"kya ho Jab do ajnabi sirf ek rishta nibhaane ke liye shaadi karte hain, to kya sach mein pyaar unke dilon tak raasta bana leta hai. ?" "यह कहानी है ऐसे दो अजनबियों की — जिनका रिश्ता बना तो समाज की रस्मों से, लेकिन दिलों का रिश्ता धीरे-धीरे... "kya ho Jab do ajnabi sirf ek rishta nibhaane ke liye shaadi karte hain, to kya sach mein pyaar unke dilon tak raasta bana leta hai. ?" "यह कहानी है ऐसे दो अजनबियों की — जिनका रिश्ता बना तो समाज की रस्मों से, लेकिन दिलों का रिश्ता धीरे-धीरे जज़्बातों से पनपता गया। जब एक चुप और टूटे हुए इंसान की शादी होती है एक चुलबुली, सपनों से भरी लड़की की से — तो क्या वक़्त और नज़दीकियाँ, क्या इस अनकही दास्तां को मुकम्मल कर पाती हैं?" जानने के लिए पढ़ते रहिए,"bandhan - एक अनकही दास्तान "।। सिर्फ स्टोरी mania पर।।
Bandhan - ek ankehi daastan
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सुबह की हवा में गुलाबजल की खुशबू घुली हुई थी। जयपुर की संकरी गलियों से निकलती रौशनी की किरणें धीरे-धीरे शेखावत हवेली की बालकनी को छू रही थीं। हवेली के भीतर, एक पुरानी-सी दीवार घड़ी की टिक-टिक पूरे घर की नींद में हल्का कंपन भर रही थी। अंदर कमरे में, सफेद रंग की सलवार-कुर्ती पहने प्रिशा शेखावत खिड़की के पास बैठी थी—हाथों में अधूरी कॉफी, सामने खुला स्केचबुक, और आंखों में एक ऐसा सवाल, जिसका जवाब शायद किस्मत के पास भी नहीं था। तभी पीछे से कमरे का दरवाज़ा खुला और उसकी बचपन की सबसे खास दोस्त ईशिता मेहरा चुपके से अंदर आई। प्रिशा की बचपन की दोस्त, थोड़ी बिंदास, थोड़ी बकबकू। "अरे! फिर वही डायरी... तू अब तक इसी को घूर रही है?" उसने हँसते हुए तकिये की ओर झुककर कहा। प्रिशा (धीमे स्वर में): "जब ज़िंदगी सवाल बन जाए न, तो जवाब ढूँढने के लिए वही पन्ने खोलने पड़ते हैं जो कभी खुद से लिखे थे।" ईशिता: "उफ्फ... तेरा ये फिलॉसफी वाला मोड शादी के दिन भी बंद नहीं होगा लगता!" प्रिशा (हल्की मुस्कान): "अभी शादी कहाँ हुई है... बस आज देखने आ रहे हैं।" और "शादी एक दिन में नहीं होती ईशु... लेकिन ये रिश्ता एक दिन में तय हो रहा है। क्या ये सही है?" ईशिता: "सही-गलत बाद में पता चलता है। पहले लड़का तो देख लो। IAS अफसर है, लड़कियाँ तो पगला जाएं।" देखने से ज़्यादा तो पूरे मोहल्ले को पता है कि IAS Devansh Rathore आ रहा है रिश्ता लेकर। सब सजी-धजी हैं जैसे घर में बारात आ रही हो।" प्रिशा: "तू भी न... पर सच कहूँ ईशु, डर लग रहा है। किसी अनजान इंसान के साथ पूरी ज़िंदगी बिताना आसान नहीं होता।" ईशिता (संजीदगी से): "डर सबको लगता है प्रिशा... पर तू तो वो लड़की है जो अपनी माँ की साड़ी से गुड्डे की शादी करती थी, अब खुद की बारी आई है तो क्यों काँप रही है?" प्रिशा: "क्योंकि ये असली है... इस बार दुल्हन बनने का मतलब सिर्फ सजना नहीं, निभाना है।" उसकी आँखें भीग गई थीं। ईशिता ने उसे गले लगा लिया। कहीं ना कहीं, दोनों की उस बातचीत में एक गहराई थी—शादी से पहले की एक अबोली घबराहट, जिसे सिर्फ लड़कियाँ ही समझ सकती हैं। तभी नीचे से माँ की आवाज़ आई—"प्रिशा बेटा, मिठाई की प्लेट निकाल दे... राठौर साहब लोग आ रहे हैं देखने।" घर की हवा एकदम गंभीर हो गई। रसोई से हलवा की खुशबू आनी शुरू हो गई थी। हॉल में कालीन बिछाई जा रही थी। दीवार की घड़ी अब धीरे नहीं, तेज़ चलने लगी थी। --- दूसरी ओर, देवांश राठौर ने अपने हाथों की कलाई पर बंधी घड़ी को देखा। उनकी गाड़ी जयपुर की गलियों से निकलती हुई शेखावत हवेली की ओर बढ़ रही थी। उनके साथ पिता राजेन्द्र राठौर, माँ सविता, और छोटा भाई आरव था—जो हर दो मिनट में कुछ न कुछ कमेंट कर रहा था। "भैया, आप तो साक्षात शेर की तरह लग रहे हो... लड़की बस देखते ही ‘हाँ’ कर देगी। मैं शर्त लगा सकता हूँ।" देवांश ने एक गहरी साँस लेते हुए कहा, "आरव, ये मज़ाक नहीं है। ये शादी है। और मैं किसी को impress करने नहीं जा रहा, सिर्फ मिलने।" राजेन्द्र जी ने खिड़की से बाहर देखते हुए कहा, "ये रिश्ता सिर्फ दो लोगों का नहीं, दो खानदानों का भी होता है। और ये फैसला इज्ज़त से होगा।" सविता, जो चुपचाप देवांश के चेहरे को देख रही थीं, बस इतना बोलीं—"तेरे पापा ने भी मुझे बिना देखे शादी के लिए हाँ कर दी थी... पर आज तक हम एक-दूसरे को समझते हैं। कुछ रिश्ते किताबों जैसे नहीं, वक़्त के साथ समझ में आते हैं। बस एक बार आंखों में देख लेना बेटे... अगर उसमें सुकून हो, तो मान लेना कि वो तेरी है।" राजेन्द्र राठौर (पिता): "और समझ अगर ना आये, तो निभाना भी सीखना पड़ता है। प्यार एक luxury है, रिश्ते में ज़िम्मेदारी ज़रूरी है।" देवांश कुछ नहीं बोले। उन्होंने अपनी घड़ी देखी और एक गहरी साँस ली। ऐसे ही सफर कट गया। कुछ ही देर में गाड़ी शेखावत हवेली के बाहर रुकी। सभी उतरकर अंदर गए। --- प्रिशा की माँ, मीरा शेखावत, रसोई में थीं—चाय, समोसे, और गुलाब जामुन की थालियाँ सजी हुई थीं। उनके चेहरे पर तनाव और उत्सुकता दोनों थे। कर्नल विक्रम शेखावत, जिनकी आवाज़ गूंजती थी पूरे घर में, उन्होंने जैसे ही आवाज़ लगाई—"प्रिशा नीचे आओ, मेहमान आ चुके हैं।" कमरे में बैठी प्रिशा का दिल जैसे एक बार को रुक गया हो। ईशिता ने उसका हाथ पकड़ा—"चल, तेरा प्रिंस चार्मिंग इंतज़ार कर रहा है।" सभी लोग घर के अंदर आए जहां prisha की मां और पापा दोनों ने उनका स्वागत किया। ओर उन्हें हॉल में लेकर आए और उन्हें सोफे पर बिठाया। ऐसे ही घर में मुलाकात शुरू हुई। हल्की चाय की महक और दबी-दबी मुस्कानें पूरे ड्रॉइंग रूम में तैर रही थीं। राजेन्द्र राठौर: “आपका घर देखकर तो दिल खुश हो गया। पुराने ज़माने की बातों की खुशबू है यहाँ...।” कर्नल विक्रम शेखावत (प्रिशा के पिता): “हमने वक्त बदलते देखे हैं, लेकिन उसूल नहीं। बेटी को ऐसे ही माहौल में पाला है—इज्ज़त, तहज़ीब, और अपनेपन के साथ।” सविता: “तो फिर हम दोनों ही माँ-बाप कुछ अच्छा सोच ही रहे हैं।” मुस्कानें और चाय के कपों के बीच बातचीत चलती रही। और फिर आई वो पल... देवांश की आँखें उस कमरे की दीवारों पर घूम रही थीं, फिर चाय की ट्रे लेकर आती एक लड़की पर ठहर गईं—प्रिशा। गुलाबी रंग की सिल्क साड़ी, माथे पर हल्की बिंदी और आँखों में वही उलझन जिसे उन्होंने कभी किसी में नहीं देखा था। जब पहली बार दोनों की नजरें मिलीं, तो वक़्त जैसे रुक गया। सविता (हल्के स्वर में): "आप चाहें तो दोनों को छत पर कुछ देर बात करने भेज सकते हैं... क्या कहते हैं आप?" मीरा: "हमें कोई ऐतराज नहीं। जितना साफ रिश्ता, उतनी ही खुली बात होनी चाहिए।" prisha और देवांश वहां दोनों चुप चाप बैठे थे। तभी सविता जी बोली, "प्रिशा बेटा, ज़रा देवांश से अकेले बात कर लो, समझना-जानना तो ज़रूरी होता है न।" --- छत पर, बालकनी में – हल्की हवा चल रही थी। देवांश खड़ा था, अपने हाथ टिकाए, और प्रिशा हल्की चाल में उसके सामने आकर रुक गई। पहली बार दोनों आमने-सामने थे। कुछ सेकंड के लिए सिर्फ खामोशी थी—जैसी होती है जब दो अनजान दिल एक ही लय में धड़कते हैं। Devansh: "मुझे ये रिश्ता एक ज़िम्मेदारी लग रहा है, कोई movie scene नहीं... आप इस बारे में क्या सोचती हैं?" Prisha: "मुझे शादी से डर नहीं, पर मैं एक समझौता नहीं बनना चाहती... आपसे यही उम्मीद कर सकती हूँ कि इज़्ज़त देंगे, प्यार मिले न मिले।" Devansh (थोड़ा रुक कर): "प्यार मेरे लिए अभी भी समझ से बाहर है, लेकिन इज़्ज़त—वो मैं किसी औरत से कभी नहीं छीन सकता।" दोनों की आंखें मिलीं। और पहली बार, दोनों ने उस रिश्ते की बुनियाद रखी—सच बोलकर। कुछ देर ऐसे ही बात करने के बाद दोनों नीचे लौटे। --- दोनों नीचे लौटते हुए आए, दोनों की चाल थोड़ी धीमी थी। कोई फैसला ज़ुबान से नहीं निकला था, लेकिन सब समझ गए। राजेन्द्र राठौर: "तो, क्या कहते हो देवांश?" Devansh (धीरे से): "अगर इन्हें कोई एतराज नहीं... तो मैं तैयार हूँ।" प्रिशा (धीरे से, माँ के हाथ थामते हुए): "अगर आपको भरोसा है उन पर, तो मुझे भी है।" मिठाई का डिब्बा खुला। शादी पक्की हो गई थी। लेकिन यह सिर्फ शुरुआत थी... क्योंकि रिश्ता तय करना आसान था, पर रिश्ता निभाना – एक पूरी ज़िंदगी की दास्तान थी। --- जारी।। जय श्री महाकाल।।
