ये नादान मन ना देख पाया मृगतृष्णा सी मोहब्बत उसकी सच्चे ख़्वाब सजाए आंखो में उसके साथ कई के उन्ही ख्वाबों का सौदा कर गया संगदिल कोई कहानी एक ऐसे फ़रेब जिसने इश्क का चोला पहन कर पार्थवी को दलदल में धकेल दिया, पार्थवी को अपने भोलेपन में हुई एक गलती... ये नादान मन ना देख पाया मृगतृष्णा सी मोहब्बत उसकी सच्चे ख़्वाब सजाए आंखो में उसके साथ कई के उन्ही ख्वाबों का सौदा कर गया संगदिल कोई कहानी एक ऐसे फ़रेब जिसने इश्क का चोला पहन कर पार्थवी को दलदल में धकेल दिया, पार्थवी को अपने भोलेपन में हुई एक गलती की वजह से अपना गाँव परिवार सब कुछ छोड़ना पड़ा,मगर जिसके लिए उसने सब कुछ छोड़ा उसने ही उसे धोखा दे दिया क्या पार्थवी फिर प्यार कर पाएगी,क्या वो उसके धोखे को भूल कर आगे बढ़ पाएगी या उसी दलदल में जिंदगी बीता देगी या अंधेरी राह में कोई उसका हमसफ़र बनेगा जानने के लिए पढ़िए फ़रेबी इश्क
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देवों की भूमि उत्तराखंड में बसे चारों धामों के निकट, एक छोटा सा नगर है—
“अल्मोड़ा...”
ऊंचे पहाड़ों पर बसा यह नगर बेहद दिलकश है। अपनी खूबसूरती से यह हर किसी को अपनी ओर आकर्षित करता है। ठंड के दिनों में तापमान गिरने पर पहाड़ों पर जमी बर्फ की परत किसी सफेद चादर सी लगती है, और उन पर झूलते पेड़ों की लताएँ इन पहाड़ों के सौंदर्य को कई गुना बढ़ा देती हैं। उसी तरह, गर्मी के दिनों में जब बर्फ की चादरें हटती हैं, तो हरे-भरे नज़ारे हर किसी का मन मोह लेते हैं। यहाँ की खूबसूरती लोगों के दिलों में एक अलग ही जगह रखती है। अल्मोड़ा की पहाड़ियों में ना जाने कितनी प्रेम कहानियाँ मौजूद हैं जो वहाँ के पहाड़ों और तालाबों में गूँजती हैं।
ये पहाड़ यहाँ का हृदय हैं, क्योंकि इन पर बसे पेड़ और जंगल यहाँ के लोगों की दुनिया हैं। और यहाँ की दुनिया को और भी खूबसूरत बनाते हैं यहाँ के पहाड़ी लोग, जो दिखने में जितने साधारण हैं, उनका मन उतना ही साफ़ है। इनकी साधारण सी वेशभूषा यहाँ की संस्कृति और परंपरा का परिचय देती है।
“यहाँ बसे लोगों के लिए यह जगह स्वर्ग से कम नहीं है, बाबूजी!!”
एक उन्नीस वर्षीय लड़की, अल्मोड़ा की पहाड़ी पर खड़े कुछ पर्यटकों को अल्मोड़ा की खूबसूरती से रूबरू करा रही थी। साधारण सा रंग, जिसे आप साँवला और गोरा दोनों ही कह सकते थे; गोल चेहरा और उस पर तीखे नैन-नक्श; साधारण सी आँखें; घनी पलकें; तराशे हुए खूबसूरत होंठ; और उन होंठों के ऊपर एक छोटा सा काला तिल; काले घने बाल, जिसके ऊपर उसने पहाड़ी स्कार्फ बाँध रखा था, लेकिन बाल खुले होने के कारण वह बेहद खूबसूरत लग रहे थे।
वह लड़की सामान्य सी थी, लेकिन अपने साधारण रंग-रूप के बावजूद अपनी मासूमियत और निश्छलता से वह किसी का भी ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर लेती थी। वह लड़की एक प्यारी सी मुस्कान के साथ उन सभी को अपने गाँव की खूबसूरती बता रही थी।
उन पर्यटकों में से एक उससे प्रभावित होकर बोला,
"आप बहुत अच्छा बोलती हैं। आपका नाम क्या है?"
वह लड़की धीरे से मुस्कुराई और कुछ बोलने को हुई, तभी दूर से एक आवाज आई,
"ओ पार्थवी...आज फिर मार खाएगी तू अम्मा से!!"
पार्थवी ने अपने दाँतों तले जीभ दबा दी और उन सबके सामने हाथ जोड़कर माफी माँगने वाले अंदाज़ में बोली,
"माफ़ करना बाबूजी...हम चलते हैं!!"
इतना बोलकर वह किसी का भी जवाब सुने बिना वहाँ से भाग गई और उस लड़की के पास जा पहुँची जो उसे आवाज दे रही थी। वह लड़की उसे देखते ही खीझ कर बोली,
"तुझे इतना ही शौक है तो गाइड क्यों नहीं बन जाती पार्थवी...रोज़ झूठ बोलकर यहाँ आती है और पकड़े जाने पर अपने साथ मुझे भी डाँट खिलाती है!!"
पार्थवी उसके सिर पर चपत मारकर बोली,
"देख रत्ना...हमें कोई इच्छा नहीं है रे ये सब करने की...बस अच्छा लगता है सबको अपने अल्मोड़ा की सुंदरता बताने में, तो जो मिलता है उसे बोल देते हैं।"
रत्ना उसकी बात पर खिसियाते हुए बोली,
"अभी घर चल...अम्मा और बापू दोनों ही तुझे ढूँढ रहे हैं...बहाना सोच ले अच्छे से!!"
पार्थवी मुस्कुरा दी। पार्थवी और रत्ना बात करते हुए पहाड़ पर चढ़ते जा रहे थे। पार्थवी का घर ऊपर पहाड़ी पर आबादी वाले क्षेत्र में था और रत्ना भी उसके घर के बगल में रहती थी।
दोनों बातें करती हुई ऊपर पहाड़ी तक आ गईं। पार्थवी जैसे ही अपने घर के नज़दीक पहुँची, वह छुप गई और किसी जासूस की तरह इधर-उधर नज़र घुमाने लगी। लेकिन उसकी अम्मा लाजो ने उसे देख लिया और उसे देखते ही जोर से डाँटते हुए बोलीं,
"आ गई...कितनी बार कहा है अकेले नहीं जाया कर, लेकिन इस लड़की को सुननी कहाँ...बस खून जलाती रहती है हमारा!!"
पार्थवी ने इधर-उधर देखा। किसी ने भी लाजो के बोलने पर कोई ख़ास प्रतिक्रिया नहीं दी, जैसे उनके लिए यह हमेशा का हो।
रत्ना पार्थवी के पीछे ही खड़ी यह सब सुन रही थी। उसने पार्थवी को धक्का देते हुए कहा,
"अब जायेगी या मुहूर्त निखवाएँ तुम्हारे लिए!!"
पार्थवी ने उसे आँखें दिखाई और खुद आगे बढ़कर अपनी अम्मा के पास जाकर मासूम सा चेहरा बनाकर शांति से खड़ी हो गई, जैसे उसने कुछ किया ही न हो।
लाजो ने उसे अपने पास देखते ही छड़ी उठा ली और उसकी ओर उसे मारने को दौड़ी। पार्थवी यह देखते ही रत्ना के पीछे भागी। लाजो भी उसके पीछे आई और गुस्से में उसके पीछे भागते हुए बोली,
"कितनी बार कहा है मत जाया कर उधर...लेकिन नहीं, इसे कहाँ सुननी है...बस बापू और भाई ने सिर चढ़ाकर रखा है...आज हाथ आजा तू...फिर बताती हूँ तुझे!!"
पार्थवी अभी तक रुकी नहीं थी, वह लगातार रत्ना के आगे-पीछे हो रही थी और लाजो उसे पकड़ने की कोशिश कर रही थी। इन दोनों के बीच में बेचारी रत्ना फँसी हुई थी, वह कभी दाएँ-बाएँ तो कभी आगे-पीछे हो रही थी। वह भागने की कोशिश करती तो पार्थवी उसे जोर से पकड़ ले रही थी। आखिर में थक कर लाजो एक जगह खड़ी हो गई और हांफते हुए बोली,
"थका दिया इस छोकरी ने...मुझसे नहीं भागा जा रहा है अब!!"
पार्थवी यह सुनकर रत्ना के पीछे से अपनी गर्दन थोड़ी सी बाहर करके बोली,
"हम जानते हैं तुम नौटंकी कर रही हो हर बार की तरह, हमारे आने पर हमारे कान पकड़कर मारोगी!!!"
रत्ना यह सुनकर मुस्कुरा दी और लाजो भी मुस्कुराए बिना न रह सकी।
तभी पीछे से किसी के दो हाथों ने पार्थवी के कंधे पर हाथ रखा। कंधे पर हाथ पड़ते ही पार्थवी के होंठों पर बड़ी सी मुस्कान आ गई और उसकी आँखें खुशी से बड़ी हो गईं। वह फुर्ती से पीछे मुड़ी और खुशी से चीखते हुए बोली,
"उज्जवल भैया...आप अभी कैसे आ गए??"
पीछे खड़े पार्थवी के भाई उज्जवल के चेहरे पर पार्थवी को देखकर चमक आ गई और उसने पार्थवी के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा,
"आज काम से जल्दी छुट्टी मिल गई तो चला आया...तुझे ही मेला जाना था ना!!"
मेले का नाम सुनते ही पार्थवी बच्चों की तरह खुशी से उछलते हुए बोली,
"मेला...आप हमें मेला ले जाएँगे...येय..."
पार्थवी अपने दोनों हाथों को ऊपर करके खुशी से उछल रही थी। लाजो, रत्ना और उज्जवल तीनों ही पार्थवी को खुश देखकर मुस्कुरा दिए। लाजो अंदर आ गई जबकि पार्थवी रत्ना के साथ बाहर से सीढ़ी चढ़कर अपने कमरे में आकर तैयार होने लगी।
उज्जवल ने अंदर आकर अपने हाथ-मुँह धोए और बालों को ठीक कर बाहर आ गया और उन दोनों को साथ लेकर मेले के लिए निकल गया।
लाजो उन्हें जाते हुए देखती रही। पार्थवी के पिता अरविंद जी लाजो को ऐसे देखकर बोले,
"क्या हुआ...क्या देख रही है?"
लाजो ने मुड़कर उन्हें देखा और पार्थवी के जाने की दिशा में देखती हुई बोली,
"डर लगता है जी पार्थवी के लिए!!"
अरविंद जी की नज़रें लाजो पर ठहर गईं और वह संशय भरे लहजे में बोले,
"डर किस बात के लिए?"
लाजो ने ठंडी साँस ले कर कहा,
"पार्थवी बहुत ही ज़्यादा भोली है जी...आज की दुनिया से बहुत पीछे...जहाँ इस उम्र में बच्चे छल-कपट करते हैं, पार्थवी उन सबसे विपरीत मासूम और भोली है...छल-कपट नहीं जानती...जो जैसा बोलता है मान लेती है, यह भी नहीं सोचती कि क्या गलत है क्या सही है...वह हर किसी पर भरोसा करती है जी...कहीं इन सब की वजह से कोई बहुत बड़ा नुकसान न हो जाए!!"
अरविंद जी पहले तो खामोश रहे, फिर धीरे से हँसकर बोले,
"तु पागल है लाजो...बेकार में चिंता करती है...हमारी पार्थवी तो साक्षात् माँ नंदा देवी का स्वरूप है...क्योंकि ऐसे लोग भगवान का रूप होते हैं और ऐसे निश्छल लोगों में ही भगवान बसते हैं और हमारी पार्थवी में ईश्वर हैं...तु सब माँ नंदा देवी पर छोड़ दे...अब चल खाना दे दे, भूख लग रही है, फिर काम पर भी जाना है!!"
लाजो ने उनकी बात पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी और जाकर खाना परोसने लगी। अरविंद जी आकर खाने के लिए बैठ गए और लाजो से इधर-उधर की बातें करते हुए खाना खाने लगे।
कुछ देर बाद बात करते हुए लाजो ने अरविंद जी से कहा,
"इस बार भी कोई नहीं मिला क्या...क्या इस बार भी कोई पर्यटक हमारे घर में नहीं रहेगा?"
अरविंद जी ने सहजता से कहा,
"इस बार तो उम्मीद है लाजो...दो सालों से लॉकडाउन की वजह से सब कुछ बंद पड़ा था...लेकिन इस बार सब कुछ खुला हुआ है और घूमने वाले भी आ रहे हैं...देख क्या होता है इस बार!!"
लाजो ने उनके प्याले में डाल-डालते हुए कहा,
"अगर इस बार भी कोई नहीं आया तो दिक्कत हो जाएगी!!"
अरविंद जी आराम से बोले,
"कोई न कोई आ ही जाएगा देवी की कृपा से...परेशान होना छोड़ दे...तु बेवजह परेशान होती रहती है!!"
इस बार लाजो ने कुछ नहीं कहा। अरविंद जी ने खाना खाया और तैयार होकर और एक झोला लेकर काम पर निकल गए। अरविंद जी एक मज़दूर थे, जो काम मिलता था कर लेते थे। उज्जवल एक दूध की फैक्ट्री में काम करता था। देखा जाए तो सारे घर का बोझ उज्जवल पर था। अरविंद जी जो भी थोड़ा-बहुत कमाते थे, वह घर के छोटे कामों में खर्च हो जाते थे।
इनकी कमाई का सबसे बड़ा साधन थे आने वाले पर्यटक। ये अपने ऊपर के फ़्लोर के दो कमरे पर्यटकों के लिए रखते थे, लेकिन दो साल से कोविड की वजह से सब कुछ बंद हो गया था और इनकी आमदनी भी। इस बार किसे आना था ईश्वर जाने...
जारी है...
सितंबर का महीना था। पूरे देश में अभी भी गर्मी थी, लेकिन अल्मोड़ा जैसी जगह के लिए यह ठंड की शुरुआत थी। हवाओं में हल्की सिरहन महसूस होती थी। दोपहर का समय था और धूप थी, इसलिए पार्थवी, रत्ना और उज्जवल तीनों ने ऊनी कपड़े नहीं पहने थे। तीनों ही मेले में पहुँचे और वहाँ पहुँचते ही पार्थवी और रत्ना खुशी से चीख पड़ीं। पहाड़ों के मेले की अलग ही खूबसूरती होती है। वहाँ के स्थानीय लोग एक तरह के पारंपरिक वस्त्र पहने, अनेकता में एकता का सच्चा दृश्य दिखाते थे। पहाड़ों के बीच मेला और उसमें लगे झूले, जब ऊपर जाते, तो उनसे पहाड़ों का दृश्य और भी खूबसूरत बन जाता था।
पार्थवी और रत्ना दौड़कर मेले के अंदर चली गईं। उज्जवल उनकी यह खुशी देख रहा था। उसने पार्थवी और रत्ना को सारे झूलों पर बिठाया। दोनों दोस्त खुशी-खुशी सारे पलों का आनंद ले रही थीं। उज्जवल अपनी बहन की इस मासूम सी हँसी को देखकर खुश हो रहा था। उन्हें मेला घूमते-घूमते काफी देर हो गई और धीरे-धीरे सूरज ढलने लगा। उज्जवल ने उन दोनों को पकड़ा और थोड़ा डाँटते हुए बोला,
"चलो, अब घर चलते हैं। अम्मा मेरे बाल नोच लेंगी अगर समय पर नहीं पहुँचा तो!!"
पार्थवी ने मुँह बनाते हुए कहा,
"भईया, हमें और घूमना है!!"
पार्थवी की बात पर रत्ना ने हाँ में सिर हिलाया। उज्जवल ने उन दोनों के सिर पर चपत मारते हुए बोला,
"चुप करो और चलो अब! मैंने तुम दोनों की बात मानी, अब तुम दोनों भी मेरी बात मान लो और चलो!!"
पार्थवी ने बेचारी ने हाँ में सिर हिला लिया और उज्जवल के पीछे-पीछे हो ली। पर्यटक भी अपने-अपने ठिकाने पर लौट रहे थे, तो कुछ पहाड़ों में ढलते सूरज की खूबसूरती देखने के लिए रुके हुए थे। पार्थवी इन सब को आते-जाते देख रही थी। उसने अनायास ही उज्जवल से पूछा,
"भईया, यह ढलता सूरज इतना खूबसूरत क्यों होता है?"
उज्जवल ने मुस्कुराते हुए कहा,
"जो खूबसूरत है, वह खूबसूरत ही दिखेगा पार्थवी!!"
पार्थवी सिर खुजलाते हुए बोली,
"ऐसा कैसे हो सकता है भईया?"
उज्जवल उसके मासूम सवाल पर फिर से मुस्कुराते हुए बोला,
"क्यों नहीं हो सकता? सूरज खूबसूरत है, तभी तो उसे ढलते देखने के लिए सब खड़े हैं यहाँ!!"
वह तीनों ढलान के ऊपर चढ़ रहे थे। उज्जवल और रत्ना को थकान हो चुकी थी, लेकिन पार्थवी अभी भी चंचल नजर आ रही थी। पार्थवी अपने दिमाग पर जोर डालकर सोचते हुए बोली,
"अगर सूरज खूबसूरत है, तो फिर सब गर्मी के मौसम में उसका इंतजार क्यों नहीं करते? इसी सूरज को गर्मी के मौसम में देखकर सब भाग क्यों जाते हैं?"
उज्जवल के कदम रुक गए। उसने अपनी बहन को देखा जो मासूमियत में गहरा सवाल कर गई थी। उज्जवल को चुप और रुका हुआ देखकर पार्थवी ने उसे धक्का देकर आगे बढ़ाते हुए बोली,
"जवाब दीजिए, वह भी चलते हुए!!"
उज्जवल ने पार्थवी के कंधे पर हाथ रखकर कहा,
"यह दुनिया जो है ना पार्थवी, बहुत मतलबी है। यहाँ कोई किसी को तब तक अच्छा लगता है जब वह उसके काम आता है, उससे फायदा होता है या उससे कोई मतलब निकलता है। जैसे ही मतलब ख़त्म, फायदा होना बंद होता है, लोग उससे दूर होने की कोशिश करने लगते हैं। बस यही सूरज के साथ भी होता है। गर्मी में सूरज की तपिश होने से हम उसे पसंद नहीं करते, उसकी यही गर्मी हमें अपने लिए जहर लगती है, जबकि शीत में यही तपिश हमें गर्माहट देती है, इसलिए हम सब इसे पसंद करते हैं!!"
पार्थवी पहले तो गौर से सुनती रही, फिर अचानक ही जोर से खिलखिला कर हँसने लगी। उज्जवल और रत्ना दोनों ही हैरानी से उसे देखने लगे। उज्जवल चिढ़कर बोला,
"मैंने कोई मजाक नहीं किया पार्थवी!!"
पार्थवी हँसते हुए बोली,
"हाँ, जानते हैं!!"
उज्जवल ने उसे पकड़कर सीधा करते हुए कहा,
"क्यों हँस रही है?"
पार्थवी ने अब अपनी हँसी रोकते हुए कहा,
"आपने जो कहा, उसके हिसाब से तो बेवकूफ़ तो हम सब हैं ना, क्योंकि सूरज से तो हमें हमेशा फायदा होता है!!"
उज्जवल उसकी बात को समझने की कोशिश करने लगा, तो पार्थवी मासूम सा चेहरा बनाकर बोली,
"भईया, सूरज गर्मी के अलावा हमें हमेशा धूप देता है जिससे हमें रोशनी मिलती है। इसे भूल गए तो बेवकूफ़ ही हुए ना हम!!"
उज्जवल ने ना में सिर हिलाते हुए उसे फिर से एक चपत लगाते हुए बोला,
"तु और तेरी बातें ईश्वर ही जाने! अब चल जल्दी, अम्मा इंतज़ार कर रही होंगी!!"
पार्थवी अपने सिर पर हाथ मारते हुए बोली,
"चलिए चलिए!!"
यह बोलकर पार्थवी तेज़ी से आगे बढ़ गई, तो रत्ना और उज्जवल हँस दिए।
लाजो ऊपर कमरे में सफाई कर रही थी और सामान को जगह लगा रही थी। दो सालों से इन कमरों में कोई नहीं आया था और इस बार आना ज़रूरी था, अन्यथा बहुत निराशा होती सबको। लाजो ने कमरे में सफाई करते हुए कहा,
"हे नंदा देवी माँ, इस बार किसी को भेज दो। दो साल से उम्मीद लगाए हुए थे और वह अब टूट रही है। तु जानती है ना माँ, बहुत ज़रूरी है इस बार यह सब!!"
बोलते-बोलते वह काम करने लगी।
दिल्ली, गुड़गाँव।
सुबह के 9 बज रहे थे और एक आलीशान से घर के बड़े कमरे में एक चौबीस वर्षीय लड़का टहलते हुए किसी से कॉल पर बात कर रहा था। उसके चेहरे पर गहरे चिंतन के भाव थे। उसने कुछ देर बात करके कॉल रख दिया। तभी उसी का हमउम्र एक और लड़का अंदर आया और बोला,
"क्यों व्योम रहेजा, क्या सोच रहे हो?"
सामने खड़े व्योम ने उसे देखते हुए गहरी आवाज़ में कहा,
"कुछ नहीं भास्कर, बस यूँ ही काम का थोड़ा दबाव है!!"
भास्कर हँसते हुए बोला,
"साले, एक तो आज तक समझ नहीं आया कि तू काम क्या करता है। बस कुछ महीनों के लिए गायब हो जाता है और वापस आकर कहता है कि काम हो गया है!!"
व्योम का चेहरा गंभीर हो गया। वह सख़्त आवाज़ में बोला,
"मुझसे मेरे काम के अलावा हर बारे में बात कर सकता है तू!!"
भास्कर समझ गया कि व्योम को उसका यह सब बोलना अच्छा नहीं लगा, इसलिए वह माहौल हल्का करते हुए हँसते हुए बोला,
"अच्छा, तो फिर यह बता कि तेरी कितनी गर्लफ्रेंड हैं?"
व्योम चिढ़कर बोला,
"तू जानता है मेरी कोई गर्लफ्रेंड नहीं है!!"
भास्कर मुस्कुराकर बोला,
"हाँ, जानता हूँ। अब किसके बारे में बात करूँ?"
व्योम ने कुछ नहीं कहा, बस अपना सामान पैक करने लगा। भास्कर उसे सामान पैक करते देखकर बोला,
"तू फिर कहीं जा रहा है?"
व्योम ने हाँ में सिर हिलाया, तो भास्कर ने आगे बढ़ते हुए कहा,
"लेकिन कहाँ जा रहा है?"
व्योम के हाथ रुक गए और वह बोला,
"ख़बर नहीं, लेकिन कहीं ना कहीं जाऊँगा ही!!"
भास्कर खीझकर बोला,
"समझ नहीं आता तेरा। कब आता है, कब जाता है। अरे, कुछ तो ख़बर होने दिया कर कि क्या कर रहा है ताकि सुकून से रहूँ!!"
व्योम भी झल्लाकर बोला,
"मैंने बोला ना मेरे काम के बारे में मत बोल और मैं कहीं भी आऊँ, जाऊँ कोई नहीं है मेरे आगे-पीछे, इसलिए चुप रह, समझा!!"
भास्कर को भी गुस्सा आ गया और वह जाने लगा, तो व्योम को अपनी गलती का एहसास हुआ और वह उसे रोककर बोला,
"अच्छा, सॉरी!!"
भास्कर के पैर रुक गए, तो व्योम ने आगे बढ़कर उसे गले से लगा लिया। भास्कर का गुस्सा शांत हो गया। व्योम उससे अलग होते हुए बोला,
"मैं जा रहा हूँ। एक क्लाइंट से मिलना है। फिर उधर से ही निकल जाऊँगा। मेरे आने तक मेरे घर का ध्यान रखना!!"
भास्कर ने हाँ में सिर हिलाया और उसे बाय कहा। व्योम भी उसे बाय बोलकर निकल गया।
उसने अपनी कार ली और वहाँ से अपने क्लाइंट के पास निकल गया। रास्ते में ही उसने Google पर कुछ जगह सर्च किए और फिर काफी देर के बाद उसकी खोज ख़त्म हुई अल्मोड़ा पर। उसने अल्मोड़ा पर आर्टिकल पढ़ी और वहाँ जाने का मन बना लिया। उसने मोबाइल से टिकट बुक किया और मोबाइल किनारे फेंक कर बाहर देखते हुए धीरे से बोला,
"अल्मोड़ा।"
लगभग आधे घंटे बाद वह एक आदमी से मिला। उसने उससे कुछ बात की और बदले में उसे कुछ दिया और उस आदमी ने उसे एक सूटकेस दिया जिसमें पैसे थे। व्योम ने उसे थम्स अप किया और वहाँ से बैंक निकल गया। बैंक में उसने वह पैसे जमा किए और फिर निकल गया एयरपोर्ट, अपनी अगली मंजिल अल्मोड़ा के लिए।
जारी है...
पार्थवी अंधेरा होने से पहले उज्ज्वल के साथ घर लौटी थी। लाजो अभी भी कमरे की सफाई कर रही थी। उनका घर वैसा ही था, जैसा पहाड़ी इलाकों का होता है; लकड़ी का बना हुआ, जिसमें नीचे दो कमरे और एक छोटा सा किचन था। बाहर की तरफ से ऊपर जाने के लिए एक ही सीढ़ी थी जो दाएँ और बाएँ तरफ गई हुई थी। बाएँ तरफ की सीढ़ी से पार्थवी का कमरा और एक और कमरा था, जिसमें घर का सामान, मतलब स्टोर रूम, रखा जाता था। दूसरी तरफ की सीढ़ी से जाने पर दो कमरे थे, जो ज़्यादा बड़े तो नहीं थे, लेकिन छोटे भी नहीं थे।
पार्थवी सीढ़ी चढ़कर ऊपर जा रही थी। उसकी नज़र कमरे के खुले दरवाज़े पर पड़ी तो वह अपने कमरे में न जाकर उस कमरे में चली गई जहाँ लाजो सामान व्यवस्थित कर रही थी।
“क्या कर रही हो अम्मा? मेहमान आ रहे हैं क्या?” पार्थवी ने मासूमियत से कहा।
लाजो ने उसके सवाल को नज़रअंदाज़ करते हुए झिड़की दी, “आ गई घूम कर। अब जाकर कपड़े बदलकर नीचे आ जा और भईया को कुछ खिला दे!”
पार्थवी टेढ़े-मेढ़े मुँह बनाने लगी और अपना सिर खुजाते हुए अपने कमरे में चली गई। लाजो ने उसे जाते देखा तो थकी आवाज़ में बोली, “देवी ही जानें क्या करेगी ये लड़की!”
पार्थवी ने अपने कमरे में जाकर अपने कपड़े बदले और स्वेटर और टोपी पहनकर नीचे आ गई। उज्ज्वल भी तब तक कपड़े बदलकर बैठ गया था। पार्थवी जैसे ही नीचे आई, उज्ज्वल ने उसे देखकर डाँटते हुए कहा, “घूम कर आ गई न? अब जाकर पढ़ ले। अगर इस बार दसवीं में फ़ेल या सेकंड आई तो खाना-पीना बंद कर दूँगा। समझी!”
“क्या भईया! हमसे पढ़ा नहीं जाता। ज़बरदस्ती पास हो जाते हैं हमसे। न बोला करिए पढ़ने के लिए!” पार्थवी मुँह बनाते हुए बोली।
उज्ज्वल ने हाथ से इशारा करके उसे अपनी तरफ़ बुलाया। पार्थवी जाकर उसके बगल में बैठ गई। उज्ज्वल ने पार्थवी के सिर पर हाथ रखा और स्नेहपूर्वक बोला, “देख पार्थवी, आज के ज़माने में पढ़े-लिखे लोग ही चल सकते हैं। हम सब तुझे पढ़कर कुछ बनते हुए देखना चाहते हैं। घर की परिस्थिति की वजह से मैं पढ़ नहीं पाया, इसलिए अब तुझे ही कुछ करना होगा। तुझे किसी तरह की कोई दिक्कत हो तो मुझे बोल। मैं तुझे समझाऊँगा। जहाँ कहेगी वहाँ ट्यूशन लगवा दूँगा। बस एक बार तू पढ़-लिखकर इंजीनियर बन जाएगी न, तो आज तक हमने जितना संघर्ष किया है, उसका परिणाम हमें मिल जाएगा!”
पार्थवी को कुछ बातें समझ आईं, तो कुछ उसके सिर से गुज़र गईं। उसने मासूमियत से अपनी पलकें झपकाते हुए उज्ज्वल को देखते हुए कहा, “क्या हमारे इंजीनियर बनने से हमारे घर की समस्या दूर हो जाएगी भईया?”
उज्ज्वल ने मुस्कुराकर हाँ में सिर हिलाते हुए कहा, “हाँ, बिल्कुल!” उसकी बात सुनकर पार्थवी ने खुशी से ताली बजाते हुए कहा, “तब तो हम बहुत पढ़ेंगे भईया और आप सबकी सारी दिक्कत दूर कर देंगे!”
इतने में लाजो वहाँ आ गई और पार्थवी के सिर पर चपत लगाते हुए बोली, “दिक्कत बाद में दूर करना, पहले जाकर भईया को खाना दे दे!”
