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मतवाले

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Simarpreet Singh kang

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Description

कहानी 1944 की है दयाल और उसके दोस्तो की दयाल की शादी बचपन में हो गई थी। उनके बड़े होने तक दयाल की पत्नि को मायके में रहना था दयाल उसे देखने के लिए मेले के बहाने गया वह कुछ घटनाक्रम के चलते वह मिले थे। जब दयाल वापस आया तो उसकी माँ भाई की हत्या कर दी ग...

Total Chapters (155)

Page 1 of 8

  • 1. मतवाले - Chapter 1

    Words: 1

    Estimated Reading Time: 1 min

    "

  • 2. मतवाले - Chapter 2

    Words: 1

    Estimated Reading Time: 1 min

    दूसरी तरफ, छोटी सी मिट्टी की दीवारों से बनी रसोई थी। जो लगभग दस गुणा दस फीट की थी, उसकी छत बांस और घास की बनी हुई थी। दयाल के पिताजी तीन साल पहले एक आंदोलन का नेतृत्व करते हुए अंग्रेजों की लाठियों से मारे गए थे। दयाल के घर में दयाल, उसकी माँ, और उसका छोटा भाई रेशम रहते थे। दयाल की खेती-बाड़ी की ज़मीन चालीस एकड़ से ज़्यादा थी। ये लोग खानदानी ज़मींदार परिवार से थे। दयाल अपने घर से निकला तो उसके दो दोस्त, रहमतुल्ला और पंडित श्याम लाल, मिल गए। वे भी गाँव की गलियों में घूम रहे थे। जैसे ही उनकी नज़र दयाल पर पड़ी, वे भागते हुए उसके पास आ गए।

    "ओए! दयाले, कहाँ जा रहे हो? क्या बात है? आज तो कुछ ज़्यादा ही अकड़ कर चल रहे हो?"

    "देख बे! पंडित, मेरी चाल-ढाल पर तो कटाक्ष मत किया कर, वरना किसी दिन खूब पिटाई हो जाएगी तेरी। फिर मत कहना कि बताया नहीं था!"

    "अल्लाह कसम, मियाँ पंडित ने सच ही कहा है। तुम्हारी चाल में आज कुछ ज़्यादा ही अकड़ भरी हुई है। क्या मैं इसकी वजह जान सकता हूँ?"

    "रहमतुल्ला, आज मैंने सपने में तुम्हारी भरजाई देखी।"

    "क्या, सच में?"

    "हाँ यार, सच में। बहुत ही खूबसूरत थी। क्या बताऊँ यार, दाएँ-बाएँ कंधों पर दो बड़ी-सी चोटियाँ लटक रही थीं। सफेद सलवार के साथ नीले रंग का कुर्ता उसने पहना हुआ था। नीले दुपट्टे से उसने सिर ढँका हुआ था। इतना ही नहीं, आधा घूँघट भी निकाल रखा था। मुझे तो बस उसकी ठुड्डी और नीचे का होंठ ही दिखाई दिया। देखने में ही बहुत खूबसूरत लग रही थी। पतले से हाथ, लंबी-लंबी उँगलियाँ..."

    दयाल अपनी घरवाली का बखान करते हुए खो सा गया और फिर बोलते-बोलते खामोश हो गया। रहमतुल्ला और पंडित श्यामलाल उसकी तरफ देखने लगे। उन लोगों को ऐसा लगा जैसे वह खड़े-खड़े ही बुत बन गया हो।

    "अबे! मियाँ, आगे क्या हुआ? यह तो बताओ। बस इतना ही? तुमने घूँघट उठाकर भरजाई का चेहरा नहीं देखा क्या?"

    "नहीं, रहमतुल्ला। यह काम करने से पहले ही बेबे ने मुझे उठा दिया।"

    "धत्त तेरी की! ऐसे सपने तुम महीने में दो बार देखते हो, लेकिन घूँघट उठाने से पहले ही तुझे उठा दिया जाता है?"

    "हाँ, पंडित। यह तो तुम्हारी बात सही है।"

    "लेकिन मियाँ, एक बात तो है।"

    "क्या?"

    "तुम्हारा भरजाई से मिलने का कभी मन नहीं करता?"

    "करता है ना यार, लेकिन कैसे मिलूँ? मैं तो उसे पहचानता भी नहीं।"

    "अरे! मियाँ, सुना है कि उसके ताऊजी गाँव के बड़े चौधरी हैं? और उनका नाम बहुत मशहूर है। तो उनके घर तक पहुँचना कौन सा मुश्किल होगा?"

    "अबे! रहमतुल्ला, बच्चे मरवाएगा क्या? उसके घर पहुँच गया, तो उसके घरवाले मोटे-मोटे डंडे लेकर इसके पीछे पड़ जाएँगे और फिर इसकी चटनी बना देंगे।"

    "अरे! पंडित मियाँ, तुम तो डरते रहते हो। अरे! खुदा का नाम लेकर जब काम किया जाए ना, तो वह हमेशा सफल होता है।"

    "लेकिन यह ऐसा काम नहीं है जिसमें तेरा खुदा सफलता देगा। उल्टा, मोटा डंडा बरसाने की उन लोगों को खुली छूट दे देगा।"

    "अबे! पंडित, तुम बहुत डरते हो, मियाँ। इतने डरपोक होना अच्छी बात नहीं। वैसे, दयाल, एक बात है। अगर तुम मानो तो भरजाई को देख सकते हो।"

    "बताओ, रहमतुल्ला। क्या बात है? ऐसी भी कौन सी बात है जो मैं नहीं जानता? सिर्फ़ तुम जानते हो जिस वजह से मैं अपनी घरवाली को देख सकता हूँ?"

    "सुना है एक हफ़्ते बाद भीखीविंड में बहुत भारी मेला लगने वाला है, जो कि हर साल लगता है। पहले कभी हम मेला देखने गए नहीं, तो क्यों ना मेला देखने के लिए चलें?"

    "हाँ, रहमतुल्ला ने सही कहा। दयाल, मेले में हो सकता है भरजाई भी आए। इस मेले का पूरा आयोजन तो तुम्हारे ससुर ताऊजी करते हैं ना?"

    "लेकिन बेबे इसकी इजाज़त नहीं देगी यार। मेरे को कैसे मनाऊँ बेबे को?"

    "मनाने का काम तुम हम पर छोड़ दो। बस तैयारी करो जाने की।"

    रहमतुल्ला की बात सुनकर दयाल की बाँछें खिल गईं।

    "चलो फिर, तुम लोग तैयारी करो। मैं खेत में जाकर काम देख लूँ थोड़ा सा।"

    दयाल की बात सुनकर रहमतुल्ला और पंडित श्याम लाल एक तरफ़ चले गए। और फिर दयाल खेतों की तरफ़ चला गया। कच्चे रास्ते से होते हुए दयाल जल्दी ही खेतों में पहुँच गया। वहाँ पर उसका भाई एक पेड़ की छाँव के नीचे बैठा हुआ था। उसने अपने हाथ में कस्सी पकड़ रखी थी। उसे देखकर ऐसा लग रहा था जैसे कि उसने अभी-अभी किसी के साथ झगड़ा किया हो। उसका चेहरा गुस्से से तमतमाया हुआ लग रहा था।

    "क्या हुआ, रेशम? बड़े उबले हुए दिखाई दे रहे हो?"

    "भाई, गज्जन चाचा और उसके आदमी फिर से आए थे। वे अपनी गंदी हरकतों से बाज़ नहीं आते। किसी दिन मैं इस कस्सी से उस गज्जन चाचा का सिर काट दूँगा।"

    "हुआ क्या? बताओ तो, कि ऐसे ही सिर काटने चले हो?"

    "कह रहा था कि चालीस एकड़ खेत में से दस एकड़ खेत उसके हैं, और वह हम छोड़ दें, वरना वह हम पर थाने में रपट करवा देगा। और जबरदस्ती से खेत में हल जोतने की कोशिश भी कर रहा था।"

    "अच्छा, तो फिर वह गया कैसे? अगर उसके साथ आदमी थे, तुम तो अकेले थे ना?"

    "वह सरपंच चाचा हैं ना, वे भी यहीं थे जब यह बात हुई। और उन्होंने गज्जन चाचा को समझा-बुझाकर भेज दिया।"

    "लगता है रेशम, गज्जन चाचा का कुछ ना कुछ करना पड़ेगा, वरना यह हमें हमेशा परेशान करता रहेगा। अपने हिस्से की चालीस एकड़ ज़मीन में से बीस एकड़ तो अपनी अय्याशी में बेचकर खा गया। अब इसकी नज़र हमारे खेतों पर बनी हुई है।"

    "सरपंच ने पंचायत बुलाई है। कहा था जब सूरज ढल जाए तो हम गाँव के पंचायत घर में आ जाएँ।"

    "ठीक है, हम गाँव में बने पंचायत घर में चले जाएँगे और फिर बात करते हैं, देखते हैं क्या होता है।"

    "कसम से भाई, अगर गज्जन चाचा ने वहाँ खुराफात करने की कोशिश की ना, तो इसी कस्सी से उसका सिर सबके सामने काट दूँगा।"

    "अरे! इतना गुस्सा नहीं करते, रेशम। मैं और तुम दोनों ही बेबे के इकलौते सहारे हैं। जानते हो ना, अगर हम दोनों को सज़ा हो गई तो बेबे का क्या होगा?"

    "हम दोनों को सज़ा कैसे होगी भाई? उसका सिर तो मैं ही काटूँगा, तो सज़ा मुझे ही होगी ना, आपको थोड़ी होगी?"

    "नालायक! हम दोनों ही पकड़े जाएँगे। यह क्यों नहीं सोचते? क्योंकि गज्जन के बेटे और पंचायत हम दोनों के ख़िलाफ़ हो जाएगी। समझा कर यार।"

    ,,,,,,क्रमश,,,,,,

  • 3. मतवाले - Chapter 3

    Words: 1

    Estimated Reading Time: 1 min

    "मैं

  • 4. मतवाले - Chapter 4

    Words: 1

    Estimated Reading Time: 1 min

    मक्खन सिंह अकेला नहीं था। उस वक्त मक्खन सिंह और दयाल सिंह आमने-सामने खड़े थे। गाँव से वे सिर्फ़ 250-300 कदमों की दूरी पर ही थे।

    "तुम भी अपने बापू को जाकर समझा दो कि हमारे खेतों की तरफ़ नज़र मत डाले। अपने खेत तो खा गए, अब हमारे खेत खाने का इरादा रखते हो क्या?"

    "जो खेत मेरे बापू ने खाए थे, वे सांझे थे, तुम्हारे अकेले के नहीं। क्या समझे? और अब जो खेत हैं, वे सबके बीच आधे-आधे बाँटे जाएँगे। चाहे तू समझे चाहे ना समझे, तुम्हारी बातों से मुझे कुछ भी लेना-देना नहीं।"

    "तुम लोगों ने बीस एकड़ खेत खा लिए हैं। अब मेरे खेतों पर नज़र मत रखो।"

    "देख दयाल, मुझसे उलझने की कोशिश मत कर। मैं अच्छा इंसान नहीं हूँ, यह तुम भी जानते हो। मैं नहीं चाहता कि मेरे हाथों से मेरा कोई चचेरा भाई मारा जाए।"

    "चल बे! हवा आने दे। कुछ ज़्यादा ही बोल दिया तुमने। निकल यहाँ से। बहुत देखे तेरे जैसे।"

    दयाल ने मक्खन सिंह को डाँट लगाई।

    "तुम किसके दम पर फुदक रहे हो? उस रहमतुल्ला और पंडित श्याम लाल के? मत भूल, मेरे भी दोस्त हैं जो तुम तीनों का कचुंबर बनाने के लिए काफी हैं।"

    "जानता हूँ, तेरे दोस्त तेरे जैसे ही घटिया सोच वाले हैं। अब निकल यहाँ से। शाम को पंचायत में ही बात होगी।"

    इतना कहकर दयाल गाँव की तरफ़ बढ़ गया।

    "मुझे अब रेशम को सबक सिखाना होगा। वह तो अकेला ही खेतों में होगा। अच्छा मौका है। उसकी ऐसी-तैसी करके उसे वहीं छोड़कर वापस आ जाऊँगा।"

    मक्खन सिंह मन में सोचने लगा और फिर खेतों की तरफ़ बढ़ गया। जल्द ही वह रेशम सिंह के पास पहुँच गया।

    "क्यों बे! रेशम, तुमने मेरे बापू की आज बेइज़्ज़ती की है ना? तो तुझे मैं आज सबक सिखाने आया हूँ। तेरी तो ऐसी हालत करूँगा कि जिंदगी भर तू मुझे याद रखोगा।"

    रेशम सिंह का ध्यान उस वक्त कुएँ से निकल रहे पानी की तरफ़ था, जब मक्खन सिंह उसके पीछे आया। अभी भी मक्खन सिंह उसके पीछे ही खड़ा था। रेशम सिंह के हाथ में उसकी कस्सी अभी भी थमी हुई थी। उसने मक्खन सिंह की परछाई को देखा जो कि बिल्कुल उसके पाँव के नीचे आ रही थी। रेशम ने बिना कुछ कहे अपनी कस्सी के दस्ते को दोनों हाथों से पकड़कर उल्टा किया और तेज़ी से घूमते हुए मक्खन सिंह के सिर पर मार दिया।

    "हाय! मार दिया बापू! मैं मर गया!"

    मक्खन सिंह जोर से चिल्लाया।

    और इतना कहकर वह धड़ाम से गिर गया। उसने अपने दोनों हाथों से अपना सिर पकड़ लिया। कस्सी का उल्टा वार मक्खन सिंह के बाएँ कान के थोड़ा सा ऊपर लगा था और वहाँ से खून बह निकला। मक्खन सिंह ने सिर पर छोटी पगड़ी बाँध रखी थी। वार पगड़ी पर ही लगा था, फिर भी वार जबरदस्त लगा और मक्खन सिंह के सिर में चोट लग गई। उसकी पगड़ी सिर से उतरकर गिर गई थी।

    जैसे-तैसे मक्खन सिंह ने अपने हाथ से बहते खून को रोकने की कोशिश की। उसे बेहद दर्द होने लगा था। उसकी आँखों में आँसू आ गए।

    "यह है मेरे साथ बदतमीज़ी से बात करने का फल! अगर तुमने अब कुछ और कहा ना, बेबे की कसम, तुझे यहीं काटकर तुम्हारे खेतों में गाड़ दूँगा।"

    रेशम सिंह ने गुस्से से मक्खन सिंह की तरफ़ देखा और साथ ही कस्सी को उसकी तरफ़ सीधा किया। रेशम सिंह की गुस्से भरी लाल आँखें देखकर मक्खन सिंह की आगे कुछ भी बोलने की हिम्मत नहीं हुई। वैसे भी उसका सिर चकरा रहा था। इतना जबरदस्त वार उसके सिर पर लगा था, यह तो गनीमत थी कि उसके सिर पर पगड़ी थी, वरना उसके प्राण-पखेरू ही उड़ जाते।

    "तुझे तो मेरा बापू देख लेगा। याद रखना, तुमने गज्जन सिंह के बेटे मक्खन सिंह पर हाथ डाला है रेशम! अपनी जिंदगी की आखिरी साँसें अभी से गिननी शुरू कर दे।"

    मक्खन सिंह उठते हुए पीछे की तरफ़ भागा। वह जाते-जाते रेशम सिंह को धमकी दे गया।

    "एक तो ये तीनों बाप-बेटे अकड़ कर जब देखो सामने आ जाते हैं। लेकिन फिर भागते भी सिर पर पाँव रखकर हैं। ये लड़ेंगे हमसे? हूँह?"

    रेशम सिंह मन ही मन बड़बड़ाया। दूसरी तरफ़ दयाल सरपंच के घर पर पहुँच गया। सरपंच नीम के पेड़ के नीचे चारपाई पर बैठा हुआ था। उसके पास दो लोग और बैठे थे। जब उसने दयाल को अपनी तरफ़ आते हुए देखा,

    "अरे! दयाल पुत्र, कैसे हो तुम?"

    "मैं ठीक हूँ चाचा। मुझे आपसे काम था।"

    "अच्छा, तो तुम रेशम और गज्जन सिंह के बीच हुई झड़प को लेकर मिलने आए हो?"

    "आप तो जानते हैं चाचा कि वह चालीस एकड़ खेत हमारे हैं। गज्जन चाचा के हिस्से में भी चालीस एकड़ खेत आए थे। लेकिन वह बीस एकड़ खा गया, तो इसमें हमारा क्या दोष?"

    "तुम अपनी तरफ़ से सही हो, लेकिन क्या करें दयाल पुत्र, उसने जो जमीन खाई, वह पहले तुम्हारे दादाजी के नाम पर थी। अगर उसके नाम पर होती, तो बात ही कुछ और होती।"

    "लेकिन हमारे बराबर जमीन उसके हिस्से आई थी ना? फिर वह हमारे हिस्से पर नज़र गड़ाए क्यों बैठा है?"

    "मैं तुम्हारी बात समझ रहा हूँ दयाल पुत्र। चल ठीक है, पंचायत में देखते हैं क्या होता है। मैंने सभी पंचों को चौकीदार को भेजकर संदेश पहुँचा दिया है कि आज शाम को सभी लोग पंचायत घर में आ जाएँ। गाँव के लोगों को भी संदेशा भेज दिया है।"

    "ठीक है चाचा। लेकिन हमारे साथ अन्याय नहीं होना चाहिए। अगर ऐसा हुआ ना, तो भरी पंचायत में कुछ ऐसा हो जाएगा जिसकी किसी ने उम्मीद भी ना की होगी।"

    "दयाल पुत्र, अपने गुस्से पर काबू रखो। तुम रेशम की तरह नहीं हो। रेशम तुमसे ज़्यादा गुस्से वाला है। तुझे उसे समझाना चाहिए। पंचों का फैसला जो भी होगा, दोनों को ही मानना पड़ेगा।"

    "आपका फैसला हम मान लेंगे चाचा, लेकिन अन्याय हुआ तो फिर हम चुप नहीं रहेंगे।"

    इतना कहकर दयाल वहाँ से वापस आ गया। सरपंच के पास गज्जन सिंह का एक मुँह लगा बैठा हुआ था, जो दयाल और सरपंच की बातें सुन चुका था।

    "क्या सरपंच जी, आप गज्जन सिंह के खिलाफ़ फैसला सुनाने का सोच रहे हो क्या? गज्जन सिंह से दुश्मनी लेना बहुत महँगा पड़ सकता है आपको।"

    ,,,,,,क्रमश,,,,,,

  • 5. मतवाले - Chapter 5

    Words: 1

    Estimated Reading Time: 1 min

    "तुम मुझे मत डराओ काले, मैं डरने वाला नहीं किसी से। फैसला तो सोच समझकर ही किया जाएगा; चाहे वह गज्जन सिंह के हक में हो चाहे दयाल के हक में, यह तो शाम को ही पता चलेगा?"

    "अगर आप गज्जन सिंह के हक में फैसला देते हैं तो आपका ही फायदा है? आप तो जानते हैं ना, गज्जन सिंह आजकल लाट साहब के साथ उठता-बैठता है; तो आपके भी वारे-न्यारे हो जाएँगे?"

    "काले, मैंने आज तक किसी गोरे के तलवे नहीं चाटे। सरपंची मैंने अपने दम पर ली है, किसी के आगे मिन्नतें नहीं की, समझे? तुम्हारा गज्जन सिंह उस गोरे के तलवे चाटता है तो इसमें भी उसी का स्वार्थ होगा?"

