"सुन सांवरे"— जहाँ प्यार की कहानी एक कबूलनामे पर रुकी है!सर्वज्ञ की ज़िद है कि प्यार का रंग तभी पूरा होगा,जब धरा के शब्द उसे छूएंगे। वह हर नटखट चाल अपनाएगा,हर हद पार करेगा,बस उस एक कबूलनामे के लिए। पर धरा...धरा सिर्फ खामोश नहीं है,... "सुन सांवरे"— जहाँ प्यार की कहानी एक कबूलनामे पर रुकी है!सर्वज्ञ की ज़िद है कि प्यार का रंग तभी पूरा होगा,जब धरा के शब्द उसे छूएंगे। वह हर नटखट चाल अपनाएगा,हर हद पार करेगा,बस उस एक कबूलनामे के लिए। पर धरा...धरा सिर्फ खामोश नहीं है, वो खुद को रोक रही है क्योंकि वो उम्र में सर्वज्ञ से बड़ी है। उसका दिल चीख-चीख कर कहना चाहता है "हां", पर उसके होंठ… हर बार “नहीं” कहकर लौट आते हैं। वो डरती है...कहीं यह नटखट इश्क़, वक़्त की मार न झेल पाए। कहीं यह बेपरवाह लड़का, उसके जवाब का बोझ न उठा सके। "सुन सांवरे" — एक इश्क़ जो खामोशी से शुरू होकर कबूलनामे पर खत्म होना चाहता है… या शायद, वहीं से शुरू होना चाहता है।
धरा ठाकुर
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सर्वज्ञ यादव
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सर्दियों की अलसाई हुई एक सुबह थी। सर्वज्ञ यादव — ग्यारहवीं कक्षा का छात्र, मम्मी का लाडला, और भैया का "छोटू" — अपने बिस्तर पर ऐसे पसरा हुआ था जैसे पूरी दुनिया से उसका कोई वास्ता ही न हो। उसके हल्के घुंघराले बाल माथे पर बिखरे थे। उसकी गोरी, लेकिन चमकती हुई त्वचा पर सूरज की किरणें किसी कलाकार की कूंची से उकेरी गई तस्वीर जैसी लग रही थीं।
"सांवरे! उठ जा बेटा, आज तेरा केमिस्ट्री का टेस्ट है!"
यामिनी मम्मी की आवाज कमरे की दीवारों से टकराकर गूंजी। उनकी आवाज़ में एक अजीब सी ममता थी, जो डांट के लहज़े में भी अपना स्नेह छिपा नहीं पा रही थी। वे हमेशा उसे 'सांवरे' कहकर बुलाती थीं — शायद इसलिए कि कान्हा से उनका कुछ अलग ही लगाव था।
सर्वज्ञ ने करवट बदली। नींद के आलस में उसकी आँखें बस आधी खुलीं और फिर से बंद हो गईं।
"मम्मी... पाँच मिनट और... प्लीज़..." उसने गुनगुनाते हुए कहा, मानो सपनों की दुनिया से लौटने का बिल्कुल मन नहीं हो।
मम्मी ने इस बार चादर खींच दी।
"सांवरे! पाँच मिनट नहीं, घड़ी देख... आठ बज गए! उठेगा कि तेरे तेरे भैया को बुलाऊं तेरे ऊपर पानी डालने के लिए?"
सर्वज्ञ ने अनमने से आँखें खोलीं। चेहरे पर हल्की झुंझलाहट थी, लेकिन उसके चेहरे पर फैली उनींदी मासूमियत ने मम्मी के गुस्से को पिघला दिया। वे जानती थीं — यह लड़का जितना आलसी है, उतना ही नाज़ुक दिल का भी है।
"अरे मम्मी, भैया को मत बुलाना प्लीज़! वो फिर से छोटू-छोटू बोलकर मेरा मजाक उड़ाएंगे!"
चित्रांश — बड़ा भाई, जो अब नौकरी करता था — हर बार प्यार से उसे "छोटू" ही कहता था। सर्वज्ञ को वह नाम बिल्कुल पसंद नहीं था। उसके मन में एक अजीब सी खीझ थी कि आखिर सब उसे बड़ा क्यों नहीं मानते? वह अब बच्चा तो नहीं रहा था...
सर्वज्ञ किसी तरह बिस्तर से उठा। बाल बिखरे हुए, आँखों में अभी भी उनींदापन, और चेहरे पर एक अजीब सी सुस्ती। उसने एक लंबी सी उबासी ली और बाथरूम में घुस गया।
कुछ ही देर में सर्वज्ञ बाथरूम से बाहर निकला। उसके गीले बालों से पानी टपक रहा था, और उसने तौलिया लपेट रखा था। वह थोड़ी सी आलसी चाल में अपने कमरे की ओर बढ़ा, जैसे इस सुबह ने उसे पूरी तरह से थका दिया हो। उसने तौलिये से बालों को झटकते हुए एक हाथ से बाल समेटे और दूसरे हाथ से तौलिये को शरीर पर कसकर लपेट लिया।
कमरे में घुसते ही उसकी नज़र अलमारी की ओर गई।
वह आलमारी की तरफ बढ़ा। उसकी स्कूल यूनिफॉर्म वहीं टंगी थी, लेकिन टाई गायब थी।
"मम्मी, मेरी टाई नहीं मिल रही!" उसने हड़बड़ी में कहा।
"अपनी चीज़ें खुद संभालकर रखा कर न, सांवरे!" मम्मी ने बड़बड़ाते हुए टाई ढूंढी और उसके हाथ में थमा दी। "हर बार तेरे ही पीछे घूमना पड़ता है!"
सर्वज्ञ ने लापरवाही से टाई लपेटी, जो पूरी तरह टेढ़ी हो गई। फिर बैग उठाया और बाहर भागा।
"अरे! नाश्ता तो करता जा!" मम्मी ने पीछे से आवाज दी।
"लेट हो गया मम्मी! लौटकर खा लूंगा!" वह जल्दी-जल्दी साइकिल उठाकर गली से बाहर निकल गया।
सर्द हवा उसके चेहरे से टकराई, लेकिन उसे इसकी परवाह नहीं थी। स्कूल के रास्ते में उसकी साइकिल की चेन थोड़ी चरमराई, लेकिन उसने ध्यान नहीं दिया। उसका ध्यान बस एक ही बात पर अटका था — केमिस्ट्री का टेस्ट।
वह खुद से ही बुदबुदाया, "जो होगा, देखा जाएगा।"
गली के मोड़ पर जाकर उसने एक बार मुड़कर पीछे देखा। घर की बालकनी से मम्मी अभी भी उसे देख रही थीं। उसने हल्की सी मुस्कान दी और मम्मी ने आशीर्वाद भरी नज़रों से उसे विदा किया।
सर्वज्ञ को नहीं पता था कि यह सुबह सिर्फ एक आम सुबह नहीं थी। यह दिन उसकी ज़िंदगी का सबसे यादगार दिन बनने वाला था — एक ऐसा दिन, जो उसकी पूरी ज़िंदगी बदल देगा... लेकिन अभी, वह सिर्फ एक लड़का था, जो अपनी साइकिल पर स्कूल की ओर बढ़ रहा था, हवा से बातें करता हुआ, और दिल में अजीब सी बेचैनी लिए हुए।
सर्वज्ञ की साइकिल हवा से बातें कर रही थी। सड़क के दोनों ओर लगे गुलमोहर के पेड़ अपने लाल-लाल फूलों से मानो रास्ते को सजाए हुए थे। ठंडी हवा उसके बालों से खेल रही थी, लेकिन उसके दिमाग में बस केमिस्ट्री टेस्ट का ख्याल घूम रहा था —
"हाइड्रोकार्बन, एलकाइन्स, केटोन..... ये कौन से ग्रह के नाम लगते हैं यार!" — वह खुद से ही बड़बड़ा रहा था।
तभी अचानक, उसकी सोचों का सिलसिला एक अजीब सी आवाज़ ने तोड़ दिया।
कहीं पास से, किसी लड़की के रोने की धीमी-सी आवाज़ उसके कानों में पड़ी। वह आवाज़ इतनी करुणा भरी थी कि सर्वज्ञ का दिल अनजाने में ही बेचैन हो उठा।
उसने साइकिल किनारे रोकी और इधर-उधर नज़र दौड़ाई।
दिल में एक अजीब सी खिंचाव था। वह जान नहीं पाया क्यों, लेकिन उसके कदम खुद-ब-खुद उस आवाज़ की ओर बढ़ने लगे।
थोड़ा आगे बढ़कर उसने देखा — सड़क के किनारे, पेड़ के नीचे एक लड़की बैठी हुई थी। उसका चेहरा झुका हुआ था, और कंधे थोड़े-थोड़े हिल रहे थे — शायद रोने की वजह से। वह हल्के गुलाबी रंग का सलवार सूट पहने थी, जिसके दुपट्टे का एक सिरा उसकी गोद में गिरा हुआ था। उसके लंबे घुंघराले बालों की एक सुंदर-सी चोटी उसकी पीठ पर लहराती हुई नीचे तक आ रही थी।
उसने अपनी हथेलियों से चेहरा ढका हुआ था।
सर्वज्ञ अनजाने में ही उसके पास जा पहुँचा।
"अरे... आप रो क्यों रही हैं?" उसकी आवाज़ में अजीब सा अपनापन था।
लड़की ने झट से अपने आँसू पोंछ लिए, जैसे किसी ने उसे कमज़ोर देख लिया हो। उसने सिर उठाया।
सर्वज्ञ एक पल को बस ठहर सा गया।
लड़की की आँखें लाल हो चुकी थीं, रोने की वजह से। उसकी नाक हल्की गुलाबी हो गई थी, और उस पर सजी हुई पतली-सी गोल सोने की नथ... वह नथ उसकी मासूमियत को किसी कविता की आखिरी पंक्ति जैसा पूरा कर रही थी।
दोनों की आँखें कुछ पलों के लिए टकराईं और वक्त जैसे वहीं रुक गया।
सर्वज्ञ को पहली बार ऐसा लगा कि उसकी धड़कन ने अपनी चाल धीमी कर ली हो।
लड़की ने बिना कुछ कहे नज़रें झुका लीं।
सर्वज्ञ को लगा, वह कुछ तो कहे, कुछ तो बताए। वह झटके से होश में आया और हल्का सा मुस्कुराते हुए बोला, "अरे बताइए भी... इतनी प्यारी रानी को किसने रुलाया?"
लड़की ने पल भर के लिए उसकी ओर देखा, फिर हल्के गुस्से से कहा, "मैं रानी नहीं हूँ!"
सर्वज्ञ उसकी मासूम सी झुंझलाहट पर मुस्कुरा दिया।
"अरे, ठीक है, रानी मत बनो... लेकिन कोई न कोई तो वजह होगी। बताओ न?"
लड़की ने धीरे से अपने पैर की तरफ इशारा किया।
सर्वज्ञ ने नज़रें नीचे की तो देखा — उसकी चप्पल का पट्टा टूट गया था।
सर्वज्ञ के होंठों पर एक हल्की सी मुस्कान तैर गई।
"बस इतनी सी बात? मैंने तो सोचा कोई बड़ा हादसा हो गया।"
लड़की ने भौंहें चढ़ाकर गुस्से से देखा, "तुम्हें क्या लगता है, यह छोटी बात है? अब मैं... मैं कॉलेज तक कैसे जाऊँगी?"
सर्वज्ञ ने सिर खुजलाया और फिर अपने जूते की ओर देखा।
"अरे वाह! आइडिया आ गया!"
लड़की ने हैरानी से उसे देखा।
सर्वज्ञ ने अपने बैग से एक काले धागे का गुच्छा निकाला — शायद किसी पुराने प्रोजेक्ट से बचा हुआ था।
"एक मिनट, ज़रा पैर आगे करो।"
लड़की ने थोड़ा हिचकते हुए अपना पैर आगे बढ़ाया।
सर्वज्ञ ने बड़े जतन से उस टूटे हुए पट्टे को धागे से कसकर बाँध दिया। वह इतने ध्यान से काम कर रहा था, मानो कोई सर्जरी कर रहा हो।
"लो जी, काम तमाम!"
लड़की ने अपना एक पैर उठाकर चप्पल देखी। पट्टा थोड़ा टेढ़ा-मेढ़ा लग रहा था, लेकिन कम से कम अब वह चल तो सकती थी।
लड़की ने पहली बार हल्की सी मुस्कान दी।
"शुक्रिया..." उसने धीमे से कहा।
सर्वज्ञ ने चुपचाप दूसरे चप्पल के पट्टे को कसकर बाँधते हुए कहा, "ऐसी कोई प्रॉब्लम नहीं है, जिसका सर्वज्ञ के पास समाधान नहीं हो..."
लड़की ने सर उठाया, और उसकी आँखें सर्वज्ञ के चेहरे पर कुछ और देख रही थीं। शायद वह समझने की कोशिश कर रही थी कि यह लड़का सच में इतना जानकार कैसे हो सकता है। उसने थोड़ी देर तक उसे देखा और फिर हल्के से मुस्कुराई, "सर्वज्ञ... मतलब सब कुछ जानने वाला?"
"जी हाँ, हर सवाल का जवाब है मेरे पास।" उसकी बातों में विश्वास था, जैसे वह हर समस्या का हल पल भर में निकाल सकता हो।
फिर वह एक पल के लिए चुप रहा, फिर मुस्कुराते हुए बोला, "वैसे, नाम बताएंगी? या वह भी गुस्से में छुपा रखा है?"
"धरा... धरा ठाकुर।"
"धरा... मतलब पृथ्वी, यानी धरती!" वह नाम दोहराते हुए थोड़ा रुका, फिर आँखें घुमाकर उसकी तरफ देखा —
"फिर तो आपको अब से 'ठकुराइन' ही बुलाऊँगा!"
धरा ने एक पल के लिए उसे घूरा, फिर भौंहें चढ़ाकर बोली, "क्या? ठकुराइन?"
सर्वज्ञ ने सिर हिलाकर बड़ी मासूमियत से कहा, "हाँ, ठाकुर हो आप... और वैसे भी, इतनी रुआब वाली आँखें हैं आपकी, ठकुराइन ना कहूँ तो और क्या कहूँ?"
धरा ने गुस्से से मुँह फेर लिया, लेकिन उसके चेहरे पर आई हल्की सी मुस्कान छुप नहीं पाई।
सर्वज्ञ ने उसकी मुस्कान पकड़ ली। "देखा, देखा! मुस्कुरा दीं आप! मतलब मान गईं, अब से आप मेरी ठकुराइन!"
धरा ने सिर झटका और उठने की कोशिश की, लेकिन चप्पल संभालते हुए लड़खड़ा गई। सर्वज्ञ ने फटाक से आगे बढ़कर उसे संभाल लिया।
"अरे अरे, ठकुराइन जी, संभल कर!"
धरा ने झटके से उसका हाथ हटाया, "मुझे तुम्हारी मदद की ज़रूरत नहीं है, समझे? और मैं कोई ठकुराइन-वकुराइन नहीं हूँ!"
सर्वज्ञ ने मुँह बनाकर कहा, "हाँ हाँ, आप ठकुराइन नहीं हैं... लेकिन अब तो यह नाम अटक ही गया है। मेरी जुबान से हटेगा नहीं!"
धरा गुस्से से उठी, और अपनी चप्पल ठीक से पहनकर चलने लगी। सर्वज्ञ वहीं खड़ा देखता रहा।
जाते-जाते धरा पलटी, उसकी तरफ देखा और हल्के से मुस्कुरा दी।
सर्वज्ञ के दिल ने वहीं पर 'धक' कर दिया। वह जान गया था — यह लड़की उसकी कहानी का सबसे खूबसूरत हिस्सा बनने वाली है।
वह खुद से बुदबुदाया, "ठकुराइन... अब तो आपसे रोज़ मिलना पड़ेगा, आखिर आपकी देखभाल जो करनी है!"
क्रमशः
(प्लीज मुझे फॉलो कर लिजिए)
शाम का वक्त था। सर्वज्ञ अपने घर में बस्ता पटककर सोफे पर पसर गया। आज का दिन अजीब सा था—पहले केमिस्ट्री टेस्ट की टेंशन, फिर वो ठकुराइन… यानी धरा ठाकुर। उसके चेहरे पर अनजानी सी मुस्कान आ गई, जैसे मन ही मन कुछ सोच रहा हो।
"हाय भगवान! आज का दिन तो वाकई बोरिंग था... केमिस्ट्री टेस्ट ने तो जान ही निकाल ली। और ऊपर से वो ठकुराइन..."
उसके चेहरे पर अनजानी सी मुस्कान आ गई, लेकिन तभी दरवाजे की घंटी ने उसकी तंद्रा तोड़ दी। घंटी लगातार बजी जा रही थी।
"कौन आ गया अब? चैन से बैठने भी नहीं देते लोग!" वह बड़बड़ाता हुआ दरवाजे की ओर बढ़ा।
दरवाजा खोलते ही उसके होश उड़ गए। सामने गर्ल्स हॉस्टल की तीन लड़कियां खड़ी थीं—चेहरे पर गुस्से का तूफ़ान, मानो अभी-अभी कोई महायुद्ध लड़कर आई हों!
"तुम ही हो न वो गुलेल वाले?" पहली लड़की ने आँखें तरेरते हुए पूछा।
सर्वज्ञ ने चेहरे पर मासूमियत ओढ़ते हुए कहा, "कौन... मैं? नहीं तो! आप लोगों को कोई गलतफहमी हुई होगी।"
"अरे झूठ मत बोलो! आज मेरी बाल्टी नीचे गिरी, और कल मेरी फ्रेंड के कपड़े भी सुखाने गए थे, वो भी नीचे पड़े मिले। ये सब तुम्हारी हरकतें हैं!" दूसरी लड़की गुस्से में बोली।
सर्वज्ञ ने बुरी तरह घबराते हुए कहा, "दीदी, कसम से मैं तो स्कूल से सीधा घर आया हूँ। मम्मी से पूछ लो।"
तभी अंदर से यामिनी मम्मी किचन से बाहर आईं। लड़कियों को देखकर चौंक गईं।
"क्या हुआ बेटा? कोई दिक्कत है?"
"आंटी, आपका सांवरा बहुत बदमाश है! ये ऊपर से गुलेल चलाकर हमारे कपड़े गिराता है। रोज़ कोई न कोई चीज़ नीचे गिरती है। ये बड़ा सीधा बनता है, पर है बहुत शैतान!" तीसरी लड़की ने तुरंत कहा।
मम्मी ने गुस्से से सर्वज्ञ की ओर देखा, जो अब भी मासूमियत का नकाब ओढ़े खड़ा था।
"सांवरे!" मम्मी की आवाज़ में सख्ती आ गई। "ये सच है?"
"मैंने तो बस... हल्के से मारा था मम्मी, सच में! ज़्यादा जोर से नहीं..."
तभी ऊपर से आवाज़ आई—"छोटू-ओ-ओ-ओ!"
सर्वज्ञ के होश उड़ गए। ये आवाज़ किसी और की नहीं, उसके बड़े भाई चित्रांश की थी, जो पहली मंजिल की बालकनी से नीचे झांक रहा था।
"अरे मम्मी, ये सीधा नहीं, सबसे बड़ा बदमाश है! कल मैंने खुद देखा था इसे गुलेल बनाकर निशाना लगाते हुए। इतना निशाना तो अर्जुन ने मछली की आंख पर नहीं साधा होगा, जितना इसने लड़कियों की बाल्टी पर साधा था!"
"देखा आंटी! ये आपका सीधा-सादा सांवरा बिल्कुल भी मासूम नहीं है। ये तो पूरी हॉस्टल की नाक में दम किए हुए है।" लड़कियां खिसियाई सी बोलीं।
मम्मी का गुस्सा अब उबाल मारने लगा।
"सांवरे! तुझे तो मैं सीधा करती हूँ! तू लड़कियों को तंग करेगा? अब से तेरा मोबाइल बंद, गेम बंद, और बाहर खेलने जाना भी बंद!"
सर्वज्ञ ने धीरे से कहा, "मम्मी... भैया झूठ बोल रहे हैं।"
मम्मी ने आँखें तरेरीं, "झूठ बोल रहे हैं, हाँ? अच्छा! और वो लड़कियाँ तो यहाँ तुम्हारी आरती उतारने आई हैं न?"
सर्वज्ञ ने धीरे से गर्दन झुका ली, "मैंने बस… हल्के से मारा था मम्मी, वो भी मज़ाक में।"
चित्रांश ने ऊपर से फिर आवाज लगाई, "अरे मम्मी, हल्का सा क्या! ऐसा निशाना लगाया था कि कपड़े नीचे गिरे और साथ में पड़ोस वाली बिल्लू काकी की सब्जी वाली टोकरी भी उलट गई थी। पूरी गली में लौकी-टमाटर बिखरे पड़े थे। बिल्लू काकी तो कसम खाकर गई हैं कि अगली बार देख लिया न इसे, तो झाड़ू लेकर पीछे दौड़ेंगी!"
लड़कियाँ अब अपनी हँसी रोक नहीं पा रही थीं, लेकिन मम्मी का गुस्सा बरकरार था।
"सांवरे! तुझे तो मैं बाद में देखूँगी। पहले इन बेटियों से माफ़ी मांग!"
सर्वज्ञ ने नाक सुड़कते हुए, गर्दन झुकाकर धीमे से कहा, "सॉरी दीदी... आगे से नहीं करूँगा।"
लड़कियाँ एक-दूसरे को देखकर मुस्कुरा दीं। एक लड़की बोली, "कोई बात नहीं आंटी, बस अगली बार ये गुलेल छोड़कर पढ़ाई पर ध्यान दे, वरना हमारी नहीं, इसकी ही शामत आएगी!"
मम्मी ने गुस्से में सिर हिलाया, "अगली बार ये गुलेल हाथ में लिए दिखा न, तो मैं ही इसकी शामत बना दूँगी!"
लड़कियाँ हँसते हुए चली गईं। सर्वज्ञ ने राहत की साँस ली, लेकिन तभी चित्रांश ने फिर से बालकनी से झांकते हुए ताना मारा—
"अरे छोटू, अब सॉरी बोल दिया, तो अगला मिशन क्या है?"
मम्मी ने चित्रांश की तरफ़ गुस्से से देखा, "तू भी चुप कर! छोटे को बिगाड़ने की ज़रूरत नहीं है!"
सर्वज्ञ ने बड़बड़ाते हुए मम्मी से कहा, "भैया को भी डांटो न! हमेशा आग में घी डालते रहते हैं!"
मम्मी ने घूरते हुए कहा, "चित्रांश, तू नीचे आ, तेरा भी हिसाब करना है आज!"
चित्रांश ने हँसते हुए बालकनी से गायब होते हुए आवाज़ दी, "अरे मम्मी, मैं तो मज़ाक कर रहा था! छोटू से माफ़ी मंगवा दी न, मेरा काम पूरा हो गया!"
सर्वज्ञ ने माथे पर हाथ मारा और बड़बड़ाया, "भैया ना… हर बार मुझे ही फँसा देते हैं!"
मम्मी ने सर्वज्ञ की तरफ़ घूरते हुए कहा, "तुझे मैं बाद में देखूँगी, पहले तैयार हो जा! मौसी के घर जाना है, रात भर के लिए और वैसे भी कल संडे है!"
सर्वज्ञ का चेहरा लटक गया।
"मम्मी, अगले हफ़्ते ही तो गया था मैं वहाँ... और मौसी तो सारा काम मुझसे ही करवाती हैं। वो कहती हैं—'सांवरा, ज़रा सब्ज़ी काट दे, सांवरा ज़रा कपड़े उतार दे, सांवरा ज़रा ये, सांवरा ज़रा वो... मम्मी, मैं वहाँ नौकर लगता हूँ!"
मम्मी ने घूरते हुए कहा, "अच्छा? तो तू जो रोज़ लड़कियों की बाल्टी गिराकर 'गुलेल एक्सप्रेस' चला रहा है, वो कौन सा राजा महाराजा का काम है?"
सर्वज्ञ ने मुँह बिचकाया, "पर मम्मी, मौसी की बातें सुनकर तो कान के परदे तक दुखने लगते हैं। वो हमेशा मेरी बुराई ही करती रहती हैं—'सांवरा ना बिलकुल लापरवाह है, ढंग से बैठना नहीं आता, न खाने के बाद प्लेट उठाता है। पूरा निकम्मा हो गया है'... मम्मी, आपको पता है? पिछली बार तो उन्होंने मुझे 'गधा' तक कह दिया था!"
मम्मी ने मुस्कुराते हुए कहा, "तो फिर सही कहा न उन्होंने?"
सर्वज्ञ ने एकदम आहत चेहरा बनाकर कहा, "मम्मी, आप भी उनकी साइड ले रही हो? मतलब बेटा इधर बर्बाद हो रहा है, और आप मौसी की टीम में खेल रही हो?"
वहीं दूसरी तरफ़... कमरा हल्का बिखरा हुआ था। बेड पर कपड़े और किताबें फैली हुई थीं, और बीच में बैठी थी उसकी रूममेट, काव्या, जो अपना सामान पैक कर रही थी। धरा ने दरवाज़े पर टेक लगाकर लंबी साँस ली और काव्या की ओर देखा।
"तो सच में जा रही है तू?" धरा ने थोड़ा उदास होकर पूछा।
काव्या ने मुस्कुराते हुए सिर हिलाया, "हाँ यार, ये हॉस्टल तो अब बर्दाश्त से बाहर हो गया। ना खाना सही, ना वॉर्डन की शक्ल देखी जाती है, ऊपर से पैसे भी लूट रहे हैं!"
धरा ने गुस्से से सिर झटका, "सच में यार! वो वॉर्डन तो ऐसे देखती है जैसे हम पढ़ने नहीं, किसी गुनाह की सज़ा काटने आए हैं। और खाना? उफ़्फ़! वो दाल देख के तो लगता है नदी का पानी उबालकर दे दिया हो!"
काव्या ने हँसते हुए कहा, "सही पकड़ी! मैं तो जा रही हूँ दीदी के फ़्लैट पर.... और सुन तू भी छोड़ दे न ये जेलखाना। अच्छे वाले हॉस्टल में शिफ़्ट हो जाना।"
धरा ने उदास होकर सिर झुका लिया, "पर मैं कहाँ जाऊँ? मुझे कोई अच्छा हॉस्टल नहीं पता।"
काव्या ने धरा की तरफ़ देखा। उसकी बड़ी, भोली आँखों में एक अजीब सा खालीपन था। काव्या समझ चुकी थी कि धरा अकेले नहीं रह पाएगी। वो दिल से बहुत मासूम थी—ऐसी लड़की जो हर किसी पर भरोसा कर लेती है, बिना ये सोचे कि सामने वाला सच में उसके लिए अच्छा चाहता भी है या नहीं।
काव्या ने थोड़ा सोचा, फिर बोली, "सुदर्शन मोहल्ले में एक हॉस्टल है—'गुलमोहर गर्ल्स हॉस्टल'। मेरी एक फ्रेंड वहाँ रहती है। उसने कहा था वहाँ का माहौल अच्छा है, खाना भी घर जैसा मिलता है, और वॉर्डन भी मस्त है—मतलब हिटलर वाली वाइब नहीं देती!"
धरा की आँखों में हल्की सी उम्मीद चमकी, "सच में? तू मुझे वहाँ छोड़कर आएगी न?"
काव्या मुस्कुराई, "कल सुबह चलते हैं। तू भी देख लेना, पसंद आए तो रुक जाना। वैसे भी, तुझे अकेला छोड़ने का मन नहीं कर रहा, पर दीदी के पास जाना भी ज़रूरी है।"
"तू सबसे अच्छी दोस्त है मेरी," इतना कहकर धरा ने काव्या को कसकर गले लगा लिया।
धरा ने जैसे ही काव्या को गले लगाया, उसकी आँखों से आँसू झर-झर बहने लगे। वो खुद को रोक नहीं पाई।
"तू सबसे अच्छी दोस्त है मेरी, काव्या... मत जा ना प्लीज," धरा की आवाज़ भर्रा गई।
काव्या ने उसे और जोर से अपने गले से लगा लिया, जैसे चाह रही हो कि उसकी ये झप्पी धरा का सारा दर्द खींच ले। लेकिन वो भी जानती थी कि उसे जाना ही होगा।
"धरा.. पगली! तू रोएगी तो मैं भी रो दूँगी... और मैं रोई ना, तो मेरी दीदी मुझे कमरे में घुसने नहीं देगी!"
धरा हल्का सा हँसी, लेकिन आँखों में अब भी नमी थी।
"तू जा रही है न, अब मेरा कौन रहेगा यहाँ?"
काव्या ने उसके सिर पर हल्की चपत लगाई, "अरे मैं जा तो रही हूँ, लेकिन रोज़ कॉल करूँगी, वीडियो कॉल पर पकाऊँगी तुझे। और वो नया हॉस्टल इतना पास है कि तू जब चाहे वहाँ आ सकती है, समझी?"
धरा ने आँसू पोंछते हुए मुस्कुराने की कोशिश की, "सच में तू बहुत अच्छी है, काव्या।"
काव्या ने आँखें घुमाकर कहा, "हाँ हाँ, ये बात तू पहले क्यों नहीं समझी? अब जरा ड्रामा बंद कर, और मेरे लिए एक आखिरी बार वो मैगी बना दे ना! फ़्लैट में जाने के बाद दीदी हेल्दी डाइट पर डाल देगी।"
धरा ने हँसते हुए सिर हिलाया, "हाँ हाँ, मैगी बना रही हूँ... आखिरी बार!"
काव्या मुस्कुराई, "आखिरी बार नहीं, हमारी दोस्ती में ऐसा कोई 'आखिरी' नहीं होता, समझी पगली?"
धरा ने एक पल के लिए उसे घूरा, फिर दोनों खिलखिलाकर हँस पड़ीं। कमरे में बिखरा सामान और उदासी अब कहीं गायब हो गई थी। सिर्फ़ उनकी हँसी गूंज रही थी—वही हँसी, जो शायद सालों बाद याद बनकर धरा के दिल में बसेगी।
किचन में, धरा मैगी बना रही थी। गैस पर पतीला चढ़ा था, और उसमें पानी धीरे-धीरे उबलने लगा। धरा अपने ही खयालों में खोई हुई थी, शायद काव्या के जाने का खालीपन महसूस कर रही थी। काव्या ने ध्यान से उसकी उदास शक्ल देखी, फिर अचानक मज़ाकिया लहजे में बोली—
"ओ सुन! अकेली मत जाना कहीं!"
धरा ने हैरानी से उसे देखा, "मतलब?"
काव्या ने थोड़ा गंभीर होते हुए कहा, "मतलब ये कि तुझे पता भी है, तू कितनी सुंदर है? यहाँ जितने लड़के हैं, सब तुझे घूरते रहते हैं। तुझे तो फ़र्क भी नहीं पड़ता, लेकिन मैं सब देखती हूँ।"
धरा ने हँसते हुए सिर झटका, "ओह प्लीज! ऐसा कुछ नहीं है।"
काव्या ने आँखें घुमाईं, "हाँ हाँ, तुझे कुछ दिखता ही कहाँ है? दुनिया के हर लड़के को तू अपना भाई मानती है!"
धरा हँस पड़ी, "तो क्या करूँ? शक करूँ सब पर?"
काव्या थोड़ा संजीदा होकर बोली, "देख, मैं मस्ती नहीं कर रही। सिर्फ़ लड़के ही नहीं, यहाँ की कुछ लड़कियाँ भी तुझसे जलती हैं। कई बार मैंने सुना है, तेरे बारे में उल्टी-सीधी बातें करती हैं। तुझे बदनाम करने की कोशिश भी करती हैं, लेकिन तुझे फ़र्क ही नहीं पड़ता!"
धरा ने कंधे उचका दिए, "क्यों फ़र्क पड़े मुझे? मुझे पता है मैं कैसी हूँ। कोई कुछ भी बोले, मुझे क्या?"
काव्या ने गहरी साँस ली, "तू बहुत भोली है, धरा। हर किसी पर भरोसा मत किया कर।"
धरा ने हल्का सा चौंककर उसकी ओर देखा, फिर मुस्कुरा दी, "अब तू बहुत फ़िल्मी हो रही है।"
काव्या ने उसकी नाक पकड़ ली, "हाँ हाँ, फ़िल्मी हो रही हूँ, लेकिन तू मेरी बात समझ! और सुन..."
धरा ने तुरंत कहा, "यार... मैं बच्ची नहीं हूँ!"
"हाँ हाँ, मैडम बहुत बड़ी हो गई हैं! चल अब जल्दी कर, मैगी दे। दीदी के पास जाने से पहले पेट भर मैगी खाकर जाना है!"
अगले दिन... सुबह का सूरज हल्की सुनहरी किरणों के साथ खिड़की से अंदर झाँक रहा था। धरा की आँखें भारी थीं—आधी रात तक काव्या से बातें करती रही थी। वो दोनों जानते थे कि ये आखिरी रात थी, जब वे एक ही कमरे में साथ थे।
काव्या पहले ही उठ चुकी थी। वो अपना आखिरी बैग पैक कर रही थी। धरा ने आँखें मिचमिचाते हुए करवट बदली और धीरे से कहा, "इतनी जल्दी उठ गई तू?"
काव्या हँसते हुए बोली, "जल्दी? पगली, दस बज रहे हैं! तेरी नींद ही पूरी नहीं होती। चल उठ, हॉस्टल भी देखने जाना है न?"
धरा ने लंबी साँस ली और बेमन से उठ गई। वो जानती थी कि आज का दिन मुश्किल होने वाला है।
कुछ देर बाद... दोनों ऑटो में बैठे हुए सुदर्शन मोहल्ले की तरफ़ बढ़ रहे थे। धरा खिड़की से बाहर देख रही थी, लेकिन उसके दिमाग में अलग ही हलचल थी। उसकी सबसे अच्छी दोस्त जा रही थी, और वो खुद भी एक अनजान जगह पर रहने जा रही थी।
"धरा, तू इतना चुप क्यों है?" काव्या ने उसे टोका।
"कुछ नहीं... बस सोच रही हूँ कि अगर नया हॉस्टल अच्छा नहीं लगा तो?"
"तू चिंता मत कर। अगर अच्छा न लगा तो तुझे वापस उठा लाऊँगी अपने फ़्लैट पे, समझी?" काव्या ने मुस्कुराकर उसकी हथेली थाम ली।
गुलमोहर गर्ल्स हॉस्टल के सामने... हॉस्टल बाहर से एक बड़ी, पुरानी हवेली जैसा लग रहा था। गुलाबी रंग की दीवारों पर बेलें चढ़ी थीं, और गेट के ऊपर एक बड़ा सा बोर्ड लटका था—"गुलमोहर गर्ल्स हॉस्टल - सुरक्षित और आरामदायक आवास।"
"यार... ये तो फ़िल्मी हॉस्टल जैसा लग रहा है।" धरा ने अजीब सा मुँह बनाकर कहा।
काव्या हँस पड़ी, "अंदर चल, हो सकता है अंदर का माहौल अच्छा हो!"
हॉस्टल के अंदर जाते ही एक अजीब सी ठंडक महसूस हुई। दीवारों पर पुराने पेंटिंग्स लगे थे, और रिसेप्शन पर एक अधेड़ उम्र की महिला बैठी थी—शायद यही वॉर्डन थी।
"जी बेटा, किससे मिलना है?" महिला ने नरम आवाज़ में पूछा।
काव्या ने आगे बढ़कर कहा, "मैम, मेरी फ्रेंड के लिए रूम देखना था।"
"नाम?"
"धरा... धरा ठाकुर।"
वॉर्डन ने धरा को गौर से देखा। उनकी आँखों में एक अजीब सा अपनापन था।
"ठीक है, ऊपर सेकंड फ़्लोर पर एक खाली रूम है। चलिए, मैं दिखा देती हूँ।"
रूम नंबर 208... कमरा छोटा, लेकिन साफ़-सुथरा था। एक सिंगल बेड, एक टेबल, और खिड़की के पास छोटा सा बालकनी वाला कोना। धरा ने बालकनी से झाँककर नीचे देखा—गार्डन में ढेर सारी लड़कियाँ बैठी हँस-हँसकर बातें कर रही थीं। माहौल सच में अच्छा लग रहा था।
काव्या ने हल्के से उसकी कोहनी मारी, "तो मैडम, कैसा लगा?"
धरा ने धीरे से मुस्कुराकर सिर हिलाया, "अच्छा है... रहने लायक है।"
"बस! तो तू यहीं रहेगी।" काव्या ने खुशी से कहा।
धरा ने चुपचाप बिस्तर पर बैठते हुए कहा, "हाँ... शायद।"
"सुन आज ही शिफ़्ट हो जा यहाँ...!"
धरा ने गहरी साँस ली और काव्या की तरफ़ देखा, "अभी जाकर उस हिटलर को छोड़ने की एप्लीकेशन दे दूँ क्या?"
काव्या ने झट से कहा, "बिल्कुल! जितनी जल्दी पीछा छुड़ा ले, उतना अच्छा। मैं शाम को जा रही हूँ, तब तक तेरा सारा सामान यहाँ शिफ़्ट करवा देंगे। तुझे आज से ही यहीं रहना चाहिए!"
धरा थोड़ी असमंजस में पड़ गई, "पर... अगर उसने एप्लीकेशन एक्सेप्ट नहीं की तो?"
"अबे डर क्यों रही है? छोड़ने की एप्लिकेशन देनी है बस, कोई प्यार का खत थोड़ी लिखना है! और वैसे भी, तुझे देखकर वो जलती है, इसलिए ज़्यादा भौंकती है। चल, मैं तेरे साथ चलती हूँ। मिलकर उसकी शक्ल देखेंगे आखिरी बार, फिर भाग चलेंगे यहाँ से!"
धरा ने अनमने से सिर हिलाया, "ठीक है, चल। वैसे भी अब और नहीं झेली जाती वो कड़क आंटी!"
पुराने हॉस्टल में... धरा और काव्या धीमे कदमों से वॉर्डन के ऑफ़िस की ओर बढ़ रही थीं। दोनों को देख बाकी लड़कियाँ फुसफुसाने लगीं।
"काव्या तो जा ही रही थी, धरा भी जा रही है क्या?"
"लगता है इन दोनों ने मिलकर कोई बवाल किया है!"
"हाँ, और वो वॉर्डन फिर से फाड़ेगी इनकी!"
धरा ने उनकी बातें सुनकर गुस्से से आँखें घुमाईं, लेकिन कुछ बोली नहीं।
ऑफ़िस के दरवाज़े पर पहुँचकर काव्या ने हल्का सा दरवाज़ा खटखटाया। अंदर से वही जानी-पहचानी, सख्त आवाज़ आई—
"आइए!"
धरा ने गहरी साँस ली और अंदर कदम रखा। काव्या भी साथ में आ गई।
वॉर्डन मिसेज़ त्रिपाठी अपनी कुर्सी पर बैठी फ़ाइलें देख रही थीं। उन्होंने चश्मे के ऊपर से धरा को घूरा।
"क्यों आई हो?"
धरा ने धीरे से कहा, "मैम... मैं हॉस्टल छोड़ना चाहती हूँ।"
वॉर्डन ने भौंहें टेढ़ी कर लीं, "अच्छा? अब क्यों? रहना तो तुम्हें यहीं था न? अब अचानक क्यों छोड़ रही हो?"
धरा ने कुछ बोलने की कोशिश की, लेकिन काव्या ने बीच में ही बोल दिया—
"मैम, यहाँ का खाना खराब है, माहौल खराब है, और आपकी शक्ल भी दिन-ब-दिन हिटलर जैसी लगने लगी है। और क्या बताएँ?"
वॉर्डन की आँखें गुस्से से लाल हो गईं।
"काव्या! तुम्हारी ये बदतमीज़ी बर्दाश्त नहीं कर सकती मैं!"
काव्या बेफ़िक्र होकर बोली, "बर्दाश्त करने की ज़रूरत भी नहीं है, मैम। हम तो जा ही रहे हैं।"
धरा ने जल्दी से बात सम्भाली, "मैम, प्लीज... बस मेरा फ़ॉर्मेलिटी वाला एप्लीकेशन साइन कर दीजिए। मैं सच में अब यहाँ नहीं रह सकती।"
वॉर्डन ने गुस्से में एक गहरी साँस ली, फिर फ़ाइल पलटते हुए बेमन से बोली, "ठीक है। लिखो एप्लीकेशन।"
धरा ने जल्दी से कागज़ निकाला और लिखने लगी—
"सेवा में,
वॉर्डन, XYZ गर्ल्स हॉस्टल,
विषय: हॉस्टल छोड़ने हेतु निवेदन।"
जैसे ही धरा ने एप्लीकेशन लिखी और आगे बढ़ाई, वॉर्डन ने बिना देखे साइन कर दिया।
"जाओ। और रूम साफ़ करके जाना।"
धरा ने राहत की साँस ली और धीरे से कहा, "थैंक्यू मैम।"
वॉर्डन ने फिर घूरकर देखा, "ज़्यादा खुश होने की ज़रूरत नहीं है। वहाँ भी तुम्हें ऐसे ही हॉस्टल मिलेगा, कोई फ़ाइव स्टार होटल नहीं।"
काव्या ने उसकी बात को नज़रअंदाज़ करते हुए धरा का हाथ खींचा और बाहर आ गई।
"चल पगली, अब तो तेरा पीछा छूट गया इस जेल से!" काव्या ने खुशी से कहा।
शाम को... धरा का सारा सामान पैक हो चुका था। काव्या ने उसे हाथ बटाने में पूरी मदद की। सामान पैक करने के बाद काव्या ने धरा को उसके नए हॉस्टल—"गुलमोहर गर्ल्स हॉस्टल"—छोड़ने का फैसला किया। शाम के करीब चार बजे, दोनों ऑटो पकड़कर पुराने हॉस्टल से निकलीं।
"देख पगली, डरने की कोई ज़रूरत नहीं है। तेरा ये नया हॉस्टल पुराने वाले से लाख गुना अच्छा होगा," काव्या ने मुस्कुराकर कहा।
धरा ने हल्का सा सिर हिलाया, लेकिन वो अब भी खोई हुई लग रही थी।
"और सुन, वहाँ की वॉर्डन भी नरम दिल की लग रही थी। हिटलर वाली वाइब तो बिलकुल भी नहीं है," काव्या ने हँसी दबाते हुए कहा।
"हाँ, वो तो सही है... लेकिन वहाँ कोई जान-पहचान वाला नहीं है, काव्या। अकेला-अकेला लगेगा यार," धरा ने धीरे से कहा, उसकी आवाज़ में हल्की सी उदासी थी।
"अरे, तुझे दोस्त बनाने में कितनी देर लगती है? बस दो दिन में पूरी लड़कियों की मंडली बना लेगी तू!" काव्या ने उसे हल्के से ठेलते हुए कहा।
कुछ ही देर में ऑटो हॉस्टल के गेट पर रुक गया। गुलाबी रंग की दीवारें, बेलों से ढकी बड़ी-सी एंट्री और बोर्ड पर लिखा—"गुलमोहर गर्ल्स हॉस्टल - सुरक्षित और आरामदायक आवास"—देखकर धरा ने लंबी साँस ली।
"चल, आज ही तेरा सामान शिफ़्ट करवा देते हैं। मैं शाम को निकलूँगी, उसके पहले तेरा सब सेट करवा दूँगी।"
हॉस्टल के अंदर जाते ही वही नरम आवाज़ वाली वॉर्डन मिल गईं।
"अरे बेटा, आ गई तुम? रूम तैयार करवा दिया है मैंने। सामान ले आई हो ना?"
"जी मैम। बस थोड़ा मदद चाहिए शिफ़्टिंग में," काव्या ने मुस्कुराकर कहा।
वॉर्डन ने एक स्टाफ़ को बुलाकर सामान ऊपर भिजवा दिया।
शाम ढल रही थी। काव्या ने घड़ी देखी, "यार, मुझे अब निकलना पड़ेगा। दीदी के यहाँ देर हो जाएगी।"
धरा का चेहरा उतर गया।
काव्या ने उसका चेहरा ऊपर किया, "उदास मत हो यार, वरना मैं सच में नहीं जा पाऊँगी। रोज़ कॉल करूँगी, वीडियो कॉल पर गप्पे मारेंगे, ठीक?"
धरा ने सिर हिलाया और उसे कसकर गले लगा लिया।
"तू सबसे अच्छी है, काव्या..."
"और तू सबसे ज़्यादा इमोशनल! अब संभलकर रहना, और हाँ, ज़रूरत पड़े तो वॉर्डन मैम से ज़रूर बात करना, वो सही लग रही हैं। किसी भी अजनबी पर भरोसा मत करना, समझी?"
"हाँ बाबा, समझ गई," धरा ने मुस्कुराते हुए कहा।
क्रमशः
अगले दिन शाम को, सर्वज्ञ मौसी के घर से लौटकर अपने घर के दरवाजे पर पहुँचा ही था कि अंदर से मम्मी की आवाज़ सुनाई दी।
"चित्रांश! वो सांवरे आया क्या? आज तो उसकी खैर नहीं…!"
सर्वज्ञ का दिल धक से रह गया। उसने धीरे से दरवाज़ा खोला और बिल्ली की तरह दबे पाँव अंदर घुसने लगा। लेकिन दरवाज़े पर पहुँचते ही वह चुपचाप अंदर घुसा और सीधे अपने कमरे की तरफ़ बढ़ने लगा। लेकिन मम्मी की शेरनी जैसी आवाज़ ने उसे रोक लिया।
"रुक जा सांवरे! ज़रा इधर आ।"
सर्वज्ञ ने धीरे से गर्दन घुमाई। "जी मम्मी?"
मम्मी कमर पर हाथ रखे खड़ी थीं, चेहरा वैसा ही सख्त, जैसे जासूस किसी अपराधी को पकड़ते हुए देखती है। पीछे पापा नंदन जी अख़बार में छिपे-छिपे मुस्कुरा रहे थे।
"मौसी ने फ़ोन किया था। कह रही थीं तूने उनके घर 'धमाल' मचाया। ये धमाल क्या था, ज़रा डिटेल में बताएगा?" मम्मी ने आँखें तरेरीं।
सर्वज्ञ ने तुरंत अपने ब्रह्मास्त्र का इस्तेमाल किया — अपनी सबसे मासूम सी शक्ल बनाकर बोला,
"मम्मी, सच में, बस मज़ाक ही कर रहा था। मौसी भी तो कह रही थीं कि घर बहुत शांत हो गया था, तो मैंने थोड़ी रौनक डाल दी बस।"
मम्मी ने गुस्से से घूरते हुए कहा,
"रौनक डाल दी? मौसी कह रही थीं तूने उनकी चाय में नमक डाल दिया था!"
सर्वज्ञ ने फ़ौरन मासूमियत ओढ़ ली।
"अरे मम्मी, वो गलती से हो गया... मैं तो शक्कर डालने गया था, पर दोनों डिब्बे एक जैसे ही थे। अब आँखों का तो कोई भरोसा नहीं न! मैं तो सोच रहा था, मौसी मीठी चाय पीकर खुश हो जाएँगी, पर नमकीन चाय भी सेहत के लिए अच्छी होती है। कम से कम डायबिटीज़ का खतरा तो नहीं होगा!"
मम्मी ने घूरते हुए कहा,
"और बता, और क्या-क्या सेहतमंद कारनामे किए तूने?"
सर्वज्ञ ने जल्दी से हाथ जोड़ लिए।
"बस मम्मी, सच में कुछ नहीं किया। मैं तो मौसी की मदद ही कर रहा था!"
मम्मी ने फिर से घूरा।
मम्मी की घूरती हुई नज़र देखकर सर्वज्ञ फटाक से बोल पड़ा,
"बस मम्मी, थोड़ा सा ही तो था… मौसी की बिंदी उल्टी चिपका दी थी, और उनके मिक्सर ग्राइंडर में चम्मच डाल दी थी — पर मम्मी, मैंने ध्यान रखा, चम्मच स्टील की नहीं थी, प्लास्टिक की थी!"
पापा अब जोर से हँस पड़े।
"अरे वाह! अच्छा किया। पर्यावरण के प्रति जागरूक है मेरा बेटा!"
मम्मी ने गुस्से से पापा की तरफ़ घूरा।
"नंदन जी, आप इसमें हँस क्यों रहे हैं? ये लड़का पूरे खानदान की नाक कटवा देगा एक दिन!"
सर्वज्ञ ने तुरंत सफ़ाई दी।
"अरे मम्मी, वो मिक्सर से ऐसी आवाज़ आ रही थी जैसे ट्रैक्टर चालू हो गया हो, तो मैंने सोचा शायद मिक्सर अंदर से गड़बड़ कर रहा है, इसलिए चम्मच डालकर चेक किया कि आवाज़ बंद हो जाए… पर मम्मी सच में, आवाज़ बंद तो हुई ही थी ना!"
मम्मी ने माथा पकड़ लिया।
"आवाज़ बंद नहीं, मिक्सर ही बंद हो गया नालायक!"
सर्वज्ञ ने आँखें बड़ी-बड़ी करके मासूमियत से कहा,
"अरे मम्मी, अब तक चलता ही कितना था मिक्सर, वैसे भी मौसी नई जूसर मशीन लाने वाली थीं... मैंने तो बस पुराने मिक्सर का बोझ हल्का कर दिया।"
मम्मी का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुँच चुका था।
"सांवरे, तुझे मैं आज बिलकुल नहीं छोडूंगी!"