दोनों की चाल थोड़ी धीमी थी। कोई फैसला ज़ुबान से नहीं निकला था, लेकिन सब समझ गए। राजेन्द्र राठौर: "तो, क्या कहते हो देवांश?" देवांश (धीरे से): "अगर इन्हें कोई एतराज नहीं... तो मैं तैयार हूँ।" प्रिशा (धीरे से, माँ के हाथ थामते हुए): "अगर आपको भरोसा है उन पर, तो मुझे भी है।" मिठाई का डिब्बा खुला। शादी पक्की हो गई थी। लेकिन यह सिर्फ शुरुआत थी... क्योंकि रिश्ता तय करना आसान था, पर रिश्ता निभाना – एक पूरी ज़िंदगी की दास्तान थी। शादी का रिश्ता सिर्फ दो लोगों का नहीं होता — यह दो कुलों, दो परंपराओं, दो संस्कृतियों का मिलन होता है। मगर इस मिलन से पहले एक लंबा दौर होता है — प्रतीक्षा का, संशय का, और सबसे ज़्यादा, सांसों की गिनती का, जब दिल हर पल एक ही सवाल करता है — "क्या मैं तैयार हूँ?" जयपुर की हवाओं में हल्की ठंडक आ चुकी थी। पतझड़ की शुरुआत थी, और शेखावत हवेली के आंगन में गुलाब की कुछ पत्तियाँ ज़मीन पर बिखरी पड़ी थीं — जैसे किसी अधूरी कविता की लिपियाँ। आज घर में हलचल थी, पर कोई भी उस हलचल को उत्सव नहीं कह रहा था — सबके भीतर एक अजीब सी घबराहट थी, खासकर प्रिशा के भीतर। सुबह-सुबह माँ की आवाज़ ने कमरे की चुप्पी को तोड़ा — "प्रिशा बेटा, उठ जा। आज पंडित जी आ रहे हैं मुहूर्त देखने। तेरी सगाई की तारीख़ तय करनी है।" बिस्तर पर लेटी प्रिशा की आँखें खुली हुई थीं, लेकिन उनमें नींद नहीं, सोचों की परतें थीं। उसने धीरे से करवट ली और खिड़की से आती हल्की रोशनी को देखा। "सगाई..." शब्द उसके मन में कई बार गूंज चुका था। वो जानती थी कि अब सब कुछ बदलने वाला है। एक नया जीवन, नया नाम, नया घर, और सबसे अहम — एक ऐसा इंसान जिसके साथ उसकी हर सुबह और हर रात बंधी होगी, चाहे उसकी आत्मा तैयार हो या नहीं। उसने एक लंबा साँस लिया, और खुद से फुसफुसाई — "अब कोई सपना मेरा अकेला नहीं रहेगा। सब कुछ बँट जाएगा — ज़िम्मेदारियों में, रिश्तों में... पर क्या मैं बँटने के लिए बनी हूँ या जुड़ने के लिए?" दरवाज़ा खटका, और अंदर आई ईशिता — वही शरारती मुस्कान, लेकिन आज उसमें भी एक चिंता थी। ईशिता: "मिसेज़ होने की तैयारी में कितनी देर लगती है मैडम? चल, नीचे सब तेरा नाम ले रहे हैं। और तुझे देख, जैसे कोई गुरुदत्त की फिल्म की नायिका बनी बैठी है।" प्रिशा (हल्की मुस्कान): "क्या सच में... सब इतना जल्दी होता है? मैं कल तक कॉलेज में assignment जमा कर रही थी, और आज... पंडित जी मेरे नाम का मुहूर्त देखेंगे।" ईशिता: "हाँ, और कल को सुहागरात की चाय तू किसी और के लिए बनाएगी। थोड़ा excitement feel कर! तेरे जैसे लड़की को तो सात फेरों से पहले ही देवांश पे फिदा हो जाना चाहिए था।" प्रिशा (धीरे से): "वो अलग हैं ईशु... उनमें कुछ भी सरल नहीं है। जैसे एक पत्थर है... सुंदर, मजबूत, लेकिन ठंडा। मैं डरती हूँ... कहीं मैं उनके भीतर की आग को महसूस ही न कर सकी तो?" ईशिता एक पल को चुप हुई। फिर उसने उसकी हथेली थामी — "तू पत्थर को भी मोम बना सकती है, और ये मैं जानती हूँ। बस खुद से मत डर।" --- राठौर हवेली – उसी सुबह देवांश अपने स्टडी रूम में बैठा फाइल पढ़ रहा था, लेकिन नज़रों की भाषा कुछ और कह रही थी। उसके सामने रखा एक पेपर खाली था, कलम हाथ में थी, लेकिन कोई शब्द नहीं उतर रहा था। आरव (कमरे में घुसते हुए): "भैया, सब बोर हो गए हैं नीचे। सगाई का डेट निकालना है या exam timetable?" देवांश (गंभीरता से): "मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता तारीख से। रिश्ते तारीख़ों से नहीं, समझ से निभते हैं।" आरव: "हाँ लेकिन माँ-पापा तो मेहंदी के रंग, हल्दी की रौनक और शादी के function की लिस्ट बना चुके हैं। तुम्हें तो सिर्फ "हाँ" करना है। वैसे भाभी कैसी लगती हैं तुम्हें?" देवांश (थोड़ा रुक कर): "वो... शांत हैं, समझदार हैं। बस... शायद बहुत अलग हैं मुझसे।" आरव: "मतलब तुम्हें पसंद हैं, पर कहोगे नहीं। Classic bhai." देवांश कुछ नहीं बोला, बस मुस्कुरा दिया। उसके चेहरे पर वही उलझन थी जो प्रिशा के चेहरे पर थी — रिश्ते को स्वीकारने की, पर महसूस करने की प्रक्रिया अब भी जारी थी। दूसरी तरफ, पंडित जी एक मोटी-सी पंचांग लेकर आए थे। पूरे परिवार को बैठक में बुलाया गया। माँ, पिता, मामा-मामी, चाचा-चाची, सब मौजूद थे। पंडित जी: "चौमास का अंत हो चुका है। अब मार्गशीर्ष में बहुत शुभ मुहूर्त आ रहे हैं। 22 तारीख को पुष्य नक्षत्र है, जो विवाह और मांगलिक कार्यों के लिए उत्तम है।" मीरा (प्रिशा की माँ): "22 तारीख... बहुत पास है। इतने कम दिनों में तैयारी हो पाएगी क्या?" कर्नल शेखावत: "अगर नियति यही चाहती है तो हम भी पीछे नहीं हटेंगे।" ईशिता (धीरे से प्रिशा के कान में): "तेरी सगाई पक्की... 10 दिन में तू हमारी Mrs. Rathore बनने वाली है। कैसा लग रहा है?" प्रिशा: "जैसे कोई सपना है... पर मेरी आँख खुली हुई है।" वही राठौर हवेली, राठौर परिवार भी उसी दिन पंडित जी को बुलवाता है। सविता राठौर, राजेन्द्र राठौर, देवांश और आरव बैठक में बैठे हैं। पंडित जी पंचांग खोलकर बोलते हैं: पंडित जी: "शेखावत परिवार से बात हुई है। पुष्य नक्षत्र 22 तारीख को है — देवांश बाबू के लिए अति शुभ समय। सगाई के लिए यही दिन श्रेष्ठ रहेगा।" राजेन्द्र: "तो फिर बात पक्की समझो। हम अपने कुलदेवी को चिट्ठी भेजवा देंगे। तैयारियाँ शुरू हो जाएँगी।" सविता (मुस्कराकर): "मैं चाहती हूँ कि मेरी बहू पहली बार जब सगाई में आए, तो उसके चेहरे पर वही शरमाई मुस्कान हो जो मैंने अपनी शादी में देखी थी।" देवांश (धीरे से): "अगर वो तैयार हो, तो मैं भी तैयार हूँ।" राजेन्द्र: "कभी-कभी वक्त को थामना नहीं होता, बह जाना होता है। और ये रिश्ता... बहाव की दिशा में जा रहा है।" जारी।। जय श्री महाकाल।। क्या होगा आगे? क्या देवांश और prisha दोनों निभा पाएंगे?? (यहाँ दोनों परिवारों के बीच बातचीत आगे बढ़ेगी — जैसे फोन कॉल्स, उपहारों का आदान-प्रदान, दोनों माताओं के बीच मीठी-मिठी बातें, और तैयारी के नाम पर हर कमरे में हलचल...)
जयपुर की हवाओं में हल्की मिठास घुल चुकी थी। हवेली के आँगन में आज कुछ अलग सी हलचल थी — जैसे हर ईंट, हर खंभा आज किसी उत्सव की तैयारी में झूम रहा हो।
दरवाज़े पर रंगोली बन रही थी, मेहराबों पर फूलों की बंदनवार लटक रही थी, और आँगन के बीचोंबीच एक बड़ा झूला लगाया जा चुका था — जिस पर शाम को प्रिशा बैठेगी, उसकी हथेलियों पर नाम रचेगा — देवांश का।
ईशिता पूरे आँगन में घूम-घूम कर हल्दी, मेंहदी और संगीत की तैयारी देख रही थी। उसके हाथ में स्क्रिप्ट थी — नहीं, शादी की नहीं — रस्मों की ज़िम्मेदारी की। वह हर छोटी-बड़ी बात को नोट कर रही थी, जैसे कि कोई प्रोडक्शन हेड। लेकिन उसके चेहरे की मुस्कान बता रही थी कि ये सब वह सिर्फ प्रिशा के लिए कर रही थी — अपनी सबसे प्यारी दोस्त के लिए।
"डेकोरेशन वाले भैया, वो गेंदा की लड़ी उस झूले के ऊपर नहीं, साइड में बाँधिए — कैमरे का फ्रेम बिगड़ जाएगा। और हाँ, DJ वाले भैया, बस हल्की साउंड रखना, दादीजी की तबीयत थोड़ी नाज़ुक है।"
तभी पीछे से आरव ने सुन लिया। "लगता है शेखावत हाउस की कमान अब तुम ही संभाल रही हो, मिस परफेक्शनिस्ट।"
"और राठौर हाउस की नज़र रखने का काम भी तुम्हारा ही है क्या?"
"नज़र रखना नहीं... बस इतना जानना चाहता हूँ कि कौन इतनी perfection के पीछे इतना stress ले रहा है। वरना बाद में अपनी फ्रस्ट्रेशन सब पे निकालती हो।"
"फ्रस्ट्रेशन तुम जैसे लोगों को देखकर आती है — जो खुद कुछ नहीं करते, पर हर किसी को जज करते हैं।"
दोनों की नज़रें मिलीं — कुछ सेकंड को हवा भी रुक सी गई।
कमरे में हल्दी की खुशबू थी, फूलों की महक थी, और मामी, चाची, और बहनों की हँसी की खनक थी।
प्रिशा सजे हुए कुर्सी पर बैठी थी — एक नारंगी और हरे रंग की लहरिया ड्रेस में, उसकी आँखों में हल्का काजल और होंठों पर गुलाबी मुस्कान।
मामी जी ने उसकी हथेली पकड़ी और मेंहदी लगाने वाली को कहा — "नाम ज़रा गहरा रचाना। और देवांश का D ज़रा बड़ा बनाना। ताकि उस लड़के को नज़र न लगे।"
"आप चिंता मत करो मामी जी। आज तो ऐसे रचाऊँगी कि खुद दूल्हा भी देख के पूछे — ये किसका नाम है?" सभी हँस पड़ीं।
मगर प्रिशा चुप थी। उसकी नज़र अपनी हथेली पर नहीं, दरवाज़े की ओर थी — शायद किसी की आहट तलाश रही थी।
सभी लोग आ गए थे लेकिन देवांश देर से पहुँचा। वह अंदर आया तो फूलों की खुशबू और मेंहदी की महक ने उसे बाँध लिया। मगर उसकी नज़र सीधी उस कुर्सी पर गई — जहाँ प्रिशा बैठी थी।
उसके चेहरे पर हल्की सी थकान थी, पर एक अलग सी रौशनी भी थी — जैसे किसी कविता की पहली पंक्ति, जो अभी लिखी जानी बाकी हो।
देवांश कुछ नहीं बोला। बस एक कोने में खड़ा हो गया। दूर से उसकी नज़र बार-बार प्रिशा की हथेलियों पर जा रही थी। क्या उसमें उसका नाम रचा गया था? क्या उसमें कोई भाव छिपा था?