    "सही कहा आपने, उसका खुद का स्वार्थ है। वह दयाल की 40 एकड़ जमीन हड़पना चाहता है। और लाट साहब की मदद से वह पूरे के पूरे 40 एकड़ जमीन दयाल के नीचे से छीनकर ले जाएगा, देख लेना आप?"

    "काले, गज्जन सिंह जैसे लोग ही बागी लोगों को पैदा करने में मदद करते हैं। दयाल से ज़्यादा रेशम गुस्से वाला है। अगर वह बागी हो गया तो गज्जन सिंह इस जमीन को अपनी छाती पर रखकर ऊपर ले जाएगा क्या? क्योंकि रेशम उसके खानदान को खत्म करने की कोशिश करेगा, और हो सकता है कि वह ऐसा करने में कामयाब भी हो जाए?"

    "य...अ...आप क्या कह रहे हैं सरपंच साहब? ऐसा थोड़ी होगा, वह कल का छोकरा क्या उखाड़ सकता है गज्जन सिंह का?"

    "वह कल का छोकरा भले ही है काले, लेकिन तुमने उसकी ताकत देखी हुई है। बेशक उसकी उम्र अभी 16 साल है, लेकिन वह किसी आम आदमी से दुगना है, देखा है ना तुमने?"

    "हाँ हाँ, देखा है। मुझे मत बताइए सरपंच साहब।"

    "दयाल और उस रेशम में एक अंतर यह भी है कि जहाँ दयाल उससे बड़ा होते हुए भी समझदार है, वहीं पर रेशम छोटा होने के साथ-साथ देखने में दयाल से बड़ा दिखता है, और दयाल से ज़्यादा ताकतवर भी है।"

    काले सरपंच की बात सुनकर चुप हो गया। दूसरी तरफ, दयाल सरपंच से मिलने के बाद फिर से खेतों में आ गया।

    "क्या हुआ भाई? मिल आए सरपंच चाचा से? क्या कहा उसने?"

    "शाम को पंचायत में ही बात होगी। शायद वहाँ पर पटवारी साहब भी आएंगे, सरपंच चाचा ने उसे भी बुलाया तो है।"

    "अच्छा है, आज ही दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा।"

    "रेशम, तुम घर जाओ, मैं यहाँ का देख लेता हूँ। लेकिन एक बात का ख्याल रखना, बेबे को फैसला होने से पहले कुछ भी पता नहीं चलना चाहिए?"

    "मैं तो बेबे को कुछ भी नहीं बताने वाला, लेकिन बाहर से अगर बेबे ने कुछ सुन लिया तो?"

    "बेबे घर से बाहर जाती ही कितना है जो वह सुन लेगी?"

    "अरे! मैंने सुना है हमारी वह कुलवंती चाची अपनी कला का प्रदर्शन हमेशा करती रहती है। तो बेबे को भी वह अवश्य ही खुद बता देगी?"

    "रेशम, कम से कम बड़ों की इज़्ज़त करना तो सीखो। अगर वह रिश्तेदार है तो है, और हमसे बड़ी बुज़ुर्ग है। इसलिए तुम ऐसी बातें मत किया करो।"

    "आपके लिए होगी, मेरे लिए तो वह किसी चुड़ैल से कम नहीं। जब देखो अपने ही बेटों की बढ़ाई करती रहती है, जबकि वह बिल्कुल निठल्ले और निकम्मे किस्म के हैं?"

    "हर माँ को अपना ही बच्चा अच्छा लगता है, जैसे हमारी बेबे को हम अच्छे लगते हैं। बिल्कुल वैसे ही। अब तुम जाओ।"

    "ठीक है भाई, मैं चलता हूँ।"

    इतना कहने के साथ ही रेशम घर की तरफ चला गया। इसी बीच पंडित खेतों में आ गया। वह अकेला ही आया था। पंडित दिखने में साँवले रंग का और कद-काठी में सवा पाँच फीट के आसपास का था। सिर के पीछे उसने एक चोटी बना रखी थी, माथे पर चंदन का तिलक लगाया हुआ था। वह कुछ गंभीर बना हुआ दयाल के पास आया।

    "तुझे क्या हुआ बे? तुम्हारे चेहरे पर अभी से अँधेरे का साया नज़र क्यों आ रहा है?"

    "यार, गड़बड़ हो गई।"

    "क...क्या हुआ? कैसी गड़बड़?"

    "मुझे मेरे बापू ने बंगाल जाने के लिए कहा है। वहाँ पर दंगे हुए हैं ना, तो एक तार आई है। जिसमें यह खबर है कि वहाँ पर जो मेरे बड़े ताऊजी रहते हैं, उनके परिवार में से उनका छोटा बेटा ही बचा, बाकी सब मारे गए।"

    "ओह्ह! यह तो बहुत बुरा हुआ। तो क्या तुम अकेले ही जाने वाले हो? अगर अभी भी वहाँ पर दंगों की आग भड़क रही हो तो?"

    "सुना है कि वहाँ पर अब कुछ शांति है। ऐसे में मुझे अपने ताऊजी के बेटे को लाने की ज़िम्मेदारी दी गई है।"

    "ध्यान से जाना। अगर कहो तो मैं तुम्हारे साथ चलूँ।"

    "नहीं, मेरे साथ रहमतुल्लाह का भाई जा रहा है। क्योंकि उनके भी रिश्तेदार वहीं रहते हैं ना? तो उनकी भी दो बेटियाँ ही ज़िंदा बची हैं, हम उन सब को लेने जा रहे हैं।"

    "ठीक है पंडित। मुझे बहुत अफ़सोस हुआ तुम्हारे ताऊजी का सुनकर। मैं अपने इस पंचायत वाले झगड़े को निपटाने के बाद तुम्हारे घर अवश्य आऊँगा।"

    "शायद मैं तुम्हें ना मिलूँ, क्योंकि मुझे अभी जाना है, और मैं तुझे यही बताने आया था कि अब मेले में तुम्हें रहमतुल्लाह के साथ जाना है।"

    "अबे! पंडित, तुझे अभी भी मेले की सूझ रही है? इतना बड़ा हादसा हो गया तुम्हारे ताऊजी के परिवार के साथ, फिर भी तुझे मेले की पड़ी है?"

    "मुझे अपने लिए नहीं, तुम्हारे लिए पड़ी हुई है। तुम हमारी भरजाई को देखना चाहते हो ना?"

    "अबे! एक कान के नीचे लगाऊँगा तेरे, चल भाग यहाँ से!"

    "अरे! गुस्सा मत कर यार, भगवान की जो इच्छा है उसको हम टाल नहीं सकते। अगर मेरे ताऊजी के परिवार को ऐसे ही खत्म होना था तो वह यहाँ रहते तो भी हो जाते? कोई ना कोई कारण बन ही जाता। मैं तो राम जी का भक्त हूँ, तो ऐसी बातों पर ज़्यादा उदास नहीं होता, क्योंकि मुझे मालूम है कि यह शरीर तो नश्वर है।"

    "देख पंडित, यहाँ पर ज्ञान की बातें मत कर और निकल ले यहाँ से, वरना तेरा ज्ञान एक ही झापड़ से निकालकर इन खेतों में बिखेर दूँगा। इस मेले में ना भी जाना हुआ तो कोई बात नहीं, अगले साल वैसे भी तेरी भरजाई को मैंने ले ही आना है।"

    "नहीं यार, तुम ज़रूर जाना, और किसी बात का अफ़सोस मत करना। मैंने सुना है कि वहाँ पर खेल भी होंगे? इस बार कुछ अलग से होंगे, तो तुम भी उन खेलों में हिस्सा लेना।"

    ,,,क्रमश,,,

  • 6. मतवाले - Chapter 6

    Words: 1087

    Estimated Reading Time: 7 min

    "अबे! मुझे तो सिर्फ एक ही खेल पसंद है, और वह भी दौड़ने वाला।"

    "यह खेल भी वहाँ होगा। मैंने पता लगाया है। तुम मेरी मौसी के घर चले जाना, रहमतुल्ला के साथ। मैंने रहमतुल्ला को समझा दिया है, वह तुम्हारे साथ रहेगा।"

    "ठीक है, जैसी तुम्हारी इच्छा, लेकिन मेरा मन नहीं कर रहा वहाँ जाने का। तुम्हारी बात सुनकर तो मेरा मन उदास हो गया।"

    "अरे! उदास मत हो यार, कोई बात नहीं। अच्छा, मैं चलता हूँ।"

    इतना कहने के साथ ही पंडित श्याम लाल दयाल से गले मिले और फिर वहाँ से वापस चले गए।

    "बड़ा अजीब आदमी है। इसका जिगरा भी बहुत तगड़ा है। ताऊ जी के पूरे परिवार की हत्या हो जाने के बावजूद भी इसने खुद को मजबूत बना रखा है।"

    दयाल मन में सोचने लगा।

    "वैसे भी इसका मन पूजा पाठ में ज्यादा लगा रहता है। शायद इसीलिए यह इन सब बातों से निर्लेप है।"

    दयाल सोचते हुए अपने खेतों में पानी देखने लगा। धीरे-धीरे शाम ढल गई और फिर अँधेरा होने लगा। दयाल भी जल्दी-जल्दी अपने घर की तरफ चला गया। उसने अपने बैलों को अपने साथ ले लिया। चारे का एक बड़ा सा गट्ठर बाँधकर उसने एक बैल की पीठ पर रखा हुआ था, और उसके साथ-साथ वह चल रहा था। जल्द ही वह अपने घर पहुँच गया। तो उसे उसकी बेबे परेशान दिखाई दी।

    "क्या हुआ बेबे? तुम इतनी परेशान क्यों हो?"

    "यह सब क्या चल रहा था? सुबह से ना रेशम ने मुझे कुछ बताया, और ना ही तुम पीछे पलटकर बताने आए।"

    "क्या हुआ बेबे? इतनी परेशान किस बात को लेकर हो? आखिर मुझे भी तो बताओ?"

    "तुम्हारे गज्जन चाचा ने हमारे खेतों पर कब्जा करने की कोशिश की। और तुम लोगों ने मुझे बताना उचित भी नहीं समझा। आखिर तुम दोनों के मन में चल क्या रहा है?"

    "अरे! बेबे, तुझे हम परेशान नहीं करना चाहते थे। सरपंच चाचा ने पंचायत बुलाई है, वहीं पर वह फैसला करेंगे। मैं बस वही जाने का सोच रहा हूँ।"

    "अगर पंचायत की तरफ से बुलावा नहीं आया होता, तो मुझे कभी पता नहीं चलता कि हो क्या रहा है। देखो, तुम दोनों बच्चे हो, और गज्जन मंझा हुआ बदमाश है। उससे पंगा मत लेना।"

    "बेबे, तेरे सिर की कसम, अगर गज्जन चाचा ने कुछ भी ऐसा-वैसा करने की कोशिश की ना, तो उसके इतने टुकड़े करूँगा कि उसकी आने वाली नस्लें हमारे खेतों की तरफ देखना तो क्या, हमारी तरफ देखना भी छोड़ देंगी।"

    "यही बात तो रेशम भी कह कर गया, और वही बात तुम भी कर रहे हो। मेरे बारे में तुम दोनों जरा भी नहीं सोच रहे। मैं अकेली कहाँ जाऊँगी? मेरा कौन सहारा होगा?"

    "चिंता मत कर बेबे, हम दोनों में से एक तो तुम्हारा सहारा बनेगा ही। क्या हुआ, अगर एक को जेल हो जाएगी तो?"

    "तुम दोनों मेरी आँखें हो। अगर एक आँख खराब हो जाए ना, तो इंसान को ठीक ढंग से दिखाई नहीं देता। वह एक आँख से एक तरफ ही देख सकता है, दोनों तरफ नहीं।"

    "बेबे, तुम तो कुछ ज्यादा ही भावुक हो रही हो। चिंता मत कर, कोशिश करूँगा कि वहाँ पर हंगामा ना हो। अच्छा, मुझे लस्सी तो पिला, फिर मैं पंचायत घर जाने की तैयारी करता हूँ।"

    इतना कहने के साथ ही दयाल वहाँ पर बाल्टी से पानी लेकर मुँह हाथ धोने लगा। इसी बीच रंजीत कौर अंदर से लस्सी का बड़ा सा गिलास लेकर आ गई। दयाल ने खड़े-खड़े ही लस्सी पी, और फिर अपना मुँह साफ करते हुए पंचायत घर की तरफ चला गया।

    पंचायत घर में बहुत सारे लोग आए हुए थे। वहाँ पर लालटेन जलाकर रोशनी की गई थी। चारों तरफ, पंचायत घर की दीवारों के साथ लालटेन जलाकर लगाई गई थीं। बीचो-बीच हॉल में लोग जमीन पर बैठे हुए थे, तो वहीं पर एक तरफ लकड़ी की बनी तीन-चार चारपाई लगी हुई थीं। एक पर सरपंच और दो पंच बैठे हुए थे, दूसरी पर तीन पंच बैठे हुए थे, और तीसरी चारपाई पर पटवारी साहब के साथ गज्जन सिंह अकेला ही बैठा हुआ था। बाकी सब लोग बैठे थे। रेशम सिंह वहाँ रहमतुल्लाह के पास खड़ा था। वह गुस्से से गज्जन सिंह की तरफ देख रहा था। इसी बीच दयाल भी वहाँ पहुँच गया।

    "आओ दयाल, हम तुम्हारा ही इंतजार कर रहे थे।"

    सरपंच ने दयाल को देखा।

    "पंचायत की कार्रवाई शुरू की जाए। पहले तुम बताओ गज्जन, क्या मसला है तेरा?" एक पंच ने पूछा।

    "मेरा मसला तो यही है सरपंच साहब, इन लड़कों ने मेरे दस एकड़ खेत अपने कब्जे में रखे हुए हैं, और उन पर जबरदस्ती कब्जा जमा रखा है। मुझे वह वापस चाहिए।"

    "यह झूठ बोलता है, कमीना! यह हमारे दस एकड़ खेतों पर कब्जा जमाने का सोच रहा है। दादा जी ने तो इनको और हमको बराबर-बराबर खेत दिए थे। फिर हमने इनके दस एकड़ खेत कैसे लिए?" रेशम गुस्से से दहाड़ा।

    "अपने गुस्से पर काबू रखो रेशम, यह पंचायत है, कोई अखाड़ा नहीं, जहाँ तुम दोनों पहलवानी करने वाले हो।"

    सरपंच ने रेशम को घुड़का।

    "हाँ भाई गज्जन, जब तुम्हारे बापू ने चालीस एकड़ खेत तुझे और चालीस एकड़ खेत दयाल के पिता को दिए थे, तो फिर तुम्हारे दस एकड़ खेत दयाल के कब्जे में कैसे आ गए? इसके पास तो उसके चालीस एकड़ खेत ही हैं ना?" दूसरे पंच ने पूछा।

    "मेरे हिस्से के चालीस एकड़ में से बीस एकड़ खेत बापू ने बेच दिए थे, और वह पैसे उन्होंने दयाल की शादी में खर्च किए थे। और दस एकड़ जमीन के पैसे मेरे बेटे की शादी के लिए रखे थे। मेरा हक बनता है दस एकड़ खेतों पर।"

    "क्यों झूठ बोल रहे हो चाचा? वह पैसे तो तुमने अपनी अय्याशी पर खर्च किए थे। और हाँ, जब बापू ने पंचायत के बीच में बंटवारा किया था, तो एक कागज लिखकर दिया था पंचायत में। हमारे पास वह कागज अभी भी सलामत है।" दयाल ने कहा।

    "मैं नहीं मानता ऐसे कागज को। मैं तो इतना मानता हूँ, जब जमीन बिकी तो बापूजी का अंगूठा लगा था, मेरा नहीं। इसलिए मेरा हक है दस एकड़ खेतों पर, जो मैं लेकर रहूँगा। चाहे पंचायत वाले मुझे दिला दें, चाहे फिर मैं खुद से ले लूँगा।"

    "पटवारी साहब, आपका क्या कहना है इस मामले में?"

    सरपंच ने पटवारी की तरफ देखा, जो वहाँ पर गंभीर मुद्रा बनाए बैठा हुआ था।

    "दयाल का कहना सत्य है सरपंच साहब। दयाल के दादाजी और गज्जन सिंह के बापू ने एक कागज लिखकर दिया था, जिस पर उन्होंने खेत बराबर-बराबर बाँटे थे, और मेरे इस रजिस्टर में भी ठीक वैसा ही लिखा हुआ है।"

    पटवारी की बात सुनकर गज्जन के तन-बदन में आग लग गई।

    ,,,,,क्रमश,,,,,,

  • 7. मतवाले - Chapter 7

    Words: 1095

    Estimated Reading Time: 7 min

    "क्यों बे! पटवारी तुम भी इन्हीं की भाषा बोलने लगे हो? लेकिन जो खेत बेचे, उस पर बापू का अंगूठा लगा था ना?"

    "गज्जन, वह खेत तेरे बापू ने बेचे, लेकिन उनका सारा पैसा तुझे दिया था। इसका कागज भी लिखकर दिया गया था, और इसकी लिखित मेरे रजिस्टर में भी मौजूद है। क्या तुमने उन पैसों में से किसी के सामने दयाल के परिवार को पैसे दिए थे? कोई गवाह है? कोई लिखित प्रमाण है तुम्हारे पास?"

    पटवारी साहब की बात सुनकर गज्जन शांत हो गया। उसकी समझ में नहीं आ रहा था। उसने जो योजना बनाई थी, उस पर पटवारी सात घड़े पानी क्यों डाल रहा था। उसने तो पटवारी को भी पाँच एकड़ जमीन देने का लालच दिया था। लेकिन फिर भी पटवारी ने उसके खिलाफ ही बात क्यों की?

    "तुम यह सोच रहे होगे कि मैं तुम्हारे लालच में पड़कर तुम्हारी बात मान गया था। लेकिन पंचायत में आकर पलट कैसे गया, है ना?"

    पटवारी ने गज्जन सिंह की तरफ देखा। गज्जन सिंह उसे गुस्से से देखने लगा।

    "सुनो भाइयों और सरपंच साहब, मैं आपको कुछ बताना चाहता हूँ। गज्जन ने मुझे रजिस्टर से वह कागज फाड़कर फेंकने को कहा था, जिस पर यह लिखित है कि गज्जन को उसके बापू ने खेत बेचकर सारे पैसे दे दिए थे। इसके बदले में जो यह दस एकड़ खेत अपने कब्जे में लेने वाला था, दयाल के उसमें से पाँच एकड़ खेत मुझे देने की बात कही थी। इतना ही नहीं, इसके बाद यह दयाल के पूरे खेत पर कब्जा जमाने का सोचकर बैठा हुआ था।"

    जैसे ही पटवारी ने गज्जन सिंह का भेद खोला, तो पूरी पंचायत गज्जन सिंह को देखने लगी।

    "तुम इतने घटिया स्वभाव के इंसान हो, गज्जन सिंह, कि अपने ही बच्चों की जमीन खा जाना चाहते हो? लानत है तुझ जैसे इंसान पर!" सरपंच ने गुस्से से कहा।

    "गज्जन चाचा, अगर तुमने हमारे खेतों की तरफ आँख भी उठाई ना, बेबे की कसम, तुझे काटकर वहीं गाड़ दूँगा।" रेशम ने गुस्से से कहा।

    इस वक्त गज्जन सिंह के साथ दो ही आदमी थे, तो उसने रेशम से भिड़ना उचित नहीं समझा।

    "तुझे तो मैं बाद में देखूँगा, बच्चे। पहले मैं इस पटवारी को देख लूँ, जो मेरे खिलाफ हो गया।"

    "जा बे! सरकारी मुलाज़िम हूँ। अगर तुमने मुझ पर हाथ डाला ना, तो तुझे मैं जेल में पहुँचा दूँगा। क्या समझे? अब निकल यहाँ से!"

