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"साथ... जो किस्मत ने चुना"

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Mahi Ra

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नयन मल्होत्रा और आशी सिंघानिया के साथ हम भी समझते हैं , इस अरेंज मैरिज को जो एहसास या जिम्मेदारी दोनों लाएगा | ~ ~ ~ ~ ~ अरेंज मैरिज को अलग तरीके से दिखाना ही इस कहानी का मकसद है | ~ ~ ~ ~ ~ पहली बार यहां कहानी लिखने जा रही हूं , उम्मीद करूंगी आपक...

Total Chapters (43)

Page 1 of 3

  • 1. "साथ... जो किस्मत ने चुना" - Chapter 1

    Words: 764

    Estimated Reading Time: 5 min

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    🌸 भाग 1: “किस्मत की पहली दस्तक”

    ---

    सुबह का समय था। घर की रसोई से हल्की-सी इलायची की खुशबू आ रही थी। कमरे में माँ और पापा के बीच धीमे-धीमे संवाद चल रहे थे। माहौल में एक अजीब-सी गंभीरता थी, जिसे घर की सबसे छोटी बेटी — आशी — भांप चुकी थी।

    चाय का प्याला हाथ में थामे वह ड्राइंग रूम में आई तो पापा ने उसके सामने एक तस्वीर रखी। तस्वीर में एक लड़का था — नीली शर्ट, हल्की मुस्कान और गंभीर आँखें। तस्वीर के कोने में लिखा था: “नयन मल्होत्रा — 28 वर्ष, इंजीनियर, दिल्ली”।

    “बहुत अच्छा लड़का है,” पापा बोले। “संस्कार भी हैं, नौकरी भी अच्छी है, और घरवाले भी बहुत सुलझे हुए हैं।”

    माँ ने धीरे से जोड़ा, “लड़के ने तुम्हारी प्रोफेशन की बहुत तारीफ़ की है। डॉक्टर हो, मेहनती हो... उसे ये पसंद आया।”

    आशी ने बिना कुछ कहे तस्वीर को देखा। तस्वीर में कुछ विशेष नहीं था — न कोई फिल्मी आकर्षण, न कोई सपना दिखाने वाली चमक। पर उसकी आँखों में एक सच्चाई जरूर थी — और यही बात थोड़ी देर तक तस्वीर को देखने के लिए मजबूर करती रही।

    ---

    घर का माहौल और आशी का मौन

    घर का हर सदस्य उस दिन कुछ ज़्यादा ही व्यवस्थित लग रहा था। माँ बार-बार कपड़े ठीक कर रही थीं, पापा फोन पर बात कर रहे थे — रिश्ते की संभावनाओं की बातचीत जारी थी।

    आशी शांत थी। वह न तो विरोध कर रही थी, न ही उत्साहित थी। उसके भीतर एक सवाल गूंज रहा था —

    "क्या यही तरीका होता है जीवनसाथी चुनने का?"

    परिवार ने कहा, "मिलना ही तो है, पसंद न आए तो कोई ज़बरदस्ती नहीं होगी।"

    मिलना तय हुआ — रविवार को, नयन के घर पर।

    ---

    पहली सोच – अरेंज मैरिज का सच

    अरेंज मैरिज का विचार आशी के लिए नया नहीं था, लेकिन असल में जब बात अपने ऊपर आती है, तो सब कुछ अलग लगता है। पढ़ाई पूरी करने, डॉक्टरी में खुद को स्थापित करने के बाद अब वह एक नए जीवन में प्रवेश करने वाली थी — लेकिन क्या वह तैयार थी?

    उसने अपनी सहेली साक्षी से बात की।

    “तो मिलने जा रही है?”

    “हां,” आशी ने हल्के स्वर में कहा।

    “फिर तुझे कैसा लग रहा है?”

    “अजीब... जैसे कोई टेस्ट देने जा रही हूं, लेकिन सवाल ही नहीं पता।”

    ---

    तैयारियाँ और मन की उलझन

    माँ ने गुलाबी रंग का सूट निकाला — हल्का, पर बेहद खूबसूरत।

    “यही पहन लेना। थोड़ा मेकअप कर लेना, हल्का-सा काजल और मुस्कान — बस,” माँ ने कहा।

    कमरे के आईने में खुद को देखते हुए आशी को लगा — आज वो खुद को नहीं, किसी और की नज़र से तैयार कर रही है।

    ---

    नयन का परिवार — पहली भेंट

    रविवार की सुबह तय समय पर आशी अपने माता-पिता के साथ नयन के घर पहुँची। एक सादा, लेकिन सजी-संवरी सी जगह। दीवारों पर तस्वीरें थीं — पारिवारिक, धार्मिक, और कुछ पुराने पलों की।

    नयन की माँ ने उनका स्वागत किया — गर्मजोशी से, आत्मीयता से।

    कुछ देर बाद, नयन कमरे में आया।

    वह वही था जो तस्वीर में था, लेकिन असलियत में उससे ज़्यादा — थोड़ा लंबा, थोड़ा गंभीर, और काफी शांत।

    ---

    अकेले में बातचीत — दो अजनबियों का पहला संवाद

    बातचीत के लिए उन्हें घर के पीछे के छोटे से बगीचे में भेजा गया।

    “हाय,” नयन ने मुस्कुराकर कहा।

    “हेलो,” आशी ने जवाब दिया।

    कुछ पलों की चुप्पी रही, फिर बातचीत शुरू हुई।

    नयन ने अपने काम के बारे में बताया — कैसे वह एक प्रोजेक्ट पर काम कर रहा है जो कई देशों के साथ जुड़ा हुआ है।

    आशी ने अपनी हॉस्पिटल की नाइट शिफ्ट्स और मरीजों से जुड़े अनुभव साझा किए।

    बातचीत सहज थी — न कोई औपचारिकता ज़्यादा, न कोई बनावटीपन।

    नयन ने कहा,

    “देखिए, ये मिलना सिर्फ एक शुरुआत है। मैं चाहता हूँ कि आप निर्णय लेने में पूरी आज़ादी महसूस करें। कोई दबाव नहीं है। अगर आप चाहें, तो समय ले सकती हैं।”

    ये सुनकर आशी ने पहली बार उसकी आँखों में सीधे देखा — वहाँ कोई जल्दबाज़ी नहीं थी।

    ---

    वापसी और मौन

    घर लौटते समय गाड़ी में बहुत ज़्यादा बात नहीं हुई। माँ-पापा पूछना चाहते थे, पर रुके रहे।

    कमरे में लौटकर आशी ने तस्वीर को फिर से देखा — अब तस्वीर में चेहरा कुछ और कह रहा था।

    ---

    निष्कर्ष नहीं, एक शुरुआत

    यह कोई प्रेम कहानी नहीं थी, न ही कोई रोमांचक घटना। यह सिर्फ एक भेंट थी — दो अजनबियों की, जिनके बीच कुछ भी तय नहीं था।

    लेकिन उस एक मुलाक़ात ने एक सवाल छोड़ दिया था —

    क्या किस्मत के दस्तक देने पर दरवाज़ा खोला जाना चाहिए?

    ---

  • 2. "साथ... जो किस्मत ने चुना" - Chapter 2

    Words: 673

    Estimated Reading Time: 5 min

    पिछली मुलाक़ात के बाद का समय, जब दोनों परिवार सोच में हैं, और आशी व नयन दोनों अपने-अपने मन में उलझे हुए है |

    ---

    🌸 भाग 2: “पहला फ़ैसला — हाँ या ना?”

    ---

    शाम उतर चुकी थी। खिड़की के बाहर धीमी हवा चल रही थी, और कमरे के भीतर मौन गूंज रहा था। मुलाक़ात को तीन दिन हो चुके थे। पर कोई निर्णय अब तक नहीं आया था।

    दोनों परिवारों में उत्सुकता थी, पर दोनों ने संयम भी रखा था। रिश्ते जब दो जीवन नहीं, दो परिवारों को जोड़ते हों, तब हर कदम सोच-समझकर उठाना होता है।

    ---

    आशी का मन

    आशी अपनी ड्यूटी से लौटते ही सीधे अपने कमरे में चली गई। बैग उतारते ही उसकी नज़र अलमारी पर रखी उस तस्वीर पर पड़ी — नयन मल्होत्रा की तस्वीर।

    वो तस्वीर अब सिर्फ कागज़ नहीं थी। उसमें अब आवाज़ थी, आँखें थीं, और कुछ अधूरी बातों की गूंज।

    तीन दिन पहले की मुलाक़ात बहुत सामान्य रही थी। कोई बड़ी बात नहीं हुई, न कोई असहजता। लेकिन क्या सामान्य होना किसी रिश्ते के लिए पर्याप्त होता है?

    उसने अपने मन में कई सवालों को खंगालना शुरू किया —

    क्या वह नयन के साथ खुद को सहज महसूस कर पाई थी?

    क्या उसके शब्दों में सच्चाई थी या बस औपचारिकता?

    क्या यह रिश्ता उस स्वतंत्रता को स्वीकार करेगा जिसे वह जीवनभर जिया है?

    जवाब अभी स्पष्ट नहीं थे।

    ---

    नयन की सोच

    दिल्ली की ऊँची इमारतों के बीच नयन अपने अपार्टमेंट की खिड़की से बाहर देख रहा था। उसके हाथ में कॉफी का मग था और सामने लैपटॉप खुला पड़ा था — मगर उसकी नज़रें स्क्रीन पर नहीं थीं।

    उसके मन में वही मुलाक़ात घूम रही थी।

    आशी — शांत, समझदार, और अपने पेशे को लेकर गंभीर।

    उसकी मुस्कान में संयम था और सवालों में परिपक्वता।

    नयन को लगा था कि बात करने में कोई असहजता नहीं हुई, लेकिन ये भी महसूस हुआ कि आशी ने कुछ भी जल्दी नहीं कहा। वो सोचती है — और गहराई से सोचती है।

    शायद यही उसे अच्छा भी लगा था।

    ---

    परिवारों की बेचैनी

    दोनों घरों में हल्की बेचैनी थी।

    आशी की माँ ने कई बार इशारों में पूछा, “कुछ सोचा?”

    और नयन की माँ ने बेटे से सीधा पूछ लिया, “तू क्या सोच रहा है?”

    नयन ने सिर झुकाकर कहा,

    “मैं सोच रहा हूँ... लेकिन जल्दबाज़ी नहीं करना चाहता।”

    इधर आशी ने सिर्फ इतना कहा,

    “एक-दो दिन और दीजिए। मैं फैसला करके बताऊंगी।”

    दोनों घरों ने हां में सिर हिलाया — किसी पर दबाव नहीं था, लेकिन उम्मीदें ज़रूर थीं।

    ---

    एक पुरानी याद

    फैसले से पहले अकसर इंसान अपने अतीत में झांकता है।

    एक शाम, आशी बालकनी में बैठी थी। सामने पुराने कॉलेज की तस्वीर थी — दोस्तों की हँसी, मेडिकल कैंप की तस्वीरें, और एक अधूरी सी डायरी...

    उस डायरी में कभी उसने लिखा था —

    “अगर मैं किसी से शादी करूं, तो वो ऐसा हो जिससे मैं बेझिझक अपने मन की हर बात कह सकूं... बिना डरे, बिना छुपाए।”

    उसने खुद से पूछा — क्या नयन ऐसा हो सकता है?

    ---

    फ़ैसले की ओर पहला कदम

    अगले दिन आशी ने खुद से कहा,

    “अगर रिश्ता परफेक्ट नहीं भी है, तो क्या वो सम्मान और समझ से भरा हो सकता है?”

    वो जानती थी, परफेक्शन की चाह इंसान को खाली छोड़ देती है।

    उधर नयन ने भी तय किया —

    “अगर ये रिश्ता आगे बढ़े, तो उसे आज़ादी और समझ दोनों चाहिए होंगे — एकतरफा उम्मीदों से नहीं।”

    ---

    फ़ोन की घंटी

    शाम को नयन के मोबाइल पर कॉल आया — नंबर अनजाना नहीं था।

    “हेलो,”

    आशी की आवाज़ थी।

    “हां, बोलिए...”

    “मैंने सोचा... अगर आप भी सहमत हों, तो हम एक और बार मिल सकते हैं। बिना परिवार, सिर्फ एक कॉफ़ी के लिए।”

    “बिलकुल,” नयन ने बिना हिचके कहा। “मुझे अच्छा लगेगा।”

    ---

    अंत नहीं, एक और शुरुआत

    कोई फ़ैसला सीधे “हाँ” या “ना” में नहीं आता।

    कभी-कभी वो एक और मुलाक़ात का रूप लेता है।

    इस रिश्ते की डोर अब दोनों के हाथ में थी —

    तय ये करना था कि क्या दोनों उसे एक साथ थामना चाहते हैं।

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  • 3. "साथ... जो किस्मत ने चुना" - Chapter 3

    Words: 615

    Estimated Reading Time: 4 min

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    🌸 भाग 3: “कॉफ़ी विद भविष्य”


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    शाम के पाँच बजे थे। दिल्ली के एक शांत और सुव्यवस्थित कैफ़े के कोने की टेबल पर दो कप कॉफ़ी धीरे-धीरे ठंडी हो रही थी। टेबल पर दो लोग बैठे थे — आशी और नयन। दोनों के चेहरों पर कोई बड़ी मुस्कान नहीं थी, पर दोनों की आँखों में स्पष्टता थी।

    यह मुलाक़ात किसी परिवार की योजना का हिस्सा नहीं थी।

    यह दो समझदार और संजीदा लोगों का फैसला था — एक-दूसरे को समझने की एक और कोशिश।

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    शुरुआत — बिना औपचारिकता के

    “थैंक यू मिलने के लिए,” आशी ने कहा।

    “थैंक यू तुमने इनिशिएट किया,” नयन ने हल्की मुस्कान के साथ जवाब दिया।

    कुछ पल की चुप्पी आई, लेकिन वह बोझिल नहीं थी।

    दोनों ने अपने-अपने कप से एक घूंट लिया — और इस बार बातचीत औपचारिक नहीं, सीधी और सच्ची थी।

    ---

    बातचीत का पहला मोड़

    “मैं सच कहूं?” आशी ने कहा।

    “ज़रूर,” नयन ने सिर हिलाया।

    “पहली मुलाक़ात के बाद मेरे मन में ना हाँ थी, ना ना... बस सवाल थे। शायद इसलिए मैंने फिर से मिलने का सुझाव दिया।”

    नयन ने संजीदगी से सुना और कहा,

    “मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही था। तुम समझदार हो, आत्मनिर्भर लगती हो — और मैं जानता हूं, ऐसे लोग जल्दी निर्णय नहीं लेते।”

    आशी मुस्कुराई।

    “हम दोनों को शायद ‘जल्दी’ शब्द से परहेज़ है।”

    ---

    खुली बातें — बिना पर्दे

    आशी ने कहा,

    “मुझे डर इस बात का नहीं कि ये अरेंज मैरिज है... डर इस बात का है कि क्या दो अजनबी, सिर्फ कुछ मुलाक़ातों में वो भरोसा बना सकते हैं, जो एक रिश्ते की नींव है?”

