक नहीं है, आस्था। दैविक रायचंद ने ये खुद ही ऑफ़र दिया है। वो चाहता है कि तुम उससे एक साल के लिए शादी करो। बदले में तुम्हारे सारे कर्ज़ चुकाएगा और तुम्हारी ज़िंदगी संवार देगा।"

    "लेकिन क्यों? आखिर क्यों? वो मेरे साथ ऐसा क्यों करेगा?"

    "वो एक रायचंद है, उसे किसी चीज़ की कमी नहीं है। पर उसे इस एक साल के लिए एक साथी चाहिए... और हमें पैसे। ये डील हमारे दोनों के लिए फ़ायदेमंद है।"

    आगे क्या होगा जानने के लिए अगले भाग का इंतज़ार करते रहिए साथ ही समीक्षा भी करते रहिए।

  • 2. अनकही डोर - Chapter 2

    Words: 1534

    Estimated Reading Time: 10 min

    आस्था और दैविक पहली बार एक कैफे में मिले थे। कैफे का माहौल हलका-फुल्का था, लेकिन आस्था के दिल की धड़कनें तेज़ हो रही थीं। उसकी आँखें दैविक पर थीं, जो एक कोने में बैठे थे, गहरे विचारों में डूबे हुए। उनके चारों ओर कुछ फाइलें बिखरी हुई थीं, और वह अपनी उंगलियों से उन्हें टटोल रहे थे। आस्था ने महसूस किया कि वह कितना गंभीर था, जैसे उसकी पूरी दुनिया उसी कागजों में समाई हो।

    आस्था ने धीरे-धीरे अपनी कुर्सी खींची और दैविक के सामने बैठ गई।

    "तो... हम शादी करने जा रहे हैं?" उसने पूछा, अपनी आवाज़ को सामान्य रखने की कोशिश करते हुए।

    दैविक ने उसकी ओर नज़र उठाई, लेकिन उसके चेहरे पर कोई भाव नहीं था।

    "हाँ, बस एक साल के लिए," उसने संक्षेप में उत्तर दिया।

    "एक साल के लिए शादी... मतलब, ये सिर्फ एक समझौता है? कोई भावना नहीं, कोई प्यार नहीं?" आस्था ने कहा, उसके शब्दों में हल्की सी नाराज़गी थी। वह यह जानना चाहती थी कि क्या उनके बीच कुछ खास हो सकता है, लेकिन दैविक का व्यक्तित्व उसे निराश कर रहा था।

    "मुझे प्यार की ज़रूरत नहीं है, आस्था। मुझे एक साथी की ज़रूरत है, एक दिखावा, ताकि कुछ पुराने रिश्ते निभाए जा सकें। बदले में तुम्हें वो सब मिलेगा जो तुम्हारे परिवार को चाहिए – पैसा, सुरक्षा, और एक साल के बाद, तुम आज़ाद हो जाओगी," दैविक ने सीधा उत्तर दिया।

    "तो, मैं बस एक मोहरा हूँ तुम्हारे इस खेल में?" आस्था ने गुस्से से पूछा। उसके मन में आंतरिक संघर्ष चल रहा था। वह चाहती थी कि इस रिश्ते में कुछ तो हो, लेकिन दैविक का नज़रिया उसे ठंडा कर रहा था।

    "अगर तुम्हें ऐसा लगता है, तो हाँ। पर एक बात याद रखना – ये खेल तुम्हारे फायदे का भी है," दैविक ने उसे जवाब दिया। उसकी आँखों में कोई गहराई नहीं थी, जैसे उसने जीवन के सभी रंगों को नकार दिया हो।

    आस्था ने गहरी साँस ली, उसकी आँखों में आँसू थे। वह जानती थी कि यह रिश्ता केवल एक साधारण समझौता था, लेकिन उसके दिल में एक आशा थी कि शायद वह दैविक को जान पाएगी।

    "क्या तुम कभी किसी से खुलकर बात करते हो? तुम्हें किसी से भी प्यार नहीं है?" उसने पूछा, उसकी आवाज़ में अब थोड़ी दयनीयता थी।

    "नहीं, आस्था। प्यार सिर्फ कमजोरी है। यह तुम्हें कमजोर बनाता है। मैं अपनी ज़िंदगी में किसी भी प्रकार की कमजोरी नहीं चाहता," दैविक ने कहा, जैसे उसने पूरी बात को तर्क की तरह सहेज रखा हो।

    आस्था को यह सुनकर निराशा हुई। वह अपने भीतर चल रहे संघर्ष को महसूस कर रही थी।

    "और अगर तुमसे प्यार हो गया, तो?" उसने बिना सोचे समझे पूछा।

    "फिर मैं तुमसे दूर हो जाऊँगा। प्यार की कोई जगह नहीं है मेरी ज़िंदगी में," दैविक ने अपनी आँखें फिर से फाइलों पर टिका दीं।

    आस्था ने सोचा, क्या यही उसका भाग्य था? एक साल की शादी, कोई भावना नहीं, कोई प्रेम नहीं। उसने सोचा कि क्या वह सच में एक ठंडे दिल के साथ रह सकती है। उसके मन में एक विचार आया, "क्या दैविक भी अकेला है? क्या वह भी प्यार को तरसता है, लेकिन डरता है?" लेकिन उसने अपने विचारों को दबा दिया। उसने खुद को समझाया कि यह सब एक व्यापारिक सौदा था, और उसे इसे गंभीरता से लेना होगा।

    वातावरण में थोड़ी सी खामोशी छा गई। आस्था ने उसे घूरा।

    "क्या तुम कभी हंसते हो, दैविक?" उसने पूछा, उसकी आवाज़ अब शांत थी।

    दैविक ने उसे एक पल के लिए देखा, फिर हल्का सा मुस्कुराया।

    "हंसना समय की बर्बादी है। जब तक तुम्हारे पास कुछ करने के लिए नहीं है, तब तक हंसने का कोई मतलब नहीं।"

    आस्था ने उसकी बात सुनी और अपने मन में बड़बड़ाई, "कितना अजीब आदमी है ये?"

    दैविक ने उसे घूर कर देखा और बोला, "कुछ कहा तुमने!"

    आस्था ने झट से अपना सिर ना में हिला दिया और फिर वापस मन में बड़बड़ाई, "इसे कैसे पता चला कि मैंने कुछ कहा।"

    दैविक ने एक नज़र आस्था को देखा, फिर अपनी फाइल के पेज पलटते हुए कहा, "ये कॉन्ट्रैक्ट मैरिज है और इसमें तुम्हारी कोई राय नहीं मानी जायेगी...क्युकी तुम्हारी सौतेली मां से मैंने सब कुछ फिक्स किया हुआ है।"

    आस्था ने अपना सिर झुका लिया और कहा, "हम्मम! मुझे पता है....इसमें मेरी कोई राय नहीं मानी जायेगी।"

    आस्था ने दैविक की बातें सुनकर अपने मन में एक नई खाई महसूस की। यह समझौता, जो उसके लिए सिर्फ एक साल की एक नई शुरुआत हो सकता था, उसके लिए एक जाल में फंसने जैसा लग रहा था। उसने दैविक की गंभीरता और उसके ठंडे व्यक्तित्व को ध्यान में रखते हुए सोचा कि क्या वह सच में एक साल इस स्थिति में रह पाएगी।

    "मैं समझ गई। तो यह सब पहले से तय है, है ना?" आस्था ने धीरे से कहा। उसकी आवाज़ में अब एक हल्की सी ठंडक थी, जैसे उसने हार मान ली हो।

    "हाँ," दैविक ने बिना कोई भाव दिखाए कहा। "तुम्हारी सौतेली माँ और मेरे परिवार के बीच यह एक व्यापारिक समझौता है। तुम्हें इस बात को स्वीकार करना होगा।"

    आस्था ने महसूस किया कि उसे शायद अपने परिवार के लिए अपनी इच्छाओं का बलिदान देना होगा।

    "तो, हम दोनों को इस समझौते को निभाना होगा। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि मैं तुम्हें नहीं जानना चाहती," उसने कहा, थोड़ी दृढ़ता के साथ।

    दैविक ने एक पल के लिए उसकी ओर देखा।

    "जानना और समझना दो अलग बातें हैं। तुम मुझे जानने की कोशिश कर सकती हो, लेकिन तुम कभी भी मेरे भीतर झाँक नहीं पाओगी। मैं वो नहीं हूँ जो तुम्हें प्यार, या हँसी, या कोई भावना देने वाला हो।"

    आस्था ने अपने मन में उसके शब्दों को गहराई से सोचा।

    "क्या तुम्हें लगता है कि तुम हमेशा ऐसे रहोगे?" उसने पूछ लिया। "क्या तुम्हें अपनी ज़िंदगी में कभी कुछ और चाहिए नहीं होगा?"

    "मुझे चाहिए क्या, यह सिर्फ मेरे लिए महत्वपूर्ण है। मुझे कोई समस्या नहीं है। मैं अपने लक्ष्यों पर ध्यान केंद्रित करना चाहता हूँ।" दैविक ने ठंडे स्वर में कहा।

    आस्था ने सोचा, "क्या यह सच है? क्या कोई इंसान सच में इतना ठंडा हो सकता है?" लेकिन उसने यह भी महसूस किया कि दैविक की आँखों में एक गहराई थी, एक रहस्य, जिसे वह छिपाने की कोशिश कर रहा था।

    "क्या तुम कभी अपने परिवार के बारे में बात करते हो?" उसने फिर से पूछा, शायद उस रहस्य को जानने के लिए।

    "मेरे परिवार के बारे में तुम ना ही जानो तो बेहतर है। और वैसे भी मुझे इस पर बात करने में कोई भी दिलचस्पी नहीं है।" दैविक ने सपाट लहजे में जवाब दिया।

    आस्था ने कुछ कहने के लिए मुँह खोला ही था कि दैविक अचानक से उठ गया।

    आस्था ने दैविक के अचानक उठ जाने पर चौंककर अपनी आँखें चौड़ी कर लीं। उसे ऐसा लगा जैसे उसकी साँसें थम गई हैं। वह दैविक को देखते हुए सोचने लगी, “क्या मैंने कुछ गलत कहा?” दैविक ने उसे बिना देखे हुए जिस तरह से वहाँ से चला गया था, उससे आस्था के दिल में एक अजीब-सी कशिश और बेचैनी पैदा हो गई।

    कैफे का माहौल हलका-फुल्का था, लोग हँसते-खिलखिलाते हुए चाय और कॉफी का आनंद ले रहे थे, लेकिन आस्था की दुनिया जैसे ठहर सी गई थी। दैविक का व्यक्तित्व उसे आकर्षित कर रहा था, लेकिन साथ ही साथ उसकी ठंडक भी उसे डराने लगी थी। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि दैविक के मन में क्या चल रहा है।

    “कितना अजीब आदमी है यह!” आस्था ने बड़बड़ाते हुए अपने विचारों को आवाज़ दी, जैसे वह अपने मन की बात खुद से कह रही हो। “प्यार को कमजोरी मानता है। क्या इंसान इतना निष्ठुर हो सकता है?” उसकी बातें खुद पर ही भारी होने लगीं। उसने अपनी चाय की तरफ़ देखा, लेकिन उसे पीने की इच्छा नहीं हुई।

    तभी, दैविक का असिस्टेंट उनके टेबल पर आया। वह एक युवा, सुस्त स्वभाव का लड़का था, जिसके हाथ में कुछ फाइलें थीं। उसने टेबल पर रखी फाइलों को उठाते हुए आस्था की ओर देखा, जैसे उसे समझने की कोशिश कर रहा हो।

    “आप ठीक हैं?” उसने धीरे से पूछा।

    “मैं? हाँ, ठीक हूँ,” आस्था ने जवाब दिया, लेकिन उसकी आवाज़ में थोड़ी सी बेचारगी थी।

    असिस्टेंट ने सारी फाइलें समेट ली और वो भी बिना कुछ कहे हड़बड़ी में दैविक की दिशा में चला गया।

    जब वह चला गया, आस्था फिर से दैविक की दिशा में देखने लगी। उसकी आँखों में एक अदृश्य दीवार थी, लेकिन आस्था को यह भी महसूस हुआ कि दैविक के अंदर एक दर्द छिपा हुआ था।

    “क्या वह सच में इतना मजबूत है कि अपने जज़्बातों को छुपा सके?” आस्था ने सोचा। वह उस आदमी के प्रति जिज्ञासु हो गई थी, जिसने उसके दिल में ऐसी हलचल मचाई थी।

    उसने अपने फ़ोन में समय देखा, कुछ देर हो चुकी थी। उसने कैफे के माहौल को महसूस किया और एक गहरी साँस ली।

    “यह एक अजीब शाम है, लेकिन यह ख़त्म नहीं हुई है,” उसने खुद से कहा।

    आस्था ने अपने विचारों को व्यवस्थित करने का प्रयास किया और फैसला किया कि वह दैविक के बारे में और जानने की कोशिश करेगी। उसकी आँखों में एक नई चिंगारी थी, जो दैविक की ठंडक के आगे उसके जज़्बातों को सामने लाने की चाहत से भरी हुई थी।

    “क्या प्यार सच में कमजोरी है?” उसने सोचा, “या यह कुछ और है?”


    कंटिन्यू...

  • 3. अनकही डोर - Chapter 3

    Words: 1574

    Estimated Reading Time: 10 min

    आस्था और दैविक की शादी एक सादगी भरे माहौल में हुई थी। उनके रिश्ते की नींव एक कॉन्ट्रैक्ट मैरिज पर रखी गई थी, जो एक व्यवसायिक समझौते से ज्यादा कुछ नहीं थी। हालांकि, शादी के दिन आस्था के दिल में एक उम्मीद थी कि शायद इस रिश्ते में समय के साथ कुछ और भी विकसित हो सकता है।

    शादी के दिन, आस्था ने एक सुर्ख लाल रंग का लहंगा पहना था, जिसमें वह बेहद खूबसूरत लग रही थी। उसके चेहरे पर हल्का मेकअप था, और उसने अपने बालों को सुंदरता से सजा रखा था। वह पूरे उत्साह के साथ मंडप में बैठी थी, लेकिन दैविक के चेहरे पर एक ठंडा और गंभीर भाव था। लेकिन उसकी आँखों में कोई भावनाएँ नहीं थीं।

    “इस शादी का क्या मतलब है?” आस्था ने अपने मन में सोचा।
    “क्या मैं कभी दैविक के दिल को छू सकूंगी?”


    आस्था और दैविक की शादी एक सादगी भरे माहौल में सम्पन्न हुई। जैसे ही शादी की सभी रस्में पूरी हुईं, दैविक और आस्था एक नई शुरुआत की ओर बढ़ने के लिए कार में बैठे। दैविक ने शांत भाव से गाड़ी चलानी शुरू की, जबकि आस्था की नज़रें लगातार उसके चेहरे पर थीं।

    “क्या मैं उसे कभी समझा पाऊंगी?” आस्था ने मन में सोचा; उसकी धड़कनें तेज़ हो रही थीं। दैविक की आँखों में किसी प्रकार का अज्ञात ताज़गी नहीं थी, लेकिन आस्था को लगा कि वह उसके अंदर एक गहरा समुद्र छुपा हुआ है।

    थोड़ी देर ड्राइव करने के बाद, वे एक बड़े सफेद रंग के बंगले के सामने रुके। आस्था ने खिड़की से बाहर देखा। बंगला वास्तव में भव्य था। उसकी दीवारें चमकदार सफेद रंग की थीं और उसके चारों ओर एक सुंदर गार्डन फैला हुआ था, जिसमें रंग-बिरंगे फूल खिले हुए थे। एक तरफ एक स्विमिंग पूल था, जिसमें नीला पानी धूप में चमक रहा था।

    “यहाँ का माहौल तो बहुत खूबसूरत है,” आस्था ने धीमे से कहा।
    दैविक ने सिर्फ एक नज़र उधर देखा, लेकिन उसकी आँखों में कोई प्रतिक्रिया नहीं थी।

    जैसे ही वे बंगले के अंदर पहुँचे, आस्था ने देखा कि दैविक की माँ, दिव्या जी, उनका स्वागत करने के लिए पहले से तैयार थीं। उन्होंने आस्था को गले लगाया और कहा, “स्वागत है, बेटा! तुम्हारा नया घर तुम्हारा है। यहाँ तुम हमेशा खुश रहो।”

    “जी, थैंक यू, मम्मी जी,” आस्था ने मुस्कुराते हुए कहा। वह उनके प्रेम और गर्मजोशी से अभिभूत हो गई थी।

    गृहप्रवेश शुरू हुआ। दिव्या जी ने दोनों की आरती उतारी।


    बंगले के अंदर पहुँचते ही आस्था ने महसूस किया कि घर में परिवार के कई सदस्य और रिश्तेदार पहले से ही मौजूद थे। सब लोग हंसते-मुस्कुराते हुए उन्हें देखने आए।

    गृहप्रवेश की पूजा सम्पन्न होने के बाद, दैविक ने सिर्फ एक हल्की सी मुस्कान दी और फिर सीधे अपने कमरे की ओर बढ़ गया। आस्था के दिल में एक हूक सी उठी।
    “क्या वह कभी मेरी ओर ध्यान देगा?”


    रात का समय था, और आस्था बिस्तर पर बैठी हुई थी, उसके मन में उम्मीदें और चिंताएँ बेतरतीब घूम रही थीं। उसने सोचा कि शायद आज दैविक उससे कुछ बात करेगा, लेकिन जैसे ही दैविक कमरे में आया, उसने बस अपना सामान उठाया और सीधे बाथरूम में चला गया। आस्था की आँखें उसकी हर हरकत को देखने में व्यस्त थीं।

    थोड़ी देर बाद, बाथरूम का दरवाजा खुला और दैविक बाहर आया। उसने केवल एक तौलिया लपेट रखा था, और उसके गीले बालों से पानी की बूंदें टपक रही थीं। आस्था की नज़रें उस पर टिक गईं; उसकी धड़कनें तेज़ हो गईं।

    “यह क्या हो रहा है?” आस्था ने मन में सोचा। दैविक के शरीर पर पानी की बूंदें उसके आकर्षण को और बढ़ा रही थीं। वह इतना हैंडसम लग रहा था कि आस्था को अपनी आँखों पर यकीन नहीं हुआ। उसकी मांसपेशियाँ और उसके चेहरे की ठंडक, दोनों ही उसे एक अनजानी खींचातानी की ओर ले जा रही थीं।

    दैविक ने एक पल के लिए आस्था की ओर देखा। उसकी आँखों में एक क्षणिक हलचल सी आई, लेकिन फिर उसने अपनी नज़रें दूसरी ओर फेर लीं। आस्था का दिल एक अजीब सी बेचैनी में धड़कने लगा।

    “क्या उसे मेरी मौजूदगी का एहसास नहीं है?” उसने अपने मन में सोचा।

    आस्था ने खुद को संयमित करने की कोशिश की। उसने सोचा, “शायद यह सिर्फ एक सामान्य रात है, और हमें एक-दूसरे को समझने में समय लगेगा।”

    दैविक ने अलमारी से अपने कपड़े निकाले। वह धीरे-धीरे अपने शरीर को सुखा रहा था, और आस्था की नज़रें बस उसे देखने में खोई हुई थीं। उसके चेहरे पर एक नीरसता थी, लेकिन उसके अंदर एक ज्वाला जल रही थी, जिसे आस्था ने महसूस किया।

    “क्या उसे कभी इस रिश्ते में दिलचस्पी होगी?” उसने खुद से पूछा। उसकी आँखों में थोड़ी सी उम्मीद जगी, लेकिन फिर भी वह नकारात्मकता से भरी हुई थी।

    दैविक ने जब कपड़े पहन लिए, तब उसने आस्था की ओर देखा। वह थोड़ी चौंकी, जैसे उसकी आँखों में कोई अनकही बात छिपी हो।

    आस्था ने दैविक की आँखों में एक गंभीरता देखी, जो उसके मन में जिज्ञासा और भय दोनों पैदा कर रही थी। जब दैविक ने कहा, “उतरो मेरे बेड से,” तो उसकी आवाज में एक अजीब सी कठोरता थी। आस्था ने नासमझी और हैरानी से उसकी ओर देखा।

    “क्या?” उसने पूछा, जैसे उसे विश्वास नहीं हो रहा था कि दैविक सचमुच ऐसा कह रहा है।

    “तुम बेड से उतरो... और वहाँ सोफे पर सोना तुम,” दैविक ने बिना किसी हिचकिचाहट के कहा। उसकी आँखों में एक ठंडापन था, जो आस्था को और भी ठिठका गया। “बेड पर मैं सोऊँगा... और गलती से भी मेरे करीब आने की कोशिश मत करना... ये सिर्फ एक कॉन्ट्रैक्ट मैरिज है।”

    आस्था का दिल एक जोरदार धड़कन के साथ थम गया। उसने मन में सोचा, “क्या यही मेरा नया जीवन होगा?” उसके भीतर एक गहरा आघात हुआ। उसे लगा जैसे उसकी सारी उम्मीदें एक ही झटके में चुराई गई हों।

    “क्या तुम ऐसा कह सकते हो?” आस्था ने धीमी आवाज में कहा; उसकी आँखों में आँसू आ गए। “हमारी शादी में कोई तो भावनाएँ होनी चाहिए। क्या तुमने मुझे एक इंसान की तरह भी नहीं देखा?”

    दैविक ने उसकी ओर बिना किसी सहानुभूति के देखा। “आस्था, यह शादी एक समझौता है। हम दोनों को अपनी-अपनी ज़िंदगी जीने का हक है। तुम्हें ये समझना होगा। मुझे किसी के साथ भावनात्मक रूप से जुड़ने में कोई दिलचस्पी नहीं है।”

    आस्था ने उसके शब्दों को गहराई से महसूस किया। उसके मन में एक सवाल गूंज उठा, “क्या वह कभी भी मेरी भावनाओं की कदर करेगा?” वह सोचती रही, लेकिन दैविक की ठंडी आवाज ने उसके दिल के गहरे कोने में एक ठंडक भर दी।

    “ठीक है,” आस्था ने कहा; उसकी आवाज में एक ताजगी थी। “मैं सोफे पर सोऊँगी।”

    जब वह सोफे की ओर बढ़ी, तो उसके मन में दैविक के प्रति कई प्रश्न थे। “क्या वह वास्तव में कभी मेरे साथ भावनाएँ साझा करेगा? क्या यह शादी सिर्फ एक औपचारिकता ही रह जायेगी?”

    सोफे पर लेटने के बाद, आस्था ने अपनी आँखें बंद कर लीं। उसके मन में दैविक के प्रति कई विचार आ रहे थे। उसे याद आया कि शादी के दिन उसकी आँखों में एक ठंडा बर्फ सा था, जो अब उसके दिल में गहरी जगह बना चुका था।

    जब दैविक बिस्तर पर लेटा, तो आस्था ने एक बार फिर उसकी ओर देखा। उसका चेहरा रूमाल की तरह निस्पृह था, और उसकी आँखें चुप थीं। यह सब देखकर आस्था को समझ में आया कि दैविक के अंदर एक गहरी उथल-पुथल चल रही है, लेकिन वह उसे दिखाना नहीं चाहता था।

    “क्या मैं कभी उसके दिल को छू सकूंगी?” आस्था ने अपने मन में सोचा।
    “क्या हमारा रिश्ता कभी एक वास्तविकता में बदल सकेगा?”

    रात के अंधेरे में, आस्था ने धीरे-धीरे अपनी आँखें खोलीं। उसे याद आया कि इस स्थिति में समय के साथ चीजें बदल सकती हैं। शायद दैविक के लिए भी यह एक नया अनुभव है।

    जब वह अपनी सोच में खोई हुई थी, तभी उसे दैविक की आवाज सुनाई दी, “तुम्हें यह सब समझना होगा, आस्था। इस रिश्ते में कुछ भी व्यक्तिगत नहीं है।”

    “मैं जानती हूँ,” आस्था ने अपनी आवाज में एक दृढ़ता लाते हुए कहा, “लेकिन मैं यह मानती हूँ कि किसी भी रिश्ते में समय के साथ भावनाएँ विकसित हो सकती हैं। शायद हमें एक-दूसरे को समझने का मौका मिलना चाहिए।”

    दैविक ने एक पल के लिए आस्था की ओर देखा, फिर अपनी नज़रें दूसरी ओर फेर लीं। उसकी चुप्पी ने आस्था के दिल में और भी सवाल भर दिए।

    “क्या वह कभी मुझे अपनी भावनाओं को समझने का मौका देगा?” उसने फिर से सोचा।

    धीरे-धीरे, रात के सन्नाटे में आस्था के मन में आशा की एक किरण उभरी। वह जानती थी कि उसे इस रिश्ते में अपनी पहचान बनाने के लिए संघर्ष करना होगा, लेकिन क्या वह अपने दिल की गहराइयों में छिपे प्यार को दैविक तक पहुँचाने में सफल होगी?