    पटवारी साहब की फटकार सुनकर गज्जन सिंह वहाँ से चलता बना। वह पूरे गुस्से से अपने घर पहुँचा, लेकिन उसने किसी से बात नहीं की। उसके दोनों बेटे आपस में पहलवानी के जौहर दिखा रहे थे। गज्जन सिंह का घर भी बहुत बड़ा था, और वहीं पर उसके बेटों ने पहलवानी करने के लिए छोटा सा अखाड़ा बना रखा था। जैसे ही उसकी नज़र अपने बेटों की तरफ गई, तो वह गुस्से से उबल पड़ा।

    "क्या फायदा तुम लोगों की इस पहलवानी करने का? जब तुम दोनों के दो दुश्मन तुम दोनों के बाप के सिर पर बैठकर नाच रहे हैं? और मक्खन, तुमने अपने सिर पर पट्टी की तरह कपड़ा क्यों बांधा हुआ है?"

    मक्खन सिंह ने अपने सिर पर पट्टी की तरह एक कपड़ा बांधा हुआ था। यहाँ, उसके कान के ऊपर चोट लगी थी; वहाँ पर हल्दी लगाकर उसने कपड़ा बांध रखा था।

    "मैं खेतों में गया था, तो वहाँ साँप देखकर पीछे हुआ, तो अट से पाँव अटक गया था। जिस वजह से मैं गिर गया, तो चोट लग गई।"

    "हुँह! तुम तो हो ही ऐसे, खुद ब खुद ही चोट लगवाते रहते हो। कभी तुम्हारा पाँव किसी चीज़ से अटक जाता है, तो कभी किसी चीज़ से? तुम किसी का क्या बिगाड़ोगे? और तुम नाम के लिए दलेर सिंह हो; दिलेरी नाम का एक कण भी तुझ में नहीं है!"

    गज्जन सिंह ने अपने दूसरे बेटे को भी घूरा।

    "बापू, एक बात बताओ मुझे, तुम क्या चाहते हो कि हम उन लोगों का हक़ मारकर खा जाएँ? अपने हिस्से को तो तुम बेचकर खा गए, अब किसी और के पेट पर लात मारने का सोच रहे हो?"

    "क्यों बे! तू मेरा बेटा है कि दुश्मन का, जो उसकी तरफ़दारी कर रहा है? शर्म नहीं आती तुझे अपने बाप से जुबान लड़ते हुए?"

    "मैं आपसे वही बात कर रहा हूँ जो सच है। मैं अपना ही हक़ खाने में विश्वास रखता हूँ, किसी और का नहीं। गुरु नानक देव जी महाराज भी कह गए हैं:"

    हकु पराइआ नानका उसु सूअर उसु गाय ॥
    गुरु पीरु हामा ता भरे जा मुरदारु न खाए ॥
    गली भिसति न जाईऐ छुटै सचु कमाए ॥
    मारण पाहि हराम महि होए हलालु न जाइ ॥
    नानक गली कूड़ीई कूड़ो पलै पाए ॥

    (नानक, पराया हक़ ऐसा समझो जैसे मुसलमान के लिए सूअर और हिन्दू के लिए गाय का मांस भक्षण हो। यदि जीव किसी दूसरे के हक़ को ना मारे तभी गुरु और पीर (पीर पैग़ंबर ) उसकी हामी भरते हैं। गुरु पीर पैगंबर भी तभी हिमायती होते हैं जब व्यक्ति गैर का हक़ ना मारे। केवल बातें करने से ही कोई भिसति (स्वर्ग) नहीं जा सकता है। स्वर्ग जाने के लिए सच की कमाई करनी पड़ती है। सत्य की राह पर चलना पड़ता है। अमली जीवन में सच को उतारना पड़ता है।

    यदि बातूनी मसाले हराम में डाले जाएँ तो वह हलाल नहीं बन जाते हैं। जो हराम है उसे बातों से हलाल सिद्ध नहीं किया जा सकता है। नानक, कूड़े की गली में कूड़ा ही मिलने वाला है। जो उचित नहीं है वहाँ पर तुम्हे उचित कुछ भी मिलने वाला नहीं है।)

    अपने बेटे की बात सुनकर गज्जन सिंह गुस्से में तिलमिला गया। लेकिन वह अभी अपने बेटे को कुछ कहने का सोच ही रहा था कि इसी बीच उसकी पत्नी कुलवंती देवी आ गई।

    "अपने ही बेटों पर गुस्सा निकालने से क्या होगा? खुद तो दुश्मन की छाती चीरकर उसका सीना फाड़ नहीं सकते? बच्चों पर ही गुस्सा निकालते हो? तुम्हें तो अब तक उनकी जमीन पर कब्जा कर लेना चाहिए था! तीन साल हो गए उनके बाप को मरे हुए, लेकिन इन तीन सालों में उन्होंने तुझे और तेरे आदमियों को खेतों की तरफ फटकने भी नहीं दिया। शर्म से तो तुझे डूबकर मर जाना चाहिए! खुद को तुम मर्द कहते हो?"

    कुलवंती ने गज्जन सिंह को फटकार लगाई।

    "और फिर अपने बच्चों को गुस्सा क्यों दिखा रहे हो? जब तुम खुद भी कुछ नहीं कर सकते, तो इनसे क्या उम्मीद रखते हो? जैसा बाप निकम्मा, वैसे ही निकम्मे बेटे। बस बैठे-बैठे मुफ्त का खाने की आदत पड़ गई है तुम तीनों को?"

    "देखो कुलवंती, मेरा चित्त पहले से ही बहुत खराब है, तुम इस पर घी डालने की कोशिश मत करो।"

    ,,,,,,क्रमश,,,,,,,

  • 8. मतवाले - Chapter 8

    Words: 1050

    Estimated Reading Time: 7 min

    "हाँ, हाँ, जानती हूँ। अपनी बहादुरी तुम मुझे ही दिखाओगे ना? पहले थप्पड़ मारोगे। अगर फिर भी बात नहीं बनी, तो डंडे से पीट दोगे। यही तो करते आए हो अब तक। लेकिन अब ऐसा नहीं होगा। अब मुझसे सहन नहीं होता। मेरा बेटा दलेर मेरे साथ है। अगर तुमने भूल कर भी मुझे हाथ लगाने की कोशिश की ना, तो तेरा वही हाथ तोड़कर मेरा बेटा तेरे पिछवाड़े में घुसा देगा।"

    कुलवंती की बात सुनकर दलेर सिंह उसके पास आ गया। वहीं पर मक्खन सिंह अपने बाप की ओर चला गया। इसी बीच रंजीत कौर भी वहाँ आ गई। उसे भी पूरी घटना के बारे में दयाल ने बता दिया था। वह अकेली ही आई थी।

    "अपने घर को तो तुम संभाल नहीं सकते। गज्जन चले हो हमारे खेतों में कब्जा जमाने? कब तक तुम ऐसी घटिया हरकतें करते रहोगे? और कब तक मेरे दोनों बच्चों के हाथों से अपनी इज्जत का कचरा करवाते रहोगे?"

    रंजीत कौर को देखकर सबका ध्यान उसकी ओर चला गया।

    "लो, आ गई रंडी (विधवा)। अब यह हमें बताएँगी कि हमें क्या करना चाहिए?"

    कुलवंती ने बुरा सा मुँह बनाया।

    "रंडी होने का तुझे भी बहुत शौक है, तो बोल। यह शौक तेरा मैं अभी पूरा कर देती हूँ। अपने बेटे रेशम को बुलाकर तेरे ख़सम का गाटा उतरवा देती हूँ। वह तो बहुत पहले से ही ऐसा करने का सोच रहा है।"

    रंजीत कौर की बात सुनकर कुलवंती देवी तिलमिला गई।

    "ताई जी, आपका हमारे घर में आने का मक़सद क्या है? यह बताइए। मैं आपकी भी उतनी ही इज़्ज़त करता हूँ, जितनी कि अपनी बेबे की। भले ही आप दोनों देवरानी-जेठानी में बनती नहीं।"

    "मैं तो बस इतना ही कहने आई हूँ दलेर, कि तुम अपने बाप को समझाओ। क्यों बार-बार हमारे साथ उलझ रहा है? आज तो पंचायत में भी पटवारी साहब ने सच्चाई बयान कर दी। जब से तुम्हारे ताऊ जी गुज़रे हैं, तब से ही तेरा बाप बहुत उछल रहा है। पहले तो कभी इसने ऐसा नहीं बोला था कि इसका हक़ है हमारे खेतों पर।"

    रंजीत कौर ने दलेर सिंह के साथ-साथ बाकी लोगों को भी देखा।

    "सुना है ताई जी, अगर शेर मर जाए, तो कुत्ते उसकी लाश पर आकर जश्न मनाते हैं कि उन्होंने शेर को मार दिया। मुझे तो कुछ ऐसे ही हालात अब दिखाई देते हैं।"

    दलेर सिंह की बात सुनकर गज्जन सिंह सिर से पाँव तक तिलमिला गया। अपने ही बेटे के मुँह से खुद को कुत्ता कहे जाने से वह अंदर तक गुस्से से भर गया था। लेकिन इस वक्त वह चुपचाप अपने गुस्से को अंदर ही अंदर पीने की कोशिश कर रहा था।

    "रंजीत कौर! शुरू से ही मैंने तुझे भाभी नहीं कहा, याद है ना? आज भी मैं तुझे भाभी नहीं कहता। इससे पहले कि मुझे गुस्सा आ जाए और मैं वह कर दूँ जो मैं कभी करना नहीं चाहता, निकल जाओ मेरे घर से!" गज्जन सिंह गुस्से से दहाड़ा।

    "एक औरत पर हाथ उठाने के अलावा तुम कर ही क्या सकते हो? एक यह है कुलवंती, तुम्हारे हाथों बार-बार पिटती है। लेकिन फिर भी मेरे प्रति इसके मन में नफ़रत भरी हुई है। किसलिए? पिताजी ने तो सबको बराबर का हिस्सा दिया था ना? अगर सच कहूँ, तो यह घर तुमको देने से पहले उन्होंने यह भी नहीं सोचा था कि यह घर हमारे घर से थोड़ा बड़ा है। अगर हमारे पास ढाई कनाल हैं, तो तुम लोगों के पास तीन कनाल। फिर भी तुम लोग हमसे ही उलझते रहते हो।"

    रंजीत कौर की बात सुनकर कुलवंती कुछ कहने को हुई, तो दलेर सिंह ने अपनी बेबे के कंधे पर हाथ रखकर उसे आगे बोलने से मना कर दिया।

    "ताई जी, आप जाइए। अगर पंचायत ने फैसला सुना दिया है, तो आपको उसका सम्मान करना चाहिए। और मैं भी कोशिश करूँगा कि मेरा बापू पंचायत के फैसले को सिर माथे पर माने।"

    रंजीत कौर दलेर सिंह की बात सुनकर बिना कुछ और कहे वहाँ से वापस चली गई। रात के वक्त रेशम सिंह खेतों से वापस आ गया था। वह पूरे गुस्से से घर में आया। दयाल एक चारपाई पर लेटा हुआ आसमान की ओर देख रहा था।

    "भाई, इस गज्जन चाचा का कुछ ना कुछ इंतज़ाम करना ही होगा। अब बहुत हो गया।"

    "अब तुझे क्या हुआ? पंचायत ने फैसला हमारे हक़ में दिया है ना, तो फिर काहे ऐसे गुस्से में बोल रहे हो?"

    "उसने देख लेने की धमकी दी है हमें। भरी पंचायत में। इससे पहले कि वह कुछ करे, हमें कुछ करना होगा उसका।"

    "तू मेरे पास बैठ, रोटी खा पहले। गज्जन चाचा तो बस धमकी देना जानता है, कुछ नहीं कर सकता। तेरे सामने उसका मूत्र निकल जाता है।"

    "मेरी भूख मर गई। मुझे रोटी नहीं खानी।"

    "ऐसे कैसे भूख मर गई मेरे बच्चे की? आज तो मैंने गुड़ मिलाकर देसी घी में चूरी बनाई है तुम्हारे लिए। और तुम कह रहे हो कि तुम्हारी भूख मर गई?"

    रंजीत कौर वहाँ पर एक बड़े से थाल में अपने हाथों से कूट कर बनाई गई गुड़ और ज्वार की रोटी की चूरी लेकर आ गई। एक हाथ में उसने लस्सी का बड़ा सा गिलास पकड़ा हुआ था।

    "बेबे, आज तुम इसका बड़ा पक्ष ले रही हो। क्या मैं जान सकता हूँ, ऐसा क्यों?"

    "क्योंकि मैं इतने गुस्से से बोल रहा हूँ, इसके चलते?"

    "नहीं, क्योंकि आज जो तुमने किया है पंचायत में, बिल्कुल सही किया रेशम। भरी पंचायत में तुमने गज्जन सिंह को नीचा दिखाया।"

    "व,,,, वह क,,,, कैसे?"

    रेशम सिंह हैरान हो गया। तब दयाल उठकर अपनी चारपाई पर बैठ गया।

    "तुमने अपने गुस्से को काबू में रखा। क्या यह कम बड़ी बात है? अगर तुम गज्जन सिंह से उलझते, तो पंचायत अपना फैसला हमारे हक़ में नहीं देती।"

    "वह तो दयाल भाई के कारण। मैं वहाँ ज़्यादा बोला नहीं था, वरना गज्जन दिया ता मैं नाक भाँड़ देता।"

    "पहले तुम यहाँ बैठो। यह चूरी खाओ और फिर लस्सी का गिलास पीकर बड़ा सा डकार मारो। चल ले, पकड़। खाने से नाराज़गी नहीं दिखाते।"

    दयाल ने अपनी बेबे के हाथ से वह थाल लिया और रेशम को चारपाई पर बिठाकर उसे अपने हाथों से चूरी खिलाने लगा। दोनों भाइयों का प्यार देखकर रंजीत कौर मुस्कुरा उठी। उसने लस्सी का गिलास ज़मीन पर रखा और फिर अपने काम में लग गई। चूरी खाने के बाद रेशम ने लस्सी का गिलास पिया और फिर बड़ी सी डकार मारी।

    ,,,,क्रमश,,,,

  • 9. मतवाले - Chapter 9

    Words: 1089

    Estimated Reading Time: 7 min

    अब मैंने आपकी बात मानकर खाना खा लिया। अब तो बताइए, क्या हुआ था? वह पटवारी, जो गज्जन चाचा का मुँह लगा है, पलटा कैसे?

    "मैं उसे पंचायत में जाने से पहले मिला था और उसे वह लिखित दिखाया जो दादा जी को उसने ही लिखकर दिया था। तो उसके होश उड़ गए क्योंकि उसे और चाचा को यहीं लगता था कि वह लिखित हमारे पास नहीं है।"

    "और बिना लिखित के हम गज्जन चाचा का कुछ नहीं बिगाड़ सकते। लेकिन उस लिखित को देखकर पटवारी हमारे हक में आ गया। उस लिखित को वह झूठा भी साबित नहीं कर सकता था क्योंकि वह उसके ही हाथों की लिखी हुई थी।"

    दयाल ने पूरी बात रेशम को बता दी।

    "इसका मतलब पटवारी साहब ने भी हमारे हक की बात डरकर ही की थी? मुझे तो उम्मीद नहीं थी। मुझे तो लग रहा था कि वह गज्जन सिंह के हाथों बिका हुआ होगा।"

    "तुम्हें दो दिन बाद पटवारी साहब से मिलकर उनके पास से उस लिखित की एक प्रतिलिपि और लेकर आनी है। जो वहाँ पर दादाजी ने गज्जन सिंह के लिए लिखकर दी थी। हमारे पास एक और प्रमाण हो जाएगा।"

    "ठीक है भाई। मैं पटवारी साहब के घर पर ही चला जाऊँगा। लेकिन उनके लिए कुछ लेकर भी जाना होगा। खाली हाथ जाना अच्छा थोड़ी लगेगा। आखिर वह सरकारी मुलाज़िम है।"

    "ठीक है। एक बोरी गुड़ की ले जाना और साथ में देसी घी का एक बड़ा डोलू। हमारी तरफ से यही उपहार पटवारी साहब के लिए सही रहेगा।"

    "ठीक है भाई। जैसा आप कहते हैं, वैसा ही होगा।"

    "अब खुश हो ना? मेरे लिए जो तुम्हारे मन में कड़वाहट थी, दूर हो गई ना? अच्छा सुनो, कल खेत का काम मैं देख लूँगा। तुम घर में ही रहना। घर में भी कुछ काम करने हैं।"

    "तभी तुम खेत में जाने की बात कर रहे हो भाई, ताकि तुझे बेबे के साथ काम न करवाना पड़े?"

    "अरे! नहीं मेरे भाई। ऐसा कुछ भी नहीं है। अगर तुझे ऐसा लगता है तो मैं घर में रह जाता हूँ। तुम खेत देख लेना।"

    "नहीं। अब तुमने बोल दिया है तो तुम्हारी कहीं बात मैं टाल थोड़ी सकता हूँ। मैं घर में रहूँगा। आप खेत में चले जाना।"

    "ठीक है। अपनी चारपाई डाल लो और आराम से सो जाओ। किसी बात की चिंता नहीं करनी।"

    "ठीक है भाई।"

    इतना कहने के साथ ही रेशम उठकर बरामदे में चला गया। वहाँ पर खड़ी की गई एक चारपाई को उठाया और फिर अपने भाई के पास ही उसने चारपाई लगा ली। इसी बीच रेशम सिंह की बेबे उसके लिए तकिया ले आई। रेशम सिंह ने तकिया चारपाई पर रखा और वहाँ बैठ गया।

    "बेबे, आप तो गज्जन सिंह के घर गई थीं, मुझे बताए बिना। जब आपको मैंने पूरी बात बता दी, तो आपको क्या जरूरत थी गज्जन सिंह के घर जाने की?"

    "जरूरत थी उसे उसकी औकात दिखाने की। मैं उसे बताकर आई हूँ कि उसकी घटिया सोच पर हमारी सच्चाई की जीत हुई है। उसके तो अपने बच्चे ही उसके पक्ष में नहीं होते, तो वह किसके दम पर हवा में उड़ रहा है?"

