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Muskan: Love, Tears and Destiny

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Aarya Rai

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मुस्कान... एक नाम, जो खुद में एक ख़ूबसूरत अहसास था — लेकिन उसकी ज़िंदगी में मुस्कानें कब की खो चुकी थीं। बचपन से जिसे अपनों का प्यार नसीब नहीं हुआ, वो कैसे यकीन करती कि कोई उसे भी बेइंतिहा मोहब्बत दे सकता है? वह दिल से चाहती थी बस थोड़...

Total Chapters (230)

Page 1 of 12

  • 1. Muskan: Love, Tears and Destiny - Chapter 1

    Words: 1707

    Estimated Reading Time: 11 min

    बनारस

    अशोक नगर कॉलोनी में बना एक मकान। जिसके बाहर गेट पर पेंट से "मिश्रा निवास" लिखा हुआ था। घर की सजावट देखकर लग रहा था जैसे वहाँ हाल ही में कोई शादी या जश्न मनाया गया हो। रात के दस बज रहे थे।

    उसी घर की पहली मंजिल पर बने कमरे के बाहर एक लड़का खड़ा था। सिद्धार्थ... सिद्धार्थ मिश्रा, इस घर का एकलौता बेटा। जिसकी शादी लगभग हफ़्ते भर पहले हुई थी, पर मेहमानों से घर भरा था। इसलिए अबसे पहले वो आदमियों के साथ छत पर सोया करता था और आज पूरे एक हफ़्ते बाद सोने के लिए अपने कमरे में जाने वाला था, जहाँ उसकी नई-नवेली दुल्हन शायद उसी का इंतज़ार कर रही होगी।


    सिद्धार्थ कुछ देर बाहर खड़ा सोचता रहा, फिर उसने गहरी साँस छोड़ी और दरवाज़े को हल्का-सा धक्का मारा; दरवाज़ा खुल गया। सिद्धार्थ ने जैसे ही कमरे में कदम रखा, बेड पर दुल्हन का जोड़ा पहने लड़की, जिसका नाम साँची था और प्यार से सब उसे मुस्कान कहते थे, उसने अपनी मुट्ठियाँ अपने लहंगे पर कस लीं। आँखों में आँसू भर आए, पर वो खामोश सी वहाँ खुद में सिमटी हुई बैठी रही।

    सिद्धार्थ जैसे-जैसे उसके तरफ़ बढ़ रहा था, साँची वैसे-वैसे खुद में सिकुड़ती जा रही थी। वो पूरा कमरा उनकी सुहागरात के लिए बड़ी ही खूबसूरती से सजाया हुआ था। पूरे कमरे में गुलाब के फूलों की भीनी-भीनी सी खुशबू फैली हुई थी, जो किसी के भी दिल को बहकाने को काफी थी।

    सिद्धार्थ के लबों पर हल्की सी मुस्कान फैली हुई थी। आखिर जिसे उसने पहली नज़र से ही अपना बनाने का सपना देखा था, आज वो उसके कमरे में उसकी दुल्हन बन कर बैठी, उसका इंतज़ार कर रही थी; ये सोचकर ही उसके दिल में गुदगुदी सी होने लगी थी।...

    पहली बार ही किसी पर उसका दिल आया था, हालाँकि उसने इस बारे में किसी को कुछ बताया नहीं था। सब परिवारवालों के मुताबिक हुआ। जिस दिन उसने उनकी पसंद की हुई लड़की को देखा, जिसे वो इंकार करने के इरादे से घर से निकला था, उससे मिलने के बाद उसे अपनी ही किस्मत पर विश्वास नहीं हो रहा था।

    शायद उसकी किस्मत उस पर कुछ ज़्यादा ही मेहरबान हो रही थी, जो उसके लिए हैरानी और आश्चर्य की बात थी। उस दिन हुई मुलाकात में उनकी ज़्यादा बात नहीं हो सकी, पर दोनों ने ही हाँ कह दिया। उसके बाद सब अच्छा-अच्छा था; दोनों की शादी बड़े आराम से हो गई।

    अब ये तो बस भगवान ही जानते थे कि ये खुशियाँ कुछ भर की मेहमान हैं या सारी ज़िंदगी के लिए उनका साथ लिखा हुआ है। सिद्धार्थ आज बेहद खुश था, पर भविष्य के गर्भ में उसके लिए क्या छुपा है, इस बात से बिल्कुल अंजान था और किस्मत तो शायद कुछ और ही सोचे बैठी थी।

    सिद्धार्थ ने अपने हाथ से बेड के इर्द-गिर्द लटकती फूलों की लड़ियों को साइड किया, जो उनके बेड के इर्द-गिर्द पहरा दे रहे थे और हौले से साँची के सामने बैठ गया।

    साँची का दिल धक्क से रह गया। उसने घबराकर अपनी आँखें मींच लीं। अगले ही पल उसको अपने कंधे पर उसकी गर्म उंगलियों की छुअन का एहसास हुआ, जिससे उसका रोम-रोम काँप उठा।

    यही सोचकर तो तब से उसका दिल दहल रहा था। अभी तक तो उसने इस रिश्ते को अपनाया भी नहीं था और उस पर ये सब उसे नागवार गुज़रा। उसने झटके से अपनी आँखें खोल लीं और उसके हाथ को झटकते हुए उठ खड़ी हुई।

    सिद्धार्थ तो भौंचक्का सा उसे देखता ही रह गया कि आखिर ये अचानक हुआ क्या। साँची अब उसके सामने खड़ी थी, जिसकी आँखों से आँसू बह रहे थे। उसकी लाल आँखें देख सिद्धार्थ ने उसके तरफ़ बढ़ना चाहा, तो साँची दो कदम पीछे हट गई। उसने अपना हाथ आगे कर दिया और गुस्से से चिल्लाई, "बस... पास मत आइएगा मेरे..."

    "साँच्..." सिद्धार्थ ने उसके तरफ़ बढ़ते हुए कुछ कहना चाहा, पर साँची एक बार फिर पीछे हट गई और गुस्से से चीख पड़ी,

    "मैंने कहा जहाँ हैं वहीं रुक जाइए... अगर आपने मुझे मेरी मर्ज़ी के बिना हाथ भी लगाया तो मैं खुद को खत्म कर लूँगी।"

    "ये कैसी बातें कर रही है आप? अगर आप इन सब के लिए तैयार नहीं थी तो हमसे कह दिया होता।"

    सिद्धार्थ जो उसकी बात सुनकर शॉक्ड था। उसने फिर से उसके तरफ़ बढ़ना चाहा, तो अब साँची ने गुस्से और दर्द से बिफर पड़ी,

    "क्या कह दिया होता?... मेरी मर्ज़ी से कब किसी को फ़र्क पड़ता था जो अब आपको पड़ता?... बताइए क्या कहूँ आपसे? शादी से पहले आपकी मर्ज़ी पूछी गई थी ना... मैंने कहा था कि मुझे आपसे, या किसी से शादी नहीं करनी... नहीं विश्वास मुझे इन रिश्तों पर। आपने तब भी अपने मन की ही की, मेरे इंकार करने के बाद भी रिश्ते के लिए हाँ कह दिया... तब सुनी थी आपने मेरी?...

    मुझसे तो किसी ने मेरी मर्ज़ी पूछी ही नहीं। इंकार किया तो धमकी देकर मंडप पर बिठा दिया। ना चाहते हुए भी जबरदस्ती खुद को इन शादी नाम की जंजीरों में बँधते देखती रही।...

    क्यों किया आपने मेरे साथ ऐसा? इतनी हिम्मत करके मैंने आपको वो लेटर लिखा था कि भले ही मेरे घर वाले मेरी न सुनें, पर आप मेरी मर्ज़ी जानकर शादी से इंकार कर देंगे, पर आपने भी वही किया जो आपको करना था... न वहाँ किसी को मेरी मर्ज़ी से फ़र्क पड़ता था, न ही आपको मेरे इंकार से कोई फ़र्क पड़ा... कर ली ना मुझसे शादी... यही चाहिए था ना आपको? लीजिए हो गई आपकी। कर लीजिए मुझे हासिल...

    सब पता है मुझे; आप मर्दों को शादी करने का इतना शौक होता है ताकि लड़की पर हक़ से अपना ज़ोर आजमा सकें और वो इंकार तक न कर सकें... उनकी मांग भरकर उनके साथ कुछ भी करने का परमिट जो मिल जाता है आप मर्दों को, अपनी शरीर की ज़रूरतें पूरी करने का माध्यम है ये शादी। इसलिए नहीं करनी थी मुझे शादी... पर आपने भी मेरी नहीं सुनी; बांध दिया मुझे इस जबरदस्ती के रिश्ते में..."

    साँची के सीने में पता नही कौन-सा राज़ छुपा था, जिसका दर्द उससे सहन नहीं हो रहा था। उसकी आँखों से आँसू बहने लगे। सिद्धार्थ तो शॉक्ड सा उसे देखता ही रह गया।

    साँची ने अब अपने आँसुओं को साफ़ कर लिया और अपने सर से चुनरी निकालकर फेंक दी। कमर और कंधे पर सेट की हुई चुनरी को भी खींचकर खुद से दूर फेंक दिया और गुस्से से चिल्लाकर बोली,

    "लीजिए, कर लीजिए अपनी मनमानी... यही चाहिए था ना आपको? इसलिए मेरे इंकार के बाद भी आपने मुझसे शादी की ताकि मेरे जिस्म को हासिल कर सकें? तो लीजिए, सामने खड़ी हूँ आपके; कर लीजिए अपनी हर इच्छा पूरी... हक़ है आपका, नहीं रोकूँगी।

    मुझे यही तो कहा था माँ ने कि अब से आपको खुश रखना ही मेरी ज़िंदगी का मकसद है... तो लीजिए, बना लीजिए मुझे अपना... हो जाइए खुश... करिए जो करना हो, क्योंकि मैं तो इंसान हूँ ही नहीं; मेरी न तो कोई इच्छा है, न ही कोई मर्ज़ी...

    उन पर बोझ थी, तो उतार लिया उन्होंने अपने सर का बोझ और फेंक दिया मुझे यहाँ... उन्होंने वो किया जो उन्हें करना था; आप भी वो करिए जिसके लिए आपने इतना तामझाम किया। मुझ जैसी बदसूरत लड़की से शादी करके आपने मुझ पर बहुत बड़ा एहसान किया है। अब तो मैं आपकी गुलाम हूँ; जो चाहे कीजिए मेरे साथ। आई प्रोमिस मैं उफ़्फ़ तक नहीं करूँगी। कर लीजिए अपनी लालसा की तृप्ति।

    अब से न तो मुझ पर मेरा कोई हक़ है और न ही ये जिस्म मेरा रह गया है। आपने तो मुझे खरीद लिया है न, तो इंतज़ार किस बात का? लीजिए, हो जाइए शुरू; यहीं हूँ आपके सामने, कर लीजिए अपनी हसरतों को पूरा।"

    वो कहते-कहते बुरी तरह रो पड़ी और रोते-रोते धम्म से वहीं बैठ गई। आँखों से अश्रुधारा बहती रही और ज़ुबान वही बातें दोहराती रही।

    सिद्धार्थ तो जैसे सदमे में चला गया था; उसकी आधी बातें उसके सर के ऊपर से चली गईं; उसे समझ ही नहीं आया कि ये सब क्या और क्यों हो रहा है।

    कुछ वक़्त पहले तक जो मुस्कान उसके लबों पर फैली हुई थी, वो कहीं नदारद हो गई थी। जिन आँखों में अब तक उसके आने वाली ज़िंदगी के हसीन ख़्वाब सजे हुए थे, अब वो खाली, उदासीन नज़रें बस साँची को देख रही थीं।

    साँची काफ़ी देर तक रोती रही। पिछले दिनों से वो बस रो ही रही थी; न खाती थी, न पीती थी; उसी का असर था कि वो रोते हुए बेहोश हो गई और एक तरफ़ को लुढ़कने लगी।

    तब कहीं जाकर सिद्धार्थ सदमे से बाहर आया और उसने लपककर उसे गिरने से पहले ही अपनी बाहों में थाम लिया। साँची उसकी बाहों में झूल गई।

    सिद्धार्थ ने उसे अपनी बाहों में उठा लिया; उसे आराम से बेड पर लिटाया, तो उसकी नज़र उसके जिस्म पर चली गई।

    साँची ने अपनी चुनरी उतार दी थी, अब उसने बस लहँगा-चोली पहनी हुई थी, जिससे उसकी पूरी कमर-पेट नज़र आ रहा था। सिद्धार्थ को उसकी कहीं बातें याद आने लगीं; उसने उसके तरफ़ से अपनी नज़रें हटा लीं। उसने साँची की चुनरी से उसे ढँका, फिर अच्छे से चादर ओढ़ा दी।

    सिद्धार्थ के चेहरे पर इस वक़्त गहरी उदासी छाई हुई थी। उसने सारी डेकोरेशन हटाई, फिर कपड़े बदलकर बालकनी में चला गया। वहाँ लगी चेयर पर जाकर बैठ गया और पीछे सर टिकाते हुए अपनी आँखें बंद कर ली। उसके ज़हन में साँची की कही एक-एक बात गूँजने लगी और वो इस पहेली को सुलझाने की कोशिश करने लगा।


    ०००००००००००

    ऐसा क्या हुआ है साँची के साथ जो सिद्धार्थ के साथ उसने ऐसे व्यवहार किया?... क्या ये शादी उसकी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ हुई है?... क्या साँची के सिद्धार्थ पर लगाए इल्ज़ाम सच हैं?... ऐसे कौन से राज़ दफ़न हैं उसके सीने में, जिसके वजह से उसकी सोच ऐसी हो गई है?... आखिर क्यों उसे रिश्तों पर विश्वास नहीं?... क्यों उसे शादी बस शरीर की ज़रूरत पूरी करने का माध्यम लगता है?... कैसा दर्द दफ़न है उसके सीने में, जिससे अब तक सिद्धार्थ अंजान है और कैसे सम्भाल पाएगा वो साँची और उससे जुड़े इस रिश्ते को?... क्या सिद्धार्थ साँची के मन से अपने लिए नाराज़गी मिटा पाएगा?... क्या साँची कभी दिल से सिद्धार्थ और इस रिश्ते को अपना सकेगी?... क्या हुआ है इनके अतीत में और क्या होगा आगे इनकी ज़िंदगी में; जानने के लिए पढ़ते रहिए मेरे साथ "मुस्कान"

  • 2. Muskan: Love, Tears and Destiny - Chapter 2

    Words: 1642

    Estimated Reading Time: 10 min

    दिल्ली, द्वारका सेक्टर 12

    नवंबर का महीना चल रहा था। रात के करीब 11 बज रहे थे। जहाँ इस वक़्त लगभग सभी लोग अपने-अपने घरों में रजाई में दुबक कर चैन की नींद सो रहे थे, घरों की लाइटें बुझ चुकी थीं, पर बारात घर अब भी रंग-बिरंगी रोशनियों से जगमगा रहा था।

    हर तरफ़ सन्नाटा था, पर बारात घर में खूब चहल-पहल नज़र आ रही थी। किसी की शादी होने वाली थी यहाँ। बारात कुछ देर पहले ही आई थी। उनका खाना-पीना शुरू हो चुका था। शामियाने के पीछे हलवाई अपनी टीम के साथ अपना काम संभाले हुए थे।

    शादी में हलवाई थे मनीष जी... मुस्कान के पिता, जिनकी पाँच बेटियाँ हैं और सबसे छोटा बेटा है गौरव। गौरव अभी दसवीं में पढ़ रहा था। मनीष जी की तीसरे नंबर यानी बीच की बेटी है साँची उर्फ़ मुस्कान, जो आज उनके साथ यहाँ आई है।

    अक्सर वो अपने पापा के साथ उनकी मदद करने जाती है; आज भी आई है और सब काम खत्म करके अब शामियाने के पास खड़ी बारातियों को खाते-पीते देख रही है। साथ ही कुछ कम पड़ने पर वहाँ भिजवा भी रही है।

    उसका ध्यान तो हमेशा की तरह अपने काम पर था, पर कोई है जिसकी निगाहें बड़ी ही बारीकी से मुस्कान को देख रही थीं।

    ख़ामोश, हल्के बैंगनी और गुलाबी रंग में रंगे लब, बड़ी-बड़ी गहरी भूरी आँखें, जो देखने में जितनी शांत लग रही थीं, उतनी ही गहरी थीं; जैसे जाने इनमें कितने राज़ों को छुपाया हुआ हो।

    उसकी झील सी गहरी आँखों में कुछ अलग सा जादू था, जो उसमें एक बार उतर जाए, वो बस उसमें डूबता ही चला जाए। ख़ामोश लब, बोलती आँखों का ये बेमिसाल जोड़ विरले ही देखने को मिलता है।

    उसकी उन बड़ी-बड़ी आँखों में एक अनकहा सा दर्द पसरा हुआ था, अजीब सा खालीपन खुद में समेटे हुई थीं उसकी वो जादुई आँखें; लबों पर गहरी ख़ामोशी छाई हुई थी, पर आँखें जैसे बहुत कुछ बयाँ कर रही थीं; बस ज़रूरत थी तो उन ख़ामोश, बोलती आँखों की भाषा को समझने वाले की।

    गेहुँआ रंग, साधारण कद-काठी, मासूमियत से भरा, दर्द से सना चेहरा; ज़्यादा सुंदर नहीं थी, पर उसके चेहरे पर एक अलग ही चमक थी, उसकी मासूमियत और सच्चाई की कशिश थी उसके चेहरे पर, जिसकी खूबसूरती देखने के लिए ख़ास आँखों की ज़रूरत थी, जो चेहरे को न देखकर दिल की खूबसूरती को देख सकें। साधारण दिखती थी, एकदम सिंपल, कोई दिखावा या छलावा नहीं।

    पतली सी वो लड़की, जो सामान्य लड़की लग रही थी, पर उसकी आँखें उसको औरों से अलग करती थीं; वो ख़ामोश सी बोलती आँखें, जो बहुत ही आकर्षक लग रही थीं।

    एक तरफ़ कुछ लड़कों के बीच खड़े सिद्धार्थ की नज़रें जैसे ही उसकी आँखों से उलझीं, वो उन बड़ी-बड़ी भूरी आँखों की गहराइयों में डूबता चला गया; उसे न जगह का भान था, न ही लोगों की उपस्थिति का होश था। वो बस एकटक उस भूरी आँखों वाली लड़की को देखे जा रहा था।

    कुछ था उसमें, कुछ ख़ास, कुछ बहुत ख़ास, जो सिद्धार्थ को अपनी तरफ़ खींच रहा था और सिद्धार्थ भी अपने दिल के हाथों मजबूर उसके तरफ़ खिंचा चला जा रहा था।

    पीले रंग के सिंपल से अनारकली सूट में वो लड़की बेहद आकर्षक लग रही थी; उसकी झील सी आँखें सिद्धार्थ को मंत्रमुग्ध कर चुकी थीं और उस लड़की, मतलब हमारी मुस्कान, जिसका नाम तो मुस्कान था, पर मुस्कान से उसका दूर-दूर तक का कोई नाता नहीं था; उसको इस बात का होश तक नहीं था।

    वो तो अपने कमर तक लहराते लंबे, खुले बालों को समेटकर जुड़ा बनाने में व्यस्त थी, जो अभी-अभी खुलकर उसकी पीठ पर लहरा गए थे।

    मुस्कान को एहसास तक नहीं था कि किसी की नज़रें इतनी देर से उस पर टिकी हुई हैं। उसने बालों को जुड़े में बाँधा, तो कुछ लटें निकलकर उसके गालों पर झूल गईं। मुस्कान ने उन्हें कान के पीछे खोंसा, फिर वहाँ खड़े वेटर्स को इंस्ट्रक्शन्स देने लगी।

    अब भी सिद्धार्थ एकटक उसे निहारे जा रहा था।

    सिद्धार्थ उर्फ़ सिड मिश्रा... अच्छी-खासी हाइट, मतलब साढ़े पांच से छह फुट के करीब। दूध सा गोरा रंग, काली-काली आँखें, पतले गुलाबी लब, जो किसी लड़की से भी ज़्यादा ख़ूबसूरत लग रहे थे। ब्लैक थ्री-पीस सूट में भी उसकी बॉडी नज़र आ रही थी; मज़बूत माँसपेशियाँ उस शर्ट से उभरकर सामने आ रही थीं।

    हालाँकि हीरो जैसी बॉडी नहीं थी उसकी। बनारस के ब्राह्मण परिवार का साधारण सा लड़का था वो, पर शरीर अच्छा बना हुआ था; न पतला था और न ही मोटा। माथे पर लहराते सिल्की-सिल्की से बाल उसके हैंडसम से चेहरे को और भी आकर्षक बना रहे थे; उस पर उसके लबों पर छाई मुस्कान, तो उफ़्फ़, क्या कातिलाना स्माइल थी उसकी, जो लड़की उसे देखे, बस उसी पर मर मिटे। वो बिल्कुल किसी भी लड़की के सपनों के प्रिंस जैसा लग रहा था।

    सिद्धार्थ अभी मुस्कान को निहार ही रहा था कि किसी ने पीछे से उसे आवाज़ दी, "सिड।"

    सिद्धार्थ ने तुरंत पलटकर देखा, तो स्टेज पर दूल्हा बनकर बैठा लड़का, जो उसी की उम्र का लग रहा था। वो सिद्धार्थ को अपने पास बुला रहा था।

    इनका भी तारुफ़ करवा ही देते हैं। ये है आलोक पाण्डेय, सिद्धार्थ का बचपन का दोस्त, उसका जिगरी यार, जिसकी आज शादी है और इसी शादी में शामिल होने सिद्धार्थ बनारस से दिल्ली आया है।

    सिद्धार्थ ने आलोक के पास जाने से पहले एक बार पलटकर उस तरफ़ देखा, जहाँ कुछ पल पहले वो लड़की, मतलब मुस्कान, खड़ी थी, पर अब वहाँ कोई नहीं था।

    सिद्धार्थ ने व्याकुलता से निगाहें हर तरफ़ घुमाईं, पर उसे मुस्कान कहीं नज़र नहीं आई। बेचारा सिद्धार्थ पहली नज़र में किसी पर दिल आ गया था उसका और ऐसा उसके साथ पहली ही बार हुआ था कि किसी की नज़रें किसी लड़की पर ठहरी हों, पर बेचारा ये तक न जान सका कि जिस लड़की ने पहली ही नज़र में उसके दिल पर अपनी छाप छोड़ दी, आखिर वो कौन है और कहाँ से है?

    मुस्कान के कहीं न दिखने पर सिद्धार्थ मायूस सा आलोक के पास चला गया। आलोक ने उसके उतरे हुए चेहरे को देखा, तो तुरंत ही सवाल किया,

    "क्या हुआ बबुआ, थोपड़ा काहे उतार लिया हो अपना?... कौनो तुम्हारी भैंस चुराकर लेकर भाग गया है क्या?"

    "भैंस नहीं, दिल चुराकर भाग गया है।" सिद्धार्थ के मुँह से बेख़याली में ये निकल गया। उसकी बात सुनकर आलोक की आँखें हैरानी से फैल गईं। उसने चौंकते हुए सवाल किया, "क्या कहा तूने?"

    "कुछ नहीं..." सिद्धार्थ ने हड़बड़ाते हुए जवाब दिया, जिसे सुनकर आलोक ने आँखें छोटी-छोटी करके उसे घूरते हुए कहा, "मिश्रा जी, झूठ हमको पसंद नहीं है, तो सच-सच बताओ, कौन दिल चुराकर भाग गया है तुम्हारा?"

    सिद्धार्थ ने फिर एक बार पलटकर पीछे देखा, पर मुस्कान उसे नज़र नहीं आई। सिद्धार्थ ने मुँह लटका लिया और मायूसी से बोला, "पता नहीं कौन थी... बस एक झलक दिखाकर ही गायब हो गई।"

    "कुछ नहीं मालूम तुझे उसके बारे में और दिल दे दिया उसे अपना?" आलोक आँखें बड़ी-बड़ी करके उसे देखने लगा। सिद्धार्थ ने उसे देखा और मुँह लटकाते हुए बोला, "तो क्या पहले पूरा बायोडाटा देख लेते, तब दिल लगाते उनसे?... निगाहें ठहर गईं उन पर, दिल आ गया उस भूरी आँखों वाली पर पहली ही नज़र में, तो क्या करते हम?"

    "वाह! बेटा, हमारी शादी में आकर खुद ही नैन-मटक्का करने में लगे हो; उस पर नैन लड़ाए भी तो एक अंजान लड़की से। बहुत बढ़िया... जाओ अब जाकर मजनू बनकर ढूँढ़ते फिरो अपनी लैला को, कहीं तुमसे पहले कोई और ही न उड़ा ले जाए उसे।" आलोक ने सिद्धार्थ को खुद से दूर धकेलते हुए लड़की ढूँढ़ने को कहा।

    सिद्धार्थ ने हर जगह मुस्कान को ढूँढ़ा, पर वो हो ही नहीं थी। वो भी अपने पापा के साथ घर जा चुकी थी।

    बेचारा सिद्धार्थ दोबारा मुस्कान को देख ही नहीं पाया। आलोक की शादी सम्पन्न हो गई। नई दुल्हन को लेकर बारात वापस लौट गई और उसके साथ सिद्धार्थ भी लौट गया, पर जिस पर उसका दिल आया, वो तो यहीं रह गई; एक अंजान, अनसुलझी पहेली बनकर, जिसे सिद्धार्थ की सुलझाने की ख्वाहिश उसके मन में दबकर ही रह गई।

    इधर मुस्कान इन सबसे पूरी तरह अंजान थी। उसके लिए तो एक आम दिन गुज़र गया था, जिसे काटना बहुत भारी पड़ता था उसे। आखिर ज़िंदगी बोझ से कम तो नहीं थी उसके लिए; कितनी ही बार उसने इस बोझ को उतारने की कोशिश की, पर हर बार नाकामयाब रही।

    कभी परिवार की चिंता बीच में आ जाती कि जवान लड़की ने अगर सुसाइड किया तो ये समाज जाने उस पर कैसे-कैसे आरोप लगाएगा, जिसे उसके परिवार वाले सच ही मानेंगे और फिर मरने के बाद भी उसे सुकून नहीं मिलेगा; घरवालों को जो ताने सहने पड़ेंगे, सो अलग।

    फिर उससे छोटी भी तो दो बहनें थीं; उसका उठाया एक गलत कदम उन दोनों ही की ज़िंदगी तबाह कर सकता था।

    इसके अलावा एक और वजह थी जो उसे सुसाइड करने से रोकती थी और वो था भगवान पर उसका अटूट विश्वास। जब-जब मरने की सोचती, तो एक ख़्याल मन में आता कि अगर भगवान ने उसे ये ज़िंदगी दी है, तो कुछ तो लक्ष्य होगा उसका भी; किसी वजह से वो आज तक ज़िंदा होगी और तब मन में इच्छा जागती कि इतने साल काटे तो ज़रा देखें कि आखिर भगवान ने क्या तय किया है उसके लिए?

    इसके अलावा कहीं न कहीं मन में एक डर भी था कि जैसे आज तक उसके परिवार और इंसानों ने उसको धुतकारकर खुद से दूर किया है, कहीं भगवान ने भी उसको नहीं अपनाया; वो मरने की कोशिश करने पर भी बच गई, तब तो ज़िंदगी मौत से भी बदतर हो जाएगी। यही सब वजह थी कि हर पल मौत की ख़्वाहिश करने वाली साँची ज़िंदगी के बोझ को ढोते हुए किसी तरह अपने दिन काट रही थी।



    Coming soon...


    कैसा लगा आपको मुस्कान और सिद्धार्थ से मिलकर?... आखिर ऐसा क्या हुआ है मुस्कान के साथ जो वो ज़िंदगी से मोह छोड़ चुकी है और हर पल अपनी मौत का इंतज़ार करती है?

  • 3. Muskan: Love, Tears and Destiny - Chapter 3

    Words: 1594

    Estimated Reading Time: 10 min

    मुस्कान और सिद्धार्थ की उस मुलाकात, जिसे मुलाकात कहना भी गलत होगा, क्योंकि मुस्कान ने तो सिद्धार्थ को देखा तक नहीं था और सिद्धार्थ ने बस दूर से उसे देखा ही था। न तो वो मुस्कान का नाम जान सका था, न वो कौन है, कहाँ से है, ऐसी कोई जानकारी थी उसके पास।

    बस एक झलक दिखाकर और उसका दिल चुराकर मुस्कान गायब हो गई थी और इस बात से वो पूरी तरह से बेख़बर थी।

    खैर, जैसे भी थी, पर उनकी उस मुलाकात को हुए एक महीना बीत गया था। दिसंबर शुरू हो चुका था। इस एक महीने में ऐसा एक दिन नहीं गया था जब सिद्धार्थ को मुस्कान की याद न आई हो।

    मुस्कान का चेहरा उसके दिल के साथ-साथ उसकी आँखों में इस क़दर समा गया था कि अब उन्हें बस उसके दीदार की ही ख्वाहिश थी।

    सिद्धार्थ के पिताजी, बलदेव मिश्रा जी की बनारस में बहुत पुरानी साड़ियों की दुकान हुआ करती थी, जो वहाँ बहुत प्रसिद्ध थी और सिद्धार्थ ने उस दुकान को साड़ियों के बड़े से शोरूम में परिवर्तित कर दिया था, जिसका काम वो बलदेव जी के साथ मिलकर संभालता था।

    सुबह के आठ बज रहे थे। गंगा आरती देखकर कुछ देर पहले लौटा सिद्धार्थ अपने कमरे में तैयार हो रहा था, तभी उसकी छोटी बहन रावी दौड़ते हुए कमरे में आई और सिद्धार्थ को देखकर मुस्कुराकर बोली,

    "भैया, मम्मी बुला रही हैं आपको।"

    रावी की आवाज़ सुनकर सिद्धार्थ ने पलटकर उसे देखा और हैरानी से सवाल किया, "तुम आज स्कूल काहे नहीं गई?"

