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तो इश्क है !

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Neha Sayyed

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कभी-कभी मोहब्बत आवाज़ से नहीं, इंतज़ार से पनपती है। एक साधारण-से घर के आँगन में, चूड़ी की खनक और जप की गूँज के बीच, एक नई दुल्हन अपनी पहचान ढूँढ रही थी। कली — हलके गुलाबी रंग की साड़ी में लिपटी, शर्माई, थकी-थकी सी — हर ताने के जवाब में सिर झुकाती...

Total Chapters (33)

Page 1 of 2

  • 1. तो इश्क है ! - Chapter 1

    Words: 1221

    Estimated Reading Time: 8 min

    "ओ बहू, जरा देखो तो किसका फ़ोन है.. कब से बज रहा है..," उस सामान्य से घर के आंगन में रखी सैठी पर बैठी मालती जी ने जरा ऊँची आवाज़ में कहा था। साथ उनका जप भी जारी था।

    "लगता है बहरी हो गई ये लड़की..," मालती जी ने थोड़ा चिढ़कर कहा और हाथ में पकड़ी माला को अपनी आँखों से लगाकर किनारे रख दिया। फिर धीरे से उठकर फ़ोन की ओर न जाकर अंदर कमरे की तरफ़ बढ़ गईं थीं। ये कहते हुए कि,

    "ओ महारानी! ज़रा कमरे से बाहर भी निकलकर काम देख लो, शाम होने को आई है.. पूरा दिन कमरे में पड़ी रहती है।"

    आंगन से लगते कमरे के सामने खड़ी होकर उन्होंने दरवाज़े को खटखटाया। तभी दरवाज़ा खुला। एक लड़की, जो हल्के गुलाबी रंग की साड़ी में लिपटी हुई थी, आँखों से लग रहा था कि शायद सो रही थी। होठों पर लगी लाली भी थोड़ी फैली हुई सी थी। माथे पर लगी बिंदी हल्के से साइड में आ गई थी। बाल भी कुछ-कुछ बिखरे हुए ही थे। माँग में भरा सिंदूर और गले में पहना मंगलसूत्र उसे सुहागिन होने का दर्जा दे रहे थे। एकदम मासूम सा चेहरा और उस पर हल्की घबराहट लिए वह अपनी नज़रें झुकाए खड़ी थी।

    "सो रही थी ना..?" मालती जी ने आँखें तरेर कर पूछा। तो उसने जल्दी से अपनी गर्दन ना में हिला दी और थोड़ी घबराहट में बोली,

    "न...ही....नहीं मांजी, मैं तो बाथरूम में थी।"

    "झूठ मत बोल मेरे सामने.. कितनी बार कहा है कि दिन में मत सोया कर..," मालती जी ने काफ़ी सख्ती से कहा। तो उसका चेहरा मायूस सा हो गया। आँखों में आँसू आ गए थे और गला रुँध गया था। कहाँ थी उसमें इतनी हिम्मत कि किसी की डाँट सुन सके?

    "मैं सबके कपड़े तह ही कर रही थी.. अचानक आँख लग गई। माफ़ कर दीजिए मांजी, आइन्दा ध्यान रखूँगी।"

    "रात बहुत बड़ी होती है सोने के लिए, समझी.. चल अब अपना ये हुलिया ठीक कर, जरा देख कि किसका फ़ोन आया हुआ है, कब से बज रहा है।" मालती जी ने सास वाला रौब झाड़ते हुए कहा था।

    उसने अपनी गर्दन हिला दी और जल्दी से अंदर चली गई। मालती जी वापस आंगन में आकर बैठ गई थीं। वह खुद को ठीक करके आई और वहीं टेबल पर रखा फ़ोन अपने हाथ में उठा लिया। लॉक स्क्रीन पर "लल्ला" नाम शो हो रहा था। उसका चेहरा थोड़ा खिल सा उठा, जो थोड़ी देर पहले मुरझा गया था।

    उसने जल्दी से कॉल बैक किया और फ़ोन लेकर मालती जी के पास आ गई।

    "मांजी, इनका फ़ोन था। हमने दोबारा मिला दिया है, आप बात कर लीजिए.. ये उठाएँगे अभी।"

    "अरे कान पर लगाकर नहीं सुना जाता, जरा इसकी आवाज़ तेज (स्पीकर ऑन) कर दे।" मालती जी ने कहा।

    "जी, अभी कर देती हूँ।" कहते हुए उसने फ़ौरन स्पीकर ऑन कर दिया और खुद भी उन्हीं के पास बैठ गई।

    अभी रिंग जा रही थी। मालती जी ने उसकी तरफ़ देखा और अपना नाक सिकोड़कर बोली,

    "यहाँ काहे बैठी हो.. जा रसोई में मेरी शाम की चाय लेकर आ, बनाकर।"

    "जी..जी मांजी," मन मसोस कर वह उठी और रसोई में चली गई। उसने जल्दी से चाय चढ़ा दी और रसोई के दरवाज़े पर खड़ी होकर उनकी बातें सुनने लगी। रसोई आंगन में ही थी तो वह आराम से सुन सकती थी। और कुछ पल बाद ही उसके कानों में उसकी आवाज़ पड़ी थी, जिसे सुनने के लिए उसके कान तरसते थे। उसने सुकून से अपनी आँखें मूँद लीं।

    "प्रणाम मांजी," सामने से वह बोला।

    "हाँ.. हाँ जुग जुग जियो लल्ला! और कैसे हो..?" मालती जी ने अपनी आवाज़ में हद से ज़्यादा शहद घोल दिया था।

    "जी मैं तो ठीक हूँ। आप सब कैसे हैं.. और घर पर सब ठीक-ठाक ना..?"

    "अरे हाँ... हाँ लल्ला, बस महादेव की कृपा है। बाकी तेरी नौकरी कैसी चल रही है..?"

    "जी अच्छी चल रही है। आज थोड़ा तबीयत ठीक नहीं थी इसलिए दफ़्तर से जल्दी आ गया था। तो फिर सोचा कि आपसे बात कर लूँ।"

    "हाय लल्ला, क्या हो गया..?" मालती जी अचानक पैनिक कर गई थीं।

    वहीं रसोई के दरवाज़े पर खड़ी कली के चेहरे पर भी चिंता की लकीरें उभर सी आई थीं। वह मन-ही-मन बोली,

    "अभियुद्ध जी की तबीयत खराब है..? हे महादेव, रक्षा करना।"

    "अरे मांजी, बस हल्का सिर दर्द था, बस बाकी कुछ ज़्यादा नहीं है।" अभियुद्ध ने समझाया।

    "किसी की नज़र-वज़र लग गई मेरे लल्ला को.. लल्ला, तू अपना पूरा ध्यान रखियो, मैं महादेव से प्रार्थना करूँगी कि तुम्हारी तबीयत जल्दी से ठीक हो जाए।"

    मालती जी ने कहा। अभियुद्ध ने बस गर्दन हिला दी। तभी उसे कली का ख्याल आया। उसने धीरे से अपना गला साफ़ किया और मालती जी से बोला,

    "और.... और कली कैसी है..?"

    अपना नाम सुनते ही कली का चेहरा चमक उठा। वहीं मालती जी मुँह बिचुरकर बोलीं,

    "उसे क्या होगा.. भली-चंगी है। ज़रा सा काम करती है और पूरा दिन आराम, यही तो काम है उसे। मुझे तो अपने काम भी उठ-उठ कर करने पड़ते हैं। दस बार आवाज़ लगाती हूँ तो तब जाकर एक बार सुनती है। अभी तेरा फ़ोन आया, उससे पहले पड़ी सो ही तो रही थी। बहू का तो ज़रा सुख ना हमें..."

    उनकी बात सुनकर कली की आँखें भर सी आईं और दिल जैसे कट सा गया था। ब्याह करके आए उसे 5 महीने ही हुए थे, जबकि पूरे घर को काफ़ी अच्छे से सम्हाल लिया था। सुबह 5 बजे उठकर काम करने लगती थी और रात के 11 ही बज जाते थे, लेकिन! काम, जो मुँह खोले खड़ा ही रहता था। किसी के एक ग्लास पानी तक का सांझा ना था। पूरा काम एक पैर पर खड़ी होकर करती थी और फिर भी क्या सुनने को मिल रहा था उसे कि "कोई काम ही नहीं करती है"। शिकायत-शिकवे करे भी तो किससे? उसका तो खुद का पति ही शादी के एक दिन बाद शहर जाकर बैठ गया था और फिर तो आया भी ना था। शादी भी घरवालों की मर्ज़ी से हुई थी, सही से जानती तक ना थी वह। सोचा था कि शादी के बाद जान लेगी, लेकिन! ये मौक़ा ही कहाँ दिया था उसके पति परमेश्वर ने। अपनी हर इच्छा, हर ख्वाहिश जैसे अंदर ही घोट ली थी। और ऊपर से फिर काम ना करने के ताने, हालाँकि वह काम करती थी।


    "अच्छा ठीक है, मैं आपसे फिर रात में बात करता हूँ।"

    अभियुद्ध ने कहकर फ़ोन काट दिया था। कली ने धीरे से अपने आँसू साफ़ किए और गैस को बंद किया।

    "अरे ओ.. महारानी, एक चाय चाय हुई के बीरबल की खिचड़ी, जो पक ही ना रही है।"

    फ़ोन कटते ही मालती जी रसोई की ओर देखकर अपनी कर्कश भरी आवाज़ में बोलीं।

    "जी, बस बन गई मांजी..," कहते हुए कली ने जल्दी से चाय में दूध डाला, जबकि आँखें अभी भी नम ही थीं।

    क्रमश:

  • 2. तो इश्क है ! - Chapter 2

    Words: 977

    Estimated Reading Time: 6 min

    कली! मालती जी के लिए जल्दी से चाय बनाकर लेकर आई। और उन्ही के पास चाय के कप को रख दिया।


    " मांजी आपकी चाय। "


    " खाली चाय ले आई .. पता है ना मेरे पेट में खाली चाय तेजाब बनाती है। इसके साथ कुछ खाने को तो ले आ। "


    वह अपना नाक सिकोड़कर बोली।


    " क्या लेकर आऊं मांजी ..?"


    " वह जो लड्डू बनाएं थे ना मैने पीछले हफ्ते , वही ले आ।"


    " जी लाई। " कहते हुए कली फौरन रसोई की तरफ बढ़ गई। ऊपर वाली स्लेब पर रखा बड़ा सा स्टील का डब्बा निचे उतारा और उसमे से लड्डू निकाल कर वापस वही रख दिया।


    " मांजी लीजिए..." वह फ़ौरन लड्डू लेकर हाज़िर हुयी थी।


    " इसे तो यही रख दे .. और रात के खाने की तैयारी कर ले। "


    " क्या बनाना है ..?" उसने पूछा।


    " जो हो बना दे .."


    " जी फिर भी क्या मांजी ..?"


    " एक काम कर मेरे गले को काट कर मुझे ही बना दे... जाकर देख नही रही की क्या रखा है ऊपर से सिर पर चढ़ कर सवाल - पर  - सवाल कर रही है। " वह चिढ़ कर बोली।


    " सॉरी मांजी..." कहते हुए कली उदास होकर वहां से चली गई।


    " ना जाने कौन सी घड़ी थी जो मैने अपने होनहार बेटे के लिए इस कम दिमाग़ को हां की थी.. जबसे घर में क़दम पड़े है मेरा लल्ला एक बार भी घर ना आया है। आंखे तरस गई मेरी तो उसे देखने के लिए..."


    मालती जी चाय पीती हुयी ऊंचा - ऊंचा बोल रही थी। वही कली , रसोई में बैठी सब्जी काटती हुयी अपने आंसू बहा रही थी।


    मालती जी का चिल्लाना सुनकर उनकी छोटी बेटी श्वेता, जो की कॉलेज से आने के बाद सोई हुयी थी। वह अपनी आंखो को मलते हुए उनके पास आकर बैठ गई।


    " क्या हुआ मां .. क्यों इतना शोर लगा रही हो ..?"


    " तुम्हे शोर की पड़ी है यहां मुझे मेरा लल्ला की फिक्र खाएं जा रही है। की ना जाने क्या होगा ..?"


    " लेकिन! आपको देखकर मुझे तो कुछ और ही लग रहा है । आप तो बड़े मजे से चाय पी रही है और लड्डू खा रही हैं .. लेकिन मैंने तो सुना है कि जब किसी -  को - किसी की फिक्र होती है तो कुछ भी गले से नीचे उतर ही नहीं सकता ..?" श्वेता ने मालती जी की तरफ देख कर कहा वही मालती जी ने उसे आंखें दिखाई



    " कसाई के चाकू से भी तेज जुबान चलने लगी है तेरी आजकल.. कॉलेज में कौन सा पहाड़ तोड़ कर आती है जो आते ही पड कर सो जाती है। थोड़े बहुत घर के काम भी करवा लिया कर। "


    " और जो आपकी ज़ुबान चलती है उसका क्या ..?" श्वेता धीरे से बुदबुदाई।


    " अब यही बैठी रहेगी क्या .. जा अपनी भाभी के साथ काम करवा ले , उसे तो कुछ ढंग का आता नहीं है। "


    चाय की एक घुट भरते हुए मालती जी ने कहा।



    " तो मुझे कौन सा आता है .. कल मेरा एक इंपॉर्टेंट टेस्ट है मैं पढ़ रही हूं अपने कमरे में जाकर जब खाना बन जाए तो मुझे बुला लेना और तब तक मुझे कोई डिस्टर्ब मत करना। " श्वेता ने कहा और उठकर वापस अपने कमरे में चली गई।


    " न जाने क्या होगा इस लड़की का भी आगे। " मालती जी ने अपनी गर्दन हिला दी।


    खाना बनाने के बाद कली ने सबको खाना खाने के लिए बुला लिया। घर में सिर्फ मालती जी ,  उनके पति चंद्र जी और उनकी छोटी बेटी श्वेता और कली ही थे। वही मालती जी का बड़ा बेटा कुमार , अपनी पत्नी और अपने बच्चो के साथ साइड वाले घर में रहते थे। क्योंकि कभी भी कुमार की पत्नी सुनंदा और मालती जी की बनी ही नही। ऐसा नहीं था कि सुनंदा उनका सम्मान नहीं करती थी बल्कि वह तो सबके साथ मिलकर रहने वाली थी लेकिन मालती जी के ताने उसे बर्दाश्त नहीं होते थे वह कली की तरह नहीं थी कि सुना और दो आंसू बहा दिए बल्कि वह सुनकर उल्टा जवाब भी दे देती थी। चंद्र जी ने फ़ैसला किया की रोज - रोज की लड़ाई और किटकिट से तो अच्छा है की अलग ही हो जाए। और फिर जब कली इस घर में बहू बनकर आई तो। कुमार और सुनंदा अपने बच्चो के साथ साइड वाले घर में शिफ्ट हो गए थे। जो की चंद्र जी के भाई का हिस्सा था लेकिन! उनके भाई शहर में अपने बच्चो के साथ रहते थे और घर उन्हे ही सौप गए थे।


    सभी आंगन में ही आ कर बैठ गए। कली ने बड़ा सा घूंघट निकाला और सबको खाना परोसने लगी फिर खाना परोस कर खुद रसोई में आ कर बैठ गई। उसने भी अपना खाना प्लेट में निकाला और खाने लगी।


    जब सबका खाना हो गया तो उसने रसोई का बचा हुआ काम खत्म किया। छोटे मोटे कामों में ही कब रात के 10 बज गए थे उसे पता ही नही चला था।


    मालती जी भी उठी और अपनी कमरे की तरफ बढ़ती हुयी कली से बोली


    " दिन में जो कपड़े धोए थे ना वह छत से उतार ला और उन्हे इस्त्री करके ही सोना... सुबह देखूंगी मै। "


    " जी... जी मांजी। " कली ने अपनी गर्दन हिला दी थी। मालती जी के जाने के बाद कली ने अपनी गर्दन हिलाई और अपने कदम सीढ़ियों की ओर बढ़ा दिए। ऊपर छत पर आई और एक एक करके कपड़ो को तार पे से उतार - उतार कर उन्हे अपनी बाजुओं पर रख लिया। के तभी उसके कानो में एक जानी - पहचानी सी आवाज़ पड़ी।


    उसने आवाज़ की दिशा में देखा तो दूसरी छत पर सुनंदा खड़ी थी। कली बाहों में सारे कपड़े उठाए हुए ही उसके पास चली आई और मुस्कुरा कर बोली।


    " दीदी! आप अभी सोई नहीं ..?"




    क्रमश:

  • 3. तो इश्क है ! - Chapter 3

    Words: 1000

    Estimated Reading Time: 6 min

    "दीदी, आप अभी सोई नहीं...?"

    कली ने पूछा। सुनंदा हल्का सा मुस्कुराकर बोली,

    "अरे, सोने ही जा रही थी। बच्चों को सुलाया, फिर काम करते हुए अचानक मन अजीब सा हो गया, तो थोड़ी देर खुली हवा लेने ऊपर आ गई थी। और तुम काहे नहीं सोई अभी तक, मैडम जी...?"

    "अभी काम करके फ्री हुई थी कि मांजी ने एक और काम दे दिया (कपड़ों की तरफ देखकर)। सभी कपड़ों को प्रेस करने का कह रही थीं, तो सभी कपड़ों को प्रेस करके सोऊंगी अब..." कली ने थोड़ा थके-थके से लहजे में कहा।

    "अरे! उनके तो काम ही ये हैं। कोई चैन से बैठा उन्हें सुहाता थोड़ी ना है। जब नई-नई मैं आई थी तो मेरे साथ भी वह ऐसा ही करती थीं, कि ये काम तो कभी वो काम, और मैं पागल शर्म के मारे बोलती ही नहीं थी...इस चीज़ का ही फ़ायदा उठा रही थीं वह आज तक मेरा। लेकिन! धीरे-धीरे सब समझ गई मैं कि आखिर! वह चीज़ क्या है। चलो भई! हम तो बहुत खुश हैं...कम-से-कम शांति से खाना तो खाते हैं, वर्ना इस घर में उफ्!...मैं तो भूल ही गई थी कि शांति क्या चीज़ है।" सुनंदा नाक सिकोड़कर बोली। कली कुछ नहीं बोली, बस चुप रही।

    "अच्छा ला, ये सारे कपड़े मुझे दे। वैसे भी मुझे नींद आ नहीं रही तो...मैं कर देती हूँ इनको प्रेस...तू सो जा, थक गई होगी ना..."

    "नहीं दीदी...मैं कर दूँगी। और आपने इतना सोचा मेरे लिए, वही बहुत है। आप बहुत अच्छी हैं।" कली ने मुस्कुराकर कहा।

    "मैं तो अच्छी हूँ, बाकी तेरी सास और नन्द अच्छी नहीं हैं। एक से बढ़कर एक हैं दोनों..."

    "वो तो आपकी भी हैं ना..." कहते हुए कली हँस दी। तो सुनंदा भी खिलखिला दी।

    "अच्छा, ये सब छोड़ और बता कि देवर जी कब आ रहे हैं...?"

