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Revenge Marriage

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strenger pen

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—दिव्या और दृष्टि—जो एक पल में तबाह हो गई! दृष्टि की शादी अर्जुन से तय थी। पूरा घर रोशनी से जगमगा रहा था, रिश्तेदारों की हँसी और ढोल-नगाड़ों की गूंज चारों ओर फैली हुई थी। हर चेहरा खुशी से चमक रहा था... सिवाय एक के।...

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Arjun Shekhawat

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Dristi

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Divya

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अनिरुद्ध

Hero

Total Chapters (20)

Page 1 of 1

  • 1. - Chapter 1 shadi kaa ghr

    Words: 1042

    Estimated Reading Time: 7 min

    एक शाही शादी – जहाँ हर कोना बयां करता है रॉयल्टी

    शहर के सबसे बड़े और आलीशान महलनुमा बंगले को दुल्हन की तरह सजाया गया था। बेशकीमती रेशमी परदे, झिलमिलाती क्रिस्टल लाइट्स, और विदेशी फूलों की महक हर मेहमान का दिल जीत रही थी।

    बंगले के मुख्य द्वार पर बना फूलों का गेट—सफ़ेद गुलाब, ट्यूलिप और ऑर्चिड्स से सजाया गया था, जिसके बीच सुनहरी रोशनी झिलमिला रही थी। जैसे ही कोई मेहमान अंदर आता, फाउंटेन से निकलती हल्की सुगंधित भाप उसे एक दूसरी ही दुनिया में ले जाती।

    गार्डन में बना मंडप किसी राजमहल से कम नहीं था—चारों ओर सुनहरी मीनाकारी के खंभे, ऊपर से झूलते रेशमी पर्दे, और बीचों-बीच जड़े असली चाँदी के बर्तन, जिसमें पवित्र अग्नि जलनी थी।

    हॉल का नज़ारा:
    बड़ा सा बॉलरूम जिसमें झूमर इतने विशाल कि छत को छूते हुए लग रहे थे। दीवारों पर पुरानी रॉयल पेंटिंग्स, फूलों की मोटी-मोटी लड़ी, और ज़मीन पर फैली मखमली कारपेट। खाने का सेक्शन तो जैसे किसी इंटरनेशनल फूड फेस्ट का हिस्सा था—इटैलियन, थाई, मुग़लई, राजस्थानी और बंगाली—हर स्वाद का इंतज़ाम।

    दुल्हन का कमरा:
    सजे हुए शीशों की दीवारों वाला कमरा, जहाँ दृष्टि को पारंपरिक लाल लहंगे में सजाया जा रहा था। उसका लहंगा मशहूर डिज़ाइनर का था, जिसकी कढ़ाई में असली सोने और चाँदी के धागे इस्तेमाल किए गए थे। गहने–मोतियों और कुंदन से बने हुए–इतने भारी कि चलते समय किसी रानी की तरह प्रतीत हो रही थी।

    महमानों की एंट्री:
    मेहमानों के स्वागत के लिए बैंड-बाजा, शहनाई की मधुर धुन, और सफेद पोशाक में सजे सेवक, जो गुलाब जल छिड़कते हुए सभी को अंदर ले जा रहे थे।








    कमरे में ढेर सारे लहंगे बिखरे हुए थे — हर एक अपनी जगह पर चमक रहा था। ज़री, कढ़ाई, मोती, मखमल, रेशम... हर लहंगा जैसे अपनी कहानी कह रहा हो। सृष्टि बिस्तर पर बैठी कभी एक लहंगे को देखती, कभी दूसरे को उठाकर आईने के सामने रखती।

    "मुझे तो सारे ही पसंद आ रहे हैं!" सृष्टि मासूमियत से मुस्कुराते हुए बोली। "पापा, आपने इतनी चॉइस दे दी है कि अब समझ ही नहीं पा रही हूं कि कौन-सा पहनूं?"

    अभिनव जिंदल, एक सफल उद्योगपति और एक स्नेही पिता, अपनी बेटी को देखकर मुस्कुराए।
    "बेटा सृष्टि, अब भाई हमारी बेटी की शादी है। कल हम कोई कमी छोड़ सकते हैं क्या? और फिर शादी अर्जुन शेखावत से हो रही है — टॉप लेवल बिज़नेसमैन है। उसके बराबरी की दुल्हन लगनी चाहिए ना। हमारे बच्चे हमसे कम हैं क्या?"

    सृष्टि थोड़ी शरमा कर बोली, "पर पापा, मैं कौन-सा पहनूं?"

    "कोई भी पहन ले, बेटा। सारे तेरे ऊपर अच्छे लगेंगे। तू ही तो हमारी राजकुमारी है।"
    यह थी सृष्टि जिंदल, अभिनव जिंदल की बड़ी बेटी — उम्र 25 साल। गोरी, सीधी-सादी, और सादगी से भरी हुई। आज उसके सपनों का राजकुमार उससे ब्याह रचाने आ रहा था। उसके चेहरे पर खुशी की चमक थी। कभी लहंगों की तरफ देखती, तो कभी शीशे में खुद को देखकर मुस्कुरा उठती।

    मन ही मन सोचती: "अर्जुन... आज कितने सालों बाद हमारा सपना पूरा होने जा रहा है। मैंने इस पल का कितनी बेसब्री से इंतज़ार किया है..."

    उसी समय वॉशरूम से पानी गिरने की आवाज़ आती है।

    सृष्टि मुस्कुराते हुए कहती है, "पक्का ये दिव्या ही होगी। चलती-फिरती तूफान है वो! कभी-कभी तो सोचती हूं मम्मी ने क्या खाया था उसके समय। ही बंदी कभी सीधी चल ही नहीं सकती।"

    तभी ज़ोर से आवाज़ आती है—"अरे दीदी, बस कर जाओ! वैसे भी अब तो आप इस घर से जा रही हो। घर मेरा है और पापा भी मेरे। तो अब उनसे मेरी शिकायतें करना बंद करो!"

    सबका ध्यान दरवाज़े की ओर जाता है। वहां एक लड़की खड़ी थी — तेज़ चाल, मासूम मगर शरारती मुस्कान, और आँखों में बला की चमक।

    ये थी दिव्या जिंदल, अभिनव जिंदल की छोटी बेटी — उम्र 19 साल। जितनी प्यारी, उतनी ही ज़ुबान की तेज़। मुंहफट, लड़ाकू और दिल से बेहद साफ।

    दिव्या अंदर आते ही बोली, "मैं आपके लिए बहुत महंगा तोहफा लेने गई थी, दीदी!"

    सृष्टि हँसते हुए: "अच्छा? ऐसा भी क्या लेने गई थी?"

    दिव्या मुस्कराते हुए कहती है, "रुको... अभी दिखाती हूं!"
    "रामू काका!" — उसने ज़ोर से पुकारा।

    रामू काका एक थाल लेकर अंदर आए, जिस पर एक सुंदर कपड़ा पड़ा हुआ था।

    दिव्या नाटकिया अंदाज़ में बोली, "अब आपकी आंखें फटी की फटी रह जाएंगी! तो संभालकर बैठिए—अपनी आंखें और दिल दोनों!"
    कपड़ा हटाते ही थाल में एक बेहद खूबसूरत, पारंपरिक लहंगा था।

    "ये... मां का लहंगा है।" दिव्या धीमे से बोली। "मम्मी ने अपनी शादी में पहना था। बहुत ढूंढने के बाद मुझे ये मिला। दी, आज आप यही पहनोगी।"

    सृष्टि लहंगे को देखते ही भावुक हो गई। उसकी आंखों में आंसू आ गए। मां की यादें जैसे सामने आ खड़ी हुईं।

    अभिनव जी उसकी पीठ सहलाते हुए बोले, "बेटा, तुम्हारी मां का आशीर्वाद हमेशा तुम्हारे साथ है। खुद को कभी अकेला मत समझना। और आज का दिन… बहुत खास है। तुम्हें तुम्हारे प्यार अर्जुन से शादी करने को मिल रहा है, 12 सालों का प्यार है तुम्हारा। ऐसे रोते नहीं हैं, हँसते हैं!"

    सृष्टि आंसू पोंछते हुए बोली, "हाँ पापा, मैं सिर्फ रंग नहीं, आज अपनी शादी में खूब नाचूंगी। आपने कभी मुझे मां की कमी महसूस नहीं होने दी… थैंक यू सो मच, पापा!"

    वह झुक कर अपने पापा को गले लगा लेती है।

    दिव्या धीरे से बोली, "ये क्या बात हुई? पापा आप दी को गले लगा रहे हैं और मुझे भूल गए? अब उनके जाने के बाद घर में आपका ख्याल रखने वाली मैं हूं! चलिए, आप पार्शियलिटी कर लीजिए, मैं भी बताती हूं!"
    फिर वह भी दौड़ कर उनके गले लग जाती है।

    तीनों एक-दूसरे से लिपटे हुए, थोड़ी देर के लिए ज़िंदगी की रफ़्तार से अलग एक इमोशनल पल में डूब जाते हैं।

    तभी पीछे से आवाज़ आती है—

    "हो गया फैमिली ड्रामा? अब ज़रा तैयार भी हो जाओ!"

    यह थीं टुनटुन बुआ।

    दिव्या धीरे से बुदबुदाई, "लो आ गई मुसीबत... अब तेरा क्या होगा, भगवान ही जाने। मैं तो चली!"
    और चुपचाप बुआ के बगल से निकल जाती है।

    टुनटुन बुआ ताना मारती हैं, "भाई साहब! इसके भी हाथ पीले कर दो। लगे हाथ इसको भी विदा कर दीजिए, एक मुसीबत कम हो जाएगी!"

    सृष्टि आगे बढ़कर उनके पैर छूती है।

    टुनटुन बुआ मुस्कराकर आशीर्वाद देती हैं, "सदा सुहागन रहो! आज तुम अपने प्यार के साथ नई ज़िंदगी शुरू कर रही हो… मैं बहुत खुश हूं।"

  • 2. Chapter 2 nhi apne behen ki zindagi barbad nhi hone dungi

    Words: 1144

    Estimated Reading Time: 7 min

    धीरे-धीरे संध्या की बेला पास आ रही थी। शादी की तैयारी लगभग पूरी हो चुकी थी। महलनुमा घर रौशनी में नहाया हुआ था। फूलों की खुशबू और शहनाई की गूंज के बीच मंडप सजा-धजा अपने स्वर्णिम क्षण का इंतज़ार कर रहा था।

    पंडित जी ने अपनी पोथी खोल ली थी और सामने बैठकर बोले,
    "अरे भाई, दूल्हे को बुलाइए, और दुल्हन को भी! मुहूर्त निकला जा रहा है!"

    मंडप के पास बैठी दिव्या हँसते हुए बोली,
    "ठीक है पंडित जी, मैं दीदी को लेकर आती हूँ… पर पहले जीजाजी से मिल लेती हूँ!"

    दिव्या मस्ती से सीढ़ियाँ चढ़ती हुई अर्जुन के कमरे की ओर बढ़ती है। दरवाज़े पर पहुँचते ही उसका ध्यान अर्जुन के जूतों पर जाता है—शूज़ के फीते खुले हुए थे। वह माथे पर हल्की चपत मारते हुए खुद से बुदबुदाई,
    "अरे दिव्या, देख के वरना तू खुद ही लुढ़क जाएगी… और फिर शादी में सूजी हुई नाक लेकर घूमेगी। कोई लड़का भाव भी नहीं देगा!"

    वह झुककर फीते बाँध ही रही थी कि…
    अंदर से आती अर्जुन की आवाज़ ने जैसे उसकी सांस रोक दी।

    "बस एक बार सृष्टि से शादी हो जाए… उसके बाद उसकी सारी प्रॉपर्टी मेरी। इस बार मैं ऐसा वार करूंगा कि वो सोच भी नहीं सकती! इन जिंदलों ने मेरी बहन की ज़िंदगी बर्बाद की थी… अब मैं उनके घर की बेटी को अपने घर की बहु बनकर इनकी ज़िंदगी नर्क बना दूंगा!"

    दिव्या के कान सुन्न हो गए। आँखें फटी रह गईं… और ज़मीन जैसे पैरों तले से निकल गई। उसके कदम धीरे-धीरे पीछे हटने लगे… और अगले ही पल, वह वहाँ से भागती हुई एक कोने में जाकर फूट-फूट कर रोने लगी।

    "क्या करूं अब? पापा को पता चला तो वो मर जाएंगे… और दीदी? उसकी पूरी ज़िंदगी बर्बाद हो जाएगी!"

    अपने आंसू पोंछते हुए वह बड़बड़ाई,
    "नहीं! मैं अपनी बहन की ज़िंदगी पर आँच नहीं आने दूंगी। अर्जुन सिंघानिया! अब तूने जंग छेड़ दी है… तो अंजाम भी भुगतना पड़ेगा!"

    सृष्टि का कमर... . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . .

    सृष्टि अपने कमरे में तैयार बैठी थी। उसके हाथों में अर्जुन की तस्वीर थी, जिसे वह बड़े प्यार से देख रही थी।

    "तुम आज बहुत प्यारे लग रहे होगे… मेरी शेरवानी वाले राजकुमार…" — वह धीमे से मुस्कुराई।

    तभी दिव्या कमरे में दाखिल हुई, चेहरे पर गंभीरता लेकिन होंठों पर वही चिर-परिचित मुस्कान।

    "अरे दीदी, बारात आ गई है! अर्जुन भी नीचे मंडप में जा रहा है… और पंडित जी बार-बार बुला रहे हैं।"

    सृष्टि उत्साहित हो उठी, "सच? चल ना… मैं तो कब से तैयार बैठी हूं!"

    "रुक जा भाई!" — दिव्या बोली — "शादी शुरू हो गई तो बीच में उठने का टाइम नहीं मिलेगा… तूने सुबह से कुछ खाया भी नहीं। ये जूस पी ले, फिर चलेंगे।"

    सृष्टि मुस्कराई और बोली, "थैंक यू, मेरी केयरिंग बहन!"
    वह जूस का गिलास लेकर पी गई, और फिर बोली, "बस दो मिनट में आती हूं, वॉशरूम जा रही हूं।"

    लेकिन जैसे ही सृष्टि वॉशरूम की तरफ बढ़ी, उसका सिर घूमने लगा। वह लड़खड़ाते हुए बोली,
    "दिव्या… मुझे चक्कर आ रहे हैं…"

    दिव्या दौड़कर उसे थामती है, टेबल पर बैठाती है… और कुछ ही पल में सृष्टि बेहोश हो जाती है।

    दिव्या धीरे से उसकी आँखों को छूती है और कहती है,
    "सॉरी दीदी… पर मुझे ये करना ही होगा… तुम्हारे लिए, हमारे परिवार के लिए…"

    वह सृष्टि के दुल्हन वाले कपड़े खुद पहन लेती है, सृष्टि को एक सामान्य सूट पहना कर वॉशरूम में बंद कर देती है, और खुद लाल जोड़े में बैठ जाती है।

    दृश्य: मंडप की ओर प्रस्थान

    दिव्या के हाथ कांप रहे थे। चेहरे पर घूंघट पड़ा था लेकिन दिल धड़क रहा था तेज़-तेज़। तभी कमरे का दरवाज़ा खुला और टुनटुन बुआ अंदर आईं।

    "अरे बेटा! चलो… पंडित जी तुम्हारा कब से इंतजार कर रहे हैं! ये दिव्या भी ना… पता नहीं कहाँ गायब हो गई! कह रही थी दीदी को लाऊंगी… और अब खुद ही नहीं मिल रही…"

    वे दुल्हन बने दिव्या को उठाकर मंडप की ओर ले चलती हैं।

    हर कदम पर दिव्या का डर बढ़ता जा रहा था। वह कांप रही थी। तभी टुनटुन बुआ ने कहा,
    "डर लग रहा है ना? चिंता मत करो बेटा… थोड़ी देर में सब नॉर्मल हो जाएगा। चलो, घूंघट थोड़ा उठा लो… मन हल्का लगेगा।"

    टुनटुन बुआ घूंघट उठाने लगी ही थीं कि दिव्या ने कसकर उसे पकड़ लिया और सिर हिला दिया।

    बगल में खड़ी एक औरत हँसते हुए बोली,
    "अरे छोड़िए टुनटुन जी! आजकल की लड़कियों का फैशन है। इन्हें जैसे ठीक लगे वैसे ही रहने दीजिए… मुहूर्त निकल रहा है, चलिए मंडप तक!"

    दुल्हन बनी दिव्या, कांपते कदमों से उस मंडप की ओर बढ़ रही थी… जहां उसकी ज़िंदगी एक नई दिशा लेने वाली थी — बहन के लिए, परिवार के लिए… और अर्जुन सिंघानिया से बदला लेने के लिए।




    दिव्या भारी-भरकम लाल जोड़े में, धड़कते दिल और काँपते हाथों के साथ मंडप के पास पहुँची ही थी कि अचानक किसी ने उसका हाथ थाम लिया। वो चौंकी… फिर जैसे सुकून की एक सांस आई।

    “बेटा…” — ये आवाज़ उसके पापा, अभिनव जिंदल की थी।

    उन्होंने बड़ी नरमी से दिव्या का हाथ पकड़कर उसे मंडप में बिठाया। उनकी आँखों में चमक थी — बेटी को दुल्हन के रूप में देखना हर पिता का सपना होता है।

    अभिनव ने अर्जुन की ओर देखा, उसकी आँखों में विश्वास था।

    "अर्जुन," वे बोले, "ये मेरी बेटी है… मेरी जान। मैंने इसे बहुत लाड़-प्यार से पाला है। अब ये तुम्हारी ज़िम्मेदारी है। मुझे उम्मीद है कि तुम इसका पूरा ख्याल रखोगे।"

    अर्जुन ने मुस्कुराते हुए सिर हिलाया, "अंकल जी, आप बिल्कुल निश्चिंत रहिए। दृष्टि जी अब हमारी जिम्मेदारी हैं। मैं इनकी हिफाज़त अपनी जान से भी बढ़कर करूंगा।"

    पर उस मुस्कान में एक ऐसी बात छुपी थी जो कोई देख नहीं पा रहा था — एक शैतानी चाल, एक गहरा बदला।

    (मन ही मन अर्जुन सोचता है...)
    "बस एक बार ये शादी पूरी हो जाए… फिर देखना, सृष्टि और उसके पूरे खानदान को ऐसी सज़ा दूंगा, जैसी इन्होंने कभी सोची भी नहीं होगी। बहुत शौक था ना दूसरों की ज़िंदगी में टांग अड़ाने का… अब देखना जब खुद की बेटी की ज़िंदगी बर्बाद होगी, तब क्या हाल होगा!"

