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रस्म-ए-वफ़ा !

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Neha Sayyed

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एक शादी, जो दस्तखतों से पूरी होनी थी लेकिन दिल की जिद ने उसे मोड़ दिया। "रस्म ए वफ़ा" एक ऐसी लड़की की कहानी है जो सिर्फ दस्तावेज़ों पर शादी नहीं करना चाहती, उसे अपना दूल्हा चाहिए—आंखों के सामने, उसका हाथ थामे। मृणाल, एक ज़िद्दी लेकिन दिलफेंक लड़की, औ...

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अच्युत

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मृणाल

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Total Chapters (158)

Page 1 of 8

  • 1. रस्म-ए-वफ़ा ! - Chapter 1

    Words: 1357

    Estimated Reading Time: 9 min

    कोलकाता, शाम के करीब 5 बजे

    "मैं कह देती हूँ। मैं इन पेपर्स पर साइन नहीं करूँगी। और खबरदार अगर किसी ने भी मुझे फोर्स किया।" लाल जोड़े में लिपटी मृणाल के चेहरे पर गुस्सा और झुंझलाहट दोनों साफ़ झलक रहे थे।


    "मेरी बहन!!!!!!!!!!!! अब क्या हुआ? तूने खुद ही तो शादी के लिए हाँ की थी। तो अब साइन क्यों नहीं कर रही इन मैरिज पेपर्स पर..?" त्रिविक कुकरेजा ने अपना सिर पकड़कर परेशान होते हुए कहा।


    "भाई आप भी भाभी से शादी करने पूरी बारात लेकर गए थे ना, तो फिर जब आज मेरी शादी है तो मेरा दूल्हा कहाँ है और बारात..? अच्युत ने ये...ये श्रीनिकेतन एंड टीम को भेजा। हद है भाई।" मृणाल झल्लाहट में चिल्लाकर बोली।


    "मेम! साहेब की आधे घंटे बाद फ़्लाइट है। पार्टी की कॉन्फ़्रेंस मीटिंग के लिए उन्हें अभी दिल्ली निकलना है। साहेब पहले ही साइन कर चुके हैं, शादी के इन पेपर्स पर। बस अब आपके साइन चाहिए।" वहीं खड़े श्रीनिकेतन ने कहा। उसके पीछे ही पूरा एक स्टॉफ़ खड़ा था।


    "साइन नहीं चाहिए। दूल्हा चाहिए मुझे मेरा। तब ही मैं साइन करूँगी। अब आप लोगों को मानना है माने ना मानना है तो भाड़ में जाओ आप सब। मुझे नहीं करनी कोई शादी।" कहते हुए अपने उस भारी से लहंगे को अपने दोनों हाथों से ऊपर उठाए, वह वहीं पड़े सोफ़े पर गिर पड़ी और आँखें बंद कर अपना हाथ आगे बढ़ाया। समझते ही एक सर्वेंट ने उसके हाथ में हेडफ़ोन थमा दिया। मृणाल ने हेडफ़ोन लगाया और धीमे से बोली—"आवाज़ बढ़ा दीजिए।"


    त्रिविक कुकरेजा ने अपनी पत्नी मेघा की तरफ़ देखा, जो खा जाने वाली नज़रों से मृणाल को घूर रही थी। और अगले ही क्षण उसने अपने पैर में पहनी सैंडल हाथ में उठा ली। यह देख हड़बड़ाकर त्रिविक आगे बढ़ा और उसके हाथ से सैंडल छुड़वाता हुआ बोला—"ओह मेरी माँ! शांत हो जा। काहे मुसीबत बढ़ा रही है? तुम्हें अपनी जान प्यारी नहीं है लेकिन मुझे है। या ज़्यादा ही शोक चढ़ गया है विधवा होने का।"


    "अगर आज इस लड़की की शादी नहीं हुई तो कल तलाक के पेपर आपके चेहरे पर मारकर जाऊँगी, यह बात याद रखना आप।" गुस्से में अपनी सैंडल को फ़र्श पर पटका और वहीं सामने पड़े खाली सोफ़े पर पैर पर पैर चढ़ाकर बैठ गई।


    त्रिविक ने लाचारी से अपनी बहन और पत्नी को देखा। दोनों ही ज़िद्दी थीं, यह बात वह काफ़ी अच्छे से जानता था। लेकिन उसकी जान अब हलक में आ अटकी थी। वह श्रीनिकेतन के पास आया और उसकी बाजू पकड़ उसे साइड में खींचता हुआ बोला—"जल्दी फ़ोन करके बुलाओ साहेब को।"


    "लेकिन उनकी फ़्लाइट है।"


    "तुम फ़ोन कर बुलाओ ना यार। यहाँ मेरी बहन और पत्नी के बीच तीसरा विश्व युद्ध शुरू होने वाला है।" त्रिविक अपना सिर पकड़कर बोला।


    "जी!" श्रीनिकेतन को भी लगा कि अब शायद उसे फ़ोन करके सब बता देना चाहिए। एक तरफ़ आकर उसने अपना फ़ोन निकाला और फ़र्स्ट डायल नंबर पर ही कॉल लगा दी।


    उधर, बड़े से आलीशान मेंशन के अंदर काफ़ी अफ़रा-तफ़री मची हुई थी। वहाँ काम कर रहे सर्वेंट्स जल्दी-जल्दी काम करते हुए बार-बार सामने वाले बंद दरवाज़े की ओर देख रहे थे। वहाँ से हल्की आवाज़ में किसी के गाने की आवाज़ आ रही थी।


    सोफ़े पर अपने सिर पर हाथ रखे बैठी विज्ञाथा के चेहरे पर हल्की झुंझलाहट साफ़ नज़र आ रही थी। वह खुद से बुदबुदाई—"साहेब का कभी-कभी समझ ही नहीं आता। यहाँ फ़्लाइट के लिए लेट हो रहे हैं हम और इन्हें तो गाना गाने से फ़ुर्सत नहीं।"


    तभी अचानक कमरे का दरवाज़ा खुला, जिसकी आवाज़ से विज्ञाथा बिजली की रफ़्तार से सोफ़े से उठ खड़ी हुई। उसकी नज़र जैसे ही सामने से आते साहेब पर गई, वह अपनी जगह पर ही जम गई।


    छः फ़ुट दो इंच की खासी हाइट के साथ, किसी मॉडल की तरह उसका फ़िजिक। ऊपर से उसका साँवला रंग, जो उसकी पर्सनैलिटी में चार चाँद लगा रहा था।


    "विज्ञाथा! अभी हमें कुकरेजा हाउस चलना है।" उसने अपनी दमदार आवाज़ में कहा तो विज्ञाथा अपने होश में आई—"लेकिन साहेब फ़्लाइट है हमारी दिल्ली की।"


    "जानता हूँ। मैंने पता किया है कि एक फ़्लाइट 12 बजे की है।" अपनी कलाई पर बंधी घड़ी में समय देखते हुए साहेब यानी अच्युत पाटिल ने कहा।


    "ओके ऑलराइट सर।" विज्ञाथा ने फ़ौरन अपने टैबलेट पर उंगलियाँ चलानी शुरू कर दी।


    अच्युत बाहर पोर्च एरिया में आया जहाँ उसकी गाड़ी खड़ी थी। ड्राइवर ने उसके लिए दरवाज़ा खोला तो वह पीछे वाली सीट पर बैठ गया। विज्ञाथा आगे पैसेंजर सीट पर बैठ गई। ड्राइवर ने गाड़ी स्टार्ट कर रोड पर दौड़ दी।


    कुछ देर बाद ही अच्युत, विज्ञाथा के साथ कुकरेजा हाउस के बाहर खड़ा था। तभी अंदर से बाहर की ओर भागकर श्रीनिकेतन आया। उसके पीछे ही त्रिविक और उसकी पत्नी मेघा भी बाहर ही आ गए।


    "वेयर इज़ शी..?" अच्युत ने त्रिविक की तरफ़ देखकर सवाल किया तो उसने अंदर की ओर इशारा किया।


    वह सब अंदर आए तो मृणाल अभी भी आराम से सोफ़े पर लेटी, कानों पर हेडफ़ोन लगाए गाने सुन रही थी। अच्युत ने मैरिज पेपर्स पर एक नज़र डाली जिस पर अभी तक उसने साइन नहीं किए थे।


    "ये लड़की नहीं सुधर सकती कभी।" कहते हुए अच्युत उसकी तरफ़ झुका और उसके कानों से हेडफ़ोन हटाता हुआ अपनी सख़्त आवाज़ में बोला—"यह क्या ड्रामा है मृणाल..?"


    यह जानी-पहचानी सी आवाज़ सुनकर मृणाल ने आँखें खोलकर अच्युत को देखा, वह लेटी हुई थी इसलिए अच्युत उसे उल्टा नज़र आ रहा था। वह खुश होकर झट से उठकर बैठ गई।


    "साइन क्यों नहीं किए..?" अच्युत ने उसी टोन में पूछा।


    "मै...मैं करने वाली थी।" कहते हुए मृणाल ने पेन उठाया और झट से साइन कर दिए। मृणाल के साइन करते ही मेघा ने ऊपर की ओर देख भगवान का शुक्रिया अदा किया। उसके चेहरे पर भाव ऐसे थे मानो कोई भारी मुसीबत उसके सिर से टल गई हो।


    मृणाल ने साइन कर पेन रखा और शर्माते हुए अच्युत को देखने लगी। उसने वह पेपर्स उठाकर श्रीनिकेतन की तरफ़ बढ़ा दिए—"ये पेपर्स कल सुबह वकील तक पहुँचा देना, बाकी आगे का काम वह खुद कर देंगे। (त्रिविक की ओर देखकर) मिस्टर कुकरेजा! अभी मैं एक कॉन्फ़्रेंस मीटिंग के लिए दिल्ली जा रहा हूँ। परसों तक आऊँगा तब मृणाल को ले जाऊँगा।"


    "नहीं! नहीं! मुझे अभी जाना है आपके साथ। देखो, मैंने शादी का लहंगा भी पहना है। अब बार-बार मुझसे तैयार नहीं हुआ जायेगा।" मृणाल उतावली होते हुए झट से बोली।


    उसकी बात सुनकर हर किसी की गर्दन मृणाल की तरफ़ घूम गई। अच्युत ने कुछ सोचा और श्रीनिकेतन की तरफ़ देखकर बोला—"मौसी को मेंशन बुला लो। मृणाल को अभी मेंशन लेकर चलेंगे।"


    "जी साहेब।" श्रीनिकेतन ने सर हिलाया।


    "सामान..?"


    "पैक है।" मेघा ने फ़ौरन कहा।


    अच्युत कुछ नहीं बोला जबकि उसके पीछे खड़ी मृणाल शर्माते हुए अपने पल्लू को हाथों में घुमाकर बोली—"सुनिए जी..?"


    "हम्ममम..?" अच्युत उसकी ओर मुड़ा।


    "वो मुझे ना आपसे बात करनी है। अकेले में।" मृणाल ने शर्माते हुए कहा।


    अच्युत ने अपना सिर हिला दिया। वह मृणाल के साथ उसके कमरे में आया। दरवाज़े बंद करते ही मृणाल बच्चों की तरह उससे लिपट गई जबकि वह सुन्न सा खड़ा था।

    क्रमशः

  • 2. रस्म-ए-वफ़ा ! - Chapter 2

    Words: 1466

    Estimated Reading Time: 9 min

    अच्युत के साथ अपने कमरे में आने के बाद, मृणाल सीधा उसके सीने से जा लगी थी, जबकि अच्युत सुन्न सा खड़ा रह गया था। उसके दोनों हाथ नीचे थे।

    मृणाल ने अच्युत पर अपनी पकड़ पहले से ज़्यादा मज़बूत की और अपना चेहरा उठाकर उसकी तरफ प्यार से देखने लगी।

    अच्युत ने सिर झुकाकर उसे देखा। दोनों की हाइट में काफ़ी अंतर था; मृणाल मुश्किल से उसके सीने तक आ रही थी। उसने अपनी पलकें बार-बार ब्लिंक कीं और अपनी मासूम सी आवाज़ में बोली, "मॉम ने कहा था कि आपको कस कर गले से लगाना है। और...और..."

    वह उसका हाथ पकड़कर लगभग खींचते हुए बेड के पास आई, अपने उस भारी-भरकम लहंगे को सम्हालते हुए बेड पर चढ़ी। फिर अच्युत का चेहरा अपने दोनों हाथों में भरकर उसका माथा चूम लिया।

    "ये भी मॉम ने कहा था...?" अच्युत मुंह बनाकर बोला।

    "हाँ।" मृणाल ने खुश होते हुए अपना सिर हिलाया और अगले ही क्षण, अच्युत का गाल चूम लिया।

    "ये भी बोला था क्या मॉम ने...?" अच्युत चिढ़ते हुए बोला।

    "नहीं!"

    "तो...?"

    "अब कुछ मेरा भी होगा ना पतिदेव जी।" कहते हुए मृणाल गुड़मुड़ हुई और बेड पर गिरकर अपना चेहरा अपनी दोनों हथेलियों से छुपा लिया। वह शर्माने लगी।

    अच्युत को अपना सिर भारी सा महसूस होने लगा था, और ऐसा लगा रहा था कि कुछ तो गड़बड़ थी। वह अगले ही क्षण बाथरूम की तरफ दौड़ा।

    शर्माती-इठलाती मृणाल ने अपना चेहरा ऊपर किया, तो वहाँ अच्युत को ना पाकर वह हैरान होकर बोली, "अरे कहाँ चले गए ये...?"

    अचानक उसके कानों में बाथरूम से आती अजीब सी आवाज़ पड़ी। वह घबराकर बेड से नीचे उतरी और बाथरूम का दरवाज़ा पीटते हुए बोली, "क्या हुआ अच्युत? आप ठीक तो हैं ना?"

    "ह...हाँ!...मैं ठीक हूँ। तुम एक बार विज्ञाथा को बुला दो।" अंदर से अच्युत की धीमी आवाज़ आई।

    "क्यों, उससे क्या काम है आपको? मुझे बताइए ना आप। मैं आपकी वाइफ हूँ।" मृणाल अपनी भौहें चढ़ाकर बोली।

    "प्लीज़!!!!!!!!!!!! मृणाल।"

    "ओके! ओके!" कहते हुए वह बड़बड़ाई और कमरे का दरवाज़ा खोलकर बाहर आई।

    "विज्ञाथा, तुमको अच्युत बुला रहे हैं अंदर।" मुंह बनाते हुए मृणाल ने कहा और वापस कमरे में चली गई।

    विज्ञाथा कुछ सेकंड रुककर सोचने लगी, लेकिन जैसे ही उसके दिमाग़ में एक ख्याल आया, वह अपना पर्स उठाकर अंदर की तरफ दौड़ी।

    "साहेब! साहेब!...आप ठीक तो हैं ना? साहेब दरवाज़ा खोलिए।" विज्ञाथा परेशान सी होकर बाथरूम के बंद दरवाज़े पर जोर-जोर से हाथ मारते हुए बोली। उसका बस चलता तो वह यह दरवाज़ा तक तोड़ देती।

    "हाँ, वह ठीक है।" अच्युत के जवाब देने से पहले मृणाल ने कहा, जो वहीं बेड पर पसरी हुई थी।

    विज्ञाथा ने खा जाने वाली नज़रों से मृणाल को देखा। अगले ही क्षण दरवाज़ा खुला और एक हाथ बाहर आया। अपने पर्स से एक मेडिसन का छोटा सा बॉक्स निकालकर विज्ञाथा ने उस हाथ पर रख दिया। दरवाज़ा एक बार फिर बंद हो गया।

    "तुमने साहेब को छुआ...?" विज्ञाथा गुस्से में भड़कते हुए मृणाल के सिर पर खड़ी हो गई थी।

    "मैं क्यों बताऊँ तुम्हें? और हम हसबैंड-वाइफ का पर्सनल मैटर है।"

    "तुम पागल हो क्या मृणाल? तुम जानती हो कि उन्हें किसी भी फीमेल के टच से एलर्जी है। वोमिट शुरू हो जाती है उन्हें।" विज्ञाथा ने जैसे ही यह कहा, मृणाल के दिमाग़ में यह बात कौंध सी गई। वह झट से उठकर बैठ गई।

    "म...मेरे दिमाग़ से निकल गई। आई एम सॉरी...अच्युत!...अच्युत। आप...आप ठीक हैं ना? कॉल द डॉक्टर, स्टूपिड गर्ल।" मृणाल, विज्ञाथा पर अचानक भड़क उठी थी। अच्युत के लिए फिक्र साफ़ झलक रही थी।

    "डॉक्टर को बुलाने की ज़रूरत नहीं है। आई एम अब्सोल्युटली फाइन नाउ।" दरवाज़ा खोल, अच्युत बाहर आया। मृणाल ने उसका लाल पड़ा चेहरा देखा; उसका मन उदास हो गया।

    "आई एम सॉरी...मॉम ने मुझे बताया था और मेरे दिमाग़ से यह बात कैसे स्लिप हो गई। आई एम रियली वेरी-वेरी सॉरी अच्युत।" मृणाल रूंधे गले के साथ बोली।

    "इट्स ओके मृणाल।" अच्युत हल्का सा मुस्कुराया।

    "दिमाग़ है इसके पास।" विज्ञाथा, मृणाल से चिढ़कर बोली।

    "शी इज जस्ट 20, विज्ञाथा। लेट्स फॉरगेट इट।" विज्ञाथा की बात सुन अच्युत ने गंभीरता से कहा, तो पैर पटकते हुए विज्ञाथा वहाँ से बाहर चली गई।

    उसके जाने के बाद अच्युत ने मृणाल की ओर देखा, जो बड़ी मुश्किल से खुद को रोके खड़ी थी। उसे देखकर ही लग रहा था कि बस अभी बुक्का फाड़कर रोने लगेगी।

    "इट्स ओके मृणाल!...चले घर...?" चेहरे पर हल्की सी मुस्कान लिए वह बोला।

    "आई एम सॉरी अच्युत।" मृणाल आखिरकार रो ही पड़ी थी।

    "रो क्यों रही हो? मेकअप ख़राब हो जाएगा तुम्हारा।"

    "वाटरप्रूफ है।" वह सुबकते हुए बोली।

    ना चाहते हुए भी अच्युत की हँसी छूट गई। बड़ी मुश्किल से उसे चुप करवाकर वह अपने साथ बाहर ले आया।

    त्रिविक मृणाल के पास आया और उसके माथे को चूमता हुआ बोला, "वहाँ किसी को परेशान मत करना। भाभी ने जो समझाया है ना, बस उसे ध्यान रखना।"

    मृणाल ने नाक सिकोड़कर मेघा की तरफ देखा और फिर टेढ़ा-मेढ़ा मुँह बनाते हुए खुद में बुदबुदाई।

    "मृणाल का सामान रखवा दिया है गाड़ी में। आपको भी दिल्ली के लिए निकलना होगा।" मेघा ने अच्युत से कहा। एक नज़र उसने उसकी ओर देखा और फिर मृणाल की ओर।

    त्रिविक की आँखों में अचानक खौफ़ उतर आया था।

    "हाँ, शायद! आप ठीक कह रही हैं मिसेज़ कुकरेजा। मृणाल, चलो।" अच्युत ने मेघा की बात पर हाँमी भरी।

    मृणाल ने सिर हिलाया और वहाँ से बाहर की तरफ़ बढ़ गई, लेकिन कुछ सोचकर वह रुकी। उसने मुड़कर देखा तो मेघा और त्रिविक कुछ बात कर रहे थे। उसके होठों पर तिरछी मुस्कान आ गई।

    "भाई! मुझे ना आपको एक बात बतानी है।"

    "हाँ, बोलो।"

    "इधर आइए मेरे पास। कान की बात है।"

    त्रिविक जल्दी से मृणाल के पास आया। मृणाल, उसके कान के पास मुँह ले जाकर बहुत ही धीमे से बोली, "कुछ नहीं भाई।"

    त्रिविक ने कन्फ़्यूज होकर उसे देखा। मृणाल के जाने के बाद मेघा त्रिविक के पास आई और बाहर की ओर इशारा करते हुए बोली, "क्या बोलकर गई वह...?"

