यह कहानी है विधि की जिसे पूरा गांव श्रापित मानता था ऐसा कहा जाता था की शादी के बाद ही उसके हस्बैंड की मृत्यु हो गई लोग उसे भूतनी पिचसनीनी कुलटा ना जाने क्या-क्या कहकर बुलाते थे और दूसरी तरफ दक्ष सिंह रायजादा वन ऑफ़ द बिगेस्ट बिजनेसमैन जो अपने ह... यह कहानी है विधि की जिसे पूरा गांव श्रापित मानता था ऐसा कहा जाता था की शादी के बाद ही उसके हस्बैंड की मृत्यु हो गई लोग उसे भूतनी पिचसनीनी कुलटा ना जाने क्या-क्या कहकर बुलाते थे और दूसरी तरफ दक्ष सिंह रायजादा वन ऑफ़ द बिगेस्ट बिजनेसमैन जो अपने होटल के काम से गांव आता है और गांव आते ही हालात कुछ ऐसे हो जाते हैं कि उसे विधि से शादी करनी पड़ती है दक्ष एक सक्सेस बिजनेसमैन था और विधि जो गांव की छोरी जिसका मन तो था पढ़ने के लिए पर घर वालों ने कभी स्कूल तक नहीं भेजा था क्या होगा उनके लव स्टोरी का कभी इनके बीच प्यार पनप भी पाएगा या फिर दो जगह की आपसी मतभेद ले डूबेगा इन्हें और जब विधि को शहर आकर के पता चलता है दक्ष का सबसे बड़ा राज क्या इतने घिनौने राज के बाद भी विधि अपनाएगी दक्ष दक्ष को ...? जानने के लिए पढ़ते रहिए
Page 1 of 1
फुलेरा...!
सुबह के चार बजे थे। चिड़ियों की चहचहाहट अपनी चरम सीमा पर पहुँच चुकी थी। सूरज की लालिमा अब धीरे-धीरे आसमान में फैलने लगी थी। गांव वाले जाग चुके थे — कोई उपले उठा रहा था, तो कोई लकड़ियाँ इकट्ठा कर रहा था। पुरुष समाज के लोग लोटा लेकर खेत की ओर निकल रहे थे।
चारों तरफ अंधेरा पसरा हुआ था। घरों में छोटी-छोटी लाइटें जल रही थीं... और इन्हीं चहचहाटों के बीच — एक लड़की चुपचाप, शांति से अपने घर के दरवाजे के बाहर बैठी हुई थी।
उसने सफेद रंग का कपड़ा ओढ़ रखा था... अंधेरे में वह कपड़ा किसी भूतनी जैसा दिख रहा था। वह अपना सिर खंभे से टिकाए, एकटक ज़मीन की ओर देख रही थी। उसकी आंखों से आंसू बह रहे थे...
तभी—एक औरत कपड़ों की गठरी पटकते हुए पास आती है और कहती है:
"हरी ओम, महारानी! अभी तक सुबह नहीं हुई क्या? किलो भर कपड़े तालाब से धो लाओ! सूरज निकलने से पहले सब कुछ साफ हो जाना चाहिए... वरना आज का खाना बंद! न जाने किस मनहूस घड़ी में मेरे बेटे ने तुमसे शादी की! खा गई मेरी बेटे को!"
यह कहकर वह औरत बड़बड़ाते हुए अंदर चली जाती है।
विधि, जो चुपचाप यह सब सुन रही थी, उसकी आंखों से आंसुओं की धार और तेज़ बहने लगती है... वह अपने आंसुओं को पोंछती है, कपड़े समेटती है और तालाब की ओर चल देती है।
रास्ते में चलते-चलते वह बुदबुदाती है:
"तुमने तो कहा था... पूरी ज़िंदगी साथ रहोगे... फिर आए ही क्यों थे, अगर छोड़कर ही जाना था? यह अकेलापन अब खाने को दौड़ता है... आदित्य, आ जाओ...!"
