संध्या का समय था जब पहाड़ी पर स्थित कुलदेवी के मंदिर के सामने ही युद्ध हो रहा था। कुछ काले वस्त्र धारण किए हुए सैनिक राजसी सैनिकों पर आक्रमण कर रहे थे। राजसी सैनिक अपने प्राणों को दांव पर लगाते हुए अपने राजकुमार की रक्षा का प्रयास कर रहे थे। राजकुमार... संध्या का समय था जब पहाड़ी पर स्थित कुलदेवी के मंदिर के सामने ही युद्ध हो रहा था। कुछ काले वस्त्र धारण किए हुए सैनिक राजसी सैनिकों पर आक्रमण कर रहे थे। राजसी सैनिक अपने प्राणों को दांव पर लगाते हुए अपने राजकुमार की रक्षा का प्रयास कर रहे थे। राजकुमार की आयु केवल तेरह वर्ष थी, फिर भी उसका पूरा प्रयास था कि उसे किसी की सुरक्षा की आवश्यकता न हो। युद्ध में मृत्यु का वरण करते अपने सैनिकों को देखकर उसका रक्त खौल रहा था। उसने अपने हाथों में शस्त्र को कसकर पकड़ रखा था, उसकी तलवार रक्त से रंजित थी। उसी समय आकाश में बिजली कड़क उठी और वर्षा की बूँदें गिरना आरंभ हो गईं। अचानक ही पीछे से एक काले वस्त्र धारी सैनिक आगे बढ़ा और उसने राजकुमार की पीठ पर वार कर दिया। पहले से घायल महाराज ने त्वरित गति से राजकुमार को अपने समीप खींच लिया और उस सैनिक का शीश धड़ से अलग कर दिया। परंतु इस बीच राजकुमार की पीठ पर एक गहरा घाव हो चुका था। उसके मुख से दर्द भरी कराह निकल पड़ी। "राजकुमार!" महाराज ने चिंतित स्वर में पुकारा। "हम ठीक हैं पिताश्री। आप अपने कार्य पर ध्यान दें।" राजकुमार ने दर्द के कारण अपनी आंखें भींच ली थीं। आधार के लिए उसने अपनी तलवार को भूमि पर टिका दिया, ताकि स्वयं को खड़ा रख सके। महाराज ने कुछ क्षण उसे देखा और तत्पश्चात सेनापति के पुत्र को आदेश दिया, "तिलक, राजकुमार को शीघ्र गांव तक लेकर जाइए। वहाँ आपको सहायता प्राप्त होगी। और ध्यान रहे, हमारे पश्चात राजकुमार की सुरक्षा का उत्तरदायित्व आपका होगा। हम आपको राजकुमार के लिए अगला सेनापति नियुक्त करते हैं।" तिलक की आंखें विस्मय से फैल गईं, परंतु अगले ही क्षण वह घुटनों पर बैठ गया और हाथ की मुट्ठी बनाकर अपने सीने से लगा ली, "आपके आदेश का पालन हम अंतिम श्वास तक करेंगे, महाराज।" राजकुमार ने भी आश्चर्य से महाराज को देखा। कहीं न कहीं वह समझ चुका था कि महाराज का यहाँ से जीवित बच निकलना कठिन प्रतीत हो रहा था। "आप हम तक पहुंचने का प्रयास करेंगे पिताश्री। वचन दीजिए।" राजकुमार ने महाराज का हाथ कसकर पकड़ लिया। उसे ज्ञात था कि महाराज अपने आदेश को किसी भी स्थिति में नहीं बदलते। "वैष्णव प्रताप राजवंशी, आपको हमारे बाद दुर्बल नहीं पड़ना है। आप मिथिला प्रदेश के भावी महाराज हैं। समझ गए?" महाराज की आवाज गंभीर और दृढ़ थी। राजकुमार वैष्णव ने ऊँचे स्वर में उत्तर दिया, "हमें स्वीकार है, महाराज!" महाराज की आँखें कुछ क्षणों के लिए कोमल हो गईं। उन्होंने हल्के से वैष्णव के सिर पर हाथ फेरा और तिलक को राजकुमार को ले जाने का संकेत दिया। तिलक अपने अश्व के साथ राजकुमार के निकट पहुंचा। उसने राजकुमार को अपने साथ बिठाकर दोनों को एक कपड़े से कसकर बाँध लिया। तिलक के पिता ने भी अपनी पलकें झपकाकर वचन लिया कि वह भी राजकुमार की सुरक्षा में उसी तरह तत्पर रहेगा। एक छोटी सी सैन्य टुकड़ी के साथ तिलक राजकुमार को लेकर वहाँ से निकल पड़ा।
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संध्या का समय था जब पहाड़ी पर स्थित कुलदेवी के मंदिर के सामने ही युद्ध हो रहा था। कुछ काले वस्त्र धारण किए हुए सैनिक राजसी सैनिकों पर आक्रमण कर रहे थे। राजसी सैनिक अपने प्राणों को दांव पर लगाते हुए अपने राजकुमार की रक्षा का प्रयास कर रहे थे। राजकुमार की आयु केवल तेरह वर्ष थी, फिर भी उसका पूरा प्रयास था कि उसे किसी की सुरक्षा की आवश्यकता न हो। युद्ध में मृत्यु का वरण करते अपने सैनिकों को देखकर उसका रक्त खौल रहा था। उसने अपने हाथों में शस्त्र को कसकर पकड़ रखा था, उसकी तलवार रक्त से रंजित थी।
उसी समय आकाश में बिजली कड़क उठी और वर्षा की बूँदें गिरना आरंभ हो गईं। अचानक ही पीछे से एक काले वस्त्र धारी सैनिक आगे बढ़ा और उसने राजकुमार की पीठ पर वार कर दिया।
पहले से घायल महाराज ने त्वरित गति से राजकुमार को अपने समीप खींच लिया और उस सैनिक का शीश धड़ से अलग कर दिया। परंतु इस बीच राजकुमार की पीठ पर एक गहरा घाव हो चुका था। उसके मुख से दर्द भरी कराह निकल पड़ी।
"राजकुमार!" महाराज ने चिंतित स्वर में पुकारा।
"हम ठीक हैं पिताश्री। आप अपने कार्य पर ध्यान दें।" राजकुमार ने दर्द के कारण अपनी आंखें भींच ली थीं। आधार के लिए उसने अपनी तलवार को भूमि पर टिका दिया, ताकि स्वयं को खड़ा रख सके।
महाराज ने कुछ क्षण उसे देखा और तत्पश्चात सेनापति के पुत्र को आदेश दिया, "तिलक, राजकुमार को शीघ्र गांव तक लेकर जाइए। वहाँ आपको सहायता प्राप्त होगी। और ध्यान रहे, हमारे पश्चात राजकुमार की सुरक्षा का उत्तरदायित्व आपका होगा। हम आपको राजकुमार के लिए अगला सेनापति नियुक्त करते हैं।"
तिलक की आंखें विस्मय से फैल गईं, परंतु अगले ही क्षण वह घुटनों पर बैठ गया और हाथ की मुट्ठी बनाकर अपने सीने से लगा ली, "आपके आदेश का पालन हम अंतिम श्वास तक करेंगे, महाराज।"
राजकुमार ने भी आश्चर्य से महाराज को देखा। कहीं न कहीं वह समझ चुका था कि महाराज का यहाँ से जीवित बच निकलना कठिन प्रतीत हो रहा था।
"आप हम तक पहुंचने का प्रयास करेंगे पिताश्री। वचन दीजिए।" राजकुमार ने महाराज का हाथ कसकर पकड़ लिया। उसे ज्ञात था कि महाराज अपने आदेश को किसी भी स्थिति में नहीं बदलते।
"वैष्णव प्रताप राजवंशी, आपको हमारे बाद दुर्बल नहीं पड़ना है। आप मिथिला प्रदेश के भावी महाराज हैं। समझ गए?" महाराज की आवाज गंभीर और दृढ़ थी।
राजकुमार वैष्णव ने ऊँचे स्वर में उत्तर दिया, "हमें स्वीकार है, महाराज!"
महाराज की आँखें कुछ क्षणों के लिए कोमल हो गईं। उन्होंने हल्के से वैष्णव के सिर पर हाथ फेरा और तिलक को राजकुमार को ले जाने का संकेत दिया।
तिलक अपने अश्व के साथ राजकुमार के निकट पहुंचा। उसने राजकुमार को अपने साथ बिठाकर दोनों को एक कपड़े से कसकर बाँध लिया। तिलक के पिता ने भी अपनी पलकें झपकाकर वचन लिया कि वह भी राजकुमार की सुरक्षा में उसी तरह तत्पर रहेगा।
एक छोटी सी सैन्य टुकड़ी के साथ तिलक राजकुमार को लेकर वहाँ से निकल पड़ा।
उनका अश्व तीव्र गति से पहाड़ी उतरने लगा। वह जंगल का क्षेत्र था। छुपे हुए सैनिकों ने उन पर बाणों की वर्षा कर दी। तिलक ने अश्व को नियंत्रित रखते हुए अपनी तलवार से बाणों का वार विफल करना आरंभ कर दिया। केवल अठारह वर्ष की आयु के इस युवक को अब राजकुमार का सेनापति बनने का गौरव प्राप्त हुआ था।
रक्तस्राव के कारण राजकुमार चेतना खोने लगा था। उसकी आँखें मुँदने लगी थीं।
तभी तिलक ने कहा, "कुछ क्षण धैर्य रखिए, राजकुमार। हम शीघ्र ही निकट के गाँव तक पहुँच जाएंगे। वहाँ हमें सहायता मिल सकती है।"
राजकुमार की ओर से कोई उत्तर न आया। उसकी बेहोशी के कारण उसका सिर एक ओर लटक गया। निकलने से पूर्व तिलक ने दोनों को आपस में एक कपड़े से बाँध लिया था, जिसका उसे अब लाभ मिल रहा था।
जैसे ही वे पहाड़ी से नीचे उतरे, बाणों की वर्षा थम गई। किंतु तिलक की टुकड़ी से कुछ सैनिक वीरगति को प्राप्त हो चुके थे। फिर भी, पहाड़ी से उतरने के बाद तिलक के अश्व की गति में कमी नहीं आई।
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शाम के समय, आकाश में पुनः बिजली कड़क उठी और गाँव के एक घर के सामने आँगन में खड़े उमेश ने कहा, "बेटा अमृत, कपड़े भीग जाएँगे। उतार लाओगे उन्हें?"
"अभी लाया, बाबा!" दस वर्ष का अमृत दूर से ही चिल्लाया। वह दोस्तों के साथ तेज हवा का आनंद ले रहा था। भागते हुए उसके कंधों तक आते बाल हवा में लहरा रहे थे, जो आधे ही बँधे हुए थे।
गोरा रंग और बड़ी-बड़ी आँखें, पहली नज़र में कोई भी उसे कन्या समझ बैठता।
जल्दबाजी में उसने रस्सी पर टंगे कपड़ों को समेटा और उन्हें लेकर अपने घर की ओर चल पड़ा।
उमेश अपनी औषधियों को समेट रहे थे, जिन्हें वे जंगल से लेकर आए थे।
दोनों ने तेज हवा के कारण घर का दरवाजा बंद कर लिया।
"बाबा, क्या तूफ़ान आने वाला है?" अमृत कपड़ों को मोड़ते हुए बोला।
"पता नहीं बेटे, तूफ़ान आना कोई छोटी बात नहीं होती। हमारे खेतों में फिर से हानि हो जाएगी।" उमेश ने चिंता व्यक्त की।
"क्या हमारी गाय इतनी तेज बारिश में बाहर ही बँधी रहेगी?" अमृत का एक और सवाल तैयार था। उमेश ने खिड़की बंद करते हुए कहा, "तो उन्हें कहाँ रखेंगे हम?"
"जब हमारे पास अधिक धन आएगा तो हम उनके लिए पक्का घर बनवाएँगे।" नटखट अमृत ने मुस्कराते हुए कहा।
"अवश्य, जैसा हमारे दयालु राजकुमार चाहेंगे। बस, धन आने की देर है अब।" उमेश ने हँसते हुए कहा।
दो समय का भोजन ही उनके लिए बहुत बड़ी बात थी। उमेश वैद्य थे, अधिकांश गाँव वालों का उपचार वे नि:शुल्क ही करते थे क्योंकि यहाँ गरीबी बहुत थी। आस-पास के गाँववाले भी उनके पास ही उपचार के लिए आते थे।
उमेश शांत स्वभाव के व्यक्ति थे और उनका नन्हा पुत्र भी उन्हीं की तरह शांत था। उसने अभी से अपने पिता से औषधि का ज्ञान लेना आरंभ कर दिया था।
उसी समय बाहर वर्षा आरंभ हो गई। उमेश ने घर में दीप जलाए, जिससे चारों ओर प्रकाश फैल गया।
उमेश ने एक स्थान पर बैठकर प्रार्थना की, "हे परमेश्वर, कृपया इस गाँव की समस्याएँ और न बढ़ाएँ और सबको सुरक्षित रखें।"
"मेरे बाबा की सभी इच्छाएँ पूरी करना, परमेश्वर।" अमृत ने भी बगल में बैठकर हाथ जोड़ लिए।
उमेश मुस्कुरा दिए। माँ-विहीन वह बालक कुछ अधिक ही समझदार था। वे एक-दूसरे का परिवार थे।
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कुछ समय बाद उमेश रात्रि का भोजन बनाने में व्यस्त हो गए। अमृत ने दीप की रोशनी में एक पुस्तक उठा ली। उमेश ने अपने पुत्र के साथ-साथ गाँव के अन्य बच्चों को भी शिक्षा देने का प्रयास किया था ताकि आगे जाकर वे राजधानी में कोई काम ढूंढ सकें। इस गाँव में रहकर सबका भविष्य उन्हें संकटग्रस्त ही प्रतीत हो रहा था। प्रदेश के एक कोने में बसे इस गाँव पर राजधानी के लोगों की दृष्टि भी दुर्लभ ही पड़ती थी। वे जैसे उनके लिए अस्तित्वहीन थे। हाँ, कर वसूलने के लिए उन्हें अवश्य गिना जाता था।
भोजन बन चुका था। उमेश और अमृत ने साथ बैठकर भोजन किया और फिर अपनी दिनचर्या पूरी करते हुए सो गए।
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उमेश की नींद टूटी जब अचानक किसी ने द्वार को पीटना शुरू कर दिया। अमृत भी जाग गया।
"इस समय कौन आ गया?" उमेश ने कहा और उठकर दरवाजा खोलने को बढ़े। उसे यकीन था कि इस समय उसके द्वार पर कोई मरीज ही होगा।
"क्या आप वैद्य हैं?" अंधेरे में किसी व्यक्ति ने किसी और को संभाले हुए पूछा।
"जी हां! परंतु आप कौन?" उमेश के पूछते ही, वह भीगा हुआ व्यक्ति अंदर प्रवेश कर गया।
प्रकाश में उसका चेहरा स्पष्ट हुआ। वह तिलक था। उमेश ने तिलक की बाजुओं में अचेतन अवस्था में झूल रहे युवक को देखा और आगे कुछ पूछे बिना उसे एक तरफ लिटाने का संकेत दिया।
फिर स्वयं उन्होंने शीघ्रता से उपचार की सामग्री तैयार करना आरंभ किया। घाव से अभी भी रक्तस्राव हो रहा था, जिसे देख अमृत की आँखें बड़ी हो गईं।
हल्के से चीखते हुए वह अपनी जगह लड़खड़ा गया। उमेश ने तुरंत कहा, "अमृत, जाकर सो जाओ।"
अमृत कुछ न बोल पाया और वहां से भाग गया।
अगली सुबह, खिड़की से आती तेज धूप वैष्णव के चेहरे पर पड़ी, जिससे उसने दूसरी ओर चेहरा कर लिया। उसे अपने शरीर में पीड़ा का अनुभव हो रहा था। उसने स्वयं को किसी कठोर बिस्तर पर पेट के बल सोया हुआ पाया।
जैसे ही उसकी आंखें खुलीं, सामने अमृत का छोटा चेहरा था, जो बड़ी ही ध्यानपूर्वक उसे देख रहा था।
"तुम कौन हो, कन्या? हमारे कक्ष में आने का साहस कैसे किया?" वैष्णव की क्रोधित आवाज सुन अमृत की आँखें बड़ी हो गईं और अगले ही पल नम हो गईं।
मुँह खोलकर उसने रोना शुरू कर दिया, "बाबा, इन्होंने हमें कन्या कहा।"
वैष्णव के माथे पर सिलवटें पड़ गईं। उसने उठने का प्रयास किया। तभी तिलक दौड़ते हुए वहां आया और उसकी सहायता की।
"हमने कहा था न, राजकुमार को परेशान मत करना, बालक? अब रोना बंद करो, तुम शोर कर रहे हो।" तिलक ने भी अमृत को डांट दिया।
इस पर अमृत का रोना बढ़ गया, "हमारे ही घर में आकर ये हमें डांट रहे हैं, बाबा।"
"क्या तुम कन्या नहीं हो?" वैष्णव ने हैरत भरी नजरों से उसे देखा।
अमृत ने रोना बंद कर उसे घूरा, "हम कन्या नहीं हैं। सुना आपने?"
"परंतु, कन्याओं की तरह रो रहे हो।" वैष्णव ने आँखें घुमा कर कहा।
अमृत का मुँह खुल गया, "बाबा, कहां हैं आप? इन्होंने फिर हमें कन्या कहा।"
तिलक को क्रोध तो बहुत आ रहा था, लेकिन राजकुमार को शांत देख वह कुछ न कह सका।
पर उसने इतना जरूर कहा, "तुम्हारे बाबा बाहर गए हैं। अब या तो बाहर जाकर रोना शुरू करो या उनके आने के बाद।"
अमृत यह सुनकर चुप हो गया, "हम शिकायत करेंगे उनसे।"
"अवश्य!" राजकुमार लापरवाही से बोला। उसे यकीन था कि किसी में इतनी हिम्मत नहीं जो उसे हानि पहुंचा सके।
अमृत पैर पटकते हुए वहां से चला गया। उसी समय वैष्णव का चेहरा गंभीर हो गया, "पिताश्री लौट आए? उनका कोई संदेश मिला?"
तिलक ने अपना सिर झुका लिया। संदेश तो मिला था, परंतु उसे बताना कठिन था।
"राजधानी चलने की व्यवस्था करो। हमें लौटना होगा," वैष्णव ने कहा।
"ऐसी अवस्था में, राजकुमार?" तिलक को उसके घाव की चिंता थी।
"हमने कहा ना? जाइए!" वैष्णव का आदेश पाकर तिलक को जाना पड़ा। कुछ समय तक वैष्णव ने आँखें बंद रखकर स्वयं को शांत रखा। मानो पीड़ा हो रही थी, लेकिन उसने अश्रुओं को बहने नहीं दिया।
आंखें खोलते ही उसे बाहर से कुछ तेज आवाजें सुनाई देने लगीं। इसी के साथ अमृत की एक चीख भी सुनाई दी।
आगे जानने के लिए कहानी के साथ बने रहे।
राजकीय सेना की एक टुकड़ी उस गाँव में प्रवेश करके कर वसूलने लगी थी। वे मानो किसी लूटपाट में लगे हुए थे। धन नहीं मिला तो अनाज और पशुओं को ले जाने का उनका प्रयास था। ऐसा ही कुछ उन्होंने अमृत की गायों के साथ भी करना चाहा, परंतु वह उन्हें रोकने के लिए मार्ग में आकर खड़ा हो गया।
गुस्से में एक सैनिक ने अमृत को दूसरी ओर धकेल दिया, जिससे उसके हाथ में चोट लग गई। एक चीख के साथ उसने रोना शुरू कर दिया।
उसी समय अपने शरीर के ऊपरी हिस्से पर एक वस्त्र ओढ़े हुए वैष्णव बाहर आया। उसने चेहरे को भी ढकने का प्रयास किया था, क्योंकि बाहर क्या हो रहा है इससे वह अनजान था।
अमृत को नीचे गिरा हुआ देख वैष्णव ने मुख खोलकर गहरी साँस छोड़ी और उसके पास पहुँच कर उसका हाथ पकड़ लिया, "यह क्या हो गया?"
अमृत के हाथ पर खरोंच आ गई थी। रक्त बहने लगा था, परंतु उसे अपनी नहीं, बल्कि अपनी गायों की चिंता थी।
"वे हमारी प्रिय गायों को ले जा रहे हैं।" अमृत ने रोते हुए उस दिशा में देखा।
उसी समय तिलक राजकुमार के पास आकर बोला, "आप बाहर क्यों आ गए, राजकुमार?"
"यह सब क्या हो रहा है, तिलक? ये राजकीय सैनिक हैं न? फिर यह लूटपाट कैसी?" वैष्णव हैरत में था।
तिलक ने सिर झुका लिया, "यह सब सामान्य है, राजकुमार। आप ध्यान न दें तो बेहतर रहेगा।"
तभी वैष्णव के कानों में एक वृद्धा की आवाज पड़ी, "कृपया हमारे साथ यह अन्याय न करें स्वामी। ये पशु और अन्न आप ले जाएंगे तो हमारे बच्चे क्या खाएँगे? महाराज के पास तो किसी वस्तु की कमी नहीं होगी, फिर हमारा एक गाँव छोड़ दिया जाए तो उन्हें कोई नुकसान नहीं होगा। पहाड़ी क्षेत्र होने के कारण यहाँ प्राकृतिक आपदाएँ अन्य स्थानों के मुकाबले अधिक आती हैं।"
एक प्रमुख सैनिक उस वृद्धा की ओर मुड़कर बोला, "अपना मुँह बंद रखो, बुढ़िया । वरना जीभ काट देंगे तुम्हारी।" उसने तलवार भी निकाल ली थी।
वैष्णव अधिक समय तक यह सब देख नहीं पाया और खड़ा होकर तेज आवाज में बोला, "जो भी हो रहा है इसे तुरंत रोको।"
मुख्य सैनिक वैष्णव की ओर देखते हुए बोला, "हमने कहा न, मुँह बंद रखो वरना जीभ काट देंगे? यह नियम सब पर लागू होता है। अब हमें परेशान न करो बालक। हमें अपना कार्य करने दो।"
"क्या यह सब महाराज के आदेश से हो रहा है?" वैष्णव ने प्रश्न किया।
"हाँ, हो रहा है।" सैनिक लापरवाही से बोला।
"इसका शीश धड़ से अलग कर दो, तिलक, जो हमारे पिताश्री को बदनाम करने का प्रयास कर रहा है ।" वैष्णव की तेज आवाज सुनकर वहाँ सब कुछ मानो थम गया। उसने सिर से ओढ़ा कपड़ा हटा लिया, तो सामने खड़ा सैनिक अपने स्थान पर लड़खड़ा गया। इससे पहले कि उसके मुँह से एक भी शब्द निकलता, तिलक की तलवार के एक तेज प्रहार से उसका शीश धड़ से अलग होकर धरती पर गिर गया।
सैनिक के गिरते ही कुछ चीखों के साथ सभी गाँववासी पीछे हट गए। अन्य सैनिक डर से काँप उठे। सब जहाँ थे वहीं जम गए।
तिलक की तलवार से रक्त की बूँदें टपक रही थीं। उसने तलवार को एक झटका देकर रक्त झाड़ा और तलवार पुनः म्यान में डाल ली।
अचानक ही कुछ आवाजें हुईं और संपूर्ण गाँव के साथ सैनिकों की टोली भी राजकुमार के सम्मान में घुटनों पर आ गई।
वैष्णव के कंधे तक पहुँचते बाल हवा में उड़ रहे थे। कानों में सोने के छोटे से कुंडल थे। उसके चेहरे पर एक प्रकार की गंभीरता और तेज दृष्टिगोचर हो रहा था। उसकी बढ़ती आयु का प्रभाव उसके शरीर पर अभी से प्रकट होने लगा था।
अगले ही क्षण गाँव का मुखिया वहाँ पहुँच गया। उसके साथ उमेश और एक युवक शशांक भी था। अमृत को नीचे पड़ा देख शशांक तुरंत ही उसकी ओर बढ़ा और उसे पकड़ लिया, "यह क्या हुआ आपको?"
"उन सैनिकों ने धक्का दिया और हमें चोट लग गई।" अमृत सिसकते हुए बोला।
"हम औषधि लगा लेंगे इस पर वैद्य जी से।" शशांक ने प्यार से उसके घाव पर फूँक मारते हुए कहा।
वैष्णव ने एक दृष्टि उन पर डाली और तभी शशांक ने कहा, "ये राजकीय सैनिक हमेशा हमारे साथ ऐसा ही करते हैं। क्या महाराज को यह ज्ञात नहीं होता कि हमारे साथ कैसा व्यवहार किया जा रहा है?"
वैष्णव की मुट्ठियाँ कस गईं। उसके पिता कितने व्यस्त होते थे, यह उसे ज्ञात था। "हम अपने पिताश्री के विरुद्ध एक भी अपशब्द और नहीं सुनेंगे। उन्होंने किसी को आदेश नहीं दिया यह सब करने के लिए। यदि यहाँ ऐसा कुछ हो रहा है तो आप लोग अधिकारियों तक शिकायत क्यों नहीं पहुँचा सकते?"
सभी खड़े हो चुके थे, परंतु उत्तर किसी की ओर से नहीं आया।
तभी शशांक ने कहा, "अवश्य पहुँचाएँगे, राजकुमार, यदि उन्हें सुनने में रुचि होगी।"
"शशांक," मुखिया ने दबे स्वर में उसे टोका।
"क्यों बाबा? हम स्वयं शिकायत लेकर गए थे। क्या सुना उन्होंने हमें? क्या महाराज का कर्तव्य नहीं है कि वे भ्रष्ट अधिकारियों के बारे में जानकारी रखें? सीधे तौर पर हम महाराज से भेट करना तो दूर उन्हें देख तक नहीं सकते ।" शशांक गुस्से में बोला।
"बस, बहुत हुआ। अब हम आगे कुछ नहीं सुनेंगे। तिलक, इस सेना की टुकड़ी को बंदी बनाकर राजसभा में प्रस्तुत करो। कौन से अधिकारी शिकायत सुनने से मना करते हैं, उनका पता लगाओ और वैद्य जी को उनकी सहायता का मूल्य चुका देना।" इतना कहकर वैष्णव ने फिर से एक बार अमृत को देखा। अमृत भी उसे हैरानी भरी नजरों से देख रहा था, यह जानकर कि वैष्णव एक राजकुमार था।
तिलक ने कुछ सिक्कों से भरी पोटली उमेश की ओर बढ़ाई। उमेश ने हाथ जोड़ लिए, "क्षमा कीजिए, हम इसे स्वीकार नहीं कर सकते।"
"आपको करना होगा।" तिलक ने जबरदस्ती उसके हाथ में वह छोटी सी पोटली थमाते हुए कहा।
फिर वह राजकुमार को अश्व पर बिठाकर स्वयं पैदल चलते हुए वहाँ से निकल गया। उनके साथ अभी भी कुछ सैनिक थे और गाँव में आए सैनिकों को भी बंदी बनाकर ले जाया जा रहा था।
गांव से कुछ दूर जाते ही वैष्णव के कानों में वह आवाज सुनाई दी। कोई उसे पुकार रहा था। तिलक ने पलट कर देखा तो अमृत भागता हुआ आ रहा था।
"राजकुमार, एक क्षण रुक जाइए," अमृत ने फिर कहा। वैष्णव ने हाथ दिखाया तो तिलक ने अश्व रोक दिया। वैष्णव ने अभी भी पलट कर नहीं देखा था।
सैनिकों के बीच प्रवेश कर निडर होकर आगे आते हुए अमृत ने वैष्णव की ओर चेहरा उठाया।
"क्या हुआ कन्या? आपने हमें किसलिए पुकारा?" वैष्णव की आवाज में शरारत का आभास मुश्किल से हो रहा था।
अमृत की आंखें छोटी हो गईं, "हमने कहा था न? हम कन्या नहीं हैं। और ये लीजिए, छोटी-सी भेंट! हमारे पास देने के लिए बस इतना ही है।"
वैष्णव की भौंहें हल्की सी ऊपर उठ गईं। उस पुराने कपड़े में लपेटे हुए कुछ फल थे। उन पर नजर न होकर राजकुमार की नजरें अमृत के जख्मी हाथ पर थीं।
उसने वह फल लेकर कहा, "हम यूं ही भेंट स्वीकार नहीं करते। अपने गांव वालों से कहना, हमने उनका कर माफ कर दिया।"
"क्या सच में? परंतु हमने तो बस यूं ही ये फल दिए थे। क्योंकि हमें असली राजकुमार से मिलना था और मिल लिए," अमृत ने हैरानी से कहा।
"तो हमारी ओर से भी बस छोटी-सी भेंट थी। क्योंकि हम एक सुंदर कन्या से मिले। अब हमे जाने की अनुमति है?" वैष्णव ने कहा।
इस पर अमृत ने बड़ी सी मुस्कुराहट के साथ हाथ हिला दिया। उसने इस बार "कन्या" बुलाए जाने पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया।
वे सभी आगे बढ़े और कुछ दूर जाकर राजकुमार ने तेज स्वर में कहा, "अपने घाव पर औषधि लगा लेना, कन्या!"
अमृत का हाथ रुक गया और वह चिढ़कर बोला, "हम कन्या नहीं हैं, बताया न?"
और वह पैर पटककर अपने गांव की ओर भाग गया। वैष्णव ने एक नजर पलट कर उसे देखा और फिर कपड़ा खोल कर उसमें से फल निकाले।
"आप इन्हें न खाएं, राजकुमार। हम वन से गुजरेंगे तब आपके लिए ताजा फल एकत्र कर लेंगे," तिलक ने कहा।
"हमें अभी भूख लगी है," राजकुमार का स्वर बिल्कुल ही बदल चुका था अब।
"तो फिर हमें पहले चखने दीजिए," तिलक की बातों में एक चिंता झलक रही थी।
"हर किसी पर संदेह नहीं किया जाता, सेनापति। वह मासूम कन्या - हमारा तात्पर्य है, बालक था," वैष्णव ने एक अमरूद हाथ में लेकर उसे देखते हुए कहा।
राजधानी पहुंचते ही वैष्णव को अपने पिता के मृत शरीर के दर्शन हुए, पर उसने स्वयं को टूटने नहीं दिया।
राजगुरु ने अगले दिन ही राजकुमार के राज्याभिषेक की घोषणा कर दी। और उसी के साथ राजधानी में हर ओर यह खबर फैल गई कि नए महाराज ने अपने सभी सगे-संबंधियों को कारावास में डाल दिया है।
इस एक खबर ने नए महाराज का भय प्रजा के मन में उत्पन्न कर दिया था। राजगुरु ने तिलक के व्यतिरिक्त दो और सेनापति नियुक्त किए । ताकि तिलक का अधिक से अधिक समय महाराज वैष्णव की सुरक्षा में व्यतीत हो सके।
दो वर्ष पश्चात, तिलक ने तेज कदमों से राजमहल में बने सबसे भव्य कक्ष में प्रवेश किया। महाराज बिस्तर पर पेट के बल लेटे हुए थे और एक सेवक उनकी पीठ दबा रहा था।
तिलक ने ठंडे स्वर में कहा, "महाराज, आप पुनः एकांतवास के नाम पर उस गांव में उस बालक से मिलने गए थे, न?"
