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इश्क़ दी रिवेंज लव

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Sunita Sood

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"यह कहानी प्यार की नहीं... बदले की है।" 19 साल की मीरा जब लंदन से भारत लौटती है, तो उसका दिल सिर्फ़ एक चाह में धड़कता है — अपने दादा को सरप्राइज़ देने की। एक प्योर, शांत, भावुक लड़की — जिसने रिश्तों की गर्माहट तो जानी है, मगर दुन...

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अमरीश मल्होत्रा

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Total Chapters (51)

Page 1 of 3

  • 1. Married to my obsession - Chapter 1

    Words: 1664

    Estimated Reading Time: 10 min

    विरान जंगल में शाम की आख़िरी साँसें ठिठकी हुई थीं। चारों तरफ सन्नाटा पसरा था, इतना घना कि अपने ही कदमों की आवाज़ किसी दूसरे की लगे। झाड़ियों के पीछे से टहनियों की चुभन भरी सरसराहट और पत्तों की रगड़ डर को और ज़िंदा कर रही थी।

    अचानक झाड़ियों के बीच से एक परछाई भागती हुई निकली — एक लड़की, उम्र लगभग उन्नीस, चेहरे पर बचपन की मासूमियत और आँखों में किसी बुरी रात का टूटा हुआ सपना।

    वो अंधेरे में अंधी तरह भाग रही थी, जैसे उसके पीछे कोई खौफनाक साया हो, जो उसकी साँसों के नीचे दबा जा रहा हो। पैरों में चप्पल तक नहीं थी, और उसके नाजुक तलवों से मिट्टी और काँच जैसे कंटीले पत्थर चुभते जा रहे थे, लेकिन उसे परवाह नहीं थी।

    उसने काले रंग का क्रॉप टॉप पहन रखा था, जो डर और भागने की वजह से शरीर से चिपक गया था। टाइट डेनिम स्कर्ट उसकी हर चाल में फँसी-सी लग रही थी, और हर गिरती साँस में उसके कंपकंपाते कदम लड़खड़ा रहे थे। उसके बाल खुले थे, लंबे, घने और उलझे हुए — जैसे हर लट उसके भीतर की बिखरी पीड़ा को समेटे हुए हो। हवा से उड़ते बाल उसके चेहरे पर चिपक रहे थे, और उसकी नाक की छोटी-सी artificial नोज़रिंग पहनी थी| हर साँस के साथ हिल रही थी।

    कानों में छोटी-सी हूप इयररिंग्स झूल रही थीं, जो बार-बार उसकी गर्दन से टकरा रही थीं। उसके गले में एक पतली सी funky necklace , जिस पर एक टेढ़ा सा पेंडेंट लटक रहा था — शायद कोई याद, शायद कोई निशानी।

    उसकी आँखें... सूजी हुई थीं। इतनी कि पलकें खुलतीं भी तो आँखें रोशनी से डर जाएं। जैसे रोना अब आदत नहीं, शरीर का हिस्सा बन चुका हो। होंठ सूखे थे, और उन पर खून की पतली परत थी — या तो किसी दर से कटा था या किसी चुप्पी से।

    वो भागते हुए झील के किनारे तक आ पहुँची। रुकने की कोशिश में उसका पैर एक फिसलन भरे पत्थर पर पड़ा — और वो बुरी तरह लड़खड़ा कर ज़मीन पर गिर पड़ी। उसका घुटना रगड़ खा गया, हाथों पर मिट्टी और खराशें लग गईं। उसकी साँसें हांफती हुई तेज़ थीं — जैसे वो भाग नहीं रही थी, खुद से बच रही थी।

    उसका दिल इतनी तेज़ धड़क रहा था, मानो सीने से बाहर निकल आएगा। उसकी आँखें झील के काले, शांत, ठहरे हुए पानी पर टिक गईं — जो इस वक्त एक काले शीशे की तरह चमक रहा था।

    वो कुछ पलों तक वहीं घुटनों के बल बैठी रही — गालों पर आंसुओं की सूखी लकीरें और आँखों में एक गहरी, बेजान चमक। फिर वो धीरे से उठी... थरथराते कदमों से झील की ओर बढ़ी, जैसे हर कदम कोई फैसला कर रहा हो।

    उसके पैरों की उंगलियाँ अब पानी को छू रही थीं। ठंडा, गहरा, और रहस्यमय पानी।

    उसने आंखें बंद कीं — और कुछ पल तक कोई भी सांस नहीं ली। झील से आती ठंडी हवा उसके गालों से टकराई और उसने एक लंबी, टूटी हुई सांस छोड़ी... जैसे उसने अब आखिरी बार जी लिया हो।

    फिर उसने एक कदम आगे बढ़ाया... झील की ओर, अंधेरे की ओर, उस अनकही राहत की ओर...

    लेकिन कहीं न कहीं, उसकी पीठ पीछे अभी भी एक साया था — किसी की याद, किसी की आवाज़, या शायद... किसी का इंतज़ार।


    ...उसने आंखें बंद की थीं, लेकिन आँसू अब भी पलकों से रिस रहे थे। पैर झील की कगार पर कांप रहे थे, और होंठों से धीमी, टूटी-फूटी आवाज़ें फूटने लगीं — जैसे कोई अपने ही भीतर से सवाल पूछ रहा हो... जवाब मांग रहा हो।

    "नहीं... नहीं..." उसकी आवाज़ इतनी धीमी थी कि शायद सिर्फ वो ही सुन पा रही थी, "ये सब मेरे साथ क्यों हुआ... मैंने क्या किया था...?"

    वो एक कदम पीछे हटी — फिर वहीं पानी के किनारे बैठ गई, जैसे झील के किनारे बैठकर खुद को समेटने की आख़िरी कोशिश कर रही हो।

    "मैंने किसी को कुछ नहीं कहा... कुछ भी नहीं बताया..." उसकी उँगलियाँ काँपती हुई मिट्टी में खोदने लगीं, जैसे उस पानी के पास छुपी कोई बात ज़मीन से निकालना चाहती हो।
    "फिर भी उस हैवन... हवन ने सब कुछ छीन लिया।"

    उसकी साँसें अब तेज़ हो गई थीं — हिचकियों में बदलती हुई।

    "वो आवाज़ें... वो दरवाज़ा... वो कमरे का अंधेरा... वो तो..." वो पलटी, जैसे कोई उसका पीछा कर रहा हो। उसकी आँखों में पागलपन की हल्की सी झलक थी।

    "वो तो मैं ही थी ना वहाँ?" उसकी खुद से ही उलझती बातें अब रहस्य की परतें खोलने लगी थीं।

    "लेकिन... फिर वो कौन था? मेरी परछाई? या कोई और?"

    वो ज़मीन पर दोनों हाथों से सिर पकड़कर बैठ गई। अब उसकी आवाज़ थोड़ी ऊँची हो रही थी — हताशा से भरी, बिखरी हुई:

    "क्या सच में... क्या सच में ये सब मेरे साथ हो रहा है? या कोई सपना है... एक भयानक, न खत्म होने वाला सपना?"

    फिर वो एक पल के लिए चुप हो गई — बस झील की हवा थी और उसके टूटे हुए दिल की सिसकियाँ।

    "अगर मैं उस कमरे में दो मिनट और रुकती... तो मैं..." उसकी आवाज़ फिसलने लगी, "शायद ज़िंदा न होती।"

    उसने थरथराते होठों से कहा, “माँ कहती थी डरने से कुछ नहीं होता… लेकिन माँ… माँ अब नहीं है ना…”

    फिर एक हल्की सी हँसी — घुटी हुई, डरावनी। “और अब... अब अगर मैं उस झील में उतर गई, तो शायद... शायद सब कुछ रुक जाएगा।"

    उसकी उंगलियाँ अब भीगी मिट्टी में गहरे धँसने लगी थीं, जैसे ज़मीन से कोई जवाब खींचना चाहती हो।

    लेकिन उसी पल हवा का एक तेज़ झोंका आया... उसके कानों में कुछ फुसफुसाया।

    वो झटके से पलटी — आँखें डरी हुईं, साँसें तेज़, और हाथ उसके सीने पर — जैसे दिल पर क़ाबू पाना मुश्किल हो।

    "वो फिर आ रहा है... मैं जानती हूँ..." उसकी आवाज़ काँप रही थी।
    "अगर उसने मुझे यहाँ देख लिया, तो..." वो खामोश हो गई।

    अब वो वापस खड़ी हुई — पानी की ओर देखते हुए, जैसे फैसला कर रही हो। लेकिन उसके चेहरे पर अब भी एक अधूरा डर था — जैसे उसे खुद से भी डर लग रहा हो।

    "क्या ये आखिरी रास्ता है?" उसने झील से पूछा — या शायद खुद से।

    झील खामोश थी... लेकिन शायद उसकी ख़ामोशी में भी कुछ कहा गया।
    ये मीरा राजपूत
    मीरा — टूटी, पर बेशकीमती… और उतनी ही मासूम

    वो इस वक्त एक क़ैदी थी — बिखरी हुई, काँपती हुई, मगर फिर भी इतनी ख़ूबसूरत कि उसकी खामोश मौजूदगी पूरे कमरे को थाम ले।

    मीरा — एक समय इंडिया के सबसे प्रतिष्ठित उद्योगपति की इकलौती वारिस, जो हाल ही में लंदन से लौटी थी। वहाँ की हर गली, हर डिनर टेबल, हर कैमरा उसे जानता था — ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी की गोल्ड मेडलिस्ट, फैशन वीक की फ्रंट रो चेहरा, और ब्रिटिश हाई सोसाइटी की सबसे चर्चित वारिसा।

    लेकिन आज... वो बस एक लड़की थी। मासूम, टूटी हुई, और हवेली की वीरानियों में फेंकी गई।

    उसकी खूबसूरती — बस हॉट नहीं थी। वो क्लासिक थी, ठहरी हुई थी, और बेहद मासूम थी।
    वो उस किस्म की खूबसूरत थी जिसे देखकर कोई बस नज़रें झुका ले — क्योंकि उसमें नज़रों से भी ज़्यादा कुछ पवित्र था।

    उसका रंग — दूध सा उजला, जैसे लंदन की सर्दियों ने उसे निखार दिया हो। लेकिन अब उस उजलेपन में भारत की मिट्टी, आँसू की रेखाएँ, और डर की छाया भी समा गई थी — और फिर भी, वो नज़रों से हटती नहीं थी।

    उसकी आँखें — बड़ी, भूरी, और पारदर्शी। उनमें शौक़ या घमंड नहीं था, सिर्फ़ एक टूटी हुई मासूमियत थी। जैसे किसी बच्चे ने किसी अपने को खो दिया हो, और अब सवाल पूछने की हिम्मत भी न बची हो।

    उसके होंठ — अब सूखे और जर्जर थे, लेकिन फिर भी एक ख़ास शेप के साथ — जो अब भी उसे अनगिनत फोटोशूट्स का चहेता बना सकती थी। जब वो डर के मारे निचले होंठ को हल्के से दबाती थी, तो उसका चेहरा और भी मासूम लगने लगता — जैसे खुद से भी डरती हो।

    उसके बाल — लंबे, चॉकलेटी भूरे, हवा और धूल में बिखरे हुए, लेकिन फिर भी किसी रॉयल ऑरा को झुठला नहीं सकते थे।
    जब हवा उन्हें उसके चेहरे से हटाती थी, तो उस मासूम चेहरे की पूरी झलक किसी पुराने पोट्रेट जैसी सामने आती — खूबसूरत, पर उदास।

    उसका शरीर — पतला, ग्रेसफुल, और अब भी क्रॉप टॉप और डेनिम स्कर्ट में अपनी स्टाइल और सिलुएट को बयान करता हुआ। वो हॉट थी — लेकिन अश्लील नहीं। वो आकर्षक थी — लेकिन बेआबरू नहीं। और सबसे बढ़कर, वो एक ऐसी लड़की थी जिसकी मासूमियत अब भी शर्मिला सौंदर्य बनकर ज़िंदा थी।

    उसकी चाल — धीमी, कांपती हुई, पर फिर भी शाही। जैसे किसी रॉयल बैले डांसर ने आख़िरी स्टेप रखी हो… दर्द में डूबी, लेकिन अब भी सुंदर।

    उसकी गर्दन पर लटकती पतली चेन, और कानों के हूप — सब कुछ आज भी इस बात का गवाह थे कि ये लड़की भले टूटी हो, लेकिन उसका स्टाइल अभी भी लंदन के रनवे पर साँसें ले रहा था।

    लंदन में हर लड़का मीरा के पीछे था — लेकिन मीरा को कभी किसी की चाह नहीं थी। उसे बस अपनी शांति चाहिए थी, और शायद अब वो भी खो चुकी थी।

    आज उसी मासूम, नाजुक, पर भीतर से मजबूत मीरा को इस हवेली में फेंक दिया गया था — जहाँ उसकी सुंदरता, उसकी मासूमियत, और उसका डर — सब कुछ किसी खतरे के सामने एक आईना बन गया था।

    और शायद किसी को अंदाज़ा नहीं था —
    उसका टूटना भी उतना ही मोहक है, जितना उसका मुस्कुराना।

    क्योंकि अगर कोई उसे इस हालत में भी देखे —
    तो दिल से एक ही सवाल उठेगा:


    "क्या मैं उसे तोड़ रहा हूँ... या खुद उसके आगे टूट रहा हूँ?"


    वही झील के किनारे की वीरानी में हल्की सी सरसराहट हुई।

    लड़की ने पीछे मुड़कर देखा — और सीधा चस हैवन से टकरा गई जिसका डर उसका वजूद बनता जा रहा था।
    वो वहाँ, बिना किसी आहट के, अंधेरे से जैसे अचानक आया था।

    उसकी आंखें धधक रही थीं — जैसे कोई भीतर ही भीतर सुलगता ज्वालामुखी, अब फूटने को तैयार हो।

  • 2. Married to my obsession - Chapter 2

    Words: 3491

    Estimated Reading Time: 21 min

    लड़की ने पीछे मुड़कर देखा — और सीधा चस हैवन से टकरा गई जिसका डर उसका वजूद बनता जा रहा था।
    वो वहाँ, बिना किसी आहट के, अंधेरे से जैसे अचानक आया था।

    उसकी आंखें धधक रही थीं — जैसे कोई भीतर ही भीतर सुलगता ज्वालामुखी, अब फूटने को तैयार हो।

    उस हैवनुमा आदमी ने उसकी कलाई इस तरह पकड़ी कि जैसे उसकी रगों से नफरत खींच निकालनी हो।

    "अब बोलने की कोई ज़रूरत नहीं," उसकी आवाज़ बर्फ़ जैसी ठंडी थी, मगर आँखों में लावा सा ताप।
    "ये कोई संयोग नहीं... ये तय था।"

    लड़की कुछ कहने ही वाली थी कि उसने झटके से उसे SUV में घसीट लिया।



    हवेली — रात का किला

    SUV वीराने को चीरती हुई उसी हवेली के सामने आकर रुकी — बाहर से जमींदारों जैसी भव्य, भीतर से किसी कैद की सड़ी हुई सासें लिए।

    उस हैवनुमा आदमी ने उसे सीधे ऊपरी कमरे में लेकर पहुँचा ।
    कमरा वैसा ही था — पीली रोशनी, भारी लकड़ी का दरवाज़ा, और एक अजीब सी सिहरन जो फर्श से उठती थी।

    लड़की को धक्का देके बेड पर गिराया गया।

    उसने प्रतिरोध किया, मगर उस हैवानुमा आदमी एक पाषाण की तरह सामने खड़ा था।

    उसने धीरे से कोट उतारी, और एक सिगरेट सुलगाई।

    "तुम्हें पता है," वो बोला, जैसे खुद से —
    "बदला... जब दिल के इतने अंदर तक उतर जाए, तो इंसान इंसान नहीं जाता, सिर्फ आग बन जाता है।"

    उसने धीरे-धीरे उसकी ओर देखा।

    "और अब... तुम्हें इस आग में जलना होगा।"

    लड़की के होंठ कांपे, आँखें फैल गईं।
    "क्यों...?" उसकी आवाज़ घुटी हुई निकली।

    लेकिन उस हैवानुमा आदमी ने कोई जवाब नहीं दिया।
    वो बस आगे झुका, उसकी आँखों में सीधे देखते हुए बोला —
    "कुछ सवालों के जवाब तुम्हारे चीखने में मिलेंगे... शब्दों में नहीं।"
    ये है अमरीश मल्होत्रा
    अमरीश मल्होत्रा — एक आदमी जो छाया से भी ज़्यादा डरावना था

    वो सिर्फ एक नाम नहीं था — एक चेतावनी था, फुसफुसाहटों में बोला जाने वाला भय।

    जब अमरीश मल्होत्रा अंधेरे से निकला था, तो ऐसा लगा जैसे रात की रूह खुद आकार लेकर सामने आ गई हो।

    क़द लंबा और सीधा, जैसे वक़्त के आगे कभी झुका ही न हो। उसकी चाल में कोई हड़बड़ी नहीं थी — लेकिन इतनी ठहराव थी कि जैसे हर कदम अपने पीछे कोई फ़ैसला छोड़ता हो।

    उसने ब्लैक सिल्क शर्ट पहनी थी, जिसकी फिटिंग ऐसी थी कि उसकी कसी हुई मांसपेशियाँ साफ़ नज़र आ रही थीं — एक ऐसी काया जो शायद जितनी जिम में गढ़ी गई थी, उससे ज़्यादा ज़ख़्मों और लड़ाइयों में।

    ऊपर से गहरा चारकोल-ग्रे कोट, जिसमें रेशमी अंदरूनी अस्तर की झलक तब आती जब वो हौले से कंधे हिलाता। शर्ट की पहली दो बटन खुली थीं — और उसके गले से झाँकती एक सिंगल, पतली गोल्ड चेन, जिस पर कुछ नुकीला झूल रहा था — जैसे कोई छुपा हुआ बीता वक्त।

    चेहरे की बनावट कठोर थी — चौड़ा माथा, गहरी आंखें, और जबड़े की वो लाइनें जिनमें कोई नरमी नहीं थी। लेकिन उसकी सबसे डरावनी चीज़ थी उसकी आँखें — गहरी भूरी, लगभग काली, और इतनी स्थिर कि अगर कोई उनमें देखे तो अपना सच भी बयां कर दे।

    वो आँखें देखती नहीं थीं — परखती थीं।

    उसकी कलाई पर हैंडमेड इतालवी घड़ी बँधी थी, और उसकी उंगलियों में एक नीली-सफेद पुखराज जड़ी अंगूठी — जिसे वो अक्सर अंगूठे से सहलाता, जैसे कोई पुरानी आदत हो… या कोई इशारा।

    वो ज्यादा नहीं बोलता था — लेकिन उसकी चुप्पी में एक कमांड थी, एक आदेश जो शब्दों से ज़्यादा तेज़ था।

    जब उसने लड़की की कलाई पकड़ी, तो उसके हाथ में वो ताक़त थी — जो किसी जज्बात से नहीं, आदत से चलती हो।

    उसकी सुगंध भी रहस्य से भरी थी — कोई महँगा, गहरा परफ्यूम, जिसमें ओकवुड और सिगार की परछाई थी। वो सुगंध एक बार साँस में उतर जाए, तो देर तक पीछा नहीं छोड़ती।

    SUV से उतरते हुए, उसका ड्राइवर गाड़ी के दरवाज़े तक नहीं आया — क्योंकि अमरीश को किसी की ज़रूरत नहीं थी। उसकी मौजूदगी ही काफी थी दरवाज़ों को खुद-ब-खुद खुलवाने के लिए।

    हवेली के लोग भी जानते थे — जब वो अंदर आता था, तो दीवारें सीधी खड़ी हो जाती थीं।

    वो बिज़नेस मैन था — लेकिन उसके फैसले बिज़नेस बोर्डरूम से नहीं, काले पर्दों के पीछे होते थे।

    वो अमीर था बिलिनिय — लेकिन उसकी दौलत से भी ज़्यादा कीमती था उसका डर।

    "वो जब किसी को देखता था, तो ऐसा लगता जैसे वो इंसान को नहीं, उसकी आत्मा का हिसाब कर रहा हो।"






    डाइनिंग हॉल — एक तमाशा

    कुछ घंटों बाद...

    वो रॉयल डाइनिंग हॉल किसी महल की तरह सजा था — झूमर से रोशनी गिर रही थी, मेज़ पर नाजुक क्रॉकरी और शराब की बोतलें।

    लड़की को जब लाया गया, तो उसकी आँखों में झील का अंधेरा अब भी बसा था।
    उसके बदन पर सफेद साड़ी थी — एक ऐसी मासूमियत की सज़ा, जो अब उसकी पहचान नहीं रही।

    अमरीश पहले से वहाँ बैठा था, जैसे किसी राजा की तरह — लेकिन आँखों में वो ठहराव नहीं था... वहाँ एक तूफान बाँध बना रहा था।

    "बैठो," उसका स्वर आदेश से भरा था।

    वो चुपचाप बैठ गई।

    "खाओ," उसने कहा, जैसे हर निवाला उसकी इच्छा नहीं, दंड हो।

    लड़की की उंगलियाँ काँप रही थीं। उसने कांटे से खाना उठाने की कोशिश की, लेकिन काँटा हाथ से गिर गया।

    "तुम डर रही हो?" उसने बिना देखे पूछा।

    "तुम्हें डरना ही चाहिए...
    क्योंकि ये सिर्फ हवेली नहीं — ये बदले की कोख है।
    यहाँ हर दीवार ने दर्द को चूसा है, हर छत ने किसी की चुप चीख को सुना है।"

    फिर उसने वाइन का गिलास उठाया और एक लंबा घूंट लिया।

    "तुम जानना चाहती हो ना — क्यों?"

    उसने उसकी ओर देखा — बहुत पास आकर।

    "तो सुनो..."

    वो झुका, उसके कान के बिल्कुल पास —
    "...ये बदले की आग है... और इसमें अब तुम्हें झुलसना होगा।"
    हवेली के दीवान-ए-ख़ास में उस शाम एक अजीब-सी ठंडक पसरी हुई थी। दीवारों पर लगे काले मखमली परदे किसी साज़िश के गवाह बनकर कांप रहे थे। ऊँची छत के झूमर से छनती रोशनी सोने के रंग में लिपटी लग रही थी, लेकिन कमरे का माहौल... जैसे किसी तूफान से पहले की चुप्पी।

    अमरीश अपने भारी-भरकम, शेर की खाल लगे, लकड़ी के सिंहासननुमा सोफ़े पर बैठा था। उसकी आँखों में लालिमा थी, जैसे रात भर नींद और नीचता दोनों ने उसका पीछा किया हो। उसने अपनी उंगलियों से धीरे-धीरे कांच का ग्लास घुमाया — जिसमें आधी भरी शराब अब तक उसके गुस्से की गर्मी से भी हलचल में थी।

    सामने दो बॉडीगार्ड – विशाल, काले कपड़ों में, आँखें नीची, साँसें थमी हुई — बिल्कुल सन्नाटे की तरह खड़े थे।

    अमरीश ने गहरी नज़र उन पर डाली, फिर बेहद धीमी आवाज़ में पूछा —
    “बताओ... मीरा राजपूत इस हवेली से कैसे भागी?”

    कोई जवाब नहीं आया।

    अमरीश ने अब गर्दन थोड़ा झुकाई, शराब का एक घूंट लिया, और फिर वही गिलास टेबल पर इतनी जोर से पटका कि कांच की छोटी दरारें फैल गईं।

    “मैंने तुम दोनों को क्यों रखा था?” उसकी आवाज़ अब भारी थी, लेकिन किसी सुलगते अंगारे जैसी — धीरे-धीरे जलती, लेकिन खून तक को उबाल देने वाली।

    पहला बॉडीगार्ड, नाम था विशाल, झिझकते हुए बोला,
    “सर... हमने तो हर मूवमेंट मॉनिटर किया था। मीरा मैडम को तीसरी मंज़िल के कमरे में बंद किया गया था। बाहर CCTV, अंदर डबल लॉक... हर दो घंटे पर रिपोर्ट भी दी थी।”

    दूसरा, बलराम, जल्दी बोल पड़ा —
    “हमने कुछ नहीं छोड़ा था सर। वो तो... न जाने कैसे... जैसे हवा में उड़ गई हो...”

    अमरीश का चेहरा अब किसी ज्वालामुखी की तरह थरथरा रहा था। उसने कुर्सी से उठते हुए पूछा —
    “हवा में उड़ गई? वो कोई परी है? कोई भूत है? या मैं पागल हूं?”

    दोनों ने तुरंत सिर झुका लिया, साँसों में कांप थी।

    अमरीश अब धीरे-धीरे उनकी ओर बढ़ा। उसकी चाल में एक ठहराव था — शिकार से पहले बाघ की आखिरी परिक्रमा जैसा।

    “तुम्हारी मूर्खता की वजह से... उस लड़की ने मुझे धोखा दिया। और तुम दोनों ने मेरी नाक कटवा दी… इस हवेली के सामने... मेरी ही आँखों में धूल झोंकी गई।”

    विशाल कांपते हुए बोला,
    “सर, हमें दोबारा मौका दीजिए, हम अब ऐसी गलती —”

    लेकिन बात अधूरी रह गई।

    अमरीश ने मेज़ से अपनी मखमली म्यान में रखी रिवॉल्वर निकाली, और एक बेहद शांत मुस्कान के साथ ट्रिगर दबा दिया।

    धांय!!

    विशाल की छाती में गोली लगी, वह वहीं धड़ाम से गिर गया। बलराम के होंठ सूख गए, वो पीछे हटने लगा, पर अमरीश ने उसकी आँखों में देखा, जैसे कोई शिकारी आखिरी सांस गिनता हो।

    “मौका देने की आदत नहीं है मुझे… जो पहली बार में फेल हो जाए, वो मर चुका होता है।"

    दूसरी गोली चली।

    बलराम भी अब फर्श पर गिरा पड़ा था, आँखें खुली लेकिन चेतना खत्म।

    कमरे में एक पल को बिल्कुल सन्नाटा छा गया। केवल रिवॉल्वर से निकला धुंआ ही हवा में तैर रहा था।

    अमरीश ने एक लंबी साँस ली, फिर बटन दबाया।

    “दो और बाडी गाडस— अंदर आओ।”

    दरवाज़ा खुला। दो और बॉडीगार्ड भीतर आए — काले दस्तानों में, चेहरों पर नज़रों की बजाय केवल आज्ञा थी।

    अमरीश ने बिना उनकी तरफ देखे बस इशारा किया —
    “इन दोनों को... तहखाने तक ले जाओ।”

    उन्होंने ने बिना किसी सवाल के लाशों को खींचना शुरू कर दिया। फर्श पर खून की पतली लकीरें बनती गईं। हवेली की दीवारों ने जैसे कराहना शुरू कर दिया हो।

    तहखाना — जहाँ मौत इंतज़ार करती थी

    हवेली के पश्चिमी भाग में एक पुराना दरवाज़ा था, जो लोहे की जंजीरों से बंद रहता था। उस दरवाज़े के पीछे थी एक लंबी सीढ़ियों वाली सुरंग — और उसके अंत में था एक पत्थरों से घिरा गहरा तालाब।

    इस तालाब की खास बात?

    उसमें थे तीन मगरमच्छ — वर्षों से भूख में पले, अब सिर्फ मानव मांस के स्वाद के आदी।

    जैसे ही बाडी गाडस लाशों को लेकर नीचे पहुँचे, तालाब का पानी हिला। मगरमच्छों की आँखें सतह पर चमकने लगीं — जैसे उन्हें मालूम हो गया हो, कि शिकार आ चुका है।

    एक-एक कर दोनों लाशें उस पानी में फेंकी गईं।

    चपाक!!