    उस रात, आस्था ने तय किया कि वह दैविक को अपने दिल का हाल बताएगी, लेकिन सही समय की प्रतीक्षा करेगी। एक उम्मीद ने उसके मन में जगह बना ली थी, और वह जानती थी कि प्यार और धैर्य से सब कुछ संभव है।

    आस्था ने सोचा, “मैं उसे समझने की कोशिश करूंगी, और शायद एक दिन वह भी मुझे समझेगा।” इस सोच के साथ, उसने आँखें बंद कर दीं और सपनों में खो गई।


    इस प्रकार, आस्था का नया जीवन शुरू हुआ, जिसमें उम्मीदें, चुनौतियाँ और प्यार की तलाश थी। वह जानती थी कि यह सफर आसान नहीं होगा, लेकिन उसने हिम्मत नहीं हारने का निश्चय किया।

  • 4. अनकही डोर - Chapter 4

    Words: 1299

    Estimated Reading Time: 8 min

    अगला दिन

    आस्था की आँखें धीरे-धीरे खुलीं। सुबह की पहली किरण कमरे में प्रवेश कर रही थी, और धूप के हल्के सुनहरे रंग ने उसके चेहरे को छू लिया। उसने अपनी आँखें मलीनता से रगड़ीं और बिस्तर के चारों ओर नज़र डाली। उसके दिल में एक अजीब सा एहसास था। जैसे ही उसने दैविक के बिस्तर पर नज़र डाली, उसे महसूस हुआ कि वह वहाँ नहीं था।

    “दैविक?” उसने धीरे से आवाज़ दी, लेकिन जवाब में केवल सन्नाटा था।

    आस्था सोफे से उठी और अपनी अंगड़ाई ली। एक हल्की सी खिंचाव उसके शरीर में दौड़ गया, और उसने अपनी गर्दन को एक तरफ झुकाया। उसे यकीन नहीं था कि दैविक कहाँ गया था, लेकिन उसे इस बात की चिंता नहीं थी। उसे याद था कि पिछली रात उन्होंने बहुत सारी बातें की थीं, और दैविक की समस्याएँ भी उसके दिल को छू गई थीं।

    वह बाथरूम में गई और शीशे के सामने खड़ी होकर खुद को देखने लगी। उसने गहरी साँस ली और अपनी सोच में डूबी हुई थी।

    "चाहे कुछ भी हो जाए, इस कॉन्ट्रैक्ट मैरिज को अब मैं प्यार में बदल कर ही रहूँगी," उसने अपने आप से कहा।

    बाथरूम में जाते ही, उसने शॉवर चालू किया और पानी के गर्म धारों को अपने शरीर पर महसूस किया। जैसे ही पानी उसके शरीर को छूने लगा, उसकी सारी चिंताएँ और तनाव एक पल में बह गए। उसने सिर को पीछे झुकाया और अपनी आँखें बंद कर लीं। पानी की बूँदें उसके चेहरे पर पड़ रही थीं, जैसे उसकी सारी समस्याओं को धोने का प्रयास कर रही हों।

    “मुझे दैविक को समझना होगा,” उसने सोचा। “मैं जानती हूँ कि वह कितना जटिल है, लेकिन मैं उसे अपने प्यार से बदलने की कोशिश करूँगी। उसकी सुरक्षा और खुशियों के लिए मैं हरसंभव प्रयास करूँगी।”

    पानी के गर्म धारों में डूबकर, आस्था ने अपनी भावनाओं को संगठित करने का प्रयास किया। वह जानती थी कि उनकी शादी सिर्फ एक कॉन्ट्रैक्ट थी, लेकिन उसे विश्वास था कि प्यार सभी बाधाओं को पार कर सकता है।

    “मैं इसे प्यार में बदल दूँगी। यह मेरा लक्ष्य है। मैं दैविक को दिखाऊँगी कि मैं उसकी साथी हूँ, न कि सिर्फ एक बंधन,” उसने दृढ़ता से कहा।

    शॉवर से निकलकर, उसने जल्दी-जल्दी कपड़े पहने। एक हल्के गुलाबी रंग की साड़ी पहनकर, वह खुद को देखने लगी। उसने अपने लम्बे बालों को एक चोटी में बाँधा और हल्का सा काजल लगाया।

    जब आस्था पूरी तरह से तैयार हो गई, तो उसने सोचा कि वह दैविक को ढूँढने जाएगी। कमरे के चारों ओर नज़र डालते हुए, उसने सोचा कि शायद दैविक बालकनी में हो या फिर नीचे किसी काम में व्यस्त हो।

    वह धीरे-धीरे बालकनी की ओर बढ़ी। जैसे ही उसने दरवाज़ा खोला, ठंडी हवा ने उसके चेहरे को छू लिया। बालकनी में...लेकिन आस्था के चेहरे पर निराशा छलक आई क्योंकि दैविक वहाँ नहीं था।

    आस्था के चेहरे पर निराशा की छाया थी क्योंकि दैविक बालकनी में नहीं था। उसने एक गहरी साँस ली और वापस कमरे में जाने का मन बनाया। जैसे ही वह मुड़ने ही वाली थी, तभी अचानक उसके कमरे का दरवाज़ा खटखटाया गया।

    “कौन है?” उसने आवाज़ दी, थोड़ा आश्चर्यचकित होते हुए।

    “मैम, मैं,” एक नौकर की आवाज़ आई।

    आस्था ने दरवाज़ा खोला, और सामने एक नौकर खड़ा था। उसकी आँखों में विनम्रता थी, और वह सिर झुकाए खड़ा था।

    “मैम, आपको मालकिन ने नीचे बुलाया है,” उसने कहा।

    आस्था ने थोड़ा चौंकते हुए पूछा, “मालकिन? मतलब मेरी सास यानी मम्मी जी?”

    “जी हाँ, मालकिन दिव्या जी,” उसने पुष्टि की।

    आस्था को समझ आ गया कि उसकी सास, दिव्या जी, उसे नीचे बुला रही थीं। शादी की पहली रसोई का कार्यक्रम था, जो हर नई बहू के लिए खास माना जाता था। यह उसके लिए एक महत्वपूर्ण अवसर था, और वह जानती थी कि इसे लेकर दिव्या जी की उम्मीदें कितनी बड़ी होंगी।

    वह नीचे की ओर बढ़ी, और जैसे ही उसने सीढ़ियाँ उतरनी शुरू कीं, उसकी धड़कनें तेज हो गईं। नीचे पहुँचने पर, उसने देखा कि रसोई में कई लोग व्यस्त थे। वहाँ विभिन्न प्रकार के मसाले, सब्जियाँ और अनाज तैयार किए जा रहे थे। रसोई में एक हलचल थी, और सब लोग मुस्कराते हुए काम कर रहे थे।

    “आस्था!” दिव्या जी की आवाज़ सुनकर, उसकी नज़रें अपनी सास पर गईं। दिव्या जी ने उसे मुस्कराते हुए बुलाया।

    “आओ, बेटा।” दिव्या जी ने कहा।

    आस्था ने उनकी आँखों में प्यार और गर्व देखा। वह थोड़ी असहज महसूस कर रही थी, लेकिन उसने आत्मविश्वास से कहा, “जी, मम्मी।”

    आस्था के मन में कई विचार चल रहे थे। उसे लगा था कि आज उसकी पहली रसोई की रस्म होगी, और दिव्या जी उसे मिठाई या कुछ खास पकवान बनाने को कहेंगी, जैसा परंपरा में होता है। लेकिन दिव्या जी के अगले शब्दों ने उसे चौंका दिया।

    दिव्या जी ने मुस्कुराते हुए कहा, "वैसे तो हर नई बहू को पहली रसोई करनी होती है, लेकिन मैं तुमसे वो नहीं कहूँगी।"

    आस्था का चेहरा हैरानी में बदल गया। उसकी आँखों में प्रश्न थे। "लेकिन मम्मी जी, ऐसा क्यों?" उसने थोड़ी घबराहट के साथ पूछा।

    दिव्या जी की मुस्कान और गहरी हो गई। उन्होंने प्यार से आस्था के कंधे पर हाथ रखा और कहा, "आस्था, तुम्हें जानने का वक़्त आ गया है कि इस घर में परंपराओं का पालन होता है, लेकिन उनकी जंजीरें नहीं बाँधी जातीं। मुझे पता है कि आजकल के समय में, तुम लड़कियाँ अपने काम और जीवन में कितनी व्यस्त रहती हो। तुमसे ये उम्मीद नहीं की जा सकती कि तुम रोज़ रसोई संभालो। इसलिए मैंने सोचा कि आज तुम्हें केवल परिवार के साथ समय बिताने का मौका दिया जाए।"

    आस्था थोड़ी हैरान थी, लेकिन साथ ही उसने राहत महसूस की। "तो, क्या मुझे कुछ भी नहीं करना होगा?" उसने हल्के से हँसी में कहा, जैसे उसके अंदर का तनाव एक पल में गायब हो गया हो।

    दिव्या जी ने हँसते हुए जवाब दिया, "नहीं, आज तुमसे कुछ खास नहीं करवाना है। बस तुम हमारे साथ बैठो, बातें करो, और जानो कि ये घर तुम्हारा है।"

    आस्था ने सिर हिलाया, उसकी चिंता धीरे-धीरे कम हो रही थी। लेकिन मन के किसी कोने में, वह अभी भी थोड़ी असहज थी। उसने सोचा था कि उसे बड़ी जिम्मेदारी निभानी पड़ेगी, और अचानक यह परिवर्तन उसे अजीब लग रहा था।

    "मम्मी जी, आप सच में चाहती हैं कि मैं सिर्फ़ बैठकर बातें करूँ?" उसने एक बार फिर पूछा, जैसे उसे यकीन न हो रहा हो।

    "बिलकुल," दिव्या जी ने कहा। "तुम्हारा समय भी आएगा जब तुम घर की जिम्मेदारियाँ संभालोगी, लेकिन आज बस आराम करो।"

    आस्था ने मुस्कुराते हुए कहा, "ठीक है, मम्मी जी। मैं कोशिश करूँगी।" वह अब थोड़ा सहज महसूस कर रही थी, लेकिन उसके मन में अभी भी यह सवाल था कि आखिर क्यों दिव्या जी ने उसकी पहली रसोई का कार्यक्रम बदल दिया।

    दिव्या जी ने फिर से कहा, "एक और बात, आस्था। मैं जानती हूँ कि तुम और दैविक ने एक कॉन्ट्रैक्ट मैरिज की है, लेकिन मैं चाहती हूँ कि तुम इस रिश्ते को अपने तरीके से निभाओ। मैं चाहती हूँ कि तुम दोनों एक-दूसरे को समझो, और रिश्ते को समय दो।"

    यह सुनकर आस्था थोड़ी भावुक हो गई। उसने दिव्या जी की तरफ़ देखा और कहा, "मम्मी जी, मैं कोशिश कर रही हूँ।"

    "मैं जानती हूँ, बेटा," दिव्या जी ने उसे गले लगाते हुए कहा। "और मुझे पूरा विश्वास है कि तुम इस घर को अपने प्यार से भर दोगी।"

    आस्था की आँखों में आँसू आ गए, लेकिन उसने उन्हें रोक लिया। वह जानती थी कि उसके सामने एक लंबा सफ़र था, और उसने ठान लिया कि वह इस रिश्ते को अपना सब कुछ देगी।

    इसके बाद, दिव्या जी ने कहा, "चलो, अब तुम अपने रूम में जाकर आराम करो।"

    आस्था ने सिर हिलाया और दिव्या जी से कहा, "क्या मैं आपसे कुछ पूछ सकती हूँ?"

  • 5. अनकही डोर - Chapter 5

    Words: 896

    Estimated Reading Time: 6 min

    "इस घर में सिर्फ आप और दैविक ही रहते हैं क्या? मींस, मैंने कल से सिर्फ आप और दैविक को ही देखा इस घर में।" आस्था ने घबराते हुए पूछा।


    आस्था के सवाल पर दिव्या जी के चेहरे पर एक पल के लिए हल्की सी शिकन उभर आई। उनके माथे की लकीरें थोड़ी गहरी हो गईं, लेकिन उन्होंने खुद को संभालते हुए हल्की मुस्कान के साथ आस्था की तरफ देखा।

    "मैं दैविक की मां हूँ," दिव्या जी ने एक लंबी सांस लेते हुए कहा। "वैसे तो यह घर कभी बहुत बड़ा और चहल-पहल वाला था। दैविक के पापा, मेरे सास-ससुर... सब एक साथ रहते थे। लेकिन कुछ साल पहले एक हादसे ने सब कुछ बदल दिया।"

    आस्था के चेहरे पर हैरानी और जिज्ञासा थी। वह चाहती थी कि दिव्या जी आगे बताएँ।


    दिव्या जी ने आगे कहा, "दैविक के पापा और मेरे सास-ससुर, तीनों एक साथ किसी जरूरी काम से शहर से बाहर जा रहे थे। रास्ते में उनकी गाड़ी का भयानक एक्सीडेंट हो गया। मैं... मैं तो जैसे टूट गई थी, आस्था। वह दिन... वह दिन मेरे जीवन का सबसे बुरा दिन था। उस एक्सीडेंट में मैंने अपना सब कुछ खो दिया—दैविक के पापा, मेरे सास-ससुर, तीनों हमें छोड़कर चले गए।" उनकी आवाज भारी हो गई, और आस्था को उनके दर्द का एहसास हुआ।


    आस्था ने धीरे से दिव्या जी का हाथ थाम लिया, जैसे उन्हें सहारा देने का प्रयास कर रही हो।
    "मुझे खेद है, मम्मी जी... मुझे यह सब नहीं पता था," आस्था ने धीरे से कहा।


    दिव्या जी ने हल्का सा सिर हिलाया, जैसे खुद को समझा रही हों कि उन्हें इन बातों से अब उबरना होगा।
    "इस हादसे के बाद, दैविक और मैं अकेले रह गए। हमारा घर पहले बहुत खुशियों से भरा हुआ था, लेकिन अब यहाँ सिर्फ खामोशी रह गई है।"


    आस्था ने चुपचाप उनकी बातें सुनीं, और उसकी आँखों में भी थोड़ी नमी आ गई। वह समझ सकती थी कि यह दर्द कितना गहरा था।


    "लेकिन," दिव्या जी ने थोड़ी सी मुस्कान के साथ कहा, "दैविक की एक छोटी बहन भी है—देवांशी। वह इस समय लंदन में पढ़ाई कर रही है। उसे वहाँ की एक यूनिवर्सिटी में स्कॉलरशिप मिली थी, और वह अब अपनी पढ़ाई पूरी कर रही है। देवांशी हमेशा से बहुत होशियार और महत्वाकांक्षी रही है। उसने शुरू से ही कुछ बड़ा करना चाहा था। जब वह यहाँ थी, तब वह भी इसी घर में रहती थी। लेकिन जब वह पढ़ाई के लिए बाहर गई, तब से बस दैविक और मैं ही यहाँ रह गए।"


    आस्था ने ध्यान से सब सुना, और उसे यह समझ में आ गया कि इस परिवार की ज़िन्दगी में बहुत सारी कठिनाइयाँ और दुख छिपे थे। उसने धीमी आवाज़ में पूछा, "दैविक इस हादसे के बाद कैसे थे? उन्होंने कभी इस बारे में बात नहीं की।"


    दिव्या जी ने आह भरते हुए कहा, "दैविक उस समय बहुत टूट गए थे। वह अपनी भावनाओं को ज़ाहिर नहीं करते, लेकिन मैं जानती हूँ कि अंदर से वह बहुत अकेला महसूस करता है। उसने खुद को अपने काम में डुबा लिया है। उसने खुद को परिवार की ज़िम्मेदारियों में समर्पित कर दिया ताकि उसे उन यादों से दूर रह सके। लेकिन मैं जानती हूँ कि वह अब भी उस दर्द से जूझ रहा है।"


    आस्था की आँखों में अब और भी गहरी सहानुभूति झलक रही थी। उसने सोचा कि शायद यही वजह है कि दैविक इतना सख्त और चुपचाप रहता है। लेकिन अब उसने ठान लिया था कि वह इस रिश्ते में अपना सब कुछ लगाएगी। वह दैविक को उस दर्द से बाहर निकालने की कोशिश करेगी।


    "और देवांशी?" आस्था ने हल्की मुस्कान के साथ पूछा, "वह कब वापस आएगी?"


    "देवांशी की पढ़ाई अभी चल रही है," दिव्या जी ने जवाब दिया। "वह जल्दी ही अपनी पढ़ाई पूरी करके लौटेगी। वह भी इस घर की जान थी। उसकी हँसी, उसकी बातें... सब कुछ यहाँ की दीवारों में गूंजता था। लेकिन जब वह वापस आएगी, तो शायद फिर से इस घर में खुशियाँ लौट आएंगी।"


    आस्था ने सिर हिलाया, और उसकी सोच में अब नए विचार उमड़ रहे थे। उसने महसूस किया कि यह घर उतना सख्त और ठंडा नहीं था जितना उसे पहले लगा था। इस घर में भी वही भावनाएँ और दर्द थे, जिनसे वह अब खुद भी गुज़र रही थी।


    दिव्या जी ने उसकी तरफ देखकर कहा, "आस्था, मैं तुमसे यही उम्मीद करती हूँ कि तुम इस घर को फिर से प्यार और हँसी से भर दो। मैंने दैविक को बहुत अकेले देखा है, और अब मैं चाहती हूँ कि वह तुम्हारे साथ एक नई शुरुआत करे। तुम दोनों का यह रिश्ता सिर्फ एक कॉन्ट्रैक्ट न रहे।"


    आस्था ने मुस्कुराते हुए कहा, "मैं पूरी कोशिश करूँगी, मम्मी जी।"


    इसके बाद दिव्या जी ने हल्के से उसके कंधे पर हाथ रखा और कहा, "जाओ, अब आराम करो।"


    आस्था ने सहमति में सिर हिलाया, लेकिन उसकी सोच में अब एक नया संकल्प था। वह जानती थी कि यह सफर आसान नहीं होगा, लेकिन उसने ठान लिया था कि वह इस रिश्ते को सिर्फ एक समझौते तक सीमित नहीं रहने देगी। वह दैविक को समझेगी, उसके दर्द को महसूस करेगी, और धीरे-धीरे उसे अपने प्यार से बदलने की कोशिश करेगी।


    आस्था धीरे-धीरे वापस अपने कमरे की तरफ बढ़ी, लेकिन उसके दिल में अब एक नया जोश और नई उम्मीद थी।

  • 6. अनकही डोर - Chapter 6

    Words: 2097

    Estimated Reading Time: 13 min

    रात का समय था। आस्था दैविक का इंतज़ार करते-करते कई बार घड़ी की तरफ़ देख चुकी थी। हर बार उसकी नज़र घड़ी की सुइयों पर और फिर दरवाज़े पर जाती। लेकिन दैविक नहीं आया था। उसकी आँखों में थकान और हल्की चिंता की छाया थी, फिर भी वह इंतज़ार करती रही। धीरे-धीरे, उसकी पलकें भारी होने लगीं और वह वहीं बेड पर सो गई।

    कुछ घंटों बाद, दरवाज़ा धीरे से खुला। दैविक, थका हुआ, लेकिन गंभीर चेहरे के साथ कमरे में दाखिल हुआ। कमरे में एक हल्की नीली रोशनी थी, जो बाहर की चांदनी से आ रही थी। जैसे ही उसकी नज़र बेड पर गई, उसने देखा कि आस्था सो चुकी थी। उसका चेहरा मासूम और शांत था; जैसे सारे तनाव और चिंता सोने के साथ गायब हो गए हों। दैविक ने एक पल के लिए उसे देखा—उसकी नाज़ुक सी मुस्कान, उसके खुले बाल जो तकिये पर बिखरे थे, और उसकी साँसों की हल्की आवाज़ कमरे में गूंज रही थी।

    उसने अपनी घड़ी उतारी और धीरे-धीरे कदम बढ़ाते हुए बाथरूम की तरफ़ चला गया। दरवाज़ा बंद कर, उसने बाथरूम का शॉवर चालू किया। गर्म पानी की बूँदें जब उसके शरीर से टकराईं, तो उसे पूरे दिन की थकान से थोड़ी राहत मिली। पानी उसके चौड़े कंधों पर बह रहा था। उसने अपनी आँखें बंद कर दीं, शॉवर के नीचे खड़े होकर हर फिक्र को धोने का प्रयास किया।

    शॉवर के बाद, वह तौलिये में लिपटा हुआ बाथरूम से बाहर निकला। उसकी बॉडी पर पानी की बूँदें अब भी चमक रही थीं। उसके गीले बाल चेहरे के इर्द-गिर्द लहरा रहे थे, और उसके चेहरे पर शांति का भाव था। जैसे ही वह बाथरूम से बाहर आया, उसकी नज़र फिर से आस्था पर गई।

    आस्था अब भी सो रही थी; उसकी साँसों का उतार-चढ़ाव उसकी मासूमियत को और भी गहरा बना रहा था। दैविक के कदम खुद-ब-खुद उसकी तरफ़ बढ़े। उसने आस्था के चेहरे को ध्यान से देखा। उसके नाक के पास हल्की सी बालों की लट झूल रही थी, जिसे दैविक ने धीरे से हटाया। उसके स्पर्श से आस्था थोड़ी हल्की सी करवट बदली, लेकिन फिर वह गहरी नींद में चली गई।

    दैविक कुछ पलों तक वहीं खड़ा रहा; उसकी नज़र आस्था के मासूम चेहरे पर थी। उसकी आँखों में एक अजीब सी चमक थी। उसने धीरे से उसके चेहरे के पास झुकते हुए उसकी साँसों को महसूस किया। वह उसके इतने करीब था कि उसकी गरम साँसें दैविक के चेहरे से टकरा रही थीं।

    उसके दिल में अचानक से कुछ हलचल होने लगी। उसे समझ नहीं आ रहा था कि यह खिंचाव क्यों था, लेकिन आस्था की मासूमियत और उसकी शांत नींद ने उसे और करीब खींच लिया। उसने धीरे से अपने हाथ से आस्था के माथे पर एक नर्म स्पर्श किया; उसकी उंगलियों ने हल्के से उसके गालों को छुआ। आस्था के चेहरे पर हल्की सी मुस्कान आ गई, लेकिन वह अब भी गहरी नींद में थी।

    दैविक उसके पास बैठ गया और धीरे से उसके बालों को सुलझाया। उसकी आँखें आस्था के चेहरे पर टिक गईं, और उसके दिल में कुछ अजीब सा महसूस हुआ। वह उसे ध्यान से देख रहा था, जैसे उसे अब तक पूरी तरह से देखा ही न हो। उसकी मासूमियत, उसकी नाज़ुकता—सब कुछ उसे कुछ पल के लिए अपनी सारी परेशानियों से दूर ले गया।

    फिर वह धीरे से झुककर आस्था के पास गया और उसके माथे पर एक हल्का सा किस किया। आस्था ने थोड़ी हलचल की, लेकिन वह नहीं जागी। दैविक ने उसे हल्के से कम्बल ओढ़ाया, ताकि उसे ठंड न लगे।

    "आस्था..." दैविक ने हल्की आवाज़ में कहा, जैसे खुद से बात कर रहा हो। उसकी आँखों में एक नरमी थी, जो शायद पहले कभी नहीं थी।

    वह कुछ देर और उसके पास बैठा रहा, उसकी मासूमियत में खोया हुआ।

    दैविक का मन एक पल के लिए आस्था की मासूमियत और उसकी सुकून भरी नींद में खो गया था, लेकिन अगले ही पल कुछ अजीब सा हुआ। जैसे अचानक उसे कुछ याद आया हो, उसकी आँखों की नरमी गायब हो गई। उसका चेहरा कठोर हो गया, और उसकी साँसें तेज चलने लगीं। उसने अपने सिर को झटका, जैसे किसी अनचाही सोच को दूर करने का प्रयास कर रहा हो। उसकी आँखें कसकर बंद हो गईं, और जब उसने दोबारा अपनी आँखें खोलीं, तो उनमें हल्की सी लालिमा थी, जैसे कोई सुलगता हुआ गुस्सा या दर्द उसके भीतर उमड़ रहा हो।

    दैविक अब और नरम नहीं था। उसकी निगाह आस्था पर फिर से गई, लेकिन इस बार उसका भाव पूरी तरह बदल चुका था। वह जल्दी से आगे बढ़ा और बिना किसी नरमी के, उसने आस्था को अपने दोनों हाथों में उठा लिया। आस्था का सोया हुआ शरीर अचानक दैविक के मज़बूत और ठंडे स्पर्श के बीच हिल गया। आस्था का सिर दैविक के चौड़े और मस्कुलर सीने से जा लगा। उसकी नर्म गालों का स्पर्श दैविक के तन पर पड़ा, और उसके हल्के बाल दैविक की त्वचा से स्पर्श कर रहे थे। एक पल के लिए आस्था के चेहरे पर एक हल्की सी बेचैनी आई, लेकिन उसकी नींद इतनी गहरी थी कि वह नहीं जागी।

    दैविक की साँसें अब भारी हो गई थीं। वह आस्था को अपनी गोद में उठाए सोफ़े तक ले गया और बिना किसी झिझक के, उसे सोफ़े पर जोर से पटक दिया। आस्था का शरीर सोफ़े पर गिरा और वह हल्की सी चीख के साथ जाग गई। उसकी आँखें अब भी आधी बंद थीं, और उसने तुरंत कुछ समझ नहीं पाया। वह थोड़ी घबराई हुई थी, लेकिन दैविक का चेहरा देखकर चुप हो गई।

    दैविक की नज़रें अब आस्था पर टिकी थीं। उसका चेहरा किसी अनजाने क्रोध और जुनून का मिश्रण था। आस्था की साँसें अब भी तेज थीं, और उसने धीरे से अपने हाथ से दैविक के सीने को छुआ, शायद यह समझने के लिए कि आखिर हुआ क्या है।

    "दैविक..." आस्था की आवाज़ धीमी थी, जैसे वह कुछ कहना चाह रही हो, लेकिन दैविक ने कोई जवाब नहीं दिया। उसकी आँखें अब आस्था के चेहरे से होते हुए उसके होंठों पर टिक गईं। उसके भीतर एक अजीब सा खिंचाव था, जो उसे आस्था के और करीब खींच रहा था।

    वह धीरे से आस्था के पास झुका और उसके चेहरे के करीब आ गया। आस्था की साँसें तेज हो गईं, लेकिन वह कुछ कहने से पहले ही दैविक ने उसके होंठों को अपने होंठों से छू लिया। आस्था ने एक पल के लिए अपनी आँखें बंद कर लीं, और उस स्पर्श में खो गई।

    दैविक का स्पर्श गहरा था, जैसे वह अपने भीतर की सारी भावनाएँ उसी एक पल में उंडेल देना चाहता हो। उसके होंठों का स्पर्श गरम और तीव्र था, और आस्था ने खुद को उस लम्हे में पूरी तरह समर्पित कर दिया। उसकी उंगलियाँ अब धीरे-धीरे दैविक की बॉडी पर चलने लगीं, उसके गीले बालों को छूते हुए उसकी गर्दन तक पहुँच गईं।

    दैविक ने धीरे से आस्था को अपने और करीब खींचा, और उसकी उंगलियाँ आस्था के बालों में उलझ गईं। उनके बीच का यह लम्हा किसी कशिश से भरा हुआ था, जिसमें न कोई शब्द थे और न ही कोई सवाल। बस उनके बीच की गर्मी, वह खिंचाव, और एक अदृश्य जुनून था, जिसने दोनों को इस लम्हे में कैद कर लिया था।


    थोड़ी देर बाद वे दोनों अलग हुए।

    लेकिन...!