इतना कहते ही उसकी आंखों से फिर आंसू छलक पड़ते हैं।
वह कपड़े लेकर तालाब पहुंच जाती है। तालाब की सीढ़ियों से नीचे उतरते हुए, जैसे ही गांव की औरतों की नजर उस पर पड़ती है, वे आपस में बड़बड़ाने लगती हैं:
"अरे इससे दूर रहो... न जाने कब कोई श्राप दे दे! ब्याह के आते ही पति को खा गई! इसकी परछाई भी पूरे गांव के लिए श्राप है!"
यह कहकर वे वहां की हर खाली जगह को अपने कपड़ों से भर देती हैं। एक औरत तो सीधे कहती है:
"यहां जगह नहीं है... दूर जाकर बैठो!"
विधि, कुछ नहीं कहती। चुपचाप दूसरी ओर जाती है। लेकिन वहां पहुंचते ही फिर वही व्यवहार!
वह रोते हुए आखिरी कोने में जाकर बैठ जाती है... और कपड़े धोने लगती है। कपड़े धोते-धोते, अचानक फिर एक कर्कश आवाज आती है:
"हरी ओ करमजाली! सूरज उगने से पहले घर चली जाना! तेरी परछाई भी हमारे लिए घातक है! देखा नहीं विमला की बहू की शादी में गई थी — उसके बेटे को खा गई! तू अपने पति के साथ-साथ औरों के पतियों को भी ले डूबती है! अरे किसी को तो खुश रहने दिया कर!"
यह सुनकर विधि की आंखें भर आती हैं... और वह कपड़ों को और ज़ोर-ज़ोर से पटककर धोने लगती है — जैसे हर आंसू को उसी कपड़े के साथ धो देना चाहती हो।
सभी कपड़े धो लेने के बाद सूरज की लालिमा पूरे आकाश पर छा गई थी। विधि कपड़े उठाकर घर की ओर चल देती है। रास्ते में गांव के लोग उसे देखकर किनारे हो जाते हैं। कोई नज़दीक नहीं आता। पुरुष, महिलाएं — सभी उससे दूर रहते हैं... जैसे वह कोई अभिशाप हो।
तभी एक नन्ही सी बच्ची दौड़ते हुए विधि के पास आती है:
"विधि दीदी! यह लो... आप रात से कुछ खाई नहीं। मैं खाना लायी हूं... किसी को पता नहीं चलेगा। आप जल्दी खा लो..."
यह थी सुनीता, विधि की छोटी बहन। दूसरे घर की लड़की... पर दिल से जुड़ी।
विधि सुनीता से दूर हटते हुए कहती है:
"सुनीता! मुझसे दूर रह। सूरज निकलने वाला है... मेरी परछाई भी तेरे लिए घातक हो सकती है। मैं नहीं चाहती, मेरी वजह से तुझे कुछ हो..."
सुनीता, जो केवल 14 वर्ष की थी, उसका हाथ पकड़ते हुए कहती है:
"क्या बात कर रही हो दीदी...? ऐसा कुछ नहीं होता। गांव वाले बस अफवाहें फैलाते हैं। आपकी वजह से किसी का कुछ नहीं होगा!"
विधि, कांपते स्वर में कहती है:
"मुझे नहीं पता सुनीता... पर सच यही है। जहां भी जाती हूं, मुसीबतें खुद-ब-खुद चली आती हैं... मुझसे दूर हो बहन...।"
तभी—एक तेज़ आवाज़ पीछे से गूंजती है:
"अरे! कल मोहि मेरे भाग्य फूटे थे जो इस कोख से तुझे जन्म दिया! अब क्या मेरी दूसरी बेटी को भी निगलेगी?!"
सुनीता और विधि पीछे मुड़कर देखती हैं — सावित्री खड़ी थी... उनकी माँ।
विधि, कांपते स्वर में कहती है:
"माँ... आप कैसी बातें कर रही हैं?"
सावित्री चीख पड़ती है:
"गलत थोड़ी कह रही हूँ! दूर रह सुनीता से! सब की ज़िंदगियां खा जाती है तू! अब क्या अपनी छोटी बहन की भी ज़िंदगी खाकर मानेगी?"