    "आज स्कूल की छुट्टी है भैया।" रावी ने मुस्कुराकर जवाब दिया और जैसे आई थी, वैसे ही दौड़ते हुए वापिस चली गई।

    सिद्धार्थ ने सर हिलाया और हाथों से अपने बालों को सेट करते हुए कमरे से बाहर निकल गया।

    मिश्रा परिवार में अब चार सदस्य रहते थे: बलदेव जी, उनकी अर्धांगिनी आशा जी, बेटा सिद्धार्थ और छोटी बेटी रावी, जो अभी ग्यारहवीं में पढ़ रही थी। उनकी एक और बेटी थी रागिनी, जो उनके बच्चों में सबसे बड़ी थी और उनकी शादी दो साल पहले शेखर जी से हो गई थी।

    शेखर जी बनारस के ही रहने वाले थे, पर काम बंगलोर में था। अच्छी-खासी नौकरी थी उनकी और उनके साथ रागिनी जी खुश थीं। मौका मिलने पर यहाँ आती ही रहती थीं।

    सिद्धार्थ नीचे पहुँचा, तो आँगन में आशा जी खड़ी थीं और चौकी पर पंडित महाशय बैठे हुए थे। रावी उन्हें पानी दे रही थी।

    सिद्धार्थ नीचे आया और आदर सहित पंडित जी के चरण स्पर्श कर लिए, "नमस्कार पंडित जी।"

    "जीते रहो बेटा, महादेव आपको खूब तरक्की दे, खूब लंबी आयु हो आपकी।"

    "हाँ, ताकि बुढ़ापे में हमारे सारे दाँत झड़ जाएँ, कुछ खाया-पिया न जाए और हम खटिया पर पड़े रहे... नहीं पंडित जी, ऐसा आशीर्वाद नहीं चाहिए हमें। कोई अच्छा सा आशीर्वाद दो, जैसे मनचाहा जीवनसाथी मिल जाए, पापा के काम को और आगे बढ़ा सकें, अपनी छोटी की अच्छे घर में धूमधाम से शादी कर सकें, अपने माता-पिता का नाम रोशन कर सकें।"

    यही है असली सिद्धार्थ; थोड़ा शैतान सा, थोड़ा मनमौजी सा, हँसते-मुस्कुराते रहने वाला। किसी से भी मज़ाक करने से पीछे नहीं रहता वह, पर ज़िम्मेदार भी उतना ही है।

    सिद्धार्थ की बात सुनकर पंडित जी मुस्कुरा उठे और एक बार फिर उसके सर पर हाथ रखते हुए बोले, "महादेव आपकी हर मनोकामना पूर्ण करें।"

    एक बार में उन्होंने सबके लिए आशीर्वाद दे दिया। सिद्धार्थ की आँखों के सामने मुस्कान का चेहरा उभर आया। अधरों पर अनायास ही मुस्कान सज गई। अब उसने उनके पास बैठते हुए कहा,

    "पंडित जी, यहाँ आज सुबह-सुबह कैसे आना हुआ?"

    "आपके पापा ने बुलाया है इन्हें।" जवाब आशा जी ने दिया, जिसे सुनकर सिद्धार्थ की निगाहें उनके तरफ़ घूम गईं। उसने ज़रा हैरानी से सवाल किया, "पापा ने बुलाया है?"

    "हाँ भैया, पापा ने बुलाया है। आपके लिए लड़की ढूँढ़ रहे हैं ना इसलिए; पंडित जी रिश्ता लेकर आए हैं आपके लिए और अब हमारी भाभी की खोज शुरू हो गई है, जल्दी ही आपकी आज़ादी छिनने वाली है।" शैतान रावी पटर-पटर बोलती ही चली गई।

    उसकी बातें सिद्धार्थ के लिए किसी सदमे से कम नहीं थीं। वो पहले तो शॉक्ड सा रावी को देखता ही रह गया, जो अपनी बात कहकर खिलखिलाने लगी थी, फिर हैरानी से आशा जी को देखकर बोला,

    "मम्मी, ये रावी की बच्ची क्या कह रही है?"

    "सही कह रही है वो। अब आपकी उम्र हो गई है, ज़िम्मेदार भी हो गए हैं आप, इसलिए हम अब आपकी शादी का सोच रहे हैं और इसी सिलसिले में पंडित जी को बुलाया है हमने। ताकि आपके लिए योग्य लड़की ढूँढ़कर जल्दी से जल्दी आपका विवाह करवा दिया जाए।"

    बलदेव जी की आवाज़ सुनकर सभी उस दिशा में देखने लगे। ऊपर से सफ़ेद कुर्ता और नीचे से धोती पहने बलदेव जी अपनी मूँछों को ताव देते हुए कमरे से बाहर आ रहे थे। उनकी पर्सनैलिटी दमदार थी; अब भी जवान लगते थे और शरीर भी सख़्त था। सिद्धार्थ अपने पापा पर ही गया था।

    सिद्धार्थ ने अपने पापा को देखा और बेचारगी से बोला, "पापा, इतनी जल्दी किस बात की है?... मुझे अभी शादी नहीं करनी है।"

    "तो और कब शादी करेंगे आप?... 25 के तो हो गए हैं; अगर अब शादी नहीं की तो आपके लिए अच्छी लड़की नहीं मिलेगी। यही सही वक़्त है आपकी शादी करने का। घर में बहू आएगी तो आपकी मम्मी की भी थोड़ी मदद हो जाया करेगी। सारा दिन अकेली सब कामों में लगी रहती है। बहू के आने से उन्हें सहारा मिल जाएगा और साथ ही साथी भी मिल जाएगा।"

    इतना कहकर उन्होंने पंडित जी के तरफ़ बढ़ते हुए कहा, "कहिए पंडित जी, क्या हाल-चाल हैं आपके?... हमारे बेटे के लिए कोई योग्य लड़की मिली कि नहीं?... हमें सीधी-साधी लड़की चाहिए, जो इस घर-परिवार को संभाल ले और साथ ही हमारे बेटे के काबिल भी हो।"

    बलदेव जी पंडित जी के पास आकर बैठ गए, तो सिद्धार्थ एक तरफ़ को मुँह लटकाए खड़ा हो गया। पंडित जी ने हाथ जोड़कर अभिवादन किया, फिर मुस्कुराकर बोले,

    "लड़की तो बहुत हैं यजमान, पर आपके परिवार को सालों से जानते हैं और एक लड़की है हमारी नज़र में, जो सिद्धार्थ बेटे और इस घर के लिए बिल्कुल उचित रहेगी। लड़की अभी दिल्ली में अपने परिवार के साथ रहती है, पर उनके पिता यहीं बनारस के हैं।

    मनीष जी के पिताजी दिल्ली गए थे और तभी से उनका परिवार वहीं रहता है। बड़े भले लोग हैं। उनकी दो बेटियों की शादी हमने ही करवाई है और अब उनकी तीसरी बेटी के लिए रिश्ता ढूँढ़ने का काम हमें सौंपा गया है।...

    पढ़ी-लिखी लड़की है, पर बहुत सादगी से जीवन जीती है। उनकी पाँचों बेटियों में हमें उनकी बीच वाली बेटी सबसे प्रिय है। शांत स्वभाव है उनका और समझदार भी बहुत है; बड़ों का आदर करती है, रिश्तों को निभाना जानती है।...

    इस घर की बहू बनने के सभी गुण हैं उनमें। वैसे तो बच्ची सर्वगुण संपन्न है, बस एक कमी है उनमें... रंग ज़रा साँवला है उनका।"

    पंडित जी की बात वहाँ खड़े सभी लोग बड़े ही ध्यान से सुन रहे थे। सिद्धार्थ को तो लड़की के गुणगान सुनने में रत्ती भर भी दिलचस्पी नहीं थी, फिर भी मुँह फुलाए वहाँ खड़ा था। जैसे ही पंडित जी ने रंग की बात कही, आशा जी ने तुरंत ही मुस्कुराकर कहा,

    "रंग तो कन्हैया जी का भी साँवला था पंडित जी। हमें रंग से कोई परेशानी नहीं; बस लड़की अच्छी होनी चाहिए।"

    पंडित जी उनकी बात सुनकर मुस्कुराए, फिर अपनी पोटली में से एक लिफ़ाफ़ा निकालकर बलदेव जी के तरफ़ बढ़ाते हुए बोले, "हम तस्वीर लाए हैं बच्ची की। आप लोग देख लीजिए, अगर पसंद आए तो बात आगे बढ़ाएँगे हम, नहीं तो और भी लड़की देखी हैं हमने; उनकी तस्वीर दिखा देंगे आपको।"

    बलदेव जी ने लिफ़ाफ़ा ले लिया और तस्वीर निकालकर गौर से फ़ोटो देखने के बाद सोचते हुए बोले, "रंग तो साँवला है और कद-काठी भी हमारे सिद्धार्थ से कम लगती है, पर चेहरे से बाकी बातों के बारे में कहना ज़रा मुश्किल है। अगर एक बार लड़की देख लेते तो अच्छा रहता।"

    "हम बात करते हैं उनसे; पहले घर-परिवार में सबको लड़की दिखाकर तय करके हमें बता दीजिए कि आपको लड़की को देखना है कि नहीं। हम बात कर लें और बाद में आप इंकार करें तो ठीक नहीं रहेगा।"

    बलदेव जी ने सर हिलाया, फिर तस्वीर आशा जी के तरफ़ बढ़ाते हुए बोले,

    "आप देख लीजिए, अगर पसंद आए तो देखने चलेंगे लड़की।"

    आशा जी ने फ़ोटो ली और जैसे ही तस्वीर देखी, उनके लबों पर मुस्कान फैल गई।

    "चेहरे से तो लड़की शांत, शालीन और संस्कारी लगती है। रंग साँवला है, पर मोहिनी है चेहरे पर; दिल की साफ़ मालूम पड़ती है। हमसे पूछेंगे तो हम तो यही कहेंगे कि देख आइए एक बार लड़की को। फिर भी जीवन सिद्धार्थ को बिताना है इनके साथ, तो एक बार उन्हें दिखा दीजिए।"

    जैसे ही आशा जी ने सिद्धार्थ का नाम लिया, सिद्धार्थ ने तुरंत ही वहाँ से निकलते हुए कहा, "हमें शादी नहीं करनी है, बता दिए हैं हम। आगे जो आपका मन हो कीजिए, हम नहीं रोकेंगे।"

    सिद्धार्थ तुरंत ही वहाँ से निकल गया और बाकी सब उसे देखते ही रह गए। बलदेव जी ने बेबसी से सर हिलाया और मायूसी से बोले, "हमें तो इस लड़के का कुछ समझ नहीं आता है। लड़की शादी से इंकार करती है तो बात समझ आती है, पर ये लड़का होकर शादी से दूर भागता है और इसकी इसी रवैये ने हमारी चिंता बढ़ा दी है।"

    "क्या फ़ैसला लिया मिश्रा जी?... लड़की देखने जाएँगे कि नहीं?... अगर आपको लड़की पसंद नहीं तो दूसरी फ़ोटो दिखा देते हैं।"

    बलदेव जी ने सर हिला दिया। कुछ और तस्वीरें देखी गईं और पंडित जी को बाद में जवाब बताने का फ़ैसला लिया गया।

  • 4. Muskan: Love, Tears and Destiny - Chapter 4

    Words: 1480

    Estimated Reading Time: 9 min

    इस बात को दो-तीन दिन गुज़र गए थे। बाकी लड़कियों के बाद अब मुस्कान को देखना तय हुआ था, पर सिद्धार्थ अब भी शादी नहीं करने की ज़िद पर अड़ा था, इसलिए उसने अब तक तस्वीर नहीं देखी थी।

    आज शाम की ट्रेन से मिश्रा जी कुछ पुरुष रिश्तेदारों के साथ दिल्ली के लिए निकलने वाले थे। उनकी बड़ी बेटी और दामाद भी आए हुए थे। दोनों जाने वाले थे साथ और शादी के लिए सिद्धार्थ का रवैया देखकर उसे भी जबरदस्ती साथ लेकर जा रहे थे।

    इस वक़्त सिद्धार्थ मुँह फुलाए तैयार हो रहा था। तभी शेखर जी उसके कमरे में आए और बेड पर बैठते हुए बोले, "साले साहब, सुनने में आया है कि शादी नहीं करना चाहते आप, लड़की की तस्वीर तक नहीं देखी आपने और ज़बरदस्ती आपको दिल्ली ले जाया जा रहा है?"

    "बिल्कुल सही सुनने में आया है आपके। हमारे घरवाले जबरदस्ती हमारा ब्याह करवाने में लगे हुए हैं।" सिद्धार्थ ने खीझते हुए जवाब दिया और उनके बगल में आ बैठा।
    उसका जवाब सुनकर शेखर जी ने मुस्कुराकर कहा,

    "इतना तो हम जान गए। यहाँ हम ये जानने आए हैं कि शादी क्यों नहीं करना चाहते आप?... लड़की तो शादी से इंकार करती है, क्योंकि उसे शादी के बाद अपना घर-परिवार छोड़कर जाना होता है, पर आपके साथ तो ऐसा नहीं होगा। वो आएंगी आपसे शादी करके आपके पास, फिर क्यों शादी से ऐतराज़ है आपको?... और ऐसी भी क्या नाराज़गी कि लड़की की तस्वीर तक नहीं देखी आपने?"

    सिद्धार्थ ने सर घुमाकर उन्हें देखा और मुँह लटकाते हुए बोला, "जीजा जी, कुछ कीजिए ना और हमारे सर से शादी नाम की इस बला को टाल दीजिए।"

    "अगर हमारे साले साहब चाहते हैं तो ऐसा ज़रूर करेंगे, पर पहले ज़रा असल वजह तो मालूम चले आपके इंकार की। सच-सच बताइए, क्यों शादी से इंकार कर रहे हैं? अगर वजह ठीक लगी तो हम आपकी मदद ज़रूर करेंगे।"

    शेखर जी की बात सुनकर सिद्धार्थ सोच में पड़ गया। कुछ देर बाद उसने गंभीरता से कहा, "जीजा जी, हमें न प्यार हो गया है।"

    सिद्धार्थ के कहे ये चंद शब्द शेखर जी के सर पर आइटम बम बनकर बरसे। उन्होंने आँखें फाड़े सिद्धार्थ को देखते हुए सवाल किया, "क्या?... प्यार हो गया आपको?... कब?... कैसे?... आपने हमें पहले बताया क्यों नहीं?... कौन है वो लड़की?... परिवार कैसा है?... अगर आपको पहले से कोई लड़की पसंद है तो आपने पापा जी को बताया क्यों नहीं कि आपने अपने लिए पहले से लड़की ढूँढ़ ली है?"

    शेखर जी ने हैरानी से उससे एक के बाद एक नॉनस्टॉप कई सवाल किए और जवाब में सिद्धार्थ ने मुँह लटकाते हुए कहा,

    "जीजा जी, लड़की कौन है?... कहाँ से है?... परिवार कैसा है, कुछ नहीं जानते हम। आलोक की शादी में दिल्ली गए थे, वहीं देखा था एक बार; उसके बाद नज़र ही नहीं आई। पर हमें सच्चा वाला प्यार हो गया है उनसे, किसी और से शादी नहीं कर सकेंगे हम।"

    सिद्धार्थ की बात सुनकर शेखर जी दुविधा में फँस गए। उन्होंने उसके उतरे हुए चेहरे को देखा, फिर कुछ पल सोचने के बाद उसके कंधे पर हाथ रखते हुए बोले,

    "हम आपके प्रेम की नैया को पार लगाने का कुछ उपाय सोचते हैं। पर पहले तो इस रिश्ते का कुछ करना होगा।"

    "हम लड़की देखने नहीं जाएँगे जीजाजी। आप कुछ भी बहाना बनाकर इंकार कर दीजिए।" सिद्धार्थ उम्मीद भरी नज़रों से उन्हें देखने लगा। वो खुद कुछ परेशान से हो गए और सोचते हुए बोले,

    "अब इंकार करेंगे तो परिवार की इज़्ज़त ख़राब होगी। चलकर लड़की देख लीजिए और जब आपसे जवाब पूछे तो इंकार कर दीजिएगा। उसके बाद हम कोई रास्ता ढूँढ़ेंगे आपके प्यार तक पहुँचने का।"

    इसके अलावा और कोई चारा नहीं था, तो सिद्धार्थ को उनकी बात माननी ही पड़ी और उसने सोच लिया था कि रिश्ते के लिए इंकार करके अपना पीछा छुड़ा लेगा, पर वो नियति के खेल और महादेव के फैसले से अंजान था।


    कुछ देर बाद सब यहाँ से दिल्ली के लिए रवाना हो गए। रात ग्यारह बजे वो दिल्ली पहुँचे। बलदेव जी के जानकर के घर वो रात को ठहरे और अगले दिन तय वक़्त पर लड़की को देखने पहुँच गए।

    मनीष जी के घर भी उनके भाई और दोस्त आए हुए थे। पंडित जी भी मौजूद थे यहाँ। लड़कों वालों का आदर सहित स्वागत किया गया। पहले तो सिद्धार्थ से सवाल-जवाब किए गए, जिनका जवाब उसने बेमन से ही दिया, क्योंकि वो तो बस इंकार करके जल्दी से यहाँ से निकल जाना चाहता था।

    कुछ देर बाद लड़की को बुलाया गया, पर सिद्धार्थ को उसे देखने में ज़रा भी दिलचस्पी नहीं थी। वो सर झुकाए बैठा हुआ था, जब उसके कानों में पायलों की छन-छन की आवाज़ पड़ने लगी और अनायास ही उसकी नज़र आवाज़ की दिशा में घूम गई।

    सामने से दो शादीशुदा लड़कियों के साथ मुस्कान चली आ रही थी। आज उसने हल्के गुलाबी रंग की सिंपल सी साड़ी पहनी हुई थी। कमर तक लहराते बाल आज फिर खुले थे और उसकी पीठ पर लहरा रहे थे। कुछ बालों को कंधे से आगे किया हुआ था। छोटी-छोटी लटें उसके गालों पर झूल रही थीं।

    माथे पर छोटी सी गुलाबी बिंदी सितारों सी चमक रही थी। शायद उसकी भूरी आँखों में काजल लगाया था आज उसने, पर पलकें झुकी हुई थीं।

    आज फिर उसके अधर ख़ामोश थे और उन्हें गुलाबी रंग में रंगा हुआ था। गले में लॉकेट, बाएँ हाथ में वॉच, दाएँ हाथ में चूड़ियाँ, पैरों में पतली सी पाजेब और हील्स।

    उस दिन से काफ़ी जुदा-जुदा सी लग रही थी वो और रंग भी कुछ साफ़ लग रहा था। मुस्कान के चेहरे पर कोई भाव नहीं थे; ऐसा लग रहा था जैसे वो वहाँ होकर भी वहाँ नहीं थी।

    सिद्धार्थ ने जब मुस्कान को देखा, तो उसे अपनी आँखों पर विश्वास ही नहीं हुआ। इस हकीकत को अपना भ्रम समझते हुए उसने कई बार अपनी पलकों को झपकाकर वापिस मुस्कान को देखा, पर हर बार उसे मुस्कान ही नज़र आई।

    सिद्धार्थ का दिमाग घूम गया; कुछ पल वो शॉक्ड सा मुस्कान को देखता रहा, फिर अपने बगल में बैठे शेखर जी के तरफ़ झुकते हुए फुसफुसाते हुए बोला,

    "जीजा जी, आपके पास उस लड़की की फ़ोटो है, जिसे हम देखने आए हैं?"

    सिद्धार्थ का सवाल सुनकर शेखर जी चौंक गए और हैरानी से उसे देखते हुए धीमे स्वर में बोले, "हाँ, है, पर अब आप ये सवाल क्यों पूछ रहे हैं?... "

    "जीजा जी, हमें वो तस्वीर देखनी है।"

    सिद्धार्थ ने जैसे ही ये कहा, शेखर जी और ज़्यादा चौंक गए और हैरानी से बोले, "लड़की सामने ही खड़ी है और आपको तस्वीर देखनी है?"

    "Please जीजा जी।" सिद्धार्थ व्याकुल, परेशान निगाहों से उन्हें देखने लगा। मामले की गंभीरता समझते हुए शेखर जी ने फ़ोन निकालकर फ़ोन में मौजूद मुस्कान की तस्वीर निकालकर फ़ोन उसके तरफ़ बढ़ा दिया।

    सिद्धार्थ ने स्क्रीन पर मुस्कान की फ़ोटो देखी, तो एक बार फिर उसकी उन सुनी भूरी आँखों के तरफ़ आकर्षित हो गया और एकटक उस तस्वीर को देखते हुए बोला,

    "इसी लड़की को देखने आए हैं हम?"

    "हाँ, साँची नाम है इनका और इन्हें ही देखने आए हैं हम।"

    "साँची।" सिद्धार्थ ने मन ही मन नाम दोहराया, फिर मुस्कान की फ़ोटो देखकर हौले से मुस्कुरा दिया।

    "तो साँची नाम है आपका... बहुत प्यारा नाम है, बिल्कुल आपके जैसे।"

    "सिद्धार्थ, क्या चल रहा है आपके मन में?... अभी तक उजड़ा चमन बनकर बैठे थे और अब खुद में ही मुस्कुरा रहे हैं।"

    सिद्धार्थ जी साँची की तस्वीर निहारने में मगन था; उसने शेखर जी का सवाल सुनकर सर घुमाकर उन्हें देखा और सौम्य सी मुस्कान लबों पर सजाते हुए बोला, "जीजा जी, यही हमारी अंजान मोहब्बत है।"

    शेखर जी ने जैसे ही ये सुना, उनकी आँखें अविश्वास से फैल गईं, पर सिद्धार्थ की मुस्कान देखने के बाद शक़ की कोई गुंजाइश ही नहीं रह गई थी। उसको खुश देखकर शेखर जी भी मुस्कुरा दिए और उसके कंधे पर हाथ रखते हुए बोले,

    "मुबारक हो, आपको ज़्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ी अपनी मोहब्बत को ढूँढ़ने में। महादेव ने खुद आपको उन तक पहुँचा दिया।"

    सिद्धार्थ भी उनकी बात सुनकर मुस्कुरा दिया। इसी बीच साँची को वहाँ लाकर बिठाया जा चुका था।

    बलदेव जी, शेखर जी उससे सवाल-जवाब करने लगे, जिनका जवाब साँची ने निगाहें झुकाए हुए सौम्यता से दिया। उसके व्यवहार और जवाबों से लगभग सभी संतुष्ट हो गए थे। रागिनी जी को भी साँची पसंद आ गई थीं। उन्होंने भी कुछ सवाल किए, फिर सिद्धार्थ और साँची के अकेले मिलने की बात सामने रखी, जिसे सुनकर मनीष जी के माथे पर चिंता की लकीरें उभर आईं, पर अब लड़के वालों की बात काट भी नहीं सकते थे, तो उन्होंने इजाज़त दे दी।


    साँची की दोनों बड़ी बहनें उसे नीचे ही बने रूम में ले गईं। रागिनी जी के साथ सिद्धार्थ भी वहाँ गया, पर उसके दिलों-दिमाग में तूफ़ान मचा हुआ था। अचानक मुस्कान सामने आ गई थी, इसलिए वो समझ नहीं पा रहा था कि उससे क्या बात करेगा?



    Coming soon.........

    मनीष जी की घबराहट की क्या वजह है?... क्या बात करेगा सिद्धार्थ साँची से; जानने के लिए पढ़ते रहिए "मुस्कान"

  • 5. Muskan: Love, Tears and Destiny - Chapter 5

    Words: 1554

    Estimated Reading Time: 10 min

    साँची और सिद्धार्थ बेड पर एक-दूसरे के आमने-सामने बैठे थे। साँची की दोनों बड़ी बहनें और रागिनी जी बाहर खड़ी थीं। उन्हें यहाँ आए हुए दस मिनट बीत चुके थे।

    साँची के लब तो यूँ खामोश थे, जैसे उन्हें कुछ कहने की चाह ही न हो, वहीं सिद्धार्थ कई बार कोशिश कर चुका था, पर समझ नहीं पा रहा था कि कैसे बात शुरू करे? क्या करे? क्या कहे?

    उसने उम्मीद नहीं की थी कि ऐसे अचानक उसकी मोहब्बत उसके सामने आकर खड़ी हो जाएगी, इसलिए समझ नहीं पा रहा था कि क्या करे। वो साँची को जानता तक नहीं था और शायद साँची पहली इंसान थी जिसके आगे बोलने में सिद्धार्थ नर्वस फील कर रहा था।

    कुछ देर की खामोशी के बाद आखिर में सिद्धार्थ ने बात शुरू की, "सिद्धार्थ नाम है मेरा, शायद आपको मेरे बारे में बताया गया हो, फिर भी मैं आपको बताना चाहता हूँ कि मैं यहाँ से नहीं, बनारस से हूँ। वहाँ मेरा छोटा सा परिवार है। मम्मी-पापा, दो बहनें और मैं। बड़ी दीदी की शादी हो गई, तो अब हम घर में कुल चार लोग रहते हैं। पापा के साथ शोरूम का काम संभालता हूँ मैं।"

    साँची ने खामोशी से उसकी बात सुनी और सर हिला दिया। सिद्धार्थ को उसका ये रिएक्शन ज़रा अजीब लगा। उसने कुछ पल साँची के कुछ कहने का इंतज़ार किया, पर उसे खामोश देखकर खुद ही उसने आगे बात शुरू की,

    "आप निगाहें उठाकर देखेंगी नहीं उस लड़के को जिसका रिश्ता आपके लिए आया है? आप कुछ कहेंगी नहीं? अगर पूछना चाहे तो पूछ सकती हैं आप?"

    "मुझे आपसे कोई सवाल नहीं करना, अगर आपको कुछ पूछना हो तो पूछ लीजिए।" साँची ने निगाहें झुकाए हुए ही धीमे स्वर में कहा।

    इतनी देर में अब जाकर उसने कुछ कहा था। सिद्धार्थ उसका जवाब सुनकर कुछ पल परेशान सा उसको देखता रहा, फिर गहरी निगाहों को साँची के चेहरे पर टिकाते हुए बोला,

    "क्या आप इस रिश्ते से खुश नहीं?..."