    "कुछ भी नहीं बोला।" त्रिविक ने आराम से कहा।

    मेघा ने गुस्से में उसकी कॉलर पकड़ी और झट से उसे सोफ़े पर गिराती हुई बोली, "वह क्या बोलकर गई है मुझे अभी बताओ। वरना एकाध हड्डी इधर ही टूट जाएगी आपकी।"

    त्रिविक डरते हुए, "सच में कुछ नहीं बोला उसने।"

    "मुझसे छुपाओ मत। मैंने खुद देखा। वह आपके कान में कुछ कहकर गई है। मेरी बुराई की ना उसने...? है ना...?" मेघा दाँत पीसते हुए बोली।

    त्रिविक ने जल्दी-जल्दी अपना सिर ना में हिलाया। मेघा से जब कंट्रोल नहीं हुआ, उसने एक जोर की लात मारकर उसे नीचे गिराया और खुद पैर पटकते हुए अंदर कमरे में चली गई।

    त्रिविक ने खुद को सम्भाला। वह उठकर फर्श पर ही बैठ गया। इस वक्त उसके चेहरे पर हद से ज़्यादा फ्रस्ट्रेशन थी; फ्रस्ट्रेशन थी मृणाल और मेघा दोनों के लिए।

    त्रिविक को जब एहसास हुआ कि वह हॉल में फर्श पर बैठा बड़बड़ा रहा था और वहीं एक तरफ खड़े सभी सर्वेंट्स उसे ही हैरानी से देख रहे थे, तो वह चिल्लाता हुआ बोला, "अबे जाओ यहाँ से, वरना एक-एक की नौकरी खा जाऊँगा।"

    त्रिविक के कहने की देर थी और सभी सर्वेंट्स वहाँ से नौ दो ग्यारह हो चुके थे।

    "बहन तो बहन, और साला बीवी भी उसकी गुरु मिली। मिट्टी का तेल। जाते हुए भी आग लगवा गई। अब कैसे मेघा को बताऊँ कि वाकई उसने कुछ नहीं कहा था।" त्रिविक अपना सिर पकड़कर बेचारगी से बोला।

    क्रमशः

  • 3. रस्म-ए-वफ़ा ! - Chapter 3

    Words: 1398

    Estimated Reading Time: 9 min

    "मृणाल! ये तुम्हारा कमरा है। आज से तुम इसी कमरे में रहोगी।" अपने मेंशन आने के बाद अच्युत ने मृणाल को एक कमरा दिखाते हुए कहा।

    "यह आपका कमरा है..?" मृणाल खुशी से पूरे कमरे में नज़रें घुमाकर बोली।

    उसके सवाल पर कुछ देर अच्युत खामोश रहा। फिर एक गहरी साँस ले कर उसने उससे कहा, "नहीं! यह कमरा मेरा नहीं है। मेरा कमरा उसके बगल वाला है।"

    "हूँ... तो आप मुझे यह कमरा क्यों दिखा रहे हैं? मैं आपकी कोई मेहमान थोड़ी हूँ, जो आप मुझे ऐसे अलग कमरा दिखा रहे हैं। मैं आपकी पत्नी हूँ। जो आपका कमरा है, अब से वही मेरा कमरा है। जहाँ आप रहेंगे, मैं भी वहीं रहूँगी ना मेरे बुद्धू पतिदेव जी। 🥹" मृणाल हँसते हुए अपनी प्यारी सी आवाज़ में बोली।

    "आई एम सॉरी मृणाल, लेकिन तुम उस कमरे में नहीं जा सकती। तुम जानती हो ना, मुझे एलर्जी है फीमेल टच से। मैं चाह कर भी तुम्हें उस कमरे में रहने की परमिशन नहीं दे सकता।" अच्युत ने काफी सहजता से कहा, जबकि उसकी बात सुनकर मृणाल का छोटा सा दिल टूट सा गया।

    "तो क्या हम सारी ज़िंदगी ऐसे ही रहेंगे...? क्या मैं आपको छू भी नहीं पाऊँगी...? मैं आपको कडल करके भी नहीं सो पाऊँगी।" मृणाल की आवाज़ रुँधी हुई थी। अच्युत को उसके लिए बुरा लगा, लेकिन वह कर भी क्या सकता था?

    "सारी ज़िंदगी नहीं मृणाल। मेरा ट्रीटमेंट चल रहा है। शायद एक दिन मैं ठीक हो जाऊँ...?"

    "पक्का ठीक हो जाओगे ना...?" मृणाल ने पनीली आँखों से उसे देखा।

    "हाँ।" अच्युत ने अपना सिर हिला दिया। मृणाल खुश होते हुए कमरा देखने लगी, जबकि अच्युत सोचने लगा कि अभी तो उसने उसे दिलासा दे दिया, लेकिन आगे क्या...? शायद वह खुद नहीं जानता था, क्योंकि यह बीमारी उसे बचपन से थी। उसे फीमेल टच से प्रॉब्लम थी। वोमिटिंग शुरू हो जाती थी उसे, और तब तक होती रहती थी जब तक वह दवाई ना ले लेता था। इस दुनिया में इकलौती औरत उसकी माँ थी जिसे वह छू सकता था और उसे कुछ नहीं होता था।

    "अच्छा! आपने मुझे बताया नहीं कि मैं इस लहँगे में कैसी लग रही हूँ...?" मृणाल अपने दुपट्टे को ठीक करती हुई खुशी से बोली।

    "बहुत प्यारी लग रही हो।" अच्युत बस मुस्कुरा दिया।

    "थैंक्यू।" वह शर्माते हुए बोली।

    "अच्छा अब तुम आराम करो। मुझे भी एयरपोर्ट के लिए निकलना है। मौसी भी आने वाली है। जब तक मैं वापस नहीं आ जाता, तब तक वह तुम्हारे साथ रहेगी।" कहते हुए अच्युत वहाँ से जाने लगा। लेकिन तभी उसका रास्ता रोकते हुए मृणाल बोली, "तो आप वापस कब तक आएँगे...?"

    "कल तो कॉन्फ्रेंस मीटिंग है। शायद परसों शाम तक वापस आ जाऊँगा।"

    "जल्दी आइएगा। मैं आपका इंतज़ार करूँगी।" मृणाल मुस्कुरा कर बोली।

    "हम्ममम!"

    "अगले वीक मॉम आ रही है ना...?"

    "बोला तो यही था।"

    "ओके! अब आप जाइए। अपना ख्याल रखिएगा आप।" मृणाल आगे से हटकर साइड खड़ी हो गई। अच्युत ने हाँ में सिर हिलाया और कमरे से बाहर चला गया। विज्ञाथा उसका बाहर ही इंतज़ार कर रही थी। श्रीनिकेतन भी उसके पास ही हाथ बाँधे खड़ा था।

    "श्रीनिकेतन! मेरी गैरमौजूदगी में मृणाल को किसी भी प्रकार की कोई कमी महसूस नहीं होनी चाहिए। उसका अच्छे से ख्याल रखा जाना चाहिए। मौसी और श्रीदिका कहाँ तक पहुँची...?" अच्युत उसके सामने खड़ा होकर बोला।

    "वह बस आने ही वाली है साहब।" श्रीनिकेतन ने सिर हिलाकर कहा।

    "सॉरी साहब, लेकिन! मृणाल बच्ची नहीं है। वह अपना ख्याल रख सकती है। श्रीनिकेतन की माँ और बहन को क्यों परेशान करना।" विज्ञाथा ने धीमे से कहा।

    "मैं जानता हूँ यह बात। लेकिन यह घर उसके लिए नया है। इसलिए..." अच्युत ने कहा, क्योंकि विज्ञाथा की बात सुनकर श्रीनिकेतन ने उसे घूरना शुरू कर दिया था। विज्ञाथा मुँह बनाकर दूसरी तरफ चली गई।

    "माँ और बहन पसंद नहीं उसे तुम्हारी।" अच्युत ने धीरे से हँसते हुए श्रीनिकेतन से कहा और उसके कंधे को थपथपाया। श्रीनिकेतन ने अपना सिर लाचारी में हिला दिया।

    8 बजे तक श्रीनिकेतन की माँ कमला और उसकी बहन श्रीदिका आ गई थीं। मृणाल तो उनके साथ कुछ ही देर में घुल मिल गई थी। यह देखकर अच्युत को अच्छा लगा।

    10 बजे घर से डिनर करके अच्युत और विज्ञाथा एयरपोर्ट के लिए निकल गए थे। उनके जाने के बाद मृणाल उदास सी हॉल में सोफ़े पर बैठ गई। कमला और श्रीदिका दोनों उसके पास ही बैठी हुई थीं। श्रीदिका के चेहरे पर तो जैसे अलग ही चमक थी। वह तो खुश होकर पूरे मेंशन को देख रही थी, जबकि कमला, मृणाल के लिए सेब काटते हुए उससे बोली, "क्या हुआ बिटिया...? उदास क्यों हो रही हो...?"

    "ये चले गए ना। मेरा बहुत मन था उनके साथ ज़्यादा-से-ज़्यादा समय बिताने का। आज ही तो मेरी शादी हुई। आप बताओ, ये कागज़ वाली भी कोई शादी होती...? लग रहा है यह कोई शादी वाला घर। कितना मन था मेरा कि मेरी धूमधाम वाली शादी हो (एक गहरी साँस लेकर) लेकिन अच्युत ने मना कर दिया।" मृणाल उदास होकर बोली।

    "बिटिया! साहब को ज़्यादा शोर-शराबा पसंद नहीं। इसलिए उन्होंने एकदम सादगी से शादी की।" कमला जी ने एक सेब का टुकड़ा मृणाल की तरफ़ बढ़ाया, तो वह उनका हाथ साइड करके बोली, "नहीं, मुझे नहीं खाना कुछ।"

    "मेरा फ़ोन और हेडफ़ोन कहाँ है...?" मृणाल ने इधर-उधर ढूँढ़ते हुए कहा, लेकिन उसे नज़र नहीं आए।

    कमला ने अपने पास बैठी श्रीदिका की बाज़ू पर मार, और उसे डाँटते हुए कहा, "तुम यहाँ क्यों बैठी हो? जाओ ना, जाकर बिटिया का फ़ोन और... और क्या बोलते हैं बेटा उसे..." कहते हुए कमला ने मृणाल की तरफ़ देखा।

    "मौसी! हेडफ़ोन। हेडफ़ोन।" मृणाल ने मुस्कुरा कर कहा।

    "हाँ! जाकर ला।" कमला ने कहा, तो श्रीदिका मुँह बनाती हुई उठी और मृणाल के कमरे में चली गई।

    रात के करीब 12 बज रहे थे। मृणाल औंधे मुँह बेड पर फैली मस्त सो रही थी। कमला जी और श्रीदिका उसी कमरे में नीचे फ़र्श पर बिस्तर लगाकर लेटी थीं, मगर दोनों जाग रही थीं।

    "माँ! यह मेंशन कितना अच्छा है ना।"

    "हाँ बेटा।"

    "माँ, जब भैया यहाँ रहता है तो हम दोनों हमेशा के लिए क्यों नहीं रह सकते यहाँ? यहाँ तो कितने कमरे हैं। हर एक सुख-सुविधाएँ हैं। दो बाल्टी पानी के लिए घंटों लाइन में खड़ा नहीं रहना पड़ता। राशन के पैसे कम करने के लिए दुकानदार से कीच-कीच नहीं करनी पड़ती। सर्वेंट्स खाना बनाते हैं। यह है असली ज़िंदगी। यह ऐशो-आराम।" मेंशन की चकाचौंध में श्रीदिका की आँखें अलग ही तरह से चमक रही थीं।

    "बेटा, भगवान ने जितना दिया है, बहुत है। हाँ, मानती हूँ यहाँ हर एक सुख-सुविधाएँ हैं, लेकिन यह हमारा नहीं है। इस पर हमारा कोई हक़ नहीं है।" कमला ने उसे समझाते हुए कहा।

    "साहब तो भैया को अपना सबसे अच्छा दोस्त मानते हैं। तो क्या वह अपने मेंशन में हमें रहने की अनुमति नहीं दे सकते...?"

    "दे देंगे, लेकिन यह सही नहीं है। हमें सिर्फ़ दो दिन यहाँ रहना है, मृणाल बिटिया की देखभाल के लिए। ज़्यादा सपने मत सजाओ, क्योंकि इस मेंशन पर हमारा कोई हक़ नहीं है। अपने दिमाग़ के घोड़े दौड़ाना बंद करो और शांति से सो जाओ।" कमला ने चादर अपने मुँह पर डालते हुए कहा, जबकि श्रीदिका किसी गहरी सोच में डूब चुकी थी।

    क्रमशः

  • 4. रस्म-ए-वफ़ा ! - Chapter 4

    Words: 1360

    Estimated Reading Time: 9 min

    रात के करीब दो बज रहे थे। दिल्ली के एक आलीशान होटल के कमरे में बेड पर लेटा अच्युत, बंद आँखों के साथ कुछ सोच रहा था।

    तभी रूम का दरवाज़ा किसी ने नॉक किया। अच्युत ने आँखें खोली और बेड से उठकर जाकर दरवाज़ा खोला। सामने विज्ञाथा खड़ी थी। जिसके हाथ में लैपटॉप के साथ कुछ फाइल्स थीं और मुँह में एक फोन दबाया हुआ था। अच्युत ने उसके हाथ से लैपटॉप और फाइल्स लीं और अंदर चला गया। विज्ञाथा ने मुँह में दबाया हुआ फोन हाथ में पकड़ा और उसके पीछे कमरे में आते हुए बोली-

    "साहेब! आपकी स्पीच मैंने रेडी कर दी है। इस रेड फाइल में है। और बाकी मैं आपको कॉन्फ्रेंस मीटिंग में आने वाले लोगों की डीटेल्स देने आई हूँ। मिस्टर माहेश्वरी भी आने वाले हैं, यह मुझे अभी कुछ देर पहले पता चला।"

    "लेकिन वह तो किसी और पार्टी में थे ना?"

    "जी! लेकिन अब उन्होंने हमारी पार्टी ज्वाइन कर ली है।" वहीं के मिनी फ्रिज से दो बियर की केन निकालते हुए विज्ञाथा ने मुँह बनाकर जवाब दिया। उसने एक केन अच्युत को दी और खुद सोफे पर बैठ गई।

    "मेजॉरिटी किस तरफ है?" फ़ाइल को खोलकर उसमें रखी स्पीच को एक नज़र देख अच्युत ने गंभीरता से कहा।

    "वेल! आई एम 99.9 परसेंट श्योर की मेजॉरिटी हमारी तरफ़ है। बड़े साहेब के बाद यह हक़ और पार्टी का आगामी चेहरा सिर्फ़ आपका होगा। (उदास होकर) बड़े साहेब अगर होते ना तो ये लोग जो अब हमारे आगे इतना ची-ची कर रहे हैं ना साहेब, घुटने टेक रहे होते। वह भी फ़र्श पर नाक रगड़ने के साथ। (एक गहरी साँस लेकर) लेकिन शायद! बड़े साहेब का जाना और आपका पार्टी ज्वाइन करना ही दुर्गा माँ ने लिखा हुआ था। वरना सोचने वाली बात है कि आप जो अक्सर पॉलिटिक्स ज्वाइन करने की बात पर भड़क पड़ते थे बड़े साहेब के सामने। अब उनकी आखिरी इच्छा समझकर वही काम कर रहे हैं, जो आपको कभी पसंद भी नहीं था।" विज्ञाथा फ़ीकेपन से बोली।

    "0.01 परसेंट की श्योरिटी कौन देगा...?" अच्युत ने धीरे से कहा।

    "मैं बात करूँगी साहेब कल बाकी मेंबर्स से।" विज्ञाथा ने बियर का एक सिप लेते हुए कहा। जबकि अच्युत एक बार फिर किसी गहरी सोच में डूब चुका था।

    बियर की केन ख़त्म कर विज्ञाथा, अच्युत को सोने का कहकर वहाँ से चली गई। अच्युत ने भी फ़ाइल्स और लैपटॉप को एक तरफ़ रखा और बेड पर सोने चला गया।


    उधर कोलकाता में, उगते सूरज की किरणें जब पर्दे से छनकर कमरे में पड़ीं तो कमला की नींद खुल गई। लेकिन वह खुद को बँधा हुआ सा महसूस कर रही थी। उसने अपने साइड में देखा तो वहाँ मृणाल, बच्चों की तरह उनसे लिपटकर आराम से सो रही थी। कमला ने उसका हाथ और पैर अपने ऊपर से हटाए और उठकर मृणाल के दूसरी तरफ़ देखा जहाँ श्रीदिका सोई पड़ी थी, लेकिन वह अब बिस्तर से नीचे थी।

    कमला ने खाली पड़े बेड की तरफ़ देखा और फिर सिर खुजलाती हुई, श्रीदिका को जगाकर कमरे से बाहर ले गई।

    करीब दस बजे मृणाल आँखें मसलते हुए कमरे से बाहर आई और हॉल में रखे सोफे पर पसरती हुई, ज़रा ऊँची आवाज़ में बोली-

    "मौसी! मेरी कॉफ़ी।"

    "लाई बेटा।" कमला ने किचन से आवाज़ लगाकर कहा। श्रीदिका, जो वहीं स्टूल पर बैठी नाश्ता कर रही थी, वह मुँह बिचकाकर बोली-

    "ये तो पूरे ऑर्डर चला रही है माँ।"

    कमला ने उसकी बात का कोई जवाब नहीं दिया। मृणाल की कॉफ़ी लेकर वह बाहर आई और मिडल टेबल पर कप रखते हुए बोली-

    "नाश्ते में क्या खाओगी बिटिया...?"

    "फ़्रेंच टोस्ट।" मृणाल उठकर सीधी बैठती हुई कॉफ़ी का एक घूँट पीकर बोली।

    "कौन सा टोस्ट...?"

    "फ़्रेंच टोस्ट! फ़्रेंच टोस्ट मौसी। आपको बनना नहीं आता तो रहने दीजिए।"

    "फ़्रेंच टोस्ट। थोड़ा कम पढ़ी हूँ ना तो अंग्रेज़ी के शब्द बोल नहीं पाती। यहाँ कुक है बिटिया, उसे आता होगा। मैं जाती हूँ उसे बुलाकर।" कहते हुए कमला वहाँ से अंदर की तरफ़ दौड़ी।

    कुक से फ़्रेंच टोस्ट का कहकर मृणाल, कॉफ़ी का कप हाथ में पकड़े पूरे मेंशन देखने लगी। श्रीनिकेतन ने जब मृणाल को यूँ बोरियत महसूस करते देखा तो वह उसके पास आ गया।

    "गुड मॉर्निंग मैम!... आप ब्रेकफ़ास्ट के बाद कहीं जाना पसंद करेगी...?" श्रीनिकेतन ने कहा। उसके एकदम से आने से मृणाल ने चौंककर उसे देखा। फिर नॉर्मल होते हुए मुँह बनाकर-

    "मुझे अभी तो कहीं नहीं जाना है। क्यों तुम्हें कोई दिक्कत है मेरे यहाँ रहने से?"

    "न...नहीं मैम! ऐसा कुछ नहीं है। मुझे लगा आप बोर हो रही हैं तो मैं बस पूछ रहा था कि आपका मन हो तो...?" श्रीनिकेतन घबराकर उसके सामने अपनी सफ़ाई पेश कर बोला।

    "मैम क्यों बोल रहे हो तुम मुझे? मेरा नाम है मृणाल।"

    "लेकिन मैम!... "

    "लगता है जान प्यारी नहीं तुम्हें अपनी। बोला ना एक बार मैम मत कहो। मेरा नाम मृणाल है। जो अगर एक बार फिर तुमने मुझे मैम कहा, बाय गॉड सिर फोड़ दूँगी।" मृणाल आँखें दिखाते हुए बोली तो श्रीनिकेतन ने अपना सिर जल्दी-जल्दी हिलाया।

    अपने गीले बालों को टॉवल से लपेटे ड्रेसिंग टेबल के सामने बाथरोब में खड़ी मृणाल मुस्कुराकर अपने होठों पर लिपस्टिक लगा रही थी। जबकि श्रीदिका आँखें फाड़े, मृणाल के कपड़े, जूते, सैंडल, ज्वेलरी और बाकी चीज़ों को देख रही थी, जो कमला एक-एक कर वॉर्डरोब में सेट कर रही थी।

    एक गुलाबी वन-पीस बॉडी फिटेड ड्रेस, जो काफ़ी लॉन्ग थी, उसे अपने हाथों में थामे श्रीदिका खुशी से बोली-

    "माँ ये देखिए! ये ड्रेस तो बिल्कुल वैसी है जैसी दो दिन पहले टीवी स्टार ने पहना था, उस रियलिटी शो में जो हम शाम को आठ बजे देखते हैं।"

    "हाँ ये तो बिल्कुल वैसा ही है।" कमला ने अपने दिमाग़ पर ज़ोर देते हुए कहा।

    श्रीदिका की मुस्कान तब फ़ीकी पड़ गई जब उसने ड्रेस के टैग पर प्राइस देखा। 8000 की वह ड्रेस थी, जो शायद ही वह अफ़ोर्ड कर सकती थी।

    "हाँ, लेकिन मैं भी एक दिन भैया से ऐसी ड्रेस मँगवाऊँगी।" श्रीदिका ने फ़ीकी मुस्कान के साथ कहा और उस ड्रेस को वहीं रख दिया।

    मृणाल जो उसकी बात सुन रही थी, वह मुड़ी और उस ड्रेस को अपने हाथ में लेकर आईने में खुद पर लगाकर बोली-

    "ये ड्रेस... मुझे पसंद नहीं है। एक काम करो, तुम इसे अपने पास रख लो।"

    मृणाल ने मुस्कुराकर श्रीदिका को वह ड्रेस दे दी। श्रीदिका तो खुशी से उछल पड़ी थी। जबकि कमला ने मना किया लेकिन मृणाल ने उनकी एक नहीं सुनी।

    "देखो माँ कितनी प्यारी लग रही हूँ ना मैं इसमें।" कुछ देर बाद उसी ड्रेस को पहने आईने के सामने खड़ी श्रीदिका चहकते हुए कमला से बोली।

    कमला बस फ़ीकी सी मुस्कुरा कर रह गई। मृणाल, जो बेड पर बैठी अपने शूज़ की लेस बाँध रही थी, उसने मुस्कुराकर श्रीदिका को देखा। वह वाकई प्यारी लग रही थी उसे।

    "ये ड्रेस तो मुझ पर भी इतनी प्यारी नहीं लगती जितनी तुम पर लग रही है श्री।" मृणाल ने उसकी तारीफ़ करते हुए कहा तो श्रीदिका खुशी से उछलते हुए मृणाल के गले लग गई।

    "थैंक्यू! थैंक्यू! थैंक्यू सो मच!!!!!!!!!!!! मृणाल।"

    "अच्छा। अब चलो वरना हम लेट हो जाएँगे।" मृणाल, श्रीदिका को लगभग खींचते हुए अपने साथ बाहर ले गई।