    चेहरे पर वही मीठी मुस्कान ओढ़े, अर्जुन पंडित जी की तरफ मुड़ता है और कहता है,
    "पंडित जी, अब तो शादी शुरू कराइए… और कितनी देर?"

    पंडित जी मुस्कुराते हुए बोले,
    "दूल्हे राजा, थोड़ा सब्र रखिए। शुभ घड़ी बस आने ही वाली है!"

    तभी अभिनव जी चारों ओर देखते हुए बोले,
    "अरे हाँ, तुम्हारे पिताजी कहाँ रह गए? मुझे तो अब तक दिखे ही नहीं… रुको, मैं जाकर देखता हूँ।"

    अभिनव के ये शब्द सुनते ही अर्जुन के चेहरे की रंगत हल्की सी बदलती है, लेकिन वो तुरंत मुस्कुराहट ओढ़ लेता है।

    दिव्या, जो अब दुल्हन बन कर बैठी थी, सिर झुकाए हुए सब कुछ सुन रही थी। लेकिन अंदर ही अंदर उसकी सांसें तेज़ चल रही थीं —

  • 3. - Chapter 3 dur raho ..! divya meri patni hai

    Words: 1014

    Estimated Reading Time: 7 min

    पंडित जी मंत्रोच्चार कर रहे थे, शंख की ध्वनि, फूलों की बरसात और मेहमानों की हर्षभरी नज़रों के बीच शादी अपनी चरम सीमा पर थी। सबकी निगाहें दूल्हा-दुल्हन पर थीं।



    अभिनव जिंदल एक संतुष्ट पिता की तरह अर्जुन के परिवार वालों से मिलने गए। हाथ जोड़कर बोले,

    "समधी जी, आज से मेरी बेटी आपकी ज़िम्मेदारी है।"



    दीनदयाल सिंह ने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया,

    "अरे नहीं-नहीं, आपकी बेटी अब हमारी बेटी है। हम उसका पूरा ध्यान रखेंगे।"



    उनकी पत्नी ने आगे बढ़कर कहा,

    "आप निश्चिंत रहें भाईसाहब, सृष्टि सिर्फ बहू नहीं, अब हमारे घर की लक्ष्मी है।"



    अभिनव की आँखें नम हो गईं।

    "भाभीजी, बच्ची बिन माँ की है। कभी कोई गलती हो तो… माफ कर दीजिएगा।"



    "आपकी बेटी मेरा मान है," — वो बोलीं — "और उसका एक और मन है… मैं।"



    अभिनव ने सुकून से साँस ली, तभी ध्यान फिर से मंडप की ओर गया।

    पंडित जी बोले,

    "दुल्हे राजा, अब सिंदूर भरिए और मंगलसूत्र पहनाइए।"



    अर्जुन ने थाल से सिंदूर उठाया और दिव्या की मांग भर दी।

    दिव्या की आँखों से टपाटप आँसू बहने लगे। उसका पूरा शरीर काँप रहा था, जैसे आत्मा खुद को रोक नहीं पा रही हो।

    मंगलसूत्र भी उसके गले में डाल दिया गया।



    पंडित जी ने घोषणा की,

    "शादी संपन्न हुई। अब बड़ों का आशीर्वाद लीजिए।"



    तभी—



    “रुको!!!” — सीढ़ियों से तेज़ चीख गूँजी।



    सबने मुड़कर देखा—सृष्टि खड़ी थी।

    बिखरे बाल, लहुलुहान दिल, आँखों में विश्वासघात की आग।



    "यह शादी नहीं हो सकती!" — वह चीखी।



    हड़बड़ाहट मच गई। सब एक-दूसरे की ओर देखने लगे।



    सृष्टि रोती हुई नीचे आई। मंडप में खड़ी दुल्हन की ओर उंगली करते हुए बोली,

    "कौन हो तुम? मेरी जगह कैसे ली?"



    टुनटुन बुआ और अभिनव दौड़ते हुए सृष्टि के पास आए।

    "बेटा… तू यहाँ? तो ये कौन है?"



    सबकी नजरें उस दुल्हन पर थीं। अर्जुन भी सन्न था।

    टुनटुन बुआ आगे बढ़ीं और घूंघट उठाया—



    "दिव्या!" — हर तरफ से आवाजें उठीं।



    अभिनव के कदम डगमगा गए। उनकी आँखों के सामने अंधेरा छा गया।

    सृष्टि फूट-फूट कर रोते हुए बोली,

    "क्यों किया तूने ऐसा दिव्या? मेरे प्यार से शादी कर ली?"



    अभिनव लड़खड़ाते हुए बोले,

    "बेटा… ये सब क्या मज़ाक है?"



    दिव्या की आँखों में आँसू थे लेकिन चेहरा दृढ़।



    "पापा… ये शादी मज़ाक नहीं। ये पूरी रस्मों के साथ हुई है। अर्जुन अब मेरे पति हैं।"



    सृष्टि चीख उठी—

    "मैं नहीं मानती ये शादी! अर्जुन, तुम कुछ बोलते क्यों नहीं?"



    अर्जुन ने अचानक सृष्टि का हाथ झटक दिया और गुस्से से बोला,

    "दूर रहो मुझसे! अब दिव्या मेरी पत्नी है… और मेरी पत्नी ही मेरे लिए सब कुछ है!"



    हर कोई स्तब्ध रह गया। सृष्टि वहीं गिरने को हुई, लेकिन अभिनव ने उसे थाम लिया।

    वो गुस्से से काँपते हुए बोले,

    "अर्जुन, ये कैसा मज़ाक है? तुम्हारा 12 साल का रिश्ता था सृष्टि से!"



    "रिश्ता था अंकल जी," अर्जुन बोला, "लेकिन अब मेरी शादी दिव्या से हुई है। और मैं अपनी पत्नी को किसी कीमत पर ठुकरा नहीं सकता।"



    सृष्टि वहीं बेहोश होकर गिर पड़ी।



    अभिनव ने झुककर गंगाजल उठाया। उनके हाथ काँप रहे थे।

    "आज तूने जो किया… उसके बाद तू मेरे लिए मर चुकी है दिव्या!"



    उन्होंने गंगाजल अपने ऊपर छिड़कते हुए कहा—

    "आज से ये घर तेरे लिए बंद है। तू अब मेरी बेटी नहीं!"



    टुनटुन बुआ गुस्से से चिल्लाईं,

    "छूना मत मेरे भाई को! तुम मर चुकी हो हमारे लिए!"



    उन्होंने दिव्या को धक्का देकर दूर कर दिया।

    दिव्या संभल नहीं पाई, पीछे अर्जुन ने उसे थामा।



    "चलो यहां से!" — अर्जुन बुदबुदाया।



    वो दिव्या को लेकर वहां से चला गया। पीछे-पीछे उसके माता-पिता भी।



    अंदर—

    अभिनव ने मंडप में लगे फूलों को उखाड़ना शुरू कर दिया, हर चीज़ को उलट-पलट दिया।

    "मेरी बेटी… मेरी बच्ची… ये क्या कर गई!" — वो फूट-फूटकर रोने लगे।



    तभी—

    अचानक उनका हाथ सीने पर गया।



    "भैया!" — टुनटुन बुआ चिल्लाईं, "भैया आपको क्या हो रहा है? कोई डॉक्टर को फोन करो!"



    अभिनव ज़मीन पर गिर चुके थे। सृष्टि बेहोशी से उठकर चीखी—



    "पापा!"



    दिव्या पीछे पलटकर देख रही थी… उसकी आंखें बस अपने पिता को ढूंढ रही थीं…

    लेकिन वो मजबूर थी।

    उसका हर आँसू उसकी बेबसी चीख रहा था।






    गाड़ी के अंदर एक अजीब सी खामोशी थी—बस सीट बेल्ट से टकराते हुए आँसू की आवाज़ और अर्जुन के चेहरे की वह क्रूर मुस्कान।

    "मैंने क्या सोचा था, क्या हो गया… लेकिन जो हुआ, उससे बेहतर कुछ नहीं हो सकता था," अर्जुन बुदबुदाया।
    "इन जिंदलों की यही औकात थी… और वो औकात दिखाने वाली भी उन्हीं की बेटी निकली। हाह! किस्मत कहो या चालाकी… पर अब इस दिव्या की ज़िंदगी मैं ऐसा जहन्नुम बनाऊंगा… कि ये हर पल तड़पेगी…!"

    गाड़ी के शीशे पर पड़ती स्ट्रीट लाइट की चमक उसके चेहरे की क्रूरता को और भयानक बना रही थी।
    अर्जुन ने मुड़कर दिव्या की ओर देखा। वह चुपचाप सिसक रही थी—साफ दिख रहा था, उसका दिल टूटा नहीं था, मगर अंदर ज्वालामुखी फूट रहा था।

    "रोओ मत दिव्या," अर्जुन मुस्कुराया, "क्योंकि अब तो यह सिर्फ शुरुआत है। तुमने ही ये रास्ता चुना है, अब भुगतो!"

    दिव्या ने आँसू पोंछते हुए सीधा अर्जुन की आँखों में देखा।

    "अर्जुन शेखावत, तू सोचता है तूने चाल चली है?
    मैं दिव्या हूं। दृष्टि नहीं, जो तुम्हारे प्यार में पिघल जाए।
    मैंने सब सुना था—तुम्हारे इरादे, तुम्हारी घिनौनी बातें…
    तुम मेरी बहन की ज़िंदगी बर्बाद करना चाहते थे न?
    अब देखना, मैं तुम्हारी ज़िंदगी कैसे नर्क बनाती हूं।"

    ये सुनते ही अर्जुन के चेहरे से हँसी गायब हो गई।
    गाड़ी ब्रेक की चीख के साथ रुक गई।

    झटके में दिव्या का सिर सामने सीट से टकराया—उसके माथे से खून टपकने लगा।

    अर्जुन पीछे मुड़ा, उसकी आँखों में जंगली पागलपन था।

    "तू… तू मुझे धमकी दे रही है?"
    उसने दिव्या का चेहरा ज़ोर से पकड़ते हुए कहा,
    "तूने इस रिश्ते को खुद चुना, अब भुगत!
    अगर मैं तेरी ज़िंदगी को नरक ना बना दूँ, तो मेरा नाम भी अर्जुन शेखावत नहीं!"

    वह गुस्से में दिव्या को पीछे की सीट पर धक्का देता है।

    दिव्या चुप रही… लेकिन उसकी आँखें कह रही थीं—अब आर-पार होगा।

    अर्जुन ने गाड़ी स्टार्ट की और रफ्तार से घर की ओर बढ़ गया।
    पीछे बैठी दुल्हन अब किसी की बहू नहीं, एक तूफान थी… जो वक्त आने पर सबकुछ बहा ले जाएगी।

  • 4. - Chapter 4 गृह प्रवेश

    Words: 1018

    Estimated Reading Time: 7 min

    अर्जुन गाड़ी घर पर लेकर पहुंचता है। वहां पहुंचते ही वह गाड़ी रुकते हुए कहता है, "बाहर निकालो!" जैसे ही अर्जुन ने गेट खोला, ढेर सारे मीडिया वाले आकर उसके चारों ओर घेर लेते हैं। मीडिया के सवालों ने दिव्या को समा लिया।

    "दिव्या, आपने अपनी बहन का घर क्यों उजाड़ा? आपने अपने ही बहन के होने वाले पति से शादी कर ली? क्या आपको शर्म नहीं आई?"

    मीडिया के सवालों ने दिव्या को बुरी तरह से झकझोर दिया। दिव्या चुप रही।

    अर्जुन ने मीडिया को दूर करते हुए कहा, "अब वो मेरी पत्नी है, दिव्या शेखावत!" और फिर कड़क आवाज में बोला, "अगर किसी ने एक शब्द भी दिव्या से पूछा, तो जिंदा काट दूंगा!"

    अर्जुन की बात सुनकर वहां खड़े मीडिया वाले सन्न रह गए और चुपचाप पीछे हट गए। अर्जुन दिव्या का हाथ पकड़कर घर की तरफ ले जाता है। गेट पर खड़े होकर अंदर की तरफ देखा, तो घर में कोई सजावट नहीं थी। यह देखकर अर्जुन जोर से चिल्लाता है, "कहां मर गए सबके सब?"

    अर्जुन के चिल्लाने पर सारे घरवाले इकट्ठा हो जाते हैं। उन सबको आता देख, दीनदयाल जी दांत पीसते हुए कहते हैं, "घर में बहू आई है, एग्री प्रवेश की कोई तैयारी क्यों नहीं है?"

    मीरा जी कहती हैं, "तैयारी घर की बहू के लिए थी, लेकिन मैं इसको अपनी बहू नहीं मानती। मैं सृष्टि को तुम्हारे लिए पसंद करती थी, इसको नहीं जानती।"

    अर्जुन गुस्से में कहते हैं, "ठीक है, अगर दिव्या को नहीं मानते तो मुझे भी भूल जाइए!"

    दीनदयाल जी गुस्से में चिल्ला कर कहते हैं, "पागल मत बनो, अर्जुन! तुम क्या कर रहे हो? क्यों कर रहे हो? क्या तुम नहीं समझते कि ये लड़की तुम्हारे लिए सही नहीं है?"

    अर्जुन का जवाब था, "पिताजी, सही और गलत का फैसला मैं खुद लूंगा! मैंने दिव्या से शादी की है। जितना यह घर मेरा है, उतना ही यह दिव्या का है! और आप लोग से इतना ही कहूंगा कि अगर दिव्या को मेरी पत्नी का दर्जा नहीं मिला, तो मैं अभी घर छोड़ कर चला जाऊंगा!"

    तब तक समर, समीर और शिवानी भी आ जाते हैं, और साथ में दादी भी होती हैं। दादी सब की तरफ देखकर कहती हैं, "जो हुआ, सो हो गया! शादी तो हुई है ना? वही पूरा रस्मों-रिवाजों के साथ! किसी के मान्य या ना मानने से क्या होता है? दिव्या इस घर की बहू है और मैं अपनी बहू के साथ ऐसे बर्ताव बिल्कुल भी पसंद नहीं करूंगी! मेरा अभी के अभी गृह प्रवेश की तैयारी करो! प्रिया, अपनी मां की मदद करो!"

    दादी की बात सुनकर प्रिया चुपचाप गृह प्रवेश की तैयारी करने लगती है। अर्जुन भी गुस्से में लाल खड़ा था। थोड़ी देर में, देखते-देखते, गृह प्रवेश की सारी तैयारियां हो जाती हैं। दादी आगे बढ़कर दिव्या की आरती उतारती हैं और दिव्या और अर्जुन को अंदर आने के लिए कहती हैं।

    दादी कहती हैं, "अपनी दाहिने पैर से कलर्स को अंदर की तरफ धकेलो, और इस रंगभेद लाल के अंदर से होते हुए पास चली जाओ।"

    दिव्या, दादी के बताए हुए रास्ते में चलने लगती है और उसका गृह प्रवेश हो जाता है। तब तक शिवानी और प्रिया दिव्या और अर्जुन को रोकते हुए कहती हैं, "भैया, हमारी नेक तो हमें दीजिए।"

    अर्जुन मुस्कुराते हुए अपनी जेब से कुछ पैसे निकालता है और उन दोनों के हाथों पर रख देता है। वे दोनों भी मुस्कुरा रहे होते हैं।

    फिर दिव्या जैसे ही गृह प्रवेश करती है, दीनदयाल, मीरा, समीर, हर कोई वहां से चला जाता है। बचते हैं दादी और शिवानी।

    दादी दिव्या के पास आते हुए कहती हैं, "मेरा तुम चिंता मत करो, सब धीरे-धीरे मान जाएंगे। इतना बड़ा फैसला लेना आसान नहीं होता, इसके पीछे जरूर कोई वजह रही होगी। मैं वह वजह नहीं पूछने वाली हूं, पर शादी तो हुई है और तुम आज से मेरी बहू हो! कोई माने या ना माने, मैं तुम्हें अपनी बहू मानती हूं।"

    यह सुनते ही दिव्या दादी के गले लगकर फुट-फुट कर रोने लगी। उसकी इस हालत को देखकर दादी चुप कराते हुए कहती हैं, "चुप हो जा, मेरी बच्ची! ऐसे नहीं रोते।"

    दादी शिवानी की तरफ देखते हुए कहती हैं, "चुप हो जा, बच्ची! चल, आज तेरी पहली रात है। शिवानी, इसको अर्जुन का कमरा दिखा दो।"

    शिवानी धीरे से हां में जवाब देती है और दिव्या को लेकर अर्जुन के कमरे की तरफ जाने लगती है। कमरे के सामने दिव्या को छोड़ते हुए कहती है, "हीरा भाई का कमरा है, वहां से चली जाती हूं।"

    दिव्या धीरे से कमरे में जाती है। कमरे की रंगत देखकर उसके होश उड़ जाते हैं। कमरे के चारों ओर अर्जुन की बड़ी-बड़ी तस्वीरें लगी हुई थीं, और कमरे की पूरी हालत बिखरी हुई थी। यह देखकर दिव्या अपना सिर पकड़ते हुए कहती है, "यह क्या है?"

    फिर वह धीरे-धीरे सारे सामान को उठाकर एक जगह पर करती है, पूरे कमरे को साफ करके थक कर सोफे पर बैठ जाती है। तभी अर्जुन कमरे के अंदर आ जाता है और चिल्लाते हुए कहता है, "तुम मेरे कमरे में कैसे आई? बाहर जाओ, यहां से! वरना मैं तुम्हें जिंदा नहीं छोड़ूंगा! तुम मेरी पत्नी हो, लेकिन कमरे के बाहर तक! इस कमरे में तुम्हारा कुछ लेना-देना नहीं है!"

