हाँ वो इंसान नहीं शैतान है लेकिन तू उसकी दवा ऐशा, एक मासूम और होशियार कॉलेज स्टूडेंट, जिसकी ज़िंदगी अब तक किताबों, सपनों और छोटी-छोटी खुशियों में सिमटी थी, अचानक एक ऐसे मोड़ पर आ खड़ी होती है जहाँ उससे एक ऐसा फ़ैसला लिया जाता है... हाँ वो इंसान नहीं शैतान है लेकिन तू उसकी दवा ऐशा, एक मासूम और होशियार कॉलेज स्टूडेंट, जिसकी ज़िंदगी अब तक किताबों, सपनों और छोटी-छोटी खुशियों में सिमटी थी, अचानक एक ऐसे मोड़ पर आ खड़ी होती है जहाँ उससे एक ऐसा फ़ैसला लिया जाता है जो उसकी पूरी दुनिया बदल देता है। एक टूटी हुई माँ उसके सामने हाथ जोड़ती है—"तू ही उसकी दवा है..."—और ऐशा को शादी का प्रस्ताव दिया जाता है, लेकिन ये शादी कोई प्रेम-भरा बंधन नहीं, बल्कि एक ठोस समझौता है। रिश्ता... उस इंसान से, जिसे कॉलेज वाले " प्रोफेसर" कहते हैं—अर्जुन कपूर । जिसके दो रूप है एक अच्छा दूसरा क्रूल, वह एक ऐसा पुरुष है जो दिल से नहीं, जख्मों से सोचता है; जिसकी आंखों में प्यार नहीं, अतीत की राख जलती है; और जो अपनी ही परछाई से डरता है क्योंकि उसका अंधेरा खुद उसकी रूह को खा चुका है। ऐशा इस रिश्ते को स्वीकार करती है—but not out of love, बल्कि एक माँ के आंसुओं की लाचार पुकार के आगे झुककर। लेकिन क्या यह समझौता कभी एक रिश्ता बन पाएगा? क्या एक मासूम लड़की एक ऐसे मानसिक रूप से घायल इंसान को ठीक कर सकती है, जो लोगों की भावनाओं से नहीं, उनके खून से खेलता है? क्या प्यार वहाँ पनप सकता है जहाँ हर दीवार डर और हर खामोशी एक चीख बन चुकी है? यह एक ऐसी कहानी है जहाँ रिश्ते दस्तखत से शुरू होते हैं, और तड़प की आग में तपकर असली इम्तिहान में बदलते हैं। जहाँ एक लड़की अपनी मासूमियत से एक रूह की राख को छुने की कोशिश करती है, और एक आदमी अपने अंदर के दानव से लड़ते हुए इंसान बनने की चाह में तड़पता है। यह कहानी है एक समझौते की, जो मोहब्बत की सबसे मुश्किल इब्तिदा बनती है। एक ऐसे रिश्ते की, जहाँ हर दिन एक जंग है... और हर जंग के बाद एक उम्मीद।
A kiss before the kill
Villain
Esha Mehra
Heroine
Arjun Kapoor
Villain
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शीर्षक: “कांच के पीछे कुछ था…”
अंधेरे ने सब निगल लिया था — आवाज़ें, सांसें, इरादे। अब सिर्फ दीवार से टकराती धड़कनों की आवाज़ बाकी थी।
वह — चमड़े की परत में लिपटा, ठंडी सांसें लेता हुआ, कमरे के एक कोने से धीरे-धीरे आगे बढ़ा। उसके जूतों की एड़ियाँ फर्श के टूटे कांचों से टकरा रहीं थीं। हर कदम पर, जैसे हवा उसके इर्द-गिर्द सिकुड़ती जा रही हो।
वह — खामोश, अधखुली आंखों वाली, दीवार से सटी हुई थी। सांसें तेज़ थीं, लेकिन कोई आवाज़ नहीं। वह कांप रही थी, शायद डर से नहीं, बल्कि उस सिहरन से जो किसी अजनबी के स्पर्श से नहीं, किसी पुराने पाप की याद से आती है।
उसने दीवार पर हाथ टिकाया — उसके पीछे कुछ था। पर अभी उसके सामने कुछ और ज़्यादा ज़रूरी था।
उसने उसकी कलाई पकड़कर अपनी ओर खींचा, इतनी तेज़ी से कि वह उसके सीने से टकरा गई। उसकी सांसें, अब उसकी गर्दन पर बहने लगी थीं।
"मैं तुम्हें फोड़ना चाहता हूँ... जैसे ये दीवार..." वह बड़बड़ाया। उसकी उंगलियाँ अब उसकी गर्दन से उसके कॉलरबोन तक फिसल रही थीं, रगड़ती हुई — जैसे हर नस को पढ़ रही हों।
उसने कोई जवाब नहीं दिया। बस उसकी ऊंगलियों को अपनी त्वचा में डूबने दिया।
"तुम्हारी खामोशी... मुझे चुभती है।" उसने उसकी जबान पकड़ते हुए होंठों पर गहरा, लंबा चुंबन जमाया। इतना तेज़, जैसे वह उसके भीतर समा जाना चाहता हो — जैसे वह सिर्फ उसका शरीर नहीं, उसकी चीखें चुराना चाहता हो।
उसने उसे दीवार से धक्का दिया, लेकिन इस बार वह खुद टकराई। मोमबत्ती की आखिरी लौ कांपी और बुझ गई।
अब सिर्फ अंधेरा था।
उसके हाथ अब उसके कपड़ों के अंदर जा चुके थे — त्वचा की गर्मी, पसीने की गंध और घबराई हुई दिल की धड़कनें... सब उसकी मुट्ठी में थीं।
"क्या तुम डर रही हो?" उसने पूछा।
"मैं टूट रही हूँ..." वह फुसफुसाई।
"पर मैं तुम्हें बिखेरना चाहता हूँ। पूरी तरह।"
उसकी उंगलियाँ अब दीवार के छेद में थीं — दरार के पीछे कुछ था। कांच की परत हटी, और एक पुरानी, लोहे की तिज़ोरी जैसी चीज़ बाहर निकली। लेकिन उसने उसे नहीं खोला।
"पहले, तुम्हें खोलना है..." वह फुसफुसाया, और उसे ज़ोर से अपनी ओर खींच लिया।
उसका बदन अब उसकी पकड़ में था — वह नियंत्रण नहीं, वशीकरण था।
अंधेरे में वह दीवार से चिपकी हुई थी, उसकी टांगें अब उसकी कमर के इर्द-गिर्द थीं। दीवार से लगी पीठ कांप रही थी, और उसके होठों से वह आवाज़ निकल रही थी जो पूरी हवेली ने शायद पहले कभी नहीं सुनी थी — मोह, वासना और किसी गहरे रहस्य की गूंज।
और तभी — उस लोहे की तिजोरी का लॉक "टक" की आवाज़ के साथ खुल गया।
वे दोनों रुक गए।
उसका चेहरा अब भी उसके होठों के पास था।
"दीवार के पीछे... ये क्या है?" उसने पूछा, पर उसकी आवाज़ खुद थरथरा गई।
"तुम्हारा सच... या मेरा अतीत..." वह बोला।
और जब तिज़ोरी का ढक्कन उठा — तो अंदर था एक और चेहरा।
एक नकाब।
जो ठीक वैसा ही था जैसा उसके चेहरे पर था।
वीरान पड़े उस पुरानी हवेली की दीवारों से दर्द की कराहटें टकरा रही थीं। दरवाज़े के बाहर मोहन खड़ा था, हड़बड़ाई साँसों के साथ भीतर से आती आवाज़ें सुन रहा था।
"आह्ह्... बेबी, बहुत दर्द हो रहा है... प्लीज़... आराम से..."
लड़की की सिसकती आवाज़ दीवारों से रिसती हुई मोहन के कानों में पिघलने लगी थी। बंद दरवाज़े के पीछे जो कुछ चल रहा था, उसमें कामुकता भी थी और अजीब सा दर्द भी। मोहन ने घबराकर नज़रें झुका लीं और चुपचाप वहाँ से खिसक गया। किचन के पीछे बने छोटे से सर्वेंट क्वार्टर में लौटकर वह बेमन से सो गया।
सुबह का धुंधलका फैलने लगा था। मोहन ने चाय बनाई और काँपते हाथों से उस कमरे के पास पहुँचा जहाँ रातभर सिसकियाँ गूँजती रहीं थीं। उसने धीरे से दरवाज़ा खोला।
जो दृश्य सामने था, उसने उसके रोंगटे खड़े कर दिए। कमरे में अभी भी रात की गंध थी। एक युवक, अर्जुन, अर्धनग्न हालत में बिस्तर पर बैठा था। उसके हाथ में एक खूनी चाकू चमक रहा था। बिस्तर पर एक लड़की, नेहा, मृत पड़ी थी। उसके सीने में चाकू का घाव बना था। चादरें खून से सनी थीं।
मोहन के मुँह से घबराई आवाज निकली,
"साहब! आपने नेहा मेडम को भी मार डाला... ये तो आपकी !"
अर्जुन ने एक शैतानी मुस्कान के साथ सिर झुकाया और बोला,
"हाँ।"
फिर उसके चेहरे पर अचानक एक मासूमियत आ गई, मानो उसे कुछ पता ही न हो।
"पर क्या करूँ... तुम जानते ही हो, मुझे अच्छा नहीं लगता जब लड़कियाँ मेरी बात नहीं मानतीं।"
वो धीमे से फुसफुसाया, "पहली दो लडकियों के साथ भी यही हुआ था... और अब नेहा भी। दर्द हो रहा था तो क्या? आराम से चुप रहना चाहिए था।"
मोहन हकलाते हुए बोला,
"अब क्या करें, साहब?"
अर्जुन ने ठंडी, निर्दयी आवाज़ में आदेश दिया,
"वही करो जो पहले किया था। पीछे के बैकयार्ड में गड्ढा खोदकर दफना दो।"
मोहन सिर झुकाकर वहाँ से भागा। कुछ ही घंटों में नेहा का शव भी मिट्टी में दब चुका था, दो और अधूरी कहानियों की तरह।
कुछ देर बाद, अर्जुन तैयार होकर अपनी काले रंग की कार में बैठा। उसकी आँखें, नीली... गहरी... रहस्यमयी, जैसे किसी शैतान की आत्मा झाँक रही हो। उसकी कार एक कॉलेज के सामने आकर रुकी। वो दरवाज़ा खोलकर बाहर निकला।
कॉलेज के गेट पर खड़े सभी छात्रों ने आदर से उसे देखा —
"गुड मॉर्निंग, प्रोफेसर अर्जुन!"
वो हल्की मुस्कान के साथ सिर हिलाता आगे बढ़ा। किसी को भी भनक नहीं थी कि उनके प्यारे प्रोफेसर की आत्मा पर खून के दाग लगे थे। कक्षा में पहुँचकर अर्जुन ने बोर्ड पर लिखने के लिए हाथ बढ़ाया ही था कि अचानक दरवाज़ा खुला।
एक ताज़गी से भरी आवाज गूँजी,
"सो... सोरी सर... मैं लेट हो गई..."
अर्जुन पलटा। और फिर... वक़्त थम गया।
दरवाज़ा हौले से खुला। और उस क्षण जैसे समय ने एक लंबी, गहरी साँस ली। ऐशा... सफ़ेद टॉप में लिपटी मासूम सी रिया... हथेलियों से बैग के स्ट्रैप को कसकर पकड़े, झिझकते हुए दरवाज़े के पास खड़ी थी। उसकी बड़ी-बड़ी आँखें घबराई हुई थीं, जैसे किसी नई दुनिया के दरवाज़े पर दस्तक दी हो। गालों पर शर्म की गुलाबी परत थी और होंठ हल्के-से काँप रहे थे।
"सो... सोरी सर... मैं लेट हो गई..."
उसकी आवाज नर्म थी, जैसे रेशमी कपड़े पर ओस की बूँद गिरी हो।
सूचना :
क्यों उस एक मासूम लड़की को करनी पड़ी पाँच भाइयों से शादी?
क्या यह महज़ एक प्रथा थी?
या एक सौदे की कीमत...?
या फिर कोई ऐसा राज, जो पाँच जिंदगियों के नाम एक औरत को गिरवी रखने पर मजबूर कर गया?
एक लड़की की मजबूरी, पाँच परछाइयों का सच, और एक रिश्ते की अनसुनी चीख...
इस कहानी में छिपा है मनुष्य की हवस और आत्मा की पुकार के बीच का संघर्ष।
क्यों उस एक मासूम लड़की को करनी पड़ी पाँच भाइयों से शादी?
क्या यह महज़ एक प्रथा थी?
या एक सौदे की कीमत...?
या फिर कोई ऐसा राज, जो पाँच जिंदगियों को एक औरत के नाम गिरवी रखने पर मजबूर कर गया?
एक लड़की की मजबूरी, पाँच परछाइयों का सच, और एक रिश्ते की अनसुनी चीख...
इस कहानी में छिपा है मनुष्य की हवस और आत्मा की पुकार के बीच का संघर्ष।
मेरी इस नोवेल का नाम है my five cruel dangerous hubbyie
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उसकी नीली आँखों में, जो अब तक केवल शिकारी सर्दी से चमकती थीं, पहली बार एक हल्की गर्माहट की लहर दौड़ी। हथेली में पकड़ा चॉक फिसलते-फिसलते रुका। उसकी साँसें एक पल के लिए धीमी पड़ गईं।
ऐशा का चेहरा मासूम था, लेकिन उसकी आँखों में एक अजीब सी गहराई थी—बिलकुल वैसी, जैसी अर्जुन ने कभी नहीं देखी थी।
"बैठ जाओ... ऐशा," उसने आवाज को काबू में रखते हुए कहा। उसकी आवाज में अब भी वही सख्ती थी, पर शब्दों के पीछे एक धीमा कम्पन था—जिसे शायद केवल वही महसूस कर सकता था।
ऐशा ने जल्दी से सिर झुकाया और धीमे-धीमे कदमों से कक्षा के पीछे की ओर बढ़ी। हर कदम पर उसके पैरों की आहट अर्जुन को साफ सुनाई दे रही थी, जैसे वो सीधा उसके दिल की जमीन पर पड़ रही हो।
उसकी हल्की नीली जीन्स, कंधों पर ढुलका हुआ घुंघराला बालों का गुच्छा, चलते वक्त उसका नर्म-सा झुकना—अर्जुन के भीतर कुछ नया लिखने लगा था, कुछ ऐसा जिसे वह पहचानने से भी डरता था।
ऐशा ने सबसे पीछे एक कोना चुना और वहाँ जाकर बैठ गई। बैग मेज़ पर रखा, हाथ काँपते हुए किताब निकाली। पर नज़रें? नज़रें बार-बार अनजाने में अर्जुन की ओर उठ जाती थीं।
अर्जुन ने चॉक उठाया, लेकिन अब उसकी उंगलियों में हल्की बेचैनी थी। बोर्ड पर लिखते समय भी उसकी निगाहें अनायास पीछे झाँकने लगीं।
जब भी वह लिखते-लिखते थोड़ा मुड़ता, ऐशा की पलकें घबरा कर झुक जाती थीं। जब भी उसकी आवाज कमरे में गूँजती, ऐशा के कानों की लौ धीमी-धीमी लाल हो जाती थी।
कक्षा में बाकी छात्र भी थे, पर अर्जुन और ऐशा के बीच एक अदृश्य धागा खिंच चुका था—एक धीमा, कसता हुआ बंधन।
कक्षा के अंत में अर्जुन ने एक पेपर वितरित करने के लिए सभी को बुलाया। ऐशा अनमनी-सी उठी, अपनी किताबें समेटी, और झुकी हुई नजरों से धीरे-धीरे आगे बढ़ी।
जब वह अर्जुन के डेस्क के पास पहुँची, उसके कंधे से बैग फिसला और ज़मीन पर गिर पड़ा। किताबें फिसल कर चारों ओर फैल गईं।
एक क्षण का सन्नाटा।
ऐशा झेंप गई। घबराई हुई सी झुकने लगी किताबें समेटने के लिए। अर्जुन का दिल एक अनजानी कसक से भर गया।
बिना सोचे, उसने भी झुककर किताबें उठाने में उसकी मदद की।
ऐशा का हाथ किताब पर था, अर्जुन का भी। उनकी उंगलियाँ एक पल के लिए टकराईं।
बिजली। दोनों ने एकसाथ सिर उठाया। ऐशा की साँसें तेज थीं, आँखें बड़ी और डरी हुई। अर्जुन की नीली आँखें गहरी हो गईं, जैसे वो ऐशा के भीतर झाँकना चाह रहा हो।
उस स्पर्श में कोई वासना नहीं थी, कोई हिंसा नहीं थी। बस... एक नर्म सी बेचैनी थी, एक अनकही पुकार थी।
ऐशा जल्दी से हाथ पीछे कर बैठी। उसकी आँखें झुकीं, चेहरा और भी गुलाबी हो गया।
अर्जुन ने किताबें उसके बैग में रख दीं और बहुत धीमी आवाज़ में बोला,
"कोई बात नहीं। ध्यान से चलो।"
ऐशा ने सिर झुकाकर धन्यवाद कहा और भागती हुई अपनी सीट पर लौट गई। लेकिन अर्जुन वहीँ खड़ा रहा, कुछ पल तक।
उसके भीतर एक जंग छिड़ चुकी थी। शैतान और इंसान...
पहली बार, कोई लड़की उसके भीतर के दरिंदे को चुप करवा रही थी। पहली बार, उसे किसी को 'तोड़ने' का नहीं, 'सहेजने' का मन कर रहा था।
कक्षा समाप्त हो गई। बच्चे धीरे-धीरे निकलने लगे। ऐशा ने सबसे आखिर में बैग उठाया।
जब वह दरवाज़े तक पहुँची, अर्जुन ने उसे पुकारा,
"ऐशा।"
वह ठिठकी। दिल की धड़कनें बेकाबू हो गईं। धीरे-धीरे पलटी।
"तुम से बात करनी थी," अर्जुन ने कहा। उसकी आवाज संयत थी, पर आँखें उसकी बेचैनी छिपा नहीं पा रही थीं।
"जी, सर?" ऐशा ने काँपती आवाज़ में पूछा।
अर्जुन ने उसकी घबराहट भाँपी और खुद को सँभाला।
"आज जो टॉपिक पढ़ाया है, उसे समझने के लिए अगर तुम्हें किसी तरह की मदद चाहिए, तो... तुम चाहें तो ऑफिस ऑवर में आ सकती हैं।"
ऐशा ने एक पल को उसकी आँखों में देखा। वो गहरी, नीली आँखें अब उसे डरा नहीं रही थीं। उसमें कुछ ऐसा था जो उसे खींच रहा था।
"जी... थैंक यू, सर..." वह फुसफुसाई और जल्दी से बाहर निकल गई।
अर्जुन उसे जाते हुए देखता रहा। उसके हर कदम के साथ अर्जुन के भीतर कुछ टूटता और फिर जुड़ता रहा।
जब वह अपनी कार में बैठा, उसके दिमाग में वही छोटी-छोटी बातें घूम रही थीं—ऐशा की घबराई मुस्कान, उसका किताब गिरा देना, उनकी उंगलियों का टकराना...