    पानी कुछ क्षण के लिए शांत रहा, फिर अचानक – तेज़ उबाल, धारदार जबड़ों की आवाज़, और फिर... एक धीमा रक्तिम बुलबुला।

    बचता कुछ नहीं था।



    ऊपर, अमरीश ने अब अपने हाथों से शराब का नया ग्लास भरा। उसकी आँखें अब भी गुस्से से भरी थीं, लेकिन उसमें एक अजीब सी संतुष्टि थी — जैसे उसने दो गद्दारों को सज़ा दे दी हो, लेकिन उसकी प्यास अभी खत्म नहीं हुई थी।

    उसने अपनी व्हिस्की को होंठों से लगाते हुए, बहुत धीरे से कहा —
    “मीरा राजपूत... तुम भाग सकती हो हवेली से, लेकिन मेरी याद से नहीं।”

    वो उठा, और खिड़की के पास जाकर बाहर देखा — हवेली के बगीचे में रात उतर रही थी, और दूर आसमान पर काले बादल मंडरा रहे थे।

    उसने एक तस्वीर निकाली — मीरा की।

    “तुमसे मुझे बदला लेना है। और वो बदला मैं तुम्हारी रूह तक में दर्ज करूंगा।”

    फिर उसने तस्वीर को मोड़ा, और रिवॉल्वर की नोक से उसे अपनी हथेली पर टिकाते हुए बुदबुदाया —

    झुलसती रात

    कमरे में मीरा अकेली थी, लेकिन उसकी परछाईयाँ भी जैसे काँप रही थीं।

    दरवाज़ा बाहर से बंद था।

    हवेली की खामोशी अब उसे चुभने लगी थी — जैसे हर दीवार पूछ रही हो,
    "तैयार हो उस आग के लिए?"

    वो समझ नहीं पा रही थी कि किस दर्द की सज़ा भुगत रही है —
    लेकिन अमरीश की आँखों में जो तूफान था, वो साफ देखा था:
    अब कोई रहम नहीं बचेगा।

    कमरे में खामोशी गाढ़े धुएँ की तरह पसरी थी।

    जैसे दीवारों ने साँस लेना छोड़ दिया हो।

    मीरा फर्श के एक कोने में बैठी थी — घुटनों में मुँह छुपाए, आँखे सूजी हुईं, होंठ सूखे। उसके बदन पर वही पहले कपड़े थे — हल्की, लेकिन अब भारी लगने लगी थी, जैसे उसकी आत्मा पर लिपटे हो। पलकों के नीचे बसी झील अब सूख चुकी थी, लेकिन उसके भीतर की बेचैनी अब भी बह रही थी।

    दरवाज़ा बाहर से बंद था।

    उसने एक बार फिर कोशिश की, हल्के से हिलाया, लेकिन कुंडी अंदर से नहीं, बाहर से जमी हुई थी।

    हवेली की दीवारों से धीमे-धीमे कुछ आवाज़ें सरकती हुई आती थीं — हवा की फुसफुसाहट, दूर कहीं झूमर की हल्की झनकार, और समय का बेरहम ठहराव।

    वो वापस लौट आई, खिड़की के पास — लेकिन खिड़की भी किसी तिजोरी की तरह बंद थी। उस पर लोहे की जाली थी, और बाहर घना अंधकार पसरा हुआ था।

    वो फर्श पर बैठ गई।

    धीरे-धीरे उसके आँसू फिर बह निकले।

    उसने खुद से पूछा — “आख़िर क्यों...?”

    अभी दो दिन पहले तक, वो एक आज़ाद लड़की थी। उसकी आँखों में सपने थे, चेहरे पर हँसी, और दिल में उम्मीद।

    अब?
    अब वो सिर्फ एक साज़िश का हिस्सा थी।

    एक आवाज़ आई — “खड़े हो जाओ।”

    मीरा चौंकी।

    दरवाज़ा खुला नहीं था... फिर आवाज़?

    तभी दरवाज़ा खड़का, और एक झटके से खुल गया।

    देवयानी सिन्हा

    वो लड़की अचानक कमरे में दाख़िल हुई थी — जैसे अँधेरे में कोई चमकती तलवार गिरती है।

    करीब तीस साल की होगी। उसकी ऊँचाई और चाल में एक सख्ती थी, जैसे हर कदम किसी सैन्य परेड का हिस्सा हो। मगर आँखें — वो किसी और कहानी की गवाह थीं।

    कंधे तक कटे सिल्की बाल, जिन्हें उसने बिना ज़्यादा सजावट के खुला छोड़ा था। होंठों पर गहरे मटन ब्राउन रंग की मैट लिपस्टिक, जो उसके चेहरे की कठोर रेखाओं को और उभार देती थी। उसकी त्वचा साफ़ और हल्की गेहुआं थी — लेकिन उसमें गर्मी नहीं, सिर्फ़ नपी-तुली दूरी का आभास था।

    उसने ब्लैक लेदर-टच वन-पीस ड्रेस पहन रखी थी — बॉडीकॉन, स्लीवलेस, और हाई नेक। ड्रेस में एक अजीब-सा संयम था — जैसे कोई खूबसूरत ज़हर किसी नाजुक काँच की बोतल में बंद हो।

    कमर पर चौड़ी बेल्ट, और पैरों में हील्स नहीं, ब्लैक एनकल बूट्स — जैसे वो किसी पार्टी के लिए नहीं, किसी मानसिक युद्ध के लिए तैयार हो।

    उसके हाथों में एक डार्क मरून रंग का स्लिंग बैग था, जो मीरा के लिए लाई गई ड्रेस को छुपा रहा था।

    जब देवयानी सिन्हा मीरा के सामने खड़ी हुई, तो उसकी नज़रों में न कोई दया थी, न ही मज़ा। सिर्फ एक थकी हुई, सख्त आदत — जैसे कोई पिघल चुके दिल को रोज़ बर्फ़ में रखकर बचाता हो।

    उसका बोलने का अंदाज़ सीधा था — जैसे कोई स्क्रिप्ट रटी हो।

    “तैयार हो?” — ये सवाल नहीं, एक सज़ा थी।

    मीरा ने जब इनकार किया, तो देवयानी ने उसकी कलाई पकड़ी, लेकिन बहुत सलीके से। उसमें कोई हिंसा नहीं थी — जैसे वो किसी पुरानी ट्रेनिंग का हिस्सा हो। देवयानी सिन्हा जानती थी कि कब ज़ोर लगाना है, और कब सिर्फ़ नज़र ही काफी है।

    मीरा की आँखों में पहली बार सवाल उभरा — “कौन हो तुम?”

    देवयानी ने जवाब दिया था, बिना पलक झपकाए:

    “तुम जैसी कई लड़कियों की चुप चीखों की गवाह।”

    उसके शब्दों में कोई नाटकीयता नहीं थी, बल्कि एक थकी हुई स्वीकृति थी — जैसे ये उसका रोज़ का काम हो, और ये काम ही अब उसकी पहचान बन चुका हो।



    भीतर की परत — देवयानी सिन्हा

    देवयानी सिन्हा बाहर से खूबसूरत थी — लेकिन वो सुंदरता किसी सर्द बर्फीले शाम की तरह लगती थी। देखने वाले को आकर्षित करती, लेकिन पास आने पर ठंडा कर देती।

    उसकी सुंदरता में न गर्मी थी, न मासूमियत — बल्कि एक 'अति' थी। जैसे उसने खुद को इतनी बार आईने में देखा हो कि अब अपनी ही आँखों से थक गई हो।

    उसकी चाल, उसकी ड्रेस, उसका मेकअप — सब कुछ बेहद स्टाइलिश था, लेकिन दिल से बेजान। मानो वो किसी फैशन मैगज़ीन से निकली हो, लेकिन उसमें जान छूट चुकी हो।

    उसके अंदर भी एक मीरा थी — शायद पुरानी, शायद बिसरी हुई। लेकिन अब वो मीरा नहीं थी। अब वो देवयानी सिन्हा थी — आदेशों की भाषा जानने वाली, चुप रहकर लड़कियों को तैयार करने वाली, और खुद को रोज़ एक नकली मुस्कान में लपेटने वाली।



    मीरा और देवयानी – दो आईनों का सामना

    जब मीरा ने शीशे में खुद को देखा — वो अजनबी सी लड़की बन चुकी थी। लेकिन अगर वो पल भर को देवयानी की ओर देखती, तो शायद समझ जाती —

    ये कैद सिर्फ उस पर नहीं कसी गई थी।

    कभी देवयानी पर भी कसी गई थी — और शायद उससे इतनी कसकर कि अब वो उसके जिस्म का हिस्सा बन चुकी थी।

    देवयानी अब आदेश देती थी, क्योंकि उसने कभी बहुत गहरे में 'न' कहा था — और बदले में उसे सज़ा मिली थी।

    अब वो दूसरों के "न" को भी कुचलती थी — क्योंकि उसके अपने ‘न’ को कभी किसी ने नहीं सुना।




    उसने एक नज़र मीरा पर डाली, फिर कमरे में ऐसे घुसी जैसे वो उसकी मालकिन हो।

    “तैयार हो?” उसने पूछा — लेकिन यह सवाल नहीं, एक आदेश था।

    मीरा ने कोई उत्तर नहीं दिया।

    देवयानी ने एक बैग खोला, और उसमें से एक चमकती हुई वेस्टर्न ड्रेस निकाली — काले रंग की, बॉडी-हगिंग, घुटनों तक की एक खूबसूरत लेकिन बोल्ड ड्रेस।

    “इसे पहन लो।”

    मीरा ने सिर हिलाया, “मैं... नहीं...”

    देवयानी ने उसकी कलाई पकड़ी।

    “यहाँ ‘नहीं’ की कोई जगह नहीं है, तुम्हें चलना होगा। तैयार हो या नहीं — अब तुम्हारा किरदार शुरू होता है।”

    मीरा ने उसकी आँखों में देखा — वहाँ सहानुभूति नहीं थी। सिर्फ आदेश था। जैसे वो खुद भी किसी योजना का हिस्सा हो।

    “कौन हो तुम?” मीरा की आवाज़ काँप रही थी।

    “तुम्हारे जैसी कई लड़कियों की चुप चीखों की गवाह,” उसने कहा। “मैं उसकी खास हूँ — अमरीश में इशारों पर चलता है। इसलिए गलती से भी मुझे नाराज नहीं करना वरना बहोत बुरा होगा,अब कपड़े बदलो, नहीं तो मैं खुद पहनाऊँगी।”

    मीरा चुप रही।

    और फिर — धीरे से उसके हाथों से साड़ी हटाई गई।

    वो देवयानी तेज़ थी — लेकिन बेरहम नहीं। उसके स्पर्श में कोई ममता नहीं थी, लेकिन घृणा भी नहीं। जैसे वो खुद एक टूटी हुई कठपुतली हो, जो अब दूसरों की डोर खींचती है।

    कुछ ही पलों में मीरा के बदन पर वो काली ड्रेस थी — उसकी मासूमियत पर कसा हुआ एक मज़ाक, एक तमाशा।

    उसने खुद को शीशे में देखा — एक अजनबी।

    “अब चलो,” देवयानी ने उसकी कलाई खींची।

    “नहीं... मैं नहीं जाऊँगी...” मीरा ने पहली बार विरोध किया।

    लेकिन जवाब में उस देवयानी ने सिर्फ एक वाक्य कहा — “तुम्हारा इंकार अब तुम्हारा सबसे बड़ा मज़ाक है।”

    वो उसे खींचती हुई बाहर लाई। हवेली के गलियारों में मीरा के हील्स की आवाज़ गूंजने लगी — हर कदम जैसे तमाशे की ओर बढ़ रहा हो।

    हवेली का डाइनिंग हॉल किसी दरबार जैसा सजा था।

    छत से टंगे झूमर से रोशनी पिघल रही थी — जैसे चाँदी किसी नर्म आग में जल रही हो। मेज़ पर नाज़ुक प्लेटें, क्रिस्टल के गिलास, और वाइन की खुली बोतलें। हर कुर्सी पर मखमली कवर, और हर कोने में एक अनकहा डर।

    अमरीश पहले से वहाँ बैठा था।

    काले सूट में, बाल पीछे की ओर सलीके से सहेजे हुए, गिलास में वाइन की लहरें थामे।

    उसकी आँखें... मीरा को देखते ही ठिठकी नहीं। बस उसे देखा — जैसे कोई शिकारी अपनी शिकार को देखता है।

    “बैठो,” उसने बिना मुस्कराए कहा।

    मीरा खड़ी रही।

    लेकिन पीछे खड़ी वो देवयानी उसकी पीठ को हलके से धकेलती है — मीरा बैठ जाती है।

    उसने सामने प्लेट में सजे खाने की ओर देखा — लेकिन गले में जैसे कोई गाँठ थी।

    “खाओ,” अमरीश ने कहा।

    मीरा ने कांटा उठाया, लेकिन हाथ काँप रहा था।

    कांटा गिर गया।

    ध्वनि बहुत छोटी थी — लेकिन उस कमरे की खामोशी में जैसे किसी बम की तरह गूंजी।

    अमरीश ने उसकी ओर देखा।

    “तुम डर रही हो?” उसकी आवाज़ एक अजीब-सी कोमलता लिए थी — लेकिन उस कोमलता में ज़हर की धार थी।

    “डरना ही चाहिए...

    क्योंकि ये सिर्फ हवेली नहीं — ये बदले की कोख है।

    यहाँ हर दीवार ने दर्द को चूसा है, हर छत ने किसी की चुप चीख को सुना है।

    तुम अब इस कहानी का एक पन्ना नहीं... पूरी किताब हो।

    और तुम्हारी आत्मा, वो स्याही है जिससे मैं लिखूँगा — अपनी आग का इतिहास।”

    उसने गिलास उठाया और लंबा घूंट लिया।

    मीरा सिहर गई।

    “तुम जानना चाहती हो ना — क्यों?”

    वो उठा।

    धीरे-धीरे, सधे हुए क़दमों से उसके पास आया।

    वो इतना पास आ गया कि मीरा को उसकी साँसें महसूस होने लगीं।

    उसके चेहरे पर अजीब-सा सुकून था — जैसे किसी ने उसके भीतर की सारी बेचैनी को एक लक्ष्य दे दिया हो।

    “तो सुनो...” वो झुका, और मीरा के कान के पास फुसफुसाया,


    “ये बदले की आग है... और इसमें अब तुम्हें झुलसना होगा।”



    मीरा की साँसें रुक गईं।

    उसने उसकी ओर देखा — लेकिन वहाँ अब कोई इंसान नहीं था।

    वो सिर्फ एक चेहरा था — जिसने नफ़रत को अपना धर्म बना लिया था।



    झुलसती रात

    कुछ देर बाद, मीरा को फिर उसके कमरे में धकेल दिया गया।

    दरवाज़ा बंद — और एक बार फिर वही तिलमिलाती ख़ामोशी।

    लेकिन अब वो पहले जैसा डर नहीं था।

    अब वो खामोशी, सिर्फ सवालों से नहीं... एक जलती हुई सच्चाई से भरी थी।

    मीरा फर्श पर बैठ गई — ड्रेस अभी भी उसके बदन पर थी, लेकिन अब उसकी आँखों में आँसू नहीं थे।

    बस एक गहरा सन्नाटा था — जैसे भीतर कुछ टूट चुका था।

    या शायद...

    अब कुछ बनने लगा था। वही कमरे के बाहर एक अनजान परछाई,

  • 3. Married to my obsession - Chapter 3

    Words: 1153

    Estimated Reading Time: 7 min

    अध्याय — "बंद खिड़की के उस पार"

    कमरे की दीवारों पर सजे महंगे पेंटिंग्स और क्रिस्टल झूमर की चमक भी उस सन्नाटे को नहीं तोड़ पा रही थी जो मीरा के भीतर जड़ें जमा चुका था। शाम के धुंधलके में, जब हवेली के भारी पर्दे ज़रा भी हिलते तो लगता जैसे कोई परछाईं दबे पाँव पीछे आ रही है।

    वह खिड़की के पास बैठी थी — जहां से बाहर का नज़ारा नहीं दिखता था, सिर्फ़ एक पुराना पीपल का पेड़ था, जिसकी शाखें हर बार हवा में कुछ बुदबुदाती थीं। मानो उसे समझाने की नाकाम कोशिश कर रही हों।

    दरवाज़ा खुला।

    भारी कदमों की आवाज़, चमड़े के जूते की खड़खड़ाहट, और फिर वही ख़ुशबू — तेज़, तीखी और हुक्म चलाने वाली।
    अमरीश कमरे में दाखिल हुआ।

    उसकी आँखों में कोई softness नहीं थी। सिर्फ़ अधिकार, संपत्ति जैसा एहसास और... एक अजीब-सी तसल्ली, जैसे वो जो चाहता है, वो वहीं है — उसी कमरे में।

    "अभी भी वही खिड़की," उसने आवाज़ में कड़वाहट घोलते हुए कहा।
    "तुम्हें तो अब तक आदत पड़ जानी चाहिए थी इस हवेली की... और मेरी भी।"

    मीरा ने कोई जवाब नहीं दिया।

    उसकी चुप्पी अमरीश को बर्दाश्त नहीं थी।

    वो पास आया, उसके चेहरे के बिल्कुल करीब।

    "मैंने तुमसे कुछ पूछा, मीरा," वह फुसफुसाया, मगर आवाज़ तलवार जैसी थी।
    "यहाँ रहने के नियम मैं तय करता हूँ। और तुम्हारा काम है सिर झुकाना।"

    मीरा ने धीरे से अपनी आँखें उठाईं — उनींदी, बुझी हुई — जैसे बहुत कुछ कहती हों, मगर बोल नहीं सकतीं।

    "क्यों?" उसका पहला शब्द फिसला, इतना धीमा कि हवा में घुल गया।
    "क्यों मैं यहाँ हूँ, अमरीश?"

    वह हँसा — एक कड़वी, कठोर हँसी।

    "क्योंकि तुम मेरी हो। जैसे ये हवेली मेरी है। जैसे ये बेशकीमती घड़ियाँ, ये शराब की बोतलें, ये कालीन... सब मेरी।"

    "मगर मैं कोई चीज़ नहीं हूँ।"

    अबकी बार मीरा की आवाज़ साफ़ थी — ठहरी हुई, मगर कांपती हुई।
    अमरीश का चेहरा तन गया। उसने उसका हाथ ज़ोर से पकड़ा।

    "तुम्हारी ये जबान... अगर यही चलती रही न, तो मैं उसे हमेशा के लिए खामोश कर दूँगा।"
    उसने झुककर उसके कान में कहा — "याद है न, कहाँ से उठाया था तुम्हें? उस गली से, जहाँ लोग तुम्हारा नाम भी नहीं जानते थे। मैंने तुम्हें नाम दिया, कपड़े दिए, ये छत दी — और अब तुम मुझसे सवाल कर रही हो?"

    मीरा का गला सूख गया। उसकी पलकें भारी हो गईं, मगर उसने खुद को गिरने नहीं दिया।

    "नाम दिया या छीन लिया?" उसने काँपती आवाज़ में कहा।
    "जो मीरा थी... वो तो उस रात मर गई थी, जब तुमने मुझे यहाँ लाकर बंद कर दिया था अपनी रखैल बना कर।"

    अमरीश थोड़ा पीछे हटा। उसकी आँखों में गुस्सा नहीं, एक ठंडी सी मुस्कान थी — वही मुस्कान जो शिकारी अपने शिकार को देखते हुए देता है।

    "मर गई?" वह बोला, "नहीं, मीरा। तुम मरी नहीं हो। तुम सिर्फ़ मेरी बनाई हुई दुनिया में साँस ले रही हो। और जब तक मैं चाहूँ, तुम जीओगी... और जब मैं चाहूँगा, तुम्हारा अंत भी कर दूँगा।"

    कमरे की हवा अचानक भारी हो गई।

    मीरा ने एक लंबी साँस ली, फिर धीरज से कहा —

    "तुम्हें लगता है, मैंने हार मान ली है? नहीं, अमरीश। हर सुबह जब मैं अपनी पहचान को ढूंढने की कोशिश करती हूँ, तो मेरा दिल धीरे-धीरे फिर से धड़कने लगता है। और एक दिन... एक दिन मैं इस बंद खिड़की से बाहर निकल जाऊँगी।"

    "तुम?" वह हँसा, "बाहर जाओगी? किसके सहारे? किस दुनिया में?"

    "जिस दुनिया में इंसानियत ज़िंदा है," मीरा की आवाज़ अब साफ़ और स्थिर थी।

    एक पल के लिए कमरे में सन्नाटा छा गया।

    अमरीश की आँखें सख़्त हो गईं। उसने ज़ोर से दीवार पर रखा कांच का गुलदान फेंक दिया — टुकड़े ज़मीन पर बिखर गए।

    "बहुत बोलने लगी हो तुम।"
    "अब ये जुबान बंद रखनी होगी।"

    उसने मीरा की बाँह कसकर पकड़ी, जैसे उसके वजूद को कुचल देना चाहता हो।

    मीरा की आँखों में डर उतर आया था।
    वो घबरा रही थी, पहले से ज्यादा डर था।

    "तुम जितना मुझे कैद करोगे," उसने धीमे से कहा,
    "उतना ही मेरा अंतर्मन आज़ाद होता जाएगा।"

    एक सन्नाटा। फिर अमरीश पीछे हटा।

    उसने मीरा को घूरा — जैसे कोई अजगर शिकार को देखता है, जो उससे नफ़रत करने लगा हो।

    "तुम्हारी ये आग मुझे पसंद है," उसने कहा, "तोड़ दूँगा इसे भी। वक्त लगेगा, लेकिन मैं जानता हूँ कैसे।"

    मीरा मुस्कुराई — पहली बार, हल्की सी मुस्कान, लेकिन उसके भीतर एक क्रांति थी।

    "शायद तुम जान जाओ... और शायद इसी आग में एक दिन तुम खुद जल जाओ।"

    अमरीश को गुस्सा आ रहा था उसने मीरा को धक्का देकर बिस्तर पर गिरा दिया मीरा को दर्द हुआ और वो जैसे ही उठने कि कोशिश करने लगी अमरीश उसके ऊपर आ गया | उसने अपनी उगलियां मीरा की उगलियो में फंसा कर उसके हाथों को बिस्तर पर फैला दिया | अमरीश का भारी भरकम शरीर मीरा के कोमल शरीर को दबा रहा था | वो बोली उसकी आंखों में डर और आंसू दोनों थे |
    " छोड़ो मुझे पीलिज जाने दो, " मीरा ने कांपते होठों से ऐसे ही कुछ अलफ़ाज़ निकले |
    अमरीश उसके चेहरे को देख रहा था ऐसे जैसे आज मीरा को कच्चा खा जाएगा | उसने एक दम से अपने सकत होठों को मीरा के नरम होठों पर रख दिये और फ्रोसफुली उसे किस करने लगा | मीरा चिल्लाना चाहाती थी लेकिन अमरीश के किस कि वजह से उसकी आवाज उसके गले में ही दब कर रह गई | पंद्रह मिनट बाद अमरीश ने मीरा के होठों को छोडो़ और फिर दोनों अपनी फुलती सांसों सभालने लगे | मीरा ने अपनी फुलक ससांसों को सभालते हुए दर्द बया करती आंखों से अमरीश कि आंखों में देखा | जैसे कह रही हो कि मुझे छोड़ दो, अमरीश मुस्कुरा जैसे उसने मीरा कि आंखों को पढ लिया हो और फिर वो एक बार फिर उसने अपने सकत होठों को मीरा के मुलायम होठों पर रख दिये एक डिप किस दोनों के बीच हुआ | मीरा कि सांसे जैसे ही अमरीश की आंसू में मिल रही थी वो बेचैन होने लगा और फिर वो बेकाबू होकर मीरा की गरदन तो कभी कोलर बोन पर चूम ने लगा | मीरा तड़प रही थी अमरीश को टच उसे अंदर से तोड रहा था वो रही थी बार बार बोल रही थी मुझे छोड़ दो | तभी अमरीश उसके ऊपर से उठ गया तो मीरा जल्दी से उठ बैठी और खुद में सिमटने लगी | तभी अमरीश के चेहरे पर तिरछी मुस्कान आइ वो बोला,
    " ये क्या तुम रो रही हो, ये तो तुम्हें मेरी रखैल बनने से पहले सोचना चाहिए था तुम्हें क्या लगा था कि मैं तुम से ज्यादा पूजा पाठ कराने वाला हूँ , "
    मीरा रो रही थी और बोली,
    " पीलिज, " बहोत मुश्किल से उसके होठों से आवाज निकली |
    अमरीश ने मीरा के जबड़े को कसकर पकडा और कहा,
    " मैं किसी कि मजबूरी नही समझता हूँ और ये कोन्टरेक्ट के तहत ही हो रहा है, " अमरीश ने कहा |

  • 4. Married to my obsession - Chapter 4

    Words: 1203

    Estimated Reading Time: 8 min

    रात गहरी और गुमसुम थी, आसमान पूरी तरह काला छा गया था जैसे किसी ने सारे सितारे छुपा लिए हों। तेज़ हवाओं के साथ बारिश की बूँदें खिड़की पर जोर-जोर से टपक रही थीं, मानो प्रकृति भी किसी अनजानी बेचैनी में डूबी हो। खिड़की थोड़ी खुली हुई थी, जिससे बाहर का नजारा भीतर तक महसूस होता था — पेड़ों की शाखाएं उग्र तूफ़ान की मार से झुक रही थीं, और दूर कहीं बिजली चमकी, उसके बाद गरज की आवाज़ गूंज उठी।


    मीरा घबराई हुई थी, वो ये जानती थी कि यहाँ जो कुछ भी हो रहा है उसको मंजूरी तो उसने ही दी थी |कोनटरेक्ट तो उसने साइन किया था लेकिन वो सब मीरा कि एक बहोत बड़ी मजबूरी थी | अगर वो ऐसा नहीं करती तो बात उसकी चेचरी बहन पर आ सकती थी और उसकी उर्म अभी सिर्फ 17 साल थी | वो चिल्लाई और बोली,
    " हाँ ये सब मैं जानती हूँ लेकिन वो सब मेरी मजबूरी थी पीलिज जाने दो ना, वह रोते हुए बोली |
    लेकिन अमरीश एक शैतान था मीरा कि बातों और रोने का उस पर ज़रा असर नहीं था | उसने अचानक ही मीरा ने जो कपड़े पहने थे उन्हें घूरा और मीरा से कहा,
    " अपना दुपट्टा फेक दो, " एक दम कडक आवाज में |
    मीरा कप रही थी अमरीश कि आवाज ने सकत थी कि वो डर से पागल हो रही थी | अमरीश ने फिर से कहा लेकिन इस बार पहले से ज्यादा सकत होकर,
    " मैं बार बार नहीं कहूगा समझी दुपट्टा फेंको, " उसने लगभग चिल्लाते हुए कहा |
    मीरा एक दम कांपी फिर रोते हुए अपना दुपट्टा फेंक दिया | जिस पर अमरीश ने कहा,
    " गुड गर्ल.... चलो अब जल्दी से बाकी कपड़े भी उतार कर फेक दो, " उसने फुल बेशर्मों जैसे कहा |
    मीरा दहशत से आंखे भर लेती है सोची ये आदमी ऐसे कैसे कर सकता है | अमरीश ने मर्दाना आवाज में फिर कहा,
    " कपड़े उतारती हो या मैं तुम्हारे कपड़े फाड़कर तुम्हारे जिस्म से अलग कर दू, और सच मना मुझे इसमें बहोत खुशी होगी लेकिन तुम्हें बहोत दर्द |
    मीरा अब भी कांप रही थी उसके आंसू रूकने का नाम नहीं ले रहे थे | लेकिन अमरीश कि आवाज बहोत खतरनाक थी उसने धीरे धीरे अपने जिस्म से कपड़े उतारने शुरू किये | वो सलवार सूट में थी शायद जो घर से लाइ थी उसने पहले अपने सूट के डोरी खुली लेकिन डोरी खुलने में वक्त लगा रही थी | वो आपने दोनों हाथों को कमर के पीछे ले जाकर सूट कि डोरी खुल रही थी तभी अमरीश कि नजर उसके तने हुए सीने पर चली गई | लेकिन अब मीरा को होश नहीं था डोरी बहोत कस कर बंध गई थी इस बात का ख्याल मीरा को उन्हें खोलते वक्त एहसास हो रहा था | वही अमरीश कि नजर अब मीरा के तने हुए सीने से हठ नहीं रही थी | वही
    अमरीश की आत्मा में कोई जगह नहीं थी सहानुभूति की। उसके दिल की धड़कनें नफरत और नियंत्रण की धुन पर चल रही थीं। वह ऐसा आदमी था जिसने अपनी ज़िंदगी में कभी भी किसी की मजबूरी या दर्द को समझने की कोशिश नहीं की। उसके लिए, लोग बस उसकी इच्छाओं को पूरा करने के साधन थे। उसकी आँखों में कोई नरमी नहीं थी, बल्कि उनमें एक ठंडी, बेरहम आग जल रही थी — एक आग जो सिर्फ उसका अधिकार जताने के लिए भड़की थी।