    "पता नहीं दीदी...हमारी तो कोई बात ही नहीं होती इनसे..." कली ने उदासी से कहा।

    "ये जो तुम्हारे साथ हो रहा है ना, इसमें सारी-की-सारी गलती देवर जी की ही है। ख़्वामख़्वाह ही छोड़ गए तुझे यहाँ...जबकि अच्छे से जानते हैं कि उनकी माँ कितनी दुष्ट है। साथ ना ले जाते तुझे...नई-नई शादी हुई, कम-से-कम कुछ दिन तो तुम दोनों साथ बिताते...(थोड़ा रुककर) अच्छा सुन, अब...जब वह आएँ तो उनसे बात कर लेना कि अबकी बार जाएँ तो तुझे साथ लेकर ही जाएँ।"

    सुनंदा ने उसे समझाया। तो कली ने धीरे से अपनी गर्दन हिला दी।

    "चल ठीक है, जा अब। और हाँ, कोई ज़रूरत नहीं है मांजी की कठपुतली बनने की। खुद के तो बच्चे हैंडल होते नहीं हैं और हम पर धौंस जमाती रहती है।"

    कली ख़ामोशी से नीचे चली आई। कमरे में जाकर सबसे पहले उसने सभी कपड़ों को प्रेस किया। और उसके बाद सोने के लिए बेड पर लेट गई। कुछ देर करवट बदलती रही और फिर धीरे-धीरे नींद के आगोश में चली गई।


    ग्रेटर नोएडा,


    अभियुद्ध अभी अपने ऑफिस आया ही था कि तभी बॉस का बुलावा आ गया था। वह उसे अपने केबिन में बुला रहे थे। अभियुद्ध उठा और अपने बॉस के केबिन की तरफ़ बढ़ गया। वह एक प्राइवेट लिमिटेड कंपनी में एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर की हैसियत से नौकरी करता था। और यहाँ रहने के लिए भी कंपनी वालों ने ही उसे फ़्लैट भी दे रखा था। जिसमें वह अकेला ही रहता था। उम्र यही कुछ 23-24 साल ही थी। वह अपनी ज़िम्मेदारियों को निभाना बखूबी जानता था।

    अपने बॉस के केबिन के सामने खड़ा होकर उसने दरवाज़ा नॉक किया, तो अंदर से बॉस की आवाज आई, जो काफ़ी सहज ही थी।

    "यस, कम इन..."

    "सर, आपने बुलाया...?"

    वह अपने दोनों हाथों को पीछे बाँधे उनके सामने खड़ा हो गया था। बॉस हल्का सा मुस्कुराए और उन्होंने अपनी गर्दन हिला दी।

    "अभियुद्ध! तुमने एक हफ़्ते के लिए लीव अप्लाई की है। सब ठीक तो है ना...?"

    "जी सर, सब ठीक है...बस काफ़ी टाइम हो गया तो माँ-पापा के पास गाँव जाना चाह रहा था। वह भी काफ़ी बार बोल चुके हैं आने की..."

    अभियुद्ध ने सहजता से कहा।

    "अच्छा, ठीक है। मैं लीव अप्रूव्ड कर रहा हूँ। लेकिन! सिर्फ़ तीन दिन के लिए, क्योंकि तुम काफ़ी अच्छे से जानते हो कि हमारी कंपनी के पास, तुम्हारे सिवाय कोई और सॉफ्टवेयर इंजीनियर नहीं है और कितना काम होता है, इस चीज़ से तुम काफ़ी अच्छे से वाकिफ़ हो। बाकी मुझे नहीं लगता कि मुझे ज़रूरत है तुम्हें बताने की...हम लॉस नहीं झेल सकते। तुम मेरी बात समझ रहे हो ना...?"

    "जी....जी सर, आई अंडरस्टैंड। मैं घर से काम कर लूँगा सर, पर प्लीज़ एक हफ़्ते की लीव अप्रूव्ड कर दीजिए।"

    अभियुद्ध ने विनती की, लेकिन! उसके बॉस ने उसकी एक ना सुनी। सिर्फ़ तीन दिन की ही लीव अप्रूव्ड की थी। उसका मन थोड़ा उदास सा हो गया। शादी के टाइम भी तो ऐसा ही हुआ था। सिर्फ़ चार दिन की ही लीव अप्रूव्ड हुई थी, इसलिए ही उसे शादी के एक दिन बाद ही यहाँ आना पड़ा था। वह ज़्यादा कुछ बोल भी नहीं पाया। और ख़ामोशी से उनके केबिन से बाहर चला गया। अपनी टेबल पर आकर बैठा और गर्दन ना में हिला दी। एकदम मशीन बनाकर रख दिया था। कभी-कभार मन करता था कि ये जॉब छोड़कर वापस गाँव चला जाएँ। लेकिन! घर की आर्थिक स्थिति भी तो उसकी जॉब पर निर्भर करती थी। घर में सभी लोगों की ज़िम्मेदारी उसके कंधों पर ही तो थी। सोचता था कि अगर उसने ये जॉब छोड़ दी तो उसके परिवार का क्या होगा...? मन मारकर अपने परिवार वालों के लिए वह अपने परिवार से ही दूर था।


    क्रमश:

    अगला भाग जल्द ही...💞

  • 4. तो इश्क है ! - Chapter 4

    Words: 874

    Estimated Reading Time: 6 min

    "श्वेता, तुम्हारा टिफिन मैंने बैग में रख दिया है।" कली ने उसके बैग की ओर इशारा करके कहा। श्वेता आईने के सामने खड़ी, अपने बाल बना रही थी।

    "ठीक है।" उसने उस पर ज़्यादा ध्यान नहीं दिया। कली ने थोड़ा हिचकिचाते हुए उसे देखा और अपने दोनों हाथ आपस में गूँथे, वहीं खड़ी रही। श्वेता ने जब यह बात नोटिस की, तो वह उसकी ओर मुड़कर बोली,

    "कुछ कहना है तुमको...?"

    "हाँ..."

    "क्या...?"

    "और कल देर रात तुम किससे बात कर रही थी फोन पर...?"

    कली का सवाल सुनकर एक पल को श्वेता को साँप सूँघ गया था। लेकिन फिर अगले ही पल गुस्से में भड़ककर बोली,

    "शर्म नहीं आती दूसरों की बातें कान लगाकर सुनते हुए?"

    "नहीं, मैंने जानबूझकर नहीं सुनी। रात में पानी की प्यास लगी तो पानी लेने ही बाहर आई थी मैं।"

    "तो... तो क्या? हां, क्या कहना चाहती हो तुम? मुझे बदनाम करना चाहती हो, हाँ? बोलो... रुको, तुम अभी बताती हूँ माँ से..."

    श्वेता बस कली को दबाना चाहती थी। उसे डर था कहीं कली मालती जी या फिर घर में किसी और को इस बारे में ना बता दे।

    "नहीं... नहीं... रुको तुम। मैंने कुछ नहीं सुना। बस कान बज रहे थे मेरे।" कली ने घबराते हुए फ़ौरन उसका हाथ पकड़ लिया।

    "ज़्यादा होशियार बनने की कोशिश ना करो, तुम समझी। वर्ना माँ से कहकर तुम्हें सीधा तुम्हारे मायके ही भेज दूँगी... फिर रहना पड़ेगा वहीं।" श्वेता उसे गुस्से में उंगली दिखाते हुए बोली। तो कली ने डरते हुए अपनी गर्दन हिला दी।

    "जा अब मेरी पानी की बोतल में पानी डालकर ले आ।"

    श्वेता की बात सुनकर कली फ़ौरन वहाँ से बाहर चली गई। उसके जाते ही श्वेता ने अपने सीने पर हाथ रखकर एक चैन की साँस छोड़ी।

    "शुक्र है बच गई। वरना यह तो मुझे पिटवाकर ही रहेगी माँ के हाथों से... इससे अच्छा है कि मैं खुद माँ को कह दूँ कि यह मुझे क्या कह रही है। फिर माँ खुद ही देख लेगी इसे..." कहते हुए श्वेता मन ही मन बोली। और जल्दी से अपने बालों को बाँध लिया और अपना बैग उठाकर बाहर आ गई। उसने देखा कि कली वहाँ नहीं थी। यह देखकर वह जल्दी से मालती जी के पास आई, जो वहीं बैठी हुई चाय पी रही थी।

    "अपनी इस बहू को समझा दो कि मुझे यूँ बदनाम ना करती फिरें।" श्वेता थोड़ा गुस्से में बोली।

    "क्या हुआ...? क्या कह दिया उसने...?"

    "कह रही है कि मैं रात को किसी लड़के से बात कर रही थी माँ... लेकिन आप तो जानती हैं ना कि मैं ऐसा कुछ नहीं कर सकती। जानबूझकर मुझे बदनाम करने की कोशिश कर रही है वह... फिर भाई को भी बताएगी... क्या सोचेंगे भाई मेरे बारे में...? उन्हें तो यही लगेगा ना कि उनकी बहन ही खराब है। माँ, मैं बता रही हूँ, यह भी उस पड़ोसन (सुनंदा) की बहकावे में चल रही है। जैसे वह भाई को हमसे दूर ले गई ना... वैसे ही कहीं यह भी भाई को अपने फँदे में ना ले ले और फिर तो आप जानती ही हैं आगे क्या होगा... मेरा क्या? मैं तो दो साल बाद चली ही जाऊँगी अपने ससुराल, लेकिन आपको तो इन्हीं के पास रहना है ना। मैं तो आपकी भलाई के बारे में बोल रही हूँ, बाकी मेरा क्या है? सह लूँगी इन सबके इल्ज़ाम भी..."

    श्वेता ने बड़ी ही चालाकी से अपनी बात कहने के साथ-साथ मालती जी के दिमाग़ में कुछ दूसरी बातें भी भर दी थीं। जिसे सुनने के बाद मालती जी ने बस इतना ही कहा,

    "तू फ़िक्र ना कर... इसे कैसे काबू में करना है, मैं अच्छे से जानती हूँ। तू जा कॉलेज... और मन लगाकर पढ़ना..."

    "जी... जी माँ।" श्वेता ने फ़ौरन अपनी गर्दन हिलाई। तभी वहाँ पर कली उसकी पानी की बोतल लेकर आ गई। श्वेता ने गुस्से में उसके हाथ से अपनी बोतल छीनी और मुँह बनाकर वहाँ से चली गई।

    श्वेता के जाने के बाद कली वहाँ से रसोई में जाने लगी, तो मालती जी ने फ़ौरन उसे टोका। वह अपनी कर्कश सी आवाज़ में बोली,

    "क्या कह रही थी तू श्वेता से...?"

    "क्या माँजी...?" कली अचानक घबरा गई।

    "तू जानती है कि मैं किस बारे में बात कर रही हूँ। आज तो तूने मेरी बेटी पर इल्ज़ाम लगा दिया... अगर आइन्दा मैंने सुना ऐसा कुछ... तो तुझे तेरे मायके भेज दूँगी। कोई लेने नहीं आएगा तुझे... सड़ती रहना वहीं पड़ी-पड़ी..."

    "माँजी, लेकिन मैंने सुना था रात को कि वह किसी से..."

    "चुप रह, वरना अभी बता दूँगी तुझे..." मालती जी चीख पड़ी थीं। कली ने सहमकर अपना सिर हिलाया और जल्दी से वहाँ से भाग गई। रसोई में आकर वह वहीं दीवार के सहारे फर्श पर बैठ गई। अपनी ठुड्डी घुटनों पर टिकाए, उसकी आँखों से आँसू छलक पड़े थे। और मुँह से सिसकी निकल गई थी, जिसे रोकने के लिए उसने अपने मुँह पर हाथ रख लिया था।

    क्रमश:

  • 5. तो इश्क है ! - Chapter 5

    Words: 960

    Estimated Reading Time: 6 min

    "माँजी, चाय..." इतवार की सुबह थी। मालती जी आँगन में बैठी धूप सेक रही थीं। तभी कली उनकी चाय ले आई।

    "देख तेरे बाबूजी को, गली में हैं कि नहीं...?"

    "जी, देखती हूँ।" कहकर कली फ़ौरन दरवाज़े की तरफ़ बढ़ गई। मेन गेट खोलकर उसने गली में इधर-उधर देखा, लेकिन उसे चंद्र जी नहीं दिखे। वह वापस दरवाज़ा बंद करके आई और मालती जी के पास खड़ी होकर बोली,

    "बाबूजी तो नहीं हैं माँजी, गली में..."

    "पता नहीं, सुबह-सुबह कौन से सैर-सपाटे पर निकल गए।" मालती जी चाय का घूँट भरती हुई बोलीं।

    "अच्छा, आज खिचड़ी बना लेना। और सब्ज़ियों को ज़्यादा बड़ी मत काटकर डालना।"

    "जी, ठीक है।"

    "और नमक कम ही डालना... हर रोज़ तो भर-भरकर डाल देती है। जबकि पता है कि तेरे बाबूजी को दिक्कत होती है।"

    "जी माँजी, मैं ध्यान रखूँगी।" कहते हुए कली जैसे ही रसोई की तरफ़ जाने लगी, तभी किसी ने मुख्य द्वार की कुंडी खटखटाई। मालती जी ने अपने हाथ में पकड़े कप को वहीं रखा और उठकर बाथरूम की तरफ़ बढ़ते हुए बोलीं,

    "मैं जरा नहाकर आती हूँ। देख, ज़रूर तेरे बाबूजी ही आ गए होंगे।"

    कली भी घूँघट निकालकर मुख्य द्वार की ओर बढ़ गई। उसने दरवाज़े के पास आकर एक साइड का दरवाज़ा अंदर की ओर खोल दिया और खुद दूसरे पल्ले के पीछे खड़ी हो गई। घूँघट की वजह से वह देख नहीं पाई कि दरवाज़े पर कौन था, लेकिन उसे अहसास हुआ कि कोई दरवाज़े से अंदर आया है। अभियुद्ध हल्का सा मुस्कुराकर उसे देख रहा था, जो खुद से भी बड़ा घूँघट निकाले एक तरफ़ खड़ी थी। और फिर अपना बैग उठाकर अंदर चला गया। कली ने दरवाज़ा बंद किया और जैसे ही अंदर जाने के लिए मुड़ी, एक बार फिर किसी ने मुख्य द्वार की कुंडी खटखटाई।

    इस बार वह मुड़ी और बिना दरवाज़ा खोले ही पूछ लिया,

    "कौन है...?"

    "अरे कली बेटा, मैं हूँ।" चंद्र जी ने कहा तो कली थोड़ी उलझ सी गई। तो फिर जो अभी अंदर गया, वह कौन था...? अपना सिर झटककर उसने पहले दरवाज़ा खोला। चंद्र जी अंदर आते हुए बोले,

    "मैंने अभी अभियुद्ध को देखा था आते हुए... कहाँ है वह...? तुम रुको, मैं खुद ही देख लूँगा।" चंद्र जी आँगन की ओर चले गए।

    वहीं अभियुद्ध का नाम सुनते ही कली का दिल धड़क से हुआ। अभियुद्ध आए हैं, यह सोचकर ही उसका मन पुलकित हो उठा। उसने जल्दी दरवाज़ा बंद किया और लगभग दौड़ते हुए अंदर की तरफ़ आई। आँगन में आते ही उसके कानों में अभियुद्ध की आवाज़ पड़ी, जो चंद्र जी के पाँव छूकर आशीर्वाद ले चुका था।

    "कैसे हैं आप...?"

    "मैं तो ठीक हूँ बेटा... तू कैसा है और सब ठीक है...?" चंद्र जी ने उसकी पीठ थपथपाते हुए पूछा।

    "जी, सब ठीक है बाबूजी। काफ़ी समय हो गया था आपसे मिले... तो बस आ गया। तीन दिन की छुट्टी लेकर। तीन दिन यहीं रुकूँगा आप सबके पास..." कहते हुए उसने कली की ओर देखा और फिर हल्का सा मुस्कुरा दिया।

    "ठीक है, तू सफ़र से आया होगा। थक गया होगा... (कली की ओर देखकर) कली बेटा, जरा चाय-पानी का इंतज़ाम करो। (वापस अभियुद्ध की ओर देखकर) आराम कर... फिर बात करेंगे बैठकर।" चंद्र जी अपने कमरे में चले गए।

    वहीं चंद्र जी की चाय-पानी वाली बात सुनकर कली फ़ौरन रसोई की ओर बढ़ गई। अभियुद्ध उसके पीछे ही रसोई में आ गया था। कली जैसे ही पानी का गिलास लेकर मुड़ी, सामने अभियुद्ध को देखकर अचानक चिल्ला उठी। अभियुद्ध ने कुछ नहीं कहा।

    "मैं... मैं बाहर ही लेकर आ रही थी जी..."

    "कोई बात नहीं... मैं खुद आ गया लेने।" कहते हुए अभियुद्ध ने कली के हाथ से पानी का गिलास ले लिया और थोड़ा सा पानी पीकर उस गिलास को वहीं सिंक में रखकर कली की ओर देखकर बोला,

    "चाय मत बनाना... मैं थोड़ी देर सोऊँगा।"

    "तो और कुछ बना दूँ जी...?" कली ने फ़ौरन पूछा। अभियुद्ध ने कुछ पल रुककर उसे देखा और फिर इतना बोलकर रसोई से बाहर चला गया,

    "नहीं... कुछ नहीं।"

    कली ने धड़कते दिल के साथ अपने होठों को आपस में दबा लिया। उसका मन गुदगुदा रहा था अभियुद्ध के आने से। वाकई उसे कोई अंदाज़ा नहीं था कि अचानक अभियुद्ध आकर उन्हें हैरान कर देगा। अभियुद्ध अपने कमरे में आया और कपड़े चेंज करके बेड पर लेट गया। कुछ देर बाद ही वह नींद के आगोश में चला गया। उसके सोने के करीब पाँच मिनट बाद कली कमरे में आई और आहिस्ता-आहिस्ता चलकर बेड के पास आई। अपने पल्लू को होठों में दबाए वह एकटक उसे देख रही थी। चेहरे पर हल्की मुस्कान थी। शादी के समय इतना वक़्त ही कहाँ मिला था उसे कि वह अपने पति को सही से देख सके। आज तक उसे बस फ़ोटो में ही देखती आई थी।

    हल्का सा दबा सा रंग, चेहरे पर हल्की-हल्की दाढ़ी। तीखी नाक, छोटी आँखें और उसके गाल पर वह काला तिल। वह वहीं खामोशी इख़्तियार किए खड़ी उसे बस निहारे जा रही थी। लेकिन उसकी इस खामोशी में खलल डाल ही दिया था मालती जी की आवाज़ ने, जो शायद उसे किसी काम के लिए बुला रही थीं। वह मन मारकर धीरे-धीरे वहाँ से बाहर चली गई। वहीं अभियुद्ध इन सब बातों से अनजान सुकून की नींद सो रहा था, जो उसे आज इतने दिनों में अपने घर आकर आई थी।

    क्रमश:

  • 6. तो इश्क है ! - Chapter 6

    Words: 911

    Estimated Reading Time: 6 min

    "लल्ला! तू अपना जरा भी ध्यान नहीं रखता। देख तो इतना दुबला हो गया। सही से खाना भी नहीं खाता होगा, और ना बख़्त पर। और ये बाल... कैसे रूखे से हो गए हैं। तेल भी नहीं लगाता।" मालती जी, आँगन में बैठी अभियुद्ध के सिर पर चँपी कर रही थीं। और वह बस आँखें बंद किए मुस्कुराये जा रहा था।

    "जल्दी में भूल जाता हूँ।"

    "कोई बात नहीं। अगर देरी हो रही है तो, कम-से-कम अपना काम तो करके जा..."