अर्जुन ने अपनी कार का स्टीयरिंग कसकर पकड़ा और आँखें बंद कर लीं।
वह जानता था—यह लड़की... यह मासूम सी, नर्म सी लड़की... क्या उसकी ज़िन्दगी बदलने आ गई थी? या कुछ और,
और अब वो चाहे भी तो... खुद को उससे दूर नहीं कर पाएगा।
पर क्या एक शैतान को मोहब्बत की इजाज़त होती है? क्या खून से सनी आत्मा भी किसी के लिए पाक हो सकती है?
कार की खिड़की से धूप उसके चेहरे पर पड़ रही थी, लेकिन अर्जुन को लगता रहा जैसे उसकी आत्मा किसी स्याह अंधेरे में गिर रही हो... और एक नन्हीं-सी रौशनी उसे पकड़ने की कोशिश कर रही हो।
"बेआवाज़ धड़कनों का खेल"
कुछ देर बाद, कॉरिडोर के उस पार ऐशा के कदम गूंज रहे थे—हल्के, डरे हुए, लेकिन उनमें एक अनजाना सा खिंचाव था। जैसे कोई नामालूम डोर उसे पीछे से खींच रही हो। अर्जुन खिड़की के पास खड़ा उसे जाते हुए देख रहा था; हथेलियाँ पसीने से भीग रही थीं।
खुद से लड़ता हुआ, अर्जुन एक कदम पीछे हट गया।
"बस एक स्टूडेंट है," उसने खुद को समझाने की कोशिश की।
"एक स्टूडेंट... और कुछ नहीं।"
पर उसकी नीली आँखें जानती थीं—यह झूठ था।
अर्जुन ने गहरी साँस ली और अपनी शर्ट की बाँहें मोड़ते हुए ऑफिस की ओर बढ़ गया। दोपहर की धूप अब तेज हो चली थी। कॉलेज के गलियारों में छात्रों का शोर धीमा पड़ गया था; बस दूर कहीं से फाइलों के पलटने और टाइपराइटर के पुराने ठक-ठक की आवाज आ रही थी।
ऑफिस का कमरा—वही जगह जहाँ वह हर दिन हज़ारों पेपर चेक करता था, डिसिप्लिन नोटिस लिखता था, या स्टाफ मीटिंग्स में चुपचाप बैठता था। पर आज, जैसे दीवारें भी साँसें ले रही थीं।
उसने मेज़ पर किताबें फैलाईं, लेकिन ध्यान कहीं और था। अचानक दरवाज़े पर दस्तक हुई।
ठक-ठक।
उसके दिल ने जैसे एक पल को धड़कना छोड़ दिया।
"आ... आ सकते हो," उसने संयत होकर कहा।
दरवाज़ा धीमे से खुला—और वही सिहरन फिर दौड़ी। ऐशा।
वही सफेद टॉप, वही काँपती नर्म आवाज़।
"सर, आपने बुलाया था...?"
उसकी आँखें अब भी नीची थीं, लेकिन उनमें एक अनजानी जिज्ञासा तैर रही थी।
"हाँ, अंदर आओ।"
अर्जुन ने कुर्सी से उठते हुए कहा, पर उसने खुद को उसकी ओर देखने से रोका।
ऐशा धीरे-धीरे कमरे में आई। कमरे की बंद हवा में उसकी खुशबू घुल गई—ताजे फूलों जैसी—और अर्जुन की साँसें अचानक भारी हो गईं।
"बैठो," उसने इशारा किया।
ऐशा धीरे से सामने वाली कुर्सी पर बैठ गई, बैग गोद में दबाए हुए, जैसे कोई ढाल हो अपने और अर्जुन के बीच।
कुछ देर दोनों के बीच चुप्पी पसरी रही। सिर्फ वॉल क्लॉक की टिक-टिक।
अर्जुन ने किताब उठाई और टॉपिक खोलकर समझाने लगा—शब्दों पर पूरा ध्यान देते हुए, अपनी धड़कनों पर काबू पाते हुए।
पर ऐशा... वह उसे नहीं, उसकी आवाज़ को सुन रही थी। हर शब्द उसके कानों में धीमे-धीमे उतर रहा था—जैसे किसी सूखे मन पर पहली बरसात।
अचानक अर्जुन ने महसूस किया कि ऐशा की निगाहें उस पर टिकी हैं।
वह रुका। पलकों के नीचे से ऐशा की झिझकती, डरती और फिर भी बाँधती आँखें देखीं। वो देख रही थी—अर्जुन के चेहरे की कठोर रेखाएँ, उसकी नीली आँखों में छुपा अनकहा दर्द।
"समझ आया?" अर्जुन ने खुद को खुरदरी आवाज में संभालते हुए पूछा।
ऐशा ने हल्के से सिर हिलाया।
"जी, सर... बस..."
वह रुक गई।
"बस?" अर्जुन ने नर्म लहजे में पूछा।
ऐशा ने होंठ भींच लिए। फिर हिम्मत करके बोली,
"सर... आप हमेशा इतने... इतने गुस्से में क्यों रहते हैं?"
कमरे में जैसे कुछ ठहर गया। अर्जुन के भीतर कुछ चटक कर टूटा। वह पल भर को स्तब्ध रह गया। ऐसा सवाल उससे कभी किसी ने नहीं पूछा था। कभी किसी ने इतनी मासूमियत से उसके अंदर के शैतान तक पहुँचने की कोशिश नहीं की थी।
ऐशा ने हल्के से सिर हिलाया।
"जी, सर... बस..."
वह रुक गई।
"बस?" अर्जुन ने नर्म लहजे में पूछा।
ऐशा ने होंठ भींच लिए। फिर हिम्मत करके बोली,
"सर... आप हमेशा इतने... इतने गुस्से में क्यों रहते हैं?"
कमरे में जैसे कुछ ठहर गया। अर्जुन के भीतर कुछ चटक कर टूटा। वह पल भर को स्तब्ध रह गया। ऐसा सवाल उससे कभी किसी ने नहीं पूछा था। कभी किसी ने इतनी मासूमियत से उसके अंदर के शैतान तक पहुँचने की कोशिश नहीं की थी।
"क्योंकि..." उसने एक थकी हुई हँसी हँसते हुए कहा, "दुनिया के लिए एक शैतान बनना ज़रूरी था।"
ऐशा ने धीरे से उसकी तरफ देखा। उसकी आँखों में डर नहीं था अब। बस... गहरी, नर्म समझ थी।
अचानक एक चीख गूँजी—बाहर से।
"अर्जुन सर! अर्जुन सर!"
दो छात्र भागते हुए अंदर आए, चेहरे पर दहशत।
"सर! ग्राउंड फ्लोर पर किसी लड़की पर अटैक हुआ है! बहुत खून बह रहा है!"
अर्जुन बिना सोचे कुर्सी से कूद पड़ा। ऐशा भी घबरा गई।
"यहाँ रुको!" अर्जुन ने उसे आदेश दिया और बाहर दौड़ गया।
कॉरिडोर में भगदड़ मच गई थी। छात्रों की भीड़, चीख-पुकार, खून की गंध—सबकुछ एकदम अचानक। ग्राउंड फ्लोर पर एक लड़की फर्श पर पड़ी थी, उसके माथे से खून बह रहा था। चश्मदीद छात्रों के मुताबिक, किसी ने पीछे से धक्का दिया था—शायद इरादा कुछ और था, शायद कोई हमला।
अर्जुन ने तुरंत सिक्योरिटी गार्ड्स को बुलाया। उसने लड़की को गाड़ी में बिठाया और अस्पताल भिजवाया।
लेकिन उसके दिमाग में एक डर लगातार गूँज रहा था—
"अगर ऐशा होती तो?"
उसने मुट्ठियाँ भींच लीं। कसम खाई—किसी भी कीमत पर उसे बचाना होगा।
जब वह वापस ऑफिस लौटा, ऐशा अब भी वहीं थी—डरी-सहमी सी। अर्जुन ने दरवाज़ा बंद किया, उसकी ओर बढ़ा।
"सब ठीक है?" उसने धीमी आवाज में पूछा।
ऐशा ने सिर हिलाया। लेकिन उसकी आँखों में डर झलक रहा था। अर्जुन ने पहली बार नर्म होकर उसके कंधे पर हाथ रखा।
"तुम्हें अब कभी कुछ नहीं होने दूँगा," उसने फुसफुसाकर कहा।
ऐशा ने उसकी आँखों में देखा—और पहली बार, मुस्कुराई। छोटी-सी, काँपती हुई मुस्कान। पर अर्जुन के लिए वह मुस्कान ही कायनात थी।
दोनों के बीच जो दूरी थी, वह धीमे-धीमे पिघलने लगी। उसका स्पर्श ऐशा को डरा नहीं रहा था—वह एक सुरक्षित घेरे जैसा लग रहा था। अर्जुन ने खुद को ज़बरदस्ती पीछे खींचा।
"तुम्हें घर छोड़ दूँ?" उसने पूछा।
ऐशा ने सिर हिलाया। उसका डर अब भी कायम था—पर अर्जुन के साथ, उसे पहली बार भरोसा महसूस हो रहा था।
गाड़ी में सन्नाटा था। रास्ते में अर्जुन चुप था। ऐशा खिड़की से बाहर देख रही थी, लेकिन उसकी उंगलियाँ बार-बार बैग के स्ट्रैप को मसल रही थीं।
"तुम बहुत अलग हो," अर्जुन ने अचानक कहा।
ऐशा चौंकी। उसकी नजरें अर्जुन पर टिक गईं।
"दुनिया मुझे शैतान समझती है," अर्जुन ने हल्के से मुस्कुराते हुए कहा, "पर तुम... तुम मेरी आँखों में भी कुछ और देख पाई हो।"
ऐशा ने धीरे से कहा, "कभी-कभी शैतान भी बस... अकेला होता है, सर।"
उनकी निगाहें मिलीं। और उस एक पल में, अर्जुन जान गया—यह मासूम लड़की, उसकी सबसे बड़ी कमजोरी बनने जा रही थी।
पर प्यार आसान नहीं था। उसके अतीत के साए, उसके दुश्मन, और उसकी अपनी आत्मा की स्याही—सब उसे घेरने को तैयार थे।
गाड़ी धीमे से ऐशा के घर के बाहर रुकी। ऐशा ने बैग उठाया, दरवाज़ा खोलने लगी।
"ऐशा," अर्जुन ने धीरे से उसका नाम पुकारा।
वह पलटी। अर्जुन ने उसकी तरफ झुकते हुए कहा—
"अगर कभी भी... कुछ भी हो... तो बस मेरा नाम लेना।"
ऐशा की आँखों में नमी तैर गई। उसने हौले से सिर हिलाया और घर के दरवाज़े की ओर भागी।
अर्जुन वहीं बैठा रहा—देर तक। खुद को रोकते हुए। खुद से लड़ते हुए। क्योंकि वह जानता था—अब उसकी ज़िंदगी उसकी नहीं रही। वह अब उस मासूम मुस्कान का कर्ज़दार बन चुका था।
"रात की चुप्पी में उगते सवाल"
छोटे से दो-मंज़िला घर की खिड़कियों से हल्की पीली रोशनी बाहर झाँक रही थी। बाहर हलकी-हलकी ठंडी हवा चल रही थी, जो सड़क के किनारे लगे गुलमोहर के पेड़ों की शाखाओं को मंद-मंद हिला रही थी।
ऐशा ने थके कदमों से लोहे के गेट को खोला और भीतर आ गई। जैसे ही उसने दरवाज़ा धकेला, भीतर से रसोई की महक—घी में तली पूरी, गरम आलू-टमाटर की सब्ज़ी और चाय की भीनी-सी खुशबू—उसकी थकान पर एक मुलायम चादर जैसी लहर गई।
"आ गई बिटिया?"
शारदा आंटी, उसकी फ्रेंड सिया की माँ, किचन से मुस्कुराती हुई निकलीं।
"जी आंटी," ऐशा ने धीमे से मुस्कुराते हुए जूते उतारे और बैग एक कोने में रखा। उसकी आवाज़ में दिनभर का बोझ था, लेकिन आँखों में कहीं कोई और ही बेचैनी झलक रही थी।
सिया भागती हुई आई और उसका हाथ पकड़कर खींचने लगी।
"चल जल्दी से, सब डाइनिंग टेबल पर इंतज़ार कर रहे हैं।"
ऐशा हँस दी, लेकिन उस हँसी में थकावट थी। वह सिया के पीछे-पीछे डाइनिंग रूम में आई।
टेबल पर सिया के पापा—रमेश अंकल—अखबार का एक कोना मोड़ते हुए बैठे थे। सामने, सिर झुकाए मोबाइल पर कुछ स्क्रॉल करता एक लड़का बैठा था—आरव। सिया का भाई।
आरव ने जैसे ही ऐशा को आते देखा, मोबाइल किनारे रखा और एक पल के लिए उसकी तरफ देखा।
वो नज़रे कोई आम नज़रे नहीं थीं। उनमें धीमी सी गर्मी थी—छुपी हुई, कच्ची सी।
ऐशा ने नज़रें चुरा लीं।
"आओ ऐशा बेटा, बैठो। भूख लगी होगी ना?" रमेश अंकल ने प्यार से कहा।
"थोड़ी..." ऐशा ने हल्के से सिर हिलाया। सच तो ये था कि उसकी भूख जैसे कॉलेज के उस एक पल में कहीं खो गई थी, जब अर्जुन सर की उँगलियाँ उसकी उँगलियों से टकराई थीं।
उसने खुद को झटका और बैठ गई।
सिया हँसते हुए चाटुकी,
"आज लेट क्यों हो गई? कहीं किसी के साथ तो फँस नहीं गई थी?"
सिया के इस मज़ाक पर सब हँस दिए। पर ऐशा के चेहरे पर एक पल के लिए सिहरन दौड़ी।
कहीं किसी ने देख तो नहीं लिया था उस नज़दीकी को?
"नहीं यार, बस... नया चैप्टर थोड़ा मुश्किल था।" ऐशा ने बहाना बनाया।
"मैं हेल्प कर दूँगी, तू टेंशन मत ले।" सिया ने प्याली भरते हुए कहा।
आरव ने चुपचाप प्लेट उसकी तरफ बढ़ाई। उसके उंगलियों का हल्का स्पर्श ऐशा के हाथ से छू गया। अनजाने में। शायद जानबूझकर भी।
ऐशा ने सिर झुकाकर "थैंक यू" कहा, पर उसका दिल एक बार फिर हल्का-सा काँप उठा।
खाना खाते समय भी ऐशा बार-बार खुद को अर्जुन की गहरी नीली आँखों में फँसा पाती थी। उस हल्के से टच की गर्मी उसकी उँगलियों में अब भी अटकी हुई थी।
रात को, जब सब सोने चले गए, ऐशा बालकनी में निकल आई। हल्की-हल्की हवा उसके खुले बालों से खेल रही थी।
चाँदनी बिखरी हुई थी। नीचे गली में एक बिल्ली चुपचाप चल रही थी।
वह रेलिंग पर कोहनी टिकाकर खड़ी हो गई।
उसकी सोच बार-बार वहीं लौट रही थी—अर्जुन सर के चुप होते चेहरे पर, उनकी नीली आँखों में फड़फड़ाती बेचैनी पर।
"मैं क्यों सोच रही हूँ इतना?" उसने खुद से फुसफुसाकर पूछा।
"वो मेरे प्रोफेसर हैं। बस। और कुछ नहीं।"
लेकिन दिल तो कुछ और ही कह रहा था।
तभी धीरे से दरवाज़ा खुला।
"नींद नहीं आ रही?"
आरव की आवाज़ थी। धीमी, हिचकिचाती।
ऐशा ने पलटकर देखा। उसने हल्की-सी मुस्कुराहट दी, जो जल्दी ही फीकी पड़ गई।
"बस थोड़ा सा..." वह फुसफुसाई।
आरव उसके पास आ गया, लेकिन एक सुरक्षित दूरी बनाकर खड़ा रहा।
कुछ पल खामोशी रही। हवा दोनों के बीच बहती रही।
फिर आरव ने धीमे से कहा, "अगर... कुछ परेशान कर रहा हो, तो बता सकती हो। मैं... मैं सुन सकता हूँ।"
ऐशा चौंकी। क्या उसके चेहरे पर लिखा था दर्द?
"नहीं... कुछ नहीं," वह जल्दी से बोली।
आरव ने मुस्कुराने की कोशिश की, लेकिन उसकी आँखों में हल्की-सी उदासी थी।
"ठीक है।"
वह पलटा, लेकिन जाते-जाते एक नज़र फिर ऐशा पर डाल गया—एक नज़र जिसमें काश कुछ कह पाने की चाह थी।
कमरे में लौटकर ऐशा देर तक करवट बदलती रही। तकिए में चेहरा छुपाती रही। उसकी आँखों में दो नाम बार-बार उभरते रहे:
अर्जुन... और आरव।
एक, जो उसकी आत्मा की गहराइयों में कहीं आग सा धधक रहा था। एक, जो उसकी जिंदगी में शांति सा दस्तक दे रहा था।
पर दिल जानता था—आग को बुझाना आसान नहीं होता। और जो नीली आँखों वाला शैतान उसके भाग्य में लिखा था, वो उसे कहीं ना कहीं, फिर खींच कर ले आएगा।
कहाँ? कैसे? कब?
