वो लड़की जिसको आज़ादी मिलने पर बहुत बेहतर काम कर सकती थी ख्वाहिशों को हक़ीक़त में बदल सकती थी आसमां में उड़ सकती थी,वो मोहब्बत कर बैठी और सब कुछ खत्म हो गया वो भी, उसके ख्वाब भी और उसका आसमान भी' नूर एक ऐसी लड़की जिसकी एक गलती की वजह से सब उससे ना... वो लड़की जिसको आज़ादी मिलने पर बहुत बेहतर काम कर सकती थी ख्वाहिशों को हक़ीक़त में बदल सकती थी आसमां में उड़ सकती थी,वो मोहब्बत कर बैठी और सब कुछ खत्म हो गया वो भी, उसके ख्वाब भी और उसका आसमान भी' नूर एक ऐसी लड़की जिसकी एक गलती की वजह से सब उससे नाराज़ है फिर हालात कुछ ऐसे हो जाते हैं कि उसे आफताब से शादी करनी पड़ती है मगर फिर दोनों के बीच एक गलतफहमी पैदा हो जाती है क्या ये रिश्ता आगे बढ़ेगा या शक की वजह से ये दोनों हमेशा के लिए अलग हो जाएंगे
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रात के ग्यारह बज रहे थे, लेकिन चहल-पहल सुबह जैसी ही थी। हर तरफ़ रौशनी थी और राहों पर चलते लोग ज़िन्दगी की भाग-दौड़ में मसरूफ़ नज़र आ रहे थे। लोगों की भागदौड़ में एक लड़की सड़कों पर खड़ी आइसक्रीम खा रही थी। उसने वन पीस, घुटनों तक आने वाली टॉप पहन रखी थी। खुले बालों में वो बला की हसीन लग रही थी।
उसके आसपास उसके दोस्तों का ग्रुप था, जो हँसी-ठिठोली कर रहे थे। वो भी उनकी बातों पर हँस रही थी।
अचानक किसी ने उसके कंधे पर हाथ रखा। उसने मुड़कर देखा, तब तक उसके हाथों से आइसक्रीम छीन लिया गया था और वो अचानक ही अंधेरे में गुम हो गई थी।
"अल्लाह..." नूर ने झटके से आँखें खोलीं। उसकी साँसें उथल-पुथल हो रही थीं और शदीद सर्दी में भी माथे पर पसीने की बूँद झलक रही थी। उसने वापस आँखें मूँदकर खुद को शांत किया और फिर उठकर बैठ गई। फ़ज़र की नमाज़ का वक़्त हो रहा था। उसने वज़ू बनाया और नमाज़ पढ़ने लगी। बाहर बगीचे में परिंदों के चहचहाने की आवाज़ साफ़ सुनाई दे रही थी।
उसने नमाज़ पढ़कर दुआ में हाथ उठाए। हर रोज़ की तरह आज भी उसकी आँखें पनीली होकर गरम पानी से भींग गईं।
"या अल्लाह मुझे माफ़ कर दे, ये एहसास-ए-जुर्म मुझे मरने नहीं देता है और न सुकून से जीने देता है... मुझे माफ़ कर दे।" वो बेतहाशा रो पड़ी।
पिछले तीन सालों से वो हर नमाज़ में सिर्फ़ अल्लाह ताला से माफ़ी ही मांगती थी, उस गुनाह की जो उसने नहीं की थी। हाँ, कुछ गुनाह थे, उसके गुमराह वो ज़रूर हुई थी, लेकिन जो हुआ उसमें उसका क्या कसूर था? फिर भी वो अल्लाह से अपने गुनाहों की माफ़ी मांगती रहती थी।
नमाज़ पढ़कर उसने कुरान शरीफ़ की तिलावत की और उससे फ़ारिग़ होकर बगीचे में आ गई। सिर पर दुपट्टा, बेदाग़ चेहरा, ख्वाबों से खाली आँखें, सूखे होंठ और उदास सूरत... वो नूर तो कहीं से भी नहीं थी। वो बगीचे में बैठी परिंदों की तरफ़ देख रही थी कि उसकी अम्मी, चाहत बेगम, आकर उसके बगल में बैठ गईं।
"क्या सोच रही हो नूर?" उन्होंने शफ़्क़त से उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा।
नूर ने सामने देखते हुए कहा, "ज़िन्दगी बेबसी के अलावा कुछ नहीं है अम्मी।"
"और ऐसा आपसे किसने कहा बच्चे?" वो मुस्कुराई थीं अपनी बेटी की इस बात पर।
नूर ने उदासी भरे लफ़्ज़ों में कहा, "किसी ने नहीं कहा अम्मी, मैंने महसूस किया है कि बेबसी का नाम ही ज़िन्दगी है। इंसान जब अकड़ता है तो कुदरत उसे बेबस कर देती है और ये बेबसी इंसान को दो रास्ते पर ले जाती है, सही भी, गलत भी... मैंने गुरूर किया और अल्लाह ताला ने मेरी अकड़ तोड़ दी... और मुझे इतना बेबस कर दिया कि अपने अब्बू से नज़रें न मिला सकी, न ही उनसे माफ़ी मांग सकी।"
चाहत बेगम ने सुलझे अंदाज़ में कहा, "वो होनी थी बच्चे, आप खुद को दोष क्यों दे रही हो?"
नूर ने खाली निगाहों से उन्हें देखा, फिर वापस नज़रें सामने करते हुए बोली, "वो होनी मेरी वजह से हुई थी अम्मी, इस घर की खुशियाँ सिर्फ़ मेरी वजह से उजड़ी हैं।"
"नूर बच्चे..." चाहत बेगम ने उसे समझाया, लेकिन नूर उनकी बात सुने बगैर वहाँ से उठकर चली गई। उसके जाने के बाद चाहत बेगम ने एक ठंडी साँस ली और अंदर आ गईं। नूर अंदर बावर्चीखाने में थी। उसने पानी लिया और खुद वापस कमरे में जाने लगी।
"कहाँ जा रही हो?" उन्होंने उसे टोका।
"अपने कमरे में अम्मी।" नूर ने शांत लहज़े में कहा।
"और क्या करोगी वहाँ जाकर?"
"कुछ नहीं।"
"ठीक है, जब कुछ नहीं करना तो जाओ मेरे लिए चाय बनाकर ले आओ।" चाहत बेगम ने हुक्म दिया। ये तीन साल पहले वाली नूर होती तो यकीनन पैर पटकती हुई अपने कमरे में चली जाती, लेकिन अब ये नूर कोई और ही थी। उसने बिना किसी बहस के चाय बनाना शुरू कर दिया। चाहत बेगम मुस्कुरा कर रह गईं।
नूर ने चाय बनाकर उन्हें दी और वापस कमरे में जाने लगी तो चाहत बेगम उसे झिड़की देते हुए बोली, "क्या बार-बार कमरे में जा रही हो? आओ मेरे पास बैठो।"
"अम्मी आप भी जान रही हैं, भाई-भाभी को मेरा यहाँ रहना पसंद नहीं है, फिर क्यों मुझे रोक रही हैं? जाने दें न मुझे कमरे में।" नूर ने खाली लहज़े से कहा।
चाहत बेगम ने उसका हाथ पकड़कर खींच लिया। माँ-बेटी थीं दोनों, लेकिन रिश्ता सहेलियों सा था, लेकिन पिछले तीन सालों में नूर ने खुद को मुजरिम मानकर एक खोल में बंद कर लिया था, जहाँ आने की इजाजत किसी को नहीं थी। नूर न चाहते हुए भी उनके पास बैठ गई। चाहत बेगम ने उसका सिर अपने गोद में रख लिया और प्यार से उसका सिर सहलाने लगी। नूर की आँखें पनीली हो गईं।
"बच्चे, कब तक खुद को इस तरह बंद रखोगे? बाहर निकलो और दुनिया का सामना करो।" चाहत बेगम ने मन में दबी बात को उसके सामने रखा। नूर ने थूक निगलते हुए कहा, "अम्मी, जब खुद का सामना नहीं कर पाती तो किसी और का क्या करूंगी?"
"ऐसे हिम्मत नहीं हारते बच्चे।"
"मैं सब कुछ हार चुकी हूँ अम्मी।" नूर ने बात खत्म करनी चाही, लेकिन चाहत बेगम एक सुलझी हुई औरत थी और उससे भी बढ़कर एक अच्छी माँ थीं। नूर उनकी ज़िन्दगी का नूर थी, उसे कैसे इस वक़्त छोड़ देती जब उसे सबसे ज़्यादा उनके सहारे की ज़रूरत थी?
चाहत बेगम ने फिर से कहा, "ऐसा नहीं होता है नूर, तुम खुद को मुजरिम मानना बंद कर दो, तभी सबका सामना कर पाओगी।"
नूर ने सिर उठाकर उन्हें देखते हुए कहा, "नहीं अम्मी, फिर सब ठीक नहीं होगा... पता है अम्मी, इतने सालों में एक बात जान चुकी हूँ मैं कि अगर हम कोई गुनाह करें और उस पर तौबा कर लें तो अल्लाह उसे माफ़ कर देता है, लेकिन इंसान नहीं करता है।"
चाहत बेगम ने खामोशी से उसकी तरफ़ देखा। नूर उठकर बैठ गई और घड़ी की तरफ़ देखते हुए बोली, "अम्मी, भाई-भाभी के आने का वक़्त हो गया है, मैं जा रही हूँ अंदर।"
चाहत बेगम बस उसे देखती रह गईं और नूर धीमे कदमों से अपने कमरे में वापस आ गई। उसने कमरे में आकर एक गहरी साँस ली और कमरे को देखा। किताबों का ढेर, नीम-तारिक खामोशी, बस यही तो उसकी दुनिया थी। मोबाइल टेबल पर पड़ा हुआ था, उसे अब मोबाइल से भी वहशत आती थी। उसने खिड़की का पर्दा हटाया और बाहर देखने लगी। बगीचा यहीं से दिखता था। कभी ये सब उसका पसंदीदा मंज़र हुआ करता था, लेकिन अब ये दुनिया उसे रास नहीं आती थी।
चाहत बेगम बाहर बरामदे में खामोश बैठी थीं कि उनका बेटा और बहू कमरे से बाहर निकले। दोनों ने उन्हें सलाम किया और बहू आयशा नाश्ते की तैयारी करने लगी। बच्चे अभी सो रहे थे। अजलान आकर उनके बगल में बैठ गया। कुछ रस्मी बातों के बाद चाहत बेगम ने झिझकते हुए कहा, "अजलान, एक बात कहनी थी।"
"जी अम्मी, कहिए।" अजलान ने अख़बार का पन्ना पलटते हुए कहा।
"उसे माफ़ कर दो।"
अजलान ने अख़बार बंद कर दिया और रूखे अंदाज़ में बोला, "अम्मी, आप सुबह-सुबह इस मौजू पर बात न करें तो अच्छा होगा। मेरा दिन मत खराब कीजिए।" और वहाँ से हटकर बाहर आ गया। चाहत बेगम खामोशी और बेबसी से कभी अपने बहू को देखती, तो कभी बेटे को, और कभी नूर की ज़िन्दगी को सोचती...
जारी है...
अजलान के रूखे रवैय्ये से चाहत बेगम, न चाहते हुए भी, खामोश हो गईं। बहू और बेटा वक्त पर काम पर चले गए थे; पोते-पोती स्कूल चले गए थे। अब घर में सिर्फ़ चाहत बेगम और नूर ही बची हुई थीं।
उन सबके जाने के बाद नूर कमरे से बाहर आ गई। चाहत बेगम कुरान शरीफ़ पढ़ रही थीं। नूर ने उनके लिए चाय बनाई। तब तक उन्होंने तिलावत बंद कर दी थी।
"अम्मी, चाय!"
"हूँ, आओ बैठो।" चाहत बेगम ने चाय का कप लेते हुए कहा।
नूर हल्का सा मुस्कुरा कर बैठ गई। सर्दियों के दिन थे, तो रूम हीटर भी चालू था।
चाहत बेगम ने चाय की चुस्की लेते हुए नूर को देखा, जो किसी ख्याल में गुम थी। उन्होंने चाय पीते हुए कहा, "नूर..."
"जी, अम्मी।" नूर उनकी तरफ मुखातिब हुई।
चाहत बेगम ने बेहद रसाई से कहा, "बच्चे, ऐसे कब तक रहोगी?"
"जब तक अल्लाह की मर्ज़ी होगी, अम्मी।"
चाहत बेगम ने उसकी हथेली सहलाते हुए कहा, "नूर, मेरी एक ख्वाहिश है, बेटी।"
"कैसी ख्वाहिश, अम्मी?"
"तुम्हें कामयाब देखने की।" नूर ने उन्हें खाली नज़रों से देखा। उसने अपना चेहरा तुरंत दूसरी तरफ़ फेर लिया। "अम्मी, प्लीज ऐसी बातें न करें। मैं ये ख्वाहिश पूरी नहीं कर सकूंगी।"
चाहत बेगम अब पूरी तरह संजीदा हो गईं। उन्होंने उसके चेहरे से नज़र हटाते हुए कहा, "आज मैं हूँ, कल नहीं रहूंगी नूर। तुम ज़िंदगी में आगे क्या फैसला लोगी, ये मैं नहीं जानती। लेकिन अपने भाई और भाभी का रवैय्या तुम्हारी नज़रों से ओझल नहीं है। इसलिए मैं चाहती हूँ कि तुम अपनी पढ़ाई शुरू करो और उस मंज़िल की तरफ़ कदम बढ़ाओ, जिस तरफ़ हम तुम्हें देखना चाहते थे।" वो अपनी बात खत्म करके उसके जवाब की मुंतज़िर हुईं, लेकिन कुछ देर बाद उन्हें नूर की सिसकियों की आवाज़ सुनाई दी।
चाहत बेगम ने प्यार से उसका चेहरा अपनी तरफ़ किया। नूर बेसाख्ता रोते हुए बोली, "मुझमें दुनिया का सामना करने की हिम्मत नहीं है, अम्मी। मुझे यूँ बेबस न कीजिए... मुझे... मुझे कहीं नहीं जाना।"
"अपनी माँ के लिए भी नहीं?" चाहत बेगम की आवाज़ डबडबा गई।
नूर ने रोते हुए ही उन्हें देखा। चाहत बेगम ने संजीदगी से कहा, "नूर, ज़िंदगी ग़मों का ही नाम है। अगर ग़म न हो, तो हम अपने अपनों को पहचान नहीं सकेंगे। जो हुआ, उसे भूलने को नहीं कहूँगी मैं, बल्कि उसे सबक बना लो। उसी सबक के सहारे आगे बढ़ो... ग़लतियाँ हर किसी से होती हैं, तो नादानी तुमसे भी हो गई। बस आगे बढ़ जाओ नूर। तीन साल से तुमने इस घर की दहलीज़ के बाहर क़दम नहीं रखा। दम नहीं घुटता तुम्हारा अकेले में?"
"मेरे आगे बढ़ जाने से अब्बा वापस नहीं आ सकते, अम्मी। और मुझे इस तन्हाई में सुकून मिलता है, अम्मी। मुझे मजबूर न करें आप।" नूर रोते-रोते हिचकी लेने लगी। चाहत बेगम ने उसे सीने से लगाकर कहा, "उन्हें जाना था, वो चले गए। तुम मुजरिम नहीं हो उनकी।"
"अम्मी... मुझसे नहीं होगा।" नूर ने बेबसी की आखिरी हद पर पहुँचते हुए कहा।
"तुम्हें मेरा वास्ता है, नूर।" चाहत बेगम ने आख़िर में अपना दांव खेला। उनकी बात सुनकर नूर ने नाराज़गी से उन्हें देखा और बगैर कोई जवाब दिए अपने कमरे में चली गई।
उसके जाने के बाद चाहत बेगम ने मायूसी से उस घर को देखा।
कुछ देर बाद उनका मोबाइल बज उठा। उन्होंने उठाया तो उनकी बड़ी बेटी रजिया की कॉल थी। उन्होंने मुस्कुराते हुए कॉल रिसीव किया, "हैलो।"
"अस्सलाम वालेकुम अम्मी।" उधर से बेहद रसीली आवाज़ आई।
चाहत बेगम ने भी शफ़क़त से लबरेज़ जवाब दिया, "वालेकुम अस्सलाम बच्चे, कैसी हो?"
"ठीक हूँ अम्मी।"
"और सब कैसे हैं घर में?"
"सब ठीक हैं अम्मी। आप अपना बताएँ, कैसी हैं?"
"हाँ, ठीक हूँ। बस चाहत को समझा रही थी अपनी पढ़ाई फिर से शुरू कर दे, लेकिन वो मान नहीं रही है।" चाहत बेगम बेहद मायूसी से बोलीं। उनकी बात सुनकर रजिया बिगड़ते हुए बोली, "अम्मी, बस कर दें। और कुछ सहना बाकी रह गया है क्या जो आप उसे आगे पढ़ने के लिए कह रही हैं? मैं तो ये सोच रही हूँ कि आप उसकी शादी करके उसे दफ़ा क्यों नहीं कर रही हैं? क्यों सिरदर्दी पाल रखी है आपने?"
चाहत बेगम को रजिया की ये बात बेहद नागवार गुज़री। उन्होंने खफ़गी जाहिर करते हुए कहा, "रजिया, वो मेरी औलाद है। तुम सबको उससे किनारा करना है, करो। लेकिन जब तक मैं ज़िंदा हूँ, उसे तन्हा नहीं छोड़ूंगी।"
"अम्मी, बस कर दीजिए।" रजिया गुस्से से बोली।
चाहत बेगम ने बेहद नाराज़गी से कहा, "बड़ी बहन माँ जैसी होती है, लेकिन तुम माँ तो न बन सकीं, लेकिन एक बहन भी न बन सकीं। मगर फ़िक्र न करो, उसके साथ मैं हूँ और मैं उसे वापस कामयाब करके रहूंगी।" और चाहत बेगम ने कॉल रख दिया। रजिया मोबाइल देखती रह गई।
चाहत बेगम यूँ ही उदास बैठी थीं। थोड़ी देर बाद नूर बाहर आई। उसे इस वक़्त बाहर देखकर वो कुछ चौंकी, मगर नूर ने सादगी से कहा, "आज खाना बना दे रही हूँ। कल से नहीं बनाऊँगी। एक मेड का इंतज़ाम कर लें आप। मुझे पढ़ाई में डिस्टर्बेंस बिलकुल नहीं पसंद। ये जानती हैं न आप?" चाहत बेगम ने हैरानी से उसे देखा तो नूर नज़रें चुराते हुए बोली, "मैं आगे पढ़ाई करूंगी, लेकिन बाहर नहीं जाऊँगी... मैं घर बैठे-बैठे मोबाइल से ही पढ़ाई कर लूंगी।"
"लेकिन बेटे..."
"अम्मी, मैं आपकी बात का मान रख रही हूँ। आप भी मेरी बात मान लें।" नूर ने इल्तिजा की तो चाहत बेगम खामोश हो गईं।
नूर ने सबके लिए खाना बनाया और खाना खाकर वापस कमरे में चली गई।
चाहत बेगम उसके पीछे-पीछे आईं। उन्होंने कमरे की हालत देखते हुए कहा, "ऐसे माहौल में पढ़ाई करोगी... अँधेरा, तन्हाई..."
"नहीं, अभी साफ़ कर रही हूँ।" नूर ने सामान जगह पर रखते हुए कहा।
चाहत बेगम मुस्कुरा कर ऊपर से उसकी किताबें उतारने लगीं तो नूर ने नाराज़ होकर उन्हें देखा। चाहत बेगम खिसिया कर बोलीं, "पड़े-पड़े जिस्म में जंग लगना शुरू हो गया है। काम करने दो, समझी? घिस नहीं जाएँगे काम करने से।"
नूर ने मद्धम आवाज़ में कहा, "अम्मी, मैं कर लूँगी अकेले।"
चाहत बेगम ने कोई जवाब नहीं दिया। नूर समझ गई कि उनसे कुछ भी कहना बेकार है, इसलिए वो खामोशी से कमरे के पर्दे उतारने लगी।
पर्दे उतारते ही कमरे में एकाएक ही हर तरफ़ रौशनी फैल गई।
चाहत बेगम को इस रौशनी की आदत थी, लेकिन नूर की आँखें चौंधिया गईं। उसने घबराकर अपने आँखों पर हाथ रख लिए।
चाहत बेगम मुस्कुराते हुए बोलीं, "अभी तो और रौशनी होगी नूर। मुझे तुमसे बहुत उम्मीद है बच्ची। ऐसा काम करना कि जिस-जिस ने तुमसे मुँह फेरा है, वो तुमसे मिलने को तरस जाएँ। तुम्हें ग़लत कहने वालों का मुँह बंद हो जाए।"
नूर ने कुछ भी नहीं कहा। वो खामोशी से अपना काम करती रही।
नूर और चाहत बेगम ने मिलकर शाम तक कमरे का हुलिया पूरी तरह से बदल दिया। उसकी किताबें, उसकी स्टडी टेबल, उसके कबर्ड, उसके कमरे के पर्दे, सब कुछ बदल चुका था।
चाहत बेगम पहले के मुक़ाबले काफ़ी मुतमईन नज़र आ रही थीं, लेकिन नूर के सूरत पर कोई एहसास नहीं थे, जैसे वो एक कठपुतली हो और बस चाहत बेगम की ख्वाहिश पर ये काम कर रही थी।
काम ख़त्म होने के बाद चाहत बेगम ने प्यार से कहा, "तुम कपड़े बदलकर फ़्रेश हो जाओ। मैं हम दोनों के लिए चाय बनाती हूँ।"
नूर ने हल्की सी मुस्कुराहट के साथ कहा, "नहीं अम्मी, चाय मैं बनाऊँगी।"
चाहत बेगम हँसते हुए बोलीं, "नहीं न... जो कहा है वो करो।"
नूर ने इस बार कोई बहस नहीं किया और वो कपड़े बदलने चली गई और चाहत बेगम अपने और नूर के लिए चाय बनाने बावरचीखाने में आ गईं।
जारी है...
