"ऑपरेशन दिल: सरहद से आया मेरा फौजी" एक मनोरंजक और दिल छू लेने वाली कहानी है जो दो बिल्कुल अलग दुनियाओं को मिलाती है। कहानी की नायिका है दिल्ली की बिंदास और चुलबुली ट्रैवल ब्लॉगर अंजलि शर्मा, उर्फ़ 'अनी', जो अपने परिवार द्वारा तय की जा रही शादी से बचने... "ऑपरेशन दिल: सरहद से आया मेरा फौजी" एक मनोरंजक और दिल छू लेने वाली कहानी है जो दो बिल्कुल अलग दुनियाओं को मिलाती है। कहानी की नायिका है दिल्ली की बिंदास और चुलबुली ट्रैवल ब्लॉगर अंजलि शर्मा, उर्फ़ 'अनी', जो अपने परिवार द्वारा तय की जा रही शादी से बचने के लिए हिमाचल के एक शांत सरहदी कस्बे देवगढ़ भाग आती है। वहाँ उसकी टक्कर होती है मेजर विक्रम सिंह राठौर से, जो एक बेहद अनुशासित, सख्त और देशभक्त आर्मी ऑफिसर हैं। उनकी पहली मुलाकात ही धमाकेदार होती है जब अनी का ड्रोन आर्मी के प्रतिबंधित क्षेत्र में घुस जाता है, जिससे 'मिस हैशटैग' और 'मेजर खड़ूस' के बीच नोक-झोंक का एक मज़ेदार सिलसिला शुरू हो जाता है। कहानी में मोड़ तब आता है जब एक लैंडस्लाइड के कारण अनी देवगढ़ में फंस जाती है। मज़बूरी में साथ रहते हुए, दोनों एक-दूसरे के अनदेखे पहलुओं को देखते हैं - अनी विक्रम के सख्त चेहरे के पीछे छिपे एक नरम दिल लीडर को पहचानती है, और विक्रम अनी के बचपने में उसकी अच्छाई को देखता है। इसी बीच, एक पुराने संदूक से मिली एक अधूरी चिट्ठी उन्हें एक गहरे पारिवारिक राज़ से जोड़ देती है: उनके दादा और नानी एक-दूसरे से प्यार करते थे, जिन्हें एक साज़िश ने अलग कर दिया था। यह साज़िश उन्हें कस्बे के गेस्टहाउस मालिक रतनलाल की ओर ले जाती है, जो विक्रम के खुफिया मिशन 'ऑपरेशन दिल' का असली निशाना है। जब उनका प्यार परवान चढ़ता है, तो खतरा भी बढ़ जाता है। रतनलाल, अपने राज़ को बचाने के लिए, अनी को किडनैप कर लेता है। क्लाइमेक्स में, विक्रम को अपने प्यार और मिशन के बीच एक को चुनना पड़ता है, जबकि अनी अपनी होशियारी से अपराधी को लाइव-स्ट्रीम पर बेनकाब कर देती है। यह कहानी रोमांस, कॉमेडी, सस्पेंस और देशभक्ति का एक खूबसूरत संगम है, जो दिखाती है कि कैसे प्यार न केवल दो दिलों को, बल्कि दो परिवारों के टूटे हुए अतीत को भी जोड़ सकता है।
Page 1 of 5
Chapter 1
दिल्ली की हलचल भरी सुबह थी। सूरज की किरणें खिड़की से छनकर अंजलि शर्मा के कमरे में आ रही थीं, लेकिन अंजलि के लिए यह किसी भी आम सुबह से कहीं ज़्यादा खास थी। अपने बिस्तर पर उकड़ू बैठी, उसने अपना मोबाइल स्टैंड पर सेट किया और एक गहरी साँस ली। उसका चेहरा उत्साहित था, लेकिन आँखों में एक हल्की सी शरारत चमक रही थी।
"हेलो दोस्तों! गुड मॉर्निंग! वेलकम-वेलकम टू 'अनी की फंकी दुनिया'!" अंजलि ने अपनी आवाज़ में एक अजीब सी ऊर्जा भरकर कैमरे की तरफ़ देखा और अपने होंठों पर एक बड़ी सी मुस्कान सजा ली। उसके बाल हल्के से बिखरे हुए थे, लेकिन उसके चेहरे पर सुबह की ताज़गी साफ दिख रही थी।
"तो दोस्तों, आप सब सोच रहे होंगे, आज मेरी आँखों में इतनी चमक क्यों है, है ना?" वह थोड़ा झुककर कैमरे के और करीब आई, जैसे कोई सीक्रेट शेयर कर रही हो। "आज मैं आपको अपनी सुपर-डुपर बोरिंग लाइफ का एक नया अपडेट देने वाली हूँ, जिसके बाद मुझे लगता है आप सब मुझे नोबेल प्राइज़ देने की तैयारी करेंगे।"
अंजलि ने जानबूझकर एक नाटकीय पॉज़ लिया, फिर कैमरे के कमेंट सेक्शन की तरफ़ देखा। "अरे वाह! इतने सारे लोग लाइव हैं! 'हाय अनी!', 'गुड मॉर्निंग अनी दी!'... थैंक यू सो मच, गाइस! आप ही लोग तो मेरी लाइफ के असली हीरोज़ हो। बाकी मेरी अपनी फैमिली..." उसने मुँह बनाया और आँखें घुमाईं। "इनका तो बस एक ही एजेंडा है आजकल - अनी की शादी करा दो! जैसे मेरी उम्र हो गई हो 80 साल!"
वह अपने हाथ से बालों को झटकते हुए शिकायत भरे लहजे में बोली, "यार, मैं क्या करूँ? मेरी मम्मी को लगता है कि मेरा बायोलॉजिकल क्लॉक टिक-टिक-टिक कर रहा है और अब मुझे मिस्टर राइट से मिल लेना चाहिए। और मेरे पापा..." उसने सिर हिलाया, "पापा तो बस मम्मी की हाँ में हाँ मिलाते हैं। उन्हें लगता है, जो भी मम्मी कहे, वो 'वेद वाक्य' है।"
"तो हुआ यूँ, दोस्तों," अंजलि ने फिर से अपनी कहानी शुरू की, "कल रात मैं आराम से अपनी वेब सीरीज़ देख रही थी, और अचानक 'एंट्री' होती है मेरी माताश्री और पिताजी की! दोनों के चेहरों पर इतनी रहस्यमयी मुस्कान थी कि मैं समझ गई, दाल में कुछ काला नहीं, पूरी दाल ही काली है।"
वह अपनी कुर्सी पर और पीछे सरक गई, जैसे उस सीन को फिर से जी रही हो। "और फिर क्या था! मम्मी ने बड़े प्यार से, जैसे मैं कोई छोटी बच्ची हूँ, एक 'राजकुमार' की तस्वीर मेरे सामने रख दी। मैं तो उस तस्वीर को देखकर ही बेहोश होने वाली थी। राजकुमार नहीं, वो तो कोई 'अंकल जी' लग रहे थे! ऐसे ही जैसे किसी पुरानी मैरिज ब्यूरो की एल्बम से निकाल कर लाए हों।" अंजलि ने मुँह बिगाड़ते हुए अपने फॉलोअर्स को दिखाया कि उस 'राजकुमार' की तस्वीर देखकर उसकी क्या प्रतिक्रिया थी।
"आप लोग सोचो यार! मैं 24 साल की, फंकी, मॉडर्न, अपनी शर्तों पर जीने वाली लड़की, और मुझे दिखा रहे हैं एक ऐसे बंदे की तस्वीर जो अपनी उम्र से दस साल बड़ा दिख रहा था। ऊपर से मम्मी का डायलॉग, 'बेटा, कितना संस्कारी लड़का है। मल्टीनेशनल कंपनी में अच्छी पोस्ट पर है। अपना घर है, गाड़ी है, बस कमी है तो एक सुशील और संस्कारी बीवी की।'" अंजलि ने नकली संस्कारी आवाज़ में दोहराया, और फिर अपनी असली आवाज़ में चिल्लाई, "और वो सुशील और संस्कारी बीवी मैं तो बिल्कुल नहीं हूँ! मेरी लाइफ में 'सुशील' और 'संस्कारी' का एस भी नहीं है, दोस्तों!"
उसके कमेंट सेक्शन में हँसी वाले इमोजी और 'हार्ड फैक्ट्स' जैसे कमेंट्स आने लगे। अंजलि ने अपनी आँखों में आँसू भरने का नाटक किया। "यार, अब आप ही बताओ, क्या ऐसे होता है? मेरी फीलिंग्स की कोई वैल्यू नहीं है क्या? मेरा करियर, मेरी ब्लॉगिंग, मेरे सपने... सब कुछ बस एक शादी में खत्म हो जाएगा? मेरे पास तो अभी बहुत कुछ है करने को। मुझे पहाड़ चढ़ने हैं, जंगल घूमने हैं, समुद्र में डुबकी लगानी है, और सबसे ज़रूरी... मुझे खुद को खोजना है!"
"तो दोस्तों," उसने एक गहरी साँस ली, "मैंने ठान लिया है। अब बहुत हो गया ये शादी का ड्रामा। मैं अब ये सब और नहीं झेल सकती।" उसने अपनी आँखों को सिकोड़कर कैमरे की तरफ देखा। "मैं आज़ादी की उड़ान भरने वाली हूँ! और मैं वादा करती हूँ, ये मेरी लाइफ का सबसे बड़ा और सबसे रोमांचक एडवेंचर होने वाला है। तुम लोग बस देखते जाओ, अनी की फंकी दुनिया में अब असली फंकीनेस आने वाली है!"
उसने अपने फॉलोअर्स को 'आई लव यू' बोला और अपनी लाइव स्ट्रीम एंड कर दी। कैमरे के सामने भले ही वह मज़ाक कर रही थी, लेकिन अंदर ही अंदर उसे सच में इस शादी के दबाव से घुटन महसूस हो रही थी। उसने सोचा, "और कितना झेलूँ ये सब? मुझे सच में कुछ करना होगा।"
जैसे ही रात हुई, दिल्ली की रोशनी थोड़ी मंद पड़ने लगी, अंजलि ने अपने कमरे का दरवाज़ा बंद कर लिया। उसने अपनी बड़ी सी ट्रैवल बैग निकाली और एक-एक करके अपने फैशनेबल कपड़े, लैपटॉप, कैमरा गियर और कुछ ज़रूरी चीज़ें उसमें ठूँसने लगी। "ओके, अनी, दिस इज़ इट! अब नो टर्निंग बैक!" वह खुद से बड़बड़ाई, अपने लैपटॉप को बैग में रखते हुए। उसने लैपटॉप खोला और स्क्रीन पर बड़े-बड़े अक्षरों में टाइप किया: "मिशन: आज़ादी"। उसके चेहरे पर एक दृढ़ संकल्प और आज़ादी की चमक थी।
"मम्मी-पापा, मुझे माफ़ करना, लेकिन मैं ये शादी नहीं कर सकती।" उसने एक छोटा सा नोटपैड लिया और अपने माता-पिता के लिए एक नोट लिखना शुरू किया। "प्रिय मम्मी-पापा, मैं जानती हूँ आप मेरी चिंता करते हैं, लेकिन अब और नहीं। मैं 'डिजिटल डिटॉक्स' पर जा रही हूँ। मुझे पहाड़ों में जाकर 'खुद को खोजना' है। जब तक मेरी आत्मा को शांति नहीं मिल जाती, मैं वापस नहीं आऊँगी। प्लीज़, मेरी चिंता मत करना और हां, किसी 'अंकल जी' के साथ मेरी शादी की बात तो बिल्कुल मत करना। बहुत-बहुत प्यार, आपकी प्यारी अनी।" उसने नोट को मेज पर रखा और एक पल के लिए रुककर उसे देखा। उसकी आँखों में एक अजीब सी चमक थी – थोड़ी शरारत भरी, थोड़ी भावनात्मक।
घड़ी में रात के दो बज रहे थे। घर में पूरी तरह से सन्नाटा पसरा हुआ था। अंजलि ने अपना बैग उठाया, जो उसके लिए थोड़ा भारी था, और चुपके से अपने कमरे से बाहर निकली। सीढ़ियों से उतरते समय उसने हर कदम फूँक-फूँक कर रखा ताकि कोई आवाज़ न हो। दरवाज़े के पास आकर, उसने एक लंबी साँस ली और धीरे से कुंडी खोली। ठंडी हवा का एक झोंका उसके चेहरे से टकराया, और उसे लगा जैसे आज़ादी ने उसे बाहों में भर लिया हो।
वह चुपचाप घर से बाहर निकली, गेट को धीरे से बंद किया और सड़क पर आ गई। एक ऑटो पहले से उसका इंतज़ार कर रहा था। उसने ऑटो वाले को बताया कि उसे बस स्टैंड जाना है जहाँ से पहाड़ो की बसें जाती हैं। ऑटो में बैठकर उसने एक बार पीछे मुड़कर अपने घर की तरफ़ देखा। उसे अपने माता-पिता की चिंता हो रही थी, लेकिन अपने सपनों को पूरा करने की ज़िद उससे कहीं ज़्यादा बड़ी थी। उसके चेहरे पर अब एक निडर मुस्कान थी, जैसे वह किसी बड़े खेल की शुरुआत करने जा रही हो।
ऑटो चल पड़ा और दिल्ली की सड़कों की रात की खामोशी में गुम हो गया। बस स्टैंड पहुँचकर, उसने हिमाचल प्रदेश के देवगढ़ जाने वाली बस में अपनी सीट ले ली। बस में कम ही लोग थे। अंजलि खिड़की वाली सीट पर बैठ गई और बाहर देखने लगी। शहर की जगमगाहट धीरे-धीरे पीछे छूट रही थी और सड़कों पर भीड़ कम होती जा रही थी। सुबह होते-होते, बस ने पहाड़ों में प्रवेश करना शुरू कर दिया।
अंजलि ने देखा, दूर, धुंध की चादर ओढ़े, बड़े-बड़े पहाड़ उसकी तरफ़ आ रहे थे। सूरज अभी पूरी तरह उगा नहीं था, लेकिन पहाड़ों के ऊपर से हल्की सी नारंगी रोशनी आ रही थी। ठंडी, ताज़ी हवा खिड़की से अंदर आ रही थी और उसके बालों को छू रही थी। उसे लगा जैसे उसकी आत्मा को पहली बार शांति मिल रही हो। "फाइनली!" उसने मन ही मन कहा। "नो शादी, नो ड्रामा, नो 'अंकल जी'! बस मैं और मेरे पहाड़!" उसकी आँखों में एक नई उम्मीद और रोमांच की चमक थी। यह उसकी 'फंकी दुनिया' का नया अध्याय था, जिसकी शुरुआत पहाड़ों की पहली झलक के साथ हो रही थी। वह अपनी इस नई यात्रा के लिए पूरी तरह से तैयार थी, इस बात से बेखबर कि ये पहाड़ उसकी ज़िंदगी को पूरी तरह से बदलने वाले थे।
Chapter 2
दिल्ली की सरहद पर जब सुबह की पहली किरण बस की खिड़की से अंजलि के चेहरे पर पड़ रही थी, ठीक उसी समय, हिमाचल के देवगढ़ की शांत, लेकिन अनुशासन से भरी आर्मी कैंटोनमेंट में एक अलग ही सुबह हो रही थी। यहाँ की हवा में पहाड़ों की ठंडक और फौजियों के पसीने की मिली-जुली गंध थी। सूर्योदय से भी पहले, कैंटोनमेंट का पूरा मैदान जवानों के बूटों की आवाज़ से गूँज रहा था।
मेजर विक्रम सिंह राठौर, अपने जवानों के ठीक सामने खड़े थे। उनका कद लंबा था, चेहरा पत्थर की तरह सख्त, और उनकी आँखों में एक ऐसी तीक्ष्णता थी जो सामने वाले को एक पल के लिए भी विचलित होने नहीं देती थी। उनकी कड़क वर्दी, जिस पर स्टार्स चमक रहे थे, उनके सख्त मिज़ाज और अटूट अनुशासन का प्रमाण थी।
"पलटन! सावधान! दौड़ शुरू!" विक्रम की दमदार आवाज़ हवा में गूँजी। यह आवाज़ इतनी शक्तिशाली थी कि उसने सुबह की खामोशी को चीर दिया। उनकी आवाज़ में न कोई नरमी थी और न कोई झिझक। बस एक आदेश था, जिसका पालन बिना किसी सवाल के होना था।
जवानों ने एक साथ कदम ताल करते हुए दौड़ना शुरू कर दिया। उनके चेहरों पर थकान और पसीना था, लेकिन आँखों में मेजर साहब का डर और सम्मान साफ झलक रहा था। एक जवान ने अपने बगल वाले कोहनी मारते हुए धीमे से फुसफुसाया, "आज तो 'शेर' पूरे फॉर्म में है। सुबह-सुबह ही हमें दौड़ा-दौड़ा कर हलक सूखा दिया।"
दूसरा जवान मुस्कुराया, "मेजर साब का कोई भरोसा नहीं। कभी भी कुछ भी नया करवा देते हैं। बस उनकी ट्रेनिंग के आगे अच्छे-अच्छे पानी मांग जाते हैं।"
विक्रम इन फुसफुसाहटों से अनभिज्ञ, अपनी जगह पर खड़े थे। उनकी नज़र हर जवान पर थी, हर कदम पर, हर साँस पर। उन्हें अपने जवानों से सिर्फ़ प्रदर्शन नहीं, बल्कि निपुणता चाहिए थी। उनके लिए, हर एक जवान देश की सुरक्षा की दीवार का एक अहम हिस्सा था, और उस दीवार को कमज़ोर पड़ने देना उन्हें गंवारा नहीं था।
तभी, सूबेदार बलविंदर सिंह, अपने भारी-भरकम शरीर के बावजूद, दौड़ते हुए विक्रम की तरफ़ आए। उनके हाथ में एक बड़ा सा टिफ़िन था, जिसमें से गरमागरम पराठों की खुशबू आ रही थी। बलविंदर के चेहरे पर एक स्थायी मुस्कान रहती थी, जो उनके मज़ाकिया स्वभाव का परिचय देती थी। उन्होंने हाफते हुए विक्रम को एक कड़क सलामी दी।
"गुड मॉर्निंग, मेजर साब!" बलविंदर ने अपनी भारी आवाज़ में कहा, उनकी साँसें अभी भी तेज़ चल रही थीं।
विक्रम ने अपनी ठंडी, पैनी नज़रों से बलविंदर को ऊपर से नीचे देखा। "सूबेदार बलविंदर सिंह! सुबह की ट्रेनिंग के दौरान खाने के साथ मैदान में?" उनकी आवाज़ में एक हल्की सी नाराज़गी थी, लेकिन बलविंदर इससे बिल्कुल नहीं डरे।
बलविंदर ने अपने पेट पर हाथ फेरा और एक गहरी साँस ली। "मेजर साब, सुबह-सुबह इतनी एनर्जी लगती है, क्या बताऊँ! सोचा, शेर को भी तो ताकत चाहिए होती है। ये गरमागरम आलू के पराठे और मक्खन... आपकी मम्मी ने खुद भिजवाए हैं, मेजर साब! कहा है कि 'मेरा बेटा खाकर ही काम पर जाए'।" उन्होंने टिफ़िन को विक्रम की तरफ़ बढ़ाया, उनकी आँखों में शरारत चमक रही थी।
विक्रम के चेहरे पर एक पल के लिए हल्की सी मुस्कान आई, जो तुरंत गायब हो गई। उन्होंने टिफ़िन लेने से मना कर दिया। "सूबेदार, ट्रेनिंग के बाद। और यहाँ 'शेर' को पराठों की नहीं, अनुशासन की ज़रूरत है। अब अपनी पलटन के साथ दौड़ो।"
बलविंदर ने मुँह बनाया, लेकिन मेजर साब की बात टालना उनकी फितरत में नहीं था। "जी मेजर साब!" वह पराठों का टिफ़िन दबाकर अपने जवानों के साथ दौड़ने चले गए, लेकिन जाते-जाते फुसफुसाए, "पता नहीं कब खाएँगे! सारा स्वाद ठंडा हो जाएगा।"
विक्रम ने उनके जाते ही अपने पॉकेट से एक फोल्डेड कागज़ निकाला। यह एक खुफिया फ़ाइल का हिस्सा था, जिसमें देवगढ़ में हाल ही में बढ़ी स्मगलिंग की गतिविधियों का जिक्र था। उनके चेहरे पर चिंता की एक गहरी लकीर उभर आई। उन्होंने कागज़ पर लिखी कुछ लाइनों को फिर से पढ़ा, जिसमें बॉर्डर के पास संदिग्ध हलचल और कुछ स्थानीय लोगों के नाम थे। रतनलाल का नाम सबसे ऊपर था।
उनके लिए यह सिर्फ एक सामान्य क्राइम केस नहीं था। यह देश की सुरक्षा से जुड़ा एक गंभीर खतरा था। ये स्मगलर न केवल अवैध सामान लाते थे, बल्कि देश के अंदरूनी हिस्सों में भी घुसपैठ का रास्ता खोल सकते थे।
उन्होंने अपना मोबाइल निकाला और एक अननोन नंबर पर कॉल किया। "लाइन सुरक्षित है?" विक्रम ने अपनी आवाज़ को बहुत धीमा और गंभीर रखा।
सामने से किसी की दबी हुई आवाज़ आई। "जी सर। सब क्लियर है।"
"कोई नई खबर? 'ऑपरेशन दिल' के बारे में?" विक्रम ने कोड-वर्ड में पूछा। 'ऑपरेशन दिल' उस खुफिया मिशन का नाम था जिसके तहत वह देवगढ़ में तैनात थे। इसका असली मकसद, जिसका पता किसी को नहीं था, इन स्मगलिंग रैकेट्स की जड़ तक पहुँचना और उन्हें हमेशा के लिए खत्म करना था।
"सर, अभी तक सब शांत है। लेकिन 'बड़ी मछली' की हलचल थोड़ी बढ़ी है। वह कुछ बड़े प्लान में है।" सामने से जवाब आया। 'बड़ी मछली' रतनलाल के लिए कोड-वर्ड था।
विक्रम ने गहरी साँस ली। "ठीक है। अपनी आँखें खुली रखो। एक भी चूक बर्दाश्त नहीं होगी।"
"जी सर।" कॉल कट हो गया।
विक्रम ने अपने फ़ोन को जेब में रखा और अपनी नज़रें दूर, पहाड़ों की चोटियों पर टिका दीं। सुबह की सुनहरी धूप उन पर पड़ रही थी, उन्हें और भी भव्य बना रही थी। उनके दिमाग में एक तरफ़ देश की सुरक्षा का भारी बोझ था, और दूसरी तरफ़ एक अनकहा अकेलापन था। फौजियों की ज़िंदगी ऐसी ही होती है – बाहरी तौर पर कठोर और अनुशासित, लेकिन अंदर ही अंदर गहरे भावों से भरी हुई।
वह देश के प्रति अपनी अटूट निष्ठा रखते थे, हर कीमत पर उसकी रक्षा करने को तैयार थे। लेकिन इस समर्पण के पीछे, कहीं गहरे, एक व्यक्तिगत खालीपन भी था। उनकी पूरी ज़िंदगी देश सेवा को समर्पित थी, और शायद ही कभी उन्होंने अपने लिए कुछ सोचा था। उनके आस-पास हमेशा जवान और अनुशासन का माहौल रहता था, लेकिन एक व्यक्तिगत रिश्ते की गर्माहट उन्हें महसूस नहीं हुई थी।
वह जानते थे कि यह मिशन आसान नहीं होगा। रतनलाल एक शातिर और खतरनाक आदमी था, जो बाहरी तौर पर भला और मददगार दिखता था, लेकिन असल में एक गहरे नेटवर्क का हिस्सा था। विक्रम को उसे बेनकाब करना था, चाहे इसके लिए कुछ भी करना पड़े। उनकी आँखों में एक दृढ़ संकल्प था, लेकिन उस संकल्प के पीछे एक हल्की सी उदासी भी थी, एक ऐसे व्यक्ति की जो हमेशा कर्तव्य को प्राथमिकता देता है, लेकिन कभी-कभी अपने अकेलेपन को छुपा नहीं पाता।
"शेर को आराम नहीं, काम चाहिए!" विक्रम ने खुद से कहा, और अपने जवानों की तरफ़ मुड़कर एक बार फिर दौड़ने का आदेश दिया। उनके लिए, हर नया दिन एक नई चुनौती और एक नया मिशन था। वह इस बात से बिल्कुल अनजान थे कि आने वाले कुछ ही दिनों में, उनकी इस अनुशासित दुनिया में एक ऐसी 'फंकी' हवा दस्तक देने वाली थी, जो उनके जीवन की हर चीज़ को पूरी तरह से बदल देगी। उनकी दुनिया, जो अब तक सिर्फ़ कर्तव्य और अकेलेपन से भरी थी, उसमें एक ऐसा रंग भरने वाली थी, जिसकी उन्होंने कभी कल्पना भी नहीं की थी।
Chapter 3
बस, रुकते-रुकते, देवगढ़ के छोटे से बस स्टैंड पर आकर रुक गई। अंजलि ने अपनी आँखें खोलीं। रात भर का सफर और पहाड़ों की घुमावदार सड़कों ने उसे थका दिया था, लेकिन उसके चेहरे पर एक नई जगह पर पहुँचने की उत्सुकता थी। वह अपने भारी-भरकम, चमकीले फैशनेबल ट्रैवल बैग्स को निकालने के लिए बस से उतरी। दिल्ली से आते हुए उसे लगा था कि ये 'कूल' लगेंगे, पर अब उन्हें बस से उतारते हुए ही उसकी साँस फूल गई।
चारों तरफ ऊँचे-ऊँचे पहाड़ थे, जिन पर सुबह की नर्म धूप पड़ रही थी। हवा में एक अजीब सी ठंडी और साफ खुशबू थी, जो दिल्ली की धूल भरी हवा से बिल्कुल अलग थी। यहाँ शांति थी, इतनी शांति कि उसे अपने कानों में अपनी ही धड़कन सुनाई दे रही थी। लेकिन इस शांति के बीच, उसका पहला विचार था, "यहाँ नेटवर्क क्यों नहीं है?!" उसने अपना फोन निकाला और स्क्रीन पर नेटवर्क बार को घूरने लगी। एक भी सिग्नल नहीं था। उसका चेहरा तुरंत उतर गया। "ओह माय गॉड! ये क्या है? मेरा डिजिटल डिटॉक्स इतना डिटॉक्स हो जाएगा, मैंने सोचा नहीं था!" वह अपने मन में ही बड़बड़ाई।
उसने किसी तरह अपने तीन बड़े, ट्रेंडी सूटकेस और एक लैपटॉप बैग को घसीटते हुए बस स्टैंड से बाहर निकाला। "अनी की फंकी दुनिया" की सबसे बड़ी चुनौती अब शुरू हो रही थी। वह अपने हाई-एंड फैशनेबल कपड़ों, बड़े सनग्लासेस और लाउड मेक-अप में खड़ी थी, जबकि उसके आस-पास के लोग सिंपल पहाड़ी कपड़े पहने थे। देवगढ़ एक छोटा सा कस्बा था, जहाँ ज़्यादातर लोग आर्मी कैंटोनमेंट या खेती-बाड़ी से जुड़े थे। उनके लिए, अंजलि किसी दूसरे ग्रह से आई हुई प्राणी जैसी थी।
स्थानीय लोग, जो बस स्टैंड पर अपने काम के लिए खड़े थे या किसी को लेने आए थे, सब अंजलि को, उसके चमकीले कपड़ों और बड़े सनग्लासेस को घूर रहे थे। कुछ बूढ़ी महिलाएँ फुसफुसा रही थीं, "अरे राम! ये दिल्ली से कहाँ आ गई, ऐसे कपड़े पहनकर।" एक छोटा बच्चा अपनी माँ की साड़ी से झाँककर अंजलि को अजीब नज़रों से देख रहा था। अंजलि को यह सब महसूस हो रहा था, पर उसने इसे इग्नोर करने की कोशिश की। "ठीक है, ठीक है। सब लोग घूरेंगे, क्योंकि मैंने अपने स्टाइल से उन्हें इम्प्रेस कर दिया है!" उसने खुद को समझाया, पर अंदर ही अंदर उसे थोड़ी शर्मिंदगी महसूस हो रही थी।
अपने भारी बैग्स के साथ संघर्ष करते हुए, वह छोटे से बाज़ार में घूमती रही। यहाँ कोई फैंसी होटल नहीं थे, सिर्फ छोटे-छोटे गेस्टहाउस और होमस्टे थे। उसे रहने के लिए एक अच्छी, साफ-सुथरी जगह चाहिए थी जहाँ उसे कम से कम थोड़ी तो सुविधाएँ मिलें। वह कई बोर्ड्स देखती हुई आगे बढ़ी, जब उसकी नज़र एक सादे, लकड़ी के बोर्ड पर पड़ी, जिस पर लिखा था: "शांति गेस्टहाउस - यहाँ आपको शांति मिलेगी।" उसके नाम में ही उसे कुछ अपनापन सा लगा। "शांति? हाँ, मुझे इसी की ज़रूरत है। शांति और नेटवर्क!" वह मुस्कुराई।
वह गेस्टहाउस के अंदर गई। सामने एक अधेड़ उम्र का, शांत स्वभाव का आदमी बैठा था। उसके चेहरे पर हमेशा एक हल्की सी मुस्कान रहती थी और उसकी आँखें बहुत अच्छी लगती थीं। यह था रतनलाल, शांति गेस्टहाउस का मालिक।
"नमस्ते बेटा! वेलकम! कहाँ से आ रही हो?" रतनलाल ने तुरंत खड़े होकर उसका गर्मजोशी से स्वागत किया। उसकी आवाज़ में एक अजीब सी मिठास और अपनापन था। उसने अंजलि को 'दिल्ली की मेहमान' कहकर अतिरिक्त सम्मान दिया, जैसे वह देवगढ़ में सबसे खास मेहमान हो।
अंजलि को वह बहुत 'भला और मददगार' लगा। "नमस्ते अंकल जी। मैं दिल्ली से आई हूँ। अंजलि शर्मा मेरा नाम है। मुझे कुछ दिन यहाँ रुकना है।" उसने थोड़ी हाँफते हुए कहा, अभी भी बैग्स की परेशानी से बाहर नहीं निकली थी।
"अंजलि बेटी! दिल्ली से! अरे वाह! यहाँ तो पहली बार कोई दिल्ली से आया है, खासकर इतनी कम उम्र में! पहाड़ों का मज़ा लेने आई हो?" रतनलाल ने मुस्कुराते हुए कहा। "चिंता मत करो, तुम्हें यहाँ बहुत शांति मिलेगी। नेटवर्क की थोड़ी परेशानी है, लेकिन पहाड़ों में आकर नेटवर्क किसे चाहिए, है ना?" उसने जानबूझकर नेटवर्क वाली बात का मज़ाक उड़ाया, लेकिन अंजलि ने उस पर ज़्यादा ध्यान नहीं दिया।
"हाँ, बिल्कुल अंकल जी। डिजिटल डिटॉक्स के लिए आई हूँ।" अंजलि ने मुस्कुराने की कोशिश की। "क्या आपके पास कोई खाली कमरा है?"