यह सोचकर ऐशा की आँखों में नींद से पहले हल्की-सी नमी तैर गई।
और बाहर कहीं दूर, रात के सन्नाटे में, एक कार का साइलेंसर धीमे से गरजा। अर्जुन की कार। जो बिना आवाज़ किए, इस गली से गुज़र रही थी... बस एक नज़र पाने के लिए।
धड़कनों के रहस्य और एक नीली नज़र
सुबह की पहली किरणों ने खिड़की से झाँककर ऐशा को चुपचाप छुआ। तकिए पर सिर टिकाए वह आँखें मूँदे लेटी रही। रात की उलझनें अब भी उसकी साँसों में ठहरी थीं—अर्जुन सर की नीली आँखों की चमक, उनकी आहिस्ता-सी मुस्कुराहट...
धीरे से उठकर ऐशा ने आईने में खुद को देखा। आँखों के नीचे हलकी थकान थी, और दिल के भीतर कोई अदृश्य कम्पन।
नीचे सिया की आवाज़ गूँजी—
"ऐशा! जल्दी कर, अर्जुन सर का सेमिनार आज है!"
अर्जुन सर। उस नाम का एक अलग वज़न उसके भीतर उतरने लगा था—चुपचाप।
कॉलेज का हॉल हलचल से भरा था। पोस्टर टँगे थे, लाइट्स सजी थीं, और छात्रों में फुसफुसाहटें गूँज रही थीं। ऐशा ने हल्का नीला टॉप चुना—न जाने क्यों, वही रंग जो उसे अर्जुन सर की आँखों की याद दिला रहा था।
जैसे ही वह हॉल में पहुँची, अर्जुन सर स्टेज पर थे—काले ब्लेज़र में, आत्मविश्वास से भरे हुए। उनकी आवाज़ पूरे सभागार में गूँज रही थी:
"Emotion और Intellect—जब एक साथ चलते हैं, तभी इंसान असली खोज कर पाता है।"
ऐशा की नज़र अनायास उनकी ओर उठी। कुछ पल के लिए उनकी निगाह भी मंच से फिसलकर उसके चेहरे पर टिक गई—इतनी क्षणिक, फिर भी इतनी तीव्र कि ऐशा का दिल बेतरतीब धड़क उठा।
आरव पीछे की सीट पर बैठा सब देख रहा था—चुपचाप, सधे हुए। वह इस कॉलेज का छात्र नहीं था, लेकिन ऐशा के हर मोड़ पर जैसे एक साया बनकर साथ था—आज भी।
ब्रेक के दौरान, जब छात्र कॉरिडोर में बिखर गए थे, अर्जुन सर ने ऐशा को रुकने का हल्का-सा इशारा किया। उनका इशारा बहुत संयमित था—कोई जल्दबाज़ी नहीं, कोई आग्रह नहीं।
"क्या तुम दो मिनट दे सकती हो?"
उनकी आवाज़ स्थिर थी, पर आँखों में कोई अनकहा सवाल थिरक रहा था।
ऐशा चुपचाप उनके पीछे चल दी।
कॉलेज के पीछे छोटा-सा गार्डन था, जहाँ पुरानी पत्थर की बेंचें और सूखे पत्तों का संगीत पसरा था।
"तुमसे एक सवाल पूछना चाहता हूँ," अर्जुन ने कहा।
ऐशा ने धीरे से सिर हिलाया।
"क्या तुम उन लोगों में से हो, जो सिर्फ आँखों से समझती हैं?"
उनकी नर्म, लेकिन सीधी नज़र ऐशा को उलझा गई।
वह कुछ बोल न सकी। बस हवा के साथ उसका साँस हिलता रहा।
"कभी-कभी," अर्जुन बोले, "कुछ रिश्ते पहली मुलाक़ात में ही बीज बन जाते हैं। उन्हें समय चाहिए—बढ़ने के लिए, पहचानने के लिए।"
ऐशा की साँसें थमी-सी थीं।
"मैं नहीं चाहता कि तुम मुझसे डर जाओ," उन्होंने संयत स्वर में कहा। "या ये सोचो कि तुम्हारे लिए कोई बोझ बनूँगा।"
उसने पहली बार थोड़ी राहत की साँस ली।
"मैं... समझने की कोशिश कर रही हूँ, सर," ऐशा ने धीमे से कहा।
अर्जुन हल्के से मुस्कुराए—एक मुस्कान जो आधी थी, और आधी बस आँखों में थी। फिर वह वापस मुड़ गए—बिना छुए, बिना रोके।
शाम को ऐशा लाइब्रेरी के एक कोने में बैठी थी। उसकी डायरी खुली थी:
"कुछ रिश्ते आवाज़ माँगते हैं, कुछ बस मौन में उगते हैं।"
उसी समय, बिजली हल्की-सी झपकी—एक पल के लिए सारा कमरा अँधेरे में डूब गया।
"कोई है?" उसने नर्म आवाज़ में पुकारा।
कदमों की आहट पास आई—स्थिर, धीमी।
"डरने की ज़रूरत नहीं," आवाज़ आई।
वह अर्जुन थे।
उनके हाथ में एक छोटा लिफाफा था।
"यह तुम्हारे लिए है," उन्होंने कहा।
हिचकिचाते हुए ऐशा ने लिफाफा लिया। अंदर एक छोटा सा कागज़ था—उस पर लिखा था:
"हर उत्तर अपने समय पर आता है। खुद पर भरोसा रखना सीखो। - A."
कोई लॉकेट नहीं। कोई सीधी बात नहीं। सिर्फ एक संकेत—और धैर्य।
ऐशा ने सिर झुकाया—और महसूस किया कि कुछ गहरा उसके भीतर उग रहा था। धीरे-धीरे। बिना आवाज़ के।
बाहर बारिश की बूँदें धीरे-धीरे गिर रही थीं। और कहीं दूर, एक कार की पिछली सीट पर बैठा कोई शख्स मोबाइल स्क्रीन पर ऐशा की तस्वीर देख रहा था—उसकी आँखों में अजीब-सा अँधेरा था।
"कहानी बस शुरू हुई है, ऐशा..."
उसने फुसफुसाया।
बारिश अब रुक चुकी थी, पर ऐशा की साँसों में अब भी भीगी हुई नमी बाकी थी। लाइब्रेरी से बाहर निकलते वक्त उसकी उंगलियाँ अब भी उस छोटे कागज़ की कोर को छू रही थीं—जैसे उसमें कोई अदृश्य स्याही से लिखा कोई और संदेश छिपा हो। उसने लिफाफा बैग में रखा और घर की ओर बढ़ गई, पर उसका ध्यान पीछे छूटते कदमों की आहट पर अटक गया। वह मुड़ी—कोई नहीं था।
"शायद वहम है," उसने खुद से कहा, पर उसका दिल इस सफ़ाई को मानने को तैयार नहीं था।
रात को, जब बाकी लोग अपने-अपने कमरे में नींद में डूबे थे, ऐशा खिड़की के पास बैठी डायरी में कुछ लिखने की कोशिश कर रही थी। पर हर शब्द के बीच, अर्जुन की वो नज़रें उभर आतीं—स्थिर, समझती हुई, और कुछ कहने से कतराती। साथ ही, किसी और की वो फुसफुसाहट भी उसके ज़ेहन में गूँजती रही—"कहानी बस शुरू हुई है, ऐशा..."
अगली सुबह कैंपस में हलचल थी। किसी ने बताया कि एक नई रिसर्च टीम कॉलेज आई है—पुरानी इमारत की आर्काइव्स को डिजिटलाइज करने के लिए। ऐशा को उस खबर से कुछ ख़ास लेना-देना नहीं था, लेकिन जब उसका नाम एक "प्रोजेक्ट असिस्टेंट" के तौर पर लिस्ट में देखा गया, तो वह चौंक गई।
"सर ने खुद तुम्हारा नाम दिया है," प्रोजेक्ट लीड ने मुस्कराते हुए कहा।
"किस सर ने?" ऐशा ने अचकचाकर पूछा।
"प्रोफेसर अर्जुन," उन्होंने कहा।
एक झुरझुरी-सी ऐशा की पीठ से उतर कर उँगलियों तक चली गई।
पुरानी इमारत कॉलेज से थोड़ा हटकर थी—नीली काई से ढकी दीवारें, जंग लगे ताले और एक भूले-बिसरे समय की गंध। जैसे ही टीम अंदर घुसी, हज़ारों काग़ज़ों, फाइलों और धूल भरे रजिस्टरों का समंदर सामने था।
"तुम इन फोल्डर्स को स्कैन करो," अर्जुन ने उससे कहा। उनकी आवाज़ सधे हुए तनाव में थी—जैसे उन्हें कुछ ढूँढना था, और समय बहुत कम था।
"क्या कुछ खास खोज रहे हैं, सर?" ऐशा ने पूछा।
"कभी-कभी इतिहास से कुछ जवाब माँगने होते हैं," उन्होंने धीमे से कहा। "और कभी-कभी सवाल खुद सामने आ जाते हैं... बिना पूछे।"
अचानक एक फाइल से कुछ गिरा—एक पुराना स्केच। उसमें एक लड़की की हल्की सी आकृति थी—आँखें वैसी ही जैसे ऐशा की।
"ये किसकी है?" उसने चौंककर पूछा।
"कोई भूतकाल की कहानी," अर्जुन ने कहा, पर उनकी आँखें किसी और ही समय में अटकी थीं।
दोपहर ढलने लगी थी। बाकी टीम लंच के लिए बाहर जा चुकी थी। अर्जुन अब भी एक पुराने लॉकर को खोलने की कोशिश कर रहे थे। ऐशा वहीं खड़ी थी, हाथ में वो स्केच लिए।
"इस लड़की की आँखों में कुछ है," उसने कहा। "जैसे कोई छिपा हुआ राज़..."
"उसका नाम 'अन्वेषा' था," अर्जुन ने धीमे से कहा। "और वो कभी कॉलेज ज़िंदगी का हिस्सा थी।"
ऐशा की साँस अटक गई।
"वो... क्या हुआ था उन्हें?"
"खो गई," अर्जुन ने टुकड़ों में जवाब दिया। "और शायद अपने साथ कुछ ऐसा भी ले गई, जो मेरा था।"
उनकी आवाज़ में दर्द नहीं था, पर एक ठंडी ठंडक थी—जैसे बरसों पुराना ज़ख्म अब भी नमी छोड़ता हो।
शाम को जब ऐशा घर वापस पहुँची, उसकी मेज पर एक छोटा पैकेट रखा था। बिना प्रेषक के। हाथ काँपते हुए उसने उसे खोला—अंदर वही स्केच था, और पीछे लिखा था:
"इतिहास दोहराता है—और इस बार जवाब ज़रूरी हैं। - R"
"R?" ऐशा ने खुद से दोहराया।
अर्जुन? या कोई और? उसने तुरंत फोन उठाया और आरव को कॉल किया।
"तुम कहाँ हो?"
"मैं यहीं हूँ, ऐशा। हमेशा की तरह... तुम्हारे आस-पास," उसकी आवाज़ में अजीब-सी गर्मी थी।
"क्या तुम मुझे फॉलो कर रहे हो?"
"नहीं," वह हँसा। "तुम्हें सिर्फ बचा रहा हूँ—उनसे, जो दिखते कुछ हैं और होते कुछ और।"
"तुम किसकी बात कर रहे हो?" ऐशा चिल्लाई।
"अर्जुन सर से दूर रहो," उसने धीमे से कहा। "तुम नहीं जानती कि वो कौन हैं... और क्या चाहते हैं।"
फोन कट गया।
उस रात ऐशा को नींद नहीं आई। सपने में एक पुरानी हवेली थी। एक लड़की भाग रही थी, उसके हाथ में वही स्केच था। पीछे एक आदमी दौड़ रहा था—आँखों में जुनून, और होंठों पर एक नाम...
"अन्वेषा।"
ऐशा चीख़ कर उठी। उसकी साँसें तेज़ थीं, माथा पसीने से भीगा हुआ। उसने पानी पिया, फिर धीरे से डायरी खोली और लिखा:
"जब सपनों में इतिहास आने लगे, तो हकीकत से डर लगने लगता है..."
और अगले दिन, ऐशा के बैग में एक और लिफाफा मिला—इस बार बिना नाम के। उसमें सिर्फ एक लाइन थी:
"अब तुम्हारी बारी है, ऐशा। सवाल पूछने की नहीं, जवाब चुनने की।"
बाहर कहीं एक कार में फिर वही शख्स बैठा था—उसकी आँखें अँधेरे से भरी थीं।
"अब ये खेल सच में शुरू हुआ है।"
पुरानी इमारत के तहखाने में हवा कुछ भारी थी—जैसे हर ईंट, हर दीवार कोई दबी हुई बात कह रही हो, जिसे सुनने के लिए बहुत शांत रहना ज़रूरी था।
ऐशा लॉकर के पास बैठी थी। स्कैनर की हल्की-सी बूँ-बूँ की आवाज़ के बीच उसकी उँगलियाँ स्केच के किनारों पर घूम रही थीं। उसे उन रेखाओं में कुछ और दिखता था—कोई नज़्म, कोई छुपी हुई दहलीज़।
"तुम कुछ कहना चाहती हो, ऐशा?" अर्जुन की आवाज़ उसके पीछे से आई—सधी, थकी हुई, लेकिन भीतर कहीं कोमल।
"मैं..." ऐशा ने चौंक कर देखा। "क्या आप यहीं थे?"
"मैं अक्सर यहीं होता हूँ। सवालों के बीच। जवाबों से दूर।"
ऐशा ने सिर झुकाया, फिर धीरे से पूछा, "क्या अन्वेषा भी सवालों में खो गई थी?"
अर्जुन कुछ पल चुप रहे, फिर मुस्कराए—वो मुस्कान नहीं थी, बस होंठों की एक हल्की-सी चाल—जैसे दिल ने मुस्कुराने की कोशिश की हो, पर दिमाग ने इज़ाज़त न दी हो।
"वो सवाल थी, ऐशा। शायद जवाब भी। लेकिन समय ने तय किया कि कौन क्या जानेगा।"
ऐशा ने स्केच उनकी ओर बढ़ाया। "ये आपकी बनाई हुई है?"
अर्जुन ने स्केच को देखा, फिर कहा, "ये... एक आईना है।"
"किसका?" ऐशा की आवाज़ धीमी पड़ गई।
"कभी-कभी किसी की आँखें आपको उन जगहों तक ले जाती हैं जहाँ आप खुद को भूल जाते हैं। और वहाँ बस एक तस्वीर रह जाती है—अधूरी, पर सच्ची।"
उनकी आँखें अब ऐशा की ओर नहीं, कहीं दीवार के उस पार अटकी थीं। ऐशा को लगा जैसे वह उनसे कुछ पूछना चाहती हो, लेकिन उसके शब्द गले में अटक गए। उसने बस अपनी उँगलियाँ मोड़ लीं—एक अनजानी बेचैनी के साथ।
"आपने मेरा नाम क्यों दिया प्रोजेक्ट में?" ऐशा ने अचानक पूछा।
"क्योंकि तुम सुन सकती हो—उस शोर के पार, जो सबको बहरा कर देता है।"
"मैंने तो कभी... कुछ नहीं कहा..." ऐशा की आवाज़ हिचकी।
"ठीक इसी वजह से।"
उनके बीच एक हल्की-सी चुप्पी आई—ऐसी चुप्पी जो शब्दों से ज़्यादा कहती थी।
अर्जुन आगे बढ़े, कुछ पुराने पेपर उठा कर देखने लगे। ऐशा बस उन्हें देखती रही—उनके हाथों की रेखाएँ, उनके माथे की शिकनें, और उनके भीतर छिपा कोई ऐसा दुःख जो बोलता नहीं, लेकिन हर हरकत में मौजूद था।
"कभी-कभी कोई हमें देखता है—पर हमें समझने के लिए नहीं, बल्कि खुद को भूलने के लिए," ऐशा ने कहा।
अर्जुन ने उसकी ओर देखा—पहली बार, थोड़ी देर तक।
"क्या तुम खुद को भूल चुकी हो, ऐशा?"
वो कुछ नहीं बोली। बस उसकी आँखें थोड़ी नम हो गईं।
"मैंने एक सपना देखा था," ऐशा ने कहा, "उसमें एक लड़की भाग रही थी, स्केच लिए हुए... और कोई उसका नाम पुकार रहा था..."
"क्या नाम था?" अर्जुन ने पूछा, पर उनकी आवाज़ जैसे पहले से जानती थी।
"अन्वेषा," ऐशा ने कहा।
अर्जुन का चेहरा कुछ पल के लिए सख्त हुआ, फिर उसने आँखें फेर लीं।
"सपनों को कभी हल्के में मत लेना," उन्होंने कहा। "वे अक्सर उस दरवाज़े की चाबी होते हैं जिसे हम बंद समझते हैं।"
वो शाम को बाहर निकल रहे थे जब बरसात फिर से हल्के से शुरू हो गई।
"छाता नहीं लाईं?" अर्जुन ने पूछा।
"मैं बारिश से नहीं डरती," ऐशा ने मुस्कराकर कहा।
"मैं भी नहीं," उन्होंने कहा, और दो क़दम आगे निकल गए।
फिर रुक कर मुड़े। "लेकिन कभी-कभी बारिश में छिपे आँसू पहचाने नहीं जाते।"
ऐशा उनकी इस बात पर कुछ कह न सकी।
अर्जुन ने जेब से एक पुरानी चाबी निकाली और उसकी हथेली पर रख दी।
"ये क्या है?" उसने पूछा।
"पुराने लॉकर की एक और परत।"
"और क्यों दी मुझे?"
"क्योंकि कुछ कहानियाँ बिना तुम जैसे किसी के पूरी नहीं होतीं।"
ऐशा की साँसें गहरी हो गईं—जैसे किसी अदृश्य पुल पर वो पहली बार कदम रख रही हो।
रात को कमरे की खिड़की के पास बैठी, ऐशा ने डायरी खोली।
"क्या कोई किसी को यूँ देख सकता है—जैसे उसके भीतर उतरकर उसकी ख़ामोशी को पढ़ रहा हो?"
"और अगर हाँ, तो क्या वो ख़ामोशी भी जवाब बन सकती है?"