आरव धीरे से पास आया — "भैया, इतने दूर क्यों? दुल्हन आपकी है, और मेंहदी उसकी हथेलियों पर है। थोड़ा पास आओ न।"
"कुछ रिश्ते दूर से ज़्यादा सुंदर लगते हैं। पास जाकर डर लगता है कि कहीं कुछ टूट न जाए।"
तभी अचानक बिजली चली जाती है। सब जगह एक हल्का अंधेरा छा जाता है। कमरे में हल्की अफरा-तफरी मचती है, लेकिन उसी अंधेरे में देवांश की नज़रें प्रिशा से टकराती हैं — पहली बार वो पास आती है। "आप हमेशा इतनी चुप क्यों रहते हैं?"
"शब्द कभी-कभी भावना को तोड़ देते हैं... और मैं नहीं चाहता कि ये पल टूटे।" उसकी आवाज़ इतनी धीमी थी कि शायद सिर्फ वही सुन सकती थी।
दोनों कुछ पल यूँ ही खामोश रहे, जैसे अंधेरा उन्हें ढाँप रहा हो और दिल आपस में कुछ कह रहे हों।
नीचे आँगन में जब सब कुछ दोबारा उजाला हुआ, तो हल्की बारिश शुरू हो चुकी थी। गीली ज़मीन पर फिसलती हुई ईशिता अचानक संतुलन खो बैठी — लेकिन तभी आरव ने उसे बाँहों में थाम लिया।
कुछ पल के लिए उसकी साँसें तेज़ थीं, और आरव की बाँहों का घेरा मजबूत। "छोड़ो मुझे... सब देख रहे हैं।"
"तुम्हें गिरने नहीं दूँगा — चाहे सब देख रहे हों या कोई नहीं।"
दादी जी अपने कमरे की खिड़की से सब कुछ देख रही थीं। उनके होठों पर हल्की मुस्कान थी।
उन्होंने प्रिशा को देखा — जो अपनी हथेलियों को देख रही थी, जिस पर देवांश का नाम रचा था। दादी ने आँखें बंद कर लीं — जैसे अपने भगवान से कह रही हों — "ये लड़की अब हमारी हो गई। इसकी मुस्कान को उम्र भर सहेज लेना।"
शाम ढल रही थी, संगीत की स्वर लहरियाँ हवाओं में तैर रही थीं। महिलाएँ एक गोल घेरे में बैठ कर गीत गा रही थीं — "मेहंदी है रचने वाली, हाथों में गहरी लाली..." और उसी बीच, देवांश चुपचाप एक कोने में बैठा, पहली बार मुस्कुराया। कोई देख नहीं रहा था, लेकिन वो मुस्कान खुद उसके भीतर के सन्नाटे को तोड़ रही थी।
रात के अंतिम पहर में जब सब थक कर अपने-अपने कमरों में लौटे, प्रिशा ने जैसे ही अपने कमरे का दरवाज़ा बंद किया, उसकी नज़र टेबल पर रखे एक खूबसूरत सफेद लिफाफे पर पड़ी। उसने धीरे से उसे खोला — उसमें एक छोटा सा पत्र था:
"कुछ नाम बिना पुकारे भी दिल में उतर जाते हैं, कुछ रिश्ते बिना बोले भी साँसों से बंध जाते हैं। तुमसे ज़्यादा कुछ नहीं कहा... बस इतना कि तुम्हारे हाथों की मेंहदी में मेरा नाम है, और मेरी ख़ामोशी में तुम्हारा।"
कोई नाम नहीं था। कोई हस्ताक्षर नहीं। लेकिन वो जानती थी — ये शब्द किसी अजनबी के नहीं हो सकते थे। ये उसी की खामोश आँखों से निकले थे, जो पूरे दिन उसे दूर से देखता रहा — कुछ कहे बिना, सब कह कर।
उसने लिफाफा सीने से लगा लिया और आँखें बंद कर लीं — पहली बार उसे इस बंधन से डर नहीं, सुकून मिला।
सुबह की पहली किरण जब हवेली के खिड़कियों से छन कर अंदर आई, तो वो सिर्फ उजाला नहीं लाई — वो साथ लायी सगाई की तैयारी, रस्मों की धड़कन, और उन अनकहे भावों की आहट जो आज किसी न किसी शक्ल में सामने आने वाले थे। हवेली की दीवारों पर हल्का गुलाबी रंग बिखरा हुआ था, जैसे आसमान ने भी आज का दिन इन दो नामों को समर्पित कर दिया हो — देवांश और प्रिशा।
रसोई से आती हल्दी, केसर और गुलाब जल की खुशबू ने माहौल को पावन बना दिया था। महिलाएँ सुबह से ही तैयारियों में जुटी थीं, कहीं मिठाइयों की प्लेटें सज रही थीं, कहीं चूड़ियों के डिब्बे, और कहीं पुष्पों के थाल। आँगन में एक बड़ा सा मंच सजाया गया था — जहाँ शाम को देवांश, प्रिशा को अंगूठी पहनाएगा।
लेकिन उस मंच तक पहुँचने से पहले हर किसी के दिल में अपने-अपने उलझे हुए धागे थे — जिन्हें आज की हलचल में शायद कुछ सुलझने का मौका मिलने वाला था।
देवांश सुबह जल्दी उठ गया था, लेकिन आज वो खिड़की से बाहर नहीं देख रहा था। वो आईने में अपनी ही आँखों में कुछ तलाश रहा था। उस कमरे की दीवार पर टँगा गुलाबी लिफाफा — वही जो उसने पिछले रात अपने हाथों से प्रिशा के कमरे में भिजवाया था — अब उसकी निगाहों में सवाल बन कर खड़ा था। क्या उसने पढ़ा होगा? क्या वो समझी होगी कि ये सब महज़ शब्द नहीं थे? क्या वो भी महसूस करती है वही जो वो महसूस कर रहा है — एक ऐसी डोर जो किसी मजबूरी से नहीं, एहसास से बंध रही है?
प्रिशा अपने कमरे में चुप बैठी थी। मामी जी कपड़े लेकर आ चुकी थीं — आज वो गुलाबी और सुनहरे रंग की पारंपरिक ड्रेस पहनेगी, जिसमें उसकी आँखों का रंग और भी गहरा लगेगा। लेकिन उसके चेहरे पर अभी भी एक हल्की सी सोच थी। वो जानती थी कि सब कुछ बहुत तेज़ी से हो रहा है — पर देवांश की आँखों में जो कल अंधेरे में उसने देखा, वो उसकी रफ़्तार से कहीं ज़्यादा स्थिर था। जैसे एक बूँद पानी किसी शांत झील में गिरती है और लहरें धीरे-धीरे दिल तक पहुँचती हैं।
सगाई की रस्म से पहले एक छोटी सी पूजा रखी गई थी। देवांश और प्रिशा ने पंडित जी के सामने एक साथ पहली बार बैठकर मंत्रों की ध्वनि सुनी। उनके बीच अब भी शब्द नहीं थे — लेकिन उनके हाथों की दूरी धीरे-धीरे कम हो रही थी। जब पंडित जी ने अक्षत उनके हाथों में रखे, तो प्रिशा की उँगलियाँ हल्के से देवांश की हथेली से छू गईं — एक क्षणिक स्पर्श, जो बाहर से छोटा था लेकिन भीतर बहुत कुछ खोल रहा था।
आरव पूरे माहौल में मौजूद था लेकिन उसका ध्यान आज ईशिता पर ज़्यादा था। वो उसे देख रहा था — कभी गुलाब के फूलों की थाली में रंगों को सजाते हुए, कभी सब पर आदेश देते हुए। लेकिन जब वो अचानक एक बच्चे को गोद में लेकर उसके माथे पर तिलक लगा रही थी, तो आरव के चेहरे पर एक अनजानी मुस्कान आ गई।
ईशिता को उसकी नज़रों का अहसास हुआ। वो पलटी और बोली — "इतनी देर से देख रहे हो, क्या ढूँढ़ रहे हो?"
"वो चीज़ जो शायद तुम खुद नहीं जानती कि तुम्हारे पास है — और जो किसी दिन तुमसे भी सवाल पूछेगी," आरव ने जवाब दिया।
"मतलब?"
"मतलब ये कि जो लड़की फूलों की सजावट में भी अनुशासन ढूँढ़ लेती है, वो किसी दिन किसी की ज़िंदगी में भी स्थिरता ले आएगी।"
ईशिता का चेहरा कुछ पल के लिए नर्म हो गया — फिर उसने चुपचाप थाली उठाई और चली गई। आरव के होठों पर अब भी वही मुस्कान थी, जिसमें थोड़ा सा चिढ़ाना और थोड़ा सा मोह शामिल था।
शाम होते-होते हवेली रोशनी से नहाने लगी। हर दीवार, हर झूमर, हर खंभा जैसे साक्षी बन चुका था इस पवित्र मिलन का। देवांश सुनहरे शेरवानी में मंच के पास खड़ा था, और उसकी आँखें सीधी एक ही दिशा में थीं — वहाँ जहाँ से प्रिशा आने वाली थी।
और जब वो आई — तो जैसे समय ठहर गया। उसके कदम धीमे थे, आँखें झुकी हुईं लेकिन होंठों पर एक बहुत ही नर्म मुस्कान थी। उसके बालों में चमेली के फूल थे, और हाथों में वही मेंहदी — जिसमें देवांश का नाम था।
जैसे ही वो मंच तक पहुँची, देवांश ने बिना एक शब्द कहे उसका हाथ थामा। उसका हाथ बहुत हल्का काँपा, लेकिन उसने खुद को संभाला। कैमरे फ्लैश कर रहे थे, मेहमान ताली बजा रहे थे, लेकिन दोनों की आँखों में एक अलग ही संवाद चल रहा था — जैसे दो रेखाएँ एक दूसरे को छू कर अब दिशा तय कर रही हों।
पंडित जी ने अंगूठी लाने को कहा। देवांश की मां थाल लेके आई जिसमें दोनों के लिए अंगूठी रखी थी। देवांश ने उसमें से सोने की अंगूठी निकाली — जिसमें बीच में एक नन्हा सा मोती जड़ा था। उसने धीरे से प्रिशा की उँगली में डाला, और उस क्षण में जैसे सब कुछ बहुत हल्का, बहुत साफ़ हो गया।
प्रिशा ने भी अंगूठी उठाई और देवांश की उँगली में अंगूठी पहनाई, और उस क्षण में हल्की सी हँसी दोनों के होंठों पर आ गई — वो हँसी जो सिर्फ अपनेपन से आती है, जब कुछ कहा नहीं जाता लेकिन सब कह दिया जाता है।
पीछे से दादीजी ने हल्के से ताली बजाई — और वो ताली सिर्फ एक रस्म की पूर्णता नहीं थी, वो दो दिलों की स्वीकृति का प्रतीक बन गई। ईशिता ने मुँह में मिठाई रखते हुए चुपचाप आरव की ओर देखा — जो अब तक सब कुछ चुपचाप देख रहा था। उनकी नज़रें मिलीं, और एक चुप सवाल उठ खड़ा हुआ — क्या अगली बारी उनकी है?
रात होते-होते संगीत शुरू हुआ, और मेहमान नाचने लगे। लेकिन उस भीड़ के बीच दो लोग चुपचाप छत पर आ गए — प्रिशा और देवांश। वो दोनों बहुत पास खड़े थे लेकिन अब भी एक दूरी थी — जो धीरे-धीरे मिट रही थी।
"आज सब बहुत सुंदर लग रहा है," प्रिशा ने कहा।
"हूँ... पर सबसे सुंदर तुम लग रही हो।"
"क्या ये सिर्फ रस्म है... या कुछ और भी?"
