१) कछुआ और खरगोश एक समय की बात है, एक जंगल में एक कछुआ और एक खरगोश रहते थे। दोनों अच्छे दोस्त थे, लेकिन खरगोश को अपनी तेजी पर बहुत गर्व था। वह हमेशा कछुए को अपनी धीमी गति के लिए चिढ़ाता था। एक दिन, खरगोश ने कछुए को च... १) कछुआ और खरगोश एक समय की बात है, एक जंगल में एक कछुआ और एक खरगोश रहते थे। दोनों अच्छे दोस्त थे, लेकिन खरगोश को अपनी तेजी पर बहुत गर्व था। वह हमेशा कछुए को अपनी धीमी गति के लिए चिढ़ाता था। एक दिन, खरगोश ने कछुए को चुनौती दी, "चलो, देखते हैं कौन जंगल की परिक्रमा सबसे पहले पूरी करता है!" कछुआ ने सोचा कि यह एक अच्छा मौका है अपनी धीमी गति का फायदा उठाने का, और उसने हां कह दिया। दोनों ने अपनी यात्रा शुरू की। खरगोश तेजी से भागा, जबकि कछुआ धीमी गति से चलता रहा। खरगोश ने सोचा कि वह आसानी से जीत जाएगा, इसलिए वह रास्ते में एक पेड़ के नीचे सो गया। इस बीच, कछुआ धीमी गति से चलता रहा और खरगोश को पीछे छोड़ दिया। जब खरगोश जागा, तो उसने देखा कि कछुआ पहले ही जंगल की परिक्रमा पूरी कर चुका था। खरगोश को अपनी हार स्वीकार करनी पड़ी और उसने कछुए को बधाई दी। कछुआ ने कहा, "धीमी गति से चलने में कोई बुराई नहीं है, अगर आप अपने लक्ष्य पर ध्यान केंद्रित रखते हैं और हार नहीं मानते।" इस कहानी से हमें यह सीखने को मिलता है कि धैर्य और दृढ़ता सफलता की कुंजी है, न कि सिर्फ तेजी या गति।
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एक समय की बात है, एक जंगल में एक कछुआ और एक खरगोश रहते थे। दोनों अच्छे दोस्त थे, लेकिन खरगोश को अपनी तेजी पर बहुत गर्व था। वह हमेशा कछुए को अपनी धीमी गति के लिए चिढ़ाता था।
एक दिन, खरगोश और कछुए में बहस हो गई। जंगल के सभी जानवर को बहस में इकट्ठा हो गए शेर, हाथी,भालू,तोता,मैना, हिरण,गाय,सियार, लोमड़ी, लकड़बग्घा, चिड़िया,कौवा,बैल,भैंस अजगर! उन दोनों की बहस बहुत चली आधे जानवर खरगोश की तरफ से तो कुछ जानवर कछुए की तरफ से | खरगोश ने कछुए को चुनौती दी, "चलो, देखते हैं कौन जंगल की परिक्रमा सबसे पहले पूरी करता है!" तुमको तो मैं यूं हर दूंगा कछुआ ने सोचा कि यह एक अच्छा मौका है अपने आप को साबित करने का कि मैं भी किसी से काम नहीं हूं और उसने हां कर दिया शेर चीता जैसे बड़े-बड़े जानवर खरगोश को प्रोत्साहित कर रहे थे तो कुछ तोता मैना चिड़िया की कछुए को प्रोत्साहित कर रहे थे
दोनों ने अपनी यात्रा शुरू की। खरगोश तेजी से भागा, दौड़ते हुए चलते नदी पहाड़ नदी और पहाड़ों अलार्म लगाते हुए आगे बढ़ते जा रहा था। जबकि कछुआ धीमी गति से चलता रहा। खरगोश ने सोचा कि वह आसानी से जीत जाएगा, क्योंकि बहुत तेज दौड़ता है और खरगोश अपनी तेज गति से फिनिश लाइन के पास तक के दौड़ कर आ गया और उसके बाद में उसने सोचा कि अब कछुआ तो धीरे-धीरे आएगा इतनी देर दौड़ के आएगा तो थोड़ा आराम कर लेता हूं | इसलिए वह रास्ते में एक पेड़ के नीचे सो गया।
इस बीच, कछुआ धीमी गति से चलता रहा धीरे-धीरे उसने नदी पार कर खबर रास्ते से होते हुए रास्ते वह अपनी गति से चल रहा था वह कहीं रुक नहीं धीरे-धीरे धीरे-धीरे चलता रहा और जब फिनिश लाइन पर पहुंचा तो उसने देखा कि खरगोश सोया हुआ है और कछु में खरगोश को पीछे छोड़ दिया। ओपन की लाइन तक पहुंच गया सब जानवरों की शोर से से खरगोश की नींद खुल गई तो उसने देखा कछुआ पहले ही जंगल की परिक्रमा पूरी कर चुका था।
खरगोश को अपनी हार स्वीकार करनी पड़ी और उसने कछुए को बधाई दी। कछुआ ने कहा, "धीमी गति से चलने में कोई बुराई नहीं है, अगर आप अपने लक्ष्य पर ध्यान केंद्रित रखते हैं और हार नहीं मानते।"
इस कहानी से हमें यह सीखने को मिलता है कि धैर्य और दृढ़ता सफलता की कुंजी है, न कि सिर्फ तेजी या गति। धीरे-धीरे अपने मंजिल की तरफ बढ़ते रहना चाहिए कहीं भी रुकना नहीं चाहिए अगर आप रुक गए तो फिर आपकी हर निश्चित है जैसे रुका हुआ पानी कीचड़ बन जाता है और बहता हुआ पानी पीने के लायक होता है धीरे-धीरे आगे बढ़ो सफलता आपके कदम चूमेंग विश्वास हो खुद पर तो आप अपने मंजिल तक जरूर पहुंचेंगे| हमेशा आगे बढ़ते रहिए|
इसी के साथ हमारी कहानी कछुआ खरगोश की होती है खत्म अगली कहानी अगले चैप्टर में एक नई कहानी ओर नई सिख के साथ और नहीं सीख के साथ जब तक के इंतजार कीजिए......
एक समय की बात है, एक जंगल में एक हाथी रहता था। वह बहुत बड़ा और शक्तिशाली था। एक दिन, जब वह जंगल में घूम रहा था, तो उसने एक छोटी सी चींटी को देखा।
हाथी ने चींटी को देखकर हंसने लगा और कहा, "तुम इतनी छोटी क्यों हो? तुम क्या कर सकती हो?"
चींटी ने हाथी की बात सुनी और कहा, "मैं छोटी हो सकती हूं, लेकिन मैं बहुत मजबूत हूं। मैं अपने समूह के साथ मिलकर बड़े-बड़े काम कर सकती हूं।" कहीं भी छोटी सी भी जगह में घुस सकती हूं पर तुम तुम तो इतने मोटे और विशाल का आए हो कि तुमको तो बहुत सारी जगह लगती चलने को तुम चलाते तो भूकंप आ जाता है हा हा हा हा हा
हाथी चींटी की बात बहुत बुरी लगी उसने बोला तुम मेरे को तुम्हारी बातों पर विश्वास नहीं है तुम कुछ नहीं कर सकती हो तुम मेरा मजाक उड़ा रही हो मैं तुम्हें अभी अपने पैर के नीचे मसाला सकता हूं। और अगर तुमको अपने आप पर इतना ही विश्वास है तो दिखाओ तुम क्या कर सकती हो।
चींटी ने हाथी की चुनौती स्वीकार की और अपने समूह के साथ मिलकर एक बड़ा काम करने का फैसला किया। उन्होंने एक बड़े पत्थर को हटाने का फैसला किया जो जंगल के रास्ते में पड़ा था।
और यह बात उसने हाथी को बताई तो हाथी उसका मजाक उड़ने लगा तुम वह पत्थर के उठा सकोगी वह पत्थर तो मैं एक झटके में यहां से अलग कर सकता हूं तो चींटी ने बोला नहीं मैं तुमको साबित करके दिखाऊंगी कि हम छोटे हैं पर हमारे संगठन में इतनी शक्ति है कि हम पत्थर को हटा सकते हैं
चींटी में जाकर अपनी सभी दोस्तों चीटियों को इकट्ठा किया और उनको बताया कि उसके और हाथी के बीच में बहस हो गई और उसने एक चुनौती मोल ली है
उसमें से एक चीटी ने कहा तुमको यह नहीं करना चाहिए था हाथी कितना विशालकाय है अगर हम इस चुनौती में खड़े नहीं होते तो क्या होगा
पहले वाली चींटी ने कहा कि तुम डरो मत विश्वास रखो अपने संगठन पर हम सब मिलकर काम करेंगे तो काम जल्दी हो जाएगा और हम उसका में जरुर सफल होंगे
सभी चीटियों ने उसके हमें हां मिलाई और उन्होंने अपना काम शुरू कर दिया
चींटियों ने मिलकर पत्थर को हटाने का काम शुरू किया। उन्होंने अपनी मजबूती और संगठन का उपयोग करके पत्थर को धीरे-धीरे हटाना शुरू किया। चींटीओ को काम करने में थोड़ा समय लगा पर चीटियों ने अपना पूरा दम लगाकर अपना काम निरंतर करती रही
हाथी ने चींटियों को काम करते हुए देखा और उनकी मजबूती और संगठन को देखकर आश्चर्यचकित हो गया। उसने महसूस किया कि चींटी ने सच कहा था कि वह अपने समूह के साथ मिलकर बड़े-बड़े काम कर सकती है।
हाथी ने चींटी की प्रशंसा की और कहा, "तुमने मुझे दिखा दिया कि तुम क्या कर सकती हो। तुम वास्तव में बहुत मजबूत हो।"
इस कहानी से हमें यह सीखने को मिलता है कि आकार और शक्ति से ज्यादा महत्वपूर्ण है संगठन, मजबूती और सामूहिक प्रयास।
किसी गांव में एक सेठ रहता था. उसका एक ही बेटा था, जो व्यापार के काम से परदेस गया हुआ था. सेठ की बहू एक दिन कुएँ पर पानी भरने गई. घड़ा जब भर गया तो उसे उठाकर कुएँ के मुंडेर पर रख दिया और अपना हाथ-मुँह धोने लगी. तभी कहीं से चार राहगीर वहाँ आ पहुँचे. एक राहगीर बोला, "बहन, मैं बहुत प्यासा हूँ. क्या मुझे पानी पिला दोगी?"
सेठ की बहू को पानी पिलाने में थोड़ी झिझक महसूस हुई, क्योंकि वह उस समय कम कपड़े पहने हुए थी. उसके पास लोटा या गिलास भी नहीं था जिससे वह पानी पिला देती. इसी कारण वहाँ उन राहगीरों को पानी पिलाना उसे ठीक नहीं लगा.
बहू ने उससे पूछा, "आप कौन हैं?"
राहगीर ने कहा, "मैं एक यात्री हूँ"
बहू बोली, "यात्री तो संसार में केवल दो ही होते हैं, आप उन दोनों में से कौन हैं? अगर आपने मेरे इस सवाल का सही जवाब दे दिया तो मैं आपको पानी पिला दूंगी. नहीं तो मैं पानी नहीं पिलाऊंगी."
बेचारा राहगीर उसकी बात का कोई जवाब नहीं दे पाया.
तभी दूसरे राहगीर ने पानी पिलाने की विनती की.
बहू ने दूसरे राहगीर से पूछा, "अच्छा तो आप बताइए कि आप कौन हैं?"
दूसरा राहगीर तुरंत बोल उठा, "मैं तो एक गरीब आदमी हूँ."
सेठ की बहू बोली, "भइया, गरीब तो केवल दो ही होते हैं. आप उनमें से कौन हैं?"
प्रश्न सुनकर दूसरा राहगीर चकरा गया. उसको कोई जवाब नहीं सूझा तो वह चुपचाप हट गया.
तीसरा राहगीर बोला, "बहन, मुझे बहुत प्यास लगी है. ईश्वर के लिए तुम मुझे पानी पिला दो"
बहू ने पूछा, "अब आप कौन हैं?"
तीसरा राहगीर बोला, "बहन, मैं तो एक अनपढ़ गंवार हूँ."
यह सुनकर बहू बोली, "अरे भई, अनपढ़ गंवार तो इस संसार में बस दो ही होते हैं. आप उनमें से कौन हैं?'
बेचारा तीसरा राहगीर भी कुछ बोल नहीं पाया.
अंत में चौथा राहगीह आगे आया और बोला, "बहन, मेहरबानी करके मुझे पानी पिला दें. प्यासे को पानी पिलाना तो बड़े पुण्य का काम होता है."
सेठ की बहू बड़ी ही चतुर और होशियार थी, उसने चौथे राहगीर से पूछा, "आप कौन हैं?"
वह राहगीर अपनी खीज छिपाते हुए बोला, "मैं तो..बहन बड़ा ही मूर्ख हूँ."
बहू ने कहा, "मूर्ख तो संसार में केवल दो ही होते हैं. आप उनमें से कौन हैं?"
वह बेचारा भी उसके प्रश्न का उत्तर नहीं दे सका. चारों पानी पिए बगैर ही वहाँ से जाने लगे तो बहू बोली, "यहाँ से थोड़ी ही दूर पर मेरा घर है. आप लोग कृपया वहीं चलिए. मैं आप लोगों को पानी पिला दूंगी"
चारों राहगीर उसके घर की तरफ चल पड़े. बहू ने इसी बीच पानी का घड़ा उठाया और छोटे रास्ते से अपने घर पहुँच गई. उसने घड़ा रख दिया और अपने कपड़े ठीक तरह से पहन लिए.
इतने में वे चारों राहगीर उसके घर पहुँच गए. बहू ने उन सभी को गुड़ दिया और पानी पिलाया. पानी पीने के बाद वे राहगीर अपनी राह पर चल पड़े.
सेठ उस समय घर में एक तरफ बैठा यह सब देख रहा था. उसे बड़ा दुःख हुआ. वह सोचने लगा, इसका पति तो व्यापार करने के लिए परदेस गया है, और यह उसकी गैर हाजिरी में पराए मर्दों को घर बुलाती है. उनके साथ हँसती बोलती है. इसे तो मेरा भी लिहाज नहीं है. यह सब देख अगर मैं चुप रह गया तो आगे से इसकी हिम्मत और बढ़ जाएगी. मेरे सामने इसे किसी से बोलते बतियाते शर्म नहीं आती तो मेरे पीछे न जाने क्या-क्या करती होगी. फिर एक बात यह भी है कि बीमारी कोई अपने आप ठीक नहीं होती. उसके लिए वैद्य के पास जाना पड़ता है. क्यों न इसका फैसला राजा पर ही छोड़ दूं. यही सोचता वह सीधा राजा के पास जा पहुँचा और अपनी परेशानी बताई. सेठ की सारी बातें सुनकर राजा ने उसी वक्त बहू को बुलाने के लिए सिपाही बुलवा भेजे और उनसे कहा, "तुरंत सेठ की बहू को राज सभा में उपस्थित किया जाए."
राजा के सिपाहियों को अपने घर पर आया देख उस सेठ की पत्नी ने अपनी बहू से पूछा, "क्या बात है बहू रानी? क्या तुम्हारी किसी से कहा-सुनी हो गई थी जो उसकी शिकायत पर राजा ने तुम्हें बुलाने के लिए सिपाही भेज दिए?"
बहू ने सास की चिंता को दूर करते हुए कहा, "नहीं सासू मां, मेरी किसी से कोई कहा-सुनी नहीं हुई है. आप जरा भी फिक्र न करें."
सास को आश्वस्त कर वह सिपाहियों से बोली, "तुम पहले अपने राजा से यह पूछकर आओ कि उन्होंने मुझे किस रूप में बुलाया है. बहन, बेटी या फिर बहू के रुप में? किस रूप में में उनकी राजसभा में मैं आऊँ?"
