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My Five Cruel Dangerous Hubbies

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Sunita Sood

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एक लड़की उस अंधेरे कमरे में अकेली बंद थी। उसके दोनों हाथ और पैर मोटी रस्सियों से कसकर बंधे हुए थे — इतनी कसकर कि उसकी कलाईयों और टखनों पर गहरे निशान पड़ चुके थे। मुँह पर मोटे कपड़े की पट्टी बाँधी गई थी, जिस...

Total Chapters (104)

Page 1 of 6

  • 1. My Five Crule dangerous hubbys - Chapter 1

    Words: 2609

    Estimated Reading Time: 16 min

    एक लड़की उस अंधेरे कमरे में अकेली बंद थी।

    उसके दोनों हाथ और पैर मोटी रस्सियों से कसकर बंधे हुए थे — इतनी कसकर कि उसकी कलाईयों और टखनों पर गहरे निशान पड़ चुके थे। मुँह पर मोटे कपड़े की पट्टी बाँधी गई थी, जिससे ना वो चीख सकती थी, ना किसी से मदद माँग सकती थी। उसका शरीर थरथरा रहा था — न जाने डर से या थकावट से।

    कमरे में एक पीली, झिलमिलाती बल्ब जैसी रोशनी कोने से आ रही थी, जो अब जलती-बुझती हुई सा लग रही थी। उसी अधूरी रौशनी में छत से टपकती बूंदें और कमरे की दीवारों पर रेंगते चूहे साफ नज़र आ रहे थे। उनमें से एक चूहा धीरे-धीरे लड़की की ओर सरकने लगा। वो घबरा गई — डर के मारे उसका बदन काँप उठा, मगर वो हिल भी नहीं पा रही थी।

    साँस लेना मुश्किल हो रहा था।

    उसके उलझे हुए बाल चेहरे पर चिपके हुए थे, और कपड़ों की हालत भी अब बदतर थी। चारों ओर एक सड़ांध सी महक थी, जैसे इस कमरे ने कभी उजाला देखा ही न हो।

    तभी—

    "ठक..."

    दरवाज़े की कुंडी हिली।

    लड़की की आँखें डर से फैल गईं। उसकी साँसें भीतर ही कहीं अटक गईं। शरीर में डर की लहर दौड़ गई, मानो कोई सांप उसकी रीढ़ के सहारे ऊपर चढ़ रहा हो।

    "ठक... ठक..."

    कदमों की धीमी मगर भारी आहट कमरे में गूंजने लगी। आवाज़ जैसे फर्श के नीचे से उठ रही हो, हर ठक से लड़की के दिल की धड़कन जवाब देने लगती।

    फिर दरवाज़ा चरमराता हुआ खुला।

    एक लंबी, साया जैसी आकृति दरवाज़े की चौखट पर खड़ी थी — पूरी तरह काली, बस एक टॉर्च की सीधी रोशनी हाथ में, जो लड़की की आँखों पर आकर ठहर गई।

    वो कुछ बोल नहीं सकी। मुँह की पट्टी ने हर चीख को क़ैद कर लिया था।

    आदमी, या जो भी वो था — अंदर आया। उसके भारी कदम धीरे-धीरे पास आने लगे।

    "तुम्हें चूहे अच्छे नहीं लगते?" एक ठंडी, पर छीले हुए लोहे जैसी आवाज़ गूंजी।

    वो अब उसके सामने झुक चुका था।

    लड़की की साँस तेज़ हो गई। आँखों में आँसू तैरने लगे।

    उसने धीरे से लड़की की गर्दन पर उंगली फिराई।

    "शांत रहो… अभी तो खेल शुरू हुआ है।"

    और फिर…

    “क्लिक।”

    टॉर्च की रौशनी एक ओर घुमाई गई — दीवार पर कुछ लिखा था, खून जैसी किसी गाढ़ी चीज़ से:

    "तुमसे जो छीन लिया गया था… उसे वापस पाने की कीमत बहुत बड़ी होगी।"

    अगले ही पल, अजनबी पलटा… और दरवाज़ा फिर वैसी ही चरमराहट से बंद हो गया।

    लड़की अब अकेली थी… लेकिन कमरे में सन्नाटा नहीं था।

    किसी की साँसें अब भी उसके बिल्कुल पास महसूस हो रही थीं।






    दी फाईव माफिया डाॅन

    आँख खुली तो कुछ दिखा नहीं।

    न धुंध थी, न रोशनी… बस दर्द था।

    और लोहे की उस कुर्सी की ठंडक, जिस पर पीठ पिछले दो घंटों से बंधी हुई थी।

    कोई पूछ नहीं रहा था, कोई जवाब नहीं माँग रहा था।

    सिर्फ मारा जा रहा था।

    पहले छाती पर मुक्के पड़े थे—धीरे, गहरे।

    फिर पेट में घूसे—बिना किसी हड़बड़ी के, जैसे किसी आदत की तरह।

    और फिर एक लंबा ब्रेक।

    पानी की एक बूंद नहीं।

    फिर वही दोबारा।

    सिर्फ रफ्तार और ताकत बदलती रही।

    उसके चेहरे से अब पहचान मिट चुकी थी।

    नाक एक ओर मुड़ी हुई थी। होठों से खून बहते हुए गर्दन तक पहुँच चुका था।

    एक आँख अब खुलती नहीं थी।

    अचानक एक भारी दरवाज़ा चरमराया।

    अंदर घुसी दो आदमी।

    एक के हाथ में टॉर्च, दूसरी के हाथ में काली पट्टी।

    किसी ने कोई बात नहीं की।

    बाँहें खोल दी गईं।

    पैर से जंजीर हटाई गई।

    सिर्फ ज़रूरत भर की साँस बाकी थी, लेकिन इतना दम था कि उसने खुद को खड़ा कर लिया।

    काली पट्टी आंखों पर बांधी गई।

    अब शरीर बढ़ रहा था – किसी सुरंग में, किसी दूसरी दिशा की ओर।

    कदमों की आवाज़ बदल गई थी।

    लोहे की आवाज़ से अब संगमरमर की आवाज़ में तब्दील।

    हर कदम जैसे एक और रहस्य की परत खोलता जा रहा हो।

    सड़क नहीं, रास्ता नहीं—यह कोई प्रवेशद्वार था।

    और इसके दूसरी ओर मौत हाथ फैलाए बैठी थी।

    पट्टी हटाई गई।

    वो अब एक अजीबोगरीब कमरे के बीच में था।

    दिवारें ऊँची थीं, गहरे लकड़ी के पैनलों से बनीं।

    छत से झूमर लटक रहे थे – सोने जैसे, लेकिन ठंडे।

    फर्श काले पत्थर का था – उस पर धूल का नामोनिशान नहीं।

    कमरे के उस पार – पाँच ऊँची कुर्सियाँ थीं।

    हर कुर्सी पर बैठी थी एक आदमी—चेहरे धुँधले, बस एक शारीरिक "हाज़िरी" महसूस होती थी।

    न नाम, न संवाद…

    बस मौजूदगी।

    मौजूदगी जो दिल की धड़कन धीमी कर दे।

    घायल आदमी को धक्का देकर फ़र्श पर गिराया गया।

    उसके मुँह से कराह भी नहीं निकली।

    अब दर्द की भी आदत हो चुकी थी।

    कोई नहीं बोला।

    लेकिन खामोशी में भी कुछ तय हो रहा था।

    अचानक सबसे दायीं ओर बैठा हुआ वह व्यक्ति—जो सबसे शांत दिखता था—अपनी उंगलियाँ घुमाने लगा।

    बीच वाले आदमी ने अपने घुटनों पर झुकी हथेली से बस हवा में हल्का सा इशारा किया।

    तुरंत दो लोग पीछे से आए।

    एक ने पीछे से पकड़ लिया।

    दूसरे ने एक छोटी सी स्टील की पिन उसकी गर्दन में चुभो दी।

    एक ठंडी सनसनाहट दौड़ी रीढ़ में।

    उसके शरीर ने झटका खाया।

    एक और इशारा हुआ।

    इस बार बायीं ओर बैठे आदमी ने सिर थोड़ा झुकाया।

    एक और आदमी आगे बढ़ा, उसके हाथ में एक पतली, लचीली रॉड थी—सिरों पर रबर की कोटिंग।

    उसने रॉड उठाई—और उसके घुटनों के नीचे मारा।

    कड़क।

    हड्डी टूटी।

    मुँह से चीख निकली—दबी हुई।

    एक और वार—पेट पर।

    तीसरी बार, हाथों पर।

    रॉड फिर दीवार पर टिक गई।

    कोई हिला नहीं। कोई बोला नहीं।

    तभी बीच वाले आदमी ने अपनी उँगली उठाई—ऊपर से नीचे।

    बिलकुल सीधे, जैसे कोई गिलोटीन का आदेश दे रहा हो।

    तीन लोग अंदर आए।

    उनमें से एक के पास एक छोटा, काला ब्रीफकेस था।

    दूसरे ने उसके सामने एक ऊँची सी काँच की कैबिनेट खींची।

    कैबिनेट के भीतर कुछ नहीं दिख रहा था।

    फिर उस ब्रीफकेस को खोला गया।

    भीतर रखी थी—एक चमकदार चिप।

    उस चिप को उस आदमी की गर्दन पर फिक्स किया गया।

    कुछ सेकंड… कुछ हलचल… और फिर — सब शांत।

    घायल आदमी की सांसें रुक चुकी थीं।

    उसकी आँखें खुली थीं।

    चेहरे पर वही खून की रेखा थी।

    मगर अब दिल नहीं धड़कता था।

    कमरे में एक और इशारा हुआ।

    दो लोग आए, शव को घसीटते हुए बाहर ले गए।

    कहीं से धीमे स्वर में एक वायलिन की आवाज़ आई।

    बहुत हल्की… मगर भीतर उतर जाने वाली।

    पाँचों आदमी अपनी-अपनी कुर्सी से उठे।

    उनमें से किसी ने न चेहरा दिखाया, न शब्द कहे।

    लेकिन मौत का काम पूरा हुआ था।

    दरबार बंद हुआ।

    लाश अब भी वहीं पड़ी है।

    कमरा पहले जितना ठंडा है, अब उससे कहीं ज़्यादा सन्नाटा है।

    पाँचों कुर्सियाँ अब रौशनी में हैं।

    पाँच चेहरे।

    पाँच काले कोट।

    और एक अंधेरा जो इनकी आत्मा से रिसता है।

    विशवा “द ब्रेन” (उम्र: 30)

    कोट: स्लिम फिट चारकोल ग्रे सूट, ब्लड-रेड टाई, पॉकेट स्क्वायर में सोने का पिन।

    चेहरा: शांत, कटार जैसी आँखें, हल्की दाढ़ी – सर्जिकल परफेक्शन।

    वायस: धीमी, ठंडी, और दो शब्दों में फैसला देने वाली।

    विवेक ने घड़ी पर समय देखा, फिर मृत शरीर पर निगाह डाली।

    “3 मिनट 14 सेकंड,” वह बोला, “मैंने कहा था 3 मिनट से ज़्यादा नहीं लगना चाहिए था।”

    फिर टेबल से एक नीले फोल्डर को निकाला, “इसकी जगह अब एक और नाम आया है। अगली बार टाइमिंग गलत हुई तो मरने वाला अपना ही होगा।”

    उसकी मुस्कान वैसी थी जैसे डॉक्टर ऑपरेशन के बाद हाथ धोता है।

    कबीर “द हिटर” (उम्र: 28)

    कोट: चमकदार ब्लैक सूट, कॉलर उठी हुई, टाई नहीं – बस ब्लैक शर्ट के टॉप बटन खुले।

    चेहरा: आंख पर हल्का कट का पुराना निशान, जबड़ा सख्त और मुट्ठी हमेशा हल्के कंपकंपाती।

    वायस: विस्फोट के ठीक पहले की ख़ामोशी।

    रफ़्तार ने कोट की जेब से रिवॉल्वर निकाली, बिना देखे ज़मीन की तरफ एक गोली चलाई — धमाका गूंजा।

    “जिस दिन मेरी बंदूक बोलेगी, कानून दिमाग़ नहीं पूछेगा — बस खून गिरेगा।”

    फिर कंधे झटककर बोला, “मैंने इसे घसीट कर लाया था… अब अगला लाश नहीं लाऊँगा — उसका पूरा कुनबा लाऊँगा।”

    विक्राल “द साइलेंट डेथ” (उम्र: 26)

    कोट: सिल्क ब्लैक टक्सीडो, बिना बटन, अंदर ब्लड-ब्लू शर्ट — ग्लव्स अब भी हाथ में।

    चेहरा: निर्विकार, जैसे कोई शरीर में आत्मा ही नहीं।

    वायस: साँप की साँस जैसी — धीमी, लेकिन मारक।

    ज़हर शव के पास बैठा, झुक कर उसके कान के पास बोला —

    “मैंने इसकी नसों में ज़हर मिलाया… अब तू सोया है। पर तेरे घर वाले उठते वक्त कांपेंगे।”

    फिर पीछे मुड़कर बोला,

    “मैं कभी चिल्लाता नहीं। मैं बस धीरे-धीरे मारता हूँ… क्योंकि तड़प, गूँज से ज़्यादा तेज़ होती है।”

    रनधीर “द फाइनेंसर” (उम्र: 25)

    कोट: सिल्वर ग्रे अरमानी, बटन क्लोज्ड, पॉकेट में एक स्टील-पेन और एक जला हुआ पासपोर्ट।

    चेहरा: हल्की मुस्कान, लेकिन ठंड जैसी ठोस, कंपकंपाती आँखें।

    वायस: जैसे बैंक का नोट — खामोश, मगर दबाव से भारी।

    हवाला अपने टैबलेट को देखता रहा।

    “इस एक आदमी ने मेरे पाँच चैनल ब्लॉक किए। अब उसकी पत्नी के नाम पर जीवन बीमा की रकम मैंने क्लेम की है… और उसके बेटे के नाम से लॉन्ग टर्म डेब्ट खोल दिया है।”

    वह धीरे से मुस्कराया —

    “मुझे खून से नहीं, मुनाफे से भूख लगती है।”

    मरण “द ब्लडबॉय” (उम्र: 22)

    कोट: डार्क ब्लड-रेड लाइनिंग वाला ब्लैक कोट, बिना टाई, कॉलर पर ‘666’ एम्ब्रॉयडर्ड।

    चेहरा: मासूम, लेकिन पलक झपकते ही शिकारी।

    वायस: जैसे कोई बच्चा कहानी सुना रहा हो — डरावनी।

    काज़ी ने कोट के अंदर से एक छोटा ब्लेड निकाला, जैसे कोई पेन हो।

    फिर शव के गाल पर हल्की कटिंग की और बोला —

    “मैं खेलने देता अगर तुम चिल्लाते… पर तुम डर के मारे पहले ही मर गए।”

    वह हँसा — “मैं रुकता नहीं — मौत भी मुझे छूकर डरती है।”

    कमरे में फिर एक सन्नाटा… लेकिन अब यह शांति नहीं, एक घुटता हुआ डर है।

    पाँच चेहरे, और पाँच अलग नर्क।

    ये भाई अब किसी “माफ़िया” का नाम नहीं हैं —

    ये हैं उस व्यवस्था के वायरस, जिसे कानून पकड़ नहीं सकता… और जुर्म समझ नहीं सकता।

    हर एक, एक हथियार है। और ये हथियार अब चल पड़े हैं।

    “शैतानों की शाही रात”

    स्थान: अंडरवर्ल्ड का सबसे गोपनीय क्लब — INFERNO

    समय: रात 11:33 — जब अंधेरे को भी डर लगने लगे।

    INFERNO कोई आम क्लब नहीं था। यह ज़मीन के नीचे 27 फीट नीचे बसा एक गुप्त महल था, जिसे सिर्फ़ वही जानते थे जिनकी साँसें क़ीमती नहीं, ख़तरनाक थीं। वहाँ दीवारें चांदी की थीं, लेकिन आवाज़ें खून की। वहाँ हर शराब की बोतल से ज़्यादा कीमत उस इंसान की जान की थी जिसने उसे छुआ।

    उस रात क्लब में अंडरवर्ल्ड के बड़े चेहरे मौजूद थे — हथियार तस्कर, ड्रग लॉर्ड, फर्जी पासपोर्ट के किंग, और ब्लैकमेलिंग से करोड़ों कमाने वाले बिज़नेसमैन।

    शोर धीमा था, लेकिन नज़रें तेज़।

    सब एक ही सवाल का इंतज़ार कर रहे थे:

    "क्या आज वो पाँचों आएंगे?"

    फिर, जैसे समय खुद थम गया — दरवाज़े खुले।

    और हवा का तापमान अचानक एक डिग्री गिर गया।

    पहली परछाईं: विशवा “द ब्रेन” की एंट्री

    विशवा सबसे पहले दाखिल हुआ — जैसे कोई CEO नहीं, एक तानाशाह हो।

    कोट: सियाह रंग का स्लिम फिट टक्सीडो, कॉलर के पास सफ़ेद कढ़ाई में एक शब्द — "Control".

    चेहरा: चुप, लेकिन नज़रों में गणना — जैसे हर इंसान की प्राइस टैग उसके माथे पर दिख रही हो।

    उसके पीछे एक सहायक चल रहा था, हाथ में स्टेनलेस स्टील का एक एक्टिवेटेड ब्रीफ़केस — जिसमें ज़हरीले दस्तावेज़ थे। वो जिस किसी पर मुस्कराता, वो अपनी जगह से थोड़ा और सीधा बैठ जाता — जैसे अपनी जान बचाने की कोशिश कर रहा हो।

    विशवा ने बार के सामने जाकर सिर्फ़ इतना कहा —

    "Whiskey neat. Without fear."

    दूसरा तूफ़ान: कबीर “द हिटर” की धमाकेदार एंट्री

    दरवाज़े दोबारा खुले, इस बार जैसे बिजली गिरी हो।

    कबीर अंदर घुसा — कोट-पैंट में, लेकिन उसकी चाल में हिंसा का नाच था।

    कोट: ग्रे शेड में स्किन टाइट ब्लेज़र, अंदर सिल्वर टीशर्ट जो बॉडी से चिपकी हुई थी।

    बाल: बिखरे हुए, जैसे किसी की खींचाई के बाद सीधा आया हो।

    उसने आते ही एक टेबल की बॉटल उठा ली और बोला —

    "मुझे पीने की ज़रूरत नहीं, मैं खुद नशा हूँ।"

    फिर कैमरे की तरह क्लब के लोगों पर नज़र दौड़ाई —

    "तुम सब बैठे हो, मैं आया — खड़े हो जाओ।"

    कुछ सेकंड में चार चेयरें खाली हो गईं — कबीर ने वहीं बैठकर अपने बूट्स टेबल पर रख दिए।

    तीसरा सन्नाटा: विक्राल “द साइलेंट डेथ”

    क्लब की लाइट कुछ सेकंड के लिए धीमी हुई। और जैसे अंधेरे से एक शैतान निकलता हो — ज़हर प्रकट हुआ।

    कोट: midnight blue velvet suit, अंदर blood red शर्ट। उसकी टाई नहीं थी — बस एक पतली काली चेन जो गर्दन से सीने तक जाती थी।

    आँखें: नशीली, लेकिन उनकी गहराई में मौत तैरती थी।

    वो चुपचाप चला, जैसे हर कदम किसी की सांस रोक देता हो।

    लोग रास्ता बना रहे थे — किसी ने उसके पास से होकर गुजरने की हिम्मत नहीं की।

    उसने एक खाली कुर्सी ली, और पास बैठे आदमी की सिगार लेकर बस इतना कहा —

    "तुम्हारे फेफड़े पहले ही मर चुके हैं — अब सिगार मेरी हुई।"

    चौथी चाल: रनधीर “द फाइनेंसर” की ग्लैम एंट्री

    लिफ्ट से नहीं — बल्कि ग्लास एलिवेटर से नीचे उतरा हवाला। उसकी एंट्री किसी क्रिप्टो किंग जैसी थी, लेकिन उसकी मुस्कराहट में वैसी ही क्रूरता छिपी थी।

    कोट: सफेद बेस पर ग्रे चेक्स वाला three-piece suit, अंदर सिल्क वाइन कलर शर्ट।

    हाथ में: एक IPad Pro और दूसरी जेब से झाँकते ब्लैक क्रेडिट कार्ड्स — नकली नामों से।

    उसने आते ही क्लब के कैमरों को हेक कर दिया — अब वो जहाँ गया, स्क्रीन पर उसकी छवि दिखने लगी।

    उसने माइक उठाया —

    "मैं ही वो हूँ जिसके पैसों से तुम सब जिंदा हो… और अब मैं देखता हूँ कौन कितने में बिकेगा।"

    पांचवां कहर: मरण “द ब्लडबॉय” की थ्रिलर एंट्री

    आख़िरी दरवाज़ा जैसे किसी कब्र से खुला — धुआं फैला, और उससे निकला काज़ी।

    कोट: ब्लैक लेदर कोट, अंदर स्लिम फिट शर्ट जिस पर खून के निशान जानबूझकर रखे गए थे।

    चेहरा: मासूम, लेकिन आँखें ऐसी जैसे किसी का गला काटने के बाद सुकून मिला हो।

    उसके साथ 2 बॉडीज़ अंदर लाए गए — कवर में।

    उसने डांस फ्लोर के बीच जाकर कवर हटाया — दोनों उस गैंग से थे जो इन पाँच भाइयों से दुश्मनी रखते थे।

    मरण ने चुपचाप कहा —

    "गिफ्ट लाया हूँ… पार्टी की जान बढ़ाने के लिए।"

    पाँचों साथ — और हवा में झुनझुनी फैल गई।

    INFERNO अब एक महज़ क्लब नहीं — बलि का मंच बन चुका था।

    संगीत धीमा, लेकिन तनाव गाढ़ा।

    इन पाँचों भाइयों ने अपना विशेष Sapphire Table लिया — बीच क्लब में, गोल मेज़, जिसके नीचे एक सीक्रेट लिफ्ट थी — अगर फौरन भागना हो तो।

    विशवा बीच में बैठा, कबीर उसके दाएँ, विक्राल बाएँ। रनधीर उसकी पीछे की सीट पर, और मरण टेबल पर अपने सिस्टम्स चालू करके।

    फ्लोर पर खड़े सब लोग अब शिकार या सौदा बन चुके थे।

    विशवा ने चुपचाप फाइल खोली —

    "Target #47. इंडो-बेल्जियम लॉबी से उठा। आज उसे भी देखना है…"

    कबीर मुस्कराया — "लाओ उसका चेहरा।"

    विक्राल ने टैब पर क्लिक किया — एक लड़की की तस्वीर दिखी।

    सब चुप हो गए।

    रनधीर बुदबुदाया — "इस बार दिल लग जाएगा शायद…"

    मरण हँसा — "या खून…"

    और फिर, म्यूज़िक तेज़ हो गया।

    पाँचों उठे, जैसे अपने-अपने तरीकों से पार्टी को चलाने।

    विक्राल डांस फ्लोर पर घुसा — जैसे भीड़ में शिकार देख रहा हो।

    रनधीर VIP सेक्शन में गया — डील्स पक्की करने।

    विशवा एक बूढ़े माफिया के पास बैठा — उसकी मौत लिखने।

    मरण बार में जाकर ब्लेड से बर्फ़ काटने लगा — जैसे किसी की गर्दन…

    विशवा ऊपर वाली गैलरी में गया — सबको एक साथ देखने।

    ये कोई आम रात नहीं थी। ये एक संदेश थी।

    “हम पाँचों अब छुपे नहीं हैं — हम सत्ता हैं।”

  • 2. My Five cruel dangerous hubbies - Chapter 2

    Words: 1555

    Estimated Reading Time: 10 min

    अध्याय: INFERNO – पिघलती रात की परछाई

    स्थान: अंडरवर्ल्ड क्लब – INFERNO,
    समय: रात 12:00


    INFERNO क्लब कोई आम जगह नहीं थी। यह अंडरवर्ल्ड की धड़कन थी — ज़मीन से 27 फीट नीचे बसा एक गुप्त महल, जहाँ सांसें महंगी नहीं थीं, सिर्फ़ ज़रूरी थीं। दीवारें चांदी की थीं, लेकिन रौशनी की जगह वहाँ आग की साँसे थीं — हल्की सी धुआँधार रोशनी, जो जले हुए परफ्यूम की तरह महकती थी।

    कमरा – "क्रिमसन शेल्टर" – Inferno का सबसे गोपनीय और लैग्ज़ूरियस हिस्सा था। दीवारों पर काले मख़मल की रेखाएँ, गोल्डन फ्रेम्स में अजनबी चेहरों की तसवीरें – शायद वो जो लौटकर कभी नहीं गए। झूमर नीचे नहीं लटकता था, वह छत में धँसा था – जैसे कोई रोशनी भी यहाँ रेंगते हुए आती हो। कमरे का तापमान गुनगुना था, शराब से ज़्यादा गर्म और धड़कनों से धीमा।

    एकमात्र आदमी जो वहाँ बैठा था – विशवा “द ब्रेन”।

    चारकोल ग्रे सूट में उसकी मौजूदगी किसी जज की तरह नहीं, किसी निष्पक्ष जल्लाद की तरह थी। उसकी ब्लड-रेड टाई कमरे की इकलौती आवाज़ थी। आँखें? जमी हुई धार की तरह – ठंडी, लेकिन भीतर से सुलगती हुई।

    वह अपनी व्हिस्की का गिलास घुमा रहा था – एक ही हाथ में, जैसे समय की गर्दन पकड़ रखी हो।

    दरवाज़ा खुला।

    उसने सिर नहीं घुमाया, लेकिन उसकी एक भौं हल्की सी उठी।

    वह आई — लड़की, एक अजनबी। उम्र लगभग 22। काले सिल्क की ड्रेस, जो उसकी चाल के साथ लहराती थी, और एड़ियों से भी पतली कमर पर रुक जाती थी।

    “नाम?” विशवा ने बिना देखे पूछा।

    “नाम रखने वालों के लिए दुनिया बाहर है,” उसने जवाब दिया। आवाज़ में न हिचक थी, न अदब।

    विशवा ने पहली बार सिर उठाया।
    आँखों की रेखा सीधे उसके चेहरे तक पहुँची – जैसे स्कैन कर रही हो कि वो किस चीज़ की बनी है – हड्डियों की या हिम्मत की।

    वह मुस्कराया नहीं। लेकिन इशारा किया – बैठो।

    लड़की उसके सामने बैठ गई। उन्होंने गिलास उसकी ओर बढ़ाया।

    “तुम्हें पता है यहाँ कोई दूसरी बार नहीं आता,” विशवा बोला।

    “शायद इसलिए मैं पहली बार ही सब कुछ छोड़ देना चाहती हूँ,” उसने जवाब दिया।

    कमरे में एक पल को सन्नाटा फैला। फिर विशवा उठा।

    वह धीरे-धीरे उसके पास आया। एकदम पास — इतना कि लड़की की साँसों को उसने पढ़ लिया।

    उसने उसकी ठुड्डी हल्के से ऊपर की — बिल्कुल वैसे जैसे कोई जज फ़ैसला सुनाता है।

    “तुम्हें पता है मैं किसी के साथ वक्त नहीं बिताता... मैं वक्त को काटता हूँ।”

    उसकी उंगलियाँ लड़की की गर्दन की पीछे की तरफ चली गईं — एकदम धीमी, लेकिन सटीक।

    “और मैं किसी के साथ सोती नहीं... मैं अपनी नींद लूटने देती हूँ,” लड़की की आँखें अब उसकी आँखों में थीं।

    विशवा की आँखों में पहली बार हल्की चिंगारी सी चमकी। उसने लड़की के बालों को पकड़ा, हल्के से झटका — कोई गुस्से से नहीं, किसी घोषणा की तरह।

    “तो आज रात... कोई जीतने नहीं आएगा। बस हारने देगा।”

    “मैं किसी को जीतने नहीं देती,” लड़की की आवाज़ अब सांसों से भारी थी।

    कमरे की हवा बदलने लगी थी।
    लाइट डिम हो गई।
    विशवा ने उसका हाथ पकड़ा — अपनी मर्ज़ी से नहीं, जैसे नियम की तरह।

    उसने लड़की को धीरे से बेड की ओर ले जाना शुरू किया। कदमों की आवाज़ लकड़ी पर ऐसे गूँज रही थी जैसे दो प्यासों के बीच की रेत।

    बेडरूम – एक और गुप्त कक्ष। वहाँ कोई घड़ी नहीं थी, कोई आईना नहीं। बस दीवारों पर फैली लाल और काली रोशनी – और एक विशाल सिल्क से ढका बेड।

    उसने लड़की को उस बेड की ओर घुमाया।

    “तुम्हें पता है, मैं किसी को इजाज़त नहीं देता कि वो मेरी दुनिया में अपनी मर्ज़ी लाए।”

    “और मैं किसी की मर्ज़ी से नहीं चलती,” लड़की ने उसकी गर्दन को छूते हुए कहा।

    विशवा अब पास आया। उसने उसकी ड्रेस की ज़िप को खींचा – धीरे, बिना किसी जल्दबाज़ी के। उसके हर मूव में कोई उत्तेजना नहीं थी, बस नियंत्रण था। जैसे वो किसी हथियार को खोल रहा हो।

    लड़की ने उसकी टाई को खींचा — एक ही झटके में। टाई ज़मीन पर गिर गई।

    “तुम मेरे जैसे आदमी के साथ क्यों हो?” विशवा ने पूछा।

    “क्योंकि मैं अपनी हदें खुद बनाती हूँ – और तोड़ती भी हूँ।”

    वो उसके कान के पास झुका।
    “मैं प्यार नहीं करता।”

    “मैंने माँगा भी नहीं,” उसने धीमे से कहा।

    बेड की चादरें सिल्क की थीं — लेकिन उस वक्त उनके मूव्स, उनकी साँसें, और उनकी नज़दीकियाँ कहीं ज़्यादा गर्म थीं। वहाँ न तो मोहब्बत थी, न फरेब। बस एक तीखी, सीधी और काली रात – जिसमें दो लोग अपनी-अपनी सीमाओं से बाहर आकर एक दुसरे को “समझने नहीं, भोगने” आए थे।

    कमरे का दरवाज़ा अब बंद हो चुका था।
    लाइट एकदम मंद।


    "शब्दों से पहले जो आग उठे"

    स्थान: INFERNO – सेक्टर IV, ब्लैक चेंबर
    समय: रात के 12:13

    कमरे की हवा गरम थी, लेकिन उसमें पसीने की नहीं — शिकारी की गंध थी।
    दीवारों पर लटकते लोहे के मास्क, चमड़े की स्ट्रैप्स, और कोनों में लगी रौशनी की ब्लड रेड टोन किसी सज़ा-घर से कम नहीं थी।
    यह सेक्टर सिर्फ उनके लिए था जो खेल के रूल्स खुद बनाते हैं।

    और तभी...