    अगले ही पल दैविक बेहोश हो गया।

    आस्था को कुछ समझ में नहीं आया। यह अचानक से दैविक को क्या हो गया?


    आस्था की आँखों में अचानक चिंता की लहर दौड़ गई। दैविक को बेहोश होते देख उसका दिल तेज़ी से धड़कने लगा। कुछ पल के लिए वह वहीं जड़वत् खड़ी रही, जैसे उसके दिमाग ने सोचना बंद कर दिया हो। लेकिन फिर उसकी समझ में आया कि उसे जल्दी से कुछ करना होगा। उसकी उंगलियाँ दैविक के चेहरे के पास गईं और उसने धीरे से उसके गालों को थपथपाया।

    "दैविक... दैविक, सुनो!" आस्था ने धीरे से उसे पुकारा; उसकी आवाज़ में हल्का सा कंपन था, मानो वह खुद भी डरी हुई हो।

    पर दैविक की कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई। उसकी साँसें बहुत धीमी और हल्की थीं, मानो वह गहरी नींद में हो या किसी अनजानी अवस्था में। आस्था ने उसके शरीर को ध्यान से देखा। उसका सीना धीरे-धीरे उठ रहा था और गिर रहा था, लेकिन उसकी आँखें बंद थीं, और उसका चेहरा एकदम निष्प्राण सा लग रहा था।

    आस्था का मन दौड़ने लगा। उसकी मज़बूत, मस्कुलर बॉडी अब एकदम निश्चल थी। जैसे ही आस्था ने उसे उठाया, उसने महसूस किया कि दैविक का शरीर पूरी तरह से शांत था, मानो सारी ऊर्जा किसी अज्ञात कारण से निकल गई हो। उसकी उंगलियाँ दैविक के कंधों पर टिकीं, और उसे लगा कि उसकी मांसपेशियाँ एकदम सख्त हो गई थीं।

    आस्था ने दैविक को ध्यान से बेड पर रखा; उसकी नज़रें उसकी बॉडी पर टिक गईं। दैविक की बॉडी में एक अद्भुत आकर्षण था। उसकी चौड़ी छाती, मज़बूत बाँहें, और तराशे हुए एब्स जो अब भी पानी की हल्की बूँदों से भीगे हुए थे। उसकी साँसें अब भी धीरे-धीरे चल रही थीं, लेकिन आस्था को इस बात का बिल्कुल अंदाज़ा नहीं था कि आखिर उसे अचानक क्या हो गया।

    उसने घबराहट में दैविक के चेहरे को निहारा। उसकी आँखों के आसपास हल्की सी लालिमा थी, मानो वह किसी गहरी उलझन या तनाव में हो। आस्था की नज़रें दैविक के गीले बालों पर टिकीं, जो उसके माथे से लटक रहे थे। उसने धीरे से अपने हाथ से उन बालों को हटाया, और उसकी उंगलियाँ दैविक की त्वचा पर फिसल गईं। उसके स्पर्श में अब भी एक अजीब सी गर्माहट थी, जो आस्था को विचलित कर रही थी।

    आस्था को समझ नहीं आ रहा था कि क्या करे। उसका दिल तेज़ी से धड़क रहा था, और उसकी उंगलियाँ हल्के से काँप रही थीं। उसने अपने हाथ से दैविक की नब्ज़ टटोलने की कोशिश की, और उसे राहत मिली कि उसकी नब्ज़ अब भी चल रही थी, भले ही बहुत धीमी हो। लेकिन उसकी आँखों में अभी भी वही चिंता बनी हुई थी।

    "दैविक, तुम मुझे ऐसे छोड़कर नहीं जा सकते..." आस्था ने धीरे से बुदबुदाया, जैसे वह खुद से बात कर रही हो।

    आस्था ने अपने आप को संभाला और सोचा कि शायद दैविक की यह हालत सिर्फ़ थकान की वजह से है। पूरे दिन की मेहनत और तनाव ने उसे पूरी तरह से निचोड़ दिया होगा। लेकिन फिर भी, उसे कुछ अजीब सा महसूस हो रहा था। दैविक का चेहरा पहले जैसा शांत नहीं था, उसकी बॉडी में एक अजीब सी कठोरता आ गई थी, और आस्था को ऐसा लग रहा था कि कुछ तो गलत है।

    उसने दैविक के सीने पर अपनी हथेली रखी। उसका दिल धीरे-धीरे धड़क रहा था, और उसकी साँसें अब भी धीमी थीं। आस्था का मन एक पल के लिए दैविक की मज़बूत बॉडी पर अटक गया। उसकी उंगलियाँ उसके चौड़े कंधों से होते हुए उसकी बाँहों तक फिसल गईं। उसकी बॉडी अब भी गरम थी, लेकिन उसमें वह सजीवता नहीं थी जो पहले हुआ करती थी।

    आस्था की उंगलियाँ दैविक की त्वचा पर टिकीं रहीं, और उसके भीतर एक अजीब सा खिंचाव महसूस हुआ। वह उसे इस हाल में देखकर परेशान थी, लेकिन साथ ही उसकी बॉडी की मांसलता और उसकी आकर्षक बनावट ने उसे एक पल के लिए मंत्रमुग्ध कर दिया।

    उसने एक गहरी साँस ली और अपने विचारों को संयत किया। उसे इस समय कोई गलत भावना नहीं आने देनी थी। दैविक की हालत गंभीर थी, और उसे जल्द से जल्द किसी डॉक्टर की ज़रूरत हो सकती थी।

    आस्था ने तुरंत अपना फ़ोन उठाया और डॉक्टर का नंबर डायल करने लगी, लेकिन फिर उसने सोचा कि शायद यह बस अस्थायी है और थोड़ी देर में दैविक ठीक हो जाएगा। उसने डॉक्टर को कॉल करने के बजाय ठंडे पानी से दैविक के चेहरे को धोने का निर्णय लिया।

    वह जल्दी से बाथरूम में गई, एक छोटा तौलिया गीला किया और वापस आकर दैविक के चेहरे पर धीरे-धीरे उसे रखा। पानी के ठंडे स्पर्श से दैविक की साँसें थोड़ी तेज होने लगीं, लेकिन वह अब भी बेहोश था। आस्था ने धीरे से उसके गालों को थपथपाया, और उसके माथे पर तौलिया रखा।

    आस्था की आँखों में अब भी चिंता थी, लेकिन साथ ही उसके दिल में एक अजीब सा खिंचाव था, जो उसे दैविक के और करीब ला रहा था। उसने धीरे से दैविक के सीने पर अपना सिर रखा, उसकी धीमी साँसों को सुनते हुए। उसकी उंगलियाँ अब भी दैविक के चौड़े कंधों पर फिसल रही थीं, और वह बस यही चाह रही थी कि दैविक जल्द से जल्द ठीक हो जाए।

    दैविक की बॉडी अब भी गरम थी, उसकी मांसपेशियाँ सख्त थीं, और आस्था के मन में कई सवाल उमड़ने लगे।

  • 7. अनकही डोर - Chapter 7

    Words: 1127

    Estimated Reading Time: 7 min

    सुबह की हल्की रोशनी खिड़की के परदे से छनकर कमरे में फैल रही थी। सूरज की कोमल किरणें दैविक के चेहरे पर पड़ते ही उसकी नींद धीरे-धीरे टूटने लगी। उसने अपनी आँखें हल्के से खोलीं; उसकी नज़र सबसे पहले अपने माथे पर बंधी एक ठंडी पट्टी पर पड़ी। उसने कुछ देर तक स्थिर नज़रों से अपने आसपास का मुआयना किया और फिर हल्के से अपना चेहरा उठाया। जैसे ही उसने बगल में देखा, आस्था उसकी तरफ सिर टिकाए सो रही थी।

    आस्था का चेहरा थका हुआ और शांत था, लेकिन उस पर एक मासूमियत का भाव था। उसके नाजुक बाल उसके चेहरे पर बिखरे हुए थे, और उसकी आँखें बंद थीं। उसकी साँसें धीमी और शांत थीं, और उसका सिर दैविक के बगल में बेड के किनारे से लगा हुआ था, मानो पूरी रात उसने उसके पास बैठकर ही गुज़ार दी हो।

    दैविक ने उसे देखा; उसकी आँखों में एक नरमी थी। आस्था का इस तरह से उसके पास बैठे-बैठे सो जाना उसके दिल में एक गहरी भावना को जगा गया। उसने अपना हाथ धीरे से उठाया और आस्था के चेहरे के पास ले जाकर उसके बालों को उसके चेहरे से हटाया। उसकी उंगलियों का हल्का स्पर्श जैसे ही आस्था के बालों पर पड़ा, आस्था हल्की सी करवट लेकर थोड़ी हिली, लेकिन वह अब भी गहरी नींद में थी।

    दैविक ने अपनी उंगलियों से उसके गालों को हल्के से छुआ; उसका मासूम चेहरा उसे किसी सपने जैसा लग रहा था। उसकी नर्म त्वचा का एहसास दैविक के दिल को और भी गहराई से छू गया। उसने उसकी नाजुक उंगलियों को अपने हाथों में लेकर धीरे से सहलाया।

    वह कुछ पलों के लिए उसे इसी तरह देखते हुए खो गया, जैसे समय ने कुछ देर के लिए रुकने का फैसला कर लिया हो। कमरे में बस उनकी साँसों की आवाज़ थी, और खिड़की से आती सूरज की हल्की रोशनी, जो आस्था के चेहरे पर गिर रही थी, उसे और भी सुंदर बना रही थी।

    दैविक ने ध्यान से उसकी गर्दन की ओर देखा, जहाँ उसकी साँसें उसकी नाजुक त्वचा से टकरा रही थीं। उसकी धड़कनें धीमी थीं, और उसकी साँसें गहरी थीं। दैविक के दिल में एक गहरी कशिश महसूस होने लगी, मानो वह इस पल को कभी खत्म न होने देना चाहता हो।

    उसने आस्था के कंधे पर हाथ रखकर उसे थोड़ा हिलाया, ताकि वह जाग सके। आस्था ने अपनी आँखों को हल्के से मिचकाया, और धीरे-धीरे उसने अपनी आँखें खोलीं। उसकी आँखें नींद से भरी हुई थीं, और जैसे ही उसने दैविक को देखा, उसकी मुस्कान और गहरी हो गई।

    "तुम ठीक हो?" आस्था ने धीमी आवाज़ में पूछा; उसकी आँखों में चिंता थी।

    "तुम यहाँ मेरे बेड पर कैसे आई?" दैविक ने सख्त लहजे में कहा; उसकी आँखों में अब कोई नरमी नहीं थी।
    "मैंने मना किया था ना कि तुम यहाँ मेरे बेड पर नहीं सोओगी? तुम्हारी सोने की जगह वो सोफ़ा है। समझी?" उसकी आवाज़ में एक गहरा आक्रोश था, और वह आस्था की ओर नफ़रत भरी निगाहों से देख रहा था।

    दैविक का चेहरा अचानक कठोर हो गया; उसकी नर्मता कहीं गायब हो गई थी। आस्था, जो अभी कुछ पल पहले उसकी मासूमियत और प्यार में खोई हुई थी, दैविक के इस रूखे बदलाव से सहम गई। उसकी आँखों में एक डर और हिचकिचाहट दिखाई दी। उसने कुछ समझने की कोशिश की, लेकिन दैविक की आवाज़ उसकी धड़कनों को और तेज़ कर गई।

    आस्था की आँखें हैरानी और डर से भर गईं। उसने एक पल के लिए अपनी साँसें रोकीं, मानो वह समझने की कोशिश कर रही हो कि अचानक यह बदलाव क्यों आ गया। वह थोड़ी हड़बड़ा गई, और उसकी आवाज़ हल्की, लेकिन टूटे हुए स्वर में आई।
    "वो… तुम अचानक रात को बेहोश हो गए थे। मुझे बहुत डर लगा। मैं... मैं बस तुम्हारे पास रहना चाहती थी ताकि तुम्हें कोई दिक्कत न हो।"

    दैविक ने उसकी बात बीच में ही काटते हुए कहा, "कोई ज़रूरत नहीं है मेरी फ़िक्र करने की। समझी तुम?" उसकी आवाज़ अब और भी कठोर हो गई थी, मानो वह आस्था को दूर धकेलना चाहता हो।

    आस्था का दिल तेज़ी से धड़कने लगा। उसकी आँखों में आँसू तैरने लगे, लेकिन उसने खुद को रोके रखा। उसके अंदर कई सवाल उठने लगे, लेकिन वह कुछ कहने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही थी।

    "हमारी शादी सिर्फ़ एक कॉन्ट्रैक्ट है," दैविक ने आगे कहा; उसकी आवाज़ में ठंडापन था।
    "तुम्हें याद दिलाने की कितनी बार ज़रूरत पड़ेगी कि हमारे बीच कुछ नहीं है। ये सब सिर्फ़ एक दिखावा है, और इस दिखावे के तहत तुम्हें कोई अधिकार नहीं है कि तुम मेरे करीब आओ।"

    आस्था का दिल टूट गया। उसकी आँखों से आँसू छलकने लगे। वह जानती थी कि दैविक की यह सख्ती सिर्फ़ उसके शब्दों तक सीमित नहीं थी, बल्कि उसकी आँखों में भी वही सख्ती दिख रही थी।

    "तुम्हें ऐसा कहने की ज़रूरत नहीं थी," आस्था ने रोते हुए कहा; उसकी आवाज़ में दर्द और निराशा थी।
    "मैं सिर्फ़ तुम्हारी मदद करना चाहती थी। तुम बेहोश हो गए थे, मैं घबरा गई थी। अगर मैं यहाँ बैठी रही, तो सिर्फ़ इसलिए क्योंकि मुझे तुम्हारी चिंता थी।"

    दैविक ने उसकी बात को अनसुना कर दिया। वह अपनी ठंडक में डूबा रहा, मानो आस्था के शब्द उसके दिल तक पहुँच ही नहीं पा रहे थे।
    "तुम्हारी मदद की कोई ज़रूरत नहीं है, आस्था। और मुझे इस ड्रामे की भी कोई ज़रूरत नहीं है। मैं चाहता हूँ कि तुम अपनी हद में रहो।"

    आस्था ने अपनी आँखों में भरते आँसुओं को पोंछने की कोशिश की, लेकिन उसका दिल अंदर से टूट चुका था। उसने धीरे से खुद को संभालते हुए कहा, "दैविक, मैं समझती हूँ कि हमारे बीच यह शादी सिर्फ़ एक कॉन्ट्रैक्ट है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि मैं इंसानियत और अपने दिल की परवाह करना छोड़ दूँ। तुम चाहे जो भी कहो, लेकिन तुम्हारे लिए चिंता करना मेरी आदत है।"

    दैविक ने उसकी ओर देखा, लेकिन उसकी आँखों में कोई भाव नहीं था।
    "तुम्हारी आदतें बदलने का वक़्त आ गया है," उसने ठंडे स्वर में कहा।

    आस्था ने एक आखिरी नज़र उसकी ओर डाली, और फिर अपने आँसुओं को रोकते हुए बिस्तर से उठ खड़ी हुई। वह धीरे-धीरे पीछे हटते हुए खिड़की के पास जा खड़ी हुई, जहाँ से सूरज की रोशनी अब और भी तेज़ हो गई थी। उसकी आँखें बाहर की ओर देख रही थीं, लेकिन उसका दिल दैविक के शब्दों में बंधा हुआ था।

    उसने गहरी साँस ली, खुद को संयमित किया, और फिर बिना कुछ कहे कमरे से बाहर चली गई।

    कमरे में अब बस दैविक रह गया था, जो अकेलेपन में डूबा हुआ था। लेकिन उसकी कठोरता के पीछे छिपा दर्द और बेचैनी अब भी उसकी आँखों में कहीं गहरे तैर रही थी, जिसे वह आस्था से छिपाने की कोशिश कर रहा था।

  • 8. अनकही डोर - Chapter 8

    Words: 1278

    Estimated Reading Time: 8 min

    दैविक ने गुस्से से अपना सिर झटका, जैसे वह अपने अंदर की भावनाओं को दबाने की कोशिश कर रहा हो। उसके दिल में उठती बेचैनी और गुस्सा उसकी सोच पर हावी हो रहे थे। बिना एक शब्द बोले, वह बिस्तर से उठा और सीधे बाथरूम की तरफ बढ़ गया। उसके कदम भारी थे, और उसका चेहरा तनाव में था।

    बाथरूम में पहुँचते ही, उसने दरवाज़ा बंद किया और शॉवर के नीचे खड़ा हो गया। ठंडे पानी की धार उसके चेहरे पर गिर रही थी, लेकिन उसके अंदर जलती हुई आग और तीव्र हो गई थी। पानी उसकी आँखों के साथ मिलकर उसकी लाल आँखों को और भी दर्दनाक बना रहा था।

    उसकी आँखें अब पूरी तरह लाल हो चुकी थीं। उसने गहरी साँस लेते हुए अपने मन में दोहराया, "वो लड़की सिर्फ मेरे मकसद का हिस्सा है... बस, और कुछ नहीं।"

    लेकिन जैसे-जैसे वह यह खुद से कहता गया, उसकी आवाज़ में यकीन कम होता गया। उसके दिल की धड़कनें तेज़ होने लगीं, और उसने अपनी मुट्ठी कड़ी कर ली। उसकी साँसें भारी हो गईं। एक पल में उसने अपनी मुट्ठी उठाई और दीवार पर जोर से मार दी।

    धड़ाम! दीवार पर उसकी मुट्ठी टकराने की आवाज़ बाथरूम में गूँजी। उसकी उंगलियों में दर्द की एक लहर दौड़ गई, लेकिन यह दर्द उस तक नहीं पहुँचा। वह सिर्फ अपने अंदर की उथल-पुथल से जूझ रहा था। पानी उसके चेहरे और बालों से बहता हुआ उसके शरीर से टकरा रहा था, लेकिन यह ठंडक उसे उस आग से नहीं बचा पा रही थी जो उसके अंदर जल रही थी।

    दैविक ने अपना सिर नीचे झुका लिया, और उसकी आँखों से आँसू टपकने लगे, जो शॉवर के पानी में घुलते जा रहे थे। उसने अपनी हथेलियों से अपना चेहरा ढक लिया, जैसे वह खुद से बचना चाह रहा हो। उसके मन में वही ख्याल बार-बार घूम रहा था – "आस्था सिर्फ एक मकसद का हिस्सा है। उसे मुझसे कोई लगाव नहीं होना चाहिए, और मुझे उससे…!"

    लेकिन वह वाक्य वह पूरा नहीं कर पाया। उसके दिल में उठती भावनाएँ उसे अंदर से तोड़ रही थीं। उसकी मुट्ठियाँ अब भी कसी हुई थीं, और उसने एक बार फिर दीवार पर हाथ मारा, इस बार और ज़ोर से।

    "नहीं!" उसने खुद से कहा, उसकी आवाज़ गुस्से और निराशा में गूँज रही थी। "मुझे उसकी कोई परवाह नहीं करनी चाहिए... वह सिर्फ मेरे प्लान का हिस्सा है।"

    पर सच कहने के बावजूद, उसके मन की उलझन और गहराती जा रही थी। आस्था के चेहरे की मासूमियत, उसकी नर्म बातें, और वह जिस तरह से उसकी देखभाल कर रही थी, वो सब दैविक के दिमाग से निकल ही नहीं रहा था।

    "क्यों?" उसने खुद से पूछा। "क्यों वह मेरे दिल में जगह बना रही है?"

    उसने अपना सिर दीवार से टिका दिया, और ठंडे पानी की धार उसकी पीठ पर गिरती रही। उसके अंदर की लड़ाई थमने का नाम नहीं ले रही थी। वह खुद से लड़ रहा था, अपने उन एहसासों से लड़ रहा था जो उसे कमजोर बना रहे थे।

    उसने एक गहरी साँस ली और खुद को किसी तरह संभालने की कोशिश की। "मैं यह सब कुछ क्यों सोच रहा हूँ?" उसने फिर से खुद से सवाल किया। "मेरा मकसद सबसे पहले है... और आस्था को इसमें कोई जगह नहीं मिलनी चाहिए।"

    उसने शॉवर बंद किया, और बाथरूम से बाहर निकल आया। उसकी आँखें अब भी लाल थीं, और उसके चेहरे पर एक सख्त भाव था। उसने अपने बाल तौलिए से पोंछे और शीशे के सामने खड़ा होकर खुद को देखा। उसके चेहरे पर अभी भी हल्की-सी उदासी और थकावट का भाव था।

    दैविक ने शीशे में खुद को देखते हुए मन ही मन कसम खाई कि वह अपने मकसद से नहीं भटकेगा। "मैं कमजोर नहीं पड़ सकता। मुझे इस जाल से बाहर निकलना होगा।"


    वहीं दूसरी तरफ, आस्था उस कमरे की बालकनी में बैठी थी, खुद में सिमटी हुई, घुटनों को अपने सीने से लगाए। उसकी आँखों में आँसू थे, जो उसकी कोमल पलकों से धीरे-धीरे टपक रहे थे। उसने अपनी आँखों को पोंछने की कोशिश की, लेकिन जितना वह आँसुओं को रोकना चाह रही थी, वे और ज़्यादा बहते जा रहे थे।

    आस्था का दिल भारी हो चुका था, उसकी उलझन और दर्द उसके चेहरे पर साफ झलक रहा था। वह धीरे से फुसफुसाई, "कितना अजीब आदमी है ये...कल रात को खुद ही मुझे किस कर रहा था, और अब मुझे डांट रहा है।" उसकी आवाज़ में दर्द था, और उसके शब्दों में बेबसी।

    कल रात की वो यादें अब उसकी आँखों के सामने तैरने लगीं। दैविक का उसे प्यार से देखना, उसका अचानक करीब आना, और फिर उसके होंठों का उसके होंठों से टकराना – यह सब कुछ आस्था के लिए अप्रत्याशित था, पर उस पल में उसे लगा था कि शायद दैविक के दिल में उसके लिए कुछ तो है। उस एक पल में उसने दैविक को एक अलग नज़रिए से देखा था, एक ऐसे शख्स के रूप में जो अपने अंदर गहरे जज़्बात छिपाए हुए है।

    लेकिन आज सुबह, दैविक का सख्त और बेरुखा रवैया देखकर उसका दिल टूट गया था। "क्या मैं कुछ गलत समझ बैठी?" उसने खुद से पूछा। "क्या दैविक ने सिर्फ पल भर के जज़्बात में मुझे वो सब किया, और अब वो मुझसे दूर होना चाहता है?"

    आस्था की आँखों से फिर आँसू गिरने लगे। वह उस पल को बार-बार याद कर रही थी जब दैविक ने उसे चूमा था। उसका दिल तेज़ी से धड़कने लगा था, और उसकी पूरी दुनिया जैसे उस एक पल में ठहर गई थी। उसने सोचा था कि शायद दैविक भी उसे महसूस करता है, शायद उनके बीच कोई अनकहा रिश्ता बन रहा है।

    लेकिन अब, वह बिल्कुल उलझन में थी। दैविक के शब्दों ने उसकी सारी उम्मीदें तोड़ दी थीं। "क्यों उसने ऐसा किया?" उसने खुद से बार-बार सवाल किया। "कल रात तक तो सब कुछ ठीक था... फिर आज ऐसा क्यों?" उसकी सोच में एक बेचैनी थी, और उसका दिल इस बात को समझ नहीं पा रहा था।

    बालकनी में हल्की हवा चल रही थी, और सूरज की रोशनी अब पूरी तरह से फैल चुकी थी। आस्था ने अपने चेहरे को अपनी हथेलियों में छिपा लिया, जैसे वह खुद से भागने की कोशिश कर रही हो। उसकी साँसें तेज़ हो रही थीं, और उसके दिल में एक घुटन सी महसूस हो रही थी।

    उसने धीरे से कहा, "मुझे समझ नहीं आता कि ये आदमी चाहता क्या है... कभी प्यार से देखता है, कभी बिल्कुल अजनबी की तरह व्यवहार करता है। कल रात को जब उसने मुझे छुआ था, तो ऐसा लगा था जैसे मैं उसके लिए खास हूँ... लेकिन अब? अब वो कह रहा है कि हमारी सिर्फ कॉन्ट्रैक्ट मैरिज है... कोई मतलब नहीं है इन सब चीज़ों का?"

    आस्था के दिल में एक उथल-पुथल मच चुकी थी। वह जानती थी कि दैविक अपने अंदर बहुत कुछ छिपा रहा है, लेकिन उसकी बेरुखी और कठोरता ने आस्था को हिला कर रख दिया था।

    "क्या ये सब सिर्फ दिखावा था?" उसने मन ही मन सोचा। "क्या उसके लिए मैं सिर्फ एक मजबूरी हूँ, एक समझौता?"