बहू की बात सुन सिपाही वापस चले गए. उन्होंने राजा को सारी बातें बताई. राजा ने तुरंत आदेश दिया कि पालकी लेकर जाओ और कहना कि उसे बहू के रूप में बुलाया गया है.
सिपाहियों ने राजा की आज्ञा के अनुसार जाकर सेठ की बहू से कहा, "राजा ने आपको बहू के रूप में आने के ले पालकी भेजी है."
बहू उसी समय पालकी में बैठकर राज सभा में जा पहुँची.
राजा ने बहू से पूछा, "तुम दूसरे पुरूषों को घर क्यों बुला लाईं, जबकि तुम्हारा पति घर पर नहीं है?"
बहू बोली, "महाराज, मैंने तो केवल कर्तव्य का पालन किया. प्यासे पथिकों को पानी पिलाना कोई अपराध नहीं है. यह हर गृहिणी का कर्तव्य है. जब मैं कुएँ पर पानी भरने गई थी, तब तन पर मेरे कपड़े अजनबियों के सम्मुख उपस्थित होने के अनुरूप नहीं थे. इसी कारण उन राहगीरों को कुएँ पर पानी नहीं पिलाया. उन्हें बड़ी प्यास लगी थी और मैं उन्हें पानी पिलाना चाहती थी. इसीलिए उनसे मैंने मुश्किल प्रश्न पूछे और जब वे उनका उत्तर नहीं दे पाए तो उन्हें घर बुला लाई. घर पहुँचकर ही उन्हें पानी पिलाना उचित था."
राजा को बहू की बात ठीक लगी. राजा को उन प्रश्नों के बारे में जानने की बड़ी उत्सुकता हुई जो बहू ने चारों राहगीरों से पूछे थे.
राजा ने सेठ की बहू से कहा, "भला मैं भी तो सुनूं कि वे कौन से प्रश्न थे जिनका उत्तर वे लोग नहीं दे पाए?"
बहू ने तब वे सभी प्रश्न दुहरा दिए. बहू के प्रश्न सुन राजा और सभासद चकित रह गए. फिर राजा ने उससे कहा, "तुम खुद ही इन प्रश्नों के उत्तर दो. हम अब तुमसे यह जानना चाहते हैं."
बहू बोली, "महाराज, मेरी दृष्टि में पहले प्रश्न का उत्तर है कि संसार में सिर्फ दो ही यात्री हैं–सूर्य और चंद्रमा. मेरे दूसरे प्रश्न का उत्तर है कि बहू और गाय इस पृथ्वी पर ऐसे दो प्राणी हैं जो गरीब हैं. अब मैं तीसरे प्रश्न का उत्तर सुनाती हूं. महाराज, हर इंसान के साथ हमेशा अनपढ़ गंवारों की तरह जो हमेशा चलते रहते हैं वे हैं–भोजन और पानी. चौथे आदमी ने कहा था कि वह मूर्ख है, और जब मैंने उससे पूछा कि मूर्ख तो दो ही होते हैं, तुम उनमें से कौन से मूर्ख हो तो वह उत्तर नहीं दे पाया." इतना कहकर वह चुप हो गई.
राजा ने बड़े आश्चर्य से पूछा, "क्या तुम्हारी नजर में इस संसार में सिर्फ दो ही मूर्ख हैं?"
"हाँ, महाराज, इस घड़ी, इस समय मेरी नजर में सिर्फ दो ही मूर्ख हैं."
राजा ने कहा, "तुरंत बतलाओ कि वे दो मूर्ख कौन हैं."
इस पर बहू बोली, "महाराज, मेरी जान बख्श दी जाए तो मैं इसका उत्तर दूं."
राजा को बड़ी उत्सुकता थी यह जानने की कि वे दो मूर्ख कौन हैं. सो, उसने तुरंत बहू से कह दिया, "तुम निःसंकोच होकर कहो. हम वचन देते हैं तुम्हें कोई सज़ा नहीं दी जाएगी."
बहू बोली, "महाराज, मेरे सामने इस वक्त बस दो ही मूर्ख हैं." फिर अपने ससुर की ओर हाथ जोड़कर कहने लगी, "पहले मूर्ख तो मेरे ससुर जी हैं जो पूरी बात जाने बिना ही अपनी बहू की शिकायत राजदरबार में की. अगर इन्हें शक हुआ ही था तो यह पहले मुझसे पूछ तो लेते, मैं खुद ही इन्हें सारी बातें बता देती. इस तरह घर-परिवार की बेइज्जती तो नहीं होती."
ससुर को अपनी गलती का अहसास हुआ. उसने बहू से माफ़ी मांगी. बहू चुप रही.
राजा ने तब पूछा, "और दूसरा मूर्ख कौन है?"
बहू ने कहा, "दूसरा मूर्ख खुद इस राज्य का राजा है जिसने अपनी बहू की मान-मर्यादा का जरा भी खयाल नहीं किया और सोचे-समझे बिना ही बहू को भरी राजसभा में बुलवा लिया."
बहू की बात सुनकर राजा पहले तो क्रोध से आग बबूला हो गया, परंतु तभी सारी बातें उसकी समझ में आ गईं. समझ में आने पर राजा ने बहू को उसकी समझदारी और चतुराई की सराहना करते हुए उसे ढेर सारे पुरस्कार देकर सम्मान सहित विदा किया.
अब समझे मूर्ख कौन?
*किसी गांव में मक्खन बेचने वाला एक व्यापारी मक्खन लाल रहता था।*
*वह स्वभाव से बहुत कंजूस था लेकिन जो भी काम करता था बड़ी मेहनत और ईमानदारी से करता था।*
*उसके मक्खन को लेने के लिए लोग दूर-दूर से आते थे।*
*एक दिन उसकी दुकान पर उसका जीजा और बहन आए। वे सीधा वृंदावन से आए थे।*
*वे उसके लिए लड्डू गोपाल जी को लेकर आए थे, बोले इनको घर लेकर जाना और इनकी प्राण प्रतिष्ठा के साथ पूजा करना।*
*मक्खन लाल बहुत ही कंजूस प्रवृत्ति का था। वह सोचने लगा कि अगर घर लेकर जाऊंगा तो मेरी बीवी इस पर सिंगार और पूजा में खूब खर्च करेगी इसलिए उसने कहा कि मैं इसको दुकान पर ही रखूंगा।*
*उसकी बहन ने कहा कि तू सुबह जब दुकान पर आया करेगा तो लड्डू गोपाल को दुकान से ही थोड़ा सा मक्खन निकाल कर भोग लगा दिया कर।*
*यह सुनकर मक्खन लाल थोड़ा सा हैरान हो गया कि अब इसके लिए भी मुझे मक्खन निकालना पड़ेगा लेकिन फिर भी उसने अपनी बहन को हां कर दी।*
*अगले दिन जब वह दुकान पर आया तो उसको याद था कि मक्खन का भोग लगाना है लेकिन वह कहता कि कोई बात नहीं अभी कल ही तो इसको लाए हैं मैं अभी दो दिन बाद लगाऊंगा।*
*उसने कहा, गोपाला अभी तो तू खा कर आया होगा। मैं दो दिन बाद तुझे भोग लगा दूंगा।*
*ऐसा कहते-कहते उसको दो हफ्ते बीत गए। लेकिन वह कंजूस मक्खन लाल रोज ही आनाकानी करने लगा।*
*एक दिन जब मक्खन लाल सुबह दुकान पर आया तो उसने देखा आधा मक्खन ही गायब है।*
*वह सोचने लगा, ऐसा कैसे हो गया? माखन कम कैसे हो गया।।*
*जितनी बिक्री रोज मक्खन की होती थी दाम तो उसको उतने मिल गए लेकिन फिर भी उसके मन में उथल-पुथल मची रही।*
*आधा मक्खन कहां चला गया। अब तो रोज का यही नियम हो गया। आधा मक्खन रोज गायब हो जाता था।*
*मक्खन लाल को बहुत चिंता हुई। वह सोचने लगा कि आज रात को मैं दुकान पर ही रुकूंगा और देखूंगा कि मक्खन कौन लेकर जाता है।*
*उस दिन वह दुकान पर ही रुक गया और आधी रात को देखता है कि एक बालक मक्खन के मटके के पास बैठ कर दोनो हाथों से मक्खन खा रहा है।*
*मक्खन लाल हैरान हो गया कि यह बालक कहां से आया? कौन इसको लेकर आया? इसके माँ बाबा कहां है और यह दोनों हाथों से मक्खन खा रहा है जैसे इसी की दुकान हो।*
*उसको बहुत गुस्सा आया। वह जाकर उस बालक को पकड़ता है और कहता है, अब नहीं छोडूंगा! पकड़ लिया, अब नहीं छोडूंगा तो वह बालक दोनों हाथों से तब भी मखन खाता रहता है।*
*उस बालक ने कहा कि, हां-हां छोडियों मत!*
*मक्खन लाल सोचता है कि इतना हठी बालक! यह तो डर भी नहीं रहा। जरूर इसके साथ कोई आया हुआ है। मैं उसको देख कर आता हूं।*
*ऐसा कहकर उधर देखने गया और जब वापस आया तो वह बालक गायब हो चुका था तो मक्खन लाल को बड़ी हैरानी हुई।*
*एकदम से बालक कहां चला गया? मन मसोस कर बैठ गया।*
*अगले दिन उसके घर जीजा और बहन आए हुए थे तो उसने उनको सारी बात बताई कि मेरी दुकान से आधा मक्खन रोज गायब हो जाता है।*
*उसकी बहन बोली, ऐसा करो! आज अपने जीजा को साथ ले जाओ और देखो कि कौन सा चोर है?*
*जब रात को जीजा और साला दुकान पर छुप कर बैठ कर देखने लगे कि कौन आया है तभी उन्होंने देखा कि एक बालक मटके के पास बैठकर दोनों हाथों से मक्खन खा रहा था*
*तभी वह दोनों उस बालक को पकड़ लेते हैं और कहते हैं कि कौन हो तुम? कहां से आए हो और यह मक्खन क्यों खा रहे हो।*
*वह बालक बोला, मैं तो वृंदावन से मक्खन लाल के दुकान की मक्खन की खुशबू के कारण ही तो यहां आया हूं और तुम लोग मुझे मक्खन खाने से रोक रहे हो।*
*वह और उसका जीजा एक दूसरे का मुंह देखने लगते हैं कि यह क्या लीला है? यह छोटा सा बालक इतनी दूर वृंदावन से मक्खन चोरी करने के लिए आया है।*
*वह पूछते हैं, तेरे मैया बाबा कहां है?*
*उसने कहा कि वो तो वृंदावन में ही हैं। मैं तो यहां मक्खन खाने के लिए आया हूं।*
*मक्खन लाल कहता है कि, तू तो मेरा घाटा करवा रहा है।*
*वह कहता है कि, क्या मक्खन बेचते हुए तुम्हें कभी घाटा हुआ है। तुम्हें तो उतने ही पैसे मिलते हैं।*
*हां यह तो बात सही है, मक्खन लाल सोचता - ये कैसे हो रहा है?*
*मक्खन लाल अपने जीजा को कहता है उसको पकड़ कर रखिए, मैं इधर-उधर देखता हूं, जरूर इसके साथ कोई है।*
*जब वो इधर उधर देखता है तो उसे वहां कोई नहीं मिलता और आकर देखता है कि वह बालक भी वहां नहीं है।*
*जीजा को पूछता है कि, बालक कहां गया तो वह कहता है कि मुझे नहीं पता चला कि वह कहां चला गया।*
*तभी उनका ध्यान लड्डू गोपाल के मुख पर पड़ता है जिनके मुख पर बहुत सारा मक्खन लगा था।*
*वह देख कर हैरान हो जाते हैं कि अरे! यह तो लड्डू गोपाल की लीला है, जो आकर यहां मक्खन खाते हैं।*
*मक्खन लाल और जीजा धन्य-धन्य हो उठते हैं कि लड्डू गोपाल जी ने तो साक्षात् हमारे मक्खन का भोग लगा लिया।*
*जीजा ने कहा कि, मैंने तो तुम्हें कहा था कि इनको रोज एक कटोरी मक्खन का भोग लगा दिया करो और तूने नहीं लगाया।*
*देखो वह अपना हिस्सा अपने आप ही ले लेते हैं।*
*मक्खन लाल कहने लगा कि, मुझसे गलती हो गई। मैं तो ऐसी इनकी लीला जानता ही नहीं था। अब तो मैं रोज इनको माखन का भोग लगा दिया करूंगा और रोज नियम से इनकी पूजा भी किया करूंगा।*
*ऐसे हैं हमारे लड्डू गोपाल जो उनको चाहिए, वह प्यार से नहीं तो हक से भी ले लेते हैं।*
*मक्खन लाल की ईमानदारी और मेहनत की कमाई थी। चाहे वह कंजूस था लेकिन उसके मक्खन की खुशबू में मेहनत और ईमानदारी थी*
*इसलिए गोपाल जी वृंदावन से माखन खाने के लिए मक्खन लाल की दुकान पर खींचे चले आए।*
एक बार लक्ष्मीजी ने शनिदेव से प्रश्न किया कि हे शनिदेव, मैं अपने प्रभाव से लोगों को धनवान बनाती हूं और आप हैं कि उनका धन छीन भिखारी बना देते हैं. आखिर आप ऐसा क्यों करते हैं?
लक्ष्मीजी का यह प्रश्न सुन शनिदेव ने उत्तर दिया- 'हे मातेश्वरी! इसमें मेरा कोई दोष नहीं जो जीव स्वयं जानबूझकर अत्याचार व भ्रष्टाचार को आश्रय देते हैं और क्रूर व बुरे कर्म कर दूसरों को रुलाते तथा स्वयं हंसते हैं, उन्हें समय अनुसार दंड देने का कार्यभार परमात्मा ने मुझे सौंपा है इसलिए मैं लोगों को उनके कर्मों के अनुसार दंड अवश्य देता हूं मैं उनसे भीख मंगवाता हूं, उन्हें भयंकर रोगों से ग्रसित बनाकर खाट पर पड़े रहने को मजबूर कर देता हूं।'
इस पर लक्ष्मीजी बोलीं- 'मैं आपकी बातों पर विश्वास नहीं करती देखिए, मैं अभी एक निर्धन व्यक्ति को अपने प्रताप से धनवान व पुत्रवान बना देती हूं।' लक्ष्मीजी ने ज्यों ही ऐसा कहा, वह निर्धन व्यक्ति धनवान एवं पुत्रवान हो गया।
तत्पश्चात लक्ष्मीजी बोलीं- अब आप अपना कार्य करें' तब शनिदेव ने उस पर अपनी दृष्टि डाली तत्काल उस धनवान का गौरव व धन सब नष्ट हो गया उसकी ऐसी दशा बन गई कि वह पहले वाली जगह पर आकर पुनः भीख मांगने लगा। यह देख लक्ष्मीजी चकित रह गईं वे शनिदेव से बोलीं कि इसका कारण मुझे विस्तार से बताएं।
तब शनिदेवजी ने बताया- 'हे मातेश्वरी, यह वह इंसान है जिसने पहले गांव के गांव उजाड़ डाले थे, जगह-जगह आग लगाई थी यह महान अत्याचारी, पापी व निर्लज्ज जीव है इसके जैसे पापी जीव के भाग्य में सुख-संपत्ति का उपभोग कहां है इसे तो अपने कुकर्मों के भोग के लिए कई जन्मों तक भुखमरी व मुसीबतों का सामना करना है आपकी दयादृष्टि से वह धनवान-पुत्रवान तो बन गया परंतु उसके पूर्वकृत कर्म इतने भयंकर थे जिसकी बदौलत उसका सारा वैभव देखते ही देखते समाप्त हो गया क्योंकि कर्म ही प्रधान है और कर्म का फल भोगने के लिए सभी बाध्य हैं.
लेकिन मैंने इसे इसके दुष्कर्मों का फल देने के लिए फिर से भिखारी बना दिया इसमें मेरा कोई दोष नहीं, दोष उसके कर्मों का है.