पार्थवी फिर से मुँह बनाते हुए वहाँ से हट गई और उज्ज्वल को खाना देकर भाग कर अपने कमरे में आ गई।
जैसे-जैसे अंधेरा हो रहा था, वैसे-वैसे अल्मोड़ा की वादियों में ठंड बढ़ रही थी। हल्के-हल्के कोहरे भी नज़र आ रहे थे। लाजो ने आवाज़ दी तो पार्थवी भागकर अपने घर आ गई और खाना खाकर ऊपर अपने कमरे में सो गई। पार्थवी एक बार सो जाए तो नगाड़े बजाने पर भी मुश्किल से उठती थी और आज तो वह उसके हिसाब से थक भी गई थी।
फ़्लाइट लेट होने की वजह से व्योम देर रात तक उत्तराखंड एयरपोर्ट पर पहुँचा। उसने अल्मोड़ा जाने के लिए कैब बुक की और निकल पड़ा अपने इस अनजाने से मंज़िल की तरफ़। लगभग आधी रात को वह अल्मोड़ा शहर में था। वह जब भी कहीं जाता, किसी परिवार में रहने की कोशिश करता और इस बार भी वह करना चाहता था; अल्मोड़ा के आबादी वाले शहर में किसी परिवार के साथ रहना। कैब जब पहाड़ी रास्ते पर चढ़ी, तो कैब वाले ने सहजता से कहा, “भईया, ऊपर कैब जाने में समस्या होगी। आप अकेले ही चले जाएँ!”
व्योम ने शीशे के बाहर इधर-उधर देखा और बिना कुछ बोले अपना बैग लेकर नीचे उतर गया।
आज पार्थवी के बाबा को काम से लौटने में देर हो चुकी थी और वे उसी रास्ते से अपने घर की तरफ़ जा रहे थे।
व्योम कुछ देर तक जहाँ था वहीं खड़ा रहा, फिर अपना बैग लेकर आगे बढ़ गया। पार्थवी के बाबा जब उसके बगल से गुज़रे, तो व्योम ने उन्हें रोकते हुए कहा, “सुनिए!”
अरविंद जी ने व्योम को ऊपर से नीचे देखा और संशय भरे स्वर में बोले, “कहिए!”
व्योम ने सहजता से कहा, “दरअसल मैं यहाँ घूमने आया हूँ और रहने के लिए एक परिवार जैसा माहौल चाहिए। वह क्या है न, अकेला रहना पसंद नहीं मुझे। क्या आप मुझे ऐसे किसी जगह का पता बता सकते हैं?”
व्योम की बात सुनकर अरविंद जी का चेहरा खिल उठा। वे खुशी से बोले, “बेटा, मैं भी घर पर किराए पर देता हूँ पर्यटकों को। हमारा पूरा परिवार है। आप चाहें तो चलकर देख लीजिए और अगर पसंद न आए तो कल सुबह कहीं और देख लीजिएगा!”
व्योम को कुछ राहत मिली। वह आगे बोला, “आज रात देख लूँ, कल सुबह का कल देखते हैं!” अरविंद जी को खुशी हुई और वे व्योम के साथ अपने घर की तरफ़ बढ़ गए।
लाजो जी अपने घर में दरवाज़े पर बैठी अरविंद जी की राह देख रही थीं। उज्ज्वल सो चुका था और लाजो जी अभी तक अरविंद जी के न आने पर मन ही मन खीझ रही थीं। वे रास्ते की तरफ़ देखते हुए झल्लाकर बोलीं, “देर हो तो ये नहीं कि फ़ोन कर दे। नहीं, इन्हें बस देर करना है और फ़ोन स्विच ऑफ़ करना है!”
इतने में उनकी नज़र आते हुए अरविंद जी पर पड़ी। वे फुर्ती से खड़ी हो गईं और आगे बढ़कर कुछ बोलने को हुईं कि उनकी नज़र उनके साथ आ रहे व्योम पर पड़ी।
व्योम को देखकर उनके मन में सवाल उमड़ आए। अरविंद जी ने अपना झोला लाजो जी को पकड़ाया और व्योम की तरफ़ इशारा करते हुए बोले, “ये यहाँ घूमने आए हैं और रहने के लिए पारिवारिक जगह चाहिए। इसलिए इन्हें अपने साथ ले आया हूँ!”
लाजो जी का चेहरा खुशी से चमक उठा और वे उन्हें अंदर आने का इशारा करते हुए बोलीं, “अंदर आइए आप लोग। और आप हाथ-मुँह धोइए, तब मैं कमरा दिखा देती हूँ!”
अरविंद जी ने हाँ में सिर हिलाया और व्योम आसपास की जगहों को देखते हुए लाजो जी के साथ ऊपर चढ़ गया। लाजो जी ने उसे कमरा दिखाते हुए कहा, “ये कमरा है। आप देख लीजिए। फिर कल सुबह जो भी फ़ैसला हो, बता दीजिएगा!” व्योम ने हाँ में सिर हिला दिया और कमरे में चला गया। लाजो वहाँ से चली गई।
व्योम ने कमरे का मुआयना किया। कमरा ठीक था और ज़रूरत की लगभग सारी चीज़ें मौजूद थीं। कमरे में दो खिड़कियाँ थीं, एक बाहर की ओर और दूसरी गलियारे में खुलती थी। व्योम ने गलियारे की खिड़की खोलकर देखा तो सामने पार्थवी के कमरे की लाइट जल रही थी। उसे लगा उसकी तरह और कोई पर्यटक होगा और यह सोचकर उसने इधर-उधर देखकर खिड़की बंद कर दी। उसने पानी से मुँह धोया। पानी हाथ में लेते ही उसकी कंपकपी छूट गई क्योंकि पानी बहुत ठंडा था। उसने जैसे-तैसे मुँह धोया और हल्के कपड़े बदलकर उसने गरम कपड़े पहन लिए क्योंकि यहाँ आने से पहले उसने मुम्बई के मौसम के हिसाब से कपड़े पहने थे और अब उसे ठंड लग रही थी। वह कपड़े बदलकर बिस्तर में आ गया। उसने बाहर से जो खाना लिया था, उसे खाकर पानी पिया और सफ़र की थकावट के कारण बहुत जल्द ही उसे नींद आ गई।
लाजो जी और अरविंद जी भी खाना खाकर सो गए।
जारी है...
अगली सुबह पहाड़ों की सुबह बहुत खूबसूरत होती है, और अल्मोड़ा तो पहाड़ों पर बसा एक बेहद सुंदर शहर था। व्योम अपने कमरे में रजाई में दुबका हुआ अपनी नींद पूरी कर रहा था। चिड़ियों का चहचहाना शुरू हो चुका था। पहाड़ों की सुबह चिड़ियों के चहचहाने से ही शुरू होती थी। व्योम की नींद इन्हीं आवाज़ों से टूटी। वह आँखें मलते हुए उठा और इधर-उधर देखने लगा। सुबह-सुबह काफी ठंड थी वहाँ, इसलिए उसने अपना जैकेट पहना और उबासी लेते हुए रजाई से बाहर आया। उसने बाहर की खिड़की खोली; बाहर का नजारा देखते ही उसकी आँखें थम सी गईं। ऊँचे-ऊँचे पहाड़ और सुबह की लालिमा जिसे बादल ने अपने पीछे छुपा रखा था; ऐसा लग रहा था जैसे बादल पहाड़ों को छूते हुए अपने सफ़र की ओर आगे बढ़ रहे थे और उन बादलों को हसीन बना रहे थे पहाड़ों को भिगाते कोहरे की चादर। हसीन वादियाँ और घने कोहरे अल्मोड़ा की वादियों को खूबसूरत बना रहे थे, जो आँखों को ठंडक पहुँचाने के लिए पर्याप्त थे। ऐसी खूबसूरती व्योम ने पहली बार देखी थी। उसने अपने बैग से कैमरा निकाला और दो-चार तस्वीरें ले लीं।
वह कमरे के दरवाजे पर पहुँचा ही था कि दरवाज़ा नॉक हुआ। उसने दरवाज़ा खोला तो सामने उज्ज्वल खड़ा था। उज्ज्वल को देखकर व्योम की भौंहें सिकुड़ गईं।
"मेरा नाम उज्ज्वल है। अम्मा ने बताया कि कल रात आप यहाँ रहने आए हैं!!" उज्ज्वल मुस्कुराते हुए बोला।
उज्ज्वल की बातों से व्योम समझ गया कि वह अरविंद जी का बेटा है।
"आओ अंदर आओ!!" वह दरवाज़े से हटते हुए बोला।
"नहीं, आप यह गर्म पानी लीजिए। इसी से मुँह-हाथ धोकर या फिर स्नान करके नीचे आ जाइए और नाश्ता कर लीजिए!!" उज्ज्वल धीरे से मुस्कुराकर बोला।
व्योम ने उसके हाथ की तरफ़ देखा तो उज्ज्वल के हाथों में गर्म पानी से भरी हुई बाल्टी थी। व्योम ने हाथ आगे बढ़ाया तो उज्ज्वल एकदम से बोला,
"आप रहने दीजिए, मैं स्नानघर में रख देता हूँ!!"
इतना बोलकर उज्ज्वल वहीं बाहर बालकनी से होते हुए गलियारे में बने बाथरूम में आ गया और पानी रखकर चला गया।
व्योम ने अपना तौलिया लिया और बाथरूम में स्नान करने चला गया। पार्थवी अभी भी सो रही थी। व्योम स्नान करके वापस से अपने कमरे में चला गया। पार्थवी आँखें मसलते हुए उठी और पहले अपने कमरे की खिड़की खोलकर मुस्कुराते हुए बाहर देखने लगी।
"हमारे गाँव की खूबसूरती ही अलग है! सुबह का यह खूबसूरत दृश्य देखकर ऐसा लगता है जैसे हम स्वर्ग में उतर आए हों। ये बादल, ये पहाड़, यहाँ के पेड़, हर एक ज़र्रा यहाँ की खूबसूरती को बढ़ाने में अपनी भागीदारी देता है!!" वह अपनी प्यारी आँखों से बाहर के सुंदर नज़ारे को निहारते हुए बोली।
पार्थवी यही सब सोच रही थी कि नीचे से लाजो के चिल्लाने की आवाज़ आई जो उसे ही बुला रही थी।
"ओ पार्थवी...आज नीचे आ जायेगी या नहीं!!"
पार्थवी ने लाजो की आवाज़ सुनी तो अपने दाँतों तले जीभ दबाते हुए बोली,
"मर गए...अम्मा बहुत डांटेगी!!"
इतना बोलकर पार्थवी जल्दी से बाथरूम में गई और किसी भी बात पर ध्यान दिए बगैर मुँह धोकर नीचे चली गई। वह अपने बालों को स्कार्फ से बाँधते हुए नीचे उतर रही थी और उसी तरफ़ से व्योम भी हाथों में घड़ी बाँधते हुए सीढ़ियों से नीचे ही उतर रहा था।
पार्थवी तेज़ी से नीचे उतरी और जैसे ही उसने सामने देखा उसका पैर मुड़ गया और वह लड़खड़ाकर गिरने को हुई कि व्योम की नज़र उस पर पड़ी और उसने लपक कर पार्थवी का हाथ पकड़ लिया। पार्थवी गिरने के डर से जोर से चीखी और अपनी आँखें मींच लीं। पार्थवी की आवाज़ सुनकर नीचे से अरविंद जी, लाजो और उज्ज्वल जल्दी से ऊपर की ओर भागे। व्योम ने अपनी गहरी नज़र आँखें बंद किए पार्थवी पर डाली और उसकी नज़र पार्थवी के चेहरे पर जाकर ठहर सी गई।
हल्के रंग की सूरत, लेकिन मासूम सा चेहरा, खड़ी नाक और खूबसूरती से तराशे गए होंठ और काले लंबे बाल जो काफी खूबसूरत थे। व्योम खुद को भूलकर पार्थवी को देखने लगा।
पार्थवी ने धीरे-धीरे अपनी आँखें खोलीं और सामने एक अजनबी इंसान को देखकर उसकी बड़ी आँखें और भी बड़ी हो गईं। तब-तब नीचे से वे तीनों भी आ गए और पार्थवी को ऐसे देखकर अरविंद जी बोले,
"क्या हुआ?"
अरविंद जी की आवाज़ पर पार्थवी और व्योम दोनों ही होश में आए और पार्थवी खुद को संभालते हुए सीधी खड़ी हो गई। उज्ज्वल भागकर उसके पास आया तो व्योम पार्थवी के बारे में कुछ भी जाने बगैर बोला,
"ये गिर रही थीं तो मैंने हाथ पकड़ लिया। सॉरी!!"
व्योम ने सॉरी पार्थवी को देखकर कहा तो पार्थवी अपनी आँखें छोटी करके उसे घूरने लगी।
लाजो जी यह सुनते ही पार्थवी को डाँटते हुए बोलीं,
"लंबी हो गई है लेकिन चलने की अकल नहीं है। जब देख तब गिरते रहती है। कब अकल आएगी तुझे पार्थवी? क्यों है तू इतनी अल्हड़!!"
पार्थवी टेढ़े-मेढ़े मुँह बनाते हुए लाजो जी को देखने लगी और व्योम पार्थवी की हरकतें सुनकर मन ही मन मुस्कुरा दिया। अरविंद जी ने व्योम को नीचे चलने के लिए कहा तो सभी नीचे चल दिए।
अरविंद जी ने सबको नाश्ते के लिए बैठाया तो थोड़े से इंकार के बाद व्योम भी नाश्ता करने लगा। लाजो जी ने नाश्ते में उत्तराखंड की प्रसिद्ध सब्जी कंडाली का साग बनाया था। कंडाली का साग वहाँ के प्रसिद्ध व्यंजनों में से एक था जो मुख्य रूप से ठंड में बनता था। व्योम को यह चीज़ काफी पसंद आई।
नाश्ता करते हुए अरविंद जी ने व्योम से पूछा,
"तो बेटा, कमरा पसंद आया या कहीं और रहना चाहोगे?"
व्योम कुछ कहता उससे पहले पार्थवी आई और रोटी रखकर चली गई। व्योम पार्थवी के मासूम चेहरे को देखते रह गया। व्योम को चुप देखकर अरविंद जी ने वही सवाल किया तो व्योम सहजता से मुस्कुराते हुए बोला,
"आप किराया बता दीजिए। मैं यहाँ कब तक ठहरूँगा नहीं जानता, इसलिए जितने दिन का भी किराया हो आप मुझे बेझिझक कह दीजिए!!"
अरविंद जी के साथ-साथ लाजो जी और उज्ज्वल भी यह सुनकर मुस्कुरा दिए जबकि पार्थवी चिढ़कर बोली,
"ये कोई शहरी बाबू लग रहा है। अब फिर से किसी शहरी बाबू को झेलना पड़ेगा!!"
बाकी सब ने नाश्ता किया और व्योम नाश्ते के बाद ऊपर चला गया और अरविंद जी अपने काम पर और उज्ज्वल भी अपने काम के लिए निकल गया। आज अरविंद जी को सुबह में काम मिला था इसलिए वे समय से निकल गए।
नीचे पार्थवी और लाजो जी रह गए। दोनों साथ नाश्ता करने लगे तो लाजो खाते हुए बोली,
"तूने उन्हें धन्यवाद कहा?"
पार्थवी जो कि अब तक सब कुछ भूल चुकी थी, वह अपने मुँह खाना ठुसते हुए बोली,
"किसे?"
लाजो जी खीझकर बोलीं,
"शहर से आए नए मेहमान को, जिसने कुछ देर पहले तुझे गिरने से बचाया था!!"
पार्थवी मुँह बनाते हुए बोली,
"हम नहीं बोल रहे हैं अम्मा। हमने थोड़े न कहा था कि हमें बचाए!!"
लाजो जी ने अब उसे आँखें दिखाते हुए कहा,
"तू चौपट ही रहेगी। अभी नाश्ता करके ऊपर जा और उन्हें धन्यवाद कहकर आ!!"
पार्थवी अलसाते हुए बोली,
"अम्मा!!"
लेकिन उसकी बात पूरी होने से पहले ही लाजो जी ने उसे आँखें दिखाया तो पार्थवी चुप हो गई और फिर थोड़ी देर बाद धीरे से बोली,
"ठीक है, बोल देते हैं जाकर!!"
इतना बोलकर पार्थवी नाश्ता अधूरा ही छोड़कर उठ गई और अपने हाथ धोकर ऊपर चली गई। वह भुनभुनाते हुए ऊपर चढ़ी और व्योम के दरवाज़े को खटखटाया। वह उस समय किसी से कॉल पर बात कर रहा था। दरवाज़े पर नॉक की आवाज़ पर सामने देखा तो पार्थवी बच्चों जैसी हरकतें करती हुई बाहर देख रही थी। व्योम मुस्कुरा उठा और उसके सामने जाकर खड़ा हो गया और बोला,
"बोलो!!"
उसकी आवाज़ पर पार्थवी ने उसकी तरफ़ देखा और अपने सिर खुजाते हुए बोली,
"वो शहरी बाबू जी...वो...वो अम्मा कह रही हैं कि आपने गिरने से बचाया है तो..."
"तो...?" व्योम ने भौंहें उचकाकर कहा।
पार्थवी मुँह बनाते हुए बोली,
"आपको धन्यवाद कह दूँ!!"
व्योम फुर्ती से बोला,
"तो बोलो!!"
"हैं...!!" पार्थवी अचरज से बोली।
व्योम अपने हाथ बाँधकर खड़ा हो गया और सहज भाव से बोला,
"धन्यवाद बोलो। तुम्हारी अम्मा ने कहा ना!!"
पार्थवी पहले तो अचरज से उसकी बातें सुनती रही फिर धन्यवाद बोलकर तेज़ी से नीचे भाग गई। उसके जाते ही व्योम अपने मोबाइल की तरफ़ देखकर मुस्कुरा दिया फिर दरवाज़े की तरफ़ देखकर धीरे से बोला,
"शहरी बाबू जी!!"
पार्थवी नीचे से सीधे रत्ना के पास जाने लगी कि लाजो जी ने उसे रोकते हुए कहा,
"कहाँ जा रही है?"
पार्थवी ने आँखें मींचते हुए कहा,
"वो...वो अम्मा...वो!!"
बोलते-बोलते पार्थवी पीछे घूमी तो लाजो जी छड़ी लेकर खड़ी थीं। छड़ी देखते ही पार्थवी उल्टे पाँव ऊपर की तरफ़ भागी और लाजो जी वापस से अपने घर में चली गईं।
व्योम तैयार होकर नीचे आया और लाजो जी के पास जाकर बोला,
"मुझे यहाँ घूमने जाना है लेकिन रास्ते की जानकारी नहीं है। क्या आप कुछ बता सकती हैं? देर रात आने की वजह से मैं कोई गाइड बुक नहीं कर पाया। एक-दो दिन में कर लूँगा, तब तक के लिए कोई है जो घूमने की जगह पर ले जा सके?"
लाजो जी सोच में पड़ गईं। कुछ सोचते हुए वे बोलीं,
"बेटा, मैं तो जानती हूँ लेकिन घुमाने लायक नहीं जानती!!"
व्योम मायूस हो गया तो लाजो जी कुछ सोचते हुए बोलीं,
"पार्थवी जानती है। वह अक्सर घूमने वालों को यहाँ के बारे में बताती रहती है। मैं उसे कहती हूँ, वह ले जाएगी आपको!!"
लाजो जी ने इतना बोलकर पार्थवी को आवाज़ दी तो वह नाराज़ सी नीचे आ गई। पार्थवी को देखकर व्योम मुस्कुरा दिया और लाजो जी के कहने पर पार्थवी ने घूरते हुए व्योम को देखा और फिर लाजो जी से बोली,
"अम्मा...हमें ज़्यादा नहीं आता, थोड़ा बहुत बोल देते हैं!!"
लाजो जी उसे डाँटते हुए बोलीं,
"सब जानती हूँ मैं तुझे कितना आता है। ले जा इन्हें। ये एक-दो दिन में किसी और को देख लेंगे, समझी!!"
पार्थवी चिढ़ सी गई। जब से वह व्योम से मिली थी तब से उसे सिर्फ़ डाँट पड़ रही थी इसलिए वह व्योम से चिढ़ रही थी। लाजो जी की बात मानने के अलावा और कोई रास्ता नहीं था तो वह नाराज़ सी बोली,
"आइए शहरी बाबू जी!!"
इतना बोलकर पार्थवी आगे बढ़ गई और उसके पीछे-पीछे व्योम अपना कैमरा लेकर निकल पड़ा।
जारी है...
लाजो जी की बात मानने के अलावा और कोई रास्ता नहीं था। वह नाराज सी बोली, "आइए शहरी बाबू जी!!"
इतना बोलकर पार्थवी आगे बढ़ गई और उसके पीछे-पीछे व्योम अपना कैमरा लेकर निकल पड़ा। उनके जाने के बाद लाजो जी भी अंदर चली गईं।
पार्थवी आगे-आगे चल रही थी और व्योम उसके पीछे-पीछे। उसने एक गहरी निगाह ऊपर से नीचे पार्थवी पर डाली और फिर इधर-उधर देखने लगा। पार्थवी उसे घुमाते हुए पहाड़ी के ऊपर ले गई और खामोशी से खड़ी हो गई। व्योम भी आकर उसके बगल में खड़ा हो गया। वह पार्थवी के बोलने का इंतज़ार करने लगा, लेकिन पार्थवी नहीं बोली। कुछ देर बाद व्योम गला साफ करते हुए बोला, "तुम मुझे घुमाने लाई हो तो बताओ यहां के बारे में!!"
पार्थवी ने धीरे से कहा, "देखने लाये हैं तो देखिए ना!!"
व्योम सिर हिलाते हुए बोला, "कुछ कहा तुमने?"
पार्थवी ने अपने दांतों तले जीभ दबा ली और फिर संभलते हुए मासूमियत से बोली, "नहीं तो!!"
"हूँ... अब कुछ बता दो, तब तक मैं कुछ तस्वीरें ले लेता हूँ!!" व्योम सिर हिलाते हुए बोला।
पार्थवी व्योम को पहाड़ी के ऊपर से खड़े होकर वहाँ की खूबसूरती के बारे में बताने लगी और व्योम तस्वीरें लेने लगा। पार्थवी अनजान थी कि व्योम खूबसूरती देखने के बहाने उसकी ही तस्वीरें ले रहा था।
यकायक पार्थवी मुड़ी और व्योम का कैमरा अपनी तरफ देखकर उसे एकटक देखने लगी। व्योम पार्थवी के मुड़ने पर घबरा गया और कैमरा इधर-उधर करने लगा। उसे घबराते देखकर पार्थवी भोलेपन से बोली, "क्या हुआ शहरी बाबू जी... आप ऐसे क्यों हड़बड़ा रहे हैं?"
व्योम ने अपनी आँख से कैमरा हटाया और उसे देखने लगा। पार्थवी अपने हाथ से पहाड़ी वादियों को दिखाते हुए बोली, "पहाड़ों की सुंदरता ही अलग होती है शहरी बाबू जी, इन्हें देखकर आँखों को ठंडक मिलती है!!"
व्योम मुस्कुराकर उसकी तरफ बढ़ा और उसके बगल में खड़ा होकर बोला, "तुम्हें मिलती है ठंडक?"
पार्थवी ने झट से अपनी गर्दन हाँ में हिलाते हुए कहा, "हमारे लिए तो स्वर्ग है हमारा गाँव... ये जगह हमारी दुनिया है शहरी साहेब जी। यहाँ के पेड़, पहाड़, बादल सब हमें पहचानते हैं और बचपन से इन्हीं के साथ बड़े हुए हैं हम!!"
व्योम पार्थवी को देखते हुए सहजता से बोला, "पहले तो ये तुम बात-बात पर 'शहरी बाबू जी' बोलना बंद करो... नाम से बुलाओ मुझे!!"
पार्थवी ने अचरज करते हुए कहा, "हो... नहीं, हम आपको नाम से नहीं बुला सकते हैं!!"
"क्यों?"
"आप हमसे बड़े हैं ना इसलिए!!" पार्थवी अपनी पलकें अनगिनत बार झपकाते हुए बोली। व्योम कुछ देर उसके चेहरे को देखता रहा, फिर शांत स्वर में बोला, "ठीक है, लेकिन ये 'शहरी' कहना बंद करो, समझी तुम!!"
"शहरी ना बुलाएँ तो फिर क्या बुलाएँ आपको?" पार्थवी अपने होंठों पर उंगली रख सोचते हुए बोली। व्योम सिर नीचे करके मुस्कुरा दिया और फिर उसे देखते हुए बोला, "तुम मुझे सिर्फ बाबू जी भी बोल सकती हो!!"
व्योम की बात सुनकर पार्थवी का चेहरा खिल गया और वह बच्चों की तरह चहकते हुए बोली, "अरे हाँ... ये तो हमने सोचा ही नहीं... अब से हम आपको बाबू जी ही बुलाएँगे!!"
व्योम ने हाँ में सिर हिला दिया और पार्थवी उसे पहाड़ों से लेकर आगे बढ़ गई। घूमते-घूमते पार्थवी अपनी नाराजगी व्योम से भूल चुकी थी और उसके साथ अपने चुलबुले व्यवहार के कारण काफी सहज हो चुकी थी।
उन्हें घूमते हुए दोपहर हो गई और दोपहर की धूप काफी सुहावनी लग रही थी। ऊँचे पर्वतों के पेड़ों पर सूरज अपनी रौशनी बिखेर रहा था, जिनकी वजह से कहीं धूप तो कहीं छाँव हो रखी थी, जो एक अलग ही कलाकारी लग रही थी। पेड़ों की परछाइयाँ जमीन पर किसी कलाकारी का नमूना लग रही थीं, तो ऊपर नीले आकाश में कहीं-कहीं पर बिखरे बादल को देखकर ऐसा लग रहा था जैसे किसी रंगसाज ने अपने-अपने रंग आसमान में उड़ेलकर उन्हें खूबसूरती में ढाल दिया हो। व्योम ये सारे दृश्य अपने कैमरे में कैद कर रहा था और साथ ही कैद कर रहा था पार्थवी की मासूमियत और निश्छलता को, जो बात-बात पर खिलखिलाकर हँस दे रही थी।
दोपहर होने पर दोनों पहाड़ों से नीचे उतरने लगे। बीच पहाड़ में ही एक चरवाहा अपनी बकरियाँ ऊपर ले जा रहा था उन्हें घास चराने। उन बकरियों में उनके मेमने भी थे, जिन्हें देखकर पार्थवी मचल उठी और "भईया-भईया" बोलकर जाकर एक मेमने को अपनी गोद में उठा लिया। व्योम मुस्कुराते हुए दूर खड़ा उसे देख रहा था। पार्थवी ने मेमने को चूमते हुए व्योम की तरफ बढ़ा दिया। व्योम ने हँसते हुए ना में हाथ हिलाया, तो पार्थवी ने जबरन उसका हाथ पकड़ लिया। पार्थवी के हाथ पकड़ने से व्योम को ऐसा लगा जैसे सारी सृष्टि थम सी गई हो और वह एकटक पार्थवी को देखने लगा।
पार्थवी अपनी मासूमियत की वजह से अनजान, व्योम के हाथ से मेमने को स्पर्श करवाते हुए बोली, "कुछ नहीं होता है बाबू जी... छूकर तो देखिए!!"
व्योम ने अपना हाथ पार्थवी के हाथ से छुड़ाते हुए कहा, "मैं जानता हूँ कुछ नहीं होता है, लेकिन अभी तुम ही खेलो इससे!!" इतना बोलकर व्योम पीछे हो गया और पार्थवी भी कंधे उचकाकर किनारे हो गई और मेमने के साथ खेलने लगी। वह मेमने को कभी प्यार से सहलाती तो कभी उसके चेहरे को अपने नाक से छूती। व्योम पार्थवी की इन मासूमियत भरी हरकतों से खुद को मुस्कुराने से नहीं रोक पा रहा था। वह अपनी मुस्कान छुपाने के लिए इधर-उधर देखने लगा। तभी उसका मोबाइल रिंग हुआ। उसने फोन देखा तो उसके होंठों पर मुस्कराहट आ गई। उसने किनारे जाकर कॉल रिसीव किया।
"हैलो!!"
उधर से कुछ बोला गया, जिसे सुनकर व्योम मुस्कुराते हुए बोला, "डॉन्ट वरी सर... प्रोडक्ट की डिलीवरी बहुत अच्छी और बिल्कुल समय पर होगी!!"
उधर से फिर कुछ कहा गया, तो व्योम हँसते हुए बोला, "आप मेरे प्रोडक्ट हमेशा लेते हैं, हमेशा ए वन होता है, तो इस बार भी प्रोडक्ट लाजवाब होगा!!"
उधर से कुछ कहकर कॉल रख दिया गया और व्योम मुस्कुराते हुए वापस पार्थवी के पास आ गया, जो मेमने को दे चुकी थी और व्योम को बात करते देख उसके आने का इंतज़ार कर रही थी। उसके आते ही पार्थवी मुस्कुराकर बोली, "बाबू जी, अब भूख लग रही है, हमें घर चलना चाहिए!!"
व्योम सहजता से बोला, "घर क्यों? यहीं बाहर खा लेते हैं ना?"
पार्थवी ने तुरंत ना में सिर हिलाया और व्योम को समझाते हुए बोली, "नहीं साहेब जी... ये जो होटल वाले लोग हैं ना, वो लूटते हैं!!"
व्योम ने भौंहें उचकाकर उसकी तरफ देखा, तो पार्थवी अपनी उंगली पर हिसाब करते हुए मासूमियत से बोली, "जो खाना हम पाँच रुपये में तैयार कर सकते हैं, ये लोग सौ रुपये ले लेते हैं और सबको ठग लेते हैं!!"
व्योम हँसते हुए बोला, "ये उनका काम है पार्थवी!!"