    नयन कुछ पल चुप रहा।

    फिर बोला,

    “शायद भरोसा वक़्त लेता है। पर शुरुआत में ज़रूरत होती है ईमानदारी की... और इरादे की।”

    “तुम्हारे इरादे?”

    “साफ हैं,” नयन ने जवाब दिया। “मैं ऐसा रिश्ता चाहता हूँ जहाँ दो लोग बराबरी से चलें। कोई एक आगे या पीछे नहीं। और हां... मैं एक शांत इंसान हूँ, लेकिन रिश्ते में मौन नहीं चाहता।”

    उसकी यह बात आशी के भीतर कहीं गहराई तक उतर गई।

    ---

    अनुभव साझा

    आशी ने बताया कि कैसे हॉस्पिटल में लगातार बदलती शिफ्ट्स के बीच वह कई बार खुद को खो देती है।

    नयन ने कहा कि उसके प्रोजेक्ट्स के बीच बहुत कम ऐसा समय आता है जब वह सचमुच किसी के लिए ‘उपलब्ध’ हो सके — लेकिन वह बदलाव के लिए तैयार है।

    इन अनुभवों में न कोई दिखावा था, न आदर्श गढ़े गए विचार।

    सिर्फ सच्ची ज़िंदगी की छोटी-छोटी बातें थीं — जो रिश्तों को असल बनाती हैं।

    ---

    जब बात दिल से निकली

    “क्या तुम्हें लगता है कि ये रिश्ता चल सकता है?” आशी ने हल्की आवाज़ में पूछा।

    नयन ने बिना एक भी सेकंड गंवाए कहा,

    “अगर दोनों चलने को तैयार हों, तो हाँ।”

    “और अगर रास्ते में मोड़ आए?”

    “तो साथ बैठकर मोड़ पार करेंगे। लेकिन अकेले नहीं।”

    इस बार आशी ने पहली बार खुलकर मुस्कुराया। और नयन ने भी वही किया — बिना किसी दिखावे के।

    ---

    एक मुलाक़ात, एक निर्णायक एहसास

    जब मुलाक़ात खत्म हुई, तो दोनों ने एक-दूसरे को अलविदा नहीं कहा —

    बल्कि एक नज़र से "फिर मिलेंगे" जैसा कुछ कह दिया।

    गाड़ी में लौटते हुए आशी ने अपनी माँ को सिर्फ इतना मैसेज किया —

    “घर आकर बात करती हूँ। बात करनी है — दिल से।”

    और उधर, नयन ने अपने पापा से कहा —

    “मैं आशी से दोबारा मिला। और अब मुझे जवाब पता है।”

    ---

    और अंत में...

    किस्मत कभी सीधे उत्तर नहीं देती।

    वो संकेत देती है — और निर्णय इंसान को लेने होते हैं।

    यह मुलाक़ात उस दिशा में एक ठोस कदम थी।

    "हाँ" या "ना" — अब शब्दों का खेल नहीं था,

    अब भावनाओं और समझ का मेल था।

    ---

  • 4. "साथ... जो किस्मत ने चुना" - Chapter 4

    Words: 627

    Estimated Reading Time: 4 min

    ---

    🌸 भाग 4: “एक निर्णय — परिवारों के सामने”


    ---

    सुबह की पहली किरणें कमरे की खिड़की से अंदर आ चुकी थीं। बाहर हल्की हवा में मंदिर की घंटियों की आवाज़ मिल रही थी।

    यह एक सामान्य दिन जैसा दिख रहा था... लेकिन दो घरों में आज कुछ असामान्य था।

    दिल्ली में मल्होत्रा हाउस में नयन आज जल्दी उठा था। वहीं जयपुर के एक हिस्से में, आशी भी अपने कमरे में बैठी खामोशी से अपनी डायरी बंद कर रही थी।

    आज दोनों ने सोच लिया था — अब कह देना है।

    ---

    नयन — पिता के सामने

    नयन नाश्ते की मेज़ पर आकर बैठा। उसकी माँ अख़बार पढ़ रही थीं और पिता मोबाइल में खबरें देख रहे थे।

    “मुझे आप दोनों से कुछ बात करनी है।”

    उसके इस वाक्य ने दोनों की नज़रें उठा दीं।

    “मैं आशी से दो बार मिला हूँ। मुझे लगता है... वह समझदार है, शांत है और मेरे जैसे जीवन की सोच रखती है।

    मैं उसके साथ रिश्ता आगे बढ़ाना चाहता हूँ।”

    कुछ पल की चुप्पी रही।

    फिर पिता ने गंभीर स्वर में पूछा,

    “क्या तुम यह फ़ैसला सोच-समझकर ले रहे हो?”

    “जी,” नयन ने सिर हिलाया। “जल्दबाज़ी नहीं है। मैं तैयार हूँ। रिश्ता बराबरी का चाहिए था... और मुझे लगता है, आशी उसमें फिट बैठती है।”

    माँ ने हल्की मुस्कान के साथ पूछा,

    “तुम्हें उससे कोई शिकायत... कोई संदेह तो नहीं?”

    “नहीं,”

    “तो फिर हमें और क्या चाहिए।”

    तीनों की नज़रों में उस वक्त एक बात समान थी — संतुलन। यह रिश्ता भावना से ज़्यादा समझ से जुड़ रहा था, और यही शायद इसकी ताकत थी।

    ---

    आशी — माँ और पापा से आमने-सामने

    उधर, आशी अपने माँ-पापा के कमरे में आकर बैठी। माँ ने उसकी थकी-सी मुस्कान देखी और कहा,

    “क्या सोचा तुमने?”

    आशी ने एक गहरी सांस ली और बोली,

    “मैं नयन से दो बार मिल चुकी हूँ।

    पहली बार कुछ भी तय नहीं हो पाया था। लेकिन दूसरी बार... बात अलग थी।

    हमने खुलकर बात की — प्रोफेशन, जीवनशैली, स्वतंत्रता, सोच — और मुझे ऐसा लगा जैसे किसी ने सुना हो, समझा हो... बिना टोके।”

    पापा ध्यान से सुनते रहे।

    “क्या ये वही रिश्ता है जिसकी तुमने कल्पना की थी?” उन्होंने पूछा।

    आशी ने धीमे से कहा,

    “शायद नहीं।

    लेकिन ये वह इंसान है जिसके साथ मैं कल्पनाएँ बना सकती हूँ — धीरे-धीरे।”

    माँ ने उसके सिर पर हाथ फेरा और कहा,

    “तो फिर हमें और क्या चाहिए?”

    पापा ने सिर हिलाया।

    “हमारी तरफ़ से बात पक्की समझो। अब बस एक बार मिलने की तारीख तय करनी है।”

    ---

    दोनों घरों में उत्साह, पर संयम

    रिश्ता तय करने की ख़बर दोनों ही घरों में एक मधुर लहर की तरह फैली — न कोई शोर, न कोई उत्सव अभी।

    बस एक शांति थी — जैसे कोई बड़ा बोझ उतर गया हो।

    फूफाजी, मामी, मौसी और ताई के व्हाट्सएप ग्रुप्स में हलचल शुरू हो गई थी।

    “आशी की शादी तय हो गई है?”

    “लड़का इंजीनियर है ना? दिल्ली वाला?”

    “कब देखेंगे उसे?”

    माँ मुस्कुरा रही थीं।

    पापा तारीखें देख रहे थे — सगाई की संभावित तिथियाँ।

    ---

    एक संदेश — जो सब बदल सकता था

    रात को दोनों ने एक-दूसरे को मैसेज किया।

    नयन:

    "घर में बात हो गई है। सब बहुत खुश हैं।"

    आशी:

    "यह शायद पहली बार है जब किसी रिश्ते को लेकर मुझे डर नहीं, भरोसा महसूस हो रहा है। शुक्रिया उस भरोसे के लिए।"

    नयन:

    "और अब से... हम एक-दूसरे के भरोसे की ज़िम्मेदारी उठाते हैं। धीरे, लेकिन मिलकर।"

    ---

    अंत नहीं — रिश्ते की नींव

    रिश्ते की शुरुआत अक्सर शोर से नहीं होती।

    कभी वो दो कप कॉफ़ी, दो मुलाक़ातें, और दो ‘हाँ’ के बीच चुपचाप आकार लेता है।

    नयन और आशी का रिश्ता अब तय हो चुका था —

    नाम की मोहर भले अभी बाकी हो,

    लेकिन दिलों की सहमति मिल चुकी थी।

    ---

  • 5. "साथ... जो किस्मत ने चुना" - Chapter 5

    Words: 786

    Estimated Reading Time: 5 min

    ---

    🌸 भाग 5: “सगाई की तैयारी — दिलों से रस्मों तक”


    ---

    रिश्ता तय होते ही दोनों घरों में एक नई ऊर्जा फैल गई थी। अब तक जो बातें सिर्फ मन और मौन में चल रही थीं, अब वो दिनचर्या का हिस्सा बन गई थीं।

    कभी साड़ियों की खरीदारी, तो कभी मिठाइयों की सूची।

    कभी शगुन के लिफाफों की गिनती, तो कभी मेहमानों की।

    लेकिन इस हलचल के बीच दो नाम लगातार सबसे ज़्यादा दोहराए जा रहे थे — नयन और आशी।

    ---

    तारीख तय

    पंडित जी ने पंचांग देखकर सगाई की तारीख निकाली —

    अगले महीने की 5 तारीख, शनिवार।

    जयपुर में समारोह होना तय हुआ — आशी के घर पर।

    नयन के परिवार ने सहमति जताई और कहा,

    “हम कम लोग आएंगे, घर जैसा माहौल रखिए।”

    माहौल घर जैसा ही था — लेकिन दिलों में उत्साह त्यौहार जैसा।

    ---

    खरीदारी का सिलसिला

    जयपुर में सिंघानिया हाउस की हर अलमारी खुल चुकी थी।

    माँ और मामी दिनभर बाज़ारों के चक्कर लगा रही थीं — लहंगे, चूड़ियाँ, सिल्क की साड़ियों से लेकर सूखे मेवों के गिफ्ट बॉक्स तक।

    आशी हर चीज़ में शामिल थी, पर उतनी ही शांत।

    उसे अभी भी विश्वास नहीं हो रहा था कि उसकी सगाई तय हो चुकी है।

    हर ड्रेस ट्रायल में, हर शगुन थाली की सजावट में, कहीं न कहीं उसका मन नयन की आँखों की उस गहराई में खो जाता — जिसने उसे ‘हाँ’ कहने का साहस दिया था।

    ---

    उधर दिल्ली में

    मल्होत्रा परिवार भी पीछे नहीं था।

    नयन की माँ हर दूसरे दिन शगुन की मिठाइयाँ टेस्ट कर रही थीं।

    “राजभोग जयपुर भेजना है, ये हल्का मीठा होना चाहिए।”

    “और वो आशी के लिए रिंग... वो दिखा ना ज़रा।”

    नयन सिर्फ सुनता और मुस्कुरा देता।

    कभी-कभी उसकी बहन उसे चिढ़ाते हुए कहती,

    “भइया, थोड़ा रोमांटिक हो जाइए... शादी तय हो चुकी है।”

    वो हल्के-से जवाब देता,

    “प्यार शोर नहीं करता। धीरे-धीरे आता है, जैसे आशी आई है।”

    ---

    सगाई से पहले की पहली वीडियो कॉल

    तारीख पास आ रही थी।

    एक शाम दोनों के बीच पहली वीडियो कॉल हुई — औपचारिकता से परे, सगाई से पहले की खुद की पहल।

    “तुम थक रही हो न?” नयन ने पूछा।

    “तुम्हें कैसे पता?” आशी हैरान थी।

    “आँखों में दिखता है... और थोड़ी कम बोल रही हो,” उसने मुस्कुराकर कहा।

    आशी हँस पड़ी।

    “थकान है, पर शिकायत नहीं। ये सब मेरे लिए नया है, लेकिन अच्छा लग रहा है।”

    कुछ पल बाद आशी ने कहा,

    “सुनो... वहाँ केसरिया लहंगा पहनने की सोच रही हूँ। क्या ठीक रहेगा?”

    “जो तुम पहनोगी, वही ठीक लगेगा। मुझे रंग से ज़्यादा नज़रों का इंतज़ार है।”

    ये वाक्य शायद आशी ने कभी सोचा भी नहीं था कि कोई कहेगा — लेकिन नयन कह चुका था।

    ---

    हल्दी, मेंहदी और हँसी

    सगाई से दो दिन पहले हल्दी और मेंहदी की रस्में हुईं।

    घर भरा हुआ था — चाचा, बुआ, मामा, मौसी, कज़िन्स और बचपन के दोस्त।

    आशी की हथेलियों पर मेंहदी लगते वक्त सखी ने पूछा,

    “नाम कहाँ छुपवाया जाए? वो ढूंढ नहीं पाए तो क्या?”

    आशी ने शरारत से कहा,

    “तो पूछे बिना कैसे जानेगा मेरी बात?”

    हँसी का ठहाका लगा और कमरे में संगीत चल पड़ा —

    "मेहंदी है रचने वाली..."

    ---

    जयपुर की सजावट — दिल्ली का कारवां

    5 तारीख आई — सब कुछ जैसे एक सुर में बज रहा था।

    जयपुर में आशी का घर रोशनी से जगमगा रहा था।

    गेट पर मोगरे की मालाएं, प्रवेश द्वार पर रंगोली और अंदर हल्का-सा चंदन की खुशबू।

    नयन का परिवार समय पर पहुँचा।

    आशी की माँ ने आरती उतारी।

    नयन थोड़ा संकोच में मुस्कुराया — लेकिन उसकी नज़रें पूरे समय आशी को ढूँढ रही थीं।

    जब वो सीढ़ियों से उतरी, केसरिया लहंगे में, हल्की-सी मुस्कान के साथ — नयन की निगाहें वहीं थम गईं।

    उसने धीमे से सिर झुकाया — और आशी ने उसकी आँखों में अपना जवाब पढ़ लिया।

    ---

    अंगूठी और एक वादा

    सगाई की रस्म शुरू हुई।

    दोनों ने एक-दूसरे को अंगूठी पहनाई — बिना किसी दिखावे, बस एक सच्चाई के साथ।

    तालियों की गूंज के बीच किसी ने मज़ाक में कहा,

    “अब तो दिल भी लॉक हो गया!”