    वो लड़की अंदर आई।

    21 साल, लेकिन चाल में मासूमियत नहीं — चेतावनी थी।
    जैसे वो कदम नहीं रख रही थी, बल्कि ज़मीन से करार कर रही थी।

    उसने साइड स्लिट ब्लैक लेदर ड्रेस पहनी थी, जिसमें उसकी जांघों की मुवमेंट हर नज़र को चुनौती देती।
    बैकलेस था, सिर्फ गर्दन से एक पतली चेन को थामे हुए — जैसे उसे ढँकने का कोई इरादा ही न हो।

    उसके बाल गीले थे — शायद जानबूझकर, ताकि ड्रॉप्स गर्दन से होते हुए कमर तक बहें।
    हाई हील्स की टक टक ने उस कमरे की गहराई में अपनी मौत की धुन बिखेर दी।

    कबीर, जो पहले से ही लाउंज की आखिरी बेंच पर बैठा था —
    ब्लैक सूट, उठा हुआ कॉलर, टाई नहीं, और शर्ट के ऊपरी बटन खुले —
    उसे एक नज़र से देखता रहा।

    उसकी उंगलियों में अटका ग्लास हिल रहा था — लेकिन उसकी नज़र ठहर चुकी थी।



    लड़की ने कोई लाइन नहीं मारी।
    बस सीधे उसकी टेबल पर बैठ गई — बिना इजाज़त के।

    "तुम यहाँ का मालिक नहीं, फिर भी सब तुम्हारे आगे झुकते हैं। क्यों?"
    उसने पूछा नहीं, फेंका।

    कबीर ने जवाब नहीं दिया।
    बस अपना ग्लास घुमाया — और उस पर गिरी लाइट से उसकी आँखों में जलती चमक को देखा।

    "तुम्हारे पास शब्द कम हैं?"
    "शब्द... ज़्यादा बोलने वाले, ज़्यादा बिकते हैं," उसने धीरे से कहा।



    लड़की ने अपने होंठों पर ज़ुबान फिराई।
    फिर बिना पूछे उसका ग्लास लिया और एक सिप ले लिया।

    "तुम्हारे स्वाद से डर नहीं लगता,"
    उसने कबीर की ओर झुकते हुए कहा,
    "लेकिन उसमें डूबने का मन करता है।"

    कबीर अब भी नहीं मुस्कराया।
    बस उसकी उंगलियाँ टेबल के नीचे उसकी जांघ पर चली गईं।

    "तुम्हें डर नहीं लगता, तो मैं तुम्हारा हिम्मत का इम्तिहान लूँगा।"

    "लू," उसने चैलेंज दिया।



    कबीर ने उसकी जांघ से ऊपर जाता हाथ वहीं रोक दिया —
    उसे देखा, जैसे कोई शिकारी शिकार को देखकर नहीं,
    खुद को रोकने के लिए देखता है।

    "डर एक प्रोटोकॉल है, जिसे मैं फॉलो नहीं करता," लड़की ने कहा।

    कबीर खड़ा हुआ — धीरे।
    उसने उसकी कलाई थामी, और नर्मी से खींचा — बिना ज़ोर, लेकिन पूरी हुकूमत के साथ।

    दोनों गार्ड्स ने खुद-ब-खुद रास्ता खाली कर दिया।



    कमरे का दूसरा छोर – ब्लैक लेदर बेड।
    उसके ऊपर लोहे की चेनें और दीवारों पर हार्नेस टंगी हुई थीं।

    कबीर ने उसे बेड की ओर धकेला —
    लेकिन इतनी सधी हुई ताक़त से, जैसे वो उसके अंदर के रॉइट को जगा रहा हो।

    लड़की ने एक ही मूव में अपनी ड्रेस की चेन खोल दी —
    पीठ नग्न हो गई, और बाल आगे लहराए।

    "तेरे जैसे लोग कहते हैं – 'मैं तुझे तोड़ दूँगा',"
    उसने कहा,
    "लेकिन मैं चाहती हूँ — कोई मुझे बिखेरे नहीं, मुझे फिर से गढ़े।"



    कबीर ने उसकी बात को न तो सराहा, न नकारा।
    बस उसकी दोनों कलाई उठाईं, और अपने बेल्ट से बांध दीं — बिलकुल ठंडे चेहरें के साथ।

    "नाम क्या है?"
    "तेरे लिए? फ़ालतू चीज़।"

    कबीर झुका — लेकिन चूमा नहीं।
    उसने उसके होंठों को अपनी सांस से भरा — गरम, भारी और क़ैद कर देने वाला।

    "तू जिस आग से बनी है... मैं उसी का जन्मदाता हूँ।"



    बेड पर उसकी बॉडी तनी हुई थी — लेकिन कांपी नहीं।

    लड़की ने कहा,
    "अगर तुम सिर्फ छूकर हावी होना चाहते हो, तो बहुत साधारण है।"

    कबीर ने गर्दन झुकाई,
    उसके कान के पास फुसफुसाया,
    "मैं शरीर को नहीं... दिमाग को सबमिट करवाता हूँ।"

    और उसने उंगलियों से उसकी जांघ पर वो नक़्श खींचा, जो सिर्फ वो जानता था।



    कमरे की रौशनी धीमी हो गई।
    अब सिर्फ उनकी साँसों की आवाज़ थी — और चादरों की सरसराहट।

    उसने उसकी आँखों में देखा, और धीरे से बालों में हाथ डाला —
    खींचा नहीं, थामा... जैसे एक बम के तार को पकड़ता है।

    "Don’t go soft," उसने दोहराया।

    "That word never existed for me," कबीर ने कहा।





    लड़की बंधी हुई थी — लेकिन चेहरा खुला था।
    उसमें डर नहीं था, बल्कि वो वो इंतज़ार था — जो पहली बार किसी ने उसे उसकी ही भाषा में जवाब दिया।

    कबीर ने नीचे झुकते हुए कहा,
    "मैं तेरे जिस्म से नहीं खेलूँगा…
    मैं तेरी सोच को रिवर्स कर दूँगा।"

    और फिर जैसे रौशनी ने खुद को कमरे से बाहर कर लिया।
    दोनों के बीच जो आग थी — वो अब शब्दों से परे जा चुकी थी।

  • 3. My Five cruel dangerous hubbies - Chapter 3

    Words: 1852

    Estimated Reading Time: 12 min

    INFERNO कोई क्लब नहीं था, वो तो एक नब्ज़ थी — अंधेरे की।
    बाहर की दुनिया में घड़ियाँ 12 बजा चुकी थीं, लेकिन INFERNO के अंदर समय काँच की तरह ठहर चुका था।

    कमरे की दीवारें चाँदी की थीं, जिनमें रगों जैसी नीली लाइटें दौड़ती थीं — जैसे खून और सन्नाटा आपस में गठबंधन कर चुके हों। फ़र्श पर मख़मली गहरे लाल गलीचे बिछे थे, जिस पर चलना ऐसा लगता था जैसे किसी की खोपड़ी पर पैर रखा हो। हर दीवार पर धातु के नक़्शे थे, मगर वो नक़्शे नक़्शे नहीं थे — वो चेहरों के स्केच थे… मरे हुए लोगों के।

    कमरा "द ब्लैक ज़ीरो" — सिर्फ़ विक्राल के लिए आरक्षित।

    विक्राल — नाम कम था, धमनी ज़्यादा।
    सिल्क ब्लैक टक्सीडो की चुप्पी उसके बदन से ऐसे लिपटी थी जैसे किसी सांप ने खुद को वज़ीर बना लिया हो। बटन खुला था, शर्ट ब्लड-ब्लू — जैसे किसी ने नीला खून बहाकर ही रंग तैयार किया हो। उसके ग्लव्स अब भी हाथ में थे — काले, लेदर के, जिनपर महीन सिलाई से Latin में कुछ उभरा था: Mortem Tacitam — "मृत्यु जो बोले नहीं।"

    चेहरा… कुछ था ही नहीं वहाँ। ना मुस्कान, ना क्रोध, बस एक सलीके से तराशी गई रेखा जैसी आँखें — स्थिर और बर्फ़ीली।
    उसे देखकर यह तय कर पाना कठिन था कि वो इंसान था या कोई मशीन जो सिर्फ़ मृत्यु के लिए प्रोग्राम की गई हो।

    कमरे में घुसने वाली लड़की, नाम नहीं था उसका, और शायद होना भी नहीं चाहिए था।

    उसके क़दमों की आहट से कमरे की रोशनी बदल गई। INFERNO की लाइटें एक रहस्यमय AI से जुड़ी थीं — जो हर इंसान की नीयत, दिल की धड़कन और त्वचा के तापमान को पढ़ सकती थीं। जैसे ही वह लड़की अंदर आई, कमरे की ब्लू टोन पर्पल में बदल गई — एक अजीब सेंसुअल थ्रेट जैसा माहौल।

    लड़की की चाल में कॉन्फिडेंस था, लेकिन आँखों में जिज्ञासा भी।
    वो ज़्यादा बोलने वाली नहीं थी — और विक्राल को वैसे लोग ही पसंद थे।


    कमरे का तापमान 18 डिग्री था।
    विक्राल सोफ़े से उठकर सीधे शीशे की दीवार के पास गया, जहाँ नीली रौशनी उसके चेहरे को विभाजित कर रही थी।

    लड़की की नज़रें उसकी पीठ पर टिकी थीं — वहाँ कोई टैटू नहीं था, लेकिन मांसपेशियों की बनावट खुद में किसी कोड जैसी थी।

    "तुम जानती हो, यहाँ कोई खेल नहीं होता,"
    उसने बगैर पीछे देखे कहा।

    लड़की की आवाज़ नहीं आई, सिर्फ़ उसकी सैंडल की एक आहट — जैसे उसने एक क़दम और बढ़ाया हो।

    विक्राल मुड़ा।

    धीरे… जैसे कोई शेर अपना चेहरा पलटता है — शिकार की अनुमति नहीं माँगता, बस देता है।

    उनके बीच सिर्फ़ पाँच फीट की दूरी थी — लेकिन वो पाँच फीट एक पूरी दुनियां जैसी लग रही थी।
    शांति ऐसी थी कि दिल की धड़कनें भी बाहर सुनाई देने लगें।

    विक्राल की चाल — जैसे बर्फ़ पर रखा गरम शीशा। वो धीरे-धीरे पास आया। कोई जल्दबाज़ी नहीं।
    उसने हाथ बढ़ाया — लेकिन छुआ नहीं। सिर्फ़ हथेली को लड़की की गर्दन से आधा इंच दूर रोके रखा।

    उसका ग्लव्स वहाँ हवा में ठहर गया।
    उसके होंठ नहीं हिले — पर साँस महसूस हुई… बिल्कुल गले की नस पर।

    लड़की ने हल्की साँस छोड़ी, लेकिन विक्राल के चेहरे पर कोई प्रतिक्रिया नहीं आई।
    उसके लिए ये खेल नहीं था। ये था नाप लेना — कौन कितना भय में काँपता है।

    फिर उसने धीरे से ग्लव्स उतारे — एक-एक उंगली से, जैसे वह किसी विस्फोटक चीज़ को खोल रहा हो।

    अब उसकी नंगी हथेली हवा में थी — हल्की सी ठंडी, लेकिन कंपन से भरी।

    उसने लड़की की कॉलर हड्डी को छुआ — सिर्फ़ उंगलियों के सिरों से।

    वह छुअन स्पर्श नहीं थी, वो एक चेतावनी थी।

    लड़की ने आँखें बंद कीं।
    उसका बदन सिहर गया — किसी ख़ुशी या शर्म से नहीं, बल्कि क्योंकि ये स्पर्श भीतर तक गया था… और वहाँ कुछ जगाया नहीं, खींचा।

    विक्राल की उंगलियाँ अब धीरे-धीरे ऊपर उठीं — गर्दन से जबड़े तक।
    ना कोई जल्दबाज़ी, ना कोई हड़बड़ी — सिर्फ़ संवेदनशीलता की एक स्पष्ट स्क्रिप्ट।

    “तुम्हें डर नहीं लगता?”
    उसकी आवाज़ अब बिल्कुल पास से आई।

    लड़की ने सिर्फ़ इतना कहा, “नहीं, बस ये जानना है… क्या मैं वाकई ज़िंदा हूँ।”

    विक्राल अब ठीक सामने था।

    उसने अपने हाथ उसके कंधे तक लाए, और उसके टॉप की स्ट्रैप्स को उँगलियों से छुआ।
    उसने एक झटका नहीं दिया — न ही कोई जबरदस्ती — बस एक ऐसा सन्नाटा पैदा किया, जिसमें कपड़ा खुद सरकने लगे।

    टॉप अब नीचे गिर चुका था।

    लड़की अब कमज़ोर नहीं, लेकिन नग्नता के बिल्कुल नए अर्थ में खड़ी थी।

    विक्राल ने तब भी उसे नहीं छुआ।

    वो अब बेड के किनारे की ओर बढ़ा — वहाँ बैठ गया, फिर लेट गया — पूरी तरह शांत।

    उसने लड़की को देखने के बजाय, छत की तरफ देखा।

    "तुम सोचती हो, शरीर से क्या शुरू होता है?"
    उसका स्वर धीमा था, जैसे कोई पुराना पियानो एक ही नोट बार-बार बजा रहा हो।

    लड़की उसके पास आई।
    बेड पर उसके बगल में बैठी, फिर धीरे से उसके कंधे पर हाथ रखा।

    विक्राल ने तब भी प्रतिक्रिया नहीं दी — उसकी साँसें धीमी थीं, आँखें छत पर।

    फिर लड़की धीरे से उसके ऊपर झुकी — जैसे कोई किताब किसी खाली पन्ने पर झुकती है।

    वो अब उसके चेस्ट पर थी।

    उनके बीच कुछ नहीं था — लेकिन सब कुछ था।

    उसने उसकी आँखों में देखा।
    और विक्राल ने पहली बार आँखें झपकाईं।

    सिर्फ़ एक बार।



    INFERNO की छत पर अचानक लाइट बदली — ब्लू से डार्क रेड में।

    वो AI समझ चुका था — यहाँ कोई कनेक्शन बन गया है, जो सेक्स से ज़्यादा जटिल था।

    ये स्पर्श नहीं था, ये मौन का सामना था।





    विक्राल अब भी शांत था, लेकिन उसकी साँसें अब पहली बार मानवीय थीं।

    लड़की अब भी उस पर थी, लेकिन उन्होंने कोई हरकत नहीं की।
    ना किस, ना फॉरप्ले, ना भूख।

    बस एक मौन चेन जो बंध चुकी थी — बिना वादा, बिना शब्द, बिना प्रेम।



    INFERNO के सिस्टम ने उस रात उस कमरे का नाम बदल दिया:

    "The Still Touch" — एक ऐसा कमरा जहाँ शरीर नग्न हुआ, लेकिन आत्मा शांत रही।

    INFERNO के दरवाज़े चुपचाप खुलते थे, जैसे ज़ख्म — आवाज़ नहीं करते, मगर असर छोड़ते हैं।

    यहाँ कोई घंटियाँ नहीं बजती थीं, कोई स्वागत नहीं होता था — स्वागत की जगह, तुम्हें एक अजीब सी ठंडक छूती थी, जैसे मौत ने दरवाज़े पर हाथ रखा हो।

    क्लब के अंदर 27 फीट नीचे बना सिल्वर चैंबर एक गोपनीय महल की तरह था — रनधीर “द फाइनेंसर” के लिए तैयार किया गया, उस आदमी के लिए जो चीज़ें ख़रीदता नहीं था, उन्हें चुपचाप ओवरराइट कर देता था।



    कमरे का इंटीरियर:

    कमरे में हर चीज़ रनधीर की तरह थी — महंगी, शांत और खतरनाक।

    दीवारें असली चांदी की परतों से जड़ी थीं, जिन पर हल्की रोशनी ऐसे पड़ती थी जैसे लाशों पर पड़ा चांद।
    एक कोना काले शीशे का था — जहाँ से परछाइयाँ ही दिखती थीं, चेहरे नहीं।
    बीच में रखा एक low-height प्लेटिनम बेड, जिसकी चादरें काले रेशम की थीं, और तकियों पर “R&R” एम्ब्रॉयडरी थी — रनधीर और रेजिस्टेंस।

    एक दीवार पर लटकी थी एक ancient vault-clock — जिसकी सूइयाँ उल्टी दिशा में चलती थीं। समय यहाँ किसी के मुताबिक नहीं चलता था, सिर्फ़ रनधीर के।



    रनधीर:

    सिल्वर ग्रे अरमानी कोट में रनधीर एक सजीव निवेश की तरह दिख रहा था — महँगा, सीमित, और किसी भी वक्त बेचा जा सकने वाला।

    उसकी आँखें वैसी नहीं थीं जो किसी को देखती हों — वो किसी को कैलकुलेट करती थीं।
    उसके कोट की पॉकेट में रखा स्टील-पेन सिर्फ़ साइन के लिए नहीं था — वह खतरे का टूल था, ठीक उसके जले हुए पासपोर्ट की तरह, जो अतीत की तमाम पहचान को भस्म कर चुका था।



    लड़की का आगमन:

    दरवाज़ा बिना खटखटाए खुला — और वह अंदर आई।
    लंबे काले बाल, एकदम स्ट्रेट — जैसे किसी कैलकुलेशन से ब्रश किए गए हों।
    लिपस्टिक रेड वाइन जैसी, लेकिन आँखों में वो बर्बादी थी जो एक फाइनेंसर के बैलेंस शीट को भी डराए।

    उसने अंदर कदम रखा तो चांदी की दीवार पर उसकी परछाईं यूँ पड़ी जैसे कोई हस्ताक्षर — रनधीर की रजामंदी के बिना, वह भीतर नहीं आती।
    लेकिन आज, वह खुद बुलाया गया ख्वाब थी।



    रनधीर धीरे से उठा — उसके जूतों की एड़ी चांदी की फ़र्श पर म्यूटेड क्लिक देती रही।

    "तुम जानती हो न, यहाँ पावर किसकी चलती है?"
    उसने कहा, बिल्कुल धीमे, पर उसकी आवाज़ जैसे वॉल्ट का लॉक हो — एक बार खुला, तो सब कुछ बदल जाए।

    वो मुस्कराई — “मैं आईना नहीं हूँ, जो तुम्हें देखे। मैं स्क्रीन हूँ, जो तुम्हारे अंदर झांके।”

    रनधीर उसकी बात पर हँसा नहीं — सिर्फ़ पास आया, और उसकी ठोड़ी को उँगलियों से थोड़ा ऊपर उठाया।

    “तो देख,” उसने फुसफुसाते हुए कहा, “क्योंकि यहाँ डॉमिनेशन देखने से नहीं, महसूस करने से आता है।”


    कमरे में हवा रुक गई थी — जैसे सब कुछ फ्रीज कर दिया गया हो।
    रनधीर ने अपना कोट धीरे-धीरे उतारा — हर बटन खोलते वक्त उसकी आँखें उसके चेहरे पर थीं।
    लड़की का हाथ उसकी कमर तक गया, और फिर जैसे किसी इंडिकेटर ने ग्रीन सिग्नल दे दिया हो — दोनों जैसे एक साथ भीतर की वॉल्ट में बंद हो गए।


    बेड तक पहुँचने में सिर्फ़ छह क़दम थे, लेकिन हर क़दम एक क़ीमत थी — कंट्रोल का, कशिश का, और कन्फ़्यूज़न का।
    वो उसे दीवार की ओर थोड़ा धकेलता गया — उसके हाथ उसकी गर्दन से होते हुए पीठ तक गए।
    उसने चुपचाप उसकी ड्रेस की ज़िप खींची, जैसे कोई बैंक लॉकर खोल रहा हो।

    “तुम्हें पता है न, यह सब कुछ सिर्फ़ आज रात का है?”
    “हर रात ज़रूरी नहीं होती,” उसने कहा, “कभी-कभी सिर्फ़ एक पल ही काफ़ी होता है।”



    बेड पर गिरते हुए लम्हे:

    वो उसे बेड तक लाया — वहाँ कोई रोमांटिक संगीत नहीं था, कोई कैंडल नहीं।
    सिर्फ़ उनकी साँसों की आवाज़ थी, और चांदी की दीवारों पर उनकी उलझती परछाइयाँ।

    उसने उसे थोड़ा ज़ोर से पकड़ा — कोई हिंसा नहीं, लेकिन पूरी पकड़।
    बेड पर वो दोनों गिरते नहीं, सामना करते हैं।
    और फिर, कुछ हल्की आवाज़ें — कपड़े सरकते हैं, बदन चटखते हैं, साँसे तेज़ होती हैं।

    क्लाइमैक्स कोई इमोज़न नहीं था — वह एक सिग्नेचर था, एक डील जो दो शरीरों के बीच साइलेंट मोड में हुई थी।



    और फिर सब ख़त्म...

    बेड के एक कोने पर रनधीर बैठा था — वापस अपना स्टील-पेन पॉकेट में रखते हुए, जैसे कोई अग्रीमेंट पर आख़िरी साइन कर चुका हो।

    लड़की उठकर अपने बाल बांधती है — आईने की ओर नहीं देखती, क्योंकि वो जानती है, इस कमरे में चेहरा मायने नहीं रखता — बस वो जो पीछे छूट जाए।

    “नाम क्या था तुम्हारा?”
    रनधीर ने पूछा, जैसे कोई लास्ट कॉल रिकॉल कर रहा हो।

    “नाम?” वह मुस्कराई —
    “INFERNO में कोई नाम नहीं होते… सिर्फ़ एक रात के कोड होते हैं।”
    लड़की कपड़े पहने लगे लेकिन तभी रनधीर उसे रोका और कहा,
    " मेरे लिए ड्रिंक बनाओ, " रनधीर सैक्सी अंदाज में कहा |
    लड़की का गला सूख गया और उसने कपड़े वही फेंक और केट वाॅक करते हुए बारटेबल तक गई वहाँ दो गिलास में ड्रिंक बनाई तभी रनधीर बेड पर बैठा लड़की उसी अंदाज में हाथों में जाम लिये लौटी एक रनधीर को दिया और दूसरे को अपने होठों से लगा लिया |

  • 4. My Five cruel dangerous hubbies - Chapter 4

    Words: 1751

    Estimated Reading Time: 11 min

    अध्याय – "INFERNO के तहख़ाने में"

    स्थान: INFERNO क्लब का गुप्त कक्ष
    समय: रात 12:00 — जब अंधेरे को भी डर लगने लगे

    INFERNO का वह कमरा किसी ताबूत की तरह था — ठंडा, पर दीप्त। एक दीवार काले शीशे की थी जिसमें कोई देख नहीं सकता था, लेकिन मरण सब देख सकता था।

    कमरे की दीवारें साउंडप्रूफ थीं — ज़्यादा चीख़ों की ज़रूरत नहीं पड़ती थी यहाँ, लेकिन अगर कोई निकले, तो उसकी गूंज महीनों तक मस्तिष्क में टिक जाती।

    सामने लगे झूमर में जलती ब्लड-रेड रोशनी किसी रक्त की बूंद की तरह टपक रही थी। वहां कालीन नहीं, गहरे ग्रे मखमली फ़र्श था, जिस पर चलना वैसा ही था जैसे बर्फ़ पर कोई गर्म हथेली रख दी जाए।

    मरण अंदर खड़ा था — उसी तरह जैसे कोई बच्चा किसी नई खिलौने की दुकान में खड़ा हो — उसकी मासूम सी मुस्कान और गहरी आँखें किसी मौत से पहले का lullaby थीं।

    उसके कंधों पर ब्लैक कोट था, जिसकी लाइनिंग भीतर से ब्लड रेड थी, और कॉलर के पास चमकते अक्षरों में कढ़ा हुआ था — ‘666’।

    फर्श पर एक हल्की आहट हुई — लड़की ने प्रवेश किया।



    वह:
    करीब 21 की होगी। काले लेदर की टाइट ड्रेस, जो उसके शरीर से ऐसे चिपकी थी जैसे डर किसी पाप से।
    उसके बाल पीछे बंधे थे, और आँखों में कॉन्फिडेंस नहीं, ललच थी — कोई खेल खेलने आई थी, लेकिन उसे पता नहीं था कि मरण खेल नहीं खेलता, वह खिलौने तोड़ता है।



    "तुम ही हो..." लड़की की आवाज़ थोड़ी भारी थी, शायद शराब ने उसकी जुबान को ढीला कर दिया था।

    मरण ने गर्दन थोड़ा झुकाकर सिर को तिरछा किया — बिल्कुल वैसे जैसे कोई बच्चा अपनी पालतू बिल्ली को घूरता है।

    "तुम आई हो," उसकी आवाज़ में मासूमियत थी, लेकिन आँखों में शिकारीपन। "तो अब तुम जाओगी भी नहीं।"

    वह हँसी। “You think you can dominate me?”
    उसने अपने बूट्स उतारते हुए कहा, “Boys like you don’t scare me.”

    मरण आगे बढ़ा — हर क़दम जैसे कोई तालबद्ध जादू हो। उसकी चाल में कोई जल्दबाज़ी नहीं थी, पर जब वह पास आया, तो हवा भी उसके कदमों से हट गई।

    उसने धीरे से उसकी कलाई पकड़ी — बिल्कुल नर्मी से, लेकिन वो पकड़ छूटने वाली नहीं थी। लड़की चौंकी नहीं, बल्कि मुस्कुराई — उसे लगा, खेल शुरू हो गया है।



    "तुम्हें पता है... जब लोग मुझे 'ब्लडबॉय' कहते हैं..."
    मरण ने फुसफुसाकर कहा, "तो उन्हें लगता है मैं किसी हॉरर स्टोरी से निकला किरदार हूँ… लेकिन नहीं। मैं कहानी नहीं सुनाता... मैं कहानी को ख़त्म करता हूँ।"

    लड़की की साँसें थोड़ी गहराई लेने लगीं। एक बार के लिए लगा — या तो वो डर रही थी, या कुछ और।

    मरण ने अपने हाथ उसकी पीठ पर सरकाए — उंगलियाँ उसके बैकज़िप तक पहुँचीं। फिर उसने अपनी दूसरी हथेली से उसकी गर्दन के पीछे बालों को जकड़ा — हल्का सा खींचा। लड़की ने अपनी गर्दन झुका दी।

    "Good girl," मरण ने कहा। लेकिन वह आवाज़ आश्वासन नहीं, चेतावनी जैसी थी।



    कमरे में हल्की electronic बीट्स चल रही थीं — बिन शब्दों की। लेकिन उन बीट्स में rhythm नहीं था, बस हार्टबीट की नकल थी — और दोनों के बीच की space, धीरे-धीरे ख़त्म हो रही थी।

    मरण ने अपने कोट को उतारकर साइड चेयर पर रखा। अंदर उसकी काली शर्ट थी, जिसकी बटनें उसने खुद खोलनी शुरू कीं — एक-एक करके।

    लड़की ने उसकी छाती की ओर देखा — कोई muscular macho body नहीं थी, बल्कि lean, cut lines थीं — जैसे हर नस किसी हिंसा की कहानी हो।

    "Let’s see how long you last," लड़की ने कहा — वो अब खुद उसके नज़दीक आने लगी थी।

    मरण ने उसकी ठुड्डी को दो उंगलियों से ऊपर किया। “This isn’t about lasting... This is about how beautifully you break.”



    मरण ने उसे पीछे धकेला — लेकिन ज़ोर से नहीं, धीरे से। बस इतना कि वह दीवार से लग जाए। उसकी पीठ अब काले शीशे से लगी थी। मरण का चेहरा करीब था — इतना कि उसकी सांस उसकी त्वचा पर कहानी लिख रही थी।

    लड़की ने अपनी एड़ी उठाकर उसके कंधों पर हाथ टिकाया — पर मरण ने उसकी कलाई को कसकर नीचे किया।

    “Not yet,” मरण ने कहा। “Rules are mine here.”



    उसने लड़की को हल्के से धकेलते हुए बेड तक ले जाना शुरू किया — एक-एक क़दम, उसके शरीर को उसकी साँसों से सराबोर करते हुए।

    बेड के पास आते ही, मरण ने एक ज़ोरदार स्ट्रोक में उसके ड्रेस का ज़िप नीचे खींचा — आवाज़ एक चाकू जैसी थी, जो कपड़े नहीं, भरोसा काटती हो।

    ड्रेस अब उसके कंधों से नीचे गिर रही थी।

    "क्यों आई थी यहाँ?" मरण ने पूछा, लेकिन जवाब की उम्मीद नहीं की।

    उसने लड़की को बेड पर पीछे धकेला — नज़ाकत से नहीं, क़ाबू से।



    अब वह लड़की बेड पर आधी बैठी, आधी लेटी हुई थी। उसकी आँखें धुंधली थीं — नशे से, या शायद उस control से जो मरण ने उस पर जता दिया था।

    मरण अब धीरे-धीरे उसके ऊपर आया — दोनों हाथ बेड पर टिकाते हुए, ठीक उसके चेहरे के दोनों तरफ।

    “Just a night,” उसने कहा।

    लड़की ने उसकी आँखों में देखा — वहाँ न आग थी, न प्यार...
    बस एक ब्लैंक क्रूरता — जिसे न तो समझा जा सकता है, और न ही महसूस किए बिना बचा जा सकता है।



    मरण ने झुककर उसकी गर्दन पर होंठ रखे — वो न कोई किस था, न कोई स्पर्श — वो एक अनाउंसमेंट था, कि ये रात किसकी होगी।

    बेड की शीट्स अब सिल्क की तरह खिंच रही थीं। कमरा उसी लाल रोशनी में नहा रहा था। और INFERNO के उस तहख़ाने में, किसी और कहानी की शुरुआत नहीं, एक और अंत लिखा जा रहा था।


    INFERNO के बाहर रात का मौसम भी किसी साज़िश की तरह सर्द और भारी था। हवा में नमी थी, लेकिन उसमें कोई जीवन नहीं — बस एक ठहराव, जैसे कोई अपनी साँस रोककर कुछ घटने का इंतज़ार कर रहा हो। आसमान पर बादल गहरे काले थे, और चाँद पूरी तरह छिप चुका था — मानो वह भी उस तहख़ाने में झाँकने से डर रहा हो। दूर कहीं बिजली चमकी थी, पर उसके बाद भी कोई गर्जना नहीं हुई — जैसे उस जगह ने आवाज़ों को निगल लिया हो। क्लब की दीवारों के बाहर भी सन्नाटा था, लेकिन भीतर... हर सांस, हर हलचल, एक अलग तूफ़ान बुन रही थी।


    “मॉर्निंग आफ्टर – एक सिगरेट की दूरी”

    स्थान: INFERNO क्लब का प्राइवेट सुइट, कमरा नंबर 13
    समय: सुबह 6:47 AM

    कमरे में हल्की नीली रौशनी घुल रही थी — वो रौशनी जो सूरज नहीं लाता, बल्कि थकावट और रात की शराब छोड़ जाती है। बेड पर अब दो शरीर नहीं, दो अलग-अलग मौन लेटे थे। दोनों नग्न, लेकिन कोई स्पर्श नहीं।

    कमरे में अब म्यूज़िक बंद था। झूमर की लाइट्स भी बुझ चुकी थीं। बस एक कोना था जहां ड्रेस की सलवटें पड़ी थीं, और एक कोट — ब्लैक कोट जिसकी अंदरूनी परत लाल थी, अब किसी शिकार की खून सनी याद की तरह बिखरी थी।

    मरण पहले उठा।

    उसकी आंखों में नींद नहीं थी। कोई सपना भी नहीं। जैसे उसने रात में सिर्फ़ एक ज़रूरत पूरी की हो — और अब वो ज़रूरत खत्म हो चुकी थी।

    उसने कंधे से बेडशीट को हटाया, और पैरों को नीचे रखते हुए फर्श पर रखा — ठंडा संगमरमर उसकी त्वचा से बातें करने लगा।

    पीछे लड़की अभी भी सो रही थी — उसके बाल बिखरे थे, होंठ सूखे और गले पर लाल निशान, जैसे वो किसी wild बकरी की गर्दन हो जिसे शिकारी ने सिर्फ़ छुआ हो, मारा नहीं।

    मरण बाथरूम में गया।
    शॉवर ऑन किया — पानी गर्म था।
    भाप दीवारों पर पसीने की तरह चढ़ने लगी।

    आईने के सामने खड़ा वो खुद को देख रहा था — उसका शरीर बिल्कुल वैसा ही था जैसे पिछले शिकार के बाद — थका नहीं, बल्कि शांत।

    उसने बालों से पानी झटकते हुए एक लंबी साँस ली, फिर बाथरूम से बाहर आया — एक सफ़ेद टॉवेल लपेटे।

    लड़की अब भी उसी करवट पर थी। उसने शायद उठने का सोचा भी नहीं था।

    "सुबह हो गई है," मरण ने कहा — आवाज़ सपाट थी।

    लड़की ने आंखें खोलीं — एक पल को चेहरे पर भ्रम था, फिर पहचान।

    "अभी?" उसने बस इतना कहा।

    "Already late," मरण ने मुस्कुराए बिना कहा।

    वो उठी। बेडशीट को सीने तक खींचते हुए बैठी, फिर धीरे-धीरे फर्श की ओर पैर फैलाए।

    उसके बदन पर एक सिगरेट जैसी थकावट थी — जली हुई, लेकिन राख अभी गिरी नहीं थी।

    "Coffee?" उसने पूछा।

    "Only Black," मरण बोला।

    "Figures," उसने फुसफुसाया।

    वो उठी, बेडशीट लपेटकर टेबल की ओर गई — वहीं रखी थी कॉफी मशीन, क्लब की सिग्नेचर सर्विस।

    कॉफी बनते वक्त दोनों में कोई बात नहीं हुई — सिवाय कपों की आवाज़ के और उस भाप की जो सुबह की ख़ामोशी को चीर रही थी।

    कॉफी मिलते ही उसने एक कप उसकी ओर बढ़ाया।

    मरण ने कप लिया — छूने में नहीं, सिर्फ़ कप पकड़ने में। उनकी उंगलियाँ एक दूसरे से मिलीं तक नहीं।

    "तो... ये कैसा खेल था?" उसने पूछा — जैसे खुद को सुनाने के लिए बोला हो।

    "खेल नहीं था," मरण ने जवाब दिया, "यहाँ कोई स्कोर नहीं होता। बस एक बार की बात थी।"

    "One night and done?"

    "नहीं... सिर्फ़ done."
    मरण ने पहली सिप ली।

    वह अब टॉवेल लपेटे दरवाज़े के पास गया, जहाँ उसका कोट लटका था।
    धीरे से उसने उसे कंधों पर डाला।

    लड़की अब पीछे से देख रही थी — उसे एहसास था, ये goodbye वाला मोमेंट नहीं है।

    यहाँ न नमaste था, न 'कल मिलेंगे', और न ही ‘कुछ तो था हमारे बीच’ टाइप फीलिंग।

    "तुम्हारा नाम क्या था?" लड़की ने पूछा।

    मरण पलटा, थोड़ा मुस्कराया — पहली बार।

    "तुमने रात में पूछा नहीं... अब सुबह जानकर क्या करोगी?"

    "बस यूँ ही," उसने कंधे उचकाए।

    "नाम जानने से कुछ बदलता नहीं," मरण ने जवाब दिया, "बस next बार की उम्मीद जागती है।"

    "Next बार नहीं होगा?"

    "INFERNO में कुछ दोहराया नहीं जाता," मरण बोला, "हर कहानी एक बार के लिए होती है। वरना वो obsession बन जाती है। और obsession, ज़हर।"

    मरण ने दरवाज़ा खोला।

    रौशनी बाहर से नहीं आई, क्योंकि INFERNO के बाहर सुबह भी अंधेरा होता था।

    लेकिन वो बाहर निकलते हुए किसी चुप चाकू की तरह लग रहा था — कोई भी निशान न छोड़ता हुआ।

    पीछे लड़की ने एक लंबी सांस ली।

    उसने अपने होंठों पर जीभ फेरी — रात का स्वाद अभी बाकी था।

    फिर बेड पर वापस लेट गई — एक हथेली खाली तकिये पर रखी, और दूसरी कप पर।

    उसने धीरे से कहा — “ये INFERNO था... या मैं?”