    वह मीरा को देखकर अपने भीतर उठ रही बेचैनी को ज़्यादा देर तक दबा नहीं पा रहा था। उसकी मानसिकता में यह बात पक्की थी कि एक बार उसने किसी को अपने कब्ज़े में ले लिया, तो उसे पूरी तरह से तोड़ना और अपने अधीन कर लेना उसका हक़ था। उसका मन पागलपन की कगार पर था, उसकी भावनाएँ एक अंधेरे तहखाने में बंद थीं, जहाँ इंसानियत की कोई जगह नहीं थी।

    अमरीश की सोच में मीरा की चीखें, उसके आंसू, और उसकी विनती कोई मायने नहीं रखते थे। उसके लिए वह सिर्फ एक ‘वस्तु’ थी, जिसे उसने अपने अधीन करने का फैसला कर लिया था। यह उसकी सत्ता का हिस्सा था, उसका अधिकार, और वह इसे पाने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ता था। उसकी आवाज़ का कड़कपन, उसके आदेशों की कठोरता और उसकी हरकतों का बेशर्मी भरा अंदाज़ इस बात का प्रमाण था कि वह न केवल पत्थर दिल है, बल्कि एक ऐसा इंसान है जो दूसरों की पीड़ा में लिप्त होकर भी अपने अंदर की बर्बरता को दबा नहीं पाता।

    उसके भीतर एक अजीब सी तड़प थी — एक ऐसी तड़प जो उसके अंदर छुपी हुई कमजोरी और असुरक्षा को छुपाने की कोशिश करती थी। लेकिन वह कभी अपने असली दर्द को बाहर आने नहीं देता। वह अपने गुस्से और दबाव को हिंसा में बदल देता था, और अपनी अधीनता के लिए जो कुछ भी करना पड़ता था, करता था।



    इस तरह अमरीश का चरित्र एक ऐसा इंसान है जो न केवल अत्याचार करता है, बल्कि अपने भीतर के अंधकार और टूटे हुए मनोबल को छुपाने के लिए दूसरों को अपने नियंत्रण में लेना चाहता है। उसकी सारी हरकतें, उसकी आवाज़ की कठोरता, और उसका बर्ताव उसके दिल की पत्थर सी सख्ती को बयाँ करती हैं।

    बारिश की ठंडी ठंडी बूंदें खिड़की के किनारे से होकर अंदर की ओर आ रही थीं, हवा की खनक ऐसे लग रही थी जैसे कोई पुरानी कहानी सिसकती हो। बाहर अंधेरा ऐसा घना था कि हर चीज़ धुंधली-सी लग रही थी, और आकाश की गाढ़ी काली चादर के नीचे सब कुछ सन्नाटा लिए खड़ा था। बारिश की आवाज़, हवा की सिसकी और अंधेरे की गहराई ने उस रात को एक रहस्यमय, भारी और घने सन्नाटे से भर दिया था।

    वही मीरा जो अभी भी सूट कि डोरी खुल रही थी अमरीश उसके तने हुए स्तन को घूर रहा था | तभी अमरीश ने अपने हाथ बड़ा कर मीरा कि मदद कि वो डोरी खुलने में मीरा थोड़ी घबरा सी गई वही उसने के चेहरे बेहद करीब आ चुके थे | एक पल दोनों के होठों कुछ यू टकराए कि अमरीश के हाथ तो मीरा कि कमर के पीछे उसके सूट कि डोरी खुल रहे थे तो होठों वही मीरा के होठों को चूप रहे थे इसी बीच अमरीश का सकत सीना मीरा के नाजुक स्तन से टकरा गया | इसी बीच मीरा सहम सी गई और वही अमरीश उसे जब ये एहसास हुआ कि उसका मर्दाना सीना मीरा के नाजुक स्तन से सटा है तो वो डोरी खुलते ही मीरा को और कसकर बाहों में कुछ यू जडक लेता है कि दोनों एक दूसरे से चिप गए |

    अमरीश ने धीरे से फुसफुसाया, “तुम्हारी खूबसूरती… जैसे कोई जादू हो। तुम्हारे जिस्म का हर एक हिस्सा, हर एक क़दम, मेरे लिए एक नशा है। तुम्हारा जिस्म , तुम्हारी आत्मा ही मुझे ये महसूस कराती है कि मैं ज़िंदा हूँ।”

    उसके शब्द मीरा के दिल में किसी सूई जैसे लग रहे थे । अमरीश की नज़रें उसकी खूबसूरती में डूबी थीं, उसकी चाहत में एक अलग ही गहराई थी। वह उसकी रेखाओं को महसूस करना चाहता था, उसकी नाजुकता को पहचानना चाहता था।

    “तुम्हारा ये नाज़ुक सा जिस्म, ये हर घड़ी मेरे लिए एक नई तलाश है। मैं चाहता हूँ कि तुम्हें कभी कोई चोट न पहुंचे, क्योंकि तुम्हारी ये खूबसूरती मेरे लिए सबसे कीमती है।”

  • 5. ( love making) Married to my obsession - Chapter 5

    Words: 3439

    Estimated Reading Time: 21 min

    अमरीश पागलों जैसे मीरा के होठों को चूंम रहा था साथ ही वहाँ काट भी रहा था मीरा दर्द से कहराती आह्ह्हहह... , जिससे सून अमरीश बहोत एक्साइटीड हो रहा था | मीरा दर्द से बेचैन होकर खुद को छूडाने नाकाम कोशिश कर रही थी | अमरीश ने कहा,

    " तुम्हारी आवाज बहोत मिठी है किसी मिठाई से भी ज्यादा मिठी और तुम्हारे ये नाजुक हाथ कितने नाजुक है लेकिन जान तुम कितना भी कोशिश कर लो खुद को मुझसे छूडाने कि लेकिन तुम कामियाब नहीं होने वाली , "

    मीरा डर रही थी अभी भी लाजमी भी था वो नाजुक मासूम सी और वही अमरीश खतरनाक इंसान उसकी आवाज में जितना रूबाब था उतना ही वहशी पन भी झलकता था | जैसे अभी उसके साथ कुछ कर देगा | तभी अमरीश कि ज़रे एक बार फिर मीरा के गोल मतोल स्तन पर चली गई | उसने कहा,

    " बीना देखे ही बता सकता हूँ इनका साईज एकदम प्रेफेक्ट है इन्हें हाथ में लूगां तो बडा मजा आएगा, "

    अमरीश कि बेशर्म बातों से जहाँ मीरा डर से कांप रही थी वही शर्म से उसके गाल लाल भी हो चले थे | वही अमरीश फिर से मीरा के होठों को अपनी गिरफ्त में लेकर ढूंढने लगा तभी उसने अचानक ही मीरा के स्तन पर जोर से चिमटी काटी तो मीरा के मुंह खुल गया तभी मौका पा कर उसने अपनी जबान मीरा के मुंह में डाल दी और उसके मुंह के अंदर का स्वाद लेने लगा | और फिर इस तरह करने के बाद सूने मीरा से कहा,

    " ऊफ कितनी हसीना हो यार तुम जैसी खुबसूरती मैंने आज से पहले नहीं देखी , "

    मीरा हाफ रही थी और अमरीश उसकी फुलती सांसों को देख अपने अंदर बेचैनी महसूस कर रहा था | तभी उसकी नजरें उसके जिस्म के सभी हिस्सों को देख रही थी मीरा उसके सामने पैर बांध बैठी |

    " सूट उतार, " अमरीश ने फिर आदेश दिया |

    मीरा कि कंपकपी छूट रही थी हाथ कांप रहे थे,

    " मैं वो , " कहते हुए उसके होठों एक चूप हो गए |

    " कितना घबरा रही हो, भला घबराने से क्या होगा तुम मेरी हो तो जो मेरा उसे मुझसे छूपा कर क्या फायदा चलो कपड़े खोलो, "

    और फिर मीरा कांपते हाथों से सूट उतार देती है सूट के नीचे उसने जो ब्रा पहनी थी वो ब्लैक कलर कि थी उस कलर में उसकी खुबसूरती और निखर कर आ रही थी | अमरीश एक पल उसे देखता रहा फिर सूट मीरा के हाथों से लेकर बेड से कोसो दूर फेंक दिया मीरा सहमसी गई , मन ही मन सोची ये कैसा इंसान है इसकी चाहत क्या है क्यों ये ऐसा कर रहा है | रात के एक बज रहे थे और अमरीश कि आंखों में नींद नहीं थी उसकी आंखों में तो सिर्फ एक ही बात थी और वो भी मीरा, अमरीश मीरा के होठों से लेकर उसकी गरदन और फिर स्तन तक हाथों फेरने लगा | तभी एक स्तन पर उसने ज़रा सा टच किया तो मीरा सहम गई उसने आंखे बंद कर ली |

    " अभी तो सिर्फ हलका सा टच किया है आंखों खोलो यहाँ जो कुछ होगा उसे देखना है आंखे नहीं बंद करनी है, "

    मीरा ने रोते हुए बड़ी ही मुश्किल से कहा,

    " पीलिज आज जाने दो रात बहोत हो चुकी है बाकी कल, " इतना बोल उसका दिल जोर से धडका |

    अमरीश मुस्कुरा और अचानक ही उसने मीरा को बिस्तर पर गिरा दिया और कुछ उसके ऊपर आ गया | उसने मीरा के हाथो को बिस्तर पर फैला कर उनमें अपनी ऊगलियाँ उल्झा ली | और बार बार वहाँ अपनी पकड मजबूत करने लगा | और अपने सकत होठों से मीरा कि कोलर बोन पर चूंमते हुए वहाँ काटने भी लगा | मीरा अब सैक्सी आवाज में आहे भरने लगी | ये चीज अमरीश को और वाइल्ड कर रही थी वो वाइल्ड होकर मीरा को कभी किस करता तो कभी काटने लगता |

    "वो कमरा – जहाँ साँसें शब्द बन गईं"

    कमरे में कोई घड़ी नहीं थी, लेकिन वक़्त बह रहा था — धीमे, भारी और सरकते हुए।

    दरीचों से छनकर आती चाँदनी, फर्श पर जैसे किसी पुरानी कविता की लकीरें छोड़ रही थी। एक ओर बिछा पुराना क़ालीन अपनी ख़ामोशी में वो सारे रहस्य समेटे था, जिनके बारे में दीवारों ने कभी बात नहीं की थी। और दोनों कि सांसे बहोत तेज चल रही थी | अमरीश मीरा कि खुबसुरती से पूरी तरह से बेकाबू हो चला था |

    एक कोना, जहाँ गुलाबी रंग की रेशमी साड़ी तह लगाकर रखी थी… उसकी खुशबू अब भी हवा में घुली हुई थी — उसमें चंदन, भीगे बालों और पुराने इत्र की मिली-जुली गंध थी… और कुछ ऐसा जो कहा नहीं जा सकता, बस महसूस किया जा सकता था। वो इत्र कि खुशबू दोनों कि सांसों में घूल रही थी | मीरा तो बस अमरीश के एहसास से अभी कांप ही रही थी |

    छत के पंखे की धीमी गूंज अब थम चुकी थी। कमरे में सन्नाटा था — वो सन्नाटा, जो खौफ का नहीं, इजाज़त का था।

    बेड की सफेद चादर थोड़ी सिकुड़ी हुई थी — जैसे किसी ने खुद को उसमें लपेटने की कोशिश की हो, खुद को किसी की बाँहों में ढालने की कोशिश में।

    एक बिस्तर की किनारी पर पड़ा नीला दुपट्टा अब भी उस स्पर्श की हलचल समेटे हुए था, जिसने उसे फिसलने पर मजबूर किया था।

    कोने में रखी टेबल लैम्प की रोशनी अब मंद पड़ गई थी। उसने पूरे कमरे को सुनहरा नहीं, बस थोड़ा उलझा हुआ सुनापन दिया था। जैसे वह खुद भी जानता हो — कुछ चल रहा है, पर कह नहीं सकता।

    कमरे की दीवारों पर कुछ तस्वीरें थीं — धुंधली, थोड़ी टेढ़ी टंगी हुईं। लेकिन इस वक़्त उन तस्वीरों की निगाहें भी शर्मीली थीं — जैसे वो भी इस रात की कहानी से बचना चाहती हों।

    हवा, जो बाहर से अंदर आ रही थी, में अब पत्तों की सरसराहट नहीं थी — बस पर्दों का धीरे-धीरे हिलना था। वो पर्दे जो अपने हर हिलने के साथ एक नया राज़ खोलते लगते थे।

    फर्श पर बिखरी दो चूड़ियाँ अब भी उस पल की गवाही दे रही थीं, जहाँ किसी की कलाई किसी और की पकड़ में थी… और वो पकड़ बाँध नहीं रही थी, बस थाम रही थी।

    कमरे के बीचोंबीच दो सांसें थी — धीमी, गहरी और एक-दूसरे में उलझी हुई।

    ना कोई संगीत था, ना कोई शब्द।

    लेकिन उस रात... पूरा कमरा संगीत बन गया था।

    हर दीवार, हर परछाईं, हर कपड़े की सिलवट…

    बस एक ही बात कह रही थी —

    बिस्तर पर वक़्त जैसे अपनी गति भूल गया था।

    मीरा की साँसें अब बिखरी हुई थीं — और अमरीश की उँगलियाँ उन्हें समेटने में नहीं, और अधिक बिखेरने में लगी थीं।

    एक पल की नर्मी के बाद, अचानक उसने मीरा की जाँघ को पकड़कर ऊपर खींचा — जैसे उसकी देह की सीमा अब उसका कोई बंधन नहीं रही हो। उसकी उँगलियों की पकड़ अब ज़रा सख़्त थी — मानो वह हर रेखा, हर कर्व को अपनी मुट्ठी में बाँध लेना चाहता हो।

    मीरा की पीठ बेड से उठी, और उसकी टांगें अमरीश की कमर के इर्द-गिर्द जकड़ गईं — अनायास, लेकिन समर्पण के साथ नहीं सिर्फ डर से।

    अमरीश अब उसकी गर्दन के नीचे से होते हुए छाती की ओर झुका, और इस बार उसके होंठों में एक कसक थी… एक गहराई, जो मीरा की देह में डर पैदा कर रही थी।

    उसकी जीभ की नोंक उस नर्म त्वचा पर तेज़ी से घूमी — जैसे हर रेखा को आग की तरह महसूस कराना चाहता हो।

    उसने मीरा की बाँहों को फैलाकर दोनों हाथों से सिर के ऊपर दबा लिया — धीरे नहीं, थोड़े दबाव के साथ — और उसकी कलाई में उँगलियों की जकड़न से एक अलग किस्म की सिहरन फूट निकली।

    मीरा की साँसें अब रुक-रुककर आ रही थीं, लेकिन उसकी आँखें अब भी बंद थीं — जैसे हर एहसास को भीतर बसा लेना चाहती हो।

    अमरीश अब उसके पेट पर नीचे तक अपनी जीभ की पतली लकीर खींच रहा था, तेज़… गीली… और हर बार मीरा का शरीर उस स्पर्श पर जैसे जवाब दे रहा था — हल्के कराह की थरथराहट के साथ।

    फिर अचानक उसने मीरा को कमर से पकड़कर एक झटके में पलट दिया — अब मीरा बिस्तर पर उल्टी थी, उसकी पीठ की नाज़ुक रेखा अमरीश की साँसों की लपट में डूबने लगी।

    उसने मीरा की गर्दन के पीछे झुककर एक गहरी, रुक-रुक कर भरी चुम्बन दी, और फिर उसकी रीढ़ की हड्डी के साथ-साथ नीचे तक अपने होंठ ले गया — एक सीधी, मगर धधकती हुई पगडंडी की तरह।

    बिस्तर अब धीमे-धीमे हिलने लगा था, चादरें नीचे सरक चुकी थीं।

    कमरे की हवा अब एक ठहराव नहीं, बल्कि अधीरता के संगीत में बदल चुकी थी।

    मीरा की उँगलियाँ अब तकिए की खोल को मरोड़ रही थीं, और उसके पैरों की उंगलियाँ मुड़ चुकी थीं — जैसे हर सीमा टूट रही थी, हर नियंत्रण मिट रहा था।

    अमरीश की पकड़, उसका स्पर्श, उसका हर आगे बढ़ता इंच — अब एक wild था, जिसमें मीरा पूरी तरह डूब ने के साथ डर भी रही थी। अमरीश हर कदम उसके नजदीक आ रहा था | कमरे में मीरा कि आहे एक अलग ही महोल बना रही थी | जिसे सून अमरीश पहले से ज्यादा एकसाईटीट हो रहा था |

    वही कमरे के बाहर कोई खड़ा था जो अमरीश और मीरा के इन ऐहसास को सून रहा था |

    हवेली की दीवारें उस रात किसी क़ैदख़ाने की तरह लग रही थीं।

    हर कोना — सन्नाटा पी रहा था।

    और उसी सन्नाटे में वो शख्स के क़दम एक बार फिर भटकते हुए उसी दिशा में जा रहे थे, जहाँ नहीं जाना चाहिए था।

    पर इंसान हमेशा वहीं क्यों जाता है, जहाँ उसे नहीं जाना चाहिए?

    देवयानी का कमरा — आधा खुला, आधा छुपा।

    चांद की रोशनी खिड़की से छनकर फर्श पर गिर रही थी, और उसके बीच रेशमी नाइटी में लिपटी देवयानी का अधखुला शरीर चुपचाप लेटा था — जैसे किसी सपने में, या किसी युद्ध के बाद की शांति में।

    पर शांति झूठ होती है। और वो शख्स की आँखों में अब वो झूठ नहीं टिक रहा था।

    वो दरवाज़ा धीरे से धकेलता है। देवयानी की हल्की सी चिरक, और फिर — मौन।

    उसके भीतर एक बेचैनी थी — वासना , साथ ही जिद थी — देवयानी को पा लेने की नहीं, बल्कि उसे महसूस कर लेने की।

    वो आगे बढ़ा।

    देवयानी की पीठ उसकी ओर थी। नाइटी की पतली डोरी उसकी खुली पीठ पर गिर रही थी, बाल बिखरे थे — जैसे जानबूझकर किसी ने उसे इस रात के लिए सजाया हो।

    पर वो शख्स जानता था — वो ऐसे नहीं सजती।

    वो खुद को अपने ही हाथों तोड़ती है।

    उसकी उंगलियाँ हवा में कांपीं। एक कदम और — और तभी…

    "तुम हर बार ऐसे ही आते हो क्या?"

    आवाज़ आई — नींद में नहीं, होश में। जैसे वो जानती थी वो आएगा।

    देव प्रताप ठिठक गया। जवाब नहीं दिया।

    "क्यों आए हो, देव?" अब वो पलटी। उसका चेहरा चाँदनी में उतना ही तेज़ था, जितना अंधेरा उसके भीतर।

    "नींद नहीं आ रही थी," देव ने कहा, पर उसकी आवाज़ में कंपन था।

    "या मुझे नहीं भूल पा रहे थे?" देवयानी अब पूरी तरह से उठ बैठी थी — उसकी नाइटी कंधे से फिसल कर बाजू तक आ गई थी, मगर उसने कुछ नहीं छुपाया। उसकी आँखें अब सीधे उसकी आँखों में।

    "तुम मुझसे डरती नहीं?" देव की आवाज़ में हैरानी थी।

    देवयानी हँसी — छोटी, तीखी, जली हुई।

    "डरता वो है, जिसे खोने का डर हो। मैं तो खुद को ही खो चुकी हूँ।"

    वो अब बिस्तर से उठी — नाइटी उसकी जाँघों से ऊपर तक खिसक आई थी, पर उसके चेहरे पर कोई लाज नहीं, कोई दिखावा नहीं। बस एक सवाल था — 'क्यों अब?'

    "क्या चाहिए तुम्हें, देव?" उसने पास आकर पूछा। उसकी साँसें देव के चेहरे को छू रही थीं। उसकी उंगलियाँ अब खुद-ब-खुद उसके कॉलर तक पहुँच चुकी थीं।

    "तुम," देव ने कहा — बिना सोचे, बिना संकोच।

    देवयानी कुछ पल चुप रही — फिर उसने अपनी उंगली उसकी छाती पर रखी।

    "तुम्हें लगता है मैं चीज़ हूँ?"

    "नहीं..." देव की आवाज़ लड़खड़ाई। "तुम ज़हर हो... पर मैं पीना चाहता हूँ।"

    देवयानी की आँखों में अब एक अजीब सी चमक थी — वो न तो खुशी थी, न क्रूरता। वो एक मंज़ूरी थी... एक चेतावनी के साथ।

    "मैं तुम्हें बर्बाद कर दूँगी।"

    "मैं पहले ही बर्बाद हूँ," देव ने उसकी कलाई पकड़ ली — कसकर नहीं, थरथराते हुए।

    अचानक देवयानी ने उसका चेहरा अपनी हथेलियों में लिया — ज़ोर से नहीं, लगभग दबोचते हुए।

    "तो फिर रुक क्यों गए? देख रहे हो मुझे जैसे कोई देवी हूँ... मैं देवी नहीं, देव। मैं तूफ़ान हूँ।"

    उसने अचानक उसे पीछे धकेला — और खुद कुछ कदम पीछे गई।

    "अगर तुम्हें लगता है कि ये रात तुम्हारी है, तो भूल जाओ। ये रात मेरी है। और मैं तय करूँगी, कौन मेरी साँसों में शामिल होगा।"

    देव अब कांप रहा था। उसकी आँखें अब सिर्फ उसे नहीं देख रहीं थीं — वो खुद को देख रहा था। एक जिद्दी, प्यासा, अधूरा आदमी।

    "मुझे खुद से बचा लो," वो बुदबुदाया।

    "मैं कोई मसीहा नहीं," देवयानी की आवाज़ अब धीमी थी, पर हर शब्द ज्वालामुखी सा फट रहा था।

    "अगर पास आओगे, तो जल जाओगे। लेकिन चाहो तो उसी आग में खुद को नया भी बना सकते हो।"

    कमरे की रौशनी और चाँदनी अब आपस में घुल चुकी थी।

    देवयानी ने धीरे से अपनी नाइटी की फिसली डोरी फिर से कंधे पर चढ़ाई — मगर उसकी आँखों में अब नमी थी।

    "अब जाओ," उसने कहा, "वरना मैं तुम्हें रोक नहीं पाऊँगी... और फिर तुम भी खुद को नहीं।"

    देव ने उसे देखा — एक आख़िरी बार — और वहाँ से चला गया।

    कदम भारी थे, साँस हल्की... पर आँखों में अब सिर्फ एक नाम था —

    देवयानी।
    वही पहली तरफ अमरीश मीरा के चेहरे को तो कभी पेट पर चूम रहा था वो ऊपर अभी ब्रा पहने नीति सलवार डालने अमरीश के नीचे अदमरी सी पडी थी वही फिर उसे अपने पेट में कुछ महसूस हो रहा था | वो अमरीश से रोते हुए बोली,

    " पेट में दर्द हो रहा है मुझे बाथरूम जाना है, " उसकी आवाज में दर्द था |

    पहले तो अमरीश उसे किसी हाल में खुद से देर नही करना चाहा रहा था लेकिन फिर वो उसके ऊपर से उठा और बेड के साइड में खड़ा हो गया मीरा भी धीरे से बेड का सहारा लेकर खडी हुई |

    मीरा चल नहीं पा रही थी, ये देख अमरीश ने उसे बाहों में उठा लिया ये देख मीरा चौंक गई बोली,

    " ये...... ये क्या है पीलिज मुझे नीचे उतारो , "

    " तुम से एक दम चला नहीं जा रहा है तो बाथरूम तक कैसे पहुंचोगी, "

    अमरीश ने उसे सीधे ले जाकर मीरा को बाथरूम कि ओर बढा मीरा ने अपनी बाहों से अमरीश के गले को पकडा हुआ था | अमरीश ने बाथरूम का दरवाजा लात मार खोला और सीधे ले जाकर मीरा को पोट पर बैठा दिया | मीरा अमरीश को देख रही थी और अमरीश ने कहा,

    " कर लो, " बेशर्मी से अमरीश ने कहा |

    " पीलिज आप बाहार जाए, हर चीज कि अपनी मर्यादा होती है, " मीरा ने धीरे से कहा |

    अमरीश बिना कुछ कहे बाहार आ गया और दरवाजा बंद कर दिया |

    कमरे की हल्की पीली रौशनी, जो छत के कोने से टिमटिमा रही थी, मीरा की आँखों पर सीधी पड़ रही थी। पलकों की झपक धीरे-धीरे गहराती जा रही थी, पर दर्द की एक लहर बार-बार चेतना को वापस खींच लाती। बिस्तर पर उसका शरीर एक अधमरा पड़ा था—

    अमरीश उसके पेट पर झुका, होंठों से वहाँ बेइन्तहा चूंम रहा था । मीरा की साँसें भारी थीं, और उसकी आँखें बार-बार अमरीश के चेहरे पर टिक जा रही थीं। वो एक अजीब-सी स्थिति में थी—आश्चर्य और दर्द के बीच उलझी।

    "अमरीश जी..." वो धीमे से बोली, आवाज़ में एक बेचैन काँप थी।

    "हम्म?" अमरीश ने उसकी गर्दन के पास से गर्दन उठाई और उसकी आँखों में झाँका।

    "पेट में कुछ हो रहा है... मुझे बाथरूम जाना है..." उसके शब्दों में दर्द का कंपन था।

    एक पल के लिए अमरीश के चेहरे पर असमंजस उभरा। अभी कुछ मिनट पहले तक वो मीरा को अपनी बाहों में कसे हुए था—जैसे दुनिया का कोई डर, कोई नियम, कोई मर्यादा उन्हें छू न सके। मगर अब, मीरा की आँखों में दर्द था। असहाय-सी वो खुद को समेटने की कोशिश कर रही थी, पर उसका शरीर उसका साथ नहीं दे रहा था।

    अमरीश ने एक गहरी साँस ली। शायद वो उसे थामे रखना चाहता था, उसके साथ और थोड़ी देर उसी अवस्था में रहना चाहता था, पर मीरा की तकलीफ़ अब उसके लिए ज़्यादा अहम थी।

    धीरे से उसने खुद को मीरा के ऊपर से हटाया और बेड के पास खड़ा हो गया। मीरा ने खुद को उठाने की कोशिश की, मगर उसकी टाँगें काँप रही थीं। शरीर का हर जोड़, जैसे किसी और का था—बेजान, बोझिल।

    "रुको," अमरीश ने कहा।

    मीरा ने उसका हाथ पकड़ने की कोशिश की, पर इससे पहले कि वो कुछ कह पाती, अमरीश ने उसे अपनी बाहों में उठा लिया। एकदम सहज, जैसे ये उसका अधिकार हो। मीरा का दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़क उठा। उसने खुद को समेटने की कोशिश की, उसके गले के पास हाथ रखकर बोली, "ये... ये क्या कर रहे हो? मुझे नीचे उतारो... मैं खुद जा सकती हूँ।"

    "तुम चल नहीं पा रही हो," अमरीश की आवाज़ में सकती थी, "अगर तुम गिर गई तो तुम्हें चोट लग जाएगी लेकिन अब तो तुम्हें चोट पहुचा ने का हक सिर्फ़ मेरा है?"