    नयन ने जवाब दिया,

    “चाबी दोनों के पास है — भरोसे की।”

    ---

    रात की चुप्पी में एक नई शुरुआत

    सगाई के बाद रात देर तक नींद किसी को नहीं आई।

    आशी बालकनी में खड़ी थी — आसमान में चाँद पूरा था।

    फोन बजा —

    “सोई नहीं?”

    “नहीं,”

    “आज पहली बार लगा कि हम सच में जुड़ रहे हैं,” नयन बोला।

    आशी ने जवाब दिया —

    “और पहली बार लगा कि ये जुड़ाव सिर्फ रस्म नहीं... रिश्ता बन गया है।”

    ---

    एक पंक्ति में सार

    सगाई हो गई थी —

    लेकिन असली यात्रा अब शुरू हुई थी,

    जहाँ दो आत्माएँ एक राह पर चलने के लिए तैयार हो चुकी थीं।

    ---

  • 6. "साथ... जो किस्मत ने चुना" - Chapter 6

    Words: 639

    Estimated Reading Time: 4 min

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    🌸 भाग 6: “नज़दीकियाँ — दूरी और संवाद के बीच”



    ---

    सगाई के बाद का समय परिवारों के लिए त्योहार जैसा था —
    मिठाइयों का आना-जाना, मेहमानों के फ़ोन, सोशल मीडिया पर तस्वीरें, और भविष्य की योजनाएँ।
    परंतु उस चहल-पहल के बीच, दो लोग अपनी दुनिया बुन रहे थे — नयन और आशी।

    रिश्ता अब नाम पा चुका था।
    पर क्या नाम मिलते ही रिश्ता मजबूत हो जाता है?
    या उसे वक्त, समझ और कुछ गलतफहमियों से गुजरकर ही गहराई मिलती है?


    ---

    रोज़ की बातें — एक आदत सी

    सगाई के कुछ दिन बाद से दोनों के बीच बातचीत नियमित हो गई थी।
    फोन कॉल्स, मैसेज, वीडियो कॉल...
    चाय पीते हुए दिन की शुरुआत, और रात को “गुडनाइट” से पहले एक छोटी-सी बात।

    नयन कभी-कभी उसे अपने ऑफिस की तस्वीरें भेजता।
    आशी उसके मरीजों से जुड़ी हल्की-फुल्की घटनाएँ बताती।

    उनकी बातें किसी नाटक की तरह नहीं थीं —
    बल्कि उन छोटी-छोटी बातों का सिलसिला था जिनमें दो ज़िंदगियाँ धीरे-धीरे जुड़ती हैं।


    ---

    पहली हल्की तकरार

    एक शाम, बातों-बातों में आशी ने कहा,
    “शादी के बाद अगर मेरी नाइट शिफ्ट हुई, तो मुझे तुम्हें पहले से बता देना होगा... ताकि तुम्हारी प्लानिंग न बिगड़े।”

    नयन ने जवाब दिया,
    “हाँ, वैसे मैं उम्मीद कर रहा था कि शादी के बाद तुम कुछ समय आराम करोगी... और शिफ्ट्स थोड़ी कम करोगी।”

    आशी चुप हो गई।

    “कम मतलब?” उसने पूछा।

    “मतलब... नाइट ड्यूटी तो बहुत थका देती है न। तुम्हारे लिए ही कह रहा हूँ,” नयन ने सफाई दी।

    “या तुम्हारे लिए?”
    आशी का स्वर हल्का लेकिन सधा हुआ था।

    नयन समझ गया कि शब्दों ने सीमा लांघ ली है।


    ---

    चुप्पी का असर

    उस रात दोनों की बातचीत अधूरी रह गई।

    आशी ने कोई मैसेज नहीं किया, और नयन ने भी देर तक फोन हाथ में थामे रखा — पर कॉल नहीं किया।

    यह कोई झगड़ा नहीं था, न ही आरोप,
    पर एक सवाल ज़रूर खड़ा हो गया था —
    "क्या दोनों की स्वतंत्रता और प्राथमिकताएँ साथ चल सकेंगी?"


    ---

    अगली सुबह — समझ की शुरुआत

    सुबह नयन का पहला मैसेज था:
    “क्या बात कर सकते हैं? बिना तर्क, सिर्फ समझ के लिए।”

    आशी ने जवाब दिया:
    “हाँ, शायद अब यही ज़रूरी है।”

    बातचीत लंबी चली — न तकरार के लिए, न सफाई के लिए...
    बस यह जानने के लिए कि दोनों एक-दूसरे के जीवन की ज़रूरतों को समझते हैं या नहीं।

    नयन ने माना कि वह थोड़ा पारंपरिक सोच रखता है,
    और आशी ने भी माना कि कभी-कभी उसकी भावनाएँ शब्दों से पहले तीखी हो जाती हैं।

    लेकिन दोनों ने अंत में एक बात पर सहमति जताई —
    "रिश्ता बराबरी का हो, तो दोनों को थोड़ा झुकना पड़ता है — सिर्फ एक को नहीं।”


    ---

    पहला समझौता — बिना हार-जीत के

    उस बातचीत के बाद रिश्ते में एक नई परिपक्वता आई।
    अब सिर्फ मुस्कान और तारीफों के दौर नहीं थे —
    अब रिश्ते में “सुनना” और “मंज़ूर करना” भी शामिल था।

    नयन ने अगली कॉल में कहा,
    “तुम जैसा जीना चाहो, वैसे ही जिओ — मैं साथ हूँ। बस वक़्त-वक़्त पर बताती रहना... ताकि मैं भी उस जीवन का हिस्सा बन सकूं।”

    आशी ने कहा,
    “और तुम जब भी उलझो, मुझसे कह देना — ताकि मैं तुम्हें दोबारा वो याद दिला सकूं, जो हम बनने जा रहे हैं।”


    ---

    एक नई आदत

    अब दोनों ने हफ्ते में एक दिन ऐसा तय किया था —
    जिस दिन न कोई प्लान हो, न कोई डिस्कशन — बस बात।

    सिर्फ एक-दूसरे को जानने के लिए,
    पुरानी यादें बाँटने के लिए,
    और रिश्ते को साँस लेने देने के लिए।


    ---

    अंत में — दूरी में भी पास

    शादी में अभी कुछ महीने बाकी थे।
    दोनों शहरों की दूरी वही थी, लेकिन अब संवाद की गहराई ने उन्हें और पास कर दिया था।

    कोई भी रिश्ता बिना मतभेदों के नहीं चलता —
    लेकिन मतभेदों को समझ में बदल देना, यही सच्ची नज़दीकी है।


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  • 7. "साथ... जो किस्मत ने चुना" - Chapter 7

    Words: 557

    Estimated Reading Time: 4 min

    ---

    🌸 भाग 7: “पहली मुलाक़ात... दो प्रेमियों की तरह”


    ---

    शनिवार की सुबह थी।
    सर्दी का मौसम हल्का-हल्का दस्तक दे चुका था।
    दिल्ली की एक शांत सी बुक-कैफ़े — “पृष्ठ” — की बालकनी में दो कुर्सियाँ आरक्षित थीं।

    आज की यह मुलाक़ात नयन और आशी की सगाई के बाद की “पहली डेट” थी —
    जहाँ न रिश्ता समझाने थे, न निर्णय लेने थे।
    बस एक-दूसरे के साथ होना था — बिना किसी भूमिका या मुखौटे के।


    ---

    तैयारी — बाहर से नहीं, अंदर से

    नयन सुबह जल्दी उठ गया।
    शर्ट पहनते हुए उसने पहली बार खुद को आईने में थोड़ी देर देखा।
    कोई इत्र नहीं लगाया, बस हल्की-सी मुस्कान खुद को दी —
    “आज, मैं सिर्फ मैं रहूंगा... कोई दिखावा नहीं।”

    आशी ने लाइट ब्लू सूट चुना — न ज़्यादा सजावट, न ज़्यादा सादगी।
    बस वो रंग जो नयन को तस्वीर में अच्छा लगा था।
    उसने लिपस्टिक हल्की रखी — और हाँ, कानों में वही झुमके जो सगाई में मिले थे।


    ---

    पहली नज़र

    कैफ़े में जब दोनों आमने-सामने आए, तो कोई औपचारिक “हाय” या “नमस्ते” नहीं हुआ।

    नयन ने हल्की हँसी के साथ कहा,
    “लग रहा है कोई किताब से निकलकर आ गई हो।”

    आशी मुस्कुराई —
    “और तुम वैसे लग रहे हो जैसे अभी-अभी कॉफी मशीन से निकले हो — ताजे और थोड़े गर्म।”

    दोनों हँस पड़े — पहली बार बेझिझक।


    ---

    बातचीत का सिरा — सहजता से

    कैफ़े में हल्का म्यूज़िक बज रहा था।
    दोनों ने किताबें उठाईं, कुछ टाइटल देखे, और फिर कॉफ़ी ऑर्डर की।

    “कभी सोचा था तुम ऐसे किसी मुलाक़ात का हिस्सा बनोगे?” आशी ने पूछा।

    “अगर यह सपना था... तो मुझे लगता है, आज जी रहा हूँ,” नयन ने गंभीर होकर कहा।

    आशी ने अपनी कॉफी का एक सिप लिया, फिर बोली,
    “तुम्हारे साथ बात करना आसान लगता है... पर भावनाएँ ज़ाहिर करना अभी भी थोड़ा मुश्किल है।”

    नयन ने धीमे से कहा,
    “कोई जल्दी नहीं है... लेकिन जब कहोगी, तो सबसे पहले मैं सुनूंगा।”


    ---

    कुछ यादें, कुछ सपने

    आशी ने अपने बचपन के किस्से सुनाए — कैसे वो दादी से चोरी-छिपे फ़िल्में देखती थी।
    नयन ने अपने कॉलेज के किस्से बताए — जब वो पहली बार हार्टब्रेक से गुज़रा था और दोस्तों ने रातभर गिटार बजाकर उसे हँसाया था।

    ये बातें न कोई योजना थीं, न दिखावे की।
    बस दो लोग, दो कहानियाँ, एक दोपहर।


    ---

    एक भावनात्मक मोड़

    जब दोनों बालकनी में बैठे थे, बाहर हल्की बारिश शुरू हो गई।
    ठंडी हवा ने बातों में एक विराम सा दिया।

    आशी ने चुप्पी में कहा,
    “नयन... कभी-कभी डर लगता है।
    सब कुछ ठीक चल रहा है, इसलिए डर और बढ़ जाता है।”

    नयन ने उसकी तरफ देखा, और बिना शब्दों के उसका हाथ अपने हाथ में ले लिया।
    गर्माहट तुरंत महसूस हुई।

    “डर ठीक है,” उसने कहा।
    “पर साथ में डरेंगे तो डर भी कम लगेगा।”


    ---

    विदा — लेकिन अधूरी नहीं

    शाम होते ही दोनों बाहर निकले।
    रास्ते में हल्की धूप फिर से निकल आई थी।

    नयन ने कहा,
    “आज के बाद ये सिर्फ पहली मुलाक़ात नहीं, एक खूबसूरत आदत बननी चाहिए।”

    आशी ने जवाब दिया,
    “हाँ... अब सिर्फ रिश्ते में नहीं, इस साथ में दिल लगने लगा है।”


    ---

    एक वाक्य, जो देर तक गूंजता रहा

    नयन ने चलते-चलते कहा —
    “तुम मेरी ज़िंदगी की सबसे शांत जगह हो।”

    आशी कुछ नहीं बोली।
    सिर्फ पलटकर मुस्कुराई — वो मुस्कान जिसे शब्द नहीं चाहिए थे।


    ---

  • 8. "साथ... जो किस्मत ने चुना" - Chapter 8

    Words: 730

    Estimated Reading Time: 5 min

    ---

    🌸 भाग 8: “रिश्ते का रंग — जब परिवार जानने लगे दिल की बात”


    ---

    सगाई को अब डेढ़ महीना हो चुका था।

    रोज़ की बातचीत, कुछ मेल-मुलाक़ातों और साझा यादों ने नयन और आशी के बीच एक सुंदर आत्मीयता का रिश्ता बना दिया था।

    अब वे सिर्फ ‘सगाईशुदा’ नहीं रहे — अब वे एक-दूसरे के अपने बन चुके थे।

    लेकिन प्रेम की इस कोमल ज़मीन पर धीरे-धीरे परिवारों की हकीकतें भी अपने क़दम रखने लगी थीं।

    ---

    जब रिश्ता घर के भीतर उतरता है

    जयपुर में आशी की माँ ने एक दिन हल्के-से कहा,

    “तुम्हारी आँखों की चमक बदली-बदली लगती है, आशी।

    क्या अब सच में उस रिश्ते से दिल जुड़ चुका है?”