    क्रमशः

  • 5. रस्म-ए-वफ़ा ! - Chapter 5

    Words: 1016

    Estimated Reading Time: 7 min

    कुकरेजा हाउस के हॉल में सोफे पर लेटी मृणाल, कानों पर हेडफोन लगाए गाने सुन रही थी। मेघा, त्रिविक और श्रीदिका सामने वाले सोफे पर बैठे उसे देख रहे थे।

    "इसने वहाँ ज़्यादा किसी को परेशान तो नहीं किया ना...?" मेघा ने मृणाल की तरफ इशारा करते हुए श्रीदिका से पूछा। श्रीदिका ने जल्दी-जल्दी अपना सिर ना में हिला दिया।

    "मृणाल तो काफी अच्छी है और बहुत ही मिलनसार भी। तभी तो हम कल मिले और दोस्त भी बन गए।" श्रीदिका मुस्कुरा कर बोली।

    मेघा ने अपनी आँखें घुमाईं। वह उठी और मृणाल के पास आकर उसके कानों से हेडफोन हटा दिए। उसने मृणाल का फोन छीनते हुए कहा, "ये क्या बेहूदा हरकत है! जब से आई है तब से बस गाने ही सुने जा रही हो। कुछ तो बात करो! कुछ तो बताओ कि वहाँ सब कैसा है।"

    मृणाल चिढ़कर उठ बैठी और मेघा के हाथ से अपना फोन वापस छीनते हुए बोली, "आपको दिक्कत क्या है? नहीं बताना जब मुझे आपको। मैं तो सिर्फ़ अपने भाई को बताऊंगी।"

    "अच्छा। लो फोन ले लो फिर। आओ।" मेघा मज़ाक करते हुए बोली और उसका फोन हवा में उछालते हुए सामने पड़े खाली सोफे पर बैठ गई।

    मृणाल ने घूर कर मेघा को देखा। अगले ही क्षण त्रिविक के चीखने की आवाज़ उस माहौल में गूंज उठी। मृणाल का बस मेघा पर नहीं चलता था और गुस्से में बदला त्रिविक से लिया जाता था। अभी भी ऐसा ही हाल था। मृणाल गुस्से में त्रिविक को कुशन से मार रही थी, जबकि मेघा को जैसे कोई फ़र्क नहीं पड़ रहा था।

    मृणाल को गुस्से में देखकर श्रीदिका डर के मारे सोफे के दूसरे कोने में चिपक गई थी।

    "अपनी बीवी से कहो भाई की मुझे मेरा फोन अभी दे, वरना अच्छा नहीं होगा।" वह गुस्से में हाँफते हुए बोली।

    "यार मेघा, दे दो ना! क्यों मेरी शामत लगवा रही हो? हे भगवान! कहाँ इन दो पागल औरतों में आपने मुझे फँसा दिया है! इससे अच्छा, माँ-बाप का इकलौता और कुँवारा ही रहते। कम-से-कम शांति तो रहती। घुन की तरह पिसकर रख दिया है दोनों ने।" त्रिविक अपना सिर पीटते हुए अफ़सोस के साथ बोला।

    "सॉरी बोलो और फोन ले लो।" मेघा अपने पैरों पर पैर चढ़ाए अकड़कर बोली।

    मेघा की बात सुनकर मृणाल का पारा चढ़ गया। वह वापस त्रिविक को मारने के लिए बढ़ी, उससे पहले ही त्रिविक झट से मेघा के पास आया और उसके हाथ से फोन छीनकर फट से मृणाल के सामने कर दिया।

    गुस्सा क्षण में गायब हो गया था। उसने अपना फोन लिया और उसे अपनी जीन्स की पॉकेट में रखते हुए त्रिविक के गले लगी और धीरे से बोली, "एक आप ही हैं भाई, जो मेरा सोचते हैं, वरना इस घर में यहाँ कोई मेरा अपना नहीं। नाम!!!!!!!!!!!!!!! के रिश्ते हैं बस।"

    नाम शब्द पर उसने कुछ ज़्यादा ही ज़ोर दिया था। मेघा की आँखें छोटी हो गईं। वह घूर कर मृणाल को देखने लगी, जो अब आँखों ही आँखों में उसे चिढ़ा रही थी।

    त्रिविक ने चैन की साँस ली। लेकिन उसे अपने पीछे से गर्माहट का एहसास हो रहा था। लंच करने के बाद मृणाल अपना बचा हुआ ज़रूरी सामान लेकर श्रीदिका के साथ वापस पाटिल मेंशन लौट गई।

    लगभग 3 बजे अच्युत और विज्ञाथा दोनों पार्टी के ऑफिस की कॉन्फ्रेंस मीटिंग हॉल से बाहर आए। अच्युत के चेहरे पर थकान थी, जबकि विज्ञाथा के चेहरे पर एक अलग ही चमक थी। बिल्डिंग से बाहर आते ही दोनों अपनी गाड़ी में बैठे और होटल के लिए निकल गए।

    ड्राइवर शांति से गाड़ी चला रहा था। विज्ञाथा उसके साथ वाली सीट पर बैठी खुश हो रही थी। वहीं पीछे अपनी पीठ को सीट पर टिकाए अच्युत एकदम खामोश, ग्लास विंडो से बाहर देख रहा था। तभी विज्ञाथा चहक कर बोली, "देखा साहेब! मैंने तो पहले ही कहा था कि मेजॉरिटी हमारी तरफ़ है। आप यूँ ही फ़िक्रमंद हो रहे थे। बड़े साहेब ने इस पार्टी की नींव रखी थी। इस पार्टी का मुख्य चेहरा था उनका, और उनके बाद यह हक़ सिर्फ़ एक शख़्स का है, और वह सिर्फ़ आप हैं। सात महीने बाद होने वाले चुनाव में आप ही बड़े साहेब के पद पर बैठकर यह चुनाव लड़ेंगे और देखेंगे, जीतेंगे भी। लोकल क्षेत्रों में लोग बड़े साहेब को भगवान मानते हैं क्योंकि उन्होंने बहुत कुछ किया अपनी जनता के लिए, उनकी भलाई के लिए। जो मैंने खुद देखा है। तभी तो पीछे दस साल से मुख्यमंत्री रहते आ रहे हैं। आम जनता का भरोसा है पार्टी की तरफ़... उम्मीद है उनका भरोसा आगे भी कायम रहे। एक बार आप मुख्यमंत्री बन गए ना तो बड़े साहेब से किया मेरा वादा पूरा हो जाएगा।"

    अपनी बात कहते हुए एक बार फिर विज्ञाथा भावुक हो गई, लेकिन जल्दी ही उसने खुद को सम्हाल लिया था।

    "लेकिन मैं यह सब नहीं चाहता। मुझे नहीं बनना सीएम।" अच्युत की अंतरात्मा से आवाज़ आई। वह नहीं बनना चाहता था सीएम। बस हालातों ने मन के साथ ज़ुबान को भी मजबूर कर दिया था। उसे वह करना पड़ रहा था जो वह नहीं चाहता था। शुरुआत से पॉलिटिक्स से नफ़रत थी उसे, लेकिन आज किस्मत ने उसे वही लाकर खड़ा कर दिया था, जिससे वह हमेशा दूर भागता था।

    उसने आँखें बंद कीं और एक गहरी साँस लेकर बोला, "शाम की कोई फ़्लाइट हो तो हम आज ही वापस कोलकाता जाएँगे।"

    "आज...?"

    "हाँ, आज।" अच्युत की आवाज़ में सख़्ती देखकर विज्ञाथा ने फिर कोई सवाल ना किया और चुपचाप अपना टैबलेट पर्स से निकालकर टिकट्स बुक करने लगी।

    क्रमशः

  • 6. रस्म-ए-वफ़ा ! - Chapter 6

    Words: 1061

    Estimated Reading Time: 7 min

    रात लगभग 11 बजे पाटिल मेंशन के पोर्च एरिया में एक काली गाड़ी आकर रुकी। एक गार्ड ने जल्दी से आकर दरवाज़ा खोला। अच्युत बड़े-बड़े कदमों से अंदर की ओर बढ़ गया।

    "सारा सामान अंदर पहुँचा देना।" अच्युत ने ड्राइवर से कहा। विज्ञाथा नींद में बोझिल आँखों को मलते हुए अच्युत के पीछे चल पड़ी।

    श्रीनिकेतन हॉल में खड़ा था। उसने सिर झुकाकर अच्युत का अभिवादन किया। अच्युत ने उसके कंधे पर हाथ रखा और अपने कमरे की ओर बढ़ गया।

    उसके पीछे आती विज्ञाथा ने धीरे से कहा, "तुम जागे हुए क्यों हो?"

    "नींद नहीं आ रही थी।" श्रीनिकेतन ने धीमे से कहा और उसके हाथों में मौजूद हैंडबैग व टैबलेट ले लिया। विज्ञाथा ने उसे घूरा और अपने कमरे में चली गई। श्रीनिकेतन भी उसके पीछे कमरे में आया।

    उसने बेड पर रखे अपने नाइट सूट को देखा और फिर पीछे मुड़कर श्रीनिकेतन को देखा, जो अब तक दरवाज़ा अंदर से बंद कर चुका था। फिर एक गहरी साँस लेकर वह श्रीनिकेतन की ओर मुड़ी।

    "तुम्हारा चेहरा क्यों लटका हुआ है?"

    "नहीं तो।"

    "निकेतन!!!!!!!!!!! बता रहे हो कि क्या हुआ है...? या आज पूरी रात कमरे के बाहर बिताना चाहते हो...? मेरा ना पहले से ही दिमाग खराब है बहुत। पूछ रही हूँ तो बताओ ना। ऐसा मुँह बना के रखा हुआ है मानो किसी मरघट में आए हुए हो। बोलो कुछ..." विज्ञाथा चीख उठी।

    उसका गुस्सा देखकर श्रीनिकेतन के आँसू छलक पड़े। यह देखकर विज्ञाथा ने अपना सिर पीट लिया। वह बेड पर रखे अपने नाइट सूट को उठाकर बाथरूम में चली गई।

    कपड़े बदलकर विज्ञाथा हाथ में कॉफी का कप पकड़े, एकटक अपने सामने बैठे श्रीनिकेतन को देख रही थी जो सिर झुकाए उदास बैठा था।

    "मैं क्या जवाब दूँ उन्हें? अब तुम ही बताओ। माँ चाहती है कि तुम ये नौकरी वगैरह छोड़कर, उनके साथ रहो। उनकी सेवा करो। एक बहू होने का फ़र्ज़ निभाओ।" वह उदास लहजे में बोला।

    "निकेतन! मैं यह नौकरी नहीं छोड़ सकती। और प्लीज!...अपनी माँ और बहन को यहाँ से जल्दी वापस भेजो। उनकी मौजूदगी में मेरा दम घुटने लगता है। मैं नहीं रह सकती उनके साथ।" खाली कप को साइड टेबल पर रखते हुए विज्ञाथा ने कहा और फिर सिर तक कंबल तानकर सोते हुए बोली, "प्लीज बाकी बातें सुबह करते हैं। बहुत थक गई हूँ। लाइट्स ऑफ कर देना।"

    "हम्म्म।" श्रीनिकेतन का चेहरा फिर लटक गया। उसने लाइट्स ऑफ की और विज्ञाथा के पास ही लेट गया।

    उधर अच्युत कपड़े बदलकर अपने कमरे से बाहर आया और साइड वाले कमरे का दरवाज़ा धीरे से खोला। वहाँ काफी अंधेरा था इसलिए सही से वह कुछ देख नहीं पाया। उसने धीरे से लाइट्स ऑन की। सबसे पहले उसने बेड पर देखा, जो एकदम खाली था।

    उसके माथे पर बल पड़ गए, जो ज़्यादा देर नहीं रहे। क्योंकि उसने देखा बेड के साइड में फर्श पर लगे बिस्तर पर मृणाल बच्चों की तरह कमला से लिपटी सो रही थी। श्रीदिका कल की तरह आज भी बिस्तर से नीचे पड़ी सो रही थी।

    बेसाख्ता ही उसके होठों पर मुस्कान आ गई। वह अपने सिर के पीछे हाथ रखकर बालों को सहलाते हुए, लाइट्स बंद कर वापस अपने कमरे में आकर बेड पर लेट गया।

    सुबह मृणाल नींद में ही उठकर बाहर सोफे पर आकर लेट गई और कमला को आवाज़ लगाते हुए बोली, "मौसी मेरी..."

    वह अपनी बात पूरी कर पाती, उससे पहले ही अच्युत, जो दूसरे सोफे पर बैठा हुआ न्यूज़पेपर पढ़ रहा था, मृणाल के आते ही न्यूज़पेपर फोल्ड कर साइड में रखा और धीरे से बोला,

    "गुड मॉर्निंग! मृणाल।"

    मृणाल की नींद भरी आँखें झट से पूरी खुल गई थीं। वह उछलकर बैठी और आँखें बड़ा करते हुए बोली,

    "अ...आप तो आज आने वाले थे ना...?"

    "क्यों? मेरा जल्दी आना पसंद नहीं आया क्या...?"

    "नहीं, ऐसी बात नहीं है। मुझे लगा कि आप कल ही आएँगे।"

    "हम्म्म! मैं कल रात ही आया था। मिलने भी आया था तुम्हारे कमरे में। तुम सो रही थी। अजीब था इतने बड़े बिस्तर को छोड़कर तुम मौसी और श्रीदिका के बीच सो रही थी। फर्श पर..." अच्युत ने कॉफी का घूँट भरते हुए कहा।

    "वो...वो मुझे ना आदत नहीं है अकेले सोने की।" मृणाल अपने दोनों हाथों को आपस में गूँथकर मायूसी से बोली।

    "घर पर अकेले नहीं सोती थी तुम...?"

    "नहीं।"

    "तो किसके पास सोती थी...?" अच्युत की भौंहें तन गईं।

    "भाई के पास।"

    "और तुम्हारी भाभी...?"

    "उनके पास भी सोती थी।"

    "मतलब...?"

    "भाई-भाभी के रूम में उनके बीच सोती थी।" मृणाल ने खुश होकर बताया।

    अच्युत ने अजीब नज़रों से अपने सामने बैठी लड़की को देखा।

    "कितना समय हो गया तुम्हारे भाई-भाभी की शादी को...?"

    "दो साल तो हो गए हैं।" मृणाल ने सोचते हुए कहा।

    "तभी तो मिसेज़ कुकरेजा को इतनी जल्दी थी मृणाल को ससुराल भेजने की। मियाँ-बीवी के बीच यह लड़की कुंडली मारकर जो बैठी थी। बताओ रात को भी नहीं छोड़ती थी उन्हें अकेला।" वह धीरे से बुदबुदाया।

    मृणाल उसकी बात सुन नहीं पाई। वह धीरे से बोली, "कुछ कहा आपने...?"

    "नहीं तो।"

    "ओके।"

    "जाओ जाकर नहाओ और तैयार होकर आओ। साथ नाश्ता करेंगे।" अच्युत ने उसके अजीब से हुलिए की तरफ़ देखा। कट स्लीव्स का एक लूज़ सा टॉप और नीचे घुटनों तक की कैरी। बेढ़ंगे से बंधे बाल।

    मृणाल ने अपना सिर हिलाया और उछलते हुए वहाँ से चली गई। अच्युत ने अपना सिर ना में हिलाया और जैसे ही गर्दन घुमाई, सामने से उसे श्रीनिकेतन और विज्ञाथा आते हुए नज़र आए।

    क्रमशः

  • 7. रस्म-ए-वफ़ा ! - Chapter 7

    Words: 1050

    Estimated Reading Time: 7 min

    मृणाल ने अपना सिर हिलाया और उछलते हुए वहाँ से चली गई। अच्युत ने अपना सिर ना में हिलाया और जैसे ही गर्दन घुमाई, सामने से उसे श्रीनिकेतन और विज्ञाथा आते हुए नज़र आए।

    श्रीनिकेतन का चेहरा लटका हुआ था, जबकि विज्ञाथा के चेहरे पर फ्रस्ट्रेशन साफ देखा जा सकता था। श्रीनिकेतन कुछ कह रहा था, लेकिन विज्ञाथा चलते हुए उसे जानबूझकर नज़रअंदाज़ करने की कोशिश कर रही थी।

    "क्या हुआ विज्ञाथा..?" अच्युत ने विज्ञाथा से पूछा, जो वहीं सोफे पर बैठ चुकी थी।

    विज्ञाथा ने गुस्से में अच्युत की तरफ देखा और अपना सिर ना में हिलाकर बोली, "कुछ नहीं हुआ साहेब।"

    "तो फिर गुस्से में क्यों हो..?"

    "अब क्या गुस्सा भी नहीं कर सकती.. ? आप कहें तो साँस भी लेना छोड़ दूँ..?" अच्युत के सवाल-जवाब से चिढ़ विज्ञाथा चीख उठी।

    विज्ञाथा का गुस्सा देखकर अच्युत ने अब श्रीनिकेतन की तरफ़ देखा, जो सिर झुकाए खड़ा था। अच्युत अपनी जगह से खड़ा हुआ।

    "अब तुम बतमीज़ी पर उतर रही हो विज्ञाथा।" अच्युत सख्ती से बोला।

    विज्ञाथा कुछ कहती, उससे पहले ही श्रीनिकेतन बोला, "प्लीज साहेब! विज्ञाथा को कुछ मत कहिए।"

    "तुम क्यों इसकी साइड लेने आ जाते हो..? जबकि यह मैडम दिन-ब-दिन बतमीज़ होती जा रही है।"

    "मैं साइड नहीं ले रहा हूँ।"

    "यानी अब आपको मेरा इस घर में रहना भी पसंद नहीं..?" विज्ञाथा गुस्से व हैरानी के मिले-जुले भाव के साथ बोली।

    "मैंने ऐसा कब कहा।"

    "अभी तो कहा। आपको पता है हमारे बीच क्या बात हुई है..? नहीं पता ना तो प्लीज़, बीच में पंचायत मत कीजिए साहेब!!!!!!!!!!!!" विज्ञाथा की आँखें छलक पड़ी थीं। वह पैर पटकते हुए मेंशन से बाहर चली गई।

    अच्युत उसे जाते हुए देख रहा था। उसने बिना श्रीनिकेतन की तरफ देखे कहा, "क्या बात है..?"

    "वह...वह माँ चाहती है कि...कि विज्ञाथा नौकरी छोड़कर उनके साथ, घर पर रहकर उनकी सेवा करे।"

    "और विज्ञाथा क्या चाहती है..?"

    "वह यहाँ से नहीं जाना चाहती।"

    "बस बात यही खत्म!!!!!!!!!!! आगे इस टॉपिक पर कोई बात नहीं होनी चाहिए। मौसी से मैं बात करूँगा।" अच्युत ने कहा और फ़ौरन मेंशन के बाहर निकल गया।

    मृणाल खुशी-खुशी अच्छे से तैयार होकर अपने कमरे से बाहर आई। लेकिन उसने बाहर आकर देखा तो अच्युत गायब हो चुका था। उसने वहीं खड़े श्रीनिकेतन से पूछा,

    "अच्युत कहाँ है..?"

    "वह बाहर गए हैं। थोड़ी देर बाद आयेंगे। तब तक आप नाश्ता कर लीजिए।" श्रीनिकेतन ने कहा। मृणाल का चेहरा, जो कुछ समय तक काफी चमक रहा था, श्रीनिकेतन की बात सुनकर अचानक उसके चेहरे की चमक फीकी पड़ गई।

    "मुझे नहीं करना नाश्ता।" मृणाल नाराज़गी से बोली और वापस कमरे में चली गई।

    अच्युत, विज्ञाथा को ढूँढते हुए बाहर की सीढ़ियों से होते हुए ऊपर छत पर आया। वहीं झूले पर बैठी वह बस आँसू बहा रही थी। वह उसके पास आया और उसके कंधे पर हाथ रखकर बोला, "इतना गुस्सा सेहत के लिए सही नहीं है।"

    "ओह जस्ट शटअप!" अपने आँसुओं को बेरहमी से पोंछते हुए विज्ञाथा गुस्से में बोली।

    अच्युत उनके सामने घुटनों के बल बैठा और उसके दोनों हाथों को पकड़, उसकी हथेलियों को बारी-बारी चूमता हुआ बोला, "शांत हो जाओ।"

    "साहेब प्लीज जाइए यहाँ से। फ़िलहाल मुझे किसी से बात नहीं करनी है। और आपसे तो बिल्कुल नहीं। क्योंकि गुस्से में मेरा मेरी ज़ुबान पर कोई कंट्रोल नहीं रहता है। मेरे मुँह से बिना बात कुछ ऐसा निकल जायेगा जिससे बाद में आपको बुरा लगेगा।" विज्ञाथा अपने हाथों को छुड़ाती हुई बोली।

    "मैंने श्रीनिकेतन से कह दिया है कि तुम यहीं रहोगी। कहीं नहीं जाओगी। और रही बात मौसी की तो, मैं उनसे बात करूँगा। जैसा तुम चाहोगी, वैसा ही होगा।"

    "कभी ऐसा हुआ ही नहीं, जो मैंने चाहा हो वह पूरा हुआ हो। ना ज़िंदगी को लेकर और ना शादी को लेकर। हर किसी ने जबरदस्ती ही की। सब ने अपने फैसले थोपे ही हैं।" वह फीका सा मुस्कुराकर बोली।

    "भूल जाओ, इन पुरानी बातों को।"

    "ज़िंदगी भर नहीं भूल सकती मैं। क्योंकि यह जबरदस्ती की शादी मुझे कुछ भूलने ही नहीं देंगी। मेरा दिमाग़ ख़राब हो जाता है। नसें फटने को हो जाती हैं जब मैं पुरानी बातों को सोचती हूँ। जिस इंसान ने अपनी सारी उम्र सबका सिर्फ़ भला किया, वह अपनी ही बेटी के साथ नाइंसाफी करके चला गया। होने बड़े साहेब सबके लिए, लेकिन मेरे लिए वह मेरी ज़िंदगी के वह शख़्स थे, जिन्होंने कभी मेरा नहीं सोचा....नहीं सोचा कभी।" वह एक बार फिर फूट-फूट कर रो पड़ी थी।

    अच्युत ने अपनी आँखें कसकर बंद कर लीं। जबकि सीढ़ियों के पास छुपकर खड़ा श्रीनिकेतन एकदम सुन्न होकर सब सुन रहा था। जबरदस्ती की शादी..? क्या वाकई..? इस छह महीने की शादी में उसे विज्ञाथा का बर्ताव अजीब नहीं, बल्कि बहुत अजीब लगता था अपने प्रति। उसे लगा था कि शायद खुलने में समय लगेगा। मगर आज उसकी आँखों से जो पट्टी हटी तो सीधा हक़ीक़त के दर्शन हुए। आँखें जलने लगी थीं उसकी और कब आँखों से आँसू छलक पड़े, उसे खुद पता नहीं चला। हमेशा से ही वह समझता आया था कि विज्ञाथा और उसकी शादी दोनों की मर्ज़ी से हुई थी। लेकिन आज पता चल रहा था कि विज्ञाथा के लिए तो यह सिर्फ़ जबरदस्ती की शादी थी।

    उससे शादी के बाद उसके दिमाग़ में हमेशा यही सवाल होता था कि क्या वाकई ऊपर वाले ने उसके इतने अच्छे नसीब लिख दिए कि विज्ञाथा जैसी लड़की उसके हिस्से आई। मगर सच्चाई तो कुछ और ही थी.......