अजलान एक कॉरपोरेट ऑफिस में काम करता था, आयशा स्कूल में टीचर थी। उनके चार साल के दो बच्चे थे, एक बेटा और एक बेटी; दोनों ही आयशा के साथ स्कूल में पढ़ते थे। शादी को छह साल हो चुके थे और बच्चे जुड़वाँ थे।
चाहत बेग की तीन औलादें थीं: दो बेटियाँ, रजिया और नूर बेग, और एक बेटा, अजलान बेग। तीन साल पहले असलम बेग के इंतकाल के बाद सारी ज़िम्मेदारी अजलान पर ही थी।
चाहत बेगम ने चाय बनाते हुए अपनी पड़ोसी साजदा को कॉल किया।
"हैलो साजदा।"
"हाँ, बोलिए भाभी।"
"ज़रा अपनी कामवाली का नंबर देना, कुछ बात करनी है।" चाहत बेगम मुस्कुरा कर बोलीं।
साजदा बेगम ने बिना किसी सवाल-जवाब के उन्हें अपने घर के खानसामा का नंबर दे दिया।
चाहत बेगम ने नेहा को कॉल किया और उससे सारी तफ़सील जान ली, और दोपहर में आकर खाना बनाने के लिए कह दिया। नेहा ने अपनी पेमेंट और शर्तें क्लियर कीं। इतने में नूर नहाकर बाहर आ गई।
चाहत बेगम उसे देखकर हमेशा की तरह रसोई से बोलीं, "आ गई तुम? आओ, चलो देखो आज पोहे और चाय दोनों तैयार हैं।"
नूर ने हल्का मुस्कुरा कर कहा, "इतनी तकलीफ़ क्यों की अम्मी? बस चाय बना लेतीं।"
"मेरी मुहब्बत रास नहीं आ रही तुम्हें?" उन्होंने झूठी नाराज़गी दिखाई। तो नूर उनके सामने आकर संजीदगी से बोली, "आपकी ही मुहब्बत ने तो मुझे अब तक साँसें दे रखी हैं अम्मी।"
चाहत बेगम अब सच में नाराज़ हो गईं। उन्होंने अपना चेहरा फेरते हुए कहा, "तुम अपने साथ मुझे भी गुनाह में शामिल कर रही हो। कितनी बार कहा है, मरने की दुआ करना गुनाह है।"
"जानती हूँ अम्मी।" नूर ने उनसे नज़र चुराते हुए कहा। चाहत बेगम चाय की प्याली लेकर उसके पास बैठ गईं।
उनके बहुत इसरार पर नूर उनके साथ बाहर बगीचे में आ गई। दोनों वहाँ बैठीं खामोशी से चाय का लुत्फ़ उठाने लगीं।
चाहत बेगम ने एक लंबी खामोशी के बाद कहा, "उफ़ुक का आफ़ताब ग़ुरूब होता है, दुबारा दिखने के लिए। उसी तरह ज़िंदगी को भी कभी डूबने मत दो। जब तक साँस हो, तब तक कोशिश जारी रखो। अंजाम तो ऊपरवाले के हाथ में है, उसे जिस अंजाम पर पहुँचाना होगा, वहाँ पहुँचाकर ही रहेगा।"
नूर उनकी बातें बेहद खामोशी से सुन रही थी। उसने जवाब में कुछ नहीं कहा, और चाहत बेगम को उम्मीद भी नहीं थी।
कुछ देर फिर वहाँ खामोशी फैल गई। चाहत बेगम चाहती थीं कि नूर अपने दिल की बात उनसे कहा करे, लेकिन ऐसा होना बंद हो गया था।
चाहत बेगम ने फिर से कहा, "नूर...ज़िंदगी को नूर से पुरनूर रखो...उसे अंधेरे में धकेलने के लिए दुनिया और उसमें रहने वाले लोग पड़े हुए हैं।"
"उस अंधेरे में तकलीफ़ भी तो बहुत होती है अम्मी।" नूर ने आखिर में चुप्पी तोड़ी।
"तुम्हें तकलीफ़ नज़र आ रही है, अंधेरा महसूस हो रहा है, मगर उस अंधेरे के बाद का सवेरा नज़र नहीं आ रहा है, उस तकलीफ़ के बाद की राहत नहीं महसूस हो रही है।" चाहत बेगम ने उसकी मुश्किल आसान करने की कोशिश की।
नूर ने संजीदगी से कहा, "अम्मी, मुझे इन अंधेरों से शिकायत भी नहीं है। इंसान जो अमल करता है, आगे उसकी ज़िंदगी में उसी का अंजाम देखने को मिलता है। मैंने गुनाह किए हैं, तो उनका कफ़्फ़ारा भी भरूँगी। लेकिन एक एहसास-ए-जुर्म मुझे हर रोज़ तड़पाता है कि मेरी वजह से अब्बू आज हमारे साथ नहीं है।"
चाहत बेगम खामोश हो गईं। उनकी खामोशी पर नूर मुस्कुराते हुए बोली, "देखा, आप भी खामोश हो गईं ना? क्योंकि यही हकीकत है। मेरी ग़लती से नहीं...गुनाहों से इस घर की खुशियाँ उजड़ गई हैं।"
"बस कर दो नूर।"
"ठीक है। फिर अंदर चलिए। मुझे पढ़ने के लिए रूटीन भी सेट करना है, और भाई भी आते होंगे।" नूर उठते हुए बोली।
चाहत बेगम खड़ी होते हुए बोलीं, "वैसे आज अब तक आयशा और बच्चे नहीं आए।"
नूर ने मुस्कुरा कर कहा, "इसमें फ़िक्र करने वाली कौन सी बात है? हमेशा की तरह भाई ने हाफ़ डे लिया होगा और सब शॉपिंग पर गए होंगे।"
चाहत बेगम ने हँसते हुए कहा, "चलो अच्छा है, कुछ देर और सुकून रहेगा इस घर में।"
नूर ने उन्हें टोका, "अम्मी, ऐसे नहीं कहते।"
चाहत बेगम ने मुँह बनाते हुए कहा, "क्यों न कहूँ? आते ही हंगामा शुरू कर देती हैं ये है वो है, और तुम्हें...तुम्हें तो नौकरानी समझती हैं ये सब। कुछ अजलान की वजह से होता है।"
नूर ने अपना सिर पकड़ लिया और बिना कुछ कहे अंदर आ गई।
दोनों माँ-बेटी एक-दूसरे का सहारा थीं। जब से नूर के साथ वो हादसा पेश आया था, तब से रजिया ने भी इस घर से नाम का ताल्लुक रखा था, और अजलान सिर्फ़ अपनी ड्यूटी पूरी करता था। नूर को सख़्त हिदायत दी थी उसने कि वो उसके सामने न आए, इसलिए नूर उसके आने के बाद कमरे में बंद हो जाती थी।
थोड़ी देर में सब घर आ गए। रिफ़त और अदनान आते ही अपनी दादी के गले लग गए और आज के अपने दिन के बारे में बताने लगे। चाहत बेगम शफ़कत से उन दोनों को देखते हुए बातें सुन रही थीं, लेकिन उनका सारा ध्यान अजलान पर था। उसका मूड कुछ ऑफ़ था। चाहत बेगम ने बच्चों से प्यार से कहा, "बच्चे, आप सब कपड़े बदलकर फ़्रेश होकर आओ।"
"ओके दद्दो।" दोनों ने एक साथ कहा और अपने कमरे में भाग गए।
उनके जाने के बाद चाहत बेगम ने अजलान से कहा, "क्या बात है अजलान? कुछ परेशान लग रहे हो।"
अजलान ने उन्हें देखते हुए रूखे लहज़े में कहा, "जब घर में ऐसी बहन हो, तो परेशान ही हो सकते हैं।"
"क्या हुआ है? ये तो बताओ।" चाहत बेगम को उसकी बात पसंद नहीं आई थी, फिर भी उन्होंने गुस्सा ना करना ही बेहतर समझा।
अजलान ने झल्लाकर कहा, "इसके लिए एक जगह रिश्ता की बात की थी, लेकिन न जाने किसने जाकर लड़के वालों को इसकी करतूत बता दी। मना कर दिया उन्होंने।" चाहत बेगम अब खामोशी से अजलान की सूरत देखने लगी। अजलान गुस्से में बोला, "मना करने के साथ-साथ मेरी बेइज़्ज़ती भी करके गए हैं वो सब...इस लड़की ने हमें कहीं का नहीं छोड़ा है, और खुद घर में मुँह छिपाए बैठी है। बाहर निकलती तो ख़बर होती ना कि लोगों की नज़रें कैसे चुभती हैं हम पर।"
चाहत बेगम अब बर्दाश्त न कर सकीं और उन्होंने अपना दाहिना हाथ उठाकर रौबदार आवाज़ में कहा, "बस! अब एक लफ़्ज़ भी नहीं! और रही बात उसकी शादी की, तो जब तक नूर अपने पैरों पर कामयाब खड़ी नहीं हो जाएगी, उसकी शादी नहीं होगी।"
अजलान ने भौंचक्का होकर उन्हें देखा। उसके देखने से साफ़ पता चल रहा था कि उसे चाहत बेगम से ऐसी किसी बात की उम्मीद नहीं थी।
अजलान ने भौंचक्का होकर उन्हें देखा। उसके देखने से साफ पता चल रहा था कि उसे चाहत बेगम से ऐसी किसी बात की उम्मीद नहीं थी।
चाहत बेगम का लहज़ा बिल्कुल नरम था।
अजलान ने हैरान होते हुए कहा, "ये...ये आप क्या कह रही हैं अम्मी...आप भूल गई हैं कि हमें उस लड़की की वजह से क्या दिन देखने पड़े हैं। बाहर आज भी तरह-तरह की बातें बनती हैं हमें देखकर और आप उसे फिर से पढ़ाने की बात कर रही हैं।"
"हाँ, क्योंकि ये मेरी ख्वाहिश है।" चाहत बेगम का अंदाज़ अभी भी नरम ही था।
अजलान ने गुस्से से उन्हें देखते हुए कहा, "आपकी ख्वाहिश के लिए मैं अपनी और इस घर की इज्जत नीलाम नहीं करूँगा। वो लड़की इस काबिल नहीं।"
"अजलान!" चाहत बेगम का लहज़ा तुरंत तुरष हुआ। अजलान ने आँखें फाड़कर उन्हें देखा। चाहत बेगम ने अब तुरष लहज़े में कहा, "वो कोई राह चलती लड़की नहीं, बहन है तुम्हारी। और हाँ, अगर तुम्हें उससे इतनी ही दिक्कत है तो तुम यह घर छोड़कर जा सकते हो।"
नूर अपने कमरे के दरवाजे पर परदे की ओट में सारी बातें सुन रही थी। यह सुनते ही वह बाहर आई और नरम लहज़े में बोली, "अम्मी, आप मेरी वजह से भाई से रिश्ते मत खराब कीजिए। और भाई, आप बेफ़िक्र रहें, मैं घर से बाहर नहीं निकलूँगी।"
अजलान ने अपना चेहरा दूसरी तरफ कर लिया। लेकिन यह सुनते ही आयशा ने आग में घी डालते हुए कहा, "सुनो बीबी, हमें न पढ़ाओ। जिन्हें गुल खिलाने होते हैं, वो घर में रहकर भी गुल खिला देते हैं। अजलान सही कह रहे हैं, इस घर से अब तुम्हारी रूख़सती होगी तो दुल्हन बनकर, उससे पहले अब तुम कुछ नहीं करोगी।"
चाहत बेगम ने आयशा को जवाब देते हुए कहा, "सुनो आयशा, हमने तुम्हें अपनी बेटी की तरह समझा है। अगर तुम नूर के लिए कुछ अच्छा नहीं बोल सकती हो तो गलत भी मत बोलो, मैं बर्दाश्त नहीं करूँगी। और अगर तुम दोनों को नूर से इतना ही मसला है तो अपने काम पर ध्यान दो। अगर इस बार उसने कुछ गलत किया तो तुम्हारी जूती और मेरा सिर।"
आयशा उनके जवाब पर खामोश हो गई। मगर नूर को चाहत बेगम का यह जवाब पसंद नहीं आया। उसे हर चीज़ मंज़ूर थी, लेकिन अपनी माँ की बेइज़्ज़ती नहीं।
उसने चाहत बेगम के पास रुँधे गले से कहा, "अम्मी, इतना अंधा ऐतमाद मुझ पर मत दिखाइए। मैं इस काबिल नहीं हूँ।"
नूर को वहाँ देखकर अजलान गुस्से में तमतमाता हुआ अंदर चला गया। आयशा उसके पीछे गई। चाहत बेगम ने तंजिया मुस्कान से दोनों को देखते हुए कहा, "तुम्हें इनकी फ़िक्र करने की ज़रूरत नहीं है नूर, तुम्हारी हर ज़िम्मेदारी मेरी और इस ऐतमाद को तुम्हें बनाए रखना है। बरकरार रखोगी न इस ऐतमाद को?"
नूर बेसाख्ता रो पड़ी और चाहत बेगम के गले लग गई। चाहत बेगम की आँखें भी गर्म पानी से भर गईं। उन्होंने उसे समझाते हुए कहा, "यह दुनिया तुम्हारी हज़ार अच्छाई भूल जाएगी, लेकिन तुम्हारी एक गलती नहीं भूलेगी कभी। इसलिए कुछ ऐसा करो नूर कि जिस-जिस ने आज तुम पर उंगली उठाई है, उनकी जुबां ऐसे बंद हो जाए जैसे कभी उनके पास वो जुबां थी ही नहीं।"
नूर ने अपने आप को संभालते हुए कहा, "मैं जान दे दूँगी अम्मी, लेकिन आपका ऐतमाद नहीं तोड़ूँगी।"
"शाबाश मेरी बच्ची! ये हुई न बात!" चाहत बेगम ने खुशी का मुज़ाहिरा किया।
उस रोज पूरे घर में सन्नाटा रहा। अजलान गुस्से से तिलमिला रहा था और चाहत बेगम आराम से नूर के पास बैठी उससे बातें कर रही थीं। ईशा की नमाज़ का वक़्त होने पर दोनों माँ-बेटी नमाज़ पढ़ने बैठीं। नमाज़ के आखिर में नूर ने दुआ में हाथ उठाए तो उसके रुके हुए गर्म पानी गालों पर लुढ़क आए। उसने अपनी सिसकियाँ रोकते हुए अल्लाह से फ़रियाद की, "मेरे खुदा, तू मेरे दिल का हाल जानता है। मैं तो इस काबिल भी नहीं कि तू मुझे नवाज़े, फिर भी तूने मुझे अपनी नेमतों के सायेबान में रखा है, उसके लिए शुक्रिया मेरे मालिक। इस बार मेरी अम्मी का मान बनाए रखना और मेरे क़दम बहकने न दे देना।"
नमाज़ पढ़कर दोनों ने साथ में खाना खाया और सोने चली आईं।
यह रात गुज़र गई और सुबह का आफ़ताब उफ़क पर रोशनी बिखेरने हाज़िर हो चुका था। नूर की ज़िंदगी ने एक करवट ली थी और उसने पढ़ाई शुरू कर दी। उसने ग्रेजुएशन कर लिया था इसलिए पीजी करने का सोचा।
कुछ वक़्त में नूर ने पीजी में डिस्टेंस से एडमिशन ले लिया और घर बैठी ही पढ़ाई करने लगी। चाहत बेगम ने बहुत कोशिश की कि वह बाहर निकले, लेकिन नूर हर बार टाल जाती। कुछ ज़रूरत भी होती तो ऑनलाइन मँगवा लेती, लेकिन बाहर नहीं निकलती थी। अजलान का रवैय्या अभी भी वही था, बस वह चाहत बेगम से कुछ नहीं कहता था।
नूर ने खुद को पढ़ाई में झोंक दिया था। धीरे-धीरे उसका कॉन्फिडेंस वापस बहाल हो रहा था। वह अब धीरे-धीरे खुल रही थी। चाहत बेगम के सामने कभी उनके सामने भूल से हँस देती थी, तो कभी बेझिझक किसी चीज़ के लिए ज़िद कर बैठती थी। चाहत बेगम उसको फिर से ज़िंदगी की तरफ़ वापस लौटते देखकर मन ही मन अल्लाह ताला का शुक्र अदा करती रहती थीं। बस एक कमी रह गई थी कि नूर ने अपनी दुनिया घर की चारदीवारी में बना ली थी, बाहर नहीं जाती थी। और इसी तरह उसके पहले सेमेस्टर के एग्ज़ाम के डेट आ गए।
चाहत बेगम ने एग्ज़ाम डेट देखते हुए कहा, "कैसे जाओगी एग्ज़ाम देने?" और साथ ही उनके लबों पर एक शरारत सी मुस्कान भी थी।
नूर ने उन्हें मुस्कुराते देखा तो चिढ़ गई। "आप मेरी बेबसी का मज़ाक न उड़ाएँ अम्मी, न चाहते हुए भी मुझे जाना होगा, लेकिन मैं अकेले नहीं जाऊँगी।"
"हैं...तो किसके साथ जाओगी?" चाहत बेगम अब चौंक उठीं।
नूर ने आँखें मटकाते हुए कहा, "आप जाएँगी अम्मी, साथ में और कौन?"
"पागल हो गई हो!" चाहत बेगम ने उसे ऐसे देखा जैसे उसके दिमागी तवज्जुह पर शक हो। उन्हें नूर ने मासूमियत की चादर ओढ़ते हुए कहा, "अम्मी, अगर आप मेरे साथ नहीं जाएँगी तो मैं नहीं जाऊँगी। फिर मेरे पूरे साल की मेहनत पानी में चली जाएगी।"
चाहत बेगम ने नाराज़गी से उसे देखा। नूर मुस्कुराते हुए बोली, "मेरी प्यारी अम्मी, प्लीज मान जाइए...प्लीज...प्लीज।"
नूर के इसरार को वह मना नहीं कर सकीं और उन्होंने साथ जाने की हामी भर दी। नूर ने चहकते हुए उन्हें गले से लगा लिया और एग्ज़ाम की तैयारी करने को कहकर अपने कमरे में चली गई।
जारी है...
आज नूर का पीजी का पहला एग्जाम था। चाहत बेगम ने सुबह होते ही अपने और नूर के लिए नाश्ता बनाया और तैयार होकर अजलान का इंतज़ार करने लगीं। नूर अंदर कमरे में अपने सारे ज़रूरी डॉक्यूमेंट्स रख रही थी।
अजलान तैयार होकर बाहर निकला। चाहत बेगम ने सुलझे लहज़े में कहा, "अजलान, आज नूर का पहला पेपर है। अगर तुम..."
अजलान ने उनकी पूरी बात सुने बगैर तुर्श लहज़े में कहा, "कितनी बार कहा है आपसे, उस लड़की का ज़िक्र मेरे सामने न किया करें। मुझे नफ़रत है उससे। अब्बा की मौत आप भूल सकती हैं, मैं नहीं। मेरा खून सफ़ेद नहीं हुआ है अम्मा। मैं जब-जब उसे देखता हूँ, मुझे अब्बा की बेबसी याद आती है, वो ज़िल्लत याद आती है जो हमने उसकी वजह से झेली है।"
चाहत बेगम ने गुस्से से कहा, "अजलान, नफ़रत में इतने अंधे मत बनो कि भूल जाओ कि वो तुम्हारी सगी बहन है। जब मैंने उसे माफ़ कर दिया, तो तुम क्यों नहीं करते हो? कितनी बार तो माफ़ी माँग चुकी है वो। उससे नफ़रत करने के बजाय, उसे बाप बनकर लाड़ दो। उसकी ज़िम्मेदारी साफ़ दिल से उठाओ अजलान। ऐसा न हो कि वक़्त गुज़र जाए और तुम बस हाथ मलते रह जाओ।"
अजलान के चेहरे का रंग एक पल में ही बदल गया। उसने तुर्श लहज़े में कहा, "आपकी बेटी की ज़िम्मेदारी आपने ली थी। वो क्या कर रही है, क्या हो रहा है, इससे मुझे कोई सरोकार नहीं है। उसे कहें, वो खुद चली जाए।"
चाहत बेगम ने नागवारी से कहा, "अजलान, उसने नहीं कहा था मुझसे, मैं खुद कह रही हूँ क्योंकि उसके साथ मुझे भी जाना है। अगर छोड़ दोगे तो मेहरबानी, और नहीं छोड़ोगे तो भी हम चली जाएँगी।"
अजलान कुछ कहना चाहा, तो चाहत बेगम ने अपनी हथेली दिखाकर उसे रोक दिया। "तुमसे अब बात करना फ़िज़ूल है अजलान।"
अजलान के और कुछ कहने से पहले चाहत बेगम अंदर नूर के पास चली गईं। नूर बाहर की आवाज़ सुन नहीं सकी थी, इसलिए बेपरवाही से बोली, "अम्मी... आप तैयार हैं न?"
"हाँ बेटा, चलो। आज पहला दिन है, कहीं देर न हो जाए।" चाहत बेगम ने रसाई से कहा।
चाहत बेगम और नूर साथ कमरे से बाहर निकलीं। नूर ने अजलान को सलाम किया, तो अजलान ने अपना चेहरा दूसरी तरफ कर लिया।
उनके जाने के बाद आयशा ने कहा, "अजलान, आप क्यों परेशान हो रहे हैं? छोड़ दीजिए उन्हें, क्योंकि जब तक उन्हें ठोकर नहीं लगेगी, उन्हें समझ नहीं आएगा।"
"उनके ठोकर लगने तक का इंतज़ार करूँ ताकि वो लड़की मेरे माथे पर एक और बदनुमा दाग लगा दे? वो तो है ही बेशर्म, क्या मैं भी अपनी इज़्ज़त सरे बाज़ार लूटा दूँ?" अजलान खीझ उठा। आयशा ने उसके कंधे पर हाथ रख उसे शांत कराते हुए, मुस्कुराते हुए कहा, "अजलान, आप बहुत जल्दी खीझ उठते हैं। आप मेरी बात समझिए। ऐसे चीखने से कुछ नहीं होगा। आप अम्मी को सबूत दे दीजिए कि नूर की फ़ितरत बदली नहीं है। ऐसी लड़कियों की फ़ितरत कभी बदलती नहीं है। अगर आप उसे अपनी नज़रों के सामने से हटाना चाहते हैं, तो उस पर नज़र रखिए और मौका मिलते ही रंगे हाथ पकड़ लीजिए।" अजलान ने कश्मकश में आयशा को देखा। आयशा ने मुस्कुराकर उसकी उलझन सुलझा दी।
नूर और चाहत बेगम बाहर निकलीं। नक़ाब पहने नूर ने अपनी आँखों से बाहर सड़क पर देखा। घर की दहलीज़ पार करते ही नूर को ऐसा लगा जैसे वो किसी और दुनिया में आ गई हो। चार साल के बाद उसने घर की दहलीज़ से बाहर क़दम रखा था। पहले से कितना कुछ बदल गया था! आसपास के घरों की दीवारें ऊँची हो गई थीं, चहल-पहल पहले से भी ज़्यादा बढ़ गई थी।
नूर कुछ देर वहीं घर-घर के बाहर खड़ी रही। चाहत बेगम ने उसे देखा, तो प्यार से बोलीं, "इन चार सालों में तुमने खुद को कैद किया था, दुनिया ने नहीं। इस दुनिया की यही तो आदत है कि वो रुकती नहीं है, वो तुम्हें रोकने की कोशिश करती है।"
नूर खामोश रही। वैसे भी, उस हादसे के बाद वो अक्सर खामोश रहती थी। चाहत बेगम उससे शफ़क़त से पेश आती थीं, इसलिए उनके सामने अब कभी-कभी बोल जाती थी, नहीं तो उसने चुप्पी सी साध ली थी।
दोनों आगे बढ़कर ऑटो की राह देखने लगीं। उन्हें वहाँ खड़े कुछ देर ही हुए होंगे कि एक कार वहाँ आकर रुकी।
नूर कार रुकते ही सँकपका गई और चाहत बेगम के पीछे आ खड़ी हुई। चाहत बेगम ने उसका ख़ौफ़ देखा, इसलिए उसका हाथ पकड़कर खड़ी हो गईं। उन्होंने कुछ नहीं कहा, बल्कि सामने वाले की तरफ़ से कुछ करने का इंतज़ार करने लगीं।
कुछ देर के बाद ड्राइविंग सीट का दरवाज़ा खुला और उसमें से एक ख़ूबसूरत नौजवान बाहर निकला। उसे देखते ही नूर की आँखें छोटी हो गईं, जबकि चाहत बेगम के चेहरे पर हैरत के भाव आ गए।
उसने चाहत बेगम के पास आकर खुशदिली से कहा, "कहाँ जा रही हैं बड़ी अम्मी?"
चाहत बेगम को हैरानी अब ख़ुशी में बदल गई। उन्होंने उसका चेहरा प्यार से चूमते हुए भराई आवाज़ में कहा, "आफताब, मेरे बच्चे!"
आफताब ने मुस्कुराकर उनका हाथ पकड़ लिया और उनके हाथ चूमते हुए प्यार से बोला, "आप रोएँगी तो अभी भाग जाऊँगा।"
चाहत बेगम हँस दीं, लेकिन नूर ने एक नज़र भी उसे देखने की ज़हमत न की थी। आफताब ने चोर नज़रों से नूर को देखा, फिर चाहत बेगम से मुखातिब हुआ, "आप कहाँ जा रही हैं बड़ी अम्मी? मैं छोड़ देता हूँ।"
"हम चली जाएँगी।" चाहत बेगम से पहले नूर बोल पड़ी। आफताब नूर की आँखों को देखता रह गया, जिसमें उसकी मौजूदगी से नागवारी साफ़ नज़र आ रही थी।
आफताब ने उसके जवाब को दरकिनार करते हुए अपनी बड़ी अम्मी से कहा, "बड़ी अम्मी, उसकी न सुनिए। वो तो शुरू से ही झल्ली है। आप बताइए कहाँ जाना है।"
चाहत बेगम ने खुशरंगी से कहा, "आज नूर के पीजी का पहला पेपर है, वहीं जाना है, लेकिन ऑटो नहीं मिल रही है। वैसे तुम कहाँ जा रहे थे?"
आफताब ने कार का डोर खोलते हुए कहा, "पहले बैठें, फिर बातें होती रहेंगी।"
चाहत बेगम आगे बढ़ीं, तो नूर ने उनका हाथ पकड़ लिया और धीरे से बोली, "अम्मी, हम ऑटो से चलते हैं न?"