उसने चुपचाप लॉकर की चाबी को देखा, फिर स्केच को।
फिर एक नया लिफाफा उसकी किताब के नीचे से फिसल कर गिरा।
इस बार, नीले नहीं—सफ़ेद रंग का।
उसमें सिर्फ एक वाक्य लिखा था:
"इस बार तुमसे कोई और नहीं, खुद तुम्हारी परछाई सवाल करेगी।"
खामोशी की चाय
सिया के घर की रसोई से अदरक और इलायची की मिली-जुली खुशबू हवा में तैर रही थी। दीवार पर टंगी घंटी की छोटी-सी आवाज़ उस दोपहर को थामे हुए थी—न बहुत शांत, न बहुत शोरगुल वाला दिन।
"अरे ऐशा, इतनी देर तक खिड़की के पास मत बैठ, बारिश का मौसम है—ठंडी लग जाएगी," सिया ने ट्रे में दो कप रखते हुए कहा।
ऐशा ने सिर घुमाकर मुस्कुराया, "बारिश से डर नहीं लगता अब। बस उसकी आवाज़ अच्छी लगती है।"
"अर्जुन सर वाला असर है ये?" सिया ने आँख मारते हुए पूछा।
ऐशा हल्के से हँस दी, "वो असर कम है, उलझन ज़्यादा है।"
"मतलब?" सिया बगल में बैठ गई, पैर मोड़कर कुशन पर टिकाते हुए।
"मतलब...जब कोई तुम्हारे सामने हो और फिर भी जैसे किसी और वक़्त में अटका हो—तो तुम उससे क्या कहो?" ऐशा ने चाय का कप उठाया, भाप उसकी पलकों को छू गई।
"कभी-कभी कुछ लोग पूरे होते हैं, लेकिन पूरे नहीं लगते।"
"बिलकुल," ऐशा ने हामी भरी, "जैसे वो हर वाक्य में कोई अधूरापन छिपा हो।"
सिया ने उसका हाथ थामा, "पर तुम क्यों इतना महसूस करती हो? ये प्रोफेशनल प्रोजेक्ट है, ना?"
"काश सब इतना प्रोफेशनल होता," ऐशा ने धीमे से कहा। "उस लॉकर से जो स्केच मिला, उसमें कुछ था। कुछ ऐसा...जो देखा नहीं जाता, सिर्फ महसूस होता है। और जब मैंने उससे पूछा—उन्होंने कुछ नहीं कहा, लेकिन उनका चेहरा जवाब बन गया।"
सिया ने गौर से उसकी आँखों में देखा, "तुम उसे जानने लगी हो, ऐशा।"
"नहीं...शायद खुद को जानने लगी हूँ उसके बहाने।"
एक क्षण को दोनों चुप रहीं। बाहर बारिश की बूँदें बालकनी की रेलिंग से टकरा रही थीं।
"बता ना, वो चाबी वाली बात क्या थी?" सिया ने चाय रखते हुए पूछा।
"पुराना लॉकर है—शायद उसी तहखाने में। उन्होंने कहा उसमें एक 'और परत' है।"
"मतलब कुछ और डॉक्यूमेंट्स या पुरानी फाइलें?"
"या शायद कोई और कहानी," ऐशा ने धीरे से कहा। "पर इस बार मुझे ही खोलनी है। उन्होंने साफ़ कहा—'कुछ कहानियाँ बिना तुम जैसे किसी के पूरी नहीं होतीं।'"
"तो फिर जा के खोलो ना!"
"अभी नहीं," ऐशा ने आँखें बंद कर लीं। "कभी-कभी दरवाज़ा तुम्हें नहीं, तुम दरवाज़े को चुनते हो।"
सिया मुस्कुराई, "ये लाइन भी अर्जुन सर ने कही थी क्या?"
"नहीं," ऐशा हँसी, "ये तो चाय की गर्मी का असर है।"
दोनों हँस पड़ीं।
दोपहर ढल रही थी, और सिया कपबोर्ड से पुरानी अलमारी के कपड़े निकाल रही थी।
"तूने कभी सोचा है कि हम दोनों कितने अलग हैं?" सिया ने पूछा।
"तू practical, मैं emotional?" ऐशा ने जवाब दिया।
"हाँ! मैं सोचती हूँ, ‘कहाँ रखना है फाइल’, तू सोचती है ‘इस फाइल में किसकी परछाई है।’"
"और यही फर्क है सच्ची खोज और रिपोर्टिंग में," ऐशा ने मुस्कराकर कहा।
"अब बस मत कर, नहीं तो तेरी ये 'ख़ामोशी में भी कविता ढूँढने वाली' आदत मुझे भी emotional बना देगी।"
"कभी-कभी हमें भावुक होना चाहिए," ऐशा ने कहा, "क्योंकि कुछ बातें सिर्फ दिल ही समझ सकता है।"
"वैसे," सिया ने शरारती अंदाज़ में कहा, "तेरी डायरी में अब किसका नाम ज़्यादा होता है—अन्वेषा का या अर्जुन सर का?"
ऐशा कुछ पल को चुप रही, फिर बोली, "अन्वेषा तो एक दरवाज़ा है, लेकिन अर्जुन...एक आईना।"
"मतलब तू दोनों में फँस चुकी है?"
"नहीं...मैं दोनों से खुद को जोड़ रही हूँ," ऐशा ने गंभीरता से कहा। "अन्वेषा का अतीत और अर्जुन का मौन—दोनों मेरी अपनी किसी अधूरी परत से मिलते हैं।"
सिया ने सिर हिलाया, "तू बहुत गहरी बातें करती है, लेकिन कहीं खो न जाना उस गहराई में।"
"अगर खो जाऊँ, तो ढूँढ लेगी ना?"
"तू कहीं खोई नहीं, बस खुद को ढूँढ रही है—वो भी चाय के साथ," सिया ने कप उठाते हुए कहा।
शाम ढलने लगी थी। ऐशा ने खिड़की से बाहर झाँका—सड़क की रौशनी धीरे-धीरे पीली होने लगी थी।
"कल जाऊँगी वापस तहखाने में," ऐशा ने कहा।
"क्या उम्मीद है वहाँ से?"
"जवाब नहीं—शायद एक और सवाल," ऐशा ने धीरे से कहा। "लेकिन इस बार सवाल मैं नहीं, मेरी परछाई करेगी।"
"और जवाब?"
"शायद वही चुप्पी जो अर्जुन की आँखों में रहती है।"
सिया कुछ नहीं बोली। बस उसके पास आकर बैठ गई और सिर उसके कंधे पर रख दिया।
रात को जब सब सो चुके थे, ऐशा ने फिर से वही स्केच खोला। उसकी उँगलियाँ रेखाओं पर चलती रहीं—जैसे कोई पुराने घाव को छूकर समझ रहा हो कि अब वो दर्द है या सिर्फ याद।
फिर उसने चाबी को उठाया और तकिये के नीचे रख दिया।
"कल कुछ नया नहीं मिलेगा शायद," उसने डायरी में लिखा, "पर जो भी होगा, उसमें मैं रहूँगी—बिना डर, बिना शोर।"
बाहर बारिश थम चुकी थी, लेकिन खिड़की से आती हवा में अब भी नमी थी।
ऐशा ने आँखें बंद कीं—और पहली बार महसूस किया कि कभी-कभी मौन, सबसे साफ़ आवाज़ होती है।
चाय की खुशबू और खिड़की की बातें
सिया का घर शांत था। दीवारों पर हल्के रंगों की छाया, फर्श पर पुराने दरियों की सादगी, और खिड़की से छनती हल्की धूप हर कोने को एक नर्म उजास से भर देती थी। ऐशा को यह घर हमेशा किसी पुराने पोस्टकार्ड जैसा लगता था—थोड़ा समय से परे, थोड़ा अपनी ही रफ्तार में।
वह दोनों रसोई के पास बने उस छोटे से कोने में बैठी थीं, जहाँ दो लकड़ी की कुर्सियाँ और एक गोल टेबल था, जिस पर चाय के दो मग रखे थे। चाय की भाप में अदरक और तुलसी की खुशबू घुली हुई थी।
"तेरा स्केचिंग वाला डब्बा कहाँ है?" सिया ने चाय का सिप लेते हुए पूछा।
"बैग में है। लाया था साथ, लेकिन अभी मन नहीं कर रहा।" ऐशा ने जवाब दिया और खिड़की की ओर देखने लगी।
"खिड़की में ऐसा क्या देखती है तू? हर बार यहीं आकर जम जाती है।"
"शायद इसलिए कि बाहर जो कुछ है, वह बदलता रहता है। लेकिन यह खिड़की... यह स्थिर रहती है।"
"और तू भी, ऐशा। तू भी कुछ नहीं बदलती।"
ऐशा हँस दी। "यह अच्छा है या बुरा?"
"अभी तक तो अच्छा ही लगा है। जब तू होती है ना, लगता है घर में कोई ध्यान से देखने वाला है।"
चाय का मग दोनों के हाथों में गर्माहट दे रहा था। हल्के बादल छाए हुए थे, पर बारिश नहीं हो रही थी। बस हवा कभी-कभी खिड़की के परदे को हल्का-सा सरका देती थी।
"कभी लगता है तू बहुत चुप रहती है," सिया ने कहा।
"मैं चुप नहीं हूँ, सिया। मैं बस शब्दों को सोचकर खर्च करती हूँ।"
"वाह, क्या बात कही। अब तू शायरी भी करने लगी क्या?"
"नहीं यार, बस... कुछ बातें खुद ही लाइन में लग जाती हैं।"
सिया उठकर कुछ बिस्किट ले आई। "तूने बताया नहीं, अर्जुन सर फिर से मिले?"
"हाँ, मिले थे। बस... तहखाने में थे। कुछ पुराने डॉक्युमेंट्स के साथ।"
"तेरा वह प्रोजेक्ट अभी चल रहा है ना?"
"चल रहा है। लेकिन अब कुछ ज्यादा टेक्निकल नहीं रहा। कुछ बातें... स्केच और कहानियों के इर्द-गिर्द घूमती हैं।"
सिया ने उसकी ओर देखा। "अच्छा है। कम से कम कुछ कर तो रही है तू। मैं तो अब बहुत थक गई हूँ।"
"क्यों?"
"रूटीन से ऊब गई हूँ। रोज़ वही ट्रैफिक, वही लोग, वही। एक दिन लगता है भाग जाऊँ सब छोड़कर। लेकिन फिर अगले दिन सब वही होता है।"
"तू भागेगी कहाँ?"
"शायद कहीं पहाड़ों में। कोई किताबों की दुकान खोलूँगी। तुझे साथ रखूँगी—तू दीवारों पर स्केच बनाएगी।"
"और हम दोनों दिन भर अदरक वाली चाय पिएँगे?"
"बिलकुल," सिया हँसी। "और रात को बालकनी में बैठकर मोज़ार्ट या गुलज़ार सुनेंगे।"
ऐशा मुस्कराई। "सपने सुंदर होते हैं, क्योंकि वे अभी पूरे नहीं हुए होते।"
"तू आज कुछ ज़्यादा ही दार्शनिक लग रही है।"
"नहीं, मैं बस थोड़ा हल्का महसूस कर रही हूँ।"
"क्यों?"
"शायद इसलिए कि इस शहर में बहुत वक़्त बाद किसी घर में रुक रही हूँ—जो घर जैसा लगता है।"
सिया ने हल्का मुस्कराकर उसकी पीठ थपथपाई। "तेरा भी घर है यह, बेवकूफ।"
"थैंक यू," ऐशा ने सिर झुकाया।
कुछ देर खामोशी रही—वह शांत खामोशी जो दो करीबी दोस्तों के बीच आती है जब सब कह दिया गया हो, फिर भी साथ होने का अहसास बाकी हो।
"तू सोचेगी मैं पागल हूँ, लेकिन कल रात मैंने एक सपना देखा," सिया ने कहा।
"क्या?"
"तू किसी पुराने किले में थी, तेरे हाथ में कोई स्केच था, और एक दरवाज़ा धीरे-धीरे खुल रहा था।"
ऐशा चौंकी नहीं, बस हौले से मुस्कराई। "सपनों को कभी हल्के में नहीं लेना चाहिए।"
"अब तू भी वही लाइनें बोलने लगी?"
"कुछ चीज़ें असर कर जाती हैं।"
"तेरे और अर्जुन सर के बीच कुछ है क्या?"
"नहीं सिया, कुछ नहीं है। बस... कभी-कभी कुछ बातचीत, कुछ चुप्पियाँ, जो ज़रा अलग होती हैं।"
"अच्छा... लेकिन तूने मुझे अभी तक दिखाया नहीं वह स्केच जो तू इतने दिन से साथ लिए घूम रही है।"
ऐशा ने बैग से वह स्केच निकाला—अब थोड़ा मुड़ा हुआ था, किनारों पर हल्की सिलवटें पड़ चुकी थीं।
सिया ने ध्यान से देखा—रेखाएँ थीं, दीवारें थीं, एक तरह की बनावट जो किसी पुराने स्टोन स्ट्रक्चर की लग रही थी।
"यह किसी पुरानी इमारत का नक्शा है?"
"हूँ, लेकिन हर कोई इसे नक्शा नहीं कहेगा। किसी के लिए यह बस रेखाएँ हैं। मेरे लिए... एक तरह की कविता।"
"तू सच में अलग है, ऐशा।"
"हो सकता है। लेकिन मैं अब अलग होने से डरती नहीं।"
सिया थोड़ी देर तक वह स्केच देखती रही, फिर बोली, "चल, आज बाहर चलते हैं। कहीं पास के कैफे में। तुझे ज़रा शहर की चहल-पहल से मिलवाते हैं।"
"ठीक है।"
दोनों ने जल्दी-जल्दी मग खाली किए, बैग उठाया, और घर से निकल पड़ीं। सड़कें हल्की भीगी थीं, लेकिन बारिश नहीं हो रही थी। सिर्फ हवा में मिट्टी की महक ताज़ा महसूस होती थी।
कैफे पास ही था—छोटा-सा, लकड़ी के फर्नीचर वाला, जिसमें पुराने बॉलीवुड गाने धीमे सुर में बज रहे थे। ऐशा ने खिड़की के पास वाली सीट ली।
"तेरे जैसे लोग हमेशा खिड़की के पास बैठते हैं," सिया ने कहा।
"क्यों?"
"शायद क्योंकि खिड़कियाँ सिर्फ बाहर नहीं दिखातीं—भीतर भी झाँकने देती हैं।"
दोनों ने गर्म कॉफी मंगवाई। कैफे में कुछ और लोग थे—कोई किताब पढ़ रहा था, कोई लैपटॉप पर कुछ टाइप कर रहा था।
"क्या तुझे कभी लगा, कि ज़िंदगी बहुत सीधी हो गई है?" सिया ने पूछा।
"नहीं। मुझे लगता है, ज़िंदगी ने मोड़ लेना छोड़ दिया है। अब वह बस धीरे-धीरे चलती है—बिना कुछ कहे।"
"और वह भी थक गई है शायद।"
"हम सब थोड़े थके हुए हैं, सिया।"
कॉफी आ चुकी थी। ऐशा ने कप उठाया और खिड़की के बाहर देखा—कुछ बच्चे सड़क पर पतंग उड़ा रहे थे। हवा तेज़ नहीं थी, लेकिन पतंगें किसी तरह ऊपर जा रही थीं।
"देख, पतंगें," ऐशा ने इशारा किया।
"कितना अच्छा होता था ना बचपन में—वह ऊँचाई का डर नहीं होता था। बस उड़ने का जुनून होता था।"
"अब भी है। लेकिन हम डरने लगे हैं गिरने से।"
सिया ने हल्की साँस भरी। "आजकल की बातें बहुत हल्की होती हैं, ऐशा। लेकिन फिर भी कुछ भारी-सा लगता है कभी-कभी।"
"वह इसलिए कि हम अब बातें नहीं, खुद को जी रहे होते हैं।"
"तू जब ऐसे बोलती है ना, लगता है कोई पुराना रेडियो सुन रही हूँ। धीमा, लेकिन साफ़।"
दोनों हँस पड़ीं।
शाम को वापस घर लौटते समय रास्ते में हल्का अंधेरा छा गया था। लेकिन मन हल्का था। दो दोस्तों की कुछ सामान्य-सी बातें, कुछ चाय की चुस्कियाँ और खिड़कियों की ओर जाते पल—ज़िंदगी कभी-कभी इन छोटी चीज़ों से भर जाती है।
ऐशा ने कमरे में आकर चुपचाप अपना स्केच दोबारा देखा। कोई रहस्य नहीं था, कोई सवाल नहीं। बस एक लकीर जो सीधी नहीं थी, और शायद इसलिए सुंदर थी।
उसने स्केच को मेज़ पर रखा, और खिड़की के पास जाकर बैठ गई।
हवा चल रही थी।
लेकिन अंदर सब शांत था।
कॉलेज की बिल्डिंग पर सुबह की धूप ऐसे उतरती थी, जैसे किसी पुराने कैनवास पर हल्का सुनहरा वॉश—एकदम मुलायम, एकदम सधा हुआ।
ऐशा अपने स्केचबुक के पन्ने पलटते हुए क्लासरूम की ओर जा रही थी। सिया उसके साथ नहीं थी आज—उसे कोई बैंक का काम था। लेकिन ऐशा को अकेले चलने की आदत थी। उसे रास्ते की धूप, कैंपस के पेड़ों की छाया और दीवारों पर लगे मोटिवेशनल पोस्टर्स तक देखने की फुर्सत थी।
कॉरिडोर में हमेशा की तरह हलचल थी—कोई दौड़ रहा था, कोई पीछे से किसी को चिढ़ा रहा था, कोई नये नोट्स की फोटोकॉपी के लिए भीख जैसा व्यवहार कर रहा था।
"ओए स्केचबुक क्वीन!" पीछे से पुकारा गया।
वो पलटी—अवी था। फाइन आर्ट्स डिपार्टमेंट का वही लड़का जिसे अपनी मुस्कान पर बड़ा भरोसा था।
"क्लास में नहीं जा रहे?" उसने पूछा।
"जा रही हूँ।"
"लगे हाथों बता दो, कल वाला आर्ट असाइनमेंट जमा करना है या नहीं। मुझे तो प्रोफेसर शर्मा ने कहा था, 'जब टाइम मिले तो बना देना।' अब ये टाइम की व्याख्या समझ नहीं आ रही।"
ऐशा हँसी। "मतलब तुम अब तक कुछ बनाया नहीं?"