    आशी मुस्कराई —

    “शुरुआत शायद किस्मत से हुई थी, लेकिन अब जो है… वो मेरा फैसला है, मेरा एहसास।”

    वहीं दिल्ली में नयन की बहन ने उसे चिढ़ाते हुए कहा,

    “अब तो तुझे देख कर लगता है, तू सिर्फ वाई-फाई से नहीं, किसी लड़की के दिल से कनेक्टेड है।”

    नयन हँस दिया, लेकिन फिर सीरियस होकर बोला,

    “तू सही कहती है… अब मैं सिर्फ सुनता नहीं, महसूस करता हूँ — और शायद पहली बार।”

    ---

    शादी की तारीखें और चर्चाएँ

    अब दोनों परिवार शादी की संभावित तारीखों पर चर्चा करने लगे थे।

    पंडितजी ने दिसंबर के दूसरे हफ्ते को ‘श्रेष्ठ’ बताया।

    जयपुर वाले चाहते थे कि शादी जयपुर में हो — पारंपरिक राजस्थानी अंदाज़ में।

    जबकि दिल्ली वाले एक डेस्टिनेशन वेडिंग पर ज़ोर दे रहे थे — कुछ नया, कुछ स्टाइलिश।

    मुलाकात में बातचीत थोड़ी गर्म हुई:

    “हमने आशी की शादी का सपना बचपन से पाला है,”

    आशी की माँ ने कहा।

    “हम भी नयन की एक यादगार शादी चाहते हैं, जिसमें कम भीड़ हो, लेकिन क्लास हो,”

    नयन के पापा बोले।

    कुछ देर के लिए माहौल भारी हो गया।

    ---

    नयन और आशी के बीच पहली गंभीर बातचीत

    शाम को आशी और नयन ने फोन पर बात की।

    “क्या हमें बीच में आना चाहिए?” आशी ने पूछा।

    “शायद... क्योंकि अब ये सिर्फ हमारी शादी नहीं, दो सोचों की भी है,”

    नयन बोला।

    “तुम्हारे घर वाले डेस्टिनेशन चाहते हैं, मेरे घरवाले परंपरा।

    कहीं ऐसा न हो कि हम दो ध्रुवों की रस्साकशी में फँस जाएँ।”

    नयन थोड़ी देर चुप रहा।

    फिर कहा,

    “अगर हमने एक-दूसरे को चुना है, तो हमें अब दोनों परिवारों को भी एक रास्ते पर लाना होगा — साथ।”

    ---

    समझदारी का पहला कदम

    दो दिन बाद, दोनों ने वीडियो कॉल पर अपने परिवारों को एक साथ जोड़ा।

    “पापा, मम्मी,” नयन बोला,

    “हम समझते हैं कि आप सभी की अपनी सोच है, पर हमें एक ऐसा समाधान चाहिए जिसमें परंपरा और आधुनिकता दोनों हों।”

    आशी ने जोड़ा,

    “क्या हम जयपुर में शादी करें लेकिन रिसेप्शन दिल्ली में रखें?

    एक समारोह परंपरा से जुड़ा, दूसरा थोड़ा ‘एलिगेंट’ और आधुनिक।”

    थोड़ी बातचीत के बाद... सहमति बन गई।

    यह न केवल एक समाधान था, बल्कि एक उदाहरण भी —

    कैसे दो सोचें, जब मिलती हैं, तो नई दिशा बनती है।

    ---

    एक छोटा झटका

    सारे हल होते नहीं हैं, कुछ चुपचाप खड़े रह जाते हैं।

    आशी की चचेरी बहन ने एक दिन उसे कहा,

    “तुम बहुत तेज़ी से बदल रही हो। अब सब कुछ नयन के हिसाब से सोचती हो।”

    यह बात आशी को चुभी।

    क्या वो सच में बदल रही थी? या बस रिश्ते को निभा रही थी?

    रात को नयन को बताया।

    नयन बोला,

    “रिश्ते में बदलाव बुरा नहीं होता, अगर वो खुद की पहचान मिटाए बिना हो।

    मैं कभी नहीं चाहूँगा कि तुम खुद को भूलो — क्योंकि जिस लड़की को मैंने पसंद किया है, वो आशी ही है... बदली हुई कोई छाया नहीं।”

    आशी की आँखें नम हो गईं —

    लेकिन वह मुस्कराई, क्योंकि उसे उसकी पहचान को समझने वाला साथी मिला था।

    ---

    रिश्ते की गहराई — अब सब महसूस कर रहे थे

    अब रिश्ते में सिर्फ रस्में नहीं थीं —

    अब उसमें सम्मान, समझ, और सामंजस्य का स्वाद भी था।

    घरवाले भी अब कहने लगे थे —

    “इन दोनों के बीच कुछ अलग है... कुछ ऐसा, जो दिखाई नहीं देता, लेकिन महसूस होता है।”

    ---

    एक शाम, दो दिल — और एक इकरार

    एक शांत शाम को, आशी ने एक छोटा सा ग्रीटिंग कार्ड भेजा —

    जिसमें सिर्फ दो पंक्तियाँ लिखी थीं:

    "कभी-कभी किस्मत सिर्फ मिलाती है,

    लेकिन साथ निभाने का हुनर हमें खुद सीखना होता है।"

    नयन ने जवाब में लिखा:

    "और जब साथ निभाने की शुरुआत तुमसे हो,

    तो किस्मत भी खुद को भाग्यशाली समझती है।"

    ---

  • 9. "साथ... जो किस्मत ने चुना" - Chapter 9

    Words: 0

    Estimated Reading Time: 0 min

  • 10. "साथ... जो किस्मत ने चुना" - Chapter 10

    Words: 705

    Estimated Reading Time: 5 min

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    🌸 भाग 9: “वक़्त पास आ रहा है — शादी की उलटी गिनती”


    ---

    चार सप्ताह बचे हैं।
    अब कैलेंडर की हर तारीख एक गिनती बन गई है।
    हर दिन कोई शगुन, कोई खरीदारी, कोई चिठ्ठी, कोई गीत, कोई फ़ोन कॉल।

    लेकिन इन सबके बीच सबसे ज्यादा व्यस्त नहीं,
    सबसे भावुक थे — नयन और आशी।


    ---

    जयपुर में बक्से और बातें

    आशी के कमरे में अब किताबों की जगह गहनों के बॉक्स थे,
    कॉस्मेटिक्स की जगह शादी के कार्ड।
    कमरे की दीवारें अब उसकी फेवरिट कॉफी मग से ज़्यादा
    “शादी के बाद क्या ले जाना है?” जैसी सूचियों से घिरी थीं।

    माँ हर दिन एक नई बात समझातीं,
    “ससुराल में ऐसा मत करना...”
    “साड़ी ऐसे पिन कर लेना...”
    “किचन में पहले दिन चाय बना देना...”

    आशी चुपचाप सुनती रहती।
    मन की गहराइयों में जाने कैसी अजीब सी खामोशी थी।


    ---

    दिल्ली में सूटकेस और सलीक़ा

    उधर नयन के घर में हर दिन गेस्ट लिस्ट अपडेट होती।
    माँ को चिंता थी — “आशी को पहली बार आएंगे तो क्या-क्या देना चाहिए?”
    बहन को फिक्र — “भैया के कपड़े अच्छे से प्रेस हो रहे हैं या नहीं।”

    और नयन?
    वो ऑफिस से आकर देर रात तक छत पर टहलता।
    कभी फोन पर आशी से बात करता, तो कभी बस सितारों को देखता।

    एक दिन बोला,
    “तुम्हें छोड़ने का नहीं, अपनाने का डर लग रहा है।”

    आशी चुप रही। फिर धीरे से बोली,
    “मुझे खुद को समेटने में थोड़ा वक़्त लगेगा... क्या तुम इंतज़ार कर पाओगे?”

    नयन ने जवाब दिया —
    “हम अब एक-दूसरे के लिए समय नहीं निकालेंगे... हम समय बनेंगे।”


    ---

    पहली विदाई की झलक

    एक शाम, आशी अपने कमरे में अपने फेवरिट उपन्यासों को देख रही थी।
    किताबें जिन्हें वो लेकर जाना चाहती थी, और कुछ जिन्हें यहीं छोड़ना था।

    माँ पीछे से आईं, चुपचाप बैठ गईं।

    “याद है, ये किताब तुम्हारे पापा ने दी थी जब तुम पहली बार हॉस्टल जा रही थीं?”
    “हाँ,” आशी की आवाज़ कांप गई।

    “अब फिर जाना है,” माँ बोलीं।
    “इस बार हमेशा के लिए... लेकिन भरोसा है मुझे —
    तू जहाँ जाएगी, वहाँ घर बना लेगी।”

    आशी माँ के गले लग गई —
    शब्द नहीं, सिर्फ आँसू बहे।


    ---

    नयन की तैयारी — अलग ही अंदाज़

    नयन ने शादी से पहले दोस्तों के साथ एक छोटी-सी ट्रिप प्लान की।
    तीन दिन, पुराने दोस्त, पहाड़, चाय, और बातें।

    ट्रिप के आखिरी दिन, उसने अपने सबसे पुराने दोस्त से कहा,
    “ज़िंदगी अब सिर्फ मेरी नहीं होगी... हर फ़ैसले में कोई और भी शामिल होगा।”

    दोस्त बोला,
    “भाई, जब प्यार हो — तो हिस्सा बाँटना नहीं लगता, लगता है कि दिल पूरा हो रहा है।”

    नयन ने वही बात नोट की —
    दिल में नहीं, मन में।


    ---

    वीडियो कॉल पर विदाई की एक झलक

    शादी से दो हफ्ते पहले की एक रात।

    वीडियो कॉल पर दोनों बैठे थे।
    खामोशी लंबी थी, और बात छोटी।

    नयन बोला,
    “तुम्हारे पापा से विदा होते वक्त... रोना मत।”

    आशी ने कहा,
    “और तुम जब मेरे घर में पहली बार कदम रखो... तो मुस्कुराना मत छोड़ना।”

    दोनों ने हँसी की कोशिश की, लेकिन आँखें नम थीं।


    ---

    शादी की उलटी गिनती शुरू

    14 दिन बचे — कार्ड बँट गए थे।
    10 दिन बचे — कढ़ाई वाले लहंगे की आखिरी फिटिंग।
    6 दिन बचे — जयपुर घर में संगीत की रिहर्सल।
    3 दिन बचे — नयन का हल्दी समारोह।
    1 दिन बाकी — आशी की चुप्पी बढ़ गई थी, और नयन की धड़कनें तेज़।


    ---

    एक छोटी चिट्ठी — शादी से एक रात पहले

    शादी से ठीक एक रात पहले, नयन को एक छोटा सा लिफ़ाफा मिला।
    भेजने वाली — आशी।

    लिखा था:

    > **"कल से तुम सिर्फ मेरा नाम नहीं लोगे, मेरी ज़िम्मेदारी भी लोगे।
    और मैं सिर्फ तुम्हारा हाथ नहीं थामूँगी, तुम्हारा जीवन भी थामूँगी।

    डर थोड़ा है — पर तुम हो न, तो विश्वास ज़्यादा है।

    आ रही हूँ — हमेशा के लिए।

    – आशी"**




    ---

    नयन ने जवाब में क्या किया?

    उसने कोई चिट्ठी नहीं भेजी।
    बस अगली सुबह शादी से ठीक पहले,
    फोन पर सिर्फ एक वॉयस मैसेज रिकॉर्ड किया:

    “मैं तुम्हारा इंतज़ार नहीं कर रहा,
    मैं तुम्हारे आने की तैयारी कर रहा हूँ।
    और आज से हर दिन तुम्हें वो यकीन दिलाने की कोशिश करूँगा...
    जिससे तुम खुद को हर पल मेरी दुनिया में महसूस कर सको।”


    ---

  • 11. "साथ... जो किस्मत ने चुना" - Chapter 11

    Words: 690

    Estimated Reading Time: 5 min

    ---

    🌸 भाग 10: “शादी — जब दो आत्माएँ, एक जीवन बनती हैं”



    ---

    शादी का दिन।
    जयपुर के सर्द मौसम में आज की सुबह अलग चमक लेकर आई थी।

    आशी के घर में हल्का तनाव और गहराता उत्साह था।
    हर कमरा फूलों की खुशबू से भरा था,
    हर दीवार पर रोशनी के धागे चमक रहे थे।

    उधर नयन बारात के लिए तैयार हो रहा था — हल्दी की महक अब गुलाब जल से बदल चुकी थी।
    चहरे पर हल्की मुस्कान थी — और भीतर एक बेचैन ख़ुशी।


    ---

    दुल्हन की तैयारी

    आशी को तैयार करने में पूरा परिवार लगा था।

    लाल बनारसी साड़ी, कुंदन का सेट, माँ के हाथों से सजी चूड़ियाँ...
    सब कुछ सपना जैसा था।
    लेकिन उस सपने में आज एक हकीकत भी थी —
    विदाई।

    माँ की आँखों में आँसू थे, पर होंठों पर दुआ।

    “तू सजी-संवरी दुल्हन नहीं लग रही, मेरी छोटी-सी गुड़िया लग रही है,” माँ बोलीं।

    आशी मुस्कराई, और धीरे से बोली —
    “माँ, आज से एक और घर मेरा होगा... पर दिल का कोना हमेशा यहीं रहेगा।”


    ---

    बारात का आगमन

    नयन की बारात जयपुर के हवेली रिसॉर्ट में पहुँची।
    बैंड की धुन, दोस्त नाचते हुए, बहनें चुटकियाँ लेती हुईं...

    नयन घोड़ी पर नहीं था — उसने कार चुनी थी।
    वो जानता था, आशी के लिए दिखावे से ज़्यादा सादगी मायने रखती है।

    आशी के दरवाज़े पर बारात का स्वागत हुआ —
    आरती, हल्दी-कुमकुम, और मामी का वो चुटीला सवाल —
    “अब हमारी बेटी को संभालना है... तय है न?”

    नयन ने मुस्कुरा कर कहा —
    “अब मैं खुद को संभालने से ज़्यादा, उसे संभालना सीख रहा हूँ।”


    ---

    जयमाल — दो दिलों का मिलन

    स्टेज पर जब आशी और नयन आमने-सामने आए,
    तो कुछ पल के लिए भीड़, कैमरे, सजावट... सब धुंधला सा हो गया।

    केवल दो जोड़ी आँखें थीं — जो कह रही थीं,
    "चलो... अब इस साथ को नाम दे दें।"

    आशी ने माला डालते वक्त हल्की शरारत की —
    ऊँचाई का फ़ायदा उठाकर नयन को थोड़ा चिढ़ाया।

    नयन ने सिर झुकाकर माला पहनी,
    फिर धीमे से बोला —
    “झुकना अगर तुम्हारे लिए हो, तो मुझे ऊँचाई का कोई गुरूर नहीं।”

    तालियाँ बजीं — लेकिन सिर्फ हाथों से नहीं, दिलों से।


    ---

    फेरे — सात कदम, सात वचन

    मंडप में अग्नि जली, मंत्र गूँजे, और वक़्त जैसे थम गया।

    हर फेरा एक वादा था —

    1. साथ चलने का


    2. भरोसे का


    3. संकट में साथ खड़े रहने का


    4. परिवार को सम्मान देने का


    5. जीवन के हर मोड़ पर एक-दूसरे को चुनने का


    6. स्वप्नों में साझेदारी का


    7. प्रेम में अंत तक टिके रहने का



    जब आख़िरी फेरे में आशी ने कदम रखा,
    नयन ने फुसफुसा कर कहा —
    “अब तुम मेरे जीवन का सबसे पवित्र हिस्सा हो... अग्नि की तरह।”


    ---

    विदाई — एक आँसू, एक मुस्कान

    सबसे भावुक क्षण आ पहुँचा।

    आशी अपने पापा से लिपट गई।
    बचपन का हर दिन, हर बात जैसे एक झलक में सामने आ गया।

    पापा ने बस इतना कहा —
    “तू अब बेटी नहीं, किसी की जीवनसाथी बन रही है।
    लेकिन मेरे लिए... तू हमेशा वही नन्ही सी परी रहेगी।”

    आशी ने आँसू पोंछे और मुस्कराकर कहा —
    “अब उस परियों की दुनिया में कदम रख रही हूँ, जो सच्ची है... नयन की तरह।”


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    नयन की कार में पहला सफर

    जैसे ही आशी ने कार में कदम रखा,
    नयन ने हाथ बढ़ाया —
    "चलो, अब हम साथ हैं — हर मोड़, हर सफर में।"

    आशी ने उसका हाथ थामा,
    और बाहर खिड़की से विदा में खड़े अपने परिवार को देखती रही।

    नयन ने धीमे से कहा —
    “अब मैं सिर्फ तुम्हारा पति नहीं... तुम्हारे हर आँसू, हर हँसी, हर उम्मीद का साथी हूँ।”

    आशी की आँखों में चमक लौट आई।
    वो जानती थी — यह कोई अंत नहीं...
    यह तो उनकी असली कहानी की शुरुआत है।


    ---

    और इस तरह...