"मैं नहीं जानता तुम्हारे लिए क्या है, लेकिन मेरे लिए ये हर दिन की शुरुआत है — तुम्हारे साथ।"
प्रिशा ने कोई जवाब नहीं दिया। उसने बस आसमान की ओर देखा — जहाँ चाँद चमक रहा था। देवांश ने उसकी हथेली थामी — अबकी बार बिना किसी डर के, बिना किसी संकोच के। और जब प्रिशा ने उसकी उँगलियों को हल्के से दबाया, तो जैसे दोनों के भीतर की अनकही बातें, उस स्पर्श में सिमट गईं।
यह सगाई एक रस्म थी — लेकिन उस रात वो बंधन बन चुकी थी। एक ऐसा बंधन जो शब्दों से नहीं, एहसासों से जुड़ा था। एक ऐसा रिश्ता जो अब धीरे-धीरे दोनों को बाँधने वाला था — एक उम्र भर के लिए।
जारी।।
जय श्री महाकाल।।
क्या होगा आगे??
सगाई की रात एक ऐसा मोड़ थी जहाँ भावनाएँ रस्मों में ढलती चली गईं। जब मेहमानों की भीड़ धीरे-धीरे कम होने लगी, और संगीत की स्वर-लहरियाँ धीमी पड़ गईं, तो हवेली के कोनों में बस ठहरी हुई मुस्कानों की गूँज रह गई। प्रिशा की आँखों में वो चमक अब भी थी, जो देवांश की उँगलियों से छूते ही जगी थी, और देवांश... वह तो छत से वापस नीचे आया था लेकिन उसका मन अब भी वहीं कहीं ऊपर ठहरा था, जहाँ उसने पहली बार खुद को किसी के साथ महसूस किया था — नितांत पूर्ण।
सुबह होते-होते राठौर परिवार के जोधपुर लौटने की तैयारी शुरू हो गई थी। हवेली की दीवारों पर अब विदाई की हल्की सी छाया फैलने लगी थी। देवांश ने एक महरूम शर्ट और ब्लैक पेंट पहन रही थी जिस में वो बिल्कुल परफेक्ट लग रहा था कोई देख ले तो नज़रे ही ना हटा सके। और सबके साथ गाड़ी तक पहुँचा। लेकिन उसकी चाल में अब कोई हड़बड़ी नहीं थी, बस एक ठहराव था — जैसे वो इस जगह को अपने भीतर बसा लेना चाहता हो।
प्रिशा खिड़की की ओट से सब देख रही थी। वो चाहती थी कि एक बार वो पीछे मुड़कर देखे... कुछ कहे, या शायद मुस्कुराए। लेकिन देवांश बस एक बार चुपचाप अपनी नज़रें ऊपर उठाकर उसकी ओर देखता है, और फिर बिना कुछ कहे गाड़ी में बैठ जाता है। एक नज़र — जो शब्दों से कहीं ज़्यादा गहराई लिए होती है, जो कहती है — “मैं जा रहा हूँ, पर लौटने के लिए।”
गाड़ी जब हवेली के फाटक से बाहर निकलती है, तो जैसे हवाओं में कुछ रुक जाता है। ईशिता जो अब तक सब कुछ संभाल रही थी, अचानक अपनी सबसे करीबी दोस्त प्रिशा की आँखों में आँसू देखती है। “अब तुम भी न, इतनी इमोशनल हो जाती हो,” वह कहती है, लेकिन उसके खुद के गले में भी कुछ अटकता है।
शाम होते-होते शेखावत हवेली में फिर हलचल शुरू हो जाती है — क्योंकि अगली सुबह से शादी की रस्में शुरू होनी हैं। हल्दी, संगीत, फेरे, विदाई... सब कुछ अब शुरू हो रहा था।
उधर देवांश जोधपुर लौटते ही सीधे अपनी IAS यूनिफॉर्म में बदल चुका था। उसने जैसे ही कैबिनेट में रखे अपने पदक और अधिकार पत्र को देखा, तो एक गहरी साँस ली। उसे उसी शाम एक गंभीर केस पर निकलना था — एक ज़रूरी जाँच, जिसमें उसकी मौजूदगी अनिवार्य थी। वह एक अधिकारी था — ज़िम्मेदारियों से बँधा हुआ, कर्तव्य से सीधा जुड़ा हुआ। लेकिन आज... आज उसकी आत्मा महक से भरी थी, जो उसने प्रिशा के साथ बिताई थी। उसके मेज पर दो फाइलें थीं — एक उसमें केस से जुड़ी, और दूसरी उसके जीवन की सबसे सुंदर फाइल — जिसमें शादी की सारी तारीखें, होटल बुकिंग्स, गेस्ट लिस्ट, और सबसे ऊपर — प्रिशा की तस्वीर।
“Sir, next field visit kal subah 6 baje hai,” उसके जूनियर ने अंदर आकर कहा।
“Main kal jaaunga. Duty pe bhi जाना है और शादी की तैयारी भी। और अब से दोनों ही मेरी ड्यूटी हैं,” देवांश ने मुस्कुराते हुए कहा।
वो मुस्कान वही थी — जो अब उसके चेहरे पर रुकने लगी थी, जब भी किसी ने प्रिशा का नाम लिया करता था।
अगली सुबह जोधपुर राठौर हवेली में देवांश की हल्दी की रस्म हुई। पीले फूलों से सजे आँगन में, देवांश को चौकी पर बिठाया गया। माँ ने उसके माथे पर हल्दी लगाते हुए धीमे से कहा, “आज तू सिर्फ बेटा नहीं, किसी की दुआ भी है।”
मामा, मामी, बुआ, सभी हँसते-हँसते हल्दी लगाते गए, लेकिन देवांश की आँखें जैसे किसी दूर खिड़की पर अटक गई थीं — जहाँ वो कल्पना कर रहा था कि शायद इसी समय प्रिशा भी अपने कमरे में बैठी सोच रही हो — उसके बारे में।
हल्दी की रस्म के बाद माँ ने एक छोटी कटोरी में झूठी हल्दी अलग से निकाली और आरव को देते हुए कहा — “इसे आज ही प्रिशा को पहुँचा देना। अब वो भी तो हमारे परिवार की बहू बनने जा रही है।”
आरव ने हँसते हुए कटोरी ली — “भाभी के लिए भैया की हल्दी — ये तो अब हमारी परंपरा बन जाएगी।”
उसी दिन दोपहर में, शेखावत हवेली में हल्दी की रस्म थी। आँगन को पीले फूलों से ढाँक दिया गया था। लहरिया चादरों से खंभे सजे थे, और बीच में एक चौकी पर पीतल का थाल रखा था जिसमें चंदन, हल्दी और गुलाब का लेप बना हुआ था। प्रिशा को पीले रंग की साड़ी में बैठाया गया, और उसके चेहरे पर वो संकोच और मुस्कान दोनों थी जो सिर्फ दुल्हन के हिस्से आती है।
उसी बीच, हवेली के मुख्य दरवाज़े से आरव दाखिल हुआ — उसके हाथ में वही कटोरी थी जिसमें देवांश की झूठी हल्दी थी। “भाभी के लिए भैया की ओर से हल्दी — खुद तो हल्दी के ड्यूटी पर चले गए, लेकिन रस्म निभा कर गए।,” उसने मुस्कुराते हुए कहा। प्रिशा की मुस्कान और गहरी हो गई।
सबसे पहले उसकी माँ ने आरव से हल्दी ली और उनकी बनाई हल्दी में मिक्स कर दिया और आगे बढ़कर उसके गालों पर हल्दी लगाई। वो पल इतना भावुक था कि माँ की आँखें भर आईं, और प्रिशा ने भी उनका हाथ थामकर अपनी पलकों को नम होने से रोका। माँ ने कहा — “बचपन से तुझे ऐसे ही सजा-संवार के खेलती थी... आज तू सच में दुल्हन लग रही है।”
इसके बाद बुआ, चाची, मामी, सभी एक-एक करके उसके गालों पर हल्दी लगाते जाते — गीत गाते हुए, चिढ़ाते हुए — "तेरे माथे हल्दी लगाई रे, साजन की रँग छाई रे..."
प्रिशा बस मुस्कुराती रही। लेकिन हर मुस्कान के पीछे उस एक नजर की याद थी — जो जाते वक़्त देवांश ने उसे दी थी।
ईशिता एक कोने में खड़ी सब कुछ संभाल रही थी — उसकी आँखों में थकावट थी, लेकिन दिल में संतोष। वो प्रिशा की सबसे अच्छी दोस्त थी — उसकी हर बात की हमराज़। वो जानती थी कि इस शादी में सिर्फ रस्में नहीं हो रहीं, बल्कि दो आत्माओं का मिलन हो रहा था, जिनमें से एक अब भी केस की फाइल के बीच अपने दिल को सहेजे बैठा था।
हल्दी के बाद जैसे ही ढोलकी बजनी शुरू हुई, ईशिता ने खुद को रोक नहीं पाया। उसने अपनी पिंक लहंगा पहनकर मंच पर कदम रखा ।
बैकग्राउंड संग “गुड नाल इश्क मीठा”
हो कुड़ियो गुड किन खा लेया स्वीटी
गुड्ड वाली चाय किन्ने पिट्ठी स्वीटी
बुआ जी दा नाडा किन्ने खिचेया हा
हो खींच के मारी किन्ने सीती
हो छाड़ो जी छाडो जेक पकड़ो वो हलवाई
के जिसने गुड्ड की बना दी मिठाई
हो सबको बात है ये समझायी
हो गुड नालो इश्क मीठा बुरा।
वो हर लाइन में एक्सप्रेशन के साथ डांस कर रही थीं।
हो गुड नालो इश्क मीठा ओए होए
हो गुड नालो इश्क मीठा आए हाय
हो रब्बा लग ना किसे नु जावे
गुड नालो इश्क मीठा ओए ओए
सोहनी मेरा दिल ले गई ओए होए हाय
कुड़ी मेरी जान ले गई आए हाय हो
मुझको यार कोई तो बचाए
गुड नालो इश्क मीठा हाय।।
उसका चेहरा खुशी से दमक रहा था, उसकी चाल में आत्मविश्वास था और आँखों में किसी के लिए एक छुपा हुआ भाव। सबने ताली बजाई, और हवेली एक बार फिर संगीत में डूब गई।
डांस करने के बाद इशिता prisha के पास आ गई।
वहीं आरव एक कोने में खड़ा सब देख रहा था, लेकिन उसकी आँखें ईशिता पर ही थीं। वो जो सबसे आगे सब संभाल रही थी, अपने गाल पर हल्दी के छींटे खुद ही झेल रही थी, लेकिन अपनी मुस्कुराहट एक पल को भी कम नहीं होने दे रही थी।
“तुम हर रस्म में इतनी involve हो जाती हो,” आरव ने धीमे से पास आकर कहा।
“क्योंकि मुझे पूरा जीना आता है, आधा नहीं,” ईशिता ने तुरंत जवाब दिया, “और शायद तुम्हें भी सीखना चाहिए।”
आरव कुछ पल के लिए चुप रहा, फिर बोला — “शायद मैं सीखना शुरू कर चुका हूँ। तुमसे।”
ईशिता की पलकों में एक कंपन हुई — जैसे किसी बंद खिड़की को किसी ने आहिस्ता से खोला हो। लेकिन वो फिर से मुड़ी और बच्चों के हाथ में फूलों की टोकरी देने लगी — जैसे कुछ महसूस कर के भी, उसे अभी नाम देना नहीं चाहती थी।
शाम को जब हल्दी की थकावट छटने लगी, और हवेली के कोनों में धीमी रौशनी आ गई, तभी एक पैकेट प्रिशा के कमरे में पहुँचा। उस पर कोई नाम नहीं था — सिर्फ एक गुलाबी रिबन और सफेद कार्ड, जिस पर सुनहरे अक्षरों में लिखा था — “तुम्हारे पीले हाथों के लिए एक चुप तोहफ़ा।”
प्रिशा ने धीरे से उसे खोला — उसमें एक जोड़ी झुमके थे, बेहद नाज़ुक, और बेहद सुंदर। साथ में एक छोटा सा कागज़ था — "जब ये कानों में होंगे, तो मेरी खामोशियाँ तुम्हारे साथ चलेंगी।"
वो मुस्कुरा दी — वही धीमी मुस्कान जो उसके भीतर उतरती जा रही थी।
हवेली की रातें अब शादी के गीतों से गूँज रही थीं, लेकिन इन सबके बीच, दो दिल ऐसे थे जो बिना शोर के जुड़ रहे थे — धीरे-धीरे, लेकिन बहुत गहराई से। एक वो जो कर्तव्य निभा रहा था, लेकिन हर वक़्त अपनी होने वाली दुल्हन के ख्याल में था; और दूसरी वो, जो हर रस्म में खुद को ढालती जा रही थी, लेकिन हर पल उस एक नाम को महसूस करती जा रही थी — बिना पुकारे, बिना कहे।
शाम ढलने लगी थी, और शेखावत हवेली के आँगन में पीले और हरे रंग की झिलमिलाती झालरें लहराने लगी थीं। महकते गुलाब और गेंदे के फूलों से सजी मेहंदी की चौकी के चारों ओर हँसी की चहचहाहट थी, लेकिन उसके बीच एक कोना ऐसा भी था, जहाँ प्रिशा चुपचाप बैठी थी — उसके चेहरे पर सजी संकोच की लहरें, और आँखों में किसी के इंतज़ार की छाया।
उसका गहरा हरा अनारकली लिबास उसकी नाज़ुक सी काया से ऐसे लिपटा था जैसे बादल किसी चाँद को छूने की कोशिश कर रहा हो। उसकी हथेलियाँ अब तक कोरी थीं, लेकिन उसकी आँखों में पहले से कोई नाम लिखा जा चुका था।
“चलो बिटिया, अब मेहंदी रचवाओ। दूल्हे का नाम छुपाना मत भूलना…” बुआ ने मुस्कुराते हुए कहा।
संगीत धीमे-धीमे बजने लगा। तभी स्पीकर पर एक जानी-पहचानी धुन उभरी — “मेहंदी है रचने वाली, हाथों में गहरी लाली…” पूरा आँगन जैसे एक अलग ही दुनिया में चला गया।
🎶 मेहंदी है रचने वाली हाथों में गहरी लाली कहने को तो है शादी की रात बाकी है...