"मैंने मन में बहुत कुछ बना लिया है। अब उसे पेंसिल से सतह पर लाना है।"
"शाबाश," ऐशा ने मुस्कुराते हुए कहा और आगे बढ़ गई।
प्रोफेसर काव्या क्लासरूम में पहले से मौजूद थीं—हमेशा की तरह साड़ी में, लेकिन बालों को एक बड़े क्लिप से बाँध रखा था, जो हमेशा किसी न किसी छात्र के ध्यान को भटका देता था।
"गुड मॉर्निंग, स्टूडेंट्स। आज कोई मॉडल नहीं है, हम ड्रॉ करेंगे—स्पेस विदाउट ऑब्जेक्ट्स, यानी खाली जगह में जो दिखता है, वो नहीं—जो महसूस होता है, वो।"
कुछ छात्रों ने तुरंत मोबाइल निकाला—शायद गूगल पर खोजने के लिए कि इसका मतलब क्या है।
"मैम, खाली स्पेस में तो हम एग्जाम से एक दिन पहले ही होते हैं," अवी की आवाज़ आई।
क्लास में हँसी फूटी।
काव्या मैम ने मुस्कुराकर जवाब दिया, "हाँ, और फिर उसी स्पेस में ग्रेस मार्क्स की प्रार्थना भी होती है।"
अब सब हँसने लगे।
ऐशा ने चुपचाप अपने स्केचबुक के कोरे पन्ने पर पेंसिल चलाना शुरू किया। वो खिड़की से बाहर देख रही थी—लेकिन उसे स्केच करना कुछ और था। शायद वो जगह जो दिन की चहल-पहल में खाली रह जाती है—क्लास की आखिरी बेंच, या कोने में रखा टूटा सा स्टूल।
"ऐशा, तुम क्या बना रही हो?" प्रोफेसर काव्या उसकी टेबल के पास आईं।
"वो जगह, जहाँ कोई बैठा नहीं—लेकिन उसकी उपस्थिति फिर भी महसूस होती है।"
"बिलकुल सही दिशा में जा रही हो। तुम्हारी सोच देखने के परे जाती है। बनाए रखो ये आदत।"
बगल में बैठे तनिष्क ने धीरे से कहा, "और मेरी सोच कैंटीन के समोसे के पार नहीं जाती।"
"तो समोसे के पैकेट का एक negative space स्केच बना लो," अवी ने सुझाया। फिर खुद ही हँस पड़ा।
क्लास का माहौल हल्का था—कोई प्रेशर नहीं, कोई गंभीरता नहीं। सब अपनी ही दुनिया में स्केच बना रहे थे, लेकिन बीच-बीच में कोई किसी का पेंसिल मांग रहा था, कोई इरेज़र गुम कर बैठा था।
बाहर की धूप अब थोड़ी और तेज़ हो चुकी थी।
ब्रेक के समय ऐशा कैंटीन गई। वहाँ एक कोना उसका फेवरिट था—जहाँ से स्पोर्ट्स ग्राउंड दिखता था। उसने आज आइस टी ली—गर्मी थी थोड़ी। सामने की टेबल पर अवी फिर से दिखा—इस बार अपने दो दोस्तों के साथ। वो लोग जोर-जोर से किसी वीडियो पर हँस रहे थे।
"देख, ये वही है ना जिसने नाटक में राजा का रोल किया था और स्टेज पर ताज ही गिर गया था!" एक लड़का बोला।
"हाँ हाँ, और फिर इसने कहा था—'ताज खुद सर झुकाता है'।"
फिर से हँसी का फव्वारा।
ऐशा मुस्कराई—वो हँसी में शामिल नहीं हुई, लेकिन उसकी आँखों में हल्की चमक थी। किसी कैंपस की सबसे सुंदर चीज़ यही होती है—हँसी का अचानक से आ जाना, बिना किसी वजह के।
उसी समय तनिष्क ने उसके पास आकर बैठने की अनुमति ली। "क्या चल रहा है, क्वीन ऑफ स्केच?"
"कुछ नहीं। बस चाय की तलब में आइस टी पी रही हूँ।"
"आज तू हँसी नहीं क्लास में।"
"सब हँस रहे थे, मैं देख रही थी।"
"तेरे चेहरे का एक्सप्रेशन भी स्केच जैसा होता है—कम रेखाओं में ज़्यादा बात।"
"ये कॉम्प्लिमेंट है या मेटाफर?"
"कुछ भी पकड़ ले। मैं आर्ट स्टूडेंट नहीं, लेकिन तेरे लिए लाइनें खींच लूँगा।"
"मत खींच, समोसे के पैकेट पर ही सीमित रह।"
दोनों हँस पड़े।
कॉलेज में एक दोस्त की बातें, दूसरे का जवाब, फिर अचानक कोई पेड़ से गिरा पत्ता—छोटी-छोटी चीज़ें, जो किसी दिन की खूबसूरती तय करती हैं।
शाम को ऐशा घर पहुँची। सिया लौट चुकी थी, और किचन में कुछ बर्तन खड़खड़ा रहे थे।
"कैसा दिन रहा तेरा?" सिया ने पूछा।
"बहुत हल्का। बहुत शांत। बहुत मुस्कुराहटों वाला।"
"फिर तो ठीक है। तू मुस्कुराती रहे—ये घर तभी पूरा लगता है।"
ऐशा ने सिर हिलाया, और खिड़की के पास जाकर बैठ गई।
बाहर फिर से वही धूप थी—हल्की, मुलायम, ज़रा सी उदास... लेकिन ज़िंदगी से भरी हुई।
नींव की बात – जब ज़मीन पर सोच उगती है
कॉलेज की दूसरी मंज़िल पर बने सेमिनार हॉल की खिड़कियों से बाहर देखते हुए ऐशा को पहली बार महसूस हुआ कि इमारतें भी कभी-कभी साँस लेती हैं। दीवारों पर चढ़ती बेलें, विंटिलेशन डक्ट की सीटी जैसी आवाज़ें, और छत से आती रोशनी—ये सब किसी जीवित शरीर की तरह हरकत करते थे।
"लोग सोचते हैं, आर्किटेक्चर सिर्फ डिज़ाइन है," प्रोफेसर वेदांत मलिक की आवाज़ क्लास में गूँजी, "लेकिन असली आर्किटेक्चर, सस्टेनेबिलिटी से शुरू होता है। यह समझने से कि किसी घर में केवल दीवारें नहीं, बल्कि हवा, धूप, मिट्टी और भावनाएं भी रहती हैं।"
ऐशा ने अपनी डायरी में सिर्फ दो शब्द लिखे—"ज़िंदा इमारतें।"
उसका मन क्लास की बातों में पूरी तरह रमा हुआ था। सस्टेनेबल आर्किटेक्चर का यह कोर्स उसके लिए सिर्फ एक पढ़ाई नहीं था, बल्कि एक नयी सोच की शुरुआत थी। कुछ ऐसा जिसे वह छू नहीं सकती थी, लेकिन महसूस कर सकती थी—जैसे मिट्टी की खुशबू, पहली बारिश के बाद।
"इस हफ्ते एक टीम प्रोजेक्ट है," प्रोफेसर ने कहा, "आपको अपने लोकल क्षेत्र की कोई पुरानी लेकिन उपयोग में लायी जा रही इमारत ढूँढनी है, और यह बताना है कि वह किस हद तक सस्टेनेबल है। प्लानिंग, एरोग्राफिक्स, जल प्रबंधन, वेंटिलेशन, स्थानीय सामग्री—सब पर फोकस करें।"
"सर, ग्रुप कौन बनाएगा?" पीछे से तनिष्क ने पूछा।
"आप खुद बनाएंगे। और हाँ, कोशिश करें कि उन लोगों के साथ काम करें जिनके साथ आपने पहले काम नहीं किया है। क्योंकि असली निर्माण तब होता है जब विचार अलग-अलग दिशाओं से टकराते हैं।"
क्लास खत्म हुई तो गलियारों में फिर वही हलचल थी—कोई जोड़ी बनाना चाह रहा था, कोई बच रहा था।
"तू मेरे ग्रुप में है," सिया ने ऐशा का बैग पकड़ते हुए कहा।
"तेरे साथ तो हर बार रहती हूँ। इस बार कुछ नया करते हैं," ऐशा ने जवाब दिया।
"मतलब मुझे छोड़ रही है?" सिया ने आँखें नचाईं।
"तू मेरे घर है, दिल है, ग्रुप थोड़ी है।"
दोनों हँस पड़ीं।
उसी समय अवी, तनिष्क और दो अन्य लड़के उनके पास आ गए।
"ऐशा, तुम हमारे ग्रुप में आओगी?" अवी ने पूछा। उसकी आवाज़ में वह चिर-परिचित आत्मविश्वास था, लेकिन इस बार उसमें ज़रा-सा संकोच भी था।
"क्यों?" ऐशा ने सिर थोड़ा झुकाकर पूछा।
"क्योंकि हमें कोई चाहिए जो सच में काम करता हो," तनिष्क ने तुरंत जोड़ा। "वरना अवी तो स्लाइड्स की थीम चुनने में ही पूरे हफ्ते लगाता है।"
"तुम्हारा एरिया क्या होगा रिसर्च के लिए?" ऐशा ने सीधा सवाल पूछा।
"माटुंगा का 'डेज़र्ट हाउस'," अवी बोला। "पुराना बंगला है। छत पर मिट्टी की परतें, सालों से बिना एयर-कंडीशनर के लोग रह रहे हैं। और पता है, उसका ड्रेनेज सिस्टम भी नेचुरल ग्रैविटी पर काम करता है।"
ऐशा का चेहरा हल्का-सा चमका।
"ठीक है। मैं जुड़ती हूँ। लेकिन मैं प्लानिंग संभालूंगी। तुम लोग इंटरव्यू और रिपोर्टिंग कर लेना।"
"डील," अवी ने कहा, "और हाँ, मीटिंग आज शाम लाइब्रेरी में।"
शाम के वक्त कॉलेज की लाइब्रेरी अपेक्षाकृत शांत थी, लेकिन हर टेबल पर कोई-न-कोई सिर झुकाए बैठा था—जैसे किताबें नहीं, खुद अपने मन के नक्शे पढ़ रहा हो।
ऐशा, अवी, तनिष्क और एक लड़की, जाह्नवी—चारों एक टेबल पर बैठे थे। बीच में एक पुराना नक्शा रखा था, जो उन्होंने नगर निगम की वेबसाइट से डाउनलोड किया था।
"ये देखो," अवी ने कहा, "डेज़र्ट हाउस की दीवारें करीब 18 इंच मोटी हैं। इससे गर्मी अंदर नहीं घुसती।"
"और इसके पास जो छोटा सा बगीचा है, वह वॉटर रनऑफ को रोकता है," जाह्नवी ने जोड़ा।
"तो हम रिपोर्ट के चार हिस्से कर सकते हैं—डिज़ाइन, क्लाइमेट एडॉप्टेशन, जल प्रबंधन और मैटेरियल एनालिसिस," ऐशा ने कहा।
"तू प्रोफेसर जैसी क्यों लग रही है?" तनिष्क ने हँसते हुए कहा।
"क्योंकि मैं प्रोफेसर नहीं बनना चाहती। मुझे कुछ बनाना है जो सहेजा जा सके—घरों को घर बनाए रखने वाली सोच।"
उस वाक्य के बाद कुछ क्षण के लिए चारों चुप रहे।
फिर अचानक अवी बोला, "और मैं चाहता हूँ कि मेरी छत पर धूप उतरे लेकिन बिजली का बिल न आए।"
सब हँस दिए।
"बहुत हाई-एंड गोल है तुम्हारा," जाह्नवी ने कहा।
"हाई-एंड नहीं, लाइट-एंड," अवी ने मुस्कुराते हुए कहा।
मीटिंग खत्म हुई, और सब अपने-अपने नोट्स लेकर निकल पड़े।
कॉलेज की सीढ़ियाँ अब शाम के सूरज से हल्के गुलाबी हो गई थीं। ऐशा नीचे उतरते हुए सोच रही थी—कि एक घर सिर्फ रहने की जगह नहीं होता। वह एक विचार होता है—एक ऐसी ज़मीन, जिस पर समय ठहर सकता है।
घर लौटने पर सिया टेबल पर बैठी कुछ खा रही थी—मूँगफली और गुड़।
"क्या मीटिंग में आर्किटेक्चर के साथ लवस्टोरी भी बनी?" उसने बिना देखे पूछा।
"तेरा दिमाग कहीं नहीं बदलता।"
"नहीं, लेकिन तू बदल रही है—अब बोलने के बाद सोचती है।"
"कभी-कभी सोचना ज़रूरी होता है।"
"और कभी-कभी मूँगफली।"
दोनों हँस दीं।
रात को ऐशा ने अपनी नोटबुक निकाली—इस बार उसमें कोई स्केच नहीं था। सिर्फ शब्द थे।
"अगर इमारतें साँस ले सकती हैं, तो क्या हम उन्हें चोट भी पहुँचा सकते हैं? क्या कोई घर भी रूठ सकता है—अगर हम उसमें सहेजना भूल जाएँ?"
वह जानती थी—उसकी पढ़ाई अब सिर्फ किताबी नहीं रही। वह एक यात्रा थी—नींव से छत तक, मिट्टी से सोच तक।
शनिवार की दोपहर हल्की-सी उनींदी थी, जैसे सूरज खुद भी थोड़ा आराम करना चाहता था। ऐशा बस से उतरते हुए हाथ से आंखों को ढँकती हुई सामने देखा—एक पुरानी, दो मंज़िला कोठी, जिसके चारों ओर हरियाली की एक पतली परत थी, जैसे पुराने घाव पर चढ़ी कोई शांति की चादर।
"डेज़र्ट हाउस," अर्जुन ने बगल से आते हुए कहा, "नाम ऐसा जैसे जैसलमेर के बीच में हो, और लोकेशन माटुंगा में। कॉन्ट्रास्ट बहुत स्ट्रॉन्ग है।"
"नाम से ज़्यादा, काम में सादगी है," ऐशा ने बिना देखे उत्तर दिया।
"अरे वाह, कविताएँ भी साथ लाईं हो?"
"नहीं, सिर्फ सोच। और तुम्हें?"
"मैं बस आया हूँ दीवारों से बातें करने।"
पीछे तनिष्क और जाह्नवी भी जुड़ चुके थे। चारों अब उस लोहे की छोटी सी जाली वाले गेट के सामने खड़े थे। गेट पर एक पीतल की प्लेट टँगी थी—"श्री चंद्रमल सावला निवास—1932 से अब तक"।
अंदर से दरवाज़ा खुला और एक वृद्ध सज्जन, सफेद कुरते-पायजामे और चमकते चश्मे में बाहर आए।
"आइए, आइए... कॉलेज से हैं ना आप लोग?"
"जी, प्रोफेसर मलिक ने बताया होगा शायद," अर्जुन ने मुस्कुराते हुए हाथ जोड़े।
"हाँ, हाँ। मैं ही चंद्रमल का बेटा, नवल सावला। अब तो इस घर का अकेला वारिस हूँ। लेकिन ये घर मुझे संभालता है, मैं नहीं।"
बोलते हुए उन्होंने उन्हें अंदर बुलाया।
डेज़र्ट हाउस में घुसते ही जैसे एक पुरानी फ़िल्म में कदम रख दिया हो—फर्श पर मोरक्कन टाइल्स, दीवारों पर लकड़ी के जड़े हुए पैनल, और लंबा गलियारा जो सीधे एक आँगन में खुलता था।
"वाह," जाह्नवी ने कहा, "यहाँ तो तापमान बाहर से कम लग रहा है!"
"इसलिए तो इसे डेज़र्ट हाउस कहते हैं," नवल साहब ने हँसते हुए कहा। "यहाँ गर्मी भी शरमाती है।"
घर में जगह-जगह पर खिड़कियाँ थीं, लेकिन किसी पर शीशे नहीं थे। सिर्फ बारीक लकड़ी की झिल्लियाँ और महीन कपड़े की परछाइयाँ। हवा भीतर घूमती थी, जैसे हर कोना उसके नक्शे में दर्ज हो।
“हम लोग आपके घर का प्लान डॉक्युमेंट करने आए हैं,” ऐशा ने विनम्रता से कहा। “और आपकी कुछ बातें भी लिखना चाहेंगे।”
“बिलकुल। मैं अपनी चाय के साथ बातें परोसता हूँ।”
आँगन में चार कुर्सियाँ और एक छोटी गोल टेबल थी। ऊपर से धूप छनकर हल्की रोशनी दे रही थी। नवल साहब अंदर गए, और थोड़ी देर में एक बूढ़ी महिला ने हाथ में ट्रे थामे चाय और बेसन के लड्डू रख दिए।
“मेरी बहन है। नाम है उमा। ज़्यादा बोलती नहीं, लेकिन सुन सब लेती है,” नवल साहब बोले।
"अच्छा है," अर्जुन ने कहा, "कभी-कभी जो सुन लेता है, वही घर बचाता है।"
"आप भी कुछ ज़्यादा ही सोचते हैं," ऐशा ने बिना मुस्कराए कहा, "डायरेक्ट ही समझदार बनने का प्लान है क्या?"
"नहीं, मैं तो सिर्फ लड्डू खाने आया था। लेकिन चाय ने फिलॉसफर बना दिया।"
तनिष्क और जाह्नवी खिलखिला उठे।
अब असल काम शुरू हुआ। ऐशा ने आँगन की लंबाई-चौड़ाई नापनी शुरू की, जाह्नवी ने दीवारों की मोटाई और वेंटिलेशन के ड्रॉइंग बनाए, अर्जुन छत पर चढ़ गया—जहाँ से वह पूरे इलाके की टोपोग्राफी स्केच कर रहा था।
"छत की मिट्टी कितनी मोटी है?" अर्जुन ने नीचे से पूछा।
"करीब 8 इंच," नवल साहब ने जवाब दिया। "साल में दो बार ऊपर गोबर और मिट्टी का लेप करवाता हूँ। गर्मी आती ही नहीं।"
"क्या आप जानबूझकर पर्यावरण के अनुकूल बना रहे थे, या ये सब पारंपरिक था?" ऐशा ने पूछा।
"पारंपरिक था... लेकिन अब लगता है, यही भविष्य है।"
अर्जुन सीढ़ियों से नीचे आया, चेहरा धूप से गुलाबी हो चुका था।
"तुम्हारी छत बहुत स्मार्ट है," उसने नवल साहब से कहा।
"हूँ... और तुम बहुत बातूनी।" नवल साहब हँसे।
अब सब अंदर के कमरे देखने लगे। कमरे छोटे लेकिन ऊँचे थे। हर दीवार पर एक छोटा सा वेंटिलेशन स्लॉट—जिससे हवा अपने हिसाब से आ-जा सके।
"इन वेंट्स को 'जाली खिड़की' कहते हैं," ऐशा ने समझाते हुए कहा। "ये इंटीरियर टेम्परेचर को रेगुलेट करने में बहुत काम आते हैं।"
"ये सब तेरे नोट्स में आ रहा है ना?" जाह्नवी ने पूछा।
"हाँ, और मेरे दिमाग में भी।"
"तुम दिमाग से सोचती हो?" अर्जुन ने आँखें चौड़ी करते हुए कहा।
"हाँ, और तुम शायद जीभ से।"
"अरे वाह, ये ताना भी ईको-फ्रेंडली था।"
शाम ढलने लगी थी। अब चारों बाहर के बरामदे में बैठ गए। रिपोर्ट लगभग पूरी थी। चाय का दूसरा दौर आ चुका था।
"कभी लगता है, तुम इन इमारतों से ज़्यादा जुड़ जाती हो?" अर्जुन ने ऐशा से पूछा।
"हाँ। क्योंकि ये नहीं बदलतीं। और अगर बदलती भी हैं, तो धीरे, ध्यान से। इंसानों जैसे नहीं।"
"और तुम बदलना चाहोगी?"