    वह अपनी साड़ी का पल्लू अपने हाथों में मरोड़ते हुए अपने विचारों में खोई रही। बालकनी की ठंडी हवा उसके आँसुओं को सुखाने की कोशिश कर रही थी, लेकिन उसका दिल अब भी भरा हुआ था।

    आस्था को समझ नहीं आ रहा था कि वह इस रिश्ते को कैसे संभाले। उसने खुद से कहा, "अगर वो मेरे पास आना नहीं चाहता, तो मैं भी दूर रहूँगी... मैं उससे उम्मीद नहीं करूँगी।"

    लेकिन उसके दिल के किसी कोने में, वह चाहती थी कि दैविक उसके पास आए, उसे समझे, और उसे वह प्यार दे जो वह महसूस करती थी।

  • 9. अनकही डोर - Chapter 9

    Words: 1104

    Estimated Reading Time: 7 min

    आस्था धीरे-धीरे बालकनी से उठकर कमरे में आई। उसके कदम अब भी भारी थे, और उसकी आँखों में हल्की सी नमी बरकरार थी। जैसे ही उसने कमरे के अंदर कदम रखा, उसकी नज़र दैविक पर पड़ी जो कांच के सामने खड़ा होकर अपने बाल सेट कर रहा था।

    दैविक के बालों पर पानी की बूंदें अब भी टपक रही थीं, और वह बड़े ही सलीके से अपने बालों को ठीक कर रहा था। उसकी कलाई में बंधी घड़ी चमक रही थी, और उसका चेहरा अब और भी निखर आया था। वह पूरी तरह से तैयार दिख रहा था; सफेद शर्ट और ग्रे पैंट में उसकी शख्सियत और भी आकर्षक लग रही थी।

    आस्था ने कुछ पल के लिए उसे ध्यान से देखा, उसकी भव्यता और आकर्षण को महसूस किया। लेकिन तभी उसके मन में कल रात का ख्याल आया, और उसकी आँखों में हल्का सा गुस्सा चमकने लगा।

    "हुंह, हैंडसम तो है, लेकिन साथ ही एक नंबर का खडूस भी," उसने खुद से ही धीरे से कहा।

    वह अब भी दैविक को देख रही थी, जो अपने बालों में कंघी घुमाकर उन्हें बिल्कुल परफेक्ट तरीके से सेट कर रहा था, जैसे वह हर चीज़ में परफेक्शन की तलाश में हो। उसके चेहरे पर ध्यान केंद्रित करने की आदत थी, मानो किसी भी छोटे से छोटे काम में भी वह गलती नहीं करना चाहता था।

    "ऊपर से तो लगता है जैसे दुनिया का सबसे कूल और कॉन्फिडेंट इंसान है, लेकिन अंदर से... एकदम ठंडा बर्फ का गोला। ये इंसान कभी भी अपने दिल की बात क्यों नहीं कह सकता? कब तक यूं ही ठंडा और बेपरवाह बना रहेगा?" आस्था ने उसकी हरकतों को गौर से देखते हुए बड़बड़ाया।

    उसने एक गहरी साँस ली और थोड़ा चिढ़ते हुए अपने सिर को हल्का झटका दिया।

    "कल रात तो जैसे प्यार की मूरत बनकर आया था, और आज... आज तो ऐसा बर्ताव कर रहा है जैसे कुछ हुआ ही नहीं। किस करता है और फिर मुझे डांटता भी है। ये आदमी सच में पागल है।"

    दैविक ने एक बार भी आस्था की तरफ नहीं देखा; वह अपनी कलाई पर घड़ी को ठीक करते हुए अपने कपड़ों को अंतिम रूप दे रहा था। उसकी आँखों में वही गंभीरता और ध्यान केंद्रित करने वाला भाव था, जो हमेशा से उसके चेहरे पर था। आस्था को ऐसा लगा जैसे वह जानबूझकर उसे नज़रअंदाज़ कर रहा है।

    "एक पल के लिए ऐसा लगता है जैसे उसे मेरी परवाह है, और दूसरे पल में ऐसा बर्ताव करता है जैसे मैं उसकी ज़िंदगी में कोई मायने नहीं रखती। आखिर ये इंसान क्या चाहता है?" आस्था ने गुस्से में अपनी जगह पर खड़ी-खड़ी सोचा।

    उसने सोचा कि वह कुछ कहे, लेकिन फिर अपने गुस्से को शांत करते हुए, खुद को रोका।

    "नहीं, आस्था... तू क्यों उसके पीछे पागल हो रही है? अगर उसे बात करनी होती, तो वो खुद कहता। तुझे ही बार-बार उसके पीछे भागने की कोई ज़रूरत नहीं।"

    वह थोड़ी देर चुपचाप खड़ी रही। उसकी आँखों में अब भी हल्का सा गुस्सा और नाराज़गी थी, लेकिन साथ ही एक भाव था – वह चाहती थी कि दैविक उसे देखे, उससे बात करे, और उसके साथ वही नर्मी दिखाए जो कभी-कभी वह अपनी नज़रों में लेकर आता था।

    जैसे ही दैविक ने अपनी घड़ी को ठीक किया और अपने कपड़े सही किए, वह मुड़ा और आस्था की ओर देखा। उसकी नज़रें थोड़ी देर तक आस्था पर टिकी रहीं, लेकिन फिर वह बिना कुछ कहे कमरे से बाहर निकल गया, मानो उसे इस बात का एहसास तक न हो कि आस्था वहाँ खड़ी है।

    आस्था ने दैविक को जाते हुए देखा, और उसकी आँखों में एक बार फिर से नाराज़गी और बेचैनी का भाव लौट आया।

    "मुझे सच में समझ नहीं आता कि ये आदमी क्या चाहता है... कभी पास आता है, तो कभी ऐसे दूर चला जाता है जैसे मैं कोई अजनबी हूँ," उसने खुद से ही कहा।

    फिर आस्था ने अपनी आवाज़ को हल्का सा नरम किया और धीरे से बोली, "लेकिन... क्यों, दैविक? क्यों तुम कभी मेरे करीब आते हो और फिर यूँ ही मुझे अकेला छोड़ देते हो? क्या तुम्हें सच में मेरे जज़्बातों की परवाह नहीं?"

    वह फिर से कमरे की बालकनी की ओर चली गई, अपनी उलझनों और सवालों में खोई हुई। उसकी आँखें अब भी दैविक के उस चेहरे को याद कर रही थीं, जो कल रात उसे इतनी नज़दीकी से महसूस हुआ था, लेकिन आज वह चेहरा फिर से एक अजनबी बन गया था।

    रात का समय था, और चाँद की हल्की रोशनी कमरे में फैली हुई थी। आस्था ने आज दैविक का बिल्कुल भी इंतज़ार नहीं किया। वह चुपचाप सोफे पर बैठकर आँखें बंद कर चुकी थी, शायद अपने विचारों और भावनाओं से थककर।

    उसका चेहरा शांत था, लेकिन मन में चल रहे विचारों का भंवर अभी भी स्पष्ट था। उसके कपड़े थोड़े अस्त-व्यस्त थे, और उसकी टी-शर्ट हल्की सी ऊपर खिसक गई थी। उसकी गोरी पतली कमर साफ चमक रही थी, जैसे चाँदनी रात की किरणें उसके शरीर पर गिर रही हों।

    कुछ देर बाद, दैविक कमरे में आया। उसने देखा कि आस्था सो रही थी, उसके चेहरे पर एक हल्की मुस्कान थी, लेकिन उसके कपड़ों की स्थिति ने उसकी नज़र खींच ली। आस्था की टी-शर्ट की हेमलाइन उसकी कमर से ऊपर खिसक गई थी, और यह दृश्य दैविक के दिल को धड़काने लगा।

    दैविक ने थोड़ा करीब जाकर उसे देखा। उसकी आँखों में एक अजीब सा जज़्बा था—एक तरफ़ आकर्षण और दूसरी ओर चिंतन।

    "यह लड़की कितनी मासूम है," उसने सोचा, "लेकिन मुझे इसकी मासूमियत पर बिल्कुल भी ध्यान नहीं देना हैं।"

    आस्था की गोरी त्वचा और उस पर पड़ने वाली चाँदनी की रोशनी ने दैविक को और भी आकर्षित किया। उसके दिल की धड़कनें तेज हो गईं, और उसे लगा कि वह इस पल को कुछ देर और जीना चाहता है।

    उसे खुद पर यकीन नहीं था। वह हमेशा से एक सख्त और नियंत्रित व्यक्ति रहा था, लेकिन आस्था के साथ रहते-रहते उसके मन में एक हलचल शुरू हो गई थी। वह धीरे से उसके करीब आया और उसकी सोफे की स्थिति को सही करने का फैसला किया।

    उसने अपनी उंगलियों से धीरे-धीरे आस्था की टी-शर्ट को नीचे खींचने का प्रयास किया, ताकि उसकी कमर ढकी रहे। लेकिन जैसे ही उसने उसे छुआ, आस्था हल्की सी हिली और उसके चेहरे पर एक हल्की मुस्कान आई। दैविक के दिल ने एक छलांग लगाई, जैसे वह किसी सपने में हो।

    "यह क्या कर रहा हूँ मैं?" उसने अपने आप से कहा, और एक पल के लिए उसे अपनी सख्ती पर खीझ आई। फिर उसने खुद को संभाला और जल्दी से अपना चेहरा फेर लिया और बाथरूम में घुस गया।

  • 10. अनकही डोर - Chapter 10

    Words: 1136

    Estimated Reading Time: 7 min

    कुछ देर बाद, दैविक बाथरूम से बाहर आया। उसने अपने मन को संयमित करने की कोशिश की, लेकिन उसकी आँखों में आस्था की छवि फिर से ताज़ा हो गई थी। वह उसकी मासूमियत और बेफिक्र मुस्कान को नहीं भूल पा रहा था। उसने सोचा कि उसे आस्था की तरफ ध्यान नहीं देना चाहिए, लेकिन उसके मन में चल रही हलचल को वह नज़रअंदाज़ नहीं कर पा रहा था।

    बाथरूम से बाहर आकर, दैविक ने अपने बालों को एक बार फिर से ठीक किया और बेड पर जाकर लैपटॉप खोला। उसने सोचा कि कुछ काम करके अपने दिमाग को भटका लेगा, ताकि वह आस्था के बारे में न सोच सके। लेकिन जैसे ही उसने लैपटॉप खोला, उसकी आँखें खुद-ब-खुद आस्था की तस्वीरों पर जा टिकीं, जो उसके फ़ोन में थीं।

    "नहीं, नहीं," उसने खुद से कहा, "तुम्हें इस पर ध्यान नहीं देना है। तुम्हें काम करना है। आस्था सिर्फ़ और सिर्फ़ मेरे मकसद का हिस्सा है।"
    उसने एक गहरी साँस ली और अपने काम पर ध्यान केंद्रित करने की कोशिश की।

    लैपटॉप में उसे कई ईमेल देखने थे। एक फंडिंग प्रोजेक्ट के लिए उसे कुछ रिपोर्ट्स तैयार करनी थीं, लेकिन उसका मन बिल्कुल भी काम में नहीं लग रहा था। हर कुछ मिनट में उसकी नज़रें आस्था की तरफ़ जातीं, जो सोफ़े पर सोई हुई थी। उसकी मासूमियत और शांति ने दैविक के दिल को फिर से छू लिया था।

    "यह क्या हो रहा है मुझे?" उसने सोचा। "क्यों मैं इतना बेबस महसूस कर रहा हूँ? मुझे इसे ऐसे नहीं सोचने देना चाहिए। मैं दैविक हूँ—एक मज़बूत, नियंत्रित इंसान।"

    लेकिन उसकी यह सोच भी उसके अंदर की हलचल को कम नहीं कर पाई थी। उसने फिर से काम पर ध्यान दिया। ईमेल का उत्तर देने लगा, फंडिंग प्रोजेक्ट की डिटेल्स चेक करने लगा, लेकिन उसे ऐसा महसूस हो रहा था कि वह कोई काम नहीं कर रहा है, बस एक दीवार पर लकीरें खींच रहा है।

    एक बार फिर, उसकी नज़र आस्था की ओर गई। उसकी गोरी त्वचा पर चाँदनी की रोशनी पड़ रही थी। दैविक ने सोचा, "क्या यह सही है? नहीं...ये बिलकुल भी सही नहीं है। आस्था सिर्फ़ और सिर्फ़ मेरी नफ़रत का हिस्सा है।"


    दैविक ने खुद को फिर से संजोते हुए, आस्था की ओर ध्यान दिया। उसकी आँखें अचानक से सख्त हो गईं, जैसे उसने अपने भीतर के भावनाओं के भंडार को एकदम से रोकने की ठान ली हो। "यह सब कुछ गलत है," उसने खुद से कहा। "आस्था के साथ मेरी कोई व्यक्तिगत संबंध नहीं हो सकता। यह सिर्फ़ एक निजी मामला नहीं है।"

    एक बार फिर, उसने काम पर ध्यान देने का प्रयास किया। "शायद मैं कुछ काम करूँ," उसने सोचा। उसने एक ईमेल खोलने की कोशिश की, लेकिन फिर से उसकी आँखें आस्था की तरफ़ चली गईं। वह अभी भी सोफ़े पर लेटी हुई थी, और उसके चेहरे पर एक संतोषजनक मुस्कान थी, जो उसके सपनों में खोई हुई प्रतीत हो रही थी।

    उसने लैपटॉप बंद कर दिया और कुर्सी से उठकर खिड़की के पास गया। बाहर की हवा में ताज़गी थी, लेकिन उसकी सोच में उथल-पुथल थी। "मैं इसे नहीं मान सकता," उसने खुद से कहा। "आस्था मेरी नफ़रत का हिस्सा है, और मुझे उसे अपने जीवन से बाहर रखना होगा।"

    बाहर खड़े होकर, उसने गहरी साँस ली। ठंडी हवा ने उसकी त्वचा को छू लिया था, लेकिन उसके दिल में हलचल अभी भी थी।

    उसने याद किया कि कैसे पहले उसने आस्था के साथ अपने उद्देश्यों को लेकर कितनी स्पष्टता से सोचा था। लेकिन अब, उसके विचार उसके नियंत्रण से बाहर होते जा रहे थे। उसने खुद से कहा, "मुझे मेरा मकसद जल्द ही ख़त्म करना होगा।"

    फिर उसने एक ठानी हुई आवाज़ में कहा, "मैं दैविक हूँ। मैं मज़बूत हूँ। और मेरा सिर्फ़ एक ही मकसद है।"


    कुछ देर बाद, दैविक ने कमरे की बत्तियाँ बंद कर दीं और बिस्तर पर लेट गया। उसकी आँखें बंद थीं, लेकिन उसके मन में आस्था की छवि अभी भी घूम रही थी। वह उसे भूलना चाहता था, लेकिन उसकी मासूमियत और सरलता ने उसे अपने जाल में फँसा लिया था।

    "यह क्या हो रहा है?" उसने अपनी सोच में बार-बार खुद से पूछा। "क्या मैं सच में उसके बारे में सोच रहा हूँ? क्या मैं अपनी भावनाओं को उसके साथ जोड़ने की कोशिश कर रहा हूँ?" उसने अपने मन को शांत करने का प्रयास किया, लेकिन आस्था की मुस्कान ने उसे और भी परेशान कर दिया था।

    बिस्तर पर लेटे-लेटे, दैविक ने अपने विचारों को संयमित करने का प्रयास किया। उसने खुद को याद दिलाया कि वह एक मज़बूत व्यक्ति है और उसका मुख्य उद्देश्य अपने काम पर ध्यान केंद्रित करना है। "काम, काम, काम," उसने अपने मन में कहा। लेकिन जैसे ही उसने अपनी आँखें खोलीं, वह फिर से आस्था की तस्वीरों पर ध्यान केंद्रित कर गया।

    उसकी आँखों में एक दृढ़ता थी, लेकिन भीतर की हलचल ने उसे परेशान कर रखा था। "क्या मैं अपनी नफ़रत में इतना डूब चुका हूँ कि यह आस्था का चेहरा ही मुझे बार-बार परेशान कर रहा है?" उसने सोचा। "क्या यह सब उसके लिए सही है? हाँ, शायद ऐसा ही है! मुझे जल्द से जल्द इस नफ़रत को ख़त्म करना होगा।" उसने एक गहरी साँस ली और खुद को पुनः प्रेरित करने का प्रयास किया।

    "मैं दैविक हूँ," उसने अपनी आँखें बंद करते हुए कहा। "मैं कमज़ोर नहीं हूँ। मुझे अपने मकसद पर ध्यान देना होगा।"

    कुछ मिनटों बाद, उसने खुद को संयमित करने की कोशिश की और सोचा, "ठीक है, मैं इसे ठीक करूँगा। बस एक बार और उसके चेहरे को देख लूँ।" उसने धीरे-से पलंग से उठकर आस्था की तरफ़ देखा। वह अभी भी सो रही थी, और उसकी नींद में एक अद्भुत शांति थी।

    "क्या मैं उसे सही में भूल सकता हूँ?" उसने अपने आप से पूछा। "क्या मेरी नफ़रत उस मासूम चेहरे के सामने टिक पाएगी?" उसके मन में एक हलचल हुई। दैविक ने फिर से अपने अंदर की आवाज़ को अनसुना करने की कोशिश की।

    "यह सब नफ़रत है," उसने खुद को याद दिलाया। "नफ़रत, जो मुझे उसके करीब नहीं आने देगी। यह सब एक खेल है।" उसने अपने मन को और मज़बूत बनाने का प्रयास किया।


    "नहीं," उसने खुद को कहा। "मुझे इसे ख़त्म करना होगा। मुझे अपने मकसद के लिए उसे भूलना होगा।"

    उसने एक बार फिर से बिस्तर पर लेटते हुए आँखें बंद कर लीं, लेकिन इस बार उसकी सोच ने उसे और भी परेशान कर दिया था। "मेरा मकसद सिर्फ़ और सिर्फ़ बर्बादी है?" उसने सोचा।

    "आस्था सिर्फ़ और सिर्फ़ मेरे मकसद का हिस्सा है... एक आस्था ही है जिसकी वजह से ही मैं उस ख़तरनाक शक्ति को जागृत कर सकता हूँ। और फिर मुझे मेरे मकसद से कोई भी नहीं रोक सकता। लेकिन आस्था को मेरी योजना की भनक बिलकुल भी नहीं लगनी चाहिए। मैं कौन हूँ...क्या हूँ...और किस वजह से हूँ। यह सिर्फ़ एक रहस्य ही रहेगा।"

  • 11. अनकही डोर - Chapter 11

    Words: 1453

    Estimated Reading Time: 9 min

    दैविक दैविक बिस्तर पर लेटा हुआ, अपनी धड़कनों को काबू में करने की कोशिश कर रहा था। लेकिन आस्था के बाहर आते ही जैसे वक्त ठहर गया। उसकी आँखों के सामने वो दृश्य किसी सम्मोहन की तरह छा गया। आस्था के शरीर से पानी की बूँदें गिर रही थीं, और उसके गीले बालों की लटें उसके गालों से होती हुई उसकी गर्दन पर आकर सिमट गई थीं। टॉवेल की हल्की पकड़ में उसके शरीर की हर लय, हर रूप, और हर खूबसूरती जैसे दैविक को अपनी ओर खींच रही थी।

    दैविक की नजरें उसके चेहरे से फिसलते हुए धीरे-धीरे नीचे उसके कंधों पर गईं, जहाँ से उसकी भीगी त्वचा चमक रही थी। उसकी साँसें भारी हो गईं, जैसे कोई उसे खींचकर पास ला रहा हो। आस्था की हरकतें धीरे-धीरे थीं; उसके कदम बहुत ही हलके और नर्म थे, लेकिन उसके आने की आहट दैविक के दिल की धड़कन को और तेज़ कर रही थी।

    आस्था की मासूमियत और उस पल की तीव्रता ने दैविक को पूरी तरह से बांध लिया। उसकी आँखें आस्था के हर मूवमेंट पर टिकी थीं, जैसे वह किसी ख्वाब में हो। आस्था पास आई। उसकी नज़रों में हल्की सी शरारत थी, लेकिन उसके चेहरे पर मासूमियत साफ दिख रही थी। उसने धीरे से अपने भीगे बालों को झटकते हुए कहा,
    "क्या देख रहे हो?"

    दैविक ने कोई जवाब नहीं दिया। उसकी नजरें अब भी आस्था के शरीर पर ही रुकी हुई थीं। आस्था की टॉवेल की पकड़ थोड़ी ढीली हो गई, और दैविक की सांसें और तेज हो गईं। आस्था ने उसके पास आकर उसकी आँखों में झाँकते हुए धीरे से पूछा,
    "क्यों चुप हो? कुछ बोलोगे नहीं?"

    दैविक ने बड़ी मुश्किल से अपनी नजरें हटाते हुए कहा,
    "तुम... तुम इतनी खूबसूरत कैसे हो सकती हो?"

    आस्था ने हल्की सी मुस्कान दी और उसके गालों पर लटें फिर से गिर गईं। दैविक के लिए वो मुस्कान और उसके गालों पर गिरती लटें जैसे कोई जादू थीं। वह एकदम पास आ गई और बोली,
    "बस ऐसे ही।"

    दैविक ने उसकी तरफ हाथ बढ़ाया, लेकिन उसे छूने से पहले ही आस्था ने उसकी कलाई पकड़ ली और बोली,
    "रुको... अभी नहीं।"

    अभी यह सब कुछ चल ही रहा था कि अचानक से कुछ गिरने की आवाज आई।

    धड़ाम...!

    दैविक ने जैसे ही अपनी आँखें खोलीं, उसने अपने सामने देखा... सोफे पर सोती हुई आस्था जमीन पर धड़ाम से गिर पड़ी।


    दैविक ने जब अपनी आँखें खोलीं, उसने अपने दिल की धड़कनों को काबू करने की कोशिश की। कमरे में हल्का अंधेरा था, और बाहर से आती हुई धीमी हवा की आवाज़ उसके सपने से बहुत अलग थी। उसके माथे पर पसीने की बूँदें थीं, जैसे वह किसी रोमांचक अनुभव से होकर गुजरा हो। उसने तुरंत सिर को बाईं तरफ मोड़कर देखा—आस्था सोफे पर गहरी नींद में सो रही थी, लेकिन अब वह फर्श पर गिरी हुई थी।

    दैविक ने अपनी आँखें मिचकाईं, जोर-जोर से रगड़ीं। "ओह थैंक गॉड! ये सिर्फ सपना था।"

    दैविक ने गहरी सांस ली।

    "आस्था!" दैविक ने तुरंत उठते हुए कहा, लेकिन उसकी आवाज़ में एक झिझक थी, सपने और हकीकत के बीच में उलझी हुई।

    आस्था ने अपने माथे पर हाथ रखते हुए आँखें खोलीं और हिचकिचाते हुए बोली,
    "ओह... मैं कहाँ हूँ?"

    वह अभी भी पूरी तरह होश में नहीं आई थी और उसके बाल बिखरे हुए थे। फर्श पर पड़े होने के बावजूद, उसकी मासूमियत और ठंडे बालों की छाप ने दैविक को फिर से उसके सपने की याद दिला दी।

    दैविक ने जल्दी से उसके पास जाकर उसे उठाने की कोशिश की।
    "तुम ठीक हो?" उसने गंभीरता से पूछा।

    आस्था ने हल्की सी शिकन के साथ कहा,
    "हाँ, मैं बिलकुल भी ठीक नहीं हूँ। सोफे से गिरी हूँ यार मैं... लगी है मुझे बड़े जोर की।"

    दैविक की आँखों में अचानक से एक अजीब सी चमक आ गई, जैसे उसे कुछ याद आ गया हो। आस्था की शिकायतें और उसकी चोट की परवाह करने के बजाय, दैविक अचानक से उठ खड़ा हुआ और बिना कुछ कहे सीधा बाथरूम की ओर भागा। आस्था ने हक्का-बक्का होकर उसे देखा,
    "अब ये क्या हो गया इसे?"

    उसकी आवाज में थोड़ी चिंता और अधिक हैरानी थी। बाथरूम का दरवाज़ा ज़ोर से बंद हुआ और अंदर से दैविक की तेज़-तेज़ साँसों की आवाज़ आ रही थी। उसने शीशे में खुद को देखा, और एक पल के लिए उसकी आँखों में वही सम्मोहन तैर गया जो उसने सपने में देखा था। उसका दिल फिर से तेज़ी से धड़कने लगा, जैसे वह उस सपने की गहराई में डूब गया हो। बाथरूम की ठंडी फर्श पर खड़े-खड़े उसकी साँसें असामान्य हो गईं।

    "ये क्या हो रहा है मुझे?" उसने खुद से बुदबुदाया, पानी की धार खोलते हुए उसने अपने चेहरे पर ठंडा पानी मारा। लेकिन उसके दिमाग में बहुत सारी चीज़ें चल रही थीं। वह खुद को संभालने की कोशिश कर रहा था।

    आस्था ने बाहर से दरवाज़ा खटखटाया,
    "दैविक, तुम ठीक हो? क्या हुआ अचानक?"

    उसकी आवाज़ में चिंता साफ झलक रही थी। दैविक ने झट से अपनी धड़कनों को काबू में करने की कोशिश की और जवाब दिया,
    "हाँ, हाँ, मैं ठीक हूँ..."

    आस्था ने सिर हिलाया और थोड़ी परेशान होकर सोफे पर वापस बैठ गई,
    "इस आदमी को अचानक से हो क्या जाता है?"

    उसकी आँखों में सवाल और बेचैनी थी, लेकिन वह खुद भी काफी थकी हुई महसूस कर रही थी। कुछ मिनटों के बाद, दैविक बाथरूम से बाहर आया। उसके चेहरे पर अब भी थोड़ी बेचैनी थी, पर उसने जबरन मुस्कुराने की कोशिश की। आस्था ने उसकी तरफ सवालिया निगाहों से देखा,
    "तुम ठीक हो ना?"