    यहाँ सिद्धार्थ ने ये सवाल किया और धड़कते दिल के साथ जवाब के आस में साँची को देखने लगा, पर उसे तो जवाब देने का मौका ही नहीं दिया गया।

    सिद्धार्थ की बात खत्म होते ही साँची की दोनों बहनें अंदर चली आईं और सिद्धार्थ को देखकर मुस्कुराकर बोलीं,

    "काफी देर हो गई, नीचे सब बुला रहे हैं, तो बाकी बातें शादी के बाद कर लीजिएगा।"

    अंजान लोगों के बीच सिद्धार्थ कुछ कह ही नहीं सका। उसने एक नज़र साँची को देखा और कमरे से बाहर निकल गया।

    साँची ने अब जाकर निगाहें उठाईं और नज़र सिद्धार्थ की पीठ पर पड़ी। उसकी आँसुओं से भरी लबालब आँखों को कोई देख ही नहीं सका।


    प्रेसेंट

    अतीत में खोया सिद्धार्थ एकाएक होश में लौट आया। साँची की उस दिन की खामोशी को वो उस दिन समझने में नाकाम रहा था, पर आज उसके उस मौन का अर्थ कुछ-कुछ समझने लगा था वो। उसने पलटकर बेड पर लेटी साँची को देखा और मन ही मन बोला,

    "काश उस दिन हमारे सवाल का जवाब दिया होता आपने, तो आज आपकी ये दशा न होती। उस दिन आपकी खामोशी से अंदेशा हुआ था हमें कि शायद उस रिश्ते में आपकी रज़ामंदी नहीं क्योंकि आपको देखने आते वक़्त ऐसी ही खामोशी हमने अख्तियार की थी,

    पर आपने तब जवाब नहीं दिया, या शायद आपको जवाब देने नहीं दिया गया, और बाद में जब हमारी हाँ के बाद आपके तरफ़ से शादी की जल्दबाज़ी हुई, तो हमने मान लिया कि आपकी हाँ होगी, तभी रिश्ता आगे बढ़ा है।

    काश सब इतनी जल्दी न हुआ होता, काश शादी के रिश्ते में बंधने से पहले एक बार हमने आपसे बात की होती, आपकी मर्ज़ी जानने की कोशिश की होती, या आपने ही हमें बता दिया होता कि आप ये शादी नहीं करना चाहती, तो आपकी खुशी के लिए इंकार कर देते हम।

    आपकी खुशी के लिए अपनी मोहब्बत के इतने करीब पहुँचकर बना लेते आपसे दूरी, उन दूरियों से हमें इतनी तकलीफ नहीं होती, जितनी तकलीफ आज आपके शब्दों ने हमें पहुँचाई है। हमने तो आपसे सच्चा प्यार किया है, पर आज आपने हमारे प्यार को ज़रूरत और वासना का नाम देकर उसे गाली दे दी।

    हमें नहीं पता कि आपकी सोच ऐसी क्यों है? नहीं जानते कि किस लेटर की बात कर रही थी आप? नहीं मालूम हमें कि आपने ऐसा व्यवहार क्यों किया हमारे साथ, पर यकीन मानिए हमारा हम वैसे नहीं जैसा आपने हमें बना दिया।

    हम तो आज बहुत खुश थे कि आज आपसे ढेर सारी बातें करेंगे। आपको बताएंगे कि आप हमारी पहली नज़र का प्यार हैं, पर आपने तो हमें कुछ कहने के काबिल ही नहीं छोड़ा।

    आपको लगता है कि हमने अपनी ज़रूरत पूरी करने के लिए आपसे शादी की है, पर ऐसा नहीं है, और हम ये साबित करके दिखाएंगे आपको कि हमें आपके जिस्म की चाहत नहीं है, हमें आपके दिल में अपने लिए जगह बनानी है।

    इस उलझी गुत्थी को हम सुलझाकर रहेंगे, और आपने जो आरोप आज हमारे प्यार पर लगाए हैं, उन्हें मिटाकर अपने प्यार की शुद्धता साबित करेंगे हम। आप भले नफ़रत करे हमसे, पर हम सच्ची मोहब्बत करते हैं आपसे, और आपकी खुशी के लिए अगर आपके पास होकर भी हमें आपसे दूर रहना पड़ा, तो रहेंगे हम आपसे दूर।

    हम अपने तरफ़ से पूरी कोशिश करेंगे आपके मन से अपने लिए बदगुमानी मिटाने की। हमने दिल से चाहा है आपको, और अब आपके दिल में अपने लिए जगह बनाने की हर मुमकिन कोशिश करेंगे हम। शादी भले हो गई हमारी, पर जब तक आप हमें और हमारे प्यार को दिल से एक्सेप्ट नहीं कर लेती, हम आपके करीब आने की कोशिश नहीं करेंगे। आपके और अपने बीच एक दूरी बनाकर रखेंगे।

    आप भले ही मजबूरी में इस रिश्ते में बंधी हैं, पर हमने प्यार किया है आपसे, और बहुत शौक से अपनी मोहब्बत को अपनी अर्धांगिनी बनाकर लाये थे हम, आप न सही, पर हम आखिरी साँस तक पूरी ईमानदारी से इस रिश्ते को निभाएंगे, और अगर हमारी किस्मत में लिखा होगा, तो हमारी अधूरी मोहब्बत मुकम्मल ज़रूर होगी।"


    सिद्धार्थ ने गहरी साँस छोड़ी और आँखों में आई नमी को साफ़ करते हुए घाट के तरफ़ देखने लगा। उसकी बालकनी और छत से घाट का अच्छा-खासा व्यू दिखता था। बहुत कुछ चल रहा था उसके दिमाग में।

    सिद्धार्थ जैसे चंचल स्वभाव के लड़के को साँची की बातों ने धीर-गंभीर बना दिया था। उसकी सारी रात आँखों ही आँखों में कटी।

    सुबह के सात बजे गंगा आरती देखने के बाद सिद्धार्थ कमरे में लौटा। रोज़ सुबह वो घाट पर जाकर गंगा आरती देखता था, पर बीते कुछ दिनों से घाट पर जाकर आरती देखने का मौका नहीं मिल पा रहा था, इसलिए छत से ही आरती देख लेता था, और आज अपने रूम की बालकनी से उसने गंगा आरती होते देखा था उसने।

    पहले जब भी वो गंगा आरती देखता, तब उसके लबों पर प्यारी सी मुस्कान मौजूद रहती थी, पर आज उसके लबों पर गहरी खामोशी और चेहरे पर उदासी छाई हुई थी।

    एक वक़्त था जब उसने सोचा था कि शादी के बाद साँची के साथ गंगा आरती देखने जाएगा, पर अब प्यार ही नहीं था, तो उसके साथ कहीं जाने का तो सवाल ही नहीं उठता था।

    सिद्धार्थ ने अपने अरमानों को दिल में ही दबा लिया और अंदर आया, साँची अब भी सो रही थी। सिद्धार्थ ने एक नज़र उसे देखा, फिर अलमारी से अपने कपड़े लेकर नहाने चला गया।

    इधर बाथरूम का दरवाज़ा बंद होने के साथ ही साँची के दिमाग में कल की बातें गूंजने लगीं, और एकाएक वो चौंकते हुए उठकर बैठ गई। उसने घबराकर खुद को देखा।

    शायद उसे अपने साथ कुछ गलत होने की आशंका थी, जिसका डर उसकी आँखों में समाया हुआ था, पर जब उसने खुद को देखा, तो उसका ये भ्रम टूट गया।

    खुद को सही-सलामत देखकर उसने चैन की साँस ली। इसके बाद उसने पूरे कमरे में निगाहें घुमाईं, तो चौंक सी गई। रात को ये कमरा अलग ही लग रहा था और अब बिल्कुल जुदा सा लगने लगा था। सारी सजावट हट चुकी थी वहाँ की।

    साँची को सारे कमरे में नज़र घुमाने पर भी सिद्धार्थ कहीं नज़र नहीं आया। दरवाज़ा अब भी बंद था, इसलिए वो सोच में पड़ गई कि सुबह-सुबह वो बंद कमरे से कहाँ गायब हो गया?

    अभी वो सोच ही रही थी कि उसके कानों में दरवाज़े के खुलने की आवाज़ पड़ी, और साँची की निगाहें उस दिशा में घूम गईं। ठीक इसी वक़्त बाथरूम से सिद्धार्थ नहाकर बाहर निकला, तो उसकी नज़रें सीधे बेड पर बैठी साँची पर चली गईं।

    दोनों की निगाहें टकराईं, सिद्धार्थ को सामने देखते ही साँची हड़बड़ाहट में खुद को चादर से ढकने लगी। ये देखकर सिद्धार्थ को अपने सीने में कुछ चुभता हुआ सा महसूस हुआ, जिसका दर्द उसके चेहरे पर उभर आया। उसने तुरंत साँची पर से अपनी नज़रें हटा लीं और ड्रेसिंग टेबल के तरफ़ बढ़ते हुए बिना किसी भाव के बोला,

    "उठ गई है तो नहा लीजिए। अगर कुछ चाहिए हो तो बता दीजिएगा। राइट साइड वाला कबर्ड खाली है, जब वक़्त मिले तो उसमें सामान सेट कर लीजिएगा, अगर ज़रूरत हो तो रावी को कह दीजिएगा, वो आपकी मदद कर देगी। हमें किसी काम से बाहर जाना है, शायद रात को ही लौटे, हमारा फ़र्ज़ था बताना, तो बता दिया।"

    सिद्धार्थ ने इतना कहा, फिर साँची के तरफ़ पलटते हुए गंभीरता से आगे बोला, "और एक बात..... हम आपकी मर्ज़ी के बिना कभी आपके करीब नहीं आएंगे, तो आपको हमसे इतना डरने या घबराने की ज़रूरत नहीं है। .......

  • 6. Muskan: Love, Tears and Destiny - Chapter 6

    Words: 2114

    Estimated Reading Time: 13 min

    सिद्धार्थ ने इतना कहा, फिर साँची के तरफ़ पलटते हुए गंभीरता से आगे बोला, "और एक बात..... हम आपकी मर्ज़ी के बिना कभी आपके करीब नहीं आएंगे, तो आपको हमसे इतना डरने या घबराने की ज़रूरत नहीं है।

    जानते हैं कि आपको हम पर विश्वास नहीं होगा, पर हमें सच में नहीं पता था कि ये शादी आपकी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ हो रही है। अगर हमें पता होता, तो हम कभी ये शादी नहीं होने देते।

    आपने किस लेटर की बात की, हमें नहीं पता, पर हमें ऐसा कोई लेटर नहीं मिला था। हमें लगा कि आपकी हाँ होगी, तभी आपके परिवार ने बात आगे बढ़ाई है।

    हमने आपसे शादी की क्योंकि आप हमें पहली नज़र में पसंद आ गई थीं, पर आपके साथ कोई ज़बरदस्ती नहीं है। आप आराम से इस कमरे में और इस घर में रह सकती हैं। हम आप पर कभी कोई हक़ नहीं जताएंगे, क्योंकि हमें आपके दिल को हासिल करना था, आपके जिस्म की चाहत नहीं थी हमें।

    उम्मीद करते हैं कि अब आप हमें ग़लत नहीं समझेंगी। चलते हैं, वैसे तो आप करेंगी नहीं, फिर भी अगर कोई कहे भी, तब भी आपको हमारा इंतज़ार करने की ज़रूरत नहीं है। न ही हम आप पर बोझ बनेंगे, न ही आपको ज़बरदस्ती किसी रिश्ते में बाँधने की हमारी कोई इच्छा है। आप भूल जाइए कि हमारी शादी हुई है, और जैसे उस घर में रहती थी, वैसे ही इस घर को अपना मानकर यहाँ रहिए।

    बस इतना कर दीजिएगा कि हमारे परिवार का दिल मत दुखाएगा। बहुत खुश हैं वे, उन्हें ऐसा कुछ मत कहिएगा जिससे उनका दिल दुखे। हमारे बीच जो भी है, वो इस कमरे के अंदर रहे, यही बेहतर होगा। अब जल्दी तैयार हो जाइए, नई दुल्हन हैं आप, इतनी देर तक भी अगर तैयार नहीं हुईं तो बाहर सब बातें बनाएँगे।"

    इतना कहते हुए उसने अपनी घड़ी पहनी और बिना एक बार भी उसके तरफ़ देखे कमरे से बाहर चला गया। साँची आँखें बड़ी-बड़ी किए हैरान-परेशान सी उसे देखती ही रह गई।

    जब कमरे का गेट बंद हुआ, तो साँची ने अपनी चुनरी को दोनों तरफ़ से कंधे पर डाला और बेड से नीचे उतर गई। एक तरफ़ को उसका बैग रखा हुआ था, वो उसी तरफ़ बढ़ गई।

    बैग काफ़ी बड़ा था और भारी भी था, तो उससे उठ नहीं रहा था। झुकने से बार-बार चुनरी उसके कंधे से नीचे सरक जाती, तो वो बैग छोड़कर उसे ठीक करने लगती। वो बैग को किसी तरफ़ उठाकर मुड़ ही रही थी कि बैग के जिस हैंडल को उसने पकड़ा हुआ था, उसको किसी और की हथेली ने थाम लिया। जिससे दोनों की हथेलियाँ आपस में छू गईं।

    साँची ने घबराकर सर उठाकर देखा, तो सामने सिद्धार्थ खड़ा था, दोनों की नज़रें मिलीं, उसे देखते ही साँची की नज़रें खुद पर चली गईं, दुपट्टा अब भी उसके कंधे से नीचे जा रहा था, उसने घबराकर दूसरे हाथ से उसे ठीक करते हुए हकलाते हुए कहा, "आप... यहाँ आप... तो..."

    वो घबराहट में ढंग से कुछ कह भी नहीं पा रही थी। उसकी घबराहट देखकर सिद्धार्थ ने बैग छोड़ दिया और उससे दो क़दम पीछे हटते हुए बोला,

    "वो हमारा फ़ोन रह गया था, वहीं लेने आए थे। यहाँ आए तो आपको परेशान होते देखा, तो यहाँ आ गये। बस आपकी मदद करने आये थे, इससे ज़्यादा और कोई मक़सद नहीं था हमारा, और हाथ भी ग़लती से छू गया। उसके लिए माफ़ी चाहेंगे। पर हम आपके करीब आने या आपको छूने की कोशिश नहीं कर रहे थे।"

    "कोई बात नहीं, हो जाता है कभी-कभी।" साँची के मुँह से निकले ये शब्द जब सिद्धार्थ के कानों में पड़े, तो उसकी हैरत भरी नज़रें साँची के तरफ़ उठ गईं।

    साँची ने अब नज़रें झुकाते हुए धीरे से कहा, "वो कल रात..."

    "हटिए, हम रख देते हैं, भारी है, आपसे नहीं उठाया जाएगा।" सिद्धार्थ ने उसकी बात पूरी होने से पहले ही उसकी बात काट दी और बिना उसके तरफ़ देखे ही बैग उठाकर बेड के तरफ़ बढ़ गया।

    साँची बस उसे देखती ही रह गई। सिद्धार्थ ने बैग बेड पर रखा, फिर उसके तरफ़ मुड़कर बोला, "खोल लेंगी या मदद चाहिए?"

    साँची ने उस पर से अपनी नज़रें हटा लीं और अपने पर्स से चाबियाँ निकालते हुए बोली, "मैं खोल लूँगी, मदद के लिए शुक्रिया, पर मैं अपना काम खुद करने में विश्वास रखती हूँ। हर वक़्त हमारी मदद के लिए कोई हमारे पास हो, ये ज़रूरी नहीं, इसलिए अकेले सब संभालने की आदत ही सही होती है, इसलिए आगे से मेरी मदद मत कीजिएगा, लोगों से मदद की आदत नहीं मुझे, कहीं आदत बिगड़ गई, तो मुझे आगे चलकर परेशानी होगी।"

    उसकी बातों में एक उदासी और दर्द झलक रहा था। सिद्धार्थ कुछ पल उसे देखता रहा, फिर टेबल से अपना फ़ोन उठाते हुए बोला, "ज़िंदगी में अकेले सब सहना हमारी मजबूरी होती है, इच्छा नहीं। हमें नहीं पता कि क्यों आपके अंदर इतनी कड़वाहट भरी हुई है, पर इतना कहना चाहेंगे कि वक़्त बुरा होता है, ज़िंदगी नहीं, अगर कभी दर्द मिला है, तो खुशी भी ज़रूर मिलेगी।

    दुखों से हार मान लेना और अपने अंदर की भावनाओं को, इच्छाओं को मार देना तो सही नहीं। अगर बीते कल में अकेली थी, तो ठीक है, अकेले सब संभालना सीखना पड़ा, पर अगर किस्मत किसी का साथ दे रही है, तो उसका हाथ थामकर इस सफ़र को ख़ूबसूरत बनाने में कोई बुराई तो नहीं।

    अपनी-अपनी सोच है, आपको अकेले चलना पसंद है और हमें अपने हर रिश्ते को अपने साथ लेकर आगे बढ़ना। आपको मदद की ज़रूरत न हो, तो न सही, पर जब भी हमें लगेगा कि आपको किसी की ज़रूरत है, तब हम आपके पास मौजूद रहेंगे, क्योंकि ये हमारा फ़र्ज़ है। अग्नि के फेरे लेते हुए हर दुख और हर सुख में आपका साथ देने का वचन दिया है हमने।

    आपके लिए ये शादी भले ही कोई मायने न रखती हो, पर हमारे ज़िंदगी की सबसे ख़ूबसूरत हकीक़त है। पास न सही, आप आँखों के सामने हैं, यही बहुत है हमारे लिए। हमने दिल से आपको अपनी पत्नी माना है, तो एक पति होने का फ़र्ज़ भी पूरे दिल से निभाएंगे, शायद एक दिन आए जब आपके दिल पर जमी वक़्त की धूल साफ़ हो सके और हम उस साँची से मिल सकूँ, जिसे आपने अपने अंदर कहीं दफ़्न किया हुआ है।"

    इतना कहकर वो वहाँ से निकल गया, और साँची ठगी सी खड़ी उसे देखती ही रह गई। सिद्धार्थ की कहीं ये चंद बातें उसे गहराई तक छूकर गुज़र गई थीं। शायद पहली बार किसी ने पहचाना था कि ये असली साँची नहीं, इसे तो लोगों और हालातों ने ऐसा बनाया है।

    साँची कुछ देर तक वहाँ खड़ी बीते रात के सिद्धार्थ के साथ अपने व्यवहार और आज की बातों के बारे में सोचती रही। उलझ गई थी वो अपने ही ख़यालों में, सिद्धार्थ की सुबह की कहीं चंद बातों ने उसे सोचने पर मजबूर कर दिया था कि कहीं उसने सिद्धार्थ को ग़लत तो नहीं समझ लिया। उसकी बातों से एक अहम सवाल उसके सामने आकर खड़ा हो गया था कि अगर उसका लिखा लेटर सिद्धार्थ तक पहुँचा ही नहीं, तो कहाँ गया?

    साँची कुछ देर इन्हीं ख़यालों में उलझी रही, फिर उसने सर झटका और बैग से कपड़े लेकर नहाने चली गई।

    दूसरे तरफ़ सिद्धार्थ नीचे पहुँचा और जैसे ही बाहर की तरफ़ क़दम बढ़ाए, उसके कानों में बलदेव जी की कठोर आवाज़ पड़ी, "सिद्धार्थ, सुबह-सुबह ऐसे कहाँ जा रहे हैं आप?"

    सिद्धार्थ के आगे बढ़ते क़दम ठिठक गए। उसने गहरी साँस छोड़ी और पीछे पलटकर बलदेव जी को देखकर मुस्कुराकर बोला, "पापा, आलोक ने बुलाया था, तो बस..."

    "कोई ज़रूरत नहीं अभी कहीं जाने की। आज बहू की चूल्हा पूजन की रस्म है, तो जहाँ भी जाना हो, नाश्ते के बाद जाइएगा।"

    बलदेव जी ने उसकी बात पूरी होने से पहले ही अपना फ़रमान सुना दिया। सिद्धार्थ चाहकर भी वहाँ से जा नहीं सका। उसका उतरा हुआ चेहरा देखकर शेखर जी को कुछ ग़लत होने की आशंका सताने लगी। उन्होंने सिद्धार्थ को देखा और मुस्कुराकर बोले,

    "सिड, आप ज़रा हमारे साथ छत पर आइए, एक-दो दिन में हम चले जाएँगे, तो ज़रा बातें हो जाएँ आपके साथ, फिर जाने कब आना हो।"

    सिद्धार्थ ने उनकी बात सुनकर सर हिला दिया और दोनों छत पर चले आए। सिद्धार्थ वहाँ छत के किनारे पर लगी रेलिंग के पास आकर खड़ा हो गया और खामोशी से घाट और गंगा मैया को देखने लगा।

    सिद्धार्थ का इतना गुमसुम, चुपचाप, मायूस और खामोश रहना चिंता का विषय था, क्योंकि ये उसका स्वभाव नहीं था। शेखर जी कुछ देर तक उसके चेहरे के भावों को बड़े ही ध्यान से नोटिस करते रहे, फिर उन्होंने खामोशी तोड़ते हुए कहा,

    "सिद्धार्थ, सब ठीक तो है?"

    "हाँ, जीजा जी, सब ठीक है।" सिद्धार्थ ने उनके तरफ़ मुड़ते हुए मुस्कुराकर जवाब दिया, फिर वापस घाट को देखने लगा। उसकी ये खामोशी और फीकी मुस्कान शेखर जी के शक को गहरा कर गई। उन्होंने फिर से सवाल किया,

    "सिद्धार्थ, हमें ऐसा क्यों लग रहा है कि कुछ है जो ठीक नहीं है। कोई बात या तो आपको बहुत तकलीफ़ पहुँचा रही है या परेशान कर रही है, क्योंकि अगर ऐसा न होता, तो आपका व्यवहार यूँ नीरस सा न होता। बताइए हमें क्या बात है? आपके और साँची के बीच तो सब ठीक है?"

    आखिर में उन्होंने वो संभावना बताई जिस पर उन्हें शक था। उनका सवाल सुनकर भी सिद्धार्थ घाट को सुनी निगाहों से देखता रहा और दर्द भरी आह भरते हुए बोला,

    "जीजा जी, गंगा मैया को देखिए। अपने प्रीतम बाबा विश्वनाथ के इतने करीब होकर भी वो उन तक पहुँचकर उन्हें स्पर्श करने को तरसती है।"

    सिद्धार्थ की इस गहरी बात का मतलब समझने में शेखर जी असमर्थ साबित हुए। वे बड़े ही ध्यान से उसकी बात सुनने लगे। सिद्धार्थ ने अपनी बात जारी रखते हुए आगे कहना शुरू किया,

    "हमारी हालत अभी गंगा मैया से भी ख़राब है, जीजा जी, क्योंकि हमारी मोहब्बत हमारे पास होकर भी न सिर्फ़ हमसे कोसों दूर है, बल्कि उन्हें हमारी नियत पर शक है, वो हमें और हमारे प्यार को ग़लत समझती है, वो डरती है हमसे कि कहीं हम उनके साथ कुछ ग़लत न कर दें, उन्हें लगता है कि हमसे उनसे शादी सिर्फ़ शारीरिक रिश्ता बनाने के लिए है।

    अपने प्रीतम से दूर रहने पर वो दूरियाँ फिर भी बर्दाश्त हो जाती हैं और तकलीफ़ भी ज़रा कम होती है, पर आपकी मोहब्बत आपके सामने होकर भी आपसे दूर हो, आपको और आपके प्यार को ग़लत समझती हो, ये बात असहनीय पीड़ा पहुँचाती है और ये तकलीफ़ सहन करना नामुमकिन होता है।"

    सिद्धार्थ की बात सुनकर शेखर जी शॉक्ड से उसे देखने लगे। उन्हें अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हुआ। सिद्धार्थ जैसे ही चुप हुआ, शेखर जी ने अविश्वास भरी निगाहों से उसे देखते हुए कहा,

    "ये आप क्या कह रहे हैं, सिद्धार्थ?"

    सिद्धार्थ अब उनके तरफ़ घूम गया और नम आँखों से उन्हें देखते हुए बोला, "सच कह रहे हैं, जीजा जी। ये शादी उनकी मर्ज़ी से नहीं हुई है। किसी लेटर का ज़िक्र कर रही थी वो जो उन्होंने हमें लिखा था, और उसमें उन्होंने लिखा था कि वो शादी नहीं करना चाहती, और उन्हें लगता है कि उनके दिल की बात जानते हुए कि वो शादी नहीं करना चाहती, फिर भी हमने शादी की, उनसे शादी की सिर्फ़ अपनी शारीरिक ज़रूरत पूरी करने के लिए।"

    शेखर जी को एक और ज़ोरों का झटका ज़ोरों से लगा। वे पहले तो शॉक्ड से उसे देखते ही रह गए, फिर उन्होंने सिद्धार्थ का दर्द समझते हुए उसे अपने गले से लगा लिया और उसकी पीठ सहलाते हुए बोले,

    "ऐसे कमज़ोर नहीं पड़ते, सिद्धार्थ। अभी वो आपको जानती नहीं है। इतनी जल्दबाज़ी में आप दोनों की शादी हुई है, आप दोनों ठीक से एक-दूसरे से बात तक नहीं कर सके, फिर जानना तो बहुत दूर की बात है। आप तो चाहते हैं उन्हें, पर वो शादी के ख़िलाफ़ थी, तो उनका ऐसा रिएक्शन होना स्वाभाविक है।

    अभी आपको कमज़ोर नहीं पड़ना है, संभालना है खुद को और उस ख़त का सच पता करना है। साँची के मन से ग़लतफ़हमी को दूर करना है। मुश्किल होगा, पर हमें आप पर पूरा विश्वास है कि जल्दी ही आप साँची का दिल जीत लेंगे और जैसे बरसात के मौसम में गंगा मैया बाबा विश्वनाथ के दर्शन कर उल्लास से भर उठती है, वैसे ही आपका मिलन भी साँची से होगा, जिससे आप दोनों की ज़िंदगी खुशियों से भर जाएगी।"

    सिद्धार्थ ने अब तक में खुद को संभाल लिया था। वो शेखर जी से दूर हुआ और सहमति में सर हिला दिया। उसके उखड़े मूड को ठीक करने के लिए शेखर जी उसे अपने और रागिनी जी के किस्से सुनाने लगे।



    Coming soon............

    क्या राज़ है इस लेटर का? क्यों साँची के दिल में शादी को लेकर ऐसी धारणा बनी हुई है? क्या सिद्धार्थ बदल पाएगा उसकी सोच? क्या सिद्धार्थ अपनी बेगुनाही साबित कर पाएगा? क्या जीत पाएगा वो साँची का दिल?

  • 7. Muskan: Love, Tears and Destiny - Chapter 7

    Words: 1619

    Estimated Reading Time: 10 min

    सिद्धार्थ कमरे से जा चुका था, तो साँची निश्चिंत होकर आराम से तैयार होने लगी। वैसे तो उसको सादगी से रहना पसंद था, पर शादी के बाद से उसे चौबीसों घंटे सज, धजकर रहना पड़ता था, वरना सिद्धार्थ की दादी उस पर तंज कसने का एक मौका नहीं छोड़ती थी।

    साँची इससे इरिटेट तो होती थी, पर अब ज़िंदगी ने करवट ली थी, तो हालात के हिसाब से खुद को ढालने की पूरी कोशिश कर रही थी।

    कुछ देर बाद नहाकर तैयार होकर साँची नीचे आई। नई बहू थी, तो उसने सर पर पल्ला रखा हुआ था। वो नीचे आई, तो सामने ही दादी मिल गई। साँची अभी कुछ समझ भी नहीं सकी थी कि दादी एकाएक उस पर भड़क उठी,

    "आँखें बड़ी, बड़ी करके क्या देख रही है? दादी सास सामने खड़ी है, पैर छूने का कोई फ़र्ज़ है या नहीं?..... माँ, बाप कुछ सिखाकर भेजे हैं या सब हमें ही सिखाना पड़ेगा?"

    जब से साँची शादी करके यहाँ आई थी, उनके ऐसे ही तीखे शब्द सुन रही थी वो। उनकी बात सुनकर साँची ने झट से आगे बढ़कर उनके पैर छू लिए। दादी ने बेमन से उसके सर पर हाथ रख दिया,

    "दूधो नहाओ, पूतो फलो.... अपनी माँ जैसी लड़कियों की कतार न लगा देना हमारे घर में।"

    एक बार फिर साँची को आशीर्वाद के रूप में ताना सुनने को मिल गया था, पर जैसे इतने दिनों से वो सब खामोशी से सुनती और सहती आ रही थी, ये बात भी खामोशी से सह गई। पर दादी का साँची से ये व्यवहार और ऐसी कड़वी बातें कहना आशा जी को पसंद नहीं आया और वो नाराज़गी से बलदेव जी को देखने लगी, क्योंकि अपनी सास से वो ज़ुबान नहीं लड़ा सकती थी।

    बलदेव जी ने दादी को देखा और नाराज़गी से बोले, "अम्मा, काहे नई बहू को परेशान करती है?"

    "हम परेशान करते हैं या ऐसी बहू लाकर तुम सबने हमें दुखी किया है?..... हमारे लल्ला के लिए यही लड़की मिली थी तुमको?..... न शक्ल न सूरत, ऊपर से खाली हाथ चली आई, माँ, बाप ने दहेज दिया नहीं, साथ में अपनी बेटी को कोई संस्कार भी नहीं दिए, सारे बिरादरी में हमारी बदनामी हुई..... तुमको क्या मालूम, सब आकर हमसे कह रहे थे कि क्या कमी थी हमारे पोते में जो ऐसी बहू ब्याह लाए।..... हमारा पोता चाँद सा, चाँदनी ढूँढनी थी, पर तुम अमावस का अंधियारा उठाकर घर ले आए।"

    दादी की कड़वी बातें सुनकर साँची की आँखों में नमी तैर गई। उसने अपना सर झुका लिया, पर आँसुओं को आँखों से बाहर आने की इजाज़त नहीं दी। माहौल एकदम से गंभीर हो गया।

    दादी की बात पर बाकी सब तो खामोश रह गए, पर सीढ़ियों से उतरते सिद्धार्थ के कानों में जब उनके शब्द पड़े, तो गुस्से से उसकी बाँह की नसें तन गईं। साँची का ये अपमान उसे नागवार गुज़रा। वो दादी के सामने आकर खड़ा हो गया और दृढ़ता से बोला,

    "पापा ने नहीं, हमने पसंद की है अपने लिए लड़की और हमारी मम्मी ने हमें सिखाया है कि इंसान को उसके रंग से और सूरत से नहीं, सीरत से पहचानना चाहिए, क्योंकि रंग, रूप उम्र के साथ ढल जाता है, पर इंसान का मन अगर साफ़ और सच्चा हो, तो ज़िंदगी सँवर जाती है और इसकी ख़ूबसूरती कभी क्षीण नहीं होती।.....