    क्रमशः

  • 8. रस्म-ए-वफ़ा ! - Chapter 8

    Words: 1036

    Estimated Reading Time: 7 min

    विज्ञाथा को शांत होने में काफी समय लगा। इस बीच अच्युत ने उसे एक क्षण के लिए भी नहीं छोड़ा था। और छोड़ कर जाता भी कैसे? बड़े नाजों से पली-बढ़ी थी। कभी एक आँसू का कतरा तक आँखों में आने नहीं दिया था, लेकिन अब वह रो रही थी। और अच्युत मजबूर था।

    कई बार वह यह सोचता था, बड़े साहेब, यानी उसके पापा ने क्या सोचकर अपनी बेटी विज्ञाथा के लिए श्रीनिकेतन को पसंद किया था? ऐसा नहीं था कि श्रीनिकेतन कोई बुरा लड़का था। वह अच्छा था, लेकिन विज्ञाथा के लिए उन्होंने उसे ही क्यों चुना? जबकि एक से बढ़कर एक रिश्ते आए थे उसके लिए। अपने साथ काम करने वाले एक मामूली से इंसान के साथ अपनी बेटी की शादी करवाकर चले गए थे। यह काफी अजीब था उसके लिए।

    "साहेब!!!!!!!!! जाइए यहां से। मैं आती हूँ थोड़ी देर बाद नीचे।" विज्ञाथा थके से लहजे में बोली।

    "भाई नहीं कहोगी..?" अच्युत ने तरसती नज़रों से उसे देखा।

    विज्ञाथा अपना चेहरा फेरते हुए सख्ती से बोली, "जिस दिन पापा ने मेरी शादी, मेरी मर्ज़ी के खिलाफ़, श्रीनिकेतन से करवाई थी ना, उस दिन के बाद से मेरे लिए पापा सिर्फ़ बड़े साहेब बन गए और भाई सिर्फ़ साहेब। अपने अनचाहे पति के साथ आप लोगों के यहाँ जॉब करती हूँ। इसके बदले में आप लोग मुझे सैलरी देते हैं। बस अब इससे ज़्यादा कोई रिश्ता नहीं रखना मुझे आप सब से...."

    "श्रीनिकेतन अच्छा लड़का है।"

    "आचार डालूँ में उसकी अच्छाई का..? जब मुझे नहीं पसंद वह।"

    "तो डिवोर्स क्यों नहीं ले लेती?"

    डिवोर्स, यह शब्द सुनकर विज्ञाथा ने हैरान होकर अच्युत को देखा।

    "य...ये आप क्या कह रहे हैं? डिवोर्स!!!!!!!!!!!"

    "हाँ डिवोर्स। तुम्हारी ज़ुबान क्यों लड़खड़ा गई डिवोर्स पर..? इतना हैरान क्यों हो रही हो? जैसे पहली बार यह शब्द सुना है।" अच्युत उसके चेहरे को देखता हुआ बोला।

    विज्ञाथा ने अपना सूखा हुआ गला तर किया और कुछ सोचने लगी। अच्युत अपनी जगह से खड़ा हुआ। "सोचकर बता देना। जो भी फैसला तुम लो, मगर यह चीज़ याद रखना कि स्वार्थी होकर मत सोचना। तुम्हारे एक फैसले पर श्रीनिकेतन की पूरी ज़िंदगी टिकी हुई है। कोई जल्दबाज़ी में नहीं, बल्कि शांत दिमाग़ के साथ सोच-समझकर फ़ैसला करना। बाकी जो तुम्हारा फ़ैसला होगा, एक बड़े भाई होने के नाते मैं तुम्हारा पूरा साथ दूँगा।"

    अपनी बात कहकर अच्युत वहाँ से चला गया; जबकि विज्ञाथा को वह गहरी सोच में डूबा छोड़कर नीचे आ गया था। वह चुपचाप डाइनिंग एरिया में आकर बैठ गया।

    "बेटा नाश्ता लगा दूँ..?" कमला ने चेहरे पर एक हल्की मुस्कान के साथ पूछा।

    "जी! मौसी।" अच्युत ने कहा और एक नज़र मृणाल के कमरे की तरफ़ देखा। वह ख़ुद से ही बुदबुदाया, "यह लड़की कितना समय लगाती है नहाने में।"

    अच्युत अपना नाश्ता करने लगा। मंद गति से पैरों के साथ विज्ञाथा खामोश सी उसके पास वाली खाली पड़ी कुर्सी पर बैठ गई। कमला ने उसकी प्लेट में नाश्ता रखना चाहा तो वह हाथ दिखाकर उन्हें रोकते हुए बोली, "नहीं, रहने दीजिए। मैं ख़ुद से ले लूँगी।"

    "हम्म्म।" कमला वहाँ से चली गई।

    उधर, कमरे में बेड पर अपने घुटनों को मोड़कर बैठी मृणाल टकटकी लगाए दरवाज़े को उम्मीद भरी नज़रों से देख रही थी।

    "अभी तक आए नहीं क्या..? पहले बोले साथ में नाश्ता करेंगे और फिर चले गए। बाहर जाकर देखूँ क्या..? देखने में क्या जाता है।" कहते हुए वह मुँह लटकाए हुए कमरे से बाहर निकली। तभी उसकी नज़र अच्युत पर गई, जिसकी पीठ उसकी तरफ़ थी। विज्ञाथा से बात करता हुआ वह अपना नाश्ता कर रहा था। वह वहीं मुँह लटकाए खड़ी रही। विज्ञाथा की नज़रें यूँ ही अच्युत के पीछे बुत बनकर खड़ी मृणाल पर गईं।

    "अरे! मृणाल वहाँ क्यों खड़ी हो? आओ ना..?" विज्ञाथा ने कहा तो अच्युत ने मुड़कर उसे देखा। तो पैरों को पटकते हुए वह रोती सी शक्ल बनाकर अपने कमरे में चली गई।

    "ये क्या था..?" विज्ञाथा ने हैरान होते हुए अच्युत की तरफ़ देखा; जबकि वह ख़ुद उलझन में पड़ा था। वह अपना नाश्ता आधे में छोड़कर उठा और उसके कमरे की तरफ़ जाता हुआ बोला, "मैं आता हूँ। तुम करो अपना नाश्ता।"

    अच्युत कमरे का दरवाज़ा खोलकर अंदर आया तो मृणाल ने गुस्से में उसकी तरफ़ तकिया फेंका और चिल्लाते हुए बोली, "चले जाइए यहां से। नहीं बात करनी मुझे आपसे।"

    अच्युत तकिए को कैच कर हड़बड़ा कर बोला, "अरे! क्या हुआ? गुस्सा क्यों कर रही हो? मैंने क्या किया..?"

    "आप मेरे बिना नाश्ता कर रहे हैं जबकि आपने कहा था कि हम साथ में नाश्ता करेंगे। पहले आप कहीं चले गए और अब.... मुझे बुलाया भी नहीं।" मृणाल सुबकते हुए बोली।

    मृणाल की बात सुनकर अच्युत को एहसास हुआ कि उसने क्या किया था। वह अपने हाथ में पकड़े तकिए को बेड पर रखता हुआ, नर्म लहजे के साथ बोला, "सॉरी मृणाल!... मुझे लगा कि तुम अभी तक नहाई नहीं हो। इट्स माय मिस्टेक... मुझे देखना चाहिए था।"

    मृणाल ने नम आँखों के साथ उसे देखा, "सच में..?"

    "हाँ।" अच्युत ने तुरंत अपना सिर हिला दिया।

    मृणाल ने अपने आँसू साफ़ किए और अपना हाथ आगे बढ़ा दिया। अच्युत ने उलझन में उसकी तरफ़ देखा। फिर कुछ सोचकर वह अपने सिर पर हाथ मारकर उठी, "मैं भी ना। आप तो छू ही नहीं सकते मुझे। फिर कैसे हाथ पकड़ेंगे।"

    वह बड़बड़ाते हुए कमरे से बाहर चली गई। अच्युत ने उसे जाते हुए देखा और एक गहरी साँस लेकर, "अजीब सी लड़की है।"

    क्रमशः

  • 9. रस्म-ए-वफ़ा ! - Chapter 9

    Words: 1146

    Estimated Reading Time: 7 min

    नाश्ते के बाद अच्युत और विज्ञाथा दोनों ऑफिस के लिए निकल गए। मृणाल, श्रीदिका के साथ घूमने निकल गई। एक बड़ी सी बिल्डिंग के बाहर गाड़ी रुक गई, जिस पर बड़े और सुनहरे शब्दों में "कोहिनूर ग्रुप" लिखा हुआ था। अच्युत पिछली सीट का दरवाज़ा खोलकर बाहर निकला और अपने ब्लेज़र के बटन बंद करते हुए अंदर की ओर बढ़ गया। उसके पीछे फाइल्स और लैपटॉप सम्हाले विज्ञाथा चल रही थी।

    "तुम एक बार पहले डिज़ाइन डिपार्टमेंट के साथ कुछ देर बाद मीटिंग रखो। मुझे ज़रूरत बात करनी है।" अच्युत ने चलते हुए कहा। विज्ञाथा ने अपना सिर हिला दिया।

    "11 बजे तक सब हो जाएगा। मैं अभी जाती हूँ।"

    "हम्म्म।" अच्युत अपने कैबिन की ओर बढ़ गया, जबकि फाइल्स और लैपटॉप को सम्हाले विज्ञाथा लिफ्ट के सामने आकर खड़ी हो गई। बटन दबाने के लिए उसने अपना हाथ आगे बढ़ाया ही था कि उससे पहले ही एक हाथ आगे आया और लिफ्ट का बटन दबा दिया।

    उसने अपनी नज़रें घुमाकर अपने बराबर में देखा तो श्रीनिकेतन को वहाँ खड़ा पाया।

    दोनों लिफ्ट में आए और दरवाज़ा बंद हो गया। विज्ञाथा ने अपने हाथ में पकड़ी फ़ाइल्स की ओर देखा, और फिर श्रीनिकेतन की ओर, जो अपने दोनों हाथों को पैंट की पॉकेट में डाले खड़ा था।

    "यह मेरे हाथों से फाइल्स क्यों नहीं ले रहा?" वह मन ही मन बोली।

    तभी श्रीनिकेतन ने उसकी ओर देखा। विज्ञाथा ने फ़ौरन उसकी तरफ़ फाइल्स बढ़ा दीं।

    "यह क्या है..?" श्रीनिकेतन ने उलझ कर उसे देखा।

    "फाइल्स पकड़ो। मेरा हाथ दर्द कर रहा है।" विज्ञाथा ने माथे पर बल लिए कहा।

    "सिर्फ़ चार फाइल्स हैं। उनमें भी बामुश्किल से दस से ज़्यादा पेज नहीं होंगे। इनमें हाथ नहीं दुख सकता। और मैं क्या लोहे का बना हूँ कि तुम्हें दर्द हो रहा है मगर मुझे नहीं हो सकता..?" श्रीनिकेतन ने अपने सामान्य लहजे में कहा। लेकिन उसका यह सामान्य लहजा भी हैरान कर गया था विज्ञाथा को।

    उसने कुछ कहने के लिए अपना मुँह खोला ही था कि तभी लिफ्ट फ्लोर पर आकर रुकी। श्रीनिकेतन बिना उसकी ओर देखे वहाँ से चला गया। पैरों को गुस्से में पटकते हुए वह भी डिज़ाइन डिपार्टमेंट की ओर बढ़ गई।

    कुछ देर बाद एक एम्प्लॉय मीटिंग हॉल में प्रेजेंटेशन दे रही थी। उस वक्त, वह रूम अंधेरे में डूबा हुआ था। प्रोजेक्टर से आती रोशनी सामने पड़ रही थी। स्क्रीन पर एक के बाद एक ज्वैलरी डिज़ाइन दिखाए जा रहे थे। अच्युत वहीं एक चेयर पर बैठा हुआ, बड़े गौर से उन्हें देख और एम्प्लॉय की बात को सुन रहा था।

    प्रेजेंटेशन ख़त्म होते ही रूम की लाइट्स ऑन कर दी गईं। अच्युत उठा और सब के सामने खड़ा होता हुआ बोला, "यह डिज़ाइन्स अच्छे हैं मगर काफ़ी सिमिलर हैं, पिछले डिज़ाइन्स से। आप लोगों को नहीं लगता कि अब हमें कुछ अलग और एकदम हटके मार्केट में लॉन्च करना चाहिए?"

    "बट सर! हमारी सेल्स हाई है। क्योंकि कस्टमर्स यही ज्वैलरी डिज़ाइन्स खरीदना पसंद करते हैं।" एक एम्प्लॉय ने कहा। तो अच्युत उसकी बात पर हामी भरता हुआ बोला, "हाँ, मैं मानता हूँ आपकी बात को। लेकिन! इंसान ना काफ़ी अजीब होता है। सिमिलर चीज़ों से जल्दी उब जाता है। इसलिए इस वेंडिंग सीज़न! हम कुछ अलग ज्वैलरी डिज़ाइन्स मार्केट में लॉन्च करेंगे। ओके, तो आप सबके पास दस दिन का समय है। क्योंकि दस दिन बाद डिज़ाइन्स फ़ाइनल करके मेकिंग के लिए वर्कशॉप भेज दिए जाएँगे। होप यह काम जल्दी हो जाएगा।"

    "ओके सर।" डिज़ाइन डिपार्टमेंट के हेड ने कहा।

    अच्युत वहाँ से निकलकर अपने कैबिन में चला गया। तभी उसके कैबिन का दरवाज़ा खोलकर विज्ञाथा अंदर आई।

    "साहेब! अपनी पार्टी के सभी एम.एल.ए.'स के साथ तीन बजे की मीटिंग है।"

    "और विज्ञाथा, तुम मुझे यह बात अभी बता रही हो..?"

    "सॉरी! मेरे दिमाग़ से निकल गई थी। बड़े साहेब के बाद अब आप पार्टी का नया चेहरा हैं तो उनके साथ अपने संबंध आपको मज़बूत करने होंगे।"

    "ओके! ओके! मैं समझ गया।" अच्युत ने बेमन से कहा।

    शाम को अच्युत, विज्ञाथा और श्रीनिकेतन एक साथ घर आए। मृणाल मुँह लटकाए हॉल में सोफ़े पर बैठी पैर हिला रही थी।

    "क्या हुआ मृणाल, ऐसे क्यों बैठी हो..?" अच्युत ने सवाल किया।

    "मौसी और श्रीदिका अपने घर चली गईं। मेरा मन नहीं लग रहा यहाँ।" मृणाल ने रुआँसी होकर कहा।

    "क्या!, वह दोनों चली गईं। शुक्र है! अब कम-से-कम खुलकर साँस तो ले सकूँगी मैं।" एक राहत की साँस लेकर विज्ञाथा ने कहा और अपने कमरे में चली गई, जबकि श्रीनिकेतन उसे जाते हुए देख रहा था। यह बताना मुश्किल था कि इस वक्त उसके मन में क्या चल रहा था।

    "श्रीनिकेतन!!!!!!! वो तो कुछ भी कहती रहती है। ज़्यादा माइंड मत करना।" अच्युत ने उसके कंधे पर हाथ रखकर कहा तो वह फ़ीका सा मुस्कुराकर वहाँ से चला गया।

    अच्युत वहीं बैठ गया। मृणाल मुँह बनाते हुए बोली, "आपको पता है मुझे रोना आया था उनके जाने पर। (मुस्कुरा कर) लेकिन मौसी ने कहा है कि वह जल्दी आएगी मुझसे मिलने।"

    "तुम रोई थी। तभी तो तुम्हारी आँखें लाल हैं।"

    "क्या सच में?" मृणाल ने अपने चेहरे पर हाथ रखा। "क्या मेरी आँखें एकदम लाल हैं? लेकिन कौन सा लाल..? मतलब! स्ट्रॉबेरी वाला लाल, टमाटर वाला लाल, सेब वाला लाल..?"

    अच्युत ने अपना सिर खुजलाया, "लाल अलग-अलग होता है क्या..?"

    "और क्या नहीं। आप भी ना। अच्छा बताइए ना..?"

    "लाल मतलब बिल्कुल लाल नहीं। बस हल्की सी झलक है। अच्छा! यह सब छोड़ो और मुझे यह बताओ कि तुम्हारे फ़्यूचर प्लान्स क्या हैं..? कहने का मतलब है कि क्या करना चाहती हो तुम? क्या बनना है..?" अच्युत के सवाल पर बिना एक दफ़ा सोचे, मृणाल शर्माते हुए झट से बोली, "फ़्यूचर प्लान्स तो बस फैमिली प्लानिंग के ही हैं। वाइफ़ तो बन गई, अब मुझे तो हमारे चुन्नू-मुन्नू की मम्मा बनना है।"

    अच्युत, जो पानी पी रहा था, मृणाल की बात सुनकर उसके मुँह का सारा पानी फुहारे की तरह बाहर निकल गया। कुछ छींटें मृणाल के चेहरे पर भी गिरीं, जिसे उसने मुँह बनाते हुए पोंछ लिया था।

    क्रमशः

  • 10. रस्म-ए-वफ़ा ! - Chapter 10

    Words: 1090

    Estimated Reading Time: 7 min

    मृणाल शर्माते हुए झट से बोली, "फ्यूचर प्लांस तो बस फैमिली प्लैनिंग के ही हैं। वाइफ तो बन गई, अब मुझे तो हमारे चुन्नू-मुन्नू की मम्मा बनना है।"

    अच्युत पानी पी रहा था। मृणाल की बात सुनकर उसके मुँह का सारा पानी फुहारे की तरह बाहर निकल गया। कुछ छींटें मृणाल के चेहरे पर भी गिरीं, जिन्हें उसने मुँह बनाते हुए पोंछ लिया।

    "क...क्या कहा तुमने...?" अच्युत के होश उड़ गए थे।

    "यही कि मेरे फ्यूचर प्लांस फैमिली प्लैनिंग और..."

    "बस मृणाल! बस!!! तुम शायद ग़लत समझ गई हो। फ्यूचर प्लांस से मेरा मतलब था कि तुम्हें क्या बनना है। तुम्हारा क्या ऐम है। मेरा मतलब यहाँ पढ़ाई से है। कहीं एडमिशन ले रखा है तुमने...?"

    मृणाल की बातों को बीच में ही काटते हुए अच्युत थोड़ा असहज होकर बोला।

    "नहीं! मुझे नहीं पढ़ना।" वह अपनी लट को उंगली पर घुमाते हुए धीमे से बोली।

    "क्या कहा तुमने...?" उसने इतने धीमे से कहा था कि अच्युत सही से सुन नहीं पाया था।

    "मुझे नहीं पढ़ना है। मुझे पढ़ना अच्छा नहीं लगता है। 12th तक बड़ी मुश्किल से पढ़ाई की मैंने। मेरा ना सिर दर्द करने लगा था जब मैं पढ़ती हूँ और बहुत प्रेशर भी लगता है।" मृणाल मुँह बनाकर बोली।

    "तो क्या करना पसंद है तुम्हें...?"

    "मुझे ना सोना पसंद है, खाना पसंद है, टीवी देखना पसंद है और गाने सुनना तो मेरा फेवरेट काम है।" मृणाल चहक कर बोली।

    मृणाल की बात सुनकर, ना चाहते हुए भी अच्युत के होठों पर मुस्कान तैर गई।

    "खाना, पीना और सोना। इसके अलावा कुछ और भी अच्छा लगता है क्या...?"

    "हाँ।"

    "क्या...?"

    "ड्राइंग करना। फ्री टाइम में मैं ड्राइंग्स बनाती हूँ।"

    "शुक्र है कुछ तो अच्छा लगता है। खाने, पीने और सोने के अलावा।" वह धीरे से बुदबुदाया।

    "कुछ कहा आपने...?"