शनिदेवजी पुनः बोले- हे मातेश्वरी, ऐश्वर्य शुभकर्मी जीवों को प्राप्त होता है जो लोग महान सदाचारी, तपस्वी, परोपकारी, दान देने वाले होते हैं, जो सदा दूसरों की भलाई करते हैं और भगवान के भक्त होते हैं, वे ही अगले जन्म में ऐश्वर्यवान होते हैं मैं उनके शुभ कर्मों के अनुसार ही उनके धन-धान्य में वृद्धि करता हूं।
वे शुभकर्मी पुनः उस कमाए धन का दान करते हैं, मंदिर व धर्मशाला आदि बनवाकर अपने पुण्य में वृद्धि करते हैं इस प्रकार वे कई जन्मों तक ऐश्वर्य भोगते हैं।
हे मातेश्वरी! अनेक मनुष्य धन के लोभ में पड़कर ऐश्वर्य का जीवन जीने के लिए तरह-तरह के गलत कर्म कर बैठते हैं, जिसका नतीजा यह निकलता है कि वे स्वयं अपने कई जन्म बिगाड़ लेते हैं भले ही मनुष्य को अपना कम खाकर भी अपना जीवन यापन कर लेना चाहिए लेकिन बुरे कर्म करने से पहले हर मनुष्य को यह सोच लेना चाहिए इसका परिणाम भी उसे खुद ही भोगना पड़ेगा।'
इस प्रकार शनिदेव के वचन सुनकर लक्ष्मीजी बहुत प्रसन्न हुईं और बोलीं- हे शनिदेव! आप धन्य हैं प्रभु ने आप पर बहुत बड़ी जिम्मेदारी सौंपी है आपके इस स्पष्टीकरण से मुझे कर्म-विज्ञान की अनेक गूढ़ बातें समझ में आ गईं..
एक दिन सुबह सुबह दरवाजे की घंटी बजी, दरवाजा खोला तो देखा एक आकर्षक कद- काठी का व्यक्ति चेहरे पर प्यारी सी मुस्कान लिए खड़ा है मैंने कहा - जी कहिए,
तो उसने कहा - अच्छा जी, आप तो रोज़ हमारी ही गुहार लगाते थे और सामने आया हूं तो कहते हो जी कहिए
मैंने कहा - माफ कीजिये, भाई साहब मैंने पहचाना नहीं आपको...
तो वह कहने लगे - भाई साहब ! मैं वह हूँ जिसने तुम्हें साहेब बनाया है अरे ईश्वर हूँ , ईश्वर !! तुम हमेशा कहते थे न कि नज़र मे बसे हो पर नज़र नही आते लो आ गया, अब आज पूरे दिन तुम्हारे साथ ही रहूँगा।
मैंने चिढ़ते हुए कहा - ये क्या मज़ाक है? अरे मज़ाक नहीं है, सच है सिर्फ़ तुम्हे ही नज़र आऊंगा, तुम्हारे सिवा कोई देख-सुन नही पायेगा, मुझे कुछ कहता इसके पहले पीछे से माँ आ गयी अकेला ख़ड़ा-खड़ा क्या कर रहा है यहाँ,चाय तैयार है,चल आजा अंदर.."
अब उनकी बातों पे थोड़ा बहुत यकीन होने लगा था, और मन में थोड़ा सा डर भी था मैं जाकर सोफे पर बैठा ही था, तो बगल में वह आकर बैठ गए चाय आते ही जैसे ही पहला घूँट पिया मैं गुस्से से चिल्लाया - अरे मां ये हर रोज इतनी चीनी ? , इतना कहते ही ध्यान आया कि अगर ये सचमुच में ईश्वर है तो इन्हें कतई पसंद नही आयेगा कि कोई अपनी माँ पर गुस्सा करे अपने मन को शांत किया और समझा भी दिया कि भई !! तुम किसी की नज़र में हो आज ज़रा ध्यान से।' । बस फिर मैं जहाँ-जहाँ,वह मेरे पीछे-पीछे पूरे घर में थोड़ी देर बाद नहाने के लिये जैसे ही मैं बाथरूम की तरफ चला,तो उन्होंने भी कदम बढ़ा दिए..
मैंने कहा -प्रभु !! यहाँ तो बख्श दो..." खैर !! नहा कर,तैयार होकर मैं पूजा घर में गया,यकीनन पहली बार तन्मयता से प्रभु वंदन किया,क्योंकि आज अपनी ईमानदारी जो साबित करनी थी फिर आफिस के लिए निकला,
अपनी कार में बैठा तो देखा बगल में महाशय पहले से ही बैठे हुए हैं सफ़र शुरू हुआ तभी एक फ़ोन आया और फ़ोन उठाने ही वाला था कि ध्यान आया, ... 'तुम किसी की नज़र मे हो।' कार को साइड मे रोका, फ़ोन पर बात की और बात करते-करते कहने ही वाला था कि इस काम के ऊपर के पैसे लगेंगे। पर ये तो गलत था,पाप था तो प्रभु के सामने कैसे कहता तो एकाएक ही मुँह से निकल गया आप आ जाइये आपका काम हो जाएगा आज फिर उस दिन आफिस में न स्टाफ पर गुस्सा किया,न किसी कर्मचारी से बहस की 25-50 गालियाँ तो रोज़ अनावश्यक निकल ही जाती थी मुँह से,पर आज सारी गालियाँ,कोई बात नही,इट्स ओके मे तब्दील हो गयीं।
वह पहला दिन था जब क्रोध, घमंड, किसी की बुराई,लालच, अपशब्द, बेईमानी,झूठ ये सब मेरी दिनचर्या का हिस्सा नही बनें शाम को आफिस से निकला,कार में बैठा तो बगल में बैठे ईश्वर को बोल ही दिया प्रभु सीट बेल्ट लगा लें,कुछ नियम तो आप भी निभायें... उनके चेहरे पर संतोष भरी मुस्कान थी..."
घर पर रात्रि भोजन जब परोसा गया तब शायद पहली बार मेरे मुख से निकला - प्रभु !! पहले आप लीजिये।और उन्होंने भी मुस्कुराते हुए निवाला मुँह मे रखा। भोजन के बाद माँ बोली - पहली बार खाने में कोई कमी नही निकाली आज तूने। क्या बात है ? सूरज पश्चिम से निकला है क्या आज ?"
मैंने कहाँ -माँ !! आज सूर्योदय मन में हुआ है रोज़ मैं महज खाना खाता था, आज प्रसाद ग्रहण किया है माँ !! और प्रसाद मे कोई कमी नही होती थोड़ी देर टहलने के बाद अपने कमरे मे गया, शांत मन और शांत दिमाग के साथ तकिये पर अपना सिर रखा तो ईश्वर ने प्यार से सिर पर हाथ फिराया और कहा -आज तुम्हे नींद के लिए किसी संगीत, किसी दवा और किसी किताब के सहारे की ज़रुरत नहीं है गालों की थपकी ने गहरी नींद को हिला दिया !! कब तक सोयेगा।जाग जा अब। मां की आवाज थी वह सपना था शायद हाँ !! सपना ही था,पर आज का यह सपना मुझे जीवन की गहरी नीँद से जगा गया अब समझ में आ गया उसका इशारा कि - तुम मेरी नज़र में हो...।"
जिस दिन हम ये समझ जायेंगे कि वो देख रहा है,हम उसकी नजर में हैं उस दिन से हमारी जीवन यात्रा सरल व सुखद हो जायेगी..!!🙏
एक धनी व्यक्ति का बटुआ बाजार में गिर गया। उसे घर पहुंच कर इस बात का पता चला। बटुए में जरूरी कागजों के अलावा कई हजार रुपये भी थे। फौरन ही वो मंदिर गया और प्रार्थना करने लगा कि बटुआ मिलने पर प्रसाद चढ़ाउंगा, गरीबों को भोजन कराउंगा आदि।
संयोग से वो बटुआ एक बेरोजगार युवक को मिला। बटुए पर उसके मालिक का नाम लिखा था। इसलिए उस युवक ने सेठ के घर पहुंच कर बटुआ उन्हें दे दिया। सेठ ने तुरंत बटुआ खोलकर देखा। उसमें सभी कागजात और रुपये यथावत थे।
सेठ ने प्रसन्न हो कर युवक की ईमानदारी की प्रशंसा की और उसे बतौर इनाम कुछ रुपये देने चाहे, जिन्हें लेने से युवक ने मना कर दिया। इस पर सेठ ने कहा, अच्छा कल फिर आना।
युवक दूसरे दिन आया तो सेठ ने उसकी खूब खातिरदारी की। युवक चला गया। युवक के जाने के बाद सेठ अपनी इस चतुराई पर बहुत प्रसन्न था कि वह तो उस युवक को सौ रुपये देना चाहता था। पर युवक बिना कुछ लिए सिर्फ खा-पी कर ही चला गया।
उधर युवक के मन में इन सब का कोई प्रभाव नहीं था, क्योंकि उसके मन में न कोई लालसा थी और न ही बटुआ लौटाने के अलावा और कोई विकल्प ही था।
सेठ बटुआ पाकर यह भूल गया कि उसने मंदिर में कुछ वचन भी दिए थे।सेठ ने अपनी इस चतुराई का अपने मुनीम और सेठानी से जिक्र करते हुए कहा कि देखो वह युवक कितना मूर्ख निकला।
हजारों का माल बिना कुछ लिए ही दे गया। सेठानी ने कहा, तुम उल्टा सोच रहे हो। वह युवक ईमानदार था। उसके पास तुम्हारा बटुआ लौटा देने के अलावा और कोई विकल्प नहीं था। उसने बिना खोले ही बटुआ लौटा दिया। वह चाहता तो सब कुछ अपने पास ही रख लेता। तुम क्या करते?
ईश्वर ने दोनों की परीक्षा ली। वो पास हो गया, तुम फेल। अवसर स्वयं तुम्हारे पास चल कर आया था, तुमने लालच के वश उसे लौटा दिया। अब अपनी गलती को सुधारो और जाओ उसे खोजो। उसके पास ईमानदारी की पूंजी है, जो तुम्हारे पास नहीं है। उसे काम पर रख लो।
सेठ तुरंत ही अपने कर्मचारियों के साथ उस युवक की तलाश में निकल पड़ा। कुछ दिनों बाद वह युवक किसी और सेठ के यहां काम करता मिला।
सेठ ने युवक की बहुत प्रशंसा की और बटुए वाली घटना सुनाई, तो उस सेठ ने बताया, उस दिन इसने मेरे सामने ही बटुआ उठाया था।
मैं तभी अपने गार्ड को लेकर इसके पीछे गया। देखा कि यह तुम्हारे घर जा रहा है। तुम्हारे दरवाजे पर खड़े हो कर मैंने सब कुछ देखा व सुना। और फिर इसकी ईमानदारी से प्रभावित होकर इसे अपने यहां मुनीम रख लिया।
इसकी ईमानदारी से मैं पूरी तरह निश्चिंत हूं। बटुए वाला सेठ खाली हाथ लौट आया। पहले उसके पास कई विकल्प थे, उसने निर्णय लेने में देरी की उस ने एक विश्वासी पात्र खो दिया। युवक के पास अपने सिद्धांत पर अटल रहने का नैतिक बल था। उसने बटुआ खोलने के विकल्प का प्रयोग ही नहीं किया। युवक को ईमानदारी का पुरस्कार मिल गया दूसरे सेठ के पास निर्णय लेने की क्षमता थी। उसे एक उत्साही, सुयोग्य और ईमानदार मुनीम मिल |
जब मृत्यु का समय न्निकट आया तो पिता ने अपने एकमात्र पुत्र धनपाल को बुलाकर कहा कि..
बेटा मेरे पास धन-संपत्ति नहीं है कि मैं तुम्हें विरासत में दूं। पर मैंने जीवनभर सच्चाई और प्रामाणिकता से काम किया है।
तो मैं तुम्हें आशीर्वाद देता हूं कि, तुम जीवन में बहुत सुखी रहोगे और धूल को भी हाथ लगाओगे तो वह सोना बन जायेगी।
बेटे ने सिर झुकाकर पिताजी के पैर छुए। पिता ने सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया और संतोष से अपने प्राण त्याग कर दिए।
अब घर का खर्च बेटे धनपाल को संभालना था। उसने एक छोटी सी ठेला गाड़ी पर अपना व्यापार शुरू किया।
धीरे धीरे व्यापार बढ़ने लगा। एक छोटी सी दुकान ले ली। व्यापार और बढ़ा।
अब नगर के संपन्न लोगों में उसकी गिनती होने लगी। उसको विश्वास था कि यह सब मेरे पिता के आशीर्वाद का ही फल है।
क्योंकि, उन्होंने जीवन में दु:ख उठाया, पर कभी धैर्य नहीं छोड़ा, श्रद्धा नहीं छोड़ी, प्रामाणिकता नहीं छोड़ी इसलिए उनकी वाणी में बल था।
और उनके आशीर्वाद फलीभूत हुए। और मैं सुखी हुआ। उसके मुंह से बारबार यह बात निकलती थी।
एक दिन एक मित्र ने पूछा: तुम्हारे पिता में इतना बल था, तो वह स्वयं संपन्न क्यों नहीं हुए? सुखी क्यों नहीं हुए?
धर्मपाल ने कहा: मैं पिता की ताकत की बात नहीं कर रहा हूं। मैं उनके आशीर्वाद की ताकत की बात कर रहा हूं।
इस प्रकार वह बारबार अपने पिता के आशीर्वाद की बात करता, तो लोगों ने उसका नाम ही रख दिया बाप का आशीर्वाद!
धर्मपाल को इससे बुरा नहीं लगता, वह कहता कि मैं अपने पिता के आशीर्वाद के काबिल निकलूं, यही चाहता हूं।
ऐसा करते हुए कई साल बीत गए। वह विदेशों में व्यापार करने लगा। जहां भी व्यापार करता, उससे बहुत लाभ होता।
एक बार उसके मन में आया, कि मुझे लाभ ही लाभ होता है !! तो मैं एक बार नुकसान का अनुभव करूं।
तो उसने अपने एक मित्र से पूछा, कि ऐसा व्यापार बताओ कि जिसमें मुझे नुकसान हो।
मित्र को लगा कि इसको अपनी सफलता का और पैसों का घमंड आ गया है। इसका घमंड दूर करने के लिए इसको ऐसा धंधा बताऊं कि इसको नुकसान ही नुकसान हो।
तो उसने उसको बताया कि तुम भारत में लौंग खरीदो और जहाज में भरकर अफ्रीका के जंजीबार में जाकर बेचो। धर्मपाल को यह बात ठीक लगी।
जंजीबार तो लौंग का देश है। वहां से लौंग भारत में लाते हैं और यहां 10-12 गुना भाव पर बेचते हैं।
भारत में खरीद करके जंजीबार में बेचें, तो साफ नुकसान सामने दिख रहा है।
परंतु धर्मपाल ने तय किया कि मैं भारत में लौंग खरीद कर, जंजीबार खुद लेकर जाऊंगा। देखूं कि पिता के आशीर्वाद कितना साथ देते हैं।
नुकसान का अनुभव लेने के लिए उसने भारत में लौंग खरीदे और जहाज में भरकर खुद उनके साथ जंजीबार द्वीप पहुंचा।
जंजीबार में सुल्तान का राज्य था। धर्मपाल जहाज से उतरकर के और लंबे रेतीले रास्ते पर जा रहा था ! वहां के व्यापारियों से मिलने को।
उसे सामने से सुल्तान जैसा व्यक्ति पैदल सिपाहियों के साथ आता हुआ दिखाई दिया।
उसने किसी से पूछा कि, यह कौन है?