"हाँ बेटी! क्यों नहीं! सबसे अच्छा कमरा खाली है। पहाड़ों का पूरा नज़ारा दिखता है वहाँ से।" रतनलाल ने तुरंत एक चाबी उठाई। "चलो, मैं तुम्हें कमरा दिखाता हूँ।"
रतनलाल ने उसके भारी बैग्स उठाने में उसकी मदद की, जिससे अंजलि को और भी अच्छा लगा। "अंकल जी तो बहुत अच्छे हैं। ये खड़ूस दिल्ली के लोगों से बहुत अलग हैं।" उसने मन में सोचा। रतनलाल उसे ऊपर ले गया, सीढ़ियाँ चढ़ते हुए भी उसकी साँस फूल रही थी। कमरा साधारण था, लेकिन साफ-सुथरा था और खिड़की से वाकई पहाड़ों का खूबसूरत नज़ारा दिख रहा था।
"ये लो बेटी। कोई भी ज़रूरत हो, बेझिझक बताना।" रतनलाल ने चाबी उसे देते हुए कहा। "तुम्हारा खाना-पीना सब यहीं मिल जाएगा। बस घर जैसा समझना।"
"थैंक यू सो मच अंकल जी!" अंजलि ने सच में राहत की साँस ली। "मुझे बहुत अच्छा लगा यह कमरा।"
रतनलाल मुस्कुराकर चला गया। जैसे ही वह कमरे से बाहर निकला, अंजलि ने तुरंत अपना फोन निकाला। "लेट मी सी, नेटवर्क आया या नहीं?" उसने देखा, अभी भी एक बार मुश्किल से आ रहा था। "ओह गॉड! ये क्या है!" वह झुंझला गई। "मैं अपने फॉलोअर्स को कैसे अपडेट दूँगी कि मैं अपनी शादी से भागकर पहाड़ों में आ गई हूँ और ये कितनी रोमांचक जगह है?"
उसने फिर भी अपना कैमरा और लैपटॉप सेट किया। लाइटें लगाईं, माइक लगाया, और खुद को तैयार किया। "ओके दोस्तों, जैसा कि मैंने आपसे कहा था, मैं पहाड़ों में आ चुकी हूँ! देवगढ़! और यहाँ का नज़ारा... अमेजिंग! लेकिन दोस्तों, मैं आपको अभी लाइव नहीं दिखा सकती, क्योंकि..." उसने अपने फोन की स्क्रीन कैमरे के सामने की, जिस पर एक बार भी सिग्नल नहीं था। "...नेटवर्क नहीं है! कैन यू बिलीव इट? ये लोग पहाड़ों में रहते हैं, पर इन्हें नेटवर्क नहीं पता क्या होता है!" उसकी आवाज़ में निराशा थी, लेकिन उसने उसे मज़ाक में बदलने की कोशिश की। "ठीक है, कोई बात नहीं। मैं ये वीडियो रिकॉर्ड कर लेती हूँ और जब नेटवर्क मिलेगा, तब अपलोड कर दूँगी।"
उसने कुछ देर देवगढ़ के पहाड़ों की सुंदरता पर बात की, अपने "डिजिटल डिटॉक्स" के बहाने पर हँसी, और अपने फॉलोअर्स से कहा कि वह यहाँ से "मोस्ट एपिक कंटेंट" लेकर जाएगी। लेकिन रिकॉर्डिंग के दौरान भी, वह लगातार अपने फ़ोन पर नेटवर्क चेक करती रही। "कम ऑन, यार! एक बार तो आ जा!" वह झुंझला रही थी।
"ठीक है, ठीक है। कोई बात नहीं।" उसने अपना कैमरा बंद कर दिया। "आज रेस्ट करते हैं। कल इस जगह का एक 'एपिक एरियल शॉट' लूँगी। ड्रोन से! वो तो बिना नेटवर्क के भी उड़ता है। बस मुझे एक अच्छी लोकेशन चाहिए जहाँ से पूरे देवगढ़ का नज़ारा ले सकूँ। और वो शॉट ऐसा होगा कि मेरे फॉलोअर्स पागल हो जाएँगे!" उसके चेहरे पर एक बड़ी सी मुस्कान आ गई। उसे नहीं पता था कि उसका यही "एपिक एरियल शॉट" उसे सीधे एक "खड़ूस मेजर" के सामने खड़ा करने वाला था, और उसकी जिंदगी हमेशा के लिए बदलने वाली थी।
Chapter 4
अगली सुबह, अंजलि पूरी तैयारी के साथ उठी। उसका लक्ष्य था - देवगढ़ का सबसे 'एपिक एरियल शॉट' लेना और अपने व्लॉग 'अनी की फंकी दुनिया' को एक नया आयाम देना। वह अपने फैशनेबल ट्रैकसूट में, गेस्टहाउस के कमरे में ही अपने महंगे ड्रोन को असेंबल करने लगी। ड्रोन के पार्ट्स को जोड़ते हुए उसके चेहरे पर एक अजीब सी एकाग्रता थी, जो अक्सर उसके व्लॉग्स में नहीं दिखती थी। यह उसका 'डिजिटल डिटॉक्स' का बहाना था, लेकिन उसका असली डिटॉक्स तो अपने घर और शादी के बोझ से था।
ड्रोन को असेंबल करते हुए वह अपने मोबाइल पर स्क्रिप्ट टाइप कर रही थी। "ओके दोस्तों! आज हम आपको देवगढ़ की असली खूबसूरती दिखाएँगे। ऊपर से! बर्ड्स आई व्यू! जो किसी ने नहीं देखा होगा!" वह धीरे-धीरे बुदबुदा रही थी, जैसे अपने फॉलोअर्स से सीधे बात कर रही हो। उसकी आँखों में एक चमक थी, जो उसे हमेशा अपने कंटेंट को लेकर उत्साहित करती थी।
कुछ देर बाद, ड्रोन तैयार था। अंजलि उसे अपने स्पेशल केस में रखकर गेस्टहाउस से बाहर निकली। रतनलाल ने उसे देखा और मुस्कुराया, "अंजलि बेटी, सुबह-सुबह कहाँ जा रही हो, इतनी तैयारी के साथ?"
अंजलि ने जोश से जवाब दिया, "अंकल जी, आज देवगढ़ का सबसे बेस्ट वीडियो बनाने जा रही हूँ! एक ऐसा शॉट, जो यहाँ कभी नहीं लिया गया होगा!"
रतनलाल ने सिर हिलाया, "अच्छा, अच्छा। पहाड़ों में संभल कर रहना। कभी-कभी रास्ते मुश्किल होते हैं।" उसकी आवाज़ में वही अपनापन था, लेकिन उसकी आँखों में एक क्षण के लिए कुछ और भी झलक गया, जिसे अंजलि पकड़ नहीं पाई।
अंजलि ने गेस्टहाउस से थोड़ी दूर एक खूबसूरत पहाड़ी की चोटी को चुना। यह जगह उसे शांत और शानदार लगी, जहाँ से पूरे देवगढ़ का एक व्यापक नज़ारा मिल सकता था। वह वहाँ पहुँची, अपना ट्राइपॉड सेट किया और कैमरा ऑन किया। उसने ड्रोन को ज़मीन पर रखा, उसके पंखों की जाँच की और अपने मोबाइल से उसे कनेक्ट किया।
"ओके, अनी की फंकी दुनिया के दोस्तों! आज हम आपको एक ऐसे नज़ारे पर ले जा रहे हैं, जो सीधे आपकी आत्मा को छू जाएगा। यह है असली जन्नत! कोई फिल्टर नहीं, कोई एडिटिंग नहीं, बस प्योर ब्यूटी!" उसने उत्साह से कहा, अपनी उंगली ऊपर की ओर उठाई। "और अब, यह रहा हमारा फंकी उड़ान!"
एक बटन दबाते ही, ड्रोन के पंखे घूमने लगे और वह एक तेज़ आवाज़ के साथ हवा में ऊपर उठ गया। अंजलि की खुशी का ठिकाना नहीं था। वह ड्रोन को नियंत्रित करते हुए पहाड़ों की खूबसूरती पर कमेंट्री कर रही थी। "दोस्तों, ज़रा देखिए! ये पहाड़, ये नदियाँ... और वो छोटा सा कस्बा! कितना शांत है यहाँ सब कुछ! दिल्ली में तो बस शोर-शराबा है। मुझे लगता है, मुझे यहीं बस जाना चाहिए!" उसने मज़ाकिया लहजे में कहा।
ड्रोन ऊपर-ऊपर उड़ता रहा, अंजलि की आवाज़ में जोश था। वह पूरी तरह से अपने व्लॉग में खोई हुई थी, उसे इस बात का बिल्कुल अंदाज़ा नहीं था कि वह अनजाने में एक बड़ी गलती कर रही थी। ड्रोन उड़ते-उड़ते धीरे-धीरे आर्मी कैंटोनमेंट के ऊपर, एक प्रतिबंधित 'नो-फ्लाई ज़ोन' में चला गया। यह क्षेत्र सुरक्षा की दृष्टि से बेहद संवेदनशील था और यहाँ किसी भी तरह की हवाई गतिविधि पर सख्त पाबंदी थी।
कैंटोनमेंट में, कंट्रोल रूम में एक लाल बत्ती चमकी और एक तेज़ सायरन बजने लगा। "अलर्ट! अनऑथराइज़्ड एयरक्राफ्ट डिटेक्टेड इन नो-फ्लाई ज़ोन!"
मेजर विक्रम सिंह राठौर, जो उस वक्त अपने ऑफिस में कुछ कागज़ात देख रहे थे, सायरन की आवाज़ सुनते ही तुरंत अलर्ट हो गए। उनके चेहरे पर गंभीरता आ गई। उन्होंने तुरंत वॉकी-टॉकी उठाई। "क्या है? तुरंत रिपोर्ट करो!"
"सर, हमारे नो-फ्लाई ज़ोन में एक अज्ञात वस्तु घुसपैठ कर रही है! हवा में है!" सामने से आवाज़ आई।
विक्रम बिना एक पल गंवाए अपनी स्नाइपर राइफल उठाते हुए बाहर की तरफ़ दौड़ पड़े। उनके साथ दो और जवान भी थे। "लोकेशन बताओ!" उन्होंने तेज़ आवाज़ में कहा।
ड्रोन अभी भी ऊपर उड़ रहा था, अंजलि खुशी-खुशी अपने मोबाइल स्क्रीन पर पहाड़ों के नज़ारे देख रही थी। उसे लग रहा था कि यह उसके जीवन का सबसे शानदार व्लॉग होगा। तभी, उसे अपने मोबाइल पर ड्रोन के सिग्नल में थोड़ी गड़बड़ी महसूस हुई, लेकिन उसने सोचा कि शायद नेटवर्क की दिक्कत होगी।
विक्रम ने ड्रोन को अपनी राइफल के स्कोप में देखा। वह एक छोटा सा उड़ने वाला ऑब्जेक्ट था, लेकिन सुरक्षा के नियमों के अनुसार, उसे रोकना ज़रूरी था। उन्होंने सावधानी से निशाना साधा। वह उसे पूरी तरह से नष्ट नहीं करना चाहते थे, बल्कि सिर्फ उसे नीचे गिराना चाहते थे ताकि उससे जुड़ी जानकारी मिल सके। उनकी आँखों में वही तीक्ष्णता थी जो उनकी ट्रेनिंग के दौरान दिखती थी।
'ठक!'
एक हल्की सी आवाज़ हुई। विक्रम ने एक चेतावनी शॉट फायर किया, जो बिल्कुल सटीक था। गोली ने ड्रोन के एक पंख को नुकसान पहुँचाया, जिससे उसका संतुलन बिगड़ गया। ड्रोन तेज़ी से नीचे की ओर गिरने लगा, बिना पूरी तरह से टूट-फूट के, और कैंटोनमेंट की सीमा के भीतर घास के मैदान में जा गिरा।
अंजलि के मोबाइल पर ड्रोन का सिग्नल पूरी तरह से चला गया। "नो! नो! नो!" वह चिल्लाई। उसकी खुशी एक पल में निराशा में बदल गई। "मेरा फंकी उड़ान! मेरा दो लाख का ड्रोन! ओह माय गॉड! ये क्या हो गया?" वह पागल होकर अपने मोबाइल को देखने लगी, जैसे उसे लगा हो कि शायद नेटवर्क वापस आ जाए।
कैंटोनमेंट में, दो जवान दौड़कर उस जगह पर पहुँचे जहाँ ड्रोन गिरा था। उन्होंने उसे उठाया और विक्रम के पास ले आए।
विक्रम ने ड्रोन को अपने हाथ में लिया। वह कोई हवाई जहाज़ या बड़ा हथियार नहीं था, बल्कि एक छोटा सा, महंगा सा खिलौना लग रहा था। उन्होंने उसके चमकीले डिज़ाइन और टूटे हुए पंख को देखा। उनके चेहरे पर एक अजीब सा भाव आया - थोड़ी हैरानी और थोड़ी चिड़चिड़ाहट।
उन्होंने बलविंदर को देखते हुए, अपने सख़्त लेकिन थोड़े मज़ाकिया अंदाज़ में कहा, "यह खिलौना किसका है? और कौन है यह बेवकूफ जिसने इसे आर्मी के 'नो-फ्लाई ज़ोन' में उड़ाने की हिम्मत की है?" उनकी आवाज़ में यह सवाल था, लेकिन उन्हें नहीं पता था कि यह 'खिलौना' किसकी 'फंकी दुनिया' का हिस्सा था, और यह 'बेवकूफ' उन्हें कितनी बड़ी मुश्किल में डालने वाली थी।
Chapter 5
अंजलि के मोबाइल पर 'फंकी उड़ान' का सिग्नल पूरी तरह से चला गया था। उसकी स्क्रीन काली पड़ गई थी। "नो! नो! नो! मेरा ड्रोन! मेरा दो लाख का ड्रोन!" वह पागलों की तरह चिल्लाई, अपने हाथों में मोबाइल को कसकर पकड़े हुए थी, जैसे वह उसे फिर से जादू से वापस ला सकता हो। उसकी आँखों में एक अजीब सी दहशत थी। यह सिर्फ एक ड्रोन नहीं था, यह उसका 'कंटेंट', उसकी 'फंकी दुनिया' का हिस्सा था, उसका 'आज़ादी' का सिंबल था! अगर उसने घरवालों को बताया कि उसका ड्रोन खो गया है, तो वे उसे वापस बुला लेंगे! "ओह माय गॉड! ये क्या हो गया!" वह ज़मीन पर ही बैठ गई, अपने सिर को हाथों में दबाए हुए।
लेकिन अंजलि शर्मा हार मानने वालों में से नहीं थी। उसने तुरंत अपनी हिप पॉकेट से एक छोटा सा जीपीएस ट्रैकर निकाला जो उसने अपने ड्रोन के लिए खरीदा था। वह ट्रैकर ड्रोन की आखिरी लोकेशन बता रहा था। जब उसने देखा कि लोकेशन कैंटोनमेंट की सीमा के भीतर है, तो उसकी आँखों में गुस्सा और हैरानी एक साथ भर गए। "कैंटोनमेंट? मतलब आर्मी वालों ने? मेरा ड्रोन शूट कर दिया?" वह तुरंत खड़ी हुई, उसके चेहरे पर अब डर नहीं, बल्कि एक ज़बरदस्त गुस्सा था। "मैं उन्हें छोडूंगी नहीं! मेरे दो लाख का ड्रोन! हिम्मत कैसे हुई उनकी!"
वह जीपीएस ट्रैकर का पीछा करते हुए दौड़ने लगी। पहाड़ के रास्ते ऊबड़-खाबड़ थे, लेकिन उसे किसी चीज़ की परवाह नहीं थी। वह हर पत्थर, हर पेड़ को पार करती हुई सीधे कैंटोनमेंट के बड़े से लोहे के गेट पर पहुँच गई। गेट पर दो संतरी हथियार लिए खड़े थे। उनकी वर्दी, उनका रौब, उनका सख्त अंदाज़... सब कुछ अंजलि की 'फंकी दुनिया' से बिल्कुल अलग था।
अंजलि बिना कुछ सोचे-समझे गेट की तरफ़ बढ़ी। संतरी ने तुरंत अपनी बंदूक सामने करके उसे रोका। "रुकिए! आगे मत बढ़िए! यह आर्मी एरिया है। अंदर जाना मना है।" उसकी आवाज़ में गंभीरता थी।
अंजलि गुस्से से लाल थी। "मेरा दो लाख का ड्रोन अंदर है! मेरा फंकी उड़ान! आप लोगों ने उसे गिरा दिया! मुझे अभी अंदर जाना है! मुझे मेरे बच्चे से मिलना है!" वह लगभग चिल्ला रही थी, उसके बालों से पसीना बह रहा था और उसकी साँस तेज़ चल रही थी।
पहला संतरी, जो एक अधेड़ उम्र का, शांत स्वभाव का आदमी था, उसे अजीब नज़रों से देख रहा था। "मैडम जी, यहाँ कोई बच्चा नहीं है। यह प्रतिबंधित क्षेत्र है। कोई ड्रोन-ब्रोन यहाँ उड़ा नहीं सकता।"
"क्या बात कर रहे हो आप? मेरा ही तो ड्रोन है! दो लाख का! आप लोगों ने उसे शूट किया है!" अंजलि अपने दोनों हाथ ऊपर उठाकर ड्रामा करने लगी। "ये मेरी प्रॉपर्टी है! आप मुझे रोक कैसे सकते हैं? मैं दिल्ली से आई हूँ! मुझे पता है मेरे राइट्स क्या हैं! आप मुझे मेरे ड्रोन से दूर नहीं रख सकते!"
दूसरे संतरी ने, जो थोड़ा युवा और चिड़चिड़ा स्वभाव का था, अपना सिर खुजाया। "मैडम जी, प्लीज़, शांत हो जाइए। आप यहाँ ऐसे हंगामा नहीं कर सकतीं।"
"हंगामा? मैं हंगामा कर रही हूँ? मेरा नुकसान हुआ है! मेरा करियर बर्बाद हो जाएगा! मेरी पूरी दुनिया इस ड्रोन में थी!" अंजलि अपनी आवाज़ और भी ऊँची करने लगी। "मुझे अंदर जाना है! मुझे अभी मेरे मेजर साब से मिलना है! जो भी मेजर है यहाँ, उसे बुलाओ! मैं उससे बात करना चाहती हूँ!"
सेंट्रियों को लगा कि यह लड़की सच में पागल हो गई है। उन्होंने वॉकी-टॉकी पर सीनियर ऑफिसर को सूचना दी। थोड़ी देर में, एक और अधिकारी आया और अंजलि का हंगामा देखा। उसने संतरी को इशारे से उसे अंदर जाने देने के लिए कहा, लेकिन सिर्फ़ मेजर विक्रम सिंह राठौर के ऑफिस तक।
अंजलि को लगा कि उसकी जीत हुई है। "हाँ, हाँ! ले चलो मुझे अपने मेजर साब के पास! मैं उन्हें बताऊँगी कि दिल्ली वाली लड़की से पंगा लेना कितना महंगा पड़ सकता है!" वह तेज़ी से ऑफिस की तरफ़ बढ़ी, उसके चेहरे पर एक विजयी मुस्कान थी।
मेजर विक्रम सिंह राठौर अपने ऑफिस में अपनी कुर्सी पर शांत भाव से बैठे थे। उनकी वर्दी हमेशा की तरह करीने से प्रेस की हुई थी और उनके बाल भी अनुशासन में थे। उनके सामने टेबल पर वही ड्रोन रखा था, जिसका एक पंख टूटा हुआ था। वह उसे किसी अजीब सी चीज़ की तरह देख रहे थे, जैसे यह उनके लिए एक पहेली हो। दरवाज़े पर हल्की सी दस्तक हुई।
"अंदर आओ।" विक्रम की आवाज़ शांत और दमदार थी।
जैसे ही दरवाज़ा खुला, अंजलि एक तूफ़ान की तरह अंदर घुस गई। उसने विक्रम को देखा, जो अपनी कुर्सी पर बिल्कुल शांत बैठे थे। उनका रौबदार चेहरा, उनकी तीक्ष्ण आँखें... अंजलि को पहली नज़र में ही उनसे नफरत हो गई। "ये है मेजर खड़ूस!" उसने मन में सोचा।
"आप! आप होते कौन हैं मेरी प्रॉपर्टी को शूट करने वाले? ये मेरा ड्रोन है! मेरे दो लाख रुपए का! आप पर केस करूँगी मैं! मैं आपको कोर्ट तक घसीट कर ले जाऊँगी!" अंजलि ने बिना सांस लिए एक ही झटके में सारी बात कह डाली। उसकी आवाज़ में इतना गुस्सा और नाटक था कि विक्रम को एक पल के लिए समझ ही नहीं आया कि क्या प्रतिक्रिया दें।
विक्रम ने अपनी आइब्रो ऊपर की, लेकिन उनके चेहरे पर कोई भाव नहीं आया। उन्होंने धीरे से ड्रोन की तरफ़ इशारा किया। "ये आपका ड्रोन है, मिस...?"
"शर्मा! अंजलि शर्मा! और हाँ, ये मेरा ड्रोन है! मेरा 'फंकी उड़ान'!" अंजलि ने लगभग दहाड़ते हुए कहा।
"मिस शर्मा," विक्रम ने अपनी कुर्सी पर थोड़ा एडजस्ट होते हुए कहा, उनकी आवाज़ अभी भी बिल्कुल शांत थी। "आपको पता होना चाहिए कि यह एक प्रतिबंधित 'नो-फ्लाई ज़ोन' है। यहाँ किसी भी तरह के अनऑथराइज़्ड एयरक्राफ्ट की अनुमति नहीं है। यह देश की सुरक्षा का मामला है।"
"सुरक्षा? सुरक्षा क्या? ये एक खिलौना है! एक ड्रोन! इससे कौन सा टेररिस्ट अटैक होने वाला था?" अंजलि ने हाथ हिलाते हुए मज़ाक उड़ाया। "ये बेवकूफी की हद है! आपने मेरी चीज़ को नुकसान पहुँचाया है! मुझे मेरा ड्रोन वापस चाहिए, अभी के अभी!"