"नहीं सेनापति! हम केवल भ्रमण के लिए गए थे। दो वर्ष पूर्व जो हमारी आंखों के सामने हुआ था, वह पुनः राज्य में न हो इसका ध्यान रखने के लिए हम भ्रमण करते हैं," वैष्णव ने शांतिपूर्वक उत्तर दिया।
"आप अकेले गए थे महाराज, केवल दो मूर्खों को साथ लेकर। और हमसे झूठ मत कहिए। आप उस बालक से ही मिलने गए थे। बाकी सब बहाना है," तिलक अत्यंत क्रोध में था।
वैष्णव ने ठंडी सांस छोड़ी और सेवक को इशारा किया, "बस हो गया। आप जा सकते हैं।"
सेवक के जाते ही वैष्णव उठकर बैठ गया, "आपको क्या परेशानी है अगर हम उस बालक से मिलें?"
"क्योंकि आप महाराज हैं। इस तरह कहीं भी निकल जाना आपके प्राणों पर संकट ला देगा। इसके अलावा, एक साधारण बालक से मित्रता करना - इसे कोई भी स्वीकार नहीं करेगा," तिलक ने कहा।
"आपको ईर्ष्या हो रही है उससे? एक बालक से?" वैष्णव की आंखें छोटी हो गईं।
तिलक ने तुरंत ही नजरें झुका लीं, "हमारा ऐसा कहने का कोई तात्पर्य नहीं था। परंतु महाराज, वह बालक आपको बदल रहा है। आपको आपके मार्ग से भटका रहा है। आपके स्वभाव में पहले से कही अधिक अंतर नजर आता है। ऐसे में हमें राजगुरु से इस संदर्भ में बात करनी पड़ेगी, जिन्हें आप सुनते हैं।"
"सेनापति, अपनी मर्यादा में रहिए। हमें अच्छे से ज्ञात है क्या उचित है और क्या अनुचित। इस संदर्भ में पुनः कोई बात न हो तो बेहतर रहेगा। जाइए अब," वैष्णव ने सख्त शब्दों में कहा। तिलक ने सिर झुका कर वहां से प्रस्थान किया। महाराज के आदेश का उल्लंघन वह कभी नहीं करता था।
कक्ष से बाहर निकलते ही उसे सामने दो अठारह वर्षीय युवक दिखे, जो कान पकड़ कर घुटनों पर बैठे थे।
"सेनापति, हमें क्षमा कर दीजिए। महाराज ने कहा चलो, तो हमें जाना पड़ा," उनमें से एक युवक धर्म ने कहा।
"महाराज कहेंगे आग में कूद जाओ, तो कूद जाओगे?" तिलक ने क्रोधित होकर पूछा।
"अवश्य, महाराज का आदेश सर्वोपरि है," दूसरे ने (वीरेंद्र) तुरंत उत्तर दिया।
"रात्रि तक यहीं और इसी अवस्था में बैठे रहो," तिलक ने गुस्से में उन्हें घूरते हुए कहा और आगे बढ़ गया।
वहीं कक्ष के अंदर बैठे वैष्णव ने स्वयं से कहा, "साधारण बालक? वह वैद्य बनने की शिक्षा ले रहा है अपने पिता से । यदि हम कुछ वर्षों बाद उसे अपना राजवैद्य बना लें, तो वह साधारण नहीं रहेगा, न?"
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आगे जानने के लिए कहानी के साथ बने रहे ।
छह वर्षों के उपरांत, भोर का समय था। पक्षियों की चहचहाहट सुनकर उस छोटे से घर में अठारह वर्षीय अमृत की आँखें खुल गईं। उसके सुंदर बाल इस समय पूर्णतः अस्त-व्यस्त हो चुके थे। उन्हें समेटकर जूड़ा बनाते हुए वह उठकर दीपक जलाने लगा। घर में पुनः प्रकाश फैल गया। उमेश अभी भी निद्रालीन थे। अपने स्नान की तैयारी में, उसने पहले गायों को चारा डाला, फिर अपने वस्त्रों की पोटली उठाकर नदी की ओर प्रस्थान किया।
सूर्य के अभी दर्शन नहीं हुए थे। ऐसे में अपना मार्ग खोजते हुए वह नदी के समीप पहुँच गया। वस्त्र एक पत्थर पर रखते हुए वह पानी में प्रवेश करने लगा और अपने कुर्ते को उतार दिया। अब केवल एक सफेद धोती उसके शरीर पर बची थी।
वहाँ पानी अधिक गहरा नहीं था, परंतु अमृत के सीने तक आता था। इस गाँव के हर स्थान से वह भली-भाँति परिचित था, अतः भय जैसी कोई भावना उसमें नहीं थी।
पानी का तापमान इस समय ठंडा नहीं था। आँखें बंद कर, अमृत पानी में सिर तक डूब गया, जिससे उसके बालों का जूड़ा खुल गया। कुछ क्षणों तक वह ऐसे ही रहा और अचानक ही कुछ उसकी कमर को छूकर गया। अमृत ने झटके से आँखें खोलीं और पानी से बाहर आ गया। आसपास का पानी पूर्णतः शांत था।
उसने पुनः पानी में ध्यानपूर्वक देखा और अपनी कमर को भी छुआ। क्या उसे कोई भ्रम हुआ था?
"हो सकता है कोई मछली हो," सोचते हुए वह हल्के से मुस्कुराया और पुनः पानी में डुबकी लगाकर अपने श्वास पर नियंत्रण करते हुए बैठ गया।
इस बार किसी वस्तु का स्पर्श उसकी पीठ पर पुनः हुआ, और यह कोई भ्रम नहीं था। अमृत ने बाहर आकर पुनः इधर-उधर देखा। अब वह भयभीत हो चुका था। ऐसा अनुभव उसके साथ पहले कभी नहीं हुआ था।
उसने पानी से बाहर निकलने का प्रयत्न किया, परंतु कुछ कदम चलने पर मानो किसी ने उसका पैर पकड़ लिया। अमृत की आँखें बड़ी हो गईं।
चिल्लाने के लिए उसने मुँह खोला ही था कि उससे पहले ही मुँह के बल वह पानी में गिर पड़ा। उसी समय किसी ने उसकी कमर थाम ली और उसे पकड़कर पानी के बाहर ले आया।
मुँह खोलकर अमृत ने लंबी-लंबी साँसें लीं। उसके बाल चेहरे पर आ चिपके थे, परंतु किसी के समक्ष होने का आभास उसे राहत भी नहीं लेने दे रहा था। आँखें खोलते ही उसने एक शरारती मुस्कान से भरा चेहरा देखा।
"महाराज, यह क्या चेष्टा थी? आप हमारे प्राण निकालना चाहते थे क्या?" अमृत ने सामने खड़े वैष्णव पर क्रोध जताते हुए कहा, और चेहरे से बालों को पीछे करने लगा।
वैष्णव ने हल्की हँसी के साथ उत्तर दिया, "हम सुंदर कन्या की प्रतीक्षा कर रहे थे, परंतु आते ही उसने पानी में प्रवेश कर लिया, हमें देखा तक नहीं। तो सोचा, थोड़ी चेष्टा कर लें, कुछ अधिक नहीं।"
कहते हुए वैष्णव ने पुनः उसकी कमर पर अपनी उँगलियाँ फिराईं।
अमृत सिहर उठा। वैष्णव की पकड़ से मुक्त होने का प्रयास करते हुए उसने कहा, "हम आपसे बात नहीं करेंगे, छोड़िए हमें। हमारा प्राण मानो निकलने को आए थे और आपको ये मजाक लगता है?"
"सुंदर कन्या रूष्ट हो गई?" वैष्णव ने उसे पानी में ही घुमा दिया और पानी की गहराई की ओर तैरने लगा।
"हम कन्या नहीं हैं। क्या जीवन भर आपको यही समझाते रहेंगे?" अमृत की तेज आवाज वहाँ गूँज उठी और साथ ही महाराज वैष्णव की नटखट हँसी भी।
कुछ समय पश्चात पानी से बाहर आकर वैष्णव ने किसी को पुकारा, "धर्म!"
एक चौबीस वर्षीय युवक सिर झुकाकर एक कपड़ा लेकर खड़ा हो गया। उसे लेकर वैष्णव ने अमृत को ओढ़ा दिया।
"महाराज, हम अपने वस्त्र साथ लाए हैं। हमें इसकी आवश्यकता नहीं है," अमृत ने कहा।
"तब तक आपको ठंड लग जाएगी। इसे ओढ़े रहिए, कन्या," वैष्णव ने कहा।
पुनः 'कन्या' सुनकर अमृत ने उसे घूरा और कहा, "यदि आपने हमें पुनः कन्या कहा तो हम... "
"तो आप? क्या कर लेंगे मिथिला के महाराज के साथ?" वैष्णव ने अकड़ के साथ भौंहें चढ़ा दीं।
अमृत शांत हो गया। एक राजा उसके साथ मित्रता बनाए हुए है, यही उसके लिए सम्मान की बात थी। फिर उनका मजाक, गुस्सा, हठ – सब कुछ उसे अनचाहे सहना पड़ता था।
"हाँ, सत्य कहा," अमृत ने कहा और अपने कपड़े लेकर दूसरी दिशा में एक झाड़ी के पीछे चला गया।
"हमने कुछ अनुचित कहा क्या, धर्म?" वैष्णव ने धीमी और नासमझी भरी आवाज में पूछा।
"आप कभी कुछ अनुचित कर ही नहीं सकते, महाराज," धर्म की बगल में वीरेंद्र आकर खड़ा हुआ। ये दोनों उन सेनापतियों के पुत्र थे जिन्हें राजगुरु ने तिलक की सहायता हेतु नियुक्त किया था। महाराज के कहने पर वे दोनों तत्पर रहते थे। इसलिए तिलक इन्हें 'मूर्ख' कहकर पुकारता था।
वीरेंद्र के उत्तर पर वैष्णव ने बाहें मोड़ लीं और एक संतोष भरी साँस ली।
पलटकर उसने उस दिशा में देखना शुरू किया जहाँ अमृत गया था। यह सब कैसे आरंभ हुआ था? पहली बार इस गाँव से जाने के बाद वह पूरी तरह अशांत हो चुका था। महाराज बनकर जिम्मेदारी का भार उस पर आ चुका था। ऐसे में ही उसे पुनः इस गाँव में आने का अवसर मिला। अपने सेनापतियों के साथ भ्रमण पर निकले वैष्णव को अमृत से मिलकर बहुत शांति मिली थी। उसके पश्चात, जब भी वह अकेलापन महसूस करता, यहाँ चला आता था। साथ देने के लिए तिलक के दो 'मूर्ख' भी थे जो महल से उसे भगाने का पूर्ण प्रबंध कर देते थे।
"चलिए, महाराज। सूर्य निकल आया है। महिलाएँ पानी भरने आती होंगी," अमृत की आवाज ने वैष्णव को विचारों से बाहर निकाला।
"कहाँ चलना है?" वैष्णव ने कहा।
"यहाँ से निकल कर सोचते हैं," अमृत ने उत्तर दिया। वह अपनी दिनचर्या के अनुसार जड़ी-बूटियाँ एकत्र करेगा। साथ ही उसे यह भी जानना था कि वैष्णव आज किस कारण वहाँ पहुँचा था। प्रत्येक माह दो बार उसका आना-जाना चलता रहता था, परंतु आज यह तीसरी बार था।
वैष्णव बिना कोई प्रश्न किए अमृत के पीछे चल पड़ा, धर्म और वीरेंद्र भी उसके पीछे थे। तभी वैष्णव ने अपनी गति धीमी की और उनके बीच आकर चलने लगा।
"क्या हुआ, महाराज? पूछने में भय लग रहा है?" धर्म ने कहा।
"भय और हम?" वैष्णव ने उसे घूरा।
"महाराज, युद्ध में तलवार चलाना और प्रेम में शब्द चलाना – धरती-आकाश जितना अंतर है। यहाँ भय लगने में कोई बुराई नहीं है," वीरेंद्र ने कहा।
"तो अब? हमें पूछ लेना चाहिए, ना?" वैष्णव ने गहरी साँस भरते हुए कहा।
"अवश्य, महाराज! अब नहीं तो फिर कब? और ध्यान रखिए, इस राज्य के साथ प्रजा पर भी आपका उतना ही अधिकार है। वैद्यजी उसी प्रजा का एक भाग हैं। इसमें कुछ अनुचित नहीं। हमने कई स्थानों पर सुना है राजकुमारों या अधिकारियों का पुरुषों के साथ संबंध रखने के संदर्भ में। बस यह सब गुप्त तरीके से होता है, इसलिए इस पर अधिक चर्चा नहीं होती," वीरेंद्र ने वैष्णव को समझाते हुए कहा।
ऐसे अवसरों पर वैष्णव इन 'मूर्खों' को अपना गुरु मानकर सब सुन लेता और उसे कर भी देता। कहते हैं, प्रेम में सबसे बुद्धिमान भी मूर्ख बन जाता है – महाराज वैष्णव भी बन गए।
अमृत अचानक ही रुक कर उनकी ओर मुड़ा। इस समय वे जंगल में खड़े थे, जहां अमृत सदा अपनी औषधियों का संग्रहण किया करता था।
"हमें यहीं अपना कार्य करना है। आपको कहां जाना है महाराज? भ्रमण पर आए हैं ना पुनः?" अमृत ने पूछा।
"हनन , हाँ! आप अपना कार्य करिए अमृत। हम उसमें बाधा नहीं डालेंगे।" वैष्णव चाहकर भी वह नहीं कह पाया, जो कहने के लिए वह आया था।
इतना सुनकर अमृत ने अपना ध्यान कार्य पर लगा लिया। धर्म और वीरेंद्र ने महाराज को चार बातें बताकर उन्हें साहस देना शुरू किया। हर कार्य में निपुण वह राजा, आज प्रथम बार किसी कार्य को करने में हिचकिचा रहा था।
अपनी आवश्यक औषधियाँ एकत्र करते हुए अमृत ने उन्हें एक पोटली में रखा और उस गुफा की ओर चल पड़ा, जहां वह बिना किसी बाधा के अपने कार्य में व्यस्त हो सकता था।
वह पत्थरों से निर्मित एक गुफा थी। वहाँ मुश्किल से कोई आता-जाता था, सिवाय अमृत या उसके पिता के। शेष सभी अपने खेतों में ही व्यस्त रहते थे। जो लोग पशुओं को चराने आते थे, वे भी मैदानी क्षेत्र में जाया करते थे।
अमृत का सारा सामान उस गुफा में पहले से ही मौजूद था। वहाँ पहुँचते ही वह पुनः अपने कार्य में व्यस्त हो गया और वैष्णव पीछे खड़ा बस देखता रह गया।
"महाराज, आप हमसे कुछ कहना चाहते हैं?" अमृत ने अपना कार्य रोक कर उसे देखा, जो कब से उसके समीप आकर खंभे की भाँति खड़ा था।
"आप हमारी ओर ध्यान नहीं दे रहे वैद्यजी। हर समय इन औषधियों में व्यस्त रहना आवश्यक है क्या? यदि आपको इन्हें बेचकर धन अर्जित करना है तो राजधानी चलिए, हमने पहले भी आपको राजवैद्य बनने का प्रस्ताव दिया था।" वैष्णव ने कहा।
"इसके लिए हम क्षमा चाहते हैं। किंतु जब तक आप कहेंगे नहीं, हमें कैसे ज्ञात होगा महाराज? जहाँ तक राजवैद्य बनने का प्रश्न है तो हम इस गाँव में ही ठीक हैं। हमें अपना घर, गाँव और लोग नहीं छोड़ने।" अमृत ने कहा।
प्रत्येक बार अमृत का यही उत्तर होता था। ऐसे में क्या किया जाए, यह वैष्णव समझ नहीं पाता था। किंतु अब उसने एक अच्छा उपाय सोच लिया था "सब छोड़िए और हमें सुनिए।"
वैष्णव ने अब पूर्ण रूप से कुछ कहने का मन बना लिया था। उसने अमृत के हाथ पकड़ कर कहा, "आप हमारे विषय में क्या सोचते हैं?"
"एक महान राजा, जो अपनी प्रजा का पूरा ध्यान रखता है। आपको सभी की चिंता है। जिन चीजों की कामना हमारे बाबा परमेश्वर से किया करते थे, वह सब आप कर देते हैं। इसी कारण लोग आपको परमेश्वर समान मानते हैं।" अमृत ने कहा।
"हमें परमेश्वर नहीं, राजा ही रहने दें। शेष लोग नहीं, आप क्या सोचते हैं वह बताइए।" वैष्णव ने कहा।
"हम भी वैसा ही सोचते हैं, महाराज।" अमृत ने कहा।
"तो फिर यदि हम कुछ माँग लें तो आप देंगे?" वैष्णव ने पूछा।
"कहिए, जो हम दे सकते हैं, अवश्य देंगे, भले ही वह हमारे प्राण ही क्यों ना हों।" अमृत ने कहा।
"हमें आपके प्राण नहीं, प्रेम चाहिए। देंगे आप?" वैष्णव गंभीर था, किंतु अमृत को उसकी बात का अर्थ समझ नहीं आया।
असमंजस में उसने पूछा, "प्रेम? आपका तात्पर्य मित्रता से है?"
"नहीं, वह प्रेम जो एक प्रेमिका अपने प्रेमी को देती है।" वैष्णव ने कहा।
अमृत का चेहरा फीका पड़ गया। "आप पुनः हमारे साथ विनोद कर रहे हैं ना? छोड़िए हमारा हाथ। आज हमारा कुछ करने का मन नहीं। हम घर लौट रहे हैं।"
वैष्णव ने उसके हाथ नहीं छोड़े। "हम गंभीर हैं अमृत। हम आपके सम्मुख अपने प्रेम का प्रस्ताव रख रहे हैं।"
अमृत ने गला तर कर लिया और नजरें झुका कर डरते हुए कहा, "क्षमा, क्षमा कर दीजिए महाराज। हम, हम इसके योग्य नहीं। कृपया, हमें छोड़ दीजिए।"
वैष्णव के लिए यह असहनीय था। उसने अमृत के हाथों पर पकड़ और कस ली "कारण क्या है?"
"महाराज, आप हमें पीड़ा पहुंचा रहे हैं।" अमृत ने हाथ छुड़ाने का प्रयास करते हुए कहा।
"कष्ट तो आप भी दे रहे हैं। कारण बताइए अमृत।" वैष्णव ने क्रोध में कहा।
"इसका कारण यह है कि आप एक महाराज हैं। हमारा और आपका कोई मेल नहीं। यदि हम सच में कोई कन्या भी होते, तब भी आपको एक राजकुमारी से विवाह करना चाहिए। हम... हम युवक हैं महाराज।" अमृत ने क्रोध में कहा और अपने हाथ छुड़ा लिए। उसने वहाँ से जाने का प्रयत्न किया , किंतु महाराज ने उसका मार्ग अवरुद्ध कर दिया।
"पुरुष भी आपस में प्रेम संबंध रखते हैं, अमृत।" वैष्णव ने कहा।
"वह प्रेम नहीं होता महाराज, वह केवल शारीरिक आवश्यकताओं को पूरा करने का दूसरा मार्ग है। क्षमा करें, हमसे यह नहीं होगा।" अमृत ने फिर वैष्णव से नजरें नहीं मिलाईं।
"नहीं, नहीं आप हमें गलत समझ रहे हैं अमृत। हम... हम आपसे विवाह करना चाहते हैं। आपको अपनी महारानी बनाना चाहते हैं। वचन देते हैं, आपके अतिरिक्त किसी से विवाह नहीं करेंगे, न कोई संबंध बनाएँगे।" वैष्णव ने सफाई देते हुए कहा।
"क्या आपका मस्तिष्क स्वस्थ है, महाराज? नहीं तो हम आपके लिए कोई औषधि बना कर भेज देंगे।" अमृत शीघ्र ही वहाँ से निकल जाना चाहता था।
"हमारा मस्तिष्क पूर्णत: स्वस्थ है और आपको अपना शांत रखते हुए हमारी बात सुननी चाहिए।" वैष्णव ने कहा।
अमृत अपने स्थान पर रुका और स्वयं को शांत करते हुए कहा, "महाराज, हमें आपका प्रस्ताव स्वीकार नहीं है।"
"अमृत, आप हमें अस्वीकार कर रहे हैं? हम महाराज है आपके ।" वैष्णव ने ठंडे स्वर में कहा।
"आपके प्रस्ताव पर अंतिम निर्णय हमारा ही होगा महाराज। इसमें आप बल प्रयोग नहीं कर सकते। हम ना कह चुके हैं। हमारे निर्णय का आपको सम्मान करना होगा।" अमृत ने कठोरता से कहा, तो वैष्णव ने सिर झुका लिया।
अमृत के पास यही अवसर था वहाँ से निकलने का। जैसे ही वह कुछ कदम चला, वैष्णव की आवाज उसके कानों में पड़ी, "हम आपको इतनी सरलता से नहीं छोड़ेंगे, यह स्मरण रहे।"
अमृत ने मुड़कर उसकी ओर देखा। "आपको किसी राजकुमारी से विवाह कर अपना घर बसाना चाहिए और नियमों के अनुसार हमें भी ऐसा ही करना चाहिए।"
"नियम? किसके बनाए हुए नियम? नियम हमसे हैं, हम नियम से नहीं।", वैष्णव ने उसकी ओर देखा "आपको हमारा प्रेम स्वीकार करना होगा। आपको हमसे विवाह करना ही होगा अमृत।"
"क्या यही है आपका प्रेम? नहीं महाराज, अब यह आपका हठ बन चुका है। जिसमें केवल स्वयं के सुख का ध्यान रखा गया है। और आप कहते हैं कि हमने आपको गलत समझा? नहीं, हमने सब सही समझा। क्षमा करें, हमें आपके मनोरंजन का साधन बनना स्वीकार नहीं।" अमृत ने कहा और वहाँ से भाग निकला। वैष्णव ने उसका पीछा करने का प्रयास नहीं किया। खाली आँखों से वह उसे जाते हुए देखता रहा।
"महाराज?" धर्म ने धीरे से पुकारा।
"उन्होंने हमें अस्वीकार कर दिया। अब?" वैष्णव ने ठंडी दृष्टि से धर्म को देखा, मानो अभी उसका शीश धड़ से अलग कर देगा।
"हम कोई और उपाय ढूँढ़ते हैं। आप शांत रहें महाराज।" वीरेंद्र ने शीघ्र कहा। महाराज का कोई भरोसा नहीं था, क्रोध में किसी का शीश काटना उसके लिए वृक्ष की डाली काटने जैसा था।
आगे जानने के लिए कहानी के साथ बने रहे ।
संध्या का समय बीत चुका था। अंधेरा होते ही वैष्णव का अश्व राजमहल में प्रवेश कर गया। आज उसने किसी से छिप कर लौटना नहीं चुना, जिसे एक बालकनी में खड़ा होकर तिलक देख रहा था।
महाराज के संग धर्म और वीरेंद्र भी थे। तभी तिलक को अपने पीछे किसी के आने का आभास हुआ। झटके से पलट कर तिलक ने सिर झुकाया, "राजगुरु शेखर!"
"महाराज कहाँ से आ रहे हैं इस समय?" शेखर ने आश्चर्य से कहा। उन्हें महाराज के किसी भ्रमण पर जाने की सूचना नहीं मिली थी। हाँ, उन्हें यह अवश्य ज्ञात था कि महाराज अपने कक्ष में और एकांत में रहना चाहते थे।
"हमें ज्ञात नहीं, राजगुरु।" तिलक को झूठ बोलना पड़ा।
"हम स्वयं पूछ लेते हैं।" राजगुरु ने कहा और वे दूसरी दिशा में चल पड़े। उनकी आयु छत्तीस वर्ष की थी और वे अविवाहित थे। उन्होंने अपना जीवन राज्य के प्रति समर्पित कर दिया था।
काले रंग का घेरदार अंगरखा महाराज ने पहना हुआ था। बाजुओं और सीने पर सुरक्षा के लिए कवच लगे थे। कंधे तक आते बाल, जिनमें से आधे जुड़े में बंधे थे। छह फुट की लंबाई, आकर्षक शरीर और इस समय चेहरे पर गुस्सा साफ झलक रहा था। लंबे कदमों से वे महल के अंदर प्रवेश कर चुके थे। हर कोई उन्हें देख शीश झुका रहा था।
पीछे धर्म और वीरेंद्र उनके कदमों से कदम मिलाने के लिए लगभग दौड़ रहे थे।
अचानक ही महाराज को रुकना पड़ा जब सामने राजगुरु आकर खड़े हो गए। वैष्णव का सख्त चेहरा कुछ क्षणों के लिए भावहीन हो गया, "प्रणाम राजगुरु।"
"महाराज! आप एकांत में थे ना?" राजगुरु ने हैरत से कहा।
"हम भ्रमण पर गए थे राजगुरु।", वैष्णव ने उत्तर दिया, "आपसे एकांत में कुछ कहना है।"
राजगुरु ने सिर हिलाया और कुछ ही समय में वे एक छोटे सभागृह के अंदर थे।
महाराज अपने मुख्य स्थान पर विराजमान हुए और सामने ही बैठे राजगुरु।
"हमने एक निर्णय लिया है। परंतु सामने वाले पक्ष ने हमें अस्वीकार कर दिया।" वैष्णव ने ठंडे स्वर में कहा।
महाराज के ठंडे स्वर से राजगुरु भी कभी-कभी हिचक जाते थे। "कैसा निर्णय महाराज?"
"आपने कुछ समय पहले हमारे विवाह के संदर्भ में कहा था। हमने विवाह का निर्णय कर लिया है, परंतु अपनी पसंद से।" वैष्णव ने कहा।
राजगुरु आश्चर्यचकित होने के साथ आनंदित भी हो उठे, "यह तो अत्युत्तम निर्णय है महाराज। कौन है वह कन्या? किस प्रदेश की राजकुमारी है और आप कहाँ मिले उनसे? क्या उन्हीं को देखने हेतु भ्रमण पर जाते थे?"
राजगुरु ने मानो महाराज को छेड़ने का प्रयास किया था, परंतु जल्द ही वे चुप हो गए, जब उन्होंने महाराज का भावहीन चेहरा देखा "तो उन्होंने आपके प्रेम प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। इसका कारण?"
"क्योंकि हम पुरुष हैं और यह उनके नियमों के विरुद्ध है।" वैष्णव हल्के क्रोध में बोले।
"राजकुमारियाँ तो पुरुष से ही विवाह करती हैं ना? इस राजकुमारी को कन्या से विवाह करना है? हम इसे अप्राकृतिक नहीं मानते, परंतु..." राजगुरु निशब्द हो गए।
वैष्णव ने उन्हें घूरा, "राजगुरु, वह भी पुरुष हैं, कोई राजकुमारी नहीं।"
राजगुरु का हाथ सिंहासन से फिसल गया और वे अपने स्थान पर हल्के से लड़खड़ा गए, "क्या, क्या कह रहे हैं आप महाराज? एक पुरुष से विवाह? असंभव! कोई साधारण व्यक्ति ऐसा निर्णय ले तो, या फिर कोई अधिकारी, तो इतनी बड़ी बात नहीं होगी। परंतु आप एक महाराज हैं। आपको उत्तराधिकारी चाहिए होगा। शत्रु घात लगाए बैठे हैं। आप भूल गए अपने ऊपर हुए प्राणघातक हमले?"
"कुछ नहीं भूले हैं हम और हमारे लिए कुछ भी असंभव नहीं है। उन्होंने कहा कि यह नियमों के विरुद्ध है, तो हम नियम ही बदल देंगे। हमने इस विषय में कुछ सोचा है। धर्म, वीरेंद्र! अंदर आ जाओ।" वैष्णव ने आवाज लगाई।
राजगुरु सदमे में बैठे थे। उनके लिए परिस्थिति को समझना कठिन हो रहा था। उत्तराधिकारी के विषय में महाराज की तरफ से उन्हें कोई उत्तर ना मिला।
धर्म और वीरेंद्र पूरे दिन और मार्ग में भयभीत रहे थे महाराज के गुस्से के कारण। ऐसे में उन्हें बुलाया जाना किसी संकट का आमंत्रण तो नहीं सोचते हुए उन्होंने अंदर कदम रखा।
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"बेटा अमृत, गायों का दूध नहीं निकाला तुमने? और संध्या के समय क्यों सो रहे हो?" उमेश ने आवाज लगाई। परंतु अमृत की ओर से कोई उत्तर नहीं आया।
उमेश को चिंता हुई तो उसके पास जाकर माथा छुआ, "हे परमेश्वर! तुम्हें ज्वर है अमृत। बिना हमें कुछ बताए तुम सो रहे हो? कोई औषधि ली या नहीं?"
अमृत ठंड के कारण कांप रहा था। उसने कोई उत्तर नहीं दिया। इस पर उमेश ने उसे अच्छे से कपड़े में ढक कर कहा, "हम हमेशा कहते हैं कि नदी पर जाकर स्नान करने की क्या आवश्यकता है? परंतु तुम हमारी सुनते कहाँ हो? देख लो, हो गए ना अब अस्वस्थ?"
वे स्वयं ही ज्वर को कम करने के लिए पानी की पट्टी रखने का प्रबंध करने लगे। तभी दरवाजे पर आकर किसी ने आवाज लगाई, "उमेश काका, अमृत अंदर हैं क्या? हमने उन्हें सुबह से नहीं देखा।"
"हाँ, शशांक! आ जाओ। अमृत को ज्वर हुआ है।" उमेश ने अपना कार्य जारी रखते हुए उत्तर दिया।
छब्बीस वर्षीय शशांक अंदर चला आया। उसकी आयु के सभी युवकों का विवाह हो चुका था। उसी साल की बात थी जब राजकुमार उस गांव में पहली बार आए थे। तब शशांक की सगाई हो चुकी थी, परंतु अचानक ही विवाह से कुछ समय पहले कन्या पक्ष ने रिश्ता तोड़ दिया। कोई खास कारण उनकी ओर से नहीं मिला था। तब से लेकर अब तक शशांक के विवाह हेतु कन्या देखी जा रही थी, परंतु कोई उसे अपनी कन्या देने के लिए तैयार नहीं होता था। कारण यही था कि शशांक का पहला विवाह टूट गया था।
शशांक ने जाकर अमृत को देखा। अमृत ने उससे भी कोई बात ना की। वह अपनी सुध में नहीं था।
"तभी तो हम कहें, सुबह से एक बार भी यह हमें क्यों नहीं दिखे? तब से इन्हें खोज रहे थे।" शशांक ने कहा और उमेश से पानी की पट्टी लेकर अमृत के सिर पर रख दी।
"हमें पता होता तो खेतों में जाते ही नहीं। क्या करें हम इस नटखट का? यूं तो इसका मुख दिन-रात बंद नहीं होता, और ऐसे समय में कुछ कहता भी नहीं।" उमेश ने अफसोस के साथ कहा।
"यह यूँ ही शांत नहीं होते। कुछ हुआ है क्या?" शशांक ने पट्टी के ऊपर से गर्म महसूस होते माथे को छूकर कहा।
"यह तो वही जाने।" उमेश ने कहा।
उसी समय आकाश में बिजली कड़क उठी और वर्षा होना आरंभ हो गया। शशांक और उमेश की नजरें खिड़की की ओर गईं। अगले ही क्षण वे बाहर भागे। अचानक हो रही वर्षा के लिए वे तैयार नहीं थे।
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राजमहल में, अपने कक्ष की बालकनी में खड़े होकर वैष्णव मुस्कुरा रहा था। पुनः एक नैसर्गिक विपदा और उसके लिए एक और अवसर, प्रजा की नजरों में अच्छा बनने का।
"हमसे जो बन पड़ेगा, हम वह करेंगे, अमृत। आपको हमें 'ना' नहीं कहना चाहिए था।" वैष्णव के मुख पर एक कुटिल मुस्कान थी।
सुबह होते ही आवश्यक सामग्री के साथ उसने एक सेना की टुकड़ी को हर गांव में भेज दिया। साथ में धर्म और वीरेंद्र के हाथों भेजा गया एक निमंत्रण पत्र!