    आपको साँची में सौ कमियाँ नज़र आएँ, पर हमारे और हमारे परिवार के लिए हमें उनसे बेहतर लड़की नहीं मिल सकती थी, ये हम बहुत अच्छे से जानते हैं, इसलिए हमने उन्हें चुना है।..........और एक बात.....ये चाहे जैसी भी हो, पर अब हमारी पत्नी है। उनका मान हमसे जुड़ा है, उनकी इज़्ज़त ही हमारी इज़्ज़त है। आज कह दिया, आइंदा उनका अपमान मत कीजिएगा, हम बर्दाश्त नहीं करेंगे।"

    इसके बाद सिद्धार्थ ने साँची की तरफ़ मुड़ते हुए कहा, "आप अब तक यहाँ खड़ी, खड़ी क्या कर रही है? पहली रसोई है न आज आपकी, तो इन बेकार की बातों में वक़्त बर्बाद करना छोड़कर जाकर खाना बनाएँ, भूख लगी है हमें।"

    साँची नम आँखों से उसे देखने लगी। उसकी बड़ी, बड़ी भूरी आँखों में भरे आँसू सिद्धार्थ के मन को भेद गए। उसने अपना चेहरा फेर किया और सीधा घर से बाहर निकल गया। पूरे घर में अब सन्नाटा पसरा हुआ था।

    साँची ने अपने आँसू पोछे और धीमे कदमों से किचन में चली गई। दादी गुस्से से फुफकारते हुए उसे घूर रही थी, आखिर इतने सालों में इस घर में पहली बार किसी ने उनसे इस अंदाज़ में बात किया था।

    पहली बार उनके लाडले पोते ने उनकी किसी बात का विरोध किया था और सिद्धार्थ का साँची की तफ़रदारी करना, उनके लिए स्टैंड लेना, उसकी खातिर उनके साथ इस प्रकार का व्यवहार करना दादी को अपना अपमान लगने लगा था। उनको अपनी आँखों के सामने अपनी सत्ता के ध्वस्त होने की आशंका नज़र आने लगी थी।

    साँची उनकी आँखों में काँटा बनकर चुभने लगी थी। उनके लिए अब एक मिनट भी यहाँ रुकना अपनी आन के साथ समझौता करना था, जो वो किसी कीमत पर नहीं कर सकती थी।

    बलदेव जी के छोटे भाई के साथ दिल्ली में रहती थी वह। सिद्धार्थ की शादी के लिए आई थी और अभी, अभी जो हुआ, उसके बाद वो एक मिनट भी यहाँ ठहरने को तैयार नहीं थी। हालातों को देखते हुए बलदेव जी ने भी उन्हें रोकने की कोशिश नहीं की और आनन, फानन में बलदेव जी के भाई की दादी और परिवार सहित विदाई हुई। दादी जाते, जाते भी साँची को सौ बातें सुना गईं और किचन में खड़ी साँची चुपचाप सब सुनती रही। अब घर में बस बलदेव जी का परिवार रह गया था।

    दादी सिर्फ़ साँची पर नाराज़ नहीं थी, बल्कि बलदेव जी से भी खार खाए बैठी थी। लगभग सभी नाराज़ होकर गई थीं वो यहाँ से। आशा जी ने तो सिद्धार्थ के तरफ़ से माफ़ी माँगकर उन्हें रोकने की कोशिश भी की, पर दादी किसी की सुनने को तैयार नहीं थी और आखिरकार यहाँ से चली ही गई। बलदेव जी ने उन्हें स्टेशन तक छोड़ने गए थे।

    सबके जाने के बाद आशा जी किचन में चली आईं, तो साँची गैस चूल्हे के पास सर झुकाए खड़ी थी। चेहरे पर असीम दुख और पीड़ा के भाव मौजूद थे और आँखों में अब भी नमी बाकी थी। आशा जी उसके पास चली आईं और प्यार से उसके सर पर हाथ फेरते हुए बोलीं,

    "बहू, अम्मा जी की बातों का बुरा मत मानना, उनका स्वभाव हमेशा से ऐसा ही है। कुछ भी बोल देती हैं, ये नहीं सोचती कि उनकी कड़वी बातें सामने वाले को कितना आहत करेंगी।"

    शायद पहली बार किसी का ममता भरा हाथ साँची के सर पर आया था, इसलिए वो कुछ भावुक हो गई थी। आँखों में भरे मोटे, मोटे आँसू छलकने को आतुर हो उठे, पर सालों से अपने आँसुओं को सबसे छुपाने की आदत हो चुकी थी साँची को, सो आज भी वो अपने आँसुओं को पी गई, उन्हें बाहर आने की इजाज़त नहीं दी और किसी अपराधी की तरह सर झुकाते हुए बोली,

    "माँजी, माफ़ कर दीजिए मुझे..... मेरे वजह से सुबह, सुबह घर में कलेश हो गया और दादी नाराज़ होकर चली गईं।"

    "जो हुआ उसमें आपकी कोई गलती नहीं, अम्मा जी गलत थीं। उन्हें वो सब बातें नहीं करनी चाहिए थीं, हम तो मजबूर थे, बहू हैं उनकी, तो चाहकर भी उन्हें उनकी गलती नहीं बता सकते, पर सिद्धार्थ ने ठीक किया जो उन्हें उनकी गलती का एहसास करवा दिया। अभी भले वो नाराज़ होकर गई हैं, पर जल्दी ही मान जाएंगी, इसलिए आप उनकी चिंता मत करिए और अपने घर, परिवार पर ध्यान दीजिए।"

    साँची ने सर हिला दिया और उनके बताए अनुसार चूल्हे के आगे हाथ जोड़ते हुए खाना बनाने लगी।

    बाहर आँगन में बैठी रावी, रागिनी जी से दादी की बुराई कर रही थी। उसे दादी ज़रा भी पसंद नहीं थी, क्योंकि वो जब भी आती, रावी को भी सुनाती रहती थी, उस पर रोक, टोक लगाती, जो उसे ज़रा भी रास नहीं आता था। वो बार, बार एहसास करवाती कि वो लड़की है और उसे एक दिन पराए घर जाना है, तो पढ़ाई, लिखाई के जगह घर, गृहस्थी के कामों पर ध्यान लगाए।

    दादी ने तो कई बार बलदेव जी से भी कहा कि बारहवीं करवाकर रिश्ते देखने शुरू कर दें उसके लिए, आगे जो करना होगा ससुराल वाले करवा देंगे, पर बलदेव जी अपने बच्चों को उनके पैरों पर खड़ा करना चाहते थे, इसलिए दादी के सामने तो उनकी बात का मान रखते हुए सर हिला देते, पर अकेले में रावी को समझाते कि मन लगाकर पढ़ाई करे, कोई चिंता न करे, जब वो कहेगी, तभी उसकी शादी होगी।

    अपने पिता का साथ और प्यार पाकर रावी खुशी से फूले नहीं समाती थी। आखिर हर बेटी ऐसे ही पिता की चाहत करती है, पर कुछ खुशनसीब ही होते हैं, जिन्हें ऐसे पिता मिलते हैं, जो अपने सभी बच्चों को बराबर प्यार करें, अपनी बेटियों के पंखों को उड़ान दें, उन्हें समझें, उनका साथ दें।

    मिश्रा जी के तीनों बच्चे बहुत लकी थे, क्योंकि मिश्रा जी उनके पिता के साथ उनके दोस्त भी थे और हमेशा उन्हें आगे बढ़ने को प्रोत्साहित करते थे। उन्होंने अपनी बेटियों को घर, गृहस्थी के कामों में उलझाकर उन्हें भविष्य को चूल्हे की अग्नि में जलाकर भस्म नहीं किया था, बल्कि उन्हें पूरी आज़ादी दी थी।

    घर के काम पाबंदी नहीं रही उन पर, उनका पूरा ध्यान पढ़ाई पर रहा, जिसका नतीजा था कि आज रागिनी जी अपने पति के कदम से कदम मिलाकर चलती हैं, घर की ज़िम्मेदारियों में उनकी बराबर की हिस्सेदारी है, दोनों मिलकर काम के साथ घर भी संभालते हैं, हाँ, रागिनी जी की सास तानाशाह है, तो कई बार उन्हें उनके ताने सुनने पड़ते हैं, पर शेखर जी पूरा साथ देते हैं उनका।

    यहाँ सब अपने, अपने कामों में लगे थे, तो वहीं सिद्धार्थ गुस्से में सीधे अपने दोस्त आलोक के घर पहुँच गया था, जो सिद्धार्थ के घर से दो गली छोड़कर ही था।

  • 8. Muskan: Love, Tears and Destiny - Chapter 8

    Words: 1643

    Estimated Reading Time: 10 min

    इस वक़्त सिद्धार्थ और आलोक दोनों छत पर खड़े थे। शुरू में आलोक ने ही बातें शुरू कीं, पर सिद्धार्थ नीरस ही रहा। पहले जैसे हँस, बोल नहीं रहा था वह। एक तो साँची की बातों से परेशान था, उस पर दादी से हुई बहस और साँची के लिए उनके लबों से निकले कड़वे शब्दों ने उसके मन को बेचैन किया हुआ था।

    आलोक नोटिस कर रहा था कि आज सिद्धार्थ कुछ बदला, बदला सा था। वो जानता था कि साँची ही वो लड़की है, जिससे सिद्धार्थ प्यार करता था और अब उसकी मोहब्बत उसकी जीवन, संगिनी, उसकी अर्धांगिनी बनकर उसकी ज़िंदगी में शामिल हो चुकी थी। इस हिसाब से सिद्धार्थ को खुश होना चाहिए था, पर उसके चेहरे पर दूर, दूर तक भी खुशी का कोई नामोनिशान नज़र नहीं आ रहा था।

    आलोक कुछ पल गहराई से उसके व्यवहार को देखता रहा, फिर सिद्धार्थ के कंधे पर हाथ रखते हुए बोला, "क्या हुआ सिद्धार्थ? तू कुछ परेशान सा लग रहा है। सब ठीक तो है?"

    "हाँ," सिद्धार्थ ने छोटा सा जवाब दिया और उसे देखकर मुस्कुरा दिया। आलोक ने अब उसकी गर्दन पर अपनी बाँह लपेटकर उसे खुद से सटा लिया और उत्सुकता भरी निगाहों से उसे देखते हुए मुस्कुराकर सवाल किया,

    "तो बता, कैसी रही भाभी के साथ तेरी पहली रात?"

    "ठीक थी।" सिद्धार्थ फिर मुस्कुरा दिया और अपनी गर्दन पर से उसकी बाँह हटाकर सामने सुनी गली को देखने लगा। कुछ यूँ ही उसका मन भी आज हर चीज़ से विरक्त सा हो गया था। आलोक अब उसके बगल में आकर खड़ा हो गया।

    "वैसे सिद्धार्थ, एक बात कहूँ, बुरा तो नहीं मानेगा?"

    "हम्म, बोल।"

    सिद्धार्थ की इजाज़त मिलते ही आलोक ने गंभीरता से कहना शुरू किया, "वैसे तो भाभी तेरी पसंद है और तू चाहता है उन्हें, पर मुझे वो तेरे लायक नहीं लगी.....मतलब तेरा रंग कितना साफ़ है, इतना हैंडसम है तू, कॉलेज में कितनी लड़कियाँ मरती थीं तुझ पर, पर भाभी में ऐसी कोई बात नहीं कि कोई उन्हें पसंद करे।

    रंग तो साँवला है, पर नयन, नक्ष भी इतने अच्छे नहीं कि उन्हें सुंदर कहा जा सके। एवरेज से भी नीचे है वह, तेरे साथ ज़रा भी नहीं जँचती। वो काबिल नहीं है तेरे, पता नहीं तुझे उनसे प्यार कैसे हो गया।"

    सिद्धार्थ ने खामोशी से उसकी पूरी बात सुनी और पूरे वक़्त शांत बना रहा। आलोक अपनी बात कहकर खामोश हो गया। तब जाकर सिद्धार्थ ने उसके तरफ़ सर घुमाया और लबों पर भीनी सी मुस्कान सजाते हुए संजीदगी से बोला,

    "तू प्यार करने के लिए रंग और शक्ल, सूरत देखता है, इसलिए तू कभी ये समझ नहीं सकेगा। तेरी नज़रों में वो सुंदर नहीं, पर मेरी नज़रों में वो दुनिया की सबसे हसीन लड़की है, जिन्हें पहली बार देखने पर ही मैं उन पर अपना दिल हार गया था।.....

    गलत कहा तूने कि वो मेरे काबिल नहीं, सच तो ये है कि मैं उनके काबिल नहीं हूँ।.....जिन लड़कियों की तूने बात कही, वो सब मेरे चेहरे, मेरे लुक्स और मेरी पर्सनैलिटी पर मरती थीं और मैं साँची की उन बोलती, खामोश आँखों पर दिल हार गया हूँ। कुछ तो है उनमें जो औरों में नहीं, कुछ तो है जो मुझे उनके तरफ़ खींचता है।

    बाकी लोग चाहे कुछ भी कहें, पर मेरे लिए वही वो पहली और आखिरी लड़की है, जिन्हें महादेव ने मेरे लिए बनाया है, जिन्होंने मेरी ज़िंदगी में आकर मुझे अधूरे से पूरा किया है। वही वो एकमात्र लड़की है, जिनके साथ मैं अपनी पूरी ज़िंदगी बिताना चाहता हूँ।.....और मुझे ये बिल्कुल बर्दाश्त नहीं कि कोई भी मेरी पसंद पर सवाल उठाए या मेरी पत्नी के बारे में कोई गलत बात कहे।"

    अंत तक आते, आते सिद्धार्थ सीरियस हो चुका था। पहले दादी और अब आलोक का साँची के बारे में ऐसी बातें करना उसे ज़रा भी पसंद नहीं आया था। सिद्धार्थ के गंभीर चेहरे को देखकर आलोक ने माहौल हल्का करते हुए उसके कंधे पर हाथ रखा और मुस्कुराकर बोला,

    "तूने तो सीरियस ले लिया, मैंने तो बस वही कहा जो मुझे लगा, पर अगर तेरी खुशी उनके साथ है, तो मुझे कोई परेशानी नहीं उनसे।"

    "मैं चलता हूँ, बाद में मिलूँगा तुझसे।" सिद्धार्थ ने अपने कंधे पर से उसका हाथ हटाया और जैसे ही जाने को पलटा, आलोक ने तुरंत उसे टोकते हुए कहा,

    "अरे, आया है तो खाना तो खाते जा।"

    "नहीं, आज वो पहली बार खाना बनाने वाली है और हमें उनके हाथ के बने खाने का स्वाद चखना है।" सिद्धार्थ ने उसके तरफ़ पलटते हुए जवाब दिया और मुस्कुराकर वहाँ से चला गया। आलोक ने उसे देखकर बेबसी से अपना सर हिला दिया और नीचे चला आया।

    सिद्धार्थ घर न जाकर सीधे बाबा विश्वनाथ के मंदिर चला आया। उनके आगे हाथ जोड़कर उन्हें साँची को उससे मिलवाने के लिए धन्यवाद कहा और साथ ही वादा किया कि जल्दी ही साँची को साथ लेकर आएगा, उनका आशीर्वाद लेने।

    फिर कुछ पल घाट पर बैठा, उसके बाद जब शेखर जी का फ़ोन आया, तो घर के लिए निकल गया। घर पहुँचा, तो सब खाने के लिए बैठ चुके थे। हाथ, मुँह धोकर वो भी आकर अपने आसन पर बैठ गया। रागिनी के साथ मिलकर साँची ने सबको खाना परोसा और खुद रसोई में गरमागरम पुड़ियाँ तलने चली गई।

    घर का नियम था, पहले मर्द खाते थे, फिर औरत, जिसके पीछे कोई पुरानी सोच नहीं थी, बस बड़ों के दिए संस्कार थे कि घर की औरत मर्दों को खिलाने के बाद खाती थी, ताकि उन्हें कम, ज़्यादा पड़ने पर और परोस सके। फिर मर्दों को खाकर काम पर जाना होता था, जबकि महिलाओं को और भी काम होते थे, जिन्हें निपटाने के बाद वो इत्मिनान से बैठकर खाती थीं।

    पर यहाँ भी एक बदलाव था, रावी सब आदमियों के साथ बैठकर खाना खा रही थी। कहा तो रागिनी जी को भी, पर उन्होंने ये कहकर टाल दिया कि बाद में आशा जी और साँची के साथ खा लेगी। साँची किचन में थी, तो वो बाहर ध्यान रखने लगी और जिसे जो चाहिए होता, देने लगी।

    खाना खत्म होने के बाद बलदेव जी ने साँची को बुलाया और नेग के रूप में कुछ पैसे उसे दे दिए और साथ ही उसे आशीर्वाद भी दिया।

    शेखर जी ने भी उसे नेग दिया, रावी ने तो नेग में आगे बढ़कर उसके खाने की तारीफ़ करते हुए उसके हाथ को चूम लिया और खिलखिला उठी। उसका बचपना और शैतानी देखकर साँची के लबों पर हल्की मुस्कान उभर आई।

    एक तरफ़ खड़े सिद्धार्थ ने जब साँची को मुस्कुराते देखा, तो उसके लब भी अनायास ही मुस्कुरा उठे। बाकी सब का ध्यान तो उस पर नहीं गया, पर शेखर जी की आँखों से कुछ छुप नहीं सका।

    सिद्धार्थ को साँची को प्यार से निहारते और मुस्कुराते देखकर अचानक ही उनके दिमाग में कुछ आया और उन्होंने उसे देखते हुए सवाल किया,

    "साले साहब, आप अपनी अर्धांगिनी को कुछ नहीं देंगे?"

    उनके शब्दों ने सिद्धार्थ के ध्यान को अपनी तरफ़ खींच लिया। बाकी सब भी उसे देखने लगे। साँची की नज़र एक पल को उस पर पड़ी, फिर उसने निगाहें झुका लीं।

    सिद्धार्थ ने पहले शेखर को देखा, फिर एक नज़र साँची को देखने के बाद उस पर से निगाहें फेरते हुए बोला, "वक़्त आने पर ज़रूर देंगे।"

    "ओह्ह! तो स्पेशल गिफ़्ट मिलने वाला है भाभी को भैया से, इसलिए अकेले में देंगे।.....वैसे भैया, हमें भी बता दीजिए कि क्या गिफ़्ट देने वाले हैं भाभी को, जो हमारे सामने नहीं दे सकते?"

    रावी ने सिद्धार्थ को छेड़ा और खिलखिला उठी। उसकी बात सुनकर साँची के चेहरे पर अजीब सी घबराहट और बेचैनी के भाव उभर आए और वो अपनी उंगलियों को आपस में उलझाने लगी। सिद्धार्थ की नज़र उसके हर मूवमेंट पर बनी हुई थी और वो समझ रहा था कि साँची क्या सोचकर इतना घबरा रही है।

    साँची का उससे डरना और घबराना सिद्धार्थ के प्यार भरे दिल को अंदर तक भेद गया, जिसका दर्द और तड़प उसकी आँखों में झलकने लगी। सिद्धार्थ ने दर्द भरी आह् भरी और रावी को देखकर मुस्कुराकर बोला,

    "यकीनन गिफ़्ट स्पेशल तो है और अकेले में ही देंगे। पर बाद में पूछ लेना अपनी भाभी से कि क्या गिफ़्ट दिया हमने, तेरी भाभी तुझे ज़रूर बता देंगी और कर लेना अपनी जिज्ञासा शांत।"

    सिद्धार्थ ने सहजता से जवाब दिया, फिर आशा जी को देखकर बोला, "माँ, मैं दुकान जा रहा हूँ। दोपहर में छोटी को भेज दूँगा, उसके हाथों लंच भिजवा दीजिएगा।"

    "आप अकेले क्यों जाएँगे?.....हम भी चल रहे हैं साथ।" बलदेव जी की बात सुनकर सिद्धार्थ ने हामी भर दी और एक नज़र साँची को देखने के बाद वहाँ से चला गया। साँची ने एक बार भी नज़रें उठाकर उसे नहीं देखा।

    सिद्धार्थ ने अपने शब्दों में साफ़ ज़ाहिर कर दिया था कि वो कोई ऐसा गिफ़्ट नहीं देने वाला, जिसे किसी को बताते या दिखाते हुए साँची असहज हो। अगर दूसरे शब्दों में कहें, तो रावी ने जिस सेंस में बात कही थी, उसे सिद्धार्थ ने सिरे से नकार दिया था, जिससे साँची की घबराहट कुछ कम हो गई थी, पर फिर भी उसने निगाहें उठाकर उसे देखा तक नहीं।

    उसके कानों में बाइक के स्टार्ट होने की आवाज़ पड़ी, तब जाकर उसने निगाहें उठाकर सामने देखा। ठीक उसी वक़्त गेट के सामने से सिद्धार्थ की बाइक गुज़री। हालाँकि साँची ने उसकी बाइक पहले कभी देखी नहीं थी और हेलमेट के वजह से सिद्धार्थ का चेहरा भी नहीं दिखा उसे, पर उसके कपड़ों से साँची ने उसे पहचान लिया।

    शेखर जी भी बलदेव जी के साथ निकल गए। घर में अब बस औरतें ही रह गई थीं। रागिनी जी और आशा जी के साथ साँची ने थोड़ा सा खाना खाया।

    आशा जी ने उसे सोने के कंगन दिए, वहीं रागिनी जी ने उसे भारी पाजेब दी। खाने के बाद किचन का काम निपटाने के बाद रागिनी साँची के साथ आशा जी के पास बैठ गई और दोनों उसे घर के लोगों के, उनकी पसंद, नापसंद के बारे में बताने लगे, जबकि रावी अपने कमरे में बैठी पढ़ रही थी।

    Coming soon........

    क्या लगता है आपको, क्या स्पेशल गिफ़्ट देगा सिद्धार्थ साँची को?.....कैसे आगे बढ़ेगी उनकी प्रेम कहानी?

  • 9. Muskan: Love, Tears and Destiny - Chapter 9

    Words: 1060

    Estimated Reading Time: 7 min

    शेखर जी दोपहर में शोरूम से वापिस लौटे। तब तक मुस्कान ने लंच बनाकर आशा जी के कहे अनुसार पैक कर दिया था। शेखर जी के साथ छोटू भी आया था। वो लंच लेकर वापिस चला गया।

    शेखर जी के बाद बाकी सबने खाना खाया, फिर मुस्कान किचन में काम करने लगी जिसमें रावी उसकी मदद करने लगी और साथ ही उसकी बातों की गाड़ी भी चालू हो चुकी थी।

    आशा जी आराम करने अपने कमरे में चली गई थीं। शादी के बीच और फिर मेहमानों के भरे घर में उन्हें आराम करने का मौका नहीं मिल पाता था, इसलिए आज वो आराम कर रही थीं। रागिनी जी शेखर जी के साथ अपने कमरे में थीं।

    रागिनी जी हाथ-मुँह धोकर कमरे में आईं तो बेड पर बैठे शेखर जी जाने किन्हीं ख्यालों में खोए हुए थे। उनके चेहरे पर गंभीर, उलझन भरे भाव मौजूद थे। रागिनी जी उनके पास आकर बैठ गईं और मुस्कुराकर बोलीं,

    "क्या बात है? बीवी सामने बैठी है, पर जनाब कहीं और ही खोये हुए है?"

    शेखर जी के कानों में रागिनी जी की आवाज़ पड़ी, तब कहीं जाकर वो अपनी सोच से बाहर आए और रागिनी जी को देखने लगे। रागिनी जी की मुस्कान अब फीकी पड़ गई थी। उनके परेशान चेहरे को देखकर रागिनी जी ने गंभीरता से सवाल किया,

    "क्या हुआ? कोई परेशानी है क्या? आप बहुत चिंतित लग रहे हैं। घर पर तो सब ठीक है?"

    रागिनी जी को यूँ परेशान होते देखकर शेखर जी ने गहरी साँस छोड़ी और उनकी हथेली थामते हुए बोले, "वहाँ सब ठीक है और जो बात हमें परेशान कर रही है, वो बात घर से नहीं, यहाँ और सिड से जुड़ी है।"

    शेखर जी की बात सुनकर रागिनी जी के चेहरे पर कंफ्यूज़न भरे भाव उभर आए। उन्होंने सवालिया निगाहों से उन्हें देखते हुए सवाल किया, "सिद्धार्थ को क्या हुआ है?"

    "सिड को कुछ हुआ नहीं है, पर उनकी ज़िंदगी और रिश्ता इस वक़्त बहुत उलझा हुआ है।"

    "आप कहना क्या चाहते हैं? साफ़-साफ़ बताइए। मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा। सब तो ठीक है, फिर सिड की ज़िंदगी को क्या हुआ है और उनका कौन-सा रिश्ता उलझ गया है?"

    रागिनी जी उलझन भरी निगाहों से परेशान सी उन्हें देखने लगीं। उनकी बात सुनकर शेखर जी ने सिद्धार्थ की कही पूरी बात उन्हें बता दी और परेशान से बोले,

    "हमें समझ नहीं आ रहा कि साँची किस खत की बात कर रही थी और अगर खत सिड को नहीं मिला तो गया कहाँ? आपको पता है हमसे सिड को इतना दुखी, हताश और निराश पहले कभी नहीं देखा। हमें बहुत दुख हो रहा है उनके लिए। कितने खुश थे वो शादी से, पर साँची के रात के व्यवहार के बाद वो अंदर से टूट गए हैं। साँची गलत समझती है सिड को। पता नहीं आगे क्या होगा उनकी ज़िंदगी में।

    बहुत चिंता हो रही है हमें सिड की। ये रिश्ता उनके लिए किसी युद्ध से कम नहीं होगा और उन्हें बहुत संघर्ष करना होगा साँची का विश्वास हासिल करने के लिए, उनके मन से अपने लिए बदगुमानी निकालने के लिए, उनके दिल में अपने लिए जगह बनाने के लिए। आसान नहीं होगा उनके लिए ये सफ़र।

    वैसे तो हमें सिड पर पूरा विश्वास है कि वो साँची का दिल जीत लेंगे और साँची जैसे-जैसे उनके साथ रहेंगी, उन्हें समझने लगेंगी, वो जान जाएंगी कि सिद्धार्थ वैसे नहीं जैसा वो उन्हें समझती है, उनके बीच की गलतफहमी दूर हो जाएगी, पर तब तक सिद्धार्थ को बहुत दर्द और तकलीफ सहनी पड़ेगी और सबसे ज़्यादा तकलीफ उन्हें साँची की बातें, उनका अविश्वास, पहुँचाएगा।"

    शेखर जी ने सारी बातें रागिनी जी के सामने बयाँ कर दी थीं। अपनी चिंता की वजह उन्हें बता दी थी। रागिनी जी चेहरे पर गंभीर भाव लिए उनकी सारी बात खामोशी से सुनती रहीं, फिर उनके चुप होने के बाद मुस्कान के बारे में सोचते हुए असमंजस भरे स्वर में बोलीं,

    "मुस्कान तो सबके साथ एकदम सहज थी। उन्हें देखकर हमें एक बार भी आभास नहीं हुआ कि उनके मन में इतना कुछ है। सिड भी सामान्य ही नज़र आ रहे थे। दोनों को देखकर हमें ज़रा भी अंदाज़ा नहीं हुआ कि ऐसा कुछ होगा उनके बीच।"

    "शायद उनकी नाराज़गी सिड से ही है, इसलिए वो सबसे साथ सामान्य व्यवहार कर रही है। फिर अब शादी हो गई है तो कोशिश कर रही होंगी इस परिवार में घुलने-मिलने की और इन रिश्तों को अपनाने की। रही बात सबके सामने उनका रिश्ता सामान्य दिखाने की तो सिड का ही फैसला है यह। वो नहीं चाहते कि सब बेवजह परेशान हों, इसलिए आप भी ये बातें किसी को मत बताइएगा।"

    रागिनी जी ने सर हिला दिया। जाने उनके दिमाग में इस वक़्त क्या चल रहा था? पर उनके चेहरे पर गंभीर भाव मौजूद थे।


    दूसरे तरफ़ बातों-बातों में रावी ने मुस्कान की तरफ़ मुड़ते हुए सवाल किया, "भाभी आपको भैया कैसे लगे?"

    मुस्कान जो बर्तन धो रही थी, रावी का सवाल सुनकर उसके चलते हाथ रुक गए और आँखों के सामने सिद्धार्थ का चेहरा उभर आया। उससे जवाब देते नहीं बना क्योंकि अभी तक तो वो सिद्धार्थ को जानती ही नहीं थी और खुद ही उलझन में फंसी थी, समझ नहीं पा रही थी कि वो अच्छा है या बुरा?

    मुस्कान को खामोश देखकर रावी ने ही मुस्कुराकर आगे कहना जारी रखा, "मैं भी न कैसा सवाल पूछने लगी आपसे। अभी तो आप भैया को ठीक से जानती ही नहीं होंगी न? इतनी जल्दबाज़ी में आप दोनों की शादी हुई। न शादी से पहले मिलने और बात करने का मौका मिला और न ही शादी के बाद साथ में वक़्त बिताने का मौका मिला। इतने लोग थे घर में कि आप भैया से बात तक नहीं कर सकी होंगी। बस कल रात आप भैया के साथ थीं तो एक रात में किसी इंसान को कितना ही जान सकते हैं?

    वैसे अगर आप चाहें तो मैं आपको भैया के बारे में बहुत सारी बातें बता सकती हूँ जिससे आपको उन्हें जानने और समझने में आसानी होगी। बोलिए, जानना चाहेंगी आप अपने पति उर्फ मिश्रा निवास के चश्मों-चिराग मिस्टर सिद्धार्थ मिश्रा को?"

    एक बार फिर मुस्कान दुविधा में फंस गई। न इंकार कर सकी और न ही हामी भर सकी। इंकार करती तो रावी जाने क्या सोचती उसके बारे में और अगर हाँ कहती तो बेसब्र लगती और जैसा रावी का नेचर था, वो उसे छेड़ने से बाज़ नहीं आती। मुस्कान ने एक बार फिर खामोशी अख्तियार कर ली। रावी ने उसे चुप देखकर आगे कहना जारी किया,

  • 10. Muskan: Love, Tears and Destiny - Chapter 10

    Words: 1063

    Estimated Reading Time: 7 min

    "लगता है आप बोलने में हिचकिचा रही हैं। चलिए, मैं बता ही देती हूँ। सिद्धार्थ मिश्रा बनारस की शान है। एकदम भौकाल व्यक्तित्व है उनका। थोड़े से शैतान, मस्तीखोर, बातूनी, मज़ाकिया, पर उतने ही गंभीर और संजीदा।

    जब वो स्कूल-कॉलेज में पढ़ते थे तो घर में पाँव नहीं टिकते थे उनके। पहले तो अपनी साइकिल पर बैठे बनारस की सैर पर निकल जाते थे तो बाइक आने के बाद सारा दिन अपनी फटफटिया लेकर बनारस की गलियों में घूमते रहते थे।

    दोस्तों के साथ घूमना-फिरना, मस्ती-मज़ाक करना, मटरगस्ती करते घूमना। कभी किसी चाय की दुकान पर जाकर अपने दोस्तों के साथ मंडली जमा लेते तो कभी घाट पर घंटों बैठकर गंगा मैया को निहारते रहते। पता नहीं भैया को घाट और गंगा मैया से इतना प्यार और लगाव क्यों है? उनकी रोज़ की सुबह गंगा आरती से होती थी।

    शादी से पहले तो वो सुबह-सुबह घाट पहुँच जाते थे, पर इन दिनों उन्हें घाट जाने का मौका नहीं मिला। आपको पता है बनारस में हमारे भैया का कितना नाम है, इतनी लड़कियाँ दीवानी हैं उनकी, पर भैया ने कभी किसी लड़की पर ध्यान ही नहीं दिया।

    कॉलेज के टाइम तक उन्होंने अपनी ज़िंदगी खुलकर जी और फिर पापा की दुकान संभाल ली। अब उनके पास घूमने-फिरने का वक़्त नहीं होता, बहुत सारी ज़िम्मेदारियाँ हैं उनके सर पर और भैया एकदम ज़िम्मेदार बेटे बन गए हैं।

    भैया न बहुत मज़ाकिया है, वो सामने वाले की उम्र का भी लिहाज़ नहीं करते। जो मन में होता है, बस बोल देते हैं और गलत तो बिल्कुल बर्दाश्त नहीं करते।

    कुछ गलत होते देखने या सुनने पर तो उनके अंदर जैसे महाकाल की आत्मा घुस जाती है और गलत का विरोध करने से पहले वो एक बार नहीं हिचकिचाते, जिसका एक उदाहरण आज सुबह आपने देखा ही होगा कि कैसे भैया ने दादी के सामने आपके लिए आवाज़ उठाई जबकि वो बहुत आदर करते हैं दादी का, कभी उनकी कोई बात नहीं काटते, पर आज उन्होंने आपको गलत कहा और आपके मान की रक्षा के लिए वो दादी से भी भिड़ गए।"

    रावी की बात मुस्कान बड़े ही ध्यान से सुन रही थी। सुबह वाली बात सुनकर उसे सुबह वाली बात याद आ गई और चेहरे पर अजीब से भाव उभर आए। रावी का मूड भी दादी का ज़िक्र करके खराब हो गया और उसने मुँह बनाते हुए कहा,

    "भाभी आप न दादी की बातों का बुरा मत मानिएगा। वो हैं ही ऐसी, ज़ुबान तो उनकी करेले से भी कड़वी है। वो तो मुझे भी नहीं छोड़ती, हमेशा ज़हर उगलती ही रहती है और आपसे तो और ज़्यादा चिढ़ हुई है क्योंकि उन्होंने भैया के लिए दूसरी लड़की पसंद की थी, पर भैया ने शादी से मना कर दिया था और अब आपसे शादी कर लली

    वो भी बिना दहेज के जबकि दादी ने दहेज के लिए कहा था, पर भैया ने साफ़-साफ़ कह दिया था कि अगर दहेज माँगा जाएगा तो वो शादी ही नहीं करेंगे। बस इसलिए दादी आपसे ज़्यादा खीझ गई है और कड़वी बातें बोलकर अपनी भड़ास निकालने की कोशिश कर रही है।"

    मुस्कान ने जब दहेज वाली बात सुनी तो एक सुकून सा महसूस हुआ उसे। उसने अपनी दोनों दीदियों की शादी में अपने पापा को दहेज के लिए एक-एक रुपया जोड़ते देखा था, इसलिए दहेज शब्द से नफ़रत थी उसे।

    हमेशा से सोचती थी कि लड़के खुद से इंकार क्यों नहीं करते? क्योंकि लड़की वालों के सर पर दहेज का बोझा लाद दिया जाता है और अब तक की ज़िंदगी में उसने पहली बार सुना था कि किसी लड़के ने दहेज के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई हो।

    कहीं न कहीं सिद्धार्थ की ये बात उसके दिल को छू गई थी, पर यही दहेज उसके आज की हालत की ज़िम्मेदार भी थी जिसका दुख उसकी आँखों में साफ़ झलक रहा था।

    रावी ने जब मुस्कान के भावों को देखा तो बात बदलते हुए मुस्कुराकर बोली, "वैसे भाभी मैं आपको भैया का एक सीक्रेट बताऊँ?"