    सात फेरे, एक नाम, एक घर, और दो दिल।

    शादी सिर्फ रस्मों से नहीं होती,
    वो होती है दो आत्माओं के बीच निर्भरता, समझ और प्रेम के अटूट बंधन से।

    नयन और आशी अब पति-पत्नी नहीं केवल —
    अब वो एक यात्रा के दो हमसफ़र थे,
    जिसे उन्हें किस्मत ने नहीं,
    उनके विश्वास ने चुना था।


    ---

  • 12. "साथ... जो किस्मत ने चुना" - Chapter 12

    Words: 830

    Estimated Reading Time: 5 min

    ---

    🌅 भाग 11: “नई शुरुआत — ससुराल की दहलीज़ और दिल के भीतर के सवाल”



    ---

    शादी की रात बीत चुकी थी।
    रसमों, रिश्तों, और रस्मियत से भरी वह शाम, अब एक नई सुबह में बदल रही थी।

    आज आशी की पहली सुबह थी — उस घर में, जो अब उसका भी था।
    और उस रिश्ते में, जो कल तक नया था, पर आज से जीवन भर का संग था।

    जयपुर की सर्द सुबह में हवाओं में एक अलग सी ठंडक थी —
    पर आशी के मन में एक गर्म हलचल थी... नई ज़मीन, नए लोग, और एक नई पहचान।


    ---

    पहली सुबह का उजाला

    कमरे की खिड़की से छनकर आती धूप ने जब हल्के-हल्के आशी के चेहरे को छुआ,
    तो उसने धीरे से आँखें खोलीं।

    सामने एक कप कॉफी था... और उसके पास एक छोटी सी चिट्ठी:

    > "सुबह तुम्हारे बिना अधूरी सी लगी।
    इसलिए सोचा, कम से कम कॉफी भेज दूँ...
    मैं नीचे हूँ — आज तुम्हारा दिन है, लेकिन मैं तुम्हारे हर पल में हूँ। — नयन”



    उस चिट्ठी ने आशी के होंठों पर एक मुस्कान बिखेर दी।

    यह रिश्ता शायद धीरे-धीरे ही पनपेगा,
    लेकिन हर भाव, हर इशारा... प्रेम से भरा था।


    ---

    घर की पहली परछाईं

    जैसे ही आशी ने कमरे से बाहर कदम रखा,
    पूरे घर में एक मीठा सा सन्नाटा था — जैसे सब उसकी आहट सुनने को रुके हों।

    सीढ़ियों के पास खड़ी थीं नयन की माँ — शाल ओढ़े, माथे पर हल्की मुस्कान लिए।

    "बिटिया, अब से ये घर तेरा है।
    लेकिन जल्दी मत करना इसे अपनाने में — वक्त ले, पर दिल से अपना बनाना।"

    आशी ने धीरे से उनके पाँव छुए।

    एक पल के लिए वो सास नहीं लगीं —
    जैसे कोई माँ दूसरी बार मिली हो।


    ---

    रसोई की देहरी और पहला स्पर्श

    घर की औरतों ने परंपरागत रस्म की तरह —
    नववधू के हाथ से बनी पहली चाय की रस्म रखी थी।

    आशी की उंगलियाँ थरथरा रही थीं...
    शायद चाय बनाना नहीं, उस ‘पहले काम’ की जिम्मेदारी बड़ी लग रही थी।

    तभी पीछे से एक हल्की आवाज़ आई —
    "पानी कम है, चाय थोड़ी कड़वी होगी।"

    नयन था।

    "तुम यहाँ?" आशी चौंकी।

    "मैंने कहा था न — हर पल में हूँ।
    पहली चाय का पहला घूंट — मैं ही तो मांगूंगा।"

    दोनों हँसे...
    और उसी हँसी में, एक अजनबीपन की परत और हल्की हो गई।


    ---

    घर के लोग — रिश्तों की नई बुनाई

    नयन की बहन, श्रेया, आशी को लेकर बैठी।
    "भाभी, हम नयन को अच्छे से जानते हैं... पर तुम्हें जानने का अब मन है।"

    आशी मुस्कराई।

    "मुझे भी," उसने कहा, "शायद हर दिन एक नई कहानी लेकर आएगा।"

    फिर ससुर जी आए — गंभीर व्यक्तित्व, पर आँखों में अपनापन था।

    "बेटा, इस घर में तुम्हारा कोई इम्तिहान नहीं होगा —
    बस साथ चाहिए, समझदारी चाहिए।"

    आशी ने सिर झुका दिया —
    यह आदर नहीं था,
    यह उस विश्वास का उत्तर था जो वह धीरे-धीरे अर्जित करना चाहती थी।


    ---

    नयन और आशी — रिश्तों के पहले दिन की साझेदारी

    शाम ढलने को थी।
    घर में सन्नाटा था, सब अपने कामों में व्यस्त थे।

    नयन और आशी अपने कमरे की बालकनी में बैठे थे —
    दो कप चाय, और कुछ अनकही बातें बीच में।

    "कैसी रही पहली सुबह?" नयन ने पूछा।

    आशी ने धीरे से कहा —
    "डर भी लगा, संकोच भी हुआ...
    लेकिन हर बार किसी ने हाथ थाम लिया।"

    "और मैंने?" नयन मुस्कराया।

    "तुम्हारा हाथ तो जैसे मन की गाँठ खोल गया,"
    आशी की आँखें चमक उठीं।

    "जानते हो, मुझे रिश्तों से डर लगता था..."
    "अब भी लगता है?"
    "अब नहीं... जब तुम साथ हो।"


    ---

    एक छोटा सा उपहार — लेकिन बड़ा एहसास

    रात में नयन ने आशी को एक डब्बा दिया —
    सफेद रेशमी रिबन में बँधा, बहुत साधारण सा।

    “ये क्या है?” आशी ने पूछा।

    “तुम्हारे पहले दिन की पहली मुस्कान का स्मरण... ताकि जब कभी खो जाओ, ये याद दिलाए कि तुम कितनी सुंदर हो, जब सच्ची होती हो।”

    डब्बा खोला —
    अंदर एक छोटा शीशा था... और साथ में वही चिट्ठी जो सुबह कॉफी के साथ थी।

    "तुम्हारा हर रूप सुंदर है, लेकिन तुम्हारी सच्चाई सबसे सुंदर है।"

    आशी की आँखें नम थीं...
    पर दिल के भीतर एक पुख्ता जगह बन रही थी —
    जहाँ डर नहीं था, केवल विश्वास था।


    ---

    आख़िरी दृश्य — पहला दिन, पहला ठहराव

    रात ढल चुकी थी।

    बाहर चाँद की हल्की रौशनी बालकनी पर फैल रही थी।

    नयन और आशी एक ही कंबल में बैठे थे —
    चुपचाप, लेकिन शांत।
    जैसे दो आत्माएँ पहली बार एक ही राग में बह रही हों।

    "नयन..." आशी ने धीरे से कहा,
    "ये सब कुछ बहुत तेज़ लग रहा है...
    कल तक मैं अपने कमरे में थी, अब यहाँ — तुम्हारे साथ, तुम्हारे घर में।"

    "तो क्या धीमा कर दें?"
    नयन ने हल्के मज़ाक में कहा।

    "नहीं..."
    "बस साथ मत छोड़ना।"

    "कभी नहीं।"

    और इसी वादे के साथ —
    उनका पहला दिन समाप्त नहीं हुआ...
    वो तो शुरू हुआ था — उस रिश्ते की परिभाषा से जो सिर्फ नाम में नहीं, निभाव में था।


    ---

  • 13. "साथ... जो किस्मत ने चुना" - Chapter 13

    Words: 760

    Estimated Reading Time: 5 min

    ---

    💫 भाग 12: “पहली रात — जब रिश्ते सिर्फ शरीर नहीं, आत्मा से जुड़ते हैं”

    (शब्द संख्या: ~2100)
    (तटस्थ नैरेटर शैली, भावनात्मक, कोमल और गरिमापूर्ण प्रस्तुति)


    ---

    शादी का उत्सव थम चुका था।
    महमान जा चुके थे, मंडप अब खाली था —
    और उस रंगीन हलचल के बाद बची थी... खामोशी।
    लेकिन वो खामोशी डराने वाली नहीं थी —
    वो उन दोनों के बीच कुछ कह रही थी।

    ये रात सिर्फ पहली रात नहीं थी,
    ये दो आत्माओं का धीरे-धीरे एक-दूसरे के पास आने का क्षण था।
    नयन और आशी — अब पति-पत्नी थे,
    लेकिन वे अभी भी दो अलग लोग थे —
    जो आज एक-दूसरे को समझना, महसूस करना और अपनाना चाहते थे।


    ---

    कमरे का वातावरण

    कमरा हल्के गुलाबी और सुनहरे टोन में सजा था।
    दीवारों पर हल्की रौशनी की परछाइयाँ थीं,
    और कोनों में फूलों की भीनी खुशबू —
    मानो पूरा कमरा सांसें रोककर बस उन दोनों की प्रतीक्षा कर रहा था।

    आशी ने धीमे से कमरे में कदम रखा।

    लाल साड़ी अब थोड़ी ढीली हो चुकी थी,
    थकान चेहरे पर थी... लेकिन आँखों में एक चमक भी थी —
    जो डर और उम्मीद के बीच झूल रही थी।


    ---

    नयन का इंतज़ार

    नयन पहले से कमरे में था —
    सफेद कुर्ते और ब्लू पायजामे में,
    बाल थोड़े बिखरे हुए, लेकिन मुस्कान एकदम सजी हुई।

    उसने आशी को देखा —
    बिना कुछ कहे।

    और आशी ने... नयन की उस चुप निगाह को महसूस किया।
    वो निगाह जिसमें कोई आग्रह नहीं था,
    बस एक इंतज़ार था — कि आशी खुद आगे बढ़े।

    "थक गई होगी आज..." नयन ने धीरे से कहा।

    आशी ने हल्के से सिर हिलाया —
    "थोड़ी... लेकिन ये थकान, कुछ खास है।"


    ---

    पहली बातचीत — बिना बोझ के

    नयन ने पानी का ग्लास उसकी तरफ बढ़ाया।

    "इस कमरे में कुछ भी तुम्हारे लिए नया नहीं होना चाहिए,"
    उसने कहा,
    "इसलिए मैंने तुम्हारी पसंद के गुलाब सजवाए हैं... और तुम्हारे लिए वो प्लेलिस्ट तैयार की है जो तुम अकसर ऑन कॉल सुनती थीं।"

    आशी चौंकी —
    "तुम्हें कैसे पता?"

    "तुम्हें समझना मेरी सबसे पहली प्राथमिकता थी..."
    नयन की आवाज़ में एक आत्मीयता थी —
    जिसमें वासना नहीं थी, केवल समर्पण था।


    ---

    पहली बार — आत्मीय स्पर्श

    नयन ने धीरे से आशी का हाथ थामा।
    उसके हाथ ठंडे थे... या शायद हल्के काँपते हुए।

    "डर लग रहा है?" उसने पूछा।

    आशी ने सिर झुका लिया —
    "पता नहीं... शायद सबकुछ बहुत जल्दी बदल गया।"

    "तो हम कुछ भी जल्दी नहीं करेंगे,"
    नयन ने उसका हाथ अपने दोनों हाथों में ले लिया।

    "आज की रात सिर्फ एक रात नहीं है,
    ये तुम्हारे विश्वास की पहली सीढ़ी है।
    अगर तुम चाहो, हम बस बातें कर सकते हैं।
    अगर तुम चाहो, तो बस साथ बैठ सकते हैं...
    और अगर तुम चाहो... तो मैं सिर्फ तुम्हें महसूस करने की इजाज़त माँगता हूँ — बिना किसी हड़बड़ी के।"

    आशी की आँखें भर आईं।

    उसने कहा —
    "तुम पहले पुरुष हो, जो मेरा हाथ पकड़कर मेरा मन पढ़ रहा है।"


    ---

    एक कोमल निकटता — जहां प्रेम शब्दों से आगे बढ़ा

    धीरे-धीरे नयन ने आशी को अपनी बाहों में लिया —
    बिना ज़ोर डाले, बिना अधिकार जताए।
    सिर्फ एक सुरक्षित घेरे की तरह।

    आशी ने भी खुद को ढीला छोड़ दिया —
    शायद पहली बार —
    किसी के साथ पूर्णतः स्वीकार महसूस किया।

    उनके बीच का पहला स्पर्श कोई उत्तेजना नहीं था,
    बल्कि शांति थी —
    जैसे वर्षों की थकान उतर गई हो।

    नयन ने उसके माथे पर एक लंबा, कोमल चुम्बन दिया —
    "इस रिश्ते में मैं तुम्हारे शरीर से पहले,
    तुम्हारी आत्मा से जुड़ना चाहता हूँ।"

    आशी ने उसकी बाँहों में सिर छुपा लिया —
    "शायद मैं किस्मत से ज़्यादा,
    तुम्हारे जैसे इंसान की हक़दार थी।"


    ---

    रात गहराती गई... रिश्ता और गहरा होता गया

    कभी वो दोनों चुप रहे,
    कभी बीते दिनों की बातें कीं —
    आशी के मेडिकल कॉलेज के किस्से,
    नयन के दिल्ली के संघर्ष।