उन्होंने कहा: यह सुल्तान हैं।
सुल्तान ने उसको सामने देखकर उसका परिचय पूछा। उसने कहा: मैं भारत के गुजरात के खंभात का व्यापारी हूं। और यहां पर व्यापार करने आया हूं।
सुल्तान ने उसको व्यापारी समझ कर उसका आदर किया और उससे बात करने लगा।
धर्मपाल ने देखा कि सुल्तान के साथ सैकड़ों सिपाही हैं। परंतु उनके हाथ में तलवार, बंदूक आदि कुछ भी न होकर बड़ी-बड़ी छलनियां है।
उसको आश्चर्य हुआ। उसने विनम्रता पूर्वक सुल्तान से पूछा: आपके सैनिक इतनी छलनी लेकर के क्यों जा रहे हैं।
सुल्तान ने हंसकर कहा: बात यह है, कि आज सवेरे मैं समुद्र तट पर घूमने आया था। तब मेरी उंगली में से एक अंगूठी यहां कहीं निकल कर गिर गई।
अब रेत में अंगूठी कहां गिरी, पता नहीं। तो इसलिए मैं इन सैनिकों को साथ लेकर आया हूं। यह रेत छानकर मेरी अंगूठी उसमें से तलाश करेंगे।
धर्मपाल ने कहा: अंगूठी बहुत महंगी होगी।
सुल्तान ने कहा: नहीं! उससे बहुत अधिक कीमत वाली अनगिनत अंगूठी मेरे पास हैं। पर वह अंगूठी एक फकीर का आशीर्वाद है।
मैं मानता हूं कि मेरी सल्तनत इतनी मजबूत और सुखी उस फकीर के आशीर्वाद से है। इसलिए मेरे मन में उस अंगूठी का मूल्य सल्तनत से भी ज्यादा है।
इतना कह कर के सुल्तान ने फिर पूछा: बोलो सेठ, इस बार आप क्या माल ले कर आये हो।
धर्मपाल ने कहा कि: लौंग!
सुल्तान के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। यह तो लौंग का ही देश है सेठ। यहां लौंग बेचने आये हो? किसने आपको ऐसी सलाह दी।
जरूर वह कोई आपका दुश्मन होगा। यहां तो एक पैसे में मुट्ठी भर लोंग मिलते हैं। यहां लोंग को कौन खरीदेगा? और तुम क्या कमाओगे?
धर्मपाल ने कहा: मुझे यही देखना है, कि यहां भी मुनाफा होता है या नहीं।
मेरे पिता के आशीर्वाद से आज तक मैंने जो धंधा किया, उसमें मुनाफा ही मुनाफा हुआ। तो अब मैं देखना चाहता हूं कि उनके आशीर्वाद यहां भी फलते हैं या नहीं।
सुल्तान ने पूछा: पिता के आशीर्वाद? इसका क्या मतलब?
धर्मपाल ने कहा: मेरे पिता सारे जीवन ईमानदारी और प्रामाणिकता से काम करते रहे। परंतु धन नहीं कमा सकें।
उन्होंने मरते समय मुझे भगवान का नाम लेकर मेरे सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिए थे, कि तेरे हाथ में धूल भी सोना बन जाएगी।
ऐसा बोलते-बोलते धर्मपाल नीचे झुका और जमीन की रेत से एक मुट्ठी भरी और सम्राट सुल्तान के सामने मुट्ठी खोलकर उंगलियों के बीच में से रेत नीचे गिराई तो..
धर्मपाल और सुल्तान दोनों का आश्चर्य का पार नहीं रहा। उसके हाथ में एक हीरेजड़ित अंगूठी थी। यह वही सुल्तान की गुमी हुई अंगूठी थी।
अंगूठी देखकर सुल्तान बहुत प्रसन्न हो गया। बोला: वाह खुदा आप की करामात का पार नहीं। आप पिता के आशीर्वाद को सच्चा करते हो।
धर्मपाल ने कहा: फकीर के आशीर्वाद को भी वही परमात्मा सच्चा करता है।
सुल्तान और खुश हुआ। धर्मपाल को गले लगाया और कहा: मांग सेठ। आज तू जो मांगेगा मैं दूंगा।
धर्मपाल ने कहा: आप 100 वर्ष तक जीवित रहो और प्रजा का अच्छी तरह से पालन करो। प्रजा सुखी रहे। इसके अलावा मुझे कुछ नहीं चाहिए।
सुल्तान और अधिक प्रसन्न हो गया। उसने कहा: सेठ तुम्हारा सारा माल में आज खरीदता हूं और तुम्हारी मुंह मांगी कीमत दूंगा।
इस कहानी से शिक्षा मिलती है, कि पिता के आशीर्वाद हों, तो दुनिया की कोई ताकत कहीं भी तुम्हें पराजित नहीं होने देगी।
*पिता और माता की सेवा का फल निश्चित रूप से मिलता है। आशीर्वाद जैसी और कोई संपत्ति नहीं।*
बालक के मन को जानने वाली मां और भविष्य को संवारने वाले पिता यही दुनिया के दो महान ज्योतिषी है।
अपने बुजुर्गों का सम्मान करें! यही भगवान की सबसे बड़ी सेवा है....
गाँव के आखिरी कोने में दो वृद्धाएँ रहती थीं, दोनों के घर की दीवार एक थी। घर के सामने छोटे से टीले पर साधु-संतों का एक आश्रम था। दोनों बुढियां आश्रम में काम करने जातीं। संतों की कृपा से उन्हें कभी अन्न-वस्त्र का अभाव न हुआ।
एक साथ रहतीं, एक साथ काम करतीं, फिर भी दोनों के स्वभाव में जमीन-आसमान का अंतर था। एक उदार थी, देने योग्य तो उसके पास नहीं के बराबर ही था, परन्तु अपने-जैसे गरीबों को समय-समय पर कुछ-न-कुछ जरूर दिया करती थी। दूसरी कंजूस थी, देने योग्य उसके पास बहुत कुछ एकत्रित हुआ था, परन्तु कभी किसी को कुछ भी नहीं देती थी।
एक संध्या को गगन में बादल गरजने लगे, बिजली चमकने लगी और मूसलाधार जल-वृष्टि आरम्भ हुई। दोनों बुढियां अपने-अपने घरों में घुस चुकी थीं। अचानक कंजूस बुढ़िया के दरवाजे पर दस्तक सुनाई दी। बुढिया भोजन करने बैठी ही थी। शायद कोई तूफान में फँसा हुआ मुसाफिर होगा, जो भोजन में हिस्सा चाहेगा -- ऐसा सोचकर बुढ़िया ने जल्दी-जल्दी जितना खा सकती थी, खा लिया। जो बचा उसको ढक दिया और तब निवृत होकर दरवाजा खोला। खोलते-खोलते बोली -- रात-दिन न जाने कहाँ से ऐसी आफत चली आती है, पलभर भी आराम नहीं करने देती।
परन्तु ज्यों ही उसने दरवाजा खोला -- एक सौम्य शान्त साधु की मूर्ति उसे दिखाई पड़ी। बुढ़िया स्तब्ध हो गयी। साधु ने वर्षा से बचने के लिए सिरपर एक मोटी बोरी डाल रखी थी।
भीगी बोरी से पानी की बूँदें टपक रही थीं। रोटी का एक टुकड़ा मिलेगा मैया ? साधु ने मौन तोड़ा। बुढ़िया जानती थी कि ऐसे साधु-संत जरा-सी सेवा के बदले बहुत कुछ दे जाते हैं, इसलिए उसने तुरंत ही भोजन की थाली हाजिर की। बदले में बहुत मिलने की आशा हो, तब थोड़ा-सा दे देने में बुढ़िया भला क्यों हिचकिचाने लगी ?
साधु भोजन करने बैठे। वृद्धा साधु के मुँह की और देखती रही। साधु के चेहरे पर एक अद्वितीय तेज झलक रहा था। आश्रम के सभी साधुओं को वह पहचानती थी, पर इनको कभी न देखा था। इनके चेहरे पर ऐसी सुकोमल नम्रता और पवित्रता थी की प्रथम दृष्टि में ही इनके अन्तस्तल का आर-पार देखा जा सकता था। पर वृद्धा को यह देखने का अवकाश कहाँ ? साधू कौन है ? उससे अधिक साधु क्या लाया है ? यह जानने के लिए वह आतुर थी !
'कितना भयंकर तूफान है' -- साधु बोले।
'धनवानों की तो चिन्ता नहीं, पर बेचारे निरीह निर्धनों का क्या होगा ? अनाथों का कौन ? यदि संसार में साधु-संतों की कृपादृष्टि न होती तो मुझ- जैसी गरीब की क्या दशा होती भगवन् !' वृद्धा ने कहा।
'इसीलिए तो मैया ! मैं तुम्हारे दरवाजे पर आया हूँ। जो भूखे को अन्न और वस्त्रहीन को वस्त्र देता है, वह धन्य है, स्वर्ग की सभी सीढियाँ उसके पास है ' साधु ने कहा -- उनके मुहँ पर दीप्ती दिखी।
'क्या कहते हैं उसके भाग्य को ?' साधु उदारता से कुछ दे जायेगा, इस आशा में हर्षित हो बुढ़िया बोली।
'माँ तेरे भाग्य की बलिहारी है, तुझसे भी अधिक गरीब और दुःखी लोगों के लिये मदद माँगने मैं यहाँ आया हूँ। दो अपरिचित महिलाएँ आश्रम में आश्रय-हेतु आयी हैं, बिजली गिरने से दोनों के घर गिरकर ढेर हो गये हैं। घरका सब कुछ स्वाहा हो गया है। बेचारी निष्किंचन और निराधार बुढ़िया ........ आश्रम के सभी खण्ड ऐसे ही निराश्रितों से भर गये हैं। फिर भी हमने उन्हें आश्रय दिया है, परन्तु पहनने-ओढ़ने का हमारे पास कुछ भी तो नहीं है ..... तुम यदि आजकी रातभर के लिए कुछ ओढने-बिछाने को देदो तो सुबह जब कुछ लोग चले जायेंगे, हम तुम्हें लौटा देंगे।
तुम्हारा तो सुरक्षित घर है, इसलिए कुछ-न-कुछ जरूर दे सकोगी।' साधु ने मदद माँगी, बुढ़िया निराश हो गयी, उसकी आवाज मन्द हो गयी -- 'महाराज ! कुछ दूर पधारते तो धनवानों की कहाँ कमी थी, मुझ गरीब का ही घर आपको मिला, मेरी हालत ही दान लेने जैसी है, इसका भी तो ख्याल किया होता।'
'एक कम्बल भी न दे सकोगी माई ? वे बेचारी ठण्ड से काँप रही हैं।'
बुढ़िया चौंकी, अभी थोड़े ही दिनों पहले उसे एक सुन्दर गरम कम्बल मिला था, वह कमरे में गयी और सोचने लगी। 'नया कम्बल तो कैसे दे दिया जाये।' उसने पुराना कम्बल उठाया और उसे तह करके रख दिया। पुराने कम्बल के भी उसे अनेक गुण याद आ रहे थे -- 'पुरे सात साल से इसका उपयोग करती हूँ, फिर भी अभी वैसा ही है, वे भटकती बुढ़िया न जाने कहाँ से आयी होगी, नींद में लात मारकर मेरे कम्बल को न जाने कैसा कर डालेंगी ?' भटकने वालों को क्या भान रहेगा ? जिन्दगी में कभी कम्बल देखा हो तब न ....वे तो बोरियों पर सोने वाली ....!'
ज्यों-ज्यों वह सोचती गयी, त्यों-त्यों उसे अपना अनुमान सच्चा प्रतीत होने लगा। अचानक उसे याद आया कि ऐसे लोगों में बहुत से रोगी होते हैं, उनके लिए कम्बल कैसे दिया जाये ? दो साल पहले कुछ रोगी आये थे, उन्होंने जिन वस्तुओं का उपयोग किया था, उन्हें जला दिया गया था। कहीं मेरे कम्बल की भी वही दशा हो तो ! इतना सुन्दर कम्बल कैसे जला डाला जाये, अभी तो यह दस साल और काम दे सकेगा। फिर एक पतली रजाई उठाई, लेकिन तुरंत ही न ....न ....न यह तो मेरे बाप के घर की है, कहकर रख दी। एक पुरानी जीर्ण चद्दर को जो दीवार पर लटक रही थी, लेकर समेटने लगी। परन्तु फिर सोचा ऐरे-गैरे दिनों में यही चद्दर कम्बल का काम देती है, इसे कैसे दे दूँ ? दुःखित ह्रदय से एक दूसरी जीर्ण चादर लेकर वह बहार आयी। 'आज यह ऐसी दिखती है, पर जब खरीदी उस समय बहुत ही सुन्दर थी, आठ आने से कम तो नहीं लगे होंगे।'
'इससे अधिक आप कुछ भी नहीं दे सकतीं ?' साधु ने चादर को कन्धे पर डालते हुए पूछा। 'हाय-हाय मेरे घर में देने योग्य क्या है ? अब क्या दूँ ? सारी रात मुझे भी तो अब ठण्ड में ठिठुर-ठिठुर कर काटनी पड़ेगी।'
'बेचारी औरतें ठण्ड में ठिठुरती हैं। तुम्हारी तरह ही वृद्धा हैं। सब कुछ गँवा बैठी हैं। कुछ तो देदो।'
किन्तु बुढ़िया के पत्थर-दिल पर कोई प्रभाव न पड़ा। साधु वहाँ से निकलकर पासकी दूसरी बुढ़िया के घर गये । यहाँ भी उन्होंने वही बात कही। निराधार वृद्धाओं की हालत सुनकर वृद्धा का ह्रदय भर आया। ठीक ही है ' घायल की गति घायल जाने।' वह बोली -- 'भगवान् की दया से मुझे अभी ही यह नया कम्बल मिला है, लीजिये, ले जाइये' और उसने कम्बल दे दिया। तुरंत ही बोली -- 'यह पुराना भी लेते जाइये, काम आयेगा, यह रजाई भी और यह चादर भी यहाँ किस काम आयेगी ? एक रात तो मैं किसी तरह भी काट लूंगी, बेचारी वे औरतें ठण्ड से ठिठुर रही होंगी। मेरे कपड़े भी उनके काम आयेंगे, इन्हें भी ले जाइये।' बुढ़िया ने जितना दिया, उतना साधु ने चुपचाप ले लिया। उनके मुख पर उज्जवल मुस्कान लहरा रही था।
'लीजिये, यह भी ले जाइये और यह भी, रात में कोई बेचारा भूला-भटका आ जायेगा तो काम आयेगा। मैं तो बोरी पर ही रात काट लूंगी।' बुढ़िया ने करीब-करीब घर का सब कुछ दे दिया।
साधु के जाने के बाद आँधी अधीर हो उठी, नभ में भयंकर गर्जन होने लगी, प्रलयंकारी पवन चलने लगा, वृक्ष धड़ाधड़ गिरने लगे। अचानक एक भयंकर बिजली चमकी और उन दोनों वृद्धाओं के मकानों पर गिरकर जमीन में उतर गयी। वृद्धाएँ बच गयीं, परन्तु दोनों के घर और घर का सब कुछ स्वाहा हो गया। दुःख से बिलखती दोनों वृद्धाएँ तूफ़ान में ठोकरें खाने लगीं।
'इधर चलिए वहां मेरे आश्रम में' -- उन्हीं साधु की सुमुधुर वाणी सुनाई पड़ी। दोनों का हाथ पकड़कर साधु उनको आश्रम में ले आये। दीवार के पास छप्पर के नीचे उदार वृद्धा की दी हुई सभी वस्तुएं ज्यों-की-त्यों रखी हुई थीं।
'यह तेरा है और तुझे वापस मिलता है, माई !' साधु ने कहा ! 'तूने जो दान दिया वह खुद को ही दिया है।' परन्तु उन दोनों वृद्धाओं का क्या हुआ ? उदार वृद्धा ने चिन्तित हो पूछा।
'वे दोनों तुम ही हो, तुमने उदार बनकर निराश्रितों के लिए जो कुछ बचाया, वही भगवान् ने तुम्हारे लिए बचाया है।' -- साधु बोले।
फिर दूसरी बुढ़िया की ओर देखकर उन्होंने जीर्ण चादर देते हुए कहा -- 'तेरा सब कुछ नष्ट हो गया, सिर्फ इतना ही बचा है; क्योंकि इतना ही तुने बचाया था। आज ऐसी दिखती है, जब ली थी तब बहुत सुन्दर थी, आठ आने से कम नहीं लगा होगा।'
कंजूस बुढ़िया कुछ न बोली। सिर्फ मुँह निचा किये रही।
एक समय की बात है। एक राजा था जिस का नाम देवरथ था, बहुत प्रभावशाली, बुद्धि और वैभव से संपन्न। आस-पास के राजा भी समय-समय पर उससे परामर्श लिया करते थे। एक दिन राजा अपनी शैया पर लेेटे-लेटे सोचने लगा, मैं कितना भाग्यशाली हूं। कितना विशाल है मेरा परिवार, कितना समृद्ध है मेरा अंत:पुर, कितनी मजबूत है मेरी सेना, कितना बड़ा है मेरा राजकोष। ओह! मेरे खजाने के सामने कुबेर के खजाने की क्या बिसात? मेरे राजनिवास की शोभा को देखकर अप्सराएं भी ईर्ष्या करती होंगी। मेरा हर वचन आदेश होता है। राजा कवि हृदय था और संस्कृृत का विद्वान था।
अपने भावों को उसने शब्दों में पिरोना शुरू किया। तीन चरण बन गए, चौथी लाइन पूरी नहीं हो रही थी। जब तक पूरा श्लोक नहीं बन जाता, तब तक कोई भी रचनाकार उसे बार-बार दोहराता है। राजा भी अपनी वे तीन लाइनें बार-बार गुनगुना रहा था -
*चेतोहरा: युवतय: स्वजनाऽनुकूला: सद्बान्धवा: प्रणयगर्भगिरश्च भृत्या: गर्जन्ति दन्तिनिवहास्विरलास्तुरंगा:* -मेरी चित्ताकर्षक रानियां हैं, अनुकूल स्वजन वर्ग है, श्रेष्ठ कुटुंबी जन हैं। कर्मकार विनम्र और आज्ञापालक हैं, हाथी, घोड़ों के रूप में विशाल सेना है.