"ऑटो आने में वक़्त लग जाएगा, फिर तुम्हारा पेपर छूट जाएगा। नूर, बेवजह की ज़िद मत करो।" चाहत बेगम से पहले आफताब ने कहा। तो नूर ने उम्मीद भरी नज़रों से चाहत बेगम को देखा, लेकिन चाहत बेगम ने उसकी उम्मीद को अपनी मोहब्बत के आगे वहीं ख़त्म कर दिया।
"आफताब सही कह रहा है नूर। पहले दिन जल्दी पहुँचना ज़रूरी है। आ जाओ बैठो, ज़िद मत करो।" बोलते हुए चाहत बेगम अंदर बैठ भी गईं। नूर को चिढ़ हो रही थी, लेकिन वो ख़ामोशी से बैठ गई। उनके बैठते ही आफताब ने भी ड्राइविंग सीट सम्भाली और कार आगे बढ़ाते हुए बोला, "नूर, अपना एडमिट कार्ड देना, एड्रेस देखना है।"
नूर ने न चाहते हुए भी अपना एडमिट कार्ड आफताब को दे दिया। आफताब ने जल्दी से कैमरा ऑन करके उसका फ़ोटो लिया और वापस पीछे देते हुए बोला, "बड़ी अम्मी, जिस-जिस रोज़ भी एग्ज़ाम है, मैं आ जाया करूँगा। क्या फ़ायदा मेरा इसी रास्ते से जाने का, जब आपको मेरे होते हुए भी ऑटो में जाना पड़े?"
चाहत बेगम ने उसकी बात पर कहा, "इतने दिन कहाँ थे आफताब? कभी हमारी याद नहीं आई?"
आफताब ने हल्के से मुस्कुराकर जवाब दिया, "बड़ी अम्मी... आफताब सबको भूल सकता है, आपको नहीं। आप मेरे लिए मेरी माँ से बढ़कर तो नहीं हैं, लेकिन उनसे भी बढ़कर हैं।"
चाहत बेगम कुछ न बोलीं, तो आफताब ने आगे कहा, "मैंने पिछले साल ही अपनी पढ़ाई पूरी की है और अब एक इंटरनेशनल कंपनी में जॉब कर रहा हूँ। जब वापस आया, तो बड़े अब्बू के इंतकाल के साथ बहुत कुछ सुनने को मिला। मैं आपसे मिलने भी आना चाहता था, लेकिन अम्मी ने कसम दे दी... मगर आज जब आपको यहाँ देखा, तो खुद को रोक न सका। मुझे माफ़ कर दीजिए बड़ी अम्मी।"
"किस बात की माफ़ी आफताब?"
आफताब ने अफ़सुरदा लहज़े में कहा, "अपनी अम्मी और अब्बू के रवैये के लिए। मुझे उनकी बातों से अंदाज़ा है कि उनका सुलूक कैसा रहा होगा आपके साथ। मुझे जब आपके पास होना चाहिए था, उस वक़्त नहीं था आपके पास।"
चाहत बेगम धीमी आवाज़ में तंज से हँसते हुए बोलीं, "तब तो ऐसे पूरे शहर को हमसे माफ़ी माँगनी पड़े। तुम छोड़ो ये सब। ये बताओ, घर में सब कैसे हैं?"
आफताब ने एक नज़र नूर को देखा, जो खिड़की से बाहर देख रही थी, शायद उनकी बातों से वो अच्छा महसूस नहीं कर रही थी। उसने बात का रुख बदलना ही सही नहीं समझा। "सब अच्छे हैं बड़ी अम्मी... महविश तो ग्रेजुएट हो चुकी है, अब उसकी शादी की बात चल रही है।"
"तुम कब कर रहे हो शादी?" चाहत बेगम के पूछने पर आफताब की निगाह एकलक्ष ही उनसे बेपरवाह बैठी नूर पर पड़ी। उससे नज़रें हटाकर वो मुस्कुराते हुए बोला, "किसी के इकरार का इंतज़ार है बड़ी अम्मी, जिस रोज़ इकरार सुनने को मिलेगा, उस रोज़ आपको ज़रूर बताऊँगा।"
चाहत बेगम चौंकीं, फिर खुशी से बोलीं, "इसका मतलब पहले से पसंद कर चुके हो? तुम्हारे अम्मी-अब्बू को पता है?"
"नहीं।"
"तो कब बता रहे हो उन्हें? आखिर रिश्ता तो लेकर जाना होगा न?" चाहत बेगम के लहज़े में तुरंत ही फ़िक्र नज़र आई।
आफताब ने हँसते हुए कहा, "बताऊँगा बड़ी अम्मी, लेकिन पहले जिसके मुँह से इकरार सुनना है, उसे तो राज़ी कर लूँ। अभी सही वक़्त आने दीजिए, फिर बताऊँगा।"
चाहत बेगम मुस्कुराकर रह गईं। बातों-बातों में नूर का एग्ज़ाम सेंटर आ गया, तो आफताब ने कार रोक दी। दोनों उतरने लगीं, तो आफताब ने कहा, "एग्ज़ाम दो बजे ख़त्म होगी बड़ी अम्मी। ऑटो मत लीजिएगा, मैं आ जाऊँगा।"
"इस तकल्लुफ़ की ज़रूरत नहीं है, आप रहने दीजिए।" नूर ने आखिर में नागवारी से कहा। आफताब ने मुस्कुराकर उसे देखा और बड़ी अम्मी से बोला, "मैं आ जाऊँगा बड़ी अम्मी। वैसे वो छोड़िए, जब तक ये एग्ज़ाम देगी आप तब तक कहाँ रहेंगी?"
"यहीं रहूँगी।"
आफताब ने उनके जवाब पर कुछ सोचते हुए कहा, "नहीं, आप यहाँ नहीं रहेंगी। आप मेरे साथ चलेंगी। जब एग्ज़ाम ख़त्म हो जाएगा, तो नूर आपको कॉल कर देगी, हम आ जाएँगे।"
नूर और चाहत बेगम दोनों ने ऐतराज़ किया, मगर आफताब ने नहीं सुना। वो कार से उतरकर सब कुछ चेक करने लगा। नूर की एंट्री होने तक वो वहीं रहा और फिर एंट्री होने के बाद वो चाहत बेगम को लेकर अपने ऑफ़िस के रास्ते की तरफ़ बढ़ गया।
जारी है...
नूर के आने तक आफताब वहीं रुका रहा। फिर, नूर के आने के बाद वह चाहत बेगम को लेकर अपने ऑफिस की ओर चल दिया।
गाड़ी में चाहत बेगम ने शफकत से कहा, "आफताब, तुम मुझे कहाँ ले जा रहे हो?"
"अपने ऑफिस," आफताब ने चहकते हुए कहा। चाहत बेगम उसका चेहरा देखती रही।
आफताब ने उन्हें खामोश देखा तो हँसते हुए बोला, "ओहो बड़ी अम्मी, आप इतनी परेशान क्यों रहती हैं? जो होना था, वो हो गया। उसके लिए परेशान होकर क्या होगा?"
"लेकिन तुम्हारा तो दिल टूट गया ना, आफताब," चाहत बेगम के कहने पर आफताब संजीदगी में भी मुस्कुरा दिया। उसने फीकी मुस्कुराहट के साथ कहा, "बड़ी अम्मी, मेरा दिल नहीं टूटा था। नूर को मैं पसंद नहीं था, इसलिए इनकार कर दिया। बस, सबकी अपनी-अपनी पसंद थी। वैसे भी, उस बात को काफी वक्त गुज़र गया है। क्या पता नूर मुझे अब पसंद कर ले।" आफताब ने यह कहते हुए शरारत से अपनी दाहिनी आँख दबा दी।
चाहत बेगम हैरतज़दा हो गईं और उसे मशकूक निगाहों से देखते हुए बोलीं, "ये क्या कहा तुमने, आफताब?"
आफताब उनका जवाब सुनकर जोर से हँस पड़ा, "अरे बड़ी अम्मी, आप भी ना! मज़ाक नहीं समझती हैं। मज़ाक कर रहा था मैं।"
"ओह, मज़ाक था ये?" अचानक से चाहत बेगम का चेहरा रँजीदा हो गया।
उन्होंने बाहर देखना शुरू कर दिया। कुछ ही देर में वे दोनों आफताब के ऑफिस पहुँच गए। आफताब ने अंदर आकर उन्हें अपने बॉस से मिलवाया और उन्हें अपने केबिन में ले आया।
उसके केबिन में आकर चाहत बेगम ने इधर-उधर देखा, फिर फख्र से बोलीं, "तुम्हारा ऑफिस तो बहुत अच्छा है, बच्चे। और तुम्हारा केबिन तो उससे भी अच्छा है।"
आफताब ने मुस्कुराकर कहा, "होगा क्यों नहीं, बड़ी अम्मी? आखिर मैनेजर हूँ यहाँ का।"
चाहत बेगम ने हैरानी से उसे देखा तो आफताब मुस्कुरा दिया। चाहत बेगम के दिल की ख्वाहिश एक बार फिर हुक करने लगी, लेकिन अब वह किसी भी तरह की बात नहीं छेड़ना चाहती थीं; खासकर तब जब खानदान में कोई भी उनसे या उनके परिवार से कोई रिश्ता रखना नहीं चाहता था।
चाहत बेगम ने आफताब और नूर का रिश्ता करना चाहा था। आफताब भी नूर को पसंद करता था, मगर नूर ने बहुत बेरुखी से आफताब के मुँह पर ही इस रिश्ते को ठुकरा दिया था। आफताब का दिल टूटा था और उसी साल वह पढ़ने बाहर चला गया। और अब जब आफताब सामने आया था तो उनके दिल की ख्वाहिश फिर से जाग रही थी। हाँ, वह स्वार्थी हो रही थीं; वह माँ थीं और हर माँ अपनी बेटी को एक महफ़ूज़ हाथों में देना चाहती है जो उसे हर खुशी दे, मगर यहाँ ऐसा अब मुमकिन नहीं था। इसलिए उन्होंने इस बात को अपने दिल में ही रखना सही समझा।
ऐसे ही किसी तरह तीन घंटे बीत गए। दोनों इधर-उधर की बातें करते रहे। आफताब का बहुत मन हुआ कि वह तीन साल पहले के बारे में कुछ बात करे, लेकिन वह उनके ज़ख्म नहीं कुरेदना चाहता था।
दोनों के ही अपने-अपने ख्याल थे, लेकिन उस ख्याल को जुबान पर कोई ना ला सका।
तीन घंटे गुज़रे तो आफताब चाहत बेगम के साथ नूर को लाने चल पड़ा।
नूर एग्जाम हॉल में आ चुकी थी और उसका पेपर भी शुरू हो गया था। न तो उसने किसी से कोई बात की, न ही किसी की तरफ भी मुड़ी। उसने बस अपने एग्जाम पेपर्स से मतलब रखा।
ये तीन घंटे कैसे निकले, उसे खबर नहीं हुई। तीन घंटे के बाद वह पेपर जमा करके वापस आ गई।
वह बाहर आई तो वहाँ आफताब उसकी अम्मी के साथ खड़ा मिला। उसने चाहत बेगम को मुस्कुराकर देखा और उनके गले लग गई।
चाहत बेगम ने तुरंत दुलार लुटाते हुए कहा, "अरे मेरी बच्ची, कैसा रहा पेपर?"
"बहुत अच्छा गया, अम्मी," नूर ने मुस्कुराकर कहा, लेकिन जो कि नकाब के पीछे से नज़र ना आ सका; लेकिन आफताब परदे के पीछे से भी उसकी खुशी देख सकता था।
आफताब ने मुस्कुराकर कहा, "चलो अच्छा है। बाकी के पेपर्स भी अच्छे ही जाएँगे, इंशाअल्लाह।"
नूर ने कोई जवाब नहीं दिया। चाहत बेगम चाहती थीं कि नूर आफताब की तरफ़ मुतासिर हो, इसलिए उन्होंने अभी से ही कदम उठाना सही समझा। शायद उनकी एक कोशिश फिर से उलझे रिश्तों को सँवार सके और उनके नूर की बेनूर ज़िन्दगी को रंगीन कर सके।
उन्होंने आफताब से मुखातिब होकर कहा, "आफताब, भूख लग रही है। कहीं खाने चलते हैं।"
नूर ने यह सुनकर तेज़ी से कहा, "नहीं अम्मी, मुझे घर जाना है।"
चाहत बेगम ने नाराज़ होकर कहा, "मेरा दिल नहीं है घर जाने का। मुझे अभी बाहर ही रहना है।"
नूर ने बेचारगी से उन्हें देखा तो आफताब ने मामला सुलझाते हुए कहा, "तुम्हें नहीं खाना तो तुम कार में ही रहना, बाहर मत निकलना। हम दोनों खाकर आ जाएँगे।"
नूर ने उसे घूरा तो आफताब बेफ़िक्री से बोला, "घूरो मत, डरता नहीं हूँ मैं तुमसे। और ये सब मैं अपनी बड़ी अम्मी के लिए कर रहा हूँ।"
नूर का खून खौल उठा। उसने गुस्से से आफताब को देखा तो आफताब ने उसे चिढ़ाने के लिए धीरे से हँस दिया। नूर का तो पारा हाई हो गया, लेकिन वह चाहत बेगम की वजह से एक लफ़्ज़ भी बोल ना सकी।
वह गुस्से से कार में जाकर बैठ गई। यह देखकर चाहत बेगम ने आफताब को देखा तो आफताब ने हँसते हुए कहा, "मैं हैंडल कर लूँगा। आप चलें तो।"
तीनों बैठ गए तो कार स्टार्ट हुई और आफताब ने एक अच्छे से रेस्टोरेंट के आगे कार रोकी। नूर उस जगह को जानती थी। उसने रेस्टोरेंट देखा तो अपना चेहरा घुमाकर बैठ गई।
चाहत बेगम ने उसे चलने के लिए कहा, लेकिन नूर वैसे ही बैठी रही।
आफताब ने उसकी बेरुखी पर धीरे से कहा, "नूर, ये क्या बेरुखी है? चलो, साथ में। अपनी अम्मी की खातिर ही चल लो। उन्हें तुम्हारे बगैर अच्छा नहीं लगेगा।"
नूर ने गुस्से से बिफ़रते हुए कहा, "मुझे अपनी अम्मी की फ़िक्र है। आप मुझे लेक्चर मत दीजिये। मैं उनका ख्याल रखना अच्छे से जानती हूँ।"
चाहत बेगम को नूर का आफताब से इस लहजे में बात करना सही नहीं लगा। उन्होंने वहीं पर नूर को डाँटते हुए कहा, "नूर, ये क्या बदतमीज़ी है? आफताब से कैसे बात कर रही हो तुम? अरे, इसका ख्याल नहीं है तो मेरा ख्याल कर लो, लेकिन तुम तो बदतमीज़ी कर रही हो।" नूर खामोश रही। उसने मुश्किल से अपनी आँखों में आने वाले आँसू रोके और कार से नीचे उतर गई।
आफताब और चाहत बेगम उसके साथ चलने पर हैरान हो गए। वह आगे बढ़ी, लेकिन उसके कदमों ने जैसे साथ छोड़ दिया हो; वह चाहकर भी अपने कदम नहीं हिला पा रही थी। उसकी हिम्मत टूट रही थी। दोनों आगे बढ़ चुके थे। आफताब ने पीछे मुड़कर देखा तो नूर अभी भी वहीं खड़ी थीं।
उसने हैरानी से उसे देखा। उसने चाहत बेगम को वहीं रोका और नूर के पास आकर बोला, "नूर, चलो।"
नूर ने उसकी आवाज़ पर उसे देखा तो आफताब चौंक गया। नूर की आँखें लाल थीं और उसमें पानी भरा हुआ था।
नूर ने बड़ी मुश्किल से कहा, "मुझे नहीं जाना।"
और एकदम से उसकी आँखें बंद हो गईं और वह बेहोश होकर गिरने ही वाली थी कि आफताब ने उसे अपनी बाहों में थाम लिया।
चाहत बेगम यह देखकर भागती हुई आईं। नूर की हालत देखकर वह रोने लगी थीं।
आफताब और उन्हें दोनों ही समझ नहीं आ रहा था कि आखिर नूर को अचानक से हो क्या गया।
आफताब ने कार हॉस्पिटल की तरफ़ घुमा दी। वह पूरे रास्ते बस बार-बार नूर को ही देख रहा था।
चाहत बेगम ने नूर के चेहरे से हिजाब हटा दिया था, जिसे देखकर आफताब के दिल से एक ठंडी आह निकल गई।
जारी है...
चाहत बेगम ने नूर के चेहरे से हिजाब हटा दिया था। जिसे देखकर आफताब के दिल से एक ठंडी आह निकल गई। वही सूरत, वही खूबसूरती, लेकिन आज उसके चाँद पर जैसे ग्रहण लग गया था। चेहरा बुझा-बुझा और उस पर ग़मों के हज़ार पहरे थे। आफताब अपने नूर को इस हालत में देखकर खुद की आँखों को झिलमिलाने से रोक न सका। उसने कार बगल के ही एक हॉस्पिटल में रोकी और नूर को अपनी बाहों में उठाकर अंदर ले आया। डॉक्टर उसे चेक कर रहे थे और आफताब, चाहत बेगम बेचैनी से कॉरिडोर में टहल रहे थे।
कुछ देर बाद आफताब ने कहा, "बड़ी अम्मी, नूर अचानक से..."
उसकी बात पूरी होने से पहले ही चाहत बेगम ने फ़िक्रमंद होकर कहा, "पता नहीं बेटे... सुबह तक तो बिल्कुल ठीक थी, लेकिन अभी अचानक क्या हो गया? हो सकता है सालों बाद ऐसी भीड़-भाड़ वाली जगह पर आने से उसका दिल घबरा गया हो।"
"सालों बाद से क्या मतलब है आपका?" आफताब ने गहरी आवाज़ में कहा। चाहत बेगम कुछ कहना चाहती थीं, उससे पहले डॉक्टर आ गए और उन्होंने सुलझे अंदाज़ में कहा, "उन्हें पैनिक अटैक आया था, इसलिए बेहोश हो गई थीं। हमने उन्हें ट्रीटमेंट दे दिया है। थोड़ी देर में होश में आ जाएँगी, तो आप सब उन्हें घर ले जा सकते हैं।" दोनों ने सुनते ही राहत की साँस ली।
वो दोनों अंदर आए तो नूर बेहोश लेटी हुई थी। आफताब अपने नूर को देखकर ख़ामोश हो गया। क्या थी और क्या हो चुकी थी? हमेशा चहचहाती बुलबुल आज ख़ामोश थी। हँसती भी शायद मुश्किल से थी। उसके होश में आने पर दोनों उसे घर वापस ले आए। घर आने के बाद नूर अपने कमरे में जैसे बंद हो गई। आफताब वहीं रुका रहा, लेकिन नूर कमरे से बाहर नहीं निकली।
चाहत बेगम चाय बनाने चलीं तो नूर अपने कपड़े बदलकर बाहर आई। उसने आफताब की तरफ एक नज़र भी नहीं देखा और सीधा चाहत बेगम के पास आकर बोली, "अम्मी, मैं बनाती हूँ। आप जाएँ, बैठें।"
"नहीं बेटे, तुम्हारी तबियत ठीक नहीं है। तुम जाओ, आराम करो।" चाहत बेगम ने रसोई से कहा।
"अम्मी, प्लीज।" नूर ने इसरार किया। तो चाहत बेगम बरामदे में जाकर आफताब के पास बैठ गईं। आफताब बहुत दिनों बाद यहाँ आया था, इसलिए सारी चीज़ें गौर से देख रहा था। चाहत बेगम ने आते हुए हँसकर कहा, "ये लड़की किसी की सुनती नहीं है। कह रही है खुद बनाएगी चाय। ख़ैर, तुम बताओ आफताब, घर पर सब कुछ कैसा है?"
आफताब बेतकल्लुफ़ी से बोला, "सब ठीक है बड़ी अम्मी। आप कभी चक्कर लगाएँ घर का।"
चाहत बेगम के चेहरे का रंग बदल गया। उन्होंने अफ़सुरदा लहज़े में कहा, "क्यों ऐसी बातें कर रहे हो आफताब? जिसका होना मुमकिन नहीं। पूरा ख़ानदान हमसे अलग है। किसी का हमारे घर आना-जाना नहीं है और तुम मुझे चक्कर लगाने को कह रहे हो।"
आफताब ने संजीदगी से कहा, "बड़ी अम्मी, रिश्ते बहुत नाज़ुक होते हैं। उन्हें सँजोना पड़ता है। अगर वो क़दम नहीं बढ़ा रहे हैं तो हमें बढ़ाना चाहिए। आप बढ़ाइए न क़दम।"
चाहत बेगम के होंठ तंज से मुस्कुरा उठे। उन्होंने उसी तंजिया हँसी के साथ कहा, "मैंने क़दम बढ़ाए थे आफताब, लेकिन लोगों ने मुँह तो मोड़ा ही, साथ ही जलील भी किया। तुम्हारे बड़े अब्बू के जाने के बाद हर किसी ने अपना रंग दिखाया है। तुम इतने दिनों बाद आए हो न, इसलिए तुम्हें पता नहीं कि हमने क्या-क्या झेला है।"
आयशा के आने का वक़्त हो गया था और वो आ भी गई थी। वो जैसे ही बरामदे के दरवाज़े पर पहुँची, चाहत बेगम की आवाज़ उसके कानों में टकरा गई। वो अंदर घुसी और आफताब को देखकर पहले तो ठिठकी, लेकिन आफताब को देखकर अपना समझकर ढिठाई से बोली, "कहना क्या चाहती हैं? क्या-क्या झेला है, ये नज़र आ रहा है, लेकिन जिसकी वजह से झेला है, उसे तो कुछ कहा नहीं जा रहा आपसे। और तो और, उसे कॉलेज भेज रही हैं, पढ़ा रही हैं। अरे, अपना नहीं तो हमारा सोचिए! फिर कोई गुल खिलाएगी ये लड़की, तब समझ आएगा आपको।"
चाहत बेगम का चेहरा शर्मिंदगी और गुस्से से लाल हो गया। उन्होंने दबी आवाज़ में कहा, "आयशा, ये बहुत दिनों बाद घर आया है। कम से कम आज तो चुप रहो।"
आयशा तंज से बोली, "वाह! ये कौन सा गैर है अम्मी? ये भी हमारे ही ख़ानदान है और इसे भी तो पता चले कि आपकी लाडली ने इससे रिश्ता तोड़कर क्या गुल खिलाए हैं, जिसका इल्ज़ाम आप सर-ख़ानदान पर मढ़ रही हैं।"
आफताब हैरान बना उन्हें देख रहा था। उसे यकीन नहीं हो रहा था कि ये वही आयशा भाभी हैं जो नूर पर जान लुटाया करती थीं।
नूर जो चाय लेकर अंदर आ रही थी, दरवाज़े पर ही ठिठक गई। उसने जिल्लत का घूँट अपने गले के अंदर उतारा और चाय की ट्रे लेकर अंदर आ गई। ट्रे रखकर वो एक लम्हा भी न रुकी और उल्टे पाँव वापस हो गई। आफताब नूर को देखता रह गया। वो समझ गया कि नूर ने सब कुछ सुन लिया है। अपने ख़िलाफ़ एक लफ़्ज़ भी न सुनने वाली लड़की आज अपनों से जिल्लत के लफ़्ज़ सुनकर भी कुछ न बोल सकी थी। उसका दिल हुआ कि आयशा भाभी को करारा जवाब दे, उन पर चीख उठे, लेकिन वो बस मन मसोस कर रह गया।
आयशा अपने मन का ज़हर उगलकर अंदर आ गई। चाहत बेगम ने डबडबाई नज़रों से आफताब को देखा और उसके सामने माफ़ी से हाथ जोड़ लिए। ये देखकर आफताब ने तेज़ी से उनका हाथ पकड़ लिया और बोला, "बड़ी अम्मी, ये सब न करें। मैं शर्मिंदा हूँ कि मेरे होते हुए भी आप ये सब सुन रही हैं।"
"कहीं ज़िक्र न करना आफताब।" चाहत बेगम आख़िर में सिसक उठीं। आफताब ने कुछ नहीं कहा, बस उनके हाथों को चूमकर अपनेपन से बोला, "माँ से बढ़कर हैं आप मेरे लिए। आप बस हुक्म दीजिए, इल्तिजा न कीजिए।" चाहत बेगम को जैसे एक सहारा मिल गया। वो उसके सीने से लगकर रो पड़ीं। उनकी ममता सिसक रही थी। जो दर्द इतने दिनों से सीने में दबाए बैठी थीं, वो बाहर निकलने लगा। आफताब के सामने रोकर खुद का दिल हल्का कर रही थीं। असलम बेग के इंतकाल के बाद सिर्फ़ नूर थी उनके पास अपना दर्द कहने के लिए। बेटे और बहू एक घर में रहकर ताने देते थे। उनका दर्द कम करने की जगह दर्द में मज़ीद इज़ाफ़ा करते थे और आज आफताब ने उन्हें सहारा देकर जैसे उन्हें किनारा दे दिया हो।
आफताब उन्हें सीने से लगाया। न जाने क्या सोचता रहा...