    और फिर, वो भी आंखें बंद करके सो गई — बिना किसी इंतज़ार के।

  • 5. My Five cruel dangerous hubbies - Chapter 5

    Words: 1360

    Estimated Reading Time: 9 min

    INFERNO क्लब
    अध्याय – “सुब्ह का समझौता”
    स्थान: INFERNO क्लब का प्राइवेट सिल्वर चैंबर
    समय: अगली सुबह – 04:37 AM

    INFERNO के चांदी जैसे चमकते कमरे में अब एक फीकी रोशनी थी — जैसे कोई सौदा किया जा चुका हो और उसकी रसीद अब ठंडी हवा में उड़ रही हो।

    रनधीर “द फाइनेंसर” की आँखें खुलीं, पर उसमें कोई नींद नहीं थी। वह वैसे ही लेटा रहा — पीठ के नीचे रेशमी चादरें अब भी उसी तरह बिछी थीं, लेकिन अब उस पर किसी की गर्मी नहीं थी।

    कमरे की घड़ी की सूइयाँ अब भी उलटी चल रही थीं — जैसे वक़्त वापस लौटना चाहता हो, पर उसे इजाज़त नहीं।

    कमरे का वातावरण:

    कमरे में एक अजीब सी ख़ामोशी थी।
    वो शोर नहीं जो क्लब के बाहर बजता था, न ही वो साँसों की गूंज जो कुछ घंटे पहले यहाँ थी।
    यह अब एक पोस्ट-डील साइलेंस था — ठोस, भरा हुआ… लेकिन खाली।

    शायद वही खालीपन जो किसी कॉन्ट्रैक्ट के बाद टेबल पर बचता है।



    रनधीर धीरे से उठा।
    उसका बदन बिलकुल शांत था, जैसे उसने किसी इमोशन का वजन उठाया ही नहीं हो।

    उसने पास रखे कांच के ग्लास में पानी डाला — पीया नहीं, बस देखा।
    ठीक वैसे ही जैसे वह लोगों को देखता था — उनका इस्तेमाल करने से पहले।

    पास रखे उसके जले हुए पासपोर्ट को उसने उँगलियों से छुआ —
    याद दिलाने के लिए कि वह कौन था।
    या शायद… कौन नहीं था।

    लड़की अब भी कमरे में थी… मगर नहीं थी।

    वो खिड़की के पास खड़ी थी, रेशमी काले गाउन में, बाल बांधे हुए, जैसे वह पहले से तयशुदा स्क्रिप्ट पर चल रही हो।

    उसके चेहरे पर कोई स्माइल नहीं थी, कोई शिकन नहीं।
    ना शर्म, ना संतोष, ना पछतावा।

    बस एक शांत, डील क्लोज़र जैसी ठंडी नज़र।

    “तुम अब भी यहाँ हो?”
    रनधीर की आवाज़ में कुछ भी नहीं था — न रुकने का आग्रह, न जाने की आज़ादी।

    “हाँ,” उसने कहा।
    “मैं हमेशा सुबह तक रुकती हूँ — ताकि रात का वजन सीधा बाहर न ले जाऊँ।”



    “पता है, मैं तुमसे कुछ पूछने नहीं आई थी,” वो बोली, उसकी उँगलियाँ खिड़की की फ्रेम पर चलती रहीं।

    “और मैंने तुम्हें कुछ दिया भी नहीं,” रनधीर ने जवाब दिया।

    “बिल्कुल… यही इस जगह की खूबसूरती है। कोई इमोशन नहीं। कोई लॉयल्टी नहीं। बस यूज़ एंड लॉग आउट।”
    उसने मुस्कुरा कर कहा, जैसे किसी सिस्टम की शर्तों को एक्सेप्ट कर रही हो।



    रनधीर ने अपना कोट उठाया, बटन क्लोज किए — एक-एक बटन उसी क्रम में बंद किया जैसे किसी सौदे का प्रिंटआउट निकलता है।
    पॉकेट में स्टील-पेन, और हाथ में वॉलेट — जिसमें सिर्फ़ कार्ड्स थे, न कोई फोटो, न कोई याद।

    “तुम्हारा नाम क्या था?”
    उसने पुछा, बिना देखे।

    लड़की ने कोई जवाब नहीं दिया — बस अपनी लाल हील्स पहनी, और दरवाज़े की ओर बढ़ी।

    “नाम उस वक्त बताया जाता है जब दोबारा मिलने की गुंजाइश हो,”
    उसकी आवाज़ कांच जितनी साफ़, और चाकू जितनी तेज़ थी।

    कमरे में दो परछाइयाँ थीं — लेकिन रौशनी अब सिर्फ़ एक को पकड़े थी।

    वह चली गई।
    न मुड़ कर देखा, न कुछ छोड़ा।
    यहाँ तक कि खुशबू भी नहीं।

    दरवाज़ा खुला, और उसी साइलेंस से बंद हुआ — जैसे कोई फोल्डर सिस्टम से डिलीट हो गया हो।



    INFERNO में कुछ भी पर्सनल नहीं था।
    यहाँ नाम नहीं चलते थे, सिर्फ़ डील्स।
    यहाँ प्यार नहीं पनपता था, सिर्फ़ control।

    रनधीर ने रूम के सेंटर में खड़े होकर लंबी साँस ली।
    कोई रोमांस नहीं…
    कोई हैंगओवर नहीं…
    सिर्फ़ एक सिस्टमेटिक नशा — डॉमिनेशन का।

    क्लब का कंट्रोल-रूम:

    नीचे से एक कॉल आई — “Code 9 Activated – Boardroom में आपकी मौजूदगी चाहिए।”

    रनधीर ने कॉल रिसीव किया, और सिर्फ़ इतना कहा —
    “ON MY WAY.”

    कोई फर्क नहीं पड़ा उसे कि कुछ घंटे पहले क्या हुआ।
    वह ऐसा आदमी नहीं था जो किसी रात को अपने साथ ले जाए —
    वह उसे बहीखाते की तरह क्लोज करता था।


    चांदी की दीवारें अब भी चमक रही थीं —
    लेकिन उनके बीच एक छोटा सा निशान था —
    जैसे किसी ने उँगली से स्क्रैच खींचा हो…

    शायद लड़की ने जाने से पहले लगाया हो —
    या शायद INFERNO खुद हर “कनेक्शन” को एक काट में बदल देता हो।

    बाहर की दुनिया में सुबह हो चुकी थी — लेकिन INFERNO में सिर्फ़ अगला शिफ्ट शुरू हुआ था।
    और रनधीर…
    अब फिर से वही था जो हमेशा रहता था —
    अनडिफाइंड, अनक्लेम्ड, और अनडर कंट्रोल।

    INFERNO क्लब का सिल्वर चैंबर एक ऐसे कैमरे की निगरानी में था जो भावनाओं को नहीं, सिर्फ़ मूवमेंट्स को रिकॉर्ड करता था। उसकी आँखें बेजान थीं — फिर भी सब देखती थीं। कमरे के कोनों में स्लीक सिल्वर ट्रैक लाइट्स थीं जो हर हलचल पर फोकस बदलती थीं।

    दीवार पर एक मिनिमलिस्टिक पैनल टिका था, जिसमें सेंसर-ड्रिवन टेम्परेचर और म्यूज़िक ग्राफ चल रहे थे — जैसे इमोशन्स को एनालाइज़ करने की कोशिश में लगे हों। एक रैक में हाई-फ्रीक्वेंसी रिसीवर रखा था, जो सिग्नल भेजता नहीं, बस लेता था। और सिल्वर मिरर के पीछे जो छोटी सी लाइट झपक रही थी — वो इस बात की गवाह थी कि सबकुछ रिकॉर्ड हो रहा था।

    INFERNO में कोई अकेला नहीं होता।
    यहाँ हर लम्हा — फाइल में बदल दिया जाता है।


    “INFERNO: मौन का सवेरा”
    INFERNO क्लब का वही चांदी-दीवारों वाला कमरा
    सुबह 5:17 AM — जब अंधेरा नींद से जागने लगता है
    नो लव, नो इमोशनल अटैचमेंट, सिर्फ़ मौन के बाद की ठंडक और सेंसुअल डिटैचमेंट

    कमरे की लाइट अब पीली थी — वो पीला जो अस्पतालों में मिलता है, जहाँ ज़िंदा रहना महज़ एक डेटा होता है।

    कमरे की हवा अब भी भारी थी, लेकिन उसमें वो बेस्वाद ठंडक थी जो सिर्फ़ एक असंपर्कित रात के बाद आती है।

    विक्राल अब भी बिस्तर पर था — उसकी आँखें खुली थीं, लेकिन पलकें थमी हुई थीं।
    सामने छत पर अब भी वही नीली रेखाएँ दौड़ रही थीं — मानो ये बता रही हों कि जीवन अब भी कंप्यूटर से कम नहीं।

    लड़की अब बिस्तर से उठ चुकी थी।

    उसका चेहरा निर्विकार, बाल पीछे बाँध दिए गए थे — जैसे उसने बीती रात को मानसिक रूप से डिलीट कर दिया हो।
    वो आईने के सामने खड़ी थी, अपने कपड़े पहन रही थी — वही टॉप जो उसने धीरे से गिराया था, अब उतनी ही ठंडी सावधानी से वापस पहन रही थी।

    कोई जल्दबाज़ी नहीं।
    कोई घबराहट नहीं।
    और कोई भावना नहीं।

    कमरे में सिर्फ़ कपड़ों के रगड़ने की आवाज़ थी और दीवारों की हल्की सी थिरकन — जैसे वहाँ अब इंसान नहीं, बस उनकी आदतें थीं।

    विक्राल अब उठ बैठा था। उसकी पीठ से चादर नीचे सरक गई — कोई ग्लोरी नहीं, कोई ऐक्ट्रेस वाला सीन नहीं।
    उसके चेहरे पर वही शून्यता थी जो शायद किसी मशीन को बंद करने के बाद देखी जाती है।

    दोनों ने एक-दूसरे की तरफ़ देखा।

    लेकिन वो नज़रें…
    ना कुछ माँग रही थीं,
    ना कुछ देना चाहती थीं।

    बस एक साइलेंट अंडरस्टैंडिंग —
    "जो हुआ, उसका कोई नाम नहीं है। और जो होगा, उसमें इसकी कोई जगह नहीं होगी।"

    लड़की ने अपना ब्लैक हील्स उठाया, पहना।
    फिर अपने बाल बाँधे, गले की एक चेन को ठीक किया और धीरे-धीरे दरवाज़े की तरफ बढ़ी।

    विक्राल ने तब भी कुछ नहीं कहा।

    ना "रुको",
    ना "फिर मिलेंगे",
    ना "कैसी हो" टाइप कोई मानवतावादी बातें।

    बस उसकी उंगलियाँ अब भी ग्लव्स के अंदर जा रही थीं —
    जैसे वो खुद को दोबारा “The Silent Death” में रीप्रोग्राम कर रहा हो।

    लड़की ने दरवाज़ा खोला।
    कमरे की लाइट पीछे से उस पर पड़ी, और उसकी छाया दीवार पर एक परछाईं जैसी बन गई — जो थोड़ी देर रुकी, फिर गायब हो गई।

    जैसे वो कभी थी ही नहीं।

    5:29 AM
    कमरा अब खाली था।

    बेड की चादर झुकी हुई थी, और दीवारें अब फिर से नीले रंग में थरथरा रही थीं।
    INFERNO का सेंसर अब उस कमरे को "वॉयड" टैग कर चुका था —
    “Temporary Human Contact. No Sentiment Logged.”

    विक्राल ने सिगरेट जलाई।
    लेकिन आधी जली छोड़ दी — वो स्मोक उसे छू नहीं पा रही थी।

    कमरे में अब भी वही सुगंध थी — पसीने की नहीं, इरादों की।
    लेकिन वो इरादे अब नंगे नहीं थे, वो बस… निस्पंद थे।


    कमरे की स्क्रीन पर एक लाइन चमक रही थी:

    "She walked in,
    didn't ask to stay.
    And he...
    never needed to remember."

  • 6. My Five cruel dangerous hubbies - Chapter 6

    Words: 1544

    Estimated Reading Time: 10 min

    “No Romance, No Repeat – Just One Night of Raw Power” —


    केवल एक रात

    कोई “लव एंगल” नहीं

    सिर्फ फिज़िकल डॉमिनेशन और सबमिशन

    माइंडप्ले और वॉइलेंस की हद तक कंट्रोल

    सुबह होने से पहले सब खत्म

    "तेरी नसों तक उतर जाने दूँ?"

    INFERNO – ब्लैक चेंबर, कमरा IV-D
    समय: रात 1:07 AM

    कमरा बंद था।
    साउंडप्रूफ, स्कार्लेट लेदर की दीवारें, और एक कोना जो अँधेरे से ज़्यादा जंग लगे ज़ख़्म जैसा दिखता था।
    सिर्फ छत से लटकती ब्लैक चेन की सरसराहट…
    और दो जिस्म, जो कुछ कहे बिना एक-दूसरे को तोड़ने की कसम खा चुके थे।

    वो लड़की अब भी बंधी थी – उसके हाथ ऊपर, रिस्ट्स पर चमड़े की स्ट्रैप टाइट की गई थी।
    कबीर उसके सामने खड़ा था –
    ब्लैक शर्ट आधी खुली, साँसें स्थिर, लेकिन आँखें हिंसा से भरी।

    "मुझे तुझमें कोई सॉफ्ट कॉर्नर नहीं चाहिए," लड़की ने कहा।
    "मैंने इसे कभी ऑफर नहीं किया," कबीर ने जवाब दिया।

    उसने टेबल से एक पतली, मेटल स्टिक उठाई –
    ना मारने के लिए, बल्कि दिशा दिखाने के लिए।

    वो उसके पेट के ऊपर उसकी स्किन पर घुमाता रहा — ठंडा, कंपकंपा देने वाला स्पर्श,
    लेकिन इतना धीमा कि लड़की के रोंगटे खड़े हो जाएँ।

    "सिर्फ इस रात तक," उसने फुसफुसाया।
    "कल सुबह तू कौन थी, और मैं कौन था — सब मिट जाएगा।"

    "तो फिर खेल शुरू कर, डॉमिनेटर,"
    लड़की ने आंखें बंद करते हुए कहा।

    कबीर ने बेल्ट निकाली।
    धीरे, शोर के साथ।
    लेकिन मारा नहीं — उसने उसे गर्दन के चारों ओर लपेटा और पकड़ लिया।

    "इससे साँस तुझ पर भारी लगेगी, पर मरेगी नहीं।"
    "पर मैं जीने नहीं आई यहाँ," वो फुसफुसाई।

    एक शॉट – उसकी जांघ पर।
    चमड़ी लाल।
    कोई चीख नहीं, बस आँखों में आग और एक टेढ़ी मुस्कान।

    "इतनी जल्दी नहीं टूटेगी," कबीर ने उसकी चिन पकड़ी।
    "टूटने नहीं आई,"
    "तो बिखरने दे," उसने कहा।

    बेड पर अब दोनों थे।

    लड़की की पीठ झुकी हुई, बाल बिखरे हुए,
    और कबीर – उसके पीछे, उसकी कमर थामे।

    लेकिन उसने अंदर जाने से पहले, उसकी गर्दन के पास कहा —
    "तेरा कंसेंट मुझे शब्दों से नहीं चाहिए,
    तेरा जिस्म कहेगा — कब, कितना, और कैसे।"

    गर्दन पर दाँत गढ़ा दिए।
    लड़की काँपी — पहली बार।
    लेकिन कांपना मतलब हारना नहीं होता।

    उसने अपने पाँव उसकी जांघ के चारों ओर लपेटे — खींचने के लिए।

    "Deep enough?"
    "Not yet," कबीर ने कहा,
    और अंदर घुस गया।

    हवा रुक गई थी।

    चादरें ज़मीन पर गिर चुकी थीं।
    रौशनी की जगह सिर्फ परछाइयाँ थीं —
    और उन परछाइयों में आवाज़ नहीं, सिर्फ रफ़ कंट्रोल की लय थी।

    कबीर ने उसकी पीठ पर उंगलियाँ फिराईं —
    हर रीढ़ की हड्डी को जैसे पढ़ रहा हो।
    फिर उसने एक धक्का और दिया —
    और लड़की ने सिर पीछे किया — दर्द या आनंद… किसी की भी पहचान नहीं थी वहाँ।

    कोई "आई लव यू" नहीं, कोई नाम नहीं।
    बस सांसों की रफ़्तार और मांसपेशियों की जंग।

    कबीर रुका नहीं —
    उसने पोज़िशन बदली।
    लड़की अब ऊपर थी — उसकी जांघों पर बैठी, बेल्ट अब भी गर्दन पर कस रही थी।

    "तेरा नाम जानना चाहूँ तो?"
    "तेरे जैसी रातों में नाम नहीं चलते," लड़की बोली।

    उसने खुद को उठाया — फिर गिराया। बार-बार।
    और कबीर की आँखें एक बार भी पलक नहीं झपकीं।

    कमरे में खामोशी नहीं थी — कंट्रोल की गरज थी।

    बेड की लकड़ी चीख रही थी।
    गर्दन की नसें बाहर आ चुकी थीं।

    और एक पल ऐसा आया, जब लड़की की आँखों में एक डगमगाता क्षण दिखा —
    लेकिन कबीर ने उसे सहारा नहीं दिया।

    "गिरना चाहती है?"
    "नहीं, और ज़्यादा चाहिए,"
    उसने खुद को आगे झुकाते हुए कहा।



    सुबह होने से ठीक पहले —
    लड़की अब भी नग्न, कबीर की बाज़ुओं के नीचे,
    लेकिन कोई आलिंगन नहीं।

    वो उठी — बिना पूछे, बिना मुड़े।
    ड्रेस पहनी, बाल ठीक किए, और दरवाज़ा खोला।

    कबीर अब भी वहीं था —
    उसने कुछ नहीं कहा,
    बस धीरे से एक सिगरेट जलाई और आँखें बंद कर लीं।

    कमरा अब खाली था।
    बेड पर पसीने, खून और अधूरी साँसों की गर्मी अब भी बाकी थी।

    लेकिन कहानी पूरी हो चुकी थी।

    एक रात। एक खेल। एक जीत।
    कोई वादा नहीं, कोई वापसी नहीं।

    बाहर मौसम बेहया सा था — गर्मी और नमी की मिली-जुली दीवारें जैसे खुद को छूने से मना कर रही हों। खिड़कियाँ बंद थीं, लेकिन हवा कहीं भीतर सड़ रही थी, जैसे पसीने और पाप का मेल। क्लब की ऊपरी छत पर देर रात की बारिश बस गुज़र चुकी थी, लेकिन फर्श अब भी गीला था — उन क़दमों से जिन्हें किसी ने देखा नहीं। आसमान में बिजली नहीं थी, पर INFERNO की छतों पर धुंध की परतें मंडरा रही थीं — जैसे कोई कुछ छुपा रहा हो। कमरे के भीतर, गर्माहट स्थिर थी — साँसों से बनी, स्पर्शों से जगी, और अधूरी रही नींदों से उबली हुई। दीवारें पसीने से नहीं, स्मृति से गीली थीं। जैसे वहाँ कोई था, जो अब भी वहीं पड़ा है — बस नाम की ज़रूरत नहीं रही।


    Crimson Silence (सुबह की वो ख़ामोशी, जो चीख़ से भी भारी थी)

    INFERNO क्लब – क्रिमसन शेल्टर का बेडरूम
    समय: सुबह 6:12

    कमरे की दीवारों पर धीमी लाल रोशनी अब और भी मद्धम हो चुकी थी, जैसे रात ने अपनी अंतिम साँस ली हो। बेड पर फैली सिल्क की चादरें अस्त-व्यस्त थीं — लेकिन उनमें कोई बेचैनी नहीं, एक निर्णायक ठहराव था।

    विशवा चुपचाप खड़ा था — पूरी तरह तैयार, जैसे रात कोई इमोशनल अनुभव नहीं बल्कि मिशन थी, और अब अगला मिशन शुरू हो चुका हो।

    उसका चारकोल ग्रे सूट वापस उसकी स्किन की तरह उस पर फिट था। टाई अभी तक टेबल पर रखी थी — वही ब्लड रेड टाई, जो पिछली रात उसके गले से किसी और की उँगलियों ने खींच कर गिराई थी।

    बेड पर लड़की अब भी लेटी थी — चादर उसके कंधों तक थी, लेकिन चेहरा पूरी तरह खुला। नींद नहीं थी उसकी आँखों में, बल्कि एक तीखा awareness था। जैसे उसकी आत्मा अब किसी और कमरे में जाग चुकी हो।

    विशवा ने उसकी ओर देखा — वैसे ही जैसे कोई डॉक्टर एक्सरे देखता है — क्लीन, कंपोज़्ड, बिना एक इंच इमोशन के।

    “तुम अभी तक यहीं हो,” उसकी आवाज़ में सवाल नहीं, आदेश की तरह बयान था।

    लड़की मुस्कराई नहीं।
    “सुबह की रोशनी देखने का मन था। सुना था Inferno में सूरज नहीं उगता।”

    विशवा ने घड़ी की ओर देखा — 6:12।
    “यहाँ हर वक़्त बस एक ही चीज़ उगती है — चेतावनी।”

    उसने अपना गोल्डन पॉकेट स्क्वायर जेब में डाला और पास की टेबल से उसकी टाई उठाई। लड़की ने उसी समय अपनी चादर कस के लपेट ली — ये शर्म नहीं थी, ये उसकी आखिरी लाइन थी, जो वो खुद खींचना चाहती थी।

    “कल रात के लिए...” लड़की ने कुछ कहना शुरू किया।

    विशवा ने उसे बीच में रोक दिया — “कोई Recap मत दो। ये कोई Memory नहीं थी, बस एक Control Test था।”

    वो ठंडी सांस लेकर उठ बैठी। उसके शरीर की हर हरकत में थकान नहीं थी — बल्कि एक ‘तीखा आत्मविश्वास’ था। जैसे वो हार के बाद भी अपना स्कोर खुद तय करती हो।

    “और क्या ये Test पास हुआ?”

    विशवा ने उसकी आँखों में देखा — पहली बार थोड़ी देर तक।
    “मैं Result announce नहीं करता। मैं बस Note करता हूँ — कौन किस लायक है।”

    कमरे में चुप्पी थी।
    लेकिन वो चुप्पी किसी दबी हुई शर्म की नहीं, बल्कि दो आत्माओं के बीच की Strategic Blank Space जैसी थी।

    लड़की अब बेड से उठ चुकी थी। उसने पास की लाल रेशमी ड्रेस उठाई — धीरे, एक आत्मा की तरह जिसमें एक-एक सिलाई उसकी आज़ादी को ढँकती हो। वो अपने कंधों पर कपड़ा डालते हुए बोली —
    “तो, तुमने तय किया? मैं किस लायक हूँ?”

    विशवा टाई बाँधते हुए बोला,
    “तुम लायक हो ‘ना मिलने’ के। इसलिए दोबारा मिलने की उम्मीद मत करना।”

    लड़की हँसी — धीमे से, बिना आवाज़ के।
    “Perfect. Expectations kill more than bullets.”

    अब वह दरवाज़े की ओर बढ़ने लगी थी, लेकिन उसके क़दमों में कोई घबराहट नहीं, बस एक ritualistic exit था।

    लेकिन फिर उसने एक बार रुककर, बिना मुड़े कहा —
    “तुम्हें पता है विशवा, तुमने अपनी दुनिया को इतना ठंडा बना दिया है कि अब उसमें आग लगाना मुश्किल नहीं होगा।”

    विशवा ने जवाब नहीं दिया — वह अब अपने घड़ी में अलार्म सेट कर रहा था।
    06:40 – अगला मीटिंग।

    वह दरवाज़े से बाहर निकल गई — एकदम शांत, जैसे वो कभी थी ही नहीं। लेकिन उस कमरे में अब भी उसकी खुशबू बची थी — शराब, पसीने, और नियंत्रण की गंध।


    INFERNO अब फिर से अपने पुराने रंग में लौट आया था — ठंडा, स्थिर, और खतरनाक।

    विशवा अब अकेला था — लेकिन कभी अकेला नहीं होता।

    उसने रिमोट उठाया और दीवार के पीछे लगी स्क्रीन ऑन की।
    क्लब का Control Room सामने था — वहाँ 6 और कैमरे चालू थे। एक-दो किलर्स, कुछ डीलर्स, और एक नया लड़का जिसका चेहरा बार-बार स्क्रीन पर आ रहा था।

    “राहुल गेडा, उम्र 19। खून किया, पहली बार।” स्क्रीन पर टेक्स्ट फ्लैश हो रहा था।

    विशवा ने अपनी टाई ठीक की —
    “किसी को प्यार मत सिखाओ। पहले सिखाओ कि किसे जिंदा रखना है।”

    उसने दीवार की लाइट्स बंद कीं।
    कमरे में फिर वही सन्नाटा भर गया — Crimson Silence।


    कोई अफ़सोस नहीं,


    कोई इमोशनल क्लोजर नहीं,


    बस एक डील की तरह खत्म हुई रात,


    और एक पावर गेम जो सुबह के साथ नई पारी शुरू करता है।

  • 7. My Five cruel dangerous hubbies - Chapter 7

    Words: 2207

    Estimated Reading Time: 14 min

    अध्याय – "पाँचों को बुलावा"

    स्थान: मुंबई का गुप्त क्लब — INFERNO
    समय: सुबह 5:03 AM — जब रात दम तोड़ रही होती है और आग नई उठती है।


    विशवा अभी भी कमरे में था |
    कमरे में खामोशी एक पर्दे की तरह लटक रही थी — भारी, ठंडी, और चुभती हुई। कमरा अभी वैसे ही था जैसे रात में लेकिन अब बिस्तर पर सलवाटे थी उस रात कि गवाही जो उस अंजान लड़की के साथ विशवा ने गुजा़री थी |

    टेबल पर रखा फोन अचानक वाइब्रेट हुआ। बिना किसी हलचल के उसने स्क्रीन की ओर देखा।
    नाम चमका —
    “ZIA – Emergency Protocol”

    उसने कॉल उठाई।
    "बोलो।"

    आवाज़ उधर से आई — धीमी, पर ज़िंदा।
    "Target active हो चुका है... उस जगह को ट्रिगर कर दिया गया है।"

    विशवा की आँखों में एक सेकंड के लिए कोई अतीत झलका — शायद एक धुंधली आग, शायद एक बर्फ़ीली चीख़। लेकिन चेहरा वैसा ही रहा — ठंडा और तय।

    "तैयार हो जाओ," उसने सिर्फ इतना कहा।
    "हम पाँचों आ रहे हैं।"

    फोन रखते ही उसकी उँगलियाँ एक कोडिनेटेड रफ़्तार में चलीं। उसने दीवार पर लगे पैनल को एक्टिवेट किया — कोई हड़बड़ी नहीं, कोई शक नहीं।
    चार दिशा। चार संकेत। चार भाई।

    कबीर
    रात अब भी उसके चारों ओर उलझी हुई थी, लेकिन फोन की रिंग उसके कान से पहले उसकी नसों तक पहुँची।
    उसने बस एक बार पलकें झपकाईं, फिर कॉल उठाया —
    "Yes, भैया?"
    आवाज़ में कोई घबराहट नहीं, बस एक आदत सी थी — जैसे आदेश सुनने के लिए ही जिया हो।



    विक्राल

    एक हल्की सी मुस्कान उसके चेहरे पर पहले से ही थी। फोन की रिंग आते ही उसने बिना देखे कॉल उठाई।
    "समझ गया।"
    शब्दों में लापरवाही थी, लेकिन भीतर कुछ और ही पक रहा था — जैसे वो खेल शुरू होने का इंतज़ार कर रहा हो।



    रनधीर

    कमरे में धुआँ था। वह खुद भी किसी बुझते सिगरेट की तरह शांत, मगर अंदर से सुलगता हुआ।
    फोन उठा, कोई भूमिका नहीं —
    "चल रहा हूँ।"

    मरण

    बिलकुल शांत। जैसे कुछ सुना ही नहीं, लेकिन हर शब्द उसके भीतर घुल चुका था।
    "जी भैया,"
    उसने बस यही कहा — आवाज़ में कहीं एक बच्चा अब भी छुपा था, जो केवल आदेश समझता था।


    विशवा ने सबकी स्क्रीन पर एक एकल वाक्य भेजा:
    "10 मिनट में War Exit पर मिलो। Target को उठाना है।"

    कोई लंबा संवाद नहीं। कोई सवाल नहीं।

    फोन कट।



    कमरे खुलते गए।

    पाँचों भाई अपने-अपने सायों से बाहर निकले — कोई तेज़ी से, कोई खामोशी से, कोई झुंझलाहट के साथ, कोई चुप्पी में डूबा हुआ।

    लेकिन सबकी चाल एक सी थी — सीधी, ठोस, और निशाने पर।

    कोई पीछे नहीं मुड़ा। कोई रुक कर नहीं सोचता।
    रात को वहीं छोड़ते हुए —
    वो अब मिशन की ओर बढ़ चुके थे।

    "जब ‘काम’ पुकारे — तब ‘खून’ जवाब देता है।"


    "हवेली की आहटें"

    स्थान – ठाकुरस हवेली, मुम्बई
    समय – सुबह की सिहरन



    ठाकुरस हवेली —

    मुम्बई के अंधेरे कोनों में एक ऐसा नाम, जिससे लोग अभी भी कान में फुसफुसाकर बात करते हैं। बाहर से भले ही सूरज की किरणें इसकी दीवारों पर उतरती हों, भीतर ये हवेली आज भी किसी आने वाले तूफ़ान की आहटों से काँप रही थी।

    तीन दिन की खामोशी के बाद आज पहली बार यहां फिर से ज़िंदगी दौड़ती दिखी — और वो भी घबराई हुई, घसीटी हुई।



    मुख्य हॉल – रोज़ी अंटी का ग़ुस्सा और गॉड का डर

    “ओ विजय! Sweet Mother of Christ! तूने अभी तक फर्स्ट फ्लोर नहीं चमकाया? Have mercy on my patience!”

    सफेद कॉटन डरेस, हाथ में बंधा रूमाल, माथे पर पसीना — लेकिन चाल में चर्च की सख़्त मठ की सी गरिमा। रोज़ी अंटी, करीब 55 की, पर जोश में किसी जवान फ़ौजी से कम नहीं।

    “तीन दिन! तीन दिन में साहब लोग लौट रहे हैं — और ये हवेली अभी तक अपने ही पाप धो रही है!”



    भीड़ में नया चेहरा – चीनू

    चीनू, दुबला और सहमा हुआ, कल ही हवेली में रखा गया था। चारों तरफ़ उसकी आँखें बस डर ही देख रही थीं।

    “Boy, क्या नाम है तेरा?” रोज़ी ने घूरते हुए पूछा।

    “च...चीनू, मैडम।”

    “रोज़ी मैडम,” उन्होंने सख्ती से टोका, “और सुन, ये हवेली चर्च नहीं है बेटा — ये पापियों की जेल है। यहाँ मालिक नहीं, गॉडफादर रहते हैं। पाँचों भाई — विशवा, कबीर, विक्राल, रणधीर और मरण — ये बाइबल के संत नहीं हैं, ये आग में तपे शैतान हैं... मगर नियम इन्हीं के चलते हैं।”

    चीनू की साँस अटक गई।

    “हर चीज़ परफेक्ट चाहिए। No dust, no delay, no noise. और अगर कुछ गड़बड़ हुआ न… तो Forgive me, Jesus, मगर तेरा शरीर हम यहाँ नहीं पाएँगे!”



    भाइयों के कमरे – सादगी में छिपा आतंक

    विशवा ठाकुर –
    कमरा सीधा, साफ, सिर्फ ज़रूरत भर की चीज़ें। एक स्टील वॉच, एक लोहे का ब्रीफकेस, और एक कोना जहाँ हथियार रखते हैं — बिना किसी घमंड के, जैसे चर्च में प्रार्थना की जगह हो।

    कबीर ठाकुर –
    चमड़े की कुर्सी, सीधा बार सेटअप, सिगार की खुशबू और सटी हुई बोतलें। उसने शराब को आदत नहीं, टूल की तरह रखा था — गुनाह को भी अनुशासन में ढालना सीखा था।

    विक्राल ठाकुर –
    एक खामोश कमरा, लेकिन हर कोने में खतरा। दीवारें बोलती नहीं, चीखती हैं। एक लकड़ी का बॉक्स — छूना तो दूर, देखना भी मना है।

    रणधीर ठाकुर –
    कमरा जैसे कोई डेटा सेंटर हो। स्क्रीन, बटन, वॉचडॉग सॉफ्टवेयर — शांति में छिपी चालबाज़ी।

    मरण ठाकुर –
    कमरे में कुछ भी नहीं जो फालतू हो। एक मेज़, एक दराज़ और एक ठंडी हवा। उसकी मौजूदगी की तरह — कम, लेकिन काफ़ी।



    रोज़ी की गरज – अब चर्च जैसी दुआ नहीं, सिर्फ डर

    “राहुल!”
    “कबीर साहब की अलमारी देखी? सिगार पर एक भी स्क्रैच आया तो खुद को Bless करके विदा कर लेना।”

    “नीतू! विशवा साहब के जूते उनके बाईं दीवार के पास रखे जाने चाहिए। उन्होंने एक बार खुद कहा था – 'गलत जगह पर रखी चीज़ से बड़ा गुनाह कोई नहीं'।”

    चीनू कांपते हुए पूछ बैठा —
    “मैडम… वो लोग अभी हैं कहाँ?”