    "बेबे, आप दलेर वीर जी की बात कर रही हो ना? वह शुरू से ही किसी भी तरह के झगड़े में नहीं आता। उसे तो बस पहलवानी करने का शौक है और अखाड़ों में बड़े-बड़े पहलवानों से कुश्ती लड़ना और उनको हराना ही उसका मुख्य शौक रहा है।"

    "बहुत रात हो गई है। तुम दोनों आराम करो। और तुमने सुबह खेतों में जाने की बात की है ना? तो सूरज उगने से पहले ही खेतों की तरफ चले जाना। ऐसा न हो कि मुझे अपने रेशम पुत्र को भेजना पड़े।"

    इतना कहने के साथ ही रंजीत कौर भी अंदर की तरफ चली गई और फिर दयाल वहाँ चारपाई पर लेट गया। रेशम सिंह अपनी बेबे की बात सुनकर मुस्कुरा रहा था। वह बीच में कुछ नहीं बोला। यह उसका शुरू से ही स्वभाव रहा है कि जब कभी भी उसका भाई और बेबे आपस में बात कर रहे होते थे, तो वह बीच में नहीं बोलता था। चाहे वह बात किसी बात को लेकर बहस का रूप ही क्यों न धारण कर जाए। लेकिन कभी भी रेशम ने बेबे और अपने भाई की बातों में दखलअंदाज़ी नहीं की थी। इसीलिए तो उसकी बेबे उसे दयाल से ज़्यादा ज़िम्मेदार इंसान मानती थी। दयाल की चारपाई रेशम की चारपाई के पास ही लगी हुई थी।

    "भाई, मैंने सुना आप मेला देखने जाने वाले हो जो भिंंखीविंड में लगता है?" रेशम ने बिना दयाल के तरफ देखे पूछा।

    "यह खबर तुमने कहाँ से सुन ली बे! यह बात तो हम तीनों यारों के बीच में ही थी।"

    "आप भूल रहे हो, आपका एक यार किसी भी बात को अपने पेट में कभी नहीं रखता।"

    "अच्छा, तो तुम रहमतुल्लाह की बात कर रहे हो। उसको तो मैं सुबह देखूँगा। उसके पेट को तो ठोक-ठोककर इतना मजबूत कर दूँगा कि आज के बाद वह पत्थर भी हजम कर जाएगा। बात की तो बात ही छोड़ो।"

    "उस बेचारे को कुछ भी मत कहना भाई। उसने किसी को नहीं बताया। असल में वह तो पंडित के साथ बातें कर रहा था। तो मैंने सुन लिया। आते हुए उनको पता ही नहीं चला कि मैंने उनकी बातें सुनी हैं।"

    "अच्छा, तो तुम अब दूसरों की बातें छुपकर सुनने लगे?"

    "क्या फर्क पड़ता है? वह आपके यार हैं तो मेरे भी यार हुए ना? मैंने अपने यारों की ही बातें सुनी हैं। लेकिन आप वहाँ क्यों जाना चाहते हैं? वहाँ पर तो आपकी…?"

    "हाँ हाँ, जानता हूँ। वहाँ पर मेरी शादी हुई है तो क्या हुआ? क्या मेला देखने के लिए मुझ पर पाबंदी लगी हुई है कि मैं वहाँ मेला देखने नहीं जा सकता?"

    "बात वह नहीं है। बात तो यह है कि वहाँ पर मेरी भरजाई भी आएगी। तो क्या आप उसे भी देखेंगे? कहीं यह सब प्रपंच आपने भरजाई को देखने के लिए ही तो नहीं किए?"

    "अबे! पागल है क्या? मैं ऐसा क्यों करूँगा भला? एक साल बाद तो वैसे ही तेरी भरजाई को घर ले आना है। फिर मुझे क्या पड़ी है कि मैं उसे देखने के लिए इतनी दूर जाऊँ। वह भी मेले का बहाना बनाकर। वैसे भी मुझे तो उसकी शक्ल ही याद नहीं, वह कैसी होगी। वहाँ पर तो बहुत सारे लोग होंगे ना?"

    "आप मुझे बनाने की कोशिश मत कीजिए भाई साहब। मैं अच्छे से जानता हूँ आप क्या कर सकते हैं। आपको आसमान से चाँद की मिट्टी लाने का भी कह दिया जाए ना तो आप वह भी ले आएँगे। यह तो फिर एक कस्बे में मेला देखने की बात है।"

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  • 10. मतवाले - Chapter 10

    Words: 1066

    Estimated Reading Time: 7 min

    “तुम कुछ बातें ज़्यादा ही नहीं करने लगे आजकल? चुपचाप सो जाओ, रात हो गई है। और मुझे सुबह जल्दी खेतों में जाना है, वरना बेबे तुम्हें भेज देगी और मुझे फिर से निकम्मा और तुम्हें जिम्मेदार कहने लगेगी।”

    “मुझे बड़ा मज़ा आता है जब भी बेबे आपको निकम्मा और मुझे जिम्मेदार मानती है। भले ही गाँव के लोग मुझे सबसे बड़ा खुराफाती कहते हैं।”

    “गाँव से कोई अगर तुम्हारे बारे में बेबे को कुछ कहने भी आता है तो बेबे उल्टा उसको ही भगा देती है? कि मेरा बेटा तो बहुत जिम्मेदार है, वह तो कभी शरारत कर ही नहीं सकता। और बीच में मुझे तुम्हारे लिए झूठी गवाही देनी पड़ती है कि सच में तुम बहुत जिम्मेदार हो?”

    “अच्छा है ना? मेरी चमड़ी बची रहती है। वरना जिस दिन मेरी सच्चाई बेबे को पता चलेगी ना, पता नहीं मेरी चमड़ी मेरी हड्डियों के साथ चिपकी रहेगी या उतर जाएगी?”

    “तुम ऐसे काम करते ही क्यों हो? जिस दिन पूरा दिन खेतों में मैं रहता हूँ ना, उस दिन तुम गाँव में इतना हुड़दंग मचाते हो कि पूरा गाँव तुमसे परेशान हो जाता है। और तुम्हारी दोस्ती भी ऐसे ही लोगों से है जो खुराफात के चाचा हैं?”

    “जाने दो भाई, अभी हमारा बचपन है। आपकी तरह मेरा ब्याह बचपन में नहीं किया गया? इसलिए मुझे किसी चीज़ की चिंता नहीं, वरना मैं भी आपकी तरह ही अपनी बहूटी दे सपने देख रहा होता।”

    इतना कहने के साथ ही रेशम ने चादर अपने मुँह पर ले ली। यह देखकर दयाल आगे कुछ नहीं बोला। उसे मालूम था कि अब रेशम उसकी एक भी बात नहीं सुनेगा और ना ही उसकी बात का कोई जवाब देगा। जब कभी भी रेशम ने दयाल से आगे बात नहीं करनी होती थी, तो वह अपना मुँह चादर से ढक लेता था। और दयाल समझ जाता था कि वह आगे बात नहीं करेगा। एक अपनी बेबे को छोड़कर, रेशम बाकी किसी को कुछ नहीं समझता था।

    गाँव के बड़े बुज़ुर्ग भी रेशम से बात करने से कतराते थे। अगर कोई रेशम के बारे में उसकी बेबे को कह भी देता कि “तेरा बेटा बहुत बड़ा हरामी है,” तो वह उसी की लाह-पाह (बेज्जती) करके उसे घर से निकाल देती। एक औरत ने एक बार रेशम को कुछ लड़कों के साथ लड़ते हुए रंजीत कौर को दिखाने की सोची थी। लेकिन वहाँ उल्टा हो गया। जब तक रंजीत कौर उस औरत के साथ वहाँ पहुँची, तब रेशम उन लड़कों के हाथों मार खा रहा दिखाई दिया था, जबकि पहले इसके उल्टा था। रेशम उन सब को पीट रहा था, लेकिन उसकी बेबे के आते ही हालात उल्टे हो गए। जहाँ रेशम पहले सब को पीटता हुआ दिखाई दिया उस औरत को, अब रेशम उन्हीं लोगों के हाथों मार खाता हुआ नज़र आ रहा था। तब उस औरत को समझ में आया कि रेशम को फँसाना उसके बस की बात नहीं है। तब रंजीत कौर ने उन लड़कों को बहुत पीटा था अपने हाथों से और रेशम को लेकर घर आ गई। उस औरत ने इस अचानक हुए चमत्कार के बारे में उन लड़कों से पूछा,

    “पहले तुम लोग मार खा रहे थे, फिर अचानक से तुम लोगों ने रेशम को कैसे पीटना शुरू कर दिया?”

    तो उनमें से एक लड़के ने जो उस औरत को बताया, वह सुनकर वह औरत बेहोश होते-होते बची। उस लड़के ने उस औरत को बताया,

    “रेशम ने अपनी बेबे को दूर से ही देख लिया था और हम सब को धमकी दी कि वह उसे पीटने की नौटंकी करें, वरना वह किसी को भी ज़िंदा नहीं छोड़ेगा। अगर ऐसा उन्होंने नहीं किया तो? लेकिन उसे पीटते हुए इस बात का ख्याल रखें कि किसी ने उसे जोर से नहीं मारना। अगर किसी की भी उसे जोर से लगी ना तो समझो उसकी दोनों टाँगें गईं।”

    “हैं!”

    यह बात सुनकर वह औरत बेहोश होते-होते रह गई और अपना सिर पीटते हुए अपने घर की तरफ चली गई। दयाल को इस बात की भनक लगी तो वह बहुत हँसा था, क्योंकि उसे रेशम के बारे में शुरू से ही मालूम था। लेकिन उसने कभी अपने भाई की शिकायत अपनी बेबे से नहीं की थी। वह अपनी बेबे की तरह ही रेशम से बहुत प्यार करता है। रेशम की हर गलती को वह हँसकर माफ़ कर देता, लेकिन रेशम भी कम नहीं है। वह अपने भाई दयाल की पूरी इज़्ज़त करता है। यहाँ तक कि अगर दयाल गुस्से में हो तो वह उसके आगे कान पकड़कर बैठ जाता और अपनी जूती भी उतारकर उसके हाथों में थमा देता कि वह उसे मार सके। रेशम की इसी अदा को देखते हुए दयाल का गुस्सा उतर जाता है।

    दयाल और रेशम दोनों ही सो गए थे। सुबह सूरज उगने से पहले ही दयाल खुद ही उठ गया और फिर लस्सी का एक डोलू लेकर और अपने बैल लेकर खेतों की तरफ़ चला गया। उसने अपने कंधे पर लस्सी को रखा हुआ था और आगे-आगे बैल चल रहे थे। एक हाथ में उसने लस्सी का डोलू पकड़ा हुआ था। एक इंसान अपने खेतों की तरफ़ गाता हुआ जा रहा था, तो दयाल उसके गाने को सुनने लगा। दयाल भी उसके थोड़ा पीछे ही जा रहा था।

    “मैं साहिबा तेरा मिर्ज़ा जट्ट नी तुझे ले जाऊँगा उठा,
    अगर आए तेरे भाई बीच में दऊँगा उनके टोटे-टोटे करके कुत्तों को खिला।”

    वह इंसान अपनी ही मस्ती में गाता हुआ जा रहा था। ऐसा गाना उस आदमी ने खुद से ही बनाया था, किसी सिंगर ने नहीं गाया था। दयाल उस गाने को सुनता हुआ मुस्कुराते हुए जा रहा था। जल्द ही दयाल अपने खेतों में पहुँच गया। उसने फिर से कुएँ से पानी निकालकर खेतों को सींचने के लिए उन दोनों बैलों को वहाँ जोत दिया और फिर खेतों की तरफ़ चला गया। जिन खेतों में पानी लगना रह गया था, उन खेतों की तरफ़ उसने पानी का बहाव मोड़ दिया और फिर वहाँ आकर बैठ गया। यहाँ पर रेशम बैठा करता था, एक पेड़ के नीचे। वह लोग हमेशा आकर बैठते थे। वहाँ बैठने के लिए उन्होंने पाँच बाई पाँच फ़ीट जगह साफ़ करके रखी हुई थी। वहीं पर आराम भी कर लेते थे।

    “आज रेशम घर में रह गया। कहीं वह गाँव में खुराफात करने का काम ना शुरू कर दे। गाँव में उसकी खुराफात हमेशा ही लोगों की नाक में दम कर देती है। वह तो किसी भी बड़े-छोटे का लिहाज़ नहीं करता?”

    दयाल रेशम के बारे में सोचने लगा।

    ,,,,,क्रमश,,,,,

  • 11. मतवाले - Chapter 11

    Words: 1074

    Estimated Reading Time: 7 min

    कल के फैसले के बाद चाचा गज्जन सिंह तो बहुत ज्यादा बौखलाया हुआ होगा। उसका एक बेटा रेशम से उलझने की कोशिश जरूर करेगा। और हमेशा की तरह वह रेशम के हाथों पिटकर ही भागेगा?

    दयाल सोचने लगा।

    "यह तो गनीमत है कि दलेर बीच में नहीं आता। वरना हम दोनों भाई उसके आगे कहीं नहीं ठहरते। क्योंकि दलेर अकेला ही हम पर भारी पड़ सकता है।"

    दयाल दलेर के बारे में सोचने लगा।


    दूसरी तरफ, गज्जन सिंह सुबह 4:00 बजे ही अपने घोड़े पर बैठकर भीखीविंड की तरफ रवाना हो गया था। वह अपने जिगरी यार मदार चौधरी से मिलना चाहता था। मदार चौधरी भीखीविंड का एक जाना-माना नाम और वहाँ का चौधरी भी था, तो सरपंच भी। 8:00 बजे के आसपास गज्जन सिंह मदार चौधरी की बड़ी हवेली में पहुँचा। वह हवेली के अंदर घुसने से पहले ही अपने घोड़े से नीचे उतर गया था और फिर अपने घोड़े की लगाम पकड़कर उसे अपने साथ लेकर हवेली के अंदर घुस गया। हवेली के भीतर खड़े एक आदमी ने उसके हाथ से घोड़े की लगाम पकड़ी और एक तरफ चला गया। गज्जन सिंह को मदार चौधरी सामने आँगन में ही बैठा हुआ नजर आया। पेड़ की छाँव के नीचे चारपाई पर बैठा हुआ मदार चौधरी कुछ लोगों के साथ बातें करने में मशगूल दिखाई दिया। तभी गज्जन सिंह उसके पास पहुँच गया।

    "कैसे हो मेरे बड़े वीर? क्या चल रहा है?" गज्जन सिंह ने कहा।

    "आओ आओ गज्जन सिंह! कैसे हो? कैसे आना हुआ? बड़े महीनों बाद आए हो तुम?"

    "कुछ बात थी। मुझे तुम्हारी सहायता चाहिए। आजकल शरीक बहुत परेशान करने लग गए हैं। तो सोचा तुम्हारी ही कुछ सहायता ले लेता हूँ।"

    गज्जन सिंह की बात सुनकर मदार चौधरी ने अपने पास बैठे हुए आदमियों की तरफ देखा तो वह सब उठकर वहाँ से चलते बने। गज्जन सिंह मदार चौधरी के सामने लगी चारपाई पर बैठ गया। यहाँ पर पहले कुछ आदमी बैठे हुए थे।

    "अब बताओ किसके साथ तुम्हारा शरीका हो गया?"

    "वही रिश्ते में तुम्हारी समधिन, रंजीत कौर के साथ। वह लोग मेरी 10 एकड़ जमीन नप्पी बैठे हैं। मैं नहीं चाहता कि हमारी रिश्तेदारी में कोई फर्क पड़े।"

    "देख भाई गज्जू, वह तेरी भाभी है, मेरी समधिन तो बाद में है। सच्चाई क्या है, वह तुम्हें भी मालूम है और मुझे भी मालूम है। फिर भी तुम क्यों उनके साथ उलझ रहे हो? तेरा तो भाई भी नहीं है जो बच्चों के सिर के ऊपर हाथ रख सके। यह काम तो तुझे ही करना होगा।"

    "यह बात तुम मुझे कह रहे हो मदार चौधरी तुम? जिसने किसी को भी नहीं छोड़ा, ना अपनों को ना बेगानों को?"

    "तुम मुझे ताना मारने आए हो क्या?"

    "अपनी समस्या लेकर मैं तुम्हारी सहायता लेने आया हूँ। सुना है बड़े लाट साहब आने वाले हैं? तो तुम मुझे एक बार उनसे मिलवा दे।"

    "बड़े लाट साहब एक हफ्ते बाद शुरू होने वाले मेले में आ रहे हैं। खास तौर पर उस मेले में उनके दोनों बेटे खेलकूद में भाग लेना चाहते हैं। बस उसी की तैयारियों में लगा हुआ था।"

    "अरे! वाह वाह! लाट साहब के दोनों बच्चे गाँव के खेल में भाग लेना चाहते हैं। फिर तो एक युक्ति सूझी है मुझे।"

    "तुम्हारे मन में क्या चल रहा है, मुझे खुलकर बता। तुम जानते हो कि मेरी अपने भाई के साथ नहीं बनती। इसलिए मैं तुम्हारी बात करूँगा, उनके रिश्तेदारों की नहीं।"

    "क्यों ना इस खेल में तुम अपने दामाद दयाल को भी बुलाकर लाट साहब के बच्चों के साथ मुकबाला करने का कहो?"

    "तेरी मत भ्रष्ट हो गई है? मैं यहाँ पर लाट साहब के बच्चों के आगे किसी को भी ठहरने से रोकने की योजना बना रहा हूँ। और तुम उल्टा मुझे अपने ही दामाद को उनके सामने लाने की बात कर रहे हो?"

    "अरे! भाई, वह कौन सा तेरा सगा दामाद है? तेरे भाई का दामाद है ना। बुलाकर उसे चुनौती दो। फिर अपने कुछ लट्ठबाजों के हाथों से उसे अच्छा-खासा पिटवा देना। इसके बाद उसके आगे यह शर्त रखना कि अगर वह जीता तो उसके खेत उसी के रहेंगे, अगर हार गया तो आधे खेत मेरे। गज्जन सिंह के बोलो, क्या कहते हो?"

    "बड़ी कुटिल चीज है रे! तू गज्जू, मेरे कंधे पर रखकर अपने ही भतीजों को निशाना बनाना चाहते हो?"

    "अरे! काहे के भतीजे? साँप हैं वह साँप! मैंने तो सोचा था बहुत ही आसानी से 10-20 एकड़ जमीन पर कब्जा कर लूँगा। लेकिन वह तो मेरे आगे तन कर खड़े हो गए, किसी साँप की तरह फन उठाकर।"

    "मुझे सोचने दे गज्जू। उसे यहाँ बुलाना अपनी नाक कटवाने के बराबर होगा। क्योंकि अभी तो हेमा की विदाई का समय 1 साल बाद होने वाला है। अगर वह पहले आ गया तो लोग क्या सोचेंगे? बातें बनाएँगे, तब हमारी इज्जत पर वह लोग थूकेंगे।"

    "अरे! ऐसा कुछ नहीं होगा। बस ऐसे ही उसे बुलाओ खेल में हिस्सा लेने के लिए। और अगर तुम कहो तो एक और भी रास्ता है।"

    "अब दूसरा रास्ता क्या है?"

    "अगर मान लो वह खेल में हार गया और अपने 20 एकड़ खेत भी हार गया। तुम चाहो तो उसकी शादी तुड़वा सकते हो, उसे कहीं ठिकाने लगवाकर।"

    "माना कि मैं दुनिया में अपने आप में एक कमीना इंसान हूँ गज्जू, लेकिन इतना भी कमीना नहीं कि अपनी ही भतीजी को विधवा बना दूँ।"

    मदार चौधरी के चेहरे पर गुस्से के भाव दिखाई देने लगे।

    "अरे! तुम्हारी भतीजी विधवा कैसे होगी? उसको तो फिर से सुहागन बना दिया जाएगा। मेरा छोटा बेटा है ना, मक्खन सिंह, उसके साथ उसका कलेवा करवा देना।"

    "गज्जन सिंह, तुम अपनी हद से ज़्यादा आगे का सोच रहे हो। कहीं ऐसा ना हो कि मैं यह भूल जाऊँ कि तू मेरा जिगरी यार है। तू अंधा हो गया है लालच में?"

    "तुम भी तो अपने भाई को पटखनी देने की योजनाएँ सोचते रहते हो। इससे अच्छा मौका क्या मिलेगा? तुम्हारा भाई तुम्हारे हर काम में अपना ही फटा अड़ा देता है ना?"