बहुत रोने के बाद वो शांत हुईं तो आफताब उन्हें समझाकर, चाय पिए बिना वहाँ से निकल गया। नूर अंदर कमरे में आई और अपने मुँह पर हाथ रखकर सिसक उठी। उसने रोते-रोते ऊपर की तरफ़ देखा और सिसकते हुए बोली, "या... अल्लाह... ये... ये इंसान माफ़... क्यों... नहीं करते हैं? क्या तूने मुझे माफ़ नहीं किया है? माफ़ कर दे मालिक।" वो रोती रही और बड़बड़ाती रही।
आफताब निकल तो गया था, लेकिन उसका पूरा ध्यान सिर्फ़ चाहत बेगम और नूर की तरफ़ था। काम में भी उसका दिल नहीं लगा। बार-बार नूर का रुआँसा चेहरा उसकी आँखों के सामने घूम रहा था। घर भी आया तो सीधा कमरे में घुस गया।
चाहत बेगम ने किसी से कुछ नहीं कहा, बस अपने कमरे में बंद हो गईं। आज आफताब के सामने आयशा के ताने उन्हें चुभ रहे थे। वो रो रही थीं, सिसक रही थीं। चाहकर भी आयशा के लफ़्ज़ भूल नहीं पा रही थीं और यही सब सोचते-सोचते उन्होंने बिस्तर पकड़ लिया।
जारी है...
आज आफताब के सामने आयशा के ताने उन्हें चुभ रहे थे। वह रो रही थीं, सिसक रही थीं। चाहकर भी आयशा के लफ्ज़ भूल नहीं पा रही थीं। और यही सब सोचते-सोचते उन्होंने बिस्तर पकड़ लिया।
नूर को उनकी तबियत की खबर नहीं थी। वह असर की नमाज़ पढ़ने बैठी और चाहत बेगम का इंतज़ार करने लगी। चाहत बेगम नहीं आईं। उसे कुछ फ़िक्र हुई। उसने जायनामाज़ को किनारे रखा और चाहत बेगम को देखने चली आई। चाहत बेगम करवट बदले हुई थीं। उनकी पुश्त दरवाजे की तरफ़ थी। नूर उन्हें सोया हुआ देखकर गमगीन हो गई। आयशा की बातें उसे चुभती थीं और आज नहीं, हमेशा ही चुभती थीं। लेकिन जब उसके सगे भाई ने उससे मुँह मोड़ लिया था, तो किसी और घर से आए भावज से क्या गिला करती?
वह अपने दिल को बहलाते हुए उनकी तरफ़ कदम आगे बढ़ाती हुई बोली,
"अम्मी, क्या आप भी यहाँ सोई हुई हैं? चलिए, नमाज़ का वक़्त..."
उसके आगे के लफ्ज़ गले में ही रह गए। चाहत बेगम बुखार से तप रही थीं। नूर घबरा उठी और रुआँसी हो गई।
"अम्मी...अम्मी..."
वह भागते हुए बाहर आई और आयशा के कमरे की तरफ़ दौड़ लगाते हुए बोली,
"भाभी...भाभी! अम्मी!"
आयशा ने उसकी रुआँसी आवाज़ सुनी तो बाहर निकल आई। वह कुछ कहती उससे पहले नूर रोते हुए बोली,
"भाभी, अम्मी को बहुत तेज़ बुखार है। वो...वो बेहोश हो गई हैं।"
आयशा के चेहरे का रंग उड़ गया। उसे सारी शिकायतें, सारा गिला सिर्फ़ नूर से था। चाहत बेगम को तकलीफ़ नहीं पहुँचाना चाहती थीं। वह सारा काम छोड़कर उनके कमरे में पहुँची। उसने चाहत बेगम का गला थपथपाकर उन्हें उठाने की कोशिश की। नूर भागकर एक प्याले में पानी और पट्टी ले आई। उसने उनके माथे पर पट्टी बदलनी शुरू कर दी।
असर से मगरिब हो गई, लेकिन बुखार का टेंपरेचर थोड़ा सा भी कम नहीं हुआ। नूर बड़े मुश्किल से अपने आँसू रोक रही थी। क्यों? क्योंकि उसके आँसू पोछने वाली आज खुद आँखें बंद किए पड़ी थी।
अजलान आया और चाहत बेगम की हालत देखकर वह परेशान हो गया। उसने डॉक्टर को फ़ोन करके आने के लिए कहा और कॉल रखकर आयशा पर भड़कते हुए बोला,
"अम्मी की तबियत इतनी ख़राब है और तुमने मुझे फ़ोन तक नहीं किया।"
आयशा ने कुछ नहीं कहा। नूर ने रोते हुए उनका हाथ पकड़कर कहा,
"अम्मी...अम्मी, प्लीज़...खुदा के वास्ते होश में आइए अम्मी...अम्मी, मुझे देखिए तो सही एक बार।"
नूर की आवाज़ सुनकर अजलान ने रंज से नूर को देखा और गुस्से में उसके पास चला आया। नूर चाहत बेगम को होश में लाने की कोशिश कर रही थी। अजलान ने गुस्से में नूर का हाथ पकड़ा और खींचकर उसे बिस्तर से नीचे उतारते हुए बोला,
"तुम अम्मी से दूर रहो।"
"भाई...वो..." नूर की हिचकियाँ शुरू हो गईं।
अजलान ने उंगली दिखाते हुए सर्द लहज़े में कहा,
"तुम्हारी वजह से बाप का साया पहले ही मेरे सिर से छिन गया है। मैं नहीं चाहता कि अम्मी को कुछ हो।"
नूर सुन्न रह गई। उसके भाई के दिल में नाराज़गी नहीं थी, उसके किए नफ़रत थी, जिसे वह चाहकर भी ख़त्म नहीं कर पा रही थी।
उसने बेबसी से अजलान को देखा। अजलान ने उसका हाथ पकड़कर उसे कमरे से धक्का देकर निकाल दिया।
डॉक्टर आए और चाहत बेगम को देखकर चले गए। आश्वासन दिया कि सुबह उनका बुखार उतर जाएगा।
नूर ने ईशा की नमाज़ पढ़ी और आज कुछ कहे बगैर सजदे में गिरकर रोती रही। उसकी हिचकियाँ जारी थीं; न कोई अल्फ़ाज़ मुँह से निकल रहे थे, न ही आँसू रुक रहे थे।
वह सजदे में गिरी रही। रोते-रोते ही उसने पूरी नमाज़ अदा की। नमाज़ ख़त्म करके वह एक बार फिर चाहत बेगम के पास आई। अजलान ने गुस्से से उसे कुछ कहना चाहा, उससे पहले नूर ने रुँधे गले से कहा,
"आपको अपनी नफ़रत दिखानी है तो फिर दिखा लीजिएगा। आप अगर आज जान से भी मार देंगे तो भी मैं यहाँ से नहीं जाऊँगी।"
अजलान गुस्से में आगे बढ़ा तो आयशा ने उसे आगे आकर रोकते हुए कहा,
"अभी नहीं, अभी अम्मी की हालत ठीक नहीं है। अभी उनका ख़्याल करें।"
अजलान जैसे खून का घूँट पीकर रह गया। जलती निगाह से नूर को देखते हुए बाहर निकल गया। उसके जाने के बाद नूर ने तल्ख़ लहज़े में कहा,
"आप यहाँ क्यों खड़ी हैं? आप भी जाइए, क्योंकि भाई की नज़रों में तो आप आला हैं। वो ये तो नहीं जानते कि अम्मी की तबियत आपकी बातों से बिगड़ी है।"
आयशा बिफर पड़ी,
"अपने गुनाह का बोझ मेरे सिर पर मत डालो।"
नूर ने उसकी बात को नज़रअंदाज़ करते हुए कहा,
"अगर मेरी अम्मी को कुछ भी हुआ तो इतने दिनों की खामोशी टूटेगी और उसका कहर आप पर बरसेगा।"
उसके लफ्ज़ बर्फ से भी सर्द थे। आयशा की हड्डियाँ तक सिहर उठीं। उसने देर न करते हुए वहाँ से जाना ही बेहतर समझा।
देर रात नूर कुरआन शरीफ़ की आयतें पढ़-पढ़कर चाहत बेगम पर दम करती रही।
आधी रात के बाद उनका बुखार कुछ कम हुआ तो उन्होंने धीरे से अपनी आँखें खोलीं। नूर उन्हें देखकर मुश्किल से मुस्कुराकर बोली,
"अम्मी...अम्मी, आपको होश आ गया।"
चाहत बेगम ने धीरे से हाथ उठाकर उसके सिर पर रख दिया। नूर एकदम से फफक पड़ी। चाहत की आँखों के कोने से भी पानी निकल गया।
धीरे-धीरे उनका बुखार उतरा। नूर उसी वक़्त जाकर उनके लिए जल्दी से दलिया बनाकर ले आई और उन्हें ज़बरदस्ती खिलाया। चाहत बेगम ने इधर-उधर देखते हुए कहा,
"बाकी सब कहाँ हैं?"
"मैंने सोने भेज दिया है। भाई भी थके हुए थे। जब से आए थे, आपके पास बैठे हुए थे। इसलिए मैंने ही कहा कि आप जाकर सो जाएँ, मैं देख लूँगी आपको।" नूर ने झूठ बोल दिया।
चाहत बेगम कुछ न बोलीं।
नूर ने उन्हें दवा दी और आराम करने का बोलकर उनके सिरहाने बैठ गई। चाहत बेगम का दिमाग अलग ही उलझन में उलझा हुआ था। वह करवट बदलकर सो गईं और कुछ उलझन में कमरे की दीवार को घूरने लगीं।
नूर इन सब से बेख़बर उनका एक हाथ पकड़कर उसी तरह बैठे हुए सो चुकी थी। चाहत बेगम ने मुड़कर उसे देखा और एक ठंडी आह भरकर बोलीं,
"मेरी साँसों की कोई गारंटी नहीं है। कभी भी रुक सकती है अब...अब मुझे तुम्हारे लिए कुछ करना है। तुम्हें इनके बीच नहीं छोड़ सकती। मेरी जान, तुम्हें अब अपने घर जाना होगा। उसके पास, जो मेरे बाद तुम्हारी हिफ़ाज़त कर सके।"
नूर के चेहरे को देखकर उनकी बिगड़ी तबियत भी सुधरती रही और आराम मिलने पर वह भी धीरे-धीरे सो गईं।
जारी है...
चाहत बेगम की तबियत कुछ सुधरी थी। सुबह, फज़र की नमाज़ के वक्त, नूर अज़ान से पहले जग गई। उसने धीरे से चाहत बेगम का हाथ छोड़ा, पहले उनका बुखार चेक किया जो उतर चुका था, और उसके बाद बाहर आ गई। उसने वज़ू बनाया और कुरान शरीफ की तिलावत करने लगी। अज़ान होने तक उसने तिलावत की, फिर नमाज़ अदा की। आज उसकी हर दुआ में सिर्फ चाहत बेगम की शिफा शामिल थी। उसने आज अपने गुनाहों की माफी नहीं माँगी, न ही कोई शिकवा किया, बस अपनी अम्मी की शिफा माँगती रही।
वह जगी तो फिर सोई नहीं। दो दिन बाद फिर से पेपर्स थे। उसने अपने रूम से किताब लिया और चाहत बेगम के कमरे में ही पढ़ने लगी। सूरज निकल आया तो चाहत बेगम ने धीरे-धीरे अपनी आँखें खोलीं। उनकी पहली नज़र नूर पर ही गई। उसे देखकर वो हौले से मुस्कुरा दीं और उठकर बैठने की कोशिश करने लगीं। आहट पर नूर ने सिर उठाया। उन्हें बेदार देखकर अपनी पढ़ाई छोड़कर उनके पास आते हुए बोली,
"क्यूँ तकलीफ कर रही हैं? मुझे आवाज़ देती न।"
"अब उठने में कैसी तकलीफ? भला तुम जाओ पढ़ो, मैं फ़्रेश हो जाती हूँ।" चाहत बेगम जरा सा हँसीं। नूर ने उनकी बात नहीं सुनी और उन्हें बाथरूम तक छोड़कर वापस आकर बैठ गई।
थोड़ी देर के बाद नूर ने उन्हें वापस बिस्तर पर बैठाया और बोली,
"आप बैठिए, मैं आपके लिए हल्का नाश्ता बनाकर लाती हूँ।"
नूर जाने लगी तो चाहत बेगम ने उसे रोकते हुए कहा,
"नूर, आओ बैठो मेरे पास।"
नूर ने मुस्कुराकर उन्हें देखते हुए कहा,
"पहले आपका नाश्ता, अम्मी, फिर बाकी बातें।"
और उनकी जवाब का इंतज़ार किए बगैर किचन में आ गई। आज संडे था तो सब घर पर ही थे। आयशा किचन में थी। नूर को देखते ही बेरुखी से बोली,
"जो बनाना है बोल दो, बना दूँगी। अजलान तुम्हें देखेंगे तो ख़ामख़्वाह नाराज़ होंगे।"
नूर ने मद्धम आवाज़ में कहा,
"भाभी, अम्मी के लिए बनाना है।"
आयशा ने उसी बेरुखी से कहा,
"हाँ तो उन्हीं के लिए बोल रही हूँ। तुम कोई महारानी नहीं हो जो तुम्हें परोसा जाएगा।" नूर की आँखें नम हो गईं। फिर भी उसने मुस्कुराते हुए उसे सूप का कहा और खुद वापस कमरे में आ गई।
उसे इतनी जल्दी वापस देखकर चाहत बेगम मायूसी से बोलीं,
"क्यूँ जाती हो उधर नूर? अपनी बेइज़्ज़ती अच्छी लगती है क्या तुम्हें?"
"आप ये सब मत सोचिए। अभी तो होश में आई हैं और अभी से ये सब।" नूर ने नाराज़ होते हुए कहा। चाहत बेगम ने गहरी निगाह डाली उस पर और उसका हाथ पकड़कर अपने सामने बैठा दिया।
नूर ने सवालिया निगाहों से उन्हें देखा तो चाहत बेगम एक ठंडी आह भरकर बोलीं,
"मैं चाहती हूँ कि आफताब से तुम्हारा..."
"अम्मी, बस कर दें।" नूर तड़प उठी।
चाहत बेगम ने हैरानी से उसे देखा तो नूर ने तुर्र्श लहजे में कहा,
"अम्मी, वो क्या सोचेगा कि जब कोई नहीं मिला तो अपनी दाग़ लगी बेटी मेरे सिर पर मढ़ रही हैं। मेरी इज़्ज़त-ए-नफ़्स का कुछ तो ख़्याल कीजिए।"
"वो ऐसा नहीं सोचेगा, नूर।" चाहत बेगम ने सुलझे अंदाज़ में कहा तो नूर ने कड़े अल्फ़ाज़ में कहा,
"वो सोचेगा तो मुझसे आकर कहेगा नहीं और अगर वो मान भी जाए तो मुझे इनकार है। मुझे नहीं करनी है किसी से शादी। मैं अकेली रहना चाहती हूँ।" आखिर में उसकी आवाज़ भीग गई। मगर ग़ज़ब तो अब होने वाला था। आयशा ने नाश्ता लाते हुए ये बात सुन ली और हवा की रफ़्तार से ये बात अजलान के कान तक पहुँच गई।
वो गुस्से में उनके कमरे में पहुँचा और नूर के बाजू को जोर से पकड़कर गरजते हुए बोला,
"क्यूँ नहीं करनी है तुम्हें शादी? अब कौन से गुल खिलाने बाकी रह गए हैं जो इनकार कर रही हो?"
चाहत बेगम ये सब देखकर परेशान हो गईं। नूर ने कसमसाते हुए कहा,
"भाई, छोड़ें मुझे, दर्द हो रहा है।"
चाहत बेगम उठने की कोशिश करती हुई बोलीं,
"अजलान, छोड़ो उसे...खुदा के वास्ते रहम करो उस पर।"
अजलान गुस्से में जैसे पागल हो गया था। वो ये भी भूल गया था कि उसकी अम्मी बीमार हैं। उसने उन पर चीखते हुए कहा,
"क्यूँ रहम करूँ इस पर? क्या किया है इसने ऐसा जो इस पर तरस खाया जाए? अरे मर क्यूँ नहीं जाती ये? दाग़ मिटेगा हमारे सिर से।" नूर का वजूद अपने भाई का लहजा सुनकर टूटता रहा, मगर वो कुछ कह पाती, उससे पहले चाहत बेगम गश खाकर गिर पड़ीं।
अजलान ने गुस्से से नूर को देखा, उसे धक्का देकर छोड़ दिया और चाहत बेगम की तरफ़ दौड़ा।
आनन-फ़ानन में उन्हें अस्पताल पहुँचाया गया। डॉक्टर ने दवाइ दी, तब जाकर सबको कुछ राहत हुई। होश में आने पर उन्होंने सबसे पहले नूर से मिलने की ख्वाहिश जताई।
नूर रोते हुए उनके पास पहुँची। चाहत बेगम ने खाली नज़रों से उसे देखा और उसके सिर पर शफ़क़त से हाथ फेरते हुए बोलीं,
"रो क्यूँ रही हो? ठीक हूँ मैं।"
नूर ये सुनते ही उनसे लिपट गई और सिसकते हुए बोली,
"मुझे माफ़ कर दीजिए अम्मी, मेरी वजह से आपको न जाने क्या-क्या सुनना पड़ रहा है।"
चाहत बेगम ने अफ़सुरदा लहजे में कहा,
"मुझे अब अपनी कोई फ़िक्र नहीं है नूर, मुझे बस तुम्हारा ख़्याल है। अगर मेरी आँखें बंद हो गईं तो तुम्हारे भाई-भाभी तुम्हें कूड़े के ढेर की तरह सड़क पर फेंक देंगे। तुम्हारा वजूद रेज़ा-रेज़ा हो जाएगा।"
नूर उनके बगल में बैठी सिसकती रही।
चाहत बेगम ने आगे कहा,
"ज़िन्दगी बहुत बड़ी है नूर, ये अकेले नहीं गुज़ारी जाती, और तन्हा लड़की ज़माने के लिए खुली तिजोरी होती है। कोई भी लूट लेने की ख़्वाहिश रखता है, लेकिन एक सच्चे और अच्छे मर्द की निगाहें उसे ज़माने की ग़लत निगाहों से महफ़ूज़ रखती हैं। मैं अपनी आँखें बंद होने से पहले तुम्हें महफ़ूज़ देखना चाहती हूँ।"
"अम्मी, बस करें।" नूर उनका हाथ पकड़कर फफक कर रो पड़ी। चाहत बेगम के कोने भी भीग रहे थे।
"आफताब को कॉल करके बुलाओ यहाँ।" नूर उन्हें और दुःख नहीं पहुँचा सकती थीं, इसलिए उनके कहने पर उसने आफताब का नंबर उनसे लिया और कॉल डायल कर दिया।
कॉल रिसीव होते ही उसने सिसकते हुए कहा,
"आप हॉस्पिटल आ जाएँ, अम्मी आपसे मिलना चाहती हैं।" और कॉल रख दिया।
आफताब की नींद उड़ चुकी थी। वो तूफ़ान की तरह घर से निकला। उसकी अम्मी उसे आवाज़ देती रह गईं, लेकिन उसने कोई जवाब नहीं दिया। वो हॉस्पिटल पहुँचा और चाहत बेगम का पूछकर उनके वार्ड में आ गया, जहाँ एक अनजाना मुस्तक़बिल उसका इंतज़ार कर रही थी।
जारी है...
वक्त गुज़र जाता है, लेकिन गुज़रे वक्त में लोगों के रवैये याद रहते हैं। आप जाहिर न करें, जुबान पर न लाएँ, मगर सूरत नज़र आते ही दिल में दर्द उतरता है कि फ़लाँ इंसान ने मेरे बुरे वक्त में मुझसे बुरा सुलूक किया था। लोग लफ़्ज़ नहीं, नश्तर चलाते हैं ताकि जितना ज़ख्म दे सकें, उतना अच्छा हो।
आयशा और अजलान भी यही कर रहे थे। नूर को ज़िल्लत देने के चक्कर में वे चाहत बेगम की बूढ़ी रूह को भी ज़ख़्मी कर रहे थे। बिगड़ते हालात को देखकर नूर ने भी चाहत की बात मान ली थी और अब वह उस फ़ैसले का इंतज़ार कर रही थी जिसका सिर्फ़ अजलान की तरफ़ इकरार-ए-बयान होना बाक़ी था। बाक़ी चाहत बेगम की तरफ़ से फ़ैसला लिया जा चुका था।
आफताब, माथे पर शिकन लिए, चाहत बेगम के सिरहाने बैठा था और नूर अपनी माँ के पाँव पकड़े बैठी हुई थी।
"आपकी तबियत इतनी ख़राब हो गई है और आप मुझे आज बता रही हैं? बड़ी अम्मी, इतनी क्या लापरवाही की आप अपनों को भी ख़बर न करें?" आफताब ने शिकवा किया।
"ख़ून के रिश्ते जब सफ़ेद हो जाएँ, तो दुनिया का हर रिश्ता बेगाना लगता है।" चाहत बेगम ने धीरे से कहा।
"मैं उन बेगानों में शामिल नहीं होना चाहता, बड़ी अम्मी।" आफताब ने साफ़गोई से कहा। चाहत बेगम धीरे से मुस्कुरा उठीं।
"नूर, मुझे आफताब से अकेले में बात करनी है।" उन्होंने नूर की तरफ़ देखते हुए कहा।
नूर ने बेचैन निगाह से उन दोनों को देखा और थके कदमों से बाहर निकल गई। अजलान ने उसे देखकर मुँह फेर लिया। आयशा के लिए तो वैसे भी वह सिर्फ़ बोझ ही थी, उससे ज़्यादा कुछ नहीं।
नूर के जाने के बाद चाहत बेगम संजीदा होकर बोलीं, "आफताब..."
"आपको बोलने के लिए सोचने की ज़रूरत नहीं है, बड़ी अम्मी। आप सिर्फ़ हुक्म करें।" आफताब ने उनकी दिलजुई की।
"अपनी औलाद के रंग मैंने इन तीन सालों में बखूबी देख लिए हैं, और इन दो दिनों ने तो जैसे मेरे लिए इम्तिहान हो... मेरी ज़िन्दगी कभी भी थम सकती है, आफताब।" चाहत बेगम ने उसकी तरफ़ देखते हुए कहा।
"बड़ी अम्मी... ऐसा न कहें।" आफताब घबराकर बोला। उसकी घबराहट लहज़े और चेहरे दोनों पर ज़ाहिर थी। चाहत बेगम कुछ मुतमईन हुईं यह सोचकर कि जो उनकी इतनी फ़िक्र कर सकता है, वह अपनी शरीक-ए-हयात की फ़िक्र कितनी करेगा।
उन्होंने बेसाख़्ता मुस्कुराते हुए धीरे से कहा, "ये तो सबसे बड़ा सच है, आफताब, जिससे न मैं भाग सकती हूँ और न ही तुम... मुझे अपनी फ़िक्र नहीं है, मुझे नूर की फ़िक्र है और उसी के लिए तुम्हें यहाँ बुलाया है।"
आफताब उनकी बात पर रन्जीदा हो गया। चाहत बेगम ने नम निगाहों से उसे देखते हुए कहा, "मैं जो कहने जा रही हूँ उससे तुम्हें लगे कि मैं ख़ुदगर्ज़ हूँ, मगर ऐसा नहीं है। मैं एक माँ हूँ और अपनी बेटी की सलामती मेरा पहला फ़र्ज़ है। बस उसे महफ़ूज़ देखना चाहती हूँ ताकि जब मेरी आँखें बंद भी हो जाएँ, मेरे बाद उसका कोई ख़्याल रखने वाला हो।"
आफताब के दिल की धड़कनें बढ़ रही थीं। उसे कुछ-कुछ समझ आने लगा था।
"नूर को अपनी शरीक-ए-हयात बना लो, आफताब... निकाह कर लो उससे।" चाहत बेगम के अल्फ़ाज़ ने आफताब के जिस्म को सिहरा दिया। वह ख़ामोश होकर उन्हें तकने लगा।
चाहत बेगम उसके चेहरे के तअस्सुर को देखते हुए बोलीं, "यकीन करो, तीन साल पहले जो भी हुआ उसमें नूर बेक़सूरा है, बस हालात ने उसे मुजरिम बना दिया। वरना वह तो अपने अब्बू की जान थी। ये मेरी ख़्वाहिश है कि नूर तुम्हारी रहे और उसके लिए मैंने हमेशा तुम्हारा ही इख़्तियार किया था और आज भी तुम ही मेरी पसंद हो। अगर तुम्हें ऐतराज है तो तुम ख़ामोशी से यहाँ से जा सकते हो। मैं उसे मोहब्बत की पनाह में देखना चाहती हूँ, बोझ नहीं बनाना चाहती।"
आफताब को चोट पहुँची। उसने बेचैन होकर कहा, "ऐसा न कहें, बड़ी अम्मी... नूर मुझे आपकी ही तरह बेहद अज़ीज़ है... मैं... मैं उससे निकाह करने को तैयार हूँ।"
चाहत बेगम को ऐसा लगा जैसे उनके सीने से बड़ा सा पत्थर हट गया हो। उन्होंने हाथ आगे बढ़ाया तो आफताब ने अपना सिर आगे कर दिया। उन्होंने शफ़्क़त से उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, "ख़ुदा तुम्हें ख़ुश और सलामत रखे, मेरे बच्चे।"
आफताब मुस्कुरा दिया। फिर गहरी आवाज़ में बोला, "नूर का फ़ैसला, बड़ी अम्मी?"