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किसी ने अमृत के सिर पर प्रेम से हाथ फेरा, तो उसकी आंखें खुल गईं।
"बाबा!" अमृत ने धीमे स्वर में कहा।
"अब जाकर तुम्हारी आंखें खुलीं। तुमने हमें भयभीत कर दिया था, अमृत।" उमेश ने कहा।
"क्षमा कर दीजिए। हम पुनः नदी पर स्नान करने नहीं जाएंगे। हमें आपकी प्रत्येक बात को सुनना चाहिए और आगे से सुनेंगे भी।" अमृत ने कहकर खिड़की की ओर देखा।
सुबह हो चुकी थी और बाहर से कुछ ज्यादा ही शोर सुनाई दे रहा था।
"पुनः एक विपदा और हमारे खेत पानी में डूब रहे हैं।" उमेश ने मजाक में कहा, जिस पर अमृत जबरन हँस दिया।
"न जाने पानी की दिशा मोड़ने का कार्य कब तक पूर्ण होगा । महाराज," कहते हुए अमृत अचानक रुक गया। फिर महाराज का नाम उसके मुँह से निकल पड़ा।
"इस बार भी राजधानी से सहायता मिल जाए, तो यह उचित रहेगा," उमेश ने आशा व्यक्त की।
"परमेश्वर जाने! हमारी ना का प्रतिशोध लेने के लिए उन्होंने सहायता देना बंद कर दिया तो? हम पूर्ण रूप से उन पर निर्भर हैं," अमृत की चिंता का सबसे बड़ा कारण यही था। इसी कारण उसके मस्तिष्क में फिर से पीड़ा होने लगी।
"राजधानी से सहायता आ चुकी है, और साथ में अमृत के लिए एक पत्र भी है," शशांक ने आकर बताया।
अमृत तुरंत उठकर बैठ गया। उसने हैरानी से पूछा, "कैसा पत्र?"
"महाराज के दो मूर्ख बंदर बाहर खड़े हैं। जाकर देखो, उन्होंने कहा बस तुम्हें ही दिखाएंगे," शशांक ने कहते हुए आँखें घुमा लीं।
अमृत तुरंत उठकर अपने बाबा और शशांक के साथ बाहर आया। धर्म के हाथ में एक पत्र था, जिसे उसने हल्के से सिर झुका कर अमृत की ओर बढ़ाया, "महाराज की ओर से आपके लिए एक पत्र।"
और उसे देते ही उसने शशांक की ओर देखना शुरू कर दिया। न सिर्फ वह, बल्कि वीरेंद्र भी कुछ ऐसा ही कर रहा था। हालांकि दोनों शशांक से आयु में दो साल छोटे थे, लेकिन उनका कहना था, "प्रेम में आयु नहीं देखी जाती।"
शशांक को लेकर दोनों में कई बार झगड़े हो चुके थे, जिस पर महाराज ने उनके सिर पर थप्पड़ मारते हुए एक बार कहा था, "दो की लड़ाई में तीसरे का लाभ सुना है? बस किसी दिन तुम्हारे साथ यही हो जाएगा।"
लेकिन दोनों ने तब भी इसे नहीं माना।
अमृत परेशान हो चुका था। पत्र में क्या होगा, यह पढ़ने की उसकी हिम्मत नहीं हो रही थी।
"देखो न, खोलकर पढ़ो। महाराज ने खुद पत्र भेजा है," उमेश जानने के लिए उत्सुक थे।
अमृत एक ओर मुड़ गया। यदि पत्र साधारण नहीं बल्कि प्रेम पत्र हुआ, तो वह उमेश से आँखें कैसे मिला पाता? पिछले दिन जो हुआ, उसके बाद पत्र का साधारण होना कठिन था।
आगे जानने के लिए कहानी के साथ बने रहे। फॉलो करने के साथ साथ समीक्षा करना बिलकुल भी ना भूले ।
प्रातः का समय था जब हाथ में महाराज द्वारा भेजा हुआ निमंत्रण पत्र लेकर अमृत एक ओर चला आया । उसे भय था उस पत्र में हो ना हो कोई ऐसी बात अवश्य होगी जिसे सबके सामने वो पढ़ नहीं सकता था ।
जैसे ही उसने पत्र खोला , महाराज ने अपने हाथो से लिखा था "प्रिय अमृत !"
अमृत ने गहरी सांस लेकर स्वयं को तैयार कर लिया आगे मिलने वाले झटके के लिए ।
"हमे बताते हुए अत्यंत आनंद हो रहा है कि हम आपको अपनी महारानी चुन रहे है । हमने संपूर्ण तैयारी कर ली है । केवल आपके आने की प्रतिक्षा है । आप अपने परिवार संग राजधानी के लिए प्रस्थान करे । विवाह की तिथि हम निकाल कर रखेंगे ।" अमृत ने वह पढ़ कर अपनी आंखे बड़ी कर ली । हिम्मत नहीं थी आगे पढ़ने के लिए । लेकिन वो आवश्यक था ।
"जैसा कि आप जानते है हम आपके महाराज है , हमारे मुख से निकली हर एक वाणी आप सबके लिए आदेश होना चाहिए और आपको उसे मानना भी आवश्यकता है । यदि आपने ऐसा ना किया तो क्रोध में आकर हमे उसका प्रतिशोध संपूर्ण गांव से लेना पड़ेगा । पुनः किसी भी विपदा में हम अपनी ओर से कोई सहायता आपके गांव के लिए नहीं भेजेंगे । क्या पता , हम गांव को जला देने का आदेश भी दे ?" अमृत के हाथ कांपने लगे । मानो ठंडी हवा झौंका उसे छूकर गुजरा हो । उसके कदम लड़खड़ा गए ।
"आगे आप बहुत समझदार है । हमे निराश नहीं करेंगे , हम जानते है । जल्द ही भेट होगी राजधानी में । आपके अपने महाराज !" अमृत ने वो पत्र छोड़ दिया और सर पकड़ कर नीचे बैठा ।
सबकी गर्दन उसकी ओर घूम गई । उमेश और शशांक के साथ धर्म और वीरेंद्र को भी उसकी ओर दौड़ना पड़ा ।
"अमृत क्या हुआ ?" शशांक ने उसे कंधे से थाम कर देखा तो अमृत मूर्छित हो चुका था ।
"इसे अंदर ले चलो । ज्वर के कारण उसके शरीर में कमजोरी है ।" उमेश ने आदेश दिया , जिसके बाद शशांक उसे उठा कर अंदर ले जाने लगा ।
धर्म और वीरेंद्र एक दूसरे का चेहरा देख रहे थे । महाराज तो थे नहीं जिन्हें सूचना देकर आगे क्या करना था इस बारे में वो पूछ सके । क्युकी उन्हें तो आदेश मिला था अमृत और उसके पिता को साथ ले आने का ।
इस बीच उमेश की नजर नीचे गिरे पत्र पर पड़ी । उसे उठा कर उमेश ने जैसे ही पढ़ना शुरू किया , उनकी हैरानी की कोई सीमा नहीं रही । अगले ही क्षण क्रोध में आकर उन्होंने धर्म और वीरेंद्र को देखा "ये सब क्या है ? महाराज हमारे अमृत के साथ ऐसा कैसे कर सकते है ? क्या वो आज तक सहायता भी स्वार्थ हेतु भेज रहे थे ? अगर ऐसा है तो सब कुछ अभी वापस ले जाओ । जैसे हम पहले गुजारा कर लेते थे, आगे भी कर लेंगे ।"
धर्म ने गहरी सांस भर ली "शांत हो जाइए वैद्य जी । आप महाराज के आदेश का विरोध करने के दंड में कारावास में डाले जा सकते है । महाराज कितने क्रूर है , ज्ञात तो होगा ही आपको ?"
"हा अवश्य ज्ञात है । इसलिए अपने पुत्र को हम उनके आस पास भी नहीं आने दे सकते । उनकी दृष्टि भी अपने पुत्र पर नहीं पड़ने दे सकते । जो व्यक्ति अपने सगे संबंधियों को कारावास में डाल दे , वो कुछ भी कर सकता है ।" उमेश का शरीर क्रोध के कारण कांप रहा था ।
"क्या हुआ काका ? आप इतना चिल्ला क्यों रहे है ?" शशांक उनकी तेज आवाज सुन कर बाहर चला आया था ।
उमेश ने कुछ कहने की जगह उसकी ओर वो पत्र बढ़ा दिया । जैसे ही शशांक ने वो पत्र पढ़ा उसकी मुट्ठियां भींच गई । पत्र को फाड़ कर दोनों युवकों पर फेकते हुए शशांक ने कहा "अभी हमारी नजरो के सामने से चले जाओ तुम दोनो , वरना हम क्या करेंगे हमे भी नहीं पता ।"
कोई ओर होता तो दोनो जोर भी आजमा लेते । लेकिन शशांक ?
वीरेंद्र ने गला खराश दिया और कहने का प्रयत्न किया "क्षमा कीजिए , परंतु हम वैद्य जी और उनके पुत्र को लिए बिना यहां से नहीं जा सकते । महाराज के आदेश का हमे पालन करना ही होगा ।"
"वो महाराज है तो कुछ भी करेंगे । ऐसी शर्त वो रख भी कैसे सकते है किसी के सामने ? हमारा अमृत कही नहीं जाएगा ।" शशांक ने गुस्से में कहा ।
"तो फिर हमे आपको बलपूर्वक ले जाना होगा ।" धर्म ने सर झुका कर धीरे से कहा ।
"जबरदस्ती करोगे हमारे साथ । पूरा गांव खड़ा कर देंगे हम मार्ग में ।", शशांक ने तेज आवाज में कहा और दूसरी ओर जाकर बोला "सब लोग ध्यान से सुनो । महाराज ने हमारे प्रिय अमृत के सामने एक विचित्र शर्त रखी है हमे सहायता करने में बदले में । क्या आप ऐसी सहायता लेना चाहेंगे , जो अमृत को अपने जीवन से चुकानी पड़े ?"
"शशांक ! कृपया आप गांव वालों को ना भड़काए । ऐसे में आपको दोषी करार दिया जा सकता है । जो हम कभी नहीं चाहेंगे ।" धर्म ने उसे रोकने का प्रयत्न किया ।
गांव वाले शशांक की एक वाणी पर रुक चुके थे और उन्होंने सहायता के लिए पहुंचाया गया सामान नीचे रखना शुरू कर दिया ।
"पूरा गांव दोषी बनने के लिए तैयार है । जाकर कहिए अपने महाराज से । कोई भी अमृत को उनकी इच्छा विरुद्ध नहीं ले जा सकता ।" शशांक ने मानो अपनी ओर से अंतिम निर्णय सुना दिया था ।
"आपने अंतिम बात पढ़ी महाराज द्वारा लिखी गई ?", वीरेंद्र ने कहा "हमे आदेश मिला है वो करने का अगर कोई मार्ग में आ जाए ।"
शशांक गुस्से में उसकी ओर पलटा तो वीरेंद्र एक कदम डर कर पीछे हटा "ये हम नहीं , महाराज ने कहा है ।"
"जो करना है कर लो ।" शशांक ने चुनौती दे दी ।
"एक बार पुनः सोच लीजिए मुखिया जी ! एक की सजा पूरे गांव को देना चाहते है आप ? हम अभी आदेश दे देते है गांव को जला देने का । साथ ही सबको राज द्रोही मान कर मृत्यु देने का ?" वो आवाज सबके कानो में पड़ी और सब डर कर मार्ग से हट गए । हाथ में अपनी तलवार पकड़े तिलक वहां खड़ा था ।
शायद महाराज को दोनों मूर्खो पर विश्वास नहीं था । शशांक मार्ग में आयेगा , ये भी उसे अच्छी तरह पता था ।
तिलक आगे चला आया और ठीक शशांक के सामने खड़ा हो गया "कुछ निर्णय जोश में नहीं , होश में लेने पड़ते है मुखिया जी !"
शशांक के माथे पर बल पड़ गए । परेशान हो चूका था अब वो ।
उससे दृष्टि हटा कर तिलक ने सीधे उमेश की ओर देखा "आप ? आप ऐसा चाहते है वैद्य जी । एक नजर अपने गांव वालों के मुख पर जरूर डाल लेना । आपका पुत्र कारण था इतने समय से महाराज की कृपा का और आगे भी कारण बनेगा उनके क्रोध का ।"
उमेश ने सर झुका लिया । अपने पुत्र के मोह में , वो संपूर्ण गांव का विनाश होते नहीं देख सकते थे ।
"जाने की तैयारी कीजिए मुखिया जी , आप अपने छोटे भाई को अकेला तो नहीं जाने देंगे हमारे साथ ?" तिलक ने पुनः शशांक की आंखों में देखा और शशांक की मुट्ठियां कस गई । द्वेष से उसने दृष्टि फेर ली और वहां से चला गया ।
कुछ ही समय में अमृत को एक गाड़ी में लिटा दिया गया , जो चारों ओर से बंद थी । उसके साथ उमेश बैठ गए । पूरा गांव उन्हें विदा करने के लिए खड़ा था ।
कुछ समय अपने पिता से बात करने के बाद जब शशांक आगे आया तो धर्म ने कहा "आप ,हमारे संग हमारे अश्व पर चलेंगे ?"
"नहीं शशांक , हमारे साथ चलिए ! हमारा अश्व कठिन मार्ग पर भी शांति से चलता है । इनका अश्व आपको गिरा देगा , पहले ही सोच लीजिए ।" वीरेंद्र बीच में ही बोल पड़ा ।
"पहले हमने उनसे पूछा है , वो हमारे साथ जाएंगे ।" धर्म क्रोध में बोला ।
"हा तो क्या हो गया ? हमने भी पूछा है , उनकी इच्छा है अगर वो हमारे साथ आना चाहे ।" वीरेंद्र ने कहा और अगले ही पल दोनो एक दूसरे के करीब आकर वाद विवाद करने लगे ।
शशांक असमंजस से उन्हें देख रहा था । तभी किसी ने उसका हाथ पकड़ा और अपने संग ले जाकर एक अश्व पर बैठने के लिए इशारा किया ।
शशांक ने पल भर तिलक को देखा । फिर वो अश्व पर चढ़ कर बैठ गया । उसकी लगाम संभाल कर तिलक पैदल ही उस अश्व को लेकर आगे चल पड़ा तो पीछे गाड़ी भी चल दी , जिन्हें अश्व की मदद से ही चलाया जा रहा था ।
अपनी जगह बहस करते धर्म और वीरेंद्र ये देख रुक गए । अगले ही पल अपने अपने घोड़े लेकर वो तिलक की बगल में पहुंचे ।
धर्म ने कहा "सेनापति , आप ये क्या कर रहे है ? आपके पैर दर्द करेंगे पैदल चल कर । आप हमारा अश्व ले लीजिए ।"
"हा आपको पैदल चलता देख हमे अत्यंत दुख हो रहा है । आप हमारा अश्व ले लीजिए । आपका अश्व हम संभाल लेंगे ।" वीरेंद्र भी बोल पड़ा ।
"कोई हमारी तलवार का वार संभालना चाहेगा ?" तिलक ने ठंडे स्वर में बस इतना ही कहा और दोनो युवक अपने अश्व संग पीछे रह गए । उनके चेहरे का रंग उड़ चुका था तिलक की छोटी सी चेतावनी के बाद भी ।
तिलक ने आंखे घुमा कर शशांक को देखा "आपको कोई परेशानी तो नहीं है ना मुखिया जी ?"
शशांक ने चेहरा फेर लिया , जिसे देख तिलक के होठों पर एक छोटी सी तिरछी मुस्कान आ गई ।
गाड़ी के अंदर बैठे उमेश के चेहरे पर निराशा और दुख भरे भाव थे । अपने मूर्छित पुत्र का मुख देख कर उनकी आंखों में पानी जमा हो गया । आखिर उनके ही पुत्र के साथ क्यों ऐसे होता था ? जन्म देते ही माता की मृत्यु , अब एक पुरुष के साथ जबरदस्ती संबंध जोड़े जाना ।
क्या वो ऐसा होने से पहले अपने पुत्र के साथ स्वयं को समाप्त कर ले ? सारे कष्ट ही मिट जाते जीवन के ? यही विचार उनके मस्तिष्क में घूम रहे थे ।
आगे जानने के लिए कहानी के साथ बने रहे ।
आठ वर्ष पूर्व की बात थी , जब शशांक द्वारा शिकायत करने पर भी उसे अधिकारियों द्वारा ना सुना गया था । महाराज ने उन्हें दंड देने हेतु सभा में बुलाया था । जहां शशांक को भी उपस्थित रहना पड़ा था । बस वही समय था , जब वो तिलक के साथ राजधानी आया था एवं उसके साथ ही रहा था । उसके पश्चात दोनों की भेट होती थी जब महाराज संग तिलक भ्रमण पर कभी भी गांव आता । बहुधा वो भेस बदल लेते थे तो सामने वाले को कोई अनुमान नहीं रहता था वो महाराज या उनके सेनापति होंगे । परंतु जब भी महाराज अमृत से मिलते , उतने समय में सेनापति अवसर खोज ही लेते थे शशांक संग भेट का ।
इस समय वे सभी नदी तट पर कुछ समय के लिए विश्राम कर रहे थे । तभी सेनापति का ध्यान धर्म की आवाज से उस पर पड़ा जो शशांक से कुछ कह रहा था ।
"आप हम पर किस लिए क्रोधित है शशांक ? हमने कुछ भी नहीं किया आपके साथ ।" धर्म ने कहा ।
शशांक ने उसके हाथो फल लेने से अस्वीकार कर दिया था । दृष्टि फेर कर वो बोला "हमे परेशान ना करो मूर्ख ।"
"आप चाहे जो कह लीजिए , परन्तु हमारा क्रोध इन स्वादिष्ट फलों पर क्यों निकालना ?" धर्म ने कहा ।
"क्युकी उन्हें अंदाजा हो गया होगा । तुम्हारी जीभ की भाती ही वो फल खट्टे होंगे । हटो उनके समीप से । हम देते है उन्हें मीठे फल । शशांक , आप इन्हें ले लीजिए ।" वीरेंद्र ने विनती करते हुए कहा । वो सच में शशांक को कुछ ज्यादा ही परेशान कर रहे थे ।
तिलक जो पेड़ की जड़ से पीठ लगा कर अब तक सुस्ता रहा था , उसका चेहरा ठंडा पड़ गया । अगले ही क्षण खड़े होकर उनकी ओर आते हुए उसने कहा "क्या हो रहा है ?"
दोनो युवक झटके से खड़े हो गए ।
तिलक ने बारी बारी उन्हे घूर कर कहा "जब तक वो हमारे साथ है , तुम दोनो हमे उनके इर्द गिर्द नजर नहीं आने चाहिए । अथवा परिमाण अच्छे नहीं होंगे ।"
धर्म एवं वीरेंद्र के चेहरे सफेद पड़ गए । अपने फलों के संग कदम पीछे लेकर वे दूसरी ओर भाग गए ।
उनके जाते ही तिलक ने शशांक की ओर देखा "आप अत्यंत क्रोधित है इसका आभास है हमे । कृपया महाराज के समक्ष इसे नहीं दिखाना । हम पूर्ण प्रयास करेंगे महाराज एवं आपकी भेट ना हो ।"
शशांक ने उसे घूर कर देखा "सेनापति , क्या आपको ये सब उचित लग रहा है ?"
"अनुचित भी कुछ नहीं । महाराज क्रूर है , परंतु वो दयालु भी हैं । जिस व्यक्ति को किसी की चिंता नहीं होती वो केवल वैद्य जी के लिए माह में दो बार आपके गांव आते थे । बस उन्हें देखने के लिए ।" तिलक ने कहा ।
शशांक ने एक ठंडी सांस छोड़ी "सेनापति , अगर हमारे अमृत को कुछ हो गया , तो आप उसकी जिम्मेदारी लेंगे ?"
तिलक ने गला तर कर लिया । सर झुका कर उसने कहा "हो सकता है, ऐसा समय ही ना आए ? अमृत उनके लिए खास है ।"
"मान लीजिए आ गया ऐसा समय, तो ? वो महाराज है , चाहे तो किसी को भी विवाह के लिए चुन सकते है । तो हमारा अमृत ही क्यों ? जबकि वो एक पुरुष है ? क्या हो यदि इसके पीछे उनका कोई उद्देश्य हुआ ?" शशांक ने कहा ।
"क्या उद्देश्य हो सकता है ? आप अभी से इन बातो की चिंता क्यों कर रहे है ? हमे या आपको इस समय ज्यादा कुछ पता नहीं कि उनके बीच परिस्थिति कैसी है । एक पत्र पढ़ कर आप किसी भी निर्णय तक नहीं पहुंच सकते । दोनो पक्षों को सुनना पड़ेगा आपको । महाराज को भी सुनना पड़ेगा ।", तिलक कहते हुए उसके सामने बैठ गया "ये अमृत के लिए गर्व की बात है जो महाराज ने उनके साथ विवाह करने का प्रस्ताव रखा । वरना हम बहुत से ऐसे लोगो को जानते है जो पुरुषों के साथ गुप्त संबंध बना कर बाहर उसे स्वीकार करने से इनकार कर देते है ।"
शशांक चुप हो गया । आगे कुछ कहने की उसकी इच्छा नहीं थी । परंतु एक कथन को सराहते हुए वो बाकी कथन को अनदेखा नहीं कर सकता था ।
दूसरी ओर एक संग खड़े धर्म एवं वीरेंद्र उन्हें ही देख रहे थे । धर्म ने एकदम से कहा "क्या सेनापति हमारे मार्ग में आ रहे है ?"
"कभी नहीं । सेनापति का मुख देख कर लगता है तुम्हे वो किसी से प्रेम कर सकते है ? उन्हें केवल क्रोध जताना एवं दंड देना आता है । इसके व्यतिरिक्त , वो केवल अपनी तलवार से प्रेम करते है । उसी के संग किसी दिन विवाह भी कर लेंगे ।" वीरेंद्र मुंह बना कर बोला ।
धर्म ने हल्के से उसके सर पर चपत लगा दी "ध्यान से देखो उन्हें , क्या सेनापति इतनी शांति से कभी बात करते दिखे है किसी से ?"
"हा दिखे है ना । महाराज एवं राजगुरु के संग ।" वीरेंद्र ने सर सहला कर उसे घूरा ।
"उनके अलावा किसी के संग वो प्रेम से बात करते है क्या ?" धर्म ने उसके मस्तिष्क में बात डालने का प्रयत्न किया ।
"तुम भूल रहे हो मूर्ख , शशांक को प्रथम बार हमने तभी देखा था जब वो राजसभा में शामिल होने आए थे सेनापति के संग ।" वीरेंद्र ने कहा तो धर्म सोचते हुए सहमति जताने लगा ।
"वो पहले से शशांक को जानते है ।" वीरेंद्र ने आगे कहा ।
धर्म ने गहरी सांस भर ली "ठीक है । मान्य कर लिया । परंतु अब सेनापति हमे उनके समीप भी नहीं जाने दे रहे । तुम्हे नहीं लगता उन्हें ईर्ष्या हो रही है हमसे ?"
"कुछ भी व्यर्थ बाते ना करो ।" वीरेंद्र ने कह कर फल का बड़ा सा भाग तोड़ कर खा लिया । सामने देखते हुए उसे भी यही अनुभूति हो रही थी ।
इसी बीच सेनापति ने सबसे कहा "हमे प्रस्थान कर लेना चाहिए ।"
केवल अमृत के कारण उन्हें इतनी धीमी गति से आगे बढ़ना पड़ रहा था । क्युकी वो अभी भी मूर्छित अवस्था में था ।
महाराज वैष्णव आतुरता से महल के दूसरे माले पर एक विस्तारित प्रांगण में खड़े अमृत के आने की प्रतिक्षा कर रहा था ।
तभी राजगुरु उसके समीप आकर खड़े हो गए "महाराज , आपने अभी भी हमे उत्तर नहीं दिया कि आप अपने उत्तराधिकारी के विषय में क्या करेंगे ?"
"कल की चिंता में हमारे आज को खराब नहीं करना चाहते हम । वचन दे चुके है उन्हें , उनके व्यतिरिक्त ना किसी से विवाह करेंगे ना ही किसी से संबंध बनाएंगे ।" वैष्णव ने लापरवाही से उत्तर दिया ।
"ये सरासर मूर्खता है ।" राजगुरु परेशान होकर बोले ।
"आप हमारे निर्णय को मूर्खता बोल रहे है ?" वैष्णव उनकी ओर पलटा ।
"हमारा वो तात्पर्य नहीं था महाराज । हो सकता है आज तक आपके द्वारा बनाए , बिगाड़े गए नियम का विरोध ना कर प्रजा ने मान्य कर लिया हो । परन्तु आवश्यक नहीं प्रत्येक बार ऐसा हो जाए ?" राजगुरु धीमी आवाज में बोले ।
"आपने सुना है कि सिंधु प्रदेश में ये नियम लागू हुआ है ? बस हम उनसे ही प्रेरणा ले रहे है ।" वैष्णव ने शांति से कहा ।
"एक शत्रु राज्य से प्रेरणा ?" राजगुरु ने हैरानी से उसे देखा ।
"क्या फर्क पड़ता है । फायदा सबको उठाना है । किंतु परिवर्तन किसी को नहीं करना । भले ही वो राज्य हमारा शत्रु हो , हमे उनसे अच्छे गुण लेने चाहिए ।" वैष्णव ने कहा ।
महाराज के सामने मुंह खोलने वाला आखिर था ही कौन ? राजगुरु ने शीश हिला दिया "हम आपसे सहमत है । परंतु आप अपना वचन तोड़ देंगे भविष्य में तो ही उचित रहेगा । उत्तराधिकारी के अभाव में राज्य पर संकट आ सकता है ।"
"हमारी आयु केवल इक्कीस वर्ष की है । भविष्य की चिंता हमे अभी से करने के लिए ना कहिए । कुछ विषयों के बारे में हम पहले ही सोच चुके है ।" वैष्णव ने इस बार गंभीरता से कहा ।
राजगुरु ने कंधे उठा दिए "सभा संध्या के समय होगी , तब तक आपके अतिथि पहुंच जाएंगे ना ? क्या उन्हे भी सम्मिलित करना है सभा में ?"
"अवश्य ! नियम को हम उनके समक्ष परिवर्तित करना चाहते है । जिससे उन्हें हम पर विश्वास करने में सरलता हो ।" वैष्णव ने हल्की प्रसन्नता के साथ कहा ।
राजगुरु ने शीश हिलाया एवं अनुमति लेकर वो चले गए ।
कुछ ही समय में महल तक जाने वाले मुख्य द्वार से तिलक के अश्व ने प्रवेश किया । उनके पीछे ही बाकी सेना की टुकड़ी एवं वो गाड़ी प्रवेश कर गई ।
तिलक ने अपने अश्व को रोकते हुए शशांक की ओर हाथ बढ़ाया । शशांक का ध्यान महल की ओर था । उसी दिशा में देखते हुए उसने तिलक का हाथ पकड़ा , जिस वजह से उतरते हुए वो हल्का सा लड़खड़ा गया ।
तिलक ने उसे अपनी मजबूत बाजुओं में संभाल लिया एवं नीचे जमीन पर रख दिया ।
"ध्यान रखिए मुखिया जी, स्वयं को आहत कर लेंगे आप ।" तिलक ने प्रसन्नता के साथ कहा ।
शशांक ने अपना हाथ झटके से छुड़ा लिया "आपके महाराज नजर नहीं आ रहे । जिस धमकी के साथ उन्होंने अमृत को लाने का आदेश दिया था , उस हिसाब से उन्हें मार्ग पर नजरे गड़ाए बैठे रहना चाहिए था ?"
उसकी बात में ताना था । जिसे सुन कर तिलक हल्के से हंस दिया । आस पास मौजूद सभी सैनिक उन्हें हैरानी से देखने लगे थे । जिसका आभास होते ही सेनापति शांत होकर एक ओर इशारा करने लगे ।
महाराज उस दिशा से चले आ रहे थे । उन्हे देखते हुए हर कोई शीश झुका रहा था । महाराज का व्यक्तित्व ही कुछ ऐसा था, खुद ब खुद शशांक का शीश भी झुक कर वो एक कदम पीछे हट गया ।
"प्रमाण महाराज !" तिलक ने शीश झुकाया ।
"अमृत ?" वैष्णव की नजरे उसे खोज रही थी ।
"उन्हें ज्वर हुआ है । गाड़ी में लाना पड़ा । अभी होश में नहीं लौटे ।" तिलक ने उत्तर दिया ।
महाराज ने उसकी ओर हैरानी से देखा एवं अगले ही पल आदेश दिया "राजवैद्य को बुला लीजिए । बाकी सबका अतिथि भवन में रहने का प्रबंध कीजिए ।"
कहते हुए महाराज स्वयं उस गाड़ी की ओर बढ़ गया । तिलक ने हल्के से शशांक की तरफ देखा , जिसके मुंह से महाराज को देखने के बाद एक भी शब्द नहीं निकला था ।
गला खराश कर तिलक ने कहा "मुखिया जी , आप स्वस्थ है ?"
शशांक ने उसे घूरा तो तिलक ने इशारे से बताया "हमारे महाराज वो रहे । आपको बात करनी थी ना उनसे ?"