    "तुम मेरी दुखती रग पर हाथ रखने की कोशिश मत करो। लस्सी-पानी पियो, कुछ आराम करो और अपने घर जाओ। मुझे मेले की तैयारियाँ भी देखनी हैं।"

    मदार चौधरी उठकर खड़ा हो गया।

    "तुम तो बुरा मान गए यार! चल ठीक है। अगर तुम ऐसा नहीं कर सकते तो तुम्हारी मर्ज़ी। मैं तो बड़ी उम्मीद लेकर आया था।"

    "मैं तुम्हारे लिए एक काम कर सकता हूँ। लाट साहब से कहकर तुम्हें 20 एकड़ खेत दयाल के खेतों में से दिला दूँगा। अब इसके लिए मुझे कुछ और ही प्रपंच क्यों ना रचना पड़े?"

    ,,,,क्रमश,,,,

  • 12. मतवाले - Chapter 12

    Words: 1079

    Estimated Reading Time: 7 min

    "है ना एक प्रपंच, तुम भी जानते हो। बस सरकार ने उस पर ध्यान ही नहीं दिया। शायद मेरा भाई अहिंसा का पुजारी था, शायद इसलिए?"

    "ओ हो हो! यह बात तो मैंने सोची ही नहीं। बिल्कुल सही कहा तुमने। बागियों की जमीन तो सरकार वैसे भी कुर्क कर लेती है। लेकिन तुम्हारे भाई की जमीन बची हुई है। शायद उस पर इन लोगों की नज़र ही नहीं गई, या फिर कुछ और बात रही होगी?"

    "और बात क्या रहनी है, यार? मैंने ही बेवकूफी कर दी थी। पुलिस तो जमीन कुर्क करने आई थी। तब मैंने सरपंच को साथ लेकर खुद ही अपने पाँव पर कुल्हाड़ी मार ली थी।"

    "क्या मतलब? तू कहना क्या चाहता है? अगर पुलिस वहाँ आई थी, तो तुमने क्यों रोका फिर?"

    "अरे! यार, अगर पुलिस वहाँ पर अपनी कार्रवाई कर देती, तो पूरी की पूरी जमीन अपने कब्ज़े में कर लेती। और फिर मेरे हाथ क्या लगता? ठेंगा! यही सोचकर मैंने अपनी योजना तैयार की थी। पुलिसवालों को किसी तरह से ₹50 देकर, और समझा-बुझाकर वापस भेज दिया। सोचा पहले 10 एकड़, और फिर धीरे-धीरे पूरी जमीन पर मेरा कब्ज़ा हो जाएगा। लेकिन...?"

    "लेकिन तुझे मिला बाबा जी का ठुल्लू! जमीन पर कब्ज़ा करना तो छोड़ो, तुझे उन्होंने उस तरफ देखने भी नहीं दिया।"

    "सही कहा तुमने। अब तुम मेरी मदद करोगे या नहीं, यह बताओ?"

    "देख गज्जू, अगर लाट साहब से बात की, तो वह जमीन लेकर तुझे तो नहीं देंगे, लेकिन सरकारी कब्ज़े में जमीन चली जाएगी। इसके बाद उस जमीन को वह गाँव वालों के बीच ही बेच देंगे। उसके बेचने से जो आमदानी होगी, वह आमदानी सरकारी खज़ाने में जमा करवा दी जाएगी। अगर तुम उस जमीन को कम दाम पर खरीदना चाहते हो, तो अलग बात है।"

    "कितनी कीमत लगेगी तेरे हिसाब से? शायद गाँव वालों के बीच जमीन बेचने से अच्छा है कि मैं ही लाट साहब से साँठगाँठ करके वह जमीन खरीद लूँ।"

    "मुझे इस बात का कोई भी अंदाज़ा नहीं है। हो सकता है उस पूरी जमीन का ₹200 लगे, या फिर ₹300।"

    "यह कीमत कुछ ज़्यादा नहीं है। मैं तो ₹100 मानकर चल रहा था।"

    "40 एकड़ जमीन है, गज्जन सिंह, और तू इसे ₹100 में रखना चाहता है?"

    "भाई, देख ना! बात तेरी ना मेरी चल। ₹150 में वह जमीन मुझे दिला देना। इतना तो मैं कर ही लूँगा।"

    "चल, ठीक है। आ जाना। फिर आज तो बुधवार है। अगले बुधवार को पूरा मेला भरने वाला है। उसी दिन लाट साहब आने वाले हैं। तब बात करेंगे उनके साथ।"

    गज्जन सिंह मदार चौधरी की बात सुनकर बहुत खुश हुआ और फिर वहाँ से उठकर वापस चल दिया। मदार चौधरी ने इस बार उसे लस्सी पानी पीकर जाने का भी नहीं कहा था। मदार चौधरी अंदर की तरफ़ चला गया। वहाँ पर उसकी पत्नी वनीता बैठी हुई थी। उसने गज्जन सिंह को दूर से ही देख लिया था।

    "समधी जी का भाई आया था। बिना लस्सी पानी के ही चला गया। आपने उसे ऐसे ही भेज दिया? क्या सोचेगा बेचारा?"

    "तुझे बड़ी हमदर्दी हो रही है उसके साथ? अभी तो वह बाहर भी नहीं निकला होगा। जा, लस्सी पानी पिला दो उसको जाकर।"

    "अजी, आप तो खफा होने लगे। मैंने तो ऐसे ही कह दिया।"

    "अरे! ऐसे लोगों को लस्सी पानी की छोड़ो, हवेली की दहलीज़ में भी घुसने नहीं देना चाहिए।"

    "आपका जिगरी यार है, और आप ऐसी बातें कर रहे हैं?"

    "अरे! काहे का जिगरी यार? मतलब का यार है वह। जब उसे मतलब होता है, चला आता है मेरे पास। जिगरी यार तो थे बापू और उसका बापू, जिसकी मिसाल पूरा इलाका दिया करता था।"

    "उसका बड़ा भाई, सज्जन सिंह, भी अच्छा और भला इंसान था। लेकिन उसकी मत भ्रष्ट हो गई, जो विद्रोही बन गया।"

    "चलो, छोड़ो। इतना शुक्र मनाओ कि एक विद्रोही के रिश्तेदार होने के बावजूद भी हमें सरकार ने अपने ही घर से बाहर बेदखल नहीं कर दिया।"

    "अजी, वह तो आपकी लाट साहब के साथ साँठगाँठ है, जिस वजह से हम भी बच गए, और वह लोग भी।"

    "वह लोग मेरी वजह से नहीं बचे हैं। वह अपनी अच्छी किस्मत की वजह से बचे हैं। खैर, जाने दो। हेमा आती ही होगी। उसके सामने ऐसी बातें मत करना।"

    "आप की भतीजी आपको एक बार देखे बिना कोई काम नहीं करती। वैसे तो आप दोनों में बहुत प्यार है। लेकिन फिर भी उसके बाप के साथ आप अपने मन में बैर रखे हुए हो?"

    "वह अच्छा बनता फिरता है लोगों के बीच में, और मेरी छवि लोगों के बीच में बुरे इंसान की बनकर रह गई है। लेकिन फिर भी इस इलाके में मेरा ही दबदबा है। मुझे डर है कि एक दिन लोग मेरी जगह पर उसे ही सरपंच ना बना दें।"

    "जब तक आप की सरकार के साथ बनी हुई है, तब तक तो ऐसा नहीं होगा। आपकी सरपंची पर कोई ख़तरा नहीं।"

    "अगर देश आजाद हो गया, जैसा कि बागियों ने हुड़दंग मचाया हुआ है, देश को आजाद कराकर ही दम लेंगे, तो मेरी सरपंची तो गई ना?"

    "हवा का रुख देखकर चलना सीखिए, चौधरी साहब। अब आप अंग्रेज सरकार के वफादार हैं। तब आप अपनी सरकार के वफादार बन जाना।"

    "अरे! तब वह आजादी के परवाने आगे आ जाएँगे, और देख लेना, तब इनकी अपनी ही पसंद के सरपंच पंच होंगे हर गाँव में।"

    "यह आजादी के परवाने, 'आजादी मिल गई, आजादी मिल गई,' करते फिरेंगे। अजी, लेकिन कुछ नहीं बदलने वाला। देखते जाना, जैसा चल रहा है, वैसा ही रहेगा।"

    "क्या मतलब? तुम कहना क्या चाहती हो, वनीता?"

    "अजी, ऊपर की सरकार बदल जाएगी। बड़े लोग सरकार में बैठ जाएँगे। नीचे तो वही चलता रहेगा जो आज चल रहा है, वही कल भी चलेगा।"

    "तुम्हारे कहने का मतलब क्या है? साफ़-साफ़ बताओ, यार। एक भी बात मेरे पल्ले नहीं पड़ी। तुम तो ऐसे बात कर रही हो, जैसे तुमने भविष्य देख लिया हो।"

    "अजी, भविष्य देखने की क्या बात है? हमारे लोगों में चापलूसी, खुशामद करने वाले लोगों की भरमार है। सरकार में कोई भी आ जाए, बस इन्हीं लोगों का राज चलना है। देख लीजिएगा।"

    "तुमने तो बात ऐसे कही, जैसे तुमने भविष्य देख लिया हो! अरे! आज़ादी के परवाने हम जैसों को उखाड़कर फेंक देंगे। मेरे पास जो 200 एकड़ जमीन है ना, 2 एकड़ भी नहीं रह जाएगी, देख लेना तुम।"

    "आप की 200 एकड़ जमीन भी रह जाएगी, और आपकी चौधर भी। तब जो अपने इलाके का नया लाट साहब बनकर आएगा, आप उसकी वफ़ादारी में हाज़िर हो जाना। अरे! लाट साहब तो बदलते रहते हैं, लेकिन हम जैसे वफ़ादार भी तो बदलते हैं ना?"

    ,,,,क्रमश,,,,

  • 13. मतवाले - Chapter 13

    Words: 1076

    Estimated Reading Time: 7 min

    अपनी पत्नी की बात सुनकर मदार चौधरी, बिना कुछ कहे, अपना सिर खुजाता हुआ एक तरफ चला गया।

    "कमाल की बात है! यह अनपढ़ गवार औरत भविष्यवाणी तो ऐसे कर रही है जैसे सच में हमारा राज आगे भी चलेगा? वैसे, बात तो सही है; सत्ता-सुख जब हाथ में होता है, बड़े-बड़े लोगों का दिमाग घूम जाता है?"

    मदार चौधरी मन ही मन मुस्कुरा उठा।

    "जब मैं भी नया-नया सरपंच बना था, तो लोगों की सेवा करने का उत्साह बना हुआ था। और फिर धीरे-धीरे, जब लोग मेरी खुशामद करने लगे, तो मेरे अंदर अहंकार आने लगा। तो फिर इस देश में मेरे जैसे लोगों की तो कोई कमी ही नहीं, भरमार है इस देश में?"

    मदार चौधरी सोचते हुए अपने कमरे में चला गया। वहाँ से उसने अपना गमछा उठाया और बाहर आ गया। इसी बीच हेमा आ गई। उसने सलवार-कुर्ता पहना हुआ था और सिर पर सलीके से दुपट्टा ले रखा था। हेमा को देखते ही मदार चौधरी की सभी सोचें एकदम से कफूर हो गईं और उसका चेहरा खिल गया।

    "अरे! हेमा बेटा, आओ आओ। बड़ी लंबी उम्र है अभी तुम्हारी। चाची तुम्हारा ही जिक्र कर रही थी।"

    "चाचा जी, चाची को पता है कि मैं रोज आपको देखे बिना कोई काम नहीं करती, और यह बात आप भी जानते हैं?"

    "अच्छा, तुम मुझे यह बताओ कि ऐसा भी क्या है कि तुम मेरा चेहरा देखे बिना कोई काम नहीं करती?"

    "आप ना मेरे लिए बहुत शुभ हो। जब कभी भी मैं आपको देखकर कोई काम करती हूँ ना, तब वह काम बहुत अच्छे से होता है। दूसरे, आप मेरे बापू के जैसे ही हो। जितना प्यार बापू करते हैं, उतना ही प्यार आप भी करते हो ना? तो अपने हिस्से का प्यार लेने भी चली आती हूँ।"

    हेमा की मासूमियत भरी बातें सुनकर मदार चौधरी एक पल के लिए सब कुछ भूल गया।

    "तुम्हें किसी की नजर ना लगे, मेरी बच्ची। तुम्हारी झोली हमेशा खुशियों से भरी रहे।"

    "वह तो आपकी और भगवान की कृपा से हमेशा भरी रहेगी। इस बार मेले में हम भी जाएँगे, चाचा जी। क्या हमें मेले में जाने की इजाजत मिलेगी?"

    "बेटा हेमा, मेले में तुम जाकर क्या करोगी? अरे! लड़कियों का वहाँ क्या काम?"

    "अच्छे खानदान की लड़कियाँ आ सकती हैं, तो हम क्यों नहीं?"

    "इज्जतदार घरों की लड़कियाँ मेले में नहीं जाया करतीं। अरे! लोग बहुत बुरे हैं, गंदी नज़र से लड़कियों को देखते हैं।"

    "ऐसे लोगों की तो मैं आँखें नोचने की ताकत रखती हूँ। आप बस मुझे इजाज़त दीजिए।"

    "तुम मेरे आगे हमेशा ही अपनी जिद करने लग जाती हो। लेकिन तुम्हारी यह जिद तुम्हारे बापू के सामने नहीं चलती। अगर उन्होंने मना कर दिया, तो?"

    "अगर आप ने हाँ कह दिया, तब वह मना नहीं कर पाएँगे, चाचा जी। इतना तो मैं जानती हूँ। इसीलिए तो सबसे पहले आपसे ही पूछ रही हूँ।"

    "बहुत होशियार हो गई हो तुम! यह भी तुम जानती हो कि मुझसे जब इजाज़त मिल जाएगी, तो फिर तुझे कोई भी इंकार नहीं कर पाएगा? ठीक है, लेकिन अकेली मत जाना। अपने साथ अपनी चार-पाँच सहेलियाँ ले जाना। और हाँ, अपने हाथ में सोटी (डंडा) अवश्य रखना। फिर?"

    "ठीक है, चाचा जी। मुझे आपसे यही आशा थी कि आप मुझे मना नहीं करेंगे।"

    हेमा वहाँ से फुदकते हुए अपनी चाची की तरफ चली गई।

    "अब तुम बड़ी हो गई हो, हेमा। छोटे बच्चों की तरह फुदकना छोड़ो।" मदार ने हेमा से कहा।

    तो हेमा की चाल में नरमी आ गई, और वह अपनी चाची के पास जाकर बैठ गई जो कि वहाँ पर एक कटोरे में मक्खन निकालकर भर रही थी।

    "कैसी हो मेरी चाची? अरे! वाह! आज मक्खन खाने को मिलेगा, ताज़ा-ताज़ा, और लस्सी भी पीने को मिलेगी। एक पेड़ा मक्खन का दीजिए ना खाने को?"

    "मक्खन तो तुझे अब ससुराल में जाकर खाने को मिलेगा, यहाँ तो लस्सी मिलेगी।"

    "क्या, चाची? जिसे देखो मुझे ही ससुराल भेजने के चर्चे करने लग जाता है। अरे! इतनी बुरी लगती हूँ क्या आप लोगों को मैं?"

    "बात बुरी या अच्छी लगने की नहीं है, हेमा। एक दिन तो तुझे अपने ससुराल जाना ही है।"

    "एक तो आप लोगों ने मेरी शादी तब करवाई जब मैं छोटी बच्ची थी, जब मुझे अपनी नाक भी साफ करनी नहीं आती थी। और दूसरा, मुझे यह भी पता नहीं कि मेरा वह घरवाला कैसा इंसान है, अच्छा है या बुरा है?"

    "अरे! हेमा, तुम अभी से ऐसा क्यों सोच रही हो कि वह बुरा ही होगा? अच्छा भी हो सकता है ना?"

    "वैसे, चाची, राज की बात है, किसी को बताना मत। कभी-कभी चाचा को देखकर मुझे तो डर लगता है कि अगर वह भी चाचा की तरह ही हुआ, तो मेरा क्या होगा?"

    "चल, शरारती कहीं की! तुम्हारे चाचा ने कभी मुझे कुछ कहा है क्या, जो तुम उसकी बुराई कर रही हो?"

    "अरे! पूरे गाँव वाले उनसे दुखी रहते हैं।"

    "घर में जब कोई दुखी नहीं रहता, तो बाहर वालों की हमें क्या चिंता? यह ले, मक्खन का पेड़ा। आराम से खा और निकल यहाँ से।"

    हेमा की चाची, वनीता ने मक्खन को हाथ में लेकर उसे एक पेड़े का रूप देकर हेमा को पकड़ा दिया। हेमा उस पेड़े को चाव से खाने लगी और फिर उठकर अपने घर की तरफ चली गई। हेमा दिखने में हल्के साँवले रंग की, खूबसूरत, बड़ी-बड़ी भूरी आँखें, चौड़ा माथा, गुलाब की पंखुड़ियों जैसे होंठ, तीखी नाक और आकर्षक डील-डोल वाली लड़की है। यही वह हेमा है जिसकी शादी दयाल के साथ हुई है। हेमा जल्दी ही अपने घर में पहुँच गई। उसका घर उसके चाचा जी के घर से पचास कदमों की दूरी पर था।

    "आ गई? अपने चाचा जी को देखकर? और अगर तुमने अपने चाचा जी को देख लिया है, तो घर के कामकाज में लग जा।"

    "क्या बात है, बेबे? आज कुछ उखड़ी हुई नज़र आ रही हो। सुबह से ही देख रही हूँ, कहीं बापू ने कुछ कह तो नहीं दिया?"

    "तेरे बापू तो गाय के जैसे सीधे हैं। वह तो कभी मुझे घुड़की तक नहीं मारते, तो कुछ कहने की बात तो बहुत दूर है।" लक्ष्मी ने कहा।

    जो कि हेमा की बेबे है। हेमा के बापू का नाम मदन चौधरी है। वैसे तो यह लोग एक ब्राह्मण परिवार से ताल्लुक रखते हैं, लेकिन हेमा के दादा और दयाल के दादा बहुत गहरे दोस्त हुआ करते थे। अपनी दोस्ती को रिश्तेदारी में बदलने के लिए ही उन्होंने दोनों ने हेमा और दयाल की शादी करवाई थी। जात-पात के नियमों को एक तरफ रखते हुए उन्होंने अलग मिसाल पेश की थी।

    ,,,,क्रमश,,,,

  • 14. मतवाले - Chapter 14

    Words: 1060

    Estimated Reading Time: 7 min

    हेमा अपनी बेबे से थोड़ा डरती थी, लेकिन चाची जी के साथ वह ऐसे बात करती थी जैसे वह उसकी चाची न होकर उसकी सहेली होती। हेमा का एक छोटा भाई था, कुलभूषण, जो कि नाम की तरह ही कुल का भूषण भी था; सीधा-सादा, सरल स्वभाव उसका। हेमा से वह सिर्फ एक साल छोटा था। कुलभूषण भी अपनी बेबे के पास आ गया था; वह अपने कमरे से अभी-अभी बाहर निकला था।

    "बेबे, आपको पता है आपकी यह लाडली इस बार मेला देखना चाहती है?"

    कुलभूषण की बात सुनकर हेमा ने उसे घूरते हुए देखा।

    "देख ले बेबे, मेरी बात सच है। यह मुझे जंगली बिल्ली की तरह घूर कर देख रही है?"