    दिव्या, दांत पीसते हुए कहती है, "लेना-देना, कब से पत्नी-पत्नी कर रहे हो? अब तो पत्नी का अधिकार होता है। मैं तुम्हारे पति के कमरे में रहूंगी, और अगर तुम्हें कोई समस्या है, तो तुम देख लेना!"

    अर्जुन एक-एक करके अपने कपड़े उतारने लगता है। यह देखकर दिव्या अपनी निगाहें दूसरी तरफ घुमाते हुए कहती है, "यह क्या कर रहे हो? तुम्हें शर्म नहीं आती?"

    अर्जुन जवाब देता है, "नहीं, यह मेरा कमरा है। मुझे शर्म नहीं आती! जिसे शर्म आती है, वह यहां से चली जाए!"

    दिव्या अपनी दांत पीसते हुए कहती है आप चाहे जो कर लीजिए मैं इस कमरे से नहीं जाऊंगी और हां आपको क्या लगता है आप इस तरीके से अपने कपड़े निकाल देंगे तो मैं शर्मा जाऊंगी देखती हूं कितनी शर्म है आपने यह कह कर दिव्या अपनी निगाहें अर्जुन की तरफ कर लेती है और सोफे पर बैठते हुए कहती है अब आराम से आपने खा लिया मैं भी आराम से आपको कपड़े निकालते हुए देखूंगी

  • 5. His - Chapter 5

    Words: 1012

    Estimated Reading Time: 7 min

    अर्जुन एक पल के लिए सहम जाता है। वह अपने कपड़ों को फिर से पहनता है और वहां से चला जाता है।

    अर्जुन के जाते ही दिव्या मुस्कुराते हुए कहती है, "अर्जुन शेखावत... मैं दिव्या हूँ, सृष्टि नहीं। इस बात को अपने मन में बिठा लीजिए।"

    फिर अचानक उसकी आँखें नम हो जाती हैं। उसे घर की याद आने लगती है... अपने बाबा का चेहरा बार-बार आँखों के सामने घूमने लगता है।

    वह खिड़की के सामने आकर चाँद को देखते हुए ज़ोर-ज़ोर से रोने लगती है और रोते हुए कहती है, "हमें माफ कर दीजिए बाबा... हमें माफ कर दीजिए दी! पर मुझे यह करना पड़ा... मैं आपकी ज़िंदगी बर्बाद होते नहीं देख सकती थी!"

    दिव्या रोते-रोते वहीं खिड़की के पास बैठ जाती है। बाहर से आ रही ठंडी हवाएँ उसे सुकून देती हैं और न जाने कब उसकी आँख लग जाती है... वह चुपचाप वहीं सो जाती है।

    थोड़ी देर बाद अर्जुन कमरे में आता है। उसकी नज़र दिव्या पर पड़ती है। वह कुछ पल के लिए उसकी मासूमियत में खो जाता है... फिर खुद को झटकते हुए कहता है, "नहीं अर्जुन! भूल मत... इसकी बहन ने तेरी बहन के साथ क्या-क्या किया था!"

    वह दिव्या के पास जाकर बैठता है और गुस्से में कहता है, "तुमने अपनी ज़िंदगी क्यों बर्बाद की? अपनी बहन की सज़ा तुम क्यों काटना चाहती हो? पर जब तुम्हें यही मंज़ूर है... तो मैं भी पीछे नहीं हटूँगा।"

    यह कहकर वह उसे ज़मीन से उठाता है और बेड पर लिटा देता है। तभी दिव्या की आँख खुल जाती है। वह पास में रखा तकिया उठाकर अर्जुन को ज़ोर से मारती है।

    अर्जुन चिल्लाता है, "यू ब्लडी इडियट! क्या कर रही हो?"

    दिव्या पीछे हटते हुए गुस्से में कहती है, "देखिए! मैं ऐसी वैसी लड़की नहीं हूँ! अगर आप मेरे करीब आने की कोशिश करेंगे ना... तो मैं आपको मार कर फेंक दूँगी!"

    यह सुनते ही अर्जुन के चेहरे पर एक व्यंग्यात्मक मुस्कान आ जाती है।

    "अच्छा? तो तुम मुझे मारोगी? तुम... ये छोटी-सी लड़की मुझे मारेगी? हाँ? तुमने सोच भी कैसे लिया?"

    वह आगे बढ़ते हुए कहता है, "तुम इस कमरे पर हक जताती रही, खुद को मेरी पत्नी बताती रही... तो उसी हिसाब से, आज हमारी सुहागरात है। अब मैं अपनी सुहागरात मनाऊँगा।"

    यह कहकर अर्जुन धीरे-धीरे दिव्या की ओर बढ़ता है। दिव्या उसे झटक कर दूर कर देती है और गुस्से में चिल्लाती है, "मुझसे दूर रहिए! वरना मैं आपको रोज़ खाऊँगी!"

    यह कहकर वह बेड से उठती है और कमरे से बाहर चली जाती है।

    उसके जाते ही अर्जुन बिस्तर पर लेट जाता है और बड़बड़ाते हुए कहता है, "दृष्टि... तुम बच गई, पर तुम्हारी बहन... तुम्हारी सज़ा भुगतेगी! तुमने मेरी बहन की ज़िंदगी बर्बाद की, अब मैं तुम्हारी बहन की ज़िंदगी बर्बाद कर दूँगा। क्या कुछ नहीं सोचा था मैंने... 12 साल! प्यार का झूठा नाटक किया, ताकि तुम्हें तड़पा-तड़पा कर मार सकूँ! पर तुम... किस्मत की तेज निकली।"

    अर्जुन यह बड़बड़ा ही रहा होता है कि उसे चांदनी सी खुशबू महसूस होती है... यह खुशबू थी दिव्या की।

    कुछ देर पहले वह वहीं बैठी थी। अर्जुन उस खुशबू में कुछ पल के लिए खो जाता है... फिर खुद को झटकते हुए कहता है, "नहीं! नहीं... वह लड़की भी दुश्मन है!"

    यह कहकर वह करवट बदलकर सो जाता है।

    दूसरी तरफ, दिव्या कमरे से बाहर टहल रही होती है। तभी शिवानी उसे देखकर पूछती है, "भाभी, आप यहाँ क्या कर रही हैं? आपकी तो आज..."

    दिव्या धीरे से मुस्कुराते हुए कहती है, "दरअसल... मुझे भूख लगी है। मुझे खाना चाहिए।"

    शिवानी मुस्कुराते हुए जवाब देती है, "इतनी सी बात! आइए, मैं आपको खाना देती हूँ।"

    यह कहकर शिवानी दिव्या को लेकर रसोई में चली जाती है। वह फ्रिज से खाना निकालकर दिव्या को देती है। दिव्या देखते ही देखते तीन पराठे और सब्जी खा जाती है।

    खाने के बाद वह गहरी साँस लेते हुए कहती है, "थैंक यू सो मच... शिवानी! हम आपको बता नहीं सकते, हम कब से भूखे थे।"

    "कोई बात नहीं भाभी। अब आप अपने कमरे में जाइए।"

    "नहीं... हम उस कमरे में नहीं जा रहे। आपके खड़ूस भाई... क्या भाई खड़ूस है! आज ही पता चला हमें! बिल्कुल बेरहम हैं वो। हम उनके साथ नहीं रहना चाहते।"

    "अच्छा सुनिए ना... आप हमारे कमरे में चल सकते हैं। सुबह जल्दी उठकर अपने कमरे में वापस चले जाइएगा।"

    "ठीक है भाभी... जैसी आपकी मर्ज़ी।"

    शिवानी दिव्या को अपने कमरे में ले जाती है। वहाँ पहुँचकर दिव्या हल्की साँस लेते हुए कहती है, "हम तो कपड़े लाना ही भूल गए... क्या आप कुछ दे सकती हैं? यह लहंगा बहुत भारी है, हमसे इसमें रात नहीं बिताई जाएगी।"

    "ठीक है भाभी। ओके, हम आपको देते हैं।"

    शिवानी अपनी अलमारी से कपड़े निकालती है और देती हुई कहती है, "यह लीजिए, जल्दी से फ्रेश होकर कपड़े बदल लीजिए। हम बिस्तर लगा देते हैं।"

    दिव्या कपड़े लेकर वॉशरूम में चली जाती है। वह आईने में खुद को देखती है और सोचती है, "क्या तुमने सही किया...? अपनी बहन का घर उजाड़ दिया...?"

    दिव्या के मन में लाखों सवाल उठ रहे होते हैं। वह गहरी साँस लेते हुए कहती है, "और जो होना था, वो हो गया... अब मुझे सच जानना है। आखिर अर्जुन की बहन के साथ क्या हुआ था...? क्या उसमें सच में दीदी का हाथ था...? नहीं! नहीं!! दीदी बहुत सीधी हैं... वो तो चींटी तक नहीं मार सकतीं... फिर उनकी वजह से अर्जुन की बहन का क्या हुआ...?"


    वह बाहर आके कहती है शिवानी एक बात बताओ तुम लोग घर में कितने भाई बहन हो और किसी की शादी हुए है ..?

    भाभी मै , समीर, सिमरन, और भाई यही चार ...!

    अच्छा और कोई ..?

    और तो कोई नहीं जो है यही है
    दिव्या फिर से इशारा करते हुए पूछती है आप में कौन से लोग kvp कॉलेज में पढ़े है ..?

    भाभी वह पर तो भाई और आयशा दी ही पढ़ी है

    आयशा..? ये कौन है

    अरे उनका नाम लेना माना है इस घर में उसने सारे रिश्ते खत्म कर दिए गए है . . . . . . . . . . . . . . .. . . . . .. . . . . . .

  • 6. - Chapter 6 अकडू शेखावत

    Words: 1018

    Estimated Reading Time: 7 min

    दिव्या, आयशा की बात को सुनते हुए थोड़ी आश्चर्य में पड़ जाती है।
    वह धीरे से पूछती है, “ऐसा क्या किया था ऐसा दीदी ने, जो उनके साथ इतना बुरा बर्ताव किया जा रहा है?”

    शिवानी बोली, “भाभी, हमें लगता है... अब सो जाना चाहिए। रात के 2:00 बज गए हैं और कल सुबह हमारा कॉलेज भी है।”
    यह कहकर शिवानी बिस्तर पर लेट जाती है।

    दिव्या को कुछ समझ नहीं आ रहा था। वह भी चुपचाप उसके बगल में लेट जाती है।
    गहरी सांस लेते हुए कहती है, “मां... कड़ियों को सुलझाकर इस खडूस शेखावत को बता दूंगी कि मेरी बहन निर्दोष है।”
    यह कहकर वह अपनी आंखें बंद कर लेती है।

    अब रात अपनी चरम सीमा पर थी। थोड़ी देर बाद सुबह का सवेरा होने वाला था।
    सूरज की पहली किरण के साथ घर में हर कोई उठ जाता है... पर दिव्या अभी भी चादर ताने सो रही थी।

    तभी किसी का एहसास उसे होता है।
    कोई उसके सिर से उसका कंबल खींच रहा था।
    दिव्या धीरे से कहती है, “सृष्टि दी... सोने दीजिए ना, अभी तो वक्त है।”

    अचानक दिव्या को अपने ऊपर ढेर सारा पानी महसूस होता है, और वह चौंककर उठ बैठती है।
    “बचाओ... बचाओ! बाढ़ आ गई क्या?”
    गहरी सांस लेते हुए सामने देखती है तो अर्जुन खड़ा था।

    अर्जुन गुस्से में दिव्या की तरफ देखते हुए कहता है, “यह तुम्हारा मायका नहीं, ससुराल है! यहाँ खासकर औरतें सूरज निकलने से पहले उठ जाती हैं।
    अगर तुम भी रीति-रिवाज को जल्दी मान लोगी, तो अच्छा रहेगा।
    जल्दी से तैयार होकर नीचे आओ!”
    यह कहकर अर्जुन वहां से चला जाता है।

    दिव्या, खुद पर पानी साफ करते हुए बड़बड़ाती है, “इस अकड़ू शेखावत को कोई तो समझाओ... सुबह की नींद कितनी प्यारी होती है।”

    दिव्या अपने बिस्तर से उठकर खड़ी ही हुई थी कि दादी सा उसके कमरे में आ जाती हैं।
    दिव्या, सिमरन को देखते ही आस-पास चुनरी ढूंढने लगती है।
    आगे बढ़कर दादी सा के पैर छूते हुए कहती है, “हम सॉरी दादी... चुन्नी नहीं मिल रही।”

    दादी मुस्कुराते हुए कहती हैं, “इट्स ओके बेटा। पर तुम सुबह-सुबह भीग कैसे गईं? नहाना था तो वॉशरूम में चली जातीं!”

    तब तक सिमरन भी मुस्कुराते हुए बोलती है, “हाँ भाभी... बेड पर तूफान आया था क्या?”

    दिव्या हँसते हुए कहती है, “तूफान नहीं... पर आपके भाई आए थे — ओ अकड़ू शेखावत... मतलब अर्जुन जी।”

    दादी हँसते हुए कहती हैं, “कोई नहीं बेटा, आज तुम्हारी पहली रसोई है। ये कपड़े पहन लो और नीचे आ जाओ।”

    “दादी, पर मेरा लगेज तो आया ही नहीं... मैं क्या पहनूँ?”

    “बेटा, तुम चिंता क्यों कर रही हो? तुम शेखावत खानदान की बहू हो।”

    दादी के कहने पर सिमरन एक थाल लेकर अंदर आती है।
    दादी थाल पर से कपड़ा हटाती हैं — उसमें साड़ी और श्रृंगार का पूरा सामान रखा हुआ था।

    दादी थाल आगे रखते हुए कहती हैं, “जल्दी से रेडी होकर नीचे आ जाओ। आज सब तुम्हारे हाथ का ही खाना खाएँगे, सब तुम्हारा इंतजार कर रहे हैं।”
    यह कहकर दादी वहां से चली जाती हैं।

    सिमरन बोली, “भाभी, आप अपने कमरे में तैयार हो जाइए। मुझे कॉलेज के लिए लेट हो रहा है, तो मैं यहीं तैयार हो रही हूँ।”

    “पर सिमरन... मेरी बात तो सुनो…”

    पर सिमरन वॉशरूम में घुस जाती है।

    दिव्या चिढ़ते हुए कहती है, “नहीं! फिर से उस अकड़ू सिंह का चेहरा देखना पड़ेगा…”
    वह अपना सामान उठाकर अपने कमरे की ओर चली जाती है।

    वह दरवाजे पर धीरे से दस्तक देती है। अंदर कोई नहीं था।
    गहरी सांस लेते हुए कहती है, “चलो अच्छा है, अंदर कोई भी नहीं है।”
    जल्दी से वॉशरूम की तरफ भागती है और नहा कर बाहर आती है।

    उसने बाथरॉब पहना था और बालों में टॉवल लपेटे हुए थी।
    बाल सुखाते हुए टॉवल को नीचे रखती है।
    पास रखी साड़ी उठाकर पहनने की कोशिश करती है... पर साड़ी पहनी नहीं जा रही थी।

    आईने में खुद को देखते हुए बोली, “अब... अब कैसे पहनूं मैं यह साड़ी? मुझे तो साड़ी बांधना भी नहीं आता!”

    वह अपने आप में उलझी हुई थी कि अर्जुन अंदर आ रहा था।
    वह एक पल के लिए वहीं रुक जाता है।

    दिव्या की धूप में चमकती कमर, उसके उलझे बाल और साड़ी से खेलने का अंदाज — अर्जुन को मंत्रमुग्ध कर देता है।

    अर्जुन दो पल के लिए खुद को रोकता है और फिर कहता है, “अगर तुम्हारा बचपना खत्म हो गया हो, तो नीचे आओ... सब तुम्हारा इंतजार कर रहे हैं।”

    दिव्या धीरे से कहती है, “मुझे साड़ी पहननी नहीं आती... मैं कैसे जाऊंगी?”

    अर्जुन मुस्कराता है, “अच्छा... बोलना तो आता है!”

    दिव्या, अर्जुन को करीब आते देख पीछे हटती हुई कहती है, “देखिए... दूर रहिए। मैं कुछ उठाकर मार दूंगी, आपका सिर फट जाएगा!”

    अर्जुन और करीब आकर उसकी उंगली उसके होंठों पर रखता है।
    धीरे से साड़ी उठाकर, पीछे से लपेटना शुरू करता है।
    प्लेट्स बनाता है, दिव्या को अपने करीब लाकर उसकी कमर में उन्हें लगाता है।
    पल्लू तैयार करके उसके कंधे पर सजाता है और पिन लगाते समय उसके कंधे के तिल को देखता है।

    वह अपने हाथों को उस तिल की ओर ले ही जा रहा था कि दिव्या पीछे हटते हुए कहती है, “हो गया! अब मैं खुद कर लूंगी।”

    पर अर्जुन उसे फिर से खींचकर अपने करीब लाता है,
    उसके गर्दन के पास झुकते हुए कहता है, “मिस शेखावत, आप नहीं कर पाएंगी…”

    अर्जुन की गर्म सांसें दिव्या को मदहोश कर रही थीं।
    एक पल के लिए वह उसमें खो जाती है।

    फिर अर्जुन पास रखे मंगलसूत्र को उठाकर दिव्या के गले में पहनाता है।
    सिंदूर भरते हुए मुस्कुराता है और कहता है, “हो गया, मिस दिव्या... अब आप नीचे जाने के लिए तैयार हैं।”

    दिव्या, अर्जुन की नज़दीकियों से घबराई हुई, उसे दूर करते हुए कहती है, “दूर रहिए! मुझे आपके इतने पास आने की आदत नहीं है।
    अगर दोबारा कोशिश की, तो मैं सच में आपको पीट दूंगी!”

    यह कहकर दिव्या वहां से चली जाती है।
    उसके जाते ही अर्जुन मुस्कुराता है और बड़बड़ाता है,
    “लड़की, तुमने खुद मुझे अपना चुना है।
    अब भुगतना तो पड़ेगा!
    आज की रसोई... तुम जिंदगी भर नहीं भूलोगी।
    तुम्हारा ऐसा हाल करूंगा कि तिल-तिल कर पछताओगी कि तुमने मुझसे शादी क्यों की!”