शशांक बुरी तरह चिढ़ चुका था । तभी तिलक ने कहा "धर्म , वीरेंद्र ।"
"आपने बुलाया सेनापति ?" दोनो युवक उसके समक्ष उपस्थित हो गए ।
"अमृत के पिता को अतिथि भवन में ले जाइए । अमृत के रहने का प्रबंध भी वही करना है विवाह तक ।" सेनापति ने आदेश दिया ।
" शशांक ?" धर्म ने अगले ही क्षण पूछा ।
"आपको उनकी चिंता करने की आवश्यकता नहीं ।" सेनापति ने कठोर दृष्टि उस पर डाली तो धर्म सकपका कर वीरेंद्र के साथ काम पर लग गया ।
गाड़ी रुकने के साथ ही जब एक सेवक ने कहा कि महल आ चुका था , उमेश को बाहर उतरना पड़ा ।
एकदम से वैष्णव एवं वो आमने सामने आ गए । उमेश की मुट्ठियां कस गई । वो कुछ कहते इससे पहले ही हाथ दिखा कर वैष्णव ने कहा "पहले जाकर विश्राम कीजिए । हम संध्या के समय भेट करेंगे आपसे ।"
इतना कह कर उसने एक सेवक को इशारा किया । सेवक तुरंत ही उमेश को जबदरस्ती अपने साथ ले जाने लगा ।
"परंतु अमृत !" उमेश को कहने का अवसर भी नहीं मिला था ।
कुछ ही क्षणों में अमृत को मूर्छित अवस्था में ही बाहर लाकर वैष्णव महल के अंदर चल पड़ा । प्रत्येक जन अमृत का मुख देखना चाहता था , जो इस समय महाराज की बाजुओं में था । बालों के कारण अमृत का मुख छुप चुका था , देखने वालो को ज्यादा तर यही लगा वो कोई युवती थी ।
आगे जानने के लिए कहानी के साथ बने रहे।
अतिथि भवन मुख्य महल के ठीक पीछे एकांत में बना हुआ था । वहा अत्यधिक लकड़ी का उपयोग करके बनाये हुए कक्ष थे । उसी में से एक कक्ष में महाराज ने अमृत संग प्रवेश किया ।
वो कक्ष भव्य था । आवश्यकता की प्रत्येक वस्तु का वहा प्रबंध किया गया था । कक्ष के मध्य में लगे हुए बिछाने पर महाराज ने अमृत ले जाकर लिटा दिया । उसके तपते शरीर की गर्मी महाराज को पुरे मार्ग में महसूस हुई थी । उसने ध्यान से अमृत के कपाल पर हाथ रखा “ हमारी नाजुक कन्या , क्या होगा आपका हमारे संग रह कर ? एक पत्र पढ़ कर मूर्छित हुए , अभी तो विवाह होना बाकी है ।”
एक हलकी हंसी उसके होठो पर खेल गयी थी ।
कुछ ही समय में वीरेंद्र राज वैद्य को लेकर उस कक्ष में उपस्थित हो गया । अमृत को देखने के बाद राजवैद्य ने कुछ औषधीया देने को कहा और वो पुन्हः वीरेंद्र के संग लौट गया । महाराज ने बिछाने के इर्द गिर्द लगे परदे खोल दिए । जिन्होंने चारों ओर से बिछाने को घेर लिया ।
वैष्णव स्वयं खिड़की पर जाकर खड़ा हुआ, जहा हवा के कारन परदे हिल रहे थे । बाहर पहरा देने के लिए उसने खास सैनिकों की एक टुकड़ी को खड़ा कर दिया , जो सबसे ज्यादा क्रूर सेना की टुकड़ी कहलाई जाती थी । वो काले कपड़ों में एवं , मुंह को काले कपड़े से ढके मिलते थे । यही उनकी पहचान थी । इसके व्यतिरिक , उनके शरीर पर एक सुनहरा कवच होता था , जिस पर मिथिला प्रदेश का चिन्ह यानी कि सूर्य का चिन्ह उकेरा गया था । वो टुकड़ी काल सेना के नाम से जानी जाती थी , जिसे स्वयं राजगुरु और तिलक प्रशिक्षण देते थे ।
महाराज को भय था , जिसके चलते उन्होंने काल सेना का चुनाव किया । ताकि कोई भी अमृत को हानि पहचाने की मंशा से उसके समीप ना आ सके ।
दूसरी और मुख्य महल के ही एक कक्ष में शशांक सेनापति संग पहुच गया । शशांक ने हैरानी से कक्ष को देख कर पहचान भी लिया ।
“सेनापति ये तो आपका कक्ष है ना? हम पुनः आपके संग रहने वाले है?” शशांक ने पूछा ।
“कोई आपत्ति है आपको हमारे संग रहने में?” सेनापति ने अनजान बनते हुए उसकी और देखा ।
“आपत्ति तो नहीं है । परन्तु काका और अमृत तो अलग स्थान पर जा चुके है? हम उनके संग क्यों नहीं रह सकते?” शशांक ने ना समझी से पूछा ।
“वो इसलिए , ताकि आपको यहाँ रह कर महाराज से बात करने में आसानी हो सके ।” सेनापति ने अपनी हंसी रोकने का प्रयास करते हुए कहा तो शशांक का मुह बन गया । उसके डर का मजाक उड़ा रहा था वो शख्स ।
सेनापति ने आगे कहा “सत्य कारन तो ये है की महाराज अमृत के आस पास किसी को भी देखना पसंद नहीं करते । हम नहीं चाहते आपके रिश्ते को कुछ अनुचित समझ कर महाराज आप पर क्रोधित हो जाए ।”
सेनापति ने जैसे ही कहा शशांक शीश हिलाते हुए एक पटल पर बैठ गया और व्यंग से बोला “आप कहते है ना वो बहुत दयालु है?”
“केवल अमृत के लिए ।” सेनापति ने अपनी ओर से बात को स्पष्ट कर दिया ।
शशांक के चेहरे का अफसोस व्यंग भरी हंसी में बदल गया “कैसे झेल रही है प्रजा आपके महाराज को? न जाने हमारे अमृत को क्या क्या झेलना पड़ेगा? कितने ताने सुनने होंगे? क्या महाराज को रोकने वाला कोई नहीं? अह्ह्ह क्या कह रहे है हम? उन्होंने तो अपने सगे संबंधियों को कारावास में डाला हुआ है ना पहले से ? अब बचा ही कौन होगा उन्हें रोकने के लिए ?”
अगले ही क्षण उसके समीप जाकर सेनापति ने उसका मुह बंद कर दिया । शशांक की आंखे बड़ी हो गयी । तभी सेनापति ने उसकी बड़ी बड़ी आंखों में देखते हुए कहा “आप कृपया महल में महाराज के विषय में बात करते हुए अपनी आवाज को धीमा रखा कीजिये । किसी ने सुन लिया तो आपको परेशानी का सामना करना पड़ेगा और आपके संग हमें भी ।”
“आपने तो सुन लिया है हम क्या कहते है और क्या सोचते है आपके महाराज के विषय में ? उनका सेनापति होने के कारन आपको हमारी बाते स्वयं ही महाराज तक पंहुचा देनी चाहिए ना?” शशांक ने उसका हाथ हटा कर कहा ।
बदले में सेनापति के चेहरे पर एक छोटी सी हंसी आ गयी । उसने हाथ आगे बढ़ा कर शशांक के गाल कर रखते हुए अंगूठे से उसका गाल सहलाया “हम ऐसा नहीं कर सकते ।”
शशांक के माथे पर बल पड़ गए “वो भला क्यों?”
“मुखिया जी , कुछ बातो को समझना चाहिए आपको? वैसे हाल ही में आप विवाह के लिए कोई कन्या देखने गए थे? क्या हुआ , आपका विवाह तय हो गया?” सेनापति की आवाज में शरारत झलक रही थी ।
शशांक चिढ गया “आप हमारे जख्मो पर नमक लगा रहे है? वैसे , आपको पता कैसे चला हम देखने गए थे?”
उसकी आंखे शंका के कारण छोटी हो गई ।
“सेनापति है हम , हमारी दृष्टी चारो ओर बनी रहती है ।” तिलक ने घमंड के साथ कहा ।
शशांक ने अजीब नजरो से उसे कुछ पल देखा । संतुष्ट नहीं हुआ था वो सेनापति के उत्तर से ।
राजधानी में सबसे ऊंचे स्थान पर बना हुआ था वो महल । चारो ओर ऊंची कड़ा थी । एक मुख्य प्रवेश द्वार था , जिसकी दोनो तरफ मीनार बनी हुई थी । वहां से नजर रखना , सुरक्षा रक्षकों के लिए सरल होता था ।
संध्या का समय था और उस प्रवेश द्वार को प्रजा के आने के लिए खोल दिया गया था । राजसभा के लिए उनका आगमन शुरू हो चूका था । किसी को अनुमान तो नहीं था राजसभा का आयोजन क्यों किया जा रहा था अचानक ही? परन्तु जिन्होंने भी महाराज के संग किसी युवती को देखा था , उन्होंने अनुमान लगा कर बाते फैलाना भी शुरू कर दिया था । शायद ये महाराज के विवाह संदर्भ में होगा ।
महाराज अभी भी अतिथि भवन में ही थे और तभी राजगुरु अपने कार्य को समाप्त कर अतिथियों से मिलने पहुचे । उन्हें अमृत के कक्ष के बाहर ही कोई खड़ा हुआ मिला ।
राजगुरु ने गहरी साँस लेकर कहा “प्रमाण महोदय, क्या आप अमृत के पिता है?”
उमेश उनकी आवाज सुन कर होश में लौटे और पलट गए । उमेश को देखते ही राजगुरु की आंखे आश्चर्य से बड़ी हो गयी “उमेश?”
उमेश ने कुछ समय लिया सामने खड़े जानकार व्यक्ति को पहचानने में ।
“हम , हम शेखर है । आप हमें भूल गए क्या? हमने एक ही गुरुकुल से शिक्षा ली थी?” राजगुरु ने कहा और उमेश की आंखे ठंडी पड़ कर अगले ही क्षण उन्होंने दृष्टि फेर ली ।
“कैसे भूल सकते है हम?” उमेश का स्वर रुखा था । एक सेवक के पुत्र को वहा के शिक्षक ने सबके संग बिठा कर पढाना शुरू किया था । अन्य विद्यार्थियों को कैसे सहन होता वो? कितनी कठिनता का सामना करते हुए उमेश ने अपनी पढाई को पूर्ण कर उसी शिक्षक की सहायता से दुसरे गुरुकुल वैद्य बनने की शिक्षा लेना आरंभ किया । हर गाँव में संभव नहीं था वैद्य मिल जाना । इसलिए उस गुरुकुल के प्रयत्न रहते थे अधिक से अधिक विद्यार्थी उस शिक्षा को लेकर लोगो की सहायता कर सके ।
राजगुरु ने उनकी दृष्टी फेर लेने पर कहा “आप बालपन की बातो को लेकर बैठे है अभी तक? तब हमें उतनी समझ नहीं थी ?”
उमेश ने कोई उत्तर नहीं दिया । यहाँ तक की वो देखना भी नहीं चाहते थे राजगुरु की ओर । राजगुरु ने एक ठंडी साँस छोड़ी “उमेश , हम पुराणी भूल के लिए आपसे क्षमा चाहते है । हमने आपको परेशान किया था ।”
उमेश ने फिर उन्हें पूरी तरह अनदेखा कर दिया था । जिस पर राजगुरु का जबड़ा कस गया । इस तरह का अपमान शायद ही कोई कर सकता था यहां पर उनका । वही उमेश इस समय सिर्फ अपने पुत्र को लेकर परेशान थे । उन्हें अंदर जाना था , परन्तु दो सैनिक द्वार पर खड़े थे उन्हें रोकने के लिए ।
उसी क्षण कक्ष का द्वार खुला और महाराज बाहर आए ।
“आप हमें हमारे ही पुत्र से मिलने के लिए रोक नहीं सकते महाराज ।” उमेश ने क्रोध से कहा ।
“राजसभा का समय हो चूका है । चलिए , उसके पश्चात हम आपसे बात करेंगे ।” महाराज ने कहा और दोनों के बिच से निकल कर चला गया । उसी समय द्वार के बाहर खड़े सैनिको ने द्वार को पुनः बंद कर लिया । उमेश का मुह हल्का सा खुल गया था । उनके क्रोध की सीमा पार हो चुकी थी । उन्होंने महाराज के पीछे जाने का प्रयास किया तो राजगुरु ने शीग्रता दिखाते हुए उन्हें पकड़ कर रोक दिया “कृपया शांत हो जाइये उमेश ।"
“आप हमारा हाथ छोडिये ।” उमेश ने महाराज का गुस्सा राजगुरु पर उतारते हुए उन्हें आंखे दिखाई ।
“छोड़ रहे है ।” , राजगुरु ने तुरंत ही उनके हाथ को छोड़ दिया और कहा “अमृत , आपके पुत्र है?”
उमेश ने कोई उत्तर नहीं दिया और महाराज के पीछे बढ़ गया । राजगुरु भी भागते हुए उनके संग चलने का प्रयास करते हुए बोले “और आपने विवाह भी कर लिया था? आपके बच्चे की आयु कितनी है उमेश ? वो विवाह योग्य तो है ना? या हमें महाराज को रोकना होगा विवाह करने से?”
उमेश अचानक ही रुक गए । राजगुरु की ओर पलट कर उन्होंने कहा “आप विवाह को रोक सकते है?”
“स्वयं परमेश्वर आए तो भी महाराज का निर्णय नहीं परिवर्तित कर सकते । परन्तु कुछ अवधि तक हम उन्हें रोक सकते है । जब तक अमृत विवाह योग्य नहीं हो जाते । हम स्वयं नहीं चाहते महाराज किसी पुरुष से विवाह करे ।” राजगुरु ने कहा ।
उमेश ने आंखे बंद कर ली और क्रोध से कहा “आपके महाराज की बुद्धि भ्रष्ट हो चुकी है । उन्हें किसी अच्छे वैद्य के पास लेकर जाइये , अथवा किसी आत्मा भगाने वाले के पास ।”
अगले ही क्षण उमेश का मुह बंद करते हुए राजगुरु ने आसपास देखा “शांत हो जाइये उमेश । इतना क्रोश उचित नहीं । इस समय तो राजसभा में चलिए और स्वयं पर नियंत्रण रखना । हमें ज्ञात है आप व्यथित है अपने पुत्र को लेकर । परन्तु महाराज को कोई नहीं रोक सकता । हां अमृत स्वयं चाहे तो ऐसा कर सकते है । शायद उनकी बात को महाराज सुन ले ? जिसे कोई नहीं झुका सकता , उसे प्रेम झुका देता है ! आप समझ रहे है हमारी बात ?”
उमेश ने उनका हाथ झटक दिया “क्या कर सकते है अमृत?”
“आपको अवसर मिले तो उन्हें समझा देना, वो महाराज को रोकने का प्रयास करे । केवल अमृत है जो महाराज को इस समय रोक सकते है ।” राजगुरु ने कहा । उमेश सोच में पड़ गए । उन्होंने अपनी दृष्टी बंद द्वार की ओर डाली । अपने पुत्र की बलि नहीं चढ़ने दे सकते वो । अभी जो मार्ग दिखे उस पर उन्हें दौड़ना ही पड़ता ।
आगे जानने के लिए कहानी के साथ बने रहे ।
राज सभा की भीड़ देखने लायक थी । महाराज के एक बुलावे पर मानो सम्पूर्ण राज्य वहाँ जमा हो चुका था । इसी बीच राजगुरु अपने संग उमेश को लिए वहाँ पहुँचे तो उनके सम्मान में लोग खड़े हो गए । राजगुरु ने हल्के से सबके सामने शीश झुकाया । अपने स्थान पर विराजमान होने से पहले उन्होंने उमेश को उनके स्थान पर बिठाया । सामने ही सेनापति एवं शशांक बैठे थे ।
उसी समय राजसभा में घोषणा हुई, “महाराज पधार रहे हैं ।”
अचानक ही वहाँ एक शांत वातावरण बन गया । बस महाराज के कदमों की आवाज गूंज रही थी । उन्होंने इस समय नीले रंग के वस्त्र परिधान किए हुए थे । उनके महाराज होने का प्रमाण देता मुकुट उनके शीश पर था, जो पूर्ण रूप से स्वर्ण का बना हुआ था । कई सारे अमूल्य हीरे उस पर लगे हुए थे । उनकी कमर पर चमकती म्यान में तलवार लगी थी ।
महाराज के पीछे धर्म और वीरेंद्र चले आ रहे थे । महाराज अपने लिए बने सबसे ऊँच स्थान पर जाकर खड़े हुए । उन्होंने प्रजा को हाथ दिखा कर बैठने का संकेत दिया । फिर वो अपने सिंहासन पर विराजमान हुए ।
“राजसभा बुलाने का एक महत्वपूर्ण कारण था हमारे पास ।” महाराज की गहरी आवाज सबके कानों तक पहुँच जाए इतनी स्पष्ट थी । उन्होंने धर्म को संकेत दिया । बोलने की जगह वो सबको दिखाना चाहते थे कुछ ।
धर्म ने तुरंत ही कहा, “उन्हें सबके समक्ष प्रस्तुत किया जाए ।”
राजसभा का द्वार पुनः खुला । सबकी दृष्टि उस ओर घूमी जहाँ से चेहरा ढक कर एक महिला चली आ रही थी । पीछे सैनिकों द्वारा पकड़ा हुआ एक धृष्ट पुष्ट पुरुष भी था । उसके चेहरे पर बड़ी-बड़ी मूंछें और दाढ़ी थी, जिनमें उसका मुख देखना कठिन था ।
“न्याय कीजिए महाराज, हमारे जवान पुत्र ने आत्महत्या कर ली है ।” वो महिला आते ही महाराज के समक्ष सीना पीटते हुए रोने लगी । उसने पल्लू से अपना चेहरा छुपाया हुआ था ।
“शांत हो जाओ और पूरी बात महाराज को बताओ ।” वीरेंद्र ने कहा।
औरत ने उस आदमी की ओर इशारा करते हुए कहा, “इस व्यक्ति ने हमारे पुत्र को प्रेम का झांसा देकर उससे शारीरिक संबंध बनाए थे ।”
चारों तरफ खुसुर- पुसुर होने लगी । साथ ही सबने आश्चर्य से मुँह पर हाथ रख लिया था । महाराज ने उसे आगे बोलने का संकेत दिया ।
“ये व्यक्ति अब विवाह करने जा रहा है । हमारे पुत्र ने उसे रोकने का प्रयास किया तो झूठे आरोप लगा कर उसे पिटवाया । हमारे एक मात्र पुत्र ने इस व्यक्ति के कारण आत्महत्या कर ली । महाराज, न्याय कीजिए हमारे साथ ।" वो औरत दिल को दहला दे, ऐसा आक्रोश कर रही थी । लोगों को उस पर दया आ रही थी , साथ ही उन्हें उस व्यक्ति पर क्रोध आ रहा था । महाराज के मुख पर भी क्रोध नजर आने लगा । उन्होंने सीधे उस व्यक्ति की ओर देख कर कहा, “अपने पक्ष में तुम्हें कुछ कहना है , इससे पहले की हम दंड सुना दे ?”
“ये महिला झूठ बोल रही है महाराज । हमने ऐसा कुछ नहीं किया । क्या प्रमाण है इसके पास?” वो व्यक्ति कहने लगा ।
“प्रमाण हम देते हैं तुम्हें ।” वीरेंद्र तलवार निकाल कर उसकी ओर बढ़ा तो वो व्यक्ति अपने स्थान पर लड़खड़ा गया । उसने अगले ही क्षण कहा, “हम, हम एक पुरुष के साथ संबंध तो बना सकते हैं, परंतु उससे विवाह कैसे करें ? ये तो नियमों के विरुद्ध है । वो हमें विवाह ना करने के लिए बोल रहा था ।”
“संबंध बना सकते हो तो विवाह करने में कैसी आपत्ति ? नियम तो हमने ही कुछ कारणों से बनाए थे । अब हम इनमें बदलाव कर दें तो कोई आपत्ति नहीं । तुमने अनुचित किया है । उस युवक के साथ प्रेम का झांसा देकर शारीरिक संबंध बनाए । हम तुम्हें मृत्यु दंड सुनाते हैं । ताकि भविष्य में कोई भी ये अपराध करने से पहले कई बार सोचे । पुरुष हो या स्त्री, प्रेम के नाम पर उससे शारीरिक संबंध बनाओगे तो विवाह भी करना आवश्यक है । आज और अभी से ये नियम हम अपने राज्य में लागू करते हैं ।” महाराज की आवाज पूर्ण सभा में गूंज उठी । फिर बातें बन रही थी और राजगुरु ने अफसोस के साथ सर हिला दिया “पुनः एक नया नियम बन गया और आश्चर्य की बात है कोई इस पर आपत्ति जताने की हिम्मत नहीं कर पा रहा । महाराज ने सच में अपनी प्रजा का मुख बंद कर रखा है । अब इसका कारण भय है या उनका प्रजा के प्रति हर समय तत्पर रहना, कह नहीं सकते ।”
उमेश ने हैरानी से उनकी ओर देखा “महाराज कहीं ये सब अपने स्वार्थ के लिए तो नहीं कर रहे ?”
राजगुरु ने सिंहासन पर हाथ टिकाया और हल्का सा उनकी ओर झुकते हुए कहा, “आपको अभी भी समझ नहीं आया?”
तभी महाराज ने कहा, “किसी भी नियम की शुरुआत महाराज को स्वयं से करनी चाहिए । हमने भी एक पुरुष के संग प्रेम संबंध बनाए हैं, इसलिए हम उनके संग विवाह करने वाले हैं। आप सबको हमारे विवाह में सम्मिलित होने का निमंत्रण हम अभी से दे रहे हैं ।”
भले ही किसी को उनके निर्णय पर आपत्ति हो, परंतु किसी के मुख से एक शब्द भी ना निकला।
“किसी को कोई आपत्ति?” महाराज ने तेज स्वर में पूछा, जिस पर सबकी गर्दन झुक गई । महाराज के मुख पर एक विजयी मुस्कान नजर आने लगी “हम सभा समाप्ति की घोषणा करते हैं ।”
जिसके पश्चात उस व्यक्ति को पकड़ कर ले जाया गया और साथ में स्त्री भी चली गई । महाराज के सभा छोड़ते ही धीरे-धीरे सभी जाने लगे । राजगुरु, सेनापति, उमेश और शशांक को छोड़ कर ।
उमेश ने माथा पकड़ लिया, “क्या ये विवाह सच में हो रहा है? कहीं कोई सपना तो नहीं जिससे हम जाग नहीं पा रहे ?”
“कहना तो नहीं चाहिए । परंतु ये हकीकत है ।” राजगुरु ने सर हिला दिया ।
“हम ये विवाह कदापि नहीं होने देंगे । भले ही महाराज इसके लिए हमें कोई भी दंड सुना दें । हम, हम अमृत को यहाँ से भगा देंगे ।” शशांक ने कहा ।
“इसका परिणाम आप अकेले नहीं आपका सम्पूर्ण गाँव भुगतेगा । गौर से हमारी बात सुनिए , यहां से भागना या भगाना सरल नहीं । काल सेना उनकी सुरक्षा कर रही है ।" सेनापति ने उसे परिणाम बता कर चेतावनी भी दी ।
“अब तो अमृत ही इस विषय में कुछ कर सकते हैं । उमेश, आप पहले महाराज के साथ बात कर लीजिए । उन्हें समझाने का प्रयत्न मत करना, बस सुन लेना वो क्या कहते हैं ।” राजगुरु ने सुझाव दिया ।
उमेश उन्हें घूरते हुए अपने स्थान को छोड़ कर निकले । बाकी सब भी उनके पीछे ही जाने लगे । महाराज के साथ उमेश को अकेला छोड़ना किसी को भी उचित नहीं लगा । वैष्णव का डर ही कुछ ऐसा था ।
अतिथि भवन के सामने ही महाराज और उमेश खड़े थे । महाराज के चेहरे पर कोई भाव नहीं थे, वहीं उमेश क्रोध से लाल हो चुके थे ।
“आप हमारे पुत्र के साथ अनुचित कर रहे हैं । वो विवाह के लिए तैयार नहीं है ना? हम अच्छी तरह ये बात जानते हैं । आपके कारण वो बीमार हुए ।,” उमेश ने आत्मविश्वास से कहा ।
“तैयार नहीं है तो तैयार कर लेंगे हम । आपको उसकी चिंता करने की आवश्यकता नहीं । बस पुत्र को आशीर्वाद देने के लिए तैयार रहना । यहाँ हम उन्हें किसी वस्तु की कमी नहीं होने देंगे । साथ ही वो इस राज्य की महारानी कहलाएंगे, ओर क्या चाहिए आपको ?” महाराज ने कहा ।
“आप जोर जबरदस्ती आजमा कर उन्हें बस प्राप्त करना चाहते हैं ।,” उमेश ने कहा ।
“हम केवल अपने प्रेम को प्राप्त कर रहे हैं । इसमें कुछ भी अनुचित नहीं । कृपया अब हमें आप परेशान मत कीजिए । हमारे पास बहुत से कार्य हैं देखने के लिए ।,” महाराज ने उन्हें हाथ दिखा कर आगे कुछ भी करने से रोक दिया ।
“मिलना चाहते हैं हम अमृत से, जिसके लिए आप हमें नहीं रोक सकते ।,” उमेश ने भी मानो अपनी अंतिम बात को कह दिया था ।
महाराज ने कुछ सोचा और सहमति जताई । वैसे भी अभी अमृत बेहोश था, जिसके चलते उमेश कुछ नहीं कर पाएंगे, इसका विश्वास था महाराज को । उमेश को अमृत के कक्ष में जाने दिया गया ।
तभी महाराज के पास शशांक पहुँच गया । वो कुछ गलत ना बोल दे, इस बात के डर ने तिलक को भी उसके साथ आने के लिए मजबूर कर दिया था और साथ में राजगुरु भी मौजूद थे ।
“आप उनके बुढ़ापे का एक लौता सहारा उनसे छीन रहे हैं महाराज ।" शशांक ने अपनी बात को शुरू करते ही सबके मुख बंद हो जाए ऐसी बात कह दी ।
शशांक की बात में तथ्य था । हर कोई पुत्र इसी कारण से चाहता था ताकि वो उनके बुढ़ापे में साथ रह सके । अमृत के व्यतिरिक्त उनकी कोई संतान भी नहीं थी । इसलिए महाराज को उनकी व्यवस्था का प्रबंध करना ही पड़ता ।
शशांक ने कहा, “आप महाराज हैं, आपसे वाद-विवाद करने के लिए हम बहुत ही तुच्छ है आपकी दृष्टि में । परंतु महाराज, अपने स्वार्थी प्रेम में इतने अंधे मत हो जाइए कि आपको दूसरा पक्ष नजर ही ना आए ।"
वैष्णव सोच में पड़ गया । अगले ही क्षण उसने राजगुरु की ओर देखा और पूछा, “उनके बारे में क्या किया जाए, राजगुरु? आपके पास कोई उपाय है?”
राजगुरु ने आराम से उत्तर दिया, “उन्हें यही रोक लीजिए । ”
“आपका सुझाव हमें पसंद आया । हम भी यही सोच रहे थे, परन्तु क्या वो यहाँ रुकेंगे?” महाराज ने कहा । इसका उत्तर केवल उमेश दे सकते थे ।
उस शांत कक्ष में परदे को हटा कर उमेश अमृत के करीब जाकर बैठ गए । अपने पुत्र को किसी भी तरह का सुख नहीं दे पाए थे वे और इसका उन्हें खेद भी था । यहाँ सारी सुख- सुविधाएँ तो अमृत को मिल जातीं, परन्तु उसकी कीमत भी उसे चुकानी पड़ती जो उमेश कभी नहीं चाहते थे ।
“अमृत, बेटे?” उमेश ने पुकारा और अमृत की आंखें बह निकलीं ।
“आप जाग रहे हैं?” उमेश ने आश्चर्य से उसकी ओर देखा ।
बिना आंखें खोले ही अमृत ने धीमी आवाज में कहा, “हमें क्षमा कर दीजिए बाबा, इस सबमें हमारा कोई दोष नहीं है ।”
“हम जानते हैं, पुत्र । तुम दुखी मत हो । महाराज से बात करने की कोशिश करो, शायद वो तुम्हें सुन लें?” उमेश ने उसे समझाना शुरू किया ।
“हम उन्हें समझाने का प्रयास तभी कर चुके थे जब उन्होंने हमारे समक्ष विवाह और अपने प्रेम का प्रस्ताव रखा था, परन्तु वे नहीं माने । बहुत हठी हैं वो । हम क्या करें अब, बाबा? कैसे उन्हें समझाएं? हमें उनसे विवाह नहीं करना है ।” अमृत ने सिसकते हुए कहा ।
“प्रयास तो करो, पुत्र ।” उमेश ने उसके गाल पर हाथ रखा । अगर वे कुछ कर पाते तो अवश्य करते । परंतु वे असहाय थे ।
अमृत ने उन्हें ज्यादा परेशान न करते हुए हां में सिर हिलाया, “हम उन्हें समझाने का प्रयत्न करेंगे । कृपया आप या शशांक भैया उनसे कुछ मत कहना । हम नहीं चाहते , हमारे कारण आपको कोई परेशानी हो । शशांक भैया साथ आए है ना ? हमे ज्ञात है वो हमे अकेला नहीं छोड़ेंगे ।”
उमेश ने हां कहा । कुछ समय तक वो आपस में बाते करते रहे ।
उसके पश्चात उमेश चले गए । उनके जाने के बाद ही महाराज उस कक्ष में प्रवेश कर चुके थे । अमृत अपने स्थान पर उठ बैठा । उसने हल्के से दृष्टि उठाईं और वैष्णव उसके समक्ष था । दोनों के मध्य सफेद रंग का एक पर्दा लहरा रहा था ।
आगे जानने के लिए कहानी के साथ बने रहे ।
संध्या का समय था । उस कक्ष में सूर्य की लालिमा फैली थी । अमृत ने जैसे ही महाराज वैष्णव को देखा, वह बिस्तर पर उठ कर बैठ गया । वैष्णव लगातार उसकी ओर बढ़ रहा था । उन दोनों के बीच में एक सफेद रंग का पर्दा लहरा रहा था, जो बिस्तर के किनारे पर चारों ओर से लगा था । वैष्णव ने एकदम से ही उस पर्दे को पकड़ कर अपने मार्ग से हटा दिया जो उसे अमृत को देखने से रोक रहा था ।
“महाराज, प्रणाम ।” अमृत को कुछ न सुझा, तो अपनी आदत से मजबूर होकर उसने सबसे पहले उसका अभिवादन किया ।
“हमारे साथ औपचारिकता निभाने की आवश्यकता नहीं है आपको, अमृत । आपके मित्र से आपके स्वामी होने वाले हैं अब,” वैष्णव ने प्रसन्नता से कहा ।
अमृत की मुट्ठियाँ कस गईं । बहुत ही हिम्मत करके नजरें उठाते हुए उसने महाराज की आँखों में देखा “हमें आपसे बात करनी है विवाह के संदर्भ में । आप हमें हमारी बात रखने का अवसर नहीं देंगे ?”
“अब तो आप यहाँ आ चुके हैं । केवल आपकी ही तो सुनेंगे । अपनी बात रखने की आपको अनुमति है, क्योंकि आप चाहे जो कहें, अंत में वही होगा जो हमें करना है ।,” वैष्णव ने अपनी बात स्पष्ट की ।
अमृत की आंखें नम हो गईं । अगर ऐसा है तो फिर बात रखने का अर्थ ही क्या था ? महाराज कभी उससे सहमत नहीं होंगे, यह वो जान गया ।
वैष्णव धीरे से उसके करीब जाकर बैठ गया । उसने अमृत की ठुड्डी पकड़ कर चेहरा ऊपर उठाते हुए कहा, “बोलिए ना, अमृत ?”
“हम ये विवाह नहीं करना चाहते । आप हम पर जबरदस्ती कर रहे हैं ।,” अमृत ने कहा और उसकी आंखें बहने लगीं ।
“नहीं, नहीं अमृत । हमारे सामने आप एक भी अश्रु नहीं बहायेंगे । फिर हम नहीं जानते कि हम क्या कर बैठेंगे । हम आपको संसार की हर एक खुशी देना चाहते हैं । ये अश्रु नहीं ।” वैष्णव ने तुरंत ही उसके आँसू साफ कर दिए, लेकिन वो लगातार बह रहे थे ।
“महाराज, हमें क्षमा कर दीजिए । हम आपसे विवाह नहीं कर सकते । हमारे ऊपर बहुत सारी जिम्मेदारियाँ हैं । जैसे आपके ऊपर भी संपूर्ण मिथिला की जिम्मेदारी है ?” अमृत ने अपनी बात को जारी रखते हुए उसका हाथ थाम लिया । वैष्णव ने भी अपना दूसरा हाथ उसके हाथों पर रख दिया ।
“अगर हम वादा करें कि आपके पिता को अपने राज्य में राजवैद्य का स्थान देंगे, आपके गाँव वासियों का ध्यान रखेंगे, आपकी प्रिय गायों को यहाँ ले आएँगे, तब आप विवाह के लिए तैयार होंगे?”