    दैविक ने लंबी साँस ली और थोड़ा सख्त होते हुए कहा,
    "हाँ, ठीक हूँ। तुम्हें मेरी परवाह करने की ज़रूरत नहीं है।"

    आस्था ने उसकी ओर देखा, उसकी आँखों में सवाल था, लेकिन दैविक के सख्त होने की वजह से वह चुप ही रही।


    दोपहर को आस्था कमरे में ही बैठ-बैठकर बोर हो रही थी। वह बार-बार दैविक के बारे में भी सोच रही थी। लेकिन दैविक का अचानक से बदलने वाला व्यवहार उसे अभी भी समझ नहीं आ रहा था।

    "कभी-कभी तो वह बड़े ही शांति से बात करता है... और फिर अचानक से एकदम सख्त... हुह्ह्ह ये इंसान आखिर चाहता क्या है। थोड़ा सा प्यार से बात कर लेगा तो क्या ही हो जाएगा इसका...!", आस्था खुद में ही बड़बड़ाए जा रही थी।

    "माना कि हमारी शादी सिर्फ एक साल का कॉन्ट्रैक्ट है लेकिन फिर भी... मैं नहीं चाहती कि हमारा रिश्ता सिर्फ एक कॉन्ट्रैक्ट बनकर रह जाए।"

    आस्था ने अपने मन में चल रही उथल-पुथल को शांत करने की कोशिश की, लेकिन दैविक का सख्त रवैया उसे लगातार परेशान कर रहा था। वह अपने कमरे में बैठी थी, और उसके दिल में दैविक के प्रति अनकही भावनाएँ उभर रही थीं।

    "क्या मैं उसे समझा पाऊँगी?" उसने सोचा। "क्या उसे यह एहसास दिला पाऊँगी कि हम सिर्फ एक कॉन्ट्रैक्ट के आधार पर नहीं, बल्कि एक रिश्ते के लिए भी बने हैं?"

    उसने खुद से कहा, "अगर वह मेरे बारे में सोचता है, तो उसे यह भी समझना चाहिए कि मैं उससे कितनी परवाह करती हूँ। शादी का यह साल हमारी जिंदगी का एक अहम हिस्सा है।"

    आस्था ने अपने दिल की धड़कनों को काबू में करने की कोशिश की और अपने मन को साफ करने का निर्णय लिया। "मुझे दैविक से बात करनी होगी, लेकिन वह अचानक से सख्त हो जाता है... फिर मेरे मुँह से चाहकर भी कोई शब्द नहीं निकलते।"

    उसने अपने बालों को ठीक किया और खुद को तैयार करते हुए बाथरूम में गई। वह सोच रही थी कि अगर वह अपनी भावनाओं को सही तरीके से व्यक्त कर सकेगी, तो शायद दैविक भी अपने अंदर की बातों को साझा कर सके।

    "और पूरा दिन कमरे में रह-रहकर मैं तो बोर हो ही जाती हूँ... यह मम्मी जी भी घर में कोई काम नहीं करने देतीं और चुपचाप कमरे में आराम करने का कहती हैं। आराम कर-कर के मैं तो परेशान हो गई। और कितना आराम करूँ भई मैं!"

    "एक काम करती हूँ, आज माँ से मिलने जाती हूँ घर पर... उनको ही पड़ी थी ना यह कॉन्ट्रैक्ट मैरिज करवाने की।"

    थोड़ी देर बाद तैयार होकर आस्था अपनी माँ से मिलने के लिए जाने लगी।


    जैसे ही वह अपने पुराने घर के पास पहुँची, उसकी धड़कनें तेज़ हो गईं। उसने गहरी सांस ली और दरवाजे पर दस्तक दी।

    अंदर से कोई जवाब नहीं आया। आस्था ने फिर से दरवाजा खटखटाया, लेकिन कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली। चिंता में डूबी, उसने सोचा कि शायद उसकी माँ कहीं बाहर गई हैं। तभी अचानक, पड़ोसी ने उसे देखा और कहा,
    "अरे आस्था बेटा तुम? तुम्हारी माँ तो यहाँ से चली गई हैं। वह अब नए बंगले में रहती हैं।"


    आगे क्या होगा जानने के लिए अगले भाग का इंतज़ार करते रहिए साथ ही समीक्षा भी करते रहिए।

  • 12. अनकही डोर - Chapter 12

    Words: 1107

    Estimated Reading Time: 7 min

    आस्था ने चौंकते हुए पूछा, "नया बंगला? वो कहाँ है, आंटी?"

    पड़ोसी ने एक दिशा दिखाई। आस्था ने तुरंत वहाँ जाने का निश्चय किया। उसने सोचा कि शायद उसकी माँ ने उसे कुछ बताने का सोचा होगा, या फिर किसी तरह से वह समझा पाती कि वह क्या कर रही थी।


    आस्था पड़ोसी से मिली जानकारी के बाद तेजी से नए बंगले की ओर बढ़ी। उसके मन में अनगिनत सवाल थे। उसकी माँ ने अचानक नया बंगला क्यों खरीदा था? क्या वह उसे बताने के लिए तैयार थीं, या फिर कुछ छुपा रही थीं? आस्था की धड़कनें तेज़ हो गईं। जब वह बंगले के पास पहुँची, तो उसे देखकर हैरानी हुई। यह एक बड़ा, शानदार बंगला था, जिसके सामने हरे-भरे बागीचे थे।

    गेट पर एक गार्ड ने उसे रोका।
    "कहाँ जा रही हो?" गार्ड ने सख्ती से पूछा।

    "मैं आशा जी की बेटी हूँ," आस्था ने कहा, अपनी आवाज़ में विश्वास लाते हुए।

    गार्ड ने थोड़ी देर उसके चेहरे को ध्यान से देखा, फिर उसे अंदर जाने दिया। आस्था ने एक गहरी साँस ली और धीरे-धीरे बंगले के अंदर दाखिल हुई। अंदर का माहौल बहुत ही भव्य था। दीवारों पर महंगे पेंटिंग्स लटके हुए थे और फर्श पर चिकनी संगमरमर की टाइल्स थीं।

    अंदर जाकर उसे अपनी माँ का स्वर सुनाई दिया।
    "आओ, बेटा, तुम यहाँ आ गई!"

    उसकी माँ, आशा जी, एक व्हाइट क्रॉप टॉप और रेड लंबी स्कर्ट पहनी हुई थीं। उनकी इस नई अवतार को देखकर आस्था चौंक गई।

    "माँ, ये आप...?" आस्था ने आश्चर्य से कहा।

    आशा जी ने मुस्कराते हुए कहा, "हाँ, मेरी बच्ची। ये सब पैसों का खेल है। मैं अब बहुत खुश हूँ। तुम्हारी शादी दैविक से हुई, और दैविक ने ही ये बंगला मेरे नाम किया है।"

    आस्था के मन में एक साथ कई भावनाएँ उमड़ पड़ीं। उसे गुस्सा आ रहा था।
    "क्या आपको इस सब की कोई परवाह नहीं है? दैविक का मुझसे व्यवहार कैसा है, आपको पता है? वो कभी प्यार से बात नहीं करता, और आप ...आप ये बस ...पैसे और बंगले के बारे में सोच रही हैं!"

    आशा जी ने उसे समझाने की कोशिश की।
    "बेटा, देखो, दैविक एक अच्छा लड़का है। उसने हमें ये सब दिया है। यह सब हमारे लिए है।"

    "लेकिन माँ, रिश्ता सिर्फ पैसों पर नहीं बनता। आपको मेरी भावनाओं का कोई ख्याल नहीं है?" आस्था ने कहा, उसकी आवाज़ में नफरत थी।

    आशा जी ने उसे गुस्से से देखा।
    "आस्था, तुम नहीं समझ रही हो। यह तुम्हारे भविष्य का सवाल है। दैविक एक सफल आदमी है, और तुम उसके साथ रहकर जीवन को बेहतर बना सकती हो।"

    आस्था ने गहरी साँस ली।
    "क्या आपको नहीं लगता कि रिश्ते में प्यार और सम्मान होना चाहिए? क्या आपने कभी सोचा है कि दैविक मुझसे क्या चाहता है?"

    आशा जी ने हल्का सा हंसते हुए कहा, "तुम्हारी शादी एक कॉन्ट्रैक्ट है, लेकिन इससे तुम्हारा जीवन सुखद हो सकता है। तुम इसे समझने की कोशिश करो।"

    आस्था का गुस्सा बढ़ता गया।
    "सुखद जीवन? क्या आप मुझे एक ऐसे व्यक्ति के साथ रहने के लिए मजबूर करना चाहती हैं, जो मुझसे प्यार नहीं करता? मैं ऐसा नहीं चाहती!"

    आशा जी ने उसकी आँखों में देखकर कहा, "बेटा, कभी-कभी हमें समझौता करना पड़ता है। तुम अभी युवा हो, तुम समझ नहीं रही हो।"

    आस्था ने अपनी माँ की बातों को सुनकर मन में ठान लिया।
    "अगर दैविक ऐसा ही है, तो मुझे उसे समझाना होगा। मैं उसे बता दूँगी कि मेरा जीवन सिर्फ एक कॉन्ट्रैक्ट के लिए नहीं है।"

    उसने फैसला किया कि वह दैविक से सीधे बात करेगी।
    "मैं अपने रिश्ते को एक मौका दूंगी, लेकिन मुझे दैविक के असली रूप को जानने की जरूरत है।"

    आशा जी ने उसकी भावनाओं को नज़रअंदाज़ करते हुए कहा, "ठीक है, लेकिन तुम दैविक से सही तरीके से बात करना। नहीं तो पता चला कि दैविक ये बंगला भी वापस ले लें।"


    आस्था ने गहरी साँस ली और अपने गुस्से को काबू करने की कोशिश की। उसकी माँ की बातें सुनकर उसे ऐसा लग रहा था कि उसकी भावनाओं की कोई अहमियत नहीं है।

    "माँ आपको अभी भी इन पैसों और बंगले की पड़ी है!"

    आशा जी ने उसकी आँखों में देखा और हल्की मुस्कान के साथ बोलीं, "बेटा, जब हमारे पास पैसे होते हैं, तो खुश रहना और भी आसान हो जाता है। तुमने कभी अपने भविष्य के बारे में नहीं सोचा है ना इसीलिए तुम्हें नहीं पता।"

    "माँ, मेरा भविष्य सिर्फ पैसों में नहीं बंधा है। दैविक के साथ मेरा रिश्ता भावनाओं का होना चाहिए, ना कि केवल एक कॉन्ट्रैक्ट का।" आस्था ने अपनी आवाज़ में दृढ़ता लाते हुए कहा।

    आशा जी ने एक क्षण के लिए उसकी बातों पर ध्यान दिया, लेकिन फिर हंसते हुए बोलीं, "तुम अब भी छोटी हो, आस्था। प्यार का क्या? प्यार के बारे में तुम एक दिन समझोगी। दैविक एक अच्छा लड़का है, और तुम्हारी शादी एक बेहतरीन अवसर है।"

    "लेकिन माँ," आस्था ने अपनी आवाज़ को और ऊँचा किया, "आप समझती नहीं हैं! दैविक मुझसे प्यार नहीं करता। वो मुझसे कभी प्यार से बात नहीं करता। और आप इस रिश्ते को केवल पैसे और बंगले के नजरिए से देख रही हैं। क्या आप मेरी भावनाओं की कद्र नहीं कर सकती?"

    आशा जी ने गहरी साँस ली और कहा, "देखो, आस्था। तुम अपनी भावनाओं को समझो, लेकिन साथ ही यह भी समझो कि जीवन में कभी-कभी समझौते करने पड़ते हैं। दैविक का बंगला और उसका पैसा तुम्हारे लिए एक सुरक्षित भविष्य सुनिश्चित कर सकता है।"

    आस्था ने नकारात्मकता से सिर हिलाया।
    "माँ, क्या आप सच में सोचती हैं कि मैं इस सब के लिए दैविक से शादी की थी? क्या आप चाहती हैं कि मैं इस रिश्ते को केवल एक सौदे के रूप में स्वीकार करूँ?"

    आशा जी ने उसे समझाने की कोशिश की।
    "आस्था, तुम क्या चाहती हो? क्या तुम एक ऐसे लड़के के साथ रहना चाहती हो जो तुम्हें भावनात्मक रूप से नहीं समझता, लेकिन तुम्हारे लिए एक स्थिरता लाता है?"

    "माँ, मुझे ऐसा लड़का नहीं चाहिए जो मेरी भावनाओं को न समझे। मैं दैविक से बात करूँगी और उसे बताऊँगी कि मुझे उसके सख्त रवैये से कितनी परेशानी है।" आस्था ने दृढ़ता से कहा।

    आशा जी ने चिंतित होते हुए कहा, "लेकिन तुम ऐसा मत करो। दैविक से बातें करते समय सावधान रहना। वह अपने तरीके से ही सोचता है।"

    आस्था ने अपने मन में ठान लिया कि वह दैविक से अपनी भावनाएँ स्पष्ट करेगी।
    "मैं उसके सामने अपनी बात रखूँगी, और मैं उसे यह समझाने की कोशिश करूँगी कि मेरा जीवन केवल पैसे और बंगले के ऊपर आधारित नहीं है।"

  • 13. अनकही डोर - Chapter 13

    Words: 1172

    Estimated Reading Time: 8 min

    रात का समय था। आस्था अपने कमरे में चहलकदमी कर रही थी। उसकी आँखें बार-बार दरवाजे की ओर जा रही थीं, पर दैविक अभी तक नहीं आया था। उसके मन में चिड़चिड़ापन बढ़ रहा था।

    "ये दैविक आ क्यों नहीं रहा है? मुझे उसे बहुत कुछ सुनाना है। जिंदगी सिर्फ पैसों पर नहीं चलती... और मेरी माँ तो पैसों के पीछे पागल हो बैठी है," उसने अपने आप से गुस्से में कहा।

    आस्था ने सोचा कि जब वह दैविक से मिलेगी, तो उसे अपनी भावनाएँ स्पष्ट करने का एक मौका मिलेगा। उसे उम्मीद थी कि वह अपनी बात कहेगी और शायद दैविक उसकी भावनाओं को समझ सकेगा।

    जैसे ही दरवाजे की आवाज़ आई, आस्था का दिल तेज़ी से धड़कने लगा। वह दरवाजे की ओर बढ़ी और दरवाजा खोला। दैविक ने अंदर कदम रखा, और उसकी उपस्थिति से आस्था के मन में और भी सवाल उठने लगे।

    "कहाँ थे तुम?" आस्था ने उसे देखते ही कहा, उसके स्वर में चिढ़ और गुस्सा था।

    दैविक ने नज़रें उठाते हुए कहा, "मैं कुछ काम से बाहर था।" उसकी आवाज़ में एक ठंडा और सख्त लहजा था, जैसे वह इस बातचीत में नहीं पड़ना चाहता हो।

    "काम से बाहर? तुम हमेशा काम की बात करते हो, क्या तुम्हारे पास मेरे लिए समय नहीं है?" आस्था ने अपनी आवाज़ और ऊँची की।

    "आस्था, तुम जानती हो कि मेरा काम कितना महत्वपूर्ण है," दैविक ने बिना कोई इमोशन दिखाए कहा।

    "महत्वपूर्ण? और क्या मेरा कोई महत्व नहीं है...हैना?" आस्था ने कहा, उसका गुस्सा और बढ़ गया। "तुम सिर्फ अपने काम में लगे रहते हो, लेकिन मेरे लिए तुम्हारी कोई परवाह नहीं है।"

    दैविक ने ठंडे स्वर में कहा, "मैंने कहा न, मैं अपने काम में व्यस्त था। तुम इसे समझने की कोशिश करो।"

    "समझने की कोशिश? क्या तुम ये समझने की कोशिश कर रहे हो कि मैं तुम्हें कितना चाहती हूँ? या तुम ये सोच रहे हो कि हमारे रिश्ते की कोई अहमियत नहीं है?" आस्था ने अपनी आवाज़ में निराशा और गुस्सा मिलाते हुए कहा।

    "आस्था, हमारी शादी एक कॉन्ट्रैक्ट है। तुम इसे समझने की कोशिश करो। तुम इसे व्यक्तिगत क्यों ले रही हो?" दैविक ने कहा, उसकी आँखों में कोई भावना नहीं थी।

    "क्योंकि यह मेरे लिए व्यक्तिगत है!" आस्था ने कहा। "क्या तुम नहीं समझते? मैं तुमसे प्यार करना चाहती हूँ, लेकिन तुम हमेशा मुझसे सख्ती से बात करते हो। क्या तुम मुझसे कभी प्यार से बात कर सकते हो? क्या तुम्हारी आँखों में मेरी कोई अहमियत नहीं है?"

    दैविक ने उसकी बातों को सुनकर एक गहरी साँस ली। "आस्था, तुम समझ नहीं रही हो। मैं अपने काम और इस रिश्ते को लेकर गंभीर हूँ। तुम बस एक भावना को नकार रही हो।"

    "मैं भावना को नकार नहीं रही हूँ! मैं चाहती हूँ कि तुम मुझसे प्यार से बात करो, कि तुम मुझे समझो। यह सिर्फ कॉन्ट्रैक्ट जाए भाड़ में।" आस्था ने कहा, उसकी आँखों में आँसू आ गए।

    दैविक ने फिर से अपनी आँखें बंद कीं, जैसे वह उसके शब्दों को सुनने के लिए तैयार नहीं था। "आस्था, मैंने तुम्हें पहले दिन ही कहा था कि प्यार के लिए मेरे दिल में कोई जगह नहीं है। प्यार इंसान को सिर्फ और सिर्फ कमजोर करता है।"

    "आस्था, मैंने तुम्हें पहले दिन ही कहा था कि प्यार के लिए मेरे दिल में कोई जगह नहीं है। प्यार इंसान को सिर्फ और सिर्फ कमजोर करता है," दैविक ने अपनी सख्त आवाज़ में कहा, उसके चेहरे पर कोई भावनाएँ नहीं थीं।

    आस्था का दिल टूट गया। "क्या तुम सच में ऐसा सोचते हो? क्या तुम्हें विश्वास नहीं है कि प्यार हमें मजबूत बना सकता है? क्या तुमने कभी इस पर विचार किया है?" उसने कहा, उसके स्वर में पीड़ा थी।

    "मैंने अपने करियर और अपने लक्ष्यों के लिए कई बलिदान दिए हैं। प्यार सिर्फ एक और चीज़ है जो मुझे कमजोर बना सकती है। तुम समझ नहीं रही हो," दैविक ने कहा।

    "मैं समझ रही हूँ, लेकिन क्या तुम यह नहीं समझते कि हम इस रिश्ते में एक-दूसरे के लिए हैं? क्या तुम्हें यह नहीं लगता कि हमें एक दूसरे का साथ देना चाहिए?" आस्था ने आँसू पोछते हुए कहा।

    "हमारे बीच एक कॉन्ट्रैक्ट है, आस्था। यह एक बिजनेस एग्रीमेंट है। तुम्हें यह समझना होगा," दैविक ने फिर से अपनी बात दोहराई।

    "बिजनेस एग्रीमेंट? क्या तुम मेरी भावनाओं को इतनी आसानी से नकार सकते हो? क्या तुम मुझे केवल एक कॉन्ट्रैक्ट समझते हो?" आस्था ने गुस्से में कहा।

    "तुम खुद को धोखा दे रही हो। तुम जानती हो कि हमारा रिश्ता सिर्फ एक कागज पर लिखा हुआ है। मैं तुम्हारी भावनाओं की कद्र करता हूँ, लेकिन मैं तुम्हें यह नहीं दे सकता जो तुम चाहती हो," दैविक ने सख्त लहजे में कहा।

    आस्था ने उसे देखते हुए कहा, "तो, क्या मैं तुम्हारे लिए सिर्फ एक फॉर्मैलिटी हूँ? क्या तुमने कभी मेरे बारे में सोचा है? जब तुम मुझसे बात करते हो, तो तुम मुझमें क्या देखते हो?"

    दैविक ने उसकी आँखों में देखते हुए कहा, "मैं तुम्हें एक अच्छी पत्नी के रूप में देखता हूँ, जो मेरे साथ इस कॉन्ट्रैक्ट को निभा सकती है। लेकिन प्यार की बातें मत करो, क्योंकि यह हमारे लिए सही नहीं है।"

    "तो तुम्हारे लिए मैं बस एक पत्नी हूँ, कुछ और नहीं? तुम्हें यह नहीं लगता कि रिश्ते में दोस्ती और समझ भी होनी चाहिए?" आस्था ने कहा, उसकी आवाज़ में निराशा थी।

    "दोस्ती और समझ? यह सब बातें हैं। जब तुम्हारी इच्छाएँ पूरी नहीं होतीं, तो क्या दोस्ती काम आती है?" दैविक ने उत्तर दिया, उसकी आवाज़ में कोई करुणा नहीं थी।

    "मैं तुमसे प्यार करती हूँ, दैविक। मैं तुमसे चाहती हूँ कि तुम मुझे प्यार से सुनो, और तुम्हें यह समझना चाहिए कि प्यार जरूरी है। अगर तुम मुझे प्यार नहीं कर सकते, तो कम से कम मेरी भावनाओं का सम्मान करो!" आस्था ने कहा, उसका गुस्सा अब पीड़ा में बदल चुका था।

    "मैं तुम्हारी भावनाओं का सम्मान करता हूँ, लेकिन मैं नहीं बदल सकता। मैं वही हूँ जो मैं हूँ। तुम मुझसे जो चाहती हो, वो संभव नहीं है," दैविक ने कहा, उसकी आवाज़ में कोई इमोशन नहीं था।

    "क्या तुम्हें यह नहीं लगता कि तुम अपने आप को बंदिश में बांध रहे हो? प्यार से बचने की कोशिश कर रहे हो, जबकि प्यार ही तुम्हारी ज़िंदगी को पूर्ण कर सकता है?" आस्था ने कहा, उसकी आँखें अब गीली हो गई थीं।

    "मैंने अपने करियर के लिए बहुत संघर्ष किया है। प्यार की कोई जगह नहीं है," दैविक ने कहा, लेकिन उसकी आवाज़ में एक हल्का सा कंपकंपी थी, जैसे वह किसी बात का दबाव महसूस कर रहा हो।

    "क्या तुमने कभी अपने दिल की सुनने की कोशिश की है? क्या तुमने कभी सोचा है कि तुम एक दिन इस कड़वाहट से बाहर निकलोगे?" आस्था ने कहा, उसकी आवाज़ में उदासी थी।

    "यह मेरी ज़िंदगी है, आस्था। मैं इसे अपने तरीके से जीना चाहता हूँ। तुम मुझे समझने की..."

    लेकिन दैविक की बातें उसके मुँह में ही रह गईं। और उसकी आँखें हैरानी से चौड़ी हो गईं।

  • 14. अनकही डोर - Chapter 14

    Words: 1232

    Estimated Reading Time: 8 min

    “यह मेरी ज़िंदगी है, आस्था। मैं इसे अपने तरीके से जीना चाहता हूँ। तुम मुझे समझने की…”

    उसकी बात अधूरी रह गई क्योंकि आस्था ने अचानक उसकी ओर बढ़कर उसके होंठों पर अपने होंठ रख दिए। यह एक क्षणिक इम्पल्सिव क्रिया थी, दैविक के लिए एक झटके के समान।

    आस्था का स्पर्श गहरा था, जैसे वह अपने भीतर की सारी भावनाएँ उसी एक पल में उंडेल देना चाहती हो। उसके होंठों का स्पर्श गर्म और तीव्र था।

    दैविक के लिए यह सब अचानक था। वह समझ नहीं पा रहा था कि क्या हो रहा है। उसका दिल तेज़ी से धड़क रहा था, और आस्था की गर्मी ने उसे पूरी तरह से एक अलग दुनिया में धकेल दिया। वह चाहता था कि यह पल कभी खत्म न हो, लेकिन अचानक उसे अपने सिर में एक तेज खींचाव महसूस हुआ। उसकी आँखें धीरे-धीरे लाल होने लगीं, और उसने महसूस किया कि उसकी साँसें असामान्य हो रही हैं।

    उसकी आँखों में घबराहट थी, लेकिन आस्था के होंठों के स्पर्श ने उसे एक अलग ही अनुभव कराया था। वह एक अजीब सी सिहरन में डूबने लगा।

    लेकिन तभी दैविक के चेहरे पर अचानक एक परिवर्तन आया। उसके चेहरे का रंग बदलने लगा, और वह नीचे की ओर झुकने लगा। आस्था ने देखा कि दैविक का शरीर अस्थिर हो रहा है।

    "दैविक!" वह चौंकी और तुरंत उससे अलग हो गई। "क्या हुआ?" उसने उसकी ओर देखते हुए कहा, उसकी आँखें भय से भर गई थीं।

    दैविक ने एक हल्की सी हिचकी ली, और उसके चेहरे पर हल्की सी घबराहट थी। वह अपने पैरों पर खड़ा रहने की कोशिश कर रहा था, लेकिन उसकी आँखें अब पूरी तरह से लाल हो गई थीं।

    आस्था का दिल तेज़ी से धड़कने लगा। वह तुरंत दैविक के पास गई और उसे पकड़ने की कोशिश की, लेकिन दैविक अब पूरी तरह से बेहोश हो गया। वह बिना चेतना के उसके पास गिर पड़ा।

    "नहीं, दैविक!" आस्था ने उसे पकड़ते हुए कहा। वह पूरी तरह से घबरा गई थी। उसकी आँखों में आंसू थे, और उसका दिल धड़क रहा था। उसने दैविक को झकझोरने की कोशिश की। "दैविक, उठो! प्लीज़, उठो!"