    "नहीं! अच्छा, मैं क्या सोच रहा था कि तुम्हारा एडमिशन करवा दूँ कॉलेज में।"

    "नहीं! नहीं!! मैं नहीं जाऊँगी कॉलेज। मुझे नहीं पढ़ना।" मृणाल अपना सिर ना में हिलाते हुए बोली।

    "मृणाल! इंडिपेंडेंट बनना है तो पढ़ना पड़ेगा ना।"

    "तो किसने कहा कि मुझे इंडिपेंडेंट बनना है। मुझे तो पूरी तरह बस आप पर डिपेंडेंट रहना है। मुझे बस एक अच्छी वाइफ और एक अच्छी मम्मा बनना है। मेरी ज़िन्दगी का बस यही गोल है।" मृणाल ने कहा और अच्युत की बात से बचने के लिए वह सोफे से उठी और मटकते हुए अपने कमरे में चली गई।

    "इंडिपेंडेंट बनने के ज़माने में इसे डिपेंडेंट बनना है। काफ़ी अजीब है और उससे ज़्यादा अजीब इसकी बातें। लेकिन राज़ी तो करना पड़ेगा इसे। घर में रहने से अच्छा है कुछ पढ़ेगी तो कम-से-कम आगे जाकर कुछ काम तो आएगा ही। मॉम के आने तक रुका हूँ।" अच्युत अपने मन में बोला और उठकर वह भी अपने कमरे में चला गया।


    रात का वक्त था। विज्ञाथा बेड के सिरहाने से टेक लगाए लैपटॉप के कीबोर्ड पर उंगलियाँ चला रही थी। श्रीनिकेतन धीरे से कमरे में आया और दरवाज़ा बंद कर वॉर्डरोब खोलकर खड़ा हो गया।

    "निकेतन मेरे लिए एक कप कॉफी ले आओ।" वह बिना उसकी ओर देखे बोली।

    "तुम खुद जाकर ले आओ। मैं बिजी हूँ।" श्रीनिकेतन ने वॉर्डरोब से अपना बैग निकालकर उसमें कपड़े रखते हुए कहा।

    उसकी बात सुनकर विज्ञाथा के हाथ अचानक रुक गए। उसने लैपटॉप अपनी गोद से हटाकर साइड में रख, अपना सारा ध्यान श्रीनिकेतन की तरफ करती हुई, हैरत में बोली, "यह तुम किस लहजे में बात कर रहे हो मुझसे? सुबह से देख रही हूँ। नज़रअंदाज़ करने की भी एक हद होती है। और...और ये कपड़े। कहाँ जा रहे हो...? निकेतन, जवाब दो। क्या तुम्हें सुनाई नहीं दे रहा?"

    "नज़रअंदाज़ करने की हद कितनी होती है...? मैंने सिर्फ़ एक दिन ऐसे बात की तो तुम्हें गुस्सा आया। और उसका क्या...जो तुम मेरे साथ पिछले छह महीने से कर रही हो...? मैं भी पिछले छह महीने से नज़रअंदाज़ ही कर रहा हूँ। सोचा था तुम खुद से समझ जाओगी लेकिन...खैर! मैं भी कहाँ अपना सिर फोड़ रहा हूँ। तुम्हें तो वैसे भी कभी कुछ ना दिखाई देता है और ना सुनाई। और मैं घर जा रहा हूँ। वह घर जो मेरा है। जहाँ मेरी माँ और मेरी बहन रहती हैं। जिनका इकलौता सहारा सिर्फ़ मैं हूँ।" कपड़े रख बैग की चेन बंद करता हुआ श्रीनिकेतन ने अपने चिरपरिचित अंदाज़ में कहा।

    उसकी यह बात सुनकर तो वह और ज़्यादा चौंक गई थी।

    "तुमने मुझसे पूछा क्यों नहीं...?"

    "विज्ञाथा! कुछ फैसले मेरे अपने भी हो सकते हैं। मैं भी ले सकता हूँ फैसले।"

    "अच्छा!!! तो एक बात काफ़ी ध्यान से सुन लेना। मैं कहीं नहीं जाऊँगी। उस चोल!!! में तो बिल्कुल नहीं।" विज्ञाथा दाँत पीसते हुए बोली।

    "तो तुम्हें किसने कहा जाने को? मैं अकेला जा रहा हूँ।"

    उसकी बात सुनकर विज्ञाथा की ज़ुबान तो जैसे तालू से चिपक गई थी। वह हैरान थी भी और श्रीनिकेतन के इस बदले तेवर से मन-ही-मन परेशान भी। श्रीनिकेतन ने एक गहरी साँस ली और अपना बाकी सामान पैक करने लगा जबकि विज्ञाथा बुत बनी उसे सब पैक करता हुआ देख रही थी।


    रात का एक बज रहा था और अपने कमरे में मृणाल, घुटनों को मोड़े उदास सी बैठी थी। उसकी आँखें हल्की नम थीं। कभी आदत नहीं थी उसे अकेले सोने की। जब तक किसी को कडल कर नहीं लेटती थी, उसे नींद ही नहीं आती थी। अभी भी काफ़ी कोशिश की थी सोने की मगर नींद नहीं आई।

    वह आखिर में उठी और कमरे से बाहर निकल आई। अंधेरा था इसलिए नीचे बिछी कार्पेट में उसका पैर फँसा और औंधे मुँह गिर पड़ी। और एक तेज़ चीख उस शांत माहौल में गूंज उठी।

    क्रमशः

  • 11. रस्म-ए-वफ़ा ! - Chapter 11

    Words: 1039

    Estimated Reading Time: 7 min

    बढ़ते है कहानी की ओर---






    रो - रो कर मृणाल ने अपने चेहरे को एकदम लाल बना लिया था। उसके सामने बैठी विज्ञाथा , उसके माथे पर लगी हल्की सी चोट पर बैंडेज लगा रही थी। जबकि श्रीनिकेतन हाथ में ग्लास पकड़े वही बेड के पास खड़ा था।


    मृणाल ने अपनी नज़रे उठाई तो दरवाजे के पास अपने दोनो हाथ सीने पर बांधे खड़ा अच्युत उसे नज़र आया। वह वापस सिर झुकाकर सुबकने लगी। 


    उसे इतना रोता देख विज्ञाथा फर्स्ट ऐड बॉक्स का ढक्कन बंद करते हुए , उसके खुले बालो को पीछे कर सलीके से करती हुई बोली - " इतनी भी चोट नहीं आई हैं । एक दो दिन में ठीक हो जाएगी । अब रोना बंद करो । "


    " प.. पर खून आया था । " मृणाल ने कहा।


    " नदिया बहने लगी होंगी इतने खून से तो । छोटी सी चोट आई है और नखरे उफ़्फ़ ! .. " विज्ञाथा खीझ उठी तो मृणाल सहम कर ख़ुद में सिमटने लगी। उसका सुबकना अभी भी चालू था।


    श्रीनिकेतन ने उस निर्दय लड़की की तरफ देखा और अपना सिर झटक , मृणाल के सामने पानी का ग्लास करता हुआ बोला - " मृणाल थोड़ा पानी पी लो । अच्छा लगेगा आपको । "


    " नहीं मुझे नहीं पीना है । " उसने अपनी गर्दन ना में हिलाते हुए कहा।


    " मृणाल थोड़ा सा पी लो । " श्रीनिकेतन के कुछ कहने से कब से शांत खड़ा अच्युत बोल ही उठा। मृणाल ने बिना कुछ कहे ग्लास पकड़ा और एक सांस में पूरा खाली कर दिया।


    " तुम क्या पागल थी । जो इतनी रात में सोने की जगह , अंधेरे में सैर सपाटे पर निकली थी । बैठे बिठाए खा ली ना चोट । " विज्ञाथा ने मुंह बना कर कहा तो मृणाल सिर झुकाए ही बोली - " मुझे अकेले नींद नहीं आती है । मुझे डर लगता है अकेले । इसलिए मै बाहर आई थी । पता नहीं कैसे मैं गिर गई और टेबल से सिर लगा । "


    " कोई बात नहीं । अब तुम आराम करो । " उबासी लेते हुए विज्ञाथा उठी और जाने लगी तो मृणाल ने नम आंखों के साथ उसे देखा। फिर उसने अच्युत की तरफ देखा । जो उसका मायूस चहरा ही देख रहा था।


    " विज्ञाथा ! अभी तुम मृणाल के पास सो जाओ । " अच्युत ने उसे टोकते हुए कहा तो विज्ञाथा झट से बोली - " मैं अपने कमरे में सोऊंगी । "


    " आज रात की बात है । कल मै देख लूंगा । " अच्युत ने विनती भरे लहजे में कहा तो ना चाहते हुए भी विज्ञाथा को वहीं रुकना पड़ा।


    श्रीनिकेतन , मृणाल को अपना खयाल रखने का कहकर अपने कमरे में चला गया। अच्युत ! बेड के पास आया और उसका तकिया ठीक करते हुए बोला - " कल ! अपना सामान मेरे कमरे में रखवा देना । "


    अच्युत कि बात सुनकर मृणाल को खुश हो गई थी लेकिन विज्ञाथा के चहरे पर चिंता की लकीरें उभर आई थी।


    " लेकिन साहेब आपको तो.... "


    " इट्स ओके विज्ञाथा ! .. मैं मैनेज कर लूंगा । अब तुम दोनो आराम करो ।  " अच्युत, मृणाल की तरफ देख हल्का सा मुस्कुराया और वहां से चला गया।


    " ये!!!!!!!!!!!!!!!!! कल से मैं अच्युत के रूम में रहूंगी । " मृणाल खुशी से चहकते हुए बोली। कुछ देर पहले लगी चोट का दर्द अब वह भूल चुकी थी ।


    विज्ञाथा ने घूर कर उसे देखा । वह उससे तो कुछ कह नहीं पाई इसलिए वह मन - ही - मन बोली - " ये साहेब क्या पागल हो गए है ..? .. पता है अपनी तबियत का इन्हें लेकिन फिर भी । खैर अब मैं क्या ही करु । बाद में तबीयत ख़राब हुई तो मैं तो कोई हेल्प नहीं करूंगी । "


    सुबह सब डाइनिंग टेबल पर आराम से नाश्ता कर रहे थे। तभी विज्ञाथा बोली - " साहेब ! .. आज रात मेंशन में पार्टी के कुछ लोगों के साथ डिनर है आपका । "


    " क्या .. घर पर । लेकिन घर पर क्यों ..? " अच्युत थोड़ा हैरान हुआ।


    " बड़े साहेब भी घर पर ही डिनर मीटिंग रखते थे । इससे पार्टी के लोगों के साथ आपका एक मज़बूत रिश्ता बनेगा । जो हमारे लिए ही बेहतर होगा , भविष्य में । "


    " हम्म्म ! " अच्युत ने कहा और नाश्ते को आधा ही छोड़ कर अपने कमरे में चला गया।


    विज्ञाथा , कुक को आज रात बनने वाले खाने की लिस्ट देने चली गई। कुछ देर बाद अच्युत , विज्ञाथा , और श्रीनिकेतन तीनो ऑफिस के लिए निकल गए।


    उनके जाने के बाद मृणाल ने एक सर्वेंट की मदद से अपना सारा सामान , अच्युत के कमरे में रखवा लिया। वह अपने कॉस्मेटिक प्रोडक्ट्स को ड्रेसिंग टेबल पर रखते हुए मिरर में ख़ुद का अक्स देखते हुए ख़ुशी से बोली - " कितना अच्छा रूम में । मैं और अच्युत अब से एक साथ इसी रूम में रहेंगे । कितना अच्छा होगा ना सब । "


    " मैने ना वहां कुछ नहीं कहा लेकिन आज रात डिनर मीटिंग रखने से पहले कम - से - कम तुम्हे मुझ से एक बार सलाह तो लेनी चाहिए थी ना विज्ञाथा । " अपने कैबिन में बैठा अच्युत गंभीरता से विज्ञाथा की ओर देखकर बोला । जो वही खड़ी थी।


    " इसमें पूछने वाली कौन सी बात हुई । बड़े साहेब भी ऐसा करते थे और मैं ही सब अरेंज करती थी साहेब । " विज्ञाथा ने आराम से कहा।


    " पहले क्या होता था मुझे इससे कोई मतलब नहीं । डिनर मीटिंग रखनी ही थी तो बाहर किसी होटल में रखती ना । घर पर नहीं रखनी चाहिए थी । वह हमारा प्राइवेट स्पेस् है । जहां मेरे खयाल से बाहरी लोगों की दख़लअदाज़ी नहीं होनी चाहिए । और अब तो बिल्कुल नहीं । क्योंकि वहां तुम और मृणाल दोनो हो । तुम दोनो की सेफ्टी मेरी फर्स्ट प्रॉयोरिटी है । " अच्युत ने कहा तो विज्ञाथा नासमझी से बोली - " अपने घर में हम सेफ ही है साहेब । अच्छा डिनर आज रात 8 बजे है । "


    अच्युत ने एक गहरी सांस ली और अपना सिर हिला दिया। विज्ञाथा वहां से चली गई। जबकि अच्युत किसी गहरी सोच में डूब गया।





    क्रमशः

  • 12. रस्म-ए-वफ़ा ! - Chapter 12

    Words: 1126

    Estimated Reading Time: 7 min

    पाटिल मेंशन के गार्डन में अच्युत चार-पाँच लोगों के साथ बातें कर रहा था। नौकर डिनर सर्व करके जा चुके थे। वे लोग डिनर के साथ ड्रिंक भी कर रहे थे।

    श्रीनिकेतन हाथ में जूस का ग्लास पकड़े वहीं खड़ा था। अच्युत ने उसे इशारे से अपने पास बैठने को कहा, तो उसने ना में सिर हिला दिया, मानो कह रहा हो, "मैं यहां ठीक हूँ।" अच्युत ने उसे ज़्यादा ज़ोर नहीं दिया।

    मिस्टर साहनी, जो अच्युत की ही उम्र का था, अपने शराब के ग्लास को टेबल पर रखते हुए बोला, "बातों-ही-बातों में पता ही नहीं चला कि ज़्यादा हो गई है। वैसे साहेब! अब बड़े अच्छे आदमी हैं। आपको देखता हूँ तो बड़े साहेब की याद आ जाती है। मेरे पापा के साथ उनके काफी अच्छे संबंध थे।"

    अच्युत मुस्कुराकर बोला, "हाँ, मैं जानता हूँ मिस्टर साहनी। शुक्रिया।"

    "हम्म्म! आई नीड टू गो टू द वॉशरूम," मिस्टर साहनी अपने लड़खड़ाते कदमों के साथ उठा।

    "आइए सर, इस तरफ़।" श्रीनिकेतन ने उसे इशारे से चलने को कहा और खुद उसके पीछे चल दिया।

    मृणाल अपने कमरे से बाहर निकली तो हॉल में उसे विज्ञाथा लैपटॉप पर काम करती दिखी। वह उसके पास आई और मिमियाते हुए बोली, "सुनो ना विज्ञाथा, अच्युत कब आयेंगे अंदर? रात के 9 बज रहे हैं। इन लोगों को अपने घर नहीं जाना क्या?"

    "मृणाल, दिमाग़ का दही मत करो। यह दसवीं बार है जब तुम मुझसे यही सवाल कर रही हो। बोला ना मैंने, अभी थोड़ा समय लगेगा। 10 बजे तक फ़्री हो जाएँगे साहेब।" विज्ञाथा झुंझलाहट में बोली।

    "मैं एक बार देख लूँ उन्हें।" मृणाल मुँह लटकाकर बोली।

    "बाहर जाने के लिए मना किया है उन्होंने। तुम्हारे सामने ही कहकर गए थे ना।"

    "बाहर नहीं जा रही हूँ। बस पर्दे के पीछे छुपकर देखूँगी। हम्म्म।"

    "हम्म्म! प्लीज़ बाहर मत जाना। वे लोग ड्रिंक किए हुए हैं और साहेब को यह बात बर्दाश्त नहीं होगी। ठीक है।" विज्ञाथा ने उसे समझाया। मृणाल ने किसी आज्ञाकारी बच्चे की तरह अपनी गर्दन हिला दी। वह झट से उठी और गैलरी से होते हुए पीछे की तरफ आकर पर्दे को हटाते हुए, ग्लास वॉल से गार्डन में बैठे अच्युत को देखा, जो सब से बातें कर रहा था। यह देख वह खुद ही मुस्कुरा दी।

    लेकिन तभी मृणाल को अपने पास किसी के होने का एहसास हुआ। जैसे ही वह मुड़ी, अपने सामने एक अनजान शख्स को देखकर वह डर के मारे ग्लास वॉल से जा चिपकी।

    मिस्टर साहनी! नशे में धुत मृणाल को ऊपर से नीचे तक देखते हुए बोले, "तुम कौन हो लड़की?"

    "मैं...मैं...वह..." डर से सहमी मृणाल के गले से कोई शब्द नहीं फूटा।

    उसे हकलाता देख मिस्टर साहनी के होठों पर तिरछी मुस्कान आ गई। उसने ग्लास वॉल के ज़रिए अच्युत को देखा और फिर मृणाल के करीब बढ़ते हुए बोला, "मिस्टर पाटिल का यह तरीक़ा मुझे बहुत पसंद आया। मुझे पता नहीं था कि उन्हें भी लड़कियों का शौक है।"

    "दू...दूर...दूररररर!!!!!!!!!!!" मृणाल का चेहरा एकदम सफ़ेद पड़ गया।

    मिस्टर साहनी उसके पास आया और मृणाल के चेहरे को अपने हाथों में भरकर उसे किस करने के लिए झुक गया, लेकिन मृणाल मिस्टर साहनी को धक्का मारकर वहाँ से जाने लगी। मगर फर्श पर गिरे मिस्टर साहनी ने उसका पाँव पकड़ लिया और इसी के साथ मृणाल मुँह के बल फर्श पर गिर गई।

    "तुम दो कौड़ी की प्रॉस्टिट्यूट। रुको तुम।" मिस्टर साहनी ने उठने की कोशिश की। वहीं मृणाल सुन्न पड़ चुकी थी, 'प्रॉस्टिट्यूट' शब्द खुद के लिए इस्तेमाल होता सुनकर। मगर जेहन में सालों से दबी एक आवाज़, उसके अतीत का एक दृश्य अचानक ताज़ा हो गया।

    एक रात जब वह खुद को अपने घर के हॉल में बैठी हुई देख पा रही थी, जिसे इंतज़ार था अपने माँ-बाप के घर लौटने का। कुछ देर बाद जब गाड़ी बाहर आकर रुकी, तो एक आदमी नशे में धुत होकर अंदर आया। उसके हाथ में अभी शराब की बोतल थी।

    "पापा," सात साल की मृणाल दौड़ते हुए अपने पापा के पास आई और उनका हाथ पकड़कर बोली, "पापा, मॉम कहाँ है?"

    "मृणाल, मेरी बच्ची।" मृणाल के पापा ने उसे अपनी गोद में उठा लिया। शराब की तेज बू मृणाल से बर्दाश्त नहीं हुई, तो उसने अपना चेहरा दूसरी तरफ़ कर लिया। मृणाल के पापा उसे लाड़ करते हुए बोले, "मेरी बच्ची, मेरी जान है तू। मेरा अपना खून है तू। मेरी छोटी सी राजकुमारी।"

    "पापा, मॉम कहाँ है?" मृणाल को अपनी माँ की फ़िक्र होने लगी थी, जबकि उसके पापा के तेवर अचानक बदल गए। उन्होंने मृणाल को सोफ़े पर पटक दिया और उसे उंगली दिखाकर एक भद्दी सी गाली देते हुए बोले, "तेरी माँ को बोला था मैंने घर चल, लेकिन वह तो प्रॉस्टिट्यूट बनी फिर रही है। होगी कहीं अपने किसी अमीर मुर्गे के साथ।"

    उस वक़्त वह सात साल की मृणाल अपने पापा की बात नहीं समझ पाई, लेकिन जैसे-जैसे बड़ी हुई, तो उसे समझ आने लगा।

    मिस्टर साहनी ने जब उसे पकड़कर खींचा, तो वह जैसे होश में आई और खुद को उसकी पकड़ से आज़ाद करवाने के लिए स्ट्रगल करने लगी। मृणाल की चीखें जब विज्ञाथा के कानों में पड़ीं, वह हड़बड़ाकर उठी और आवाज़ की दिशा में दौड़ गई।

    विज्ञाथा जैसे ही पहुँची, वहाँ का नज़ारा देख दंग रह गई। मिस्टर साहनी मृणाल के साथ जबरदस्ती करने की कोशिश कर रहे थे, वहीं मृणाल उनसे दूर होने की कोशिश कर रही थी।

    विज्ञाथा ने काँपते हाथों से फ़्लावर वॉश उठाया और बिना कुछ सोचे-समझे सीधा मिस्टर साहनी के सिर पर फोड़ दिया। एक ज़ोरदार चीख के साथ वह वहीं बेहोश हो गए। विज्ञाथा डरते हुए मृणाल को अपनी तरफ़ खींचा और उसके गालों को थपथपाते हुए बोली, "मृणाल...मृणाल क्या हुआ है? आँखें खोलो।"

    मृणाल की आधी खुली आँखें अब बंद हो चुकी थीं। अंदर से आई आवाज़ सुनकर अच्युत उलझकर श्रीनिकेतन की तरफ़ देखा और फिर दोनों किसी अनहोनी के डर से एक साथ अंदर की तरफ़ दौड़े।

    क्रमशः

  • 13. रस्म-ए-वफ़ा ! - Chapter 13

    Words: 1195

    Estimated Reading Time: 8 min

    अच्युत और श्रीनिकेतन जब अंदर आए, तो वहाँ का नज़ारा देखकर वे दोनों ही सुन्न पड़ गए। मिस्टर साहनी एक तरफ़ पड़े थे। वहीं मृणाल, विज्ञाथा की बाहों में बेहोश थी।

    "भ...भाई मृणाल आँखें नहीं खोल रही है।" विज्ञाथा का गला रुँध गया था।

    अच्युत जल्दी से उसके पास आया और मृणाल को अपनी बाहों में उठाकर सीधा अपने कमरे की तरफ़ बढ़ गया। विज्ञाथा और श्रीनिकेतन भी उसके पीछे दौड़ गए।

    अच्युत ने उसे धीरे से बिस्तर पर लेटाया और उसका हाथ रब करते हुए घबराकर बोला— "कॉल द डॉक्टर राइट नाउ।"

    "जी! जी!" विज्ञाथा फ़ौरन बाहर की तरफ़ भागी।

    "बैंक साइड की सीसीटीवी फुटेज लेकर आओ अभी।" अच्युत ने श्रीनिकेतन से कहा, तो वह भी कमरे से बाहर चला गया।

    दो मिनट के बाद ही अच्युत को अजीब सा लगने लगा। वह मृणाल को वहीं छोड़कर जल्दी से बाथरूम में चला गया।

    कुछ देर बाद डॉक्टर मृणाल को चेक कर रही थी और अच्युत वहीं सोफ़े पर बैठा हुआ था। उसके हाथ में पकड़े टैबलेट पर सीसीटीवी फुटेज चल रही थी, जिसमें थोड़ी देर पहले हुआ वाक़िया चल रहा था। अच्युत का चेहरा गुस्से में काला पड़ चुका था। उसने कसकर अपनी आँखें मूँद लीं और गहरी साँस लेने लगा।

    "शॉक की वजह से बेहोश हो गई है यह। बाकी सब ठीक है। मैंने इंजेक्शन दे दिया है। आराम से सोएगी तो सुबह तक ठीक हो जाएगी।" डॉक्टर ने अच्युत की ओर देखकर कहा, तो उसने बस अपना सिर हिला दिया।

    डॉक्टर वहाँ से चली गई। अब कमरे में अच्युत, विज्ञाथा और श्रीनिकेतन एकदम ख़ामोश बैठे थे, जबकि मृणाल को तो कोई होश ही नहीं था।

    अच्युत ने अपनी गर्दन पर हाथ रखकर अपनी गर्दन को मसला और अपनी भारी सी आवाज़ में बोला—"श्रीनिकेतन! तुम थोड़ी देर के लिए बाहर जाओगे।"

    "जी साहब!" श्रीनिकेतन ने हामी भरी और एक नज़र विज्ञाथा को देखकर वहाँ से चला गया।

    अच्युत ने कठोरता के साथ विज्ञाथा की ओर देखा। विज्ञाथा ने अपना सिर झुकाकर, उदास सी आवाज़ में बोला—"मुझे नहीं पता था साहब की बात इतनी बढ़ जाएगी। मैंने मृणाल को मना किया था कि वह बाहर नहीं जाए। लेकिन उसने मेरी नहीं सुनी और..."