अमृत पल भर में शांत होकर हैरानी से उसे देखने लगा । उसकी सारी चिंताओं का समाधान वैष्णव के पास मौजूद था ।
वैष्णव ने आगे कहा, “हम अपना वादा निभाएंगे, अमृत । आपके अतिरिक्त किसी और से विवाह नहीं करेंगे । आपके अतिरिक्त किसी और से प्रेम संबंध नहीं बनाएंगे । आपको और केवल आपको ही अपनी महारानी के स्थान पर बिठाएंगे । आपको स्वीकार होगा ये सब? फिर आप सहमति देंगे विवाह के लिए ? हम कोई शर्ते नहीं रखना चाहते थे , परन्तु हमारे पास यही अंतिम मार्ग बचा है अब ।”
“बिना प्रेम के विवाह संभव नहीं है और हम दोनों ही पुरुष हैं ।” अमृत उसकी बातों पर सहमत था, लेकिन उसकी परेशानी की वजह कुछ और भी थी ।
“साथ रहेंगे तो प्रेम भी हो जाएगा । प्रत्येक जन प्रेम विवाह तो नहीं करता न ? और आप कभी हमें महाराज समझकर नहीं तो वैष्णव समझ कर हमारी ओर देखिये । अपने जैसा ही साधारण समझिए । हमसे प्रेम करने में आपको सरलता होगी । हम आपकी पूरी सहायता करेंगे ऐसा करने में ।,” वैष्णव ने उसे विश्वास में लेते हुए कहा । अमृत का सर फिर से झुक गया । उसके चेहरे को देखने का प्रयास करते हुए वैष्णव बोला, “तो हम विवाह की तैयारी शुरू कर दें ?”
अमृत ने ना में सर हिलाया, जिस पर वैष्णव बोला, “तो कब ? कितना समय चाहिए आपको निर्णय लेने में ?”
“हमें फिर अपने बाबा से बात करनी है और शशांक से भी ।,” अमृत ने कहा ।
महाराज ने अपने सर पर हाथ फिराया, मुकुट उतार चुका था वह “हम आपकी बात करवा देंगे, परंतु बाद में । अभी आपको आराम करना चाहिए ।”
“हम बिल्कुल ठीक हैं । आराम करते रहेंगे तो जल्दी ठीक नहीं होंगे । हम बाहर तो जा ही सकते हैं ना ?” अमृत ने कहा ।
“जहाँ आपका मन करे । हम ले जाएँगे आपको । परंतु अपने पिता से अभी बात नहीं कर सकते आप । हमने उन्हें भेज दिया है । इसलिए फिर उन्हें बुला कर कष्ट देना हमे उचित नहीं लगता ।,” वैष्णव ने कहा और कुछ ही समय में एक गर्म कपड़े में अमृत को लपेट कर मुख्य महल और अतिथि भवन से जुड़ी छत पर पहुँच गए । सम्पूर्ण राज्य का नजारा दिखता था वहाँ से । जिसे देखने की इच्छा अमृत की हमेशा से रही थी । आँखें बड़ी करते हुए वह चारों ओर देख रहा था ।
महल के अंदर एक कोने में खड़े धर्म और वीरेंद्र के सामने एक औरत और एक आदमी खड़ा था । सोने की मोहरों से भरी पोटली उनकी ओर बढ़ा कर धर्म ने कहा, “इस विषय में पुनः तुम्हारे मुँह से कोई बात नहीं निकलनी चाहिए, वर्ना हम तुम्हें खोजते हुए आकर सच में मृत्यु दंड देंगे ।”
वह आदमी शायद मोटा होने का ढोंग कर रहा था पहले । उसके चेहरे पर अब कोई दाढ़ी- मूँछ भी नहीं थी । उसने दोनों हाथ सामने करते हुए धन से भरी पोटली लेकर कुछ ज्यादा ही मुस्कुराते हुए कहा, “हम तो इसी क्षण उस बात को भूल भी गए, स्वामी । और ये भी कि हम किसी कार्य हेतु आपस में मिले थे । पुनः किसी सहायता की आवश्यकता हो तो हमें याद कर लेना, स्वामी ।”
“जाओ अब ।” वीरेंद्र ने कहा । तो वो आदमी और औरत उन्हें प्रणाम कर तुरंत ही वहां से निकल गए ।
वीरेंद्र ने माथे पर आया हुआ नकली पसीना पोछ कर कहा, “अंततः हमारा कार्य पूरा हुआ, महाराज खुश हो जाएंगे ।”
इतना कह कर जैसे ही वह पलटा, अपने तलवार को हलके से म्यान के बाहर निकाले, तिलक सामने खड़ा था । मानो वो तलवार की धार देख रहा हो ।
“सेनापति ।” वीरेंद्र अगले ही क्षण अपने घुटनों पर आ गया । बिना पलटे ही धर्म अपनी जगह लड़खड़ा कर घुटनों के बल गिर गया । कहने की आवश्यकता नहीं पड़ी और दोनों ने अपने कान पकड़ लिए ।
“कल सुबह तक ऐसे ही और इसी स्थान पर नजर आने चाहिए तुम दोनों हमे ।,” तिलक ने ठंडे स्वर में कहा और फिर से अपनी तलवार म्यान में डाल ली । बिना उसे सूचित किए इतना बड़ा खेल रचने की हिम्मत भी कैसे हुई थी उनकी? भविष्य में अपने पिता के बाद उन्हें ही सेनापति पद के लिए नियुक्त किया जाना था । क्या ऐसे रहेंगे प्रदेश के अगले सेनापति ?
“चलिए, शशांक ।” सेनापति ने जैसे ही कहा, दोनों युवक आंखें बड़ी करते हुए अपना मुंह छुपाने लगे । सेनापति के पीछे खड़े शशांक को उन्होंने अभी देखा ही नहीं था । कितनी बेइज्जती भरी थी उनके लिए ये बात । सेनापति के संग शशांक बिना कोई प्रतिक्रिया दिए ही चला गया ।
वीरेंद्र ने चोर नजर से पलट कर देखा और अगले ही पल गुस्से में चिल्लाया, “ये सब शशांक के सामने ही होना था ?”
“हम अब भी कह रहे हैं, सेनापति ने जानबूझ कर हमारे संग ऐसा किया । शशांक क्या सोच रहे होंगे अब हमारे बारे में ?” धर्म ने भी झूठा रोना रोकर कहा ।
“तुम क्यों एक ही बात पर आकर अटके हो? हम मान ही नहीं सकते कि सेनापति और शशांक का कुछ हो सकता है ।” वीरेंद्र ने कहा ।
“अगर भविष्य में कभी ऐसा हुआ ना, हम तुम्हें छोड़ेंगे नहीं, याद रखना ।” धर्म ने उसे घूरते हुए कहा ।
तभी वहां से कुछ दासियां गुजरने लगीं । दोनों युवक शांत होकर उन्हें मंद- मंद मुस्कुराते हुए देखने लगे । साफ दिख रहा था ये रोज का ही था । और अब तो वे दोनों शर्मिंदा होना भी बंद कर चुके थे ।
विवाह के प्रस्ताव और पत्र की बातों को कुछ समय के लिए अमृत पूरी तरह भूल कर राजधानी की खूबसूरती में खो गया था । वह सवाल कर रहा था और वैष्णव उसे पूरे खुशी से उत्तर दे रहा था । राज्य के हर एक स्थान के बारे में उसे बता रहा था ।
अंत में एक ऊँची पहाड़ी जो महल के पीछे नजर आ रही थी , उसे दिखा कर वैष्णव ने कहा, “उस वन में हम और काल सेना अभ्यास के लिए जाते थे । बहुत ही सुंदर झरना है वहा । हम लोगों ने वहाँ रहने के लिए वृक्षों पर घर भी बनाए थे । किसी दिन हम आपको वहाँ ले जाएंगे ।”
अमृत ने हां में सर हिला दिया । इसी बीच वैष्णव उसे लेकर एक स्थान पर पहुँचा । वहाँ एक झूला लगा हुआ था । अमृत को उस पर रखते हुए वैष्णव उसकी बगल में बैठ गया ।
“हमने राज्य में घोषणा कर दी है हमारे विवाह की ।” वैष्णव ने बात को शुरू किया ।
“प्रजा ने आपत्ति नहीं जताई इस पर ? अवश्य जताई होगी । आखिर उन्हें भी अपने राज्य के लिए एक उत्तराधिकारी चाहिए होगा ?” अमृत ने कहा ।
वैष्णव के माथे पर बल पड़ गए “सभी लोगों की बात उत्तराधिकारी पर ही आकर क्यों खत्म होती है ?”
“क्योंकि ये आवश्यक है ।” अमृत ने कहा ।
“राज्य की रक्षा एक उत्तराधिकारी नहीं बल्कि एक योग्य और बुद्धिमान राजा करता है । अगर हम विवाह कर लें और पुत्र भी कर लें, परंतु वह डरपोक निकला ? या वह चालाक ना निकला तो ?” वैष्णव ने कहा ।
“हम ज्यादा कुछ तो नहीं समझते परंतु अधिकारी होंगे उसकी सहायता के लिए और सेना भी होगी ।” अमृत ने कहा ।
“वही तो । ये सब हमारे पास है । परंतु उन्हें संभालने के लिए भी उत्तराधिकारी की नहीं बल्कि एक योग्य राजा की आवश्यकता होगी । अगर राजसी खून की बात है तो , हमारे पास उत्तराधिकारी है ।” वैष्णव ने पूर्ण आत्मविश्वास से कहा ।
अमृत सवालिया नजरों से उसे देखने लगा । वैष्णव ने हल्की मुस्कान के साथ उसके गाल पर हाथ रखा, “इसलिए निश्चिंत होकर आप केवल विवाह के और हमारे संदर्भ में सोचिए । ठंड बढ़ रही है, अब कक्ष में चलें ?”
अमृत ने अपने शरीर पर ओढ़े गए कपड़े को ठीक से संभाल लिया, “हमें यहाँ अच्छा लग रहा है ।”
वैष्णव ने उसे ले जाने की जिद नहीं की । वहीं अमृत दूसरी ओर देखते हुए सोच में पड़ गया । जब तक वह महाराज की हां में हामी भरता रहेगा, तब तक ही वह शांति से रहेंगे । जिस समय वह जिद पर अड़ गया विवाह ना करने की, ये हठी इंसान उस समय क्या करेगा इसका कोई अंदाजा नहीं था अमृत को । बेहतर था वह महाराज की बातों को मान कर जो हो रहा है उसे होने देता । अपने गांव के बारे में सोचते हुए वो अपना बलिदान अवश्य दे सकता था । ऐसे में , उसके पिता को भी अच्छा जीवन बिताने का अवसर मिल रहा था ।
आगे जानने के लिए कहानी के साथ बने रहे ।
मध्य रात्रि का समय था। अमृत का कंठ सूख रहा था। उसकी नींद खुल गई और वह उठकर बैठ गया। कक्ष में पूर्ण शांति व्याप्त थी। खुली खिड़की से आती मंद-मंद वायु के कारण पर्दे हिल रहे थे, जिससे कमरे में जल रहे समस्त दीपक बुझ चुके थे। अमृत ने चारों ओर दृष्टि डाली और अंततः बिस्तर से उठकर मेज की ओर बढ़ गया, जहाँ एक जलपात्र रखा था। जैसे ही उसने उसे उठाया, वह रिक्त पाया।
उसके पास कक्ष से बाहर जाकर सहायता मांगने के अतिरिक्त और कोई विकल्प शेष नहीं था। इसलिए, उसने द्वार की ओर कदम बढ़ाया। जैसे ही उसने द्वार खोला, दो निर्जीव काया उसके चरणों में आकर गिरीं। अमृत के नेत्र विस्फारित हो गए। इससे पूर्व कि वह चीख पाता, किसी ने उसके गले में रस्सी डाल दी और उसे भूमि पर गिरा दिया।
अमृत की पलकें कसकर बंद हो गईं। अगले ही क्षण जब उसने उन्हें खोला, वह बिस्तर पर बैठा हुआ पाया। उसकी श्वासें तीव्र हो रही थीं, मुखमंडल पर पसीने की बूंदें चमक रही थीं। तभी किसी की सशक्त भुजाओं का स्पर्श उसे अनुभव हुआ।
"अमृत, क्या आपने कोई बुरा स्वप्न देखा?" वैष्णव की गहरी, सुकूनभरी वाणी सुनकर अमृत हल्का सा कांप गया।
"महाराज!" उसने उनकी भुजाओं पर अपनी पकड़ और कसते हुए कहा।
"हां, हम यहाँ उपस्थित हैं। भयभीत होने की आवश्यकता नहीं," वैष्णव ने उसे सांत्वना दी।
अमृत ने मुड़कर अपना चेहरा वैष्णव के सीने में छुपा लिया और बोला, "हमें यहाँ डर लग रहा है।"
"यह स्वाभाविक है। नया स्थान है, इसलिए ऐसा अनुभव हो रहा है। परंतु चिंता न करें। हम यहाँ हैं। किसी भी प्रकार की मुसीबत आप पर नहीं आने देंगे। हम पर विश्वास रखें," वैष्णव ने कहा।
उनकी इस बात पर अमृत धीरे-धीरे शांत हो गया। तभी कक्ष का द्वार खुला और एक सैनिक ने मस्तक झुकाते हुए कहा, "महाराज, हमने कुछ आवाजें सुनीं। क्या आप ठीक हैं?"
"हाँ, हम ठीक हैं।" वैष्णव ने उसे संकेत देकर बाहर भेज दिया।
इसके बाद उन्होंने मेज से जलपात्र उठाकर अमृत को पानी पिलाया। अमृत की घबराहट अब शांत हो चुकी थी।
"आप यहाँ हमारे समीप क्यों सो रहे हैं?" अमृत ने अचानक ही लज्जित होकर पूछा।
"तो हम कहाँ सोते? विवाह के उपरांत आप हमारे ही कक्ष में आएंगे। तब तक इस संगति का अभ्यास कर लीजिए," वैष्णव ने सहजता से उत्तर दिया।
वैष्णव के प्रति अपनी सीमाओं को ध्यान में रख कर सचेत रहने वाला अमृत, उनके साथ सहज नहीं हो पा रहा था। एक ही शैया पर विश्राम करना तो उसके लिए सर्वाधिक कठिन था। यह असहजता उसके मुख से स्पष्ट परिलक्षित हो रही थी।
वैष्णव ने उसकी ओर हाथ बढ़ाते हुए उसके बिखरे केशों को स्नेहपूर्वक कान के पीछे कर दिया और बोले, "आपकी संकोच और भय को समाप्त करने के लिए आज से आप हमें महाराज नहीं, वैष्णव कहकर संबोधित करेंगे।"
अमृत के नेत्र विस्मय से फैल गए। "हम आपको आपके नाम से पुकारें? यह असंभव है, महाराज।"
"क्यों नहीं हो सकता? जैसे हम आपको आपके नाम से पुकारते हैं, वैसे ही आप हमें पुकारें। चलिए, हमारा नाम बहुत सरल है—वैष्णव। कहिए, हम प्रतीक्षा कर रहे हैं।"
"यह हमारे लिए असंभव है, महाराज। कृपया हमसे यह आग्रह न करें," अमृत ने व्याकुल होकर कहा।
वैष्णव ने उसे सांत्वना देते हुए बाहें फैलाईं और कहा, "ठीक है, इसे सरल बनाते हैं। यहाँ आइए।"
अमृत ने कुछ पल उनकी ओर प्रश्नभरी दृष्टि डाली, फिर आगे बढ़कर उनके आलिंगन में समा गया। वैष्णव उसे अपने संग लेटाते हुए बोले, "अब आपको हमारे साथ सोने में कोई आपत्ति तो नहीं?"
अमृत ने मौन स्वीकृति में मस्तक हिला दिया।
उस कक्ष के समस्त दीप जल रहे थे, जिससे वहां पर्याप्त प्रकाश व्याप्त था। तभी कक्ष का द्वार धीरे-धीरे खुला, मानो जिसने भी प्रवेश किया वह दूसरे को जगाना नहीं चाहता था।
“अह, आप जाग रहे हैं मुखिया जी?” खिड़की पर बैठे शशांक को देखकर तिलक ने कहा। शशांक ने अपनी गर्दन उसकी ओर घुमाई।
“हमें नींद नहीं आ रही। आप इस समय कहाँ से आ रहे हैं?” शशांक ने विस्मय से कहा।
“हमारे सोने का यही उचित समय है। राजगुरु के संग कुछ कार्य में व्यस्त थे। परंतु आपको नींद न आने का कारण क्या है?” तिलक ने खिड़की के दूसरे किनारे पर बैठते हुए पूछा।
“आपके महाराज,” शशांक ने ठंडे स्वर में कहा। अमृत से मिलने पर पाबंदी लगने के कारण वह अत्यधिक क्रोधित था।
“आप केवल अपना अहित कर रहे हैं क्रोधित होकर। अंततः विवाह होकर ही रहेगा, यह हम आपको लिखकर देते हैं, शशांक,” तिलक ने उसकी ओर हाथ बढ़ाकर उसका हाथ पकड़ लिया।
शशांक ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। तिलक ने उसकी चुप्पी को तोड़ने का प्रयास करते हुए कहा, “आपको यहाँ बंधन में बंधा हुआ जैसा अनुभव हो रहा होगा। हम आपको राजधानी घुमा देंगे। उसके बाद आप निर्णय लीजिएगा कि यहाँ बसना है या अपने गाँव लौटना है।”
“हम और यहाँ? कभी नहीं। हम अपने गाँव में ही ठीक हैं, अपने लोगों के बीच, जहाँ स्वार्थ के लिए बहुत कम स्थान है। हर कोई दूसरे के बारे में सोचता है और अपने कार्यों में तल्लीन होकर सुकून से सो जाता है,” शशांक ने व्यंग्य भरी मुस्कान के साथ उत्तर दिया।
तिलक का चेहरा फीका पड़ गया। शशांक और उसकी दुनिया में गहरा अंतर था। ऐसा ही अंतर महाराज और अमृत के मध्य भी था। परन्तु महाराज ने कभी अपने प्रयास नहीं छोड़े और दोनों संसारों को जोड़ने का प्रयत्न जारी रखा। यदि तिलक भी ऐसा करे, तो शायद उसे भी सफलता मिल सके।
“उस छोटे से गाँव में क्या रखा है? एक विपदा आने पर सब समाप्त हो जाता है। हर बार सहायता के लिए दूसरों पर निर्भर होना पड़ता है। इससे अच्छा है कि आप यहाँ आएं। हम आपको काम सिखाएंगे। यहाँ से आप जब चाहें, अपने परिवार की सहायता कर सकेंगे,” तिलक ने उसे समझाने का प्रयास किया।
“क्षमा करें, परंतु हम अपने गाँव, अपनी जमीन और अपने परिवार को छोड़कर नहीं भागने वाले,” शशांक ने अपना हाथ छुड़ा लिया।
शशांक का परिवार बड़ा था। वह अपने माता-पिता का अकेला पुत्र नहीं था। उसके चार भाई-बहन थे। दोनों बहनों का विवाह उसी गाँव में हुआ था, और छोटे भाइयों में से एक का विवाह हो चुका था। इसलिए शशांक को अपनी शादी को लेकर कोई चिंता नहीं थी।
“हम आप पर कोई दबाव नहीं डालेंगे। जब भी आपका मन करे, यहाँ आकर हमें बता देना। हम आपकी सहायता के लिए सदैव तत्पर रहेंगे,” तिलक ने निराश होकर कहा।
अपने बारे में सोचने का समय शशांक के पास नहीं था। उसे अपना सम्पूर्ण जीवन महाराज की सेवा में लगाना था। प्रेम मिल जाए तो ठीक, अन्यथा वह अपने दायित्वों के साथ ही संतुष्ट था।
दोनों युवक अपनी गर्दन मोड़कर खिड़की से बाहर चन्द्र को निहारने लगे।
राजधानी में सूर्योदय
सूर्य की पहली किरणों के साथ राजधानी में एक नई सुबह का शुभारंभ हुआ। बाजारों में हलचल बढ़ने लगी, और लोग अपने-अपने कार्यों में व्यस्त हो गए। महल के भीतर भी चहल-पहल आरंभ हो गई थी।
अमृत की आँखें तब खुलीं जब किसी ने उसके कक्ष में प्रवेश कर उसे पुकारा।
“स्वामी।”
अमृत चौंककर उठ बैठा। सामने दो सुंदर युवतियाँ खड़ी थीं। अमृत ने कक्ष में इधर-उधर देखा, पर महाराज कहीं दिखाई नहीं दिए। शायद वे जा चुके थे, यह सोचकर अमृत बिस्तर से उठा और परदों के पीछे से बाहर आया।
“जी, कहिए?”
“हम आपकी सहायता के लिए आए हैं। आपके स्नान की व्यवस्था हो चुकी है। कृपया हमारे साथ चलें,” एक युवती ने आगे बढ़कर अमृत का हाथ पकड़ते हुए कहा।
अमृत का कंठ सूख गया। अपने जीवन में किसी स्त्री का ऐसा स्पर्श उसने कभी अनुभव नहीं किया था।
उसने तुरंत अपना हाथ पीछे खींचते हुए कहा, “आप हमें स्थान बता दीजिए। हम स्वयं वहाँ पहुँच जाएंगे।”
“क्षमा करें, परंतु महाराज ने हमें आपकी सहायता के लिए भेजा है। जब तक हम अपना कार्य पूर्ण नहीं कर लेते, हम यहाँ से नहीं जा सकते,” दूसरी युवती ने बड़ी विनम्रता से कहा।
उनकी बात सुनकर अमृत का मस्तिष्क चकराने लगा। स्नान के लिए किसी की सहायता लेना... वो भी महिला ! यह उसके लिए असंभव था।
आगे जानने के लिए कहानी के साथ बने रहे । फॉलो करने के साथ साथ समीक्षा करना बिलकुल ना भूले ।
प्रातःकाल का समय था, जब अमृत ने अपने कक्ष में उथल-पुथल मचा रखी थी । अपने शय्या के पीछे छिपते हुए उसने उच्च स्वर में कहा, "हम आपको चेतावनी देते हैं, कुमारियों ! यदि आपने हमें स्पर्श करने का प्रयास किया, तो हम महाराज से शिकायत करेंगे ।"
सामने खड़ी युवतियां कुछ क्षण के लिए चुप रहीं, फिर उनमें से एक ने शांत स्वर में कहा, "स्वामी, कृपया शांत हो जाइए । हम आपको कष्ट पहुँचाने के लिए नहीं आए हैं । हम तो केवल आपकी सहायता के लिए उपस्थित हुए हैं ।"
अमृत ने शय्या के कोने से झांकते हुए झिझक भरे स्वर में कहा, "हमें आपकी सहायता की आवश्यकता नहीं । अब तक हम स्वयंपूर्ण रहे हैं । क्या हम कोई बालक हैं, जिसे सहारे की आवश्यकता हो ?" उसका मुख लज्जा से रक्तवर्ण हो उठा था ।
दूसरी युवती ने सौम्य मुस्कान के साथ उत्तर दिया, "स्वामी, इसमें लज्जा की कोई बात नहीं । हम तो महाराज की भी सहायता करते हैं । कृपया निश्चिंत होकर हमारे साथ चलें ।"
यह सुनते ही अमृत के ललाट पर चिंता की रेखाएँ स्पष्ट हो गईं । उसने कठोर स्वर में पूछा, "आप दोनों महाराज के स्नान में सहायता करती हो?"
दोनों युवतियां सिर हिलाकर सहमति जताने लगीं । यह सुन कर अमृत के क्रोध की सीमा टूट गई । उसने आक्रोश में कहा, "महाराज को बुलाओ, अभी और इसी क्षण !"
यह सुनकर दोनों युवतियां भयभीत हो गईं और एक-दूसरे की ओर देखने लगीं, मानो विचार कर रही हों कि उनसे क्या भूल हो गई ।
एक ने साहस बटोरते हुए कहा, "स्वामी, हम महाराज को यहाँ बुलाने में असमर्थ हैं ।"
"तो कौन उन्हें बुलाएगा?" अमृत ने तीखे स्वर में पूछा ।
उनके पास कोई उत्तर नहीं था । इस पर अमृत ने दृढ़ स्वर में कहा, "इस समय महाराज कहाँ हैं?"
दूसरी युवती ने शीघ्र उत्तर दिया, "स्नानगृह में, जहाँ हम आपको ले जाने आए हैं ।"
यह सुनकर, अमृत अनिच्छा से उनके साथ चलने के लिए तैयार हो गया ।
थोड़े समय बाद वे महल के एक भव्य और विशाल स्नानगृह में पहुँचे । वहाँ स्नान कुंड से भाप उठ रही थी, जो दर्शाता था कि जल हल्की ऊष्णता लिए हुए है । स्नान कुंड के निकट कुछ अन्य युवतियां खड़ी थीं ।
अमृत ने दृष्टि घुमाई और देखा कि स्नान कुंड में एक आकर्षक देहधारी पुरुष, महाराज वैष्णव, विराजमान थे ।
"महाराज!" अमृत के मुख से अनायास ही निकल पड़ा ।
वैष्णव ने नेत्र खोले । उनके कंधों तक पहुँचने वाले केश भीगे हुए उनकी गर्दन से चिपक रहे थे । उन्होंने नशीली दृष्टि से अमृत की ओर देखते हुए अपना हाथ आगे बढ़ाया, "आइए, अमृत ।"
अमृत ने आसपास खड़ी युवतियों की ओर देखा । उसका मुख अभी भी लज्जा और क्रोध के मिश्रित भाव से लाल हो रहा था । उसे समझ नहीं आ रहा था कि महाराज कैसे इतनी निर्लज्जता से इनसे सहायता ले सकते हैं ।
तभी एक युवती ने अमृत के निकट आकर कहा, "स्वामी, आपके वस्त्र उतारने में हम आपकी सहायता करती हैं ।"
"नहीं!" अमृत तुरंत अपनी मर्यादा बचाते हुए पीछे हट गया ।
यह दृश्य देख कर वैष्णव भी विस्मित हो गए। उन्होंने गंभीर स्वर में कहा, "अमृत, क्या हुआ आपको? आप इतने..." किंतु वाक्य अधूरा छोड़ कर वह मौन हो गए । उन्हें यह समझते देर न लगी कि अमृत के लिए यह सब नया अनुभव था । वैष्णव तो बाल्यकाल से ही दूसरों की सहायता लेकर तैयार होने के आदि थे ।
उन्होंने आदेश दिया, "सभी लोग हमें एकांत में छोड़ दें ।"
महाराज के आदेश का पालन करते हुए सभी युवतियां शीघ्रता से वहाँ से चली गईं ।
उनके जाने के पश्चात अमृत ने राहत की साँस ली । वैष्णव ने मुस्कुराते हुए कहा, "अब तो आप शांत हैं? भीतर आएंगे?"
अमृत ने झेंपते हुए अपने वस्त्र उतारने का प्रयास किया । यद्यपि सामने वाला भी पुरुष ही था, किंतु अमृत अभी भी अपने वस्त्रों को कसकर पकड़े हुए था । धोती पहन कर ही वह पानी में उतरा ।
जब वह कुंड में उतर गया, तो वैष्णव ने उसका हाथ थामकर उसे अपनी बगल में बैठा लिया । अमृत का विचलित मुख धीरे- धीरे शांत हो गया ।
वैष्णव ने सहज स्वर में कहा, "स्नान के पश्चात अपने पिता से भेंट कर लीजिए । हमें शीघ्र ही अपने विवाह की तैयारियाँ आरंभ करनी हैं । अब आपसे दूर रहना संभव नहीं ।"
यह सुनकर अमृत चौंका और अनभिज्ञता में पूछा, "हम कहाँ दूर हैं?"
वैष्णव ने उसकी ओर गहरी दृष्टि से देखते हुए कहा, "यह बात हम समय आने पर स्पष्ट कर देंगे ।"
वैष्णव की बात का अर्थ अमृत के लिए अबूझ था । स्नान कुंड में दोनों के मध्य कुछ समय तक मौन बना रहा ।
मौन को तोड़ते हुए अमृत ने साहस जुटा कर प्रश्न किया, "महाराज, आप कुमारियों के समक्ष निर्वस्त्र कैसे हो सकते हैं?"
वैष्णव ने हल्की मुस्कान के साथ उत्तर दिया, "इसमें नया क्या है? बाल्यावस्था से यही सब हमारी सहायता करती आई हैं ।"
अमृत ने दृढ़ता से कहा, "हमें यह सब स्वीकार्य नहीं ।"
वैष्णव ने गंभीरता से उत्तर दिया, "आगे से कोई भी आपकी सहायता के लिए उपस्थित नहीं रहेगा ।"
फिर अमृत ने साहस बटोरकर कहा, "हमें यह भी स्वीकार्य नहीं होगा कि हमारे स्वामी किसी अन्य के समक्ष निर्वस्त्र हों, चाहे वह कोई भी हो ।"
यह सुनकर वैष्णव की आँखें आश्चर्य से फैल गईं । किंतु अगले ही क्षण उनके मुख पर एक प्रसन्न मुस्कान फैल गई । उन्होंने कहा, "जैसा हमारी होने वाली महारानी आदेश देंगी, वैसा ही होगा । यदि महारानी हमारी सहायता करेंगी, तो हमें किसी और की आवश्यकता नहीं होगी ।"
यह कहते हुए उन्होंने अमृत को अपनी ओर खींच लिया । अमृत लज्जा से लाल हो गया और अपना सिर वैष्णव के कंधे पर रख दिया ।
वैष्णव यह भली भाँति जानते थे कि अमृत के मन में प्रेम के भाव धीरे- धीरे जाग्रत होंगे । बस एक बार वो अपनी सीमाओं को पीछे छोड़ कर वैष्णव के रंग में ढल जाए ।
आगे जानने के लिए कहानी के साथ बने रहे ।
अमृत ने आज बिल्कुल नए वस्त्र धारण किए थे। कितनी शीघ्रता से उन वस्त्रों को तैयार करवाया गया था, यह केवल वैष्णव ही जानता था। उन परिधानों में अमृत ठीक वैसा ही प्रतीत हो रहा था, जैसा वैष्णव ने कल्पना की थी।
अमृत ने एक घुटनों से नीचे तक पहुंचने वाला सुनहरा, घेरदार अंगरखा पहना हुआ था। वैष्णव ने उसे अपने समीप बुलाया। अमृत के केश अब भी हल्के गीले थे। वहां उपस्थित युवतियों को देखकर वह असहज हो चुका था।
तभी वैष्णव ने उसके कान में कहा, "हमने इनके समक्ष वस्त्र नहीं बदले हैं।"
अमृत लज्जित हो गया और उसने अपनी दृष्टि नीचे झुका ली। उसी समय, किसी ने उसके हल्के गीले केशों को छुआ। अमृत ने चौक कर उस युवती की ओर देखा और क्रोधित स्वर में कहा, "हमने कहा है, हमें स्पर्श न करें!"