पार्थवी मुँह बनाते हुए बोली, "हम नहीं मानते हैं साहेब जी, ऐसा कुछ... ये तो चोरी हुई ना!!"
व्योम एक बार फिर पार्थवी की मासूमियत के सामने निशब्द हो गया और इधर-उधर देखते हुए मुस्कुराने लगा।
पार्थवी आगे बढ़ी, तो व्योम उसे रोकते हुए बोला, "रहने दो पार्थवी, यहीं खा लेते हैं... शाम तक घर चलेंगे!!"
पार्थवी कुछ सोचते हुए बोली, "अम्मा घर पर इंतज़ार कर रही होंगी!!"
व्योम उसे समझाते हुए बोला, "नहीं कर रही होंगी। तुम्हारी अम्मा समझदार हैं, वो समझती हैं, इसीलिए तो तुम्हें मेरे साथ भेजा है!!"
पार्थवी मुस्कुराकर बोली, "ठीक है, मान लेते हैं, लेकिन अगर अम्मा हमें डाँटे तो आप बचा लीजिएगा हमें!!"
व्योम ने हँसते हुए कहा, "ठीक है, बचा लूँगा। अब चलो... मुझे भी भूख लग रही है!!"
पार्थवी ने हाँ में सिर हिलाया और वे दोनों पहाड़ी से नीचे उतरकर वहीं पास बने एक होटल में चले गए। वहाँ उन्होंने खाना खाया, जिसका बिल व्योम ने दिया और फिर दोनों कुछ देर वहीं होटल के बाहर आकर धूप सेंकने लगे।
व्योम पहाड़ों को देखते हुए मुस्कुराकर बोला, "तुम सही कहती हो, यहाँ स्वर्ग है!!"
पार्थवी हँसते हुए बोली, "आपका पहला दिन है बाबू जी, आज अभी तो बहुत कुछ बाकी है। एक बार आपने अल्मोड़ा देख लिया, तो फिर यहीं रहने का दिल करेगा आपका!!"
व्योम उसकी बात पर बोला, "तुम इतनी सुंदर जगह हो, तो तुम्हें तो कहीं जाने का मन नहीं होता होगा, है ना?"
पार्थवी मुँह बनाते हुए बोली, "हमें शहर देखने की बड़ी इच्छा होती है। मोबाइल में देखते हैं ना हम कि वहाँ के लोग कैसे रहते हैं, सारी लड़कियाँ काम करती हैं, जो मन में आए करते हैं। कितना अच्छा होता है ना वहाँ सब!!"
पार्थवी की बात सुनकर कुछ देर के लिए व्योम के चेहरे का रंग बदल गया और वह कुछ सोचने लगा। उसे चुप देखकर पार्थवी अपने दोनों हाथों को एक-दूसरे में फँसाते हुए बोली, "बोलिए ना बाबू जी... कैसा होता है शहर का जीवन? बिल्कुल किसी खूबसूरत दुनिया की तरह ना?"
व्योम अपनी सोच की दुनिया से बाहर आया और बड़ी सहजता से बोला, "तुम अभी कुछ देर पहले कह रही थी ना कि ये जगह तुम्हारे लिए दुनिया है, ऐसा क्यों कहा?"
पार्थवी हमेशा की तरह भोलेपन से बोली, "वो बाबू जी, इसलिए क्योंकि यहाँ सुकून है... यहाँ लोगों में भीड़ नहीं, एकता है। यहाँ के लोग ही नहीं, उनके दिल भी खूबसूरत हैं!!"
व्योम ने हाँ में सिर हिलाते हुए कहा, "तो बस समझ लो... ये जो तुम्हारी दुनिया है ना, वो सच में खूबसूरत है, जैसी बाहर से वैसी ही अंदर से भी... लेकिन शहरों का जीवन एक छलावा है, जो बाहर से दिखने में बेहद खूबसूरत है, लेकिन जब इसके अंदर झाँका तो एक जाल है और ऐसा जाल जहाँ से कोई निकल नहीं सकता है!!"
पार्थवी मुँह बनाते हुए बोली, "क्या बाबू जी? आपसे बातें पूछा था हमने और आप हैं कि डरा रहे हैं... रहने दीजिए आप, कहीं और चलते हैं अब!!"
व्योम ने कुछ नहीं कहा और पार्थवी की बात पर सहमति जताते हुए उसे कहीं और चलने को कहा। पार्थवी आगे बढ़ी, तो व्योम उसे टोकते हुए बोला, "अब कहाँ चल रहे हैं? ये तो बता दो!!"
पार्थवी मुस्कुराकर बोली, "अब हम आपको अपने पसंदीदा स्थान पर ले चलेंगे!!"
व्योम ने असमंजस में उसे देखा, तो पार्थवी चलते हुए बोली, "वो जगह यहाँ से बस तीन किलोमीटर दूर है... आप इतनी दूर पैदल चल सकते हैं ना?"
व्योम ने हाँ में सिर हिलाते हुए कहा, "हाँ, चल सकता हूँ, लेकिन जगह का नाम तो बता दो!!"
"हम आपको सूर्यास्त दिखाने ले चल रहे हैं!!"
"यू मीन सनसेट पॉइंट?" व्योम ने सवाल किया, तो पार्थवी ने हाँ में सिर हिलाया। व्योम उसके पीछे-पीछे चल पड़ा।
कुछ देर चलने पर व्योम थककर एक पत्थर पर बैठ गया। पार्थवी उसे बैठा देखकर जोर-जोर से हँसने लगी। व्योम ने उसे हँसते देखा, तो उसे घूरते हुए बोला, "क्या हुआ? तुम हँस क्यों रही हो?"
पार्थवी अपनी हँसी रोकते हुए बोली, "आप इतने में ही थक गए... हम तो रोज़ाना यहाँ आना-जाना करते हैं!!"
व्योम मुँह बनाते हुए बोला, "हाँ, तो तुम्हें आदत है इन सबकी!!"
पार्थवी ने आगे बढ़कर व्योम की तरफ अपना हाथ बढ़ाते हुए कहा, "ठीक है बाबू जी... फिर आप हमारा हाथ पकड़ लीजिए, इससे थकावट कम होगी!!"
व्योम ने हैरानी से उसे देखा, तो पार्थवी ने उसका हाथ स्वयं ही पकड़ लिया और चंचलता से बोली, "अब चलिए... वहाँ ऊपर भी चढ़ना है, नहीं तो सूर्यास्त नहीं देख पाएँगे!!"
व्योम ने एक नज़र अपने हाथ को देखा और किसी विचार में गुम, वह सिर हिलाकर उसी तरह आगे बढ़ गया।
जारी है...
पार्थवी ने आगे बढ़कर व्योम की तरफ अपना हाथ बढ़ाते हुए कहा, "ठीक है बाबू जी... फिर आप हमारा हाथ पकड़ लीजिए इससे थकावट कम होगी!!"
व्योम ने हैरानी से उसे देखा। पार्थवी ने उसका हाथ स्वयं ही पकड़ लिया और चंचलता से बोली, "अब चलिए... वहाँ ऊपर भी चढ़ना है नहीं तो सूर्यास्त नहीं देख पाएंगे!!"
व्योम ने एक नज़र अपने हाथ को देखा और किसी विचार में गुम, सिर हिलाकर उसी तरह आगे बढ़ गया।
व्योम का हाथ पार्थवी के हाथ में था। पार्थवी बिना किसी परवाह के बकबक करते हुए आगे चल रही थी। व्योम ने चलते-चलते अपने हाथों को देखा और अपने बाएँ तरफ़ देखते हुए मुस्कुरा दिया। पार्थवी का हाथ पकड़े हुए व्योम अब चढ़ाई कर रहा था। व्योम को थकावट हो रही थी, लेकिन पार्थवी अभी भी बिल्कुल सुबह की तरह फ्रेश और जोश से भरी हुई थी। व्योम चलते-चलते हांफने लगा और हांफते हुए बोला, "रुक जाओ... रुक जाओ यार अब मैं थक रहा हूँ!!"
पार्थवी रुक गई और उसे हैरानी से देखते हुए बोली, "आप थक गए?"
व्योम ने हांफते हुए हाँ में सिर हिलाया। पार्थवी मचलते हुए बोली, "आप आराम बाद में कीजिएगा... चलिए नहीं तो देर हो जाएगी!!"
व्योम सहजता से बोला, "क्या है पार्थवी, साँस तो लेने दो!!"
पार्थवी ने ना में सिर हिलाया और उसका हाथ पकड़कर उसे खींचते हुए बोली, "जल्दी चलिए बस... ऊपर चलकर साँसे ले लीजिएगा नहीं तो जो देखने जा रहे हैं वो छूट जाएगा!!"
व्योम जो अभी तक थका हुआ था, पार्थवी के भोलेपन को देखकर अपनी थकान भूलकर आगे बढ़ने लगा। व्योम और पार्थवी लगभग आधे घंटे बाद सनसेट पॉइंट के ऊपर थे। ऊपर आते ही पार्थवी ने व्योम का हाथ छोड़ दिया और जोर से उछलते हुए बोली, "वाह... ये है हमारा सबसे पसंदीदा नज़ारा...!!"
व्योम, न चाहते हुए भी, पार्थवी के इस अबोध व्यवहार की तरफ़ आकर्षित हो रहा था। इसी कारण वो अभी सूर्यास्त देखने के बजाय पार्थवी के चमकते चेहरे को देख रहा था, जो सूर्य की पीली रोशनी में सोने की तरह नज़र आ रहा था। व्योम ने छुपकर पार्थवी की एक तस्वीर ले ली और अब सूर्यास्त को देखने लगा। दिन छोटा होने की वजह से सूर्यास्त भी जल्द होने के कगार पर था। सूरज धीरे-धीरे पहाड़ों के पीछे छुप रहा था और सारा आकाश लालिमा लिए सौंदर्य से भरा हुआ लग रहा था।
व्योम डूबते हुए सूरज को देखने लगा, जिसकी खूबसूरती ने उसे पलक न झपकाने पर मजबूर कर दिया। व्योम अपलक सनसेट को देख रहा था। इतना सुंदर दृश्य उसने कभी नहीं देखा था। धीरे-धीरे दिन भर का थका सूरज पहाड़ों के पीछे छुप गया और अंधेरा होने लगा। व्योम ने कुछ तस्वीरें ले ली थीं। उसके बाद वो और पार्थवी घर के लिए निकल गए। अंधेरा होने से ठंड बढ़ गई थी और पार्थवी को अब ठंड लग रही थी।
वो दोनों सनसेट पॉइंट से नीचे उतर आए थे और अब सड़क किनारे खड़े होकर ऑटो का वेट कर रहे थे जो उन्हें घर तक पहुँचा दे। व्योम ने खुद को ढँककर रखा था, लेकिन पार्थवी ने बालों में सिर्फ़ स्कार्फ़ बाँध रखा था, जिसकी वजह से खुले बालों में अब उसे ठंड लग रही थी। वो अपने बाजू सहलाते हुए खुद को ठंड से बचाने की कोशिश कर रही थी। यह देखकर व्योम उसके नज़दीक आ गया और उसकी हथेली को अपनी हथेली से थामते हुए रगड़ने लगा।
व्योम के अचानक इस तरह हाथ थामने से पार्थवी को अनायास ही कुछ अजीब सा लगा और वो ठंड की वजह से नहीं, एक नए एहसास से सिहर गई। व्योम ने हथेली रगड़ते हुए पार्थवी की ओर देखा, जो कुछ नए अंदाज़ से व्योम को ही देख रही थी। व्योम उसकी नज़रों के इस नए अंदाज़ को भांपते हुए प्यार से बोला, "ज़्यादा ठंड लग रही है?"
पार्थवी किसी मोहवश धीरे से बोली, "हाँ!!"
पार्थवी की बात सुनकर व्योम ने बिना देर किए पार्थवी के चेहरे को अपने हाथों में भर लिया और धीरे-धीरे उसके चेहरे को सहलाने लगा। पार्थवी ने सोचा नहीं था, लेकिन फिर भी हैरानी की जगह उसकी आँखें शर्म से नीची हो गईं और बंद हो गईं। पार्थवी की आँखें बंद देखकर व्योम किसी मोहपाश में बंधा, उसके और करीब आ गया और उसे अपने आगोश में लेने के लिए अपनी बाहें फैला दी। वो पार्थवी को अपने सीने से लगा पाता उससे पहले ही हॉर्न सुनाई दी और पार्थवी और व्योम की तंद्रा टूट गई। दोनों तुरंत अलग हुए और व्योम आवाज़ की दिशा में देखने लगा। एक ऑटोवाला उन्हें आने के लिए कह रहा था। व्योम ने उससे कुछ बात की और दोनों ऑटो में बैठकर घर निकल गए।
कुछ देर पहले जो हुआ वो पार्थवी भूल चुकी थी और फिर से अपने अल्हड़ वाले रूप में आ गई। ऑटो स्टार्ट होते ही पार्थवी खुश होकर बोली, "आज काफ़ी अच्छा लगा बाबू जी घूमने में... हमें तो अच्छा लगा, आपको कैसा लगा?"
व्योम बाहर देखते हुए बोला, "अच्छा लगा?"
पार्थवी मायूस होकर बोली, "सिर्फ़ अच्छा लगा?"
व्योम धीरे से मुस्कुरा दिया और अब उसकी तरफ़ देखते हुए बोला, "नहीं... बहुत अच्छा लगा!!"
व्योम का जवाब सुनकर पार्थवी बच्चों की तरह खिलखिला कर हँस पड़ी और फिर अपनी हँसी रोकते हुए बोली, "हम जानते थे हमारा गाँव है ही इतना प्यारा कि यहाँ कोई आए तो तारीफ़ किए बगैर नहीं रह सकता!!"
व्योम ने मुस्कुराते हुए हाँ में सिर हिला दिया। इसी तरह बातें करते दोनों पार्थवी के घर के नीचे पहुँच गए और पैदल ही ऊपर चढ़ने लगे। ऊपर चढ़ते हुए व्योम कुछ सोचते हुए पार्थवी से बोला, "तुम इतने अंधेरे में मेरे साथ आ रही हो, कोई कुछ कहेगा नहीं?"
पार्थवी बेपरवाही से बोली, "कोई कुछ क्यों कहेगा... हम तो आपको घुमाने ले गए थे न फिर!!"
व्योम आगे बोला, "तुम यंग हो और मैं भी यंग हूँ, ऐसे में दोनों एक साथ रहेंगे तो लोग तो बातें करेंगे न पार्थवी?"
पार्थवी असमझ भाव से रुककर व्योम को देखने लगी। व्योम ने भौंहें उचकाकर कहा, "क्या हुआ, रुक क्यों गई?"
पार्थवी उसी भाव से बोली, "क्या बातें करेंगे बाबू जी... हम तो घूम रहे थे तो वही बातें करेंगे न और भी कुछ बोलेंगे क्या... कहीं हमें देर से आने के कारण डाँट तो नहीं पड़ेगी न!!"
व्योम पार्थवी के इस भोलेपन पर बस उसे देखता रह गया, जबकि पार्थवी का लहजा अब डर में बदल गया। पार्थवी डरते हुए बोली, "डाँट पड़ेगी तो अम्मा मारेंगी... बाबू जी आप हमें सबकी डाँट से बचा लेना... बचाइएगा न, बोलिए?"
पार्थवी के सवाल पर व्योम ने अपना सिर झटका और मुस्कुराते हुए बोला, "परेशान मत हो, कोई कुछ नहीं कहेगा... मैं बस मज़ाक कर रहा था!!"
पार्थवी के भाव सहज हो गए और वो चिढ़कर बोली, "क्या बाबू जी, आपने हमें डरा दिया था... जाइए, हम बात नहीं करते हैं आपसे!!" इतना बोलकर पार्थवी मचलते हुए आगे बढ़ गई। व्योम मुस्कुरा दिया और उसे मनाने के लिए उसके पीछे उसे आवाज़ देते हुए बढ़ने लगा। लेकिन पार्थवी, ठहरी मासूम किसी बच्चे की तरह, वो जिद पर अड़ गई और सीधा घर के सामने ही आकर रुक गई।
व्योम ने सबके सामने कुछ भी सही नहीं समझा। उनकी आवाज़ सुनते ही लाजो जी अंदर से बाहर आईं और उन दोनों को देखते ही मुस्कुराकर बोलीं, "कैसा लगा व्योम बाबू आपको घूमने में... इसने ज़्यादा परेशान तो नहीं किया आपको?"
व्योम पार्थवी की तरफ़ देखते हुए बोला, "नहीं आंटी, बिल्कुल भी नहीं... बल्कि पार्थवी की वजह से मुझे अकेलेपन का एहसास नहीं हुआ। बहुत भोली है पार्थवी और चंचल भी!!"
व्योम की बात पर पार्थवी तुनुकते हुए अपने कमरे की सीढ़ियाँ चढ़ने लगी। लाजो जी व्योम की बात पर बोलीं, "हाँ, सो तो है। इसकी वजह से घर में चहल-पहल रहती है... लेकिन कभी-कभी डर लगता है कहीं इसकी मासूमियत का लोग फ़ायदा न उठा लें... इसका मन बिल्कुल शीशे की तरह साफ़ है, किसी तरह का छल-कपट नहीं है न!!"
व्योम पार्थवी के कमरे की तरफ़ देखते हुए मुस्कुराकर बोला, "चिंता मत कीजिए... ऐसा कुछ नहीं होगा!!"
लाजो जी अब बात बदलते हुए बोलीं, "आप थककर आए होंगे, आराम कर लीजिए। तब तक मैं खाना लगा देती हूँ!!"
व्योम सहज होकर बोला, "अंकल और उज्ज्वल आ गए क्या?"
"नहीं... लेकिन कुछ देर में आ जाएँगे!!"
व्योम मुस्कुराकर बोला, "तब रहने दीजिए... उनके आने के बाद ही खाऊँगा... आप बेवजह ज़्यादा परेशान न हों!!"
लाजो संकोच करते हुए बोलीं, "लेकिन व्योम बाबू, आप मेहमान हैं और मेहमान को ऐसे इंतज़ार नहीं करवाते!!"
व्योम ने मुस्कुराकर कहा, "आंटी, मैं अकेले रहता हूँ... माँ-बाप, भाई-बहन कोई नहीं है मेरे पास... इसलिए जहाँ भी जाता हूँ पारिवारिक माहौल ढूँढता हूँ... अगर आपको एतराज़ न हो तो मुझे परिवार में सदस्य की तरह रहने दीजिए!!"
लाजो जी उसकी बात सुनकर मुस्कुरा दीं और प्यार से बोलीं, "ठीक है, आपको जैसा सही लगे!!"
व्योम ने मुस्कुराकर हाँ में सिर हिलाया और ऊपर अपने कमरे की तरफ़ बढ़ गया।
सीढ़ियों पर आकर वो कुछ सोचकर अपने कमरे की तरफ़ न जाकर पार्थवी के कमरे की तरफ़ बढ़ गया। उसने दरवाज़ा नॉक करते हुए कहा, "पार्थवी, दरवाज़ा खोलो!!"
अंदर से पार्थवी चिढ़कर बोली, "हम नहीं करेंगे आपसे बात... आप हमारा मज़ाक उड़ा रहे थे... बहुत नाराज़ हैं हम आपसे, समझे बाबू जी!!"
व्योम पार्थवी के बचपने पर अपना सिर खुजाते हुए मुस्कुराकर खुद से बोला, "अब इस लड़की को मनाना पड़ेगा... कैसे मनाऊँ अब इस भोलेपन की दुकान को!!" यही सब सोचते हुए वो मुस्कुराते हुए अपने कमरे में आ गया और पार्थवी की बातों और हरकतों को याद करके धीरे से हँस दिया।
जारी है...
पार्थवी की बातों और हरकतों को याद करके धीरे से हँस दिया। वह बिस्तर पर सोने के लिए लेटा, लेकिन पार्थवी का चेहरा रह-रह कर उसकी आँखों के सामने घूम रहा था। न चाहते हुए भी वह पार्थवी की तरफ आकर्षित हो रहा था। मासूम पार्थवी इन सारे एहसासों से अनजान, अपने व्योम बाबूजी से नाराज़ बैठी थी।
व्योम ने अचानक उठकर अपना कैमरा उठाया और उसमें कैद पार्थवी की तस्वीरों को तरसती निगाहों से देखने लगा। उसकी नज़र एक तस्वीर पर जाकर रुक गई जिसमें पार्थवी मेमने को लिए बेहद खुश नज़र आ रही थी। अनायास ही उसके होंठ हिले और उंगलियों ने पार्थवी की तस्वीर पर हाथ फेर दिया।
"कैसे मनाऊँ तुम्हें?"
व्योम ने कैमरा किनारे रखा और सोने की कोशिश करने लगा।
दिल्ली।
रेड लाइट एरिया।
सारी दुनिया के घरों की रौशनी धीरे-धीरे बुझाई जा रही थी, लेकिन यहाँ उजाला ही उजाला था। रौनकें लगी हुईं थीं; कहीं रंग-बिरंगी रौशनियों की, तो कहीं दिलनाशीं सूरत और दिलफ़रेब अदाओं की। एक बड़ी सी हवेली में, एक बड़े से सोफ़े पर एक औरत बैठी पान चबा रही थी। उसके हाथ में बड़ी सी पोटली थी, और उसी से कुछ दूरी पर पानदान रखा हुआ था। खूबसूरत रेशमी साड़ी, सुरत खूबसूरती की मिसाल, गहनों से लदी, वह पूरे रौब से सोफ़े पर बैठी हुई थी। उसके आस-पास पहलवानों की तरह आदमी खड़े थे।
उस औरत ने आस-पास के कमरों में देखते हुए बुरा सा मुँह बनाकर कहा,
"आजकल धंधा बहुत मंदा हो गया है। कोई बढ़िया आइटम लाओ तुम सब, ताकि ग्राहक टूट पड़ें। बहुत दिनों से यहाँ नया माल नहीं आया है। ग्राहकों को नया माल ज़्यादा पसंद है।"
उनमें से एक आदमी आगे बढ़कर बोला,
"जोहरा बाई, आजकल कोई लड़की झांसे में ही नहीं आ रही है, इसलिए माल नहीं मिल रहे हैं।"
"अरे, ऐसे नहीं चलता है धंधा! इस धंधे को हर हफ़्ते नया माल चाहिए होता है। अगर कोई झांसे में नहीं आ रही है, तो उठाकर लाओ!"
"माफ़ी जोहरा बाई, इन दिनों पुलिस की गश्त ज़्यादा बढ़ गई है, और इस बार का जो एसीपी है ना, वो बहुत ज़्यादा ईमानदार है। मर जाएगा, लेकिन रिश्वतखोरी नहीं करेगा।" बहादुर सिर झुकाकर बोला।
जोहरा बाई उसकी बात पर एक अदा से मुस्कुराई और अपने हाथ में पहनी अंगूठी घुमाते हुए बोली,
"लगता है उसने इस कोठे की तरफ़ रुख नहीं किया बहादुर मियाँ। अगर वो यहाँ आया होता, तो यकीनन यहाँ से हमारी मुट्ठी में कैद होकर ही यहाँ की दहलीज़ पार करता।"
बहादुर ने इस पर कुछ नहीं कहा। जोहरा बाई ने उन सबको हाथ दिखाकर जाने का इशारा किया। सबके जाने के बाद उसने थूकदान में पान थूका और आकर छज्जे पर खड़ी हो गई। यह उसकी दुनिया थी; जोहरा बाई का कोठा, जहाँ जिस्मफ़रोशी होती थी, नाच-गाना और न जाने क्या-क्या। लेकिन इधर पिछले एक साल से कोई भी नई लड़की उन्हें नहीं मिली थी, इसलिए उनका धंधा थोड़ा कम रफ़्तार से चल रहा था।
"मुझे ही कुछ करना होगा।" जोहरा बाई ने मन में कहा और अंदर आ गई।
रात बीती, लेकिन सुबह का सूरज आज न जाने क्यों छुपा बैठा था। पार्थवी ने आँखें मसलते हुए अंगड़ाई ली और अपने कमरे की खिड़की के पास आकर खड़ी हो गई। आज ठंड थोड़ी ज़्यादा थी, इसलिए उसने बाजू के इर्द-गिर्द हथेली लपेट ली और मुँह से भाप उड़ाते हुए बोली,
"बड़ा प्यारा मौसम है।"
व्योम भी उठा और खिड़की से बाहर का नज़ारा देखने लगा। चारों तरफ़ हल्की धुंध... पहाड़ों पर ऐसा लग रहा था जैसे बादल उतर आए हों, और ठंड में सिमटा हुआ यह माहौल उसे सुकून दे रहा था। वह मुस्कुराया। कि कमरे के दरवाज़े पर दस्तक हुई। उसने दरवाज़ा खोला और उसकी उम्मीद के मुताबिक उज्जवल गरम पानी लेकर खड़ा था। दरवाज़ा खुलने पर उसने गरम पानी लेकर बाथरूम में उड़ेल दिया और उसे फ़्रेश होने का कहकर खुद वापस चला गया।
पार्थवी मुँह धोने गई। उसने जैसे ही चेहरे पर पानी डाला, ठंड से बुरी तरह काँप गई। फिर भी उसने किसी तरह अपनी दिनचर्या पूरी की और नीचे लाजो के पास आ गई।
"जा, व्योम बाबू को बुला ला।" लाजो उसे देखते ही बोली।
"हम नहीं जायेंगे अम्मा।" पार्थवी ने कहा। लाजो ने उसे घूरकर देखा तो पार्थवी रोती हुई सूरत बनाकर बोली, "हम नहीं जायेंगे और न ही आज उन्हें कहीं घुमाने ले जायेंगे। वो हमारा मज़ाक उड़ाते हैं, चिढ़ाते हैं हमें।"
लाजो ने सिर पीट लिया और डाँटते हुए बोली, "तुझमें ऐसे कौन से गुण हैं जिसके वो गुणगान गाएँ? ऊँट की तरह लम्बी हो गई है, लेकिन दिमाग घुटनों में है! ज़रूर तूने कोई अल्हड़पन किया होगा।"
पार्थवी का चेहरा उतर गया। लाजो चूल्हे में आग भड़काती हुई बोली, "अब जायेगी या मार खायेगी?"
पार्थवी भुनभुनाते हुए धप्प-धप्प करती हुई सीढ़ियाँ चढ़कर ऊपर आ गई। आवाज़ तो व्योम भी सुन चुका था। वह अभी-अभी नहाकर बाहर आया था और शर्टलेस ही था अभी तक। पार्थवी, ठहरी अल्हड़, उसने न दरवाज़े पर दस्तक दी, न ही आवाज़ लगाई, बस एक झटके में दरवाज़ा खोला और घुस गई अंदर।
"बाबूजी आपको अम्मा...हाय राम...!" पार्थवी की नज़र व्योम पर पड़ी और वह फुर्ती से मुड़ गई।
व्योम के चेहरे पर मुस्कुराहट आ गई।
"क्या हुआ?"
"बाबूजी आपने कपड़े नहीं पहने अभी तक। पहनकर नीचे आ जाइए नाश्ता करने।" पार्थवी जाने लगी, लेकिन व्योम ने जल्दी से आगे बढ़कर उसकी कलाई पकड़ ली। पार्थवी को पहली बार अलग एहसास हुआ। हमेशा अल्हड़पन करती, आज पहली बार घबराने के साथ-साथ शर्माई थी।
"ये...ये क्या कर रहे हैं बाबूजी आप?" पार्थवी थूक निगलते हुए बोली।
व्योम उसके करीब आते हुए बोला,
"तुम नाराज़ क्यों हो?"
"ह...ह...हम नाराज़ नहीं हैं आपसे।" पार्थवी ने खुद को छुड़ाने के लिए झूठ बोला।
"सच में?" व्योम और करीब आया। अब पार्थवी का दिल जोर-जोर से धड़क रहा था। पहली बार किसी अनजाने मर्द के इतने करीब आई थी वह। पहले भी पर्यटक आते थे, लेकिन व्योम की इस हरकत से वह मदहोश सी हो गई थी। उसने घबराकर व्योम को देखा। वह उसके चेहरे को देखते हुए मुस्कुरा रहा था, लेकिन उसकी गहरी आँखें पार्थवी को मदहोश कर रही थीं।
"कोई आ जाएगा बाबूजी।"
"कोई नहीं आएगा।" व्योम उसके चेहरे के करीब आया।
पार्थवी का चेहरा लाल हो गया। उसने खुद को छुड़ाने की कोशिश बंद कर दी और व्योम की साँसें अपने चेहरे पर महसूस करके आँखें बंद कर लीं।
व्योम ने धीरे से उसका हाथ छोड़ते हुए कहा,
"जाओ, कुछ देर में आ रहा हूँ।"
पार्थवी जैसे किसी गहरे सपने से बाहर आई। उसकी आँखों में अजब सी रंगत उतर आई, जिसे व्योम ने भी देखा और देखकर मुस्कुरा दिया। व्योम से छूटते ही पार्थवी तेज़ी से भागी और सीढ़ियों पर ही बैठी लम्बी-लम्बी साँसें लेने लगी। जब उसकी साँसें सामान्य हुईं, तो उसने शर्माते हुए अपनी कलाई को देखा और भागकर नीचे आ गई।
"बोल आई?" लाजो उसकी हालत से बेखबर बोली। पार्थवी ने चौंककर लाजो को देखा, फिर संभलते हुए बोली, "हाँ...हाँ, बोल आई अम्मा। आ रहे हैं कुछ देर में।"
"ठीक है, जा थाली और प्याले लेकर आ, और सबके लिए नाश्ता लगा।" लाजो न जाने क्या कर रही थी और कह रही थी। पार्थवी बस सुन रही थी, समझ नहीं रही थी। उसे बस व्योम और उसका छूना याद आ रहा था। यह उम्र ही ऐसी थी; आकर्षण तो निश्चित था, लेकिन इस आकर्षण का परिणाम क्या होगा, यह पार्थवी नहीं जानती थी।
जारी है...