सजनी के घर में ये कैसी तैयारी है राह देखती दुनिया सारी है
धड़कन की माला पहनाई है मेरे सजना ने... मेरे सजना ने... मेरे सजना ने...
मेहंदी है रचने वाली हाथों में गहरी लाली 🎶
ईशिता, गुलाबी घाघरा और ग्रीन ब्लाउज़ में, मेहमानों का ध्यान खींचते हुए मंच पर आई। उसके पाँव की पायल की छनक, आँखों की शरारत और चेहरे की चमक ने हर किसी का मन मोह लिया। वो उसी गीत पर थिरक रही थी, जो हर दुल्हन की हथेली पर आशीर्वाद बनकर उतरता है। हर स्टेप जैसे किसी कहानी का हिस्सा लगता।
ईशिता के चेहरे पर एक मासूम मुस्कान थी, लेकिन आँखें कह रही थीं — “मैं सिर्फ प्रिशा की सहेली नहीं, इस घर की रौनक भी हूँ।”
आँगन के बीचोंबीच बैठी प्रिशा के हाथों पर अब हिना की नर्म लकीरें उतर रही थीं। सबसे पहले उसकी माँ ने आगे बढ़कर उसके गालों पर हल्दी लगाई थी, लेकिन आज उसकी हथेलियों पर प्रेम उतर रहा था।
मेहंदीवाली ने पूछा — “दूल्हे का नाम क्या है ?” प्रिशा ने कुछ नहीं कहा। तभी मीरा जी बोली,”देवांश। …”
मेहंदीवाली मुस्कराई — “देवांश। काफी प्यारा नाम है ? देखना नाम ढूँढते-ढूँढते उनका प्यार भी उभर आएगा हथेली में।”
जब मेहंदीवाली ने दोनों हथेलियाँ एक साथ मिलाई, तो उनमें एक दिल उभरा, और उसके भीतर गहराई से लिखा गया नाम — “देवांश” ईशिता ने मुस्कुराकर कहा — “छुपाया तो है, पर जब दिल में हो, तो हथेली क्या चीज़ है!”
रौनकें अब और बढ़ने लगी थीं। ढोलकी की ताल पर आंटियाँ गा रहीं थीं — “मेहंदी रचाई मैंने अपने पिया के नाम की...” बच्चे फूल उछाल रहे थे, महिलाएं गीतों में डूबी हुई थीं, और ईशिता एक बार फिर बीच में खींच ली गई — “एक और डांस हो जाए?”
“अरे नहीं...” “अब तो करना ही होगा...” भीड़ की ज़िद पर ईशिता फिर स्टेज पर आई, और इस बार उसने लहराते दुपट्टे के साथ जो डांस किया — वो किसी फिल्मी सीन से कम नहीं था।
मेहंदी है रचनेवाली, हाथों में गहरी लाली
कहें सखियाँ,अब कलियाँ, हाथों में खिलने वाली हैं
तेरे मन को जीवन को नई ख़ुशियाँ मिलने वाली हैं
मेहंदी है रचनेवाली, हाथों में गहरी लाली
कहें सखियाँ अब कलियाँ हाथों में खिलने वाली हैं
तेरे मन को,जीवन को नई ख़ुशियाँ मिलने वाली हैं
हो हरियाली बन्नो
ले जाने तुझ को गुईयाँ, आने वाले हैं सैयाँ
थामेंगे आ के बइयाँ गूँजेगी शहनाई अंगनाई अंगनाई
मेहंदी है रचनेवाली, हाथों में गहरी लाली
कहें सखियाँ अब कलियाँ हाथों में खिलने वाली हैं
तेरे मन को, जीवन को नई ख़ुशियाँ मिलने वाली हैं।।
तभी ईशिता के कान में उसकी सहेली ने फुसफुसाया — “तेरे चेहरे पे अलग ही चमक हैं।”
ईशिता ने बस मुस्कुरा कर कहा — “जब तक मेरा दिल कहे — रुक जा।”
उधर देवांश जोधपुर में एक गंभीर रेप केस की जाँच में लगा था।
वह इस समय कोई खुशबूदार महफिल में नहीं था, न पीले फूलों से सजे किसी मंडप में। वह जोधपुर के डिपार्टमेंट हेड ऑफिस में एक फाइल पढ़ रहा था — उसकी आँखों में गुस्से की लहर थी और भीतर से एक इन्साफ की आग।
उसके सामने बैठी थी — एक 17 वर्षीय लड़की, जिसके कपड़े फटे हुए थे, चेहरा सूजा हुआ और आँखों में वो डर... जो किसी इंसान को इंसान नहीं रहने देता।
"आप... मेरी बात सुनेंगे न, सर?" वो कांपती हुई बोली।
देवांश ने अपनी कुर्सी सीधी की। “तुम एक बच्ची हो, लेकिन तुमसे जिसने ये किया है, वो इस देश की कानून व्यवस्था को चुनौती दे बैठा है। मैं तुम्हारा वादा करता हूँ — वो जेल में नहीं, नरक में जाएगा।”
उस बच्ची ने काँपती आवाज़ में अपना बयान देना शुरू किया — “सर... मैं स्कूल से लौट रही थी, मेरी मम्मी घर पर नहीं थीं। रास्ते में वो तीन लोग बाइक पर आए... उनमें से एक हमारे ही मोहल्ले का है। वो मुझे खींचकर एक बंद पड़े गोदाम में ले गए। मेरी चिल्लाने की आवाज़ किसी ने नहीं सुनी। उन्होंने मुझे मारा, मेरे बाल नोचे... मेरी स्कर्ट फाड़ दी, और फिर... फिर...” उसकी आवाज़ रुंध गई।
देवांश ने मेज से टिशू उठाकर उसकी ओर बढ़ाया, लेकिन उसकी आँखें उस बच्ची की आँखों में थीं — जो अब एक तमाशा नहीं, एक जख़्म बन चुकी थीं।
“आपने क्यों पूछा था कि मैं आपसे बात कर सकती हूँ?” देवांश ने धीरे से पूछा।
उस बच्ची ने भर्राए स्वर में कहा — “क्योंकि... सब कहते हैं कि आप इंसाफ देते हो, डराते नहीं... और कोई नहीं सुनता, पर शायद आप सुनोगे...”
देवांश ने धीरे से कहा — “मैं सिर्फ सुनूँगा नहीं, तुझे न्याय दिलाऊँगा। मैं तेरा डर नहीं, तेरी ढाल बनूँगा।”
फील्ड रिपोर्ट्स, मेडिकल सर्टिफिकेट्स, थाने की कार्रवाई — सब कुछ उसकी मेज़ पर था, लेकिन उसका ध्यान बार-बार खिड़की से बाहर जाकर कहीं और भटक रहा था... शायद उस खिड़की के पार, किसी महफिल में बैठी प्रिशा की ओर — जिसकी हथेलियों पर उसका नाम अभी लिखा जा रहा था।
उसने घड़ी देखी — 7:45 PM
“सर, आपको DSP ने बुलाया है...” सहायक ने कहा।
“मैं थोड़ी देर में आता हूँ,” देवांश बोला — “और किसी को भी कह दो, इस केस की फाइल मेरे कमरे से बाहर नहीं जाएगी।”
एक ओर प्रिशा को आरती के थाल के साथ हल्की सी चमक मिली हुई आँखों से बड़ों का आशीर्वाद मिल रहा था, और दूसरी ओर देवांश न्याय की आखिरी लाइन लिखकर केस फॉरेंसिक में फॉरवर्ड कर चुका था।
एक ही समय में — एक की हथेली पर प्रेम लिखा जा रहा था, तो दूसरे के हाथों से इन्साफ लिखा जा रहा था।
और शायद यही कहानी थी — हथेलियों पर लिखी वो कहानी, जो मेहंदी से शुरू होती है और खून से साबित होती है। लेकिन उस रात, दोनों की आत्माएँ एक ही तारे को देख रही थीं — एक जो चमक रहा था आसमान में... और एक जो भीतर कहीं लरज रहा था।
सितारा होटल, जयपुर।
जयपुर का वो सितारा होटल आज एक अलग ही रंग में रंगा हुआ था। होटल के लॉन में लगे गुलाबी और सुनहरे कपड़ों की सजावट, चमचमाती झालरें, और हल्की हल्की हवा में महकते मोगरे की खुशबू माहौल को किसी शाही समारोह का रूप दे रही थी। शेखावत और राठौर परिवार के मेहमान धीरे-धीरे पहुंच चुके थे। हर चेहरे पर एक मुस्कान थी, हर आँख में चमक। चारों तरफ कैमरे क्लिक हो रहे थे, और हर कोने से ढोल और संगीत की आवाज़ें उठ रही थीं।
राठौर परिवार भी शादी के लिए जयपुर पहुंच चुका था, सिवाय एक के — देवांश राठौर।
विक्रम जी और उनकी पत्नी ने राठौर फैमिली का स्वागत किया। मीरा जी ने पूछा,”देवांश बेटा कहा है..??