"अच्छा, यह कार्य भी हम कर लेते हैं," कहते हुए वैष्णव ने अमृत को एक आसन पर बैठाया और युवती से वह पात्र मांगा, जिसमें से धुआं उठ रहा था।
"महाराज, आप क्यों कष्ट उठा रहे हैं?" युवती ने आश्चर्य से पूछा।
"आप सभी हमें अकेला छोड़ दीजिए। अब हमें किसी भी प्रकार की सहायता की आवश्यकता नहीं है," वैष्णव ने जैसे उन्हें आज्ञा दी। सभी युवतियां स्तब्ध होकर एक-दूसरे को देखने लगीं। लेकिन उनका कार्य तो विशेष रूप से इसी हेतु था।
"महाराज?" एक युवती ने कुछ कहने का प्रयास किया, किंतु महाराज की एक दृष्टि ही पर्याप्त थी, और उसने शीश झुका लिया। सभी वहां से चली गईं।
अमृत ने अपनी आंखें बंद कर लीं। अब जाकर उसके हृदय को शांति प्राप्त हुई। उसके चारों ओर सुगंधित धुआं फैल रहा था।
कुछ ही समय में उसके केश सूख गए, और वैष्णव ने स्वयं उनमें कंघी करना आरंभ कर दिया। ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे वह उन युवतियों का दायित्व स्वयं निभा रहे हों, जिनके निकट होने से अमृत असहज था।
"हमें आपके केश अत्यंत प्रिय हैं," वैष्णव ने उनमें अपनी उंगलियां फेरते हुए कहा। वे अत्यंत सीधे और कोमल थे।
"पिताजी को भी यह बहुत पसंद हैं, किंतु हमें नहीं," अमृत ने रुष्ट स्वर में कहा।
"क्यों?" वैष्णव ने जिज्ञासा प्रकट की।
"हमें इतने लंबे केश नहीं रखने चाहिए। क्योंकि... क्योंकि इनमें हम किसी कन्या के समान प्रतीत होते हैं," अमृत ने कहते हुए लज्जा से अपना मुख अपने हाथों में छिपा लिया।
वैष्णव की हंसी कक्ष में गूंज उठी। अमृत ने मुड़कर उनकी ओर देखा और कहा, "आप हमारी बात पर हंस रहे हैं? हमने पूर्ण सत्य कहा है।"
"हमें यह कन्या और उनके केश इसी प्रकार प्रिय हैं," वैष्णव ने आगे बढ़कर उसके केशों पर अपने होठ रख दिए।
अमृत की आंखें विस्मय से बड़ी हो गईं। उसने अपने अंगरखे को मुट्ठियों में कस लिया। उसका हृदय तीव्र गति से धड़कने लगा, यद्यपि वैष्णव ने ऐसा कुछ असाधारण नहीं किया था।
फिर वैष्णव ने उसके आधे केशों को बांध दिया, जैसे वे प्रायः बंधे रहते थे। किंतु इस बार उन्होंने एक सुंदर चांदी की जूड़ा पिन निकालकर उसमें लगा दी।
अमृत की दृष्टि दर्पण पर गई। वह जूड़ा पिन चांदी की थी, जिसमें सुंदर सफेद मोती लटक रहे थे।
"यह न केवल आपकी शोभा को बढ़ाएगी, अपितु आपकी सुरक्षा में भी सहायक सिद्ध होगी," वैष्णव के मुख पर एक सौम्य मुस्कान थी, और उनकी आंखों में हल्की चिंता झलक रही थी।
अमृत अपनी असुरक्षा से परिचित था। किंतु महाराज हर विषय पर ध्यान देते थे। संकट आने पर मनुष्य कुछ भी कर सकता था।
"यह हमें अच्छा नहीं लग रहा, महाराज। इसे लगाकर हम सचमुच कन्या के समान प्रतीत हो रहे हैं। पुरुष इसे धारण नहीं करते," अमृत ने मासूमियत और असहायता से कहा।
वैष्णव को उस पर स्नेह और हंसी दोनों आ रहे थे। गला खंखारते हुए अपनी हंसी नियंत्रित करते हुए उन्होंने कहा, "जो वस्तु आपको सुंदर बनाने में सहायक हो, उसका उपयोग करने में कोई दोष नहीं। आइए, आपको आपके पिताजी से मिलवाते हैं।"
अमृत ने यह सुन तो सब छोड़कर तत्काल उठकर खड़े हो गया। उसे अपने पिताजी से मिलने की शीघ्रता थी।
"अमृत, हमारी बात सुनिए," वैष्णव ने उसका हाथ पकड़कर कहा, "यदि आप नहीं चाहते कि वे अकेले रहें, तो उन्हें यहीं रुकने के लिए आप ही मना सकते हैं।"
"निश्चित रूप से, महाराज। आपने उन्हें अपना राजवैद्य बनाने का वचन दिया है।" अमृत ने याद दिलाते हुए कहा। वैष्णव ने सहमति में सिर हिलाया।
वे पुनः अतिथि भवन पहुंचे, जहां एक कक्ष में उमेश को देखकर अमृत प्रसन्नता से उनकी ओर दौड़ गया। उन्हें आलिंगन में लेते हुए अमृत ने कहा, "बाबा!"
अमृत को पहले की भांति स्वस्थ देखकर उमेश के मुख पर हल्की-सी मुस्कान झलक आई। किंतु जैसे ही उनकी दृष्टि वैष्णव पर पड़ी, वह मुस्कान क्षणभर में गायब हो गई।
उमेश ने अमृत को स्वयं से अलग किया और महाराज की ओर इस प्रकार देखा, मानो वे उसे किसी प्रकार की हानि पहुंचाने के लिए वहां लाए हों।
किन्तु उमेश को अमृत के बदले हुए स्वरूप पर हैरानी हो रही थी। वह सोने के समान दमक रहा था। उससे भी अधिक मूल्यवान उसका वह प्रसन्न मुख था, जो किसी भय अथवा असुरक्षा से नहीं, अपितु सच्चे संतोष से प्रकट हो रहा था।
"जैसे आपने अपने पुत्र की देखभाल की है, वैसे ही हम भी करेंगे। अब आपको उनकी चिंता करने की आवश्यकता नहीं है। निश्चिंत होकर आप केवल अपने कार्य पर ध्यान दें," वैष्णव ने अपने शासकीय स्वरूप में कहा। ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानो वे अमृत के समक्ष ही एक अलग प्रकार का व्यवहार करते हों। इस अंतर को अमृत कभी नहीं समझ सका।
"महाराज, हमें अपने बाबा से एकांत में बात करनी है," अमृत ने धीमे स्वर में एक हिचक के साथ कहा। ऐसा लग रहा था कि वह सीधे तौर पर महाराज से जाने के लिए नहीं कह सकता।
वैष्णव ने पलकों को झपकाते हुए स्वीकृति दी और कक्ष से बाहर चले गए, उन्हें अकेला छोड़ते हुए।
धर्म और वीरेंद्र एक-दूसरे के सहारे चल रहे थे। तिलक ने सोने से पहले उन्हें दंड से मुक्त कर दिया था, फिर भी उन्हें अधिकांश समय बैठकर ही अपनी शिक्षा को पूर्ण करना पड़ा था।
तभी ऐसा प्रतीत हुआ, मानो उनकी समस्त पीड़ा समाप्त हो गई हो। उनके सामने से शशांक चला आ रहा था। किंतु उसे देखकर धर्म की आंखें सिकुड़ गईं "सुप्रभात, शशांक। आपने यह सेनापति के वस्त्र क्यों पहने हैं?"
शशांक उनके समीप आकर रुक गया। उसने उत्तर दिया, "सुप्रभात। सेनापति ने कहा कि हम अपने वस्त्र यहां न पहनें। इसलिए उन्होंने कुछ समय के लिए अपने वस्त्र हमें दे दिए। उन्होंने बताया कि ये बिल्कुल नए हैं।"
"ये वस्त्र कुछ बड़े लगते हैं। आप हमारे साथ बाजार चलिए। हम आपको नए वस्त्र दिला देंगे," धर्म ने सिर हिलाते हुए कहा।
"इसकी कोई आवश्यकता नहीं। हम यहां सदा के लिए नहीं रहने वाले। विवाह उपरांत हमें अपने स्थान पर अपने गांव लौटना है," शशांक ने उत्तर दिया।
धर्म और वीरेंद्र के चेहरे यह सुनकर उतर गए ।
आगे जानने के लिए कहानी के साथ बने रहे ।
सुबह का समय था। सेनापति के वेश में शशांक को देखकर धर्म को यह बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगा। उसने शशांक के लिए बाजार से नए वस्त्र लाने का विचार किया, लेकिन तभी शशांक ने ऐसी बात कह दी, जो अंतिम सत्य प्रतीत हुई।
वीरेंद्र ने तुरंत कहा, "हमने सुना है कि आपके गांव से अनेक युवक राजधानी में रोजगार की तलाश में आते हैं। आपने कभी ऐसा विचार क्यों नहीं किया?"
"नहीं किया! यहां का जीवन हमें गांव के जीवन से कठिन प्रतीत होता है। और हम अपने माता-पिता के बिना नहीं रह सकते," शशांक ने कहा। उसके उत्तर पर दोनों युवक जोर से हंस पड़े।
शशांक ने आंखें छोटी करते हुए उन्हें घूरना शुरू कर दिया और कहा, "हमने कोई हास्यास्पद बात नहीं कही, मूर्खो। तुम्हारी हंसी का कारण क्या है?"
"आप... आप अभी तक अपने माता-पिता के बिना नहीं रह सकते? यह जानकर हमें आश्चर्य हो रहा है," वीरेंद्र ने अपनी हंसी रोकने का प्रयास करते हुए कहा।
शशांक को अपनी बात में कुछ भी अजीब नहीं लगा। उसने उत्तर दिया, "इसमें आश्चर्यजनक क्या है? हम अपनी माता के बिना कोई भी कार्य नहीं कर सकते। पिता का सहयोग और मार्गदर्शन भी हमारे लिए अत्यंत आवश्यक है।"
दोनों युवक समझ गए कि शशांक अपने माता-पिता का अत्यधिक लाड़ला है, क्योंकि वह उनके सबसे बड़े पुत्र थे।
"लेकिन शशांक, आप जीवन भर अपने माता-पिता पर निर्भर नहीं रह सकते। आपको घर से बाहर निकलकर संसार में स्वयं को ढालना होगा और अपनी पहचान बनानी होगी," धर्म ने समझाते हुए कहा।
"हमें समझाने की आवश्यकता नहीं है। हम अपने उचित-अनुचित को भली-भांति जानते हैं। तुम दोनों केवल हमें भ्रमित करने का प्रयास कर रहे हो," शशांक ने हाथ उठाकर उन्हें चुप करा दिया।
वीरेंद्र ने सिर हिलाते हुए बात को बदलने का प्रयास किया, "यदि आपको कहीं जाना हो तो हम आपका मार्गदर्शन कर सकते हैं।"
"हम आसानी से मार्ग नहीं भूलते। हमें ज्ञात है कि हमें कहां जाना है। कृपया अब हमारा मार्ग छोड़ो," शशांक ने दोनों हाथों से उन्हें अलग करते हुए अपने रास्ते पर आगे बढ़ते हुए कहा।
"परंतु शशांक!" धर्म ने कहना चाहा, लेकिन तभी उन्हें कुछ परिचित पदचाप सुनाई दी। अगले ही क्षण दोनों युवक हवा की तरह वहां से गायब होकर एक स्तंभ के पीछे छिप गए।
उसी समय सेनापति तेज़ी से शशांक के पीछे आते हुए बोले, "हमारे लिए प्रतीक्षा कीजिए।"
शशांक ने उनकी बात नहीं मानी, लेकिन अपनी चाल को धीमा कर लिया।
उनके जाते ही धर्म और वीरेंद्र स्तंभ के पीछे से बाहर आए। धर्म ने वीरेंद्र की ओर देखा और बोला, "सेनापति एक क्षण के लिए भी शशांक को अकेला नहीं छोड़ते, जबकि उनके पास सांस लेने तक का समय नहीं होता?"
"तुम फिर शुरू हो गए। खुद के साथ हमें भी परेशान करके रख दिया है। अब जाओ और कोई कार्य देखो," वीरेंद्र ने कहकर दूसरी ओर प्रस्थान किया। धर्म भी उसके पीछे भागा। धर्म जानता था कि परिस्थिति गंभीर हो रही है और वीरेंद्र को इसे समझाना आवश्यक है, अन्यथा शशांक से संबंधित किसी भी मामले में दोनों के बीच असहमति बढ़ जाएगी।
शशांक अकेले ही उस कक्ष में पहुंचा, जहां अमृत और उसके पिता पहले से चर्चा कर रहे थे। उनकी बातचीत शशांक के आगमन से थम गई।
उमेश बोले, "देख लो शशांक, हम तो यूं ही अमृत को लेकर चिंतित थे। परंतु उन्होंने पहले ही महाराज से विवाह का निर्णय ले लिया है।"
शशांक ने ठंडी सांस छोड़ते हुए कहा, "यह उनकी विवशता है, काका। न कहकर स्वयं को हानि पहुंचाने से बेहतर है कि अमृत ने अभी हां कह दी। महाराज को तो आप जानते ही हैं, उन्होंने अपने सगे-संबंधियों को भी नहीं बख्शा। हम उनके लिए कुछ भी नहीं हैं। आपने वह पत्र भी पढ़ा था। महाराज जो लिखते हैं, वह कर सकते हैं।"
उमेश ने सिर पकड़ लिया। अमृत को दोष देने का कोई लाभ नहीं था। वह भी विवश थे और अपने पुत्र के लिए कुछ कर पाने में असमर्थ थे।
"बाबा, आप कृपया बैठ जाइए। हम आपको पूरी बात समझाते हैं। हम यूं ही विवाह नहीं कर रहे हैं। बदले में महाराज ने हमारे गांव का संरक्षण करने का वचन दिया है और यह भी कहा है कि आप हमारे साथ राजधानी में रह सकेंगे," अमृत ने शांत स्वर में कहा।
उमेश ने अमृत का हाथ पकड़ते हुए कहा, "हम अपने पुत्र की इस स्थिति को अपनी आंखों से नहीं देख पाएंगे, अमृत। हम यहां नहीं रह सकते।"
"बाबा, ऐसा मत कहिए। हम आपको कभी अकेला नहीं छोड़ेंगे। हमने महाराज से वचन लिया है कि वह आपको राजवैद्य का स्थान देंगे," अमृत ने आंखों में आंसू लिए हुए उत्तर दिया।
उमेश ने उत्तर दिया, "ऐसा पद, जो हमें हमारे पुत्र की बलि देकर मिले, हमें स्वीकार नहीं है। विवाह के बाद हम गांव लौट जाएंगे। बस एक वचन दीजिए कि आप अपना ध्यान रखेंगे और किसी भी परेशानी में हमारे पास लौट आएंगे।"
अमृत ने रोते हुए कहा, "हम आपको कहीं नहीं जाने देंगे। आप हमारे साथ रहेंगे। यदि आपने ऐसा नहीं किया, तो हम नहीं जानते कि क्या कर बैठेंगे। आप हैं, तभी हम हैं। आपके बिना जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते।"
शशांक ने हस्तक्षेप करते हुए कहा, "यह कैसी बातें कर रहे हैं आप लोग? कृपया शांत रहिए।"
शशांक के कहने के बाद दोनों शांत हो गए। शशांक ने अमृत से कहा, "क्या आपको पता है कि विवाह के बाद आपके साथ क्या होगा? यह केवल विवाह की बात नहीं है। महाराज आपसे शारीरिक संबंध भी बनाएंगे। क्या आप इस जीवन के लिए तैयार हैं?"
अमृत ने शर्म से सिर झुका लिया और कहा, "हमें ज्ञात है कि हम क्या कर रहे हैं। और हमारे पास कोई अन्य विकल्प नहीं है।"
शशांक ने सलाह दी, "महाराज से कुछ बातें पहले ही सुनिश्चित कर लें। जैसे कि, वह आपको सम्मान देंगे। आपके साथ किसी प्रकार की हिंसा नहीं करेंगे। और भविष्य में यदि मतभेद हों, तो वह कोई हानि पहुंचाए बिना आपको छोड़ देंगे। यह सब हमें लिखित में चाहिए। तभी विवाह होगा।"
उमेश और अमृत दोनों शशांक से सहमत हो गए। आगे की योजना बनाने के लिए सभी ने अपनी सहमति दे दी।
कुछ समय पश्चात
महाराज वैष्णव, सेनापति और राजगुरु उस कक्ष में पधारे। शशांक ने विनम्रतापूर्वक अपनी शर्तें उनके समक्ष रखीं। शर्तें सुनते ही वैष्णव अमृत को देखने लगे।
"हमारे बीच किसी प्रकार के मतभेद की संभावना नहीं है। एक बार विवाह हुआ, तो अमृत केवल हमारे होंगे—सात जन्मों के लिए। हम उन्हें कहीं नहीं जाने देंगे," वैष्णव ने अपने स्वर में दृढ़ता और जुनून के साथ कहा।
"इस समय आप प्रेम के आवेग में यह कह रहे हैं। परंतु धीरे-धीरे यह आवेग समाप्त हो जाएगा। हम अपने पुत्र के भविष्य को लेकर चिंतित हैं। हमें ये शर्तें लिखित में चाहिए," उमेश ने गंभीर स्वर में कहा।
राजगुरु ने हंसते हुए टिप्पणी की, "प्रेम और अनुभव की बातें बड़ी समझदारी से करते हैं आप, उमेश।"
उमेश ने घूरते हुए जवाब दिया, "यह अनुभव हमने अपने जीवन की कठिनाइयों से प्राप्त किया है। हमें व्यर्थ की बातें न सिखाएं।"
महाराज वैष्णव ने इस बार सीधा अमृत से प्रश्न किया, "क्या आप चाहते हैं कि हम ये शर्तें लिखित में दें?"
अमृत ने एक बार अपने पिता और शशांक की ओर देखा। दोनों ने सिर हिलाकर हामी भरने का संकेत दिया।
"हमें यह स्वीकार है," वैष्णव ने बिना किसी हिचकिचाहट के कहा और सेनापति को लिखित कार्यवाही प्रारंभ करने का आदेश दिया।
लिखित शर्तों की बात समाप्त होने पर वैष्णव ने पुनः अमृत की ओर देखकर कहा, "तो, क्या विवाह की तैयारियां प्रारंभ की जा सकती हैं?"
अमृत ने एक पल के लिए वैष्णव की आंखों में देखा। वैष्णव की आंखों में संतोष और अधिकार का भाव स्पष्ट था। अमृत ने तुरंत अपनी दृष्टि झुका ली।
वैष्णव के चेहरे पर एक गहरी मुस्कान खिल गई। उन्होंने अपनी ओर से अमृत का उत्तर समझ लिया था।
आगे जानने के लिए कहानी के साथ बने रहे ।
महल में विवाह की तैयारियों के लिए आज ही अमृत के वस्त्र सिलवाने हेतु नाप लेने के लिए दर्जी भी आ चुका था। दूसरी ओर, तिलक ने अपनी कही बात के अनुसार शशांक को बाजार घुमाना आरंभ कर दिया था। तिलक को देखते ही हर कोई आदरपूर्वक शीश झुका रहा था, क्योंकि राज्य में हर व्यक्ति उन्हें जानता था। यह देख-देखकर शशांक कुछ समय पश्चात असहज और चिढ़ने लगा।
"क्या हम अकेले ही बाजार घूम सकते हैं, और आप महल लौट जाएं, सेनापति? हमें विश्वास है कि हम संध्या से पहले महल पहुच जाएंगे," शशांक ने कहा।
तिलक ने आश्चर्य से उसकी ओर देखा। "क्या आपको हमारे साथ होने से कोई समस्या है? महाराज से विशेष अनुमति लेकर ही हम आपके साथ आए हैं, शशांक।"
"आपके कारण सबका ध्यान हमारी ओर आ रहा है। हमें ऐसी आदत नहीं है," शशांक ने झिझकते हुए आसपास देखते हुए उत्तर दिया।
तिलक को अब जाकर इसका भान हुआ। इससे पहले कि वह कुछ कहता, कहीं से दो मूर्ख आवाज़ लगाते हुए उनकी ओर बढ़ने लगे। तिलक ने गहरी सांस लेकर अपनी आंखें बंद कर लीं। भीड़ को चीरते हुए धर्म और वीरेंद्र उनके पास पहुंचे।
"सेनापति, आपने हमें साथ चलने के लिए क्यों नहीं कहा? हमें भी बाजार घूमना था। कितना समय हो गया! अपने कार्यों से छुटकारा ही नहीं मिल पाता," धर्म ने कहा।
वीरेंद्र ने शशांक की ओर देखते हुए सहमति जताई "सेनापति के साथ होने से आप असहज हो रहे होंगे। आइए, हम आपको घुमा देते हैं। सेनापति अत्यंत व्यस्त व्यक्ति हैं, उन्हें उनके कर्तव्यों से मुक्त कर देते हैं।"
तिलक का चेहरा क्रोध से लाल हो गया। अगले ही पल उसने शशांक को अपने समीप खींच लिया। "हमारे पास आज कोई और कार्य नहीं है, सिवाय इसके कि हम शशांक से किया हुआ वादा निभाएं। तुम दोनों हमारा पीछा क्यों कर रहे हो? क्या तुम्हारे पास कोई कार्य नहीं है?"
धर्म ने गला साफ करते हुए कहा, "आप क्रोधित क्यों हो रहे हैं? हमें भी अपने पीछे आने दीजिए। हम आपको परेशान नहीं करेंगे।"
फिर उसने शशांक की ओर देखा। "हम आपके लिए नए वस्त्र खरीद दें? कृपया हमें अनुमति दीजिए। ये सेनापति के वस्त्र आप पर अच्छे नहीं लग रहे।"
शशांक ने हाथ जोड़ते हुए कहा, "हमें किसी से भेंट लेना पसंद नहीं। उसका भार बहुत बड़ा होता है। और आपका हमें भेंट देने का कारण?"
"मित्रता में दी गई भेंट का कोई भार नहीं होता, शशांक," वीरेंद्र ने कहा।
"मित्रता? यह कब हुई?" तिलक ने आँखें संकुचित करते हुए पूछा।
धर्म ने मुस्कुराते हुए कहा, "जब शशांक पहली बार राजधानी आए थे।"
तिलक ने शशांक का हाथ थाम लिया और कहा, "आपको हमारी भेंट स्वीकारने में तो कोई आपत्ति नहीं होगी, शशांक?"
शशांक ने गंभीर स्वर में उत्तर दिया, "बदले में देने के लिए हमारे पास कुछ नहीं है। और हम इसी शर्त पर आपकी भेंट लेंगे। राजधानी वालों पर हमारा विश्वास अब और नहीं रहा।"
तिलक ने विजई मुस्कान के साथ शशांक को अपने साथ ले लिया।
महल के एक कक्ष में राजगुरु उमेश को छोड़ने आए थे। उन्होंने कहा, "आप यहाँ अतिथि नहीं हैं, इसलिए यह कक्ष आपका हुआ। आपके एक ओर हमारा और दूसरी ओर सेनापति का कक्ष है। यदि आपको किसी भी वस्तु की आवश्यकता हो…"
उमेश का प्रयास यही रहता था कि वह राजगुरु से अधिक बात न करे। कारण था पुरानी बातें, जो चर्चा में आते ही राजगुरु क्षमा मांगने लगते। परंतु उमेश उन्हें क्षमा नहीं करना चाहते थे । इनकी वजह से उमेश ने अत्यधिक अपमान सहा था।
"आपका धन्यवाद। आप जा सकते हैं।" उमेश ने रूखे स्वर में कह कर द्वार की ओर इशारा किया।
राजगुरु ने धीमी आवाज में कहा, "हमें अपनी गलतियों का बहुत पश्चाताप…"
"अगली बार, हमारी सहायता के लिए कोई महल का सेवक भेजें। क्योंकि हम उसी वर्ग से हैं, उनके साथ अधिक सहज रहते हैं।" उमेश के शब्दों में ताना स्पष्ट था।
राजगुरु ने सिर झुकाकर कहा, "जब भी आप हमें बुलाएँगे, हम आपकी सहायता को तत्पर रहेंगे। विवाह तक हम चाहते हैं कि आप किसी कार्यभार से मुक्त रहें। आज्ञा दीजिए।"
यह कहकर राजगुरु चले गए। उनके जाते ही उमेश ने जोर से द्वार बंद कर दिया। राजगुरु ने वह आवाज सुनी और रुककर द्वार को देखना शुरू किया। उमेश से संवाद करना सरल नहीं था, और क्षमा प्राप्त करना तो असंभव।
वहीं, जिस वैष्णव को युवतियों द्वारा अमृत को छूने से कोई आपत्ति नहीं थी, वह एक पुरुष से आपत्ति करने लगा। नाप लेने का सामान हाथ में लिए वैष्णव ने पर्दे के पीछे से कार्य आरंभ किया। एक काले पर्दे ने अमृत और दर्जी के बीच की दृष्टि को रोक रखा था।
कमर का नाप लेते हुए वैष्णव ने अचानक कहा, "आप भोजन बहुत कम करते हैं। हम आपके भोजन का विशेष ध्यान रखेंगे।"
अमृत को यह बात स्पष्ट करनी उचित लगी। उसने कहा, "महाराज, हम शाकाहारी हैं। क्या हम यह निवेदन कर सकते हैं कि प्रतिदिन हमें शाकाहारी भोजन ही मिले?"
वैष्णव ने सिर हिलाते हुए उत्तर दिया, "इसीलिए हमने आपके लिए अलग बर्तनों में भोजन बनाने का आदेश दिया था। आगे से अधिकतर शाकाहारी भोजन ही तैयार होगा।"
अमृत ने चकित होकर वैष्णव की ओर देखा। आवश्यकता से अधिक उसे दिया जा रहा था। यह किसी स्वप्न जैसा प्रतीत हो रहा था।
"क्या विवाह के बाद भी आप हमारे लिए ऐसा करेंगे?" अमृत ने धीरे से पूछा।
"क्यों नहीं? विवाह के बाद कुछ भी परिवर्तित नहीं होगा। हम वही वैष्णव रहेंगे जिसने आपसे प्रेम किया। और आप वही अमृत रहेंगे, जो हमें अत्यंत प्रिय है। आपको प्रसन्न रखना हमारा कर्तव्य है। इसके बदले में हम केवल आपका प्रेम चाहते हैं।"
अमृत ने वैष्णव के हाथ थामकर कहा, "आपने हमारे लिए बहुत कुछ किया है। हम भी अपनी ओर से पूरी कोशिश करेंगे।"
वैष्णव इस उत्तर पर पूर्ण गंभीरता से अमृत को देखने लगा। यह क्षण उसके लिए अमूल्य था।
"महाराज, हमारा कार्य पूर्ण हो गया। क्या हमें जाने की अनुमति है?" दर्जी ने घबराते हुए पूछा।
"जाओ," वैष्णव ने कड़े स्वर में कहा। अगर अमृत न होता, तो शायद उस दर्जी को कोई दंड मिलता उनकी बात के बीच हस्तक्षेप डालने के लिए।
जहां शशांक और तिलक वस्त्र खरीद रहे थे, वहीं धर्म और वीरेंद्र आपस में कानाफूसी कर रहे थे।
"देखा तुमने? शशांक ने हमारी भेंट को भार समझा, पर सेनापति की बात तुरंत मान ली।"
"इसका अर्थ है, सेनापति को शशांक नहीं, बल्कि शशांक को सेनापति पसंद है," वीरेंद्र ने बातो को जोड़ा।
"मूर्ख हो। बिना सेनापति के संकेत यह संभव नहीं। और तुमने वो गाव की अफवाह सुनी है?"धर्म ने कहा।
"कौन सी अफवाह?" वीरेंद्र बोला ।
धर्म ने मृदु स्वर में कहा, “ग्राम में सभी कहते हैं कि शशांक का किसी के साथ गोपनीय प्रेम संबंध है, जिसके साथ विवाह के लिए उनका परिवार सहमत नहीं है। अतः वह युवती, ध्यान से सुनो, ग्रामवासियों के अनुसार कोई युवती प्रत्येक स्थान से उनके संबंध तोड़ देती है। अब तुम अनुमान लगाओ, क्या कोई युवती इतना सब करने का साहस कर सकती है?”
“साहस कर सकती है, धर्म। यदि वह किसी संपन्न परिवार की लाड़ली कन्या हुई तो?” वीरेंद्र ने कहा।
“इसीलिए तुम मूर्ख हो और तुम्हारे संग हमें भी इसी उपाधि से विभूषित करते हैं सेनापति। हमें प्रतीत होता है कि वह कोई युवती नहीं, स्वयं सेनापति हैं। जो किसी युवती को भेजकर संबंध तुड़वाते हैं क्योंकि उन्हें शशांक से एकतरफा प्रेम है। पुरुषों के प्रेम को खुले तौर पर स्वीकार नहीं किया जाता। अतः वे नहीं चाहते कि शशांक विवाह करके किसी और के हो जाएं। अब तो महाराज के आदेश के पश्चात परिवर्तन की संभावना है,” धर्म ने उत्तर दिया।
वीरेंद्र ने हल्के से सिर हिलाया, “किन्तु न जाने क्यों हम तुम्हारे साथ सहमत नहीं हो पा रहे। हम कल्पना ही नहीं कर सकते कि सेनापति प्रेम में पड़ सकते हैं और ऐसा मूर्खतापूर्ण कोई कार्य करेंगे।”
“क्या तुमने कभी विचार किया है? हमारे क्रूर महाराज मासूम वैद्य जी के प्रेम में पड़ गए। न केवल प्रेम में पड़े, बल्कि वे संसार को नष्ट करने तक की स्थिति में हैं उनके लिए। यदि महाराज प्रेम में पड़ सकते हैं और मूर्खता कर सकते हैं तो तुम सेनापति को उस दृष्टि से क्यों नहीं देखते?” धर्म ने दृढ़ स्वर में कहा।
“उचित है। हम अब तुम्हारी बात समझने लगे हैं। स्मरण है महाराज ने क्या कहा था—दो के संघर्ष में तीसरे का लाभ। कुछ ऐसा ही हमारे साथ हो रहा है। हम दोनों के मध्य से शशांक जा चुके हैं,” वीरेंद्र ने चिंतित स्वर में कहा।
“तुम तो अभी से हार मानने लगे। हमें पूरा प्रयास करना चाहिए जब तक वे दोनों स्वयं इस विषय में कुछ न कह दें,” धर्म ने उत्साहित होकर कहा।
“देखो, हम तुम्हारी बात सुनकर प्रयास तो करेंगे, किन्तु सेनापति के प्रेम में हस्तक्षेप करना शेर के मुख में हाथ डालने जैसा प्रतीत हो रहा है। कम से कम शेर के मुख से तो हाथ घायल होकर बाहर आ सकता है, परंतु सेनापति... उनकी तलवार की धार का शिकार होना नहीं चाहते हम,” वीरेंद्र ने जैसे ही कहा, धर्म भी उसके साथ सिहर उठा।
“नहीं, ऐसा कुछ नहीं होगा। हम एक कार्य करते हैं। उनसे सीधे शब्दों में पूछ लेते हैं। यदि उन्हें सेनापति प्रिय हैं तो हम आगे नहीं बढ़ेंगे। किन्तु यदि उन्होंने मना कर दिया तो यह हमारा अवसर रहेगा,” धर्म ने युक्ति सुझाई।
“हां, योजना तो उत्तम है। इससे हम अपमान से भी बच जाएंगे और सेनापति के क्रोध से भी,” वीरेंद्र ने प्रसन्नतापूर्वक सिर हिलाया।
“अब हमें केवल यह ध्यान रखना है कि सेनापति के समक्ष अधिक शशांक के निकट न जाएं। उनकी दृष्टि सदैव हमें चेतावनी देती हुई प्रतीत होती है,” धर्म ने कहा और पुनः आगे की ओर देखा। शशांक और तिलक किसी विषय पर हंसते हुए एक दुकान से बाहर आ रहे थे। दोनों युवकों ने अपने कदम उनके समीप बढ़ा लिए।
धर्म ने निराश होकर कहा, “आपने हमसे कोई भेंट स्वीकार नहीं की, परंतु सेनापति से स्वीकार कर ली। संभवतः आप दोनों हमारे मुकाबले कहीं अधिक एक-दूसरे के निकट हैं?”