    रोज़ी का चेहरा सख़्त से भी ज़्यादा ठंडा हो गया।

    “तीन दिन से कोई खबर नहीं। But trust me, boy… जब वो लौटते हैं ना — तो झूमर कांपता है, दरवाज़े खुद बंद हो जाते हैं और हवेली साँस रोक लेती है।”

    वो रुक कर फुसफुसाईं —
    “Lord, give us strength when they return…”



    बाहर लॉन – फुसफुसाता माली

    बूढ़ा माली, कांपते हाथों से पौधों में पानी डालते हुए चीनू के पास झुका —
    “तेरे जैसे कई आए, कई गए बेटा। पर एक बात कान में डाल ले — इन भाइयों को देखने से ज़्यादा खतरनाक है… उन्हें इंतज़ार कराना।”

    “विशवा की खामोशी आग है, कबीर की हँसी ज़हर, विक्राल की चाल शिकारी है, रणधीर की आंखें X-ray हैं… और मरण? Jesus save us — वो तो मौत का दूसरा नाम है।”



    मुख्य हॉल में रोज़ी की अंतिम चेतावनी

    रोज़ी सीढ़ियों से उतरीं — उनकी चाल में चर्च की परंपरा और शिकारी की सजगता थी।

    “सब लोग काम पे लग जाओ। सब कुछ साफ़-सुथरा होना चाहिए। खिड़की, जाली, तकिया – कुछ भी गड़बड़ हुआ तो इस बार मैं भी प्रार्थना नहीं करूँगी तुम्हारे लिए। साहब लौट रहे हैं… और हवेली को उनकी गूंज सुनाई देने लगी है।”

    और उसी वक्त एक कौआ छत पर काँव-काँव करता उड़ा।

    चीनू ने देखा — हवेली की खिड़कियाँ जैसे खुद सुन रही थीं।



    एक धीमा सन्नाटा… और हवा में एक आहट…

    “वो लौट रहे हैं।”


    "रसोई की राख में रहस्य"


    समय – दोपहर की धूप, हवेली के रसोई घर में पिघलती हुई



    सिर्फ दीवारें और ज़मीन ही नहीं, अब हवेली की हवा भी बदली हुई लग रही थी।

    रोज़ी अंटी के आदेश के बाद सारा स्टाफ अपने-अपने हिस्से में जुट गया था। एक दल पर्दों को धूप में फटक रहा था, दूसरा फर्श पर देसी नींबू और कपूर से पोछा मार रहा था — और तीसरा दल, सबसे खास, अब हवेली की उस जगह में घुस चुका था जहाँ भूख नहीं, बल्कि इज़्ज़त पकाई जाती थी — रसोई।



    रसोई – जहाँ आग डर के साथ जलती थी

    यह रसोई किसी आम किचन जैसी नहीं थी — यह एक युद्ध भूमि थी।
    कम से कम पंद्रह बड़े बर्तनों की कतार, मसालों की छः अलमारियाँ, सात गैस बर्नर और एक विशाल तंदूर — और उसके बीचोंबीच खड़ी थी रोज़ी अंटी, दो पाटिलों के बीच अपने हाथ में लकड़ी की छड़ी लिए।

    “लॉर्ड मर्सी! ये सब्ज़ी किसने काटी है? ये क्या स्कूल कैंटीन है? विशवा साहब को ऐसे कटे टमाटर दिखा दिए तो तुम्हारी उँगलियाँ वापस स्कूल में लौटेंगी!”

    नीतू, जो सब्ज़ियाँ काट रही थी, काँप उठी।

    रोज़ी अंटी एक-एक को देखकर सबकी जिम्मेदारियाँ तय कर रही थीं — और सबको भाइयों की पसंद के मुताबिक सिखाया गया था।



    पाँच थालियाँ – पाँच व्यक्तित्व

    1. विशवा ठाकुर का खाना:
    सादा, लेकिन परफेक्शन से भरा।
    भोजन: एकदम बारीक कटी पालक की दाल, बिना प्याज-लहसुन की सब्जी, चपाती बिल्कुल पतली और सीधी रेखा में।
    खास हिदायत: दाल में एक भी झाग न दिखे, और पानी की मात्रा सटीक हो — नहीं तो विशवा एक शब्द बोले बिना पूरा खाना लौटा देते थे।

    2. कबीर ठाकुर का खाना:
    मसालेदार, तंदूरी स्वाद में डूबा हुआ।
    भोजन: लहसुन के तड़के वाली मटन करी, रुमाली रोटी, और एक छोटा ग्लास व्हिस्की के साथ नींबू।
    खास हिदायत: मटन हड्डी से अलग हो जाए, लेकिन पिघले नहीं — और रोटी में सिंकने की दोहरी परत न हो।

    3. विक्राल ठाकुर का खाना:
    मांसाहारी, लेकिन सीमित मात्रा में — शक्ति के लिए, स्वाद के लिए नहीं।
    भोजन: ग्रिल्ड चिकन, बिना मसालों की स्टफिंग के साथ, और भुना हुआ आलू।
    खास हिदायत: चिकन में चाकू न लगे — काटने से पहले उसकी त्वचा न टूटे।

    4. रणधीर ठाकुर का खाना:
    क्लासिकल, लेकिन न्यूनतम — और हर चीज़ स्कैन की गई।
    भोजन: स्टीम्ड वेजिटेबल, क्विनोआ खिचड़ी और बिना नमक के गाजर का हल्का सूप।
    खास हिदायत: नमक गलती से भी पड़ गया तो... खाने से ज़्यादा डेटा ग़लत हो जाएगा।

    5. मरण ठाकुर का खाना:
    कोई नहीं जानता वो क्या खाते हैं — खाना उनके कमरे के बाहर रख दिया जाता है, और जब खाली थाली लौटती है, तब पता चलता है कि कुछ खाया गया।
    भोजन: रोटी और दूध — या शायद कुछ और।
    खास हिदायत: कोई नौकर उनके खाने को देख नहीं सकता। जो थाली छुए, वह हाथ धोकर प्रार्थना करे।



    खाने की तैयारी के बीच सख़्त निर्देश

    रोज़ी अंटी ने सबको झुंड में इकट्ठा किया।

    “अब सबके कान खोलकर सुनो,” वो बोलीं, “ये खाना किसी फैमिली डिनर के लिए नहीं बन रहा है — ये पाँच शेरों की दावत है। और शेर अगर ग़लत शिकार खा लें... तो रसोइया सबसे पहले खाया जाता है।”

    फिर उन्होंने क्रॉस का छोटा लॉकेट अपनी गर्दन से छुआ —
    “Bless this food, O Lord, and bless our heads — for they may be on the line today.”



    चीनू की ड्यूटी – मरण के कमरे तक थाली ले जाना

    नया लड़का चीनू, जो अभी तक सिर्फ झाड़ू और पोछे में लगाया गया था, अब रोज़ी के आदेश पर मरण ठाकुर की थाली लेकर जाने वाला था।

    रोज़ी अंटी ने कहा,
    “Boy, तू नया है, लेकिन हम सब पहले दिन डरते हैं। मरण साहब के कमरे तक ये थाली रख देना — दरवाज़ा खुद खुलेगा। वापस आए तो थाली खाली मिलेगी। जो भी हो, अंदर झाँकने की कोशिश मत करना। और हाँ — क्रॉस अपने पास रखना।”

    चीनू ने काँपते हाथों से थाली ली। उसमें सिर्फ रोटी और एक सफेद कटोरी में दूध था — लेकिन उस थाली की गरमाहट नहीं, ठंडक ज्यादा थी।



    रसोई में हलचल – लेकिन हर सॉस पतीले में नहीं, कुछ आँखों में था

    नीतू और राहुल, जो पिछले पाँच साल से हवेली में काम कर रहे थे, आपस में फुसफुसा रहे थे।

    “इस बार कुछ अजीब है,” नीतू बोली, “रोज़ी मैडम खुद चौकस हैं… भाई लोग ऐसे ग़ायब हुए हैं जैसे कोई सौदा बिगड़ा हो।”

    “और तूने देखा?” राहुल ने सिर झुकाकर कहा, “आज तंदूर की आग खुद-ब-खुद दो बार बुझी थी। बिना हवा के।”

    “Jesus Christ,” नीतू ने बुदबुदाया।

    रोज़ी अंटी की कानों में ये बात चली गई। वो मुड़ीं, और दूर से बोलीं,
    “जो डरते हैं, वो रोटियाँ जलाते हैं। और जो रोटियाँ जलाते हैं… उन्हें सिर्फ माफ़ी नहीं, मरण साहब से सीधा सामना मिलता है।”



    बाहर लॉन – परछाइयाँ लंबी होने लगी थीं

    दोपहर की लालिमा हवेली के आँगन में फैलने लगी थी। लेकिन हवेली के भीतर हलचल अब भी तेज थी। हर नौकर अपने हिस्से के काम को अंतिम रूप दे रहा था।

    विशवा की चाय की ट्रे तैयार हो चुकी थी, कबीर के बार का ग्लास चमक रहा था, विक्राल के कमरे के सामने फर्श पर नमक छिड़का गया था, रणधीर के डिजिटल ट्रे में थर्मल इंसुलेटर लगा था — और मरण के कमरे से थाली अभी तक नहीं लौटी थी।



    आखिरी आदेश – ‘घंटी बजे तो सब रुक जाएं’

    रोज़ी अंटी ने अब अंतिम बात कह दी —
    “जब हवेली की ऊपरी घंटी बजेगी — सिर्फ एक बार — तो समझ जाना कि पाँचों साहब हवेली में दाख़िल हो चुके हैं। उसके बाद कोई आवाज़ नहीं, कोई हरकत नहीं। खाना उनकी मंज़ूरी से ही परोसा जाएगा। तब तक सब अपने अपने स्थान पर रहें… और दुआ करें कि वो सब ठीक से लौटा हो।”



    और तभी...
    रसोई के पास की दीवार पर लगी वो पुरानी पीतल की घंटी खुद-ब-खुद हिली।

    टन…

    सिर्फ एक आवाज़।

    लेकिन उस एक टन में सभी थालियाँ, सभी बर्तनों और सभी दिलों की धड़कनें थम गईं।

  • 8. My Five cruel dangerous hubbies - Chapter 8

    Words: 2207

    Estimated Reading Time: 14 min

    अध्याय – "पाँचों को बुलावा"

    स्थान: मुंबई का गुप्त क्लब — INFERNO
    समय: सुबह 5:03 AM — जब रात दम तोड़ रही होती है और आग नई उठती है।


    विशवा अभी भी कमरे में था |
    कमरे में खामोशी एक पर्दे की तरह लटक रही थी — भारी, ठंडी, और चुभती हुई। कमरा अभी वैसे ही था जैसे रात में लेकिन अब बिस्तर पर सलवाटे थी उस रात कि गवाही जो उस अंजान लड़की के साथ विशवा ने गुजा़री थी |

    टेबल पर रखा फोन अचानक वाइब्रेट हुआ। बिना किसी हलचल के उसने स्क्रीन की ओर देखा।
    नाम चमका —
    “ZIA – Emergency Protocol”

    उसने कॉल उठाई।
    "बोलो।"

    आवाज़ उधर से आई — धीमी, पर ज़िंदा।
    "Target active हो चुका है... उस जगह को ट्रिगर कर दिया गया है।"

    विशवा की आँखों में एक सेकंड के लिए कोई अतीत झलका — शायद एक धुंधली आग, शायद एक बर्फ़ीली चीख़। लेकिन चेहरा वैसा ही रहा — ठंडा और तय।

    "तैयार हो जाओ," उसने सिर्फ इतना कहा।
    "हम पाँचों आ रहे हैं।"

    फोन रखते ही उसकी उँगलियाँ एक कोडिनेटेड रफ़्तार में चलीं। उसने दीवार पर लगे पैनल को एक्टिवेट किया — कोई हड़बड़ी नहीं, कोई शक नहीं।
    चार दिशा। चार संकेत। चार भाई।

    कबीर
    रात अब भी उसके चारों ओर उलझी हुई थी, लेकिन फोन की रिंग उसके कान से पहले उसकी नसों तक पहुँची।
    उसने बस एक बार पलकें झपकाईं, फिर कॉल उठाया —
    "Yes, भैया?"
    आवाज़ में कोई घबराहट नहीं, बस एक आदत सी थी — जैसे आदेश सुनने के लिए ही जिया हो।



    विक्राल

    एक हल्की सी मुस्कान उसके चेहरे पर पहले से ही थी। फोन की रिंग आते ही उसने बिना देखे कॉल उठाई।
    "समझ गया।"
    शब्दों में लापरवाही थी, लेकिन भीतर कुछ और ही पक रहा था — जैसे वो खेल शुरू होने का इंतज़ार कर रहा हो।



    रनधीर

    कमरे में धुआँ था। वह खुद भी किसी बुझते सिगरेट की तरह शांत, मगर अंदर से सुलगता हुआ।
    फोन उठा, कोई भूमिका नहीं —
    "चल रहा हूँ।"

    मरण

    बिलकुल शांत। जैसे कुछ सुना ही नहीं, लेकिन हर शब्द उसके भीतर घुल चुका था।
    "जी भैया,"
    उसने बस यही कहा — आवाज़ में कहीं एक बच्चा अब भी छुपा था, जो केवल आदेश समझता था।


    विशवा ने सबकी स्क्रीन पर एक एकल वाक्य भेजा:
    "10 मिनट में War Exit पर मिलो। Target को उठाना है।"

    कोई लंबा संवाद नहीं। कोई सवाल नहीं।

    फोन कट।



    कमरे खुलते गए।

    पाँचों भाई अपने-अपने सायों से बाहर निकले — कोई तेज़ी से, कोई खामोशी से, कोई झुंझलाहट के साथ, कोई चुप्पी में डूबा हुआ।

    लेकिन सबकी चाल एक सी थी — सीधी, ठोस, और निशाने पर।

    कोई पीछे नहीं मुड़ा। कोई रुक कर नहीं सोचता।
    रात को वहीं छोड़ते हुए —
    वो अब मिशन की ओर बढ़ चुके थे।

    "जब ‘काम’ पुकारे — तब ‘खून’ जवाब देता है।"


    "हवेली की आहटें"

    स्थान – ठाकुरस हवेली, मुम्बई
    समय – सुबह की सिहरन



    ठाकुरस हवेली —

    मुम्बई के अंधेरे कोनों में एक ऐसा नाम, जिससे लोग अभी भी कान में फुसफुसाकर बात करते हैं। बाहर से भले ही सूरज की किरणें इसकी दीवारों पर उतरती हों, भीतर ये हवेली आज भी किसी आने वाले तूफ़ान की आहटों से काँप रही थी।

    तीन दिन की खामोशी के बाद आज पहली बार यहां फिर से ज़िंदगी दौड़ती दिखी — और वो भी घबराई हुई, घसीटी हुई।



    मुख्य हॉल – रोज़ी अंटी का ग़ुस्सा और गॉड का डर

    “ओ विजय! Sweet Mother of Christ! तूने अभी तक फर्स्ट फ्लोर नहीं चमकाया? Have mercy on my patience!”

    सफेद कॉटन डरेस, हाथ में बंधा रूमाल, माथे पर पसीना — लेकिन चाल में चर्च की सख़्त मठ की सी गरिमा। रोज़ी अंटी, करीब 55 की, पर जोश में किसी जवान फ़ौजी से कम नहीं।

    “तीन दिन! तीन दिन में साहब लोग लौट रहे हैं — और ये हवेली अभी तक अपने ही पाप धो रही है!”



    भीड़ में नया चेहरा – चीनू

    चीनू, दुबला और सहमा हुआ, कल ही हवेली में रखा गया था। चारों तरफ़ उसकी आँखें बस डर ही देख रही थीं।

    “Boy, क्या नाम है तेरा?” रोज़ी ने घूरते हुए पूछा।

    “च...चीनू, मैडम।”

    “रोज़ी मैडम,” उन्होंने सख्ती से टोका, “और सुन, ये हवेली चर्च नहीं है बेटा — ये पापियों की जेल है। यहाँ मालिक नहीं, गॉडफादर रहते हैं। पाँचों भाई — विशवा, कबीर, विक्राल, रणधीर और मरण — ये बाइबल के संत नहीं हैं, ये आग में तपे शैतान हैं... मगर नियम इन्हीं के चलते हैं।”

    चीनू की साँस अटक गई।

    “हर चीज़ परफेक्ट चाहिए। No dust, no delay, no noise. और अगर कुछ गड़बड़ हुआ न… तो Forgive me, Jesus, मगर तेरा शरीर हम यहाँ नहीं पाएँगे!”



    भाइयों के कमरे – सादगी में छिपा आतंक

    विशवा ठाकुर –
    कमरा सीधा, साफ, सिर्फ ज़रूरत भर की चीज़ें। एक स्टील वॉच, एक लोहे का ब्रीफकेस, और एक कोना जहाँ हथियार रखते हैं — बिना किसी घमंड के, जैसे चर्च में प्रार्थना की जगह हो।

    कबीर ठाकुर –
    चमड़े की कुर्सी, सीधा बार सेटअप, सिगार की खुशबू और सटी हुई बोतलें। उसने शराब को आदत नहीं, टूल की तरह रखा था — गुनाह को भी अनुशासन में ढालना सीखा था।

    विक्राल ठाकुर –
    एक खामोश कमरा, लेकिन हर कोने में खतरा। दीवारें बोलती नहीं, चीखती हैं। एक लकड़ी का बॉक्स — छूना तो दूर, देखना भी मना है।

    रणधीर ठाकुर –
    कमरा जैसे कोई डेटा सेंटर हो। स्क्रीन, बटन, वॉचडॉग सॉफ्टवेयर — शांति में छिपी चालबाज़ी।

    मरण ठाकुर –
    कमरे में कुछ भी नहीं जो फालतू हो। एक मेज़, एक दराज़ और एक ठंडी हवा। उसकी मौजूदगी की तरह — कम, लेकिन काफ़ी।



    रोज़ी की गरज – अब चर्च जैसी दुआ नहीं, सिर्फ डर

    “राहुल!”
    “कबीर साहब की अलमारी देखी? सिगार पर एक भी स्क्रैच आया तो खुद को Bless करके विदा कर लेना।”

    “नीतू! विशवा साहब के जूते उनके बाईं दीवार के पास रखे जाने चाहिए। उन्होंने एक बार खुद कहा था – 'गलत जगह पर रखी चीज़ से बड़ा गुनाह कोई नहीं'।”

    चीनू कांपते हुए पूछ बैठा —
    “मैडम… वो लोग अभी हैं कहाँ?”

    रोज़ी का चेहरा सख़्त से भी ज़्यादा ठंडा हो गया।

    “तीन दिन से कोई खबर नहीं। But trust me, boy… जब वो लौटते हैं ना — तो झूमर कांपता है, दरवाज़े खुद बंद हो जाते हैं और हवेली साँस रोक लेती है।”

    वो रुक कर फुसफुसाईं —
    “Lord, give us strength when they return…”



    बाहर लॉन – फुसफुसाता माली

    बूढ़ा माली, कांपते हाथों से पौधों में पानी डालते हुए चीनू के पास झुका —
    “तेरे जैसे कई आए, कई गए बेटा। पर एक बात कान में डाल ले — इन भाइयों को देखने से ज़्यादा खतरनाक है… उन्हें इंतज़ार कराना।”

    “विशवा की खामोशी आग है, कबीर की हँसी ज़हर, विक्राल की चाल शिकारी है, रणधीर की आंखें X-ray हैं… और मरण? Jesus save us — वो तो मौत का दूसरा नाम है।”



    मुख्य हॉल में रोज़ी की अंतिम चेतावनी

    रोज़ी सीढ़ियों से उतरीं — उनकी चाल में चर्च की परंपरा और शिकारी की सजगता थी।

    “सब लोग काम पे लग जाओ। सब कुछ साफ़-सुथरा होना चाहिए। खिड़की, जाली, तकिया – कुछ भी गड़बड़ हुआ तो इस बार मैं भी प्रार्थना नहीं करूँगी तुम्हारे लिए। साहब लौट रहे हैं… और हवेली को उनकी गूंज सुनाई देने लगी है।”

    और उसी वक्त एक कौआ छत पर काँव-काँव करता उड़ा।

    चीनू ने देखा — हवेली की खिड़कियाँ जैसे खुद सुन रही थीं।



    एक धीमा सन्नाटा… और हवा में एक आहट…

    “वो लौट रहे हैं।”


    "रसोई की राख में रहस्य"


    समय – दोपहर की धूप, हवेली के रसोई घर में पिघलती हुई



    सिर्फ दीवारें और ज़मीन ही नहीं, अब हवेली की हवा भी बदली हुई लग रही थी।

    रोज़ी अंटी के आदेश के बाद सारा स्टाफ अपने-अपने हिस्से में जुट गया था। एक दल पर्दों को धूप में फटक रहा था, दूसरा फर्श पर देसी नींबू और कपूर से पोछा मार रहा था — और तीसरा दल, सबसे खास, अब हवेली की उस जगह में घुस चुका था जहाँ भूख नहीं, बल्कि इज़्ज़त पकाई जाती थी — रसोई।



    रसोई – जहाँ आग डर के साथ जलती थी

    यह रसोई किसी आम किचन जैसी नहीं थी — यह एक युद्ध भूमि थी।
    कम से कम पंद्रह बड़े बर्तनों की कतार, मसालों की छः अलमारियाँ, सात गैस बर्नर और एक विशाल तंदूर — और उसके बीचोंबीच खड़ी थी रोज़ी अंटी, दो पाटिलों के बीच अपने हाथ में लकड़ी की छड़ी लिए।

    “लॉर्ड मर्सी! ये सब्ज़ी किसने काटी है? ये क्या स्कूल कैंटीन है? विशवा साहब को ऐसे कटे टमाटर दिखा दिए तो तुम्हारी उँगलियाँ वापस स्कूल में लौटेंगी!”

    नीतू, जो सब्ज़ियाँ काट रही थी, काँप उठी।

    रोज़ी अंटी एक-एक को देखकर सबकी जिम्मेदारियाँ तय कर रही थीं — और सबको भाइयों की पसंद के मुताबिक सिखाया गया था।



    पाँच थालियाँ – पाँच व्यक्तित्व

    1. विशवा ठाकुर का खाना:
    सादा, लेकिन परफेक्शन से भरा।
    भोजन: एकदम बारीक कटी पालक की दाल, बिना प्याज-लहसुन की सब्जी, चपाती बिल्कुल पतली और सीधी रेखा में।
    खास हिदायत: दाल में एक भी झाग न दिखे, और पानी की मात्रा सटीक हो — नहीं तो विशवा एक शब्द बोले बिना पूरा खाना लौटा देते थे।

    2. कबीर ठाकुर का खाना:
    मसालेदार, तंदूरी स्वाद में डूबा हुआ।
    भोजन: लहसुन के तड़के वाली मटन करी, रुमाली रोटी, और एक छोटा ग्लास व्हिस्की के साथ नींबू।
    खास हिदायत: मटन हड्डी से अलग हो जाए, लेकिन पिघले नहीं — और रोटी में सिंकने की दोहरी परत न हो।

    3. विक्राल ठाकुर का खाना:
    मांसाहारी, लेकिन सीमित मात्रा में — शक्ति के लिए, स्वाद के लिए नहीं।
    भोजन: ग्रिल्ड चिकन, बिना मसालों की स्टफिंग के साथ, और भुना हुआ आलू।
    खास हिदायत: चिकन में चाकू न लगे — काटने से पहले उसकी त्वचा न टूटे।

    4. रणधीर ठाकुर का खाना:
    क्लासिकल, लेकिन न्यूनतम — और हर चीज़ स्कैन की गई।
    भोजन: स्टीम्ड वेजिटेबल, क्विनोआ खिचड़ी और बिना नमक के गाजर का हल्का सूप।
    खास हिदायत: नमक गलती से भी पड़ गया तो... खाने से ज़्यादा डेटा ग़लत हो जाएगा।

    5. मरण ठाकुर का खाना:
    कोई नहीं जानता वो क्या खाते हैं — खाना उनके कमरे के बाहर रख दिया जाता है, और जब खाली थाली लौटती है, तब पता चलता है कि कुछ खाया गया।
    भोजन: रोटी और दूध — या शायद कुछ और।
    खास हिदायत: कोई नौकर उनके खाने को देख नहीं सकता। जो थाली छुए, वह हाथ धोकर प्रार्थना करे।



    खाने की तैयारी के बीच सख़्त निर्देश

    रोज़ी अंटी ने सबको झुंड में इकट्ठा किया।

    “अब सबके कान खोलकर सुनो,” वो बोलीं, “ये खाना किसी फैमिली डिनर के लिए नहीं बन रहा है — ये पाँच शेरों की दावत है। और शेर अगर ग़लत शिकार खा लें... तो रसोइया सबसे पहले खाया जाता है।”

    फिर उन्होंने क्रॉस का छोटा लॉकेट अपनी गर्दन से छुआ —
    “Bless this food, O Lord, and bless our heads — for they may be on the line today.”



    चीनू की ड्यूटी – मरण के कमरे तक थाली ले जाना

    नया लड़का चीनू, जो अभी तक सिर्फ झाड़ू और पोछे में लगाया गया था, अब रोज़ी के आदेश पर मरण ठाकुर की थाली लेकर जाने वाला था।

    रोज़ी अंटी ने कहा,
    “Boy, तू नया है, लेकिन हम सब पहले दिन डरते हैं। मरण साहब के कमरे तक ये थाली रख देना — दरवाज़ा खुद खुलेगा। वापस आए तो थाली खाली मिलेगी। जो भी हो, अंदर झाँकने की कोशिश मत करना। और हाँ — क्रॉस अपने पास रखना।”

    चीनू ने काँपते हाथों से थाली ली। उसमें सिर्फ रोटी और एक सफेद कटोरी में दूध था — लेकिन उस थाली की गरमाहट नहीं, ठंडक ज्यादा थी।



    रसोई में हलचल – लेकिन हर सॉस पतीले में नहीं, कुछ आँखों में था

    नीतू और राहुल, जो पिछले पाँच साल से हवेली में काम कर रहे थे, आपस में फुसफुसा रहे थे।

    “इस बार कुछ अजीब है,” नीतू बोली, “रोज़ी मैडम खुद चौकस हैं… भाई लोग ऐसे ग़ायब हुए हैं जैसे कोई सौदा बिगड़ा हो।”

    “और तूने देखा?” राहुल ने सिर झुकाकर कहा, “आज तंदूर की आग खुद-ब-खुद दो बार बुझी थी। बिना हवा के।”

    “Jesus Christ,” नीतू ने बुदबुदाया।

    रोज़ी अंटी की कानों में ये बात चली गई। वो मुड़ीं, और दूर से बोलीं,
    “जो डरते हैं, वो रोटियाँ जलाते हैं। और जो रोटियाँ जलाते हैं… उन्हें सिर्फ माफ़ी नहीं, मरण साहब से सीधा सामना मिलता है।”



    बाहर लॉन – परछाइयाँ लंबी होने लगी थीं

    दोपहर की लालिमा हवेली के आँगन में फैलने लगी थी। लेकिन हवेली के भीतर हलचल अब भी तेज थी। हर नौकर अपने हिस्से के काम को अंतिम रूप दे रहा था।

    विशवा की चाय की ट्रे तैयार हो चुकी थी, कबीर के बार का ग्लास चमक रहा था, विक्राल के कमरे के सामने फर्श पर नमक छिड़का गया था, रणधीर के डिजिटल ट्रे में थर्मल इंसुलेटर लगा था — और मरण के कमरे से थाली अभी तक नहीं लौटी थी।



    आखिरी आदेश – ‘घंटी बजे तो सब रुक जाएं’

    रोज़ी अंटी ने अब अंतिम बात कह दी —
    “जब हवेली की ऊपरी घंटी बजेगी — सिर्फ एक बार — तो समझ जाना कि पाँचों साहब हवेली में दाख़िल हो चुके हैं। उसके बाद कोई आवाज़ नहीं, कोई हरकत नहीं। खाना उनकी मंज़ूरी से ही परोसा जाएगा। तब तक सब अपने अपने स्थान पर रहें… और दुआ करें कि वो सब ठीक से लौटा हो।”



    और तभी...
    रसोई के पास की दीवार पर लगी वो पुरानी पीतल की घंटी खुद-ब-खुद हिली।

    टन…

    सिर्फ एक आवाज़।

    लेकिन उस एक टन में सभी थालियाँ, सभी बर्तनों और सभी दिलों की धड़कनें थम गईं।

  • 9. My Five cruel dangerous hubbies - Chapter 9

    Words: 1988

    Estimated Reading Time: 12 min

    अध्याय — "पानी के किनारे, आग के पाँच साये"

    स्थान: रॉयल ग्लोरी होटल — सिटी के सबसे महंगे फाइव स्टार होटल का पूल साइड
    समय: रात 10:47 — पार्टी अपने उरूज पर थी



    चारों ओर जगमगाती लाइट्स, शैंपेन की खुशबू और वो बेस जो ज़मीन से होकर रूह तक को हिला दे — शहर की सबसे बड़ी और महंगी पार्टी अब अपने चरम पर थी।

    पूल के किनारे, चमकते फ़र्श पर, नंगे कंधों वाली लड़कियाँ शराब और चाहत में भीगी घूम रही थीं। कहीं बायोलुमिनेसंट रोशनी में पूल चमक रहा था, तो कहीं लाइव म्यूज़िक की बीट्स पर पसीने में नहाई भीड़ थिरक रही थी।

    और उन्हीं के बीच, जैसे इस सारी दुनिया से एक अलग दुनिया चल रही हो, वहाँ थे ठाकुर ब्रदर्स — पाँचों एक कोने में, लेकिन हर नज़र उन्हीं पर।



    1. विशवा ठाकुर

    ब्लैक सिल्क शर्ट, पहले दो बटन खुले। गले में एक पतला सोने का चैन जो अब भी उसकी क्रूरता को मुलायम नहीं कर पा रहा था।

    वह टेबल पर खड़ा नहीं था। खड़ा था, लेकिन जैसे पहरा दे रहा हो। हाथ पीछे बाँधे, कंधे सीधे — और चेहरा ऐसा, जैसे किसी को देख नहीं रहा, बल्कि स्कैन कर रहा हो।

    एक लड़की—लाल गाउन में—स्लो डांस करती हुई उसके बेहद क़रीब आई। उसने धीरे से अपना हाथ उसकी छाती पर रखा…
    विशवा ने एक मिलीसेकेंड के लिए उसकी ओर देखा, फिर ज़रा भी पीछे हटे बिना बोला —
    "तुम्हारा पसीना तुम्हें धोखा दे रहा है।"

    लड़की हँसने लगी, लेकिन उसका शरीर काँप गया। उसने हाथ हटा लिया।



    कबीर ठाकुर

    वाइट शर्ट, स्लीव्स फोल्डेड, हाथ में ग्लास, लेकिन आँखें किसी शिकारी की तरह भीड़ पर टिकाए हुए।

    वो किसी कारोबारी से बात कर रहा था — लेकिन हर दूसरी लाइन के बाद उसकी निगाह वहीं उस लड़की पर पड़ती जो धीरे-धीरे पूल के किनारे डांस कर रही थी, और हर बार उसका चेहरा कबीर की ओर घुमा देती थी।

    एक बार जब लड़की ने डांस करते हुए उसके पास आकर खुद को उस पर गिराया —
    कबीर ने सिर्फ एक बात कही:
    "शिकार खुद चलकर आए, तो खेल ख़त्म हो जाता है।"
    और उसने अपनी कुर्सी से उठते हुए लड़की को नज़रअंदाज़ कर दिया।



    विक्राल ठाकुर

    वह अकेला था जो डांस फ्लोर के पास खड़ा था, लेकिन डांस नहीं कर रहा था। एक लंबा कोट पहने, बाल हल्के गीले और लाइट सिगार उसकी उँगलियों में।

    सिगार का धुआँ उसकी आँखों के सामने से निकलता तो उसकी आँखें और ठंडी लगतीं।

    डांसर लड़की उसके बेहद क़रीब आई, और सिगार छीनने की कोशिश की।

    "सिगार नहीं। किस्मत छीनने की आदत डालो।"
    विक्राल ने कहा, और बिना पलके झपकाए सिगार वापस ले लिया।

    लड़की ने मुस्कराने की कोशिश की — विक्राल ने उसकी आँखों में सीधे झाँकते हुए धीरे से उसकी ठोड़ी उठाई —
    "सुनो, मैं किसी की मुस्कान में नहीं घुलता। मैं आँखों से काम लेता हूँ।"



    रनधीर ठाकुर

    ब्लेज़र के नीचे सादा सफेद टीशर्ट, चेहरे पर हल्की दाढ़ी, और होंठों पर जैसे कोई पुराना ज़ख्म अभी भी ताज़ा हो।

    वो अकेले किनारे बैठा था, लेकिन वहाँ अकेलापन नहीं था। लड़कियाँ बारी-बारी उससे टकरा रही थीं। किसी ने जानबूझकर उसके हाथ पर ड्रिंक गिरा दी।

    वो खड़ा हुआ, लड़की के चेहरे से उसका गिलास लिया, और पूरी ड्रिंक उसी की हथेली में उँड़ेल दी।

    "अब हमारी तक़दीर बराबर है।"

    और फिर वही ग्लास ज़मीन पर रखकर, बिना कुछ बोले, फिर से अपने कोने में चला गया।



    मरण ठाकुर — सबसे छोटा, सबसे ख़तरनाक

    उसने कुछ नहीं कहा था। उसकी आँखें बाकी सबके बजाय अलग दिशा में थीं — पूल के अंदर तैरती रोशनी पर।

    वो उस डांसर को देख भी नहीं रहा था जो अब तक चारों भाइयों को छू-छूकर अपनी अदाएं दिखा चुकी थी। जब वो मरण तक पहुँची, उसने अपनी पीठ उसकी ओर कर दी और उसके कंधों पर हाथ रख दिया।

    मरण ने बिना पलटे हुए बोला —
    "तुमने एक ही ग़लती पाँच बार दोहराई है।"
    और फिर पलटा भी नहीं। बस धीरे से अपनी जैकेट उतारी और पूल के पास जाकर खड़ा हो गया।

    वहाँ खड़े होकर वो नज़ारा देख रहा था —
    चारों भाई अब एक ही रेखा में खड़े थे।

    और उनके पीछे — जैसे कोई बिजली की चमक में बिखरे हुए रंग हों — वहाँ खड़ी थी वो लड़की। अब उसकी हिम्मत जवाब दे रही थी।



    पार्टी तेज़ हो रही थी, लेकिन इन पाँचों की ख़ामोशी... और भी ऊँची आवाज़ थी।

    किसी ने कहा,
    “इन पाँचों से कौन मिलेगा आज रात?”