विक्रम ने उसकी ओर देखा, उनकी आँखों में हल्की सी झुंझलाहट थी, लेकिन उन्होंने खुद को शांत बनाए रखा। "मैडम, आर्मी के अपने नियम होते हैं। हमें नहीं पता कि यह खिलौना है या इसमें कोई स्पाई इक्विपमेंट है। नियम के अनुसार, इसे जब्त कर लिया गया है और इसकी पूरी जाँच होगी।"
"जाँच? क्या जाँच होगी? ये रहा मेरा मोबाइल! इसमें देखिए! मैं एक ब्लॉगर हूँ! अनी की फंकी दुनिया! मैं व्लॉग बना रही थी! ब्यूटी व्लॉग! ट्रैवल व्लॉग! आप मेरी लाइफ बर्बाद कर रहे हैं!" अंजलि ने अपना मोबाइल उनकी तरफ़ कर दिया।
विक्रम ने उस पर एक नज़र डाली, फिर वापस ड्रोन पर। "आप एक ब्लॉगर हैं या जो भी हैं, यहाँ आर्मी के नियम चलते हैं। और नियम सभी के लिए एक जैसे होते हैं।" उनकी आवाज़ में अब थोड़ी सख्ती थी। "जो भी वस्तु हमारे प्रतिबंधित क्षेत्र में आती है, उसकी पूरी जाँच होती है। तब तक यह हमारे पास रहेगा।"
"क्या मतलब हमारे पास रहेगा? ये मेरा है! मुझे मेरा ड्रोन अभी चाहिए! आप ये कर नहीं सकते! मैं आपको बता रही हूँ, मेजर साहब, अगर मुझे मेरा ड्रोन नहीं मिला ना, तो मैं आप पर ऐसा व्लॉग बनाऊँगी कि पूरी दुनिया आपको 'मेजर खड़ूस' के नाम से जानेगी! हैशटैग मेजर खड़ूस! हैशटैग ड्रोन किलर! हैशटैग आर्मी गुंडा!" अंजलि पूरी तरह से अपने ड्रामा मोड में आ चुकी थी।
विक्रम ने एक गहरी साँस ली। उन्होंने पहली बार अंजलि को उसके दिए 'हैशटैग' के नाम से संबोधित किया। "मिस हैशटैग," उनकी आवाज़ में एक अजीब सी व्यंग्यात्मक शांति थी, "आप यहाँ ड्रामा करने आई हैं या अपना ड्रोन वापस लेने? क्योंकि ड्रामा करने के लिए मेरे पास बिल्कुल समय नहीं है।"
"तो फिर मेरा ड्रोन वापस दे दो! और मेरी बेइज़्ज़ती बंद करो!" अंजलि ने गुस्से से मेज पर हाथ पटका।
विक्रम अपनी कुर्सी से उठे। उनकी ऊँचाई और उनकी वर्दी का रौब अंजलि पर हावी हो गया। उन्होंने सीधे अंजलि की आँखों में देखा। "जाँच पूरी होने के बाद, अगर इसमें कुछ भी संदिग्ध नहीं पाया गया, तो आपको सूचित किया जाएगा। तब तक, आप अब ऑफिस से बाहर जा सकती हैं।" उनकी आवाज़ अब बिल्कुल ठंडी थी, उसमें कोई नरमी नहीं थी।
"क्या? मतलब आप मुझे मेरा ड्रोन नहीं देंगे? और मुझे बाहर निकाल रहे हैं?" अंजलि को विश्वास नहीं हुआ।
विक्रम ने दरवाज़े की तरफ़ इशारा किया। "जी हाँ, मिस शर्मा। और अब आप जा सकती हैं।"
अंजलि का मुँह खुला का खुला रह गया। उसने ऐसे अक्खड़ आदमी को कभी नहीं देखा था। "आप... आप तो सबसे खड़ूस हैं! मेजर खड़ूस!" वह बड़बड़ाती हुई पीछे हटी। उसने गुस्से से विक्रम की तरफ़ देखा, फिर ड्रोन की तरफ़, जैसे उसे श्राप दे रही हो। "मैं आपको दिखाऊँगी! पूरी दुनिया को दिखाऊँगी कि आप कितने खड़ूस हैं!" वह बड़बड़ाती और मुँह बनाती हुई, लगभग धक्के खाती हुई ऑफिस से बाहर निकल गई, दरवाज़ा पीछे से धड़ाम से बंद हो गया। विक्रम ने एक लंबी साँस ली और वापस अपनी कुर्सी पर बैठ गए, उनके चेहरे पर वही शांत भाव था, लेकिन उनके दिमाग में 'मिस हैशटैग' और 'मेजर खड़ूस' के हैशटैग गूँज रहे थे।
Chapter 6
ऑफिस से बाहर निकलते ही अंजलि ने दरवाज़ा इतनी ज़ोर से पटका कि पूरे कॉरिडोर में उसकी गूँज फैल गई। उसका चेहरा गुस्से से तमतमाया हुआ था और उसके नथुने फड़फड़ा रहे थे। वह अपने मुँह में बड़बड़ा रही थी, "मेजर खड़ूस! मेजर ड्रोन किलर! मैं इसका व्लॉग बनाऊँगी, ऐसा बनाऊँगी कि इसकी सारी अकड़ निकल जाएगी! दो लाख का ड्रोन! और ये कहता है, 'जाँच होगी!' इसकी तो मैं..." वह अपने दाँत पीस रही थी और अपने बालों को नोच रही थी, जैसे कि उसका पूरा गुस्सा उस बेजान दरवाज़े पर ही निकल रहा हो।
उसी पल, सूबेदार बलविंदर सिंह, जो पास की ही एक बैरक से बाहर आ रहे थे, ने इस 'तूफ़ान' को देखा। बलविंदर एक मध्यम कद के, थोड़े मोटे से आदमी थे जिनकी मुस्कान हमेशा उनके चेहरे पर रहती थी। उनकी मूछें घनी थीं और आँखों में शरारत भरी थी। उन्होंने अपनी पंजाब की पगड़ी को सही करते हुए अंजलि की तरफ़ देखा। उन्हें समझ आ गया कि यह कोई बाहरी है और शायद 'मेजर साब' से टकरा कर आई है।
बलविंदर धीरे से अंजलि के पास आए। उन्होंने देखा कि वह अभी भी गुस्से से लाल है और तेज़-तेज़ साँस ले रही है। वह मुँह ही मुँह में कुछ बुदबुदा रही थी जो बलविंदर को ठीक से सुनाई नहीं दे रहा था। बलविंदर ने थोड़ा झुककर अंजलि की तरफ़ देखा और अपनी स्वाभाविक सहानुभूति दिखाते हुए बोले, "अरे बीबीजी, क्या हो गया? इतने गुस्से में क्यों हो? मेजर साब ने कुछ कह दिया क्या?" उनकी आवाज़ में एक मीठा, पंजाबी लहजा था।
अंजलि ने झटके से सिर ऊपर उठाया। उसने देखा कि एक वर्दी वाला आदमी उसके सामने खड़ा है, लेकिन उसकी आँखों में कोई गुस्सा या अकड़ नहीं थी, बल्कि एक हल्की सी मुस्कान और सहानुभूति थी। "क्या कह दिया? पूछो क्या नहीं कह दिया! उस मेजर खड़ूस ने मेरा दो लाख का ड्रोन जब्त कर लिया! और मुझे ऐसे बाहर निकाल दिया जैसे मैं कोई चोर हूँ!" वह अपनी कहानी सुनाते हुए फिर से भावुक हो गई। "ये फौजी लोग ना... बस अकड़ दिखाते रहते हैं! इन्हें पता ही नहीं कि एक ब्लॉगर के लिए उसका ड्रोन क्या होता है!"
बलविंदर ने सिर हिलाया, जैसे वह उसकी बात से पूरी तरह सहमत हों। "हाँ, हाँ, जानता हूँ, बीबीजी। ये मेजर साब थोड़े कड़क हैं। बाहर से नारियल जैसे सख़्त, पर अंदर से नरम हैं।" उन्होंने अंजलि को दिलासा देते हुए कहा। "दिल के बड़े अच्छे हैं, बस ऊपर से थोड़ा दिखाना पड़ता है, फौजी हैं ना।"
अंजलि ने उसकी तरफ़ अविश्वास भरी नज़रों से देखा। "नरम? वो? वो तो पत्थर हैं पत्थर! उनमें तो दिल ही नहीं है! क्या बात कर रहे हैं आप? अभी तो उन्होंने मुझे 'मिस हैशटैग' बुलाया!"
बलविंदर हल्के से मुस्कुराए। "अच्छा, 'मिस हैशटैग'? हा हा हा! मेजर साब को पता नहीं होगा ना, कि हैशटैग क्या होता है। आप चिंता मत करो। मैं आपको चाय पिलाऊँ, ठंडा पानी पिलाऊँ? गुस्सा कम होगा। फिर हम बात करेंगे। बताओ, दिल्ली से आई हो? इतनी दूर? क्यों आई हो यहाँ?"
अंजलि को थोड़ी हैरानी हुई। इस फौजी आदमी में अजीब सा अपनापन था। वह इतनी देर से जिस गुस्से में थी, वह थोड़ी शांत होने लगी। "चाय?" उसने सवालिया नज़रों से पूछा।
"हाँ, हाँ! आओ मेरे साथ! कैंटीन में अच्छी चाय मिलती है। और समोसे भी। आपका मूड ठीक हो जाएगा।" बलविंदर ने उसे लगभग खींचते हुए कैंटीन की तरफ़ ले जाना शुरू कर दिया। अंजलि को लगा कि शायद इस आदमी से बात करके कुछ फायदा हो जाए। उसका ड्रोन वापस मिल जाए या कम से कम उसे थोड़ी सहानुभूति ही मिल जाए। वह बिना ज़्यादा विरोध किए उसके साथ चल दी।
कैंटीन में पहुँचकर बलविंदर ने अंजलि के लिए एक कुर्सी खींची। "बैठो, बीबीजी। मैं चाय और समोसे लाता हूँ।" वह ऑर्डर देने चला गया। अंजलि ने कैंटीन को देखा। यह एक सादा सा कमरा था जहाँ कुछ फौजी जवान बैठे चाय पी रहे थे और आपस में बातें कर रहे थे। कुछ ने उसे घूर कर देखा, लेकिन फिर अपने काम में लग गए।
थोड़ी देर में बलविंदर दो कप चाय और समोसे की एक प्लेट लेकर आ गए। उन्होंने प्लेट अंजलि की तरफ़ बढ़ाई। "लो, बीबीजी, खाओ। हिम्मत आती है।"
अंजलि ने एक समोसा उठाया। "थैंक यू।" उसने धीरे से कहा।
"तो बताओ, अनी... मतलब अंजलि जी... आप दिल्ली से यहाँ पहाड़ों में क्या कर रही हो? पहाड़ों में तो लोग शांति ढूँढने आते हैं, और आप तो बड़ी गुस्से वाली लगती हो।" बलविंदर ने बातों-बातों में उससे जानकारी निकालने की कोशिश की।
अंजलि ने चाय का एक घूँट लिया। "मैं अंजलि शर्मा हूँ। और मैं एक लाइफस्टाइल ब्लॉगर हूँ। मेरा व्लॉग है 'अनी की फंकी दुनिया'। दिल्ली में मेरे घरवालों ने मेरी अरेंज मैरिज फिक्स कर दी थी, तो मैं वहाँ से भागकर यहाँ 'डिजिटल डिटॉक्स' और 'खुद को खोजने' के बहाने आई हूँ।" उसने अपनी पूरी कहानी थोड़ी नाटकीय अंदाज़ में बताई। "मुझे लगा था यहाँ सब शांत होगा, अच्छा कंटेंट मिलेगा... लेकिन यहाँ तो आते ही मेजर खड़ूस से टक्कर हो गई।"
बलविंदर ने अपने सिर को हल्के से हिलाया। "अच्छा, तो आप ब्लॉगर हो! वाह! आजकल सब कुछ ऑनलाइन ही होता है। शादी से भागी हो! अच्छा! और अभी सिंगल हो?" उन्होंने अपनी आँखों में शरारत भरी मुस्कान के साथ पूछा।
अंजलि थोड़ी झिझकी, लेकिन फिर बोली, "हाँ, सिंगल हूँ। और अभी शादी करने का कोई इरादा नहीं है।"
बलविंदर ने उसकी बात सुनकर अपने मन में तुरंत एक घंटी बजती हुई सुनी। 'अच्छा! ब्लॉगर! दिल्ली से! सिंगल! और मेजर साब भी अकेले हैं! क्या जोड़ी बनेगी! मेजर साब थोड़े रोमांटिक हैं, शायरी-वायरी भी करते हैं। और ये बीबीजी थोड़ी फंकी हैं, मेजर साब को ज़िंदगी में थोड़ा फन भी तो चाहिए!' उसके दिमाग में तुरंत एक 'ऑपरेशन मेजर-भाभी' शुरू हो गया। वह मन ही मन मुस्कुराया, जैसे उसने एक बड़ा रहस्य सुलझा लिया हो। "मेजर साब के लिए यही कुड़ी ठीक रहेगी," उसने खुद से कहा।
"तो बीबीजी, आपका ड्रोन... वो तो अभी मेजर साब के ऑफिस में ही है। आपने देखा होगा। वो तो नियम-कानून वाले आदमी हैं। बिना जाँच के कैसे दे देंगे?" बलविंदर ने माहौल को थोड़ा हल्का करते हुए कहा। "लेकिन आप चिंता मत करो। मैं हूँ ना। मैं मेजर साब से बात करूँगा। आपका ड्रोन आपको मिल जाएगा।"
अंजलि की आँखों में एक उम्मीद की किरण दिखाई दी। "सच में? आप मेरी मदद करेंगे?" उसने उत्सुकता से पूछा। उसे लगा कि शायद यह फौजी उसके लिए किसी मसीहा से कम नहीं है। "अगर मेरा ड्रोन वापस मिल गया, तो मैं आपका नाम अपने व्लॉग में ज़रूर लूँगी! बलविंदर अंकल की जय हो!"
बलविंदर ने हँसते हुए कहा, "अरे, अंकल नहीं, सूबेदार जी कहो। सूबेदार बलविंदर सिंह। और 'जय हो' रहने दो, बस आपकी दुआ चाहिए।" उसने चाय का एक घूँट लिया और फिर रहस्यमयी तरीके से अंजलि की तरफ़ देखा। "देखो, बीबीजी, मेजर साब वैसे तो बहुत अच्छे हैं, पर उन्हें इम्प्रेस करने के कुछ 'सीक्रेट टिप्स' हैं। अगर आप वो फॉलो कर लो ना, तो आपका ड्रोन तो क्या, वो आपको पलकों पर बिठा लेंगे।"
अंजलि की आँखों में चमक आ गई। "सीक्रेट टिप्स? क्या टिप्स?" उसे लगा कि अब उसे 'मेजर खड़ूस' को हराने का रास्ता मिल गया है। वह तुरंत एक्साइटेड हो गई और अपने कान लगाकर बलविंदर की बात सुनने लगी, उसे नहीं पता था कि ये 'सीक्रेट टिप्स' उसे और कितनी मुश्किलों में डालने वाले थे। बलविंदर के चेहरे पर एक शैतानी मुस्कान थी, जैसे उसने पहले से ही एक बड़ा प्लान बना रखा हो, जिसमें अंजलि और विक्रम दोनों ही मोहरे बनने वाले थे।
Chapter 7
सूबेदार बलविंदर सिंह ने अंजलि को कैंटीन में चाय का आखिरी घूँट पिलाया और फिर रहस्यमयी मुस्कान के साथ उसकी तरफ़ देखा। "तो बीबीजी, अगर आप सच में अपना ड्रोन वापस चाहती हो, और मेजर साब को थोड़ा इम्प्रेस भी करना चाहती हो, तो मेरी पहली टिप ध्यान से सुनो।" उन्होंने अपनी आवाज़ थोड़ी धीमी की, जैसे वह कोई बहुत बड़ा राज़ बता रहे हों। "मेजर साब को अनुशासन बहुत पसंद है। वो सुबह पाँच बजे उठकर रनिंग पर जाते हैं। पूरा पलटन उनके साथ दौड़ता है। अगर आप कल सुबह पाँच बजे उठकर रनिंग के लिए आ जाओ ना, तो वो इम्प्रेस हो जाएँगे। उन्हें लगेगा कि दिल्ली की लड़की है, पर अनुशासित है, फौजी कड़कपन समझती है।" बलविंदर ने अपनी आँखों को मटकाया, जैसे अंजलि को इशारा कर रहे हों कि यह प्लान कितना शानदार है।
अंजलि का मुँह खुला का खुला रह गया। "पाँच बजे? सुबह पाँच बजे?" उसने अविश्वास से पूछा। "सूबेदार जी, मैं दिल्ली की ब्लॉगर हूँ। मैं तो सात बजे से पहले बिस्तर से नहीं निकलती! और रनिंग? मैं तो सिर्फ़ कैटवॉक करती हूँ!" उसने हाथ हिलाते हुए अपना विरोध जताया। उसे लगा कि यह सूबेदार जी उसका मज़ाक बना रहे हैं। सुबह पाँच बजे उठना? यह तो अकल्पनीय था। उसकी नींद, उसका कंफर्ट ज़ोन... इन सब से बाहर निकलना उसके लिए किसी चुनौती से कम नहीं था।
बलविंदर ने कंधे उचकाए। "अरे बीबीजी, कभी-कभी तो इतना करना ही पड़ता है। ड्रोन चाहिए ना? तो मेजर साब को दिखाओ कि आप कितनी अनुशासित हो। एक दिन की बात है। सोचो, आपका ड्रोन आपको वापस मिल जाएगा। और एक अच्छा इंप्रेशन भी पड़ जाएगा।" उन्होंने उसे लुभाने की कोशिश की। "आप बस आ जाना, दौड़ना मत, बस वहाँ थोड़ी देर दिख जाना। मेजर साब का ध्यान ज़रूर जाएगा।"
अंजलि कुछ देर सोचती रही। ड्रोन की बात आते ही उसका मन बदलने लगा। "ठीक है... ठीक है। मैं कोशिश करती हूँ।" उसने अनिच्छा से कहा। उसे अपने इंस्टाग्राम फॉलोअर्स की याद आई, जिन्हें वह रोज़ाना अपडेट देती थी। अगर उसका ड्रोन नहीं मिला, तो उसका काम कैसे चलेगा? इस 'मेजर खड़ूस' से बदला लेने के लिए, और अपना ड्रोन वापस पाने के लिए, उसे कुछ भी करना पड़ता, तो वह करने को तैयार थी। "लेकिन सूबेदार जी, अगर मैं लेट हो गई या नहीं आ पाई तो?"
बलविंदर ने उसे भरोसा दिलाते हुए कहा, "नहीं, नहीं, बीबीजी। अलार्म लगाओ। और चिंता मत करो। मैं आपको दूर से ही थम्स-अप दिखाऊँगा।" उन्होंने मज़ेदार तरीके से अपनी ऊँगली से 'थम्स-अप' का इशारा किया। अंजलि ने सिर्फ़ सिर हिलाया, अभी भी पूरी तरह से सहमत नहीं थी, लेकिन उसके मन में ड्रोन और 'मेजर खड़ूस' को इंप्रेस करने का विचार था।
रात भर अंजलि को ठीक से नींद नहीं आई। उसके दिमाग में सुबह पाँच बजे उठने का ख़याल घूमता रहा। उसने अपने फोन में पाँच बजे का अलार्म लगाया, लेकिन उसे विश्वास नहीं था कि वह उठ पाएगी। वह दिल्ली की चकाचौंध वाली ज़िंदगी की आदी थी, जहाँ रातें अक्सर देर तक जगमगाती थीं और सुबहें आराम से शुरू होती थीं। यहाँ पहाड़ों की खामोशी उसे और बेचैन कर रही थी। वह बार-बार करवट बदलती रही। 'सुबह पाँच बजे! ये कोई टाइम होता है उठने का? क्या फौजी लोग रोबोट होते हैं? इनकी ज़िंदगी कितनी बोरिंग होती होगी!' उसने खुद से कहा।
अगली सुबह, अंजलि के फोन का अलार्म ज़ोर-ज़ोर से बजने लगा। 'बीप! बीप! बीप!' उसने तुरंत हाथ बढ़ाकर अलार्म बंद कर दिया, अपने मुँह से एक धीमी सी आवाज़ निकाली, जैसे कोई जानवर नींद में करा रहा हो। आँखें खोलीं तो बाहर अभी भी अँधेरा था। वह अपने कंबल में सिमट गई। 'नहीं... मैं नहीं कर सकती! ये तो टॉर्चर है!' उसका मन बार-बार उसे रुकने के लिए कह रहा था। लेकिन फिर उसे अपने दो लाख के ड्रोन का ख़याल आया, और 'मेजर खड़ूस' का अकड़ा हुआ चेहरा। 'नहीं! मुझे जाना होगा!' उसने खुद को धक्के से उठाया, उसकी हड्डियाँ दर्द कर रही थीं।
वह किसी तरह बिस्तर से उठी। सबसे पहले उसने अपने सूटकेस में से सबसे फैशनेबल ट्रैकसूट निकाला। वह फ्लोरोसेंट पिंक रंग का था और उस पर सिल्वर स्ट्राइप्स थीं। उसे लगा कि भले ही उसे दौड़ना न आता हो, कम से कम वह अच्छी तो दिखनी चाहिए। उसने अपने बालों को एक ऊँची पोनीटेल में बाँधा और आँखों को रगड़ते हुए वॉशरूम की तरफ़ बढ़ गई। ठंडे पानी के छींटे मारने से थोड़ी ताजगी आई, लेकिन उसकी आँखें अभी भी नींद से बोझिल थीं। 'ओके अनी! यू कैन डू दिस! जस्ट फॉर द ड्रोन!' उसने खुद को समझाया।
वह तैयार होकर गेस्टहाउस से बाहर निकली। बाहर हल्की-हल्की ठंड थी और आसमान में अभी भी तारे टिमटिमा रहे थे। उसे कुछ दूर आर्मी का रनिंग ट्रैक दिखाई दिया। उसने अपने शरीर को स्ट्रेच करने की कोशिश की, लेकिन उसके हाथ-पैर अकड़े हुए थे। 'मैं तो कल से योगा करूंगी! कितनी अनफिट हो गई हूँ!' उसने मन ही मन सोचा।
वह ट्रैक पर पहुँची। वहाँ कुछ फौजी जवान पहले से ही वार्म-अप कर रहे थे। वे सब अनुशासित तरीके से खड़े थे, उनकी बॉडी लैंग्वेज में एक खास तरह का अनुशासन और ऊर्जा थी। अंजलि को लगा कि वह किसी दूसरी दुनिया में आ गई है। उसने उनके पास जाकर एक किनारे खड़े होने की कोशिश की, ताकि वह मेजर विक्रम सिंह राठौर को देख सके।
कुछ ही देर में, मेजर विक्रम सिंह राठौर अपनी पूरी पलटन के साथ ट्रैक पर आ गए। वह सबसे आगे थे, उनके चेहरे पर सुबह की ठंडी हवा का कोई असर नहीं था। उनकी चाल में एक खास किस्म का आत्मविश्वास और मज़बूती थी। उन्होंने अपने जवानों को निर्देश दिए और फिर दौड़ना शुरू कर दिया। पूरी पलटन उनके पीछे-पीछे दौड़ने लगी, उनकी कदमताल एक साथ हो रही थी, जैसे कोई संगीत बज रहा हो।
अंजलि ने विक्रम को देखा। 'वाह! ये सच में पाँच बजे उठते हैं! और कैसे दौड़ते हैं!' उसे थोड़ी हैरानी हुई, और एक पल के लिए वह इंप्रेस भी हुई। 'ठीक है, अब दौड़ने की बारी मेरी है!' उसने खुद को तैयार किया। उसने एक गहरी साँस ली और जवानों के पीछे-पीछे दौड़ना शुरू कर दिया।
पहले एक मिनट तक तो वह ठीक से दौड़ी। उसकी साँस थोड़ी फूली, लेकिन वह हिम्मत नहीं हारी। 'अनी! यू आर अ चैंपियन!' उसने खुद को शाबाशी दी। लेकिन दूसरे ही मिनट में उसकी साँसें बेकाबू होने लगीं। उसकी टाँगों में दर्द होने लगा और उसका दिल तेज़-तेज़ धड़कने लगा। 'ओह माय गॉड! ये क्या है! ये तो बहुत मुश्किल है!' उसने तेज़-तेज़ साँसें लेते हुए सोचा। उसका गुलाबी ट्रैकसूट पसीने से भीगने लगा।
वह कुछ मीटर ही दौड़ी होगी कि उसकी पूरी ताकत जवाब दे गई। वह हाँफने लगी और एक-एक कदम भारी लगने लगा। उसे लगा कि उसके फेफड़े फट जाएँगे। 'अब और नहीं!' उसने खुद से कहा। उसने देखा कि मेजर विक्रम और उनकी पलटन उससे काफी आगे निकल चुके थे, जैसे वे हवा में उड़ रहे हों।
वह ट्रैक के किनारे एक बेंच पर धड़ाम से बैठ गई, उसकी साँसें अभी भी तेज़ी से चल रही थीं। वह अपनी छाती पर हाथ रखकर हाँफ रही थी, जैसे उसने अभी-अभी कोई मैराथन जीती हो। उसके बालों से पसीना टपक रहा था और उसका चेहरा लाल हो चुका था। 'पांच बजे उठना मतलब ये होता है! ये तो जान ले लेता है! मैं तो मर ही जाती!' उसने अपने आप पर तरस खाते हुए सोचा।
कुछ देर बाद, मेजर विक्रम और उनकी पलटन दौड़ते हुए वापस उसी जगह से गुज़रे जहाँ अंजलि बैठी थी। विक्रम सबसे आगे थे, उनके माथे पर पसीने की कुछ बूँदें थीं, लेकिन उनकी साँसें बिल्कुल सामान्य थीं। उनकी चाल में कोई बदलाव नहीं आया था। अंजलि ने उम्मीद भरी नज़रों से उनकी तरफ़ देखा, कि शायद वह उसे देखकर रुकें, कुछ बोलें, या कम से कम एक स्माइल ही दे दें।
लेकिन विक्रम ने सिर्फ़ एक नज़र अंजलि पर डाली। उन्होंने उसे देखा, जो बेंच पर हाँफ रही थी, उसके बालों से पसीना बह रहा था, और उसका फैशनेबल ट्रैकसूट भीग चुका था। उन्होंने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। बस हल्के से अपना सिर हिलाया, जैसे 'ओह, ठीक है' कह रहे हों, और बिना एक पल भी रुके आगे बढ़ गए। उनकी पलटन भी बिना किसी भाव के उनके पीछे-पीछे निकल गई।
अंजलि का दिल टूट गया। 'बस! यही था? मैंने इतनी मेहनत की, इतना जल्दी उठी, और इसने बस सिर हिलाया? क्या ये मेजर खड़ूस कभी पिघलेगा ही नहीं?' उसकी आँखों में लगभग आँसू आ गए। उसे लगा कि बलविंदर का पहला 'मास्टरप्लान' पूरी तरह से फेल हो गया था। उसे अपनी मेहनत पर बहुत गुस्सा आ रहा था।
उसने गुस्से से ट्रैक के दूसरी तरफ़ देखा, जहाँ बलविंदर सिंह एक पेड़ के पीछे से झाँक रहे थे। बलविंदर ने अंजलि को बेंच पर बैठा देखा और तुरंत मुस्कुराते हुए उसे 'थम्स-अप' दिखाया, जैसे वह उसे कह रहे हों, 'शाबाश, तुमने अच्छा काम किया!'