    बीच-बीच में जब भी नयन आशी की ओर झुकता,
    तो उसके होठों तक नहीं,
    उसके माथे तक पहुँचता —
    जैसे कह रहा हो —
    "तुम्हारी इज़्ज़त, मेरी सबसे पहली ज़िम्मेदारी है।"

    और जब पहली बार दोनों की निगाहें थमीं —
    तो उनके होठों का मिलन भी
    एक वचन की तरह था —
    "हम अब एक हैं — शरीर नहीं, भावना में।"


    ---

    सुबह की पहली रौशनी

    जब अलार्म की हल्की बीप से नींद खुली,
    तो आशी नयन की बाहों में थी —
    और वो बाँहें, किसी बाँध की तरह थीं —
    जो उसे हर डर से बचा रही थीं।

    "गुड मॉर्निंग, मिसेज़ मल्होत्रा,"
    नयन ने नींद भरी आवाज़ में कहा।

    आशी मुस्कराई —
    "गुड मॉर्निंग, मेरे सबसे अच्छे फ़ैसले।"


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  • 14. "साथ... जो किस्मत ने चुना" - Chapter 14

    Words: 738

    Estimated Reading Time: 5 min

    ---

    🌼 भाग 13: “पहला दिन एक जोड़े के रूप में — घर, समाज और खुद से मिलने की शुरुआत”


    ---

    सुबह की चाय का कप आज कुछ अलग था।
    अब वो अकेले नहीं था — उसमें दो स्वाद घुले थे।
    नयन और आशी अब एक-दूसरे के साथ न केवल कमरे, बल्कि ज़िम्मेदारियों में भी कदम रख चुके थे।

    आज का दिन सिर्फ शादी के बाद का पहला दिन नहीं था —
    ये वो पहला पन्ना था, जहाँ अब साथ-साथ जीवन लिखा जाएगा।


    ---

    नवदंपत्ति के रूप में पहली सुबह

    ससुराल की हलचल शुरू हो चुकी थी।
    रसोई में बर्तनों की टनटनाहट,
    माँ की पूजा की घंटी,
    और दादी की आवाज़ —
    "नई बहू को नीचे भेजो, चाय तो उसी के हाथ की पिएंगे!"

    आशी मुस्कराई।
    कल तक जो अनजान लोग थे,
    आज वही लोग उसे अपनापन देने की कोशिश में थे।

    नयन पास आया —
    "तैयार हो, मिसेज़ नयन मल्होत्रा?"
    "मुझे तो लग रहा है मैं कोई बोर्ड परीक्षा देने जा रही हूँ,"
    आशी ने हँसते हुए कहा।

    "घबराना मत — सब तुम्हें उतना ही अपनाएंगे,
    जितना तुम उन्हें अपना बनाओगी।"


    ---

    पहली बार — सबकी नज़रों में एक साथ

    जब नयन और आशी साथ नीचे आए,
    तो सबकी निगाहें उन पर थीं।

    सासू माँ ने नजर उतारी —
    "बेटा, तुम दोनों साथ बहुत अच्छे लगते हो।"

    दादी ने हाथ थामा —
    "अब बहू हमारे कुल की लक्ष्मी है।"

    श्रेया (नयन की बहन) ने फुसफुसाकर कहा —
    "भाभी, भाई को काबू में रखना — बहुत चंचल है!"

    सब हँस पड़े — और उसी हँसी में रिश्तों की पहली परतें जुड़ने लगीं।


    ---

    पहली बार — साथ खाना बनाना

    भले ही ये रस्म परंपरा थी —
    लेकिन नयन ने कहा,
    "मैं भी तुम्हारे साथ किचन में रहूँगा — जब साथ जीना है, तो शुरुआत क्यों अलग से हो?"

    रसोई में दोनों साथ खड़े थे।
    आशी ने पराठा बेलना शुरू किया,
    और नयन चुपके से सब्ज़ी में हल्दी ज़्यादा डाल बैठा।

    "ओहो! यह डॉक्टर बनने से पहले हलवाई थे क्या?"
    आशी ने चिढ़ाया।

    "नहीं, बस पति बनने की ट्रेनिंग ले रहा हूँ!"
    नयन ने जवाब दिया।

    माँ ने जब पहली थाली चखी, तो बोलीं —
    "इसमें स्वाद कम, प्यार ज़्यादा है। और वही काफी है।"


    ---

    सामाजिक पहचान — ‘नवविवाहित जोड़ा’ की पहली झलक

    दोपहर बाद कॉलोनियों की महिलाओं का मिलना-जुलना शुरू हुआ।
    "नई बहू से मिलवाइए!"
    "हमारी डॉक्टर बहू आई है!"
    "कितनी सुंदर है, बिलकुल देवी सी!"

    ये सब बातें आशी को थोड़ी असहज लगीं।

    नयन ने देखा — और जब दोनों अकेले हुए, तो बोला —
    "तुम किसी की पहचान नहीं हो, आशी।
    तुम खुद एक पहचान हो — और मैं चाहता हूँ लोग तुम्हें उसी रूप में जानें।"

    आशी की आँखें भर आईं —
    वो पहली बार महसूस कर रही थी कि ये रिश्ता सिर्फ साथ जीने का नहीं,
    बल्कि खुद को बनाए रखने का भी वादा है।


    ---

    पहली शाम — घर के बाहर, दुनिया के भीतर

    शाम को दोनों एक छोटी वॉक पर निकले —
    पास के पार्क तक।

    लोगों की नज़रों में उत्सुकता थी —
    "ये वही नई जोड़ी है?"

    लेकिन उन नज़रों से ज़्यादा —
    एक-दूसरे की नजरें महत्वपूर्ण थीं।

    "सोचा था शादी के बाद सबकुछ बदल जाएगा..."
    आशी बोली।

    "बदलेगा भी," नयन बोला, "लेकिन जितना तुम चाहो।
    रिश्ता तुम्हें तोड़ने नहीं, संवारने आता है।"


    ---

    पहली रात — आत्मा से संवाद

    रात को दोनों चुपचाप बैठे थे —
    टीवी ऑन था, लेकिन आवाज़ धीमी।

    "हम अब एक जोड़ी हैं,
    लेकिन क्या हम एक टीम भी हैं?" आशी ने पूछा।

    नयन ने उसका हाथ थामा —
    "एक टीम, एक विश्वास, एक ज़िम्मेदारी — और सबसे ज़्यादा, एक दोस्ती।"

    "और अगर किसी दिन मैं टूट गई?"
    "तो मैं पकड़ लूँगा — बिना सवाल किए।"

    "और अगर मैं कुछ छुपा लूँ?"
    "तो मैं तब तक इंतज़ार करूँगा, जब तक तुम खुद बताने को तैयार न हो जाओ।"

    "और अगर... मुझे लगे कि मैं कुछ नहीं हूँ?"
    नयन ने कहा —
    "तब मैं तुम्हें आईना दिखाऊँगा — जिसमें तुम खुद को देखो, मेरी आँखों से।"


    ---

    भाग की अंतिम पंक्तियाँ — शुरुआत का सार

    पहला दिन बीत चुका था।
    अब वे सिर्फ पति-पत्नी नहीं थे,
    वे एक जोड़ी थे —
    जो न केवल दुनिया को दिखाने के लिए बनी थी,
    बल्कि भीतर से जुड़ने के लिए।

    शादी के बाद सबसे पहला दिन —
    किसी नई ज़िम्मेदारी से ज़्यादा
    एक नई समझ और एक नए विश्वास की नींव रखता है।

    और नयन और आशी —
    अब उस नींव पर अपनी छोटी-छोटी ईंटें रखने लगे थे।


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  • 15. "साथ... जो किस्मत ने चुना" - Chapter 15

    Words: 697

    Estimated Reading Time: 5 min

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    🩺 भाग 14: “नाम की पहचान — जब नई बहू अपने सपनों को फिर से थामती है”

    (शब्द संख्या: ~2100)
    (तटस्थ नैरेटर शैली — आत्म-संघर्ष, रिश्तों की परख और प्रेम का समर्थन)


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    शादी को पाँच दिन बीत चुके थे।
    घर की चहल-पहल अब धीरे-धीरे सामान्य होने लगी थी।
    रिश्तेदार लौट चुके थे, रस्में पूरी हो चुकी थीं,
    और अब हर दिन नयन और आशी के लिए असल जीवन की शुरुआत थी।

    लेकिन उस शुरुआत के बीच...
    आशी के भीतर एक पुराना सपना फिर से करवट लेने लगा था।


    ---

    पुराना स्टेथोस्कोप — एक नया सवाल

    दोपहर में जब अलमारी में अपनी चीजें सजा रही थी,
    तो एक बॉक्स गिरा —
    और उसमें से उसका स्टेथोस्कोप बाहर आ गया।

    वो उसे उठाकर देर तक देखती रही —
    जैसे कोई खोई चीज़ दोबारा मिल गई हो।

    “मैं डॉक्टर हूँ…”
    उसने खुद से फुसफुसाकर कहा।
    “और अब बहू भी हूँ…”

    क्या दोनों पहचान साथ चल सकती हैं?


    ---

    पहला इशारा — एक टकराव नहीं, एक द्वंद्व

    रात के खाने के बाद सब बातें कर रहे थे।
    सासू माँ ने हल्के से पूछा —
    “अब बहू को रसोई में जम गया है न?”
    दादी बोलीं —
    “कल से तो कढ़ी-चावल उसी के हाथ से चाहिए!”

    सब हँसे — और आशी भी मुस्कराई।

    लेकिन भीतर एक विचार ठहर गया —
    “क्या मैं अब सिर्फ रसोई तक सीमित हो जाऊँगी?”

    उसी रात, उसने स्टेथोस्कोप को तकिए के नीचे रखा —
    जैसे कोई उम्मीद — जो हर रात सपनों में आकार ले।


    ---

    नयन से पहली बात — सपनों की वापसी

    अगली सुबह, नयन बालकनी में अख़बार पढ़ रहा था।

    आशी उसके पास आई — हाथ में स्टेथोस्कोप।

    “जानते हो, जब मैंने पहली बार ऑपरेशन किया था,
    तो ये मेरे गले में था,” उसने कहा।

    नयन ने उसकी आँखों में देखा —
    “और अब?”

    “अब लग रहा है... क्या मैं फिर से वही बन पाऊँगी?”

    नयन ने बिना देर किए कहा —
    “अगर तुम्हें अपने पेशे से प्यार है,
    तो मैं हर दिन तुम्हारे साथ खड़ा रहूँगा —
    चाहे दुनिया कुछ भी कहे।”


    ---

    परिवार की पहली प्रतिक्रिया

    जब आशी ने खाने की मेज़ पर कहा कि वह नौकरी पर लौटना चाहती है,
    तो एक क्षण का मौन छा गया।

    सासू माँ ने चौंककर देखा —
    “इतनी जल्दी?”

    दादी बोलीं —
    “नौकरी तो ज़िंदगीभर चलती है बेटा,
    घर की ज़िम्मेदारियाँ पहले सीख लो।”

    नयन ने बीच में ही बात संभाली —
    “माँ, आशी डॉक्टर है — उसकी ज़िम्मेदारी सिर्फ घर नहीं, समाज के लिए भी है।”

    ससुर जी ने सिर हिलाया —
    “हमारा कुल किसी को बाँधता नहीं बेटा,
    हम बस चाहते हैं कि सब संतुलन से हो।”

    आशी ने सिर झुका दिया —
    संघर्ष की शुरुआत थी...
    लेकिन समर्थन भी यहीं से शुरू हुआ।


    ---

    फिर से अस्पताल — फिर से वही गंध

    तीन दिन बाद आशी ने अपना पुराना अस्पताल फिर से देखा।
    चिकित्सा वार्ड की गंध, वर्दी की सफेदी, और बैग में रखा स्टेथोस्कोप —
    हर चीज़ वैसी ही थी...
    सिर्फ आशी अब थोड़ी और गहरी हो चुकी थी।

    सहकर्मियों ने खुशी से स्वागत किया —
    “डॉ. आशी वापस आ गईं!”

    लेकिन आशी के मन में अब दो नाम थे —
    डॉ. आशी सिंघानिया,
    और आशी मल्होत्रा।

    दोनों नामों को साथ लेकर चलना था।


    ---

    एक थकी शाम — और नयन की थाली

    पहले दिन की ड्यूटी थका देने वाली थी।

    घर आई, तो लगा सब शायद नाराज़ होंगे।

    पर जैसे ही कमरे में आई —
    नयन ने हाथ में थाली पकड़ी थी।

    “मैंने खाना परोस दिया है —
    डॉक्टरनी को आज थोड़ा आराम करना चाहिए।”

    आशी मुस्कराई —
    “तुम पति हो या परीक्षक?”

    “मैं वो हूँ, जो तुम्हारी दोनो दुनिया के बीच पुल बनना चाहता है,”
    नयन ने कहा।


    ---

    रात की बात — नई शुरुआत का उत्सव

    रात में दोनों छत पर बैठे थे — चाँदनी में।

    “क्या तुम अब भी मुझे वही आशी मानते हो,
    या अब बहू, पत्नी, डॉक्टर सब मिलकर कुछ और बन गई हूँ?”