    "आगे से ध्यान रखूँगा।" अभियुद्ध ने बस इतना ही कहा और फिर ख़ामोश हो गया। शाम का वक़्त था। कली रसोई में बैठी जल्दी-जल्दी रात के खाने की तैयारी कर रही थी।

    "अच्छा माँ... ये श्वेता कहाँ गई है...?" अभियुद्ध ने पूछा।

    "अरे उसकी वो सहेली है ना, जो उसके साथ कॉलेज में जाती है। नाम तो मुझे याद नहीं... बोल रही थी के काम है। छः बजे तक आ जाऊँगी।"

    कहते हुए उन्होंने दरवाज़े की ओर देखा।

    "और कैसी चल रही है उसकी पढ़ाई-लिखाई...?"

    "बढ़िया चल रही है। बढ़िया नंबर भी आ रहे हैं।"

    "हम्म... अच्छा अब रहने दीजिए। आपका हाथ दुखने लगा होगा..."

    "तू भी कैसी बात कर रहा है? कभी अपने लल्ला का काम करते वक़्त मेरा हाथ दुखा है।" मालती जी ने प्यार से अभियुद्ध की ठुड्डी पकड़कर कहा। तो अभियुद्ध ने भी उतने ही प्यार से उनका हाथ सीधी तरफ़ से चूमा।

    "बहुत याद आती थी आप सबकी..."

    "मुझे भी तेरी बहुत याद आती थी। तेरी चिंता में मुझसे खाना भी नहीं खाया जाता था... देख जरा पतली नहीं लग रही हूँ मैं पहले से..."

    अभियुद्ध ने मुस्कुरा कर अपना सिर हिला दिया। वहीं रसोई में काम कर रही कली, मालती जी की बात सुनकर हँस दी। लेकिन बिना आवाज़ के।

    "अच्छा माँ... कुमार भाई जो पैसे देते थे बैंक से लाकर... घर ख़र्च तो सही से चल जाता था ना...?"

    "हाँ... और थोड़ा-थोड़ा बचाकर मैंने श्वेता की शादी के लिए कुछ भी बना ली।"

    "ये तो सही किया आपने..."

    "तुझे रात को दिखाऊँगी, ठीक है।"

    "अरे नहीं माँ, कोई ज़रूरत नहीं है। वैसे भी मुझे क्या ही पता इन सब चीज़ों का... आपने बनवा ली... ठीक किया... शादी के टाइम एकदम से ज़्यादा भार नहीं होगा..."

    "हाँ ये भी ठीक कहा तूने।"

    "अच्छा माँ... मैं जरा भाई के पास होकर आता हूँ। वरना नाराज़ हो जाएँगे कि आया हुआ भी हूँ और उनसे मिलने नहीं गया।" अभियुद्ध उठते हुए बोला।

    "ठीक है, लेकिन ज़्यादा बातें ना लग जाना..."

    "ठीक है।" अभियुद्ध बाहर चला गया।

    मालती जी भी कली को काम करता देख उठकर अपने कमरे में चली गईं।

    रात का खाना खाने के बाद सब अपने-अपने कमरे में चले गए थे। वहीं कली रसोई का काम जल्दी-जल्दी ख़त्म कर रही थी ताकि कमरे में जा सके। और आज तो उसके पास जल्दी काम करके कमरे में जाने का कारण भी था। क्योंकि आज कमरे में अभियुद्ध था, जो शायद उसका इंतज़ार कर रहा होगा। ये सोच-सोचकर वह खुद ही मुस्कुराए जा रही थी। और हुआ भी ऐसा ही कि वह जैसे ही कमरे में दाखिल हुई, अभियुद्ध बेड पर बैठा उसी का इंतज़ार कर रहा था। अभियुद्ध उसे देखकर हल्का सा मुस्कुरा दिया। तो वहीं कली ने शर्माते हुए अपनी नज़रें झुका लीं और धीरे से दरवाज़ा अंदर से बंद करके बेड पर आकर बैठ गई।

    दोनों ही ख़ामोश थे। अभियुद्ध सोच रहा था कि बात की शुरुआत कली करे और कली ये सोच रही थी कि अभियुद्ध करे। काफ़ी देर बीत जाने के बाद अभियुद्ध ने ही शुरुआत करने का निश्चय किया। उसने अपना गला साफ़ किया और धीरे से कली की तरफ़ देखकर बोला,

    "....कैसी हो...?"

    "जी... जी मैं तो ठीक हूँ। आप... आप कैसे हैं...?"

    "ठीक हूँ।"

    एक बार फिर से ख़ामोशी आ गई।

    "घर पर मन लग गया है ना...?" कुछ देर बाद फिर अभियुद्ध ने सवाल किया।

    "जी..." बस छोटा सा ही जवाब दिया था उसने।

    "हम्मम... गुड। ठीक है। वैसे भी रात बहुत हो गई है तो... तो सो जाते हैं।"

    "जी..." कली ने अपनी गर्दन हिला दी। दोनों ही अपनी-अपनी साइड बिस्तर पर लेट गए। अब तो अभियुद्ध को भी समझ नहीं आया कि क्या कहे, क्या बात करे...? इसलिए उसने बस अपनी आँखें बंद कर लीं।

    वहीं कली की भी आँखें नींद से बोझिल होने लगीं। और फिर कब नींद आ गई पता ही नहीं चला। कली की गहरी होती साँसें सुनकर अभियुद्ध ने अपनी आँखें खोलकर उसकी तरफ़ देखा, जो बेफ़िक्र होकर सो रही थी। उसने उठकर कमरे की लाइट्स बंद कीं और धीरे से मुस्कुरा कर उसकी ओर करवट लेकर लेट गया। फिर उसे प्यार से निहारने लगा। नींद में ही उसका सिर से पल्लू हट चुका था। अभियुद्ध ने अपना हाथ आगे बढ़ाकर उसके गाल को छुआ और फिर फ़ौरन ही अपना हाथ पीछे खींच भी लिया था।

    फिर कुछ सोचकर वह सीधा होकर लेट गया और वापस से अपनी आँखों को बंद कर लिया। धड़कनें उसकी असामान्य गति से धड़क रही थीं और साँसें खुद-ब-खुद भारी हो गई थीं।

    क्रमश:

  • 7. तो इश्क है ! - Chapter 7

    Words: 906

    Estimated Reading Time: 6 min

    अगली सुबह कली की आँखें उसी समय खुलीं, जिस समय वह हर रोज़ उठती थी। वह उठकर बैठ गई और अपने बिस्तर के बगल में देखा। अभियुद्ध उसकी तरफ़ पीठ करके सो रहा था। वह हल्का सा मुस्कुराई और बिस्तर से नीचे उतरकर बाथरूम की ओर बढ़ गई। फिर अच्छे से तैयार होकर वह रसोई में चली आई। चाय का पानी गैस पर चढ़ाकर, उसने आंगन के सामने वाले बाथरूम में जाकर पानी की बाल्टी भरी और चंद्र जी के कपड़े रखकर वापस रसोई में आ गई। चाय में दूध डालकर उसने एक उबाल लगाया और फिर दो कपों में चाय छानकर चंद्र जी के कमरे में आ गई। वह अभी भी सो रहे थे। उसने एक कप चाय टेबल पर रखा और धीरे से बोली,

    "बाबूजी, आपकी चाय और पानी रख दिया है। नहा लीजिएगा।"

    कली की आवाज़ सुनकर वह बस इतना ही बोले,

    "ठीक है बेटा।"

    कली वहाँ से निकलकर श्वेता के कमरे में आई। बेड पर मालती जी और श्वेता आराम से सो रही थीं। कली ने उनकी चाय वहीं रखी और धीरे से उनके कंधे पर हाथ रखकर बोली,

    "माँजी, सुबह हो गई है। आपकी चाय रख दी है। क्या सब्जी बनाऊँ...?"

    "जो हो देख ले।" वह आँखें बंद किए हुए ही बोलीं।

    कली बिना कुछ कहे वापस रसोई में आ गई और खाना बनाने लगी।

    आठ बजे के करीब जब अभियुद्ध उठकर कमरे से बाहर आया, श्वेता कॉलेज चली गई थी। चंद्र जी अपने कमरे में ही बैठे थे, वहीं मालती जी किसी काम के लिए पड़ोस में गई हुई थीं। अभियुद्ध वहीं रखी कुर्सी पर बैठ गया। रसोई की ओर देखकर थोड़ा तेज आवाज़ में बोला,

    "मेरी चाय...?"

    वहीँ अभियुद्ध की आवाज़ सुनकर, कली जो छत पर कपड़े सुखाने गई थी, आँगन में झाँकती हुई बोली,

    "जी, बस अभी आती हूँ। कपड़े फैलाने आई थी।"

    "ठीक है।" अभियुद्ध ने ऊपर देखकर कहा।

    कली जल्दी से कपड़ों को तार पर डालकर सीढ़ियों से नीचे उतरने लगी। इस बीच उसका पूरा ध्यान अभियुद्ध पर ही था, जिसकी वजह से आखिरी दो पौड़ियों से ही उसका पैर फिसल गया। वह गिरती, उससे पहले ही अभियुद्ध ने फुर्ती दिखाते हुए उठकर उसे अपनी बाहों में पकड़ लिया। कली ने गिरने के डर से अपनी दोनों आँखें कसकर मीनच ली थीं। अभियुद्ध के दोनों हाथ कली की कमर पर कसे हुए थे। अभियुद्ध एकटक उसे देख रहा था। कली के पैर अभी भी पौड़ी को छू रहे थे, जबकि वह पूरी तरह अभियुद्ध पर झुकी हुई थी; यानी लगभग उसका सारा भार अभियुद्ध पर ही था। जब उसे महसूस हुआ कि वह नहीं गिरी, तो उसने धीरे से अपनी आँखें खोलीं; उसकी आँखें सीधा अभियुद्ध की आँखों से जा टकराईं। कली का एक हाथ अभियुद्ध के सीने पर था, जिससे वह महसूस कर सकती थी अभियुद्ध की असामान्य गति से धड़कने वाली धड़कनों को। वहीं छत पर खड़ी सुनंदा यह नजारा मुस्कुराकर देख रही थी।

    कली तो जैसे उसकी उन भूरी आँखों में खो ही गई थी। यही हाल अभियुद्ध का भी था। तभी दोनों के कानों में किसी के गला साफ़ करने की आवाज़ पड़ी। अभियुद्ध और कली दोनों जैसे होश में आए। अभियुद्ध ने कली को सही से खड़ा किया और उस तरफ़ मुड़ गया, जिस तरफ़ से आवाज़ आई थी। सामने मालती जी खड़ी थीं। मालती जी को देखकर अभियुद्ध धीरे से बोला,

    "ये गिरने वाली थी..."

    और वहाँ से वापस कमरे में चला गया। कली ने खुद को सम्हाला और रसोई की तरफ़ बढ़ गई। बिना मालती जी को देखे भी वह बता सकती थी कि उनकी गुस्से भरी निगाहें उस पर ही टिक गई हैं।

    "बड़े नैन-मटक्के चल रहे हैं। शर्म तो आती नहीं होगी जरा भी..."

    मालती जी नाराजगी से बोलीं। कली कुछ नहीं बोली, लेकिन छत पर खड़ी सुनंदा चुप नहीं रह सकी। वह दीवार पर अपने दोनों हाथ टिकाए हुए मालती जी से बोली,

    "तो इसमें शर्माने वाली कौन सी बात हो गई माँजी? नैन-मटक्के चल रहे हैं तो क्या हुआ? वह किसी गैर मर्द के साथ थोड़ी ना नैन-मटक्का कर रही है, जो उसे शर्म आनी चाहिए। पति है उसका... शादी के बाद पहली बार आया है घर। आप काहे बीच में टांग अड़ा रही हैं...?"

    "देखो बहन... हमारे घर के मामले में ज़्यादा ज़ुबान चलाने की ज़रूरत नहीं है। अपने काम से काम रखो... आई बड़ी पंचायत करने।" मालती जी गुस्से में बोलीं, तो सुनंदा मुँह बनाकर वहाँ से चली गई। वह बोलना तो चाहती थी, लेकिन उसने चंद्र जी को कमरे से बाहर निकलते हुए देख लिया था।

    कली तो पहले ही रसोई में जा चुकी थी। मालती जी कुढ़कर रह गईं। कली ने अपनी नम आँखों को पोछा और अभियुद्ध के लिए चाय बनाने लगी। ना जाने क्यों, लेकिन मालती जी की बातें सुनकर उसका मन उदास सा हो गया था और आँसू तो जैसे आँखों में ही धरे रहते थे; यहाँ किसी ने कुछ कहा और वहाँ वह बाहर निकल गए। वह साफ़ दिल रखती थी, तो उसे अक्सर उनकी बातें बुरी लग ही जाती थीं, जबकि वह कोशिश करती थी कि ना रोए, ना रोए, लेकिन यही एक चीज़ उसके आपे से बाहर थी।

    क्रमश:

  • 8. तो इश्क है ! - Chapter 8

    Words: 1179

    Estimated Reading Time: 8 min

    "आपकी चाय..."

    "यही रख दो..."

    कली चाय रखकर जाने लगी तो अभियुद्ध ने उसे टोका।

    "ठीक तो हो ना तुम? कहीं चोट तो नहीं लगी...?"

    "ठीक हूँ जी मैं... आपने बचा लिया था।"

    वह हल्का सा मुस्कुरा कर बोली। आँखें अभी भी लाल थीं उसकी, जिसे अभियुद्ध ने नोटिस कर लिया था।

    "रो रही थी तुम...?"

    "नहीं जी..." कली ने फ़ौरन गर्दन ना में हिलाई।

    "तो फिर तुम्हारी आँखें लाल क्यों हैं...?"

    "शायद! आँखों में कुछ चला गया था।" उसने रुँधे गले से कहा।

    "सच में आँखों में कुछ चला गया था या फिर सिर्फ़ बहाना बना रही हो...?"

    "नहीं जी, ऐसी बात नहीं है।" कली ने धीरे से, मगर उदासी से भरे स्वर में कहा।

    "हम्म... ठीक है, तुम जाओ..."

    "जी..." कहती हुई कली वहाँ से चली गई थी। अभियुद्ध ने सोचते हुए चाय का कप उठाया और एक घूँट भरी।

    "आज रात ही बात करूँगा बाबूजी से इस बारे में..."

    कुछ तो चल रहा था उसके दिमाग़ में, जो वह काफी पहले से ही सोच रहा था।

    रात के खाने के बाद अभियुद्ध ने मालती जी और चंद्र जी से कहा कि उसे कोई ज़रूरी बात करनी है। तो सभी श्वेता के कमरे में इकट्ठे हो गए थे। सिवाय कली के; उसे तो जैसे कोई मतलब ही नहीं था इन सब बातों से, वह तो बस अपना काम खत्म कर रही थी रसोई में।

    "हाँ बोल लल्ला, क्या बात करनी है तुम्हें...?" मालती जी ने कहा।

    तो अभियुद्ध ने उनकी तरफ़ देखा और काफी सहजता से बोलना शुरू किया।

    "आप सब अच्छे से जानते हैं कि मुझे ज़्यादा बातें घुमाना पसंद नहीं... तो सीधा मुद्दे पर आता हूँ। मैं चाहता हूँ कि आप सब मेरे साथ शहर चलें।"

    "लेकिन! बेटा, ऐसे कैसे...?" चंद्र जी ने उसे टोका, जबकि मालती जी खामोशी अख़्तियार किए उसे ही देख रही थीं। मानो वह उसकी पूरी बात सुन लेना चाहती हों...?

    "ठीक ही तो कह रहा हूँ बाबूजी, आख़िर रखा ही क्या है यहाँ...? और मैं वहाँ अकेला रहता हूँ, आप सबसे दूर, तो मुझे आप सबकी चिंता लगी रहती है। मिलने आने का सोचता हूँ, लेकिन! छुट्टी नहीं मिलती है। अगर आप सब भी वहीं रहेंगे तो मुझे फिर फ़िक्र नहीं होगी... ना मुझे बार-बार छुट्टियों के लिए अप्लाई करना पड़ेगा। घर की भी कोई टेंशन नहीं है, वहाँ मुझे फ़्लैट मिला हुआ है। दो बड़े-बड़े कमरे हैं, रसोई है, बड़ा सा हॉल है। हम सब आराम से रहेंगे। समझिए मेरी बात को और चलिए मेरे साथ वहाँ... कोई परेशानी नहीं होगी वहाँ आप सबको..."

    अभियुद्ध ने अपनी बात उनके सामने रख दी थी। वहीं मालती जी तो नहीं, लेकिन चंद्र जी ज़रूर समझ गए थे अपने बेटे की बात को। लेकिन मालती जी के तो दिमाग़ में कुछ और ही चल रहा था। अभियुद्ध ने धीरे से मालती जी के पैर पर अपना हाथ रखा और उनकी ओर देखकर बोला,

    "आप क्या सोचती हैं इस बारे में माँ...?"