  • 7. - Chapter 7 पहली रसोई

    Words: 1056

    Estimated Reading Time: 7 min

    दिव्या सीढ़ियों से होते हुए नीचे हॉल की तरफ आ रही थी। दिव्या को आता देख अर्जुन एक पल के लिए उसमें खो सा जाता है। दिव्या ने लाल रंग की साड़ी पहन रखी थी — उसके खुले बाल और वह साड़ी में लहराती हुई चल रही थी। यह देखकर अर्जुन हल्का सा मुस्कुराता है।

    अर्जुन को मुस्कुराते देख समर्थ हँसते हुए कहता है, “लो भाभी आ गई!”
    अर्जुन को तुरंत एहसास हो जाता है और वह खुद को दूसरी तरफ घुमा लेता है।
    जाते-जाते दिव्या को देखते हुए कहता है, “आज मेरी बच्ची... किसी की नजर न लगे तुझे! कितनी प्यारी लग रही है।”

    शिवानी और सिमरन दौड़कर दिव्या के पास जाती हैं, उसे संभालते हुए सीढ़ियों से नीचे लेकर आती हैं।
    दादी के पास आकर वह उनके पैर छूती है और धीरे से कहती है, “आई एम सॉरी दादी... मुझे साड़ी बाँधनी नहीं आती, इसलिए थोड़ा लेट हो गया... और मैं इसमें चल भी नहीं पा रही हूँ।”
    “कोई नहीं बेटा,” दादी हँसते हुए कहती हैं, “शुरू-सुरू में होता है... धीरे-धीरे सब सीख जाओगी।”

    फिर दादी मुस्कुराते हुए कहती हैं, “सुनो! आज सबके लिए तुम्हें खाना बनाना है... शादी के बाद पहली रसोई है! सबसे पूछ लो जिसे जो खाना हो, वो बना देना।”
    दिव्या पास रखे पेन और पेपर को उठाती है और सबकी फरमाइशें लिखने लगती है।

    अर्जुन, दिव्या को देखकर मुस्कुराते हुए कहता है, “बहुत शौक है न पत्नी बनने का... अब समझ आएगा!”
    फिर धीमे से कहता है, “मेरी पसंद नहीं पूछोगी, मिस शेखावत?”
    दिव्या अर्जुन की तरफ घूर कर देखती है, “जी बताइए... क्या खाएँगे आप? मखनी पुलाव, दही बड़े, खीर... या फिर आलू के पराठे?”
    अर्जुन हँसते हुए कहता है, “ये सब तो घरवालों के लिए है, मिस शेखावत! मुझे तो पुलाव और गट्टे की सब्ज़ी चाहिए... और मीठे में खीर चलेगा।”

    दिव्या सबकी फरमाइशें लिखकर किचन की तरफ जाती है।
    दादी शिवानी और सिमरन से कहती हैं, “जाकर उसकी हेल्प कर दो।”

    तभी ऊपर से आवाज आती है — “कोई कहीं नहीं जाएगा!”
    हर कोई सीढ़ियों की तरफ देखने लगता है... मीरा जी वहाँ खड़ी होती हैं।
    मीरा धीरे-धीरे नीचे आती हैं, “मम्मी जी, घर की बहू है वो! पहली रसोई है उसकी। उसे यह सब अकेले करना पड़ेगा। और वैसे भी... किसने कहा था इसे अपनी बहन की जगह लेने के लिए? अब जब जगह ली है... तो सारी ज़िम्मेदारी भी उठाए!”

    दिव्या मीरा की तरफ बढ़ती है, उनके पैर छूने वाली होती है... लेकिन मीरा अपने पैर पीछे खींच लेती हैं और डाइनिंग टेबल की तरफ चली जाती हैं।
    यह देखकर दिव्या अपने हाथ मोड़ लेती है, उदास हो जाती है।
    उसकी आँखों में आँसू आ जाते हैं। वह धीरे से कहती है, “काश... मैं आप सबको बता पाती... मैंने ऐसा क्यों किया।”

    दिव्या किचन की तरफ चली जाती है।
    दादी मीरा से कहती हैं, “बहू, गुस्सा छोड़ दो... अब जो होना था, हो गया। वो अर्जुन की पत्नी है और इस घर की बहू भी। तुम्हें थोड़ा सा तो उसे समझना पड़ेगा।”
    मीरा सख्ती से कहती हैं, “मम्मी जी, आपने उसे बहू माना है... मैं नहीं! और न ही वो कभी मेरी बहू बन पाएगी। मेरे लिए तो सृष्टि ही अर्जुन की पत्नी थी, है... और हमेशा रहेगी!”

    अर्जुन दाँत पीसते हुए कहता है, “माँ! कितनी बार आपसे कहा है... सृष्टि अब मेरी पत्नी नहीं है! दिव्या मेरी पत्नी है... और अब उससे मेरी शादी हो चुकी है। सृष्टि को भूल जाइए... इसमें सबकी भलाई है।”

    मीरा कुछ पल के लिए शांत हो जाती है।

    इधर किचन में दिव्या फरमाइशों की लिस्ट देख रही थी।
    वह परेशान होकर बड़बड़ाने लगती है, “प्यार... मैंने आज तक कभी किचन में कदम नहीं रखा। और अब इन्होंने इतना कुछ बोल दिया! मैं बनाऊँगी कैसे?”

    दिव्या आसपास रखे मसालों को देखती है... गहरी साँस लेती है, “यह मुझसे नहीं होगा... पर अब क्या करूँ?”
    “हाँ! मेरा फोन! अभी तो मेरे पास फोन है... इंटरनेट बाबा जिंदा है ना! वो मुझे सब बता देंगे!”

    वह जल्दी से फोन निकालकर रेसिपी सर्च करने लगती है... तभी मीरा पास आ जाती हैं, “सोचना भी मत कि तुम फोन से देखकर बनाओगी!”
    “अगर ऐसा किया... तो इस घर से धक्के मार कर निकाल दूँगी!”
    ये कहकर मीरा उसका फोन छीन लेती हैं।
    दिव्या मायूस होकर उसे जाते हुए देखती है... उसकी आँखों में आँसू आ जाते हैं।

    वह कोने में जाकर बैठ जाती है और रोते हुए कहती है, “आई एम सॉरी पापा... सॉरी दी... मुझे आप लोगों की बहुत याद आ रही है! दी... मुझे माफ कर दो!”

    तभी खिड़की से आवाज आती है — “म्याऊँ!”

    दिव्या को लगता है कोई बिल्ली है। वह आँसू पोंछते हुए बेलन उठाती है और खिड़की की तरफ जाती है।
    वह बेलन घुमाने ही वाली थी कि अचानक—

    “अरे भाभी! क्या कर रही हो? सिर फोड़ना है मेरा?”
    “समर भाई! आप यहाँ क्या कर रहे हैं?”
    “देखिए... मैं आपकी हेल्प करने आया हूँ। मुझे पता है, आपको खाना बनाना नहीं आता।”
    “आपको किसने बताया?”
    “बस पता है... ये लीजिए!”
    “क्या?”
    “अरे यार, ये ईयरबड्स कान में लगा लीजिए! आप बस बोलते जाना... मैं रेसिपी इंटरनेट पर सर्च करके बताता जाऊँगा। और आप जल्दी-जल्दी बना लेना!”

    ये सुनते ही दिव्या हल्का सा मुस्कुरा देती है और ईयरबड्स कान में लगाकर किचन में लग जाती है।

    “भाईसाहब, मुझे मसाले समझ नहीं आ रहे...”
    समर मुस्कुराते हुए कहता है, “कोई बात नहीं! पहले मसाले एक साइड रखिए... पहले प्याज काटिए, टमाटर काटिए, सब्जियाँ काटिए!”

    दिव्या सब्जियाँ काटती है... जैसे-तैसे, उल्टी-सीधी ही सही, लेकिन काट देती है।

    “हो गया भाईसाहब! सारी सब्जियाँ कट गईं।”
    “बढ़िया! अब कड़ाही चढ़ाइए... तेल डालिए... और जैसा-जैसा मैं बता रहा हूँ, वैसा-वैसा करती रहिए।”

    दिव्या जल्दी-जल्दी कड़ाही में बताए गए मसाले डालती है।
    दूसरी गैस पर खीर बनानी शुरू करती है... दूध रखती है, चावल धोकर डालती है।

    खाने की खुशबू बहुत अच्छी आ रही थी यह देखकर दिव्या मुस्कुराते हुए कहती है चलो खाना तो बन गया थैंक यू समर भाई खाना ऑलमोस्ट बन गया है किचन से बाहर की तरफ जाती है तब तक मेरा धीरे से किचन के अंदर आते हुए किचन में बने खाने को देखकर के हैरान थी वह दांत पीसते हुए कहती है की लड़की कम नहीं है इसलिए इतनी जल्दी इतनी खाने को कैसे बना लिया और पास पड़े नमक के डब्बे को उठाकर के खीर में डालते हुए मुस्कुरा कर कहती है तुझे इस घर से मैं इतनी जल्दी भगाऊंगी की तूने सोचा भी नहीं होगा

  • 8. - Chapter 8 पूरा खीर खाओ ...! वरना हाथ कट दूंगा

    Words: 1017

    Estimated Reading Time: 7 min

    मेरा फिर से चारों तरफ देखती है और किचन से बाहर निकल जाती है। उसके बाहर जाते ही दिव्या अंदर आती है। वह सारे सामान को देखकर मुस्कुराते हुए कहती है,
    "चलो अच्छा है, सारा खाना बन गया!"

    यह कहते हुए वह खाना उठाती है और डाइनिंग टेबल की ओर ले जाती है। दादी, उसे अपनी ओर आते देख, मुस्कुराकर कहती हैं,
    "शाबाश! तुमने खाना बना लिया?"

    दिव्या धीरे से "हाँ" में सिर हिलाती है।
    "ठीक है, फिर सबको परोस दो।"

    दिव्या सबके अनुसार सबके लिए खाना परोसती है। हर कोई खाना खाने के बाद चौंक जाता है, क्योंकि खाना वाकई में बहुत अच्छा बना था।

    मेरा यह देख कर दाँत पीसते हुए कहती है,
    "पर... ऐसा कैसे हो सकता है? मैं तो खाने में..."

    दिव्या मुस्कुराते हुए बोलती है,
    "मम्मी जी, मैं आपकी ही बहू हूँ। मुझे पता था कि आप कुछ ऐसा ही करेंगी। इसलिए मैंने पहले ही जुगाड़ लगा लिया था!"

    (फ्लैशबैक शुरू)

    मीरा जैसे ही किचन से निकलती है, दिव्या अंदर आती है। उसे कुछ गड़बड़ लगती है। वह देखती है कि नमक के डब्बे खुले हैं और मिर्च पाउडर भी फैला है। वह सब्जी उठाकर टेस्ट करती है—नमक बहुत ज्यादा और मिर्च भी तेज!

    दिव्या परेशान होकर कहती है,
    "अब मैं क्या करूं? इन्होंने तो सारा खाना ही बिगाड़ दिया!"

    तभी दिव्या को एक आइडिया आता है।
    "अरे हाँ! हॉस्टल में वार्डन देखा था—जब भी नमक तेज होता था, वह आटा गूंथकर सब्जी में डाल देती थीं!"

    दिव्या झट से आटे की लोई बनाकर सब्जी में डालती है, और मिर्च कम करने के लिए उसमें घी भी मिला देती है। अब स्वाद संतुलित हो चुका है।

    वह मुस्कुरा ही रही थी कि तभी अर्जुन टेबल से उठकर खीर का कटोरा उठाता है और उसे अपने कमरे में ले जाता है।

    दादी मुस्कुराकर कहती हैं,
    "अरे भाई! हमें पता है खाना अच्छा बना है, तो क्या इसका मतलब हमें खाने नहीं दोगे? खीर हमें भी खाना है!"

    अर्जुन धीरे से कहता है,
    "मेरी बीवी ने बनाया है। मैं अकेले खाऊँगा!"

    यह कहकर वह कमरे में चला जाता है।

    दिव्या हँसते हुए कहती है,
    "आओ, लगता है खडूस शेखावत को मेरी खीर पसंद आ गई। कोई ना, अच्छी बात है—खा लो, खा लो खडूस शेखावत! एक दिन ऐसा खाना खिलाऊँगी कि सीधे स्वर्गवासी हो जाओगे!"

    हर कोई खाना खाकर दिव्या को नेक देता है। लेकिन मीरा उठकर अपने टेबल से जाने लगती है।

    दादी धीरे से कहती हैं,
    "क्या हुआ बहू? अपनी बहू को नेक नहीं दोगी? उसकी आज पहली रसोई थी!"

    मीरा दाँत पीसते हुए, अपने हाथ से कंगन निकालकर दिव्या के हाथ पर रख देती है और वहाँ से चली जाती है।

    दिव्या दौड़कर दादी के पास जाती है और गले लगते हुए कहती है,
    "दादी! मैंने ही कल दिखाई थी... सारा खाना मैंने ही बनाया था!"
    फिर समर की ओर देखकर कहती है,
    "भाई, थैंक यू सो मच! आज आपकी वजह से ही सब हो पाया है।"

    समर मुस्कुराकर कहता है,
    "भाभी सा, आपकी नेक में मेरा भी हक है। मेरा हिस्सा दीजिए!"

    दिव्या चिढ़कर बोलती है,
    "नहीं-नहीं! आपने तो बस बताया... सारी मेहनत मैंने की, तो यह मैं ही रखूंगी!"
    यह कहकर वह मुस्कुराने लगती है।

    समर भी मुस्कुराकर कहता है,
    "भाभी, आप चिंता मत करिए... आपके साथ आपका ये भाई हमेशा रहेगा!"

    यह सुनकर दिव्या की आँखें भर आती हैं। वह अपने आँसुओं को छिपाते हुए वहाँ से चली जाती

    (अर्जुन का कमरा)

    दिव्या कमरे में जाकर देखती है कि अर्जुन लैपटॉप पर कुछ काम कर रहा है। बगल में खीर का कटोरा रखा हुआ है।

    दिव्या पास जाकर कहती है,
    "क्या हुआ? खीर पसंद आई क्या जो पूरा कटोरा लेकर यहाँ आ गए? और जब लाए हैं, तो खाओ भी... या सिर्फ देखने के लिए रखा है?"

    अर्जुन दाँत पीसते हुए दिव्या के पास आता है। उसके बाल कसकर पकड़ते हुए कहता है,
    "अभी बताता हूँ! इसलिए यहाँ लाया हूँ!"

    दिव्या चिल्लाकर कहती है,
    "छोड़िए! दर्द हो रहा है मुझे!"

    अर्जुन गुस्से में बोलता है,
    "होने दो दर्द!"
    यह कहकर वह दिव्या को टेबल की ओर धक्का दे देता है। दिव्या खीर के पास गिर जाती है। अर्जुन पास में पड़ा चाकू उठाता है और कहता है,
    "खीर खाओ!"

    दिव्या डरी हुई अर्जुन की ओर देखती है। अर्जुन चाकू को दिव्या की उंगलियों के बीच पटकने लगता है और चिल्लाता है,
    "मैं कह रहा हूँ—खीर खाओ! वरना इन हाथों को काट दूँगा!"

    डर के मारे दिव्या खीर खाने लगती है। जैसे ही पहला निवाला खाती है, उसका मुँह बिगड़ जाता है।

    "खीर में तो बहुत नमक है!"

    अर्जुन चिल्लाता है,
    "अब समझ आया? मेरे घरवालों को नमक वाली खीर खिलाना चाहती थी ना? इस पूरी खीर को अब तुम ही खाओगी! और अगर एक कौर भी छोड़ा, तो आज तुम्हारा हश्र ऐसा करूंगा कि सपने में भी नहीं सोचोगी!"

    वह चाकू को और तेजी से हिलाने लगता है। दिव्या डरते हुए ज़बरदस्ती पूरी खीर खा जाती है। उसे उल्टी आ रही होती है, पर वह खाती जाती है।

    अर्जुन वहाँ से चला जाता है। दिव्या भागकर बेसिन की ओर जाती है और उल्टियाँ करने लगती है।

    लगातार उल्टियाँ करने के बाद दिव्या की हालत खराब हो जाती है। वह फर्श पर बैठकर ज़ोर-ज़ोर से रोने लगती है।

    "अर्जुन शेखावत! इस सब का बदला मैं तुमसे ज़रूर लूँगी!"

    उसके हाथ में जगह-जगह चाकू के कट लगे होते हैं, खून बह रहा होता है। वह फर्स्ट एड किट उठाकर खुद की पट्टियाँ बाँधती है।

    दर्द से कराहती दिव्या सोचती है,
    "दीदी... अगर आप यहाँ होतीं, तो अर्जुन आपको छू भी नहीं पाता। पर मैं आपको इस हालत में नहीं देख सकती। आपके लिए... और पापा के लिए मैं किसी भी हद तक जा सकती हूँ। तो ये दर्द क्या चीज़ है!"


    अर्जुन शेखावत हर एक दर्द का हिसाब लूंगी मैं तुमसे एक है करो अपने आंसू को पूछता है और गुस्से में वहां से चली जाती है और बाहर आकर के देखी है तो सिमरन और शिवानी उसका इंतजार कर रही थी उसको देखते हुए वह अपने आंखों में आए आंसू को छुपाते हुए अपने मुंह को साफ करती है दिव्या की ऐसी हालत देखकर के शिवानी और सिमरन एक दूसरे को देखते हुए कहते हैं भाभी क्या हुआ आपको...?