"अगर कुछ जोड़ सके खुद में, तो हाँ।"
फिर एक लंबा, शांत पल आया।
"तुम दोनों को देख के लग रहा है जैसे Discovery Channel और Netflix साथ बैठ गए हों," तनिष्क ने मज़ाक उड़ाया।
"और तुम क्या हो?" ऐशा ने पूछा।
"मैं Hotstar—थोड़ी देर में बंद हो जाता हूँ।"
सब ज़ोर से हँस पड़े।
रात को जब ऐशा घर पहुँची, उसने अपने लेपटॉप पर रिपोर्ट की ड्राफ्ट फ़ाइल खोली—और टाइटल लिखा:
"डेज़र्ट हाउस—जब मिट्टी से मकान नहीं, समझ बनती है।"
उसके सामने अर्जुन की आवाज़ गूंज रही थी—"तुम्हारी छत बहुत स्मार्ट है"—और फिर खुद उसकी ही सोच में एक नई इमारत बनती जा रही थी।
जब शब्दों में दीवारें बोलती हैं
कॉलेज का लेक्चर हॉल हमेशा की तरह व्यस्त था, लेकिन आज कुछ अलग था। सुबह की ठंडी हवा खिड़की के शीशों पर साँस छोड़ रही थी और भीतर बैठे स्टूडेंट्स के चेहरों पर एक अलग तरह की गंभीरता थी। हर कोई थोड़ा ज़्यादा तैयार लग रहा था—शायद इसलिए कि आज 'फील्ड स्टडी प्रोजेक्ट प्रेजेंटेशन' का दिन था।
ऐशा, हल्के नीले रंग की लॉन्ग कुर्ता और सफेद पलाज़ो में, अपने बालों को सधा-संभाला सा बाँधे, एक कोने में बैठी नोट्स देख रही थी। उसके पास बैठी जाह्नवी अपनी डायरी में कुछ ताज़ा रेखाएँ खींच रही थी। थोड़ा आगे, प्रोफेसर अर्जुन, एक हाथ से अपनी जैकेट की बाजू चढ़ाते हुए, मोबाइल स्क्रीन पर टाइम चेक कर रहा था।
"हमारा टाइम स्लॉट तीसरा है," तनिष्क ने धीरे से कहा। "पहले अनुज की टीम है... फिर सीमा की... फिर हम।"
"उन्हें बोलने दो पहले," प्रोफेसर अर्जुन ने बेमन से कहा। "हम तो दीवारों से बात करने आए हैं... उन्हें लोगों से बात करने की आदत है।"
"आप हर चीज़ को इतना रोमांटिक क्यों बना देते हो?" जाह्नवी मुस्कराई।
"क्योंकि मैं अर्जुन हूँ," उसने आँखें झपकाईं।
स्टेज पर अनुज की टीम अपनी प्रेजेंटेशन शुरू कर चुकी थी। पॉवरपॉइंट की स्लाइड्स चमक रही थीं—ग्लास बिल्डिंग्स, मेटल स्ट्रक्चर्स और LED वॉल्स।
"इन्होंने जो बनाया है, वो कॉर्पोरेट्स को शो-ऑफ करने के लिए अच्छा है," ऐशा ने धीमे स्वर में कहा। "पर टिकाऊ नहीं।"
"हमारे घर में शीशे नहीं हैं," प्रोफेसर अर्जुन ने जोड़ा। "हमारे घर में साँस है।"
"और आपमें?" ऐशा ने पूछा।
"मैं तो बस हूँ... साँस लेता हूँ। पर शब्दों में नहीं, रेखाओं में।"
तीनों ने एक-दूसरे की ओर देखा, जैसे कोई नज़र मिलाना भी एक समझदारी का हिस्सा हो।
अब उनकी बारी थी।
प्रोफेसर मलिक ने हल्के से सिर उठाया—"टीम 3, आप लोग आ सकते हैं।"
प्रोफेसर अर्जुन ने अपने हाथ में पकड़ा पेन क्लिक किया। ऐशा ने स्क्रीन को टैब से जोड़ा। जाह्नवी ने रोल-चार्ट्स निकाले, और तनिष्क ने पानी की बोतल साथ रखी।
स्लाइड 1: 'डेज़र्ट हाउस – जब दीवारें साँस लेती हैं'
"नमस्ते," ऐशा ने बोलना शुरू किया। आवाज़ धीमी थी, लेकिन स्पष्ट।
"हमारा अध्ययन एक पुराने आवासीय भवन पर आधारित है, जो 1932 में बना था—नाम है 'डेज़र्ट हाउस'। यह मुंबई के माटुंगा क्षेत्र में स्थित है।"
स्लाइड पर एक विंटेज हाउस की तस्वीर थी, पीले दीवारों वाला, लाल खपरैलों से ढका, और सामने बगीचे में कढ़ी हुई झाड़ियाँ।
"यह घर सिर्फ एक निर्माण नहीं है, यह एक विचार है। एक तरीका है—इस तेज़ रफ्तार शहर में धीमे और गहराई से जीने का।"
प्रोफेसर अर्जुन अब सामने आया।
"इस घर की ख़ासियत इसकी दीवारें नहीं, दीवारों के बीच बहने वाली हवा है। छत की मिट्टी की परतें, बारीक जालियों वाली खिड़कियाँ, और हर कोने में वो डिज़ाइन जो सूरज और हवा को इज़्ज़त से अंदर बुलाता है।"
स्लाइड बदलती है—छत की क्रॉस-सेक्शन।
"हमने देखा कि इसकी छत पर 8 इंच मोटी मिट्टी की परत है, जिसमें गोबर और चूने की लेप है—जो तापमान को स्थिर रखता है।"
अब जाह्नवी बोल रही थी—"दीवारों की मोटाई 14 इंच तक है, और हर कमरा एक केंद्रीय आँगन की ओर खुलता है—जिससे प्राकृतिक वेंटिलेशन बना रहता है।"
स्लाइड—आँगन का स्केच। बच्चों की चहलकदमी, दो कुर्सियाँ और पेड़ की परछाईं।
"हमने ये भी नोट किया कि ये सिर्फ़ वास्तुकला नहीं है... यह स्मृति है," ऐशा ने जोड़ा। "ये घर एक वृद्ध का आश्रय है, जिनके लिए ये दीवारें रिश्ते जैसी हैं—पुरानी लेकिन सजीव।"
अब तनिष्क स्टेज के सामने आया, एक हल्के मूड के साथ।
"हमारा काम ये दिखाना नहीं था कि घर कितना सुंदर है... बल्कि ये समझना था कि सुंदरता किस चीज़ से बनती है। और हमें मिला—मिट्टी, हवा, धूप, और थोड़ा सा दिल।"
स्लाइड—'कम लागत, उच्च स्थायित्व'
"इस घर का सालाना मेंटेनेंस केवल ₹5000 है," जाह्नवी ने बताया। "और इसके बावजूद, इसमें एसी की ज़रूरत नहीं है। न गर्मियों में, न सर्दियों में।"
"तो आप कह सकते हैं," प्रोफेसर अर्जुन मुस्कराया, "कि यह घर, अपने आप में 'सस्टेनेबल' नहीं, बल्कि 'सजग' है।"
प्रोफेसर मलिक की भौंहें हल्की सी उठीं—जो उनके हिसाब से एक 'वाह' था।
प्रेजेंटेशन ख़त्म हुआ।
स्टूडेंट्स की तरफ़ से कुछ सवाल आए।
"आपको ये घर क्यों सबसे अलग लगा?" सीमा ने पूछा।
"क्योंकि इस घर में दिखावा नहीं था," ऐशा ने शांत स्वर में कहा। "यह खुद को साबित नहीं कर रहा था। वह अपने अंदर पूरी तरह पर्याप्त था।"
"और आप?" अनुज ने प्रोफेसर अर्जुन की ओर इशारा किया।
"मैंने वहाँ पहली बार देखा कि छतें भी गुनगुनी हो सकती हैं," उसने सीधी नज़र से जवाब दिया।
कुछ लोग हँसे, लेकिन कईयों के चेहरों पर सोच उतर आई थी।
प्रोफेसर मलिक उठे।
"आपकी टीम ने जो प्रस्तुत किया, वो एक विचार है... एक अनुभव। मुझे नहीं पता आप में से किसने ज़्यादा मेहनत की—लेकिन आप सबने, मिलकर एक घर को एक साँस देने वाली इकाई बना दिया।"
ऐशा, प्रोफेसर अर्जुन, जाह्नवी और तनिष्क ने हल्की-सी झुककर सर हिलाया।
जब वे नीचे लौटे, प्रोफेसर अर्जुन ने धीरे से कहा—
"तुम्हारी आवाज़, आज स्लाइड्स से तेज़ थी।"
"और तुम्हारी बातें, आज असली लगीं।"
"मतलब बाकी दिनों में नकली लगती हैं?"
"नहीं... बाकी दिनों में तुम कवि होते हो। आज तुम गवाह थे।"
रात को ऐशा ने अपनी डायरी खोली।
लिखा:
"आज पहली बार, मैंने महसूस किया कि मेरा पेशा सिर्फ़ इमारतें बनाना नहीं है... शायद रिश्ते भी। और प्रोफेसर अर्जुन—वो आज कम बोले, ज़्यादा कह गए।"
नीचे एक स्केच नहीं, बस एक शब्द लिखा था—
"साँस"
"जुड़ाव – जब मौन की ज़मीन पर कुछ उगने लगे"
कॉलेज की गर्म दोपहरी कुछ ज़्यादा ही शांत थी। कैंटीन खाली थी, और कैंपस की गलियों में पेड़ों की परछाइयाँ लहरों सी बिछी थीं। जून का महीना था, जब मुंबई की हवा भी आलसी हो जाती है। लेकिन इस आलस में भी कुछ था — जैसे कोई धीमी चाल में किसी को समझने की कोशिश कर रहा हो।
ऐशा, आर्कियोलॉजिकल एनवायरनमेंटल डिज़ाइन की स्टूडेंट, आज पहली बार फील्ड प्रोजेक्ट को लेकर थोड़ी बेपरवाह थी। उसे सब कुछ ज़्यादा टेक्निकल नहीं चाहिए था — बस एक ऐसी जगह, जो बोलती नहीं, लेकिन कुछ कहती हो।
प्रोफेसर अर्जुन, अब तक की दुनिया के सबसे अनप्रेडिक्टेबल प्रोफेसर, फॉर्मल नहीं लेकिन फ़ोकस्ड थे। उसके नोट्स अधूरे थे, लेकिन नज़रें किसी फ़ुल स्टॉप की तलाश में नहीं — बल्कि किसी अल्पविराम में अटकने को तैयार लगती थीं।
"हम यहाँ क्या देखने आए हैं?" ऐशा ने पूछा, जब वे दोनों छोटे-से उपनगर में एक पुराने खाली पड़े हवेलीनुमा घर के सामने खड़े थे।
"पता नहीं। शायद कुछ ऐसा, जो अब नहीं बनता।" प्रोफेसर अर्जुन ने धीमे से कहा।
साथ में कॉलेज की बाकी टीम भी थी — जाह्नवी, तनिष्क, और दो जूनियर स्टूडेंट्स। लेकिन जैसे ही सब अंदर घुसे, वे दो किसी और ही लय में बह निकले।
हवेली की छत टूट चुकी थी, लेकिन धूप की सीध में बिखरी ईंटें किसी विरासत की तरह चमक रही थीं।
"देखो ये दीवार," ऐशा ने हाथ फेरते हुए कहा, "ये जो सीलन है न, ये बस नमी नहीं... किसी की सांस की परत लगती है।"
प्रोफेसर अर्जुन ने हल्के से उसकी ओर देखा — न मुस्कराया, न चौंका। जैसे वह उसे पहली बार सुन रहा हो, देख नहीं।
"तुम दीवारों को महसूस करती हो?" उसने पूछा।
"मैं हर उस चीज़ को महसूस करती हूँ जो स्थिर है... क्योंकि वही सबसे ज़्यादा बदलती है।"
वह एक पुराने झरोखे की ओर बढ़ी, जहाँ से बाहर का नीला आसमान एक चौकोर फ़्रेम में बंधा था।
"कभी-कभी लगता है," उसने कहा, "कि हम भी ऐसे ही हैं... खुद के भीतर बंद एक खिड़की, जिसकी ओर कोई झाँकने नहीं आता।"
प्रोफेसर अर्जुन चुप रहा।
नीचे से टीम की आवाज़ें आ रही थीं — "सर, कैमरा इधर..." "ऐशा, measurements चाहिए..." लेकिन वे दोनों कुछ और ही ढूँढ रहे थे — किसी प्लान का हिस्सा नहीं, किसी एहसास का टुकड़ा।
प्रोफेसर अर्जुन ने एक कोना दिखाया — फर्श पर उग आई घास की कुछ पतली टहनियाँ।
"ये देखो। इतनी पुरानी दीवारों में भी कोई बीज दबा रह गया होगा।"
"या फिर कोई आंसू गिरा होगा..." ऐशा ने कहा। "जो बीज बन गया।"
फिर दोनों चुप हो गए। मौन लंबा खिंचा। हवा भी एक लय में थी। ऐसा कोई शब्द नहीं था जिसे कहा जाना चाहिए था, और कोई खामोशी नहीं थी जिसे तोड़ा जाना चाहिए था।
संध्या होने लगी।
टीम के बाकी सदस्य वापस लौटने की तैयारी में थे। लेकिन प्रोफेसर अर्जुन और ऐशा अब भी उस झरोखे के पास बैठे थे।
"तुम कुछ छुपाती हो," प्रोफेसर अर्जुन ने अचानक कहा।
"क्या?"
"अपना डर। किसी को खुद में दाखिल ना होने देने का डर।"
"और तुम?"
"मैं? मैं हर किसी को दाखिल कर लेता हूँ... ताकि कोई रुक जाए, एक दिन।"
"और मैं वही हूँ जो रुकती नहीं," उसने कहा।
"शायद... इसलिए मैं बार-बार ठहर जाता हूँ।"
सूरज का आखिरी टुकड़ा उस झरोखे से गुज़र कर ऐशा के चेहरे पर गिरा।
वह रोशनी नहीं थी — जैसे कोई दुआ हो, जो बिना बोले माँगी गई हो।
"हम चलते हैं?" ऐशा ने धीरे से पूछा।
"नहीं... यहीं बैठते हैं थोड़ा और।"
"क्यों?"
"क्योंकि यहाँ से जाने का मन नहीं। और ये मन बहुत कम बार कुछ चाहता है।"
रास्ते में लौटते समय, वे दोनों बाइक पर नहीं, पैदल चल रहे थे।
प्रोफेसर अर्जुन की बाइक पास में खड़ी थी लेकिन उसने चलाने का मन नहीं बनाया।
"कभी-कभी, रास्ता लंबा होना चाहिए," उसने कहा।
"और साथी समझदार?" ऐशा मुस्कराई।
"नहीं... बस वही हो, जो बोले नहीं... लेकिन साथ रहे।"
कॉलेज की बिल्डिंग नज़र आने लगी थी।
लाइट्स जल चुकी थीं, लोग अपने-अपने कामों में लग चुके थे। शोर लौट आया था। लेकिन प्रोफेसर अर्जुन और ऐशा अब भी उस शांत कोने की गर्मी अपने भीतर लिए चल रहे थे।
"आज कुछ लिखोगी डायरी में?" प्रोफेसर अर्जुन ने पूछा।
"शायद नहीं," ऐशा बोली। "जो बातें समझ नहीं आतीं, उन्हें लिखना बेईमानी लगता है।"
"तो फिर क्या करोगी?"
"सो जाऊँगी। शायद किसी सपने में वो बात खुद आ जाए।"
उस रात...
प्रोफेसर अर्जुन ने अपनी पुरानी नोटबुक में एक लाइन लिखी:
"उसने कुछ नहीं कहा। लेकिन आज हर आवाज़ उससे कम लग रही थी।"
और ऐशा ने अपनी डायरी बंद कर दी, बिना एक शब्द लिखे।
एक रिश्ता था। जिसे उन्होंने नहीं छुआ। पर वह उनके बीच सांस ले रहा था। जैसे धूप किसी बंद झरोखे से चुपचाप भीतर उतरती है।
"रंगों की गवाही, मौन की बात"
कॉरिडोर के आखिरी सिरे पर लगे हल्के पीले बल्ब की रोशनी फर्श पर बिखरी हुई थी। पूरे कॉलेज में एक हल्की हलचल थी। गैलरी की तैयारी चल रही थी, जहाँ आर्कियोलॉजी, आर्ट और डिज़ाइन के छात्रों ने मिलकर एक इंटरैक्टिव प्रदर्शनी लगाई थी।
ऐशा, गहरे फ़ॉरेस्ट-ग्रीन कुर्ते और सफेद पलाज़ो में बेहद सादगी से तैयार थी। उसकी चाल धीमी, पर आत्मविश्वासी थी। बाल आधे खुले, आधे रबरबैंड में बंधे थे—जैसे वो चाहती थी कि हवा थोड़ी छेड़े, लेकिन पूरी तरह उलझाए नहीं।
वह अपने प्रोजेक्ट की जगह पर पहुँची। उसकी थीम थी:
"प्राचीन शहरों की आवाज़ें – जब मिट्टी बोलती है।"
छोटे स्टोन-क्ले मॉडल्स, कुछ टूटे हुए मृदभांड, और उनके साथ लगे रिसर्च टैग्स—पूरा सेक्शन minimalist था, लेकिन उसमें एक सूक्ष्म आकर्षण था। जैसे देखने वाला खुद को झुकाकर पढ़े, और मिट्टी की रेखाओं में कुछ ढूँढने लगे।
तभी पीछे से एक आवाज़ आई—
"तुम्हारी बनाई चीज़ें भी तुम जैसी हैं—कम बोलती हैं लेकिन बहुत कुछ कह जाती हैं।"
ऐशा मुस्कराई। उसने बिना पलटे कहा,
"और आप हर बार अचानक क्यों आते हो?"