व्योम और पार्थवी एक-दूसरे के प्रति आकर्षित हो रहे थे, लेकिन इस आकर्षण के परिणाम से दोनों ही बेखबर थे। पार्थवी ने लाजो के कहने पर सबके लिए नाश्ता लगाया। थोड़ी देर में ही व्योम नीचे आया। उसे देखकर पहली बार पार्थवी के दिल की धड़कनें बढ़ीं। उसने शर्माकर अपनी निगाहें नीची कर लीं और वहाँ से किनारे हट गई।
व्योम धीरे से मुस्कुरा दिया। लाजो हमेशा की तरह बातें करती हुई उसे नाश्ता करने को बोली।
"अंकल और उज्ज्वल नज़र नहीं आ रहे हैं।" व्योम बैठते ही बोला।
"दोनों काम के लिए निकल गए। दोनों के मालिक ने जल्दी बुलाया था आज उन्हें।" लाजो उसके पास पानी का ग्लास रखते हुए बोली।
"ओह…!"
पार्थवी दूर खड़ी व्योम को निहार रही थी। गेहुँआ रंग, खड़ी नाक, खूबसूरत गहरी आँखें, सलीके से सेट किए हुए बाल और हल्के लेमन कलर का पतला सा जैकेट और उसके नीचे काले रंग की जींस में वो आज पहली बार पार्थवी को अच्छा लगा था। अच्छा तो वो पहले दिन भी लगा था, लेकिन आज उसका निहारना कुछ अलग था।
"क्या कर रही है पार्थवी? उन्होंने ऐसे ही मज़ाक किया होगा। भला उन्हें मैं क्यों अच्छी लगूँगी? शहरों में तो एक से एक गोरी और खूबसूरत लड़की होगी। वो मुझे क्यों देखेंगे? काम कर अपना समझी।" पार्थवी अपने दिल में उठ रहे तूफान को शांत करने की कोशिश कर रही थी, कि बाहर से रत्ना के चिल्लाने की आवाज़ आई।
"पार्थवी! ओ पार्थवी! क्या कर रही है रे?" बोलते-बोलते रत्ना अंदर भी घुस आई। व्योम पर नज़र पड़ते ही वो कुछ देर के लिए ठिठकी, फिर अपने स्वभाव अनुसार चहकते हुए बोली, "कहाँ है तू पार्थवी? कल से तुझे ढूँढ रही हूँ।"
"हाँ, वो कल बाबूजी को घुमाने ले गई थी, तो देर हो गई थी आने में।" पार्थवी अपना ध्यान बटाने के लिए बोली, लेकिन उसकी हालत रत्ना को कुछ अजीब लगी। व्योम नाश्ता कर रहा था, लेकिन उसका सारा ध्यान उन दोनों की बातों पर ही था।
"ठीक है, चल आज तू मेरे साथ चल। स्कूल नहीं जायेगी क्या?" रत्ना ने उसका हाथ खींचते हुए कहा।
"अरे, चुप कर! स्कूल नहीं जाना।" पार्थवी ने धीरे से डाँटते हुए कहा।
"अगर तुम स्कूल चली जाओगी, तो मुझे घुमाएगा कौन?" व्योम ने तत्परता दिखाते हुए कहा।
लाजो इस बार के मेहमान को जाने नहीं देना चाहती थी, इसलिए तुरंत बोली, "पार्थवी कुछ दिन इन्हें घुमा दें। इतने दिनों में ये कोई गाइड ढूँढ लेंगे।"
व्योम नहीं चाहता था पार्थवी कहीं बाहर जाए। वो बस चाहता था कि पार्थवी के साथ वक़्त गुज़ार सके। इसलिए वो नए-नए बहाने ढूँढ रहा था। रत्ना ने उदास होकर पार्थवी को देखा।
"अच्छा नहीं लगेगा तेरे बिना।" पार्थवी क्या कहती? उसे तो बस स्कूल न जाने का बहाना चाहिए था। उसने सामने से कोई प्रतिक्रिया नहीं दी, लेकिन मन में तो खुशी के लड्डू फूट रहे थे।
रत्ना चली गई, तो लाजो ने व्योम से कहा, "व्योम बाबू, आप कोई अच्छा सा गाइड देख लेना। वो क्या है ना, इसके बापू और भैया नाराज़ होने लगेंगे। ज़्यादा दिन स्कूल नहीं गई तो।"
"किस क्लास में है ये?" व्योम ने सरसरी अंदाज़ में पूछा।
"इस साल ग्यारहवीं में गई है।" व्योम ने पार्थवी को देखा, तो पार्थवी ने उसे जल्दी से चलने का इशारा किया। उसका इशारा समझकर व्योम ने लाजो से कहा, "ठीक है आंटी, आज मैं गाइड देख लूँगा। अभी तो घूमकर आता हूँ।"
"चलें पार्थवी।" व्योम बाहर निकलते हुए बोला।
"मैं चेंज तो हो लूँ।" पार्थवी जल्दी से बोली।
लाजो ने उसके लिए तब तक पानी गरम कर दिया था। पार्थवी गरम पानी लेकर स्नानघर में घुस गई। व्योम तब तक अपने कमरे में आ गया और ज़रूरी चीज़ें रखने लगा। पार्थवी नहाकर फ़्रेश हुई। आज न जाने क्यों उसे अच्छा दिखने का दिल कर रहा था। उसने अपनी सबसे प्यारी कुर्ती निकाली और उसे पहनकर तैयार हो गई। बालों को खुला छोड़कर सादगी से तैयार हुई ताकि लाजो टोक न दे।
व्योम घर से बाहर खड़ा होकर पार्थवी का इंतज़ार कर रहा था। पार्थवी नीचे आई तो व्योम उसे अपलक देखता रह गया। पार्थवी का चेहरा शर्म से लाल हो गया। वो इधर-उधर देखने लगी ताकि व्योम को उसके दिल की हालत की खबर न हो।
पार्थवी व्योम के पास आकर खड़ी हो गई। व्योम ने उसे अपने नज़दीक देखकर कहा, "अब चलें।"
"हँ, चलिए!"
दोनों ढलान से उतरते हुए नीचे आ गए। व्योम ने नोटिस किया कि आज पार्थवी कुछ झिझक रही है। हमेशा बक-बक करने वाली पार्थवी चुपचाप रास्ता तय कर रही थी।
"क्या हुआ? आज कुछ बदली-बदली लग रही हो।" व्योम सामने देखते हुए बोला। पार्थवी ने आँखें मींच लीं। उसे ऐसा लगा जैसे उसकी चोरी पकड़ी गई हो। उसने हकलाते हुए कहा, "न…न…नहीं तो बाबूजी।"
व्योम अपना चेहरा दूसरी तरफ कर के धीरे से मुस्कुरा दिया।
"आपको ऐसा क्यों लगा बाबूजी?" पार्थवी ने अब जुबान खोली थी। व्योम हँसते हुए बोला, "तुम बहुत-बहुत चुप-चुप थी इसलिए।"
"वैसे थैंक यू बाबूजी! आज आपकी वजह से स्कूल नहीं गई!" पार्थवी ने चहककर कहा तो व्योम की हँसी थोड़ी तेज हो गई, "स्कूल न जाने की इतनी खुशी?"
"मुझे पढ़ना अच्छा नहीं लगता है।" पार्थवी ने मासूमियत से कहा। दोनों ऑटो का इंतज़ार कर रहे थे। तभी एक तेज रफ्तार गाड़ी पीछे से आई, जिस पर पार्थवी का ध्यान नहीं था, लेकिन व्योम ने देख लिया। उसने फुर्ती से पार्थवी का हाथ पकड़ा और उसे अपनी तरफ खींच लिया। पार्थवी तो अंदर तक सिहर गई। उसका सिर व्योम के सीने से जा टकराया और एक बार फिर नया एहसास उसे गुदगुदा गया।
उसके दिल की धड़कनें तेज हो गईं। व्योम ने उसका चेहरा देखते हुए कहा, "तुम ठीक हो?"
"हूँ…हाँ…ठीक हूँ।" पार्थवी फिर घबरा गई। वो तेज़ी से व्योम से अलग हुई और अपने आप को मन ही मन कोसते हुए बोली, "तू पागल हो गई है पार्थवी! अरे, वो तुझे बचा रहे थे। न जाने क्या-क्या सोच ले रही है… अब ऐसा मत सोचना। ये मत भूल कि वो कुछ दिनों के लिए मेहमान बनकर आए हैं। ज़्यादा लगाव मत लगा उनसे।"
तब तक एक ऑटो आकर रुकी और दोनों उसमें बैठकर अपने मंज़िल का लुत्फ़ उठाने निकल पड़े। वो तो निकल गए, लेकिन पीछे तूफ़ान के रूप में पड़ोसी आंटी तैयार खड़ी थीं। दरअसल, जब व्योम ने पार्थवी को बचाने के लिए अपनी तरफ खींचा, तो उसी वक़्त उसके पड़ोस में रहने वाली रजनी भी नीचे ही आ रही थीं। लेकिन इन दोनों को एक-दूसरे के करीब देखकर उनकी भौंहें तन गईं। रजनी मोहल्ले में इधर की बात उधर करने के लिए मशहूर थी। अगर कोई बात हो जाए, तो वो एक में चार लगाकर पेश करती थी। पार्थवी से तो उन्हें शुरू से ही चिढ़ थी और आज वो मौका मिल गया। उन्होंने बिना देरी किए अपना रास्ता बदला और वापस ऊपर चढ़कर पार्थवी के घर की तरफ़ मुड़ गईं।
जारी है…
पार्थवी और व्योम ऑटो में बैठे आगे बढ़ रहे थे।
"तो आज कहाँ- कहाँ घुमाओगी?"
"आज हम आपको मंदिर ले चलते हैं।"
"मंदिर?"
"हाँ...यहाँ बहुत पुराने-पुराने मंदिर हैं जिनका हमारे धर्म ग्रंथों में विशेष स्थान है बाबू जी...उसके बाद हम आपको जीरो पॉइंट ले चलेंगे।" पार्थवी बाहर रास्ते को देखते हुए बोली।
"जीरो पॉइंट…!" व्योम ने सुना था इस जगह के बारे में, फिर भी वह पार्थवी के मुँह से सुनना चाहता था।
"आप जीरो पॉइंट नहीं जानते बाबू जी?" पार्थवी ने हैरानी से कहा। तो व्योम ने झूठ बोलते हुए सिर हिला दिया।
"ये तो बहुत खूबसूरत जगह है बाबू जी...यहाँ खड़े होकर आप हिमालय की चोटियाँ देख सकते हैं।" पार्थवी की आँखें चमक उठीं।
"बहुत पसंद है तुम्हें ये सारी जगहें। लगता है तुम बहुत घूमी हो।" व्योम ने हँसते हुए कहा।
पार्थवी ने व्योम की तरफ देखकर कहा, "हमारा जन्म इन्हीं पहाड़ों में हुआ है बाबू जी...हम यहाँ के कण-कण से रूबरू हुए हैं।" पार्थवी बोलते हुए हँस पड़ी।
"क्या हुआ? तुम हँसी क्यों?" व्योम ने असमंजस में कहा।
"ऐसे ही।"
"बताओ।"
"अब अगर कोई आपसे आपके शहर के बारे में पूछे तो आप उसे जानकारी दोगे ना? बस इसीलिए हँसी आई। आप कितने बुद्धू हो, इतनी सी बात नहीं समझ सकते।" व्योम धीरे से मुस्कुरा दिया।
दोनों कुछ देर में मंदिर में पहुँच गए। मंदिर ऊँचे पहाड़ों पर था। काफी देर के बाद पहाड़ चढ़ते हुए दोनों मंदिर पहुँचे। व्योम मंदिर को देखते ही हैरान हो गया। प्राचीन लेकिन बेहद ही सुंदर मंदिर... 'जागेश्वर मंदिर'...
"पौराणिक कथाओं के अनुसार ऐसा मानना है कि भगवान शिव ने यहीं अपना बाल रूप धारण किया था। इसलिए शिवभक्तों के लिए यह मंदिर बहुत विशेष है...यहाँ शिवभक्तों की भारी भीड़ होती है। आप देख ही रहे हैं बाबू जी कि कितनी भीड़ है यहाँ।" पार्थवी ने हमेशा की तरह एक गाइड की तरह बोलना शुरू किया।
दोनों आगे बढ़े। जैसे-तैसे भीड़ में धक्के खाते हुए वे दोनों मूर्ति के सामने पहुँचे। व्योम ने एक नज़र पार्थवी को देखा, फिर हाथ जोड़ते हुए मन ही मन बोला, "शिव जी, मैं यहाँ क्यों आया था यह आप अच्छे से जानते हैं, लेकिन पार्थवी मुझे आपकी तरफ खींच रही है...मैं धीरे-धीरे इसके प्रेम में पड़ रहा हूँ या शायद मुझे इससे प्रेम हो गया है...मेरी दुविधा सुलझाइए शिव जी।"
पार्थवी बिना हाथ जोड़े शिव जी से बातें कर रही थीं, "क्या शिव जी, क्या हो रहा है मुझे यह...? मैं तो पागल हूँ, आप सब जानते हैं...शहरी बाबू को देखते ही मेरी हालत बदल क्यों जाती है?...अब आप ही मेरी दुविधा का समाधान करो। हमसे तो यह उलझन सुलझाई नहीं जा रही है।" उसने आँखें बंद की और एक ठंडी साँस लेते हुए आँखें खोलीं।
व्योम ने भी अपनी प्रार्थना खत्म कर आँखें खोलीं और उसकी नज़र सीधा पार्थवी से जा टकराई। दोनों की नज़रें उलझीं और इस बार दोनों के ही दिल की धड़कन बेकाबू होकर धड़क उठीं। पार्थवी को अपना जवाब मिल गया था और जवाब मिलते ही वह व्योम से नज़रें चुराने लगी, जबकि व्योम ने मुस्कुराकर भगवान की मूर्ति देखी, फिर पार्थवी को देखकर मुस्कुरा दिया। उसे जवाब मिल गया था, पार्थवी उसके लिए है।
दोनों जाने के लिए मुड़े, लेकिन अचानक से भीड़ इतनी बढ़ी और किसी ने पार्थवी को धक्का दे दिया जिससे पार्थवी की पीठ व्योम के सीने से जा लगी। पार्थवी को झुरझुरी महसूस हुई। इसके विपरीत, व्योम ने उसे बचाने के लिए अपनी बाहें आगे कर दीं। पार्थवी ने झटके से व्योम को देखा। दोनों एक-दूसरे को देखकर कुछ देर के लिए खो से गए।
"लाजो ओ लाजो...कहाँ है री??" रजनी लाजो के घर के दरवाज़े के बाहर खड़े-खड़े ही आवाज़ें देने लगी।
लाजो बर्तन धो रही थी। रजनी की आवाज़ सुनकर बुरा सा मुँह बनाते हुए बोली, "आ गई फिर से...अब न जाने किसकी चुगली करने आई है। खैर, देखते हैं जाकर।"
अपने हाथ पोंछते हुए वह दरवाज़े पर आकर खड़ी हो गई, "क्या हुआ रजनी? क्यों ऐसे चिल्ला रही हो?"
"अरे तो क्या करूँ? तुमको कोई परवाह नहीं है अपनी बेटी की। तो हम भी छोड़ दें। एक जवान-जहान आदमी के साथ उसे घूमने भेज दिया है।" रजनी को बस मौका मिलना चाहिए था, वह मिल गया। वह छूटते ही तीर की तेजी से बोली थी।
लाजो को गुस्सा आ गया। उसने कड़े शब्दों में कहा, "देखो रजनी...सब जानते हैं कि तुम पार्थवी को पसंद नहीं करती हो। इसका मतलब यह नहीं कि तुम मेरी बेटी के खिलाफ़ बोलो। समझी?...जैसे आई थी वैसे ही चली जाओ, नहीं तो इतना बुरा बोलूँगी कि आगे से दरवाज़े पर भी नहीं आओगी।"
रजनी ने बुरा सा मुँह बनाकर कहा, "अरे हम तो तुम्हारे वास्ते कह रहे थे, लेकिन हमें क्या? जाओ जो करना है करो। कल को कोई ऊँच-नीच हुई तो देखेंगे हम भी।" रजनी बड़बड़ाते हुए वापस जिस रास्ते से आई थी उसी रास्ते की ओर बढ़ गई।
मंदिर में व्योम और पार्थवी एक-दूसरे के इतने करीब थे कि उनके बीच से हवा भी गुज़र न सके। व्योम अपने बाहों का घेरा बनाए पार्थवी के साथ चलते हुए बाहर आ गया। पार्थवी का चेहरा लाल हो गया था। उसने झिझकते हुए कहा, "और कहीं चलें बाबू जी?"
"जहाँ तुम ले जाओ।" व्योम ने उसकी आँखों में देखते हुए कहा। पार्थवी शर्माकर पीछे हट गई और अपनी पीठ उसकी तरफ़ करके बोली, "ऐसे बात मत कीजिए बाबू जी।"
व्योम उसके नज़दीक आया और उसके कान में फुसफुसाकर बोला, "क्यों ना करूँ?"
"बस ऐसे ही।" पार्थवी ने अपने सीने पर हाथ रखा। व्योम की नज़दीकी उसकी हालत बेचैन करने के लिए काफी थी। व्योम होंठों को हल्का तिरछा करके मुस्कुराया और धीरे से पीछे हट गया।
दोनों ने उसके बाद वहाँ के अलग-अलग मंदिरों के दर्शन किए। जब वे मंदिर में घूम रहे थे तो भीड़ देखकर व्योम ने धीरे से पार्थवी की हथेली में अपनी हथेली फँसा दी। पार्थवी ने चौंककर व्योम को देखा। व्योम सामने देख रहा था, लेकिन उसकी नज़र खुद पर भाँपकर बोला, "आगे देखो।" पार्थवी अपने हाथ को देखती हुई सामने देखने लगी।
बात जीरो पॉइंट जाने की थी, लेकिन मंदिरों के दर्शन करते-करते ही शाम होने लगी। इसलिए जीरो पॉइंट को कल घूमने का कहकर दोनों घर आ गए। लाजो ने खाना के वक्त गाइड का पूछा तो व्योम ने बहाना बनाते हुए कहा, "कल शायद मिल जाए। आज तो सारे गाइड व्यस्त थे आंटी।"
पार्थवी उसके झूठ पर मुस्कुरा दी। खाना खाकर दोनों अपने कमरे में आ गए। सीढ़ियाँ चढ़ते हुए पार्थवी ने धीरे से व्योम से पूछा, "आपने अम्मा से झूठ क्यों कहा?"
"झूठ नहीं कहता तो तुम्हारे साथ वक्त कैसे बिताने को मिलता?" व्योम उसे गौर से देखते हुए बोला। पार्थवी फिर से लजा गई और तेजी से भागकर अपने कमरे में घुस गई।
दूसरे दिन दोनों ने जीरो पॉइंट घुमा और आज न चाहते हुए भी व्योम ने अपने लिए गाइड का बंदोबस्त कर लिया। पार्थवी भी उसके साथ वक्त बिताना चाहती थी, लेकिन अम्मा की वजह से चुप रह गई। अगले रोज़ से व्योम गाइड के साथ घूमने जाने लगा और पार्थवी अपने स्कूल...
दो-तीन दिनों तक वह खामोश रही। हमेशा खोई-खोई रहती। पढ़ाई में तो वैसे ही उसका दिल नहीं लगता था, अब तो सारा ध्यान ही व्योम के पास रहने लगा था। देखते-देखते रत्ना आखिर उससे पूछ ही लिया, "क्या बात है पार्थवी? आजकल तू कुछ बदली-बदली रहने लगी है।"
"न...नहीं हम तो नहीं बदले हैं।" पार्थवी ने झूठ बोला।
"तू मुझसे झूठ बोल रही है पार्थवी।" रत्ना ने नाराज़गी जताई।
"हम झूठ क्यों बोलेंगे तुमसे?" पार्थवी ने उखड़कर कहा।
उसका गुस्सा देखकर रत्ना ने सहजता से कहा, "तेरा पहले भी पढ़ाई में दिल नहीं लगता था, लेकिन आजकल तू मुझसे भी बात नहीं करती है। हमेशा खोई-खोई रहती है। क्या बात है पार्थवी?"
"ऐसा नहीं है रत्ना। बस आजकल स्कूल में मन नहीं लग रहा है और तबियत भी कुछ ठीक नहीं लग रही है।" पार्थवी रत्ना से सारी बात छिपाती गई।
रत्ना समझ गई कि पार्थवी झूठ बोल रही है और वह अभी नहीं बताएगी क्योंकि उसे जो बताना होता था वह खुद ही बता देती थी। उसने चुप रहना ही बेहतर समझा।
छुट्टी हुई तो दोनों घर पहुँचीं। पार्थवी खाना खाकर अपने कमरे में चली गई आराम करने। व्योम शाम को ही आता था इसलिए उधर जाना ही बेकार था। आज उसे व्योम को देखने की बड़ी इच्छा हो रही थी।
वह आँखें बंद करके लेटी ही थी कि उसे सीढ़ियों पर खटपट की आवाज़ आई और फिर दरवाज़ा खुलने की भी। वह बिना देर किए तेज़ी से भागी और बाहर निकलकर देखा तो व्योम अपने दरवाज़े पर खड़ा था। उसे देखते ही पार्थवी की हर थकान मिट गई, आँखें और चेहरा खुशी से चमक उठे।
जारी है...
व्योम को देखते ही पार्थवी का मुरझाया फूलों की तरह खिल उठा। व्योम भी उसे देखकर कुछ देर के लिए ठिठक गया।
"घूम आए बाबू जी?" पार्थवी आगे बढ़कर बोली।
"हूँ, घूम तो आया।" व्योम ने मुस्कुराकर कहा। पार्थवी उसकी सूरत देखते रह गई; वही सूरत जिसने उसके दिल की हालत बदलकर रख दी थी। पहली बार का यह अनजाना एहसास उसे खूबसूरत लग रहा था। बेचैनी भी थी, लेकिन इसी बेचैनी में सुकून भी था उसे।
"लेकिन तुम्हारे बगैर मज़ा नहीं आता मुझे घूमने।" व्योम ने इस बार उसकी तरफ देखा।
पार्थवी का चेहरा खिल उठा। उसने हैरान से कहा, "सच बाबू जी?"
"हाँ... तुम्हारे साथ घूमने में मुझे ज़्यादा अच्छा लगता था..." व्योम अंदर आ गया तो पार्थवी भी उसके पीछे-पीछे अंदर आ गई।
"आज कहाँ घूमे बाबू जी?" पार्थवी अभी व्योम से बात करना चाहती थी। क्यों? इस बात से वह मासूम अनजान थी।
"अल्मोड़ा के खूबसूरत पहाड़ और डियर पार्क।" व्योम अपना सामान रखते-रखते उसे अपने आज के दिन के बारे में बताने लगा, जिसे पार्थवी गौर से सुन रही थी, जैसे न सुना तो परीक्षा का कोई महत्वपूर्ण सवाल छूट गया।
व्योम अपनी बात खत्म करके चुप हुआ तो पार्थवी बोली, "आप कितने मज़े कर रहे हैं बाबू जी, और एक हम हैं, बस किताब और स्कूल ही करते रहते हैं।"
व्योम धीरे से हँस पड़ा। उसकी हँसी से पार्थवी चिढ़ गई। उसने मुँह फुलाकर व्योम को देखा। पार्थवी पर नज़र पड़ते ही व्योम की हँसी गायब हो गई। पार्थवी ने झिल्लाते हुए कहा, "कभी स्कूल जाइए, फिर पता चलेगा कैसे-कैसे सवाल देते हैं टीचर। मन नहीं लगता हमारा पढ़ने में।"
"लेकिन पढ़ना तो सबको पड़ता है पार्थवी।" व्योम ने उसे समझाया।
"आप भी स्कूल गए थे? कहाँ तक पढ़ाई की है आपने?" पार्थवी ने एक साथ दो-दो सवाल कर दिए। उसका सवाल सुनकर व्योम खामोश हो गया।
"क्या हुआ बाबू जी? चुप क्यों हो गए?" पार्थवी ने अनगिनत बार अपनी पलकें झपकाईं।
"हूँ... कुछ नहीं, ऐसे ही।" व्योम जबरन मुस्कुराया।
"कल चलो मेरे साथ घूमने।" व्योम ने बात बदल दी।
"कल...?" पार्थवी ने उदास होकर कहा।
"कल भी स्कूल तो जाना है बाबू जी।" पार्थवी खुश होते-होते फिर से उदास हो गई। पार्थवी का उतरा चेहरा देखकर व्योम का दिल भी उदास हो गया। उसे पार्थवी का खिलखिलाता मासूम चेहरा ही अच्छा लगता था और उसके मुँह से वो भोलेपन की बातें... किसी को शायद तंग करती हों, लेकिन व्योम को वो बातें अच्छी लगती थीं पहले दिन से ही।
पार्थवी वहाँ से जाने लगी तो व्योम ने एक बार फिर फुर्ती से आगे बढ़कर पार्थवी का हाथ थाम लिया। पार्थवी के तो रोंगटे खड़े हो गए। उसने हैरानी और खुशी के मिश्रित भाव से व्योम को देखा। उसके आँखों की चमक व्योम से छिपी नहीं रह सकी। उसने पार्थवी को रोकते हुए कहा, "कहाँ जा रही हो?"
"अम्मा के पास।"
"क्यों?"
"आपके खाने की तैयारी करने।"
"ओह... ठीक है, जाओ। लेकिन कल स्कूल मत जाना।" व्योम ने उसका हाथ छोड़ते हुए कहा।
"लेकिन कैसे... अम्मा डाँटेंगी नहीं जाने पर।" पार्थवी रुआंसी हुई। एक तो व्योम का साथ, ऊपर से घूमना। पार्थवी का दिल मचल रहा था इस अवसर के लिए।
व्योम धीरे से हँसा और उसके सिर पर चपत मारते हुए बोला, "बेवकूफ लड़की, पेट दर्द का बहाना बना लेना।"
पार्थवी खुश हो गई और चहककर बोली, "अरे हाँ.. ये बढ़िया आइडिया है।"
वह खुशी-खुशी नीचे आ गई। उसके चेहरे पर खुशी देखकर लाजो ने हँसते हुए कहा, "क्या बात है? अचानक से खुश कैसे हो गई? शाम से तो मुँह लटकाए घूम रही थी।"
"क्या है अम्मा? क्यों टोकती हो? तबियत ठीक नहीं थी, अब ठीक हो गई है।" पार्थवी ने चिढ़कर कहा। उसके चिढ़ने पर लाजो हँस दी।
रत्ना उसी वक्त उसके पास आकर बोली, "पार्थवी, चल बाहर चल।"
"अम्मा, मैं आती हूँ।" पार्थवी काम अधूरा छोड़कर उसके साथ हो गई। रत्ना ने भी गौर किया कि पार्थवी कुछ ज़्यादा ही खुश है। उसने बिना झिझक के पूछ लिया, "सब ठीक है पार्थवी?"
"हाँ।"
"बड़ी खुश लग रही है।"
पार्थवी अपने धुन में मगन होकर बोल उठी, "हाँ, कल स्कूल नहीं जाना।" लेकिन अगले ही पल अपने जुबां पर हाथ रखकर रत्ना को देखने लगी।
रत्ना ने नाराज़गी से उसे देखते हुए कहा, "कल स्कूल क्यों नहीं जायेगी तू पार्थवी?"
"मन नहीं है रत्ना जाने का।" पार्थवी ने टालते हुए कहा।
"सच बता पार्थवी।" रत्ना ने थोड़ा गुस्से से कहा तो पार्थवी सहमकर बोली, "कल बाबू जी के साथ घूमने जाऊँगी।"
रत्ना यह सुनते ही खामोश हो गई। उसे अब गुस्सा नहीं, पार्थवी पर तरस आ रहा था। पार्थवी मासूम थी, किसी के भी दिल और बात का छल नहीं समझती थी, लेकिन रत्ना अच्छे-बुरे की परख रखती थी।
"पार्थवी, उन शहरी बाबू से दूर रह।" रत्ना ने प्यार से समझाया।
पार्थवी ने असमंजस में उसे देखते हुए कहा, "क्यों दूर रहूँ? वो कितने अच्छे हैं रत्ना! वो मेरा कितना ख्याल करते हैं।" ये सब बोलते हुए पार्थवी के चेहरे पर एक अलग चमक थी।
रत्ना को अब पार्थवी के लिए डर लग रहा था। उसने पार्थवी के कंधे पर हाथ रखकर कहा, "पार्थवी, ये शहरी लोग कुछ दिनों के लिए यहाँ घूमने आते हैं। ये परदेसी हैं। आज यहाँ तो कल कहीं और... कल को ये चले जाएँगे तो तू अकेली रह जाएगी। इसलिए ज़्यादा लगाव मत लगा, नहीं तो बाद में तकलीफ होगी तुझे।"
पार्थवी एकटक उसे देखने लगी और देखते ही देखते उसकी आँखें गरम पानी से भर गईं।
रत्ना ने कुछ बोलने के लिए मुँह खोला, मगर पार्थवी उसके कुछ भी कहने से पहले जा चुकी थी।
"इस लड़की को कैसे समझाऊँ?" रत्ना ने अपना सिर पकड़ लिया। उसने सोचा कल सुबह बात करेगी। पार्थवी की इस बात को उसने हल्के में लिया था।
पार्थवी अंदर आई तो किसी से कुछ भी कहे बगैर अपने कमरे में घुस गई। व्योम खाने के लिए नीचे आया हुआ था।
सब खाना खाकर सो गए, लेकिन पार्थवी ने खाना नहीं खाया। लाजो ने बुलाया भी, लेकिन उसने तबियत ठीक न होने का बहाना बना लिया।
व्योम को कुछ अजीब लगा। वह सोने चला आया। वह सोने तो आ गया, लेकिन पार्थवी की आवाज़ रह-रहकर उसके कानों में गूंज रही थी। वह देर रात तक इधर-उधर करवट बदलता रहा, लेकिन नींद तो आज पार्थवी के चक्कर लगा रही थी। आखिर में कुछ सोचकर वह बाहर निकल गया। उसके चारों तरफ़ देखा; आधी रात का फैला सन्नाटा सुबह की खूबसूरत वादी को भयानक बना रहा था। दूर कहीं कुत्तों के भौंकने की आवाज़ आ रही थी और सर्दी कुछ ज़्यादा ही बढ़ी हुई थी।
उसने इधर-उधर देखा, फिर कुछ सोचते हुए धीरे से पार्थवी के दरवाज़े पर दस्तक दी। उसने एक-दो बार दस्तक दी, जिसके बाद पार्थवी ने दरवाज़ा खोला।
सामने व्योम को देखकर वह सकपका गई और अपनी नज़रें चुराते हुए बोली, "आ... आप बाबू जी यहाँ?"