  • 9. - Chapter 9 उस लड़के से दूर रहो

    Words: 1090

    Estimated Reading Time: 7 min

    "क्या हुआ, भाभी? आपके चेहरे पर आँसू क्यों हैं?" शिवानी ने धीमे स्वर में पूछा, जब उसने दिव्या की भीगी आँखें देखीं।

    दिव्या ने हल्का सा मुस्कुराते हुए कहा, "अरे... कुछ नहीं। बस घरवालों की याद आ रही थी, इसलिए रोने लगी।"

    शिवानी ने समझते हुए उसका हाथ थामा। तभी समर बोला, "भाभी, मैं और शिवानी समर भैया के साथ निकल रहे हैं। आप अर्जुन भैया के साथ गाड़ी में आ जाइए।"

    दिव्या झट से पीछे हटती है, "क्या? नहीं! उनके साथ नहीं जाऊँगी। हम भी आप लोगों के साथ चलेंगे।"

    शिवानी ने धीरे से समझाया, "भाभी, वो आपके हसबैंड हैं। आपको जाना ही पड़ेगा उनके साथ।"

    एक पल को दिव्या की आँखों में डर चमक उठा... लेकिन खुद को सँभालते हुए उसने गहरी साँस ली और कहा, "ठीक है।"

    बाहर अर्जुन कार में दिव्या का इंतज़ार कर रहा था। समर, शिवानी और सिमरन एक और कार से निकल जाते हैं। अर्जुन ने कार का हॉर्न बजाया।

    दिव्या चुपचाप चलती हुई पीछे की सीट पर बैठने ही वाली थी कि अर्जुन गुस्से से चिल्लाया,
    "मैं तुम्हारा ड्राइवर नहीं हूँ जो पीछे बैठ रही हो!"

    दिव्या ने चुपचाप पीछे का गेट बंद किया और आगे वाली सीट पर आकर बैठ गई। उसका चेहरा उदासी से भरा हुआ था... आँखें सूजी हुई थीं। वह बाहर देखने लगी।

    अर्जुन ने एक पल के लिए उसकी तरफ देखा... दर्द उसके चेहरे पर साफ झलक रहा था। बिना कुछ बोले वह कार स्टार्ट करता है और तेज़ रफ़्तार से शॉपिंग मॉल की तरफ बढ़ता है।

    मॉल के सामने पहुँचकर दिव्या चुपचाप उतर गई। अंदर जाकर वह सिमरन, समर और शिवानी को ढूँढने लगी। तभी उसकी नज़र मॉल के कोने की तरफ गई, जहाँ शिवानी एक अनजान लड़के के साथ खड़ी बात कर रही थी।

    लड़के ने घुटनों के बल बैठकर उसके सामने एक गुलाब बढ़ा दिया।

    शिवानी मुस्कुरा दी... और उस गुलाब को ले लिया।

    दूर खड़ी दिव्या की साँसें तेज़ हो गईं। तभी उसकी नज़र सामने आती अर्जुन पर पड़ी। वह मन ही मन बोली,
    "अगर अर्जुन ने शिवानी को इस हाल में देख लिया, तो वह उसे ज़िंदा नहीं छोड़ेगा!"

    वह भागते हुए शिवानी के पास पहुँची, उसके हाथ से गुलाब लिया और फुसफुसाकर कहा, "तुम्हारा भाई आ रहा है!"

    शिवानी की आँखें डर से फैल गईं। वह घबराकर लड़के की तरफ देखने लगी,
    "ऋषि, तुम जाओ यहाँ से! अगर भाई ने देख लिया, तो तुम्हें ज़िंदा मार देंगे!"

    तभी अर्जुन वहाँ पहुँच गया। उसने दिव्या के हाथ में गुलाब देखा और तीखी नज़रों से उसे घूरने लगा।

    दिव्या हल्की मुस्कान के साथ गुलाब को शिवानी के बालों में लगाते हुए बोली,
    "ये तुम्हारे बालों में बहुत प्यारा लग रहा है। तुम कब से लगा नहीं पा रही थी... लो अब लग गया। चलो, कुछ कपड़े खरीदने हैं।"

    अर्जुन कुछ नहीं बोला, पर उसकी आँखों में शक और गुस्से की लहर दौड़ चुकी थी।

    थोड़ी दूर आकर शिवानी ने धीरे से कहा,
    "थैंक यू भाभी... आपने मुझे बचा लिया, वरना भैया तो ऋषि को मार ही डालते।"

    "उसे यहाँ बुलाया क्यों?" दिव्या ने थोड़ा सख्ती से पूछा।

    "बहुत दिन हो गया था उससे मिले। सोचा था, मिल लूँ। वैसे भी... वो लड़का है कौन?"

    "ऋषि, हमारे राइवल रिवॉल्वरिस कपूर का बेटा है।"

    "क्या तुम्हारे भाई को ये पता है?"

    "नहीं भाभी! वो कपूर से नफरत करते हैं। अगर गलती से भी उन्हें पता चल गया कि मैं ऋषि से प्यार करती हूँ, तो... वो उसे ज़िंदा नहीं छोड़ेंगे। और मेरा भी वही हाल करेंगे। प्लीज़ भाभी, आप भैया को कुछ मत बताइए।"

    "डरो मत। मैं कुछ नहीं बताऊँगी।" दिव्या ने उसे ढाढ़स बंधाया।

    उधर सिमरन, समर और शिवानी दिव्या के लिए कपड़े चुन रहे थे। दिव्या को गले में बहुत दर्द हो रहा था। उसकी नज़र दूर खड़ी आइसक्रीम शॉप पर जा टिकी।

    उसका मन आइसक्रीम खाने का था... पर परिस्थिति की मजबूरी ने उसे चुप कर रखा था।

    दूर खड़ा अर्जुन यह सब देख रहा था। उसने पास आती सिमरन से कहा,
    "सुनो, अपनी भाभी को जाकर आइसक्रीम दे दो।"

    सिमरन दुकान से आइसक्रीम लाकर दिव्या को देती है।

    दिव्या हल्की मुस्कान के साथ आइसक्रीम खाने लगती है। पहला निवाला लेते ही उसके गले को ठंडक मिलती है।

    "तुम्हें कैसे पता कि मुझे आइसक्रीम चाहिए थी?" वह आश्चर्य से पूछती है।

    "भाभी, भैया ने बताया था।"

    दिव्या चौंककर अर्जुन की तरफ देखती है... नज़रों में सवाल, मन में उलझन...

    "पहले खुद दर्द दो, फिर उसी पर दवा भी लगा दो...? वाह!" वह मन में बुदबुदाती है।

    फिर वह अचानक आइसक्रीम को कचरे के डिब्बे में फेंक देती है और वहाँ से चली जाती है।

    सिमरन हैरान रह जाती है, "अभी तो बड़े मज़े से खा रही थी!"

    उधर शिवानी और ऋषि बात कर रहे थे, तभी अर्जुन उनकी ओर बढ़ता है।

    दिव्या उसे आता देख झट से आगे बढ़ती है और शिवानी को धक्का देकर चेंजिंग रूम में भेज देती है।

    फिर वह ऋषि से बात करने लगती है, ताकि अर्जुन को शक न हो।

    लेकिन अर्जुन गुस्से में भरा हुआ उसकी ओर आता है और गरजकर कहता है,
    "तुम यहाँ क्या कर रहे हो? और तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मेरी पत्नी से बात करने की!"

    ऋषि घबरा जाता है।

    दिव्या अर्जुन का हाथ झटकते हुए कहती है,
    "दूर रहिए! ऋषि मेरा दोस्त है। और अब क्या मुझे अपने दोस्तों से बात करने के लिए आपकी परमिशन लेनी पड़ेगी?"

    अर्जुन का गुस्सा सातवें आसमान पर था। वह दिव्या का हाथ कसकर पकड़ लेता है और कहता है,
    "तुम इससे बात नहीं करोगी! और तुम्हारे लिए अच्छा होगा अगर मुझसे दूर रहो!"

    दिव्या का हाथ दर्द से जलने लगा था।

    "छोड़िए मेरा हाथ! मुझे दर्द हो रहा है!" वह चीखती है।

    अर्जुन उसकी बात अनसुनी करते हुए उसे और करीब खींचता है,
    "मुझे फर्क नहीं पड़ता! अगर दोबारा इस लड़के के साथ दिखी, तो तुम्हें ज़िंदा नहीं छोड़ूँगा!"

    दिव्या गुस्से से काँपते हुए उसे धक्का देती है,
    "जो करना है कर लीजिए! लेकिन मैं आपकी वजह से अपनी फ्रेंडशिप नहीं खत्म करूँगी!"

    अर्जुन घूरकर ऋषि की तरफ देखता है। ऋषि चुपचाप वहाँ से चला जाता है।

    तभी शिवानी चेंजिंग रूम से बाहर आती है। वह दौड़ती हुई दिव्या के पास जाती है।

    "भाई, ये क्या कर रहे हैं! उसकी चोट लग जाएगी!" वह अर्जुन से कहती है।

    शिवानी, दिव्या का हाथ छुड़ाकर उसे वहाँ से ले जाती है।

    आगे जाकर वह रुकी और भावुक होकर बोली,
    "I’m sorry भाभी... आपने एक बार फिर मुझे बचा लिया। Thank you so much! मेरी वजह से भाई आप पर गुस्सा हो गए..."

    दिव्या ने फीकी मुस्कान के साथ कहा,
    "कोई बात नहीं शिवानी... वैसे भी तुम्हारे भाई को 'प्यार' शब्द और उसका मतलब दोनो नहीं पता

  • 10. - Chapter 10 उतरन ली हुए दुल्हन

    Words: 1002

    Estimated Reading Time: 7 min

    यहाँ
    दिव्या, शिवानी और समर — तीनों हँसते-हँसते शॉपिंग की बातें करते हुए घर में प्रवेश करने ही वाले थे कि तभी एक तीखी, कठोर आवाज़ हवा में गूंज उठी।

    "वहीं रुक जाओ! एक कदम भी अंदर मत आना!"

    हर कोई अचानक सन्न रह गया। कदम ठिठक गए और चेहरों पर डर की झलक साफ दिखाई देने लगी।

    समर, सामने खड़ी औरत को देखकर सहमते हुए बुदबुदाया,
    "हे भगवान... बचा लेना आज तो!"

    शिवानी ने घबराकर दो कदम पीछे खींचे और फुसफुसाई,
    "अब तो हमारी फ्रीडम की वाट लग गई... भगवान, प्लीज़ दिव्या भाभी को बचा लेना।"

    सीढ़ियों से नीचे उतरती वह औरत — जिसकी उम्र लगभग पैंतालीस से ऊपर रही होगी — बेहद सख़्त लहजे और भारी कदमों के साथ आगे बढ़ रही थी। बनारसी साड़ी, कानों में टक्करों की झुमकी, छोटे कटे बाल, और पैरों में भारी मोती-जड़ी हिल्स — जिनकी टक-टक पूरे माहौल को कंपा रही थी।

    वह सीधे दिव्या के सामने आकर खड़ी हो गई। उसकी आंखें नफरत से जल रही थीं।

    "तो... तुम ही हो?" — उसने घूरते हुए कहा।

    दिव्या कुछ नहीं समझ पाई। उसने बस चुपचाप सिर झुका लिया।

    औरत फिर चिल्लाई —
    "हाँ, तुम ही हो! अपनी बहन की जगह बैठने वाली दुल्हन! उसकी उतरन पहनने वाली लड़की! तुम्हें शर्म नहीं आई अपनी बहन की ज़िंदगी बर्बाद करते हुए?"

    अब दिव्या का चेहरा पूरी तरह झुक गया था। वह कुछ भी नहीं कह सकी। फिर वही औरत — अब और ऊँची आवाज़ में — बोलने लगी:

    "क्या तुम्हें बड़ों का आदर करना भी नहीं आता? तुम्हारे बाप ने तमीज़ नहीं सिखाई? ओह हाँ... मैं तो भूल ही गई... तुम तो 'बिन माँ' की बेटी हो। तुमसे संस्कार की उम्मीद करना भी बेकार है।"

    दिव्या की आंखों में अब आँसू थे। उसने चुपचाप सिर पर पल्लू लिया और उसके पैर छूने के लिए झुकी, पर वह औरत झटके से पीछे हट गई।

    "रुक जा! मैं पवित्र हूँ! और मैं तुम्हें इस घर की बहू नहीं मानती। सबके पैर छूने से बहू नहीं बन जाती, बदतमीज़! अगर बहू बनी हो तो वो सब निभाना भी पड़ेगा जो एक बहू को करना चाहिए!"

    अब तक दिव्या का धैर्य टूट चुका था, फिर भी वह चुपचाप खड़ी रही।

    फिर औरत ने समर और शिवानी की ओर इशारा करते हुए कहा:

    "तुम दोनों ऊपर जाओ। मुझे बहूरानी से अकेले में बात करनी है।"

    शिवानी और समर सीढ़ियाँ चढ़ते हुए आपस में फुसफुसाए।
    शिवानी: "भगवान बचा लेना दिव्या भाभी को... ये औरत तो खा जाएगी!"
    समर: "एक ही इंसान है जो दिव्या को अभी बचा सकता है — अर्जुन! तू चल, मैं उसे बुला लाता हूँ।"

    और वह अर्जुन के कमरे की ओर भाग गया।

    नीचे, अब औरत — यानी लीलावती — दिव्या को घूरते हुए बोली:

    "मेरा नाम लीलावती है। इस घर की 'हुआ साहब' मैं हूँ। यहाँ मेरी ही मर्जी चलती है। पत्ते भी मेरी अनुमति से हिलते हैं। बहुरानी... या कहूँ अपनी बहन की जगह लेने वाली नौकरानी... इस घर की बहू बनना इतना आसान नहीं!"

    "क्या देख लिया अर्जुन में जो उससे शादी कर बैठी? अभी तो तू 19 की है, और वो...? उड़ने के ख्वाब देखने लगी थी? पैसे की कमी तो नहीं थी — किसी किराए के लड़के से भी शादी करवा देते! आजकल बहुत मिलते हैं ऐसे!"

    "बस करिए बुआ!" — यह आवाज़ तेज़ और सख्त थी।

    पीछे मुड़ते ही लीलावती ने देखा — अर्जुन खड़ा था। चेहरा गुस्से से तमतमाया हुआ।

    वह तेज़ी से आगे बढ़ा और कहा:

    "वह मेरी पत्नी है। उसकी बेइज्ज़ती मतलब मेरी। अगर आपने उसके खिलाफ एक शब्द भी और कहा या उसके चरित्र पर उंगली उठाई, तो मुझसे बुरा कोई नहीं होगा!"

    लीलावती तड़पते हुए बोली:
    "क्यों बेटा? अब भी कुछ कम किया है क्या? अपनी बहन का घर उजाड़ कर इस लड़की से शादी कर ली! क्या तू भी इसके हुस्न के जाल में फँस गया है?"

    दिव्या की आँखें भर आईं। वह रोने लगी।

    लीलावती (तानों से):
    "महारानी के मगरमच्छ के आँसू भी आ गए! लेकिन इससे कुछ नहीं होगा। जो किया है, उसका हिसाब तो देना ही पड़ेगा।"

    अर्जुन (गुस्से में):
    "बस! एक लफ्ज़ और... तो मैं भूल जाऊँगा कि आप मेरी बुआ हैं!"

    लीलावती:
    "तो अब इस लड़की के लिए मुझसे जुबान लड़ा रहे हो? भूल गए मैं तुम्हारे लिए क्या-क्या कर चुकी हूँ?"

    [अर्जुन शांत हो गया, और चुपचाप वहाँ से चला गया।]

    लीलावती ने उसके जाते ही मुस्कुराते हुए कहा:

    "देखा... उसका भी मेरे सामने कोई नहीं चलता!"

    वह फिर से दिव्या की ओर मुड़ी:

    "अगर इस घर में रहना है, तो मेरी बात माननी पड़ेगी। कल से नवरात्रि का व्रत शुरू है। और तुम... इस घर की बड़ी बहू हो! तुम्हें सारे नियम से व्रत करना होगा — 9 दिन तक भूखे रहना, सुबह उठकर भजन, आरती, सफाई — सब कुछ! और अगर एक भी दिन की चूक हुई, तो मुझसे बुरा कोई नहीं होगा!"

    दिव्या चुपचाप खड़ी रही। उसकी आंखों से आंसू बह रहे थे। चेहरा रोने से लाल हो चुका था।

    लीलावती वहाँ से चली गई।

    [अगला दृश्य: मंदिर]

    दिव्या रोती हुई अपने कमरे में गई, फिर सामान रखते ही सीधा नीचे मंदिर में चली आई। झाड़ू, पानी, कपड़ा — सब खुद उठाया और सफाई में लग गई।

    शिवानी और सिमरन, ये देखकर उसकी मदद के लिए आईं, लेकिन तभी लीलावती की आवाज़ आई:

    "वो इस घर की बहू है! वही करेगी!"

    डर के मारे दोनों पीछे हट गए।

    दिव्या अकेली पूरे घर की सफाई करती रही — मंदिर से लेकर हॉल तक। उसके हाथों में छाले पड़ चुके थे, दर्द सहना मुश्किल हो रहा था। फिर भी उसने काम नहीं रोका।

    थक कर बैठते हुए, वह एकटक सामने देखते हुए सोचने लगी:

    "दीदी... अगर आप होतीं, तो क्या होता? नहीं! मैं आपको कुछ नहीं होने दूँगी। चाहे जितना भी सहना पड़े, मैं सहूँगी। जब तक आपके दामन से लगा ये झूठा दाग मिटा नहीं देती... मैं इस घर से कहीं नहीं जाऊँगी!"

    .. ।. . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . .

  • 11. - Chapter 11 अनिरुद्ध का आना दिव्या के लिए मुसीबत खड़ी करना

    Words: 1245

    Estimated Reading Time: 8 min

    दिव्या, पूरे घर की सफाई में व्यस्त थी। पसीने से तर-बतर, पर चेहरे पर एक संतोष था कि कम से कम कुछ तो वह अपने हाथों से कर पा रही है। तभी— दरवाज़े पर ज़ोर की दस्तक होती है।

    वह फर्श पर झाड़ू लगाते-लगाते रुकती है, और दरवाज़े की ओर मुड़ती है।

    सामने एक लड़का खड़ा था। उसके हाथ में भारी लगेज था। काले रंग का स्टाइलिश चश्मा लगाए, लगभग छह फीट लंबा, गोरा, और बेहद स्मार्ट दिखने वाला — जैसे किसी फैशन मैगज़ीन से उतर आया हो।

    दिव्या उसे अनजाने में घूरती रही। लेकिन अगले ही पल उसकी आंखें फर्श पर चली गईं।

    लड़के के जूते के निशान फर्श पर फैल चुके थे।

    दिव्या चिल्ला उठी —
    "तमीज़ नहीं है क्या? दिखता नहीं? मैंने अभी-अभी पोंछा लगाया है… इतनी मेहनत बर्बाद कर दी तुमने! अंधे हो क्या? और वैसे भी, दिन में सनग्लासेस पहन कर कौन चलता है? क्या घर के अंदर भी धूप है?"