    "हेमा, क्या यह सच है कि तुम मेला देखने की योजना बना रही हो? देख, तेरे बापू को पता चल गया ना, तो तेरा गला काट देंगे। तुझे पता है ना, हमारे घर की लड़कियाँ मेला देखने नहीं जातीं?"

    "हमारे घर की ही क्यों बेबे? गाँव की लड़कियों को भी मेला देखने नहीं जाने दिया जाता। ऐसा क्यों? और गाँव की लड़कियाँ तो खूब मेला देखने आती हैं?"

    "अरे! वही आती हैं जिनकी शादी हो गई है।"

    "लेकिन शादी तो मेरी भी हो गई है। फिर मुझ पर बंदिश क्यों?"

    "हे भगवान! तुमसे बहस करना ही बेकार होता है। तुम्हारी शादी हो गई है, लेकिन तुम अपने ससुराल घर में नहीं गई अभी तक। क्या समझी?"

    "मुझे कुछ भी नहीं समझना। बस मैंने चाचा जी से पूछ लिया है। उनको कोई आपत्ति नहीं है, तो आप भी मुझे मत रोकना।"

    "अच्छा, तो तुम इसीलिए अपने चाचा के पास गई थीं? आने दे उसको, मैं उसकी टाँग खींचती हूँ कि उसने तुझे इजाज़त कैसे दे दी?"

    "जैसे मेरा दिन चाचा जी को देखकर निकलता था, वैसे ही चाचा जी का दिन आपको देखकर निकलता था। यह बात तो मैं अच्छे से जानती हूँ। लेकिन क्या है बेबे, अगर आपने मुझे मेला देखने से रोका ना, तो देख लेना फिर?"

    "क्या देख लेना फिर? क्या करोगी तुम?"

    "तब यह जमीन पर लेटकर रोएगी और आसमान गिरा देगी जमीन पर।" कुलभूषण ने कहा।

    और वह बाहर की तरफ चला गया। हेमा उसकी बात सुनकर दाँत पीसती रह गई।

    "तब मैं आपके दामाद के साथ नहीं जाने वाली। ऐसे ही आँगन में लेट-लेट कर पूरा गाँव इकट्ठा कर लूँगी। फिर देखते रहना तमाशा?"

    "हे भगवान! यह लड़की है के शैतान की! चाची जब देखो मुझे परेशान करती रहती है?"

    लक्ष्मी ने अपने सिर पर हाथ मारा। इसी बीच वहाँ पर हेमा का बापू, मदन, आ गया। तो हेमा अपने कमरे की तरफ भाग गई। वह अपने बापू के सामने खड़ी भी नहीं होती थी। बहुत ही ज़्यादा ज़रूरत हो, तो वह बेबे के सहारे ही अपने बापू से बात करती थी। मदन चौधरी को देखकर लक्ष्मी उठकर खड़ी हो गई। उसने एक ढोलू लस्सी का, भरा मक्खन के दो पेड़े थाली में रखे और मदन चौधरी के पास चली गई। मदन चौधरी एक चारपाई पर बैठ गया।

    "यह लीजिए, आपकी लस्सी और मक्खन के दो पेड़े। आप कुछ परेशान दिखाई दे रहे हैं। क्या बात है?"

    "मैंने गज्जन सिंह को देखा है। मुझे खबर लगी है कि वह मदार के घर पर आया था।"

    "आप तो जानते हैं, वह दोनों जिगरी यार हैं। तो आया होगा किसी काम से।"

    "उसका मदार के पास आना शुभ लक्षण तो है नहीं। जब कभी भी वह आता है, कुछ ना कुछ गलत ही सोच कर आता है।"

    "आपको किस बात की चिंता? भले ही देवर मदार और आपके बीच ज़्यादा नहीं बनती, लेकिन फिर भी वह मेरा कहना नहीं टालता। मैं उससे पूछ लूँगी कि वह क्यों आया था।"

    "जानता हूँ कि वह तुम्हारी बात नहीं टालता, लेकिन फिर भी तुम्हें लगता है कि वह बताएगा कि गज्जन क्यों आया था?"

    "यह लीजिए, मदार का नाम लिया और मदार हाज़िर!"

    लक्ष्मी ने हवेली के दरवाजे की तरफ देखा, तो मदार चौधरी चलता हुआ उन्हीं की तरफ आ रहा था।

    "इसके साथ तुम ही बात कर लेना, लेकिन मेरी बात पहले ही सुन लें कि यह उसके बारे में कुछ नहीं बताएगा। बस ऐसे ही इधर-उधर की बात घुमा कर सुना देगा।"

    इसी बीच मदार चौधरी वहाँ आ गया।

    "पाँय लागू भाभी। मैं अमृतसर जा रहा था लाट साहब से मिलने। सोचा आप से भी मिलता चलूँ। शहर से कुछ मंगवाना हो तो बता दीजिए, ले आऊँगा।"

    हेमा ने यह शहर जाने वाली बात सुनी, तो वह अंदर बैठी हुई मचल उठी।

    "अरे! चाचा ने मुझे तो बताया ही नहीं कि वह शहर जा रहे हैं। वरना मैं ही कुछ मंगवा लेती। अब बापू सामने बैठे हैं, तो बाहर भी नहीं जा सकती।"

    हेमा उदास हो गई।

    "कुछ कपड़े-लत्ते मंगवाने थे। मदार, ले आना। सोच रही थी कि मैं तुमसे कहूँ कि जब तुम शहर जाओगे तो कपड़े ले आना।"

    "जी भाभी, बताइए क्या-क्या लाना है?"

    "अपनी भतीजी के लिए दो सूट, मेरे लिए दो साड़ी और दो सूट, और हाँ, अपने भाई के लिए चादर और कुर्ता लेकर आना।"

    "भाई के लिए किस रंग का कुर्ता-चादर चाहिए? बता दीजिए।"

    "तुझे तो पता ही है यह कैसे कपड़े पहनना पसंद करते हैं। फिर पूछ क्यों रहे हो?"

    इस बीच में मदार चौधरी और मदन चौधरी के बीच में कोई बातचीत नहीं हुई थी। वे दोनों ही एक-दूसरे की तरफ देख भी नहीं रहे थे।

    "अच्छा सुनो मदार, मैंने सुना है गज्जन सिंह आया था। किस लिए आया था?"

    "अरे! भाभी जी, वह यह पूछने आया था कि क्या हम हेमा बिटिया की विदाई इसी साल नहीं कर सकते। जब धान की फसल काट ली जाए, उसके बाद।"

    असली बात को होशियारी से छुपाते हुए मदार चौधरी ने दूसरी ही बात कही।

    "तुम तो अच्छे से जानते हो मदार, यह काम बैसाखी के मेले के बाद ही होगा, पहले नहीं। फिर वह क्या लेने आया था? मर जाना, कहीं बात कुछ और तो नहीं?"

    "अरे! नहीं भाभी जी, यही बात थी।"

    "लक्ष्मी, उसकी तो अपनी भाभी और बच्चों के साथ बनती नहीं, फिर वह यह बात करने कैसे आ गया?" मदन चौधरी ने बिना मदार को देखे अपनी पत्नी लक्ष्मी से कहा।

    "कभी-कभी रिश्ते निभाने के लिए और लोगों को दिखाने के लिए हमें दिखावा करना पड़ता है। कुछ ऐसा ही गज्जन सिंह भी कर रहा होगा।"

    "अगर दिल में रिश्तों की कदर ना हो, तो दिखावे करने का भी कोई लाभ नहीं। इससे बेहतर है जो हम घर में हैं, वही बाहर भी लोगों को पता चले।"

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  • 15. मतवाले - Chapter 15

    Words: 1042

    Estimated Reading Time: 7 min

    मदन चौधरी की बात सुनकर लक्ष्मी ने समझ लिया कि अगर मदार चौधरी यहाँ से जल्दी नहीं गया, तो इन दोनों के बीच तल्ख-कलामी हो जाएगी।

    "ठीक है, मदार, हम इस विषय पर कोई बात नहीं करेंगे। उनके घर का मामला है; जैसे भी हो, वह खुद ही निपट लेंगे। लेकिन तुम शहर से वह सामान ले आना जो मैंने तुझे बोला है। अच्छा, रुको, मैं तुझे कुछ पैसे देती हूँ।"

    "नहीं, भाभी, पहले मैं सामान लेकर आऊँगा, फिर ही आपसे पैसे लेकर जाऊँगा। वह क्या है ना, अगर लाट साहब के पास ही मुझे देर हो गई और सामान नहीं ला पाया, तो पैसे लेकर जाने का क्या लाभ?" मदार चौधरी ने कहा।

    और फिर वह वहाँ से निकल गया।

    "तुझे क्या ज़रूरत थी उसको यह बात कहने की? अमृतसर से हमारे लिए कपड़े लेकर आना; हम खुद भी तो जा सकते हैं ना? वैसे भी, मैं मेले से दो दिन पहले अमृतसर जा ही रहा हूँ।"

    "आप भी ना, ग़ज़ब करते हो! अगर वह पूछने आ गया, तो क्या कहती उसे? कि नहीं, भाई, निकलो हमारे घर से? तुम्हारी और तुम्हारे भाई की बनती तो है नहीं, फिर क्यों आते हो? क्या यही बोलती?"

    "मैंने ऐसा तो नहीं कहा कि तुम उसे ऐसा कहो। हेमा भी तो उसके घर पर जाती है रोज़। उसने या उसकी पत्नी ने कभी हेमा को ऐसा कुछ कहा है जो तुम कहोगी?"

    "अपनी बेटी की बात क्यों लेकर चल पड़े? आप भी ना! आपको समझाना कभी-कभी मेरे बस में नहीं होता।"

    "जो बात अपने बस में ना हो, उस पर ना तो सोचना चाहिए, ना ही उसे समझने की कोशिश करनी चाहिए, लक्ष्मी। अच्छा, मैं खेतों में जा रहा हूँ। बहुत समय हो गया, खेत नहीं देखे।"

    "खेतों में हमारे सीरी (मज़दूर) तो काम देखते हैं, फिर आप क्यों जा रहे हैं?"

    "सीरी के भरोसे खेतों को छोड़ना समझदारी नहीं होती। खेत अपने हैं, तो वहाँ जाना ही चाहिए। वैसे भी, कहते हैं ना, खेतों में फसलें अपने मालिक को आया देखकर और भी खिलखिलाने लगती हैं।" मदन चौधरी ने कहा।

    और फिर वह अपने कमरे की तरफ चला गया।


    हेमा अपने कमरे में बैठी हुई थी। वह कुछ काम कर रही थी। उसने अपने हाथ में एक मोटी सी जिल्द वाली कॉपी पकड़ी हुई थी, जिस पर वह कुछ लिख रही थी। उसने अपने हाथ में एक कलम पकड़ी हुई थी। टेबल पर दवात पड़ी हुई थी, जिसमें काले रंग की स्याही भरी हुई थी। वह कलम को उस दवात में भरी स्याही में डुबोकर उस कॉपी पर कुछ लिख रही थी। वह कलम लकड़ी की छोटी सी पेंसिल की तरह बनी हुई थी, आगे से तीखी की गई थी। इसी बीच उसकी एक सहेली, कांता, वहाँ उसे मिलने के लिए आ गई। कांता और हेमा एक ही धर्मशाला में पढ़ने के लिए जाती थीं।

    "अरे! यह क्या कर रही हो? आज तो हमें छुट्टी है, तुम फिर भी काम कर रही हो।"

    "कांता, थोड़ा सा काम बचा हुआ था, तो सोचा कर लूँ। उर्दू लिखना तो आ गया, पंजाबी और हिंदी भी सीख ली। लेकिन यह अंग्रेज़ी पल्ले नहीं पड़ती।"

    "अंग्रेज़ी पढ़कर क्या करना है? वैसे भी सुना है, अंग्रेज़ तो हमारा देश छोड़कर जाने वाले हैं, और हम आज़ाद होने वाले हैं, तो फिर इन कलमुँहे अंग्रेज़ों की भाषा सीखकर क्या करना।"

    "कांता, भाषा कोई भी हो, इंसान को सीखनी चाहिए। वैसे तो अपनी मूल भाषा पंजाबी है। हम अपने देश की भाषा हिंदी भी सीख रहे हैं ना, और उर्दू भाषा को तो मुसलमानों की भाषा कहा जाता है, तो वह भी हम सीख रहे हैं।"

    "मुसलमान तो अपने हैं, और देश की भाषा भी अपनी है, तो फिर इनकी भाषा सीखने में क्या हर्ज़? लेकिन अंग्रेज़ तो परदेसी हैं।"

    "तुम भी, कांता, कभी-कभी कुछ ज़्यादा ही सोचती हो। इसीलिए तो तुमसे अभी तक अंग्रेज़ी का ए और बी ही लिखा नहीं जाता। और मैं देखो, अंग्रेज़ी की पूरी वर्णमाला लिख लेती हूँ और बोल भी लेती हूँ।"

    "तुम तो अंग्रेज़ी बोलना सीख जाओगी, लेकिन करोगी क्या? ससुराल में जाकर चौका-चूल्हा ही तो करना है? क्या वहाँ पर रोटी पकाते हुए रोटी को अंग्रेज़ी से सिखाओगी?"

    "अरे! पढ़ना-लिखना सीखो तो अच्छा है। हमारे लिए हिसाब-किताब लगाने में मुश्किल नहीं आती। तुम नहीं समझोगी, रहने दो।"

    "क्यों? मैं क्यों नहीं समझूँगी? तुम तो अच्छे से समझती हो ना, समझा दो।"

    "छोड़ो, तुम्हारी जब शादी होगी, तब देख लेना, तुझे खुद ही पता चल जाएगा लूण (नमक) तेल का भाव क्या है।"

    कांता हेमा की बात सुनकर खामोश हो गई। कांता साँवले रंग की, बड़ी-बड़ी काली आँखों वाली लड़की है। कांता हेमा से दो साल बड़ी है। वह हेमा को काम करते हुए देखने लगी।

    "तुम्हें कुछ काम था क्या? इतना तो मुझे मालूम है कि तुम बिना काम के तो मेरे पास आई नहीं हो।" हेमा ने कांता की तरफ देखे बिना ही पूछा।

    तो कांता सोच में डूब गई।

    "वह क्या है कि मैंने सोचा कि इस बार हम मेला देखने जाएँगे। मेरी बेबे तो मान नहीं रही। क्या तुम मेरी बेबे को मेला देखने के लिए मना सकती हो? अगर तुम साथ जाओगी, तो मेरी बेबे मान जाएगी।"

    "यही तो एक सियापा है सबसे बड़ा! मेरे घर में भी यही सब चल रहा है। मैंने बेबे-बापू से पूछने की जगह पर अपने चाचा से ही पूछा, और वह मान गए।"

    "तुम्हारे चाचा तो मान ही जाएँगे, क्योंकि पूरे मेले की ज़िम्मेदारी उन्होंने उठा रखी है। और मेला तो वही देखेंगे, तो तुम भी उनके साथ देखोगी। वैसे, एक बात पूछनी थी।"

    "हाँ, पूछो। क्या बात पूछनी है?"

    "अगर तुम मेले में जाओगी, और मेले में अगर तुम्हारा पति, दयाला, आ गया, तो क्या तुम उसे पहचान पाओगी?"

    हेमा के चल रहे हाथ कांता की बात सुनकर वहीं रुक गए, और उसने कांता की तरफ बड़ी-बड़ी आँखें करते हुए देखा।

    "अरे! ऐसे मत देखो! खा जाएगी क्या? वैसे भी, मैं काली कलूटी, तुझे कहाँ हज़म होने वाली हूँ?"

    "तुम्हारे दिमाग में यह बात कैसे आई? बाप रे! अगर ऐसा हुआ, फिर तो और ही पंगा हो जाएगा।"

    "क्या मतलब? तुम कहना क्या चाहती हो? मैं तो इसी बात से बहुत खुश हूँ कि अगर जीजाजी आते हैं, तो उन्हें देखने का मुझे भी सौभाग्य प्राप्त होगा। बचपन में देखा था, छोटा सा बच्चा था तब; अब तो काफ़ी बड़ा हो गया होगा।"

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  • 16. मतवाले - Chapter 16

    Words: 1051

    Estimated Reading Time: 7 min

    "तुम नहीं जानतीं कांता, अगर वह मेले में आया तो फिर मेरा मेले में जाना असंभव होगा? तुम बस भगवान से यही प्रार्थना करो कि वह मेला देखने न आए। अगर चाचा जी को पता चल गया तो मेरा बना-बनाया खेल चौपट हो जाएगा?"

    "अरे! वाह! क्या बात है! मन में तो तुम्हारे लड्डू फूट रहे होंगे, अपने पति के आने की खबर सुनकर? और ऊपर-ऊपर से मुझे कह रही हो कि मैं भगवान से प्रार्थना करूँ कि वह मेला देखने न आए?"

    "तू नहीं समझेगी कांता, यही तो सबसे बड़ा रोना होगा। अगर वह मेरे सामने आ गया, मैं तो उसे पहचानती भी नहीं कि वह कैसा है। क्योंकि वह अब बड़ा हो गया है ना, तो क्या वह मुझे पहचान पाएगा?"

    "क्या पता वह तुझे पहचान ही ले। तब तुम अपने चाचा के आसपास ही रहोगी। तो तुम्हारे चाचा का तो वैसे भी बड़ा नाम है इलाके में।"

    "चाचा के आसपास तो तुम भी होगी ना, मेरे साथ। और कुछ और सहेलियाँ भी; राज कौर और बलबीर कौर भी होंगी?"

    "अरे! वाह! यह तो तुमने बहुत बड़ी बात कह दी! अगर हम चारों ही होंगी तो तुम्हारे पति को छेड़ने में बड़ा मजा आएगा?" कांता ने चुटकी बजाई।

    "क्या मतलब तुम्हारे कहने का? उसे छेड़ने का कैसे मजा आएगा तुम लोगों को?"

    "अरे! तब तेरी जगह पर मैं उसे कह दूँगी कि मैं ही उसकी ब्याहता हूँ, और मुझे, काली कलूटी को, देखकर उसकी जो शक्ल की हालत होगी, वह देखने लायक होगी!"

    "अरे! क्या बकवास कर रही हो? ऐसे कैसे वह तुझे अपनी ब्याहता मान लेगा?"

    "अरे! हम हैं ना, सब मिलकर उसे यकीन दिला देंगे कि मैं ही उसकी ब्याहता हूँ। देख हेमा, तुझे मेरी कसम, तुम भूल कर भी उसे कोई इशारा मत देना कि मैं वह नहीं हूँ जो वह समझ रहा है।"

    "अरे! तेरी शक्ल देखकर वह तुझे ही लेने आ जाएगा। अगले साल मेरी जगह पर फिर क्या करेगी?"

    "तुझे ऐसा लगता है क्या कि वह मुझे लेने आएगा? शादी उसकी तेरे साथ हुई है, मेरे साथ नहीं?"

    "कुछ भी हो, लेकिन उसके मन में तो तुम्हारी ही तस्वीर बस जाएगी ना, भले ही तुम उसे पसंद न आओ। लेकिन उसके बापू और बेबे की पसंद तो बन ही गई हो ना?"