सर्वज्ञ ने तुरंत पापा की ओर देखा।
"पापा, बचाओ!"
पापा ने मुस्कुराते हुए कहा,
"बचाना तो चाहूँ, पर बेटा, पर तेरी मम्मी के गुस्से से तो तुझे भगवान भी नहीं बचा सकते।"
मम्मी ने झाड़ू उठाते हुए कहा,
"आज तू बस, भागना शुरू कर दे!"
सर्वज्ञ ने फुर्ती से दौड़ लगा दी।
"मम्मी! माफ़ कर दो! अगली बार से पक्का शरीफ़ बन जाऊँगा!"
पीछे से मम्मी की आवाज़ आई।
"शरीफ़? तेरा शरीफ़ होना वैसे ही असंभव है, जैसे तेरे पापा का टाइम पर ऑफ़िस पहुँचना!"
सर्वज्ञ दौड़ते-दौड़ते चिल्लाया।
"पापा, मम्मी आपकी बेइज़्ज़ती कर रही हैं!"
पापा ने हँसते हुए कहा,
"अरे बेटा, आज तेरा केस चल रहा है, मेरा नहीं। तू अपनी जान बचा ले पहले!"
सर्वज्ञ एकदम फुर्ती से भागा और सीधा आँगन की ओर दौड़ पड़ा। मम्मी पीछे-पीछे झाड़ू लेकर दौड़ीं।
"रुक जा, सांवरे! आज तो तुझे मैं सीधा कर ही दूँगी!"
पापा हँसते हुए पीछे से बोले,
"अरे भाग सांवरे! तू तो मम्मी का रॉकेट लॉन्चर ऑन करवा बैठा!"
सर्वज्ञ भागता जा रहा था।
"पापा, बचाओ! मम्मी तो सच में सचिन तेंदुलकर बन गईं, झाड़ू बैट की तरह घूम रही है!"
सर्वज्ञ हँसते हुए भागता रहा। पर तभी… वक़्त थम गया।
लड़कियों के हॉस्टल के बाहर, एक लड़की खड़ी थी। हल्के हरे सूट में लिपटी, माथे पर हल्की सी बिंदी, और चेहरे पर थकावट के बावजूद एक अजीब सी नर्मी थी। धरा।
सर्वज्ञ का दिल एकदम से धक कर गया। ये तो वही थी — "ठकुराइन…" — उसकी पहली मुलाक़ात वाली चप्पल टूटी लड़की।
आज वह शांत खड़ी थी, हॉस्टल की वार्डन से कुछ बात कर रही थी। उसकी आँखें बड़ी-बड़ी थीं, जैसे उनमें सारा आसमान समा जाए। बालों की कुछ लटें उसके गालों पर गिर रही थीं, और वह बार-बार उन्हें पीछे करने की नाकाम कोशिश कर रही थी।
सर्वज्ञ ने अपनी मम्मी की आवाज़ सुनी ही नहीं। उसकी आँखें तो बस एक ही जगह ठहर गई थीं — धरा के चेहरे पर।
"क्या ये यहाँ रहने आई है?"
ये ख्याल उसके दिमाग में बिजली सा दौड़ा। उसे लगा जैसे किसी ने उसके नटखट दिल पर एक मीठी सी दस्तक दी हो।
वह अपनी जगह पर ठिठक गया। मम्मी का झाड़ू हवा में लहरा रहा था, पर वह देख ही नहीं पाया। धरा ने हल्का सा सिर घुमाया, पर शायद उसने सर्वज्ञ को देखा नहीं। उसके बाल हवा में लहराए, और दुपट्टा कंधे से फिसल कर नीचे गिरने लगा। उसने जल्दी से संभाला, और सर्वज्ञ को लगा जैसे उसके दिल का कोई कोना खामोश सा हो गया हो।
"धरा... ठकुराइन...?"
सर्वज्ञ के होंठों से ये शब्द निकले बगैर रह गए।
सर्वज्ञ एकटक धरा को देखे जा रहा था। पीछे मम्मी झाड़ू लहराते-लहराते ठहर गईं। उनके चेहरे पर गुस्सा कम, हैरानी ज़्यादा थी।
"अरे ये लड़का ठिठक क्यों गया? अभी तो हवा से भी तेज दौड़ रहा था…" मम्मी खुद से ही बड़बड़ाई, लेकिन सर्वज्ञ को कोई आवाज़ सुनाई ही नहीं दी।
गुलमोहर गर्ल्स हॉस्टल — ये नाम बड़े सुनहरे अक्षरों में सामने चमक रहा था, और उससे ज़्यादा चमक तो धरा के चेहरे पर थी। वह वार्डन से कुछ पूछ रही थी।
सर्वज्ञ के घर के ठीक सामने ये हॉस्टल था। मतलब, अब रोज वह धरा को देख सकेगा? ये ख्याल आते ही उसके होंठों पर एक हल्की सी मुस्कान खेल गई।
तभी धरा ने एक हल्की सी मुस्कान के साथ वार्डन का धन्यवाद किया और पलटी।
सर्वज्ञ की साँसें थम गईं। उसकी नज़रें धरा की नज़रों से टकराईं। वो पल… मानो वक़्त वहीं जम सा गया हो।
धरा ने कुछ पल उसे देखा। उसकी आँखों में कोई सवाल था, कोई उलझन। फिर जैसे उसे कुछ याद आया हो, उसकी आँखें हल्की सी सिकुड़ गईं।
"तुम... वो ही हो न? मेरी हेल्प करने वाले?"
सर्वज्ञ का दिमाग घूम गया।
"हाय रब्बा! ये तो मुझे पहचान गई!"
वह अटकते हुए हड़बड़ा कर बोला,
"अ... हाँ… हाँ… वो… चप्पल … मतलब… हाँ, मैं ही हूँ।"
धरा की भौं हल्की सी चढ़ी, लेकिन होंठों पर एक हल्की सी मुस्कान आ गई। उसने सिर हल्का सा झटका, जैसे कह रही हो — "बेवकूफ़!"
वह मुड़ी और हॉस्टल के अंदर जाने लगी। लेकिन जाते-जाते उसके कानों में सर्वज्ञ की मम्मी के शब्द गूंज उठे।
"सांवरे! अंदर आ…"
धरा के कदम हॉस्टल के दरवाज़े के पास रुक गए। उसने हल्के से मुड़कर सर्वज्ञ को देखा, और फिर उसकी मम्मी की ओर नज़र घुमाई। एक पल को वह कुछ समझने की कोशिश करती रही, फिर उसके होंठों पर हल्की सी मुस्कान उभर आई।
"सांवरे…" — वह धीरे से खुद से ही बोली और अंदर चली गई।
सर्वज्ञ अभी भी वहीं खड़ा था, जैसे कोई बुत बन गया हो।
क्रमशः
रात का समय था।
धरा अपने नए कमरे 208 में अकेली बैठी थी। वह थोड़ी थकी हुई सी लग रही थी। बैग अनपैक करने का मन नहीं था, इसलिए उसने अपना फोन निकाला और मम्मी को कॉल लगा दिया। धरा ने लंबी सांस ली, फिर धीरे से अपना फोन निकाला।
"मम्मा" का नंबर स्क्रीन पर चमक रहा था। उसने बिना वक्त गवाए कॉल लगा दी।
"हैलो, मम्मा?" उसकी आवाज़ में हल्की सी थकान और उदासी थी।
"धरा बेटा! कैसी है मेरी गुड़िया? तेरा हॉस्टल शिफ्ट हो गया?" मम्मा की आवाज़ सुनते ही धरा की आंखें हल्की सी नम हो गईं।
"हाँ मम्मा, मैंने हॉस्टल बदल लिया... यहां का कमरा अच्छा है, बड़ा भी है।" धरा ने जबरदस्ती मुस्कुराने की कोशिश की।
"अरे वाह! अच्छा किया तूने। वहां की वॉर्डन कैसी हैं? खाना ठीक-ठाक मिल रहा है ना?" मम्मा ने फिक्रमंद आवाज़ में पूछा।
"हाँ मम्मा... वॉर्डन बहुत अच्छी हैं, मुझसे प्यार से बात कर रही थीं।" धरा ने झूठी मुस्कान के साथ कहा, जबकि उसकी आंखें कमरे के खालीपन को महसूस कर रही थीं।
"और काव्या? वो तो तेरे साथ नहीं शिफ्ट हुई ना?"
धरा का गला हल्का सा भर आया।
"नहीं मम्मा... काव्या उसकी दीदी के फ्लैट गई है। वह तो आज ही छोड़कर चली गई। अब मैं यहां अकेली हूँ।"
"अरे बेटा, अकेली कहाँ है मेरी धरा? तू तो सबसे जल्दी दोस्त बना लेती है। देखना, दो दिन में पूरा हॉस्टल तेरा दीवाना हो जाएगा!" मम्मा ने हंसकर कहा, जैसे उसे हिम्मत देने की कोशिश कर रही हों।
धरा ने हल्की हंसी हंसते हुए कहा, "हाँ मम्मा, कोशिश करूँगी।"
"पापा भी पूछ रहे थे तेरा हाल... उनकी लाडली अकेली है, इसलिए परेशान हो रहे थे।"
धरा का दिल भर आया।
"मम्मा... पापा को बोलना मैं ठीक हूँ। आप दोनों टेंशन मत लेना।"
"बिलकुल नहीं लेंगे बेटा। तू खुश रहना, बस यही चाहत है हमारी।"
"हाँ मम्मा... मैं खुश रहूँगी।"
फोन कटने के बाद धरा कुछ देर चुपचाप बैठी रही। कमरे का सन्नाटा उसे काटने लगा।
वह खिड़की के पास जाकर खड़ी हो गई। बाहर का माहौल शांत था, लेकिन उसके अंदर हलचल मची हुई थी।
तभी दरवाजे पर हल्की सी दस्तक हुई — "टॉक... टॉक..."
धरा चौंक गई।
"इतनी रात को कौन हो सकता है?" उसने खुद से बुदबुदाया।
उसने धीरे से दरवाजा खोला।
सामने एक लड़का खड़ा था।
"तुम… कौन हो?" धरा ने डरते हुए पूछा।
लड़के ने हल्के से सिर झुकाया, और धीमे से बोला, "मैं इसी रूम के सामने वाले रूम में रहता हूँ... 209।"
धरा ने हैरानी से उसे देखा। "लेकिन ये तो गर्ल्स हॉस्टल है ना?"
लड़के ने हल्की मुस्कान के साथ जवाब दिया, "यही तो गड़बड़ है। मैं यहाँ हूँ... लेकिन किसी को पता नहीं।"
धरा का दिल जोर-जोर से धड़कने लगा।
"तुम... झूठ बोल रहे हो, है ना?"
लड़के ने एक अजीब-सा रहस्यमय चेहरा बनाकर कहा, "झूठ तो वो लोग बोलते हैं, जो डरते हैं। मैं सिर्फ सच दिखाता हूँ... पर वो देखने की हिम्मत होनी चाहिए।"
धरा ने एक कदम पीछे लिया।
लड़के ने एक कागज उसकी ओर बढ़ाया।
"ये क्या है?"
"रूम नंबर 208 का सच।"
धरा ने कांपते हुए कागज लिया, और उस पर जो लिखा था, उसने उसके पैरों तले जमीन खिसका दी।
"गुलमोहर गर्ल्स हॉस्टल में पिछले साल रहस्यमयी आग लगी थी, जिसमें एक लड़की की जलकर मौत हो गई थी। लेकिन उसकी लाश कभी नहीं मिली..."
धरा की आंखें चौड़ी हो गईं।
"ये... ये क्या मजाक है?" उसने कांपते हुए पूछा।
लड़के ने गहरी आवाज़ में कहा,
"ये मजाक नहीं है। और जिस रूम में तुम आज शिफ्ट हुई हो... वो उसी लड़की का कमरा था।"
धरा के हाथ से कागज गिर गया।
लड़का धीरे से पीछे हटा, और अंधेरे में गायब हो गया।
धरा ने कांपते हुए दरवाजा बंद कर लिया, उसकी सांसें तेज हो रही थीं।
कमरे में खौफनाक सन्नाटा छा गया था।
तभी लैंप की रोशनी एक झटके में बुझ गई।
"टॉक... टॉक..."
दरवाजे पर फिर से वही दस्तक हुई।
धरा की धड़कनें रुक सी गईं।
धरा का दिल जोर-जोर से धड़क रहा था। उसने घबराकर दरवाजे की ओर देखा।
"टॉक... टॉक..."
दस्तक फिर से हुई। उसकी सांसें अटक सी गईं। हाथ कांपते हुए उसने धीरे से दरवाजा खोला।
सामने वही लड़का खड़ा था... या शायद अब वह लड़का नहीं लग रहा था।
अचानक पीछे से हँसी की आवाज़ आई।
"हाहाहा... डर गई क्या?"
धरा ने चौंककर देखा। दरवाजे के पीछे से तीन लड़कियाँ निकलीं, सब हँस रही थीं।
उनमें से एक लड़की आगे आई, उसने हँसते हुए कहा, "अरे सॉरी यार... ये लड़का नहीं है, हमारी ही दोस्त है — 'रिया'। बॉय कट हेयर है ना, इसलिए पूरी लड़के जैसी लगती है।"
धरा ने हक्का-बक्का होकर उस "लड़के" की तरफ देखा, जो अब मुस्कुरा रही थी। रिया ने शरारती अंदाज़ में आँख मारी और बोली —
"तुम नई हो, तो सोचा वेलकम थोड़ा हटके करें। वैसे कैसा लगा हमारा हॉरर प्रैंक?"
धरा ने गहरी साँस ली और खुद को संभालते हुए कहा —
"तुम लोगों ने तो मेरी जान ही निकाल दी थी... सच में लगा कोई भूत-प्रेत है!"
सभी लड़कियाँ जोर-जोर से हँस पड़ीं।
एक दूसरी लड़की बोली, "चलो, अब दोस्ती हो गई ना? वैसे मैं काजल, ये प्रिया, और ये हमारी 'भूतनी' रिया!"
धरा हल्के से मुस्कुराई और बोली, "धरा।"
धरा के चेहरे पर हल्की मुस्कान आ गई। डर के बाद मिली दोस्ती की यह गर्माहट उसके दिल को सुकून दे गई थी। लड़कियाँ हँसते-हँसते बोलीं,
"चल अब बहुत रात हो गई, सवेरे मिलते हैं... गुडनाइट धरा!"
"गुडनाइट!" धरा ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया।
लड़कियाँ कमरे से चली गईं। धरा ने दरवाजा बंद किया और एक लंबी साँस ली। कमरे का सन्नाटा अब पहले जैसा डरावना नहीं लग रहा था। वह बिस्तर पर बैठी ही थी कि फोन वाइब्रेट करने लगा।
"मम्मा का मैसेज"
"सो गई क्या बेटा? अकेलापन लगे तो मुझसे बात कर लेना... पापा और मैं तुझे बहुत मिस कर रहे हैं। खुश रहना मेरी बच्ची। गुडनाइट!"
धरा की आँखें नम हो गईं। उसने जल्दी से जवाब लिखा —
"मम्मा, मैं बिलकुल ठीक हूँ। यहाँ सब अच्छे हैं। आप टेंशन मत लो। गुडनाइट मम्मा... लव यू!"
जवाब भेजते ही दूसरा नोटिफिकेशन आया —
"काव्या का मैसेज"
"यार सॉरी, मैं तुझे छोड़कर आ गई... वहाँ अकेली बोर मत होना। याद रखना, तेरी बेस्ट फ्रेंड तुझे हमेशा मिस करेगी। कल कॉल करूँगी। गुडनाइट पगली!"
धरा हँस पड़ी। उसने फौरन टाइप किया —
"तू तो गद्दार निकली काव्या! और हाँ, नए दोस्त बना लिए... थोड़े भूतिया हैं, पर अच्छे हैं...गुडनाइट काव्या।"
फोन साइड में रखते ही उसने आँखें बंद कर लीं।
सुबह की हल्की धूप कमरे की खिड़की से अंदर झांक रही थी। धरा ने करवट बदली और आँखें धीरे-धीरे खोलीं। कुछ पल तक वह वैसे ही लेटी रही, बीती रात का डर और मस्ती याद आते ही हल्की मुस्कान आ गई।
"उफ्फ... नई जगह, नया दिन!" उसने खुद से कहा और बिस्तर से उठ गई।
धरा बाथरूम में गई, नहा कर फ्रेश हुई। उसने अपनी अलमारी खोली और सफेद हाई-नेक टॉप निकाला, जिस पर लाल धागे से सुंदर फूल कढ़े हुए थे। साथ में उसने लंबी लाल स्कर्ट पहन ली।
फिर उसने अपने लंबे घुंघराले बालों की चोटी गूँथ ली।
रेडी होकर जैसे ही वह हॉस्टल के मेस में पहुँची, तो सामने से काजल, प्रिया और रिया आते हुए दिखीं।
उन तीनों के साथ धरा ने नाश्ता किया।
नाश्ते के बाद सबने अपना-अपना बैग उठाया और अपने-अपने कॉलेज के लिए निकल पड़ीं। जैसे ही हॉस्टल के मेन गेट पर पहुँचीं, रजिस्टर में साइन करना था।
वार्डन मैडम सामने ही बैठी थीं।
धरा ने धीरे से कहा, "गुड मॉर्निंग, मैम!"
वार्डन ने नजरें उठाकर देखा और हल्की मुस्कान के साथ बोलीं, "गुड मॉर्निंग बेटा! और हाँ, टाइम से लौट आना।"
"जी मैम!" धरा ने मुस्कुराकर कहा।
वार्डन ने प्यार भरी आवाज़ में कहा, "बेटा, 9 बजे से पहले लौट आना, 9 बजे के बाद गेट बंद हो जाता है।"
धरा ने मुस्कुराकर हामी भरी और बाहर निकल गई।
रिया, काजल और प्रिया तीनों का कॉलेज अलग था इसलिए तीनों दूसरे रास्ते से जाने लगीं और धरा दूसरे रास्ते से।
अभी धरा कुछ ही कदम चली थी कि पीछे से आई एक आवाज़ से उसके कदम ठहर गए।
"ठकुराइन"
धरा ने पलटकर देखा — सामने सर्वज्ञ आ रहा था। स्कूल यूनिफॉर्म में, कंधे पर बैग टंगा हुआ, और साइकिल के हैंडल पर एक हाथ टिकाए हुए। चेहरे पर वही शरारती मुस्कान थी, जो उसने कल देखी थी।
सर्वज्ञ ने साइकिल पास लाकर रोकी, हैंडल पर कोहनी टिकाकर हल्का सा झुका और मुस्कुराकर बोला, "ठकुराइन बैठ जाइए पीछे… छोड़ दूँगा आपको आपके कॉलेज। फ्री की सवारी है!"
"नहीं-नहीं, तुम जाओ अपने स्कूल। मैं खुद चली जाऊँगी।"
"अरे बैठ जाइए, ठकुराइन! फ्री की सवारी बार-बार थोड़ी न मिलती है!"
"तुम जाओ सांवरे!"
सर्वज्ञ एकदम से चौंक गया। उसने तुरंत सिर उठाया और पूछा,
"सांवरे? आपने मुझे सांवरे कहा?"
"तुम मुझे 'ठकुराइन' कह रहे हो, तो मैं भी तुम्हें तुम्हारे निकनेम से बुलाऊँगी। कल तुम्हारी मम्मा कह रही थीं— ‘सांवरे’ … मैंने सुना था।"
सर्वज्ञ के होंठों पर लंबी सी मुस्कान आ गई।
सांवरे...
ये नाम आज पहली बार सर्वज्ञ के कानों में अलग सा बजा। जैसे किसी ने उसके नाम को मीठे शहद में डुबोकर पुकारा हो। "सांवरे" — ये वही नाम था जो मम्मी हमेशा गुस्से में या प्यार से बुलाती थीं, लेकिन आज ये नाम उसके दिल के किसी खास कोने में हलचल मचा गया।
"सांवरे…"
धरा के होंठों से ये शब्द निकलते ही सर्वज्ञ को लगा, जैसे हल्की सी ठंडी हवा उसके चारों तरफ घूम गई हो। वह मुस्कुराया, पर वह मुस्कान बस यूँ ही वाली नहीं थी। यह वैसी मुस्कान थी, जैसी बारिश के पहले मिट्टी से आती खुशबू पर अपने आप चेहरे पर आ जाती है।
उसके दिल में अजीब सा एहसास उठा — जैसे किसी ने उसके नाम पर रंग छिड़क दिया हो। मन कर रहा था कि बस यही पल थम जाए।
क्रमशः
"सांवरे, कहाँ खो गए... जाओ, लेट हो जाओगे तुम..." धरा ने हल्के से मुस्कुराते हुए कहा।
सर्वज्ञ थोड़ा सा चौंककर जैसे किसी ख्वाब से बाहर आया। उसने जल्दी से खुद को संभाला, मगर मुस्कान अब भी चेहरे पर जमी हुई थी।
"अरे मैं नहीं लेट होता, स्कूल वाले मेरी वजह से जल्दी शुरू करते हैं!" उसने आँख मारते हुए कहा, "वैसे ठकुराइन, आप तो लेट हो जाओगी। सच में बैठ जाओ पीछे, मेरा हैंडल भी हल्का हो जाएगा।"
धरा ने सिर झटक कर कहा, "नहीं जी, मैं पैदल ही जाऊँगी। और वैसे भी, फ्री की सवारी सिर्फ मुसीबत में काम आती है।"
सर्वज्ञ ने नकली आह भरते हुए कहा, "हाय राम! देखो तो, मेरी साइकिल पर बैठने को मुसीबत कह रही हैं। दिल तोड़ दिया आपने, ठकुराइन। चलिए, कम से कम रास्ते भर बात तो कर लीजिए।"
धरा ने हल्का सा हंसकर कहा, "बात करनी है तो पैदल चलकर करो। देखूँ कितना दम है तुम्हारी बातों में।"
सर्वज्ञ ने साइकिल का स्टैंड जमाया, उसे बड़े आराम से एक पेड़ के नीचे खड़ा किया और मुस्कुराते हुए धरा के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने लगा। धरा थोड़ी सी अजनबीपन के साथ चल रही थी, मगर सर्वज्ञ के चेहरे पर एक अलग ही अपनापन झलक रहा था—जैसे वो उसे बरसों से जानता हो।
धरा ने चलते-चलते हल्के से पूछा, "सांवरे, तुम कौन सी क्लास में हो?"
सर्वज्ञ ने सिर ऊँचा करके गर्व से कहा, "11वीं में! साइंस स्ट्रीम... डॉक्टर बनने का प्लान है!" फिर आँख मारकर बोला, "वैसे ठकुराइन, आप कौन से कॉलेज में हो और कौन सा सब्जेक्ट लिया है?"
धरा ने बिना रुके, थोड़ी संजीदगी से कहा, "मैं बीए फर्स्ट ईयर में हूँ... हिंदी ऑनर्स। पर असली सपना तो अपना खुद का डांस अकैडमी खोलने का है।"
सर्वज्ञ ने हैरानी से पूछा, "डांस अकैडमी? मतलब प्रोफेशनल डांसर बनना चाहती हैं आप?"
धरा ने हल्की सी मुस्कान के साथ कहा, "हाँ... डांस मेरी जान है। क्लासिकल, कंटेम्पररी, फोक... सब सीख रही हूँ। मेरा सपना है कि एक दिन अपनी खुद की डांस अकैडमी खोलूँ। जहाँ लड़कियाँ सिर्फ नाचना ही नहीं, बल्कि खुद पर यकीन करना भी सीखें।"
सर्वज्ञ ने हल्के से मुस्कुराकर कहा, "ठकुराइन, आपकी इस अकैडमी का नाम क्या होगा? 'धरा डांस हब' या फिर 'ठकुराइन डांस क्लासेज'?"
धरा ने हंसते हुए सिर झटका, "हद है तुम्हारी! नाम का तो अभी सोचा भी नहीं। पहले डांस पूरा सीख लूँ, फिर नाम भी सोच लूँगी।"
सर्वज्ञ ने थोड़ा शरारती अंदाज़ में कहा, "नाम तो मैं सोचकर रखूँगा... और याद रखना, जब अकैडमी खुलेगी ना, तो पहला एडमिशन मेरा होगा!"
धरा ने भौंहें उठाते हुए पूछा, "तुम डांस सीखोगे?"
सर्वज्ञ ने हल्के से मुस्कुराकर कहा, "हाँ ठकुराइन, आप सिखाओगी तो कुछ भी सीख लूँगा... घूमर से लेकर ब्रेक डांस तक!"
धरा ने हंसते हुए कहा, "हद है! तुम्हारे बस का नहीं है डांस-वांस।"
सर्वज्ञ ने एक लंबी साँस लेते हुए कहा, "देखना नहीं ठकुराइन... आपके साथ खड़े होकर नाचना है।"
धरा ठिठककर रुक गई। उसकी भोली आँखों में हल्की सी हैरानी थी।
सर्वज्ञ ने थोड़ा मुस्कुराते हुए पूछा, "रुक क्यों गईं आप, ठकुराइन?"
धरा ने हल्की सी साँस लेते हुए कहा, "बहुत बोलते हो तुम... कभी चुप भी रहते हो या बस यूँ ही बक-बक करते रहते हो?"
सर्वज्ञ ने शरारत भरी मुस्कान के साथ कहा, "अरे, अभी तो मैं कम बोल रहा हूँ... आपसे!"
धरा ने भौंहें चढ़ाते हुए कहा, "लेकिन हमें मिले तो सिर्फ़ दो ही दिन हुए हैं। और न ही हम दोस्त हैं।"
सर्वज्ञ ने फटाक से जवाब दिया, "तो बन जाइए न दोस्त!"
धरा ने सिर झटकते हुए कहा, "अरे... मैं बड़ी हूँ तुमसे!"
सर्वज्ञ ने बिना देर किए मुस्कुराते हुए कहा, "अरे ठकुराइन, दोस्ती में बड़ा-छोटा थोड़ी देखा जाता है। और वैसे भी, बड़े लोग कहते हैं—दोस्ती दिल से होती है, उम्र से नहीं!"
धरा ने हल्की सी हँसी दबाते हुए कहा, "तुम्हारी बातें तो किसी सेल्समैन से कम नहीं लगतीं, जो जबरदस्ती दोस्ती का ऑफर बेचने पर तुला हो।"
सर्वज्ञ ने शरारती अंदाज़ में जवाब दिया, "तो फिर ले लीजिए न यह ऑफर! लिमिटेड टाइम ऑफर है, ठकुराइन!"
धरा ने उसे घूरते हुए कहा, "पता नहीं क्यों, मुझे लग रहा है कि तुमसे दोस्ती की तो रोज़ मुफ़्त की बकवास झेलनी पड़ेगी।"
सर्वज्ञ ने आँखों में चमक के साथ कहा, "बिल्कुल सही पकड़ा आपने! पर बकवास के साथ फुल एंटरटेनमेंट गारंटी भी है।"
धरा ने सिर झटकते हुए हंसकर कहा, "पागल हो तुम!"
सर्वज्ञ ने मुस्कुराते हुए कहा, "और आप... सबसे प्यारी!"
धरा कॉलेज के गेट के पास पहुँचकर रुकी। उसने हल्की सी मुस्कान के साथ सर्वज्ञ की ओर देखा।
"सांवरे, दोस्ती का मतलब पता है न तुम्हें?" उसने हल्के से पूछा, जैसे कुछ टटोल रही हो उसके जवाब में।
सर्वज्ञ ने सिर खुजाते हुए शरारती अंदाज़ में कहा, "पता है... पर आप अपना पॉइंट ऑफ़ व्यू बता ही दीजिए, ठकुराइन। मैं तो सुनने के लिए ही पैदा हुआ हूँ!"
धरा ने हल्के से हँसी दबाते हुए कहा, "दोस्ती मतलब... बिना किसी स्वार्थ के किसी का साथ देना। जब सामने वाला गलत हो, तब उसे सही राह दिखाना—न कि उसकी गलतियों पर ताली बजाना। और सबसे ज़रूरी बात, दोस्ती में कभी झूठ नहीं चलता।"
सर्वज्ञ ने मुस्कुराकर कहा, "हाँ ठकुराइन, दोस्ती में झूठ नहीं चलता—लेकिन बहाने तो चलते हैं न? जैसे आप आज कह रही हैं कि पैदल चलना अच्छा लगता है, और कल को साइकिल पर बैठ गईं तो?"
धरा ने आँखें घुमाते हुए कहा, "हाँ हाँ, अगर कल बैठ गई तो समझ लेना, सच में थक गई थी!"
सर्वज्ञ ने नकली आह भरते हुए कहा, "तो इसका मतलब है, मुझे हर दिन आपको थकाने का इंतज़ार करना पड़ेगा?"
धरा हँसते जाने लगी।
सर्वज्ञ वहीं खड़ा धरा को जाते हुए देखता रहा। उसकी आँखों में एक अजीब सी चमक थी—जैसे पहली बार किसी की बातों ने उसके दिल में घर बना लिया हो। धरा कॉलेज के गेट के अंदर चली गई, मगर सर्वज्ञ की निगाहें वहीं रुकी रहीं, जब तक वो पूरी तरह से ओझल नहीं हो गई।
सर्वज्ञ ने हल्की साँस ली, सिर झटककर खुद से बुदबुदाया, "ठकुराइन... सच में अलग ही बला हो तुम।"
थोड़ी देर बाद...
सर्वज्ञ दौड़ता हुआ स्कूल के गेट पर पहुँचा। बैग का एक पट्टा कंधे से उतर चुका था, बाल हवा में उड़ रहे थे, और साँस ऐसे फूल रही थी जैसे कोई मैराथन दौड़कर आया हो। उसने घड़ी देखी—पहला पीरियड शुरू हो चुका था!
गेट पर खड़े गार्ड ने घूरकर देखा, "फिर लेट?"
सर्वज्ञ हांफते हुए अपनी बत्तीसी चमका दी।
गार्ड ने भौंहें चढ़ाईं, लेकिन कुछ कहता इससे पहले ही सर्वज्ञ अंदर भाग चुका था।
क्लासरूम के दरवाज़े पर पहुँचते ही उसने देखा—मंगल और श्रीदम भी बाहर ही खड़े थे!
मंगल अपने हाथ बाँधकर बोला, "तो आ गए जनाब! और यह पसीना किस खुशी में बहाया?"
श्रीदम भी हँसते हुए बोल पड़ा, "लगता है इस बार दौड़ने की प्रैक्टिस करके आए हो!"
सर्वज्ञ ने हांफते हुए पूछा, "अबे तुम दोनों यहाँ क्या कर रहे हो?"
मंगल बिलकुल शांत अंदाज़ में बोला, "बाहर खड़े हैं, मतलब अंदर नहीं गए।"
श्रीदम ने गंभीर मुद्रा में कहा, "और अंदर नहीं गए, इसका मतलब लेट आए हैं।"
सर्वज्ञ ने माथा पकड़ लिया, "मतलब तुम दोनों भी लेट हो?"
मंगल ने कंधे उचका दिए, "भाई, दोस्त अकेला कैसे लेट हो सकता है? तेरा साथ तो देना पड़ेगा न!"
श्रीदम ने फिर उसकी बात में अपनी बात जोड़ी, "हम तेरी तरह दौड़कर नहीं आए, आराम से समोसे खाकर आए हैं।"
सर्वज्ञ ने हैरान होकर पूछा, "अबे! स्कूल आते टाइम समोसे?"
मंगल ने गर्व से जवाब दिया, "हमने सोचा, अगर लेट होना ही है, तो कुछ अच्छा खाकर हों!"
सर्वज्ञ ने गहरी साँस ली, "मतलब जब मैं दौड़-भाग कर आ रहा था, तुम लोग चटखारे ले रहे थे?"
श्रीदम ने हँसते हुए कहा, "भाई, भूखे पेट देर से आने का मज़ा ही नहीं आता!"
तभी अंदर से केमिस्ट्री के सर की भारी आवाज़ आई, "सर्वज्ञ, मंगल, श्रीदम! बाहर खड़े-खड़े क्लासरूम का नक्शा बना रहे हो क्या?"
तीनों ने एक-दूसरे को देखा।
मंगल धीरे से फुसफुसाया, "भाई, बहाने का टाइम आ गया!"
सर्वज्ञ ने झट से जवाब दिया, "सर, असल में..."
टीचर गुस्से में बोले, "कोई असल-बसल नहीं! अंदर आओ, और सीधे अपनी सीट पर बैठो!"
तीनों ने राहत की साँस ली। बिना ज़्यादा डाँट सुने अंदर आना बड़ी बात थी। जैसे ही वे सीट पर पहुँचे, क्लास के कुछ बच्चे मुस्कुराए।
मंगल ने फुसफुसाकर कहा, "भाई, आज भी मिशन सक्सेसफुल!"
सर्वज्ञ ने मुस्कुराकर कहा, "हमेशा की तरह!"
श्रीदम ने धीरे से कहा, "अब यह केमिस्ट्री की क्लास झेलनी पड़ेगी!"
तीनों ने लंबी साँस ली।
मंगल ने धीरे से सर्वज्ञ की तरफ़ सरकते हुए पूछा, "अबे, तूने आज सच में पैदल चलकर आने का प्लान क्यों बनाया?"
सर्वज्ञ ने एक दार्शनिक अंदाज़ में कहा, "कभी-कभी ज़िंदगी को महसूस करना चाहिए... सड़क के पत्थरों को, धूल को, पैरों की तकलीफ़ को..."
श्रीदम ने एक लंबी साँस ली, "बातें तो ऐसे कर रहा है जैसे किसी संत के आश्रम से आया हो!"
मंगल हँसा, "भाई, सच-सच बता, तेरी साइकिल का टायर पंचर हो गया न?"
सर्वज्ञ कुछ कहता इससे पहले ही टीचर की नज़र उन पर पड़ गई।
"क्या चल रहा है वहाँ पीछे?"
तीनों एक साथ बोले, "ज्ञान अर्जित कर रहे हैं, सर!"
"गुलमोहर गर्ल्स हॉस्टल में" शाम के चार बजे थे।
धरा अपनी स्टडी टेबल पर बैठी खिड़की के बाहर झाँक रही थी। हल्की ठंडी हवा चल रही थी, और सूरज की रोशनी धीरे-धीरे मद्धम हो रही थी।
उसने एक गहरी साँस ली।
अभी कुछ ही दिनों पहले तक वो एक पुराने, उबाऊ हॉस्टल में थी, जहाँ न माहौल अच्छा था और न ही लोग। वहाँ की लड़कियाँ अपने तक ही सीमित रहती थीं, बातें भी बस ज़रूरत भर की होती थीं। न दोस्ती, न मज़ाक, बस एक बोरिंग-सी दिनचर्या। सिर्फ़ काव्या ही अच्छी थी।
लेकिन यहाँ सब कुछ उल्टा था।
रिया, काजल और प्रिया जैसी लड़कियाँ थीं, जो खुलकर हँसती थीं, बातें करती थीं, मज़ाक उड़ाती थीं, और हॉस्टल को हॉरर हाउस से ज़्यादा एंटरटेनमेंट ज़ोन बना देती थीं।
धरा को अब एहसास हुआ कि सिर्फ़ जगह नहीं, लोग भी मायने रखते हैं।
उसने सोचा और हल्का मुस्कुराई।
अभी वो इन ख्यालों में डूबी ही थी कि दरवाज़े पर अचानक से धड़-धड़ाहट हुई।
"ओय ठाकुर! जल्दी बाहर निकल!"
धरा चौंकी।
"क्या हुआ?" उसने बड़बड़ाते हुए दरवाज़ा खोला।
सामने रिया खड़ी थी, पूरे जोश में, और उसके पीछे काजल और प्रिया भी थीं।
क्रमशः?
गुलमोहर गर्ल्स हॉस्टल में शाम के चार बजे थे।
"ओए ठाकुर! जल्दी बाहर निकल!"
धरा चौंकी।
"क्या हुआ?" उसने बड़बड़ाते हुए दरवाजा खोला।
सामने रिया खड़ी थी, पूरे जोश में, और उसके पीछे काजल और प्रिया भी थीं।
"गोलगप्पे!" रिया ने खुशी से कहा।
"अभी? लेकिन अभी तो चार ही बजे हैं!" धरा ने हैरानी से पूछा।
"तो? गोलगप्पों का टाइम कौन तय करता है?" काजल ने आँखें घुमाते हुए कहा।
प्रिया ने जोड़ दिया, "हाँ, गोलगप्पे खाने के लिए भूख नहीं, मूड चाहिए!"
धरा ने सिर पकड़ लिया, "तुम लोग भी न... मुझे नहीं जाना, बहुत थक गई हूँ।"
रिया ने झट से हाथ पकड़ लिया, "ऐसा नहीं चलेगा! तू पहली बार हमारे साथ जा रही है!"
रिया के इस ऐलान के बाद धरा को लग गया कि अब बचने का कोई चांस नहीं है।
"पर मैं..."
"शट अप, ठाकुर!" काजल ने बीच में ही रोक दिया, "पहली बार हॉस्टल में आई है, और पहली बार ही बहाने मार रही है!"
"यार, ऐसे जबरदस्ती क्यों कर रही हो?" धरा ने मुँह बनाते हुए कहा।
प्रिया ने उसकी तरफ देखा, फिर आँखें सिकोड़कर बोली, "अगर नहीं आई तो तुझे मिसिंग आउट सिंड्रोम हो जाएगा!"
"ये क्या होता है?" धरा चौंक गई।
"मतलब तू रातभर रोएगी कि यार, काश मैं चली जाती!" रिया ने शरारत से कहा।
"ओफ्फो!" धरा ने गहरी साँस ली और हार मानते हुए बोली, "ठीक है, चलो!"
"ये हुई ना बात!"
रिया ने धरा को जबरदस्ती बाहर खींच लिया, और चारों हँसते हुए हॉस्टल से बाहर निकल पड़ीं।
गुलमोहर गर्ल्स हॉस्टल से थोड़ी दूर पर ही एक ठेलेवाला था, जिसके चारों ओर भीड़ लगी हुई थी। लड़कियों का झुंड एक कोने में खड़ा होकर मजे से गोलगप्पे खा रहा था।
रिया, काजल, प्रिया और धरा ने स्टॉल के पास पहुँचते ही गोलगप्पे वाले को घेर लिया।
"भाईया, स्पाइसी वाला बनाना!" रिया ने जोर से कहा।
"भाईया, मुझे मीठा ज़्यादा चाहिए!" काजल ने तुरंत अपनी फ़रमाइश रखी।
प्रिया हँसते हुए बोली, "भाईया, मुझे बैलेंस्ड चाहिए... न ज़्यादा तीखा, न ज़्यादा मीठा!"
धरा चुपचाप देख रही थी। वह इस माहौल में धीरे-धीरे घुलने की कोशिश कर रही थी।
रिया ने धरा की तरफ देखा, "और तू? तुझे कैसे चाहिए?"
धरा मुस्कुराई, "तुम लोग जैसा कहो वैसा दे दो!"
रिया ने आँखें घुमाईं, "अरे नहीं! पहली बार खा रही है यहाँ, तो अपना टेस्ट खुद चुन!"
धरा सोच में पड़ गई। उसने बहुत समय से गोलगप्पे नहीं खाए थे। बचपन में मम्मी के साथ खाया करती थी, लेकिन जब से घर से दूर हॉस्टल में आई, ये छोटी-छोटी चीज़ें पीछे छूट गई थीं।
अचानक एक पुरानी याद दिमाग में कौंध गई—
"धरा, बेटा जल्दी खा, नहीं तो पानी बह जाएगा!" माँ प्यार से कहतीं, और धरा जल्दी-जल्दी गोलगप्पे मुँह में ठूंस लेती।
छोटी थी, तो तीखा झेल नहीं पाती थी। हर गोलगप्पे के बाद मुँह बिचका लेती, और माँ हँसते हुए मीठा पानी दिलवा देतीं।
पर अब…
धरा ने एक हल्की मुस्कान के साथ कहा, "भईया, एकदम तीखा बना दो!"
रिया, काजल और प्रिया ने चौंककर उसे देखा।
"ओह... ठाकुर में स्पाइसी टेस्ट है!" रिया ने शरारती अंदाज़ में कहा।
सब हँस पड़ीं।
जैसे ही पहला गोलगप्पा धरा के मुँह में गया, उसका स्वाद सीधा दिल तक पहुँचा। पानी का तीखापन, कुरकुरी पूरी, उबले आलू का हल्का स्वाद— सब कुछ जैसे एक साथ घुल गया।
"उफ्फ... ये तो सच में तीखा है!" धरा ने आँखें बंद करते हुए कहा।
रिया ठहाका मारकर हँसी, "और मंगाए?"
धरा हँसते हुए बोली, "हाँ, अब तो रोक ही नहीं सकती!"
काजल बोली, "यार, पहली बार हॉस्टल में इतनी मस्ती महसूस हो रही है!"
प्रिया ने सिर हिलाया, "हम चारों का गैंग परफेक्ट है!"
धरा ने चारों की तरफ देखा। अभी कल तक ये सब अनजान और नई थीं, लेकिन अब ऐसा लग रहा था जैसे बचपन की दोस्ती हो।
"ओके, आखिरी राउंड, फिर हॉस्टल चलते हैं!" रिया ने कहा।
गोलगप्पे खत्म करने के बाद चारों लड़कियाँ वापस लौट रही थीं कि तभी रिया और काजल में किसी बात पर बहस हो गई।
"तूने जानबूझकर मेरा गोलगप्पा गिराया ना?" रिया ने काजल को घूरते हुए कहा।
"अबे नहीं, तेरी प्लेट खुद गिरी!" काजल ने जवाब दिया।
"झूठ मत बोल! मैंने देखा था!"
"तो जा पुलिस में रिपोर्ट कर दे!"
धरा और प्रिया ने एक-दूसरे को देखा।
"ये दोनों अब लड़ेंगी?" धरा फुसफुसाई।
"हर बार ऐसा ही होता है!" प्रिया ने बोरियत से कहा।
रिया और काजल बहस करते-करते इतने तेज़ हो गए कि पास खड़े कुछ लोग उन्हें देखने लगे।
"अबे पागल हो गई हो क्या?" धरा ने बीच में आकर कहा।
"इसको समझा!" रिया ने उंगली उठाकर कहा, "ये बहुत बड़ी चीटर है!"
"अबे तेरा गोलगप्पा ही था, कोई करोड़ों की प्रॉपर्टी थोड़ी थी!" काजल ने चिढ़कर कहा।
"तो बोल ना कि तूने गिराया!"
"नहीं गिराया!"
"गिराया!"
"नहीं गिराया!"
प्रिया ने ऊबकर धरा की तरफ़ देखा, "चल, इनको लड़ने दे। हम तो हॉस्टल चलते हैं!"
धरा ने हँसते हुए सिर हिलाया और दोनों आगे बढ़ गईं, पीछे से अभी भी बहस चल रही थी—
"तेरे जैसे दोस्त के साथ दुश्मनों की ज़रूरत ही नहीं!"
"अरे हट! तू खुद ही दुश्मन है!"
धरा और प्रिया आगे बढ़ चुकी थीं, लेकिन पीछे से आती रिया और काजल की बहस की आवाज़ें कम होने का नाम नहीं ले रही थीं।
"मैं तुझसे कभी बात नहीं करूंगी!" रिया ने तुनककर कहा।
"अच्छा? ये कितनी बार बोल चुकी है, गिनती भी भूल गई होगी!" काजल ने आँखें घुमाईं।
धरा और प्रिया हँस पड़ीं।
धरा, प्रिया, रिया और काजल अभी हॉस्टल के गेट तक ही पहुँची थीं कि सामने के घर के आँगन में हलचल मची हुई थी।
सर्वज्ञ पूरे जोश में दौड़ता हुआ इधर-उधर भाग रहा था, और पीछे-पीछे उसकी मम्मी हाथ में झाड़ू लिए उसे पकड़ने की कोशिश कर रही थीं।
"सांवरे! रुक जा..." उसकी माँ चिल्लाईं।
"मुझे नहीं रुकना!" वह हँसते हुए बोला और छलांग लगाकर गेट के पास पहुँच गया।
ठीक उसी वक्त धरा की नज़र उससे टकराई।
सर्वज्ञ वहीं ठिठक गया। कुछ सेकंड के लिए दोनों एक-दूसरे को बस देखते रहे।
धरा के माथे पर हल्की शिकन आई, लेकिन इससे पहले कि वह कुछ समझ पाती, रिया ने झट से उसका हाथ पकड़ा और खींचते हुए अंदर ले गई।
"ओए ठाकुर! मत देख उसकी तरफ़, वो पागल है!" रिया फुसफुसाई।
"पर वो तो बड़ा ही प्यारा है।" धरा ने धीमे से कहा।
यह सुनते ही तीनों सहेलियाँ एकदम सतर्क हो गईं। काजल ने झट से कहा, "धरा! उससे तो दूर ही रहना। वो बहुत बड़ा बदमाश है।"
धरा ने चौंककर पूछा, "बदमाश? पर उसने तो मेरी मदद की थी। वो तो बहुत प्यारा लड़का लगा मुझे।"
प्रिया ने सिर पकड़ लिया, "हाय राम! तुझे तो सच में बेवकूफ बना गया वो। धरा, तुझे पता भी है वो कौन है?"
धरा ने सवालिया नज़रों से देखा, "कौन है वो? मुझे तो वो ठीक ही लगा।"
रिया ने गहरी साँस लेकर कहा, "ठीक लगा? तुझे तो पूरी कहानी पता ही नहीं है। वो लड़का पूरे कॉलोनी में बदनाम है। पता है, पिछले महीने..."
काजल ने झट से बात पकड़ ली, "अरे तूने वो किस्सा सुना नहीं? छत पे सूख रहे कपड़े गुल्लेल से गिरा देता है वो। आधी कॉलोनी की आंटियों ने पकड़ लिया था उसे।"
प्रिया ने हँसते हुए कहा, "और वो तो इतना शातिर है कि पकड़ने के बाद भी रोने लग गया — कहने लगा, 'आंटी, मैं तो कबूतर भगाने आया था!' बेचारा कबूतर भी उस दिन बदनाम हो गया।"
सब जोर से हँस पड़ीं, लेकिन धरा अब भी उलझी हुई थी।
"पर... उसने तो मेरी सच में मदद की थी।" धरा ने धीमे से कहा।
काजल ने सिर हिलाते हुए कहा, "धरा, ये लड़का सिर्फ़ मासूमियत की एक्टिंग करता है। वो 11th में है, पर हर बड़े ग्रुप में उसकी पहुँच है। लड़कियों के नाम से फेक ID बनाकर इंस्टा पे लड़कों को उल्लू बनाता है।"
धरा का चेहरा थोड़ा उतर गया।
काजल ने आगे जोड़ा, "धरा, तुझे पता है? दिखता भोला है, लेकिन है बहुत शातिर। स्कूल में गुंडागर्दी करता है। अभी पिछले महीने ही तो स्कूल में किसी लड़के से बुरी तरह लड़ाई कर ली थी — क्लास के बाहर दोनों ऐसे भिड़ गए थे जैसे फ़िल्मी विलेन हों। टीचर्स ने बड़ी मुश्किल से छुड़वाया। प्रिंसिपल ने बुलाया तो ऊपर से मासूम बनकर रोने लगा — 'सॉरी सर, वो मुझे मारने वाला था, मैंने तो बस अपनी रक्षा की।' और एक मजेदार बात पता है?"
धरा ने धीरे से सिर हिलाया, मानो अब भी विश्वास नहीं कर पा रही हो।
प्रिया ने झट से बात पकड़ी, "उसकी मम्मी तो बेचारे की मासूमियत पर फ़िदा हैं। जब-जब उसकी शिकायत जाती है, वो हर बार टीचर्स को कहती हैं — 'मेरा बेटा तो बहुत समझदार है, किसी ने उसे फँसा दिया होगा।' और सर्वज्ञ? वो तो ऐसा नाटक करता है कि उनकी मम्मी को पक्का यकीन हो जाता है कि उनका बेटा सच्चा है और दुनिया झूठी।"
रिया ने हँसते हुए कहा, "अरे, पिछली बार तो उसने अपनी मम्मी को भी पागल बना दिया था। स्कूल से झगड़ा करके आया, कपड़े फटे हुए थे, और सीधा जाकर माँ से बोला — 'मम्मी, वो लड़के मेरे नए जूते देख के जल गए थे, इसलिए मुझसे मारपीट की। मैंने तो कुछ किया ही नहीं।' उसकी मम्मी रोने लग गईं, उल्टा स्कूल वालों को फ़ोन करके बोलने लगीं — 'आप मेरे बेटे को क्यों टारगेट कर रहे हैं? हद है यार!"