    तभी पीछे से एक और आवाज़ आई —
    "ऐ लड़की! जुबान संभाल कर! वो... मेरा बेटा है!"

    दिव्या चौक गई। उसने गुस्से में पीछे पलट कर देखा — लीलावती वहां खड़ी थीं।

    वह तेजी से आगे बढ़ीं और गुस्से से गरज पड़ीं —
    "तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मेरे बेटे से इस तरह बात करने की? अभी के अभी सॉरी बोलो! नहीं तो मैं तुम्हारी ज़ुबान खींच लूंगी!"

    लीलावती का चिल्लाना सुनकर मीरा दादी, शिवानी, समर और बाकी घरवाले भी वहाँ आ पहुँचे। दीनदयाल जी भी सीढ़ियों से नीचे उतरते हुए बोले:

    "ये क्या हो रहा है मेरे घर में? ये मछली बाजार थोड़ी है, मेरा घर है!"

    लीलावती तुरंत उनके पास जाकर रोने का नाटक करती हुई बोली —
    "भाई साहब, आप ही बताइए! इस लड़की ने मेरे बेटे को क्या-क्या सुना दिया! वो तो बेचारा बस लंदन से आया है... और आते ही इसका यह बर्ताव?"

    "मैंने तो कह दिया था, पूछ लेते — कोई नौकर भी कर लेता ये काम! इससे क्यों करवा दिया?"

    तभी वह लड़का — अनिरुद्ध — धीरे से बोला:
    "मम्मी, उसका भी दोष नहीं है। शायद मेरी वजह से गड़बड़ हो गई।"

    "चुप रहो अनिरुद्ध!" — लीलावती चिल्लाई —
    "तुम्हें तो आदत है सबका पक्ष लेने की! लेकिन मैं इस लड़की को माफ नहीं करूंगी!"

    मीरा दादी आगे आईं, और ठंडे स्वर में बोलीं —
    "दीदी, इस घर में आपकी इज्ज़त उतनी ही है जितनी भगवान की। आपकी बात कोई नहीं काटता। पर ये लड़की... इसे सज़ा तो मिलनी ही चाहिए।"

    मीरा, अब धीरे से दिव्या के पास आई। आँखें नफरत से भरी हुईं।

    "बिन माँ की लड़की है ना! कहाँ से सीखेगी इज़्ज़त देना? मर्दों को देख के तो फिसल जाती है! क्या पता... अनिरुद्ध को देख के भी फिसल गई हो?"

    दिव्या की आंखें भर आईं। मीरा की बातें उसके सीने में नश्तर की तरह चुभीं।

    मीरा (कठोर स्वर में):
    "अभी के अभी माफ़ी मांगो! हाथ जोड़कर!"

    दिव्या काँपते हुए अनिरुद्ध की ओर बढ़ी। हाथ जोड़ते हुए बोली:
    "माफ़ कीजिए अनिरुद्ध जी... मुझे नहीं पता था आप..."

    अनिरुद्ध, दिव्या को बस देखे जा रहा था। उसकी आँखों में कुछ था — न सज़ा, न गुस्सा — बल्कि एक अनकहा आकर्षण।

    धीरे से उसने दिव्या के हाथ थाम लिए और कहा —
    "अरे नहीं... It's okay. गलती मेरी भी थी। मुझे ऐसे नहीं आना चाहिए था।"

    लीलावती फिर भड़क उठीं:
    "बेटा! तू इतना दयालु बनने की ज़रूरत नहीं है! इस घर में रहने दे रहे हैं, वही बहुत है!"

    दिव्या सबकी बातें सुनकर बस रोती रही। उसकी आँखों से बहते आँसू जमीन पर गिरते गए।

    तभी दीनदयाल जी गरजे —
    "बहुत तेज़ चलती है जुबान! अब निकाल दूँगा सारी हेकड़ी! कल घर में सात पंडित आ रहे हैं! उन्हें चूल्हे पर बना कढ़ाई का खाना चाहिए — और वो भी ताज़ा मसालों से!"

    "हर एक चीज़ — मसाले, आटा, दाल — सब तुम पीसो गी, अपने हाथों से! और अगर किसी ने मदद की, तो मुझसे बुरा कोई नहीं होगा!"

    इतना कहकर वह चले गए। पीछे-पीछे मीरा और लीलावती भी मुस्कराते हुए चली गईं — जैसे युद्ध जीत लिया हो।

    समर, शिवानी और सिमरन, दिव्या के पास आए।

    शिवानी: "भाभी, I wish हम आपकी मदद कर पाते… पर पापा के सामने कुछ नहीं कर सकते।"

    समर: "पर घबराइए मत! कोई जुगाड़ निकालेंगे!"

    दिव्या (धीरे से):
    "नहीं… आप सब परेशान मत होइए। मैं नहीं चाहती कि मेरी वजह से आप सबको डाँट सुननी पड़े। मैं कर लूंगी..."

    वे तीनों चुपचाप पीछे हट गए।

    [किचन और दादी का कमरा]

    दिव्या की नजर किचन की ओर पड़ी।

    "दादी के दूध का वक्त हो गया है…" — उसने खुद से कहा।

    वह दूध गर्म करती है और चुपचाप दादी मीरा के कमरे में जाती है।

    दादी (धीरे मुस्कुराते हुए):
    "बहू, मैंने सोचा नहीं था मुझे इतनी प्यारी बहू मिलेगी। तुम्हें याद था मुझे दूध पीना है? इस घर में किसी को मेरी चिंता ही नहीं होती..."

    दिव्या:
    "अब मैं आ गई हूं ना दादी। आपका हर ख्याल रखूंगी। अच्छा… आप दूध खत्म कीजिए, मुझे थोड़ा काम है। फिर बैठती हूं आपके साथ।"

    दादी:
    "अरे रुक... कहाँ जा रही है? थोड़ा वक्त मेरे साथ भी बिता ले..."

    दिव्या (हल्के से मुस्कुराते हुए):
    "बस थोड़ा सा काम है दादी... करके आती हूं। फिर बैठकर ढेर सारी बातें करेंगे!"

    दादी (आशीर्वाद में):
    "जा बेटी… भगवान तुझे बहुत शक्ति दे!"

    दिव्या, फिर से अपने संघर्ष की ओर लौट पड़ती है — लेकिन इस बार उसकी आंखों में आंसू नहीं, एक जिद थी।



    बहुत ही भावुक मोड़ है यह आपकी कहानी का। नीचे दिए गए अंश को मैंने उपन्यास शैली में परिवर्तित किया है, भावनाओं, विराम चिह्नों और वातावरण के साथ, ताकि पाठक और गहराई से जुड़ सके:


    ---

    अध्याय — चांदनी, छाले और चुप्पी

    दिव्या, बालों को पीछे करते हुए गुस्से में बोली,
    "अभी जितना परेशान करना है कर लो… लेकिन एक बार मुझे सच्चाई का पता चल जाए… फिर मैं तुम सबको बताऊंगी कि मैं क्या चीज़ हूं!"

    ये कहते हुए वह किसी तूफ़ान की तरह सीढ़ियों की ओर बढ़ गई। उसका चेहरा दृढ़ था, आंखों में आंसू नहीं, बल्कि चुनौती की चिंगारियां थीं।

    वह सीधा अपने कमरे में गई और दरवाज़ा धीरे से बंद कर लिया। कमरे में हल्का-हल्का अंधेरा था। सिर्फ खिड़की से आती चांदनी अंदर फैल रही थी।

    दिव्या धीरे से खिड़की के पास गई, और वहीं ज़मीन पर बैठ गई।

    "चांद... तू कितना शांत है, ना... और मैं? मेरी तो ज़िंदगी ही शोर बन गई है..."

    उसकी आंखें छलकने लगीं। वो चुपचाप चांद की ओर देखते हुए रोती रही — धीमे, मगर गहरे। थोड़ी ही देर में, थकान ने उसकी पलकों को बोझिल कर दिया और वह वहीं, खिड़की के पास नींद में डूब गई।


    ---

    कुछ देर बाद...

    दरवाज़ा हल्के से खुला। अर्जुन कमरे में आया। उसकी चाल धीमी थी, जैसे दिल में बोझ हो। उसने चारों ओर नज़र घुमाई — और फिर उसकी नज़र खिड़की के पास बैठी दिव्या पर पड़ी, जो नींद में झुकी हुई थी।

    वह कुछ पल ठिठक गया।

    धीरे से पास आया... और जैसे ही उसकी नज़र दिव्या के हाथों पर पड़ी, उसका दिल बैठ गया।

    छाले... गहरे, लाल, सूजे हुए छाले...

    अर्जुन का गला भर आया। उसकी आंखें गुस्से से नहीं, दर्द से लाल हो गईं।
    वो घुटनों के बल बैठ गया, और धीरे से उसके एक हाथ को अपनी हथेली में लिया।

    "इतनी तकलीफ... और तू चुपचाप सहती रही?"

    उसके होंठ कांप रहे थे। उसने दिव्या की हथेलियों पर अपनी उंगलियों से हल्का स्पर्श किया, जैसे वो उसके दर्द को छूकर अपने अंदर समेट लेना चाहता हो।

    फिर वह धीरे से बुदबुदाया —
    क्यों कर रहीं ऐसा क्यों सह रही अपनी बहन का किए की गलती ,

  • 12. Revenge Marriage - Chapter 12

    Words: 1087

    Estimated Reading Time: 7 min

    अर्जुन अपने फर्स्ट एड किट से पिक दवा निकाल करके दिव्या के पूरे हाथ पर लगा देता है। दिव्या के हाथ को जैसे ही वह छूता है, वह दर्द में कराह उठती है।

    अर्जुन धीरे से उसके हाथों में दवा लगाकर वहां से चला जाता है।

    थोड़ी देर बाद अनिरुद्ध वहां से गुजर रहा था। उसकी निगाह दिव्या पर पड़ती है। दिव्या की मासूमियत को देखकर अनिरुद्ध एक पल के लिए उसके सपनों में खो जाता है। फिर खुद को झकझोरते हुए अंदर आता है और दिव्या के करीब जाते हुए उसके पास बैठकर, उसके चेहरे पर आ रहे बालों को हटाते हुए उसके चमकदार गालों को छू रहा था।

    तब तक दिव्या को होश आ जाता है।
    दिव्या अनिरुद्ध को देखते हुए पीछे खिसक जाती है।

    "क्या कर रहे हैं आप यहां?" — दिव्या ने आश्चर्य से पूछा।

    अनिरुद्ध धीरे से मुस्कुराते हुए कहता है, "हर-हर शांति बाबा! मैं कुछ कर नहीं रहा हूँ... तुम्हारे हाथों में छाले पड़ आए थे। मैं बस उन पर दवा लगाने की सोच रहा था... और बस वही लगाकर चुपचाप जा रहा था। पर तुम उठ गई।"

    "आज जो भी हुआ, यह सब मेरी वजह से हुआ। मुझे ध्यान देकर आना चाहिए था। I'm sorry।"

    दिव्या धीरे से मुस्कुराती है और कहती है, "It's okay... होता है।"

    "Well, मेरा नाम अनिरुद्ध है।"

    "हाँ, मैं जानती हूँ..." — दिव्या ने धीरे से कहा।

    "तो बढ़िया! फ्रेंडशिप करोगी जी?" — अनिरुद्ध ने हल्के मजाकिया लहज़े में कहा।

    "अरे, हमने पूछा... फ्रेंडशिप करोगी?"

    "हाँ... क्यों नहीं? फ्रेंडशिप करने में क्या बुरा है?" — दिव्या ने मुस्कुराते हुए कहा।

    "बढ़िया! मुझे पता है तुम्हें मेरी वजह से पनिशमेंट मिली है। पर तुम चिंता मत करो, मेरे पास इसका सॉल्यूशन भी है।"

    "क्या सॉल्यूशन?" — दिव्या ने उत्सुकता से पूछा।

    "सॉल्यूशन है... लेकिन अगर किसी को पता चल गया तो फालतू में फिर से तुम और मुझे दोनों को डांट पड़ेगी। मैं अपना काम कर लूंगा। अभी पंडित जी को आने में बहुत वक्त है। तुम थोड़ी देर आराम कर लो, फिर जाकर मसाले पीस देना।"

    "मेरी बात तो सुनो—"

    "नहीं, जाने दीजिए। आप यहां से जाइए।"

    "ठीक है... तुम जब मसाले पीसने आओगी न, तो मैं वहां पर सब चीज़ें अपने आप देख लूंगा।"

    (अनिरुद्ध वहां से चला जाता है...)


    ---

    (दृश्य परिवर्तन)

    अर्जुन अपनी लाइब्रेरी में बैठा कुछ पुस्तकों को खंगाल रहा था। तब तक समर उसके पास आकर कहता है:

    "भाई, आपको पता है ना... भाभी को आज बहुत पनिशमेंट मिली है?"

    "क्या? किसने दी?" — अर्जुन ने चौंक कर पूछा।

    "बड़े पापा ने दिया है।"

    "सच में?"

    "हाँ! कल सप्तऋषि आ रहे हैं। बड़े पापा ने कहा है कि भाभी को अपने हाथ से सारे मसाले पीसने हैं और कढ़ाई में खाना बनाना है।"

    "उस दिन तो मैं उनकी हेल्प कर दी थी... आपके कहने पर। पर आज? आज कैसे करूँगा?"

    "पर ये सब हुआ क्यों? उसे इतनी बड़ी सजा क्यों मिली?" — अर्जुन ने गंभीरता से पूछा।

    "भाई... अनिरुद्ध आया है, और ये सब उसी की करामात है। आपको पता है लीला बुआ का बस... उन्होंने कुछ कहा, और बड़े पापा ने बेचारी को सुना दिया।"

    अर्जुन मन ही मन कहता है:
    "नहीं! तुम्हें सजा देने का हक सिर्फ और सिर्फ मेरा है... तुम्हें मेरे अलावा कोई और परेशान करे, ये मुझे बिल्कुल भी बर्दाश्त नहीं। तुम्हें बहुत शौक था ना मेरी दुल्हन बनने का? तो सजा मैं दूंगा... पर ऐसी वैसी नहीं..."

    "अच्छा सुनो, एक काम करो... जो-जो चीजें कही गई हैं, उन्हें बाजार से लाकर रख दो। किसी को कानों-कान भनक नहीं लगनी चाहिए।"

    "पर भाई, बार-बार—"

    "कुछ नहीं! जितना कहा है उतना करो।" — यह कहकर अर्जुन वहां से चला जाता है।


    ---

    (रात्रि का दृश्य)

    अर्जुन स्टोर रूम की तरफ जा रहा था। तभी उसे ओखली चलने की आवाज आती है। वह गेट से अंदर झांक कर देखता है — दिव्या मसाले कूट रही थी। उसके हाथों में दर्द हो रहा था, पर फिर भी वह लगातार ओखली चला रही थी।

    यह देखकर अर्जुन "काश..." कहकर गेट को पकड़ लेता है। थोड़ी देर बाद दिव्या थक कर बैठ जाती है। वह पूरे पसीने से तर-ब-तर थी। उसके हाथ में तेज़ दर्द हो रहा था। वह हाथ को झटकते हुए रोने लगती है... और रोते-रोते कब उसकी आँख लग जाती है, उसे भी पता नहीं चलता।

    अर्जुन यह सब देखकर चुपचाप अंदर आता है। समर से मंगवाया सामान उसके पास रखकर वह वहां से चला जाता है।


    ---

    अगली सुबह...

    मीरा, लीला, पंति, शिवानी और सिमरन — सब स्टोर रूम में आते हैं। लीला मुस्कुराते हुए मीरा से कहती है:

    "तुम्हारी बहू तो कुछ नहीं कर पाई होगी। आज भाई उसे खुद घर से धक्के मारकर निकालेंगे। भाई के लिए सप्तऋषि कितने इंपॉर्टेंट हैं, हम सब जानते हैं।"

    मीरा भी लीला की बात सुनकर मुस्कुराते हुए कहती है:

    "हाँ दीदी, आप सही कह रही हैं। इस लड़की से पीछा छूटे, फिर मैं भगवान को सवा किलो का प्रसाद चढ़ाऊंगी।"

    हर कोई दरवाजे पर खड़ा था। तभी मीरा आगे बढ़कर पास में रखे जग को उठाकर ज़ोर से जमीन पर पटकती है। जग गिरने की आवाज़ से दिव्या डरकर उठ जाती है।

    वह चिल्लाते हुए अपने सामने देखती है — सभी खड़े थे!

    शिवानी और सिमरन एक-दूसरे को मुंह बना कर देख रही थीं, पर कुछ कर नहीं सकती थीं।

    लीलावती चिल्लाते हुए कहती है:

    "शांत! लड़की, तुम्हें काम दिया गया था... और तुम सो रही हो?"

    दिव्या धीरे से कहती है:

    "मैं अभी कर देती हूँ... बस थोड़ा सा और है।"

    वह बगल में देखती है — सारे मसाले पिसे हुए थे!

    सिमरन और शिवानी आगे बढ़कर देखती हैं:

    "मां! भाभी ने सारे मसाले पीस दिए हैं... और ये धनिया भी कूट दिया है! आटे भी तैयार हैं!"

    "भाभी... आप तो महान हैं! कैसे कर लिया आपने इतनी मेहनत एक रात में?" — सिमरन आश्चर्य से बोली।

    दिव्या भी हल्की मुस्कान के साथ कहती है — "मुझे खुद नहीं पता..."

    तब तक लीला आगे बढ़कर मसाले की जांच करते हुए कहती है:

    "मिक्सर का तो इस्तेमाल नहीं किया ना?"