अंजलि ने गुस्से से बलविंदर को घूरा। उसकी आँखों में साफ-साफ लिखा था, 'तुम्हारे टिप्स से कुछ नहीं हुआ! मेरा प्लान फेल हो गया!' बलविंदर ने अंजलि का गुस्सा देखकर थोड़ा अजीब सा मुँह बनाया, लेकिन फिर भी एक नकली मुस्कान लिए वहीं खड़ा रहा। अंजलि ने अपनी आँखों से उसे जला देने का इरादा किया और फिर अपना सिर पकड़कर वहीं बेंच पर बैठ गई। सुबह पाँच बजे उठने का उसका पहला अनुभव इतना भयानक और निराशाजनक रहा था कि उसे लगा अब वह कभी सुबह नहीं उठ पाएगी। उसका ड्रोन अभी भी 'मेजर खड़ूस' के कब्जे में था, और उसे पता नहीं था कि उसे अब क्या करना चाहिए।
Chapter 8
अंजलि ने बलविंदर को गुस्से से घूरते हुए देखा। वह अभी भी बेंच पर हाँफ रही थी, उसकी आँखें लाल थीं और बालों से पसीना टपक रहा था। बलविंदर ने अंजलि का गुस्सा देखकर धीरे से अपना थम्स-अप नीचे कर लिया और अपनी पगड़ी ठीक करने लगा। उसे अंदाज़ा हो गया था कि उसका पहला 'सीक्रेट टिप' बुरी तरह से फ्लॉप हो गया था। अंजलि उठी, उसके पैर अभी भी दर्द कर रहे थे, और वह गुस्से में गेस्टहाउस की तरफ़ लौट गई। उसने मन ही मन सोचा, 'ये सूबेदार तो किसी काम का नहीं! सब बर्बाद कर दिया!'
अगले कुछ घंटों तक अंजलि अपने कमरे में खीझी रही। उसका ड्रोन अभी भी 'मेजर खड़ूस' के कब्ज़े में था और सुबह की रनिंग ने उसे और भी चिड़चिड़ा बना दिया था। तभी उसके फोन पर एक मैसेज आया। यह बलविंदर का नंबर था, जो उसने उसे कैंटीन में दिया था।
मैसेज में लिखा था: "बीबीजी! घबराओ मत! पहला प्लान फेल हुआ तो क्या हुआ! मेरे पास दूसरा मास्टरप्लान है! आओ, कैंटीन में मिलते हैं।"
अंजलि को पहले तो गुस्सा आया, लेकिन फिर उसमें थोड़ी उत्सुकता भी जगी। शायद उसके पास सच में कोई दूसरा प्लान हो। वह अपनी निराशा को दूर करके, एक बार फिर बलविंदर से मिलने कैंटीन पहुँच गई। बलविंदर उसे देखते ही मुस्कुराया और दो कप चाय ऑर्डर कर दी।
"अरे बीबीजी! गुस्सा मत करो! मेजर साब को आदत नहीं है ना ऐसे किसी ब्लॉगर को सुबह-सुबह रनिंग करते देखने की। इसलिए उन्होंने ध्यान नहीं दिया।" बलविंदर ने अंजलि को शांत करने की कोशिश की। "लेकिन अब मेरे पास ऐसा प्लान है कि मेजर साब सीधे आपकी दीवाने हो जाएँगे! बस आप मेरी बात मान लो।"
अंजलि ने आँखें सिकोड़कर उसकी तरफ़ देखा। "क्या है तुम्हारा नया मास्टरप्लान? अगर यह भी तुम्हारे सुबह उठने वाले प्लान जैसा निकला तो मैं... मैं क्या करूँगी पता है तुम्हें?" उसने चेतावनी भरी आवाज़ में कहा।
बलविंदर ने अपने सिर को हिलाया। "नहीं, नहीं! यह बिल्कुल अलग है! मेजर साब को कैसी लड़कियाँ पसंद हैं, पता है आपको?" उसने खुद ही जवाब दिया, "मेजर साब को ना, देसी, संस्कारी लड़कियाँ पसंद हैं। जो साड़ी पहनती हों, थोड़ा शर्मीली हों... ऐसी लड़कियाँ उन्हें बहुत पसंद हैं। वो मॉडर्न कपड़े पहनने वाली लड़कियों से थोड़ा दूर रहते हैं।"
अंजलि का मुँह खुला रह गया। "साड़ी? सूबेदार जी, आप मज़ाक कर रहे हैं! मैंने अपनी पूरी ज़िंदगी में साड़ी नहीं पहनी! मैं तो बस फैशनेबल ड्रेसेस और स्टाइलिश जीन्स ही पहनती हूँ! और संस्कारी? मैं?" उसने खुद को देखकर कहा, जैसे यह कोई मज़ाक हो। "मेरी तो पहचान ही 'फंकी' है!"
बलविंदर ने गंभीर चेहरा बनाया। "अरे, बीबीजी! एक दिन के लिए। मेजर साब को बस दिखाना है कि आप कितनी अच्छी हो, कितनी देसी हो। अगर वो देखेंगे कि आप साड़ी में हो, तो सोचेंगे, 'वाह! दिल्ली की लड़की होकर भी इतनी संस्कारी!' इम्प्रेस हो जाएँगे। और फिर आपका ड्रोन तो क्या, वो आपको घर तक छोड़ने आएँगे।" बलविंदर ने अपनी बातें ऐसे कही जैसे वह अंजलि को एक बहुत ही गुप्त और सफल रणनीति बता रहा हो।
अंजलि को फिर से थोड़ी हिचकिचाहट हुई। साड़ी? यह उसके लिए एक बहुत बड़ी चुनौती थी। लेकिन फिर से उसे अपने ड्रोन का ख़याल आया। 'मेजर खड़ूस' को इंप्रेस करना ही होगा। "ठीक है, लेकिन मेरे पास कोई सिंपल साड़ी नहीं है।" उसने कहा।
"कोई बात नहीं! जो भी है, पहन लो! बस साड़ी होनी चाहिए।" बलविंदर ने खुशी से कहा।
अंजलि ने अनिच्छा से सिर हिलाया। "ठीक है। कोशिश करती हूँ।" उसे पता नहीं था कि यह 'कोशिश' कितनी बड़ी मुश्किल पैदा करने वाली थी।
गेस्टहाउस पहुँचकर अंजलि ने अपने सूटकेस में खोजना शुरू किया। उसके पास साड़ी के नाम पर बस एक ही चीज़ थी – एक चमकदार, सेक्विन वाली डिज़ाइनर साड़ी, जो वह दिल्ली में किसी शादी के लिए लाई थी। वह इतनी भड़कीली थी कि शायद ही कोई उसे दिन में पहनता। लेकिन अंजलि के पास कोई और विकल्प नहीं था। 'यह तो मेरे लिए मुसीबत है!' उसने सोचा।
उसने किसी तरह साड़ी पहनने की कोशिश की। पहले तो उसे समझ ही नहीं आया कि यह कहाँ से शुरू होती है और कहाँ खत्म होती है। उसने यूट्यूब पर "हाउ टू वियर अ साड़ी" सर्च किया, लेकिन यहाँ का धीमा इंटरनेट उसे निराश कर रहा था। आखिरकार, उसने जैसे-तैसे पल्लू को अपने कंधे पर डाला और प्लेट्स बनाने की कोशिश की, जो बार-बार खुल जाती थीं। दस मिनट की जद्दोजहद के बाद, उसने एक ऐसी साड़ी बाँध ली, जो कहीं से उठी हुई थी और कहीं से लटकी हुई। वह एक कार्टूनिस्ट कैरेक्टर जैसी लग रही थी।
"ओह माय गॉड! ये क्या है!" उसने शीशे में खुद को देखकर कहा। "मैं तो सर्कस की जोकर लग रही हूँ!" उसने माथा पीट लिया। लेकिन अब पीछे हटने का कोई रास्ता नहीं था। उसने अपने फैशनेबल हाई हील्स निकाले। 'साड़ी के साथ तो हील्स ही पहनूँगी ना!' उसने सोचा। वह हील्स पहनकर चलने की कोशिश करने लगी। साड़ी उसके पैरों में उलझ रही थी और हील्स पर वह ठीक से चल भी नहीं पा रही थी। वह लगभग गिरते-गिरते बची।
"बस, अनी! थोड़ी देर की बात है! ड्रोन वापस मिल जाएगा!" उसने खुद को हिम्मत दी। वह जैसे-तैसे लड़खड़ाते हुए गेस्टहाउस से बाहर निकली और कैंटोनमेंट की तरफ़ चल दी। साड़ी हवा में उड़ रही थी और उसके हर कदम पर हील्स ज़मीन पर अजीब सी आवाज़ कर रही थीं। लोग उसे घूर रहे थे, और कुछ तो हँस भी रहे थे। अंजलि को बहुत शर्मिंदगी महसूस हो रही थी, लेकिन वह सीधे मेजर विक्रम के ऑफिस की तरफ़ बढ़ रही थी।
वह किसी तरह मेजर विक्रम के ऑफिस के पास पहुँची। उसने देखा कि मेजर विक्रम अपने ऑफिस से बाहर निकल रहे थे, शायद कहीं जाने के लिए। उनकी वर्दी हमेशा की तरह करीने से प्रेस की हुई थी और उनका चेहरा गंभीर था। उन्होंने अपनी गाड़ी की चाबी निकाली और दरवाज़ा खोलने वाले थे।
अंजलि ने उन्हें देखा और एक पल के लिए रुक गई। 'ओह! यही मौका है!' उसने सोचा। उसने अपनी साड़ी ठीक करने की कोशिश की, जो पहले से ही बेतरतीब थी, और एक कदम आगे बढ़ाया।
"मेजर... मेजर साब!" अंजलि ने थोड़ा अटकते हुए कहा।
विक्रम ने आवाज़ सुनी और पीछे मुड़े। जैसे ही उनकी नज़र अंजलि पर पड़ी, उनके चेहरे पर एक गहरी हैरानी छा गई। उन्होंने अंजलि को सिर से पाँव तक देखा – उसकी भड़कीली, सेक्विन वाली साड़ी, उसके उलझे हुए प्लेट्स, और उसके पैरों में ऊँची हील्स, जिन पर वह मुश्किल से खड़ी थी। उनके माथे पर हल्की सी शिकन आई, जैसे वह सोच रहे हों कि यह महिला आज कौन सा नया ड्रामा करने आई है।
विक्रम ने एक पल के लिए अपनी आँखों को झपकाया और फिर थोड़ा व्यंग्यात्मक लहजे में पूछा, "मिस शर्मा? आप... आप किसी शादी में जा रही हैं?" उनकी आवाज़ में मज़ाक था, जिसे अंजलि तुरंत समझ गई।
अंजलि शर्मिंदगी से लाल हो गई। उसे लगा जैसे ज़मीन फट जाए और वह उसमें समा जाए। बलविंदर ने तो 'देसी, संस्कारी' साड़ी पहनने को कहा था, लेकिन यह तो 'डिस्को' साड़ी लग रही थी! 'लगता है ये प्लान भी फेल!' उसके मन में आया। उसने खुद को संभालने की कोशिश की, लेकिन उसके पैरों में ऊँची हील्स और उलझी हुई साड़ी उसे धोखा दे गईं।
अंजलि का पैर अचानक फिसल गया। वह अपने ही पल्लू में उलझ गई और असंतुलित होकर गिर ही पड़ने वाली थी। उसकी आँखें डर से बड़ी हो गईं। उसने अपने हाथ हवा में लहराए, संतुलन बनाने की कोशिश की, लेकिन वह पूरी तरह से असहाय थी। 'गई भैंस पानी में!' उसने सोचा।
लेकिन इससे पहले कि वह ज़मीन पर गिरती, मेजर विक्रम ने तेज़ी से आगे बढ़कर उसका हाथ पकड़ लिया। उन्होंने अपने एक हाथ से उसकी कमर को थामा और दूसरे हाथ से उसके बाज़ू को पकड़कर उसे गिरने से बचा लिया। अंजलि उनके बाज़ुओं में थी, उनकी साँसें तेज़ी से चल रही थीं, और उसकी आँखें अभी भी डर और शर्मिंदगी से भरी थीं।
यह उनके बीच का पहला फिजिकल कॉन्टैक्ट था। विक्रम के हाथ अंजलि की कमर और बाज़ू पर थे, और अंजलि का हाथ अनजाने में उसके सीने को छू गया था। एक पल के लिए, दोनों एक-दूसरे की आँखों में खो गए। विक्रम की सख्त आँखों में एक पल के लिए चिंता और फिर एक अजीब सी कोमलता आ गई। अंजलि को अपनी धड़कनें तेज़ महसूस हुईं। उसकी साँसें रुक सी गई थीं। उस पल में, उनके बीच की सारी नोक-झोंक और झगड़े कहीं पीछे छूट गए थे। यह एक ऐसा पल था जहाँ दो विपरीत दुनियाएँ अनजाने में एक-दूसरे के करीब आ गई थीं। यह सिर्फ़ एक इत्तेफाक था, लेकिन उनके लिए यह पहला सच्चा, नज़दीकी पल था। बलविंदर का 'मास्टरप्लान' भले ही उल्टा पड़ा हो, लेकिन उसने अनजाने में कुछ ऐसा कर दिया था, जिसने अंजलि और विक्रम के बीच एक नई चिंगारी जला दी थी।
Chapter 9
विक्रम ने अंजलि को गिरने से बचाया था, और एक पल के लिए दोनों एक-दूसरे की आँखों में खो गए। अंजलि की धड़कनें तेज़ हो चुकी थीं और उसे विक्रम की आँखों में पहली बार कोई अलग ही भाव दिखाई दिए थे – चिंता, और शायद कुछ और भी, जिसे वह समझ नहीं पा रही थी। विक्रम ने भी महसूस किया कि उसने अंजलि को कितनी मज़बूती से पकड़ रखा है। उनके शरीर एक-दूसरे के बेहद करीब थे, इतनी करीब कि अंजलि को विक्रम की साँसों की आवाज़ भी सुनाई दे रही थी।
अचानक, विक्रम को जैसे होश आया। उसकी आँखों में वह कठोरता लौट आई जिसके लिए वह जाना जाता था। उसने तुरंत अपने हाथ अंजलि की कमर और बाज़ू से हटा लिए, जैसे उसे कोई बिजली का झटका लगा हो। अंजलि भी झेंप गई और थोड़ी दूर हटकर खड़ी हो गई। माहौल में एक अजीब सी खामोशी छा गई, जो उनके बीच की सारी नोक-झोंक से ज़्यादा असहज थी।
विक्रम ने अपने गले को साफ़ किया, अपने हाथों को अपनी पैंट पर रगड़ा, जैसे कोई गंदगी लग गई हो। फिर उसने अपनी आवाज़ में वही कड़कपन वापस लाया। "मिस शर्मा," उसने अपनी आवाज़ थोड़ी ऊँची करके कहा, "आप आर्मी एरिया में ऐसे कपड़ों में क्या कर रही हैं? यह कोई फैशन शो नहीं है! यह एक आर्मी कैंटोनमेंट है, जहाँ अनुशासन और सुरक्षा सर्वोपरि है। क्या आपको नियम और प्रोटोकॉल नहीं पता?" उसकी आवाज़ में डांट थी, लेकिन अंजलि को लगा कि इसमें एक अजीब सी घबराहट भी छिपी थी।
अंजलि की आँखों में आँसू आ गए। वह इतनी शर्मिंदा हुई थी कि उसे लगा वह सचमुच रो पड़ेगी। "मैं... मैं बस... मैं तो बस अपना ड्रोन वापस लेने आई थी!" उसने लगभग रोते हुए कहा, उसकी आवाज़ काँप रही थी। "मुझे कोई यहाँ नहीं रहना! मुझे बस मेरा ड्रोन चाहिए ताकि मैं यहाँ से जा सकूँ! मैं थक गई हूँ इस सब से! इस नेटवर्क से, इस धीमे इंटरनेट से, और... और आपसे!" उसने अपना गुस्सा विक्रम पर निकाल दिया। उसे लग रहा था कि यह सब उसकी वजह से हो रहा है। बलविंदर की टिप्स भी काम नहीं आ रही थीं।
विक्रम ने अंजलि की आँखों में देखा। उसे लगा कि वह सच में परेशान है। उसके चेहरे पर गुस्से की जगह एक पल के लिए हल्की सी तरस की भावना आई। वह जानता था कि वह दिल्ली की एक शहरी लड़की है, और आर्मी एरिया के नियमों से वाकिफ नहीं है। लेकिन उसकी यह बचकानी हरकतें कभी-कभी उसे परेशान कर देती थीं।
"देखिए, मिस शर्मा," विक्रम ने अपनी आवाज़ थोड़ी नरम करते हुए कहा, "आपके ड्रोन की जाँच अभी चल रही है। जब रिपोर्ट आ जाएगी और सब कुछ साफ हो जाएगा, तभी आपको आपका ड्रोन वापस मिल पाएगा। तब तक, यह हमारे पास सुरक्षित है।" उसने बात खत्म करने के अंदाज़ में कहा।
अंजलि निराश हो गई। "तो मुझे कब मिलेगा? मैं कब तक यहाँ फँसी रहूँगी?" उसने लगभग चीखते हुए पूछा।
"जब तक आपकी जाँच पूरी नहीं हो जाती," विक्रम ने संक्षेप में कहा। "और अभी आप यहाँ से गेस्टहाउस वापस जाएँ। ऐसे कपड़ों में यहाँ घूमना सुरक्षा की दृष्टि से ठीक नहीं है।" उसने एक संतरी को आवाज़ लगाई, "अहमद! मिस शर्मा को उनके गेस्टहाउस तक ड्रॉप कर दो। सुनिश्चित करना कि वह सुरक्षित पहुँच जाएँ।"
संतरी अहमद ने तुरंत सलामी दी। "जी, मेजर साब!"
अंजलि को विक्रम का यह आदेश बिल्कुल पसंद नहीं आया। उसे लगा कि वह उस पर एहसान कर रहा है। लेकिन उसके पास कोई और विकल्प नहीं था। वह चुपचाप संतरी के पीछे-पीछे जीप की तरफ़ बढ़ गई। उसने एक बार फिर विक्रम की तरफ़ देखा। विक्रम वहीं खड़ा था, उसे जाते हुए देख रहा था, उसके चेहरे पर कोई भाव नहीं थे।
अंजलि जीप में बैठी। संतरी अहमद ने गाड़ी स्टार्ट की और धीरे-धीरे कैंटोनमेंट से बाहर गेस्टहाउस की तरफ़ चल दिया। रास्ते में जीप में पूरी तरह से खामोशी छाई रही। अहमद चुपचाप गाड़ी चला रहा था। अंजलि खिड़की से बाहर देख रही थी। पहाड़ी रास्ते, हरे-भरे पेड़, और दूर दिखते बर्फ से ढके पहाड़... यह सब कितना शांत और खूबसूरत था। लेकिन उसका मन शांत नहीं था।
वह सोच रही थी कि विक्रम कितना अजीब इंसान है। एक पल में वह उसे गिरने से बचाता है, और अगले ही पल वह उसे डांटना शुरू कर देता है। उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह कैसा आदमी है। 'मेजर खड़ूस' की छवि उसके दिमाग में अभी भी बनी हुई थी, लेकिन आज सुबह जो पल उसने विक्रम के साथ बिताए थे, उन्होंने उस छवि को थोड़ा धुंधला कर दिया था।
जीप धीरे-धीरे चल रही थी। अंजलि ने अपनी नज़र विक्रम के ऑफिस की तरफ़ की। वह अभी भी वहाँ खड़ा था, लेकिन अब वह फोन पर बात कर रहा था। उसकी आवाज़ नहीं आ रही थी, लेकिन अंजलि ने उसके चेहरे पर एक अजीब सी गंभीरता और थकान देखी। उसे लगा कि इस सख्त फौजी के चेहरे पर भी तनाव की लकीरें हैं। वह सिर्फ़ एक 'खड़ूस मेजर' नहीं था, बल्कि एक ऐसा इंसान भी था जिस पर बहुत सारी ज़िम्मेदारियाँ थीं। वह शांत था, लेकिन उसकी आँखों में एक अलग सी गहराई थी, एक अकेलापन था जिसे अंजलि ने पहली बार नोटिस किया।
उसने पहले कभी किसी फौजी को इतने करीब से नहीं देखा था। दिल्ली में तो फौजी सिर्फ़ टीवी पर या गणतंत्र दिवस की परेड में ही दिखते थे। लेकिन यहाँ, विक्रम की ज़िंदगी का हर पल देश के लिए समर्पित था। उसे एहसास हुआ कि विक्रम की सख़्ती शायद उसकी ड्यूटी का हिस्सा थी, न कि उसका असल स्वभाव।
अंजलि ने खुद को झकझोरा। 'क्या सोच रही हूँ मैं! वो अभी भी मेरा ड्रोन वापस नहीं दे रहा है! वो खड़ूस ही है!' लेकिन उसके मन का एक छोटा सा कोना इस बात को स्वीकार नहीं कर पा रहा था। उस पल में, जब विक्रम ने उसे गिरने से बचाया था, एक अनकहा कनेक्शन बना था। वह कनेक्शन, चाहे कितना भी छोटा क्यों न हो, अंजलि के दिल में कहीं गहराई में उतर गया था। उसने खिड़की से बाहर देखना जारी रखा, और पहली बार उसे देवगढ़ सिर्फ़ एक बोरिंग जगह नहीं, बल्कि एक ऐसी जगह लग रही थी जहाँ उसे बहुत कुछ नया जानने को मिल रहा था। वह गेस्टहाउस पहुँची, लेकिन उसका मन अभी भी विक्रम के ऑफिस में, उस पल में अटका हुआ था जब वे दोनों एक-दूसरे की आँखों में खो गए थे।
Chapter 10
अंजलि जीप से उतरकर, रूमाल से अपने माथे का पसीना पोंछती हुई, गेस्टहाउस की तरफ़ बढ़ी। उसकी साड़ी अभी भी थोड़ी अस्त-व्यस्त थी और हील्स उसके पैरों में दर्द कर रही थीं। उसका मूड पूरी तरह से खराब था। उसे लग रहा था कि वह इस फौजी मेजर के चक्कर में फंस गई है और उसका "डिजिटल डिटॉक्स" तो पूरी तरह से "डिजिटल टॉक्सिक" बन गया है। वह जैसे ही गेस्टहाउस के अंदर घुसी, रतनलाल ने उसे देख लिया। रतनलाल, जो बाहर से हमेशा भला और मददगार दिखने की कोशिश करता था, तुरंत उसके पास आया, उसके चेहरे पर नकली चिंता का भाव था।
"अरे, बेटी! क्या हुआ? तुम इतनी परेशान क्यों दिख रही हो? सब ठीक है ना?" रतनलाल ने बेहद विनम्रता से पूछा, उसकी आवाज़ में शहद घुला हुआ था। वह अपने गेस्ट्स का बहुत ख्याल रखता था, खासकर दिल्ली जैसे बड़े शहरों से आए लोगों का, क्योंकि उन्हें बेवकूफ बनाना आसान था।
अंजलि ने उसे देखते ही अपना गुस्सा निकालना शुरू कर दिया। "क्या ठीक होगा, रतनलाल जी! यहाँ सब कुछ गड़बड़ है! वो मेजर विक्रम सिंह राठौर... वो आदमी नहीं है, वो एक खड़ूस रोबोट है! मेरा ड्रोन जब्त कर लिया है और वापस देने का नाम ही नहीं ले रहा है!" उसने लगभग रोते हुए कहा, "मैंने इतनी महंगी साड़ी पहनी, बलविंदर सूबेदार ने कहा था कि उन्हें देसी लड़कियाँ पसंद हैं, लेकिन उन्होंने तो मुझे देखा तक नहीं! उल्टा डांट दिया कि मैं आर्मी एरिया में ऐसे क्यों घूम रही हूँ!" अंजलि ने अपनी सारी भड़ास रतनलाल पर निकाल दी, उसे अपनी असफलता और शर्मिंदगी की पूरी कहानी सुना दी।
रतनलाल ने अंजलि की बातें बड़े ध्यान से सुनीं, बीच-बीच में सिर हिलाता रहा और "हाँ, हाँ, बेटी" कहता रहा। उसके चेहरे पर सहानुभूति थी, लेकिन अंदर ही अंदर वह मुस्कुरा रहा था। मेजर विक्रम का देवगढ़ में आना उसके स्मगलिंग के धंधे के लिए एक बड़ा खतरा था। विक्रम एक बेहद सख्त और अनुशासित ऑफिसर था और उसने हाल ही में बॉर्डर पर निगरानी बढ़ा दी थी, जिससे रतनलाल का काम मुश्किल हो गया था। अंजलि का विक्रम के खिलाफ होना उसके लिए एक अच्छी खबर थी।
"अरे, बेटी! तुम बिल्कुल सही कह रही हो!" रतनलाल ने लंबी साँस लेते हुए कहा, जैसे वह भी फौजियों से परेशान हो। "ये फौजी लोग होते ही ऐसे हैं! बाहर से पत्थर जैसे, अंदर से भी पत्थर ही। इनका कोई दिल-विल नहीं होता! इनको तो बस नियम-कानून और अपनी वर्दी दिखती है।" उसने अंजलि को और भड़काया, "तुमने अच्छा किया जो मुझसे कहा। तुम चिंता मत करो। मैं देखता हूँ। मैं बात करूँगा उस मेजर से।" उसने अंजलि को दिलासा दिया, हालांकि उसका ऐसा कोई इरादा नहीं था।
अंजलि ने थोड़ी राहत महसूस की कि कम से कम कोई तो उसकी बात समझ रहा था। "थैंक यू, रतनलाल जी। आप बहुत अच्छे हैं।" उसने कहा और फिर अपने कमरे की तरफ़ चली गई, अभी भी निराशा में डूबी हुई थी।
अंजलि के जाते ही, रतनलाल के चेहरे पर की सहानुभूति तुरंत गायब हो गई। उसकी जगह एक शातिर मुस्कान आ गई। वह अपनी मूंछें सहलाते हुए अपने गेस्टहाउस के रिसेप्शन पर अपनी कुर्सी पर बैठ गया। 'ये मेजर विक्रम... मेरी नाक में दम कर रखा है उसने।' उसने मन ही मन सोचा। 'और ये दिल्ली वाली लड़की... इसका क्या काम है यहाँ, इस दूर-दराज़ इलाके में? और ड्रोन उड़ाना? आर्मी एरिया के ऊपर?' उसके दिमाग में शक के कीड़े कुलबुलाने लगे।
रतनलाल के परिवार का अतीत भी स्मगलिंग से जुड़ा था। उसके पिता भी इस काम में शामिल थे, और विक्रम के दादाजी और अंजलि की नानी की कहानी में भी कहीं न कहीं उनके परिवार का हाथ था। रतनलाल को हमेशा डर रहता था कि कहीं कोई पुराना राज़ बाहर न आ जाए, जो उसके वर्तमान धंधे को खतरे में डाल दे।
'कहीं ऐसा तो नहीं कि ये लड़की मेजर विक्रम की जासूस हो? या ये किसी और मकसद से यहाँ आई हो? इतने दिनों से यहाँ रुकी हुई है, और ड्रोन वाली घटना... ये सब मुझे कुछ ठीक नहीं लग रहा।' रतनलाल का शातिर दिमाग तेज़ी से काम कर रहा था। 'दिल्ली की अमीर लड़की पहाड़ों में "डिजिटल डिटॉक्स" करने क्यों आएगी? ज़रूर कोई दाल में काला है।'
उसने तुरंत अपना मोबाइल फोन निकाला। यह एक दूसरा फोन था, जिसे वह केवल अपने काले धंधे के लिए इस्तेमाल करता था। उसने एक नंबर डायल किया।
"हाँ, सलीम? मैं रतनलाल बोल रहा हूँ।" उसने धीमी और गंभीर आवाज़ में कहा। "एक काम है। मेजर विक्रम सिंह राठौर पर नज़र रखनी है। वो क्या करते हैं, कहाँ जाते हैं, किससे मिलते हैं, सब मुझे पता होना चाहिए।"
"जी, मालिक। हुक्म बजा।" दूसरी तरफ़ से आवाज़ आई।
"और हाँ," रतनलाल ने अपनी आवाज़ और भी धीमी कर दी, "इस गेस्टहाउस में एक दिल्ली वाली लड़की ठहरी हुई है, अंजलि नाम है उसका। उस पर भी नज़र रखो। वह क्या करती है, किससे बात करती है, सब कुछ। मुझे उस पर शक है।"
"दोनों पर, मालिक? कोई खास वजह?" सलीम ने पूछा।
रतनलाल ने हल्की सी हँसी हँसी, जो किसी साँप की फुफकार जैसी थी। "वजह... तुम्हें जानने की ज़रूरत नहीं है। बस अपना काम करो। और कोई भी छोटी से छोटी जानकारी मुझे तुरंत चाहिए। समझे?"