लेकिन बार-बार गुनगुनाने पर भी चौथा-चरण बन नहीं रहा था। संयोग की बात है कि उसी रात एक चोर राजमहल में चोरी करने के लिए आया था। मौका पाकर वह राजा के शयनकक्ष में घुस गया और पलंग के नीचे दुबक कर कर बैठ गया। चोर भी संस्कृत भाषाका ज्ञानी और कवि था। राजा द्वारा गुनगुनाए जाते श्लोक के तीन चरण चोर ने सुन लिए। राजा के दिमाग में चौथी लाइन नहीं बन रही है , यह भी वह जान गया लेकिन तीन लाइनें सुन कर उस चोर का कवि मन भी उसे पूरा करने के लिए मचलने लगा। वह भूल गया कि वह चोर है और राजा के कक्ष में चोरी करने घुसा है। अगली बार राजा ने जैसे ही वे तीन लाइनें पूरी कीं , चोर के मुंह से चौथी लाइन निकल पड़ी ,
*सम्मीलने नयनयोर्नहि किंचिदस्ति॥*
. राज्य , वैभव आदि सब तभी तक है , जब तक आंख खुली है। आंख बंद होने के बाद कुछ नहीं है। अत : किस पर गर्व कर रहे हो ?
चोर की इस एक पंक्ति ने राजा की आंखें खोल दीं। उसे सम्यक् दृष्टि मिल गई। वह चारों ओर विस्फारित नेत्रों से देखने लगा - ऐसी ज्ञान की बात किसने कही ? कैसे कही ?
उसने आवाज दी , पलंग के नीचे जो भी है , वह मेरे सामने उपस्थित हो। चोर सामने आ कर खड़ा हुआ। फिर हाथ जोड़ कर राजा से बोला ,
हे राजन ! मैं आया तो चोरी करने था , पर आप के द्वारा पढ़ा जा रहा श्लोक सुनकर यह भूल गया कि मैं चोर हूं। मेरा काव्य प्रेम उमड़ पड़ा और मैं चौथे चरण की पूर्ति करने का दुस्साहस कर बैठा। हे राजन ! मैं अपराधी हूं। मुझे क्षमा कर दें। राजा ने कहा , तुम अपने जीवन में चाहे जो कुछ भी करते हो , इस क्षण तो तुम मेरे गुरु हो। तुमने मुझे जीवन के यथार्थ का परिचय कराया है। आंख बंद होने के बाद कुछ भी नहीं रहता - यह कह कर तुमने मेरा सत्य से साक्षात्कार करवा दिया। गुरु होने के कारण तुम मुझसे जो चाहो मांग सकते हो। चोर की समझ में कुछ नहीं आया लेकिन राजा ने आगे कहा -- आज मेरे ज्ञान की आंखें खुल गईं। इसलिए शुभस्य शीघ्रम् - इस सूक्त को आत्मसात करते हुए मैं शीघ्र ही संन्यास लेना चाहता हूं। राज्य अब तृण के समान प्रतीत हो रहा है। तुम यदि मेरा राज्य चाहो तो मैं उसे सहर्ष देने के लिए तैयार हूं।
चोर बोला , राजन ! आपको जैसे इस वाक्य से बोध पाठ मिला है , वैसे ही मेरा मन भी बदल गया है। मैं भी संन्यास स्वीकार करना चाहता हूं। राजा और चोर दोनों संन्यासी बन गए।
एक ही पंक्ति ने दोनों को स्पंदित कर दिया। यह है सम्यक द्रष्टि का परिणाम। जब तक राजा की दृष्टि सम्यक् नहीं थी , वह धन - वैभव , भोग - विलास को ही सब कुछ समझ रहा था। ज्यों ही आंखों से रंगीन चश्मा उतरा , दृष्टि सम्यक् बनी कि पदार्थ पदार्थ हो गया और आत्मा-आत्मा।
बहुत समय पहले की बता हैं एक बार एक महात्मा जी निर्जन वन में भगवद्चिंतन के लिए जा रहे थे तो उन्हें एक मानव नाम के व्यक्ति ने रोक लिया।
वह व्यक्ति अत्यंत गरीब था बड़ी मुश्किल से दो वक्त की रोटी जुटा पाता था मानव के पास रहने को घर भी नहीं था ने पहनें के लिया अच्छे कपडे। मानव ने महात्मा से कहा..
महात्मा जी, आप परमात्मा को जानते है, उनसे बातें करते है अब यदि परमात्मा से मिले तो उनसे कहियेगा कि मुझे सारी उम्र में जितनी दौलत मिलनी है, कृपया वह एक साथ ही मिल जाये ताकि कुछ दिन तो में चैन से जी सकूँ। गरीबी से मेरा बहुत बुरे हाला हैं।
महात्मा ने उसे समझाया - मैं तुम्हारी दुःख भरी कहानी परमात्मा को सुनाऊंगा लेकिन तुम जरा खुद भी सोचो, यदि भाग्य की सारी दौलत एक साथ मिल जायेगी तो आगे की ज़िन्दगी कैसे गुजारोगे ?
कुछ पल सोचाने के बढ़ भी मानव अपनी बात से नहीं पलटा ओर
वह व्यक्ति अपनी बात पर अडिग रहा महात्मा उस व्यक्ति को आशा दिलाते हुए आगे बढ़ गए। तुम मेरा साथ चलो ओर भगवान के खुद अपनी अर्जी दे देना।
मानव को उस की बात सही लगी ओर वो भी संत के साथ रहने लगा।
इन्हीं दिनों में उसे ईश्वरीय ज्ञान मिल चूका था। महात्मा जी ने उस व्यक्ति के लिए अर्जी डाली। परमात्मा की कृपा से कुछ दिनों बाद उस व्यक्ति को काफी धन - दौलत मिल गई जब धन -दौलत मिल गई तो उसने सोचा,-मैंने अब तक गरीबी के दिन काटे है, ईश्वरीय सेवा कुछ भी नहीं कर पाया।
अब मुझे भाग्य की सारी दौलत एक साथ मिली है क्यों न इसे ईश्वरीय सेवा में लगाऊँ क्योंकी इसके बाद मुझे दौलत मिलने वाली नहीं ऐसा सोचकर उसने लगभग सारी दौलत ईश्वरीय सेवा में लगा दी।
समय गुजरता गया लगभग दो वर्ष पश्चात् महात्मा जी उधर से गुजरे तो उन्हें उस व्यक्ति की याद आयी महात्मा जी सोचने लगे - वह व्यक्ति जरूर आर्थिक तंगी में होगा क्योंकी उसने सारी दौलत एक साथ पायी थी और कुछ भी उसे प्राप्त होगा नहीं यह सोचते -सोचते महात्मा जी उसके घर के सामने पहुँचे.
लेकिन यह क्या ! झोपड़ी की जगह महल खड़ा था ! जैसे ही उस व्यक्ति की नज़र महात्मा जी पर पड़ी, महात्मा जी उसका वैभव देखकर आश्चर्य चकित हो गए भाग्य की सारी दौलत कैसे बढ़ गई ?
वह व्यक्ति नम्रता से बोला, महात्माजी, मुझे जो दौलत मिली थी, वह मैंने चन्द दिनों में ही ईश्वरीय सेवा में लगा दी थी उसके बाद दौलत कहाँ से आई - मैं नहीं जनता इसका जवाब तो परमात्मा ही दे सकता है।
महात्मा जी वहाँ से चले गये और एक विशेष स्थान पर पहुँच कर ध्यान मग्न हुए उन्होंने परमात्मा से पूछा - यह सब कैसे हुआ ? महात्मा जी को आवाज़ सुनाई दी...
किसी की चोर ले जाये , किसी की आग जलाये
धन उसी का सफल हो जो ईश्वर अर्थ लगाये..
*तात्पर्य:-*
जो व्यक्ति जितना कमाता है उस में का कुछ हिस्सा अगर ईश्वरीय सेवा कार्य में लगता है तो उस का फल अवश्य मिलता है इसलिए कहा गया है सेवा का फल तो मेवा है!
दक्षिण में गोदावरी के किनारे कनकावरी नाम की एक नगरी थी। वहीं रामदास रहता था।
जाति का चमार था, परन्तु अत्यन्त सरल हृदय का, सत्य और न्याय की कमाई खाने वाला और प्रभु का निरन्तर चिन्तन करने वाला भक्त था।
रामदास की पतिव्रता स्त्री का नाम मूली था। दम्पत्ती में बड़ा प्रेम था। इनके एक छोटा लड़का था, वह भी माता-पिता का परम भक्त था।
तीनों प्राणियों के पेट भरने पर जो पैसे बचते, उनसे रामदास अतिथि की सेवा और पीड़ितों के दुःख दूर करने का प्रयास करता।
वह समय-समय पर भगवान नाम का संकीर्तन सुनने जाया करता और बड़े प्रेम से स्वयं भी अपने घर कीर्तन करता।
कीर्तन में सुनी हुई यह एक पंक्ति ‘हरि मैं जैसो तैसो बस तेरो।’ उसे बहुत प्यारी लगी और उसे कण्ठस्थ हो गयी।
वह निरन्तर इसी पंक्ति को गुनगुनाता हुआ सारे काम किया करता। वह सचमुच अपने को भगवान का दास और आश्रित समझकर मन ही मन आनन्द में भरा रहता।
भगवान तो भाव के भूखे होते हैं, वह रामदास के ऐसे प्रेम को देखकर उसे अब अपनाना चाहते थे।
कुछ चोर गहनों के साथ ही कहीं से एक सुन्दर विलक्षण स्वर्णयुक्त शालिग्राम की विशाल मूर्ति चुरा लाये थे, जो उनके लिए सिर्फ एक पत्थर था।
उनमें से एक चोर के जूते टूट गये थे, उसने सोचा इस पत्थर के बदले में जूते की जोड़ी मिल जाए तो अच्छा है।
भगवत् प्रेरणा से शालिग्राम की मूर्ति को लेकर वह सीधा रामदास के घर पहुँचा और मूर्ति उसे दिखाकर कहने लगा...
अरे भाई! देख यह कैसा मजेदार पत्थर है, ज़रा अपने औजार को इस पर घिस तो सही, देख कैसा अच्छा काम देता है, पर इसके बदले में मुझे एक जोड़ी जूते देने पड़ेंगे।
चोर की आव़ाज सुनकर वह चौंका, उसके भजन में भंग पड़ा। उसने समझा कोई ख़रीददार है उसने जूते की एक जोड़ी चोर के सामने रख दी, चोर ने उसे पहनकर दामों की जगह वह मूर्ति रामदास के हाथ पर रख दी।
रामदास अभी तक अर्द्धचेतन अवस्था में था, उसका मन तो बस प्रभु के विग्रह की ओर खिंचा हुआ था इसलिए पैसे लेने की बात याद ही नहीं रही।
मूर्ति को उसने अपने सामने रख दिया और उसी पर औज़ार घिसने लगा।
भगवान शालिग्राम बनकर प्यारे भक्त के घर आ गये। एक दिन एक ब्राह्मण उस तरफ़ से निकले, शालिग्राम की ऐसी अनोखी मूर्ति चमार के पत्थर की जगह देखकर उन्हें बहुत दुःख हुआ।
उस समय रामदास उस गोल मूर्ति को पैरों के बीच में रखकर उस पर औजार घिस रहा था।
ब्राह्मण ने विचार किया भला, बंदरों को हीरे की क़ीमत का क्या पता? यह चमार शालिग्राम को क्या पहचाने?
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उन्होंने मूर्ति खरीदने का विचार कर नज़दीक आकर उससे कहा- भाई! आज मैं तुमसे एक चीज़ माँगता हूँ, तू मुझे देकर पुण्य लाभ कर।
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यह पत्थर मुझे बहुत सुन्दर लगता है, मेरे नेत्र इससे हटाये नहीं हटते। रामदास जी ने ब्राह्मण के इस दीन भाव को देखकर वह पत्थर ब्राह्मण को दे दिया।
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पण्डित जी इस दुर्लभ मूर्ति को पाकर बड़े ही प्रसन्न हुए, वे उसे घर ले आये, उन्होंने कुएँ के जल से स्नान किया फिर पवित्र स्वच्छ वस्त्र पहनकर शालिग्राम भगवान को पंचामृत से स्नान करा सिंहासन पर पधारकर षोड शोपचार से उनकी पूजा की।
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पण्डित जी पूजा तो बड़ी विधि से करते थे, परन्तु उनके हृदय में दैवीय गुण नहीं थे। उसमें लोभ, इर्ष्या, कामना, भोगवासना, इन्द्रिय सुख की लालसा, क्रोध, वैर आदि दुर्गुण भरे थे।
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रामदास अशिक्षित था, परन्तु उसका हृदय बड़ा ही पवित्र था। उसके मन में लोभ, इच्छा, भोगेच्छा, क्रोध और वैर आदि का नाम निशान भी नहीं था।
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भगवान शालिग्राम ने विचार किया.. जब वह मेरा नाम-संकीर्तन करता हुआ मूर्ति को पैर पर रखकर उस पर चमड़ा रखकर काटता था, तब मुझे ऐसा लगता मानो मेरे अंगो पर कोई भक्त चन्दन, कस्तूरी का लेप कर रहा है।
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अवश्य ही उसको मेरे यथार्थ स्वरूप का ज्ञान नहीं है, परन्तु उसने अपनी सरल विशुद्ध, निस्वार्थ भक्ति से मुझे वश कर लिया है।
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मैं जैसा विशुद्ध और निस्वार्थ भक्ति से वश होता हूँ, वैसा दूसरे किसी साधन से नहीं होता।
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शालिग्राम का रामदास के पास वापिस आना..