    हेमा ने कांता को देखकर आँख मारी। कांता उसकी बात का मतलब समझ गई।

    "तुम भी ना बहुत शैतान हो गई हो हेमा! चलो, मेले के दिन मिलते हैं, और मुझे अपने साथ लेना मत भूलना। और जैसा मैंने तुझे कहा है, वह तो बिल्कुल मत भूलना।"

    इतना कहने के साथ ही कांता वहाँ से चली गई। बाहर लक्ष्मी उन दोनों की बातें सुन रही थी। वह हेमा से कुछ कहने के लिए आई थी, लेकिन दरवाजे पर ही दोनों की बातें सुनने के लिए खड़ी हो गई। और फिर वह मिले बिना ही वापस चली गई। एक तरफ जाकर वह सोचने लगी-

    "आजकल की लड़कियाँ कितनी खराब बातें करने लगी हैं! अभी पिंड बसा नहीं कि लुटेरे पहले आ पड़े? इस कांता को तो मैं बाद में देखूँगी, पहले हेमा को ही समझाना होगा।"

    लक्ष्मी मन में सोचने लगी। वह एक चारपाई पर बैठी हुई थी।

    "कांता जैसी शरारती लड़की कुछ भी कर सकती है। उसका क्या भरोसा, कल को वह दयाल पर ही डोरे डालने लगेगी, तो मेरी बेटी तो गई ना काम से?"

    लक्ष्मी का दिमाग अब दूसरे तरीके से सोचने लगा। इसी बीच वहाँ पर हेमा आ गई। हेमा के हाथ सियाही लगने से काले हुए पड़े थे, और वह अपने हाथ मटके से पानी निकालकर धोने लगी थी।

    "क्या हुआ बेबे? किस सोच में खो गई? मैंने तुझे कभी इतना गहरे सोच में डूबा हुआ नहीं देखा।"

    हेमा अपने हाथों को अपने दुपट्टे से साफ करते हुए अपनी बेबे की तरफ देखने लगी।

    "मैं सोच रही हूँ कि तू इस मेले में नहीं जाओगी।"

    "ल…लेकिन क्यों बेबे?"

    "यह मेला सबके लिए है। अगर मेले में तेरा घरवाला दयाल भी आ गया, तो तुम दोनों आमने-सामने आ गए, तो जानती हो ना, तेरे बापू फिर आसमान सिर पर उठा लेंगे?"

    "अरे! मैं कौन सा उसे पहचानती हूँ या वह मुझे पहचानते हैं? आप तो खामखाह चिंता कर रही हैं।"

    "अरे! कोई तो होगा जो तुम दोनों को बता सकता है कि वह कौन है और तुम कौन हो? नहीं नहीं, तुम मेले में नहीं जाओगी, बस नहीं जाओगी!"

    "बेबे, तुम मेरे साथ जबरदस्ती कर रही हो, अच्छी बात नहीं। मैं जाऊँगी तो जरूर जाऊँगी, क्योंकि चाचा जी ने मुझे इजाजत दी है।"

    "आने दे तेरे चाचा को, उसकी तो मैं टाँगे तोड़ दूँगी अगर उसने तुझे मना नहीं किया तो!"

    हेमा अपनी बेबे की बात सुनकर बुरा सा मुँह बनाते हुए अपने कमरे में चली गई।

    "लोगों की बातें सुनने से अच्छा है कि अपने घर में ही आराम करो। अरे! कल को लोगों ने देख लिया तो बात का बतंगड़ बना देंगे। ना बाबा, ना मैं तो ऐसे मेले में नहीं जाने दूँगी, चाहे कुछ भी हो जाए।"

    लक्ष्मी अपनी ही योजना बनाने लगी। दूसरी तरफ गज्जन सिंह अपने गाँव वापस पहुँच गया था। वह गंभीर चेहरा बनाए हुए अपने आँगन में नीम के पेड़ के नीचे बैठा हुआ था। वह ऐसे ही मिट्टी पर बोरी बिछाकर उसके ऊपर बैठा हुआ था। हालाँकि नीम के पेड़ के तने के साथ चारपाई खड़ी की गई थी, लेकिन उसने चारपाई को वहाँ नहीं डाला, बस बोरी पर ही बैठा रहा। इसी बीच वहाँ पर मक्खन सिंह आ गया।

    "बापू, कहाँ गए थे तुम?"

    "तुझे क्या लेना-देना इस बात से कि मैं कहाँ गया, कहाँ नहीं?"

    "बापू, तुम तो उखड़ी कुल्हाड़ी की तरह पड़ रहे हो। मैंने तो ऐसे ही पूछ लिया।"

    "मक्खन, अब शरीक को अपनी आँखों के सामने देखा नहीं जाता। जब तक शरीक दी हिक (सीने) में दीवा नहीं बाल लेता, तब तक मुझे चैन नहीं आएगा।"

    "बापू, मेरे पास एक योजना तो है। अगर तुम कहो तो तुम्हें कहूँ। ऐसा करने से साँप भी मर जाएगा और लाठी भी नहीं टूटेगी।"

    "देख मक्खन, योजना ऐसी होनी चाहिए जो पूरी तरह से कामयाब हो, शत-प्रतिशत कामयाब।"

    "बापू, आपको मघर सिंह याद है?"

    "वही जो छोटी-मोटी लूट-पुट करता रहता है, कभी इस गाँव तो कभी उस गाँव में? उसकी बात कर रहे हो?"

    "हाँ, वही। उसके साथ उसकी पूरी टोली होती है, २० लोग हैं वह।"

    "हाँ, तो क्या हुआ? वह हमारे किस काम आएगा?"

    ,,,,क्रमश,,,,

  • 17. मतवाले - Chapter 17

    Words: 1063

    Estimated Reading Time: 7 min

    "बापू, रहे ना तुम झल्ले के झल्ले! अरे! अगर उसे कुछ लालच दें, तो वही हमारा काम कर सकता है?"

    "तेरे कहने का मतलब कि मैं मघर सिंह को लालच देकर दयाल के घर पर डाका डालने को कहूँ? और इस डाके में उन दोनों को ही खत्म करवा दूँ?"

    "अब तुम्हारी समझ में मेरी योजना आई ना? बिल्कुल ठीक सोचा तुमने?"

    "लेकिन मघर सिंह का कोई पक्का ठिकाना तो है ही नहीं?"

    "मुझे उसके एक ठिकाने का पता है। यहाँ पर वह हर गुरुवार को आता है। और कल ही गुरुवार है, तो वह वहाँ ज़रूर आएगा।"

    "अच्छा, तो तुम साईं पीर की उस जगह की बात कर रहे हो जो यहाँ से पाँच कोस की दूरी पर बनी हुई है? यहाँ पर हर धर्म-जाति के लोग माथा टेकने आते हैं?"

    "हाँ, बिल्कुल। वह भेष बदलकर वहाँ आएगा। ज़रूर, तभी हम उसके साथ अपनी बातचीत कर सकेंगे।"

    "लेकिन उसे पहचानेंगे कैसे?"

    "मेरा एक जान-पहचान वाला दोस्त है। उसके बापू ने उसके साथ कभी काम किया था। हम उसी की मदद लेंगे।"

    "चल, फिर आप अपने उस यार के घर पर मुझे लेकर चलो। उसके बापू के साथ बातचीत करते हैं।"

    "और फिर मघर सिंह से मिलने की तैयारी।"

    अपने बेटे की बात सुनकर गज्जन सिंह खुश हो गया था। वह उसी वक्त उसके दोस्त के घर पर जाने को तैयार हो गया। मक्खन सिंह ने मुस्कुराते हुए अपने बापू की तरफ देखा और फिर अपने बापू को लेकर अपने दोस्त के घर की तरफ चल दिया। इस गाँव से एक कोस की दूरी पर, दूसरे गाँव की हद के अंदर मक्खन सिंह का वह दोस्त रहता था। वे शाम होने से पहले ही उनके घर पहुँच गए थे। दोनों बाप-बेटा पहले भी उस गाँव में गए थे।

    मक्खन सिंह का वह दोस्त, रंगीला, मक्खन सिंह को देखकर बहुत खुश हुआ।

    "अरे! मक्खना, कैसे हो यार? बड़ी देर बाद आना हुआ तुम्हारा?"

    "मैं अकेला नहीं आया रंगीले, मेरे बापू भी साथ में हैं। इनको तुम्हारे बापू के साथ कुछ काम था।"

    "अच्छा-अच्छा। पाँव लागू, चाचा जी। आइए, आइए। बापू जी तो अंदर बैठे हुए हैं।"

    रंगीला गज्जन सिंह के पाँव छूता है।

    "जीते रहो।"

    इतना ही गज्जन सिंह ने कहा और फिर रंगीला उन दोनों को अपने बापू के पास ले गया, जो कि एक चारपाई पर लेटा हुआ था। रंगीला का बापू देखने में ही बीमार सा लग रहा था। उसकी पीली त्वचा इस बात की गवाही दे रही थी कि वह काफी समय से बीमार चल रहा था।

    "बापू, आपसे मिलने के लिए मेरे दोस्त मक्खन सिंह के बापू आए हैं।" रंगीला ने अपने बापू से कहा।

    रंगीला का बापू उस वक्त आँखें बंद किए हुए लेटा था। रंगीला की बात सुनकर उसने अपनी आँखें खोलीं और दोनों हाथ गज्जन सिंह को देखकर जोड़ लिए।

    "सत श्री अकाल सरदार साहब! मुझ गरीब के घर आप आए, मैं तो धन्य हो गया।"

    रंगीला के बापू की बात सुनकर गज्जन सिंह फूल कर कुप्पा हो गया।

    "बस, ऐसे ही सोचा तुमसे भी काम ले लेना चाहिए। तुम भी बड़े काम के इंसान हो, मेजर सिंह।" गज्जन सिंह ने कहा।

    तो मेजर सिंह किसी तरह से चारपाई पर उठकर बैठ गया। उसने दोनों बाहों को हाथों से पकड़कर खुद को उठाया था। उसे उठने में थोड़ी दिक्कत महसूस हुई, लेकिन फिर भी वह उठकर बैठ गया।

    "रंगीले पुत्र, जा पहले जाकर चारपाई लेकर आ, और फिर लस्सी के दो बड़े गिलास लेकर आ, मेहमानों के लिए।"

    "ठीक है बापू।"

    इतना कहने के साथ ही रंगीला अंदर की तरफ चला गया। पहले वह चारपाई लेकर आया। उसने चारपाई वहाँ डाली। उसके ऊपर गज्जन सिंह और मक्खन सिंह बैठ गए। रंगीला फिर से वापस अंदर चला गया, लस्सी के गिलास लेने के लिए।

    "कहिए सरदार साहब, आपको मुझ गरीब से क्या काम आन पड़ा?"

    "भाई मेजर सिंह, सच कहूँ तो मुझे तुम्हारे सरदार रहे मघर सिंह से काम है। मैं उनसे मिलना चाहता हूँ।"

    "आपको मेरे सरदार से क्या काम है? क्या मैं जान सकता हूँ? वैसे तो मैंने उनका साथ काफी समय पहले छोड़ दिया था। जब से मैं बीमार हुआ हूँ, तब से ना वह कभी मुझे मिला, ना ही मैं कभी उनसे मिलने गया।"

    "मुझे उनसे ही काम है। यह बात मैं उनको ही बताना चाहता हूँ। अगर तुम मेरा काम कर दो, तो तुम्हें मैं मुँह माँगा इनाम दूँगा।"

    "सरदार साहब, साईं पीर की जगह पर मघर सिंह हर गुरुवार को आता ही आता है। तो कल हम वहीं पर मिल सकते हैं। मैं आपके साथ चला जाऊँगा, लेकिन...?"

    "लेकिन क्या?"

    "मैं ज़्यादा पैदल नहीं चल सकता। डंडे के सहारे अपने घर पर ही इधर-उधर घूम लेता हूँ। लेकिन जल्दी थक जाता हूँ।"

    "चिंता मत करो मेजर सिंह, मेरे पास दो घोड़े हैं। एक पर तुम बैठ जाना, एक पर मैं बैठ जाऊँगा।"

    "लेकिन मुझे घोड़े को संभालना पड़ेगा। ऐसे में मैं घोड़े को संभालूँगा या खुद को?"

    "आप चिंता क्यों करते हैं ताऊ जी? मैं हूँ ना। आप मेरे पीछे बैठकर मुझे पकड़ लेना, घोड़ा मैं संभाल लूँगा।" मक्खन सिंह ने बीच में दखल दिया।

    "तब ठीक है। मैं आप लोगों के साथ चला जाऊँगा। लेकिन आपको सूरज उगते ही आना पड़ेगा। क्योंकि मघर सिंह सूरज सिर के ऊपर आने से पहले ही वहाँ आएगा और फिर एक पल वहाँ ठहरकर वापस चला जाएगा।"

    "ठीक है मेजर सिंह, हम तुम्हारे पास सवेरे-सवेरे ही आ जाएँगे।"

    इसी बीच रंगीला दो गिलास लस्सी लेकर आ गया। मक्खन सिंह और गज्जन सिंह ने लस्सी पी और फिर अपने घर की तरफ चल दिए।

    मेजर सिंह ने ज़्यादा कुछ पूछना उचित भी नहीं समझा था। मेजर सिंह के पास दस बीघा ज़मीन थी, उसी से वह काम चलाता था। लेकिन जवानी के समय में वह मघर सिंह के साथ मिलकर लूटपाट के काम करने लगा था। मघर सिंह ने ही उसकी शादी करवाई थी। लेकिन कुछ समय पहले घोड़े से गिरने की वजह से मेजर सिंह बीमार रहने लगा। छह साल पहले ही उसने मघर सिंह का साथ छोड़ दिया था। उसकी पत्नी का सात साल पहले इंतकाल हो गया था। उसका बेटा रंगीला ही अब उसका सहारा था। कुछ खुद गिरकर बीमार होने की वजह से, और कुछ रंगीले की चिंता की वजह से वह मघर सिंह के साथ बाद में नहीं गया। क्योंकि उसे लगने लगा था कि उसके बेटे की शादी नहीं हो पाएगी। लोग उसे लुटेरे का साथी मानते हैं, तो उसके बेटे को भी आगे चलकर लुटेरा ही कहने लगेंगे।

    ,,,,,,क्रमश,,,,,,

  • 18. मतवाले - Chapter 18

    Words: 1054

    Estimated Reading Time: 7 min

    रंगीला अपने बापू को यही बात समझाता रहा था कि लोग उसे लुटेरे का बेटा कहते हैं। गज्जन सिंह और मक्खन सिंह अपने घर आ गए थे। रात हो गई थी। वह दोनों एक ही जगह बैठे हुए थे। वहीं पर मक्खन सिंह की माँ, कुलवंती, आ गई।

    "इस दलेर का कुछ हीला-वसीला करो ना! काम का ना, काज का ना, दुश्मन अनाज का! पहलवानी करता रहता है और कोई काम नहीं करता?" कुलवंती ने वहाँ बैठते हुए कहा।

    "अब क्या कर दिया उसने?"

    "करना क्या है जी? अपनी घरवाली के पल्लू से बंधा रहता है। जैसा वह कहती है, वैसा ही करता है।"

    "उन दोनों को अलग कर देते हैं। अपना कमाएँगे तो अपना खाएँगे। अगर कमाएँगे नहीं तो भूखा मरेंगे।"

    "आपके कहने पर मैं उन्हें अलग तो कर दूँगी, लेकिन शरीक की चढ़ मच जाएगी। वह तो पहले ही हमारे घर में पाटक डालकर खुश होना चाहते हैं। और हम खुद ही उन्हें यह मौका दे देंगे?"

    "कुलवंती, कभी-कभी हमें सख्त फैसले लेने पड़ते हैं। आज हमारे शरीक हम पर हँसेंगे, लेकिन कल हमें भी मौका मिलेगा उन पर हँसने का। लेकिन कौन जाने कल तक वह रहेंगे या नहीं रहेंगे?"

    कुलवंती गज्जन सिंह की बात सुनकर उसके चेहरे की तरफ देखने लगी। वहीं मक्खन सिंह के चेहरे पर मुस्कुराहट तैरने लगी।

    "तुम बाप-बेटा क्या सोच रहे हो? इस बार फिर से उन दोनों के हाथों से पिटना चाहते हो क्या? देख मक्खन, मैं बार-बार तेरी मालिश करने वाली नहीं हूँ। तेल से इस बार पिट कर आ गए ना, तो तेरे ही ढंग से तुझे ही पूछूँगी इस बार?" कुलवंती ने अपने बेटे मक्खन सिंह की तरफ देखकर कहा। गज्जन सिंह को भी यह सुनाई दिया।

    "तुम हमेशा ही ऐसी रही हो, कुलवंती। इसीलिए तो तुम मुझे अच्छी लगती हो। खैर, आज मक्की की रोटी खाने का मन है?"

    "मक्की का आटा घर में नहीं है। लाले की दुकान से भी नहीं मिलेगा। हाँ, एक काम कर सकते हो। घर में मक्की है और चक्की भी है। तो तुम मक्की का आटा पीस लो। तब तक मैं सब्जी का इंतजाम कर लेती हूँ।"

    गज्जन सिंह ने मक्खन सिंह की तरफ देखा।

    "मैं तो ज्वार की रोटी ही खा लूँगा, बापू। अगर आपको मक्की की रोटी खानी है तो देख लीजिए।"

    "काम के ना, काज के ना, दुश्मन सौ मन अनाज के?" गज्जन सिंह ने मक्खन सिंह की तरफ देखते हुए कहा।

    "तुम हमेशा मुझे मना करते रहे हो, लेकिन आज तुम्हें मक्की का आटा पीसना होगा। चल, उठ! वरना तेरी ढिबरी टाइट कर दूँगा।"

    गज्जन सिंह ने मक्खन सिंह को डाँटा। मक्खन सिंह उठकर वहाँ से एक तरफ चला गया। उसने एक छोटी सी बोरी उठाई, जिसमें मक्की के दाने रखे हुए थे, और उस बोरी को लेकर वहाँ चला गया जहाँ पर हाथों से चलाई जाने वाली छोटी सी चक्की रखी हुई थी। उसने पहले चक्की के दोनों पाटों को अच्छे से देखा और फिर आटा पीसने लगा।

    "कभी-कभी हमें घर के काम कर लेने चाहिए। अच्छा होता है। जैसी मेरी और मेरे बापू की हरकतें हैं ना, मेरा ब्याह तो होने से रहा! भाई के साथ अच्छा हुआ। उसकी शादी कुछ समय पहले हो गई। वरना यह भी मेरी तरह आज बैठकर आटा पीस रहा होता!"