"जी, मालिक। जैसा आप कहें।" सलीम ने फोन रख दिया।
रतनलाल ने फोन को अपनी जेब में रखा और एक गहरी साँस ली। उसकी आँखें गेस्टहाउस की खिड़की से बाहर, दूर आर्मी कैंटोनमेंट की तरफ़ थीं। उसके चेहरे पर अब कोई नकली भाव नहीं था, सिर्फ़ एक दृढ़ निश्चय था। वह किसी भी कीमत पर अपने धंधे को खतरे में नहीं आने देगा, और अगर यह लड़की या वह मेजर उसके रास्ते में आते हैं, तो वह उन्हें हटा देगा। उसका खेल अभी शुरू ही हुआ था।
Chapter 11
पिछले अध्याय में रतनलाल ने अंजलि पर अपने आदमी से नजर रखने को कहा था क्योंकि उसे अंजलि पर शक था। वह मेजर विक्रम पर भी नजर रख रहा था, और अब अंजलि अपने कमरे में वापस आकर बैठी हुई थी, उसके दिमाग में एक ही बात चल रही थी – 'ड्रोन! मेरा दो लाख का ड्रोन!' वह परेशान थी, क्योंकि एक ब्लॉगर के लिए उसका कंटेंट ही सब कुछ था। देवगढ़ में नेटवर्क वैसे ही मुश्किल से आता था, और अब ड्रोन भी नहीं था।
वह अपने लैपटॉप पर 'अनी की फंकी दुनिया' का पेज खोले बैठी थी। उसके फॉलोअर्स की उम्मीदें बढ़ती जा रही थीं, और उसे लग रहा था कि वह उन्हें निराश कर रही है। उसने अपनी बालकनी से बाहर देखा। सामने पहाड़ थे, पीछे गेस्टहाउस की हलचल थी। तभी उसके दिमाग में एक आइडिया आया। 'अगर मैं ड्रोन से एरियल शॉट नहीं ले सकती, तो क्या हुआ? मैं कुछ और तो कर ही सकती हूँ!' उसकी आँखों में शरारत चमक उठी। 'मैं यहाँ के लोकल लोगों से बात करूँगी, उनकी ज़िंदगी दिखाऊँगी। और हाँ, अगर फौजी मेजर से नहीं मिल सकती, तो उसके जवानों से तो मिल ही सकती हूँ ना?'
उसने तुरंत अपना छोटा वाला पोर्टेबल कैमरा और माइक उठाया। "कोई बात नहीं मेजर खड़ूस," उसने खुद से कहा, "तुम मेरा ड्रोन जब्त कर सकते हो, लेकिन मेरी क्रिएटिविटी को नहीं!" वह अपनी जैकेट ठीक करती हुई, पूरे आत्मविश्वास के साथ गेस्टहाउस से बाहर निकली।
अंजलि धीरे-धीरे कैंटोनमेंट के पास पहुँच गई। गेट पर संतरी खड़े थे, लेकिन अंजलि ने उन्हें अनदेखा करते हुए, पास के एक मैदान की तरफ़ देखा जहाँ कुछ जवान दौड़ लगा रहे थे। वह अपने कैमरे का फोकस एडजस्ट करती हुई उनके पास पहुँची। कुछ जवान दौड़कर रुक गए थे और आपस में बात कर रहे थे।
अंजलि ने मुस्कुराते हुए अपना माइक उनके सामने किया। "हेलो, दोस्तों! आप हैं अनी की फंकी दुनिया में! और मैं हूँ आपकी होस्ट, अनी। आज मैं आप सबको मिलवाने वाली हूँ हमारे असली हीरोज़ से, जो दिन-रात हमारी सरहदों की रक्षा करते हैं।"
जवान एक-दूसरे को देखने लगे। उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि ये अजीब सी, चमकीले कपड़ों वाली लड़की कौन है और क्या कर रही है। उनमें से एक, जो थोड़ा शर्मा रहा था, पीछे हटने लगा।
"अरे, अरे! शर्माओ मत!" अंजलि ने उसे रोका, "तुम लोग तो कैमरे के सामने और भी स्मार्ट लगते हो। अच्छा, मेरा पहला सवाल। आप लोग यहाँ कबसे हैं?"
एक जवान ने हिम्मत करके कहा, "जी, मैम... मैं यहाँ दो साल से हूँ।"
"अच्छा! दो साल! वाह!" अंजलि ने उत्साह से कहा, "अच्छा, ये बताओ, आपको घर की याद नहीं आती? आपकी फैमिली मिस नहीं करती आपको?"
जवान थोड़ा असहज हुआ, लेकिन फिर मुस्कुरा कर बोला, "याद तो बहुत आती है मैम। त्योहारों पर बहुत आती है। लेकिन क्या करें, ये भी हमारी ड्यूटी है।"
"ओह! सो स्वीट!" अंजलि ने नाटकीय अंदाज़ में कहा, "अच्छा, एक और सवाल! बिलकुल पर्सनल! आपकी फेवरेट बॉलीवुड हीरोइन कौन है? और क्यों?"
जवानों में फुसफुसाहट शुरू हो गई। एक ने शर्माते हुए कहा, "जी... दीपिका पादुकोण।" दूसरे ने कहा, "प्रियंका चोपड़ा।" एक और ने हँसते हुए कहा, "मेरी वाइफ, मैम!"
अंजलि ज़ोर से हँसी। "ये तो बड़ी कमाल की बात है! क्या बात है! आप लोग बड़े ही क्यूट हो! मुझे तो लगा था कि फौजी लोग सिर्फ सख्त होते हैं, लेकिन आप लोग तो बड़े इमोशनल भी हो!"
तभी सूबेदार बलविंदर सिंह वहाँ आ गए। उन्होंने अंजलि को जवानों का इंटरव्यू लेते हुए देखा और उनके चेहरे पर एक बड़ी सी मुस्कान फैल गई। 'वाह! मेजर साब की भाभी ने मोर्चा संभाल लिया! अब देखना, मेजर साब भी पिघल जाएँगे!' उन्होंने मन ही मन सोचा।
बलविंदर ने पास आकर धीरे से जवानों को इशारा किया, "अरे, बोलो! शर्माते क्यों हो? मैडम पूछ रही हैं तो बताओ ना! ये तो तुम्हारी कहानी है!" उन्होंने अंजलि की तरफ़ आँख मारी।
बलविंदर की मदद से जवान और भी खुल गए। अब वे मज़े से अंजलि के सवालों का जवाब दे रहे थे। कोई अपने घर की बातें बता रहा था, कोई अपनी छुट्टी के प्लान, और कोई अपने पसंदीदा गाने। अंजलि भी मज़े ले-लेकर उनसे बात कर रही थी। वह कभी हँसती, कभी हैरान होती, और कभी उनके बलिदान की सराहना करती। पूरा माहौल एक छोटे से मेले जैसा हो गया था, जहाँ एक शहरी लड़की और कुछ फौजी जवान आपस में घुलमिल रहे थे।
अंजलि ने एक जवान से पूछा, "अच्छा, एक बात बताओ। मेजर विक्रम सिंह राठौर कैसे हैं? क्या वह सच में बहुत खड़ूस हैं जैसा सब कहते हैं?" उसने मज़ाक में कहा, लेकिन उसकी आँखों में सच जानने की उत्सुकता थी।
जवान ने संभलकर कहा, "मेजर साब... मेजर साब तो शेर हैं मैम! उनका जैसा कोई नहीं! वह बाहर से सख्त दिखते हैं, लेकिन..."
तभी एक दमदार आवाज़ ने पूरे माहौल को शांत कर दिया। "यहाँ क्या चल रहा है?!"
सबने मुड़कर देखा। मेजर विक्रम सिंह राठौर वहीं खड़े थे, उनके चेहरे पर वही सख्त भाव थे। उनकी आँखों में गुस्सा साफ दिख रहा था। जवान तुरंत सीधे खड़े हो गए, जैसे उन्हें किसी ने फ्रीज़ कर दिया हो। बलविंदर के चेहरे पर हवाईयाँ उड़ने लगीं। वह जानता था कि अब खैर नहीं।
विक्रम ने अपनी आँखें अंजलि पर गड़ाईं। "मिस शर्मा! आप यहाँ क्या कर रही हैं? और ये क्या तमाशा लगा रखा है?" उसकी आवाज़ में लोहे जैसी सख़्ती थी।
अंजलि ने हिम्मत करके कहा, "मेजर, मैं तो बस... मैं तो बस कंटेंट बना रही थी। मेरा ड्रोन आपने जब्त कर लिया, तो अब मैं जवानों के इंटरव्यू ले रही थी। ये लोग बहुत प्यारे हैं!" उसने जवानों की तरफ़ इशारा किया।
विक्रम के होंठ गुस्से से सिकुड़ गए। "बिना अनुमति के? मेरी इजाज़त के बिना आप मेरे जवानों की रिकॉर्डिंग नहीं कर सकतीं!" उसने अपना हाथ आगे बढ़ाया, "दीजिए मुझे ये कैमरा।"
"क्या?! नहीं!" अंजलि ने तुरंत कैमरा अपने पीछे कर लिया। "ये मेरा कैमरा है! मैं इसे किसी को नहीं दूंगी!"
"यह आर्मी एरिया है, मिस शर्मा! और यहाँ आर्मी के नियम चलते हैं!" विक्रम ने एक कदम आगे बढ़ाया। "दीजिए इसे मुझे।"
"नहीं! कभी नहीं!" अंजलि ने कैमरा और कसकर पकड़ लिया।
विक्रम ने अंजलि की तरफ़ हाथ बढ़ाया। अंजलि ने कैमरा दूसरी तरफ़ घुमा दिया। फिर विक्रम ने दूसरी तरफ़ से पकड़ने की कोशिश की, अंजलि ने फिर घुमाया। उन दोनों के बीच कैमरे को लेकर एक बचकानी खींचातानी शुरू हो गई। विक्रम अपना पूरा ज़ोर लगा रहा था, लेकिन अंजलि भी उतनी ही ज़िद्दी थी। जवान और बलविंदर खड़े होकर यह तमाशा देख रहे थे, उनकी आँखें फटी हुई थीं। उन्होंने कभी अपने सख्त मेजर को इस तरह किसी लड़की से उलझते नहीं देखा था।
"छोड़ो इसे!" विक्रम ने गुस्से से कहा, उसकी आवाज़ थोड़ी ऊंची हो गई थी।
"नहीं छोडूंगी!" अंजलि ने जवाब दिया, उसकी आवाज़ में भी गुस्सा था। "पहले मेरा ड्रोन वापस करो!"
खींचातानी में, अंजलि का पैर फिसला और वह गिरने ही वाली थी कि विक्रम ने तुरंत उसे पकड़ लिया, लेकिन कैमरा उसके हाथ से छूट गया और ज़मीन पर जा गिरा। एक तेज़ 'धड़ाम' की आवाज़ आई।
दोनों ने एक साथ कैमरे की तरफ़ देखा। उसका लेंस टूट चुका था और स्क्रीन पर एक बड़ी सी दरार आ गई थी।
अंजलि की आँखों में पानी भर आया। "ये... ये क्या कर दिया आपने! मेरा कैमरा! मेरा प्यारा कैमरा!" वह लगभग रो पड़ी। "आप... आप दुनिया के सबसे खड़ूस, सबसे बेरहम मेजर हो! मैं आप पर एक ऐसा व्लॉग बनाऊँगी कि कोई आपको भूल नहीं पाएगा!"
विक्रम ने गुस्से से अपनी मुट्ठी भींच ली। "मिस शर्मा! चुपचाप यहाँ से जाइए! अभी के अभी!" उसकी आवाज़ में ऐसा आदेश था जिसे कोई टाल नहीं सकता था।
अंजलि ने रोते हुए ज़मीन पर पड़े अपने टूटे कैमरे को देखा, फिर गुस्से से विक्रम को घूरा। वह बिना कुछ कहे, रोती हुई वहाँ से वापस गेस्टहाउस की तरफ़ भाग गई। विक्रम उसे जाते हुए देखता रहा, उसके चेहरे पर अभी भी गुस्सा था, लेकिन अंदर ही अंदर उसे भी पता था कि उसने गलती कर दी है। बलविंदर ने धीरे से ज़मीन पर पड़े कैमरे को उठाया और विक्रम की तरफ़ देखा, जिसका चेहरा अब और भी सख्त हो गया था। माहौल फिर से ठंडा और अनुशासित हो गया, लेकिन आज की घटना से विक्रम के मन में अंजलि के लिए कुछ और ही भावनाएँ पैदा हो चुकी थीं।
Chapter 12
अंजलि गेस्टहाउस में अपने कमरे में वापस आ चुकी थी, लेकिन उसका मन अभी भी कैंटोनमेंट वाले मैदान में अटका हुआ था, जहाँ उसका प्यारा कैमरा ज़मीन पर बिखरा पड़ा था। मेजर विक्रम के साथ हुई उस खींचातानी ने उसे अंदर तक झकझोर दिया था। वह एक कोने में बैठी अपने लैपटॉप को निहार रही थी, जिसकी स्क्रीन पर अब उसे अपना टूटा हुआ लेंस और वो सख्त चेहरा ही दिख रहा था।
"ये क्या है यार!" वह झुंझलाकर बोली, "मैं यहाँ पहाड़ों में खुद को खोजने आई थी, लेकिन मुझे तो सिर्फ़ मुसीबतें मिल रही हैं! पहले ड्रोन, अब कैमरा... मेरी 'अनी की फंकी दुनिया' तो अब 'अनी की फूटी किस्मत' बन गई है!" उसने तकिये में मुँह छिपा लिया, लेकिन भूख की चुभन ने उसे मजबूर कर दिया कि वह उठे।
उसकी दिल्ली वाली लाइफस्टाइल में हमेशा कैफे, फैंसी रेस्टोरेंट और तरह-तरह के फ़ूड डिलीवरी ऐप्स शामिल थे। यहाँ देवगढ़ में, उसे सिर्फ़ गेस्टहाउस का सादा खाना या बाज़ार में कुछ स्थानीय पकवान ही मिल रहे थे, और वह अब उनसे बोर हो चुकी थी।
"मुझे कुछ फैंसी खाना है! कुछ अलग! पास्ता... चीज़बर्गर... सुशी... ओह, सुशी तो भूल ही जाओ!" उसने अपने पेट को सहलाते हुए कहा। उसकी आँखें चमक उठीं। "क्यों न मैं खुद ही कुछ बनाऊँ? मैं एक अच्छी कुक तो नहीं हूँ, लेकिन जुगाड़ू तो हूँ ना!"
उसने अपने फ़ोन पर कुछ रेसिपी देखीं, लेकिन तुरंत निराशा हाथ लगी। 'ओह नो! इसके लिए तो पार्मेज़न चीज़ चाहिए, ऑरेगैनो चाहिए, बेसिल चाहिए... यहाँ तो पता नहीं ये सब मिलेगा भी या नहीं!' उसने मुँह बनाया।
फिर उसे याद आया कि उसकी दादी हमेशा कहती थीं, 'बेटा, जब कुछ न मिले, तो देसी जुगाड़ करो।'
"देसी जुगाड़?" अंजलि ने सोचा, "हाँ! क्यों नहीं! पास्ता तो मैदा से बनता है ना? और सॉस के लिए टमाटर तो हैं ही!"
वह पूरे उत्साह में रसोई की तरफ़ भागी। रतनलाल की पत्नी, जो गेस्टहाउस की रसोई संभालती थी, उस समय बाहर गई हुई थी। अंजलि ने इसे एक मौके की तरह देखा।
रसोई में घुसते ही, अंजलि की साँस अटक गई। यह उसकी दिल्ली वाली मॉड्यूलर किचन से बिलकुल अलग थी। यहाँ पुराने ज़माने के चूल्हे थे, मिट्टी के बर्तन थे, और मसालों की तेज़ गंध थी। लेकिन अंजलि का दृढ़ संकल्प उसे आगे बढ़ने के लिए उकसा रहा था।
उसने सबसे पहले मैदा ढूंढा। एक बड़ा कटोरा लेकर उसने उसमें मैदा डाला। "ओके, अब इसमें पानी और नमक... पास्ता शेप के लिए क्या करूँ?" उसने चारों तरफ़ देखा। उसे एक पुराना रोलिंग पिन और एक थाली मिली। उसने सोचा, 'ठीक है, इसे आटे की तरह गूंथूंगी और फिर पतली-पतली स्ट्रिप्स काट लूंगी।'
उसने मैदा गूंथना शुरू किया। लेकिन उसे आटे का कोई अंदाज़ा नहीं था। कभी पानी ज़्यादा हो जाता तो कभी मैदा कम। नतीजा यह हुआ कि उसके हाथ में एक चिपचिपा, अजीब सा गोला बन गया।
"ऊफ! ये इतना मुश्किल क्यों है?" उसने मुँह बनाकर कहा, उसके हाथों पर मैदा चिपक गया था।
जैसे-तैसे उसने उस आटे को बेलने की कोशिश की और कुछ टेढ़ी-मेढ़ी, मोटी स्ट्रिप्स काटीं। "ठीक है, पास्ता जैसा तो नहीं लग रहा, लेकिन कोई बात नहीं, स्वाद तो अच्छा होगा ना!" उसने खुद को दिलासा दिया।
अगला मिशन था पास्ता सॉस। उसने टमाटर ढूंढे। "सिंपल टमाटर की चटनी को पास्ता सॉस बना देंगे! क्रिएटिविटी इसे ही तो कहते हैं!" उसने कहा और एक मिक्सर ढूंढने लगी, लेकिन वहाँ एक पुराना सिल-बट्टा रखा था।
"ओह माय गॉड! सिल-बट्टा?!" अंजलि की आँखें फैल गईं। "यह तो मेरी दादी इस्तेमाल करती थीं! ठीक है, लेट्स गो देसी!"
उसने टमाटर, लहसुन और कुछ हरी मिर्च लीं, और उन्हें सिल-बट्टे पर पीसने लगी। यह काम उसकी उम्मीद से ज़्यादा मुश्किल था। टमाटर इधर-उधर उछल रहे थे, और लहसुन पीसते-पीसते उसकी आँखों में आँसू आ गए।
"लगता है, यह पास्ता नहीं, कोई मसालेदार आपदा बनने वाली है!" उसने खाँसते हुए कहा।
आधे घंटे की मशक्कत के बाद, उसने किसी तरह एक गाढ़ी, तेज़ गंध वाली चटनी तैयार की। उसने उसे एक कड़ाही में डाला, थोड़ा सा तेल डाला, और गैस पर रख दिया। अब बारी थी पास्ता को उबालने की। उसने एक बड़े बर्तन में पानी गरम किया और अपनी बनाई हुई 'पास्ता स्ट्रिप्स' उसमें डाल दीं।
जैसे-जैसे पानी गरम हुआ, वे मैदे की स्ट्रिप्स एक-दूसरे से चिपकने लगीं। अंजलि ने उन्हें चम्मच से अलग करने की कोशिश की, लेकिन वे टूटती जा रही थीं और एक चिपचिपी, लसदार चीज़ में बदल रही थीं।
"अरे! ये क्या हो रहा है?" वह घबरा गई। "मेरा पास्ता तो हलवा बन रहा है!"
उसी समय, चटनी वाली कड़ाही से धुआँ उठना शुरू हो गया। अंजलि का ध्यान भटक गया था और चटनी नीचे से जलने लगी थी। देखते ही देखते, पूरा रसोई घर धुएँ से भर गया। जलते हुए टमाटर और लहसुन की तेज़ गंध नाक में घुस रही थी।
"खाँसी! खाँसी!" अंजलि खाँसने लगी, उसकी आँखों में पानी भर आया। उसने खिड़कियाँ खोलने की कोशिश की, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। पूरा गेस्टहाउस धुएँ से भर गया था।
तभी रतनलाल की पत्नी, कमला देवी, रसोई में आती है। वह जैसे ही धुएँ और जली हुई गंध को देखती है, उसकी आँखें लाल हो जाती हैं।
"ये क्या कर दिया! ये क्या हो रहा है हमारी रसोई में?!" कमला देवी चीख़ी, उसकी आवाज़ गेस्टहाउस में गूँज उठी। "कौन है ये? मेरी रसोई जला दी! मेरा सामान बर्बाद कर दिया!"
कमला देवी की चीख़ सुनकर रतनलाल भी वहाँ भागा-भागा आया। वह जैसे ही रसोई के अंदर घुसा, धुएँ के गुबार ने उसे लगभग अंधा कर दिया। उसे खाँसी आने लगी।
"अरे! अरे! ये क्या हो रहा है यहाँ?" रतनलाल खाँसते हुए बोला। उसने देखा कि अंजलि एक तरफ़ खड़ी खाँस रही है, उसके कपड़े मैले हो चुके हैं और उसका चेहरा काला पड़ गया है।
"ये दिल्ली वाली बेटी ने तो पूरी रसोई का कबाड़ा कर दिया!" कमला देवी चिल्लाई, "देखो! मेरी सारी कड़ाही जल गई! ये हमारा चूल्हा! इसने तो सब बर्बाद कर दिया!"
रतनलाल ने जलते हुए पास्ता और जली हुई चटनी को देखा। उसकी नाक में तेज़ गंध आ रही थी। उसे गुस्सा आ गया।
"मिस अंजलि शर्मा! ये क्या किया आपने?!" रतनलाल ने अपनी भली-भाली शक्ल को उतार फेंका और गुस्से में बोला, "आपको किसने कहा था हमारी रसोई में घुसने के लिए? ये कोई फाइव-स्टार होटल की किचन नहीं है! आपने तो मेरा पूरा गेस्टहाउस धुएँ से भर दिया है!"
अंजलि का चेहरा शर्म से लाल हो गया। वह इतनी शर्मिंदा और डरी हुई थी कि एक शब्द भी नहीं बोल पा रही थी। उसकी सारी हिम्मत टूट चुकी थी। वह तो बस एक अच्छा सा फैंसी खाना बनाना चाहती थी, लेकिन उसने तो पूरी रसोई का सत्यानाश कर दिया था।
"मैं... मैं बस..." अंजलि ने धीरे से कहा, लेकिन उसके शब्द धुएँ में खो गए।
"बस क्या बस!" रतनलाल लगभग चिल्लाया। "आप जाइए अपने कमरे में! मुझे नहीं चाहिए कोई और एक्सपेरिमेंट यहाँ! आप जाइए यहाँ से!"
