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लाल जोडे़ का श्राप 

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Sunita Sood

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एक गाँव की सबसे पुरानी और खामोश परंपराओं में से एक है लाल जोड़े की वह प्रथा, जो हर दुल्हन के लिए भारी साबित होती है। यहाँ की हवेलियों की दीवारों पर छिपा हुआ एक काला रहस्य है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी जुबां से जुबां तक पहुंचता रहा है। कहा जाता है कि अगर कोई...

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आदित्य

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जूही

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Total Chapters (70)

Page 1 of 4

  • 1. लाल जोडे़ का शराप - Chapter 1

    Words: 1047

    Estimated Reading Time: 7 min

    अध्याय: "लाल जोड़े का श्राप"

    गहरे जंगल की सन्नाटे में, बांसुरी की आवाज भी जैसे खो सी जाती थी। अंधेरे में सिर्फ टहनियों की चरचराहट और पत्तियों की सरसराहट सुनाई दे रही थी। सरजू और पूष्पा की सांसें तेज़ थीं, और उनका दिल दहलीज़ पार करने को तैयार था। वे दोनों जंगल के बीच में किसी अज्ञात शक्ति से भाग रहे थे, जैसे कुछ बुरा उनके पीछे आ रहा हो।

    "पूष्पा ! तेज़ चलो!" सरजू ने घबराए हुए स्वर में कहा। उसकी आंखों में डर और शंका के मिश्रण से कुछ झलक रहा था। पुष्पा की हालत भी कुछ वैसी ही थी, लेकिन वह जानती थी कि अगर इस पल को वे हार गए, तो उनका कोई भविष्य नहीं होगा।

    "मैं कोशिश कर रही हूं, लेकिन यह जंगल बहुत गहरा है, सरजू!" पुष्पा ने अपने सांस को शांत करते हुए कहा, और उसकी आंखों में एक अदृश्य भय था।

    तभी अचानक पुष्पा ने देखा कि उनके सामने एक मंदिर दिखाई दिया। मंदिर की विशाल दीवारें और वहां का माहौल जैसे अजनबी था, लेकिन उन्हें वहां एक असामान्य शांति का एहसास हो रहा था।

    "वह देखो, सरजू! मंदिर!" पुष्पा ने हाथ से इशारा करते हुए कहा।

    सरजू ने भी तुरंत उसकी ओर देखा और दोनों ने बिना कुछ कहे मंदिर की ओर दौड़ना शुरू कर दिया। जैसे ही वे मंदिर के पास पहुंचे, दोनों बडे खुश हुए सोचे चलो अब सब ठीक होगा |

    चांदनी में नहाया पुराने मंदिर की सीढ़ियों पर गिर रही थीं, धूल से अटे हुए थे, लेकिन आँखों में एक जिद थी—साथ रहने की, किसी भी हाल में।

    मंदिर खंडहर-सा था, लेकिन उसका गर्भगृह अब भी अखंड था। वहीं पर एक वृद्ध पुजारी बैठा मंत्रों के उच्चारण में लीन था। पुष्पा आगे बढ़ी और पुजारी के सामने हाथ जोड़ कर विनती की—

    "पंडितजी, कृपा करें… हमें अभी और इसी क्षण विवाह करना है। हमारे पास समय नहीं है… कोई देख लेगा तो सब बर्बाद हो जाएगा।"

    पुजारी ने एक पल उनकी आँखों में देखा। फिर बिना कोई प्रश्न किए, धीरे से उठ खड़ा हुआ।

    "मंदिर के पीछे एक छोटी कुटिया है। बेटी, वहाँ जाकर अपने विवाह के वस्त्र धारण कर ले। मैं यहीं तैयारी करता हूँ।"

    पुष्पा ने थैले में से लाल जोड़ा निकाला। धूल में लिपटा, लेकिन सपनों से भीगा। मंदिर की बाईं ओर पगडंडी पर चलकर वह उस छोटी-सी कुटिया तक पहुँची। झाड़ियाँ रास्ता रोकती थीं, लेकिन वह बिना रुके बढ़ती गई।

    कुटिया में पहुँचते ही उसने द्वार बंद किया। बाहर से सरजू की आवाज़ सुनाई दे रही थी—"जल्दी आओ, पुष्पा… मैं यहीं हूँ।"

    पुष्पा ने लाल जोड़ा पहना। दर्पण नहीं था, लेकिन उसने आँखें बंद कीं और माँ का आशीर्वाद अपने माथे पर महसूस किया।

    तभी हवा में एक अजीब-सी गंध उठी… जैसे लोबान और पुराने खून की मिली-जुली सी गंध। उसने सिर झटका और द्वार खोला।

    मंदिर में लौटते ही, पुजारी ने मंत्रों का उच्चारण शुरू किया। दीयों की लौ काँप रही थी। सरजू ने उसके गले में मंगलसूत्र पहनाया, और सिंदूर भरा और देखते ही देखते दोनों ने साथ फेरे भी ले लिया | पुजारी ने आशिर्वाद दिया | दोनों खुशी से गले मिले
    " अब हमें हमारे परिवार कभी अलग नहीं कर सकेगे | पुष्पा आज हमारे प्यार कि जीत हुई है, " सरजू ने खुश से मुस्कुरा कर कहा |

    अब सब कुछ शांत और सुखद लग रहा था | अचानक ही एक तेज़ आंधी का झोंका आ गया। मंदिर के चारों ओर से अजीब तरह की आवाज़ें आ रही थीं, जैसे कोई बुरी ताकत उन्हें अपने घेरे में घेरने के लिए तैयार हो।

    "क्या हो रहा है?" पुष्पा ने भयभीत स्वर में पूछा, और सरजू ने भी डरते हुए उसका हाथ पकड़ लिया।


    "यह क्या हो रहा है?" पुष्पा ने विस्मित होकर पूछा।

    सरजू की आंखों में भी अजीब सा डर था। वह जानता था कि यह शादी कोई साधारण शादी नहीं थी।

    "हम गलत जगह पर आ गए हैं!" सरजू चिल्लाया।



    मंदिर की दीवारें अचानक सिहर उठीं। हवा की तीव्र गूँजों में जैसे कोई शराप बुदबुदा रहा था। सरजू और पुष्पा एक-दूसरे का हाथ थामे खड़े थे, लेकिन जैसे ही दीयों की लौ एक झटके में बुझी, पूरा मंदिर घुप्प अंधकार में डूब गया।

    और तभी... एक काला धुआँ मंदिर के गर्भगृह से उठने लगा।

    वह धुआँ न कोई साधारण धुंध थी, न ही कोई प्राकृतिक हवा। उसमें कुछ था—कुछ ऐसा जिसे देख कर देह की सारी चेतना जैसे ठिठक जाए। धुआँ धीरे-धीरे चारों ओर फैलने लगा। मंदिर की दीवारों पर लहराता, पुरानी मूर्तियों की आँखों से टकराता, वह अब सरजू और पुष्पा के चारों ओर चक्रवात-सा घूमने लगा।

    पुष्पा की आँखें चौड़ी हो गईं। उसने सरजू का हाथ और कसकर थाम लिया, लेकिन उसका चेहरा स्याह पड़ने लगा।

    "सरजू...!" वह चीखी, लेकिन उसकी आवाज़ जैसे धुएँ में घुट गई।

    पुजारी ने आंखें फाड़ कर देखा। उसने कुछ मंत्रों का उच्चारण शुरू किया, लेकिन उसके शब्द उस धुएँ में समा कर कहीं खो गए। उसकी आँखें भय से फैल गईं।

    धुआँ अब जीवित था।


    आंधी की गूंज, मंदिर की घंटियों की विकृत झंकार में मिल गई।

    और अगले ही पल...

    सब कुछ थम गया।

    जब सरजू को होश आया, वह मंदिर की शिला पर गिरा पड़ा था। पुजारी वहीँ खड़ा, पत्थर-सा जड़। चारों ओर चुप्पी। लेकिन वह चुप्पी, मौन नहीं... मृत्यु का सन्नाटा था।

    सरजू ने आँखें खोलीं, उसका सिर घूम रहा था। उसने चारों ओर देखा।

    "पु...पुष्पा?" उसकी आवाज़ काँपी।

    "पुष्पा!" उसने पुकारा।

    मंदिर खाली था।

    मंडप के बीच में अब कुछ नहीं था... सिर्फ एक लाल दुपट्टा।

    धूल से सना, मंदिर की सीढ़ियों पर बिखरा हुआ… जैसे अभी-अभी किसी की आत्मा उस पर से गुज़री हो।

    सरजू की आँखें फटी रह गईं। उसने पुजारी की ओर देखा, लेकिन वह भी सन्न था—शब्दहीन, शापित।

    और फिर...

    "पुष्पा!!"

    सरजू का गला फट गया। उसने पागलों की तरह मंदिर के हर कोने में दौड़ना शुरू किया।

    "पुष्पा!!"
    "कहाँ हो तुम!!"

    उसकी चीखें मंदिर की दीवारों से टकरा कर लौटने लगीं।

    "पु…पुष्पा, मैंने तुझे खो दिया…?"

    वह दुपट्टा उठाया और सीने से लगा लिया।

    "तूने वादा किया था… साथ चलने का… तो फिर चली कहाँ गई…"

    अब वह रो नहीं रहा था… वह चिल्ला रहा था। उसकी चीखों में एक ऐसा खालीपन था जो किसी आत्मा को भी काँपने पर मजबूर कर दे।

    "पु…ष्पा…!!"

    जंगल के सन्नाटे में एक ही नाम गूंजता रहा…
    और मंदिर की टूटी छत से लाल जोड़े की परछाईं धीरे-धीरे ओझल होती रही।

  • 2. लाल जोडे़ का शराप - Chapter 2

    Words: 993

    Estimated Reading Time: 6 min

    अध्याय: "लाल जोड़े का रहस्य"

    रात का अंधेरा धीरे-धीरे अपने गहरे साए में हर चीज़ को लपेट रहा था। चाँद की धुंधली रौशनी जंगल की शाखाओं से छनकर ज़मीन पर पड़ रही थी। उस अंधेरे में एक विशाल बरगद का पेड़ खड़ा था, जिसकी जटिल शाखाएँ जैसे किसी अनजाने शैतान का रूप ले रही थीं। पेड़ की शाखाओं में एक उल्लू बैठा था, लेकिन वह उल्लू बाकी सामान्य उल्लूओं से कुछ अलग था। उसकी आँखों में कुछ खौफनाक था, जैसे वह कोई और हो, किसी और दुनिया का प्राणी। उसकी आंखें घने अंधेरे में चमक रही थीं, जैसे वह देख रहा हो कुछ ऐसा जिसे कोई और नहीं देख सकता।

    वह उल्लू सामने बने हवेली जैसे घर की तरफ देख रहा था। घर के उस कमरे में एक खिड़की खुली थी, और उस खिड़की से उस उल्लू को एक लड़की का चेहरा दिखाई दे रहा था। लड़की चुपचाप सो रही थी, बेखबर, पूरी दुनिया से नजरे हटाए। उसके चेहरे पर मासूमियत और सुकून था, मानो वह किसी डर या खौफ से अनजान हो। लेकिन तभी घर के बाहर हवा की तेज़ रफ्तार के साथ एक साया आया। एक चोर खिड़की से अंदर घुस गया। चोर ने पहले चारों ओर देखा, जैसे किसी से बचकर आ रहा हो, फिर धीरे से कमरे में कदम रखा। वह खड़ा होकर लड़की को देखता रहा, उसकी आँखों में अजीब सी चमक थी, जैसे उसे लड़की के साथ कुछ करना था।

    चोर धीरे-धीरे लड़की के पास पहुंचा। लड़की सो रही थी, अपनी चादर से ढकी हुई। चोर ने चादर को धीरे से उसके सीने से नीचे किया, और लड़की की कलाई तक चादर को खींच लिया। उस लड़की ने बस एक साधारण सी टी-शर्ट पहनी हुई थी, जो थोड़ा ढीली थी। उसकी गर्दन का हिस्सा थोड़ा खुला हुआ था। चोर का दिल तेज़ी से धड़कने लगा, जैसे उसमें कोई हिंसक भावना जाग उठी हो। उसने लड़की के चेहरे पर हाथ फेरा, धीरे-धीरे, उसकी त्वचा को महसूस करते हुए। फिर वह उस लड़की के पास और करीब हो गया, उसके शरीर के पास, जैसे वह किसी जादुई दुनिया में खो चुका हो। लड़की अब भी सो रही थी, लेकिन एक अजीब सी दहशत का संकेत उसके चेहरे पर था, जैसे वह किसी बुरे ख्वाब में खो चुकी हो।

    अचानक, लड़की की आँखें खुली। उसने चोर को देखा और उसका चेहरा डर से पीला पड़ गया। वह चिल्लाने ही वाली थी कि चोर ने जल्दी से उसका मुँह दबा लिया। लड़की की आँखें अब बड़ी हो गई थीं, उसके दिल की धड़कन तेज़ हो गई थी। वह जान चुकी थी कि वह अब अपनी जान खतरे में देख रही थी। लेकिन चोर ने उसका मुँह नहीं छोड़ा। लड़की की आँखों में डर की गहरी लकीरें खिंचने लगीं। वह संघर्ष कर रही थी, लेकिन चोर का पंजा और भी कसने लगा।

    फिर कुछ समय बाद, एक घोर सन्नाटा फैल गया। कमरे का माहौल घना और खौफनाक हो गया था। कमरे का दृश्य अब बदल चुका था। लड़की की चादर कमरे के फर्श पर पड़ी थी, जैसे किसी ने उसे जल्दी से फेंक दिया हो। उसके कपड़े भी वहीं पड़े थे। लड़की की आंखें अब शांत थीं, लेकिन उसका शरीर बिल्कुल निस्तेज हो चुका था। बेड पर एक औरत और एक आदमी का साया था, जो एक दूसरे में समा चुके थे। हवा की लहर भी अब जैसे बीच से नहीं जा सकती थी। दोनों इतने करीब थे कि अब हवा भी उनके बीच से नहीं गुजर सकती थी।

    तभी अचानक कमरे के दरवाजे पर खटखटाहट हुई। दोनों ने चौंक कर अपने आप को अलग किया। डर की एक लहर उनके दिलों में दौड़ गई। यह क्या था? वह क्या था? डर और अनजानी ताकतें उनकी आत्माओं को निगलने के लिए तैयार थीं।

    अगले दिन सुबह, देवगढ़ की पंचायत का आयोजन हुआ। गांव में एक हलचल थी, लोग इधर-उधर इकट्ठा हो रहे थे। सभी की आँखों में तनाव था। पंचायत के सदस्य बैठ चुके थे, और उन दोनों के खिलाफ सजा सुनाने की प्रक्रिया चल रही थी।

    "यह क्या है, सरपंच जी?" लड़की ने हिम्मत जुटाकर पूछा।

    सरपंच की आँखों में गहरी शांति थी, लेकिन उसकी आवाज़ में कुछ छुपा हुआ था। "प्यार करना कोई जुर्म नहीं है, लेकिन इस प्यार को सार्वजनिक रूप से दिखाना हमारे गांव के नियमों के खिलाफ है। तुम दोनों को सजा दी जाएगी।"

    लड़का और लड़की चुप थे, उनका चेहरा पीला था, लेकिन उन्होंने कोई विरोध नहीं किया। वे समझ गए थे कि वे फंस चुके थे। सरपंच ने फिर एक और बात कही, "तुम दोनों अब शादी कर सकते हो, लेकिन एक शर्त है, दूल्हन को लाल जोड़ा नहीं पहन सकती है।"

    लड़की हैरान और परेशान थी। "क्या?" उसने अविश्वास में पूछा। "यह क्या कह रहे हैं सरपंच जी?"

    सरपंच ने फिर से कहा, "देवगढ़ का यही नियम है। यह हमारे गांव का पुराना रीति रिवाज है। लाल जोड़े का पहनना एक श्राप है। जो भी लड़की लाल जोड़ा पहनती है, वह हमेशा के लिए गायब हो जाती है। यह एक प्राचीन श्राप है।"

    लड़का और लड़की चुपचाप सुन रहे थे, जैसे उनके भीतर की दुनिया टूट रही हो। लड़की की आँखों में डर और उलझन थी, लेकिन उसने अंत में सरपंच की बात मान ली।

    "लेकिन सरपंच जी, मुझे समझ नहीं आता, ये सब क्यों?" लड़की ने आखिरकार पूछा।

    सरपंच ने धीरे से कहा, "यह सब हमारे गांव की पुरानी कहानी से जुड़ा है। कई साल पहले, एक लड़की ने लाल जोड़ा पहना था और वह अचानक गायब हो गई। तब से यह नियम बना, और आज भी यह लागू है। लाल जोड़ा पहनने का मतलब है एक खौफनाक शाप से टक्कर लेना।"

    गांव के लोग धीरे-धीरे उस शर्त को मानने लगे, और लड़की और लड़का एक-दूसरे की ओर देख रहे थे, जैसे वे कुछ बड़ा और डरावना महसूस कर रहे हों। क्या यह सच था? क्या इस गांव में लाल जोड़े का पहनना किसी को गहरे खौफ में डाल सकता था?

    यह वह सवाल था, जो अब दोनों के दिलों में था, और उनका भविष्य एक अनजान सजा की ओर बढ़ रहा था।

  • 3. लाल जोडे़ का शराप - Chapter 3

    Words: 1002

    Estimated Reading Time: 7 min

    लाल रंग की शाप

    गाँव के सन्नाटे में घिरी हुई वह पुरानी हवेली एक खौफनाक किस्से के रूप में जानी जाती थी। हवेली की दीवारें बेजान सी, लेकिन रहस्यमय ढंग से खड़ी थीं, मानो वर्षों से किसी के बिना कदमों के दबाव के। गाँव में जब भी हवेली का नाम लिया जाता, तो सबके चेहरे पर एक अजीब सा डर और चिंता का भाव आ जाता। कहानी थी कि वहाँ किसी ने कदम रखा, तो वह कभी लौटकर नहीं आया। हर किसी के मन में इस हवेली के बारे में शंका और डर बैठा हुआ था, लेकिन उस दिन एक अजीब सा मोड़ आया, जिसने सबकी मान्यताओं को चकनाचूर कर दिया।

    गाँव की एक मासूम लड़की, नंदिनी, इस गाँव की सख्त परंपराओं से अनजान थी। वह अपनी शादी की तैयारियों में व्यस्त थी, और उसकी माँ, लगातार उसे सलाहें दे रही थी। नंदिनी के चेहरे पर एक आभा थी, जो बताती थी कि वह इस नए अध्याय में पूरी तरह से खुश थी। उसके घर में उत्सव का माहौल था, लेकिन माँ कि आँखों में एक उदासी और चिंता छिपी हुई थी। हर काम बड़े धैर्य और समर्पण से किया जा रहा था, जैसे कि समय एक ठहरी हुई नदी हो। लेकिन माँ की परेशानी उसके मन में कहीं गहरे में छुपी हुई थी।

    वह नंदिनी के पास आई, और एक ठहरी हुई आवाज में बोली, "तुम जानती हो ना, हमारी परंपरा?"