“ऐसा नहीं है, धर्म,” शशांक को स्वयं ज्ञात नहीं था कि वह तिलक को मना क्यों नहीं कर पाया। अब तो इस प्रश्न का उत्तर भी उसके पास नहीं था।
“ऐसा ही है,” वीरेंद्र ने भी शिकायत पूर्ण स्वर में कहा।
“यदि भेंट देने की इतनी ही इच्छा है तो हमें दे दो। और हम सुनिश्चित करेंगे कि अगले माह से तुम दोनों को केवल इतना ही भुगतान मिले जिससे तुम्हारी आवश्यकताए पूरी हो सकें। शेष धनराशि प्रजा के हित में उपयोग के लिए दी जाएगी,” तिलक ने अपनी भुजा मोड़कर कहा। उसके हाथ में पकड़ी तलवार ने दोनों युवकों को अपने कदम पीछे हटाने पर विवश कर दिया।
दोनों युवकों के चेहरे सफेद पड़ गए। उन्होंने अपने हाथ जोड़ लिए। वीरेंद्र ने बनावटी रोना रोते हुए कहा, “यह अन्याय हम पर न करें, सेनापति। हमारी कुछ अतिरिक्त आवश्यकताए होती हैं, जिन्हें पूर्ण करने के लिए यह भुगतान पर्याप्त नहीं है। हम तो आपसे इसमें वृद्धि की मांग करने वाले थे, और आप इसे घटाने की बात कर रहे हैं?”
शशांक उनकी बात सुनकर हंस पड़ा। “तो भेंट देने पर इतना जोर क्यों दे रहे थे?”
“मित्रता के लिए, शशांक। लेकिन सेनापति सदा अवसर खोजते रहते हैं हमें परेशान करने का। उनसे कहिए न, हमें क्षमा कर दें। वह आपकी बात अवश्य मानेंगे,” धर्म ने अपनी बात को पुष्ट करने के लिए कहा।
शशांक ने सिर हिलाकर तिलक की ओर देखा। “इन्हें क्षमा कर दीजिए, सेनापति।”
“आप कहते हैं तो अवश्य!” तिलक का स्वर शशांक से बात करते हुए कोमल हो गया था। उसकी ओर देखते हुए उसने हाथ हिलाकर दोनों युवकों को अपनी दृष्टि के सामने से चले जाने का संकेत दे दिया।
आगे जानने के लिए कहानी के साथ बने रहे ।
मात्र दो दिनों के अंतराल में ही महल विवाह के लिए सज्जित हो चुका था। ऐसा प्रतीत होता था कि दर्जी पर कोई दबाव था, क्योंकि उसने इन दिनों में ही वस्त्र तैयार कर लिए। इसके लिए उसे भोजन करना और सोना तक त्यागना पड़ा। परंतु उसकी इस मेहनत का प्रतिफल इतना अधिक होता कि उसका जीवन आरामदायक बन जाता।
महल के प्रथम तल पर खड़े होकर उमेश निरंतर उस मंडप को देख रहे थे, जहाँ उनके पुत्र का जीवन पूर्णतः परिवर्तित होने वाला था।
“अब तो वह सदैव आपकी आखों के समक्ष ही रहेंगे। फिर किस बात का भय और चिंता, उमेश?” यह स्वर राजगुरु का था, जिस पर उमेश ने अधिक ध्यान नहीं दिया।
“जब तक वह हमारी दृष्टि के समक्ष रहेंगे, हम निश्चिंत रहेंगे। किंतु जब वह हमारी दृष्टि से ओझल होकर किसी पुरुष के साथ वैवाहिक जीवन का आरंभ करेंगे, तब क्या होगा? हमें महाराज के साथ-साथ स्वयं से भी घृणा हो रही है। यदि हमें पहले ज्ञात होता कि अमृत को यह दिन देखना पड़ेगा, तो हम उसी समय उन्हें और स्वयं को समाप्त कर लेते, जब उनकी माता का निधन हुआ था।” उमेश के स्वर में निराशा स्पष्ट थी। उनका रोने का मन था, परंतु उन्होंने स्वयं को नियंत्रित रखा।
राजगुरु भी भावुक हो गए। चेहरे पर हाथ फेरकर उन्होंने कहा, “हम महाराज से चर्चा करेंगे। जब तक अमृत उनके साथ सहज नहीं हो जाते, महाराज उनसे शारीरिक संबंध न बनाएं। हमें विश्वास है कि महाराज को यह बताने की आवश्यकता नहीं होगी, क्योंकि अमृत के प्रति उनके सच्चे प्रेम की झलक उनकी आखों में स्पष्ट दिखती है। वह प्रतीक्षा करेंगे, हमें उनके संस्कारों पर पूर्ण विश्वास है। भले ही वे सभी को निष्ठुर, क्रूर और स्वार्थी प्रतीत हों, किंतु हमने उन्हें बाल्यावस्था से देखा है। हा, वह थोड़े हठी अवश्य हैं।”
उमेश उनकी ओर मुड़े। अगले ही क्षण उनकी दृष्टि ठंडी हो गई, और उन्होंने वहा से जाने का प्रयत्न किया। वे सदैव राजगुरु से दूरी बनाए रखने का प्रयास करते थे। किंतु राजगुरु ने उनका हाथ पकड़कर उन्हें रोक लिया। “कृपया हमारी बात सुनिए।”
“हमें कुछ नहीं सुनना।” उमेश ने कहकर अपना हाथ छुड़ाने का प्रयास किया।
“कब तक आप नहीं सुनेंगे? कब तक भागते रहेंगे या हमें अपने पीछे भगाते रहेंगे? हमें आपसी मतभेद अब सुलझा लेने चाहिए। हम प्रतिदिन इस प्रकार एक-दूसरे का सामना नहीं कर सकते।” राजगुरु ने कहते हुए उमेश के बाजुओं को थाम लिया।
“हमें आपसे कोई मतभेद सुलझाने की आवश्यकता नहीं है, राजगुरु।” उमेश ने दृढ़ता से कहा।
“आपके लिए केवल शेखर हैं। हमें इसी नाम से संबोधित करें,” राजगुरु ने आग्रह किया।
“हमें छोड़ दीजिए, हमें अपने पुत्र को देखने जाना है। आपके साथ वाद-विवाद में समय व्यर्थ करने का समय नहीं है।” उमेश ने कहा।
“पहले बात कर लीजिए, फिर जहाँ जाना हो जाएँ।” राजगुरु ने अपनी बात पर दृढ़ रहते हुए कहा।
“अपनी बात कहकर जहाँ जाना है, चले जाइए,” राजगुरु ने दृढ़ स्वर में कहा। उन्होंने ठान लिया था कि अब उमेश को टालने नहीं देंगे।
“ठीक है, फिर हम किसी भी प्रकार के मतभेद के लिए स्थान ही शेष नहीं रखते। जब आपसे हमारा कोई संबंध ही नहीं है, तो न आपको किसी प्रकार का प्रायश्चित करने की आवश्यकता है, और न ही हमें आपको क्षमा करने की। मान लीजिए कि आप और हम राजधानी में पहली बार मिल रहे हैं,” उमेश ने सोच-समझकर उत्तर दिया।
“यह संभव नहीं है,” राजगुरु ने दृढ़ता से कहा। “बहुत वर्ष बीत गए हैं, उमेश। हम आपसे क्षमा याचना कर रहे हैं। कृपया ह्रदय को विशाल कर हमें क्षमा कर दीजिए। और इसके पश्चात हमसे मित्रता कर प्रेमपूर्वक वार्तालाप कीजिए। तभी हम आपको जाने देंगे।”
राजगुरु की बात सुनकर उमेश के क्रोध के कारण उनके दांत भींच गए। उन्होंने राजगुरु से स्वयं को मुक्त करने का प्रयास किया, परंतु असफल रहे।
“हमने जो कहा, वही कीजिए, फिर हम आपको मुक्त कर देंगे।” राजगुरु ने दोहराया।
“अजीब जबरदस्ती है। हमें आपसे मित्रता नहीं करनी है।” उमेश ने क्रोधित होकर कहा।
राजगुरु ने शांत स्वर में कहा, “चलिए, ठीक है। मित्रता करने की आवश्यकता नहीं। आप हमारा अपमान किया करें, जिससे आपके हृदय को शांति मिले।”
उमेश ने एक ठंडी हँसी हंसते हुए कहा, “सब आपकी तरह नहीं होते, राजगुरु। हमारे माता-पिता या किसी भी गुरु ने हमें जानबूझकर किसी का अपमान करना नहीं सिखाया। आपको सिखाया गया होगा, और आपने उसका उपयोग भी किया।” उमेश की कड़वी बातें अपमान से अधिक पीड़ादायक थीं, किंतु यह बात उन्हें कौन समझाए? राजगुरु ने सिर झुका लिया।
“सोच लीजिए, हम आपको जाने नहीं देंगे,” राजगुरु ने धीरे से कहा। उमेश ने पुनः प्रयास किए, परंतु कोई लाभ नहीं हुआ। उन्होंने कहा, “आप हमें छोड़ेंगे या नहीं?”
“नहीं। हमें बार-बार अपनी बात दोहराना पसंद नहीं है, परंतु आपको बार-बार समझा रहे हैं। अंततः हार आपको ही माननी है। तो क्यों न समय व्यर्थ न करते हुए हमारी बात सुन लें?” राजगुरु ने उत्तर दिया।
उमेश भी अपनी ज़िद छोड़ने के लिए तैयार नहीं थे। जिसके चलते समय बीतता गया।
तभी धर्म वहाँ पहुँचा और बोला, “राजगुरु, महाराज ने आपको बुलाया है।”
राजगुरु ने उसे कोई उत्तर नहीं दिया। दोनों को बारी-बारी से देखने के बाद, उनके पीछे आए वीरेंद्र ने कहा, “राजगुरु, क्या आप अमृत के पिता को एक कोने में ले जाकर धमका रहे हैं?”
अविश्वास से राजगुरु ने गर्दन उसकी ओर घुमाई और कहा, “मूर्ख, अपनी आयु के अनुसार सोच-समझकर बोला करो।”
“परंतु हमने क्या अनुचित कह दिया? जो हमें दिख रहा है, वही तो कहा हमने, राजगुरु,” वीरेंद्र ने मासूमियत से उत्तर दिया।
“यहाँ से चले जाओ तुम दोनों। हम बाद में आएँगे।” राजगुरु ने क्रोधित होकर कहा। एक तो वह उमेश को जाने नहीं देना चाहते थे, और अब ये दोनों बीच में आकर उन्हें परेशान कर रहे थे। अगर इस समय उन्होंने उमेश को छोड़ दिया, तो उन्हें पुनः पकड़ पाना कठिन होगा।
“अगर अमृत को पता चला तो उन्हें दुःख होगा, राजगुरु। कृपया उनके पिता के साथ ऐसा व्यवहार मत कीजिए,” धर्म ने वीरेंद्र की बातों से प्रभावित होकर कहा।
“चुप हो जाओ तुम दोनों! हमने कहा कि हमें अकेला छोड़ दो। क्या सुनने में कठिनाई है?” इस बार राजगुरु की आवाज तेज हो गई, जिसे सुनकर उमेश भी चिहुँक उठे। राजगुरु ने गहरी साँस लेते हुए उमेश की ओर देखा, “आप कब तक अपनी ज़िद पर अड़े रहेंगे?” उनका लहजा वही था, बस स्वर धीमा पड़ गया।
उमेश ने गला खँखारते हुए कहा, “ठीक है, हमने आपकी बात मान ली।”
“हमारी मित्रता?” राजगुरु ने पुष्टि के लिए पूछा। उमेश ने चुपचाप सिर हिलाकर सहमति जताई।
“ऐसी मित्रता पहली बार देख रहे हैं हम,” वीरेंद्र ने धीमे स्वर में कहा और धर्म के साथ वहाँ से चले गए। वे सेनापति और राजगुरु दोनों की नाराजगी से बचना चाहते थे।
“आप प्रेम से बात करें या क्रोध से, अपमान करें या कड़वी बातें कहें, हमें सब स्वीकार है। परंतु आज से हम मित्र हैं। इसे आप कभी नहीं भूलेंगे। किसी भी आवश्यकता में आप हमारे पास आएँगे और हमें अपना अधिकार समझकर कोई भी कार्य बताएँगे। मान्य है?” राजगुरु ने धमकी भरे स्वर में पूछा। उमेश ने चुपचाप सिर हिलाकर सहमति जताई।
राजगुरु ने संतोष की साँस ली और कहा, “अब आप अपने पुत्र के पास जाइए। हम महाराज के पास जाते हैं और उन्हें आपके साथ हुई बातचीत से अवगत कराते हैं।”
जैसे ही उमेश मुक्त हुए, वे इस तरह भागे मानो राजगुरु उन्हें फिर पकड़ने वाले हों।
उस कक्ष में अमृत के अतिरिक्त कई युवतियाँ थीं, जो उसे तैयार करने आई थीं। अमृत ने उन्हें मना करते हुए कहा, “हम कोई कन्या नहीं है , जिसे साज-सज्जा की आवश्यकता हो।”
परंतु जब उसने वस्त्र धारण कर स्वयं को दर्पण में देखा, तो उसका मन रोने को हुआ।
“महाराज ने हमारे लिए ये कैसे वस्त्र बनवाए हैं?” उसने बेचारगी से शशांक की ओर देखा। शशांक भी असमंजस में उसे देख रहा था। इसके विपरीत, युवतियाँ उसकी प्रशंसा कर रही थीं। आखिर एक युवक इतना सुंदर कैसे हो सकता था?
लाल रंग का घेरदार अंगरखा, जो अमृत के पैरों तक ढक रहा था, उस पर जड़े अनमोल रत्न और लंबी बाँहें—यह पोशाक किसी राजकुमारी के लिए उपयुक्त लगती थी। शशांक ने सिर पकड़ लिया।
“आइए स्वामी, यहाँ बैठ जाइए। हम आपके बाल सँवार देते हैं,” एक युवती ने उसकी ओर हाथ बढ़ाया।
“हम ये वस्त्र नहीं पहनेंगे, शशांक भाई। हमें महाराज से बात करनी है,” अमृत ने रोनी आवाज में कहा।
शशांक कुछ कहने ही वाला था कि एक युवती बोल पड़ी, “महाराज से आप केवल विवाह मंडप में ही बात कर पाएँगे, स्वामी।”
“हमें कुछ नहीं सुनना। हमें अभी महाराज से बात करनी है,” अमृत ने क्रोध में कहा।
तभी उमेश वहाँ आए। उनके आगमन से अमृत ने स्वयं को शशांक के पीछे छिपा लिया। उमेश ने आसपास देखा और शशांक ने इशारे से अमृत का स्थान बताया। उमेश ने अमृत का हाथ पकड़ उसे बाहर खींचा। पलभर के लिए वे भी उसे देखकर चकित रह गए।
“क्या महाराज ने आपका अपमान करने के लिए ऐसे वस्त्र बनवाए हैं?” उमेश ने गुस्से से पूछा।
अमृत ने शर्मिंदगी से कहा, “नहीं, बाबा। महाराज हमें चिढ़ाने के लिए कहते थे कि वे हमें कन्या के वस्त्रों में देखना चाहते हैं।”
उसे महाराज का पक्ष लेते देख उमेश ने हाथ बाँध लिए, “तो फिर आप इन वस्त्रों में सहज हैं, कोई आपत्ति नहीं है आपको?”
“ऐसा... ऐसा नहीं है, बाबा।” अमृत ने फिर से रोनी सी आवाज में कहा और उनकी ओर देखा।
“इस राजमहल में जितने भी विवाह हुए हैं, सबके वस्त्र कुलदेवी के आशीर्वाद के साथ ही किसी वधू या वर को पहनाए जाते हैं, अमृत। क्षमा करें। परंतु आपको इन्हीं वस्त्रों में विवाह में सम्मिलित होना होगा। इसमें हम, आप, या अब महाराज भी कुछ नहीं कर सकते।” यह आवाज सेनापति की थी, जो द्वार पर खड़े होकर उनकी बातें सुन रहे थे।
इसी बीच उनकी दृष्टि शशांक पर पड़ी। उनके द्वारा दिए गए वस्त्र शशांक पर अत्यधिक सुशोभित लग रहे थे। वे आसमानी रंग के थे, जिनमें शशांक का स्वरूप और भी अधिक निखर रहा था। परंतु शशांक की दृष्टि उन युवतियों की ओर चली गई, जो सेनापति को देखकर हर बार की भांति मोहित हो चुकी थीं। उनके युद्ध-कौशल की तरह ही उनके रूप-गुणों की चर्चा हर स्थान पर होती थी।
उमेश ने सिर हिलाया, “अब हमारे पास कोई अन्य विकल्प नहीं है। पुत्र, तैयार हो जाओ।” यह कहते हुए उन्होंने अमृत को एक आसन पर बैठने का निर्देश दिया। वे आज स्वयं अपने पुत्र को तैयार करना चाहते थे, जैसे कभी अमृत के बचपन में किया करते थे। सच कहें तो वे अमृत का विवाह होते देखकर अत्यधिक भावुक हो गए थे।
अन्य माता-पिता की भांति उनके भी अपने पुत्र के विवाह को लेकर अनेक सपने थे, जो एक पल में टूट गए जब महाराज द्वारा भेजा गया पत्र उन्होंने पढ़ा था।
राजगुरु महाराज के कक्ष में पहुँचे तो अत्यधिक आश्चर्यचकित हुए। उन्होंने कहा, “लाल रंग, महाराज? यह तो केवल स्त्रियाँ पहनती हैं!”
“हम कभी नियमों का पालन करते हैं क्या, राजगुरु? हम अपने लिए नियम स्वयं बनाते हैं और उन्हें तोड़ने में भी आनंद लेते हैं। यह रंग तो हमने अपने अमृत के लिए पहना है, ताकि वे हम पर क्रोधित न हों,” वैष्णव ने मुस्कराते हुए उत्तर दिया।
उनका अंगरखा घुटनों से थोड़ा नीचे तक पहुँचता था। उस पर ठीक अमृत के वस्त्रों की भाँति ही उत्कृष्ट कारीगरी की गई थी। तभी किसी ने उनके मस्तक पर उनका मुकुट रख दिया, जिसके पश्चात वे पूर्ण रूप से तैयार हो गए।
“आज आपके माता-पिता अत्यधिक प्रसन्न होते, आपको विवाह करता देख,” राजगुरु ने मुस्कुराते हुए कहा।
यह सुनकर वैष्णव को हँसी आ गई, “आपको सच में लगता है, वे प्रसन्न होते? या हमें एक युवक के साथ विवाह करने की आज्ञा देते?”
राजगुरु को अपनी ही बात पर खेद हुआ। “आपने किसी कार्य हेतु हमें बुलाया था, महाराज?”
“हाँ, यह पूछना था कि कोई तैयारी शेष तो नहीं रह गई? हमें किसी भी प्रकार की कमी नहीं चाहिए। हम केवल एक ही बार विवाह कर रहे हैं।” वैष्णव ने कहा।
हालाँकि अन्य राजा अनेक विवाह कर लेते थे, इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं थी। परंतु वैष्णव का यह विवाह स्वयं में सबसे बड़ी आश्चर्य की बात थी। और उन्होंने अमृत के साथ वचनबद्ध हो जाने के पश्चात दूसरा विवाह कभी न करने का संकल्प लिया था।
“विवाह की और सुरक्षा की सभी तैयारियाँ पूर्ण हो चुकी हैं। दोनों सेनापति और तिलक स्वयं आपकी सुरक्षा में तत्पर रहेंगे। शेष प्रजा की व्यवस्था के लिए अन्य लोग नियुक्त हैं। आप निश्चिंत रहें,” राजगुरु ने उन्हें आश्वस्त किया।
“हमें अपनी नहीं, बल्कि अमृत की चिंता है। काल सेना सबसे आगे रहेगी। यदि कोई प्रतिकूल परिस्थिति उत्पन्न होती है, तो अमृत पर हल्की सी खरोंच भी ना आए,” वैष्णव ने दृढ़ स्वर में कहा और दर्पण की ओर पलटकर स्वयं को निहारने लगे।
“काल सेना को सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित करना उचित नहीं है। अकेले सेनापति आपकी सुरक्षा के लिए पर्याप्त हैं। काल सेना को यथासंभव छिपाकर रखना है। इसे बनाने में बहुत परिश्रम हुआ है,” राजगुरु ने चेताया।
“हमें सब ज्ञात है। वे साधारण सैनिकों के वेश में रहेंगे। तिलक पर हमारा पूर्ण विश्वास है। परंतु जहाँ बात अमृत की हो, वहाँ हम किसी प्रकार की कमी नहीं रख सकते,” वैष्णव ने गंभीर स्वर में उत्तर दिया।
“जैसा आप उचित समझें। हम एक बार पुनः सुरक्षा व्यवस्था की समीक्षा कर लेंगे,” राजगुरु ने कहा।
वे जाने को हुए, परंतु तभी उमेश से हुई बातचीत का स्मरण हुआ।
“महाराज, आपसे एकांत में कुछ कहना है,” राजगुरु ने रुककर कहा। वैष्णव ने हाथ से संकेत देकर सभी को कक्ष से बाहर जाने का आदेश दिया। द्वार बंद हो जाने के बाद राजगुरु ने कहा, “आपके और अमृत के संबंध में कुछ कहने का अधिकार हमें नहीं है। परंतु उमेश अपने पुत्र को लेकर चिंतित हैं।”
“किस प्रकार की चिंता? स्पष्ट कहिए, राजगुरु।” वैष्णव ने कहा।
“अमृत के साथ शारीरिक संबंध बनाने में शीघ्रता न करें। उन्हें आपके साथ और इस महल में पहले सहज होने दें। हमें विश्वास है कि आप उनसे भी अधिक उनके हित के विषय में सोचते हैं। अतः इस बात का विशेष ध्यान रखेंगे,” राजगुरु ने अपनी दृष्टि नीचे करते हुए कहा।
“हमने आपकी किसी बात को आज तक अस्वीकार नहीं किया है, राजगुरु। और आप हमें भली-भाँति जानते हैं। हम ऐसा कोई कार्य नहीं करेंगे, जिससे हमारे अमृत को कष्ट पहुँचे। हम तो केवल उनसे विवाह करने के लिए व्याकुल थे। विवाह के पश्चात यह शीघ्रता और हठ दोनों समाप्त हो जाएँगे,” वैष्णव ने मुस्कराते हुए उत्तर दिया।
यह सुनकर राजगुरु के मुख पर संतोष प्रकट हुआ “हम आपसे इसी उत्तर की अपेक्षा रखते थे, महाराज। आपका वैवाहिक जीवन मंगलमय हो, यही प्रार्थना करेंगे कुलदेवी से। हाँ, कुलदेवी से स्मरण हुआ। विवाह के पश्चात हर नवदम्पति कुलदेवी के मंदिर में आशीर्वाद लेने जाता है। आपको भी जाना होगा,” राजगुरु ने कहा।
यह सुनकर वैष्णव का चेहरा फीका पड़ गया।
वही स्थान था, जहाँ उन्होंने अंतिम बार अपने पिता को खोया था। तब से वे कभी भी कुलदेवी के मंदिर नहीं गए थे।
आगे जानने के लिए कहानी के साथ बने रहे ।
सुबह का समय था और महल के सामने ही प्रांगण में ऊँचे स्थान पर मंडप सजा हुआ था। जहाँ तक पहुँचने के लिए कम से कम पचास सीढ़ियाँ पार करनी पड़तीं। नीचे प्रजा के बैठने के लिए स्थान बना हुआ था। लकड़ियों को आपस में बाँधकर एक घेरा बनाया गया था, ताकि कोई भी उस सीमा से आगे न जा सके।
महाराज वैष्णव अनेक पंडितों के साथ हवन कुंड के पास पूजा में बैठे हुए थे। अग्नि की उठती लपटों का प्रकाश उनके तेजस्वी मुखमंडल पर स्वर्ण जैसा चमक रहा था। अमृत के लिए वैष्णव के बगल में स्थान रिक्त रखा गया था।
राजगुरु वहीं सेनापति के साथ उपस्थित थे। वैष्णव को चारों ओर से घेरकर सैनिक खड़े थे, परन्तु एक उचित दूरी पर।
वे कोई साधारण सैनिक नहीं थे। यह बात केवल कुछ गिने-चुने लोगों को ही ज्ञात थी।
उन्हीं सैनिकों का नेतृत्व कर रहे थे धर्म और वीरेंद्र। वैष्णव जब भी प्रजा के समक्ष आते, उनकी सुरक्षा का विशेष ध्यान रखा जाता। वैष्णव पर हमले होना एक सामान्य घटना बन चुकी थी। यह हमले कौन करवा रहा था, इसका कोई प्रमाण अब तक नहीं मिल पाया था। सेनापति लगातार इस विषय में गहराई से जाँच कर रहे थे।
एक पंडित ने हाथ आगे बढ़ाया, तो वैष्णव ने मस्तक झुकाकर उनके हाथों से तिलक लगवा लिया। जैसे ही पंडित पीछे हटे, वैष्णव को ऐसा प्रतीत हुआ मानो ठंडी हवा का एक झोंका उन्हें छूकर गुजरा हो। उनके रोंगटे खड़े हो गए और उनकी दृष्टि ऊपर उठकर एक दिशा में घूम गई।
अमृत को चारों ओर से युवतियों ने घेर रखा था। उसे देखने के लिए वैष्णव व्याकुल हो उठे। किसी भी प्रकार वे चाहते थे कि सब उनके मार्ग से हट जाएँ और उन्हें अमृत के दर्शन हों। वैष्णव के साथ-साथ प्रजा में भी उसे देखने का उत्साह था। वे जानना चाहते थे कि ऐसा कौन है जिसके साथ उनके महाराज विवाह कर रहे हैं।
वह क्षण आया और वैष्णव के हृदय ने जोर से धड़कना शुरू कर दिया। अमृत की घनी पलकें झुकी हुई थीं। हाथों की उँगलियों को आपस में उलझाए, वह धीरे-धीरे कदम बढ़ा रहा था। उसके सुंदर बाल हल्की हवा में लहराते हुए बिखर रहे थे। आधे बालों का जुड़ा बँधा हुआ था, जिसमें आज विशेष प्रकार की सजावट की गई थी। गले में भारी और अमूल्य आभूषण थे। कोई यह नहीं कह सकता था कि वह कोई पुरुष है। उसके रूप के सामने सुन्दर तम युवतियाँ भी ईर्ष्या से भर जाती।
अमृत का हृदय भी तेज गति से धड़क रहा था। संकोच के कारण उसकी दृष्टि उठने का साहस नहीं कर पा रही थी। इसका कारण उसके परिधान थे।
परन्तु जब उसने सुना कि महाराज ने भी लाल रंग धारण किया है, तो अमृत अपने आपको रोक नहीं सका और उनकी ओर देखने लगा।
वैष्णव के मुख पर हल्की मुस्कान उभर आई। वहीं, अमृत भी उन्हें देखकर मानो अपने आप को खो बैठा।
इसी बीच शशांक ने उसके कानों के पास कहा, "विवाह के पश्चात उन्हें ही देखना है। मुहूर्त में विलंब मत करो। अपने कदम आगे बढ़ाओ, अमृत।"
अमृत चौंककर वास्तविकता में लौट आया। संकोच के कारण उसका चेहरा लाल हो गया था।
उसे वैष्णव के बगल में रिक्त स्थान पर बैठा दिया गया। वैष्णव की दृष्टि आरंभ से लेकर अंत तक केवल अमृत पर टिकी रही और अब भी हटने का नाम नहीं ले रही थी।
"महाराज, विवाह की विधि आरम्भ करें?" पास बैठे पंडित ने उनका ध्यान खींचते हुए कहा।
अमृत से दृष्टि हटाना कठिन था, परन्तु विवाह की विधि पूरी करना आवश्यक था।
"विधि आरम्भ कीजिए," वैष्णव ने कहा और अमृत को सहजता प्रदान करने के लिए अपना दूसरा हाथ धीरे से उसकी ओर बढ़ाया। अमृत ने तुरंत ही उनका हाथ पकड़ लिया।
"आप अत्यंत सुन्दर लग रही हैं, हमारी प्रिय कन्या।" वैष्णव ने झुकते हुए धीमे स्वर में कहा।
"हम आपसे नाराज हैं। विवाह के पश्चात बात करेंगे। आपने हमें ये परिधान पहनाकर अन्याय किया है," अमृत ने मुँह फुलाकर कहा।
वैष्णव हल्के से मुस्करा दिए और बोले, "ओह प्रिय अमृत, क्षमा करें। यह केवल आज के दिन के लिए था। यदि पहले बता देते, तो आप कभी इसे न पहनते।"
"आप बहुत बुरे हैं," अमृत ने उनका हाथ जोर से दबा दिया। यह देखकर वैष्णव मुस्कराहट को रोक न सके।
प्रजा में से किसी ने वीरेंद्र को अपने पास बुलाकर कहा, "महाराज ने कहा था कि वे किसी पुरुष से विवाह करेंगे? परंतु यह तो किसी सुंदर युवती जैसी लग रही हैं।"
"आपकी दृष्टि कमजोर है या दूरी के कारण ठीक से देख नहीं पा रहे हैं। वह युवक ही है," वीरेंद्र ने उत्तर दिया। उसी समय, एक तीर उनके कान के पास से सनसनाते हुए निकल गया।
उसके कान पर हल्की-सी खरोंच आ गई और उसी दिशा में गर्दन घुमा कर वह फुर्ती से तीर की दिशा में पलटा।
उसका लक्ष्य महाराज का सीना था। वैष्णव और अमृत एक-दूसरे की ओर देखने में व्यस्त थे। तभी कुछ आभास हुआ और वैष्णव ने सामने देखा।
तीर उसकी आंखों में नजर आने लगा। हल्की-सी उसकी आंखें बड़ी हो गईं। परंतु इससे पहले कि वह तीर उन्हें कोई नुकसान पहुंचा पाता, किसी ने अपनी तलवार बीच में अड़ा कर उस वार को रोक दिया और तीर को दो हिस्सों में विभाजित कर दिया।
"सावधान!" वीरेंद्र ने अपनी तलवार निकाल कर तेज स्वर में कहा और सैनिक पहले से भी अधिक सतर्क होकर चारों दिशाओं में देखने लगे।
अमृत चिहुंक उठा, अचानक यह सब होता देख। वैष्णव की आंखें अपने सामने आकर खड़े तिलक को देख कर साधारण हो गईं।
तिलक ने अपनी तलवार को हल्के से घुमाया। तलवार चलाने में वह सबसे उत्तम था, इसे कोई नकार नहीं सकता था।
पास ही खड़े उमेश को शशांक की तरफ धकेल कर राजगुरु भी आगे बढ़े। उमेश और शशांक को तुरंत ही दो सैनिकों ने घेर लिया, ताकि उन्हें कोई नुकसान न पहुंचे।
"महाराज!" राजगुरु ने आगे आकर कहा।
"विवाह की विधि पूर्ण होकर रहेगी।" वैष्णव ने अमृत को बांहों में भरते हुए ठंडे स्वर में कहा। कुछ क्षणों के लिए रुक चुका मंत्रोच्चार पुनः आरंभ हुआ।
धर्म वीरेंद्र के पास पहुंचा। उनके साथ उनके दोनों पिता भी थे। वीरेंद्र ने कहा, "कोई प्रजा के बीच छिपा हुआ है।"
उनके लिए अब तीर चलाने वाले को खोजना अधिक कठिन था। वे यूं ही प्रजा को कोई हानि नहीं पहुंचा सकते थे।
"इन्हें भेज देना सही रहेगा, पिताश्री?" धर्म ने अपने पिता अमरेश की ओर देखते हुए कहा।
"महाराज से कहे बिना हम परस्पर यह निर्णय नहीं ले सकते। शिवेंद्र, राजगुरु से पूछ कर आओ। पुनः वार हुआ तो प्रजा को भी इससे हानि पहुंच सकती है।" अमरेश ने वीरेंद्र के पिता से कहा। यह सुनकर वे तुरंत ही राजगुरु की दिशा में बढ़ गए।
अगले ही क्षण, शिवेंद्र के पीछे से तीर निकल कर अमृत की ओर बढ़ा।
अमृत की दृष्टि एक वार के बाद सामने ही बनी हुई थी। जब अपनी ओर आता तीर देखा, तो वह चिल्ला पड़ा। आंखें बंद करते हुए उसने अपना मुख महाराज के सीने में छिपा लिया।
"शांत रहें। कुछ नहीं होगा आपको। विवाह पर ध्यान केंद्रित करें, अमृत।" वैष्णव ने शांत स्वर में कहा। उसकी ओर बढ़ता तीर पुनः तिलक ने अपनी कुशलता से रोक लिया।
उसी समय, कुछ काले वस्त्र पहने हुए सैनिक अलग-अलग दिशाओं से प्रजा के बीच से बाहर आकर तीरों की वर्षा करने लगे।
अब उनका केंद्र सामने खड़े सैनिक भी थे। तिलक लगातार प्रयास कर रहा था अपने महाराज को सुरक्षित रखने का। परंतु तभी एक तीर आकर उसके कंधे पर लग गया।
शशांक की आंखें बड़ी हो गईं। उसने तेज स्वर में कहा, "सेनापति!"