अंजलि की आँखों में आँसू आ गए। वह बिना कुछ कहे, बिना अपने बिखरे हुए मैदे वाले हाथों को धोए, रोते हुए अपने कमरे की तरफ़ भागी। वह दरवाज़ा बंद करके अपने बिस्तर पर गिर गई, भूखी और उदास। उसे लग रहा था कि वह इस पहाड़ पर एक पूरी तरह से अजनबी है, और उसकी सारी कोशिशें उल्टी पड़ रही हैं। उसकी आँखों से आँसू बहते जा रहे थे।
रात हो चुकी थी। अंजलि अपने बिस्तर पर सिकुड़ी हुई लेटी थी, उसका पेट भूख से गुड़गुड़ा रहा था, लेकिन रसोई में जाने की हिम्मत नहीं थी। उसे दिल्ली का अपना आरामदायक घर, अपनी माँ के हाथ का खाना, और अपनी पुरानी दुनिया की बहुत याद आ रही थी।
तभी उसके कमरे के दरवाज़े पर एक हल्की सी दस्तक हुई। अंजलि को लगा कि शायद रतनलाल या उसकी पत्नी उसे और डाँटने आए हैं। उसने धीरे से दरवाज़ा खोला।
सामने सूबेदार बलविंदर सिंह खड़े थे, उनके हाथ में एक स्टील का टिफिन बॉक्स था, और उनके चेहरे पर एक हल्की सी, शरारती मुस्कान थी।
"अरे बीबीजी! आप सोई नहीं अभी तक?" बलविंदर ने फुसफुसाते हुए कहा, जैसे कोई जासूस गुप्त मिशन पर आया हो।
अंजलि हैरान रह गई। "बलविंदर जी? आप यहाँ? इतनी रात में?" उसने अपनी आँखें पोंछीं।
बलविंदर कमरे के अंदर आया और दरवाज़ा धीरे से बंद कर दिया। "हाँ, बीबीजी। मैं देखा, आप आज कुछ परेशान लग रहे थे। और हम सुना, कि रसोई में कुछ धमाका हो गया था?" उसने अपनी आँखों से हँसते हुए कहा।
अंजलि का चेहरा फिर से शर्म से झुक गया। "हाँ, बलविंदर जी। मैंने पास्ता बनाने की कोशिश की थी, लेकिन... लेकिन सब गड़बड़ हो गया।"
"अरे, बीबीजी! ये पहाड़ी इलाके हैं! यहाँ पास्ता कहाँ से आएगा? यहाँ तो देसी खाना चलता है।" बलविंदर ने टिफिन बॉक्स को अंजलि के सामने किया। "आप चिंता ना करो। हमारे मेजर साब ने भेजा है।"
अंजलि ने हैरान होकर बलविंदर को देखा। "मेजर विक्रम ने? मेरे लिए? क्या भेजा है?" उसे यकीन नहीं हो रहा था।
"हाँ! और किसने भेजा होगा? वह बाहर से सख्त दिखते हैं, पर अंदर से नरम दिल हैं ना!" बलविंदर ने आँख मारी। "ये देखो! गरमा गरम पराठे और घर का बना आचार! मेरी पत्नी ने बनाया है। मेजर साब को पता चला कि आप भूखी सो रही हैं, तो उन्होंने मुझे भेजा कि ये लेकर जाओ। बोले, 'सूबेदार, बीबीजी को रात को भूखा नहीं सोना चाहिए। उन्हें गरमा गरम खाना दे आओ।' अब खाओ, खाओ!"
अंजलि ने टिफिन खोला। उसमें गरमा गरम, सुनहरे पराठे और खुशबूदार आचार था। उसकी आँखों में आँसू आ गए, लेकिन इस बार ये खुशी के और राहत के आँसू थे। उसे यकीन नहीं हो रहा था कि वही "खड़ूस मेजर" उसके लिए खाना भेजेगा। यह कितनी अजीब बात थी! जो आदमी दिन में उस पर चिल्लाता है और उसका कैमरा तोड़ देता है, वही रात में उसके लिए खाना भेजता है।
"मेजर... मेजर साब ने भेजा है?" अंजलि ने हिचकिचाते हुए पूछा, जैसे उसे अभी भी विश्वास नहीं हो रहा हो।
"हाँ, बीबीजी! और किसने? अब खाओ, ताकत आएगी। वैसे भी, सुबह फिर से भाग-दौड़ करनी है, अपना ड्रोन वापस लेना है ना?" बलविंदर ने मुस्कुराते हुए कहा।
अंजलि ने एक पराठा उठाया और खाया। वह इतना स्वादिष्ट था कि उसे लगा जैसे उसे स्वर्ग मिल गया हो। उसके अंदर एक अजीब सी गर्माहट फैल गई। विक्रम के लिए उसका गुस्सा धीरे-धीरे पिघल रहा था। इस सख़्त मेजर के अंदर वाकई एक नरम दिल छिपा था, जैसा बलविंदर ने कहा था। यह विचार उसके दिमाग में घूमने लगा। वह पराठा खाते हुए मुस्कुराई, उसके चेहरे पर एक अलग सी चमक थी। बलविंदर उसे खाते हुए देखकर खुशी-खुशी कमरे से निकल गया, अपने 'मिशन मेजर-भाभी' की पहली जीत का जश्न मनाते हुए।
Chapter 13
अंजलि ने पराठे का आखिरी टुकड़ा खाया और पानी का गिलास खाली कर दिया। उसका पेट तो भर गया था, लेकिन दिमाग में मेजर विक्रम की बात अभी भी घूम रही थी। क्या सच में उसने खाना भेजा था? या बलविंदर उसे बेवकूफ बना रहा था, जैसे 'देसी संस्कारी लड़की' बनने की टिप देकर? वह बिस्तर पर लेट गई, लेकिन नींद उसकी आँखों से कोसों दूर थी। एक तरफ़ उस 'खड़ूस मेजर' की सख़्ती थी, जिसने उसका ड्रोन और कैमरा दोनों तोड़ दिए थे, और दूसरी तरफ़ यह अनाम दयालुता, गरमा गरम पराठों के रूप में। यह विरोधाभास उसे परेशान कर रहा था।
अगली सुबह, अंजलि थोड़ी देर से उठी। रात भर सोचने के बाद भी उसे विक्रम की पहेली समझ नहीं आई थी। उसने सोचा, 'ठीक है, अब कुछ भी हो, मुझे यहाँ से बाहर निकलना है। मैं कब तक यहाँ बैठी रोती रहूँगी? मैं अनी हूँ! अनी की फंकी दुनिया की अनी!' उसने अपना मुँह धोया, कपड़े बदले और खुद को तैयार किया। उसने फैसला किया कि वह कैंटोनमेंट के पास जाकर देखेगी कि मेजर साब क्या कर रहे हैं। शायद उसे अपने ड्रोन या कैमरे के बारे में कुछ और जानकारी मिल जाए।
वह गेस्टहाउस से निकली और धीरे-धीरे कैंटोनमेंट के बाहरी इलाके की तरफ़ बढ़ने लगी। सुबह की ठंडी हवा चल रही थी और पहाड़ों की ताज़गी उसे थोड़ी राहत दे रही थी। उसने देखा कि कुछ दूरी पर, आर्मी कैंटोनमेंट के ठीक बाहर, एक छोटी सी गली में कुछ हलचल थी। अंजलि की हमेशा से चीज़ों में नाक घुसाने की आदत थी। उसे लगा, 'कहीं मेजर खड़ूस फिर किसी को डाँट तो नहीं रहे हैं?' उसकी उत्सुकता बढ़ गई और वह छिपकर देखने लगी।
उसने देखा कि मेजर विक्रम सिंह राठौर वहीं खड़े थे। उनके चेहरे पर हमेशा की तरह सख़्ती थी, लेकिन वह किसी को डाँट नहीं रहे थे। वह झुके हुए थे और उनके हाथों में कुछ था। अंजलि को लगा, 'अरे! ये क्या कर रहे हैं?' वह और करीब गई, पेड़ों के पीछे छिपकर देखने लगी।
विक्रम अपने घुटनों पर झुके हुए थे। उनके सामने एक छोटा सा, भूरे रंग का आवारा पिल्ला बैठा था, जो अपनी पूंछ हिला रहा था। विक्रम के हाथ में एक बिस्कुट का पैकेट था और वह उस पिल्ले को एक-एक करके बिस्कुट खिला रहे थे। उनके चेहरे पर वह सख़्त भाव नहीं था जो उन्होंने अंजलि को दिखाया था। इसके बजाय, एक हल्की सी, नरम मुस्कान थी।
"तुझे भी भूख लगी है, छोटू?" विक्रम ने बहुत ही धीमी और कोमल आवाज़ में कहा, जैसे वह किसी छोटे बच्चे से बात कर रहे हों। उन्होंने प्यार से पिल्ले के सिर पर हाथ फेरा। पिल्ला उनकी उंगलियों को चाटने लगा। "अकेला घूम रहा है यहाँ? तेरी मम्मी कहाँ है?"
अंजलि को अपनी आँखों पर यकीन नहीं हुआ। यह वही मेजर था जिसने कल उस पर इतना गुस्सा किया था? यह वही 'शेर' था जिसके बारे में बलविंदर ने बताया था? वह कितनी नरमी से उस छोटे से जानवर से बात कर रहा था। उसकी आवाज़ में एक अजीब सी ममता थी, एक ऐसा प्यार था जिसे उसने विक्रम के चेहरे पर कभी नहीं देखा था।
विक्रम ने एक और बिस्कुट पिल्ले को दिया और उसे सहलाते रहे। "चल, अब खा ले। फिर अपनी जगह पर चला जा। यहाँ ज़्यादा देर नहीं रुक सकते, दुश्मन आ जाएगा।" उन्होंने मज़ाक में कहा और हँस पड़े। उनकी हँसी बहुत हल्की थी, लेकिन अंजलि को वह आवाज़ बहुत प्यारी लगी। वह इतनी देर से उन्हें देख रही थी और उन्हें ज़रा भी अंदाज़ा नहीं था कि कोई उन्हें देख रहा है।
अंजलि का दिल पिघल गया। वह सोच रही थी कि यह आदमी कितना अलग है! बाहर से इतना सख़्त, अनुशासित, रौबदार... लेकिन अंदर से इतना कोमल और संवेदनशील। उसकी आँखों में एक अजीब सी चमक आ गई। अब उसे बलविंदर की बात पर पूरा यकीन हो गया था। मेजर साब वाकई बाहर से नारियल जैसे सख्त, पर अंदर से नरम थे।
विक्रम ने पिल्ले को आखिरी बिस्कुट दिया और फिर उठकर खड़े हो गए। उन्होंने अपनी वर्दी ठीक की और एक बार फिर उनके चेहरे पर वही गंभीरता आ गई। वह कैंटोनमेंट की तरफ़ मुड़े और चलने लगे। अंजलि तुरंत पेड़ों के पीछे छिप गई ताकि वह उसे देख न पाए।
विक्रम के जाने के बाद, अंजलि अपनी जगह से निकली। उसके चेहरे पर एक अजीब सी मुस्कान थी। उसने अपनी जैकेट की जेब से अपना छोटा वाला पोर्टेबल मोबाइल निकाला। यह वह मोबाइल था जो उसे उसके ब्लॉगर दोस्त ने इमरजेंसी के लिए दिया था, जिसमें थोड़ी बहुत रिकॉर्डिंग हो सकती थी।
उसने कैमरा ऑन किया और खुद को रिकॉर्ड करना शुरू किया। "ओके दोस्तों, अनी की फंकी दुनिया में एक बहुत बड़ा अपडेट है!" उसकी आवाज़ पहले से ज़्यादा उत्साहित थी। "आप सब सोच रहे होंगे कि मैं कहाँ हूँ और मेरा व्लॉग क्यों नहीं आ रहा है, है ना?"
उसने एक लंबी साँस ली। "ठीक है, तो आज मैं आपसे कुछ ऐसा शेयर करने वाली हूँ, जो मैंने खुद कभी सोचा भी नहीं था। कल रात मुझे बहुत भूख लगी थी और मैं उदास थी, तो एक बहुत ही अच्छे इंसान ने मेरे लिए खाना भेजा। और आज सुबह, मैंने एक ऐसी चीज़ देखी जिसने मेरे दिमाग के सारे फ्यूज़ उड़ा दिए!"
उसकी आँखों में अभी भी हैरानी थी। "आपको याद है, मैंने आपको 'मेजर खड़ूस' के बारे में बताया था? हाँ, वही, जिन्होंने मेरा ड्रोन और मेरा कैमरा तोड़ दिया था। मुझे लगा था कि वो दुनिया के सबसे सख़्त, सबसे अक्खड़ इंसान हैं, जिनसे बचकर रहना चाहिए। लेकिन आज मैंने कुछ ऐसा देखा... जिसने मेरी पूरी सोच बदल दी।"
अंजलि ने अपने कैमरे को पहाड़ों की तरफ़ घुमाया, लेकिन विक्रम की तरफ़ नहीं। "मैंने देखा कि वो 'खड़ूस मेजर' एक छोटे से आवारा पिल्ले को बिस्कुट खिला रहे थे। वो इतनी प्यार से उससे बात कर रहे थे, इतने जेंटल थे... जैसे वो दुनिया के सबसे प्यारे इंसान हों! उनकी आवाज़ में इतनी कोमलता थी कि मेरा दिल ही पिघल गया!"
उसने कैमरे को वापस अपनी तरफ़ घुमाया। "मुझे लगता है कि हम कभी-कभी लोगों को उनके बाहरी रूप से आँक लेते हैं। हम देखते हैं कि वे कितने सख्त हैं, कितने नियम-कानून वाले हैं, और सोच लेते हैं कि वे ऐसे ही होंगे। लेकिन कभी-कभी, आपको दीवार के पीछे देखना पड़ता है, उस नारियल के अंदर, जहाँ एक बहुत ही नरम, मीठा और प्यारा दिल छिपा होता है।"
अंजलि ने मुस्कुराते हुए कहा, "तो दोस्तों, मुझे लगता है कि 'मेजर खड़ूस' उतने भी खड़ूस नहीं हैं। शायद, वह अंदर से बिलकुल अलग हैं। और मुझे यह जानकर बहुत अच्छा लग रहा है। शायद यह 'डिजिटल डिटॉक्स' और 'खुद को खोजने' का प्लान काम कर रहा है। मैंने यहाँ कुछ ऐसा खोज लिया है जिसकी मुझे बिलकुल उम्मीद नहीं थी।"
उसने एक लंबी साँस ली। "मुझे नहीं पता कि आगे क्या होगा, लेकिन मुझे लगता है कि यह जगह और यहाँ के लोग मुझे बहुत कुछ सिखाने वाले हैं। मैं अपने ड्रोन और कैमरे के बिना भी कुछ बहुत ही रियल और इमोशनल कंटेंट बना सकती हूँ। और शायद, एक 'खड़ूस मेजर' भी मेरे व्लॉग का एक बहुत ही इंटरेस्टिंग कैरेक्टर बन सकते हैं! कौन जानता है?"
उसने हँसते हुए रिकॉर्डिंग बंद कर दी। उसके चेहरे पर अब एक नई चमक थी। विक्रम के लिए उसका गुस्सा पूरी तरह से चला गया था, उसकी जगह एक नई उत्सुकता और एक अनजाना आकर्षण ले चुका था। उसे लग रहा था कि यह पहाड़ अब सिर्फ़ उसकी शादी से भागने की जगह नहीं है, बल्कि एक ऐसी जगह है जहाँ उसे कुछ बहुत ही खास मिलने वाला है। उसने उस छोटे पिल्ले वाली जगह पर एक बार फिर देखा, और उसके होंठों पर एक प्यारी सी मुस्कान आ गई। मेजर विक्रम सिंह राठौर अब उसके लिए सिर्फ़ 'खड़ूस मेजर' नहीं थे, बल्कि 'मेजर साब' थे, जिनके बारे में वह और जानना चाहती थी।
Chapter 14
रात का दूसरा पहर था। देवगढ़ का पूरा इलाका गहरे सन्नाटे में डूबा हुआ था। सिर्फ़ हवा के धीमे चलने की सरसराहट और दूर कहीं किसी उल्लू की आवाज़ ही इस खामोशी को तोड़ रही थी। पहाड़ों की ठंडी, साफ़ हवा में एक अजीब सी शांति घुली हुई थी, जिसने दिन भर की गहमागहमी को अपने आँचल में समेट लिया था। आकाश में चाँद अपनी पूरी चाँदनी बिखेर रहा था, जिसकी रौशनी में पहाड़ और भी रहस्यमय और शांत लग रहे थे। कैंटोनमेंट एरिया में भी सब कुछ शांत था। दिन भर की ट्रेनिंग, अभ्यास और मिशन की तैयारियों के बाद, जवान गहरी नींद में थे। लेकिन एक कमरा ऐसा भी था जहाँ अभी भी जाग था।
मेजर विक्रम सिंह राठौर अपने क्वार्टर की बालकनी में खड़े थे। उनकी आँखें दूर पहाड़ों पर टिकी थीं, जो चाँदनी में नहाए हुए किसी विशालकाय प्रहरी की तरह खड़े थे। उनके चेहरे पर हमेशा की तरह गंभीरता थी, लेकिन इस रात की खामोशी ने उनके अंदर के विचारों को बाहर ला दिया था। वह अपनी वर्दी में नहीं थे, बल्कि एक साधारण टी-शर्ट और पजामा पहने हुए थे, जो उनके सख़्त फौजी व्यक्तित्व से बिलकुल अलग दिख रहा था। उनके एक हाथ में एक पुरानी, चमड़े की बाइंडिंग वाली डायरी थी और दूसरे हाथ में एक पेन।
वह अक्सर रात के इस शांत समय में अपनी भावनाओं को कागज़ पर उतारते थे। उनका बाहरी जीवन जितना अनुशासित और कड़क था, उनका आंतरिक जीवन उतना ही भावुक और संवेदनशील था। शायरी उनकी सच्ची दोस्त थी, एक ऐसा माध्यम जिसके ज़रिए वह अपने दिल की बात कह पाते थे, जो वह किसी और से नहीं कह सकते थे। इस डायरी में उन्होंने सालों से अपने अनुभव, अपनी भावनाएँ, देश के प्रति अपना प्रेम और कभी-कभी अपनी तन्हाई को भी शब्दों का रूप दिया था।
उन्होंने डायरी का एक पन्ना पलटा, जो खाली था। उनकी नज़रें दूर, गेस्टहाउस की तरफ़ गईं, जहाँ अब भी कुछ हल्की सी रौशनी दिख रही थी। उनके दिमाग में दिन भर की घटनाएँ घूम रही थीं — अंजलि की बेतुकी हरकतें, उसका अजीब सा 'देसी गर्ल' वाला अवतार, किचन में उसका पास्ता बनाने का असफल प्रयास, और फिर रात को बलविंदर के हाथों भेजे गए पराठे... उन्हें याद आया कि सुबह उन्होंने उस छोटे पिल्ले को बिस्कुट खिलाया था। उन्हें खुद हैरानी हो रही थी कि वह क्यों अंजलि के बारे में इतना सोच रहे थे। यह लड़की उसकी सख़्त और व्यवस्थित दुनिया में एक अनचाही, रंगीन हलचल लेकर आई थी।
उन्होंने पेन उठाया और डायरी में लिखना शुरू किया। उनकी लिखावट साफ़ और सुथरी थी, बिलकुल उनके व्यक्तित्व की तरह। शब्द धीरे-धीरे कागज़ पर उतरने लगे, उनके विचारों को एक सुंदर रूप दे रहे थे। वह अपने कर्तव्य, अपने देश के प्रति अपने समर्पण, और इस अकेलेपन की भावना के बारे में लिख रहे थे जो कभी-कभी उन्हें घेर लेती थी। लेकिन आज, उनके शब्दों में कुछ और भी था—एक अनकही, नई भावना, जिसे वह पूरी तरह से समझ नहीं पा रहे थे।
कुछ पल लिखने के बाद, उन्होंने पेन नीचे रखा और लिखे हुए शब्दों को धीरे से पढ़ने लगे। उनकी आवाज़ गहरी और दमदार थी, लेकिन उसमें एक अजीब सी नरमी और दर्द भी था, जो रात के सन्नाटे में घुल रहा था।
वह धीमे स्वर में बोले, "हर सिपाही की ज़िंदगी बस फ़र्ज़ की इबादत है,"
एक पल रुके, अपनी आँखों को बंद कर, फिर आगे बढ़े, "इस वीराने में दिल को भी कहाँ राहत है।"
उन्होंने एक गहरी साँस ली, जैसे कोई भारी बोझ उठा रहे हों, और फिर एक हल्की सी मुस्कान के साथ कहा,
"पर कभी-कभी इन खामोशियों में,"
उनकी आवाज़ में एक हल्की सी उम्मीद की किरण थी, "इक नई धड़कन की मिलती आहट है।"
विक्रम ने एक बार फिर उन शब्दों को मन ही मन दोहराया। 'इक नई धड़कन की मिलती आहट है।' क्या यह सच था? क्या इस शांत और कर्तव्यपरायण जीवन में कोई नई आहट आ रही थी? उनके दिमाग में अचानक अंजलि का चुलबुला चेहरा कौंध गया। वह मुस्कुराए। यह मुस्कान उनके होंठों पर बहुत कम आती थी, लेकिन जब आती थी, तो वह बहुत सच्ची होती थी। उन्होंने डायरी बंद की और चाँदनी को निहारते रहे, उनके मन में अजीब सी शांति थी।
उधर गेस्टहाउस की छत पर, अंजलि बैठी थी। रात भर की घटनाओं और मेजर विक्रम के विरोधाभासी व्यवहार ने उसे बेचैन कर रखा था। पराठे खाने के बाद उसे थोड़ी राहत मिली थी, लेकिन मेजर के नरम दिल वाले पहलू ने उसे सोचने पर मजबूर कर दिया था। वह दिल्ली की भीड़-भाड़ वाली रातें बिताने की आदी थी, जहाँ हमेशा कोई न कोई शोर रहता था। यहाँ की खामोशी उसे अजीब लग रही थी, लेकिन फिर भी वह छत पर ताज़ी हवा लेने आ गई थी।
वह आसमान में टिमटिमाते तारों को देख रही थी और अपने भविष्य के बारे में सोच रही थी। उसके पास एक बड़ा निर्णय था – दिल्ली वापस जाना और अपनी शादी के मामले का सामना करना, या यहाँ देवगढ़ में रहकर कुछ नया खोजना। उसने मेजर विक्रम के साथ अपनी पिछली मुलाकातों को याद किया – ड्रोन को लेकर बहस, कैमरे की छीना-झपटी, और आज सुबह पिल्ले वाला दृश्य। उसे अब वह 'मेजर खड़ूस' नहीं लग रहा था। उसकी छवि अब ज़्यादा जटिल और दिलचस्प हो गई थी।
तभी, हवा में एक गहरी और मर्दानी आवाज़ तैरती हुई आई। यह आवाज़ साफ़ थी, लेकिन इतनी धीमी कि अगर अंजलि ध्यान से न सुनती तो शायद उसे सुनाई भी न देती। यह किसी के बोलने की आवाज़ नहीं थी, बल्कि किसी के कुछ पढ़ने की आवाज़ थी। अंजलि ने अपनी पलकें झपकाईं। 'ये किसकी आवाज़ है?' उसने सोचा। आवाज़ में एक अजीब सी गहराई थी, एक उदासी थी, लेकिन साथ ही एक खूबसूरती भी थी। वह तुरंत समझ गई कि यह शायरी थी।
उसने और ध्यान से सुनने की कोशिश की। आवाज़ कैंटोनमेंट की तरफ़ से आ रही थी, जहाँ मेजर विक्रम का क्वार्टर था। क्या वह वही था? नहीं, वह तो एक फौजी है। सख़्त, अनुशासित। वह कहाँ ऐसी गहरी शायरी पढ़ सकता है? अंजलि का दिमाग इस विचार को स्वीकार करने से इनकार कर रहा था। लेकिन आवाज़ बहुत लुभावनी थी, और उसके दिल को छू रही थी।
दूसरी पंक्ति सुनकर अंजलि चौंक उठी। "हर सिपाही की ज़िंदगी बस फ़र्ज़ की इबादत है, इस वीराने में दिल को भी कहाँ राहत है।" ये शब्द उसके दिल में उतर गए। इतनी ईमानदारी, इतनी सच्चाई! कौन हो सकता है जो इस तरह की गहरी बात कह रहा है, इतनी रात को, इस वीराने में? उसे लगा जैसे किसी ने उसके अंदर की भावनाओं को पढ़ लिया हो। उसे भी दिल्ली में अपने घर की, अपने दोस्तों की, अपनी पुरानी ज़िंदगी की कमी खल रही थी। यह वीरान पहाड़ उसे कभी-कभी अकेला महसूस कराता था, और उसे लगता था कि शायद किसी फौजी का जीवन भी ऐसा ही अकेला होता होगा।
अगली पंक्ति सुनकर अंजलि के रोंगटे खड़े हो गए। "पर कभी-कभी इन खामोशियों में, इक नई धड़कन की मिलती आहट है।" यह पंक्ति उसके लिए एक रहस्य बन गई। 'नई धड़कन?' किसकी नई धड़कन? और कहाँ से? आवाज़ में एक उम्मीद थी, एक हल्की सी उत्सुकता थी, जो अंजलि के अपने दिल में भी महसूस हो रही थी।
अंजलि धीरे से खड़ी हुई। वह आवाज़ की दिशा में मुड़ी, कैंटोनमेंट की तरफ़। हालाँकि वह सीधे विक्रम के क्वार्टर को नहीं देख पा रही थी, लेकिन उसे पता था कि आवाज़ उसी दिशा से आ रही है। वह अपने मन में तरह-तरह के ख्याल लाने लगी। क्या यह कोई जवान है जो अपनी प्रेमिका को याद कर रहा है? या कोई पुराना फौजी जो अपनी पुरानी यादों में खोया हुआ है? लेकिन आवाज़ में एक परिपक्वता और एक अधिकार था जो किसी जवान में नहीं हो सकता था।
उसने सोचा, 'क्या यह मेजर विक्रम हो सकते हैं? नहीं, यह तो नामुमकिन है! वह तो सिर्फ़ नियम-कानून और अनुशासन की बात करते हैं। ऐसी भावुक शायरी वह कैसे पढ़ सकते हैं?' लेकिन फिर उसे सुबह पिल्ले को बिस्कुट खिलाने वाला दृश्य याद आया। उस पल में भी तो उसके 'खड़ूस मेजर' के अंदर का नरम दिल सामने आया था। अगर वह पिल्ले के लिए इतने कोमल हो सकते हैं, तो शायरी के लिए क्यों नहीं? यह विचार उसके दिमाग में जड़ पकड़ने लगा।
वह कुछ देर वहीं खड़ी रही, हवा में घुल रही उस आवाज़ की गूँज को महसूस करती रही। चाँदनी उस पर पड़ रही थी और उसके अंदर एक अजीब सी हलचल पैदा कर रही थी। उसे लगा जैसे उसे इस शांत देवगढ़ में कोई अनमोल खज़ाना मिल गया हो। वह आवाज़, वह शायरी, उस आदमी की पहचान चाहे जो भी हो, उसने अंजलि के दिल में एक गहरी छाप छोड़ी थी। यह सिर्फ़ कुछ शब्द नहीं थे, बल्कि एक एहसास था, एक कनेक्शन था जिसे वह समझ नहीं पा रही थी।
अंजलि को अब पता था कि देवगढ़ सिर्फ़ पहाड़ों और फौजी कैंटोनमेंट वाला एक शांत कस्बा नहीं था। यहाँ बहुत कुछ ऐसा था जो उसकी 'फंकी दुनिया' से बिलकुल अलग था, लेकिन जिसे वह अब जानने के लिए बेताब थी। उस रहस्यमयी आवाज़ और शायरी ने उसे एक नई दिशा दे दी थी। वह अब सिर्फ़ अपने ड्रोन और कैमरे के लिए नहीं लड़ना चाहती थी, बल्कि उस सख़्त वर्दी के पीछे छिपे दिल और उस अनकही शायरी को भी जानना चाहती थी। उसके मन में एक ही सवाल गूँज रहा था, 'कौन है ये? कौन है वो जिसने इतनी रात को मेरे दिल को छू लिया?' यह पल उसके लिए बहुत खास था, एक ऐसा रहस्य जो अब उसे अपनी तरफ़ खींच रहा था, और वह खुद को रोक नहीं पा रही थी। उसके दिल में एक नई धड़कन की आहट थी।
Chapter 15
रात की वह शायरी भरी खामोशी, उस अनाम आवाज़ का जादू, और अंजलि के दिल में उमड़ रही नई धड़कन... सब कुछ अगले ही पल प्रकृति के एक भयानक रूप के सामने फीका पड़ गया। सुबह होने में अभी कुछ घंटे बाकी थे, जब देवगढ़ में मौसम ने अचानक एक भयानक करवट ली। पहले तो हल्की-हल्की बूँदाबाँदी शुरू हुई, फिर देखते ही देखते वह तेज़ बारिश में बदल गई। पहाड़ों में इस तरह की अचानक और मूसलाधार बारिश कोई असामान्य बात नहीं थी, लेकिन आज यह कुछ ज़्यादा ही ज़ोरदार थी। बारिश की बूँदें छतों पर, पत्थरों पर और पेड़ों पर इस तरह बरस रही थीं, जैसे आसमान से पानी नहीं, बल्कि पत्थर गिर रहे हों।
अंजलि अपनी नींद में ही बेचैन हो उठी। खिड़की से आती तेज़ हवा और बारिश की आवाज़ ने उसकी नींद तोड़ दी थी। वह उठकर बैठी। "क्या हो रहा है ये?" उसने बुदबुदाया। गेस्टहाउस की खिड़कियाँ तेज़ी से खड़खड़ रही थीं और बाहर सब कुछ अँधेरे और पानी में डूबा हुआ लग रहा था। बिजली चमक रही थी और बादलों की गर्जना से पूरा देवगढ़ गूँज रहा था। अंजलि को डर लगने लगा। उसने अपने कंबल को कसकर पकड़ लिया, शहर की चकाचौंध में पली-बढ़ी अंजलि ने ऐसी भयानक बारिश पहले कभी नहीं देखी थी।
बारिश बढ़ती जा रही थी और उसी के साथ पहाड़ों से आने वाली आवाज़ें भी बदल रही थीं। पानी के बहाव की आवाज़, मिट्टी के खिसकने की आवाज़... और फिर, आधी रात के बाद, एक ज़ोरदार गड़गड़ाहट की आवाज़ आई। यह बिजली या बादल की नहीं थी। यह एक ऐसी आवाज़ थी जिसने पूरी ज़मीन को हिला दिया। गेस्टहाउस की दीवारें काँप उठीं और अंजलि अपने बिस्तर से उछल पड़ी। "ये क्या था?!" उसकी आवाज़ डर से काँप रही थी। उसे लगा जैसे कोई बहुत बड़ी चीज़ टूटकर नीचे गिर गई हो।
वह दौड़ी हुई खिड़की तक गई और पर्दा हटाया। बाहर का नज़ारा भयावह था। बिजली चमकने पर उसे दिखाई दिया कि पहाड़ के एक हिस्से से मिट्टी, पत्थर और पेड़ तेज़ी से नीचे आ रहे थे। एक बहुत बड़ा लैंडस्लाइड (भूस्खलन) हुआ था। उसने देखा कि जिस दिशा में देवगढ़ को बाहर की दुनिया से जोड़ने वाला एकमात्र रास्ता था, वहाँ अब सिर्फ़ मलबे का ढेर था। रास्ता पूरी तरह से बंद हो चुका था। "ओह माय गॉड!" वह डर के मारे चिल्लाई। उसकी समझ में आ गया कि अब वह पूरी तरह से देवगढ़ में फँस चुकी थी।
सुबह हुई, लेकिन सूरज बादलों के पीछे छिपा हुआ था। बारिश थोड़ी धीमी हुई थी, लेकिन हर तरफ़ कीचड़ और मलबे का ढेर था। गेस्टहाउस में भी अफरा-तफरी का माहौल था। रतनलाल और उसकी पत्नी डरे हुए थे, और दूसरे मेहमान भी चिंतित दिख रहे थे।
"यहाँ से बाहर निकलने का रास्ता बंद हो गया है!" एक बूढ़ा आदमी घबराते हुए चिल्लाया।
"अब क्या होगा? राशन पानी कैसे आएगा?" एक महिला ने चिंता से पूछा।
अंजलि ने लोगों के डरे हुए चेहरों को देखा। उसे अपनी चिंता से ज़्यादा अब यहाँ के लोगों की चिंता होने लगी थी। उसका दिल्ली जाने का प्लान, उसकी अरेंज मैरिज से बचने का इरादा... सब कुछ अब एक मज़ाक लग रहा था। वह वाकई फँस चुकी थी। उसका फोन भी काम नहीं कर रहा था, और नेटवर्क पूरी तरह से गायब था।
लेकिन इस अफरा-तफरी के बीच, एक जगह ऐसी भी थी जहाँ अनुशासन और हिम्मत ने अपनी जगह बना रखी थी - आर्मी कैंटोनमेंट। जैसे ही मौसम थोड़ा शांत हुआ, मेजर विक्रम सिंह राठौर अपनी पूरी टीम के साथ एक्शन में आ गए। उनके चेहरे पर कोई डर नहीं था, सिर्फ़ दृढ़ संकल्प था। उन्होंने तुरंत स्थिति का जायजा लिया।
"सूबेदार बलविंदर सिंह!" विक्रम की आवाज़ दमदार और स्पष्ट थी, जो शोर के बावजूद हर जवान तक पहुँच रही थी। "जवानों को तैयार करो! मेडिकल टीम, रेस्क्यू टीम, सब अलर्ट पर रहें! रास्ता तुरंत साफ़ करना होगा!"