    "तुमने कहा कि तुम्हें बातें गोल-गोल घुमाने की आदत नहीं, जबकि इतनी देर से तुम यही तो कर रहे हो...? सीधे काहे नहीं कहते कि अपनी बीवी को लेकर जाना चाहते हो... तुम्हें वहाँ नौकरी करते तीन साल हो गए। कभी पहले नहीं सोचा तुमने हम सबको शहर लेकर जाने का... वहाँ रखने का। शादी की याद आ गई सब। बेटा, मैं भी तेरी माँ हूँ, अभी जो तुमने कहा ना, फ़ौरन पहचान गई कि ये तुम्हारे शब्द तो नहीं हो सकते। एक रात में ही कर दिया जादू तुम पर... बन गए एक रात में ही ज़ोरू के गुलाम... बोलने लगे उसकी भाषा।"

    मालती जी तुनक कर बोलीं, जबकि उनकी बात सुनकर अभियुद्ध अवाक रह गया।

    "ऐसा कुछ नहीं है माँ।"

    "अब ठीक ही तो कह रही है माँ... भैया! कभी पहले तो नहीं सोचा आपने हमें शहर लेकर जाने का।" श्वेता नाक सिकोड़ कर बोली।

    "भई! अब माँ बोलती है तो सच ही बोलती है, फिर चाहे सामने वाले को कितना ही कड़वा लगे।" मालती जी ने कहा।

    "नहीं माँ, ऐसी कोई बात नहीं है जैसा आप सोच रही हैं। और सच कहूँ तो जब से यहाँ आया हूँ मेरी तो सही से बात तक नहीं हुई है कली से... और सारी बातें मैं पहले ही सोचकर आया था। आप सब मेरी परेशानी नहीं समझ रहे, बस दूसरी दिशा में बात को लेकर जा रहे हैं। और जो असल मुद्दा है उससे हटकर।" अभियुद्ध ने बेचारगी से कहा।

    "मालती, मुझे लगता है कि अभियुद्ध ठीक ही कह रहा है।" चंद्र जी ने अभियुद्ध की बात पर सहमति जताई तो मालती जी चिढ़कर बोलीं,

    "आप तो चुप ही रहिए।" वापस अभियुद्ध की तरफ़ देखकर, "ठीक है, हमारी तरफ़ से कोई बंदिश नहीं है। अगर तू अपनी बीवी को लेकर जाना चाहता है तो ले जा। वैसे भी एक बेटा तो पराया हो गया था, समझ लेंगे दूसरा बेटा भी हो गया। सोचा था दोनों बेटे बुढ़ापे में सेवा करेंगे, पर कोई बात नहीं, मार लेंगी हम अपनी ख्वाहिशों को... अभी तो इन हड्डियों में जान है, कर लूँगी घर के काम जैसे-तैसे। और पहले भी तो करती ही थी।"

    मालती जी ताने कसती हुई बोलीं। अभियुद्ध बिना कुछ कहे कमरे से बाहर निकल गया, क्योंकि वह इतना तो जान गया था कि मालती जी उसकी बात नहीं समझेंगी, तो फिर बार-बार कहने का भी कोई फ़ायदा नहीं था।

    "तुम भी कमाल करती हो मालती!... बच्चा सही ही तो कह रहा है। लेकिन! तुम... तुम उसे समझने की बजाय उस पर ही दबाव बना रही हो। और ऐसे थोड़ी ना चलता है कि वह वहाँ रहेगा और उसकी पत्नी यहाँ।" चंद्र जी नाराज़गी से बोले।

    "आप तो रहने ही दीजिए और जो मैं कर रही हूँ ना, सही कर रही हूँ। अच्छे से पता है मुझे कि कैसे अपने लल्ला को काबू में करना है। जो एक बार वह अपनी बीवी को लेकर गया ना यहाँ से तो फिर वह यहाँ मुड़कर भी नहीं देखेगा। जैसे वो अपना बड़ा बेटा कुमार कर रहा है। जब से अलग हुए हैं, एक अठन्नी तक रखी है हाथ पर...? लल्ला जो पैसे उसके खाते में डालता है वह निकलवाकर देने ही आता है बस और फिर हाल-चाल पूछकर चला जाता है। कभी पूछा कि माँ आपको कोई परेशानी तो नहीं...? घर का खर्च सही से चल रहा है कि नहीं...? पैसों की ज़रूरत तो नहीं...? (श्वेता की ओर देखकर) कुमार तो अपने बच्चों और अपनी बीवी का देख रहा है। अगर अभियुद्ध भी ऐसा करेगा तो फिर इसका क्या होगा...? कैसे होगी इसकी शादी, सोचा है कभी...?"

    चंद्र जी ने कुछ नहीं कहा, बस उठे और सोने के लिए अपने कमरे में चले गए। मालती जी बस मुँह बनाकर रह गईं।

    क्रमश:

  • 9. तो इश्क है ! - Chapter 9

    Words: 984

    Estimated Reading Time: 6 min

    "क्या हुआ जी? आप कुछ परेशान से लग रहे हैं...? सब ठीक तो है ना...?" काम खत्म कर कली जैसे ही कमरे में आई, उसने देखा कि अभियुद्ध कुछ टेंशन में लग रहा था।

    "ठीक हूँ मैं। तुम बताओ, हो गया तुम्हारा काम...?" अभियुद्ध ने मुस्कुरा कर बात टाल दी थी क्योंकि वह उसे सच बताकर परेशान भी तो नहीं करना चाहता था।

    "जी, हो गया।" कली अपनी साइड का बिस्तर ठीक करती हुई बोली और वहीं सिरहाने से पीठ लगाए बैठ गई।

    "कितने काम करती हो तुम... पूरा दिन बस लगी ही रहती हो...? थोड़ा आराम भी कर लिया करो।" अभियुद्ध आहिस्ता से थोड़ा उसकी ओर खिसक गया।

    "आराम के लिए होती है ना रात..." वह हल्का सा मुस्कुरा कर बोली।

    "अच्छा... तुम खुश तो हो ना...?" अभियुद्ध ने धीरे से अपना हाथ आगे बढ़ाया और कली के हाथ की उंगलियों पर अपनी हथेली रख दी।

    "जी, खुश हूँ बस..." कली ने अपनी नज़रें झुकाते हुए काफी धीरे से कहा। अभियुद्ध के गर्माहट भरे स्पर्श मात्र से कली की नज़रें स्वयं झुक गई थीं, और कुछ अलग से एहसासों ने जन्म ले लिया था, जिसे वह खुद भी समझ नहीं पा रही थी क्योंकि ये सब तो उसके साथ पहली बार ही हो रहा था। अजीब सी झिझक, शर्म महसूस हो रही थी।

    "बस...?"

    "जी...वो... मुझे ना... मुझे ना आपसे बात करनी थी।"

    कली का अटकना अब चालू हो गया क्योंकि अभियुद्ध उसके थोड़ा और नज़दीक आकर बैठ गया था। अब तो अभियुद्ध की बाजू कली की बाजू को छू रही थी। वह थोड़ा सिहर उठी थी।

    "हाँ, कहो...?"

    "वो... जी..." कहते हुए कली अभियुद्ध से थोड़ा दूर हुई और आगे बोली, "यूँ... यूँ तो मुझे कोई दिक्क़त नहीं है अभियुद्ध जी, घर के काम, या फिर मांजी-बाबूजी के काम करने में। बल्कि मुझे तो बहुत अच्छा लगता है ये सब करके। उनकी सेवा करना। लेकिन!... लेकिन! पूरी ज़िन्दगी तो ऐसा नहीं चल सकता ना...? कब तक हम ऐसे रहेंगे...? आप वहाँ शहर में और हम यहाँ... अब ऐसा थोड़ी होता है। पति-पत्नी तो साथ रहते हैं ना।"

    कहते हुए उसने अभियुद्ध को देखा, जिसके चेहरे पर इस वक़्त कोई भाव नहीं थे। कली तो अंदाज़ा भी नहीं लगा पा रही थी कि उसकी बात सुनकर अभियुद्ध के मन में आखिर चल क्या रहा है...? आखिर वह सोच क्या रहा है...? और कहीं-ना-कहीं उसे इस बात का भी डर था कि कहीं अभियुद्ध को उसकी बात का बुरा तो नहीं लग गया ना...? कहीं वह उस पर गुस्सा ना करें...?

    "ऐ जी... आप कुछ कहें नहीं...?" कली ने उसकी ओर देखकर कहा, "कहीं आपको हमारी बात बुरी तो नहीं लग गई...?"

    "नहीं... ऐसा नहीं है। और कहीं से भी तुम्हारी बात ग़लत नहीं है। लेकिन! अगर तुम भी मेरे साथ वहाँ चली जाओगी तो फिर मां और बाबूजी का ध्यान और उनका ख्याल कौन रखेगा...? ये तो हमारा फ़र्ज़ है ना कि अपने मां-बाप का ख्याल रखना। मेरे वहाँ रहते हुए कम-से-कम मुझे इस बात की तो तसल्ली है ना कि मेरे पीछे से उनका ख्याल रखने के लिए (कली के हाथ पर अपनी पकड़ मज़बूत करते हुए) कोई तो है अपना। बस कुछ दिनों की और बात है, फिर ठीक हो जाएगा सब... तुम समझ रही हो ना मेरी बात...?" अभियुद्ध ने जबरन मुस्कुरा कर कही थी ये बात जबकि वह तो खुद चाहता था कि सब वहीं चले, लेकिन! मालती जी की बात सुनकर उसे इतना तो अंदाज़ा हो गया था कि मालती जी नहीं मानने वाली थीं, और वह अपनी मां की बात का अनादर नहीं कर सकता था, फिर चाहे वह बात उसे पसंद हो ना हो...?

    वहीं अभियुद्ध की बात सुनकर कली का चेहरा छोटा हो गया। वह बस फीका सा मुस्कुरा कर बोली,

    "जी, समझ गई।"

    "तुम्हें बुरा लगा कि मैं तुम्हें लेकर नहीं जा रहा...?"

    अभियुद्ध ने हल्का सा मुस्कुरा कर उसकी ओर देखा जबकि कली दूसरी तरफ़ मुँह फेरे बैठी थी। यानी वह बिना बात ही साइड वाली दीवार को एकटक देखे जा रही थी, मानो जिस पर ना जाने क्या ही अतरंगी चीज़ छपी थी।

    "ऐ मिश्राइन! काहे मुँह फुलाए बैठी हो...?" अभियुद्ध ने थोड़ा मज़ाकिया अंदाज़ में कहा।

    जबकि ना चाहते हुए हुए भी कली के होठों पर एक प्यारी सी मुस्कान तैर ही गई थी। उसे मुस्कुराता देख अभियुद्ध ने प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरा। कली ने अपने पैरों को फोल्ड किया, तभी उसकी पायल ने आवाज़ की, जिसे सुनकर अभियुद्ध को जैसे कुछ याद आया। उसने अपने सिर पर हल्का सा मारा। तो कली ने उसकी ओर देखा,

    "क्या हुआ जी...?"

    "मैं तुम्हारे लिए कुछ लेकर आया था... वो देना ही भूल गया, जबकि वहाँ से आते वक़्त मुझे याद था कि जाते ही तुम्हें देना है।"

    "कोई बात नहीं जी... अभी दे दीजिए, अभी कौन से देर हुई है। वैसे क्या लेकर आए हैं आप मेरे लिए...?" कली ने बड़ी दिलचस्पी से अभियुद्ध को देखा। उसे काफी अच्छा लगा था कि अभियुद्ध उसके लिए कुछ लेकर आया है, और क्या लेकर आया है यह जानने की इच्छा थोड़ा बढ़ सी गई थी।

    "ऐसे कैसे बता दूँ... पहले आँखें बन्द करो। फिर दूँगा ना... उसके बाद बताना कि कैसा लगा।" कहते हुए अभियुद्ध ने कली के चेहरे पर उसकी साड़ी का पल्लू डाल दिया और फिर उठकर टेबल की ओर बढ़ गया जहाँ उसका बैग रखा हुआ था।

    कली उसकी इस हरकत पर मंद-मंद मुस्कुरा दी। लेकिन! मज़ाल है कि उसने अभियुद्ध के कहने पर आँखें बन्द करने के बाद एक बार भी आँखें खोलने की कोशिश भी की हो।

    क्रमश:

  • 10. तो इश्क है ! - Chapter 10

    Words: 1037

    Estimated Reading Time: 7 min

    "अब खोलो.." अभियुद्ध ने अपना हाथ आगे बढ़ाकर कहा।

    कली ने धीरे से अपने चेहरे से घूंघट हटाया और आँखें खोलकर अभियुद्ध की तरफ देखा, जो अपने हाथ की तरफ इशारा कर रहा था। कली ने धीरे से अभियुद्ध के हाथ की तरफ देखा। उसका चेहरा खिल सा गया। उसने अपना हाथ आगे बढ़ाकर उसकी हथेली पर रखी चाँदी की पायल उठाई और उसे देखने लगी।

    "पसंद आई..?"

    "ऐ जी, ये तो बहुत ही प्यारी है... थैंक्यू।" कली की आँखें नम सी हो गई थीं।

    "थैंक्यू किसलिए? ये तो तुम्हारा हक है। मैंने तुम्हें शादी के बाद मुँहदिखाई भी तो नहीं दी थी। तो ये वही है... पहले तो समझ नहीं आया कि क्या लेकर जाऊँ तुम्हारे लिए, जो तुम्हें पसंद भी आए। फिर हमारे ऑफिस में मेनका जी हैं, मेरी कलीग, बहुत अच्छी हैं। उनसे पूछा तो उन्होंने कहा कि मैं पायल ले जाऊँ, तो बस ले आया था पहले ही खरीद कर.." अभियुद्ध ने मुस्कुरा कर कहा।

    "वैसे आपको एक बात बताऊँ..?" कली ने थोड़ा अभियुद्ध के कान के पास अपना चेहरा लाकर कहा।

    "क्या..?"

    "....(पायल को अपने सीने से लगाकर) मेरे जन्मदिन का सबसे बेहतरीन तोहफ़ा है ये...." कली ने खुश होकर कहा।

    कुछ देर तक अभियुद्ध उसकी बात समझ नहीं पाया कि आखिर कली ने ऐसा क्यों कहा। लेकिन फिर जब समझ आया तो उसकी आँखें थोड़ी बड़ी हो गईं। हैरानी से उसने बोला,

    "आज तुम्हारा जन्मदिन है..?"

    अभियुद्ध के सवाल पर कली ने मुस्कुरा कर बस अपनी गर्दन हिला दी।

    "अरे... तो फिर पहले क्यों नहीं बताई कि आज तुम्हारा जन्मदिन है..? पगली हो तुम..." अभियुद्ध ने उसके सिर पर हल्की सी चपत लगाई।

    "वो इसलिए नहीं बताई क्योंकि हमें अच्छा नहीं लगता ऐसे सबके सामने प्रचार करना।"

    "अच्छा ठीक है। हैप्पी बर्थडे.. बस मेरी यही दुआ है कि तुम हमेशा खुश रहो।"

    "थैंक्यू जी..."

    "अच्छा, कितने साल की हो गई तुम..?"

    "21 की।"

    "यानी कि तुम मुझसे तीन साल छोटी हो।"

    कली बस हल्का सा मुस्कुरा दी।

    अभियुद्ध ने धीरे से उसके हाथ से पायल ली और उसकी तरफ़ देखकर प्यार से बोला,

    "पहना दूँ..?"

    "नहीं जी... मैं खुद पहन लूँगी।"

    "नहीं... मैं पहनाऊँगा।"

    "आप जिद क्यों कर रहे हैं।"

    "अगर तुम्हें मेरे छूने से दिक्कत है तो बता दो..?" इस बार अभियुद्ध ने थोड़ी नाराजगी से कहा था कि कली के मुँह से एक शब्द ना निकला। अब जब अभियुद्ध का इतना मन था तो वह उसे दुखी नहीं करना चाहती थी और ना ही उसे नाराज़ करना चाहती थी। फिर पलकें झुकाए, थोड़ा हिचकिचाते हुए अपने पैरों को आगे किया। अभियुद्ध मन-ही-मन मुस्कुरा उठा। उसने पहले कली के पैरों में मौजूद पायल उतारी और उसके बाद अपनी लाई हुई पायल उसे पहना दी।

    "अब बताओ कैसी लगी..?" पायल पहनाने के बाद अभियुद्ध ने अपने हाथों को पीछे खींच लिया था। कली का चेहरा शर्म से लाल हो गया था। उसने धीरे से नज़रें उठाकर अपने पैरों की ओर देखा। वाकई उसके खूबसूरत पैरों में अभियुद्ध की लाई पायल काफ़ी जच रही थी।

    "बहुत ही प्यारी।" कली ने काफ़ी धीरे से कहा।

    "मुझे अच्छा लगा कि तुम्हें पसंद आई। खैर! सो जाओ अब रात बहुत हो गई है। तुम भी दिन भर काम करके थक गई होगी..." अभियुद्ध उसके सामने से उठकर अपने साइड वाले बिस्तर पर आ बैठा था। कली ने कुछ देर उसे देखा और फिर बिना कुछ कहे अपनी साइड लेट गई और सीने तक कंबल भी ओढ़ लिया था। उसने अभियुद्ध की ओर ही करवट ले रखी थी जबकि अभियुद्ध ने लेटने के बाद कली की तरफ़ अपनी पीठ कर ली थी।

    "ऐ जी..?" कुछ देर बाद कली बहुत ही धीरे से बोली।

    "हम्मम..." अभियुद्ध बिना उसकी ओर मुड़े बोला।

    "आप सच में परसों चले जाएँगे..?" यह सोचकर ही उसका दिल बैठ जा रहा था। वह अभियुद्ध के साथ बहुत सारा वक्त गुजारना चाहती थी। उसे करीब से समझना चाहती थी। वक्त था, जो उसे मिल ही नहीं रहा था घर के कामों की वजह से और फिर अभियुद्ध थोड़ी देर ही तो रुकने वाला था...?

    "हाँ... ऑफिस से तीन दिन की ही छुट्टी मिली थी। इतवार की तो होती ही है। सोमवार की हो गई, कल मंगलवार की हो जाएगी और फिर बुधवार की। गुरुवार को सुबह 8 बजे तो ऑफिस में हाज़िरी लगानी है। अब सुबह गया तो यहाँ से जाने में मुझे कम-से-कम 3 घंटे तो लग ही जाएँगे। फिर भागा-भागा ऑफिस जाऊँगा। इससे अच्छा है कि बुधवार की दोपहर में यहाँ से चला जाऊँगा। अगले दिन आराम से हाज़िरी लगाऊँगा।" अभियुद्ध ने धीरे से करवट कली की ओर बदली। अब दोनों के चेहरे आमने-सामने थे। कली ने अपनी पलकें झुका लीं और अपने नाखूनों से कंबल को कुरेदती हुई धीरे से बोली, मगर उदास सी आवाज़ में,

    "फिर कब आएंगे आप..?"

    "जल्दी आने की कोशिश करूँगा।" अभियुद्ध ने मुस्कुरा कर उसके गाल को थपथपा दिया।

    "ठीक है जी।" कली ने धीरे से कहा।

    "अच्छा! कभी-कभी तुम भी फ़ोन पर बात कर लिया करो..."

    "माँजी बात करके फ़ोन काट देती हैं। फिर बाद में मैं इसलिए नहीं करती कि कभी मैंने फ़ोन किया और आप काम में व्यस्त हुए तो..?" कली ने टकटकी लगाकर उसे देखा।

    "कितना ही व्यस्त क्यों ना हो जाऊँ लेकिन! मेरे अपनों के लिए मेरे पास टाइम-ही-टाइम होता है। तुम कभी भी फ़ोन करोगी मैं ज़रूर बात करूँगा तुमसे..."