सुनीता आगे बढ़ती है, कहती है:
> "माँ! इसमें दीदी की कोई गलती नहीं है! मैं खुद आई थी उनके पास!"
सावित्री भड़क उठती है:
"चुप कर! तू घर चल! तुझे बताती हूँ। और तू — तू तो बड़ी समझदार है ना? तुझे समझ नहीं आता क्या? देख लड़की! मेरी बेटी से दूर रह... अगर आइंदा उसके आसपास भी दिखी — टांगे तोड़ दूंगी! और अब तो धूप भी निकलने लगी है... चली जा यहां से... वरना मुझसे बुरा कोई नहीं होगा!"
इतना सब सुनकर, विधि चुपचाप कपड़ों की गठरी उठाती है... और घर की ओर चल पड़ती है। उसकी आंखों से लगातार अश्रुधारा बह रही थी... पर वह शांत थी।
उसके मन में बस एक ही बात गूंज रही थी — "एक दिन सब ठीक होगा..."
वह आदित्य की बातों को याद करती है और बुदबुदाती है:
"आदित्य... मैं जिंदा हूं... बस तुम्हारे लिए। तुमने कहा था — तुम्हारे जाने के बाद तुम्हारे घरवालों का ख्याल रखूंगी। और यह वादा... मैं मरते दम तक निभाऊंगी।"
पर आदित्य मेरे से यह नहीं सहा जा रहा मुझे भी अपने पास बुला लो ना की दुनिया वाले बहुत जालिम है प्लीज आदित्य क्यों क्यों नहीं सुन रहे मेरी भगवान मुझे मेरे आदित्य के पास भेज दो मुझे और कुछ नहीं चाहिए यह कहते हुए उसकी आंखों के आंसू के धाराएं तेज हो रहे थे बस चुपचाप से अपने आंसुओं को पहुंचती भगवान से विनती करती आगे जा रही थी थोड़ी देर बाद उसे उसका घर दिखाई देने लगता है वह अपने आंखों को साफ करते हुए घर के दरवाजे पर पहुंच जाती है
🏡 फुलेरा
दरवाज़े पर पहुँचकर विधि अंदर घुसने ही वाली थी कि पीछे से कड़कती हुई आवाज़ आई —
> "अरे रुक जा! हे मेरे राम जी! इस लड़की को कितना समझाया है! दिमाग क्या घास चरने गया है तेरा? घर में और भी लोग हैं, दो बेटियाँ हैं! अगर तेरी परछाई उन पर पड़ गई तो शादी कौन करेगा उनकी?!"
> "कितनी बार कहा है — तेरा घर, तेरी झोपड़ी उधर है! इस दरवाज़े की दहलीज़ लाँघने की ज़रूरत भी नहीं है तुझे!"
यह सुनते ही विधि के कदम वहीं ठिठक जाते हैं। वह कपड़े की गठरी ज़मीन पर रखते हुए धीमे स्वर में कहती है —
> "माँ जी, मैं अंदर नहीं आ रही थी... बस ये कपड़े लेकर आई थी। सब साफ़ हो गए हैं।"
सरला (सास) गुस्से से बाहर आती है, कपड़े विधि के हाथ से छीनते हुए कहती है —
> "तुझे क्या, कपड़े धोना भी सिखाना पड़ेगा? ये देख! गंदगी लगी हुई है! तुझसे कहना ही बेकार है!"
यह कहकर वह कपड़े उठाकर भीतर चली जाती है।
विधि, अपने आंसुओं को पोंछते हुए चुपचाप अपनी झोपड़ी की ओर बढ़ जाती है। घर के दूसरी छोर पर एक छोटी-सी झोपड़ी बनी थी। चारों ओर हरियाली थी, फूल खिले हुए थे, और पंछियों का चहचहाना सुनाई देता था।
उस झोपड़ी को विधि ने खुद सजाया था, मानो वह कोई प्रदर्शनी का हिस्सा हो — पर उसकी आत्मा हर रंग से खाली थी।
वह अंदर जाती है, बिस्तर पर बैठती है, सामने रखी आदित्य की तस्वीर उठाकर अपने सीने से लगाती है... और फूट-फूट कर रोने लगती है...