"अंदर आ सकता हूँ?" व्योम ने उसके सवाल को सिरे से नज़रअंदाज़ करते हुए कहा।
"आइए।" पार्थवी सामने से हटते हुए बोली।
व्योम अंदर आ गया। पार्थवी उससे कुछ दूरी पर खड़ी हो गई और चेहरा दूसरी तरफ कर लिया। व्योम ने उसे एकटक देखते हुए कहा, "तुम रोई हो?"
उसके इतना बोलते ही पार्थवी बच्चों की तरह बिलखने लगी। व्योम को कुछ समझ नहीं आया। उसने थोड़ा नज़दीक आते हुए कहा, "क्या हुआ पार्थवी? तुम रो क्यों रही हो? क्या हुआ है? किसी ने कुछ कहा है क्या?"
"नहीं..." उसका रोना रुका नहीं, बल्कि और बढ़ गया।
"तो फिर क्यों रो रही हो?" व्योम ने प्यार से कहा तो पार्थवी ने दोनों हाथों से अपने आँसू पोंछते हुए कहा, "आप मुझे छोड़कर चले जाओगे ना?"
"हैं...?" व्योम इसके अलावा कुछ बोल नहीं पाया। उसे इस बात का मतलब समझ नहीं आया।
"रत्ना कह रही थी कि आप परदेसी हैं, आप तो चले जाएँगे, लेकिन आपके जाने के बाद मुझे तकलीफ होगी। आप चले जाएँगे, यही सोचकर रो रही हूँ।" पार्थवी ने कहा तो व्योम ने अपने सिर पर हाथ रख लिया। वह पार्थवी की बात पर अफ़सोस करे या हँसे, वह समझ नहीं पा रहा था।
"देखा, आप भी चुप हो गए। इसका मतलब चले जाएँगे बाबू जी।" पार्थवी फिर से रोने लगी। व्योम ने लंबी साँस ली और पार्थवी के कंधे पर दोनों हाथ रखकर प्यार से बोला, "और अगर मैं कहूँ कि मैं तुम्हें छोड़कर कहीं नहीं जाऊँगा?"
"क्या?" पार्थवी रोते-रोते चुप हो गई। व्योम के होंठों पर एक मुस्कुराहट तैर गई और गायब भी हो गई। उसने पार्थवी की लाल आँखों में देखते हुए गहरी आवाज़ में बोला, "मैं परदेसी ज़रूर हूँ, लेकिन तुम्हें छोड़कर कहीं नहीं जाऊँगा। तुम मेरे साथ हो और हमेशा रहोगी।"
पार्थवी आँखें मटकाते हुए उसे मासूमियत से देखने लगी। व्योम ने हल्का सा झुका और प्यार से बोला, "व्योम के साथ पार्थवी हमेशा रहेगी।"
इतना बोलकर वह पार्थवी से धीरे से अलग हुआ और वापस अपने कमरे में आ गया। पार्थवी उसके जाने के बाद दरवाज़े की तरफ़ देखती रह गई और देखते-देखते ही उसके लब वापस से मुस्कुरा उठे और चेहरा गुलाब की तरह खिल उठा।
जारी है...
व्योम की बातों ने धीरे-धीरे पार्थवी के दिल में घर कर लिया था। मासूम पार्थवी, प्यार से अनजान, उसके करीब किसी मोहपाश में बंधी हुई खिंची चली जा रही थी।
उस रात, व्योम के जाने के बाद, पार्थवी बहुत देर तक उसके बारे में सोचती रही। उसका पास आना, उसका पार्थवी से मुस्कुरा कर बातें करना, सब कुछ उसके लिए एक नया और खूबसूरत एहसास था।
दूसरे दिन, पार्थवी ने व्योम के कहे अनुसार पेट दर्द का बहाना किया और स्कूल से छुट्टी ले ली। ज्ञान ने भी आज बाहर जाने में देरी की ताकि पार्थवी को साथ ले जा सके। लाजो को दिखाने के लिए, व्योम के साथ जाने के लिए, पार्थवी ने बेचारी ने कड़वा काढ़ा भी खुशी-खुशी पी लिया।
व्योम नीचे उतरा तो घर पर पार्थवी को देखकर बिल्कुल अनजान बन गया।
"अरे पार्थवी! आज तुम स्कूल नहीं गई?"
पार्थवी को हँसी आ गई, लेकिन उसने बहुत मुश्किल से अपनी हँसी रोकी। कुछ बोलने को हुई, मगर उससे पहले लाजो बोल पड़ी।
"पता नहीं व्योम बाबू को सुबह से पेट में दर्द है। इसके बापू और भईया आयेंगे तो डॉक्टर के पास भेज दूँगी।" लाजो की आवाज़ में भी सरलता झलकती थी। पार्थवी कुछ-कुछ अपनी माँ पर गई थी। लाजो ज़्यादा छल-कपट नहीं जानती थी, लेकिन बढ़ती उम्र ने उसे कुछ तो समझदार बना दिया था और पार्थवी इस कच्ची उम्र में कुछ ज़्यादा ही नासमझ थी।
"अब कैसा है दर्द, पार्थवी?" व्योम पार्थवी को देखते हुए बोला।
"काढ़ा पीने के बाद ठीक है बाबू जी।" पार्थवी ने वही कहा जो व्योम ने उसे सिखाया था। व्योम मुस्कुरा दिया और लाजो से बोला, "आंटी, उसका दर्द तो ठीक हो गया है। अगर आप बुरा न मानें तो उसे अपने साथ घुमाने ले जाऊँ। पढ़-पढ़ कर दिल ऊब गया होगा उसका।"
"अरे नहीं! उसे यहीं छोड़ दीजिए। वो जाएगी तो अपनी बक-बक से आपका सिर दुखा देगी।" लाजो ने हँसते हुए कहा। बस क्या था! फूल गया पार्थवी का मुँह। उसने नाराज़गी से अपनी अम्मा को देखा।
व्योम को फिर से हँसी आ गई उसके बचपने पर। उसने लाजो को मनाते हुए कहा, "अरे नहीं आंटी! ऐसा नहीं है। बल्कि पार्थवी तो मुझे यहाँ के बारे में हर छोटी-बड़ी बात बताती है। वो साथ रहती है तो अच्छा लगता है।"
"अच्छा, ठीक है तब।" लाजो क्या ही कहती? मेहमान को नाराज़ करना भगवान को नाराज़ करना जैसे मानती थी वो। इसलिए हाँ कह दिया।
पार्थवी का फूला हुआ चेहरा एकदम से शांत हो गया और वो फुर्ती से कपड़े बदलने चली गई। जल्दी-जल्दी तैयार होकर वो दोनों घूमने निकल पड़े।
घर से दूर, नीचे आते ही पार्थवी ने हँसते हुए कहा, "वाह बाबू जी! क्या अच्छा आइडिया लगाया आपने! आज तो खूब मस्ती करूँगी।"
व्योम ने बस हाँ में सिर हिला दिया।
बातें करते हुए व्योम ने तय किया कि आज वो शॉपिंग करेगा। इसलिए पार्थवी उसे थाना बाज़ार ले आई। यह बाज़ार पर्यटकों का ख़ास आकर्षण केंद्र था। यहाँ पहाड़ी क्षेत्रों के विशेष सामान से लेकर लोकल सामान सब कुछ मिलता था। पार्थवी व्योम को वहाँ के अच्छे-अच्छे दुकानों पर ले गई जहाँ से उसने बहुत कुछ खरीदा। पार्थवी उसे नई-नई चीज़ों के बारे में बता रही थी, जैसे वहाँ पर बिक रहे क्षेत्रीय पोशाक।
एक जगह आकर उसने कहा, "बाबू जी, ये यहाँ का सबसे प्रसिद्ध कपड़ा है, अंगोरा पोशाक।"
"अच्छा!"
"हाँ...ये यहाँ के खरगोश के फर से बनाया जाता है। ठंड में बड़े काम की चीज़ होती है ये।"
"तुम्हारे पास भी है क्या?" व्योम ने पूछा तो पार्थवी ने मासूमियत से ना में गर्दन हिला दी।
"अम्मा कहती हैं बहुत महँगे होते हैं ये, इसलिए अम्मा खरीदती ही नहीं है।" पार्थवी ने बोल दिया। व्योम ने एक-एक करके पाँच शॉल ले लिए। पार्थवी उसे इतने सारे शॉल खरीदते देखकर बोली, "अरे बाबू जी! इतने सारे शॉल क्या करेंगे आप?"
"मुझे अच्छे लगे इसलिए ले रहा हूँ।" व्योम ने हँसते हुए कहा।
पार्थवी हँसने लगी। व्योम ने असमंजस में उसे देखते हुए कहा, "इसमें हँसने जैसा क्या है?"
"है ना!" पार्थवी हँसी रोककर बोली। व्योम ने उसे घूरा तो पार्थवी फिर से हँसी रोककर बोली, "मैं सोच रही हूँ कि आप एक साथ पाँच शॉल ओढ़कर कैसे लगेंगे।" साथ ही उसने गाल फुलाकर हाथ फैलाकर मोटा दिखने का इशारा किया तो व्योम भी हँस पड़ा।
व्योम ने थोड़े-बहुत कुछ सामान और भी खरीदे और घर की तरफ़ निकल गए। पार्थवी पूरे रास्ते उसका मज़ाक उड़ाती रही कि वो कैसा दिखेगा एक साथ पाँच शॉल ओढ़कर और व्योम उसके इस बेबाकी पर हँसता रहा।
सूरज ढलने को था। गुलाबी शाम पहाड़ों की खूबसूरती को और भी आकर्षक बना रही थी। उस पर पार्थवी का बचपना, उसकी बातें, व्योम को यहीं रुकने पर मजबूर कर रही थीं।
पहाड़ों की शाम खूबसूरत होती है, ये व्योम ने सुना था और आज देख भी रहा था। गुलाबी शामें, हरे-भरे पेड़-पौधे किसी स्वर्ग समान नज़र आ रहे थे।
दोनों चलते-चलते ऊपर पहाड़ी पर आ गए। बातें करते-करते अचानक से पार्थवी का पैर मुड़ा और वो गिरने को हुई। व्योम ने लपक कर उसकी कलाई थाम ली, लेकिन बगल में ही कोई कंटीला पेड़ था जिसमें पार्थवी के बाजू पर खरोच लग गई और उसका बाजू फट गया।
पार्थवी को व्योम ने संभाला और घबराकर बोला, "तुम ठीक हो?"
पार्थवी ने बुरा सा मुँह बनाते हुए कहा, "ठीक हूँ, लेकिन ये कपड़ा फट गया! अम्मा बहुत डाँटेंगी! मैंने ये कपड़ा फाड़ दिया।" पार्थवी छोटी-छोटी बातों पर ऐसे घबराती थी जैसे कोई बहुत बड़ी दुर्घटना हो गई हो। अभी भी वो कपड़े फटने की वजह से रुआँसी हो गई थी। व्योम उसकी रोती हुई सूरत देखकर बोला, "क्या हुआ? इतना घबरा क्यों रही हो?"
"आप नहीं समझ रहे हैं बाबू जी! अम्मा डाँटेंगी। बहुत मुश्किल से ये नया कपड़ा बनवाया था उन्होंने मेरे लिए। वो भी मेरी गलती की वजह से फट गया।" पार्थवी रोने लगी। व्योम ने इधर-उधर देखते हुए अपना कोट निकाला और उसे पार्थवी के कंधे पर डालते हुए बोला, "रोना बंद करो। मैं आंटी को समझा दूँगा। वो तुम्हें नहीं डाँटेंगी।"
"सच में?" पार्थवी ने जल्दी से अपने आँसू पोछे। व्योम ने उसे पलकें झपकाकर आश्वस्त किया और साथ में घर चल पड़ा। पार्थवी को ढाढस बँधी, लेकिन डर अभी भी चेहरे पर नज़र आ रहा था।
आज उज्ज्वल और बापू दोनों जल्दी घर आ चुके थे। वो अभी थोड़ी देर पहले ही पहुँचे थे। उन्हें आए हुए कुछ मिनट हुए होंगे कि पार्थवी और व्योम घर पहुँचे। सबकी नज़रें उनके ऊपर उठ गईं। पार्थवी का रोया हुआ चेहरा और साथ ही व्योम का कोट देखकर उज्ज्वल कुछ और ही समझ बैठा। उसने आँखें तरेर कर गुस्से में कहा, "क्या हुआ है पार्थवी तुझे?" मासूम पार्थवी डर गई और डरकर बोलने को हुई, लेकिन वो हकला गई।
"भ...भईया...वो..." और बोलते हुए रोने लगी। उज्ज्वल का दिमाग ठनक गया। बाकी के लोग कुछ और समझ पाते उससे पहले उज्ज्वल ने लपककर व्योम का गिरिबान पकड़ लिया और दाँत पीसते हुए बोला, "क्या किया है तूने पार्थवी के साथ? क्यों रो रही है वो? बोल!"
व्योम पहले तो घबरा गया, फिर गुस्से में उसने जोर से उज्ज्वल को धक्का देते हुए कहा, "छोड़िए मुझे! क्या तरीका है ये?"
उज्ज्वल ने पार्थवी की तरफ़ नज़र डाली और व्योम की आवाज़ उसके कान में पड़ी। "आते समय पेड़ से खरोच लग गई थी इनको। ये घबरा गईं कि अम्मा डाँटेंगी, इसलिए रो दी थीं। अभी सिर्फ़ आपके गुस्से वाली आवाज़ सुनकर रो रही है और कोई बात नहीं है।"
उज्ज्वल ने सवालिया नज़रों से पार्थवी को देखा। पार्थवी ने रोते हुए हाँ में सिर हिला दिया। उसके सिर हिलाते ही व्योम तेज कदमों से बाहर निकला और ऊपर चला गया।
उज्ज्वल ने उसके जाते ही परेशान होकर अपना सिर पकड़ लिया। अरविंद जी ये देखकर गुस्से में बोले, "कितनी बार कहा है अपने गुस्से पर काबू रखा कर! लेकिन नहीं! मेरी बात सुनी कहाँ है तुझे? मेहमान को नाराज़ कर दिया। अब घर छोड़कर चला गया तो ढूँढते रहना नया मेहमान!"
पार्थवी भोलेपन से बोली, "भईया...उन्होंने मुझे गिरने से बचाया। मेरी गलती से कुर्ता फट गया था। उन्होंने तो मुझे बचाया आप सबकी डाँट खाने से! फिर आपने उन पर गुस्सा क्यों किया?"
उज्ज्वल ने जबरन मुस्कुराकर उसे देखा और उसके गाल थपथपाकर बोला, "तू आराम कर। मैं उनसे माफ़ी माँग लूँगा।"
"सच!"
"हाँ...सच।" उज्ज्वल ने हँसते हुए कहा तो पार्थवी कुछ तनाव से मुक्त हुई।
वो ऊपर आई तो व्योम के कमरे का दरवाज़ा बंद था। कुछ देर ठहरकर अपने कमरे में चली गई।
जारी है...
उज्ज्वल की गलतफहमी के बाद घर का माहौल बदल गया था। लाजो तो सीधी थी ही, ऊपर से पार्थवी का बचपना...
पार्थवी के कमरे में जाने के बाद उज्ज्वल ने एक गहरी साँस ली और सीढ़ियाँ चढ़ गया। उसने व्योम के कमरे का दरवाज़ा नॉक किया।
व्योम ने दरवाज़ा खोला। सामने उज्ज्वल को देखकर उसने कुछ नहीं कहा। उज्ज्वल उसे देखते ही बोला, "माफ़ कर दीजिए। मुझे आपके साथ ऐसी बदतमीज़ी नहीं करनी चाहिए थी।"
व्योम ने चुभती नज़र से उसे देखा। तो उज्ज्वल शर्मिंदगी से बोला, "बहन है वो मेरी। अगर आपकी कोई बहन है तो उसे पार्थवी की जगह और अपने आप को मेरी जगह रखकर देखिए। मेरी बहन छल नहीं जानती, बहुत भोली है, इसलिए डर लगता है उसके लिए... बस उसी डर में आपसे बदतमीज़ी कर बैठा।"
"ठीक है!" व्योम ने गंभीरता से कहा। तो उज्ज्वल फिर से बोला, "माफ़ कर दिया आपने मुझे?"
"हुँ, कर दिया। अब मुझे आराम करने दो।" व्योम ने उकताकर कहा। उज्ज्वल ने मूड सही होने का सोचकर कुछ नहीं कहा। वह नीचे आया तो लाजो जी खाने की तैयारी कर रही थीं। उज्ज्वल को देखते ही बोलीं, "माफ़ी माँगी?"
"हाँ, माँग ली।"
लाजो जी ने राहत की साँस लेते हुए कहा, "चलो अच्छा है। अब जा, पार्थवी को लेकर आजा। आज इतना कुछ हो गया है कि घबरा गई होगी बच्ची।"
"आप ले आइए। मैं जरा आराम कर लूँ।" उज्ज्वल पार्थवी के सामने नहीं जाना चाहता था। अनजाने में ही सही, पार्थवी उसके गुस्से से डर गई थी। वह अपनी बहन को समझता था, इसलिए न जाना ही सही समझा।
पार्थवी अपने कमरे में बैठी रो रही थी। उसने हाथ जोड़ते हुए कहा, "हे नंदा देवी माँ... आज मेरी वजह से बाबूजी को डाँट पड़ी। मुझे बिल्कुल भी अच्छा नहीं लग रहा है। अब मैं उनके सामने कैसे जाऊँगी?"
व्योम अपने कमरे में बेचैनी से टहल रहा था। उज्ज्वल का इस तरह गुस्सा करना उसे अच्छा नहीं लगा था। लेकिन अब सिर्फ़ पार्थवी का ख्याल था। इतने दिनों में उसके भोलेपन से वह अच्छी तरह से वाकिफ़ हो चुका था। वह क्या कर रही होगी, यही सोचकर उसका दिमाग़ ख़राब हो रहा था। उसने पार्थवी के पास जाने का मन बना लिया। वह जैसे ही बाहर निकला, लाजो जी सीढ़ियों से ऊपर आती हुई नज़र आईं। बिना देरी किए वह किनारे हो गया ताकि वे लोग कुछ गलत न सोच सकें।
लाजो जी ने पार्थवी के कमरे का दरवाज़ा खटखटाया। तो पार्थवी ने कुछ देर बाद दरवाज़ा खोल दिया। उसे देखते ही लाजो जी ने हैरान होकर कहा, "पार्थवी, तू रो रही थी?"
"बाबूजी को मेरी वजह से डाँट पड़ी, अम्मा।" पार्थवी फिर से रोने लगी। लाजो जी ने उसे चुप कराते हुए कहा, "भैया ने माफ़ी माँग ली है, पार्थवी। तू दिल क्यों छोटा करती है? तूने जानबूझकर थोड़े ना किया है कुछ।"
"हाँ, वो तो है। लेकिन एक बात बताओ, अम्मा। भैया ने शहरी बाबूजी से ऐसे बात क्यों की थी? उन्होंने तो बस मुझे गिरने से बचाया था।" पार्थवी का सवाल सुनकर लाजो जी को बस यही लगा कि वह अपना सिर पीट लें या पार्थवी के दिमाग़ से बचपना निकाल दें। उन्होंने उसके सिर पर चपत मारते हुए कहा, "तुझे किस नक्षत्र में जना था? मैंने एकदम जड़बुद्धि है तू। इतना भी नहीं समझती।" बाहर खड़ा व्योम उनकी बातें सुन रहा था। पार्थवी की बात सुनकर इतने गंभीर स्थिति में भी वह खुद को मुस्कुराने से नहीं रोक सका।
"बिल्कुल पागल है ये लड़की।" व्योम ने हँसते हुए कहा।
"अम्मा, पहेली न बुझाओ। जो कहना है, साफ़-साफ़ कहो।" पार्थवी अपने रूप में वापस आ गई। लाजो जी भुनभुनाते हुए उसके कमरे से बाहर निकल गईं। पार्थवी चिढ़ गई थी।
व्योम साइड हो गया और मुस्कुराते हुए अपने कमरे में वापस चला गया। उसने अभी कमरे के अंदर क़दम ही रखा था कि पार्थवी आ धमकी।
"बाबूजी..."
व्योम चौंकते हुए मुड़ा। उसे वहाँ देखकर उसने चौंककर कहा, "तुम... तुम कब आई?"
"अभी आई। और हाँ, ये सारे सवाल-जवाब छोड़िए और मुझे ये बताइए कि भैया ने आपको क्यों डाँटा?" पार्थवी एक साँस में बोल गई। व्योम हड़बड़ा गया। क्या जवाब दे?
उसने अपनी हड़बड़ाहट छुपाते हुए कहा, "खाना खा लो, फिर इसका जवाब दूँगा।"
"पक्का?"
"हाँ बाबा, पक्का।" व्योम ने हँसते हुए कहा तो पार्थवी भी मुस्कुरा दी।
सब खाना खाने नीचे बैठे। व्योम अपने साथ शॉपिंग वाला बैग भी लेकर आया था। खाना खाने से पहले ही उसने एक-एक बैग सबकी तरफ़ बढ़ाते हुए कहा, "ये मैं आप सबके लिए लाया था। आते ही गड़बड़ हो गई।"
उज्ज्वल एक बार फिर शर्मिंदा हो गया। अरविंद ने न नुकुर करते हुए कहा, "अरे व्योम बाबू, ये सब क्यों लाए आप? इसकी कोई ज़रूरत नहीं है। आप तो परिवार जैसे हैं हमारे लिए।"
व्योम हल्का मुस्कुराकर बोला, "बस परिवार समझकर ही दे रहा हूँ। अब मेरा तो कोई परिवार है नहीं, इसलिए जहाँ जाता हूँ, उसी परिवार से रिश्ता जोड़ लेता हूँ। अब आप सब इनकार मत कीजिए, प्लीज़ ले लीजिए।"
"लेकिन व्योम..." उज्ज्वल ने कुछ कहना चाहा तो व्योम बात काटते हुए बोला, "मेरे मन में कोई गलत भावना नहीं है, उज्ज्वल। लेकिन फिर भी आज के बाद मैं पार्थवी को अपने साथ कहीं लेकर नहीं जाऊँगा। और अगर गया भी तो तुम हमारे साथ चलोगे।" पार्थवी का दिल धक से कर गया। व्योम के साथ नहीं जाएगी वह। उसे व्योम पर गुस्सा आया कि आखिर ऐसे कैसे वह उसे साथ लेकर नहीं जाएगा? इतनी सी डाँट पर उसे नहीं लेकर जाएगा? ये सब सोचते ही पार्थवी खाना छोड़कर उठ गई।
"क्या हुआ पार्थवी? खाना तो खा ले?"
"नहीं, अम्मा। मेरा और मन नहीं है। जितना खाना था, खा लिया।" पार्थवी ने धीरे से कहा और हाथ धोकर वहाँ से चलती बनी। व्योम उसे जाते देख रहा था। उसे पार्थवी की नाराज़गी समझ आ रही थी, लेकिन उसने कुछ भी नहीं कहा।
सबने खाना खाया और खाकर नींद लेने के लिए सोने चले आए। व्योम जैसे ही कमरे में आया, पार्थवी गुस्से में आकर उसके सामने खड़ी हो गई। व्योम जानता था कि वह गुस्सा है, इसलिए उसने आगे बढ़ने की कोशिश की। लेकिन पार्थवी ने तुरंत उसे खुद से दूर धकेल दिया, "आप मुझे अपने साथ घुमाने क्यों नहीं ले जाएँगे? भैया ने डाँट दिया तो आप मुझसे नाराज़ रहेंगे?"
"मेरी बात तो सुनो, पार्थवी।" व्योम फिर से आगे बढ़ा। लेकिन पार्थवी रोते हुए बोली, "आप बहुत बुरे हैं। आपने मुझे परेशान किया है। बात कीजियेगा आप हमसे? हमें नहीं चाहिए आपका साथ। आपके साथ अच्छा क्या लगने लगा? आप तो भाव खा रहे हैं।"
"पार्थवी, एक बार मेरी बात तो सुन लो, प्लीज़।" व्योम ने प्यार से कहा। लेकिन पार्थवी आज भयंकर गुस्से में थी। वह बिना कुछ बोले कमरे से बाहर निकल गई। उसके जाने के बाद व्योम ने अपना सिर पकड़ लिया। वह बात को सुलझाना चाहता था, लेकिन इस चक्कर में उसकी पार्थवी नाराज़ हो गई थी।
उसने सोचा, सुबह बात करेगा और सोने चला गया। पार्थवी भी गुस्से में सोने चली गई।
सुबह हुई और व्योम ने पार्थवी से बात करने की सोची। लेकिन पार्थवी उसके नीचे आने से पहले ही स्कूल जा चुकी थी। उसे खुद पर गुस्सा आया कि वह इतने देर से क्यों आया। रात में बात करने का सोचकर व्योम बाहर निकल गया। आज वह इधर-उधर मँडराता रहा।
दिन गुज़र गया और व्योम अब पार्थवी से बात करने का सोचकर फिर से उसके इंतज़ार में बाहर ही आ गया। लेकिन पार्थवी न जाने कहाँ थी, वह नज़र तक न आई।
पार्थवी कुछ ज़्यादा ही गुस्सा हो गई थी। उसने व्योम की हर कोशिश नाकाम कर दी थी। व्योम को उसकी नाराज़गी बिल्कुल अच्छी नहीं लग रही थी। व्योम ने बहुत कोशिश की, लेकिन पार्थवी ने इस बार ज़िद्द पकड़ ली थी और वह चाहकर भी पार्थवी से बात नहीं कर पा रहा था, क्योंकि पार्थवी उसके सामने ही नहीं आ रही थी। और अगर आ भी जाती तो उसे देखते ही बहाना बनाकर भाग जाती।
इसी नाराज़गी और कोशिश में पंद्रह दिन बीत गए। व्योम हर कोशिश करके थक गया, लेकिन पार्थवी की नाराज़गी ख़त्म होने का नाम नहीं ले रही थी।
एक रोज़ सुबह में, पार्थवी अपने स्कूल जाने के लिए निकल ही रही थी कि व्योम उसके सामने आ गया। आज वह भोर से ही जगकर उसके ताक में था। जैसे ही वह बाहर निकली, व्योम बेझिझक उसके सामने आकर खड़ा हो गया। व्योम को देखकर वह कुछ देर के लिए ठिठकी। फिर अगले ही पल दूसरी तरफ़ से जाने लगी। व्योम ने यह देखकर उसका हाथ पकड़ते हुए कहा, "अगर तुमने यह नाराज़गी ख़त्म करके मुझसे आज रात तक बात नहीं की तो कल सुबह की किसी भी फ़्लाइट से मैं वापस चला जाऊँगा।"
पार्थवी का दिल उछलकर गले में आ अटका। 'कल चला जाऊँगा' ये शब्द उसके दिमाग़ में कौंध गया। उसे लगा व्योम उसे धमका रहा है और उससे दूर जाना चाहता है। इसलिए उसने गुस्से में व्योम को देखा। मगर उसकी आँखें नम हो उठीं। व्योम ने उसकी नम आँखें देखी तो उसे बिल्कुल अच्छा नहीं लगा। उसने अपना हाथ उसकी तरफ़ बढ़ाया। जिसे पार्थवी ने गुस्से में झटकते हुए कहा, "कल की जगह आज चले जाइए। जब जाना है, जाइए। लेकिन अभी मुझे जाने दीजिए।" और गुस्से में तेज़ी से सीढ़ियाँ फलाँगते हुए वह रत्ना के घर जा पहुँची।
जारी है...
व्योम ने अपनी तरफ़ से हर कोशिश कर ली थी, लेकिन पार्थवी न जाने किस बात से नाराज़ बैठी थी।
पार्थवी गुस्से में रत्ना के घर पहुँची। रत्ना अभी तैयार हो रही थी। उसे देखते ही रत्ना चौंक कर बोली, "आज सूरज पश्चिम से निकला है क्या? पार्थवी, तू पहले आ गई?"
"मैं तैयार थी, तो आ गई। तू भी तैयार हो जा।" उसने जबरदस्ती हँसते हुए कहा। रत्ना, उस पर ध्यान दिए बिना बोली, "और होमवर्क हुआ तेरा आज? पता है न, हिस्ट्री के सर सवाल पूछने वाले हैं।"
"हाँ, कर लिया है।" पार्थवी अनमने ढंग से बोली।
इस बार रत्ना ने उसे ध्यान से देखा। उसे पार्थवी कुछ बुझी-बुझी लगी। वह अपनी शू-लेस बाँधकर उसके पास आ गई।
"क्या हुआ? तू ठीक है?"