"उससे बात करने के बाद ही तुम्हें बुलाया है।" चाहत बेगम ने कहा। आफताब की नज़र दरवाज़े की तरफ़ उठ गई जहाँ शीशे से नूर का दुपट्टा नज़र आ रहा था।
उसके दिल में कुछ हुआ जो उसे समझ नहीं आया। उसने झिझककर चाहत बेगम को देखा। चाहत बेगम धीरे से हँसते हुए बोलीं, "जाओ, बात करके हर शक़-ओ-शुबहा दूर कर लो।"
आफताब झेंप गया। चाहत बेगम ने उसे हँसते हुए जाने का इशारा किया। वह बाहर आया तो नूर से घबराकर उसे देखा। उससे कुछ दूरी पर अजलान खड़ा था। उसे देखकर उसने बेरुखी से कहा, "आज एक बुलावे पर आ गए क्यों? हम मर नहीं गए थे जो आज यहाँ एहसास गिनवाने आए हो।"
उसकी जगह कोई और होता तो शायद भड़क गया होता, लेकिन आफताब ने बेहद आराम से कहा, "अपनों में एहसान नहीं होते, भाई। बड़ी अम्मी मेरी माँ हैं और उनके लिए मैं तब भी हाज़िर था और अब भी हाज़िर हूँ और हमेशा रहूँगा।"
फिर उसने नूर से मुखातिब होते हुए कहा, "मुझे तुमसे अकेले में बात करनी है।"
"क्यों? यहाँ भी बात हो सकती है।" अजलान ने भड़कते हुए कहा।
"मुझे अपनी होने वाली बीवी से अकेले में बात करने का हक़ है।" आफताब ने नूर की तरफ़ देखते हुए कहा। अजलान हैरान हो गया जबकि आयशा का मुँह खुला का खुला रह गया।
आफताब ने उन दोनों की परवाह किए बगैर नूर का हाथ पकड़कर बोला, "चलो यहाँ से।"
नूर की नज़र आफताब की हथेली पर जम गई। कितनी मज़बूती से उसने उसका हाथ थाम रखा था जिसे उसने तीन साल पहले बड़ी बेरहमी से ठुकरा दिया था। आफताब उसका हाथ पकड़े हुए उसे कैंटीन में ले आया। एक कोने में जगह देखकर वह नूर को बैठाते हुए बोला, "तुम बैठो, मैं कुछ खाने का ऑर्डर दे आता हूँ।"
"मुझे भूख नहीं है।" नूर ने सिर झुकाकर कहा।
"सुबह से दोपहर होने को आई है, नूर। झूठ इतना ही बोलो जो पच सके। चुप करके बैठो यहीं, मैं आ रहा हूँ।" आफताब ने हँसते हुए कहा।
नूर के रोकने से पहले वह जा चुका था। उसकी नज़र बेसाख़्ता ही आसमान की तरफ़ उठ गई। उफ़ुक का आफताब ज़मीं पर बढ़ रही सर्दी को अपनी तपिश से कम कर रहा था और एक आफताब उसकी ज़िन्दगी में वह ठंडक उतारने की कोशिश कर रहा था जिसकी ख़्वाहिश को उसने दफ़्न कर दिया था।
जारी है...
आफताब अकरम बेग, अकरम बेग की सबसे छोटी औलाद, नूर से कुछ ही महीने बड़ा था और सबसे ज़्यादा चाहत बेगम से जुड़ा हुआ था। मुख्तार अहमद और सफ़िया बेगम की भी तीन औलादें थीं: दो बेटियाँ, निशात और महविश, और एक बेटा, आफताब। निशात की शादी हो चुकी थी और महविश की शादी की बात चल रही थी।
आफताब नूर से एक महीना बड़ा था, इसलिए उसका बचपन नूर के साथ गुज़रा था। दोनों साथ बड़े हुए और बचपन के इस साथ ने आफताब की तरफ़ से इसे कुछ और रंग दे दिया, बेख़बर सिर्फ़ नूर थी। चाहत बेगम की पहली पसंद आफताब ही था, लेकिन नूर ने इंकार कर दिया और फिर वो एक बदनुमा हादसा हो गया जिसके बाद सब कुछ बदल गया।
"कहाँ खो गई हो?" आफताब उसके सामने की टेबल पर बैठकर उससे मुखातिब हुआ था।
नूर ने धीरे से ना में सिर हिलाया।
आफताब ने इधर-उधर देखते हुए कहा, "परेशान हो?"
नूर ने संजीदगी से कहा, "नहीं होना चाहिए।"
"कोई जायज़ वजह हो तो समझ आए इस परेशानी का सबब।" आफताब ने कहा तो नूर की आँखें पानी से भर आईं। उसने भर्राए गले से कहा, "मैं ये सब कभी नहीं चाहती थी।"
आफताब ने मुस्कुराते हुए कहा, "कोई भी इंसान अपनी ज़िंदगी में बुरा वक़्त नहीं चाहता है, लेकिन वो आता ज़रूर है। ये बताने की कौन सच में अपना है और कौन मुखौटा लगाए घूम रहा है।"
नूर खामोश रही। आफताब ने रसानियत से कहा, "ज़िंदगी की ख़ासियत ही यही है नूर, की वो अच्छे-बुरे हर दौर से गुज़रती है। अगर ये न हो तो ज़िंदगी बेरंग हो जाएगी। दोनों रंग ज़रूरत हैं हमारी। हाँ, अलबत्ता हम उस वक़्त में अपने आप को कैसे संभालते हैं, ये ज़रूर अहम होता है।"
"मेरी गलतियों में अम्मी का क्या क़सूर? वो किस बात की सज़ा भुगत रही हैं?" नूर रो पड़ी। आफताब को उलझन सी महसूस हुई। उसके सामने बैठी ये नाज़ुक लड़की को बिल्कुल ख़बर नहीं थी कि उसके आँसू आफताब को जला रहे हैं। उसने उजलत से कहा, "तुम... तुम पहले रोना बंद करो।" और उसकी तरफ़ टिश्यू पेपर बढ़ा दिया। नूर ने धीरे से अपने आँसू साफ़ किए।
आफताब ने पानी का ग्लास उसकी तरफ़ बढ़ाते हुए कहा, "पानी पियो।"
"मैं ठीक हूँ, इसकी ज़रूरत नहीं है।" नूर ने मद्धम आवाज़ में कहा।
आफताब शांत हो गया। वो क्या बात करने आया था और क्या बातें हो रही थीं। उसने अब संजीदगी से कहा, "नूर, मैं बड़ी अम्मी के फ़ैसले से राज़ामंद हूँ। मुझे तुमसे निकाह करने में कोई ऐतराज़ नहीं है। अगर तुम्हें ऐतराज़ है तो तुम मना कर दो, मैं सब संभाल लूँगा।"
नूर ने बेसाख़्ता उसकी तरफ़ देखा। क्या शख़्स था! इतना सब्र... वो उसकी चाहत अच्छे से समझती थी और आज जब मौक़ा मिला था तो इनकार कर रहा था। उसके पास तो अच्छा मौक़ा था कि नूर से शादी करके उससे अपने हर जलालत का इंतक़ाम ले, मगर वो अभी भी उसके एक हाँ का मुंतज़िर था।
नूर की खामोशी पर आफताब हँसते हुए बोला, "मैं तुम्हें पसंद करता हूँ, इसका मतलब ये नहीं कि तुम भी मुझे पसंद करो। तुम्हें पूरी ज़िंदगी मेरे साथ गुज़ारनी होगी, इसलिए अपना फ़ैसला मुझे बता दो ताकि मैं बड़ी अम्मी को समझा सकूँ।"
"उसकी ज़रूरत नहीं है।" नूर ने सिसकते हुए कहा। आफताब ने हैरानी से उसे देखा। नूर ने अब नज़र उठाकर उसे देखते हुए कहा, "मुझे अम्मी का ये फ़ैसला मंज़ूर है। मैं उनकी खुशी और सुकून के लिए जान दे सकती हूँ। ये तो सिर्फ़ तुमसे निकाह है।"
आफताब ने हैरानी से कहा, "लेकिन ये तुम्हारी ज़िन्दगी का सवाल है।"
नूर ने तंजिया मुस्कराहट के साथ कहा, "कैसी ज़िंदगी, जिसकी परवाह मेरी माँ के सिवा किसी को नहीं है? भाई की ख़्वाहिश है कि मैं मर जाऊँ ताकि उनके नाम से जुड़ा मेरा नाम, या यूँ कहूँ कि बदनुमा दाग़ हट जाए। भाभी अब मुझसे बात नहीं करती। सिर्फ़ एक अम्मी हैं जो मेरे साथ हैं, मेरी फ़िक्र करती हैं। तो क्या अब उनकी ये ख़्वाहिश भी पूरी न करूँ?"
आफताब ने उसे बोलने दिया। नूर ने आगे कहा, "सबने मुझे गुनाहगार समझा, सिर्फ़ अम्मी को छोड़कर। उनकी फ़िक्र जायज़ है। वो मुझे रोज़ अपने ही घर में ज़लील होते हुए देखती हैं। मैंने हमेशा उन्हें तकलीफ़ दी है, मगर अब और दुःख नहीं दे सकती। मैं उन्हें... अगर तुमसे शादी करके वो सुकून में रह सकती है तो उनके सुकून के लिए कुछ भी।" नूर का गला फिर से रुँध गया।
आफताब ने सोचते हुए धीरे से उसके हाथ पर अपना हाथ रख दिया। नूर ने चिहुँक कर उसे देखा। आफताब ने उसकी घबराहट कम करने के लिए उससे मुस्कुराकर कहा, "मैं तुम्हारे फ़ैसले का हमेशा एहतराम करूँगा। यकीन करो, मैं तुम्हें कभी तन्हा नहीं छोड़ूँगा। तुमसे ज़्यादा अज़ीज़ हैं मुझे मेरी बड़ी अम्मी। उनके जिगर के टुकड़े को संभालकर रखूँगा।" उसकी बातें नूर के लिए सिर्फ़ लफ़्ज़ थे। उसने अपनों के बदलते रूप देखे थे, इसलिए आफताब के लफ़्ज़ उसे सिर्फ़ खाली लफ़्ज़ लग रहे थे जो उसे मुतास्सिर करने के लिए कहे जा रहे थे। बदले में उसने कुछ नहीं कहा और खड़ी हो गई।
आफताब ने उसे रोकते हुए कहा, "अरे कहाँ चली? कुछ खा लो... ऑर्डर अभी आता ही होगा।"
नूर ने झिझकते हुए कहा, "न... नहीं, अम्मी अंदर अकेली होंगी।"
आफताब ने सुलझे अंदाज़ में कहा, "भाई और भाभी हैं वहाँ। आओ बैठो। तुमने सुबह से कुछ नहीं खाया है, सब जानता हूँ मैं।" नूर का बहाना फ़ेल हो गया था। मजबूरन उसे बैठना पड़ा।
थोड़ी देर में सैंडविच, नूडल्स और चाय आया, जिसे देखकर नूर ने हैरानगी से आफताब को देखा।
आफताब ने खाते हुए सरसरी अंदाज़ में कहा, "हाँ, मुझे याद है तुम्हारी पसंद। आओ, चलो खाओ।"
नूर के दिल में कुछ हुआ। उसने झट से सिर झुका लिया और खाने लगी। कभी ये तीनों उसके लिए बेस्ट ऑप्शन होते थे। उसका दिन नहीं गुज़रता था इन तीनों के बगैर, और आज तो वो फ़रमाइश करना भी भूल चुकी थी।
उन्होंने खाना आधा ख़त्म किया था कि नूर के मोबाइल पर आयशा का कॉल आया। उसने हैरानी से कॉल रिसीव की, लेकिन उधर से उसकी बात सुनकर नूर के हाथ-पैर फ़ूल गए। आफताब भी चौंककर उसे देखने लगा।
उसने खाना अधूरा छोड़ दिया और रोते हुए बोली, "अम्मी... अम्मी की हालत बिगड़ रही है।"
और वो आफताब को वहीं छोड़कर चाहत बेगम की तरफ़ भागी। आफताब ने हड़बड़ी में वहीं टेबल पर पैसे रखे और नूर के पीछे दौड़ पड़ा। चाहत बेगम को साँस लेने में दिक़्कत हो रही थी। सब परेशान हो गए थे। नूर और आफताब को साथ में देखकर उन्होंने अजलान से कहा, "अजलान, मेरी ख़्वाहिश पूरी कर दो... नूर का निकाह पढ़ा दो।"
अचानक सब परेशान हो गए, मगर आफताब ने खुशी-खुशी उनका फ़ैसला क़ुबूल कर लिया। एक घंटे में काज़ी का इंतज़ाम कर उन्हें बुलाया गया और वहीं वार्ड में चाहत बेगम के सामने नूर और आफताब का निकाह पढ़ाया गया।
"इजाज़त है... इजाज़त है... इजाज़त है..."
"क़ुबूल है... क़ुबूल है... क़ुबूल है..." की सदा गूँजी और नूर की आँखों से एक क़तरा आँसू निकलकर उसके गालों पर ढुलक गया।
जारी है...
ज़िंदगी बड़ी बेरहम होती है, पल में यूँ करवट बदलती है जैसे मौसम हो। जिसने इसे जीने का सलीका सीख लिया, वह हर हाल में मुतमईन होता है, वरना बाकी की ज़िंदगी बेकली में गुज़रती है।
आफताब हर हाल में जी रहा था; अपना दर्द ज़ाहिर नहीं कर रहा था। इसलिए वह हर मोड़ के लिए बेफ़िक्र था, जबकि नूर बेचैन थी क्योंकि उसकी ज़िंदगी, उसकी पहचान बदल गई थी। अब वह चाहत बेगम की बेटी नहीं, आफताब मुख्तार अहमद की बीवी, नूर आफताब अहमद हो गई थी।
चाहत बेगम को अकेले छोड़ने को बोला गया था। अजलान तो निकाह होते ही आयशा के साथ घर वापस आ गया था। उसे वहाँ रुकने में कोई दिलचस्पी नहीं थी। अब वहाँ नूर और आफताब ही थे। चाहत बेगम की हालत कुछ सुधर गई थी, इसलिए उन्हें सोने दिया जा रहा था।
नूर बेहद रंजीदा होकर वो सब सोच रही थी जो अभी-अभी हुआ था। वह आफताब के निकाह में आ चुकी थी। उसके ख़्यालों में खलल आफताब के आने से पड़ा। सामने चाय का कप लिए आफताब अपने सुलझे अंदाज़ में खड़ा था।
उसे देखकर नूर को कोई फ़र्क नहीं पड़ा। उसने सिर्फ़ चाय का कप लेकर होंठों से लगा लिया।
आफताब उसके बगल में बैठा। तो नूर सवाल कर बैठी, "छोटी अम्मी जान रही हैं?"
आफताब ने हैरान-कुन नज़रों से उसे देखा।
नूर ने एक बार फिर सवाल दोहराया, "तुमने छोटी अम्मी से बात की है?"
"तुम इस वक़्त ये कैसी बातें कर रही हो नूर?" आफताब ने बात का रुख बदलना चाहा। तो नूर ने संजीदगी से कहा, "मैं तुमसे नाराज़ नहीं हूँ, लेकिन ये तो बताओ कि जिस रिश्ते को तुमने शुरू किया है, उसकी उम्र कितनी होने वाली है? एक मिनट, एक घंटा, एक सप्ताह या एक साल? क्योंकि छोटी अम्मी मुझे कभी तस्लीम नहीं करेंगी, ये तुम जानते हो।"
"ऐसा नहीं होगा, समझी?" आफताब ने उसे डाँटते हुए कहा। नूर ने खाली नज़रों से उसे देखा। तो आफताब ने उसी साफ़गोई से कहा, "निकाह किया है तुमसे और इतना समझ लो, तुम अब मेरी ज़िम्मेदारी हो और उसे कैसे पूरा करना है, निभाना है, वो मैं अच्छे से समझता हूँ। तुम अभी सिर्फ़ और सिर्फ़ वो करो जो बड़ी अम्मी चाहती हैं। पढ़ो और कुछ सही करो ताकि लोगों की जुबान अपनी कामयाबी से बंद कर सको।"
"और रुख़सती...?" नूर ने तो सोचा था कि वो तुरंत उसे रुख़सत करवाकर उसे ले जाएगा।
आफताब ने संजीदगी से कहा, "नहीं...अभी तुम बड़ी अम्मी के साथ रहो। तुम्हारे एग्ज़ाम हो जाएँ, तो घर पर बात करूँगा और धूमधाम से तुम्हें लेने आऊँगा।" नूर ने आगे कुछ नहीं कहा।
आफताब ने उसकी बेज़ार सूरत देखी। तो उसका मन सही करने के लिए शरारत से हँसते हुए बोला, "वैसे बड़ी जल्दी है तुम्हें रुख़सती की...क्या बात है नूर बीबी?"
नूर ने बेज़ार नज़रों से उसे देखते हुए कहा, "तौबा आफताब...अपने दिमाग के ढक्कन को बंद रखो। जब भी सोचोगे, औल-फौल ही सोचोगे।"
"लो भाई...तुमने ही तो रुख़सती का कहा था।" आफताब ने कंधे उछाले। तो नूर ने सुलगते हुए कहा, "अपनी राय रखी थी, सवाल किया था, इश्क़ नहीं हुआ है मुझे तुमसे जो उड़ रहे हो, समझे।"
"कोई बात नहीं, हुआ नहीं है तो हो जाएगा।" फिर वही बेफ़िक्र अंदाज़। नूर मज़ीद कुढ़ गई। उसने बेज़ारी से कहा, "अपने ये बेहूदा जोक़ बंद कर दो आफताब, मुँह तोड़ दूँगी तुम्हारा।"
"हाय अल्लाह तौबा...अपने शौहर को मारोगी?" आफताब ने उसे मज़ीद और चिढ़ाया। नूर ने झिल्ल कर अपने सिर पकड़ते हुए कहा, "माफ़ कर दो मुझे आफताब, मेरा बहस का मूड नहीं है, दफ़ा हो जाओ यहाँ से।"
आफताब ने बुरा सा मुँह बनाया। नूर ने उसे घूरकर देखा। आफताब तड़के खड़ा हुआ और वहाँ से जाते हुए बोला, "शरीफ़ बंदे की तो क़द्र ही नहीं है किसी को...हुंह!" और आगे मोड़ से ग़ायब हो गया।
नूर उसे जाते देखती रही। उसके जाने के बाद उसने मोबाइल खोल लिया और कुछ स्टडी अपडेट्स देखने लगी।
कुछ देर बाद आफताब ने मोड़ के कोने से झाँककर देखा और नूर को प्यार से देखते हुए बोला, "कितने दिनों बाद तुम्हारी झल्ली आवाज़ सुनी है नूर...यकीन करो, सुकून पहुँचा है मुझे...अपनी मोहब्बत से तुम्हें पहले की तरह पुरनूर करूँगा नूर, तभी मोहब्बत का असल हक़ अदा होगा...मुझे झेलने के लिए तैयार रहना।" और फिर वापस ग़ायब हो गया।
आफताब सुबह से निकला था तो घर वापस नहीं गया था। फ़ोन पर फ़ोन भी आ रहे थे। उसने अब घर जाना ही सही समझा। बाहर निकला तो चाहत बेगम के मोबाइल पर एक मेसेज छोड़ा और घर की तरफ़ आ गया।
सफ़िया बेगम उसकी ही मुंतज़िर थीं। उसे देखते ही भड़क उठीं, "कहाँ गया था सुबह-सुबह और अभी सूरत दिखा रहा है अपनी...मैं बेवकूफ़ इसके लिए अच्छे-अच्छे नाश्ता बनाकर रख रही हूँ ताकि ये आए तो पेट भरकर खाए।"
आफताब ने जबरन मुस्कुराकर उन्हें देखा और उन्हें मनाने के लिए उनके गले लगकर बोला, "एक काम आ गया था अम्मी, आइन्दा से ऐसे नहीं करूँगा।"
सफ़िया बेगम ने उसे खुद से दूर करते हुए कहा, "तु हॉस्पिटल से आ रहा है, इतनी महक क्यों आ रही है तुझसे?"
आफताब गड़बड़ा गया, मगर फ़ौरन उसने बात संभालते हुए कहा, "हाँ वो...एक कलीग का एक्सीडेंट हो गया था, तो वहीं से आ रहा हूँ...आप खाना लगाइए, मैं फ़्रेश होकर आता हूँ।"
सफ़िया बेगम ने जासूस नज़रों से उसे देखा, जैसे अपने ही बेटे के बात का यकीन न हो। उन्हें। मगर आफताब उनसे झूठ नहीं बोलता था, इसलिए कुछ देर बाद मुतमइन होकर उसके लिए खाना लगाने बावर्चीखाने में आ गईं।
रूम में दाखिल होकर आफताब ने शुक्र का साँस लिया। उसने अलमारी से अपने कपड़े निकाले और नहाने चला गया। गुस्ल करके बाहर आया तो सफ़िया बेगम उसके लिए खाना लगा चुकी थीं। वो जैसे ही खाने बैठा, उसे नूर की याद आ गई। उसने खाना खाते हुए कहा, "अम्मी, खाना और है क्या?"
"हाँ है।"
"आप थोड़ा सा पैक कर देंगी क्या?" आफताब ने जैसे ही कहा, सफ़िया बेगम ने घूरकर उसे देखा।
आफताब ने सब कुछ सोचकर कहा था। उसने बेहद आराम से कहा, "वो क्या है न, जिसका एक्सीडेंट हुआ है वो घर से दूर, यहाँ अकेले रहता है और डॉक्टर ने घर का खाने को कहा है...आप अगर पैक करके दे देतीं तो उसे भी अच्छा लगता।"
"वैसे कौन सा दोस्त है ये?"
"आप नहीं जानती हैं उसे, अपनी एक महीने पहले ज्वाइन किया है उसने मेरे अंडर...ठीक हो जाएगा तो घर लेकर आऊँगा।" आफताब अपनी माँ की फ़ितरत अच्छे से जानता था...कब और क्या पूछेगी, इसलिए सब कुछ सोचकर बैठ चुका था। आफताब ने इतनी सफ़ाई से झूठ बोला था कि सफ़िया बेगम का शक़ भी यकीन में बदल गया।
वो उठकर खाना पैक करने चली गईं। उनके जाते ही आफताब ने ऐसे देखा जैसे पीछा छूटा हो...और फिर वापस से मज़े से खाने लगा।
आयशा ने खाना बनाया, लेकिन सिर्फ़ चाहत बेगम के लिए और उसे अजलान के हाथों भिजवा दिया और खुद आराम करने चली गई।
जारी है...
आफताब खाना खाकर आराम करने लगा। अभी-अभी जो हुआ था, जिससे उसकी निस्बत जुड़ी थी, उस पर यकीन करना उसके लिए मुश्किल हो रहा था। उसकी नूर वापस तो आ ही चुकी थी, लेकिन अब उसका नाम आफताब के नाम से जुड़ चुका था।
उसने मुस्कुराते हुए अपनी आँखें बंद कर लीं। ख्यालों में ही वो नूर को मुस्कुराते हुए देख रहा था। उसके ख्याल में खलल सफिया बेगम की आवाज़ से पड़ा।
"आफी...खाना पैक हो गया है, ले जा।"
आफताब फुर्ती से उठ बैठा। उसने जल्दी से अपने बाल सही किए और सफिया बेगम के पास आकर दुलार से बोला,
"अरे वाह अम्मी, बड़ी जल्दी तैयार कर दिया आपने। ठीक है, मैं जा रहा हूँ। शाम तक घर लौटूँगा। हो सके तो रात का खाना भी थोड़ा ज़्यादा बना देना।"
सफिया बेगम ने घुड़कते हुए कहा,
"मैं ये रोज़-रोज़ नहीं करने वाली हूँ आफी, कोई और इंतज़ाम कर लेना, तु समझा।"
आफताब ने उदास होते हुए कहा,
"अम्मी, उसका इस शहर में कोई नहीं है।"
सफिया बेगम भड़क उठीं।
"अरे कमबख्त, क्या चाहता है तू कि मैं इस बुढ़ापे में दर्द से कराहती रहूँ? एक तो मैं तुझसे शादी का कह-कह कर थक चुकी हूँ... लेकिन तूने तो ज़िद पकड़ ली है कि तू शादी नहीं करेगा और कितनी चाकरी कराएगा मुझसे इस बुढ़ापे में?"