    मीरा कुछ नहीं बोली। उसकी साँसें अब उसके कानों में गूंज रही थीं। कमरे की हर चीज़ जैसे ठहर गई थी—दीवार की घड़ी, खिड़की से आता धीमा हवा का झोंका, और उसका अपना दिल।

    अमरीश ने बाथरूम की ओर कदम बढ़ाए। मीरा की बाँहें अब मजबूती से उसके गले को थामे थीं, जैसे भरोसा और हिचकचाहट एक साथ किसी एक डोर में बंध गए हों।

    बाथरूम का दरवाज़ा बंद था। अमरीश ने एक हल्की-सी लात मारी और दरवाज़ा चर्र से खुल गया। उसने मीरा को अंदर ले जाकर धीरे से कमोड पर बैठा दिया, उसका हाथ अब भी उसकी कमर के सहारे था।

    मीरा ने उसकी तरफ देखा—आँखों में शर्म थी, बेचैनी थी, और थोड़ी सी मासूमियत जो अभी भी उसके भीतर बची थी।

    "कर लो," अमरीश ने कहा, उसकी आवाज़ में बेशर्मी थी |

    मीरा ने आँखें नीची कीं, गला सूख गया था। "प्लीज़, बाहर जाइए," उसने धीमे से कहा, आँखों में भीगती मर्यादा के साथ। "हर चीज़ की एक सीमा होती है..."

    अमरीश ने कुछ नहीं कहा, बस एक छोटी-सी सिर हिलाने की मुद्रा में वहाँ से निकल गया और दरवाज़ा धीरे से बंद कर दिया।

    मीरा वहीं बैठी रही। थोड़ी देर तक खुद को सँभालने में लगी रही—न सिर्फ शरीर को, बल्कि अपने दिल को भी। ऐसा नहीं था

    बाहर अमरीश दीवार से टिककर खड़ा था। उसके चेहरे पर कोई हंसी नहीं थी, कोई कामुकता नहीं—बस एक गहरा सोच, एक चिंता और शायद थोड़ी सी उलझन।

    वो याद करने लगा, मीरा से पहली मुलाकात, उसकी झुकी आँखें, पहली बार जब उसने हँसते हुए उसे देखा था और उसे महसूस हुआ था कि हँसी भी कोई चीज़ होती है जो आत्मा को गुदगुदा सकती है। लेकिन फिर वो चांटा, जो मीरा ने सबके सामने मारा था | तभी से उसके दिल में उसे बर्बाद करने कि आग जल उठी थी |

    वो जानता था, मीरा साधारण लड़की नहीं है। उसमें एक गहराई है, जो खुद उसे भी ठीक से नहीं पता। वो अपने भीतर कई परतों को समेटे चल रही थी, और हर परत पर समाज, डर, और उम्मीद की सिलवटें थीं।

    दरवाज़ा खुला। मीरा बाहर आई। उसका चेहरा ज़रा थका हुआ था, बाल थोड़े बिखरे थे और आँखें… आँखों में शर्म के साथ कोई और भाव था—शायद एक नया भरोसा।

    अमरीश ने उसकी ओर देखा और बिना कुछ कहे, उसका हाथ पकड़ लिया। मीरा ने थोड़ी हिचकिचाहट के बाद उसकी ऊँगलियाँ थाम लीं।

    "ठीक हो?" अमरीश ने पूछा।

    मीरा ने सिर हिलाया, लेकिन कुछ बोली नहीं। उसने बस अपनी हथेली अमरीश के सीने पर रख दी—जहाँ दिल धड़कता है। वो धड़कन, जो अब उसके लिए जानी-पहचानी लगती थी।

    अमरीश ने धीरे से मीरा को फिर अपनी बाहों में भर लिया, मगर अब उस आलिंगन में कोई जल्दबाज़ी नहीं थी।

    कमरे में लौटकर, अमरीश ने मीरा को बेड पर बैठाया, कंबल उसके पैरों पर डाल दिया। फिर खुद धीरे से पास बैठ गया, उसकी पीठ पर हाथ फेरता रहा—जैसे वो उसे फिर से दुनिया की थकान से दूर, अपने स्पर्श से शांत करना चाहता हो।

    उन दोनों के बीच अब शब्दों की ज़रूरत नहीं थी। मीरा को अब पता था—दर्द के बीच भी कोई ऐसा होता है, जो सिर्फ शरीर नहीं, आत्मा भी थाम सकता है।

  • 6. Married to my obsession - Chapter 6

    Words: 3181

    Estimated Reading Time: 20 min

    अध्याय: वह रात – जो छू कर भी अधूरी रह गई

    कमरे की दीवारों पर धीमी रोशनी की परछाइयाँ रेंग रही थीं। सफ़ेद परदे हवा के झोंकों में काँप रहे थे। कमरे की खिड़की से आती ठंडी हवा में एक अनकही सिहरन थी, जो सिर्फ शरीर नहीं बल्कि आत्मा को भी छू रही थी।

    सोफे पर अमरीश बैठा था — उसकी पीठ ज़रा सी ढलकी हुई, और उसकी बाहों में सिमटी मीरा — जैसे कोई ग़ज़ल की अधूरी पंक्तियाँ हो जो किसी पुराने काग़ज़ पर छपी हों, और जिनसे कुछ अनकहा रिसता हो।

    मीरा का सिर अमरीश की छाती से लगा हुआ था, उसकी आँखें नीची और होंठ थरथराते हुए। उसने अपनी उंगलियाँ मरोड़ रखी थीं, शायद खुद को भीतर से समेटने की कोशिश में।

    अमरीश की उंगलियाँ उसकी पीठ पर एक धीमी लय में चल रही थीं। जैसे कोई महीन संगीत रच रहा हो — लेकिन मीरा के लिए वह संगीत कोई मौन चीख थी।

    "मीरा..." उसकी आवाज़ गहरी और सधी हुई थी।

    मीरा ने हल्के से गर्दन उठाई, लेकिन उसकी आँखें अब भी झुकी हुई थीं। तभी अमरीश ने उसके गाल पर अपनी उंगलियाँ रखीं, उन्हें धीरे से सहलाते हुए उसकी ठुड्डी को ऊपर किया।

    "लुक अट मी..." वह फुसफुसाया।
    मीरा की पलकों ने थरथराते हुए ऊपर देखा, और उसके गाल पर हल्की लाली उभर आई।

    अमरीश की आँखों में कुछ अजीब सा था — चाहत, अधिकार... और शायद कुछ ऐसा जिसे मीरा अब तक पहचान नहीं पाई थी। उसने अपनी उंगलियाँ मीरा के होठों के पास लाईं, एक पल के लिए रुका... फिर एक उंगली उसके होठों के बीच रख दी।

    "Lick it, darling," उसने धीमे से कहा, लेकिन उसकी आवाज़ में एक आदेश छुपा था।

    मीरा के होंठ एक पल को सख्त हो गए, जैसे किसी ने उसे पकड़ लिया हो। उसने अपनी नज़रें दूसरी ओर फेर लीं।
    "मैं..." उसका गला सूख गया।

    अमरीश ने फिर से कहा, "Come on, मीरा... lick it."

    उसकी आवाज़ पहले से ज़्यादा भारी थी। मीरा की आँखों में डर सा कौंधा, और उसके हाथ खुद-ब-खुद पीछे खिसकने लगे। लेकिन वो जकड़न से नहीं बच सकी।

    धीरे से उसने वैसा ही किया... उसकी उंगली पर अपनी ज़ुबान का हल्का स्पर्श दिया।

    अमरीश के चेहरे पर एक अजीब सी संतुष्टि उभरी — जैसे वो किसी परीक्षा में पास हो गई हो।
    "गुड..." उसने कहा, और अपने होंठ मीरा के कान के पास लाकर धीमे से फुसफुसाया, "तुम जानती नहीं, तुम कितनी खास हो..."

    मीरा की रगों में कुछ सर्द सा दौड़ गया। वह अब भी उसकी बाँहों में थी, लेकिन उसका मन जैसे कहीं और उड़ने की कोशिश कर रहा था।

    अमरीश ने अपनी उंगलियाँ उसकी गर्दन की तरफ बढ़ाई, और उसे अपनी ओर खींचते हुए उसके कंधे को चूमा। उसकी सांसें गर्म थीं, लेकिन मीरा की त्वचा पर जैसे बर्फ़ पिघल रही हो — एक डर और एक अजीब सी संवेदना का मेल।

    जैसे ही अमरीश झुक कर उसके और करीब आने लगा, तभी फोन की घंटी घनघनाई।

    एक पल को वह रुक गया, गुस्से से फोन उठाया।

    "What’s the matter? Why have you called me at this hour? I believe I made myself clear earlier—so how did such a mistake occur?"

    मीरा उस वक्त जैसे सांस रोककर बैठी थी।

    "Alright, alright… I’m on my way. But let me make one thing very clear—today, one of you is definitely coming with me."

    फोन काटते ही उसने गहरी सांस ली, और फिर मीरा की ओर मुड़ते हुए कहा:

    "साॅरी, आज की रात यही खत्म करनी होगी। दो दिन के लिए गोवा जा रहा हूँ। लेकिन लौटते ही... आज रात का जो अधूरा काम है... वो पूरा करेंगे। अच्छे से तैयार रहना।"

    मीरा ने कुछ नहीं कहा, लेकिन उसकी आँखों में डर और राहत का एक अजीब संगम था। उसने सिर्फ हल्के से सिर हिलाया।

    अमरीश ने जाते-जाते अपना हाथ मीरा के उभार पर रखा — धीरे नहीं, बल्कि जोर से दबा कर। मीरा एक पल को सिहर गई। उसकी पूरी देह कांप गई, लेकिन आवाज़ नहीं निकली।

    दरवाज़ा बंद हुआ, उसके जाते ही कमरे में एक अजीब सन्नाटा छा गया।

    मीरा ने अपने उभार पर हाथ रखा — वहाँ अभी भी उसकी छुअन की गर्मी बाकी थी। लेकिन उस गर्मी में कोई चाह नहीं थी — बस एक अनकही घुटन, एक सूकून कि अब वो अकेली है... और एक डर, जो अगले दो दिनों के बाद लौटेगा।

    वह धीमे-धीमे उठी। उसका सूट फर्श पर गिरा पड़ा था। उसने खुद को समेटते हुए कुर्ता उठाया, और जल्दी से पहनने लगी। हाथ काँप रहे थे, लेकिन उसने खुद को थामे रखा।

    आईने के सामने खड़े होकर उसने खुद को देखा — उसकी आँखों में आँसू नहीं थे, लेकिन कुछ टूट चुका था।

    उसने अपनी ज़ुल्फें पीछे कीं, होंठ पर हल्की सी लिपस्टिक फिर से लगाई — जैसे कोई युद्ध के बाद अपनी पहचान को दोबारा सजाता है।

    कमरे की खिड़की खोलकर उसने ठंडी हवा को महसूस किया। वो अब भी काँप रही थी, लेकिन अब कांपने में आज़ादी थी।

    “मीरा…” उसने खुद को धीरे से पुकारा।

    सुबह की सच्चाई

    रात की वो उथल-पुथल भरी थकान मीरा की पलकों पर चुपचाप उतर आई थी। कब वो अमरीश के जाने के बाद रोई, कब चुप हो गई, और कब उसकी आँखें खुद से ही हार गईं — ये सब उसे याद नहीं था। वो बस सो गई... जैसे कोई मोमबत्ती आँधी के झोंके में बुझ जाती है, बिना आवाज़ के।

    कमरे में हल्की नीली रोशनी भरने लगी थी। लेकिन यह नीली रोशनी सूरज की नहीं थी। ये वो रंग था जो तब बनता है जब अंधेरे को छोड़ सूरज आने से पहले का वादा किया जाता है।

    कमरे की खिड़की से झांकती गुलाबी लहरियाँ, हवाओं के साथ उसके चेहरे को सहला रही थीं। एक चिड़िया की हल्की सी चहचहाहट, किसी साज़ की पहली तार को छूने जैसी थी।

    मीरा की पलकें धीरे-धीरे खुलीं।

    वो कुछ पलों तक यूँ ही लेटी रही — जैसे अपने अस्तित्व की पुष्टि कर रही हो। सिर में हल्का भारीपन, शरीर में एक अजीब सी थकावट... और दिल में एक भारी सन्नाटा।

    कमरे में अब भी अमरीश की परछाईं थी — उसकी सुगंध, उसकी आवाज़, और उसकी छुअन की अनकही चोटें।

    मीरा ने खुद को समेटा, चादर को अपनी छाती से कसकर लपेटा — जैसे अब भी कोई उसे देख रहा हो।

    वो उठी, बिस्तर के किनारे बैठी और अपनी हथेलियाँ देखती रही। उन्हीं हाथों से उसने उस काग़ज़ पर साइन किया था, जहाँ उसका नाम अब "सहमति" से बंधा एक अनुबंध बन गया था।

    तभी —

    "कांच की नींव – जब बदले की आंच भीतर चुपचाप जलती है"

    तभी —

    ट्र्र-ट्र्र—

    दरवाज़े पर अचानक तेज़ खटखटाहट हुई।

    मीरा चौंकी। उसके चेहरे पर एक पल के लिए डर कौंधा। उसने जल्दी से अपने बाल समेटे, दुपट्टा ठीक किया और धीरे-धीरे दरवाज़े की ओर बढ़ी।

    “क—कौन है?” उसकी आवाज़ में हिचक और थरथराहट थी।

    “दरवाज़ा खोलो मीरा,” एक कड़वी, करारी आवाज़। देवयानी।

    मीरा ने गहरी साँस खींची और काँपती उंगलियों से कुंडी खोली।

    जैसे ही दरवाज़ा खुला — सामने वही दो चेहरे थे।
    देवयानी — जिसकी आँखों में आज हँसी नहीं, सिर्फ शिकंजे की तरह कसी हुई साज़िश थी।
    और देव — लंबा, सख्त चेहरा, जो अमरीश के पीछे-पीछे हर साए की तरह चलता है।

    देवयानी बिना आमंत्रण के ही कमरे में दाखिल हो गई। उसकी चाल में ठहराव नहीं, अधिकार था।

    उसने मीरा को ऊपर से नीचे तक देखा और फिर मुस्कराई, “तो, अच्छी नींद आई डार्लिंग?”

    मीरा ने सिर झुका लिया। उसकी आँखें जमीन पर टिकी थीं।

    देवयानी उसकी ओर झुककर धीमे, मगर धारदार लहजे में बोली —
    “जानती हो तुम्हें यहाँ क्यों रखा गया है? ‘सर’, तुम्हें यहाँ इसलिए नहीं लाए कि तुम्हें कोई नौकरी देनी है। नहीं मीरा... ये तो बस एक पुराना हिसाब था... एक आग थी, जिसे बुझाना था।"

    देव ने आगे बढ़कर कमरे का दरवाज़ा बंद कर दिया।

    फिर दीवार से टिककर बोला, "और वो आग अब भी बुझी नहीं है। लेकिन तुम उसके लिए चुनी गई हो — एक मोम की तरह पिघलने के लिए।"

    मीरा की साँसें तेज़ चलने लगीं। उसने कुछ नहीं कहा। बस अपने हाथों को मरोड़ती रही।

    देवयानी ने आगे बढ़कर उसकी ठुड्डी को ऊँगली से ऊपर उठाया।

    “तुम्हारी आँखों में अब भी सवाल हैं? देखो मीरा, हम तुमसे ज़्यादा कुछ नहीं चाहते — बस चुपचाप रहो और वो करो जो कहा जाए। क्योंकि जो ‘बदला’ चुकाया जा रहा है न, उसमें तुम्हारे ‘न खून का’, न कोई नाम का हिस्सा है — तुम तो बस माध्यम हो... ज़रिया।”

    मीरा का चेहरा झुका रहा, लेकिन उसकी साँसों की गति बता रही थी कि भीतर कुछ टूट नहीं रहा, कुछ जमा हो रहा है।

    देव पास आकर बुदबुदाया, “जो हुआ था... उसके बारे में ज़्यादा जानने की ज़रूरत नहीं है। लेकिन इतना समझ लो, तुम्हारी जगह कोई और होती तो अब तक चिल्ला रही होती।"

    “तो मैं वही करूँ?” मीरा की आवाज़ धीमी थी, मगर अब वो काँप नहीं रही थी।

    देवयानी उसकी ओर झुकी और दुपट्टा ठीक करती हुई बोली, “नहीं, डार्लिंग... तुम वही करो, जो तुम्हारे लिए तय किया गया है।”

    फिर एक शिकारी मुस्कान के साथ उसने जोड़ा,
    “और हाँ, साइन तो तुमने खुद किए थे... अपनी बदकिस्मती पर,

    मीरा ने कोई प्रतिवाद नहीं किया। सिर्फ धीमे से सर हिलाया।

    देव और देवयानी जैसे अपने जीत के भरोसे में कमरे से निकलने को हुए।

    देवयानी चिढ़ गई, “बहुत ज़्यादा बातें मत बना! नीचे आ जा, काम करने का वक्त हो गया है।”

    मीरा ने उनकी ओर देखा — सीधा, स्थिर और निर्भय।

    “मैं आ रही हूँ।”

    उन दोनों के जाने के बाद मीरा कमरे के बीच में खड़ी रही। उसने आईने में खुद को देखा। बाल बिखरे थे, आँखें सुनी थीं — लेकिन आज उनमें एक नई भाषा थी।

    ये सुबह अब वो सुबह नहीं थी, जो हर बार उसकी कहानी में आती थी।
    ये एक ऐसी सुबह थी जो उसके अंदर जागी थी।


    बर्तन धोते हुए मीरा के हाथों की त्वचा झुलस रही थी। गर्म पानी की भाप से उसकी साँसें धुंधला रही थीं, लेकिन उसके भीतर चल रहा युद्ध उस उबलते पानी से कहीं ज़्यादा भयानक था।



    ये शब्द जैसे उसके पूरे वजूद में गूँजते थे — हर झाग, हर प्लेट, हर छींटा उसे यही याद दिलाता, कि वो अब इंसान नहीं, एक सौदे की वस्तु थी।

    उसे अचानक ऐसा लगा जैसे कोई उसके पीछे खड़ा है — कोई जिसे उसने खुद बुलाया हो अपने जीवन से, लेकिन अब जो उसके हर हिस्से पर मालिकाना हक़ जता रहा था।

    कुछ दिन पहले लंदन में,

    लंदन कि सुबह बहोत थी — हल्की धूप और तेज़ हवा का एक अजनबी रिश्ता, जैसे कोई भूली-बिसरी चिट्ठी अचानक मिल जाए।

    मीरा अपने कमरे के बीचों-बीच खड़ी थी — गुलाबी स्वेटर और काले ट्रैकपैंट्स में, बालों का ढीला जुड़ा और आँखों में एक चमक, जो किसी इंतज़ार के ख़त्म हो जाने की सूचना देती है। कमरे की हवा में हल्का सा लैवेंडर का अरोमा फैला हुआ था, और बेड पर आधी खुली हुई ट्रॉली बिखरे हुए कपड़ों से घिरी थी।

    “नीला सूट... हाँ, डैड को ये रंग बहुत पसंद है,” मीरा बुदबुदाई, और अलमारी से निकाला गया एक सिल्क का सूट बड़े प्यार से ट्रॉली में रखा।

    “ओह, और ये वाला स्कार्फ़... वही जो डैड ने भेजा था पिछली न्यूइयर पर,” वो मुस्कुराई, और स्कार्फ को हल्के से सहलाकर मोड़ा — जैसे उस पर बचपन की कोई छाया बैठी हो।

    मीरा की चालों में उत्साह था, और चेहरे पर एक हल्का नर्म भाव — एक लड़की जो कुछ छिपा रही हो, लेकिन किसी अनकहे पल के लिए खुद को भी तैयार कर रही हो।

    “छह साल... पूरे छह साल हो गए डैड को देखे हुए,” वो धीमे स्वर में खुद से बोली, “हर साल वही वादा — ‘इस बार ज़रूर आऊँगा बेटा’... लेकिन अबकी बार, सरप्राइज़ उनकी तरफ़ से नहीं, मेरी तरफ़ से होगा।”

    उसने ट्रॉली की ज़िप खोलते हुए दो जोड़ी सैंडल और एक पुराना पारिवारिक फोटो-एल्बम निकाला — वही, जो वो हमेशा तकिये के नीचे रखती थी। फोटो में वो दस साल की थी, डैड की गोद में बैठी, और पीछे मुंबई का वो पुराना वॉटरफॉल।

    “काश आप जान पाते डैड... मैं अब भी वही मीरा हूँ,” उसके शब्द कमरे में रुक गए — जैसे किसी अदृश्य आहट को सुन लिया हो।

    दरवाज़े पर एक धीमी सी दस्तक हुई।

    “मैम?”

    नरम आवाज़ थी — ये टीना थी, घर में काम करने वाली सजीव, संकोची सी महिला, जो मीरा को बहुत मानती थी। उसके हाथों में एक छोटा सा झोला था और आँखों में वही जिज्ञासा जो मीरा के हर मूड को भांप लेती थी।

    “टीना दी, आओ अंदर,” मीरा ने जल्दी से कहा।

    टीना ने झोला एक कोने में रखा और ट्रॉली की तरफ बढ़ी, “आप कहीं जा रही हैं क्या मैम?”

    मीरा मुस्कुरा दी, “हाँ दीदी... इंडिया।”

    टीना चौंकी, “सच में? इतने चुपचाप?”

    “सरप्राइज़ देने जा रही हूँ... डैड को। उन्हें नहीं पता मैं आ रही हूँ।”

    टीना का चेहरा खिल गया। “अरे वाह! कितना अच्छा लगेगा उन्हें। इतने सालों से आप दोनों बस कॉल पर ही बात करते हैं... अब एकदम सामने देखेंगे आपको... वो तो खुशी से रो ही देंगे।”

    मीरा हँसी, मगर आँखों में हल्का सा पानी भर आया।

    “बस दी, अब ज़रा ट्रॉली फुल हो गई है... तुम देखो कुछ रह तो नहीं गया?”

    टीना ने सूझ-बूझ से हाथ बढ़ाया, “वो फेवरेट वाले कपड़े रख ली आपने? और वो छोटा सा भगवान जी का फ्रेम... हर बार तो ले जाती हैं।”

    “अरे! देखो, मैं तो भूल ही गई!” मीरा जल्दी से साइड टेबल की ओर लपकी। वहाँ एक छोटा, चांदी का फ्रेम रखा था — भगवान गणेश की मुस्कुराती मूर्ति। उसने बहुत प्यार से उसे उठाया, चूमा और ट्रॉली में रख दिया।

    टीना अब कपड़े तह कर-करके करीने से जमा रही थी। वो भी इस सफर को लेकर उत्साहित थी — मीरा के चेहरे की रंगत देखकर शायद उसे भी वो बचपन याद आ रहा था जब लोग अपनों को बिना बताए मिलने पहुँच जाया करते थे।

    “मैम, फ्लाइट कब की है आपकी?” टीना ने पूछा।

    “आज रात नौ बजे की... हीथ्रो से। डैड को लगता है कि मैं अगले हफ्ते ऑफिस ट्रिप पर जा रही हूँ स्कॉटलैंड। मैंने जानबूझकर नहीं बताया... बस पहुँचकर दरवाज़े पर खड़ी हो जाऊँगी, वही पुरानी तरह से — ‘डैड, खुला है क्या दरवाज़ा?’”

    दोनों हँसी में डूब गईं — एक मासूम योजना में ऐसा अपनापन था कि लंदन का ठंडा कमरा भी अचानक गर्म लगने लगा।

    “आपके डैड तो बहुत इमोशनल हैं, मैम... जब आप उन्हें गले लगाएँगी, तब देखिएगा उनकी आँखें,” टीना बोली।

    मीरा थोड़ी देर चुप रही। फिर हल्के स्वर में बोली —
    “जानती हो टीना दी... जब मैं छोटी थी, डैड हर जन्मदिन पर मेरे लिए पायल लेकर आते थे। वही हल्की सी, चांदी की। कहते थे, ‘मेरी गुड़िया के पाँवों में सितारे होने चाहिए।’ पर जब मैं चौदह की हुई, मम्मा की डेथ के बाद... वो पायल बंद हो गईं।”

    टीना ने हल्के से उसका हाथ थामा।

    मीरा की आँखों में उदासी नहीं थी, पर एक ठहरा हुआ सन्नाटा था, जिसे कोई स्पर्श भी शायद ठीक से समझ नहीं पाता।

    “अब मैं उन्हें वो पायल वापस दूँगी,” मीरा ने बैग से एक छोटा मखमली डिब्बा निकाला। अंदर वही चांदी की पायल थी — नई, चमचमाती हुई।

    “वो सोचते हैं कि मैं अब बड़ी हो गई हूँ... लेकिन उन्हें क्या पता, उनकी मीरा आज भी वही है — सितारों वाली।”

    टीना की आँखें भर आईं।

    “बहुत भाग्यशाली हैं आपके डैड,” उसने बस इतना ही कहा।

    ट्रॉली अब पूरी तरह तैयार थी — कपड़े, किताबें, भगवान का फ्रेम, पायल और पुरानी तस्वीरें। मीरा ने आखिरी बार ज़िप बंद की और गहरी साँस ली — जैसे एक दरवाज़ा अपने पीछे छोड़कर आगे बढ़ रही हो।

    बाहर लंदन की हवा अब और भी तेज़ थी। मगर उसके मन में अजीब सी गर्मी थी — जैसे बचपन लौट रहा हो, जैसे कोई अधूरी कहानी अब पूरी होने जा रही हो।

    “चलो दीदी, अब कुछ खा लें। फिर मुझे एयरपोर्ट निकलना है शाम तक।”

    टीना ने सिर हिलाया, लेकिन चलते-चलते रुक गई।

    “मैम... एक बात कहूँ?”

    “बिलकुल।”

    “आपके डैड को सरप्राइज़ तो मिलेगा ही, लेकिन जब वो आपको गले लगाएंगे... तब जो सुकून आपके चेहरे पर आएगा ना — वो असली सरप्राइज़ होगा, खुद आपके लिए।”

    मीरा कुछ नहीं बोली। बस मुस्कुरा दी। और उसी मुस्कान में सारा सफर छुप गया।
    अब...

    मीरा ने हाथों को नल के नीचे धोया, लेकिन जो कीचड़ उसकी आत्मा पर लगा था, वो नहीं धुला।

    वो अब उस हवेली में थी, जहाँ रईसी के पर्दे के पीछे औरतों की साँसें भी खरीदी जाती थीं। वही देवयानी, वही देव — अमरीश के पुराने नौकर — जो अब उसके ‘निगरानीकर्ता’ थे, कभी उसकी ओर तिरस्कार से, कभी लालच से देखते।

    वो सब जानते थे कि अमरीश फिलहाल दो दिन के लिए गोवा बिज़नेस मीटिंग पर है — और पीछे मीरा जैसे ‘कॉन्ट्रैक्टेड प्रॉपर्टी’ को वे अपने तरीके से रखेंगे।

    देवयानी की हँसी गूंज रही थी, “तेरे जैसे को तो अब सिर्फ ये हवेली ही संभालेगी मीरा। जिंदगी भर तक सबका मनोरंजन करेगी, फिर किसी को तेरे जैसे पर तरस भी नहीं आएगा।”

    मीरा ने चुपचाप उनके शब्दों को निगला। उस काग़ज़ की एक कॉपी उसके कमरे में तकिए के नीचे रखी थी।



    रात...