टूट कर। बेहिसाब। बेकाबू।
---
🏙️ दिल्ली
दिल्ली — सपनों का शहर।
जहाँ हर इंसान कुछ बनने आता है,
जहाँ हर कोना एक नई शुरुआत की उम्मीद जगाता है।
इसी दिल्ली में एक नाम था जो तेज़ी से चमक रहा था —
> "दक्ष सिंह रायज़ादा!"
उम्र सिर्फ 28 साल।
लंबा, गठीला शरीर, दूध-सा गोरा रंग, हल्की दाढ़ी-मूंछ... और आँखों में ऐसा तेज़ जैसे कोई शिकारी हो।
अपने आलीशान ऑफिस में दक्ष, मोबाइल में कुछ देख रहा था।
तभी दरवाज़े पर दस्तक हुई।
> "यस?" — दक्ष ने सिर उठाया।
दरवाज़े पर एक 30 वर्षीय युवक खड़ा था। उसके पीछे दो बॉडीगार्ड्स थे, हाथों में बंदूकें।
वो युवक बुरी तरह काँप रहा था। उसकी पैंट... डर के मारे गीली हो चुकी थी।
वह धीरे-धीरे आगे आया, और दक्ष के पैरों में गिर पड़ा।
> "मालिक... माफ कर दीजिए! बहुत बड़ी गलती हो गई है... एक बार... बस एक बार माफ कर दीजिए!"
दक्ष की आँखों में एक भी भाव नहीं था। वह शांत स्वर में, मगर बर्फ जैसी ठंडी आवाज़ में बोला —
> "तुम जानते हो ना, दक्ष सिर्फ उन्हें माफ करता है जिनसे गलती 'अनजाने' में होती है?"
> "...और तुमने? तुमने तो जानबूझकर मुझे धोखा दिया... मेरी ही थाली में खाकर मुझे ही डसने चले थे। कितने पैसे मिले थे, बोल?"
> "मालिक... गलती हो गई... लालच में आ गया... दोबारा ऐसा नहीं होगा। माफ कर दीजिए!"
दक्ष, अब गुस्से में।
उसने अपना पैर उठाकर सीधे उस आदमी के हाथ पर दे मारा।
> "माफ़ी? तब कहाँ थी माफ़ी जब पीठ पीछे वार कर रहा था?"
अब वह आदमी चिल्ला उठा —
> "आह... मालिक!"
दक्ष ने उसका हाथ बूटों के नीचे मसलते हुए कहा —
> "ये तो बस शुरुआत है... असली माफी अब ऊपर जाकर मांगना, भगवान से!"
इतना कहते ही वह अपने गार्ड्स को इशारा करता है।
बॉडीगार्ड्स उसे घसीटते हुए बाहर ले जाते हैं।
वो तड़पता है, गिड़गिड़ाता है —
> "मालिक! माफ कर दो! एक मौका और... मालिक!"
लेकिन दक्ष, अब फिर से फोन उठाता है और शांत चेहरा लिए चेयर पर बैठ जाता है।
मानो कुछ हुआ ही न हो।
---
⚖️ प्रवीण की एंट्री
दूसरी दस्तक होती है।
दक्ष सिर उठाता है।
> "आओ, वकील साहब! तुम्हारा ही इंतज़ार था।"
प्रवीण, उसका वकील और दोस्त, अंदर आता है। सामने कुर्सी पर बैठते हुए एक फाइल सामने रखता है।
> "ये रही ज़मीन की फाइल।"
दक्ष, हँसते हुए:
> **"तू ही तो मेरा असली दोस्त है।"
प्रवीण घूरते हुए:
> "चल अब मस्का मारना बंद कर और असली बात पर आ। ये जो कर रहा है, वो सब illegal है।"
दक्ष (चुटकी लेते हुए):
> "अरे भाई, सही काम करना तो मैंने सीखा ही नहीं। और तुझे किसलिए बुलाया है? इसी illegal काम को legal बनाने के लिए!"
> "देख, तू मेरे काम आएगा... और मैं तेरे। यहीं से भाईचारा चलता रहेगा।"
प्रवीण कुछ देर चुप रहता है। फिर फाइलें खोलकर कहता है —
> "डॉक्यूमेंट तो फर्जी बनवा लिया है, लेकिन काम तब होगा जब पूरे गाँव वाले उस पर साइन करेंगे। जब तक उनके सिग्नेचर नहीं होंगे, ज़मीन हमारी नहीं होगी।"
दक्ष (गंभीर होकर):
> "‘हम’? इंटरेस्टिंग..."
> "तो चलो, साइन करवाते हैं!"
प्रवीण, घबराया हुआ, धीमे स्वर में:
> "इतना आसान नहीं है दक्ष।"
"गाँव के मुखिया — कमला प्रसाद — उस ज़मीन के संरक्षक हैं। जब तक वो हाँ नहीं करेंगे, कोई गाँववाला साइन नहीं करेगा।"
दक्ष (गुस्से में):
> "तो चलो... उन्हीं से हाँ करवा लेते हैं!"
प्रवीण (धीरे से):
> "तुम्हें नहीं पता दक्ष, न जाने कितने बड़े-बड़े लोग वहाँ गए हैं... पर उनमें से कोई भी उन्हें मना नहीं सका।"
यह सुन दक्ष जोर-जोर से हंसने लगता है हां कितने लोग गए थे उनसे हमें क्या लेना देना अभी तक दक्ष नहीं गया साथ तुम्हें पता नहीं ताक्षी एक बार जिस चीज को ठान ले उसे लेकर रहता है और वैसे भी मुझे पता है यह कैसे करना है कैसे करोगे दक्ष तुमने कुछ सोचा है दक्ष अपने टेबल पर रखें पेपर बॉल को उठकर घूमने लगता है और एक शैतानी मुस्कान के साथ कहता है तुम बस देखते जाओ मैं क्या करता हूं वह खुद मुझे इस जमीन को मेरे हवाले करेंगे
---
🌀 अब क्या करेगा दक्ष?
⚔️ क्या वह फुलेरा की पवित्र ज़मीन छीन पाएगा?
🥀 क्या विधि फिर एक बार किसी तूफान की चपेट में आने वाली है?
➡️ जानने के लिए पढ़ते रहिए अगला भाग...
अगर कहानी पसंद आ रही है, तो Follow कीजिए,
Review दीजिए और Comment करना मत भूलिएगा।
---
दक्ष प्रवीण से कहता है,
"सुनो, कल के कल हमें गांव के लिए निकलना है। तुम भी मेरे साथ चल रहे हो।"
प्रवीण थोड़ा घबराते हुए जवाब देता है,
"पर... मैं... मैं तो—"
दक्ष बीच में काटते हुए सख्ती से बोलता है,
"मैं तुमसे बात नहीं कर रहा हूँ, तुम्हें ऑर्डर दे रहा हूँ!"
दक्ष की गुस्से भरी आवाज़ सुनकर प्रवीण सहम जाता है। वो धीरे से सिर हिलाते हुए कहता है,
"ठीक है... मैं चलने के लिए तैयार हूँ।"
(दस्तक...!)
तभी केबिन के गेट पर एक और दस्तक होती है। प्रवीण और दक्ष दोनों चौंककर दरवाज़े की ओर देखते हैं।
दरवाज़े पर वासु खड़ा होता है।
वासु को देखकर दक्ष गहरी सांस लेकर कहता है,
"तुम यहाँ क्या कर रहे हो, भाई?"
वासु मुस्कुराकर कहता है,
"भैया, मैंने सुना कि आप कल किसी एडवेंचरस जगह पर जा रहे हैं!"
दक्ष संक्षेप में जवाब देता है,
"हाँ... काम के सिलसिले में गांव जा रहा हूँ।"
वासु चहककर कहता है,
"तो मैं भी आपके साथ चल रहा हूँ!"
दक्ष थोड़ा चिढ़ते हुए बोलता है,
"वासु, ये कोई पिकनिक नहीं है। हम काम के लिए जा रहे हैं।"
"भाई... प्लीज़! चलने दो ना। I promise, मैं कोई शैतानी नहीं करूंगा। मैं चुपचाप से बस आपका काम देखूंगा। आप काम करना, मैं गांव घूम लूंगा!"
दक्ष थोड़ी देर चुप रहता है। वासु के भोलेपन में भरा प्यार उसे रोक नहीं पाता।
दक्ष धीरे से कहता है,
"देख बेटा... हम काम से जा रहे हैं। अगली बार ले चलेंगे, पक्का।"
वासु नाराज़ होते हुए मुंह फुलाता है,
"भैया! मैं बच्चा नहीं हूँ! अब 20 साल का हो गया हूँ! लेकिन आप अभी भी मुझे बच्चों की तरह ट्रीट करते हैं। अगर आप मुझे नहीं ले गए ना, तो मैं आपसे बात नहीं करूंगा!"
यह कहकर वासु वहां से चला जाता है।
दक्ष उसकी ओर देखता है... और फिर थककर कुर्सी पर बैठ जाता है।
"बिना बात के परेशान कर देता है..." — वो बड़बड़ाता है।
प्रवीण हंसते हुए बोलता है,
"तो तूने उसे सर पर क्यों चढ़ा रखा है?"
दक्ष गंभीर होते हुए कहता है,
"वासु मेरी ज़िंदगी है। मम्मी के जाने के बाद, बस वही है जिसने मुझे हंसना सिखाया है। मैं उसे छोड़ नहीं सकता... कभी नहीं। वो मेरी ज़िम्मेदारी है।"
दक्ष की बात सुनकर प्रवीण गहरी सांस लेकर कहता है,
"मुझे क्लाइंट से मिलने जाना है। मैं कल सुबह तुमसे मिलूंगा।"
"हाँ वकील साहब, ध्यान रखना — कल हमें गांव चलना है।"
यह कहकर प्रवीण मुस्कुराता है और चला जाता है।
प्रवीण के जाते ही दक्ष जेब से फोन निकालता है और कॉल लगाता है।
"दीपक, कल गांव चलना है। तैयार रहना।"
फोन के दूसरी तरफ से आवाज़ आती है,
"ठीक है सर।"
दीपक — दक्ष का सबसे भरोसेमंद साथी, राइट हैंड मैन।
-
दूसरी तरफ…! (स्थान – फुलेरा गांव)
विधि, अपनी झोपड़ी में बैठी रो रही थी। उसकी सिसकियाँ हवा में गूंज रही थीं।
तभी झोपड़ी के बाहर से किसी के खांसने की आवाज़ आती है।
विधि झट से अपने आँसू पोंछती है, आदित्य की तस्वीर को बगल में रखती है, और सिर पर पल्लू डालकर बाहर आती है।
सामने एक बुजुर्ग पुरुष खड़े थे। उन्हें देखकर विधि उनके चरणों में झुक जाती है।
"प्रणाम बाबूजी!"
वो व्यक्ति आशीर्वाद देते हुए कहते हैं,
"सदा खुश रहो, बेटी।"
यह कोई और नहीं, गांव के सरपंच – कमला प्रसाद जी थे।
वो विधि की आँखों की नमी देखकर पूछते हैं,
"बेटी, क्यों रो रही हो? मुझे सब पता है... तुम्हारे साथ जो हुआ, वो ठीक नहीं था।
पर रोने से कुछ नहीं होगा। दिल मजबूत रखो।"
विधि भावुक हो जाती है लेकिन मुस्कराने की कोशिश करती है।
"नहीं बाबूजी... हम नहीं रो रहे। बस... ऐसे ही। आप बैठिए, मैं आपके लिए पानी लाती हूँ।"
(वह अंदर चली जाती है, पानी लाकर देती है...)
कमला प्रसाद जी पानी पीते हुए पूछते हैं,
"कैसी हो बेटी? शहर का काम चल रहा है?"
"बड़े-बड़े बिजनेसमैन आ रहे हैं पास की ज़मीन खरीदने के लिए," — सरपंच बोलते हैं।
"वही ज़मीन जो मैंने आदित्य के नाम पर रखी थी... जहां स्कूल खोलने का सपना था। अब सरकार का दबाव बढ़ रहा है।"
विधि धीमे से बोलती है,
"मैं समझ सकती हूँ बाबूजी।"
"अब क्या करें...? सोच रहा हूँ, सरकार से मदद माँग लूं। वो ज़मीन मैं किसी को नहीं दूंगा... मैंने अपने बेटे के लिए बचा कर रखी है।"
आदित्य का नाम सुनते ही विधि का चेहरा बुझ जाता है। उसकी आँखें नम हो जाती हैं।
कमला प्रसाद बात बदलते हुए कहते हैं,
"अरे हां! आज खाने में कटहल की सब्ज़ी बनवाओ ना। तुम्हारे हाथ की कटहल मतलब... स्वर्ग की थाली!"
(तभी एक आवाज़ आती है...)
"अजी, सुनिए!"
यह सरला थी — कमला प्रसाद की पत्नी।
वो गुस्से से लाल चेहरा लिए बाहर आती है और चिल्लाती है,
"आपको कितनी बार कहा है इस कलमुँही से दूर रहा करिए! देखिए सूरज सिर पर है... अगर इसकी परछाई भी पड़ गई ना, तो आप कहीं के नहीं रहेंगे!"
कमला प्रसाद गुस्से में लकड़ी का लोटा ज़मीन पर पटकते हैं,
"चुप रहो, सरला! तुम्हें पता है तुम क्या बोल रही हो? ये हमारी बहू है!"
"हां हां! बहू है तभी तो बेटी को निगल गई! आप मुझे डांटिए मत, सच कह रही हूँ!"
कमला प्रसाद सख्ती से कहते हैं,
"सरला! तुम्हारा बेटा अपनी गलती से मरा है, इसमें बहू की क्या गलती है?"
सरला भड़कते हुए कहती है,
"बस करिए अब! उसकी चिंता छोड़िए और अपने बाकी काम देखिए!"
"तुम कैसी औरत हो सरला...? खुद एक औरत होकर, दूसरी औरत का दर्द नहीं समझती?"
वो शांत हो जाती है।
कमला प्रसाद फिर धीमे से कहते हैं,
"अगर ये कोई और लड़की होती... तो शायद तुम्हें ज़िंदा छोड़ती भी नहीं। ये तो सब सह रही है... सिर्फ 20 साल की उम्र में विधवा बन गई है। कल को मैं मर जाऊं तो तू भी ऐसी कहलाएगी, कैसा लगेगा तुझे?"
(विधि दौड़ती हुई आती है)
"बाबूजी... ऐसी बातें मत कीजिए! अम्मा जी को कुछ मत कहिए। आप बस ये लिस्ट ले लीजिए, इसमें ज़रूरत की चीज़ें हैं। दुकान से ले आइए... मैं खाना बनाती हूँ।"
कमला प्रसाद विधि से लिस्ट लेते हैं और चुपचाप वहाँ से चले जाते हैं...
---
🌿 क्या आगे होगा...?
क्या सरला कभी विधि को स्वीकार करेगी?
क्या दक्ष गांव में आकर ज़मीन पर कब्ज़ा करेगा?
वेल अगर आपको कहानी पसंद आ रही हो तो प्लीज लाइक कर दीजिए रिव्यू दे दीजिए और कमेंट करके बता दीजिएगा और हां फॉलो जरूर कर लीजिएगा वेल अगर इस स्टोरी पर पांच रिव्यू आ जाते हैं तो मैं आगे के तीन चैप्टर और पोस्ट कर दूंगा शाम तक प्लीज प्लीज प्लीज रिव्यू देखकर जाइए और फॉलो कर लीजिए यार
---
👉🏻