रत्ना की आवाज़ सुनकर पार्थवी ने उसे देखा और रत्ना के सामने रोने लगी। रत्ना परेशान हो गई। उसने घबराकर कहा, "क्या हुआ पार्थवी? तू रो क्यों रही है? अम्मा ने कुछ कहा है क्या? पार्थवी, देख, चुप हो जा।"
पार्थवी का रोना और बढ़ गया। रत्ना भागकर पानी ले आई और पानी उसकी तरफ़ बढ़ाते हुए बोली, "पहले तू ये पी ले। पी ले।"
पार्थवी ने पानी पी लिया। रत्ना उसकी पीठ सहलाते हुए बोली, "क्या हो गया पार्थवी? तू ऐसे रो क्यों रही है?"
"कुछ नहीं। चल, स्कूल के लिए लेट हो जाएँगे।" पार्थवी अपने आँसू पोछकर बोली। रत्ना के सवाल करने से पहले ही वह दरवाज़े की तरफ़ मुड़ गई। पहली बार उसे पार्थवी अपने उम्र के अनुसार गंभीर लगी थी, और यह देखकर उसे बुरा लगा था। उसे पार्थवी का बचपना ही पसंद था, और आज इतनी गंभीरता उसे अच्छी नहीं लगी।
दोनों स्कूल आईं और पार्थवी हर क्लास में गुमसुम और खोई-खोई रही। वह वहाँ होते हुए भी वहाँ नहीं थी। लंच टाइम पर रत्ना उसे किनारे लाकर बोली, "पार्थवी, क्या बात है? तू इतनी शांत क्यों है? किसी ने कुछ कहा है तुझसे?"
"नहीं…!" पार्थवी धीमे आवाज़ में बोली।
रत्ना को अब गुस्सा आ रहा था। उसने पार्थवी की बाज़ू जोर से पकड़ी और गुस्से में बोली, "देख पार्थवी, सही-सही बता, नहीं तो घर जाकर तेरी अम्मा से बात करूँगी मैं।"
पार्थवी घबरा गई। "अम्मा से मत कहना रत्ना, उन्हें कुछ भी नहीं पता।"
"तो बोल, क्या बात है?" रत्ना हाथ बाँधकर खड़ी हो गई। पार्थवी ने झिझकते हुए उसे अपने और व्योम की बात बता दी और यह भी बता दिया कि वह व्योम के लिए कुछ अलग महसूस करती है। रत्ना ने अपना सिर पकड़ लिया।
"पार्थवी, इतना कुछ हो गया और तूने मुझे बताया भी नहीं क्यों?"
"मुझे लगा तू गुस्सा करेगी।" पार्थवी मासूमियत से बोली। रत्ना उसका मासूम चेहरा देखकर बोली, "एक तो तू मुझे इतनी मासूमियत से मत देख। कभी-कभी ज़हर लगती है मुझे तेरी ये मासूमियत।"
पार्थवी रुआँसी होकर बोली, "रत्ना, गुस्सा क्यों हो रही है?" उसकी रोती सूरत देखकर रत्ना ने एक गहरी साँस ले कर खुद को नियंत्रित किया। उसने आराम से पार्थवी को वहीं कैंपस में बैठाया और सहजता से बोली, "पार्थवी, तू बहुत भोली है। तुझे दुनिया के हो रहे छल का पता नहीं। इन परदेसियों से दूर रहा करती है।"
"लेकिन ये बहुत अच्छे हैं रत्ना।"
"ठीक है, माना कि अच्छे हैं, लेकिन ये बता, कल को तो ये चले ही जाएँगे, फिर किसे ढूँढेगी? और सबसे बड़ी बात, कहाँ ढूँढेगी? तू इस परदेसी बाबू से जितना दूर रहेगी, उतना अच्छा होगा पार्थवी।" रत्ना ने उसे प्यार से समझाया।
"जब तक उन्हें देख न लूँ, मेरा दिल नहीं लगता रत्ना। मेरा अब उनके बगैर दिल नहीं लगता। इतने दिन नाराज़ रही हूँ उनसे, सिर्फ़ इसलिए कि मुझे उनका मनाना अच्छा लग रहा था, लेकिन अब और नाराज़ रही तो वो चले जाएँगे।" पार्थवी मजबूर थी अपने दिल से, और रत्ना मजबूर थी अपनी दोस्ती से।
"ये सही नहीं है पार्थवी।" रत्ना ने अपनी बात पर ज़ोर देते हुए कहा।
पार्थवी ने सवालिया नज़रों से उसे देखा। "क्यों सही नहीं है रत्ना?"
रत्ना ने खीझकर कहा, "क्योंकि वो एक परदेसी हैं, शहरी बाबू हैं। वो चाहे तुझसे कितने भी प्यार से बात करे, तुझसे शादी नहीं करेंगे। उनके लिए शहरों में लड़कियों की कमी नहीं है। तू या हम कहीं से भी उनके शहर के माहौल के लिए सही नहीं हैं।"
"बाबू जी ऐसे नहीं हैं रत्ना। तुम उनके बारे में ऐसा क्यों कह रही हो?" पार्थवी को व्योम की बुराई अच्छी नहीं लग रही थी। रत्ना को पार्थवी पर तरस आ रहा था। उसने सीधे व्योम से ही बात करने का फैसला किया।
वह पार्थवी को देखकर मुस्कुराते हुए बोली, "ठीक है, अगर तुझे नहीं पसंद तो रहने दे। मैं अब तेरे बाबू जी के बारे में कोई बात नहीं करूँगी।" भोली रानी मुस्कुरा दी।
लंच टाइम ख़त्म होने पर दोनों ने क्लासेज़ अटेंड की और घर लौट आईं।
पार्थवी कपड़े बदलने गई तो व्योम का दरवाज़ा बंद था। वह सीधा रूम में घुसी और कपड़े बदलकर नीचे आ गई।
नीचे आते ही लाजो जी ने उसे खाना दिया और उसकी तरफ़ ध्यान न देते हुए बोली, "शाम में बाज़ार चलेगी मेरे साथ। शहरी बाबू के लिए कुछ लेना है।"
"क्यों? उनके लिए क्यों लेना है तुझे अम्मा? मैं पाँच रुपये मांगती हूँ तो मना कर देती है मुझे।" पार्थवी चिढ़कर बोली।
लाजो जी ने घुड़कते हुए कहा, "कब अक्ल आएगी तुझे? वो मेहमान हैं, और उन्होंने हम सबको इतने महंगे गिफ़्ट दिए हैं, तो उन्हें भी देना चाहिए कि नहीं?"
"वैसे वो गिफ़्ट नहीं, गिफ़्ट होता है अम्मा। और दूसरी बात, हमने उनको नहीं कहा था कि हमें कुछ दे। वो अपनी मर्ज़ी से देकर गए हैं।" पार्थवी अपनी नाराज़गी में लाजो जी के कान भर रही थी। उसे गुस्सा इस बात पर भी आया था कि सबके लिए कुछ न कुछ लाया था वो, लेकिन उसके लिए कुछ नहीं लिया। वाह… क्या दोस्ती है…
"चुप कर जा, अकल की अंधी। कल जा रहे हैं वो, उनके जाने के बाद फिर चिढ़ते रहना।" लाजो जी नाराज़ हो चुकी थीं अब तक, लेकिन पार्थवी का दिल धक से कर गया।
उसके शहरी बाबू जी कल जा रहे हैं? क्या वो सच में जा रहे हैं? नहीं… ऐसा नहीं हो सकता है। वो नहीं जाएँगे। वो इसी उधेड़बुन में थी कि लाजो की आवाज़ उसके कानों में पड़ी।
"आज कहीं घूमने भी नहीं गए हैं। कह रहे थे, तबियत ठीक नहीं लग रही है। जाकर देख आ तो अब कैसी तबियत है उनकी।" पार्थवी ने एक नज़र अपनी माँ पर डाली और अपनी बेचैनी छुपाते हुए बोली, "खाना तो खा लेने दे अम्मा।"
"ठीक है, खाकर ज़रूर चली जाना। मैं जरा बाहर जा रही हूँ, कुछ काम है मुझे!" लाजो बोलकर बाहर चली गई। अब घर पर कोई भी नहीं था, सिवाय व्योम और पार्थवी के।
पार्थवी ने खाने की बहुत कोशिश की, लेकिन उसकी भूख तो मिट चुकी थी। उसने प्लेट सरकाकर खाना यूँ ही छोड़ दिया।
अपने हाथ धोकर वह दबे कदमों से सीढ़ियाँ चढ़ने लगी। शुरुआती ठंड की यह धूप अच्छी लग रही थी, लेकिन उसे अभी सब कुछ बुरा लग रहा था। बहुत कुछ ऐसी बातें सोचते हुए उसने व्योम के दरवाज़े पर दस्तक दी।
कुछ देर बाद दरवाज़ा खुला। अलसाया चेहरा, बिखरे बाल। पार्थवी उसे देखकर सब कुछ भूल गई। वह यूँ ही खड़ी रही। व्योम ने उखड़े लहज़े में कहा, "क्या हुआ? क्यों आई हो?"
पार्थवी की तंद्रा टूटी। उसने अपनी बेताबी एक बार छुपाने की कोशिश की। "अम्मा कह रही थीं कि आपकी तबियत ठीक नहीं है।"
"हूँ… लेकिन तुम्हें उससे क्या?" व्योम ने बेरुखी से कहा। पार्थवी की आँखें झिलमिला उठीं। व्योम ने अपनी पीठ उसकी तरफ़ कर ली थी, इसलिए उसका रोता आँखें न देख सका।
"ऐसे तो न कहें बाबू जी!" पार्थवी का गला भर आया। व्योम ने बिना मुड़े कहा, "तुम्हें क्या परवाह है मेरी? पार्थवी, पन्द्रह दिनों से तुम्हें मनाने की कोशिश कर रहा हूँ, लेकिन तुम तो मेरी तरफ़ देखती भी नहीं हो। कल जा रहा हूँ। मैंने जाने-अनजाने तुम्हारा दिल दुखाया है, उसके लिए माफ़ कर देना।"
व्योम दरवाज़ा खुला छोड़कर आगे बढ़ गया, मगर यह बात पार्थवी को बेचैन कर गई। वह तड़पकर आगे बढ़ी और पीछे से व्योम की पीठ से जा लगी। व्योम जहाँ था, वहीं रुक गया। पार्थवी रोते हुए बोली, "ऐसा न कहें बाबू जी… मैं बस नाराज़ थी। आप तो मुझे यहाँ अकेले छोड़कर जा रहे हैं।"
उसकी आवाज़ सुनकर व्योम झटके से उससे अलग हुआ। उसके आँसू देखकर उसका मन कचोटने लगा। "यार, तुम रोना बंद करो। मैं तुम्हें रोते हुए नहीं देख सकता हूँ पार्थवी।"
पार्थवी का रोना और बढ़ गया। व्योम ने इधर-उधर देखा, फिर पार्थवी का चेहरा अपनी हथेली से ऊपर करते हुए गहरी आवाज़ में बोला, "तुम्हारी नाराज़गी मैंने बहुत मुश्किल से बर्दाश्त की है, लेकिन ये आँसू मैं बर्दाश्त नहीं कर सकता पार्थवी। मैं नहीं जानता कि इतने दिनों में तुम्हारी क्या हालत रही है, लेकिन आज अपने दिल का हाल बता रहा हूँ तुमसे। तुम्हारी नाराज़गी ने एक-एक पल तड़पाया है।"
पार्थवी का रोना बंद हो गया। व्योम ने उसके आँसू पोछते हुए कहा, "मैं इससे ज़्यादा कुछ नहीं कह सकता, बस इतना जान लो कि अब तुम्हारे बगैर मेरा जीना नामुमकिन है।"
पार्थवी का दिल मचल उठा। उसने झिझकते हुए कहा, "लेकिन आप तो जा रहे हैं।"
व्योम बिना देरी किए उसके चेहरे पर झुक गया और प्यार से बोला, "नहीं जाऊँगा… अब तभी जाऊँगा जब तुम्हारे अम्मा-बापू तुम्हें मुझे न सौंप दें।"
"बाबू जी…!" पार्थवी का दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगा। उसने शर्माकर अपना चेहरा दूसरी तरफ़ कर लिया, लेकिन व्योम तो आज हद पार कर देने के मूड में था। उसने बिना झिझके पार्थवी की उंगली में अपनी उंगली फँसाते हुए कहा, "वादा करो, अब मुझसे नाराज़ नहीं होगी।"
"वादा…!" पार्थवी ने थूक निगलते हुए कहा।
"मुझे छोड़कर कभी नहीं जाओगी।" व्योम उसके करीब आया। पार्थवी के जिस्म में झुरझुरी उठी। उसने धीमे स्वर में कहा, "कभी नहीं जाऊँगी।"
"और कुछ…!" व्योम उसके चेहरे के करीब आ गया और उसके सिर से अपने कपाल को सटा लिया। पार्थवी के लिए यह एक लम्हा था जिसमें वह घबरा गई और व्योम से झटके से अलग हो गई।
व्योम उसकी घबराहट देखकर जोर से हँसते हुए बोला, "घबरा गई पागल लड़की।"
पार्थवी को खुद पर गुस्सा भी आ रहा था और हँसी भी आ रही थी। वह झिझकते हुए बोली, "मैं… मैं बाद में आऊँगी।" और इतना बोल वो व्योम के जवाब का इंतज़ार किए बगैर धड़ाधड़ सीढ़ियाँ उतरने लगी। उसकी हालत पर व्योम ने जोर से कहकहा लगाया, जो पार्थवी को साफ़ सुनाई दे रहा था। लेकिन अगले ही पल पार्थवी किसी से टकराई और उसकी खुशी हवा में गायब हो गई।
जारी है…
अगले ही पल पार्थवी किसी से टकरा गई और उसकी खुशी हवा में गायब हो गई। उसने अपनी खुशी छुपाते हुए कहा, "अरे रत्ना! तु... इस वक्त?"
रत्ना ने पीछे की तरफ देखते हुए, कुछ नाराज़गी से कहा, "लाजो चाची ने जाते जाते कहा था कि तेरे साथ रहूँ, इसलिए तेरे पास आ गई। लेकिन तू क्यों इतनी चहक रही है?"
"नहीं, तो बस ऐसे ही।" पार्थवी ने उसकी नज़रों का पीछा किया। फिर पीछे व्योम को न देखकर सुकून की साँस लेते हुए बोली, "लेकिन..."
लेकिन रत्ना पार्थवी जैसी भोली नहीं थी। वह सब कुछ अच्छे से समझती थी। उसने थोड़े उखड़े लहजे में कहा, "मैंने तुझे समझाया था न कि इन परदेसी बाबू से दूर रह। तू समझ क्यों नहीं रही है? मैं तुझे तकलीफ में नहीं देखना चाहती।"
"ऐसा कुछ नहीं होगा रत्ना। बाबू जी ने आज वादा किया है मुझसे कि वो मुझे छोड़कर नहीं जाएँगे।" पार्थवी मासूमियत से बोली। रत्ना ने उस पर तरस खाते हुए कहा, "इतना भोलापन इस चालाक दुनिया के लिए सही नहीं है। ये दुनिया तुझे नोच खाएगी। कुछ तो समझा कर पार्थवी। वो तेरा मन रखने के लिए कह रहे होंगे।"
"ऐसा नहीं हो सकता है।" पार्थवी उलझे हुए अंदाज़ में बोली।
रत्ना उसके नज़दीक आकर बोली, "क्यों नहीं हो सकता? तू बता, वो कितने दिनों तक अपने काम को छोड़कर यहाँ तेरे पास बैठे रहेंगे?"
पार्थवी चुप हो गई। उसे रत्ना की बात सही लग रही थी। रत्ना ने मन ही मन कहा, "मुझे लाजो चाची से बात करनी पड़ेगी। इससे पहले कि इसे कोई ठेस पहुँचे, उन्हें सब कुछ बता देना होगा ताकि वो इसे भविष्य में मिलने वाले दर्द से बचा सकें।"
"तू ज़्यादा मत सोच। अगर ऐसा है तो मैं तेरे बाबू जी से बात करूँगी।" रत्ना ने मुस्कुराते हुए कहा। पार्थवी का उदास चेहरा खिल उठा।
"तू सच कह रही है?" पार्थवी ने हँसते हुए कहा।
"तू उनसे प्यार करने लगी है?" रत्ना ने उसके सवाल को नज़रअंदाज़ किया और पार्थवी खामोश हो गई।
"बोल न?" रत्ना ने जोर देते हुए कहा।
"पता नहीं रत्ना, लेकिन उनके बिना कुछ अच्छा नहीं लगता है। वो बात न करें तो ध्यान भी कहीं और रहता है। उन्हें देखकर सब कुछ भूल जाती हूँ। वो मुझे समझ जाते हैं रत्ना।" पार्थवी ऊपर व्योम के कमरे की तरफ देखते हुए बोली।
रत्ना के समझ से बाहर हो रहा था सब कुछ। सरफ़ एक महीना तो हुआ था व्योम को आए हुए। इतने कम वक़्त में उसे पार्थवी और व्योम का एक-दूसरे की तरफ़ आकर्षित होना कुछ खटक रहा था। ऐसा नहीं था कि वो पार्थवी से जलती थी। वो बस उसे तकलीफ में नहीं देखना चाहती थी। बचपन से साथ रही थीं दोनों। पार्थवी अभी भी बच्ची ही थी। उम्र के पड़ाव का असर हो सकता था उस पर, लेकिन मासूमियत, निष्छलता, सब कुछ छोटे बच्चे की ही तरह था उसमें।
"क्या उन्हें भी ऐसा लगता है तेरे लिए?"
"हाँ रत्ना, हाँ... वो कह रहे थे कि जब मैं उनसे रूठ गई थी तो उन्हें कुछ अच्छा नहीं लग रहा था।" पार्थवी खुशी-खुशी बोली।
दोनों फिर कमरे में आ गईं। दोनों गप्पे मारने लगीं। पार्थवी की हर बात में वही था, घूम-फिरकर बस वो अपने शहरी बाबू जी पर आ जाती थी। रत्ना की फ़िक्र उसके लिए बढ़ती जा रही थी।
मनुष्य की फ़ितरत होती है, ये कि वो किसी की अच्छाई की तरफ़ आकर्षित हो जाता है, व्यक्तित्व की गहराई को समझे बगैर। इस मामले में लड़कियाँ थोड़ी ज़्यादा कमज़ोर होती हैं। उन्हें आकर्षित करना कोई मुश्किल काम नहीं होता है और पार्थवी जैसी लड़कियाँ तो सबसे आसानी से किसी की भी बातों में आ जाती हैं। अब तो व्योम को ही देखना था कि वो पार्थवी से सच में जुड़ा था या सिर्फ़ वक़्त गुजारने का ज़रिया था वो।
व्योम अपने कमरे में चहलकदमी कर रहा था। उसे बार-बार पार्थवी का झिझकना और शर्माना याद आ रहा था और वो किसी टीनएज लड़के की तरह ब्लश कर रहा था। उसने अपने बालों में हाथ फेरते हुए धीरे से कहा, "उफ़्फ़ ये मासूमियत... जानलेवा है पार्थवी! मैं तुम्हारी तरफ़ बढ़ने से खुद को रोक नहीं पाया।"
तभी उसका मोबाइल बजा। उसने अनमने ढंग से मोबाइल हाथ में लिया, लेकिन स्क्रीन पर नज़र पड़ते ही वो गंभीर हो गया। वो सोच में पड़ गया, रिसीव करे या न करे। इसी उधेड़बुन में कॉल कट गया और फिर दुबारा से बज उठा। इस बार उसने कॉल रिसीव कर लिया।
"हुँ..."
"मैंने कहा था कि मुझे इस बार थोड़ा टाइम लगेगा।"
"मैं अच्छे से जानता हूँ, लेकिन मैं पहले ही कह चुका था कि महीना दिन से ऊपर लगेगा। मुझे खुद के साथ वक़्त बिताना है। बहुत मुश्किलों से तो कुछ सुकून मिला है, उसे कुछ देर रहने दीजिए।"
उधर से जो भी कहा गया, लेकिन व्योम के चेहरे से साफ़ पता चल रहा था कि उसे सामने वाले की बात पसंद नहीं आई थी। उसने गुस्से में झिल्लाते हुए कहा, "मैं अभी नहीं आऊँगा। मुझे खुद के साथ वक़्त बिताना है, अपने बारे में भी सोचना है, इसलिए मुझे बार-बार फ़ोन करना बंद कर दीजिए। मैं खुद आ जाऊँगा।" और उसने कॉल कट कर दिया। उसका सारा मूड खराब हो चुका था। वो मोबाइल बिस्तर पर रखकर पलटा, तो सामने रत्ना और पार्थवी खड़ी थीं। उन्हें एक साथ देखकर वो कुछ देर के लिए सकपका गया। फिर जल्द ही संभलकर बोला, "तुम दोनों एक साथ?"
"आप इतने गुस्से में क्यों थे बाबू जी?" पार्थवी ने अपनी हमेशा वाली मासूमियत से पूछा।
व्योम ने मुस्कुराकर कहा, "मेरे ऑफ़िस से मेरे बॉस का फ़ोन था। वो मुझे बुला रहे हैं।"
पार्थवी के चेहरे का रंग उड़ गया, ये सोचकर कि व्योम चला गया। व्योम उसकी उड़ी हुई रंगत देखकर बोला, "क्या हुआ? अरे पागल! मैं नहीं जाऊँगा अभी। मैं पहले ही बोलकर आया था कि दो महीने से पहले वापस नहीं आऊँगा।"
"फिर दो महीनों के बाद इसका क्या होगा?" रत्ना ने उखड़े स्वर में कहा। व्योम ने अचरज से उसे देखा। रत्ना ने उसी अंदाज़ में कहा, "परदेसी बाबू! आप तो दो महीने के बाद चले जाएँगे, लेकिन उसके बाद पार्थवी का क्या? आप जो उसे मीठे-मीठे और सुनहरे ख़्वाब दिखा रहे हैं, उसकी हकीकत क्या है?"
रत्ना के बोलने का अंदाज़ पार्थवी को अच्छा नहीं लगा। उसने नाराज़ होकर कहा, "ये तू कैसे बात कर रही है रत्ना? उन्हें बुरा लगेगा।"
रत्ना ने गुस्से में कहा, "और इनके जाने के बाद तुझे जो बुरा लगेगा, उसका क्या?"
व्योम से अब बर्दाश्त नहीं हुआ। उसके लहजे में थोड़ी तल्खी उतर आई। "तुम कहना क्या चाहती हो?"
रत्ना ने उसके चेहरे पर नज़रें जमाकर, एक-एक शब्द पर ज़ोर देते हुए कहा, "मेरी दोस्त आपको पसंद करती है। वो बहुत मासूम है। उसे किसी के मन के भीतर की बात समझ नहीं आती, लेकिन मैं मासूम और भोली नहीं हूँ। मैं दुनियादारी अच्छे से समझती हूँ। अगर आप ये सब सिर्फ़ यहाँ रहकर अपना टाइम पास कर रहे हैं, वक़्त गुजारने के लिए कर रहे हैं, तो हाथ जोड़ती हूँ आपके आगे, मेरी मासूम दोस्त के साथ खेलना बंद कीजिए।"
"रत्ना चुप कर जा! क्या बोल रही है तू? बाबू जी ऐसे नहीं हैं।" पार्थवी अब तक तो रोने भी लगी थी। व्योम ने एक नज़र रोती हुई पार्थवी पर डाली और बहुत सहज भाव से बोला, "देखो रत्ना, तुम्हारी फ़िक्र सही है, लेकिन मैं पार्थवी के साथ किसी तरह का टाइमपास नहीं कर रहा हूँ। मैं जाने से पहले इसके अम्मा-बापू से बात करूँगा और इसे सबके सामने स्वीकार करूँगा।"
रत्ना को यकीन नहीं आया, जबकि पार्थवी रोते हुए भी मुस्कुरा दी।
"परदेसी पर विश्वास नहीं करते हैं पार्थवी, झूठे होते हैं ये।" रत्ना ने पार्थवी को समझाना चाहा।
पार्थवी ने ना में सिर हिलाकर बोला, "बाबू जी ऐसे नहीं हैं।"
"मेरी बात समझने की कोशिश कर पार्थवी।" रत्ना ने प्यार से कहा। तो व्योम बीच में टपकते हुए बोला, "मैं पार्थवी को धोखा नहीं दूँगा। मैं अच्छे से जानता हूँ कि एक परदेसी के लिए यहाँ क्या नज़रिया है और यकीन मानो, मैं ये नज़रिया बदल दूँगा।"
रत्ना के समझ से परे था सब कुछ। वो पार्थवी को साथ लेकर वापस से नीचे आ गई।
कुछ घंटों के बाद लाजो जी सूरज ढलने से पहले वापस आ गईं। रत्ना उनके आते ही चली गई। अगले दिन रविवार था, तो उसने कल ही बात करने की सोची।
लाजो जी आते ही पार्थवी से बोलीं, "तुने व्योम बाबू को तंग तो नहीं किया?"
पीछे से आते व्योम ने ये सुन लिया और सहजता से बोला, "नहीं, बल्कि इसने काफ़ी अच्छे से मेरा ध्यान रखा।"
लाजो जी ने मुड़कर उसे देखा। व्योम ने मुस्कुराते हुए कहा, "आंटी, मैं ये कहने आया था कि मैं कल नहीं जाऊँगा। मैंने ऑफ़िस में बात कर ली है, मेरे बिना भी काम हो जाएगा। अगले महीने के बाद ही जाऊँगा।"
पार्थवी का चेहरा सौ फूलों की तरह खिल उठा। व्योम जाने लगा, लेकिन फिर मुड़कर बोला, "आंटी जी, एक बात बोलूँ, अगर आप बुरा न मानें तो?"
"बोलिए।"
व्योम ने झिझकते हुए कहा, "कल रविवार है और उज्जवल और पार्थवी दोनों ही घर पर रहेंगे। कल मुझे पास के ही गाँव में घूमने जाना है। अगर ये दोनों भी साथ चलते तो अच्छा लगता मुझे।"
लाजो जी ने सरलता से कहा, "बिल्कुल। उज्जवल आता है। मैं बात कर लेती हूँ। कल सुबह दोनों बच्चे चले जाएँगे आपके साथ।"
"थैंक यू आंटी।" व्योम ने मुस्कुराकर कहा और एक प्यार भरी नज़र पार्थवी पर डालकर वापस अपने कमरे में आ गया।
जारी है...
व्योम ने पार्थवी और उज्ज्वल को साथ ले जाने की इजाजत ले ली थी। पार्थवी का चंचल मन खुश हो गया। रात का खाना खाने के बाद सब अपने-अपने कमरों में सोने चले गए। लेकिन कोई था जो करवट बदल रहा था...वह थी रत्ना। वह बार-बार करवट बदलती, आँखें बंद करती और फिर बेचैन होकर बैठ जाती।
कुछ देर बाद वह उठकर बैठ गई। उसने पहले पानी पिया और सिर पकड़कर बैठ गई। कुछ धुंधली यादें उसके दिमाग में कौंध गईं।
"आप कौन...?"
"आप झूठे हैं, धोखेबाज हैं...आपने मुझे धोखा दिया है।"
"मैंने तुमसे कभी कोई वादा नहीं किया था।"
"तुम मेरे टाइम पास को प्यार समझ बैठी तो मैं क्या करूँ?"