    "सच में जी..?" कली की आँखें चमक उठी थीं।

    "अरे... हाँ, हमारी मिश्राइन जी आपके लिए आपके मिश्रा जी फ़्री ही हैं। एक बार बस फ़ोन घुमा दीजिएगा, अगर ना उठाएँ तो फिर आपका थप्पड़ और हमारा मुँह।"

    "ऐ जी, आप भी कैसी बातें करते हैं। हम आपको काहे मारेंगे जी..?" कली ने तुरंत कहा तो अभियुद्ध बस हँस दिया।

    क्रमश:

  • 11. तो इश्क है ! - Chapter 11

    Words: 962

    Estimated Reading Time: 6 min

    "ऐ जी, मैंने आपका सामान और आपके कपड़े बैग में अच्छे से रख दिए हैं। आप एक बार जरा देख लीजिए। अगर कुछ कमी लगे तो बता दीजिएगा।" कली ने अभियुद्ध से कहा, जो वहीं बैठा हुआ अपना फोन चला रहा था।

    "तुमने रख दिया है तो फिर मेरे देखने की ज़रूरत ही नहीं है। बस मैं भी नहाकर निकलूँगा अभी..." अभियुद्ध ने बिना उसकी ओर देखे ही कहा।

    "आपका पानी भर दिया मैंने बाल्टी में और कपड़े भी रख दिए हैं जी..." कली ने कहा।

    "उसकी ज़रूरत नहीं थी, मैं खुद कर लेता।" अभियुद्ध ने अपने फोन को बंद करके दरकिनार किया और कली की ओर देखकर मुस्कुराकर बोला।

    "आज तो करने दीजिए अपने काम, फिर तो पता नहीं कब आएंगे आप और कब हमें मौका मिलेगा आपके काम करने का।" कली ने उदासी से कहा। उसकी बात सुनकर अभियुद्ध बस मुस्कुरा दिया। वह धीरे से उठा और कली के बिलकुल सामने खड़ा हो गया। कली की नज़रें अभी भी झुकी हुई ही थीं। अभियुद्ध ने आहिस्ता से उसकी दोनों बाजुओं को पकड़ा और उसे वहीं अलमीरा से सटा दिया। और खुद उसके बेहद करीब, बेहद करीब खड़ा हो गया कि कली महसूस कर सकती थी अभियुद्ध की साँसों को अपने माथे पर। उसका दिल बेचैन हो उठा और पेट में गुदगुदी सी होने लगी। खुद-ब-खुद चेहरे पर शर्म की लाली छा गई। अभियुद्ध की हाइट उससे तो ज़्यादा ही थी। वह तो अभियुद्ध के सीने तक ही आती थी। अभियुद्ध ने अपना सिर झुकाया हुआ था उसे देखने के लिए। हाँ, लेकिन! वह उसे नहीं देख पा रही थी शर्म के मारे। देखना तो दूर, अपना चेहरा ही नहीं उठा पा रही थी ऊपर। अभियुद्ध ने धीरे से अपना एक हाथ उसके साड़ी के आँचल को हटाकर उसकी खुली कमर पर रखा तो वह सिहर उठी। करंट सा दौड़ गया था उसके पूरे बदन में।

    "क्या हुआ मिश्राइन! हमसे शर्म आ रही है क्या...?" अभियुद्ध ने हल्का सा मुस्कुराकर अपना दूसरा हाथ उसकी ठुड्डी पर रखा और उसका चेहरा ऊपर किया। पर मजाल है, कली ने अपनी आँखें ऊपर की हों। बल्कि अभियुद्ध के उसका चेहरा ऊपर करने के बाद उसने कसकर अपनी आँखें बंद कर ली थीं।

    "ऐ, आँखें तो खोलो।" अभियुद्ध ने अपनी उंगलियों से उसके चेहरे को छुआ। तो बेचैन होकर उसने उसकी कलाई पकड़ ली थी कसकर। वह बस मुस्कुरा दिया। अभियुद्ध की करीबी से साँस भारी हो गई थी उसकी। और दिल तेज़ गति में धड़क रहा था।

    "मेरे खातिर एक बार...?" इस बार अभियुद्ध ने बहुत ही प्यार से कहा था। कली ने धीरे से अपनी पलकों का पहरा आँखों से हटाया। तो उसकी वह कजरारी आँखें सीधा अभियुद्ध की आँखों से जा मिली थीं।

    "यूँ उदास अच्छी नहीं लगती हो। तो बस खुश रहा करो। और मैंने कहा ना कि जल्दी ही आऊँगा... और फिर जब तुम्हारा मन करे कर लेना मुझे फोन।"

    "ठीक है जी..." कली बस हल्का सा मुस्कुरा दी थी।

    अभियुद्ध ने आहिस्ता से आगे बढ़कर अपने होंठ उसके माथे पर रखे और होले से उसके माथे को चूम लिया।

    "अजीब हैं आप भी... एहसासों में सराबोर कर पीछे तड़पने के लिए छोड़ जाएँगे हमें।" कली मन-ही-मन बोली। क्योंकि सामने कहने की हिम्मत तो नहीं थी उसमें।

    उसके बाद अभियुद्ध ने धीरे से उसके गालों को बारी-बारी चूम लिया था। कली का चेहरा और शर्म से लाल हुआ। अब अभियुद्ध की नज़रें कली के थरथराते हुए होंठों पर रुक सी गई थीं। वह उनकी तरफ़ बढ़ता उससे पहले ही दोनों के कानों में मालती जी की आवाज़ पड़ी। जो शायद! कली को किसी काम के लिए बुला रही थी। कली ने फ़ौरन अभियुद्ध का खुद से दूर किया और अपनी साड़ी का पल्लू सही करती हुई कमरे से बाहर निकल गई। पीछे खड़ा अभियुद्ध बस मुस्कुरा कर अपने बालों में हाथ घुमाता रह गया। फिर अपना सिर झटक कर वह बाथरूम में चला गया।

    वह तैयार होकर अपना बैग लेकर अपने कमरे से बाहर आया और मालती जी के पैर छुए।

    "अब चलता हूँ माँ..."

    "ध्यान से जाना और अपना पूरा ख्याल रखना। पहुँच कर एक बार फ़ोन ज़रूर करना।" मालती जी ने उसके सिर पर हाथ फेरा।

    "जी..." कहते हुए वह सीधा खड़ा हुआ कि सहसा ही उसकी नज़र रसोई की तरफ़ गई। कली!, वहीं दरवाज़े के पास खड़ी मुस्कुरा रही थी जबकि आँखें नम थीं उसकी। अभियुद्ध का दिल बेचैन हो गया। उसने धीरे से अपनी गर्दन ना में हिला दी, मानो कह रहा हो कि "रोओ मत," जिसे समझकर कली ने धीरे से अपनी गर्दन हाँ में हिला दी थी और अपने आँसुओं को पोछ लिया था।

    अभियुद्ध, चंद्र जी से आशीर्वाद लेकर चला गया था। कली वहीं दीवार के सहारे फर्श पर बैठ गई थी। आँसू एक-एक कर किसी मोती की तरह उसकी आँखों से छलक पड़े थे। दो दिन अभियुद्ध के साथ बिताने के बाद अब उसकी जुदाई बर्दाश्त नहीं हो रही थी उससे। दिल पूरी तरह बैठ चुका था। फिर पता भी तो नहीं था कि अगली बार कब आना होगा उसका...? कितने अरमान थे, कितनी ख्वाहिशें थीं जो उसे अभियुद्ध के साथ पूरी करनी थीं। अभियुद्ध के साथ जीन थीं। लेकिन! उसके जाने के बाद फिर वही तन्हाई ही हाथ आई थी। हाँ, अभियुद्ध से ज़्यादा तो ये तन्हाई थी उसकी साथी। जो उसे पसंद ना होते हुए भी अपनानी पड़ी थी।

    फिर अपने आँसुओं को साफ़ कर वह उठी और बाकी का बचा हुआ काम करने लगी। क्योंकि काफ़ी अच्छे से जानती थी कि आँसू बहाने से उसका काम थोड़ी हो जाना था। वह तो उसे खुद ही करना था।

    क्रमश:

  • 12. तो इश्क है ! - Chapter 12

    Words: 1011

    Estimated Reading Time: 7 min

    धीरे-धीरे वह समय बीत गया था। समय के साथ मौसम बदल गया था। अब गर्मी से सर्दियाँ शुरू हो गई थीं। दिसंबर का महीना और वह कड़ाके की ठंड। रात का काम खत्म कर वह अपने कमरे में आकर बिस्तर पर बैठी ही थी कि सहसा ही उसकी नज़र अभियुद्ध के बगल वाले बिस्तर पर चली गई, जो खाली था.. एकदम खाली। उसने फीका सा मुस्कुराकर उस तरफ़ धीरे से अपना हाथ फेरा और एक लंबी साँस ली। अपने शॉल को ठीक किया और सिरहाने से पीठ टिकाकर बैठ गई। चार महीने बीत गए थे और इन चार महीनों में ऐसा कोई भी दिन नहीं था जब कली ने अभियुद्ध को याद न किया हो। ना चाहते हुए भी उसकी आँखें नम हो गईं।


    तभी किसी ने दरवाज़ा खटखटाया। वह अपने ख्यालों से बाहर आई और जल्दी से अपनी आँखों में आई नमी को साफ़ कर बिस्तर से उठी और जाकर दरवाज़ा खोला। सामने श्वेता खड़ी थी।

    "क्या हुआ..?"

    "थोड़ी देर में भाई का फ़ोन आएगा, बात कर लेना। और बाबूजी कह रहे हैं कि अपना सामान पैक कर लो। कुछ दिनों के लिए भाई के पास जा रही हो.." श्वेता ने मुँह बनाकर फ़ोन उसकी तरफ़ बढ़ाया।

    "क्यों..?" कली थोड़ी हैरान हुई उसकी बात सुनकर।

    "भाई की तबियत ठीक नहीं है। सर्दी हो गई है और वहाँ उनका ख्याल रखने वाला भी कोई नहीं है। माँ ने तो कहा था भाई से कि घर आ जाए लेकिन! वह बोले कि कुछ दिनों के लिए तुम्हें ही भेज दें। वह तो बाबूजी ने हाँ कर दी इसलिए, वरना माँ तो मना ही कर रही थी। खैर! सुबह कुमार भाई छोड़ आएंगे तुम्हें.."

    अपनी बात कहकर श्वेता वहाँ से चली गई। वहीं कली थोड़ी हैरान सी ही लग रही थी। वह दरवाज़ा बंद कर वापस बिस्तर पर आकर बैठी ही थी कि तभी फ़ोन बज उठा। कॉल अभियुद्ध का ही था।

    उसने कॉल रिसीव कर फ़ोन कान पर लगाया।

    "हेलो जी, कैसे हैं आप..?"

    "बस ठीक नहीं हूँ।" अभियुद्ध छींकते हुए बोला।

    "क्या हुआ आपको..?" कली परेशान सी बोली।

    "बस थोड़ी सर्दी हो गई है। तुम बताओ, तुम कैसी हो..?"

    "जी ठीक हूँ मैं तो, लेकिन! आपको सर्दी कैसे हो गई..?"

    "जैसे होती है हो गई। अच्छा सुनो! अभी अपने कपड़े पैक कर लेना और सुबह कुमार भाई के साथ आ जाना। वह ले आएंगे तुम्हें यहाँ। कुछ दिन मेरे साथ रहना।"

    "जी ठीक है।" कली मन-ही-मन खुश हुई कि वह अभियुद्ध के पास जा रही है, लेकिन उसे उसकी, बीमार पड़ गए थे वह, बहुत फिक्र भी थी।

    अभियुद्ध ने थोड़ी देर और बात करके कॉल डिस्कनेक्ट किया। कली उठकर अपना बैग पैक भी कर लिया। कुछ कपड़ों और कुछ ज़रूरी सामान रखकर फिर वापस बिस्तर पर आकर लेट गई।

    "क्या महादेव जी.. मैंने कहा था कि उनसे मिलना है मुझे, लेकिन! ये थोड़ी कहा था कि आप उन्हें बीमार करके मिलवाइए।" कली मन-ही-मन ऊपर देखती हुई मासूमियत से बोली और फिर कब नींद आई पता ही नहीं चला।

    सुबह उठकर जल्दी-जल्दी सारे काम ख़त्म किए। तब तक कुमार और सुनंदा दोनों ही आ गए थे। शायद! सुनंदा भी उनके साथ ही जाने वाली थी। कली जल्दी से तैयार होने चली गई। तैयार होकर वह अपना बैग लिए बाहर आई और मालती जी का आशीर्वाद लिया, जो वहीं बैठी थीं।

    "एक हफ़्ते के लिए जा रही हो, तो थोड़ा सही से ही रहना वहाँ। और सबसे ज़रूरी बात कि वहाँ लल्ला का ध्यान रखना।"

    "जी माँजी।"

    "चले कली..?" सुनंदा ने कहा। तो कली ने गर्दन हिला दी। कुमार तो पहले ही गाड़ी में आकर बैठ गया था। कली और सुनंदा भी पीछे वाली सीट पर आकर बैठ गईं तो कुमार ने गाड़ी आगे बढ़ा दी।

    "लल्ला भी ना यहीं आ जाता। क्या ही ज़रूरत थी बहू को वहाँ भेजने की.." मालती जी मुँह बनाकर चंद्र जी से बोलीं, जो वहीं कुर्सी पर बैठे खाना खा रहे थे।

    "तुम्हें कोई दिक्कत है बहू के वहाँ जाने से..?"

    "हाँ दिक्कत है, घर के इतने सारे काम होते हैं, कौन करेगा वह अब..?"

    "क्यों तुम नहीं कर सकती.. वैसे भी तुम कहती ही हो कि तुम्हें तो कभी बहू का सुख नहीं मिला। तो फिर क्या दिक्कत..? जबकि बैठे-बैठे कुछ काम तो करना नहीं होता, बस पूरा दिन उस बेचारी पर ज़ुल्म करती रहती थी। करो खुद काम अब... पता चलेगा कि वह क्या-क्या करती थी.."

    चंद्र जी की बात सुनकर मालती जी थोड़ी झेंप गईं। फिर कुछ बोली ही नहीं।

    "अब जा रही हो.. मैं तो कहती हूँ वापस ही मत आना.." सुनंदा मुस्कुराकर बोली।

    "ऐसा थोड़ी होगा दीदी.."

    "दोनों पति-पत्नी एक जैसे हो तुम। दोनों का ही सीना इतना ठंडा है कि क्या बताऊँ। पागल हो तुम दोनों.. खुद से पहले दूसरों का सोचते हो जबकि आज के ज़माने में कोई किसी का नहीं सोचता.."

    "फिर हम किसी और का कहाँ सोचते हैं दीदी.. अपनों का ही तो सोचते हैं।" कली ने काफी सहजता से कहा।

    उसके जवाब पर कुमार बस मुस्कुरा दिया।

    "बीवी जी काहे पट्टी पढ़ा रही हो बहू को.. बच्ची थोड़ी ना है। और ना अभियुद्ध बच्चा है। दोनों ही समझते हैं और समझदार भी हैं। आपकी तरह थोड़ी हैं.. कि अलग होकर ही बैठ गए।"

    आखिरी लाइन कहते हुए उसने ताना मार ही दिया।

    "हाँ....हाँ आप तो बस हमको ही कहो। क्योंकि आपकी माँ की तरह आपको भी तो यही लगता है कि दुनिया भर की जितनी भी गलतियाँ हैं वह हम ही तो करते हैं। सब-के-सब बस हमें ही दोष देते रहते हैं।" वह मुँह बनाकर बोली। तो कली मुस्कुरा दी।

    क्रमश:

  • 13. तो इश्क है ! - Chapter 13

    Words: 988

    Estimated Reading Time: 6 min

    कुमार और सुनंदा का शायद कोई और काम था जिस कारण उन्होंने कली को अभियुद्ध के फ्लैट पर छोड़कर चले गए थे। काफी दिनों बाद अभियुद्ध को देखकर ही उसकी आँखें भर आई थीं, जिन्हें वह बार-बार पोंछ रही थी। वही अभियुद्ध, उसके सामने बैठा हुआ मुस्कुरा कर उसे देख रहा था।

    "चाय पियोगी...?"

    "नहीं..."

    "फिर कुछ खाना है...?"

    "नहीं..."

    "आराम करना है...?"

    "नहीं..."

    "तो फिर क्या करना है...?"

    "कुछ नहीं करना मुझे...बस एक बार आपके गले लगना है..."

    कली ने धीरे से, मगर मासूमियत से कहा। यह बात सुनकर अभियुद्ध और मुस्कुरा दिया। और आगे बढ़कर अपनी बाहें फैला कर कली को अपने सीने से लगा लिया। कली ने भी अपनी आँखें बंद कर ली थीं। अभियुद्ध की गर्माहट भरी बाहें कली को सुकून दे रही थीं। उसने धीरे से उसके बालों को सहलाया और प्यार से उसके माथे को चूम लिया।

    "अब ठीक हो...?" कुछ देर बाद वह बोला तो कली धीरे से उससे अलग हो गई और अपनी गर्दन हिला दी।

    "तुम बैठो, मैं तुम्हारे लिए चाय बनाकर लेकर आता हूँ।" कहते हुए अभियुद्ध जाने लगा कि कली ने फ़ौरन उसकी कलाई पकड़ ली।

    "मेरे होते हुए आप क्यों बनाएँगे जी...मैं अभी लेकर आती हूँ।" कली ने कहा और अपनी जगह से उठ खड़ी हुई थी। अभियुद्ध भी उठा और कली के साथ ही किचन में आ गया था।

    कौन सी चीज कहाँ रखी है, वह बताता गया और कली बनाती गई। बाद में दोनों चाय लेकर कमरे में आकर बैठ गए थे और अपनी चाय पीने लगे थे।

    "आपकी तबियत कैसे खराब हो गई...? डॉक्टर को दिखाया आपने...?"

    "हाँ, दिखाया था। बस थोड़ी सर्दी लग गई है। कुछ दिनों की मैंने छुट्टी भी ले ली है। तुम फ़िक्र मत करो, दवाई दी है डॉक्टर! कुछ दिनों बाद ठीक हो जाऊँगा। वैसे इतनी ज़्यादा भी तबियत खराब नहीं है।"

    "हम्मम...लेकिन! जब रात को पता चला कि आपकी तबियत ठीक नहीं, मैं तो बहुत परेशान हो गई थी।"

    "अच्छा, ये सब छोड़ो और बताओ कि तुम कैसी हो...?"

    "जैसी हूँ, आपके सामने ही हूँ, देख लीजिए कि कैसी लग रही हूँ..." कली ने मुस्कुरा कर कहा।

    अभियुद्ध ने उसे देखते हुए अपनी चाय की घूँट भरी।

    कली ने इधर-उधर देखा। पूरा कमरा अस्त-व्यस्त था। उसके देखने के तरीके से ही वह समझ गया था कि कली क्या सोच रही थी। वह धीरे से बोला,

    "बस टाइम नहीं मिलता। इसलिए कमरा और सामान फैला पड़ा है।"

    "कोई बात नहीं जी...मैं ठीक कर दूँगी। चाय पीकर।"

    "उसकी ज़रूरत नहीं है। बाद में होता रहेगा ये सब..."

    "लेकिन! इतना सारा काम देखकर मुझसे नहीं रहा जाएगा। मैं कर दूँगी।" कली ने कहा कि आगे अभियुद्ध कुछ बोल ही नहीं पाया था।

    दोपहर का वक्त था जब अभियुद्ध दवाई लेकर सो रहा था और कली घर की सफाई कर रही थी। जबकि अभियुद्ध ने तो उसे भी आराम करने का ही कहा था। लेकिन वह उसकी सुने तब ना!

    जब उसके हिसाब से सब ठीक-ठाक लगने लगा था, वह भी अभियुद्ध के पास ही लेट गई। नींद तो उसे आ नहीं रही थी। अब काम भी नहीं था जो वह कर ही ले। उसने धीरे से अभियुद्ध के माथे और उसकी गर्दन को छुआ यह देखने के लिए कि कहीं बुखार वगैरह तो नहीं है। बुखार तो नहीं था उसे। वह बस मुस्कुरा दी।

    शाम के करीब पाँच बजे अभियुद्ध उठा था। पहले से काफी बेहतर भी महसूस कर रहा था वह। कली उसे उठी हुई मिली थी।

    "उठ गए आप...?"

    "हाँ, और तुम कब उठी...?"

    "मुझे तो नींद ही नहीं आई। इसलिए सोई ही नहीं...."