    लेकिन दैविक के शरीर में कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई। आस्था ने महसूस किया कि दैविक की त्वचा ठंडी हो रही थी, और वह पैनिक में आ गई। उसने तुरंत अपना फोन निकाला और डॉक्टर को कॉल करने के लिए दौड़ी।

    "प्लीज़ जल्दी आओ! मेरे पति बेहोश हो गए हैं!" उसने बेताब आवाज में कहा। उसका दिल तेज़ी से धड़क रहा था, और वह दैविक के चेहरे को देख रही थी, जो अब भी बेहोश था।

    आस्था ने आँखों में आंसू लेकर दैविक के चेहरे को देखा। वह चाहती थी कि सब कुछ ठीक हो जाए।

    "मैं तुमसे प्यार करती हूँ, दैविक," उसने धीरे से कहा, "प्लीज़, वापस आओ। मैं तुम्हें नहीं खोना चाहती।"

    कुछ ही क्षणों में, डॉक्टर वहाँ पहुँचे। उन्होंने दैविक की स्थिति को देखकर तुरंत उसे जांचा। "क्या होगा? क्या वह ठीक है?" आस्था ने दरवाजे पर खड़े होकर घबराहट से डॉक्टर से पूछा।

    आस्था की घबराहट बढ़ती जा रही थी। डॉक्टर ने दैविक की स्थिति की जांच करने के बाद आश्वासन दिया, "सब कुछ सामान्य है। वह बेहोश हो गया है, लेकिन सुबह तक होश आ जाएगा। चिंता न करें।" डॉक्टर ने दैविक को देखकर कुछ दवाइयाँ लिखीं और वहाँ से चले गए।

    आस्था ने राहत की साँस ली, लेकिन उसका मन अभी भी अशांत था। वह दैविक के बिस्तर के पास बैठ गई, उसके हाथ को धीरे-धीरे पकड़ते हुए। उसकी आँखों से आँसू बहने लगे, और वह दैविक के चेहरे को ध्यान से देख रही थी। "प्लीज़, जल्दी ठीक हो जाओ," उसने मन में कहा।

    आँसुओं की बूँदें दैविक के हाथ पर गिरीं, और आस्था ने महसूस किया कि वह कितना कमजोर महसूस कर रही थी। उसे याद आया वह दिन जब दैविक ने उसे चूमा था, और वह तब भी अचानक बेहोश हो गया था। उस पल ने उसके जीवन को बदल दिया था। वह अपनी भावनाओं को समझने लगी थी, लेकिन आज उसे दैविक की हालत देखकर दुख हो रहा था।

    वह सोचने लगी कि जब दैविक ने उसे चूमा था, तो उसका दिल कितनी तेज़ी से धड़क रहा था। उस दिन वह एक अजीब सी खुशी महसूस कर रही थी, जैसे उसने अपने दिल के दरवाजे को खोल दिया हो। लेकिन अब, उसकी आँखों में आँसू थे, और दिल में दर्द था।

    आस्था ने दैविक के बालों में हाथ फेरते हुए धीरे से कहा, "दैविक तुम नहीं जानते कि मैं तुमसे कितना प्यार करती हूँ? क्या तुम्हें कभी भी यह महसूस नहीं हुआ?"

    वह दैविक के चेहरे को अपनी आँखों से पढ़ने की कोशिश कर रही थी, जैसे वह किसी संकेत की तलाश कर रही हो। "मैं तुमसे प्यार करती हूँ," उसने फिर से कहा, "तुम्हारे बिना मैं अधूरी हूँ।"

    कुछ क्षणों बाद, आस्था ने धीरे-धीरे दैविक के हाथ को अपने गालों से लगा लिया, और कहा, "मैं जानती हूँ कि तुम मुझसे दूर रहना चाहते हो, लेकिन मैं तुम्हें छोड़ नहीं सकती। प्लीज़, जल्दी ठीक हो जाओ।"

    वह लगातार दैविक के चेहरे को देख रही थी, उसके हृदय की धड़कन तेज़ थी। उसे लगा जैसे दैविक की धड़कनें उसके साथ मिलकर चल रही हैं।

    उसके दिल में गहरी भावनाएँ उमड़ने लगीं, और वह सोचने लगी कि क्या दैविक कभी उसकी भावनाओं को समझेगा। क्या वह कभी प्यार को अपना सकता है? क्या वह कभी उसे स्वीकार करेगा?

    उसकी आँखें फिर से भर आईं, और उसने एक बार फिर दैविक के हाथ को पकड़ लिया। वह उसे नहीं छोड़ना चाहती थी। "मैं तुमसे वादा करती हूँ, दैविक। मैं तुम्हें कभी अकेला नहीं छोड़ूंगी। चाहे कुछ भी हो, मैं हमेशा तुम्हारे साथ रहूँगी।"

    आस्था ने अपनी आँखें बंद कीं और अपनी सारी भावनाएँ उस पर उंडेलने लगी। "मैं तुम्हें खोना नहीं चाहती। तुम मेरे लिए सब कुछ हो।"

    एक पल के लिए, उसे लगा जैसे दैविक की धड़कनें कुछ बदल रही हैं। उसने अपनी आँखें खोलीं, और देखा कि दैविक के चेहरे पर हल्की सी हलचल हो रही है। "दैविक?" उसने धीरे से पुकारा।

    लेकिन दैविक की आँखें अभी भी बंद थीं। वह चाहती थी कि वह उठे और उसे उसकी बातें समझे। उसने दैविक के बालों को फिर से सहलाया, जैसे वह उसे प्यार से जगाने की कोशिश कर रही हो।

    "मैं तुम्हारे लिए यहाँ हूँ, दैविक। तुम मुझे छोड़कर मत जाओ। मैं तुमसे प्यार करती हूँ। तुम्हारे बिना मैं अधूरी हूँ," उसने कहा, और उसके आँसू फिर से बहने लगे।

    आस्था ने एक बार फिर दैविक के हाथ को अपने गालों से लगाया और धीरे से कहा, "मैं तुमसे वादा करती हूँ, जब तुम उठोगे, मैं तुम्हें अपने दिल की सारी बातें बताऊँगी। तुम्हारे बिना, मैं अधूरी हूँ। मुझे तुम्हारे प्यार की ज़रूरत है।"

    आस्था ने आँसू पोछते हुए दैविक की आँखों में देखा और खुद को सांत्वना देने की कोशिश की। वह अपने प्यार में विश्वास रखती थी कि एक दिन दैविक भी उसकी भावनाओं को समझेगा।

    वह चाहती थी कि दैविक जल्दी ठीक हो जाए, ताकि वह उसे बता सके कि वह कितनी खुशकिस्मत है कि उसने उसे पाया। वह अपने जीवन में उसके महत्व को समझती थी, और वह चाहती थी कि वह भी उसे अपनी ज़िंदगी में अपनी अहमियत दे।

    उसने फिर से दैविक के हाथ को अपने हाथों में लिया और धीरे-धीरे उसकी हथेलियों को सहलाने लगी। "मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकती, दैविक। प्लीज़, जल्दी ठीक हो जाओ।"

  • 15. अनकही डोर - Chapter 15

    Words: 1232

    Estimated Reading Time: 8 min

    “यह मेरी ज़िंदगी है, आस्था। मैं इसे अपने तरीके से जीना चाहता हूँ। तुम मुझे समझने की…”

    उसकी बात अधूरी रह गई क्योंकि आस्था ने अचानक उसकी ओर बढ़कर उसके होंठों पर अपने होंठ रख दिए। यह एक क्षणिक इम्पल्सिव क्रिया थी, दैविक के लिए एक झटके के समान।

    आस्था का स्पर्श गहरा था, जैसे वह अपने भीतर की सारी भावनाएँ उसी एक पल में उंडेल देना चाहती हो। उसके होंठों का स्पर्श गर्म और तीव्र था।

    दैविक के लिए यह सब अचानक था। वह समझ नहीं पा रहा था कि क्या हो रहा है। उसका दिल तेजी से धड़क रहा था, और आस्था की गर्मी ने उसे पूरी तरह से एक अलग दुनिया में धकेल दिया। वह चाहता था कि यह पल कभी खत्म न हो, लेकिन अचानक उसे अपने सिर में एक तेज खींचाव महसूस हुआ। उसकी आँखें धीरे-धीरे लाल होने लगीं, और उसे अपनी साँसों का असामान्य होना महसूस हुआ।

    उसकी आँखों में घबराहट थी, लेकिन आस्था के होंठों के स्पर्श ने उसे एक अलग ही अनुभव कराया था। वह एक अजीब सी सिहरन में डूबने लगा।

    लेकिन तभी दैविक के चेहरे पर अचानक परिवर्तन आया। उसके चेहरे का रंग बदलने लगा, और वह नीचे की ओर झुकने लगा। आस्था ने देखा कि दैविक का शरीर अस्थिर हो रहा है।

    "दैविक!" वह चौंकी और तुरंत उससे अलग हो गई। "क्या हुआ?" उसने उसकी ओर देखते हुए कहा, उसकी आँखें भय से भर गई थीं।

    दैविक ने एक हल्की सी हिचकी ली, और उसके चेहरे पर हल्की सी घबराहट थी। वह अपने पैरों पर खड़ा रहने की कोशिश कर रहा था, लेकिन उसकी आँखें अब पूरी तरह से लाल हो गई थीं।

    आस्था का दिल तेजी से धड़कने लगा। वह तुरंत दैविक के पास गई और उसे पकड़ने की कोशिश की, लेकिन दैविक अब पूरी तरह से बेहोश हो गया। वह बिना चेतना के उसके पास गिर पड़ा।

    "नहीं, दैविक!" आस्था ने उसे पकड़ते हुए कहा। वह पूरी तरह से घबरा गई थी। उसकी आँखों में आंसू थे, और उसका दिल धड़क रहा था। उसने दैविक को झकझोरने की कोशिश की। "दैविक, उठो! प्लीज़, उठो!"

    लेकिन दैविक के शरीर में कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई। आस्था ने महसूस किया कि दैविक की त्वचा ठंडी हो रही है, और वह पैनिक में आ गई। उसने तुरंत अपना फोन निकाला और डॉक्टर को कॉल करने के लिए दौड़ी।

    "प्लीज़ जल्दी आओ! मेरे पति बेहोश हो गए हैं!" उसने बेताब आवाज में कहा। उसका दिल तेजी से धड़क रहा था, और वह दैविक के चेहरे को देख रही थी, जो अब भी बेहोश था।

    आस्था ने आँखों में आंसू लेकर दैविक के चेहरे को देखा। वह चाहती थी कि सब कुछ ठीक हो जाए।

    "मैं तुमसे प्यार करती हूँ, दैविक," उसने धीरे से कहा, "प्लीज़, वापस आओ। मैं तुम्हें नहीं खोना चाहती।"

    कुछ ही क्षणों में, डॉक्टर वहाँ पहुँचे। उन्होंने दैविक की स्थिति को देखकर तुरंत उसे जांचा। "क्या होगा? क्या वह ठीक है?" आस्था ने डॉक्टर से दरवाजे पर खड़े होकर घबराहट से पूछा।


    आस्था की घबराहट बढ़ती जा रही थी। डॉक्टर ने दैविक की स्थिति की जांच करने के बाद आश्वासन दिया, "सब कुछ सामान्य है। वह बेहोश हो गया है, लेकिन सुबह तक होश आ जाएगा। चिंता न करें।" डॉक्टर ने दैविक को देखकर कुछ दवाइयाँ लिखीं और वहाँ से चले गए।

    आस्था ने राहत की साँस ली, लेकिन उसका मन अभी भी अशांत था। वह दैविक के बिस्तर के पास बैठ गई, उसके हाथ को धीरे-धीरे पकड़ते हुए। उसकी आँखों से आँसू बहने लगे, और वह दैविक के चेहरे को ध्यान से देख रही थी। "प्लीज़, जल्दी ठीक हो जाओ," उसने मन में कहा।

    आँसुओं की बूँदें दैविक के हाथ पर गिरीं, और आस्था ने महसूस किया कि वह कितना कमजोर महसूस कर रही थी। उसे याद आया वह दिन जब दैविक ने उसे चूमा था, और वह तब भी अचानक बेहोश हो गया था। उस पल ने उसके जीवन को बदल दिया था। वह अपनी भावनाओं को समझने लगी थी, लेकिन आज उसे दैविक की हालत देखकर दुख हो रहा था।

    वह सोचने लगी कि जब दैविक ने उसे चूमा था, तो उसका दिल कितनी तेज़ी से धड़क रहा था। उस दिन वह एक अजीब सी खुशी महसूस कर रही थी, जैसे उसने अपने दिल के दरवाजे को खोल दिया हो। लेकिन अब, उसकी आँखों में आँसू थे, और दिल में दर्द था।

    आस्था ने दैविक के बालों में हाथ फेरते हुए धीरे से कहा, "दैविक तुम नहीं जानते कि मैं तुमसे कितना प्यार करती हूँ? क्या तुम्हें कभी भी यह महसूस नहीं हुआ?"

    वह दैविक के चेहरे को अपनी आँखों से पढ़ने की कोशिश कर रही थी, जैसे वह किसी संकेत की तलाश कर रही हो। "मैं तुमसे प्यार करती हूँ," उसने फिर से कहा, "तुम्हारे बिना मैं अधूरी हूँ।"

    कुछ क्षणों बाद, आस्था ने धीरे-धीरे दैविक के हाथ को अपने गालों से लगा लिया, और कहा, "मैं जानती हूँ कि तुम मुझसे दूर रहना चाहते हो, लेकिन मैं तुम्हें छोड़ नहीं सकती। प्लीज़, जल्दी ठीक हो जाओ।"

    वह लगातार दैविक के चेहरे को देख रही थी, उसके हृदय की धड़कन तेज़ थी। उसे लगा जैसे दैविक की धड़कनें उसके साथ मिलकर चल रही हैं।

    उसके दिल में गहरी भावनाएँ उमड़ने लगीं, और वह सोचने लगी कि क्या दैविक कभी उसकी भावनाओं को समझेगा। क्या वह कभी प्यार को अपना सकता है? क्या वह कभी उसे स्वीकार करेगा?

    उसकी आँखें फिर से भर आईं, और उसने एक बार फिर दैविक के हाथ को पकड़ लिया। वह उसे नहीं छोड़ना चाहती थी। "मैं तुमसे वादा करती हूँ, दैविक। मैं तुम्हें कभी अकेला नहीं छोड़ूंगी। चाहे कुछ भी हो, मैं हमेशा तुम्हारे साथ रहूँगी।"

    आस्था ने अपनी आँखें बंद कीं और अपनी सारी भावनाएँ उस पर उंडेलने लगी। "मैं तुम्हें खोना नहीं चाहती। तुम मेरे लिए सब कुछ हो।"

    एक पल के लिए, उसे लगा जैसे दैविक की धड़कनें कुछ बदल रही हैं। उसने अपनी आँखें खोलीं, और देखा कि दैविक के चेहरे पर हल्की सी हलचल हो रही है। "दैविक?" उसने धीरे से पुकारा।

    लेकिन दैविक की आँखें अभी भी बंद थीं। वह चाहती थी कि वह उठे और उसे उसकी बातें समझे। उसने दैविक के बालों को फिर से सहलाया, जैसे वह उसे प्यार से जगाने की कोशिश कर रही हो।

    "मैं तुम्हारे लिए यहाँ हूँ, दैविक। तुम मुझे छोड़कर मत जाओ। मैं तुमसे प्यार करती हूँ। तुम्हारे बिना मैं अधूरी हूँ," उसने कहा, और उसके आँसू फिर से बहने लगे।

    आस्था ने एक बार फिर दैविक के हाथ को अपने गालों से लगाया और धीरे से कहा, "मैं तुमसे वादा करती हूँ, जब तुम उठोगे, मैं तुम्हें अपने दिल की सारी बातें बताऊँगी। तुम्हारे बिना, मैं अधूरी हूँ। मुझे तुम्हारे प्यार की ज़रूरत है।"

    आस्था ने आँसू पोछते हुए दैविक की आँखों में देखा और खुद को सांत्वना देने की कोशिश की। वह अपने प्यार में विश्वास रखती थी कि एक दिन दैविक भी उसकी भावनाओं को समझेगा।

    वह चाहती थी कि दैविक जल्दी ठीक हो जाए, ताकि वह उसे बता सके कि वह कितनी खुशकिस्मत है कि उसने उसे पाया। वह अपने जीवन में उसके महत्व को समझती थी, और वह चाहती थी कि वह भी उसे अपनी ज़िंदगी में अपनी अहमियत दे।

    उसने फिर से दैविक के हाथ को अपने हाथों में लिया और धीरे-धीरे उसकी हथेलियों को सहलाने लगी। "मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकती, दैविक। प्लीज़, जल्दी ठीक हो जाओ।"

  • 16. अनकही डोर - Chapter 16

    Words: 1540

    Estimated Reading Time: 10 min

    सुबह का समय था, और खिड़की के परदे से छनकर आती रोशनी आस्था के चेहरे पर पड़ रही थी। उसकी नींद हल्की-हल्की टूट रही थी, लेकिन उसे याद था कि रात में उसने दैविक के पास बैठकर उसे अपने दिल की सारी बातें बताने का वादा किया था। वह सोच रही थी कि सुबह दैविक जाग जाएगा, और वह उसे बताएगी कि उसका प्यार कितना गहरा है।

    जब उसने बेड पर नज़र डाली, तो दैविक नहीं दिखा। यह देखकर उसकी धड़कन तेज हो गई।

    "ये दैविक कहाँ चला गया?" उसने मन में सोचा।

    घबराते हुए, उसने तेजी से कमरे के चारों ओर देखा, लेकिन दैविक कहीं नहीं था। उसे एक अजीब सा डर लगने लगा।

    आस्था ने अपने दिल को समझाते हुए खुद से कहा, "शायद वह बाथरूम गया होगा।"

    लेकिन फिर उसे यह भी लगा कि अगर ऐसा होता, तो उसे पता होता। उसने तुरंत बिस्तर से उठने की कोशिश की; उसकी चिंता बढ़ती जा रही थी।

    बाहर जाने से पहले, उसने एक बार फिर दैविक के बिस्तर को देखा। फिर वह तुरंत कमरे से बाहर निकली और नीचे हॉल में पहुँची, जहाँ उसकी सास दिव्या जी बैठी थीं।

    "मम्मी जी!" उसने जल्दी से कहा, "दैविक कहाँ है? क्या वह ऑफिस चला गया?" उसकी आवाज़ में घबराहट थी।

    दिव्या जी ने अपने चश्मे को ठीक करते हुए कहा, "हाँ, बेटा। वह तो सुबह जल्दी चला गया। उसे काम था।"

    आस्था ने राहत की साँस ली, लेकिन साथ ही उसे यह जानकर चिंता भी हुई कि दैविक बिना बताए क्यों गया। लेकिन आस्था को विश्वास नहीं हो रहा था। वह महसूस कर रही थी जैसे उसके दिल के भीतर कोई भारी बोझ है।

    "लेकिन उसे तो कल रात…" उसने सोचा, फिर खुद को रोक लिया। उसे डर था कि कहीं वह कुछ गलत कह दे।

    दिव्या जी ने जब आस्था के चेहरे पर चिंता देखी तो उन्होंने कहा,
    "देखो, तुम बस उसकी चिंता मत करो। वो खुद को संभाल लेगा।"

    आस्था ने उनकी बातों पर ध्यान दिया, लेकिन उसकी चिंता खत्म नहीं हुई। वह सोच रही थी कि क्या दैविक ने ठीक से कुछ खाया-पिया भी होगा या नहीं? क्या उसे वहाँ कोई परेशानी तो नहीं हुई? उसके मन में सवालों का अंबार लग गया था।

    "मैं उसे कॉल करती हूँ," उसने कहा और तुरंत अपना फोन निकाला। उसने दैविक का नंबर डायल किया; रिंग होती रही, लेकिन दैविक ने फोन नहीं उठाया। आस्था की चिंता और भी बढ़ने लगी। वह चाहती थी कि दैविक जल्दी से फोन उठाए और उसे बताए कि वह ठीक है। लेकिन हर गुजरते पल के साथ उसकी बेचैनी बढ़ती गई।

    उसे एक पल के लिए चिंता का एक अंधेरा विचार आया।

    "अगर उसे कुछ हुआ तो…" उसने सोचा, लेकिन खुद को रोकते हुए उसने खुद से कहा, "नहीं, सब ठीक होगा। वह मजबूत है।"

    कुछ क्षणों के बाद, उसने एक बार फिर से कोशिश की, लेकिन फिर भी उसका फोन नहीं उठा।

    "क्यों नहीं उठाता? क्या वह बहुत ही ज्यादा बिजी है जो मेरा फोन भी नहीं उठा रहा है?" उसने खुद से कहा।

    आस्था ने अपने मन को समझाने की कोशिश की, लेकिन उसकी चिंता बढ़ती जा रही थी।

    "क्या वह अब तक काम में उलझा हुआ है?"

    उसने हॉल में टहलते हुए अपने विचारों को व्यवस्थित करने की कोशिश की। वह बार-बार फोन की स्क्रीन देख रही थी, जैसे कोई जादू से दैविक का नाम वहाँ आएगा और सब कुछ ठीक हो जाएगा। लेकिन उसके मन में यह डर गहराने लगा था कि शायद दैविक अपने काम में इतना खो गया है कि उसे अपने स्वास्थ्य की भी चिंता नहीं है।

    आस्था ने एक गहरी साँस ली और अपने आप को आश्वस्त करने की कोशिश की।

    तभी उसे दिव्या जी की आवाज़ सुनाई दी। "बेटा, तुम ठीक हो? तुम इतनी परेशान क्यों हो?"

    आस्था ने खुद को संभालते हुए कहा, "हाँ माँ, बस थोड़ा सोच रही थी।" लेकिन वास्तव में वह तो दैविक की चिंता कर रही थी।

    आस्था ने एक गहरी साँस ली और महसूस किया कि उसकी बेचैनी बढ़ती जा रही है। उसने अपनी सास की बातों को सुनकर खुद को कुछ संभालने की कोशिश की, लेकिन दैविक की अनुपस्थिति ने उसके दिल को और भी भारी कर दिया। जैसे ही वह हॉल से बाहर आई, उसे लगा कि उसके दिल में एक खालीपन है।

    वह वापस अपने कमरे में लौट आई और बिस्तर पर बैठ गई। उसके चारों ओर का माहौल जैसे उसके मन की बेचैनी को और बढ़ा रहा था। उसने दैविक के तकिये पर नज़र डाली, जिस पर अभी भी उसके बालों की हल्की खुशबू बसी हुई थी। आस्था ने धीरे-धीरे तकिया को अपने गालों से लगाया और दैविक की यादों में खो गई।

    आस्था ने अपने हाथों को अपने घुटनों पर रखा और गहरी सोच में डूब गई। उसने एक बार फिर अपना फोन उठाया और दैविक का नंबर डायल किया। लेकिन फिर से वही रिंग… और फिर एक बार, उसने सोचा कि शायद यह सब उसकी कल्पना है।

    बिस्तर पर बैठकर, उसने अपनी आँखें बंद कर लीं और दैविक के साथ बिताए पलों को याद करने लगी।

    लेकिन उसके दिल में एक अजीब सा डर था। "अगर कुछ हुआ तो?" यह विचार उसके मन में बार-बार घूम रहा था। उसने खुद को यह विश्वास दिलाने की कोशिश की कि दैविक मजबूत है और उसे कोई परेशानी नहीं होगी।

    कुछ ही समय में, आस्था ने अपने हाथों से अपना चेहरा ढक लिया।

    "मुझे एक बार फिर से उसे कॉल करना चाहिए," उसने सोचा। लेकिन उसे डर था कि कहीं वह फिर से न उठाए।

    उसने एक गहरी साँस ली और फिर से फोन उठाया। लेकिन इस बार उसने सोचा, "शायद मैं उसे एक संदेश भेजूँ। वह जब देखेगा, तो उसे पता चलेगा कि मैं कितनी चिंता कर रही हूँ।"

    आस्था ने अपने फोन में एक नया संदेश लिखा: "दैविक, मुझे तुम्हारी बहुत चिंता हो रही है। क्या तुम ठीक हो? कृपया जल्दी मुझे जवाब दो। मैं तुमसे प्यार करती हूँ।"

    उसने संदेश भेज दिया और फिर से अपने मन को शांत करने की कोशिश की। लेकिन उस क्षण में, उसे महसूस हुआ कि वह कितनी निर्बल हो गई है। दैविक के बिना, उसका जीवन अधूरा सा लग रहा था।

    उसके आँसुओं ने फिर से उसके गालों को भिगो दिया।

    "मैं तुम्हें खोना नहीं चाहती, दैविक। तुम मेरे लिए सब कुछ हो।"

    आस्था ने अपनी आँखें खोलकर फिर से दैविक के बिस्तर की ओर देखा। उसने सोचा कि उसे कुछ करना चाहिए।

    "क्या मुझे उसके ऑफिस जाकर देखना चाहिए?" यह विचार उसके मन में आया। "नहीं नहीं अगर उसने मुझे सबके सामने डांट दिया तो। वैसे भी बाहर तो वो और ज्यादा सख्त रहता है।"


    दूसरी तरफ…

    दैविक अपनी कार को तेज़ी से सड़कों पर दौड़ा रहा था। सुबह की हल्की धूप उसे चकाचौंध कर रही थी, लेकिन वह इस बात से बेखबर था। उसके मन में विचारों का एक ज्वार था, जो उसे कहीं और ले जा रहा था। वह अपनी काम की जिम्मेदारियों के साथ-साथ अपने मन के कोने में छिपे हुए कुछ गहरे जज़्बातों से जूझ रहा था।

    "आज मुझे हर हाल में इस काम को निपटाना है," उसने अपने आप से कहा, जब कार की गति और तेज़ हो गई। उसकी आँखें सड़कों पर थीं, लेकिन उसका मन कहीं और भटक रहा था। उसे अपने प्रोजेक्ट के बारे में सोचना था, जो उसे बहुत महत्वपूर्ण लगा। उसके ऑफिस में चल रही हलचलें और वहाँ की प्रतिस्पर्धा उसे परेशान कर रही थीं।

    लेकिन आस्था की यादें उसके मन में बार-बार दस्तक दे रही थीं।

    "क्या मैं उसके लिए सही कर रहा हूँ?" उसने सोचा। वह अपनी भावनाओं से लड़ रहा था, लेकिन उसे समझ नहीं आ रहा था।

    अचानक से उसने अपनी कार रोकी। सड़क पर चलते हुए कई गाड़ियाँ उसके बगल से गुज़र रही थीं, लेकिन दैविक को कोई परवाह नहीं थी। उसने अपना सिर स्टेरिंग पर टिका लिया और अपनी आँखें कसकर बंद कर लीं। वह कुछ मिनटों के लिए पूरी तरह से चुप हो गया। उसके मन में एक अजीब सा हलचल थी, जैसे उसके अंदर कुछ टूटने वाला था।

    धीरे-धीरे, उसने अपनी आँखें खोलीं और सामने देखा। उसकी आँखें लाल थीं, जैसे वह किसी गहरे तनाव में था।

    "बस कल का दिन… कल पूर्णिमा है…" उसने अपने आप से कहा। उसके चेहरे पर चिंता का एक भाव था, लेकिन एक दृढ़ निश्चय भी था।

    "और कल के दिन मेरा मकसद कामयाब होगा।"

    उसने खुद को एक पल के लिए संभाला।

    "मैं आस्था को और दुख नहीं पहुँचा सकता," उसने सोचते-सोचते कहा। उसकी आँखों में आस्था के प्रति एक प्यार भरा एहसास था, लेकिन वह जानता था कि उसे अपने करियर को भी आगे बढ़ाना होगा।

    कार के अंदर, उसने अपने दोनों हाथों को अपने घुटनों पर रखा और गहरी साँस ली।

    "मैं उसे नहीं छोड़ सकता, लेकिन यह भी ज़रूरी है कि मैं अपने मकसद से पीछे नहीं हट सकता।" उसने अपने दिल की गहराई से कहा।

    उसने अपनी आँखें फिर से बंद कीं और अपनी भावनाओं को एकजुट करने की कोशिश की।

    "मुझे उसे यह बताना होगा कि मैं उसे कितना चाहता हूँ। कल का दिन मेरे लिए सब कुछ बदल देगा," उसने सोचा।

    "बस कल का दिन…या तो सब संभल जाएगा या…फिर सब बिखर जाएगा…!"