    "नहीं! नाना, ऐसा कुछ नहीं किया।" — दिव्या ने थकी मुस्कान के साथ जवाब दिया।

    तभी शिवानी कहती है:

    "बुआ जी, आप उसका हाथ देखिए... हाथ पूरा लाल हुआ पड़ा है। अगर मिक्सर से किया होता, तो हाथों में इतने छाले नहीं होते।"

    "चुप करो शिवानी! तुम्हें उसकी तरफदारी करने की जरूरत नहीं है! जो यहाँ है, बड़ों के मामले में पढ़ने की कोई ज़रूरत नहीं!" — लीला ने डांटते हुए कहा।


    ---

    (आगे क्या होगा...? क्या अर्जुन सच सामने लाएगा...? अनिरुद्ध का किरदार क्या मोड़ लाएगा...? और दिव्या का संघर्ष क्या उसे अर्जुन के करीब ले जाएगा?)

  • 13. Revenge Marriage - Chapter 13

    Words: 1111

    Estimated Reading Time: 7 min

    तब तक दीनदयाल जी कमरे में आते हैं। उनको कमरे में आता देख दिव्या अपने सिर पर पल्लू कर लेती है।
    दीनदयाल जी खड़कती आवाज में कहते हैं,
    "हो गई सारी तैयारी? किस गया मसाला?"

    वह आगे बढ़कर मसाले और बाकी चीजों की जांच करते हैं। उसके बाद धीरे से सिर हिलाते हुए कहते हैं,
    "शाबाश, अच्छा हुआ। थोड़ी देर आराम कर लो, हाँ... समय से उठ जाना। और पंडित जी के लिए खाना तुम्हें ही बनाना है। रात भर मसाले पीसकर थक गई होगी, जो यहाँ से..."

    यह कहकर वह दिव्या को जाने का इशारा करते हैं।

    तभी लीला आगे बढ़कर कहती है,
    "भैया, अपने कमरे में सोने के लिए क्यों कहा? घर में और भी काम हैं! और वो लड़की इतनी भी योग्य नहीं कि उसे दया दिखाई जाए। उसने जो किया, उसे झुठलाया तो नहीं जा सकता ना!"

    "बस करो लीला!" — दीनदयाल जी सख्ती से कहते हैं —
    "वो बच्ची है... अभी 19 साल की है। उसने आज तक किचन में कभी काम तक नहीं किया था। पर हम सबके लिए इतना करके गई है, तो हमें तो खुश होना चाहिए। अरे, क्या बच्ची की जान लोगी?"

    यह सुनते ही लीला शांत हो जाती है।
    दीनदयाल जी वहाँ से चले जाते हैं।

    दिव्या अपने कमरे की ओर जा रही थी, तभी उसे अनिरुद्ध दिखता है। वह उसके पास जाती है और मुस्कराते हुए कहती है,
    "Thank you so much for helping me!"

    अनिरुद्ध मुस्कुराकर कहता है,
    "It’s totally fine. Anything for you. अभी किसी भी चीज़ की जरूरत हो तो बेझिझक बताना।"

    यह सुनते ही दिव्या हल्का सा मुस्कुराकर सिर हिलाती है।

    दूर खड़ा अर्जुन यह सब देख रहा था। वह गुस्से से अपनी उंगलियां मसलते हुए वहाँ से चला जाता है।

    दिव्या अपने कमरे में आकर बिस्तर पर लेट जाती है। वह इतनी थकी हुई थी कि बिस्तर छूते ही गहरी नींद में चली जाती है। कोई प्यारा सा सपना देख रही थी कि तभी उसके चेहरे पर पानी की बूंदें पड़ती हैं।

    वह चौंककर उठती है और सामने अर्जुन को खड़ा देखती है। अर्जुन गुस्से से उसकी तरफ देखता है और बेडशीट को नीचे फेंकते हुए चिल्लाता है —
    "How dare you to sleep on my bed! तुम्हें कितनी बार कहा है कि मेरी चीजों को मत छुआ करो! एक बार में समझ नहीं आता क्या? वक्त देखा है? जाकर महाप्रसाद नहीं बनाना क्या?"

    गुस्से में चिल्लाते हुए वह वहाँ से चला जाता है।

    दिव्या धीरे से चुपचाप उठती है। उसकी आँखें भर आई थीं। अर्जुन पलटकर कहता है —
    "सुनो, अब गलती की है तो सज़ा भी भुगतो। यह सारा बेडशीट और सब कुछ तुम्हें धोना है, क्योंकि तुम इस पर लेटी थी। तुम्हारी वजह से यह सब खराब हो चुका है।"

    यह कहकर अर्जुन चला जाता है।

    दिव्या बेडशीट और कंबल उठाकर वॉशरूम में ले जाती है। उसकी आँखें अब छलक चुकी थीं। वह रो रही थी, पर चुपचाप सब कुछ साफ करती है। खुद को फ्रेश करती है और एक नई साड़ी पहन लेती है।

    उसने हरे रंग की साड़ी पहनी थी। बाल गीले थे, पर वह किसी भी चीज़ के लिए लेट नहीं होना चाहती थी। जल्दी-जल्दी सीढ़ियों से नीचे भागती है।

    तभी अनिरुद्ध ऊपर आ रहा था। दिव्या के बालों का झटका उसके चेहरे पर लगता है। अनिरुद्ध एक पल के लिए बालों की खुशबू में खो जाता है। वह अपनी आंखें बंद कर लेता है।

    दिव्या वहाँ से भाग जाती है।
    अनिरुद्ध मुस्कुराकर कहता है,
    "I wish..."
    फिर चुप हो जाता है और वहाँ से चला जाता है।

    दिव्या बाहर बरामदे में चूल्हा तैयार करके बड़े-बड़े बर्तनों में खाना पकाने लगती है। उसने यूट्यूब से देखकर सारी तैयारी कर ली थी। वह ध्यान से महाप्रसाद बना रही थी।

    महाप्रसाद की खुशबू इतनी मनभावन थी कि हर कोई मुस्कुरा रहा था।

    दादी आकर दिव्या से कहती हैं,
    "भगवान तुम्हें खुश रखे बेटा! तुमने महाप्रसाद बहुत अच्छा बनाया है। इसकी खुशबू पूरे आंगन में फैल रही है।"

    यह सुनकर दिव्या मुस्कुराती है और दादी के पैर छूती है।
    दीनदयाल जी भी आते हैं। महाप्रसाद की खुशबू महसूस कर मुस्कुराते हुए कहते हैं,
    "शाबाश! काफी अच्छा महक रहा है।"
    दिव्या उनके भी पैर छूती है।

    दूर खड़ी लीला और मीरा यह सब देख रही थीं। लीला मीरा से कहती है —
    "भाभी, अगर आपने इसका कुछ नहीं किया, तो एक दिन ये आपकी जगह ले लेगी। आपको नहीं लगता माँ और भैया साहब ज़्यादा ही प्यार दिखा रहे हैं इसे?"

    मीरा यह सुनकर दाँत पीसते हुए वहाँ से चली जाती है।
    लीला मुस्कुराकर कहती है —
    "दिव्या इस घर की प्रॉपर्टी और इस घर पर हक नहीं पाएगी। मुझे पता है दादाजी के कॉन्ट्रैक्ट के अनुसार अर्जुन के पहले बेटे के नाम ही सारी प्रॉपर्टी जाएगी... पर जब अर्जुन का बेटा ही नहीं होगा, तो?"
    यह कहकर वह शैतानी मुस्कान के साथ वहाँ से चली जाती है।

    दिव्या सारा भोग तैयार कर चुकी थी। तभी अनिरुद्ध पास आता है और कहता है —
    "वाह, काफी अच्छा स्मेल कर रहा है! क्या बात है... काफी एक्सपीरियंस है तुम्हें खाना बनाने का?"
    दिव्या हँसते हुए कहती है —
    "नहीं, कल रात यूट्यूब से सीखा!"
    "बढ़िया... अच्छा, चखाया नहीं मुझे?"
    "अरे नहीं, पंडित जी के बिना ऐसे नहीं। पहले भगवान को भोग लगेगा, फिर सबको मिलेगा।"
    "अच्छा! तुम कब से भगवान में विश्वास करने लगीं? शिवानी ने तो बताया था कि तुम पूजा-पाठ में बिल्कुल विश्वास नहीं करती थीं?"
    "हाँ, नहीं करती थी... पर कुछ चीजों के बाद अब करने लगी हूँ।"




    तभी एक हल्की सी हवा चलती है, और मसाले की थोड़ी सी झड़क अनिरुद्ध की आंखों में चली जाती है।
    वह अचानक चिल्लाकर कहता है,
    "ए मेरी आंखें! ओह... जल रहा है!"

    यह सुनते ही दिव्या घबरा जाती है और दौड़कर उसके पास आती है,
    "क्या हुआ? क्या हुआ अनिरुद्ध? ठीक हो?"

    अनिरुद्ध अपनी आंखों को मसलते हुए कहता है,
    "मसाला चला गया आंखों में... बहुत जलन हो रही है!"

    यह देखकर दिव्या घबरा जाती है और बिना कुछ सोचे समझे उसके बिल्कुल करीब जाकर उसकी आंखों में देखती है। वह जल्दी से अपने दुपट्टे का एक कोना गीला करके उसकी आंखों को हल्के हाथों से पोंछने लगती है।

    फिर वह अपने मुंह से उसकी आंखों में धीरे-धीरे फूंक मारने लगती है ताकि जलन कुछ कम हो सके।

    अनिरुद्ध चुपचाप उसकी मौजूदगी महसूस कर रहा था, उसकी आंखें अब धीरे-धीरे खुलने लगी थीं।

    दूर खड़ा अर्जुन यह सब देख रहा था।
    उसका चेहरा गुस्से से लाल हो गया था।
    वह दांत पीसते हुए बड़बड़ाता है —
    "तुम्हें इसकी सज़ा मिलेगी, दिव्या।"
    "मैंने सोचा था... छोड़ दूंगा तुम्हें। पर अब नहीं। तुम्हें बहुत शौक है ना, लोगों के साथ ...? अब मैं तुम्हें ऐसे ही नहीं जाने दूंगा!"

    उसकी आँखों में नफ़रत और ईर्ष्या का तूफान साफ झलक रहा था।

    अब क्या करेगा अर्जुन...?

  • 14. Revenge Marriage - Chapter 14

    Words: 863

    Estimated Reading Time: 6 min

    यहाँ

    मीरा अपने कमरे में बैठी मुस्कुरा रही थी। फोन निकालते हुए किसी से कहती है,
    “जो मैंनेेहा .. वो लेकर आए हो न?”

    सामने से आवाज आती है,
    “जी, आपने जो कहा था, वो हम लेकर आए हैं। आगे क्या करना है?”

    मीरा धीरे से कहती है,
    “तो... मुझे ला कर दे दो। आगे का मैं खुद देख लूंगी।”

    फोन कट हो जाता है। मीरा सबकी नजरों से बचती है और चुपचाप पीछे वाले दरवाज़े की ओर जाती है। वहां एक आदमी सलाम ठोंक कर खड़ा था। वह मीरा को एक काले रंग की वस्तु देता है — जो कपड़ों में लिपटी हुई थी।

    मीरा वो वस्तु लेते हुए पैसे देती है और इशारे से जाने को कहती है।

    इसके बाद... मीरा के चेहरे पर एक शैतानी मुस्कान उभरती है। वह बुदबुदाती है,
    "शौक है न... परफेक्ट बहू बनने का? आज तुम्हारा वह घमंड टूटेगा... जिसे तुमने कभी सोचा भी नहीं होगा!"

    वह सबकी नजरों से बचते हुए महाप्रसाद के पास पहुंचती है। वहां कोई नहीं था। शिवानी मोबाइल में व्यस्त थी।

    मीरा शिवानी की ओर देखती है और कहती है,
    "बेटा... प्यास लग रही है, एक गिलास पानी पिला दो..."

    शिवानी तुरंत बोलती है,
    "सीमा मैं अभी लाई, आप बैठिए।"

    शिवानी के जाते ही... मीरा चुपचाप अपने साथ लाई वस्तु से कुछ निकालती है और उसे महाप्रसाद में मिला देती है।

    उसके चेहरे पर फिर वही खौफनाक मुस्कान...
    "अब देखती हूं, कैसे तुम सप्तऋषियों को प्रसन्न कर पाती हो..."

    दूसरी ओर, दिव्या आंगन में सप्तऋषियों के स्वागत की तैयारियों में जुटी थी। तभी दरवाज़े पर दस्तक होती है। दीनदयाल जी और पूरा परिवार आगे बढ़कर उनका स्वागत करता है।

    दिव्या सबके पैर छूती है, फूल चढ़ाती है और अंदर आने का निमंत्रण देती है। पंडितजन मुस्कुराते हुए कहते हैं,
    "दीनदयाल जी, आपकी बहू तो सोने की है। इसकी उपस्थिति से ही सुख की अनुभूति हो रही है।"

    इतने में लीला व्यंग्य करती है,
    "पंडित जी! सखी कैसे अनुभूति-उत्तरण पहनकर आई है?"

    पंडित जी मुस्कुरा कर जवाब देते हैं,
    "अरे मूर्ख! जो होता है, अच्छे के लिए होता है। जोड़ियाँ ऊपर से बनती हैं। जिसे जिससे मिलना होता है, वो मिल ही जाता है।"

    दिव्या झुककर कहती है,
    "पंडित जी, आपके लिए भोजन तैयार है।"

    पंडित जी मुस्कुराते हुए आशीर्वाद देते हैं और बैठ जाते हैं। दिव्या सबको खाना परोसने लगती है।

    खुशबू से मगन पंडित जी कहते हैं,
    "वाह! किसने बनाया है ये भोजन? सुगंध से ही मन प्रसन्न हो गया!"

    दीनदयाल जी गर्व से कहते हैं,
    "मेरी नई बहू दिव्या ने!"

    पंडित जी दिव्या की ओर देखकर बोलते हैं,
    "बेटा, तुम्हारे हाथों में तो अन्नपूर्णा का वास है।"

    तभी दीनदयाल जी दिव्या को इशारा करते हैं,
    "जाओ, खीर लाकर पंडित जी को दो।"

    दूर खड़ी माया यह सुनकर मुस्कुराती है... और बुदबुदाती है,
    "हाँ, लो... खीर लो! आज इस खीर के साथ तुम्हारा जनाजा भी निकलेगा! नवरात्रि के पहले दिन ही ऐसा बवाल होगा... जिसकी तुमने कल्पना भी नहीं की होगी!"

    दिव्या रसोई में जाती है, एक ढका हुआ बर्तन उठाती है और सिद्ध होकर पंडित जी की ओर बढ़ती है।

    मीरा, दूर खड़ी, अपने चेहरे पर एक क्रूर मुस्कान लिए देख रही थी...
    “अब जो होगा... उसे कोई नहीं रोक सकेगा!”

    लीला मीरा के पास आती है और व्यंग्य में कहती है,
    "भाभी, क्या हुआ? सदमा तो नहीं लग गया, अपनी बहू की तारीफें सुनकर? तबीयत तो ठीक है न?"

    मीरा हँसते हुए कहती है,
    "दीदी, तबीयत... अभी तो ठीक है, पर थोड़ी देर में और भी ज़्यादा ठीक हो जाएगी। बस एक बार खीर पंडित जी के सामने पहुंच जाए... फिर जो बवाल मचेगा, उसे कोई नहीं रोक पाएगा!"



    दिव्या सब को खीर परोसनेही वाली थी कि पंडित जी कहते हैं भाई आपका बेटा नहीं दिख रहा है नए जोड़े को साथ में आशीर्वाद लेना चाहिए आप अर्जुन को भी बुलाए यह सुनकर के दीनदयाल जी शिवानी की तरफ इशारा करते हैं शिवानी सीडीओ से होते हुए से अर्जुन के कमरे में जाती है और वहां से अर्जुन को बुलाते हुए लेकर आती है अर्जुन सीडीओ से होते हुए नीचे आता है दीनदयाल जी की तरफ देखते हुए कहता है पापा आपको पता है ना मुझे इन सब चीजों में कोई विश्वास नहीं मैंने कितनी बार आपसे कहा है इन सब सो के बाजी से मुझे दूर रखा करिए आप भी अपने पंडित जी की सेवा करिए मुझे इन सब चीजों में इंवॉल्वड ना किया करिए यह क्या करण अर्जुन चला जाता है उसके जाते ही दिव्या पंडित जी के पास जाते हुए कहती है माफी चाहूंगी पंडित जी दरअसल कुछ चीज ऐसी होती है कि इंसान को भगवान फिर से विश्वास उठा देती है पर मैं जानती हूं इसका मतलब यह नहीं कि भगवान नहीं होते अर्जुन जी भी अभी इस चीजों से जूझ रहे हैं पर यकीन मानिए एक दिन वह आपका खुद यहां पर स्वागत करेंगे यह सुनकर पंडित जी मुस्कुराते हुए कहते हैं बेटी तुम्हारी बातें समझ सकता हूं और मैं बिल्कुल भी उदास नहीं हूं सब भगवान के लीला है पंडित जी आप लोग के लिए खीर बनाई है कृपया इसका भी ग्रहण करिए एक-एक कर दिव्या सबके लिए खीर परोसने लगती है .....


    दूर खड़ी मीरा मुस्करा कर कहती है अब बस कुछ और पल फिर ये लड़की इस घर से बाहर

  • 15. Revenge Marriage - Chapter 15

    Words: 1180

    Estimated Reading Time: 8 min

    दिव्या सबके थाली में खीर डाल रही थी। दूर खड़ी मैं यह सब देखकर मुस्कुरा रही थी। लेकिन एक पल में ही उसके चेहरे की खुशी गायब हो गई... क्योंकि सबकी खीर सामान्य थी!

    यह देखते ही उसके चेहरे का रंग उतर गया। वह धीरे से कहती है,
    "ऐसा कैसे हो सकता है?"
    वह खुद मन ही मन सोच रही थी।

    तब तक दिव्या उसके पास आकर मुस्कुराते हुए कहती है,
    "क्या हुआ मम्मीजी? खीर में डाले हुए मांस के टुकड़े ढूंढ रही हैं क्या? प्यारी मम्मीजी, वो तो मिलने से रहे! हाँ, लेकिन आप अपना खाना थोड़ा बचा कर खाइए, कहीं आपका धर्म भ्रष्ट न हो जाए!"