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ब्राह्मण की पूजा सच्ची नहीं है, वह मेरा भक्त नहीं है वह तो अपनी कामनाओं का भक्त है, यह विचार कर भगवान शालिग्राम ने पुनः रामदास के घर जाने का निश्चय किया और रात को स्वप्न में ब्राह्मण से कहा...
तू मुझे रामदास के घर पहुँचा दे...
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ब्राह्मण सुबह ही रामदास के घर शालिग्राम की मूर्ति को लेकर पहुँच गया और उसने रामदास से कहा- रामदास ये कोई साधारण पत्थर नहीं है ये तो साक्षात् भगवान ही हैं, तीनों लोकों के स्वामी हैं। अब तू बहुत प्रेम से इनकी पूजा करना।
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ब्राह्मण के वचन सुनकर रामदास की आँखों में आँसू आ गये और वह प्रेमविह्वल हो गया और भगवान से प्रार्थना करने लगा...
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प्रभो! मैं अति दीन, हीन, अंजान, दुर्जन, पतित प्राणी हूँ, रात-दिन चमड़ा घिसना ही मेरा काम है।
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मुझमें न शौच है, न सदाचार। मुझ-सा नीच जगत् में और कौन होगा ? ऐसे पतित पर भी प्रभु ने कृपा की।
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रामदास का भगवद्-प्रेम...
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अब रामदास दिन और रात भगवान् के प्रेम में कभी रोता और कभी हँसता, तो कभी नाचता।
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अब तो उसे एक ही रट लग गयी नाथ! अब मुझे दर्शन दो, पहले तो मुझे पता ही नहीं था पर आपने ही मेरे हृदय में ये आग लगायी है।
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मैंने तो न पहचानकर आपकी मूर्ति का निरादर किया पर आप मुझे नहीं भूले और ब्राह्मण के द्वारा अपना स्वरूप बताकर मेरे घर आ गए।
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यदि दर्शन नहीं देने थे तो यह सब क्यों किया? एक बार अपने साँवरे-सलोने चाँद से मुखड़े की झाँकी दिखाकर मेरे मन को सदा के लिए चुरा लो।
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मेरे मोहन! करुणा की वर्षा कर दो इस कंगाल पर। एक बार दर्शन दो और मुझे कृतार्थ करो।
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भगवान भक्तवत्सल हैं। जो एकमात्र भगवान को ही अपना आश्रय मानकर उनसे प्रार्थना करता है तो उसकी प्रार्थना भगवान तत्काल सुनते हैं।
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भगवान का वृद्ध ब्राह्मण के रूप में रामदास को भगवद्दर्शन..
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उसके ऐसे दिव्य प्रेम को देखकर भगवान से रहा न गया, वे एक वृद्ध ब्राह्मण का रूप धरकर उसके घर आ गये।
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भगवान ने उसके घर आकर उसकी विरह वेदना को शान्त नहीं किया बल्कि उसकी विरह वेदना को पहले से भी और अधिक बढ़ा दिया और उससे कहा...
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अरे भाई! भगवान् का दर्शन कोई मामूली बात थोडे़ ही है। बडे़-बड़े देवता, योगी, मुनि अनन्तकाल तक तप, ध्यान और समाधि करने पर भी जिनका दर्शन नहीं कर पाते, तुझ जैसे मनुष्य को उनके दशर्न कैसे हो सकते हैं?
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यह सुनकर रामदास की आँखों से झर-झर आँसू बहने लगे।
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उसने कहा- हे देव! मैं क्या करूँ? मुझसे रहा नहीं जाता और मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि मेरे नाथ दीनबन्धु हैं, दया के अपार सागर हैं, मुझे वे दर्शन देंगे और ज़रूर देंगे।
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पति कैसे ही रंग-रूप का क्यों न हो पर पत्नी का पति में अटूट प्रेम होता है, ऐसे ही मैं अपने स्वामी के स्नेह को परख चुका हूँ।
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यों कहते-कहते रामदास का कंठ रूंध गया, ऐसे दृढ़ विश्वास व अनन्य प्रेम को देखकर भगवान से बिल्कुल रहा ना गया। वे अपने भक्त को अपने से मिलाकर एक करने के लिए छटपटाने लगे।
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अकस्मात् अनन्त कोटि सूर्याें का प्रकाश छा गया। रामदास की आँखें मुँद गयीं। उसने हृदय में देखा,भगवान मदनमोहन त्रिभंगी लाल मुस्कुराते हुए मधुर- मधुर मुरली बजा रहे हैं और कह रहे हैं.. आ मेरे पास आ।
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कैसा सुन्दर रूप है। वह आनन्द सागर में डूब गया। अचानक आँखें खुलीं देखता है सामने भी प्रभु का वही दिव्य सच्चिदानन्द घन विग्रह विराजमान है।
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रामदास के आनन्द का पारावार नहीं रहा, उसकी सारी व्याकुलता सदा के लिए मिट गयी।
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भगवान ने उसे अपने में समा लिया और उसने प्रभु के दिव्य धाम में जा कर नित्य पार्षद का शरीर ग्रहण किया।
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साभार :- भक्ति कथायें
किसी जमाने में एक शहर में दो ब्राह्मण पुत्र रहते थे, एक गरीब था तो दूसरा अमीर। दोनों पड़ोसी थे। गरीब ब्राह्मण की पत्नी उसे रोज़ ताने देती झगड़ती।
एक दिन ग्यारस के दिन गरीब ब्राह्मण पुत्र झगड़ों से तंग आ जंगल की ओर चल पड़ता है ये सोच कर कि जंगल में शेर या कोई मांसाहारी जीव उसे मार कर खा जायेगा, उस जीव का पेट भर जायेगा और मरने से वो रोज की झिक झिक से मुक्त हो जायेगा।
जंगल में जाते उसे एक गुफ़ा नज़र आती है। वो गुफ़ा की तरफ़ जाता है। गुफ़ा में एक शेर सोया होता है और शेर की नींद में ख़लल न पड़े इसके लिये हंस का पहरा होता है।
हंस ज़ब दूर से ब्राह्मण पुत्र को आता देखता है तो चिंता में पड़ सोचता है... ये ब्राह्मण आयेगा शेर जगेगा और इसे मार कर खा जायेगा... ग्यारस के दिन मुझे पाप लगेगा... इसे बचायें कैसे?
उसे उपाय सुझता है और वो शेर के भाग्य की तारीफ़ करते कहता है। ओ जंगल के राजा... उठो, जागो आज आपके भाग्य खुले हैं, ग्यारस के दिन खुद विप्रदेव आपके घर पधारे हैं, जल्दी उठें और इन्हें दक्षिणा दें रवाना करें... आपका मोक्ष हो जायेगा... ये दिन दुबारा आपकी जिंदगी में शायद ही आये, आपको पशु योनी से छुटकारा मिल जायेगा।
शेर दहाड़ कर उठता है, हंस की बात उसे सही लगती है और पूर्व में शिकार हुए मनुष्यों के गहने थे, वे सब के सब उस ब्राह्मण के पैरों में रख, शीश नवाता है, जीभ से उनके पैर चाटता है।
हंस ब्राह्मण को इशारा करता है, विप्रदेव ये सब गहने उठाओ और जितना जल्द हो सके वापस अपने घर जाओ... ये सिंह है.. कब मन बदल जाय!
ब्राह्मण बात समझता है, घर लौट जाता है। पडौसी अमीर ब्राह्मण की पत्नी को जब सब पता चलता है तो वो भी अपने पति को जबरदस्ती अगली ग्यारस को जंगल में उसी शेर की गुफा की ओर भेजती है। अब शेर का पहेरादार बदल जाता है। नया पहरेदार होता है ""कौवा""
जैसे कौवे की प्रवृति होती है वो सोचता है... बढीया है। ब्राह्मण आया.. शेर को जगाऊं.. शेर की नींद में ख़लल पड़ेगी, गुस्साएगा, ब्राह्मण को मारेगा तो कुछ मेरे भी हाथ लगेगा, मेरा पेट भर जायेगा।
ये सोच वो कांव.. कांव.. कांव.. चिल्लाता है। शेर गुस्सा हो जगता है। दूसरे ब्राह्मण पर उसकी नज़र पड़ती है, उसे हंस की बात याद आ जाती है.. वो समझ जाता है कौवा क्यूं कांव.. कांव कर रहा है।
वो अपने पूर्व में हंस के कहने पर किये गये धर्म को खत्म नहीं करना चाहता.. पर फिर भी नहीं शेर, शेर होता है जंगल का राजा...
वो दहाड़ कर ब्राह्मण को कहता है.. "हंस उड़ सरवर गये और अब काग भये प्रधान... थे तो विप्रा थांरे घरे जाओ... मैं किनाइनी जिजमान"
अर्थात् हंस जो अच्छी सोच वाले अच्छी मनोवृत्ति वाले थे उड़ के सरोवर यानि तालाब को चले गये हैं और अब कौवा प्रधान पहरेदार है जो मुझे तुम्हें मारने के लिये उकसा रहा है। मेरी बुद्धि घूमें उससे पहले ही.. हे ब्राह्मण, यहां से चले जाओ.. शेर किसी का जजमान नहीं हुआ है.. वो तो हंस था जिसने मुझ शेर से भी पुण्य करवा दिया।
दूसरा ब्राह्मण सारी बात समझ जाता है और डर के मारे तुरंत प्राण बचाकर अपने घर की ओर भाग जाता है..!!
*शिक्षा:-*
कोई किसी का दु:ख देख दु:खी होता है और उसका भला सोचता है...वो हंस है और जो किसी को दु:खी देखना चाहता है,किसी का सुख जिसे सहन नहीं होता...वो कौवा है।
एक बार एक चोर जब मरने लगा तो उसने अपने बेटे को बुलाकर अपने जीवन का कुछ अनुभव बताते हुए कहा-- बेटा ! तुझे चोरी करनी है तो किसी गुरुद्वारा धर्मशाला या किसी धार्मिक स्थान में मत जाना बल्कि इनसे दूर ही रहना और दूसरी बात यदि कभी पकड़े जाओ तो यह मत स्वीकार करना कि तुमने चोरी की है चाहे कितनी भी सख्त मार पड़े।चोर के लड़के ने कहा-- सत्य वचन इतना कहकर वह चोर मर गया और उसका लड़का रोज रात को चोरी करता रहा एक बार उस लड़के ने चोरी करने के लिए किसी घर के ताले तोड़े लेकिन घर वाले जाग गए और उन्होंने शोर मचा दिया आगे पहरेदार खड़े थे उन्होंने कहा-- आने दो बच कर कहाँ जाएगा। एक तरफ घरवाले खड़े थे
और दूसरी तरफ पहरेदारअब चोर जाए भी तो किधर जाए वह किसी तरह बचकर वहाँ से निकल गया रास्ते में एक धर्मशाला पड़ती थी धर्मशाला को देखकर उसको अपने पिताजी की सलाह याद आ गई कि धर्मशाला में नहीं जाना लेकिन वह अब करे भी तो क्या करे उसने यही सही मौका देखा और धर्मशाला में चला गया जहाँ सत्संग हो रहा थावह बाप का आज्ञाकारी बेटा था इसलिए उसने अपने कानों में उँगली डाल ली जिससे सत्संग के वचन उसके कानों में न पड़ें। लेकिन आखिरकार मन अडियल घोड़ा होता है,
इसे जिधर से मोड़ो यह उधर नहीं जाता है कानों को बंद कर लेने के बाद भी चोर के कानों में यह वचन पड़ गए कि देवी-देवताओं की परछाई नहीं होती उस चोर ने सोचा की परछाई हो या ना हो इससे मुझे क्या लेना देना घर वाले और पहरेदार पीछे लगे हुए थे किसी ने बताया कि चोर धर्मशाला में है जाँच पड़ताल होने पर वह चोर पकड़ा गया।सिपाही ने चोर को बहुत मारा लेकिन उसने अपना अपराध स्वीकार नहीं किया उस समय यह नियम था कि जबतक अपराधी अपना अपराध स्वीकार कर ले तो सजा नहीं दी जा सकती।
उसे राजा के सामने पेश किया गया वहाँ भी खूब मार पड़ी लेकिन चोर ने वहाँ भी अपना अपराध नहीं माना वह चोर देवी की पूजा करता था इसलिए सिपाही ने एक ठगिनी को सहायता के लिए बुलाया ठगिनी ने कहा कि मैं इसको मना लूँगी उसने देवी का रूप बनाया दो नकली हाथ लगाये चारों हाथों में चार मशाल जलाकर नकली शेर की सवारी कीक्योंकि वह सिपाही के साथ मिली हुई थी इसलिए जब वह आई तो उसके कहने पर जेल के दरवाजे कड़क-कड़क कर खुल गए जब कोई आदमी किसी मुसीबत में फंस जाता है तो अक्सर अपने इष्टदेव को याद करता है
इसलिए चोर भी देवी की याद में बैठा हुआ था कि अचानक दरवाजा खुल गया और अँधेरे कमरे में एकदम रोशनी हो गई।देवी ने खास अंदाज में कहा-- देख भक्त तूने मुझे याद किया और मैं आ गई तूने बड़ा अच्छा किया कि अपना अपराध स्वीकार नहीं किया यदि तूने चोरी की है तो मुझे सचसच बता दे मुझसे कुछ भी मत छुपाना मैं तुझे अभी आजाद करवा दूँगी।चोर देवी का भक्त था अपने इष्ट को सामने खड़ा देखकर बहुत खुश हुआ और मन में सोचने लगा कि मैं देवी को सब सच सच बता दूँगा तो मैं स्वतंत्र हो जाऊँगा।
यह सोचकर ज्यों ही वह बताने को तैयार ही हुआ था कि उसकी नजर देवी की परछाई पर पड़ गई उसको तुरंत सत्संग का वचन याद आ गया कि देवी-देवताओं की परछाई नहीं होती उसने देखा कि इसकी तो परछाई है वह समझ गया कि यह देवी नहीं बल्कि मेरे साथ कोई धोखा हैवह सच कहते-कहते रुक गया और बोला-- माँ ! मैंने चोरी नहीं की यदि मैंने चोरी की होती तो क्या आपको पता नहीं होता जेल के कमरे के बाहर बैठे हुए पहरेदार चोर और ठगनी की बातचीत नोट कर रहे थे उनको और ठगिनी को विश्वास हो गया कि यह चोर नहीं हैअगले दिन उन्होंने राजा से कह दिया कि यह चोर नहीं है
राजा ने उसको आजाद कर दिया जब चोर आजाद हो गया तो सोचने लगा कि सत्संग का एक वचन सुनकर मैं जेल से छूट गया हूँ यदि मैं अपनी सारी जिंदगी सत्संग सुनने में लगाऊँ तो मेरा जीवन ही बदल जाएगा अब वह प्रतिदिन सत्संग में जाने लगा और चोरी का धंधा छोड़कर महात्मा बन गया कलयुग में सत्संग ही सबसे बड़ा तीर्थ हैं।
एक पुजारी थे, ईश्वर की भक्ति में लीन रहते. सबसे मीठा बोलते. सबका खूब सम्मान करते. जो जैसा देता है वैसा उसे मिलता है. लोग भी उन्हें अत्यंत श्रद्धा एवं सम्मान भाव से देखते थे।
पुजारी जी प्रतिदिन सुबह मंदिर आ जाते. दिन भर भजन-पूजन करते. लोगों को विश्वास हो गया था कि यदि हम अपनी समस्या पुजारी जी को बता दें तो वह हमारी बात बिहारी जी तक पहुंचा कर निदान करा देंगे।
एक तांगेवाले ने भी सवारियों से पुजारी जी की भक्ति के बारे में सुन रखा था. उसकी बड़ी इच्छा होती कि वह मंदिर आए लेकिन सुबह से शाम तक काम में लगा रहता क्योंकि उसके पीछे उसका बड़ा परिवार भी था।
उसे इस बात काम हमेशा दुख रहता कि पेट पालने के चक्कर में वह मंदिर नहीं जा पा रहा. वह लगातार ईश्वर से दूर हो रहा है. उसके जैसा पापी शायद ही कोई इस संसार में हो. यह सब सोचकर उसका मन ग्लानि से भर जाता था. इसी उधेड़बुन में फंसा उसका मन और शरीर इतना सुस्त हो जाता कि कई बार काम भी ठीक से नहीं कर पाता. घोड़ा बिदकने लगता, तांगा डगमगाने लगता और सवारियों की झिड़कियां भी सुननी पड़तीं।
तांगेवाले के मन का बोझ बहुत ज्यादा बढ़ गया, तब वह एक दिन मंदिर गया और पुजारी से अपनी बात कही- मैं सुबह से शाम तक तांगा चलाकर परिवार का पेट पालने में व्यस्त रहता हूं. मुझे मंदिर आने का भी समय नहीं मिलता. पूजा- अनुष्ठान तो बहुत दूर की बात है।
पुजारी ने गाड़ीवान की आंखों में अपराध बोध और ईश्वर के कोप के भय का भाव पढ लिया. पुजारी ने कहा- तो इसमें दुखी होने की क्या बात है ?