बलविंदर तुरंत हरकत में आया। "यस मेजर साब!" उसने सीना ठोककर कहा। वह जानता था कि ऐसे मुश्किल समय में मेजर विक्रम ही उनके असली लीडर थे।
विक्रम ने एक छोटे से नक्शे को देखा और अपनी टीम को निर्देश देने लगे। "हमें तुरंत मलबे के दूसरी तरफ़ जाना होगा। कुछ गाँव वाले वहाँ फँसे हो सकते हैं। और रास्ता पूरी तरह से बंद है, इमरजेंसी सप्लाई पहुँचाना मुश्किल होगा।"
एक जवान ने पूछा, "मेजर साब, रास्ता पूरी तरह से ब्लॉक है। दूसरी तरफ़ जाने का कोई सुरक्षित मार्ग नहीं है।"
विक्रम ने पहाड़ को एक गहरी नज़र से देखा। उन्हें पता था कि एक वैकल्पिक रास्ता था, लेकिन वह बेहद खतरनाक था। उसमें चट्टानों से फिसलने और और ज़्यादा मलबे के गिरने का खतरा था। लेकिन किसी और विकल्प का मतलब था फँसे हुए गाँव वालों को मरने के लिए छोड़ देना।
उनके चेहरे पर एक पल के लिए चिंता की लकीरें उभरीं, लेकिन फिर वे गायब हो गईं। "हम इंतज़ार नहीं कर सकते," उन्होंने दृढ़ता से कहा। "अगर कोई सुरक्षित मार्ग नहीं है, तो हमें एक नया मार्ग बनाना होगा।" उनकी आँखों में अपने देश और अपने लोगों के लिए समर्पण साफ़ झलक रहा था। उन्होंने अपनी टीम की तरफ़ देखा। "जो रास्ता सबसे खतरनाक है, वही सबसे तेज़ होगा। मैं खुद सबसे आगे रहूँगा।"
उनके जवान उन्हें देखकर प्रेरित हो गए। सूबेदार बलविंदर ने गर्व से अपना सीना चौड़ा किया। "शेर आज पूरे फॉर्म में है!" उसने मन ही मन सोचा।
विक्रम ने अपनी टीम को आवश्यक उपकरण और सुरक्षा गियर तैयार करने का आदेश दिया। वह बिना अपनी जान की परवाह किए, उन गाँव वालों तक पहुँचने के लिए एक खतरनाक और जोखिम भरा रास्ता चुनने को तैयार थे। देवगढ़ पर प्रकृति का कहर टूटा था, लेकिन मेजर विक्रम सिंह राठौर एक ढाल बनकर खड़े थे, अपने लोगों की रक्षा के लिए। अंजलि, गेस्टहाउस की खिड़की से इस सब को देख रही थी। उसने देखा कि लोग डरे हुए थे, लेकिन विक्रम एक चट्टान की तरह स्थिर था। उसकी आंखों में एक अजीब सी चमक थी, जो पहले की "खड़ूस मेजर" वाली छवि से कोसों दूर थी। वह एक लीडर था, एक सच्चा हीरो, जो मुसीबत में सबसे आगे खड़ा था। यह पहली बार था जब अंजलि ने उसे अपने वास्तविक रूप में देखा था।
Chapter 16
Chapter 16
सुबह का वक्त था, लेकिन देवगढ़ में अभी भी अँधेरा और डर छाया हुआ था। हर तरफ़ मिट्टी और पत्थरों का ढेर लगा था, और लगातार हो रही बारिश ने हालात और भी बदतर कर दिए थे। गेस्टहाउस में जहाँ अंजलि फँसी हुई थी, लोग सहमे हुए थे। कोई अपने घर जाने की बात कर रहा था, तो कोई खाने-पीने की चीज़ों की चिंता कर रहा था। अंजलि भी डरी हुई थी, लेकिन उसके अंदर कुछ नया महसूस हो रहा था। दिल्ली की अपनी भाग-दौड़ भरी ज़िंदगी में उसने कभी ऐसी प्राकृतिक आपदा का सामना नहीं किया था। उसे बाहर जाने का कोई रास्ता नहीं दिख रहा था, लेकिन वह निष्क्रिय होकर बैठी भी नहीं रह सकती थी।
उसने अपने डर को एक तरफ़ रखा, जैकेट पहनी और गेस्टहाउस से बाहर निकल गई। उसे पता था कि मेजर विक्रम और उनकी टीम बचाव कार्य में जुटी होगी। वह घटनास्थल पर पहुँची। वहाँ का नज़ारा बिलकुल अलग था। जहाँ गाँव वाले और कुछ स्थानीय लोग डरे और असमंजस में खड़े थे, वहीं आर्मी के जवान पूरी मुस्तैदी से काम कर रहे थे। एक तरफ़ से पत्थरों को हटाया जा रहा था, दूसरी तरफ़ मेडिकल टीम घायलों को फर्स्ट-एड दे रही थी। माहौल तनावपूर्ण था, लेकिन आर्मी के जवानों के चेहरे पर अनुशासन और दृढ़ता साफ़ दिख रही थी।
अंजलि की नज़र मेजर विक्रम सिंह राठौर पर पड़ी। वह अब वैसी वर्दी में नहीं थे जैसी उसने पहले देखी थी। उनका चेहरा धूल और मिट्टी से सना हुआ था, और उनकी वर्दी भी कीचड़ से अटी हुई थी। लेकिन उनकी आँखों में एक अलग सी चमक थी – एक सच्चे लीडर की चमक। वह किसी ऑफिस में बैठकर आदेश नहीं दे रहे थे, बल्कि खुद सबसे आगे खड़े होकर काम कर रहे थे।
वह लोगों को शांत करा रहे थे। "डरने की कोई बात नहीं है! सेना आपके साथ है! हम जल्द ही रास्ता खोल देंगे!" उनकी आवाज़ में इतना भरोसा था कि डरे हुए गाँव वालों को भी थोड़ी हिम्मत मिल रही थी।
अंजलि ने देखा कि विक्रम एक बड़े पत्थर को हटाने में मदद कर रहे थे, उनके साथी जवान भी पूरी ताक़त लगा रहे थे। "एक साथ, हो जाओ तैयार!" विक्रम ने आवाज़ दी। उनकी नसों में देशभक्ति का जज़्बा बह रहा था। उन्होंने सिर्फ़ देश की रक्षा का प्रण नहीं लिया था, बल्कि देश के हर नागरिक की सुरक्षा का भी प्रण लिया था।
फिर उसने एक ऐसा नज़ारा देखा जिसने उसके दिल को छू लिया। एक छोटी बच्ची मलबे के पास खड़ी रो रही थी। वह अपनी माँ से बिछड़ गई थी और उसके पैर में भी मामूली चोट आई थी। बच्ची कांप रही थी और उसकी आँखों में आँसू थे। विक्रम ने बच्ची को देखा, और उसके सख़्त चेहरे पर भी एक पल के लिए नरमी आ गई। वह तुरंत बच्ची के पास गए, घुटनों के बल बैठे और अपने कीचड़ सने हाथों से बच्ची के गाल पर हाथ फेरा।
"डरो मत, मेरी बच्ची," विक्रम ने बच्ची से बहुत प्यार से कहा। "पापा कहाँ हैं तुम्हारे?"
बच्ची बस रोए जा रही थी। विक्रम ने बिना कुछ सोचे-समझे बच्ची को अपनी गोद में उठा लिया। वह उसे अपने सीने से लगाए हुए थे, ताकि बच्ची को सुरक्षित और गर्म महसूस हो। वह उसे एक सुरक्षित स्थान पर ले गए, जहाँ मेडिकल टीम बच्ची की जाँच कर सके। उन्होंने बच्ची की माँ को भी ढूंढने के लिए निर्देश दिए।
यह मेजर विक्रम का वह रूप था जिसकी अंजलि ने कभी कल्पना भी नहीं की थी। वह सिर्फ़ एक कड़क फौजी या 'मेजर खड़ूस' नहीं थे। वह एक इंसान थे, एक रक्षक थे, जो अपने लोगों की परवाह करते थे, चाहे वे उनके जवान हों या एक छोटी सी बच्ची। उनकी आँखों में कर्तव्य, दया और एक गहरा मानवीयपन साफ़ झलक रहा था।
अंजलि को एहसास हुआ कि उसकी पिछली सारी सोच कितनी गलत थी। वह जिसे 'खड़ूस' कह रही थी, वह असल में एक नायक था, एक ऐसा व्यक्ति जो अपनी जान जोखिम में डालकर दूसरों की मदद कर रहा था। उसके दिल में विक्रम के लिए सम्मान और प्रशंसा बहुत बढ़ गई। "मेजर खड़ूस" अब सिर्फ़ "मेजर साहब" बन गए थे, और उनके दिल में उनके लिए एक अनकही जगह बन रही थी।
अंजलि ने धीरे से अपना फोन निकाला। उसने कैमरे का ऐप खोला। इस बार वह व्लॉग के लिए कोई लाइव-स्ट्रीम या फ़िल्टर का इस्तेमाल नहीं कर रही थी। वह विक्रम की तस्वीरें ले रही थी – उसकी कीचड़ सनी वर्दी की, उसके मदद करते हुए हाथों की, उस छोटे बच्चे को गोद में उठाए हुए उसके चेहरे की। ये तस्वीरें उसके व्लॉग के लिए नहीं थीं, ये उसकी अपनी याद के लिए थीं। ये तस्वीरें उसके दिल में हमेशा के लिए बस जाने वाली थीं। उस पल उसे लगा कि भले ही देवगढ़ ने उसे फँसा दिया हो, लेकिन शायद यहाँ आने का यही मकसद था – उस इंसान को जानना, जिसने उसके लिए 'नायक' शब्द का असली मतलब बदल दिया था।
Chapter 17
बचाव कार्य स्थल से लौटकर अंजलि सीधे गेस्टहाउस अपने कमरे में आ गई। बाहर अभी भी हल्की-हल्की बारिश हो रही थी और हवा में मिट्टी की सौंधी-सौंधी गंध थी। उसके दिमाग में अभी भी मेजर विक्रम का चेहरा घूम रहा था। उसने उन्हें एक अलग ही रूप में देखा था – एक नायक, एक रक्षक, जो अपनी परवाह किए बिना दूसरों की जान बचा रहा था। 'खड़ूस' और 'अकड़ू' जैसे शब्द अब उसे बहुत दूर के और बेमानी लगने लगे थे। उसके दिल में उनके लिए सम्मान और शायद कुछ और भी पनप रहा था, जिसे वह अभी समझ नहीं पा रही थी।
लेकिन कुछ देर बाद, उस गहरे सम्मान के एहसास पर फिर से बोरियत हावी होने लगी। देवगढ़ में, जहाँ नेटवर्क और इंटरनेट का नामोनिशान नहीं था, अंजलि के लिए समय बिताना मुश्किल हो रहा था। उसका फोन बेकार पड़ा था। वह अपने फॉलोअर्स को अपडेट नहीं दे सकती थी, रील्स नहीं बना सकती थी, और न ही कोई नई फ़ैशन टिप पोस्ट कर सकती थी। उसकी 'फंकी दुनिया' यहाँ आकर पूरी तरह से थम गई थी। उसने अपनी किताब उठाई, लेकिन उसका मन नहीं लगा। वह अपने कमरे में इधर-उधर टहलती रही, कभी खिड़की से बाहर पहाड़ों को देखती, तो कभी अपनी अलमारी में रखे फैशनेबल कपड़ों को। उसे लग रहा था जैसे वह किसी पिंजरे में बंद हो गई हो।
"ओह माय गॉड! मैं यहाँ क्या करूँ?" उसने झुंझलाहट में खुद से कहा। "मेरा दिमाग काम करना बंद कर रहा है। कोई इंटरनेट नहीं, कोई शॉपिंग नहीं, कोई कैफ़े नहीं, कोई फ्रेंड्स नहीं... बस ये पहाड़ और ये बोरियत।"
वह अपने कमरे से बाहर निकली और गेस्टहाउस में इधर-उधर घूमने लगी। हॉलवे में कुछ और मेहमान बैठे थे, जो अपने मोबाइल पर नेटवर्क ढूंढने की नाकाम कोशिश कर रहे थे या चुपचाप एक-दूसरे से धीमी आवाज़ में बातें कर रहे थे। रतनलाल और उसकी पत्नी भी कहीं नज़र नहीं आ रहे थे, शायद वे भी अपनी परेशानियों में उलझे थे। गेस्टहाउस में एक अजीब सी खामोशी छाई हुई थी, जो अंजलि के शहर के शोरगुल से बिल्कुल अलग थी।
वह एक कॉरिडोर से गुज़र रही थी जब उसे एक कोने में एक बंद दरवाज़ा दिखा। उस पर धूल की मोटी परत चढ़ी हुई थी और दरवाज़े के पास से हल्की सी पुरानी लकड़ी की गंध आ रही थी। जिज्ञासा से प्रेरित होकर, उसने दरवाज़े का हैंडल घुमाया। वह खुला नहीं। "बंद है शायद," उसने सोचा। लेकिन फिर उसे लगा कि शायद यह खुला हुआ हो। उसने ज़ोर लगाकर हैंडल घुमाया और धक्का दिया। दरवाज़ा एक चरमराहट की आवाज़ के साथ खुल गया, जिससे धूल का एक गुबार उठा।
अंदर एक छोटा सा, अँधेरा और धूल से भरा स्टोर रूम था। वहाँ पुरानी चीज़ें रखी हुई थीं – टूटी हुई कुर्सियाँ, खाली बक्से, कुछ पुराने कंबल और एक ज़ंग लगा हुआ साइकिल। सूरज की रोशनी एक छोटे से छेद से अंदर आ रही थी, जिससे धूल के कण हवा में नाचते हुए दिख रहे थे। अंजलि को ऐसी पुरानी जगहों में हमेशा एक रहस्यमयी खिंचाव महसूस होता था।
वह कमरे में दाखिल हुई। हर कदम पर धूल उड़ रही थी। उसकी नज़र कमरे के बीच में रखी एक चीज़ पर पड़ी। वह एक पुराना, नक्काशीदार लकड़ी का संदूक था। वह काफ़ी बड़ा और भारी लग रहा था, और उस पर बारीक डिज़ाइन बनी हुई थी। संदूक पर भी धूल की मोटी परत जमी थी, जिससे लग रहा था कि उसे सालों से किसी ने छुआ नहीं था। उसके किनारों पर पीतल की पट्टियाँ लगी थीं जो अब हरी पड़ चुकी थीं। अंजलि को ऐसी पुरानी चीज़ें बहुत पसंद थीं, और इस संदूक में उसे कुछ ख़ास बात लगी।
"ये कितना खूबसूरत है!" उसने अपने हाथ से धूल हटाते हुए कहा। "इसे यहाँ इस तरह से क्यों फेंका हुआ है?"
संदूक को देखकर अंजलि की जिज्ञासा और भी बढ़ गई। उसने सोचा कि इसके अंदर क्या हो सकता है। कोई पुराना खज़ाना? कोई गुप्त दस्तावेज़? उसकी ब्लॉगर वाली आदत, हर चीज़ में कहानी ढूंढने की, यहाँ भी जागृत हो गई थी। वह स्टोर रूम से बाहर निकली और रतनलाल को ढूंढने लगी। उसे याद आया कि उसने रतनलाल को सुबह ही गेस्टहाउस के पीछे वाले आंगन में देखा था।
रतनलाल एक कोने में बैठकर सब्ज़ियाँ काट रहा था। उसके चेहरे पर भूस्खलन की वजह से थोड़ी चिंता दिख रही थी।
"रतनलाल जी!" अंजलि ने उत्साह से कहा।
रतनलाल ने सिर उठाकर देखा। "जी बेटी जी? सब ठीक है? कुछ चाहिए?"