    "मृणाल की ग़लती नहीं है। यहाँ सारी ग़लती तुम्हारी है, विज्ञाथा। अगर आज मृणाल को कुछ हो जाता था ना, मैं तुम्हें छोड़ता नहीं। (वह उठकर बिल्कुल उसके सामने आकर खड़ा हो गया) जानती हो ना इस लड़की के लिए मैं किसी भी हद तक जा सकता हूँ। किसी!!!!!!!! भी!!!!!!!! हद!!!!!!!! तक!!!!!!!!!। जान दे सकता हूँ तो जान लेने में एक क्षण भी नहीं सोचूँगा। आइंदा!!!!!!!! आइंदा अगर घर पर किसी को भी इनवाइट किया तो मुझसे बुरा कोई नहीं होगा।" अच्युत ने गंभीरता से कहा, तो विज्ञाथा ने बस अपना सिर हिला दिया।

    अच्युत वहाँ से जाने लगा, लेकिन तभी कुछ सोचकर वह रुका और बिना विज्ञाथा की ओर देखे बोला—"ग़लती की है तो सजा मिलनी चाहिए। है ना मेरी प्यारी बहन? मॉम के आते ही अपने ससुराल जाने की तैयारी कर लेना।"

    अच्युत कमरे से बाहर निकल गया था। वहीं विज्ञाथा सुन्न सी खड़ी रह गई। अच्युत वहाँ से निकलकर पीछे की तरफ़ आया, जहाँ एक कुर्सी पर मिस्टर साहनी बेहोश पड़ा था। गुस्से में अच्युत की नस-नस उभर गई। खून तो बस उबलने लगा था।

    वह उसके पास आया और उसे उसकी कॉलर से पकड़ते हुए स्विमिंग पूल तक घसीटकर ले आया और उसकी गर्दन पीछे से पकड़कर उसे सीधा पानी में डुबो दिया।

    पानी पड़ते ही मिस्टर साहनी होश में आ गया। वह पानी से बाहर निकलने की कोशिश करने लगा, लेकिन अच्युत की पकड़ उसकी गर्दन पर इतनी थी कि वह वहाँ से निकलने में कामयाब नहीं हो पाया। हाथ-पैर चलाने के अलावा वह कुछ नहीं कर पा रहा था। अच्युत का गुस्सा कम होने की बजाय बढ़ता ही जा रहा था।

    करीब दो मिनट के बाद ही जब मिस्टर साहनी की हलचल बंद हुई, तब जाकर कहीं अच्युत ने उसे छोड़ा और ऐसा छोड़ा कि उसका सारा शरीर अब पानी में डूब चुका था।

    अच्युत पानी से अपने हाथ धोकर कुछ छींटें अपने आस-पास मारते हुए उठा।

    "मेरी मृणाल बहुत नाज़ुक है। डर जाती है वह। अब तुम्हारा चेहरा जब भी देखती, तो उसे आज वाली घटना याद आती रहती। और मैं उसे तकलीफ़ में नहीं देख सकता। जान बसती है उसमें मेरी। इसलिए तुम्हारा जाना ज़रूरी था। भगवान् तुम्हारी आत्मा को शांति दे।" अच्युत ने एक नज़र उस शांत पानी को देखा और वापस अंदर आ गया।

    श्रीनिकेतन उसे वहीं मिल गया।

    "थोड़ी देर के बाद हॉस्पिटल ले जाना। और पोस्टमार्टम रिपोर्ट में मरने का कारण फेफड़ों में पानी भरना ही होना चाहिए। इसके बाप से कहना कि नशे में इतना धुत था कि स्विमिंग पूल में गिर गया। काफ़ी देर बाद जब पता चला, तो तब तक वह यह दुनिया छोड़कर जा चुका था।"

    "जी साहब! ऐसा ही होगा।"

    अच्युत अपने कमरे में चला आया, जहाँ मृणाल सो रही थी। विज्ञाथा वहाँ से जा चुकी थी। अच्युत ने धीरे से कमरे का दरवाज़ा बंद किया और बाथरूम में जाकर शॉवर के नीचे खड़ा हो गया।

    दस मिनट बाद वह बाथरोब पहनकर कमरे में आया और आईने के सामने खड़ा हो गया। गिले बालों से टपकता पानी उसके चेहरे पर गिर रहा था। उसकी काली गहरी आँखें आईने के ज़रिए अपनी ही आँखों में झाँक रही थीं।

    "मॉम! मुझे शादी करनी है।"

    "हाँ तो मैं तो कब से कह रही हूँ तुमसे। शादी कर लो। शादी कर लो। वह तो तुम ही हो जो मेरी कहाँ सुनते हो। ख़ैर छोड़ो। कोई लड़की पसंद आ गई है क्या मेरे बेटे को...?"

    "हाँ!"

    "कौन है, कैसी है? घर-परिवार? कुछ तो बताओ।"

    "मृणाल!!!!!!!! मुझे मृणाल चाहिए।"

    "यह क्या बकवास कर रहे हो तुम अच्युत? मृणाल? तुम्हारा दिमाग़ घास चरने चला गया है क्या? वो बच्ची है। अपनी उम्र और उसकी उम्र देखी है? जब वह पैदा हुई थी, तब तुम नौ साल के थे।"

    "मुझे फ़र्क नहीं पड़ता मॉम। मुझे बस उससे शादी करनी है। मुझे वह चाहिए मॉम! क्योंकि मैं चाहता हूँ उसे।"

    "उफ़्फ़! अच्युत...तुम्हें यह बात समझ क्यों नहीं आ रही है? उससे बेहतर लड़कियाँ मिल जाएँगी तुम्हें। तुम्हारी ही उम्र की।"

    "मेरे लिए उससे बेहतर कोई लड़की नहीं हो सकती है। मुझे बस वही एक बेहतर लड़की चाहिए। बस वह एक।"

    "बहुत प्यार करता हूँ तुमसे मृणाल!!!!!!!! बहुत ज़्यादा।" अचानक ही अच्युत के होठों पर हल्की सी मुस्कान आ गई थी।

    क्रमशः

  • 14. रस्म-ए-वफ़ा ! - Chapter 14

    Words: 1014

    Estimated Reading Time: 7 min

    बेड पर सो रही मृणाल के चेहरे पर अचानक पसीने की बूँदें उभर आई थीं। इंजेक्शन का असर खत्म हुआ तो एक-एक बार जेहन में सब ताज़ा हो गया। और वह लाइन, जो उसे सबसे ज़्यादा बेचैन कर गई थी: "तुम दो कौड़ी की प्रॉस्टिट्यूट। रुको तुम।"

    वह चीख कर नींद से जागी और उठकर बैठ गई। सोफे पर सो रहा अच्युत भी हड़बड़ा कर उठा। मृणाल की आँखों से आँसू छलक पड़े। वह डरकर खुद में ही सिमट गई।

    "मृणाल!!!!!!! क्या हुआ?" अच्युत उसके पास आया, मगर एक दूरी बनाकर खड़ा हो गया।

    मृणाल तड़प उठी और काँपते हुए बोली, "व…वो मुझे…वो मुझे प्रॉस्टिट्यूट बोल रहा था। म…मैं प्रॉस्टिट्यूट नहीं हूँ। मैं नहीं हूँ। भाई!!!!!!!!!! म…मुझे…भाई के पास जाना है। प्लीज़ मुझे भाई के पास जाना है।"

    मृणाल की टूटी-फूटी बातें आधी अच्युत को समझ आईं और आधी नहीं, लेकिन उसके मुँह से निकला यह शब्द 'प्रॉस्टिट्यूट' काफी अच्छे से सुना था उसने। गुस्से में उसके जबड़े भींच गए।

    "मृणाल!!!!!!!!! क्या उसने तुम्हें प्रॉस्टिट्यूट कहा था…?"

    "हाँ…" मृणाल ने सिसकते हुए अपना सिर हिला दिया।

    अच्युत ने खुद को बड़ी मुश्किल से काबू किया। क्योंकि अपनी जान से भी ज़्यादा प्यारी बीवी के लिए वह ऐसे शब्द कैसे सुन सकता था? उसका जी तो चाह रहा था कि मिस्टर साहनी को एक बार फिर ज़िंदा कर दोबारा मार डाले, और बार-बार मौत के घाट उतारे।

    "चुप! चुप एकदम। शांत हो जाओ। बस बुरा सपना समझकर सब भूल जाओ।" अच्युत ने पानी का ग्लास उसकी तरफ बढ़ाया। मृणाल ने काँपते हाथों से ग्लास पकड़ा और पानी पीने लगी। वह घबरा रही थी, डर रही थी।

    "मैं बाहर नहीं गई थी अच्युत! पता नहीं कहाँ से वो आदमी…"

    "इट्स ओके। आई नो तुम्हारी कोई ग़लती नहीं है और जिसकी है उसे सज़ा मिल चुकी है। हम्म्म! मिस्टर एंड मिसेज़ कुकरेजा तुमसे मिलने आने वाले हैं। चलो अब उठो और तैयार होकर बाहर आओ। मैं वेट कर रहा हूँ तुम्हारा।" अच्युत ने कहा। तो मृणाल अपनी आँखों को मसलते हुए बेड से उठी और बाथरूम में चली गई। उसके जाते ही अच्युत बेड पर बैठ गया और एकटक बाथरूम के बंद दरवाज़े की तरफ देखने लगा। उसके कानों में अब पानी गिरने की आवाज़ पड़ने लगी थी।

    कुछ देर बाद मृणाल बाथरोब में आइने के सामने खड़ी थी। उसके पीछे खड़ी विज्ञाथा उसके बालों को ड्रायर से सुखा रही थी।

    "मृणाल! ठीक हो तुम…?"

    "हाँ।"

    "प्लीज़ अपने भाई के सामने कल वाली बात का ज़िक्र मत करना…"

    मृणाल ने सवालिया नज़रों से उसे देखा तो वह आगे बोली, "मेरा कोई ग़लत इरादा नहीं है। बस! मैं चाहती हूँ कि तुम्हारा भाई तुम्हें लेकर परेशान ना हो।"

    "हम्म्म" मृणाल ने बस हुँकार भरी।

    "बाल सूख गए तुम्हारे। और कुछ हेल्प करूँ…?" ड्रायर को बंद कर उसे ड्रेसिंग टेबल की ड्रॉवर में रखते हुए विज्ञाथा बोली।

    "नहीं, मैं खुद कर लूँगी।" मृणाल हल्का सा मुस्कुरा दी।

    विज्ञाथा वहाँ से चली गई और मृणाल वॉर्डरोब के सामने खड़ी होकर ड्रेस डिसाइड करने लगी। तभी कमरे का दरवाज़ा खुला और वापस बंद हो गया। मृणाल ने मुड़कर देखा तो अच्युत अपना फ़ोन चार्जिंग पॉइंट से हटा रहा था। उसने मृणाल की ओर देखा जो अब अपना मुँह वापस दूसरी तरफ़ कर चुकी थी। वह बस हल्का सा मुस्कुरा दिया।

    मृणाल ने स्काई ब्लू कलर की एक ड्रेस निकाली और जैसे ही वॉर्डरोब बंद करने के लिए पीछे होने लगी, फ़र्श पर गिरे पानी पर उसका पैर फिसल गया। वह गिरती, उससे पहले ही अच्युत ने उसे झट से अपनी बाहों में थाम लिया।

    अपने आप को अच्युत की बाहों में देखकर मृणाल के होठों पर मुस्कान तैर गई। अच्युत ने मुँह बनाया, "क्या तुम हर वक़्त बस गिरती-पड़ती रहती हो?"

    "मेरा पैर फिसल गया। मैं जान-बूझकर थोड़ी गिरी। लेकिन अच्छा ही है ना। आपने मुझे थाम लिया अपनी बाहों में!!!!!!!” मृणाल ने शर्माते हुए कहा। उसे अब नॉर्मल देखकर अच्युत के मन को राहत मिली।

    उसने उसे सही से खड़ा किया और उसके गाल को थपथपाकर बोला, "ध्यान रखा करो।"

    "अरे! मैं अपना ध्यान रखूँगी तो फिर आपका क्या काम होगा?" मृणाल ने ड्रेस पर लगा टैग मुँह से तोड़ते हुए कहा।

    "हाँ, यह भी है।" वह धीरे से हँस दिया और बाहर जाने के लिए दरवाज़े की तरफ़ बढ़ने लगा। लेकिन उसे जैसे कोई एहसास हुआ। उसके बढ़ते क़दम अपने आप ठिठक गए। वह वापस मुड़ा और मृणाल को हैरानी से देखने लगा।

    वहीँ मृणाल ने भी हैरान होकर अच्युत की तरफ़ देखा।

    दोनों एक साथ बोले, "व्हाट!!!!!!!!!"

    अच्युत जल्दी से मृणाल के पास आया और उसका हाथ पकड़कर अपने गाल, अपनी गर्दन और अपने हाथों को छुआ। उसका जी नहीं मचला। जबकि इससे पहले उसने दो बार जब मृणाल को छुआ था तो उसे वॉमिटिंग हुई थी।

    अच्युत ने हैरान होकर मृणाल का चेहरा अपने हाथों में भरा और उसके माथे को बार-बार चूमा। लेकिन फिर भी उसका जी नहीं मचला। अच्युत अब एकदम उलझ चुका था।

    "आप ठीक हो गए अच्युत। आप मुझे छू सकते हैं। देखो वॉमिटिंग भी नहीं हुई। है ना?" मृणाल खुश होकर बोली।

    अच्युत एक मिनट में आने का कहकर तुरंत कमरे से बाहर आया। विज्ञाथा के पास एक सर्वेंट खड़ी थी। वह उसके पास आया और अपना हाथ आगे बढ़ाकर उस सर्वेंट से बोला, "मेरा हाथ छुओ।"

    "साहेब!!!!!!" विज्ञाथा और वह सर्वेंट दोनों एकदम हैरान होकर अच्युत को देखने लगीं।

    क्रमश:

  • 15. रस्म-ए-वफ़ा ! - Chapter 15

    Words: 1043

    Estimated Reading Time: 7 min

    अच्युत ने एक मिनट में आने का कहकर तुरंत कमरे से बाहर निकला। विज्ञाथा के पास एक नौकरानी खड़ी थी। वह उसके पास गया और अपना हाथ आगे बढ़ाकर उस नौकरानी से बोला, "मेरा हाथ छूओ।"

    "साहेब!!!!!!" विज्ञाथा और वह नौकरानी दोनों एकदम हैरान होकर अच्युत को देखने लगीं।

    अच्युत ने सॉरी कहकर धीरे से उस नौकरानी का हाथ पकड़ा और कुछ क्षण बस थामे रहा। फिर वही हुआ जो उसे हमेशा होता था। वह बिना देरी किए वहाँ से सीधा बाथरूम में चला गया। जबकि विज्ञाथा और वह नौकरानी हैरानी व उलझन के मिले-जुले भाव लिए खड़ी रहीं।

    अपने चेहरे पर पानी डालते हुए अच्युत ने अपने दोनों हाथ सिंक पर रखे और आईने में देखते हुए खुद से बोला, "अभी मृणाल को छुआ तो वोमिट नहीं हुई, लेकिन उस लड़की (नौकरानी) के छूने से हुई। मॉम और विज्ञाथा के टच से प्रॉब्लम नहीं, लेकिन मृणाल...? जबकि दो बार पहले जब मैंने उसे छुआ तो भी वोमिट हुई, लेकिन अभी नहीं हुई। बल्कि तसल्ली से छुआ उसे। यह क्या हो रहा है...?" अच्युत खुद गहरी उलझन में था।

    थोड़ी देर बाद सब डाइनिंग टेबल पर नाश्ता करते हुए दिखाई दे रहे थे। मृणाल अपने भाई और भाभी के बीच बैठी काफी खुश लग रही थी और उनसे बातें करते हुए अपना नाश्ता कर रही थी। अच्युत अभी भी काफी उलझन में था, इसलिए बस खामोश बैठा हुआ था। विज्ञाथा और श्रीनिकेतन दोनों भी खामोश ही थे।

    "मन लग गया ना मृणाल तुम्हारा यहाँ बच्चा...?" त्रिविक ने जूस का घूँट भरते हुए मृणाल से सवाल किया तो चेहरे पर बड़ी सी मुस्कान और आँखों में चमक लिए उसने अपना सिर जल्दी-जल्दी हाँ में हिलाया।

    "बहुत!!!!!!!!!!!! मन लग गया मेरा तो भाई यहाँ।"

    "तुम्हारे सिर पर यह चोट कैसे आई...?" मेघा ने शक भरी नज़रों से वहाँ बैठे हर एक शख्स को देखा। पाटिल मेंशन में घुसते ही यह पहली चीज़ थी जो उसने नोटिस कर ली थी, बेशक! कितनी ही कोशिश की थी मृणाल ने अपने माथे पर लगी चोट को छिपाने की बालों से। लेकिन मेघा की पैनी नज़रों से कहाँ कुछ छुप पाया था।

    "रात को पानी पीने बाहर आई और अंधेरा था यहाँ बहुत। पैर कार्पेट में फँसा और मैं फर्श पर गिर गई। इसी दौरान मिडिल टेबल का कोना सिर पर लगा।" मृणाल ने मुस्कुराते हुए सब बताया, लेकिन उतना जितना उसे पर्याप्त लगा। क्योंकि थोड़ी देर पहले विज्ञाथा ने उसे यह कहकर डराया था कि अगर वह सब बता देंगी तो उसके भाई-भाभी उसे यहाँ से ले जाएँगे और वह यहाँ से जाना नहीं चाहती थी। अच्युत को छोड़कर तो किसी भी कीमत पर नहीं...