    आगे क्या होगा जानने के लिए अगले भाग का इंतज़ार करते रहिए। साथ ही समीक्षा भी करते रहिए।

  • 17. अनकही डोर - Chapter 17

    Words: 1014

    Estimated Reading Time: 7 min

    रात का समय था जब दैविक घर पहुँचा। बाहर की ठंडी हवा ने उसकी आँखों में हल्का सा नमी भर दी थी। उसने अपने कोट को कसकर लपेटा और दरवाज़ा खोला। अंदर आते ही, उसे घर की ख़ामोशी ने घेर लिया। वह अपने थके हुए कदमों के साथ सीढ़ियाँ चढ़ता हुआ अपने कमरे की ओर बढ़ा।

    जब वह अपने कमरे में पहुँचा, तो उसने देखा कि आस्था बेड पर सो रही थी।

    दैविक ने अपनी आँखों को आस्था पर केंद्रित किया। उसका दिल एक अजीब सी धड़कन के साथ तेज़ी से धड़कने लगा। आस्था का चेहरा चाँद की रौशनी में नहाया हुआ था, उसकी आँखें बंद थीं, लेकिन उसके चेहरे पर एक अद्भुत शांति थी। उसके बिखरे हुए बाल जैसे रेशमी धागे थे, जो उसके गालों पर बिखरे हुए थे। दैविक को महसूस हुआ कि इन बालों में उसकी खुशबू बसती है, एक ऐसी खुशबू जो उसे हमेशा अपनी ओर खींचती थी।

    उसके कदम खुद-ब-खुद आस्था की ओर बढ़ने लगे। जैसे ही वह उसके करीब पहुँचा, उसने महसूस किया कि उसकी साँसें कितनी हल्की हैं, जैसे वह किसी सपने में हो। उसने अपनी उंगलियों को धीरे-धीरे आस्था के बालों में फेरा। बालों की मुलायमता ने उसे एक अलग ही आनंद दिया।

    "कितना सुंदर है यह पल, जब मैं उसे सिर्फ़ देख सकता हूँ," वह सोचने लगा।

    आस्था की नींद में हलका सा खटका आया। दैविक ने तुरंत अपनी उंगलियों को उसके बालों में से हटा लिया, लेकिन आस्था नींद में ही हलका सा मुस्कुरा दी।

    दैविक ने फिर से आस्था की ओर देखा; उसकी आँखें अब भी बंद थीं, लेकिन उस मुस्कान ने उसे और भी आकर्षित किया। उसने फिर से अपने हाथों को उसके चेहरे की ओर बढ़ाया। उसने धीरे से उसके गाल को छुआ, जैसे वह एक कीमती चीज़ को छू रहा हो। उसके स्पर्श से आस्था की नींद में हलका सा खटका हुआ, और उसने धीरे से अपनी आँखें खोलीं।

    जब उसकी आँखें खुलीं, तो दैविक को लगा कि उसकी पूरी दुनिया रुक गई है। उनकी आँखें एक-दूसरे में मिलीं, और उस पल में समय थम गया।

    आस्था की नज़रें गहरी थीं, जिनमें वह सारा प्यार था, जो वह उसके लिए महसूस करता था। अचानक ही, आस्था बिना कुछ कहे, दैविक के गले लग गई।

    दैविक को ऐसा लगा जैसे समय ठहर गया हो। वह पल भर के लिए जड़ हो गया। उसे समझ नहीं आ रहा था कि क्या करे। आस्था के इस अचानक गले लगाने ने उसे भीतर से हिला दिया। उसकी साँसें थम गईं, और उसकी आँखों में आंसू की लकीरें तैरने लगीं। उसे ऐसा महसूस हो रहा था जैसे उसके दिल का एक कोना भर गया हो, और उसने खुद को पूरी तरह से खो दिया।

    "आस्था…" वह बस इतना ही कह सका, लेकिन शब्द उसके गले में अटक गए। उसने अपनी आँखें कसकर बंद कर लीं, जैसे वह इस पल को और भी गहराई से महसूस करना चाहता हो। आस्था की बाहों में उसे एक अद्भुत सुरक्षा मिली। जैसे ही उसने उसे अपने गले में समेटा, उसकी सारी चिंताएँ और परेशानियाँ कहीं खो गईं।

    "तुम सुबह बिना कुछ कहे क्यों चले गए थे...तुम्हें पता है मैं कितनी परेशान हो गई थी। और...और रात को फिर तुम उस दिन जैसे बेहोश हो गए थे। मैं कितना डर गई थी....अगर तुम्हें कुछ हो जाता तो....!" आस्था ने उसके गले में सिर रखकर कहा। आगे उसके मुँह से शब्द ही नहीं निकला...उसकी आवाज़ में एक हल्का सा कांप था।

    दैविक ने धीरे-धीरे अपनी आँखें खोलीं और आस्था को खुद से अलग किया और बिना उसकी तरफ देखे सीधा बाथरूम में घुस गया।

    दैविक ने बाथरूम में घुसते ही दरवाज़ा बंद कर लिया और शॉवर चालू किया। ठंडे पानी की बूँदें उसके चेहरे पर गिरने लगीं, लेकिन वह इस पल में ठंडक नहीं महसूस कर रहा था। उसकी आँखें बंद थीं, और आंसू जैसे उसके भीतर से बहकर बाहर आने लगे। वह अपनी भावनाओं को रोक नहीं पा रहा था।

    "आस्था," उसने धीरे से अपने आप से कहा, "तुम नहीं जानती कि मैंने तुम्हें कितना चोट पहुँचाया है।" वह अपनी ज़िंदगी के उस पल को याद कर रहा था जब उसने सब कुछ खोने का जोखिम लिया था। उसे खुद से नफरत हो रही थी कि उसने आस्था को इतनी चिंता में डाला।

    पानी की बूँदें उसके चेहरे पर गिरती रहीं, और उसने अपने बालों को पीछे खींचते हुए गहरी साँस ली। "मैं तुम्हें इस दर्द से और नहीं गुजरने दे सकता," उसने सोचा। दैविक के मन में आस्था के लिए प्यार और सम्मान की एक गहरी लहर उठ रही थी। उसे एहसास हुआ कि वह आस्था के बिना एक अधूरा इंसान है।

    बाथरूम की दीवार पर उसने अपनी आँखें खोलीं। दर्पण में अपनी छवि देखते हुए, उसने खुद को एक वादा किया। "बस कल का दिन। मैं तुम्हें कभी और तकलीफ नहीं दूँगा।" उसने ठान लिया कि अब से वह हर कदम पर आस्था का सहारा बनेगा।

    बाथरूम में खड़े-खड़े, दैविक ने अपनी आँखों को बंद कर लिया और ठंडे पानी की बूँदों को अपने चेहरे पर महसूस किया। वह समझ चुका था कि उसके और आस्था के बीच का बंधन कितनी गहरी जड़ें रखता है। उसे पता था कि वह इस रिश्ते को और नहीं तोड़ सकता। उसे यह भी एहसास हो रहा था कि वह अपनी भावनाओं को अधिक देर तक छुपा नहीं सकता।

    "कल का दिन," उसने धीरे से कहा। "या तो तुम हमेशा के लिए मेरी हो जाओगी, या फिर हमेशा के लिए मुझसे दूर। मुझे अब और इंतज़ार नहीं करना है।" उसकी आवाज़ में एक दृढ़ता थी, एक संकल्प था जो उसके दिल के भीतर गहराई से बसा हुआ था।

    शॉवर बंद कर, दैविक ने बाथरूम से बाहर निकलने का फैसला किया। वह जानता था कि उसके दिल में जो कुछ भी है, उसे आस्था के सामने नहीं रख सकता। जैसे ही वह कमरे में पहुँचा, उसने देखा कि आस्था अभी भी उसी जगह पर बैठी थी, उसकी आँखों में चिंता का बादल था।

    "दैविक," उसने कहा, "क्या तुम ठीक हो?" उसकी आवाज़ में एक चिंता थी, लेकिन साथ ही, एक उम्मीद भी।

  • 18. अनकही डोर - Chapter 18

    Words: 2193

    Estimated Reading Time: 14 min

    दैविक ने उसके सामने खड़े होकर गहरी साँस ली। उसने अपनी आँखें बंद कर लीं और अपने मन में बोला, "मुझे आस्था से सख्ती से ही पेश आना है...मैं कोई भी उम्मीद नहीं दे सकता आस्था को कि मैं उसके लिए क्या महसूस करता हूँ।"

    दैविक ने अपनी आँखें बंद कर लीं, और एक गहरी साँस लेते हुए अपने मन को तैयार किया। वह जानता था कि आस्था के प्रति उसकी भावनाएँ गहरी हैं, लेकिन उसे सख्त रहना था। उसे अपने दिल की आवाज़ को दबाना होगा। उसने खुद से कहा, "मुझे आस्था को यह समझाना है कि हमारा यह रिश्ता केवल एक कॉन्ट्रैक्ट है। मुझे उसे दूर रखकर ही खुद को और उसे बचाना होगा।"

    "तुम्हें मेरी परवाह करने की बिलकुल भी ज़रूरत नहीं है, आस्था।"

    जब उसने अपनी आँखें खोलीं, तो उसने आस्था की आँखों में एक उदासी देखी, जो उसके दिल को चीर गई। वह उसे देखने से कतराने लगा, क्योंकि उसे अपने अंदर की उथल-पुथल का सामना करना मुश्किल हो रहा था। आस्था की आवाज़ में हल्की सी टूटन थी।

    “दैविक, मैं जानती हूँ कि यह सिर्फ एक साल की कॉन्ट्रैक्ट मैरिज है, लेकिन फिर भी, तुम मेरे पति हो। मुझे परवाह है तुम्हारी... क्या तुमने कभी सोचा है कि इस एक साल में हम क्या बन सकते हैं?”

    दैविक ने अपना चेहरा उसकी तरफ नहीं मोड़ा। वह जानता था कि आस्था की बातें उसके मन में हलचल पैदा कर सकती हैं।

    “आस्था,” उसने ठंडी आवाज़ में कहा, “यह एक सौदा है। हमारे बीच में कोई भावनाएँ नहीं हो सकतीं। हमें अपनी सीमाओं में रहना होगा।”

    आस्था की आँखों में आँसू आ गए।

    “क्या तुम सच में यह सोचते हो?” उसकी आवाज़ में एक दर्द था, जो दैविक के दिल को छू रहा था।

    “हम दोनों अपने-अपने जीवन में आगे बढ़ सकते हैं। तुम अपने रास्ते पर चलो, और मैं अपने पर। यह कॉन्ट्रैक्ट हमारे रिश्ते की सीमाएँ निर्धारित करता है, और हमें उसी के अनुसार चलना होगा।”

    आस्था की आँखों में आँसू थे। वह दैविक के शब्दों को सुनते-सुनते टूटी जा रही थी।

    “लेकिन दैविक, यह एक साल का समय भी बहुत कुछ बदल सकता है। तुम मुझे जानने का एक मौका क्यों नहीं देते? क्या तुम यह नहीं समझते कि यह एक मौका हो सकता है हमारे लिए?”

    “नहीं, आस्था। मैं इस पर विचार नहीं कर सकता। हमें अपनी भावनाओं को अपने बीच से हटाना होगा,” दैविक ने कहा, अपनी आवाज़ को और अधिक कठोर करते हुए।

    आस्था ने एक गहरी साँस ली, जैसे उसके भीतर एक तूफान चल रहा हो।

    “तुम्हारे लिए यह सब कितना आसान है, है ना? तुम मेरे भावनाओं को नज़रअंदाज़ कर सकते हो, लेकिन क्या तुम जानते हो कि तुम मेरे लिए कितने महत्वपूर्ण हो? मैं जानती हूँ कि यह सिर्फ एक कॉन्ट्रैक्ट है, लेकिन मैं तुम्हारे साथ बिताए हर पल को खास मानती हूँ। क्या तुम मेरे प्यार का अपमान कर रहे हो?”

    “यह एक कॉन्ट्रैक्ट है, आस्था। इसे समझो। हम दोनों के बीच कुछ नहीं है और न ही कभी कुछ होगा,” दैविक ने कहा, लेकिन उसकी आवाज़ में अब भी एक हल्की कमजोरी थी।

    आस्था ने उसकी आँखों में देखते हुए कहा, “क्या तुम सच में ऐसा सोचते हो? तुम जानते हो कि मैं तुमसे प्यार करती हूँ। लेकिन तुम क्यों अपने दिल को बंद कर रहे हो?”

    दैविक ने अपनी आँखें बंद कर लीं, उसके अंदर की उथल-पुथल को रोकने का प्रयास करते हुए।

    “आस्था, मैं तुम्हें नुकसान नहीं पहुँचाना चाहता, लेकिन मुझे इसे खत्म करना होगा। मैं किसी भी भावनात्मक बंधन से दूर रहना चाहता हूँ। तुम समझ नहीं रही हो।”

    आस्था की आँखों में आँसू भर आए।

    “लेकिन दैविक, क्या तुम यह नहीं समझते कि तुम मुझे हर दिन चोट पहुँचा रहे हो? जब तुम मुझे ऐसे दूर करते हो, तो मेरा दिल टूट जाता है। मैं तुम्हें समझना चाहती हूँ, लेकिन तुम मुझसे दूर जा रहे हो।”

    दैविक ने अपनी आँखें खोलीं और आस्था की ओर देखा। उसकी आँखों में आँसू थे, और वह उसे देखने में असमर्थ था।

    “आस्था, यह कॉन्ट्रैक्ट हमारी सीमाओं को निर्धारित करता है। हम दोनों को इसे समझना चाहिए।”

    आस्था ने अपने आँसू पोंछते हुए कहा, “लेकिन यह मेरा दिल है, दैविक। मैं तुम्हें अपने पति के रूप में चाहती हूँ, लेकिन तुम मुझे दूर कर रहे हो। क्या तुम कभी मेरी भावनाओं की क़द्र करोगे?”

    दैविक का दिल अब भी कठोर था, लेकिन उसके भीतर की आवाज़ ने उसे परेशान कर दिया। दैविक बिना कुछ कहे रूम से बाहर निकल गया।

    आस्था ने उसे जाते हुए देखा, और उसकी आँखों में सिर्फ़ उदासी और चोट थी। उसने अपने दिल को सहेजने का प्रयास किया, लेकिन वह जानती थी कि दैविक के कठोर शब्दों ने उसे अंदर से तोड़ दिया है। वह अपने आँसुओं को पोंछते हुए सोचने लगी, "क्या मैं कभी दैविक के दिल में एक खास स्थान बना सकूँगी?"

    दैविक सीधा टेरेस पर चला गया।

    टेरेस पर खड़े दैविक ने आसमान को देखा, जहाँ अंधेरी रात की चादर पर चमकते सितारे थे। उसकी आँखें लाल हो गई थीं, और उसके दिल में एक अजीब सा कसाव महसूस हो रहा था। उसने अपनी सोच में खोते हुए खुद से कहा, “आस्था, जब तुम मेरा सच जानोगी, तब तुम खुद ही मुझसे दूर चली जाओगी। मैं नहीं चाहता कि तुम मेरे लिए अपने आपको तकलीफ़ में डालो।”

    उसकी आँखों में आँसू तैर रहे थे, और उसे खुद पर गुस्सा आ रहा था।

    “क्यों मैं तुम्हें इस स्थिति में लाने दे रहा हूँ? क्यों मैं अपने दिल की सुनने के बजाय तुम्हें दूर कर रहा हूँ?” उसने अपने आप से पूछा। वह जानता था कि आस्था की मासूमियत और प्यार उसके अंदर एक हलचल मचा रहे हैं, लेकिन उसे अपनी भावनाओं को दबाना था। दैविक के पास इन सारे सवालों के जवाब थे, लेकिन... लेकिन सच को कोई कैसे बदल सकता था!

    दृष्टि को थामते हुए, दैविक ने गहरी साँस ली। “अगर तुम जानती होती कि मैं कौन हूँ, तो तुम मुझसे इतनी मोहब्बत नहीं करती। तुम्हें मेरी असलियत से डर लगेगा। मेरा अतीत तुम्हें कभी भी मुझसे प्यार करने नहीं देगा,” उसने मन ही मन सोचा।

    “आस्था,” उसने धीरे से कहा, “तुम्हारे लिए यह सब कितना आसान है। तुम प्यार के बारे में बातें करती हो, लेकिन तुम नहीं जानती कि यह कितना जटिल हो सकता है। तुम्हारा प्यार मेरे लिए बहुत खास है, लेकिन यह हमें कहीं नहीं ले जाएगा। हमारी ज़िन्दगी के लिए यह एक ठोकर है।”

    टेरेस की ठंडी हवा ने उसे झकझोर दिया। उसने अपने आप को मज़बूत करने का प्रयास किया, लेकिन उसके दिल की धड़कनें तेज होती गईं। उसने फिर से आसमान की ओर देखा, और उसे लगा जैसे सितारे उसे उसकी परेशानियों का जवाब दे रहे हों। “मैं चाहकर भी कुछ नहीं कर सकता!” वह सोचने लगा। “क्या मेरी सख्ती उसके लिए सिर्फ़ एक काली छाया बन जाएगी?”

    उसके दिल में एक अजीब सी द्वंद्व चल रही थी। उसने कहा, “मैं तुम्हें कभी भी अपने करीब नहीं आने दे सकता हूँ, और न ही मैं तुम्हारे करीब आ सकता हूँ! जानती हो इसके पीछे क्या वजह है? क्या मैं तुम्हें वो वजह भी कभी बता पाऊँगा या नहीं?” दैविक ने खुद को मनाने की कोशिश की कि उसे आस्था से दूर रहना चाहिए, लेकिन उसकी भावनाएँ उसके मन में लगातार उथल-पुथल मचा रही थीं।

    “मैं तुम्हें नहीं जानना चाहता, आस्था,” उसने फिर से कहा। “तुम्हारी मासूमियत और प्यार के साथ मेरी दुनिया में कोई जगह नहीं है। तुम एक अच्छी इंसान हो, और मैं तुमसे कभी यह नहीं चाहूँगा कि तुम मेरी दुनिया में आकर अपने आपको खो दोगी।”

    एक पल के लिए, दैविक ने अपनी आँखें बंद कीं, जैसे वह खुद को किसी भूतपूर्व अतीत से बचाने की कोशिश कर रहा हो। लेकिन फिर भी, आस्था की मुस्कान, उसकी बातें, सब कुछ उसकी यादों में ताज़ा था। “क्या मैं सच में उसके साथ एक नई शुरुआत कर सकता हूँ?” उसने सोचा।

    “नहीं, नहीं… मुझे यह सब नहीं करना है। मैं तुम्हें और तकलीफ़ नहीं दे सकता, आस्था। मुझे तुम्हारे लिए सख्त रहना होगा,” उसने खुद को फिर से समझाया।

    दैविक की आँखों के आगे अतीत की छायाएँ घूमने लगीं। वह उस समय की यादों में खो गया जब वह एक इंसान नहीं, बल्कि एक दैत्य हुआ करता था। वह समय जब उसके अंदर की बुराई ने उसे अंधकार की ओर धकेल दिया था। वह यादें उसे कचोटने लगीं—उन गलतियों के लिए जो उसने अपनी ज़िंदगी में की थीं।

    उसका दिल भारी हो गया, जब उसने उन क्षणों को याद किया जब उसने निर्दोष लोगों को चोट पहुँचाई थी, अपनी इच्छाओं और स्वार्थ के लिए।

    “क्या मैं कभी इससे मुक्त हो पाऊँगा?” उसने खुद से पूछा। “क्या आस्था को मेरा अतीत कभी पता चलेगा? क्या वह फिर भी मुझे स्वीकार करेगी?”

    सच तो यह था कि दैविक का अतीत उसके वर्तमान का सबसे बड़ा दुश्मन बन चुका था। वह जानता था कि अगर आस्था उसके अतीत के बारे में जान जाएगी, तो वह खुद को उससे दूर कर लेगी। “मुझे यह समझाना होगा कि हमारा रिश्ता केवल एक कॉन्ट्रैक्ट है। मेरे लिए यह एक सौदा है, और भावनाएँ इसमें कोई स्थान नहीं रखतीं,” उसने अपने दिल को फिर से कठोर करते हुए सोचा।

    जब वह अपनी यादों में खोया हुआ था, तभी अचानक एक विचार उसके मन में आया। “आस्था एक खास नक्षत्र में जन्मी है। वह उस प्रकाश की तरह है जो अंधेरे को दूर करता है। अगर मैं इस प्यार को स्वीकार कर लूँ, तो क्या मेरा अतीत मुझे फिर से नहीं पकड़ लेगा?”

    उसने याद किया कि कैसे पूर्णिमा की रात उसे एक शक्ति जागृत करने के लिए कहा गया था। वह शक्ति जो उसे उसके अतीत से लड़ने में मदद कर सकती थी। लेकिन क्या वह इस शक्ति का सही उपयोग कर सकेगा? क्या वह आस्था के साथ मिलकर अपने अतीत का सामना कर सकता था?

    “अगर मैं कल पूर्णिमा की रात इस शक्ति को जागृत कर दूँ, तो क्या यह सब बदल जाएगा?”

    उसका दिल तेज़ी से धड़कने लगा। उसे इस शक्ति का इस्तेमाल करने का एक मौका मिल रहा था, लेकिन क्या वह आस्था को उस ख़तरे में डालना चाहता था?

    “नहीं, मैं उसे और तकलीफ़ नहीं देना चाहता। मुझे उसे दूर रखना ही बेहतर है,” उसने मन ही मन सोचा।

    टेरेस पर खड़े-खड़े, दैविक ने आसमान की ओर देखा। उसके भीतर एक गहरी खींचतान चल रही थी। उसकी आँखों में आँसू थे, लेकिन उसने उन्हें पोंछ दिया। वह जानता था कि उसे अपने दिल की बातों से लड़ना होगा।

    “आस्था,” उसने धीरे से कहा, “तुम्हारे बिना मेरा जीवन अधूरा है, लेकिन क्या मैं तुम्हें अपने साथ रखकर तुम्हें चोट पहुँचाने का ख़तरा ले सकता हूँ?”

    उसी समय, दैविक को एक ख़्याल आया कि कैसे आस्था का प्यार उसके अतीत को चुनौती दे सकता है। अगर वह अपने दिल की बातों को सुनता और आस्था के साथ अपनी भावनाओं को साझा करता, तो क्या वह अपने अतीत को बदल सकता था? क्या वह आस्था के प्यार की शक्ति को अपने अंधकार में प्रकाश के रूप में इस्तेमाल कर सकता था?

    लेकिन एक यह ख़तरा भी था कि पूर्णिमा के दिन आस्था उससे हमेशा के लिए नफ़रत न कर बैठे।

    “कल पूर्णिमा की रात, मैं अपनी शक्ति जागृत करूँगा,” उसने दृढ़ता से कहा। “लेकिन मुझे पहले आस्था को बताना होगा कि मैं कौन हूँ, ताकि वह खुद को इस जटिलता से बचा सके। अगर वह जानती है कि मैं कौन हूँ, तो शायद वह मुझसे दूर चली जाएगी, और यह सब ख़त्म हो जाएगा।”

    उसकी आँखें चमक उठीं।

    “लेकिन क्या मैं सच में उसे दूर जाने दूँगा? क्या मैं सच में उसे अपने अतीत के ख़िलाफ़ खड़ा होने की इजाज़त दूँगा?” उसने खुद से सवाल किया।

    इस द्वंद्व में खोया हुआ, दैविक ने फिर से अपने अंदर के तूफ़ान को संभालने की कोशिश की। उसने सोचने लगा, “अगर आस्था के प्यार में ताक़त है, तो क्या वह मुझे मेरे अतीत के जाल से निकाल सकती है? क्या वह मुझे इस अंधेरे से बाहर ला सकती है?”