    खिड़की से चाँद अंदर झाँक रहा था।

    मीरा ने वही बातें फिर से सोचने लगी। हर शब्द उसे अपमान से सराबोर करता।

    "जिंदगी भर कि कैद"

    वो बात जैसे उसकी अस्मिता की कब्रगाह बन गया था।

    पर अब... कुछ बदल गया था।

    उसने बात सोची और आँखें बंद कीं। अंदर से एक आवाज़ आई:

    " ये बस एक सपना है, "


    सुबह... अगली शुरुआत

    इस सुबह में कुछ अलग था।

    हवेली के बाग़ में ठंडी हवा नहीं, बल्कि एक तरह की बेचैनी घूम रही थी।

    मीरा के कमरे का दरवाज़ा ज़ोर से खटका।

    ठक... ठक... ठक…

    मीरा नींद में थी। उसने चौंक कर आँखें खोली। कब सो गई, पता नहीं चला।

    दरवाज़ा खुला — सामने देवयानी और देव खड़े थे। दोनों के चेहरे पर वही घमंड, वही तिरस्कार। पहनावा ऐसा जैसे फैशन मैगज़ीन से निकले हो |

    “सर तो गोवा चले गए हैं,” देव ने कहा, “पर तुम्हारी सेवा अब हमारी ज़िम्मेदारी है... हम भी तो देखे कि कितनी काबिलियत है रखैल बनने की।”

    देवयानी हँसी, “

    मीरा चुप रही।

    वो जानती थी — जवाब देने से ज्यादा ज़रूरी था तैयार होना।



    मीरा की हथेलियों पर साबुन की परतें चिपकी हुई थीं, पर भूख अब इनसे ज़्यादा जलन देने लगी थी।

    सुबह से रसोई के फर्श पर झुकी थी, प्याज काट रही थी, फिर आटा गूंथ कर पराठे सेंके थे। पूरे स्टाफ खाना खा रहा था जब अपनी बारी आई, तो सिर्फ़ एक जवाब मिला —

    “तेरे लिए कुछ नहीं बचा। तू काम करने के लिए रखी गई है, दावत उड़ाने के लिए नहीं।”

    देवयानी के होंठों पर जो कुटिल मुस्कान थी, वह मीरा के दिल से कहीं गहराई तक उतर गई।

    मीरा ने कुछ नहीं कहा। बस सिर झुकाकर वहीं कोने में बैठ गई।
    न भूख चिल्ला रही थी, न आँसू बह रहे थे — सब कुछ भीतर ही भीतर घुट रहा था।



    रात का अंधेरा

    हवेली की बत्तियाँ एक-एक कर बुझ रही थीं। रसोई की खिड़की से धीमी हवा भीतर आ रही थी — ठंडी, लेकिन अकेली।

    मीरा अपने कमरे में पड़ी बेड पर लेटी थी। पेट की ऐंठन अब दुख की तरह नहीं, एक सामान्य दिनचर्या बन चुकी थी।

    “कल कुछ बचा हो तो चुरा लूँगी,” वो मन में सोच रही थी।

  • 7. Married to my obsession - Chapter 7

    Words: 1844

    Estimated Reading Time: 12 min

    रात का अंधेरा धीरे-धीरे हवेली की दीवारों पर रेंग रहा था। कमरा जहाँ मीरा को रखा गया था, वह ऊपर की मंज़िल पर था, थोड़ा दूर… और थोड़ा अलग।

    “अरे ड़रती क्यों है,” किशन ने हँसते हुए कहा, “मैं तेरा मालिक नहीं… बस दोस्त बनना चाहता हूँ। वैसे भी इतनी रात को कोई देखने तो आएगा नहीं…”

    मीरा अब पीछे हट रही थी — बेड की ओर ,

    देव आगे बढ़ा, उसका हाथ मीरा के कंधे को हल्के से छूता हुआ फिसला।

    “छोड़िए…”

    यह शब्द मीरा के होंठों से निकले, लेकिन ज़ोर से नहीं, बस फुसफुसाहट में। पर उनमें हिम्मत थी।

    मीरा ने दोनों हाथों से खुद को ढँक लिया और एक तीखी नज़र से देव की आँखों में देखा — डर था, लेकिन उससे ज़्यादा कुछ और… एक चेतावनी।

    देव दो पल को रुका। उस नज़र में कुछ ऐसा था जो उसे उलझा गया। फिर थाली ज़मीन पर रखकर हँसता हुआ बोला —

    “अच्छा-अच्छा… डर गई? खा ले… लेकिन याद रख… इस घर में तुझे कोई नहीं देखता, पर मैं देखता हूँ। और मैं कुछ भी कर सकता हूँ।”

    —बस तू मुँह मीठा करवा देना।”

    मीरा वहीं खड़ी रह गई — साँसें तेज़, आँखें भरी हुई, लेकिन अब भी आँसू बाहर नहीं निकले।

    मैंने कहा — बाहर जाओ!”

    उसका स्वर पहली बार तेज़ था, लेकिन डर से भीगता हुआ।

    देव की आँखों में अब वह भूख साफ़ थी, जो इंसान को हैवान बना देती है।

    वो आगे बढ़ा, लेकिन तभी—

    “रुक जाओ, देव!”

    दूसरी आवाज़ ने उस कमरे का तापमान बदल दिया।

    दरवाज़े पर खड़ी थी — रमा

    “बाहर निकल... मैं बोल रही हूँ...”

    देव हड़बड़ाया।

    “तुम क्या करोगी? ये रखैल है! हमारी हवेली की!”

    देवयानी ने आगे बढ़कर देव के कॉलर को पकड़ा और धीरे से कहा —

    “और तू हवेली की लाज का भक्षक बन गया है? शर्म नहीं आई?”

    देव कुछ बोलने ही वाला था, लेकिन उसकी आँखें मीरा की तरफ घूमीं, जो अब दीवार के सहारे खड़ी काँप रही थी।

    “चल!” — देवयानी ने देव को खींच लिया।

    देव की चाल में अब क्रोध नहीं, डर था। वो बुदबुदाता रहा, पर बाहर चला गया।

    मीरा वहीं ज़मीन पर बैठ गई। हाथ अब भी थाली पकड़े थे, लेकिन खाने का स्वाद मर चुका था।

    — हवेली की रात, मीरा के कमरे के बाहर

    देव जैसे ही देवयानी के साथ बाहर निकला, उसने अपने कुर्ते की आस्तीन झटकते हुए रुख बदला, लेकिन देवयानी ने उसका हाथ कसकर पकड़ लिया।

    “कहाँ जा रहे हो? ज़रा सुन तो सही।”

    उसकी आवाज़ अब मीठी थी, लेकिन उस मिठास के पीछे की कड़वाहट देव पहचानता था।

    “तू भी उस लड़की के पीछे पागल हो रहा है?” देवयानी ने मुस्कुरा कर कहा, “तू अगर उसके पीछे पड़ा रहेगा, तो मेरा क्या? मुझे कौन हँसाएगा, कौन मेरी बोरियत मिटाएगा?”

    देव अब रुक गया। उसकी सांसें तेज़ थीं, जैसे भीतर कोई कुंठा फड़फड़ा रही हो।

    “अरे मैं तो बस डराने गया था। कुछ ज़्यादा नहीं किया... तू जानती है, तुझसे बेहतर तो कोई समझ ही नहीं सकता मुझे,” उसने देवयानी की ओर एक शरारती मुस्कान फेंकी।

    देवयानी ने एक नज़र उसकी तरफ डाली — लंबी, गहराई से जाँचती हुई।

    “सच?”

    उसने धीरे से पूछा, उसके होंठों पर एक अजीब-सी लहर थी।

    देव ने उसका हाथ पकड़ लिया और उसे एक खंभे की आड़ में खींच लिया।

    “तेरा ये जलना... और भी खूबसूरत बना देता है तुझे।”

    देवयानी ने हल्की-सी हँसी छोड़ी — उस हँसी में अधिकार था, व्यंग्य था, और एक औरत की विकृत सत्ता।

    “मीरा जैसी लड़की का क्या करना है तुझे?” उसने धीरे से देव के गाल पर उंगली फिराई।

    “वो तो बस एक कठपुतली है। नाचवाना है, नचाएंगे। लेकिन तू… अगर तू उसे लेकर ही बहक जाएगा, तो मेरी रातें कौन रोशन करेगा?”

    देव ने उसका हाथ अपनी हथेलियों में ले लिया और थोड़ा और पास आ गया।

    “तो तू ये मान रही है कि मैं अब भी तेरा हूँ?” उसकी आवाज़ में थोड़ा लाड़, थोड़ा अधिकार था।

    देवयानी ने उसकी शर्ट के कॉलर को हल्के से खींचा, जैसे जवाब देने के लिए शब्दों की ज़रूरत नहीं थी।

    “हर वो चीज़ जो हवेली की है, पहले मेरी है,” वह फुसफुसाई।

    देव अब उसके और करीब आया।

    “और मैं?”

    “तू…?” देवयानी ने धीरे से उसकी गर्दन पर अपनी उंगलियाँ फेरते हुए कहा —

    “तू तो मेरी हथेली की लकीर है देव… अगर तू कभी फिसला, तो मैं उसे भी मोड़ दूँगी।”

    दोनों के बीच कुछ पल मौन रहा — पर वो मौन भी बोलता था।

    फिर देवयानी पीछे हटी।

    “मीरा को अकेला छोड़ दे कुछ दिनों तक। डर काफी बो दिया तूने आज रात। अब वो खुद को भी साँस लेने से डरेगी।”

    देव ने सिर झुकाया।

    “ठीक है... पर तूने जो कहा, उसका भी वादा रख… आज रात मेरी होगी, है न?”

    देवयानी ने कोई जवाब नहीं दिया, बस पलटकर धीरे-धीरे सीढ़ियाँ चढ़ने लगी — लेकिन उसकी चाल में उस औरत की सत्ता थी, जो जानती थी कि किसे कब कैसे तोड़ना है।

    देव वहीं खड़ा रहा — आँखों में अभी भी मीरा की झलक थी, लेकिन होंठों पर देवयानी की छुअन की स्मृति।

    हवेली के किसी कोने में फिर से एक रात गिरफ़्त में थी — और मीरा उस रात की सबसे चुप्पी भरी सिसकी बन चुकी थी।

    "सुबह की सजा"

    सूरज अभी पूरी तरह से निकला नहीं था, पर हवेली की दीवारों पर सुनहरी रेखाएँ रेंगने लगी थीं। पक्षियों की चहचहाहट उस जगह तक पहुँच ही नहीं पाती थी जहाँ मीरा को रखा गया था — वह कमरा जहाँ खिड़की से सिर्फ़ एक दीवार दिखती थी, और दीवार पर एक पुराना मकड़ी का जाला, जैसे किसी उम्मीद को निगल चुका हो।

    मीरा की आँखें रातभर नहीं लगी थीं। किशन की छाया अब भी उसकी साँसों के पास मंडरा रही थी, और रमा की नज़रें उसकी पीठ पर जैसे जलन छोड़ गई थीं।

    दरवाज़ा अचानक ज़ोर से खुला — सुबह की पहली घड़ी में ही चीख की तरह।

    “उठ जा!”

    देवयानी की आवाज़ थी — ठंडी, लेकिन भीतर तक चीर देने वाली।

    मीरा तुरंत उठ बैठी। आँखें लाल थीं, शरीर भारी, पर वह सवाल नहीं कर सकती थी। यहाँ सवालों की कोई जगह नहीं थी।

    “नीचे आ जा, काम का ढेर लगा है। तेरे सोने का वक़्त नहीं।”

    रसोईघर – 6:00 AM

    रसोई की फर्श पर पानी फैला हुआ था। टीन के डिब्बे इधर-उधर बिखरे थे और तंदूर अब भी पिछली रात के कोयले से गर्म था।

    मीरा ने सबसे पहले ज़मीन पोंछने की बाल्टी उठाई। साबुन का घोल, गंदा कपड़ा, और नंगे पैर — उसकी सुबह का यही स्वागत था।

    “ढंग से पोछ! ज़रा भी कोना गंदा छूटा तो फिर देख!” देवयानी ने एक कोने से कहा और चाय की प्याली में घूँट लिया, जैसे उसे मीरा की पीठ झुकती देखना किसी मज़े से कम नहीं।

    मीरा चुप रही। पोंछा लगाते हुए उसकी कलाई में एक हल्का खिंचाव हुआ — कल का काम अब आज की तकलीफ बन चुका था।

    “अब प्याज़ काट, दो किलो,” देवयानी ने थाली उसकी ओर फेंकी, जिससे थोड़ी सी छौंकदार सब्ज़ी भी गिर गई मीरा के कपड़ों पर।

    “और आटा गूंथना मत भूल। स्टाफ को नाश्ता चाहिए सात बजे।”

    मीरा ने चुपचाप प्याज़ काटना शुरू किया। आँसुओं से आँखें धुँधली हो रही थीं, लेकिन अब वो आँसू भीतर के थे — बिना आवाज़, बिना आँसुओं के टपकने के।

    **

    साफ़-सफ़ाई का दौर – 8:00 AM

    नाश्ता बनाने के बाद जैसे ही उसने एक साँस ली, देव आ पहुँचा।

    “अब बाथरूम साफ़ कर,” उसने आदेश दिया, “और ध्यान रहे, साबुन की गंध ठीक से आए। ”

    मीरा एक बाल्टी, स्क्रबर और एक पुराना झाड़न लेकर नीचे के बाथरूम में पहुँची। ज़मीन पर कीचड़, बाल, और गंदगी की परतें थीं।

    वह घुटनों के बल बैठ गई, अपने हाथ से टॉयलेट की दीवारें साफ़ करने लगी। गर्म पानी हाथों को जलाता, पर वह शिकायत नहीं कर सकती थी। जब उसने दरवाज़ा बंद करना चाहा, देव वहीं खड़ा था।

    “अंदर बंद क्यों कर रही है? डरती है मुझसे?” वह हँसा।

    मीरा ने बिना कुछ कहे दरवाज़ा धीरे से खींचा और सफ़ाई में लग गई।

    **

    झाड़ू-पोंछा – 10:00 AM

    अब बारी थी ड्राइंग रूम की। वहाँ फ़र्श संगमरमर का था, लेकिन उस पर हर सुबह की धूल जमा रहती। मीरा ने धीरे-धीरे झाड़ू लगाना शुरू किया, पर देवयानी वहाँ बैठकर फोन पर बात कर रही थी।

    “ज़रा ध्यान से चल! धूल मेरे पैरों पर न लगे,” उसने झपटते हुए कहा।

    मीरा ने झुककर काम तेज़ किया। पसीने की लकीरें पीठ से होते हुए कमर तक पहुँच रही थीं। हाथों की नसें अब सूजने लगी थीं।

    **

    कपड़े धोने की बारी – दोपहर 12:00 PM

    धूप चढ़ आई थी। आँगन के कोने में एक बड़ा टब रखा गया था, जिसमें साबुन का झाग पहले से डाला गया था। रमा ने पुरानी चादरें, तौलिए, और नौकरों के कपड़े एक गठरी में डालकर मीरा के सामने पटक दिए।

    “इन्हें हाथ से धो — वॉशिंग मशीन मत छूना। वो सिर्फ़ हमारे लिए है।”

    मीरा ने चुपचाप एक-एक कपड़ा उठाया, झुककर टब में डाला, और रगड़ने लगी। कुछ कपड़े इतने गंदे थे कि पानी की रंगत बदलने लगी थी।

    उसके हाथ अब बिलकुल लाल हो चुके थे। नाखूनों के नीचे गंदगी भर चुकी थी।

    **

    देव फिर आया – दोपहर 2:00 PM

    मीरा अब पीछे की गैलरी में कपड़े सुखा रही थी। तभी देव वहाँ आ गया — आँखों में वही पुरानी चमक।

    “कमाल की मेहनती है तू… तू चाहे तो तेरा थोड़ा काम मैं आसान कर सकता हूँ,” उसने धीमे से कहा।

    मीरा ने कुछ नहीं कहा।

    “बस थोड़ा प्यार दे दे… और देख कैसे आराम से तू रानी बन जाएगी इस हवेली की,” वह पीछे से थोड़ा और पास आ गया।

    मीरा तुरंत दूर हटी और कपड़ों की बाल्टी उठा ली।

    “चले जाइए यहाँ से,” उसके शब्द शांत थे, पर घाव जैसे थे।

    देव कुछ पल खड़ा रहा, फिर ज़ोर से हँसते हुए चला गया।

    **

    शाम की चाय – 4:00 PM

    रसोई में फिर चाय बनानी थी। रमा ने बिना पूछे पाँच कप की मांग रख दी।

    “अलग-अलग स्वाद में बना देना,” उसने कहा।

    “एक मसाला, एक तुलसी, एक फीकी… समझी?”

    मीरा अब थक चुकी थी। हाथ काँप रहे थे। लेकिन वो चाय बनाती रही।

    **

    रात का खाना – 7:00 PM

    अब तक मीरा 13 घंटे बिना बैठने के काम कर चुकी थी। फिर भी उसे रात का खाना भी अकेले ही बनाना था — दाल, सब्ज़ी, चावल, रोटियाँ।

    स्टाफ खाने लगा, देवयानी अपने खाने में मसाले का जायका देख रही थी।

    “अरे रोटियाँ ठंडी क्यों हैं?” रमा चिल्लाई।

    मीरा ने कुछ कहना चाहा, लेकिन देवयानी ने तश्तरी उसकी तरफ फेंक दी —

    “मुँह मत खोल! तू कामचोर है, एहसान कर रहे हैं जो तुझे यहाँ रख लिया है।”

    **

    रात – 10:00 PM

    मीरा अपने कमरे में वापस लौटी — थाली में बचा कुछ भी नहीं था। वही पुरानी थकावट, वही खालीपन।

    कमरे की दीवारों ने उसे घेरा, जैसे साज़िश की कोई पुरानी गूंज हो। वो फर्श पर बैठ गई — आज न आँसू थे, न शब्द। बस एक जंग थी — हारी नहीं थी अभी, लेकिन जीती भी नहीं।

    उसने हथेलियों को देखा — जगह-जगह छाले और साबुन की परतें थीं।

    पर उस रात, थकावट से ऊपर उठकर उसकी आँखों में जो जाग रही थी, वो थी — एक चुप प्रतिशोध।

  • 8. Married to my obsession - Chapter 8

    Words: 989

    Estimated Reading Time: 6 min

    अमरीश की वापसी

    BMW 7-सीरीज काली चमकदार कार तेज़ रफ्तार से गोवा एयरपोर्ट से निकलकर मुंबई हाईवे पर दौड़ रही थी। आसमान पर बादल थे, हल्की रौशनी में कार के भीतर का माहौल ऐसा था मानो किसी गहरी योजना का मंच सजा हो।

    पीछे की सीट पर अमरीश बैठा था — एकदम सीधा, तनकर, जैसे किसी युद्धभूमि से लौट रहा हो। उसकी आंखें स्थिर थीं, और चेहरा उस चुप्पी से ढका था जो किसी खतरे से पहले की चेतावनी होती है।

    सूट का काला रंग उसकी ठंडक से मेल खा रहा था। बाल व्यवस्थित, गले में टाई की गिरावट तक गणना की तरह सटीक। उसकी कलाई पर बंधी घड़ी हर सेकंड के साथ जैसे किसी औरत की चीखें गिन रही थी।

    अचानक उसकी उंगलियाँ खिड़की के किनारे बजने लगीं — धीमे, क्रमवार, जैसे कोई धुन नहीं बल्कि गिनती हो रही हो।

    उसने एक लंबी साँस ली। सामने ड्राइवर पूरी तन्मयता से गाड़ी चला रहा था — लेकिन जानता था कि पिछली सीट पर बैठा शख़्स चुप होने पर सबसे ज़्यादा ख़तरनाक होता है।

    “सर… सीधे हवेली?” ड्राइवर की आवाज़ बेहद धीमी थी।

    अमरीश की पलकों ने भी हिलने से मना कर दिया। फिर कुछ सेकंड बाद उसकी आवाज़ आई — ठंडी, धारदार।

    “तुम्हारी ज़ुबान की आवाज़ मेरी सोच में खलल डालती है। अगली बार बिना माँगे मत बोलना।”

    ड्राइवर काँप गया। जवाब देने की हिम्मत भी नहीं बची। उसने शीशा ऊपर खींच दिया।

    अब कार के भीतर सिर्फ AC की हल्की गूंज और अमरीश की साँसों की गहराई रह गई थी।

    उसने अपनी जैकेट की जेब से एक सिल्वर फ्लास्क निकाली। ढक्कन खोला — धीमे, नपा-तुला — और उसमें से एक घूंट लिया। गला गर्म होने लगा। पर दिल… दिल अब भी बर्फ़ जैसा था।

    उसकी आंखें अब छत की ओर उठीं। गाड़ी की छत — उस खाली कैनवास की तरह जिसमें वो मीरा की यातना की पेंटिंग बना रहा था।

    “मीरा…”

    वह नाम ज़बान पर जैसे ज़हर बनकर उतरा।

    “तुम सोचती थी तुम आज़ाद है? मेरी गिरफ़्त से बाहर निकल चुकी है?” वह खुद से बात कर रहा था, लेकिन हर शब्द जैसे किसी अदृश्य शिकार के लिए फेंका गया शिकंजा था।

    “गोवा में दो दिन की मीटिंग थी, पर इन दो दिनों में तुम मेरे ज़हन से एक सेकंड को भी नहीं गई, मीरा।”

    उसने फ्लास्क को दोबारा होंठों से लगाया — एक लंबा घूंट।

    “तेरा जिस्म अब मेरी हवेली में है। और बहुत जल्द… तेरी आत्मा भी होगी।”

    उसकी उंगलियाँ अब सख़्त हो गई थीं। वह अपनी हथेली की रेखाओं को ऐसे देख रहा था जैसे इनमें से एक-एक रेखा मीरा को तड़पाने का प्लान हो।

    “मैं तुझे तोड़ूँगा। दिन में तुझे आज़ाद रहने दूँगा, पर रात…”

    “…रात को तुम मेरा चेहरा देखेगी, अपनी सासों से डरते हुए। मैं तुम्हें चैन से सोने नहीं दूँगा, मीरा।”

    कार अब हाईवे से उतरकर मुंबई की ओर मुड़ चुकी थी। लेकिन अमरीश की आंखों में अब भी गोवा के समंदर की लहरें थीं — नहीं, वे लहरें नहीं थीं… वे यादें थीं।

    वही मीरा की हँसी, जो आज उसे अंदर तक खा रही थी।

    “तुम्हारे होंठों की वो हँसी… अब सिर्फ मेरी सज़ा की घंटी बनेगी।”

    वह अचानक अपनी जैकेट की बटन खोलता है, कॉलर ढीला करता है, जैसे अपने भीतर के ज्वालामुखी को ठंडा करने की नाकाम कोशिश कर रहा हो।

    “तुम्हारे हर आँसू से मेरा अपमान धोऊँगा, मीरा।”

    कार की रफ्तार तेज़ हो गई थी, लेकिन कार के भीतर समय जैसे ठहर गया था।

    अमरीश अब अपने फोन को घूर रहा था। उसमें मीरा की एक पुरानी तस्वीर थी — सफेद सूट में, आँखों में काजल, मुस्कान में निर्दोषियत।

    वह कुछ देर देखता रहा… फिर अचानक वह तस्वीर डिलीट कर दी।

    “यहाँ कोई रिश्ता नहीं… सिर्फ बस बदला है।”

    उसके चेहरे पर एक धीमी मुस्कान फैली — विषैली, हिंस्र।

    “तुम्हारे डर… तुम्हारे अपमान… वही मेरा प्रेम है अब। यही मेरी तृप्ति है।”

    एक क्षण को उसने आँखें मूँद लीं — और फिर ज़ोर से ठहाका लगाया।

    “हह! अमरीश से खेल? तुमने सोचा भी कैसे?”

    अब वह खिड़की के बाहर देख रहा था — शहर की रौशनी पास आ रही थी। लेकिन उसके भीतर अंधेरा और गहरा होता जा रहा था।

    “रखैल… इस शब्द से ही तुझे नफ़रत है न, मीरा?”

    “अब यही तेरा नाम है — हर कमरे में, हर नौकर की नज़र में… तुझसे जुड़ी हर बात में।”

    वह अब सीट की टेक से पीछे झुकता है। उसकी टाँगें फैल जाती हैं। जैसे एक साम्राज्य का बादशाह अपने फैसले से संतुष्ट होकर विश्राम कर रहा हो।

    “हर रात जब तुम आईना देखोगी — तुम्हें दिखाऊगा कि तुम सिर्फ एक औरत नहीं… तुम मेरा अभिमान मरोड़ने का दंड हो। और मैं वो न्याय हूँ, जो अपने हाथों से तुम्हें भोगेगा।”

    गाड़ी अब शहर के आलीशान इलाके में दाखिल हो चुकी थी।

    अमरीश ने अंतिम घूंट फ्लास्क से लिया, और उसे वापस जैकेट में रख दिया।

    “अब तुम मेरी हवेली में हो, मीरा। और तुम्हें आज़ादी नहीं मिलेगी — तब तक नहीं, जब तक तुम घुट-घुट कर ये न कह दे कि तुझे मुझसे नफ़रत नहीं… डर लगता है।”

    वह सीधा बैठ गया।

    अब वह तैयार था — नहीं, मीरा के लिए नहीं… अपने ही रचे नरक के रंगमंच पर पहला दृश्य खेलने के लिए।

    कार ने हवेली के बाहर ब्रेक लगाया। लेकिन अमरीश के भीतर जो लपटें थीं, वे अब भी धधक रही थीं।

    “अमरीश वापस आ गया है, मीरा…”

    “…और अब तुम कहीं नहीं जा सकती।”


    अगर यह कहानी आपके दिल को छू गई हो...
    तो एक छोटी-सी गुज़ारिश है...

    मैंने अपने दिल की परतों को और भी कई कहानियों में उतारा है।
    हर कहानी में कुछ अधूरे सपने हैं, कुछ सच्चे जज़्बात, और कुछ ऐसे किरदार —
    जो शायद कहीं न कहीं आपके अपने जैसे लगें।

    अगर इस कहानी ने आपको एक पल के लिए भी रोका हो,
    सोचने पर मजबूर किया हो…
    तो मेरी बाकी कहानियाँ भी आपका इंतज़ार कर रही हैं।

    जाकर ज़रूर पढ़िए…
    क्योंकि शब्दों के उस संसार में —
    शायद कोई और कहानी आपका नाम ले रही हो।

    पढ़ेंगे न?" 🤍📖

  • 9. Married to my obsession - Chapter 9

    Words: 901

    Estimated Reading Time: 6 min

    हवेली में अमरीश की एंट्री

    हवेली के ऊँचे फाटक भारी आवाज़ के साथ खुले — जैसे वक़्त ने फिर से किसी पुरानी सज़ा की किताब का पहला पन्ना पलटा हो। कार धीमे-धीमे भीतर घुसी। बाहर की रोशनी से काली BMW के चमकते बदन पर परछाइयाँ लहराईं, लेकिन कार के भीतर बैठे आदमी की आँखों में सिर्फ एक सीधा लक्ष्य था — हवेली के उस दरवाज़े को फिर से पार करना, जहाँ से नफ़रत ने आख़िरी बार उसे विदा किया था।

    गाड़ी के रुकते ही नौकर दौड़ता हुआ आया — किशन।

    उसने झुककर सलाम किया, पर उसकी आँखों में डर था। नहीं, यह सामान्य सम्मान का डर नहीं था — यह उस इंसान के लौट आने की दहशत थी, जिसे हवेली की दीवारें भी कभी भुला नहीं सकीं।

    “साहब…” किशन की आवाज़ लड़खड़ाई, “आपका स्वागत है।”

    अमरीश ने बिना उसकी ओर देखे दरवाज़ा खोला। पॉलिश किए हुए जूतों ने ज़मीन को छुआ — और हवेली की ज़मीन पर एक बार फिर वह अंधेरा उतर आया, जिससे मीरा भागती रही थी।

    वह आगे बढ़ा — धीमे, सधे हुए क़दम। जैसे हर दीवार को एक बार फिर अपने अधीन करने जा रहा हो।

    अंदर की दीवारें वही थीं, पर उनमें अब एक अजीब-सी खामोशी थी — जैसे हवेली को पता था कि उसका सबसे क्रूर राजा वापस आ गया है।

    सीढ़ियों की ओर बढ़ते वक़्त, उसने अचानक किशन की ओर देखा।

    “मीरा…?”

    सिर्फ एक शब्द। पर किशन के लिए यह किसी हथौड़े जैसा था।

    “साहब, वो… वो ऊपर अपने कमरे में ही रहती हैं। ज़्यादा बाहर नहीं आतीं ।”

    “क्यों?” अमरीश की आँखें सिकुड़ गईं।

    किशन ने एक पल को अपनी नज़रें झुका लीं। “शायद… आपके जाने के बाद, बहुत चुप हो गई हैं। किताबें पढ़ती हैं, खिड़की के पास बैठती हैं। कभी-कभी… रोती भी हैं।”

    अमरीश के होठों पर हल्की मुस्कान आई — वह मुस्कान नहीं, एक संतोष था।

    “अच्छा है। उसे चुप रहना ही चाहिए।”

    वह आगे बढ़ा, पर एक पल को फिर रुका। “किशन, हवेली में बाकी स्टाफ इस वक्त कहाँ है?”