    नाश्ते के बाद त्रिविक और मेघा वहाँ से चले गए। अच्युत ने विज्ञाथा को आज मृणाल के पास घर रहने को कहा और खुद श्रीनिकेतन के साथ कोहिनूर के लिए निकल गया।

    दोपहर को उसने डॉक्टर के साथ अपॉइंटमेंट ली थी, तो वह ऑफिस से सीधा हॉस्पिटल पहुँचा। डॉक्टर को उसने जब अपनी उलझन बताई, तो कुछ क्षण के लिए डॉक्टर खामोश रह गया।

    "मैं तो शुरुआत से आपको कहता आ रहा हूँ कि यह प्रॉब्लम कुछ तो है, लेकिन कुछ मानसिक भी है। जब आप दिमाग़ में यह बात रखकर किसी को छूते हैं कि आपकी तबियत खराब होगी, तो हो जाती है। क्योंकि आपका दिमाग़ यह बात मान लेता है। और जो हम सोचते हैं, वैसे हमारे साथ होने लगता है। क्योंकि हम मान चुके होते हैं। दो बार आपने जब अपनी वाइफ को टच किया होगा, तो आपके दिमाग़ में आपकी तबियत का ख्याल था और जैसा कि आपने अभी बताया, आज जब आपने उन्हें छुआ तो आपको वोमिटिंग नहीं हुई, लेकिन सर्वेंट के टच से हुई। जिसका साफ़ मतलब है कि आपने जब अपनी वाइफ को टच किया, उस वक्त आपके दिमाग़ में यह ख्याल नहीं था, लेकिन जब आपने सर्वेंट को टच किया, तब था।" डॉक्टर अपनी बात रखकर चुप हो गया, जबकि कुछ-कुछ अब मामला अच्युत को समझ आया और कुछ तो उसके सिर के ऊपर से चला गया।

    "आपकी वाइफ कौन से कॉस्मेटिक प्रोडक्ट्स यूज़ करती है डेली लाइफ में...?" डॉक्टर ने सवाल किया, तो अच्युत ने फ़ोन में एक फ़ोटो निकालकर डॉक्टर को दिखाई जो आज सुबह ही उसने ड्रेसिंग टेबल पर रखे मृणाल के कॉस्मेटिक प्रोडक्ट्स की खींची थी। डॉक्टर ने गौर से उन्हें देखा और फ़ोन वापस अच्युत की तरफ़ बढ़ाते हुए बोला, "अगर पॉसिबल हो तो एक बार इन कॉस्मेटिक प्रोडक्ट्स को टेस्ट के लिए लैब ज़रूर भेजिएगा। शायद! आपको इन कॉस्मेटिक प्रोडक्ट्स में से किसी की स्मेल से एलर्जी हो...?"

    "ओके! डॉक्टर। मैं इन कॉस्मेटिक प्रोडक्ट्स को आज ही टेस्ट के लिए लैब भेज दूँगा।" अच्युत उठते हुए बोला।

    वहाँ से निकलकर वह वापस अपने ऑफिस लौट आया था और अपने काम में लग गया। शाम को जब वह घर आया, तो हमेशा की तरह मृणाल उसे हॉल में सोफ़े पर बैठी हुई नज़र आई। वह फ़ोन में कुछ स्क्रॉल कर रही थी। अच्युत धीरे से उसके पास आया और उसके फ़ोन की स्क्रीन पर देखा, जहाँ उसे एक गोरा-चिट्टा आदमी नज़र आया, वह भी सिर्फ़ शॉर्ट्स में। यह देखकर अच्युत की भौंहें चढ़ गईं।

    क्या मतलब उसकी बीवी किसी गैर-मर्द को देखकर अपनी आँखें सेंक रही थी?

    अच्युत का बस चलता ना तो आँखों ही आँखों में फ़ोन को तोड़ देता। उसने झट से उसके हाथों से फ़ोन छीना। मृणाल हड़बड़ाकर उठ बैठी। लेकिन सामने अच्युत को देख राहत की साँस ली।

    "उफ़्फ़! यह आप थे और मैं तो एकदम डर ही गई थी।"

    "यह सब क्या हो रहा था...?" उसे घूरते हुए अच्युत ने सवाल किया।

    "क्या, क्या हो रहा था...?" मृणाल ने कन्फ़्यूज़ होकर उसे देखा, जो ना जाने किस बात पर उसे घूर रहा था। वह बिना सोचे-समझे उसकी तरफ़ झुका और सीधा मृणाल के होंठों को अपने होंठों में कैद कर लिया।

    क्रमशः

  • 16. रस्म-ए-वफ़ा ! - Chapter 16

    Words: 1131

    Estimated Reading Time: 7 min

    "क्या, क्या हो रहा था..?" मृणाल ने कन्फ्यूज होकर उसे देखा, जो ना जाने किस बात पर उसे घूर रहा था। उसने बिना सोचे-समझे उसकी तरफ झुका और सीधा मृणाल के होठों को अपने होठों में कैद कर लिया।

    मृणाल हक्की-बक्की रह गई। उनके होठ आपस में जुड़े हुए थे, मगर कोई हलचल नहीं थी। चार सेकंड के बाद उनके होठ अलग हुए। मृणाल हैरानगी में आँखें बड़ी किए एकटक अच्युत को देख रही थी।

    वह तो समझने की हालत तक में नहीं थी कि अचानक उनके बीच क्या हुआ था। अच्युत ने उसके गाल को अपनी उंगली और अंगूठे के बीच दबाया और सख़्ती से बोला, "एक शादीशुदा लड़की होते हुए भी तुम किसी गैर मर्द को देख अपनी आँखें सेंक रही हो।"

    कहते हुए मृणाल का फ़ोन उसके सामने था, जिस पर अभी भी वही आदमी मौजूद था। मृणाल ने एक नज़र अपने फ़ोन की स्क्रीन को देखा और फिर अच्युत को। और अगले ही क्षण वह ठहाके लगाकर हँस पड़ी। वह सोफ़े पर ही लोटपोट होने लगी, जबकि अच्युत भौंहें चढ़ाए, अपने दोनों हाथों को सीने पर बाँधे वहीं खड़ा उसे देख रहा था।

    "मैं... मैं तो उसके शॉर्ट्स को देख रही थी।" अपने पेट को पकड़ते हुए, उसकी हँसी जारी थी।

    "छी! छी! शर्म नहीं आई तुम्हें यह सब देखते हुए?"

    "शर्म किस बात की? मुझे तो वह खरीदा है।"

    "क्या! ..वह आदमी..?"

    "उसका पहना शॉर्ट्स।"

    मृणाल की बात पर अच्युत अब उलझा। उसने वापस मृणाल के फ़ोन की स्क्रीन पर नज़र डाली तो वह शॉपिंग एप्लीकेशन थी। यह लड़की अमेज़ॉन खोले बैठी थी।

    अच्युत जबरदस्ती मुस्कुराया, "तो तुम शॉपिंग के लिए देख रही थी..?"

    "हाँ!!!!!!!!!" मृणाल ने खिलखिलाकर अपना सिर हिलाया।

    अपना पोपट होता देख अच्युत ने उसका फ़ोन उसे थमाया और अपने कमरे में चला गया। मृणाल ने मुस्कुराकर उसे जाते हुए देखा और फिर अपना सिर ना में हिलाकर वापस अपने फ़ोन में देखने लगी। लेकिन अब उसका मन फ़ोन में नहीं लगा। उसने उसे बंद कर अपनी जीन्स की पॉकेट में डाला और अच्युत की हरकत के बारे में सोचने लगी। उसके गाल एकदम सुर्ख पड़ गए। बेसाख्ता ही उसका हाथ उसके गाल पर जा ठहरा।

    "मेरे चुन्नू-मुन्नू थोड़ा सा और इंतज़ार कर लो।" मृणाल अपने हसीन सपनों में खोती हुई बोली, जहाँ वह खुद को एक लाल शिफॉन की साड़ी में इमेजिन कर पा रही थी और उसका पल्लू पकड़कर चलते हुए उसके चुन्नू-मुन्नू। सोचने भर से ही उसका दिल खुशी से उछलकर बाहर आने को तैयार था।

    तभी उसे बाहर से गाड़ी रुकने की आवाज़ आई। मृणाल अपने खयालों से निकलकर सोफ़े से उठी और दरवाजे के पास खड़ी होकर बाहर देखने लगी। सहसा ही उसके मुँह से निकला, "मॉम!" वह खुशी से चहकते हुए बाहर की तरफ़ दौड़ गई।

    चंचल पाटिल, यानी अच्युत की माँ, इस वक़्त एक हल्के रंग की साड़ी में लिपटी मुस्कुराकर पाटिल मेंशन को देख रही थी। मृणाल सीधा उनसे लिपट गई।

    "मॉम! कैसी हैं आप..?"

    "मैं ठीक हूँ। तुम बताओ।" चंचल पाटिल ने उसके सिर को थपथपाया। चंचल पाटिल ने उसके बालों को चेहरे से पीछे किया तो वह बोल उठी, "अरे यह चोट..?"

    मृणाल ने मुँह बना लिया, "नहीं! अब मैं कुछ नहीं बताऊँगी। सबको एक ही कहानी बताते हुए अब मैं बोर हो गई हूँ मॉम। अब आप अच्युत से पूछ लेना।"

    "ओके! ओके!" चंचल पाटिल धीरे से हँस दी। फिर उन्होंने गाड़ी की तरफ़ देखकर अपना हाथ बढ़ाया, "जक्ष आओ बेटा।"

    मृणाल ने उत्सुक होकर गाड़ी की तरफ़ देखा, जहाँ से जक्ष पाटिल, यानी अच्युत का छोटा भाई, जिसकी उम्र लगभग 18 साल रही होगी, काँपते हुए अपना हाथ चंचल पाटिल के हाथ में रख दिया। अपने बैग को पीठ पर टाँगे वह गाड़ी से बाहर आया और एक बार अपने नज़र के चश्मे को ठीक किया।

    मृणाल ने जक्ष की ओर देखकर मुस्कुराते हुए अपना हाथ आगे बढ़ाया, लेकिन जक्ष ने उसे नज़रअंदाज़ कर दिया। यह देखकर मृणाल का चेहरा लटक सा गया।

    चंचल और जक्ष दोनों अंदर बढ़ गए और मृणाल मुँह टेढ़ा-मेढ़ा बनाते हुए उनके पीछे।

    रात के खाने के बाद अच्युत कुछ देर चंचल के पास बैठा और फिर जब अपने कमरे में जाने लगा तो उसकी नज़र ग्लास वॉल के ज़रिए गार्डन की सीढ़ियों पर बैठे जक्ष पर गई।

    वह एक गहरी साँस लेकर उसके पास ही चला आया। अच्युत उसके बराबर में बैठ गया।

    "यहाँ क्यों बैठे हो..?"

    "भ...भाई डैड ने मुझसे प्रॉमिस किया था कि मेरा स्कूल पूरा होते ही वह मुझे हॉस्टल लेने आएंगे। लेकिन उन्होंने अपना वादा पूरा नहीं किया।" जक्ष भावुक होकर बोला।

    "मॉम तो गई थी ना। अब मॉम ही मॉम भी है और डैड भी।" अच्युत ने उसके कंधे पर हाथ रख कहा।

    "लेकिन! मुझे तो उनके साथ समय बिताने तक मौका ही नहीं मिला। आप जानते हैं ना कितना छोटा था जब मुझे लंदन स्टडी के लिए हॉस्टल भेज दिया गया था। कभी वह मुझसे मिलने तक नहीं आए। मैंने तो उन्हें उनके अंतिम समय में भी नहीं देखा।" यह कहकर जक्ष अपने घुटनों में सिर छुपाए बच्चों की तरह बिलख पड़ा था।

    अच्युत की भी आँखों में एक आँसू का कतरा नज़र आया। उसने आगे बढ़कर अपने छोटे भाई को सीने से लगा लिया। वह उसकी पीठ सहलाता हुआ बोला, "डैड का साथ बस इतना ही था। मैं जानता हूँ कि मैं डैड की कमी पूरी तो नहीं कर सकता, मगर एक बड़े भाई होने के नाते मैं हर कदम पर तुम्हारे साथ खड़ा रहूँगा। चलो अब रोना बंद करो। बी स्ट्रांग। हम्ममम।"

    जक्ष ने बड़ी मुश्किल से खुद को शांत किया और अपने आँसू साफ़ किए। दोनों भाई उठकर अंदर आ गए। जक्ष अपने कमरे की तरफ़ बढ़ गया जबकि अच्युत उसे तब तक देखा रहा था जब तक वह उसकी आँखों से ओझल ना हो गया।

    फिर वह भी अपने कमरे में आया तो मृणाल बेड पर औंधे मुँह पड़ी सो रही थी। उसने अपनी बाहों में एक पिल्लों को जकड़ा हुआ था, मानो वह पिल्लों ना होकर कोई इंसान हो।

    वह अपना सिर ना में हिलाते हुए वॉर्डरोब के पास आया और उसमें से एक लूज़ सी टीशर्ट निकाली, क्योंकि मृणाल अभी भी उसी शॉर्ट टॉप और टाइट जीन्स में थी।

    क्रमशः

  • 17. रस्म-ए-वफ़ा ! - Chapter 17

    Words: 1032

    Estimated Reading Time: 7 min

    वह अपना सिर ना में हिलाते हुए वॉर्डरोब के पास आया और उसमें से एक लूज सी टीशर्ट निकाली। क्योंकि मृणाल अभी भी उसी शॉर्ट टॉप और टाइट जीन्स में थी।

    वह बेड के पास आया और मृणाल को आवाज़ लगाते हुए बोला, "मृणाल! एक बार उठो। पहले कपड़े चेंज कर लो फिर सो जाना।"

    "नहीं! सोने दो ना प्लीज़," वह उनींदी सी आवाज़ में बोली।

    "मृणाल एक बार उठ जाओ ना। रात भर परेशान होती रहोगी ना फिर। सही से सोया नहीं जायेगा।"

    मृणाल बेमन से उठकर बैठी। अच्युत ने उसके पास टीशर्ट रख दी और मुड़कर खड़ा हो गया। मृणाल ने अपना टॉप उतारा और टीशर्ट पहनकर टॉप फर्श पर फेंक दिया।

    उसने जीन्स के बटन पर हाथ रखा और इधर-उधर कुछ ढूँढ़ने लगी। वह उठी और वॉर्डरोब से केफ़्री निकालकर पहन ली और वापस बेड पर जाकर सो गई। अच्युत ने अपनी नज़र आईने से हटाई और अपना सिर खुजलाते हुए फर्श पर गिरे मृणाल के कपड़ों को उठाने लगा। फिर शॉवर लेने के बाद वह भी लाइट बंद कर बेड पर जाकर लेट गया।

    अपने कमरे में विज्ञाथा अपना सामान पैक कर रही थी। उसे काफी अच्छे से याद था कि अच्युत ने पहले ही कहा था कि चंचल के आने के बाद वह अपने ससुराल चली जाएँ। मन नहीं था, लेकिन फिर भी उसे जाना पड़ रहा था। वह बेग की चेन बंद करते हुए धीरे से बुदबुदाई, "बस कुछ दिन। उसके बाद साहेब के सामने कुछ भी बहाना बनाकर वापस यही आ जाऊँगी रहने।"

    सब पैक करने के बाद वह बिस्तर पर आकर लेट गई और सोने की कोशिश करने लगी। उसने अपने साइड में पड़े खाली बिस्तर को देखा। श्रीनिकेतन यहाँ से पहले ही जा चुका था।

    "मुझे तो समझ ही नहीं आया। पापा को क्या दिखा निकेतन में? जो उन्होंने अपनी इकलौती बेटी की शादी उस फटीचर से करवा दी। है क्या उसके पास? घर की जगह घर नहीं। चॉल में रहता है सारा परिवार। गाड़ी की जगह गाड़ी नहीं। कहीं आने-जाने के लिए भी बस और पब्लिक ट्रांसपोर्ट का यूज़ करता है। उफ़्फ़! और लड़कियों की तरह आँसू छलकाता रहता है छोटी-छोटी बातों पर। दिखने में थोड़ा ठीक-ठाक है बस।" श्रीनिकेतन के बारे में सोचते हुए वह खुद से ही बोली। फिर एक गहरी साँस लेकर उसने अपना सिर झटक दिया।

    सुबह सब डाइनिंग टेबल पर बैठे नाश्ता कर रहे थे। अच्युत मृणाल और जक्ष का ध्यान अपनी ओर करते हुए बोला, "तुम दोनों मेरे पास अपने-अपने सभी डॉक्युमेंट्स भेज देना।"

    "ओके भाई," जक्ष ने अपना सिर हिलाकर कहा।

    मृणाल मुँह बनाकर बोली, "क्यों!!!!!!!! आप क्या करेंगे उनका...?"

    "अरे! कॉलेज में एडमिशन करवाना है तुम दोनों का," चंचल ने कहा।

    "क्या...? लेकिन मुझे नहीं पढ़ना ना आगे। आपको बताया तो था। मुझसे नहीं होती यह पढ़ाई वगैरह," मृणाल गुस्से में चीखते हुए बोली।

    "बिहेव योरसेल्फ मृणाल। और आगे पढ़ने में बुराई ही क्या है और वैसे भी मैंने तुमसे पूछा नहीं था। मैं बता रहा हूँ। मैंने तुम दोनों के एडमिशन की बात की है। बस डॉक्युमेंट्स वेरिफिकेशन रहती है। वह भी आज हो जाएगी। आज सैटरडे है तो मंडे से कॉलेज में जाना है तुम दोनों को। बस बात खत्म।" अच्युत ने सख्ती से कहा तो मृणाल गुस्से में पैर पटकते हुए उठी और अपने कमरे में भाग गई।

    अच्युत ने चंचल की तरफ देखा जो अपना सिर ना में हिलाकर बोली, "मैंने तो तुमसे पहले ही मना किया था। लेकिन उस वक्त तुम्हारे सिर तो प्यार का भूत सवार था। उस बच्ची से मैच्योरिटी की उम्मीद नहीं रख सकते तुम।"

    उनकी बात सुनकर अच्युत कुछ नहीं बोला। नाश्ते के बाद वह कमरे में आया जहाँ मृणाल ने रो-रोकर अपनी आँखें लाल कर ली थीं।

    "अच्छा ठीक है तो। मैं मिस्टर कुकरेजा को बुला लेता हूँ," वह अपने दोनों हाथों को पैंट की पॉकेट में डाले हुए बोला।

    "भ...भाई को क्यों...?" वह हिचकियाँ लेते हुए बोली।

    "ताकि वह तुम्हें अपने साथ घर ले जाएँ।"

    "क्यों...?"

    "क्योंकि तुम मेरी बात कहाँ सुन रही हो...? अब जब तुम्हें मेरी बात नहीं सुननी तो फिर घर तो जाना पड़ेगा ना अपने। बाकी तुम्हारी मर्ज़ी। मुझसे दूर रहकर तुम्हें पढ़ाई नहीं करनी पड़ेगी। अगर मेरे पास, मेरे साथ रहना है तो पढ़ाई तो करनी पड़ेगी ही, बाकी पढ़ाई में मैं तुम्हारी हेल्प करूँगा। क्या कहती हो...?" अच्युत ने उसके लाल पड़े चेहरे की तरफ देखा।

    मृणाल ने रोते हुए अपना फ़ोन उठाया और उस पर उंगलियाँ घुमाने लगी।

    कुछ देर बाद अच्युत के फ़ोन पर लगातार कई नोटिफिकेशन पॉपअप हुए। अपनी ब्लेज़र की पॉकेट से उसने फ़ोन निकाला। मृणाल ने अपने डॉक्युमेंट्स भेजे थे। यह देखकर उसके होठों पर मुस्कान तैर गई।

    "गुड गर्ल। चलो अब यह रोना-धोना बंद करो। शाम को मिलने हैं ठीक है।" कहकर अच्युत वहाँ से बाहर निकलने लगा तो मृणाल सुबकते हुए बोली, "आपने बोला ना अब। तो सारा काम आप ही करेंगे मेरा। याद रखना आप।"

    "ठीक है कर दूँगा। तुम बस क्लासेस लेने कॉलेज चली जाना। इससे ज़्यादा कुछ मत करना। ओके!" अच्युत ने मुड़कर कहा। मृणाल कुछ नहीं बोली। वह वहाँ से चला गया।

    "मेरी तो ज़िंदगी बर्बाद हो गई। शादी इसलिए की थी ताकि पढ़ाई से पीछा छूट जाएँ, लेकिन यह प्लान भी फ़्लॉप हो गया। मुझे तो वह लोग भी नहीं मिले जो शादी के बाद बहू को घर से बाहर तक नहीं जाने देते। हाय मेरी फ़ूटी किस्मत!" वह अपना सिर पीटकर बोली।
    क्रमशः

  • 18. रस्म-ए-वफ़ा ! - Chapter 18

    Words: 1010

    Estimated Reading Time: 7 min

    दोपहर का समय था। मृणाल अच्छी नींद लेने के बाद कमरे से बाहर आई तो जक्ष सोफे पर अकेला बैठा टीवी देख रहा था। मृणाल अंगड़ाई लेते हुए उसके पास आकर बैठ गई।

    जक्ष ने चौंक कर उसे देखा। मृणाल ने आँखें बड़ी करके उसके हाथ से रिमोट छीन लिया और बोली, "क्यों बेचूज़े? बहुत अकड़ रहे हो मेरे सामने। मैं बहुत खतरनाक हूँ। हमारी कॉलोनी में सब बच्चे मुझसे खौफ खाते थे। बहुत मारती थी मैं उन्हें।"

    "तो...?" जक्ष खुद में सिमट कर बैठ गया। मृणाल की बड़ी-बड़ी आँखें वाकई उसे डरा रही थीं।

    "तो बेटा! मेरे सामने ज़्यादा चूँ-चाँ ची मत करना। और हाँ, यह फ़ालतू की अकड़ अपनी जीन्स की बैक पॉकेट में रखो क्योंकि मेरे सामने नहीं टिकने वाली। मैं मार दूँगी बिना बात में। फिर रोते हुए अपने भाई के पल्लू में छिपोगे। आयी बात समझ?" मृणाल ने अपनी आँखें कभी छोटी तो कभी बड़ी करते हुए उसे डराने वाले अंदाज़ में कहा।

    "इन सभी बातों का सार क्या है...?"