    “मैं तुमसे प्यार करता हूँ, आस्था,” उसने गहरी साँस लेते हुए कहा। “लेकिन मुझे तुम्हें इस सच्चाई से बचाना होगा। मैं तुम्हारे लिए सिर्फ़ एक ख़तरा हूँ।”

    "कल के दिन तुम्हें सब पता चल जाएगा! और शायद तुम तुम खुद भी मुझसे दूर चली जाओगी!!!!!"

    दैविक टेरेस पर खड़े-खड़े आसमान में चमकते सितारों को देख रहा था। उसके मन में चल रही उथल-पुथल उसे कहीं भी सुकून नहीं दे रही थी। आस्था का प्यार और उसका खुद का अतीत दोनों उसके लिए एक दुविधा बन गए थे। उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करे। क्या वह अपने दिल की बातों को सुनकर आस्था के साथ रह सकता है, या अपने अतीत के डर से उसे दूर रखने का निश्चय सही है?

    उसने खुद से कहा, “आस्था, तुम मेरे लिए कितनी महत्वपूर्ण हो, लेकिन मैं तुम्हें इस अंधेरे में नहीं खींच सकता। मुझे तुमसे दूर रहना होगा।” इसी सोच में खोते-खोते, वह धीरे-धीरे थक गया और उसी टेरेस पर बैठते-बैठते सो गया। उसके चेहरे पर चिंता और दर्द की लकीरें थीं।

    कुछ समय बाद, आस्था टेरेस पर आई। जब उसने दैविक को वहाँ गहरी नींद में सोते हुए देखा, तो उसका दिल चीर गया। वह धीरे-धीरे उसके पास बैठ गई और उसके बालों में हाथ फेरने लगी।

  • 19. अनकही डोर - Chapter 19

    Words: 1420

    Estimated Reading Time: 9 min

    आस्था टेरेस पर आई और सोते हुए दैविक को देखकर उसकी आँखों में चिंता और प्रेम की एक अद्भुत भावना जाग उठी। चाँद की रोशनी उसकी त्वचा पर चमक रही थी, जिससे दैविक का चेहरा सुनहरे आभा से भर गया था। वह उसकी मासूमियत और गहरी नींद को देखकर सोचने लगी, “क्या वह सच में इतना कठोर है, या बस अपनी भावनाओं से डर रहा है?”

    आस्था ने धीरे-धीरे दैविक के पास जाकर बैठी और उसके सिर को अपनी गोद में रख लिया। उसने उसके झड़ते बालों में उंगलियाँ फेरनी शुरू कर दीं। यह उसके लिए एक अद्भुत अहसास था। गहरी नींद में दैविक कितना खूबसूरत लग रहा था, जैसे एक छोटा बच्चा जो अपनी मासूमियत के साथ सो रहा हो।

    “तुम्हें पता है, दैविक,” उसने धीरे से कहा, “तुम्हारी यह खामोशी मेरे दिल को तोड़ रही है। क्या तुम कभी मुझे अपने दिल की बात बताने का साहस करोगे?” उसकी आवाज में एक हल्का सा दर्द था, जो उसकी आँखों में चमकता हुआ आँसू बनकर उभर आया।

    जब आस्था ने दैविक के चेहरे को ध्यान से देखा, तो उसे उसके होठों पर एक हल्की सी मुस्कान दिखी, जो उसके सपनों की मीठी यादों का संकेत थी। वह उसके चेहरे के भावों में एक अद्भुत जादू महसूस कर रही थी। वह चाहती थी कि दैविक उसकी बातों को सुने, उसके दिल की गहराईयों को समझे।

    “तुम मेरे लिए केवल एक पति नहीं हो, दैविक,” उसने फिर से कहा, “तुम मेरे लिए एक साथी हो, एक मित्र। मैं तुम्हारे साथ हर उस पल को जीना चाहती हूँ, चाहे वह कितनी भी कठिनाइयों से भरा हो। तुम मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण हो।” उसकी बातें हवा में घुलने लगीं, और उसे महसूस हुआ कि शायद वह दैविक के दिल की गहराई में प्रवेश कर रही है।

    दैविक ने एक हल्की सी करवट ली, और आस्था ने उसकी उंगलियाँ पकड़ लीं। “मैं जानती हूँ कि तुम्हारे लिए यह सब कितना मुश्किल है,” उसने धीरे से कहा, “लेकिन क्या तुम जानते हो, प्यार में ताकत होती है। हम इसे एक साथ समझ सकते हैं। हमें एक-दूसरे का हाथ थामना होगा।”

    धीरे-धीरे, आस्था ने अपनी आँखें बंद कर लीं और दैविक के सिर पर हल्का सा हाथ फेरते हुए, उसकी नींद में खो गई। जैसे ही उसने गहरी साँस ली, वह एक सपने में चली गई, जिसमें वह और दैविक एक खूबसूरत जगह पर थे। वहाँ आसमान नीला था और फूल खिले हुए थे। वह दोनों एक-दूसरे के हाथों में हाथ डालकर चल रहे थे, और दैविक उसे अपनी बाहों में भर रहा था।

    कुछ ही देर में, वह भी गहरी नींद में सो गया। चाँद की रोशनी ने दोनों को एक सुनहरे आभा में लपेट दिया, जैसे कि आसमान ने उन्हें अपनी गोद में ले लिया हो। यह प्यार की एक अनकही डोर थी, जो दोनों के दिलों को जोड़ने में सक्षम थी।

    सुबह की पहली किरणों ने धीरे-धीरे टेरेस पर दस्तक दी, और दैविक की आँखें नींद से खुल गईं। उसने देखा कि आस्था उसके पास सोई हुई है, उसकी आँखें बंद हैं और उसके चेहरे पर एक शांतिपूर्ण मुस्कान है। उसके दिल में एक अजीब सी हलचल हुई, जैसे उसने अपनी सारी चिंताओं को उसके पास छोड़ दिया हो। वह खुद को उसकी गोद में देखकर एक पल के लिए सब कुछ भूल गया।

    वह चुपचाप उसे देखता रहा, सोचते हुए कि कितनी खूबसूरत है वह। “कैसे मैं इतना भाग्यशाली हूँ कि मेरे जीवन में तुम हो?” उसने मन ही मन सोचा। उसकी आँखों में एक नई उम्मीद और प्रेम का प्रकाश था। लेकिन अगले ही पल, उसके मन में एक भारी सोच आई। “क्या मैं तुम्हें इस अंधेरे में खींचने का हक रखता हूँ? क्या मैं तुम्हारे दिल को टूटने से बचा पाऊँगा?”

    "शायद नहीं!" दैविक ने उदासी से कहा।

    उसे पता था कि आज पूर्णिमा की रात को उसे अपनी शक्ति को जागृत करना है। यह उसके अतीत का सामना करने का समय था, लेकिन उसके साथ ही उसे आस्था को भी इस भयानक सच से अवगत कराना होगा।

    वह जानता था कि यह शक्ति केवल उसे नहीं, बल्कि आस्था को भी प्रभावित करेगी। “क्या वह इस सब को सहन कर सकेगी?” वह सोचता रहा। उसे अपने अतीत की यादें चुभ रही थीं—उन लम्हों की जब उसने निर्दोष लोगों को चोट पहुँचाई थी।

    दैविक ने एक नज़र आस्था को देखा और उसके चेहरे की मासूमियत ने उसके दिल को और भी भारी कर दिया। उसके हृदय में एक अजीब सी बेचैनी महसूस हुई। वह बिना कुछ कहे सीधे अपने कमरे में चला गया। उसके कदमों की आवाज़ धीरे-धीरे टेरेस से दूर होती गई, और आस्था को उसकी अनुपस्थिति का एहसास हुआ।

    कमरे में जाकर, दैविक ने दरवाज़ा बंद किया और अपनी आँखें बंद कर लीं। उसकी ज़िंदगी के अंधेरे हिस्से उसके सामने फिर से जीवित हो गए। उसने अपनी शक्ति को जगाने का निर्णय लिया, लेकिन यह सोचकर वह काँप उठा कि उसे आस्था को भी इस सब के बारे में बताना होगा। “क्या वह सच में यह सब सहन कर सकेगी?” उसने अपने मन में सोचा। “क्या वह मेरे अतीत के बोझ के साथ रह पाएगी?”

    इस सब के बीच, आस्था की आँखें धीरे-धीरे खुलीं। जब उसने देखा कि दैविक टेरेस पर नहीं है, तो उसके दिल में एक हल्की सी चिंता उभरी। “कितना अजीब आदमी है,” उसने खुद से कहा। “जब देखो तब बिना कुछ बोले गायब हो जाता है। क्या उसके दिल में सच में कुछ है, या बस एक छलावा?”

    आस्था ने अपने बालों को ठीक करते हुए उठने की कोशिश की। उसकी सोचों में दैविक की छवि घूम रही थी, उसकी मासूमियत, उसकी गहराई। “क्या मैं सच में उसे समझ पा रही हूँ? या वह मुझसे कुछ छिपा रहा है?” उसने खुद से सवाल किया।

    वह धीरे-धीरे टेरेस से नीचे गई। उसके मन में दैविक की अनुपस्थिति को लेकर चिंता थी। “क्या उसे कुछ हुआ है?” उसने मन में सोचा। उसकी आँखें सजग हो गईं, और वह तुरंत दैविक के कमरे की ओर बढ़ गई।

    जब वह दैविक के कमरे के दरवाज़े पर पहुँची, तो उसने देखा कि दैविक कमरे में खड़ा था, उसकी आँखें बंद थीं और वह गहरे विचारों में खोया हुआ था। उसकी उपस्थिति ने आस्था को एक अजीब सी भावना से भर दिया। “क्या तुम ठीक हो, दैविक?” उसने धीरे से पूछा।

    दैविक ने आँखें खोलीं और उसके चेहरे पर एक हल्की मुस्कान आई। लेकिन वह जानता था कि यह मुस्कान उस गहरी सोच को छुपा रही थी जो उसे परेशान कर रही थी। “मैं ठीक हूँ,” उसने कहा, लेकिन उसकी आवाज में एक कमी थी।

    “क्या तुम मुझसे कुछ छिपा रहे हो?” आस्था ने ध्यान से देखा। “तुम्हारे चेहरे पर चिंता है।”

    दैविक ने गहरी साँस ली। “आस्था, मैं तुम्हें कुछ बताने वाला हूँ। यह मेरे अतीत का सामना करने का समय है,” उसने कहा। “लेकिन मैं चाहता हूँ कि तुम इसे जान लो, क्योंकि यह केवल मेरा नहीं, बल्कि तुम्हारा भी मामला है।”

    आस्था ने दैविक की ओर ध्यान से देखा। “क्या तुम समझते हो कि तुम मुझे अपने अतीत से डराकर मुझसे दूर कर सकते हो?” उसने धीरे से पूछा। “मैं तुमसे प्यार करती हूँ, और मैं तुम्हारे साथ इस सब का सामना करने के लिए तैयार हूँ।”

    “तुम नहीं जानती कि मेरा अतीत कितना भयानक है,” दैविक ने कहा। उसकी आवाज़ में हताशा थी। “मैंने ऐसी गलतियाँ की हैं जिनके लिए मैं खुद को कभी माफ नहीं कर सकता। मैं नहीं चाहता कि तुम इस सब में शामिल हो।”

    “तुम्हारी गलतियों से मुझे फर्क नहीं पड़ता,” आस्था ने कहा, उसके शब्दों में दृढ़ता थी।

    दैविक के चेहरे पर कुछ पल के लिए एक अजीब सी हलचल आई। “आस्था, तुम समझती हो, लेकिन क्या तुम इसे सहन कर पाओगी?”

    “हाँ,” आस्था ने कहा। “मैं तुम्हारे साथ रहूँगी। हमें एक-दूसरे को समझना होगा, तभी हम इस अंधेरे से बाहर निकल सकेंगे।”

    दैविक ने एक बार फिर उसकी आँखों में देखा, और उसे महसूस हुआ कि आस्था का प्यार सच में उसे अपने अतीत से लड़ने की ताकत दे सकता है। लेकिन उसके मन में अभी भी एक डर था—क्या वह सच में उसे अपने अंधेरे में खींचने का हक रखता था?

    दैविक ने कहा," तुम रेडी हो जाओ...जब तुम सच जानोगी तब ...तब शायद सब बदल जायेगा।"

    आस्था ने उलझन में कहा," दैविक मुझे पता है तुम ...तुम मुझे बार बार ऐसे डरा रहे हो....!"

    दैविक ने कहा," तुम रेडी हो जाओ में बाहर वेट कर रहा हूँ।"

    कहकर दैविक बाहर निकल गया और आस्था वहीं सोच में डूब गई।

  • 20. अनकही डोर - Chapter 20

    Words: 1606

    Estimated Reading Time: 10 min

    आस्था को दैविक की बातें सुनकर एक अजीब सी बेचैनी हुई। उसने सोचा, "क्या वह सच में मुझे कुछ ऐसा बताने वाला है जो मेरी दुनिया को हिलाकर रख देगा? क्या इतना प्यार करने के बावजूद वह मुझे अपने अतीत से दूर रखना चाहता है?" उसकी आँखों में चिंता की लकीरें साफ नजर आ रही थीं।

    "कितनी अजीब बातें कर रहा है," उसने खुद से कहा। "क्या उसे लगता है कि मैं उसे नहीं समझ पाऊँगी? या क्या वह डरता है कि मैं उसके अतीत को जानने के बाद उससे दूर हो जाऊँगी?" उसके मन में सवालों की एक लहर थी, और वह खुद को समझाने की कोशिश कर रही थी कि वह दैविक के लिए हमेशा खड़ी रहेगी।

    आस्था ने एक गहरी साँस ली और अपनी भावनाओं को संभालने की कोशिश की। "मुझे उसे समझना होगा," उसने सोचा। "मुझे उसके अतीत के बारे में जानने का हक है। यह उसका हिस्सा है, और मैं उस हिस्से को जानना चाहती हूँ।"

    वह धीरे-धीरे अपने दिल की धड़कनों को नियंत्रित करते हुए बाथरूम में गई। आस्था ने बाथरूम में जाकर अपने मन को एकदम शांत करने की कोशिश की। उसने अपने विचारों को एक जगह लाने की कोशिश की। दैविक के अतीत के बारे में जानने की बेचैनी उसके दिल में तेजी से धड़क रही थी। क्या वह सच में ऐसा कुछ बताएगा जो उनके रिश्ते को हिलाकर रख देगा?

    वह जल्दी से तैयार हुई। उसने एक लाल रंग का कुर्ता पहना, जो उसकी त्वचा के रंग को और भी निखार रहा था। उसने अपने बालों को खुला छोड़ दिया, और हल्का सा मेकअप करके अपने चेहरे की सुंदरता को और बढ़ा दिया। जब वह आईने में खुद को देख रही थी, तो उसे एक नई ऊर्जा महसूस हुई। वह जानती थी कि उसे दैविक का सामना करना है, और वह पूरी तरह से तैयार थी।

    थोड़ी देर बाद, आस्था ने अपनी आँखों में दृढ़ता भरकर दरवाज़ा खोला और बाहर आ गई। बाहर, दैविक उसकी कार के पास खड़ा था, उसकी आँखें आस्था पर टिक गई थीं। जैसे ही उसने आस्था को देखा, उसकी धड़कनें तेज हो गईं। लाल रंग का कुर्ता और खुले बाल, सब कुछ उसकी सुंदरता को और बढ़ा रहे थे।

    "दैविक मुझे यह समझ में नहीं आ रहा है कि तुम मुझे यहाँ क्यों लाए हो। क्या हम घर में बात नहीं कर सकते थे?" आस्था ने मुस्कुराते हुए कहा।

    दैविक ने एक गहरी साँस ली और कहा, "आस्था, मैं तुम्हें कहीं ऐसी जगह ले जाना चाहता हूँ जहाँ हम बिना किसी रुकावट के बात कर सकें। तुम्हें मेरी बातें समझने के लिए एक शांत वातावरण चाहिए। यह जरूरी है।"

    "क्या तुम मुझे सच में डराने की कोशिश कर रहे हो?" आस्था ने थोड़े चिढ़ते हुए कहा। "तुम्हारे पास मुझे बताने के लिए ऐसा क्या है जो मुझे इतना डरा रहा है?"

    "नहीं, ऐसा नहीं है। मैं केवल यह चाहता हूँ कि तुम मेरी बातों को पूरी तरह से समझो," दैविक ने कहा, उसकी आवाज़ में हल्का तनाव था।

    "ठीक है," आस्था ने कहा। "लेकिन मैं तुम्हारे साथ हर कदम पर रहूँगी।"

    दैविक ने उसे देखकर एक हल्की मुस्कान दी और कार के दरवाजे को खोलकर उसे अंदर बैठने का इशारा किया। आस्था ने कार में बैठते ही देखा कि दैविक का चेहरा गंभीर था, मानो वह किसी बड़े राज का सामना करने के लिए मानसिक तैयारी कर रहा हो।

    जब आस्था ने सीट बेल्ट बाँध ली, तो दैविक ने कार स्टार्ट की और धीरे-धीरे सड़क पर चलने लगा। उसकी आँखें सड़क पर थीं, लेकिन उसके मन में बहुत सी बातें चल रही थीं। "क्या वह सच में इस सब को सहन कर सकेगी?" उसने सोचा।

    "कहाँ जा रहे हैं हम वैसे?" आस्था ने पूछा, जब उसने देखा कि दैविक कुछ ज्यादा ही गंभीर है।

    "मैं तुम्हें एक खास जगह ले जाना चाहता हूँ। हमें वहाँ कुछ महत्वपूर्ण बात करनी है," दैविक ने कहा, और आस्था ने उसकी आँखों में झलकते डर को महसूस किया।

    आस्था ने समझा कि दैविक अपने अतीत की बात करने से पहले खुद को तैयार कर रहा है। "क्या यह इतना कठिन है?" उसने धीरे से पूछा।

    "हाँ, लेकिन तुम जानती हो, मुझे लगता है कि यह जरूरी है। हमें इस अंधेरे को पीछे छोड़ना होगा," दैविक ने कहा। उसकी आँखों में एक गहरी सोच की लकीर थी।

    कुछ समय बाद, दैविक एक सुनसान जगह पर पहुँचा, जहाँ चारों ओर पेड़ और हरी-भरी चादर थी। वहाँ एक सुंदर सी झील थी, जिसके पानी में सूरज की किरणें चमक रही थीं।

    "यहाँ रुकते हैं," दैविक ने कहा।

    आस्था ने कार से बाहर आते ही चारों ओर नजर दौड़ाई। यह जगह सच में शांत थी, और उसे थोड़ी राहत मिली। "यहाँ तो बहुत खूबसूरत है," उसने कहा।

    "हाँ, मैं जानता था कि तुम्हें यह पसंद आएगा," दैविक ने कहा, उसके चेहरे पर थोड़ी मुस्कान थी।

    दैविक ने गहरी साँस ली और आस्था की ओर देखा।

    "आस्था, मुझे तुम्हें कुछ बताना है," उसने कहा, उसकी आवाज में तनाव था।

    "क्या हुआ, दैविक? तुम इतने गंभीर क्यों हो?" आस्था ने कहा, उसकी आँखों में चिंता थी।

    "मैं… मैं तुम्हें अपना अतीत बताना चाहता हूँ। यह बहुत ज़रूरी है कि तुम इसे जानो," दैविक ने कहा, लेकिन वह जानता था कि उसके शब्द आस्था के दिल को चीर देंगे।

    "मैं जानता हूँ कि तुम मुझसे प्यार करती हो, लेकिन मुझे तुम्हें यह बताना होगा कि मेरा अतीत कैसा है। मैं एक साधारण इंसान नहीं हूँ। मैंने अपने जीवन में बहुत से बुरे काम किए हैं। मैंने लोगों को चोट पहुँचाई है, मैंने स्वार्थ के लिए कई बार गलतियाँ की हैं। तुम्हें यह जानकर नफरत हो सकती है। तुम्हें इससे दूर जाना चाहिए," दैविक ने कहा, उसकी आँखों में एक गहरी उदासी थी।

    आस्था के चेहरे पर आश्चर्य और दर्द का मिश्रण था। "लेकिन दैविक, हम सबमें खामियाँ होती हैं। अगर तुमने गलतियाँ की हैं, तो क्या तुमने उन्हें सुधारने की कोशिश नहीं की? प्यार में हमें एक-दूसरे को समझना और सहारा देना चाहिए," आस्था ने कहा, लेकिन दैविक ने सिर झुका लिया।

    "नहीं, आस्था। यह सिर्फ प्यार की बात नहीं है। मैं तुम्हें यह नहीं बता सकता कि मैंने क्या किया है। मेरा अतीत तुम्हारे लिए खतरनाक हो सकता है। इसलिए तुम्हें मुझसे दूर होना चाहिए। मैं तुम्हें बर्बाद नहीं करना चाहता। तुम्हारे लिए सबसे अच्छा यही होगा कि तुम मुझसे नफरत करो और खुद को मुझसे दूर रखो," दैविक ने कहा, उसकी आवाज में कठोरता थी।

    आस्था की आँखों में आँसू थे। "तुम यह कैसे सोच सकते हो? प्यार में हमें एक-दूसरे का साथ देना होता है। तुम मेरे लिए कितने महत्वपूर्ण हो, यह तुम नहीं समझ रहे हो। अगर तुम्हें मेरा प्यार चाहिए, तो तुम्हें मुझसे अपने अतीत के बारे में बताना होगा। मैं तुम्हारे साथ हूँ, चाहे तुम्हारा अतीत कितना भी अंधेरा क्यों न हो," आस्था ने कहा, लेकिन दैविक का दिल उसे दूर जाने को मजबूर कर रहा था।

    आस्था की आँखों में आँसू थे, लेकिन दैविक की कठोरता उसे और भी परेशान कर रही थी। वह उसके दर्द को समझती थी, लेकिन दैविक ने जो कहा था, उसने उसके दिल में एक अजीब सी बेचैनी पैदा कर दी थी। वह चाहती थी कि दैविक अपनी भावनाओं को साझा करे, लेकिन उसकी बातें उसे और अधिक जटिलता में डाल रही थीं।

    तभी अचानक, आसमान में बादल घेरने लगे और अंधेरा छाने लगा। यह अचानक हुआ परिवर्तन आस्था को भौचक्का कर गया। उसने ऊपर देखा, और उसकी आँखें चौड़ी हो गईं।

    "दैविक, यह क्या हो रहा है?" उसने चौंकते हुए पूछा।

    दैविक ने भी आसमान की ओर देखा। उस पल में, एक सुंदर पूर्णिमा का चाँद आसमान में उग आया, लेकिन उसकी रोशनी कुछ अजीब थी। जैसे ही चाँद की रोशनी दैविक पर पड़ी, उसने देखा कि उसकी आँखें लाल हो गईं। आस्था के दिल में एक अजीब सा डर समा गया।

    "दैविक, तुम्हें क्या हो रहा है?" आस्था ने घबरा कर कहा।

    दैविक का पूरा शरीर काला पड़ने लगा, जैसे कोई छाया उसके चारों ओर फैल रही हो। उसके चेहरे पर एक अजीब सी गंभीरता थी। वह धीरे-धीरे पीछे की ओर हटने लगा।

    "नहीं, दैविक! रुको!" आस्था ने कहा, उसकी आवाज में एक चिंतित स्वर था। "तुम ऐसे क्यों कर रहे हो?"

    लेकिन दैविक ने कुछ नहीं कहा। उसकी आँखों में एक गहरा डर था, जैसे वह किसी बुरे सपने का सामना कर रहा हो।

    "आस्था, तुम यहाँ से चली जाओ!" दैविक ने कहा, उसकी आवाज में अनियंत्रितता थी। "मैं तुम्हें खतरे में नहीं डालना चाहता!"

    "मैं तुम्हें छोड़कर नहीं जा सकती! मुझे तुम्हारी मदद करनी है!" आस्था ने जोर देकर कहा।

    जैसे ही चाँद की रोशनी दैविक पर गहरी हुई, उसका पूरा शरीर धुंधला पड़ने लगा। उसकी आवाज़ में डर और दर्द था। "यह सब मेरे अतीत का असर है। मैं एक अलग इंसान था। मैंने बहुत बुरे काम किए हैं, और यह सब अब मुझ पर वापस आ रहा है। तुम यहाँ मत रुको, आस्था!"

    आस्था ने उसकी बातों को ध्यान से सुना। उसे समझ में आया कि दैविक का अतीत उससे दूर ले जाने की कोशिश कर रहा था। वह आगे बढ़ी, लेकिन उसका दिल धड़क रहा था। "मैं तुम्हारे साथ हूँ, दैविक। मैं तुम्हारे अतीत को समझना चाहती हूँ," उसने कहा, लेकिन दैविक ने धीरे-धीरे खुद को पीछे की ओर खींचा।

    तभी अचानक, आसमान में एक तेज़ चमक हुई और दैविक की आँखों में एक लाल चमक दिखाई दी। जैसे ही वह चमक बढ़ी, आस्था ने देखा कि दैविक का शरीर पूरी तरह से काला हो गया है।

    "नहीं, नहीं! दैविक!" आस्था ने चीखते हुए कहा। उसने उसके हाथ को पकड़ने की कोशिश की, लेकिन जैसे ही उसने उसे छुआ, एक अजीब सी शक्ति ने उसे धकेल दिया।

    आगे क्या होगा जानने के लिए अगले भाग का इंतज़ार करते रहिए। साथ ही समीक्षा भी करते रहिए।