    “वो साहब, सब आराम कर रहे हैं |
    “ठीक है।” अमरीश ने कहा, और फिर सीधे अपने पुराने कमरे की ओर बढ़ गया।



    हवेली का वही कमरा — लेकिन अब और गहरा

    कमरे का दरवाज़ा उसने धीमे से खोला। सब कुछ वैसा ही था, जैसे वह छोड़ गया था। बेड की चादर, सोफे की जगह, वॉर्डरोब में लगी लकड़ी की वही खुरदरी गंध… पर एक चीज़ नई थी — दीवार पर लगी एक तस्वीर… मीरा की।

    सफेद कुर्ते में, खिड़की के पास बैठी — कैमरा शायद चुपके से लिया गया था।

    उसने जाकर तस्वीर को देखा — उंगलियाँ उसके फ्रेम को छूने लगीं, जैसे उस तस्वीर के ज़रिए मीरा की साँसों को महसूस करना चाहता हो।

    फिर उसने अपनी जैकेट उतारी, फ्लास्क बाहर निकाली, और एक लंबा घूंट लिया।

    कमरे की खिड़की से दूर-दूर तक हवेली का पिछला हिस्सा दिखाई दे रहा था। और वो कमरा… जहाँ मीरा थी — बस तीन कमरे दूर।



    मीरा के कमरे में

    कमरे की खिड़की पर बैठी मीरा को अचानक जैसे ठंडी हवा का एक झोंका छू गया। उसने घबराकर पर्दा गिरा दिया।

    फिर धीमे से उठी, अलमारी में रखे एक पुराने डिब्बे से कुछ कागज़ निकाले — वह वही डायरी थी, जिसमें वह अमरीश के जाने के बाद अपने डर, अपने घाव और अपनी उम्मीदें लिखती आई थी।

    लेकिन जैसे ही वह डायरी खोलने लगी — बाहर से किशन की धीमी आवाज़ आई —

    “मैडम… साहब लौट आए हैं।”

    मीरा के हाथ से डायरी गिर पड़ी।

    साँसें जैसे थम गईं।

    “क्या?” उसकी आवाज़ फटी।

    किशन ने धीरे से कहा, “हां, गाड़ी अभी-अभी आई है। सीधे अपने कमरे में गए हैं।”

    मीरा पीछे हट गई — खिड़की से दूर, दीवार से लगकर बैठ गई। उसका दिल बेतहाशा धड़कने लगा।

    उसने खुद से बड़बड़ाना शुरू किया — “नहीं… नहीं… वो वापस नहीं आ सकता। इतना जल्दी नहीं। अभी तो कुछ दो ही हुए हैं।”

    उसके भीतर की लड़ाई अब फिर से शुरू हो गई थी — वही डर, वही छवियाँ, वही रातें जब अमरीश की आँखों में नींद नहीं, क्रूरता होती थी।

    “अब क्या करेगा वो? अब क्या बचा है उसे मुझसे छीनने के लिए?”

    उसकी आँखों से आँसू गिरने लगे। उसने अपना चेहरा अपने घुटनों में छुपा लिया।

    “हे भगवान… मुझे बचा ले… कोई तो रास्ता दिखा… मैं फिर से टूट नहीं सकती।”

    पर उस कमरे की दीवारों को पता था — यह हवेली अब फिर से एक अखाड़ा बनने जा रही है।



    कमरे में एक हलचल

    मीरा ने अपने आप को समेटा — चेहरे को पोंछा। वह अब कुछ सोचने लगी थी — “नहीं, इस बार मैं सिर्फ डरूंगी नहीं। मैं देखूंगी कि अब उसका इरादा क्या है।”

    वह धीरे से उठी, खिड़की के पर्दे को थोड़ा हटाया — सामने वाले कमरे की खिड़की से हल्की सी रौशनी झांक रही थी।

    “वह वहीं है…” मीरा ने खुद से कहा।

    लेकिन उसकी आँखें अब डर के साथ एक सवाल भी पूछ रही थीं — “क्या वह बदला लेने आया है… या मेरी रूह को फिर से कैद करने?”



    अमरीश अपने कमरे में

    वह खड़ा था — ठीक खिड़की के पास, जहाँ से मीरा के कमरे की परछाईं दिखाई दे रही थी।

    उसने देखा — एक हल्का सा परदा हिला, फिर रुका।

    एक छोटी-सी मुस्कान उसके चेहरे पर फैल गई।

    “डर अभी भी वहीं है, मीरा… और यही डर मेरी सबसे बड़ी जीत है।”

    वह वापस पलटा, और कमरे की बत्तियाँ बुझा दीं।

    पर हवेली में, उस रात — एक भी दीवार नहीं सोई।

  • 10. Married to my obsession - Chapter 10

    Words: 1000

    Estimated Reading Time: 6 min

    अध्याय: गिफ्ट की रात — खौफ की दस्तक

    हवेली की हवा में कुछ अलग था उस दिन। जैसे हर चीज़ किसी अनदेखे तूफ़ान के इंतज़ार में स्थिर थी। घड़ियाँ धीमी लग रही थीं, और दीवारों पर लगी पेंटिंग्स जैसे निगाहें फेर चुकी थीं।

    अमरीश अब अपने कमरे में था, सुबह की शराब उतर चुकी थी, लेकिन उसकी आँखों में अब भी नशा था — मीरा को एक बार फिर अपने शिकंजे में देखने का नशा।

    उसके हाथों में एक काले रिबन से बंधा हुआ बॉक्स था — चमकदार, भारी, और भीतर कोई ऐसी चीज़ थी जो सिर्फ गिफ्ट नहीं… एक आदेश थी।

    उसने घंटी बजाई। कुछ ही सेकंड में दरवाज़े पर नौकरानी आ गई — हमेशा मीरा के कमरों में जाती थी।

    “ये ले जा,” अमरीश ने बिना उसकी आँखों में देखे हुए कहा।

    “मीरा को दे देना। और बोलना — यह आज रात की डिनर ड्रेस है। ये पहनना है। बस।”

    नौकरानी ने सिर झुका लिया और धीरे से बॉक्स को थाम लिया। लेकिन तभी अमरीश ने उसे फिर रोका।

    “एक मिनट।”

    उसने ड्रॉअर से एक छोटा-सा सफेद नोट निकाला, उसमें दो लाइनें लिखीं — हाथ की लिखावट जैसे ब्लेड से काटी गई हो।


    “आज रात यही पहनना है। नहीं तो सोच लेना — इस बार सिर्फ आवाज़ नहीं दबेगी, सांसें भी थम जाएँगी।”



    नोट को उसने बॉक्स में रख दिया और उसे नौकरानी को सौंप दिया।

    “जाओ।”



    मीरा का कमरा — खामोशी में कम्पन

    नौकरानी दरवाज़े पर पहुंची, और धीरे से दस्तक दी।

    “मैडम?”

    मीरा किताब पढ़ रही थी, पर अब उसकी आँखें दीवार पर टिकी थीं — जैसे उसे किसी आने वाली आहट का अंदाज़ा हो।

    “हां, आओ।”

    नौकरानी ने दरवाज़ा खोला और बॉक्स को मीरा के बेड पर रख दिया। उसकी आँखें मीरा से मिलाने की हिम्मत नहीं कर पा रही थीं।

    “ये… साहब ने भेजा है। उन्होंने कहा है — आज रात की डिनर ड्रेस है। आपको पहननी है।”

    मीरा के चेहरे से रंग उड़ गया।

    “क्या?” उसकी आवाज़ सूखी थी।

    नौकरानी ने सिर झुकाया — “एक नोट भी है… अंदर है।”

    मीरा ने काँपते हाथों से बॉक्स खोला। भीतर एक गहरी लाल रंग की सिल्क सैक्सी क्ड्रेस थी — बेहद सुंदर, बेहद खुली, और बेहद असहज। उस कपड़े को देख मीरा कि आंखे फैल गई |

    उसके साथ ही वह सफेद कागज़ रखा था।

    मीरा ने उसे उठाया — और जैसे ही उसने पढ़ा, उसकी साँसें थमने लगीं।


    “आज रात यही पहनना है। नहीं तो सोच लेना — इस बार सिर्फ आवाज़ नहीं दबेगी, सांसें भी थम जाएँगी।”



    उसके हाथ से कागज़ छूटकर ज़मीन पर गिर गया।

    वह तुरंत उठी, अलमारी के पास गई, और दीवार का सहारा लेकर बैठ गई। आँखों से आँसू बहने लगे — लेकिन वो चीख नहीं रही थी। वो जानती थी, चीखने से कुछ नहीं बदलेगा।

    “ये सब फिर से शुरू हो रहा है…” वह बड़बड़ाई।

    “नहीं… अब नहीं… मैं ये ड्रेस नहीं पहन सकती। मैं कोई गुड़िया नहीं… कोई साज़िश का हिस्सा नहीं…”

    उसने एक बार फिर ड्रेस को देखा — उसकी लाल चमक अब उसकी आँखों में खून की तरह लग रही थी।



    उधर, अमरीश का कमरा — जीत की तैयारी

    अमरीश अब शीशे के सामने खड़ा था। अपने बाल सलीके से सेट कर रहा था, कोलोन की हल्की बूँदें गले के पास लगाई थीं। हर अंग का संयोजन जैसे किसी शिकारी की सजावट हो — डिनर नहीं, किसी शिकार की अंतिम तैयारी।

    उसने फ्लास्क से एक घूंट लिया और खुद से बुदबुदाया —

    “आज की रात यादगार बनेगी, मीरा।”

    वह आईने में खुद को देखता रहा — आँखों में कुछ ऐसा था जो नफरत और जुनून के बीच की रेखा को मिटा रहा था।

    “अगर तुमने वो ड्रेस नहीं पहनी…” वह रुका, फिर हँसा — “तो आज रात तेरा डर मेरे हर कमरे की दीवारों में गूँजेगा। मैं तुझे वहाँ ले जाऊँगा, जहाँ न रौशनी होगी, न उम्मीद।”

    वह खिड़की की ओर बढ़ा और मीरा के कमरे की ओर देखा।

    “देख रहे हो तुम, मीरा। सोच रही होगी कि क्या करूं, कैसे मना करूं…”

    वह वापस पलटा और कुर्सी पर बैठ गया।

    “पर अब तुम्हें मना करने का हक़ नहीं। तुम्हें बस निभाना है — मेरा हुक्म।”

    उसने फिर से खुद से बातें शुरू कर दीं — जैसे कोई अंदर का शैतान अब खुलकर बोल रहा हो।

    “मैं तुझसे हमेशा से नफरत करता हूँ, मीरा… पर तुमने मुझे चांटा मार अच्छा नहीं किया। अब जो मिलेगा, वह प्रेम नहीं — प्रतिशोध होगा।”

    उसकी उँगलियाँ बाँहों पर खिंच गईं — जैसे अपने ही शब्दों को जकड़ रहा हो।

    “आज की रात… तुम अगर वो ड्रेस नहीं पहनेगी, तो फिर तुम्हें मेरे सामने खड़ा नहीं किया जाएगा — तुम्हें ज़मीन पर घसीटा जाएगा।”



    मीरा — ख़ामोशी की गिरफ़्त में

    मीरा अब अपने कमरे में अकेली थी। ड्रेस बेड पर रखी थी — और वह खिड़की के पास बैठी थी, घुटनों को सीने में समेटे।

    उसके होठ काँप रहे थे, और आँखें उस ड्रेस को घूर रही थीं जैसे वह किसी साँप की तरह धीरे-धीरे उसकी ओर सरक रही हो।

    “क्या मैं फिर से सह लूंगी?” उसने खुद से पूछा।

    “क्या हर बार लड़ने के लिए कुछ बचता है?”

    उसने फिर से खड़ा होने की कोशिश की, पर उसके पैर लड़खड़ा गए।

    “अगर मैंने नहीं पहना… तो?” वह सोच रही थी।

    लेकिन फिर एक ही पल में उसके अंदर दो आवाज़ें लड़ने लगीं — एक कहती, “मत पहनो। अपने आत्मसम्मान की रक्षा करो।”
    और दूसरी फुसफुसाती, “मत पहनो, पर उसके बाद तुम रहेगी कहाँ?”

    वह दीवार से लग गई — जैसे सारी ताक़त बह चुकी हो।



    हवेली की रात — साज़िश की चुप्पी

    रात अब पूरी तरह उतर चुकी थी। हवेली की बत्तियाँ जल चुकी थीं। किचन में धीमी आवाज़ें थीं — डिनर की तैयारी चल रही थी।

    नौकरानी अब फिर मीरा के दरवाज़े पर थी।

    “मैडम, साहब ने पूछा है — आप तैयार हैं?”

    मीरा ने दरवाज़ा नहीं खोला। अंदर से सिर्फ एक जवाब आया —

    “बोल देना, मैं आ जाऊँगी।”

    पर नौकरानी ने अंदर से कुछ सुना — जैसे किसी के रोने की आवाज़।

    वह समझ गई — गिफ्ट सिर्फ एक ड्रेस नहीं था… एक हथकड़ी थी।

  • 11. Married to my obsession - Chapter 11

    Words: 670

    Estimated Reading Time: 5 min

    मीरा का कमरा — एक बंद क़ैदखाना बन चुका था। हर कोना जैसे सिसकियाँ भर रहा हो। बाहर हवाओं की सिसकती सरसराहट, और भीतर दीवारों पर जमा हुआ डर। खिड़की से छनती चाँदनी उसके पीले पड़ चुके चेहरे पर एक अजीब-सी चमक बिखेर रही थी — वो चमक नहीं, कोई सज़ा थी।

    बेड पर पड़ी ड्रेस अब भी वहीं थी — एक वेस्टर्न, डीप नेक, बैकलेस रेड सिल्क ड्रेस — इतनी छोटी कि मीरा को खुद से नज़रें चुरानी पड़ रही थीं। उस पर ब्लैक हिल्स और लाल लिपस्टिक भी रखी थी। जैसे ये सब उसे किसी के ‘दूसरे मनोरंजन’ के लिए तैयार करने का सामान हो।

    ड्रेस नहीं — एक बदनुमा इरादा था।

    वो काँपती साँसों के साथ घुटनों में चेहरा छुपाए बैठी थी। हर बार की तरह इस बार भी वही सवाल उसके दिल के गहरे कुएँ से उठ रहा था —

    "क्या फिर झुक जाऊँ? क्या फिर मिटा दूँ खुद को किसी की मरज़ी के आगे?"

    तभी...

    दरवाज़ा ज़ोर से खुला।

    “ओ सुनती नहीं क्या तू? कितनी बार आवाज़ दी, औरत!” — आवाज़ वही थी, जो कभी मीठी लगती थी… पर अब ज़हर थी।

    देवयानी।

    हमेशा जैसे उसमें किसी माँ की ममता नहीं, बल्कि किसी कसाई की सख़्ती थी। चेहरा कठोर, आँखों में तेज़, चाल में हुक़ूमत।

    मीरा ने सर उठाया। होंठ फड़फड़ा उठे, “आप…?”

    “हाँ, मैं ही! अब चुपचाप उठ! ये पहन और नीचे चल! साहब इंतज़ार कर रहे हैं।” — उसने बेड से ड्रेस उठाई और हवा में झटका दिया। रेशमी कपड़ा जैसे चाबुक की तरह फड़का।

    मीरा पीछे हट गई — जैसे वो कपड़ा नहीं, आग हो।

    “नहीं… ये नहीं पहन सकती… प्लीज़…” उसकी आवाज़ काँप रही थी।

    "बड़ी माशूक़ा बनने चली है!” — देवयानी ने आगे बढ़कर उसका चेहरा कसकर थामा — “तुझे क्या लगता है, साहब तेरी नज़रों की मासूमियत पर फिदा हैं? नहीं री, उन्हें सिर्फ ‘डॉल’ चाहिए — खेलने के लिए।”

    मीरा ने रोते हुए कहा — “मुझे मत छूइए… मैं नहीं कर सकती ये सब… मैं नहीं हूँ ऐसी…”

    “ऐसी?” — देवयानी हँसी — ज़हर भरी, जलती हुई। “ये ड्रेस देख! हक़ीकत है तेरी! ये बता रही है कि तू क्या बन चुकी है — एक खूबसूरत शोपीस!”

    वो ड्रेस लेकर आगे बढ़ी। मीरा ने एक बार फिर खुद को बचाने की कोशिश की, पर देवयानी ने उसका हाथ झटक कर उसे बेड पर गिरा दिया।

    “इतनी भी मासूम मत बन, सब जानती हूँ — तुझे भी शौक है वो लाइमलाइट का, बस डरती है कि बदनाम न हो जाए।”

    मीरा फूट पड़ी — “प्लीज़… ये मत कहिए… मैं बस… मैं बस अपने शरीर से भागना चाहती हूँ…”

    “अब भागने का वक़्त नहीं बचा! अब तुझे वही बनना है, जो साहब चाहते हैं।”

    देवयानी ने उसकी बाँहें खींचकर ऊपर उठाईं। वो ड्रेस अब मीरा की देह पर जबरन डाली जाने लगी। मीरा काँप रही थी — कपड़े उसके आत्मसम्मान को चीर रहे थे।

    पीठ खुली थी, छाती आधी ढँकी — हर कट, हर लाइन जैसे उसकी आत्मा पर खिंची जा रही थी।

    देवयानी ने उसके बाल खोले, कंघी चलाई, होंठों पर जबरन लिपस्टिक लगाई — और ज़बरदस्ती उसे आईने के सामने खड़ा कर दिया।

    “अब देख — बन गई न साहब की पसंद?”

    मीरा के होंठों से कोई शब्द नहीं निकला। आँखों में पानी था, पर वो आँखें अब खुद को नहीं देख पा रही थीं।

    आईने में एक औरत खड़ी थी — सेक्सी, सजी हुई, मगर टूटी हुई।

    मीरा बुदबुदाई — “ये मैं नहीं हूँ… ये मैं नहीं हूँ…”

    देवयानी ने उसकी बाँह कसकर पकड़ी। “अब तू चाहे जो समझ, साहब को बस यही चाहिए। अब चल! देर हो रही है — नहीं तो वो खुद ऊपर आ जाएँगे। फिर समझ लेना — ये लिपस्टिक और ड्रेस तूझे खुद पहनाएगे।”

    मीरा थरथराते क़दमों से दरवाज़े की ओर बढ़ी।

    देवयानी ने उसकी पीठ पर एक झटका मारा, “सीधी चल — मुस्कुरा के! वरना तेरे आँसू गीले कम्बल की तरह बदबू देंगे — और साहब को बदबू पसंद नहीं।”

    और मीरा चल पड़ी… एक जल्लाद के बनाए रास्ते पर… अपनी आवाज़, अपनी पहचान और अपनी देह — सब छोड़ कर।

  • 12. Married to my obsession - Chapter 12

    Words: 867

    Estimated Reading Time: 6 min

    हवेली के कॉरिडोर में

    हवेली की लंबी, पुरानी दीवारों से होते हुए एक पतला-सा कॉरिडोर नीचे डाइनिंग हॉल की ओर जाता था। सन्नाटा इतना गहरा था कि कदमों की आहट भी वहाँ अपना सिर झुका कर निकलती।

    देवयानी ने मीरा का हाथ कसकर पकड़ रखा था, जैसे वह कोई दोषी हो और ये गलियारा उसकी सज़ा की पहली सीढ़ी।

    मीरा की चाल लड़खड़ा रही थी। उसकी आंखों में आँसू थे, और बदन पर वो ड्रेस — जो उसके लिए किसी कैद की तरह थी। हर कदम पर वो महसूस कर रही थी कि उसके कपड़े नहीं, उसकी रूह उतारी जा चुकी है।

    कॉरिडोर में चलते हुए रमा ने नज़रें आगे रखीं, लेकिन होंठ ज़हर उगलने लगे।

    “बहुत नसीब वाली है तू… इतनी बड़ी हवेली… और वक़्त से पहले ही साहब के बिस्तर तक पहुँच गई। बाकी लड़कियाँ तो बरतन घिसते-घिसते बूढ़ी हो जाती हैं।”

    मीरा चुप रही, उसकी नज़रे ज़मीन पर थीं।

    “लेकिन तू तो सीधी कमरे से निकली और सीढ़ियाँ चढ़ गई… मालकिन बनने चली है?”

    मीरा ने धीमे से कहा, “मैंने कभी कुछ नहीं चाहा… बस… बस चैन से जीना चाहा…”

    देवयानी हँसी — वो हँसी नहीं, किसी तेज़ छुरी की धार थी।

    “चैन? इस हवेली में तेरे जैसे लोगों के लिए सिर्फ़ दो चीज़ें होती हैं — या तो बिस्तर… या बासी जूठे बर्तन। और तूने तो बिस्तर का रास्ता चुना है।”

    मीरा काँप गई। उसने चाहा कुछ कहे, कुछ समझाए। लेकिन शब्द जैसे उसके गले में अटक गए।

    “तू सोचती होगी तू कोई खास है, है न?” रमा ने रुककर उसे आँखों में घूरा — “ साहब ने तुझसे मीठे बोल बोले, तो तूने मान लिया कि तू अब उनकी रानी है? अरे बेवकूफ लड़की — तू सिर्फ़ वक़्त काटने का ज़रिया है! कल कोई और आ जाएगी, और तू… तू वापस उसी गंदे स्टोर रूम में!”

    मीरा ने कुछ हिम्मत की, “आप क्यों मुझे इतना नीचा दिखा रही हैं? मैंने आपका क्या बिगाड़ा है?”

    देवयानी ने अपनी कपड़े ठीक किया, जैसे उसे गंदगी से बचाना हो।

    “बिगाड़ा? तूने मेरी मेहनत का, मेरी वफादारी का मज़ाक बना दिया! सालों से इस हवेली में हूँ… दिन-रात खटती रही, मालिक के हर हुक़्म पर हाज़िर… पर कभी एक नज़र भी नहीं मिली उन आँखों से। और तू? तू आई और बिस्तर में जगह पा ली!”

    मीरा अब रुक गई थी, उसका चेहरा घृणा और असहायता से भर चुका था।

    “तो आपकी नफ़रत मेरी वजह से नहीं… आपकी अधूरी चाहत की वजह से है…” मीरा ने धीमे पर ठहरते हुए शब्दों में कहा।

    देवयानी के चेहरे पर एक पल को खामोशी आई, फिर वो फूट पड़ी — “बदज़बान! मुँह लगाना सीख गई है? तुझे पता है तेरी औक़ात क्या है? तू इस हवेली में सिर्फ़ एक रखैल है — अमरीश की रखैल! एक कपड़े की गुड़िया, जिसे सजाया जाता है, दिखाया जाता है, और फिर फेंक दिया जाता है!”

    मीरा की आँखों में आँसू थे, लेकिन इस बार वो रो नहीं रही थी — वो बस देख रही थी… जैसे एक कटघरे में खड़ी हो और सामने खड़ी गवाही इंसाफ़ नहीं, अपमान के काँटे बो रही हो।

    “आपको अगर इतना ही दर्द है… तो आप अमरीश से क्यों नहीं लड़तीं? क्यों नहीं पूछतीं उन्हें कि सालों की वफादारी क्यों बेकार गई?” मीरा की आवाज़ काँप रही थी, लेकिन उसमें पहली बार आत्मा की लपट थी।

    देवयानी एक पल को झिझकी — फिर उसके चेहरे पर अजीब-सी मुस्कान आ गई। “मैं उनसे नहीं लड़ सकती… वो मालिक हैं। लेकिन तुझसे? तुझसे तो हर रोज़ लड़ूँगी… क्योंकि तू मेरी हार की वजह बन गई है।”

    कॉरिडोर का वो आख़िरी मोड़ अब करीब था। मीरा जानती थी कि कुछ ही कदमों में वो उस टेबल के सामने होगी, जहाँ उसे सिर्फ एक चीज़ दिखानी है — अपनी ‘सजावट’।

    लेकिन इस मोड़ से पहले… कुछ टूट रहा था।

    मीरा ने रुककर दीवार को थाम लिया, आँखें बंद कीं।

    “आप चाहे जितना कह लें… चाहे जितनी बार मेरा नाम गंदा करें… लेकिन एक बात आप जान लीजिए — मैंने जो झेला है, वो किसी रखैल का हिस्सा नहीं होता। मैंने हर रात अपने आत्म-सम्मान को मरते देखा है… और फिर सुबह उसी को अपनी आँखों से छूने की कोशिश की है।”

    देवयानी ने नज़रे फेर ली। “बहुत बड़ी शायरा बन गई है तू! चल, अब ये सब बातें साहब के सामने करना — तब देखेंगे कि क्या तेरे आँसू उन्हें रोक पाते हैं।”

    और कहकर उसने मीरा की कलाई खींची। लेकिन अब मीरा थोड़ी थमी नहीं… उसने खुद को सीधा किया।

    उसकी चाल अब लाचार नहीं थी — बोझिल थी, मगर सीधी।

    देवयानी ने एक आखिरी जली-कटी बात फेंकी — “सज-धज के चल… कम से कम लगना तो चाहिए कि तू इस लायक है!”

    मीरा ने उसकी ओर पलट कर देखा —

    “सजावट के पीछे कितना टूटा चेहरा है, ये आप क्या जानें… आप तो उस औरत को देखती हैं, जो जगह ले गई… पर वो नहीं देखतीं, जो हर रात टूटती है।”

    उनकी बातें वहीं कॉरिडोर के मोड़ पर रुक गईं।

    और मीरा — अब डाइनिंग हॉल की ओर बढ़ रही थी, हर कदम के साथ अपनी आत्मा को समेटे… तैयार, शायद अपमान के एक और दौर के लिए… पर अब उसके भीतर एक औरत खड़ी हो चुकी थी।

    एक औरत — जिसे जली-कटी बातों से नहीं जलाया जा सकता।

  • 13. Married to my obsession - Chapter 13

    Words: 949

    Estimated Reading Time: 6 min

    अध्याय: नज़रों की चुप भाषा

    डाइनिंग हॉल की रोशनी धीमी थी। झूमर की परछाइयाँ दीवारों पर अजीब सी आकृतियाँ बना रही थीं। हवेली का यह हिस्सा जितना भव्य था, उतना ही ठंडा भी… और उस ठंडक में, सबसे अकेला था अमरीश।

    वो एक लम्बी, लकड़ी की कुर्सी पर बैठा था — उसका कोट अब भी उसकी चौड़ी कंधों से लटक रहा था। सामने मेज़ पर सजाए गए चमचमाते बर्तन और खाली प्लेटें थीं। वाइन का गिलास आधा भरा हुआ था, और उसकी उँगलियाँ उस गिलास की डंडी पर नज़ाकत से घूम रही थीं।

    वो इंतज़ार कर रहा था… बेताबी से नहीं, पर जैसे किसी आदत के तहत।

    और तभी…

    कॉरिडोर के सन्नाटे को चीरती मीरा की परछाईं दरवाज़े की देहलीज़ पर ठिठकी।

    अमरीश ने सर उठाया।

    वो आ गई थी।

    मीरा।

    रेशमी ड्रेस में लिपटी, काँपती-सी… मगर खुद को सम्भाले हुए।

    उसकी चाल धीमी थी, लेकिन सिर झुका नहीं था। उसने नज़रे सीधे नहीं मिलाई, लेकिन उसने आँखें बंद भी नहीं की।

    अमरीश की आँखों में एक क्षण को स्थिरता आ गई।

    वो उसे देखता रहा — जैसे कोई चित्रकार एक अजीब पेंटिंग को देखता है, जिसमें रंग तो साधारण हैं, पर कुछ ऐसा है… जो नज़र टिक जाने को मजबूर करता है।

    “आ गईं?” उसने बहुत हल्के स्वर में कहा, जैसे कोई ऊँचा स्वर इस पल की नाज़ुकता को तोड़ देगा।

    मीरा ने हल्की-सी गर्दन हिलाई।

    “बैठो,” अमरीश ने सामने कुर्सी की ओर इशारा किया।

    मीरा ने झिझकते हुए कदम बढ़ाए और चुपचाप कुर्सी खींचकर बैठ गई। दोनों के बीच महज़ एक मेज़ थी — मगर फासला, जैसे किसी समुद्र-सा।

    कुछ देर तक सन्नाटा छाया रहा। हवा, झूमर और दीवारें — सब इस चुप्पी का हिस्सा बन चुके थे।

    अमरीश ने वाइन का एक घूंट लिया, फिर मीरा की ओर देखा।

    “तुम्हें ड्रेस ठीक नहीं लगी?” वो हल्के से मुस्कराया।

    मीरा की आँखें एक पल के लिए उठीं, फिर झुक गईं। “जो पसंद था… वो चुनने का हक नहीं था।”

    उसके स्वर में कोई तीखापन नहीं था, बस एक सच्चाई थी — सीधी और नंगे पाँव।

    अमरीश ने थोड़ी देर सोचा, फिर हल्के से हँसा — “तुम्हारी ये आदत अच्छी है… बात कह देती हो, बिना सजाए।”

    मीरा ने कोई जवाब नहीं दिया। उसकी उंगलियाँ मेज़ के नीचे कपड़े को मसल रही थीं।

    “डर तो नहीं लगा आने में?” उसने फिर पूछा।

    मीरा ने धीमे से कहा, “डर अब जाता नहीं… बस आदत हो जाती है।”

    अमरीश अब भी उसकी आँखों को पढ़ने की कोशिश कर रहा था — जैसे कुछ छिपा हो वहाँ… कुछ ऐसा जो खुद उसे भी समझ नहीं आ रहा।

    “तुम अलग हो,” वह बुदबुदाया, जैसे खुद से कह रहा हो।

    मीरा ने सिर उठाया। “कैसे?”