काजल ने सिर हिलाते हुए कहा, "धरा, सच मान, उससे जितना दूर रह सके, उतना अच्छा है। वो लड़कियों से दोस्ती भी करता है तो सिर्फ़ मस्ती के लिए। तुझे पता है, पिछले साल एक सीनियर दीदी को प्रपोज़ किया था और फिर दोस्तों से शर्त लगाकर उनके साथ प्रैंक कर दिया। लड़की बेचारी स्कूल छोड़कर चली गई।"
धरा चुपचाप यह सब सुन रही थी। उसके मन में वही पहली मुलाक़ात घूम रही थी — जब सर्वज्ञ ने उसकी मदद की थी। वो मासूम सी मुस्कान, वो हल्की सी आँखों में शरारत... "क्या वो सच में ऐसा ही है?"
उसके मन में सवालों की झड़ी लग गई थी, लेकिन बाहर से वह बस चुप बैठी रही।
"ओए ठाकुर, तू चुप क्यों हो गई?" रिया ने उसे हल्का सा झकझोरते हुए पूछा।
धरा ने खुद को संभाला और मुस्कुराने की कोशिश की, "कुछ नहीं... बस सोच रही थी कि क्या सच में कोई इतना स्मार्ट हो सकता है कि सबको बेवकूफ बना दे?"
प्रिया ने ठहाका लगाया, "स्मार्ट? वो स्मार्ट नहीं, पूरा बदमाश है! और तू उसकी मासूम शक्ल देखकर धोखा मत खा जाना!"
काजल ने गहरी साँस ली और बोली, "हाँ, और सबसे मजेदार बात पता है? कोई लड़की उसकी असलियत जानकर उसे झिड़क दे, तो वो ऐसे बिहेव करता है जैसे उसे कोई फ़र्क ही नहीं पड़ता।"
"पर..." धरा ने धीमे से कहा, "अगर वो वाकई इतना बुरा है, तो मुझे ऐसा क्यों नहीं लगा?"
प्रिया ने हल्का सा ठहाका लगाया, "क्योंकि अभी तू सिर्फ़ उसकी एक्टिंग देख रही है, असली रूप नहीं!"
काजल ने गंभीर होकर कहा, "धरा, तू नई है इस मोहल्ले में, तुझे उसकी असलियत धीरे-धीरे समझ आएगी। हम तो पिछले 1 साल से देख रहे हैं उसे।"
तभी धरा का फ़ोन बज उठा। स्क्रीन पर "मम्मा" लिखा देख उसके चेहरे पर हल्की सी मुस्कान आ गई। उसने जल्दी से फ़ोन उठाया—
"हेलो मम्मा!" उसकी आवाज में वही चहक थी, जो हमेशा घरवालों से बात करते वक्त होती थी।
"कैसी है मेरी गुड़िया?" दूसरी तरफ़ से उसकी माँ की प्यारी, कोमल आवाज आई।
धरा का गला हल्का सा भर आया। हॉस्टल में रहते हुए उसे माँ की बहुत याद आती थी।
"अच्छी हूँ मम्मा... बस, आप लोगों की बहुत याद आ रही है।"
"अरे मेरी बच्ची... देख, अभी सिर्फ़ एक महीना ही तो हुआ है, और तुझे इतनी जल्दी घर की याद सताने लगी?" माँ ने हँसते हुए कहा।
धरा ने हल्की शिकायत भरी आवाज में कहा, "मम्मा, आप लोगों को मेरी याद नहीं आती क्या?"
"अरे आती है ना पगली! तभी तो रोज़ तुझे फ़ोन करती हूँ। अच्छा सुन, तेरा दिन कैसा गया?"
धरा की नज़र सामने बैठी अपनी सहेलियों पर पड़ी, जो अभी भी सर्वज्ञ की कहानियों में बिज़ी थीं। उसने हल्की मुस्कान के साथ कहा—
"अच्छा था मम्मा! मेरी नई दोस्त बहुत अच्छी हैं।"
"अरे वाह! कौन?"
"रिया, प्रिया और काजल। बहुत अच्छी हैं मम्मा!" धरा ने मासूमियत से कहा।
"हम्म... अच्छा है, दोस्ती ज़रूरी होती है। पर ध्यान रखना, किसी गलत संगत में मत पड़ना।"
"अरे मम्मा! मैं इतनी भी बेवकूफ़ नहीं हूँ!"
"बेवकूफ़ तो नहीं, पर बहुत भोली है मेरी बेटी," माँ ने प्यार से कहा, "जल्दी किसी पर भरोसा मत किया कर।"
धरा ने फ़ोन पकड़े-पकड़े सर्वज्ञ के बारे में सुनी सारी बातें याद कीं। क्या वाकई वो इतना शातिर था? या फिर उसकी सहेलियों की बातें बढ़ा-चढ़ाकर कही गई थीं?
"क्या सोच रही है?" माँ की आवाज ने उसे उसकी उलझन से बाहर खींचा।
"कुछ नहीं मम्मा... बस ऐसे ही। अच्छा सुनो, पापा कहाँ हैं?"
"पापा ऑफ़िस से अभी तक नहीं आए, लेकिन आते ही तुझसे बात करवाऊँगी। अब तू खाना खा ले, और ज़्यादा सोच मत किया कर।"
"हम्म, ठीक है मम्मा। लव यू!"
"लव यू बेटा, अपना ध्यान रखना!"
फ़ोन कट गया। धरा थोड़ी देर तक स्क्रीन को देखती रही, फिर गहरी साँस लेकर उठी—
"चलो यार, बहुत बातें हो गईं, अब मेस में चलकर कुछ खाते हैं!" उसने दोस्तों की तरफ़ देखकर कहा।
"हाँ! बहुत भूख लगी है!" प्रिया बोली।
क्रमशः
अगली सुबह धरा सुबह-सुबह तैयार होकर हॉस्टल से कॉलेज जाने के लिए निकली ही थी कि सामने से वही नज़ारा फिर से दिखा— सर्वज्ञ!
वह स्कूल ड्रेस में, पूरे जोश में दौड़ता हुआ आ रहा था। उसके चेहरे पर वही शरारती मुस्कान थी, जैसे कोई नया कारनामा करने वाला हो। उसने दूर से ही आवाज़ लगाई—
"ठकुराइन! रुकिए, मैं भी आ रहा हूँ!"
धरा के कदम हल्के से ठिठके, लेकिन अगले ही पल उसने खुद को संभाल लिया। उसने सर्वज्ञ की ओर देखा तक नहीं और आगे बढ़ गई।
सर्वज्ञ की चाल धीमी पड़ी। उसे उम्मीद नहीं थी कि धरा उसे ऐसे इग्नोर कर देगी। उसने अपनी टाई ठीक की, बालों पर हाथ फेरा और लंबा कदम भरते हुए धरा के साथ-साथ चलने लगा।
"अरे सुनिए तो!"
धरा ने अब भी कोई जवाब नहीं दिया।
सर्वज्ञ को अजीब सा लगा। उसने फिर से कहा, "अरे, सुना नहीं? मैं भी उसी तरफ जा रहा हूँ, चलो साथ चलते हैं।"
धरा ने फिर भी कुछ नहीं कहा, बस कदम और तेज कर दिए।
सर्वज्ञ ने भौंहें चढ़ाई और उसके आगे आकर खड़ा हो गया। "ठाकुराइन, ये अचानक अजनबी जैसा बर्ताव क्यों?"
धरा ने गहरी साँस ली और सीधे उसकी आँखों में देखा। "सांवरे, मुझे कॉलेज के लिए देर हो रही है। रास्ते से हटोगे?"
सर्वज्ञ ने सिर हिलाया। "ठीक है, हट जाता हूँ। लेकिन पहले कारण तो बता दीजिए।"
धरा को वो बातें याद आ गईं जो रिया, काजल और प्रिया ने बताई थीं। उसने हल्की सी मुस्कान दी और कहा, "हो सकता है, कल मैं तुम्हें ठीक से जानती नहीं थी।"
सर्वज्ञ को धरा की बात सुनकर अजीब सा लगा। उसने भौंहें चढ़ाई और हल्के से मुस्कुराया। "ओह, तो अब जान गईं आप?"
धरा ने ठंडी साँस ली। "शायद हाँ।"
सर्वज्ञ ने सिर हिलाया और धीरे से कहा, "और क्या जाना आपने?"
धरा के चेहरे पर हल्की झुंझलाहट आ गई। "यही कि तुम बहुत बड़े बदमाश हो। पूरे मोहल्ले में बदनाम हो, झूठे ड्रामे करते हो, गुंडागर्दी करते हो, लड़कियों के साथ प्रैंक करते हो और फिर मासूम बनने का नाटक करते हो।"
सर्वज्ञ उसकी बातें सुनकर चुपचाप उसे देखता रहा। फिर हल्का सा मुस्कुराया। "अरे वाह! ये सब एक ही रात में जान लिया?"
धरा को उसकी मुस्कान और भी चिढ़ा गई। उसने तेज आवाज़ में कहा, "हाँ! और इसलिए मेरे रास्ते से हटो!"
सर्वज्ञ का चेहरा थोड़ा गंभीर हो गया। उसने एक पल को उसे देखा, फिर एक तरफ हट गया। "ठीक है ठाकुराइन, आपकी मर्जी। पर इतना यकीन से कैसे कह सकती हो कि सब कुछ सच है?"
धरा ने कोई जवाब नहीं दिया और आगे बढ़ गई।
सर्वज्ञ वहीं खड़ा उसे जाते हुए देखता रहा, उसकी मुस्कान अब हल्की पड़ गई थी। उसकी आँखों में पहली बार कोई ठहराव था। वह हमेशा हँसी-मजाक करने वाला था, मगर आज… आज उसकी आँखों में हल्की सी उदासी झलक रही थी। धरा आगे बढ़ रही थी, बेपरवाह, लेकिन सर्वज्ञ वहीं ठहर गया।
उसने आसमान की ओर देखा, जैसे कोई जवाब ढूँढ रहा हो।
"सर्वज्ञ!"
पीछे से एक जानी-पहचानी आवाज़ आई। वह मुड़ा—रिया, काजल और प्रिया हँसी दबाए खड़ी थीं।
रिया ने चुटकी ली। "अरे, ये क्या? हमारे नटखट महाराज तो उदास हो गए!"
सर्वज्ञ ने हल्की सी हंसी के साथ सिर हिलाया। "ओह, रिया दीदी, काजल दीदी और प्रिया दीदी! तो ये सब आपका कारनामा है, राइट?"
रिया ने हाथ जोड़ते हुए मज़ाकिया अंदाज़ में कहा, "जी हाँ! और तू भी सुन ले, तुझे सुधारने का ठेका हमने ही लिया है!"
काजल ने ठहाका लगाया। "वैसे भी, जो लड़का गुलेल से हॉस्टल की लड़कियों के कपड़े गिराए, उसे सबक सिखाना तो बनता ही है!"
प्रिया ने आँख मारी। "और ये तो बस शुरुआत है, नटखट महाराज!"
सर्वज्ञ ने मुस्कुराने की कोशिश की, लेकिन अंदर से उसे यह मज़ाक चुभ रहा था। उसने गहरी साँस ली और थोड़ा आगे बढ़ते हुए कहा, "तो मतलब, ठाकुराइन को ये सब आप लोगों ने बताया?"
रिया ने गर्व से सिर ऊँचा किया। "हाँ, बिलकुल!"
सर्वज्ञ ने कुछ कहने के लिए मुँह खोला, लेकिन फिर रुक गया। उसकी आँखों में हल्की बेचैनी थी। वह हँसने-मुस्कुराने वाला लड़का, जो हर समय मज़ाक और शरारतों से भरा रहता था, आज पहली बार शांत था।
रिया, काजल और प्रिया ने एक-दूसरे को देखा, फिर रिया ने अपनी भौंहें उचकाते हुए पूछा, "अरे, क्या हुआ? बोलते क्यों नहीं? चुप क्यों हो गए, नटखट महाराज?"
सर्वज्ञ हल्के से मुस्कुराया, लेकिन वह मुस्कान वैसी नहीं थी जैसी पहले हुआ करती थी—शरारत से भरी, आत्मविश्वास से लबरेज़। आज उसकी मुस्कान में कुछ खालीपन था। उसने सिर झुकाया, फिर बिना कुछ कहे कॉलेज की ओर बढ़ने लगा।
"अरे! ओए! ऐसे कहाँ जा रहे हो?" काजल ने आवाज़ लगाई।
लेकिन सर्वज्ञ ने कोई जवाब नहीं दिया।
"अबे! बुरा लग गया क्या?" प्रिया ने भी आवाज़ लगाई।
रिया ने हल्की साँस लेते हुए कहा, "अरे लगेगा ही, पहली बार किसी ने इसे आईना दिखाया है।"
काजल ने सिर हिलाया। "यार, लेकिन पहली बार इसे इतना चुप देखा है।"
सर्वज्ञ के कदम धीमे पड़ रहे थे। उसके अंदर कुछ हलचल थी। यह पहली बार था जब किसी ने उस पर आरोप लगाए थे, और वह भी बिना ठोस वजह के।
"तो ठाकुराइन ने सच में मान लिया कि मैं ऐसा हूँ?"
उसने खुद से यह सवाल किया, लेकिन जवाब उसे खुद भी नहीं पता था।
उसका दिमाग अतीत में कहीं डूब गया…
(फ्लैशबैक – 5 महीने पहले, स्कूल की लाइब्रेरी में)
सर्वज्ञ शेल्फ से किताब निकाल रहा था, जब किसी ने पीछे से आवाज़ दी—
"सर्वज्ञ!"
वह चौंका। यह आवाज़ उसकी सीनियर दीदी—श्रुति दीदी की थी।
वह मुस्कुरा कर उनकी ओर मुड़ा। "हाँ दीदी?"
श्रुति दीदी ने हल्के से मुस्कुराते हुए कहा, "मुझे तुमसे एक ज़रूरी बात करनी है।"
सर्वज्ञ ने किताब बंद की और ध्यान से उनकी तरफ देखा।
"हाँ, बोलिए।"
श्रुति दीदी ने एक सेकंड के लिए इधर-उधर देखा, फिर धीरे से बोलीं—
"सर्वज्ञ, आई लव यू।"
लाइब्रेरी की शांत हवा जैसे अचानक ठहर गई।
सर्वज्ञ को ऐसा लगा जैसे हवा भी एक पल के लिए रुक गई हो। उसने उम्मीद नहीं की थी कि ऐसा कुछ सुनने को मिलेगा।
"दीदी…"
श्रुति दीदी ने हल्की मुस्कान के साथ उसकी तरफ देखा।
"कोई जबरदस्ती नहीं है, मैं बस… तुम्हें बता देना चाहती थी।"
सर्वज्ञ ने ना में धीरे से सिर हिलाया।
सर्वज्ञ की उंगलियाँ अब भी किताब के पन्नों पर थीं, लेकिन उसकी आँखें अब सिर्फ श्रुति दीदी पर टिकी थीं। वह उसे देख रही थीं—कुछ उम्मीद, कुछ घबराहट, और थोड़ी झिझक लिए।
सर्वज्ञ ने किताब धीरे से वापस शेल्फ में रखी और बहुत सोच-समझकर जवाब दिया—
"पर मैं कुछ भी नहीं महसूस करता आपके लिए…"
श्रुति दीदी ने एक गहरी साँस ली, फिर हल्की मुस्कान के साथ बोलीं—
"तुम मना कर रहे हो ना? क्योंकि मैं तुमसे बड़ी हूँ?"
सर्वज्ञ ने हल्की मुस्कान दी, लेकिन उसकी आँखों में गहराई थी।
"नहीं, दीदी। बात उम्र की नहीं है, बात दिल की है।"
श्रुति दीदी कुछ पल उसे देखती रहीं।
सर्वज्ञ ने आगे कहा—
"प्रेम में उम्र कोई मायने नहीं रखती, मैं यह भी जानता हूँ। लेकिन दीदी, मैंने आपको हमेशा एक बहन की तरह माना है। मेरे लिए आप सीनियर ही नहीं, एक गाइड की तरह भी रही हैं।"
श्रुति दीदी की मुस्कान धीरे-धीरे फीकी पड़ने लगी।
"तो तुम कह रहे हो कि तुम्हें मेरे लिए कभी भी ऐसा महसूस नहीं हुआ?"
सर्वज्ञ ने बहुत ईमानदारी से सिर हिलाया।
"नहीं दीदी, कभी नहीं।"
कुछ देर तक बस खामोशी थी।
फिर श्रुति दीदी ने एक ठंडी मुस्कान के साथ कहा—
"ठीक है, सर्वज्ञ। कोई बात नहीं।"
लेकिन उनकी आँखों में कुछ था… एक हल्का-सा ग़म? या फिर कोई और भावना जिसे सर्वज्ञ पढ़ नहीं पाया?
सर्वज्ञ को तब झटका लगा जब दो हफ्ते बाद—स्कूल कैंपस में उसने अफवाहें सुनीं—
"सर्वज्ञ ने श्रुति दीदी का दिल तोड़ दिया!"
"सर्वज्ञ धोखेबाज़ है!"
"उसने फेक इंस्टा आईडी बना रखी थी, और लड़कियों से फ्लर्ट करता था!"
सर्वज्ञ पहले तो हँसा। उसे लगा, यह मज़ाक होगा।
लेकिन जब लड़कियाँ उससे अजीब तरह से बात करने लगीं, जब दोस्तों की आँखों में शक दिखने लगा, तब उसे एहसास हुआ कि यह मज़ाक नहीं है—यह एक इल्ज़ाम था।
वह सीधा श्रुति दीदी के पास पहुँचा, जो अपनी सहेलियों के साथ खड़ी थीं।
"दीदी, ये सब क्या चल रहा है?"
श्रुति दीदी ने बिना हड़बड़ाए उसकी तरफ देखा और हल्की मुस्कान दी—
"क्या चल रहा है, सर्वज्ञ?"
"आप अच्छी तरह जानती हैं। आपने ये अफवाह क्यों फैलाई कि मैंने आपको धोखा दिया?"
श्रुति दीदी के चेहरे पर एक पल के लिए झिझक आई, फिर उन्होंने कहा—
"मैंने तो कुछ नहीं कहा। लोग खुद ही समझदार हैं, जो दिखता है वही सच मानते हैं।"
सर्वज्ञ को अब समझ में आया कि यह सब क्यों हुआ। उन्होंने अपने अहंकार की वजह से यह अफवाह उड़ाई थी। वह नहीं चाहती थीं कि कोई उन्हें ठुकराए। इसलिए उन्होंने यह कहानी बना दी कि सर्वज्ञ ही गलत था।
"और वो फेक आईडी वाली बात?"
श्रुति दीदी ने कंधे उचका दिए।
"कुछ लड़कियाँ कह रही थीं कि उन्हें तुम्हारे नाम से कोई मैसेज करता था, तो मैंने बस सुन लिया।"
सर्वज्ञ को पहली बार समझ आया कि झूठ कितनी आसानी से सच बना दिया जाता है, और सच कितना कमजोर होता है।
वह चुपचाप वहाँ से चला गया।
सर्वज्ञ ने सोचा भी नहीं था कि उसे एक सीधा-सा 'ना' कहने की इतनी बड़ी सजा मिलेगी। उसके लिए यह सब बस एक सम्मानजनक इनकार था, लेकिन श्रुति दीदी के लिए? शायद यह उनके आत्मसम्मान पर चोट थी।
अफवाहों की आग फैलने में ज़्यादा वक़्त नहीं लगा। वह जहाँ जाता, उसे तानों और फुसफुसाहटों का सामना करना पड़ता। क्लास की लड़कियाँ उससे कटने लगीं, दोस्त शक की निगाहों से देखने लगे। सबसे बुरा तब हुआ जब स्कूल टीचर्स भी उसे अलग तरह से देखने लगे।
"हमने कभी नहीं सोचा था, तुम ऐसे निकलोगे, सर्वज्ञ!"
सर्वज्ञ समझ नहीं पा रहा था कि खुद को कैसे निर्दोष साबित करे।
लेकिन फिर, एक दिन, उसे उम्मीद की किरण दिखी—मंगल और श्रीदम।
एक दिन, जब कैंटीन में कुछ लड़के और लड़कियाँ सर्वज्ञ को घूर रहे थे, मंगल ने झुंझलाकर कहा—
"क्या दिक्कत है तुम लोगों को? सुनी-सुनाई बातों पर यकीन मत करो!"
किसी ने तुरंत ताना मारा—
"तू ही बता, तू ही तो उसका दोस्त है! क्या गारंटी है कि तू सच बोल रहा है?"
मंगल मुस्कुराया और सीधे बोला—
"गारंटी? ठीक है, आओ सच पता करते हैं!"
सर्वज्ञ चौंका।
"क्या करने वाले हो तुम?" उसने धीरे से पूछा।
"सच निकालने का तरीका सिर्फ एक है—वह है सबूत!"
श्रीदम और मंगल ने मिलकर स्कूल के बाकी लड़कों और लड़कियों से बात करनी शुरू की। उन्होंने सबसे पूछा कि "किसे, कहाँ और कब फेक आईडी से मैसेज आया था?"
अजीब बात थी—कोई भी सही-सही जवाब नहीं दे पा रहा था। कोई कहता, "एक फ्रेंड को आया था।" कोई कहता, "सुना था, पर पक्का नहीं!"
धीरे-धीरे, सबको समझ में आने लगा कि यह सिर्फ एक अफवाह थी—जिसका कोई ठोस आधार ही नहीं था।
लेकिन असली मोड़ तब आया जब श्रीदम ने एक चौंकाने वाली जानकारी दी—
"श्रुति दीदी ही फेक अकाउंट चला रही थीं!"
सब अवाक रह गए।
श्रीदम को किसी तरह पता चला था कि श्रुति दीदी ने ही एक फेक अकाउंट बनाया था। वह पहले खुद ही उससे चैट करतीं, फिर उसी के नाम से स्क्रीनशॉट लेकर बाकी लड़कियों में फैला देतीं। ताकि लोग यह मान लें कि सर्वज्ञ एक झूठा लड़का है।
क्यों? क्योंकि सर्वज्ञ ने उन्हें ठुकरा दिया था।
जब स्कूल में यह सच खुला, तो सब दंग रह गए। जिस लड़की को लोग एक सीधी-सादी, मासूम इंसान समझते थे, वह खुद ही इस साज़िश के पीछे थी।
कुछ ही दिनों बाद खबर आई—श्रुति दीदी ने स्कूल से ट्रांसफर ले लिया था। उनके पापा का ट्रांसफर नहीं हुआ था। बल्कि, स्कूल में उनका रहना मुश्किल हो गया था। लड़कियाँ, जो कभी उनके समर्थन में थीं, अब उन्हें घृणा से देख रही थीं।
"कैसी लड़की निकली ये!"
"बेचारे सर्वज्ञ के साथ इतना गलत हुआ!"
सर्वज्ञ को एक अजीब-सा खालीपन महसूस हुआ। वह जीत गया था, लेकिन यह जीत उसे खुशी नहीं दे रही थी।
"सब कितनी आसानी से बदल जाते हैं…"
लोग जो कल उसे गलत समझ रहे थे, आज उसकी तारीफ करने लगे थे। लेकिन सर्वज्ञ जानता था—अगर सबूत न होते, तो शायद वह हमेशा दोषी ही बना रहता।
क्रमशः
सर्वज्ञ धीरे-धीरे स्कूल के गेट तक पहुँचा। उसके दिमाग में बस धरा की बातें घूम रही थीं।
"गुंडागर्दी करते हो..."
"लड़कियों के साथ प्रैंक करते हो..."
"मासूम बनने का नाटक करते हो..."
उसने हल्की मुस्कान के साथ खुद से कहा, "तो मैं इतना बुरा हूँ?"
उसी समय, स्कूल के गेट में घुसते ही श्रीदम और मंगल उसकी ओर बढ़े।
सर्वज्ञ चुपचाप खड़ा रहा। उसके कानों में श्रीदम और मंगल की बातें तो पड़ रही थीं, लेकिन उसका दिमाग अब भी धरा की कही बातों में उलझा हुआ था। उसने कभी नहीं सोचा था कि कोई उसे इस तरह देखेगा... इस तरह जज करेगा...
"ओए! कहाँ खो गया? जल्दी चल, नहीं तो सर चिल्लाएँगे!" श्रीदम ने उसके कंधे पर हल्का धक्का दिया।
सर्वज्ञ ने एक लंबी साँस ली, अपनी उलझनों को झटकने की कोशिश की और बेमन से बैग उतारकर एक तरफ रखा।
"चलो।" उसने बस इतना कहा और आगे बढ़ गया।
श्रीदम और मंगल एक-दूसरे को देखकर थोड़े हैरान हुए। सर्वज्ञ, जो हमेशा मजाक करता था, टीचर्स से भी हंसी-ठिठोली करने का कोई मौका नहीं छोड़ता था, वह आज इतना चुप क्यों था?
फिजिक्स लैब में—
सर पहले से ही लैब में मौजूद थे। क्लास के अंदर आते ही उन्होंने कहा, "आज हम वेक्टर डायनेमिक्स पर एक्सपेरिमेंट करेंगे। सर्वज्ञ, तुम स्टार्ट करोगे।"
सर्वज्ञ ने हल्का सा सिर हिलाया और चुपचाप आगे बढ़ गया। आज उसमें वह जोश नहीं था जो हमेशा रहता था।
वह सीधे अपरेटस टेबल पर गया, जहाँ "Inclined Plane with Pulley System" रखा था।
क्लास में सब हैरान थे—आज सर्वज्ञ ने कोई मजाक नहीं किया, कोई फनी कमेंट नहीं मारा। वह बस चुपचाप अपना काम कर रहा था, जैसे कोई और ही इंसान हो।
मंगल ने धीरे से श्रीदम के कान में फुसफुसाया, "भाई, लगता है सच में कुछ गड़बड़ है।"
श्रीदम ने सिर हिलाया, "ये नटखट महाराज इतना शांत... मतलब मामला सीरियस है।"
"तो आज हम क्या कर रहे हैं?" सर ने पूछा।
सर्वज्ञ ने हल्की आवाज़ में कहा, "सर, आज हम Newton’s Second Law को वेक्टर फॉर्म में स्टडी करेंगे, जहाँ एक ब्लॉक को इन्क्लाइंड प्लेन पर रखा जाएगा और दूसरे ब्लॉक से एक पुली के जरिए कनेक्ट किया जाएगा।"
सर ने सिर हिलाया, "ठीक, एक्सपेरिमेंट स्टार्ट करो।"
श्रीदम धीरे से मंगल के कान में फुसफुसाया, "भाई, लगता है फिजिक्स ही इसका पहला प्यार है। देख कैसे बिल्कुल टीचर बनके बोल रहा है!"
मंगल हल्का मुस्कुराया, "शायद आज इसे कुछ ज्यादा ही सोचने को मिल गया।"
सर ने नोटिस किया—
"सर्वज्ञ, आज तुम बहुत शांत हो। कोई मज़ाक, कोई फनी कमेंट नहीं?"
सर्वज्ञ ने हल्की मुस्कान दी, लेकिन वह वैसी नहीं थी जो हमेशा उसकी आँखों में चमक लाती थी।
"सर, आज बस मन नहीं है।"
पूरी क्लास चुप हो गई।
सर ने हल्के स्वर में कहा, "अच्छा, आज का एक्सपेरिमेंट अच्छा हुआ। बाकियों को भी ग्रुप्स में इसे करना है।"
सर्वज्ञ चुपचाप बैठ गया, लेकिन उसके मन में अभी भी एक सवाल था—"क्या मैं सच में वैसा हूँ, जैसा लोग मुझे समझते हैं?"
स्कूल की छुट्टी हो चुकी थी, लेकिन सर्वज्ञ ने घर जाने की बजाय पार्क की ओर रुख किया। वह अपने अंदर की उलझनों को शांत करने के लिए किसी शांत जगह की तलाश में था, और यह पार्क ही उसकी सबसे पसंदीदा जगह थी।
पार्क के कोने में जाकर वह एक बेंच पर बैठ गया और अपने बैग से बिस्कुट निकाले। वहाँ पहले से कुछ आवारा कुत्ते घूम रहे थे। जैसे ही उसने बिस्कुट निकाले, कुत्ते उसकी ओर दौड़ पड़े।
सर्वज्ञ हल्के से मुस्कुराया। "आओ, आओ, तुम्हारे लिए ही लाया हूँ!"
उसने पहला बिस्कुट फेंका, और एक कुत्ते ने झपटकर पकड़ लिया। दूसरा बिस्कुट फेंका, और दूसरा कुत्ता उस पर टूट पड़ा। इस तरह वह उन्हें खिलाता रहा।
थोड़ी देर बाद, जब कुत्ते उसके पास आकर बैठ गए, उसने धीरे से कहा, "तुम्हें पता है, पहली बार मुझे बुरा लग रहा है..."
कुत्ते उसे टकटकी लगाकर देखने लगे, जैसे वह उसकी बात समझ रहे हों।
सर्वज्ञ हँस दिया, "जानता हूँ, मैं शरारती हूँ... बदमाश भी हूँ... लेकिन क्या मैं सच में इतना बुरा हूँ?"
उसने थोड़ी देर रुककर एक गहरी साँस ली। "अभी दो ही दिन हुए हैं ठाकुराइन से मिले... वह तो भोली-सी हैं... उनकी गलतफहमी जायज़ है। पर क्या बाकियों ने भी मुझे ऐसे ही देखा?"
वह चुप हो गया। एक कुत्ता उसके घुटनों पर पंजा रखकर उसकी ओर देखने लगा, मानो उसे दिलासा दे रहा हो।
सर्वज्ञ हल्का मुस्कुराया, "कम से कम तुम लोग बिना जज किए प्यार तो देते हो..."
सर्वज्ञ ने कुत्ते के सिर पर हल्की थपकी दी और दूर कहीं अनजानी दिशा में देखने लगा। मन में अजीब-सी हलचल थी, जो पहले कभी महसूस नहीं हुई थी।
"बाकी दुनिया क्या सोचती है, मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता..." वह बुदबुदाया। "लेकिन ठाकुराइन क्या सोचती हैं, यह फर्क पड़ रहा है... क्यों?"
उसने खुद से सवाल किया, लेकिन जवाब किसी कोने में छुपा बैठा था।
"मुझे कोई फर्क क्यों पड़ रहा है?"
उसकी उंगलियाँ अनायास ही घास पर लकीरें खींचने लगीं। पार्क में ठंडी हवा बह रही थी, लेकिन उसके भीतर सवालों की गर्मी बढ़ती जा रही थी।
तभी एक कुत्ता हल्की आवाज में भौंका, मानो कुछ कहना चाहता हो। सर्वज्ञ मुस्कुरा दिया, "क्या तुम जानते हो इसका जवाब?"
लेकिन कुत्ता तो बस उसकी ओर टकटकी लगाए बैठा रहा।
फर्क तो पड़ रहा था... और जब उसे पता चला कि धरा उसी हॉस्टल में रह रही है, जो उसके घर के सामने है, तब... हृदय अचानक तेज़ धड़क उठा था।
"जानता हूँ, वह मुझसे दो साल बड़ी है..."
पर फिर भी... पर फिर भी, यह अजीब-सा एहसास दिल से जा ही नहीं रहा था।
सर्वज्ञ ने सिर झटका, जैसे खुद को इस उलझन से बाहर निकालने की कोशिश कर रहा हो। लेकिन जितना वह इस एहसास से भागना चाहता, उतना ही यह उसकी सोच पर हावी होता जा रहा था।
उसने गहरी साँस ली और सिर उठाकर आकाश की ओर देखा। शाम का हल्का सुनहरा रंग अब नीली स्याही में घुलने लगा था।
"ठाकुराइन... वह मुझसे बड़ी है, समझदार है, दुनिया देखी है... और मैं?" उसने खुद से कहा। "मैं तो बस... एक शरारती लड़का हूँ, जो किसी को भी परेशान करता रहता है। फिर यह क्यों लग रहा है कि उनकी नज़रों में मैं कुछ और बनना चाहता हूँ?"
वह खुद को समझाने की कोशिश कर रहा था, लेकिन दिल था कि मानने को तैयार ही नहीं था।
जब पहली बार उन्हें रोते हुए देखा था, तब...
तब कुछ अजीब सा महसूस हुआ था। जैसे किसी ने दिल के भीतर हलचल मचा दी हो। जैसे कोई अनदेखा, अनकहा रिश्ता जाग गया हो।
क्यों उनकी आँखों में आँसू देखना मुझे अच्छा नहीं लगा?
क्यों ऐसा लगा कि मैं उन्हें बरसों से जानता हूँ, जबकि असल में हम अजनबी थे?
क्यों लगा कि मैं हमेशा से अधूरा था, और उन्हें देखकर जैसे कुछ पूरा हो गया हो?
सर्वज्ञ ने धीरे से आँखें बंद कीं। ठंडी हवा चेहरे से टकरा रही थी, लेकिन भीतर कहीं हल्की गर्मी सी उठ रही थी—एक एहसास, जो नाम नहीं पा रहा था।
अगर यह सब बस एक पल की बात थी, तो फिर यह एहसास इतनी गहराई तक क्यों उतर गया?
क्यों उनकी हँसी अब मेरी ज़रूरत सी लगने लगी?
क्यों ऐसा लगता कि अगर वह फिर कभी रोईं, तो इस बार मैं बस दूर खड़ा नहीं रह सकता...?
सर्वज्ञ ने लंबी साँस ली। दिल के अंदर कुछ था जो उसे चैन नहीं लेने दे रहा था।
अगर यह बस एक आम एहसास होता, तो वह कब का इसे पीछे छोड़ चुका होता। लेकिन नहीं... यह तो जैसे हर बीते लम्हे के साथ और गहराता जा रहा था।
उसकी उंगलियाँ घास पर लकीरें बनाती रहीं, पर दिमाग कहीं और उलझा था।
"मुझे फर्क नहीं पड़ता..." उसने खुद से कहा। लेकिन यह झूठ था। फर्क पड़ रहा था... बहुत ज़्यादा।
"अगर वह फिर कभी रोईं, तो क्या मैं खुद को रोक पाऊँगा?"
इस सवाल ने उसे झकझोर दिया। एक अजीब सी बेचैनी उसे घेरने लगी।
उसी समय, धरा कॉलेज से वापस आ रही थी। जब उसकी नज़र पार्क की बेंच पर पड़ी, तो उसने सर्वज्ञ को देखा।
सर्वज्ञ की पीठ उसकी तरफ थी, लेकिन आधा चेहरा हल्का झुका हुआ था। वह कुत्तों से बात कर रहा था, हँस रहा था, और कभी-कभी खोया-सा लग रहा था।
धरा ठिठक गई। मन में सवाल उठा, लेकिन जवाब खोजना ज़रूरी नहीं लगा।
वह वहाँ से चली गई, धीमे-धीमे कदमों से, हॉस्टल की तरफ।
सर्वज्ञ को पता भी नहीं था कि कोई उसे देख रहा था। लेकिन उसे अचानक दिल के अंदर एक हलचल सी महसूस हुई। जैसे कोई बहुत पास से गुज़रा हो।
उसकी धड़कन अनायास तेज़ हो गई। वह पलटा। धरा जा रही थी। उसकी पीठ दिख रही थी।
सर्वज्ञ बस उसे देखता रह गया। कोई बातचीत नहीं हुई। धरा ने सिर्फ़ सर्वज्ञ को कुत्तों से बात करते हुए देखा। और सर्वज्ञ ने सिर्फ़ धरा को जाते हुए देखा। लेकिन उस न देखने में भी बहुत कुछ था।
सर्वज्ञ धीरे-धीरे उठा। बिस्कुट का आखिरी टुकड़ा कुत्तों की ओर फेंका और बैग कंधे पर डालकर वहीं खड़ा रहा।
एक पल को सोचा—क्या बुलाऊँ? लेकिन नहीं। बस चुपचाप खड़ा रहा, जब तक धरा पूरी तरह उसकी नज़रों से ओझल नहीं हो गई।
फिर उसने हल्की साँस ली।
"फर्क नहीं पड़ता..."
पर पड़ा था। बहुत ज़्यादा।
रात को.....
सर्वज्ञ अपने कमरे में था। खिड़की खुली थी, और बाहर से ठंडी हवा अंदर आ रही थी। लेकिन उसके भीतर अजीब-सी गर्मी थी—सोचों की, उलझनों की, उन एहसासों की, जिनका जवाब उसे खुद नहीं पता था।
टेबल पर किताबें खुली थीं, लेकिन पन्ने वैसे ही पड़े थे जैसे दो घंटे पहले थे। उसकी नज़रें दीवार पर टिकी थीं, पर दिमाग कहीं और भटक रहा था।
तभी दरवाज़ा हल्के से खुला।
"सांवरे..."
यामिनी जी की आवाज़ सुनते ही वह थोड़ा सीधा हुआ।
"ले, तेरी मनपसंद खीर बनाई है।"
उन्होंने एक कटोरी उसकी टेबल पर रख दी और उसके सिर पर हल्की चपत लगाई।
"अब यह मत कहना कि भूख नहीं है।"
सर्वज्ञ ने धीरे से मुस्कुराने की कोशिश की, लेकिन शायद वह मुस्कान उतनी असली नहीं थी।
यामिनी जी ने ध्यान दिया।
"क्या हुआ? आज तेरा मस्ती वाला मूड नहीं लग रहा?"
सर्वज्ञ कुछ देर चुप रहा, फिर हल्के से कहा—
"बस... ऐसे ही।"
यामिनी जी ने उसे ध्यान से देखा। माँ थी, उसके चेहरे की हल्की शिकन भी पढ़ सकती थीं।
"बता न, क्या हुआ?"
सर्वज्ञ ने सिर झुका लिया।
"कभी-कभी लगता है, मैं खुद को भी ठीक से नहीं समझता। लोग मुझे जैसे देखते हैं, क्या मैं सच में वैसा हूँ?"
यामिनी जी मुस्कुराईं।
"मतलब?"
"मतलब... यह कि..." वह रुक गया। क्या कहे? धरा की बात करे? अपने अंदर की बेचैनी की बात करे?
"कुछ नहीं मम्मी। बस ऐसे ही बकवास सोच आ रही थी।"
यामिनी जी ने प्यार से सर्वज्ञ के बालों में उंगलियाँ फेरीं और मुस्कुराईं।
"सांवरे, तू मेरा नटखट बेटा है... और तुझे ऐसे चुपचाप बैठा देखूँ, तो मुझे अच्छा नहीं लगता।"
सर्वज्ञ ने हल्की मुस्कान दी, लेकिन उसकी आँखों में अभी भी कुछ उलझनें थीं।
यामिनी जी ने उसकी ठोड़ी को हल्के से उठाया।
"मुझे तेरा वही बचपन वाला चंचलपन चाहिए... जो बिना किसी टेंशन के बस मस्ती करता था।"
सर्वज्ञ हँसते हुए बोला, "ताकि आप झाड़ू लेकर मेरी पिटाई कर सकें, है ना?"
यामिनी जी ने भौंहें चढ़ाईं और नकली गुस्से से बोलीं, "हाँ! और अगर ज़्यादा मज़ाक किया, तो इस बार झाड़ू नहीं, बेलन चलेगा!"
सर्वज्ञ खिलखिलाकर हँस पड़ा, "ओह मम्मी! आप तो बहुत खतरनाक होती जा रही हैं। बेलन तो आपने बचपन में भी नहीं उठाया था!"
यामिनी जी ने मुस्कुरा कर उसके सिर पर हल्की चपत लगाई, "क्योंकि बचपन में तेरा मासूम चेहरा देखकर दया आ जाती थी। अब बड़ा हो गया है, तो तेरी चालाकी पकड़ में आने लगी है!"
सर्वज्ञ ने कटोरी उठाई और खीर का पहला निवाला लिया।
"उफ्फ... मम्मी! इतनी टेस्टी खीर बनाना कहाँ से सीखा आपने?"
यामिनी जी ने मुस्कुराते हुए कहा, "तेरे पापा को खुश रखने के लिए सीखी थी।"
सर्वज्ञ ने फटाक से कहा, "तो इसका मतलब, अगर मुझे भी किसी को खुश रखना होगा, तो मुझे भी सीखनी पड़ेगी?"
यामिनी जी ने कहा, "हूँ... यह तो तब सोचेंगे जब कोई 'खास' आएगी तेरे जीवन में!"
सर्वज्ञ के हाथ अचानक ठहर गए। उसकी नज़रें कटोरी पर टिक गईं।
यामिनी जी ने ध्यान से देखा।
"क्या हुआ? कहीं सच में कोई है तो नहीं?"
सर्वज्ञ ने जल्दी से सिर हिला दिया, "अरे नहीं मम्मी! आप भी बस..."
पर उसके चेहरे पर हल्की लाली आ गई थी।
यामिनी जी ने मुस्कुराते हुए कहा, "अच्छा, अच्छा! मैं नहीं पूछ रही। पर जब भी मन करे, बता देना। वैसे भी, मैं तुझे झाड़ू से नहीं, प्यार से ही समझाऊँगी!"
सर्वज्ञ मुस्कुरा दिया। लेकिन दिल के किसी कोने में धरा का चेहरा फिर से उभर आया...
क्रमशः
रात के साढ़े दस बज रहे थे। हॉस्टल के कमरे में हल्की पीली रोशनी थी। धरा अपने नोट्स के पन्नों में उलझी हुई थी, सिर झुकाए कुछ लिखने की कोशिश कर रही थी। लेकिन उसका ध्यान बार-बार भटक रहा था। पेन कई बार हवा में ही ठहर जाता, जैसे दिमाग कोई और ख्यालों में उलझा हुआ हो।
उधर, रिया, काजल और प्रिया धरा के बेड पर आराम से बैठी थीं।
"यार, सर्वज्ञ आज बहुत अजीब लग रहा था…" काजल ने कहा, अपने तकिए पर लुढ़कते हुए।
धरा ने हल्की भौंहें चढ़ाईं, लेकिन उसने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी।
रिया ने सिर टेढ़ा करके कहा, "सच कहूँ, मुझे तो अजीब सा लग रहा है। मतलब, जो लड़का हमेशा जोक मारता है, बेवकूफी करता है, आज एक शब्द भी बोले बिना चला गया?"
प्रिया ने आँखें गोल कर लीं, "हाँ! ये तो सोचने वाली बात है। सर्वज्ञ और चुप? नामुमकिन!"
धरा ने अब ध्यान दिया, लेकिन वह चुप ही रही।
काजल ने लंबी साँस ली, "हमने मस्ती-मज़ाक में जो भी कहा, वो शायद कुछ ज़्यादा हो गया। पता नहीं, उसे सच में बुरा लग गया क्या?"
"बुरा?" धरा ने धीरे से कहा, अब पहली बार बातचीत में रुचि लेते हुए।
रिया ने कंधे उचका दिए, "अरे हाँ! पहली बार हमने उसे बिना किसी हंसी-मज़ाक के आइना दिखाया है। शायद वो इतना बुरा इंसान नहीं है, जितना हमने उसे बना दिया?"
धरा के हाथ में पकड़ा पेन हल्का सा रुका।
धरा अब पूरी तरह से उनकी बातों में खो गई थी।
"तो… तो क्या वो बुरा इंसान नहीं है?" उसने मासूमियत से पूछा।
रिया ने मुस्कुराते हुए कहा, "हमने कभी ठीक से जाना ही नहीं। हमें जो सुनाया गया, बस वही मान लिया।"
प्रिया ने आँखें घुमाईं, "और सबसे बड़ी बात, धरा ने भी मान लिया!"
धरा ने चौककर देखा, "मैंने? मैंने क्या किया?"
काजल ने मुस्कुरा कर कहा, "अरे आज तू उससे बिल्कुल भी अच्छे से बात नहीं कर रही थी। तूने तो उसकी पूरी इज्जत की धज्जियाँ उड़ा दीं!"
धरा का चेहरा हल्का सफेद पड़ गया। उसने सच में कुछ ज़्यादा तो नहीं कह दिया?
वह बहुत भोली थी… और शायद उसे समझ ही नहीं आया था कि उसकी किसी बात से कोई आहत भी हो सकता है।
"पर… मैंने तो बस वही कहा, जो तुम लोगों ने मुझे बताया था।" उसकी आवाज़ धीमी पड़ गई।
रिया ने उसकी मासूमियत देखी और हल्के से मुस्कुरा दी, "और क्या पता, जो बताया गया था, वो सच नहीं था?"
धरा चुप हो गई। उसके अंदर हल्की सी बेचैनी होने लगी।
क्या मैंने सच में कुछ गलत कह दिया?
कमरे में हल्की खामोशी छा गई थी। तीनों सहेलियाँ धरा को देख रही थीं, जिसका मन अब पढ़ाई में नहीं लग रहा था।
उसने धीरे से पेन नीचे रखा और खिड़की की ओर देखा…
कहीं, किसी और कमरे में, सर्वज्ञ भी शायद खामोश बैठा होगा, पहली बार अपनी ही दुनिया से अलग-थलग महसूस कर रहा होगा।
धरा की आँखों में उलझन थी। वह एक पल के लिए अपनी सहेलियों को देखती और अगले ही पल खिड़की से बाहर झाँकने लगती, जैसे जवाब ढूँढ रही हो। उसके मन में हलचल मच गई थी।
"लेकिन… तुम लोगों ने ही तो कल कहा था कि वो बहुत बेकार इंसान है, बदमाश है… पूरा मोहल्ला उससे परेशान है… झूठे ड्रामे करता है, गुंडागर्दी करता है… लड़कियों के साथ प्रैंक करता है और फिर मासूम बनने का नाटक भी करता है।"
उसकी आवाज़ धीमी हो गई, मानो अपने ही शब्दों पर भरोसा नहीं कर पा रही थी।
रिया, काजल और प्रिया एक-दूसरे को देखने लगीं। काजल ने होंठ दबाए और तकिए को कसकर पकड़ लिया।
"यार, हमने जो सुना था, वही बता दिया… लेकिन हममें से किसी ने भी कभी खुद ये सब देखा नहीं।" रिया ने धीरे से कहा।
"मतलब?" धरा ने आँखें चौड़ी कर लीं।
"मतलब ये कि…" प्रिया ने लंबी साँस ली, "हमने बस अफवाहें सुनीं, उन्हें सच मान लिया और तुझे भी वही बताया।"
धरा को ऐसा लगा जैसे उसके पेट में कोई भारी चीज़ रख दी गई हो। "तो… क्या वो सच में ऐसा नहीं है?"
"हमें नहीं पता।" काजल ने सिर हिलाया, "शायद वो सच में बुरा हो, शायद ना हो। पर आज उसकी आँखों में जो था… वो बुराई नहीं थी, धरा।"
धरा के दिमाग में आज शाम की बातें घूम गईं—जब उसने सर्वज्ञ से बात की थी, या यूँ कहें, बिल्कुल भी अच्छे से बात नहीं की थी।
"हम तो बस उस नटखट को मजा चखाना चाहते थे…" रिया ने धीरे से कहा।
"हमने देखा था कि कल तुम दोनों साथ में जा रहे थे। हमने सोचा कि तुमसे उस नटखट ने दोस्ती कर ली है, तो तुम्हारा गुस्सा देखकर वो थोड़ा ठीक हो जाएगा…"
धरा ने एक पल के लिए सोचा। कल...?
कल जब वह कॉलेज जा रही थी, तो सर्वज्ञ ने उसे साइकिल से छोड़ने की जिद की थी। और जब धरा ने मना किया तो वह खुद पैदल चलने लगा धरा के साथ और वह पूरे रास्ते हँसी-मज़ाक करता रहा था। लेकिन उसमें कोई बुरी नीयत नहीं थी।
"पर… कल तो उसने कुछ भी गलत नहीं किया था।" धरा ने उलझे हुए स्वर में कहा।
"यही तो!" प्रिया ने सिर झटकते हुए कहा। "हमने तो बस सुना था कि वो बहुत बदमाश है, इसलिए हमें लगा कि वो तुझे परेशान कर रहा होगा। हमने तुझे उसके खिलाफ भड़काया, और तेरा गुस्सा देखकर वो चौंक गया।"
"तुम लोगों ने मुझे उसके खिलाफ भड़काया?" धरा की आँखों में हल्का सा अविश्वास था।
"यार, बुरा मत मानना, लेकिन हाँ… थोड़ी मस्ती करने के लिए किया था।" काजल ने शर्मिंदा होते हुए कहा।
धरा चुप हो गई। क्या उसने बिना सोचे-समझे सर्वज्ञ के साथ गलत कर दिया?
सर्वज्ञ… वो लड़का जो हमेशा मजाक करता था, जो कभी गंभीर नहीं दिखता था… क्या आज पहली बार वह आहत हुआ था?
उसकी आँखों में जो हल्की उदासी थी, वो… क्या उसकी वजह धरा थी?
उसका मन भारी होने लगा।
"तुझे सच में बुरा लग रहा है?" रिया ने उसकी ओर देखा।
धरा ने धीरे से सिर हिला दिया। हाँ, लग रहा है… और शायद बहुत ज्यादा।
कमरे में एक अजीब सा सन्नाटा छा गया। खिड़की से ठंडी हवा अंदर आ रही थी, और धरा का मन बेचैनी से भरता जा रहा था।
काजल ने हँसते हुए कहा, "अरे ओये, इतना मत सोच! वैसे भी, वो बच्चा है, 11वीं क्लास का… भूल जाएगा! लेकिन हम तो उससे बड़े हैं न, हमें क्या फर्क पड़ता है?"