आफताब पेश-ओ-पेश में पड़ गया। वहाँ से निकलने में ही भलाई थी उसकी। उसने टालते हुए कहा,
"अम्मी...अभी तो..."
"क्या अभी तो...? नहीं, तू आज मुझे बता दे कि तू चाहता क्या है? क्यों नहीं करनी है तुझे अभी शादी? अरे कुछ दिनों में माहरुख भी चली जाएगी।" सफिया बेगम का सब्र जवाब दे चुका था। आफताब को लगा अपना सिर ही पीट ले। अब क्या ही समझाए कि उसने निकाह कर लिया है, वो भी उस लड़की से जिसे शायद आप कभी अपना नहीं पाएँगी?
उसने बात आगे बढ़ने से रोकते हुए कहा,
"अम्मी...आज रात मैं इसका फैसला कर दूँगा। अभी जाने दीजिए, वहाँ मेरा इंतज़ार हो रहा होगा।"
सफिया बेगम ने नाराज़गी से उसे देखा। आफताब उनकी हथेली चूमकर वहाँ से तेज़ी से निकल गया।
अजलान खाना लेकर हॉस्पिटल आया तो चाहत बेगम जग चुकी थीं और नूर से बातें कर रही थीं। अजलान ने नूर को पूरी तरह नज़रअंदाज़ करते हुए कहा,
"अम्मी...ये आपके लिए खाना लाया था, आप खा लें।"
चाहत बेगम ने मद्धम मगर शफ़कत भरी आवाज़ में कहा,
"नूर को घर लेते जाओ अजलान, वो...वो फ़्रेश हो जाएगी।"
"नहीं...अम्मी, मैं आपके साथ ही घर चलूँगी। आप मेरी फ़िक्र न करें।" अजलान ने नूर की किसी बात का जवाब देना भी ज़रूरी नहीं समझा। अजलान पूरी तरह चाहत बेगम की तरफ़ मुखातिब था। उसने सुलझे अंदाज़ में कहा,
"अम्मी, मैं आपके आगे की प्रोसेस देखकर आता हूँ ताकि आपका डिस्चार्ज जल्दी से जल्दी हो सके।" अपनी बात खत्म कर अजलान एक पल भी वहाँ नहीं रुका।
नूर ने किनारे होकर टिफिन खोला। उसमें सूप के अलावा कुछ भी नहीं था। उसकी आँखें धुंधला गईं। उसने जल्दी से अपने आँसू पोछे और चाहत बेगम की तरफ़ मुड़कर मुस्कुराते हुए बोली,
"अम्मी...आप ये पी लें।"
"सिर्फ़ यही आया है क्या? तुम्हारे लिए कुछ नहीं है?" चाहत बेगम को तशविश हुई। नूर ने जबरन मुस्कुराकर कहा,
"अरे नहीं अम्मी, भाभी इतनी भी नफ़रत नहीं करती मुझसे...उन्होंने मेरे लिए खाना भेजा है...आपको पिला दूँ तो बाहर कैंटीन में बैठकर खा लूँगी।"
"तुम सच कह रही हो?" चाहत बेगम ने बेयकिनी से कहा तो नूर ने एक दफ़ा और झूठ बोल दिया।
उसने चाहत बेगम को सूप पिलाया और उन्हें आराम करने का कहकर कैंटीन में आ गई। कैंटीन में आते ही उसके रुके हुए आँसू बरबस ही बह चलें। वो जितना उन्हें रोकने की कोशिश कर रही थी, वो उतना ही बाँध तोड़कर बहते चले जा रहे थे।
"तुम यहाँ बैठी क्या कर रही हो?" आफताब की आवाज़ पर नूर चौंकी। सामने आफताब संजीदगी से उसे देख रहा था। नूर ने हड़बड़ाते हुए अपना चेहरा साफ़ करते हुए इधर-उधर देखने लगी।
आफताब आकर उसके सामने बैठ गया और उसकी तरफ़ टिश्यू बढ़ाते हुए बोला,
"ये बात-बात पर रोती क्यों हो यार तुम? आँखों में दर्द नहीं होता है?"
"तुम्हें क्या मतलब है? क्यों आए हो?" नूर ने बेरुखी से कहा। आफताब ने हैरानगी से कहा,
"ये क्या बात हुई मैडम? जिसके लिए आया हूँ, वहीं मुँह फेर रही है।"
नूर ने घूरकर उसे देखा।
"चले जाओ यहाँ से आफताब, वरना मुँह तोड़ दूँगी तुम्हारा।"
"ऐ पागल लड़की! कुछ लिहाज़ किया करो। शौहर हूँ अब मैं तुम्हारा।" आफताब ने जैसे उसे अपना रिश्ता याद दिलाया। नूर झिझक गई। उसे अभी कोई दिलचस्पी नहीं थी इन बातों में, इसलिए वो उठकर जाने लगी। आफताब ने फ़ौरन उसका हाथ पकड़ लिया। नूर के जिस्म के हर हिस्से में सिरहन पैदा हुई थी इस छुअन से।
नूर ने नाराज़गी से उसे देखा तो आफताब ने उसका हाथ छोड़ दिया और टिफिन की तरफ़ इशारा करते हुए बोला,
"खाना लाया था तुम्हारे लिए घर से...खा लो।"
"मेरे लिए?"
"हाँ, तुम्हारे लिए ही है। अब खाओ, मेरा मुँह न देखो।" आफताब ने मज़ीद उसे चिढ़ाकर कहा।
नूर इस दफ़ा खामोशी से बैठ गई। आफताब मन ही मन मुस्कुरा उठा। उसने टिफिन खोलकर खाना निकालकर नूर की तरफ़ बढ़ाया। नूर ने हैरानी से उसे देखते हुए कहा,
"ये तो...तो इसकी खुशबू छोटी अम्मी के हाथ की हैं।"
"तुम्हें उनकी महक याद है?" आफताब को सच में हैरानी हुई।
नूर ने पहला निवाला खाते हुए कहा,
"क्यों नहीं याद रहेगी? मेरे लिए ख़ास-ख़ास डिशेज़ जो बनाती थीं वो...तुमसे ज़्यादा लाड़ली थी मैं उनकी।"
"हाँ, वो तो है।" आफताब पुराने दिन याद करके मुस्कुराया। खाते हुए नूर ने पहली बार पूछा,
"सब कुछ ठीक है न घर पर? मेरा मतलब माहरुख आपी और भी सब?"
"हाँ, सब ठीक है...तुम खाना खा लो पहले, फिर बात करना।" नूर ने हाँ में सिर हिलाया और खामोशी से खाना खाने लगी।
सुबह तक चाहत बेगम को डिस्चार्ज करना था। पेपर कंप्लीट किए जा रहे थे। नूर उनके साथ बैठी हुई थी और उससे कुछ दूरी पर आफताब भी बैठा हुआ था।
"तुमने मुझे अपने सबसे फ़र्ज़ से आज़ाद कर दिया आफताब, नूर को तुमसे जोड़कर अब मैं बेफ़िक्र होकर इस दुनिया को अलविदा कह सकती हूँ।" चाहत बेगम की बात पर नूर नाराज़गी से बोली,
"अम्मी, बस करें...अभी घर चलें और मैं अब ऐसी कोई भी बात आपके मुँह से नहीं सुनना चाहती हूँ।"
चाहत बेगम हँस पड़ीं। आफताब ने नूर की बात पर तस्दीक करते हुए कहा,
"नूर सही कह रही है बड़ी अम्मी...आप अब अपने ऊपर ध्यान दें। मैं नूर का ख़्याल रख लूँगा...आप ठीक हो जाइए तो रुक़्सती भी हो जाएगी। अब आप किसी बात के लिए ज़्यादा मत सोचिएगा। कोई भी ज़रूरत हो, बस मुझे बुला लीजिएगा, मैं हाज़िर रहूँगा आपके लिए हमेशा।"
चाहत बेगम ने शफ़कत से उसके सिर पर हाथ फेर दिया और आँखें मूँदकर आराम करने लगीं। आफताब ने आज रात वहीं ठहरना सही समझा, इसलिए सफिया बेगम को कॉल करके इमरजेंसी कह दिया और फ़ोन स्विच ऑफ़ करके किनारे रख दिया।
रात का तारीक सन्नाटा फैल चुका था। अजलान जा चुका था और उस सन्नाटे में आफताब और नूर रात के छंट जाने के बाद उसके आने वाली भोर का इंतज़ार कर रहे थे।
जारी है...
हस्बे मामुल, फज़र का वक्त हुआ और नूर नींद से बेदार हुई। उससे कुछ दूरी पर आफताब भी बेढँग तरीके से अपनी नींद को मुकम्मल करने की कोशिश कर रहा था। नूर ने चाहत बेगम को देखा; उनकी आँखें अभी भी बंद थीं।
उसने मुस्कुरा कर उन्हें देखा और बाहर निकली। बाहर आते ही सर्दी उसे छू कर गुज़री। उसने अपनी बाहें इर्द-गिर्द लपेट लीं। नमाज़ तो वह पढ़ नहीं सकती थी, इसलिए सिर्फ़ तस्बीह पढ़ने का सोचा और नल तलाशने के लिए आगे बढ़ी।
"नूर, रुको... मैं भी चलता हूँ।" पीछे से आफताब ने आवाज़ लगाई। नूर ने हैरानी से उसे देखा। तो आफताब ने हांफते हुए कहा, "नमाज़ पर सिर्फ़ तुम्हारा हक़ नहीं है। अब चलो।"
"हूँ…!" नूर ने हामी भरी। दोनों ने नल ढूँढा और वज़ू बनाकर वापस आए, तो चाहत बेगम अभी भी नींद की गहरी आगोश में थीं।
नूर उनसे किनारे बैठकर उंगलियों पर तस्बीह गिनने लगी। आफताब भी वही कर रहा था।
थोड़ी और रौशनी होने पर चाहत बेगम ने धीरे से आँखें खोलीं। नूर उनके करीब आकर बोली, "अम्मी, कैसा महसूस कर रही हैं अब आप?"
"बेहतर हूँ, मेरी जान।" चाहत बेगम का प्यार उमड़ आया था। आफताब उन दोनों को दूर से देखकर मुस्कुरा रहा था।
वक्त गुज़रा और चाहत बेगम घर आ गईं। आफताब सब से मिलकर वापस आया, तो सफिया बेगम उसे देखते ही बोल पड़ीं, "कैसा है अब तुम्हारा दोस्त?"
"ठीक है, अम्मी... घर छोड़ कर आया हूँ। ऑफिस जाते हुए फिर एक दफ़ा मिल लूँगा।" आफताब ने बिल्कुल सरसरी अंदाज़ में कहा और ऊपर सीढ़ी चढ़ते हुए बोला, "मैं थोड़ा आराम करके निकल जाऊँगा ऑफिस। माहरुख से मेरा नाश्ता तैयार करवा दें।"
"ठीक है।" सफिया बेगम ने जवाब दिया और बावर्चीखाने में आ गईं, जहाँ माहरुख पहले से ही थी।
"भाई आ गया, अम्मी?" माहरुख ने रोटियाँ सेंकते हुए कहा।
"हाँ, आ गया है। तुम एक काम करो, उसके लिए सब्ज़ी गरम करो। मैं लंच तैयार कर देती हूँ।" सफिया बेगम अपना भी हाथ चलाते हुए बोलीं।
कुछ देर बाद नाश्ता और लंच दोनों तैयार था।
आफताब ने थोड़ा सा आराम किया और ऑफिस चला गया। रास्ते में उसने चाहत बेगम से बात की, उनकी ख़ैरियत पूछी और शाम में आने का वादा करके कॉल रख दिया। नूर वहीं थी, मगर उसकी जरा भी दिलचस्पी नहीं हुई कि वह आफताब का हाल ही पूछ लें। आफताब समझदार था; वह समझता था कि नूर को अभी इस रिश्ते को अपनाने में वक़्त लगने वाला है, इसलिए उसने बुरा माने बगैर कॉल रख दिया।
ज़िंदगी वापस पटरी पर चल पड़ी। चाहत बेगम नूर के साथ वक़्त गुज़ार रही थीं और अब उनका एक और साथी हो गया था, आफताब।
सुबह-शाम आता; सुबह तो थोड़ी देर ठहरता, लेकिन शाम को आता तो घंटा बैठता और चाहत बेगम से खूब बातें करता। उस दौरान नूर एक दफ़ा भी उनके सामने नहीं जाती थी।
नूर और आफताब का रिश्ता जहाँ शुरू हुआ था, वहीं तक था; निकाहनामे पर दस्तख़त तक, उससे ज़्यादा नहीं। ज़्यादा से ज़्यादा नूर उससे रस्मी सवाल-जवाब कर लेती थी और कुछ भी नहीं।
नूर ने अपना पूरा ध्यान पढ़ाई पर लगा दिया और किसी बात के बारे में सोचती तक नहीं थी।
निकाह उसके लिए सिर्फ़ उसकी अम्मी की रज़ा थी और कुछ नहीं। हाँ, एक और फ़र्क़ भी आया था उसकी ज़िन्दगी में; वह था आयशा और अजलान के ताने बंद हो चुके थे। आफताब से निकाह के बाद अजलान और आयशा उससे किसी तरह की गुफ़्तगू नहीं करते थे, तो पुरानी बातों को छेड़ते भी नहीं थे; इसलिए कुछ ज़्यादा ही सुकून उतरा था उसकी ज़िन्दगी में।
उसके सारे पेपर्स भी आफताब ने ही दिलवाए। आख़िरी पेपर देकर लौटी तो खूब सोई। शाम को नींद शोर-शराबे से टूटी। पहले तो कुछ समझ नहीं आया, लेकिन जब समझ आया तो बाहर भागी। अजलान चाहत बेगम के सामने था और उन पर किसी बात के लिए चिल्ला रहा था। नूर आगे बढ़ी। उसे देखते ही अजलान ने ज़हर उगलते हुए कहा, "क्यूँ... अब क्या करवाना बाक़ी रह गया है... निकाह हुआ ना तो रुख़सत कीजिए, क्या दिक्कत है रुख़सत में?"
"वही तो कब से समझा रही हूँ, इसका सेमेस्टर पूरा होने दो, फिर कर देना रुख़सत। मुझे कोई शौक़ नहीं है बेटी को घर बिठाए का।" चाहत बेगम का लहज़ा नरम ही था, मगर अजलान न जाने क्यों उबल रहा था।
नूर सहम कर दीवार के कोने में खड़ी थी। अजलान ने गुस्से से बौखलाकर कहा, "आपने निकाह की बात छुपाकर रखी है। सब मुझसे पूछते हैं कि आपकी बहन किसके साथ घूमती है... अरे, हद हो गई है... मैं कुछ नहीं जानता। इसे दस दिनों के अंदर रुख़सत करें, वरना मैं या तो इसका गला दबा दूँगा या फिर ख़ुद ज़हर खा लूँगा।"
"अजलान... ख़ुदा का ख़ौफ़ करो।" चाहत बेगम की आवाज़ लरज़ उठी।
अजलान गुस्से में अंदर चला गया। आयशा भी उसके पीछे-पीछे गई। उसके जाने के बाद नूर भागती हुई चाहत बेगम के पास आई और उनकी तबियत ख़राब होने के डर से बोली, "अम्मी... अम्मी, आप मेरी रुख़सत कर दें... मुझे कोई ऐतराज नहीं है... आप आज ही आफताब से बात करेंगी।"
"तु इतना क्यों घबरा रही है, चाँद... अम्मी ठीक हैं, उन्हें कुछ नहीं हुआ है।" चाहत बेगम ने पुचकारते हुए कहा। नूर ने नम निगाहों से उन्हें देखा और बेसाख़्ता उनके सीने से लगकर छोटे बच्चे की मानिंद सिसकने लगी।
"भाई... मुझे कभी माफ़ नहीं करेंगे... क्यों हैं वो इतने नाराज़... उनसे बोलें कि मुझे माफ़ कर दें, अम्मी... प्लीज़, उनसे कहें कि मुझे माफ़ कर दें।" चाहत बेगम ने रसानियत से कहा, "इंसानी फ़ितरत से मजबूर है वो बेटे।"
नूर ने उनकी तरफ़ देखा, तो चाहत बेगम उसके आँसू साफ़ करती हुई बोलीं, "इंसानी फ़ितरत है ये कि अपनी गुनाह भी लोगों को अपनी मजबूरी नज़र आती है और दूसरों की मजबूरी गुनाह... तुम्हारा सिर्फ़ तुम्हारे बाप के ज़िंदा रहने तक ही तुम्हारा भाई था। अब वो सिर्फ़ एक माँ की दूसरी औलाद है जिसे ख़ुद से प्यार से अपनी माँ और बहन की परवाह नहीं है।"
"लेकिन अम्मी…!"
"तुम फ़िक्र न करो... उसके कहने से कुछ नहीं होगा। जब तक तुम्हारे सेमेस्टर पूरे नहीं हो जाते हैं, रुख़सत नहीं होगी। जाओ, फ़्रेश हो जाओ... मैं चाय बनाती हूँ।"
"मेरा मन नहीं है, अम्मी।"
"लेकिन मुझे तलब है।" चाहत बेगम ने कहा, तो नूर ने बेदिली से उन्हें देखा और कमरे में आ गई। आज आफताब भी नहीं आया; उसकी कोई ज़रूरी मीटिंग आ गई थी।
शाम से रात हुई और खाना खाकर सब सोने चले गए। नूर पढ़ने बैठी, लेकिन दिल न लगा, तो मोबाइल में ही कुरआन शरीफ़ लगाकर छोड़ दिया और करवट बदलते हुए सोने की कोशिश करने लगी।
जारी है…
जिंदगी की फितरत है कि वह किसी के लिए नहीं रुकती। बुरा वक्त भी गुज़र जाता है और अच्छा वक्त भी अपनी झलक दिखाकर चला जाता है। मगर इंसान अपनी मगरूरियत में भूल जाता है कि वक्त उसके हिसाब से हमेशा नहीं चलेगा और वह मगरूर होकर लोगों की दिल-आज़ारी करता है, उन्हें वे लफ्ज़ कह देता है जो वक्त गुज़र जाने के बाद उन्हें चुभते रहते हैं।
अजलान ने नूर और चाहत बेगम के साथ यही किया था। बड़ा भाई बाप की जगह पर होता है, लेकिन उसने बाप तो छोड़ो, भाई होने तक का फ़र्ज़ अदा नहीं किया। अपने वालिद की आँखें बंद होते ही उसने अपनी बहन से यूँ मुँह मोड़ लिया जैसे वह सड़क से उठाकर लाई गई हो।
रात हुए हंगामे की वजह से नूर की आँखों में नींद नहीं थी। नूर करवट बदल-बदल कर थक गई, तो उठकर बैठ गई। उसने अपने बगल के पलंग पर चाहत बेगम को सोते हुए देखा, तो न जाने क्या सोचकर मुस्कुरा उठी।
आँखों में पानी सा उतर आया। ख्वाब-ख्याल सब कुछ जैसे आँखों के सामने घूमने लगा।
बहुत कोशिशों के बाद नूर ने आँखें बंद कीं और इस दफ़ा नींद आ गई। रात देर से सोने की वजह से उसकी नींद सुबह थोड़ी देर से खुली। उसने आँखें मसलते हुए अपने बगल में देखा; चाहत बेगम अभी भी लिहाफ़ ओढ़े सोई हुई थीं। कल की बात का ख्याल कर उसने उन्हें जगाना सही नहीं समझा। फ़ज़र की नमाज़ तो वैसे भी क़ज़ा हो ही चुकी थी, इसलिए उसने उन्हें सोने दिया।
इतनी सर्दी में उसका दिल नहीं चाहा कि लिहाफ़ से निकले, लेकिन कहते हैं ना, जो सोचो वो होता कहाँ है। वह अभी बेड से नीचे उतरी ही थी कि डोर बेल बजी। उसे मज़ीद हैरानी हुई; इतनी ठंड में, इतनी सुबह कौन हो सकता है?
वह कमरे से बाहर निकली, तो अजलान को दरवाज़े की तरफ़ जाते देखकर ठिठक गई।
अजलान ने दरवाज़ा खोला, तो सामने आफ़ताब खड़ा था। उसे देखकर अजलान के चेहरे की रंगत बदल गई। उसने बेहद रूखाई से कहा, "इतनी सुबह तुम यहां क्या कर रहे हो?"
आफ़ताब को उसका लहजा काफी बुरा लगा। फिर भी उसने दरगुज़र करते हुए कहा, "बड़ी अम्मी से मिलने आया हूँ।"
अजलान किनारे हट गया। आफ़ताब अंदर आया, तो सीधा चाहत बेगम के पास जाने के लिए मुड़ा, लेकिन अजलान के लफ़्ज़ों ने उसके क़दम रोक दिए। "तुमने निकाह की बात छुपाकर क्यों रखी है?"
आफ़ताब ने उसे मुड़कर देखा। अजलान ने तुर्रश लहज़े में कहा, "अगर तुम्हें निकाह करने के बाद भी मेरी बहन से छुपकर ही मिलना था, तो निकाह का दिखावा क्यों किया? तुम्हारी वजह से लोग मुझ पर उंगली उठा रहे हैं।"
नूर कमरे के पर्दे की ओट में सब कुछ सुन रही थी। आफ़ताब ने साफ़गोई से कहा, "मैं नूर की पढ़ाई मुकम्मल होने तक किसी तरह की उलझन नहीं पैदा करना चाहता, इसलिए इसे छुपाकर रखा है।"
"छुपाकर रखा है या तुम दोनों की नियत ठीक नहीं है?"
"कैसी नियत?"
"यही कि तुम दोनों निकाह कर लो और छुपकर अय्याशियाँ करते रहो। अरे वो तो है ही बेशर्म, तुम क्यों…" अजलान का लहजा तेज़ हुआ, मगर उसके लफ़्ज़ पूरे होने से पहले आफ़ताब ने उससे भी ऊँची आवाज़ में कहा, "अपने लफ़्ज़ पर ध्यान दीजिए अजलान भाई।"
अजलान की आँखें हैरानी से बड़ी हो गईं, मगर आफ़ताब ने उसी अंदाज़ में कहा, "आपको मुझे जो कहना है कह लीजिए, मैं अपनी बीवी के खिलाफ़ एक लफ़्ज़ भी बर्दाश्त नहीं करूँगा।"
अजलान कुछ कहने ही वाला था कि नूर ने तेज़ी से आकर कहा, "आप दोनों प्लीज़ सुबह-सुबह बहस न कीजिए, आफ़ताब। चलो अम्मी के पास।"
अजलान ने गुस्से से नूर को देखा और मुँह फेरकर खड़ा हो गया। नूर ने आफ़ताब की तरफ़ बेबस नज़रों से देखा। आफ़ताब नाराज़गी से अंदर आ गया।
उसने कमरे में आते ही खुद को शांत किया, फिर नूर की तरफ़ देखा। नूर खामोशी से सिर झुकाए खड़ी थी। आफ़ताब उसके करीब आकर गुस्से में बोला, "क्या हो गया है तुम्हें नूर? क्यों हो गई हो तुम ऐसी?"
"मैं ठीक तो हूँ, कुछ भी तो नहीं हुआ है मुझे।" नूर नज़रें चुरा गई।
आफ़ताब ने गुस्से से उबलते हुए कहा, "बदल गई हो तुम। तुम ऐसी तो नहीं थीं। तुम गलत बर्दाश्त नहीं करती थीं और आज…आज तुम्हारे बारे में गलत बोल रहे हैं सब और तुम सही होकर भी किसी को जवाब नहीं दे रही हो।"
"हालात और वक्त सबको बदल देते हैं, मुझे भी बदल दिया।" नूर ने बेहद धीमी आवाज़ में कहा और चाहत बेगम को जगाने के लिए बढ़ी।
आफ़ताब का ध्यान अब चाहत बेगम की तरफ़ गया। उसने उनके पास आकर कहा, "बाहर इतना शोर-शराबा हुआ, फिर भी बड़ी अम्मी नहीं जगीं। तबियत ठीक है इनकी?"