    मुस्कान ने उसकी उत्सुकता देखकर अपने मनोभावों को छुपाया और फीकी मुस्कान लबों पर सजाते हुए हामी भर दी। रावी ने झट से मुस्कुराकर आगे कहना शुरू किया,

    "पता है भाभी जब भैया के लिए लड़की देख रहे थे न तो उन्होंने शादी से साफ़ इंकार कर दिया था। जब पापा आपको देखने जा रहे थे तब भी भैया जाने को तैयार नहीं थे और मुँह कुप्पे जैसा फुलाकर मजबूरी में घर से निकले थे, पर जब आपको देखकर वापिस लौटे तो बड़े खुश थे।

    पापा ने दूसरी लड़की देखने की बात कही तो भैया ने साफ़ इंकार कर दिया और जो भैया शादी के नाम से बौरा जाते थे उन्होंने आपको देखकर आने के बाद बड़ी ही आसानी से आपसे शादी के लिए हामी भर दी।

    साथ ही अपना अटल फैसला भी सुना दिया कि अगर शादी करेंगे तो आपसे ही करेंगे, वरना नहीं करेंगे। ऐसे लड़की देखकर फिर इंकार करना उन्हें ठीक नहीं लग रहा था और शायद आप उन्हें भा गई थीं, इसलिए वो आपके अलावा किसी को देखने को भी तैयार नहीं थे।"

    रावी की ये बात सुनकर मुस्कान चौंक गई, पर कुछ कह न सकी। उसके चेहरे पर एक पल को हैरानगी के भाव उभरे, पर अगले ही पल चेहरा भावहीन हो गया। रावी अपनी ही धुन में मग्न आगे कहने लगी, "मेरे भैया न लाखों में नहीं, करोड़ों में एक हैं। आप खुशनसीब हैं, आपको पति के रूप में भैया मिले। बहुत इज़्ज़त करते हैं वो औरतों की, हर रिश्ता पूरी ईमानदारी और दिल से निभाते हैं। मैं तो चाहती हूँ कि मुझे भी उनके जैसा ही पति मिले।"

    एक बार फिर मुस्कान रावी की बात पर कोई जवाब नहीं दे सकी और चुप्प सी उसे देखती ही रह गई। रावी ने अब ध्यान दिया कि इतनी देर से बस वही बोले जा रही है। मुस्कान तो कुछ कह ही नहीं रही। उसने मुस्कान को देखा और भौंह उचकाते हुए बोली,

    "भाभी आप हमेशा ऐसे ही चुप-चुप रहती हैं या मैं अनजान हूँ और आपकी नंद हूँ, इसलिए मुझसे बात करने में सकुचा रही हैं? देखिए, मैं वो टीवी सीरियल वाली गंदी नंद नहीं हूँ तो आप बेफ़िक्र होकर मुझसे कुछ भी बात कर सकती हैं। मुझे आप अपनी बहन ही समझिए।"

    मुस्कान ने उसकी इस बात पर मुस्कुराकर हामी भर दी। रावी भी उसे मुस्कुराते देखकर मुस्कुरा दी।



    Coming soon........


    कैसी लगी आपको हमारी प्यारी सी नंद रावी? और क्या लगता है आपको कि आखिर खत का राज़ है क्या? कैसे मिटेगी इनके बीच की गलतफहमी? क्या मुस्कान समझ सकेगी सिद्धार्थ को?

  • 11. Muskan: Love, Tears and Destiny - Chapter 11

    Words: 1016

    Estimated Reading Time: 7 min

    सारा दिन बीत गया था। यहाँ रावी के साथ मुस्कान अब कुछ घुलमिल गई थी। वही सिद्धार्थ ने खुद को पूरी तरह से काम में डुबोया हुआ था ताकि मुस्कान का ख्याल भी उसके मन में न आए। इस वक्त शेखर जी बाहर गए हुए थे।

    मुस्कान ने सुबह और दोपहर का सारा काम किया था, इसलिए आशा जी ने उसे आराम करने भेज दिया था और खुद रात के खाने की तैयारी करने लगी थी, जिसमें रावी उनकी मदद कर रही थी।

    मुस्कान इस वक्त अपने रूम में ड्रेसिंग टेबल के सामने खड़ी खुद को एकटक शीशे में देख रही थी। आईने के सामने खड़ी मुस्कान खुद को देखते हुए रावी की कही बातों के बारे में सोचने लगी। बहुत सोचने पर और खुद को अच्छे से देखने पर भी वो समझ नहीं सकी कि आखिर सिद्धार्थ ने उस दिन उसमें ऐसा क्या देख लिया था जो जाने से पहले शादी से इंकार करने वाले लड़के ने लौटने के बाद ज़िद ठान ली कि उसी से शादी करेगा?

    मुस्कान ने खुद को बड़े ही गौर से देखते हुए मन ही मन कहा, "कुछ भी खास नहीं मुझमें। मुझे तो हमेशा से लगता था कि दुनिया का कोई लड़का मुझे कभी पसंद कर ही नहीं सकता और अगर किसी ने शादी के लिए हाँ कहा भी तो मुझ जैसी लड़की से शादी करने के लिए खूब दहेज लेगा। फिर आपने मुझमें ऐसा क्या देख लिया जो बिना दहेज लिए मुझसे शादी करने को तैयार हो गए?……जब आप शादी करना नहीं चाहते थे तो मुझे देखकर लौटने के बाद ये ज़िद क्यों ठान ली कि मुझसे ही शादी करेंगे?……

    सुबह आप कह रहे थे कि आपको मैं पसंद आ गई थी, पर मुझमें तो ऐसी कोई खूबी नहीं जो आपको पसंद आए। लड़के तो सुंदर लड़की को ढूंढते हैं जो हीरोइन से कम न हो, जो अंधा होता है वो भी चार आँखों वाली बीवी ढूंढता है, जिन लड़कों की खुद की शक्ल सूरत नहीं होती वो भी ऐश्वर्या राय जैसी लड़की की डिमांड रखते हैं।

    फिर आप तो दिखने में अच्छे खासे हैं, रावी बता रही थी कि यहाँ की लड़कियाँ दीवानी हैं आपकी, फिर आपने मुझ जैसी लड़की को ही क्यों चुना अपनी पत्नी बनाने के लिए?……मैंने तो रात को जाने आपको क्या-क्या सुना दिया था, फिर क्यों सुबह आप मेरे लिए अपनी दादी से भिड़ गए थे?……."

    बहुत से सवाल थे मुस्कान के मन में, पर सवाल किसी एक का नहीं था। शायद अगर उसने ये सवाल सिद्धार्थ से किए होते तो जवाब मिलने की संभावना भी थी, पर खुद से किए इन सवालों के बदले उसे बस उलझन ही मिली।

    शीशे में अपने अक्स को देखते हुए मुस्कान अब भी इन्हीं सबके बारे में सोच रही थी जब उसके कानों में रावी की आवाज़ पड़ी।

    "भाभी"

    मुस्कान आवाज़ सुनकर चौंकते हुए होश में लौटी और तुरंत ही दरवाजे की तरफ पलटते हुए बोली, "हाँ।"

    दरवाजे पर खड़ी रावी ने उसे देखा और मुस्कुराकर बोली, "भाभी आपको दीदी बुला रही हैं।"

    "कहाँ है दीदी?"

    "अपने कमरे में है और आपको भी वहीं बुलाया है।" रावी मैसेज देकर वहाँ से चली गई। मुस्कान उलझन में पड़ गई कि रागिनी ने उसे ऐसे क्यों बुलाया है? फिर सर झटकते हुए उनके कमरे की तरफ बढ़ गई।

    "दीदी आपने बुलाया?" मुस्कान ने संकोचवश दरवाजे पर से ही सवाल किया, जिस पर अंदर कमरे में मौजूद रागिनी जी ने हामी भरते हुए कहा,

    "हाँ साँची, हमने ही आपको बुलाया है। आओ इधर बैठो मेरे पास।"

    मुस्कान सकुचाते हुए उनके पास आकर बैठ गई, पर क्या कहे ये समझ नहीं सकी। रागिनी जी ने ही बात शुरू की और गंभीर निगाहें मुस्कान के चेहरे पर टिकाते हुए गंभीरता से कहा,

    "सांची तुम्हारे और सिद्धार्थ के बीच सब ठीक है ना?"

    साँची इस सवाल को सुनकर हड़बड़ा गई और घबराकर उन्हें देखने लगी। उसके लबों से एक शब्द ना निकल सका, पर उसके चेहरे के उड़े हुए रंग ने सब कह सुनाया था।

    रागिनी जी ने गहरी साँस छोड़ी और पीछे तकिये के नीचे से एक पेपर निकालकर साँची के तरफ बढ़ाते हुए कहा,

    "ये लेटर सिद्धार्थ के लिए आए शगुन के कपड़ों में था, तुमने लिखा था?"

    उस पेपर को देखकर और रागिनी जी की बात सुनकर साँची का चेहरा पीला पड़ गया और घबराहट के मारे पसीना आने लगा। उसके थरथराते लबों से धीमे से स्वर निकले,

    "ये……ये आपके पास कैसे?"

    रागिनी ने लेटर साँची की हथेली पकड़कर उस पर रख दिया और गंभीरता से बोली, "जब सिद्धार्थ के शगुन के सामान के साथ उसके कपड़े आए थे तो हमने ही उसे कपड़े बदलने के लिए दिए थे, इसलिए तुम्हारा लिखा ये लेटर सिद्धार्थ के नहीं मेरे हाथ लगा था।

    उस वक्त तो वक्त नहीं था, इसलिए हमने इस तरह ज्यादा ध्यान नहीं दिया, पर बाद में हमने इस लेटर को पढ़ा और तुम्हें हमसे घबराने की बिल्कुल भी ज़रूरत नहीं है क्योंकि हमने इसके बारे में अभी तक किसी को नहीं बताया और न ही आगे बताएँगे।

    हमने आपको भी यहाँ कोई सवाल-जवाब करने के लिए नहीं बुलाया है, बल्कि इस लेटर के वजह से तुम्हारे और सिद्धार्थ के बीच जो गलतफहमी की दीवार बनी है उसे तोड़ने के लिए बुलाया है।"

    मुस्कान ने अपनी निगाहें झुका ली और अपनी हथेली में मौजूद उस लेटर को देखने लगी जिसे उसने बहुत हिम्मत करके लिखा था और कितना जुगाड़ लगाने के बाद सिद्धार्थ के लिए आए कपड़ों के बीच रखा था ताकि वो इसे पढ़ ले और शादी से इंकार कर दे, पर आज वो उसकी पत्नी बनकर इस घर में मौजूद है।

    रागिनी ने ही आगे बात जारी रखते हुए कहा, "सांची हम जानते हैं कि आपने ये खत सिद्धार्थ के लिए लिखा था ताकि वो इसे पढ़कर शादी से इंकार कर दे और आपको लगता है कि आपके खत पढ़ने के बाद भी उन्होंने आपसे शादी की है।……पर सच्चाई ये है कि ये लेटर उन तक कभी पहुँचा ही नहीं। वो नहीं जानते थे कि आप शादी नहीं करना चाहती थी और आपने उन्हें कोई खत भी लिखा था। ये खत पहले हमने पढ़ा नहीं था और छेड़ने के बाद पढ़ा तब भी हमने ये खत सिद्धार्थ को नहीं दिया, जिनकी हमारे पास अपनी वजहें थीं।"

  • 12. Muskan: Love, Tears and Destiny - Chapter 12

    Words: 1123

    Estimated Reading Time: 7 min

    रागिनी जी की ये बात सुनकर मुस्कान निगाहें उठाकर उन्हें देखने लगी। रागिनी जी ने भी उसे देखते हुए आगे कहना जारी किया,

    "सबसे पहला कारण आप खुद थीं। आपने अपने इस लेटर में लिखा था कि आपको रिश्तों पर विश्वास नहीं है। मर्दों पर भरोसा नहीं करती आप, इसलिए सिद्धार्थ से तो क्या किसी लड़के से शादी करना ही नहीं चाहती।……आपके शब्दों को पढ़ने के बाद हमें एहसास हुआ कि शायद अब तक आपके ज़िंदगी में ऐसे रिश्ते आए ही नहीं जो आपका भरोसा जीत सके। शायद अब तक आप जिन भी मर्दों से मिली वो गलत रहे हैं।……

    हमने उस वक्त एक बार सोचा था कि सिद्धार्थ को जाकर लेटर दे दें और इस रिश्ते को तोड़ दें, पर तब हमारे मन में ख्याल आया कि अगर सिद्धार्थ से आपका रिश्ता टूट भी जाता तब भी आपके मम्मी-पापा कोई दूसरा लड़का ढूंढते, आप कितनी ही कोशिश करती पर आपकी शादी वो करवाकर ही रहते क्योंकि आपके बाद दो और बहनें हैं जिनके बारे में सोचना है उन्हें, इसलिए हमने सोचा कि जब आज नहीं तो कल आपकी शादी होनी ही है तो आप किसी गलत घर में बहू बनकर जाएँ, किसी गलत रिश्ते में बंधे उससे बेहतर है कि सिद्धार्थ से आपकी शादी करवा दी जाए……

    ये बिल्कुल मत सोचिएगा कि हम अपने भाई या परिवार की तरफदारी कर रहे हैं। हम आपको सच्चाई से रूबरू करवा रहे हैं। आपके खत को पढ़ने के बाद हमें शिद्दत से एहसास हुआ था कि आपका बहू बनकर इस घर में आना सबसे बेहतर फैसला है क्योंकि ये परिवार रिश्तों और परिवार पर आपका खोया विश्वास लौटा सकता है।

    मर्दों से जो भी शिकायत है आपको वो शिकायत सिद्धार्थ को जानने-समझने के बाद खत्म हो जाएगी, ये दावे के साथ कह रहे हैं हम। हमारी भी शादी हुई है और असल ससुराल किसे कहते हैं ये हमसे ज्यादा बेहतर तरीके से कोई नहीं जानता और आपको जो ससुराल मिला है ना वहाँ आपको बेटी जैसे प्यार और मान मिलेगा।……

    सांची आपकी अभी-अभी शादी हुई है, वो भी आपकी इच्छा के विरुद्ध, इसलिए पति के महत्व को, पति-पत्नी के रिश्ते को आप अभी नहीं समझ सकती, पर हम अपने अनुभव से आपको बता रहे हैं कि अगर आपका पति गलत और खराब है ना तो आपकी पूरी ज़िंदगी तबाह हो जाती है, पर वही अगर आपका हमसफ़र, आपका जीवनसाथी अच्छा निकल गया तो ज़िंदगी में सौ परेशानियाँ हों ना तब भी ज़िंदगी हँसी-खुशी कट जाती है।

    चाहे सास-ससुर कैसे भी क्यों न हों, पर अगर पति आपको चाहता है, आपकी क़द्र करता है, आपके साथ आपकी ताक़त बनकर खड़ा होता है, आपका सम्मान करता है तो उसके सहारे आप पूरी दुनिया जीत सकते हैं और दुनिया में बहुत कम लड़की होती हैं जिन्हें पति और ससुराल दोनों अच्छे मिलें और आप उन चंद खुशनसीब लड़कियों में से हैं और बहुत जल्द आपको खुद इस बात का एहसास होगा।

    एक वजह हम बता चुके हैं कि आपके खत पढ़ने के बाद हमें लगा कि आपका सिद्धार्थ से रिश्ता जुड़ना और इस घर में आना ही हमें आपके लिए बेहतर लगा और दूसरी वजह है सिद्धार्थ……असल में सिद्धार्थ शादी के लिए तैयार नहीं था। आपको देखने भी नहीं जा रहा था, पर जब आपको देखकर लौटा तो उसने शादी के लिए हाँ कह दी क्योंकि आप उन्हें पसंद आ गई थीं।

    सिद्धार्थ ने फ़ैसला सुना दिया था कि अगर शादी करेंगे तो आपसे ही करेंगे, वरना सारी ज़िंदगी कुँवारे ही रहेंगे और आपसे रिश्ता जुड़ने पर बहुत खुश थे वो और हम उन्हें ये खत देकर उनकी खुशी पर ग्रहण नहीं लगाना चाहते थे। अपने भाई की खुशी हमें आपके साथ दिख रही थी, इसलिए हमने शांति से ये रिश्ता होने दिया और हमें लगा था कि शादी तक आप भी इस रिश्ते को अपना लेंगीं।……

    हमें बिल्कुल अंदाज़ा नहीं था कि एक खत के वजह से आपके और सिद्धार्थ के बीच इतनी बड़ी गलतफ़हमी हो जाएगी और आप इतना गलत समझ लेंगी उन्हें…… अगर जानते होते तो पहले ही आपसे बात कर लेते और समझाते आपको कि आप हमारे भाई को जैसा समझ रही हैं वो वैसे बिल्कुल नहीं है।

    हमारे मम्मी-पापा ने उन्हें ऐसे संस्कार दिए ही नहीं हैं, वो बहुत इज़्ज़त करते हैं लड़कियों की और आप तो पत्नी हैं उनकी, आपके सम्मान की रक्षा करना तो उनका दायित्व है। वो कभी आपके साथ कुछ गलत नहीं कर सकते।……हम आपको ये सब बातें सिर्फ़ इसलिए बताई ताकि आप सिद्धार्थ को लेकर अपने मन में जो गलत बातें सोचे बैठी हैं उन्हें निकाल दें और कोशिश करें उन्हें समझने की।

    उन पर दोबारा बेबुनियाद इल्ज़ाम लगाकर उनकी भावनाओं को ठेस न पहुँचाएँ, उनके मन को आहत न करें और कोशिश करें इस रिश्ते को दिल से निभाने की। देखिएगा जैसे-जैसे आप सिद्धार्थ को समझती जाएँगी आपको खुद एहसास होगा कि हमने जो किया आपका भला सोचकर ही किया है।"

    मुस्कान खामोश बैठी उनकी बातें सुनती रही। एक बार फिर उसके पास कहने को कुछ नहीं था। बीते रात उसने सिद्धार्थ के साथ जो व्यवहार किया उसके लिए वो शर्मिंदा थी। बहुत कुछ चल रहा था उसके दिलों-दिमाग में, पर वो कह कुछ न सकी।

    बस अपनी किस्मत को देखती रही कि वहाँ उसके माता-पिता ने अपना फैसला उस पर थोप दिया और यहाँ रागिनी जी ने अपनी मनमानी की जिसका अंजाम ये हुआ कि सिद्धार्थ से उसकी शादी हो गई और साथ ही सब कुछ बिखर भी गया।

    रागिनी जी कुछ देर खामोशी से मुस्कान को देखती रही, फिर मुस्कान की हथेली को थामते हुए बड़े ही प्यार से बोली, "सांची उम्र में आपसे बड़े हैं हम और आपको अपनी छोटी बहन समझकर समझा रहे हैं कि अब ये रिश्ता जुड़ चुका है, चाहे जिन हालातों में हुई हो पर सिद्धार्थ से आपकी शादी हो चुकी है और अब आप उनकी अर्धांगिनी हैं।

    आपकी जोड़ी ऊपर से बनी हुई आई थी तभी यहाँ आप दोनों शादी के पवित्र बंधन में बंधे हैं, इसलिए अपने मन से कड़वाहट निकाल दीजिए और दिल से सिद्धार्थ को समझने और इस रिश्ते को निभाने की कोशिश कीजिए।……शायद वक्त के साथ आपके मन में रिश्तों के प्रति अविश्वास खत्म हो जाए और आपको एहसास हो कि ये रिश्ता जुड़ना आपके लिए अच्छा ही था क्योंकि महादेव कभी कोई गलत फैसला नहीं लेते।"

    मुस्कान एक बार फिर खामोश ही रही। शायद उसके पास कहने के लिए कुछ था ही नहीं। उसके दिलों-दिमाग में सिद्धार्थ छाया हुआ था। रागिनी जी के खत की हकीकत बताने के बाद, रावी और रागिनी जी की बातें सुनने के बाद मुस्कान ये सोचने पर मजबूर हो गई थी कि कहीं उसने सिद्धार्थ को गलत तो नहीं समझ लिया?


    Coming soon……


    लो जी खत का राज़ तो खुल गया, पर क्या इतना काफी है सिद्धार्थ और साँची का रिश्ता ठीक करने के लिए?……क्या अब साँची सिद्धार्थ पर विश्वास कर सकेगी?……क्या अब कुछ सुधार होगा उनके रिश्ते में?

  • 13. Muskan: Love, Tears and Destiny - Chapter 13

    Words: 1522

    Estimated Reading Time: 10 min

    "आप अकेले ही आए है जी?.... सिद्धार्थ नही आया साथ मे?"

    बलदेव जी के घर मे कदम रखते के साथ ही आशा जी ने पीछे दरवाजे के तरफ देखते हुए उनसे सवाल किया। रावी भागकर जाकर उनके लिए पानी ले आई थी। बलदेव जी ने उससे पानी लेकर पिया फिर आशा जी के परेशान चेहरे को देखकर सहजता से बोले 

    "शादी के कामों मे दुकान पर ध्यान नही दे सके तो थोड़ा लेखाजोखि का काम इकट्ठा हो गया है और एक ऑर्डर भी जाना है तो बस उसी मे लगा है सिद्धार्थ। थोड़ी देर से आएगा।"

    बदलेव जी की बात सुनकर आशा जी ने परेशान लहज़े मे कहा "शादी को चार दिन भी नही हुए और उन्होंने काम मे खुदको डुबा लिया है। आपने क्यों नही कहा उन्हें जल्दी घर आने को? ऑर्डर सुबह भेज देते और बाकी काम भी तो कल हो सकता था। देर तक दुकान मे ठहरने की क्या ज़रूरत थी? "

    "हमने तो उन्हें समझाया था पर आपके बेटे कभी किसी की सुनते है जो आज सुनते? उन्हें वही करना है जो वो चाहते है तो रुक गए वहाँ पर जल्दी ही आ जाएंगे। "

    आशा जी भुनभुनाकर रह गयी। अगर अभी सिद्धार्थ उनके सामने होता तो पक्का गुस्से मे उसके कान पकड़कर खींच लेती और जो सुताई करती सो अलग, पर वो यहाँ उनकी डांट सुनने के लिए था ही नही इसलिए खुदमे बड़बड़ाकर् रह गयी। बलदेव जी हाथ मुह धोकर आए और कुछ देर मे खाने पर बैठ गए। मर्दों के बाद घर की औरतों ने भी खाना खाया पर साँची और आशा जी ने नही खाया। थोड़ी और देर हुई तो सब अपने अपने कमरे मे चले गए।

    सांची किचन का सब काम निपटाकर एक थाली मे खाना लगाकर ले आई और आशा जी के सामने रखते हुए बोली

    "मम्मी जी, इतनी रात हो गयी है। आप खाना खा लीजिये, दीदी बता रही थी कि आपको गैस की शिकायत है। अगर वक़्त पर खाना नही खाएंगी तो गैस बन जाएगा फिर आपको परेशान होगी।"

    " सिद्धार्थ को अकेले खाने की आदत नही इसलिए हम अभी नही खाएंगे।" आशा जी की बात सुनकर मुस्कान एक पल को खामोश रह गयी फिर सकुचाते हुए बोली 

    " मैं उनका इंतज़ार कर लूँगी। आप खाना खा लीजिये। "

    मुस्कान के मनोहार करने और समझाने पर आखिरकार आशा जी ने खाना खा ही लिया। मुस्कान के साथ बैठी वो कुछ देर और सिद्धार्थ के आने का इंतज़ार करती रही फिर उठते हुए बोली

    " बहु हमारा ज़रा सर दुख रहा है। हम आराम करने जा रहे है। सिद्धार्थ आए तो आप उन्हें खाना खिला दीजियेगा और साथ मे खुद भी खा लीजियेगा और फोन करके पूछ लीजिये कि और कितना वक़्त लगेगा उन्हें। "

    " जी मम्मी जी। " मुस्कान के सर हिला दिया तो आशा जी उसके सर पर प्यार से हाथ फेरते हुए मुस्कुराकर वहाँ से चली गयी। मुस्कान ने अपने फोन को देखा फिर उसे वापिस रख दिया। असल मे सिद्धार्थ का नंबर ही नही था उसके पास तो भला उसे फोन कैसे करती? 

    घडी रात के ग्यारह बजा रही थी  सारे दिन की थकी हारी थी वो तो नींद उसे भी आ रही थी। पर सो नही सकती थी क्योंकि सिद्धार्थ का इंतज़ार करना था उसे। उसने अपने फोन मे गाना चलाकर साइड मे रख लिया और टकटकी लगाए गेट कि ओर ताकने लगी। फोन मे गाना बज रहा था 

    ए दिल दिल की दुनिया मे, ऐसा हाल भी होता है
    बाहर कोई हँसता है, अंदर कोई रोता है 

    गाना सुनते हुए मुस्कान की आँख लग गयी और बंद पलकों के आगे कुछ दृश्य घूमने लगे और साथ ही कानों मे कुछ आवाज़ें गूंजने लगी 

    " मैं शादी नही करूँगी।"

    " क्यों नही करेगी तू शादी?"