    नंदिनी, जो शहर में पढ़ाई कर चुकी थी और इस गाँव की कठोर परंपराओं से पूरी तरह से अनजान थी, कुछ देर के लिए चुप हो गई। फिर उसने अपनी माँ से जिद करते हुए कहा, "माँ, मुझे लाल जोड़ा चाहिए। हर दुल्हन लाल रंग में बहुत सुंदर लगती है।"

    माँ का चेहरा एकदम बदल गया। उसकी आँखों में एक गहरी चिंता और डर का मिश्रण था, जिसे नंदिनी ने कभी महसूस नहीं किया था। उसकी आवाज़ में कुछ ऐसा था जो नंदिनी को समझ नहीं आया। "नहीं, तुम लाल रंग नहीं पहन सकती। यह सब तुम्हारी भलाई के लिए ही है।"

    नंदिनी ने थोड़ा चिढ़ते हुए कहा, "माँ, ये सब तो बकवास है! गाँव वालों को समझ में नहीं आता कि शराप और इस रंग का कोई रिश्ता नहीं है।"

    माँ की आँखों में एक हल्का सा डर था, लेकिन उसने अपने आप को संभालते हुए कहा, "बेटा, तुम शहर से पढ़कर आई हो। तुम्हें यह सब विश्वास में नहीं आता, लेकिन यह सच है। देवगढ़ में जो भी दुल्हन लाल रंग पहनती है, वह या तो वो गायब हो जाती है हमेशा हमेशा के लिए | तुम्हें इस पर यकीन नहीं है, तो क्या फर्क पड़ता है? सच तो सच ही रहेगा।"

    नंदिनी का दिल ज़रा सा काँप गया, लेकिन वह फिर भी अपनी जिद नहीं छोड़ी। उसकी माँ ने आखिरी बार कहा, "तुम जो चाहो पहन सकती हो, लेकिन ध्यान रखना, देवी माँ की आशीर्वाद से ही तुम्हारी शादी सफल होगी।"

    यह सुनकर नंदिनी कुछ पल के लिए चुप हो गई, और उसकी आँखों में सवाल उठने लगे। क्या यह सच है? क्या वह भी अपनी माँ की तरह इस डर और विश्वास से बंधी हुई थी? लेकिन उसके मन में शादी की तैयारियाँ, सजावट और लाल रंग के जोड़े का ख्याल उसे हर वक्त परेशान कर रहा था। वह अपनी माँ की बातों को नजरअंदाज करते हुए, अपनी इच्छा को पूरा करने के लिए तैयार थी।

    तभी, कमरे के एक कोने में खड़ा वह उल्लू, जो इस पूरी बातचीत को चुपचाप सुन रहा था, अचानक चुप हो गया। उसकी आँखों में कुछ रहस्यमय चमक थी। उसने देखा कि नंदिनी के चेहरे पर अजीब सा डर था, लेकिन वह समझ नहीं पा रही थी कि उसकी माँ क्यों घबराई हुई थी। उल्लू, जो कई सालों से हवेली के आसपास था, धीरे-धीरे उड़कर खिड़की की ओर बढ़ा। उसकी आँखों में एक गहरी साजिश छिपी हुई थी, और उसकी दिशा भी किसी अज्ञात रास्ते की ओर थी। एक पल में, जैसे ही सभी की निगाहें दूसरी ओर मुड़ीं, उल्लू खिड़की से बाहर उड़ने लगा।

    उसकी दिशा सीधे उस हवेली की ओर थी, जिसके बारे में गाँव में तमाम तरह की कहानियाँ थीं। उल्लू ने हवेली की ओर उड़ने की शुरुआत की, और हवा में जैसे अज्ञात दिशा में उसका सफर तय हुआ। हवेली की ऊँची और संकरी खिड़की से वह अंदर घुस गया, और फिर अंधेरे में उसकी आकृति ग़ायब हो गई। जैसे ही वह अंदर पहुँचा, हवेली की शांति और सन्नाटा उसकी उपस्थिति से और भी गहरा हो गया। हवेली के भीतर छाया, रहस्य और उन घटनाओं का आलंब था, जो वर्षों से अनकही थीं।

    नंदिनी, जो अब तक अपनी माँ के आदेशों को नकारने की सोच रही थी, अपनी माँ के साथ बैठकर हल्के से सास ले रही थी। उसे लगा कि वह इस गाँव की पुरानी परंपराओं को छोड़कर अपनी दुनिया में पूरी तरह से घुसी हुई थी, लेकिन अब हवेली की ओर एक अजीब आकर्षण खींचता हुआ महसूस हो रहा था। क्या वह उसी रास्ते पर चलने जा रही थी, जिस रास्ते पर न जाने कितने लोग खतरों से गुजर चुके थे?

    उल्लू की उपस्थिति, जो अब हवेली के अंधेरे में छुप चुका था, एक संकेत था कि कुछ अजीब घटित होने वाला था। उसकी आँखों में वह चमक जो पहले कभी नंदिनी ने देखी थी, अब उसकी आँखों में चमकने लगी थी। क्या वह भी किसी शाप से जूझने वाली थी?

    वहीं, हवेली के भीतर, एक अदृश्य शक्ति जागृत हो रही थी। उस शक्ति के नीचे, हवेली की दीवारें धीरे-धीरे फड़फड़ाने लगीं, जैसे किसी पुरानी कहानी के अनकहे अध्याय फिर से शुरू हो रहे हों। हवेली की संकरी गलियाँ, जिनमें समय की धारा रुक सी गई थी, अब और भी गहरी हो रही थीं। उल्लू की उपस्थिति, नंदिनी के लाल रंग के जोड़े की जिद, और गाँव की अनकही परंपराएँ—सब कुछ एक बड़ी साजिश की ओर बढ़ रहा था।

    क्या नंदिनी अपनी माँ के डर और चेतावनियों को समझ पाएगी? क्या वह लाल रंग में अपना जोड़ा पहनेगी, या फिर हवेली की छाया उसे एक नई दुनिया की ओर खींच लेगी, जहाँ अतीत और भविष्य एक साथ मिलकर डर और रहस्य की गाथा गाएंगे?

  • 4. लाल जोडे़ का शराप - Chapter 4

    Words: 891

    Estimated Reading Time: 6 min

    चैप्टर: "लाल जोड़े की तर्कशक्ति"

    गांव की हवाओं में अजीब सी खामोशी थी। मंजर बिल्कुल बदल चुका था, सब कुछ ऐसा लग रहा था जैसे किसी ने अचानक सबको एक खामोश डर में लाकर फेंक दिया हो। नंदिनी ने फोन पर उसे सारी बातें बताई थी, और संजय ने भी वही सुना था जो वो सुन चुकी थी। यह सब एक गांव से दूसरे गांव तक फैल चुका था—गांव में एक अजीब अफवाह थी, और नंदिनी का मन पूरी तरह से इस पर उलझ चुका था। वह उस दिन की इंतजार कर रही थी, जब वह अपने शादी के दिन उस अफवाह का विरोध करेगी।

    नंदिनी ने उसे समझाया, "तुम्हें याद है ना, उस दिन की बातें? वह लाल जोड़े के बारे में, जो हम दोनों के गांव में अब तक सुनाई जाती थीं। कहते थे कि अगर कोई लड़की शादी में लाल जोड़ा पहने तो उसकी जिंदगी खत्म हो जाती है। पर मुझे लगता है, इस सब में कोई सचाई नहीं है। तुम देखना, मैं लाल जोड़ा पहन कर सबको दिखाऊंगी कि ये सब सिर्फ एक डर है, कुछ और नहीं।"

    संजय ने संजीदगी से कहा, "तुम सही कह रही हो, पर कभी-कभी डर इतना गहरा होता है कि हमें खुद भी अपने फैसलों पर शक होने लगता है। लेकिन तुम्हारा प्यार ही तो मुझे सबसे ज्यादा मजबूती देता है। तुम जो चाहो, वही करो। मैं तुम्हारे साथ हूं।"

    नंदिनी ने मुस्कुराते हुए फोन रखा और अपने भीतर एक निश्चय महसूस किया। शादी का दिन जैसे-जैसे नजदीक आ रहा था, वह किसी भी डर को पीछे छोड़ने का मन बना चुकी थी। वह जानती थी कि गाँव में क्या अफवाहें फैल चुकी हैं, लेकिन अब वह किसी भी भूत-प्रेत के डर से नहीं डरने वाली थी।

    शादी का दिन आ चुका था, और नंदिनी ने अपनी पूरी ताकत लगा दी थी। सारा गांव इस समय शादी के जश्न में डूबा हुआ था। मंडप सजा हुआ था, हल्दी, मेहंदी, सभी रीत-रिवाज पूरे हो चुके थे, लेकिन सबकी नजरें उस एक पल पर थी जब नंदिनी शादी के लाल जोड़े में मंडप में पहुंचेगी।

    वह जैसे ही लाल जोड़े में मंडप तक पहुंची, सभी के चेहरे पर डर की हल्की सी लकीर खिंच गई। लड़की ने आशीर्वाद लेते वक्त एक अजीब सा आत्मविश्वास दिखाया। उसकी आवाज में एक स्पष्टता थी, "मैंने कहा था ना, अगर मैं लाल जोड़ा पहनूंगी तो मुझे कुछ नहीं होगा। मैं बिल्कुल ठीक हूं, देखो ना!"

    नंदिनी ने यह कहते हुए सभी को हैरान कर दिया, लेकिन उसके शब्दों में एक अदृश्य तनाव था। सभी ने देखा कि नंदिनी के चेहरे पर कुछ और ही था, जो उनसे छिपा था। उसे देखकर ऐसा लगा जैसे किसी ने किसी पुराने डर को फिर से जिंदा कर दिया हो।

    इसी बीच, शादी की खुशियों के बीच एक अजनबी शख्स, एक बिखारी, मंडप के पास आकर खड़ा हो गया। उसकी आंखों में एक विचित्र सी चमक थी, और उसका चेहरा बहुत ही डरावना था। उसके बाल उलझे हुए थे, और उसकी आवाज में गहरी दहशत थी। वह हंसी के साथ बोला, "शराप अब भी बाकी है, सब खत्म होने वाला है, कोई नहीं बचेगा। मौत खुद आ रही है, और वह लाल जोड़े में ढकी है।"

    सभी का दिल धक से रह गया। नंदिनी की बातें अचानक निरर्थक लगने लगीं। उसकी बेमेल तर्कशक्ति के बावजूद, इस अजनबी के शब्द जैसे कांपते हुए हवा में तैरने लगे। शादी की सारी खुशी जैसे एक पल में गायब हो गई हो। लोग सकते में थे, उनकी सांसें थम सी गईं।

    लड़की ने उस बिखारी को नजरअंदाज करने की कोशिश की, लेकिन उसकी हंसी और अजीब शब्दों ने जैसे सबको घेर लिया। बिखारी ने चिल्लाते हुए कहा, "तुम लोग क्या समझते हो? लाल कपड़े पहनने से बच सकते हो? नहीं, तुम सब खत्म होने वाले हो। यह किसी अफवाह का नहीं, एक शाप का परिणाम है।"

    नंदिनी की हंसी भी अब धीमी हो गई थी, जैसे उसकी हिम्मत टूट सी गई हो। उसकी आंखों में एक आंतरिक संघर्ष था, जो बाहरी खामोशी में छिपा हुआ था। उसकी आंखों में झलकने वाली डर की हल्की सी रेखा साफ़ दिखने लगी थी। उसने देखा कि गांव के सभी लोग धीरे-धीरे उस बिखारी से घबराकर हटने लगे थे। उसकी बातों ने सभी के दिलों में एक अजीब सी चुप्पी घेर ली थी।

    नंदिनी ने धीरे से अपने पति का हाथ पकड़ लिया और कहा, "यह सब केवल अफवाहें हैं। मुझे कोई डर नहीं है।" लेकिन उसके भीतर एक भय का साया था।

    शादी के पूरे समारोह के दौरान, हर किसी को ऐसा महसूस हो रहा था जैसे कुछ गलत होने वाला है। हवा में एक शीतलता थी, जैसे समय ठहर गया हो। और तभी एक कटी-फटी हंसी का शोर गूंजा। सबकी नजरें उसी बिखारी पर पड़ीं, जो अब भी मंडप के पास खड़ा था। उसकी हंसी जैसे एक बुरे संकेत की तरह थी, जो धीरे-धीरे सच्चाई के रूप में सामने आ रहा था।

    नंदिनी की आत्मा जैसे किसी भी पल एक बड़े डर का सामना करने के लिए तैयार हो रही थी। उसकी शादी का दिन अब तक अनकहे डर में बदल चुका था, और कुछ ही मिनटों में, यह भय और भी गहरा हो जाएगा।

    वह इस अजनबी के शब्दों को नजरअंदाज करने की कोशिश करती रही, लेकिन अब उसे महसूस हो रहा था कि वह डर उसे और ज्यादा पकड़ रहा था। मंडप में, हवाओं में और रिश्तों में एक अजीब सी खामोशी पसरी हुई थी।

  • 5. लाल जोडे़ का शराप - Chapter 5

    Words: 1163

    Estimated Reading Time: 7 min

    शीर्षक: धुंए के पार – जब वहम साँस लेने लगे

    कार धीरे-धीरे गाँव की सीमाओं से आगे निकल रही थी, लेकिन जैसे-जैसे उसका पहिया कच्ची सड़क पर रेंगता गया, माहौल की हवा भी बदलने लगी। रास्ता दो तरफ से बबूल के सूखे पेड़ों से घिरा था, जो झुककर जैसे कोई अनदेखा बोझ ढो रहे थे। उनकी टहनियाँ हवा में अजीब-अजीब आकृतियाँ बना रही थीं—जैसे कोई छाया अपने हाथ पसार रही हो। उस सूने रास्ते पर हवा की सरसराहट भी ऐसी थी जैसे कोई साँसें ले रहा हो।

    कार की खिड़की से बाहर देखते हुए संजय की आँखें एक जगह ठहर गई थीं। दूर कहीं, मिट्टी के पुराने मकान, जिनकी दीवारें अब झड़ने लगी थीं, किसी भूतिया अतीत की गवाही दे रहे थे। वह गाँव जो कभी उसका ठिकाना था, अब पराया लगने लगा था—जैसे कोई भूला हुआ सपना जो अब दु:स्वप्न बन चुका हो।

    बगल में बैठी नंदिनी की मुस्कान संजय को चुभने लगी थी। "हमारे गाँव में वहम बहुत है, देखो सब ठीक है," उसने हल्की हँसी के साथ कहा था, लेकिन उसकी हँसी उस घबराई हुई हवा में जैसे गुम हो गई।

    संजय ने उसे कुछ देर तक देखा। उसकी आँखों में अजीब सी स्थिरता थी—जैसे वह कुछ छुपा रही हो। वह बोला, “तुम कह रही हो कि सब ठीक है, पर ऐसा क्यों लग रहा है कि हम कहीं ग़लत रास्ते पर हैं?”

    नंदिनी ने सिर झुका लिया और बुदबुदाई, “हमेशा कुछ ऐसा होता है, जो किसी को दिखता नहीं… ये जो लाल जोड़ा है, ये सब बातें… बातों का हिस्सा हैं… लेकिन जिस दिन तूफान आता है… सब बदल जाता है।”

    उसका स्वर बर्फ़ की तरह ठंडा था, जैसे हवा के रुख से पहले की ख़ामोशी।

    तभी हवा ने एक झटका लिया। एक लहर सी आई, पेड़ों की टहनियाँ एक साथ चीख उठीं। हवा अब न सिर्फ बह रही थी, वह बोलने लगी थी। संजय ने घबराकर कार की गति बढ़ा दी, लेकिन उसकी नजर बार-बार रियर व्यू मिरर में जा रही थी—जैसे कुछ पीछा कर रहा हो।

    सामने की सड़क अब धुंध से भरती जा रही थी। यह कोई आम कोहरा नहीं था—यह धुंआ था, गाढ़ा, सांस को चीरता हुआ धुंआ, जो अचानक कार के चारों ओर फैल गया। नंदिनी का चेहरा एकदम सर्द हो गया। उसने अपना दुपट्टा कसकर सिर पर खींच लिया। संजय ने देखा—उसकी उंगलियाँ काँप रही थीं, जैसे कोई डर उसे जकड़ रहा हो, लेकिन वह कुछ नहीं बोली।

    “क्या हो रहा है?” उसने झिझकते हुए पूछा।

    नंदिनी की आंखों में अब चमक थी, वो चमक जो किसी रहस्य की जानकार के चेहरे पर होती है, पर जिसे बताना मना हो। तभी—एक दिल दहला देने वाली चीख! इतनी तेज, इतनी कंटीली कि जैसे किसी ने उसकी आत्मा में पंजा मार दिया हो। वह कहीं बाहर से नहीं, कार के भीतर ही से आई थी।

    कार की हेडलाइट्स धुंए को चीरने में असमर्थ हो रही थीं। बाहर अब सब कुछ धुँधला और भयानक था। पेड़ हवा में ऐसे हिल रहे थे जैसे कोई अदृश्य ताकत उन्हें झकझोर रही हो। और वह आवाज़… अब वह सिर्फ चीख नहीं थी, वह गूंज बन चुकी थी। एक गहरी, फुसफुसाती हुई गूंज, जो कानों में नहीं, सिर के भीतर गूंज रही थी।

    “हमारे गाँव में वहम है…” संजय ने बुदबुदाया, उसकी सांसें भारी हो गई थीं। उसने ब्रेक लगाया और कार रोकी। बाहर का दृश्य भयानक था। बिजली की चमक बार-बार आसमान को चीर रही थी, और हर बार जब बिजली गिरती, पेड़ की टहनियाँ किसी भयावह आकृति में बदल जातीं। किसी ने कहा था, वहम आँखों से नहीं दिखते, वो कानों से सुनाई देते हैं… और आत्मा से महसूस होते हैं।

    कार से बाहर निकलते ही, संजय को लगा जैसे किसी अदृश्य पर्दे को उसने चीर दिया हो। हवा अब और तेज़ थी, गालों को चीरने वाली, कपड़ों को उड़ा देने वाली। गाँव का वह किनारा अब गाँव नहीं रहा था—वह एक मुर्दा गलियारा बन चुका था, जहाँ हर दरवाज़ा आधा खुला था, और हर छत जैसे गवाह थी किसी अदृश्य त्रासदी की।

    कच्ची ज़मीन पर उसके कदमों की आवाज़ भी अब अलग सुनाई दे रही थी। हर कदम जैसे किसी और की परछाई को कुचल रहा हो। पेड़ की टहनियों पर बैठी कौए अब उड़ चुके थे, और उनके पीछे एक डरावना सन्नाटा रह गया था। और उस सन्नाटे में, अचानक—फिर वही चीख!

    पर इस बार वह बहुत पास से आई थी। संजय ने चौंककर पीछे देखा—नंदिनी नहीं थी। उसकी सीट… खाली। वहां बस उसका दुपट्टा पड़ा था—लाल रंग का, जैसे किसी ने उसे जबरन खींचकर गायब कर दिया हो। उसकी सांस थम गई। दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगा।

    उसने आवाज़ लगाई, “नंदिनी!!”

    कोई उत्तर नहीं।

    फिर… एक धीमी, बहुत धीमी सी सरसराहट, जैसे किसी ने उसके कान के ठीक पास कुछ कहा हो।

    "वो अब वहीं है… जहाँ वहम साँस लेते हैं…"

    संजय की आँखें फटी की फटी रह गईं। वह चारों ओर घूमने लगा। हर दिशा में धुंआ था, पेड़ों की फुसफुसाहट थी, और हर कदम पर लग रहा था जैसे ज़मीन उसके पैरों के नीचे खिसक रही हो।

    और तभी—एक घर की ओर उसकी निगाह गई, जो कभी उसकी मुंह बोली दादी का घर था। खंडहर बन चुका था अब वो। लेकिन एक खिड़की में एक साया खड़ा था। लाल जोड़े में, सिर पर दुपट्टा डाले।

    “नंदिनी?” वह चीख पड़ा।

    साया हिला नहीं। बस खड़ा रहा।

    संजय बेकाबू हो गया। वो घर की ओर दौड़ा। हर कदम के साथ हवा का प्रतिरोध बढ़ता गया। जैसे हवा उसे रोकना चाहती हो, जैसे वक़्त खुद रुक गया हो। खिड़की के पास पहुँचते ही वो साया ग़ायब हो गया।

    अंदर गया तो घर बिल्कुल वीरान था। फर्श पर मिट्टी, छत से लटकती जाली, दीवारों पर उभरे हाथों के निशान। वह सब कुछ जो कभी ज़िन्दा था, अब सड़ चुका था।

    तभी एक दरवाज़ा खुद-ब-खुद खुला। अंदर एक कमरा, और कमरे के बीचोंबीच एक झूला… झूले पर एक गुड़िया बैठी थी, लाल जोड़े में।

    संजय ने कदम पीछे खींचे, लेकिन दरवाज़ा बंद हो गया।

    झूले की चरमराहट अब शोर बन चुकी थी। और उस गुड़िया की आँखें… अब जीवित लग रही थीं।

    फिर, पीछे से वही फुसफुसाहट—

    “मैंने कहा था न… तूफान आने पर सब बदल जाता है…”

    संजय ने घूमकर देखा, और वही चेहरा—नंदिनी का—मगर उसकी आँखें सफ़ेद थीं, होंठ सिल दिए गए थे, और चेहरे पर कोई भी भाव नहीं। उसकी देह हवा में तैर रही थी, लेकिन उसके पैर ज़मीन से ऊपर थे।

    संजय की चीख भीतर ही घुट गई। उसकी टांगों में जैसे जान नहीं रही। दरवाज़ा फिर से खुला, और झूला बंद हो गया।

    संजय बाहर भागा। पेड़ों के बीच, उन गलियों से होते हुए, हवा को चीरता, अंधेरे से भिड़ता हुआ… लेकिन अब रास्ता नहीं मिल रहा था। गाँव अब गाँव नहीं रहा था—वह एक भूल-भुलैया बन चुका था।

    चारों ओर बस आवाजें थीं। कोई बुदबुदा रहा था, कोई चीख रहा था। और हर आवाज़ में एक नाम गूंजता था… “संजय… संजय… तू लौट आया?”