,”वो एक केस की सिलसिले की वजह से नहीं आ पाया लेकिन उसने कहा है वो जल्दी काम खत्म करके आयेगा। “
विक्रम जी और मीरा जी ने सहमति जताते हुए बोले,”सही कहा उनकी देश के प्रति भी एक ड्यूटी बनती है। और देश सबसे पहले आता है। “
उसकी गैरहाज़िरी ने माहौल में एक हल्की सी बेचैनी घोल दी थी।
इशिता ने हल्के से प्रिशा के पास आकर कहा, “देवांश एक केस की वजह से नहीं आया। लेकिन वो शाम को संगीत के फंक्शन तक आ जायेगा।”
प्रिशा ने धीमे से सिर हिलाया,।”
उधर जोधपुर में हालात कुछ और थे। रात के करीब 7 बज चुके थे। शहर की एक पुरानी फैक्ट्री, जो पिछले कई सालों से बंद थी, वहाँ पुलिस की तीन गाड़ियाँ छुपकर खड़ी थीं। देवांश खुद उस टीम को लीड कर रहा था — आज आरोपी को पकड़ना ही था, किसी भी हालत में।
रेप पीड़िता द्वारा दिए गए बयान और उस इलाके की सटीक जानकारी के आधार पर उन्होंने ट्रेस किया था कि आरोपी भैरू गुर्जर यहीं कहीं छुपा है — 28 साल का, पहले भी दो बार छेड़छाड़ के केस में पकड़ा गया, लेकिन दोनों बार पैसे और दबाव से छूट गया था। इस बार मामला बड़ा था... और सामने देवांश था।
देवांश ने वायरलेस पर कहा, “टीम अलर्ट रहे, आरोपी के पास देशी कट्टा है... गोली चल सकती है। लेकिन हमें उसे जिंदा पकड़ना है।”
छोटे-छोटे ग्रुप्स में पुलिस टीम फैक्ट्री में दाखिल हुई। अंदर का सन्नाटा किसी तूफान से पहले की खामोशी जैसा था। तभी एक हल्की सी आहट हुई — लोहे के शेड के पीछे से।
जैसे ही बाकी पुलिस ऑफिसर ने घेरा बनाया, अचानक एक आदमी बाहर निकला और हवा में फायर कर दिया। चीखें गूंज उठीं, लेकिन इससे पहले कि वह भाग पाता, देवांश ने सामने छलांग लगाई और उसके हाथ से कट्टा छीन लिया।
भैरू ने तुरंत लोहे की छड़ उठाई और एक तीव्र वार देवांश की ओर किया। लेकिन देवांश ने समय रहते झुककर वार टाल दिया और छड़ को पकड़कर घुमा कर एक ज़ोरदार प्रहार उसकी पीठ पर किया। भैरू चीखता हुआ पीछे गिरा, लेकिन तुरंत संभलते हुए एक चाकू निकाल लिया।
देवांश ने भी अपनी कमर से बेल्ट खींची और बिजली की गति से उसके हाथ की नस पर मारा — चाकू ज़मीन पर गिर गया। अब दोनों आमने-सामने थे। एक क्रिमिनल जो डर से भरा था, और एक ईमानदार अफसर जिसकी आँखों में आग थी।
“कानून की लाठी देर से चलती है, लेकिन जब चलती है तो रग-रग तोड़ देती है,” देवांश ने कहा। फिर उसने भैरू के पेट में घूंसा मारा — इतना तेज़ कि वो दीवार से जा टकराया।
भैरू ने फिर भागने की कोशिश की, लेकिन देवांश ने उसके पैर में लात मारी, जिससे वो सीधे ज़मीन पर गिर पड़ा। दोनों के शरीर पर ज़ख्म थे, खून बह रहा था, लेकिन लड़ाई जारी थी — ये इंसाफ और हैवानियत के बीच का युद्ध था।
आख़िरकार, जब भैरू लड़खड़ाता हुआ फिर से उठा, देवांश ने उसके जबड़े पर एक आखिरी मुक्का मारा जिससे वो बेसुध होकर ज़मीन पर गिर गया।
देवांश ने उसकी गर्दन पकड़कर कहा, “अब तुझसे नहीं, कानून तुझसे सवाल करेगा। और मैं... तुझे खामोश होते हर आँसू की गवाही बनाकर पेश करूंगा।”
पीड़िता वहीं बाहर एम्बुलेंस में थी। उसने काँपती आँखों से देखा — वो शैतान आज बंधा पड़ा था, जैसे इंसान नहीं, कोई जानवर हो। उसकी आँखों में डर था, वही डर जो उसने उस बच्ची की आंखों में डाला था।
देवांश ने उसके सामने झुककर कहा — “तुम्हे इन्साफ मिल गया। तुम्हारा दर्द अब कानून का मामला है। जितने दर्द इसने तुम्हे दिए है उससे कही ज्यादा अब कानून इसे देगी। ”
वो बच्ची फूट-फूट कर रोने लगी, “सर... आपने सुन लिया... सबने कहा था, ये छूट जाएगा... लेकिन आपने सुन लिया।”
देवांश की आँखों में पानी था, लेकिन उसने चेहरे पर कठोरता बनाए रखी। “अभी ये देश के कानून से डरेगा। कल सुबह कोर्ट में पेशी है — और मैं खुद चार्जशीट दाखिल करूंगा।”
वहीं, जयपुर में संगीत की रात अब शुरू हो चुकी थी। इशिता और आरव के डांस ने शुरुआत की —
बैकग्राउंड म्यूजिक — “दिल्लीवाली गर्लफ्रेंड्
O what a look, what a grace
Tenu hi karaan main chase
What a naksh, what a nain
Dil tera ho gaya fan
What a smile, what a style
Lut'ti neendo ki ye file
Kabhi soft, kabhi rude
Killer tera attitude
Tere liye hi toh signal tod taad ke
Aaya dilliwali girlfriend chhod chhad ke
दोनों की डांसिंग जोड़ी काफी कमाल की लग रही थी।
आरव के स्टेप्स ओर एक्सप्रेशन गाने के साथ मैच कर रहे थे ।
अब इशिता आगे बढ़ते हुए गाने के मुताबिक डांस करने लगी।
O teri ankh da ishaara mujhe fraud lage
Tu toh Majnu aawaara by God lage
O kasme waade khake
Apni pocket money bacha ke
Aaya tere liye paise waise jod jaad ke..
Ghar waalon ko bhi bye-shye bol baal ke
Aaya dilliwali girlfriend chhod chhad ke
Tere liye hi toh signal tod taad ke
Aaya Dilli wali girlfriend chhod chhad ke
दोनों के इस डांस ने सब का दिल जीत लिया था।
फिर शेखावत और राठौर परिवार के बाकी सदस्यों ने भी जोड़ी बनाकर परफॉर्म किया। लेकिन सबकी नज़रें अब भी किसी को ढूंढ रही थीं।
Prisha ने आज महरूम कलर का लहंगा पहना था और हल्का सा मिनिमल मेकअप किया था जिसमें भी वो बेहद खूबसूरत दिख रही थीं। लेकिन कमी थी वो थी बस थोड़ी सी स्माइल की लेकिन देवांश के ना होने से थी।
“प्रिशा, चलो अब तुम्हारी परफॉर्मेंस की बारी है।” प्रिशा ने धीरे से कहा, “मैं अकेले नहीं कर पाऊंगी...”
इशिता ने मुस्कराकर कहा, “तू अकेली नहीं है, उसकी मौजूदगी तेरे साथ है... आँखें बंद कर और सोच, वो सामने खड़ा है...”
प्रिशा ने अपनी लहंगे का पल्लू ठीक किया, और जब स्टेज पर आई, तो हर किसी की साँसें थम गईं। उसने आंखे बंद की ओर गाना शुरू हुआ।
बैकग्राउंड म्यूजिक - gerua।।
Prisha ने वैसे ही आंखे बंद डांस स्टार्ट किया कि उसे खुद के नजदीक एक एहसास महसूस हुआ । उस एहसास ओर करीबी को पाकर उनके चेहरे पे स्माइल आ गई थी। जिसकी कमी थी।
जी हां ये एहसास ओर करीबी किसी ओर की नहीं देवांश की थी जो आ गया था।
धूप से निकल के
छाँव से फिसल के
हम मिले जहाँ पर
लम्हा थम गया
आसमां पिघल के
शीशे में ढल के
जम गया तो तेरा
चेहरा बन गया
देवांश prisha का एक हाथ थामा और आगे की लाइन गाते हुए अपने जज्बात बया कर रहा था
दुनिया भुला के तुमसे मिला हूँ
निकली है दिल से ये दुआ
रंग दे तू मोहे गेरुआ
रांझे की दिल से है दुआ
रंग दे तू मोहे गेरुआ
हाँ निकली है दिल से ये दुआ
हो रंग दे तू मोहे गेरुआ
हो तुमसे शुरू.. तुमपे फ़ना
है सुफियान ये दास्तां
मैं कारवां मंज़िल हो तुम
जाता जहां को हर रास्ता
तुमसे जुदा जो
दिल ज़रा संभल के
दर्द का वो सारा
कोहरा छन गया
दुनिया भुला के तुमसे मिला हूँ
निकली है दिल से ये दुआ
रंग दे तू मोहे गेरुआ
हो रांझे की दिल से है दुआ
रंग दे तू मोहे गेरुआ।।
देवांश prisha को घुमाते हुए गाने लगा।
हो वीरान था, दिल का जहां
जिस दिन से दाखिल हुआ
इक जिस्म से है इक जान का
दर्ज़ा मुझे हासिल हुआ
हाँ फीके सारे, नाते जहाँ के
तेरे साथ रिश्ता गहरा बन गया
दुनिआ भुला के तुमसे मिला हूँ
निकली है दिल से ये दुआ
रंग दे तू मोहे गेरुआ
रांझे की दिल से है दुआ
रंग दे तू मोहे गेरुआ
हाँ निकली है दिल से ये दुआ
हो रंग दे तू मोहे गेरुआ।।
गाना बंद हुआ लेकिन देवांश और prisha दोनों एक दूसरे की बाहों में एक दूसरे की आंखे में खो चुके थे उन्हें कुछ एहसास नहीं था दोनों की नज़रों ने वही बात कह दी, जो कभी शब्दों से नहीं कही जा सकी।। लेकिन तभी सभी ने तालिया बजाई जब जाके दोनों का ध्यान एक दूसरे से हटा।
देवांश और prisha दोनों स्टेज से नीचे आए। उसने विक्रम जी और मीरा जी के पैर छुए। उन्होंने आशीर्वाद। आरव आया और बोला,”भाई आप तो ड्यूटी की यूनिफॉर्म में ही आ गए ओर भाभी के साथ डांस भी किया। “
ऐसे ही हसी खुशी के साथ संगीत खत्म हुआ।
लोग धीरे-धीरे अपने कमरों में लौटने लगे।
जारी।।
जय श्री महाकाल।
क्या होगा आगे??
जयपुर की वो रात, जब संगीत का शोर मंद हो चुका था, लेकिन दिलों की धड़कनें अब भी उसी उत्साह से धड़क रही थीं। सितारा होटल के कमरे अब खामोश थे, मेहमान अपने-अपने कमरों में लौट चुके थे, लेकिन कुछ कहानियाँ अभी अधूरी थीं।
प्रिशा अपने कमरे में खिड़की के पास खड़ी थी। हवा हल्की ठंडी हो चली थी, लेकिन उसके चेहरे पर गर्माहट थी—देवांश की मौजूदगी की, उसके हाथों की छुअन की, और उसके साथ उस गाने की, जिसने उनकी आत्माओं को बाँध दिया था। वो सोच रही थी, क्या ये प्रेम है? या ये किसी और जन्म की कोई अधूरी पुकार है जो अब पूरी हो रही है?