    " क्योंकि मुझे नही करनी शादी।"

    " ये कोई जवाब नही हुआ। शादी एक न एक दिन सभी को करनी होती है। हम दोनों की भी तो हुई है शादी तो अब तेरी भी होगी और अगर शादी नही करेगी तो क्या करेगी तू? सारी ज़िंदगी इस घर मे बैठी रहेगी? मम्मी पापा पर बोझ बनी रहेगी? "

    " अगर मैं उनपर इतनी ही बोझ हूँ तो मैं ये घर छोड़कर चली जाऊंगी , कुछ भी करूँगी, कही भी चली जाऊंगी, चाहे तो मर जाऊंगी पर न तो लौटकर कभी वापिस यहाँ आऊँगी और न ही शादी करूँगी। "

    " ये सब बोलने की बातें है। बड़ी बड़ी बातें कहने सुनने मे ही अच्छी लगती है पर हकीकत उनसे बिल्कुल उलट होती है। अभी तो इस घर मे सुरक्षित है, मम्मी पापा तेरी सारी ज़रूरतें पूरी कर रहे है, तेरा पूरा खर्चा उठा रहे है इसलिए ये सब कह रही है पर जब इस घर की चौखट के बाहर कदम रखेगी तब असली दुनिया से मुलाकात होगी तेरी जहाँ एक अकेली लड़की को कोई चैन से जीने नही देता ..... नोच खाएंगे तूझे इस समाज मे इंसानी रूप मे मौजूद भेड़िया इससे बेहतर है की चुपचाप मम्मी पापा की बात मानकर शादी कर ले और इज़्ज़त से अपने घर चली जा। "

    " अपने घर चली जाऊँ दीदी?....... कौनसे अपने घर चली जाऊँ?...... जब जिस घर मे मेरा जन्म हुआ, जहाँ मैं पली बढ़ी वो घर मेरा अपना न हो सका तो और कौनसा घर मेरा अपना होगा? "

    " लड़की का ससुराल ही उसका अपना घर होता है। हर लड़की को एक न एक दिन शादी करके अपने मायके को छोड़कर जाना ही होता है। तेरे साथ कुछ अलग नही किया जा रहा इसलिए अपना ये नाटक बन्द कर और चुपचाप वो कर जो कहा जा रहा है। "

    " और अगर नही करूँगी तो क्या करेंगे आप लोग?..... मारेंगे मुझे या जबरदस्ती मेरी शादी करवाकर अपने सर का बोझ उतारकर दूसरे के सर पर फेंक देंगे?........ आप मुझे समाज मे मौजूद भेड़ियों से डरा रही है तो उस भेड़िये का क्या जो पति बनकर मुझपर अपना हक जताएगा ?...... क्या उसकी की जबरदस्ती जबरदस्ती नही होगी ?........ "

    " देख मुस्कान मुझे तेरी ये सब बकवास बात नही सुननी है। हर लड़की के साथ ऐसा होता है, अगर तेरे साथ होगा तो कोई नई बात नही है और फिर शादी के बाद ये सब आम बात है। थोड़ा सह लियो हम भी तो सहते है।"

    " नही सह सकती मैं....... मैं नही करूँगी शादी, नही करने दूँगी किसी को अपने साथ जबरदस्ती, इससे अच्छा तो मैं जान दे दूँगी अपनी...... "

    " अगर जान ही देनी थी तो अब तक क्यों नही दी?..... मर जाती पहले ही, इंतज़ार किस बात का कर रही है तू?....... चल मर अभी और ये किस्सा यही खत्म कर दे। तेरे साथ साथ हमारा सर दर्द भी खत्म होगा और मुसीबत टलेगी हमारे सर से। "

    ये बातें मुस्कान और उसकी दोनों बड़ी बहनों के बीच हो रही थी। आखिरी की बात सुनकर मुस्कान सुन्न सी बस अपनी बहन को देखती ही रह गयी । उसकी दोनों बड़ी बहनों मे से एक उसके पास आ गयी और प्यार से समझाते हुए बोली 

    " देख मुस्कान ये सब बेकार की बातें अब बंद कर दे। न तू इस घर से जा सकती है और न ही मर सकती है इसलिए अपनी ज़िद छोड़ दे और हकीकत को स्वीकार कर। इतना अच्छा रिश्ता आया है। हमें तो लगा ही नही था कि उनके तरफ से हा होगी पर तूझे देखने के बाद भी उन्होंने रिश्ते के लिए हा कह दिया है और कोई दहेज भी नही मांग रहे। ....

    तूने ही पहले कहा था न कि अगर कोई लड़का तूझे देखने के बाद भी बिना किसी दहेज के तूझसे शादी करने को तैयार हो जाएगा तो तू शादी कर लेगी तो अब अपनी बात से मत मुकर ..... लड़के वालों ने हाँ कह दी है और दहेज की कोई डिमांड भी नही है इसलिए करले शादी। अगर ये रिश्ता गया तो पता नही पापा को कितने लोगों के आगे गिड़गिड़ाना पड़ेगा तेरे लिए और कितने लाख दहेज देना पड़ेगा तेरे लिए......

    खुद सोच ले तू की हम दोनों सुंदर है फिर भी इतना देहज देना पड़ा तो तेरे लिए कितनी डिमांड होगी और कहाँ से लाएंगे पापा इतने पैसे?..... अगर तेरी शादी नही हुई तो बाकी दोनों का क्या होगा और समाज को कैसे मुह दिखाएंगे मम्मी पापा?...... कितनी बातें सुननी पड़ेंगी उन्हें तेरे वजह से........

    क्या तू यही चाहती है की तेरी इस बेकार की ज़िद के वजह से तेरा परिवार ज़लील हो, तेरे माँ बाप का सर शर्म से झुके? तेरे पापा दहेज और तेरी शादी की चिंता मे घुटते रहे?...... अगर तेरे वजह से उन्हें कुछ हो गया तो कौन ज़िम्मेदार होगा इसका और कौन संभालेगा इस घर परिवार को?....... सेल्फिश बनना छोड़ दे मुस्कान और मम्मी पापा के, अपने परिवार के बारे मे सोच।

    अगर तेरी शादी इस लड़के से हो जाती है तो कितना बड़ा बोझ हल्का हो जाएगा पापा के सर से। वो पैसे जो तेरे लिए इकट्ठे किये है वो बाकी दोनों के काम आएंगे। फिर मैंने जहाँ तक सुना है वो परिवार भी अच्छा है और लड़का तो तूने खुद देखा है कि कितना अच्छा दिखता है, कमाता भी है। तूझसे तो करोड़ों गुना अच्छा है फिर भी उसने तूझे चुना इसे अपनी खुशनसीबी समझ वरना, जल्दी से कोई लड़का तूझसे शादी करने को तैयार नही होगा और अगर होगा तो अच्छी खासी रकम लेगा दहेज मे.....

  • 14. Muskan: Love, Tears and Destiny - Chapter 14

    Words: 1475

    Estimated Reading Time: 9 min

    "क्या चाहती है तू की तेरा दहेज देते देते मम्मी पापा सड़क पा आ जाए?.......... इतनी खुदगर्ज़ मत बन मुस्कान और मान जा शादी के लिए, वैसे भी अब रिश्ता पक्का हो चुका है तो शादी तो होकर ही रहेगी। अगर अब रिश्ता टूटा तो बहुत बदनामी होगी हमारे परिवार की, फिर न तेरी शादी होगी और न ही बाकी दोनों की। मम्मी पापा चिंता मे घुट घुटकर मर जाएंगे और अनाथ हो जाएंगे हम सब। "

    इस इमोशनल ब्लैकमेल के बाद मुस्कान चाहकर भी कुछ कह न सकी। उसने लड़का देखने के लिए जब इंकार किया था तब भी यही हुआ था। परिवार और मम्मी पापा की जान का हवाला देकर उस दिन उसे लड़के वालों के सामने लेकर जाया गया था। मुस्कान कुछ कह न दे इसलिए सिद्धार्थ से उसे बात तक नही करने दी गयी थी।

    फिर भी मुस्कान को पूरी उम्मीद थी उसे रिजेक्ट कर दिया जाएगा पर जब लड़के वालों ने हा कही तो उसने हिम्मत करके सिद्धार्थ को लैटर लिखा पर जब वहाँ से भी नाउम्मीदी हाथ लगी तब जाकर उसने खुदसे शादी के लिए इंकार किया और उसके बाद रोज़ सुबह दोपहर शाम उसे ऐसे ही लैकचर् सुनाया जाने लगा। देखते ही देखते सिद्धार्थ से मुस्कान की शादी हो गयी और वो विदा होकर इस घर चली आई।

    उस दौरान वो जिस मानसिक तनाव से गुज़र रही थी उसी का परिणाम था कि बीटी रात उसका सिद्धार्थ से व्यवहार इतना रूखा था।

    अतीत की यादों मे खोई मुस्कान बीती रात याद आते ही हड़बड़ाहट मे नींद से जाग गयी। उसने गहरी सांस छोड़ी और खुदको शांत करने के बाद अपने आँसुओं को पोंछते हुए कल से सुबह तक के सिद्धार्थ के व्यवहार, रागिनी जी और रावी की बातों के बारे मे सोचने लगी। सब बातों के बारे मे गहराई से सोचने के बाद मुस्कान ने खुदसे ही कहा

    " क्या मैंने आपको गलत समझ लिया?...... क्या आप उन मर्दों जैसे नही जो सिर्फ अपनी पत्नी के जिस्म को पाने कि ख्वाइश रखते है?....... क्या कल आप मेरे साथ कुछ गलत नही करने वाले थे?........ क्या आप उन पतियों जैसे नही जिनके बारे मे मैंने देखा और सुना है?.........

    क्या आप उन लड़कों जैसे नही जो चेहरे और जिस्म की खूबसूरती देखकर अपनी पत्नी का चुनाव करते है?....... कुछ भी तो नही मुझमे फिर क्यों आपने मुझे पसंद कर लिया?......... अगर कल आप कुछ नही करने वाले थे तो वो सब सजावट क्यों थी?....... क्यों आए थे आप मेरे करीब?......... पर अगर आपके इरादे सचमे गलत होते तो मौका था आपके पास......

    मैं तो बेहोश थी, कुछ नही कर पाती खुदको बचाने के लिए, नही रोक पाती आपको....... फिर भी आपने कुछ नही किया मेरे साथ........ आपकी बातों से आप बुरे नही लगते पर क्या कोई लड़का इतना अच्छा हो सकता है?.......

    यहाँ तो लड़के शादी करते ही अपने जिस्म की ज़रूरत को पूरा करने के लिए है फिर कैसे विश्वास करूँ कि आप मेरी मर्ज़ी के बिना कुछ नही करेंगे मेरे साथ?....... शादी के शुरुआती दौर मे तो सब पति अच्छे ही बनकर दिखाते है तो कैसे विश्वास करूँ की आपकी ये अच्छाई दिखावा नही है?........ मुझमे तो कोई खूबी नही तो कैसे विश्वास करूँ इस बात पर कि आपको मैं पसंद आ गयी थी........

    कही आप धोख़ा तो नही देंगे मुझे....... कही मुझ जैसी बदसूरत लड़की से बिना किसी दहेज के शादी करने के पीछे आपका कोई मकसद तो नही?........ सब कहते थे कि कोई मुझसे शादी नही करेगा , बुरे से बुरा लड़का भी रिजेक्ट कर देगा मुझे फिर आप तो अच्छे खासे दिखते है फिर मुझसे ही शादी क्यों की आपने?.......

    आज का वक़्त तो ऐसा है की बीवी सुंदर हो तब भी आदमी बाहर अफेयर चलाते है, मैं तो सुंदर भी नहीं , अगर आपने मुझे धोख़ा दे दिया तो मेरा क्या होगा?..... इतने लोगों को देखा है मैंने फिर आपपर कैसे विश्वास करूँ की आप ताउम्र लॉयल रहेंगे मेरे लिए?.........

    अगर आपकी ये अच्छाई मुझे फंसाने का जाल हुआ ताकि मैं अपनी मर्ज़ी से आपको अपने साथ मनमानी करने दूँ  और फिर आप छोड़ दे मुझे तो क्या करूँगी मैं?......... "

    जाने मुस्कान ने कहाँ से क्या देखा और सुना था  और किसने ये सब बातें उसके मन मे भर दी थी पर ये बातें उसके दिलों दिमाग पर हावी होने लगी थी जो उसे सिद्धार्थ पर विश्वास करने से रोक रहे थे।

    सिद्धार्थ के लिए मुस्कान का विश्वास जीतना बेहद मुश्किल होने वाला था क्योंकि उससे पहले उसे मुस्कान के दिलों दिमाग से इन बातों को निकालना था। जिससे अभी वो खुद अंजान था। मुस्कान ने बहुत सोचने के बाद फैसला किया कि वो इतनी आसानी से सिद्धार्थ पर विश्वास नही करेगी पर बीती रात के अपने व्यवहार के लिए उससे माफी मांग लेगी।

    इन्ही सब मे उलझे कब घडी ने रात के बारह बजा दिये, उसे खुदको मालूम नही चला। दरवाजे पर दस्तक हुई तब जाकर मुस्कान अपने ख्यालों से बाहर आई और निगाहें दरवाजे के तरफ घुमाई तो सारे दिन के थका हारा सिद्धार्थ अंदर आ रहा था। उसे देखते ही मुस्कान झट से उठकर खड़ी हो गयी और उसके थके हुए मुरझाए हुए चेहरे को देखकर बोली "अभी खत्म हुआ है आपका काम? "

    अचानक मुस्कान की आवाज़ सुनकर सिद्धार्थ चौंक गया। उसने निगाहें आवाज़ की दिशा मे घुमाई और सामने खड़ी मुस्कान को देखकर हैरानगी से बोला " आप अब तक जाग क्यों रही है? "

    " वो मम्मी जी ने आपको खाना खिलाने कहा था। आप हाथ मुह धो लीजिये मैं खा ........ " मुस्कान अभी इतना कह ही सकी थी कि सिद्धार्थ ने उसकी बात काटते हुए कहा

    " इसकी कोई ज़रूरत नही है। हमें भूख नही तो आपको आज या आगे कभी भी हमारे लिए परेशान होने की आवश्यकता नही है। जाकर सो जाइये "

    इतना कहकर सिद्धार्थ आगे बढ़ गया फिर कुछ कदम चलने के बाद अचानक ही उसके दिमाग मे कुछ आया और उसके आगे बढ़ते कदम रुक गए। उसने पलटते हुए मुस्कान से सवाल किया "आपने खाना खाया? "

    " मम्मी जी ने कहा था कि आपको अकेले खाना नही पसंद तो मैं आपका इंतज़ार कर रही थी। " मुस्कान ने सकुचाते हुए सच उसे बता दिया। सिद्धार्थ ने उसकी बात सुनकर ठंडी आह्ह् भरी और गंभीरता से बोला

    " आज कर लिया पर दोबारा कभी हमारे लिए भूखे रहने या  मेरा इंतज़ार करने की आवश्यकता नही है आपको। कोई कहे तब भी नही......... "

    सिद्धार्थ का रूखा जवाब सुनकर मुस्कान का चेहरा लटक गया। जिसे देखते हुए सिद्धार्थ ने अब थोड़ा प्यार से कहा  " खाना लगाइये, आता हैं कपड़े बदलकर। "

    साँची ने सर हिला दिया और किचन मे चली आई। उसने खाना गर्म करके, आंगन मे नीचे आसन बिछा दिया सिद्धार्थ के बैठने के लिए और छोटी सी चौकी पर खाने की थाली लाकर रख दी।

    इतने मे सिद्धार्थ भी कपड़े बदलकर आ गया था। वो अपने आसन पर बैठ गया और खाने की पूजा करने मतलब थोड़ा स खाना निकालकर एक तरफ को रखने और अंजुरी मे पानी लेकर चारों तरफ घुमाने के बाद पहला निवाला तोड़ते हुए बोला

    " आप भी खाइये साथ। "

    " नही आप खा लीजिये, मैं बादमे खा लूँगी। "

    मुस्कान ने तूरंत ही इंकार कर दिया। उसका जवाब सुनकर सिद्धार्थ के हाथ हवा मे रुक गए। उसने मुस्कान के तरफ निगाहें उठाते हुए कठोर लहज़े मे कहा

    " साथ बैठकर खाना खाइये, इतने देर भूखे रहना ठीक नही, और चिंता मत कीजिये कुछ नही करूँगा मैं आपके साथ। बस खाना ही खाने को कह रहे है। "

    सिद्धार्थ की बात सुनकर मुस्कान को बीते रात की बात याद आ गयी। वो आगे कुछ कह न सकी और चुपचाप उसके दूसरे तरफ अपनी थाली लेकर ज़मीन पर ही बैठ गयी। ये देखकर सिद्धार्थ ने तूरंत ही उसे टोका

    " ज़मीन पर क्यों बैठी है आप? आसन बिछाकर बैठिये, नही तो चौकी पर बैठ जाइये। "

    " नही मुझे ऐसे ही खाने की आदत है। " इतना कहकर मुस्कान अपना खाना खाने लगी। सिद्धार्थ कुछ पल उसे देखता रहा। जिस तरह से वो जल्दी जल्दी खाना खा रही थी, साफ पता चल रहा था कि कितनी भूखी है वो। कुछ पल खामोशी से मुस्कान को देखने के बाद सिद्धार्थ ने अपना खाना खाते हुए कहा 

    " आगे से अगर मम्मी इंतज़ार करने कहे तो कह दीजियेगा की हमने मना किया है। दोबारा हमारे वजह से भूखे रहने की ज़रूरत नही है आपको । "

    मुस्कान के कानों मे सिद्धार्थ के शब्द पड़े तो उसने निगाहें उठाकर उसे देखा पर सिद्धार्थ का पूरा ध्यान खाने पर देखकर अपना ध्यान भी खाने पर लगा दिया। इसके बाद उनके बीच कोई बात नही हुई। थाली मे जितना था उतना खाकर सिद्धार्थ उठकर खड़ा हो गया और खुदसे जाकर अपनी थाली धो ली। मुस्कान बस उसे देखती ही रह गयी फिर अपनी थाली लेकर किचन मे चली आई।



    Coming soon........


    कैसा लगा आपको आजका भाग और क्या लगता है आपको सिद्धार्थ मुस्कान के मन से उन बातों को मिटाकर उसका विश्वास जीत सकेगा और क्या होगा अब आगे?......

  • 15. Muskan: Love, Tears and Destiny - Chapter 15

    Words: 1693

    Estimated Reading Time: 11 min

    मुस्कान जब बर्तन धोकर रूम में आई तो रूम को खाली देखकर चौंक गई। उसने आस-पास नज़रें घुमाईं, फिर अलमारी से अपने कपड़े लेकर बाथरूम में चली गई।

    कुछ देर बाद कपड़े बदलकर आई और बेड पर बैठकर कुछ देर तक सिद्धार्थ का इंतज़ार करती रही, पर जब वो नहीं आया तो मुस्कान उठकर थोड़ा हिचकिचाते हुए बालकनी की तरफ़ चली आई।

    दरवाज़ा हल्का खुला ही था। मुस्कान ने झाँककर देखा तो रेलिंग के पास सिद्धार्थ खड़ा था। मुस्कान ने कुछ कहना तो चाहा, पर कह न सकी। कुछ संकोच था, तो कुछ शर्मिंदगी और कुछ घबराहट।

    कुछ पल वहीं खड़ी उलझन भरी निगाहों से सिद्धार्थ को देखती रही, फिर वापिस पलंग पर आकर बैठ गई। उबासीयाँ ले रही थी वो और पलकें भी भारी हो रही थीं, पर सो नहीं पा रही थी। पर जब नींद सर पर सवार हो तो भला कितनी देर तक वो खुद को सोने से रोक पाती? बेड का टेक लगाए बैठे-बैठे ही उसकी आँख लग गई।

    कुछ देर बाद सिद्धार्थ कमरे में आया तो नज़रें सीधे बेड पर चली गईं। मुस्कान ब्लैंकेट से खुद को कवर किए बेड के क्राउन से टेक लगाए हुए सो रही थी। चेहरा दूसरे तरफ़ को झुका हुआ था और कुछ लटें उसके गालों पर पड़ी सुस्ता रही थीं। सिद्धार्थ की आँखें लाल थीं।

    वो चाहकर भी कल रात वाली मुस्कान की बातें, उसके लगाए इल्ज़ामों को भुला नहीं पा रहा था। मुस्कान के कहे शब्द तकलीफ़ पहुँचा रहे थे और वो चाहकर भी उसके साथ सामान्य व्यवहार नहीं कर पा रहा था।

    सिद्धार्थ ने मुस्कान को बैठे-बैठे सोते देखा तो चेहरे पर अजीब सी उदासी छा गई। आगे बढ़कर उसने मुस्कान को ठीक से सुलाया और खुद शॉल ओढ़कर वापिस बालकनी में चला आया।

    असल में रूम में सोने के लिए बेड के अलावा कोई इंतज़ाम नहीं था और ब्लैंकेट भी एक ही था और बेड पर मुस्कान के साथ सोने में सिद्धार्थ कतरा रहा था कि कहीं वो गलत न समझ ले उसे।

    आज फिर सिद्धार्थ की सारी रात जागते हुए बीती।


    अगला दिन

    मुस्कान तैयार हो रही थी, तभी सिद्धार्थ ने कमरे में कदम रखा। वो गंगा आरती देखकर आया था अभी। उसने एक नज़र ड्रेसिंग टेबल के सामने खड़ी मुस्कान को देखा, फिर कबर्ड की तरफ़ बढ़ते हुए बोला,

    "माँ कह रही थी कि अच्छे से तैयार हो जाइए। कुछ देर में आपका भाई आपको लेने आने वाला है। आज आपको आपके घर जाना है।"

    सिद्धार्थ की कही ये बात सुनकर मुस्कान के लबों पर व्यंग्य भरी मुस्कान फैल गई। उसने मन में कहा,

    "घर............परिवार..........वाह! कितने अच्छे लगते हैं न ये शब्द सुनने में। शायद कुछ लोगों की ज़िंदगी में बहुत मायने भी रखते हों, पर मेरी किस्मत मुझ पर इतनी मेहरबान कैसे हो सकती थी?.........

    मेरे लिए तो ये शब्द खोखले शब्दों से ज़्यादा कुछ भी नहीं। ऐसे शब्द, जिन्हें जितनी बार सुनूँ, उतना ही ज़्यादा दर्द होता है, एहसास होता है कि कितनी बदकिस्मत हूँ मैं, जिसे परिवार के नाम पर लोग तो मिले, पर उनकी नज़रों में उसकी कभी कोई अहमियत ही नहीं रही।............

    उनके लिए मैं एक नौकर ही तो थी, जिसे पहले उन्होंने जी भरकर इस्तेमाल किया और अब दुनियादारी, ज़िंदगी की सच्चाई का नाम देकर यहाँ फेंक दिया है, ताकि सारी ज़िंदगी वही ज़िंदगी बिताती रहूँ जो पहले जी रही थी।............

    कैसा घर, कैसा परिवार, जो मेरे दर्द को, मेरी खामोशी को कभी समझ नहीं सका, वो कैसा परिवार हुआ? जिन्होंने मेरी मजबूरी, मेरी मायूसी को मेरा घमंड करार दिया हो, कैसा परिवार है वो। जिनके लिए मैं सब करती रही, सिर्फ़ इस आस पर कि वो कभी तो मुझसे भी प्यार करेंगे, पर उनके दिल में कभी जगह बना ही नहीं सकी.........

    कैसा घर परिवार है वो? कैसे माँ-बाप हैं वह, जो अपने ही बच्चों में इतना भेद कर गए, सिर्फ़ इसलिए कि मैं सुंदर नहीं, उन्होंने मुझसे न सिर्फ़ मेरे हक़ को छीना, बल्कि मुझे अपने प्यार से भी महरूम रखा............ जिनके पास कभी मेरी बात सुनने के लिए वक़्त तक नहीं रहा, कैसा परिवार है वह? कहने को भाई भी है और बहन भी, पर मेरा कौन है? कोई भी तो नहीं। वहाँ मुझसे जुड़ा हर रिश्ता मुझसे अपने स्वार्थ की सिद्धि के लिए ही तो जुड़ा था।............

    ना पहले मैं उनके लिए कोई मायने रखती थी और ना ही आज उनकी नज़रों में मेरा कोई वजूद है। मैं नहीं मानती उन्हें अपना परिवार, नहीं है मेरा कोई घर, नहीं है मेरा कोई अपना। आज तक अकेली थी, अब भी अकेली हूँ और मुझे अब किसी की ज़रूरत भी नहीं। सम्भालना सीख लिया है मैंने खुद को, अब न किसी की ज़रूरत है और न ही चाह।

    आप लोग नाम के लिए रिश्ता निभाते हैं तो मेरे तरफ़ से भी अब आपको वही मिलेगा। आज तक सब सहकर भी अपनी ज़िम्मेदारियों को निभाती आई हूँ, क्योंकि आप मुझे इस दुनिया में लाए हैं, आगे भी निभाऊँगी, पर अब कभी आपकी बेटी नहीं बन पाऊँगी, क्योंकि उसे तो आपने खुद अपने ही हाथों से सालों पहले ही मार दिया, बस आपको उसका एहसास आज तक नहीं।

    कोई बात नहीं, कभी तो होगा आपको अपनी गलती का एहसास, पर उस दिन मैं नहीं होऊँगी आपके पास। अब कभी नहीं लौटूँगी मैं, कभी भी नहीं।"

    कबर्ड के पास खड़ा सिद्धार्थ खामोशी से मुस्कान को देख रहा था, जिसके चेहरे पर अजीब सा दर्द, कड़वाहट, रोष, दुःख जैसे भाव उभर आए थे और अपनी ही सोच में गुम थी वह। मुस्कान ने दर्द भरी मुस्कान लबों पर सजाते हुए अपने आँखों में आई नमी को साफ़ किया और वापिस तैयार होने लगी।

    सिद्धार्थ उसे देखते हुए सोच में पड़ गया कि शादी के बाद अपने घर वापिस जाने की बात पर खुश होने के जगह मुस्कान इतनी दुखी क्यों नज़र आ रही थी? मुस्कान की उस खामोश निगाहों और मौन अधरों की भाषा सिद्धार्थ चाहकर भी समझ नहीं पा रहा था।

    कुछ पल वो मुस्कान को देखकर इस उलझी पहेली को सुलझाने की कोशिश करता रहा, फिर कपड़े लेकर बाथरूम में चला गया। जब नहाकर बाहर आया तो मुस्कान कमरे में कहीं नहीं थी। सिद्धार्थ तैयार होकर नीचे पहुँचा तो मुस्कान का भाई गौरव आया हुआ था। सब थे वहाँ और उससे बात कर रहे थे, पर मुस्कान कहीं नज़र नहीं आ रही थी।

    सिद्धार्थ नीचे आया तो गौरव ने आगे बढ़कर उसके चरण स्पर्श कर लिए। सिद्धार्थ ने उसके सर पर हाथ रख दिया और बलदेव जी के पास बैठ गया।

    कुछ देर में मुस्कान सबके लिए चाय लेकर वहाँ पहुँची, पर उसने नज़र उठाकर अपने भाई को देखा तक नहीं और न ही उसके चेहरे पर कोई खुशी ही झलक रही थी।

    सिद्धार्थ को उसे देखकर रागिनी जी की शादी याद आ गई। जब वो पहली बार उन्हें लेने गया था तो रागिनी जी फूले नहीं समा रही थीं, पर मुस्कान को देखकर लग नहीं रहा था कि उसे अपने भाई के आने से ज़रा भी खुशी हुई है।

    मुस्कान ने सबको चाय दिया, इतने में रावी बिस्कुट, नमकीन वग़ैरह ले आई। मुस्कान वापिस किचन में चली गई। चाय के साथ कुछ बातें हुईं, फिर सब नाश्ते के लिए इकट्ठे हो गए। गौरव ने सबके साथ बैठकर नाश्ता किया, उसके बाद सब औरतों ने खाना खाया, फिर आशा जी ने मुस्कान को सामान पैक करने के लिए भेज दिया। मुस्कान भी सर हिलाकर वहाँ से चली गई।

    कुछ देर बाद सिद्धार्थ कमरे में आया तो मुस्कान बैग की चैन बन्द कर रही थी और इस वक़्त उसके चेहरे पर कोई भाव नहीं थे।

    "हो गया सामान पैक?.....आपके निकलने का वक़्त हो गया है, माँ बुला रही है आपको।" सिद्धार्थ की बात सुनकर मुस्कान ने सहमति में सर हिला दिया और जैसे ही बैग उठाने लगी, सिद्धार्थ ने आगे बढ़कर उसके हाथ से बैग ले लिया।

    "हम ले चलते हैं। साड़ी में बैग उठाकर सीढ़ियाँ चढ़ने में तकलीफ़ होगी आपको।"

    अजीब बात थी। आज मुस्कान ने पलटकर कुछ नहीं कहा और चुपचाप बैग छोड़कर आगे बढ़ गई। सिद्धार्थ भी बैग उठाए उसके पीछे-पीछे चल दिया। नई बहु को रीति-रिवाज़ निभाते हुए, ढेर सारी मिठाइयाँ और उपहार देते हुए विदा किया गया। मुस्कान ने सबके पैर छूकर आशीर्वाद लिया और बाहर खड़ी गाड़ी में जाकर बैठ गई।

    सिद्धार्थ ने सामान भी रख दिया, पर मुस्कान ने न तो उसके तरफ़ देखा और न ही उनकी कोई बात हुई। सिद्धार्थ ने जाती हुई मुस्कान को आख़िरी बार देखा, तब भी वो उदास सी खिड़की से बाहर देख रही थी।

    गौरव ने भी सबके पैर छूकर इज़ाज़त ली, जिसके लिए उसे पैसे मिले, फिर वो भी गाड़ी में बैठ गया और गाड़ी आगे बढ़ गई।

    मिश्रा परिवार पीछे छूट गया और मुस्कान एक बार फिर चल पड़ी अपने घर की ओर। उसी घर की ओर, जहाँ से उसकी ज़िंदगी की कड़वी दर्दनाक यादें जुड़ी थीं। उसी परिवार के पास, जिनके शब्दों और व्यवहार ने उसे इतनी बुरी तरह तोड़ दिया था कि अब वो किसी पर विश्वास करने और रिश्ते जोड़ने से भी कतराती है, किसी से जुड़ने से खौफ़ खाती है।

    मुस्कान के जाने के कुछ देर बाद रागिनी जी भी शेखर जी के साथ चली गईं। उनकी सास ने फ़ोन कर-करके उन्हें परेशान किया हुआ था। शादी को इतने दिन हो चुके थे, फिर दोनों की छुट्टियाँ भी ख़त्म हो गई थीं, इसलिए अब उन्हें वापिस जाना था, पर जाते-जाते भी उन्हें सिद्धार्थ और मुस्कान के रिश्ते की चिंता थी। शेखर जी ने तो सिद्धार्थ को समझाया भी, पर रिश्ता मुस्कान और सिद्धार्थ का था, तो संभालना भी उन्हें ही था।

    ख़ैर, अब मिश्रा परिवार में बस वही लोग रह गए थे जो वहाँ रहते थे। बलदेव जी के साथ सिद्धार्थ दुकान के लिए निकल गया और घर में बच गए बस आशा जी और रावी।

    मुस्कान बाय रोड अपने घर जा रही थी। रास्ते में कई बार गौरव ने उससे बात करने की कोशिश की, खाने-पीने के लिए रुकने के लिए पूछा, पर उसने इंकार कर दिया और खामोशी से पीछे छूटते रास्तों को सुनी निगाहों से देखती रही।

    रात के करीब दस बजे गाड़ी उसके घर के बाहर रुकी तो मुस्कान गाड़ी से बाहर निकल गई और अपना बैग भी निकाल लिया। गौरव ने गाड़ी वाले को पैसे दिए और अंदर चला गया।

    मुस्कान अपना बैग उठाए घर की दहलीज़ पर पहुँची और उस दरवाज़े को देखने लगी। अपने घर, जिनकी दीवारों के साथ बहुत सी यादें जुड़ी थीं उसकी।

  • 16. Muskan: Love, Tears and Destiny - Chapter 16

    Words: 1617

    Estimated Reading Time: 10 min

    मुस्कान अपना बैग उठाए घर की दहलीज़ पर पहुँची और उस दरवाज़े को देखने लगी। अपने घर, जिनकी दीवारों के साथ बहुत सी यादें जुड़ी थीं उसकी।

    असल में उसके लिए घर यहाँ रहते लोगों से तो था ही नहीं, क्योंकि वो लोग कभी उसके साथ थे ही नहीं, उसके हिस्से तो इस घर की दीवारें और सामान ही आए थे, जिनसे गहरा लगाव था मुस्कान को। विदाई में भी तो उसकी आँखें बस यही सोचकर छलक आई थीं कि अब उससे उसका घर, ये दीवारें छूट जाएँगी और आज वापिस यहाँ आकर एक बार फिर उसकी आँखों में नमी तैर गई थी।

    उसने काँपते हाथ से उस दरवाज़े को छुआ और आँखों से एक आँसू की बूँद छलक आई। अभी वो इस सुकून को महसूस ही कर रही थी कि उसके कानों में सरिता जी (मुस्कान की मम्मी) की आवाज़ पड़ी, "मुस्कान।"

    आवाज़ सुनकर मुस्कान ने नज़रें घुमाईं, इतने में सरिता जी ने आकर उसे अपने सीने से लगा लिया। मुस्कान ने न तो बदले में उन्हें पकड़ा और न ही कुछ खास रिएक्ट किया। बुत बनी खड़ी, पीछे कुछ कदमों की दूरी पर खड़े अपने पापा को देखते हुए मन ही मन सोचने लगी,

    "कहते हैं इंसान जिससे सबसे ज़्यादा प्यार करता है, हर्ट भी सबसे ज़्यादा उसे उसी की बातें करती है, जब नफ़रत होती है तो सबसे ज़्यादा उसी से होती है और दर्द भी सबसे ज़्यादा उसी की बेरुख़ी देती है, क्योंकि हम सबसे ज़्यादा उन्हीं से जुड़े होते हैं, उनसे कुछ आकांक्षाएँ, उम्मीदें बाँध लेते हैं जो जब टूटती हैं तो अपने साथ-साथ हमें भी तोड़ जाती हैं।............