धरा ने धीमे से उसकी तरफ देखा, लेकिन उसके चेहरे पर कोई मजाकिया भाव नहीं था।
"फर्क पड़ता है, काजल," उसकी आवाज़ हल्की लेकिन दृढ़ थी। "अगर हम किसी को बिना जाने-समझे गलत ठहराएँ, और वह अंदर ही अंदर आहत हो जाए, तो क्या वह हमारी ज़िम्मेदारी नहीं बनती?"
रिया ने लंबी साँस ली, "धरा, हमें लगा था कि यह बस एक छोटी-सी मस्ती थी। पर शायद हमने कुछ ज़्यादा कर दिया…"
काजल ने होंठ काटे, अब उसकी हंसी भी हल्की पड़ गई थी। "पर अब क्या कर सकते हैं?"
धरा ने चुपचाप खिड़की से बाहर देखा। रात की ठंडी हवा हल्के से उसके चेहरे को छू रही थी।
सुबह 8 बज रहे थे।
सर्वज्ञ अपनी छत पर खड़ा था, हाथ में गुलेल लिए। ठंडी हवा बह रही थी, लेकिन उसकी नीयत कुछ गर्मजोशी भरी शरारत करने की थी।
सामने गर्ल्स हॉस्टल की छत पर कपड़े सूख रहे थे—रंग-बिरंगे दुपट्टे, कुर्ते, सलवार…
उसकी नज़र एकदम सीधे धरा के गुलाबी कुर्ते पर पड़ी।
वह मुस्कुराया, लेकिन धरा के कपड़े छोड़ दिए।
"नहीं, ठकुराइन के कपड़े नहीं…" उसने खुद से कहा और बाकी लड़कियों के कपड़ों पर निशाना साध लिया—
उसकी नजरें प्रिया दीदी, रिया दीदी और काजल दीदी के कपड़ों पर गईं—यही तीनों तो थीं जो धरा को उसके खिलाफ भड़का रही थीं!
"आज मैं इनकी बोलती बंद करता हूँ!"
"प्रिया दीदी… रिया दीदी… काजल दीदी… तुम्हारी शामत आई!"
उसने गुलेल में एक कंचा रखा, आँखें मीचीं और पिनाक!
पहला निशाना—रिया का नीला दुपट्टा—सीधा उड़कर नीचे जा गिरा!
दूसरा निशाना—काजल की सफेद चुन्नी—छत की दीवार से लटक गई!
तीसरा निशाना—प्रिया की स्कर्ट—हवा में उछलकर छत के किनारे अटक गई!
सर्वज्ञ ने तुरंत गुलेल अपने जेब में डाली और तुरंत नीचे भागा।
किचन में—
"मम्मी, जल्दी से दूध दो, मुझे देर हो रही है!"
मम्मी उसे घूरते हुए बोलीं, "रात को तो दूध पीता नहीं, सुबह दौड़कर मांगता है!"
सर्वज्ञ ने प्यारा-सा चेहरा बनाया, "मम्मी प्लीज़!"
मम्मी ने झट से ग्लास थमाया, और बोली, "वैसे छत पर क्या कर रहा था सुबह-सुबह?"
सर्वज्ञ ने तुरंत जवाब दिया, "बस ऐसे ही, हवा खा रहा था!"
मम्मी ने शक भरी नज़रों से उसे देखा, "हवा खाने गया था या कुछ उड़ाने?"
सर्वज्ञ ने तुरंत भोला-सा चेहरा बना लिया, "अरे मम्मी! मैं ऐसा थोड़ी न हूँ!"
"बिलकुल वैसा ही है!" मम्मी ने उसके सिर पर हल्की चपत लगाई और गर्म दूध का गिलास थमा दिया।
इसी बीच…
गर्ल्स हॉस्टल की छत पर हंगामा मच चुका था!
"मेरा दुपट्टा कहाँ गया?"
"अरे! मेरी चुन्नी दीवार से लटक रही है!"
"ओहो! मेरी स्कर्ट छत के किनारे फँस गई!"
तीनों लड़कियाँ इधर-उधर भाग रही थीं, कोई नीचे झाँक रही थी, कोई छत पर चढ़ने की कोशिश कर रही थी।
सर्वज्ञ ने दूध का ग्लास हाथ में लिया और तेजी से गटागट पी गया।
"अब स्कूल भाग लो, नहीं तो कहीं से कोई पीटने न आ जाए!"
लेकिन जैसे ही उसने मुड़कर बैग उठाया—
धरा दरवाजे पर खड़ी थी!
सर्वज्ञ के हाथ वहीं रुक गए।
धरा ने आँखें छोटी कर लीं और घूरते हुए बोली—
"सांवरे मुझे तुमसे बात करनी है!"
सर्वज्ञ तुरंत भोलेपन का ओवरडोज़ देते हुए बोला—
"अरे ठकुराइन! सुबह-सुबह इतनी गुस्से में क्यों हो? कुछ खाया-पिया कि नहीं?"
धरा उसकी बातों में नहीं आई।
"छत पर क्या कर रहे थे?"
सर्वज्ञ झट से बोला—
"हवा खा रहा था!"
धरा ने हाथ बाँधते हुए पूछा—
"और गुलेल?"
सर्वज्ञ ने मासूमियत से आँखें फैलाईं—
"गुलेल? कौन सी गुलेल? ठकुराइन, आप तो ऐसे बात कर रही हो जैसे मैं कोई शरारती लड़का हूँ!"
धरा ने जेब की ओर इशारा किया—
"और ये?"
सर्वज्ञ ने जैसे ही नीचे देखा, उसकी जेब से गुलेल का हैंडल झाँक रहा था!
"फँस गए!"
मम्मी किचन से बाहर आईं…
"बेटा, क्या हुआ?" मम्मी ने पूछा, फिर धरा को देखकर रुकीं। "अरे, तुम नई हो क्या? कभी देखा नहीं तुम्हें!"
सर्वज्ञ को जैसे मौका मिल गया—
"हाँ मम्मी, ये बिल्कुल नई-नवेली हैं! सामने वाले हॉस्टल में आई हैं कुछ दिन पहले ही!"
धरा ने घूरा, लेकिन मम्मी की मौजूदगी में कुछ नहीं बोली।
मम्मी प्यार से बोलीं, "अच्छा-अच्छा, बहुत बढ़िया! बेटा, लड़की पहली बार घर आई है, ऐसे खड़े मत रहो, बैठने को तो कहो!"
सर्वज्ञ के चेहरे का रंग उड़ा—"अरे नहीं मम्मी, इन्हें बैठने का कोई शौक नहीं, ये तो मुझे डाँटने आई हैं!"
मम्मी ने हैरानी से धरा की ओर देखा—"डाँटने?"
धरा ने झट से हाथ जोड़ लिए—"न-नहीं आंटी, ऐसी कोई बात नहीं!"
सर्वज्ञ फौरन मुँह बनाते हुए बोला—"देखा मम्मी? बिना बात बदनाम कर रही हैं मुझे!"
मम्मी ने हल्का-सा मुस्कुराते हुए कहा, "अच्छा ठीक है, मैं पूजा करके आती हूँ, तब तक तुम लोग बात कर लो!"
सर्वज्ञ के चेहरे पर पसीना आ गया!
"अब ये गई मम्मी, और अब आएगी मेरी शामत!"
मम्मी के जाते ही धरा ने तुरंत हाथ कमर पर रखा और आँखें तरेर लीं—
"अब बोलो, छत पर क्या कर रहे थे?"
सर्वज्ञ ने गला साफ किया—"हवा खा रहा था!"
"गुलेल से?"
सर्वज्ञ ने मासूम चेहरा बनाते हुए जवाब दिया—"हवा बड़ी तेज थी, तो मैंने सोचा, गुलेल से बैलेंस बना लूँ!"
धरा ने भौंहें चढ़ाईं—"सांवरे, तुम्हारी सफाई सुनकर तो मुझे चक्कर आ रहे हैं!"
सर्वज्ञ मुस्कुराया—"ओह, तो इसका मतलब आपको मेरी चिंता है?"
धरा झुंझला गई—"चिंता नहीं है, गुस्सा आ रहा है!"
सर्वज्ञ ने अपनी जेब से गुलेल निकाली और बोला—"देखो ठकुराइन, मेरी नीयत खराब नहीं थी, मैंने आपके कपड़ों को हाथ भी नहीं लगाया!"
धरा ने आँखें छोटी कर लीं—"और बाकी लड़कियों के?"
सर्वज्ञ ने तुरंत जवाब दिया—"वो सब आपको मेरे खिलाफ भड़काती हैं! इसलिए उन्हें हल्का-फुल्का सबक सिखाना जरूरी था!"
धरा ने माथे पर हाथ मारा—"हे भगवान! तुमसे बहस करना ही बेकार है!"
सर्वज्ञ ने मुस्कुराते हुए हाथ जोड़ लिए—"तो फिर बहस मत करो, बस प्यार से देखो!"
धरा ने उसे जोर से घूरा, और फिर मुड़कर जाने लगी।
जाते-जाते बोली—"वैसे सांवरे! कल के लिए सॉरी…"
सर्वज्ञ चौंक गया।
उसने तेजी से आगे बढ़कर धरा का रास्ता रोक लिया—
"रुको रुको रुको! ठकुराइन, आपने अभी क्या कहा?"
धरा ने आँखें घुमाई—"सुना नहीं? कल के लिए सॉरी!"
सर्वज्ञ ने गला खंखारकर कहा—"तो मतलब अब हम दोस्त बन सकते हैं?"
धरा ने भौंहें चढ़ाईं—"बिलकुल नहीं!"
क्रमशः
"सुनिए ठकुराइन, आज तो साथ चलेंगी न?"
धरा ने भौंहें चढ़ाकर उसे घूरा। "कहाँ?"
सर्वज्ञ ने सिर खुजाया और बड़े भोलेपन से बोला, "अरे, आपके कॉलेज और मेरे स्कूल का रास्ता तो एक ही है न... तो साथ में..."
धरा ने कुछ नहीं कहा। बिना कोई जवाब दिए, वह चुपचाप अपने हॉस्टल के गेट की तरफ बढ़ गई और बैग उठा लिया।
सर्वज्ञ ने भौंहें सिकोड़ी। "अरे ठकुराइन..."
धरा ने हल्के से सिर घुमाया और आंखों के इशारे से उसे पीछे आने का इशारा किया। सर्वज्ञ का चेहरा खिल उठा!
अब दोनों एक ही सड़क पर थे, लेकिन धरा आगे और सर्वज्ञ दो कदम पीछे।
धरा ने एक हल्की नज़र डाली, "पीछे-पीछे क्यों आ रहे हो?"
सर्वज्ञ ने बड़ी मासूमियत से जवाब दिया, "मैं आपका बॉडीगार्ड हूँ ठकुराइन!"
धरा रुकी, सर्वज्ञ भी रुक गया।
धरा ने आँखें छोटी करते हुए घूरा, "सांवरे, तुम्हें अगर इतना ही शौक है मेरे साथ चलने का, तो बराबर चलो!"
सर्वज्ञ ने तुरंत लंबा डग भरा और उसके बराबर आ गया। अब वह एकदम धरा के साथ कदम से कदम मिलाकर चल रहा था।
सर्वज्ञ ने उत्सुकता से पूछा, "वैसे पहले आप कहाँ रहती थीं?"
धरा ने अपने दुपट्टे को सही करते हुए जवाब दिया, "पहले मैं केशव नगर के हॉस्टल में रहती थी।"
सर्वज्ञ ने भौंहें चढ़ाईं, "ओह! वो जो थोड़ा अंदर गली में है? अच्छा, फिर वहाँ से यहाँ कैसे आ गईं?"
धरा ने हल्की सांस ली और बोली, "वहाँ की वार्डन बहुत बेकार थी… एकदम हिटलर! हर छोटी-बड़ी चीज़ पर टोका-टाकी, बिना बात के डांटना, हॉस्टल में रहने वालों को कैदियों जैसा ट्रीट करना..."
सर्वज्ञ ने सहानुभूति भरी आँखों से देखा, "ओह, तो बहुत परेशान कर दिया था आपको?"
धरा ने सिर हिलाया, "हाँ, लेकिन फिर मेरी फ्रेंड काव्या की दीदी का फ्लैट तैयार हो गया, और काव्या वहाँ जाने वाली थी। तभी उसने मुझे इस गुलमोहर गर्ल्स हॉस्टल के बारे में बताया… तो मैं यहाँ आ गई।"
सर्वज्ञ ने आँखें फैलाईं, "मतलब, आपकी फ्रेंड आपको छोड़कर चली गई?"
धरा ने हल्की मुस्कान के साथ कहा, "ऐसा कुछ नहीं है, वो पास में ही रहती है। कभी भी मिलने जा सकती हूँ।"
सर्वज्ञ ने लंबी 'हम्म' की आवाज़ निकाली और फिर अपने स्टाइल में बोला—
"अच्छा किया ठकुराइन, क्योंकि आपकी फ्रेंड भले ही छोड़कर चली गई हो, लेकिन एक नया बॉडीगार्ड तो मिल ही गया आपको!"
धरा ने उसे घूरा, "मैंने कब कहा कि मुझे बॉडीगार्ड चाहिए?"
सर्वज्ञ ने कंधे उचकाए, "अब मैं तो आपकी सुरक्षा का ठेका ले ही चुका हूँ, आपको चाहिए या नहीं, इससे क्या फर्क पड़ता है?"
धरा ने हल्की झुंझलाहट में सिर हिलाया और फिर तेज़ कदमों से आगे बढ़ गई। लेकिन सर्वज्ञ भी पीछे हटने वालों में से नहीं था, वह फिर से कदम से कदम मिलाकर चलने लगा।
रास्ते में एक चाय की दुकान आई, जहाँ कुछ लड़के खड़े थे और आते-जाते लोगों पर फालतू कमेंट पास कर रहे थे। जैसे ही धरा वहाँ से गुज़री, उनमें से एक लड़का हल्के से मुस्कुराया और कुछ कहने के लिए मुँह खोला ही था कि—
"ऐ!"
सर्वज्ञ की आवाज़ गूँजी।
सर्वज्ञ ने बिना कुछ कहे ही लड़के की ओर ऐसी घूरती नज़र डाली कि वह तुरंत अपनी जगह से हट गया और बाकी के लड़के भी चुप हो गए।
धरा ने यह सब देखा लेकिन कुछ नहीं कहा। वह बस चुपचाप आगे बढ़ती रही।
कुछ देर बाद धरा का कॉलेज आ गया।
दोनों का रास्ता दो दिशाओं में बँटने वाला था, तब धरा ने हल्के से सिर घुमाया और धीरे से बोली—
"थैंक यू..."
सर्वज्ञ चौंक गया।
"किसलिए?"
धरा बिना कुछ बोले आगे बढ़ गई।
सर्वज्ञ भी मुस्कुराता हुआ अपने स्कूल की तरफ उलझते कूदते हुए जाने लगा।
धरा अपने कॉलेज के अंदर पहुँची ही थी कि अचानक एक लड़के से टकरा गई। लड़का झुंझलाते हुए बैलेंस बनाने की कोशिश करता हुआ, एक कदम पीछे हट गया।
धरा ने तुरंत माफी के लहजे में कहा, "सॉरी!" और अपना बैग संभालते हुए बिना रुके आगे बढ़ गई।
लड़का कुछ बोलने लगा, लेकिन धरा ने उसे बिल्कुल भी नोटिस नहीं किया। वह तो किसी और ही दुनिया में खोई हुई थी, जैसे हर बार की तरह, बस अपनी दुनिया में खोई हुई।
वह लड़का उसी की क्लास का था, मगर धरा कभी भी किसी पर ज्यादा ध्यान नहीं देती थी, खासकर ऐसे लोगों पर जिन्हें वह खुद अपने आसपास नहीं पाना चाहती थी। लड़का धीरे से बड़बड़ाया, "ये धरा भी, हमेशा अपनी दुनिया में ही खोई रहती है!"
लड़का मुँह बनाता हुआ चला गया, और धरा बिना किसी रोक-टोक के अपनी क्लास की तरफ बढ़ गई। जैसे ही वह क्लास में दाखिल हुई, उसकी नज़रें सीधी उस जगह पर पड़ीं जहाँ वह हमेशा बैठती थी। बाकी सभी छात्र धीरे-धीरे अपनी-अपनी जगहों पर आकर बैठने लगे थे, लेकिन धरा का ध्यान कहीं और ही था।
वह धीरे से अपनी सीट पर बैठी और अपने बैग से किताबें निकालने लगी। उसकी नज़रें किताबों पर नहीं, बल्कि उन ख्यालों पर थीं जो उसके दिमाग में इस वक्त चल रहे थे। कॉलेज की दिनचर्या के बीच भी उसे कहीं न कहीं वो सड़क, वो बातें और वो बातें याद आ रही थीं जो उसने सर्वज्ञ से की थीं।
शाम का समय था। सूरज हल्की-हल्की लालिमा बिखेर रहा था, और सुदर्शन मोहल्ले का बास्केटबॉल ग्राउंड शोर से गूंज रहा था। नारंगी पड़ती धूप के नीचे कुछ लड़के बास्केटबॉल खेल रहे थे, जिनमें से सबसे ज्यादा शोर मचा रहा था—सर्वज्ञ।
वह पूरे जोश में था, गेंद को हवा में उछालता, दो कदम पीछे हटता और फिर छलांग लगाकर बॉल को बास्केट में डालता।
"ओय होय! ये हुई ना बात!" उसने खेल-खेल में अपनी टी-शर्ट के कॉलर को खींचते हुए कहा, मानो खुद को ही शाबाशी दे रहा हो।
बास्केटबॉल कोर्ट पर लड़कों के ठहाके गूंज रहे थे।
सर्वज्ञ ने हँसते हुए बॉल को हवा में उछाला और घूमकर कैच किया।
और फिर, ठीक उसी वक्त…
"अरे, संभाल!"
किसी का पैर सामने आया… शायद गलती से…
और अगले ही पल—
सर्वज्ञ लड़खड़ा गया। घुटना ज़मीन से टकराया, और जैसे ही उसने खुद को सँभाला, एक तेज़ जलन महसूस हुई।
खून टपक रहा था।
सर्वज्ञ ने घुटने को देखा, फिर बेपरवाही से हँस पड़ा।
"अबे, घुटना छिल गया!" उसने खुद ही अपनी चोट को देखकर मुँह बनाया, जैसे छोटी-सी बात हो।
दोस्तों ने उसे उठाया, कोई सहारा देना चाहता था, लेकिन सर्वज्ञ हाथ हटा कर बोला—
"अरे यार, ये तो बस थोड़ी सी लगी है! कोई बड़ी बात नहीं!"
पर सच तो यह था… चोट छोटी नहीं थी।
खून अब भी बह रहा था, लेकिन उससे ज़्यादा फिक्र उसे यह थी कि मम्मी देख लेंगी तो घर सिर पर उठा लेंगी!
"तू रुक, मैं घर छोड़ देता हूँ…" एक दोस्त बोला।
"अरे बाबा, मैं चला जाऊँगा! कोई आफ़त नहीं आ गई!"
इतना कहकर सर्वज्ञ जल्दी से ग्राउंड से निकला और सीधा घर के पीछे वाले रास्ते से जाने लगा, ताकि कोई उसे देख ना ले।
सर्वज्ञ ने ज़रा सा पैर घसीटा और मन में फैसला लिया—घर के पीछे वाले रास्ते से जाना है!
उसका मन ही मन खुद से वादा था—"मम्मी को बिलकुल भी शक नहीं होना चाहिए!"
पर… किस्मत को शायद उसकी हालत पर और एक्स्ट्रा मज़ा लेना था!
दूसरी तरफ…
धरा और काजल बाज़ार से वापस लौट रही थीं।
रास्ते के किनारे हवा में पकौड़ों की ख़ुशबू घुली हुई थी, और स्ट्रीट लाइट्स हल्की-हल्की टिमटिमा रही थीं।
काजल बातों में लगी थी—
"यार, वो ब्लू कुर्ता ज़्यादा अच्छा था! तुझे वही लेना चाहिए था!"
धरा ने अनमने भाव से सिर हिलाया।
उसका ध्यान कहीं और था… और तभी…
उसने देखा—
सर्वज्ञ!
वह हल्का हल्का लंगड़ाता हुआ चल रहा था। टी-शर्ट पसीने से भीगी हुई, चेहरे पर अब भी वही नटखट मुस्कान… लेकिन उसके घुटने से खून बह रहा था!
धरा का दिल जैसे एक सेकंड के लिए रुक गया।
"सांवरे!"
सर्वज्ञ जैसे ही मुड़ा, उसके कदम खुद-ब-खुद ठिठक गए। सामने से धरा उसकी तरफ आ रही थी, और उसके साथ काजल भी थी, लेकिन सर्वज्ञ को इस वक्त बस एक ही चेहरा दिख रहा था—अपनी ठकुराइन।
धरा तेज़ी से बढ़ी और उसकी नज़र सीधी उसके लहूलुहान घुटने पर पड़ी।
"सांवरे!"
सर्वज्ञ को लगा, जैसे उसने नाम नहीं, बल्कि कुछ और पुकार लिया हो—कुछ ऐसा जो सीधा दिल के सबसे कोमल हिस्से को छू गया।
पर अगले ही पल, धरा के चेहरे पर चिंता की लकीरें देख, सर्वज्ञ ने वही बिंदास अंदाज़ ओढ़ लिया।
"अरे ठकुराइन, आप? इतनी चिंता क्यों कर रही हैं?" उसने वही पुरानी मुस्कान बिखेरी, लेकिन इस बार उसमें थोड़ी घबराहट थी।
धरा ने आँखें तरेरीं।
"ये क्या हाल बना रखा है? खून बह रहा है और तुम्हें मज़ाक सूझ रहा है?"
सर्वज्ञ ने जल्दी से अपना हाथ घुटने के ऊपर फेरकर खून को छुपाने की कोशिश की।
"अरे, ये तो बस हल्की-सी खरोंच है! आपको तो ऐसे टेंशन हो रही है जैसे मैं हॉस्पिटल के आईसीयू में पड़ा हूँ!"
धरा का गुस्सा और बढ़ गया।
"ओह, तो तुम्हारे हिसाब से चोट छोटी है?"
काजल ने भी हँसी दबाते हुए कहा—"अरे हाँ धरा, ये तो सुपरमैन है! इसके शरीर से खून नहीं, ताकत निकलती है!"
धरा ने एक लंबी साँस ली और बिना कुछ कहे अपने पर्स से टिशू निकाला।
"बैठो!"
"क्या?"
"बैठो यहाँ स्टेप्स पर!"
सर्वज्ञ चुपचाप स्टेप्स पर बैठ गया, लेकिन उसका दिल अब ज़ोर-ज़ोर से धड़क रहा था। धरा घुटनों के बल बैठ गई और टिशू से उसका घाव साफ करने लगी।
जैसे ही उसकी उँगलियाँ हल्के से सर्वज्ञ के ज़ख्म के पास लगीं, सर्वज्ञ की धड़कनें बेकाबू हो गईं।
"हे भगवान, ये क्या हो रहा है?" उसने खुद से पूछा।
कभी वह मोहल्ले का सबसे बेपरवाह लड़का था। बिंदास, नटखट, मस्तमौला।
लेकिन आज…
आज उसका दिल अजीब-सी गहरी बेचैनी महसूस कर रहा था।
धरा के चेहरे पर चिंता की हल्की लकीरें थीं, आँखों में गुस्सा और फिक्र का अजीब-सा संगम।
लेकिन तभी…
"सांवरे!!!"
यामिनी मम्मी आ गईं… और तुफ़ान भी!
सर्वज्ञ को लगा जैसे कयामत आ गई।
मम्मी की आवाज़ सुनकर उसका दिमाग तेज़ी से भागा—"बचने का कोई तरीका है?"
लेकिन कोई चांस नहीं था।
क्रमशः
लेकिन तभी…
"सांवरे!!!"
यामिनी मम्मी आ गईं, और तुफ़ान भी! सर्वज्ञ को लगा जैसे कयामत आ गई। मम्मी की आवाज़ सुनकर उसका दिमाग तेज़ी से भागा—"बचने का कोई तरीका है?" लेकिन कोई चांस नहीं था।
यामिनी मम्मी अपनी साड़ी को समेटे सीधा उसके पास पहुँचीं। जैसे ही उन्होंने उसकी चोट देखी—
"हे भगवान! तेरा यह हाल कैसे हुआ?! मैंने मना किया था ना खेलने से?!"
सर्वज्ञ कुछ बोलना चाहा, लेकिन धरा ने पहले ही आग में घी डाल दिया।
"आंटी, इसे देखिए… कह रहा था चोट छोटी है, लेकिन खून बह रहा था!"
यामिनी मम्मी का चेहरा गुस्से और चिंता का खतरनाक मिश्रण बन चुका था।
सर्वज्ञ ने एक नज़र धरा पर डाली, जिसने पूरी मासूमियत से उसकी मम्मी को बता दिया था कि वह चोट को छोटा समझ रहा था। और अब… अब यामिनी मम्मी का पूरा ध्यान उसकी घायल टांग पर था।
"अरे मम्मी, कुछ नहीं हुआ है! बस हल्की सी—"
"हल्की सी?!" यामिनी मम्मी ने उसे घूरा, "तेरा यह खून बहना हल्की बात है?! मैंने कितनी बार कहा है कि इतना जोश में मत आया कर! आज तेरे पापा से कहकर बास्केटबॉल हमेशा के लिए बंद करवाती हूँ!"
सर्वज्ञ की आँखें फैल गईं। बास्केटबॉल बंद? ऐसा तो सोचा भी नहीं था!
"नहीं मम्मी! ऐसी कोई ज़रूरत नहीं है, देखो तो… अब खून भी नहीं बह रहा, देखो?" वह हड़बड़ाहट में बोला और जल्दी से घुटने के पास का खून टिशू से पोंछने लगा।
लेकिन यामिनी मम्मी को कोई फर्क नहीं पड़ा। वे सर्वज्ञ की बातों से ज़्यादा धरा की ओर ध्यान दे रही थीं।
"बेटा, तुम्हारा नाम क्या बताया था?" मम्मी ने धरा की तरफ देखा।
धरा थोड़ा अचकचा गई, फिर सिर झुका कर बोली—"धरा।"
"अच्छा… काजल तो मुझे जानती है, लेकिन तुम अभी-अभी यहाँ आई हो, है ना?"
धरा ने सिर हिलाया, और सर्वज्ञ ने मन ही मन खुद को कोसा—"धत्त तेरी की!"
"अरे हाँ! तुम तो सुबह हमारे घर आई थी ना?" मम्मी ने थोड़ा संदेह से पूछा।
सर्वज्ञ की साँस अटक गई।
धरा ने भी हल्का-सा गला साफ किया, और सर्वज्ञ ने उसकी मदद करने की सोची—
"हाँ मम्मी! वो बस… यूँ ही आई थी…"
यामिनी मम्मी की आँखें और सिकुड़ गईं।
"यूँ ही? लड़कियाँ यूँ ही किसी के घर नहीं जातीं, बेटा!"
सर्वज्ञ ने ज़बरदस्ती मुस्कुराने की कोशिश की—"अरे मम्मी, कुछ नहीं… वो बस सामने वाले हॉस्टल में रहने आई है ना, तो मैंने ही…"
"तूने ही क्या?" मम्मी ने तुरंत सवाल दागा।
सर्वज्ञ को पसीना आ गया।
"तूने ही क्या, रे सांवरे?"
"मम्मी, वो बस नॉर्मल बातचीत थी!"
"ओह, अच्छा? इतनी नॉर्मल कि सुबह ही शुरू हो गई?"
मम्मी की आँखों में सवालों की पूरी लिस्ट थी, और सर्वज्ञ को लग रहा था कि अब उसकी खैर नहीं। उसने धरा की ओर देखा—शायद वह कुछ संभाल ले, लेकिन धरा ने अपनी नज़रें फेर लीं, जैसे कह रही हो—अब खुद ही निपटो!
"तो बेटा?" यामिनी मम्मी ने भौंहें उठाईं। "बता रहा है या मैं खुद ही पूछताछ शुरू करूँ?"
सर्वज्ञ ने एक फीकी मुस्कान दी। "मम्मी, आप तो ऐसे पूछ रही हैं जैसे मैंने कोई चोरी कर ली हो!"
"अभी तक तो चोरी नहीं की, लेकिन शरारत की है, है ना?" मम्मी ने हाथ कमर पर रखते हुए पूछा।
धरा ने हल्का-सा खाँसते हुए कहा, "आंटी, वो दरअसल…"
सर्वज्ञ ने तुरंत उसकी बात काट दी, "हाँ मम्मी, वो दरअसल…!"
यामिनी मम्मी की शक भरी नज़रें दोनों पर जम चुकी थीं। सर्वज्ञ के माथे पर पसीना छलक आया। उसने एक बेचारी-सी मुस्कान लाकर धरा की तरफ देखा, जैसे इशारों में कह रहा हो—"बचाओ यार!"
लेकिन धरा ने एक हल्का-सा खाँस कर नज़रें फेर लीं।
"हद है, ठकुराइन!" सर्वज्ञ मन ही मन बड़बड़ाया।
मम्मी ने फिर सवाल दागा—"हाँ तो, दरअसल क्या?"
सर्वज्ञ ने सोचा, अब अगर मैं कुछ ना बोला, तो ठकुराइन ज़रूर पोल खोल देगी!
"वो मम्मी… दरअसल मैं और ठकुराइन सुबह बस ऐसे ही बातें कर रहे थे, मतलब नॉर्मल सी बातें…"
मम्मी ने होंठ टेढ़े किए—कौन ठकुराइन?
सर्वज्ञ फिर से फंस गया!
उसने हल्के से गला साफ किया और धीरे से बोला, "अरे मम्मी, धरा! धरा जी को ठकुराइन कहता हूँ… बस यूँ ही, प्यार से!"
धरा ने बचाव करते हुए कहा, "आंटी, मेरी सरनेम ठाकुर है, तो इसीलिए… यह मुझे ठकुराइन बुलाता है!"
सर्वज्ञ ने राहत की साँस ली—वाह ठकुराइन! जान बचा ली!
यामिनी मम्मी के चेहरे पर हल्का-सा संदेह अब भी था, लेकिन धरा के जवाब से वे थोड़ी संतुष्ट लगीं। उन्होंने सर्वज्ञ की तरफ देखा—"घर चल तू!"
सर्वज्ञ को लगा जैसे अदालत का फैसला सुनाया जा चुका हो—अब घर जाना मतलब कोर्ट में पेशी!
उसने एक पल धरा की तरफ देखा, जैसे मन ही मन कह रहा हो—"ठकुराइन, अब तो बचा लो!" लेकिन धरा ने हल्का-सा सिर झुका लिया, जैसे कह रही हो—"अब तो तेरा बचना मुश्किल है, सांवरे!"
यामिनी मम्मी ने एक कड़ी नज़र डाली और फिर कदम आगे बढ़ाए। सर्वज्ञ मजबूरी में उनके पीछे-पीछे चल पड़ा। काजल और धरा वहीं खड़ी थीं। काजल ने हल्की हँसी दबाते हुए कहा—
"बेस्ट ऑफ़ लक, सुपरमैन!"
सर्वज्ञ ने मुँह बनाया—"धत्त तेरी की!"
दरवाजे से अंदर घुसते ही, सर्वज्ञ को महसूस हुआ कि तूफान अब दस्तक दे चुका है! यामिनी मम्मी ने सीधे मंदिर के पास रखी लकड़ी की चौकी खींची और हाथ से इशारा किया—"बैठ!"
सर्वज्ञ ने एक लंबी साँस ली, जैसे खुद को तैयार कर रहा हो किसी महायुद्ध के लिए, और धीरे-धीरे चौकी पर बैठ गया।
"घुटना आगे कर!" मम्मी ने आदेश दिया।
"मम्मी, मैं खुद कर लूँगा… कोई ज़रूरत नहीं है—"
"सांवरे!" मम्मी ने घूरा, और सर्वज्ञ चुपचाप घुटना आगे कर दिया।
यामिनी मम्मी तुरंत अंदर गईं और हल्दी, नीम के पत्ते और नारियल तेल लेकर आईं। सर्वज्ञ की आँखें फटी रह गईं—"मम्मी! हल्दी और नीम? मैं कोई सजीव बासी रोटी नहीं हूँ जो यह सब लगाओगी!"
"चुप बैठ!" मम्मी ने एक चमच हल्दी निकाली और सीधे घाव पर डाल दी।
"आउच!" सर्वज्ञ उछल पड़ा। "मम्मी! थोड़ा प्यार से!"
"प्यार? तुझे जब गिरते वक्त दर्द नहीं हुआ, तो अब क्यों हो रहा है?" मम्मी ने हल्दी रगड़ते हुए कहा।
सर्वज्ञ ने मुँह बिचका लिया। "अरे मम्मी, मैं तो बस बास्केटबॉल खेल रहा था… कोई बड़ा गुनाह तो नहीं किया!"
"बड़ा गुनाह नहीं किया?!" मम्मी ने आँखें तरेरीं। "तेरे पापा को बुलाऊँ?"
"न-नहीं! उसकी कोई ज़रूरत नहीं!" सर्वज्ञ तुरंत सीधा हो गया। "देखो न, अब तो खून भी नहीं बह रहा… बिलकुल ठीक हूँ!"
यामिनी मम्मी ने उसे सिर से पाँव तक देखा, फिर लंबी साँस लेते हुए बोलीं—"बिलकुल ठीक तो तब होगा जब दिमाग में भी थोड़ी अक्ल भर जाएगी!"
चित्रांश भैया ऑफिस से लौटे तो चेहरे पर थकान के साथ हल्का-सा तनाव भी था। दरवाजे पर कदम रखते ही उन्होंने अपने गले की टाई ढीली की और सोफे पर गिरते हुए आँखें बंद कर लीं। लेकिन चैन से बैठने का मौका कहाँ था? अंदर से यामिनी मम्मी की कड़क आवाज़ आई—
"सांवरे! अब आराम से बैठा रहना, फिर मत कहना कि मैंने हल्दी ज़्यादा लगा दी!"
इतना सुनते ही चित्रांश को सब समझ आ गया। उन्होंने माथा दबाया और सोचा—"यह लड़का कभी नहीं सुधरने वाला!"
तभी कमरे से हल्का-सा कराहने की आवाज़ आई—
"मम्मी! थोड़ा धीरे!"
चित्रांश भैया उठे और अंदर गए। वहाँ देखा कि सर्वज्ञ, पूरी निरीहता से चौकी पर बैठा हुआ था, और यामिनी मम्मी उसके घुटने पर हल्दी मल रही थीं।
"अब क्या कर दिया इसने?" चित्रांश ने पूछा।
यामिनी मम्मी ने गुस्से से कहा—"बास्केटबॉल खेल रहा था, और घुटना फोड़ लिया!"
चित्रांश ने सिर हिलाया और सर्वज्ञ की तरफ देखा—"छोटू, तुझे कितनी बार कहा है कि संभल कर खेला कर!"
सर्वज्ञ ने दुखी होकर कहा—"भैया, मैं तो हल्का-फुल्का खेल रहा था!"
यामिनी मम्मी ने आँखें तरेरीं—"हाँ, हल्का-फुल्का खेलते-खेलते पूरा घुटना फोड़ दिया!"
चित्रांश हल्का मुस्कुराए, लेकिन उनके चेहरे की मुस्कान जल्दी ही फीकी पड़ गई। उनकी आँखों में एक अलग ही बेचैनी थी।
सर्वज्ञ को यह नोटिस करने में देर नहीं लगी। उसने धीरे से पूछा—"भैया, सब ठीक है?"
चित्रांश के चेहरे पर हल्की-सी परेशानी की लकीरें थीं, लेकिन उन्होंने ज़बरदस्ती मुस्कुराने की कोशिश की—"हाँ हाँ, सब ठीक है।"
लेकिन सर्वज्ञ को ऐसा नहीं लगा।
यामिनी मम्मी ने हल्दी मलकर नारियल तेल लगाया और उठते हुए कहा, "अब बैठा रह आराम से। जब तक सूख न जाए, हिलना मत!"
फिर उन्होंने चित्रांश की ओर देखा—"और तू, ऑफिस से आकर ऐसे क्यों बैठा है? कुछ खाएगा या सिर्फ टाई ढीली करके बैठे रहोगे?"
चित्रांश ने हल्की-सी मुस्कान दी—"नहीं मम्मी, अभी भूख नहीं है।"
यामिनी मम्मी को थोड़ा अजीब लगा, लेकिन उन्होंने ज़्यादा ध्यान नहीं दिया और किचन की ओर चली गईं।
अब कमरे में सिर्फ चित्रांश और सर्वज्ञ थे।
सर्वज्ञ ने धीरे से घुटने से टिशू हटाया और बोला—"भैया, आप कुछ छुपा रहे हो ना?"
चित्रांश चौंके, फिर हँसते हुए बोले—"अबे, तू कब से इतना शार्प हो गया?"
"जब से आपने झूठ बोलना शुरू किया!" सर्वज्ञ ने सीधे जवाब दिया।
चित्रांश ने गहरी साँस ली और सोफे की बैकरेस्ट से सिर टिका लिया।
"कुछ नहीं यार, बस ऑफिस में थोड़ी टेंशन है।"
"झूठ।" सर्वज्ञ तुरंत बोला।
चित्रांश ने भौंहें चढ़ाईं—"अबे, तू मेरा बड़ा भाई है क्या?"
"नहीं, लेकिन छोटे भाई को भी समझ आता है कि बात ऑफिस की नहीं है!"
चित्रांश कुछ पल खामोश रहे, फिर हल्की आवाज़ में बोले—"पापा से कोई मिलने आया था।"
सर्वज्ञ ने सिर झटका—"अरे तो? रोज़ कितने लोग मिलने आते हैं!"
"लेकिन वह अलग थी।"
चित्रांश की आवाज़ में एक अजीब-सा भारीपन था।
सर्वज्ञ थोड़ा गंभीर हो गया—"अलग थी मतलब? कौन थी?"
चित्रांश ने थोड़ी देर तक जवाब नहीं दिया, फिर धीरे से बोले—
"चेतना… चेतना तिवारी।"
सर्वज्ञ का पूरा शरीर एक सेकंड के लिए ठिठक गया।
क्रमशः
कमरे में सन्नाटा पसर गया।
सर्वज्ञ की आँखें चौड़ी हो गईं। उसने धीरे से दोहराया—
"चेतना तिवारी?"
चित्रांश ने हल्का-सा सिर हिलाया, लेकिन कुछ नहीं कहा। उसके चेहरे पर अजीब-सी उलझन थी—पुरानी यादों की उलझन, जो उसने बड़ी मुश्किल से दफन की थी, लेकिन जो आज अचानक सामने आकर खड़ी हो गई थीं।
सर्वज्ञ ने धीरे से कहा, "भैया… चेतना दी… अब क्यों आई हैं?"
चित्रांश ने एक गहरी सांस ली।
"पता नहीं। पापा से मिलने आई थी, लेकिन असल में… वो मुझसे मिलना चाहती थी।"
अब सर्वज्ञ भी सीधा होकर बैठ गया। हल्दी लगे घुटने का दर्द जैसे अचानक गायब हो गया हो।
"फिर?… आपने बात की?"
चित्रांश के होंठ हल्के से काँपे, फिर उसने सिर झुका लिया।
"हाँ… लेकिन मैं ज्यादा कुछ कह नहीं पाया। वो अचानक सामने आकर खड़ी हो गई, तो… मैं बस खड़ा रह गया।"
सर्वज्ञ को कुछ समझ नहीं आया कि वो क्या बोले। वह जानता था कि चेतना भाभी… नहीं, चेतना दी, उसके भैया की पहली और शायद सबसे गहरी मोहब्बत थीं। लेकिन वो जिस दिन दुल्हन बनकर इस घर में आने वाली थीं, उसी दिन अपने बॉयफ्रेंड के साथ भाग गई थीं।
और अब, दो साल बाद, जब चित्रांश अपनी जिंदगी में आगे बढ़ चुका था… जब उसकी केशवी से सगाई हो चुकी थी… तब चेतना वापस आ गई?
"भैया… उसने कुछ कहा?"
चित्रांश ने एक उदास हंसी हँसते हुए सिर झुका लिया।
"हाँ… उसने सिर्फ एक बात कही…"
सर्वज्ञ का दिल तेजी से धड़कने लगा।
"क्या?"
चित्रांश ने हल्की आवाज़ में कहा—
"मुझे माफ कर दो, चित्रांश।"
कमरे में सन्नाटा छा गया।
सर्वज्ञ ने खुद को संभालते हुए कहा, "और आपने… आपने क्या कहा?"
चित्रांश ने कोई जवाब नहीं दिया। बस, उसकी आँखों में एक अजीब-सी थकान थी।
सर्वज्ञ को अब डर लगने लगा था। उसने धीरे से पूछा—
"भैया… कहीं आप अब भी…"
लेकिन इससे पहले कि वह अपनी बात पूरी कर पाता, चित्रांश ने उसकी तरफ देखा और हल्के से मुस्कुरा दिया।
"नहीं, सर्वज्ञ… अब नहीं।"
सर्वज्ञ को राहत मिली, लेकिन पूरी तरह नहीं।
"फिर क्यों… इतनी बेचैनी?"
चित्रांश ने सिर उठाकर छत की ओर देखा, जैसे अपने ही ख्यालों में गुम हो।
"भैया… आप ठीक हो ना?"
चित्रांश कुछ बोलते, इससे पहले दरवाजे पर किसी के आने की आहट हुई।
यामिनी मम्मी खड़ी थीं, हाथ में चाय का कप लिए।
उनकी नज़रों में सवाल था—"क्या चल रहा है?"
चित्रांश ने झट से अपनी भावनाओं को समेटा और मुस्कुराते हुए बोला—"कुछ नहीं मम्मी, बस छोटे को समझा रहा था कि अगली बार बास्केटबॉल खेलते वक्त हेलमेट पहन ले!"
यामिनी मम्मी ने घूरकर देखा—"बेवकूफ मत बनाओ। मैं मां हूँ, चेहरे पढ़ना जानती हूँ।"
चित्रांश के चेहरे की हंसी फीकी पड़ गई।
यामिनी मम्मी ने संजीदगी से कहा—"अपनी मम्मी से भी झूठ बोलने लगा अब?"
चित्रांश की हंसी उसके चेहरे से गायब हो गई। वह जानता था कि उसकी माँ झूठ को बहुत जल्दी पकड़ लेती हैं। सर्वज्ञ ने भी नज़रें चुरा लीं, लेकिन उसकी उत्सुकता अभी तक बनी हुई थी।
यामिनी मम्मी धीरे-धीरे कमरे में आईं और चाय का कप टेबल पर रखते हुए सीधे चित्रांश की आँखों में झाँका।
"क्या बात है बेटा?" उनकी आवाज़ में वो माँ वाली सख्ती थी, जो अपने बेटे का दर्द बिना कहे ही समझ जाती है।
चित्रांश ने एक पल के लिए सोचा कि बात टाल दे, लेकिन फिर उसने गहरी सांस लेते हुए धीरे से कहा—
"मम्मी… चेत.. चेतना आई थी।"
यामिनी मम्मी के हाथ एक पल के लिए रुक गए। उनका चेहरा कठोर हो गया, लेकिन उन्होंने खुद को संभालते हुए पूछा—
"क्यों?"
चित्रांश ने जवाब देने से पहले हल्के से अपने हाथों को रगड़ा, जैसे कुछ सोच रहा हो।
"मुझसे माफ़ी माँगने।"
यामिनी मम्मी ने कड़वी हंसी हँसी—"अब? जब सब कुछ खत्म हो चुका है?"
सर्वज्ञ चुपचाप दोनों को देख रहा था।
"तो तूने क्या कहा?" मम्मी ने सीधा सवाल किया।
चित्रांश ने उनकी आँखों में देखा, फिर धीमी आवाज़ में बोला—
"कुछ नहीं। बस देखा… और चुपचाप चला आया।"
यामिनी मम्मी ने उसकी आँखों में कुछ ढूँढने की कोशिश की, फिर सीधा बोलीं—
"तेरा मन डगमगाने तो नहीं लगा?"
चित्रांश ने झट से जवाब दिया—"नहीं मम्मी। मैं अब उस दौर से आगे बढ़ चुका हूँ।"
माँ ने उसे कुछ देर तक देखा, फिर एक गहरी सांस लेते हुए कहा—
"अच्छा है। क्योंकि बेटा, कुछ घाव अगर भर भी जाएं, तो उनके निशान मिटते नहीं हैं। चेतना ने जो किया, उसे भूल मत जाना… लेकिन अपने आज को उसके कल के लिए दांव पर भी मत लगाना।"
चित्रांश ने हल्का सिर हिलाया। "मम्मी, मैं अब वैसा कमजोर नहीं हूँ।"
यामिनी मम्मी ने उसे प्यार से देखा, फिर उसकी पीठ थपथपाई। "अच्छा, अब चाय पी और थोड़ा आराम कर। केशवी का फोन आया था, उसे तुझसे बात करनी है।"
केशवी का नाम सुनते ही चित्रांश का ध्यान चेतना से हटकर उसके वर्तमान की ओर चला गया।
चित्रांश ने हल्की मुस्कान के साथ सिर हिलाया और फोन उठाया। केशवी का नाम सुनते ही उसके चेहरे पर थोड़ी राहत दिखी, लेकिन कहीं न कहीं चेतना की परछाई अभी भी दिमाग में घूम रही थी। उसने खुद को संभालते हुए कॉल रिसीव की।
"हाँ केशवी?" उसकी आवाज़ में हल्की थकान झलक रही थी।
"आप ठीक तो हैं?" केशवी की चिंतित आवाज़ आई। "मम्मी जी कह रही थीं कि कुछ परेशान लग रहे थे।"
चित्रांश ने नज़रें घुमाई—यामिनी मम्मी हमेशा से ही उसकी हर बात के बारे में केशवी को बता देती थीं। सर्वज्ञ भी हल्का-सा मुस्कराया, उसे यह सब देखना मज़ेदार लग रहा था।
"कुछ खास नहीं… बस पुरानी बातें याद आ गईं थीं," उसने टालने वाले अंदाज़ में कहा।
"कौन सी पुरानी बातें?" केशवी के स्वर में कोमलता थी, लेकिन जिज्ञासा भी साफ़ झलक रही थी।
चित्रांश एक पल के लिए चुप रहा। क्या वह उसे चेतना के आने के बारे में बताए? लेकिन फिर उसने खुद को रोका। यह ज़रूरी नहीं था।
"बस यूँ ही, घर की कुछ बातें," उसने धीरे से कहा। "तुम कैसी हो?"
केशवी को लगा कि वह कुछ छिपा रहा है, लेकिन उसने ज़्यादा ज़ोर नहीं दिया।
"मैं ठीक हूँ, लेकिन आप ध्यान रखा करो अपना," उसने हल्की शिकायत भरी आवाज़ में कहा। "वैसे भी, शादी के बाद मुझे ही आपकी केयर करनी पड़ेगी, तो अभी से प्रैक्टिस शुरू कर देती हूँ!"
चित्रांश हल्का-सा मुस्कुराया। "तो फिर आज से ही मेरा ख्याल रखना शुरू कर दो।"
"अच्छा?" केशवी ने चुलबुले अंदाज़ में कहा। "तो कल सुबह आपकी फेवरेट रबड़ी बनाकर भेज दूँ?"
"भेजने की क्या ज़रूरत, खुद आ जाओ!"
सर्वज्ञ यह सुनकर मज़े लेते हुए हल्का सा खांसी दिया, जिससे चित्रांश चौंक गया।
"अरे वाह, भैया! इतना प्यार?"
चित्रांश ने उसे घूरा, लेकिन केशवी को हंसी आ गई।
"सर्वज्ञ पास में है?"
"हाँ, और बहुत ध्यान से हमारी बातें सुन रहा है!" चित्रांश ने जानबूझकर ज़ोर से कहा, जिससे सर्वज्ञ और ज़्यादा हंस पड़ा।
"अरे वाह, तो फिर उससे कहो कि मुझसे भी बात करे!"
सर्वज्ञ तुरंत फोन छीनते हुए बोला, "हेलो भाभी जी, कैसे हो?"
"बहुत बढ़िया! तुम कैसे हो?"
"बस, भैया को परेशान कर रहा हूँ, बाकी सब ठीक है!"
चित्रांश ने फोन वापस लेने की कोशिश की, लेकिन सर्वज्ञ भाग खड़ा हुआ।
यामिनी मम्मी दरवाजे पर खड़ी यह सब देख रही थीं। उन्होंने हल्की मुस्कान के साथ सिर हिलाया—शायद उन्हें तसल्ली हो रही थी कि उनके बेटे की ज़िंदगी अब स्थिर हो रही थी। चेतना की परछाई शायद आई थी, लेकिन वह अब टिक नहीं सकती थी।
चित्रांश ने फोन वापस लेकर केशवी से कुछ और बातें कीं, फिर कॉल कट कर दिया।
अगली सुबह…
सर्वज्ञ अभी बिस्तर से उठा ही था कि मम्मी की आवाज़ सुनाई दी—
"सर्वज्ञ, आज स्कूल मत जा तू!"
सर्वज्ञ, जो आधी नींद में था, एकदम चौंक गया। "क्यों मम्मी? क्या हुआ?"