तांगेवाला बोला- मुझे डर है कि इस कारण भगवान मुझे नरक की यातना सहने न भेज दें. मैंने कभी विधि-विधान से पूजा-पाठ किया ही नहीं, पता नहीं आगे कर पाउं भी या नहीं. क्या मैं तांगा चलाना छोड़कर रोज मंदिर में पूजा करना शुरू कर दूं ?
पुजारी ने गाड़ीवान से पूछा- तुम गाड़ी में सुबह से शाम तक लोगों को एक गांव से दूसरे गांव पहुंचाते हो. क्या कभी ऐसा भी हुआ है कि तुमने किसी बूढ़े, अपाहिज, बच्चों या जिनके पास पास पैसे न हों, उनसे बिना पैसे लिए तांगे में बिठा लिया हो ?
गाड़ीवान बोला- बिल्कुल ! अक्सर मैं ऐसा करता हूं. यदि कोई पैदल चलने में असमर्थ दिखाई पड़ता है तो उसे अपनी गाड़ी में बिठा लेता हूं और पैसे भी नहीं मांगता।
पुजारी यह सुनकर खुश हुए. उन्होंने गाड़ीवान से कहा- तुम अपना काम बिलकुल मत छोड़ो. बूढ़ों, अपाहिजों, रोगियों और बच्चों और परेशान लोगों की सेवा ही ईश्वर की सच्ची भक्ति है।
जिसके मन में करुणा और सेवा की भावना हो, उनके लिए पूरा संसार मंदिर समान है. मंदिर तो उन्हें आना पड़ता है जो अपने कर्मों से ईश्वर की प्रार्थना नहीं कर पाते।
तुम्हें मंदिर आने की बिलकुल जरूरत नहीं है. परोपकार और दूसरों की सेवा करके मुझसे ज्यादा सच्ची भक्ति तुम कर रहे हो।
ईमानदारी से परिवार के भरण-पोषण के साथ ही दूसरों के प्रति दया रखने वाले लोग प्रभु को सबसे ज्यादा प्रिय हैं. यदि अपना यह काम बंद कर दोगे तो ईश्वर को अच्छा नहीं लगेगा पूजा-पाठ, भजन-कीर्तन ये सब मन को शांति देते हैं. मंदिर में हम स्वयं को ईश्वर के आगे समर्पित कर देते हैं. संसार के जीव ईश्वर की संतान हैं और इनकी सेवा करना ईश्वर की सेवा करना ही है।
बात अतीत की है, परन्तु वर्तमान का है। एक गुरु और शिष्य निरंतर चलते हुए बहुत थक गए थे। अतः गुरु उपयुक्त स्थान देखकर विश्राम करने कि लिए रुके। जब शिष्य गहरी नींद में था, तब गुरु जाग रहे थे। इतने में एक काला सर्प सरसराता हुआ शिष्य की ओर आने लगा, तो गुरु ने धीरे धीरे एक ओर हटकर उसे मार्ग देना चाहा किन्तु सर्प तो एकदम निकट आ गया। गुरु ने उसे रोकने का प्रयत्न किया तो, वह मनुष्यवाणी में बोला, हेे मुनिश्रेष्ठ! मुझे तुम्हारे इस शिष्य को काटना है, अतः रोकिये मत। इसे काटने का आखिर कुछ कारण तो होगा? गुरु ने सर्प से प्रश्न किया। कारण यही है कि पूर्वजन्म में इसने मेरा रक्त पिया था, अब मुझे इसका रक्त पीना है। पूर्व जन्म में इसने मुझे बहुत सताया था, बदले के लिए ही मैंने सर्प योनी में जन्म लिया है आप कृपया मुझे रोके नहीं। रोकेंगे तो मैं ओर किसी समय आपकी अनुपस्थित में आकर इसे काटूँगा। पूर्वजन्म में मैं एक बकरा था, इसने अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए मुझे निर्दयतापूर्वक तलवार से काटकर मेरा लहू पिया, इसके देखते देखते मैंने तड़फ तड़फ कर प्राण त्याग दिए, सर्प ने आक्रोश प्रकट करते हुए बताया।पूर्वजन्म का कोष अभी तक है?
गुरु ने मनोआत्मलीन होकर कहा। इसी के साथ क्रुद्ध सर्प की बदला लेने की आत्मपीड़ा की बात सुनकर गुरु ने सर्प को शाश्वत रहस्य समझाया -बन्धु! अपनी आत्मा ही अपना शत्रु है, अन्य कोई नहीं। तू इसे कटेगा, तेरे प्रति इसके हृदय में बैर जगेगा यह इस शरीर को त्याग कर नया शरीर धारण करेगा,फिर बैर का बदला लेगा। फिर तू भी बैर का भाव लिए हुए मरकर दूसरे जन्म में बैर का बदला लेगा, उसके पश्चात यह लेगा, इस तरह बैर की परंपरा बढ़ती रहेगी, लाभ क्या होगा?
सन्तप्रवर! आपकी बात सत्य है, पर मैं इतना अज्ञानी नहीं हूँ। आप समर्थ पुरुष है, मैं नहीं, क्षमा कीजिए, मैं बैर का बदला लिए बिना इसे नहीं छोड़ूंगा, सर्प ने कहा।
गुरु ने कहा तो बन्धु! इसके बदले मुझे कट लो। आप जैसे पवित्र पुरुष को काट कर मैं घोर नरक में नहीं जाना चाहता। मैं अपने अपराधी को ही काटूँगा। इसी का खून पीऊँगा, सर्प ने कहा।पंख कटे जटायु को गोद में लेकर भगवान राम ने उसका अभिषेक आँसुओं से किया, स्नेह से उसके सिर पर हाथ फेरते हुए, भगवान राम ने कहा - तात! तुम जानते थे रावण दुर्दश और महाबलवान है, फिर उससे तुमने युद्ध क्यों किया?
अपनी आँखों से मोती छलकाते हुए जटायु ने गर्वोन्नत वाणी में कहा प्रभो! मुझे मृत्यु का भय नहीं है, भय तो तब था जब अन्याय के प्रतिकार की शक्ति नहीं जागती?
भगवान राम ने कहा -तात! तुम धन्य हो। तुम्हारी जैसे संस्कारवान आत्माओं से संसार को कल्याण का मार्ग -दर्शन मिलेगा।
अंत में जब सर्प को बहुत समझाने पर भी न माना तो गुरु ने कहा -यदि मैं तुम्हें इसी का रक्त निकालकर दे दूं तो तुम्हारी प्रतिहिंसा संतुष्ट हो जाएगी?
हां ऐसा कर सकते हैं। सर्प ने गुरु की बात स्वीकार कर ली।
ज्ञानी गुरु, शिष्य की छाती पर चढ़ बैठा और पत्ते का डोंगा उसके गले के पास रखकर एक चाकू से गले के पास चीरा लगाया, फिर डोंगे में एकत्रित रक्त को सर्प को पिलाने लगा। गले पर चाकू लगते ही शिष्य की नींद उड़ गई, पर गुरुसत्ता को देख वह आश्वस्त एवं शाँत बना रहा। छाती पर चढ़कर गले से खून निकलकर गुरु सर्प को पिला रहे है। यह सब देखकर वह तत्काल आँखें बंदकर चुपचाप सोया रहा। सर्प को जब तृप्ति हो गयी तो वह वापस चला गया। गुरु ने शल्य चिकित्सक की बहती उस घाव को बंद करके उस पर वनौषधि की पट्टी बाँध दी गुरु जब छाती पर से नीचे उतर गए, तब शिष्य उठ बैठा।
गुरु ने उलाहने की मुद्रा में उससे कहा -कितनी गहरी नींद है तेरी?
हाँ गुरुदेव! आपकी छत्रछाया में मैं सुरक्षित सब देख रहा था आप मेरी छाती पर बैठे थे। हाथ में चाकू था गले के पास चीरा लगाकर रक्त निकाल रहे थे। शिष्य ने कहा -गले पर चाकू लगते ही मैं जाग गया था। वत्स! तब तू बोला क्यों नहीं?, गुरु ने पूछा।
गुरुदेव मुझे आप पर आस्था है, मैंने अपना हित आपको अर्पित कर दिया है और इसी से सर्प की बात सुन,उसका कृत्य देख, आपके बैर त्याग के उपदेश को सुन सर्प की भाँति मेरा भी प्रतिशोध भाव शाँत हो गया है। मैं धन्य हो गया।
आपके हाथों मेरा अनिष्ट कभी हो ही नहीं सकता। आप मेरी आत्मा के उद्धारक ही नहीं अपितु शरीर के भी रक्षक है मेरा सब कुछ आपका है - शरीर भी और जीवन भी इसका जैसा उपयुक्त समझे आप उपयोग करे। आपकी परम समझ को भला मैं अल्पज्ञ प्राणी कहाँ समझ सकता हूँ? मुझे अपनी कोई चिंता नहीं है। शिष्य के इस वचनों को सुनकर गुरुदेव की अंत करण से आशीष का स्रोत प्रस्फुटित हो उठा।
एक बुजुर्ग आदमी बुखार से ठिठुरता और भूखा प्यासा शिव मंदिर के बाहर बैठा था।
तभी वहां पर नगर के सेठ अपनी सेठानी के साथ एक बहुत ही लंबी और मंहगी कार से उतरे।
उनके पीछे उनके नौकरों की कतार थी।
एक नौकर ने फल पकडे़ हुए थे
दूसरे नौकर ने फूल पकडे़ थे
तीसरे नौकर ने हीरे और जवाहरात के थाल पकडे़ हुए थे।
चौथे नौकर ने पंडित जी को दान देने के लिए मलमल के 3 जोडी़ धोती कुरता और पांचवें नौकर ने मिठाईयों के थाल पकडे़ थे।
पंडित जी ने उन्हें आता देखा तो दौड़ के उनके स्वागत के लिए बाहर आ गए।
बोले आईये आईये सेठ जी,आपके यहां पधारने से तो हम धन्य हो गए।
सेठ जी ने नौकरों से कहा जाओ तुम सब अदंर जाके थाल रख दो।
हम पूजा पाठ सम्पन्न करने के बाद भगवान शिव को सारी भेंट समर्पित करेंगें।
बाहर बैठा बुजुर्ग आदमी ये सब देख रहा था।
उसने सेठ जी से कहा - मालिक दो दिनों से भूखा हूंँ,थोडी़ मिठाई और फल मुझे भी दे दो खाने को।
सेठ जी ने उसकी बात को अनसुना कर दिया।
बुजुर्ग आदमी ने फिर सेठानी से कहा - ओ मेम साहब थोडा़ कुछ खाने को मुझे भी दे दो मुझे भूख से चक्कर आ रहे हैं।
सेठानी चिढ़ के बोली बाबा,ये सारी भेटें तो भगवान को चढानें के लिये हैं।तुम्हें नहीं दे सकते,अभी हम मंदिर के अंदर घुसे भी नहीं हैं और तुमने बीच में ही टोक लगा दी।
सेठ जी गुस्से में बोले, लो पूजा से पहले ही टोक लग गई,पता नहीं अब पूजा ठीक से संपन्न होगी भी या नहीं।
कितने भक्ती भाव से अंदर जाने कि सोच रहे थे और इसने अर्चन डाल दी।
पंडित जी बोले शांत हो जाइये सेठ जी,इतना गुस्सा मत होईये।
अरे क्या शांत हो जाइये पंडितजी
आपको पता है - पूरे शहर के सबसे महँंगे फल और मिठाईयां हमने खरीदे थे प्रभु को चढानें के लिए और अभी चढायें भी नहीं कि पहले ही अडचन आ गई।
सारा का सारा मूड ही खराब हो गया,अब बताओ भगवान को चढानें से पहले इसको दे दें क्या ?
पंडितजी बोले अरे पागल है ये आदमी,आप इसके पीछे अपना मुड मत खराब करिये सेठजी चलिये आप अंदर चलिये, मैं इसको समझा देता हूँ। आप सेठानी जी के साथ अंदर जाईये।
सेठ और सेठानी बुजुर्ग आदमी को कोसते हुये अंदर चले गये।
पंडित जी बुजुर्ग आदमी के पास गए और बोले जा के कोने में बैठ जाओ, जब ये लोग चले जायेगें तब मैं तुम्हें कुछ खाने को दे जाऊंगा।
बुजुर्ग आदमी आसूं बहाता हुआ कोने में बैठ गया।
अंदर जाकर सेठ ने भगवान शिव को प्रणाम किया और जैसे ही आरती के लिए थाल लेकर आरती करने लगे,तो आरती का थाल उनके हाथ से छूट के नीचे गिर गया।
वो हैरान रह गए
पर पंडित जी दूसरा आरती का थाल ले आये।
जब पूजा सम्पन्न हुई तो सेठ जी ने थाल मँगवाई भगवान को भेंट चढानें को,पर जैसे ही भेंट चढानें लगे वैसे ही तेज़ भूकंप आना शुरू हो गया और सारे के सारे थाल ज़मीन पर गिर गए।
सेठ जी थाल उठाने लगे,जैसे ही उन्होनें थाल ज़मीन से उठाना चाहा तो अचानक उनके दोनों हाथ टेढे हो गए मानों हाथों को लकवा मार गया हो।
ये देखते ही सेठानी फूट फूट कर रोने लगी,बोली पंडितजी देखा आपने,मुझे लगता है उस बाहर बैठे बूढें से नाराज़ होकर ही भगवान ने हमें दण्ड दिया है।
उसी बूढे़ की अडचन डालने की वजह से भगवान हमसे नाराज़ हो गए।
सेठ जी बोले हाँ उसी की टोक लगाने की वजह से भगवान ने हमारी पूजा स्वीकार नहीं की।
सेठानी बोली,क्या हो गया है इनके दोनों हाथों को,अचानक से हाथों को लकवा कैसे मार गया,
इनके हाथ टेढे कैसे हो गए,अब क्या करूं मैं ? ज़ोर जो़र से रोने लगी -
पंडित जी हाथ जोड़ के सेठ और सेठानी से बोले - माफ करना एक बात बोलूँ आप दोनों से - भगवान उस बुजुर्ग आदमी से नाराज़ नहीं हुए हैं,बल्की आप दोनों से रूष्ट होकर भगवान आपको ये डंड दिया है।
सेठानी बोली पर हमने क्या किया है ?
पंडितजी बोले क्या किया है आपने ? मैं आपको बताता हूं
आप इतने महँंगे उपहार ले के आये भगवान को चढानें के लिये
पर ये आपने नहीं सोचा के हर इन्सान के अंदर भगवान बसते हैं।
आप अन्दर भगवान की मूर्ती पर भेंट चढ़ाना चाहते थे,पर यहां तो खुद उस बुजुर्ग आदमी के रूप में भगवान आपसे प्रसाद ग्रहण करने आये थे। उसी को अगर आपने खुश होकर कुछ खाने को दे दिया होता तो आपके उपहार भगवान तक खुद ही पहुंच जाते।
किसी गरीब को खिलाना तो स्वयं ईश्वर को भोजन कराने के सामान होता है।
आपने उसका तिरस्कार कर दिया तो फिर ईश्वर आपकी भेंट कैसे स्वीकार करते.....