    एक वक़्त था जब मैं भी आपसे सबसे ज़्यादा प्यार करती थी, पर आपने तो मुझे खुद से ही नफ़रत करने पर मजबूर कर दिया। मैंने आपसे जुड़े रिश्ते को अपने दिल में बसाया, आपने मेरे उसी दिल को टुकड़ों में तोड़ दिया। मैंने आपको अपनी नज़रों में सबसे ऊँचा दर्ज़ा दिया, भगवान के बाद आपको आदर दिया, पर आपने तो मुझे अपनी ही नज़रों में इतना गिरा दिया कि मुझे खुद से नज़रें मिलाने में घिन आने लगी है।.........

    मैंने तो सुना था कि बच्चे में चाहे लाख बुराई क्यों न हो, पर माँ-बाप के लिए उनकी औलाद दुनिया में सबसे अच्छी होती है, पर आप लोगों के लिए तो मैं दुनिया की सबसे बुरी बेटी, सबसे बुरी इंसान और सबसे ज़्यादा बदसूरत लड़की थी, जो लाख कोशिश करने के बाद भी कभी इस लायक न बन सकी कि आपका थोड़ा सा प्यार मिल सके उसे।.........

    मेरी हर अच्छाई को आपने सिरे से नकार दिया, दिखी तो बस मेरी गंदी सूरत, छोटी हाइट, आपके बाकी बच्चों से कम हँसने-बोलने की आदत।......... मेरी खामोशी को हर बार मेरा घमंड करार दिया गया, पर कभी ये समझने की कोशिश क्यों नहीं की गई कि अगर मैंने खामोशी की चादर ओढ़ी तो क्यों ओढ़ी? आपने कभी मुझे प्यार नहीं दिया.........।

    जिस इंसान को उसके घर में कोई इज़्ज़त नहीं मिली, वो गैरों से सम्मान की उम्मीद रखे तो कैसे? जिसे उसे जन्म देने वाले माँ-बाप प्यार का एक कतरा तक न दे सकें, वो किसी और के प्यार पर, भरोसा करे तो कैसे?......जिसके खुद के माँ-बाप ने उसमें सिर्फ़ कमियाँ देखीं, वो किसी और से उसकी खूबियों को देखने की आकांक्षा रखे तो कैसे?......... आप लोगों को तो अंदाज़ा भी नहीं कि आपने क्या से क्या बना दिया है मुझे......... आज बहुत प्यार आ रहा है आपको मुझ पर, या शायद ये सब बस दिखावा है.........

    जानती हूँ, आज भी अगर मैं आपसे अपने दिल की बात कहूँ तो आपको मैं गलत लगूँगी, हमेशा मैं ही तो गलत होती हूँ, गलती है मेरी कि मैं आपके बाकी बच्चों की तरह सुंदर नहीं हूँ, उनके तरह अच्छी किस्मत लेकर नहीं जन्मी। आपकी उम्मीदों पर चाहते हुए भी खरी नहीं उतर सकी। सब मेरी ही गलती है।.........

    पर क्यों आपने मुझे समझने की कोशिश नहीं की?....... क्यों बना दिया मुझे ऐसा?....... आज मुझे अपने ही वजूद से नफ़रत हो गई है। क्यों इस कदर तोड़ दिया मुझे कि अब चाहकर भी खुद को समेट नहीं पा रही? क्यों इतना धुतकारा मुझे कि अब इस हक़ीक़त पर विश्वास नहीं होता कि कोई मुझे भी चाह सकता है?....... क्यों हर बार मेरे प्यार को ठुकराकर, मेरे नज़रों में प्यार को एक धोखा बना दिया?....... आज आप लोगों का प्यार भी मुझे बस छलावा लग रहा है, या शायद ये छलावा ही है।

    शादी तो करवा दी आपने मेरी.....अब तो आपके सर का बोझ उतर गया.....जैसे आप व्याकुल थे मुझे इस घर से भगाने के लिए, दोबारा बुलाने का मन तो नहीं किया होगा आपका, पर अपनी इज़्ज़त बनाए रखने के लिए मुझे बुलाकर अब प्यार ज़ाहिर करने का दिखावा किया जा रहा है। वैसे मैं पूछना चाहूँगी कि अपने बेटे को क्या कहकर वहाँ भेजा आपने?.......

    पहले तो कहते थे कि जैसे मेरे लक्षण हैं, वो मेरे ससुराल में कदम भी नहीं रखेगा, मरती रहूँगी वहाँ पर लेने नहीं आएगा मुझे और आप भी दोबारा पलटकर मेरे तरफ़ नहीं देखेंगे, कभी दोबारा नहीं बुलाएँगे, फिर आज क्यों बुला लिया मुझे?........इज़्ज़त बचा रहे हैं अपनी?......हाँ, ये इज़्ज़त ही तो सब कुछ है आपके लिए, इसी इज़्ज़त के लिए तो मेरी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ शादी करवा दी मेरी।"

    ये सब सोचते हुए मुस्कान की आँखें भर आईं। कई पुरानी दर्द भरी यादें आज फिर ज़हन में ताज़ा हो गईं और उसने मनीष जी पर से निगाहें फेर लीं। आँसुओं को आँखों में ही सुखा लिया। कुछ देर बाद सरिता जी उससे अलग हुईं और उसके गाल को छूते हुए बोलीं,

    "कैसी है?......वहाँ सब कैसे हैं?......अच्छे से व्यवहार करते हैं न तेरे साथ?"

    "क्यों, नहीं करेंगे तो मुझे वापिस यहाँ बुला लेंगी आप?......पर यहाँ कौन सा मुझे सर आँखों पर बिठाकर रखा जाता था? फिर मैं तो बोझ थी आप पर। उतारकर फेंक दिया मुझे किसी और के सर, फिर अब ये सवाल क्यों?.......जैसे भी रहूँ, अब रहना तो वही है तो रह लूँगी। जैसे यहाँ दिन काटती थी, वहाँ भी काट ही लूँगी। आपको चिंता करने की ज़रूरत नहीं।"

    मुस्कान ने बिना किसी भाव के जवाब दिया और आगे बढ़कर मनीष जी के चरण स्पर्श कर लिए। उसने अंदर घर में कदम तक नहीं रखा और चुपचाप अपना बैग उठाए सीढ़ियों की तरफ़ बढ़ने लगी, पर अभी उसने एक कदम आगे बढ़ाया ही था कि उसके कानों में दो जानी-पहचानी सी आवाज़ें पड़ीं,

    "मुस्कान दीदी।"

    आवाज़ सुनकर मुस्कान ने पलटकर देखा तो उसकी दोनों छोटी बहनें वहाँ खड़ी थीं। उन्हें देखकर भी मुस्कान के चेहरे पर कोई भाव न आ सके। जब वे दोनों मुस्कान को देखकर बड़ी खुश हुईं और आगे बढ़कर उसके गले से लगते हुए बोलीं,

    "हमने आपको बहुत मिस किया।"

    "अच्छा..." मुस्कान ने बस इतना ही कहा और उन्हें देखने लगी।

    "हाँ, हमने आपको बहुत मिस किया। पता है आपके जाने के बाद कोई हमारी बात ही नहीं सुनता था। माँ की डाँट से भी कोई नहीं बचाता और सब काम भी अकेले करना पड़ता था।"

    "हाँ, दीदी आपके बिना हम दोनों बिलकुल अकेले हो गए थे। कोई भी नहीं था जिससे बात कर सकें, जो हमारे हिस्से का काम करके मम्मी की डाँट से हमें बचाए। हमारे लिए उनसे लड़े...."

    दोनों लड़कियाँ मुँह फुलाए मुस्कान को देखने लगीं। मुस्कान के चेहरे पर अजीब सी उदासी छा गई और लबों पर दर्द भरी मुस्कान फैल गई। उसने दर्द भरी आह् भरी और दोनों के गालों को प्यार से छूकर बोली,

    "अब आदत डाल लो इस अकेलेपन की, क्योंकि अब मैं यहाँ नहीं रहूँगी तुम्हारी गलतियाँ छुपाने के लिए, तुम्हें मम्मी की डाँट से बचाने के लिए और तुम्हारी बातें सुनने के लिए। मेहमान बनकर आई हूँ मैं यहाँ और कुछ दिनों में वापिस चली जाऊँगी।"

    मुस्कान ने दोनों के गालों को सहलाया और बैग लेकर सीढ़ियाँ चढ़ने लगी। मुस्कान का जवाब सुनकर सरिता जी का मुँह लटक गया था। कुछ उदास नज़र आने लगी थी वह। उन्होंने मुस्कान को जाते देखकर मुस्कुराकर कहा,

    "मुस्कान बेटा जल्दी से कपड़े बदलकर आ जा, आज तेरी पसंद का खाना बनाया है।"

    मुस्कान के कानों में जब उनके शब्द पड़े तो एक पल को उसके कदम ठिठक गए। अगले ही पल वो सीढ़ियाँ पार करते हुए अपने कमरे में चली आई, जहाँ वो तीनों बहनें साथ सोती थीं।

    मुस्कान ने बैग साइड में रखा और पूरे रूम में नज़रें घुमाईं तो उससे जुड़ी सभी चीज़ें वहाँ से हटाई जा चुकी थीं और उसकी बहनों ने कमरे को अपने हिसाब से सजा लिया था। मुस्कान कमरे को देखकर मुस्कुराई, फिर अलमारी के कोने में रखे अपने दो जोड़ी कपड़ों में से एक जोड़ा निकालकर बाथरूम में चली गई।

    कुछ देर बाद वो प्लाज़ो और टीशर्ट पहनकर बाहर आई। बड़े दिनों बाद अपने असली अवतार में लौटकर काफ़ी बेहतर महसूस कर रही थी वह। उसने गहरी साँस छोड़ी और कदम नीचे की तरफ़ बढ़ा दिए। नीचे के रूम में बेड पर उसके पापा और भाई बैठकर खाना खा रहे थे। उसकी बहनें खाना लेकर बैठी थीं, पर अभी खा नहीं रही थीं।

    असल में शादी से पहले तक रात का खाना तीनों साथ ही खाती थीं, इसलिए शायद वो मुस्कान का ही इंतज़ार कर रही थीं। मुस्कान उन्हें देखकर मुस्कुराई, पर ये मुस्कान कितनी सच्ची थी और कितनी झूठी, ये तो बस वही जानती थी। मुस्कान उनके साथ ही बैठ गई और जब उसने खाने को देखा तो उसकी वो मुस्कान भी जाती रही।

    कानों में कुछ देर पहले के कहे सरिता जी के शब्द गूँज उठे कि आज उन्होंने उसकी पसंद का खाना बनाया है, पर ताज्जुब की बात थी कि अपनी पसंद का खाना देखकर मुस्कान के लबों पर गहरी खामोशी, चेहरे पर अनकहा सा दर्द और आँखों में अजीब सी उदासी झलकने लगी।



    Coming soon.........


    क्या बना है खाने में जिसे देखकर मुस्कान उदास हो गई और आख़िर क्या हुआ है यहाँ उसके साथ? इस घर से जुड़े हर इंसान के लिए उसके मन में इतनी कड़वाहट, निराशा भरी है?......

  • 17. Muskan: Love, Tears and Destiny - Chapter 17

    Words: 1506

    Estimated Reading Time: 10 min

    मुस्कान के पापा और भाई पलंग पर बैठे थे और खाना शुरू कर चुके थे। सरिता जी एक तरफ बैठी थी और उन्हें देख रही थी ताकि कुछ कम पड़ने पर लाकर दे सके। उसकी दोनों बहनें खाना लेकर बैठी उसका इंतज़ार कर रही थीं।

    मुस्कान उन्हें देखकर मुस्कुराई, पर ये मुस्कान कितनी सच्ची थी और कितनी झूठी, ये तो बस वही जानती थी। मुस्कान उनके साथ ही बैठ गई और जब उसने खाने को देखा तो उसकी वो मुस्कुराहट भी जाती रही। कानों में कुछ देर पहले के कहे सरिता जी के शब्द गूंज उठे कि आज उन्होंने उसकी पसंद का खाना बनाया है, पर ताज्जुब की बात थी कि अपनी पसंद का खाना देखकर मुस्कान के लबों पर गहरी खामोशी, चेहरे पर अनकहा सा दर्द और आँखों में अजीब सी उदासी झलकने लगी।

    सामने थाली में पुड़ियाँ, कटोरे में शाही पनीर की सब्जी और साइड में एक कटोरे में खीर रखी हुई थी। मुस्कान ने पहले खाना देखा, फिर एक नज़र सरिता जी को देखने के बाद खाना शुरू कर दिया।

    मुश्किल से चार पुड़ियाँ खाई थी उसने और फिर उठकर खड़ी हो गई। ये देखकर सरिता जी ने तुरंत ही सवाल किया,

    "उठ क्यों गई?...... खाना अच्छा नहीं बना क्या?"

    "नहीं, बहुत अच्छा बना है। पेट के साथ साथ मन भी भर गया मेरा।"

    मुस्कान ने फीकी मुस्कान सजाते हुए जवाब दिया। सरिता जी ने अब खीर की भरी कटोरी को देखते हुए सवाल किया, "तूने तो खीर छुई भी नहीं। तुझे तो पसंद है, ना?"

    उनके इस सवाल पर मुस्कान कुछ पल खामोशी से उन्हें देखती रही। उसकी उन सुनि आँखों में मौन शिकायत थी, जिसे समझना यहाँ किसी के लिए भी संभव न हो सका। कुछ पल बाद उसने अपनी खामोशी तोड़ी और बिना किसी भाव के बोली, "मुझे खीर नहीं पसंद माँ।"

    मुस्कान की बात सुनकर सरिता जी चौंकते गयी, "ये क्या कह रही है तू?..... खीर नहीं पसंद तुझे?..... पहले तो तू कटोरी भर, भरकर खाती थी।"

    मुस्कान के लब बेबसी से मुस्कुरा उठे, "अच्छा, ज़रा याद करके मुझे भी ऐसा एक दिन बता दीजिए जब मैंने कटोरी भर, भरकर खीर खाई हो, क्योंकि जहाँ तक मुझे याद है, मैंने तो कभी खीर की तरफ़ निगाहें उठाकर देखा तक नहीं, खाना तो बहुत दूर की बात है।"

    सरिता जी ने अपने दिमाग पर ज़ोर डाला, फिर कुछ पल सोचने के बाद मायूसी से बोलीं, "लगता है, मैं ही भूल गई।"

    "नहीं माँ, भूली नहीं है आप, इसलिए झूठ मत कहिए। सच्चाई को स्वीकार कीजिए कि आपको मेरे पसंद, नापसंद के बारे में कुछ पता ही नहीं है। अगर पता होता तो मेरी पसंद बताकर मुझे पनीर की सब्जी न खिलाती, जो मुझे ज़रा भी पसंद नहीं। खीर न देती मुझे, जिसे मैं देखना भी पसंद नहीं करती।"

    "तूने कभी बताया ही नहीं तो कैसे पता चलेगा मुझे?" सरिता जी ने अपना बचाव करने की कोशिश की और गलती मुस्कान पर थोप दी। ये देखकर मुस्कान के लबों पर दर्द भरी मुस्कान फैल गई।

    "हाँ, यहाँ भी मेरी ही गलती है कि मैंने आपको कभी बताया नहीं, पर क्या आपने कभी जानने की कोशिश की? क्या आपको कभी सुनाई दी मेरी आवाज़? आज आप कह रही हैं कि मैंने आपको कभी बताया नहीं अपनी पसंद, नापसंद, पर सच तो ये है कि आपको कभी ये जानने में दिलचस्पी ही नहीं रही, कभी आपने ये जानने की कोशिश ही नहीं की, कभी मुझ पर ध्यान ही नहीं दिया, क्योंकि मैं कभी आपके लिए अहमियत ही नहीं रखती थी।..............

    आप कह रही हैं कि मैंने आपको कभी बताया नहीं, पर सच तो ये है कि मैंने कितनी बार ये बात चीख, चीखकर कही है, इसकी कोई गिनती ही नहीं, पर आपको कभी मेरी आवाज़ सुनाई ही नहीं दी। आपके लिए तो मैं सब खा लेती हूँ, ज़रूरी तो बाकी सब और आपका बेटा है। वो इम्पॉर्टेन्ट है आपके लिए, उस पर पूरा ध्यान रहता है आपका, तभी तो आज भी सब उसकी पसंद का बना है।"

    मुस्कान के शब्दों में अनकहा सा दर्द झलक रहा था और चेहरे पर नाराज़गी के भाव मौजूद थे। उसने कम शब्दों में आज सरिता जी को आईना दिखा दिया था, पर हकीकत भला किसे रास आती है और जब बच्चा आपको गलत ठहरा रहा हो, तब तो वो बात आपसे बिल्कुल बर्दाश्त ही नहीं होती, क्योंकि आप तो कभी गलत होते ही नहीं। सारी गलती हमेशा बच्चे की होती है।

    मुस्कान की बातों का जवाब देने में खुद को असमर्थ पाकर अब सरिता जी ने बचाव के लिए मनीष जी से गुहार लगाई और बेचारगी से बोलीं,

    "देखिए जी, ये कैसी बातें कर रही है?"

    "सब तेरा ही किया धरा है। कहा था मैंने इतना पढ़ाने, लिखाने की कोई ज़रूरत नहीं है। देख ले पढ़ाई का नतीजा, कितनी बदतमीज़ हो गई है, अपने माँ, बाप से ज़ुबान लड़ा रही है। कहा था मैंने कि मत कर इसके लिए इतनी मेहनत। अब देख ले कैसे बोल रही है तुझे.......... भगवान जाने वहाँ ससुराल में क्या करती होगी। जैसा इसका बगावती रवैया है, देख लियो तू, रोज़ इसके ससुराल से इसकी शिकायत आएगी कि कैसे संस्कार दिए हैं अपनी बेटी को।"

    हमेशा की तरह मनीष जी मुस्कान के ससुराल के नाम का ताना मार रहे थे और आदतन आज भी उसकी पढ़ाई को उसके इस तरह के रूखे रवैये का ज़िम्मेदार ठहरा रहे थे। या शायद अपने गुनाहों का ठीकरा उसकी पढ़ाई के नाम फोड़कर खुद को अपने निर्दोष होने का विश्वास दिला रहे थे।

    उनकी बात सुनकर मुस्कान ने व्यंग्य भरी मुस्कान लबों पर सजाकर उन्हें देखा,

    "यही मैं सोच रही थी कि अब तक आपने मेरी पढ़ाई के लिए ताना क्यों नहीं मारा? बिल्कुल सही कहा आपने पापा, सब दोष मेरी पढ़ाई का है, उसके वजह से ही आज मैं ऐसी हूँ, पर अब आपको मेरी चिंता करने की ज़रूरत नहीं है, क्योंकि शादी हो गई है अब मेरी और वैसे तो मैं मर जाऊँगी, पर कभी ऐसी नौबत नहीं आने दूँगी कि मेरी शिकायत आपके पास आए, फिर भी अगर कभी उन लोगों ने कभी मेरी शिकायत करने के लिए आपको फोन किया तो साफ़, साफ़ कह दीजिएगा उन्हें कि मैं आपकी नहीं सुनती। एक नंबर की बदतमीज़ और बिगड़ैल बेटी है आपकी, उसे अगर कोई संभाल सकता है तो वो वो खुद है, इसलिए जो भी कहना है मुझसे कहे।"

    मुस्कान ने एक साँस में अपनी बात कही और गुस्से में वहाँ से चली गई। सब अचंभित से उसे देखते ही रह गए। शायद पहली बार उसने अपनी खामोशी तोड़कर कुछ कहा था, जिसे सुनकर सभी हैरान रह गए थे।

    यहाँ से निकलकर मुस्कान सीधे छत पर पहुँची और वहाँ कदम रखते ही अब तक जो आँसू उसने अपनी आँखों में कैद किए हुए थे, वो हर बाँध तोड़कर ज़िद्दी धाराओं जैसे उसकी आँखों से बह निकले।

    कहने को तो ये बहुत छोटी सी बात लगेगी कुछ लोगों को, पर उस इंसान से पूछिए कि जब एक घर में इतने सालों तक रहने के बाद जब उसकी माँ को उनके हर बच्चे की पसंद, नापसंद पता होती है, बस उसके बारे में कुछ नहीं पता होता तो कितना दुख होता है और असल में दुख इस बात का नहीं होता कि तुम्हारे माँ, बाप को तुम्हारे पसंद, नापसंद के बारे में नहीं पता।

    असल में दुख इस बात का होता है कि सिर्फ़ आप पर ही कभी ध्यान नहीं दिया गया, आपकी पसंद, नापसंद की कभी उनके लिए कोई अहमियत ही नहीं रही, आपके माँ, बाप इतना भी नहीं जानते आपके बारे में, बोलने के बाद उन्हें कुछ नहीं मालूम, जिसका सीधा सा इशारा इस ओर है कि आपकी उनकी नज़रों में कोई अहमियत ही नहीं।

    मुस्कान को भी यही बात चुभ रही थी कि उसका नाम लेकर सब कुछ गौरव की पसंद का बनाया गया। मुस्कान की आँखों के आँसू आज रुकने का नाम नहीं ले रहे थे। उसने भीगी निगाहों से आकाश को देखा और रुँधे गले से बोली,

    "कभी आपसे किसी चीज़ की शिकायत नहीं करती। आपका दिया हर दर्द खामोशी से सह जाती हूँ, आपके हर फैसले को सर झुकाकर स्वीकार कर लेती हूँ, फिर क्यों हर बार आप मेरे दर्द में इज़ाफ़ा कर देते हैं? मैं तो किसी से कोई उम्मीद ही नहीं रखती, फिर क्यों हर बार आप मेरे ज़ख्मों को नासूर बना देते हैं? क्यों मुझे चैन से जीने नहीं देते?"

    मुस्कान ने एक गहरी साँस छोड़ी और अपने आँसुओं को पोंछ लिया। काफ़ी देर तक अकेली छत पर खड़ी सुनी निगाहों से आकाश को देखती रही, फिर कमरे में जाकर आँखें बंद करके लेट गई। नींद तो आँखों से कोसों दूर थी, पर आँखें बंद करके वो पड़ी रही।

    दूसरे तरफ़ सारे दिन का थका, हारा सिद्धार्थ जब शाम को कमरे में गया तो ऐसा लगा जैसे कमरा एकदम वीरान हो गया हो। जैसे मुस्कान के साथ उस कमरे की आत्मा भी चली गई हो। अब तो बस बेजान सी चार दीवारें रह गई थीं, जो नाराज़गी से मुँह फुलाए खड़ी थीं।

    सिद्धार्थ ने ठंडी आह्ह छोड़ी और कपड़े लेकर बाथरूम में चला गया। कुछ देर में डिनर किया, फिर छत पर चला आया और मुस्कान के बारे में सोचते हुए घाट और दूर, दूर तक फैली गंगा की धारा को देखने लगा।



    To be continued…

  • 18. Muskan: Love, Tears and Destiny - Chapter 18

    Words: 1313

    Estimated Reading Time: 8 min

    मुस्कान को घर गए एक हफ्ता हो गया था। इन दिनों उसकी आशा जी, रावी और राधिका जी से तो बात हुई, पर सिद्धार्थ से एक बार भी बात नहीं हुई। वो अपने ही घर में कैदी सा महसूस कर रही थी। वहाँ जितनी घुटन उसे महसूस हो रही थी, उससे ज़्यादा बेहतर उसे बनारस में महसूस होता था।

    इन दिनों मनीष जी के हमेशा वाले ताने चालू थे। मुस्कान ने एक बार फिर खामोशी अख्तियार कर ली थी। उसका मानना था कि बैठकर नहीं खाना तो अपने सब काम भी संभाल लिए थे उसने।

    सरिता जी उसे ससुराल से जुड़े ज्ञान देती रहती थीं, जिसमें मुस्कान को रत्ती भर दिलचस्पी नहीं होती थी, पर वो सब खामोशी से सुनती। उसकी दीदियाँ भी ज्ञान पेल जातीं।

    मनीष जी के साथ गौरव भी मुस्कान को ताने मारने में पीछे नहीं रहता था। आज शाम को किसी बात पर गौरव ने मुस्कान के साथ बदतमीज़ी की तो मुस्कान ने भी करारा जवाब दिया। बात हाथापाई पर उतर आई, गौरव ने मुस्कान पर हाथ उठाया, पर मुस्कान ने उल्टा उसे ही ज़ोरदार चमाचा जड़ दिया।

    बस इसके बाद क्या होना था? जब तक गौरव मुस्कान पर हावी पड़ रहा था, सरिता जी खामोशी से सब देखती रहीं और जैसे ही गौरव पिटा, वो और मनीष जी तुरंत उसके बचाव में आ खड़े हुए। गौरव को वहाँ से डाँट, फटकार कर भगाया गया, पर साथ ही दोनों ने सारा ब्लेम हमेशा की तरह मुस्कान पर डालकर उसे खूब सुनाया।

    असल में ये कोई आज की बात नहीं थी, बल्कि रोज़ का यही था। पाँच लड़कियों के बाद बड़ी ही मन्नतों पर उनका एक बेटा हुआ था, इसलिए शुरू से उसे सर पर चढ़ाकर रखा गया, जिसका असर ये हुआ कि वो सर पर चढ़कर तांडव करने लगा।

    उसकी हर गलती को सही कहकर क्षय दिया जाता, जिसके वजह से वो दिन, ब, दिन बिगड़ता ही चला गया, पर आइरनी ये थी कि उसके माँ, बाप को वो कभी गलत लगता ही नहीं था। उनके प्यार के ओवरडोज़ और साथ के वजह से गौरव के अंदर अभी से मैंस इगो कूट, कूटकर भर चुका था। अपने आगे वो किसी को कुछ नहीं समझता था।

    माँ, बाप, बड़ी बहनों से बदतमीज़ी, उन पर हाथ उठाना, लड़ाई करना सब आम बात हो गई थी। वो चौड़े में कहता कि ये घर उसका है, क्योंकि यही सिखाया गया था उसे। शायद ज़्यादातर लड़के जो लड़कियों के बाद होते हैं और जिन्हें पूरे खानदान के लोग सर पर बिठाकर पूजते हैं, वे ऐसे ही होते हैं।

    खैर, गौरव के हाथ को तो मुस्कान ने रोक दिया, पर गौरव के हाथ उठाने पर भी सरिता जी और मनीष जी ने उसे कुछ नहीं कहा, उल्टा मुस्कान को सुना दिया। ये बात उसके बर्दाश्त से बाहर चली गई। आँखों में आँसू भरे थे, पर उसने उन्हें बाहर नहीं आने दिया और छत पर जाकर इतने दिनों में पहली बार सिद्धार्थ को फोन लगा दिया।

    सिद्धार्थ तब दुकान पर ही था। मुस्कान को तो रावी ने सिद्धार्थ का नंबर सेंड कर दिया था, पर सिद्धार्थ के पास अब तक भी मुस्कान का नंबर नहीं था। इसलिए जब अनजान नंबर से फोन आया तो उसने काम में व्यस्त होने के कारण फोन नहीं उठाया।

    कुछ देर बाद एक नोटिफिकेशन के साथ स्क्रीन पर एक मैसेज शो हुआ, जिसने सिद्धार्थ का ध्यान अपने तरफ़ खींचा। उसी अनजान नंबर से एक मैसेज आया था। सिद्धार्थ ने मैसेज पर टैप किया तो पूरा मैसेज खुलकर उसके सामने आ गया,

    "मुझे लेने आ जाइए।"

    बस इतना ही लिखा था उस मैसेज में। पहले तो सिद्धार्थ समझ नहीं सका कि आखिर ये भेजा किसने और क्यों, फिर अचानक ही उसके दिमाग में मुस्कान का ख्याल आया और बिना एक पल गँवाए उसने उस नंबर पर कॉल लगा दिया।

    मुस्कान ने गहरी साँस छोड़ी और कॉल रिसीव कर लिया, पर दोनों में से कोई कुछ कह नहीं सका। कुछ पल उनके दरमियाँ गहरी खामोशी छाई रही, फिर सिद्धार्थ ने ही बात शुरू की,

    "साँची।" शायद सिद्धार्थ अपने शक को कन्फर्म कर रहा था। जाने उसकी आवाज़ में ऐसा क्या था कि उसके पुकारने पर मुस्कान की आँखें नम हो गईं। मुँह से धीमी सी आवाज़ निकली,

    "जी।"

    उसके कन्फर्मेशन के बाद सिद्धार्थ ने धड़कते दिल के साथ आगे बढ़ा, "साँची, अभी आपने मैसेज किया हमें कि हम आपको लेने आ जाएँ?"