    “पता नहीं… बाकी लोग जब इस हवेली में आते हैं, तो या तो ज़मीन देख कर झुक जाते हैं… या झूमर देख कर उड़ने लगते हैं। लेकिन तुम… तुम बस चल रही हो। जैसे न ज़मीन का डर है, न उड़ने का लालच।”

    मीरा ने नज़रे हटाईं। “कभी-कभी कोई रास्ता नहीं बचता… तो चलना ही पड़ता है।”

    अमरीश अब मुस्कुरा नहीं रहा था।

    “तुम्हें ये सब पसंद नहीं है… ये ड्रेस… ये रात… ये मेज़…”

    “नहीं,” मीरा ने सिर हिलाया। “लेकिन नापसंद करने से कोई चीज़ बदलती नहीं है।”

    उसके चेहरे पर अब भी वही मासूम थकावट थी — एक ऐसी शांति, जो तूफानों से गुजरकर आती है।

    “तुम्हारे जैसे लोग… कम मिलते हैं,” अमरीश ने कहा, उसकी आँखों में हल्का धुआँ तैरने लगा।

    मीरा ने चौंककर उसकी ओर देखा — “आपके जैसे लोग तो रोज़ मिलते हैं।”

    उसका स्वर बहुत धीमा था, लेकिन उसमें एक अजीब-सी तल्ख़ी थी — बिलकुल वैसी जैसी पिघले हुए शीशे में होती है।

    अमरीश ने कोई जवाब नहीं दिया। वो बस वाइन का गिलास खाली करता रहा, और धीरे-धीरे उसकी उँगलियाँ फिर उसी ग्लास की डंडी पर घूमने लगीं।

    मेज़ पर खाना परोसा गया। चाँदी की प्लेटें, कीमती कटलरी, और वो सब कुछ जो अमीरी की पहचान होता है।

    लेकिन दोनों की भूख जैसे कहीं और मर चुकी थी।

    मीरा ने धीरे-धीरे खाने की ओर देखा — फिर एक टुकड़ा काटा, बिना स्वाद के मुँह में रखा।

    अमरीश उसे देखता रहा।

    वो कोई प्रेम नहीं था, कोई करुणा नहीं… बस एक अजीब-सा खिंचाव था — जैसे कोई अधूरी कहानी, जिसकी शुरुआत बिना जाने भी कोई पन्ना पलटना चाहता हो।

    कुछ देर बाद अमरीश ने कहा, “अगर तुम्हें ये सब अच्छा नहीं लगता, तो तुम भाग क्यों नहीं जाती?”

    मीरा ने मुस्कराने की कोशिश की — वो मुस्कान नहीं थी, किसी टूटे आईने का टुकड़ा था।

    “कहाँ भागूं? भाग कर भी कोई लौटता है। कम से कम यहाँ… मुझे पता तो है, किस दर से चोट मिलेगी।”

    अमरीश ने पहली बार उसकी आँखों में कुछ महसूस किया — नज़रों का एक सवाल, जो शायद उसके लिए नहीं… खुद मीरा के अंदर के डर के लिए था।

    “तुम मुझसे डरती हो?” उसने पूछा।

    मीरा ने थोड़ा सिर झुकाया।

    “आपसे नहीं… पर आप जैसे लोगों से, जो किसी की हदें नहीं समझते।”

    उसने ये बात बहुत हल्के से कही, लेकिन वो शब्द जैसे मेज़ के पार बैठे आदमी की धड़कनों तक पहुँच गए।

    अमरीश ने गहरी साँस ली, कुर्सी से थोड़ी पीठ टिका दी।

    “आज की रात सिर्फ़ तुम्हारे आने के लिए थी,” वो बोला।

    मीरा ने फिर उसकी ओर देखा।

    “तो अब क्या?”

    “अब… कुछ नहीं,” अमरीश ने कहा, “मैं बस देखना चाहता था… कि तुम कैसे लगती हो, जब तुम्हें किसी और ने नहीं, बल्कि हवेली ने तैयार किया हो।”

    मीरा उठने लगी। उसकी चाल अब भी सीधी थी, लेकिन थकी हुई।

    “तो अब आपने देख लिया।”

    अमरीश ने सिर हिलाया। “हाँ। और यकीन करो… अब और देखने का मन नहीं।”

    मीरा चुप रही। उसने एक आखिरी बार उसकी ओर देखा — जैसे कोई परछाईं में खड़ा आदमी, जिसे रोशनी छू नहीं सकती।

  • 14. Married to my obsession - Chapter 14

    Words: 895

    Estimated Reading Time: 6 min

    अध्याय: ज़हर की परोस

    चाँदी की प्लेटों में खाना परोसा जा चुका था। डाइनिंग टेबल की रोशनी मीरा के चेहरे पर पड़ रही थी — वो अब भी झुकी नज़रों के साथ बैठी थी, जैसे खुद को मेज़ का हिस्सा बना देना चाहती हो।

    अमरीश अपनी कुर्सी पर फैलकर बैठा था। उसकी आँखें मीरा पर थीं — ठंडी, नपी-तुली, और कुछ अजीब सी खींचती हुई।

    “खाओ,” उसने कहा, अपनी उँगलियों से एक कांटा उठाते हुए, “तुम भूखी लग रही हो।”

    मीरा ने प्लेट की ओर देखा। घी में लिपटी सब्ज़ियाँ, चिकन की महक और महंगे चावल की सोंधी ख़ुशबू — लेकिन हर निवाला जैसे दिल को चीरकर गुज़रता हो।

    उसने कांटा उठाया, पर हाथ काँप रहा था।

    “नहीं पसंद?” अमरीश ने पूछा — उसका स्वर नरम नहीं था, बल्कि किसी शिकारी की तरह तौलता हुआ।

    मीरा ने धीमे से सर हिलाया। “भूख… नहीं है।”

    “भूख नहीं है या स्वाद नहीं आया?” अमरीश ने मुस्कराते हुए उसकी ओर झुकते हुए पूछा।

    मीरा का चेहरा हल्का स्याह पड़ गया। उसने जवाब देना चाहा, लेकिन शब्द गले में अटक गए।

    अमरीश ने अपना कांटा प्लेट पर रखा और सीधे उसकी आँखों में झाँकते हुए कहा, “तुम्हें किसी ने सिखाया नहीं कि इस मेज़ पर मौन भी बदतमीज़ी मानी जाती है?”

    मीरा की आँखें फटी रह गईं। वो कुछ कहना चाहती थी, पर खुद को सँभालते हुए बस धीरे से बोली, “मैं कुछ गलत नहीं कहना चाहती…”

    “तो तुम सही भी नहीं कहतीं,” अमरीश हँसा, मगर उस हँसी में कटाक्ष था — कोई तेज़ चाकू जो बोलने से रोकता हो।

    वो फिर से खाना खाने लगा, लेकिन निगाहें अब भी मीरा पर टिकी थीं।

    “कभी सोचा है,” उसने कहा, “कि तुम्हें यहाँ लाया क्यों गया?”

    मीरा ने कुछ नहीं कहा।

    “शायद इसलिए,” अमरीश ने अपनी वाइन उठाते हुए कहा, “क्योंकि तुम दिखती हो… मासूम। लेकिन अंदर से पता नहीं क्या हो।”

    वह गिलास होंठों से लगाता है, मीरा चुपचाप अपनी प्लेट के एक कोने में कांटे से कुछ चुभोती रही।

    “कभी किसी आदमी को इतना गुस्सा आया है,” अमरीश ने फिर बोलना शुरू किया, “कि उसने सिर्फ इसीलिए किसी लड़की को अपने पास रख लिया हो — क्योंकि उसकी खामोशी बहुत तेज़ आवाज़ करती थी?”

    मीरा की उंगलियाँ कांटे पर कसीं।

    “मैं कोई आवाज़ नहीं हूँ…” वह धीमे से बुदबुदाई।

    “नहीं हो?” अमरीश ने ज़ोर से हँसते हुए कहा। “तुम्हारी खामोशी मेरे कानों में हथौड़े जैसी बजती है।”

    मीरा का चेहरा अब स्याह हो गया था। उसने सिर झुका लिया, और पहला निवाला मुँह में डाला। खाने का स्वाद जैसे किसी जलती राख की तरह था — न निगला जा रहा था, न उगला।

    “तुम्हारी आंखें…” अमरीश ने कहते-कहते अपनी प्लेट में से एक टुकड़ा उठाया, “मुझे परेशान करती हैं।”

    मीरा चौंकी।

    “क्यों?” उसने पहली बार बिना डरे पूछा।

    “क्योंकि उनमें कोई डर नहीं है… और मैं डर देखना पसंद करता हूँ,” अमरीश ने ठंडे स्वर में कहा।

    मीरा की साँस अटक गई।

    कुछ देर तक दोनों बिना बोले खाना खाते रहे। लेकिन वह चुप्पी भारी थी — किसी आंधी के पहले की तरह।

    “कभी तुम्हें लगता है कि तुम इस सबके लायक नहीं हो?” अमरीश ने अचानक पूछा।

    मीरा ने तुरंत उत्तर नहीं दिया। फिर बहुत धीरे से बोली, “हर रोज़ लगता है।”

    “तो क्यों नहीं भागती?”

    मीरा की पलकों में एक नमी चमक गई।

    “क्योंकि भागने के लिए कोई रास्ता बचा नहीं।”

    अमरीश ने कुछ नहीं कहा। उसने वाइन का गिलास खाली किया और एक लंबी साँस ली।

    “तुम्हें कोई तो होगा, जिसे तुमने छोड़ा होगा वहाँ पीछे?” उसकी आवाज़ अब गहराने लगी थी।

    मीरा ने होंठ भींच लिए। “कभी-कभी लोग छोड़ देते हैं… और हम उन्हें पीछे नहीं छोड़ पाते।”

    उसने कुछ और खाना मुँह में डाला, लेकिन निगलते हुए जैसे गले में काँटे अटक गए।

    अमरीश ने हाथ मेज़ पर रखा, उसकी उंगलियों की थाप बहुत धीमी थी — जैसे कोई ताल दे रहा हो किसी पुरानी धुन को।

    “तुम मेरी हवेली में हो,” उसने कहा, “इसका मतलब तुम अब मेरी चीज़ हो।”

    मीरा ने अपनी साँस रोक ली।

    “मैं चीज़ नहीं हूँ,” उसके शब्द बमुश्किल निकले।

    “ये मत कहो,” अमरीश ने मुस्कराकर कहा, “क्योंकि चीज़ें आवाज़ नहीं करतीं — और तुम कर रही हो।”

    मीरा ने काँपते हाथों से गिलास उठाया, लेकिन पी न सकी।

    “अगर मैं भाग जाऊँ…?” उसने सवाल किया।

    “तो ढूँढ कर लाया जाऊँगा,” अमरीश ने नज़रों में सख्ती लाकर कहा।

    “अगर मैं मर जाऊँ…?”

    अमरीश मुस्कराया, मगर उसकी आँखें अब भी सख़्त थीं।

    “तो तुम्हारी कब्र पर वो ड्रेस टाँग दूँगा जो आज पहनी है… ताकि सब जानें, तुम किसके लिए जिंदा रहीं।”

    मीरा का चेहरा बुझ गया। उसने थाली की ओर देखा — खाना अब भी अधूरा था, लेकिन भूख जैसे अब खत्म नहीं, बल्कि सो चुकी थी।

    अमरीश अब चुप था। उसकी आँखें मीरा पर टिकी थीं — जैसे वो हर जवाब की परतों को चीरना चाहता हो, मगर किसी वजह से रोक लेता हो।

    वह कुर्सी से उठा। उसका भारी शरीर जब हिला, तो झूमर की रौशनी भी जैसे थरथरा गई।

    “तुम्हें समझना होगा” उसने उसके पास आकर झुकते हुए कहा, “मैं अच्छा आदमी नहीं हूँ… और तुम भाग्यशाली नहीं हो।”

    मीरा ने उसकी आँखों में देखा — उनमें गुस्सा था, तिरस्कार था… और साथ में वो कशिश, जो मीरा को डरा भी रही थी और जकड़ भी रही थी।

    “पर मैं अब डरती नहीं,” मीरा ने फुसफुसाते हुए कहा।

    “ये मत भूलो,” अमरीश ने धीमे स्वर में चेताया, “जो डरता नहीं… वो तोड़ दिया जाता है।”

  • 15. Married to my obsession - Chapter 15

    Words: 861

    Estimated Reading Time: 6 min

    अध्याय: शब्दों की आग

    डाइनिंग हॉल की दीवारों पर फैली रोशनी अब धीमी हो चली थी। मीरा की थाली अब भी वैसी ही थी — अधूरी, ठंडी, जैसे कुछ भी निगल पाना उसके वश से बाहर था। अमरीश अब भी टेबल पर बैठा था, अपनी कोहनी टिकी हुई, हाथ में काँटा थामे, मगर उसकी नजर मीरा पर थी — एक शिकारी की तरह, जो शिकार के किसी छोटे से इशारे का इंतजार कर रहा हो।

    “तुम्हें पता है,” उसने एक निवाला उठाते हुए कहा, “तुम्हारी ये चुप्पी मुझे बेवकूफ नहीं बना सकती।”

    मीरा ने नज़र उठाई — बस एक पल के लिए — और फिर वापस झुका ली।

    “कभी-कभी चुप्पी सबसे तेज़ आवाज़ होती है,” उसने बहुत धीमे कहा।

    अमरीश हँसा। हँसी में वो गर्मी नहीं थी, बल्कि लहू को ठंडा कर देने वाली बर्फ थी।

    “दिलचस्प बात है,” उसने कहा, “पर यहाँ मेरी मेज़ पर, तुम्हारी आवाज़ से ज़्यादा मेरी मर्ज़ी की कीमत है।”

    मीरा ने थाली से एक चावल का दाना उठाया, उसे अंगुलियों में घुमाते हुए बोली, “आपके पास ताक़त है, हाँ… लेकिन शायद इंसानियत नहीं।”

    उसके शब्द नर्म थे, मगर सीधा वार करते हुए।

    अमरीश की आँखों में एक चमक उभरी — जैसे किसी ने उसकी त्वचा को चीरने की कोशिश की हो।

    “इंसानियत?” उसने दाना चबाते हुए कहा, “उसकी कब्र मैंने बहुत पहले खोद दी थी — और वो भी अपने ही हाथों से।”

    मीरा चुप रही।

    “तुम जानती हो, मीरा,” वह आगे झुका, “मैंने बहुत औरतें देखी हैं… लेकिन उनमें से किसी ने भी इतनी हिम्मत नहीं दिखाई कि मेरी आँखों में देख सके।”

    “शायद उन्होंने आपकी आँखों में झाँकने की हिम्मत इसलिए नहीं की क्योंकि वहाँ सिर्फ डर था, मोह नहीं,” मीरा ने साफ़ शब्दों में कहा।

    वो पल एकदम ठहर गया।

    अमरीश की उँगलियाँ थाली पर थम गईं। उसकी आँखें अब मीरा पर टिक चुकी थीं — बर्फ की दो धारियाँ, जो सीधा उसके सीने को चीर रही थीं।

    “तुम्हें लगता है कि मैं कोई अधूरा आदमी हूँ?” उसने पूछा — अब उसका स्वर धीमा था, पर नुकीला।

    “मुझे लगता है,” मीरा बोली, “कि आप अधूरी औरतों को पूरा करने की कोशिश करते हो, ताकि अपनी कमी छुपा सको।”

    अमरीश की हँसी गूंज उठी — लेकिन वो हँसी एक चेतावनी थी, जैसे कोई दरवाज़ा बंद हो रहा हो।

    “तुम्हें नहीं पता, किससे बात कर रही हो,” उसने कहा।

    “मुझे पता है। उसी आदमी से जो जब भी आईने में देखता है, तो खुद से डर जाता है।”

    इस बार अमरीश ने अपना गिलास ज़ोर से मेज़ पर रखा। मीरा थोड़ी काँपी, लेकिन फिर भी उसकी आँखें नहीं झुकीं।

    “तुम्हारी ये जुबान… मैं चाहूं तो अभी काट सकता हूँ,” उसने फुसफुसाकर कहा।

    “और मैं चाहूं तो इसे सील भी कर सकती हूँ… लेकिन तब आप फिर अकेले रह जाएंगे — अपनी गूंगी हवेली के साथ।”

    अमरीश एक पल को जैसे रुक गया।

    उसने गहरी साँस ली और वाइन का एक घूंट भरा, फिर टेबल के उस पार देखता रहा।

    “तुम्हें लगता है, मैं अकेला हूँ?” उसने कहा।

    मीरा ने उसकी आँखों में झाँकते हुए जवाब दिया — “आप अंदर से एक खंडहर हैं। बस बाहरी दीवारें अभी टूटी नहीं हैं।”

    वो अब खुलकर उसकी ओर देख रही थी।

    अमरीश ने अपना काँटा प्लेट पर रख दिया।

    “तुम्हें क्या लगता है, इस सबके बाद भी मैं तुम्हें छोड़ दूँगा?” वह बोला।

    “मुझे कोई भ्रम नहीं है,” मीरा ने शांति से कहा, “मैं आपके पिंजरे में हूँ — पर ये पिंजरा चाहे जितना भी सुंदर हो, उसका असल मतलब बंदिश ही होता है।”

    “बंदिश?” अमरीश ने सिर झुकाते हुए कहा, “ये हवेली बंदिश है? ये खाना, ये कपड़े, ये मेज़ — सब ज़ंजीर हैं?”

    मीरा ने उसकी ओर देखा, उसकी आवाज़ में अब वो दर्द था जिसे उसने बहुत देर से छुपा रखा था।

    “हाँ… क्योंकि ये सब चीज़ें जबरन दी गईं। जब किसी के शरीर से पहले उसकी आत्मा पर हक जमाया जाए, तो बाकी सब महज दिखावा होता है।”

    अमरीश ने टेबल की एक तरफ देखा — जैसे कोई अनकहे सवाल उसे कचोट रहे हों।

    फिर वह खड़ा हो गया।

    “तुम बहुत बोलने लगी हो,” उसने सख़्ती से कहा।

    “क्योंकि आप सुनने लगे हैं,” मीरा का जवाब सीधा था।

    वो उसे घूरता रहा — कुछ पल — फिर धीमे से पास आया। उसका चेहरा अब मीरा के बहुत करीब था।

    “तुम मेरी कैद में हो, मीरा,” उसने धीरे से कहा, “और ये कैद तुम्हारी साँसों से भी गहरी है। मत भूलो — ये मेरा क़ायदा है, और यहाँ मेरी जुबान आख़िरी होती है।”

    मीरा ने बिना झुके कहा, “और जुबान से पहले कभी-कभी आत्मा फैसला ले लेती है।”

    दोनों की आँखें टकराईं — आग और राख की तरह।

    और फिर अमरीश एकाएक पीछे हटा।

    “कल सुबह छह बजे नीचे आ जाना,” उसने मुड़ते हुए कहा, “मैं तुम्हें दिखाना चाहता हूँ कि कैद में भी कौन-सी ‘आज़ादी’ सबसे ज्यादा चुभती है। लेकिन उससे पहले बिस्तर पर मिलेगे तुम मेरा इंतजार करना और आज कोई रहम नहीं होगा | ”

    वह चला गया।

    मीरा अकेली रह गई — मगर इस बार उसकी आँखें झुकी नहीं थीं। डरी सहमी

    वो जानती थी कि हवेली की दीवारें भले ऊँची हैं, लेकिन कहीं न कहीं, एक खिड़की ऐसी भी होती है जहाँ से हवा आना नहीं रोका जा सकता।

  • 16. Married to my obsession - Chapter 16

    Words: 887

    Estimated Reading Time: 6 min

    अध्याय: आईने के उस पार

    रूम में धीमी पीली लाइट फैली हुई थी। खिड़की के बाहर रात अब और गहरी हो चली थी, लेकिन हवेली के इस रूम में सन्नाटा किसी गहरे ज़ख्म की तरह रिस रहा था।

    मीरा मिरर के सामने खड़ी थी।

    उसकी आँखें खाली नहीं थीं, मगर शांत थीं। बहुत ज़्यादा शांत — जैसे किसी बड़े तूफ़ान से पहले की मृत निस्तब्धता। उसने धीरे-धीरे अपने एयरिंग उतारे — नाज़ुक, मगर भारी। फिर वो नेकलेस, जो कॉलरबोन से उतरते ही जैसे किसी बोझ की तरह ज़मीन की तरफ गिरा। हर ज़ेवर उसकी कैद की एक और परत था।

    उसने कंगन उतारा… बाएं हाथ से, ।

    मिरर में उसकी परछाईं अब ज़्यादा साफ़ दिखने लगी थी — बिना ज़ेवरों के, एक सादा सी लड़की। लेकिन उसकी आँखों में अब कुछ बदल चुका था — शायद वो आग, जो अमरीश की बातों से सुलग चुकी थी।

    मीरा ने हल्के हाथों से अपनी ड्रेस के कंधे को पकड़ा। धीरे-धीरे कपड़ा उसके कंधे से फिसलने लगा… जैसे वो किसी बोझ को उतार रही हो… लेकिन तभी —

    पीछे से दो हाथ अचानक उसके कंधों पर आए।

    गर्म, भारी और अधिकार जताने वाले।

    मीरा का पूरा शरीर एक पल को सिहर उठा। उसकी साँसें थम गईं। उसने झट से मिरर में देखा।

    अमरीश था।

    उसकी आँखों में वही पुराना निर्दयी आत्मविश्वास था — लेकिन आज उनमें असहजता की एक अजीब सी परछाईं भी थी।

    “कपड़े उतार रही हो, मैं मदद कर दू?” उसका स्वर नीचा था, मगर नुकीला।

    मीरा एकदम से पलटी — लेकिन उसने अपनी ड्रेस को सीने पर कसकर पकड़ लिया। उसकी पलकें डरी हुई थीं, लेकिन होंठों पर दृढ़ता।

    “आप मुझे डराने का कोई मौका नहीं छोड़ते है,” उसने कहा, “अब शरीर को भी बेइज़्ज़त करने आए हो?”

    अमरीश की उंगलियाँ अब भी उसके कंधे के पास थीं, लेकिन उसने उन्हें पीछे हटा लिया। उसके चेहरे पर एक अजीब सी मुस्कान थी — अपमान और तमाशे का मिला-जुला रूप।

    “डरने वालों को ही तो मैं पालता हूँ,” उसने कहा, “ताकि जब वो काँपें… तो मेरी जीत और ज़्यादा मीठी लगे।”

    मीरा पीछे हटी। ड्रेस को सीने से कसते हुए, वह अमरीश की आँखों में झाँकने लगी — “जीत? ये जीत नहीं, सिर्फ क़ब्ज़ा है। और क़ब्ज़ा तब तक ही चलता है जब सामने वाला खुद को खो दे। मैं अब और नहीं खोऊँगी।”

    अमरीश ने एक और क़दम बढ़ाया। अब वो उसके बहुत पास था — इतना कि मीरा की साँसें अटकने लगीं।

    “तुम मेरी हो, मीरा,” उसने धीमे कहा।

    मीरा की आँखों में अब भी वही आग थी, जो डाइनिंग टेबल पर भड़की थी।

    “अपने काग़ज़ों पर मुझे ‘मालिकियत’ बना लिया… लेकिन आत्मा पर दस्तख़त नहीं हो सकते। वहाँ ना ताकत चलती है, ना ज़ोर।”

    अमरीश कुछ मिनट तक शांत रहा।

    उसने रूम के चारों तरफ नज़र डाली — जैसे इस सजावट से खुद को यक़ीन दिला रहा हो कि वह मालिक है। फिर उसने एक हाथ मीरा के चेहरे के पास लाया — छूने के लिए नहीं, सिर्फ डराने के लिए।

    “तुम क्या समझती हो,” उसने नरम स्वर में कहा, “कि ये सब तुम्हारी मर्ज़ी से हो रहा है? अगर मैं चाहूँ तो…”

    “तो?” मीरा ने बीच में टोका।

    “तो मैं सब कुछ ले सकता हूँ,” उसने गुर्राते हुए कहा।

    मीरा हल्के से मुस्कुराई — एक फीकी, मगर अडिग मुस्कान।

    “जो चीज़ आपने कभी दी ही नहीं… उसे छीनने का दावा मत कीजिए।”

    एक पल का सन्नाटा — गहरा सन्नाटा।

    रूम में सिर्फ उनकी भारी साँसें सुनाई दे रही थीं। मीरा अब भी नंगी आत्मा के साथ खड़ी थी — शरीर पर कपड़े ज़रूर थे, लेकिन आत्मा अब किसी परदे के पीछे नहीं थी।

    “तुम मुझे नहीं जानती, मीरा,” अमरीश ने धीमे स्वर में कहा, “तुम्हें लगता है मैं सिर्फ एक ज़ालिम हूँ। पर मुझे तो… खुद को भी समझ नहीं आता कि मैं कितना बड़ा जालिम हूँ।”

    मीरा उसकी तरफ एक क़दम बढ़ी। अब दोनों इतने पास थे कि एक-दूसरे की धड़कनें तक सुनी जा सकती थीं।

    “शायद इसलिए आप दूसरों को चोट देकर खुद को महसूस करते हो।”

    अमरीश की आँखें हल्की सी नमी से भर गईं — या शायद वो पसीना था।

    उसने अपना चेहरा मोड़ लिया।

    “तुम्हारी ये ज़ुबान... किसी दिन महँगी पड़ेगी,” उसने कहा।

    मीरा ने कोई जवाब नहीं दिया। वो मिरर की तरफ फिर मुड़ी। अब उसने अपनी ड्रेस के कंधे के पट्टों को और कसकर खींच लिया — जैसे अब उसे कुछ साबित नहीं करना था।

    “कल जो दिखाना है, दिखा दीजिए…” उसने बस इतना कहा।

    अमरीश ने उसे देखा — उसकी पीठ, उसकी खुली गर्दन, उसकी शांत बहादुरी।

    वो अब भी वही खड़ा था मीरा के पीछे मिरर से दोनों एक दूसरे को देख रहे थे |
    “तैयार रहना,” उसने अपने होठों को मीरा के रइट साइड वाले कान के पास ले जाकर कहा, “मैं तुम्हारी हिम्मत की आख़िरी परत भी नोच लूँगा।”

    मीरा ने धीमे से कहा —
    “हिम्मत कपड़ों से नहीं उतरती, साहब… वो तो दर्द की राख से उठती है।”

    उसकी बात से एक पल को अमरीश ने गुस्से में आंखे बंद कर फिर खोली।

    रूम में फिर वही गहरा सन्नाटा फैल गया।

    मगर इस बार उस सन्नाटे में एक नई आवाज़ थी — आत्मा की, जो अब बंद दरवाज़ों से भी बाहर निकलने लगी थी।

    अमरीश ने मीरा के बालों को एक साइड किया राइट से लैफ्ट मीरा सिहर गई और घबरा कर अमरीश कि और मुडी और थोड़ा साइड हटने लगी |

  • 17. Married to my obsession - Chapter 17

    Words: 987

    Estimated Reading Time: 6 min

    अध्याय: उस क्षण के पार — जहाँ शब्द रुक जाएँ

    रात अपने सबसे गहरे सन्नाटे में थी। हवेली की खिड़कियों पर भारी परदे झूल रहे थे, लेकिन बाहर की हवा जैसे किसी अनजाने ख़तरे की भनक देती हुई भीतर रिस रही थी। दीवारों पर जमी परछाइयाँ स्थिर थीं, फिर भी उनकी छाया जैसे चल रही हो। आईने के सामने खड़ी मीरा की आँखों में नमी थी — वो नमी जो न रोने देती है, न बोलने।

    उसने वही ड्रेस पहन रखी थी, जो अमरीश ने भिजवाई थी — गहरी रेशमी नीली, जो उसके काँपते कंधों पर ढीली पड़ी थी। पर अब उस ड्रेस में न कोई सजावट थी, न श्रृंगार का कोई अर्थ। वो जैसे एक लिबास नहीं, एक मजबूरी बन गई थी। उसका चेहरा एकदम खाली — किसी कठोर निर्णय की तरह।

    दिल कि भारी आहट , उसके भीतर की साँसें एक पल को थम गईं।



    धीरे-धीरे उसके पास आया। इस बार उसके कदमों की आवाज़ वैसी नहीं थी जैसे थोड़ी देर पहले थी — वह जब कुछ देर पहले था, तो धरती काँपती थी। अभी… जैसे उसकी आत्मा पहले से ज्यादा खतरनाक हो गई।

    मीरा इसपल में उसकी परछाईं से भी डर रही थी।

    "तुम क्या चाहते हो," वह धीरे से बोली, पर उसकी आवाज़ काँप रही थी।

    "और जो चाहू तो क्या दोगी, " अमरीश की आवाज़ वही सकती थी… पर भीतर कहीं कोई कुछ और भी था।

    कुछ देर खामोशी।

    फिर मीरा की साँस फूट गई। "प्लीज़… मुझे जाने दो," उसकी आवाज़ भीगी हुई थी, जैसे किसी ने दिल से चीर कर निकाली हो। "मैंने कुछ नहीं माँगा तुमसे… बस आज़ादी माँग रही हूँ। मत रोको मुझे… प्लीज़…"

    अमरीश पास आया। बहुत पास।

    उसके और मीरा के बीच अब कुछ नहीं था — न हवा, न शब्द।

    "आज़ादी?" वह हँसा। बहुत धीमे, लेकिन वो हँसी ज़हर सी गूँजती रही। "तुम जानती हो मीरा… हमारे बीच कोनटरेक्ट हुआ है… इस हद तक कि तुम्हारी रूह को भी बाँध लूं।"

    मीरा एक कदम पीछे हटी। "प्लीज़… मत देखो ऐसे… मुझे डर लगता है।"

    "डर?…" वह उसकी ओर झुका। "तुम्हें मुझसे अब भी डर लगता है, मीरा?"