    "क्यों...? मैंने कहा था ना थोड़ी देर आराम कर देना।"

    "जी कहा था, लेकिन नींद ही नहीं आई तो इसमें मेरी क्या गलती...? फिर मैंने सारा घर ठीक कर दिया।"

    "मैंने तुम्हें यहाँ काम करने के लिए नहीं बुलाया हुआ।"

    "तो फिर किस लिए बुलाया है...?"

    कली ने मुस्कुरा कर सवाल किया था जिसके जवाब में अभियुद्ध ख़ामोश हो गया था।

    "अच्छा छोड़िए। रात को खाने में क्या बनाऊँ...? वैसे मैंने रसोई में देखा था, हरी सब्ज़ियाँ नहीं हैं।"

    "पास में ही सब्ज़ी वाली है, ले आऊँगा मैं जाकर। नहीं तो एक काम करना, दोनों ही चलते हैं। इसी बहाने तुम भी थोड़ा घूम लोगी..."

    "नहीं...आप ही ले आना। वैसे भी मुझे घूमने का शौक नहीं है। मैं यही ठीक हूँ।"

    "अच्छा ठीक है, जैसा तुम्हें ठीक लगे।"

    "...ऐ जी सुनिए...?" अभियुद्ध उठने लगा तो कली ने प्यार से कहा। अभियुद्ध मुस्कुरा कर उसकी ओर मुड़ा और अपना एक हाथ गाल पर टिकाकर कली वाले अंदाज़ में ही बोला,

    "जी आप को ही तो सुन रहे हैं। कहिए...?"

    "वो.....वो....पहले आप ऐसे देखना बंद कीजिए। हमें शर्म आती है जब आप हमें ऐसे देखते हैं। और फिर क्या कहने वाले थे, ये बात भी भूल गए।"

    अपनी घबराहट को छुपाते हुए कली बोली।

    "तुम्हें यूँ प्यार से देखने का तो हक़ है हमारा। जिसे तुम भी नहीं छीन सकती हमसे। अब आदत डाल लो हमारी इन प्यार भरी निगाहों की तपिश से बेचैन होने की..."

    अभियुद्ध ने उसका हाथ अपने हाथ में पकड़ कर काफी प्यार से कहा था कि कली अंदर तक सिहर उठी थी।

    "यहाँ बस हम हैं, यानी मैं और तुम। अब मुझसे तुम्हें कौन बचाएगा मिश्राइन..." कहते हुए अचानक अभियुद्ध की छींक आ गई थी। वही कली मुँह पर हाथ रखे हँस दी थी।

    "फ़िलहाल! खुद को बब्बर शेर ना समझिए। क्योंकि हालत ठीक नहीं आपकी..."

    कली की बात सुनकर अभियुद्ध ने मुँह बना लिया। लेकिन फिर वह भी हँस दिया।

    क्रमश:

  • 14. तो इश्क है ! - Chapter 14

    Words: 915

    Estimated Reading Time: 6 min

    रात के खाने के बाद अभियुद्ध और कली दोनों कमरे में आ गए थे। अभियुद्ध ने अपना सिर कली की गोद में रख दिया और थोड़ा टेढ़ा होकर लेट गया। कली मुस्कुरा कर उसके बालों में अपनी उंगलियाँ घुमाने लगी। अभियुद्ध ने प्यार से उसका हाथ अपने हाथ में पकड़ा और धीरे से अपने होठ उसके हाथ पर रख दिए, और उसके हाथ को चूम लिया।

    "पता है कली! इस शहर में लाखों लोग हैं, मगर अपना कहने वाला कोई नहीं। जानती हो, कभी-कभी मन करता था कि सब छोड़कर गाँव चला जाऊँ। और आज भी... आज भी कई बार मन करता है कि सब छोड़कर यहाँ से चला जाऊँ, लेकिन! फिर माँ, बाबूजी, श्वेता और अब तुम भी। बस रुक जाता हूँ। वरना मुझे यहाँ अच्छा थोड़ी लगता है रहना। मेरी मजबूरी है यहाँ रहना। क्योंकि यह जॉब हमारी ज़रूरत है।"

    कली ने उसके कंधे पर हाथ रखा और उसे हल्का सा दबाते हुए बोली,
    "मैं सब जानती हूँ जी... आपको कुछ भी बतलाने की ज़रूरत नहीं। और ना मुझे आपसे कोई शिकायत है। क्योंकि आप मेरे पति हैं और मैं अपने पति को अच्छे से समझती हूँ। क्योंकि एक पत्नी, पति की सिर्फ़ सुख की साथी नहीं होती, बल्कि सुख और दुःख दोनों की ही साथी होती है।"

    "तुम फ़िक्र मत करो। श्वेता की शादी तक और... फिर माँ और बाबूजी दोनों को ही यहीं ले आऊँगा। फिर तुम्हें भी मुझसे दूर या मुझे तुमसे दूर रहने की कोई ज़रूरत नहीं होगी... फिर हम सब साथ रहेंगे यहीं।"

    "ठीक है जी..." कली ने गर्दन हिला दी।

    "अच्छा और बताओ कि घर पर सब ठीक है...?"

    "जी..."

    "तुम्हारा मन तो नहीं लगता होगा ना...?"

    "लग जाता था।"

    "सच में...?"

    "मन ही तो है, समझा लेती थी मैं..."

    "क्या कहकर समझाती थी अपने मन को...?"

    "और आप...?"

    "सवाल पहले मैंने किया था, तो पहले तुम मुझे जवाब दो, फिर मैं दूँगा...?" अभियुद्ध ने शरारत से कहा तो कली के गाल शर्म से लाल हो गए। फिर कुछ नहीं बोली।

    "मेरी याद आती थी...?"

    "हम्मम..."

    "कितनी आती थी...?"

    "बहुत ज़्यादा..."

    "कहने के लिए कह रही हो या सच में आती थी मेरी याद...?"

    "आपको लगता है कि मैं आपसे झूठ कहूँगी...?"

    अभियुद्ध ने मुस्कुरा कर अपना सिर ना में हिला दिया।

    "इतना यकीन है मुझे अपनी मिश्राइन पर। अच्छा और कुछ बताओ अपनी...?"

    "क्या बताऊँ...?"

    "एक बार बात हुई थी भाभी से, कह रही थी कि माँ तुम्हें बहुत परेशान करती है...? क्या सच में माँ तुम्हें परेशान करती है...?"

    "नहीं जी..." कली ने सच होते हुए भी साफ़ इनकार कर दिया था।

    "सच कह रही हो...?"

    "जी..."

    "हम्मम..." अभियुद्ध काफी अच्छे से जानता था अपनी माँ को; कि वह क्या कर सकती है और क्या नहीं। अगर कली की जगह कोई और होता, तो अब तक उनकी शिकायतों की झड़ी लग चुकी होती। लेकिन कली ने उसके पूछने के बाद भी नहीं बताया था, तो वह भी अब इस बात को लेकर कोई बात नहीं करना चाहता था।

    वह उठा और अपनी साइड लेट गया, और अपना एक हाथ आगे बढ़ाकर कली को भी अपनी बाहों में ही खींच लिया था। कली किसी कटी पतंग की तरह उसकी बाहों में जा गिरी थी। अभियुद्ध ने उसका सिर अपने सीने में छुपाते हुए उसके सिर पर हाथ फेरा।

    "सो जाओ..."

    कली ने भी मुस्कुरा कर अपनी बाहें अभियुद्ध की कमर पर कस दी थीं।

    वहीं दूसरी तरफ़, मालती जी और श्वेता दोनों ही काम समेट कर कमरे में सोने आए थे। लेकिन एक दिन में ही दोनों की हालत देखने लायक थी। श्वेता ने तो आज ही यह कहते हुए सारे काम से हाथ खड़े कर दिए थे कि वह आज ही कर रही है, कल से उसके कॉलेज में टेस्ट है जिसकी उसे तैयारी करनी है। तो मालती जी खुद ही कर लें काम।

    मालती जी को तो काफी समय हो गया था घर के काम करे और जब आज करने पड़े तो उनकी भी कमर सीधी ना हो रही थी। बिस्तर पर बैठते हुए वह एक आह के साथ श्वेता से बोली,

    "श्वेता बेटा, जरा कमर पर मूव लगा देना। बहुत दर्द हो रहा है।"

    "ओहो माँ, आप तो सारे काम ही मुझसे करवाने लगीं। कॉलेज से आने के बाद एक बार भी नहीं पढ़ी हूँ। आप सोइए यहाँ, मैं भाई-भाभी के कमरे में पढ़ने जा रही हूँ और वहीं सो जाऊँगी।" कहते हुए श्वेता ने तुनक पर अपना बैग और फ़ोन उठाया और पतली गली देखकर वहाँ से निकल ली थी, जबकि मालती जी बस कुढ़कर रह गईं।

    जैसे-तैसे करके उन्होंने मूव कमर पर लगाई और लेट गईं।

    "दो बेटों और बहुओं के होने के बाद भी ऐसी हालत है, बताओ... अभी तो बहू को गए। कुछ ही घंटे हुए हैं, तब ऐसी हालत है तो पूरे एक हफ़्ते में क्या होगा...? हे महादेव, रक्षा करना हमारी... और लल्ला को जल्दी ठीक करके बहू को वापस यहीं भेज देना। क्योंकि अब इन बूढ़ी हड्डियों में काम करने की ताकत नहीं बची है।"

    मालती जी ने अपने दोनों हाथ जोड़ दिए थे और फिर धीरे-धीरे नींद के आगोश में चली गई थीं।

    क्रमश:

  • 15. तो इश्क है ! - Chapter 15

    Words: 978

    Estimated Reading Time: 6 min

    अभियुद्ध की आँखें तब खुलीं जब कली ने उसे उठाया। अधखुली आँखों से ही उसने उसे देखा, जो हाथ में चाय लिए मुस्कुराते हुए खड़ी थी। सुबह की ताजगी मानो उसके चेहरे में सिमट गई थी। गाढ़े नीले रंग की साड़ी, जिसके बॉर्डर पर लाल और सुनहरे धागे से कढ़ाई की गई थी। खुले बाल, शायद नहाते वक्त धोए थे, जिनमें से पानी की कुछ-कुछ बूँदें टपक रही थीं। माँग में भरा सिंदूर मानो उसकी सुंदरता में चार चाँद लगा रहा था। और उसकी वह कजरारी आँखें, जो प्यार से उसे ही देख रही थीं। मानो कह रही हों, "उठ जाइए अब तो। चाय ठंडी हो रही है।"

    वह वापस आँखें बंद कर मुस्कुरा उठा।

    "यही रख दो..."

    "जी, ठीक है।" कहते हुए कली ने वह चाय का कप वहीं एक छोटी सी टेबल पर रख दिया। और जैसे ही जाने के लिए मुड़ी, उसी वक्त अभियुद्ध ने उसकी कलाई पकड़कर उसे अपने पास खींच लिया। जिससे कली सीधा उसके ऊपर जा गिरी। कली के बालों ने अभियुद्ध का चेहरा भी ढक दिया था। उसके दोनों हाथ अभियुद्ध के सीने पर थे। और हमेशा की तरह धड़कनें असामान्य ही थीं उसकी। कली ने जल्दी से अपने बालों को एक तरफ किया और अभियुद्ध की ओर देखकर बहुत ही परेशान होकर बोली,

    "ऐ जी! ये आपकी धड़कनें तेज क्यों हैं...? हमारी तो नहीं हैं जी... देखिए।" कहते हुए कली ने अभियुद्ध का हाथ पकड़कर अपने सीने पर रखा। उसकी यह हरकत इतनी मासूमियत भरी थी कि अभियुद्ध के होठों पर मुस्कान कुछ बढ़ सी गई।

    "मेरी धड़कनें बढ़ाकर पूछती हो कि क्यों बढ़ी हुई हैं...? क्या तुम नहीं जानती कि क्यों बढ़ी हुई हैं... हम्मम, बोलो...?"

    "हमें क्या पता जी... हम कोई डॉक्टर नहीं हैं।" कली ने नासमझी से कहा।

    "लेकिन! मेरी इस बीमारी का हर इलाज तुम्हारे पास ही है मिश्राइन..." अभियुद्ध ने काफी प्यार से कहा।

    "हे महादेव... आपको कोई बीमारी है...?" कली की आँखें हैरानी से बड़ी हुईं। अभियुद्ध की खुमारी पल में काफ़ूर हुई। वह कुछ कहता उससे पहले ही कली आगे बोल उठी, मगर काफ़ी चिंतित सी आवाज़ में,

    "ऐ जी! आप पहले क्यों नहीं बताया...? लेकिन! कोई बात नहीं जी... हम आपको अच्छे-से-अच्छे डॉक्टर के पास दिखाएँगे। आप चिंता ना करो। आप जल्दी ही ठीक हो जाओगे। मैं हूँ आपके साथ..."

    उसकी बात सुनकर अभियुद्ध के मन में खुराफ़ात ने जन्म ले लिया। अब इरादा उसे थोड़ा तंग करने का था। उसने अपनी हँसी कहीं अंदर छुपाई और चेहरे पर झूठी गंभीरता लगाता हुआ बोला,

    "मेरी बीमारी का इलाज है ही नहीं किसी डॉक्टर के पास..."

    "क्या...?"

    "क्योंकि एकदम लाइलाज बीमारी है।"

    अभियुद्ध का अभी इतना कहना ही था कि कली के चेहरे पर चिंता की लकीरें और बढ़ गईं।

    "तो फिर...?"

    "हाँ, लेकिन! एक रास्ता है। अगर तुम करो तो, क्योंकि वह तो सिर्फ़ तुम ही कर सकती हो...?"

    "क्या रास्ता है जी... मैं... मैं ज़रूर करूँगी। बस आप ठीक हो जाएँ।"

    "प्यार..."

    अभियुद्ध ने अपनी उंगली उसके माथे से लेकर, गाल से होते हुए उसके होठों पर आकर रोक दी। अब धड़कनें तेज होने की बारी कली की थी। मुस्कुराते हुए भी मुँह बनाया हुआ था उसने। और होठों को आपस में भींच लिया था। नज़रें खुद-ब-खुद झुक गई थीं। और समझ आ गया था कि अभियुद्ध उसे परेशान कर रहा था। आँखें बंद करके उसने अपना चेहरा उसके सीने में छुपा लिया।

    "बताओ, नहीं करोगी क्या...?"

    अभियुद्ध ने उसकी कमर पर अपनी बाहों का घेरा बना दिया।

    "ऐ जी! आप ये... कैसी बातें कर रहे हैं। हमें शर्म आती है जब आप ऐसी बातें करते हैं।" वह धड़कते हुए दिल के साथ मगर दबी सी आवाज़ में बोली।

    "और मुझे मज़ा आता है तुम्हारा यह शर्म से लाल हुआ चेहरा देखने में... जी करता है कि तुम्हारे इन लाल-लाल गालों को ही बस चूमते रहूँ और तुम्हारे इन गुलाब की पंखुड़ियों से भी मुलायम होठों..."

    "बस कीजिए अब..." अभियुद्ध आगे कुछ कहता उससे पहले ही कली ने अपनी हथेली उसके होठों पर रख दी। और शर्माते हुए नज़रें झुकाए बस इतना ही बोली। अभियुद्ध ने आहिस्ता से उसकी हथेली चूम ली और अपने हाथ से उसका हाथ अपने होठों से हटाते हुए बोला, मगर दबी सी ही आवाज़ में, जिसमें मिली शरारत थी।

    "अभी तो बस हमने कहा है। जब ऐसा हालत है तो तब क्या होगा जब हम असल में करेंगे, हम्मम! बोलो मिश्राइन...?"

    "सर्दी हो गई है आपको, ये सारी बातें छोड़कर बस आराम कीजिए..."

    "सर्दी बीवी को प्यार करने के लिए थोड़ी मना कर रही है।"

    "ऐ जी... क्या हो गया है आपको सुबह-सुबह। कैसी बहकी-बहकी बातें कर रहे हैं।" कली उठने की कोशिश करती हुई बोली।

    "हाँ, बहक तो गया हूँ तुम्हें देखकर।"

    "उफ़्फ़! ...ये आपकी बातें। हम तो जा रहे हैं। खाना बनाने। उठकर चाय पी लीजिएगा..." कहते हुए कली उठी और फ़ौरन कमरे से बाहर भाग गई। मानो उसे डर हो कि कहीं अभियुद्ध फिर से ना उसे पकड़ ले। अब तो वह भाग गई थी उसकी पकड़ से छूटकर। अगर फिर ना भाग पाई तो...? उसे इस तरह से भागता देखकर अभियुद्ध की हँसी छूट गई। रसोई में सब्ज़ी काटते हुए भी वह सुन सकती थी कमरे से आती अभियुद्ध के ठहाकों की आवाज़। उसका पूरा बदन सिहर उठा था कुछ देर पहले वाली अभियुद्ध की बातों को याद कर। और होठों पर सज गई थी एक लज्जा भरी मुस्कान।

    क्रमश:

  • 16. तो इश्क है ! - Chapter 16

    Words: 945

    Estimated Reading Time: 6 min

    कली, अभियुद्ध के लिए खाना लेकर आई। उसने देखा कि वह तैयार हो रहा था। कली ने खाने की प्लेट वहीं रख दी और अभियुद्ध की तरफ़ देखकर बोली,

    "आप कहीं जा रहे हैं जी...?"

    "हाँ, मुझे एक बार ऑफिस जाना पड़ेगा। कुछ फाइल्स मेरे पास हैं, जिनका काम वहाँ है। तो बस इसलिए। यहाँ से पन्द्रह मिनट की दूरी पर है मेरा ऑफिस। यूँ जाऊँगा और फाइल्स देकर वापस आ जाऊँगा। ठीक है।"

    अभियुद्ध ने ऊपर से जैकेट पहनते हुए कहा। कली बस "हम्मम" करके रह गई।

    "अच्छा, चलो बताओ कि आते वक्त क्या लेकर आऊँ, तुम्हारे लिए खाने को...?"

    "कुछ नहीं जी...बस आप ही आ जाइएगा।" कली ने आगे बढ़कर अभियुद्ध की जैकेट का कॉलर ठीक करते हुए कहा।

    "मैं तो आऊँगा ही।" उसने कली के बालों की एक लट, जो उसके चेहरे पर आ गई थी, उसे पीछे करते हुए कहा।

    "कितना टाइम लगेगा...?"

    "आधा या एक घंटा बस..."

    "ठीक है, लेकिन! आपका खाना...?"

    "आकर खाऊँगा। अभी थोड़ी देर हो रही है।"

    "जी ठीक है।"

    अभियुद्ध ने मुस्कुरा कर उसके माथे को चूमा और फिर कुछ फाइल्स उठाकर चला गया। कली ने दरवाज़ा बंद करके वापस अंदर आ गई। उसने खाने की प्लेट उठाई और उसे लेकर रसोई में आ गई। थोड़े से बर्तन थे जो साफ़ नहीं थे। उसने उन्हें साफ़ करके रखा और वापस कमरे में आ गई। उसने बेड ठीक किया, कंबल की तह कर अच्छे से रखा।

    कुछ कपड़े थे जो धुले हुए नहीं थे। उसने कपड़े धोए और फिर उन्हें सुखाने के लिए बालकनी में आ गई। कपड़ों को झटका-झटका कर उसने उन्हें वहीं बंधी रस्सी पर डाल दिए।

    "हे...?" कपड़े डालकर वह जाने लगी, तभी उसे लगा कि कोई है। उसने साइड वाली बालकनी में देखा जहाँ एक लड़की मुस्कुरा कर अपना हाथ हवा में हिला रही थी। दोनों बालकनियाँ काफी पास थीं। कली वहीं दीवार के पास खड़ी हो गई।

    "हे, तुम कौन हो...? अभियुद्ध की कोई रिश्तेदार हो...?" उस लड़की ने पूछा।

    "मैं उनकी पत्नी हूँ।" कहते हुए मुस्कुरा कर कली ने अपने गले में पहने मंगलसूत्र को छुआ।

    "क्या? अभियुद्ध शादीशुदा है...?" उसे बड़ी हैरानी हुई।

    कली ने बस गर्दन हिला दी।

    "अच्छा, आपका क्या नाम है और आप इन्हें कैसे जानती हैं...?"