उधर देवांश अपने कमरे में बैठा वर्दी उतार रहा था। आज के दिन की थकान उसके कंधों पर थी, लेकिन मन में एक अजीब-सी हल्कापन भी। उस बच्ची की आँखों में जो भरोसा उसने देखा था, वही उसकी सबसे बड़ी जीत थी। वो जानता था कि इस केस ने न केवल एक मासूम को न्याय दिया है, बल्कि उसकी अपनी अंतरात्मा को भी सुकून दिया है।
वो खड़ा होकर आईने में देखता है—चेहरे पर खरोंचें, होंठ पर सूजन, लेकिन आँखों में अब कोई खालीपन नहीं था। अब वहाँ एक ठहराव था, एक विश्वास कि वो जो कर रहा है, वो सिर्फ ड्यूटी नहीं, एक जीवन की दिशा है।
तभी फोन बजा, स्क्रीन पर नाम था—प्रिशा।
"हेलो," उसकी आवाज़ थोड़ी थकी हुई थी।
"थैंक यू," दूसरी तरफ से प्रिशा की धीमी लेकिन गहराई भरी आवाज़ आई।
"किसलिए?"
"आज मुझे लगा... मैं अकेली नहीं हूँ। किसी ने मुझे बिना कुछ कहे समझा, थामा, और मेरे साथ दिया, जैसे दुनिया थम गई हो।"
देवांश मुस्कुराया, "मैं भी वहीं था... जहाँ तुम थी।"
कुछ पल खामोशी रही। फिर प्रिशा ने भी कुछ नहीं कहा ओर देवांश भी चुप हो गया था दोनों बस दोनों को दूसरे की धड़कनों की आवाज सुनाई दे रही थी।
अगली सुबह जयपुर के आसमान में हल्की गुलाबी लाली फैल चुकी थी। होटल के लॉन को फिर से सजाया जा रहा था। हल्दी, पूजा और सभी रस्में पूरी हो चुकी थीं। और अब शाम को फेरों की तैयारी थी — देवांश और प्रिशा की शादी का दिन।
मीरा जी और इशिता सुबह-सुबह तैयारियों में लग गई थीं। इशिता ने गुलाबी रंग का लहंगा पहना था और बालों में गजरे लगाए थे। वो बहुत खुश थी, आज उसकी बेस्ट फ्रेंड की शादी थी।
दोपहर होते-होते दुल्हन तैयार होने लगी थी। कमरे के बीचोबीच मेकअप आर्टिस्ट्स, हेयर स्टाइलिस्ट्स और डिज़ाइनर का माहौल था। प्रिशा एक आइवरी और लाल ज़री वर्क वाला लहंगा पहन रही थी — उसका ब्लाउज़ नाजुक कढ़ाई से सजा हुआ था, और चुनरी पर सोने की झालरें टंगी थीं।
जैसे-जैसे उसका मेकअप होता जा रहा था, उसके चेहरे पर एक अनकहा तेज़ उभर रहा था। उसकी आँखों में काजल की रेखा उसके मन की स्थिरता को दर्शा रही थी, और माथे पर टिकली — एक प्रतीक थी उस नये जीवन की ओर जो वो कदम रखने जा रही थी। बालों का जुड़ा, जिस पर गजरा लगा था, जैसे उसकी मासूमियत और नारीत्व का संगम था।
इशिता ने पीछे से आकर कहा, “तू बिल्कुल रॉयल ब्राइड लग रही है। प्रिशा नहीं, Mrs. Rathore!”
इतना कह के मुस्कुराने लगी।
प्रिशा ने हल्की मुस्कान दी और धीरे से कहा, “अब डर भी लग रहा है... जिम्मेदारियों का।”
इशिता ने उसका हाथ थामा, “लेकिन तेरे साथ अब वो है, जो तुझे कभी अकेला महसूस नहीं होने देगा।”
उधर देवांश भी तैयार हो रहा था। उसके कमरे में सफेद शेरवानी लटक रही थी — सोने की कढ़ाई और गहरे मैरून साफे के साथ। जैसे ही उसने उसे पहनना शुरू किया, आरव ने कमरे में आते हुए कहा, “भाई, आज तो आप पूरे रॉयल राजकुमार लग रहे हो!”
देवांश ने हँसते हुए कहा, “आज पहली बार लग रहा है कि मैं सिर्फ अफसर नहीं, किसी का हमसफ़र बनने जा रहा हूँ।”
उसने कलाई में घड़ी बांधी, जो उसे उसके पिता ने गिफ्ट की थी — जैसे वक्त का एक वादा हो। फिर सेहरा पहनते हुए उसने आईने में खुद को देखा — आँखों में आत्मविश्वास, चेहरे पर दृढ़ता, और दिल में वो नर्म एहसास, जो सिर्फ प्रेम ला सकता है।
उसकी माँ अंदर आईं, और सेहरा सही करते हुए बोलीं, “अब तू मेरा बच्चा नहीं रहा, तू अब किसी की दुनिया बनने जा रहा है।” वो मुस्कुराया, लेकिन उनकी आँखों में भावनाओं का सैलाब था — एक माँ का गर्व, एक स्त्री की ममता, और एक जीवन का आशीर्वाद।
अब पूरे परिवार की निगाहें थीं सिर्फ एक रस्म पर — सात फेरे, सात वचन, सात जनम।
देवांश जब सेहरा बांधकर अपने पिता के साथ मंडप की ओर आया, सबकी नज़रें बस उसी पर थम गईं। आज वो सिर्फ एक अफसर नहीं था, एक बेटा, एक दूल्हा, एक इंसान था — जिसकी आँखों में वादा था, भरोसा था, और प्रेम था।
शहनाई बजने लगी। देवांश मंडप में बैठा हुआ था, और आँखों में संयम का तेज़। पंडित ने धीरे से कहा, “अब दुल्हन को बुलाइए।”
मीरा जी और इशिता एक साथ कमरे की ओर बढ़ीं। कुछ ही पल बाद, धीमे-धीमे कदमों से, प्रिशा मंडप की ओर आई। उसके माथे पर सजी टिकली, लहंगे की झालरें और उसकी चाल में एक अजीब सी शालीनता थी। जैसे ही वो सामने आई, देवांश ने एक नज़र ऊपर उठाकर उसे देखा — और मानो वक्त वहीं ठहर गया।
उसकी आँखों में प्रिशा की छवि जैसे कोई कविता बन गई थी — वो सजी हुई प्रिशा नहीं देख रहा था, बल्कि उसे देख रहा था जो उसकी ज़िन्दगी की सबसे खूबसूरत सच्चाई बनने वाली थी। उसकी साँसें धीमी हो गई थीं और हृदय स्थिर।
प्रिशा को देवांश के बगल में बैठाया। और मंत्रोच्चारण के साथ शादी की रस्में शुरू हुईं।
जयमाल के वक़्त, जब प्रिशा ने देवांश की आँखों में देखा, तो उसने सिर्फ एक ही बात पढ़ी — "मैं तुम्हारा हूँ, पूरी तरह।"
फेरे शुरू हुए। पंडित ने अग्नि के चारों ओर सात फेरे लेने के लिए कहा और हर फेरे के साथ एक वचन, एक गूंज बनकर वातावरण में फैल गया:
पहला फेरा — धर्म और कर्तव्यों का वचन:
देवांश ने कहा, “मैं वचन देता हूँ कि तुम्हारी और अपने परिवार की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए सदैव धर्म और ईमानदारी से जीवनयापन करूँगा।”
प्रिशा ने कहा, “और मैं वचन देती हूँ कि हर परिस्थिति में आपके साथ रहूँगी, आपके कर्तव्यों में आपका साथ दूँगी और धर्म का सम्मान करूँगी।”
दूसरा फेरा — प्रेम और शक्ति का वचन:
देवांश: “मैं तुम्हें अपने जीवन का सखा मानकर, तुम्हें मानसिक, शारीरिक और आध्यात्मिक रूप से सुरक्षा देने का वादा करता हूँ।”
प्रिशा: “और मैं आपके प्रेम को ही अपनी शक्ति मानकर हर दिन आपके साथ एक नए विश्वास से शुरू करूँगी।”
तीसरा फेरा — समृद्धि और एकता का वचन:
देवांश: “मैं वादा करता हूँ कि हम मिलकर एक समृद्ध जीवन बनाएंगे और हर सुख-दुख में समान रूप से सहभागी होंगे।”
प्रिशा: “और मैं वचन देती हूँ कि मैं आपके साथ हर निर्णय में, हर परिस्थिति में, एकता के साथ रहूँगी।”
चौथा फेरा — परिवार और जिम्मेदारी का वचन:
देवांश: “मैं तुम्हारे माता-पिता को अपने माता-पिता मानकर उनका सम्मान करूँगा और हमारे परिवार की गरिमा बनाए रखूँगा।”
प्रिशा: “मैं भी आपके परिवार को अपने परिवार की तरह समझूँगी और दोनों परिवारों की एकता के लिए सदा प्रयास करूँगी।”
पाँचवाँ फेरा — संतान और संस्कार का वचन:
देवांश: “अगर हमें संतान होती है, तो मैं उसे उच्च संस्कार और शिक्षा दूँगा, और एक आदर्श पिता बनने की पूरी कोशिश करूँगा।”
प्रिशा: “और मैं एक माँ के रूप में उसे न केवल प्रेम दूँगी, बल्कि सही और गलत में भेद करना भी सिखाऊँगी।”
छठा फेरा — स्वास्थ्य और धैर्य का वचन:
देवांश: “मैं वचन देता हूँ कि जब भी जीवन में कठिनाइयाँ आएँगी, मैं न हार मानूँगा और न तुम्हें टूटने दूँगा।”
प्रिशा: “और मैं आपकी सबसे बड़ी ताकत बनकर हर मोड़ पर आपका साथ निभाऊँगी।”
सातवाँ फेरा — विश्वास और साथ का अंतिम वचन:
देवांश: “मैं तुम्हारा साथी सिर्फ इस जन्म के लिए नहीं, सात जन्मों के लिए बनना चाहता हूँ — तुम्हारे हर सुख-दुख में, हर साँस के साथ।”
प्रिशा: “और मैं वादा करती हूँ कि जब तक मेरी साँस चलेगी, आपका हाथ कभी नहीं छोड़ूँगी। हर जनम में आपको ही अपना पति चुनूँगी।”
फेरे पूरे हुए। पंडित ने कहा, “अब वर, वधू की मांग में सिंदूर भरे।”
देवांश ने काँपते हाथों से सिंदूर उठाया, और प्रिशा की माँग में भरते हुए जैसे हर अधूरा एहसास पूरा कर दिया।
तभी पंडित बोले, “अब मंगलसूत्र पहनाएँ।”
देवांश ने जब मंगलसूत्र पहनाया, तो पूरा मंडप तालियों से गूंज उठा। इशिता और आरव ने सबसे ज़ोर से ताली बजाई। विक्रम जी और मीरा जी की आँखों में आँसू थे — यह सुकून और खुशी के आँसू थे।
अब शादी पूरी हो चुकी थी, लेकिन रात अभी बाकी थी — वो रात जहाँ दो अजनबी, अब एक होकर, अपने जीवन के सबसे नए अध्याय में प्रवेश करेंगे।
जारी।।
जय राम महाकाल।।
क्या होगा आगे??