*सब जानते है किे श्री कृष्ण को सुदामा के प्रेम से चढा़ये एक मुटठी चावल सबसे ज़्यादा प्यारे लगे थे*
अरे भगवान जो पूरी दुनिया के स्वामी है,जो सबको सब कुछ देने वाले हैं,उन्हें हमारे कीमती उपहार क्या करने हैं,वो तो प्यार से चढा़ये एक फूल,प्यार से चढा़ये एक बेल पत्र से ही खुश हो जाते हैं।
उन्हें मंहगें फल और मिठाईयां चढा़ के उन के ऊपर एहसान करने की हमें कोई आवश्यकता नहीं है।
इससे अच्छा तो किसी गरीब को कुछ खिला दीजिये,ईश्वर खुद ही खुश होकर आपकी झोली खुशियों से भर देगें।
और हाँं,अगर किसी माँंगने वाले को कुछ दे नहीं सकते तो उसका अपमान भी मत कीजिए क्यों कि वो अपनी मर्जी़ से गरीब नहीं बना है।
और कहते हैं ना - ईश्वर की लीला बडी़ न्यारी होती है,वो कब किसी भिखारी को राजा बना दे और कब किसी राजा को भिखारी कोई नहीं कह सकता..!!
बहुत समय पहले की बात है, चंदनपुर का राजा बड़ा प्रतापी था। दूर-दूर तक उसकी समृद्धि की चर्चाएं होती थी, उसके महल में हर एक सुख-सुविधा की वस्तु उपलब्ध थी पर फिर भी अंदर से उसका मन अशांत रहता था। बहुत से विद्वानों से मिला, किसी से कोई हल प्राप्त नहीं हुआ.. उसे शांति नहीं मिली।
एक दिन भेष बदल कर राजा अपने राज्य की सैर पर निकला। घूमते- घूमते वह एक खेत के निकट से गुजरा, तभी उसकी नज़र एक किसान पर पड़ी, किसान ने फटे-पुराने वस्त्र धारण कर रखे थे और वह पेड़ की छाँव में बैठ कर भोजन कर रहा था।
किसान के वस्त्र देख राजा के मन में आया कि वह किसान को कुछ स्वर्ण मुद्राएं दे दे ताकि उसके जीवन में कुछ खुशियां आ पाये।
राजा किसान के सम्मुख जा कर बोला- मैं एक राहगीर हूँ, मुझे तुम्हारे खेत पर ये चार स्वर्ण मुद्राएँ गिरी मिलीं, चूँकि यह खेत तुम्हारा है इसलिए ये मुद्राएं तुम ही रख लो।
किसान ना - ना सेठ जी, ये मुद्राएं मेरी नहीं हैं, इसे आप ही रखें या किसी और को दान कर दें, मुझे इनकी कोई आवश्यकता नहीं।
किसान की यह प्रतिक्रिया राजा को बड़ी अजीब लगी, वह बोला- धन की आवश्यकता किसे नहीं होती भला आप लक्ष्मी को ना कैसे कर सकते हैं?
सेठ जी, मैं रोज चार आने कमा लेता हूँ और उतने में ही प्रसन्न रहता हूँ... किसान बोला।
क्या ? आप सिर्फ चार आने की कमाई करते हैं और उतने में ही प्रसन्न रहते हैं, यह कैसे संभव है ! राजा ने अचरज से पुछा।
सेठ जी किसान बोला- प्रसन्नता इस बात पर निर्भर नहीं करती कि आप कितना कमाते हैं या आपके पास कितना धन है... प्रसन्नता उस धन के प्रयोग पर निर्भर करती है।
तो तुम इन चार आने का क्या-क्या कर लेते हो? राजा ने उपहास के लहजे में प्रश्न किया।
किसान भी बेकार की बहस में नहीं पड़ना चाहता था उसने आगे बढ़ते हुए उत्तर दिया, इन चार आनों में से एक मैं कुएं में डाल देता हूँ, दूसरे से कर्ज चुका देता हूँ, तीसरा उधार में दे देता हूँ और चौथा मिटटी में गाड़ देता हूँ... राजा सोचने लगा, उसे यह उत्तर समझ नहीं आया। वह किसान से इसका अर्थ पूछना चाहता था, पर वो जा चुका था।
राजा ने अगले दिन ही सभा बुलाई और पूरे दरबार में कल की घटना कह सुनाई और सबसे किसान के उस कथन का अर्थ पूछने लगा।
दरबारियों ने अपने-अपने तर्क पेश किये पर कोई भी राजा को संतुष्ट नहीं कर पाया, अंत में किसान को ही दरबार में बुलाने का निर्णय लिया गया।
बहुत खोज-बीन के बाद किसान मिला और उसे कल की सभा में प्रस्तुत होने का निर्देश दिया गया।
राजा ने किसान को उस दिन अपने भेष बदल कर भ्रमण करने के बारे में बताया और सम्मान पूर्वक दरबार में बैठाया।
मैं तुम्हारे उत्तर से प्रभावित हूँ और तुम्हारे चार आने का हिसाब जानना चाहता हूँ; बताओ, तुम अपने कमाए चार आने किस तरह खर्च करते हो जो तुम इतना प्रसन्न और संतुष्ट रह पाते हो ? राजा ने प्रश्न किया।
किसान बोला- हुजूर, जैसा कि मैंने बताया था, मैं एक आना कुएं में डाल देता हूँ, यानि अपने परिवार के भरण-पोषण में लगा देता हूँ, दूसरे से मैं कर्ज चुकता हूँ, यानि इसे मैं अपने वृद्ध माँ-बाप की सेवा में लगा देता हूँ , तीसरा मैं उधार दे देता हूँ, यानि अपने बच्चों की शिक्षा-दीक्षा में लगा देता हूँ, और चौथा मैं मिटटी में गाड़ देता हूँ, यानि मैं एक पैसे की बचत कर लेता हूँ ताकि समय आने पर मुझे किसी से माँगना ना पड़े और मैं इसे धार्मिक, सामजिक या अन्य आवश्यक कार्यों में लगा सकूँ।
राजा को अब किसान की बात समझ आ चुकी थी। राजा की समस्या का समाधान हो चुका था, वह जान चुका था की यदि उसे प्रसन्न एवं संतुष्ट रहना है तो उसे भी अपने अर्जित किये धन का सही-सही उपयोग करना होगा।
देखा जाए तो पहले की अपेक्षा लोगों की आमदनी बढ़ी है पर क्या उसी अनुपात में हमारी प्रसन्नता भी बढ़ी है?
*शिक्षा:-*
पैसों के मामलों में हम कहीं न कहीं गलती कर रहे हैं, जीवन को संतुलित बनाना ज़रूरी है और इसके लिए हमें अपनी आमदनी और उसके इस्तेमाल पर ज़रूर गौर करना चाहिए, नहीं तो भले हम लाखों रूपये कमा लें पर फिर भी प्रसन्न एवं संतुष्ट नहीं रह पाएंगे..!!
एक संत के पास कुछ सेवक रहते थे ।एक सेवक ने गुरुजी के आगे अरदास की महाराज जी मेरी बहन की शादी है तो आज एक महीना रह गया है तो मैं दस दिन के लिए वहां जाऊंगा । कृपा करें ! आप भी साथ चले तो अच्छी बात है । गुरु जी ने कहा बेटा देखो टाइम बताएगा । नहीं तो तेरे को तो हम जानें ही देंगे उस सेवक ने बीच-बीच में इशारा गुरु जी की तरफ किया कि गुरुजी कुछ ना कुछ मेरी मदद कर दे ! आखिर वह दिन नजदीक आ गया सेवक ने कहा गुरु जी कल सुबह जाऊंगा मैं । गुरु जी ने कहा ठीक है बेटा !
सुबह हो गई जब सेवक जाने लगा तो गुरु जी ने उसे 5 किलो अनार दिए और कहा ले जा बेटा भगवान तेरी बहन की शादी खूब धूमधाम से करें दुनिया याद करें कि ऐसी शादी तो हमने कभी देखी ही नहीं और साथ में दो सेवक भेज दिये जाओ तुम शादी पूरी करके आ जाना । जब सेवक घर से निकले 100 किलोमीटर गए तो मन में आया जिसकी बहन की शादी थी वह सेवक से बोला गुरु जी को पता ही था कि मेरी बहन की शादी है और हमारे पास कुछ भी नहीं है फिर भी गुरु जी ने मेरी मदद नहीं की । दो-तीन दिन के बाद वह अपने घर पहुंच गया ।
उसका घर राजस्थान रेतीली इलाके में था वहां कोई फसल नहीं होती थी ।
वहां के राजा की लड़की बीमार हो गई तो वैद्यजी ने बताया कि इस लड़की को अनार के साथ यह दवाई दी जाएगी तो यह लड़की ठीक हो जाएगी । राजा ने मुनादी करवा रखी थी अगर किसी के पास अनार है तो राजा उसे बहुत ही इनाम देंगे । इधर मुनादी वाले ने आवाज लगाई अगर किसी के पास अनार है तो जल्दी आ जाओ, राजा को अनारों की सख्त जरूरत है । जब यह आवाज उन सेवकों के कानों में पड़ी तो वह सेवक उस मुनादी वाले के पास गए और कहा कि हमारे पास अनार है, चलो राजा जी के पास । राजाजी को अनार दिए गए अनार का जूस निकाला गया और लड़की को दवाई दी गई तो लड़की ठीक-ठाक हो गई ।
राजा जी ने पूछा तुम कहां से आए हो, तो उसने सारी हकीकत बता दी तो राजा ने कहा ठीक है तुम्हारी बहन की शादी मैं करूंगा । राजा जी ने हुकुम दिया ऐसी शादी होनी चाहिए कि लोग यह कहे कि यह राजा की लड़की की शादी है सब बारातियों को सोने चांदी गहने के उपहार दिए गए बरात की सेवा बहुत अच्छी हुई लड़की को बहुत सारा धन दिया गया ।
लड़की के मां-बाप को बहुत ही जमीन जायदाद व आलीशान मकान और बहुत सारे रुपए पैसे दिए गए । लड़की भी राजी खुशी विदा होकर चली गई । अब सेवक सोच रहे हैं कि गुरु की महिमा गुरु ही जाने । हम ना जाने क्या-क्या सोच रहे थे गुरु जी के बारे में । गुरु जी के वचन थे जा बेटा तेरी बहन की शादी ऐसी होगी कि दुनियां देखेगी।संत वचन हमेशा सच होते हैं ।
*💐शिक्षा💐*
संतों के वचन के अंदर ताकत होती है लेकिन हम नहीं समझते । जो भी वह वचन निकालते हैं वह सिद्ध हो जाता है । हमें संतों के वचनों के ऊपर अमल करना चाहिए और विश्वास करना चाहिए ना जाने संत मोज में आकर क्या दे दे और रंक से राजा बना दे ।
एक बार एक राजा शिकार खेलने गया उसका तीर लगने से जंगलवासियों में से किसी का बच्चा मर गया बच्चे की माँ विधवा थी और यह बच्चा उसका एकमात्र सहारा था रोती-पीटती विधवा न्यायधीश के पास पहुंची और उससे फरियाद की
जब न्यायधीश को पता चला कि बालक राजा के तीर से मरा है, तो उनकी समझ में नहीं आया कि वह इंसाफ कैसे करें, अगर उसने विधवा के हक में फैसला दिया तो राजा को सजा सुनानी होगी यदि विधवा के साथ अन्याय किया, तो ईश्वर को क्या जवाब देगा।
काफी सोच विचार कर वह फरियाद सुनने को राजी हुआ उसने विधवा को दूसरे दिन अदालत में बुलवाया विधवा की फरियाद सुनने के पश्चात राजा को भी अदालत में बुलवाना आवश्यक था,
वह राजा के पास यह सूचना किसी दूत से भेज सकता था उसने अपने एक सहायक को राजा के पास भेजा कि वह अदालत में हाजिर हो।
सहायक किसी प्रकार हिम्मत करके न्यायधीश का संदेश राजा को सुनाने पहुंचा वह हाथ जोड़कर राजा के समक्ष उपस्थित हुआ तथा न्यायधीश का संदेश सुनाया.
राजा ने कहा कि वह दूसरे दिन अदालत में अवश्य हाजिर होगा.
दूसरे दिन सुबह राजा न्यायधीश की अदालत में हाजिर हुआ वह जाते समय कुछ सोचकर अपने वस्त्रों के नीचे तलवार छिपाकर ले गया.
न्यायधीश की अदालत भीड़ से खचा-खच भरी हुयी थी इस फैसले को सुनने के लिए दूर-दूर से लोग आये थे राजा अदालत में आया तो प्रत्येक व्यक्ति उसके सम्मान में खड़ा हो गया लेकिन न्यायधीश अपने स्थान पर बैठा रहा वह खड़ा नहीं हुआ उसने विधवा को आवाज लगायी तो वह अंदर आयी न्यायधीश ने उससे फरियाद करने को कहा
विधवा ने सबके सामने अपने बेटे के मरने की कहानी कह सुनायी..
अब न्यायधीश ने राजा से कहा – “ महाराज! इस विधवा का बेटा आपके तीर से मारा गया है आप पर उसको मारने का आरोप है इस विधवा की यह हानि किसी भी स्थिति में पूरी नहीं हो सकती मैं आदेश देता हूं कि किसी भी हालत में इसका नुकसान पूरा करें।
राजा ने उस विधवा से क्षमा मांगी और कहा – “ मैं तुम्हारे इस नुकसान को पूरा नहीं कर सकता; किंतु इसकी भरपाई के लिए मैं पुत्र के रूप में तुम्हारी सेवा करने का वचन देता हूं.
तथा पूरी उम्र तुम्हारे परिवार का सारा खर्च उठाने की जिम्मेदारी लेता हूँ जिससे तुम्हारी जिंदगी सुख-चैन से कट सके।”
विधवा राजी हो गयी न्यायाधीश अपने स्थान से उठ खड़ा हुआ तथा उसने अपनी जगह राजा के लिए खाली कर दी.
राजा बोला – “ न्यायाधीश जी! अगर आप ने फैसला करने में मेरा पक्ष लिया होता तो मैं तलवार से आपकी गर्दन काट देता कहकर उसने अपने वस्त्रों में छिपी तलवार बाहर निकालकर सब को दिखाई।”
न्यायाधीश सिर झुकाकर बोला – “ महाराज! अगर आप ने मेरा आदेश मानने में जरा भी टाल-मटोल की होती तो मैं हंटर से आप की खाल उधड़वा देता।”
इतना कहकर उसने भी अपने वस्त्रों के अंदर से एक चमड़े का हंटर निकालकर सामने रख दिया।
राजा न्यायधीश की बात से बड़ा प्रसन्न हुआ और उसने उसे अपनी बाहों में भर लिया।
दोस्तो कथा के माध्यम से राजा और न्यायाधीश का चरित्र कितना निष्पक्ष दिखाया गया है समय आज का हो या कल का या फिर कल का था … मनुष्य का चरित्र हमेशा सीधा व सरल ही होना चाहिए …
लेकिन आज के दौर में लोगों को हर काम में अपना स्वार्थ , फ़ायदा निकालना होता है … ज्यादातर इंसान सिर्फ अपने मतलब के लिए काम करता है और उसके लिए वह कई प्रकार के हथकंडे अपनाता है जिसमें से चालाकी, स्वार्थ, धोखेबाजी आदि आते हैं वस्तुतः न्याय को भी अपने पक्ष में करवा लेता है.
हमेशा एक बात ध्यान में रखकर चलना चाहिये कि कितना भी अपने को बचा ले लेकिन ईश्वर के न्यायालय में कोई नहीं बच सकता..।🙏🙏