यामिनी मम्मी ने हाथ कमर पर रखकर घूरा—"तेरे घुटने में चोट लगी है, और तुझे आराम करना चाहिए।"
सर्वज्ञ ने अपने पैर की ओर देखा—"अरे मम्मी, अब तो ठीक भी हो गया!"
"हाँ, हाँ, बहुत ठीक हो गया, जब रात में दर्द से कराह रहा था तब तो याद नहीं आया!" मम्मी ने तंज़ कसा।
सर्वज्ञ ने झट से दूसरा पैंतरा आज़माया—"मम्मी, आज स्कूल में बहुत इंपॉर्टेंट टॉपिक पढ़ाने वाले हैं। अगर मिस कर दिया तो दिक्कत हो जाएगी!"
यामिनी मम्मी ने सर्वज्ञ की आँखों में संदेह से देखा। "इतना ही ज़रूरी टॉपिक है तो नोट्स मंगवा लेना, कहीं जाने की ज़रूरत नहीं!"
सर्वज्ञ ने मन ही मन एक लंबी सांस ली—"अब क्या करूँ?"
"लेकिन मम्मी, स्कूल में प्रैक्टिकल भी है आज!" उसने नया बहाना बनाया।
मम्मी ने भौंहें चढ़ाईं, "कल रात तो तू कह रहा था कि इस हफ़्ते कोई प्रैक्टिकल नहीं है!"
सर्वज्ञ को समझ नहीं आया कि अब क्या बोले। वह मन ही मन बड़बड़ाया—"मम्मी को इतनी तेज़ याददाश्त रखने की ज़रूरत ही क्या थी?"
"देख, तेरा बहानेबाज़ी का खेल न मेरे साथ नहीं चलेगा!" मम्मी ने चेतावनी दी। "आज तू आराम करेगा, बस!"
सर्वज्ञ ने हार मान ली। वह चुपचाप बिस्तर पर बैठ गया, लेकिन दिमाग़ में कुछ और ही चल रहा था—"अब ठकुराइन अकेले जाएँगी…"
थोड़ी देर बाद अचानक सर्वज्ञ तेजी से बालकनी की ओर भागा और रेलिंग के सहारे झुककर सामने गुलमोहर गर्ल्स हॉस्टल की ओर देखा। उसकी नज़रें बेसब्री से ठकुराइन यानी धरा को ढूंढने लगीं। "कहीं दिख जाएँ, बस एक झलक…"
कुछ पल बाद, हॉस्टल का गेट खुला, और धरा अपने दुपट्टे को ठीक करती हुई बाहर निकली। सफेद कुर्ते और नीली जींस में, कंधे पर बैग टांगे हुए, वह तेज़ी से सड़क की ओर बढ़ रही थी।
सर्वज्ञ का दिल जोर से धड़कने लगा। "काश, मैं भी कॉलेज में होता… ठकुराइन के साथ क्लास में बैठता, उनके नोट्स शेयर करता, और जब टीचर कोई सवाल पूछते, तो मैं सबसे पहले जवाब देकर उन्हें इंप्रेस कर देता!" वह मन ही मन मुस्कुराया।
लेकिन तभी उसकी हकीकत की दुनिया में वापसी हुई—"अभी तो मैं अपने स्कूल में ही फंसा हूँ… और आज तो मम्मी ने मुझे घर से निकलने भी नहीं दिया!"
धरा अब हॉस्टल से निकलकर सड़क पर आ चुकी थी।
सर्वज्ञ को बेचैनी होने लगी। "अकेले जा रही हैं… पता नहीं, कोई परेशानी न हो जाए!"
ठीक उसी वक्त धरा ने अनायास ऊपर की ओर देखा, उसकी नज़र बालकनी पर गई, लेकिन वहाँ कोई नहीं था। "अजीब है… आज सांवरे दिखा ही नहीं!" उसने मन ही मन सोचा। "कल चोट लगी थी… शायद इसलिए!" हल्का सा मुस्कुराकर वह आगे बढ़ गई।
उधर, सर्वज्ञ बालकनी के कोने में छिपकर खड़ा था। "उफ्फ! बच गया…" उसने राहत की सांस ली। "अगर ठकुराइन को पता चल जाता कि मैं छुपकर देख रहा था, तो फिर वो गलत सोचती मेरे बारे में!"
सर्वज्ञ ने फिर बालकनी की रेलिंग पकड़कर देखा, धरा अब सड़क पार कर रही थी। तभी एक तेज़ रफ़्तार बाइक धड़धड़ाते हुए आई और धरा के करीब से गुज़री—
"ठकुराइन!"
सर्वज्ञ के मुँह से घबराहट में निकला, लेकिन वह खुद को रोक नहीं पाया।
धरा एकदम ठिठक गई, लड़खड़ाई, लेकिन खुद को संभाल लिया। उसने तुरंत पीछे मुड़कर देखा।
बालकनी में सर्वज्ञ अब भी खड़ा था, बिना इस बात की परवाह किए कि अब वह उसे देख चुकी थी।
धरा की आँखों में हल्की सी झुंझलाहट आई, लेकिन फिर वह मुस्कुरा दी।
"तो ये जनाब स्कूल न जाकर, यहाँ छुपे बैठे हैं?" उसने होंठों को हल्का सा टेढ़ा किया और मन ही मन सोचा।
सर्वज्ञ सकपका गया। "अब क्या करूँ?"
धरा ने इशारे से पूछा—"क्या हुआ?"
सर्वज्ञ ने धीरे से कहा—"कुछ नहीं…" फिर थोड़ा झेंपते हुए बोला, "वो… बस ऐसे ही…"
धरा हंसी रोक नहीं पाई। "बिलकुल पागल है!" उसने सिर हिलाया और आगे बढ़ गई।
सर्वज्ञ अभी भी बालकनी में खड़ा था, धरा की हंसी उसके कानों में गूंज रही थी। उसे समझ नहीं आया कि ये अच्छा हुआ या बुरा—धरा मुस्कुरा दी थी, लेकिन उसे पकड़ भी लिया था!
"अब तो पक्का, ठकुराइन मुझे छेड़ेंगी!" उसने माथा पकड़ लिया।
तभी पीछे से मम्मी की आवाज़ आई—"किससे बात कर रहा है?"
सर्वज्ञ एकदम से पीछे मुड़ा, "नहीं… किसी से नहीं!"
यामिनी मम्मी ने उसे घूरा, "बहुत चालाक बनता है न! जा, अब बिस्तर पर जाकर लेट—और खिड़की-बालकनी के पास मत फटकना!"
सर्वज्ञ ने मन ही मन सोचा, "अब ठकुराइन स्कूल चली गईं, मैं यहाँ कैद हूँ, और ऊपर से मम्मी का पहरा… उफ्फ! ये दिन भी देखना था!"
दूसरी ओर…
धरा सड़क पर आगे बढ़ रही थी, लेकिन उसके मन में कुछ अजीब-सा चल रहा था।
"बड़ा बोरिंग लग रहा है आज… सांवरे होता तो अपनी बकबक से कुछ न कुछ बोलता ही रहता… पागल कहीं का!"
वह हल्के से मुस्कुराई, लेकिन फिर खुद को ही टोका, "धरा, तेरा दिमाग ठीक है? उसकी बकबक से तुझे रोज़ चिढ़ होती थी, और अब वही मिस कर रही है?"
जैसे ही वह आगे बढ़ी, वह वही सड़क किनारे की एक चाय की दुकान के पास से गुज़री। वहाँ कुछ लड़के खड़े थे, जिनके हाथों में चाय के कुल्हड़ और सिगरेट थीं। उन्होंने धरा को देखा और एक-दूसरे को कोहनी मारी।
"अरे वाह! आज तो मैडम अकेली जा रही हैं!" एक लड़के ने धीरे से कहा, लेकिन इतनी आवाज़ में कि धरा तक पहुँच जाए।
"हाँ भाई, लगता है वो रोज़ साथ चलने वाला छोरा आज नहीं आया!" दूसरा लड़का हँसते हुए बोला।
धरा ने उनकी बात अनसुनी कर दी और तेज़ी से आगे बढ़ने लगी। लेकिन लड़कों ने रास्ता थोड़ा सा घेर लिया।
एक लड़का आगे बढ़ा और रास्ता रोककर कहने लगा, "अरे इतनी जल्दी क्या है? बैठो न, चाय-वाय पीते हैं!"
धरा की आँखें डर से फैल गईं। उसका हाथ पसीजने लगा। वह कुछ कहने ही वाली थी कि…
"ओए!!!"
एक ज़ोरदार आवाज़ गूंजी।
सबने मुड़कर देखा—सर्वज्ञ!
वह साँस फुलाए, गुस्से से भरा वहाँ खड़ा था। उसने अभी एक ढीली टी-शर्ट और ट्रैक पैंट पहनी हुई थी, माथे पर उलझे हुए बाल, और आँखों में गुस्से की लपटें।
"हट यहाँ से!" उसने दाँत भींचते हुए कहा।
लड़कों ने उसे ऊपर से नीचे तक देखा, फिर हँस पड़े। "आ गया छोरा हीरो बनने!"
लेकिन इससे पहले कि वे कुछ और बोलते, सर्वज्ञ ने सीधे आकर एक लड़के की कॉलर पकड़ ली—"जबान संभालकर बात कर, समझा?"
धरा हक्की-बक्की खड़ी देख रही थी। "सांवरे…?"
सामने वाले लड़के को शायद इस रिएक्शन की उम्मीद नहीं थी। लेकिन तभी दूसरे लड़कों ने घेर लिया, "अबे छोड़ इसे!"
एक लड़का हाथ उठाने ही वाला था कि—
धम!
सर्वज्ञ का घूँसा सीधे उसके चेहरे पर पड़ा। वह लड़खड़ाकर गिर पड़ा।
धरा की साँसे अटक गईं—"हे भगवान!"
अब मामला गर्म हो चुका था। बाकी लड़कों ने भी सर्वज्ञ पर हमला करने की कोशिश की, लेकिन सर्वज्ञ वैसे ही तैयार था।
एक पंच इधर, एक किक उधर!
लड़के हड़बड़ा गए। किसी को समझ नहीं आया कि यह दुबला-पतला दिखने वाला लड़का इतना तगड़ा कैसे निकला!
"अब कोई और कुछ बोलेगा?" सर्वज्ञ ने नज़रें घुमाकर पूछा।
सारे लड़के चुप!
वे एक-दूसरे की शक्ल देखने लगे और फिर चुपचाप वहाँ से खिसकने लगे।
धरा ने राहत की सांस ली। लेकिन उसका ध्यान तुरंत सर्वज्ञ की तरफ गया।
"सांवरे!" वह भागते हुए उसके पास आई।
सर्वज्ञ के होंठों से हल्का सा खून निकल रहा था, और हाथ की उँगलियों पर चोट के निशान थे।
धरा ने तुरंत उसका हाथ पकड़ लिया, "तुम ठीक हो?"
सर्वज्ञ ने उसकी आँखों में देखा और मुस्कुराया, "अरे ठकुराइन, मैं हूँ न… कुछ नहीं होगा मुझे!"
धरा का दिल तेज़ी से धड़कने लगा।
"लेकिन… लेकिन तुम यहाँ आए कैसे?" उसने चौंककर पूछा।
सर्वज्ञ ने सिर झुका लिया, "मम्मी को चकमा देकर आ गया… सोचा, ठकुराइन अकेली जा रही हैं, कहीं कोई दिक्कत न हो जाए!"
धरा उसे देखती रह गई। कुछ कह नहीं पाई।
"मतलब, मेरी इतनी चिंता थी?"
सर्वज्ञ थोड़ा झेंप गया, "न-नहीं, ऐसा कुछ नहीं…"
धरा ने हल्के से उसकी बाँह पर मुक्का मारा, "झूठ मत बोलो, सांवरे!"
सर्वज्ञ मुस्कुरा दिया, लेकिन तभी उसने दर्द के कारण अपना हाथ दबा लिया।
धरा ने तुरंत उसका हाथ पकड़ा, "चलो, पहले तुम्हारी चोट साफ़ करनी पड़ेगी!"
"लेकिन ठकुराइन, कॉलेज…"
"कोई कॉलेज-वॉलेज नहीं! अब तुम चुपचाप मेरे साथ चल रहे हो!"
सर्वज्ञ ने एक नज़र उसकी ज़िद्दी आँखों में देखी, और फिर मुस्कुरा दिया—"जो हुक्म, ठकुराइन!"
धरा ने सर्वज्ञ को पास की बेंच पर बिठाया। वह तुरंत बैठ गया, लेकिन उसकी नज़रें धरा के चेहरे पर टिक गईं। उसके बैग से फर्स्ट एड बॉक्स निकालते हुए धरा का चेहरा बेहद गंभीर था।
"हाथ आगे करो," उसने बिना उसकी ओर देखे कहा।
सर्वज्ञ ने चुपचाप अपना हाथ बढ़ा दिया। जैसे ही धरा ने उसकी चोट पर रुई रखी, एक हल्की टीस से सर्वज्ञ की साँसें तेज हो गईं।
"अरे! दर्द हो रहा है?" धरा ने तुरंत उसकी आँखों में देखा।
सर्वज्ञ हल्के से मुस्कुरा दिया, "न-नहीं, ठकुराइन, तुम कर रही हो, तो दर्द कैसा?"
धरा ने उसे घूरा, "झूठ मत बोलो!"
उसने सावधानी से रुई से खून साफ किया और फिर मलहम लगाने लगी। उसकी उंगलियाँ बेहद कोमल थीं, लेकिन जब मलहम लगाने के दौरान उसकी उंगलियाँ सर्वज्ञ की त्वचा से छूईं, तो सर्वज्ञ की धड़कन तेज हो गई।
उसका ध्यान धरा के चेहरे पर था—लंबे घुंघराले बाल उसके चेहरे के पास झूल रहे थे, उसकी ठुड्ढी के बीच में वह छोटा सा तिल, और उसकी आँखें, जो अब पूरी तल्लीनता से उसकी चोट पर केंद्रित थीं।
"तुम इतना लड़ने क्यों लगे थे?" धरा ने पूछा, उसकी आवाज़ में हल्की चिंता थी।
"क्योंकि…" सर्वज्ञ ने एक पल के लिए अपनी साँसें रोकीं।
धरा ने उसकी ओर देखा, "क्योंकि क्या?"
सर्वज्ञ ने हल्की मुस्कान के साथ कहा, "क्योंकि वो आपको छेड़ रहे थे।"
धरा का हाथ रुक गया।
धरा ने हल्की सख़्ती से कहा, "बोलो मत, बस चुपचाप बैठे रहो!"
सर्वज्ञ ने एक हल्की मुस्कान दी, "ठकुराइन, आपके हुक्म को कौन टाल सकता है!"
धरा ने उसे घूरा लेकिन बिना कुछ कहे आगे बढ़ी। अब उसकी नज़र सर्वज्ञ के होंठों के पास बह रहे हल्के से खून पर पड़ी।
"चोट यहाँ भी लगी है…" वह बुदबुदाई।
सर्वज्ञ ने उसकी आँखों में देखा—गहरी चिंता, परवाह, और कुछ ऐसा जिसे वह समझ नहीं पा रहा था।
"सांवरे, सिर सीधा करो," धरा ने धीरे से कहा।
सर्वज्ञ चुपचाप उसकी बात मान गया। वह सिर सीधा किए बैठा रहा, लेकिन उसकी नज़रें धरा के चेहरे से हटने का नाम ही नहीं ले रही थीं।
धरा की घुंघराली बालों की एक लट बार-बार उसके चेहरे पर गिर रही थी। सर्वज्ञ की नज़र उस लट पर जा टिकी।
गोरी सी धरा, उसके नर्म हाथ, माथे पर आई एक प्यारी सी शिकन, और ठुड्ढी के बीच में वो तिल… जैसे वक़्त थम सा गया था।
धरा ने बैग से एक साफ रूमाल निकाला, उसे हल्का गीला किया और धीरे-से सर्वज्ञ के होंठ के पास लगाया।
जैसे ही उसकी कोमल उंगलियाँ सर्वज्ञ के होंठ के पास छूईं, उसके शरीर में एक झुरझुरी सी दौड़ गई।
सर्वज्ञ ने अनायास अपनी आँखें बंद कर लीं।
धरा धीरे-धीरे उसके होंठ के कोने से खून साफ करने लगी। उसकी उंगलियाँ बेहद हल्की, बेहद नर्म थीं, लेकिन सर्वज्ञ के लिए वह छुअन बिजली जैसी थी।
धरा का दिल भी धड़क उठा। उसने हल्के से अपना होंठ काटा, मन में अजीब सी हलचल थी।
"हो गया," धरा ने धीमी आवाज़ में कहा।
सर्वज्ञ ने धीरे से आँखें खोलीं। उसकी नज़रें धरा पर जा टिकीं—चेहरा बेहद पास था, उसकी साँसें हल्की-हल्की उसके गालों को छू रही थीं।
कुछ पलों तक दोनों कुछ नहीं बोले।
फिर, धरा को अचानक एहसास हुआ कि वह कितनी करीब आ चुकी थी। उसकी उंगलियाँ अभी भी सर्वज्ञ के चेहरे के पास थीं।
"अ… अरे!" वह झट से पीछे हटी और खड़ी हो गई।
सर्वज्ञ को जैसे किसी सपने से झटका लगा हो। उसने खुद को सँभाला, लेकिन उसके होंठों पर एक हल्की मुस्कान थी।
क्रमशः
धरा ने घड़ी में समय देखा और उसकी आँखें बड़ी हो गईं—11:30!
"हे भगवान! अब कॉलेज जाने से कोई फायदा नहीं..."
सर्वज्ञ ने उसका चेहरा देखा और मुस्कुराया। "क्या हुआ, ठकुराइन?"
धरा ने उसकी तरफ देखते हुए गहरी साँस ली, "टाइम देखो, लेट हो गई हूँ। अब जाऊँ भी तो क्लास तो आधी खत्म हो चुकी होगी।"
"तो फिर क्या करें, ठकुराइन?"
धरा ने उसे घूरा, "कुछ नहीं! पहले घर चलो, ये हल्की-हल्की चोट तुम्हें दर्द कर रही होगी!"
सर्वज्ञ ने हाथ जोड़ते हुए कहा, "अरे नहीं-नहीं, मम्मी को पता चल गया तो मेरी खैर नहीं!"
धरा ने उसे घूरा, फिर अपनी बाहें मोड़ते हुए बोली, "और तुम? तुम तो मम्मी को चकमा देकर आए हो न? अगर उन्हें पता चल गया कि तुम घर पर नहीं हो तो?"
सर्वज्ञ ने एक लंबी साँस छोड़ी और सिर खुजाने लगा, "हम्म... वो तो है, लेकिन..."
फिर वह धरा के करीब आया और हल्की आवाज़ में बोला, "अगर पकड़ा गया, तो ठकुराइन बचा लेंगी न?"
धरा ने आँखें बड़ी कर दीं, "मैं? मैं क्यों?"
"क्योंकि आप मेरी दोस्त हो!"
धरा ने भौंहें चढ़ाते हुए कहा, "अरे! मैंने कब तुमसे दोस्ती की?"
सर्वज्ञ ने हल्के से अपना सिर हिलाया, एक हाथ कमर पर रखा और दूसरे हाथ से अपनी ठोड़ी को छूते हुए बड़े गंभीर अंदाज़ में बोला, "अजी ठकुराइन, दोस्ती तो कब की हो चुकी है, आपको पता ही नहीं चला!"
धरा ने होंठ टेढ़े किए, "सच में?"
सर्वज्ञ ने शरारत से सिर हिलाया, "बिलकुल! और दोस्त की बात कभी टाली नहीं जाती, तो अब चलिए!"
धरा ने उसे टोकते हुए कहा, "लेकिन ये दोस्ती वाली कहानी मुझे समझ नहीं आई!"
सर्वज्ञ ने एक गहरी साँस ली, फिर चुलबुले अंदाज़ में कहा, "अच्छा, तो बताइए, क्या आप मेरी बेइज्जती करती हो?"
धरा ने सिर हिलाया, "नहीं!"
"क्या मैं आपकी टांग खींचता हूँ?"
धरा ने फिर सिर हिलाया, "नहीं!"
सर्वज्ञ ने मुस्कुराते हुए अगला सवाल किया, "और क्या हम हर बात पर एक-दूसरे को तंग करते हैं?"
धरा ने हल्का मुस्कुराते हुए कहा, "हाँ, लेकिन वो तो..."
सर्वज्ञ ने उंगली उठाई, "बस! यही तो दोस्ती होती है ठकुराइन!"
धरा ने गहरी साँस ली और सर्वज्ञ को घूरा। "अच्छा? तो तुम्हारे हिसाब से जो लोग एक-दूसरे को तंग करते हैं, वो दोस्त होते हैं?"
"बिलकुल! और जो सबसे ज्यादा तंग करे, वो तो सबसे अच्छा दोस्त होता है!"
धरा ने आँखें छोटी कर लीं। "तो इसका मतलब तुम बहुत अच्छी दोस्ती निभा रहे हो?"
सर्वज्ञ ने गर्व से सिर ऊँचा किया। "बिलकुल! और मैं अपना फ़र्ज़ बखूबी निभा रहा हूँ!"
धरा ने गहरी साँस ली और सिर झुका लिया। "हे भगवान! इससे बहस करना ही बेकार है!"
लेकिन तभी सर्वज्ञ ने पेट पर हाथ रखा और एकदम मासूमियत से बोला, "पहले पेट पूजा!"
धरा ने भौहें चढ़ाईं, "मतलब?"
सर्वज्ञ ने अपनी आँखें घुमाईं, जैसे बहुत बड़ी बात कहने वाला हो, और फिर मासूमियत से बोला, "भूख लगी है, ठकुराइन!"
धरा ने अपनी हँसी रोकते हुए उसे देखा, "ओहो, तो अब भूख भी लग रही है! अभी थोड़ी देर पहले तो बड़े हीरो बन रहे थे, और अब?"
सर्वज्ञ ने नाटकीय अंदाज़ में सिर झुका लिया, "हीरो भी इंसान होता है, ठकुराइन! और इंसान को भूख भी लगती है!"
धरा ने सिर झटकते हुए कहा, "तो जाओ, कहीं से कुछ खा लो!"
सर्वज्ञ ने तुरंत भोली सूरत बनाकर कहा, "लेकिन अकेले खाने में मज़ा नहीं आएगा..."
धरा ने उसे घूरा, "तो?"
सर्वज्ञ ने शरारती मुस्कान के साथ कहा, "तो चलो न, मेरे फेवरेट ढाबे पे!"
धरा ने आकाश की तरफ देखा, जैसे भगवान से मदद मांग रही हो, फिर बोली, "तुम बहुत नटखट हो, सांवरे!"
5 मिनट बाद
धरा और सर्वज्ञ अब एक ढाबे में बैठे थे। धरा ने गिलास में पानी डाला और सर्वज्ञ को देखा। उसकी उँगलियाँ अब भी हल्का दर्द कर रही थीं, लेकिन वह मज़े में बैठा था, जैसे कुछ हुआ ही न हो।
"तुम्हें दर्द हो रहा है, है ना?" धरा ने सीधा सवाल दागा।
सर्वज्ञ ने तुरंत सिर हिलाया, "अरे नहीं! मैं तो बहुत मज़बूत हूँ!"
धरा ने आँखें घुमाईं, "अच्छा? तो ये जो तुम बार-बार उँगलियाँ दबा रहे हो, वो क्या है?"
सर्वज्ञ थोड़ा झेंप गया। "वो... वो तो बस ऐसे ही..."
धरा ने गिलास नीचे रखा और झुककर उसकी उँगलियाँ पकड़ लीं।
सर्वज्ञ की धड़कन तेज़ हो गई।
"बेवकूफ़! दर्द हो रहा है तो मान क्यों नहीं लेते?" धरा ने हल्की नाराज़गी से कहा।
सर्वज्ञ उसे देखता रह गया। उसकी आवाज़ में जो परवाह थी, वह उसे कुछ पल के लिए चुप करा गई।
फिर, धरा ने उसकी हथेली को हल्के से सहलाया और धीरे से कहा, "अभी भी जिद करोगे?"
सर्वज्ञ ने एक गहरी साँस ली, जैसे वह किसी बहुत कठिन परीक्षा में हो। फिर हल्की मुस्कान के साथ बोला, "ठकुराइन, आप ऐसे हाथ पकड़ोगी तो दर्द क्या, धड़कन भी तेज़ हो जाएगी!"
धरा ने तुरंत उसका हाथ छोड़ दिया और भौंहें चढ़ाईं, "बहुत बोलते हो तुम!"
सर्वज्ञ ने शरारत से सिर हिलाया, "बिल्कुल! और बिना बोले रह भी नहीं सकता!"
धरा ने सिर झटककर वेटर को बुलाया, "भैया, जल्दी से खाना लाओ!"
सर्वज्ञ ने उत्साह से कहा, "हाँ हाँ, और मेरे लिए मेरा फेवरेट—"
वेटर ने बीच में ही मुस्कुराते हुए कहा, "जी, आपके लिए वही पुराना—पनीर पराठा और लस्सी!"
धरा ने वेटर की तरफ देखा, फिर सर्वज्ञ की तरफ, "अच्छा, मतलब इतनी बार आते हो यहाँ?"
सर्वज्ञ ने मुस्कुराते हुए कहा, "अरे हाँ! यह ढाबा मेरा दूसरा घर है!"
धरा ने आँखें घुमाईं, "अब समझ आया कि तुम हमेशा इतने मस्तीखोर क्यों रहते हो!"
सर्वज्ञ ने नाटकीय अंदाज़ में कहा, "मस्ती तो जिंदगी का दूसरा नाम है, ठकुराइन!"
धरा ने लंबी साँस ली, "बस, बस! पहले खाना खा लो, फिर दर्शन देना!"
कुछ देर बाद खाना आ गया। सर्वज्ञ ने पहला निवाला लिया और आँखें बंद करके बोला, "वाह! ठकुराइन, एक बार खाओ, मज़ा आ जाएगा!"
धरा ने हल्की मुस्कान के साथ निवाला लिया और कहा, "सच में... ये तो बहुत स्वादिष्ट है!"
सर्वज्ञ ने गर्व से कहा, "कहा था ना! अब बोलो, दोस्त अच्छे नहीं होते?"
धरा ने उसकी तरफ देखते हुए कहा, "कभी-कभी ठीक होते हैं, लेकिन जब ज़्यादा बोलने लगें, तो सिरदर्द भी बन जाते हैं!"
सर्वज्ञ ने हँसते हुए कहा, "तो फिर, सिरदर्द के साथ जीने की आदत डाल लो, ठकुराइन!"
धरा ने हँसते हुए सिर हिला दिया और खाना खाने लगी।
कुछ देर बाद…
सर्वज्ञ ने धीरे से धरा की तरफ देखा। वो बस खाना खा रही थी, बिना इस बात की परवाह किए कि सामने बैठा लड़का उसे कितनी गहराई से निहार रहा है। उसकी हर अदा, हर हँसी, हर नखरा—सब कुछ सर्वज्ञ के दिल को बेइंतहा सुकून दे रहा था।
"क्या देख रहे हो?" धरा ने अचानक उसकी ओर देखा तो सर्वज्ञ हड़बड़ा गया।
"कुछ नहीं! खाना बहुत स्वादिष्ट है, बस उसी की तारीफ़ कर रहा था!"
सर्वज्ञ ने जल्दी से नज़रें झुका लीं और अपनी लस्सी का घूंट लिया। पर उसका दिल… वो तो धरा में ही अटका हुआ था।
धरा ने एक कौर मुँह में रखते हुए कहा, "तुम्हारे जैसे पागल मैंने पहली बार देखा है!"
सर्वज्ञ हँस पड़ा। "पागल? हाँ, शायद… लेकिन किसी के लिए पागल होना भी तो ज़रूरी होता है ना?"
धरा ने अजीब नज़रों से उसे देखा, "मतलब?"
सर्वज्ञ ने मुस्कुराकर सिर हिलाया, "कुछ नहीं, बस यूँ ही…"
लेकिन उसके मन में हलचल थी। धरा को अब तक अंदाज़ा भी नहीं था कि उसकी हर छोटी-छोटी हरकत, हर मासूमियत भरी बात सर्वज्ञ के दिल में क्या असर छोड़ रही थी। वो उसे सिर्फ़ एक दोस्त समझती थी, मगर सर्वज्ञ… वो तो कब से धरा को अपने दिल में बसा चुका था।
"एक बात पूछूँ, ठकुराइन?"
"हम्म, पूछो?"
लेकिन अगले ही पल, जैसे उसे अपनी गलती का एहसास हुआ हो, सर्वज्ञ ने जल्दी से सिर हिलाया। "कुछ नहीं, छोड़ो।"
धरा ने भौंहें चढ़ाईं। "अरे नहीं, अब बताओ भी!"
सर्वज्ञ ने लस्सी का घूंट लिया और जबरन मुस्कुराया। "बस यूँ ही... कोई ख़ास बात नहीं थी।"
धरा ने उसे संदेह से देखा, लेकिन कुछ नहीं कहा।
खाने के बाद, दोनों ढाबे से बाहर निकले। धरा ने अपना दुपट्टा ठीक किया और सर्वज्ञ की तरफ़ देखा। "अब कहाँ चलना है, मिस्टर सिरदर्द?"
सर्वज्ञ ने लंबी साँस ली और मुस्कुराया। "अब तो घर छोड़ना पड़ेगा, ठकुराइन, वरना मम्मी हमें ढूँढती हुई यहाँ न आ जाएं।"
धरा हँस पड़ी। "सही कहा! वैसे भी तुम्हारी मम्मी से डरने के लिए सिर्फ़ तुम ही काफी हो!"
सर्वज्ञ ने हल्का सिर झुकाया, "अरे! मम्मी से कौन नहीं डरता? लेकिन सबसे ज़्यादा तो..." वह रुक गया।
धरा ने भौंहें चढ़ाईं। "सबसे ज़्यादा क्या?"
सर्वज्ञ ने उसकी तरफ़ देखा, उसकी आँखों में कुछ अनकहा था। फिर अचानक उसने हँसी में बात टाल दी। "अरे कुछ नहीं, बस चलो।"
धरा ने होंठ टेढ़े किए। उसे सर्वज्ञ के व्यवहार में उसे कुछ अजीब लग रहा था।
सड़क पर धरा तेज़ कदमों से चल रही थी, लेकिन सर्वज्ञ अपनी वही मस्तमौला चाल में उसके पीछे-पीछे चला आ रहा था, हाथ में उसका बैग झुलाते हुए।
"सांवरे, मैंने कहा ना, मेरा बैग दो!"
"अरे बाबा, लड़की जात से भारी सामान नहीं उठवाते, ये तो आपके पूर्वजों ने भी कहा होगा!"
"ओह, मतलब तुम खुद को मेरा पूर्वज मानते हो?"
"न-नहीं, मैं तो वो वाला प्रोटेक्टिव हीरो हूँ जो अपनी हीरोइन का बैग उठाकर चलता है!"
"उफ़्फ़! इतना ड्रामा क्यों कर रहे हो?"
धरा ने बैग छीनने की कोशिश की, लेकिन सर्वज्ञ ने झटके से बैग ऊपर उठा दिया।
"लो कर लो बात! आपसे तो बैग तक नहीं छीना जा रहा, और मुझसे कह रही थी कि खुद उठा सकती हो!"
धरा ने जलती हुई नज़रों से उसे देखा, फिर अचानक एक चालाकी सूझी। वो रुक गई और मासूमियत से मुस्कुराई।
"अच्छा बाबा, थैंक्यू! अब दे भी दो..."
सर्वज्ञ ने संशय से कहा,"इतनी आसानी से मान गई? कुछ गड़बड़ है!"
"नहीं रे! तुझे मेरी हेल्प करनी थी, तुमने कर दी... अब दे दे बैग!"
सर्वज्ञ थोड़ा पिघल गया, उसने बैग नीचे किया ही था कि धरा ने झट से पकड़ लिया। लेकिन जैसे ही उसने बैग खींचा, सर्वज्ञ ने भी मज़ाक में ज़ोर लगा दिया... और फिर...
'धप्प!'
बैग का सारा सामान सड़क पर बिखर गया! किताबें, पेन, एक चॉकलेट, और... एक गुलाबी डायरी!
सर्वज्ञ चौंकते हुए, डायरी उठाकर कहा,"ओहो! ये क्या है? राज़ की बातें?"
"नहीं, वो... बस ऐसे ही..."
लेकिन सर्वज्ञ के चेहरे पर एक शरारती मुस्कान थी। उसने डायरी खोली और पढ़ने का नाटक करने लगा—
"डियर डायरी, आज मैंने एक बहुत हैंडसम लड़के को देखा..."
"पागल हो क्या! ऐसे कुछ नहीं लिखा है!"
"तो क्या लिखा है? चलो, बताओ!"
धरा ने तुरंत डायरी छीनी और उसे बैग में रख लिया। उसका चेहरा लाल हो गया था, लेकिन सर्वज्ञ बस मुस्कुरा रहा था।
"हाहा! मैं तो ऐसे ही बोल रहा था, पर लगता है सच में कुछ लिखा होगा!"
सर्वज्ञ अब भी मुस्कुरा रहा था, लेकिन धरा के चेहरे की हल्की गुलाबी रंगत देखकर उसकी मुस्कान और गहरी हो गई। वह जानता था कि उसने उसे छेड़ दिया है, और यही तो उसका असली मक़सद था।
धरा गुस्से में आगे बढ़ने लगी, लेकिन सर्वज्ञ फिर से उसके पीछे-पीछे चलने लगा।
थोड़ी देर बाद धरा हॉस्टल के सामने रुकी और एक लंबी साँस ली। उसने पलटकर सर्वज्ञ की तरफ़ देखा, जो अब अपने घर के पीछे की गली में मुड़ने की तैयारी कर रहा था।
वो गेट के अंदर घुसी ही थी कि पीछे से आवाज़ आई—
"अच्छा सुनो!"
धरा ने पलटकर देखा। सर्वज्ञ गली के कोने में खड़ा था, चेहरे पर वही शरारती मुस्कान।
"क्या?" धरा ने भौंहें चढ़ाते हुए पूछा।
"डायरी में मेरा नाम नहीं लिखा तो कोई बात नहीं... लेकिन कम से कम आज के पन्ने में तो मेरा जिक्र करना मत भूलना!"
धरा ने गुस्से में मुट्ठी भींची। "पागल हो क्या? जाओ यहाँ से, तुम्हारी मम्मी पकड़ लेंगी!"
सर्वज्ञ ने हँसते हुए उसे सैल्यूट मारा और अपने घर की ओर बढ़ गया, जहाँ उसे पिछले दरवाजे से अंदर जाना था।
धरा ने गहरी साँस ली और अंदर चली गई। कमरे में पहुँचते ही उसने बैग पटका, डायरी निकाली और थोड़ी देर उसे घूरती रही।
फिर हल्की मुस्कान के साथ उसने पन्ना खोला और लिखा—
"आज का दिन बहुत अजीब था… और थोड़ा ख़ास भी।
सांवरे ने आज फिर… फिर वही किया जो पहली मुलाक़ात में की थी—मदद....और मुझे हँसाया, मुझे तंग किया, और फिर जाते-जाते कुछ ऐसा बोल गया जो दिल में कहीं गहरे अटक गया।
‘कम से कम आज के पन्ने में मेरा ज़िक्र करना मत भूलना!’
पागल कहीं का!
जाने क्यों उसकी ये बात दिल में गूँज रही है। जैसे कोई अनदेखा धागा है, जो उसे मुझसे बाँधता जा रहा है। नहीं, नहीं… ये सिर्फ़ एक मज़ाक है। है ना?"
धरा ने कलम रोक दी और खुद को झिड़का। "ये क्या लिख रही हूँ मैं?"
वो झटके से डायरी बंद करके तकिए के नीचे रख दी। लेकिन उसके होंठों पर अनजाने में ही मुस्कान तैर गई।
उधर सर्वज्ञ अपने कमरे में खिड़की से हॉस्टल की ओर देख रहा था।
उसने खुद से कहा, "बस इतना ही चाहिए था… कि मेरा नाम उनकी डायरी में आ जाए।"
फिर उसने आँखें बंद कीं, और मुस्कुरा दिया।
क्रमशः
(प्लीज मुझे फॉलो कर लिजिए)
रात का समय था।
हाईवे पर हल्की ठंडी हवा बह रही थी। चारों तरफ अंधेरा था, लेकिन सड़क किनारे लगे लैम्प्स की रोशनी कभी-कभी कार के शीशों पर झलक जाती थी। चित्रांश चुपचाप गाड़ी चला रहा था, जबकि केशवी उसकी बगल में बैठी थी, उसकी ओर हल्की-हल्की नज़रें डालती हुई।
केशवी ने महसूस किया कि चित्रांश अभी भी थोड़ा खोया हुआ था। उसकी आँखों में हल्की थकान थी, लेकिन वह जबरदस्ती मुस्कुराने की कोशिश कर रहा था।
"आप कुछ सोच रहे हैं?" केशवी ने धीरे से पूछा।
चित्रांश ने हल्की मुस्कान दी। "नहीं, बस यूँ ही..."
केशवी ने उसकी ओर ध्यान से देखा, फिर हल्की शरारती मुस्कान के साथ बोली, "झूठ मत बोलिए। मैं जानती हूँ कि कुछ तो है।"
चित्रांश ने उसे देखा, फिर सड़क पर नज़रें टिकाते हुए हल्के से सिर हिलाया। "कुछ नहीं, सच में। बस थोड़ी थकान लग रही है।"
केशवी ने उसकी आँखों में झांकते हुए धीरे से कहा, "तो थकान दूर करने का एक तरीका बताऊँ?"
चित्रांश ने हल्की मुस्कान के साथ पूछा, "क्या?"
अगले ही पल, केशवी ने बिना कुछ कहे हल्का-सा झुककर उसके गाल पर अपने नरम, गर्म होंठों की छाप छोड़ दी।
उस क्षण, मानो सब कुछ ठहर गया।
स्टेयरिंग थामे चित्रांश की उंगलियाँ हल्की सी जकड़न में बदल गईं, उसकी आँखें चौड़ी हो गईं, और दिल की धड़कन अचानक एक पल को रुककर फिर तेज़ी से धड़कने लगी। हवा अब भी वही थी, हाईवे अब भी वही था, लेकिन उस एहसास ने जैसे पूरी दुनिया बदल दी।
गाड़ी की रफ़्तार खुद-ब-खुद कम हो गई। चित्रांश ने झटके से ब्रेक लगाया और सड़क किनारे कार रोक दी। उसके हाथ अब भी स्टेयरिंग पर थे, लेकिन उसका ध्यान कहीं और था—सिर्फ केशवी पर।
उसने धीरे से उसकी ओर देखा। केशवी हल्की-सी मुस्कुरा रही थी, लेकिन उसकी आँखों में एक अनकहा सवाल था—क्या उसने कुछ गलत कर दिया?
चित्रांश को अब भी यकीन नहीं हो रहा था। वह पल, वह छुअन, वह एहसास... उसके लिए बिल्कुल नया था। उसकी आँखों में हल्की चमक आ गई, जैसे उसने कुछ ऐसा पाया हो जिसकी उसे तलाश थी, लेकिन उसे कभी अहसास नहीं हुआ था।
"के... केशवी?" उसकी आवाज़ थोड़ी भारी हो गई थी।
"हूँ?" केशवी ने धीमे से कहा।
चित्रांश ने एक लंबी साँस भरी, उसकी धड़कनों की तेज़ी अब भी कायम थी। "तुमने... अभी...?"
केशवी हंस दी, "हाँ... क्यों? पसंद नहीं आया?"
चित्रांश ने कुछ पल उसे देखा, फिर उसकी आँखों में कुछ ऐसा था जिसे केशवी ठीक से पढ़ नहीं पाई—हैरानी, खुशी या कुछ और?
फिर अचानक, उसने अपनी नज़रें फेर लीं, हल्का-सा सिर झटका, जैसे खुद को संयत करने की कोशिश कर रहा हो। लेकिन उसके चेहरे पर आई हल्की लाली सब बयां कर रही थी।
"नहीं... मतलब हाँ... मेरा मतलब..." उसने शब्दों को जैसे संभालने की कोशिश की, लेकिन केशवी की मुस्कान देखकर खुद ही हंस दिया।
"मतलब?" केशवी ने शरारती अंदाज़ में उसकी ओर झुकते हुए पूछा।
चित्रांश ने गहरी साँस ली, फिर मुस्कुराते हुए कहा, "मतलब... ये तो मेरे दिमाग में भी नहीं था!"
चित्रांश का दिल अब भी ज़ोर-ज़ोर से धड़क रहा था। उसकी साँसें थोड़ी गहरी हो गई थीं, जैसे अभी-अभी कोई दौड़ पूरी की हो। उसे अपने ही दिल की धड़कन सुनाई दे रही थी—तेज़, बेसब्र, और बेकाबू।
उसने एक पल के लिए अपनी उंगलियाँ स्टेयरिंग से हटाईं और अपनी हथेलियाँ आपस में रगड़ी, मानो खुद को इस नई अनुभूति के लिए तैयार कर रहा हो। मगर उस हल्के से स्पर्श की गर्माहट अब भी उसके गालों पर बाकी थी, उसकी नसों में बिजली-सी दौड़ रही थी।
केशवी चुपचाप उसे देख रही थी। उसने हल्के से अपनी आँखें झुका लीं, मगर उसकी मुस्कराहट अब भी कायम थी।
चित्रांश ने धीमे से अपनी उंगलियाँ अपनी कनपटी पर फेरीं, मानो खुद को यकीन दिला रहा हो कि यह सब असल में हुआ है। उसके कानों में अब भी अपनी ही धड़कनों की आवाज़ गूंज रही थी—अनियंत्रित, अनियंत्रणीय।
केशवी ने हल्के से सिर झुकाया और अपनी नर्म आवाज़ में फुसफुसाई, "इतना सोच क्या रहे हैं?"
चित्रांश ने एक गहरी साँस ली और फिर उसकी ओर देखा। उसकी आँखों में अब भी हल्की-सी हैरानी थी, मगर साथ ही कुछ और भी—एक गहरी, अनकही अनुभूति।
"तुम्हें पता है..." उसकी आवाज़ धीमी थी, मगर उसमें कुछ ऐसा था जो हवा में ठहर सा गया। "तुमने अभी मेरी धड़कनें हज़ार गुना तेज़ कर दी हैं।"
केशवी हल्का-सा मुस्कुराई, फिर उसके करीब झुकते हुए धीमे से बोली, "और... अगर मैं कहूँ कि मैंने जानबूझकर ऐसा किया?"
चित्रांश की साँसें फिर से तेज़ हो गईं। उसकी नज़रें केशवी की आँखों में टिक गईं, जो गहरी, चमकती हुई और रहस्यमयी थीं।
"जानबूझकर?" उसने धीमे से पूछा।
केशवी ने हल्के से सिर हिलाया, फिर अपनी उंगलियाँ धीरे-से उसकी हथेलियों पर रख दीं। उसकी छुअन नरम थी, लेकिन उसमें एक सिहरन थी, जिसने चित्रांश के पूरे वजूद को झकझोर दिया।
"हाँ..." उसने मुस्कुराते हुए कहा। "क्योंकि मैं जानना चाहती थी कि आपका दिल... मेरे लिए कितना तेज़ धड़क सकता है।"
चित्रांश ने उसकी आँखों में देखा, फिर हल्का-सा मुस्कुराया, मानो खुद को संभालने की कोशिश कर रहा हो।
"तो फिर?" उसने गहरी आवाज़ में कहा। "अब जान लिया?"
केशवी ने अपनी उंगलियाँ उसकी हथेलियों से हटाकर हल्के-से उसके सीने पर रख दीं, जहाँ अब भी दिल की धड़कनें तूफ़ान मचाए हुए थीं।
"अब भी जानने की कोशिश कर रही हूँ..." उसने शरारती लहजे में कहा।
चित्रांश ने एक लंबी साँस ली, फिर अपनी हथेली उसकी हथेली पर रख दी।
"तो फिर, ठीक से सुनो... क्योंकि अब ये धड़कनें सिर्फ तुम्हारे नाम पर चल रही हैं, केशवी।"
केशवी के होंठों पर हल्की मुस्कान तैर गई, लेकिन उसकी आँखें अब भी चित्रांश की धड़कनों को महसूस करने में खोई थीं। उसकी हथेली के नीचे, चित्रांश का दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़क रहा था—बेताब, बेसब्र, और बेइंतेहा तेज़।
हवा अब भी वही थी, हाईवे अब भी वही था, लेकिन इस एहसास ने जैसे पूरी दुनिया बदल दी थी।
चित्रांश ने धीरे से उसकी हथेली पकड़ ली, उसकी उंगलियों को अपनी उंगलियों में उलझाते हुए। "अब?" उसकी आवाज़ धीमी थी, लेकिन उसमें एक अजीब-सा खिंचाव था—जैसे कोई पहली बार अपने जज़्बातों को महसूस कर रहा हो।
केशवी ने हल्की मुस्कान के साथ अपनी उंगलियाँ उसकी हथेलियों में और कस दीं। "अब... और तेज़ कर सकती हूँ?"
चित्रांश ने एक पल को उसकी आँखों में देखा, फिर गहरी साँस लेते हुए बोला, "केशवी, मुझे नहीं पता कि तुम क्या करने वाली हो, लेकिन अगर मेरा दिल और तेज़ धड़कने लगा, तो शायद मैं खुद को संभाल नहीं पाऊँगा।"
केशवी हल्का-सा हंसी, फिर धीरे से उसकी ओर झुकी और उसके कानों के करीब फुसफुसाई, "तो फिर... संभलने की कोशिश मत करो।"
चित्रांश का दिल जैसे सच में एक पल के लिए रुक गया। उसकी साँसें गहरी हो गईं। उसकी उंगलियाँ केशवी की उंगलियों को कसकर पकड़ने लगीं।
कुछ देर तक, दोनों के बीच एक गहरा सन्नाटा था—ऐसा सन्नाटा जो सिर्फ एहसासों की आवाज़ से भरा हुआ था।
फिर अचानक, चित्रांश ने हल्का-सा मुस्कुराते हुए कहा, "जानती हो, केशवी..."
"क्या?"
"अब जब भी मेरी धड़कनें तेज़ होंगी, मुझे यकीन रहेगा कि तुम कहीं आसपास ही हो।"
केशवी ने हल्की मुस्कान के साथ उसकी उंगलियाँ और कस दीं। "और मैं चाहती हूँ कि ये धड़कनें हमेशा मेरे नाम से तेज़ होती रहें।"
गाड़ी अब भी सड़क किनारे खड़ी थी। सड़क सुनसान थी, हवा हल्की-हल्की बह रही थी, और आसमान में तारों की हल्की झिलमिलाहट थी।
कुछ देर तक दोनों के बीच कोई शब्द नहीं थे, सिर्फ एहसासों की नर्मी और दिलों की धड़कनें थीं।
लेकिन वहीं, दूर... कहीं अंधेरे में, कोई और भी था।
कोई, जो उनकी हर नज़दीकी देख रहा था।
कोई, जिसकी आँखों में गुस्सा था।
कोई, जिसकी रगों में जलन थी...
सुबह का समय था।
सुबह की हल्की धूप गुलमोहर गर्ल्स हॉस्टल की बालकनी पर बिखरी हुई थी। धरा की आँखें बड़ी मुश्किल से खुलीं।
"ओह शिट!"
उसने घड़ी देखी, और तुरंत बिस्तर से कूद पड़ी। आज उसकी अलार्म बजने के बावजूद नींद नहीं खुली थी।
जल्दी-जल्दी उसने बाथरूम में घुसकर नहाने का काम निपटाया। फिर बिना सोचे-समझे अपनी ब्लैक टीशर्ट और ब्लैक जीन्स निकाली, ऊपर से पिंक लॉन्ग जैकेट डाल ली और काले जूते पहन लिए। बालों को जल्दबाज़ी में एक ऊँची पोनीटेल में बाँध दिया।
फिर बिना किसी को देखे, सीधा हॉस्टल के मेस में भागी।
दो बाइट ब्रेड खाई, जूस का एक घूंट लिया और बाहर निकलते ही बड़बड़ाने लगी—
"हे भगवान! दस मिनट लेट! आज तो फुल स्पीड में जाना पड़ेगा!"
लेकिन जैसे ही उसने बाहर कदम रखा, सामने किसी को देखकर उसके पैर थम गए।
साइकिल पर टिककर खड़ा सर्वज्ञ, स्कूल ड्रेस में।
"सांवरे! तुम गए नहीं अभी तक स्कूल?" धरा ने चौंककर पूछा।
सर्वज्ञ ने मुस्कान दबाते हुए कहा, "ठकुराइन, आपका ही वेट कर रहा था!"
धरा ने आँखें तरेरीं। "मेरा? क्यों?"
सर्वज्ञ ने साइकिल की सीट पर बैठते हुए मुस्कुराकर कहा, "अरे पहले बैठिए ठकुराइन, लेट हो जाएँगी आप... और मैं भी!"
धरा ने भौहें चढ़ाते हुए कहा, "लेकिन मैंने तो नहीं कहा था मेरा वेट करने को?"