    "आईना थोड़ा सोच-समझकर और अच्छी प्लानिंग–प्लॉटिंग करना! '90s वाला मेथड छोड़ दीजिए... 21वीं सदी चल रही है। ये सास–बहू वाला ड्रामा बहुत देख लिया मैंने... अब कुछ नया, इंटरेस्टिंग सोचिए!"
    यह कहकर दिव्या मुस्कुराकर वहां से चली जाती है।

    यह सुनते ही मीरा की आंखें गुस्से से लाल हो जाती हैं!
    "बहुत उछल रहे हैं ना तुम्हारे पंख? इन्हें काट कर रहूंगी!"
    "क्या लगा तुम्हें? तुम फिर से मांस के टुकड़े बचा लोगी, और मैं हार मान जाऊंगी?"
    "मेरा नाम मीरा है... मीरा! मैंने कभी हार मानना सीखा ही नहीं!"

    "अगर तुम्हें इस घर से ना निकाल दिया, तो मेरा नाम भी मीरा नहीं!"
    यह कहकर मीरा बर्तन पटकते हुए सीढ़ियों से ऊपर चली जाती है।

    दूर खड़ा अनिरुद्ध यह सब देखकर मुस्कुरा रहा था। वह दिव्या के पास आकर कहता है,
    "मतलब मानना पड़ेगा तुम्हारे दिमाग को! तुमने ये सब किया कैसे?"

    दिव्या हँसते हुए कहती है,
    "अनिरुद्ध, ये सब तुम्हारी वजह से हुआ। Thank you so much!"

    "कभी-कभी लगता ही नहीं कि तुम लीला जी के बेटे हो!"

    अनिरुद्ध गंभीर होकर:
    "मेरी माँ के बारे में कुछ मत कहना, हाँ!"

    दिव्या:
    "अरे नहीं नहीं, कह तो कुछ नहीं रही... बस सोच रही थी!"

    अनिरुद्ध मुस्कुराते हुए:
    "क्योंकि हम दोस्त बन चुके हैं ना, इसलिए नहीं करूँगा तो कौन करेगा?"
    "मैंने बस मामीजी को खीर में मांस के टुकड़े डालते देखा, तो तुम्हें बता दिया। और अच्छा हुआ कि पहले से बाहर से खीर मंगवा ली थी... वरना आज तो बवाल हो जाता!"

    "Thank you so much, अनिरुद्ध!"

    "It’s okay! Thank you की जरूरत नहीं है, लेकिन हाँ... शाम को आइसक्रीम खाने चल सकती हो, तो Thank you एक्सेप्ट कर लूंगा!"

    दिव्या मुस्कुरा कर:
    "ठीक है! क्यों नहीं, आइसक्रीम तो मेरा फेवरेट है!"

    वहीं दूर खड़ा अर्जुन यह सब देख रहा था। उसकी आंखें जलन और गुस्से से लाल थीं। वह दांत पीसते हुए कहता है,
    "तुम्हारे पैर काट कर रख दूंगा!"

    दिव्या अपने कमरे में आती है। हर किसी ने खाना खा लिया था। वह खुद को शीशे में देखती है और कहती है,
    "सब पास... दिव्या, आखिर तुमने कर दिखाया! सबकी एक पल में छुट्टी कर दी!"

    तभी पीछे से आवाज आती है,
    "कुछ ज़्यादा ही खुश नहीं लग रही? कहीं अनिरुद्ध तो नहीं इस खुशी की वजह?"

    दिव्या पीछे मुड़ती है — अर्जुन बेड पर बैठा था।

    दिव्या आंखें ऊपर कर कहती है:
    "क्यों? कोई भी हो... आपसे मतलब?"
    "और अनिरुद्ध मेरा दोस्त है!"

    अर्जुन उठकर उसकी ओर बढ़ता है। दिव्या पीछे हटती है और दीवार से टकरा जाती है।
    अर्जुन दीवार पर हाथ रखते हुए कहता है:
    "सारे लड़के तुम्हारे दोस्त क्यों बन जाते हैं? क्या बात है?"

    दिव्या आत्मविश्वास से:
    "क्योंकि सारे लड़कों को मेरी वैल्यू पता है... वो मुझे समझते हैं!"
    "और आप? आप तो राक्षस हैं!"

    "राक्षस?" अर्जुन गुस्से में उसका मुंह कसकर पकड़ लेता है।
    "अभी तुमने मेरी दरिंदगी देखी ही कहाँ है! मजबूर मत करो मुझे!"

    दिव्या की आंखों में आंसू आ जाते हैं।
    "जो करना है कर लीजिए! मैं आपसे डरती नहीं! ज्यादा से ज्यादा क्या करेंगे? मारेंगे-पीटेंगे?"
    "ये मत सोचिए कि मैं कोई आम इंडियन लेडी हूं जो सब सह लेगी! अगर आपने मुझे एक भी मारा, तो मैं आपका गला काटकर टांग दूंगी!"

    अर्जुन और भड़क जाता है,
    "अच्छा? चलो फिर... खेल-खेल ही लेते हैं!"
    "वैसे भी शादी हो गई है... सुहागरात भी मना ही लेते हैं! पता चल जाएगा किसमें कितना दम है!"

    दिव्या उसे धक्का देकर दूर कर देती है।
    "देखिए! मुझे ऐसी लड़की मत समझिए! अगर आपने मेरे साथ कुछ भी करने की कोशिश की, तो गला काटकर फेंक दूंगी... और किसी को पता भी नहीं चलेगा!"

    "मिस्टर अर्जुन शेखावत, मैं शांत हूं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि मैं चुप हूं!"
    "मैं 'सृष्टि' नहीं हूं, जो सब सहती रहे!"

    सृष्टि का नाम सुनते ही अर्जुन दिव्या का हाथ कसकर पकड़ता है।
    "अगर दोबारा उसका नाम लिया ना, तो मुझसे बुरा कोई नहीं होगा!"

    दिव्या दर्द से कराहती है:
    "छोड़िए मुझे... मेरा हाथ दर्द कर रहा है!"

    लेकिन अर्जुन नहीं सुनता। गुस्से में वह उसे बेड पर धक्का देकर वहां से चला जाता है।

    बेड पर गिरी दिव्या रोती हुई कहती है:
    "जब इतनी ही नफरत थी, तो शादी क्यों की थी मुझसे? सिर्फ मेरी ज़िंदगी नर्क बनाने के लिए?"
    "तुम्हारी ज़िंदगी अगर मैं नर्क ना बना दूं, तो कहना अर्जुन शेखावत!"

    तभी दरवाजे पर दस्तक होती है।
    दिव्या आंसू पोंछते हुए दरवाजे की ओर देखती है — अनिरुद्ध खड़ा था।

    उसे देखकर दिव्या मुस्कुरा कर कहती है:
    "हाँ हाँ... बस चल ही रही थी!"

    दिव्या और अनिरुद्ध घर से बाहर निकलते हैं, गाड़ी में बैठते हैं और चले जाते हैं।

    अर्जुन ऊपर बालकनी में खड़ा यह सब देख रहा होता है। वह बड़बड़ाता है:
    "आज तुम्हारी खैर नहीं दिव्या... मैंने मना किया था न!



    अर्जुन वहां से निकलता है और घर के बाहर एरिया में आकर के एक बोतल शराब की उठा करके लगातार गुस्से में ड्रिंक किए जा रहा था उसका गुस्सा सत्य आसमान पर था वह सीधा सीडीओ से होते हुए नीचे आता है और गाड़ी उठाकर के घर से कहीं दूर चला जाता है उसके जाने के बाद इधर दूसरी तरफ अनिरुद्ध और दिव्या आइसक्रीम की दुकान पर आइसक्रीम ले रहे थे अनिरुद्ध ने दिव्या की तरफ देखते हुए कहा विच फ्लेवर दो यू लाइक दिव्यानी मुस्कुराते हुए बताया वाडीला अर्जुन ने आइसक्रीम वाले भैया से कहा भैया दो वनीला दे देना फिर दोनों आइसक्रीम लेकर के पास के चेयर पर बैठ जाते हैं दिव्या अर्जुन के पकड़े हुए हाथों के निशान छुपा रही थी तब तक अनिरुद्ध का ध्यान दिव्या के हाथ पर जाता है उसे देखते हुए वह धीरे से कहता है यह कैसे हुआ दिव्या की आंखें नम हो जाती है वह अपना हाथ छुपाते हुए कहती है कुछ नहीं बस किचन में लग गया था अनिरुद्ध दिव्या की तरफ देखकर कहता है सच बताओ किसने किया यहदिव्या कुछ नहीं बोलता और बातें बदलते भी कहती है क्या मुझे एक और आइसक्रीम मिल सकती है हां क्यों नहीं रुको मैं अभी लाता हूं यह कहकर अनिरुद्ध आइसक्रीम मैं चला जाता है दूर खड़ा अर्जुन यह सब देख रहा था आखिर अब क्या करेगा अर्जुन जानने के लिए पढ़ते रहिए और हां अगर आपको स्टोरी पसंद आ रही है तो अखिलेश रिव्यू दे करके और कमेंट करके जाइए आपके कमेंट और रिव्यू से हमें प्रोत्साहन न मिलती है हमने लेखक से हमें आपके प्यार और सपोर्ट की जरूरत है प्लीज सपोर्ट करें प्यार दिखाइए और हमारी गलतियों को बताइए ताकि हम उसे सुधार करके एक बेहतर कहानी तैयार कर सके

  • 16. Revenge Marriage - Chapter 16

    Words: 1059

    Estimated Reading Time: 7 min

    ---

    अगले दिन घर में सन्नाटा पसरा हुआ था। किसी को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या हो रहा है। तब तक दरवाज़े पर घंटी बजती है। उसे सुनकर दादी सब दरवाज़े की तरफ जाती हैं। सामने का नज़ारा देखकर उनके पैरों तले की ज़मीन खिसक जाती है।

    वहाँ पर दीनदयाल जी के छोटे भाई शिवदयाल खड़े हुए थे, और उनके बगल में खड़ी थी... दृष्टि! उन दोनों ने शादी कर ली थी! उनको देखते ही दादी के पैर पीछे की तरफ जाने लगते हैं। दादी ज़मीन पर गिरने ही वाली थीं कि दीनदयाल जी उन्हें सँभाल लेते हैं। और देखते ही देखते वहाँ पर घर के सारे सदस्य आ जाते हैं।

    दिव्या भागते हुए सीढ़ियों से नीचे आती है। वह दृष्टि को देखकर कल के लिए बहुत खुश होती है। वह आगे बढ़कर दृष्टि के गले लगने ही वाली थी कि...

    दृष्टि गुस्से में रहती है। सास के पैर छूती है, गले नहीं लगती—
    "बहू रानी!"

    यह सुनते ही दिव्या के पैरों तले की ज़मीन खिसक गई। उसकी बहन, उसकी सास बनकर उसके ही घर में आई थी! तब तक वहाँ अर्जुन भी आ जाता है। अर्जुन सामने का नज़ारा देखकर चौंक जाता है। वह हैरानी से अपने चाचा की तरफ़ घूम रहा था। उसके चाचा जी मुस्कुराते हुए कहते हैं—
    "माँ! यह मेरी पत्नी है, दृष्टि। और जितना हक मेरा इस घर में है, उतना इसका भी है। तो आप लोग शॉक होना बंद करिए और गृह-प्रवेश की तैयारी करिए।
    मेरे भांजे ने तो इस बेचारी की ज़िंदगी बर्बाद कर दी थी... मैंने तो बस इसकी ज़िंदगी सँवारने का सोचा है!"

    अर्जुन गुस्से में आगे बढ़कर दृष्टि का हाथ कसकर पकड़ते हुए उसे सबसे दूर करता है और चीखते हुए कहता है—
    "How dare you to do this with my family!"

    दृष्टि हल्का-सा मुस्कुराते हुए उसका कान खींचते हुए कहती है—
    "अब अपनी माँ समान चाचा के हाथ पकड़ोगे? तुम्हें तो मेरा पैर छूना चाहिए! मेरी फैमिली को बर्बाद करना चाहते थे ना? मैं तुम्हारी फैमिली को बर्बाद करने आ गई हूँ! अब बचा सकते हो तो बचा लो, अर्जुन! तुमने मेरी बहन को फँसा कर मेरी ज़िंदगी बर्बाद की ना? तो मैंने तुम्हारे चाचा से शादी कर ली! अब देखते जाओ... तुम्हारे घरवालों को बर्बाद कर दूँगी!"

    यह कहकर वह ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगती है। अर्जुन गुस्से में उसके हाथ को दूर करता है और दहाड़ते हुए कहता है—
    "अभी के अभी यहाँ से चली जाओ... वरना यहीं गोलियों से भून दूँगा!"

    इतना सुनते ही उसके चाचा शिवदयाल जी आगे आते हैं और कहते हैं—
    "ए बेटा, तनी गुस्सा कम करो। हमारी पैदाइश के आगे गुस्सा दिखाओगे तो अच्छा कैसे चलेगा? रही बात तुम्हारी चाची की... ज़रा अदब से पेश आओ। वरना जानते नहीं हो— ये घर मेरे नाम है! सबको धक्के मार के निकाल देंगे! और जहाँ तक तुम्हारे बिज़नेस की बात है... वो भी तो मेरे ही नाम है ना? अरे शुक्र करो, मेरी वजह से तुम्हारे पैरों में चप्पल है और पहनने को चड्डी! और तुम हमारी ही पत्नी से ऐसी बात कर रहे हो?"

    यह सुनते ही अर्जुन गुस्से में वहाँ से चला जाता है। उसके जाने के बाद शिवदयाल जी मुँह में चबाते पान को एक बगल थूकते हुए कहते हैं—
    "अरे भाई साहब, आप दूर खड़े होकर क्या देख रहे हैं? गृह प्रवेश की तैयारी करिए! आपकी भाभी घर में आई हैं! अरे, मेरा भाभी आई तो गृह प्रवेश कराया हमारा, अब आप दूर खड़ी होकर ऐसे देख रही हैं, मानो किसी भूत को देख लिया हो! आपको तो वैसे भी दृष्टि बहुत पसंद थी ना? बहू ना सही, देवरानी सही! अब आप इसके साथ रहिए!"

    तब तक लीला दौड़ते हुए आगे आती है। वह कलश को गेट पर रखते हुए कहती है—
    "भाई साहब, भाभी सा अंदर लीजिए... आपका स्वागत है!"

    लीला धूमधाम से उनका गृह-प्रवेश करती है। इधर, दूर खड़ी दिव्या हैरानी से यह सब देख रही थी। उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था। उसकी आँखों से आँसू बह रहे थे। वह अपने क़दमों को पीछे करती हुई वहाँ से चली जाती है। एक बग़ीचे में बैठकर वह रो रही थी।

    तब तक अनिरुद्ध उसके बगल आकर बैठ जाता है। वह दिव्या को सहलाते हुए कहता है—
    "दिव्या... It’s okay! होता है। अब तुम क्या कर सकती हो? थोड़ा मन कम करो। अपनी बहन से जाकर बात करो... शायद कुछ समझ में आ जाए।"

    अनिरुद्ध की बात सुनते ही दिव्या उसके गले लग जाती है और कसकर रोने लगती है। अनिरुद्ध उसे अपने बाहों में भरकर सहला रहा होता है।
    दूर खड़ा अर्जुन यह देखकर अपनी मुठ्ठियाँ भींच लेता है और चुपचाप वहाँ से चला जाता है।
    वह अपने कमरे में ग़ुस्से में बैठा हुआ था। उसे चाचा जी की कड़वी बातें चुभ रही थीं।
    वह सारी चीज़ों को इधर-उधर तोड़ता, फेंकता, एक साइड कर देता है।

    इधर, दिव्या अपने आँसुओं को पोंछते हुए उठ खड़ी होती है—
    "नहीं! मुझे दीदी से बात करनी होगी... उन्होंने ऐसा क्यों किया?"

    यह कहकर वह भागते हुए सीधा उसके कमरे में जाती है, जो पूरा फूलों से सजा हुआ था। जगह-जगह से अजीब-अजीब फूलों की गंध आ रही थी।
    वह अंदर घुसती है तो वहाँ दृष्टि दुल्हन बनी बैठी होती है।
    वह दृष्टि के पास जाकर कहती है—
    "दीदी! आपने ऐसा क्यों किया?"

    दृष्टि गुस्से में अपना घूँघट हटाते हुए कहती है—
    "तूने तो पहले मेरी शादी बर्बाद कर दी... अब क्या मेरी सुहागरात भी ख़राब करेगी? निकल जा यहाँ से! तेरे चाचा जी आते होंगे! भूल मत, ये तेरे ससुर का कमरा है!"

    "...और इतना याद रखना, मैं तेरी बहन नहीं हूँ! मेरे लिए तू उस दिन मर गई जिस दिन तूने अर्जुन से शादी की थी!"

    "दीदी! मेरी बात तो सुन लो! अर्जुन से शादी करना मेरी मजबूरी थी!"

    "अच्छा? ऐसी क्या मजबूरी थी कि खुद की सगी बहन को धोखा देना पड़ा? एक बार मुझसे कहा तो होता! मैं खुद तेरी अर्जुन से शादी करवा देती, अगर तुझे वो पसंद था!"

    "दीदी... बात ऐसी नहीं है! प्लीज़, एक बार मुझे मौका तो दीजिए!"

    दृष्टि गुस्से में उठती है। दिव्या का हाथ पकड़कर, उसे कसकर घसीटते हुए कमरे से बाहर ले जाकर फेंक देती है और दरवाज़ा उसके मुँह पर बंद कर देती है।


    ---

    अब क्या करेगी दिव्या? कैसे समझाएगी दृष्टि को कि उसने किसी हालात में अर्जुन से शादी की थी?
    और अब... क्या करेगा अर्जुन? जब घर में उसकी ही बराबरी का दर्जा लेकर, उसकी बर्बादी का एलान कर चुकी है दृष्टि!


    ---

  • 17. Revenge Marriage - Chapter 17

    Words: 0

    Estimated Reading Time: 0 min

  • 18. Revenge Marriage - Chapter 18

    Words: 0

    Estimated Reading Time: 0 min

  • 19. Revenge Marriage - Chapter 19

    Words: 0

    Estimated Reading Time: 0 min

  • 20. Revenge Marriage - Chapter 20

    Words: 0

    Estimated Reading Time: 0 min