"आपने कभी ये भी तो नहीं कहा कि ये सब एक टाइमपास था।"
"ओहो! मुझे जाने दो। मैं यहाँ अच्छी यादें बनाने आया था। रोकर मनहूस यादें मत दो। हटो मेरे रास्ते से।"
रत्ना झटके से खड़ी हो गई। उसने आसपास देखा, कुछ नहीं था सिवाय अंधेरे के। अपनी आँखों में आए आँसुओं को उसने पोछा और ऐसे ही टहलते हुए कमरे से बाहर निकल गई। उसकी नज़र पार्थवी के कमरे पर जा ठहरी। उसने पार्थवी के कमरे को देखते हुए मन ही मन कहा, "नहीं, पार्थवी! जो मैंने झेला है, वह तुझे नहीं झेलने दूँगी। तुम्हें विरह का दर्द नहीं पता, लेकिन मैं जानती हूँ...अच्छे से पहचानती हूँ। ये परदेसी आते हैं वक्त बिताने के लिए और दिल लगाकर हज़ारों झूठे वादे कर, रोते-तड़पते छोड़कर चले जाते हैं। मैं कल सुबह ही लाजो आंटी से बात करूँगी। अभी शुरुआत है, आकर्षण है; ज़्यादा देर नहीं हुई। तुम संभल जाओगी, मगर अभी न रोका तो टूटकर बिखर जाओगी।"
उसने आसपास नज़र घुमाई। रात का सन्नाटा बहुत भयानक लग रहा था। हर चीज़ कोहरे से ढँकी मालूम पड़ रही थी। उसने एक ठंडी साँस ले कर उस भयावह रात को देखा और वापस अंदर चली गई।
उसके अंदर जाने के कुछ देर बाद ही व्योम अपने कमरे से बाहर निकला। उसके हाथ में एक थैला था। उसने धीरे से पार्थवी का दरवाज़ा खटखटाया। कुछ देर बाद पार्थवी ने ऊँघते हुए दरवाज़ा खोला। व्योम को वहाँ देखकर उसकी नींद उड़ गई।
"बाबूजी आ...?" पार्थवी जोर से बोली। व्योम ने घबराकर उसके मुँह पर अपना हाथ रखा और उसे धकेलते हुए अंदर आ गया।
पार्थवी घबराकर उसे देख रही थी। व्योम का चेहरा उसके बिल्कुल करीब था। वह बार-बार अपनी पलकें झपकाते हुए व्योम को देख रही थी। व्योम भी उसकी नज़रों के ताने-बाने में उलझ चुका था। दोनों के बीच कम होते फ़ासले उन्हें एक-दूसरे के और भी करीब कर रहे थे। अंजाम क्या होना था, इस नज़दीकी का, दोनों ही नहीं जानते थे, लेकिन इस सफ़र में सब कुछ अच्छा लग रहा था।
"हुँ..." पार्थवी ने व्योम को हाथ हटाने का इशारा किया। व्योम ने पहले अपनी हथेली को देखा और फिर हड़बड़ाकर उससे अलग हो गया।
"मारेंगे क्या, बाबूजी? इतनी जोर से मुँह बंद किया था, मेरी तो साँस ही अटक गई थी।" पार्थवी अपने चेहरे को हाथ लगाकर बोली।
व्योम ने उसे अजीब सी नज़रों से देखा। आमतौर पर लड़कियाँ ऐसी स्थिति में शर्मा जाती थीं और यह तो अजीब नमूना थी। भागने की जगह सवाल-जवाब कर रही थी। व्योम की चुप्पी पर पार्थवी ने खुद से ध्यान हटाकर उसे देखा और भौंहें उछालकर बोली, "क्या...क्या ऐसे क्या देख रहे हैं? आगे से ऐसे मत कीजियेगा।"
"हुँ, ठीक...तुम भी आगे से चिल्लाना मत।" व्योम ने सरसरी अंदाज़ में कहा।
उसकी बात पर पार्थवी फिर से तेज आवाज़ में बोली, "क्या मतलब कि मैं...?" लेकिन व्योम ने फिर उसके होंठों पर हथेली रख दी और फुसफुसाते हुए बोला, "मरवाओगी क्या? किसी ने एक साथ इस समय हमें देख लिया तो बहुत बुरा हो जाएगा।"
"इसमें बुरा क्या है, बाबूजी?" व्योम ने अपना सिर पीट लिया। वह समझा भी किसे रहा था, जिसे अल्हड़पन के अलावा कुछ और नहीं आता था। उसने इसके सवाल को नज़रअंदाज़ करके कहा, "ये लो, ये मैं उस रोज़ तुम्हारे लिए लाया था, लेकिन तुम तो नाराज़ हो गई थीं। कल इसे ही पहनकर साथ घूमने चलना।"
"सच...?" पार्थवी ने बैग खोलकर देखते हुए कहा। उसके चेहरे पर चमक आ गई थी।
व्योम ने उसे यूँ खुश देखकर उसे गुड नाईट कहा और अपने कमरे में वापस चला आया। पार्थवी उसके जाते ही उन कपड़ों को अपने सीने से लगाकर मचल उठी। उसने अपने कमरे की लाइट ऑन की और उन कपड़ों को खुद से लगाकर आईने के सामने खड़ी हो गई। उसका चेहरा गुलाबी हो गया। उसने शर्माकर खुद को देखा और खुद को व्योम की दुल्हन के रूप में कल्पना करने लगी।
पारंपरिक लाल जोड़े में बैठी पार्थवी, पारंपरिक कपड़ों में उसके बगल में बैठा व्योम, एक-दूसरे को हसरत भरी नज़रों से देख रहे थे। एक-दूसरे को पा लेने की चमक और लालसा चेहरे की रंगत को निखार रहे थे। पार्थवी अपने चेहरे पर हाथ रखकर शर्मा उठी और कपड़े वापस बैग में रखकर सोने चली आई। लेकिन अब कमबख्त नींद किसे आनी थी? व्योम ने उसका सब कुछ छीन लिया था।
सुबह होते ही सारी दिनचर्या पूरी करके व्योम, पार्थवी और उज्ज्वल साथ घूमने निकल पड़े। आज उन्हें अल्मोड़ा के पास के गाँव घूमने जाना था। पार्थवी बहुत खुश थी और सब उसकी यह खुशी साफ़ देख पा रहे थे। व्योम जानता था उसकी यह खुशी उसके साथ घूमने जाने की है, जबकि उज्ज्वल को यह लगा कि पार्थवी बहुत दिनों बाद घूमने जा रही है, इसलिए वह इतनी चहक रही है। तीनों निकल पड़े उस गाँव की ओर, जो उनकी किस्मत की रेखा और ज़िंदगी दोनों बदलने वाली थी।
उन सबके जाने के कुछ देर बाद रत्ना वहाँ आ गई। उसे देखकर लाजो जी बोलीं, "अरे रत्ना! तू यहाँ क्या कर रही है? पहले आती नहीं। पार्थवी अभी-अभी उज्ज्वल और व्योम बाबू के साथ पास के गाँव में घूमने गई है।"
"कब गई, चाची?" रत्ना ने सपाट भाव से कहा।
"यही कुछ पंद्रह मिनट हुए हैं।"
"ओह...वैसे भी मुझे पार्थवी से नहीं, आपसे बात करनी थी।" रत्ना धीरे से बेड पर आकर बैठते हुए बोली।
"बोल, क्या बात करनी है तुझे? अगर तेरी माँ से तेरी कोई पैरवी करनी है तो मैं नहीं करूँगी, रत्ना?" लाजो अपना काम करते-करते ही बोलीं।
"मुझे पार्थवी के बारे में बात करनी है।" रत्ना की आवाज़ में झिझक थी।
लाजो उसकी बात पर खीझ उठी। "तो ऐसे बोल काहे? मुझे डरा रही थी। कर दिया होगा उसने स्कूल में कुछ। इसमें मैं क्या करूँ? वह पढ़ती नहीं है तो उस लड़की से मैं परेशान हो चुकी हूँ। बस इस बार बारहवीं कर ले, किसी भी तरह, फिर उसके हाथ पीले कर दूँगी। जान छूटेगी मेरी इससे और इसकी पढ़ाई से।" लाजो ने अपने मन की भड़ास निकाली।
"ऐसे नहीं, चाची। यहाँ आओ, बैठो, फिर बात करती हूँ। ज़रूरी बात है।" रत्ना के कहने पर लाजो ने उसे असमंजस में देखा और फिर आकर उसके सामने खड़ी हो गई।
"बोल, अब क्या बात करनी है?" लाजो ने तेज आवाज़ में कहा। तो रत्ना ने उसे देखते हुए कहा...
जारी है...
उज्ज्वल, पार्थवी और व्योम अपनी मंजिल की ओर बढ़ रहे थे। आधे घंटे से अधिक समय बीतने के बाद वे अपनी मंजिल, सिमतोला गाँव, पहुँचे।
गाँव के भीतर आते ही व्योम की नज़रें गाँव की हरियाली पर रुक गईं। सिमतोला ऑटोस्टैंड पर आकर उनकी ऑटो रुकी और तीनों नीचे उतरे।
पार्थवी ने हर तरफ देखते हुए कहा, "ये हम कहाँ आ गए हैं भईया? हर तरफ कितनी भीड़ है।"
उज्ज्वल पहले भी अपने दोस्तों के साथ यहाँ आ चुका था, इसलिए उसे यहाँ के बारे में जानकारी थी। उसने मुस्कुराते हुए कहा, "ये ऑटोस्टैंड है पगली, भीड़ तो रहेगी। इस गाँव की खूबसूरती तो अंदर जाने पर मिलेगी।"
"ओह... अच्छा।" व्योम ने चेहरा दूसरी तरफ कर के मुस्कुरा दिया।
वह तीनों आगे बढ़े और आगे बढ़ने के बाद पार्थवी को सच में सुंदरता नज़र आई। वे नीचे ढलान से ऊपर चढ़ाई कर रहे थे। पहाड़ों को काटकर सड़कें बनाई गई थीं और उन सड़कों पर अधिक संख्या में देवदार के पेड़ लगे हुए थे। व्योम अपना कैमरा निकालकर अलग-अलग मनोरम दृश्य की तस्वीरें ले रहा था।
सड़कों के किनारे एक कतार से लगे देवदार के पेड़ हर राहगीर का ध्यान अपनी ओर खींच रहे थे। पार्थवी चहकते हुए सब कुछ देख रही थी। चढ़ते हुए वे काफी ऊपर आ गए और एक मैदान में आकर रुक गए। ऊपर आकर सबने अपनी फूली हुई साँसों को नियंत्रित किया।
कुछ सामान्य होने पर व्योम ने अब गर्दन ऊपर उठाई और गर्दन उठाते ही व्योम के मुँह से अनायास निकला, "वाओ... इट्स ब्यूटीफुल।"
सबने अब देखना शुरू किया। दूर पहाड़ों पर घने देवदार के पेड़, उनके ऊपर से गुजरते बादल और साथ चमकती सूर्य की किरण वहाँ का दृश्य मनोरम बना रहे थे। उज्ज्वल ने पहले भी ये सब देखा हुआ था। वह वहीं घास पर आराम से बैठते हुए बोला, "ये जगह देवदार के पेड़ के लिए ही फेमस है। लोग यहाँ पिकनिक मनाने आते हैं।"
"काफी शांत और खूबसूरत जगह है ये।" व्योम अपना कैमरा निकालते हुए बोला।
पार्थवी ने उत्सुकतावश कहा, "आप यहाँ पहले भी कभी आए हैं क्या भईया?"
"हाँ, दोस्तों के साथ आता रहता हूँ।" उज्ज्वल ने बेपरवाही से कहा।
पार्थवी फिर से वहाँ के नजारों को देखने में मगन हो गई। व्योम फ़ोटोज़ खींचते-खींचते थक गया था। उसे लगा था यहाँ और भी कुछ होगा, लेकिन देवदार के घने जंगलों के अलावा वहाँ और कुछ नहीं था। अभी तो सिर्फ़ 8:30 बज रहे थे और उन्हें पूरा दिन निकालना था।
उसने कैमरा बंद कर के उज्ज्वल के पास बैठते हुए कहा, "ये वसुंधरा झरना यहाँ से कितनी दूर है?"
"वो तो बहुत दूर है व्योम जी।" उज्ज्वल ने सोचते हुए कहा।
"फिर भी कितनी दूर?"
"यहाँ से छः से आठ घंटे लग जाएँगे।" उज्ज्वल ने जोड़कर बोला।
"ठीक है, कल हम सब वहाँ चलेंगे।" व्योम ने फैसला सुनाते हुए कहा।
उज्ज्वल सोच में पड़ गया। उसने झिझकते हुए कहा, "कल कैसे? कल तो मेरी ड्यूटी है।"
"और मेरा स्कूल भी तो है।" पार्थवी ने बीच में टपकते हुए कहा। उज्ज्वल ने उसे घूरते हुए कहा, "तू नहीं जाएगी पार्थवी, यहाँ से बहुत दूर है।"
पार्थवी का चेहरा उतर गया। उसने बहुत सुना था वसुंधरा झरने के बारे में, लेकिन कभी जा नहीं सकी थी। उसने सुना था कि जो लोग पापी होते हैं, उन पर उस झरने का पानी नहीं गिरता और जिन्होंने पुण्य कार्य किए हों, उसे वह झरना और भी पवित्र कर देता था। वह एक बार जाना चाहती थी वहाँ, लेकिन उज्ज्वल ने तो डाँट दिया था।
व्योम ने कुछ सोचते हुए कहा, "तो ठीक है, आज ही चलते हैं।"
उज्ज्वल उलझ गया। "आज कैसे? आज नहीं हो पाएगा। अभी 9 बजने वाले हैं। आने-जाने में देर रात हो जाएगी। पहाड़ों में इतनी दूर, वो भी रात का सफ़र ठीक नहीं है।"
व्योम ने उबते हुए कहा, "कुछ नहीं होगा। देखो, मेरी बात सुनो। मुझे दोस्तों के साथ घूमना अच्छा लगता है और यहाँ तो तुम दोनों ही मेरे दोस्त हो। अकेले नहीं जाऊँगा।"
"लेकिन कैसे?" उज्ज्वल को कुछ समझ नहीं आ रहा था।
व्योम ने उसे रिलैक्स करते हुए कहा, "तुम्हारे किसी दोस्त के पास कार है?"
"हाँ है।"
"तो उसे बोलो कि वो यहाँ आए। अपनी कार होगी और तेज रफ़्तार से चलाएगा तो 15 से 20 मिनट में यहाँ पहुँच जाएगा। हम सब 8:30 बजे तक निकल जाएँगे। मैं ड्राइव करूँगा तो शाम के 4 बजे तक वहाँ पहुँचेंगे और झरना देखकर वहाँ से तुरंत वापस आ जाएँगे।"
उज्ज्वल असमंजस में फँस गया। "बहुत देर हो जाएगी व्योम जी। इतना रिस्क क्यों लेना?"
"यार, मेरे लिए इतना तो कर ही सकते हो। अगर तुम्हें नहीं जाना, मत जाओ। मेरा क्या है? मैं अकेला घूम आऊँगा। पहले भी अकेला था, अभी भी अकेला ही जाऊँगा।" व्योम उठ खड़ा हुआ।
उज्ज्वल ने कुछ सोचते हुए अपने एक दोस्त को फ़ोन लगाया और सिर्फ़ व्योम की खातिर यह रिस्क लेने को तैयार हो गया, लेकिन बात नहीं बनी।
"गाड़ी आज नहीं आएगी, कल ही आएगी बाबू जी।" उज्ज्वल ने धीरे से कहा। व्योम ने कुछ नहीं कहा। उज्ज्वल उसके पास आकर बोला, "ठीक है, आप चिंता मत कीजिए। मैं कल छुट्टी ले लूँगा और हम दोनों साथ में चलेंगे घूमने।"
व्योम मुस्कुरा उठा, लेकिन पार्थवी का चेहरा उतर गया। उसने किसी से कोई बात नहीं की। वहाँ और कुछ देखने को नहीं था, तो थोड़ा-बहुत खाकर वापस घर की ओर निकल गए।
इधर घर पर रत्ना ने लाजो को अपने पास बैठाया और जैसे ही उसने बोलने के लिए मुँह खोला, वैसे ही रत्ना की माँ नर्मदा वहाँ आ गई। "अरे लड़की, तू यहाँ क्या कर रही है? चल, तुझे तेरे बापू बुला रहे हैं।"
रत्ना ने खीझ कर आँखें भींच लीं। उसने उकता कर कहा, "लाजो चाची से बात कर के आ रही हूँ अम्मा।"
नर्मदा ने उसे लाजो के पास से खींचते हुए कहा, "न, बाद में बात कर लेना। तेरे बापू थोड़े जल्दी में हैं, पहले उनकी सुन ले।"
रत्ना के बोलने से पहले लाजो बोल पड़ी, "मैं तुझसे बाद में बात करूँगी। तू पहले बापू की बात सुन ले।"
रत्ना ने मन मारकर कहा, "ठीक है।" वह उठकर नर्मदा के साथ आ गई। उसके बापू को खेत पर जाना था। आज कुछ ज़्यादा काम था शायद वहाँ, इसलिए उसे भी साथ ले जाना चाहते थे। रत्ना जाना नहीं चाहती थी, लेकिन उसे जाना पड़ा।
घंटे भर बाद वे तीनों भी वापस आ गए, लेकिन पार्थवी पूरे रास्ते शांत रही। उसे पढ़ने का बस बहाना चाहिए था और यह अच्छा मौका था स्कूल न जाने का और साथ ही व्योम के साथ रहने का, लेकिन उज्ज्वल ने तो उसे डाँट दिया था। व्योम को उसकी चुप्पी कुछ खटकी। उसने सरसरी अंदाज़ में कहा, "आज ये राजधानी शांत क्यों है उज्ज्वल?"
उज्ज्वल राजधानी सुनकर हँस पड़ा, जबकि पार्थवी ने गुस्से से व्योम को घूरा। व्योम ने मुस्कुराकर उसे देखा तो पार्थवी ने अपना चेहरा फेर लिया।
उज्ज्वल ने उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, "इतनी दूर जाने के लिए मना कर दिया इसलिए गुस्सा है मुझसे?"
"अरे तो ले चलो।" व्योम तो पार्थवी का साथ चाहता ही था। उसने तुरंत पैरवी कर डाली।
उज्ज्वल ने तुरंत कहा, "अरे नहीं बाबू जी, इतनी दूर, वो भी इतनी ऊँची पहाड़ी पर, खतरा है।"
व्योम ने हँसते हुए कहा, "तुम्हारे जैसे भाई के होते हुए भला इसे क्या खतरा होगा? ले चलो, तुम्हारी लाडली है, इसकी बात मान लो।"
उज्ज्वल सोच में पड़ गया। उसने एक दफ़ा मुड़कर पार्थवी का उदास चेहरा देखा। वह सब देख सकता था, सिवाय पार्थवी की उदासी के। उसने हामी भर दी। "हाँ" सुनते ही पार्थवी चहक उठी और खुशी-खुशी उज्ज्वल के गले लग गई।
जारी है...
इंसान किसी की ओर आकर्षित हो तो उसे प्रेम समझ लेता है… और इसी भूल में वह हर उस ओर कदम बढ़ाता है जिस ओर उसे नहीं जाना चाहिए था… प्रेम ऐसा ही तो होता है, लेकिन जो पार्थवी और व्योम एक-दूसरे के लिए महसूस कर रहे थे, वह प्रेम था या मात्र आकर्षण? और सबसे बड़ा सवाल: क्या व्योम सच में पार्थवी को अपना बनाना चाहता था? उसे सच में पार्थवी से प्यार हो गया था या वह बस समय बिता रहा था, रत्ना के अनुसार…? जो भी था, यह तो नियति ही जानती थी कि व्योम और पार्थवी का संबंध आगे कैसे बढ़ेगा और कहाँ तक बढ़ेगा…
वह सब घूमकर घर लौटे और दूसरे दिन सुबह-सुबह वसुंधरा झरना जाना तय हुआ। रत्ना का पूरा दिन खेतों में ही बीत गया। वह आज भी लाजो से बात नहीं कर पाई। यह एक दिन गुज़र गया और पार्थवी बस अगली सुबह का इंतज़ार कर रही थी।
सुबह, सारी तैयारी करके व्योम, पार्थवी, उज्ज्वल और उज्ज्वल का एक दोस्त और उसकी बहन साथ हो लिए। एक कार में सब बैठकर अपने इस खूबसूरत सफ़र के लिए निकल पड़े। उस सफ़र की ओर जो पार्थवी और व्योम की नियति को बदलने वाला था। एक अनजाना तूफ़ान उनका इंतज़ार कर रहा था जिसमें बहुत कुछ बर्बाद होने वाला था। आने वाले तूफ़ान से बेखबर, सब आगे बढ़ रहे थे।
सुबह की ठंड, हल्की ओस, पहाड़ों पर बने रास्ते और उन रास्तों के किनारे लगे घने पेड़, पीछे छूटते हुए मनमोहक लग रहे थे। पार्थवी पहली बार इतनी दूर जा रही थी। व्योम कार ड्राइव कर रहा था; लेकिन बीच-बीच में, छुप-छुप कर वह पार्थवी को भी देख ले रहा था, जो विंडो सीट पर बैठी, पीछे छूटते रास्ते को देखने में मगन थी। निश्छलता, मासूमियत, मोह, सुंदरता, मनमोहक… हर शब्द जो आकर्षण के लिए बने थे, व्योम को पार्थवी के लिए लग रहे थे। पूरे रास्ते मस्ती करते, झूमते, गाते सब पहले माना गाँव पहुँचे। माना हमारे देश का आखिरी गाँव है, जो काफ़ी छोटा, लेकिन बहुत मनोरम है।
व्योम ने कुछ देर के लिए गाड़ी वहाँ रोकी। सब बाहर निकले। काफ़ी खूबसूरत जगह थी यह! ऊँचे पहाड़ों के बीच बसा यह छोटा सा गाँव पर्यटकों का आकर्षण केंद्र था। हर तरफ़ सैलानी कैमरा लिए तस्वीरें खिंचवा रहे थे। व्योम ने भी अपना कैमरा निकाला और वहाँ की तस्वीरें लेने लगा। कुछ तस्वीरें सबने साथ में भी खिंचवाईं। एक-डेढ़ घंटा वहाँ रुकने के बाद, सब वापस वसुंधरा झरना जाने के लिए आगे बढ़ गए।
"हम सब समय से पहुँच जाएँगे," व्योम ने टाइम देखते हुए कहा।
सबने हामी भरी।
वह सब वसुंधरा झरने से एक घंटे की दूरी पर होंगे ही कि अचानक से मौसम बदलने लगा। आसमान में काले बादल छाँवने लगे और हल्की-हल्की हवाएँ भी चलने लगीं। यह देखकर उज्ज्वल ने चिंतित होकर कहा, "अचानक से मौसम बिगड़ रहा है। ऐसे में वहाँ जाना ठीक नहीं है। यह संकेत है कि हमें वहाँ नहीं जाना चाहिए।"
"तो फिर हम जाएँगे कहाँ? वापस तो नहीं जा सकते हैं," व्योम ने भी कुछ सोचते हुए कहा। वह धार्मिक बातों को कम मानता था, लेकिन मौसम बदल रहा था, इसलिए उन्हें कहीं तो रुकना होगा।
उज्ज्वल ने सोचते हुए कहा, "अभी के लिए माना गाँव वापस चलते हैं। जब मौसम ठीक होगा तो तब का तब देखेंगे।"
"हुँ, यह सही रहेगा!" उज्ज्वल का आइडिया बाकी सबको अच्छा लगा। लेकिन गाड़ी रुकने से पहले ही हवाएँ धीमी हो गईं और मौसम भी सुधरने लगा। यह देखकर सबने राहत की साँस ली और वापस जाने के बजाय आगे बढ़ गए। पार्थवी का मन एकदम से उदास हो गया और वह शांत होकर बैठ गई। उसे अब न जाने क्यों कुछ अच्छा नहीं लग रहा था।
एक घंटे के बाद वह सब बद्रीनाथ में थे। वहाँ का मौसम थोड़ा बिगड़ा हुआ था। हवाएँ तो नहीं चल रही थीं, लेकिन आसमान में काले बादल हर तरफ़ थे। सबने मुस्कुराकर इस मौसम को देखा और आगे बढ़े। बद्रीनाथ के आगे ही कहीं था वसुंधरा झरना। वह सब रास्ता पूछते हुए आखिर अपनी मंज़िल पर पहुँच ही गए।
झरने पर नहीं, उसके पहाड़ी के नीचे। 145 मीटर ऊँचाई से बहता यह झरना चारों तरफ़ हिमाच्छादित चोटियों और चट्टानों से घिरा हुआ था। सबने एक साथ गर्दन उठाकर ऊपर से गिरते झरने को देखा। सबके चेहरे पर एक मुस्कान तैर गई।
कुछ देर आराम करने के बाद सब आगे बढ़े और पहाड़ चढ़ने लगे। पार्थवी उज्ज्वल का हाथ पकड़कर आगे बढ़ रही थी। मौसम धीरे-धीरे अपना रंग बदल रहा था, फिर भी वह सब यहाँ आकर पीछे नहीं हटना चाहते थे।
उन्होंने अभी आधा रास्ता ही तय किया था कि हल्की-हल्की हवाएँ चलने लगीं और देखते ही देखते ये हवाएँ आँधी में बदल गईं।
"ये आँधी कैसे चलने लगी?"
सब अपने आप को संभालने की कोशिश कर रहे थे।
"भैया! मैं गिर जाऊँगी! पकड़ो मुझे!" पार्थवी ने चिल्लाते हुए कहा। व्योम भी दूसरी तरफ़ से आकर खड़ा हो गया और चिल्लाते हुए बोला, "हमें नीचे चलना चाहिए! जल्द से जल्द!" सब उसकी बात मानकर जल्दी-जल्दी नीचे उतरने लगे, लेकिन आँधी और तेज हो गई। इसी बीच हवा का एक तेज झोंका आया, उन सबको हिला गया। संभलते-संभलते भी सब नीचे गिर गए। पार्थवी गिरने को हुई। यह देखकर व्योम ने उसका हाथ पकड़कर अपनी ओर खींच लिया और उसे सीने से लगाकर वहीं रुक गया। उसने इधर-उधर नज़र दौड़ाई। उसे वहाँ कुछ दूरी पर एक बड़ा सा चट्टान नज़र आया। उसने पार्थवी को खुद के करीब करते हुए कहा, "हमें वहाँ उस चट्टान की ओट में छिपना चाहिए।"
"चलिए।" वह दोनों एक-दूसरे का हाथ पकड़कर संभलते हुए उस चट्टान के पास बहुत मुश्किल से पहुँचे। पहले व्योम बैठा और फिर उसने पार्थवी को अपने सीने से लगाकर बैठे रहने को कहा। पार्थवी डर से रोने लगी थी। व्योम ने उसे अपने सीने से लगा लिया। तूफ़ान बढ़ता जा रहा था। हर कोई छिपने की जगह ढूँढ रहा था। उज्ज्वल, उसके दोस्त और उसकी बहन किसी तरह नीचे आ गए और कार में जाकर बैठ गए।
पार्थवी और व्योम अभी भी ऊपर ही फँसे हुए थे। उन्हें तूफ़ान खुलने का इंतज़ार था, मगर नियति को कुछ और ही मंज़ूर था। कुछ ही मिनटों में तेज हवाओं के साथ तेज़ बारिश भी शुरू हो गई। व्योम और पार्थवी भीगने लगे। ठंड तो वहाँ आ ही चुकी थी, ऐसे में बारिश के साथ हवा अब उन्हें ठंड लगने लगी थी। व्योम बार-बार पार्थवी को अपनी बाहों की कैद में घेर रहा था और इधर-उधर छिपने की जगह ढूँढ रहा था। ठंड के दिनों में दिन छोटे होते ही हैं, इसलिए धीरे-धीरे अंधेरा होने लगा और जल्द ही हर तरफ़ सिर्फ़ अंधेरा ही अंधेरा था।
उज्ज्वल और बाकी सब बारिश से बचने के लिए कार से निकलकर मदद माँगते हुए एक घर में जा पहुँचे और बारिश के रुकने का इंतज़ार करने लगे।
जारी है…
व्योम, पार्थवी, उज्ज्वल, उसकी दोस्त, और उसकी बहन, सब वसुंधरा झरना जाकर फँस गए थे। आंधी-तूफान के साथ तेज़ मूसलाधार बारिश शुरू हो चुकी थी। सब बिखर चुके थे।
व्योम और पार्थवी को छोड़कर बाकी चारों नीचे आ गए थे और एक घर में बारिश से बचने के लिए छिप गए थे।
उज्ज्वल अंदर आया तो उस घर में मौजूद एक महिला ने सबकी तरफ तौलिए देते हुए कहा, "तुम सब भीग गए हो। पहले पानी पोछ लो, फिर कपड़े बदलने को देती हूँ।"
उज्ज्वल ने तौलिया ले लिया, लेकिन अचानक उसका दिमाग ठनका। उसने इधर-उधर देखा और तेज़ आवाज़ में बोला, "पार्थवी और व्योम कहाँ हैं?"
सब के हाथ रुक गए। उज्ज्वल बेचैन हो गया। वह बाहर निकला ही था कि उस घर के सदस्यों ने उसे रोकते हुए कहा, "कहाँ जा रहे हो, बेटे?"
"मेरी बहन... मेरी बहन मेरे साथ नहीं है। वह नहीं जाने किधर चली गई।" उज्ज्वल रुआँसा हो गया। उस बुज़ुर्ग आदमी ने बाहर का इशारा करते हुए कहा, "बाहर देखो कितना प्रचंड तूफान है! जैसे प्रलय आने वाला है... ऐसे में तुम्हारा बाहर जाना ठीक नहीं है।"
उज्ज्वल भड़क कर बोला, "क्यों ठीक नहीं है? मेरी बहन बाहर है... उसे मेरी ज़रूरत है।" वह गुस्से में बाहर निकला, लेकिन हवा का एक तेज़ झोंका आया और वह गिर पड़ा। सब उसकी तरफ बढ़ गए। "तुम नहीं जा सकते, उज्ज्वल। तुम्हारा जाना सही नहीं है।" उसके दोस्त ने उसे समझाते हुए कहा।
उस घर के बुज़ुर्ग ने कहा, "यहाँ ऐसे तूफान आते रहते हैं और नहीं जाने कितनी तबाही होती है। हमेशा कोई लापता हो जाता है तो कोई अलकनंदा की गोद में समा जाता है।"
"नहीं..." उज्ज्वल ने भड़कते हुए कहा। उसकी आँखें पनीली हो चुकी थीं, यह सोचकर कि आखिर उसकी बहन किस हाल में होगी।
बुज़ुर्ग ने कहा, "अगर तुम्हारी बहन नीचे आई होगी तो वह भी तुम्हारी तरह कहीं छिपकर बारिश के रुकने का इंतज़ार कर रही होगी। और अगर नहीं आई होगी तो भूल जाओ उसे, क्योंकि वहाँ से गिरने पर कोई कभी वापस नहीं आ सकता है।"
उज्ज्वल को लगा कि उसकी साँस रुक जाएगी। कुछ देर पहले के सारे पल उसकी आँखों के सामने घूम गए।
पार्थवी का हँसना, मुस्कुराना और उसकी निश्छलता... यह सब सोचकर उसके आँसू बह निकले। इकलौती बहन थी वह उसकी। बाहर बारिश रुकने का नाम नहीं ले रही थी; बढ़ते वक़्त के साथ बारिश का प्रकोप बढ़ता जा रहा था।
लाजो जी घर में बैठी चिंतित हो रही थीं। मौसम बिगड़ने की वजह से अरविंद जी भी कहीं नहीं गए थे। बद्रीनाथ में हो रही बारिश का असर था; इधर हल्की हवाएँ चल रही थीं और आसमान भी काले बादलों से घिरा हुआ था। बद्रीनाथ में हो रही बारिश की खबर इधर सबको मिल गई थी और सबका दिमाग जैसे काम करना बंद कर चुका था।
लाजो जी रो-रोकर बेहाल हो रही थीं। अरविंद जी उन्हें दिलासा दे रहे थे। न तो उनमें से किसी का कॉल लग रहा था, न ही उनकी कोई कॉल आई थी।
पार्थवी और व्योम चट्टान से सटकर खुले आसमान में बैठे हुए थे। ठंड, बारिश और हवा से अब दोनों एक-दूसरे में सिमटते जा रहे थे। पार्थवी तो ठंड से ठिठुरती जा रही थी। व्योम ने मुश्किल से ऊपर देखा; हर तरफ काले बादल, बारिश के कम होने के कोई आसार नज़र नहीं आ रहे थे।
व्योम ने पार्थवी को देखा; वह ठंड से ठिठुरती हुई उसे ही देख रही थी। व्योम की नज़र उस पर पड़ते ही वह काँपते हुए बोली, "कु...कुछ... की...कीजिए... ब...बहुत ठंड ल...ग रही है।"
व्योम ने बेबसी से उसे देखा। इतनी बारिश में वह कहाँ जा सकता था? अगर ऊपर चढ़ने की कोशिश करता तो बारिश के पानी से पैर फिसलना स्वाभाविक था; यह और भी ज़्यादा खतरनाक हो सकता था।
व्योम ने देर न करते हुए अपना जैकेट उतारकर पार्थवी के ऊपर डाल दिया, लेकिन भीगी हुई जैकेट कितनी देर तक ठंड से बचाती?