प्रोफेसर अर्जुन, नीले चूसत शर्ट और खाकी पेंट में आज कुछ अलग ही दिख रहे थे—लापरवाह, लेकिन ज़िंदा।
"क्योंकि जो तयशुदा होता है, वो मुझे कभी पसंद नहीं आया।" उन्होंने जवाब दिया।
प्रोफेसर अर्जुन ने सामने रखे एक पुराने स्टोन-टेम्पलेट को हाथ में लिया।
"ये क्या है?"
"हड़प्पा सभ्यता की drainage pattern... लेकिन ये सिर्फ drainage नहीं था, ये उनकी सोच का आइना था।"
"मतलब?"
"मतलब, वे लोग हर उस चीज़ को सम्मान देते थे जो 'गुज़रती' थी—चाहे वो पानी हो, हवा... या कोई रिश्ता।"
प्रोफेसर अर्जुन ने उसे देखा। "क्या तुम भी वैसे ही सोचती हो?"
"हाँ," उसने धीमे से कहा। "मुझे जाने देने वाले लोग पसंद हैं... और वो जो बिना कहे रुक जाते हैं।"
गैलरी में अब और भीड़ आने लगी थी।
छात्र एक-दूसरे के प्रोजेक्ट्स की तारीफ़ कर रहे थे, प्रोफेसर तस्वीरें खींच रहे थे। लेकिन प्रोफेसर अर्जुन और ऐशा की दुनिया अब भी थोड़ी धीमी चल रही थी—एक अलग रफ्तार में।
"चलो, तुम्हें अपनी जगह दिखाता हूँ," प्रोफेसर अर्जुन बोले।
"आपने भी कुछ लगाया है?"
"हाँ... वो जो स्केचेज़ बनते थे न, वो नहीं लाया। कुछ नया है।"
प्रोफेसर अर्जुन ने उसे गैलरी के एक कोने में ले जाकर खड़ा किया। वहाँ एक बड़ी दीवार पर कुछ अजीब रेखाएँ थीं—चॉक से खींची गईं, थोड़ी अधूरी, कुछ ज़मीन से शुरू होकर ऊपर तक जातीं।
"ये क्या है?" ऐशा ने पूछा।
"ये एक रास्ता है... जो ऊपर तो जाता है, लेकिन कहीं पहुँचता नहीं।"
"तो फिर क्यों बनाया?"
"ताकि जो देखे, वो पूछे—और फिर खुद में उतर जाए।"
ऐशा धीरे से मुस्कराई। उसकी उँगलियाँ दीवार के उस हिस्से पर ठहर गईं जहाँ रेखाएँ सबसे कमज़ोर थीं।
"यहीं पर ठहरती हूँ मैं... जहाँ चीज़ें पूरी नहीं होतीं।"
"और मैं वहीं से शुरुआत करता हूँ..." प्रोफेसर अर्जुन ने कहा।
कुछ सेकंड्स के लिए, उनके बीच की दूरी केवल उतनी रही जितनी एक साँस की होती है। आसपास की आवाजें मद्धम, हँसी की गूंज धीमी... और सिर्फ एक मौन।
"तुमने कुछ खाया आज?" प्रोफेसर अर्जुन ने अचानक पूछा।
"नहीं।"
"तो चलो, कुछ खाते हैं।"
"यहाँ से?"
"नहीं, उस पुराने स्टॉल से जो कैंपस के पीछे है।"
अब शाम हल्की हो चुकी थी।
कैंपस के पीछे छोटा-सा फूड स्टॉल, जहाँ सिर्फ कुछ क्लासिक चीज़ें मिलती थीं—बटर-पाव, मैगी और मलाईवाली चाय।
"दो मलाई चाय और बटर-पाव!" प्रोफेसर अर्जुन ने कहा।
ऐशा पास ही बेंच पर बैठ गई। उसके चेहरे पर हल्की थकान थी, लेकिन आँखों में सुकून।
"तुम्हें पता है?" प्रोफेसर अर्जुन बोले। "मुझे तुम्हारा चेहरा तब सबसे अच्छा लगता है, जब तुम कुछ सोचती नहीं। बस होती हो।"
"और तुम्हें कब अच्छा लगता है?" ऐशा ने उनकी ओर देखा।
"जब आप मुझे देखती हो—और मैं कुछ बोलना भूल जाता हूँ।"
मलाई चाय आ गई।
ऐशा ने कप थामा, और होंठों से लगाते हुए पूछा, "आप इतने पर्सनल क्यों हो जाते हो कभी-कभी?"
"क्योंकि मुझे फिल्टर लगाना नहीं आता।"
"और मुझे उसे उतारना नहीं आता।"
दोनों हँस पड़े।
लेकिन हँसी के बीच जो ठहराव था, वो सब कुछ कह रहा था—बिना कहे।
रात की हवा अब थोड़ी ठंडी हो चली थी।
ऐशा उठी, अपनी उँगलियाँ टेबल के किनारे से फेरते हुए बोली, "चलें?"
प्रोफेसर अर्जुन ने कहा, "तुम पहले चलो... मैं थोड़ा यहीं बैठना चाहता हूँ।"
"क्यों?"
"क्योंकि तुम्हारे जाने के बाद जो खालीपन होता है... मैं उसे कुछ देर महसूस करना चाहता हूँ।"
ऐशा कुछ नहीं बोली। सिर्फ मुस्कराई।
फिर बिना मुड़े, धीमी चाल में आगे बढ़ गई।
और प्रोफेसर अर्जुन?
वह वहीं बैठा रहा, चाय की अधूरी घूँट के साथ।
और धीरे से अपनी डायरी निकाली।
लिखा:
"वो चली गई।
लेकिन हर जगह वो बसी रह गई।
जैसे उसकी छुअन हवा में ठहर गई हो।
जैसे उसके मौन ने मुझे बोलना सिखा दिया हो।"
कॉलेज की दीवारों पर हल्का पीला सूरज छाया हुआ था। कुछ कोने थके-थके से थे, और कुछ… जैसे किसी नए उत्सव के लिए तैयार। पूरे परिसर में गूंज रही थी एक ही बात – "फील्ड ट्रिप का दिन आ गया!"
ऐशा, नीले रंग की फुल-स्लीव कॉटन शर्ट और ब्लैक ट्रैक पैंट में, अपने बैग को दोनों कंधों पर कसते हुए बस स्टॉप की ओर बढ़ी। उसकी चाल में वही सादगी थी – सहज, लेकिन ठोस। उसके हाथ में एक पुरानी डायरी थी – रफ नोट्स और रूट स्केचेस से भरी हुई। वह डायरी नहीं, जैसे कोई पुराने रहस्यों की कुंजी हो।
"तुम्हें अब भी सब कुछ हाथ से क्यों लिखना होता है?"
पीछे से आती आवाज़ ने उसकी रफ्तार धीमी कर दी। प्रोफेसर अर्जुन, ग्रे शर्ट और पेंट में, एक हाथ में कैमरा और दूसरे में कॉफी का कप था। बाल उलझे हुए थे लेकिन आँखें साफ़ – और उसमें वही बात जो ऐशा को असहज भी करती थी और कहीं न कहीं आकर्षित भी।
"क्योंकि जो महसूस होता है, उसे टाइप नहीं किया जा सकता," ऐशा ने जवाब दिया।
"और जो देखा जाता है, वो भी हर बार कैमरे में नहीं आता," प्रोफेसर अर्जुन ने मुस्कराते हुए कहा।
बस का इंजन गड़गड़ाया, और सारे स्टूडेंट्स अपनी-अपनी सीटें लेने दौड़े। ग्रुप्स बने थे – कुछ हँसते, कुछ विडियोज़ बनाते, और कुछ... खुद से भी चुप। ऐशा, खिड़की के पास वाली सीट पर बैठी। बाहर तेजी से भागते पत्तों को देखती हुई।
"तुम्हारे बगल में कोई बैठा है?"
"अगर होता तो जवाब न देती," ऐशा ने हल्की मुस्कान में कहा।
प्रोफेसर अर्जुन बैठ गया। बस ने रफ्तार पकड़ी।
पहला पड़ाव था – "धौलवीगढ़", एक प्राचीन समुद्री किला, जो महाराष्ट्र की पश्चिमी रेखा पर फैला हुआ था। वहाँ की दीवारें सैकड़ों साल पुरानी थीं, नमकीन हवाओं से धुली और इतिहास से बोझिल। रास्ते में मौसम हल्का ठंडा हो गया था। हवा में कुछ नमी थी – शायद आने वाली बारिश का संकेत।
"जानती हो इस किले के बारे में?" प्रोफेसर अर्जुन ने पूछा।
"हाँ," ऐशा ने अपनी डायरी खोली। "यह किला समुद्री व्यापार के लिए जाना जाता था। लेकिन यहाँ एक गुमनाम पुस्तकालय भी था, जहाँ नक्षत्र और समय को लेकर ताड़पत्र रखे जाते थे।"
"और तुम्हें क्या लग रहा है, हम वहाँ कुछ खास देख पाएंगे?"
"शायद नहीं," ऐशा ने कहा, "लेकिन महसूस ज़रूर कर पाएंगे।"
बस रुकी। धौलवीगढ़ की सीढ़ियाँ दूर से ही दिख रही थीं – ऊँची, काई लगी हुई, और धूप से चमकतीं। जैसे हर पत्थर अपने भीतर सौ कहानी छुपाए बैठा हो।
"स्टूडेंट्स! ग्रुप में रहें, गाइड के साथ चलें!" प्रोफेसर रितिका की आवाज़ आई।
लेकिन प्रोफेसर अर्जुन और ऐशा पहले ही धीमे-धीमे चलते हुए आगे बढ़ गए थे। उनका साथ चलना — बिना कहे तय था। किले की दीवारों पर चलती हवा में कुछ था। कोई गीत… जो कभी लिखा गया, फिर मिटा दिया गया। ऐशा धीरे-धीरे अपने हाथ दीवार पर फेरती गई। प्रोफेसर अर्जुन ने तस्वीरें खींचीं – लेकिन हर फ्रेम में उसकी नज़र कैमरे से हटकर ऐशा की ओर जा रही थी।
"ये दीवारें घिस गई हैं…" प्रोफेसर अर्जुन ने कहा।
"पर यादें अब भी तरोताज़ा हैं," ऐशा ने धीमे से जवाब दिया।
एक मोड़ पर आकर दोनों रुक गए।
"यहाँ बैठ सकते हैं कुछ देर," ऐशा बोली।
वे दोनों एक पुराने पत्थर पर बैठे, जो शायद पहले कोई बैठक हुआ करता था। ऐशा ने अपना बैग उतारा और पानी निकाला।
"तुम पानी तक बाँटती हो चुपचाप…" प्रोफेसर अर्जुन ने कहा।
"और तुम सबकुछ बोलने की ज़रूरत क्यों समझते हो?" उसने मुस्कराकर पूछा।
एक पल के लिए, दोनों की नज़रें टकराईं। कोई शब्द नहीं, कोई इरादा नहीं — बस मौन। नीचे से साथियों की आवाजें आ रही थीं, लेकिन इस ऊँचाई पर... सब शांत था। हवा में एक ठंडक थी, और प्रोफेसर अर्जुन ने जैकेट का कोना ऐशा की ओर बढ़ा दिया।
"ठंड लग रही है?"
"थोड़ी," उसने कुबूल किया।
प्रोफेसर अर्जुन ने कहा, "लो, ले लो जैकेट।"
"नहीं चाहिए।"
"ले लो, यह कोई पेशकश नहीं है – यह आदत है मेरी।"
ऐशा ने जैकेट ओढ़ ली। वो महसूस नहीं कर पाई कि क्या ज़्यादा गर्म था – जैकेट की ऊष्मा, या प्रोफेसर अर्जुन की चुप मौजदूगी। सूरज अब ढल रहा था। छायाएँ लंबी होने लगी थीं।
"नीचे चलें?" प्रोफेसर अर्जुन ने पूछा।
"चलो…" लेकिन ऐशा की आवाज़ धीमी थी। जैसे वो कुछ छोड़ना नहीं चाहती थी — और समझ भी नहीं पा रही थी, कि ये जो एहसास उसके भीतर हल्के-हल्के जाग रहा है, वो आखिर क्या है।
नीचे उतरते वक़्त, ऐशा ने एक बार पीछे मुड़कर देखा। किले की ऊँचाई, दीवारों की ख़ामोशी, और प्रोफेसर अर्जुन का साथ… सब कुछ जैसे किसी पुरानी कविता की आखिरी पंक्तियाँ हो।
सवेरे का आसमान हल्के बादलों से ढका हुआ था। धूप बाहर आने की हिम्मत तो कर रही थी, लेकिन वह बादलों की ओट से सिर्फ झांक भर पा रही थी। हवाओं में ठंडक थी, पर अजीब-सी सुकून देने वाली।
एशा खिड़की के पास बैठी थी। उसके सामने फैला था – एक छोटा-सा हिल स्टेशन टाइप इलाका, जिसमें पुरानी ईंटों से बनी दुकानें, मोर-पंख जैसे दिखते छोटे-छोटे पहाड़, और बीचों-बीच एक झील थी – ‘नीलकुंड’।
गेस्टहाउस का कमरा सादा था – लकड़ी की दीवारें, छत पर लगे पुराने पंखे की धीमी आवाज़, और एक सिंगल विंडो जो बाहर की दुनिया से उसे जोड़े रखती थी। उसने अभी तक खुद को शीशे में नहीं देखा था।
नींद से जागी उसकी आँखें अब भी कुछ खोज रही थीं – या शायद अभी भी किसी दृश्य में उलझी थीं जो धौलवीगढ़ के उस पत्थर पर बैठकर प्रोफेसर अर्जुन के साथ देखा था।
कमरे के बाहर हलचल शुरू हो चुकी थी। कुछ स्टूडेंट्स बालकनी में खड़े थे, कुछ फोटोज़ क्लिक कर रहे थे। एक कोना पूरी तरह प्रोफेसर अर्जुन के कब्ज़े में था – ट्राइपॉड पर कैमरा फिक्स, और हाथ में नोटबुक।
"काफ़ी पीनी है?" पीछे से आती प्रोफेसर अर्जुन की आवाज़ में अब भी वही नर्मी थी।
एशा मुस्कुराई।
"अगर खुद बना रहे हो तो बिलकुल।"
"तो तुम सिर्फ कैमरे की तारीफ करती हो, मेरे हुनर की नहीं," प्रोफेसर अर्जुन ने थोड़ा तिरछा चेहरा बनाते हुए कहा।
"मैं ऐसे हुनर की तारीफ करती हूँ जो स्थायी हो," ऐशा ने जवाब दिया और गेस्टहाउस के कैफे की ओर चल पड़ी।
कैफे की सजावट पुरानी लेकिन दिलचस्प थी। मिट्टी के दीयों वाली दीवारें, लकड़ी की कुर्सियाँ, और कोनों में लगे पुराने रेडियो जिनसे धीमी-धीमी क्लासिकल धुनें आ रही थीं।
दो कप फिल्टर कॉफी के बीच बैठकर वे दोनों जैसे कहीं और चले गए।
"तुमने कभी सोचा है कि अगर हम दोनों एक ही प्रोजेक्ट पर काम कर रहे होते तो क्या होता?" प्रोफेसर अर्जुन ने अचानक पूछा।
"हम्म… शायद बातों से ज़्यादा बहस होती," ऐशा ने कहा।
"या फिर सब कुछ मौन में होता," प्रोफेसर अर्जुन ने उसकी आँखों में झाँकते हुए कहा।
कुछ सेकेंड्स के लिए कोई बात नहीं हुई। सिर्फ कॉफी की भाप और दो जोड़ी आँखों के बीच का अनकहा संवाद।
सुबह का खाना हल्का था। पूरी सब्ज़ी, उपमा, और नारियल की चटनी। बाकी स्टूडेंट्स अपनी हँसी-मज़ाक में मस्त थे, लेकिन ऐशा और प्रोफेसर अर्जुन उस भीड़ का हिस्सा होते हुए भी जैसे किसी और लेवल पर चल रहे थे – बिना बोले, लेकिन साथ।
"आज कहाँ जा रहे हैं?" किसी ने पूछा।
प्रोफेसर रितिका ने जवाब दिया, "नीलकुंड झील के किनारे एक पुराना मंदिर है – ‘केशवराज’। वही चलना है। उसके आसपास वनस्पतियों की स्टडी करनी है, और कुछ इतिहास के दस्तावेज़ वहाँ की लाइब्रेरी में उपलब्ध हैं।"
"लाइब्रेरी!" ऐशा की आँखों में चमक आ गई।
"झील!" प्रोफेसर अर्जुन की आँखों में कैमरा घूम गया।
रास्ता ज्यादा लंबा नहीं था – करीब 3 किलोमीटर का ट्रैक। रास्ते भर दोनों ओर बाँस के पेड़, वाइल्ड बोगनवेलिया की लतरें, और कहीं-कहीं बकरी चराते स्थानीय बच्चे।
ऐशा ने एक पीली बोगनवेलिया उठाई और बैग की डायरी में रख ली।
"तुम हर चीज़ को सहेज क्यों लेती हो?" प्रोफेसर अर्जुन ने पूछा।
"क्योंकि खो देना मुझे आता नहीं," ऐशा ने धीमे से जवाब दिया।
नीलकुंड झील सामने थी। नीला नहीं, लेकिन शांत। किनारे काई लगी हुई थी, और झील के बीचों-बीच एक छोटी सी नाव पड़ी थी, जो अब सिर्फ शोपीस रह गई थी।
झील के बगल में एक पुराना मंदिर था – सफेद पत्थर से बना, समय की रेखाओं से भरा हुआ। मंदिर का आंगन पूरी तरह पेड़ों की छांव में था। कुछ छात्र फोटो खींचने में लगे थे, कुछ स्केचिंग कर रहे थे। और कुछ… खुद को खोज रहे थे।
ऐशा और प्रोफेसर अर्जुन एक किनारे बैठ गए।
"पता है," ऐशा ने कहा, "यहाँ के पुजारी कहते हैं कि इस मंदिर में एक घंटा बैठने से आत्मा अपने बोझ खुद हल्के कर लेती है।"
"तुम बैठती हो?" प्रोफेसर अर्जुन ने पूछा।
"मैं… सुनती हूँ। खुद को, आसपास को… और उस चीज़ को भी जो अक्सर हमसे नहीं कहती, पर हममें होती है।"
"और मैं… तुम्हें सुनता हूँ," प्रोफेसर अर्जुन ने धीमे से कहा।
वह पल... जैसे ठहर गया हो। हवा की सरसराहट, मंदिर की घंटियों की हल्की-सी गूंज, और दूर कहीं किसी ने बांसुरी बजाई थी शायद। उन दोनों के बीच कोई स्पर्श नहीं था, कोई इज़हार नहीं — पर जो था, वो किसी लम्हे की परिभाषा से कहीं आगे का था।
ऐशा ने आँखें मूंद लीं। प्रोफेसर अर्जुन बस देखता रहा। वह देखना कैमरे से नहीं, किसी पुराने जीवन की स्मृति से था – जहाँ रिश्ते बिना कहे आकार लेते हैं।
शाम ढलने लगी थी। स्टूडेंट्स को वापस बुलाया गया। ऐशा और प्रोफेसर अर्जुन भी उठे।
"तुम कल कुछ खास करने वाली हो?" प्रोफेसर अर्जुन ने चलते हुए पूछा।
"शायद मंदिर के पीछे वाली गुफा में जाऊँ, जहाँ पुरानी शिलालेखें हैं।"
"और अगर मैं साथ चलूँ?"