    उसने मीरा के चेहरे को अपनी हथेली से पकड़ लिया — ज़ोर से नहीं, पर इतना कि उसकी मासूमियत काँप गई।

    "मैं तुम्हें जाने नहीं दूँगा," उसने धीमे-धीमे, लेकिन बेहद खतरनाक लहजे में कहा। "क्योंकि तुम अब सिर्फ़ मेरी हो। तुम्हारा हर आँसू, हर साँस, हर कपकपाहट… मेरी है। और जो मेरा है… उसे मैं यूँ नहीं जाने देता।"

    मीरा का चेहरा अब पूरी तरह रोशनी में आ चुका था — चेहरा नहीं, एक गुहार थी वो। उसने हाथ जोड़ दिए, काँपते हुए होंठों से बोली —
    "मैं तुम्हारे क़ाबिल नहीं… मैं बस जीना चाहती हूँ… तुम्हारे बिना, एक सादा-सा जीवन… प्लीज़ मुझे छोड़ दो…"

    अमरीश ने एक गहरी साँस ली, फिर अपने होठों से उसके कान के पास जाकर बुदबुदाया —
    "तुम्हें जीने नहीं दूँगा, मीरा… अगर तुम मेरे बिना जियो।"

    मीरा काँप गई।

    "क्यों?" उसने लगभग फुसफुसाकर कहा, "क्यों मुझे यूँ कैद कर रखा है…?"

    "क्योंकि तुम्हारा जाना… मुझे खत्म कर देगा," अमरीश का चेहरा अब बुझा-बुझा सा था। "और मैं मरना नहीं चाहता, मीरा… मैं तुम्हारे साथ जीना चाहता हूँ… या फिर तुम्हें खुद में खत्म करके जीना चाहता हूँ।"

    फिर वो हंसने लगा ऐसी बात सिर्फ़ वो मीरा का बेवकूफ बनाने के लिए बोला |लेकिन मीरा जानती थी कि वो सिर्फ मीरा को पागल बना रहा है |
    मीरा ने हाथ छुड़ाने की कोशिश की, पर वो बाँहों में जकड़ गई। "प्लीज़… जाने दो न… देखो, मैं कुछ नहीं लूँगी, कुछ नहीं कहूँगी… बस चुपचाप चली जाऊँगी…"

    अमरीश की आँखें अब अजीब सी चमक रही थीं — उसमें प्रेम नहीं था, सिर्फ़ पज़ेसिव दीवानगी थी। साथ एक क्रूर इरादे मीरा को तबाह करने के,

    "तुम इतनी मासूम क्यों हो मीरा? इतनी मासूम कि मैं तुम्हें तोड़ दूँ…।"

    "मत कहो ऐसा… मत छुओ मुझे ऐसे…" मीरा ने आँखें बंद कर लीं।

    "मैं तुम्हें हर तरह से अपना बना चुका हूँ, मीरा। अगर तुम जाओगी… तो मैं वो सब भी खत्म कर दूँगा जहाँ तुम जा सकती हो।"

    "ये जो तुम्हारी नफरत है…" मीरा की आवाज़ टूटी, कांपी। "ये कैद है… सज़ा है… ज़ुल्म है…"

    "हाँ, है!" अमरीश चिल्लाया। पहली बार उसकी आवाज़ दीवारों से टकराई। "जो भी है ये ही और तुम्हें यज सब सहन करना होगा चूकाना होगा अपने चाचा का कर्ज,
    मीरा के आँखों से अब आँसू बह चले — शांत, कोमल… लेकिन भीतर से जलते हुए।

    उसने धीरे से कहा, "तो मुझे मार दो… पर यूँ हर रोज़ मत तोड़ो…"

    अमरीश एक पल को सन्न रह गया। फिर, उसके चेहरे की कठोरता ढहने लगी।

    धीरे-धीरे उसने मीरा की उँगलियों को थाम लिया। इस बार वह पकड़ मजबूत नहीं थी — बस छुअन थी।

    "मैं नहीं जानता कि मैं कौन हूँ, मीरा…" वह फुसफुसाया। "एक पागल… एक अपराधी… या बस एक टूटा हुआ आदमी… लेकिन एक बात जान लो मैं घाटे के सौदे कभी नहीं करता हूँ और अगर हमारे बीच के सौदे में लोस हुआ तो बहोत बुरा होगा।"

    मीरा ने देखा — उस चेहरे को, जिसे वो कभी देखना नहीं चाहती थी। लेकिन आज… उस चेहरे में पहली से ज्यादा पागल पन दिखा ।

    "अगर मैं तुम्हारी सारी बातें मान लू तो," उसने कहा, "तो क्या वादा करोगे… कि फिर कभी हमें परेशान नहीं करोगे?"

    अमरीश ने कोई जवाब नहीं दिया… बस धीरे से उसे गले से लगा लिया।

    मीरा ने पल भर अमरीश को देखा और अपनी आंखों से उसके सीने कि और देख कहा,
    "तुम्हारा दिल… बहुत तेज़ धड़कता है," मीरा ने बुदबुदाकर कहा।

    "क्योंकि उसमें तुम हो तुम्हारी नफरत है।"

    कुछ पल यूँ ही बीते… साँसों की टकराहट में कोई राज छुपा था।

    "तुम यहाँ से चले जाओ…" मीरा ने टूटे शब्दों में कहा।

    "ऐसे कैसे जाऊ," अमरीश ने कहा… पर उसकी आँखें रुक गईं, "
    मीरा की आँखों से आँसू बहते रहे… लेकिन उनके बहाव में अमरीश के लिए नफरत थी।

    " बहोत बुरे हो ",

    अमरीश ने धीरे से कहा, "ये सून कर अच्छा लगा, "

  • 18. Married to my obsession - Chapter 18

    Words: 772

    Estimated Reading Time: 5 min

    अध्याय: "पलटकर देखा — जब पिंजरे में पर फड़फड़ाने लगे"

    कमरे की हवा भारी थी।

    अभी कुछ मिनट पहले ही एक खामोश शाम का पर्दा खिंचा था, लेकिन हवेली के इस पुराने कमरे में कुछ ऐसा था जो साँसों को धीमा कर देता था।

    मीरा चुपचाप खड़ी थी। उसके बाल कंधों पर बिखरे हुए थे, माथे पर पसीने की एक हल्की लकीर थी। उसकी साँसें तेज़ थीं, और आँखें – वे अब भी अमरीश को घूर रही थीं।

    लेकिन इस बार — कोई डर नहीं था। सिर्फ़ गुस्सा।

    "तुम इंसान हो भी या सिर्फ़ अपना हुक्म चलाने वाला कोई पिशाच?" मीरा की आवाज़ धीमी थी, मगर धारदार।

    अमरीश धीरे से एक कदम आगे रखखा। वो जो उसके पास खड़ा था, अब अचानक सीधा सामने आ गया — और एक पल के लिए बिल्कुल स्थिर हो गया।

    "क्या कहा तुमने?" उसने फुसफुसाकर पूछा, लेकिन स्वर में एक चुभन थी।

    "तुम्हें क्या लगता है?" मीरा ने ज़ोर से कहा, "तुम कुछ भी करोगे और मैं चुप रहूँगी? ये हवेली तुम्हारी है, लेकिन मैं नहीं!"

    अमरीश की आँखें संकरी हो गईं।

    वो धीरे-धीरे मीरा की तरफ बढ़ा।

    "क्या करोगी तुम?" उसने पूछा, "भागोगी? चिल्लाओगी?"

    "शायद…" मीरा ने एक कदम पीछे लिया, लेकिन चेहरा ऊँचा था, "या फिर तुम्हें वही बताऊँगी जो तुम्हारी माँ ने कभी नहीं कहा — कि कभी कभी घाटे का सौदा भी कर लेना चाहिए।"

    अमरीश वहीं रुक गया।

    उसके चेहरे पर एक अजीब सी मुस्कान आई — न पूरी हँसी, न पूरी ग़ुस्सा।

    "तुम मुझे समझाने चली हो अब?" उसने ताना मारा।

    "हाँ," मीरा बोली, "क्योंकि जिस आदमी ने मुझे कैद किया, उसे शायद आज़ादी का मतलब कभी बताया ही नहीं गया।"

    उसके शब्द, जैसे दीवार से टकरा गए।

    अमरीश कुछ क्षण खामोश रहा… फिर अचानक, जैसे कुछ भीतर फूट पड़ा हो।

    वो तेजी से मीरा की ओर बढ़ा।

    मीरा को इसका अंदाज़ा नहीं था। वो चौंकी, और पीछे हटने लगी — लेकिन इससे पहले कि वो मुड़ती, अमरीश ने उसका हाथ पकड़ लिया।

    "कहाँ जा रही हो?" उसकी आवाज़ अब एकदम गहरी थी।

    "छोड़ो मुझे!" मीरा ने झटके से कहा।

    "तुमने ही कहा ना… मैं कुछ नहीं समझाया गया," अमरीश की साँसें उसकी गर्दन के पास थीं, "तो सिखाओ मुझे… पर यूँ मुँह मोड़कर नहीं।"

    उसने मीरा को दीवार की ओर धकेला — हल्का सा, लेकिन उसके इरादे साफ थे।

    मीरा की पीठ दीवार से लगी, और अमरीश ने उसके दोनों हाथों को ऊपर थाम लिया।

    "तुम्हारा ये पागलपन है!" मीरा चीखी।

    "पागलपन ही तो है जो मुझे तुम तक लाता है," अमरीश ने कहा, "वरना मैं कभी किसी को दो बार नहीं देखता… और तुम — तुम तो अब मेरी साँसों में हो।"

    "ये सौदा नहीं है। ये सिर्फ़…"

    "सिर्फ़ क्या?" उसने उसकी आँखों में झाँका।

    मीरा हिचकी। उसकी साँसें तेज़ थीं, शरीर तनाव में था। मगर उसकी आँखें अब भी डरी नहीं थीं — वो जानती थी कि ये आदमी चाहे जितना भी कठोर क्यों न हो, उसके शब्दों से हिलता ज़रूर है।

    "ये तुम्हारी हार है।" मीरा ने कहा।

    अमरीश जैसे सुन्न हो गया।

    उसने धीरे-धीरे मीरा के हाथ छोड़े।

    वो कुछ पीछे हटा।

    "मेरी हार?" उसने दोहराया।

    "हाँ," मीरा आगे बढ़ी, "क्योंकि जो जीतते हैं, उन्हें बाँधने की ज़रूरत नहीं पड़ती।"

    एक लंबा मौन छाया।

    हवा की एक तीखी लहर कमरे में दाख़िल हुई। खिड़कियाँ हिल गईं।

    अमरीश की आँखें अब नीची थीं।

    "मैं तुम्हें बाँधता नहीं …" उसने धीमे से कहा, "मैं खुद तुमसे बँधा हूँ। फर्क बस इतना है — तुम दिखाती नहीं, और मैं छुपा नहीं पाता।"

    मीरा की नज़रें उस पर टिक गईं।

    वो अब भी कांप रही थी — पर अब उसमें एक थिर विश्वास आ गया था।

    "तो मुझे रुलाकर, डराकर… क्या पाओगे?" उसने पूछा।

    "तुम…" अमरीश ने उसकी ओर देखा, "तुम्हें खोने से डर लगता है। और जब मैं डरता हूँ… मैं पागल हो जाता हूँ।"

    मीरा अब चुप थी।

    वो जानती थी कि ये डर, ये जुनून — ये सब किसी ज़ख़्म की उपज है। और शायद, वो ज़ख़्म उसके कहे किसी वाक्य से फिर से खुल गया। एक चीजे सिर्फ एक सौदे कि वजह से तो नहीं हो सकता है

    एक पल बाद, उसने आगे बढ़कर धीरे से कहा —

    "डर तो मुझे भी लगता है, अमरीश। लेकिन मैं खुद को तो नहीं खो देती…"

    उसकी आवाज़ में कोई दया नहीं थी — सिर्फ़ समझदारी थी।

    अमरीश कुछ नहीं बोला। बस खड़ा रहा। जैसे किसी ने उसकी रीढ़ में ठंडक भर दी हो।

    मीरा अब धीरे से कमरे से बाहर निकलने लगी।

    लेकिन दरवाज़े तक पहुँचते ही उसने मुड़कर कहा —

    "अगर कभी सच में खुद को समझना चाहो, तो मेरी आँखों में झाँकना… वहाँ तुम्हारा अक्स मिलेगा — वो जो सिर्फ़ ज़िद्दी नहीं, जख़्मी भी है।"

  • 19. Married to my obsession - Chapter 19

    Words: 629

    Estimated Reading Time: 4 min

    अध्याय: “हवा के उस पार – जब दृष्टि काँप जाए”

    कमरे की खिड़की खुली थी। बाहर की चाँदनी धीरे-धीरे भीतर रेंग आई थी, जैसे किसी अनजाने गवाह की तरह, जो दोनों को बिना कहे पढ़ रही हो।

    मीरा कमरे के बीच खड़ी थी, और उसकी आँखें अमरीश पर थीं — स्थिर, चुप, मगर बिलकुल भी नरम नहीं।

    अमरीश कोने की आरामकुर्सी में बैठ गया, उसकी उँगलियाँ कुर्सी के हत्थे पर कसती और ढीली होती जा रही थीं। वो एक टकटकी में मीरा को देख रहा था, पर उसकी दृष्टि में अब चाहत नहीं… शक, कठोरता और एक अधूरे वश की जलन थी।

    “तुम अब भी सोचते हो… मैं डरूँगी?”
    मीरा की आवाज़ में नमी नहीं थी — वो एक धार थी, जो सीधे नस पर चली जाए।

    अमरीश ने होंठ भींचे, और सिर हल्का-सा झुकाया — जैसे कोई शिकारी अपने अगले वार से पहले एक पल का धैर्य ओढ़ता है।

    “डर…” वो हँसा, “तुम्हें अब भी लगता है मैं तुम्हें डराने की कोशिश करता हूँ?”

    “नहीं,” मीरा ने धीरे कहा, “अब नहीं। अब तुम बस देखना चाहते हो — टूटती हुई मीरा को। शायद इसी से तुम्हारा 'पुरुष' संतुष्ट होता है।”

    कमरे की हवा काँपी — जैसे किसी ने अचानक कोई पुराना ज़ख़्म फिर से खोल दिया हो।

    चाँदनी अब दोनों के चेहरों पर थी — और उन चेहरों पर भाव… बर्फ़ की तरह सख़्त।

    “तुम बहुत बदल गई हो,” अमरीश ने उसकी ओर देखा।

    “और तुम अब भी वहीं अटके हो,” मीरा ने जवाब दिया, “जहाँ तुम्हारा अहम तुम्हारे पर हावी होता है ।”

    उसने खिड़की के पास जाकर परदे को हौले से छुआ — जैसे हवा से कोई नया सवाल पूछ रही हो।

    “क्या चाहती हो अब?” अमरीश की आवाज़ थोड़ी तेज़ थी, लेकिन भीतर कोई थकावट भी थी।

    “तुम्हारा चेहरा याद रखना,” मीरा ने सीधा उसकी ओर देखा, “जिस दिन सब कुछ खत्म होगा, मुझे यक़ीन रहे — मैंने शैतान को पास से देखा है।”

    उसका यह वाक्य कमरे की दीवारों से टकरा कर लौट आया। अमरीश एक पल के लिए चुप रहा, फिर कुर्सी से उठ खड़ा हुआ।

    वो अब ठीक उसके सामने था। उनके बीच एक लंबा मौन था — ऐसा, जिसमें दोनों अपनी-अपनी तलवारें म्यान से निकाल चुके थे… पर वार अभी रुका था।

    “तुम जानती हो,”
    उसका स्वर अब धीमा था, पर उसमें एक शीतल क्रूरता थी,
    “अगर मैं चाहूँ, तो इस रात को तुम्हारा नाम ही नहीं, तुम्हारी साँसें भी रोक दूँ।”

    मीरा मुस्कुराई — एक ठंडी, तिरस्कार भरी मुस्कान।

    “तुम्हारा दुर्भाग्य यही है,” वो बोली, “कि तुम सिर्फ़ शरीर को हराना जानते हो। आत्मा को नहीं।”

    अमरीश की आँखें संकरी हो गईं। एक पल को जैसे वह कुछ कहने ही वाला था… पर फिर वह चुप हो गया।

    मीरा अब फिर खिड़की की ओर मुड़ी, पर उसकी पीठ में डर नहीं था — एक अजीब किस्म की अडिगता थी। जैसे कोई तूफ़ान खिड़की के पार खड़ा हो, और मीरा उसे नज़रें उठाकर चुनौती दे रही हो।



    अमरीश ने मीरा को देख कहा,
    “याद रखना, मीरा… ये लड़ाई अभी खत्म नहीं हुई है।”

    मीरा की आवाज़ पीछे से आई — एकदम स्पष्ट, स्थिर और चुनौतीपूर्ण:

    “खत्म तो उस दिन होगी… जब तुम जानोगे कि मेरी चुप्पी तुम्हारे शोर से कहीं ज़्यादा तेज़ है।”

    मीरा पुरी नफरत से अमरीश को देख रही थी | अमरीश भी मीरा को देख रहा था, मीरा अमरीश कि और देख सोच रही थी वो कितना बुरा इंसान है भले ही आज मीरा उसकी कैद में है लेकिन कोनटरेक्ट तो वो उसकी छोटी बहन जोकि अभी सिर्फ 17 साल कि है उसके लिए लाया था जिसके तहत आज मीरा उसकी कैद में है |

    पर कमरे में अब भी जो रह गया था —
    वो दुश्मनी की महक थी।
    वो एक अघोषित युद्ध की घोषणा थी।
    और वो एक औरत की आँखें थीं, जो अब झुकेगी नहीं।

  • 20. Married to my obsession - Chapter 20

    Words: 867

    Estimated Reading Time: 6 min

    अध्याय: पर्दे के पीछे — हँसी, जो ज़हर उगलती है

    रात अपने काले आँचल में हवेली को लपेट चुकी थी। हर कोना चुप था, पर रसोई के ठीक पीछे बने छोटे-से नौकर क्वार्टर से धीमी-धीमी फुसफुसाहटें उठ रही थीं। मिट्टी की दीवारों के बीच रखे एक टूटे से बेड पर रमा अधलेटी थी, और सामने फर्श पर बैठा किशन — सिर पर पुरानी टोपी, आँखों में शरारत और होंठों पर गंदी मुस्कान लिए — पान चबा रहा था।

    "तो… आज फिर वही लाल ड्रेस?" — कैलाश ने पान थूकते हुए पूछा।

    रमा ने हँसते हुए कहा, "हाँ, वही। साहब की पसंद है — जितनी कम कपड़े हों, उतनी ज़्यादा लज्ज़त!"

    किशन ने भौंहें नचाईं, “पर वो लड़की तो जैसे जल्लाद के सामने बकरी हो गई है — एकदम कांपती रहती है।”

    रमा ने अपने बालों को पीछे बाँधा और धीमे से मुस्कुराई, “कांपेगी नहीं तो क्या करेगी? एकदम दूध की धुली आई है — शायद ज़िंदगी में पहली बार किसी ने उसे उसकी 'असली औक़ात' दिखाई है।”

    किशन उठकर रमा के पास आ गया, और उसकी गोद में सिर रखकर लेट गया। “और तू… तू तो जैसे उसकी गुरू बन गई है… सिखा रही है कैसे किसी की गुड़िया बना जाता है।”

    रमा ने उसकी नाक मरोड़ी, “गुड़िया नहीं, भाई… साहब की 'रखेल' कह! उस कमरे में जो होता है, वो इश्क़ नहीं होता — वो तो हुकूमत की सबसे बदसूरत शक्ल है।”

    “तो फिर तू क्यों करती है ये सब?” — किशन की आवाज़ में हँसी थी, पर आँखों में एक अजीब-सी चाह।

    रमा की नज़रें दूर शून्य में टिक गईं। “क्योंकि… इस घर में इज़्ज़त की जगह सिर्फ़ या तो चुप रहने वालों को मिलती है… या बिस्तर गर्म करने वालों को। मैं चुप रही, अब वो दूसरा रास्ता समझा रही हूँ।”

    किशन ने धीरे से उसके हाथ पर उंगलियाँ फेरते हुए कहा, “लेकिन मीरा… वो तो न कुछ कहती है, न कुछ माँगती है… फिर भी साहब के लिए जैसे सबसे बड़ी तिजोरी बन गई है।”

    रमा ने होंठ भींचे, फिर कहा, “क्योंकि वो नई है। और साहब को हर बार नई चीज़ चाहिए। उसकी मासूमियत भी उनके लिए एक नया ज़हर है।”

    कमरे की बत्ती पीली झिलमिल रोशनी फैला रही थी। बाहर से कुत्ते के भौंकने की आवाज़ आई। रमा ने थोड़ी देर चुप्पी के बाद कहा —

    “तूने देखा ना, कैसे देखता है साहब उसे? जैसे कोई बच्चा नंगी गुड़िया देखता है… आँखों में भूख नहीं होती, लार होती है…”

    किशन उसकी गोद से उठकर उसके कान के पास झुका, “पर तुझे तो जलन होती होगी ना?”

    रमा हँस दी — एक ऐसी हँसी, जो औरत की हार से जन्म लेती है।

    “जलन? नहीं… अब तो मज़ा आता है। जब उसे सजाकर भेजती हूँ ना… तो लगता है जैसे अपने हाथों से किसी पर चाबुक चला रही हूँ — जो कभी मुझे रुला चुका है।”

    किशन ने उसका चेहरा छूने की कोशिश की, “और मैं? मुझे तू क्या समझती है?”

    रमा ने उसकी उंगलियाँ हटाईं, फिर उसकी ओर देखती रही। “तू? तू तो बस वो है जो गवाह बनता है — इस घर की हर गंध का, हर चीख़ का। तू वही है, जो कभी साहब के जूते चमकाता था, और अब मेरी बातों से दिल बहलाता है।”

    किशन झेंप गया, पर हँसी न रुकी। “मतलब मैं सिर्फ़ टाइमपास हूँ?”

    “तू वक़्त है — जो चलता है, और सबकी औक़ात दिखा जाता है।”

    कुछ पल खामोशी रही।

    फिर रमा ने धीमे से कहा, “जानता है, आज वो लड़की कितनी रोई थी… जब मैंने उसे वो रेड ड्रेस दी? कहती रही — ‘मैं ऐसी नहीं हूँ’। और मैंने कहा — ‘अब बन गई है’।”

    किशन ने आँखें बंद कीं, और बुदबुदाया — “वो लड़की बहुत ख़ूबसूरत है…”

    रमा का चेहरा अचानक सख़्त हो गया।

    “हाँ, है। इसलिए ही तो साहब ने उसे चुना। और इसलिए ही मैं उसे तोड़ रही हूँ — ताकि उसकी ख़ूबसूरती उसे ज़िंदा न रहने दे।”

    किशन अब उठकर रमा के बराबर में आ बैठा। “तेरे अंदर बहुत दर्द है, रमा…”

    “दर्द नहीं… हिसाब है।” रमा ने कहा, “इस हवेली में हर मुस्कान के नीचे एक दास्ताँ है — कोई बिस्तर से जुड़ी, कोई आईने से। और मीरा… वो बस अगली कड़ी है इस कहानी की।”

    किशन ने धीमे से उसका कंधा चूमा।

    “एक बात बोलूँ?” — वो फुसफुसाया — “तेरे अंदर की आग सबसे ज़्यादा ख़ूबसूरत है।”

    रमा ने उसकी आँखों में देखा। “आग ख़ूबसूरत नहीं होती, किशन — सिर्फ़ जलाती है। और मैं अब जलाना जानती हूँ, जलना नहीं।”

    किशन ने उसकी उँगलियों को अपने में बाँध लिया।

    “तो फिर हम दोनों एक जैसे हैं — एक वो जो जलाते हैं… और एक वो जो राख में भी हाथ सेंक लेते हैं।”

    रमा ने पहली बार हल्के से मुस्कुराकर उसकी ओर देखा। “कभी-कभी सोचती हूँ — तू भी अगर थोड़ा पहले आया होता… तो शायद मेरी भी कहानी कुछ और होती।”

    किशन ने गहरी साँस ली — “कहानी वही होती है, जो हवेली तय करती है… हम तो बस किरदार हैं, रमा। कोई मीरा बने… कोई तू…”

    बाहर चाँदनी फैल रही थी। कमरे में अब भी पसीने, पान और साज़िशों की महक थी।

    और ऊपर, हवेली के बड़े कमरे में — एक लड़की, जो आज फिर अपना सच हार चुकी थी — आईने के सामने खड़ी थी।