    किसी ने जवाब दिया —
    "मिलना नहीं होता, बुलाया जाता है। और बुलाया सिर्फ वही जाता है जिसे फिर छोड़ा नहीं जाता।"



    पार्टी में हलचल मची थी।
    पार्टी का आयोजक खुद आगे आया, एक इंटरनेशनल डीलर जो खुद अंडरवर्ल्ड की दुनिया में बड़ा नाम था। उसका नाम था — रेहान शाह।

    रेहान धीरे-धीरे उनकी ओर बढ़ा, हाथ में चांदी की छड़ी, और आँखों में वही लहू जैसा लाल रंग।

    “ठाकुर साहब,” उसने कहा, “आप पाँचों ने तो पूरी पार्टी की धड़कन रोक दी।”

    विशवा: “हम जहाँ खड़े होते हैं, वहाँ बाकी लोग साँस लेना भूल जाते हैं।”

    रेहान: “लेकिन आज की रात सिर्फ शो नहीं है... खेल है। और इस खेल में दांव थोड़ा बड़ा है।”

    कबीर: “खून की कीमत, या दौलत की?”

    रेहान: “जिसका दिल कमज़ोर हो... दोनों से हाथ धो बैठेगा।”

    सब चुप हो गए। सिर्फ मरण की जैकेट से टपकती हल्की सी पानी की बूँद ज़मीन से टकराई।



    "पार्टी के बाद..."
    रेहान बोला, “हम चलते हैं एक प्राइवेट जगह। जहाँ असली बाज़ी खेली जाएगी।”

    विशवा ने गर्दन घुमाई। सब भाइयों ने एक साथ, बिना कुछ कहे, बस हल्की सी गर्दन हिलाई।



    भीड़ अब भी नाच रही थी, लेकिन जैसे वो नाच अब बेमतलब हो चुका था।

    क्योंकि सब जान गए थे —

    ठाकुर ब्रदर्स यहाँ पार्टी करने नहीं, शिकार देखने आए हैं।

    और वो शिकार... अब खुद चलकर उनकी ओर आ रहा है।





    "गहराती रात और चाह की ख़ामोशी"

    स्थान: रॉयल ग्लोरी होटल — पूलसाइड
    समय: रात 12:21 AM



    भीड़ अब भी नाच रही थी, लेकिन संगीत की बीट्स धीमी हो गई थीं।

    शैंपेन अब गले से उतरने नहीं, होंठों पर टिकने लगी थी। लोग अब नाच नहीं रहे थे, बस बहाने ढूँढ रहे थे कि और देर कैसे ठहरें — शायद किसी 'एक मुलाक़ात' के इंतज़ार में।

    और इसी ठहराव के बीच, जैसे वक्त ने खुद को रोक दिया हो, वो पाँचों फिर एक जगह इकट्ठा हुए — ब्लैक मार्बल बार के पास, जहाँ एक कोने में नीली रोशनी गिरती थी।



    विशवा ठाकुर अब सीधे बार काउंटर पर बैठा था। उसके बगल में बैठी एक यूरोपियन मॉडल ने धीरे से कहा —

    “You don’t smile much, do you?”

    उसने बिना देखे कहा,
    “हँसी उन पर जचती है जिन्हें खुद पर शक हो।”
    और फिर उसी नीले कॉकटेल को एक सिप में खत्म किया।



    कबीर ठाकुर अब पूल के पास बने ग्लास ब्रिज पर खड़ा था, नीचे पानी की सतह पर उसका प्रतिबिंब काँप रहा था।

    वहीं पास से गुजरती एक लड़की ने उसकी ओर देखकर कहा,
    “यू आर इंप्रैक्टिकली हैंडसम, यू नो?”

    कबीर ने मुस्कराए बिना सिर्फ यह कहा —
    “और तुम... असंभव के करीब हो। लेकिन मैं कभी ज्यादा कोशिश नहीं करता।”

    उसकी आवाज़ में घुली ठंडी चालाकी ने लड़की को मुस्कुराने से पहले काँपने पर मजबूर कर दिया।



    विक्राल ठाकुर ने अब कोट उतारकर कुर्सी के पीछे डाल दिया था। उसकी कलाई पर बंधी घड़ी की सुइयाँ जैसे रुकना चाह रही थीं — समय विक्राल को देख रहा था, न कि वो समय को।

    उसके पास खड़ी लड़की — हल्के सुनहरे बाल, काले स्लिट ड्रेस में — उसकी ऊँगली के नाखून से उसकी आस्तीन के बटन से खेल रही थी।

    विक्राल ने एकदम नर्मी से उसका हाथ पकड़ा, फिर धीमे से उसे नीचे किया।

    “मुझे कोई चीज़ छूती है, तो मैं उसे याद नहीं रखता। लेकिन जो छू कर भी कुछ न कहे — वो ज़हन में दर्ज़ हो जाती है।”

    वो लड़की कुछ बोलने को हुई, लेकिन विक्राल पहले ही उठा और पास पड़ी सिगार की ट्रे में से एक सिलेक्ट करने लगा।



    रनधीर ठाकुर ने अब अपनी जैकेट का कॉलर थोड़ा ऊपर कर लिया था, रात की हवा अब तेज़ हो चली थी।

    पास में एक विदेशी पत्रकार, शायद इस पार्टी को कवर कर रही थी, कैमरा हाथ में था। उसने रनधीर की तस्वीर खींची।

    “Excuse me, can I click one more close-up?”

    रनधीर ने एक पल को उसकी आँखों में देखा, और कहा —
    “तस्वीरें तो सिर्फ चेहरा ले जाती हैं। अगर ज़्यादा पास आई, तो शायद कुछ और चला जाए।”

    और वह रिपोर्टर सच में सहम-सी गई।



    मरण ठाकुर अब तक सबसे अलग — एक लंबे सफेद पर्दे के पीछे की छाया में खड़ा था, जैसे उसे दुनिया से कुछ लेना-देना नहीं।

    लेकिन उसकी आँखें लगातार घूमती भीड़ को गहराई से पढ़ रही थीं।

    उसी वक़्त एक लड़की — बेहद सिंपल, शायद न किसी ग्रुप की, न किसी नेटवर्क की — मरण के पास आकर खड़ी हो गई।

    उसने बस एक बात कही —
    “काफी देर से देख रही हूँ, तुम्हारे चेहरे पर डर नहीं है… न ही चाह।”

    मरण ने पहली बार किसी की तरफ पलटकर सीधे देखा।

    “डर हमें ज़िंदा रखता है। और चाह... हमें मार देती है।”

    वो चुप रही।
    मरण ने धीरे से पूछा,
    “क्या तुम मरने आई हो?”

    लड़की हल्की-सी हँसी, लेकिन उसकी आँखों में सवाल थे — जवाब नहीं।



    पार्टी अब आधी रात के पार जा चुकी थी।

    संगीत अब बैकग्राउंड था, और सामने — एक सुंदर, रहस्यमयी मंच तैयार हो रहा था। काले पर्दों और गोल्डन लाइट्स से ढका मंच — "गोल्डन चेसबोर्ड" — होटल का स्पेशल गेम जो सिर्फ हाई-प्रोफाइल मेहमानों के लिए था।



    रेहान शाह — वही पार्टी का होस्ट — सामने आया।

    “लोगों को लगता है कि ये सिर्फ शो है… लेकिन आज की रात, हर चाल कुछ कहेगी।”

    वो पांचों ठाकुर ब्रदर्स की तरफ बढ़ा।

    “क्या आप तैयार हैं एक खेल के लिए? जहाँ हर मोहरा इंसान होगा, और हर चाल एक प्रस्ताव।”

    विशवा ने कहा —
    “हम मोहरे नहीं बनते। पर अगर ज़रूरत पड़ी, तो शह देने का हुनर जानते हैं।”



    रेहान ने मुस्कराकर पाँच अलग-अलग सुंदर महिलाओं को मंच पर बुलाया — हर महिला अलग अंदाज़, अलग देश, और सबकी आँखों में एक ही चीज़ — ख़्वाहिश।

    रेहान ने कहा —
    “इन पाँचों को कोई नहीं छू सकता, लेकिन आज रात... सिर्फ एक स्पर्श की इजाज़त है। सवाल यह है — स्पर्श कौन करेगा, और किसे याद रहेगा?”



    डांस धीमा चल रहा था, और अब मंच पर वो पांच महिलाएं धीरे-धीरे ठाकुर ब्रदर्स की ओर बढ़ीं।

    हर भाई के पास एक।

    लेकिन उनमें से किसी ने हाथ नहीं बढ़ाया।

    बल्कि, ठाकुर ब्रदर्स अब भी अपनी जगह वैसे ही खड़े थे —
    विशवा — आँखों में पत्थर
    कबीर — होंठों पर खामोशी
    विक्राल — उंगलियों में धुआँ
    रनधीर — आँखों में रात
    मरण — साँस में सन्नाटा

    महिलाएँ धीरे-धीरे उनके बेहद पास आकर रुकीं। एक ने विशवा की उँगलियों को छूने की कोशिश की — उसने बिना हिले कहा,
    “बर्फ पर आग मत रखो, वो दोनों जलते हैं।”

    दूसरी ने कबीर के गले में हाथ डाला — उसने कहा,
    “शब्दों से मत बाँधो, मैं रस्सियाँ तोड़ चुका हूँ।”

    तीसरी ने विक्राल की कॉलर पर उंगलियाँ फिराईं —
    “कपड़े बदल सकते हैं, पर आदतें नहीं।”

    चौथी ने रनधीर की कलाई थामी —
    “मैं सब खो चुका हूँ, तुम्हें नहीं पा सकती।”

    पाँचवी ने मरण के होंठों को देखा —
    “तुममें कुछ है... जो किसी में नहीं।”

    और मरण ने धीरे से कहा —
    “मैं ख़ुद में नहीं हूँ। जो है... वो सिर्फ एक परछाई है।”



    रेहान चुप था।

    सारी भीड़ चुप थी।

    पूल के किनारे वो नीली रोशनी अब लाल हो गई थी।

    और पाँचों भाइयों ने एक बार एक-दूसरे की ओर देखा —
    न कोई इशारा
    न कोई मुस्कान
    बस एक ठंडी हवा — और फिर…

    वो पाँचों एक साथ आगे बढ़ गए। लेकिन होटल से बाहर नहीं।

    बल्कि गोल्डन लॉन्ज की ओर, होटल के उस सबसे गहरे हिस्से की ओर जहाँ सिर्फ गिने-चुने लोग जा सकते थे।

    रेहान ने बस यही कहा —
    “ये सिर्फ शुरुआत है।”

    और वहाँ पीछे बचा सिर्फ —
    भीड़, संगीत और उन पाँच अधूरी औरतों की नज़रें।



    अध्याय समाप्त

  • 10. ( इंटीमेट 1 )My Five cruel dangerous hubbies - Chapter 10

    Words: 1975

    Estimated Reading Time: 12 min

    अध्याय — “भीतर का तूफ़ान – और पाँचों की परतें”

    स्थान – रॉयल ग्लोरी होटल, भीतर का लाउंज और प्राइवेट बार

    समय – रात 1:12 AM

    पार्टी की रफ्तार अब धीमी हो चली थी।

    पूल के आसपास की भीड़ कुछ कम हुई थी, लेकिन होटल का भीतर का प्राइवेट लाउंज अब सज चुका था — सिल्वर लाइटिंग, धीमा जैज़ संगीत, और दीवारों पर शैम्पेन-गिलासों की परछाइयाँ।

    यहाँ, अंदर सिर्फ निजी बुलावे वाले मेहमान आ सकते थे।

    वो पाँचों ठाकुर भाई वहाँ पहले से मौजूद थे — अलग-अलग कोनों में बैठे, लेकिन हर एक की मौजूदगी वैसी थी जैसे कमरा उनके हिसाब से साँस ले रहा हो। वहाँ बहोत सी लड़कियां थी और सब ने जो कपड़े पहने थे बहोत ही टरासपेरेट थे मतलब कि उनका शरीर साफ दिख रहा था | उनके जिस्म के हिस्से सब दिख रहे थे इतनी हल्के कपड़े थे | सभी के गले खुले और डिप थे , शायद ऐसे कपड़े उन्हें जानबूझ कर पहनाए गए थे ताकि वो ठाकुर स ब्रदर्स को सिडियूस कर सके |

    विशवा ठाकुर

    लॉन्ज के सबसे दाएँ कोने में बैठा था। उसके हाथ में एक ग्लास था, लेकिन होठों तक नहीं आया।

    उसके पास एक लड़की आई — लाल साटन की ड्रेस में, बाल खुले, आँखों में आत्मविश्वास। उसने विशवा के जांघ पल टच करते हुए कहा,

    "तुम्हें देखकर लगता है, सबकुछ हासिल करना मुमकिन है," उसने कहा।

    विशवा ने सिर घुमा कर उसकी तरफ देखा, फिर धीमे से बोला,

    "मैं किसी को हासिल नहीं करता... मैं छीनता भी नहीं... मैं बस रुकता हूँ, जब सब खुद आ जाएँ।"

    लड़की मुस्कराई नहीं, वो एक सेकंड के लिए रुकी, फिर पास खड़ी रह गई — एकदम चुप।

    उसकी चुप्पी ही विशवा को पसंद थी।

    क्योंकि जब शब्द थम जाएँ, वही असल खेल शुरू होता है।

    कबीर ठाकुर

    काउंटर के पास खड़ा था, दो घूँट पी चुका था, तीसरे को देखते हुए।

    एक महिला — शायद कोई पेंटर — धीरे से बोली,

    "तुम्हारी आँखों में कोई पेंटिंग नहीं टिक सकती। सब बह जाती है।"

    उसने फिर कबीर के सीन पर हाथ रखा | कबीर ने हँसने जैसी कोशिश नहीं की।

    "मैं रंगों से नहीं डरता, बस फ्रेम से चिढ़ है।"

    "फ्रेम?"

    "रिश्ते, नाम, सीमाएँ… मैं बहता हूँ, और जो पास आता है, उसे बहा देता हूँ।"

    उसने अपनी उँगली उस महिला की कलाई पर रखी —

    एक सेकंड भर के लिए।

    इतना काफी था।

    विक्राल ठाकुर

    एक लंबे गोल टेबल पर बैठा था, सामने फाइलों की तरह सजे शराब के मेन्यू, और बगल में बिठाई गईं शहर की दो सबसे चर्चित एंटरप्रेन्योर महिलाएँ।

    उनमें से एक ने हँसते हुए कहा,

    "तुम जैसे आदमी से डील करना आसान नहीं होगा।"

    विक्राल ने हल्के से ग्लास उठाया, फिर धीमे से आँखों में देखा,

    "डील... नहीं होती, फैसला होता है। और वो मैं लेता हूँ — दूसरों के हँसते हुए चेहरों को पढ़कर।"

    वो दोनों औरतें चुप हो गईं।

    एक पल के लिए, विक्राल ने कुर्सी से टेक हटाई और झुककर बोला,

    "मैं किसी से लड़ता नहीं... बस देखता हूँ कौन पहले थकता है।"

    उनकी हँसी अब शो-ऑफ नहीं, सचमुच की घबराहट बन चुकी थी।

    रनधीर ठाकुर

    प्राइवेट लाउंज के म्यूज़िक एरिया में था — जहाँ लाइव जैज़ चल रहा था।

    वो खुद स्टेज के पास एक डार्क कोने में खड़ा, हाथ में ड्रिंक, लेकिन नज़रों में दूर कोई साया देख रहा था।

    एक लड़की — सिंगर — जो अभी गा चुकी थी, धीरे से उसके पास आई।

    "तुम... सुनते कम हो, महसूस ज़्यादा करते हो क्या?"

    रनधीर ने बिना देखे कहा,

    "जब कोई बहुत कुछ सुन चुका होता है, तो उसे आवाज़ें नहीं, खामोशियाँ चुभती हैं।"

    "और तुम्हें क्या चुभता है?"

    "मेरे अपने जवाब... जो कभी दिए ही नहीं।"

    सिंगर एक पल को रुकी, फिर धीरे से बोली,

    **"कभी गाना सुनोगे... मेरे कमरे में?"

    रनधीर ने पहली बार उसकी तरफ सीधा देखा।

    "आज नहीं। क्योंकि आज की रात खुद ही एक सुर है — जो मुझे बहा रहा है।"

    मरण ठाकुर

    लॉन्ज का सबसे शांत कोना — जहाँ कुछ भी न चमकता था, न बजता था।

    वहीं मरण की आँखें अब भी लोगों को नहीं, दीवार की दरारों को देख रही थीं — जैसे हर आवाज़ के पीछे कोई सच छुपा है।

    उसके पास एक लड़की बैठी — जो खुद उतनी ही कम बोलने वाली थी।

    "तुम यहाँ भी अकेले हो?", उसने पूछा।

    मरण ने कहा,

    "साथ होना एक भ्रम है... सच्चाई सिर्फ तभी सामने आती है जब सब चले जाएँ।"

    वो लड़की कुछ देर उसे देखती रही, फिर बस इतना कहा —

    "मैंने कभी किसी से इतना कम सुनकर भी इतना कुछ समझा नहीं..."

    मरण ने फिर कोई जवाब नहीं दिया।

    लेकिन पहली बार उसकी उँगलियाँ टेबल पर कुछ लिखने लगीं — जैसे कोई धुन, कोई कोड।

    वो लड़की उसकी उंगलियों को पढ़ नहीं सकी — लेकिन ठहर गई।

    शायद कुछ भी कहे बिना ही सबसे ज़्यादा महसूस हो रहा था।

    लॉन्ज की रात अब गाढ़े धुएँ और धीमी साँसों से भरी थी।

    संगीत अब बैकग्राउंड भी नहीं था — अब सिर्फ नज़रें, गुज़रती साँसे और आहटें थीं।

    होटल का क्लॉक अब रात 2:03 बजा रहा था।

    सबके पास वक़्त कम था — लेकिन ठाकुर ब्रदर्स के पास आज भी वक्त थमा हुआ था।

    रेहान शाह एक बार फिर लॉन्ज में दाख़िल हुआ।

    उसने दूर से देखा, पाँचों अब भी वहीं थे — कोई बाहर नहीं गया, न कोई किसी में गुम हुआ।

    उसने अपनी टीम से कहा,

    “पाँचों अंदर हैं... और यही इस रात की असली जीत है।"

    "कमरे के उस पार – भागती साँसें"

    स्थान: होटल ग्लोरी का रूम नंबर 706

    समय: रात के 10:45

    कमरे की खिड़की के पार दूर-दूर तक फैले शहर की बत्तियाँ झिलमिला रही थीं। लेकिन उस कमरे में सारा उजाला सिर्फ एक हल्की नीली टेबल लैम्प से आ रहा था, जो कमरे के कोने में रखे मेकअप टेबल पर जल रहा था।

    वहीं सामने, सोफे की बाईं ओर, एक लड़की बैठी थी — नाम था " अमिशा", उम्र लगभग उन्नीस वर्ष, नाजुक-सी देह, जैसे कोई काँच की गुड़िया हो, जिसे किसी ने गलती से आग के पास रख दिया हो। उसके चेहरे पर डर और उलझन की लकीरें थीं, होंठ सूख चुके थे और हाथ कांप रहे थे।

    उसने पहना था एक चमकता हुआ सिल्वर-क्रीम कलर का शॉर्ट गाउन, जो उसकी घुटनों से ऊपर तक था। कपड़े जैसे उस पर थोपा गया हो — ना उसमें उसकी सहूलियत थी, ना उसकी मर्जी। गाउन की पतली डोरी उसके कंधों से लटक रही थी, और उसे बार-बार अपने हाथों से ढाँपना पड़ रहा था, मानो वो खुद को इस कमरे से, इस हवा से, इस अजनबी माहौल से बचाना चाह रही हो।

    उसके बाल खुले थे, हल्के घुंघराले, और उसके माथे पर पसीने की बूंदें थीं। उसकी आँखों में आँसू थे — जो बह नहीं रहे थे, बस रुके हुए थे जैसे एक भयानक तूफान से पहले की चुप्पी।

    दरवाज़ा खुला।

    एक भारी कदमों की आवाज़ आई — जैसे कोई आदत से लाचार दरिंदा, जो अपने शिकार को देखकर मुस्कुरा रहा हो।

    वो था सूमेश भसीन, पचास साल का एक बेशर्म अमीर आदमी, जिसकी बर्बादी को शराब, पैसा और गंदी सोच ने निगल लिया था। उसने सिर्फ एक साटन की नीली पैंट पहन रखी थी — ऊपर का बदन नग्न था, और छाती पर मोटे बाल थे जो इस उम्र में भी उसकी जानवर जैसी सोच को ज़िंदा रखते थे।

    उसके हाथ में दो ग्लास थे। एक में शराब थी — दूसरा अमिशा की तरफ बढ़ाया।

    "लो... इसे पी लो," उसकी आवाज़ में एक रेंगती हुई मिठास थी, जैसे ज़हर पर शहद चढ़ा हो।

    अमिशा कांपी।

    "ये क्या है?" उसकी आवाज़ फुसफुसाहट थी, डर से लिपटी हुई।

    "ये?" सूमेश हँसा, और कमरे की धुँधली रौशनी में उसका चेहरा और भी गंदा लगा — जैसे हवस का आइना हो।

    "ये वो चीज़ है जो तुम्हारे जैसे भोले चेहरों से सारी शर्म और डर मिटा देती है। बस एक घूंट और फिर रात तुम्हारी नहीं, मेरी होगी। आज तू मेरे साथ सोएगी, कितना कोमल बदन है तेरा"

    अमिशा ने ग्लास नहीं लिया।

    "नहीं... मुझे नहीं चाहिए। मैं... मैं यहाँ नहीं रह सकती। प्लीज़..." उसकी आँखों में गिड़गिड़ाहट थी।

    लेकिन सूमेश ने जबरन ग्लास उसके होंठों तक लाने की कोशिश की। उसके गले से एक घुटी हुई चीख निकली, और जैसे ही शराब के कुछ छींटे उसके होठों और गाउन पर गिरे, वह ज़ोर से खाँसने लगी।

    "देखो ना… इतनी मासूम लगती हो। लेकिन एक लाख दिए हैं मैंने — सिर्फ तुम्हारे लिए, आज रात के लिए। भाग नहीं सकती अब।" सूमेश की आवाज़ अब मर्दानगी नहीं, हिंसक भूख में बदल चुकी थी।

    अमिशा ने पीछे हटने की कोशिश की। उसका शरीर काँप रहा था। पैर लड़खड़ा रहे थे, जैसे नींद की गोली असर करने लगी हो या डर ने सारे स्नायु को जकड़ लिया हो।

    "रुको…" सूमेश अब पास आ चुका था।

    लेकिन तभी, जैसे किसी अदृश्य ताक़त ने उसे खींच लिया, अमिशा ने खुद को पूरी ताकत से झटका दिया — और कमरे की दीवार से टकराकर तुरंत दरवाज़े की तरफ दौड़ पड़ी।

    सूमेश के हाथ उसकी कलाई तक पहुँचे थे, लेकिन उसने पूरा ज़ोर लगाकर अपनी कोमल कलाई छुड़ाई और दरवाज़े से बाहर भाग गई।

    होटल का कॉरिडोर लंबा था। नीली लाइट्स, लाल कारपेट और दीवारों पर लगे अमूर्त चित्र — सबकुछ सपने जैसा लग रहा था। लेकिन अमिशा जाग रही थी, पूरी तरह। हर कदम जैसे उसकी जान बचा रहा था।

    उसे लगा जैसे हर दरवाज़ा बंद है, हर कोना अजनबी है। लेकिन वह नहीं रुकी।

    अमिशा के पैरों में चप्पलें नहीं थीं। फर्श की चिकनाई और हल्की ठंडीपन उसकी एड़ी से सीधे रीढ़ में चुभ रही थी। शराब के छींटे अब उसकी त्वचा से गंध की तरह चिपक चुके थे — हल्का नशा गहराता जा रहा था, जैसे कोई धीमा ज़हर नसों में बह रहा हो।

    उसकी आँखों के आगे धुंध सी छाने लगी थी। पर आँखें फिर भी खुली थीं — डरी हुई, फटी-फटी, जैसे अँधेरे में रास्ता टटोलती हुई।

    वह दीवार से सटती हुई आगे बढ़ रही थी। हाथ फैलाकर कभी बाईं ओर के पेंटिंग को टटोलती, कभी दीवार की लकड़ी की बेल को थामती।

    एक बार उसका पैर बाएँ मुड़ा, और उसका घुटना किसी सजावटी वास से टकरा गया — हल्की सी चीख उसके हलक में फँसकर रह गई। घुटने पर चोट लगी, लेकिन उसने देखे बिना ही फिर दौड़ लगाई।

    कॉरिडोर की नीली रोशनी अब उसकी आँखों में जलन दे रही थी। वह कुछ पल के लिए दीवार से टिककर साँसें समेटने लगी, लेकिन तभी कानों में फिर सूमेश की आवाज़ गूंजने लगी — "आज तू मेरी है।"

    उसकी साँस टूटती गई। वो एक झटके में खुद को फिर से खड़ा करती है — लड़खड़ाते हुए एक कदम... फिर दूसरा... फिर दीवार पकड़कर तीसरा।

    कमरा 710 आया — बंद।

    711 — बंद।

    713 — जैसे अंधेरे में चुपचाप कोई देख रहा हो।

    उसके सिर में झनझनाहट थी। उसे लग रहा था जैसे फर्श हिल रहा हो, या शायद उसका अपना दिमाग। घबराहट में उसका गाउन एक जगह दरवाज़े की कुंडी में अटक गया — लेकिन उसने बिना पीछे देखे उसे झटककर छुड़ाया।

    अब उसका कंधा थोड़ा खुल चुका था, लेकिन उसने खुद को समेटते हुए, दोनों बाहें सीने पर बाँध लीं।

    716... और फिर — 717।

    दरवाज़ा थोड़ा खुला था।

    उसका शरीर अब कह रहा था — "बस... अब रुक जा।"

    लेकिन उसका डर कह रहा था — "अभी नहीं।"

    उसने दरवाज़े को धीरे से धकेला।

    कमरा अंदर से खाली था — कोई नहीं था, बस टेबल लैंप की मद्धम रौशनी और सफेद बेडशीट पर फैली शांति।

    अमिशा ने बिना एक भी शब्द बोले दरवाज़ा बंद किया, चिटकनी लगाई और सीधे फर्श पर बैठ गई।

    वो अब भी काँप रही थी।

    उसके घुटनों पर खरोंच थी, पैरों में फफोले से पड़ चुके थे, बाल चिपके हुए थे माथे से — और चेहरे पर पसीने और आँसुओं की एक साथ लकीरें थीं।

    लेकिन अब उसकी साँसों में भय नहीं, चेतना थी।

    वो फिर भी नशे में थी, लेकिन अब शरीर के हर अंग से एक ही फुसफुसाहट निकल रही थी —

    "मैं जिंदा हूँ... और मुझे बचना है।"

  • 11. ( इंटीमेट 2 )My Five cruel dangerous hubbies - Chapter 11

    Words: 1744

    Estimated Reading Time: 11 min

    अध्याय – “नीली रौशनी में वो अजनबी”

    स्थान – होटल राॅयल ग्लोरी, कमरा नं. 717

    समय – रात 12:12

    कमरे का दरवाज़ा जैसे ही बंद हुआ, भीतर की हवा में कुछ और भारीपन उतर आया। होटल का वह निजी सुइट, जहाँ सिर्फ़ ये पाँचों भाई आते थे – विशवा, कबीर, विक्राल, रनधीर और मरण – आज कुछ अलग महसूस हो रहा था।

    कमरा शानदार था – गोल्डन ब्राउन परदे, शैंपेन की बोतलें, मुलायम सोफे, और खिड़की के पार झिलमिलाती शहर की बत्तियाँ। लेकिन उन सबके बीच, बेड पर पड़ी वो लड़की, सबसे बड़ा विस्मय थी।

    वही लड़की जिसे कुछ देर पहले इसीहओटल के एक कमरे से उस 50 साल के आदमी इज्जत बचाकर भागी थी ।

    अब वो यहाँ थी – नर्म, बेपरवाह नींद में थी या शराब का नशा।

    पाँचों की नज़रें एक साथ उस पर पड़ीं।

    रनधीर धीरे से मुस्कराया, “लगता है प्रतिकनाथ ने भेजा है, हमारा मूड बदलने के लिए।”

    विक्राल की भौंहें तन गईं, “पर बिना बताए? ये उसकी चाल भी हो सकती है।”

    लेकिन अगले ही पल कबीर आगे बढ़ा और लड़की के चेहरे की ओर झुककर बोला, “ये मासूम लगती है, बिल्कुल वैसी नहीं जैसी भेजी जाती हैं।”

    वो लड़की जैसे किसी स्वप्न में थी — आँखें बंद, सांसें गहरी, होंठों पर एक थकी हुई नमी। उसके गीले बाल सिरहाने पर फैले हुए थे |

    मरण ने धीमे स्वर में कहा, “शायद ये यहाँ भागकर आई है… पर क्यों?”

    विशवा कुछ नहीं बोला। उसने बस पास की टेबल से एक कंबल उठाया और लड़की के पैरों पर रख दिया।

    पाँचों अपने-अपने बाथरूम की ओर बढ़े। इस सुइट में पाँच बाथरूम थे, जैसा कि उनकी आदत और स्थिति के अनुसार डिज़ाइन करवाया गया था।

    सब कुछ सलीके से — लेकिन अब वह सलीका एक प्रश्नचिह्न में बदल गया था।

    जब वे कुछ मिनट बाद लौटे, सिर्फ़ टॉवेल में लिपटे, तो बेड खाली था।

    विक्राल की आवाज़ उभरी, “कहाँ गई वो?”

    रनधीर ने पास के ड्रेसिंग एरिया की ओर देखा – कोई हलचल नहीं।

    तभी बाथरूम से पानी की आवाज़ आई — लगातार बहता शॉवर।

    रनधीर सबसे पहले उस ओर बढ़ा। दरवाज़ा अधखुला था।

    वो दृश्य जो उनके सामने था, उसने हवा को अचानक ठहरा दिया।

    लड़की बाथरूम में थी।

    शॉवर के नीचे खड़ी — उसकी पीठ दिख रही थी, लंबे गीले बाल पीठ से फिसलते हुए कमर तक जा रहे थे। वह अपने आप में खोई हुई लग रही थी, जैसे इस दुनिया से दूर, उस जल की धार में खुद को हल्का कर रही हो। वो इस वक़्त नग्न थी |

    वो वहाँ खड़ी थी — बेपरवाह, अकेली, और कहीं न कहीं टूटी हुई।

    कोई भी कुछ बोल नहीं पाया।

    नरमी नहीं… अब नज़रें घायल करने लगी थीं"

    — पाँचों भाइयों की नज़रें, जब पहली बार उन्हें वो दिखा जो आज तक किसी ने नहीं देखा।

    विशवा — “जैसे अब कुछ भी छीन लेने की इजाज़त हो”

    रणधीर का चेहरा ठंडा था, पर उसके अंदर जैसे लावा बहने लगा था।

    वो लड़की… उसकी पीठ… उसकी साँसों में उठता-गिरता बदन…

    इतनी खामोश खूबसूरती — उसे गुस्सा दिला गई।

    "कोई इस तरह मासूम कैसे हो सकता है… और इतना उत्तेजक भी?"