सर्वज्ञ ने आँखें नचाईं। "अरे नहीं आपने नहीं कहा, यह तो बस मेरी दयालुता है!"
धरा ने एक लंबी साँस ली। "पहली बात, मुझे तुम्हारी दया नहीं चाहिए! और दूसरी बात, मैं तुम्हारी साइकिल पर नहीं बैठने वाली!"
सर्वज्ञ ने सिर हिलाया। "सोच लो! कॉलेज जल्दी पहुँचोगी!"
धरा ने उसे घूरा, फिर अपनी घड़ी देखी—सच में देर हो रही थी।
"बिलकुल नहीं!" धरा ने झट से जवाब दिया और आगे बढ़ने लगी।
सर्वज्ञ ने साइकिल घुमाई और उसके साथ-साथ चलने लगा।
"ठकुराइन, सोच लो! वरना आप यूँ ही धूप में पिघलती रहोगी, और मेरी साइकिल मस्त ठंडी हवा खाते हुए जाएगी!"
धरा ने कदम तेज किए, लेकिन सर्वज्ञ ने अपनी साइकिल की रफ्तार बढ़ा दी।
"अच्छा छोड़ो, मैं तो चला!" उसने साइकिल मोड़ ली।
धरा ने अपनी घड़ी देखी—अब सच में बहुत देर हो चुकी थी।
"रुको!"
क्रमशः
धरा ने अपनी घड़ी देखी—अब सच में बहुत देर हो चुकी थी।
"रुको!"
सर्वज्ञ की मुस्कान चौड़ी हो गई। "तो बैठोगी?"
धरा ने एक लंबी साँस भरी...
धरा जैसे ही कैरियर पर बैठी, सर्वज्ञ का दिल एकदम से ज़ोर से धड़क उठा!
उसने साइकिल के पैडल पर पैर रखा, लेकिन ध्यान कहीं और था—पीछे धरा बैठी है! सच में!
हल्की ठंडी हवा चली, और धरा के खुले बाल उसके कंधे को छू गए।
"अरे बाप रे!" सर्वज्ञ ने मन ही मन कहा, "ये क्या हो रहा है मुझे?"
वो नॉर्मली साइकिल चलाना चाहता था, लेकिन उसके हाथ-पैर एकदम अलग ही मूव कर रहे थे!
धरा ने पीछे से झकझोरा। "क्या कर रहे हो? सीधा चलाओ!"
सर्वज्ञ तुरंत होश में आया, "ह-हाँ, हाँ! सीधा चला रहा हूँ!"
लेकिन फिर भी…उसका दिमाग एकदम शॉर्ट सर्किट!
साइकिल एकदम धीमी हो गई थी।
धरा झुंझलाकर बोली, "क्या कर रहे हो सांवरे? मुझे देर हो रही है!"
सर्वज्ञ हड़बड़ाया। "ह-हाँ, बस…ब्रेक चेक कर रहा था!"
धरा ने आँखें घुमाईं। "ओफ्फो! प्लीज़ फुल स्पीड में चलाओ!"
"फुल स्पीड?" सर्वज्ञ को लगा, अगर उसने स्पीड बढ़ाई तो उसका दिल सीधा हॉर्न बजाने लगेगा!
फिर भी, उसने पैडल मारा और साइकिल ने रफ्तार पकड़ ली।
लेकिन तभी…
धरा अचानक थोड़ा झुकी और उसकी पीठ से हल्का टकराई!
"धक!"
सर्वज्ञ की धड़कनें तिगुनी स्पीड में दौड़ने लगीं!
"ओ तौबा! ठकुराइन पीठ से टकरा गईं! भगवान बचाए!"
उसकी पकड़ हैंडल पर ढीली पड़ने लगी।
धरा को एहसास भी नहीं हुआ, लेकिन सर्वज्ञ का दिमाग एकदम सुन्न पड़ गया था!
"सांवरे, ये साइकिल झटका क्यों खा रही है?" धरा ने शक से पूछा।
सर्वज्ञ ने किसी तरह खुद को नॉर्मल किया, "वो…वो सड़क खराब है!"
"सड़क?" धरा ने नीचे देखा—सड़क तो एकदम स्मूथ थी!
"कुछ तो गड़बड़ है!"
धरा ने जैसे ही सवाल करने के लिए मुँह खोला—
सर्वज्ञ ने तुरंत बात घुमा दी—"अरे ठकुराइन, तुम्हारे बाल बहुत लंबे हैं!"
धरा अचानक चौंकी, "क्या?"
"हाँ हाँ, मतलब हवा में उड़ रहे हैं, एकदम फिल्मी सीन लग रहा है!"
धरा ने जल्दी से अपने बाल ठीक किए। "ध्यान से चला रहे हो ना?"
सर्वज्ञ ने जल्दी से सिर हिलाया। "हाँ हाँ! मैं तो बहुत ध्यान से…"
"धक!"
धरा फिर हल्का सा आगे हुई, और सर्वज्ञ का दिल फिर से जोरों से उछल गया!
"भगवान! ये लड़की मेरी हार्टबीट को सीधा स्पेस रॉकेट बना देगी!"
अब तो हालत ऐसी थी कि सर्वज्ञ को खुद ही समझ नहीं आ रहा था कि वो साइकिल चला रहा है या साइकिल उसे!
धरा ने फिर पूछा, "तुम सच में नॉर्मल हो ना?"
सर्वज्ञ ने जबरदस्ती मुस्कान बनाई, "बिल्कुल! मज़े में हूँ! एकदम शांत!"
लेकिन हकीकत ये थी—
दिल में ढोल-नगाड़े बज रहे थे!
सर्वज्ञ का दिल बेकाबू हो रहा था!
धरा जैसे ही हल्की-सी और झुकी, सर्वज्ञ के कान तक गरम हो गए।
"हे भगवान! ठकुराइन को क्या पता कि ये छोटा-सा सफर मेरे लिए किसी भूकंप से कम नहीं!"
वो जितना खुद को कूल दिखाने की कोशिश कर रहा था, उतना ही अजीब महसूस कर रहा था।
और तभी—
साइकिल हल्की-सी लड़खड़ा गई!
"अरे!" धरा ने झट से उसका कंधा पकड़ लिया!
सर्वज्ञ को ऐसा लगा जैसे किसी ने उसके दिल को 440 वोल्ट का झटका दे दिया हो!
उसके दिमाग में सायरन बजने लगे—
"सावधान! सावधान! ठकुराइन ने कंधा पकड़ लिया है! कृपया अपना होश बनाए रखें!"
लेकिन होश कहाँ था उसके पास?
धरा ने घबराकर पूछा, "क्या कर रहे हो? सीधा चलाओ!"
सर्वज्ञ हड़बड़ाया, "ह-हाँ! सीधा ही तो चला रहा हूँ!"
लेकिन उसका दिमाग तो सीधा उड़ चुका था!
धरा अब भी उसके कंधे को हल्का-सा पकड़े थी, और सर्वज्ञ की हालत ऐसी थी कि मानो किसी ने उसका ब्रेन रीस्टार्ट कर दिया हो!
वो पूरी कोशिश कर रहा था कि नॉर्मल दिखे, लेकिन उसकी साँसें इतनी तेज़ चल रही थीं कि खुद उसे सुनाई दे रही थीं!
"भगवान! ये लड़की मेरे नर्वस सिस्टम की वाट लगा देगी!"
इसी बीच, कॉलेज का गेट सामने आ गया।
धरा बोली, "रुको! मैं उतरती हूँ!"
सर्वज्ञ ने तुरंत ब्रेक लगाया—लेकिन थोड़ी ज़्यादा ही जल्दी!
"धचाक!"
साइकिल हल्की-सी झटके से रुकी, और धरा एकदम से उसकी पीठ से टकरा गई!
सर्वज्ञ की आँखें फटी रह गईं!
"हे महादेव! ठकुराइन ने आज कसम खा ली है कि मुझे स्वर्ग भेजकर ही मानेंगी!"
धरा झुंझलाकर बोली, "सांवरे! क्या कर रहे हो?"
सर्वज्ञ ने खुद को संभाला, "अ- अरे, गलती से हो गया! ब्रेक थोड़ा तेज़ लग गया!"
धरा ने उसे घूरा, फिर धीरे से साइकिल से उतरी।
लेकिन…
जैसे ही धरा उतरी, सर्वज्ञ को महसूस हुआ—
ये सफर बहुत छोटा था!
बस कुछ ही मिनटों का, लेकिन उसे लगा कि जैसे उसकी पूरी दुनिया उलट-पलट हो गई हो!
धरा बैग ठीक करते हुए बोली, "थैंक्स, अब जाओ! तुम्हें भी स्कूल के लिए देर हो रही होगी!"
सर्वज्ञ ने धीरे से सिर हिलाया।
धरा कॉलेज के गेट में घुसी, और सर्वज्ञ एक पल के लिए वहीं खड़ा रहा।
फिर एक लंबी साँस ली, और साइकिल मोड़कर अपने स्कूल के रास्ते चल दिया।
लेकिन अब भी…
उसकी पीठ पर धरा का हल्का-सा स्पर्श महसूस हो रहा था।
दिल अभी भी धक-धक कर रहा था!
सर्वज्ञ को ऐसा लगा जैसे सफर कुछ ज्यादा ही छोटा हो गया!
धरा को कॉलेज छोड़ने के बाद जब उसने साइकिल मोड़ी और अपने स्कूल के रास्ते पर चला, तो उसके दिल में एक अजीब-सी कमी महसूस हुई।
"बस इतनी जल्दी सफर खत्म?"
सामने धूल उड़ाती सड़क, पेड़ों की ठंडी छांव, दूर दिखता स्कूल का गेट—सब कुछ वैसा ही था, लेकिन कुछ अलग भी लग रहा था।
धरा का हँसता-मुस्कुराता चेहरा, उसकी मीठी डांट, और वो हल्का-सा टकराना—सब कुछ अभी भी उसके दिमाग में घूम रहा था।
"अरे बाप रे! मैं सोच क्या रहा हूँ?" उसने खुद को झटका दिया।
लेकिन फिर भी…साइकिल थोड़ी धीमी हो गई।
रोज़ उसे यही रास्ता लंबा लगता था, लेकिन आज?
आज ये रास्ता एकदम छोटा लग रहा था, जैसे कुछ अधूरा छूट गया हो।
सर्वज्ञ स्कूल पहुँच तो गया, लेकिन उसका दिल अभी भी कॉलेज के बाहर खड़ा था!
धरा की छुअन... उसकी आवाज़... उसकी घूरती हुई आँखें...
सबकुछ अब भी उसके ज़ेहन में घूम रहा था।
"हे महादेव! ये लड़की मेरी नर्वस सिस्टम की दुश्मन बन गई है!"
साइकिल स्टैंड में साइकिल खड़ी करके जैसे ही वो अंदर बढ़ा, सामने श्रीदम और मंगल दोनों हाथ बाँधे खड़े थे।
"लो! ये दोनों CID एजेंट्स फिर से तैयार हैं मुझसे सवाल-जवाब करने!"
श्रीदम ने दूर से ही देखा और आँखें छोटी कर लीं।
"अरे बेटा... आज तो तेरा चेहरा ऐसे खिला हुआ है जैसे किसी ने तुझे 'लड्डू गोपाल' बना दिया हो!"
मंगल ने भी झट से नोटिस किया, "हाँ रे! कान भी लाल हैं! बोल, कौन थी?"
सर्वज्ञ फौरन सीधा खड़ा हुआ, "अ- अरे कौन थी क्या? मैं तो बस… स्कूल आ रहा था!"
श्रीदम ने ठोड़ी पर हाथ रखते हुए कहा, "हाँ, हाँ! और रास्ते में हवा ने आकर तेरा दिल चुरा लिया!"
मंगल ने आँखें मटकाई, "भाई! ये हवा नहीं, कोई परी थी! सच-सच बोल, कौन थी?"
सर्वज्ञ ने झट से कंधे पर बैग टिका लिया और सीधा चलता बना, "तुम दोनों के पास फालतू टाइम बहुत है! मुझे क्लास के लिए देर हो रही है!"
लेकिन श्रीदम और मंगल उसकी चालाकी समझ चुके थे।
मंगल ने तुरंत रास्ता रोका, "अबे, पहले बता! तू साइकिल से आया था, फिर इतना नर्वस क्यों लग रहा है?"
श्रीदम ने मुस्कुराते हुए कहा, "और ये कान इतने लाल क्यों हैं?"
सर्वज्ञ ने एक लंबी साँस ली और बेमन से कहा, "ठकुराइन…"
मंगल और श्रीदम दोनों चौंक गए!
"ठकुराइन???"
मंगल ने हैरानी से कहा, "वो कौन है बे?"
सर्वज्ञ ने धीमे से कहा, "धरा…!"
श्रीदाम तुरंत बोल पड़ा, "मतलब हमारी भौजी???"
सर्वज्ञ ने सिर झुका लिया, "हम्म…"
अब श्रीदम और मंगल के होश उड़ गए!
श्रीदम हक्का-बक्का रह गया, "रुक! तू और ठकुराइन एक साथ???"
मंगल ने झट से पूछा, "कहाँ मिले? क्या हुआ? कितना हुआ?"
सर्वज्ञ चिढ़कर बोला, "अबे! 'कितना हुआ' क्या? हिसाब मत लगा!"
मंगल ने आँखें घुमाई, "मतलब मामला सेट हो रहा है?"
सर्वज्ञ ने झट से जवाब दिया, "अभी तो बस… ठकुराइन ने मुझे छू लिया!"
अब तो जैसे श्रीदम और मंगल की आँखें बाहर आने लगीं!
"छू लिया???"
मंगल ने नाटकीय अंदाज में माथे पर हाथ रखा, "हे भगवान! हमारी भौजी ने इस मनचले को हाथ भी लगा लिया!"
श्रीदम ने तुरंत शरारती हँसी के साथ कहा, "अबे! सच बता, धरा भौजी ने थप्पड़ मारा या प्यार से छुआ?"
सर्वज्ञ ने लंबी साँस ली और धीरे से मुस्कुराया, "साइकिल पर थी… लड़खड़ा गई… कंधा पकड़ लिया!"
अब तो मंगल और श्रीदम के होश ही उड़ गए!
श्रीदम ने जोर से उसके कंधे पर हाथ रखा, "भाई! ये तो डबल अटैक हो गया!"
मंगल फौरन बोला, "यानी… हाथ भी लगाया, और तेरा दिल भी!"
सर्वज्ञ ने घूरा, "अबे! उतनी बड़ी बात नहीं थी!"
लेकिन श्रीदम और मंगल अब उसको ऐसे देख रहे थे जैसे उसने कोई बड़ा अजूबा कर दिया हो!
मंगल हँसते हुए बोला, "अबे! अब स्कूल छोड़, सीधे बारात की तैयारी कर!"
सर्वज्ञ ने माथा पीट लिया, "हे भगवान! किससे दोस्ती कर ली मैंने!"
लेकिन…
चाहे दोस्तों ने जितना भी चिढ़ाया हो…
दिल में अब भी वही धक-धक गूँज रही थी…
सर्वज्ञ ने किसी तरह खुद को संभालते हुए क्लास में कदम रखा, अंदर घुसते ही…
…श्रीदम और मंगल फिर से उसके पीछे-पीछे घुस आए।
"अरे भाई! क्लास में आ गए, अब तो छोड़ दो!" सर्वज्ञ ने झुंझलाकर कहा।
मंगल ने शरारती मुस्कान के साथ फुसफुसाया, "अबे! पहले कन्फर्म तो कर, धरा भौजी को तेरा नाम याद भी है या नहीं?"
श्रीदम ने सिर हिलाया, "सही कहा! कहीं ऐसा न हो कि तू दिल पर ले बैठा हो और उधर ठकुराइन तुझे किसी और नाम से बुलाए!"
सर्वज्ञ ने गहरी साँस ली, "पागल हो क्या? उन्हें मेरा नाम पता है!"
मंगल ने भौंहें उठाईं, "तो बुलाती कैसे है?"
सर्वज्ञ ने थोड़ी हिचकिचाहट के बाद धीरे से कहा, "सांवरे…"
"अय्य्यो!" श्रीदम और मंगल एक साथ बोल पड़े।
सर्वज्ञ का दिल अब भी धक-धक कर रहा था। "सांवरे" शब्द के बाद श्रीदम और मंगल की प्रतिक्रिया तो जैसे आसमान सर पर उठा लेने वाली थी।
अचानक श्रीदम और मंगल ठहाके लगाकर हँस पड़े। मंगल तो बाकायदा घुटनों पर हाथ रखकर हँसने लगा, "अबे! ये तो वही नाम हुआ जो तेरी मम्मी तुझे बुलाती है!"
श्रीदम ने बेवजह अपनी आँखें पोंछते हुए कहा, "मतलब, ठकुराइन तुझे वही फीलिंग दे रही है जो तेरी माँ देती है?"
सर्वज्ञ ने भौंहें चढ़ाईं, "अबे! दिमाग खराब मत कर! उनका 'सांवरे' और मेरी माँ का 'सांवरे'... दोनों में ज़मीन-आसमान का फर्क है!"
मंगल ने गाल पर हाथ रखा, "फर्क तो होगा ही, भाई! तेरी माँ प्यार से बुलाती है, और ठकुराइन… उफ्फ!" उसने नाटकीय अंदाज़ में छाती पर हाथ रखा, "गजब सीन है!"
सर्वज्ञ ने सिर झटकते हुए बेमन से कहा, "तुम दोनों की बातें सुनकर लग रहा है कि मैं क्लास के अंदर नहीं, किसी चाय की टपरी पर खड़ा हूँ!"
श्रीदम ने कंधे उचकाए, "चाय की टपरी पर खड़ा हो या क्लास में, बात तो वही है—तेरा दिल अब ठकुराइन के नाम पर धड़क रहा है!"
सर्वज्ञ ने सिर पकड़ लिया, "हे महादेव! ये दोनों दोस्त नहीं, बॉलीवुड के स्क्रिप्ट राइटर हैं!"
लेकिन…
लेकिन इससे पहले कि वो दोनों दोस्तों को कुछ कह पाता, क्लास में हिंदी टीचर आ चुके थे। सब अपनी-अपनी जगह पर बैठ गए। पर श्रीदम और मंगल अब भी उसे ऐसे घूर रहे थे जैसे कोई चोरी पकड़ ली हो।
सब अपनी-अपनी जगह पर बैठ गए।
टीचर ने किताब खोलते हुए कहा, "अच्छा बच्चों, आज हम प्रेमचंद की कहानी पढ़ेंगे—"नमक का दरोगा"।"
क्लास में हलचल कम हुई, लेकिन सर्वज्ञ का मन अब भी भटक रहा था।
"सांवरे…"
धरा की आवाज़ उसके कानों में अब भी गूंज रही थी। वह पेन से कॉपी पर यही नाम लिखने लगा, लेकिन जैसे ही उसने नज़र उठाई, श्रीदम और मंगल उसे घूरकर मुस्कुरा रहे थे।
मंगल ने धीरे से फुसफुसाया, "भौजी याद आ रही है?"
सर्वज्ञ ने घूरा, "अबे! पढ़ाई कर ना!"
श्रीदम ने मुस्कराकर कहा, "अरे, हिंदी पढ़ ही रहे हैं ना, 'प्रेम' चंद की कहानी से प्रेम तो जागेगा ही!"
इससे पहले कि सर्वज्ञ पलटकर कुछ कहता, टीचर ने सबकी ओर देखा।
"किसका 'प्रेम' जाग रहा है?"
पूरी क्लास हंसने लगी।
सर्वज्ञ ने झट से किताब खोल ली, "न-नहीं सर, कुछ नहीं!"
टीचर ने भौंहें चढ़ाईं, "ध्यान दो क्लास पर, वरना प्रेमचंद की जगह मैं तुम्हारी कहानी लिख दूंगा!"
अब श्रीदम और मंगल भी चुप हो गए।
क्रमशः
आगे क्या होगा, ये जानने के लिए बस पढ़ते रहिए......
शाम का समय था।
धरा कॉलेज से वापस आ रही थी। दिन ढलने को था, हल्की ठंडी हवा चल रही थी। उसने अपने हाथ में बिस्किट का एक पैकेट पकड़ा हुआ था, जिससे वह खुद भी खा रही थी। रास्ते में चलते हुए उसकी नज़र पार्क की ओर गई, जहाँ छोटे-छोटे डॉगी खेल रहे थे।
वह मुस्कुराई।
उसे जानवरों से डर तो लगता था, लेकिन ये छोटे डॉगी इतने प्यारे लग रहे थे कि उसने हिम्मत करके उनके पास जाने का फैसला किया। उसने धीरे-धीरे बिस्किट के कुछ टुकड़े निकाले और ज़मीन पर रख दिए।
डॉगी दौड़कर आए और खुशी-खुशी बिस्किट खाने लगे। धरा को अच्छा लगा।
लेकिन तभी, उसकी नज़र पड़ोस में खड़े एक बड़े कुत्ते पर गई, जो धीरे-धीरे उसकी ओर देख रहा था।
धरा का दिल जोर-जोर से धड़कने लगा।
"अब क्या करूँ?" उसने मन ही मन सोचा। पैर वहीं ठिठक गए।
तभी अचानक पीछे से एक जानी-पहचानी आवाज़ आई—
"ठकुराइन, ये कुछ नहीं करेगा आपको... आप व्यर्थ में ही भयभीत हो रही हैं।"
धरा ने झट से पीछे देखा।
सर्वज्ञ खड़ा था, हल्की मुस्कान लिए, जैसे उसके डर को पहले से ही भाँप लिया हो।
"ये... ये सच में कुछ नहीं करेगा?" धरा ने धीमी आवाज़ में पूछा, उसकी नज़र अब भी उस बड़े कुत्ते पर थी।
सर्वज्ञ ने सिर हिलाया, फिर आगे बढ़कर उस कुत्ते के सिर पर हाथ फेरा। "देखिए, ये बहुत समझदार है। किसी को बेवजह डराता नहीं। बस, अगर आप डरेंगी, तो ये भी आपको अजनबी समझेगा।"
धरा अभी भी थोड़ा घबराई हुई थी, लेकिन सर्वज्ञ की बातों में कुछ ऐसा था जो उसे भरोसा दिला रहा था। उसने हिम्मत करके कदम आगे बढ़ाया।
"ऐसे नहीं," सर्वज्ञ ने उसे रोकते हुए कहा, "आराम से, बिना हड़बड़ाए।"
धरा ने गहरी सांस ली और फिर से आगे बढ़ी। उसके हाथ में बचा हुआ आखिरी बिस्किट था।
"इसे ऐसे आगे बढ़ाइए," सर्वज्ञ ने इशारा किया।
धरा ने धीरे से बिस्किट उस कुत्ते की ओर बढ़ाया। कुत्ता पहले थोड़ा पीछे हटा, फिर धीरे-धीरे आगे बढ़कर बिस्किट को अपनी नाक से सूंघा, और फिर एक झटके में खा गया।
धरा की आँखें चमक उठीं। "इसने खा लिया!"
सर्वज्ञ हँस दिया। "बिलकुल! देखा, डरने की ज़रूरत नहीं थी।"
धरा ने सर्वज्ञ की ओर देखा, उसकी हँसी में कुछ ऐसा था, जो धरा को पहले कभी महसूस नहीं हुआ था।
"तुम्हें जानवरों की इतनी समझ कैसे है?" धरा ने पूछा।
सर्वज्ञ ने कंधे उचकाए। "मुझे ये अच्छे लगते हैं। ये जज नहीं करते।"
धरा ने हल्की मुस्कान दी और फिर छोटे डॉगी की तरफ देखने लगी, जो अब भी उसकी तरफ देख रहे थे, मानो और बिस्किट की उम्मीद कर रहे हों।
सर्वज्ञ ने अपने स्कूल बैग में हाथ डाला और एक ब्रेड का पैकेट निकाला। "इन्हें थोड़ा और खिलाना चाहेंगी, ठकुराइन?"
धरा ने भौंहें चढ़ाईं। "सांवरे! तुम्हारे पास ब्रेड कहाँ से आई?"
सर्वज्ञ ने मुस्कुराकर कहा, "हमेशा रखता हूँ। दोस्त हैं मेरे, भूखे रह जाएँ तो अच्छा नहीं लगता।"
धरा ने हल्का सा सिर हिलाया और ब्रेड के छोटे-छोटे टुकड़े डॉगी को देने लगी। कुछ ही देर में सारे डॉगी उसके पास आ गए। अब उसे बिल्कुल भी डर नहीं लग रहा था।
धरा अब पूरी तरह सहज हो चुकी थी। छोटे-छोटे डॉगी उसके पैरों के पास आकर लाड़ कर रहे थे, और वह हल्की मुस्कान के साथ उनकी पीठ पर हाथ फेर रही थी। सर्वज्ञ ने उसे ऐसे घुलते-मिलते देखा तो उसके चेहरे पर एक नर्म सी खुशी आ गई। वह बिना बोले, बस उसे देखता रहा—जैसे इस पल को अपनी आँखों में कैद कर लेना चाहता हो।
धरा ने उसकी नज़रें पकड़ लीं। "क्या?"
सर्वज्ञ ने हल्का सिर झुका लिया, होंठों पर वही जानी-पहचानी मुस्कान थी। "कुछ नहीं, बस देख रहा था कि ठकुराइन अब डर नहीं रही हैं।"
धरा ने आँखें घुमाईं। "सांवरे....तुम्हारी बातों में ऐसा क्या होता है कि जाने-अनजाने मैं तुम पर भरोसा कर लेती हूँ?"
सर्वज्ञ कुछ पल चुप रहा, फिर धीरे से बोला, "शायद इसलिए कि मेरा मन जानता है कि आपको मैं कभी चोट नहीं पहुँचा सकता।"
धरा ने उसकी तरफ देखा। कुछ तो था उसकी आँखों में—एक अपनापन, एक नर्मी, जो उसे अजीब सी अनुभूति करा रही थी। वह जब भी उलझती, सर्वज्ञ जैसे उसे सहजता से रास्ता दिखा देता।
कुछ देर बाद सर्वज्ञ ने हल्का सा सिर हिलाया, जैसे कोई अनकहा एहसास झटक दिया हो। "चलिए ठकुराइन, अब घर भी जाना होगा। वरना देर हो गई तो फिर से डर लगने लगेगा, है ना?"
धरा ने उसे हल्की नाराजगी से देखा। "सांवरे! अब मैं इतनी डरपोक भी नहीं हूँ!"
सर्वज्ञ ने मुस्कुराकर हाथ जोड़ लिए। "क्षमा करें ठकुराइन, फिर चलें मेरे घर और आपके हॉस्टल?"
धरा ने कुछ कहे बिना कदम बढ़ा दिए। चलते-चलते, जब हल्की ठंडी हवा उनके बीच बह रही थी, धरा ने देखा कि सर्वज्ञ उसके कदमों के साथ-साथ चल रहा था। हमेशा की तरह...
उसे पता नहीं था कि यह साथ उसके लिए क्या मायने रखता था। लेकिन सर्वज्ञ के चेहरे की शांति और उसकी देखभाल में कुछ ऐसा था, जो उसे हर बार सहज महसूस करा देता था।
सर्वज्ञ ने धरा की ओर देखा। "आप सोच रही हैं, है ना?"
धरा ने भौंहें चढ़ाईं। "क्या?"
सर्वज्ञ ने हल्का सा मुस्कुराया। "यही कि आखिर मैं क्या हूँ?"
धरा कुछ कह नहीं पाई। बस हवा बह रही थी, और उनके कदम साथ-साथ आगे बढ़ते रहे...
हवा हल्की ठंडी थी, उसके रोंगटे खड़े कर देने वाली। लेकिन धरा को नहीं पता था कि यह ठंड थी या सर्वज्ञ की मुस्कान का असर, जो उसकी धड़कनों को हल्का-सा तेज कर देती थी।
"तुम हर बात पहले से कैसे समझ लेते हो?" धरा ने धीरे से पूछा।
सर्वज्ञ ने हल्की मुस्कान दी, उसके हाथ अपने पैंट की जेब में थे।
"क्योंकि मैं सुनता हूँ।"
धरा ने भौंहें चढ़ाईं। "क्या?"
"लोग अकसर सुनते नहीं, बस जवाब देने के लिए रुकते हैं। मैं सुनता हूँ, इसलिए समझ जाता हूँ।"
धरा कुछ देर उसे देखती रही।
"फिलॉसफर मत बनो, सीधा जवाब दो।"
सर्वज्ञ हल्का हँसा। "सीधा जवाब ये है कि आप जो भी सोचती हो, वो आपकी आँखों में साफ़ दिख जाता है। बस, मैं पढ़ लेता हूँ।"
धरा ने तुरंत नज़रें फेर लीं।
"अच्छा? फिर अभी क्या सोच रही हूँ?"
सर्वज्ञ कुछ देर उसे देखता रहा, फिर मुस्कुराया।
"यही कि मैं सही कह रहा हूँ।"
धरा झुंझलाकर आगे बढ़ गई।
"ये लड़का न, खुद को बहुत समझदार समझता है!" उसने मन ही मन सोचा।
लेकिन उसे खुद भी नहीं पता था कि उसकी मुस्कान कब उसकी नाराजगी के बीच जगह बना चुकी थी।
सर्वज्ञ ने कंधे उचकाए। "समझदार तो नहीं, पर हाँ… आपकी सोच को पकड़ने में गलती नहीं कर सकता।"
धरा ने हैरानी से सर्वज्ञ की ओर देखा। "तुम्हें कैसे पता? मैं तो ये सिर्फ़ मन में सोच रही थी!"
सर्वज्ञ हल्का मुस्कुराया, जैसे उसके सवाल की पहले से ही उम्मीद हो। "क्योंकि आपकी आँखें बोलती हैं, ठकुराइन। और मैं आपकी आँखों की भाषा समझता हूँ।"
धरा ने तुरंत नज़रें फेर लीं।
"अक्खड़ कहीं के!" वह बुदबुदाई।
सर्वज्ञ ने हल्की हँसी रोकते हुए कहा, "कुछ कहा?"
धरा ने सिर झटक दिया। "नहीं!"
धरा ने भले ही "नहीं" कह दिया हो, लेकिन सर्वज्ञ की मुस्कान और गहरी हो गई।
वह उसके साथ-साथ चलते हुए हल्के से झुका और फुसफुसाया, "झूठ बोलना अच्छी बात नहीं, ठकुराइन।"
धरा ने झटके से उसकी ओर देखा। "मैंने कोई झूठ नहीं बोला!"
सर्वज्ञ ने सिर हिलाया। "अच्छा? फिर अभी मन ही मन क्या बुदबुदा रही थीं?"
धरा ने होंठ कसकर भींच लिए। इस लड़के से कुछ भी छिपाना नामुमकिन था!
"तुम्हें इससे क्या?" उसने मुँह बनाकर कहा।
सर्वज्ञ ने हल्का सा सिर झुकाया, जैसे कोई राज़ खोल रहा हो। "मुझे फर्क पड़ता है... क्योंकि आप ही तो कहती हैं कि मैं बहुत समझदार समझता हूँ खुद को। तो ये तो मेरी ज़िम्मेदारी बनती है कि मैं आपकी हर सोच को सही तरीके से समझूँ।"
धरा ने एक गहरी साँस ली और आँखें घुमाईं। "हे भगवान! तुमसे बहस करना मतलब खुद को मुसीबत में डालना!"
सर्वज्ञ हल्के से हँसा, लेकिन इस बार कुछ नहीं कहा।
होस्टल पास आते ही धरा के कदम थोड़े तेज़ हो गए।
"अब और बकवास नहीं सुननी मुझे," उसने मन ही मन सोचा और तेज़ी से गेट की ओर बढ़ी।
सर्वज्ञ उसकी रफ़्तार देखकर हल्के से मुस्कुराया।
"ठकुराइन, भाग क्यों रही हैं?" उसने पीछे से आवाज़ लगाई।
धरा बिना पलटे बोली, "ताकि तुमसे बच सकूँ!"
गेट के पास पहुँचते ही धरा रुक गई। उसने हल्की-सी नज़र सर्वज्ञ पर डाली।
"अब क्या?" सर्वज्ञ ने भौंहें उठाईं।
धरा कुछ कहने ही वाली थी, फिर अचानक रुक गई। "कुछ नहीं," कहकर उसने दरवाजा खोला और अंदर जाने लगी।
लेकिन तभी पीछे से सर्वज्ञ की आवाज आई, "ठकुराइन?"
धरा ने अनायास ही पलटकर देखा। सर्वज्ञ वहीं खड़ा था, हाथ अब भी जेब में डाले हुए, लेकिन उसकी आँखों में वही शरारत थी जो हमेशा धरा को उलझन में डालती थी।
"क्या?" धरा ने चिढ़ते हुए पूछा।
सर्वज्ञ हल्का मुस्कुराया। "कुछ नहीं!"
धरा ने आँखें तरेरीं। "अगर कुछ नहीं तो बुलाया क्यों?"
सर्वज्ञ ने कंधे उचकाए। "बस ऐसे ही... देखना चाहता था कि आप रुकेंगी या नहीं।"
धरा ने गुस्से से उसे घूरा, फिर झटके से दरवाजा खोलकर अंदर चली गई।
अंदर पहुँचते ही...
होस्टल का गलियारा खाली था। हल्की-हल्की रोशनी फर्श पर लंबी परछाइयाँ बना रही थी। धरा ने धीमी साँस ली और अपने कमरे की ओर बढ़ी।
दरवाजा खोलते ही वह बैग पटककर बिस्तर पर गिर पड़ी। लेकिन मन अब भी बेचैन था।
"ये लड़का सच में मेरी सोच पढ़ लेता है क्या?"
उसने करवट बदली और तकिए में मुँह दबा लिया।
पर अगले ही पल...
"उफ्फ! मुझे इससे फर्क ही क्यों पड़ रहा है!"
वह झटके से उठी, पानी पिया और बालकनी में चली गई।
ठंडी हवा उसके चेहरे से टकराई। सामने सड़क पर हल्की-हल्की हलचल थी, लेकिन उसकी नजरें कहीं और थीं।
सर्वज्ञ अब भी उसी जगह खड़ा था!
जेब में हाथ डाले, आसमान की ओर देखते हुए...जैसे किसी सोच में डूबा हो।
धरा का दिल अजीब-सा धड़क उठा।
"पागल है क्या? अब तक खड़ा है वहाँ?" वह बुदबुदाई।
उसने खुद को टोका। "इससे क्या? जाने दो! वो वहाँ खड़ा रहे या घर जाए, मुझे क्या फर्क पड़ता है?"
पर अंदर ही अंदर, वह खुद को झूठा कहने लगी।
क्योंकि फर्क तो पड़ता था...और शायद सर्वज्ञ को इसका अंदाज़ा भी था।
धरा ने हाथ-मुँह धोकर खुद को थोड़ी तरोताजा करने की कोशिश की, लेकिन मन अब भी उलझा हुआ था। पानी के छींटे मारकर उसने आईने में खुद को देखा और गहरी साँस ली।
"अब पागल मत बन, धरा! ये लड़का तेरा दिमाग घुमा देगा!"
मन ही मन खुद को डांटते हुए, उसने बाल झटके और कमरे से बाहर निकल गई।
रिया, काजल और प्रिया के कमरे की ओर
जैसे ही धरा उनके कमरे में पहुँची, दरवाजे पर खड़े होते ही उसके चेहरे पर हैरानी के भाव आ गए।
कमरा पूरी तरह अस्त-व्यस्त था! किताबें इधर-उधर बिखरी थीं, कपड़े कुर्सियों पर लटके हुए थे, और तकिए फर्श पर पड़े थे।
धरा ने झटके से अंदर कदम रखा। "हे भगवान! ये क्या हाल बना रखा है तुम लोगों ने? इतना गंदा कमरा!"
रिया, काजल और प्रिया, जो बिस्तर पर लेटी हुई थीं, एक साथ सिर घुमा कर धरा की ओर देखीं।
फिर अचानक...
तीनों ने एक साथ पूरी दंत पंक्ति दिखा दी!
धरा ने चौंककर पीछे हटते हुए कहा, "अरे! ये क्या कर रही हो तुम तीनों?"
प्रिया ने आँख मारी, "अरे लड़कियों के कमरे ऐसे ही होते हैं!"
रिया ने सिर हिलाया, "हाँ! और तुझे क्या तकलीफ है? तेरा कमरा साफ-सुथरा है ना?"
धरा ने झुंझलाते हुए कहा, "तुम तीनों का दिमाग खराब हो गया है! मतलब यहाँ कोई पैर रखने की जगह नहीं है, और तुम्हें फर्क ही नहीं पड़ता?"
काजल ने आलस से तकिया उठाकर सिर के नीचे रखा और आँखें आधी बंद करते हुए बोली, "अरे धरा, रिलैक्स! हमें सफाई से एलर्जी है। और वैसे भी, ये हमारी क्रिएटिविटी का हिस्सा है!"
धरा ने माथा पकड़ लिया। "क्रिएटिविटी? हद है! तुम लोगों का कमरा देख कर तो भूकंप पीड़ित क्षेत्र लग रहा है!"
रिया हँसते हुए उठ बैठी। "भूकंप नहीं, तूफ़ान कह सकती है। और तू खुद क्यों इतना परेशान हो रही है?"
धरा ने गहरी सांस ली और कमर कस ली।
"अब ये कमरा साफ होकर रहेगा!" उसने अपने बाल पीछे किए और झटके से चादर खींच दी।
रिया, काजल और प्रिया उसे अविश्वास से देखने लगीं।
"अरे धरा, तू पागल हो गई है क्या?" रिया ने चौंककर कहा।
धरा ने आँखें तरेरीं। "हाँ! और इस गंदगी को देखकर और पागलपन आ रहा है!"
वह झटपट सामान हटाने लगी। इधर-उधर बिखरी किताबें उठाकर अलमारी में रखने लगी, तकिए ठीक करने लगी, और कपड़े उठाकर एक कोने में डाल दिए।
प्रिया ने जम्हाई ली। "यार, ये तो सच में जुट गई!"
काजल ने धीरे से फुसफुसाया, "अब क्या करें?"
रिया ने कंधे उचकाए। "कुछ नहीं! जब तक धरा यहाँ है, तब तक सफाई तो होकर ही रहेगी!"
पर अगले ही पल—
"रिया! ये चिप्स का पैकेट उठाओ!" धरा ने हुक्म दिया।
रिया ने मुँह बिचकाया। "अभी?"
"हाँ, अभी! और काजल, ये पानी की बोतलें ठीक करो!"
प्रिया उठकर बैठी। "अच्छा, मतलब अब हमसे भी काम करवा रही हो?"
धरा ने मुस्कुराकर हाथ नचाया। "बिल्कुल! यहाँ सबको हाथ बंटाना पड़ेगा।"
तीनों ने एक-दूसरे की तरफ देखा और लंबी सांस छोड़ते हुए उठ गईं।
कुछ ही देर में, कमरा चमकने लगा।
धरा ने हाथ झाड़े। "अब देखो, कितना अच्छा लग रहा है!"
रिया, काजल और प्रिया थककर बिस्तर पर गिर पड़ीं।
धरा ने कमरा एक बार फिर नज़र भरकर देखा और संतोष की सांस ली।
"चलो, अब तो कमरा इंसानों के रहने लायक लग रहा है!" उसने मुस्कुराते हुए कहा।
रिया, काजल और प्रिया बिस्तर पर निढाल पड़ी थीं।
"अब भूख भी लग रही है," काजल ने अपना पेट सहलाते हुए कहा।
प्रिया ने जम्हाई ली। "हाँ यार, सफाई करने में जितनी कैलोरी बर्न हुई है, उतनी भरनी भी तो पड़ेगी!"
धरा ने भौंहें चढ़ाईं। "अरे मैडम, तुमने किया ही क्या है?"
रिया ने हाथ उठाया। "भाई, मेंटल सपोर्ट दिया है!"
धरा ने सिर हिलाया और दरवाजे की ओर बढ़ी। "चलो, मेस चलते हैं। नहीं तो सारा खाना खत्म हो जाएगा!"
तीनों ने तुरंत उछलकर चप्पलें डालीं और धरा के पीछे-पीछे निकल पड़ीं।
मेस में—
चारों लड़कियाँ खाने की लाइन में लगी थीं। हॉल में हलचल मची थी—कहीं कोई हँसी-मजाक कर रहा था, तो कहीं खाने को लेकर बहस हो रही थी।
धरा ने ट्रे उठाई और मेनू की तरफ देखा। "आज क्या बना है?"
रिया ने आगे झांककर देखा। "आलू पराठा और दही! चलो, आज की रात तो अच्छी होगी।"
प्रिया ने मुँह बिचकाया। "यार, ये मेस का पराठा देखकर तो भूख ही उड़ जाती है। आधा कच्चा, आधा जला हुआ!"
काजल हँस पड़ी। "हाँ, और ऊपर से दही ऐसा कि पता ही नहीं चलता कि खट्टा है या मीठा!"
धरा ने ट्रे में पराठा लेते हुए कहा, "अब जो भी है, खाना तो पड़ेगा। वरना भूख से मर जाएँगे!"
चारों ने अपनी-अपनी ट्रे उठाई और एक कोने की टेबल पर जाकर बैठ गईं। जैसे ही उन्होंने पहला निवाला मुँह में डाला, प्रिया ने तुरंत रिएक्ट किया। "हे भगवान! ये पराठा तो चबाने में ही जिंदगी निकल जाएगी!"
रिया ने हँसते हुए कहा, "मैंने तो सोचा था कि खाने से एनर्जी मिलेगी, लेकिन इसे खाने में ही सारी एनर्जी खर्च हो जाएगी!"
धरा ने सिर हिलाया। "चलो, चुपचाप खाओ। ज्यादा सोचोगी, तो और भी बेस्वाद लगेगा।"
काजल ने धीरे से फुसफुसाया, "सुनो, वो देखो, पास वाली टेबल पर क्या चल रहा है?"
सभी ने उत्सुकता से उधर देखा। पास की टेबल पर बैठी लड़कियों के ग्रुप में कोई जबरदस्त बहस चल रही थी। एक लड़की हाथ में पराठा लिए खड़ी थी और गुस्से में कुछ कह रही थी।
प्रिया ने हँसकर कहा, "लगता है बिचारी का पराठा ज़्यादा जला हुआ निकल गया!"
रिया ने मुस्कुराते हुए कहा, "और शायद उसे एक्स्ट्रा दही भी नहीं मिला!"
पास वाली टेबल पर बहस ज़ोरों पर थी। वह लड़की, जिसका पराठा आधे से ज़्यादा जला हुआ था, गुस्से से मेस के कर्मचारी को सुना रही थी।
"भैया, ये पराठा खाने के लिए बना है या कोयला इकठ्ठा करने के लिए?" उसने गुस्से में ट्रे पटक दी।
मेस के कर्मचारी ने ऊब कर जवाब दिया, "बहन जी, मेस में खाना स्वाद के लिए नहीं, ज़िंदा रहने के लिए मिलता है!"
प्रिया ने मुँह पर हाथ रखकर हँसी दबाई। "भाई, ये तो सही कह रहा है!"
काजल ने हँसते हुए कहा, "वैसे तो खाना अच्छा ही मिलता है, लेकिन वही बात... हर बात में शिकायत करने की आदत है कुछ लोगों की!"
धरा ने भी सिर हिलाया, "सही कहा! इन लोगों को ना, अगर सामने शाही पनीर भी रख दो, तो कहेंगी—'पनीर तो अच्छा है, पर ग्रेवी में नमक थोड़ा कम है!'"
काजल ने नकली अकड़ के साथ गर्दन उचकाई, "और फिर कहेंगी—'पनीर थोड़ा और मुलायम होता तो मज़ा आ जाता!' जैसे मेस वाले उनके लिए फाइव स्टार होटल चला रहे हों!"
रिया ने चम्मच से दही खुरचते हुए कहा, "शिकायत करने वालों को तो कुछ भी परफेक्ट नहीं लगता। इन्हें तो अगर भगवान खुद खाना बनाकर दें, तो भी बोलेंगी—'थोड़ा गरम नहीं है, भगवान जी!'"
चारों ठहाका मारकर हँस पड़ीं।
तभी वह गुस्साई लड़की मुड़ी और उनकी टेबल की तरफ आई। "तुम लोग भी ये पराठा खा रहे हो? बताओ न, ये खाने लायक है क्या?"
धरा ने नज़रें घुमाईं और कंधे उचकाए। "देखो, मेस में खाना खाने नहीं, सर्वाइव करने आते हैं!"
प्रिया ने गहरी साँस ली। "भूख बड़ी चीज़ है, बहन! इंसान पत्थर भी चबा सकता है!"
गुस्साई लड़की ने उनकी प्लेटों की तरफ देखा और फिर मुँह टेढ़ा किया। "तो मतलब तुम लोग ये कोयला... मेरा मतलब, पराठा खा ही लोगे?"
रिया ने भी मज़ाक में कहा, "और क्या! भैया ने मेहनत से जलाया है, अब हमारी ड्यूटी है इसे पचाना!"
गुस्साई लड़की बोली, "अरे पराठा तो छोड़ो, ये दही देखो! पता नहीं दही है या सफ़ेद पानी...लगता है लस्सी बनने का सपना अधूरा रह गया!"
तभी मेस कर्मचारी, जो अब तक सब सुन रहा था, पास आया और ऊबकर बोला—
"बहन जी, आपको तो खुश होना चाहिए! मेस का खाना खाने से आप डायटिंग भी कर सकती हैं और स्ट्रॉन्ग भी बन सकती हैं!"
गुस्साई लड़की अपनी भौंहें चढ़ाकर बोली, "वो कैसे?"
मेस कर्मचारी मासूमियत से बोला, "क्योंकि या तो आप इसे खाकर मज़बूत हो जाएंगी, या चबाते-चबाते जबड़ा टूट जाएगा और डायट अपने आप हो जाएगी!"
प्रिया ने हँसते हुए कहा, "भाई, अब ये तो हद ही हो गई!"
रिया ने संजीदगी से कहा, "नहीं नहीं, ये सही कह रहा है! देखो, पराठा इतना टाइट है कि इसे खाकर दाँतों की मजबूती की गारंटी मिल सकती है!"
काजल भी ट्रे को शक भरी निगाहों से देखते हुए बोली, "और दही इतनी पतली है कि इसे पीने के बाद शायद गला भी साफ हो जाएगा!"
मेस कर्मचारी बोर होकर बोल पड़ा, "बहन जी, यहाँ खाने का टेस्ट करने का नहीं, बस जीवित रहने का प्रयास किया जाता है।"
गुस्साई लड़की अपना सर पकड़ते हुए बोली, "मैं तो अब रोटी सेक्शन पर जा रही हूँ, शायद वहाँ कुछ बेहतर मिल जाए!"
धरा मेस कर्मचारी से बोली, "भैया, ये बताओ, अगर हम आज ये खाना सर्वाइव कर गए, तो कल कुछ बेहतर मिलेगा?"
मेस कर्मचारी ने बड़े ही थके हुए स्वर में कहा, "हाँ, कल नया मेन्यू है… 'आलू पूड़ी'!"
धरा ने उत्साह से आँखें चमकाईं, "अरे वाह! कल आलू पूड़ी! यानि थोड़ा स्पाइसी, थोड़ा ऑयली, और बहुत सारा भरोसा कि इस बार पेट भरेगा!"
प्रिया ने तुरंत जवाब दिया, "और थोड़ा बहुत एसिडिटी भी साथ में फ्री में आएगी!"
काजल ने नकली मासूमियत से पूछा, "भैया, पूड़ी के साथ कुछ स्वीट भी मिलेगा क्या? जैसे हलवा…?"
मेस कर्मचारी ने सिर खुजलाते हुए कहा, "स्वीट के नाम पर कल गुलाबजामुन का सपना दिखाया गया है… लेकिन मिलेगा या नहीं, ये किचन का मूड तय करेगा।"
रिया ने मुँह बिचकाया।
गुलाबजामुन के नाम पर किचन का मूड सुनते ही काजल और रिया की आँखें चमक उठीं। दोनों ने एक-दूसरे को देखा, और फिर जैसे पुराने किस्सों की फाइल एक झटके में खुल गई।
काजल ने ताना मारा, “हाँ हाँ, लेकिन पहले ही बता रही हूँ, अगर कल एक ही गुलाबजामुन मिला तो मैं लूँगी!”
रिया ने भौंहें चढ़ाईं, “तू लेगी? तेरे बर्थडे पर भी मैंने तुझसे गुलाबजामुन शेयर किया था!”
काजल ने गरजकर कहा, “वो मैंने तुझसे छीना नहीं था, तूने खुद दिया था, प्यार से!”
रिया ने ताली बजाते हुए कहा, “हाँ, और उसके बदले तूने मेरी बर्फी चुरा ली थी! मुझे सब याद है!”
काजल ने झूठा मासूम चेहरा बनाते हुए कहा, “कसम से, मैं नहीं थी वो! वो तो प्रिया थी!”
प्रिया, जो चुपचाप ट्रे में बची हुई दही से लड़ रही थी, अचानक चौंकी, “अबे ओ! मैं कब बर्फी चुराई? मेरी तो गुलाबजामुन के साथ फोटो तक नहीं आई!”