"अगर आप चुप रह सको, तो जरूर।"
प्रोफेसर अर्जुन मुस्कराया।
"मौन मेरा नया विषय बन गया है, और तुम मेरी सबसे पहली किताब।"
गेस्टहाउस लौटते वक्त रास्ते में हल्की बारिश शुरू हो गई। छतरियाँ नहीं थीं, बस कुछ पेड़ और तेज़ चलती हवाएं। ऐशा और प्रोफेसर अर्जुन एक ही बरामदे की तरफ दौड़े।
भीगती हुई ऐशा के बाल उसके चेहरे पर चिपक गए थे। प्रोफेसर अर्जुन ने बिना पूछे, धीरे से बाल हटाए — न इरादा — बस जैसे बारिश के बाद साफ आसमान का रास्ता बनाना हो।
वह पल, सर्द हवा और दो धड़कनों की आवाज़ से गूंज गया।
“रेत की स्मृतियाँ – जब एक छुअन कह गई बहुत कुछ”
दिन भर की यात्रा के बाद, सूरज धीरे-धीरे आकाश में छिपने लगा। इधर-उधर से घूमते हुए विद्यार्थी गेस्टहाउस लौट रहे थे; कुछ हँसते हुए, कुछ बातचीत करते हुए। लेकिन ऐशा और प्रोफेसर अर्जुन का रास्ता कुछ अलग था। उनका ध्यान उस गुफा की ओर था, जहाँ पुरानी शिलालेखें छिपी थीं – एक ऐसी जगह, जहाँ समय का दबाव नहीं था, और इतिहास अपने में समेटे रहस्यों को बता रहा था।
गेस्टहाउस से बाहर निकलते हुए ऐशा और प्रोफेसर अर्जुन दोनों ही काफ़ी चुप थे। उनके बीच कुछ अनकहा था, जो दोनों ने महसूस किया था, लेकिन शब्दों में नहीं डाला। प्रोफेसर अर्जुन के चेहरे पर वही ताजगी थी जो हमेशा दिखती थी, लेकिन आज उसकी आँखों में कुछ और था – एक नर्म सी जिज्ञासा, जो ऐशा की तरफ बढ़ रही थी। ऐशा खुद को अनदेखा करती हुई चल रही थी, लेकिन अंदर एक हलचल थी। वह यह समझने की कोशिश कर रही थी कि क्या यह बस एक हल्की सी दोस्ती का एहसास है, या फिर कुछ और है।
गुफा का रास्ता घना और अंधेरा था। जब वे गुफा के अंदर पहुँचे, तो उसकी दीवारें सीधी और चुप थीं। हर कदम पर गुफा की ठंडी हवा ने उनके शरीर को छुआ, जैसे वह किसी पुराने रहस्य को सहेज रही हो। अंदर कदम रखते ही उन्होंने देखा कि दीवारों पर प्राचीन शिलालेख बने हुए थे, जो उन दिनों की कहानी बताते थे जब यह इलाका एक शक्तिशाली राज्य का हिस्सा हुआ करता था।
"यह सब देखकर मुझे कभी लगता है कि हम आजकल कितने खो गए हैं," प्रोफेसर अर्जुन ने कहा, उसकी आवाज़ में कुछ खो सा था।
"खो जाने की क्या बात है?" ऐशा ने अपने कंधे पर झूलते बैग को ठीक करते हुए पूछा, "हम अब भी तो उन चीजों को तलाश रहे हैं जो हमें खो चुकी हैं।"
"लेकिन क्या हमें उस खोने की प्रक्रिया को समझने का मौका नहीं मिलना चाहिए था?" प्रोफेसर अर्जुन ने गहरी सांस ली, जैसे वह किसी और ही दुनिया में खो गया हो।
ऐशा ने एक पल को उसकी ओर देखा, लेकिन फिर जल्दी से अपनी नज़रें घुमा लीं। यह वह पल था, जब दोनों के बीच कोई शब्द नहीं था, लेकिन दोनों को एक दूसरे का एहसास हो रहा था। प्रोफेसर अर्जुन ने अपने कैमरे से शिलालेख की तस्वीरें लीं, और ऐशा ध्यान से उन चित्रों को देख रही थी। उसकी आँखें उन शिलालेखों में कुछ खोज रही थीं, जैसे वह किसी गहरी जगह को समझने की कोशिश कर रही हो।
कुछ समय बाद, गुफा के अंदर शांति थी। दोनों अपने-अपने विचारों में खोए हुए थे, लेकिन अंदर कुछ ऐसा था जो उन्हें चुप रहने को मजबूर कर रहा था। अचानक, प्रोफेसर अर्जुन ने देखा कि ऐशा का ध्यान एक खास शिलालेख पर था, जिसमें कुछ अजीब सी लकीरें थीं।
"क्या तुमने यह देखा?" प्रोफेसर अर्जुन ने उत्सुकता से पूछा।
ऐशा ने सिर हिलाया, "हाँ, यह जैसे किसी गहरे रहस्य का संकेत है।"
प्रोफेसर अर्जुन थोड़ी देर तक उसे देखता रहा, फिर उसने धीरे से ऐशा के पास आकर कहा, "तुम बहुत गहरे सोचती हो, ऐशा। तुम्हारी आँखों में एक अलग ही चमक होती है।"
ऐशा को अचानक महसूस हुआ कि उसने प्रोफेसर अर्जुन के शब्दों को महसूस किया, लेकिन वह इसे पूरी तरह से शब्दों में नहीं बदल सकती थी। "तुम भी," उसने हल्की सी मुस्कान के साथ कहा।
उस पल की चुप्पी में दोनों के बीच एक नया संबंध बन रहा था, जो शब्दों से ज्यादा था – एक गहरी समझ, एक अहसास। यह रिश्ता था, लेकिन शायद यह खुद दोनों को भी पूरा नहीं समझ आया था।
गुफा से बाहर आते हुए दोनों ने देखा कि आसमान अब थोड़ा और गहरा हो चुका था। ठंडी हवाएँ चल रही थीं और झील का पानी चांदी की तरह चमक रहा था। वे धीरे-धीरे झील के किनारे पर चलने लगे। प्रोफेसर अर्जुन ने अपने कैमरे से कुछ और तस्वीरें लीं, जबकि ऐशा अपनी डायरी निकालकर कुछ लिखने लगी। वह उन विचारों को पन्नों पर उतारने की कोशिश कर रही थी, जो उसके दिल में बिना किसी शब्द के थे।
"क्या तुम कभी सोचती हो कि हमारी ज़िंदगी भी ऐसी ही एक कहानी बन जाएगी?" प्रोफेसर अर्जुन ने पूछा, उसकी आवाज़ में एक हल्की सी दार्शनिकता थी। "क्या हम भी किसी दिन इसी तरह याद किए जाएँगे, जैसे हम इन पुरानी शिलालेखों को देख रहे हैं?"
ऐशा ने उसकी ओर देखा, फिर एक गहरी साँस ली, "हमें वक़्त ही बताएगा। शायद हम उन चीजों में खो जाएँगे, जो हम कभी जानते नहीं थे।"
प्रोफेसर अर्जुन की नज़रें उस पर टिकी थीं, और ऐशा ने महसूस किया कि उसकी आँखों में कोई ऐसा सवाल था, जिसे वह खुद भी नहीं समझ पाई थी। फिर भी, उसने इशारे से झील की ओर देखा, "शायद यह झील उन सब सवालों का जवाब है, जिन्हें हम ढूँढने में लगे रहते हैं।"
प्रोफेसर अर्जुन चुप रहे, लेकिन उसकी आँखों में वह अनकहा कुछ था, जो हर बात से कहीं गहरे था। उसने बिना शब्द कहे ऐशा की तरफ देखा, जैसे वह समझ रहा था कि कुछ बातें शब्दों से परे होती हैं। और फिर उसने धीरे से कहा, "चलो, वापिस चलते हैं।"
वापस गेस्टहाउस की ओर बढ़ते हुए, दोनों के बीच हल्की सी दूरी थी, जैसे कोई अव्यक्त तनाव हो। लेकिन कोई शब्द नहीं था, सिर्फ एक अनकहा समझ था, जो दोनों के बीच फैल चुका था। ऐशा और प्रोफेसर अर्जुन दोनों अपने-अपने विचारों में खोए हुए थे, लेकिन एक-दूसरे के पास होने का अहसास उतना ही मजबूत था।
प्रोफेसर अर्जुन ने पहले बात की, "कल हम फिर से गुफा जाएँ?"
ऐशा ने नकारात्मक रूप से सिर हिलाया, "कल नहीं। आज के अनुभव को महसूस करने दो।"
"तुम हमेशा मौन रहकर बहुत कुछ कह देती हो," प्रोफेसर अर्जुन ने मुस्कुराते हुए कहा।
ऐशा ने उसकी ओर देखा और हल्का सा मुस्कुराई, "कभी-कभी, बिना कहे बहुत कुछ कहना ज्यादा असरदार होता है।"
गेस्टहाउस पहुँचते ही, प्रोफेसर अर्जुन और ऐशा दोनों ने एक-दूसरे को बिना किसी शब्द के अलविदा कहा। दोनों की आँखों में वही सवाल था, जो अभी तक हल नहीं हुआ था। उनका रिश्ता अनकहा था, लेकिन एक गहरी भावना उनके बीच लहरें बना रही थी। और यह लहरें धीरे-धीरे उनके दिलों को जोड़े जा रही थीं, एक नॉन-व्हर्जल कनेक्शन, जो शब्दों से कहीं ज्यादा था।
गेस्टहाउस में लौटने पर, ऐशा और प्रोफेसर अर्जुन के बीच का माहौल कुछ अलग था। दोनों अपने-अपने कमरों में चले गए, लेकिन उनके दिलों में एक हलचल थी। जब भी दोनों साथ होते, कुछ ऐसा होता था जो शब्दों से परे होता था। दोनों को इसका एहसास था, लेकिन न तो प्रोफेसर अर्जुन ने इसे स्वीकार किया और न ही ऐशा ने। दोनों को यह रिश्ता अभी भी एक कनेक्शन के रूप में महसूस हो रहा था, जो धीरे-धीरे साकार हो रहा था, लेकिन बिना शब्दों के।
सूरज डूब चुका था, और गेस्टहाउस के कमरे में हलकी रोशनी थी। ऐशा ने अपनी किताब खोली, लेकिन उस पर ध्यान नहीं दे पा रही थी। उसकी आँखों के सामने सिर्फ एक चीज़ थी – प्रोफेसर अर्जुन। वह उनकी बातों को, उनकी आँखों को, और उनकी हँसी को महसूस कर रही थी। कभी-कभी, वह सोचती कि क्या यह सब बस एक छोटी सी दोस्ती का हिस्सा है, या फिर कुछ और है, जो दिलों के बीच बिन कहे घुल रहा है।
प्रोफेसर अर्जुन अपने कमरे में बैठे थे, और उन्होंने अपने लैपटॉप को खोला। लेकिन उनकी आँखें किताबों और स्लाइड्स पर नहीं, बल्कि ऐशा के बारे में सोच रही थीं। वे यह नहीं समझ पा रहे थे कि क्यों हर बार जब ऐशा पास होती, उनकी धड़कन तेज़ हो जाती थी। क्या वे केवल एक दोस्ती महसूस कर रहे थे? या फिर कोई और एहसास था जो उनके दिल में समाया था? वे अपनी सोच में खो गए, और फिर चुपचाप कमरे में बिखरे हुए कागजों और नोट्स को समेटने लगे।
अगले दिन की सुबह गेस्टहाउस में हलकी धुंध थी। ऐशा और प्रोफेसर अर्जुन दोनों जल्दी उठ चुके थे, और आज का दिन कुछ खास था। वे एक पुरानी मंदिर की तरफ निकलने वाले थे, जो पहाड़ की चोटी पर स्थित था। प्रोफेसर अर्जुन ने अपने बैग में पानी की बोतल और कुछ जरूरी सामान डाला, और ऐशा के पास जाकर बोला,
"तुम तैयार हो?"
ऐशा ने सिर हिलाया और अपनी चाय का कप रखते हुए कहा,
"आप से ज्यादा तैयार तो मैं नहीं लग रही?"
प्रोफेसर अर्जुन मुस्कुराए, और फिर कहा,
"तुम तो हमेशा तैयार रहती हो।"
ऐशा ने एक हल्की सी मुस्कान दी, लेकिन उनकी आँखों में कुछ और था। उनकी सोच में कोई उलझन थी। दोनों चुपचाप अपने रास्ते पर चल पड़े, और किसी ने भी अपनी भावनाओं को शब्दों में नहीं बाँटा।
रास्ते में, दोनों के बीच की दूरी धीरे-धीरे कम हो रही थी। ऐशा और प्रोफेसर अर्जुन के कदम एक जैसे थे, जैसे दोनों एक-दूसरे के साथ चलते हुए किसी अनकहे धागे से बंधे हों। रास्ता जरा मुश्किल था, क्योंकि पहाड़ चढ़ने में थोड़ी कठिनाई थी, लेकिन दोनों एक-दूसरे का साथ देने में लगे थे। प्रोफेसर अर्जुन कभी-कभी ऐशा के पास आते और उनकी मदद करते, और ऐशा भी हर बार उन्हें धन्यवाद कहती।
"आप मेरे साथ चलोगे, तो मैं गिर नहीं जाऊँगी," ऐशा ने हँसते हुए कहा, जैसे वे खुद को एक हलके से मजाक में ढालने की कोशिश कर रही हों।
प्रोफेसर अर्जुन ने उन्हें देखकर कहा,
"तुम गिर सकती हो, लेकिन तुम हमेशा खुद को फिर से उठाकर खड़ा कर लेती हो।"
उनकी यह बात ऐशा के दिल को छू गई। उन्होंने एक पल के लिए प्रोफेसर अर्जुन को देखा और फिर नीचे झुक लिया। उनकी आँखों में एक ऐसा अहसास था, जिसे वे शब्दों में नहीं कह पाए। वे इसे महसूस कर रही थीं, लेकिन शायद अभी समझ नहीं पाई थीं कि ये एहसास क्या है।
चढ़ाई पूरी होने के बाद, दोनों मंदिर के सामने खड़े थे। यह मंदिर बहुत पुराना था, और उसकी दीवारों पर उकेरे गए चित्रों ने समय के साथ अपने रंग खो दिए थे। ऐशा ने धीरे से एक चित्र को छुआ और कहा,
"यह चित्र हमें अपने इतिहास के बारे में बहुत कुछ बताता है, लेकिन समय के साथ यह धुंधला पड़ गया।"
प्रोफेसर अर्जुन ने उनकी ओर देखा, फिर कहा,
"कुछ भी स्थिर नहीं रहता, ऐशा। हमारे आसपास की चीजें बदलती रहती हैं।"
ऐशा उनकी बातों पर ध्यान नहीं दे पाईं। उनकी आँखों में एक गहरी चुप्पी थी, और वे मंदिर के भीतर जाने के लिए अग्रसर हो गईं। प्रोफेसर अर्जुन उनकी चाल को देखते रहे, और उन्हें यह महसूस हुआ कि इस चुप्पी में कुछ ऐसा था, जिसे वे पूरी तरह से समझ नहीं पा रहे थे।
मंदिर के अंदर, दोनों ने प्रार्थना की और फिर बाहर आकर मंदिर की छत पर बैठ गए। वहाँ से पूरा शहर दिख रहा था, और धुंधले बादल धीरे-धीरे आकाश में फैल रहे थे। प्रोफेसर अर्जुन और ऐशा ने चुपचाप एक-दूसरे को देखा। दोनों के बीच किसी चीज़ को महसूस करने का मौका था, लेकिन वे किसी भी शब्द को बाहर नहीं लाना चाहते थे। यह एक ऐसा रिश्ता था जो न तो स्पष्ट था, न ही समझा जा सकता था, फिर भी दोनों जानते थे कि यह कुछ खास था।
"तुम सोचते हो, हम हमेशा ऐसे ही चुप रहेंगे?" प्रोफेसर अर्जुन ने धीरे से पूछा, उनकी आवाज़ में एक हलका सा झटका था।
ऐशा ने उन्हें देखा, और फिर बिना किसी शब्द के कहा,
"शायद हम कभी न समझ पाएँ कि हमारे बीच क्या है, लेकिन यह रिश्ता है।"
प्रोफेसर अर्जुन ने उनके चेहरे पर एक हल्की मुस्कान देखी, और फिर उन्होंने कहा,
"हम दोनों की चुप्पी हमेशा कुछ न कुछ कहती है।"
मंदिर से लौटते हुए, ऐशा और प्रोफेसर अर्जुन के बीच की दूरी और भी कम हो चुकी थी। दोनों के दिलों में कुछ ऐसा था, जिसे शब्दों से नहीं कहा जा सकता था। हर कदम, हर पल, हर छोटी सी बात ने उन्हें एक-दूसरे के करीब किया। यह रिश्ता था, लेकिन अनकहा था, समझ से परे था, फिर भी बहुत कुछ कहता था।