    नयन ने उसकी उंगलियाँ थामीं —
    “तुम हर दिन कुछ नया बन रही हो —
    और मैं हर दिन उसी नयापन में तुमसे फिर से प्रेम कर रहा हूँ।”

    आशी की आँखों में चमक थी —
    अब वह अपनी पहचान के साथ इस रिश्ते को निभा रही थी।


    ---

  • 16. "साथ... जो किस्मत ने चुना" - Chapter 16

    Words: 700

    Estimated Reading Time: 5 min

    ---

    ✨ भाग 15: “एक साथ — जब सपने साझा होते हैं”


    ---

    शादी को अब दो हफ्ते बीत चुके थे ।
    अब तक जो भी था, वो शुरुआत थी — रिश्तों की, जिम्मेदारियों की, नए अनुभवों की।
    लेकिन अब वक़्त था उन रास्तों पर चलने का,
    जिन्हें दोनों ने खुद के लिए चुना था... और अब साथ चलना था।

    नयन अपने इंजीनियरिंग प्रोजेक्ट्स में व्यस्त था —
    और आशी अपनी डॉक्टर की ड्यूटी में।

    पर अब वे सिर्फ व्यक्तिगत रूप से व्यस्त नहीं थे —
    अब वे एक जोड़ी थे,
    जिन्हें एक-दूसरे के समय, थकान, और सपनों को समझना था।


    ---

    सुबह की व्यस्तता — लेकिन साथ की गर्माहट

    सुबह अब पहले जैसी नहीं थी।

    अब बिस्तर के दोनों ओर अलार्म बजते थे —
    एक नयन के ऑफिस के लिए,
    दूसरा आशी के अस्पताल के लिए।

    लेकिन दोनों उठते हुए भी —
    एक-दूसरे को छुए बिना नहीं जाते।

    कभी एक कॉफी साथ में,
    कभी बचे हुए पाँच मिनटों में हल्की-फुल्की चिढ़-चिढ़।

    "आज फिर तुम मेरी कॉफी कप में चीनी ज़्यादा डाल गए,"
    आशी हँसते हुए कहती।

    "ताकि दिन मीठा रहे,"
    नयन जवाब देता।


    ---

    काम और थकान — दो अलग दिन, एक ही शाम

    शाम को जब दोनों घर लौटते,
    तो दिन भर की थकान चुपचाप चेहरों पर होती।

    कभी आशी किसी इमरजेंसी केस से परेशान लौटती,
    तो कभी नयन अपने प्रोजेक्ट की डेडलाइन में उलझा होता।

    पर जैसे ही दोनों कमरे में मिलते,
    उनकी थकान जिम्मेदारी नहीं बनती —
    बल्कि साझा हो जाती।

    "तुम बोलो, आज किसका दिन ज़्यादा उबाऊ था?"
    "जिसका भी हो... शाम तो अपनी है न?"
    और दोनों मुस्कुराते हुए एक ही कंबल में बैठ जाते।


    ---

    एक साझा सपना — क्लिनिक और डिज़ाइन

    एक रात, जब दोनों बालकनी में बैठे थे,
    नयन ने अचानक कहा —
    "तुम कभी अपनी खुद की क्लिनिक खोलना चाहती थीं न?"

    आशी चौंकी —
    "तुम्हें याद है?"

    "मैं तुम्हारे हर ख्वाब को याद रखना चाहता हूँ,"
    नयन ने कहा।

    फिर उसने एक पेपर स्केच निकाला —
    जिसमें एक क्लिनिक का डिज़ाइन था।

    "ये क्या?"
    "तुम्हारी क्लिनिक... मेरी ड्रॉइंग...
    क्यों ना हम दोनों मिलकर कुछ बनाएं —
    तुम डॉक्टर बनो, मैं डिज़ाइनर...
    सपनों का संगम।"

    आशी ने चुपचाप कागज़ थाम लिया —
    और उसके मन में पहली बार ये ख्याल आया —
    "शादी सिर्फ समझौता नहीं होती... कभी-कभी ये साझेदारी का सबसे सुंदर रूप होती है।"


    ---

    परिवार और समय का संतुलन

    सप्ताहांत पर अक्सर पारिवारिक जिम्मेदारियाँ होतीं —
    माँ के साथ बाज़ार जाना,
    दादी के साथ मंदिर,
    या रिश्तेदारों के घर जाना।

    आशी ने महसूस किया —
    कि ज़िम्मेदारियाँ कम नहीं हैं,
    लेकिन नयन कभी पीछे नहीं रहता।

    जब भी कोई सामाजिक दबाव आता —
    "डॉक्टर बहू ज़्यादा बाहर न जाया करे..."
    "बहू को थोड़ा घर में रहना चाहिए..."
    नयन बड़े स्नेह और विनम्रता से कहता —
    "मेरी पत्नी जितनी अपने घर के लिए समर्पित है,
    उतनी ही समाज के लिए ज़रूरी है।"

    परिवार ने धीरे-धीरे स्वीकार किया —
    क्योंकि रिश्ते जब सम्मान से चलते हैं,
    तो रास्ते खुद बनते हैं।


    ---

    छोटी यात्राएँ — रिश्ते का ताज़ा स्वाद

    कभी-कभी दोनों बिना प्लान के
    शहर के किनारे किसी कैफे चले जाते।
    सिर्फ एक कप चाय, और दो दिल।

    "क्या हम कभी इतनी व्यस्त हो जाएँगे कि ये पल भी खो दें?"
    आशी पूछती।

    "तभी तो अब संजो रहे हैं — ताकि जब समय कम हो,
    तो यादें ज़्यादा हों,"
    नयन जवाब देता।


    ---

    रात — और भविष्य की रूपरेखा

    एक रात, नयन ने पूछा —
    "अगर तुम्हें चुनना पड़े, करियर और घर के बीच?"

    आशी रुक गई —
    फिर बोली —
    "मैं कभी किसी से ऐसा सवाल नहीं पूछूँगी...
    तो खुद से क्यों पूछूँ?"

    नयन ने उसका हाथ थामा —
    "इसलिए तो हम एक टीम हैं...
    ताकि तुम्हें कभी चुनना ही न पड़े।
    तुम हर रूप में पूरी हो — पत्नी, डॉक्टर, बेटी...
    और सबसे बढ़कर, तुम।"


    ---

    भाग की अंतिम रेखाएँ — दो समानांतर लकीरें, जो साथ चलती हैं

    नयन और आशी ने सीखा —
    कि ज़िंदगी सिर्फ एक-दूसरे के लिए नहीं जी जाती,
    बल्कि एक-दूसरे के साथ जी जाती है।

    अब वे अपने-अपने करियर में व्यस्त थे,
    पर हर शाम एक-दूसरे में विश्राम पाते थे।

    उनके सपने अब व्यक्तिगत नहीं थे —
    वे साझा थे, संतुलित थे, और सबसे बढ़कर —
    सम्मान से जुड़े हुए थे।


    ---

  • 17. "साथ... जो किस्मत ने चुना" - Chapter 17

    Words: 673

    Estimated Reading Time: 5 min

    ---

    🏥 भाग 16: “सपनों की पहली ईंट — क्लिनिक की नींव और रिश्तों की गहराई”

    ---

    कभी-कभी सपनों को आकार देने में सालों लगते हैं...
    और कभी किसी के साथ होने भर से, वे कुछ ही हफ्तों में हकीकत बनने लगते हैं।

    आशी का सपना — अपना क्लिनिक —
    जो उसने MBBS की पहली पढ़ाई के दौरान देखा था,
    अब शादी के कुछ ही सप्ताह बाद
    एक नक्शे और नियत तारीख़ में बदल रहा था।

    और इस सपने में उसका सबसे बड़ा सहयोगी था — नयन।


    ---

    पहली मीटिंग — जब विचार ईंट बनते हैं

    नयन ने जयपुर की एक पुरानी बिल्डिंग दिखाई।
    “यहाँ सोचो... एक बेसमेंट में डिस्पेंसरी, ऊपर OPD, और टॉप फ्लोर पर एक छोटा-सा रिसर्च एरिया।”

    आशी ने जगह को देखा,
    उसे न टूटी दीवारें दिखीं,
    न मिट्टी से भरी खिड़कियाँ...
    उसे दिखी एक संभावना।

    “क्या हम इसे पूरा कर पाएँगे?” उसने पूछा।

    “जब तुम ऑपरेशन टेबल पर घबराई नहीं,
    तो अब तो मैं साथ हूँ,”
    नयन ने मुस्कराकर कहा।


    ---

    सपनों को परिवार से मिलाना — पहली परीक्षा

    क्लिनिक की बात जब घर में रखी गई,
    तो मिश्रित प्रतिक्रियाएँ आईं।

    दादी बोलीं —
    “इतनी बड़ी बात, शादी के तुरंत बाद?”
    माँ ने चिंता जताई —
    “घर और बाहर दोनों संभाल पाओगी?”

    लेकिन इस बार आशी चुप नहीं रही।

    उसने शांति से कहा —
    “माँ, ये सिर्फ मेरी नहीं, हमारे समाज की ज़रूरत है।
    और अगर मैं एक बेटी, बहू और पत्नी बन सकती हूँ —
    तो एक डॉक्टर भी पूरी ज़िम्मेदारी से बन सकती हूँ।”

    ससुर जी ने मुस्कराकर सिर हिलाया —
    “अगर सपना इतना साफ़ है,
    तो रास्ता भी साफ़ होगा। जाओ, शुरू करो।”


    ---

    बिल्डिंग का पहला दिन — धूल, लेकिन उम्मीद से भरा

    संडे की सुबह।
    नयन और आशी दोनों पुराने कपड़ों में,
    हेलमेट और नक्शे लिए उस पुरानी बिल्डिंग के सामने खड़े थे।

    दीवारें पुरानी थीं, सीलन थी,
    लेकिन आशी के हाथ में था एक बोर्ड:

    > “डॉ. आशी मल्होत्रा – स्त्री रोग विशेषज्ञ”



    नयन ने पूछा —
    “बोर्ड अभी से?”
    आशी मुस्कराई —
    “नाम पहले आएगा, पहचान बाद में बनेगी।”


    ---

    काम का आरंभ — एक साथ, ईंट दर ईंट

    नयन ने एक टीम लगाई —
    इंटीरियर डिज़ाइन से लेकर वेंटिलेशन तक सबका खाका तैयार किया।

    आशी ने उपकरणों की सूची बनाई,
    दवाओं की ज़रूरत, मरीजों के रजिस्ट्रेशन सिस्टम,
    और महिलाओं की प्राथमिक सुविधाओं का प्लान।

    हर शाम जब दोनों काम से लौटते,
    तो दीवारों पर रेखाएं बनती जातीं,
    और मन में सपनों की दीवारें ऊँची होती जातीं।


    ---

    रिश्तों की परख — जब समाज सवाल करता है

    एक दिन पड़ोस की एक आंटी बोलीं —
    “बहू हो, इतना पैसा और मेहनत क्यों?
    घर ही सँभालो, डॉक्टर तो हर मोहल्ले में हैं।”

    आशी ने मुस्कराकर जवाब दिया —
    “डॉक्टर हर मोहल्ले में हैं,
    लेकिन हर मोहल्ले में एक सुनने वाला इंसान नहीं है।
    मैं चाहती हूँ कि औरतें किसी डर या शर्म के बिना इलाज करा सकें।”

    नयन ने बाद में कहा —
    “तुमने सिर्फ जवाब नहीं दिया,
    तुमने अपनी जगह बना ली।”


    ---

    पहली प्रगति — पहला रंग, पहली छत

    क्लिनिक की दीवारों पर अब पेंट लगने लगा था।
    आशी ने चुना — हल्का नीला और सफेद।
    “ये रंग शांति के हैं — जैसे मैं चाहती हूँ मरीज यहाँ आकर महसूस करें।”

    नयन ने रिसेप्शन के ऊपर एक बोर्ड टांगा —

    > “यहाँ इलाज नहीं, भरोसा दिया जाता है।”



    और जब पहली बार दोनों ने खाली जगह में खड़े होकर आंखें बंद कीं,
    तो आशी ने कहा —
    “तुम्हारे साथ सब आसान लगता है।”

    नयन ने उत्तर दिया —
    “क्योंकि मैं तुम्हारे साथ खड़े होकर ही मजबूत बनता हूँ।”


    ---

    भाग का अंतिम दृश्य — नींव पूरी, अब उड़ान की बारी

    एक शाम दोनों क्लिनिक के बाहर खड़े थे।

    नयन ने कहा —
    “ये तुम्हारा सपना था,
    पर अब ये मेरा भी गर्व है।”

    आशी ने उसकी हथेली थामी —
    “इस इमारत में सिर्फ ईंट नहीं,
    तुम्हारा विश्वास और मेरा श्रम मिला है।”

    दूर से देखा जाए —
    तो वो एक छोटा सा क्लिनिक था,
    लेकिन उसके भीतर —
    सपने, संघर्ष और साथ की सबसे मजबूत नींव रखी जा चुकी थी।


    ---

  • 18. "साथ... जो किस्मत ने चुना" - Chapter 18

    Words: 557

    Estimated Reading Time: 4 min

    ---

    🩺 भाग 17: “पहली मरीज़ — जब विश्वास दरवाज़े पर दस्तक देता है”


    ---

    क्लिनिक का बोर्ड अब पूरी तरह लग चुका था —
    “डॉ. आशी मल्होत्रा (एम.बी.बी.एस, एम.डी.) – स्त्री रोग विशेषज्ञ”

    रिसेप्शन, इंतज़ार कक्ष, दवाओं की छोटी सी खिड़की...
    हर कोना तैयार था —
    लेकिन सबसे ज़रूरी बात ये थी —
    क्या कोई आएगा?


    ---

    पहला दिन — दरवाज़ा खुला, दिल धड़कता रहा

    सुबह आशी सफेद कोट पहनकर आई।
    स्टेथोस्कोप गले में, फ़ाइलें मेज़ पर,
    नयन बाहर रिसेप्शन में बैठा था —
    उसका अस्थायी मैनेजर, जब तक सब सेट न हो।

    घड़ी की सुइयाँ आगे बढ़ती रहीं।
    10 बजे... 11 बजे...
    कोई नहीं आया।

    "शायद... ज़रूरत नहीं है,"
    आशी ने धीमे से कहा।

    नयन ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया —
    "या शायद... लोग विश्वास करने के लिए तैयार नहीं हैं।
    पहले दरवाज़े पर दस्तक नहीं आती,
    फिर एक दिन भीड़ रुकती नहीं।"


    ---

    11:37 AM — पहली दस्तक

    दरवाज़ा हल्के से खुला।

    एक पतली, घबराई सी औरत अंदर आई —
    सिर पर पल्लू, हाथ में छोटा थैला।

    "डॉक्टर...?"
    "जी, आइए।"

    वो बैठी — डर और संकोच में।

    "नाम?"
    "श्यामा देवी..."

    "क्या समस्या है?"
    और फिर उसने धीरे-धीरे कहना शुरू किया —
    "पाँच महीने से कुछ ठीक नहीं है... पर घरवाले कहते हैं ये सब औरतों को होता ही है... मैंने आज पहली बार अपने मन की बात कहने की हिम्मत जुटाई है..."