    फिर एक अजीब सी ख़ामोशी…

    और फिर एक झटका।

    धुंआ अचानक छँटने लगा। और वह फिर से कार में था। हाथ स्टेयरिंग पर। नंदिनी की सीट… खाली।

  • 6. लाल जोडे़ का शराप - Chapter 6

    Words: 1095

    Estimated Reading Time: 7 min

    चैप्टर – अंधेरे की छांव में

    गाँव में पंचायत का माहौल तनावपूर्ण था। चारों ओर लोग इकट्ठा थे और उनकी बातें कानों में रुकावट डाल रही थीं, जैसे कुछ गहरे रहस्य की तलाश हो। ठाकुर परिवार का चेहरा उदास था, और नंदिनी की माँ, पूरी तरह से टूट चुकी थी। उसकी आँखों में एक अपार दर्द था, जैसे किसी ने उसका सब कुछ छीन लिया हो। आंसू लगातार उसके चेहरे से बह रहे थे, और वह बार-बार अपनी बेटी को पुकार रही थी।

    “मुझे मेरी बेटी वापस चाहिए, सरपंच! मेरी बेटी कहाँ गई?” माँ के शब्द बेजुबान थे, जैसे कोई मर्मांतक चीख हो जो बस बाहर आकर रह गई हो।

    सरपंच ने कड़ा चेहरा बनाए हुए कहा, “बेटी से कहा था, लेकिन उसने किसी की नहीं सुनी। अब देखो, जो होना था, हो चुका है। वो लाल जोड़े वाली शराप, जो उसे पहनने का शौक था, वही उसका अंत बन गई। आज से कोई भी अपनी बेटी को इस तरह की गलती नहीं करने देगा। वरना, उसका भी वही अंजाम हो सकता है।“

    गाँव के लोग गहरी खामोशी में थे। अब किसी को अपनी बेटी के लिए लाल जोड़ा पहनाने का ख्याल भी नहीं आता था। उनकी आँखों में भय था, और दिलों में अनकहे डर की गूंज थी। इस डर से, जो किसी को दिखाई नहीं देता था, लेकिन हर किसी को महसूस हो रहा था। नंदिनी की माँ के दर्द में एक अजीब सा रहस्य था, जैसे वह किसी अज्ञात ताकत के सामने हार चुकी हो।

    फिर एक साल का समय बीत गया। गाँव की गलियाँ अब भी उतनी ही सुनसान और डरावनी थी। बेशक, गाँव के लोग भूलने की कोशिश कर रहे थे, लेकिन डर उनके दिलों में गहरे तक समा चुका था। एक साल बाद, गाँव का डाक बगला में हलचल थी, जिसे देखकर गाँव वालों की धड़कनें तेज हो गईं। यह एक लंबा समय था, जब यह डाक बगला में हलचल थी। अब डाक बंगले में सफाई हो रही थी, और कुछ बदलाव दिख रहे थे।

    गाँव के कोने में एक पुराना, जीर्ण-शीर्ण घर था, जो अब लोगों की यादों में ताजा था। वह घर किसी पुराने खंडहर की तरह था, जिसका इतिहास उधड़ा हुआ था, लेकिन अभी भी कुछ ऐसी चीजें थीं, जो वहाँ एक रहस्य की तरह छुपी हुई थीं। डाक बगला के आसपास की गलियाँ शांति से भर गईं थीं, लेकिन किसी के मन में बेतहाशा डर था। सब सफाई कर रहे थे, जैसे कोई पुरानी कहानी फिर से रचने वाला हो।

    सफाई कर रहे एक आदमी ने जोर से कहा, “ठीक से करो, साहब आ रहे हैं।” इस शब्दों से, जैसे हवा में कोई कांपने वाली गूंज आ गई हो। हर व्यक्ति के दिल में एक डर का शोर मच गया। "साहब" की आवाज से पूरी गाँव में खौफ की लहर दौड़ गई थी। यह साहब कौन था? वह व्यक्ति जिसने डाक बगला के आने पर सभी को डरा दिया था?

    आदमी ने कहा, “शहर में चोर उनके नाम से ही कांपते हैं, और अब देवगढ़ में भी कांपेंगे।“





    डाक बंगले की दीवारों से झड़ती पुरानी पपड़ी, उस अतीत की चुप्पी को फिर से उघाड़ रही थी जिसे गाँव वाले भूलना चाहते थे। वहीं, बाहर खड़ा सफाईकर्मी , जो वर्षों से गाँव में रहते हुए सब देख चुका था, अचानक चौंक पड़ा। उसकी जेब में रखे पुराने फीचर फोन की घंटी किसी शव की चुप रात में चीख की तरह गूंज उठी।

    उसने काँपते हाथों से फोन उठाया। दूसरी ओर किसी की भारी, सधी हुई आवाज़ थी।

    “साहब पहुँच चुके हैं। उन्हें तुरंत रिपोर्टिंग चाहिए।”

    बस इतना सुनना था कि वो आदमी ने झट से बाल्टी और झाड़ू किनारे फेंकी, और अपनी पुरानी साइकिल उठाकर तेजी से चल पड़ा। जैसे उसके पैरों को किसी अदृश्य भय ने गति दे दी हो। साइकिल की चेन चरमराती जा रही थी, और उसके माथे पर पसीना बह रहा था—सर्दियों की इस शाम में भी।

    देवगढ़ का पुलिस स्टेशन गाँव के बाहर, पुराने कुएँ के पास स्थित था। वो आदमी जब वहाँ पहुँचा तो अंधेरा गहराने लगा था। आसमान बादलों से ढका था और बिजली कहीं दूर गड़गड़ा रही थी, जैसे हवा खुद कुछ कहने को बेचैन हो।

    स्टेशन के भीतर एक अनजानी चुप्पी पसरी थी, जैसे वहाँ मौजूद हर ईंट एक सदी से किसी भारी बात का बोझ ढो रही हो। अंदर कदम रखते ही वो आदमी की आँखें सामने खड़े एक आदमी पर टिक गईं।

    वह वर्दी में था।

    एकदम सलीके से पहना खाकी यूनिफॉर्म, चमकते जूते, और चेहरे पर वो सख्ती जो किसी आम पुलिस वाले की नहीं हो सकती थी। उस आदमी की आँखें गहरी और स्थिर थीं, मानो वह सीधे आत्मा के भीतर झाँक सकती हों। उसकी मौजूदगी में कोई भी अपनी निगाहें झुका लेता।

    वो आदमी एक पल को सहम गया, फिर तुरंत सीधा खड़ा होकर बोला,
    "सलाम साहब! बड़े दिनों बाद देवगढ़ को कोई असली इंस्पेक्टर मिला है। अब यहाँ कुछ बदलेगा।"

    इंस्पेक्टर ने सिर घुमाकर उसकी ओर देखा, लेकिन कुछ नहीं कहा। उसकी निगाहें दीवार पर लगी एक पुरानी तस्वीर पर टिकी थीं—देवगढ़ के पहले थाना प्रभारी की, जिसकी अचानक हुई मौत आज भी रहस्य बनी हुई थी।

    इंस्पेक्टर ने गहरी आवाज़ में पूछा,
    “यहाँ कितने केस अनसुलझे पड़े हैं?”

    वो आदमी ने हकलाते हुए कहा,
    “बहुत हैं साहब… सबसे ज़्यादा तो नंदिनी बिटिया वाला केस, जिसने पूरे गाँव का चैन लूट लिया।”

    इंस्पेक्टर की आँखें अब वो आदमी पर गड़ी थीं।
    "उसकी माँ अब भी कुछ कहती है?"

    “कहती नहीं साहब... अब तो सिर्फ देखती है। जैसे कुछ देख रही हो — जो हम सब नहीं देख पाते। रात को अकेले मंदिर जाती है, और वहाँ घंटों बैठी रहती है।”

    एक अजीब-सी ठंडी हवा कमरे में बह निकली। खिड़की का एक शीशा अचानक कांप उठा, जैसे किसी अदृश्य दस्तक से।

    इंस्पेक्टर ने धीरे से कहा,
    “डाक बंगले में सफाई क्यों हो रही है?”

    “आपके लिए, साहब…” वो आदमी बोला, “...जैसा ऊपर से आदेश आया था।”

    इंस्पेक्टर की आँखें एक पल को और गहरी हो गईं, जैसे उसने कुछ और सुन लिया हो जो शब्दों में नहीं था।

    उसने धीरे से अपनी जेब से एक पुराना लॉकेट निकाला, जो आधा टूटा हुआ था, और उस पर एक नाम उकेरा था — "नं"। बाकी नाम मिट चुका था।

    “कभी-कभी,” वह बोला, “साफ़ करना मतलब मिटाना नहीं होता। बल्कि, ढूंढना होता है… जो धूल में छिप गया हो।”

    वो आदमी अब एकदम शांत था। पुलिस स्टेशन की घड़ी की टिक-टिक तेज़ हो गई थी। कहीं दूर मंदिर की घंटियाँ बजीं, और एक कुत्ते ने दहाड़ते हुए भौंकना शुरू किया।

    "तैयार रहना हवलदार भोला," इंस्पेक्टर ने कहा, "डाक बंगले में रात का पहला पहरा मैं खुद लूंगा। और इस बार, कोई छांव बचकर नहीं जाएगी।"

  • 7. लाल जोडे़ का शराप - Chapter 7

    Words: 989

    Estimated Reading Time: 6 min

    चैप्टर – रहस्यों का साया

    वह जो वर्दी में खड़ा था, उसकी आँखों में एक ठंडक थी, लेकिन उसकी आंखों के पीछे कहीं गहरी चिंता की छाया भी छुपी हुई थी। उसका नाम इंस्पेक्टर विजय सिंह था। पुलिस वर्दी में लब्ध, वह किसी शख्स की तरह नहीं, बल्कि एक सख्त और रहस्यमय अतीत के साथ खड़ा था। उसके चेहरे पर एक कठोरता थी, जो इस गाँव के माहौल में कोई भी सहजता नहीं ले आ रही थी।

    पास खड़ा हवलदार भोला , कुछ देर चुपचाप खड़ा रहा। उसकी आँखों में भी वही गहरी उदासी थी, जैसे वह सबकुछ जानता हो, लेकिन कुछ भी कहने का साहस न रखता हो।

    "क्यों साहब, क्या सोच रहे हो?" हवलदार ने हिचकते हुए कहा, अपनी आवाज में एक हलका डर महसूस करते हुए। "गाँव में कुछ तो अजीब है, कुछ ऐसा जो सबको दिखता नहीं। मैं नहीं जानता, मगर यहाँ कुछ गलत है।"

    इंस्पेक्टर विजय ने गहरी साँस ली और धीरे से सिर झुकाया। उसका ध्यान कहीं दूर था, जैसे वह गाँव की हर गली, हर कोने को महसूस कर रहा हो। "क्या अजीब है?" उसने धीरे से पूछा, जैसे उसे भी कुछ गहरे रहस्य का आभास हो रहा था।

    "यहाँ सब कुछ सही चलता है, हिसाब से सब ठीक है," हवलदार ने जवाब दिया, "लेकिन कभी कभी लगता है जैसे कोई अजीब सी ऊर्जा है यहाँ, जो सबको खामोश रखे हुए है। गाँव वाले भी, बहुत अजीब व्यवहार करते हैं। कभी भी किसी से पूरी बात नहीं करते, जैसे डर का कोई साया है जो सबके ऊपर मंडरा रहा हो।"

    इस्पैक्टर ने उसकी बातों को ध्यान से सुना और उसके बाद चुपचाप आगे बढ़ते हुए कहा, "चिंता मत करो, अगर यहाँ कोई भी मुसीबत है तो मैं उसे जरूर दूर करूंगा। यह गाँव जितना अजीब लगता है, उतना ही हल्का भी। लेकिन हाँ, अगर कोई छिपा हुआ खतरा है, तो मैं उसे जड़ से खत्म कर दूंगा।"

    हवलदार ने कुछ देर तक इंस्पेक्टर को देखा और फिर धीरे से कहा, "आप कह रहे हैं तो ठीक है, लेकिन क्या आप नहीं समझते, कि यह खतरा बस किसी इंसान या चीज़ से नहीं है। यह शायद कोई और है, कुछ अनदेखा, जो हमें सबको अपने कब्जे में ले रहा है।"

    विजय ने एक लंबी सांस ली। गाँव की हवाओं में हलका सा ठंडा महसूस हो रहा था, जैसे कुछ डरावना छिपा हो। हवा में एक गहरी सन्नाटी थी, जैसे सब कुछ रुक चुका हो। "मैं सब कुछ समझता हूँ, हवलदार," विजय ने कहा, "लेकिन तुम्हें भी यह समझना होगा कि डर और भय का सबसे बड़ा हथियार होता है – अनदेखा। हम किसी छाया से डरते हैं, लेकिन उस छाया का असली रूप कभी सामने नहीं आता।"

    हवलदार ने सिर झुकाया, जैसे कुछ याद करते हुए कहा, "कुछ महीनों पहले, जब यह लड़की गायब हुई थी, उस दिन के बाद से कुछ अजीब घटनाएँ हुई थीं। कोई नहीं जानता था, लेकिन हर कोई कहता था कि उस रात को एक खौफनाक आंधी आई थी। और जब वो आंधी चली गई, तो उसके बाद से कोई भी उस रास्ते से नहीं गुजरता।"

    इंस्पेक्टर विजय की आँखों में एक चमक आई। "क्या तुम कह रहे हो, हवलदार?" उसकी आवाज में अब एक हलकी कशिश थी, जैसे वह कुछ जानने के लिए बेकरार हो।

    "हाँ," हवलदार ने धीमे से कहा, "उस रात के बाद से गाँव के लोग एक अजीब डर में जीने लगे हैं। घरों के दरवाजे दिन-रात बंद रहते हैं, और किसी ने भी यह रास्ता पार नहीं किया। एक जैसे लोग, एक जैसे चेहरे, पर जैसे सब एक ही डर से झुके हुए हों। और उस डर का कोई नाम नहीं है, कोई पता नहीं है।"

    विजय ने एक और गहरी साँस ली, और अब उसकी आँखों में एक द्रष्टि थी, जो सब कुछ देख रही थी, लेकिन कुछ समझ नहीं पा रही थी। "यह तो हमें पता करना होगा, हवलदार," उसने कहा। "हम डर से नहीं, बल्कि उस डर का सामना करेंगे।"

    गाँव की सड़कों पर हलकी सी आवाज़ आ रही थी। दूर से किसी बिल्लियाँ की चीख सुनाई दी, और फिर अचानक हवा में एक गहरी सन्नाटी छा गई। जैसे हर चीज़ ठहरी हुई हो। हवलदार ने धीरे से विजय की ओर देखा। उसकी आँखों में एक डर था, जो शब्दों में नहीं कहा जा सकता था। विजय ने उसकी आँखों को पढ़ा और कहा, "कभी कभी डर हमारे भीतर होता है, भोला। और कभी कभी वह डर हमसे अधिक जानता है।"

    अचानक, गाँव के किनारे से कुछ अजीब सी आवाज़ें आनी लगीं। जैसे कोई चल रहा हो, लेकिन आवाज़ असामान्य तरीके से गूंज रही हो। विजय और हवलदार दोनों एक पल के लिए खड़े हो गए, और फिर विजय ने हवलदार से कहा, "क्या यह आवाज़ तुमने भी सुनी?"

    हवलदार ने कान लगाकर सुनी और कहा, "हाँ, यह तो वही आवाज़ है। लेकिन इससे पहले कभी इस तरह नहीं आई। क्या यह...?"

    विजय ने उसकी बात पूरी होने से पहले ही कहा, "चलो, हम उस ओर चलते हैं। अगर कुछ अजीब है, तो हमें पता चलना चाहिए।"

    वे दोनों धीरे-धीरे उस आवाज़ की ओर बढ़े, लेकिन जैसे-जैसे वे उस आवाज़ के पास पहुँचते गए, गाँव की सर्द हवा और भी घनी होती गई। सामने के रास्ते पर एक हलकी सी धुंध भी फैलने लगी, और सब कुछ चुप था। अचानक, वे दोनों उस रास्ते पर पहुंचे, और एक विचित्र शांति छा गई। कोई दिखाई नहीं दे रहा था, लेकिन जैसे-जैसे वे बढ़े, हवा में गहरी घबराहट महसूस हो रही थी।

    विजय ने धीरे से कहा, "यह वही जगह है, जहाँ उस दिन लड़की गायब हुई थी।" उसकी आवाज में कुछ ऐसा था, जो एक गहरी चेतावनी दे रहा था।

    हवलदार की आँखों में डर था, और उसने धीरे से कहा, "यह जगह, विजय साहब, कहीं न कहीं एक अंधेरे रहस्य से जुड़ी हुई है। और जो कुछ भी यहाँ हुआ है, वह बस इतना नहीं है कि हम देख सकते हैं।"

    और फिर दोनों की आँखों में एक नया डर पैदा हो गया, जैसे कुछ छाया उनके सामने खड़ी हो।

  • 8. लाल जोडे़ का शराप - Chapter 8

    Words: 649

    Estimated Reading Time: 4 min

    चैप्टर –गाँव की रहस्यमय गलियाँ

    इंस्पेक्टर विजय सिंह और हवलदार भोला के कदम अब उस गाँव की सर्द और खामोश गलियों में बढ़ रहे थे। गाँव की हवा अब और भी ठंडी महसूस हो रही थी, जैसे वह उनके भीतर कुछ डरावा सी स्थिति भरने की कोशिश कर रही हो। विजय ने भोला से कहा, "चलो, हम दोनों इस गाँव को अच्छे से देखेंगे। अगर कुछ है तो हमें हर कोने में उसे ढूँढना होगा।"

    हवलदार ने सिर झुकाया और धीरे से कहा, "बिलकुल, साहब। गाँव के हर रास्ते और हर घर में कुछ न कुछ छिपा हुआ है। कुछ ऐसा जो हम देख नहीं सकते, लेकिन महसूस कर सकते हैं।"

    दोनों कदम बढ़ाते हुए गाँव के उन अंधेरे रास्तों में दाखिल हो गए, जहाँ सन्नाटा और डर ने मिलकर एक गहरी चुप्पी को छेड़ा था। अचानक, किसी स्थान से एक हल्की आवाज़ आई, जैसे किसी के क़दमों की आहट हो। विजय ने कान लगाकर सुनी और फिर कहा, "हमारे पास वक्त नहीं है, चलो जल्दी से उस रास्ते से चलते हैं।"

    वे दोनों गाँव के पुराने मंदिर की ओर बढ़े। मंदिर के बाहर की दीवारों पर कुछ उकेरे गए थे, जो अब घास और माटी से ढके हुए थे। जैसे ही वे अंदर गए, एक अजीब सी गंध हवा में फैल गई, मानो किसी पुराने समय की यादें हवा में तैर रही हों। तभी उन्होंने देखा, वही पागल आदमी, जो पहले भी उन्हें दिखाई दिया था। वह अब भी वही पुरानी शर्ट पहने हुए था और उसकी आँखों में वही टूटी हुई, खौ़फनाक सी चमक थी।

    वह आदमी उन्हें देख कर झपकते हुए उनके पास आया और अजीब आवाज़ में बोला, "तुम दोनों... तुम दोनों भी आ गए हो, तुम भी नहीं देख पाओगे, जैसे मैंने नहीं देखा?" उसकी आँखों में एक शून्य सा खालीपन था, और वह जैसे कुछ कहना चाहता था, लेकिन शब्द उसके गले में अटक जाते थे।

    इंस्पेक्टर विजय ने एक कदम पीछे हटते हुए कहा, "तुम्हें क्या हो गया है? यह क्या बकवास कर रहे हो तुम?"