    उसने अपने जबड़े भींचे, गर्दन झटके से दाएँ मोड़ी — लेकिन फिर देखा… और फिर देखा…

    अब उसकी उँगलियाँ कमर पर कस गई थीं, जैसे कुछ तोड़ देना हो।

    उसका वाइल्डनेस, उसकी रॉयल क्रूरता जग चुकी थी।

    वो उसे पाना नहीं चाहता था… वो उसे हड़प लेना चाहता था।

    2. कबीर — “शिकारी की साँसें तेज़ हो गई थीं”

    उसके भीतर एक जानवर कुलबुला रहा था।

    आँखें झपकना भूल चुकी थीं।

    "ये किसने बनाई है?"

    उसका दिमाग़ नहीं, उसकी रगें बोल रही थीं।

    वो धीरे-धीरे क़दम बढ़ाता गया, जैसे कोई टाइगर अपने शिकार को सूँघ रहा हो।

    होंठों पर जीभ फेरते हुए, उसने अपने बेल्ट को टच किया — बेख़्याली में।

    ये कोई औरत नहीं थी… ये उसकी रातों के भूखे अंधेरे की रौशनी बन गई थी।

    अब वो नहीं रुक सकता था।

    विक्राल — “जिसकी चुप्पी अब काली हो चुकी थी”

    विक्राल अब भी चुप था… लेकिन उसकी साँसें काँप रही थीं।

    उसके चेहरे पर वो चमक थी जो अक्सर किसी सनकी मूर्तिकार के चेहरे पर होती है, जब वो किसी “perfect body” को गढ़ता है।

    उसके गाल पर एक नस फड़की…

    "ऐसे बदन को सिर्फ पूजा नहीं, रचाव चाहिए।"

    अब विक्राल की आँखें धीरे-धीरे नीचे से ऊपर चढ़ रही थीं — जैसे कोई प्यासा तपती दोपहरी में पानी देख रहा हो, और उसे छू लेने का साहस बटोर रहा हो।

    रनधीर — “उसके दिमाग़ ने हँसते हुए सिग्नल तोड़ दिए”

    रनधीर का चेहरा अब पागलपन की हद तक भटकने लगा था।

    उसने अपनी गले की चैन खोली… फिर बंद की… फिर खोली…

    उसके होंठों पर एक अजीब मुस्कान थी — डरावनी, अस्थिर, भूखी।

    “ये परी नहीं… ये तो क़ैद की सबसे सुन्दर सज़ा है…”

    उसकी आँखों में अब सिर्फ एक इच्छा थी — "छू लूँ… तो वो भी काँपे!"

    वो थोड़ा आगे बढ़ा, उसकी उंगलियाँ अब हवा में उस लड़की की पीठ के आकार को महसूस करने लगी थीं —

    जैसे उसने पहले ही उसे अपने भीतर कैद कर लिया हो।

    मरण — “जिसे देखकर वो भी अपनी चाल भूल गया”

    मरण — सबसे शातिर, सबसे कम भाव दिखाने वाला — आज… बस देख रहा था।

    उसके चेहरे की मुस्कान हल्की थी, लेकिन वो अब शिकार नहीं, ख़ुद भूख बन चुका था।

    उसने अपनी उँगलियाँ बालों में फेरीं, गर्दन झुकाई, और धीमे से फुसफुसाया —

    "इसमें कुछ है… जो अब तक किसी में नहीं था।"

    उसने देखा, इतना देखा कि बाकी सब पीछे रह गए।

    उसके अंदर जो शैतान था, अब उसके होंठ पर आ बैठा था —

    “क्या तुम जानती हो, तुम्हें देखने से क्या-क्या हो सकता है…?”

    अब यह लड़की सिर्फ एक लड़की नहीं रही।

    अब वह पाँचों के लिए अलग-अलग मायने रखती है:

    विशवा के लिए – नियंत्रण तोड़ देने वाली चुनौती

    कबीर के लिए – शिकार

    विक्राल के लिए – कला में छिपी प्यास

    रनधीर के लिए – पागलपन का सपना

    मरण के लिए – चाल बदल देने वाली रानी

    लड़की वो कुछ नहीं सोच रही थी — या शायद सोच रही थी, लेकिन कुछ ठहर नहीं रहा था।

    शराब ने उसके विचारों की रफ्तार को धीमा कर दिया था, और अब, शावर के नीचे खड़े होकर — वो बस महसूस कर रही थी।

    शरीर से फिसलती पानी की हर धार, जैसे उसके भीतर की कोई अनकही कथा को धो रही थी।

    उसकी आँखें बंद थीं। भीनी नीली रौशनी में उसका चेहरा किसी अधूरी मूर्ति-सा लग रहा था — सौंदर्य और टूटी हुई थकान का मेल।

    भीगे बाल उसकी पीठ पर बिखरे थे। हर बूँद, उसके रीड की हड्डी के पास गिरकर नीचे सरक रही थी… कमर के मोड़ तक… और फिर वहाँ जहाँ उसकी साँसें धीरे-धीरे काँपती थीं।

    उसने दोनों हाथों से अपने गले को थामा… जैसे कुछ याद करके काँप गई हो।

    लेकिन कोई आँसू नहीं निकले — सिर्फ़ पानी था, जो वैसे भी बह रहा था।

    उसकी त्वचा पर अब हल्की हरारत थी — गर्म पानी और शराब का मिलन।

    शराब के असर से उसकी चेतना थोड़ी-थोड़ी तैर रही थी।

    वो खुद को देख नहीं पा रही थी, लेकिन महसूस कर रही थी — अपने ही शरीर को, एक अजनबी की तरह।

    जैसे वो अब भी किसी और की हो…

    या शायद, अब खुद की भी नहीं रही।

    उसने धीरे से दोनों हाथों को अपने कंधों पर रखा — जैसे खुद को थामना चाह रही हो।

    "मैं यहाँ हूँ… और ज़िंदा हूँ…"

    ये शब्द उसने मन में दोहराए, पर होठों से न निकले।

    पानी अब उसकी दोनों स्तन पर गिर रहा था — गर्म धारों की तरह, जो हर साँस के साथ उनके उठने-गिरने को और गहराई दे रहा था। पानी उसके जिस्म के हर हिस्से को छू रहा था कभी गरदन तो कभी कोलरबोन, कभी नांभि और वही जब गुप्त अंगों को पानी छूता तो उसके जिस्म में सिरहन दोड जाती |

    उसने एक गहरी साँस ली।

    और एक क्षण के लिए, अपनी आँखें खोलीं।

    सामने बाथरूम की धुंधली शीशे की दीवार थी — उस पर उसका ही अक्स।

    उस अक्स में उसे एक लड़की दिखी… जो मासूम नहीं थी… और शायद मजबूर भी नहीं।

    वो किसी पिंजरे से भागी चिड़िया जैसी थी — भीगी, डरी हुई, लेकिन ज़िंदा।

    फर्श पर बहता पानी अब उसकी जाँघों तक जा पहुँचा था, और वहाँ से धीरे-धीरे नीचे बहने लगा था।

    उसने अपने पैरों को फैलाया — जैसे ठहराव के बीच कोई रचनात्मकता हो।

    उसके तलवे गर्म टाइलों को छू रहे थे, लेकिन आत्मा में कोई ठंडक उतर रही थी।

    फिर उसने धीरे से सिर पीछे किया… बाल पीछे सरक गए, और एक बूँद उसके होठों पर गिरी।

    वो मुस्कराई — शायद अनजाने में।

    “पानी सब धो देता है… ना?”

    उसने यह सवाल खुद से किया।

    फिर जैसे बच्चे बाथटब में खेलते हैं — उसने भी अपने हाथों से पानी को थपथपाया, छोटी-छोटी लहरें उठाईं।

    उसने हथेलियों से अपनी बाहों को सहलाया — एक आत्मीय स्पर्श, जो शायद उसे कभी किसी ने नहीं दिया।

    और फिर…

    एक ठंडी सनक-सी उसे महसूस हुई — जैसे कोई देख रहा हो।

    कोई जो आँखों से नहीं, साँसों से उसके आसपास है।

    उसने नहीं देखा। जानबूझ कर नहीं देखा।

    वो अब भी उसी शांति में रही —

    क्योंकि अगर वो देखती, तो यह शांति टूट जाती।

    शरीर से बहते पानी के बीच, उसकी पीठ अब भीगी हुई मखमल की तरह लग रही थी।

    नीली रौशनी में, वह कोई और नहीं…

    एक रहस्य थी।

    एक ऐसी पहेली जिसे हल करने की हिम्मत हर किसी में नहीं होती।

    उसे देख पांचों उसकी ओर बढे लड़की बेखबर बस अपने आप में ही तभी एक ने उसे टच किया वो लड़की उन्हें देख ने लगी कभी जैसे कोई मासूम बच्चा तो कभी हैरान फिर अचानक हंस पडी | उसे ज़रा होश ना था कि जहाँ वो एक से बच यहाँ आई थी, यहाँ तो उसे पांच मिल जाएगे | लेकिन उस शराब के नशे से वो सब भूल चूकी थी, ना जाने उस शर्म में ऐसा क्या था | वो पांचों लड़की के आजू बाजू घूमने लगे गोल गोल, एक ने उसके गाल को छू आया तो वो लड़की एकदम आंखे बंद कर उस टच को महसूस करने लगी, उसकी सिसकी निकली,

    " सी......... अ....

    पांचों उसे देख कामुकता से बेचैन थे | आज से पहले कोई ऐसी लड़की नहीं थी जिससे वो इन नजरों से इस कदर देखे हां यू तो वो पहले से ही हर रात एक नई लड़की के साथ सोते थे | और वही पांचों उसे यहाँ वहाँ टच करने लगे उनके टच में कुछ खास था जिससे लड़की भी उनकी दिवानी हो रही थी |

  • 12. My Five cruel dangerous hubbies - Chapter 12

    Words: 2099

    Estimated Reading Time: 13 min

    अध्याय – “नीली रौशनी में वो अजनबी” ( – मौन की आग)

    समय – रात 1:22
    स्थान – वही कमरा, लेकिन अब भीतर की हवा में जुनून की गरमी घुलने लगी थी।

    वो अब तक उनकी बाहों में थी — पाँच अलग-अलग तापमान, पाँच अलग-अलग धड़कनें... लेकिन उसके भीतर अब एक ही आग जल रही थी।
    शुरुआत विशवा ने की — उसका हाथ लड़की की गर्दन के पीछे गया, जहाँ अब तक सिर्फ़ सिहरन थी। अब वहाँ उसकी अंगुलियों की पकड़ थी — मुलायम, लेकिन गहरी।

    कबीर ने अपने होंठ उसके गालों से होते हुए जबड़े के पास रोके — जैसे शब्द नहीं, सिर्फ़ गर्म साँसें छोड़ना चाहता हो।
    "तुम्हें पता है...?" वो फिर से फुसफुसाया, लेकिन इस बार उसकी आवाज़ में कंपन था —
    "तुम्हें छूने का नहीं, तुम्हारे भीतर उतरने का मन हो रहा है… तुम्हारी धड़कनों में।"

    और ठीक उसी वक़्त — विक्राल का हाथ उसकी कमर पर था, और उसकी अंगुलियाँ… धीरे-धीरे लड़की के शरीर को पढ़ रही थीं, जैसे कोई बहरा संगीतकार किसी वाद्य को महसूस करता है।

    रनधीर ने जैसे अपनी सारी शरारत छोड़ दी थी —
    अब वो सिर्फ़ अपनी आँखों से लड़की को पी रहा था — उसके होठों पर उतरती एक wild सी मुस्कान के साथ, उसने लड़की के घुटनों को अपने हाथों में भर लिया —
    और उसका स्पर्श, एक बार में ही लड़की के भीतर जैसे कोई जंगली तूफ़ान छोड़ गया।

    लेकिन सबसे चौंकाने वाला था मरण —
    जो अब तक सबसे शांत था, उसने एक झटका लिया, और लड़की को अपनी गोद में खींच लिया —
    उसकी हथेलियाँ अब लड़की की पीठ से होते हुए उसकी जांघों तक उतरने लगीं —
    नर्म नहीं, इस बार ज़रा-सी तीव्रता लिए हुए।

    लड़की का बदन काँप रहा था — लेकिन डर से नहीं।
    यह कंपकंपी उस मौन की थी जो अब विस्फोट बनना चाहता था।

    उसने आँखें बंद कीं — और जैसे ख़ुद को उन पाँचों में बाँट दिया।

    कभी विशवा की गर्दन में मुँह छुपा लेती, कभी रनधीर के सीने पर हाथ रखती —
    कभी कबीर के होठों को अपनी साँसों से पकड़ लेती, तो कभी विक्राल की उंगलियों को अपनी कमर पर और गहराई से महसूस करती —
    और अंत में… मरण की गोद में खुद को गिरा देती, जैसे कह रही हो —
    "अब मुझे संभालो..."

    रात अब शांति की नहीं, प्रलय की थी।
    लेकिन एक प्रलय — जहाँ सबकुछ टूटता नहीं था, बल्कि एक नया स्वरूप लेता था।

    हर भाई ने उसमें कुछ अपना डाला — कोई उसका विश्वास बना, कोई उसकी हँसी, कोई उसकी चीख, कोई उसकी आह, और कोई उसकी पूरी देह।

    और वो लड़की…

    सुबह जब उठी, तो अकेली नहीं थी —
    वो अब छह आत्माओं का संगम बन चुकी थी।
    उसकी आँखें चमक रही थीं, बाल बिखरे हुए थे, लेकिन चेहरे पर एक रौशनी थी —
    जैसे रात भर किसी ने उसे नहीं चूमा, बल्कि उसे खुद से आज़ाद किया हो।


    कमरे में अभी भी हल्की नीली रौशनी पसरी हुई थी। पर्दे थोड़े खुल गए थे, जिससे शहर की हल्की झिलमिलाहट अब कमरे की दीवारों पर नाचने लगी थी।

    वो लड़की अब बीच में थी — पाँचों भाइयों के बीच, लेकिन किसी सामान की तरह नहीं —
    एक केंद्रबिंदु, एक ऐसी ऊर्जा, जिससे सब खिंचे चले आ रहे थे।

    उसकी साँसें अब तेज़ थीं — बदन गीला नहीं था अब, लेकिन गर्म था… बहुत गर्म।
    उसकी आँखों में अब झिझक नहीं थी। बल्कि कोई ऐसी चमक थी जो कह रही थी —
    "मुझे अब खुद में मत छोड़ो... मुझे पूरी तरह महसूस करो।"

    सबसे पहले विक्राल ने जैसे उस आदेश को सुना।
    उसका हाथ अब उसकी कमर पर नहीं, उसकी जांघों के ऊपरी हिस्से तक आ गया था।
    उसने उँगलियों से वहाँ एक गोला बनाया — जैसे अपने अधिकार का चिन्ह छोड़ रहा हो।

    लड़की की रीढ़ की हड्डी तक एक झुरझुरी दौड़ी —
    उसने अपनी उँगलियाँ विक्राल के हाथ पर रखीं और उन्हें और गहराई तक खींच लिया।

    कबीर, जो अब तक सिरहाने बैठा था, लड़की के बालों में अपनी उँगलियाँ फिराने लगा।
    "तुम्हारी हर साँस जैसे मेरे वजूद को हिला रही है," उसने फुसफुसाकर कहा, और उसके कान की बगल में अपने होठों की गर्माहट छोड़ दी।
    उसने अचानक से लड़की की गर्दन को चूमा — गहरा, थोड़ी wild, लेकिन बेहद महसूस करने वाला।

    लड़की की आँखें उस वक्त आधी बंद थीं —
    लेकिन उसने अपने होठों से कबीर की साँसें पकड़ लीं। दोनों के बीच अब कोई शब्द नहीं रहा — सिर्फ़ आहें, बस आहें...

    उसी पल, विशवा ने लड़की की पीठ को अपनी बाँहों में खींच लिया।
    उसने उसे उठाया, गोद में लिया — और लड़की की पीठ पूरी तरह उसकी छाती से सट गई।

    अब उसका एक हाथ उसके पेट पर था, और दूसरा… धीरे-धीरे उसकी स्तन की ओर बढ़ रहा था।
    लेकिन ये कोई हड़बड़ी नहीं थी — ये किसी मंदिर की घंटी बजाने जैसा था… पवित्र, नर्म, फिर भी तीव्र।

    रनधीर अब तक नीचे था — ज़मीन पर बैठा, लड़की की जाँघों के पास।
    उसने उसके घुटनों को चूमते हुए अपनी उँगलियाँ लड़की की टखनों से होते हुए ऊपर खींची —
    एक-एक इंच जैसे कोई तीर्थ हो, जो स्पर्श से जागृत हो रहा था।

    मरण अब भी शांत था — लेकिन अब वह बहुत करीब था।
    उसने लड़की का चेहरा अपनी हथेलियों में लिया और एक लंबा, गहरा चुंबन उसके माथे पर छोड़ा।
    "कुछ खास है तुम्हारे अंदर..." वो बुदबुदाया।

    और इस बार लड़की हँसी — हँसी नहीं, फूटी हँसी और सिसकी एक साथ।

    "मैं कोई देवी नहीं हूँ..." उसने आँखें खोलते हुए कहा,
    "मैं बस एक लड़की हूँ — जो आज खुद को बाँट देना चाहती है, ताकि खुद को जोड़ सके..."

    ये बात जैसे पाँचों के भीतर कोई और आग जला गई।

    अब सबने अपनी जगह बदल ली थी —
    बिस्तर पर अब वो छः देह नहीं थे, वो जैसे एक ही ज्वालामुखी बन चुके थे —
    हर भाई का एक अलग तापमान, एक अलग धड़कन, और लड़की का बदन अब उनमें से हर किसी की भाषा को पढ़ रहा था।

    विशवा ने जब उसे अपनी बाँहों में घुमाकर उसके कंधों पर होठ रखे, तो लड़की का पूरा शरीर काँप गया।
    उसने उसकी पीठ पर अपनी उँगलियों से चाँद बनाना शुरू किया —
    एक बार, फिर दो बार — और हर बार लड़की की साँसें लंबी होती गईं।

    रनधीर अब उसकी जाँघों पर था —
    उसने उसे इस बार दोनों हाथों से थामा, और अपनी गर्म साँसें वहाँ छोड़ दीं। साथ ही बाईट भी कि,

    विक्राल अब एकदम करीब था — लड़की की आँखों में आँखें डालकर बस वही कर रहा था जो कोई भी नहीं करता —
    उसके भीतर का हर डर खींच रहा था।

    "तुम डरो मत," उसने कहा,
    "हम यहाँ किसी जंगली इच्छा से नहीं, तुम्हारे भीतर की औरत को जगा देने आए हैं…"

    कबीर अब तक उसकी छाती के पास था — और उसके होठ अब लड़की की स्तन की रेखा को महसूस कर रहे थे।
    लड़की की सिसकी इस बार तेज़ थी — लेकिन दर्द जैसी नहीं,
    बल्कि किसी भीतर के बंधन के टूटने की तरह।

    और मरण —
    उसने लड़की का चेहरा पकड़ कर उसे सीधा अपनी ओर खींचा, और इस बार पहली बार उसके होठों पर एक गहरा चुंबन दिया।
    बहुत धीमा, बहुत लंबा, और बहुत सच्चा।

    इस सीन में कोई शोर नहीं था —
    लेकिन हर हरकत, हर छुअन, एक आवाज़ थी।

    वो रात अब सिर्फ़ एक शारीरिक अनुभव नहीं थी —
    वो आत्मा का विलय था,
    वो एक ऐसा क्षण था जहाँ किसी की इच्छाएँ भी पवित्र हो सकती थीं,
    जहाँ एक स्त्री अपने टुकड़े-टुकड़े वजूद को इन पाँच भिन्न हाथों से जोड़ रही थी।

    रात के 3:01 हुए —
    लेकिन इस कमरे में वक़्त कहीं रुक गया था।
    कहीं बीच में वो सब अब एक-दूसरे में इतने लीन हो चुके थे कि कोई अपना-पराया नहीं रहा।

    लड़की अब बीच में थी —
    लेकिन अब वो पहले वाली लड़की नहीं थी।

    अब वो —
    एक लपट थी, एक आहुति… एक देवी नहीं, लेकिन एक ऐसी स्त्री, जो अब खुद से डरती नहीं थी।

    कमरे में अब सन्नाटा गहराया नहीं था… वो धड़कनों का संगीत बन चुका था।

    लड़की अब बिस्तर के बीचों-बीच नहीं, थोड़ी करवट लिए लेटी थी — उसकी खुली पीठ पर अब भी कुछ बूंदें बाकी थीं, जिन्हें या तो वक़्त ने छोड़ा था… या किसी की उँगलियों ने।

    विशवा अब उसकी ओर झुका था — उसका हाथ लड़की की गर्दन के पास से गुज़रता हुआ उसकी पीठ पर उतरा, और वहीं ठहर गया।

    "तुम्हारी साँसों में जैसे बारिश की सोंधी महक है…" उसने धीरे से कहा।

    लड़की ने करवट नहीं बदली, लेकिन उसकी पीठ पर एक हल्की मुस्कान उतर आई।

    तभी कबीर बिस्तर के दूसरे सिरे से लड़की के बालों में उंगलियाँ फेरते हुए बोला,
    "तेरे बालों में जो उलझन है… वो शायद मेरे जैसे लोगों के लिए बनी है।"

    उसने बालों की एक लट को धीरे से अपनी उँगलियों में लपेट लिया और फिर होंठों से हल्के से छुआ —
    बस एक पल के लिए।

    लड़की ने एक धीमी सिसकी सी ली, लेकिन उसकी आवाज़ से ज़्यादा उसकी पीठ की हरकत ने वो भाव दिखा दिया —
    एक चाह, जो शब्दों से बड़ी थी।

    अब रनधीर पास आया — इस बार ज़रा तेज़ चाल में, जैसे खुद को रोकते-रोकते थक गया हो।

    उसने लड़की की जांघ के बीच अपनी हथेलियाँ रखीं —
    और फिर कुछ पल उसे बस ऐसे ही देखा।
    "तू रुके तो मैं भी रुक जाऊँ… पर तू अगर पिघले, तो मैं खुद को रोक नहीं सकता।"

    उसने अपना माथा लड़की की जांघ से सटा दिया — गर्म साँसें, और एक आत्मसमर्पण जैसा क्षण।

    तभी मरण, अब तक कमरे की सबसे छुपी जगह से, पास आया।

    उसने लड़की की कलाई थामी —
    धीरे से उठाई, और अपनी हथेलियों में उसे पकड़कर बस वहीं बैठ गया।
    "इस हाथ में कितने राज़ हैं, पता है तुम्हें? ये सिर्फ़ छूता नहीं, पूछता है..."

    विक्राल अब एकदम उसके पीछे बैठा था —
    उसने धीरे से लड़की के कंधे से चादर खिसकाई, और उसकी पीठ पर अपनी उँगलियों से अक्षर बनाने लगा।

    "क्या लिख रहे हो?" लड़की ने पहली बार खुलकर पूछा।

    "तेरा नाम… मेरे नाम के साथ।" विक्राल का जवाब धीमा था, लेकिन सधा हुआ।

    अब सीन धीमा नहीं रहा — गहराता जा रहा था।

    पाँचों अब लड़की के चारों ओर नहीं थे —
    उसके भीतर के अंतरिक्ष में प्रवेश कर चुके थे।

    कबीर ने उसे थोड़ा ऊपर उठाया — उसकी पीठ को अपने सीने से सटाया, और उसकी गर्दन के पास धीरे से बोला,
    "क्या मैं तुम्हें फिर से ढूँढ सकता हूँ?"

    लड़की ने अपनी गर्दन थोड़ा सा मोड़ी — और उनके होठों के बीच एक नमी का पुल बन गया।

    अब वो चुम्बन सिर्फ़ होठों का नहीं था —
    वो एक इकरार था — कि वो सब यहाँ हैं, लेकिन बस एक 'छूने' के लिए नहीं,
    बल्कि किसी को महसूस करने के लिए।

    विशवा अब उसके पैरों के पास बैठा था —
    उसने लड़की की पाँव की उँगलियों को अपनी हथेलियों में लेकर हल्के-हल्के दबाया।

    "तेरे पैरों के तलवों में जादू है — कोई यहाँ से शुरुआत करे, तो दिल तक पहुँच जाए।"

    लड़की अब हँसी नहीं, बस आँखें मूँदकर एक लंबी साँस लेती है।

    उसका बदन अब काँप नहीं रहा था —
    बल्कि स्वर के समानांतर कंपन कर रहा था — जैसे कोई राग।

    एक राग जो पाँचों अपने-अपने अंदाज़ में बजा रहे थे —

    कभी एक साथ, कभी एक-एक कर…

    रनधीर अब उसका पेट चूम रहा था बाइट किया उसके मूवस में वाइल्ड नेस था—
    छोटे-छोटे चुंबनों से, जैसे कोई सपना बुन रहा हो।

    कबीर उसके कान में अब और गहरे फुसफुसा रहा था —
    "तू यहाँ है… पर मैं तुझे हर जन्म से जानता हूँ।"

    मरण ने अब उसकी उँगलियों को अपनी उँगलियों में उलझाकर एक धीमा गान शुरू किया —
    एक गीत नहीं, एक मौन स्पर्श, जो शब्दों से बेहतर संवाद था।

    और विक्राल —
    उसने लड़की को अपनी बाँहों में भरकर पलट लिया — उसकी पीठ को फिर अपने सीने से लगाया।

    "अब तू कुछ मत कह… बस मेरे दिल की धड़कन गिन।"
    वो पांचों धीरे धीरे पहले से ज्यादा वाइल्ड हो रहे थे कमरा लड़की कि आहो और सिसकियों से भर चूका था कभी कोई उसके स्तन पी रहा था तो कभी जिस्म के दूसरे हिस्सा को चूम रहा था और ये सब वो वाइल्ड अंदाज में कर रहे थे और फिर एक वक्त ऐसा वो उसमें समा गए | उसकी चिख निकली,

    वो पाँचों और वो एक… अब किसी आकृति में नहीं बँधे थे।

    वो रेखाओं से परे एक अनुभव बन गए थे — रात की कला, नीली रौशनी की देह, और आत्मा का चित्र।

    कमरे में अब भी वही रोशनी थी, वही नमी, वही बसी हुई साँसें —
    लेकिन अब हर कोई चुप था।

    क्योंकि अब कुछ कहने को बचा नहीं था।

  • 13. My Five cruel dangerous hubbies - Chapter 13

    Words: 1578

    Estimated Reading Time: 10 min

    अध्याय – "नींद के बाद का सच – जब कोई अपना-सा डर बन जाए"

    स्थान – होटल रॉयल ग्लोरी, कमरा नं. 717
    समय – सुबह 7:04

    कमरे की खिड़की से झाँकती सूरज की पहली किरण, नीली रोशनी की सारी कविता को सोख चुकी थी।

    अब वहाँ सिर्फ़ एक कच्चा उजाला था — सच्चाई का, थकान का, और कभी न कही गई बातों का।

    लड़की की पलकें धीरे-धीरे खुलीं —
    उसकी साँसें असामान्य रूप से तेज़ थीं, जैसे कोई भारी सपना देख रही हो, या शायद कोई सपना जो अब हकीकत बन चुका हो।

    उसकी नज़रों ने इधर-उधर देखा —
    कमरा अभी भी वही था…
    चादरें अस्त-व्यस्त, फर्श पर फैली हुई पुरुषों की जैकेटें, गिलास, एक बिखरा हुआ गुलाब।

    और फिर… वो पाँचों।

    विशवा खिड़की के पास खड़ा था, छाती पर खुला बाथरोब, हाथ में कॉफ़ी का मग।
    कबीर उसकी दाईं ओर सोफे पर अधलेटा था, किसी किताब के पन्नों को पलटते हुए — शायद बिना पढ़े।
    विक्राल अब तक बिस्तर के एक कोने पर बैठा था, उसके रेशमी बालों में अपनी उंगलियाँ घुसेड़ता हुआ —
    रनधीर कमरे के कोने में म्यूजिक सिस्टम से कुछ पुराने गीत खोज रहा था।
    और मरण?
    वो सबसे नज़दीक था — उसी बिस्तर पर, उसकी कोहनी के पास…
    सोता हुआ, या शायद उसकी सांसें भी उसे सुन रही थीं।

    लड़की की आँखें फैल गईं।

    एक अजीब सिहरन उसके पूरे शरीर में दौड़ी —
    ना वो शर्म थी, ना कोई स्पष्ट भय…
    बल्कि एक बेकाबू एहसास, जिसे शब्द देना नामुमकिन था।

    “मैं… यहाँ…?” उसकी खुद से बुदबुदाहट जैसे पूरे कमरे में गूँज गई।

    उसने चुपके से चादर को कस कर लपेटा, और धीरे से उठ बैठी।

    पैर नीचे रखे, तो जमीन ठंडी लगी —
    लेकिन उससे ज़्यादा ठंडा वो एहसास था, जो उसकी रूह को छू रहा था।

    उसके होंठ फड़क रहे थे —
    उसने अपने होंठों पर हल्के से उंगलियाँ रखीं —
    क्या सच में…?

    एक रात में सब कुछ बदल सकता है?

    उसने एक नज़र मरण पर डाली —
    वो अब भी उसी तरह उसकी ओर झुका हुआ सो रहा था।

    पल भर को उसकी आँखें भीग आईं।

    "मुझे यहाँ नहीं होना चाहिए था…"
    ये शब्द उसके मन में गूँजते रहे, जैसे किसी ने धीरे से कान में फूँका हो।

    और तभी… कमरे में अचानक कबीर की नज़र उस पर पड़ गई।

    उसने सिर झुकाया, हल्की मुस्कान के साथ,
    “गुड मॉर्निंग…”

    लड़की का चेहरा फक पड़ गया।

    नहीं। अभी नहीं।
    वो किसी को कुछ कहने से पहले ही, पलंग से उठी — धीरे, लेकिन तेज़ी से।

    वो पलटकर कपड़े खोजने लगी —
    दरवाज़े के पास रखी उसकी ड्रेस, जो अब सलवटों में थी।

    जब तक विशवा कुछ कहता, वो कपड़े लपेट चुकी थी।

    “तुम रुको… हम कुछ नहीं कहेंगे,” विक्राल की आवाज़ पीछे से आई।

    लेकिन अब वो सुनने की हालत में नहीं थी।

    उसने अपना बैग उठाया, मोबाइल ढूँढा — वो अब भी टेबल पर था, और किसी अंजान नंबर की मिस्ड कॉल भी।

    रनधीर आगे बढ़ा, “रुको ना… बस दो मिनट, सब ठीक है।”

    लड़की ने दरवाज़े की ओर कदम बढ़ा दिए।

    उसका दिल बुरी तरह धड़क रहा था, और पलकों के नीचे आँसुओं की एक परत चमकने लगी थी।

    "कृपया..." उसने बस इतना कहा, और दरवाज़ा खोलकर बाहर निकल गई।

    कमरा 717 अब भी वही था — लेकिन उसमें उसकी परछाईं नहीं थी।



    सीढ़ियाँ उतरते वक़्त, उसके कदम काँप रहे थे।

    लिफ़्ट लेने की हिम्मत नहीं थी —
    हर मंज़िल एक सवाल बन गई थी।
    हर गुज़रता दरवाज़ा, एक अपराधबोध।

    "मैंने क्यों…? मैं कैसे…? क्या ये मैं थी?"

    जब वो लॉबी में पहुँची, तब तक उसका गला सूख चुका था।

    रिसेप्शन पर बैठे लड़के ने सिर उठाकर पूछा,
    "मैम, ओवरनाइट स्टे का सिग्नेचर—"

    "Already done," उसने बिना देखे कहा, और तेज़ी से बाहर निकल गई।

    होटल के बाहर की हवा थोड़ी ठंडी थी —
    लेकिन अंदर जो कुछ फूटा था, वो कहीं ज़्यादा सर्द था।



    ऑटो में बैठकर, उसने अपनी हथेलियों को देखा —
    कल रात इन्हीं से किसी के गालों को छुआ था,
    किसी की साँसों को पकड़ा था…

    और अब?
    अब वो बस अपने बालों को कसकर बाँध रही थी —
    जैसे किसी कहानी का आख़िरी पन्ना फाड़ देना चाहती हो।



    उस सुबह, पाँचों भाइयों ने उसे नहीं रोका।

    और शायद यही सबसे ज़्यादा डरावना था।

    क्योंकि कहीं न कहीं, वो जानती थी —
    उनके पास शब्द होते, तो शायद वो सब कुछ बदल सकते थे।


    “ठाकुर हवेली की वापसी – जब रात पीछे छूटती है”

    स्थान – होटल रॉयल ग्लोरी से ठाकुर हवेली
    समय – सुबह 8:12

    होटल के मुख्य द्वार से बाहर निकलते ही — पाँचों भाई एक के बाद एक अपनी-अपनी रेंज रोवर्स की ओर बढ़े।
    उनके कपड़े अब फॉर्मल नहीं थे, लेकिन उनमें जो गरिमा थी, वो किसी मंत्री से कम नहीं लगती थी।

    विशवा — सबसे बड़ा, सबसे सधा हुआ।
    सफेद लिनन शर्ट, काले सनग्लासेस और चाल में एक रॉयल ठहराव।

    कबीर — लेखक नहीं, शब्दों को मोहरा बनाने वाला।
    स्लिम ब्लैक टी-शर्ट, जीन्स, और हाथ में बारीक सी चेन जिसे वो उँगलियों से घुमा रहा था।

    विक्राल — नाम जैसा ही, चुप और भीतर से हिंसक।
    नीले ट्रैक सूट में भी उसके चेहरे की कटिंग जैसे चाकू से बनी हो।

    रनधीर — हँसता था, लेकिन उसकी हँसी में भी बारूद था।
    बेज हुडी और गॉगल्स के पीछे छिपी आँखें सब देख रही थीं।

    मरण — सबसे छोटा, लेकिन सबसे क्रूर।
    सफेद शर्ट और ऊपर से काले गॉगल्स — उसके चेहरे पर मासूमियत थी, पर दिल में आग।

    तीन कारें हवेली की ओर चलीं —
    रास्ता छोटा नहीं था, लेकिन उन पाँचों के बीच कोई बात नहीं हुई।

    हर किसी के दिमाग़ में वो रात घूम रही थी।
    लेकिन किसी की नज़रों में अफ़सोस नहीं था —
    बस एक खामोश एलिगेंस, जैसे उन्होंने कुछ नया छू लिया हो… कुछ ऐसा जो उन्हें भी बदल सकता है, अगर वो चाहें।



    स्थान – ठाकुर हवेली

    ठाकुर हवेली का गेट खुलते ही तीनों गाड़ियाँ एक साथ अंदर घुसीं।

    हवेली कोई आम हवेली नहीं थी —
    हर दीवार पर राजस्थानी नक्काशी, हर कोने में सीसीटीवी और हर पेड़ के पीछे कोई न कोई तैनात।

    दोपहर की शुरुआत थी, लेकिन हवेली अब भी शांत थी।

    सिर्फ़ एक आवाज़ आई —
    "ओ हेलो! माय बॉयज़ आर बैक! व्हेयर डिड यू बर्न द मून लास्ट नाइट?"