धरा हँसते हुए बोली, “तुम दोनों फिर शुरू हो गईं? ये हर बार खाने के नाम पर लड़ती हैं। पिछली बार तो मैंगो शेक को लेकर एक-दूसरे को ब्लॉक तक कर दिया था!”
प्रिया ने हँसते हुए कहा, “सच में! और फिर अगले दिन साथ में ब्रश करते पकड़ी गई थीं!”
धरा और प्रिया की नज़रें आपस में मिलीं। दोनों मुस्कुरा दिए।
उधर काजल और रिया अभी भी बहस में थीं—
रिया: “देख, मैं कल लाइन में पहले लगूँगी, समझी?”
काजल: “हाँ तो मैं लाइन के अंदर से धक्का मार के आगे निकल जाऊँगी, अब क्या कर लेगी?”
रिया: “तू लाइन में भी आगे निकलेगी और गुलाबजामुन भी खाएगी? इस बार तो नहीं छोड़ूंगी!”
मेस कर्मचारी अब पूरी तरह से पक चुका था, और उसकी आँखों में वही चमक आ गई थी जो अर्जुन को युद्धभूमि में श्रीकृष्ण के उपदेश के बाद आई थी। उसने अपनी लुंगी कसकर बांधी और पूरे हॉल में गरज उठा...
"बस! बहुत हो गया! जब से आया हूँ, पराठे की बुराई, दही का मज़ाक, गुलाबजामुन के सपनों का सौदा... और अब लाइन में धक्का मुक्की की तैयारी? अरे बहनों! ये मेस है, कुरुक्षेत्र नहीं!"
सन्नाटा छा गया...काजल और रिया के मुँह बंद हो चुके थे। बाकी सबने चम्मच तक रुक दिए। लड़कियाँ ऐसे देख रही थीं जैसे द्रौपदी का चीर हरण रोकने श्रीकृष्ण स्वयं प्रकट हो गए हों।
मेस कर्मचारी डायलॉग जारी रखते हुए बोला, "कभी सोचा है, इस जले हुए पराठे के पीछे कितनी तपस्या है? कितनी मेहनत से हमने उसे ऐसे जलाया है कि उसके हर कोने में क्रिस्पी एक्सपीरियंस मिले!"
प्रिया धीमे से फुसफुसाई, “एक्सपीरियंस नहीं, एक्सीडेंट है भाई!” लेकिन वह चुप ही रही।
मेस कर्मचारी: "और ये पतली दही? इसे बनाने के लिए हमने कितने सारे ब्रेकफास्ट मिस किए हैं, ताकि आप लंच में लिक्विड डाइट का आनंद उठा सको! और गुलाबजामुन का सपना...वो तो हम भी देखते हैं बहनों, पर हर सपना हकीकत नहीं बनता!"
अब तक सारा मेस सुन रहा था।
मेस कर्मचारी ने आगे बढ़कर अपने ट्रे की ओर इशारा करते हुए कहा:
"देखिए, खाना स्वाद का नहीं, भावना का विषय है! अगर दिल से खाओ तो जले हुए पराठे में भी माँ के हाथों की याद आ जाएगी। और अगर मन खराब हो, तो शाही पनीर भी लगेगा जैसे उबली लौकी!"
धरा ने तालियाँ बजा दीं, बाकी लड़कियाँ भी हँसने लगीं, लेकिन वो भी थोड़ी प्रभावित लग रही थीं।
मेस कर्मचारी ने अपना सधा हुआ आखिरी वार किया, "तो मेरी अर्ज विनती है...कि खाना खाओ, शिकायत नहीं। वरना अगली बार मेन्यू में मिलेगा – आशीर्वाद और उपवास!"
काजल, रिया अब चुप थीं। प्रिया ने धीरे से कहा: “भाई ने तो पूरी गीता ही सुना दी।”
धरा हँसते हुए बोली: “और हम सब शिष्य बन गए...जय हो, मेस गीता के श्रीसंकट मोचक भैया की!”
रिया ने धीरे से पराठा उठाया और कहा: "चलो खा ही लेते हैं...क्या पता इसी में मोक्ष मिल जाए!"
मेस कर्मचारी ने सिर झुकाया और मुस्कुरा कर चला गया।
क्रमशः
आगे क्या होगा, ये जानने के लिए बस पढ़ते रहिए......
सुबह का सूरज हल्का-हल्का चमक रहा था। हल्की ठंडी हवा बह रही थी, और सुदर्शन मोहल्ले का माहौल एकदम हलचल से भरा हुआ था।
सर्वज्ञ जल्दी से तैयार हो चुका था। उसने आईने में खुद को देखा—आँखें हल्की-हल्की सूजी हुई थीं, शायद रात भर पढ़ाई करने का असर था। लेकिन चेहरे पर वही चिर-परिचित मुस्कान थी, जो बिना वजह भी बनी रहती थी।
साइकिल निकालते हुए उसने घड़ी देखी—धरा के हॉस्टल से निकलने का टाइम हो चुका था।
"अब तक तो आ जानी चाहिए थी मेरी ठकुराइन को!" उसने मन ही मन कहा और गेट की तरफ देखने लगा।
फिर सर्वज्ञ ने अपनी आँखें बंद कर लीं, जैसे वो थोड़ी देर के लिए आराम करना चाहता था। हवा उसके चेहरे पर तेज़ी से बह रही थी, और उसके बाल माथे पर बिखर रहे थे, जैसे वो किसी गहरे ख्यालों में खोया हुआ था।
और तभी...
हॉस्टल के गेट से धरा निकली। पीठ पर बैग टाँगे, चेहरे पर वही आत्मविश्वास, और चाल में वही वाला ठहराव। धूप की हल्की किरणें उसकी आँखों में पड़ीं, तो उसने हल्का सा सिर झुकाया और पलकों को ढक लिया।
जैसे ही धरा की नजर सामने सर्वज्ञ पर पड़ी, वो धीमे कदमों से चलते हुए सर्वज्ञ के पास आने लगी।
सर्वज्ञ को कुछ अहसास हुआ कि कोई पास आ रहा है, लेकिन उसने अपनी आँखें बंद रखीं, ताकि उसे धरा के आने का कोई इशारा न मिले।
फिर अचानक—
"भवव्व्वव!" धरा जोर से सर्वज्ञ के पास आकर चिल्ला दी।
सर्वज्ञ अचानक हड़बड़ा गया और झट से अपनी आँखें खोलीं। उसे अचानक धरा की आवाज़ सुनाई दी। उसकी आँखें खुलते ही वह चौंका, और बेतहाशा इधर-उधर देखने लगा, जैसे उसका ध्यान कहीं और हो, लेकिन वह जानता था कि धरा पास ही है।
धरा ने खिलखिलाते हुए हंसी के साथ उसकी हालत देखी। उसकी हंसी ऐसी थी कि जैसे पूरी दुनिया उसमें समाई हुई हो।
सर्वज्ञ को अपनी धड़कन महसूस हुई, जैसे दिल एकदम से तेज़ हो गया हो। उसकी नज़रें धरा की हंसी पर ठहर गईं; उसकी हँसी में कुछ ऐसा था जो उसे अपनी दुनिया से परे ले जाने की कोशिश कर रहा था।
सर्वज्ञ की आँखें झपकीं और उसका दिल एक पल के लिए रुक सा गया। पूरी दुनिया जैसे थम सी गई थी।
"सांवरे... कहाँ खो गए थे?" धरा ने बड़ी मुश्किल से अपनी हँसी रोकते हुए कहा।
सर्वज्ञ की मुस्कान चौड़ी हो गई। लेकिन उसने कुछ कहा नहीं क्योंकि उसे तो अभी भी अपनी ठकुराइन की हँसी की गूँज ही सुनाई दे रही थी।
धरा ने उसे देखा। फिर वो उसके चेहरे के करीब अपना चेहरा ले जाकर बोली, "सांवरे, तुम अलग लग रहे हो आज!"
सर्वज्ञ का दिल धक से रह गया। सर्वज्ञ की धड़कनें अचानक से तेज़ हो गईं। इतनी पास से धरा उसे देख रही थी, उसकी हल्की महक, उसकी गहरी आँखें... एक पल के लिए तो उसे कुछ समझ ही नहीं आया।
"अ-लग? मतलब?" उसने अपनी साइकिल के हैंडल को कसकर पकड़ा।
धरा ने अपनी नज़रें और करीब ले जाकर कहा, "तुम्हारी आँखें, सांवरे... सूजी हुई हैं!"
"व-वो..." उसने जल्दी से खुद को संभाला। "मेरी एग्ज़ाम है आज, इसलिए पढ़ाई कर रहा था देर रात तक!"
धरा ने हल्की सी भौंहें चढ़ाईं। "ओह! तभी ये हाल है!"
"अच्छा, अब बैठो, वरना देर हो जाएगी!" उसने अपनी धड़कनों को संभालते हुए, अपनी नज़रें चुराते हुए कहा।
धरा ने संदेह से देखा। "फिर से? कल भी तुम्हारी साइकिल पर बैठकर गई थी, आज भी?"
"तो? रोज़ बैठो, आदत डाल लो!" सर्वज्ञ ने आँखें चमकाईं।
"हद है!" धरा ने सिर झटकते हुए बैग पीठ पर ठीक किया और अनमने ढंग से साइकिल के कैरियर पर बैठ गई।
सर्वज्ञ की साँसें रुक सी गईं।
धरा का हाथ हल्का सा उसकी कमर से छू गया।
"हे भगवान!" सर्वज्ञ ने मन ही मन कहा। "ये लड़की मुझे इम्तिहान से पहले ही मार डालेगी!"
उसने झट से साइकिल चलानी शुरू कर दी, लेकिन दिमाग पूरी तरह हिल चुका था।
"सांवरे, अच्छे से चलाना! गिरा मत देना!" धरा ने चेतावनी दी।
सर्वज्ञ ने गहरी सांस ली। "हाँ हाँ, बिल्कुल!"
साइकिल धीरे-धीरे रफ्तार पकड़ने लगी। लेकिन जैसे ही हवा तेज हुई, धरा के बाल उड़कर सर्वज्ञ की पीठ से टकराए!
सर्वज्ञ की पकड़ हैंडल पर ढीली होने लगी।
"ठकुराइन, तुम अपने बालों को थोड़ा संभाल सकती हो?" उसने धीरे से कहा।
धरा ने उसकी बात सुनी, लेकिन अनसुना कर दिया।
रास्ते में हल्की ठंडी हवा बह रही थी। दोनों के बीच बातचीत का सिलसिला भी शुरू हो गया।
धरा की नज़रें अब सामने की ओर थीं, लेकिन उसकी हल्की सी मुस्कान अब भी सर्वज्ञ के दिल की धड़कनों को बढ़ा रही थी।
कुछ ही पल बाद, धरा के कॉलेज का गेट दिखने लगा। साइकिल की रफ्तार धीमी हो गई, और जैसे ही वे गेट के पास पहुँचे, धरा ने हल्के से अपना बैग ठीक किया और साइकिल से उतरते हुए कहा, "बेस्ट ऑफ लक! एग्जाम अच्छे से देना सांवरे..."
सर्वज्ञ ने मुस्कुरा कर सिर हिला दिया।
धरा मुड़कर जाने लगी और सर्वज्ञ भी अपने स्कूल की तरफ बढ़ गया।
अगले पल...
धरा ने कुछ कदम आगे बढ़ाए, लेकिन उसका दिल हल्का-हल्का सा धड़क रहा था। कुछ अजीब-सा अहसास था, जिसे वो समझ नहीं पा रही थी।
"ये क्या था?" उसने मन ही मन सोचा।
हवा अभी भी ठंडी थी, लेकिन अब उसमें कुछ और भी था... जैसे कोई मीठी गूँज, जो उसके ज़ेहन में बस गई हो। उसने धीरे से अपनी हथेली अपने सीने पर रखी—धड़कनें तेज़ थीं, लेकिन कोई वजह समझ नहीं आई।
"शायद ठंड की वजह से..."
उसने खुद को समझाने की कोशिश की। लेकिन ये ठंड नहीं थी, ये कुछ और था... कुछ अनजाना, कुछ नया।
वो कॉलेज के गेट पर पहुँची, और पलटकर देखा।
सर्वज्ञ अपनी साइकिल पर बैठा, दूर जाते-जाते एक बार फिर पलटा और हल्का मुस्कुराया।
धरा का दिल फिर से डगमगा गया।
उसने जल्दी से नज़रें फेर लीं और खुद को डाँटते हुए मन ही मन कहा, "अरे, फोकस! क्लास के लिए देर हो रही है!"
पर अंदर कहीं, बहुत भीतर, कोई सवाल अब भी बाकी था—ये अजीब-सा एहसास आखिर क्या था?
कॉलेज के कॉरिडोर में...
धरा अपनी क्लास में पहुँची तो हमेशा की तरह उसके दोस्त इधर-उधर फैले हुए थे। किसी का ग्रुप डिस्कशन चल रहा था, तो कोई जल्दबाज़ी में नोट्स पलट रहा था।
धरा ने अपनी सीट ली और बैग खोलकर नोट्स निकाल ही रही थी कि तभी एक लड़का पास आकर रुका।
"धरा, तुम्हारे नोट्स बहुत अच्छे होते हैं... क्या मैं ले सकता हूँ? मेरा कल वाला लेक्चर मिस हो गया था।"
धरा भली-भांति जानती थी कि उसके नोट्स सबसे साफ-सुथरे और समझने लायक होते थे। उसे किसी को भी मदद करने में कोई दिक्कत नहीं थी। उसने बिना सोचे मुस्कुराते हुए अपने नोट्स उसकी तरफ बढ़ा दिए।
"हाँ, हाँ! ले लो, कोई बात नहीं!"
लड़के ने जल्दी से नोट्स पकड़ लिए। "थैंक यू सो मच! मैं शाम तक लौटा दूँगा!"
धरा ने सिर हिलाया और अपने बैग में बाकी किताबें देखने लगी। लेकिन उसे ज़रा भी अंदाज़ा नहीं था कि ये मामूली-सी बात किसी और को नागवार गुज़रेगी...
धरा अपनी किताबों में उलझी हुई थी, लेकिन उसे ज़रा भी अंदाज़ा नहीं था कि क्लास के कोने में बैठा उदय उसे ही देख रहा था।
क्लास शुरू होने में अभी थोड़ा समय था, तो वो अपने नोट्स व्यवस्थित करने लगी।
"धरा!"
वो चौंकी और नज़र उठाकर देखने लगी। सामने उदय खड़ा था—लंबा कद, हल्की दाढ़ी, और आँखों में कुछ अलग सी चमक।
उदय... वही लड़का जो कल गलती से धरा से टकरा गया था। लेकिन उसकी नज़रें सिर्फ एक बार टकराने के बाद भी धरा से हटने का नाम नहीं ले रही थीं।
"हाँ?" धरा ने सामान्य लहजे में कहा।
उदय हल्का सा मुस्कुराया, "कुछ नहीं... बस, ऐसे ही।"
धरा ने हैरानी से उसे देखा। "अरे? ऐसे ही? कोई काम था?"
उदय ने जल्दी से सिर हिलाया, "नहीं... मतलब हाँ, बस तुम्हारे नोट्स लेने थे... अगर तुम दे सकती हो?"
धरा को अजीब लगा, "अभी तो मैंने किसी को दे दिए हैं।"
"ओह..." उदय का चेहरा हल्का सा उतर गया। लेकिन उसने खुद को संभाल लिया, "कोई नहीं, मैं बाद में ले लूँगा।"
धरा ने हल्की मुस्कान दी और फिर अपने बैग में कुछ तलाशने लगी। वो इन सब बातों को ज़्यादा तवज्जो नहीं देती थी। लड़कों से उसकी बात बस ज़रूरत तक ही सीमित रहती थी, और उसे कभी भी इन चीज़ों में दिलचस्पी नहीं रही।
पर उदय के लिए मामला थोड़ा अलग था... उसे धरा पसंद थी।
क्लास में जब भी धरा कुछ बोलती, उदय उसे चुपचाप सुनता। जब भी धरा हँसती, उदय का दिल तेजी से धड़कने लगता। लेकिन भोली धरा को इस बात का बिल्कुल भी एहसास नहीं था...
शाम का समय था। धरा के कमरे में उसकी तीनों दोस्त—रिया, काजल और प्रिया—आराम से फैली हुई थीं।
रिया पलंग पर लेटी हुई चिप्स खा रही थी, वहीं काजल उसकी इस हरकत से चिढ़ रही थी।
"अरे यार, तूने पूरा पैकेट अकेले ही खत्म कर दिया! मुझे भी तो दे!" काजल ने रिया से चिप्स छीनने की कोशिश की।
रिया ने तुरंत चिप्स का पैकेट अपनी तरफ खींचा और मजाकिया लहजे में बोली, "सॉरी, देर हो गई! अब तो बस हवा बची है इसमें।" उसने हँसते हुए खाली पैकेट को काजल की ओर उछाल दिया।
"बहुत बुरी है तू!" काजल गुस्से में बोली और तकिया उठाकर रिया पर फेंक दिया।
धरा हँसते हुए यह नज़ारा देख रही थी। प्रिया ने उसके लंबे घुँघराले बालों को धीरे-धीरे गूँथना शुरू किया।
"धरा, तुझे पता है न, तेरे बाल कितने खूबसूरत हैं?" प्रिया ने बालों में उंगलियाँ फिराते हुए कहा।
"अच्छा? फिर तो तुझे रोज़ मेरी चोटी बनानी पड़ेगी!"
"बिल्कुल नहीं! आज सिर्फ मूड में थी, इसलिए कर रही हूँ!"
तभी काजल ने उत्साह से कहा, "वैसे धरा, तूने एक बार कहा था न कि तुझे डांस बहुत पसंद है और तू भविष्य में अपनी डांस अकादमी खोलना चाहती है?"
धरा के चेहरे पर हल्की सी मुस्कान आ गई। "हाँ, डांस मेरे लिए सिर्फ एक शौक नहीं, जुनून है। मैं चाहती हूँ कि एक दिन मेरी खुद की एक डांस अकादमी हो, जहाँ मैं बच्चों को डांस सिखा सकूँ।"
रिया ने तुरंत तालियाँ बजाते हुए कहा, "वाह! तो फिर अभी क्यों नहीं दिखाती? हम देखना चाहते हैं!"
धरा झिझकते हुए बोली, "अभी? ऐसे अचानक?"
काजल ने जोर देकर कहा, "हाँ, हाँ! अभी! हमें देखना है तेरा डांस!"
प्रिया ने भी समर्थन दिया, "प्लीज, धरा! वैसे भी आज का दिन हल्का-फुल्का मस्ती करने का है।"
धरा ने कुछ पल सोचा, फिर उठकर अपनी जगह से खड़ी हो गई। उसने मोबाइल निकाला और गाने की प्लेलिस्ट खोलकर एक मधुर लेकिन एनर्जी से भरा गाना चला दिया।
जैसे ही म्यूजिक कमरे में गूँजने लगा, धरा ने अपनी आँखें बंद कीं, गहरी सांस ली।
उसने अपनी जगह बनाई, अपने पैर सही किए और आँखें बंद कर लीं। कमरे का शोर उसके कानों में धीमा पड़ने लगा।
धरा ने म्यूजिक के साथ अपनी पहली चाल चली, उसकी बाहें हवा में लहराईं और पैर ताल के साथ समायोजित हुए।
"रात के हमसफर, थक के घर को चले..."
गाने के बोल धीमे से कमरे में गूँजने लगे, और धरा की हरकतें भी उन शब्दों के साथ बहने लगीं।
उसके लंबे, घुँघराले बाल उसके चेहरे के चारों ओर उड़ रहे थे, और उसकी आँखें गहरी भावनाओं से भरी थीं। वह एक के बाद एक ग्रेसफुल मूव्स करती जा रही थी। उसकी हर स्टेप में एक अलग ही जुनून झलक रहा था।
"चाँदनी जब तक रात, तू देता रहेगा साथ..."
उसके कदम हल्के लेकिन प्रभावशाली थे। कभी उसके हाथ आकाश की ओर उठते, कभी वह घुटनों पर झुककर भावनाओं को व्यक्त करती। उसके चेहरे के हाव-भाव, उसके एक्सप्रेशंस इतने प्रभावी थे कि रिया, काजल और प्रिया मंत्रमुग्ध होकर उसे देख रही थीं।
रिया ने धीरे से कहा, "यार, ये तो प्रोफेशनल डांसर जैसी लग रही है!"
"हम ना होंगे कभी, दूर तुमसे सनम..."
उसका पूरा शरीर म्यूजिक को फॉलो कर रहा था, जैसे कि वो और संगीत एक हो गए हों।
गाना अपने क्लाइमैक्स पर पहुँच रहा था—
"बीत जाए बहारें, मिट जाएँ नज़ारे, रह जाए प्यार..."
धरा ने अपने आखिरी मूव के साथ एक खूबसूरत पोज़ लिया, और गाना धीरे-धीरे समाप्त हो गया।
कमरे में एक पल के लिए सन्नाटा छा गया। रिया, काजल और प्रिया की आँखें बड़ी हो गईं।
फिर अगले ही पल—
"वाह! धरा! क्या डांस था!" प्रिया ने सबसे पहले तालियाँ बजाईं।
धरा की परफॉर्मेंस खत्म हुई ही थी कि रिया अचानक शरारती अंदाज में बोली, "अब हमारी बारी!"
उसने जल्दी से मोबाइल उठाया और भोजपुरी गानों की प्लेलिस्ट खोल दी।
"लॉलीपॉप लागेलू..."
गाने की पहली बीट बजते ही काजल ने उछलकर हाथ जोड़ते हुए नाचना शुरू कर दिया, मानो कोई बारात में डांस कर रहा हो।
प्रिया ने चुटकी ली, "अरे! ये क्या क्लासिकल डांस से सीधे बारात में कूद गई?"
रिया भी कहाँ पीछे रहने वाली थी! वह मुँह पर दुपट्टा डालकर नागिन स्टाइल में जमीन पर रेंगने लगी।
धरा हँसते-हँसते पेट पकड़कर गिर पड़ी, "बस करो, पेट दुखने लगा हँसी से!"
लेकिन रिया और काजल तो अब पूरी मस्ती के मूड में आ चुकी थीं।
"तू लगावेलु जब लिपस्टिक..."
प्रिया ने तुरंत तकिया उठाकर माइक बना लिया और फिल्मी अंदाज में गाने लगी।
"धरा जी, कृपया मंच पर आएँ और हमें अपने लटकों-झटकों से चौंकाएँ!"
"नहीं, नहीं, मुझे छोड़ो!" धरा हँसते हुए पीछे हटने लगी।
लेकिन रिया और काजल ने उसका हाथ पकड़कर खींच लिया।
"सटेला ए राजा जी सटेला..."
अब धरा भी हार मानकर मस्ती में शामिल हो गई।
तीनों दोस्त कभी भांगड़ा स्टाइल में, कभी नागिन डांस, तो कभी भोजपुरी स्टेप्स कॉपी करके हँसी से लोटपोट हो रही थीं।
तभी दरवाजे पर हल्की सी दस्तक हुई—
"अंदर कौन-कौन सा स्टेज शो चल रहा है?"
सब ठिठक गईं...
कमरे में अचानक सन्नाटा छा गया।
"अंदर कौन सा स्टेज शो चल रहा है?"
ये आवाज़ सुनते ही प्रिया ने झटपट मोबाइल की आवाज़ बंद कर दी, और काजल ने जल्दी से तकिए अपने ऊपर फेंक लिए, मानो सोने का नाटक कर रही हो।
धरा और रिया की हालत सबसे खराब थी—दोनों बीच में ही अजीब पोज़ में जमी हुई थीं।
दरवाजा धीरे-धीरे खुला, और अंदर आईं वॉर्डन मैडम!
मैडम ने घूरकर पूरे कमरे का जायजा लिया। बेड पर बिखरे तकिए, जमीन पर चिप्स के टुकड़े, और सबसे ऊपर तीनों लड़कियों के चेहरे पर मासूमियत ओढ़ी हुई थी, जो साफ़ कह रही थी कि "हमें कुछ नहीं पता!"
"बहुत बढ़िया! लगता है हॉस्टल का डिस्को इधर ही खुला है?" वॉर्डन ने हाथ बाँधते हुए तंज कसा।
"न-नहीं मैम, हम तो बस... बस..." प्रिया ने घबराकर कुछ बोलने की कोशिश की।
"बस क्या?" वॉर्डन ने तीखी नजरों से देखा।
तभी रिया ने अपनी कातिलाना मासूमियत दिखाते हुए कहा, "मैम, वो धरा का डांस बहुत अच्छा है, तो हमने सोचा कि टैलेंट को बढ़ावा देना चाहिए!"
"अच्छा? और टैलेंट दिखाने के लिए हॉस्टल को बारात बनाना ज़रूरी था?"
"न-नहीं मैम, वो तो हम... हल्की-फुल्की एक्सरसाइज कर रहे थे, फिटनेस के लिए!" काजल ने झट से बहाना बनाया।
"फिटनेस के लिए या हॉस्टल को सिर पर उठाने के लिए?"
धरा ने धीरे से रिया को कोहनी मारी, "अब क्या करें?"
रिया फुसफुसाई, "बस चुप रहो, हो सकता है कम डांट पड़े!"
लेकिन वॉर्डन को देखते ही लग रहा था कि डांट तो पक्की पड़ेगी।
"नाच-गाना तो हो गया? अब सफाई का स्टेप भी कर लो!" वॉर्डन मैम ने हाथ पीछे बाँधते हुए ठंडी आवाज़ में कहा।
तीनों सहेलियाँ चौंककर एक-दूसरे की तरफ देखने लगीं।
"कल सुबह पाँच बजे तुम चारों हॉस्टल के गार्डन की सफाई करोगी!"
"प-पाँच बजे?" रिया की आँखें फैल गईं।
"हाँ! जब रात में इतना जोश है, तो सुबह भी रहना चाहिए!"
धरा, रिया, काजल और प्रिया ने धीरे से एक-दूसरे की तरफ देखा—अब तो गजब हो गया!
"जी हाँ, और सिर्फ झाड़ू लगाने से काम नहीं चलेगा। घास को भी सही करना, सूखे पत्ते हटाना, और पानी डालना भी तुम्हारी ज़िम्मेदारी होगी!" वॉर्डन ने सख्त लहजे में कहा।
काजल के मुँह से निकला, "लेकिन मैम, सुबह-सुबह?"
"कोई समस्या?" वॉर्डन ने घूरा।
"न-नहीं..." काजल ने तुरंत सिर झुका लिया।
"तो ठीक है। कल सुबह पाँच बजे गार्डन में मिलना, और हाँ, अगर कोई देर से आया, तो अगले हफ्ते तक रोज़ यही काम मिलेगा!"
वॉर्डन यह कहकर बाहर निकल गईं।
जैसे ही उनकी आहट दूर हुई—
"गईं?" काजल धीरे से फुसफुसाई।
"हाँ!"
धरा ने तकिया उठाकर अपने चेहरे पर दे मारा, "मर गए यार!"
प्रिया ने लंबी सांस छोड़ी, "सुबह पाँच बजे तो मैं अपने सपनों के सातवें आसमान पर होती हूँ!"
रिया गहरी सोच में पड़ गई, "कसम से, अगर मैंने कल सुबह झाड़ू उठाई, तो मेरा आत्मसम्मान खुद मुझ पर चप्पल चला देगा!"
काजल ने अपना सिर पकड़ लिया, "यार, ये क्या मुसीबत गले पड़ गई! सुबह पाँच बजे उठना मतलब मेरे तो जन्मजात अधिकारों का हनन हो रहा है!"
रिया मुँह लटकाकर बोली, "देख लेना, कल सुबह मेरी आत्मा हॉस्टल छोड़कर स्वर्ग में आराम करने चली जाएगी!"
प्रिया ने भी हाथ जोड़ते हुए कहा, "हे हॉस्टल की देवी, हमें इस श्राप से मुक्ति दिलाओ! हमसे ज़्यादा तो हॉस्टल की झाड़ू खुश होगी कि इतने रईस हाथ पहली बार उसे छुएँगे!"
काजल अपना माथा पकड़ते हुए बोली, "मेरी तो आत्मा बोल रही है—'बेटी, तेरे कर्म इतने गिर गए कि अब सूखे पत्ते तेरी किस्मत बन गए!'"
धरा भी बेड पर लेटते हुए बोली, "कल जब मैं गार्डन में झाड़ू लगाऊँगी, तो मेरी आत्मा खुद मुझे छोड़कर बोलेगी—'तू अपने कर्मों के साथ खुश रह, मैं किसी और शरीर में चली जाती हूँ!'"
क्रमशः
अगले दिन सुबह सर्वज्ञ अपने घर के बाहर खड़ा था। स्कूल ड्रेस पहने, हाथ में केमिस्ट्री की नोटबुक थी। उसके चेहरे पर एक हल्की सी मुस्कान थी, लेकिन उसके दिल में एक अजीब सा तनाव था क्योंकि आज उसका केमिस्ट्री का एग्जाम था।
और तभी सामने से धरा आती दिखाई दी। हल्के गुलाबी सूट में, बाल खुले, और एक हाथ में पानी की बोतल थी।
जैसे ही उसकी नज़र सर्वज्ञ के हाथ में पकड़ी नोटबुक पर पड़ी, उसने मुस्कुराते हुए कहा,
"ओह्ह... आज केमिस्ट्री का एग्ज़ाम है तुम्हारा?"
सर्वज्ञ ने तुरंत अपनी किताब बैग में रखते हुए कहा,
"जी ठकुराइन... थोड़ा टेंस तो हूँ, पर आप मिल गईं तो अब सब आसान लगेगा।"
धरा मुस्कुराई, लेकिन फिर अचानक उसकी नज़र सर्वज्ञ के जूते पर गई—उसकी एक लेस खुली हुई थी। वह तुरंत झुकी और बोली,
"रुको सांवरे!"
सर्वज्ञ कुछ समझ नहीं पाया। "क्या हुआ?" कहकर उसने इधर-उधर देखा।
लेकिन इससे पहले कि वह और कुछ कह पाता, धरा झट से नीचे बैठ गई और बिना कुछ कहे उसके जूते की लेस बाँधने लगी।
सर्वज्ञ हक्का-बक्का रह गया। उसने फौरन अपना पैर पीछे खींचते हुए कहा,
"न-नहीं नहीं! आप मत करिए... ये मैं खुद बाँध लूंगा!"
धरा ने उसकी ओर देखा—उसकी आँखों में हल्की झुंझलाहट और एक प्यारी सी डाँट थी।
"चुप रहो! किताबें तो पकड़ सकते हो, जूते नहीं बाँध सकते?"
सर्वज्ञ सकपका गया।
"पर ठकुराइन, आप नीचे बैठकर—"
"अब चुप रहो!"
उसने फिर से उसका पैर आगे खींचा और लेस बाँधने लगी।
सर्वज्ञ नहीं चाहता था कि उसकी ठकुराइन उसके पैर को छुए, लेकिन वह धरा की ज़िद के सामने कुछ कह भी नहीं पा रहा था। उसका दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़क रहा था। सामने उसकी ठकुराइन थी... ज़मीन पर बैठकर, बड़े सलीके से उसके जूते की लेस बाँध रही थी।
धरा का चेहरा नीचे झुका हुआ था, उसके बाल उसके गालों को छू रहे थे और उसके माथे पर आई एक हल्की लट बार-बार हिल रही थी। सर्वज्ञ ने नज़रे चुरा लीं, जैसे वह खुद से शर्मिंदा हो।
"ये सब ठीक नहीं है..." वह मन ही मन बुदबुदाया।
लेकिन तभी, धरा ने उसकी आँखों में देखते हुए कहा—
"तुम्हारे लिए सब ठीक है, समझे? अगर मैं तुम्हारी चोट साफ़ कर सकती हूँ, तो ये लेस बाँधना कोई बड़ी बात नहीं। और वैसे भी... जब कोई अपना होता है, तो उसके लिए झुकना ग़लत नहीं होता।"
सर्वज्ञ की आँखें पलभर को ठहर गईं।
"अपना..." ये शब्द उसके दिल में जैसे हल्की सी दस्तक देकर उतर गया।
धरा ने लेस बाँधकर एक नज़र उसकी तरफ डाली और मुस्कुरा दी।
सर्वज्ञ ने साइकिल का हैंडल संभाला ही था कि धरा ने मुस्कुराते हुए पूछा,
"तो क्या आज मुझे पैदल भेजने का इरादा है, सांवरे?"
सर्वज्ञ हँस पड़ा।
"कैसी बात कर रही हो ठकुराइन... सवारी तो रोज़ की तरह आज भी साथ चलेगी।"
उसने साइकिल की पीछे वाली सीट पर हाथ से धीरे-धीरे थपथपाया,
"आईए हुज़ूर, आपकी सवारी हाज़िर है।"
धरा ने बिना किसी संकोच के पानी की बोतल अपने बैग में डाली और साइकिल पर बैठ गई।
"पर आज थोड़ी तेज़ चलाना, मेरा कॉलेज वाला लेक्चरर बहुत खड़ूस है, लेट होते ही नाम काट देता है।"
सर्वज्ञ ने मुस्कुराते हुए कहा,
"आपके कहने पर तो मैं साइकिल को उड़ा कर ले चलूँ, ठकुराइन।"
साइकिल चल पड़ी। धूप की हल्की किरणें रास्ते पर बिखरी थीं, और हवा में वही पुराना सा शोर था।
"सांवरे सुनो..." धरा ने धीरे से कहा।
"हूँ?" सर्वज्ञ ने रास्ते पर नज़रें टिकाए हुए जवाब दिया।
"आज अगर पेपर अच्छा हुआ तो... एक कुल्फी खिलाओगे मुझे?" उसकी आवाज़ में एक शरारती मिठास थी।
सर्वज्ञ ने मुस्कुरा कर कहा,
"केवल कुल्फी? मैं तो आपको पूरी दुकान खिला दूँ।"
धरा ने उसकी पीठ पर हल्की सी चपत मारी,
"हद है सांवरे!"
साइकिल हवा से बातें कर रही थी... और दिल धड़कनों से... सर्वज्ञ ने हल्की सी मुस्कान के साथ धरा की वह चपत अपने दिल पर सहेज ली। साइकिल सड़क पर चल रही थी, मगर उसकी रफ्तार से ज़्यादा तेज़ तो सर्वज्ञ की धड़कनें हो रही थीं। धरा उसके पीछे बैठी थी, लेकिन उसके साँसों की हल्की गर्मी सर्वज्ञ की गर्दन को छू रही थी।
उसने हल्के से गर्दन घुमाकर कहा,
"वैसे ठकुराइन... आज आपकी खुशबू कुछ ज़्यादा ही अच्छी लग रही है..."
धरा ने पलभर को चौंककर पूछा,
"क्या कहा तुमने?"
सर्वज्ञ ने हँसते हुए कहा,
"कुछ नहीं, हवा तेज़ है शायद... आपकी खुशबू उड़कर मेरे तक आ रही है।"
धरा के गालों पर हल्की सी लाली आ गई, लेकिन उसने बात पलटते हुए कहा,
"फालतू बातें मत बनाओ, सीधे चलाओ साइकिल, देखो मोड़ आ रहा है!"
सर्वज्ञ ने हँसते हुए मोड़ पर साइकिल संभाली,
"साइकिल नहीं ठकुराइन... दिल संभालना मुश्किल हो रहा है..."
धरा ने उसकी कमर में हल्की सी पकड़ बनाते हुए कहा,
"तो गिर मत जाना कहीं... और मुझे भी मत गिराना, सांवरे!" उसके शब्दों में एक मासूम सी चिंता थी। सर्वज्ञ ने एक पल को साँस रोकी।
"ठकुराइन..." उसने धीमे से कहा।
"हूँ?"
"आज केमिस्ट्री का पेपर चाहे जैसा भी जाए... पर सुबह का यह वक़्त, यह सफ़र... मुझे ज़िंदगी भर याद रहेगा।"
धरा चुप हो गई। उसकी पकड़ सर्वज्ञ की कमर पर और ज़रा सी कस गई। उसने धीरे से कहा,
"कुछ पल ऐसे होते हैं सांवरे... जो पेपर में नहीं लिखे जाते, लेकिन दिल की कॉपी में हमेशा टिके रहते हैं।"
सर्वज्ञ की आँखों में नमी सी तैर गई, मगर उसने खुद को ज़रा सख्त दिखाते हुए कहा,
"अब अगर इतना इमोशनल करोगी तो पेपर से पहले ही फेल हो जाऊँगा।"
धरा हँसी,
"फेल नहीं होने दूँगी... मेरा सांवरा पास ही नहीं, टॉप करेगा!"
अगले ही मोड़ पर धरा का कॉलेज आ गया। सर्वज्ञ ने साइकिल रोकी। धरा उतरते हुए बोली,
"बेस्ट ऑफ़ लक, सांवरे... और हाँ, कुल्फी याद है न?"
सर्वज्ञ ने उसकी आँखों में देखते हुए कहा,
"जी ठकुराइन..."
धरा ने मुस्कुरा कर उसका चेहरा देखा और फिर वह मुड़ कर चल दी, लेकिन सर्वज्ञ वहीं खड़ा रहा, तब तक जब तक वह कॉलेज के गेट के पार ओझल नहीं हो गई। उसने गहरी साँस ली...
"चलो सांवरे... अब केमिस्ट्री से मिलो... ठकुराइन से तो रोज़ मिलते हो।"
स्कूल में घुसते ही सर्वज्ञ ने जैसे ही अपनी साइकिल स्टैंड में लगाई, पीछे से किसी ने उसका बैग खींचा।
"अबे ओ सर्वज्ञ! कहाँ था अब तक? हम तो सोच रहे थे तू आज छुट्टी मारेगा!" आवाज़ मंगल की थी, जो अपनी स्टाइल में हमेशा ही हाइपर रहता था।
"अरे शांत मंगलाचार्य! अभी-अभी तो आया हूँ," सर्वज्ञ हँसते हुए बोला, "और वैसे भी, छुट्टी मैं करता नहीं, करवाता हूँ!"
श्रीदम बीच में कूद पड़ा, "बात तो सही है गुरु, लेकिन आज अगर केमिस्ट्री ने छुट्टी करवा दी ना... तो सीधा बाबा की कुटिया में दर्शन देने पड़ेंगे!"
सर्वज्ञ ने हँसते हुए कहा, "पहले अपनी तैयारी बता दो, फिर डराओ मुझे।"
श्रीदम ने गहरी साँस लेते हुए कहा,
"भाई मेरी तैयारी तो बस इतनी है कि अगर पेपर में 'व्हाट इज केमिस्ट्री?' पूछ लिया गया, तो मैं पूरे आत्मविश्वास से लिख दूँगा—'केमिस्ट्री इज़ ए सब्जेक्ट दैट गिव्स पेन इन टेस्ट एंड टेंशन इन रेस्ट!'"
सर्वज्ञ और मंगल दोनों ज़ोर से हँस पड़े। मंगल बोला,
"तेरी यह डेफिनिशन सुनकर तो टीचर ही बेहोश हो जाएगी!"
श्रीदम मुस्कुराया,
"बेहोश नहीं भाई... पास कर देगी! तरस खा के।"
उसी वक्त घंटी बज गई। सबके चेहरों पर गंभीरता लौट आई। सर्वज्ञ ने अपनी नोटबुक को कसकर बैग में रखा, और बोला,
"चलो यारो... युद्ध का समय हो गया।"
मंगल ने मज़ाक में अपनी आँखों पर हाथ रखते हुए कहा,
"हे रसायन देवता! हम तुम्हारे द्वार पर हाजिरी लगाने आ रहे हैं... कृपा बनाये रखना!"
स्कूल से लौटते समय दोपहर ढल चुकी थी। आसमान में हल्की धूप अब सुनहरी होने लगी थी, और सड़क किनारे पेड़ों की परछाइयाँ लम्बी हो चली थीं। धरा कॉलेज से जल्दी निकल आई थी। वह वहीं कॉलेज के बाहर लगे एक गुलमोहर के पेड़ के नीचे खड़ी थी—अपनी पानी की बोतल को झुला रही थी, और निगाहें बार-बार उस मोड़ की तरफ जा रही थीं जहाँ से सर्वज्ञ आता था। उसका चेहरा थका हुआ था, पर आँखों में एक बेसब्री थी। जैसे कोई इंतज़ार कर रहा हो... किसी अपने का।
और तभी... सड़क के एक कोने से सर्वज्ञ की साइकिल उभरी। सफेद शर्ट, नीली टाई अब थोड़ी ढीली पड़ चुकी थी, माथे पर पसीने की एक बूँद, और होंठों पर वही पुरानी मुस्कान। धरा ने उसे दूर से देखा, और उसके चेहरे पर एक राहत भरी मुस्कान आ गई।
स्कूल का एग्ज़ाम ठीक-ठाक हो गया था। लेकिन दिमाग में बस एक ही बात घूम रही थी—धरा ने कहा था कि वह इंतज़ार करेगी। और सच में... कॉलेज के पास के पुराने नीम के पेड़ के नीचे, वही हल्का गुलाबी दुपट्टा... वही खुले बाल... और हाथ में वही पानी की बोतल... धरा खड़ी थी।
सर्वज्ञ की नज़र जैसे ही उस पर पड़ी, उसकी धड़कनें फिर से तेज़ हो गईं। वह धीरे-धीरे साइकिल चलाते हुए पास पहुँचा। धरा कुछ सोच रही थी, शायद कॉलेज का लेक्चर या घर का कोई काम, लेकिन वह अभी तक नहीं जानती थी कि कोई उसे उस नज़र से देख रहा है... जिस नज़र में पूरी दुनिया रुक सी जाती है।
"वो वहीं है... मेरी ठकुराइन... मेरी इंतज़ार करती हुई।"
जैसे ही साइकिल पास आई, धरा ने थोड़ा तुनकते हुए कहा,
"तो पेपर कैसा गया?"
सर्वज्ञ मुस्कराया, मगर कुछ नहीं बोला। बस साइकिल को एक किनारे लगाया और हैंडल पर दोनों हाथ टिकाकर धरा की ओर देखने लगा—बिलकुल वैसे जैसे कोई किताब पढ़ रहा हो... उसकी सबसे पसंदीदा किताब।
धरा ने भौंहें चढ़ाईं,
"सुन रहे हो न सांवरे?"
सर्वज्ञ ने हल्के से सिर हिलाया,
"सुन भी रहा हूँ... और देख भी रहा हूँ।"
"क्या?" धरा ने पूछा।
सर्वज्ञ ने खोए हुए स्वर में कहा,
"वो गुलाबी सूट, वो पानी की बोतल, वो नीम का पेड़... और आप... सब कुछ।"
धरा का चेहरा थोड़ा सा गर्म पड़ गया, मगर उसने तुरंत खुद को संभाला,
"फिर भी बात नहीं मानी... पेपर का जवाब नहीं दिया!"
सर्वज्ञ ने गहरी साँस ली,
"पेपर ठीक-ठाक था... जितना आपकी मुस्कान से हिम्मत मिली, उतना लिख आया।"
धरा ने हल्के से होंठ भींचे,
"मतलब टॉप करोगे?"
"नहीं जानता," सर्वज्ञ बोला, "पर अगर आप कहो कि मैं टॉप करूँ... तो कर सकता हूँ।"
धरा चुप रही, लेकिन उसके होंठों पर एक मीठी सी मुस्कान खिल गई। सर्वज्ञ अब भी उसे निहार रहा था। धरा उसकी नज़रों की तपिश महसूस कर चुकी थी। उसने आँखें तरेरीं,
"ऐसे क्या देख रहे हो?"
सर्वज्ञ ने जल्दी से नज़रें फेर लीं और बोला, "अ... कुछ नहीं...वो... मैं कह रहा था... कि... ठकुराइन चलिए! कुल्फी की दुकान की ओर बढ़ा जाए।"
धरा तुरंत उठ गई। अगले ही पल में सड़क के किनारे दोनों साइकिल के साथ-साथ पैदल चलने लगे। साइकिल के हैंडल पर सर्वज्ञ का एक हाथ था, और दूसरा जेब में... लेकिन नज़रें बार-बार बगल में चल रही धरा पर टिक जा रही थीं। धरा अपने ही ख्यालों में थी। हवा से उसके बाल उड़ रहे थे, और गुलाबी दुपट्टा कभी कंधे पर टिकता, कभी उड़ जाता।
सर्वज्ञ ने हल्के स्वर में कहा,
"ठकुराइन... आप बहुत तेज़ चलती हैं।"
धरा ने मुस्कुरा कर उसकी तरफ देखा,
"तो क्या करूँ? कुल्फी की दुकान पास आ रही है... मेरा तो मन मचल रहा है!"
सर्वज्ञ ने पहली बार गौर से देखा — धरा की आँखों में कुल्फी के लिए एक अलग ही चमक थी। वह बच्ची जैसी मासूमियत के साथ खुश थी।
धीरे-धीरे कुल्फी की दुकान पास आई। सर्वज्ञ ने ध्यान से देखा— धरा की नज़रें सीधे उसी कुल्फीवाले ठेले पर थीं जहाँ अलग-अलग रंगों की कुल्फियाँ रखी थीं। केसर, पिस्ता, रोज़, मैंगो…
सर्वज्ञ अपनी शर्ट की आस्तीनों को ज़रा ऊपर करता है, और साइकिल के हैंडल पर हाथ रखते हुए बोला,
"ठकुराइन चलिए… अब कुल्फी ही दिलाएगी ठंडक इस गर्म दोपहर को…"
धरा थोड़ा मुस्कराई, "हाँ… जल्दी से लाओ ... देखूँगी कौन-सी लाते हो!"
सर्वज्ञ ज़रा चौक पड़ा। 'कौन-सी?' उसके चेहरे पर एक हल्की परेशानी सी आई। उसे नहीं पता था कि धरा को कौन-सी कुल्फी पसंद है… यह पहली बार था जब वह उसके लिए कुछ खुद से लाने वाला था। पर चेहरे पर भाव नहीं आने दिए उसने—"ठकुराइन को कौन-सी कुल्फी पसंद होगी?"
मटका? नहीं… केसर-पिस्ता? हाँ, पर वह ज़्यादा मीठा नहीं खाती… रबड़ी? नहीं... नहीं तो फिर? अभी सर्वज्ञ यही सोच रहा था कि अचानक साइकिल एक झटका खाकर रुकती है।
"क्या हुआ?" धरा ने पूछा।
"कुछ नहीं, ब्रेक थोड़ा स्लिप कर गया।"
धरा हँसी, "या दिमाग किसी और ब्रेक पर फंसा है?"
सर्वज्ञ ने हल्की हँसी में बात टाल दी। कुल्फी की दुकान आ चुकी थी।
"आप यहीं बैठिए," सर्वज्ञ ने कहा, "मैं लाता हूँ…"
धरा ने आँखें संकीर्ण कर लीं, "देखना… अगर पसंद नहीं आई तो खाऊँगी नहीं।"
सर्वज्ञ मुस्कुराते हुए दुकान की ओर बढ़ा… और फिर जैसे ही कुल्फी के ठेले के सामने पहुँचा, वह थोड़ी देर ठिठक गया। आँखें चारों तरफ घूमने लगीं—मटका, केसर-पिस्ता, रबड़ी-मलाई, रोज़, चॉकलेट… सब कुछ सामने था, लेकिन दिल और दिमाग उलझा हुआ था।
"कौन-सी दूँ उसे? क्या पसंद है उसे? पहली बार कुछ उसके लिए खुद से लाने जा रहा हूँ… और गलती हो गई तो?"
उसने ठेले वाले से पूछा,
"भैया, सबसे ज़्यादा किस फ्लेवर की डिमांड है?"
कुल्फीवाला मुस्कराया, "मैंगो और मटका सबसे ज़्यादा बिकती है।"
सर्वज्ञ कुछ सोच ही रहा था, तभी…
"मेरे लिए मैंगो कुल्फी…!"
पीछे से वही आवाज़ आई… हल्की, मस्ती भरी, और बिल्कुल पहचान में आने वाली। सर्वज्ञ ने मुड़कर देखा—धरा मुस्कुराते हुए उसी तरफ देख रही थी। सर्वज्ञ के चेहरे पर एक गहरा सुकून उतर आया।
"आप हर बार मेरी मुश्किल आसान कर देती हो…"
उसने तुरंत दो मैंगो कुल्फी निकाली—एक उसके लिए, एक अपने लिए। पैसे दिए, और लौट पड़ा… उसी मुस्कान के साथ जो उसके होंठों से नहीं, बल्कि दिल से निकल रही थी।
धरा अब एक नीम के पेड़ के नीचे बैठ गई थी। उसकी नज़रें सामने थीं, पर ध्यान सिर्फ सर्वज्ञ पर। सर्वज्ञ की चाल अब कुछ और ही हो चली थी… जैसे कोई जीतकर लौट रहा हो।
जैसे ही वह पास पहुँचा, धरा ने शरारती अंदाज़ में पूछा,
"तो ले ही आए!"
सर्वज्ञ ने झुककर कुल्फी उसकी ओर बढ़ाई और बोला,
"लो ठकुराइन, आपकी फर्माइश – मैंगो कुल्फी, स्पेशल… आपके लिए।"
धरा ने कुल्फी ली, और एक झपाटे में उसे घूरा,
"ज़्यादा मीठा बोलोगे न, तो कुल्फी तुम्हारे ही मुँह पर ही फेंक दूँगी वो भी तुम्हारी वाली ही कुल्फी!"