जयपुर की उस रात, सितारा होटल में जीवन का सबसे भावुक अध्याय लिखा गया था।। मंडप की अग्नि धीरे-धीरे बुझ चुकी थी, फूलों की खुशबू अब भी हवा में तैर रही थी, और प्रिशा के हाथों की मेहंदी, देवांश के नाम से भरी, उसके नए जीवन की पहली पहचान बन चुकी थी। शादी पूरी हो चुकी थी। मंत्र समाप्त हो चुके थे। लेकिन अब शुरू होना था सबसे कठिन और सबसे गहराई से भरा दृश्य — विदाई। prisha की ख्वाइश थी कि उसकी विदाई उसके घर से हो सभी लोग शादी के बाद घर के लिए निकल गए थे। मीरा जी जल्दी चली गई थी उन्हें विदाई की तैयारी भी करनी थी। कुछ ही देर में सब घर आ चुके थे। घर में शांति थी। शब्दों से नहीं, मौन से भरा हुआ। आँखों से नहीं, आँसुओं से लिखा हुआ। वो क्षण जब बेटी एक दहलीज़ को पार करती है, और पीछे रह जाती हैं वो सारी यादें, वो आँगन, वो हँसी, वो ममता, जिसने उसे जन्म दिया था।
प्रिशा अब सुहागन बन चुकी थी। लाल चुनर ओढ़े, सिर झुकाए, अपनी माँ के गले लगी थी। मीरा जी का वो शांत चेहरा, जो दिनभर बेटी की शादी की रस्में निभाते हुए संयमित था, अब टूटने लगा था। उन्होंने अपनी बेटी को भुजाओं में भर लिया जैसे कोई आखिरी बार किसी खुशबू को महसूस करना चाहता हो। उनकी आँखों से आँसू बह रहे थे, लेकिन वो एक भी आह नहीं निकाल रहीं थीं — शायद माँ का आँचल इतना मजबूत होता है कि उसमें आँसुओं की भी आवाज़ नहीं होती।
"माँ... मैं कैसे रहूंगी... आपसे दूर?"
प्रिशा की आवाज़ रुँधी हुई थी, लेकिन उसमें एक बच्ची की मासूम सच्चाई थी।
मीरा जी ने उसके माथे पर हाथ रखा, “तू तो आज भी मेरी गोद में बैठी नन्ही गुड़िया है... लेकिन अब तू किसी की ज़िम्मेदारी है बेटा... किसी की ज़िन्दगी का हिस्सा... और मैं जानती हूँ तू हर रिश्ते को वैसे ही निभाएगी जैसे तूने मेरा प्यार निभाया।”
इशिता ने भी आकर उसे गले लगाया, "तू दूर नहीं है... हर बार जब तुझे बात करनी होगी, बस फोन कर देना... मैं दौड़ आऊँगी।ओर हा अपना खयाल रखना।”
विक्रम जी पास आए, उनके चेहरे पर गर्व और नम आँखें साथ-साथ थीं। उन्होंने कहा, “बेटी... तू अब दो घरों की शान है... तू जिस घर में जा रही है, वहाँ उजाला ले जाएगी।”
प्रिशा अब भी अपने आँसुओं से लड़ रही थी, लेकिन उनमें बहाव था। उसके आँसू कोई कमज़ोरी नहीं थे — वो एक क़िस्म की विदाई थी हर उस लम्हे से, जिसने उसे यहाँ तक पहुँचाया था।
बाहर गाड़ी खड़ी थी, फूलों से सजी, और देवांश तैयार खड़ा था — आज उसका चेहरा शांत था, लेकिन आँखें कह रही थीं कि वो समझ रहा है इस विदाई का हर एहसास। उसने प्रिशा की ओर हाथ बढ़ाया।
प्रिशा ने पल भर देखा, और फिर धीरे-धीरे उसका हाथ थामा — जैसे कोई पुल पार कर रही हो। पीछे मुड़कर देखा — माँ, पापा, इशिता, घर की दीवारें, वो झूला जहाँ उसने बचपन बिताया था, सब कुछ। लेकिन फिर आँखें बंद कर लीं — अब जो सामने था, वो उसका भविष्य था।
गाड़ी चली। परिवार की आँखें पीछे भागती रहीं। सिसकियों की आवाजें धीरे-धीरे हवा में घुलने लगीं। लेकिन इस बार विदाई का अर्थ केवल अलगाव नहीं था — ये जीवन के नए पथ की शुरुआत थी।
रास्ते में देवांश ने उसकी ओर देखा, "अगर तुम चाहो तो रो सकती हो... मैं सुन लूंगा... और अगर नहीं चाहो, तो मैं चुप भी रहूँगा।"
प्रिशा ने उसकी ओर देखा, आँखें भरी हुई थीं, लेकिन मुस्कान में ढली थीं। “मैं नहीं रो रही... बस थोड़ा खुद को पीछे छोड़ आई हूँ।”
देवांश ने उसका हाथ थामे रखा — जैसे किसी वचन की तरह। गाड़ी आगे बढ़ रही थी... एक घर से दूसरे घर तक नहीं, एक अध्याय से अगले अध्याय की ओर।
जयपुर की वो रात धीरे-धीरे सुबह में बदल रही थी। विदाई की भारी चुप्पी अब एक नई शुरुआत की दस्तक दे रही थी। गाड़ी राजस्थान के उन वीराने रास्तों से होती हुई धीरे-धीरे जोधपुर से राठौर हवेली के पास पहुँच चुकी थी। सूरज की पहली किरणें जैसे धरती पर देवांश और प्रिशा की नई शुरुआत का आशीर्वाद लेकर उतर रही थीं। हवेली को फूलों और झालरों से सजाया गया था — हर कोने से मांगलिक शंखनाद और चावल के कणों की महक आ रही थी। राठौर परिवार के लोग गेट के पास में खड़े थे — सविता जी के चेहरे पर एक शांत मुस्कान थी, और राजेन्द्र जी की आँखों में अपने बेटे की जीवन संगिनी को घर में लाने का गर्व।
देवांश ने गाड़ी से उतरकर दरवाजा खोला और ओर अपना हाथ आगे किया और प्रिशा को धीरे से बाहर आने को कहा। prisha ने घूंघट में से पहले देवांश को देखा ओर फिर हाथ को ओर उसने अपना हाथ देवांश के हाथ में रख दिया। देवांश ने अच्छे से पकड़ लिया। prisha उसने जैसे ही गाड़ी से पाँव बाहर रखा,। जोरो शोरो से ढोल बजने लगे थे।
दोनों ढोल नगाड़ों के बीच से जाते हुए दरवाजे के पास पहुंचे।
गृहप्रवेश की रस्म शुरू हुई। जैसे ही देवांश और प्रिशा हवेली के मुख्य द्वार पर पहुँचे, आरती की थाल लेकर सविता जी सामने आईं। सविता जी ने दोनों के माथे पर कुमकुम से तिलक लगाया। पहले देवांश को, फिर प्रिशा को। उसके बाद दोनों की आरती उतारी।
फिर सविता जी ने मुस्कराते हुए प्रिशा की ओर देखा, “बेटा, अब तुम ये चावल से भरा कलश अपने पाँव से धीरे से गिरा देना, जिससे ये घर तुम्हारे पावन कदमों से समृद्ध हो। और यहाँ ये आले (आलते) उसमें दोनों पाँव रखकर भीतर आना — ताकि तुम्हारे साथ लक्ष्मी माता भी इस घर में पधारें।”
प्रिशा ने धीरे से सिर हिलाया और संकोच के साथ उसने कलश को पाँव से हल्का सा गिरा दिया। कलश हल्के से लुढ़का और चावल ज़मीन पर बिखर गए। फिर उसने अपने सुर्ख लाल जोड़े के किनारे संभालते हुए धीरे-धीरे अपने दोनों पाँव आले के पानी में रखे — और फिर आगे कदम बढ़ाए। सफेद पायदान पर जब उसके पाँव पड़े, तो उसके चिन्ह जैसे हवेली के आँगन पर प्रेम और समर्पण की छाप छोड़ते चले गए।
घर की औरतों ने पीछे से मांगलिक गीत गाना शुरू किया — “मोर बलैया ले लूं मैं... सासू माँ के राज में बहुरानी आई रे...” — हर स्वर में अपनापन था, हर ताल में आशीर्वाद।
सविता जी ने प्रिशा के सिर पर हाथ रखा, “आज से तुम इस घर की बहू नहीं, बेटी हो। जैसे लक्ष्मी जी घर को समृद्धि देती हैं, वैसे ही तुम्हारे कदम इस हवेली को रौशन करेंगे।”
राजेन्द्र जी दूर से निहार रहे थे — आँखें गर्व से भीगी थीं। उन्होंने सविता जी की ओर देखते हुए कहा, “आज हमारे घर में सच्चा उजाला ओर खुशियां आई है।”
प्रिशा जैसे-जैसे आगे बढ़ रही थी, हर कदम पर उसके साथ नई पहचान जुड़ रही थी। रसोई के पास पहुँचकर सविता जी ने कहा, “बेटा, घर की पहली देहरी पार करने से पहले रसोई को प्रणाम करना शुभ होता है। यहाँ से रिश्तों की मिठास शुरू होती है।”
प्रिशा ने हाथ जोड़कर रसोई की देहलीज़ को प्रणाम किया। इसके बाद सविता जी ने देवांश और प्रिशा दोनों को हवेली के पूजन-कक्ष, यानी घर के मंदिर में ले चलने को कहा। मंदिर में आरती की सुगंध, धूपबत्ती की गंध और घंटियों की मधुर ध्वनि वातावरण को पवित्र बना रही थी।
दोनों ने मिलकर भगवान गणेश और लक्ष्मी माता के सामने दीप जलाया और हाथ जोड़कर आशीर्वाद माँगा। सविता जी ने एक थाली में रखा कुमकुम उठाया और प्रिशा की ओर देखकर बोलीं, “बेटा, ये हमारे घर की परंपरा है — नई बहू मंदिर की दीवार पर अपने हाथों की कुमकुम भरी छाप छोड़ती है।
प्रिशा ने थाली में अपने दोनों हाथ रख दिए और मंदिर की दाईं दीवार पर धीरे से छाप छोड़ दी। उन हथेलियों की छाप अब केवल रंग नहीं थीं — वो एक स्त्री के समर्पण, संस्कार और विश्वास की छवि बन चुकी थीं।
हर कोई निहार रहा था — सविता जी की आँखें नम थीं, लेकिन उसमें सुकून था। उन्होंने देवांश और प्रिशा दोनों को आशीर्वाद दिया। अब ये घर केवल एक हवेली नहीं रहा — अब इसमें भाव, परंपरा और नववधु की आत्मा बस चुकी थी। देवांश उसकी हर एक हलचल को निहार रहा था — कभी आँखों से, कभी आत्मा से।
सब रस्में पूरी होने के बाद सविता जी ने हल्की मुस्कान के साथ कहा, “देवांश, तुम अब जाकर थोड़ा रेस्ट करके रेडी हो जाओ... मुंह दिखाई की रस्म होने वाली है। लेकिन याद रखना, अभी तुम अपने कमरे में नहीं जाओगे — तुम आरव के कमरे में जाकर तैयार हो जाओ।”
फिर उन्होंने प्रिशा की ओर मुड़ते हुए कहा, “और बेटा, थोड़ी देर में मुंह दिखाई की रस्म होगी।”तुम जब तक मेरे कमरे में जाकर थोड़ी देर रेस्ट कर लो, फिर वही रेडी हो जाना। मैने तुम्हारे कपड़े मेरे रूम में रखवा दिए हैं। ओर कुछ भी चाहिए तो मुझे बताना। "
ओर फिर सिया को कहा,"बेटा जाओ तुम्हारी भाभी को मेरे कमरे में छोड़ आओ। "
दोनों ने सविता जी की बात को नम्रता से स्वीकार किया और ओर देवांश आरव के कमरे की तरफ बढ़ गया। ओर सिया prisha को लेकर अपनी बड़ी मां के कमरे की ओर बढ़ गई। — एक नए रिश्ते की एक और सुंदर रस्म की तैयारी में। देवांश prisha को जाते हुए उसके हर एक हलचल को निहार रहा था — कभी आँखों से, कभी आत्मा से।
सिया prisha को लेकर आई ओर बोली,"भाभी आप रेस्ट कर लीजिए ओर यहां आपके कपड़े रखे है आप तैयार हो जाएं। अगर आपको कुछ भी चाहिए हो तो मुझे बताना में बाहर ही हु। """
prisha ने सिर्फ हा में सिर हिला दिया। ओर सिया वहां से चली गई।
जारी।
जय श्री महाकाल।।
क्या होगा आगे.??