"हाँ…ठीक है। कल रात देर से सोईं, शायद…" नूर के लफ़्ज़ गले में ही रह गए।
आफ़ताब भी कुछ ठिठका। नूर ने चाहत बेगम के पैर छुए, "अम्मी…अम्मी…"
आफ़ताब ने भी तुरंत उनके पाँव छुए। कुछ गलत उनका दिल दहला गया। चाहत बेगम का जिस्म ठंडा था।
नूर ने तुरंत उनका चेहरा थपथपाते हुए कहा, "अम्मी…अम्मी…आँखें खोलिए…अम्मी क्या हुआ आपको?"
आफ़ताब का सारा गुस्सा झाग की तरह बैठ गया। वह बदहवास अजलान के कमरे की तरफ़ लपका, "अजलान भाई…अजलान भाई! बड़ी अम्मी…"
"क्या हुआ उन्हें…!" अजलान ने बेहद बेज़ारी से कहा।
आफ़ताब हाँफते हुए बोला, "वो…वो कुछ बोल नहीं रही हैं, उनका जिस्म सर्द पड़ा हुआ है।"
अजलान की सारी बेज़ारी एक झटके में ख़त्म हो गई। वो चाहत बेगम की तरफ़ लपका।
एक बार फिर अस्पताल का रुख़ किया गया और इस दफ़ा डॉक्टर भी कुछ कर नहीं पाए। चाहत बेगम की रूह लफ़्ज़ों और तानों से छलनी होकर इस दुनिया को अलविदा कह गई।
नूर तो वहीं ग़श खाकर गिर पड़ी। आफ़ताब ने उन्हें संभाला। पूरा घर गमगीन हो गया। अजलान ने अपने रिश्तेदारों को ख़बर कर दी। धीरे-धीरे करके सबका आना शुरू हुआ। सफ़िया बेगम ने आफ़ताब को वहाँ पर पहले से देखा, तो कुछ रंजीदा हुईं, फिर माहौल देखकर शांत हो गईं। नूर को होश नहीं था। वह बेहोश हुई, तो आँखें नहीं खोल सकीं। आख़िर में आफ़ताब ने डॉक्टर को बुलाया। महविश के साथ नूर को छोड़कर बाहर चाहत बेगम के जनाज़े की तैयारी में जुट गया। ज़ोहर की नमाज़ के बाद जिस्म को सुपुर्द-ए-खाक किया गया।
नूर बेहोश रही शाम होने तक। उसे होश आया, तो वह एकदम से उठ बैठी।
जारी है…
दुनिया की हर शय फ़ानी है, जो यहां आया है उसे वापस लौटना भी है। यही दस्तूर है और यही कुदरत का इंतजाम भी...
चाहत बेगम का जिस्म मिट्टी को सुपुर्द कर दिया गया था और उनके चाहने वाले उनके जाने के सोग में डूबे हुए थे।
मय्यत से वापसी के बाद सफिया बेगम आफताब को ले कर किनारे आ गईं।
"तुम यहां क्या कर रहे हो?"
आफताब ने बात टालने के इरादे से कहा, "अम्मी, माहौल देखिए। ये जगह अभी बात करने के लिए सही नहीं है।"
सफिया बेगम बेरुख हो गईं। "क्यूँ सही नहीं है? तुम मुझे बताओ, यहां क्या कर रहे हो, वो भी मुझसे पहले?"
आफताब ने बात बढ़ती देख उन्हें समझाया, "अम्मी... मैं इसी रास्ते से ऑफिस जाता हूँ, इसलिए यहां आ गया। अब प्लीज कोई सवाल मत कीजियेगा। बाकी बात घर पर करेंगे।"
सफिया का दिल मसोस कर रह गया। वो महविश के पास गई। नूर को देखकर उनके चेहरे पर कई रंग एक साथ गुज़र गए। अचानक से उनके लहज़े में नरमी आ गई।
"कैसी है अब?"
"सोई हुई हैं।" महविश ने धीरे से कहा। सफिया बेगम वहीं बैठ गईं। उन्होंने सादे से अंदाज़ में कहा, "कैसी हो गई है न... पहले नाम की तरह चेहरा रौशन हुआ करता था, अब तो मुरझा गई है।" आफताब कमरे के बाहर से गुज़र रहा था कि उनकी बात सुनकर ठिठक गया।
उसके दिल में उम्मीद की किरण जगी कि शायद सफिया बेगम नूर को बहु के तौर पर अपना लें। मगर ये उसकी गलतफहमी थी। सफिया बेगम महविश से आगे बोलीं, "लेकिन जो हुआ, इसकी अपनी गलती थी। अगर इसने बड़ों का मान रखा होता, तो आज मेरी बहु बनकर राज कर रही होती। मैं तो शुक्र मनाती हूँ कि इसकी शादी आफताब से नहीं हुई।"
महविश ने इधर-उधर देखते हुए दबी आवाज़ में कहा, "अम्मी, चुप करें। कोई सुन लेगा। कुछ तो लिहाज़ करें।"
सफिया बेगम चुप हो गईं, लेकिन नज़र नूर के मुरझाए चेहरे पर ही थी। वो महविश को ले कर घर निकल गईं। जाते-जाते आफताब को जल्दी आने का कहकर गई थीं। आफताब जानता था कि घर पर सवालों की झड़ी लगने वाली है, इसलिए वो खुद को उन सवालों का जवाब देने के लिए तैयार करने लगा।
धीरे-धीरे पूरा घर खाली हो गया। अब वहाँ सिर्फ़ नूर, आफताब, अजलान और आयशा और बच्चे थे। अजलान अपने कमरे में गमगीन बैठा हुआ था। माँ से हुई आखिरी बात सोचकर उसकी आँखें डबडबा जा रही थीं। उसने सिसकते हुए अपना सिर पकड़ लिया।
"अम्मी...!"
आयशा उसके पास आई और उसे संभालने लगी। "ऐसे बच्चों की तरह मत रोइए अजलान। अम्मी को जाना था, इसलिए चली गई। खुदा के वास्ते संभालिए खुद को।"
अजलान ने आयशा को पकड़ लिया पर सिसकते हुए बोला, "अम्मी चली गईं आयशा... अम्मी।"
आयशा उसका सिर सहलाते हुए उसे दिलासा दे रही थी, जबकि उसका दिल खुद गमगीन था, चाहत बेगम के चले जाने से।
शाम होते-होते नूर को होश आया। होश आते ही वो झटके से उठ बैठी। आफताब उसके कमरे में ही था। उसे होश में देखकर उसकी तरफ बढ़ा, लेकिन नूर ने न उसे देखा और न ही उसे सुना। वो सीधा बाहर भागी।
"अम्मी... अम्मी... अम्मी कहाँ हैं आप!"
उसकी आवाज़ सुनकर अजलान, आयशा सब बाहर निकल गए। नूर पागलों की तरह चाहत बेगम को एक कमरे से दूसरे कमरे में ढूँढ रही थी। जब वो उसे नहीं मिली तो अजलान के पास जाकर बेचैनी से बोली, "अम्मी... भाई... अम्मी कहाँ हैं? मैंने पूरे घर में देख लिया, वो... वो कहीं नहीं हैं।"
अजलान ने बेज़ारी से उसकी तरफ़ देखा, मगर नूर आज जैसे खुद के होश-हवास में नहीं थी। वो आफताब की तरफ़ मुड़ गई। "अम्मी को बुला दो, प्लीज़।" नूर रो पड़ी। आफताब के कुछ कहने से पहले अजलान चिल्लाकर बोला, "ये क्या पागलपन है?"
नूर सहम गई और कुछ कदम पीछे हो गई। आफताब ने फ़ौरन उसे संभाला। अजलान गुस्से से दाँत पीसते हुए बोला, "तुम्हारी वजह से पहले अब्बू और अब अम्मी भी छोड़कर चली गईं। सिर्फ़ तुम्हारी वजह से।"
"न... न... नहीं भाई... ऐसे न बोलें... अम्मी... अम्मी आ जाइए... भाई... भाई... मुझे डाँट रहे हैं।" नूर रोते हुए बोली। आफताब ने दबी आवाज़ में कहा, "अजलान भाई, कुछ तो ख्याल करें... नूर की तबियत ठीक नहीं है।"
"मर जाए मेरी बला से।" अजलान आपे से बाहर हुआ। आफताब और नूर गूँगे हो गए। अजलान गुस्से से लरज़ते हुए बोला, "अम्मी की वजह से इसे बर्दाश्त कर रहा था। अब इस बदनामी की टोकरी को एक लम्हा इस घर में नहीं देखना चाहता हूँ। मैं निकलो मेरे घर से।" उसने नूर का हाथ पकड़ा ही था कि आफताब ने गुस्से में उसका हाथ झटक दिया और उंगली दिखाते हुए बोला, "रिश्ते का लिहाज़ कर रहा हूँ, वरना आपकी वजह कोई और होता तो उसका हाथ मैं तोड़ चुका होता।"
अजलान गुस्से से आपे से बाहर हो रहा था। उसने आफताब को धक्का दे दिया। "क्या करोगे मेरे साथ... बोलो... क्या करोगे? अगर इतनी परवाह है तो ले जाओ इसकी, क्योंकि मेरे सामने रही तो मैं जान से मार दूँगा इसे।"
आफताब ने तंजिया मुस्कराहट के साथ कहा, "आप एक बेहद बुज़दिल इंसान हैं। आप जैसे इंसान की पनाह में रहने से अच्छा है कि मेरी बीवी सड़क पर रह ले। आपको आपका आशियाना मुबारक हो। मैं ले कर जा रहा हूँ नूर को।"
"चलो नूर...!" आफताब उसका हाथ थाम कर बोला। नूर रोते हुए बोली, "न... न... नहीं जाना है... मुझे... अम्मी को बुला दो... वो... वो कहीं नहीं गई हैं... वो... वो यहीं है। बुलाते क्यूँ नहीं उन्हें... मैं नहीं जाऊंगी।" नूर रोते हुए अब चाहत बेगम को आवाज़ देने लगी, "अम्मी... अम्मी... बाहर आएँ... देखें न... भाई क्या कह रहे हैं... अम्मी... कहाँ छुपी हुई हैं? बाहर आएँ न।" आफताब ने उसे कसकर अपनी बाहों में जकड़कर कहा, "बड़ी अम्मी नहीं आएंगी... चलो यहाँ से। अब कोई नहीं है तुम्हारा यहाँ।"
"मैं नहीं जाऊँगी... मुझे... मुझे अम्मी के पास जाना है... मुझे अम्मी के पास ले चलो।" नूर सिसकते हुए बोली। आफताब ने अजलान और आयशा को बेरुखी से देखा और उसे कमरे में ले आया। उसने कुछ ज़रूरत की चीज़ें एक बैग में डालीं और नूर की कलाई थामकर अजलान और आयशा की तरफ़ देखे बगैर घर से बाहर निकल गया।
अभी तो चाहत बेगम की कब्र की मिट्टी भी पूरी तरह सुखी नहीं होगी और अजलान ने नूर को घर से बाहर निकाल दिया। ये तक ख्याल न किया कि उसकी माँ की रूह ये देखकर कितनी अज़ियत में होगी।
आफताब नूर को ले कर कब्रिस्तान आ गया। नूर ने रोते हुए कब्रिस्तान की तरफ़ देखा। आफताब कार से बाहर निकल गया, लेकिन नूर के क़दम उसका साथ नहीं दे रहे थे। वो बैठे-बैठे ही चेहरे पर हाथ रखकर फफ़क कर रो पड़ी।
"अम्मी...!"
आफताब तेज़ी से उसकी तरफ़ आया। उसने डोर ओपन किया और सुलझे अंदाज़ में बोला, "तुम्हें इस तरह देखकर बड़ी अम्मी को तकलीफ़ होगी, नूर। उनके लिए चुप हो जाओ।"
नूर ने रोते हुए उसे देखा और सिसक कर बोली, "तुम मेरा दर्द नहीं समझोगे आफताब। मेरी अज़ियत किसी को नज़र नहीं आएगी।"
आफताब खामोश हो गया। कैसे कहता कि उसकी अज़ियत उसके रूह में खंजर की तरह चुभती है, जिसे वो न दिखा सकता था, न ही उस दर्द को बयां कर सकता था। आफताब नूर को साथ ले कर चाहत बेगम की कब्र पर पहुँचा। चाहत बेगम की कब्र को देखते ही नूर का जिस्म लरज़ उठा और वो उनके कब्र पर जा गिरी।
जारी है...
ज़िंदगी बदलते देर कहाँ लगती है? जो हाल होते हैं, वो पलक झपकते ही आपसे इतनी दूर हो जाते हैं कि उनका मिलना नामुमकिन हो जाता है। नूर की अम्मी अब ऐसे ही उससे दूर हो चुकी थीं। और जिस भाई को उसका सरपरस्त बनना था, उसने चाहत बेगम की आँखें बंद होते ही उसे घर से यूँ निकाल दिया था, जैसे वो कोई कूड़े का ढेर हो। आज आफ़ताब न होता, तो वो शायद सड़कों की खाक छान रही होती।
आफ़ताब, नूर को लेकर चाहत बेगम की कब्र पर जा पहुँचा। नूर, अपनी माँ से लिपट कर सिसक रही थी। आफ़ताब दूर खड़ा, उसके ग़म में ग़मगीन हो गया था। नूर मोहब्बत थी उसकी, और अब उसे ही उसका सरपरस्त बनना था।
करीब आधे घंटे बाद, आफ़ताब ने नूर को सहारा देकर खड़ा किया। नूर की आँखें रो-रोकर लाल हो चुकी थीं। उसने नूर को दिलासा देते हुए कहा,
"उन्हें जाना था, वो चली गईं। तुम इस तरह खुद को परेशान करोगी, तो उन्हें बहुत तकलीफ होगी।"
नूर का तो सब कुछ ही छिन गया था। उसके लिए ये लफ़्ज़ बेमायने थे। जिसके सिर से वालिदैन का साया छिन जाए, उसके लिए ये दिलासे कुछ मायने नहीं रखते हैं।
नूर की खामोशी पर आफ़ताब ने दुबारा कहा,
"घर चलो नूर, शाम होने के बाद यहाँ रहना सही नहीं है।"
"कौन सा घर?"
"मेरा घर!"
"वो तुम्हारा घर है, मेरा नहीं।"
"तुम भूल रही हो कि तुम मेरे निकाह में हो?" आफ़ताब ने जैसे उसे याद दिलाया। नूर खामोश हो गई। इस रिश्ते के आगे सारे बहाने झूठ थे। अब कोई बहाना उसे आफ़ताब से दूर नहीं कर सकता था। आफ़ताब एक बार फिर कार में बैठा और नूर के साथ अपने घर, बेग कोठी, निकल गया।
पूरे रास्ते नूर खामोश रही। वहाँ पहुँचकर सबके तस्सवुरात के बारे में सोचती रही। जिस जगह से तीन साल पहले उन्हें हटाया गया था, एक बार फिर ज़िंदगी उसे उन्हीं गलियों में और उसी घर की ओर ले जा रही थी, जहाँ कभी उसने उस इंसान का दिल तोड़ा था, जो आज उसका हमनवाँ बन बैठा है।
एक घंटे के सफ़र के बाद आफ़ताब ने बेग कोठी के आगे कार रोकी। नूर ने नज़र उठाकर कोठी को देखा। जैसा तीन साल पहले था, बिल्कुल वैसा ही था। अब भी ये घर, बस बँटवारे की वजह से कुछ दीवारें खड़ी हो गई थीं।
आफ़ताब बाहर निकला और नूर की तरफ देखकर बोला,
"चलो।"
नूर अपना बैग थामे हुए, आफ़ताब के पीछे खड़ी हो गई। नूर ने खाली निगाहों से विंडो सीट से कोठी की तरफ नज़र डाली, जो आज भी वहीं खड़ा था, जहाँ था, उसी शान और रुतबे के साथ। वहीं बाग-बगीचे, वही दर-ओ-दीवार, कुछ भी तो नहीं बदला, सिवाय उसकी ज़िंदगी के।
"क्या हुआ? क्या सोच रही हो?" आफ़ताब की आवाज़ पर वो अपने ख्यालों से बाहर आई। उसने नफ़ी में सिर हिलाया और उसके हमराह हो गई। क़दम आगे बढ़ाते हुए वो बार-बार अंदर आने वाले तूफ़ान के बारे में सोच रही थी। क्या होगा जब उसकी छोटी अम्मी उसे आफ़ताब के साथ देखेंगी? बहुत सारे मंज़र उसकी आँखों के सामने घूम रहे थे। अपने ख़्याल में डूबी वो, कब कोठी के गलियारे को पार कर आँगन में आ गई, उसे पता नहीं चला।
इस बार उसके कानों में सफ़िया बेगम की तीखी आवाज़ पड़ी,
"ये लड़की तुम्हारे साथ क्या कर रही है, आफ़ी?"
नूर ने सहम कर उन्हें देखा। न चेहरे पर पहले वाली मुलायमत, न लहज़े में वो अपनाइयत, जो उसे देखकर अपने आप सफ़िया बेगम के चेहरे और लहज़े में समा जाती थी। वो बोलते हुए आगे बढ़ी, लेकिन आफ़ताब तुरंत आगे बढ़कर बीच में आ गया और शांत लहज़े में बोला,
"अम्मी, एक बार मेरी बात सुन लीजिए।"
"क्या सुनना है आफ़ी? क्यों लाई हो तुम इसे यहाँ? माँ मर गई है इसकी, भाई तो ज़िंदा है।" सफ़िया बेगम का लहज़ा और भी तीखा हुआ। नूर की आँखें नम हो गईं। माँ का साया सिर से हटते ही वो बेसहारा हो गई थी। वो वापस जाने के लिए मुड़ी, लेकिन आफ़ताब ने बिना मुड़े उसका हाथ पकड़ लिया और सफ़िया बेगम के गुस्से की परवाह करते हुए, सुलझे अंदाज़ में बोला,
"अम्मी, मैं कोई तमाशा नहीं चाहता हूँ। आप एक बार मेरी बात सुन लें। इसका अब कोई आसरा नहीं है, हमारे सिवा।"
सफ़िया बेगम ने नाराज़गी से कहा,
"तो मैं क्या करूँ? सालों पहले इसने तेरे साथ जो किया है, वो मैं नहीं भूली हूँ। इसलिए मुझसे बहस मत कर और इसे यहाँ से लेकर जा!"
"ये कहीं नहीं जायेगी, अम्मी।"
"क्यों नहीं जायेगी? ये है कौन? ये तेरी...?"
"बीवी।" आफ़ताब ने दो-टूक लहज़े में कहा। सफ़िया बेगम गूँगी हो गईं। दूर खड़ी महविश भी हैरान रह गई कि उन्होंने जो सुना, वो सही सुना है या कोई और बात है।
सफ़िया बेगम ने अपना अंदाज़ नरम करते हुए कहा,
"देखो आफ़ताब, तुम इसे यहाँ आसरा देने के लिए लाए हो, उस तक बात ठीक है। लेकिन ये बात मंज़ूर नहीं कि तुम इस लड़की से इस तरह के रिश्ते की बात भी करो।"
आफ़ताब ने एक लंबी साँस खींचकर नूर को देखा, फिर सफ़िया बेगम की तरफ वापस देखते हुए बोला,
"ये रिश्ता अब हक़ीक़त है, अम्मी।"
"आफ़ताब..." सफ़िया बेगम तेज आवाज़ में बोलीं। नूर ने लरज़ते हुए आफ़ताब की बाहें थाम लीं। आफ़ताब खामोश रहा। सफ़िया बेगम सिर पकड़कर बैठ गईं। महविश उनकी ओर बढ़ी, लेकिन उन्होंने हाथ दिखाकर उसे रोक दिया।
आफ़ताब ने ये देखकर नूर से कहा,
"तुम मेरे कमरे में जाओ!"
नूर ने सवालिया नज़रों से उसे देखा। आफ़ताब ने आराम से कहा,
"छत के दाईं तरफ़ का दूसरा कमरा।"
नूर ने आगे बढ़ना चाहा, लेकिन उसके क़दम लड़खड़ा गए। आफ़ताब ने महविश की तरफ़ देखते हुए कहा,
"इसे मेरे कमरे में ले जाओ। मैं अम्मी से बात करता हूँ।"
महविश ने एक उचटती निगाह नूर पर डाली और उसे साथ चलने का कहकर आगे बढ़ गई। नूर अपना बैग थामे उसके पीछे चल पड़ी।
उनके जाने के बाद आफ़ताब सफ़िया बेगम के बगल में आकर बैठ गया। वो कुछ देर बैठा लफ़्ज़ ढूँढता रहा, फिर आख़िर में दस मिनट की खामोशी के बाद बोला,
"अम्मी, मैंने कुछ महीने पहले ही नूर से निकाह कर लिया था।"
ये बात सफ़िया बेगम के लिए और भी हैरानकुन थी। उनके सीने में कुछ चुभा और वो रो पड़ीं।
जारी है...
ये बात सफिया बेगम के लिए और भी हैरान करने वाली थी। उनके सीने में कुछ चुभा और वे रो पड़ीं। आफ़ताब जानता था कि उनकी खफ़गी ऐसी ही होगी और वह उन्हें मनाना भी जानता था, लेकिन बार मामला दूसरा था। उसने उसे वापस अपनी जिंदगी में शामिल किया था, जिससे सफिया बेगम बहुत ज्यादा नाराज़ थी। कभी जिसे सीने से लगाया हो, फिर उससे नाराज़गी हो, तो वापस दिल की ठंडक बनाने में तकलीफ तो होती ही है।
"अम्मी, हालात ही ऐसे हो गए थे कि मुझे नूर से निकाह करना पड़ा," आफ़ताब ने खामोशी को तोड़ते हुए कहा।
सफिया बेगम ने नाराज़गी से कहा, "तुमने मुझे बताया क्यों नहीं?"
"मैं नूर की पढ़ाई मुकम्मल होने का इंतज़ार कर रहा था," आफ़ताब ने सिर झुका लिया।
"तो अब क्यों बता रहे हो? न बताते रहते, उसे कहीं बाहर किसी किराए के मकान में," सफिया बेगम ने तीखे अंदाज़ में कहा।
आफ़ताब ने अब उनका हाथ पकड़ कर विनम्रता से कहा, "अम्मी, वो हमारी नूर है, आपके कलेजे की ठंडक। क्या आपका प्यार इतना ही था कि उसकी एक गलती से सब कुछ ख़त्म हो गया?"
"उसने तुम्हें ठुकराया था आफ़ताब," सफिया बेगम ने आफ़ताब पर नज़र डाली।
आफ़ताब हल्के से मुस्कुरा कर बोला, "मैंने तो कभी इस बात के लिए शिकवा नहीं किया। मैं सब कुछ भूल चुका हूँ। आप भी भूल कर उसे दिल से लगा लीजिये।"
"कभी नहीं।"
"उसे माँ की ममता की ज़रूरत है। उसने माँ खोई है अम्मी। अभी उस पर अपने लफ़्ज़ों के ज़ख़्म मत इस्तेमाल कीजियेगा।" आफ़ताब के लहज़े में इल्तिज़ा थी। सफिया बेगम की नाराज़गी और भी बढ़ गई। उन्होंने मुँह फेर लिया। आफ़ताब ने फिर से इल्तिज़ा करते हुए कहा, "अम्मी, प्लीज़ मेरे लिए उसे माफ़ कर दीजिये।"
"कभी नहीं।" कहते हुए सफिया बेगम उठ खड़ी हुईं और आफ़ताब का हाथ झटक कर अपने कमरे में चली गईं।
नूर आफ़ताब के कमरे में आने के बाद एक कोने में खड़ी थी और महविश उसे ही देख रही थी। आख़िर में उसने अपनी खामोशी को तोड़ते हुए तंज भरे लहज़े में कहा, "आख़िर में तुमने अपना रंग दिखा ही दिया।"
नूर ने हैरानी से उसे देखा। महविश ने गुस्से से कहा, "तुम एक बार फिर हम सबकी ज़िंदगी में वापस आ गई हो और इस बार तो भाभी के हक़ से आई हो। याद रखना, तुम्हें सुकून से नहीं रहने दूँगी।"
नूर की हैरानी में इज़ाफ़ा हुआ। महविश पहले भी उससे बात नहीं करती थी, लेकिन आज उसका रवैया बहुत उखड़ा हुआ था। उसे परेशान छोड़कर महविश नीचे आकर सीधे अपने कमरे में चली गई। नूर वहीं कोने से आफ़ताब के कमरे को देख रही थी, जहाँ आने से पहले कभी उसने इनकार किया था।
इधर आफ़ताब सफिया बेगम के कमरे में जाने के बाद अपने रूम की तरफ़ बढ़ा। कमरे के दरवाज़े पर आते ही पहली बार उसके कदम ठिठके थे। उसने जिसके ख़्वाब देखे थे, आज हक़ीकत में वो उसके शिबस्तान में मौजूद थी। उसकी खुशबू, उसकी सूरत, अब सब पर उसकी मिल्कियत थी और जब चाहे वो उसे देख सकता था, दूर से ही सही, लेकिन अब वो उसकी थी, उसके निकाह में थी।
वह खुद को सामान्य करके अन्दर आया तो सामने कोने में नूर खड़ी दिखी। उसने खुद को सामान्य दिखाते हुए कहा, "तुम वहाँ कोने में क्यों खड़ी हो? बैठो, ये अब तुम्हारा भी कमरा है।"
"छोटी अम्मी…!" नूर ने झिझकते हुए कहा।
आफ़ताब फीका मुस्कुरा कर बोला, "नाराज़ हैं तुमसे? मानने में थोड़ा सा वक़्त तो लगेगा।"
नूर इधर-उधर देखने लगी। आफ़ताब अब बिस्तर समेटते हुए बोला, "भूख लगी होगी न?"