    मक्खन सिंह मन में सोचने लगा। उसे आटा पीसने में कठिनाई हो रही थी, लेकिन फिर भी वह आटा पीसने में लगा रहा। काफी देर तक आटा पीसते हुए उसने इतना आटा पीस लिया था कि एक वक्त की रोटियाँ तैयार की जा सकें। उसने वह आटा एक परात में डाला और फिर अपनी माँ के पास चला गया।

    "यह लो, बेबे। बापू की पसंद की रोटियाँ बना दो।"

    वहाँ परात रखकर मक्खन सिंह वापस चला आया और वह एक चारपाई पर बैठ गया। वहीं पर उसका बापू उसके पास ही दूसरी चारपाई पर लेटा हुआ था।

    "सुबह का याद है ना तुझे? हमें कहीं जाना है, तो जल्दी उठ जाना। मुझे आवाज लगाने की ज़रूरत ना पड़े।"

    "ठीक है, बापू। मैं तो उठ जाऊँगा। तुम चिंता मत करो।"

    "लेकिन इस बात की खबर कानों-कान किसी को नहीं होनी चाहिए कि हम क्या योजना बना रहे हैं।"

    गज्जन सिंह की बात सुनकर मक्खन सिंह कुछ नहीं बोला और फिर वह अपनी चारपाई पर लेट गया। कुछ ही देर में उन दोनों के लिए खाना आ गया। उन दोनों ने खाना खाया और फिर वहीं पर लेट गए। सुबह सूरज उगने से पहले ही वह दोनों बाप-बेटा अपने-अपने घोड़े पर बैठे और वहाँ से चल दिए। जल्द ही वह दोनों रंगीला के घर पर पहुँच गए। और फिर मक्खन सिंह ने रंगीला के बापू को अपने घोड़े पर अपने पीछे बैठाया और फिर दूसरी दिशा में चले गए। घोड़े आराम से चल रहे थे। चलते-चलते काफी देर बाद वह लोग दूसरे गाँव में साईं पीर की मजार पर पहुँचे। वहाँ पर काफी लोग सुबह-सुबह ही आए हुए थे। गज्जन सिंह और मक्खन सिंह ने अपने घोड़े एक तरफ रोके और फिर मक्खन सिंह ने रंगीला के बापू को घोड़े से नीचे उतारा और उसको सहारा देते हुए अंदर ले गया। वहाँ काफी भीड़ थी। उन लोगों को बैठे हुए कुछ ही देर हुई थी। वहाँ पर गमछे से अपना सिर और मुँह लपेटे हुए एक आदमी उन लोगों को अंदर आता हुआ दिखाई दिया। जहाँ पर रंगीला का बापू, मेजर सिंह, बैठा हुआ था, ठीक वहाँ से चार कदम की दूरी पर ही माथा टेकने के लिए जगह बनाई गई थी। उस मुँह ढके आदमी ने वहाँ माथा टेका और फिर उठकर खड़ा हुआ। उसने मजार के चारों तरफ एक परिक्रमा की और फिर बाहर की तरफ जाने को हुआ।

    "मेजर सिंह जी, सत श्री अकाल! कैसे हैं आप? मुझे पहचाना आपने?"

    मेजर सिंह की बात सुनकर मघर सिंह वहीं रुक गया। रंगीला का बापू, मेजर सिंह, वहाँ से खड़ा हो गया। मघर सिंह ने उसे बाहर आने का इशारा किया। उसने उसे पहचान लिया था। मक्खन सिंह और गज्जन सिंह भी उन दोनों के पीछे-पीछे हो लिए। मघर सिंह ने उन दोनों को अपने पीछे आते देखा तो रंगीला के बापू ने उसे आश्वासन दिया।

    "यह मेरे साथ हैं। इन लोगों को आपसे एक काम है, इसीलिए आए हैं।"

    वह लोग वहाँ चले गए जहाँ पर घोड़े बांधकर रखे गए थे। मघर सिंह के कुछ आदमी इधर-उधर फैले हुए थे। जल्द ही वह भी वहाँ पहुँच गए।

    "कहो, मेजर सिंह, क्या बात है? यह लोग मुझसे क्यों मिलना चाहते थे?"

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  • 19. मतवाले - Chapter 19

    Words: 1065

    Estimated Reading Time: 7 min

    “हम पर बड़ी बिपता आ पड़ी है, मघर सिंह जी। मेरी चालीस एकड़ जमीन पर मेरे भतीजों ने कब्जा जमा रखा है। पंचायत भी उनके साथ है; मेरी तो कोई सुनता ही नहीं।” गज्जन सिंह ने पूरी नम्रता के साथ, मघर सिंह के आगे अपना सिर झुकाते हुए कहा।

    “तो भाई, इसमें मैं क्या कर सकता हूँ? मैंने लोगों की जमीनों का कब्जा छुड़वाकर देने का ठेका तो नहीं ले रखा है? मुझे तो और भी बहुत सारे काम होते हैं।”


    “मैं जानता हूँ, मघर सिंह जी, लेकिन मेरी आपसे हाथ जोड़कर विनती है कि आप मेरी सहायता कीजिए। मेजर सिंह ने आपके बारे में बताया था; आप जो कहेंगे, मैं वह करने को तैयार हूँ।”


    मघर सिंह मेजर सिंह की तरफ मुड़ा।

    “मेरा काम क्या है, सब लोग अच्छे से जानते हैं; तुम भी जानते हो। तो फिर भी ये लोग मुझसे उम्मीद लेकर आए हैं?”


    “जी सरदार, आपसे ही उम्मीद है अब तो; आप ही कुछ कर सकते हैं। आपकी जो भी इच्छा होगी, हम उसे पूरी करने को तैयार हैं।”


    मक्खन सिंह वहाँ से अपने घोड़े की तरफ चला गया था। मक्खन सिंह का घोड़ा काले रंग का था, लेकिन बहुत ही दमदार कद-काठी का। मघर सिंह की उस घोड़े पर नजर गई, तो वह भी उसी तरफ चला गया। मघर सिंह के साथियों के और उसके घोड़े के मुकाबले, मक्खन सिंह का घोड़ा कहीं ज्यादा उच्च क्वालिटी का दिखाई दे रहा था। मघर सिंह ने उस घोड़े के इर्द-गिर्द चक्कर लगाए, उसकी पूंछ और कान को पकड़कर देखने की कोशिश की; लेकिन घोड़े ने मघर सिंह को खुद को हाथ लगाने ही नहीं दिया।

    “यह घोड़ा बहुत बढ़िया है। तुम्हारा है क्या?”

    “जी, बापू ने मुझे उपहार में दिया था। तब यह छोटा सा बच्चा था; इसकी देखभाल मैंने बहुत अच्छे से की है।”

    “मैं तुम लोगों का काम करने को तैयार हूँ, लेकिन उस काम की कीमत यह घोड़ा होगा। अगर सौदा मंजूर है, तो बोलो।”


    मक्खन सिंह मघर सिंह की बात सुनकर हैरान-परेशान हो गया। उसने अपने बापू की तरफ देखा। मक्खन सिंह को घोड़ा अपनी जान से भी ज्यादा प्यारा था, और वह किसी भी कीमत पर उस घोड़े को छोड़ना नहीं चाहता था।

    “दे… देखिए सरदार जी, यह घोड़ा मेरी जान से भी बढ़कर मुझे प्यारा है। इसे छोड़कर आप जो भी माँगेंगे, मैं देने को तैयार हूँ।” मक्खन सिंह ने कहा।

    “मेजर सिंह, तुमने बताया नहीं इसे कि हमें जो भी चीज़ पसंद आती है, उसे हम छीन कर ले जाते हैं; इसके लिए चाहे हमें सामने वाले की जान ही क्यों ना लेनी पड़े।”


    मघर सिंह की बात सुनकर मेजर सिंह जल्दी से मक्खन सिंह के पास आ गया।

    “बेटा, ऐसा घोड़ा तो तुझे फिर भी मिल जाएगा, लेकिन जान से गए तो वह वापस नहीं आएगी। अगर तुम अपनी इच्छा से यह घोड़ा सरदार को दे दोगे, तो तुम्हारा यह काम भी हो जाएगा। वरना यह घोड़ा तो तुमसे छीन कर भी ले जाएँगे, और तुम्हारा काम भी नहीं होगा।” मेजर सिंह ने धीरे से मक्खन सिंह को समझाया।

    “लेकिन ताऊजी, यह घोड़ा मेरी जान से बढ़कर है; मैं इसके लिए किसी की जान ले भी सकता हूँ, और अपनी जान दे भी सकता हूँ।” मक्खन सिंह ने कहा।


    तो मेजर सिंह के माथे पर बल पड़ने लगे। ये बल चिंता के थे।

    “क्या नाम है तुम्हारा? देखो बच्चे, मैं तुझे ज़िंदगी का एक सबक बताकर जा रहा हूँ; आगे चलकर तुम्हारे बहुत काम आएगा।”


    मघर सिंह ने मक्खन सिंह की तरफ देखा, तो मक्खन सिंह के साथ-साथ मेजर सिंह और गज्जन सिंह भी उसकी तरफ देखने लगे। अभी तक गज्जन सिंह खामोशी से खड़ा था; उसे समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या बोले। अगर वह अपने बेटे के कारण घोड़ा देने से रोकता, तो मघर सिंह उन दोनों बाप-बेटे को मारकर भी घोड़ा ले जा सकता था। इतना तो गज्जन सिंह अच्छे से जानता था; इसीलिए उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे। वह मन ही मन डरा हुआ भी था।

    “ऐसे इंसान से कभी भी मदद मत माँगना जिसका काम लोगों को ठगने और उनका सब कुछ लूटने का हो। ऐसे लोग किसी के सगे नहीं होते; इनसे यारी रखने का मतलब खुद के पाँव पर कुल्हाड़ी मारना।”


    मघर सिंह की बात सुनकर गज्जन सिंह ने एक बार अपने बेटे की तरफ देखा और फिर मेजर सिंह की तरफ…

    “इस घोड़े को तुम भूल जाओ कि यह तुझे मिलेगा। कुछ भी हो जाए, यह घोड़ा मैं कभी नहीं दे सकता; भले ही तुम एक लुटेरे हो, कुछ भी कर सकते हो, लेकिन मैं भी अपने बाप का बेटा हूँ।”


    मक्खन सिंह तनकर खड़ा हो गया; ऐसा लगा जैसे वह मघर सिंह के साथ लड़ने को तैयार है।

    “जो अपने शरीक से हर बार पिट जाता रहा हो, उसे ऐसे अपनी धौंस नहीं दिखानी चाहिए। ऐसा फुकरपुणा दिखाने से कोई लाभ नहीं; जान भी जाएगी और सामान भी जाएगा।”


    मघर सिंह की बात सुनकर गज्जन सिंह के साथ-साथ मक्खन सिंह के भी होश उड़ गए।

    “अ… आपके क… कहने का म… मतलब क… क्या है सरदार?” गज्जन सिंह हकलाया।

    “हा हा हा हा हा! गज्जन सिंह, तुमने क्या सोचा कि मैं एक लुटेरा ही हूँ, तो जो तुम कहोगे वही मानूँगा? हर गाँव, हर कस्बे की खबर मुझे होती है; क्या समझे? तुम मेरे पास इसलिए नहीं आए कि तुम्हारी जमीन पर तुम्हारे भतीजों का कब्जा है; इसलिए आए हो क्योंकि तुम्हारी खुद की नियत अपने भतीजों की जमीन पर फिसली हुई है; तुम बेईमान बन गए हो?”


    मघर सिंह की बात सुनकर गज्जन सिंह की हालत ऐसी हो गई थी जैसे काटो तो उसमें से खून ही नहीं निकलेगा, बस पानी निकलेगा। वह कभी मेजर सिंह की तरफ देखता, तो कभी मघर सिंह की तरफ; वहीं पर मेजर सिंह भी डर गया था, क्योंकि उसे भी अपने बेटे से सच्चाई का पता तो चल ही चुका था। ये लोग अच्छी नियत से तो आए नहीं हैं; लेकिन कैसी नियत लेकर आए हैं, यह भी वह समझने की कोशिश कर रहा था। जब गज्जन सिंह ने मघर सिंह को बताया था, तभी वह समझ गया था कि इनके इरादे तो बहुत ज्यादा खतरनाक हैं।

    “पहले मुझे तुम्हारा ही घोड़ा चाहिए था, बच्चे, लेकिन अब तुम्हारे बाप का घोड़ा भी मुझे चाहिए। इस घोड़े के बाद तुम्हारे बाप का घोड़ा भी अच्छा है। और हाँ, इन दोनों घोड़ों के बदले में मैं तुम्हारा काम अवश्य करूँगा।”

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  • 20. मतवाले - Chapter 20

    Words: 1054

    Estimated Reading Time: 7 min

    मघर सिंह ने एक बार बाप-बेटे को कुटिलता से मुस्कुराकर देखा।

    “भले ही मैं उन दोनों लड़कों को जान से ना मार पाऊँ, लेकिन उनकी हालत ऐसी जरूर हो जाएगी कि जिंदगी भर अपने पाँव पर वह चलने लायक नहीं रहेंगे।”

    इतना कहने के बाद मघर सिंह ने मक्खन सिंह को जोर से धक्का मारा। मक्खन सिंह लड़खड़ाते हुए पीछे जा गिरा। मघर सिंह ने फिर उसके घोड़े को आराम से पकड़ लिया और घोड़े की लगाम पकड़कर उसे एक तरफ ले गया। काफी जद्दोजहद के बाद उसने घोड़े को अपने काबू में कर लिया था। घोड़ा उसे अपने पास नहीं फटकने दे रहा था; वह हिनहिनाता हुआ, कभी आगे के पाँव, कभी पीछे के पाँव मारने की कोशिश करता था। लेकिन मघर सिंह तो मघर सिंह ही था। आखिरकार, घोड़े को मघर सिंह की जिद्द के आगे झुकना ही पड़ा।

    मघर सिंह ने फिर घोड़े की सवारी की और घोड़े को लेकर वहाँ से चलता बना। इस बीच मेले में बहुत सारे लोग इस घटना को देख रहे थे, लेकिन किसी की भी हिम्मत नहीं हुई कि वह आगे बढ़कर मक्खन सिंह और गज्जन सिंह के जाते हुए घोड़ों को बचाने में उनकी मदद कर सके। धक्का खाकर गिरने के बाद मक्खन सिंह के भीतर इतनी हिम्मत नहीं रही थी कि वह आगे कुछ कर सके। उसे तो बस यही उम्मीद थी कि उसके घोड़े को मघर सिंह नहीं ले जा सकेगा, क्योंकि घोड़ा उसे अपनी सवारी ही नहीं करने देगा। लेकिन जब घोड़े की सवारी करते हुए मघर सिंह वहाँ से चला गया, तो उसके साथी भी चले गए; गज्जन सिंह का घोड़ा भी वह लोग ले गए थे। मघर सिंह जिस घोड़े पर आया था, उस घोड़े को भी वह अपने साथ ले गए।

    “मैंने तुझे समझाने की कोशिश की थी ना, लेकिन तुम नहीं माने मक्खन सिंह। अब देख लो? तुम्हारा घोड़ा तो गया ही, तुम्हारे बापू का भी ले गए। लेकिन एक बात अच्छी कर गए?” मेजर सिंह ने कहा।

    “मैं इसे छोड़ूँगा नहीं। अपना घोड़ा तो इससे वापस लेकर ही रहूँगा, चाहे कुछ भी हो जाए। इसने मुझे नहीं, अपनी किस्मत को धक्का मारा था।”

    मक्खन सिंह मन ही मन तिलमिलाया, लेकिन उसने मेजर सिंह की बात पर कोई ध्यान नहीं दिया। गज्जन सिंह अपने बेटे की हालत को समझा रहा था और फिर उसने उसे उठाकर खड़ा किया।

    “तुम्हें जिद्द करने की क्या जरूरत थी? मान जाते, खामख्वाह ही काम खराब कर दिया। अगर प्यार से घोड़ा दे देते ना, तो तुझे मैं ऐसे कई घोड़े ले देता?”

    “बापू, जैसे तुम मुझे प्यारे हो, वैसे ही वह घोड़ा भी प्यारा था। तो क्या तुम्हारी जगह मैं ताऊँ मेजर सिंह को अपना बाप बना सकता हूँ? नहीं ना! तो वैसे ही उस घोड़े की जगह कोई और घोड़ा नहीं ले सकता।”

    मक्खन सिंह की बात सुनकर गज्जन सिंह के होश उड़ गए। जाने-अनजाने में ही उसने अपने बाप से गुस्से से बात की थी। इसके बाद मक्खन सिंह एक तरफ चलता बना।

    मघर सिंह ने कह तो दिया था कि वह उनका काम कर देगा, लेकिन कब करेगा, यह नहीं बताकर गया था। इसलिए गज्जन सिंह को यह भी चिंता हो रही थी।

    “मेजर सिंह जी, क्या सच में मघर सिंह हमारा काम कर देगा?”

    “उसने कहा तो था कि वह आपका काम कर देगा, लेकिन कब करेगा, यह मैं भी नहीं बता सकता आपको। एक लुटेरे का क्या भरोसा? काम करें या ना करें, मन होगा तो कर भी देगा, नहीं हुआ तो नहीं करेगा?” मेजर सिंह ने थोड़ा निराशा भरे स्वर में कहा।

    “जाते-जाते एक सीख देकर गया है वह हमें, कि ऐसे लोगों की मदद लेने का मतलब अपनी जान जोखिम में डालना!”

    गज्जन सिंह मन ही मन सोचने लगा और फिर वह तीनों ही वापस अपने गाँव की तरफ चल दिए। मेजर सिंह बीमार था; उससे ज्यादा चला नहीं जाता था, तो उसके कारण इन लोगों को भी रुकना पड़ता था। रास्ते में कभी गज्जन सिंह और कभी मक्खन सिंह मेजर सिंह को अपने कंधे पर उठाकर चलते, तो कभी डंडे के सहारे मेजर सिंह कुछ कदम चलता। घोड़ों के रहते जहाँ वह दोपहर में ही वापस आ जाते, वहीं पर उन्हें घर पहुँचते-पहुँचते शाम हो गई थी। मेजर सिंह की हालत थोड़ी सी पहले से खराब लग रही थी। जैसे ही वह लोग मेजर सिंह के घर पहुँचे, उसका बेटा रंगीला उन लोगों के लिए जल्दी से लस्सी लेकर आ गया। मेजर सिंह ने लस्सी का गिलास एक ही घूंट में पी डाला। गज्जन सिंह ने भी लस्सी पी ली थी, लेकिन मक्खन सिंह ने नहीं पी; उसे अपना घोड़ा खो जाने की चिंता हो रही थी। वह अपने घोड़े की चिंता में ही खोया हुआ था।

    “देखो मक्खन, जो हो गया वह लौटाया नहीं जा सकता, लेकिन मेरा वादा रहा। तुझे मैं उस घोड़े से भी बढ़िया घोड़ा लेकर दूँगा। अब तो चिंता छोड़ो?”

    “उस घोड़े से अगर कोई मुकाबला कर सकता है, या उससे बढ़कर है, तो वह एक ही घोड़ा है। क्या आप मुझे लेकर दे सकते हैं?”

    गज्जन सिंह मक्खन सिंह की तरफ देखने लगा; वह समझ गया था कि वह किसकी बात कर रहा है। इन्हीं के गाँव में रहमतुल्लाह के चाचा सिराज खान के पास उनसे भी बढ़िया नस्ल का घोड़ा था, जिसकी उसने कभी सवारी भी नहीं की थी। वह उसे बहुत ही अच्छे तरीके से रखता था। आज तक उस घोड़े पर कोई नहीं बैठा था, और यह बात आसपास के कई गाँव जानते थे। हर एक जगह लगने वाले मेले में सिराज खान का वह घोड़ा ही आकर्षक माना जाता था। उस घोड़े को खरीदने की कई लोगों ने कोशिश की थी, लेकिन उस घोड़े के दाम कोई भी नहीं लगा पाया, क्योंकि सिराज खान उस घोड़े को बेचना ही नहीं चाहता था। ऐसा नहीं था कि ऐसे गुणों वाले घोड़े के बारे में मघर सिंह को मालूम नहीं था। लेकिन मघर सिंह ऐसे ही किसी के घर लूटने नहीं जाता था; वह उन्हीं लोगों को लूटने की कोशिश करता था जो दूसरे लोगों को परेशान करते थे, उनका हक मारने की कोशिश करते थे। लेकिन इस बार उसने एक ऐसे आदमी की मदद करने का वादा कर लिया था जो अपने ही भतीजों का हक मारना चाहता था। यह उसके नियमों के खिलाफ था, फिर भी उसने एक घोड़े के लालच में पड़कर अपनी जुबान दे दी थी।

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