"वह, मुझे वह स्टोर रूम मिला," अंजलि ने बताया। "उसमें एक बहुत ही खूबसूरत संदूक है। वो किसका है और उसके अंदर क्या है?" उसकी आवाज़ में बच्चों जैसा उत्साह था।
रतनलाल का चेहरा एक पल के लिए बदल गया। उसकी आँखों में एक अजीब सी चमक आई और गई। वह थोड़ा असहज लग रहा था। उसने एक पल के लिए अंजलि की आँखों में देखा और फिर नज़रें झुका लीं। "अरे, वो? वो तो बस कबाड़ है बेटी जी।" उसने लापरवाही से कहा, जैसे वह कोई महत्त्वहीन चीज़ हो। "वो सालों से बंद पड़ा है। मेरे परदादा का रहा होगा शायद। उसका कोई काम नहीं, बस जगह घेरता है।"
"कबाड़? इतना खूबसूरत संदूक?" अंजलि को उसकी बात पर यकीन नहीं हुआ। उसे लगा कि रतनलाल कुछ छुपा रहा है। उसकी जिज्ञासा और भी बढ़ गई। "क्या मैं उसे खोल सकती हूँ?" उसने पूछा।
रतनलाल ने एक सूखी हँसी हँसी। "खोल लो बेटी जी, अगर खुल जाए तो। सालों से बंद पड़ा है, ताला भी ज़ंग खा गया होगा।" उसने अपनी सब्ज़ियाँ काटने पर ध्यान केंद्रित कर लिया, जैसे अंजलि की बात में उसकी कोई दिलचस्पी न हो। लेकिन अंजलि ने नोटिस किया कि रतनलाल के हाथों में एक पल के लिए तनाव आया था।
रतनलाल की इस लापरवाही भरी प्रतिक्रिया ने अंजलि को और भी पक्का कर दिया कि उस संदूक में ज़रूर कुछ ख़ास था। कोई कबाड़ इतना कीमती नहीं हो सकता था। उसने रतनलाल को वहीं छोड़ दिया और वापस स्टोर रूम की तरफ़ चल पड़ी, उसके दिमाग में अब सिर्फ़ उस संदूक का रहस्य था।
वह वापस स्टोर रूम में गई। संदूक सचमुच ज़ंग लगे ताले से बंद था। अंजलि ने पहले उसे अपने हाथों से खोलने की कोशिश की, लेकिन वह टस से मस नहीं हुआ। "उफ़्फ़! अब इसे कैसे खोलूँ?" वह सोचने लगी। उसने इधर-उधर देखा। कोने में एक पुरानी लोहे की रॉड पड़ी थी। उसने उसे उठाया।
"ये शायद काम आए।" उसने रॉड को संदूक के ताले में फँसाया और पूरा ज़ोर लगाकर खींचने लगी। एक-दो बार की कोशिश के बाद, एक तेज़ 'खट' की आवाज़ आई और ज़ंग लगा ताला टूट गया। संदूक का ढक्कन एक अजीब सी चरमराहट के साथ खुला।
अंदर धूल और पुरानी चीज़ों की गंध थी। ढक्कन उठाते ही धूल का एक और गुबार उड़ा। अंजलि ने खाँसते हुए अपने हाथ से चेहरा ढँका। जब धूल थोड़ी शांत हुई, तो उसने संदूक के अंदर झाँका।
अंदर कुछ पुरानी चीज़ें करीने से रखी हुई थीं। सबसे ऊपर एक पीतल का छोटा कंपास पड़ा था, जो अब काला पड़ चुका था। उसके बगल में कुछ सूखे हुए फूल थे, जो किसी पुरानी किताब के पन्नों के बीच रखे गए थे, और उनका रंग पूरी तरह से फीका पड़ चुका था। कंपास और सूखे फूल, दोनों ही किसी पुरानी प्रेम कहानी की निशानी लग रहे थे। अंजलि का दिल ज़ोर से धड़कने लगा।
उसने धीरे से कंपास और सूखे फूलों को उठाया। उनके नीचे उसे एक मोटी, पुरानी चमड़े की डायरी मिली। डायरी के पन्ने पीले पड़ चुके थे और उसके कोने मुड़े हुए थे। अंजलि ने काँपते हाथों से डायरी खोली। अंदर हाथ से कुछ लिखा हुआ था, लेकिन पहले पन्ने पर, डायरी के बिल्कुल बीच में, उसे एक धुंधली सी ब्लैक एंड व्हाइट तस्वीर मिली।
तस्वीर में एक युवा, बहुत ही खूबसूरत लड़की खड़ी थी। उसकी आँखें बड़ी और गहरी थीं, और उसके चेहरे पर एक अजीब सी शांति और उदासी थी। उसके बाल लंबे और घने थे। तस्वीर बहुत पुरानी थी, लेकिन लड़की की खूबसूरती और उसकी आँखों में छिपी कहानी साफ़ दिख रही थी। अंजलि को उस लड़की से एक अजीब सा जुड़ाव महसूस हुआ, जैसे वह उसे पहले से जानती हो।
अंजलि ने तस्वीर को पलटकर देखा। तस्वीर के पीछे, सुंदर हिंदी में, नीली स्याही से लिखा हुआ था – "तुम्हारी कमला।"
कमला। यह नाम अंजलि के दिमाग में गूँज उठा। यह लड़की कौन थी? और यह तस्वीर इस संदूक में क्यों थी? अंजलि को एहसास हुआ कि उसे सिर्फ़ एक पुराना संदूक नहीं मिला था, बल्कि एक पुरानी कहानी का दरवाज़ा मिला था, जो अब तक रहस्य में डूबा हुआ था। उसकी बोरियत पल भर में गायब हो गई थी। अब उसके सामने एक नया मिशन था – इस राज़ को सुलझाना।
Chapter 18
अंजलि उस धुंधली सी तस्वीर को हाथ में थामे, जैसे किसी जादू से बँध गई थी। धूल भरे उस स्टोर रूम में रोशनी का एक पतला सा किरण तस्वीर पर पड़ रहा था, जिससे उस युवा लड़की की गहरी आँखें और भी रहस्यमयी लग रही थीं। अंजलि को लगा जैसे वे आँखें उसे सदियों पुरानी कोई अनकही कहानी सुनाना चाह रही हों। उस लड़की की आँखों में एक अजीब सी मासूमियत थी, लेकिन साथ ही एक गहरी उदासी भी छिपी थी।
"कमला..." अंजलि ने धीरे से बुदबुदाया, जैसे किसी पुराने नाम को पहली बार पहचान रही हो। वह लड़की कौन थी? इस संदूक में उसकी तस्वीर और यह डायरी क्यों थी? रतनलाल ने क्यों कहा कि यह सिर्फ़ कबाड़ है? उसके मन में सवालों का एक सैलाब उमड़ पड़ा।
उसने अपनी साँसें थाम लीं और डायरी के पन्ने पलटने लगी। डायरी के पन्ने अब पीले पड़ चुके थे और कुछ जगह से किनारे से फटे हुए थे, लेकिन हैंडराइटिंग अभी भी साफ़ और सुंदर थी। ऐसा लग रहा था जैसे किसी ने बहुत प्यार से और देखभाल के साथ हर शब्द लिखा हो। पहले कुछ पन्ने कोरे थे या सिर्फ़ कुछ तारीखें लिखी थीं। फिर अचानक, उसे एक हाथ से लिखी हुई चिट्ठी मिली। चिट्ठी किसी लिफाफे में नहीं थी, बल्कि सीधे पन्नों पर लिखी गई थी।
अंजलि ने उत्सुकता से पढ़ना शुरू किया।
**"मेरी प्यारी कमला,"**
**"मुझे नहीं पता कि यह चिट्ठी तुम तक कब और कैसे पहुँचेगी, लेकिन मेरा दिल तुमसे कुछ कहना चाहता है। इन सरहदी पहाड़ों में रहकर भी मेरा मन हर पल तुम्हारे पास रहता है। मैंने तुम्हें जब से देखा है, मेरी दुनिया ही बदल गई है। तुम्हारे साथ बिताया हर पल मुझे जन्नत सा लगता है। मुझे याद है वह दिन, जब हम पहली बार देवगढ़ के मेले में मिले थे। तुम्हारी हँसी और तुम्हारी आँखों की चमक ने मेरा दिल चुरा लिया था। मैंने तुमसे वादा किया था कि मैं तुम्हें अपना बनाऊँगा, हमेशा के लिए।"**
**"यहाँ मेरा काम बहुत मुश्किल है, कमला। हर दिन एक नई चुनौती है। लेकिन तुम्हारे प्यार की ताक़त ही है जो मुझे हिम्मत देती है। मैं चाहता हूँ कि यह सब खत्म हो और मैं तुम्हारे पास लौट आऊँ। हम अपना घर बनाएंगे, अपने बच्चे होंगे, और मैं तुम्हें पहाड़ों की हर उस चोटी पर ले जाऊँगा जहाँ सिर्फ़ हम दोनों होंगे।"**
**"यहाँ के हालात ठीक नहीं हैं। कुछ लोग हमारे बीच गलतफहमी पैदा करने की कोशिश कर रहे हैं। मेरी दिल कहता है कि जल्दी ही सब ठीक हो जाएगा। बस तुम मेरा इंतज़ार करना, कमला। मुझे पता है कि तुम भी मुझे उतना ही प्यार करती हो जितना मैं तुम्हें। मैं जल्द ही आऊँगा, तुमसे मिलने... तुमसे शादी करने।"**
**"तुम्हारा अपना, वी।"**
अंजलि चिट्ठी पढ़ते-पढ़ते पूरी तरह से कहानी में खो गई थी। उसकी आँखों में चमक आ गई थी। यह एक सच्ची प्रेम कहानी थी, इतनी पुरानी, इतनी प्यारी। 'वी' और 'कमला' के बीच इतना गहरा प्यार था! चिट्ठी की भाषा इतनी सरल और सच्ची थी कि अंजलि के दिल को छू गई।
जैसे ही वह आखिरी लाइन पर पहुँची, उसका दिल बैठ गया। चिट्ठी अधूरी थी। आखिरी पन्ना फटा हुआ था, और कहानी बीच में ही खत्म हो गई थी। 'वी' ने जो वादा किया था, 'मैं जल्द ही आऊँगा, तुमसे मिलने... तुमसे शादी करने', उसके बाद क्या हुआ, यह पता नहीं चल रहा था। क्या 'वी' वापस आया? क्या कमला ने उसका इंतज़ार किया? क्या उनकी शादी हुई? या उनका प्यार अधूरा रह गया?
"नहीं! ये ऐसे खत्म नहीं हो सकती!" अंजलि ने फुसफुसाया, उसकी आँखों में आँसू आ गए थे। एक पल पहले वह बोरियत से जूझ रही थी, और अब वह एक अनजान प्रेमी जोड़े की अधूरी कहानी पर भावुक हो रही थी। यह चिट्ठी सिर्फ़ शब्दों का समूह नहीं थी, यह दो दिलों की धड़कन थी, एक प्यार की दास्तान थी जो समय के धूल में खो गई थी।
उसे उस 'वी' के लिए और उस 'कमला' के लिए बहुत बुरा लगा। किसने उस पन्ने को फाड़ा था? और क्यों? क्या यही वजह थी कि यह संदूक इस स्टोर रूम में कबाड़ की तरह पड़ा था? क्या इस प्रेम कहानी का कोई दुखद अंत था, जिसे कोई याद नहीं करना चाहता था?
अंजलि को लगा जैसे यह सिर्फ़ एक कहानी नहीं, बल्कि उसका अपना मिशन बन गया था। उसकी ब्लॉगर वाली जिज्ञासा अब एक गहरी भावनात्मक खोज में बदल गई थी। वह अब सिर्फ़ एक ट्रैवल ब्लॉगर नहीं थी, बल्कि एक जासूस बन गई थी, जिसे इस पुरानी प्रेम कहानी के राज़ को सुलझाना था।
"मैं इस राज़ को सुलझा कर रहूँगी," उसने खुद से कहा, उसकी आवाज़ में दृढ़ता थी। "मैं पता लगाऊँगी कि कमला कौन थी, और 'वी' कौन था। और उनकी कहानी का क्या हुआ।" उसके चेहरे पर अब बोरियत नहीं थी, बल्कि एक नया उत्साह था। देवगढ़, जो उसे पहले एक सज़ा लग रहा था, अब एक ऐसे पहेली बॉक्स में बदल गया था, जिसके अंदर एक पुरानी और खूबसूरत कहानी छिपी थी, जिसे उसे दुनिया के सामने लाना था। और इस पहेली का पहला सुराग उसके हाथ में था – कमला की तस्वीर और 'वी' की अधूरी चिट्ठी।
Chapter 19
पहाड़ खिसकने के बाद देवगढ़ में अफरा-तफरी का माहौल अभी भी शांत नहीं हुआ था। सूरज निकल चुका था, लेकिन आसमान बादलों से ढका था, और कभी भी फिर से बारिश शुरू हो सकती थी। चारों तरफ मलबे का ढेर था, बड़े-बड़े पत्थर और पेड़ों के तने सड़कों पर पड़े थे, जिससे गाँव का बाहरी दुनिया से संपर्क पूरी तरह से टूट गया था। लोगों के चेहरे पर डर और चिंता साफ़ दिख रही थी, क्योंकि उन्हें नहीं पता था कि कब तक वे इस तरह से कटे रहेंगे। कुछ लोग अपने घरों को हुए नुकसान को देख रहे थे, तो कुछ अपने लापता रिश्तेदारों की तलाश में इधर-उधर भाग रहे थे। यह एक ऐसी आपदा थी जिसने देवगढ़ के शांत जीवन को बुरी तरह से झकझोर दिया था।
आर्मी कैंटोनमेंट की टीम, मेजर विक्रम सिंह राठौर के नेतृत्व में, पूरी ताक़त से बचाव कार्य में जुटी हुई थी। विक्रम ने एक पल की भी फुरसत नहीं ली थी। सुबह से वह अपने जवानों को लगातार निर्देश दे रहा था, गाँव वालों को ढाँढस बंधा रहा था, और खुद भी सबसे मुश्किल कामों में सबसे आगे था। उसने अपनी फौजी वर्दी को कीचड़ और धूल से सराबोर होने की परवाह नहीं की थी। उसकी आवाज़ में दम था, जो थके हुए जवानों में भी नई ऊर्जा भर रहा था। "तेज़ी से काम करो, जवानों! एक-एक मिनट कीमती है!" वह चिल्लाता, और उसके जवान उसकी बात मानते हुए दोगुनी ताक़त से काम करने लगते।
अंजलि भी घटनास्थल पर मौजूद थी। कल रात जब उसे उस पुराने संदूक में कमला की तस्वीर और 'वी' की अधूरी चिट्ठी मिली थी, तो उसके दिमाग में उस रहस्य को सुलझाने की धुन सवार हो गई थी। वह सुबह उठते ही उस कहानी के बारे में और जानने को बेचैन थी, लेकिन बाहर के हालात देखकर वह समझ गई थी कि अभी कुछ भी करना मुमकिन नहीं था। रास्ता पूरी तरह से बंद था, और हर तरफ़ सिर्फ़ बचाव कार्य की बात हो रही थी। वह गेस्टहाउस के पास ही एक ऊँचे टीले पर खड़ी थी, जहाँ से बचाव कार्य का पूरा नज़ारा दिख रहा था। वह लोगों की मदद करना चाहती थी, लेकिन उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह कहाँ से शुरू करे।
उसकी नज़र बार-बार विक्रम पर जा रही थी। उसने कभी किसी को इतनी लगन और निस्वार्थ भाव से काम करते नहीं देखा था। यह वही 'मेजर खड़ूस' था, जिसके साथ उसकी हर बात पर बहस होती थी, लेकिन आज वह एक अलग ही व्यक्ति लग रहा था। वह लोगों से बात कर रहा था, उन्हें सुरक्षित जगहों पर ले जा रहा था, घायलों को फर्स्ट-एड दे रहा था, और भारी पत्थरों को हटाने में भी मदद कर रहा था। उसके चेहरे पर थकान साफ दिख रही थी, लेकिन उसकी आँखों में एक दृढ़ संकल्प था, एक आग थी जो उसे रुकने नहीं दे रही थी।
एक पल के लिए अंजलि के दिमाग में फिर से कमला और 'वी' की कहानी आई। 'वी' भी तो फौजी था। क्या वह भी इतना ही बहादुर और समर्पित था? उसकी आँखों में सवाल थे, लेकिन तभी एक ज़ोरदार आवाज़ ने उसे चौंका दिया।
"मेजर साब! यह पत्थर बहुत भारी है!" एक जवान ने चिल्लाकर कहा।
विक्रम एक बहुत बड़े और नुकीले पत्थर के पास खड़ा था, जो सड़क के बीचों-बीच आ गया था। वह पत्थर इतना विशाल था कि उसे हटाना कई जवानों के लिए भी मुश्किल था। "पीछे हटो तुम लोग! इसे मैं देखता हूँ!" विक्रम ने आदेश दिया।
वह अकेला ही पत्थर को हटाने के लिए झुक गया। उसकी माँसपेशियाँ तन गईं। वह अपनी पूरी ताक़त लगाकर पत्थर को हिलाने की कोशिश कर रहा था। उसके चेहरे पर तनाव साफ दिख रहा था, और उसकी गर्दन की नसें उभर आई थीं। उसने एक गहरी साँस ली और फिर से पत्थर पर ज़ोर लगाया।
अंजलि की साँसें रुक सी गईं। वह दूर से यह सब देख रही थी। उसे लगा जैसे विक्रम अपनी जान की परवाह किए बिना काम कर रहा था। वह चाहती थी कि वह रुक जाए, लेकिन वह जानती थी कि वह नहीं रुकेगा।
विक्रम ने एक और ज़ोर लगाया। पत्थर धीरे-धीरे खिसकने लगा, लेकिन तभी एक भयानक आवाज़ आई। पत्थर का एक नुकीला हिस्सा अचानक फिसल गया, और विक्रम का हाथ उसके नीचे आ गया।
"आह!" विक्रम ने दर्द से एक हल्की सी चीख़ निकाली, लेकिन उसने उसे तुरंत दबा लिया। उसका चेहरा दर्द से कराह उठा, लेकिन उसने अपने होठों को कस लिया और किसी को देखने नहीं दिया। उसने तुरंत अपना हाथ पत्थर के नीचे से खींच लिया। उसके दाहिने हाथ की कलाई पर एक गहरा घाव हो गया था, जहाँ से खून रिसने लगा था। दर्द इतना तेज़ था कि उसके माथे पर पसीना आ गया था, लेकिन उसने अपनी पीठ सीधी रखी और अपने जवानों को देखा।
"क्या हुआ मेजर साब?" एक जवान ने पूछा।
"कुछ नहीं। बस ज़रा सा लग गया।" विक्रम ने अपने हाथ को पीछे छुपाते हुए कहा। उसने किसी को अपनी चोट दिखाने नहीं दी। वह जानता था कि अगर उसने अपनी कमज़ोरी दिखाई, तो जवानों का मनोबल टूट सकता था। वह अभी भी उस पत्थर को हटाने के लिए जूझ रहा था, जैसे कुछ हुआ ही न हो।
लेकिन बलविंदर सिंह, जो विक्रम के सबसे नज़दीक था, उसने विक्रम का चेहरा देख लिया था। उसने देखा कि कैसे विक्रम ने अपने दाँत भींचे थे और कैसे उसका हाथ अपने आप दूसरी तरफ चला गया था। बलविंदर ने तुरंत विक्रम के पास आकर उसका हाथ पकड़ा।
"मेजर साब! ये क्या कर रहे हो! ये तो चोट लग गई है!" बलविंदर की आवाज़ में चिंता थी। उसने विक्रम का हाथ देखा, और उसकी आँखों में परेशानी साफ दिखी। "खून निकल रहा है, मेजर साब! इसे देखना पड़ेगा।"
"अरे कुछ नहीं, सूबेदार। बस हल्की सी खरोंच है। काम पहले ज़रूरी है।" विक्रम ने हाथ छुड़ाने की कोशिश की, उसकी आवाज़ में हल्की सी चिड़चिड़ाहट थी। वह अपनी चोट को छिपाना चाहता था।
"नहीं, मेजर साब! आप हमारे शेर हो! आपको कुछ हो गया तो हम किसका हुक्म मानेंगे? चलो, अभी मेडिकल टेंट में चलो। ये मामूली चोट नहीं है।" बलविंदर ने लगभग ज़बरदस्ती उसका हाथ पकड़ा और उसे मेडिकल टेंट की तरफ़ खींचने लगा। बलविंदर जानता था कि विक्रम अपनी सेहत की परवाह नहीं करेगा, इसलिए उसे सख्ती करनी ही पड़ती थी।
"सूबेदार!" विक्रम ने चेतावनी भरी आवाज़ में कहा, लेकिन बलविंदर ने उसकी एक न सुनी। वह जानता था कि अपने मेजर के लिए कब कठोर होना है।
अंजलि ने यह सब दूर से देखा था। उसने देखा था कि कैसे विक्रम ने दर्द से अपना चेहरा बिगाड़ा था, और कैसे बलविंदर उसे खींचकर ले जा रहा था। उसका दिल धक से रह गया। 'उन्हें चोट लग गई?' यह सोचते ही उसके पैरों में जान आ गई। वह बिना सोचे-समझे उस दिशा में दौड़ पड़ी, जहाँ बलविंदर विक्रम को ले जा रहा था। उसके दिमाग में अब 'कमला' और 'वी' की कहानी नहीं थी, बल्कि सिर्फ़ एक चिंता थी – मेजर विक्रम सिंह राठौर की चोट।
वह घबराकर मेडिकल टेंट की तरफ़ भागी। रास्ता कीचड़ से भरा था और उसे कई लोगों को धक्का देकर आगे बढ़ना पड़ रहा था। "एक्सक्यूज़ मी! माफ़ कीजिए!" वह बड़बड़ाती हुई आगे बढ़ी। उसके मन में एक ही बात थी – विक्रम को चोट लगी थी, और उसे देखना था कि वह कैसा था। उसकी आँखों में एक अजीब सी चमक आ गई थी, जो सिर्फ़ चिंता की नहीं, बल्कि उससे कहीं ज़्यादा गहरी थी। वह जैसे ही टेंट के पास पहुँची, उसकी साँसें तेज़ हो गईं। उसने देखा कि बलविंदर विक्रम को एक बेंच पर बिठा रहा था, और विक्रम अभी भी अपने हाथ को छुपाने की कोशिश कर रहा था। अंजलि को एहसास हुआ कि वह मेजर खड़ूस से कहीं ज़्यादा, एक इंसान के लिए चिंता कर रही थी, जिसके लिए उसके दिल में एक खास जगह बन चुकी थी।
Chapter 20
अंजलि तेज़ कदमों से चलकर मेडिकल टेंट के अंदर पहुँच गई। अंदर का माहौल अफरा-तफरी भरा था। कई घायल गाँव वाले और कुछ जवान वहाँ फर्स्ट-एड ले रहे थे। नर्सें और मेडिकल स्टाफ एक साथ कई लोगों को संभालने में जुटे हुए थे, जिससे पूरा टेंट डॉक्टरों और घायलों की आवाज़ों से गूँज रहा था। दवाइयों और एंटीसेप्टिक की तेज़ गंध हवा में फैली थी। अंजलि ने चारों तरफ़ नज़र दौड़ाई।
उसने देखा कि बलविंदर ने विक्रम को एक किनारे की बेंच पर बिठाया था। विक्रम अभी भी अपने चोटिल हाथ को छिपाने की कोशिश कर रहा था, जैसे वह दिखाना नहीं चाहता कि उसे कुछ हुआ है। बलविंदर उसके पास खड़ा था, उसके चेहरे पर चिंता साफ़ झलक रही थी।
"कोई है यहाँ?" बलविंदर ने पास से गुज़र रही एक नर्स को आवाज़ दी, "मेजर साब को चोट लगी है।"
नर्स ने एक पल के लिए उनकी तरफ़ देखा, लेकिन उसका चेहरा व्यस्तता से भरा था। "माफ़ कीजिए, सूबेदार जी। अभी सभी लोग व्यस्त हैं। आप उन्हें थोड़ी देर में लाइए, मैं देखती हूँ।" वह बिना रुके अगले घायल के पास चली गई।
बलविंदर ने खीजकर कहा, "ओए होए! अब क्या करें, मेजर साब? यहाँ तो कोई फ़ारिग ही नहीं है।"
विक्रम ने अपना मुँह बनाया, "कहा था न, कुछ नहीं हुआ है। छोड़ो, मैं ठीक हूँ। मैं वापस जा रहा हूँ काम पर।" वह उठने की कोशिश करने लगा।
"चुपचाप बैठिए!" एक तेज़ आवाज़ आई।
विक्रम और बलविंदर दोनों ने चौंककर देखा। अंजलि उनके पास आकर खड़ी हो गई थी। उसके हाथ में फर्स्ट-एड बॉक्स था, जिसे उसने कहीं से उठा लिया था। उसके चेहरे पर अब ज़रा भी 'अनाड़ीपन' नहीं था, बल्कि एक अजीब सी गंभीरता और दृढ़ता थी। उसकी आँखों में चिंता साफ दिख रही थी।
"मिस शर्मा, आप यहाँ क्या कर रही हैं?" विक्रम ने भौंहें चढ़ाकर पूछा, लेकिन उसकी आवाज़ में हमेशा जैसी सख्ती नहीं थी। वह थोड़ा हैरान था कि अंजलि उसे इस हाल में देखने आई थी।
अंजलि ने फर्स्ट-एड बॉक्स को ज़मीन पर रखा और खुद विक्रम के सामने ज़मीन पर ही घुटनों के बल बैठ गई। "आप मेजर होंगे अपने ऑफ़िस में, यहाँ आप एक मरीज़ हैं।" उसकी आवाज़ में एक हल्की सी झुंझलाहट थी, लेकिन उसमें प्यार और परवाह साफ़ झलक रही थी। "और एक मरीज़ को चुपचाप बैठना चाहिए। अपना हाथ दिखाइए।"
विक्रम ने उसे देखा। यह वही लड़की थी जिसने उसे 'मेजर खड़ूस' कहा था, जिसने उसके ड्रोन के लिए हंगामा किया था। आज वही लड़की उसके सामने ज़मीन पर बैठी थी और उसे आदेश दे रही थी। उसे एक पल के लिए समझ नहीं आया कि क्या प्रतिक्रिया दे।
"मिस शर्मा, इसकी ज़रूरत नहीं है। मैं..." विक्रम ने बात काटने की कोशिश की।
"ज़रूरत है!" अंजलि ने बीच में ही टोक दिया, उसकी आँखों में हल्का गुस्सा था। "चुपचाप बैठिए और हाथ दिखाइए! आप हीरो बनने की कोशिश में अपनी जान को खतरे में डाल रहे थे!"
बलविंदर ने अंजलि को देखा और फिर विक्रम को। उसने विक्रम को कोहनी मारकर धीरे से कहा, "मेजर साब, बीबीजी बोल रही हैं तो सुन लो। अब ज़्यादा दिमाग मत लगाओ।"
विक्रम ने एक गहरी साँस ली और अपना चोटिल हाथ अंजलि की तरफ़ बढ़ा दिया। उसकी कलाई पर एक गहरा कटा हुआ घाव था, जिससे लगातार खून निकल रहा था। घाव के आसपास की त्वचा लाल हो गई थी और सूजने लगी थी। यह वाकई मामूली खरोंच नहीं थी, जैसा कि विक्रम कह रहा था।
अंजलि ने घबराकर घाव को देखा। वह थोड़ी देर के लिए झिझकी, क्योंकि उसने कभी किसी के ज़ख्म की मरहम-पट्टी नहीं की थी। उसके हाथ हल्के से काँप रहे थे। लेकिन उसने अपनी हिम्मत जुटाई। उसने फर्स्ट-एड बॉक्स से एंटीसेप्टिक लिक्विड, कॉटन और पट्टी निकाली।
"थोड़ा जलेगा," अंजलि ने धीरे से कहा, और फिर बिना देर किए कॉटन से घाव को साफ़ करने लगी।
विक्रम ने दर्द से अपनी आँखें भींच लीं। एंटीसेप्टिक लगते ही घाव में एक तेज़ जलन हुई, लेकिन उसने एक भी आवाज़ नहीं निकाली। वह बस अंजलि को देखता रहा। उसकी अनाड़ी उँगलियाँ, जो आमतौर पर मेकअप और मोबाइल फ़ोन पर रहती थीं, आज कितनी नरमी और सावधानी से उसके घाव को साफ़ कर रही थीं। अंजलि का चेहरा भी तनाव में था, वह पूरी तरह से काम पर केंद्रित थी, जैसे कि दुनिया में और कुछ मौजूद ही न हो।
उसने बहुत ध्यान से घाव को साफ़ किया, फिर उस पर एक छोटी सी दवा लगाई और धीरे-धीरे पट्टी बाँधने लगी। उसकी हर हरकत में एक अनोखी मासूमियत और परवाह थी। विक्रम को लगा जैसे पहली बार कोई इतनी शिद्दत से उसकी परवाह कर रहा हो। सालों से उसने हमेशा दूसरों की देखभाल की थी, अपने जवानों की, देश की। लेकिन आज कोई उसके ज़ख्मों पर मरहम लगा रहा था।
टेंट के अंदर शोर था, लोग आ-जा रहे थे, लेकिन उस पल में विक्रम और अंजलि के लिए जैसे सब कुछ ठहर सा गया था। उनके बीच एक अजीब सी खामोशी छा गई थी, जो उनके पिछले सारे झगड़ों से बिल्कुल अलग थी। यह खामोशी शब्दों से ज़्यादा बोल रही थी। विक्रम ने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि यह 'मिस हैशटैग', जिसे वह 'खड़ूस' मेजर कहता था, इतनी कोमल और देखभाल करने वाली हो सकती है। और अंजलि ने भी कभी सोचा नहीं था कि 'मेजर खड़ूस' का दिल वाकई इतना नरम हो सकता है कि वह दर्द में भी अपना गुस्सा छोड़कर चुपचाप बैठा रहे।
पट्टी बाँधने के बाद, अंजलि ने एक गहरी साँस ली। "हो गया।" उसने अपना काम पूरा किया और विक्रम की तरफ़ देखा। उसकी आँखों में एक अजीब सी संतुष्टि थी। विक्रम ने भी उसे देखा। उनकी नज़रें मिलीं। यह उनके बीच का पहला सच्चा, शांत और इमोशनल पल था। कोई बहस नहीं, कोई लड़ाई नहीं, सिर्फ़ एक-दूसरे की आँखों में एक अनकहा कनेक्शन। एक पल के लिए उन्हें लगा जैसे वे एक-दूसरे को सदियों से जानते हों। इस छोटे से पल में उनके बीच की सारी दीवारें गिर गईं, और एक नए रिश्ते की नींव पड़ गई थी।