    रोज़ी आंटी।

    हाइट में छोटी, लेकिन आवाज़ में बड़ी।
    गोरे चेहरे पर फैली उम्र की लकीरें भी उसकी आँखों की चमक नहीं रोक पाईं।
    सफेद बाल, माथे पर छोटा सा क्रॉस, और एप्रन पर लिखा — “Head of Hell’s Kitchen”

    पाँचों जैसे ही सीढ़ियाँ चढ़ने लगे, रोज़ी आंटी उनकी ओर बढ़ीं।

    रोज़ी:
    "यू बॉयज़... वॉट वाज़ द टाइम? ट्वेल्व़ फिफ़्टी फोर यू वॉक्ड आउट... एंड नाओ इट्स मोर्निंग! डोंट यू थिंक आई डिसर्व टू नो?"

    कबीर मुस्कुराया, उसकी आदत थी जवाब देने की।

    कबीर:
    “रोज़ी आंटी, अगर हम हर सवाल का जवाब देने लगे, तो दुनिया किताब बन जाएगी — और हमें शब्दों से चिढ़ है।”

    रोज़ी ने आँखें तरेरीं, लेकिन प्यार भरी।

    रोज़ी:
    "शट अप यंग मैन। यू ऑल थिंक यू आर गॉड्स गिफ्ट टू वुमन, हाँ? बट आई स्वेयर, समडे... आई विल बीट योर ग्लोरी विद माय स्लिपर!"

    रनधीर हँसा —
    “बस आंटी, आप की चप्पल में ही सबसे ज़्यादा आशीर्वाद होता है।”

    रोज़ी:
    "डोंट गिव मी योर शिट, रनधीर ठाकुर। यू ऑल आर बिहेविंग लाइक हाइनेस। आई सीन योर कार्स ऑन सीसीटीवी – स्टिल स्टॉप्ड टिल 7 एएम!"

    विशवा, जो अब तक चुप था, सीढ़ियों की ओर बढ़ा और बिना पीछे देखे बस इतना कहा:

    विशवा:
    “रोज़ी, कुछ रातें जवाब नहीं देतीं — और कुछ सवालों का वक़्त नहीं होता।”

    रोज़ी हक्का-बक्का।

    रोज़ी (धीरे से):
    "माय गॉड... दे आर बैक इन मोड..."

    विक्राल दरवाज़े की तरफ़ जाते-जाते बोला —
    “कॉफ़ी रूम में भेज दो। स्ट्रॉन्ग। एंड नो शुगर।”

    रोज़ी (झुंझलाकर):
    "नो शुगर, बट ऑल ऑफ यू आर फुल ऑफ़ स्वैग!"

    पाँचों भाई अब अपने-अपने कमरों में जा चुके थे।

    हवेली के बाकी नौकर उन्हें दूर से देखते, सलाम करते और फिर सिर झुका लेते।
    यहाँ किसी की मजाल नहीं कि ठाकुर ब्रदर्स से नज़र मिला सके —
    क्योंकि वो सिर्फ़ मालिक नहीं थे — राज थे।


    विशवा ने शर्ट फेंकी और खिड़की खोली।

    सामने गाडन, तलवारों की तस्वीरें, और एक पुराना बुलेट —
    यही उसकी दुनिया थी।

    कबीर ने डायरी उठाई —
    उस रात को लिखना चाहा, लेकिन शब्द साथ नहीं दे रहे थे।

    विक्राल बाथरूम में गया, पानी का नल खोला और आइने में अपनी आँखों में झाँका —
    कुछ अधूरा था, लेकिन वो मानने को तैयार नहीं था।

    रनधीर मोबाइल पर कॉल चेक कर रहा था —
    लेकिन हर नंबर मिस कर दिया गया था।
    और उसने जान-बूझकर कोई कॉल बैक नहीं की।

    मरण बिस्तर पर लेटा, छत की तरफ़ देख रहा था —
    उसके चेहरे पर एक अजीब सी शांति थी, लेकिन उसके हाथ में जो चाकू था, वो उसके अंदर के द्वंद्व की कहानी कह रहा था।



    बाहर – रसोई में रोज़ी आंटी

    रोज़ी आंटी अब स्टाफ़ को निर्देश दे रही थीं।

    रोज़ी:
    "मेक इट फास्ट! विशवा के लिए ब्लैक कॉफ़ी, कबीर के लिए डबल स्ट्रॉन्ग, रनधीर को बटर कुकीज चाहिए, विक्राल को नो टॉकिंग ज़ोन एंड मरण... गॉड सेव मी फ्रॉम देट वन!"

    सब नौकर मुस्कराए —
    क्योंकि वो जानते थे, इन पाँचों में अगर किसी ने आंटी का दिल जीता था, तो वो मरण ही था।

    लेकिन आज रोज़ी भी जान गई थीं —
    कुछ बदला है।
    इन भाइयों की चाल में, आँखों में… और शायद दिल में भी।



    ठाकुर हवेली की दीवारें चुप थीं —
    लेकिन उन पाँचों की एक रात की कहानी अब हवेली की नज़रों में दर्ज हो चुकी थी।

    अभी सुबह थी —
    पर कहानियाँ बस शुरू हो रही थीं।

  • 14. My Five cruel dangerous hubbies - Chapter 14

    Words: 1056

    Estimated Reading Time: 7 min

    अध्याय – "आईने के सामने – जब सच को चेहरे की तरह पहनना पड़े"

    स्थान – पलाश निवास, फ्लैट नं. 403 | समय – सुबह 9:15

    चौथी मंज़िल की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए अमिशा का शरीर थक कर चूर हो चुका था। बदन में अब भी उस रात की सिहरन बची थी — एक रात जिसने सिर्फ उसकी साँसें नहीं, उसका आत्म-सम्मान, उसकी मासूमियत, और उसका भरोसा लहूलुहान कर दिया था।

    कमरे के दरवाज़े पर खड़ी अमिशा की उँगलियाँ काँप रही थीं। पलाश निवास का यही फ्लैट, जहाँ वो अपने चाचा-चाची और कजिन के साथ रहती थी — उसे "घर" कभी नहीं लगा था। मगर आज, ये सिर्फ एक दरवाज़ा नहीं था — ये सीधा उस नरक का द्वार बन चुका था, जहाँ से उसने बीती रात अपनी ज़िंदगी की सबसे बड़ी लड़ाई लड़कर वापसी की थी।

    उसने काँपते हाथों से कुंडी खोली। दरवाज़ा चरमराया।

    जैसे ही भीतर कदम रखा, डायनिंग टेबल से एक भारी, घिनौनी आवाज़ तीर की तरह आई —

    "आ गई महारानी? अब तो बताओ, पूरी रात कहाँ गुलछर्रे उड़ाए?"

    वो नरेश मेहरा था — उसका चाचा, जो इस घर का मालिक नहीं, बल्कि अमिशा की आत्मा का सौदागर था। ऐनक के पीछे से उसकी आँखें सीधे अमिशा की देह को नाप रही थीं — जैसे वो अब भी उसकी ज़ुबान से "सौदा विफल होने की वजह" जानना चाहता हो।

    नव्या की साँसें रुक गईं।

    नरेश ने सिगरेट का कश लिया, फिर ऐनक को नाक से नीचे सरकाकर उसे देखा — आँखों में वही बेशर्मी, वही नीचता।

    "जिस आदमी को तेरे लिए भेजा था, उसका फोन आया — बोल रहा था तू होटल से भाग गई? क्या यही सीख दी है हमने तुझे?"

    अमिशा अब भी चुप थी। गले में सूखापन था, आँखें झुकी हुई थीं, और बैग अब भी कंधे से लटक रहा था — जैसे उसके भीतर अब कुछ भी रखने को बचा ही नहीं था।

    तभी रसोई से निकलती संध्या मेहरा — उसकी चाची — व्यंग्य से बोली:

    "होटल में बुलाया था उसे सिर्फ कुछ घंटों के लिए, पैसे भी तय थे — पर 'मैडम' वहाँ से गायब हो गईं? अब बता अमिशा, क्या वहाँ से भागने की कोई वजह थी, या तूने किसी और से सौदा कर लिया?"

    अमिशा की रूह काँप उठी।

    वो सच में यही पूछ रहे थे? उसे बेचकर, उसकी इच्छा के खिलाफ उसे एक अजनबी के पास भेजकर — और अब सवाल कर रहे थे?

    तभी, उसकी कजिन रिया, जो फ्रेश होकर अपने बाल सुखा रही थी, चाय की चुस्की लेते हुए तंज मारती है:

    "दीदी, इतना भी क्या नख़रा? होटल वाले अंकल कह रहे थे तुमने तो फन का मौका ही नहीं दिया! Seriously? थोड़ी प्रैक्टिकल बनो ना, 2025 चल रहा है!"

    फिर उसने आँख मारी और कहा —

    "या फिर वहाँ कोई और था जो ज़्यादा पसंद आ गया?"

    अमिशा की आँखें छलक उठीं। वो अब भी चुप थी — लेकिन उसके गले के पास पड़े हल्के नीले निशान, उसकी बिखरी चोटी और काँपती उँगलियाँ सबकुछ कह रही थीं।

    "जब पाल पोस कर इतना बड़ा किया है," नरेश गरजा, "तो थोड़ा सर्विस भी कर दे! कौन-सा हम तुझसे मंदिर में पूजा करवा रहे हैं!"

    संध्या हँसी — कटार जैसी हँसी थी वो।

    "कम से कम उस 'रीना' जैसी तो बन! जो हर बार खुश होकर जाती है, पैसे लाकर देती है — और तेरे जैसी बहुत शरीफ़ नहीं बनती!"

    अब अमिशा से सहा नहीं गया।

    उसने धीमी आवाज़ में, जैसे आत्मा फट रही हो, कहा:

    "मैं... मैं थक गई हूँ..."

    "थकी है?" रिया फिर हँसी, "क्यों? क्योंकि पूरी रात काम नहीं किया? अरे दीदी, तुम्हारे क्लाइंट को तो शिकायत है — बोल रहा था, 'इसने तो खुद को छुआ तक नहीं'। सच्चाई क्या है दीदी? क्या अब भी झूठ बोलोगी?"

    अमिशा ने सिर उठा कर पहली बार सीधे देखा।

    आँखों में आँसू थे — लेकिन उनमें अब डर नहीं, आक्रोश था।

    "मैंने कुछ नहीं किया..."

    "उसने जब मुझे छूने की कोशिश की, जब उसने जबरदस्ती करनी चाही… मैंने खुद को बचाया। जैसे-तैसे वहाँ से निकल गई। मुझे नहीं पता कैसे, लेकिन मैं बस… भाग आई।"

    नरेश ने जैसे ज़मीन पर मुक्का मार दिया।

    "हमने तुझे मौका दिया, पैसे कमाने का, और तू भाग गई? शर्म आती है तुझ पर!"

    "हमें शर्मिंदा कर रही है!" संध्या चीखी, "हमने तो तुझे मौका दिया उड़ने का — तू तो जैसे खुद को देवी समझने लगी है!"

    अमिशा के आँसू अब बह रहे थे। पर वो अब बहाव में नहीं, निर्णय में थी।

    उसका गला सूख चुका था, लेकिन दिल के भीतर एक आग जल रही थी — ऐसी आग जो अब बस जलना नहीं, जलाना चाहती थी।



    स्थान – अमिशा का कमरा

    वो धीरे-धीरे कमरे में दाखिल हुई, दरवाज़ा बंद किया और वहीं फर्श पर बैठ गई।

    कमरा पुराना था, एक पीली दीवार, दरारों वाला आईना और लकड़ी का टूटा बेड — लेकिन यही उसकी असली दुनिया थी, जहाँ वो अब भी खुद को बचा सकती थी।

    उसने अपने बालों की चोटी खोली, और हाथ अपने गले तक ले गई — जहाँ अब भी उस आदमी की पकड़ का निशान मौजूद था। वो कांप उठी।

    "मुझे क्या करना चाहिए?" — उसने खुद से पूछा।

    अंदर से जैसे एक आवाज़ आई —

    "जवाब मत दे… अब बस सहना बंद कर।"



    स्थान – बाथरूम, आईने के सामने

    अमिशा आईने के सामने खड़ी थी। उसकी आँखें थकी हुई थीं, होंठ फटे हुए, पर चेहरा... चेहरा अब बदल रहा था।

    उसने चेहरा धोया, टॉवल से पोंछा और आईने में खुद को गौर से देखा।

    "मैं कोई वस्तु नहीं हूँ..."

    "मैं कोई सौदा नहीं…"

    "मैं बस अब और चुप नहीं रहूँगी।"

    उसने टेबल से अपनी डायरी निकाली और कलम उठाई।

    डायरी में लिखा गया:


    "कल रात मुझे बेचा गया था।

    एक सौदे में —
    पैसे तय थे, समय तय था।

    मैं वहाँ पहुँची भी...
    लेकिन जब उसने मेरे ऊपर हाथ डाला,
    और मेरी साँसें थमने लगीं,

    तब मुझे समझ आया —
    कि मैं अगर आज भागी नहीं…
    तो कल मेरी लाश ही घर लौटेगी।

    इसलिए मैं भाग आई।
    क्योंकि मेरी जान की कीमत किसी भी रुपये से ज़्यादा है।

    आज मैं खुद से वादा करती हूँ —
    अब कोई और मेरे लिए फैसला नहीं करेगा।
    अब मैं आवाज़ बनूँगी।
    अपने लिए। और उनके लिए,
    जिनकी आवाज़ कभी सुनी नहीं जाती।"



    घड़ी की सुई चली — 10:12 AM

    कमरा शांत था। पर उस ख़ामोशी में अब एक नई आवाज़ थी —
    अमिशा की।

    वो अब टूटी हुई नहीं थी।

    वो जाग चुकी थी।

  • 15. My Five cruel dangerous hubbies - Chapter 15

    Words: 864

    Estimated Reading Time: 6 min

    अध्याय – "सहेली की चुप्पी – जब मन की बात होठों तक न आए"

    स्थान – "एवा लीगल कंसल्टेंसी" ऑफिस, लोअर परेल | समय – दोपहर 12:45 PM

    कंप्यूटर स्क्रीन पर शब्द टाइप हो रहे थे, पर अमिशा की आँखें हर शब्द के पीछे किसी और छवि को देख रही थीं।

    वो टाइप कर रही थी:


    “Client Contract Clause 7(b) amended to reflect...”



    लेकिन दिमाग में गूंज रहा था:


    “हमने तुझे पाला है... अब थोड़ा सर्विस भी कर दे...”



    उसने पल भर के लिए टाइपिंग रोकी। कलाई में दर्द था। रात की नींद टूटी-फूटी थी — आँखों में भारीपन था। पर उससे ज़्यादा भारी उसके भीतर की चुप्पी थी।

    "अरे... अमिशा!"

    पीछे से किसी ने उसके डेस्क पर दस्तक दी। वो चौंकी। गर्दन घुमा कर देखा — उसकी सहेली नेहा थी, जो उसकी ही टीम में थी, और अकसर लंच ब्रेक साथ में करती थी।

    "आज तो महारानी लेट आईं? Almost 10:45 बजे clock-in किया तुमने!"
    नेहा ने मुस्कराकर कहा, पर उस मुस्कान में थोड़ी चिंता भी छुपी थी।

    अमिशा ने हल्के से मुस्कराने की कोशिश की, पर होंठ खिंच नहीं पाए।

    "हां… बस… नींद नहीं आई रात भर। कुछ तबीयत भी ठीक नहीं थी," उसने सिर झुकाते हुए कहा।

    नेहा थोड़ा झुकी और धीरे से बोली:

    "Everything okay? You don’t look fine… और सुबह से कुछ बोल भी नहीं रही हो।"

    अमिशा ने नजरें चुरा लीं। वो कैसे बताती कि उसकी रात एक बुरे सपने से नहीं, बल्कि एक ज़िंदा नरक से भरी हुई थी?

    कैसे कहती कि जिस जगह से वो रोज़ ऑफिस आती है — वो घर नहीं, एक बंधकगृह है?

    "कुछ नहीं… बस… थोड़ा थकान है," उसने कम्प्यूटर की स्क्रीन की ओर देखते हुए कहा।

    नेहा कुछ कहने ही वाली थी कि तभी उनके सीनियर ने पास से गुज़रते हुए कहा:

    "Amisha, file 36 के नए कॉन्ट्रैक्ट्स की review summary कल सुबह तक चाहिए। Don’t be late this time."

    "Yes, sir," अमिशा ने तुरंत जवाब दिया।

    नेहा ने धीमे स्वर में कहा, "चलो, कॉफी ब्रेक लेते हैं? मैं जानती हूँ तुम स्ट्रॉन्ग हो, लेकिन कभी-कभी रोना भी ज़रूरी होता है। चलो न।"

    अमिशा ने कुछ पल सोचा, फिर धीरे से सिर हिलाया।



    स्थान – ऑफिस कैफेटेरिया | समय – दोपहर 1:00 PM

    कॉफी मशीन के पास खड़ी नेहा दो मग भर रही थी। एक में extra sugar, क्योंकि उसे पता था अमिशा मीठा पसंद करती है — शायद उसी मीठे में उसे दुनिया का कड़वापन कुछ देर के लिए धुँधला दिखे।

    टेबल पर बैठते हुए नेहा ने पहला सिप लिया और फिर बोली:

    "तुम्हारी आँखों में कुछ है अमिशा। जैसे नींद की कमी नहीं, भरोसे की दरार हो। तुम बताओगी नहीं, लेकिन मैं जानती हूँ — कुछ तो गड़बड़ है।"

    अमिशा कुछ क्षण चुप रही। उसकी ऊंगलियाँ मग के हैंडल को कसकर पकड़ रही थीं। कॉफी की गर्माहट जैसे उसकी उँगलियों से होते हुए सीधा दिल तक पहुँच रही थी — लेकिन उसे सुकून नहीं दे रही थी।

    "नेहा…" उसने धीरे से कहा, "अगर कोई... तुम्हारे सबसे करीब के लोग ही, तुम्हें सबसे ज़्यादा चोट पहुँचाएं, तो तुम क्या करोगी?"

    नेहा का चेहरा थोड़ा सख्त हुआ।
    "तुम्हारा मतलब... फैमिली से है?"

    अमिशा ने हाँ में सिर हिलाया, पर कुछ भी स्पष्ट नहीं कहा। बस खामोशी में उसके आँसू आँखों के कोनों तक पहुँचने लगे।

    "मैं सोचती हूँ नेहा… क्या मेरा अस्तित्व सिर्फ दूसरों के लिए है? जब मैंने मना किया… तो मैंने क्या गुनाह कर दिया?"

    नेहा उसका हाथ पकड़ती है।
    "अमिशा, तुम्हें मुझ पर भरोसा है?"

    अमिशा ने उसकी आँखों में देखा।
    "हां…"

    "तो बताओ। बताओ कि क्या हुआ। तुम्हारे शरीर से ज़्यादा तुम्हारी आत्मा थकी लग रही है। मैं तुम्हारे साथ हूँ।"

    वो उस पल बोलना चाहती थी। सब कुछ… चाचा के हाथ, चाची की हँसी, रिया का ताना… होटल का कमरा, उस आदमी की ज़बरदस्ती, और उसकी भागती हुई साँसें।

    पर शब्द… गले से बाहर नहीं निकल सके।

    "मैं बस थक गई हूँ, नेहा। बहुत ज़्यादा। और अब… अब लगता है कि अगर आज नहीं बोली, तो शायद कभी बोल ही नहीं पाऊँगी।"

    नेहा की आँखें अब चिंतित थीं।
    "क्या तुम्हें पुलिस में जाना चाहिए?"

    अमिशा ने सिर झुका लिया।
    "शायद। पर मैं अकेली हूँ। मेरा 'घर' ही मेरी सबसे बड़ी कैद है। और कानून… वो भी तो पहले सवाल करता है लड़की पर, फिर सुनता है।"

    "पर तुम्हें बोलना होगा। तुम अकेली नहीं हो। मैं तुम्हारे साथ खड़ी हूँ, चाहे जो भी हो।"

    कॉफी अब ठंडी हो चुकी थी, पर उस टेबल पर बैठी दो लड़कियाँ — एक घुटन से बाहर निकलने की हिम्मत जुटा रही थी, और दूसरी उसकी ढाल बन रही थी।

    नेहा ने आखिरी बार पूछा:

    "कब बोलोगी अमिशा?"

    कुछ देर की खामोशी के बाद, अमिशा ने कहा:

    "बहुत जल्द… पहले मैं खुद को फिर से उठाऊँ, फिर आवाज़ बनूँगी — न सिर्फ़ अपने लिए, बल्कि उनके लिए भी… जिनके पास अब भी आवाज़ नहीं है।"



    स्थान – वॉशरूम, ऑफिस | समय – दोपहर 1:25 PM

    अमिशा ने आईने में खुद को देखा — वही आँखें, वही थका चेहरा।

    पर आज उसके पीछे कोई डर नहीं खड़ा था — नेहा का हाथ उसके कंधे पर था।

    "अब जब तू बोलेगी," अमिशा ने आईने से कहा, "तो सिर्फ़ एक औरत नहीं, कई लड़कियों की चीख़ बनकर बोलेगी। और ये आवाज़ कोई दबा नहीं पाएगा।"

  • 16. My Five cruel dangerous hubbies - Chapter 16

    Words: 981

    Estimated Reading Time: 6 min

    अध्याय: "ख़ामोशी के पीछे जो लिखा था"
    स्थान: एवा लीगल कंसल्टेंसी – 17वीं मंज़िल, मुंबई
    समय: सुबह 11:42 AM

    कार्पेट पर ठहरती हल्की एसी की सरसराहट और टाइपिंग की आवाज़ों के बीच, नेहा का ध्यान बार-बार एक ही डेस्क की ओर जा रहा था। अमिशा की।

    वो वहीं थी – हमेशा की तरह — अपनी जगह पर, लैपटॉप के सामने, स्क्रीन की रौशनी चेहरे पर झिलमिलाती, उंगलियाँ कीबोर्ड पर जमी हुईं… लेकिन चल नहीं रही थीं।

    नेहा ने अपनी कॉफी का मग उठाया और कुछ सोचे बिना उसके डेस्क की तरफ बढ़ चली। उसके कदम धीमे थे, जैसे किसी अनकहे दर्द के आसपास चल रही हो।

    अमिशा की कुर्सी के पास आकर उसने अपनी कॉफी टेबल पर रखी और कुर्सी खींचकर बगल में बैठ गई।

    “तू अभी भी कुछ सोच रही है, है ना?” नेहा ने उसकी आँखों में झाँकते हुए पूछा।

    अमिशा ने जवाब देने की कोशिश की, "कुछ नहीं..."

    पर आवाज़ जैसे अपनी ही गहराई में कहीं खो गई।

    नेहा उसकी टेबल पर रखी नोटबुक पर उंगलियों से हल्के से थाप देती रही — वही पन्ना, जो सुबह से खुला था, लेकिन लिखा कुछ भी नहीं था।

    "देख अमिशा," उसने नज़रों से टकराते हुए कहा, "मैं तुझे ज़बरदस्ती नहीं बोलने को कहूँगी, पर तेरा चेहरा बता रहा है कि तू अब भी अंदर ही अंदर घुट रही है।"

    अमिशा ने धीरे से एक साँस छोड़ी, जैसे किसी भारी बोझ को बाहर निकालने की कोशिश कर रही हो।

    "नेहा… कुछ बातें ऐसी होती हैं जो ज़ुबान तक आते-आते दम तोड़ देती हैं।"

    "शायद," नेहा ने उसकी बात पकड़ी, "पर जब तक तू उन्हें बाहर नहीं निकालेगी, वो तुझे अंदर से खा जाएँगी।"

    दोनों के बीच एक ख़ामोशी छा गई — लेकिन वो ख़ामोशी असहज नहीं थी, बस थकी हुई थी।

    उसी वक़्त, ऑफिस की कॉरिडोर से आदित्य आता दिखाई दिया — हाथ में कॉफी का मग और चेहरे पर हमेशा वाली शरारती मुस्कान आज नदारद थी। उसकी आँखों में कुछ थकान थी — और शायद कुछ सवाल भी।

    "क्या चल रहा है, लड़कियों?" उसने करीब आकर धीमे स्वर में पूछा।

    नेहा ने उसकी ओर देखा, फिर हल्के से मुस्कराकर कहा, "बैठ न, कुछ ज़रूरी बातें चल रही हैं।"

    आदित्य ने पास वाली कुर्सी खींची और थोड़ी झिझक के साथ बैठ गया। तीनों अब एक ही टेबल के इर्द-गिर्द थे — उनके बीच में रखा था एक कॉफी मग, कंप्यूटर स्क्रीन पर जमी रौशनी… और ढेरों अनकहे शब्द।

    "तुम दोनों को भी झटका लगा न?" आदित्य ने सीधे बात शुरू की।

    नेहा ने सिर हिलाया, "पूरी कंपनी ही हिल गई है। एक झटके में टेकओवर… और वो भी ऐसे इंसान द्वारा जिसका कोई नाम ही नहीं जानता।"

    "Thakur. Industries…" नेहा ने धीरे से कहा, "बस तीन अक्षर, पर इतनी बड़ी हलचल…"

    अमिशा अब भी चुप थी।

    आदित्य ने उसकी ओर देखा — गौर से। जैसे वो चुप्पी को पढ़ने की कोशिश कर रहा हो।

    "तू बहुत चुप है आज। सब ठीक?" उसने पूछा।

    नेहा ने तुरंत जवाब दिया, “ठीक नहीं है। पर बोलेगी नहीं।”

    आदित्य उसकी तरफ देखने लगा — सीधा नहीं, बल्कि धीरे-धीरे, जैसे किसी तस्वीर को पढ़ रहा हो।

    "मैं भी बहुत चुप रहता हूँ अमिशा," उसने कहा, "पर इसका मतलब ये नहीं कि मैं सुनता नहीं हूँ।"

    अमिशा ने पहली बार उसकी आँखों में देखा — और वहाँ कोई सवाल नहीं था। न कोई दबाव, न कोई उत्सुकता। बस एक अजीब-सी शांति थी — जैसे कोई बिना माँगे समझ लेने की कोशिश कर रहा हो।

    "पता है," आदित्य ने एक हल्की साँस छोड़ते हुए कहा, "वो जो Thakurs. वाला मेल आया है — ‘Sometimes, the ones who see your silence…’ — पहली बार लगा कि कोई अपने स्टाफ की आवाज़ को सुनने का दावा कर रहा है।"

    "पर क्या पता ये भी दिखावा हो?" नेहा ने संदेह जताया।

    "हो सकता है," आदित्य ने सिर झुकाया, "पर कम से कम आवाज़ देने की कोशिश तो हुई। बाकी तो हम सब अब तक सिर्फ़ survival mode में ही थे।"

    कई क्षणों की चुप्पी फिर से उनके चारों ओर उतर आई।

    कॉफी ठंडी हो रही थी। स्क्रीन पर कर्सर अब भी टिमटिमा रहा था — किसी अधूरे वाक्य की तरह।

    फिर नेहा ने धीरे से पूछा, "अमिशा… क्या तुझे वो आदमी जाना-पहचाना लगा?"

    सवाल जैसे अचानक गिरा — और अमिशा थोड़ी चौक गई।

    वो कुछ क्षण सोचती रही, फिर बुदबुदाई, "शायद… या शायद मैं बस किसी पुराने चेहरे को नए में ढूँढ रही हूँ।"

    "हम सब यही करते हैं," आदित्य ने कहा, "हर नया इंसान किसी ना किसी पुराने जख्म की याद ले आता है।"

    एक पल के लिए उनकी आँखें टकराईं — अमिशा और आदित्य की। इस बार कोई हिचक नहीं थी।

    "तू अगर कभी कुछ बताना चाहे… तो मुझे मत समझ, सिर्फ़ एक दोस्त समझ कर बता देना। हम सबके पास अपने-अपने अंधेरे होते हैं। फर्क सिर्फ़ इतना होता है कि कोई उसे छुपा लेता है, और कोई उसमें रहना सीख जाता है।"

    अमिशा की आँखें थोड़ी भर आईं — नमी नहीं थी, पर किसी शब्दहीन पल में भावनाएँ ज़रा ज़्यादा स्पष्ट हो गईं।

    नेहा ने धीरे से अमिशा का हाथ पकड़ लिया — वो स्पर्श दोस्ती का था, या शायद एक मौन सहारा।

    कोई जवाब नहीं आया।

    बस अमिशा की उंगलियाँ थोड़ी देर के लिए थमीं…

    फिर हल्के से कांपीं।

    और उस कांपती उंगली में… शायद पहली बार भरोसे की लकीर उभरी थी।



    दूर – ऑफिस के एक कोने में,
    Thakurs कंपनी से आए एक नए प्रतिनिधि ने वही दृश्य देखा।
    अमिशा, नेहा और आदित्य — तीन लोग — एक मेज़ के चारों ओर, अपनी-अपनी चुप्पियों के साथ।

    उसने मुस्कराते हुए मोबाइल निकाला… और एक फोल्डर खोला:
    “Employee No. 38 – Amisha ”

    नीचे लिखा था:
    Status – “Still Observing”
    Remarks – “Potential Link to Case No. VSC-7/11”
    ये कोई और नहीं बल्कि वही पांचों ठाकुरस ब्रदर्स थे जिन्होंने अमिशा कि कमपनी एक झटके में खरीद ली थी | लेकिन अमिशा कुछ नहीं जानती थी वो इस वक़्त अपने घर के हालातों को लेकर बड़ी परेशान थी |

  • 17. My Five cruel dangerous hubbies - Chapter 17

    Words: 1123

    Estimated Reading Time: 7 min

    स्थान: एवा लीगल कंसल्टेंसी – 17वीं मंज़िल, कॉन्फ्रेंस ज़ोन A
    समय: दोपहर 1:26 PM

    कॉरिडोर में चलते हुए अमिशा की चाल धीमी होती जा रही थी।

    मोबाइल की स्क्रीन पर वो ईमेल अब भी टंगा हुआ था —
    “Come Alone. Now.”
    Subject line: No sender name.