"नहीं…!" नूर ने नफ़ी में सिर हिलाया।
आफ़ताब ने मोबाइल से खाना ऑर्डर करते हुए कहा, "न तो मैं बेवकूफ़ हूँ, न गधा हूँ। खाना ऑर्डर कर रहा हूँ, खा लेना।"
तभी दरवाज़े पर दस्तक हुई। दोनों ने सामने देखा, सफिया बेगम महविश के साथ खाना लेकर आई थीं।
"खाना आ गया है, खा लो दोनों।" सफिया बेगम ने खाना बिस्तर पर रखा।
"आपने खाया?" आफ़ताब ने प्यार से कहा।
"मुझसे बात न करो तो बेहतर होगा। खाना लेकर आई हूँ, क्योंकि इतनी संगदिल नहीं हूँ कि भूखे रखूँ दोनों को।" सफिया बेगम जाने लगीं। आफ़ताब ने उन्हें देखते हुए कहा, "अम्मी, नाराज़गी ख़त्म कर दीजिये।"
"कभी नहीं। तुमने उसे लाकर मेरे सिर पर बिठाया है, जिसने बहुत गहराई से मेरे दिल को दुखाया था।" उनकी आवाज़ रुँध गई। उनकी बात सुनकर नूर ने एक बार फिर सिर झुका लिया। अपनी गलतियों पर उसे नदामत तो बहुत पहले से हो रही थी, लेकिन आज बात अलग थी। इन तीन सालों से चाहत बेगम की छांव ने उसे अज़लान के तानों से बचाया था। वह खुद को कमरे में बंद कर इन सबको भूल चुकी थी, साथ ही ये भी कि उसके फैसलों ने उसके अपनों का दिल दुखाया था। और आज इन्हीं अपनों से उसका सामना हुआ था और वह उनसे नज़रें नहीं मिला पा रही थी।
सफिया बेगम जा चुकी थीं। आफ़ताब ने ठंडी साँस लेते हुए नूर को खाने के लिए कहा। भूख तो उसे वाकई लगी थी, लेकिन अब मन नहीं हो रहा था खाने का। उसने जैसे-तैसे करके दो रोटी खाईं। आफ़ताब ने कुछ नहीं कहा। वह उसे वक़्त देना चाहता था और इसलिए वह कुछ कह नहीं रहा था।
रात बहुत हो गई तो दोनों सोने चले गए। आफ़ताब सोफ़े पर सो गया और नूर बिस्तर पर लेट गई। एक पल में दुनिया बदली थी उसकी। बिस्तर पर लेटे-लेटे चाहत बेगम की याद ने उसकी पलकें नम कर दीं। इतनी गलतियों के बाद भी सिर्फ़ उसकी एक माँ थी जिसने कभी उससे मुँह नहीं फेरा था, वरना दुनिया ने तो उससे बैर ही पाल लिया था। उनके लाड़ और दुलार को याद करते हुए वह उस वक़्त में चली गई जब कभी वह रिज़वी कोठी की नूर हुआ करती थी।
जारी है…
चार साल पहले, दिल्ली से थोड़ी दूर एक गाँव में, बेग कोठी शान-ओ-शौकत के साथ खड़ी थी। यह कोठी नूर के परदादा की थी; उसके बाद यह हवेली नूर के दादा के हिस्से में आई, जिनकी चार औलादें थीं: दो बेटे और दो बेटियाँ। असलम बेग बड़े थे और अकरम बेग छोटे थे। दोनों बहनें जुड़वाँ थीं: सहाना और सफीना।
असलम बेग और चाहत बेगम की तीन औलादें थीं: रजिया, अजलान और नूर। सफिया और अकरम की भी तीन औलादें थीं: निशात, आफताब और महविश।
निशात और अजलान हमउम्र थे। आफताब और रजिया से डेढ़ साल बड़ा था। नूर और महविश हमउम्र थीं। नूर और महविश हमउम्र थीं, लेकिन उन दोनों में कभी उतनी बनी नहीं, जितनी आफताब और नूर की बनती थी। हँसता-खेलता, मुस्कुराता परिवार था उनका। दोनों कुबे एक साथ रहते थे...
आफताब चाहत बेगम का लाडला था, तो नूर सफिया बेगम के कलेजे की ठंडक। उन दोनों की आपस में बनती देखकर, बड़ों ने बच्चों को बताए बगैर, एक फैसला किया: नूर और आफताब के निकाह का।
नूर बचपन से ही खुशदिल लड़की थी। जहाँ जाती, अपनी बातों की चाशनी से सबको अपना बना लेती। महविश थोड़ी शर्मीली थी। वह बहुत कम बोलती और जल्दी किसी से घुलती-मिलती नहीं थी... धीरे-धीरे बच्चे बड़े हुए और बढ़ती उम्र के साथ आफताब के दिल में नूर के लिए मीठे जज़्बात पनपने लगे थे...
निशात, अजलान और रजिया का निकाह हो चुका था। रजिया अपने ससुराल जा चुकी थी और आयशा अब बेग खानदान की बहु बन चुकी थी... महविश की नूर के लिए चुभन अब नफ़रत में बदलती जा रही थी। वह नहीं चाहती थी कि नूर उनके साथ रहे, इसलिए वह हमेशा नूर से बेरुख़ रहती थी और कभी सही से बात नहीं करती थी... नूर उसे बचपन से जानती थी, इसलिए उसे लगा कि यह सब वह अपने शांत मिजाज़ की वजह से करती है, इसलिए उसने दिल में कोई गलत ख्याल नहीं रखा...
सब कुछ ठीक चल रहा था। नूर ने बारहवीं के इम्तिहान में जिला टॉप किया था... असलम बेग खुशी से फूले नहीं समा रहे थे... दोनों चाहते थे कि नूर टीचर बने, इसलिए उसे आगे पढ़ाने में उन्हें कोई ऐतराज नहीं था...
नूर ने ग्रेजुएशन दिल्ली से करने का सोचा और यहीं से उसकी ज़िंदगी में तब्दीली शुरू हो गई... आफताब, महविश और नूर ने एक ही कॉलेज में एडमिशन लिया, लेकिन तीनों के सब्जेक्ट्स अलग थे... कॉलेज का पहला दिन था...
"आफताब, जल्दी चलो! मुझे पहले दिन लेट नहीं होना है।" नूर बाहर महविश के साथ खड़ी थी। उसने मज़ीद झिल्लला कर कहा।
महविश ने अजीब सी नज़रों से नूर को देखा। उसे नूर की बातें बिल्कुल भी पसंद नहीं आती थीं... वह कुछ कहती, उससे पहले आफताब वहाँ आ गया और नूर के सामने अदब से सिर झुकाकर कहा, "मेरी मल्लिका, आपका गुलाम हाज़िर है।"
नूर उसके इन्हीं बातों से अपना गुस्सा भूल जाती थी और आज भी वह अपनी झल्लाहट भूलकर खिलखिलाकर हँस पड़ी... आफताब जल्दी से गाड़ी में बैठा और तीनों साथ में कॉलेज के लिए निकल पड़े... नूर अपने नए सफ़र के लिए ज़रूरत से ज़्यादा एक्साइटेड थी...
वह जब कॉलेज में दाखिल हुई, तो सबकी नज़रें कुछ देर के लिए उस पर टिकी रह गईं... गोरा, दूधिया रंग और सूरत भी अल्लाह ने खूबसूरत बनाई थी... इन्हीं सब में एक नज़र ऐसी भी थी, जिसकी नज़रों में नूर चढ़ चुकी थी... वह था उससे एक क्लास सीनियर, आसिफ खान... नूर सबकी नज़रों से बेपरवाह अपने क्लास में जाकर बैठ गई...
उसका पहला दिन उम्मीद से ज़्यादा अच्छा रहा। घर आकर उसने चाहत बेगम को अपने दिन की तफ़सील बताई और शाम होते ही भागकर आफताब के कमरे में आ गई...
"आफताब, मुझे बाहर जाना है।"
आफताब ने चिढ़कर कहा, "तुम चार बजे कॉलेज से घर आई हो, नूर। अब बाहर क्यों जाना है?"
"क्योंकि मुझे भूख लगी है।" नूर ने बच्चों सा मुँह बनाया।
आफताब ने उसके सिर पर चपत मारते हुए कहा, "तो जाकर मेरी अम्मी से कह दो, वह तुम्हारे लिए ज़रूर कुछ ख़ास बना देंगी।"
"तुम मुझे चिढ़ा रहे हो।"
"नहीं तो, बल्कि यहाँ सब जानते हैं कि मेरी अम्मी तुम्हें सबसे ज़्यादा चाहती हैं।" आफताब मुस्कुराया।
नूर ने चिढ़कर कहा, "तो मेरी अम्मी भी तो तुम पर वारी-न्यारी जाती हैं? क्या मैंने तुमसे कभी कुछ कहा?"
"अच्छा, चलो जाओ। मुझे आराम करने दो।" आफताब ने बात टालनी चाही, लेकिन नूर तो नूर थी। उसने नाराज़गी से कहा, "तुम नहीं चलोगे मुझे बाहर लेकर।"
आफताब ने बेज़ारी से उसे देखा, "मैं थक गया हूँ, नूर।" नूर ने नाराज़गी से उसे देखा और पैर पटकते हुए बाहर निकल गई... आफताब ने ठंडी आह भरकर अपना सिर पीट लिया और कपड़े पहनने लगा...
नूर दनदनाती हुई सफिया बेगम के पास पहुँच गई और नाराज़गी से बोली, "छोटी अम्मी, मुझे बाहर जाना है।"
"क्यों, बेटे?" सफिया बेगम अपनी सारी मुहब्बत उड़ेलते हुए बोलीं।
"क्योंकि मुझे भूख लगी है, छोटी अम्मी।" नूर बच्चों की तरह बोली। सफिया ने अब अपना काम करते हुए कहा, "तो आफताब को बोलो, वह लेकर चला जाएगा।"
नूर यही सिरा तो ढूँढ़ रही थी। उसने तुरंत आँसू बहाते हुए कहा, "वह नहीं जाएगा। उसने मुझे मना कर दिया।"
सफिया बेगम अब सारा माज़रा समझ गईं। उन्होंने अपने चेहरे पर आई मुस्कान छुपा लिया और नाराज़गी जताते हुए बोलीं, "अच्छा, उसने मना कर दिया? तुम रुको, अभी उसे डाँट लगाती हूँ। मेरी रानी को कैसे मना किया उसने?"
उन दोनों की बातें सुनकर चाहत बेगम वहाँ पहुँची और पीछे से आफताब भी आ गया। नूर चाहत बेगम को देखते ही बोली, "आ गईं उसकी वकील साहिबा! अब अपने लाडले के शान में ऐसी-ऐसी बातें कहेंगी कि जैसे इंसान न हुआ, कोहिनूर हीरा हो गया।"
दोनों देवरानी-जेठानी उसकी बात पर धीरे से मुस्कुरा दिए। फिर चाहत बेगम नूर को थोड़ा डाँटते हुए बोलीं, "वह हीरा ही है, तुम्हें परख नहीं है, वह अलग बात है... और यह सब छोड़ो, तुम्हें इस वक्त बाहर क्यों जाना है? जो खाना है, बोल दो, घर पर बन जाएगा।"
"मुझे आज बाहर का खाने का मन है।" नूर का चेहरा उतर गया। वह जानती थी उसकी अम्मी की बात तो उसकी प्यारी छोटी अम्मी भी नहीं टाल सकती थीं। उसने बेचारगी से छोटी अम्मी को देखा...
आफताब ने अब बीच में पड़ते हुए कहा, "कोई बात नहीं, बड़ी अम्मी। मुझे कुछ किताबें लेने जाना था, उधर ही जा रहा हूँ, नूर भी साथ चली जाएगी।"
"बहाने न बनाओ, आफताब।" चाहत बेगम ने अब आफताब को ही डाँटा। आफताब ने मज़ीद झूठ बोलते हुए कहा, "बहाना नहीं बना रहा हूँ। मुझे सच में बुक्स लेनी हैं।"
उसने नूर की तरफ़ देखते हुए कहा, "चलो, नूर। जल्दी करो।" नूर का चेहरा खिल उठा। वह भागकर अपने कमरे में गई और स्कार्फ लपेटकर बाहर आ गई। चाहत बेगम उन दोनों के जाते ही हँस पड़ी...
सफिया बेगम ने हँसते हुए कहा, "क्या होगा इन दोनों का? पता चला शादी के बाद भी ऐसे ही शिकायतें करते रहेंगे।"
"अभी बचपना है, दोनों में। ख़त्म हो जाएगा वक़्त के साथ।"
"हाँ, भाभी। लेकिन सच कहूँ, नूर को देखती हूँ तो बस यही लगता है कि कल ही इसे अपनी बहु बनाकर ले आऊँ।" सफिया बेगम ने दिल की बात कह दी...
चाहत बेगम ने हैरान हुए बगैर कहा, "तो क्या दिक्कत है? ले जाओ।"
"सच...?"
"मैं तो कहती हूँ कि ईद के बाद की कोई तारीख़ रख लो और उसके बाद रुख़सती कभी भी करते रहेंगे।" चाहत बेगम ने तो सफिया बेगम के मुँह की बात छीन ली। उन्होंने मुसर्रत से झूमते हुए कहा, "आफताब के अब्बू से आज ही बात करती हूँ इस बारे में।"
इतने में आयशा वहाँ आ गई। उसने यह खुशखबरी सुनी तो वह भी खुश हो गई...
जारी है...
इंसान की ख्वाहिशें उसकी सबसे बड़ी दुश्मन होती हैं। ये गलत को गलत और सही को सही नहीं रहने देती हैं। उम्मीद तो टूट सकती है, लेकिन ख्वाहिश खत्म नहीं हो सकती। और कभी-कभी इन ख्वाहिशों के बदले इतनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है कि उसका अज़ाबा जिंदगी भर नहीं मिट पाता है...
बड़ों की ख्वाहिशें कितने दिल तोड़ने वाली थीं, और इसका अंजाम ऐसा होने वाला था जिसकी उम्मीद किसी से नहीं थी, खुद नूर और आफताब ने भी नहीं...
रात में सफिया बेगम ने अकरम बेग से बात की। उन्होंने साफ मना कर दिया कि जब तक दोनों का ग्रेजुएशन नहीं हो जाता, इस बारे में सोचना भी नहीं है। सफिया बेगम का मन उदास हो गया। फिर उन्होंने कुछ सोचते हुए कहा, "ठीक है, निकाह न सही, मंगनी तो कर सकते हैं न?"
"तुम्हें इतनी जल्दी क्यों है? बच्चों को पढ़ लेने दो। और आफताब भी तो अभी तक अपने पैरों पर खड़ा नहीं हुआ है।" अकरम बेग ने बात टालने की कोशिश की। सफिया बेगम ने उनकी बात न मानते हुए कहा, "मैं समझती हूँ सब, लेकिन मंगनी में कोई बुराई नहीं है। दोनों बच्चे कॉलेज पहुँच गए हैं, और उन्हें ये बात भी पता नहीं है। अगर उन्होंने किसी और को पसंद कर लिया तो मसला हो जाएगा। इसलिए मंगनी कर दीजिए आप।"
अकरम बेग उनकी इस तरजीह पर खामोश हो गए। सफिया बेगम की बात बिल्कुल सही थी। नूर और आफताब उम्र के उस पड़ाव पर थे जहाँ दिल का भटकना तय होता है। अगर उन दोनों की निस्बत जुड़ जाए तो हराम रिश्ते की तरफ कदम बढ़ाने से परहेज़ करेंगे। दोनों को ये बात सही लगी।
उन्होंने सिर हिलाते हुए कहा, "ठीक है, मैं कल ही बड़े भाई से बात करता हूँ और जल्द से जल्द मंगनी की तारीख पक्की करता हूँ।" सफिया बेगम का उदास चेहरा खिल उठा।
आयशा ने अजलान को सब कुछ बताया। वह चाहत बेगम और असलम बेग के पास आ गया। "अम्मी, ये मैं क्या सुन रहा हूँ?"
"क्या हुआ तुम्हें?" असलम बेग ने पूछा। तो अजलान ने संजीदगी से कहा, "नूर का निकाह इतनी जल्दी करने की क्या ज़रूरत है अम्मी? वो पढ़ रही है अभी।"
चाहत बेगम ने हँसते हुए कहा, "अरे, तो सिर्फ़ निकाह कर रहे हैं, कौन सा रुख़्सती कर देंगे?"
आयशा ने भी चाहत बेगम की हाँ में हाँ मिलाई। "अम्मी ठीक कह रही हैं। सादगी से निकाह कर लेते हैं। रुख़्सती धूमधाम से करेंगे। मेरे बड़े अरमान हैं नूर की शादी के लिए।"
"लेकिन अम्मी..."
"अजलान ठीक तो कह रहा है, चाहत। तुम सब को इतनी जल्दी नहीं करनी चाहिए। और सबसे बड़ी बात, कम से कम बच्चों से पूछ लो।" असलम बेग ने बात खत्म की।
चाहत बेगम ने कुछ नहीं कहा, लेकिन वह मानती थी कि हो न हो, नूर और आफताब एक-दूसरे को पसंद करते हैं। तभी तो हर वक्त एक-दूसरे का साथ पसंद करते हैं। और आफताब ने दबे लहजे में ये जाहिर भी कर दिया था उनके सामने...
बड़ों की बातों से बेखबर नूर और आफताब अपनी ज़िंदगी के रास्ते तय कर रहे थे। आफताब तो नूर को पसंद करता था, और उसने एक दफ़ा चाहत बेगम के सामने दबे लहजे में बता भी दिया था। इसलिए चाहत बेगम ने कुछ और ही सोच लिया... बड़ों ने फैसला कर लिया और तय हुआ कि ईद के बाद मंगनी रख देंगे। धीरे-धीरे ये बात एक कान से दूसरे कान तक होती हुई महविश और आफताब तक जा पहुँची।
आफताब का दिल चहक उठा। उसे लगा ये सब कुछ नूर की रज़ामंदी से हो रहा है, इसलिए वह मुतमइन था। और इसी गलतफहमी ने सबकी ज़िंदगी को पलट कर रख दिया...
कुछ रोज़ बाद, नूर कॉलेज से आ चुकी थी और शाम के वक्त बगीचे में खामोशी से बैठी थी कि उसके मोबाइल पर मैसेज आया। नूर ने देखा तो वह किसी अननोन नंबर से था। किसी ने "हैलो" भेजा था। नूर ने कोई रिप्लाई नहीं दिया। तभी दुबारा मैसेज आया, "रिप्लाई तो करो!"
नूर को हैरानी हुई। बात आगे बढ़ी, "कौन?"
"तुम मुझे नहीं जानती, लेकिन मैं तुम्हें जानता हूँ, नूर।" नूर की हैरानी और बढ़ी।
"आप कौन हैं? बताइए, वरना मैं नंबर ब्लॉक कर दूँगी।"
"तो मैं दूसरे नंबर से मैसेज करूँगा।"
"मैं वो भी ब्लॉक कर दूँगी।"
"कितने नंबर ब्लॉक करोगी तुम? मैं रुकूँगा नहीं।"
"बड़े ढीठ किस्म के इंसान हैं आप।"
"जो भी हूँ, आपके लिए हूँ।"
"ये ज़्यादा हो रहा है। नाम बताइए अपना, और ये भी बताइए कि कैसे जानते हैं आप मुझे।"
"मैं आपका सीनियर हूँ।"
"ओह!"
"नाम...?"
"आसिफ़ खान।"
"नंबर कहाँ से मिला आपको?"
"बस, ढूँढ लिया कहीं से।"
"किसी ने आपको ये नहीं बताया कि ऐसे लड़कियों को मैसेज करना अच्छी बात नहीं है?"
उधर से हँसने का इमोजी आया और बोला, "मैंने सिर्फ़ आपको किया है आज तक। और किसी लड़की को रिप्लाई तक नहीं किया।"
नूर जोर से हँस दी। नूर को आसिफ़ दिलचस्प लगा, और उसकी बातें उससे बढ़ती गईं। बातें शुरू हुईं तो रात हो गई। आसिफ़ अपनी दिलचस्प बातों से नूर का ध्यान अपनी तरफ़ खींचता गया। ये सिलसिला आगे बढ़ा, और अब दोनों कॉलेज में मिलते गए। नूर ने इस बारे में किसी को नहीं बताया था, यहाँ तक कि आफताब को भी, जिससे वह कोई भी बात नहीं छुपाती थी।
नूर अक्सर आफताब और महविश से छिप कर आसिफ़ से मिलती और क्लास भी बंक करती। उसके रास्ते बदलने लगे, तौर-तरीके बदलने लगे, और खुद वह भी बदल रही थी। अब किताबों की जगह मोबाइल ने ले ली। हमेशा टॉप करने वाली नूर अपने फ़र्स्ट सेमेस्टर के एग्ज़ाम में टॉप टेन में भी जगह नहीं बना पाई थी, और इस बार उसे उसका मलाल भी नहीं था। और उसने अपने रिजल्ट के बारे में किसी को नहीं बताया। सब से झूठ कहा कि वह हमेशा की तरह क्लास में अव्वल आई है। चाहत बेगम और असलम बेग के ख़्वाब और ख्वाहिशों से ज़्यादा उसके क़दम अब आसिफ़ खान की तरफ़ बढ़ रहे थे। अब उसकी बातों में हक़ीक़त से ज़्यादा झूठ शामिल होने लगे थे। लोगों को गुमराह करना, उनसे झूठ बोल कर खुद के लिए और आसिफ़ के लिए रास्ते आसान करना, अब उसकी खुशी बन गया था।
धीरे-धीरे ये सिलसिला कॉलेज के बाहर पहुँच गया। पहले वह सिर्फ़ जगह-जगह मिलते थे, अब धीरे-धीरे उनके क़दम क्लब की तरफ़ बढ़े। फिर क्या? कभी क्लब, तो कभी पार्टी, तो कभी थिएटर... ये जगहें अब उनके लिए आम हो गई थीं। ईद से कुछ दिन पहले आसिफ़ ने नूर को प्रपोज़ भी कर दिया, जिसे नूर ने बख़ूबी क़ुबूल कर लिया। नूर धीरे-धीरे सबसे दूर होती चली गई। आफताब उसके बदले हुए रवैये को महसूस कर रहा था, लेकिन कभी कुछ कहता नहीं था। क्यों? उसे यकीन था कि नूर कभी कुछ गलत नहीं करेगी। उसे हमेशा यही लगा कि ये पढ़ाई का बढ़ता प्रेशर है, इसलिए उसने कभी कोई सवाल-जवाब नहीं किया उससे। वह मुतमइन था इस ख़्याल से कि आखिर में नूर को उसके निकाह में ही आना है।
अपने और आफताब के मुस्तक़बिल से अनजान नूर के क़दम अब उस रास्ते पर बढ़ चले थे जिसकी मंज़िल तबाही थी... लेकिन कहते हैं न, कोई भी बात हो या राज़ हो, वह ज़्यादा दिन छुपी नहीं रह सकती। एक रोज़ आफताब किसी काम से नूर के कमरे में आया। उसे शायद किसी किताब की ज़रूरत थी। किताब ढूँढ़ते हुए उसके हाथ में कुछ ऐसा लगा जो उसने सोचा भी नहीं था...वह था नूर का फ़र्स्ट सेमेस्टर का रिपोर्ट कार्ड और साथ ही कुछ कागज़, जिसने आफताब के होश उड़ा दिए...
जारी है...