    मुस्कान के लिए खुद को संभालना मुश्किल होता जा रहा था। उसने किसी तरह अपने आँसुओं को खुद में जब्त करते हुए जवाब दिया,

    "एक हफ्ता हो गया मुझे यहाँ रहते हुए, अब आकर मुझे ले जाइए यहाँ से, please......"

    इस अनुरोध में एक दर्द था, जिसे महसूस करते हुए सिद्धार्थ व्याकुल हो उठा और चिंता भरे स्वर में बोला, "साँची, वहाँ सब ठीक तो है?....... आप ठीक हैं?"

    "जी........ बहुत दिन हो गए यहाँ आए हुए और शादी के बाद लड़की का असली घर उसका ससुराल ही होता है। ज़्यादा दिन यहाँ रहूँगी तो लोग बातें बनाने लगेंगे, इसलिए कह रही हूँ कि अब मुझे वापस ले जाइए।"

    सिद्धार्थ कुछ पल खामोश रह गया, फिर गहरी साँस छोड़ते हुए बोला, "हम आज ही माँ से बात करते हैं। आप अपना ध्यान रखिएगा।"

    "मैं इंतज़ार करूँगी आपका।" कुछ पल की खामोशी के बाद दूसरे तरफ़ से मुस्कान की आवाज़ आई और फ़ोन कट गया।

    शादी के बाद ये पहली बार था जब उनकी चंद बातें शांति से हुई थीं। मुस्कान ने तो फ़ोन काट दिया, पर उसका अचानक फ़ोन आया और लेने आने को कहना सिद्धार्थ के मन में खटक गया।

    जाने से पहले भी मुस्कान कुछ उदास थी और आज उसकी आवाज़ में अनकहा सा दर्द झलक रहा था, जिसे सिद्धार्थ ने बखूबी महसूस किया था और अब उसका मन व्याकुल था। उसने बिना एक पल गँवाए आशा जी को फ़ोन लगा दिया।

    आज की रात सिद्धार्थ की बेचैनी से बीती, वही मुस्कान ने खाना तक नहीं खाया। आधी रात तक छत पर बैठी रही, जबकि ठंड बहुत थी, फिर नीचे आकर सो गई।

    अगले दिन सबके लिए सब ठीक हो गया था। सब ऐसे नॉर्मल बिहेव कर रहे थे, जैसे कुछ हुआ ही नहीं। मुस्कान ने हमेशा वाली गहरी खामोशी अख्तियार कर ली थी, पर आज इस खामोशी में उसका गुस्सा झलक रहा था। उसने सुबह से अपने मम्मी, पापा से बात तक नहीं की थी। उनके किसी बात का जवाब भी नहीं दे रही थी, बस चुप सी अपने काम करके वापस अपने कमरे में चली गई।

    गौरव से जब, जब उसका सामना हुआ, मुस्कान का गुस्सा उसके सर पर हावी होने लगा, पर उसने उसे भी कुछ नहीं कहा।

    दोपहर का वक़्त था जब दरवाजे पर किसी ने दस्तक दी। अंदर घर में मुस्कान की दोनों बहनें बैठकर टीवी देख रही थीं। सरिता जी पड़ोसी के घर गई थीं। मनीष जी दुकान पर थे और गौरव स्कूल गया था। मुस्कान किचन में थी और लंच बना रही थी।

    दरवाजे पर दस्तक हुई तो मुस्कान किचन से ही चिल्लाई, "पूजा, देख तो सही कौन है?"

    पूजा तुरंत घर से निकलकर बाहर आई और दरवाज़ा खोला तो सामने खड़े सिद्धार्थ को देखकर चौंक गई। उसने झट से हाथ जोड़कर उसे नमस्ते किया, फिर किचन की तरफ़ देखते हुए तेज़ आवाज़ में बोली,

    "मुस्कान दी, जीजू आए हैं।"

    मुस्कान के कानों में जब उसके शब्द पड़े तो उसने बेफ़िक्री से अगला भाग सवाल किया,

    "कौन से जीजू आ गए अब?"

    "आपके वाले जीजू आए हैं, मतलब सिद्धार्थ जीजू आए हैं।" पूजा ने सिद्धार्थ को देखते हुए जवाब दिया। मुस्कान ने जब उसका जवाब सुना तो उसे अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ। उसने तुरंत किचन का पर्दा हटाया और बाहर आते हुए बोली,

    "बेवकूफ़ बनाने को भी तुझे मैं ही मिली?.......वो यहाँ क...........।"

    मुस्कान की नज़र जैसे ही गेट पर खड़े सिद्धार्थ पर पड़ी, उसके आगे के शब्द उसके मुँह में अटककर रह गए और आँखों की पुतलियाँ हैरानी से फैल गईं। मुँह भी खुला का खुला रह गया।

    कुछ ऐसा ही हाल सिद्धार्थ का भी था। वो भी आँखें बड़ी, बड़ी किए सामने खड़ी मुस्कान को देखने लगा था।

  • 19. Muskan: Love, Tears and Destiny - Chapter 19

    Words: 1495

    Estimated Reading Time: 9 min

    "आपके वाले जीजू आए हैं, मतलब सिद्धार्थ जीजू आए हैं।" पूजा ने सिद्धार्थ को देखते हुए जवाब दिया। मुस्कान ने जब उसका जवाब सुना तो उसे अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ। उसने तुरंत किचन का पर्दा हटाया और बाहर आते हुए बोली,

    "बेवकूफ़ बनाने को भी तुझे मैं ही मिली?.......वो यहाँ क...........।"

    मुस्कान की नज़र जैसे ही गेट पर खड़े सिद्धार्थ पर पड़ी, उसके आगे के शब्द उसके मुँह में अटककर रह गए और आँखों की पुतलियाँ हैरानी से फैल गईं। मुँह भी खुला का खुला रह गया। कुछ ऐसा ही हाल सिद्धार्थ का भी था। वो भी आँखें बड़ी, बड़ी किए सामने खड़ी मुस्कान को देखने लगा था।

    अब तक जितनी भी बार उसने मुस्कान को देखा था, सूट, साड़ी में तैयार हुए हुए ही देखा था। शादी के बाद तो वो सोलह श्रृंगार किए रहती थी, पर आज जो मुस्कान उसके सामने खड़ी थी, वो तो कोई और ही मुस्कान लग रही थी। साड़ी और सूट के जगह उसने प्लाज़ो और टॉप पहना हुआ था। बालों को बेतरतीब से समेटकर जुड़ा बनाया हुआ था, जिससे कुछ लटें निकालकर उसके चेहरे और गर्दन पर फैली हुई थीं। माँग में नाममात्र का सिंदूर लगा था, जो ध्यान से देखने पर ही नज़र आ रहा था। गले में मौजूद मंगलसूत्र भी टॉप के नीचे छुपा हुआ था।

    दोनों कलाइयों में बस दो, दो लाख की चूड़ियाँ डाली हुई थीं। न बिंदी, न कलाइयों में भर, भरकर चूड़ा, चूड़ियाँ और न ही कोई साज, श्रृंगार। एकदम सिंपल लुक में थी वह। हाथों की मेहँदी अब छूट चुकी थी और हाथ बेसन से सने थे उसके। थोड़ा सा बेसन माथे पर भी लगा हुआ था, शायद लटों को पीछे करने के चक्कर में ऐसा हुआ होगा, जिसका एहसास खुद मुस्कान को नहीं था।

    आज तो अलग ही मुस्कान सिद्धार्थ के सामने खड़ी थी और सिद्धार्थ बस उसे देखता ही रह गया था।

    सिद्धार्थ को सामने देखकर मुस्कान की हैरानगी की कोई सीमा ही नहीं रह गई थी। भले ही उसने कल भावुकतावश सिद्धार्थ को फोन करके जल्दी आने को कहा था, पर उसको बिल्कुल अंदाज़ा नहीं था कि सिद्धार्थ आज ही आ जाएगा। इसलिए कुछ पल तो वो अचंभित सी सामने खड़े सिद्धार्थ को देखती रही, फिर जैसे ही उसे अपनी अवस्था का भान हुआ, उसने हड़बड़ाहट में उस पर से निगाहें हटा ली और उल्टे पाँव दौड़कर किचन में भाग गई।

    सिद्धार्थ उसके अचानक जाने से पहले तो चौंक गया, फिर उसकी हड़बड़ाहट और घबराया हुआ चेहरा याद करते हुए मुस्कुरा दिया। मुस्कान की तो साँसें ऊपर, नीचे हो गई थीं। उसने खुद को संभाला और पर्दे के ओट से ही बोली,

    "पूजा, उन्हें गेट पर क्यों खड़ा किया हुआ है? अंदर बिठा और जाकर मम्मी, पापा को उनके आने की खबर कर दे।"

    "जी दीदी।"

    पूजा ने तुरंत हामी भरी, फिर सिद्धार्थ को देखकर मुस्कुराकर बोली, "चलिए जीजू, आपकी पत्नी को बड़ी चिंता हो रही है आपकी कि कहीं धूप में खड़े होकर आप काले न हो जाएँ। अब उनका आदेश तो मानना ही पड़ेगा, आपको भी और मुझे भी। वरना आपको तो शायद कुछ न करे, पर मुझे तो अच्छे से धोबी घाट में कपड़े जैसे धोकर सुखा देंगी। इसलिए आप अंदर चलिए।"

    पूजा की नौटंकी देखकर जहाँ मुस्कान ने बेबसी से अपना सर हिला दिया, वहीं सिद्धार्थ ने मुस्कुराकर अपने हाथ में पकड़े मिठाई और फलों की पन्नी उसकी तरफ़ बढ़ाते हुए सवाल किया,

    "आपकी मुस्कान दीदी मारती भी है?"

    पूजा ने तुरंत ही हामी भर दी, "और नहीं तो क्या, मारती भी है और इतना ज़ोर से मारती है कि दो दिन तक कान में सीटी बजती रहती है।"

    "पूजा, बकवास बंद कर और चुपचाप अंदर लेकर जा उन्हें, वरना सच में खाएगी और दो दिन नहीं, एक हफ़्ते तक उस तरफ़ से खाना नहीं खा सकेगी।" पूजा की बात खत्म होते ही किचन से मुस्कान की गुस्से भरी आवाज़ आई, जिसे सुनकर सिद्धार्थ उस दिशा में देखने लगा, पर उसके और मुस्कान के बीच अब भी उस पर्दे की दीवार थी।

    मुस्कान की धमकी सुनकर पूजा ने मासूम सी शक्ल बनाकर धीमी आवाज़ में आगे कहा, "देखा कितना गुस्सा आता है उन्हें? मुझे तो लगता है कि गुस्सा उनकी नाक पर बैठा रहता है, मौका मिलते ही सर पर चढ़कर नाचने लगता है और फिर तो सामने वाले की खैर नहीं रहती, इसलिए आप बचकर रहिएगा उनसे। अब चलिए अंदर, वरना अगर दीदी बाहर आ गई तो छोड़ेंगी नहीं आज मुझे।"

    सिद्धार्थ ने उसे देखा और सर हिला दिया। पूजा उसे अंदर लेकर आई तो दूसरी बहन सिया झट से उठकर खड़ी हो गई और हड़बड़ाहट में उसे नमस्ते करके सीधे कमरे से बाहर भाग गई। जैसे ही बाहर निकली, मुस्कान ने उसे ट्रे थमाकर वापस अंदर भेज दिया।

    पूजा ने झटपट बिस्तर पर फैले कपड़ों को समेटकर अलमारी में घुसा दिया और सिद्धार्थ को पलंग पर बैठने को कहकर कमरा व्यवस्थित करने लगी। सिया ने आकर सिद्धार्थ को पानी दिया तो सिद्धार्थ ने इंकार कर दिया।

    सिया वापस किचन में चली आई। मुस्कान ने भरा ग्लास देखा तो चाय बनाने लगी और सिया को सरिता जी और मनीष जी को सिद्धार्थ के आने की खबर देने भेज दिया।

    कुछ ही मिनटों में पूजा ने घर एकदम सेट कर दिया। इतने में किचन से मुस्कान की आवाज़ आई, "पूजा।"

    पूजा सिद्धार्थ को देखकर मुस्कुराई, फिर कमरे से बाहर निकल गई। सिद्धार्थ निगाहें घुमाकर उस घर को देखने लगा। आम मिडिल क्लास घर जैसा ही था घर। एक तरफ़ स्लैब को मंदिर बनाया हुआ था। टीवी, फ्रिज, बेड, अलमारी के अलावा वहाँ कुछ छोटे, मोटे सामान और कॉपी, किताबें रखी हुई थीं। एक तरफ़ दीवार पर कई तस्वीरें लगी थीं, पर बहुत ढूँढ़ने पर भी उसे उन तस्वीरों में मुस्कान कहीं नज़र नहीं आई।

    मुस्कान को छोड़कर लगभग सभी की तस्वीरें लगी थीं वहाँ और गौरव की तो बचपन से अब तक की कई तस्वीरें लगी थीं वहाँ।

    सिद्धार्थ ये सब देख ही रहा था कि पूजा की आवाज़ ने उसका ध्यान अपनी तरफ़ खींचा, "कोशिश बेकार है जीजू। मुस्कान दीदी को फ़ोटो खिंचवाना पसंद नहीं है, इसलिए यहाँ उनकी कोई तस्वीर नहीं है।"

    आवाज़ सुनकर सिद्धार्थ ने निगाहें घुमाईं तो पूजा ने उसके सामने ट्रे रख दी, जिसमें चाय की प्याली और पकौड़ों से भरी प्लेट रखी थी। शायद मुस्कान पकौड़े ही बना रही थी।

    "खाइए, खाइए, आपकी पत्नी ने बनाया है। वैसे तो इतने दिनों में आपने उनके हाथ का स्वाद चख ही लिया होगा, फिर भी मैं बता दूँ कि मुस्कान दीदी बहुत बढ़िया खाना बनाती हैं और उनकी बनाई चाय पीकर तो आत्मा तृप्त हो जाती है। पर उन्हें चाय बनाना पसंद नहीं है। वो बहुत कम चाय बनाती है, वो भी बहुत मक्खन लगाने और रिक्वेस्ट करने के बाद, तो आप खुद को खुशकिस्मत समझिए कि उन्होंने अपनी मर्ज़ी से आपके लिए चाय बनाई है।"

    "खुशकिस्मत तो हम खुद को तब समझते जब आपकी मुस्कान दीदी खुद ये लेकर आई होतीं।" सिद्धार्थ ने मुस्कुराकर कहा और चाय की प्याली उठाकर चाय की एक घूँट ले ली। यकीनन चाय लाजवाब थी, एकदम दिल खुश कर देने वाली।

    सिद्धार्थ की बात सुनकर पूजा ने फट्ट से जवाब दिया, "मुस्कान दीदी अभी आपके सामने नहीं आ सकतीं।"

    "क्यों?" सिद्धार्थ ने ज़रा चौंकते हुए सवाल किया। उसका सवाल सुनकर पूजा उसके ज़रा करीब आई और फुसफुसाते हुए बोली, "वो मानेंगी नहीं, पर मैं जानती हूँ कि वो शर्मा रही है आपसे, इसलिए आपके सामने नहीं आ रही। उन्होंने प्लाज़ो, टॉप पहना है और तैयार भी नहीं है, इसलिए आपके सामने आने मे झिझक रही है।"

    सिद्धार्थ उसकी बात सुनकर मुस्कुराकर रह गया। वहाँ किचन में मौजूद मुस्कान अलग ही दुविधा में फँसी हुई थी। उसे ज़रा भी अंदाज़ा नहीं था कि सिद्धार्थ आज ऐसे अचानक यहाँ आ जाएगा।

    एक तो वो सिद्धार्थ को यहाँ देखकर हैरान थी, उसके अलावा ये सोचकर परेशान थी कि वहाँ सबको उसने क्या कहा होगा? यहाँ जब सब उसके अचानक आने की वजह पूछेंगे तो क्या कहेगा वो और अगर सिद्धार्थ ने उससे वजह पूछ ली कि ऐसे अचानक उसे लेने आने क्यों कहा तो कैसे झूठ बोल पाएगी उसके सामने?

    मुस्कान यही सब सोचते हुए चुपके से किचन से निकली और दबे पाँव सीढ़ियाँ चढ़ते हुए अपने रूम में चली आई। उसने अपना फ़ोन लिया और सिद्धार्थ को टेक्स्ट मैसेज कर दिया।

    नीचे चाय की चुस्कियाँ लेते हुए पूजा से बात करते सिद्धार्थ के फ़ोन पर अचानक ही मैसेज की नोटिफिकेशन आई तो उसने अपना फ़ोन निकालकर चेक किया और मुस्कान का मैसेज देखकर पढ़ने लगा,

    "आप ऐसे अचानक बिना बताए कैसे चले आए?"

    सिद्धार्थ उसका मैसेज देखकर एक पल को ठहरा, फिर मैसेज लिखकर रिप्लाई सेंड कर दिया। फ़ोन हाथ में पकड़े बेचैनी से यहाँ, वहाँ टहलती मुस्कान का फ़ोन बजा तो उसने तुरंत सिद्धार्थ का रिप्लाई पढ़ा,

    "आपने ही आने को कहा था, इतनी जल्दी भूल गई?"

    सिद्धार्थ का रिप्लाई पढ़कर मुस्कान पहले तो बस मैसेज देखती ही रह गई। सिद्धार्थ ने उसकी बात को इतना गंभीर लिया था कि अगले दिन ही चला आया, ये मुस्कान की कल्पना से भी बाहर की बात थी। उसने गहरी साँस छोड़ी और मैसेज टाइप कर दिया,

    "मम्मी जी को क्या बताया आपने?"



    To be continued…

  • 20. Muskan: Love, Tears and Destiny - Chapter 20

    Words: 1417

    Estimated Reading Time: 9 min

    "आपने ही आने को कहा था, इतनी जल्दी भूल गई?"

    सिद्धार्थ का रिप्लाई पढ़कर मुस्कान पहले तो बस मैसेज देखती ही रह गई। सिद्धार्थ ने उसकी बात को इतना गंभीर लिया था कि अगले दिन ही चला आया, ये मुस्कान की कल्पना से भी बाहर की बात थी। उसने गहरी साँस छोड़ी और मैसेज टाइप कर दिया,

    "मम्मी जी को क्या बताया आपने?"

    "वही जो सच था।"

    ये मैसेज पढ़कर मुस्कान के चेहरे का रंग ही उड़ गया। उसने फ़ोन को गुस्से में ज़मीन पर पटकना चाहा, पर फिर मन मसोसकर रह गई। अपने गुस्से को दबाते हुए उसने परेशान स्वर में खुद से ही कहा,

    "क्या ज़रूरत थी इन्हें फ़ोन करने की? रावी को कर दिया होता तो घुमा, फिराकर मम्मी जी के कान में बात डाल देती। अब इन्होंने तो सच ही बता दिया। क्या सोच रही होंगी अब वो मेरे बारे में कि कितनी उतावली लड़की है जो खुद ससुराल बुलाने के लिए बोल रही है।"

    मुस्कान ने अपनी आँखों को भींच लिया, फिर कुछ पल बाद मैसेज टाइप करके सेंड कर दिया, "आप कुछ और नहीं बोल सकते थे? मैं जो आपको बोलूँगी वही बोल देंगे सबको?"

    मैसेज में मुस्कान की नाराज़गी साफ़ ज़ाहिर हो रही थी। सिद्धार्थ मैसेज पढ़कर मुस्कुराया, फिर रिप्लाई टाइप करके भेज दिया,

    "कुछ और बोलना हमें समझ नहीं आया, इसलिए सच बोलना ही एकमात्र रास्ता था।"

    मुस्कान ने सिद्धार्थ का रिप्लाई पढ़कर बुरा सा मुँह बनाया, फिर खीझते हुए मैसेज टाइप कर दिया,

    "यहाँ किसी को मत बताइएगा कि मैंने ही आपको आने को कहा था।"

    "नहीं बताएंगे, आप चिंता मत करिए।" रिप्लाई पढ़कर मुस्कान ने फ़ोन वापस रख दिया और दबे पाँव नीचे चली आई।

    पूजा जब से गहरी निगाहों से सिद्धार्थ के चेहरे के पल, पल बदलते भावों को नोटिस कर रही थी। उसने भौंह सिकोड़ते हुए उससे सवाल किया,

    "जीजा जी, किससे मैसेज पर चैट करते हुए इतना मुस्कुरा रहे हैं? कहीं कोई गर्लफ्रेंड तो नहीं पाली हुई आपने, जो धड़ाधड़, धड़ाधड़ आपको मैसेज पर मैसेज किए जा रही है?.......हमारी मुस्कान दीदी को चीट तो नहीं कर रहे आप?"

    सिद्धार्थ जो मुस्कान को लास्ट मैसेज करके फ़्री हुआ था, जब उसके कानों में पूजा के शब्द पड़े तो उसने चौंकते हुए निगाहें उठाकर पूजा को देखा, जो शक भरी नज़रों से उसे ही घूर रही थी।

    "ये शक करने की और दूसरों को गलत समझने की बीमारी खानदानी है क्या?" सिद्धार्थ ने हैरानगी से पूजा से सवाल किया, जिसे सुनकर पहले तो पूजा ने हैरानगी से आँखें बड़ी, बड़ी करके उसको देखा, फिर अचंभित सी बोली,

    "क्या मतलब?"

    "कुछ नहीं......" सिद्धार्थ ने इंकार में सर हिला दिया, फिर फ़ोन जेब में डालते हुए बोला, "कोई प्रेमिका नहीं हमारी। बीवी ज़रूर है एक, जिसे हम धोखा देने और छलने के बारे में सोच भी नहीं सकते। इसलिए आपका हम पर शक करना व्यर्थ है, हम किसी लड़की से नहीं, बल्कि अपने दोस्त से बात कर रहे थे।"

    सिद्धार्थ ने सहजता से अपनी बात कही और खामोश हो गया। पूजा ने अब सर हिला दिया। सिद्धार्थ ने मुस्कान के बारे में सोचते हुए खुद से ही कहा,

    "देखने और बात करने में तो आप ठीक ही लग रही हैं, पर फिर कल हमें क्यों लगा जैसे आप ठीक नहीं हैं?"

    यहाँ सिद्धार्थ अपनी अलग ही दुविधा में उलझा हुआ था। कल मुस्कान से फ़ोन पर बात होने के बाद से ही वो बेचैन और परेशान था, कुछ गलत होने की आशंका थी उसे, पर यहाँ तो सब ठीक नज़र आ रहा था, इसलिए वो कुछ उलझ गया था।

    मुस्कान किचन में आकर लंच की तैयारी करने लगी। सिद्धार्थ ने सर्दी के मौसम में मुस्कान के हाथों के बने पकौड़ों और चाय का आनंद लिया, फिर हाथ धोने को उठा, पर पूजा ने प्लेट में ही उसका हाथ धुलवा दिये और खाली बर्तन लेकर किचन में चली गई।

    मुस्कान ने उसे सिद्धार्थ के पास ही रहने को कहा, क्योंकि फ़िलहाल वो घर का मेहमान और दामाद था तो उसे अकेला छोड़ना ठीक नहीं था।

    भले ही मुस्कान और सिद्धार्थ के बीच का रिश्ता अभी खराब था, पर बेसिक मैनर्स और संस्कार थे मुस्कान में। घर आए मेहमान को कैसे ग्रीट करना चाहिए, कैसे ट्रीट करना चाहिए, कैसे ख्याल रखना चाहिए, सब आता था उसे।

    पूजा वापस सिद्धार्थ के पास चली आई। कुछ देर में सरिता जी वहाँ आईं। सिद्धार्थ ने आदर सहित उनके चरण स्पर्श कर लिए। उन्होंने उसे आशीर्वाद दिया, फिर पूजा को देखकर बोलीं,

    "दामाद जी को सूखा, सूखा बिठाया हुआ है या कुछ चाय, नाश्ता भी करवाया?"

    "चाय भी पिला दी और गरमागरम पकौड़े भी खिला दिए।" पूजा ने इतराते हुए जवाब दिया कि अब तो सरिता जी को डाँटने का मौका ही नहीं मिलेगा। उल्टा उसने उनकी उम्मीद से ज़्यादा काम किया है तो शाबाशी मिलने उसे इसके लिए, इसलिए बड़ी उत्सुक भी थी वो। पर ऐसा कुछ हुआ नहीं। सरिता जी ने इस बात पर कुछ खास रिएक्ट न करते हुए उससे अगला सवाल किया,

    "मुस्कान कहाँ है?"

    बेचारी पूजा का तो मूड ही खराब हो गया। अभी अगर उसने चाय, पानी के लिए नहीं पूछा होता तो सरिता जी यहीं खड़े, खड़े उसे चमका देतीं, इतना सुनातीं कि बेचारी के कानों से खून की धारा बहने लगती, पर जब उसने उनकी उम्मीद से बढ़कर काम बिना उनके कहे ही कर दिया तो उन्होंने उसे सराहना तो दूर, एक शब्द तक नहीं कहा उसके तारीफ़ में, "किचन में खाना बना रही है।"

    "और तू यहाँ बातों में लगी है? जा उसकी मदद करा और बोल कि ज़रा अच्छे से तैयार होकर आ जाए।"

    पूजा बुरा सा मुँह बनाकर वहाँ से चली गई। सरिता जी ने अब सिद्धार्थ की तरफ़ मुड़ते हुए सवाल किया,

    "दामाद जी, अचानक कैसे आना हुआ? आने से पहले बताया भी नहीं?"

    "पापा ने पापा जी को फ़ोन करके बता दिया था। कल का विदाई का मुहूर्त निकला है, उसके बाद एक महीने तक कोई शुभ मुहूर्त नहीं, तो साँची को विदा करवाने आए हैं।"

    इसके बाद सरिता जी उससे वहाँ सबके बारे में सवाल करने लगीं। कुछ देर में मनीष जी भी चले आए। पूजा, सिया और मुस्कान ने मिलकर लंच तैयार कर लिया था। मुस्कान ने दो थालियाँ लगाकर भेज दीं।

    मनीष जी के साथ सिद्धार्थ ने खाना खाया, पूजा और सिया वहीं खड़े रहे और कम पड़ने पर लाकर देते रहे। मुस्कान कुछ देर तो किचन में ही रही, फिर सरिता जी के कहने पर पूजा ने उसे तैयार होने को कहा तो वो रूम में चली गई और अपने लाए सामान में से सूट निकालकर चेंज करने चली गई।

    इधर लंच के बाद मनीष जी ने शाम को मिलने का कहा और वापस दुकान चले गए। सिया के साथ सरिता जी ने सिद्धार्थ को ऊपर मुस्कान के कमरे में भेज दिया। अब सफ़र से आया था तो थकान थी, इसलिए उसे आराम करने भेज दिया था।

    मुस्कान कपड़े बदलकर जैसे ही कमरे में आई, वहाँ पहले से मौजूद सिद्धार्थ को देखकर उसके आगे बढ़ते कदम ठिठक गए। उससे आमना, सामना होने से ही बच रही थी वो, ताकि उसके किसी सवाल का जवाब न देना पड़े उसे। फ़ोन पर फिर भी बात कर ली थी, पर सामना करने से कतरा रही थी वह। उस रात के बाद सिद्धार्थ के साथ रिश्ता बहुत अजीब सा हो गया था।

    बिस्तर पर बैठे सिद्धार्थ की नज़र मुस्कान पर पड़ी तो वो उठकर खड़ा हो गया, "सॉरी, वो मम्मी जी ने भेजा था आराम करने के लिए, हमें नहीं मालूम था कि आप यहाँ होंगी।"

    सिद्धार्थ ने तुरंत ही सफ़ाई पेश की, जिस पर मुस्कान ने खुद को सामान्य किया, फिर सर हिलाते हुए बोली, "It's okay, आप थककर आए होंगे। आराम कर लीजिए। मैं वैसे भी नीचे जा रही थी।"

    मुस्कान ने इतना कहा और रूम से बाहर निकलते हुए उसने गहरी साँस छोड़ी। सिद्धार्थ कुछ देर खड़ा दरवाज़े की तरफ़ देखता रहा, फिर बेड पर बैठ गया और निगाहें घुमाकर कमरे को देखने लगा।

    मुस्कान नीचे पहुँची और लंच करने के बाद नीचे ही रुक गई। शाम तक उसकी दोनों बहनें और जीजा जी भी चले आए। सिद्धार्थ मुस्कान से बात तो करना चाहता था, पर उसे मौका ही नहीं मिला। मुस्कान उससे दूर ही रही।

    शाम को घर में महफ़िल जमी। रात का डिनर भी सबका साथ ही हुआ, पर मुस्कान ने सबके साथ खाना नहीं खाया। वो किचन में ही रही। सबके खाने के बाद और सिद्धार्थ के रूम में जाने के बाद वो बेमन से थोड़ा सा खाना खाकर सीधे छत पर चली गई। सूनी दर्द से सनी आँखों में नमी और लबों पर कभी न टूटने वाली खामोशी लिए वो एकटक चाँद को देखने लगी, जैसा वो हमेशा से करती थी।


    To be continued…