    उसने स्क्रीन लॉक की, पर संदेश उसकी नसों में अब भी उकेरा हुआ था।

    हर क़दम के साथ उसका दिल तेज़ी से धड़क रहा था — जैसे कोई पुराना दरवाज़ा भीतर से खटखटा रहा हो।

    काँच की दीवारों के पार चमकते ऑफिस लाइट्स, मूविंग चेयर्स, लोगों की हँसी — सब कुछ धीमा लगता जा रहा था।

    और फिर…
    वो दरवाज़ा आया —

    Cabin A – Restricted Entry | By Appointment Only

    उसने एक पल रुककर गहरी साँस ली।
    हथेलियाँ पसीने से भीग चुकी थीं।
    और फिर — दस्तक।

    भीतर से कोई आवाज़ नहीं आई।

    हाथ अपने आप ही दरवाज़े की हैंडल की ओर बढ़ा —
    दरवाज़ा बिना आवाज़ के खुल गया।



    भीतर की दुनिया

    कमरे में घुसते ही अमिशा को एक सिहरन ने घेर लिया।

    एक गोल टेबल, उस पर एक पुरानी फाइल, और चारों ओर पाँच कुर्सियाँ —
    हर एक पर बैठा था… एक चेहरा।

    पाँच भाई।
    ठाकुर ब्रदर्स।

    लेकिन वो नाम अब सिर्फ कानूनी काग़ज़ों में नहीं थे —
    वो सामने थे, एक-एक ज़िंदा उपस्थिति की तरह।

    और उनका पहनावा… उनकी उपस्थिति… इतनी सधी हुई, इतनी अलग — कि लगता था जैसे वो किसी कोर्टरूम से नहीं, किसी मनोवैज्ञानिक युद्धभूमि से आए हों।



    1. विशवा ठाकुर
    सफ़ेद सिल्क कोट, एक हाथ में मोरपंखी रुमाल।
    चेहरे पर चुप्पी थी, पर आँखों में — निर्णय की धार।

    उनकी आँखें एक बार में किसी के विचारों की तह तक जा सकती थीं।



    2. कबीर ठाकुर


    नavy blue का slim-fit सूट, टाई ढीली, पर पॉकेट स्क्वायर एकदम करीने से रखा हुआ।
    वो कुर्सी पर ऐसे बैठा था, जैसे उसे सब पता हो — पर वो किसी जिज्ञासा से ही खेलना चाहता हो।



    3. विकराल ठाकुर

    उसका नाम जितना डरावना, उसके हावभाव उससे भी ज़्यादा।
    ब्लैक टी-शर्ट और militry style जैकेट, बूट से लेकर कलाई की घड़ी तक सब कुछ घुटा हुआ, सटीक।
    उसकी गर्दन हल्की झुकी थी — जैसे किसी शिकार की तैयारी में।



    4. रणधीर ठाकुर

    Grey turtle-neck और खाकी ट्रेंचकोट, आँखों पर reading glasses।
    एक वैज्ञानिक की तरह — जो हर हावभाव का विश्लेषण करता हो।
    वो ज़्यादा कुछ नहीं कर रहा था, बस लगातार अमिशा की उंगलियों की हरकत देख रहा था।



    5. मरण ठाकुर
    सबसे रहस्यमयी।
    White linen shirt, खुले दो बटन, कलाई पर एक लाल धागा।
    लेकिन उसकी आँखें…

    वो नज़र… अमिशा को वहीं रोक देने के लिए काफ़ी थी।



    वो लोग कुछ नहीं बोले।

    उनकी नज़रों के नीचे, अमिशा के भीतर कोई पुराना दरवाज़ा फिर खुलता सा लगा।

    उसने अपने आप को कड़ा किया — और बिना कुछ बोले, बस एक कदम आगे बढ़ाई।

    लेकिन मन के भीतर एक ही सवाल गूँज रहा था —
    “हम पहले मिल चुके हैं… ना?”

    पर ये सवाल आवाज़ में नहीं बदला।
    क्योंकि सामने बैठी पाँचों परछाइयाँ… अजनबी बनने का अभिनय कर रही थीं।



    "Please sit, Miss Nair."
    मरण ने पहली बार बोला — और वो आवाज़ जैसे धागे की तरह उसकी रीढ़ में उतर गई।

    वो बैठी।

    टेबल पर रखी फाइल पर उसका नाम लिखा था:
    Confidential: Employee No. 38 – Amisha Nair

    उसे जैसे अपनी ही कहानी तीसरे व्यक्ति की तरह पढ़ी जा रही थी।



    कबीर ने फाइल खोली — धीरे, जैसे किसी गहरे ज़ख्म को छुआ हो।

    रणधीर ने एक पेन उठाया, और टेबल पर रखा —
    ध्वनि इतनी सीधी थी कि कमरे की हवा में रेखा खिंच गई।

    विकराल ने एक फाइल को सिर के पास घुमाया — शायद पुराना डेटा था।

    विशवा ने हल्के से सिर झुकाया, लेकिन उसके चेहरे पर एक शब्द नहीं।



    "हम पहली बार मिल रहे हैं, है न?"
    फिर से वही मरण।
    वही सीधी, सधी, लेकिन कुछ छुपी हुई आवाज़।

    अमिशा का दिल एक पल को थम गया।

    वो एक खिड़की के पार देखना चाहती थी — पर खिड़की भी तो उन्हीं की आँखें थीं।

    "जी…"
    उसका स्वर काँपा।

    लेकिन उसके भीतर कुछ बोल रहा था —
    "झूठ मत बोलो… तुम इन्हें जानती हो… तुम इनसे मिल चुकी हो… "

    पर वह ‘कहीं’ धुंध में लिपटा हुआ था।



    टेबल पर फाइलें, दस्तावेज़, पुराने ईमेल्स — सब उसके सामने रखे थे।

    पर कुछ पन्ने… अब भी पलटे नहीं गए थे।

    शायद इसलिए, क्योंकि वे अब भी लिखे नहीं गए थे।

    या शायद…
    क्योंकि वो पहले ही किसी सपने में लिखे जा चुके थे।



    कमरे के पार काँच की दीवारों के उस पार, बाकी दुनिया चलती रही।

    लेकिन इस पाँच कोणों वाली टेबल के भीतर,
    एक दूसरी कहानी चल रही थी।

    एक कहानी जो अब तक खामोशी में दर्ज थी —
    पर अब…
    बोलने वाली थी।





    कॉन्फ्रेंस ज़ोन से कुछ मीटर दूर, कॉरिडोर के अंत में वॉशरूम का दरवाज़ा धीरे से खुला।

    अमिशा अंदर आई और सीधे वॉशबेसिन के पास जाकर थम गई।
    आईने में उसका चेहरा — तनाव से भरा, लेकिन आँखों में सवाल उबल रहे थे।

    उसने दोनों हथेलियाँ ठंडे पानी से भरीं और चेहरे पर छपका दिया।
    पानी की बूँदें उसकी पलकों से लटक गईं, लेकिन भीतर जो उबाल था, वो शांत नहीं हुआ।

    “क्या ये सब अचानक हुआ?”
    उसने अपने मन में पूछा।
    “या फिर बहुत पहले से तय था?”

    आईने में खुद को देखकर वो कुछ देर चुप रही।

    उसकी कंपनी — एवा लीगल कंसल्टेंसी — जो महीनों से घाटे में चल रही थी,
    जिसकी हिस्सेदारी बिकने वाली थी, और उसके सीईओ तक बर्खास्त हो चुके थे,
    वो अचानक एक प्राइवेट बिड में बिक गई।

    और खरीदार?

    ठाकुर ब्रदर्स।
    पाँच भाई, जिनका नाम उसने फाइलों में भी कभी नहीं देखा था —
    जिनका कोई कानूनी प्रतिनिधित्व नहीं था एवा के साथ —
    फिर वो कैसे और क्यों आए?

    "और क्यों…"
    उसका गला सूखने लगा।

    "क्यों मुझे इस मीटिंग में अकेले बुलाया गया?"

    उसके दिल की धड़कन बढ़ने लगी।
    पसीने की एक बूँद उसकी गर्दन से नीचे लुढ़की।

    तभी… उसकी जेब में रखा फोन वाइब्रेट हुआ।

    स्क्रीन पर एक अनजान नंबर था —
    कोई नाम नहीं, सिर्फ़ नंबर: +91-44-XXXXXXX

    उसने काँपती उंगलियों से कॉल उठाया।
    "ह… हैलो?"

    कुछ नहीं बोला गया —
    पर दूसरी तरफ़ से कोई साँस ले रहा था… धीमी, ठंडी साँस।

    फिर एक बेहद धीमी आवाज़ आई —
    "वो पाँचों तुम्हारे अतीत को जानते हैं… और तुम भूल चुकी हो…"

    अमिशा की आँखें फैल गईं।
    "क-कौन हो तुम?"

    लाइन कट गई।

    फोन हाथ से गिरते-गिरते बचा।

    आईने में वो खुद को फिर देख रही थी —
    लेकिन अब उसे ऐसा लगा जैसे उसकी परछाईं भी उससे कुछ छुपा रही हो।

    उसने गहरी साँस ली, होंठ काटे और खुद को सँभालते हुए वॉशरूम से बाहर निकली।

    अब दरवाज़े के उस पार वो पाँचों नहीं थे —
    वो उसकी कहानी के ऐसे पन्ने थे, जो कभी जलाए गए थे… पर राख अब भी ज़िंदा थी।

  • 18. My Five cruel dangerous hubbies - Chapter 18

    Words: 1358

    Estimated Reading Time: 9 min

    अध्याय : ताने, थकान और राख की ख़ामोशी

    दरवाज़ा खोलते ही एक तेज़ आवाज़ कानों में पड़ी—

    “ओह हो! रानी घर आ गई, अब काम शुरू होगा!”

    अमीषा ने अपनी एड़ी से सैंडल उतारे, बैग कंधे से उतारकर सोफे के कोने में रखा, और कोई जवाब दिए बिना सीधे किचन की तरफ़ बढ़ गई।

    पीछे से उसकी चाची की आवाज़ आई, हमेशा की तरह तीखी और चुभने वाली—
    “दिनभर ऑफिस में क्या करती है, पता नहीं। घर आकर दो बर्तन भी नहीं उठते इस लड़की से। जैसे बड़ी कोई अफसर बन गई हो।”

    चाचा ने अख़बार से नज़रें हटाई, और एक कड़वी मुस्कान के साथ जोड़ा,
    “अरे रहने दो, इनके जैसे लोग बस नाम के कमाने वाले होते हैं। असल में तो सारा बोझ हमें ही उठाना पड़ता है। देख लो, गैस का सिलेंडर भी खत्म हो गया है… कौन भरवाएगा?”

    "मैं करवा दूँगी," अमीषा ने धीमे से कहा।

    “क्या कहा?” चाची ने ज़ोर से पूछा।

    “मैं कल ऑफिस जाते हुए सिलेंडर बुक करवा दूँगी,” उसने साफ़ आवाज़ में दोहराया।

    “कल?” चाची का ठहाका गूंजा, “तब तक हम सब उपवास रखें क्या? कोई रोज़ा चल रहा है क्या हमारा?”

    किचन में सब कुछ अस्त-व्यस्त था। सिंक में बर्तन भरे थे। गैस खत्म होने की वजह से दोपहर की झूठन तक फ्रिज में नहीं गई थी।

    “रिया!” चाची ने अपनी बेटी को आवाज़ दी, “तू तो दिन भर घर में थी, थोड़ा हाथ बंटा देती बहन का।”

    रिया, जो लिविंग रूम में सोफे पर बैठी टीवी देख रही थी, बोली —
    “मम्मी प्लीज़, मैं तो थक गई आज। कॉलेज का इतना होमवर्क था और ऊपर से मेरी स्किन भी बहुत ड्राय हो रही है। हाथ में साबुन नहीं लगता अब। बहन जी तो कमाती हैं ना, वही करें सब!”

    अमीषा ने खुद को अंदर से जकड़ा।
    गुस्सा, थकान, अपमान — सब एक साथ उसके कंधों पर चढ़कर बैठ गए थे।

    “रोटी बना दूँ?” उसने धीरे से पूछा।

    “अब पूछ रही हो? जब सब भूखे मर जाएँ तब रोटियाँ बनेंगी?” चाची बड़बड़ाती हुई बोली, “और हाँ, आटा गूंथ कर रखना, मैं नहीं करूँगी कल।”

    चाचा ने फिर ताना मारा,
    “जिस दिन इसने कुछ ढंग से किया ना, मैं इसे अपनी प्रॉपर्टी में हिस्सा दे दूँगा। लेकिन नहीं… मैडम तो बस ऑफिस जाकर AC में बैठती हैं। घर का काम तो नौकरों के लिए होता है ना?”

    रिया ने झूठी सहानुभूति जताई,
    “वैसे दीदी, आप इतनी समझदार हो, फिर भी कभी टाइम मैनेजमेंट नहीं सीख पाईं। थोड़ा सुबह जल्दी उठ जाया करो ना। कम से कम चाय तो बनाओ सबके लिए।”

    चाची हँसते हुए बोली,
    “अरे ये चाय नहीं बनाती, ये तो सोचती है वो ठाकुरस ब्रेदस आएँगे, घोड़े पे बैठकर और इसे उठा ले जाएँगे। जिनकी आज के न्यूज़ पेपर में तस्वीर थी”

    सन्नाटा।

    उस नाम का ज़िक्र फिर से…

    अमीषा की साँस अटक गई।

    उसने सबकी बातों को अनसुना करते हुए आटा गूंथना शुरू किया।

    हाथों में चिपका आटा और कानों में चिपके ताने — दोनों उससे धीरे-धीरे उसका सब्र छीन रहे थे।

    कुछ देर बाद जब वो रोटियाँ बेल रही थी, तभी रिया पास आई और खड़े-खड़े बोली,
    “दीदी, एक बात बोलूँ बुरा तो नहीं मानोगी?”

    अमीषा ने बिना नज़र उठाए कहा, “हाँ, बोलो।”

    “तुम्हें लगता है ना कि हम तुम्हारे दुश्मन हैं, तुम्हें ताने मारते हैं, लेकिन सच बताऊँ? तुम ना थोड़ी ड्रामेबाज़ हो। हर चीज़ का इमोशनल सीन बना लेती हो। देखो ना, मम्मी-पापा कुछ भी कहें, वो तो घर की भलाई के लिए ही होता है। तुम अगर थोड़ा स्माइली फेस रखो, तो शायद माहौल भी ठीक हो जाए।”

    अमीषा ने रोटी पलटी और बहुत शांत स्वर में बोली —
    “मैं स्माइली फेस रखती हूँ, रिया। हर दिन। ऑफिस में, किचन में, इस ड्रॉइंग रूम में… बस आईने के सामने वो मुस्कान टिकती नहीं।”

    रिया का चेहरा उतर गया।

    “मतलब क्या?”

    “मतलब यही कि मैं मुस्कराती तो हूँ… बस खुद से झूठ बोलकर।”

    चाची ने झल्लाकर कहा,
    “अब ये फिलॉसफी वाला मोड फिर से चालू हो गया। ज़रा सी बात कहो, तो दीदी बन जाती है देवी दुर्गा। चल हट, रोटी पर ध्यान दे।”

    **

    रात दस बजे के करीब, सब खाना खाकर अपने-अपने कमरों में जा चुके थे।

    अमीषा अकेली किचन समेट रही थी।

    तभी वॉशिंग मशीन की लाइट देखकर उसे याद आया — चाची का कहा हुआ काम — सारे गंदे कपड़े धोना।

    थकी हुई आँखों से उसने मशीन ऑन की, बालों का जूड़ा बाँधा और बर्तनों में झुकी ही थी कि...

    एक बार फिर — फोन वाइब्रेट हुआ।

    उसी नंबर से।

    +91-44-XXXXXXX

    उसका दिल जो दिनभर इन तानों और बोझ के नीचे दबा था — अब ज़ोर से धड़कने लगा।

    उसने कॉल उठाया।

    “हेलो?”

    इस बार आवाज़ साफ़ थी।

    “उन पाँचों ने तुम्हारी ज़िंदगी के पांच सालों को खरीदा है, अमीषा… और वो कीमत तुम अब चुकाओगी।”

    "क्या बकवास है ये?"

    “तुम्हें याद नहीं, पर उन्होंने तुम्हें चुना था। तुम्हारे 'हाँ' कहने से बहुत पहले।”

    “कौन हो तुम?”

    “जो जल गया था, वही राख बनकर लौट रहा है… सिर्फ़ तुम्हारे लिए।”

    लाइन कट गई।

    इस बार उसने फोन जमीन पर फेंका नहीं।

    बल्कि उसे कसकर पकड़ा और अपने कमरे में जाकर दरवाज़ा बंद कर लिया।

    आईने के सामने खड़ी होकर खुद को देखा।

    बाल बिखरे थे, आँखें सूजी हुई थीं, होंठ सूखे और जले हुए से लगे।

    पर सबसे डरावनी बात?

    आईने में उसकी परछाईं मुस्कुरा रही थी — जबकि वो खुद बिलकुल शांत खड़ी थी।


    रात ढल चुकी थी, लेकिन नींद अमीषा की आँखों से कोसों दूर थी। कमरे में हल्का-सा अंधेरा था, खिड़की से आती चाँदनी धीरे-धीरे उसकी तकिए पर फैल रही थी। वो करवट बदलती रही, पर मन बेचैन था — जैसे किसी अनकहे स्पर्श की प्रतीक्षा कर रहा हो।

    आँखें मूँदते ही एक सपना उसे घेरने लगा — रहस्यमय, लेकिन अजीब रूप से आकर्षक। वो एक आलीशान, मगर धुंध से घिरी हवेली में थी। सफ़ेद संगमरमर के फर्श पर हल्की धूल थी और उसके सामने खड़े थे वही पाँचों — ठाकुर ब्रदर्स — स्याह सूट में, गहरी आँखों से उसे देख रहे थे। उनकी मौजूदगी में गर्मी भी थी और एक अनजानी सिहरन भी।

    उनमें से एक ने धीरे से आगे बढ़कर उसके बालों की एक लट को कान के पीछे सरकाया। उसका स्पर्श धीमा था, मगर दिल की धड़कन बढ़ा देने वाला। दूसरे ने उसकी हथेली थामी — जैसे उसे कोई वादा याद दिला रहा हो जिसे अमीषा भूल चुकी थी। तीसरा उसके बिल्कुल पास आया और उसके कान के पास फुसफुसाया —
    "तुम हमें नहीं पहचानती, लेकिन तुम्हारा शरीर हमें जानता है…"

    उसके रोंगटे खड़े हो गए। वो चाहकर भी खुद को पीछे नहीं खींच पाई। चौथे ने उसकी आँखों में देखा और कहा,
    "हम तुम्हारे अतीत की परछाईं नहीं हैं, हम तुम्हारी रगों में दौड़ते हैं..."

    पाँचवाँ चुप था, पर उसकी आँखों में ऐसी गहराई थी जो अमीषा को अपनी ओर खींच रही थी — जैसे वो जानता था कि वो हर रात उसकी नींद चुराता रहा है।

    अमीषा अब उनके बीच थी। कोई उसे थामे हुए था, कोई उसकी गर्दन पर अपनी उंगलियों के हल्के दबाव से कुछ कह रहा था। और उन सबके बीच, वो खुद को खोती जा रही थी — किसी भाव में, किसी चाह में… जो बहुत पहले से जगी हुई थी।

    लेकिन तभी कुछ टूटता है — एक आवाज़, कोई हल्का झटका — और उसकी आँख खुल जाती है।

    कमरे में वही सन्नाटा था, वही आधी खुली खिड़की और वही चाँदनी।

    पर उसका शरीर पसीने से भीगा हुआ था। दिल तेज़ धड़क रहा था, और होंठ सूखे हुए थे — जैसे उसने किसी अनजानी आग को छू लिया हो।

    **

    सुबह —

    घड़ी ने छह बजाए थे। मोबाइल की स्क्रीन पर अलार्म बंद करते हुए अमीषा कुछ देर तक बस बिस्तर पर बैठी रही।

    सपने की छवि अब भी उसकी आँखों में धुँधली-सी तैर रही थी। उसने एक गहरी साँस ली, खुद को संयमित किया और बिस्तर से उठ गई।

    किचन से चाची की आवाज़ आ रही थी —
    "चाय बनी कि नहीं? रोटियाँ बेलनी हैं मुझे, जल्दी आना!"

    अमीषा ने आँखें मूँदीं।
    कपड़े उठाए। और चल दी उसी दिनचर्या की ओर — लेकिन अब उसके भीतर कुछ बदल चुका था।
    उसकी नींद में जो दस्तक दे गए थे… वो सपने नहीं थे — वो चेतावनी थी, या फिर कोई बुलावा।

    जो भी था, वो अब पीछे नहीं हटेगा।

  • 19. My Five cruel dangerous hubbies - Chapter 19

    Words: 632

    Estimated Reading Time: 4 min

    अध्याय : सौदे की स्याही

    सुबह की हल्की धूप खिड़की से फर्श पर बिखरी थी। अलार्म कब बंद हुआ, उसे याद नहीं। सिर भारी था और नींद अधूरी, लेकिन उसे देर नहीं करनी थी।

    अमीषा ने शांत भाव से ब्रश किया, कपड़े चुने — वही ब्लैक फॉर्मल शर्ट और ग्रे ट्राउज़र, जिसमें वह खुद को सबसे ज़्यादा सुरक्षित महसूस करती थी। मेकअप नहीं किया, बस हल्की सी लिप बाम लगाई। बालों को सधी हुई पोनी में बाँधा।

    आज उसके मन में कोई स्पष्ट विचार नहीं था — बस एक अनजानी बेचैनी साथ चल रही थी।

    बिना किसी को बताए वो घर से निकली और टैक्सी में बैठ गई। शहर का शोर हमेशा की तरह तेज़ था, लेकिन उसके भीतर सब कुछ मौन था।

    कुछ ही देर में वह ऑफिस के गेट पर पहुँची।

    आईडी स्कैन करते ही अंदर जाने वाला दरवाज़ा टिक की आवाज़ के साथ खुला।

    उसे किसी से बात करने का मन नहीं था, लेकिन जैसे ही वो अपनी सीट की ओर बढ़ी, एक असिस्टेंट उसके सामने आ खड़ा हुआ।

    "मैम, आपको केबिन में बुलाया गया है। इमीजिएटली।"

    "किसने बुलाया है?" अमीषा ने शांत स्वर में पूछा।

    "वो पाँचों... सर।"

    उसके कदम वहीं ठिठक गए।

    एक पल को उसे ऐसा लगा जैसे उसके पैरों के नीचे की ज़मीन दरक गई हो।

    "अभी?" उसने बस इतना कहा।

    "जी, अभी," असिस्टेंट धीमे से बोला और आगे बढ़ गया।

    **

    अमीषा धीरे-धीरे उस केबिन की ओर बढ़ी — ऑफिस के सबसे भीतर वाले हिस्से में, जहाँ कभी-कभी ही कोई क्लाइंट मीटिंग होती थी। वहाँ की दीवारें साउंडप्रूफ थीं, और हर कोना चमकदार काँच से घिरा हुआ।

    उसके दिल की धड़कनें जैसे कदमों से तेज़ चल रही थीं।

    जब उसने दरवाज़ा खोला — एक गाढ़ी, मादक सी खामोशी ने उसका स्वागत किया।

    अंदर एक गोल टेबल थी।

    और टेबल के दूसरी ओर — वो पाँचों बैठे थे।

    पाँचों भाई।

    ठाकुर ब्रदर्स।

    उन्हीं जैसे जिनकी परछाइयाँ वो सपनों में देखती रही थी — लंबे, सधे हुए, शांति से बैठे… पर उनकी आँखों में ऐसा ठहराव था जैसे हर एक ने किसी भविष्य की कहानी पहले ही पढ़ ली हो।

    कमरे में सुगंध भरी थी — तेज़, लेकिन काबू में।

    अमीषा ने किसी तरह खुद को सँभालते हुए कहा, “आपने बुलाया?”

    उनमें से सबसे आगे बैठे विशवा ने — उसकी ओर देखा।

    "बैठो," उसकी आवाज़ धीमी मगर सख्त थी।

    वो चुपचाप बैठ गई।

    टेबल के बीचोंबीच एक काली फाइल रखी थी — बंद। उसकी सतह चमकदार थी, लेकिन उस पर कोई नाम नहीं लिखा था। सिर्फ एक सुनहरा चिन्ह — अजीब, दुर्लभ।

    "ये क्या है?" अमीषा की आवाज़ खुद उसकी समझ में नहीं आई — डरी हुई, लेकिन जिज्ञासु।

    दूसरे भाई कबीर ने मुस्कुराते हुए कहा,
    "तुम्हारी तक़दीर।"

    "अगर तुम हाँ कहोगी," विक्राल ने जोड़ा, "तो तुम्हारी ज़िंदगी हमारी हो जाएगी — हमारे बनाए हर सपने की हिस्सा।"

    "और अगर ना कहोगी…" चौथा भाई रणधीर आगे झुका, "तो तुम्हारे पास दूसरा मौका नहीं होगा।"

    अमीषा की साँस अटक गई।

    "ये सब… मज़ाक लग रहा है।" उसने फुसफुसाते हुए कहा।

    "मज़ाक तो अब तक था," पाँचवे मरण की आवाज़ गूँजी, "अब कहानी शुरू होगी।"

    कमरे की रौशनी और अधिक तीखी हो गई थी, या शायद उसके भीतर डर गहरा रहा था।

    "इस फाइल को खोलने से पहले एक बात समझ लो," सबसे बड़े भाई ने कहा, "ये सिर्फ दस्तावेज़ नहीं है — ये एक रास्ता है। अगर कदम बढ़ा लिया… तो पीछे मुड़ना मुश्किल होगा।"

    अमीषा की नज़रें फाइल पर जमी थीं।

    उसने अब तक उसे छुआ भी नहीं था।

    उसके भीतर कुछ काँप रहा था — डर, विस्मय, या फिर वो सपना जो अब सच्चाई की शक्ल लेता जा रहा था।

    उसने धीमे से पूछा — "क्या है इसमें?"

    एक क्षण का सन्नाटा।

    फिर जवाब आया —

    "खून से लिखी हुई तुम्हारी क़िस्मत।"

    **

    फाइल अब भी बंद थी।

    लेकिन उसकी धड़कनें खुल चुकी थीं।

    **

  • 20. My Five cruel dangerous hubbies - Chapter 20

    Words: 1020

    Estimated Reading Time: 7 min

    अध्याय : फाइल के भीतर — पांच नाम, एक सौदा


    केबिन की खामोशी अब स्याही जैसी गाढ़ी होती जा रही थी।

    अमीषा की उंगलियाँ फाइल की धार पर रुकी हुई थीं, जैसे किसी अजनबी दरवाज़े को खोलने से पहले की झिझक। पाँचों ठाकुर ब्रदर्स अब भी उसी संतुलित मुद्रा में बैठे थे — गहरे, गम्भीर, और बिलकुल निश्चल। किसी ने हाँ नहीं की, किसी ने ना नहीं की… सब कुछ उसकी एक हरकत पर टिका था।

    एक पल को अमीषा की आँखों के सामने पापा की वो फोटो कौंध गई — जिसमें वो उन्हीं में से किसी के साथ हाथ मिला रहे थे।
    “भरोसे की डील — एक बेटी की ज़िम्मेदारी।”

    उसने गहरी साँस ली… और धीरे से फाइल खोली।

    **

    पहला पन्ना — सादा, मगर दस्तावेज़ की भाषा में लिखा हुआ एक अनुबंध।

    शीर्षक पढ़कर ही उसकी पलकें काँप गईं:

    "Contractual Matrimonial Bond: Between Miss Amisha and the Thakur Brothers"
    (Code Name: Panch-Patnivrata Sandhi)

    अमीषा की आँखों में जैसे अंधेरा छाने लगा।

    उसने जल्दी से दूसरा पन्ना पलटा — उम्मीद थी कि कोई गलती हो, कोई ट्रिक हो, लेकिन नहीं… हर पन्ना एक ही बात दोहरा रहा था।
    "यह अनुबंध इस बात को सुनिश्चित करता है कि मिस अमीषा सिन्हा को ठाकुर ब्रदर्स — विशवा ठाकुर, कबीर ठाकुर, विक्राल ठाकुर, रनधीर ठाकुर और मरण ठाकुर — से वैधानिक विवाह करना होगा। विवाह की तिथि, विधि और स्थान ठाकुर परिवार द्वारा निर्धारित होंगे। विवाह उपरांत, अमीषा को एक पत्नी के रूप में अपने कर्तव्यों का निर्वाह करना होगा — मानसिक, सामाजिक और दैहिक रूप से।"

    उसका सिर घूमने लगा।

    फाइल के नीचे बने कॉलम में लिखा था —
    “In exchange of financial freedom, family security, and immunity from past legal complications.”

    "ये… ये क्या बकवास है?" उसके गले से स्वर तकलीफ़ से निकला।

    उसने सिर उठाकर देखा — पाँचों की आँखें अब भी उस पर ही टिकी थीं, जैसे उन्होंने सब पहले से तय कर रखा हो।

    "क्या मतलब है इसका?" उसकी आवाज़ काँपी, "तुम पाँचों… मुझसे शादी करना चाहते हो? एक साथ? और ये सब… लिखा हुआ? कानूनी दस्तावेज़?"

    विशवा — जो सबसे शांत और गंभीर था — बोला, "ये कोई साधारण विवाह नहीं है, अमीषा। ये उत्तराधिकार है।"

    कबीर ने जोड़ा, "हमारे परिवार की परंपरा है — जब पाँचों उत्तराधिकारी अलग-अलग जन्म लेते हैं, तो शक्ति एक ही स्त्री से बंधकर पूर्ण होती है। और वह स्त्री… अब तुम हो।"

    "तुम लोग पागल हो!" अमीषा उठ खड़ी हुई, उसकी साँसें तेज़ हो गई थीं, चेहरा गर्म और आँखों में आँसू की महीन परत।

    "ये किस जमाने की बात कर रहे हो? पांच-पांच शादी? और फिर पति होने का सुख? क्या मुझे कोई… कोई चीज़ समझ रखा है?"

    विक्राल — जो थोड़ा विनोदी स्वभाव का था — मुस्कुराया, "तुम कोई चीज़ नहीं हो, अमीषा। तुम कड़ी हो… जो हमें जोड़ती है।"

    "बस करो!" उसने ज़ोर से कहा और गुस्से से फाइल उठाई।

    "ये… ये सब पढ़कर मुझे घिन आ रही है। तुम्हें लगता है मैं इस पर दस्तख़त कर दूँगी? इस बेतुके, अपमानजनक, दकियानूसी समझौते को मैं स्वीकार करूँगी?"

    रनधीर, जो अब तक चुप था, पहली बार बोला — उसकी आवाज़ में कोई एहसास नहीं था, बस एक ठंडा तटस्थपन —
    "तुम्हारे पास और कोई रास्ता नहीं है।"

    "मुझे तुम्हारा रास्ता नहीं चाहिए!" अमीषा ने फाइल उनके सामने फेंक दी — इतने ज़ोर से कि कागज़ फिसलकर टेबल के उस पार गिर गए।

    "मैं कोई गुड़िया नहीं हूँ, जिसे पाँच अमीर औरतों की तरह सजाकर रखा जाए! और ये जो 'दायित्व', 'परंपरा', 'दैहिक कर्तव्य' की बातें कर रहे हो ना — ये सब उस मानसिक बीमारी की निशानी है, जिसे तुम ठाकुर विरासत कह रहे हो।"

    पल भर को सन्नाटा छा गया।

    सबसे बड़े भाई विशवा ने उसे गौर से देखा — न तेज़ी से, न क्रोध से — बस एक गहराई से जो उसे असहज कर गई।

    "तो तुम मना कर रही हो?" उसने पूछा।

    "हाँ। और सिर्फ मना नहीं कर रही — मैं तुम्हारी ये बेहूदा फाइल लेकर बाहर जाकर तुम्हारा नाम खराब कर दूँगी! देखती हूँ तब क्या करते हो!"

    "तुम बाहर नहीं जा सकतीं," मरण बोला, इस बार स्वर में सख्ती थी, "क्योंकि जैसे ही तुमने ये फाइल खोली, तुम इस अनुबंध की गवाह बन गई हो। और एक गवाह, जब तक फैसला नहीं सुनती, तब तक… कोर्ट छोड़कर नहीं जा सकती।"

    "कानूनी धमकी मत दो मुझे!" उसने मुँह फेरते हुए कहा और दरवाज़े की ओर बढ़ी।

    "अमीषा," कबीर ने शांत स्वर में कहा, "तुम्हें जो दिखा वो सिर्फ आधा सच है। ये सब एक खेल नहीं, एक योजना है। तुम्हारे पिता इसमें शामिल थे। तुम्हारा अतीत, तुम्हारी पढ़ाई, यहाँ तक कि इस ऑफिस में तुम्हारी नौकरी — ये सब हमारे बनाए हुए नक़्शे का हिस्सा है।"

    "झूठ।" अमीषा ने दाँत भींच लिए।

    "तुम्हारे पिता ने इस दस्तखत के बदले, तुम्हारी माँ का इलाज करवाया था — और तुम्हारा स्कूल में दाखिला। वो सब मुफ्त में नहीं हुआ था।"

    अब वो वहीं रुक गई।

    पीठ उनकी ओर, लेकिन दिल धड़कने लगा था।

    "तुम झूठ बोल रहे हो…"

    "तुम्हारे पर्स में रखे मेडिकल बिल्स देख लेना। तुम्हारे नाम की ट्रस्ट फाइलों की हिस्ट्री देख लेना… सारी चाबी हमारे पास है।"

    अमीषा का शरीर बेजान-सा हो गया।

    एक पल को उसे लगा जैसे पूरी ज़मीन उसके पैरों के नीचे से खिसक रही हो।

    उसने धीरे से दरवाज़ा खोला… और बिना कुछ कहे बाहर निकल गई।

    **

    ऑफिस की गलियों से गुजरते हुए उसके कदम लड़खड़ा रहे थे।

    कोई कुछ पूछता, तो शायद वो चीख पड़ती। लेकिन उसने किसी की तरफ़ देखा भी नहीं। लिफ्ट में जाते हुए, उसका हाथ बटन पर नहीं था — वो बस अपने ही साए को घसीटती हुई बाहर आ गई।

    बाहर की हवा थोड़ी ठंडी थी, लेकिन उसकी देह में आग लगी थी।

    "मुझसे पांचों से शादी करवाओगे?" वो खुद से बड़बड़ाई, "और फिर मेरे शरीर को भी अपनी वसीयत बना दो? क्या समझ रखा है खुद को?"

    **

    उस रात — वो नहीं रोई।

    वो नहीं टूटी।

    वो बस अपने कमरे में बंद रही — और सोचती रही… कि कैसे जवाब देना है। क्योंकि अब ये सिर्फ अपमान नहीं था — ये उसके अस्तित्व को चुनौती देने का प्रयास था।

    और जवाब… वो आसान नहीं होने वाला था।



    To be continued…