    "मेरा नाम आभा है। और मैं अभियुद्ध की कलीग हूँ।" उसने मुस्कुरा कर कहा।

    "और तुम्हारा क्या नाम है...?"

    "कली।"

    "बहुत प्यारा नाम है। अच्छा, मैं आऊँ तुम्हारे यहाँ...?"

    "वो...ये नहीं है घर।" कली ने थोड़ा झिझकते हुए कहा, क्योंकि उसे डर था कि कहीं अभियुद्ध को बुरा न लग जाए।

    "कोई बात नहीं। वैसे, मैं यहाँ बहुत बार आ चुकी हूँ।" आभा ने मुस्कुरा कर कहा।

    "अच्छा...क्यों...?" कली ने काफी मासूमियत से पूछा।

    "अभियुद्ध के हाथों का खाना खाने। सच में बहुत अच्छा खाना बनाता है वो...कि इंसान उंगलियाँ चाटता रह जाए। यू आर सो लकी कि तुम उसकी वाइफ हो।"

    "ओह... मुझे थोड़ा काम है..."

    "हाँ...हाँ जाओ।" आभा मुस्कुरा कर बोली। कली अंदर चली गई। कुकर पर लगी सिटी की आवाज़ सुनकर उसने अपने सिर पर हाथ मारा और लगभग दौड़ते हुए अंदर चली गई। "मेरी दाल..."

    कली अंदर आई और मुँह बनाकर बेड पर बैठ गई।

    "कभी हमें तो नहीं खिलाया अपने हाथों का खाना इन्होंने...? " वह थोड़ा चिढ़कर बोली, क्योंकि आभा का इस तरह कहना उसे पसंद नहीं आया था। हालाँकि आभा ने तो सामान्य से अंदाज़ में ही कहा था, लेकिन! ना जाने क्यों अंदर कुछ सुलग रहा था। वह अपनी भावनाओं को, जो इस वक्त उसके अंदर जन्म ले रही थीं, नहीं समझ पा रही थी। फिर कुछ देर बाद मायूस होकर, "अब इनकी भी क्या ही गलती। हमें साथ में समय ही कितना मिला..."

    कली का चेहरा छोटा हो गया था। और मन एकदम उदास था। पेट से गुड़गुड़ की आवाज़ आई, तो उसे महसूस हुआ कि भूख लगी थी। अभियुद्ध को गए एक घंटे से भी ऊपर हो चुका था, लेकिन वह नहीं आया था। उसने भी कहाँ ही खाना खाया था। वह इंतज़ार में थी कि अभियुद्ध आए तो दोनों साथ बैठकर खाना खाएँ। उसने बेड के सिरहाने से टेक लगाकर बैठ तो गई थी, लेकिन फिर धीरे-धीरे बेड पर लेट ही गई थी। एक से दो घंटे बीत गए। अभियुद्ध फिर भी नहीं आया था। और वह...वह तो सो गई थी, उसका इंतज़ार करती हुई।

    करीब बारह बजे अभियुद्ध ने दरवाज़ा खटखटाया। उसकी आवाज़ सुनकर कली अचानक नींद से जागी। वह उठकर अपने आस-पास के माहौल को समझने की कोशिश ही कर रही थी कि एक बार फिर अभियुद्ध ने दरवाज़ा खटखटाया। अपने सिर पर चपत लगाकर वह जल्दी से उठी और जाकर दरवाज़ा खोला।

    "सो रही थी...?" अभियुद्ध अंदर आते हुए बोला। कली ने दरवाज़ा बंद करके अपनी उनींदी सी आवाज़ में बोला,

    "पता नहीं कैसे आँख लग गई।"

    "कोई बात नहीं...मुझे भी थोड़ी देर हो गई। अच्छा सुनो, मैं बस हाथ-मुँह धोकर आता हूँ, तब तक खाना लगा दो। बहुत ज़ोर की भूख लगी है, और तो और मैंने सुबह वाली दवाई भी नहीं ली।"

    अभियुद्ध ने कहा और अपने कदम कमरे की ओर बढ़ा दिए थे।

    "जी..." कली ने बहुत ही धीमे से कहा, लेकिन तब तक वह अंदर जा चुका था। कली बस फ़ीका सा मुस्कुरा कर रसोई में चली गई।

    क्रमश:

  • 17. तो इश्क है ! - Chapter 17

    Words: 1074

    Estimated Reading Time: 7 min

    हाथ-मुँह धोकर वह खाना खाने के लिए बेड पर बैठा ही था कि तभी उसकी नज़र कली पर पड़ी, जो उदास सी उसके पास खड़ी थी।


    "क्या हुआ..?"


    "कुछ नहीं..."


    "तो फिर मुँह क्यों लटका हुआ है..?"


    "बस ऐसे ही..."


    "बैठो मेरे पास.." अभियुद्ध ने कहा तो कली उसके सामने ही बैठ गई।


    "खाना खाया था..?"


    "आपका इंतज़ार कर रही थी.." कली ने काफी धीमे स्वर में कहा। वह उसकी बात सुनकर हैरान हुआ और उसी हैरानी के साथ बोला,


    "पागल लड़की! मेरा इंतज़ार करने को किसने कहा था तुम्हें..? हाँ, बोलो.. खाना खा लेती ना..?"


    "पता है आपने कहा नहीं था, लेकिन! आप ये भी तो नहीं कहकर गए कि आपको एक घंटे से ज़्यादा का समय भी लग सकता है..? मुझे लगा आप अभी आ जाएँगे तो सोचा कि काम ही कर लूँ। आपके इंतज़ार में काम करते-करते ही सो गई। और पता भी नहीं चला... अभी आँखें खुली जब आपने दरवाज़े पर दस्तक दी..." कली ने काफी मासूमियत से कहा। अब अभियुद्ध को खुद पर ही गुस्सा आ रहा था।


    "सॉरी... रियली सॉरी। पता होता कि तुम मेरा इतना इंतज़ार कर रही होगी तो पक्का जल्दी आने की कोशिश करता..." अभियुद्ध अपना सिर हल्का झुकाता हुआ बोला। तो कली ने फ़ौरन उसकी ठुड्डी पर अपना हाथ रखकर उसका चेहरा ऊपर किया और काफी परेशान सी बोली,


    "ऐ जी! आप क्यों सॉरी बोल रहे हैं। बल्कि सॉरी तो मुझे बोलना चाहिए कि अपनी बातों से आपको दुखी कर दिया। और अच्छी पत्नी वो नहीं हो सकती, जो अपने पति को दुख दे.. सॉरी जी..."


    कहते हुए कली की आँखें छलक पड़ीं। और उसकी आँखों से टपकते आँसू देखकर बेहद परेशान हुआ अभियुद्ध। क्योंकि सब बर्दाश्त था उसे, लेकिन अपनों की आँखों में आँसू नहीं। अभियुद्ध ने अपने सामने रखी प्लेट को साइड में रखा और आगे बढ़कर कली को अपने सीने से लगा लिया। वहीं कली ने भी अपना सिर अभियुद्ध के सीने में पूरी तरह छुपा दिया था। अभियुद्ध ने अपनी ठुड्डी कली के सिर पर रखी और हलके हाथों से उसकी पीठ सहलाता हुआ काफी नरमी से बोला,


    "तुम बहुत अच्छी बीवी हो, तो खुद को बुरी बोलना बंद करो। और रही बात सॉरी की तो सॉरी अबकी बार मैं ही बोलूँगा क्योंकि मेरी गलती है और मुझे अपनी गलती मानना आता है। मैं उनमें से नहीं हूँ जो खुद की गलती एक्सेप्ट ना कर पाएँ और दूसरों पर बेवजह दोष मँड दें। और देखो, बेवजह रुला दिया ना तुम्हें..."


    "नहीं जी! आपने नहीं रुलाया मुझे और आप तो बहुत अच्छे हैं..." कली ने सुबकते हुए कहा।


    अभियुद्ध ने धीरे से उसके बालों को चूम लिया। कुछ देर कली को समझाने के बाद दोनों ने साथ में खाना खाया। खाना खाने के बाद कली बर्तन लेकर रसोई में चली गई और अभियुद्ध ने घर पर फ़ोन मिला दिया ताकि वहाँ का भी थोड़ा जायजा ले सके कि आखिर चल क्या रहा है...?


    एक-दो बार ट्राई करने के बाद तीसरी बार फ़ोन उठाया गया। और अभियुद्ध के कानों में मालती जी की दर्द भरी आवाज पड़ी, जिसे सुनकर वह थोड़ा परेशान सा हो गया।


    "हेलो... लल्ला..?"


    "माँ.. माँ क्या हुआ आप..? आप ऐसे क्यों बोल रही हैं। सब ठीक तो है ना..?"


    "कुछ ठीक नहीं ईहा। बुढ़ापे में काम करती अच्छी लग रही तुमको भी, जो बुला ली अपनी घरवाली भी उधर। माँ तो कुछ नहीं... होन देयो दुखी।"


    मालती जी आँगन में अपना सिर पकड़े बैठी फ़ोन पर बोलीं।


    "माँ... माँ ऐसा नहीं है। अगर आप ज़्यादा परेशान हैं तो मैं शाम में ही आ रहा हूँ कली को लेकर।" अभियुद्ध ने फ़ौरन कहा। वहीं कली, जो कमरे में आई ही थी, उसने जब उसकी बात सुनी तो एक पल को दिल उदास सा हो गया। क्योंकि वह जाना नहीं चाहती थी अभियुद्ध से दूर।


    "नहीं, कोई ज़रूरत नहीं। तू भी तो बीमार है।"


    "मैं सम्भाल लूँगा खुद को..."


    "अरे नहीं लल्ला! कोई ज़रूरत नहीं है। हाँ, परेशान तो हूँ, लेकिन कर लूँगी जैसे-तैसे। बस तू ठीक हो जा..." मालती जी ने थोड़ा नर्म पड़ते हुए कहा। जबकि वह दिखाना चाहती थीं कि उसे कितनी फ़िक्र है अपने लल्ला की। तो वहीं अभियुद्ध को बुरा लग रहा था कि क्यों उसने कली को यहाँ बुलाया। उसके पीछे से उसकी माँ की हालत खराब हो गई।


    "माँ अब आपको काम करने की ज़रूरत नहीं है। मैं सुनंदा भाभी को बोल दूँगा कि कली की गैर-मौजूदगी में आप सबके काम कर दें। ठीक है।"


    अभियुद्ध को फ़िलहाल यही रास्ता नज़र आ रहा था तो उसने कह दिया। वहीं मालती जी ने इनकार भी नहीं किया और सही से हाँ भी नहीं कही। कुछ देर बात करने के बाद अभियुद्ध ने कॉल काट दी। और कली की तरफ़ देखकर उदास सा बोला,


    "अगर पता होता कि माँ इतनी परेशान हो जाएँगी तो नहीं बुलाता तुम्हें... मेरा क्या था, मैं तो ठीक हो जाता खुद ही।"


    अभियुद्ध को थोड़ा अफ़सोस हो रहा था। कली कुछ नहीं बोली, लेकिन अभियुद्ध का यह कहना, "अगर पता होता कि माँ इतनी परेशान हो जाएँगी तो नहीं बुलाता तुम्हें," बहुत ही बुरी तरह से चुभा था उसे। लेकिन मज़ाल है चेहरे पर एक शिकन तक आने दी। बल्कि खुद के जज़्बातों को अंदर दबाकर हल्का सा मुस्कुराकर बोल उठी थी,


    "आप जल्दी से ठीक हो जाइए, फिर तो जाना ही है वहाँ वापस..."


    और उसके अंदाज़ के पीछे छुपा उसका दर्द वह नहीं देख पा रहा था। बिल्कुल भी नहीं। क्योंकि इस वक्त दिमाग़ में सिर्फ़ माँ चल रही थीं, उनका दुख चल रहा था, उनकी परेशानी चल रही थी। शायद वह माँ के दर्द के आगे बीवी का दर्द नहीं देख पा रहा था।


    "हम्मम..." अभियुद्ध ने धीरे से कहा।


    "खाना तो खा ही लिया, अब आप दवाई ले लीजिए... फिर थोड़ा आराम कर लीजिएगा क्योंकि जितना आराम करेंगे उतना ही जल्दी ठीक हो जाएँगे।" कली ने उसे दवाई का याद दिलाया तो अभियुद्ध ने हल्का सा मुस्कुराकर अपना सिर हिला दिया।


    वहीं कली मुड़कर रसोई में चली गई पानी लेने, जबकि आँखें नम थीं उसकी, जिसे उसने जाते हुए ही अपने पल्लू से साफ़ कर लिया था।

    क्रमश:

  • 18. तो इश्क है ! - Chapter 18

    Words: 983

    Estimated Reading Time: 6 min

    शाम के समय, जब अभियुद्ध और कली शाम की चाय का आनंद ले रहे थे, तभी किसी ने मुख्य द्वार पर दस्तक दी। अभियुद्ध ने समय देखा और अपनी चाय का कप वहीं रखकर अपनी जगह से उठा।


    "मैं देखता हूँ, तुम पियो..." अभियुद्ध ने कहा और जाकर दरवाजा खोला। सामने आभा मुस्कुराते हुए दरवाजे पर खड़ी थी। उसने हाथ में एक गिफ्ट जैसा कुछ पकड़ा हुआ था।


    "हे आभा, तुम...?"


    "अंदर आ सकती हूँ...?"


    "हाँ!" कहते हुए अभियुद्ध सामने से हट गया। आभा अंदर आई। अभियुद्ध ने दरवाज़ा बंद किया और आभा की तरफ मुड़ा। आभा ने एक गहरी सांस ली और खुशी से बोली,


    "चाय पी रहे हो...?"


    "हाँ...रुको, मैं तुम्हारे लिए भी लेकर आता हूँ। तब तक तुम अंदर कमरे में चलो। तुम्हें किसी से मिलवाना भी है।" अभियुद्ध ने मुस्कुराकर कहा। तो आभा तुरंत बोली,


    "मैं जानती हूँ। तुम्हारी पत्नी आई है ना? देखा मैंने आज जब वह बालकनी में कपड़े सुखा रही थीं। बड़े चतुर निकले! कभी बताया तक नहीं कि शादीशुदा हो... हाँ नहीं तो।"


    "अरे ऐसा कुछ नहीं है, कभी समय नहीं मिला यह बताने का।" अभियुद्ध ने अपने सिर पर हाथ रखकर, जबरदस्ती मुस्कुराते हुए कहा।


    "दुनिया भर की बातों के लिए समय था, लेकिन यह बताने के लिए नहीं कि तुम शादीशुदा हो! पिद्दी भर की लाइन थी, ज़्यादा समय कहाँ लगता?" आभा ने बनावटी गुस्से में उसे घूरा।


    "ओके, माय मिस्टेक। अब खुश... जाओ, अंदर लेकर आता हूँ तुम्हारी चाय।"


    अभियुद्ध ने अपने दोनों हाथ जोड़ लिए और वहाँ से रसोई में चला गया। जबकि आभा अंदर कमरे की तरफ बढ़ गई। अंदर कली को आराम से बैठकर चाय पीता देख, वह हल्का सा मुस्कुराई और उसके पास जाकर बैठते हुए बोली,


    "हेलो...?"


    "आप...?" आभा को देखकर कली थोड़ी चौंक सी गई और फौरन अपनी जगह से उठ खड़ी हुई।


    "हे रिलैक्स यार! तुम तो ऐसे चौंक रही हो जैसे मैं कोई भूत हूँ। (थोड़ा मजाकिया अंदाज़ में) मेकअप किया है मैंने यार..."


    "नहीं...वो...आप...आप कैसे आई...?"


    "और लोग शायद खिड़की से आते हैं, मैं दरवाजे से आई..."


    "सॉरी...वो मेरा मतलब..." कली आभा की बातों में उलझ सी रही थी। उसे समझ नहीं आ रहा था कि अब क्या कहे या क्या बातें करे आभा से।


    "अरे बुरा लग गया क्या तुम्हें? सॉरी यार, मेरी तो आदत है ऐसे मज़ाक करने की..." आभा अब थोड़े सामान्य अंदाज़ में बोली।


    "नहीं, वो ऐसी बात नहीं है।" कली ने अपने हाथ में पकड़ा आधा चाय से भरा कप वहीं टेबल पर रखा और वापस से आभा की ओर देखते हुए बोली,


    "बुरा लगने वाली बात नहीं है। आप मेरे लिए अनजान हैं तो मुझे समझ नहीं आ रहा कि मैं आपसे क्या बात करूँ...?"


    "अरे इतनी सी बात! लो फिर बन जाओ मेरी दोस्त...?" कहते हुए आभा ने अपना हाथ आगे बढ़ा दिया। कली ने थोड़ा झिझकते हुए उससे हाथ मिला लिया।


    तभी वहाँ अभियुद्ध आ गया, आभा की चाय लेकर। उसने चाय का कप आभा को दिया और कली के कंधे पर हाथ रखकर उसे अपने करीब किया। और मुस्कुराकर बोला,


    "आभा, यह है मेरी वाइफ... कली। और कली, यह आभा है, मेरी कलीग और मेरी सबसे अच्छी दोस्त भी..."


    "आपकी दोस्त...?" कली ने थोड़ी हैरान नज़रों से अभियुद्ध को देखा। तो अभियुद्ध ने मुस्कुराते हुए गर्दन हाँ में हिला दी।


    "लड़की दोस्त...?" कली ने उसी हैरानी के साथ कहा। तो आभा ठहाके लगाकर हँस पड़ी। कली ने कन्फ्यूज होकर उसे देखा।


    "अरे..!! ओ बहन, कौन सी दुनिया में जी रही हो...? क्या यार अभियुद्ध!" आभा ने हँसते हुए कहा।


    "कली, तो क्या हुआ? लड़की दोस्त नहीं हो सकती क्या...?" अभियुद्ध ने सवाल किया तो कली ने फौरन गर्दन ना में हिलाई और काफी मासूमियत से बोली,


    "ऐसी बात नहीं, लेकिन! हम कभी सुने नहीं कि किसी लड़के की दोस्त लड़की हो...? हमारे स्कूल में भी लड़की की दोस्त लड़की और लड़के के दोस्त लड़के ही होते थे। लड़कों से बात करने के लिए भी माँ मना करती थी। हम तो इसलिए बोले..."