उन्हें वहाँ भीगते हुए दो घंटे होने को आ रहे थे। अब तो व्योम की भी सहनशक्ति खत्म हो रही थी। उसने कुछ सोचते हुए अपने गले में लपेटा हुआ मफलर निकाला; उसका एक सिरा उसने पार्थवी की कलाई में बाँधा और दूसरा अपनी कलाई में बाँध लिया।
पार्थवी ने काँपते हुए उसे देखा। व्योम उसके गाल को थपथपाते हुए बोला, "पार्थवी, मुझे कसकर पकड़ लो। हम ऊपर चलते हैं; वहाँ कहीं तो छिपने की जगह होगी।"
पार्थवी ने उसके कमर पर अपने हाथ कस दिए। व्योम जैसे ही आगे बढ़ा, उसका पैर फिसला और वह गिरते-गिरते बचा। पार्थवी के मुँह से आह निकल गई।
"तुम ठीक हो?" व्योम चिंतित हो गया।
"हाँ, ठीक हूँ, लेकिन आपका पैर..." पार्थवी रो रही थी। पहली बार परिवार से दूर थी और आज यह सब हो गया था।
व्योम ने कुछ सोचा और पार्थवी को अपना चप्पल उतारने को बोला; खुद भी अपने जूते-मोज़े उतारने लगा।
पार्थवी ने बिना कोई सवाल-जवाब किए वही किया। जूते-चप्पल खोलकर व्योम ने उसे पार्थवी को पकड़ा दिया और फिर से पकड़ने को बोलकर उठ खड़ा हुआ।
व्योम ने प्यार से कहा, "पार्थवी, कुछ भी हो जाए, मेरे ऊपर से अपनी पकड़ कम मत करना।"
"ठीक है, बाबू जी।" पार्थवी के कहते ही व्योम ने दबे पाँव ऊपर चलना शुरू किया। पार्थवी भी उसी तरह उसके साथ आगे बढ़ रही थी। बीच-बीच में व्योम लड़खड़ाता, मगर पार्थवी और वह दोनों एक साथ मिलकर खुद को संभाल ले रहे थे।
किसी भी तरह खुद को संभालते हुए दोनों थोड़े ऊपर आ गए। अब पार्थवी की हिम्मत जवाब दे रही थी; ठंड से बदन ठिठुर रहा था। व्योम ने उसकी हालत पर नज़र डाली और इधर-उधर देखने लगा।
इधर-उधर नज़र डालने पर उसे कुछ दूर पर ही एक चट्टान नज़र आया, जिसके पीछे से बाहर का भी दृश्य नज़र आ रहा था।
व्योम ने उस दिशा में इशारा करते हुए कहा, "पार्थवी, वहाँ शायद छिपने की जगह मिल सकती है। वहाँ चलो।"
"चलिए।" पार्थवी और वह आगे बढ़कर उस चट्टान के पास पहुँच गए।
व्योम ने आगे बढ़कर देखा तो वह एक छोटी सी गुफा जैसी थी, जहाँ वे छिप सकते थे। थोड़ी ऊँची थी, इसलिए बारिश का पानी भी अंदर नहीं आ रहा था।
"अंदर चलो।" व्योम अंदर बढ़ते हुए बोला।
पार्थवी डर गई। उसने सहमते हुए कहा, "यहाँ तो बहुत अंधेरा है।"
"बाहर खड़े रहकर भीगने से अच्छा है यह, पार्थवी। आओ अंदर, और मैं हूँ न साथ आप अंदर।" व्योम ने उसका हाथ पकड़ते हुए कहा।
पार्थवी डरते हुए अंदर आ गई। वह गुफा ज़्यादा बड़ी नहीं थी, लेकिन दो लोग आराम से छिप सकते थे वहाँ। पार्थवी को डर भी लग रहा था; वह ठंड से काँप भी रही थी। हाँ, इतनी राहत थी कि अब वे भीग नहीं रहे थे और बाहर चलती तेज़ हवाओं का भी कम असर था वहाँ।
व्योम ने अपने पॉकेट में हाथ डालकर मोबाइल निकाला और लाइट ऑन की।
पार्थवी हैरानी से बोली, "यह बारिश ने खराब नहीं हुई?"
"नहीं, वाटरप्रूफ है।" व्योम ने सरसरी अंदाज़ में कहा। मोबाइल की लाइट में उसने गुफा के अंदर देखा; वहाँ कुछ पत्थर पड़े हुए थे; कुछ सूखे हुए थे तो कुछ थोड़ा-बहुत पानी आने की वजह से भीग चुके थे, लेकिन इतने भी नहीं कि उनसे काम नहीं लिया जा सके।
व्योम ने मोबाइल पार्थवी को पकड़ाया और उन पत्थरों को इकट्ठा करने लगा।
पार्थवी काँपते हुए बोली, "यह क्या कर रहे हैं आप?"
"आग जलाऊँगा इनसे।" व्योम अपना काम करते हुए बोला।
पार्थवी भी उसके साथ मिलकर पत्थर इकट्ठा करने लगी।
ठंड से अब दोनों की हालत बिगड़ रही थी; हाथ-पैर भी काम नहीं कर रहे थे। ऐसा लग रहा था जैसे अभी कटकर गिर जाएँगे; फिर भी दोनों कोशिश में लगे हुए थे। वहाँ कुछ तिनके भी थे; झाड़ियों के तिनके भी थे; कुछ लकड़ियाँ पड़ी हुई थीं।
पत्थर इकट्ठा करने के बाद व्योम ने उन्हें रगड़ना शुरू किया। लगभग आधे घंटे की मेहनत के बाद चिंगारी उठी और उन घास-फूस में आग लग गई। आग लगते ही दोनों के चेहरे पर चमक आ गई।
व्योम ने पार्थवी को वहाँ बैठाते हुए कहा, "जैकेट दो मुझे।"
"लीजिए।" व्योम ने जैकेट ले कर वहाँ लगा दिया जहाँ से वह अंदर आए थे। अब हवा पूरी तरह से बंद हो गई थी। दोनों आकर आग के सामने बैठ गए, लेकिन कपड़े भीगे होने के कारण आग की गर्माहट भी कम पड़ रही थी। दोनों ठंड से ठिठुरते हुए एक-दूसरे के साथ बैठे हुए थे। व्योम ने एक नज़र पार्थवी पर डाली और अपने शर्ट के बटन खोलने लगा।
जारी है...
व्योम ने पार्थवी पर एक नज़र डाली और अपनी शर्ट के बटन खोलने लगा।
पार्थवी की नज़र उस पर पड़ी। उसने तेज़ी से अपने आँखों पर हाथ रखते हुए कहा, "बाबू जी, ये क्या कर रहे हैं आप? शर्ट क्यों खोल रहे हैं?"
व्योम के चेहरे पर मुस्कुराहट आ गई, लेकिन वह इस वक्त पार्थवी को परेशान नहीं करना चाहता था। उसने सहज भाव से कहा, "कपड़े गीले हो गए हैं पार्थवी, अगर नहीं उतारा तो सर्दी लग जाएगी। मेरी मानो तो तुम भी चेंज कर लो।"
"हाय देवी! ये क्या कह रहे हैं आप... चेंज करूंगी तो पहनूंगी क्या?" पार्थवी ने शरमा कर कहा। व्योम को हँसी आ रही थी। उसने उसे समझाते हुए कहा, "बेवकूफ लड़की! कपड़े बदल कर अपने दुपट्टे को लपेट लो। मैं थोड़ी देर के लिए किनारे हो जाता हूँ। कसम से नहीं देखूँगा तुम्हें।"
"नहीं बाबू जी, मैं ऐसे ही ठीक हूँ।" पार्थवी ने नज़रें झुका कर कहा।
व्योम इस बात पर उसे फोर्स नहीं कर सकता था। उसने बात वहीं खत्म कर दी। व्योम ने अपना शर्ट उतार कर वहीं पत्थर पर लटका दिया ताकि वह सूख जाए, और खुद वापस आग के सामने बैठ गया। पार्थवी उसे देखने में झिझक रही थी।
काफी देर तक वहाँ लंबी खामोशी फैली रही। दोनों को ही यह खामोशी अच्छी नहीं लग रही थी, लेकिन कहें क्या? यह दोनों को ही समझ नहीं आ रहा था।
कुछ देर बाद पार्थवी को छींक आना शुरू हो गया। एक बार, दो बार, और न जाने कितनी बार। व्योम ने चिंतित नज़रों से उसे देखते हुए कहा, "सर्दी लग गई ना? कपड़े बदल लो पार्थवी, नहीं तो बीमार पड़ जाओगी।"
पार्थवी ने संकुचित नज़रों से उसे देखा। वह झिझक उठी। व्योम उठ कर किनारे चला गया और अपनी पीठ उसकी तरफ घुमा दी। पार्थवी ने कुछ देर उसे देखा, फिर धीरे-धीरे अपने कपड़े उतारने लगी। कुछ देर के बाद उसने अपने दुपट्टे को वस्त्र की तरह लपेट लिया और सही से बैठते हुए बोली, "हो गया।"
व्योम उसकी आवाज़ पर पलटा, लेकिन पार्थवी पर नज़र पड़ते ही वह ठिठक गया। गीले बालों में वह मोहक लग रही थी। उसने सिर झुकाया और दूसरी दिशा में देखने लगा क्योंकि अगर वह ज़्यादा देर तक उसे देखता रहता, तो शायद बहक जाता, और यह सही नहीं था।
उसे नज़र घुमाते देख पार्थवी फिर से शरमा गई। वह खुद में और भी सिमट गई।
व्योम के लिए यह नया नहीं था। शहरों में अक्सर लड़कियाँ ऐसे कपड़े पहन कर निकलती थीं। कुछ कपड़े बस नाम के लिए जिस्म को ढंकने का काम करते थे; नहीं तो वे जिस्म छुपाते कम, दिखाते ज़्यादा थे। लेकिन गाँव की भूमि मर्यादित होती है। वहाँ लाज, शर्म, हया औरतों का गहना माने जाते थे, और लड़कियाँ पूरे पोशाक में ही खूबसूरत लगती हैं; यह मानना तो व्योम का भी था।
उसे फैशन और मॉडर्नाइजेशन के नाम पर होने वाले नंगेपन से सख्त नफ़रत थी, और शायद यही वजह थी कि वह पार्थवी की तरफ़ आकर्षित हुआ था।
दोनों बहुत देर तक चुप बैठे रहे, एक-दूसरे से नज़रें मिलाने में झिझक रहे थे। बाहर तूफ़ान अपने ज़ोर पर था, जैसे आज पूरी कायनात को डूबा देगा, और यहाँ ये दोनों अकेले बैठे थे।
आखिर में व्योम ने ही चुप्पी तोड़ते हुए कहा, "एक बात तो बताओ पार्थवी।"
"पूछिए।"
"तुम्हें मुझसे डर नहीं लगता है?" व्योम के सवाल पर पार्थवी ने चिढ़ कर उसे देखा।
"आपसे डर क्यों लगेगा बाबू जी? डर तो बुरे और गंदे आदमी से लगता है। आप ऐसे थोड़े ना हो।" पार्थवी ने मासूमियत से कहा।
"अच्छा... बुरे और गंदे आदमी कैसे होते हैं?" व्योम को उसकी बातें हमेशा से अच्छी लगती थीं।
पार्थवी ने अपने अंदाज़ में कहा, "एक बार क्लास में टीचर ने बताया था कि जिसके छूने से आपको घिन आए, आपको अजीब-अजीब सा लगे, और जिसके सामने जाने में डर लगे, तो वह गंदा आदमी होता है।"
"और...?"
"आपके पास मुझे बहुत अच्छा लगता है। आप हमेशा मुझे मुसीबत से बचाते हैं। कभी मुझे डाँटते नहीं, कभी छूते नहीं हैं गंदे तरीके से।" पार्थवी आग को देखते हुए बोली।
व्योम उसे देखता रह गया। उसने कुछ देर बाद अपना चेहरा दूसरी तरफ़ कर लिया और कुछ सोचने लगा।
"क्या हुआ? क्या सोचने लगे बाबू जी?"
"कुछ भी नहीं।" व्योम मुस्कुरा कर बोला। उसने बात करने के इरादे से कहा, "अच्छा पार्थवी, तुम्हें गाना आता है?"
"हाँ, आता है। हिंदी गाना।"
"तो मुझे गाकर सुनाओ।" व्योम ने फटाक से कहा। तो पार्थवी झिझक कर बोली, "आपको अच्छा नहीं लगेगा।"
"मुझे तुम्हारे मुँह से सब अच्छा लगता है। बस तुम सुनाओ।" व्योम थोड़ा नज़दीक आकर बोला।
पार्थवी आग की जलती ज्वाला को देखने लगी। व्योम ने पहली बार ऐसी कोई फ़रमाइश की थी। वह मना नहीं कर सकी और जो भी गा सकती थी, गा दिया।
"आए हो मेरी ज़िंदगी में तुम बहार बन के
आए हो मेरी ज़िंदगी में तुम बहार बन के
आए हो मेरी ज़िंदगी में तुम बहार बन के
मेरे दिल में यूँ ही रहना, हाए
मेरे दिल में यूँ ही रहना तुम प्यार-प्यार बन के
आए हो मेरी ज़िंदगी में तुम बहार बन के
आँखों में तुम बसे हो सपने हज़ार बन के
आँखों में तुम बसे हो सपने हज़ार बन के
मेरे दिल में यूँ ही रहना, हाय
मेरे दिल में यूँ ही रहना तुम प्यार-प्यार बन के
आए हो मेरी ज़िंदगी में तुम बहार बन के
'गर मैं जो रूठ जाऊँ तो तुम मुझे मनाना
'गर मैं जो रूठ जाऊँ तो तुम मुझे मनाना
थामा है हाथ मेरा फिर उम्र-भर निभाना
मुझे छोड़ के ना जाना वादे हज़ार कर के
मुझे छोड़ के ना जाना वादे हज़ार कर के
मेरे दिल में यूँ ही रहना, हाए
मेरे दिल में यूँ ही रहना तुम प्यार-प्यार बन के
आए हो मेरी ज़िंदगी में तुम बहार बन के"
व्योम ने महसूस किया पार्थवी ने हर शब्द मन से पिरो कर गाए हैं, जो सिर्फ़ और सिर्फ़ उसके लिए हैं। उनकी आँखों में लाली आ गई।
पार्थवी गाना खत्म कर के यूँ ही बैठी रही। आग की लौ अब धीरे-धीरे कम हो रही थी।
व्योम ने कुछ सोचते हुए कहा, "पार्थवी..."
"हुँ..."
"कुछ कहना चाहता हूँ तुमसे।"
"कहिए।"
"नहीं, ऐसे नहीं। पहले मेरी तरफ़ देखो।" व्योम ने उसका चेहरा अपनी तरफ़ किया। पार्थवी की आँखें लाल हो रही थीं। शायद वह रोने वाली थी। व्योम ने यह देखकर घबराते हुए कहा, "तुम उदास हो?"
"नहीं बाबू जी।"
"फिर तुम्हारी आँखें लाल क्यों हैं?" व्योम उसके नज़दीक आया। दोनों के बीच की दूरी ख़त्म हो चुकी थी। इस पर दोनों ने ध्यान नहीं दिया।
व्योम बेचैनी से उसे देख रहा था। पार्थवी रुँधे गले से बोली, "आप कुछ दिनों में चले जाएँगे, यह सोचकर मन उदास हो गया। सब कहते हैं, परदेसी एक बार चले जाएँ तो वापस नहीं आते हैं। हमारी किस्मत में इंतज़ार लिखा होता है।"
व्योम ने मुस्कुरा कर कहा, "सब झूठ कहते हैं। आज मैं तुमसे वादा करता हूँ, जब भी जाऊँगा, तुम्हें अपने साथ ले कर जाऊँगा, चाहे मुझे उसके लिए कुछ भी करना पड़े।"
पार्थवी की लाल आँखें भी चमक उठीं। उसी वक्त जोर से बिजली कड़की। पार्थवी डरते हुए व्योम के सीने से जा लगी। व्योम ने भी उसे अपनी बाहों में सुरक्षित स्थान दे दिया।
बाहर रात का अंधेरा फैल चुका था। बारिश हो रही थी। तूफ़ान अपने चरम पर था। हवाएँ और तेज़ हो चली थीं। अंदर गुफ़ा में जलती आग की लौ मद्धम होते-होते बुझ चुकी थी।
और ऐसे में व्योम और पार्थवी एक-दूसरे की बाहों में सिमट कर बैठे हुए थे।
व्योम ने कोई ऐसी-वैसी हरकत नहीं की जिससे पार्थवी का विश्वास डगमगाए। उसने पार्थवी को उसी तरह बाहों में समेटे रखा, और इसी स्थिति में दोनों को नींद आ गई।
पार्थवी के घर पर लाजो जी का रो-रो कर बुरा हाल हो रहा था। उनके बच्चों की कोई ख़बर नहीं थी। पूरे घर में मातम पसरा हुआ था। उज्जवल उस घर में अपनी बहन के ग़म में गुमसुम बैठा हुआ था। न रो सकता था, न कुछ बोल सकता था।
यह रात सबके लिए अलग थी। कोई अपने प्यार के पास था, कोई अपने अपनों के लिए रो रहा था। यह तूफ़ान और क्या-क्या रंग दिखाने वाला था, यह तो अभी बाकी था।
जारी है...
तूफान अगली सुबह तक रहा। व्योम और पार्थवी सोए रहे; उन्हें होश ही नहीं रहा।
सुबह लगभग सात बजे बारिश थमी। उज्ज्वल बेचैनी से बाहर निकला। हर तरफ पानी ही पानी था। ऐसे में पार्थवी को ढूँढ पाना मुश्किल था। रिमझिम फुहारें अभी भी गिर रही थीं और उज्ज्वल भीगते हुए हर तरफ पार्थवी को ढूँढने की कोशिश कर रहा था।
एक घंटे की मेहनत के बाद भी पार्थवी का कोई पता नहीं चला। वह हताश होकर बैठ गया। जिस घर में वह ठहरा था, वहाँ के बुजुर्ग ने कहा, "तुम चाहो तो अपनी तसल्ली के लिए ऊपर जाकर देख आओ, मगर मुझे तो उनके बचने की कोई उम्मीद नज़र नहीं आती।"
उज्ज्वल का गला जैसे चोक हो गया। उसने नज़र उठाकर ऊँचे पर्वत को देखा। कितनी खुशी से उसकी बहन यहाँ आई थी और अब उसके लिए डर सता रहा था।
उज्ज्वल कोई भी मौका नहीं छोड़ना चाहता था, इसलिए वह ऊपर बढ़ गया। वह जहाँ तक आया था, सब जगह देख लिया, लेकिन उनका कहीं कोई नामोनिशान नहीं मिला। उज्ज्वल इस बार निराश होकर वहीं पत्थर पर बैठ गया। उसकी आँखें नम हो चुकी थीं। यह देखकर उसके दोस्त ने उसे दिलासा देते हुए कहा, "उज्ज्वल, घर चलते हैं। शायद पार्थवी हमसे पहले पहुँच गई हो।"
"हमसे पहले कैसे पहुँच सकती है? अभी कुछ देर पहले तो तूफान थमा है।" उज्ज्वल ने बिफर कर कहा।
उसके दोस्त ने सहानुभूति दिखाते हुए कहा, "हाँ, वही तो मैं भी कह रहा हूँ कि हो सकता है जब तूफान कम हुआ, उसी वक्त निकल गए हों वे दोनों। घर जाकर पता करते हैं। हमें ढूँढते हुए दो घंटे हो चुके हैं। हो सकता है इसी बीच किसी और रास्ते से वे व्योम के साथ घर निकल गए हों।"
उज्ज्वल को अचानक ध्यान आया कि व्योम भी तो कल से गायब है। उसे उम्मीद की एक किरण नज़र आई। "हँ, चलो देखते हैं।" उज्ज्वल तत्परता से उठ खड़ा हुआ। मोबाइल में पानी घुस चुका था और वैसे भी घर पर कोई मोबाइल नहीं था कि वे लोग पता करते, इसलिए वे लोग जल्दी से आगे बढ़ने लगे।
बाहर आकर कार देखी जिसमें पानी घुस चुका था। उन्होंने मेहनत करके कार निकाली। पानी घुस जाने की वजह से वह देर से स्टार्ट हुई, लेकिन स्टार्ट हो गई। उज्ज्वल, उसकी दोस्त और बहन तीनों घर के लिए निकल गए। यह आठ घंटे का रास्ता उज्ज्वल को आठ सदी की तरह लग रहा था।
वह पूरे रास्ते बस यही दुआ करता रहा कि उससे पहले उसकी बहन घर पहुँच गई हो।
आते वक्त जितनी खुशी सबको थी, अभी उतनी ही मायूसी थी चेहरे पर।
लाजों पूरी रात सो नहीं सकी थी। अब घर के दरवाज़े पर टकटकी लगाए बैठी हुई थी। उसके साथ अरविंद जी भी बैठे हुए थे। उनके बच्चों की कोई खबर नहीं थी; आराम कैसे मिलता उन्हें भला?
रत्ना की माँ ने सबके लिए नाश्ता बनाया और किसी भी तरह उन्हें नाश्ता करा दिया। रत्ना रो रही थी; उसकी दोस्त मुसीबत में थी और वह यहाँ बैठी हुई थी। पार्थवी और व्योम रात को एक-दूसरे की बाहों में सोए। सुबह लगभग दस बजे दोनों की नींद टूटी। पहले व्योम जागा। आँखें खुलते ही उसकी नज़र पार्थवी पर गई जो उसके सीने पर सिर रखकर बेफिक्री से सो रही थी। उसके बाल सुख चुके थे और चेहरे पर बिखरे हुए थे। व्योम ने सावधानी बरतते हुए उसके बाल किनारे कर दिए। किसी की छुह से पार्थवी की नींद टूटी। उसने आँखें खोलकर व्योम को देखा। व्योम उसकी मासूमियत देखता रह गया। अलसायी-अलसायी सी वह सीधा उसके दिल में उतर गई।
व्योम ने अपने हाथ उसके चेहरे की तरफ बढ़ा दिए। उसने प्यार से पार्थवी के गाल को सहलाया। पार्थवी सिहर उठी। उसने इंकार नहीं किया, लेकिन आँखें स्वतः ही बंद हो गईं।
इस लम्हे में जाने क्यों व्योम कमज़ोर हो गया। उसकी नज़रें पार्थवी के काँपते लबों पर रुक गईं। उसने काफी कोशिश की नज़र हटाने की, लेकिन इस बार उसे नाकामी मिली। पार्थवी आँखें बंद किए लंबी-लंबी साँसें ले रही थी। व्योम ने एक गहरी नज़र पार्थवी के चेहरे पर डाली और अनायास ही अपने होंठ उसके होंठों पर रख दिए। पार्थवी का बदन झनझना उठा। पहली बार किसी ने उसे छुआ था। वह ज़्यादा कुछ महसूस कर पाती, उससे पहले ही व्योम झटके से उससे अलग हो गया। पार्थवी को कुछ समझ नहीं आया, मगर व्योम उससे अलग होते हुए बोला, "सॉरी, मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था। कपड़े पहन लो।"
पार्थवी के लिए यह नया था, इसलिए वह कैसे रिएक्ट करे, कुछ समझ नहीं आया। व्योम ने फुर्ती दिखाते हुए अपनी शर्ट पहनी और पार्थवी को अंदर छोड़कर बाहर निकल आया। बारिश थम गई थी। आसमान में छाए काले बादल छँट चुके थे। उसने आसपास नज़र डाली। बारिश थमने के बाद सब कुछ धुला-धुला और निखरा-निखरा लग रहा था। पार्थवी भी कपड़े बदलकर बाहर निकल गई।
"बाबू जी, भैया नहीं जाने कहाँ हैं। हमें नीचे चलना चाहिए।" पार्थवी ने कहा तो व्योम ने उसकी तरफ देखा। थोड़ी देर पहले जो हुआ, उसका गिल्ट उसकी आँखों में नज़र आ रहा था। उसने पार्थवी की हथेली थामते हुए कहा, "सॉरी, मुझे माफ़ कर दो। अभी थोड़ी देर पहले जो हुआ, वह मुझे नहीं करना चाहिए था।"
"कोई बात नहीं, बाबू जी। आप उदास क्यों हो रहे हैं?" पार्थवी मासूमियत से बोली। व्योम ने मुस्कुरा कर उसे सीने से लगाते हुए कहा, "डरता हूँ तुमसे दूर जाने से। घबरा जाता हूँ यह सोचकर कि कहीं तुम्हें मुझसे कोई छिन न ले। इसलिए मैं ऐसा कुछ भी नहीं करना चाहता जिससे तुम मुझसे दूर हो जाओ।"
पार्थवी ने कुछ नहीं कहा। उसे वहीं रुकने का कहकर व्योम अपनी जैकेट पहनकर बाहर आ गया। उसने पार्थवी का हाथ पकड़कर प्यार से कहा, "सोच रहा हूँ यहाँ से जाते ही तुम्हारे माँ-बाप से शादी की बात करूँ।"
"शादी…!" पार्थवी का चेहरा शर्म से लाल हो गया। व्योम को उसके चेहरे की यह लाली अच्छी लगी थी। दोनों साथ-साथ नीचे उतरे। पूरे रास्ते व्योम ने पार्थवी का हाथ नहीं छोड़ा। बारिश हो जाने से ठंड पहले से बढ़ गई थी, इसलिए ठंड से सिहरन भी काफी ज़्यादा थी। नीचे उतरकर दोनों आगे बढ़े। इक्के-दुक्के खाने-पीने के सामान मिल रहे थे। व्योम ने दोनों के लिए कुछ खाने का सामान लिया और उस दिशा में आ गए जहाँ कार खड़ी की थी। वे लोग आए तो कार गायब थी। व्योम ने लंबी साँस लेते हुए कहा, "लगता है तुम्हारे भैया घर जा चुके हैं। हमें बस लेना होगा घर के लिए।"
"ठीक है।" दोनों वहाँ से बस स्टैंड आ गए और बस मिलते-मिलते उन्हें बारह बज गए।
उज्ज्वल लगभग दो बजे घर पहुँचा। उसे देखते ही लाजों जी का चेहरा खिल उठा। वह लपक कर उसकी तरफ बढ़ीं और रोते हुए बोलीं, "तू आ गया? पार्थवी कहाँ है?"
उज्ज्वल चौंका। उसने हैरानी से कहा, "पार्थवी यहाँ भी नहीं आई?"
"यहाँ भी नहीं आई? का क्या मतलब है तेरा? तुम सब साथ थे ना? तो कहाँ है वह?" लाजों जी अब रोने को थीं। उज्ज्वल को देखकर धीरे-धीरे बाकी के गाँव वाले भी जमा हो गए। उज्ज्वल सिर पकड़कर बैठ गया और निराश लहजे में वह सब कुछ कह सुनाया जो वहाँ हुआ था। बात सुनते-सुनते लाजों जी का धैर्य जाता रहा। वह वहीं जमीन पर बैठकर रोने लगीं।
व्योम बार-बार पार्थवी को देख रहा था जो बेहद पुरसुखून अंदाज़ में उसके कंधे पर सिर रखकर बैठी हुई थी। व्योम के चेहरे पर कई रंग आकर चले गए। उसने इस बार पार्थवी को मुस्कुराकर देखा और उसकी हथेली में अपनी हथेली फँसाकर अपनी पकड़ मज़बूत कर दी।
पार्थवी के घर मातम फैल चुका था। पार्थवी का न मिलना उसके दुनिया से चले जाने के संकेत दे रहा था। लाजों जी उस घड़ी को कोस रही थीं जिस पल उन्होंने पार्थवी को वसुंधरा झरना जाने की इजाज़त दी थी।
जारी है…