    पागल आदमी फिर से झपकते हुए बोला, "वह लड़की... वह मेरी दुल्हन... गायब हो गई। वह चली गई, और अब सब कुछ... सब कुछ खत्म हो चुका है। मुझे तुम्हारे जैसे ही लोग चाहिए थे, ताकि तुम देख सको। क्या तुम देख सकते हो?" उसकी आवाज़ अब टूटने लगी थी, जैसे वह किसी भयंकर डर से उबर नहीं पा रहा हो।

    भोला और विजय दोनों एक पल के लिए चुप हो गए। हवा में एक अजीब सी सरसराहट गूंज उठी। विजय ने पागल आदमी से कुछ पूछने का प्रयास किया, लेकिन उससे पहले ही वह आदमी अचानक अपने स्थान से दौड़ते हुए बाहर की ओर भाग गया, जैसे कोई अदृश्य ताकत उसे खींच रही हो।

    वह आदमी भागते-भागते एक बड़े पत्थर से टकरा गया और गिरते हुए भी उसकी हंसी गूंजने लगी। "तुम सब... तुम सब देखोगे... देखोगे," उसकी आवाज़ अब धीरे-धीरे दूर होती चली गई।

    इंस्पेक्टर विजय और हवलदार एक-दूसरे को घूरते हुए कुछ समझ नहीं पाए। पागल आदमी की यह हरकत और उसके शब्दों का मतलब समझ पाना मुश्किल था। लेकिन एक बात साफ थी – इस गाँव में कुछ तो गड़बड़ था, और वह पागल आदमी, शायद उस खौ़फनाक सत्य को जानता था, जिसे देख पाना किसी के लिए भी असंभव था।

    "हम इसके पीछे नहीं जा सकते, हवलदार," विजय ने कहा। "यह सब बहुत पेचीदा है। लेकिन हमें इसे सुलझाना ही होगा।"

    हवलदार चुप रहा, जैसे वह कुछ महसूस कर रहा हो। लेकिन कुछ समझ नहीं पा रहा था। दोनों वापस गाँव की ओर बढ़ते हुए सोचे रहे थे कि क्या पागल आदमी का डर केवल उसके अंदर था या फिर वह डर वाकई कुछ अदृश्य था, जो उन दोनों के सामने था।

    गाँव की गलियों में एक बार फिर सन्नाटा छा गया। हवा की हल्की सरसराहट सुनाई दे रही थी, लेकिन उस खामोशी में जैसे कुछ दबा हुआ था। यह डर था – एक ऐसा डर जिसे पहचानना भी मुश्किल था।

  • 9. लाल जोडे़ का शराप - Chapter 9

    Words: 1022

    Estimated Reading Time: 7 min

    चैप्टर – अंधेरे की धुंध में छुपा डर

    इंस्पेक्टर विजय सिंह और हवलदार भोला, गाँव की खामोश गलियों को पार करते हुए, वापस पुलिस चौकी पहुँचे। चौकी के बाहर खड़ी एक गाड़ी की धुंधली रोशनी में गाँव की उन शांत और गहरी रातों का डर फिर से लौट आया। हवा में एक सर्दी थी, जो हर कदम के साथ और बढ़ती जा रही थी। रात का सन्नाटा अब और भी घना हो चुका था, जैसे कोई अव्यक्त बुरा घटित होने वाला हो।

    चौकी के पास पहुँचते ही उन्होंने देखा कि गाँव का सरपंच, रघु सिंह, उसी खामोशी में खड़ा था। उसकी आँखों में एक अजीब सी बेचैनी थी, जैसे वह कुछ कहना चाहता हो लेकिन शब्दों को वह अपने अंदर समेटे हुए हो। वह जैसे ही विजय और भोला को देखता है, एक गहरी सांस लेते हुए उनके पास आता है।

    "इंस्पेक्टर साहब, आप लौट आए," रघु सिंह ने धीमे स्वर में कहा। उसकी आवाज़ में एक छुपा हुआ डर था। "आपने गाँव की गलियाँ देखीं, हालाँकि आप शायद उन अंधेरे रास्तों से बचकर आ गए।"

    विजय ने उस पर एक सटीक नज़र डाली, लेकिन हंसी को दबाते हुए बोला, "हां, गाँव का आंतरिक सौंदर्य देखने का मौका मिला। सब कुछ तो शांत ही लगता है।"

    सरपंच रघु सिंह कुछ पल के लिए चुप रहा, फिर उसने एक गंभीर स्वर में कहा, "इंस्पेक्टर, आप बहुत समझदार हैं। लेकिन यह गाँव... यह रातें... यह सिर्फ शांत नहीं हैं। यहाँ कुछ और भी है, जिसे हम सब जानते हैं। देर रात बाहर घूमना, विशेष रूप से ऐसे समय में, किसी के लिए भी सुरक्षित नहीं है।"

    विजय ने उसकी बातों को हल्के से लिया और हंसी के साथ कहा, "सरपंच जी, हमारा तो काम ही रात में घूमकर मुजरिमों को पकड़ना है। हम किस बात का डर मानें?" उसकी आँखों में वह आत्मविश्वास था, जो एक पुलिस अधिकारी में हमेशा दिखाई देता है।

    लेकिन सरपंच का चेहरा किसी और ही गंभीरता की ओर इशारा कर रहा था। वह धीरे से विजय के पास आया और कहा, "आपका काम है मुजरिमों को पकड़ना, और हम सब जानते हैं कि इस गाँव में कई अपराध हो चुके हैं। लेकिन आपको बता दूं, यहाँ जो डर है, वह इंसान नहीं, बल्कि कुछ और है। रात के अंधेरे में बर्फीली हवाओं के साथ कुछ और भी चलता है। हर आदमी के मन में एक छुपा डर होता है। और यह डर सिर्फ आँखों से नहीं, आत्मा तक महसूस होता है।"

    विजय ने उसकी बातों को अब गम्भीरता से लिया, लेकिन हंसी दबाते हुए कहा, "आप भी न, सरपंच जी। कभी कभी आपका डर बहुत बढ़ जाता है, लगता है आप कुछ ज्यादा ही सोचते हैं।"

    हवलदार ने भी अब सरपंच की ओर देखा, जैसे वह कुछ महसूस कर रहा हो, लेकिन अभी तक वह चुप था। वह दोनों सरपंच के शब्दों को इग्नोर कर रहे थे, परंतु उनकी आँखों में एक अजीब सी बेचैनी थी, जैसे वह किसी बात से डरते हुए भी उसे नकार रहे हों।

    "आप कह रहे हैं कि रात में घूमने का खतरा है?" विजय ने आखिरकार पूछा, उसका स्वर अब गंभीर हो चुका था।

    सरपंच ने गहरी साँस लेते हुए कहा, "इंस्पेक्टर साहब, यह गाँव तो हमेशा से ही कुछ अलग रहा है। पहले यहाँ जब भी रात का अंधेरा फैलता था, कुछ अनजाने सी चीज़ें घटने लगती थीं। गाँव के लोग कहते हैं, रात के अंधेरे में कुछ औरतें, कुछ अजीब सी आवाजें सुनाई देती हैं। कुछ लोग कहते हैं कि यह आत्माएँ हैं, जो कभी इस गाँव में जीवित थीं और अब उनका अस्तित्व किसी और रूप में यहाँ घूमता है। आप तो जानते हैं कि इस गाँव में कोई भी ठीक से रात में बाहर नहीं निकलता, ख़ासकर जब चाँद नहीं दिखता।"

    विजय अब हंसी छोड़ चुका था। उसके चेहरे पर एक हलका सा चिंतित भाव आया। उसने हवलदार की आँखों में देखा, जहाँ एक रहस्यमयी डर का अक्स था। "क्या सच में आपको ऐसा लगता है?" विजय ने पूछा, लेकिन उसकी आवाज़ में अब भी कुछ न था, जैसे वह अपनी बातों में विश्वास नहीं कर पा रहा था।

    सरपंच ने फिर एक धीमे स्वर में कहा, "क्या आपने कभी सुनी है उस दुल्हन के बारे में, जो शादी के दिन गायब हो गई थी? लोग कहते हैं कि वह लड़की आज भी इस गाँव में घूमती है, उसकी आत्मा... वह आत्मा कभी सुकून नहीं पा सकती। अगर आप रात में गाँव के बाहर जाएं, तो हो सकता है वह आत्मा आपको भी पकड़ ले।"

    यह सुनकर विजय का मन कुछ विचलित हुआ। "तो यह जो कुछ है, क्या वह सब अफवाहें हैं?" विजय ने पूछा, लेकिन उसकी आँखों में अब भी कोई डर था, जिसे वह किसी तरह छुपाने की कोशिश कर रहा था।

    सरपंच ने नकारात्मक रूप से सिर हिलाया। "यह कोई अफवाह नहीं है, इंस्पेक्टर साहब। यह सच है। यहाँ जो कुछ भी घटित हुआ, वह सब हम सब ने अपनी आँखों से देखा है। लेकिन इस गाँव में कोई किसी से नहीं बोलता, कोई कोई कदम नहीं उठाता। बस डर के मारे चुप रहते हैं।"

    तभी, अचानक हवलदार ने अपना सिर उठाया और बोला, "इंस्पेक्टर साहब, लगता है हमें अब सच में इस गाँव की सच्चाई का सामना करना पड़ेगा। अगर हम डरते रहे तो कभी भी हमें इसका हल नहीं मिलेगा।"

    विजय ने एक गहरी साँस ली और फिर हंसते हुए बोला, "हमें डरने की जरूरत नहीं है, हवलदार। हम सिर्फ तथ्यों को खोजने यहाँ आए हैं। और हम किसी भी डर से भागने वाले नहीं हैं। हमें अपनी जिम्मेदारी पूरी करनी है।"

    सरपंच ने उन्हें देखा, और फिर एक हल्की सी मुस्कान के साथ कहा, "ठीक है, इंस्पेक्टर साहब। जैसे आप कहें, लेकिन ध्यान रखें, इस गाँव में रात का अंधेरा आपको हमेशा कुछ और महसूस कराएगा, कुछ ऐसा जो शब्दों से नहीं, सिर्फ अनुभव से समझा जा सकता है।"

    विजय ने बिना किसी और टिप्पणी के सरपंच की ओर देखा और फिर हवलदार की ओर मुड़ते हुए कहा, "चलिए, हवलदार। अब हम इस गाँव की असल सच्चाई जानने के लिए तैयार हैं।"

    इंस्पेक्टर विजय सिंह का आत्मविश्वास अब भी कायम था, लेकिन वह जानता था कि इस गाँव में कुछ ऐसा है, जिसे वह अभी तक पूरी तरह समझ नहीं पाया है।

  • 10. लाल जोडे़ का शराप - Chapter 10

    Words: 952

    Estimated Reading Time: 6 min

    चैप्टर - डाक बंगले में सन्नाटा

    इंस्पेक्टर विजय सिंह और हवलदार धीरे-धीरे डाक बंगले के पास पहुँचे। उनकी जीप की आवाज़ अब चुप हो चुकी थी, और चारों ओर फैला गहरा सन्नाटा जैसे हवा में घुलकर हर दिशा में फैल गया था। डाक बंगला, जो पहले से ही दूर से एक पुरानी और धुंधली छवि की तरह दिखता था, अब करीब से कुछ और ही महसूस हो रहा था। यह एक विशाल, प्राचीन निर्माण था, जिसमें सफेदी और समय के प्रभाव से उबला हुआ रंग दिखता था। इसके आंगन में फैला अजीब सा सन्नाटा था, और ऊपर से झूलते हुए पेड़, जिनकी टहनियाँ हवा के झोंकों से डगमगाती थीं, मानो किसी अनकहे संदेश को लहरा रही थीं।

    विजय सिंह ने अपनी आँखों से डाक बंगले को देखा, और एक हल्का सा सुकून महसूस हुआ। "यह तो काफी साफ-सुथरा और अच्छा है," विजय ने कहा, लेकिन उसकी आवाज़ में एक अजीब सा संकोच था। यह सफाई और व्यवस्था उसकी उम्मीदों से भी बेहतर थी, लेकिन कुछ तो था जो उस वातावरण में असामान्य सा महसूस हो रहा था।

    हवलदार ने भी धीरे-धीरे अपने कदम बढ़ाए और कहा, "इंस्पेक्टर साहब, यह डाक बंगला तो सचमुच बहुत अच्छा लग रहा है, लेकिन कुछ तो है जो अजीब सा महसूस हो रहा है।"

    विजय ने उसकी ओर देखा और मुस्कुराते हुए कहा, "तुम हमेशा ऐसा सोचते हो, यहाँ सब कुछ ठीक होगा। तुम देखोगे, रात भी आराम से कटेगी।"

    लेकिन हवलदार की आँखों में एक गहरी चिंता छिपी थी, और उसने सिर झुका लिया। वह बिना कुछ कहे पीछे चलने लगा, जैसे अपने आप में सुलझे हुए डर को छुपाने की कोशिश कर रहा हो।

    डाक बंगले का दरवाजा धीरे से खुला। अंदर की हवा में एक अजीब सी सर्दी थी, जो अचानक से महसूस हुई, जैसे कोई ठंडी हवा जो पिछले कई सालों से बंद कमरे में क़ैद थी, अब बाहर आकर सांस ले रही हो। विजय सिंह ने कमरे में कदम रखा, और उसकी आँखें तुरंत वहाँ की साफ-सफाई और अनुशासन से आश्वस्त हो गईं। लेकिन फिर भी, कुछ था जो उसे परेशान कर रहा था।

    "यहाँ कोई नहीं है?" विजय ने पूछा।

    हवलदार ने एक चुप्पा सा जवाब दिया, "कोई नहीं है, इंस्पेक्टर साहब। कुछ दिनों से यहाँ कोई नहीं आया। यह डाक बंगला खाली पड़ा था, बस आज दिन में ही साफ किया गया था।"

    "मुझे तो ऐसा लगता है कि किसी ने यहाँ रहकर कुछ खास इंतजाम किए हैं," विजय ने कहा, उसकी आवाज़ में हलकी असमंजस की झलक थी। वह भीतर गए, और एक पल के लिए बाहर की आवाज़ों से अलग होकर बस उन चारों दीवारों में घिर गया। अचानक, कहीं से एक हलकी सी खड़खड़ाहट सुनाई दी, जैसे पुरानी लकड़ी की फर्श पर कोई भारी कदम रख रहा हो।

    हवलदार ने पलट कर देखा, उसकी आँखों में कुछ और था। "इंस्पेक्टर साहब," उसने धीमे स्वर में कहा, "मुझे यहाँ कुछ ठीक नहीं लगता। मुझे लगता है कि कुछ और है, जो हम नहीं देख पा रहे हैं।"

    विजय ने एक गहरी साँस ली और जवाब दिया, "तुम्हें लगता है कि यह कोई अफवाह है, हवलदार? कोई दरिंदगी का असर?" उसकी आँखों में हलका सा हंसी का हल्का भाव था, लेकिन उसकी आवाज़ में संकोच भी था।

    तभी अचानक, डाक बंगले के एक कोने से एक धीमी सी खांसने की आवाज़ आई। विजय और हवलदार दोनों तुरंत चौंक गए। विजय ने सख्त कदमों से आवाज़ की दिशा में बढ़ते हुए कहा, "कौन है?" लेकिन अंदर का कमरा अंधेरे में डूबा हुआ था और कुछ भी साफ नहीं दिख रहा था। उन्होंने फिर से आवाज़ सुनी, यह अब एक हलके से हँसी की आवाज़ में बदल चुकी थी, जैसे कोई अजनबी धीरे से हंसी उड़ा रहा हो।

    हवलदार का चेहरा पूरी तरह से सफेद हो गया, और उसने डरते हुए विजय के पास आकर कहा, "इंस्पेक्टर साहब, मुझे नहीं लगता कि हम यहाँ आराम से रह सकते हैं। यह जगह बहुत अजीब है।"

    लेकिन विजय, जो अब पूरी तरह से सशक्त था, हंसी के साथ बोला, "तुम्हें हमेशा डर लगता है, हवलदार। यहाँ कुछ नहीं है। बस थोड़ी देर की थकावट होगी।"

    लेकिन फिर भी, वह डर उस कमरे में बढ़ता जा रहा था। हवा ने अचानक एक तीव्र मोड़ लिया, और एक खड़खड़ाहट फिर से गूंजने लगी। जैसे कोई दरवाजे पर दस्तक दे रहा हो, लेकिन कुछ दिखाई नहीं दे रहा था। कमरे का माहौल अब और भी घना हो गया था, और हर एक खिड़की के पास, अंधेरा जैसे घेरता जा रहा था।

    विजय ने उस खिड़की को खोलने का फैसला किया, लेकिन जैसे ही उसने खिड़की खोली, एक ठंडी हवाओं का झोंका उसे चेहरे पर पड़ा और उसने महसूस किया कि उस हवा में कुछ और था। जैसे उस हवा में किसी और के अस्तित्व का अहसास था। वह पल भर के लिए चौंका और फिर उसने खिड़की बंद कर दी।

    "हवलदार, क्या तुम महसूस कर रहे हो?" विजय ने पूछा, उसकी आवाज़ में अब हलका भय था, जिसे वह छिपाने की कोशिश कर रहा था।

    हवलदार ने सिर झुका लिया और कहा, "इंस्पेक्टर साहब, मुझे यहाँ कुछ और दिखाई दिया था। एक साया... अंधेरे में।"

    विजय की आँखें फैल गईं, लेकिन उसने खुद को संयमित किया और कहा, "तुम सिर्फ थके हुए हो, हवलदार। तुमने बहुत कुछ देखा है और अब वह तुम्हारे दिमाग में चक्कर काट रहा है। तुम आराम करो, सब ठीक है।"

    लेकिन उस रात डाक बंगले में घिरी सर्दी और अंधेरे का डर कुछ अलग ही था। विजय और हवलदार दोनों महसूस कर रहे थे कि कुछ ऐसा था जो उन्हें समझ में नहीं आ रहा था। लेकिन तब भी, दोनों ने अपने डर को नकारते हुए उस रात को यहीं बिताने का निर्णय लिया। लेकिन जैसे-जैसे रात घनी होती गई, उनके दिलों में एक अदृश्य डर और भी मजबूत होता गया।

  • 11. लाल जोडे़ का शराप - Chapter 11

    Words: 959

    Estimated Reading Time: 6 min

    अध्याय – रात की दस्तक





    डाक बंगले पर रात ने दस्तक दे दी थी। चारों ओर गहराता अंधेरा अब ठंडी हवाओं के साथ सायं-सायं करता घुलने लगा था। दूर जंगल की सरसराहट और पेड़ों की चरमराहट मिलकर ऐसा अहसास दे रहे थे जैसे रात के साए किसी को पुकार रहे हों।

    बंगला पुराना ज़रूर था, लेकिन अच्छी तरह से रखरखाव किया गया था। बाहर से इसकी दीवारों पर थोड़ी सी सीलन और काई की परतें ज़रूर दिखती थीं, लेकिन भीतर कदम रखते ही साफ़ टाइल की फर्श, दीवारों पर लगे हल्के पीले रंग, और कोनों में रखी साज-सज्जा की चीज़ें किसी आधुनिक गेस्टहाउस का एहसास देती थीं। बंगले में एक छोटा-सा आधुनिक किचन था जिसमें फ्रिज, इंडक्शन चूल्हा, माइक्रोवेव, और कुछ डिब्बाबंद खाने-पीने की चीजें रखी थीं। ड्राइंग रूम में एक एलईडी टीवी और सैटेलाइट डिश की व्यवस्था भी थी। दो एयर-कंडीशनर लगे हुए थे, जो फिलहाल बंद थे लेकिन सही सलामत थे।


    भीतर कमरे में दो आरामदायक बेड लगे थे, एक ओर एक पुराना लेकिन काम करता हुआ फ्रिज और टेबल पर रखा हुआ गर्म चाय का थर्मस। खिड़की के कांच कुछ धूल से ढके थे, और लालटेन अब भी एक किनारे जल रही थी, हालांकि कमरे में बिजली की व्यवस्था मौजूद थी – बस, हल्के-फुल्के वोल्टेज की समस्या थी।

    इंस्पेक्टर विजय ने दीवार पर टंगी जैकेट उतारी और कुर्सी पर रखते हुए बोले,
    “रात काटनी है तो चलो कुछ चाय बना लेते हैं। रसोई में सब कुछ है। फ्रिज में दूध और ब्रेड रखी है।”

    हवलदार ने धीरे से सिर हिलाया, लेकिन उसकी नज़रें अब भी हर कोने को सतर्कता से देख रही थीं।

    “साहब, मुझे तो लगता था ये बंगला अब हमेशा वीरान रहेगा … लेकिन आपने तो आ कर सब बदल दिया,” उसने हल्के मुस्कुरा कर कहा।

    विजय मुस्कराया, लेकिन आँखों में एक हल्का खालीपन झलका,
    “चिंता मत कर… यादों से भरा देगे इस जगह को। और अब तो मेरी बेटी भी आ रही है – आरव्या। कल सुबह की ट्रेन से।”

    हवलदार थोड़ा हैरान हुआ, “बेटी? यहाँ?”

    “हाँ,” विजय ने कुर्सी पर बैठते हुए कहा, “आरव्या ने हाल ही में आर्कियोलॉजी में मास्टर्स पूरा किया है। वो भी साथ ही आने वाली थी लेकिन वहाँ शहर में कुछ काम रह रहा था कहा पुरा कर आएगी, मैंने कहा ठीक है तो उसकी दादी ऐसे बंगले की कहानियाँ उसे बचपन से सुनाती आई थी इसलिए उसे ऐसी जगह पंसद है चारों और शांति।”

    हवलदार ने मुस्कराकर पूछा, “कैसी है जूही? मतलब… आपकी जैसी गंभीर या…”

    “हाह,” विजय ने हल्की हँसी में जवाब दिया, “वो आग है… लेकिन शांत दिखती है। उसमें अपनी माँ की समझदारी है और मेरी ज़िद। उसकी माँ के गुज़र जाने के बाद मैंने उसे अकेले पाला है। अब वो मेरी ताक़त भी है… और मेरी चिंता भी।”

    दोनों ने गर्म चाय लेकर एक-एक कप उठाया और रात के सन्नाटे में कुछ पल तक बस दीवार पर चलती परछाइयाँ देखते रहे।

    बाहर हवा तेज़ हो गई थी। खिड़की पर लगी एक पुरानी लकड़ी की पट्टी टकराने लगी थी। विजय उठा और खिड़की बंद करने चला गया।

    जैसे ही उसने खिड़की के पर्दे हटाए, उसे एक साया बाहर से खिसकता हुआ दिखा – हल्का, धुंधला – पर बहुत तेज़। मानो कोई झाड़ी के पीछे छिप गया हो।

    विजय की आँखें सिकुड़ गईं।

    “क्या हुआ, साहब?” हवलदार ने पूछा।

    “कुछ नहीं… शायद कोई जानवर रहा होगा।”

    विजय ने खिड़की बंद कर दी और परदे गिरा दिए। लेकिन अंदर अब एक बेचैनी घर करने लगी थी।

    रात थोड़ी और बीती।

    दोनों अपने-अपने बेड पर लेटे थे। टीवी ऑन करने का मन नहीं हुआ। बाहर किसी पुरानी रेडियो तरंग की सी आवाज़ हवा में तैर रही थी, जो कभी रुकती, कभी चलती।

    तभी…

    “ठक-ठक-ठक…”

    कमरे की पिछली ओर की दीवार की दिशा से एक धीमी खटखटाहट सुनाई दी।

    हवलदार उठकर बैठ गया। “साहब… सुना आपने?”

    विजय अब तक सजग हो गया था। वह धीरे से उठा, टॉर्च और सर्विस रिवॉल्वर हाथ में ली और इशारे से चुप रहने को कहा।

    “ठक... ठक…”

    आवाज़ अब थोड़ी ज़्यादा पास लग रही थी।

    विजय ने कदम फर्श पर धीरे से रखे। रसोई की ओर रोशनी डाली।

    मिट्टी पर ताज़े, गीले पैरों के निशान उभरते दिखे। बिल्कुल ताज़ा, जैसे किसी ने कुछ ही पल पहले कदम रखे हों।

    “ये तो...” हवलदार फुसफुसाया।

    “किसी ने भीतर कदम रखा है,” विजय ने दबी आवाज़ में कहा।

    धीरे-धीरे वे दोनों रसोई के पीछे बने गलियारे की ओर बढ़े। वहाँ एक कमरा था – अब तक बंद।

    दरवाज़ा थोड़ा सा खुला था, और भीतर अंधकार इतना गहरा था कि रोशनी भी जैसे डर रही हो अंदर घुसने से।

    विजय ने इशारा किया और टॉर्च जलाकर दरवाज़े को पूरी तरह खोला।

    भीतर घुप्प अंधेरा।

    कमरे के एक कोने में कोई आकृति बैठी थी… नहीं, वो बैठी नहीं थी – लटक रही थी।

    लेकिन जैसे ही टॉर्च की रोशनी उस पर पड़ी, वो आकृति ज़मीन पर गिर पड़ी – “धप!”

    एक टूटा हुआ पुतला था।

    चेहरे पर इंसानी बाल चिपके थे।

    हवलदार की सांस अटक गई, “साहब ये… ये पुतला यहाँ कैसे आया?”

    विजय ने देखा – दीवार पर किसी ने कुछ खुरचकर लिखा था:

    “वो वापस आ गई है।”

    “कौन?” विजय ने खुद से पूछा, और उसी पल बिजली चली गई।

    सारा बंगला अंधेरे में डूब गया।

    फिर…

    “ट्रिन-ट्रिन-ट्रिन!”

    बंगले के मुख्य गेट पर लगी पुरानी घंटी अचानक बजने लगी।

    विजय और हवलदार दोनों उधर भागे। दरवाज़ा खोला, लेकिन बाहर कोई नहीं था।

    ठंडी हवा अंदर घुस आई।

    फिर… दरवाज़े के पीछे खड़ी एक आकृति दिखी – सफेद साड़ी में, उलझे बाल, पर चेहरा साफ़ नहीं।

    वो एक पल को दिखी… और फिर गायब।

    “ये… क्या हो रहा है?” हवलदार अब काँपने लगा था।

    और तभी…

    टीवी अपने-आप ऑन हो गया।

    स्क्रीन पर सिर्फ एक वाक्य चमक रहा था:

    “रात को अगर कोई आया… तो दरवाजा मत खोलना।”

    विजय के हाथ से टॉर्च गिर गई।

  • 12. लाल जोडे़ का शराप - Chapter 12

    Words: 1122

    Estimated Reading Time: 7 min

    अध्याय – स्टेशन की ओर: जब सुबह भी डर बन जाए




    सुबह की पहली किरणें अभी पेड़ों की चोटियों को छू ही रही थीं । रात की सारी घटनाएँ अब भी उसके ज़ेहन में घूम रही थीं—वो अजीब सी परछाईं, कमरे में बैठा वो साया, दीवार पर लिखी वो डरावनी बात" लेकिन जैसे ही सूरज की रोशनी सामने के पहाड़ों से उतरती आई, एक पल को उसे लगा कि सब कुछ ठीक हो जाएगा।

    “हवलदार!” विजय ने सीटी मारते हुए आवाज़ दी।

    हवलदार बाहर ही जीप के बोनट पर बैठा बीड़ी पी रहा था। उसने झटपट बीड़ी बुझाई, और जीप के पास आ गया।

    “साहब, स्टेशन जा रहा हूँ। बेटी को लेने। मोबाइल में तो कोई नेटवर्क था नहीं, लेकिन सुबह की ट्रेन से ही आने की बात थी।”

    विजय ने उसे चाबी पकड़ाई, “ध्यान रखना… अकेली है, पहली बार गाँव आ रही है। थोड़ी घबराई होगी।”

    “घबराएगी क्या साहब,” हवलदार मुस्कुराया, “अब तो गांव की हवा ही कुछ अलग है। देख लेना, आते ही बोलेगी कि कुछ रहस्यमयी सा लगता है यहाँ।”

    विजय हल्के से हँसा, “और हां, याद रखना उसका नाम जूही है।”



    “अच्छा नाम है साहब,” हवलदार ने कहा, “थोड़ा स्टाइलिश टाइप।”

    विजय ने ठंडी सांस ली, “बस सही-सलामत ले आना।”



    स्टेशन – सुबह 6:40 बजे

    जूही की ट्रेन ठीक समय पर पहुँची थी। नीली जींस, सफेद टॉप और गले में हल्का सा स्काफ। उसके हाथ में एक मिडियम साइज का बैग था और आँखों में एक अजीब सी जिज्ञासा—नई जगह, नया माहौल, और बचपन से सिर्फ किस्सों में सुने इस गांव को देखने की उत्सुकता।

    “जूही बिटिया!” हवलदार ने प्लेटफॉर्म पर उसे देखते ही पहचान लिया।

    “ पापा ने सुबह ही फोन कर आपके बारे में बताया था,आप हवलदार अंकल हो ना ?” जूही ने मुस्कुराकर पूछा।

    “हां बिटिया! चलो, जीप बाहर खड़ी है।”

    जीप में बैठते ही जूही चारों तरफ देखने लगी। हर पेड़, हर मोड़, हर झोंपड़ी में उसे कुछ नया सा लगा।

    “हवलदार अंकल… ये जगह तो बहुत ही अलग है। मतलब… कुछ रहस्यमयी सी फील आ रही है।”

    हवलदार हँस पड़ा, “अरे बिटिया, सबको ऐसा ही लगता है पहली बार में। ये हमारा गांव है ही ऐसा।”

    “पर बताओ ना, ऐसा क्यों लगता है जैसे… जैसे कुछ छुपा हो यहाँ?”

    हवलदार ने जीप की स्पीड कम की, और थोड़ा मुस्कराते हुए बोला, “देखो बिटिया, हर जगह की एक कहानी होती है। हमारे गांव की भी है।”

    “क्या?” जूही की आंखें चमक उठीं, “बोलो ना प्लीज़!”

    “ठीक है, सुनो।” हवलदार ने गला खंखारा, “हमारे गांव में एक बहुत पुराना शराप है। कहते हैं… अगर कोई दुल्हन लाल जोड़ा पहनकर शादी करती है… तो वो गायब हो जाती है। हमेशा के लिए।”

    “क्या?” जूही एकदम चौंक पड़ी, “मतलब शादी के दिन? दुल्हन?”

    “हां… बिना किसी निशान के। ना खून, ना चीख… कुछ भी नहीं। जैसे कभी थी ही नहीं।”

    जूही ने जीभ दांतों तले दबा ली, “तो फिर यहां कोई शादी ही नहीं करता?”

    हवलदार हँस पड़ा, “अरे नहीं बिटिया! शादी तो करते हैं, लेकिन लाल जोड़े में नहीं करते।”

    जूही ने कुछ सेकंड हवलदार को देखा… फिर दोनों हँस पड़े।

    “वाह अंकल, ये तो बहुत ही हटकर स्टोरी है। मैं पापा से पूछूंगी इसके बारे में। शायद कोई राज छिपा हो इसमें।”

    हवलदार ने थोड़ा गंभीर होकर कहा, “कभी-कभी जो कहानियाँ होती हैं ना बिटिया, वो सिर्फ कहानी नहीं होतीं। उनके पीछे कोई सच्चाई छुपी होती है। इस गाँव ने बहुत कुछ देखा है…”

    जूही अब खामोश हो गई थी। उसकी आंखें फिर बाहर की ओर चली गईं। रास्ते में एक जगह कुछ गांव की औरतें लकड़ियाँ लिए जा रही थीं, उन्होंने जूही की ओर देखा, और आपस में कुछ फुसफुसाईं। शायद नए चेहरे को लेकर या उसके कपड़ों को देख कर।

    “ये सब क्यों देख रही हैं ऐसे?” जूही ने धीमे से पूछा।

    “नई हो ना बिटिया। शहर से आई हो। लोग थोड़े समय बाद आदत डाल लेंगे।”

    जूही मुस्कराई, “उम्मीद करती हूँ ऐसा ही हो।”



    डाक बंगला – सुबह 8:15 बजे

    विजय सिंह बाहर ही खड़ा था। उसकी आंखें जीप को ही खोज रही थीं। जैसे ही उसने जीप को मोड़ पर देखा, उसकी आँखों में चमक आ गई।

    “पापा!” जूही उतरते ही दौड़ पड़ी। विजय ने उसे बाँहों में भर लिया।

    “बेटा… पुरा एक दिन तेरे बिना निकाल ना बड़ा मुश्किल रहा। सब ठीक से हुआ?”

    “हां पापा, बिल्कुल। और आपके हवलदार अंकल ने तो रास्ते भर कहानियों का खजाना खोल दिया।”

    विजय ने हवलदार को देखा, “अच्छा? कौन सी कहानियाँ सुना दी?”

    “कुछ नहीं साहब, बस वो शराप वाली बात… लाल जोड़े वाली।”

    विजय ने एक पल को सिर झुकाया, फिर हल्की हँसी में बात को टालते हुए बोला, “तो बेटा, अब ये बंगला देखो। भले ही पुराना है, पर सारी सुविधाएं हैं। फ्रिज है, टीवी है, गर्म पानी है, और यहाँ तक कि वाई-फाई भी लगवाया है मैंने तेरे लिए।”

    जूही चारों ओर घूमने लगी। अंदर आई तो देखा, कमरों में अच्छे बिस्तर थे, परदे सजे हुए थे, और किचन में सारा सामान व्यवस्थित था। हाल में एक बड़ा सा एलईडी टीवी रखा था, और पास ही एक कोने में छोटी सी अलमारी थी जिसमें किताबें रखी थीं।

    “पापा, ये जगह तो बहुत प्यारी है! और ये हवेली टाइप वाइब्स मिल रही हैं। लगता है जैसे… कुछ तो रहस्य है इसके अंदर।”

    विजय ने उसकी पीठ थपथपाई, “अब कुछ दिन यहीं रहो, सब समझ आ जाएगा।”



    दोपहर – जूही का अकेलापन

    विजय किसी केस से संबंधित फाइल्स देखने में लगा था, और हवलदार पास के गांव में कुछ कागज़ी काम से चला गया था। जूही ने दोपहर के वक्त बंगले की गैलरी में बैठकर कॉफी बनाई और अपनी डायरी में कुछ लिखने लगी।

    "आज इस गांव में आई हूँ। सब कुछ नया है, पर कुछ तो है जो अजीब सा लग रहा है। जैसे दीवारें कुछ कहना चाहती हों। खिड़कियों से हवा नहीं… कोई फुसफुसाहट सी आती है। और वो लाल जोड़े वाली कहानी… कहीं वो बस एक किस्सा तो नहीं?"

    वो उठी, और बंगले के पीछे बने बगीचे की ओर निकल गई। वहां पुराने झूले की रस्सियाँ हवा में हिल रही थीं… जबकि हवा अभी बिलकुल बंद थी।

    उसने उस झूले को देखा… और हल्की सी सिहरन उसके बदन से गुज़र गई।



    शाम – एक नया मोड़

    हवलदार वापस आया और बोला, “साहब, गांव में किसी ने कहा कि उस मंदिर के पास दो रात पहले कुछ दिखा था। कोई परछाईं सी।”

    विजय ने उसे देखा, “किसने कहा?”

    “वो रामधनी चाचा… जो मंदिर की देखभाल करते हैं। बोले, लाल चूड़ियाँ खनकती सुनीं… लेकिन कोई नहीं था।”

    जूही पास खड़ी थी। उसके कान खड़े हो गए।

    “पापा, क्या हम कल उस जगह जा सकते हैं?”

    विजय ने एक पल सोचा… फिर बोला, “ठीक है। कल सुबह चलेंगे।”

    जूही ने मुस्कुराते हुए अपने मोबाइल की स्क्रीन लॉक की।

    शायद उसे अब सिर्फ एक गांव नहीं… एक अधूरी कहानी दिख रही थी…

  • 13. लाल जोडे़ का शराप - Chapter 13

    Words: 785

    Estimated Reading Time: 5 min

    अध्याय – धुएँ की आहट: जब रात की नमी में डर बस जाए



    बाहर हल्की-हल्की बूंदाबांदी अब थम चुकी थी। आसमान बादलों से ढका था, लेकिन किसी कोने से चाँद की हल्की सी रौशनी ज़मीन पर बिखर रही थी। हवाओं में अब भी दिनभर की बारिश की नमी थी, और डाक बंगले की पुरानी दीवारें उस नमी को चुपचाप अपने भीतर सोख रही थीं।

    जूही ने खिड़की के पर्दे हटाकर बाहर झांका, फिर गहरी सांस ली। आज का दिन थकान भरा था। गांव के पुराने रास्तों, उन पेड़-पगडंडियों, और लाल जोड़े वाली कहानी ने जैसे उसके ज़ेहन को थाम लिया था।

    उसने आईने में खुद को देखा। चेहरा हल्का थका हुआ, लेकिन आँखों में अब भी कुछ सवाल तैर रहे थे।

    "एक गरम शावर ले लूं," उसने खुद से कहा, "शायद दिमाग थोड़ा ठंडा हो जाए।"

    बाथरूम का दरवाज़ा खोलते ही हल्की सी भाप बाहर आई — शायद बाथरूम अब भी पिछली नमी को समेटे हुए था। उसने नल खोला, और गर्म पानी की धार से भाप और भी घनी हो गई। दीवारों पर स्टीम जमने लगी थी।

    जूही ने धीरे-धीरे अपने कपड़े उतारे। हल्के गुलाबी रंग की नाइट ड्रेस धीरे से फर्श पर गिर गई। वह अब आईने के सामने खड़ी थी — नाजुक कंधे, पतली गर्दन, और पीठ पर फैले हुए उसके लंबे, गीले बाल।

    उसने हाथ बढ़ाकर बाथरूम की पीली बत्ती जलाई। हल्की पीली रौशनी में उसका चेहरा एक अजीब सी शांति से चमक रहा था, लेकिन आँखों में छिपा हुआ तनाव अब भी झलक रहा था।

    वह शॉवर के नीचे आई।

    गर्म पानी की बूँदें उसके शरीर पर गिरने लगीं — एक-एक बूँद जैसे हर थकान को अपने साथ बहा ले जा रही हो। उसने आंखें बंद कर लीं। भाप ने पूरे बाथरूम को घेर लिया था। दीवारों पर बूँदें रेंग रही थीं, और छत से गिरती पानी की हर बूँद जैसे उसके दिमाग के हर कोने को शांत कर रही थी।

    उसने बालों को पीछे किया, पानी में चेहरा डुबाया और कुछ पल यूँ ही खड़ी रही। शायद यही पल उसके दिन का सबसे सुकून भरा पल था।

    लेकिन फिर...

    कुछ था।

    कोई आवाज़।

    शॉवर की आवाज़ के पार… कोई हलचल।

    जूही ने अचानक आंखें खोलीं। शॉवर अब भी चल रहा था, पानी अब भी गिर रहा था… लेकिन उसके कान कुछ और भी सुन रहे थे। जैसे कोई कमरे में है… कोई हल्का-सा कदमों की आहट… या किसी चीज़ के खिसकने की धीमी आवाज़।

    उसने धीरे से शॉवर बंद किया।

    "क्या कोई है?" उसने धीमे से फुसफुसाकर पूछा… जैसे खुद को ही तसल्ली दे रही हो।

    बाथरूम की दीवार से कान लगाकर उसने बाहर की हलचल को पकड़ने की कोशिश की।



    जैसे कोई अलमारी का दरवाज़ा खोल रहा हो।

    जूही की सांसें तेज़ हो गईं। वह बाथरूम की दीवार से पीठ टिकाकर खड़ी हो गई, और हर हरकत पर ध्यान देने लगी।

    फिर — जैसे कोई चीज़ ज़मीन पर गिरी हो… हल्की सी टन-टन की आवाज़।

    उसने जल्दी से टॉवल उठाया, गीले शरीर को जितना जल्दी हो सकता था, लपेटा, और दरवाज़े की ओर बढ़ी।

    उसका दिल धक-धक कर रहा था।

    हाथ दरवाज़े की कुंडी तक गया… उसने गहरी सांस ली… और फिर एक झटके से दरवाज़ा खोला।

    कमरे में अंधेरा था। सिर्फ खिड़की से आती हल्की चाँदनी कुछ-कुछ चीज़ों की आकृति बना रही थी। लेकिन… कमरे की हवा में कुछ और था।

    कुछ भारी… कुछ ठंडा… कुछ जो सामान्य नहीं था।

    और फिर…

    उसने देखा।

    कोने में… दीवार से सटी अलमारी के पास… एक काला धुआँ।

    ना इंसान की आकृति… ना किसी परछाईं का आकार… बस एक भारी, घूमता हुआ काला धुआँ… जैसे कमरे की सांसें रोक रहा हो।

    जूही की आंखें फटी रह गईं।

    वह कुछ पल वहीं खड़ी रह गई — साँसें थमी हुईं, दिल रुक-रुक कर धड़क रहा था। उसने पीछे हटने की कोशिश की, लेकिन उसके पाँव जैसे ज़मीन से चिपक गए हों।

    काला धुआँ धीरे-धीरे कमरे में फैल रहा था।

    एक हल्की सी फुसफुसाहट… जैसे कोई बहुत नज़दीक से उसका नाम ले रहा हो…

    "जूही..."

    उसका टॉवल थोड़ा सा खिसक गया, लेकिन अब वो डर के मारे पूरी तरह जड़ हो चुकी थी।

    एक ही पल में उसने हिम्मत जुटाई… और बाथरूम से बाहर निकलते ही सीधा कमरे की लाइट जला दी।

    चटाक!

    लाइट जलते ही सब कुछ साफ हो गया।

    धुआँ… गायब।

    कमरा… वैसा ही।

    अलमारी… बंद।

    मेज़… वैसी की वैसी।

    लेकिन कमरे की हवा अब भी भारी थी… जैसे कुछ छूट गया हो। या शायद… कुछ अभी भी पास हो।

    जूही दीवार से टिक गई। उसके बाल अब भी गीले थे। पानी की बूँदें उसके चेहरे से लुढ़क रही थीं, लेकिन अब वो थकान या सुकून नहीं था… अब वो डर था।

    उसने अपनी साँसों को नियंत्रित करने की कोशिश की। लेकिन कुछ तो था…

    कुछ जो उसे देख रहा था।

  • 14. लाल जोडे़ का शराप - Chapter 14

    Words: 1052

    Estimated Reading Time: 7 min

    अध्याय – "साँसों में बची रात की राख"



    सुबह के पाँच बजे होंगे। डाक बंगले के पास बैठे पुराने बरगद के पत्तों से ओस की बूंदें टपक रही थीं। परिंदों की पहली पुकार अब भी आने लगी थी, लेकिन आसमान पूरी तरह नीला नहीं हुआ था — कुछ-कुछ धुंधलाया सा, जैसे रात ने अभी पूरी तरह विदा नहीं ली हो।

    जूही की आंखें रात भर नहीं लगीं। वह चुपचाप खिड़की के पास बैठी रही — कभी आसमान देखती, कभी कमरे के कोनों को। रात का वो काला धुआँ, वो बुदबुदाता नाम, और कमरे की भारी हवा अब तक उसकी सांसों से चिपकी हुई थी।

    सुबह जब हल्की रोशनी फैलने लगी, तब जाकर उसने दरवाज़ा खोला और बाहर हाल की ओर चली आई।

    हाल में रखे लकड़ी के सोफे पुराने ज़माने की हवा में बसते थे। एक तरफ़ स्टील की ट्रे में केतली रखी थी, और उसके पास हवलदार पहले से बैठा था — बिना टोपी, सिर पर हल्के सफेद बाल, चेहरे पर झुर्रियाँ, लेकिन आँखों में आज एक अजीब सी सतर्कता।

    वहीं दूसरी ओर इंस्पेक्टर साहब, यानी जूही के पिता, अपनी पुलिस की टोपी उतारकर मेज़ पर रख रहे थे। उनके चेहरे पर नींद का आलस भी था और ऑफिस की सख्ती भी।

    जूही ने धीरे से एक कप उठाया और चाय डाली। भाप उठी, और उसकी गंध में एक अजीब-सा सुकून भी था और हल्का डर भी।

    "तुम्हारी तबीयत ठीक है, जूही?" इंस्पेक्टर साहब ने उसे देखे बिना पूछा।

    जूही ने एक पल को खुद को संभाला, फिर बोल पड़ी, "पापा… मैं रात को बहुत डर गई थी।"

    हवलदार ने चाय का घूंट लिया, उसकी नज़र तुरंत जूही की ओर उठी। इंस्पेक्टर ने अख़बार पलटना शुरू कर दिया।

    "मैं शावर ले रही थी," वह बोली, "तभी लगा जैसे कमरे में कोई है। आवाज़ें आ रही थीं। फिर जब बाहर निकली तो… तो कमरे के कोने में एक काला धुआँ था। वो… वो बस घूम रहा था। कुछ कहा उसने… मेरा नाम… जैसे कोई फुसफुसा रहा हो।"

    इंस्पेक्टर साहब ने अख़बार नीचे रखा और हल्का सा हँसते हुए बोले, "जूही, तुम्हें वहीम हुआ होगा। गांव की कहानियाँ, थकान, और फिर शावर लेना… दिमाग वैसे ही काम करता है।"

    "पापा!" वह उठ खड़ी हुई, उसकी आवाज़ में कंपकंपाहट थी, "मैं कोई बच्ची नहीं हूँ। मैंने जो देखा… वो बस कोई सपना नहीं था!"

    "बिल्कुल," हवलदार ने पहली बार धीरे से कहा, "आपकी आवाज़ में जो डर है, वो झूठ नहीं हो सकता।"

    विजय सिंह ने एक लंबी साँस ली, चाय का कप उठाया और एक घूंट लेकर बोले, "देखो बेटा, हम पुलिस में हैं। हम तर्क से बात करते हैं। ये जो भूत-प्रेत, साया-वाया है न, ये बस मन का खेल है।"

    जूही ने उन्हें घूरकर देखा, "तो आप कह रहे हैं मैं पागल हो गई हूँ?"

    "मैं कह रहा हूँ… तुम थकी हुई हो। तुम्हारा मन बहुत कुछ सोच रहा है।"

    "और जो धुआँ था?" वह सख्त लहजे में बोली, "जो अलमारी के पास मंडरा रहा था? जो मेरी तरफ़ बढ़ा… वो क्या?"

    विजय सिंह ने खामोशी ओढ़ ली।

    हवलदार ने एक पल को उसकी तरफ़ देखा, फिर चुपचाप बोला, "मैडम, आप चाय खत्म कीजिए। फिर एक बार कमरे को मैं खुद देख लेता हूँ।"

    जूही का गला रुँध गया। वह धीरे से बैठ गई और कप उठाया। चाय अब ठंडी हो चुकी थी। उसने कप को होंठों से लगाया, लेकिन स्वाद अब गायब था।

    "पापा, आप जानते हैं ना कि मैं इमेजिनेशन में नहीं रहती। जब कह रही हूँ कि कुछ था, तो यकीन कीजिए। वो चीज़... वो मेरी आंखों के सामने थी।"

    विजय सिंह ने अपनी टोपी उठाई और खड़ा होते हुए बोले, "जूही, मुझे थाने जाना है। केस है — चोरी का। तुम्हारी बातों पर मैं शाम को सोचूंगा, फिलहाल ड्यूटी ज़्यादा जरूरी है।"

    वो बिना और कुछ कहे बाहर निकल गए। उनके पीछे गाड़ी का हॉर्न सुनाई दिया, और फिर इंजन की आवाज़। जूही ने हल्के से आँखें बंद कर लीं।

    हवलदार ने कप मेज़ पर रखा और धीरे से बोला, "आपके पापा ऐसे ही हैं, मैडम। सबूत के बिना कुछ नहीं मानते।"

    "और आप?" जूही ने उसकी आँखों में देखा।

    हवलदार ने झुककर कुर्सी पर कोहनी टिकाई, "मैंने यहाँ बहुत कुछ देखा है। सुना भी है। वो लाल जोड़े वाली दुल्हनों की कहानी... वो यूँ ही नहीं बनी। ये जो आप कह रही हैं, उसमें ज़रूर कोई बात है।"

    "मतलब आप मानते हैं कि वो कोई साया था?" उसने धीरे से पूछा।

    हवलदार ने एक गहरी सांस ली, "मैं कहता हूँ… काला धुआँ बिना आग के नहीं उठता। आपने जो देखा, वो या तो कोई चेतावनी है… या कोई और कहानी जो इस गांव की मिट्टी में छुपी है।"

    जूही ने कप दोनों हाथों में थामा, और कुछ पल खामोश रही।

    "क्या आपने कभी… किसी को ऐसे देखा है?" उसने हौले से पूछा।

    "देखा नहीं, लेकिन महसूस किया है," हवलदार बोला, "यहां कुछ साल पहले भी एक लड़की आई थी, तहकीकात करने। वो भी कुछ ऐसा ही कहती थी — साया, आवाजें, अजीब धुंए। और फिर एक दिन… वो बिना बताए चली गई।"

    "गायब?" जूही का चेहरा सख्त हो गया।

    "नहीं… दिल्ली लौट गई, लेकिन उसकी आंखों में वही डर था जो आज आपके चेहरे पर है।"

    जूही ने कप नीचे रखा और उठ खड़ी हुई। खिड़की के पास जाकर बाहर देखने लगी। गांव की गलियाँ अब हल्के सूरज में चमकने लगी थीं। छोटे-छोटे बच्चे नंगे पाँव दौड़ रहे थे, कहीं से मंदिर की घंटियाँ सुनाई दे रही थीं।

    लेकिन उसके अंदर अब भी रात बची हुई थी।

    "हवलदार जी," वह धीमे से बोली, "मुझे इस गांव के बारे में सब कुछ जानना है। उस लाल जोडे के शराप के बारे में… उस लाल जोड़े की कहानी के पीछे क्या सच है… मैं जानकर रहूंगी।"

    हवलदार उसकी तरफ़ देखकर हल्का मुस्कुराया, "फिर तो आपको ये जानकर अच्छा नहीं लगेगा कि गांव वाले उस शराप के बारे कुछ नहीं कहते।"

    "और दुल्हनें?" उसने तुरंत पूछा।

    "लाल जोड़ा पहनकर जो गईं… वो लौटकर नहीं आईं।"

    "किसी ने ढूँढने की कोशिश नहीं की?"

    "किसी में हिम्मत नहीं थी। और जो गए… वो लौटे नहीं।"

    जूही ने एक ठंडी साँस ली।

    "और अब आप भी वही रास्ता चुन रही हैं," हवलदार की आवाज़ थोड़ी भारी हुई, "पर ध्यान रखना मैडम, कभी-कभी सच्चाई, डर से भी बड़ी होती है।"

    वो कुछ नहीं बोली।

    बस खिड़की से देखती रही… जैसे उस धुएँ की परछाईं फिर से किसी कोने में उसे घूर रही हो।

  • 15. लाल जोडे़ का शराप - Chapter 15

    Words: 915

    Estimated Reading Time: 6 min

    अध्याय – "लाल जोड़े का सपना"


    जूही को नींद आए ज़्यादा वक्त नहीं हुआ था। रात बहुत भारी थी — बीती रात की हलचल, कमरा भर चुका अजीब सन्नाटा, और उसके पिता की बेरुख़ी... ये सब उसकी चेतना में घुलता जा रहा था। लेकिन थकान ने आखिरकार उसे नींद की चुप दुनिया में धकेल दिया।

    पर नींद वो ज़रिया बन गई, जिससे डर फिर से लौट आया।फिर उसे एक सपना आया,


    सपना शुरू होता है —
    सामने एक बहुत पुराना मंदिर है, शायद हज़ारों साल पुराना। पत्थरों से बना, काले काले रंग का, छतों पर पीपल की जड़ें जमी हुईं और दीवारों पर किसी अनजानी भाषा में कुछ लिखा है। हवा बिलकुल थमी हुई लगती है, जैसे साँसें भी सहमकर रुक गई हों।

    जूही उस मंदिर की सीढ़ियाँ चढ़ रही है — लाल जोड़ा पहने हुए। जोड़ा भारी है, कढ़ाई से सजा हुआ, घाघरा ज़मीन पर रेंगता है और हर क़दम पर सिन्दूरी धागों से बनी झालरें उसके पैरों से उलझ रही हैं।

    उसके माथे पर बिंदी है, होंठों पर हल्की मुस्कान, लेकिन आंखें… आंखों में कोई गहरी बेचैनी है।
    कलाई में काँच की लाल चूड़ियाँ खनक रही हैं, हर खनक किसी पुराने गीत की तरह लग रही है। वो हाथ में पूजा की थाली लिए सीढ़ियाँ चढ़ती जा रही है, जैसे उसे कुछ करना है, कोई रस्म पूरी करनी है।

    लेकिन मंदिर के भीतर कोई पुजारी नहीं है।
    ना ही कोई आरती, ना दीपक की रोशनी। बस धुंध… ठंडी, गाढ़ी धुंध।

    जूही आगे बढ़ती है। थाली कांप रही है, जैसे उसे खुद से छूटने की जल्दी हो।

    अचानक कोई पीछे से उसका नाम पुकारता है — "जूही…"

    वो पलटती है, लेकिन वहाँ कोई नहीं होता। सिर्फ़ एक काले घूंघट में ढकी परछाई, दूर खड़ी, और धीरे-धीरे गायब होती हुई।

    वो फिर मंदिर के गर्भगृह में पहुँचती है। वहां एक मंडप सजा है। चारों ओर लाल फूल, दीये, और किसी पुरानी शादी की सजावट है। लेकिन सब कुछ धूल में ढका हुआ, जैसे किसी ने बरसों पहले सब छोड़ दिया हो।

    मंडप के बीचोंबीच अग्निकुंड है — पर आग नहीं जल रही। वहाँ बस राख है, ठंडी, स्याह राख।

    और तभी… अचानक अग्निकुंड में एक लौ जल उठती है — तेज़, अजीब सी नीली लौ।

    जूही के सामने एक आदमी खड़ा है — ऊँचा कद, सफेद शेरवानी में, लेकिन उसका चेहरा ढँका हुआ है एक लाल घूंघट से, जैसे दूल्हा नहीं, कोई और है। कोई जो शादी नहीं चाहता… कोई जो इंतज़ार कर रहा है… मौत का।

    जूही का हाथ अनजाने में उसकी तरफ़ बढ़ता है। वो खुद को रोक नहीं पा रही।

    "ये… शादी मेरी है?" वो सोचती है, पर उसकी आवाज़ अब उसकी नहीं लगती।

    लाल जोड़े का घाघरा अब भारी होता जा रहा है। जैसे उसमें किसी और की यादें सिल दी गई हों… किसी और की चीखें।

    फिर…
    अचानक आंधी चलती है।

    तेज़ तूफान, ऐसा कि मंदिर की दीवारें हिलने लगती हैं। छत से धूल और पुराने फूल झरने लगते हैं। लाल पर्दे उड़ते हैं, चूड़ियाँ टूटने लगती हैं। वो काले बादलों से भरी आंधी में अपने पाँव बचाते हुए खड़ी है, लेकिन पाँव जैसे ज़मीन में धँस चुके हों।

    और उस तूफान में… उस धूल भरे अंधेरे में… उसे एक चेहरा दिखता है।

    बिलकुल उसके सामने… उस नीली लौ की परछाई में…

    एक भयानक चेहरा।
    काले घूंघट के पीछे झाँकती जली हुई आँखें… होंठ जैसे सिल दिए गए हों… और माथे से खून की एक पतली सी लकीर बह रही हो।

    "जूही…" वो चीखता है।

    "मत पहन लाल जोड़ा… वो तुझे भी ले जाएगा…"

    "कौन?" जूही चिल्लाती है।

    पर उसकी आवाज़ हवा में खो जाती है।

    हर तरफ़ सिर्फ़ आवाज़ें — चीखें, दुल्हनों की सिसकियाँ, किसी के पायल की टूटन, किसी की सांस का आखिरी बोझ।

    तभी मंदिर की एक दीवार गिरती है, और वह नीली लौ अचानक काले धुएँ में बदल जाती है… और धुआँ उसकी तरफ़ बढ़ने लगता है।

    वो भागने की कोशिश करती है। लेकिन घाघरा अब किसी ने थाम लिया है… कोई है पीछे।

    "छोड़ो मुझे!" वो चीखती है।

    "ये शादी नहीं… बलिदान है!" कोई कहता है।



    तभी…

    वो चौंककर उठती है।

    साँसें तेज़ हैं, सीना ऊपर-नीचे हो रहा है, चेहरा पसीने से भीगा हुआ। कमरा अंधेरे में डूबा है, सिर्फ़ खिड़की से आती हल्की चाँदनी ज़मीन पर बिखरी है।

    जूही कुछ सेकंड तक समझ नहीं पाती कि वो सपना था या सच्चाई।

    हाथों में अब भी चूड़ियों की खनक महसूस हो रही है। उसके पैरों को छूकर जैसे कोई हवा अभी-अभी गुज़री हो।

    वो बिस्तर पर बैठती है, सिर पकड़ लेती है, और फिर ध्यान देती है — कमरे में कुछ है। कोई है।

    एक परछाईं… फिर से।

    कोने में, खड़ी… लेकिन स्थिर।

    ना धुआँ, ना हवा — सिर्फ़ मौजूदगी।

    "क… कौन है?" वो डरते हुए पूछती है।

    कोई जवाब नहीं आता। लेकिन साँसों की रफ्तार जैसे किसी और की भी है।

    उसकी आंखें कोशिश करती हैं देखने की, पर धुंधली हैं।

    फिर अचानक… परछाईं गायब हो जाती है।

    कमरे की हवा अब भी भारी है। वो उठती है, कमरे की लाइट जलाती है — पर सब ठीक दिखता है। अलमारी बंद है, दरवाज़ा अंदर से लॉक्ड है, और खिड़की भी हल्के पर्दे में ढकी हुई।

    लेकिन दिल कह रहा है — कोई था।

    वो खिड़की तक जाती है, पर्दा हटाकर देखती है — बाहर वही गांव की शांत रात, कहीं-कहीं कुत्तों के भौंकने की आवाज़।

    पर उसकी आंखों में अब नींद का कोई नाम-ओ-निशान नहीं।

    वो वापस बिस्तर पर आती है, लेकिन लेटी नहीं।

    बस दीवार पर टिकी… और सोचती रही —
    "कौन था वो?
    क्यों आया था?
    और ये शादी… किसके साथ थी?"

  • 16. लाल जोडे़ का शराप - Chapter 16

    Words: 825

    Estimated Reading Time: 5 min

    अध्याय – "डर के साये में"




    सुबह की धूप गांव की गलियों में उतर चुकी थी, लेकिन हवाओं में अब भी सिहरन थी। इंस्पेक्टर विजय ने आज तय किया था कि वो खुद जाकर गुमसुदा लड़कियों के घर-घर जाकर बात करेगा। उसका चेहरा सख़्त था, आँखों में थकान लेकिन इरादों में ज़िद थी।

    जीप धूल उड़ाती हुई ठाकुर के पुराने हवेली नुमा घर के सामने रुकी। दरवाज़े पर लोहे की जंग खाई कड़ी लगी थी, जैसे बरसों से किसी ने उसे खोला ही न हो। साथ बैठा हवलदार भोला धीरे से बोला, “इसी घर की लड़की थी नंदिनी… नंदिनी ठाकुर। शादी के दिन, लाल जोड़ा पहनकर ससुराल जाने से पहले ही... ग़ायब हो गई थी।”

    विजय सिंह ने दरवाज़े की घंटी नहीं बजाई। गांव में ज्यादातर लोग दरवाज़े बंद करके नहीं रहते। उसने धीरे से पुकारा, “ठाकुर साहब, बात करनी है आपसे।”

    अंदर से कुछ सरसराहट हुई। फिर धीमे से दरवाज़ा खुला।

    सामने एक बुज़ुर्ग, झुके कंधों वाले ठाकुर खड़े थे। उनकी आँखों के नीचे काले घेरे थे, और होठों पर सालों से थमी एक पीड़ा।

    विजय सिंह ने हाथ जोड़कर नमस्कार किया, “इंस्पेक्टर विजय सिंह, पुलिस स्टेशन से आया हूं… आपकी बेटी…”

    ठाकुर ने हाथ उठाकर उसे रोका, जैसे कहना चाह रहे हों, "इतना काफी है।"

    उन्होंने दरवाज़ा और खोलते हुए भीतर आने का इशारा किया। अंदर घर अजीब खामोशी में डूबा था। दीवारों पर पुरानी तस्वीरें, जिनमें नंदिनी की मुस्कान अब बस याद बन चुकी थी।

    बैठक में तीन लोग और थे — ठाकुर की पत्नी, जो एक कोने में चुपचाप बैठी थीं, और दो अन्य महिलाएं, शायद पड़ोसी या रिश्तेदार। सबकी आँखों में डर का धुआं था। किसी की नजरें इंस्पेक्टर की तरफ नहीं उठीं।

    विजय सिंह ने धीरे से बात शुरू की, “मैं यहां आपको परेशान करने नहीं आया… बस समझना चाहता हूं कि आख़िर उस दिन क्या हुआ था… आपकी बेटी को आख़िरी बार किसने देखा? क्या उसने कुछ अजीब महसूस किया था शादी से पहले?”

    कोई जवाब नहीं मिला। सिर्फ़ चुप्पी। जैसे पूरे कमरे को किसी ने बांध रखा हो।

    कुछ देर तक जूही ने आंखों से हर एक चेहरा पढ़ने की कोशिश की। फिर ठाकुर की पत्नी की ओर देखा, “माता जी… आपकी बेटी… कोई सपना? कोई डर… कोई बात जो उसने आपसे कही हो?”

    औरत ने थोड़ा सा सिर हिलाया… फिर वहीं थम गईं। शायद कुछ कहना चाहती थीं, पर गले में शब्द अटक गए।

    विजय सिंह को अब गुस्सा नहीं, बेचैनी हो रही थी। “देखिए, अगर आप नहीं बताएंगे, तो अगली लड़की भी… अगली बेटी भी… बच नहीं पाएगी। मैं यहां आपकी मदद करने आया हूं।”

    ठाकुर ने धीरे से कहा, “आप समझते नहीं साहब… यहां लोग डरते नहीं हैं, यहां लोग… हार चुके हैं।”

    “तो हार मान लें?” विजय सिंह ने चुभते हुए पूछा।

    लेकिन ठाकुर ने कोई जवाब नहीं दिया।

    थोड़ी देर बाद, इंस्पेक्टर ने कोशिश की, कुछ और सवाल किए — शादी की रात की गहमा-गहमी, किसने क्या देखा, नंदिनी आख़िरी बार किसके साथ थी — पर सबकुछ बेकार। हर जवाब अधूरा, हर चेहरा जैसे बंद खिड़की।

    आख़िरकार, थककर विजय सिंह ने उठने का इशारा किया। “ठीक है… अगर आप में से किसी को कभी कुछ याद आए, कुछ भी, तो बताइएगा… पुलिस चौकी आपके ही गांव में है।”

    ठाकुर सिर झुकाए बैठे रहे। किसी ने “हाँ” तक नहीं कहा।



    बाहर निकलते हुए हवलदार ने धीरे से कहा, “बहुत पुराने ज़ख्म हैं साहब… जो खुलना नहीं चाहते।”

    विजय सिंह ने गहरी सांस ली, “पर हम मरहम लगाने नहीं, सच्चाई खोजने आए हैं।”

    जीप वापस चौकी की ओर मुड़ी।



    शाम ढलने लगी थी। पुलिस स्टेशन की पुरानी बिल्डिंग अब सुनसान लग रही थी। इंस्पेक्टर विजय अपने मेज पर आकर बैठा, सिर दोनों हथेलियों में दबाए।

    उसका मन बार-बार नंदिनी की तस्वीर पर अटक रहा था — मासूम चेहरा, माथे पर टीका, गले में हार और पीछे झांकती हुई बड़ी बड़ी आंखें। जैसे पूछ रही हों, "क्यों, मेरी भी कहानी अधूरी रह गई?"

    तभी हवलदार कमरे में आया — हाथ में चाय का कप लिए।

    “साहब,” उसने कप मेज पर रखते हुए कहा, “थोड़ी गरम चाय पी लीजिए… ज़रा होश आ जाएगा।”

    इंस्पेक्टर विजय ने कप उठाया, एक घूंट लिया, फिर कहा, “गांव वाले इतने डरे हुए क्यों हैं हवलदार? ऐसा क्या है जो सबको जुबान खोलने से रोकता है?”

    हवलदार कुछ देर चुप रहा, फिर कुर्सी खींचकर पास बैठ गया।

    “साहब… डर दो तरह के होते हैं। एक वो, जो जानने से लगता है। दूसरा… जो जानने के बाद भी कुछ ना कर पाने से लगता है। यहां का डर दूसरा वाला है।”

    इंस्पेक्टर विजय ने उसकी आंखों में देखा, “तुम्हें क्या लगता है… ये सच में कोई साया है? या कोई इंसान… कोई गिरोह?”

    भोला ने धीरे से सिर हिलाया, “सच कहूं तो जितना मैंने आपको बताया है… उतना ही इस गांव को भी पता है। इससे ज्यादा यहां कोई नहीं जानता। या तो सच में नहीं जानता… या जानकर भी कह नहीं सकता।”

    इंस्पेक्टर ने गहरी सांस ली, और खिड़की की ओर देखने लगा।

    बाहर गांव की वही जानी-पहचानी खामोशी पसरी थी।

  • 17. लाल जोडे़ का शराप - Chapter 17

    Words: 1011

    Estimated Reading Time: 7 min

    अध्याय: “गांव की गलियों से उठती फुसफुसाहट”




    सुबह की हवा में एक अलग सी ताजगी थी। गांव में रात का सन्नाटा जैसे अब धीरे-धीरे हट रहा था। पक्षियों की चहचहाहट और पेड़ों से गिरती धूप गांव के हर कोने में हलचल जगा रही थी।

    जूही, आज सुबह जल्दी उठ गई थी। नींद पूरी नहीं थी, पर दिमाग में बहुत कुछ चल रहा था। बीते कुछ दिनों से गांव के माहौल में जो डर, जो रहस्य उसने महसूस किया था, उसने उसकी जिज्ञासा को और बढ़ा दिया था।

    वो हल्के नीले रंग की कुर्ती और सफेद दुपट्टा ओढ़कर बाहर आई। हवालदार भोला पहले से ही बाहर जीप के पास खड़ा था, लेकिन जब उसे देखा कि जूही पैदल चलने के लिए तैयार है, तो वह मुस्कराया, “मैडम, आज जीप नहीं?”

    जूही ने जवाब दिया, “नहीं भोला चाचा, आज पैदल चलते हैं… गांव को नज़दीक से महसूस करने का मन है।”

    भोला हौले से मुस्कराया और उसके साथ चल पड़ा।

    गांव की गलियां मिट्टी से बनी थीं, जिन पर सुबह की नमी अब भी थी। चारों ओर मिट्टी की महक, और वो सादगी जिसमें इस गांव की आत्मा बसती थी।

    थोड़ी दूर चलते ही जूही की नजर एक पुराने पीपल के पेड़ के नीचे खेलते कुछ बच्चों पर पड़ी। वे गिल्ली-डंडा खेल रहे थे, खिलखिलाकर हँस रहे थे। उनकी मासूमियत में गांव की मिट्टी की खूशबू थी।

    जूही झुक कर उनके पास बैठ गई, “अरे वाह! तुम लोग तो बहुत अच्छे खिलाड़ी हो। कौन जीता?”

    एक छोटा लड़का, जिसकी नाक अब भी बह रही थी, हँसते हुए बोला, “मैं! मैं सबसे तेज़ भागता हूं!”

    दूसरे लड़के ने टोक दिया, “नहीं दीदी, ये तो हर बार आउट हो जाता है!”

    सभी हँस पड़े।

    जूही ने अपने दुपट्टे से एक बच्चे की नाक पोंछ दी और बोली, “बिल्कुल मम्मी जैसी लग रही हूं ना?” सबने सिर हिलाया।

    भोला थोड़ी दूरी पर खड़ा था, मुस्करा रहा था। उसकी आंखों में स्नेह था — एक पिता जैसा अपनापन, जो उसे इस लड़की से हो गया था।

    जूही ने बच्चों से पूछा, “तुम लोग स्कूल जाते हो?”

    एक लड़की बोली, “हां दीदी, पर कुछ दिन से हमारी रेखा मैडम नहीं आ रही… वो लाल रंग का जोडा पहनकर शादी कर रही थी आई थी… फिर बस नहीं आई।”

    जूही का चेहरा पल में ही गंभीर हो गया। उसने धीरे से पूछा, “क्या हुआ था रेखा को?”

    बच्ची कंधे उचकाकर बोली, “पता नहीं दीदी, सब कहते हैं वो चली गई… लाल जोडा नहीं पहनना चाहिए, श्राप है।”

    भोला ने धीरे से आवाज़ दी, “मैडम…?”

    जूही समझ गई, बच्चों से ज्यादा पूछना ठीक नहीं होगा। उसने बच्चों को चॉकलेट दी और धीरे-धीरे आगे चल पड़ी।

    कुछ दूरी पर एक पुराना कुआं था। उसके पास कुछ लड़कियां घड़ों में पानी भर रही थीं। जूही उनके पास पहुंची और मुस्कराकर बोली, “अरे वाह! कितनी बड़ी बड़ी मटकी लेकर चलती हो तुम लोग, थकती नहीं?”

    एक लंबी लड़की, जिसकी आँखों में झील सी गहराई थी, बोली, “अब आदत हो गई दीदी। थक जाएं तो कौन पानी भरेगा?”

    दूसरी ने हँसते हुए कहा, “जूही दीदी हैं ना… इनसे कहो आज पानी भरें हमारे लिए!”

    सब हँसने लगीं।

    जूही मुस्कराई, फिर बोली, “सुनो… एक बात पूछूं? ये लाल जोड़े वाला श्राप… क्या तुम लोग मानती हो सच में ऐसा कुछ है?”

    लड़कियां एक पल को चुप हो गईं।

    फिर एक लड़की बोली, “हमने नहीं देखा दीदी… पर बचपन से यही सुनते आए हैं। मेरी चचेरी बहन की शादी होने वाली थी, पर जब उसने लाल जोड़ा पहनने की ज़िद की, तो दादी ने सारा सामान फेंक दिया। कहा — ‘शादी करनी है तो हरा, पीला, कुछ भी पहन… पर लाल नहीं।’”

    दूसरी लड़की ने डरते हुए कहा, “हमारे गांव में जो भी लड़की लाल जोड़ा पहनती है… वो गायब हो जाती है, दीदी। जैसे वो थी ही नहीं। कोई निशान नहीं, कुछ नहीं… बस एक तूफान आता है, और… सब खत्म।”

    जूही ने गौर से सुना। एक हल्का सा सिहरन उसके रीड की हड्डी से गुजर गई।

    उसने फिर पूछा, “कभी किसी ने कुछ देखा? कोई साया? या अजनबी आदमी?”

    लड़कियों ने सिर हिलाया।

    “नहीं दीदी, बस हवा चलती है बहुत तेज़… और सबकुछ… चुप हो जाता है। कोई चीख भी नहीं आती। हमें लगता है... ये श्राप नहीं है, कुछ और है… पर क्या है, ये कोई नहीं जानता।”

    उस वक्त भोला पीछे से आकर बोला, “मैडम, सूरज चढ़ने लगा है… चलें?”

    जूही ने लड़कियों को धन्यवाद कहा, और साथ में कुएं की ओर दो पल देखा। वहां का पानी अब भी शांत था, पर उसकी सतह पर जैसे कोई अदृश्य परछाईं तैर रही हो।

    वो दोनों वापस गांव की गलियों से गुजरते हुए चलने लगे।

    “भोला चाचा,” जूही ने धीमे स्वर में पूछा, “आपने भी तो वही कहा था न… लाल जोड़ा पहनने वाली दुल्हनें गायब हो जाती हैं?”

    हवलदार ने गंभीर होकर जवाब दिया, “हां मैडम… सुना तो है। और देखा भी है, एक बार… बचपन में। एक बार दुल्हन को डोली पर बिठाया गया, और फिर… धूल का बवंडर उठा। सब भागे… लेकिन जब धूल हटी, तो डोली थी… लेकिन दुल्हन नहीं।”

    जूही ने रुक कर उसकी आंखों में देखा, “क्या आपको सच में लगता है कि ये कोई श्राप है? या फिर… कोई प्लान?”

    भोला ने गहरी सांस ली, “मैडम, अब तक तो सबने इसे कहानी ही माना। पर आप जैसी बाहर से आई लड़की जब यही बात पूछती है, तो लगता है… शायद वाकई कुछ है। कुछ जो छिपा है। या छिपाया गया है।”

    जूही का चेहरा और गंभीर हो गया। उसके मन में अब कई टुकड़ों वाली एक तस्वीर बनने लगी थी — बच्चों की बात, कुएं वाली लड़कियों की फुसफुसाहट, और हवलदार की आंखों में छिपा डर।

    वो बोली, “चाचा, मुझे लगता है… गांव में कुछ ऐसा है जिसे सबने देखा नहीं… या देख कर अनदेखा कर दिया। मैं पता लगाकर रहूंगी — क्या है ये लाल जोड़े का सच।”

    भोला ने सिर हिलाया, “बस एक बात याद रखना मैडम… गांव की कहानियां कभी-कभी कहानियां नहीं होतीं, वो इशारे होते हैं — उन सच्चाइयों के, जो सामने आते ही ज़िंदगी बदल देते हैं।”

    जूही चुप रही, पर उसकी आंखों में अब जिज्ञासा नहीं, संकल्प झलक रहा था।

  • 18. लाल जोडे़ का शराप - Chapter 18

    Words: 1145

    Estimated Reading Time: 7 min

    अध्याय: “रात की दस्तक – जब परछाइयों ने चेताया”


    पुलिस चौकी की दीवारें उस रात कुछ अलग तरह की खामोशी से घिरी हुई थीं। बाहर पेड़ों की पत्तियाँ भी अजीब ढंग से सरसराती लग रही थीं — जैसे कोई फुसफुसा रहा हो, पर कोई सुन नहीं पा रहा।

    चौकी के अंदर, इंस्पेक्टर विजय अपनी टेबल पर झुका एक पुराना फाइल देख रहा था — "गुमशुदा लड़कियाँ: केस 1987 से अब तक"। पास में हवलदार भोला बैठा खामोशी से चाय पी रहा था, और वहीं एक कोने में जूही, जो अब तक गांव की रहस्यमयी कहानियों को हकीकत में बदलते देख चुकी थी, खामोश होकर अपनी डायरी में कुछ लिख रही थी।

    “पापा,” जूही ने अचानक कहा, “क्या कभी आपने सोचा है कि इतने सालों में जो लड़कियाँ गायब हुई हैं, उनके परिवारों ने कभी कोई जवाब नहीं माँगा?”

    विजय ने चश्मा उतार कर उसकी तरफ देखा, “कई बार माँगा, बेटा। लेकिन जब गांव का हर गवाह, हर सबूत हवा हो जाए, तो पुलिस भी बस रिपोर्ट में लकीरें ही खींच पाती है।”

    जूही ने धीमे से सिर झुकाया।

    उसी वक्त बिजली एक बार झपक कर गई।

    बाहर अचानक से हवा का रुख तेज़ हो गया था, जैसे कोई झुंझलाया हुआ चेहरा फूंक मार रहा हो। चौकी की दीवारों पर कुछ खड़खड़ाने की आवाज़ आई।

    भोला उठा, “मैडम, मैं देखता हूं बाहर कोई है क्या।”

    जैसे ही वह दरवाज़ा खोलकर बाहर निकला, तेज़ झोंके ने उसके चेहरे पर धूल फेंकी। लेकिन हवा में धूल से ज्यादा कुछ और भी था — एक दुर्गंध, जो जले हुए कुछ का संकेत दे रही थी।

    चौकी के पास रखे झंडे का कपड़ा अपने-आप फड़फड़ाने लगा था।

    तभी अचानक एक दीवार पर लाल रंग से कोई शब्द उभर आया —
    "निकल जाओ... नहीं तो अगली बार तुम होगे।"

    भोला चीख कर बोला, “इंस्पेक्टर साहब! देखिए!”

    विजय और जूही दौड़कर बाहर आए। दीवार पर लिखे शब्द लाल रंग के नहीं थे — वो ताज़ा खून की तरह चमक रहे थे, और जैसे-जैसे वे उसे देख रहे थे, वो शब्द धीमे-धीमे बहने लगे — जैसे कोई रो रहा हो।

    जूही की साँसें तेज़ हो गईं। उसकी पीठ पर पसीना उतर आया।

    “ये… इंसान का काम नहीं हो सकता…” वह बुदबुदाई।

    तभी अचानक चौकी के अंदर रखी पुरानी अलमारी अपने-आप खुल गई और उसके भीतर से एक ज़ोरदार चीत्कार गूंजा — एक लड़की की चीख जैसी।

    चौकी की लाइट्स झपकने लगीं।

    विजय ने बंदूक निकाली, “भोला, अंदर देखो कोई है क्या।”

    भोला काँपते हुए आगे बढ़ा, पर जैसे ही उसने अलमारी की ओर कदम रखा, एक अदृश्य ताक़त ने उसे ज़मीन पर पटक दिया। उसकी पीठ दीवार से जा टकराई और वह कराह उठा।

    “चाचा!” जूही दौड़ी।

    तभी... जैसे कमरे की हवा ही बदल गई।

    अचानक, एक साया सामने प्रकट हुआ। वो कोई औरत थी — लाल जोड़े में, मगर चेहरा झुलसा हुआ, आँखें खून से भरी, और उसकी बाँहें जमीन से नहीं छू रहीं थीं… जैसे वो हवा में तैर रही हो।

    उसने एक चीख मारी — इतनी तेज़ कि खिड़कियों के शीशे चटक गए।

    जूही डर के मारे पिता से चिपक गई। इंस्पेक्टर विजय का चेहरा पसीने से भीग गया, पर उसने अपनी बेटी को थामे रखा।

    “हट जाओ यहां से!” आत्मा की घिसी हुई आवाज़ कमरे में गूंज रही थी।

    पर उससे पहले कि वो तीनों कुछ कर पाते, एक ज़ोरदार रोशनी चौकी के दरवाज़े से अंदर आई।

    और उसी रोशनी के साथ, दरवाज़ा ज़ोर से खुला — और तीन परछाइयाँ भीतर दाखिल हुईं।

    “रुको!”

    सामने एक लंबा, काले ट्रेंचकोट में लिपटा आदमी खड़ा था। उसके हाथ में लोहे का त्रिशूल थी, और गले में एक काली माला। साथ में दो और लोग थे — एक पतला सा लडका, जिसके पास कैमरा था, और दूसरी एक आदमी, जिसके हाथ में किसी तांत्रिक ग्रंथ की कॉपी।

    “नाम — आदित्य,” उसने कहा। “घोस्ट हंटर।”

    उसने आगे बढ़ते हुए त्रिशूल से ज़मीन पर एक चक्र बनाया और मंत्र बुदबुदाने लगा।

    “रुका नहीं तो ये आत्मा हम सबको खा जाएगी,” उसकी सहयोगी ने चेताया।
    आदित्य उस आत्मा को त्रिशूल दिखा तो वो एक पल तो नहीं डरी, तब अपने सहयोगी से कहा,
    " ये क्या है तुमने कहा था ये आत्माओ का काल है लेकिन इससे तो कुछ नहीं हो रहा है, मजा बना कर दिया है तुम दोनों ने मेरा , " उसने घूरते हुए कहा |
    पहले सहायक ने कहा, ऐ भाइ ज़रा वेट करो होगा ये महान भीभूती नरायण का हथियार है इसी से उन्होंने कई आत्मा को सबक सीखाया है,
    आत्मा चीखी, और एक पल को पूरी चौकी में अंधेरा छा गया।
    लेकिन आदित्य ने ज़ोर से मंत्र पढ़ा — “ॐ क्षेमं कुरु कल्याणं…” — और त्रिशूल को हवा में घुमाया।

    एक तीव्र प्रकाश उठा।

    आत्मा छटपटाने लगी, जैसे उसकी शक्ति कम हो रही हो।
    गोस्ट हन्टर टीम के चेहरे पर जंग जीतने वाली मुस्कान |
    तभी आदित्य ने अपनी जेब से एक छोटी शीशी निकाली, उसमें से धुएँ जैसा कुछ निकला और उसने आत्मा की ओर फेंका।

    धुआं उस लाल जोड़े वाली आत्मा को घेरे में लेने लगा। आत्मा ने छटपटाकर चिल्लाया, “मुझे क्यों बुलाया? मैं बस चेतावनी देने आई थी… असली राक्षस तो अभी जागा नहीं है…”

    और फिर — वो गायब हो गई।

    सन्नाटा।

    चौकी के कोने-कोने में जैसे अब कुछ भारीपन उतर आया हो।

    विजय सांस लेते हुए बोला, “ये... ये सब क्या था?”

    आदित्य ने धीमे से जवाब दिया, “ये तो सिर्फ शुरुआत है। वो आत्मा चेतावनी दे रही थी, हमला नहीं। इसका मतलब है कि गांव में कुछ और है… कुछ ऐसा जो मरा नहीं, बल्कि छिपा है… और अब वापस आ रहा है।”

    भोला ज़मीन से उठते हुए बोला, “ये तो... गांव का श्राप है… वही जो पीढ़ियों से चलता आ रहा है।”

    आदित्य की साथी, महेश नाम की तांत्रिक , आगे बढ़ा और जूही को देखकर बोली, “तुमने हमें बुलाया था?”

    जूही ने धीरे से सिर हिलाया, “हां… मुझे यकीन था कि गांव में कुछ है जो हम इंसानी दिमाग से नहीं समझ सकते। आप ही बचा सकते हैं हमें।”

    विजय चौंक गया, “तुमने बुलाया था इन्हें?”

    “हां पापा। मुझे यकीन था कि पुलिस की फाइलें नहीं, बल्कि आत्माओं की भाषा ही अब जवाब देंगी।”

    आदित्य मुस्कराया, “सही समय पर बुलाया। नहीं तो आज रात कोई यहां नहीं बचता।”

    भोला अब भी काँप रहा था, पर उसने हिम्मत जुटाकर पूछा, “अब क्या करेंगे?”

    आदित्य ने दीवार की तरफ देखा — जहाँ अब भी खून के निशान फैले थे।

    “अब... हम गांव को उसके अतीत से मुक्त करेंगे,” उसने कहा, “पर उससे पहले, हमें जानना होगा कि ये सब शुरू कहाँ से हुआ।”

    जूही ने गहरी सांस ली। उसके सामने कई सवाल थे, पर अब वो अकेली नहीं थी।

    उसके पास अब उसके पिता थे, हवलदार भोला का विश्वास था… और एक रहस्यमय घोस्ट हंटर, जिसने पहली बार आत्माओं की चीख को जवाब दिया था।

    बाहर हवा अब शांत हो चली थी।

    पर किसी को मालूम नहीं था — ये खामोशी उस तूफान से पहले की थी, जो गांव की नींव हिला देगा।

  • 19. लाल जोडे़ का शराप - Chapter 19

    Words: 1155

    Estimated Reading Time: 7 min

    अध्याय: “डाक बंगले में रात का सन्नाटा”

    गांव के बाहरी इलाके में स्थित डाक बंगला, जो पुराने जमाने की कुछ यादें संजोए हुए था, अब एक हल्की सी ठंडी हवाओं और अजीबोगरीब खामोशी में घिरा हुआ था। दिन की हलचल खत्म हो चुकी थी और रात का गहरा सन्नाटा छा चुका था। डाक बंगला अपनी पुरानी दीवारों, झूलते हुए झूले और कड़ी दरवाजों के साथ रहस्यमयी लगता था, जैसे हर कोने में कोई अनकहा राज़ छुपा हो।

    इंस्पेक्टर विजय, भोला और जूही डाक बंगले में आए थे, लेकिन एक अजीब सी तन्हाई उनके आस-पास छाई हुई थी। वे तीनों अंदर के आरामदायक कमरे में बैठे थे। बर्तन और कप झिलमिलाते हुए चाय के प्यालों के साथ सजा थे। चाय की हल्की सी खुशबू कमरे में तैर रही थी, जैसे यह एक सामान्य शाम हो, पर भीतर एक असामान्य एहसास था।

    घोस्ट हंटर, यानि आदित्य, जो खुद को एक प्रशिक्षित आत्मा शिकारी मानता था, उसकी शख्सियत में कुछ अलग ही था। उसका पहनावा बिल्कुल मॉडर्न था — काले रंग की जैकेट, पैंट और स्मार्ट वॉच से सुसज्जित। उसके साथ दो अन्य लोग थे — एक लड़का और एक पुरुष, दोनों भी घोस्ट हंटिंग के पेशेवर थे। लड़का जिसका हर्ष, और पुरुष का नाम महेश। हर्ष का चेहरा कूल था, लेकिन उसकी आंखों में रहस्य था। महेश एक कड़क मिजाज का शख्स था, जो हमेशा गंभीर रहता था। तीनों की बॉडी लैंग्वेज से साफ था कि वे कोई सामान्य लोग नहीं थे।

    चाय की चुस्कियों के बीच आदित्य ने सबको देखा और मुस्कुराते हुए बोला, “तो, हमें जिस वजह से यहां बुलाया गया है, उस बारे में जूही, तुम ही हमें थोड़ा और जानकारी दे सकती हो?”

    जूही ने एक लंबी सांस ली और फिर बिना किसी हिचकिचाहट के बोल पड़ी, “ आदित्य, यह जो गाँव का रहस्य है, यह कुछ दिनों से मुझे बहुत परेशान कर रहा है। मुझे लगता है कि यहाँ कुछ और है, जो किसी ने जानबूझकर छुपाया हुआ है। यही कारण है कि मैंने तुम्हारी और टीम को बुलाया है। मुझे सच में यकीन नहीं हो रहा, लेकिन कुछ घटनाएं ऐसी हैं जो स्पष्ट रूप से किसी सामान्य घटना का हिस्सा नहीं हो सकतीं।”

    आदित्य ने सिर हिलाया और उसकी आंखों में एक समझदारी झलकी। “मैं समझता हूँ। हर रहस्य को उजागर करने के लिए कुछ समय चाहिए होता है, और तुम्हारी जिज्ञासा ही तुम्हें यहां तक खींच लाई है। हमें पहले घटनाओं का जानना होगा करना होगा।”
    " फिर देखना गाईज आदित्य माए बाॅय इन आत्माओं को फाड कर रख देगा, " हर्ष ने गरमजोशी से कहा |
    " ये किस भाषा में बात कर रहे हो दिखता नहीं सामने एक लड़की भी बैठी है, " विजय सिंह ने गुस्सा होते हुए कहा |
    " पापा छोडिये ना ये ऐसे ही है, " जूही ने कहा |
    भोला जो अब तक चुप था, एक घूंट चाय का पिया और फिर गंभीरता से बोला, “मैडम, यह सब जो आप कह रही हो, वह तो अजीब है। हम गांववाले तो इन बातों को सिर्फ बड़बोला कहते हैं। लेकिन अब जब तुम खुद यहां आई हो और हमें विश्वास दिलाया है, तो शायद हमें सच में इस पर ध्यान देना चाहिए।”

    “हां, चाचा,” जूही ने भी सिर हिलाया, “बिल्कुल। और आप ही कह सकते हैं कि ये घटनाएं पहले कभी इतनी बार नहीं हुई थीं। यह कुछ और है, जो समझ में नहीं आता।”

    आदित्य ने सबको समझते हुए जवाब दिया, “ठीक है, हमें इसे सावधानी से खोजना होगा। हम अपनी पूरी टीम के साथ गाँव के हर कोने को चेक करेंगे, लेकिन यह सब धीरे-धीरे होगा। क्योंकि इन घटनाओं को समझने में समय लगेगा।”

    फिर आदित्य ने अपनी चाय का प्याला रखा और हर्ष से कहा, “हर्ष, तुम महेश के साथ बाहर जाओ और पुराने कुएं के पास एरिया चेक करो। वहीं से हमें कुछ सुराग मिल सकते हैं।”
    " क्या अभी नहीं यार ये तो मेरे सोने का वक्त है अभी तो वैसे भी कितना अंधेरे होगा और गलती से अगर हमारा पैर फिसल गया और हम कुंए मे गिर गए तो, " हर्ष ने नखरे दिखाते हुए कहा |
    " कुछ खास नही होगा दस दिन से नहाए नहीं हो बस आज नहा लोगे, " आदित्य ने सकत लहजे में कहा |
    हर्ष और महेश ने बिना किसी बात के हां में सिर हिलाया और चाय खत्म कर बाहर की ओर चल पड़े। उनकी अनुपस्थिति में, आदित्य और जूही के बीच एक छोटी सी बातचीत हुई।

    “तो, बताओ जूही,” आदित्य ने थोड़ा मुस्कराते हुए पूछा, “तुमने जो हमें बुलाया, क्या तुमने कभी इन अजीब घटनाओं को अपने पापा से शेयर किया है?”

    जूही ने सिर झुकाया और फिर धीरे से बोली, “मुझे तो लगता है कि मुझे इस बारे में किसी को नहीं बताना चाहिए था, लेकिन मेरी जिज्ञासा और डर मुझे खींच लाए। अब सब कुछ बहुत बदल चुका है। मैं नहीं जानती क्या सच है और क्या झूठ, लेकिन मुझे लगता है मुझे यह सब जानना ही होगा।”

    आदित्य ने उसे समझाते हुए कहा, “डर स्वाभाविक है, लेकिन कभी-कभी अपने डर का सामना करना ही सबसे बड़ा साहस होता है। तुम इस सफर में अकेली नहीं हो, हम सब तुम्हारे साथ हैं। अब देखो, हमें किसी भी प्रकार के सबूतों की जरूरत होगी।”

    उनकी बातचीत के बीच भोला भी उनके पास आया और बोला, “मैडम, अब रात का खाना लगने वाला है। कुछ खा लेते हैं, फिर हम सभी बाहर का मुआयना करेंगे।”

    रात का खाना पहले से ही तैयार था — दाल, रोटी, सब्ज़ी और कुछ विशेष पकवान, जो डाक बंगले के कर्मचारियों ने तैयार किए थे। आदित्य ने एक बार फिर जूही से पूछा, “क्या तुमने कभी किसी से इस बारे में और जानकारी प्राप्त करने की कोशिश की?”

    जूही ने गहरी सांस ली और कहा, “हाँ, बच्चों से सुना था कि जो लड़कियां लाल जोड़ा पहनकर शादी करती हैं, उन्हें कोई अदृश्य ताकत खींच ले जाती है। वे कह रहे थे कि कोई साया, कोई रहस्यमय शक्ति है, जो इन लड़कियों को गायब कर देती है। मैं नहीं जानती क्या सच है, पर जब मैंने भोला चाचा से इस बारे में पूछा, तो इन्होंने भी कहा था कि इस तरह की घटनाएं गांव में होती रही हैं।”

    भोला ने ध्यान से कहा, “हां, मैंने सुना है। कुछ साल पहले एक शादी में लड़की ने लाल जोड़ा पहना था और फिर अचानक गायब हो गई। सब भागे थे, लेकिन वह नहीं मिली।”

    आदित्य ने चुपचाप सुना और फिर बोला, “यह सचमुच अजीब है। लेकिन कभी-कभी हमारे पास जो चीजें होती हैं, वो कुछ और होती हैं। हमें इसके स्रोत तक पहुंचना होगा।”

    उनकी बातचीत धीरे-धीरे रात के खाने में बदल गई। सभी ने मिलकर रात का भोजन किया और फिर आदित्य ने सबको तैयार होने का संकेत दिया। “अब हमें एक टीम बनानी होगी, जो रात के समय घटनास्थल पर जाएगी। बाकी लोग यहां आराम करें और जो कुछ भी हो, हमें तुरंत सूचित करें।”

    जूही ने एक बार फिर सिर झुकाया, और रात की खामोशी में, डाक बंगले के भीतर रहस्यों की गूंज सुनाई देने लगी।

  • 20. लाल जोडे़ का शराप - Chapter 20

    Words: 1025

    Estimated Reading Time: 7 min

    अध्याय: “रात की गहराई में अनजानी शक्ति”

    डाक बंगले में रात का सन्नाटा बढ़ता जा रहा था, लेकिन इस सन्नाटे में कुछ ऐसा था, जो सामान्य नहीं था। हवा में हल्की सी ठंडक थी, और बिस्तर पर सोते हुए लोग इस ठंडी हवा के बीच गहरी नींद में खो गए थे। कोई भी इस रात के माहौल को देखकर नहीं कह सकता था कि कुछ भी असामान्य हो सकता है, पर डाक बंगले के पुरानी दीवारों और खोखले कमरे में कुछ और ही महसूस हो रहा था।

    आदित्य और उसकी टीम डाक बंगले के एक बड़े कमरे में सोने के लिए गए थे। भोला, इंस्पेक्टर विजय और जूही ने भी अपनी-अपनी बेड पर बिस्तर लगाकर लेट गए थे। वे सभी इस ठंडक में सोने की कोशिश कर रहे थे, लेकिन हवा में एक अलग ही एहसास था, जैसे कोई अनजानी शक्ति डाक बंगले की दीवारों के भीतर बसी हो। कभी-कभी ऐसा लगता था जैसे बिस्तर हिल रहा हो, या फिर दीवारों के बीच से कोई हलचल सुनाई दे रही हो।

    लेकिन किसी को भी इसका अहसास नहीं हो सका। सभी गहरी नींद में थे। अचानक, रात के एक बजते ही डाक बंगले की खिड़कियों पर अजीब आवाज़ें आईं। जैसे हवा से कुछ टकरा रहा हो। कभी खड़खड़ाहट तो कभी एक हल्का सा ‘पल-पल’ की आवाज़, मानो कोई दरवाजे को धीरे-धीरे खटखटा रहा हो। यह आवाजें चुपके से गूंज रही थीं, लेकिन उन आवाज़ों का कोई स्रोत नहीं था।

    आदित्य, जो एक घोस्ट हंटर था, उन आवाज़ों को सुनते ही तुरंत जाग गया। उसकी आँखें चौकस हो गईं और उसकी इंद्रियाँ चौकस हो गईं। वह अपने बिस्तर से उठकर खड़ा हो गया और कमरे में इधर-उधर देखने लगा। उसके हाथ में एक टॉर्च थी, जो उसकी टीम की सुरक्षा के लिए रखी गई थी। वह धीरे से दरवाजे की ओर बढ़ा और देखा कि बाहर हल्की सी रौशनी थी। वह किसी अज्ञात शक्ति का संकेत था, जो डाक बंगले की दीवारों के भीतर से निकल रही थी। वह कुछ महसूस कर सकता था—एक गहरी ठंडक, एक कटी हुई सांस की गूंज, और कुछ अनजाना सा खिंचाव।

    आदित्य ने धीरे से कमरे का दरवाजा खोला और बाहर निकलते ही उसकी आँखों में ताजगी आई। लेकिन रात की नीरवता में कुछ था जो उसे बेचैन कर रहा था। डाक बंगले के आसपास का माहौल सामान्य नहीं था। खामोशी के भीतर, जैसे कोई खौफनाक आवाज़ दबे पांव चली जा रही हो। आदित्य की सारी इंद्रियाँ सतर्क हो गईं। वह धीरे-धीरे सीढ़ियों की ओर बढ़ने लगा, लेकिन तभी उसे महसूस हुआ कि वह अकेला नहीं था। उसके पीछे एक हल्की सी छाया नजर आई, जो उसकी राह पर चल रही थी।

    “क्या यह सचमुच हो रहा है?” आदित्य ने अपने आप से सवाल किया। उसे ठीक से समझ नहीं आया कि यह छाया क्या थी, लेकिन उसकी आत्मा ने जैसे इसे पहचान लिया था। यह कुछ और नहीं, बल्कि डाक बंगले के भीतर की अजीब शक्ति का ही असर था।

    उसने एक बार फिर अपनी टीम के अन्य सदस्य को देखा, लेकिन सब गहरी नींद में थे। वह अब भी उसी रहस्यमय शक्ति से घिरा हुआ था। एक अजीब सी खींचतान, जो उसे भीतर की ओर खींच रही थी। वह न चाहते हुए भी उस ओर बढ़ रहा था। कदम-दर-कदम, वह डाक बंगले के पुराने खंडहरों की ओर बढ़ रहा था, जहाँ से वह पहले भी कभी गुजर चुका था। लेकिन आज कुछ अलग था।

    आदित्य ने महसूस किया कि यह जगह हर कदम के साथ उसकी भावना को और तेज कर रही थी। एक काली परछाई उसके सामने आई, जैसे किसी शख्स की आकृति हो, जो उसे खुद से आकर्षित कर रही हो। उस शख्स का चेहरा अस्पष्ट था, और उसके आसपास एक ठंडी सी हवा बह रही थी। उसकी आंखों में वह खौफनाक चमक थी, जो आदित्य ने पहले कभी नहीं देखी थी।

    “तुम कौन हो?” आदित्य ने धीरे से पूछा, उसकी आवाज में खौफ और संदेह दोनों थे। लेकिन जवाब कोई नहीं मिला। चुप्पी की धुंध में, वह आकृति उसे एक कदम और करीब खींच रही थी।

    वह आकृति अब आदित्य के ठीक सामने थी, और आदित्य ने महसूस किया कि उसकी सांस रुक सी गई थी। जैसे उस छाया में कुछ था, जो उसे अपनी ओर खींच रहा हो, लेकिन वह चाहता था कि वह इसे छोड़ दे। लेकिन यह सब इतनी तेज़ी से हो रहा था कि आदित्य के पास प्रतिक्रिया करने का समय नहीं था। वह धीरे से अपने पैरों को खींचता हुआ डाक बंगले के मुख्य दरवाजे की ओर बढ़ा, लेकिन उसे लगता था कि हर कदम उसके खिलाफ काम कर रहा था।

    आखिरकार, आदित्य ने अपने डर को काबू करते हुए एक गहरी सांस ली और दरवाजे को खोला। बाहर का दृश्य और भी डरावना था। सर्द हवा और अंधेरे में एक विचित्र आवाज़ गूंज रही थी। आदित्य ने टॉर्च को अपनी ओर मोड़ा और देखा कि वहां कुछ भी नहीं था। केवल रात की सर्द हवा और चंद्रमा की हल्की रोशनी थी।

    “क्या यह सिर्फ मेरी कल्पना थी?” आदित्य ने एक बार फिर अपने आप से पूछा। वह कुछ समझ नहीं पा रहा था। लेकिन उसे एक बात का एहसास हो गया — वह अकेला नहीं था। वह जिस चीज का सामना कर रहा था, वह कोई सामान्य घटना नहीं थी, यह एक ऐसी शक्ति थी जो उसे खींचने की कोशिश कर रही थी, और वह उसे समझ नहीं पा रहा था।

    आदित्य अब पूरी तरह से चौकस हो गया था, लेकिन उसके भीतर के डर को उसने छिपाए रखा। वह फिर से कमरे की ओर बढ़ा, यह सोचते हुए कि क्या यह सब कोई चेतावनी थी या फिर एक नया अनुभव था जो उसे इस रहस्य से जूझने के लिए तैयार कर रहा था। वह अंदर आया, और बाकी सभी सो रहे थे। आदित्य ने एक बार फिर से अपनी नजरें इधर-उधर डालीं, लेकिन किसी को भी किसी तरह की हलचल महसूस नहीं हो रही थी।

    उसे अब भी वह अजीब खिंचाव महसूस हो रहा था। वह बिस्तर पर लेटकर खुद को समझाने की कोशिश कर रहा था, कि यह सब शायद उसका भ्रम हो। लेकिन उसकी आंतरिक चेतावनी उसे बार-बार यह बता रही थी कि कुछ और था, जो इस समय डाक बंगले के भीतर गहरे छुपा हुआ था।