    कली की बात सुनकर अभियुद्ध बस मुस्कुरा दिया, क्योंकि वह समझता था कि कली ऐसे माहौल में नहीं बड़ी हुई जहाँ हर प्रकार की छूट दी जाती हो।


    "तुम्हारी बातें 90's वाली वाइब्स दे रही हैं। खैर! छोड़ो ये बातें। बैठकर चाय पीते हैं।" आभा ने चाय का एक घूँट भरते हुए कहा। कली और अभियुद्ध भी वहीं बैठ गए। हल्की-फुल्की बातों के बीच तीनों ने अपनी-अपनी चाय खत्म की।


    "मैं ना तुम्हारे लिए एक गिफ्ट लेकर आई थी। मुझे पता तो नहीं कि तुम्हारा टेस्ट कैसा है, लेकिन तुम्हारी नई-नई शादी हुई है तो उस हिसाब से मैंने गिफ्ट ले आई... उम्मीद है तुम्हें पसंद आए..." कहते हुए आभा ने हाथ में पकड़ा गिफ्ट कली की तरफ बढ़ा दिया।


    "थैंक्यू इसके लिए..." कली ने भी प्यार से स्वीकार कर लिया।


    "अच्छा, वैसे इसमें है क्या...?" कली ने पूछा तो आभा ने अभियुद्ध की तरफ देखा, जिसका ध्यान फ़िलहाल अपने फ़ोन में था। वह थोड़ी कली की ओर खिसकी और उसके कान में फुसफुसाते हुए बोली, "रात में खोलना..."


    "मतलब...?" कली फिर कन्फ्यूज हो गई।


    "अच्छा, अब मैं चलती हूँ, लेकिन रात का खाना तुम लोगों के साथ खाऊँगी। अभी थोड़ा काम है..." आभा उठते हुए बोली।


    "ठीक है।" अभियुद्ध उसे दरवाज़े तक छोड़ने आया। कली भी रात के खाने की तैयारी में लग गई थी, जिसमें उसकी मदद अभियुद्ध कर रहा था। हाँ, वो बात अलग थी कि कली ने उसे बहुत मना किया, लेकिन उसने उसकी एक ना सुनी।

    क्रमश:

  • 19. तो इश्क है ! - Chapter 19

    Words: 1070

    Estimated Reading Time: 7 min

    "उम्मम्म्म.... क्या मजे का खाना बनाया है यार कली तुमने...", आभा ने खाना खाते हुए कहा। इस वक्त तीनों नीचे, फर्श पर बिछाए कालीन पर बैठकर अपना-अपना खाना खा रहे थे।

    "आपको अच्छा लगा? मुझे वाकई खुशी हुई।" कली ने मुस्कुराकर कहा।

    "वैसे खाना तो अभियुद्ध भी काफी अच्छा बनाता है, लेकिन! तुम्हारे खाने के आगे आज इसके हाथों का स्वाद थोड़ा फीका हो गया...", कहते हुए आभा ने मुस्कुराकर अभियुद्ध की जाँघ पर अपना हाथ रखा। अभियुद्ध ने थोड़ा असहज होकर तुरंत उसका हाथ हटा दिया। लेकिन उसने ज़्यादा माइंड नहीं किया क्योंकि वह आभा का नेचर जानता था। पर कली ने यह दृश्य देखकर अंदर तक सुलग गई। वह काफी अच्छे से जानती थी कि अभियुद्ध किसी और का नहीं, बल्कि सिर्फ़ उसका ही था। लेकिन वह किसी दूसरी औरत को अभियुद्ध के आस-पास भी बर्दाश्त नहीं कर सकती थी। दोस्ती तक तो ठीक है, पर यह दोस्ती कुछ ज़्यादा ही आगे नहीं बढ़ रही थी...? कली ने अपने हाथ में पकड़े पानी के गिलास को थोड़े गुस्से में फर्श पर रखा।

    "आप कुछ और लेंगी...?" कली ने जबरदस्ती मुस्कुराकर पूछा।

    "नहीं, बस मेरा हो ही गया...", आभा ने कहा।

    "हम्मम....," कली ने एक लंबी 'हम्मम' की।

    खाना खाने के बाद आभा चली गई। उसके जाने के बाद कली वहीं रखे बर्तनों को समेटने लगी। अभियुद्ध ने उसकी मदद करनी चाही, पर कली ने थोड़े रूखे स्वर में उसे साफ़ मना कर दिया। कली का लहज़ा सुनकर अभियुद्ध हैरान था। कली खामोशी से बाकी बचा हुआ काम करने लगी। जब तक कली ने काम ख़त्म नहीं किया, तब तक अभियुद्ध वहीं रसोई के दरवाज़े पर खड़ा रहा। फिर दोनों ही कमरे में सोने के लिए आ गए। कली ड्रेसिंग टेबल के सामने खड़ी होकर अपने बालों को ठीक करने लगी।

    अभियुद्ध को कली थोड़ी उखड़ी हुई सी लगी। उसने प्यार से उसे पीछे से अपनी बाहों में भर लिया और अपना चेहरा उसके कंधे पर टिकाते हुए बोला,

    "क्या हुआ...?"

    "कुछ नहीं जी...",

    "तो फिर ऐसे बात क्यों कर रही हो जैसे मैं कोई अनजान हूँ...?" अभियुद्ध ने अपने हाथों की पकड़ उसकी कमर पर कसी।

    "ऐसी बात नहीं है जी...", कली थोड़ी उदास सी बोली।

    "तो फिर क्या बात है? वही तो पूछ रहा हूँ...?"

    "मुझे पसंद नहीं कि आपकी दोस्त आपके साथ इतना घुलती है...", कली ने बिना झिझक के अपनी मन की बात सीधे अभियुद्ध के सामने रख दी।

    "आभा की बात कर रही हो? अरे उसकी तो आदत है।"

    "माना उसकी आदत है, लेकिन मुझे पसंद नहीं उसकी यह आदत। अच्छा नहीं लगा मुझे जब वह आपके पास आ रही थी, आपको छू रही थी।"

    "अरे तो क्या हुआ? यह उसका नॉर्मल नेचर है।"

    "लेकिन मुझे पसंद नहीं।"

    "तुम उससे जल रही हो...?" अभियुद्ध ने मज़ाकिया अंदाज़ में कली को देखा। कली कुछ नहीं बोली। अभियुद्ध ने धीरे से कली को अपनी तरफ़ घुमाया और उसकी आँखों में देखते हुए प्यार से बोला,

    "माना दूरी है तुमसे, लेकिन जितना तुम मेरे करीब हो, उतना कोई नहीं... तो तुम्हें आभा से तो बिल्कुल जलने की ज़रूरत नहीं। वह बस मेरी दोस्त है और तुम मेरी बीवी... बीवी यानी मेरी लाइफ का आधा हिस्सा... मेरा आधा हिस्सा हो तुम... तो तुम्हारा और उसका कोई मुक़ाबला ही नहीं..."

    अभियुद्ध की बातें सुनकर कली को महसूस हुआ कि शायद वह ही बिना बात कुछ ज़्यादा सोच रही है। कली ने हल्का सा मुस्कुराकर अभियुद्ध को देखा और आगे बढ़कर उसके सीने से लग गई।

    "ऐ जी, अगर आपको बुरा लगा हो तो माफ़ कर देना, पर जो मन में आया सो बोल दिया।"

    "अच्छा लगा कि तुम मेरे सामने अपने मन की बात भी रख रही हो...",

    "ऐ जी...?"

    "हम्मम..."

    "आपको हम पसंद तो हैं ना...?" कली ने अपना सिर उसके सीने से हटाते हुए कहा।

    "यह कैसा सवाल और क्यों...?" अभियुद्ध ने पूछा।

    कली अभियुद्ध से दूर हुई और बेड पर अपनी साइड बैठती हुई बोली,

    "बस यूँ ही पूछ लिया। अगर पसंद ना हों तो कोई ज़रूरत नहीं जवाब देने की..."

    "ना पसंद करने का मेरे पास कोई कारण नहीं है।"

    "मतलब आपको हम पसंद हैं...?"

    "कोई शक...?" अभियुद्ध कली की गोद में अपना सिर रखकर वहीं लेट गया।

    कली ने बस गर्दन ना में हिला दी।

    "वैसे यह सवाल क्यों किया...?"

    "एक दिन श्वेता कह रही थी कि आप हमें पसंद नहीं करते...", कहते हुए अचानक कली का गला रुँद गया।

    "श्वेता ने कहा...?"

    "हाँ..."

    "पर क्यों...?" अभियुद्ध ने कन्फ़्यूज़ होकर पूछा।

    "शायद इसलिए क्योंकि वो हमको पसंद नहीं करती।"

    "लेकिन तुम्हें पसंद क्यों नहीं करती वो...?"

    "पता नहीं...?"

    "कारण भी नहीं पता...?"

    "नहीं...", कली ने गर्दन ना में हिला दी।

    "अच्छा, कोई बात नहीं। तुम ये सब बातें छोड़ो और कुछ अपने बारे में बताओ...", अभियुद्ध को लगा कि शायद कली उदास हो रही है, तो उसने टॉपिक ही बदल दिया।

    "कुछ भी नहीं है। आप बताइए कुछ...?"

    "कभी फिल्म देखने गई हो...?" अभियुद्ध ने सवाल किया जिसके जवाब में कली ने अपनी गर्दन ना में हिला दी।

    "कभी नहीं...?"

    "नहीं..."

    "तो ठीक है, कल हम दोनों फिल्म देखने सिनेमा हॉल चलेंगे..."

    "सच्ची जी...?" बच्चों की तरह खुश हुई वह।

    "मुच्ची मिश्राइन जी... उसके बाद थोड़ी बहुत शॉपिंग भी कर लेंगे।" अभियुद्ध ने धीरे से उसके हाथ को अपने हाथ में पकड़ा।

    "शॉपिंग में तो ज़्यादा खर्चा हो जाएगा... नहीं, आप बस फिल्म दिखा दीजिएगा। शॉपिंग नहीं करनी हमको..."

    "खर्चे की तुम फ़िक्र मत करो। मैं हूँ ना, सब मैनेज कर लूँगा। और पहली बार तो तुम्हारे लिए कुछ कर रहा हूँ, उसमें भी तुम नाक मार रही हो... गुस्सा हो जाऊँगा मैं...", अभियुद्ध ने बनावटी गुस्से में उसे देखा। तो कली आगे कुछ बोल ही नहीं पाई। अभियुद्ध ने धीरे से उसके हाथ पर अपने होंठ रखे और एक छोटी सी किस उसके हाथ पर कर दी। अभियुद्ध की इस हरकत पर कली के गाल कश्मीरी सेब से भी लाल हो गए थे।

    क्रमश:

  • 20. तो इश्क है ! - Chapter 20

    Words: 1073

    Estimated Reading Time: 7 min

    और जैसा अभियुद्ध ने डिसीज़ किया था, पहले कली को मूवी दिखाई, उसके बाद उसे शॉपिंग भी करवाई। शाम तक दोनों वापस घर आ गए थे। कली काफ़ी खुश थी अभियुद्ध के साथ वक़्त बिताकर, और यही हाल अभियुद्ध का भी था। उसे भी काफ़ी अच्छा लग रहा था कली के लिए ये सब करते हुए। जानते तो दोनों ही थे कि फ़िलहाल उनके पास थोड़ा ही समय था साथ वक़्त बिताने के लिए। लेकिन, दोनों की कोशिश यही थी कि अपने उन पलों को यादगार बनाएँ।


    रात के खाने के बाद दोनों ही ऊपर छत पर आ गए थे। उस स्याह आसमान में आज चाँद भी उनकी तरह पूरा सा था। कहीं-कहीं तारे भी टिमटिम रहे थे। दोनों ही कालीन बिछाकर बैठ गए। कली अभियुद्ध के सीने से पीठ लगाकर बैठ गई और अपना सिर उसके कंधे पर रख दिया। अभियुद्ध ने मुस्कुराते हुए कली की हथेली को अपनी हथेली से जोड़ लिया था और काफ़ी मज़बूती से उसकी उंगलियों को अपनी उंगलियों में फँसा लिया था। और दूसरे हाथ को कली की कमर पर रखकर उसे खुद से और करीब कर लिया था।


    कली के चेहरे पर लज्जा की लाली उभर आई। उसने अपनी पलकें झुका लीं। हमेशा की तरह दोनों ही खामोश थे। कली सोच रही थी अभियुद्ध बात करना शुरू करे, और अभियुद्ध कली से उम्मीद लगाए हुए था। लेकिन, हर बार की तरह इस बार भी अभियुद्ध ने ही बात की शुरुआत की। उसने धीरे से अपना गला साफ़ किया और थोड़ा धीमे से बोला,


    "कली..!"


    "जी..?" कली ने फ़ौरन अपनी नज़रें उठाईं।


    "तुम इतनी प्यारी क्यों हो..?"


    "पता नहीं..?" कली ने मुस्कुराते हुए अपने कंधे उचका दिए।


    "मुझे भी बनना है तुम जैसा।" अभियुद्ध ने कहा।


    "क्यों जी..?" कली ने अभियुद्ध की बात सुनकर कहा, जबकि उसकी कजरारी आँखें थोड़ी बड़ी-बड़ी सी हो गई थीं।


    "जैसे मुझे तुम प्यारी लगती हो, वैसे ही तुम्हें भी मैं प्यारा लगूँ, इसलिए।"


    "ऐ जी, आपको मेरे जैसा बनने की ज़रूरत नहीं। आप मुझे बहुत प्यारे लगते हैं।" कली ने जल्दबाज़ी में कहा। वही उसकी बात सुनकर अभियुद्ध के होंठों पर तिरछी मुस्कान फैल गई। उसने कली को गहरी नज़रों से देखते हुए कहा,


    "क्या वाकई! तुम्हें हम प्यारे लगते हैं..?"


    अभियुद्ध का सवाल सुनकर कली को एहसास हुआ कि वह जल्दबाज़ी में क्या बोल गई थी। उसने झेंपते हुए अपनी नज़रें झुका लीं। तो अभियुद्ध ने बड़े प्यार से उसकी ठुड्डी के नीचे हाथ लगाकर उसका चेहरा ऊपर किया, और थोड़े ख़ुमार के साथ बोला,


    "ऐ मिश्राइन, तुम जवाब नहीं दी.. क्या वाकई! तुम्हें हम प्यारे लगते हैं..?"


    अभियुद्ध की आवाज़ जैसे ही उसके कानों में पड़ी, पूरा बदन सिहर उठा था। उसने थोड़ा काँपते हुए अभियुद्ध का हाथ पकड़ा और अपना चेहरा उसके सीने में छुपाती हुई धीमे स्वर में बोली,


    "ऐ जी आप.....आप ऐसी बातें क्यों करते हैं..?"


    "क्यों नहीं कर सकता..?" अभियुद्ध की भौंहें तन सी गई थीं।


    "नहींईईईईईई ऐसी बात नहीं है.. लेकिन! जब आप ऐसी बातें करते हैं और ऐसे हमारे करीब आते हैं तो पेट में कुछ अजीब सा होने लगता है। मानो बहुत सारी तितलियाँ उड़ने लगी हों, बहुत शर्म भी आती है। ऐसा लगता है कि बस खुद को छुपा लूँ कहीं।" कली ने अभियुद्ध के सीने से लगे हुए ही कहा, लेकिन थोड़ा झिझकते हुए।


    कली की ये बात सुनकर तो अभियुद्ध की हँसी छूट गई थी। कली ने अपनी गर्दन उठाकर उसकी तरफ़ सवालिया नज़रों से देखा तो अभियुद्ध ने धीरे से उसके माथे को चूमा।


    "पागल लड़की..!"


    "ऐ जी हम क्यों पागल..?"


    "अरे...! भई! तुम अपनी फीलिंग्स ही नहीं समझ पा रही तो फिर पागल नहीं तो क्या कहूँ..?" अभियुद्ध ने प्यार से उसे देखते हुए कहा।


    "फीलिंग्स नहीं समझ पा रही मतलब..?"


    "तो ऐसा कि.......... अरे छोड़ो, तुम नहीं समझोगी..."


    "ऐ जी बताइए ना..? हमारी माँ कहती है कि हम बहुत समझदार हैं... आप बहुत अच्छा समझाते हैं, अगर बताएँगे तो हम समझ जाएँगी जी...." कली ने बच्चों की तरह अभियुद्ध की बाज़ू पकड़ी और उसे हिलाते हुए बोली।


    "छोड़ो ना कली, क्या करोगी..."


    "ऐ जी बता दीजिए ना..?"


    "शादी से पहले तुम्हारी माँ ने कुछ बताया नहीं..?"


    "क्या नहीं बताया..?"


    "मतलब..? तुम समझ जाओ ना यार.. अब मैं कैसे बताऊँ तुम्हें..?" अभियुद्ध ने अपना सिर खुजलाते हुए थोड़ी बेचारगी से कहा।


    "मैं कैसे समझू.. आप मुँह से बताइए ना..?"


    "ठंड बढ़ रही है। चलो नीचे चलते हैं।" कहते हुए अभियुद्ध अपनी जगह से उठ गया। कली ने एक नज़र आसमान की ओर देखा, जहाँ चाँद अब कोहरे की चादर से खुद को छुपा चुका था। कली को भी थोड़ी ठंड महसूस होने लगी थी। वह भी धीरे उठी तो अभियुद्ध ने कालीन को फोल्ड करके अपने हाथ में पकड़ लिया। फिर दोनों ही नीचे आ गए। इस बिल्डिंग में 8 फ्लोर थे और अभियुद्ध का फ़्लैट 4th फ्लोर पर था। रात के 10:30 बज रहे थे तो कॉरिडोर की लाइट्स भी बंद हो चुकी थीं। दोनों अंदर आए। अभियुद्ध ने दरवाज़ा बंद किया और खुद कमरे की तरफ़ बढ़ गया। कली रसोई में चली गई थी। कुछ देर बाद कमरे में वह अभियुद्ध के लिए कॉफ़ी बनाकर लेकर आई। अभियुद्ध भी मुस्कुराकर कॉफ़ी पीने लगा था।


    कली वहीं बेड पर अपनी साइड बैठ गई। कुछ देर तो वह खामोश रही, लेकिन फिर अभियुद्ध के थोड़ा करीब खिसक कर बैठ गई और अभियुद्ध की बाह पर अपना हाथ रखकर धीरे से बोली,


    "ऐ जी..?"


    "हम्मम..."


    "वो हम समझ गए कि आप ऊपर हमसे क्या कहना चाह रहे थे।" कली ने अपनी नज़रें झुकाते हुए कहा। अभियुद्ध को उम्मीद तो नहीं थी कि वह उसकी बात इतनी जल्दी पकड़ लेगी, तो उसने बस नॉर्मल ही उसकी तरफ़ देखा और बोला,


    "क्या कहना चाह रहा था मैं..?"


    "मतलब! जब हमारी शादी हुई थी, उससे पहले माँ ने बहुत समझाया था हमें कि सास-ससुर जी की सेवा करना, नंद को बिलकुल अपनी बहन की तरह प्यार करना। सबकी इज़्ज़त करना, सबकी बात मानना। किसी से भी उल्टा जवाब ना देना और अपने पति की भी सेवा करना..." कली ने मुस्कुराकर कहा। तो अभियुद्ध ने मुँह बना लिया।

    क्रमश: