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Saudebazi

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miss yadav

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ये कहानी है विधि और दक्ष की विधि जो एक गांव की सीधी शादी लड़की जिसकी शादी के बाद ही उकसे पति का देहांत हो जाता है जिस वजह से गांव वाले विधि को गलत तरीके से देखते और न जाने क्या क्या नमो से बुलाते वही दूसरी तरफ दक्ष सिंह रायजादा जो एक बहुत बड़ा बिजनेस...

Total Chapters (8)

Page 1 of 1

  • 1. Chapter 1 are ye to karmzali h

    Words: 1037

    Estimated Reading Time: 7 min

    फुलेरा...!

    सुबह के चार बजे थे। चिड़ियों की चहचहाहट अपनी चरम सीमा पर पहुँच चुकी थी। सूरज की लालिमा अब धीरे-धीरे आसमान में फैलने लगी थी। गांव वाले जाग चुके थे — कोई उपले उठा रहा था, तो कोई लकड़ियाँ इकट्ठा कर रहा था। पुरुष समाज के लोग लोटा लेकर खेत की ओर निकल रहे थे।

    चारों तरफ अंधेरा पसरा हुआ था। घरों में छोटी-छोटी लाइटें जल रही थीं... और इन्हीं चहचहाटों के बीच — एक लड़की चुपचाप, शांति से अपने घर के दरवाजे के बाहर बैठी हुई थी।

    उसने सफेद रंग का कपड़ा ओढ़ रखा था... अंधेरे में वह कपड़ा किसी भूतनी जैसा दिख रहा था। वह अपना सिर खंभे से टिकाए, एकटक ज़मीन की ओर देख रही थी। उसकी आंखों से आंसू बह रहे थे...

    तभी—एक औरत कपड़ों की गठरी पटकते हुए पास आती है और कहती है:

    "हरी ओम, महारानी! अभी तक सुबह नहीं हुई क्या? किलो भर कपड़े तालाब से धो लाओ! सूरज निकलने से पहले सब कुछ साफ हो जाना चाहिए... वरना आज का खाना बंद! न जाने किस मनहूस घड़ी में मेरे बेटे ने तुमसे शादी की! खा गई मेरी बेटे को!"



    यह कहकर वह औरत बड़बड़ाते हुए अंदर चली जाती है।

    विधि, जो चुपचाप यह सब सुन रही थी, उसकी आंखों से आंसुओं की धार और तेज़ बहने लगती है... वह अपने आंसुओं को पोंछती है, कपड़े समेटती है और तालाब की ओर चल देती है।

    रास्ते में चलते-चलते वह बुदबुदाती है:

    "तुमने तो कहा था... पूरी ज़िंदगी साथ रहोगे... फिर आए ही क्यों थे, अगर छोड़कर ही जाना था? यह अकेलापन अब खाने को दौड़ता है... आदित्य, आ जाओ...!"



    इतना कहते ही उसकी आंखों से फिर आंसू छलक पड़ते हैं।

    वह कपड़े लेकर तालाब पहुंच जाती है। तालाब की सीढ़ियों से नीचे उतरते हुए, जैसे ही गांव की औरतों की नजर उस पर पड़ती है, वे आपस में बड़बड़ाने लगती हैं:

    "अरे इससे दूर रहो... न जाने कब कोई श्राप दे दे! ब्याह के आते ही पति को खा गई! इसकी परछाई भी पूरे गांव के लिए श्राप है!"



    यह कहकर वे वहां की हर खाली जगह को अपने कपड़ों से भर देती हैं। एक औरत तो सीधे कहती है:

    "यहां जगह नहीं है... दूर जाकर बैठो!"



    विधि, कुछ नहीं कहती। चुपचाप दूसरी ओर जाती है। लेकिन वहां पहुंचते ही फिर वही व्यवहार!

    वह रोते हुए आखिरी कोने में जाकर बैठ जाती है... और कपड़े धोने लगती है। कपड़े धोते-धोते, अचानक फिर एक कर्कश आवाज आती है:

    "हरी ओ करमजाली! सूरज उगने से पहले घर चली जाना! तेरी परछाई भी हमारे लिए घातक है! देखा नहीं विमला की बहू की शादी में गई थी — उसके बेटे को खा गई! तू अपने पति के साथ-साथ औरों के पतियों को भी ले डूबती है! अरे किसी को तो खुश रहने दिया कर!"



    यह सुनकर विधि की आंखें भर आती हैं... और वह कपड़ों को और ज़ोर-ज़ोर से पटककर धोने लगती है — जैसे हर आंसू को उसी कपड़े के साथ धो देना चाहती हो।

    सभी कपड़े धो लेने के बाद सूरज की लालिमा पूरे आकाश पर छा गई थी। विधि कपड़े उठाकर घर की ओर चल देती है। रास्ते में गांव के लोग उसे देखकर किनारे हो जाते हैं। कोई नज़दीक नहीं आता। पुरुष, महिलाएं — सभी उससे दूर रहते हैं... जैसे वह कोई अभिशाप हो।

    तभी एक नन्ही सी बच्ची दौड़ते हुए विधि के पास आती है:

    "विधि दीदी! यह लो... आप रात से कुछ खाई नहीं। मैं खाना लायी हूं... किसी को पता नहीं चलेगा। आप जल्दी खा लो..."



    यह थी सुनीता, विधि की छोटी बहन। दूसरे घर की लड़की... पर दिल से जुड़ी।

    विधि सुनीता से दूर हटते हुए कहती है:

    "सुनीता! मुझसे दूर रह। सूरज निकलने वाला है... मेरी परछाई भी तेरे लिए घातक हो सकती है। मैं नहीं चाहती, मेरी वजह से तुझे कुछ हो..."



    सुनीता, जो केवल 14 वर्ष की थी, उसका हाथ पकड़ते हुए कहती है:

    "क्या बात कर रही हो दीदी...? ऐसा कुछ नहीं होता। गांव वाले बस अफवाहें फैलाते हैं। आपकी वजह से किसी का कुछ नहीं होगा!"



    विधि, कांपते स्वर में कहती है:

    "मुझे नहीं पता सुनीता... पर सच यही है। जहां भी जाती हूं, मुसीबतें खुद-ब-खुद चली आती हैं... मुझसे दूर हो बहन...।"



    तभी—एक तेज़ आवाज़ पीछे से गूंजती है:

    "अरे! कल मोहि मेरे भाग्य फूटे थे जो इस कोख से तुझे जन्म दिया! अब क्या मेरी दूसरी बेटी को भी निगलेगी?!"



    सुनीता और विधि पीछे मुड़कर देखती हैं — सावित्री खड़ी थी... उनकी माँ।

    विधि, कांपते स्वर में कहती है:

    "माँ... आप कैसी बातें कर रही हैं?"



    सावित्री चीख पड़ती है:

    "गलत थोड़ी कह रही हूँ! दूर रह सुनीता से! सब की ज़िंदगियां खा जाती है तू! अब क्या अपनी छोटी बहन की भी ज़िंदगी खाकर मानेगी?"



    सुनीता आगे बढ़ती है, कहती है:

    > "माँ! इसमें दीदी की कोई गलती नहीं है! मैं खुद आई थी उनके पास!"



    सावित्री भड़क उठती है:

    "चुप कर! तू घर चल! तुझे बताती हूँ। और तू — तू तो बड़ी समझदार है ना? तुझे समझ नहीं आता क्या? देख लड़की! मेरी बेटी से दूर रह... अगर आइंदा उसके आसपास भी दिखी — टांगे तोड़ दूंगी! और अब तो धूप भी निकलने लगी है... चली जा यहां से... वरना मुझसे बुरा कोई नहीं होगा!"



    इतना सब सुनकर, विधि चुपचाप कपड़ों की गठरी उठाती है... और घर की ओर चल पड़ती है। उसकी आंखों से लगातार अश्रुधारा बह रही थी... पर वह शांत थी।

    उसके मन में बस एक ही बात गूंज रही थी — "एक दिन सब ठीक होगा..."

    वह आदित्य की बातों को याद करती है और बुदबुदाती है:

    "आदित्य... मैं जिंदा हूं... बस तुम्हारे लिए। तुमने कहा था — तुम्हारे जाने के बाद तुम्हारे घरवालों का ख्याल रखूंगी। और यह वादा... मैं मरते दम तक निभाऊंगी।"

    पर आदित्य मेरे से यह नहीं सहा जा रहा मुझे भी अपने पास बुला लो ना की दुनिया वाले बहुत जालिम है प्लीज आदित्य क्यों क्यों नहीं सुन रहे मेरी भगवान मुझे मेरे आदित्य के पास भेज दो मुझे और कुछ नहीं चाहिए यह कहते हुए उसकी आंखों के आंसू के धाराएं तेज हो रहे थे बस चुपचाप से अपने आंसुओं को पहुंचती भगवान से विनती करती आगे जा रही थी थोड़ी देर बाद उसे उसका घर दिखाई देने लगता है वह अपने आंखों को साफ करते हुए घर के दरवाजे पर पहुंच जाती है

  • 2. Saudebazi - Chapter 2

    Words: 1004

    Estimated Reading Time: 7 min

    🏡 फुलेरा

    दरवाज़े पर पहुँचकर विधि अंदर घुसने ही वाली थी कि पीछे से कड़कती हुई आवाज़ आई —

    > "अरे रुक जा! हे मेरे राम जी! इस लड़की को कितना समझाया है! दिमाग क्या घास चरने गया है तेरा? घर में और भी लोग हैं, दो बेटियाँ हैं! अगर तेरी परछाई उन पर पड़ गई तो शादी कौन करेगा उनकी?!"



    > "कितनी बार कहा है — तेरा घर, तेरी झोपड़ी उधर है! इस दरवाज़े की दहलीज़ लाँघने की ज़रूरत भी नहीं है तुझे!"



    यह सुनते ही विधि के कदम वहीं ठिठक जाते हैं। वह कपड़े की गठरी ज़मीन पर रखते हुए धीमे स्वर में कहती है —

    > "माँ जी, मैं अंदर नहीं आ रही थी... बस ये कपड़े लेकर आई थी। सब साफ़ हो गए हैं।"



    सरला (सास) गुस्से से बाहर आती है, कपड़े विधि के हाथ से छीनते हुए कहती है —

    > "तुझे क्या, कपड़े धोना भी सिखाना पड़ेगा? ये देख! गंदगी लगी हुई है! तुझसे कहना ही बेकार है!"



    यह कहकर वह कपड़े उठाकर भीतर चली जाती है।

    विधि, अपने आंसुओं को पोंछते हुए चुपचाप अपनी झोपड़ी की ओर बढ़ जाती है। घर के दूसरी छोर पर एक छोटी-सी झोपड़ी बनी थी। चारों ओर हरियाली थी, फूल खिले हुए थे, और पंछियों का चहचहाना सुनाई देता था।

    उस झोपड़ी को विधि ने खुद सजाया था, मानो वह कोई प्रदर्शनी का हिस्सा हो — पर उसकी आत्मा हर रंग से खाली थी।

    वह अंदर जाती है, बिस्तर पर बैठती है, सामने रखी आदित्य की तस्वीर उठाकर अपने सीने से लगाती है... और फूट-फूट कर रोने लगती है...
    टूट कर। बेहिसाब। बेकाबू।


    ---

    🏙️ दिल्ली

    दिल्ली — सपनों का शहर।
    जहाँ हर इंसान कुछ बनने आता है,
    जहाँ हर कोना एक नई शुरुआत की उम्मीद जगाता है।

    इसी दिल्ली में एक नाम था जो तेज़ी से चमक रहा था —

    > "दक्ष सिंह रायज़ादा!"



    उम्र सिर्फ 28 साल।
    लंबा, गठीला शरीर, दूध-सा गोरा रंग, हल्की दाढ़ी-मूंछ... और आँखों में ऐसा तेज़ जैसे कोई शिकारी हो।

    अपने आलीशान ऑफिस में दक्ष, मोबाइल में कुछ देख रहा था।
    तभी दरवाज़े पर दस्तक हुई।

    > "यस?" — दक्ष ने सिर उठाया।



    दरवाज़े पर एक 30 वर्षीय युवक खड़ा था। उसके पीछे दो बॉडीगार्ड्स थे, हाथों में बंदूकें।
    वो युवक बुरी तरह काँप रहा था। उसकी पैंट... डर के मारे गीली हो चुकी थी।

    वह धीरे-धीरे आगे आया, और दक्ष के पैरों में गिर पड़ा।

    > "मालिक... माफ कर दीजिए! बहुत बड़ी गलती हो गई है... एक बार... बस एक बार माफ कर दीजिए!"



    दक्ष की आँखों में एक भी भाव नहीं था। वह शांत स्वर में, मगर बर्फ जैसी ठंडी आवाज़ में बोला —

    > "तुम जानते हो ना, दक्ष सिर्फ उन्हें माफ करता है जिनसे गलती 'अनजाने' में होती है?"



    > "...और तुमने? तुमने तो जानबूझकर मुझे धोखा दिया... मेरी ही थाली में खाकर मुझे ही डसने चले थे। कितने पैसे मिले थे, बोल?"



    > "मालिक... गलती हो गई... लालच में आ गया... दोबारा ऐसा नहीं होगा। माफ कर दीजिए!"



    दक्ष, अब गुस्से में।
    उसने अपना पैर उठाकर सीधे उस आदमी के हाथ पर दे मारा।

    > "माफ़ी? तब कहाँ थी माफ़ी जब पीठ पीछे वार कर रहा था?"



    अब वह आदमी चिल्ला उठा —

    > "आह... मालिक!"



    दक्ष ने उसका हाथ बूटों के नीचे मसलते हुए कहा —

    > "ये तो बस शुरुआत है... असली माफी अब ऊपर जाकर मांगना, भगवान से!"



    इतना कहते ही वह अपने गार्ड्स को इशारा करता है।

    बॉडीगार्ड्स उसे घसीटते हुए बाहर ले जाते हैं।
    वो तड़पता है, गिड़गिड़ाता है —

    > "मालिक! माफ कर दो! एक मौका और... मालिक!"



    लेकिन दक्ष, अब फिर से फोन उठाता है और शांत चेहरा लिए चेयर पर बैठ जाता है।
    मानो कुछ हुआ ही न हो।


    ---

    ⚖️ प्रवीण की एंट्री

    दूसरी दस्तक होती है।
    दक्ष सिर उठाता है।

    > "आओ, वकील साहब! तुम्हारा ही इंतज़ार था।"



    प्रवीण, उसका वकील और दोस्त, अंदर आता है। सामने कुर्सी पर बैठते हुए एक फाइल सामने रखता है।

    > "ये रही ज़मीन की फाइल।"



    दक्ष, हँसते हुए:

    > **"तू ही तो मेरा असली दोस्त है।"



    प्रवीण घूरते हुए:

    > "चल अब मस्का मारना बंद कर और असली बात पर आ। ये जो कर रहा है, वो सब illegal है।"



    दक्ष (चुटकी लेते हुए):

    > "अरे भाई, सही काम करना तो मैंने सीखा ही नहीं। और तुझे किसलिए बुलाया है? इसी illegal काम को legal बनाने के लिए!"



    > "देख, तू मेरे काम आएगा... और मैं तेरे। यहीं से भाईचारा चलता रहेगा।"



    प्रवीण कुछ देर चुप रहता है। फिर फाइलें खोलकर कहता है —

    > "डॉक्यूमेंट तो फर्जी बनवा लिया है, लेकिन काम तब होगा जब पूरे गाँव वाले उस पर साइन करेंगे। जब तक उनके सिग्नेचर नहीं होंगे, ज़मीन हमारी नहीं होगी।"



    दक्ष (गंभीर होकर):

    > "‘हम’? इंटरेस्टिंग..."



    > "तो चलो, साइन करवाते हैं!"



    प्रवीण, घबराया हुआ, धीमे स्वर में:

    > "इतना आसान नहीं है दक्ष।"
    "गाँव के मुखिया — कमला प्रसाद — उस ज़मीन के संरक्षक हैं। जब तक वो हाँ नहीं करेंगे, कोई गाँववाला साइन नहीं करेगा।"



    दक्ष (गुस्से में):

    > "तो चलो... उन्हीं से हाँ करवा लेते हैं!"



    प्रवीण (धीरे से):

    > "तुम्हें नहीं पता दक्ष, न जाने कितने बड़े-बड़े लोग वहाँ गए हैं... पर उनमें से कोई भी उन्हें मना नहीं सका।"


    यह सुन दक्ष जोर-जोर से हंसने लगता है हां कितने लोग गए थे उनसे हमें क्या लेना देना अभी तक दक्ष नहीं गया साथ तुम्हें पता नहीं ताक्षी एक बार जिस चीज को ठान ले उसे लेकर रहता है और वैसे भी मुझे पता है यह कैसे करना है कैसे करोगे दक्ष तुमने कुछ सोचा है दक्ष अपने टेबल पर रखें पेपर बॉल को उठकर घूमने लगता है और एक शैतानी मुस्कान के साथ कहता है तुम बस देखते जाओ मैं क्या करता हूं वह खुद मुझे इस जमीन को मेरे हवाले करेंगे



    ---

    🌀 अब क्या करेगा दक्ष?

    ⚔️ क्या वह फुलेरा की पवित्र ज़मीन छीन पाएगा?

    🥀 क्या विधि फिर एक बार किसी तूफान की चपेट में आने वाली है?

    ➡️ जानने के लिए पढ़ते रहिए अगला भाग...

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    Review दीजिए और Comment करना मत भूलिएगा।


    ---

  • 3. Saudebazi - Chapter 3

    Words: 1092

    Estimated Reading Time: 7 min

    दक्ष प्रवीण से कहता है,
    "सुनो, कल के कल हमें गांव के लिए निकलना है। तुम भी मेरे साथ चल रहे हो।"

    प्रवीण थोड़ा घबराते हुए जवाब देता है,
    "पर... मैं... मैं तो—"

    दक्ष बीच में काटते हुए सख्ती से बोलता है,
    "मैं तुमसे बात नहीं कर रहा हूँ, तुम्हें ऑर्डर दे रहा हूँ!"

    दक्ष की गुस्से भरी आवाज़ सुनकर प्रवीण सहम जाता है। वो धीरे से सिर हिलाते हुए कहता है,
    "ठीक है... मैं चलने के लिए तैयार हूँ।"

    (दस्तक...!)
    तभी केबिन के गेट पर एक और दस्तक होती है। प्रवीण और दक्ष दोनों चौंककर दरवाज़े की ओर देखते हैं।

    दरवाज़े पर वासु खड़ा होता है।

    वासु को देखकर दक्ष गहरी सांस लेकर कहता है,
    "तुम यहाँ क्या कर रहे हो, भाई?"

    वासु मुस्कुराकर कहता है,
    "भैया, मैंने सुना कि आप कल किसी एडवेंचरस जगह पर जा रहे हैं!"

    दक्ष संक्षेप में जवाब देता है,
    "हाँ... काम के सिलसिले में गांव जा रहा हूँ।"

    वासु चहककर कहता है,
    "तो मैं भी आपके साथ चल रहा हूँ!"

    दक्ष थोड़ा चिढ़ते हुए बोलता है,
    "वासु, ये कोई पिकनिक नहीं है। हम काम के लिए जा रहे हैं।"

    "भाई... प्लीज़! चलने दो ना। I promise, मैं कोई शैतानी नहीं करूंगा। मैं चुपचाप से बस आपका काम देखूंगा। आप काम करना, मैं गांव घूम लूंगा!"

    दक्ष थोड़ी देर चुप रहता है। वासु के भोलेपन में भरा प्यार उसे रोक नहीं पाता।

    दक्ष धीरे से कहता है,
    "देख बेटा... हम काम से जा रहे हैं। अगली बार ले चलेंगे, पक्का।"

    वासु नाराज़ होते हुए मुंह फुलाता है,
    "भैया! मैं बच्चा नहीं हूँ! अब 20 साल का हो गया हूँ! लेकिन आप अभी भी मुझे बच्चों की तरह ट्रीट करते हैं। अगर आप मुझे नहीं ले गए ना, तो मैं आपसे बात नहीं करूंगा!"

    यह कहकर वासु वहां से चला जाता है।
    दक्ष उसकी ओर देखता है... और फिर थककर कुर्सी पर बैठ जाता है।

    "बिना बात के परेशान कर देता है..." — वो बड़बड़ाता है।

    प्रवीण हंसते हुए बोलता है,
    "तो तूने उसे सर पर क्यों चढ़ा रखा है?"

    दक्ष गंभीर होते हुए कहता है,
    "वासु मेरी ज़िंदगी है। मम्मी के जाने के बाद, बस वही है जिसने मुझे हंसना सिखाया है। मैं उसे छोड़ नहीं सकता... कभी नहीं। वो मेरी ज़िम्मेदारी है।"

    दक्ष की बात सुनकर प्रवीण गहरी सांस लेकर कहता है,
    "मुझे क्लाइंट से मिलने जाना है। मैं कल सुबह तुमसे मिलूंगा।"

    "हाँ वकील साहब, ध्यान रखना — कल हमें गांव चलना है।"
    यह कहकर प्रवीण मुस्कुराता है और चला जाता है।

    प्रवीण के जाते ही दक्ष जेब से फोन निकालता है और कॉल लगाता है।

    "दीपक, कल गांव चलना है। तैयार रहना।"

    फोन के दूसरी तरफ से आवाज़ आती है,
    "ठीक है सर।"

    दीपक — दक्ष का सबसे भरोसेमंद साथी, राइट हैंड मैन।


    -

    दूसरी तरफ…! (स्थान – फुलेरा गांव)

    विधि, अपनी झोपड़ी में बैठी रो रही थी। उसकी सिसकियाँ हवा में गूंज रही थीं।
    तभी झोपड़ी के बाहर से किसी के खांसने की आवाज़ आती है।

    विधि झट से अपने आँसू पोंछती है, आदित्य की तस्वीर को बगल में रखती है, और सिर पर पल्लू डालकर बाहर आती है।

    सामने एक बुजुर्ग पुरुष खड़े थे। उन्हें देखकर विधि उनके चरणों में झुक जाती है।

    "प्रणाम बाबूजी!"

    वो व्यक्ति आशीर्वाद देते हुए कहते हैं,
    "सदा खुश रहो, बेटी।"

    यह कोई और नहीं, गांव के सरपंच – कमला प्रसाद जी थे।

    वो विधि की आँखों की नमी देखकर पूछते हैं,
    "बेटी, क्यों रो रही हो? मुझे सब पता है... तुम्हारे साथ जो हुआ, वो ठीक नहीं था।
    पर रोने से कुछ नहीं होगा। दिल मजबूत रखो।"

    विधि भावुक हो जाती है लेकिन मुस्कराने की कोशिश करती है।

    "नहीं बाबूजी... हम नहीं रो रहे। बस... ऐसे ही। आप बैठिए, मैं आपके लिए पानी लाती हूँ।"

    (वह अंदर चली जाती है, पानी लाकर देती है...)

    कमला प्रसाद जी पानी पीते हुए पूछते हैं,
    "कैसी हो बेटी? शहर का काम चल रहा है?"

    "बड़े-बड़े बिजनेसमैन आ रहे हैं पास की ज़मीन खरीदने के लिए," — सरपंच बोलते हैं।

    "वही ज़मीन जो मैंने आदित्य के नाम पर रखी थी... जहां स्कूल खोलने का सपना था। अब सरकार का दबाव बढ़ रहा है।"

    विधि धीमे से बोलती है,
    "मैं समझ सकती हूँ बाबूजी।"

    "अब क्या करें...? सोच रहा हूँ, सरकार से मदद माँग लूं। वो ज़मीन मैं किसी को नहीं दूंगा... मैंने अपने बेटे के लिए बचा कर रखी है।"

    आदित्य का नाम सुनते ही विधि का चेहरा बुझ जाता है। उसकी आँखें नम हो जाती हैं।

    कमला प्रसाद बात बदलते हुए कहते हैं,
    "अरे हां! आज खाने में कटहल की सब्ज़ी बनवाओ ना। तुम्हारे हाथ की कटहल मतलब... स्वर्ग की थाली!"

    (तभी एक आवाज़ आती है...)

    "अजी, सुनिए!"
    यह सरला थी — कमला प्रसाद की पत्नी।

    वो गुस्से से लाल चेहरा लिए बाहर आती है और चिल्लाती है,
    "आपको कितनी बार कहा है इस कलमुँही से दूर रहा करिए! देखिए सूरज सिर पर है... अगर इसकी परछाई भी पड़ गई ना, तो आप कहीं के नहीं रहेंगे!"

    कमला प्रसाद गुस्से में लकड़ी का लोटा ज़मीन पर पटकते हैं,
    "चुप रहो, सरला! तुम्हें पता है तुम क्या बोल रही हो? ये हमारी बहू है!"

    "हां हां! बहू है तभी तो बेटी को निगल गई! आप मुझे डांटिए मत, सच कह रही हूँ!"

    कमला प्रसाद सख्ती से कहते हैं,
    "सरला! तुम्हारा बेटा अपनी गलती से मरा है, इसमें बहू की क्या गलती है?"

    सरला भड़कते हुए कहती है,
    "बस करिए अब! उसकी चिंता छोड़िए और अपने बाकी काम देखिए!"

    "तुम कैसी औरत हो सरला...? खुद एक औरत होकर, दूसरी औरत का दर्द नहीं समझती?"

    वो शांत हो जाती है।

    कमला प्रसाद फिर धीमे से कहते हैं,
    "अगर ये कोई और लड़की होती... तो शायद तुम्हें ज़िंदा छोड़ती भी नहीं। ये तो सब सह रही है... सिर्फ 20 साल की उम्र में विधवा बन गई है। कल को मैं मर जाऊं तो तू भी ऐसी कहलाएगी, कैसा लगेगा तुझे?"

    (विधि दौड़ती हुई आती है)

    "बाबूजी... ऐसी बातें मत कीजिए! अम्मा जी को कुछ मत कहिए। आप बस ये लिस्ट ले लीजिए, इसमें ज़रूरत की चीज़ें हैं। दुकान से ले आइए... मैं खाना बनाती हूँ।"

    कमला प्रसाद विधि से लिस्ट लेते हैं और चुपचाप वहाँ से चले जाते हैं...


    ---

    🌿 क्या आगे होगा...?

    क्या सरला कभी विधि को स्वीकार करेगी?

    क्या दक्ष गांव में आकर ज़मीन पर कब्ज़ा करेगा?



    वेल अगर आपको कहानी पसंद आ रही हो तो प्लीज लाइक कर दीजिए रिव्यू दे दीजिए और कमेंट करके बता दीजिएगा और हां फॉलो जरूर कर लीजिएगा वेल अगर इस स्टोरी पर पांच रिव्यू आ जाते हैं तो मैं आगे के तीन चैप्टर और पोस्ट कर dungi शाम तक प्लीज प्लीज प्लीज रिव्यू देखकर जाइए और फॉलो कर लीजिए यार
    ---

    👉🏻

  • 4. Saudebazi - Chapter 4

    Words: 1349

    Estimated Reading Time: 9 min

    कमला प्रसाद के जाने के बाद, जैसे समय ने अपनी गति कुछ क्षणों के लिए थाम ली हो। सरल, जो अब तक एक कोने में चुपचाप खड़ी थी, बिना कुछ कहे वहाँ से धीरे-धीरे चली जाती है। उसका चेहरा निर्विकार था, पर उसकी आँखों में जो मौन था — वह बहुत कुछ कह रहा था।

    वहीं विधि की आँखें भर आई थीं। उसने जल्दी-जल्दी आँसू पोंछे, ताकि कोई देख न ले। पल्लू को आँखों तक खींचकर वह अंदर झोपड़ी की ओर चली गई। झोपड़ी के भीतर अंधेरा था, पर शायद उससे भी अधिक अंधकार उसके मन में उतर चुका था।


    ---



    अगले दिन भोर की रेखा क्षितिज पर खिंच ही रही थी कि गाँव में अचानक फिर से हलचल मच गई। पर यह हलचल वैसी नहीं थी जैसी किसी त्योहार या उत्सव की होती है। यह तो एक चिंता की गंध लिए हुए थी — जैसे कोई अनहोनी घट चुकी हो।

    गाँव वाले इधर-उधर भाग रहे थे। कुछ के चेहरे पर थकान थी, तो कुछ पर भय।
    कमला प्रसाद सुबह-सुबह ही अपने घर से निकल चुके थे — बिना किसी को बताए, जैसे कोई बड़ी बात छुपानी हो।

    उसी समय गाँव की धूल भरी सड़क पर एक शहरी गाड़ी आकर रुकती है। गाड़ी चमचमाती थी, और उसके रुकते ही दरवाज़ा खुलता है — तीन युवक बाहर निकलते हैं।
    प्रवीण, जो सबसे आगे था, अपने चेहरे से चश्मा हटाते हुए इधर-उधर देखता है।
    दक्ष, उसकी बगल में, थोड़ी नाराज़गी और थकान के साथ गाड़ी से बाहर आता है।
    वासु, सबसे शांत, बस गाड़ी की छाया में खड़ा रह जाता है।

    प्रवीण दरवाज़े के पास जाकर दस्तक देता है —
    "अरे, कोई है?"

    कुछ देर तक कोई उत्तर नहीं आता।

    फिर झोपड़ी का दरवाज़ा चरमराता है... और सफेद साड़ी में लिपटी विधि प्रकट होती है।

    उसकी आँखें अब भी थोड़ी सूजी हुई थीं, पर चेहरा कठोर और संयमित था।
    पल्लू को सिर पर कसकर रखे हुए उसने दरवाज़ा खोला और धीमे स्वर में कहा —
    "आप लोगों को सब्र नाम की चीज़ नहीं है क्या? कब से दरवाज़ा खटखटा रहे हैं... हमने कहा ना, हम आ रहे थे।"

    दक्ष, जो शहरी अभिजात्य का दंभ लिए खड़ा था, बात काटते हुए बोला —
    "तुम लोग बोल नहीं सकते क्या? मुँह में पान दबाकर रखा है क्या?"

    विधि (कठोर स्वर में):
    "देखिए बाबू, ज़्यादा बहस मत करिए। किस काम से आए हैं, बताइए और आगे बढ़िए।"

    दक्ष (उखड़ते हुए):
    "और अगर नहीं गए तो? हम आप जैसों को हटाना अच्छे से जानते हैं।"

    वातावरण अचानक तनावपूर्ण हो गया।

    विधि, जो अब तक संयमित थी, पास में रखी बाल्टी उठाती है और एक क्षण में ही दक्ष पर पानी उड़ेल देती है।
    दक्ष हड़बड़ाकर पीछे हटता है। उसकी शर्ट और पैंट पूरी तरह भीग चुकी होती है।

    "ब्लडी इडियट!" — वह चिल्लाता है।
    "क्या यही तरीका है किसी का स्वागत करने का? पागल औरत!"

    वासु और प्रवीण एक-दूसरे की ओर देखते हैं और मंद मुस्कान उनके चेहरे पर उभर आती है — जैसे उन्हें पहले ही इस स्थिति की उम्मीद थी।

    प्रवीण आगे बढ़ता है और शांति से बोलता है —
    "हम सरपंच जी से मिलने आए हैं। अगर वे घर पर नहीं हैं, तो कृपया बता दीजिए।"

    विधि, अब थोड़ा शांत होकर, घूँघट को और आगे खींचते हुए कहती है —
    "वो तो वैद्य के पास गए हैं। गाँव में एक विपत्ति आई है — सब वहीं गए हैं। आप चाहें तो वहीं चले जाएँ।"

    प्रवीण, दक्ष की ओर देखता है और कहता है —
    "चलो, इंतज़ार करते हैं। सरपंच से मिलना ज़रूरी है।"

    तीनों वापस गाड़ी में बैठते हैं। गाड़ी को एक पेड़ की छाया में खड़ा कर दिया जाता है। समय धीरे-धीरे खिसकने लगता है... सूरज अब ढलने को है।


    ---


    शाम के झुटपुटे में सरपंच जी और सरला लौट रहे थे।

    सरला की नज़र गाड़ी पर पड़ती है और वह चौंक जाती है —
    "बाबू साहब! आप लोग कौन?"

    प्रवीण शीशा नीचे करता है और मुस्कराकर कहता है —
    "हम सरपंच जी से मिलने आए हैं, शहर से।"

    सरला मुस्कुराते हुए कहती है —
    "अरे! तो आप लोग बाहर क्यों बैठे हैं? अंदर आइए, अब सरपंच जी आ गए हैं।"

    तीनों युवक गाड़ी से उतरते हैं।
    सरला की नज़र जब दक्ष पर पड़ती है, जो पूरी तरह भीगा हुआ था, तो वह फिक्रमंद हो उठती है —
    "अरे बाबू साहब! आप तो पूरे भीगे हुए हैं। आपको तो ज़रूर सर्दी लग जाएगी। जल्दी आइए, कपड़े बदल लीजिए।"

    दक्ष, अपने कपड़ों की ओर देखते हुए गुस्से से कहता है —
    "न जाने एक लड़की — सफेद साड़ी में थी — उसने पानी फेंक दिया। कितने वाहियात लोग हैं यहाँ!"

    सरला का चेहरा सख्त हो जाता है —
    "उस कलमुँही ने तो जीना हराम कर दिया है! बाबू, उसकी तरफ़ से मैं माफ़ी माँगती हूँ। आज मैं उसे छोड़ूँगी नहीं!"

    वो तेज़ी से गेट की ओर बढ़ती है और चिल्लाती है —
    "हरिओम! करमजाली! शहरी बाबू पर पानी क्यों डाला रे?"

    विधि भागती हुई आती है, सिर झुकाए हुए, और कहती है —
    "माझी… वो अजीब तरीके से बोल रहे थे, तो बस... पानी डाल दिया।"

    सरला क्रोध में काँपती हुई कहती है —
    "कोई तरीका होता है, घर आए मेहमान के स्वागत का? माफ़ी माँगो अभी!"

    विधि चुपचाप खड़ी रहती है, उसका सिर झुका होता है।
    सरला पास में रखा डंडा उठाती है और उसके पास बढ़ती है।

    प्रवीण बीच में आकर कहता है —
    "जाने दीजिए आंटी, इसकी ज़रूरत नहीं है।"

    सरला (जिद में):
    "नहीं बेटा, रुक! मैं इसे बताती हूँ... माफ़ी तो माँगेगी ये अभी!"

    विधि डरते हुए कहती है —
    "माफ़ कर दीजिए माझी… मुझसे ग़लती हो गई…"
    (उसकी आँखें नम थीं।)

    दक्ष आगे बढ़ता है और मुस्कराकर कहता है —
    "ग़लती की माफ़ी नहीं, सज़ा मिलती है।"

    "तुमने मेरे कपड़े गंदे किए हैं — इन्हें साफ़ तुम ही करोगी।"

    सरला हँसती हुई कहती है —
    "हाँ हाँ, क्यों नहीं बेटा! यही धोएगी। चिंता मत करो, अच्छे से धुलकर वापस दे देगी!"




    घर के आँगन में चहल-पहल बढ़ गई थी।
    सरला ने तीनों युवकों को अंदर बुलाया, उन्हें बिछे हुए पलंग पर बैठने का आग्रह किया।
    चारों ओर धूप धीमे-धीमे उतर रही थी, और शाम की गंध हवा में घुलने लगी थी।

    प्रवीण, जो अब तक सबसे शांत और सौम्य रहा था, धीरे से बोला —
    "दरअसल… हम आदित्य के दोस्त हैं।"

    उसका इतना कहना था कि जैसे सरला के भीतर कुछ काँप गया।
    उसके हाथ में रखा लोटा गिरते-गिरते बचा।
    आँखों में नमी भर आई, और होंठ काँपते हुए बुदबुदाए —
    "आ… आदित्य?"

    सरला (भावुक होकर):
    "बेटा, ये पहले क्यों नहीं बताया?"

    उसने अपनी साड़ी के आँचल से आँखें पोंछीं और तीनों को और भी आत्मीयता से आमंत्रित किया —
    "आओ… आओ बेटा, अंदर आओ। ये तो तुम्हारा ही घर है।"

    वह तीनों को बड़े स्नेह से आँगन में लेकर आती है। वहाँ छायादार पेड़ के नीचे खाट पर साफ़ चादर बिछाकर बिठाती है।
    दक्ष अब भी भीगा हुआ था, और असहज लग रहा था।

    सरला ने विधि की ओर देखा, जो अब तक चुपचाप किनारे खड़ी थी।

    "ए री विधि!" — वो आवाज़ लगाती है —
    "बाबू साहब को गुसलखाना दिखा दे। और इनके कपड़े धोकर अच्छे से सुखा देना।"

    विधि ने सिर हिलाया और धीमे कदमों से दक्ष की ओर बढ़ी।
    उसकी आँखें अब नम थीं, मगर चेहरा ठंडा और संयमित।

    दक्ष, जो अब तक चिढ़चिढ़ा महसूस कर रहा था, बैग से कपड़े निकालते हुए विधि की ओर देखता है और कटाक्ष करता है —
    "कहाँ है तुम्हारा गुसलखाना? वही जहाँ से पानी उड़ेलती हो?"
    (चेहरे पर तिरस्कार भरी मुस्कान थी।)

    विधि (धीरे, टूटी आवाज़ में):
    "लिए... मेरे पीछे आइए।"

    वो आगे-आगे चलने लगती है, और दक्ष उसके पीछे-पीछे।

    गुसलखाने के पास पहुँचकर विधि रुकती है।
    उसके होंठ काँपते हैं, आँखें भर जाती हैं, मगर वो कुछ कहती नहीं।

    "यही है। जाकर नहा लीजिए।" — वह धीमे स्वर में कहती है और दूसरी ओर मुड़ने लगती है।

    दक्ष हँसता है —
    "आ गया मज़ा? दोबारा मुझसे पंगा लेने की सोचो भी मत। वरना क्या हाल करूँगा, तुम सोच भी नहीं सकती।"

    विधि, उसकी बात सुनती है, पर कोई उत्तर नहीं देती।
    वो चुपचाप लौट जाती है… जैसे हर ताना, हर चोट, अब उसे चुभती नहीं —
    या शायद वो चुभन की आदत बना चुकी है।

  • 5. Saudebazi - Chapter 5

    Words: 1042

    Estimated Reading Time: 7 min

    शाम का वक्त हो चुका था। लगभग सूरज ढल चुका था।
    दक्ष नहाकर बाहर आया। उसने एक ग्रे लोअर और सफेद टी-शर्ट पहन रखी थी। बालों से अब भी पानी की बूंदें टपक रही थीं। चेहरे पर हल्की थकावट थी, पर आंखों में उत्सुकता झलक रही थी।

    तभी कमला प्रसाद जी आंगन में दाखिल हुए।
    उन्हें देखते ही प्रवीण खाट से उठता है और झुककर प्रणाम करता है।

    कमला प्रसाद जी मुस्कुराते हुए बोले, “खुश रहो बेटा।”
    फिर सबको बैठने का इशारा करते हुए बोले, “हां, बताइए... आप लोग यहां कैसे आना हुआ?”

    तभी सरल उत्साह से बोल पड़ी, “अरे! ये आदित्य के दोस्त हैं क्या? ओह! माफ कीजिए बेटा, हम पहचान नहीं पाए...।”

    वासु ने धीमे स्वर में कहा, “कोई बात नहीं दादाजी, आप हमें जानेंगे भी कैसे... हम पहली बार यहां आए हैं।”

    वासु की बात सुनकर कमला प्रसाद जी थोड़े मुस्कराए।
    दक्ष पास आकर खाट पर बैठते हुए बोला, “दरअसल, हम यहां पास के गांव में कुछ काम से आए थे... तो सोचा आप सबसे भी मिल लें।”

    “अच्छा किया बेटा, आ गए।... सुनो सरल, रिया कहां रह गई?” कमला प्रसाद जी ने पूछते हुए सिर मोड़ा।

    सरल ने रसोई से आवाज दी, “अरे, आती होगी जी। मीना के साथ बाजार गई थी।”

    “अच्छा सुनो, शाम के खाने का इंतज़ाम शुरू कर दो।”

    “अभी किए देती हूं,” सरल बोली।

    कमला प्रसाद जी ने फिर दक्ष की ओर देखा, “हां बेटा, कहो, क्या बात है?”

    दक्ष ने थोड़ी संजीदगी से कहा, “अंकल जी... हमें आपकी वो पुश्तैनी ज़मीन चाहिए थी। हम वहां एक बिज़नेस खोलना चाहते हैं।”

    ये सुनते ही कमला प्रसाद जी की आंखें गुस्से से लाल हो गईं।
    उन्होंने दांत भींचते हुए कहा, “आप लोगों को इतना तो पता होगा कि वो ज़मीन हम किसी को नहीं देंगे! वो ज़मीन... हमारे लिए बहुत कीमती है!”

    दक्ष शांत स्वर में बोला, “हां अंकल, हमें पता है। आपने वो ज़मीन आदित्य के लिए बचा कर रखी थी... उसके सपनों के लिए। बस... एक बार हमारी बात सुन लीजिए। उसके बाद जैसा उचित लगे, कीजिएगा।”

    कमला प्रसाद जी थोड़ी देर चुप रहे... गहरी सांस लेकर बोले, “कहिए...”

    दक्ष ने गंभीरता से कहा, “हम वहां एक ऐसा बिज़नेस खोलना चाहते हैं, जिससे गांव के लोगों को रोज़गार मिले... और तरक्की का मौका। और बदले में, हम शहर में आपको वैसी ही ज़मीन देंगे, जहां हम ‘आदित्य अनाथ आश्रम’ खोलेंगे... जहाँ अनगिनत अनाथ बच्चों को आश्रय मिलेगा।”

    कमला प्रसाद जी कुछ सोचते हुए बोले, “विचार तो सही है... हम इस पर विचार करके आपको जवाब देंगे।”

    “ज़रूर, दादाजी,” दक्ष ने हल्की मुस्कान के साथ कहा और प्रवीण की ओर देखा।

    प्रवीण हैरानी से पूछ बैठा, “तुम्हें इतना सब कुछ कैसे पता?”

    दक्ष ने शरारती मुस्कान के साथ कहा, “पता तो बहुत कुछ है... बस ज़ाहिर नहीं करता! ऐसे ही नहीं, अब तक ‘बिगेस्ट बिज़नेसमैन’ का खिताब जीता है मैंने। बिज़नेस करना... बच्चों का खेल नहीं।”

    इतने में मौसम अचानक से बिगड़ने लगा। तेज हवाएं चलने लगीं, और बादलों की गड़गड़ाहट सुनाई दी।

    कमला प्रसाद जी चिंतित होकर बोले, “अरे सरल! मौसम बिगड़ रहा है... कपड़े वगैरह अंदर कर लो! और बच्चों के लिए खटिया अंदर ही बिछा देना।”

    सरल ने दूर से आवाज़ दी, “जी! आप निश्चिंत रहिए।”

    धीरे-धीरे रात हो गई थी। ठंडी हवाएं चलने लगी थीं।
    खाना तैयार हो चुका था। विधि सबको प्यार से खाना परोस रही थी।

    सबने तृप्त होकर भोजन किया और फिर अपने-अपने बिस्तरों की ओर चले गए।
    लगभग सभी लोग सो चुके थे।

    विधि आखिरी बार रसोई में देखने गई, लेकिन वहां एक कण भी खाना नहीं बचा था।
    वो मायूस हुई। पेट पर हाथ रखते हुए आंसू पोंछे और चुपचाप बर्तन उठाकर धोने लगी।

    दूर एक कोने में बैठा दक्ष ये सब देख रहा था।
    विधि के जाने के बाद, सरल और रिया कुछ खाना अपने पीछे छिपाकर गाय को डाल देती हैं।

    दक्ष ने ये सब चुपचाप देखा। उसे एक पल के लिए अजीब लगा।
    फिर वो अपने फोन में कुछ करने लगा।

    विधि, जो भूख से परेशान थी, अकेले बर्तन धोती रही।
    रात के करीब 12 बज चुके थे। सब सो चुके थे।

    तभी विधि को घर में किसी की आहट सुनाई दी।
    उसका दिल तेजी से धड़कने लगा।

    "कहीं कोई चोर तो नहीं...?" वह डरते-डरते पीछे की ओर बढ़ने लगी।

    तभी उसकी नज़र सामने पड़ी — रिया एक लड़के के साथ कोने में खड़ी थी।
    दोनों की हरकतें ऐसी थीं कि कोई भी देखे तो शर्म से सिर झुका ले।

    विधि गुस्से और हैरानी में चिल्लाई, “रिया! ये क्या कर रही हो तुम!?”

    रिया चौंक गई। उसकी आंखें चौड़ी हो गईं।
    जल्दी से लड़के से फुसफुसाकर बोली, “तुम भागो! आगे मैं संभाल लूंगी!”

    फिर गुस्से में विधि के पास आकर बोली, “अगर किसी को कुछ बताया... तो नोच खाऊंगी मैं! इस गांव में दाना-पानी बंद करवा दूंगी तेरा!”

    विधि ने उसकी आंखों में आंखें डालकर कहा, “मुझे तुम्हारी खोखली धमकियों से डर नहीं लगता! समझी?”

    उनकी बहस की आवाज़ सुनकर सरल वहां आ गई।
    रिया दौड़कर सरल से लिपट गई और जोर-जोर से रोने लगी।

    “मां! देखो ना भाभी मुझ पर झूठा इल्ज़ाम लगा रही है!”

    वो रोते हुए बोली, “मैं तो बस बाहर हवा खाने आई थी, और ये मुझ पर आरोप लगा रही है कि मैं किसी लड़के से मिली हूं! ये... ये जान से मारने की धमकी दे रही है!”

    सरल का खून खौल उठा। उसने बिना सोचे-समझे विधि के बाल पकड़ लिए और ज़ोर से खींचते हुए कहा,
    “कलमोही! अभी तेरा मन नहीं भरा था? अब ये सब शुरू कर दिया?”

    विधि ज़ोर से रो पड़ी, “मांजी! छोड़िए! बहुत दर्द हो रहा है! ये झूठ बोल रही है! मैंने कुछ नहीं किया!”

    अच्छा तूने कुछ नहीं किया तू सत्यवान हरिश्चंद्र की पूर्वज है क्या जो तू सही बोलेगी और मेरी बेटी झूठ अरे तू जैसी कुलटा को तो मैं अच्छे से पहचानती हु

    इतना कुछ करने से पहले मर क्यों नहीं गई पहले तो मेरी बेटे को खो गई और अब रंगरेलियां मना रही है अरे कल मोही शर्म बच्ची है या नहीं यह कहकर वह उसके मुंह को कसकर ढाबा करके दीवाल के पास लगा देती है और चिल्लाते हुए कहती है मन तो कर रहा है तेरा गला यही दबा दूं पर नहीं रुक जा उस बुड्ढे को लेकर आता हूं वहीं तेरी अकल ठिकाने लगाएंगे...!





    क्या होगा विधि के साथ जानने के लिए पढ़ते रहिए

  • 6. Saudebazi - Chapter 6

    Words: 1011

    Estimated Reading Time: 7 min

    आंधी से पहले का तूफ़ान

    रिया ने जैसे ही सुना कि कमला प्रसाद जी को बुलाया जा रहा है, वह थोड़ी देर चुप रही। फिर मन ही मन बड़बड़ाई:

    > “अगर पापा आ गए... तो सारा पोल खुल जाएगा। नहीं! मुझे मम्मी को रोकना होगा...।”



    वह झटपट सरल के सामने खड़ी हो गई और बनावटी चिंता के साथ बोली:

    > “नहीं मम्मी, रुकिए! शहर से लोग आए हैं। वो क्या सोचेंगे हमारे बारे में? ऊपर से वो आदित्य भैया के दोस्त हैं... अगर उनके सामने ये सब हुआ, तो पूरे गांव में हमारी बदनामी हो जाएगी! पापा गांव के सरपंच हैं... उनकी इज्जत की क्या हालत होगी?”



    सरल का पांव वहीं जम गया। कुछ क्षणों के लिए सोच में पड़ गई।

    फिर गुस्से में पास पड़ा डंडा उठाया और विधि की ओर फेंक मारा—डंडा सीधे विधि के कंधे से टकराया।

    वो वहीं ज़मीन पर गिर पड़ी और दर्द से कराहने लगी।

    सरल गुस्से से कांपती हुई बोली:

    > “क्या करूं मैं इसका?! इसे तो शर्म भी नहीं आई! मर क्यों नहीं जाती तू... ताकि पीछा छूटे!”



    विधि ज़मीन पर बैठी, आंसुओं से तरबतर, चीख-चीख कर रोने लगी।

    सरल उसकी ओर बढ़ी, बाल पकड़कर खींचते हुए बोली:

    > “चुप हो जा! अगर एक शब्द और निकला ना तेरे मुंह से... एक आंसू और देखा... भगवान की कसम! इसी आंगन में जिंदा जला दूंगी तुझे!”



    सरल की आवाज़ इतनी डरावनी थी कि विधि एकदम चुप हो गई।
    उसने अपना मुंह कसकर बंद कर लिया और सिसकियों को दबाने की नाकाम कोशिश करने लगी।
    लेकिन हताशा इतनी थी कि उसके आंसू थम ही नहीं रहे थे।

    सरल उसे घूरती हुई बोली:

    > “भगवान जाने इस कलमुही का क्या होगा...”



    यह कहकर वह पैर पटकती हुई वहां से चली गई।

    जैसे ही वह गई, रिया पास आई।
    उसके चेहरे पर एक घिनौनी मुस्कान थी।
    वह विधि के बाल पकड़कर कसकर खींचते हुए बोली:

    > “देख लिया ना...? या अभी और सुनेगी?
    अगर आइंदा मेरे रास्ते में आई... तो सच में जिंदा जला दूंगी! समझी?”



    विधि की आंखों से दर्द, अपमान और डर—सब फूट पड़ा।
    वह ज़मीन पर ही बैठी, फूट-फूटकर रोती रही।

    रिया अब मुस्कुराते हुए वहां से चली गई।


    ---

    तूफान के साए में

    दूसरी ओर, घर के एक कोने में खड़ा दक्ष यह सब देख रहा था।
    उसके हाथ मुट्ठियों में बदल चुके थे। दांत भींचे हुए थे।

    > “बस! अब और नहीं!” — वह गुस्से में बोला, “मैं अभी जाकर सरपंच जी को सब कुछ बता देता हूं!”



    प्रवीण ने उसका रास्ता रोकते हुए कहा:

    > “नहीं दक्ष! ये उनका घरेलू मामला है। हमें बीच में नहीं पड़ना चाहिए।
    हम यहां एक मकसद से आए हैं — वही करना है। बाकियों से हमें क्या लेना-देना?”



    दक्ष ने आंखें तरेरीं, पर कुछ कहा नहीं।

    तभी अचानक तेज हवाएं चलने लगीं।
    बिजलियां कड़कने लगीं।
    आसमान में तूफ़ान ने अपने पैर पसारने शुरू कर दिए थे।

    प्रवीण बोला:

    > “चलो अंदर चलते हैं, मौसम बिगड़ता जा रहा है।”



    दक्ष ने एक बार पीछे देखा — विधि अब भी आंसुओं में डूबी बैठी थी।

    वो भारी मन से अंदर चला गया।


    ---

    एक सिसकती रात

    रात के लगभग दो बजे थे।
    दक्ष अब भी बिस्तर पर करवटें बदल रहा था। नींद कोसों दूर थी।

    तभी बारिश तेज हो गई।

    उसने बाहर देखा — विधि की झोपड़ी से पानी टपक रहा था।
    और वो... झोपड़ी से निकलकर बाहर जा रही थी!

    > “इतनी रात को? कहां जा रही है?” — उसने बड़बड़ाया।



    वह चुपचाप उठा और उसके पीछे-पीछे चल पड़ा।

    तेज बारिश में भीगती, कांपती, रोती विधि...
    सीधे गांव के पुराने तालाब की ओर बढ़ रही थी।

    दक्ष आवाज़ लगाता रहा, पर आंधी में कुछ सुनाई नहीं दिया।

    अचानक, उसने देखा — विधि तालाब में कूद गई!

    > “विधि!!” — चिल्लाता हुआ दक्ष दौड़ पड़ा।



    वह भी तालाब में कूद गया।

    विधि पानी में डूब रही थी — उसका शरीर शिथिल हो चुका था।

    दक्ष ने उसे पकड़ा और किसी तरह तैरते हुए बाहर लाया।

    बिजलियों की गड़गड़ाहट के बीच, ज़मीन पर लेटाकर वह उसके पेट को दबाने लगा।

    > “विधि... आंखें खोलो! सुन रही हो...? उठो!”



    उसने सीने पर हाथ रखकर CPR देना शुरू किया।

    कुछ पल बाद विधि की सांसें लौटीं। वह खांसते हुए पानी बाहर निकालने लगी।

    दक्ष राहत की सांस लेते ही उसके पास झुका।

    लेकिन विधि ने उसे धक्का दे दिया:

    > “क्यों छू रहे हो मुझे?!”



    दक्ष गुस्से में चीखा:

    > “पागल हो गई हो? क्या करने जा रही थी?”



    विधि चीखी:

    > “कुछ भी करूं, तुमसे क्या?! मर जाऊं, जी लूं... क्यों बचाया मुझे?! छोड़ देते!”



    वह फिर से तालाब की ओर दौड़ी।

    > “नहीं! मुझे मरने दो! सब खत्म हो गया है!”



    दक्ष दौड़ा और उसे खींचकर पास लाया।

    उसके गाल पर एक जोरदार तमाचा मारते हुए बोला:

    > “पागल हो गई हो? मरने से क्या सब ठीक हो जाएगा? भागना आसान है, लड़ना मुश्किल! सामना करो! हम तुम्हारे साथ हैं!”



    विधि वहीं ज़मीन पर बैठ गई। उसके कंधे कांप रहे थे।
    वह फूट-फूटकर रोती रही:

    > “हम श्रापित लड़कियां हैं... हमारे जीने या मरने से किसी को फर्क नहीं पड़ता। मैं अब कुछ नहीं... बस एक लाश बची हूं। मरने दो मुझे... भगवान से यही मांग रही हूं!”



    वह हाथ जोड़कर गिर पड़ी और रोती रही उसको इस कदर होता देख दक्ष का भी दिल पिघल गया था वह बैठते हुए विधि से कहता है नहीं ऐसे नहीं कहते देखो मैं नहीं जानता तुम्हारे साथ क्या हुआ है और तुम्हें किन परिस्थितियों का सामना करना पड़ रहा है पर एक बात अगर कहो तो हमें हालात से लड़ना सीखना होगा वरना लोग ऐसे ही आकर के हमें परेशान करेंगे दक्ष की बातें सुनकर विधि को कुछ समझ नहीं आ रहा था वह जोर से रोते हुए कहती है किस लादू खुद से खुद के परिवार से खुद की मां से खुद के किस लेने जाऊं सारे तो मेरे अपने हैं अपनों से कैसे लड़ सकती हूं मैं कह कर वह जोर-जोर से रोने लगती है शहरी बाबू देखिए आपके शहर में यह सब होता होगा हमारे गांव में ऐसा नहीं होता कृपया करके मुझे मर जाने दीजिए आप आगे हाथ हाथ जोड़ते हैं आप चले जाइए यहां से

  • 7. Saudebazi - Chapter 7

    Words: 1047

    Estimated Reading Time: 7 min

    दक्ष, विधि की बात सुनकर हैरानी से उसकी आँखों में देखता है। फिर उसे गोद में उठाते हुए घबरा कर कहता है,
    पागल मत बनो, विधि! चुपचाप घर चलो.

    तभी आसमान में बिजली की भयंकर कडक सुनाई देती है। विधि, डर के मारे कांपती हुई, दक्ष को कसकर पकड लेती है और सिसकते- सिसकते बेहोश हो जाती है।

    तूफान इतना तेज था कि दक्ष से चला नहीं जा रहा था। वो गांव से बहुत दूर निकल चुका था। चारों तरफ अंधेरा और हवा की चीख- पुकार. उसे समझ नहीं आ रहा था कि कौन सा रास्ता गांव की ओर जाएगा।

    वो विधि की तरफ देखते हुए घबराए स्वर में कहता है,
    विधि. कौन सा रास्ता गांव की तरफ जाता है?

    कोई जवाब नहीं.

    हैरानी से नीचे झुककर देखता है तो विधि पूरी तरह बेहोश थी।

    विधि! विधि. — वो उसके गाल पर हल्के हाथ फेरते हुए पुकारता है,
    आँखें खोलो. हमें घर चलना है।

    पर कोई उत्तर नहीं मिला।

    उसकी साँसें तेज हो जाती हैं। आँखों में डर और बेचैनी साफ झलकती है। वह दाँत भींचते हुए बुदबुदाता है,
    Damn! अब क्या करूं? कैसे ले जाऊँ इसे गांव.

    तभी उसे एहसास होता है —" विधि का शरीर. ठंडा पड रहा है!

    वो चारों ओर नजरें दौडाता है। दूर एक टूटा- फूटा सा घर दिखाई देता है।

    वो बिना समय गँवाए विधि को गोद में उठाकर तूफानी रास्ते पर भागता है।

    दरवाजे पर पहुँचते ही जोर- जोर से आवाज देता है —
    कोई है. कोई है अंदर.

    कोई जवाब नहीं।

    वो दरवाजा हल्के से धकेलता है — चरमराहट के साथ दरवाजा खुल जाता है। अंदर सन्नाटा. कोई नहीं था।

    दक्ष जल्दी से विधि को एक कोने में लिटाता है। उसका शरीर पूरी तरह ठंडा हो चुका था।

    घबराकर वह बडबडाने लगा,
    हे भगवान. अब क्या करूं? अगर इसे यूँ ही छोड दिया तो ठंड से जान चली जाएगी. इतनी भयानक तूफान में इसे बाहर भी नहीं ले जा सकता. आखिर करूं तो क्या करूं?

    वो इधर- उधर कमरे में तलाश करने लगता है। तभी उसकी नजर कोने में पडी एक चादर, माचिस की डिब्बी और कुछ सूखी लकडियों पर पडती है।

    उसकी आँखों में थोडी राहत की चमक आती है।

    शुक्र है. — वह बुदबुदाता है।

    तेजी से वह चादर उठाता है, पास आता है, अपनी शर्ट उतारकर आँखें बंद करता है। डर, झिझक, मगर जिम्मेदारी — उसके चेहरे पर सबकुछ साफ था।

    वो धीरे से विधि के कपडे अलग करता है और उसे चादर में लपेट देता है। फिर पास में पडे कागज और लकडियाँ इकट्ठा करके आग जलाता है।

    धीरे- धीरे कमरे में गर्मी आने लगती है। एक गहरी साँस लेकर वह उसके पास बैठता है. और कब उसकी आँख लग जाती है, उसे खुद भी नहीं पता चलता।




    कुछ देर बाद.

    विधि की आँखें खुलती हैं। उसके कानों में कोई अजीब सी आवाज गूंज रही थी। उसका सिर भारी था।

    वो sir पकडती है और जैसे ही अपने शरीर की ओर देखती है.

    ये क्या. — उसके होंठ काँप उठते हैं।

    उसके तन पर कोई कपडा नहीं था। घबराकर उसने सामने देखा — दक्ष नींद में सो रहा था।

    डर, हैरानी, और क्रोध — सब एक साथ उमडते हैं।

    तभी बाहर से शोर सुनाई देता है। कोई दरवाजा पीट रहा था।

    अरे दरवाजा खोलो! कौन है अंदर. खोलो!

    विधि घबरा जाती है। वो जल्दी से पास पडे अपने कपडे उठाती है, उन्हें पहनती है और चादर को किनारे रख देती है।

    तभी दक्ष की भी आँख खुलती है। वो शोर सुनकर हडबडाकर विधि की ओर देखता है।

    विधि उसे घूरते हुए बोलती है —
    कल रात. तुमने मेरे साथ क्या किया?

    दक्ष चौंकता है। उसके चेहरे पर हडबडाहट और बेगुनाही की झलक साफ दिख रही थी।
    मैंने कुछ नहीं किया. यकीन मानो!

    तो फिर मेरे कपडे किसने उतारे? — विधि की आँखें भर आई थीं।

    मैंने. लेकिन सिर्फ तुम्हें बचाने के लिए! तुम्हारा शरीर बर्फ की तरह ठंडा हो चुका था। अगर ऐसा नहीं करता, तो तुम मर जाती. — दक्ष की आवाज टूट रही थी।

    तभी दरवाजे पर फिर जोर- जोर से धमाके होने लगते हैं।

    दक्ष दरवाजा खोलता है।

    बाहर गांव के लोग खडे हैं। कमला प्रसाद जी आगे आते हैं और चौंककर पूछते हैं —
    शहरी बाबू. आप यहाँ क्या कर रहे थे?

    दक्ष सन्न! क्या जवाब दे, कुछ समझ नहीं आता.

    तभी पीछे से एक औरत चिल्लाती है —
    मोरी मइया! अंदर देखो, विधि रानी भी हैं!

    सभी गांव वाले घर के अंदर झाँकते हैं।

    विधि, सिर झुकाए, पल्लू सिर पर डाले, खामोश खडी थी।

    कमला प्रसाद जी के चेहरे पर हैरानी और संदेह साफ था।

    तभी एक और औरत कटाक्ष करती है —
    यही होगा ना! भरी जवानी में आदमी मर गया, और मैडम शहरी के साथ गुलछर्रे उडाने निकल गईं! गांव का मर्द मिला नहीं तो शहरी को ही पटाया!

    ये सुनकर विधि आगे बढती है। उसकी आँखों में आँसू थे, पर आवाज में मजबूती —
    आप लोग गलत सोच रहे हैं. ऐसा कुछ भी नहीं हुआ!

    दक्ष भी बीच में बोलता है —
    हाँ, ये सच कह रही है! मैंने इसकी जान बचाई है. कुछ भी गलत नहीं किया।

    एक आदमी व्यंग्य से हँसते हुए बोल पडता है —
    अरे बाबूजी, हर मर्द यही कहता है — हमने कुछ नहीं किया!

    तभी एक औरत घर के अंदर जाती है। कमरे में इधर- उधर देखकर चिल्लाती है —
    अरे देखो! चादर, माचिस और इनके कपडे जमीन पर पडे हैं! अच्छी रात बीती है इनकी.

    कमला प्रसाद जी के आंखों से आंसू आ रहे थे वह विधि के ऊपर लगाते इल्जाम को सुनकर के गिरने ही वाले थे कि एक आदमी ने उन्हें संभालते हुए कहा अरे भाई साहब संभालिए खुद को अब आपको ही न्याय करना है आप इस गांव के मुखिया हैं आपका हुकुम sir आंखों पर होगा बताइए इनका क्या सजा दी जाए तब तक दक्ष गुस्से में दांत पीसते हुए आगे बढकर कहता है देखिए आप सबसे कहा ना यह सब कुछ बिल्कुल भी नहीं है आप लोग गलत समझ रहे हैं

    वह आदमी गुस्से में दक्ष की तरफ बढते हुए कहता है शहरी बाबू चुप रहिए कि आपका शहर नहीं है अगर एक और शब्द बोला तो आपके चिकथड़े उड जाएंगे


    अब सवाल ये है.

    क्या दक्ष और विधि अपने चरित्र पर लगे दाग को मिटा पाएंगे?
    क्या गांव वाले उनकी बात पर यकीन करेंगे?
    या ये तूफान उनकी जिन्दगी की दिशा ही बदल देगा.

  • 8. Saudebazi - Chapter 8

    Words: 1084

    Estimated Reading Time: 7 min

    अब तक आपने देखा — गांव वाले दक्ष और विधि को कमरे में पाकर उनके बारे में गलत तरीके की अफवाहें फैला रहे थे।
    जैसे ही दक्ष ने उन्हें समझाने की कोशिश करी, गांव वाले गुस्से में दक्ष की तरफ बढते हुए उसे धमकाते हुए बोले —

    देखिए शहरी बाबू, आप इन मामलों से दूर रहिए, वरना आपके चिथडे भी शहर तक नहीं जा पाएंगे!

    विधि भाग कर कमला प्रसाद जी के पैरों में पडते हुए कहती है —

    बाबूजी! मेरा यकीन करिए, मैंने यह सब नहीं किया है!
    यह कहते हुए वह जोर- जोर से रो रही थी।

    कमला प्रसाद जी, जो अब एक मूर्ति की तरह स्तब्ध खडे थे — मानो उनके अंदर जान बची ही न हो।

    तभी सरला भागते हुए कमला के पास आती है। वह विधि को दूर धक्का देते हुए कहती है —

    अपने गंदे हाथ से मेरे पति को छूना भी मत! न जाने कितने पराए मर्दों के साथ ही सब करती आई है!
    कल रात घर में पडी थी, तो इस शहरी छोरे को फंसा लाई!

    यह सुनते ही हर कोई हक्का- पक्का होकर सरला की तरफ देखने लगता है।

    सरला, सब की तरफ देखते हुए कहती है —
    अरे हाँ भाई हाँ! आपको क्या लगता है, ये बहुत शरीफ है?
    कल रात भी मैंने इसे एक लडके के हाथ पकडे देखा था!
    वो तो शुक्र है मेरी बेटी का... जिसकी वजह से मैंने इसे छोड दिया।
    मुझे लगा कि सुधर जाएगी, पर ये करमजाली सुधारने का नाम ही नहीं ले रही!

    यह सुनकर पूरे गांव वाले आपस में बडबडाने लगते हैं।

    दक्ष, गुस्से में आगे बढकर कहता है —
    कल रात उसके साथ कोई नहीं था! आप लोग उसे झूठा फंसा रहे हैं!
    बल्कि आपकी बेटी खुद एक लडके के साथ थी!

    यह सुनते ही सरला, दांत पीसते हुए दक्ष की तरफ देखती है और कहती है —
    अब अपनी चोरी पकडी गई, तो सारा इल्जाम मेरी बेटी पर डाल रहे हो?
    अरे, हमने तो तुम्हें रहने के लिए जगह दी! हमारे घर तुम मेहमान बनकर आए थे...
    और तुमने हमारे घर की ही इज्जत के साथ ये सब कर लिया?
    अरे, एक बार सोच तो लेते — वो तुम्हारी भाभी समान थी!
    वो आदित्य की पत्नी थी... वो विधि!

    विधि, ये सब सुनकर सरला के पैरों में गिरकर गिडगिडाते हुए कहती है —
    माँजी! ऐसा कुछ भी नहीं है... मेरा यकीन करिए! हमारे बीच कुछ भी नहीं हुआ!
    मैं आप सबको कैसे यकीन दिलाऊँ कि ये जो आप सब देख रहे हैं, वो सच नहीं है!

    सरला, कमला प्रसाद जी के पास जाकर उन्हें तंज कसते हुए कहती है —
    क्या हुआ जी? अब आप कुछ नहीं बोल रहे?
    ऐसे तो बहुत गर्व था ना आपको अपनी लाडली पर?
    देख लिया ना इसकी करतूत?
    मैं तो आपसे पहले ही कहा करती थी,
    पर आपने कभी मेरी बात नहीं सुनी!
    अब भुगतिए!

    कमला प्रसाद जी, रोते हुए आगे बढते हैं।
    वो विधि के पास बैठते हुए कहते हैं —
    किस चीज की कमी थी तुम्हें?
    हमने तुम्हें बेटी से ज्यादा प्यार दिया, सम्मान दिया...
    क्या कुछ नहीं किया तुम्हारे लिए?
    और तुमने एक पल में सब मिट्टी में मिला दिया!
    अरे, हमारी इज्जत का भी खयाल नहीं रखा!

    विधि, रोते हुए कहती है —
    बाबूजी! मेरा यकीन करिए... सच में, मैंने ये सब नहीं किया है!

    तभी पीछे से आवाज आती है —

    अरे कमला प्रसाद जी! हम सब आपके न्याय का इंतजार कर रहे हैं!
    आपको क्या लगता है, क्या करना चाहिए इस उल्टी के साथ?
    आप इस गांव के मुखिया हैं... आपने हमेशा सबके लिए समान न्याय किया है।
    अब आप ही इसे सजा दीजिए, वरना कल को गांव की सारी महिलाएं
    ऐसे ही कुछ न कुछ करते हुए पकडी जाएंगी...
    और पूरे गांव का माहौल खराब हो जाएगा!

    यह सुनकर कमला प्रसाद जी, अपने आँसू पोंछते हुए कहते हैं —
    इसका फैसला वहीं होगा... जहां सबका होता है।
    आप लोग इन दोनों को लेकर चौपाल पर आइए!
    यह कहकर वह वहाँ से चले जाते हैं।

    उनके जाते ही सरला और गांव की कुछ औरतें, विधि को घसीटते हुए चौपाल की तरफ लेकर जाती हैं।
    इधर दक्ष को पकड कर गांव वाले भी खींच कर चौपाल की तरफ ले जाते हैं।
    दक्ष, खुद को छुडाने की कोशिश करता है, पर वह असहाय महसूस कर रहा होता है।

    देखते ही देखते पूरा गांव — बच्चे, बूढे, औरतें — चौपाल पर इकट्ठा हो जाते हैं।

    मुखिया जी, चौपाल की सबसे ऊँची गाडी पर बैठते हैं।
    वह दोनों को आगे बुलाकर कहते हैं —

    देखिए, ये शहर का है। इसे तो हम कुछ नहीं कह सकते।
    मर्द जात होती ही ऐसी है... जरूर किसी ने इसे फँसाया होगा।
    वरना ये तो उसे जानता भी नहीं था।
    पर ये लडकी... इसने तो जानबूझकर ये सब किया है।
    हम इसे सजा जरूर देंगे!

    विधि, वहाँ खडी थी... रोते हुए अपनी बात रखना चाहती थी,
    पर कोई भी उसकी बात सुनने को तैयार नहीं था।

    तभी वहां प्रवीण और वासु आ जाते हैं।
    चलते माहौल को देखकर प्रवीण घबराता है।
    वह अपना फोन निकालता है और पास के पुलिस स्टेशन में Call करने की कोशिश करता है।
    शुरुआत में फोन नहीं लगता, फिर अचानक से लग जाता है।
    वह वहाँ घट रही सारी घटना को बताते हुए कहता है —

    जल्दी से जल्दी आप लोग यहां आइए!

    प्रवीण और वासु, भागकर दक्ष के पास जाते हैं।
    दक्ष, कई आदमियों के बीच जकडा हुआ था।

    इधर विधि को गांव के लोगों के बीचोंबीच खडा किया गया था।
    चारों तरफ से लोगों ने उसे घेर रखा था।

    सरपंच जी कहते हैं —
    ये लडकी आप सब की गुनहगार है!
    इसने इस गांव के नाम और इज्जत को मिट्टी में मिला दिया है!
    ये लडकी श्रापित भी थी... हमने आप सब की बात नहीं मानी थी।
    अरे, आते ही मेरे बेटे को खो दिया हमने!
    फिर न जाने गांव में कितनी मौतें हुईं इसकी वजह से!
    आज इसका किस्सा ही खत्म कर देते हैं!
    आपको जो सजा देनी है, आप दीजिए!

    यह सुनते ही गांव के लोग जमीन से पत्थर उठाकर विधि को मारने लगते हैं।
    पत्थरों की मार से उसके कंधे और हाथों से खून बहने लगता है।
    वह रोती है, गिडगिडाती है, माफी मांगती है —

    मैंने कुछ नहीं किया! मुझे मत मारो! बाबूजी. माँजी.

    तभी गांव की कुछ महिलाएं, हाथ में कालिख लेकर आगे बढती हैं।
    वे हँसते हुए कहती हैं —

    क्यों रे छोरी? वो सब करते हुए तुझे शर्म नहीं आई?
    अरे! पति को मरे साल भर भी नहीं हुआ, करमजाली!
    थोडा तो सब्र कर लेती!


    क्या मार देंगे गांव वाले विधि को.
    या कुछ करेगा दक्ष.