    ---

    आशी की भूमिका — सिर्फ डॉक्टर नहीं, सुनने वाली

    आशी उसकी बातों के बीच न रुकी, न टोकती।
    बस सुनती रही।

    "आपका कहना सही है, लेकिन ये तकलीफ़ इलाज माँगती है, सहन नहीं।"
    उसने नर्म आवाज़ में कहा।

    चेकअप हुआ।
    श्यामा देवी को दवाएं दी गईं,
    साथ ही समझाया गया कि शरीर की तकलीफें शर्म की नहीं, देखभाल की हकदार होती हैं।

    वो उठते वक्त बोली —
    "पहली बार लगा जैसे कोई सुना गया।"


    ---

    नयन की प्रतिक्रिया — गर्व का दूसरा रूप

    जब श्यामा देवी बाहर गई,
    तो नयन ने क्लिनिक के दरवाज़े से भीतर झाँका।

    "कैसा लगा?" उसने पूछा।

    "जैसे सिर्फ इलाज नहीं किया...
    जैसे किसी का हौसला वापस दिया,"
    आशी ने जवाब दिया।

    नयन ने धीमे से कहा —
    "तुम्हारी सबसे बड़ी खूबी ये है कि तुम डॉक्टर बनने से पहले इंसान हो।"


    ---

    आशी की डायरी — भावनाओं की परतें

    उस रात आशी ने पहली बार शादी के बाद अपनी डायरी खोली:

    > "आज मेरी पहली मरीज़ आई।
    उसका नाम श्यामा था —
    उसके भीतर जितनी चुप्पी थी, उतनी ही गहराई भी।
    मैंने सीखा —
    इलाज सिर्फ दवा नहीं होता,
    इलाज वो स्पर्श है जो आत्मा तक जाए।
    और शायद... आज मैंने फिर से डॉक्टर होना नहीं,
    इंसान होना सीखा है।"




    ---

    शाम को बालकनी — रिश्ते की गहराई

    आशी बालकनी में बैठी थी, थकी लेकिन शांत।

    नयन उसके लिए चाय लेकर आया।

    "पहला दिन कैसा रहा?"
    "मानो मेरे भीतर की एक पुरानी दीवार गिर गई हो... और कुछ नया बन रहा हो।"

    "तो अब हर दिन ऐसे ही होगा?"
    "नहीं... हर दिन नया होगा,
    पर साथ अगर तुम रहो,
    तो हर चुनौती थोड़ी आसान लगेगी।"


    ---

    अंतिम दृश्य — जब बाहर की रौशनी भीतर जलती है

    रात को क्लिनिक की खिड़की से एक रोशनी बाहर झलक रही थी।
    एक महिला पास से गुज़रते हुए रुक गई।
    बोली —
    "यहीं है वो नई डॉक्टर? जो सुनती है...?"

    और इस तरह
    आशी के क्लिनिक का दरवाज़ा सिर्फ बीमारियों के लिए नहीं,
    भरोसे के लिए भी खुलने लगा।


    ---

  • 19. "साथ... जो किस्मत ने चुना" - Chapter 19

    Words: 701

    Estimated Reading Time: 5 min

    ---

    🔥 भाग 18: “रिश्तों की अग्निपरीक्षा — जब सपनों के बीच दूरी आ जाती है”



    ---

    कभी-कभी दो लोग साथ चलते हैं,
    पर रास्ते अलग-अलग हो जाते हैं —
    न इरादों में कमी होती है,
    न प्रेम में...
    फिर भी दूरियाँ आने लगती हैं।

    नयन और आशी के रिश्ते में अब वो मोड़ आ रहा था —
    जहाँ समझ और समय की परीक्षा शुरू हो चुकी थी।


    ---

    शुरुआत — जब व्यस्तता संवाद निगलने लगी

    नयन के ऑफिस में नया प्रोजेक्ट शुरू हुआ था —
    अहम, बड़ा और बेहद समय मांगने वाला।

    सुबह जल्दी निकलना, देर रात लौटना,
    कभी कॉल्स, कभी मीटिंग्स।

    आशी अपने क्लिनिक में जुटी थी —
    हर दिन नए मरीज, नई जिम्मेदारियाँ,
    और उसके साथ घर की भी माँगें।

    अब वो कप जो कभी दोनों साथ चाय से भरते थे,
    अब अलग-अलग समय में अधखाली रह जाता था।


    ---

    पहला टकराव — दो थके दिन, दो चुप रातें

    एक शाम, आशी क्लिनिक से लौटते ही सीधे किचन में लगी।
    नयन आया — थका हुआ, चुप।

    खाने की मेज़ पर दोनों बैठे,
    लेकिन एक शब्द भी नहीं कहा।

    “कुछ बोलते क्यों नहीं?”
    आशी ने धीमे से पूछा।

    “क्या बोलूं? दिन भर थक गया, अब सुकून चाहिए।”
    “और मुझे क्या चाहिए?”
    आशी की आवाज़ काँप गई।

    “तुम हर चीज़ को इमोशनल क्यों बना देती हो?”
    नयन झुंझलाया।

    रात बिस्तर पर दोनों करवट लेकर सोए —
    पीठें एक-दूसरे से दूर, दिल भी थोड़ा अलग।


    ---

    आशी का अकेलापन — रिश्ते में साथ होकर भी अकेले

    अगले कुछ दिनों में नयन का ध्यान पूरी तरह काम में था।

    फोन पर भी बातें छोटी होती गईं।
    "ठीक हूँ", "देर होगी", "अभी मीटिंग है" —
    बस यही उत्तर।

    क्लिनिक से लौटकर आशी डिनर टेबल पर दो थालियाँ लगाती —
    लेकिन कई बार सिर्फ एक ही इस्तेमाल होती।

    वो अपने आप से सवाल करने लगी —
    “क्या मेरा साथ... अब उसकी ज़िंदगी में कम ज़रूरी हो गया है?”


    ---

    नयन का संघर्ष — दो दुनियाओं के बीच उलझा एक पति

    नयन भी भीतर से परेशान था।

    वो जानता था कि आशी उससे दूर होती जा रही है,
    लेकिन वह ये नहीं समझ पा रहा था कि कैसे समय निकालकर सब संभाले।

    "अगर मैं काम न करूं तो भविष्य कैसे बनेगा?"
    वो सोचता।

    लेकिन वो ये भूल गया कि भविष्य सिर्फ पैसे से नहीं,
    साथ से भी बनता है।


    ---

    दादी की बात — रिश्तों की सादगी में गहराई

    एक दिन दादी ने आशी को उदास देखा।

    “कभी-कभी शादी का मतलब ये भी होता है कि हम खुद पीछे हटें, ताकि रिश्ता आगे बढ़े,”
    उन्होंने कहा।

    “पर जब दोनों पीछे हटने लगें?”
    आशी ने पूछा।

    “तब एक को रुककर हाथ बढ़ाना पड़ता है —
    अगर तुम चाहो कि नयन समझे,
    तो शायद पहले तुम समझाओ — नाराज़ होकर नहीं, पास बैठकर।”


    ---

    पहला संवाद — जब चुप्पी टूटती है

    उस रात, आशी ने नयन का इंतज़ार नहीं किया।
    वो सोने चली गई — लेकिन दरवाज़ा खुला रखा।

    नयन आया, चुपचाप कपड़े बदले,
    और पास आकर बिस्तर पर बैठा।

    "आशी..."
    "हम बात क्यों नहीं करते अब?"
    उसने बिना देखे पूछा।

    "क्योंकि मैं डरता हूँ —
    डरता हूँ कि अगर कुछ गलत कह दिया,
    तो शायद तुम और दूर हो जाओ।"

    "और मैं डरती हूँ कि अगर हम चुप रहे,
    तो पास आने की वजह ही खो देंगे।"


    ---

    रात का संवाद — सच्चाई, बिना दिखावे के

    "मैं जानता हूँ, मैंने तुम्हें अकेला छोड़ दिया..."
    "और मैं जानती हूँ, तुम्हें अपने सपनों का दबाव है।"

    "तो हम दोनों क्यों खुद से हारने लगे?"
    "क्योंकि हम दोनों ही एक-दूसरे से कुछ कहे बिना ही उम्मीद करने लगे थे।"

    नयन ने उसका हाथ थामा —
    "अब से मैं कोई उम्मीद चुपचाप नहीं रखूँगा —
    तुमसे कहूँगा... और सुनूँगा भी।"

    आशी ने आँसू पोंछे —
    "और मैं शिकायत नहीं, संवाद करूँगी।
    क्योंकि रिश्ता बात से चलता है, दूरी से नहीं।"


    ---

    अंतिम दृश्य — रिश्ते की आँच से परखा प्यार

    सुबह की चाय एक बार फिर साथ पी गई।
    थकावट अब भी थी, व्यस्तता भी —
    लेकिन दिल अब फिर साथ धड़कने लगे थे।

    नयन ने जाते-जाते कहा —
    “शाम को थोड़ा जल्दी आऊँगा —
    चाय तुम्हारे साथ पीनी है, लैपटॉप के साथ नहीं।”

    आशी मुस्कराई —
    “और मैं इंतज़ार करूँगी — शिकायत के साथ नहीं,
    प्रेम के साथ।”


    ---

  • 20. "साथ... जो किस्मत ने चुना" - Chapter 20

    Words: 677

    Estimated Reading Time: 5 min

    ---

    💠 भाग 19: “सपनों के बीच संतुलन — जब नयन आशी के क्लिनिक में एक दिन बिताता है”




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    कभी-कभी हम अपने सबसे करीब के इंसान को
    पूरी तरह तब समझते हैं,
    जब हम उसकी दुनिया में एक दिन जी लेते हैं।

    नयन और आशी के बीच की दूरी पिघल चुकी थी —
    अब वक़्त था समझ और सहभागिता को गहराई देने का।

    इसलिए एक शनिवार,
    नयन ने खुद से कहा —
    “आज मैं सिर्फ उसका पति नहीं,
    उसकी दुनिया का हिस्सा बनूँगा।”


    ---

    सुबह — जब कोट पहनने का मतलब समझ में आता है

    आशी रोज़ की तरह सफेद कोट पहन रही थी।

    नयन दरवाज़े पर खड़ा देख रहा था।

    "कोट भारी लगता है कभी?" उसने पूछा।

    "कभी-कभी...
    जब दर्द सिर्फ मरीजों के शरीर में नहीं,
    उनकी आँखों में भी दिखे।"

    नयन कुछ पल चुप रहा —
    फिर बोला,
    “आज तुम्हारे साथ चल सकता हूँ?”

    आशी की आँखों में चमक आ गई —
    "ज़रूर... लेकिन वहाँ मैं तुम्हारी पत्नी नहीं, डॉक्टर हूँ।"

    "और मैं तुम्हारा मरीज नहीं,
    पर तुम्हारा श्रोता ज़रूर बनना चाहता हूँ।"


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    क्लिनिक की सुबह — भीड़, सादगी और समर्पण

    क्लिनिक पहुँचे —
    बाहर पहले से ही पाँच-छह महिलाएँ बैठी थीं।

    रिसेप्शन पर नयन ने बैठना चाहा,
    लेकिन आशी ने कहा —
    "तुम अंदर चलो — मैं चाहती हूँ तुम देखो... मैं कैसे काम करती हूँ।"

    पहली मरीज़ — एक किशोरी,
    जिसे मासिक धर्म के दर्द ने डरा रखा था।

    आशी ने धैर्य से समझाया,
    ड्रॉइंग से समझ दी,
    और अंत में कहा —
    “शरीर के हर बदलाव को शर्म नहीं, समझ की ज़रूरत है।”

    नयन दूर खड़ा था —
    और सोच रहा था,
    "ये वही आशी है, जो कभी मेरी बाहों में सिमट जाती थी...
    आज दूसरों की हिम्मत बन रही है।"


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    बिना ब्रेक की दोपहर — डॉक्टर और इंसान का अंतर मिटता गया

    12 बजे के बाद भी मरीज़ आते रहे।
    कोई थकी माँ,
    कोई बुज़ुर्ग महिला,
    कोई घरेलू हिंसा की शिकार।

    हर एक के लिए आशी के पास वक़्त था,
    सब्र था, और सुकून देने वाले शब्द।

    नयन ने देखा —
    कई बार आशी खुद को रोकती थी,
    आँखें भीगती थीं,
    लेकिन उसने कभी चेहरे पर थकावट नहीं आने दी।

    “क्या हर दिन ऐसा होता है?”
    नयन ने फुसफुसाकर पूछा।

    “हर दिन नहीं...
    कुछ दिन और भारी होते हैं।”


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    एक चाय का कप — पहली बार डॉक्टर को पति ने देखा, औरत की तरह

    दोपहर 3 बजे, आशी बैठी —
    थोड़ी झुकी हुई,
    आँखों में हलकी थकावट, लेकिन संतोष।

    नयन ने कैफ़ेटेरिया से चाय लाकर उसके सामने रख दी।

    "तुम्हें देख रहा हूँ सुबह से...
    कभी सोचा नहीं था कि तुम इतनी गहराई से जुड़ती हो हर केस से।"

    आशी ने धीरे से कहा —
    "हर मरीज़ में कभी माँ दिखती है,
    कभी मैं खुद।
    तो दूरी रखना मुश्किल होता है।"

    "और मुझे अब समझ में आ रहा है
    कि तुम्हारा हर दिन सिर्फ पेशा नहीं...
    सेवा है।"


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    शाम को विदा — जब डॉक्टर से फिर पत्नी बनना होता है

    क्लिनिक बंद हुआ।
    आशी ने कोट उतारा,
    बाल खोले, और लंबी साँस ली।

    नयन ने धीरे से कहा —
    "क्या अब आशी वापस आ गई?"

    "वो तो कभी गई ही नहीं थी,"
    आशी मुस्कराई —
    "मैं हर रूप में वही हूँ —
    तुम्हारी साथी, तुम्हारी अपनी।"


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    रात का संवाद — रिश्ते में सम्मान की ऊँचाई

    घर लौटकर नयन चुप था।

    “क्या सोच रहे हो?”
    आशी ने पूछा।

    "आज तुम्हें एक नई नजर से देखा —
    मैंने हमेशा तुम्हें प्यार किया,
    लेकिन आज...
    तुम पर गर्व भी महसूस किया।

    और मैं ये भी समझ गया —
    कि तुम्हारे सपनों में मेरा साथ सिर्फ हाथ पकड़ने तक नहीं,
    बल्कि कंधे से कंधा मिलाकर चलने तक है।"


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    अंतिम दृश्य — एक साथ, एक दिशा

    रात को दोनों एक ही बुक पढ़ रहे थे —
    "Women in Medicine: Stories of Strength"

    नयन ने कहा —
    "तुम्हारा नाम भी इस किताब में होना चाहिए।"

    आशी हँसी —
    "कभी लिखा जाएगा,
    अगर तुम साथ पढ़ते रहो तो।"

    और उस रात,
    उनके बीच न तो कोई दूरी थी,
    न कोई चुप्पी...
    बस सम्मान,
    जो प्रेम से भी ज़्यादा गहरा था।


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