सर्वज्ञ हँस पड़ा।
"अच्छा... तो अब कुल्फी भी हथियार बन गई?"
धरा ने एक बाइट ली और आँखें मूँद लीं।
"उफ्फ्फ… ये कुल्फी… मुझे तो इसी से प्यार हो जाए!"
सर्वज्ञ ने अपने ही मन में कहा, "और मुझे आपसे..."
धरा का चेहरा वहीं रुक गया। कुल्फी का टुकड़ा जैसे उसकी ज़ुबान पर पिघलना भूल गया। उसने धीमे से नज़रें उठाईं… सर्वज्ञ अब उसे नहीं देख रहा था। वह सामने कहीं कुल्फी वाले की छाँव में बच्चों को हँसते देख रहा था। पर उसका चेहरा… उस पर कुछ और ही लिखा था। शायद वही जो उसने अभी कहा था।
धरा ने नासमझी में कहा,
"सांवरे... तुमने अभी कुछ कहा क्या?"
सर्वज्ञ ने तुरंत नज़रें झुका लीं।
"मैंने? नहीं तो... कुछ नहीं कहा," उसने हड़बड़ाहट में कुल्फी का एक बड़ा टुकड़ा मुँह में डाल लिया, जैसे जुबान पर ताला लगाने की कोशिश कर रहा हो।
धरा ने संदेह भरी नज़रों से देखा,
"अच्छा शायद मुझे ही गलतफहमी हुई होगी।"
सर्वज्ञ ने तुरंत सिर झटका,
"कुल्फी की तारीफ़ की होगी शायद... वैसे भी इतनी ठंडी कुल्फी में सच कैसे टिक पाएगा, सब पिघल जाएगा।"
धरा ने उसकी बात पर हल्की-सी भौंहें चढ़ाईं... फिर कुल्फी की ओर देखा, एक बाइट और ली... और मुस्कुरा दी।
"ठीक है, मान लेते हैं... तुमने कुछ नहीं कहा।" उसकी आवाज़ में अब भी शक की एक महीन-सी परत थी, लेकिन चेहरा वही भोला था - जो हर बार सर्वज्ञ के झूठ को सच मान लेने की मासूम जिद रखता था।
सर्वज्ञ ने राहत की साँस ली, पर आँखें अब भी धरा की मुस्कान में उलझी थीं। धूप अब थोड़ी और ढल चली थी, नीम के पत्तों की छाँव और भी घनी हो गई थी। हवा में कुल्फी की मिठास घुल चुकी थी… और उनके बीच एक नर्म-सी ख़ामोशी बैठी थी।
सर्वज्ञ ने जैसे ही कुल्फी का अगला टुकड़ा उठाया… वह सीधे उसके स्कूल की सफेद शर्ट पर गिर पड़ा।
"ओ भाई!" वह घबरा गया।
धरा की नज़र तुरंत उसके शर्ट पर पड़ी—संतरी रंग की कुल्फी, एकदम बीचों-बीच, जैसे कोई बच्चा ड्रॉइंग कर गया हो।
"अरे रे रे!" धरा झट से खड़ी हो गई और बिना कुछ सोचे अपने दुपट्टे का कोना उसके शर्ट पर रखकर रगड़ने लगी।
"ठकुराइन! अरे रहने दो, गीला हो जाएगा शर्ट!" सर्वज्ञ हड़बड़ाया।
"चुप रहो!" धरा तुनककर बोली, "इतना बेशर्म कैसे हो सकते हो कि कुल्फी गिरा दी और अब शर्ट की चिंता कर रहे हो? कलर चला गया तो?"
"मैं बेशर्म?" सर्वज्ञ ने आँखें बड़ी कीं।
"हाह!" धरा ने उसे झप्पड़ मारने वाली नज़रों से देखा, "इधर देखो, कहीं और गिर तो नहीं गई…"
सर्वज्ञ अब चुप हो गया। धरा अब उसकी शर्ट पर झुकी थी, और उसका चेहरा बहुत पास आ गया था। सर्वज्ञ की साँस थोड़ी तेज़ हो गई। वह उसके माथे पर उड़े बालों को, उसकी पलकों की हलचल को… सब महसूस कर रहा था।
धरा अब धीरे-धीरे दुपट्टे से उसका कॉलर पोछ रही थी… पर अचानक उसके हाथ रुक गए। उसने धीरे से नज़रें उठाईं… उनकी नज़रों का टकराना इस बार पहले जैसा नहीं था। वह कुछ और ही था—जैसे वक़्त वहीं थम गया हो।
सर्वज्ञ कुछ कहने ही वाला था कि धरा ने तुरंत चेहरा फेर लिया।
"हो गया... अब ठीक लग रहा है।" उसकी आवाज़ में हल्की घबराहट थी।
"धन्यवाद, ठकुराइन जी।" सर्वज्ञ ने हँसकर कहा।
थोड़ी देर बाद सर्वज्ञ ने कहा,
"तो चलें, मैडम जी? वरना सूरज भी कहेगा कि हमसे ज़्यादा तो ये दोनों जले!"
धरा ने उसे घूरा,
"बहुत शराफत झाड़ रहे हो आज… चलो, साइकिल निकालो।"
सर्वज्ञ ने साइकिल उठाई, और पीछे वाली सीट पर हल्की धूल फूँककर उसे साफ किया,
"लीजिए, ठकुराइन जी का सिंहासन तैयार है।"
धरा ने कुल्फी की खाली लकड़ी वहीं पास के कूड़ेदान में फेंकी, और फिर अपने कंधे पर टँगा बैग थोड़ा ठीक किया।
धरा का चेहरा एक पल को सधा रहा… फिर अचानक उसके होंठों पर एक मुस्कान आई, वह बिना कुछ बोले पीछे बैठ गई।
सर्वज्ञ ने जैसे ही साइकिल पकड़ी, एक बार फिर उसकी नज़र पीछे झांक कर धरा पर गई—वह पूरी तरह बेखबर थी, जैसे हवा से बातें कर रही हो। उसके बाल हल्के-हल्के उड़ रहे थे, आँखें नीले आसमान में उलझी थीं… और होंठों पर वही अनकही मुस्कान थी। पर सर्वज्ञ के लिए यह सब बहुत कुछ कह रही थी।
उसने धीरे से पैडल मारा—साइकिल चल पड़ी। हवा अब तेज़ नहीं थी, लेकिन दिल की धड़कनें ज़रूर तेज़ थीं… सर्वज्ञ की आँखें सामने थीं, लेकिन ध्यान पीछे बैठी उस लड़की में उलझा हुआ था, जिसके लिए वह पहली बार खुद से कुछ लाया था… और शायद पहली बार बिना कहे कुछ महसूस भी किया था।
सड़क सीधी थी, पर रास्ता कुछ और ही हो चला था। धरा बेफिक्र थी… पर सर्वज्ञ के लिए हर पल एक 'फ़िक्र' में लिपटा 'प्यार' था।
वह साइकिल चलाता रहा… लेकिन उसकी हर हरकत में एक छुपी सी देखभाल थी—झटका न लगे तो धीरे मोड़ना, सड़क पर पत्थर दिखे तो थोड़ा झुक जाना, पीछे से आती गाड़ी की आवाज़ पर रफ्तार धीमी कर देना… धरा को कोई अहसास न हो… पर उसे पूरा ध्यान रहे।
धरा अचानक बोली,
"सांवरे…"
"हूँ?" सर्वज्ञ ने बिना पीछे देखे कहा।
"तुम इतने चुप क्यों हो?"
सर्वज्ञ मुस्कुराया,
"चुप? नहीं तो… मैं तो बस आपको गिरने से बचा रहा हूँ…"
धरा खिलखिलाकर हँसी,
"अरे बाबा! इतना भी ना सोचो… मैं कोई बच्ची थोड़े ही हूँ।"
सर्वज्ञ हल्का सा मुस्कुराया…
"बिलकुल नहीं… पर आपको तकलीफ़ हो, यह बर्दाश्त भी नहीं।"
यह बात उसने सिर्फ मन में कही… जुबान से नहीं। सड़क अब थोड़ा मोड़ ले रही थी… सामने हॉस्टल की दीवार दिखने लगी थी।
धरा ने हल्के से पूछा,
"तुम रोज़ ऐसे ही छोड़ोगे न?"
सर्वज्ञ ने जवाब नहीं दिया… बस सिर थोड़ा झुका दिया… और पैडल मारता रहा। धरा ने फिर नहीं पूछा… बस मुस्कुराकर आसमान की ओर देखा। कभी-कभी कुछ जवाब शब्दों से नहीं… रफ्तार से, चाल से… और साइकिल की उस धीमी होती स्पीड से मिल जाते हैं।
क्रमशः
सर्वज्ञ ने साइकिल धीरे से हॉस्टल के गेट के पास रोकी।
धरा उतरने ही लगी थी कि उसकी नज़र सामने गई—सर्वज्ञ के घर के आँगन में एक लंबा-चौड़ा, तेज़ नज़र वाला लड़का खड़ा था। सूट में, एकदम सज्जन, हाथ में मोबाइल और आँखें सीधी सर्वज्ञ पर टिकी हुईं।
धरा थोड़ा ठिठकी। सर्वज्ञ ने जैसे ही उसकी नज़र देखी, वह भी पीछे मुड़ा।
"भैया…?" उसके मुँह से धीमे से निकला।
आँगन में चित्रांश भैया खड़े थे।
चित्रांश ने दूर से ही आवाज़ दी—
"छोटू…!"
धरा की चाल अचानक रुक गई। सर्वज्ञ के चेहरे पर मुस्कुराहट तैर गई।
“ठकुराइन, ये मेरे बड़े भैया हैं… चित्रांश भैया,” उसने धीमे से कहा।
धरा ने पलटकर देखा… चित्रांश अब साइकिल के पास आ चुके थे। उनके चेहरे पर थोड़ी हैरानी थी, लेकिन नज़रों में सलीका बना हुआ था।
“छोटू तो अब तुम गर्ल्स को छोड़ने भी लगे हो?” चित्रांश ने हल्की-सी मुस्कान के साथ पूछा।
सर्वज्ञ ने झिझकते हुए कहा, “नहीं भैया… मतलब… बस ऐसे ही, पास में ही हॉस्टल है, तो…”
चित्रांश की नज़र अब धरा पर गई।
धरा ने हल्के से सिर झुकाकर नमस्ते की, “नमस्ते, भैया…”
चित्रांश ने धीमे से सिर हिलाया, “नमस्ते… आप?”
सर्वज्ञ हड़बड़ाया, “भैया, ये… ठकुराइन… मेरा मतलब धरा है। मेरी दोस्त।”
चित्रांश ने एक पल को धरा की ओर देखा—साफ-सादी लड़की, आँखों में आत्मविश्वास, चेहरे पर भोलापन।
“अच्छा… अच्छा किया नाम बताया,” चित्रांश बोले, “वरना मैं सोच रहा था कि छोटू के पीछे कौन सी रहस्यमयी परछाईं घूम रही है, जो रोज़ साइकिल पर लिफ्ट लेती है।”
धरा की हँसी छूटते-छूटते रह गई। उसने नीचे नज़रें झुका लीं, जबकि सर्वज्ञ ने कान के पीछे हाथ फेरते हुए कहा,
“भैया, कुछ भी बोलते हो आप… ये बस… क्लासेस की टाइमिंग एक जैसी होती हैं हमारी, तो…”
“हाँ हाँ,” चित्रांश ने मज़े लेते हुए कहा, “क्लासेस एक जैसी, रास्ता एक जैसा, मोहल्ला एक जैसा, और अब तो दिल भी एक जैसा ना हो जाए।”
सर्वज्ञ के चेहरे का रंग बदल गया। वह कुछ कहता उससे पहले ही चित्रांश ने हँसते हुए धरा से कहा,
“माफ़ करना, मैं थोड़ा ज़्यादा ही तंग करता हूँ इसे।”
धरा ने हल्की मुस्कान के साथ कहा, “कोई बात नहीं भैया… ये नटखट तो इसी लायक है।”
चित्रांश हँस पड़े।
“वाह! तो अब तो इसकी शिकायतें भी शुरू हो गईं। छोटू, संभल जा…।”
सर्वज्ञ ने बीच में ही टोकते हुए कहा, “भैया! अब चलो ना… मम्मी इंतज़ार कर रही होंगी।”
चित्रांश ने आँखें चौड़ी करते हुए कहा, “हाँ हाँ… मम्मी तो हमेशा इंतज़ार में रहती हैं।”
धरा ने फौरन कहा, “अच्छा भैया, अब मैं चलती हूँ… नहीं तो वॉर्डन फिर से गेट बंद कर देंगी।”
चित्रांश ने मुस्कराते हुए कहा, “बिलकुल… और फिर छोटू को साइकिल समेत हॉस्टल में ही रुकना पड़ेगा।”
धरा हँस पड़ी। सर्वज्ञ अब सच में झुंझला गया था, “भैया… बस करो न अब…”
धरा ने नमस्ते किया और मुड़कर हॉस्टल के गेट की ओर चल दी। जाते-जाते उसने एक बार पीछे मुड़कर देखा… चित्रांश भैया अब सर्वज्ञ के कंधे पर हाथ रखे कुछ कह रहे थे… और सर्वज्ञ एक पल को मुस्कराया, फिर आँखें झुका लीं।
धरा के होंठों पर हल्की-सी मुस्कान तैर गई।
उसके दिल में पहली बार कुछ काँपा था… कुछ अजीब, अनकहा सा… शायद… कोई शुरुआत थी ये।
चित्रांश और सर्वज्ञ अब घर की ओर साइकिल पर धीरे-धीरे बढ़ रहे थे। रास्ते में थोड़ी देर चुप्पी रही। सर्वज्ञ को अंदाज़ा था—भैया चुप हैं, यानी तूफान आने वाला है।
घर के गेट से अंदर आते ही चित्रांश ने साइकिल का हैंडल पकड़कर उसे रोका।
“उतर, छोटू,” वो बोले—लेकिन आवाज़ में वो मीठी गंभीरता थी, जो हर छोटे भाई को डराने के लिए काफी होती है।
सर्वज्ञ धीरे से उतरा। “भैया…”
चित्रांश ने साइकिल एक ओर रख दी, फिर उसकी ओर घूमा। “तेरे को आजकल बड़ी मेहरबानी हो रही है लड़कियों पर, है ना?”
“अरे भैया…।”
“अबे छोटू, चल… अंदर!”
सर्वज्ञ हड़बड़ाया, “अरे भैया… मम्मी कुछ बोलेंगी तो…”
“मम्मी से पहले तुझे मैं बोलने वाला हूँ। चल!”
ड्राइंग रूम से खींचकर सीधा अपने रूम में ले जाकर बैठा दिया सर्वज्ञ को।
चित्रांश ने कोट उतारा, घड़ी उतारी, और चेहरा सीरियस कर लिया।
“अब बता… ये क्या नया ड्रामा चल रहा है तेरा? कौन है ये धरा?”
सर्वज्ञ ने सीधा चित्रांश की आँखों में देखकर कहा, “फ्रेंड है!”
“फ्रेंड?” चित्रांश एक पल को रुके, फिर आँखें छोटी करते हुए बोले, “तू तो ‘फ्रेंड’ शब्द का भी अपमान कर रहा है। तुझे याद है ना तेरी क्लासमेट गुनगुन को बर्थडे पर तूने गिफ्ट में छिपकली दी थी?”
सर्वज्ञ ठठाकर हँस पड़ा, “अरे वो तो बस मज़ाक था!”
“हाँ, और उसी मज़ाक के बाद वो दो महीने तक थर-थर काँपती रही। और तनुज? उसको पतंग से उसके बालों में चुइंगम फँसाई थी तूने।”
“भैया…” सर्वज्ञ थोड़ा घबरा गया, “अब बस भी करो न… मम्मी सुन लेंगी तो…”
“हाँ, मम्मी तो सुन लेंगी,” चित्रांश ने अचानक अपनी आवाज़ तेज़ की और गुस्से से उसके सामने आ खड़े हुए, “पर पहले तू बता! ये गलतफहमी कहाँ से आई तुझे कि तुझे हर लड़की से मस्ती करने का लाइसेंस मिला है?”
सर्वज्ञ की आँखें फैल गईं, “भैया… क्या हो गया? इतने गुस्से में क्यों?”
“क्योंकि मैं तुझे जानता हूँ, छोटू…” चित्रांश की आवाज़ भारी हुई, “और अगर तू ऐसा ही रहा… तो एक दिन किसी के दिल से खेलने वाला बनेगा…”
अचानक चित्रांश ने ऐसा झटका दिया, जैसे सर्वज्ञ को थप्पड़ मारने वाले हों। सर्वज्ञ ने आँखें कसकर बंद कर लीं…
पर थप्पड़ की जगह… सिर्फ एक उंगली हल्के से उसकी नाक पर लगी।
सर्वज्ञ ने आँखें खोलीं—चित्रांश के चेहरे पर शरारती मुस्कान थी।
“डर गया, छोटू?”
“भैया…!” सर्वज्ञ ने झल्लाकर कहा, “आप तो… डर ही गया था मैं।”
“बस… इतना ही तो चाहिए था मुझे,” चित्रांश ने उसके कंधे पर हाथ रखा, “तू मस्तीखोर है, लेकिन दिल साफ़ है। पर ये दुनिया दिल नहीं देखती, बस हरकतें देखती है… समझा?”
सर्वज्ञ ने अपना सिर हिला दिया।
चित्रांश आगे बोले, “आज पहली बार तुझे किसी लड़की के साथ इतना सहज देखा है। इतना खामोश… इतना शांत… और सबसे बड़ी बात—किसी के लिए झिझकते हुए सफाई देते हुए।”
चित्रांश का चेहरा अब पूरी तरह नरम हो चुका था।
“सच-सच बता… पसंद है न तुझे वो?”
सर्वज्ञ ने पहले तो कुछ पल चुप रहकर ज़मीन को घूरा… फिर धीरे से बोला,
“मुझे नहीं पता, भैया… बस जब वो साथ होती है न, तो कुछ अजीब सा लगता है। अच्छा भी, और डरावना भी। दिल करता है कि बात करता रहूँ उनसे… पर डर भी लगता है कि कहीं वो दूर न हो जाए…”
चित्रांश अब मुस्कुरा रहा था।
“अरे वाह… छोटू तो फिलॉसफी मारने लगा अब! डर वाली बात सच्ची है… पर उस डर को प्यार कहते हैं, मेरे भाई।”
सर्वज्ञ ने सर उठाकर देखा, “मतलब… आपको सच में लग रहा है कि…”
“मुझे कुछ लगने की ज़रूरत नहीं है, मैं तो देख रहा हूँ… और जो देख रहा हूँ, वो ये है कि तू अब बड़ा हो रहा है, छोटू।”
सर्वज्ञ ने धीरे से पूछा, “पर भैया… मैं तो दो साल छोटा हूँ उनसे… ये बात उन्हें पता चलेगी तो शायद… हँस दें… या फिर… कभी बात ही न करें…”
चित्रांश ने उसके कंधे पर हाथ रखकर हल्के से दबाया।
“सालों में प्यार का नाप नहीं होता, छोटू। और वैसे भी, दो साल का फर्क तो उम्र में है… सोच में नहीं। तेरी बातों में जो सच्चाई है, वो कई बार उम्रदराज़ लोग भी नहीं समझ पाते।”
सर्वज्ञ अब भी उलझा हुआ था।
चित्रांश ने मुस्कुराते हुए आगे कहा,
“लोग तो बारिश में भीगते वक़्त ये नहीं सोचते कि बारिश कितनी खूबसूरत है… वो सिर्फ कपड़े गीले होने की चिंता करते हैं। ज़िंदगी अगर लोगों के डर से जी जाएगी, तो खुद के लिए क्या बचेगा?”
सर्वज्ञ ने चुपचाप सिर झुका लिया।
चित्रांश ने हँसते हुए कहा,
“देख छोटू, मैं ये नहीं कह रहा कि तुझे अब जाकर उसे प्रपोज़ कर देना चाहिए… पर जो एहसास है न… उसे संभाल कर रखना। उसे नज़रअंदाज़ मत करना… और सबसे ज़रूरी—उस एहसास को इज़्ज़त देना। वक़्त आएगा, जब वो खुद-ब-खुद समझ जाएगी कि तू क्या है उसके लिए…”
सर्वज्ञ की आँखों में अब थोड़ा सुकून था… थोड़ा भरोसा भी।
“और हाँ,” चित्रांश ने हँसते हुए कहा, “अगर कभी किसी बात की समझ न आए, तो अपने इस बड़े भाई को याद कर लेना। तू छोटा ज़रूर है, लेकिन दिल से बड़ा हो गया है, छोटू…”
सर्वज्ञ ने हल्की मुस्कान के साथ कहा,
“थैंक्यू, भैया… मुझे लगा था आप गुस्सा करोगे… पर आपने तो…”
“गुस्सा किया था… पर प्यार से!” चित्रांश ने उसकी गर्दन में हल्की चपत मारते हुए कहा, “अब चल, मम्मी वेट कर रही होंगी।”
चित्रांश ने मन में सोचा—
“शायद… अब इसका दिल सच में कहीं ठहर गया है… और अगर वो ठहराव धरा है, तो मैं खुद उसके साथ खड़ा रहूँगा… लेकिन उससे पहले… छोटू को थोड़ी क्लास और लगानी पड़ेगी।”
दोनों कमरे से बाहर निकल गए… लेकिन सर्वज्ञ का मन अब भी वहीं था—उस पल में, उस मुस्कान में, और उसकी ठकुराइन में…
धरा हॉस्टल के गेट से अंदर तो आ गई थी, लेकिन उसका मन वहीं बाहर ठहर गया था।
वह अपनी बैग स्ट्रैप को पकड़कर कुछ देर लॉन के किनारे बैठी रही। चित्रांश भैया के शब्द… और सर्वज्ञ की झेंप… सब उसके ज़ेहन में गूंज रहे थे।
“दिल भी एक जैसा ना हो जाए…”
ये शब्द उसके कानों में कुछ ज़्यादा ही देर तक गूंजते रहे।
उसने अपने होंठों पर फैली मुस्कान को रोका, लेकिन उसकी आँखें बता रही थीं—कहीं न कहीं, उसका दिल भी उसी साइकिल पर पीछे बैठा था… सर्वज्ञ के साथ।
डाइनिंग टेबल पर नंदन जी गंभीर मुद्रा में बैठे थे। सामने थाली में गरम-गरम रोटियाँ और सब्जी रखी थी, लेकिन उनका ध्यान खाने से ज़्यादा कुछ और सोचने में लगा हुआ था। यामिनी मम्मी एक नज़र उन पर डालतीं, फिर सर्वज्ञ और चित्रांश की ओर देखतीं, जो अब खाने के लिए कुर्सी खींच रहे थे।
“कहाँ रह गए थे तुम दोनों?” यामिनी मम्मी ने हल्की नाराज़गी से पूछा।
चित्रांश ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया, “बस मम्मी, छोटू से थोड़ी बात कर रहा था।”
सर्वज्ञ ने भी मुस्कुराते हुए अपना सिर हिला दिया।
चित्रांश ने फिर अचानक से कहा, “मम्मी, इसको आज दूध पीने दो… प्यार में भूख-प्यास दोनों कम हो जाती है!”
सर्वज्ञ झट से बोल पड़ा, “भैया…!”
नंदन जी चौंकते हुए, चश्मा उतारते हुए बोले,
“क्या मतलब है चित्रांश, कौन-सा प्यार?”
चित्रांश शरारती मुस्कान के साथ,
“अरे पापा, कुछ नहीं… बस ऐसे ही… छोटू थोड़ा बड़ा हो गया है, अब दोस्ती-वार्ताएँ भी होने लगी हैं इसकी।”
नंदन जी ने चश्मा उतारकर टेबल पर रखा और हल्के गुस्से में बोले,
“चित्रांश, साफ़-साफ़ बताओ क्या चल रहा है?”
सर्वज्ञ ने तुरंत मासूमियत ओढ़ ली, चेहरे पर वही भोला-भाला भाव लाकर कहा,
“पापा, आप ही बताइए… मैं घर का सबसे छोटा हूँ, सबसे सीधा-सादा हूँ… आप सोच सकते हैं कि मैं ऐसा कुछ कर सकता हूँ?”
यामिनी मम्मी ने तुरंत सिर हिलाया,
“बिल्कुल नहीं! मेरा सांवरा तो अभी बच्चा है।”
सर्वज्ञ ने तुरंत सिर झुका लिया, आवाज़ में हल्का कंपन लाकर बोला,
“और फिर भैया को तो मुझसे हमेशा जलन होती है… वो तो बस मुझ पर इल्ज़ाम लगाने का बहाना ढूँढते हैं।”
चित्रांश की आँखें फैल गईं,
“अरे ओ छोटू! जलन और तुझसे? हद्द है यार!”
नंदन जी अब पूरी तरह से चित्रांश की ओर घूमें, भौंहें उठाते हुए,
“तो इसका मतलब तू जबरदस्ती इसे तंग कर रहा था?”
सर्वज्ञ ने हल्के से सिसकने की ऐक्टिंग की,
“मम्मी, देखो ना… भैया मुझसे ऐसे ही मज़ाक करते रहते हैं। आज कह रहे थे कि मैं किसी से प्यार करता हूँ, कल बोलेंगे कि मैं शादी कर रहा हूँ!”
यामिनी मम्मी का चेहरा गुस्से से तमतमा गया,
“चित्रांश! क्या बचपना है ये? छोटे भाई को तंग मत किया करो।”
चित्रांश ने माथा पकड़ लिया। सर्वज्ञ के चेहरे पर छुपी हुई शरारत देखकर उसे समझ आ गया कि वह खुद ही अपने जाल में फंस गया है!
नंदन जी ने भी सिर हिलाते हुए कहा,
“बिल्कुल सही कह रही हो, यामिनी! चित्रांश, छोटे भाई के लिए इतनी टांग-खिंचाई ठीक नहीं है।”
सर्वज्ञ ने अंदर ही अंदर अपनी जीत का जश्न मनाया और मासूमियत से चित्रांश को देखा, जैसे कह रहा हो—
“भैया, अब बचकर दिखाओ!”
चित्रांश ने झुंझलाकर सर्वज्ञ की ओर देखा, फिर हँसते हुए अपना सिर हिला दिया।
“बेटा, आज तो तूने मासूमियत के नाम पर बाज़ी मार ली… लेकिन अगली बार, मैं तैयार रहूँगा!”
सर्वज्ञ ने शरारती मुस्कान के साथ सिर झुका लिया और खाना खाने में लग गया।
उस रात सर्वज्ञ की आँखों में नींद नहीं आई। उसकी आँखों के सामने धरा की मुस्कान, उसकी नज़रों का वो हल्का सा डर, और चित्रांश के शब्द गूंज रहे थे। वह पल-पल सोच रहा था, क्या ये सच है?
“क्या ये सच है?” उसने खुद से पूछा, फिर हल्की सी मुस्कान के साथ अपने तकिए को गले से लगा लिया।
“क्या मुझे सच में ठकुराइन से प्यार हो गया है?” उसका दिल धड़क रहा था, जैसे यह सवाल उसे बार-बार अपनी गिरफ्त में ले रहा हो।
उसके मन में एक अजीब सा एहसास था। वह जिस तरह से धरा के साथ बैठता था, जैसे दुनिया की सारी खुशियाँ वहीं थीं। जब भी वह धरा के पास होता, उसे अपने आप से ज़्यादा उसके बारे में सोचने का मन करता।
“क्या ये वही एहसास है?” उसने आँखें बंद कर लीं, और वो सर्द सी हवा जो खिड़की से आ रही थी, उसे और भी गहरा एहसास दिला रही थी।
“कभी-कभी तो लगता है जैसे वो साइकिल पर पीछे बैठी हो, मेरी हर बात सुनती हो, मेरी हर शरारत पर हँसती हो…” उसने धीमे से खुद से कहा, और उसकी दिल की धड़कन तेज़ हो गई।
“कभी वह अपने सवालों में उलझी हुई होती है, कभी शरारत से मुस्कुराती है… क्या यही प्यार है?”
वह सोचने लगा, “क्या यह वही एहसास है? वो अजीब सा डर, जो दिल में हलचल पैदा करता है। वो खुशी, जब धरा उसके पास होती है… और वो चुपचाप मुस्कान जब दोनों एक-दूसरे से कुछ भी नहीं कह पाते, बस खामोशी में समझ लेते हैं…”
उसे याद आया, जब चित्रांश ने कहा था, “लोग तो बारिश में भीगते वक़्त ये नहीं सोचते कि बारिश कितनी खूबसूरत है… वो सिर्फ कपड़े गीले होने की चिंता करते हैं।”
सर्वज्ञ अब पूरी तरह से महसूस कर रहा था… हाँ, ये सच है… ये एहसास… ये एहसास… यही प्यार है।
क्रमशः
रविवार की सुबह पूरे घर में हलचल थी। रसोई में बर्तनों की खनक और यामिनी जी की तेज आवाज एक साथ गूंज रही थी।
"सांवरे, उठ जा! दूध रखा है, जल्दी से पी ले!"
सर्वज्ञ अभी तक अपनी रजाई में घुसा पड़ा था। आधी नींद में ही उसने आलस से आँखें मलीं और करवट बदल ली। यामिनी जी कमरे में आईं, उसके सिर पर प्यार से हाथ फेरा और मुस्कुराकर बोलीं, "तेरी परीक्षा जल्दी खत्म हो जाए बस, फिर मजे करना। दो हफ्ते बाद चित्रांश की शादी है, ढेर सारे मेहमान आएंगे। कितना काम बाकी है!"
सर्वज्ञ ने ऊँघते हुए सिर हिलाया। तभी बाहर से किसी के हंसने की आवाज आई, "बिलकुल कछुए की तरह धीरे-धीरे उठता है ये!"
दरवाजे पर केशवी खड़ी थी, हाथ में अपना बैग पकड़े।
"मम्मी जी, इसे जल्दी उठाने के लिए अलार्म नहीं, ढोल बजाने की जरूरत है!"
"केशवी भाभी आप?" सर्वज्ञ की नींद जैसे तुरंत उड़ गई। वह झटपट उठकर बैठा और चहकते हुए बोला, "आप कब आईं?"
"आज हम मार्केट जा रहे हैं शॉपिंग के लिए, इसीलिए केशवी बेटी भी आई है, लेकिन तेरी तो एग्जाम हैं, तू घर पर ही रह!"
"हाय, मेरे साथ हमेशा ऐसा ही क्यों होता है? सबसे छोटा होने का यही नुकसान है! जब मस्ती करने का मौका आता है, तभी मेरी परीक्षाएँ आ जाती हैं!" सर्वज्ञ ने नाटकीय अंदाज़ में कहा और फिर अचानक मुस्कुराते हुए बोला, "पर कोई नहीं! शादी में तो मुझे सबसे हैंडसम लगना ही है! आखिर छोटा भाई हूँ, स्टाइल तो मुझ पर ही सूट करेगा!"
केशवी हँस पड़ी, "ओहो! तो जनाब अभी से प्लानिंग कर रहे हैं?"
सर्वज्ञ ने शरारती अंदाज़ में आईने में खुद को निहारते हुए बालों में हाथ फेरा, "बिल्कुल! नए कपड़े, बढ़िया परफ्यूम और हेयरस्टाइल भी ऐसा कि सबकी नजर मुझ पर ही टिकी रहे!"
यामिनी जी ने उसकी बातें सुनकर सिर हिलाया और मुस्कुराकर बोलीं, "पहले जाकर ब्रश कर और दूध पी, फिर ये सारी बड़ी-बड़ी बातें करना!"
सर्वज्ञ ने गहरी सांस लेते हुए कहा,
"भाभी, आप मार्केट से मेरे लिए कुछ अच्छा सा लाना, वरना मैं मुँह फुलाकर बैठ जाऊँगा!"
यामिनी जी ने बीच में टोका,
"अरे, तू पहले अपना दूध तो खत्म कर!"
सर्वज्ञ ने झटपट दूध उठाया।
तभी यामिनी जी ने केशवी को आवाज दी,
"बेटी, ज़रा चित्रांश को बोल दो तैयार हो जाए, टाइम हो रहा है।"
केशवी मुस्कुराई और अपना बैग संभालते हुए धीरे से चित्रांश के कमरे की ओर बढ़ी। जैसे ही दरवाजे पर पहुँची, एक पल के लिए ठिठकी। हल्की मुस्कान उनके चेहरे पर खेल उठी, मगर फिर एक गहरी सांस लेकर अंदर चली गई।
चित्रांश अपने टेबल पर बैठा कुछ लिख रहा था। उसकी पीठ दरवाजे की ओर थी, शायद उसे आहट का अंदाज़ा नहीं हुआ। केशवी धीरे-धीरे चलकर उसके पास पहुँची और हल्के से उसकी कुर्सी के पीछे खड़ी हो गई।
"आप पढ़ाई में इतने मग्न हैं कि किसी को आते-जाते भी नहीं देखते?"
चित्रांश ने आवाज़ सुनते ही सिर उठाया और हल्की मुस्कान के साथ बोला,
"अरे, तुम कब आईं?"
केशवी हल्की-सी मुस्कान के साथ बोलीं,
"अभी-अभी… मम्मी जी कह रही थीं कि आपको भी मार्केट चलना है, आपकी भी चीजें लेनी हैं।"
चित्रांश ने किताब बंद की और बोला,
"अरे मैं तो तैयार ही हूँ!"
चित्रांश ने किताब बंद की और कुर्सी पीछे खिसकाकर खड़ा हो गया। उसकी नज़र जैसे ही केशवी पर पड़ी, वो हल्का सा मुस्कुरा दिया।
"तो, तुम मुझे बुलाने आई हो?"
केशवी ने अपने दुपट्टे को ठीक करते हुए हल्की झिझक के साथ जवाब दिया,
"जी, मम्मी जी ने कहा कि आपको बुला लूँ, टाइम हो रहा है।"
"ओह, तो मतलब अपने मन से नहीं आई?"
केशवी हल्का-सा शरमा गई और नजरें झुका लीं।
"ऐसी कोई बात नहीं है... आप जल्दी तैयार हो जाइए, सब लोग इंतज़ार कर रहे हैं।" उसने जल्दी से बात खत्म करने की कोशिश की।
चित्रांश को उसकी झिझक अच्छी लगी। वो हल्के से उसकी तरफ झुका और धीरे से बोला,
"अगर मैं कहूँ कि मुझे तुम्हारे आने का ही इंतज़ार था?"
केशवी की साँसें हल्की-सी तेज़ हो गईं। उसने जल्दी से दरवाजे की तरफ देखा और थोड़ा पीछे हटते हुए बोली,
"आप… आप हमेशा इतनी बातें क्यों बनाते हैं?"
चित्रांश हंस पड़ा।
"क्योंकि तुम्हारी मासूमियत देखना मुझे पसंद है!"
केशवी ने जल्दी से दरवाजा खोला और बोली,
"मैं बाहर इंतज़ार कर रही हूँ, जल्दी आइए!"
इतना कहकर वह तेज़ी से बाहर निकल गई, और चित्रांश मुस्कुराते हुए अपने कपड़े निकालने लगा।
चित्रांश के तैयार होते ही वह बाहर निकला तो देखा कि पूरा घर हलचल से भरा हुआ था। नंदन जी सोफ़े पर बैठकर टीवी देख रहे थे, जहाँ न्यूज़ चैनल पर चुनावी बहस चल रही थी। उनके हाथ में चाय का कप था, और वे बीच-बीच में सिर हिला कर अपने आप से ही कुछ बुदबुदा रहे थे।
"इन नेताओं को तो बस बोलने की आदत है, कोई काम की बात करता ही नहीं!" उन्होंने ज़रा ज़ोर से कहा, ताकि आस-पास बैठे लोग भी उनकी राय सुन सकें।
यामिनी जी रसोई में थीं, लेकिन नंदन जी की आवाज़ उन तक पहुँच ही गई। उन्होंने हल्की नाराज़गी भरी आवाज़ में कहा, "अजी, न्यूज़ छोड़िए और ज़रा मेरी मदद कीजिए! शादी का घर है, और आपको तो बस इस टीवी से ही फुर्सत नहीं!"
नंदन जी ने चाय का आखिरी घूंट लिया और अपनी ऐनक ठीक करते हुए बोले, "अरे भाई, मैं तो यही सोच रहा था कि शादी में कौन-कौन नेता बुलाएँ!" उन्होंने मज़ाक में कहा और हँस दिए।
"आपका मज़ाक कभी खत्म ही नहीं होगा! ज़रा यहाँ आकर देखिए, मिठाई की लिस्ट पूरी हुई या नहीं। मुझे हलवाई को कॉल भी करना है," यामिनी जी ने आदेश दिया।
उधर, केशवी रसोई में आई और हल्का मुस्कुराते हुए बोली, "मम्मी जी, मैं आपकी मदद कर दूँ?"
"अरे नहीं बेटा, सारा काम हो गया है... बस हमें जल्दी से निकलना चाहिए।"
केशवी ने मुस्कुराकर सिर हिलाया और रसोई से बाहर आ गई। बाहर आते ही उसकी नज़र चित्रांश पर पड़ी, जो दरवाजे के पास खड़ा था, और उसकी आँखें केशवी को ही ढूँढ़ रही थीं।
केशवी की नज़रें जैसे ही उस पर पड़ीं, वो एक पल के लिए ठहर गई। उसकी साँसें धीमी हो गईं, और दिल की धड़कन तेज़। चित्रांश हमेशा हैंडसम लगता था, लेकिन आज... आज तो वो कुछ ज़्यादा ही अच्छे लग रहे थे।
चित्रांश आज कुछ अलग ही लग रहा था—गहरे काले रंग की शर्ट, हल्के ग्रे रंग की पैंट, कमर पर सलीके से कसी हुई ब्लैक बेल्ट और हाथ में चमकती हुई घड़ी।
केशवी को याद आया, जब पहली बार वह चित्रांश से मिली थी, तब भी उसने काले रंग की ही शर्ट पहनी थी। वो पहली मुलाकात भी कुछ खास थी... पर आज, न जाने क्यों, उसकी धड़कन थोड़ी तेज़ हो रही थी।
चित्रांश ने हल्की मुस्कान के साथ अपने हाथ की घड़ी को देखा और बोला,
"चलें?"
लेकिन केशवी... केशवी तो अब भी चित्रांश को एकटक देख रही थी। उसकी आँखों में एक अजीब-सी चमक थी, जैसे किसी ख्वाब में खो गई हो। चित्रांश ने हल्की मुस्कान के साथ उसके चेहरे की ओर देखा और थोड़ा पास आकर धीरे से फुसफुसाया,
"इतना मत देखो, कहीं प्यार न हो जाए।"
केशवी अचानक चौंक गई, जैसे किसी ने उसे ख्वाब से जगा दिया हो। उसने घबराकर नजरें झुका लीं और अपने दुपट्टे को ठीक करने लगी। लेकिन उसके गालों की गुलाबी आभा ने सब बयां कर दिया। चित्रांश ने उसकी झिझक को भांप लिया और हल्के से हंसते हुए बोला,
"पहले एक काम करते हैं, तुम मुझे जी भर के देख लो, फिर चलें।"
केशवी ने नज़रे उठाकर उसकी आँखों में झाँका। चित्रांश की आँखों में वही शरारत थी, जो उसे हमेशा परेशान कर देती थी।
केशवी ने बस एक पल के लिए उसकी आँखों में देखा, फिर जैसे ही चित्रांश की बात समझ आई, उसका चेहरा और भी लाल पड़ गया। उसने घबराकर इधर-उधर देखा, और बिना कुछ कहे पलटी और तेज़ी से बाहर हॉल की तरफ भागी।
चित्रांश उसकी इस हरकत पर हंस पड़ा।
"अरे, भाग क्यों रही हो? मैंने तो बस एक सच ही कहा था!" उसने आवाज़ लगाई।
लेकिन केशवी तो जैसे हवा से बातें कर रही थी। उसकी तेज़ चाल देखकर घर के बाकी लोग भी चौंक गए।
थोड़ी देर बाद.... मार्केट में...
दुकान रंग-बिरंगे लहंगों से सजी हुई थी। हर तरफ चमचमाते कपड़े, भारी कढ़ाई वाले दुपट्टे और तरह-तरह की डिज़ाइन्स थीं।
वे सभी एक शोरूम में घुसे और केशवी ने एक से बढ़कर एक लहंगे देखने शुरू कर दिए। वह हर डिजाइन पर थोड़ा चुलबुलापन दिखाते हुए दुकानदार से कहती, "भैया, ये थोड़ा और चमकीला दिखाइए... नहीं-नहीं, इससे भी अच्छा!"
यामिनी मम्मी दूसरी तरफ साड़ियाँ देखने चली गईं, जहाँ वे दुकानदार से अलग-अलग रंगों की साड़ियाँ दिखाने को कह रही थीं। "अरे भैया, वो पिंक वाली निकालिए... नहीं-नहीं, वो जो नीले बॉर्डर वाली है... हाँ, यही!"
उधर, केशवी अब भी लहंगों में उलझी हुई थी। वह कभी एक उठाती, कभी दूसरा। चित्रांश बस एक किनारे खड़ा मुस्कुरा रहा था।
"चित्रांश?"
एक जानी-पहचानी आवाज़ गूंजी।
चित्रांश के कदम ठिठक गए। उसने धीरे से मुड़कर देखा— चेतना।
चित्रांश का चेहरा एकदम सख्त हो गया।
केशवी ने तुरंत स्थिति को भांप लिया। उसने बिना कुछ सोचे हल्की मुस्कान के साथ चित्रांश की बाह पकड़ ली और अपनी चुलबुली आवाज़ में बोली, "बेबी, ये वाला लहंगा कैसा रहेगा?"
चित्रांश ने चेतना की आँखों में अजीब-सी बेचैनी देखी।
"बेबी?" चेतना के चेहरे पर हल्की हिचकिचाहट आ गई।
"हाँ, बेबी," केशवी ने जोर देते हुए कहा और मुस्कराकर चित्रांश के कंधे पर सिर टिका दिया। "अभी तो हमारी शादी होने वाली है, है ना बेबी?"
चेतना के चेहरे पर एक अजीब-सी नाखुशी उभरी। उसने अपनी आँखें चित्रांश पर टिका दीं, लेकिन केशवी के बेपरवाह अंदाज़ ने उसे और चिढ़ा दिया।
"तो… यही है तुम्हारी मंगेतर?" चेतना ने व्यंग्य से कहा, अपनी बाहें बाँधते हुए।
"जी हाँ!" केशवी ने झट से जवाब दिया और शरारती अंदाज़ में चित्रांश की बाह को और कसकर पकड़ लिया। "मैं ही हूँ… Mrs. Soon-to-be-Chitransh!"
चित्रांश केशवी की चुलबुली हरकतों को अच्छी तरह जानता था, लेकिन यह ‘बेबी’ वाला नाटक...? ये तो हद ही थी! उसे यकीन नहीं हो रहा था कि केशवी ने इतने आत्मविश्वास से चेतना के सामने यह सब कह दिया।
उधर, चेतना के चेहरे के हाव-भाव बदल रहे थे। एक समय था जब वही चित्रांश की दुनिया हुआ करती थी, लेकिन उसने जो किया… उसके बाद चित्रांश ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।
केशवी ने चित्रांश के चेहरे पर आए हल्के तनाव को नोटिस कर लिया। उसने हल्के से उसकी कलाई पर उंगलियाँ दबाईं, जैसे कहना चाह रही हो— मैं हूँ ना!
चित्रांश की नज़रे चेतना पर टिकी थीं, लेकिन उसने अब भी एक शब्द नहीं कहा।
चेतना ने होंठों पर हल्की मुस्कान लाते हुए कहा, "तो, चित्रांश… तुम्हारी पसंद काफी बदल गई है। पहले तो तुम्हें शांत और समझदार लड़कियाँ पसंद थीं, लेकिन अब…"
केशवी बीच में बोल पड़ी, "ओहो! मतलब आप कहना चाह रही हैं कि मैं समझदार नहीं हूँ?" उसने हल्की मुस्कान के साथ भौंहें उठाईं। "वैसे आपकी ड्रेस से अंदाजा लगाया जा सकता है कि आपका टेस्ट कैसा है, तो आपका जजमेंट भी वैसा ही होगा।"
चेतना के चेहरे पर एक तीखी मुस्कान उभरी। "कमाल है! मैं तो बस बात कर रही थी, लेकिन तुम्हें इतनी जल्दी डिफेंसिव होने की जरूरत नहीं थी।"
केशवी ने सिर झटकते हुए कहा, "अरे नहीं-नहीं, डिफेंसिव तो मैं होती ही नहीं! मैं तो बस चीज़ें क्लियर कर रही थी।" फिर उसने चित्रांश की तरफ देखते हुए कहा, "है ना, बेबी?" और प्यार से उसकी बाजू पकड़ ली।
चित्रांश ने एक गहरी सांस ली और हल्की हँसी दबाते हुए सिर हिलाया। उसे केशवी का यह नाटक अब मजेदार लगने लगा था।
चेतना ने ठंडी निगाहों से केशवी को देखा और फिर सीधे चित्रांश की ओर मुड़कर बोली, "वैसे, ये तुमसे प्यार करती भी है, या सिर्फ दिखावा कर रही है?" उसकी आवाज़ में हल्का व्यंग्य था।
केशवी ने तुरंत जवाब दिया, "अरे दीदी, प्यार तो इतना ज़्यादा है कि गिनती से बाहर हो गया है। और वैसे भी, दिखावे का तो जमाना ही नहीं रहा, अब तो बस ओपन एंड क्लियर लव स्टोरीज़ चलती हैं!" फिर उसने चित्रांश की तरफ देखते हुए आँख मारी।
चित्रांश ने आँखें चौड़ी कीं और फिर सिर झुका लिया, ताकि उसकी हँसी बाहर न आ जाए। लेकिन चेतना के चेहरे की गंभीरता बढ़ गई थी।
"खैर," चेतना ने कंधे उचकाते हुए कहा, "मुझे तो लगा था कि तुम थोड़े मैच्योर हो गए होंगे, लेकिन लगता है कि अभी भी वैसे ही हो।"
केशवी ने नकली हैरानी दिखाते हुए कहा, "ओह! तो आप कहना चाह रही हैं कि मैच्योरिटी बोरिंग होती है? नहीं, नहीं! मेरे बेबी को बोरिंग लाइफ पसंद नहीं है, इसीलिए तो उसने मुझे चुना!"
चेतना गुस्से में पैर पटकते हुए बाहर चली गई, लेकिन उसकी तनी हुई पीठ देखकर केशवी को और मज़ा आ गया। उसने अपनी चुनरी को झटका देते हुए, बड़ी मासूमियत से चित्रांश की ओर देखा,
"बेबी, आपकी एक्स बड़ी क्यूट थी, है ना?"
चित्रांश ने कहा, "तुम मुझ पर गुस्सा नहीं हो?"
केशवी ने हंसते हुए जवाब दिया, "अरे मैं गुस्सा क्यों होने लगी....अरे, एक्स से जलन रखने का कोई फायदा नहीं, बल्कि उन्हें दिखाना चाहिए कि हम कितने खुश हैं!" उसने एक और लहंगा उठाया और चित्रांश की ओर देखा। "बोलो बेबी, ये वाला कैसा है?"
चित्रांश ने उसकी आँखों में देखा, और पहली बार, उसे एहसास हुआ कि वो अपनी जिंदगी के सही फैसले की ओर बढ़ चुका है।
तभी यामिनी जी, जो अब तक दूसरी ओर थे, वापस आ गए।
"कुछ पसंद आया?" यामिनी जी ने पूछा।
केशवी ने एक खूबसूरत सुर्ख लाल लहंगे की ओर इशारा किया। "हाँ, यही!"
"बहुत सुंदर है," यामिनी जी ने सराहना की। "अब चलो, बाकी की शॉपिंग भी करनी है।"
चित्रांश ने एक नज़र केशवी पर डाली, जो अब भी अपने चुने हुए लहंगे को देखकर खुश हो रही थी। उसकी हँसी में एक मासूमियत थी, एक अपनापन था।
वो सोचने लगा, कैसे वक्त बदल गया। एक समय था जब चेतना उसके जीवन का अहम हिस्सा थी। उसकी हर बात, हर पसंद, हर फैसला... सबकुछ चित्रांश के लिए मायने रखता था। लेकिन जब जरूरत पड़ी, तो वही चेतना उसे अधूरा छोड़कर चली गई।
चित्रांश ने मन ही मन फैसला कर लिया— अब कोई अतीत नहीं, कोई पछतावा नहीं… बस ये वर्तमान, और केशवी।
वहीं दूसरी तरफ रविवार की दोपहर...
धूप खिड़की के पर्दों को चीरती हुई कमरे में घुस रही थी। हल्की सी ठंडी हवा थी, लेकिन कमरे में उमस भरा सन्नाटा पसरा था।
धरा अभी-अभी उठी थी। आँखें अधखुली थीं, और चेहरा थोड़ा सुस्त। उसने अंगड़ाई ली ही थी कि अचानक उसका चेहरा सिकुड़ गया।
"उफ्फ…"
क्रमशः