    "सार के बच्चे! मैंने सारी रामायण सुना दी और तुम पूछ रहे हो सीता कौन थी...?" मृणाल गुस्से में लगभग उस पर चढ़ आई थी।

    "म...मगर मैं जानता हूँ सीता माँ कौन है। क्योंकि मैंने रामायण देखी भी हुई है, सुनी भी हुई है और पढ़ी भी हुई है।" जक्ष ने कहा।

    "अरे ओ कम अक्ल इंसान! यह कहावत थी। मेरी बातों का सार यह है कि," उसने चेहरे के बेहद करीब आकर, उसकी आँखों में देखते हुए कहा, "अगर तुम्हें इस इलाके में रहना है तो मेरे अनुसार चलना पड़ेगा।"

    "मैं इलाके में थोड़ी रहूँगा। मुझे तो मेरे घर में रहना है।" जक्ष ने मासूमियत से कहा। मृणाल ने घूर कर देखा और मन-ही-मन बोली, "यह तो मेरा पोपट बना रहा है।"

    मृणाल को जब कुछ समझ नहीं आया तो उसने जक्ष का कॉलर पकड़ कर उसे झिंझोड़ते हुए कहा, "तेरे को एक बात समझ नहीं आई। अबे चूज़े! दिमाग़ है कि नहीं? या उसे लंदन किराए पर छोड़ कर आए हो...?"

    "मैंने कोई सर्जरी नहीं करवाई। मेरा दिमाग़, मेरे पास ही है।" जक्ष मृणाल से सहम गया।

    मृणाल ने उसके सिर पर चपत लगाई और घूरते हुए बोली, "तुम्हारा दिमाग़ है मगर सिर में नहीं, घुटनों में।"

    जक्ष ने मुँह बनाकर अपना सिर सहलाया। मृणाल वापस अपनी जगह पर बैठ गई।

    "वैसे मैं भी एक बार लंदन गई थी।"

    "कब...?"

    "दो साल पहले। भाई-भाभी शादी के बाद हनीमून पर गए थे ना? तब मैं भी उनके साथ गई थी।" मृणाल ने खुश होकर कहा।

    "उसे हनीमून नहीं कहेंगे। वो फैमिली ट्रिप था।"

    "नहीं!!!!!!!!!!! फैमिली ट्रिप नहीं था।" मृणाल ने साफ़ इनकार कर दिया।

    "हनीमून पर सिर्फ़ हसबैंड और वाइफ जाते हैं।"

    "किसने कहा कि सिर्फ़ हसबैंड-वाइफ जाते हैं?"

    जक्ष ने हैरत में उसे देखा। यह लड़की अपनी गलत बात पर भी अड़ी हुई थी। जक्ष को वहाँ से जाने में ही अपनी भलाई समझ आई। वह उठा और वहाँ से जाने लगा। मृणाल ने उसका हाथ पकड़ते हुए कहा, "किधर जा रहे हो...? प्यास लगी है मुझे। चलो जाओ पानी लेकर आओ। अपनी भाभी की बात मानते हो, समझ आयी बात...?"

    जक्ष ने जबरदस्ती मुस्कुरा कर अपनी भाभी को देखा, जो अभी दादी बन ऑर्डर दे रही थी।

    जक्ष वहाँ से चला गया। मृणाल पैर पर पैर चढ़ाकर, काफी एटीट्यूड के साथ सीना तान कर बैठ गई। मानो वह कहीं की रानी हो और उसने अपने सेवक को काम करने को दिया हो।

    "पानी।" जक्ष ने पानी का ग्लास टेबल पर रखा और वहाँ से नौ दो ग्यारह हो गया।

    "मैं क्या करूँ, लोगों के मन में खौफ ही इतना है मेरा..." अपने बालों को हाथ से झटकते हुए मृणाल बोली और पानी का ग्लास उठाकर अपने होठों से लगा लिया।

    "मृणाल!!!!!!!!!!!!!!!" अचानक एक दमदार आवाज़ पानी पीती मृणाल के कानों में पड़ी। सहसा ही उसने पानी का ग्लास नीचे रखा और घबरा कर आवाज़ की दिशा में देखने लगी। अच्युत हाथ में कुछ फाइल्स लिए हॉल में आ गया था।

    अच्युत को देखते ही मृणाल का बॉसी औरा पाटिल मेंशन के ना जाने कौन से कोने में पड़ा था। वह चहक कर उठी और अच्युत के सामने आकर खड़े होते हुए बोली, "क्या हम लंच डेट कर जा रहे हैं...?"

    "नहीं!"

    अच्युत की ना सुनकर मृणाल का चेहरा लटक सा गया।

    "तो फिर आप इस वक्त घर पर क्या कर रहे हैं...?"

    "साइन लेने आया था तुम दोनों के कॉलेज फॉर्म पर।" कहते हुए उसने अपने हाथ में पकड़ी फ़ाइल को उसकी तरफ़ दिखाया।

    "आप भी ना फ़ालतू के कामों से इधर-उधर घूमते रहते हैं।" अपने दोनों हाथों को सीने पर बाँधे वह मुँह बनाकर सोफे पर बैठ गई।

    "यह कोई फ़ालतू काम नहीं है।" कहते हुए वह भी सामने वाले सोफे पर बैठ गया। "जक्ष!!!!!!!!!!! जक्ष बाहर आओ।"

    जक्ष अपने कमरे से बाहर आया। "जी भाई।"

    "साइन करो अपने फॉर्म पर। मृणाल तुम भी।" अच्युत ने दोनों फाइल जक्ष और मृणाल के सामने कर दी। जक्ष ने तो झट से साइन कर दिया था। मृणाल ने पेन को फाइल पर रखा और जबरदस्ती साइन करके पेन को ऐसे छोड़ा मानो उसमें काँटे लगे हों।

    क्रमशः

  • 19. रस्म-ए-वफ़ा ! - Chapter 19

    Words: 1153

    Estimated Reading Time: 7 min

    मृणाल अपने सामने खड़े अच्युत को देख मुस्कुरा रही थी। वह अजीब नज़रों से आइने में खुद को देख रहा था। जक्ष दरवाजे पर खड़ा बार-बार अपने चश्मे को ठीक करता हुआ वॉल क्लॉक में समय देख रहा था।

    "ये अच्छा लग रहा है..?" अच्युत ने इस बार मुड़कर मृणाल और जक्ष की तरफ देखा।

    व्हाइट टीशर्ट के ऊपर ब्लैक एंड रेड चेक की शर्ट, जिसके बटन खुले हुए थे। नीचे ब्ल्यू डेनिम के साथ स्पोर्ट्स शूज। और बिल्कुल सेम ड्रेस मृणाल ने भी पहनी हुई थी। व्हाइट टीशर्ट, ब्लैक एंड रेड चेक की शर्ट, नीचे ब्ल्यू डेनिम और स्पोर्ट्स शूज। ट्विनिंग करने की कोशिश अच्युत से करवाई जा रही थी।

    "बहुत अच्छे लग रहे हैं ना। क्यों जक्ष..?" मृणाल ने आँखों में चमक लिए कहा।

    "हाँ भाई।" जक्ष ने उसकी हाँ में हाँ मिलाई।

    "लेकिन मैंने पहले ऐसा कुछ पहना नहीं।" अच्युत ने मुँह बनाकर कहा।

    "तो क्यों नहीं पहना..? इतने हॉट एंड हैंडसम लग रहे हैं आप। एकदम मेरे हीरो जैसे।" कहते हुए मृणाल ने अपनी शर्ट का कॉलर मुँह में डालकर, शर्माते हुए, नज़रें झुकाकर बोली।

    अच्युत ने एक हल्की चपत उसके सिर पर लगाई और जक्ष के साथ कमरे से बाहर निकलते हुए बोला, "अब देर नहीं हो रही.. जल्दी आओ।"

    "अरे! मेरी वेट तो करो।" मृणाल अपना फोन टेबल से उठाकर उसे पेंट की पिछली पॉकेट में रखती हुई उनके पीछे दौड़ पड़ी।


    विज्ञाथा की नींद दरवाजे के खटखटाने से खुली। उसने ज़बरदस्ती आँखें खोलकर बेड से उतरी और जाकर दरवाज़ा खोला। सामने श्रीदिका, मुँह बिचकाए, हाथ में चाय और नाश्ते की ट्रे लिए खड़ी थी।

    "मैंने तुम्हें रात को ही कहा था ना कि नौ बजे से पहले उठाना नहीं। तुम्हारी प्रॉब्लम क्या है श्रीदिका..?" विज्ञाथा गुस्से में उस पर भड़क उठी।

    "ओ महलों की राजकुमारी! अपनी आँखें खोलकर ज़रा समय देखो। साढ़े नौ हो चुके हैं। नाश्ता करो अगर करना है तो वरना......भाभी!!! आप भी ना। अरे मैंने खुद अपने हाथों से बनाया है। बिल्कुल गरमागरम नाश्ता है।" श्रीदिका अपनी भड़ास निकाल रही थी, लेकिन अचानक उसका लहजा नर्म पड़ गया। क्योंकि विज्ञाथा के पीछे खड़ा श्रीनिकेतन समय पर उसे नज़र आ गया था।

    विज्ञाथा ने नाश्ते की ट्रे गुस्से में उसके हाथों से ली और दरवाज़ा उसके मुँह पर जोर से बंद करते हुए पीछे मुड़ गई। श्रीनिकेतन को देखकर वह फ़ौरन श्रीदिका की चालाकी समझ गई थी। ट्रे बेड पर रखते हुए वह वहीं बैठ गई। कुछ नया नहीं था उसके लिए श्रीदिका का बर्ताव। अकेले में वह उससे ऐसे ही पेश आती थी। उसके आस-पास कमला, श्रीनिकेतन या कोई और होता तो उसका लहजा शहद से भी मीठा मालूम पड़ता।

    विज्ञाथा का यहाँ ना रहने का एक यह भी कारण बाकी मुख्य कारणों में शामिल था। चाय की घुट्‌टी भरते हुए उसने श्रीनिकेतन की तरफ देखा। जो अभी भी वैसे ही खड़ा था।

    "चाय पीनी नहीं है क्या..? श्रीदिका वापस गर्म नहीं करेंगी और मुझसे ये किचन के काम होंगे नहीं।"

    "मैं सुबह चाय नहीं पीता। और वैसे भी ट्रे में सिर्फ़ एक चाय का कप है जो सिर्फ़ तुम्हारे लिए है।" वह फीकेपन से बोला। विज्ञाथा ने हैरत में उसे देखा, "कब से बंद की..?"

    "बचपन से ही आदत है।"

    "छह महीने से ज़्यादा हो गया हमारी शादी को। मैं जानती हूँ तुम सुबह चाय पीते हो।"

    "वही तो विज्ञाथा। वही तो.. हमारी शादी को छह महीने से भी ज़्यादा समय हो गया लेकिन हैरत की बात यह है कि तुम्हें अपने पति के बारे में रत्ती भर भी जानकारी नहीं। मैं सुबह उठने के बाद काफी घंटे चाय नहीं पीता। खैर! मुझे एक ज़रूरी काम है, मैं बाहर जा रहा हूँ।" अपनी बात कहकर श्रीनिकेतन वहाँ से तुरंत निकल गया था।

    जबकि विज्ञाथा उसकी बातों को समझने की कोशिश में लगी थी।


    एक चमचमाती गाड़ी सेंट्रल मॉल की पार्किंग में आकर रुकी। जक्ष गाड़ी का दरवाज़ा खोलकर बाहर निकला और उसके पीछे मृणाल। जनता जागृति पार्टी का मुख्य चेहरा बनने की वजह से आजकल अच्युत काफी सुर्खियों में था। इसलिए उसने अपना चेहरा छुपाने के लिए कैप और मास्क लगाया हुआ था।

    तीनों लिफ्ट में घुसे तो अच्युत उन दोनों को हिदायत देता हुआ बोला, "मॉल काफी बड़ा है और ऊपर से आज संडे है तो भीड़ ज़्यादा होगी। इसलिए तुम दोनों अपना-अपना ध्यान रखना। अगर एक-दूसरे से अलग भी हो जाएँ तो फोन कर देना मुझे। ओके।"

    "ओके भाई।" जक्ष ने मुस्कुराकर अपना सिर हिला दिया।

    "हम बच्चे थोड़ी हैं।" मृणाल मुँह बनाते हुए बोली, "हम अपना ख्याल रख सकते हैं अच्युत।"

    "ठीक है। मैं मानता हूँ। और कुछ..?" उससे बहस करने से बचने के लिए अच्युत ने अपने हाथ ही जोड़ लिए उसके सामने। मृणाल बस घूर कर रह गई।

    लिफ्ट थर्ड फ्लोर पर आकर खुली। मृणाल और जक्ष पहले निकले, उनके पीछे अच्युत। अच्युत ने सही कहा था, आज यहाँ काफी भीड़ देखी जा सकती थी। इस फ्लोर पर मूवी थियेटर था। तीनों ने अपनी-अपनी टिकट ली और अंदर घुस गए। पूरा थियेटर अंधेरे में डूबा हुआ था। मूवी पहले ही शुरू हो चुकी थी और लगभग 10 मिनट की हो भी चुकी थी। तीनों अपनी चेयर्स पर आकर बैठे। अच्युत बीच में था और उसके एक तरफ मृणाल तो दूसरी तरफ जक्ष।

    मृणाल धीरे से अच्युत की तरफ झुकी और उसके कान में फुसफुसाते हुए बोली, "मूवी के बाद शॉपिंग भी करनी है।"

    "हाँ पता है।"

    "और उसके बाद लंच।"

    "ओके। और कुछ..?"

    "हाँ!"

    "क्या..?"

    "सब पॉपकॉर्न लेकर बैठे हैं, और हमारे पास तो वह भी नहीं है। पॉपकॉर्न, शुगरफ्री कॉक और फ्राइज़ होते ना और साथ में बर्गर भी तो मज़ा ही आ जाता।" मृणाल ने अपने होठों पर जीभ फिराते हुए कहा। अच्युत ने अपना सिर हिलाया और उठकर चला गया। मृणाल ने जक्ष की तरफ देखा जो मूवी देखने लगा था। उसने नाक सिकोड़ ली, "तुमको मैंने कहा था ना कि मेरी फोटो लेनी है तो ले क्यों नहीं रहे..?"

    "अंधेरे में फ़ोटोज़ सही नहीं आएंगी।" जक्ष ने कहा।

    "ठीक है कैमरामैन जी।" वह दाँत पीसते हुए बोली और अपनी नज़रें स्क्रीन की तरफ घुमा ली।

    क्रमशः

  • 20. रस्म-ए-वफ़ा ! - Chapter 20

    Words: 1024

    Estimated Reading Time: 7 min

    दोपहर का समय था। अच्युत अपने सामने बैठी मृणाल को देख रहा था, जो ऐसे खा रही थी मानो एक महीने से उसने कुछ नहीं खाया हो। जबकि जक्ष, हैरत में अपना खाना छोड़कर उसे ही देख रहा था।

    मृणाल ने फ्राइज को मुंह में डालते हुए अपनी प्लेट को अपनी तरफ खींचा और टेबल पर अपने दोनों हाथ रखकर बड़ी मुश्किल से बोली,
    "आप दोनों मेरे खाने को नजर लगाओगे। मैं कुछ नहीं दूंगी अपने खाने में से।"

    दोनों भाइयों ने एक-दूसरे की तरफ देखा और एक साथ अपने सिर पर हाथ मार दिया। मृणाल ने उलझ कर उन दोनों को देखा और फिर कंधे उचकाकर वापस अपना सारा ध्यान खाने में लगा दिया।

    बची हुई शॉपिंग कर, वे तीनों घर के लिए निकल गए। लेकिन रास्ते में चंचल पाटिल का कॉल आया, तो उन्होंने विज्ञाथा को अपने साथ घर लेकर आने की बात कही। अच्युत ने "ठीक है" कहकर गाड़ी अपने घर की विपरीत दिशा में घुमा ली थी।

    वह एक कॉलोनी टाइप जगह थी, जहाँ काफी भीड़ थी। जिसे मृणाल हैरानगी से देखते हुए आगे बढ़ रही थी, जबकि उससे कुछ कदम आगे जक्ष और अच्युत चल रहे थे।

    सीढ़ियों से होते हुए वे पहली मंजिल पर आए और राइट साइड मुड़कर सबसे आखिरी वाले घर का दरवाज़ा खटखटाया।

    "यह जगह तो बहुत अच्छी है।" मृणाल ने इधर-उधर देखते हुए कहा। चकाचौंध और दिखावे से दूर, यह जगह एकदम सादगी भरी उसे लगी थी।

    "हम्म्म," अच्युत ने बस हुंकार भरी।

    कमला ने आकर दरवाज़ा खोला, तो अच्युत और बाकी सब को देखकर पहले हैरान हुई, लेकिन फिर खुद को सामान्य कर मुस्कुराते हुए बोली,
    "अरे साहेब!!!!!!!! आइए ना।"

    "कैसी है आप मौसी..?" अच्युत अंदर आते हुए बोला।

    "मैं ठीक हूँ।" कमला ने जक्ष के सिर पर हाथ फेरते हुए मृणाल के गाल को छुआ।

    वहीं रखे सोफे पर बैठी श्रीदिका, जो अपने नेल्स पर नेलपेंट लगा रही थी, उन सब को देखकर वह जल्दी से खड़ी हुईं और अंदर कमरे में भाग गईं।

    "यह मिठाई और फ्रूट्स।" जक्ष ने अपने हाथ में पकड़ा मिठाई का डिब्बा और फ्रूट्स के थैले कमला की तरफ़ बढ़ा दिए। उन्होंने वे पकड़े और मुस्कुराकर बोलीं,
    "साहेब इसकी क्या ही ज़रूरत थी।"

    "बात यहां ज़रूरत की नहीं है मौसी। बात मान-सम्मान की है। मैं अपनी छोटी बहन के ससुराल आया हूँ, तो खाली हाथ कैसे आ जाता। और यह ज़्यादा भी नहीं है।" अच्युत ने हल्की सी मुस्कान के साथ कहा।

    "मौसी! यह आपका घर है..?" मृणाल सोफे पर बैठते हुए उनसे बोली।

    "हाँ बिटिया।"

    "बहुत अच्छा है। क्या आप मुझे फिर नहीं बुलाएँगी यहाँ..?"

    "ऐसा क्यों बोल रही हो बिटिया। आप जब चाहे तब यहाँ आ सकती है। इसे अपना ही घर समझिए।" कमला ने बड़े अपनेपन से कहा।

    "हाँ! हाँ! मैं कल भी आऊँगी।" मृणाल खुश होते हुए बोली।

    श्रीदिका ने सबको पानी और चाय लाकर दी। बाहर से आती आवाज़ें सुनकर कमरे में बैठी विज्ञाथा बाहर आई, तो हैरान होते हुए बोली,
    "साहेब आप..?"

    "मैं और जक्ष भी है दीदी।" मृणाल ने अपना हाथ हवा में हिलाते हुए खुशी से कहा। विज्ञाथा के चेहरे का रंग क्षण में उड़ गया।

    वे चारों पाटिल मेंशन आए। गाड़ी से अपने-अपने शॉपिंग बैग्स उठाकर मृणाल और जक्ष तो अंदर चले गए थे। विज्ञाथा गुस्से में गाड़ी का दरवाज़ा जोर से पटककर बाहर निकल गई।

    "इतना गुस्सा किस बात से है तुम..?" अच्युत ने आखिर पूछ ही लिया।

    वह गुस्से में रुककर मुड़ी और उस पर भड़कते हुए बोली,
    "यह बात आप पूछ रहे हैं.. ? वहाँ मेरी इज़्ज़त नीलाम करने ले गए थे आप अपनी बीवी को.. ? आप जानते भी हैं कि मुझे उसके सामने कितनी एम्बेरेसमेंट फील हुई।"

    "एम्बेरेसमेंट फील हुई..?"

    "हाँ हुई। बहुत हुई। क्योंकि वह घर किसी को दिखाने लायक़ नहीं है जहाँ आप अपनी बीवी को लेकर गए थे। क्या सोच रही होंगी वो... की मेरा ससुराल ऐसा है।"

    "जो है सो है। इसमें क्या छुपाना विज्ञाथा। और रही बात मेरी बीवी की तो वह कभी किसी को घर और पैसा देखकर जज नहीं करती। उसे तो वह जगह और वह घर इतना पसंद आया कि मौसी को बोलकर आई है कल फिर आने का। मेरी बहन! तुम्हें क्या होता जा रहा है दिन-ब-दिन। तुम इतनी जजमेंटल कब से होने लगी।" अच्युत ने उसके कंधे पर हाथ रखा, मगर गुस्से में उसका हाथ झटककर वह अंदर चली गई। अच्युत ने एक गहरी साँस ली और खुद भी अंदर चला आया।

    सब हॉल में बैठे थे, सिवाय मृणाल के। क्योंकि पूरे दिन की थकान उस पर काफ़ी हावी थी, इसलिए घर आते ही वह बेड पर गिर पड़ी थी और सो गई थी। विज्ञाथा, चंचल पाटिल से कुछ अकेले में बात करने के लिए उनके साथ, उनके कमरे में चली गई। उसके बाद जक्ष भी अपने बैग्स उठाकर अपने कमरे में चला गया था।

    जबकि अच्युत वहीं बैठा हुआ विज्ञाथा के बारे में सोच रहा था। बड़ी प्यारी थी उसे अपनी बहन। और उसकी शादीशुदा ज़िन्दगी की उसे काफ़ी फ़िक्र थी। यहाँ वह सोच-समझकर कुछ नहीं कर रही थी। स्टेटस का एक दायरा बनाया था उसने अपने आस-पास। जिससे वह बाहर ही नहीं आ पा रही थी। वही स्टेटस का दायरा जो अब उसके सिर चढ़कर बोल रहा था। अच्युत जानता था कि जब तक वह दायरा टूटेगा नहीं, तब तक उसकी शादीशुदा ज़िन्दगी यूँ ही चलती रहेगी, लड़खड़ाती हुई। एक भाई होने के नाते वह अपनी बहन को समझौता करते हुए नहीं, बल्कि दिल से खुश होकर यह रिश्ता निभाते हुए देखना चाहता था।

    क्रमशः