तिलक ने उस तीर को बेदर्दी से निकाल कर पुनः अपने स्थान पर कब्जा कर लिया।
"महाराज, फेरों के लिए खड़े हो जाएं," पंडितजी ने झिझकते हुए कहा। प्राणों के खोने का भय उन्हें भी था। परंतु जब महाराज इन लोगों का निशाना बने हुए थे और फिर भी वैष्णव डरने का नाम नहीं ले रहे थे, तो वे भी अपना स्थान और कार्य कैसे छोड़ सकते थे?
"अमृत, क्या आप चाहते हैं कि हम आपको अपनी बांहों में उठा कर फेरे लें?" वैष्णव की आवाज सुन कर अमृत ने अपना चेहरा उसके सीने से बाहर निकाला।
उसके चेहरे का रंग उड़ चुका था। वैष्णव ने उसका गाल छूकर कहा, "हम पर विश्वास रखिए, अमृत।"
अमृत ने गला तर करते हुए अपनी पलकें झपका दीं। सामने से लगातार तीरों की वर्षा को तिलक, राजगुरु और काल सेना के सैनिक रोकने का प्रयास कर रहे थे। इस बीच उनकी ओर से कोई हमला नहीं हुआ।
उसी समय राजगुरु ने शिवेंद्र को आदेश दिया, "प्रजा को वापस भेज दिया जाए।"
शिवेंद्र ने उनका आदेश सुन कर बाकी सबको संकेत दिए। धर्म, वीरेंद्र और अमरेश ने प्रजा को भेजना आरंभ कर दिया।
वैष्णव और अमृत फेरों के लिए खड़े हो चुके थे। वैष्णव ने अमृत का हाथ थाम कर कदम आगे बढ़ा कर फेरों की शुरुआत की। अमृत का शरीर सूखे पत्ते की तरह कांप रहा था।
एक ओर गर्मी का वातावरण था, तो दूसरी ओर वैष्णव, अमृत के साथ विवाह के बंधन में बंध रहा था। फेरों के पूर्ण होने के पश्चात, किसी ने दो वर मालाएं लाकर दीं, जिन्हें अमृत और वैष्णव ने एक-दूसरे को पहना दिया।
एक सुंदर अंगूठी को अमृत की उंगली में पहनाते हुए वैष्णव ने कहा, "शादी की बहुत-बहुत बधाइयां, अमृत। आज से आप हमारे हुए और हम आपके। हमारा प्रेम पूर्ण हुआ। हम विवाह के बंधन में बंध चुके हैं।"
"विवाह की विधि पूर्ण हुई। आज से आप दोनों एक-दूसरे के जीवन साथी हैं," पंडितजी ने घोषणा की।
"और आज से अमृत को हम इस राज्य की महारानी घोषित करते हैं।" वैष्णव का स्वर ऊंचा और स्पष्ट था।
वैष्णव ने अमृत का हाथ हल्के से चूम लिया। अमृत की सांसें तेज चल रही थीं। तभी एक तीर सीधे आकर महाराज की बांह में लग गया। वैष्णव हल्के से अपने स्थान पर लड़खड़ा गए।
"महाराज!" अमृत ने आंखें बड़ी करते हुए जोर से चीख मारी।
आगे जानने के लिए कहानी के साथ बने रहे ।
जैसे ही विवाह समाप्त हुआ, एक बाण सीधे आकर वैष्णव की भुजा में लग गया। पीड़ा के कारण वैष्णव की आँखें बंद हो गईं, और वह हल्का सा अपने स्थान पर लड़खड़ा गया।
अमृत की आँखें भय से फैल गईं और उसी क्षण वह चीख पड़ा, "महाराज!"
"हम ठीक हैं।" वैष्णव ने कहते हुए अपनी आँखें खोल दीं, जिनमें मानो रक्त भर आया था। उसने बाण को अपनी भुजा से निकालकर फेंक दिया और आदेश दिया, "अमृत को हमारे कक्ष में पहुँचाया जाए।"
अमृत की दृष्टि वैष्णव की भुजा से बहते रक्त पर टिकी रही। तभी किसी ने उसे पकड़कर जबरन ले जाने का प्रयास किया।
"महाराज!" अमृत के मुख से धीमे स्वर में निकला।
"कहा ना, हम ठीक हैं। कक्ष में प्रतीक्षा कीजिए। हम शीघ्र ही आपके समक्ष उपस्थित होंगे। अब जाइए!" वैष्णव ने साधारण स्वर में पलकों को झपकाते हुए कहा।
अमृत के पैर स्थान छोड़ने को तैयार नहीं थे। अंततः उसे खींचकर ले जाना पड़ा। शशांक और उमेश को भी उसके साथ ले जाया गया।
अमृत के जाते ही वैष्णव ने अपनी तलवार निकालकर चारों ओर दृष्टि डाली। प्रजा को बाहर निकालने का कार्य अभी भी चल रहा था। इस दौरान काल सेना के सैनिक घायल हो चुके थे।
वैष्णव ने स्वयं आगे बढ़ने का निश्चय किया, तो तिलक और राजगुरु तुरंत उसकी बगल में चलने लगे।
वैष्णव को अपना स्थान छोड़कर नीचे आते देख सभी आक्रमणकारी बाहर निकलकर आने लगे और उन्होंने उसे घेर लिया।
वैष्णव ने उसी क्षण अपनी तलवार आकाश की ओर उठा दी। न जाने कहाँ से कुछ छिपे हुए राजसी सैनिक प्रकट हुए और उन्होंने आक्रमणकारियों को चारों ओर से घेरकर पकड़ना शुरू कर दिया।
"हमें ये सब जीवित चाहिए। कोई भी स्वयं को समाप्त न कर ले, इसका विशेष ध्यान रखा जाए।" वैष्णव ने तीव्र स्वर में कहा।
"धर्म, वीरेंद्र, इन्हें कारागृह में पहुँचाओ।" तिलक ने आगे आदेश दिया।
अमरेश और शिवेंद्र अभी भी प्रजा को संभालने के कार्य में व्यस्त थे। उसी समय अचानक एक व्यक्ति ने खंजर निकालकर धर्म को धकेलते हुए वैष्णव पर वार करने का प्रयास किया। उसे बीच में ही रोककर वैष्णव ने उसकी कलाई बड़ी सरलता से मोड़ दी और उसकी गर्दन पर तलवार रख दी।
"हम समझ नहीं पा रहे कि इन लोगों में इतना साहस आ कैसे रहा है? हमारे ही महल में, इतने सैनिकों के बीच, हम पर वार करने का साहस? इसके लिए तो हमें इसे सरल मृत्यु कदापि नहीं देनी चाहिए।"
कहते हुए वैष्णव ने हल्की सी गर्दन झुकाकर उस सैनिक की भयभीत आँखों में देखा।
ऐसा प्रतीत होता था मानो इनका जीवन का उद्देश्य केवल मरना या वैष्णव को मारना हो। वैष्णव ने हर बार इन सैनिकों की आँखों में यही भाव देखे थे, परंतु इसका कारण वह आज तक नहीं समझ सका।
अगले ही क्षण वैष्णव ने उस सैनिक को धर्म के ऊपर धकेल दिया। "इन्हें ले जाओ।"
धर्म और वीरेंद्र अन्य सैनिकों के साथ उन आक्रमणकारियों को ले गए। वैष्णव ने चारों ओर देखा। कुछ मृत शरीर दो पक्षों के पड़े हुए थे।
"अधिक क्षति नहीं हुई।" राजगुरु ने कहते हुए वैष्णव की भुजा और तिलक के कंधे की ओर देखा। "आप दोनों सबसे पहले उपचार लें। यहाँ का प्रबंधन हम देख लेंगे।"
वैष्णव की साँसें तेज चल रही थीं। तलवार म्यान में रखते ही वह वहाँ से चला गया।
अमृत को उस भव्य कक्ष में छोड़कर सैनिक चले गए। वैष्णव के विषय में विचार करते हुए अमृत ने कक्ष या उसकी सजावट पर कोई ध्यान नहीं दिया। व्याकुलता में कुछ समय तक कक्ष में इधर-उधर चहल-कदमी करने के पश्चात उसने बाहर जाने का विचार किया। किंतु जैसे ही उसने द्वार खोलने का प्रयास किया, असफल रहा। ऐसा प्रतीत हुआ जैसे सैनिकों ने द्वार को बाहर से बंद कर दिया हो।
"कहीं कोई है? द्वार क्यों बंद कर दिया?" अमृत ने द्वार पर हाथ मारते हुए ऊंचे स्वर में पूछा।
"क्षमा करें, महारानी। जब तक महाराज का आदेश नहीं मिलता, हम यह द्वार नहीं खोल सकते। आपकी सुरक्षा हेतु यह आवश्यक है," पहरे पर खड़े दो सैनिकों में से एक ने ऊंचे स्वर में उत्तर दिया।
अमृत निराश होकर पीछे हट गया और उसने कक्ष का निरीक्षण किया। एक ओर खुली हुई बालकनी थी, जहां बड़े-बड़े काले रंग के पर्दे लगे हुए थे। कक्ष के मध्य में एक विशाल शय्या थी। फर्श पर सुंदर कालीन बिछा हुआ था। अमृत धीरे-धीरे कदम बढ़ाते हुए कक्ष में इधर-उधर देखने लगा। चारों ओर बड़े-बड़े पात्र रखे हुए थे, जिनमें सुगंधित पुष्प जल में तैर रहे थे।
सजावट तो की गई थी, परंतु वैसी नहीं जैसी पहली मिलन-रात्रि के लिए होती है। अमृत को इन सबका कोई अनुभव नहीं था। उसकी धड़कनें तेज हो गईं और माथे पर पसीने की बूंदें झलकने लगीं।
विवाह तो हो चुका था। अब आगे क्या? उसका गला सूखने लगा। वह इस समय किसी भी प्रकार के संबंध के लिए मानसिक रूप से तैयार नहीं था।
"परंतु महाराज को निराश भी नहीं कर सकते," वह बुदबुदाया। एक ओर तो वैष्णव को घायल अवस्था में देखना, और अब यह परिस्थिति।
वह शय्या जो वैष्णव की थी, उस पर बैठने का साहस भी अमृत नहीं जुटा पाया। अंततः वह शय्या से पीठ लगाकर नीचे ही सिमटकर बैठ गया।
भले ही बाह्य रूप से कुछ अधिक परिवर्तन नहीं हुआ था, परंतु विवाह का बंधन उसके जीवन को पूरी तरह बदलने के लिए पर्याप्त था। आज से उसे केवल महाराज ही नहीं, बल्कि इस महल को भी पूर्ण रूप से अपनाना होगा।
इस कक्ष में उसका नया जीवन प्रारंभ होना था। सोचते हुए उसने कहा, "हम इस सबके लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं हैं। हमसे यह नहीं हो पाएगा। हमें अपने घर जाना है। हमें यहां डर लग रहा है। आखिर महाराज ने हमें ही क्यों चुना?"
उसकी आंखों से अश्रु बहने लगे, जिन्हें वह शीघ्रता से अपने वस्त्र से पोंछने लगा। वह सोचने लगा, यदि महाराज शीघ्र लौट आए और उसे इस स्थिति में देख लिया, तो यह अनुचित होगा।
सुबह से लेकर संध्या तक वैष्णव कक्ष में नहीं लौटा। अमृत अपने स्थान से हल्का भी नहीं हिला। जैसे-जैसे सूर्य अस्त हुआ, कक्ष में अंधकार छा गया और दीपकों के प्रकाश की आवश्यकता महसूस होने लगी।
तभी किसी ने कक्ष का द्वार हल्के से खोला। इस आवाज ने अमृत को यथार्थ में लौटा दिया।
"महारानी, क्या हम कक्ष में प्रवेश कर सकते हैं?" एक युवती की आवाज सुनाई दी।
"आइए," अमृत ने अपनी आंखें पोंछकर उत्तर दिया। वह जितना भी स्वयं को संभालने का प्रयास करता, उसकी भावनाएं उसे बार-बार तोड़ने पर विवश कर देतीं।
"आप नीचे क्यों बैठे हैं?" युवती ने समीप आकर सिर झुकाते हुए पूछा।
"क्योंकि यह हमारा कक्ष नहीं है। महाराज की आज्ञा के बिना हमें किसी भी वस्तु का उपयोग करने का अधिकार नहीं है," अमृत ने सहजता से उत्तर दिया।
युवती को उसके भोले पन पर हंसी आई , किंतु उसने स्वयं को रोकते हुए कहा, "यह कक्ष अब आपका भी है। आप किसी भी वस्तु का उपयोग कर सकते हैं।"
"आप किसी विशेष कारण से आई हैं?" अमृत ने उसकी बात को अनदेखा करते हुए प्रश्न किया।
"क्या मैं दीपक जला दूं?" युवती ने विनम्रता से पूछा।
"हां, अवश्य," अमृत ने धीमे स्वर में कहा।
कुछ ही समय में युवती ने पूरे कक्ष को दीपकों के प्रकाश से आलोकित कर दिया। फिर वह पुनः अमृत के समक्ष आई और पूछा, "महारानी, क्या आपको किसी वस्तु की आवश्यकता है?"
"हमारा नाम अमृत है, महारानी नहीं," अमृत ने कहा।
"महाराज ने आपको संपूर्ण राज्य के समक्ष महारानी घोषित किया है। हमें उस आदेश का पालन करना होगा," युवती ने उत्तर दिया।
अमृत ने बड़बड़ाते हुए कहा, "पहले कन्या, अब महारानी! महाराज भी न, अकेले नहीं, पूरे महल से महारानी बुलवाएंगे।"
"क्या आपने कुछ कहा, महारानी?" युवती ने पूछा।
"नहीं, हमें किसी वस्तु की आवश्यकता नहीं है। कृपया हमें अकेला छोड़ दीजिए," अमृत ने अनुरोध किया।
युवती ने सिर झुकाकर कक्ष छोड़ दिया।
उधर वैष्णव और तिलक, अपने घावों का उपचार करवाने के तुरंत बाद कारागृह पहुंचे। युद्ध में पकड़े गए सैनिकों से पूछताछ की गई, किंतु किसी ने भी एक शब्द नहीं कहा।
वैष्णव के हाथ रक्तरंजित हो चुके थे जब वह तिलक के साथ कारागृह से बाहर आया। विवाह के वस्त्र पूरी तरह खराब हो चुके थे, जिसकी चिंता उसने पहले नहीं की, किंतु अब कर रहा था।
"हमें सबसे पहले स्नान की आवश्यकता है। इन वस्त्रों में अमृत के समक्ष नहीं जा सकते। पता नहीं, इस समय वे किस स्थिति में होंगे। यह सब उनकी दृष्टि के समक्ष नहीं होना चाहिए था। अब वे अवश्य ही भयभीत होंगे," वैष्णव ने स्वयं से बड़बड़ाया।
तिलक ने उसकी बात से सहमति व्यक्त की। उसे अगली परीक्षा शशांक के प्रश्न और अपनी ही पीड़ा का सामना करना होगा।
आगे जानने के लिए कहानी के साथ बने रहे ।
एक बार पुनः द्वार खुले, और अमृत ने उस दिशा में गर्दन घुमाई। इस बार वैष्णव आया था। उसे देखते ही अमृत झटके से खड़ा हुआ और उसकी ओर बढ़ा।
"महाराज, आपकी भुजा! रक्त बह रहा है, आपको बाण लगा था," अमृत ने घबराते हुए कहा और उसकी भुजा को छूकर देखा। वैष्णव वस्त्र परिवर्तित कर चुका था। इस समय उसने श्वेत रंग की धोती धारण की हुई थी, और ऊपरी भाग पर भी उसी रंग का वस्त्र ओढ़ रखा था।
अमृत ने धीरे से वस्त्र हटाकर देखा। घाव पर पुनः पट्टी की गई थी।
"यह मात्र एक हल्की खरोंच है, जो शीघ्र ही ठीक हो जाएगी। आप व्यर्थ चिंता कर रहे हैं, अमृत," वैष्णव ने कहा और अमृत का मुख ऊपर उठाया, ताकि उसकी दृष्टि उस घाव से हट जाए।
अमृत की आँखें लाल हो चुकी थीं और उनमें हल्की सूजन भी थी। वैष्णव ने कठोर स्वर में कहा, "आप रोए हैं? कारण बताइए।"
अमृत ने तुरंत दृष्टि नीची कर ली, "नहीं, हम नहीं रोए।" उसने कहने का प्रयास किया। किंतु अब वैष्णव उसे पकड़ चुका था।
"अमृत, हमारी ओर देखिए और स्पष्ट उत्तर दीजिए।" वैष्णव ने थोड़ा तेज स्वर में कहा।
अमृत ने विवश होकर उसकी आँखों में देखते हुए कहा, "हम... हम भयभीत हो गए थे।"
"तो इसमें रोने की क्या बात है? क्या हमने आपको पहले ही नहीं कहा था कि हम पर विश्वास रखें?" वैष्णव ने इस बार बहुत स्नेह से कहा।
अमृत के होंठ आपस में सिमट गए। इससे पूर्व कि वह पुनः रोने लगता, वैष्णव ने उसका हाथ पकड़कर उसे घुमाते हुए कहा, "क्या आपने हमारा कक्ष देखा? हमारा हम दोनो का कक्ष! आज से आप हमारे साथ यहीं रहेंगे।"
अमृत ने धीमे स्वर में कहा, "हाँ, हमने देख लिया।"
वैष्णव ने उसे शैया पर बिठाते हुए कहा, "तो दिनभर आपने केवल कक्ष ही देखा? कैसा लगा?"
"ठीक है," अमृत ने धीरे से उत्तर दिया। उसने अपने वस्त्रों को कसकर पकड़ लिया। उसकी धड़कनें तीव्र हो रही थीं। यह लज्जा थी अथवा भय, समझ पाना कठिन था। उसकी सोच के अनुसार दिन भर जिस विषय में विचार किया था, वो अंततः आ गया था।
"हमारी महारानी को इन सुंदर वस्त्रों में देखने और उनकी प्रशंसा करने का अवसर हमें मिला ही नहीं," वैष्णव ने उसे ध्यानपूर्वक देखते हुए कहा।
"झूठे! आप पूरे समय हमें ही देख रहे थे," अमृत ने दृष्टि नहीं उठाई।
"आपको जितना देखें, उतना कम है, अमृत," वैष्णव ने कहा और अगले ही क्षण उसने अमृत का ललाट चूम लिया। अमृत की धड़कनें और तीव्र हो गईं। उसने आँखें कसकर बंद कर लीं। उसे विश्वास था कि वैष्णव आगे बढ़ेगा, किंतु उसकी सोच के विपरीत, वैष्णव उसके पास बैठ गया।
"आपके आवश्यक सभी वस्तुओं का प्रबंध कर दिया गया है। यदि आपको और कुछ चाहिए हो, तो हमें बता दीजिए। और हाँ, आपकी प्रिय गाएँ भी यहाँ आ चुकी हैं। आप उन्हें देखने नहीं गए?"
"क्या वास्तव में?" अमृत ने चौंकते हुए कहा।
"हाँ, किन्तु उन्हें देखने प्रातःकाल जाइएगा। अभी हमें आपसे वार्तालाप करना है," वैष्णव ने कहा और तकिया हटाकर उसके नीचे रखी पुस्तक उठा ली।
अमृत ने उसकी हर क्रिया को ध्यानपूर्वक देखा। वैष्णव ने उसे अपने समीप खींचकर सीने से लगाते हुए कहा, "यह आपको दिखाना चाहते हैं।"
"एक पुस्तक?" अमृत ने स्वयं को संभालते हुए उसे लेकर खोला। अगले ही क्षण उसने पुस्तक को दूर फेंक दिया। "महाराज!"
वह तीव्र स्वर में लज्जा से बोला।
"क्या महाराज? यह आवश्यक है, अमृत। हमें संग रहना है, है ना?" वैष्णव ने कहा और पुस्तक को पुनः उठा लिया।
"तो आप ही पढ़िए। हमें इससे कुछ लेना-देना नहीं," अमृत ने लज्जा से वैष्णव के सीने में मुख छुपा लिया।
वैष्णव ने अमृत के जूड़े से सिलाई खींच दी, जिससे उसके केश बिखर गए। उसने केशों में हाथ फेरते हुए कहा, "हम पढ़ चुके हैं। आपको भी पढ़ना चाहिए। प्रारंभ में हमें समझ नहीं आ रहा था कि आपको देखकर हमें क्या हो रहा है। हम व्याकुल हो गए थे। तब हमने राजवैद्य से परामर्श लिया। उन्होंने हमें यह पुस्तक सुझाई। तब हमें ज्ञात हुआ कि यह कोई व्याधि नहीं, अपितु प्रेम है। तन और मन, दोनों ही आपसे आकर्षित हो रहे थे। वर्षों की प्रतीक्षा के उपरांत हमें साहस मिला और हमने आपसे अपने हृदय की बात कही। प्रेम किया है, तो पीछे हटने का प्रश्न ही नहीं उठता।"
"और आपने हमें धमकाकर विवाह के लिए सहमत किया," अमृत ने खिन्नता से कहा।
वैष्णव ने हल्के से उसके गाल खींचते हुए कहा, "प्रेम और युद्ध में सब उचित है।"
"हमें अपने घर और ग्राम की अत्यधिक याद आएगी, जहाँ हम किसी भी समय और कहीं भी जाने के लिए स्वतंत्र थे। वहाँ हमें कोई रोकने-टोकने वाला नहीं था और न ही वहाँ कोई हमें हानि पहुँचा सकता था," अमृत ने कहा।
"और यहाँ विवाह के दिन ही आपको अनेक कठिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ा। आपकी स्वतंत्रता हमने अपने प्रेम के कारण छीन ली," वैष्णव ने उसकी बात को पूर्ण किया।
"हमारे कहने का वह आशय नहीं था, महाराज," अमृत ने धीमे स्वर में उत्तर दिया।
"आशय चाहे जो भी हो, किंतु यह सत्य है। आपकी स्वतंत्रता हमारे प्रेम द्वारा समाप्त हो गई है। यह कक्ष, यह महल, और हर समय सुरक्षा में रहना ही अब से आपका जीवन है," वैष्णव ने कहा। इससे पहले कि वह कुछ और कहता, अमृत ने अपनी आँखें बंद कर लीं। उसकी आँखों में आई नमी तुरंत गालों पर बह निकली।
अपनी अधूरी बात को पूर्ण करते हुए वैष्णव ने कहा, "आप इसके लिए आजीवन हमें दोष दे सकते हैं। आपकी नाराजगी और क्रोध सहन करेंगे, किंतु आपसे दूरी अब सहन नहीं होती।"
अमृत ने अपना मुख खोला और जोर-जोर से रोते हुए कहा, "यदि आप महाराज न होते तो हम आपको डंडे से पीट देते! इतना क्रोध हमें आप पर आ रहा है। हमें धमकाने के लिए तो आपका मुख भी न देखते, परंतु आप महाराज हैं, इसलिए हम ऐसा कर भी नहीं सकते।"
अमृत की इस प्यारी-सी शिकायत पर वैष्णव का मुख खुला रह गया। वह आश्चर्य और हँसी दोनों को रोक नहीं पाया। उसने कहा, "यदि हम महाराज हैं तो आप महारानी हैं। आप हम पर सबसे अधिक अधिकार रखते हैं।"
"तो क्या हम आपको दंडित कर सकते हैं?" अमृत ने कुछ क्षण के लिए अपना रोना भूलकर पूछा।
"हाँ... नहीं! हम महाराज हैं। यदि किसी को पता चला तो महल में हमारा क्या मान-सम्मान रहेगा?" वैष्णव ने उत्तर दिया। इससे पहले कि अमृत पुनः रोने लगे, वैष्णव आगे बोला, "परंतु आप एकांत में ऐसा कर सकते हैं, ताकि किसी को ज्ञात न हो।"
यह कहते हुए वैष्णव ने पुस्तक को मोड़कर अमृत की ओर बढ़ा दी और अपना मस्तक उसके समक्ष झुका लिया। अमृत की दृष्टि में वैष्णव का अपराध छोटा नहीं था। दंड देने के पश्चात अवश्य ही उसे मानसिक शांति मिल सकती थी।
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रात्रि का समय था जब वैष्णव ने अमृत के समक्ष अपना शीश झुका लिया ताकि वह उसे दंड दे सके । यह देखकर अमृत की आँखें बड़ी हो गईं । क्रोध में उसने मन ही मन चल रही बातों को कह डाला । इसका यह अर्थ कतई नहीं था कि वह सच में वैष्णव को मार पाता ।
"अमृत, कब तक ऐसे रहेंगे हम?" वैष्णव के कहने पर वह होश में लौटा।
"न-नहीं महाराज । आप सीधे हो जाइए । हम आपको कभी नहीं मार सकते । इतना साहस हमारे भीतर इस जन्म में तो नहीं आ सकता," अमृत ने अत्यंत मासूमियत से कहा ।
वैष्णव ने गर्दन उठाकर उसकी आँखों में देखा "इसी जीवन में हम आपके भीतर बहुत सारा साहस भर देंगे । यह हमारा वचन है । अब महत्वपूर्ण विषय पर आएं?"
उसका संकेत पुस्तक की ओर था, जिस पर अमृत ने बात बदलते हुए कहा, "हमें भूख लग रही है ।"
वैष्णव ने दो-तीन बार पलकें झपका दीं । फिर अचानक ही पुस्तक को उसके स्थान पर रखते हुए उसने कहा, "हम तो भूल ही गए थे । आप रुकिए, हम भोजन यही मँगवा देते हैं ।"
"यहाँ क्यों? आप तो सबके साथ भोजन करते हैं ना? अब हम बीमार भी नहीं हैं कि कक्ष में भोजन करना पड़े । सबके साथ बैठते हैं । हमें नहीं पता कि सुबह की घटना का शशांक और बाबा पर क्या परिणाम हुआ होगा?" अमृत ने चिंता से कहा ।
वैष्णव को किसी की परवाह नहीं थी, परंतु अमृत के चेहरे की परेशानी ने उसे परवाह करने पर मजबूर कर दिया ।
"चलिए, सबके साथ बैठते हैं ।" वैष्णव ने कहा ।
"और ये वस्त्र? हम इनमें अब असहज हैं ।" अमृत ने याद दिलाया तो वैष्णव को हँसी आ गई । उसके गले में पहनाए गए भारी आभूषण उतारने में वैष्णव ने उसकी सहायता की ।
दूसरी ओर
शशांक चिंता से पूरा दिन पागल होने को था, और सारा कार्य पूरा करते हुए अब जाकर तिलक लौटा । शशांक को स्वयं नहीं पता था कि आखिर वह क्यों क्रोधित था ।
"दिखाइए हमें आपका कंधा । क्या वह ठीक है या आपने उपचार लिया ही नहीं?" शशांक ने तेज स्वर में कहते हुए अपनी बात समाप्त की ।
तिलक आश्चर्य से उसे सुनता गया । अब तक उसके मुँह से एक शब्द भी बाहर नहीं निकला था ।
"हम, हमें क्षमा प्रदान करें, शशांक । हमारे कारण.. हमने आपको कष्ट पहुँचाया । हमारा घाव पूर्णतः स्वस्थ है । आप व्यर्थ में..." तिलक कह ही रहा था कि उसे मौन हो जाना पड़ा । शशांक का मुख क्रोध से लाल था और नेत्र मानो अग्नि उगल रहे थे ।
"व्यर्थ में कुछ भी नहीं है । समझ गए हम । अधिक गहरा घाव नहीं है, ऐसा वैद्य ने कहा । हम पर नहीं तो, उनकी बात पर तो विश्वास करेंगे आप? कहें तो आपको उनके पास ले चलें? चलिए, वैसे भी आपको विश्वास नहीं होगा ।" तिलक ने उसका हाथ पकड़कर कहा । किंतु शशांक अपनी स्थान से हटने को तत्पर नहीं था ।
"विश्वास कर रहे हैं आप पर ।" शशांक ने शीतल किन्तु शांत वाणी में कहा ।
"आपको हमारी इतनी चिंता क्यों हो रही है, शशांक?" तिलक अनजाने में ही प्रश्न कर बैठा और शशांक मानो अब जाकर चेतना में लौटा हो । यह प्रश्न उसने स्वयं से भी किया, जिसका उत्तर उसके पास नहीं था ।
सफाई देते हुए उसने कहा, "हम मित्र हैं ना? आह, एक सेनापति और एक सामान्य व्यक्ति मित्र कैसे हो सकते हैं?"
"अचानक ऐसा कहने का क्या अभिप्राय हुआ? जबकि हम आपको मित्र कहते भी हैं और मानते भी हैं ।" तिलक ने कहा ।
"छोड़िए इस विषय को। शेष सब ठीक है ना? भविष्य में अमृत पर ऐसा कोई आक्रमण तो नहीं होगा? यह सोचकर अब हमें भय हो रहा है ।" शशांक ने पलटकर एक पटल पर जा बैठा । वहीं तिलक ने अपना कुर्ता उतारना प्रारंभ किया, जिससे कुछ आरामदायक वस्त्र धारण कर सके ।
"महाराज और हमारे होते हुए आपके अमृत को कोई क्षति नहीं पहुँचा सकता । आह, क्या आप हमारी सहायता करेंगे, शशांक?" तिलक ने वेदना से नेत्र बंद कर लिए ।
"तो कहिए, सेनापति! आपसे नहीं होगा । यह जानते हुए भी प्रयास क्यों किया?" शशांक क्रोधित होकर उठकर उसके समीप आया और उसकी सहायता करने लगा ।
घाव गहरा नही था, यह तिलक ने असत्य कहा था । भले ही शशांक वैद्य न हो, परंतु अमृत और उमेश को उपचार करते हुए उसने अनेकों बार देखा था ।
वह बिना कुछ कहे तिलक को निहारता रहा । इस मध्य उसे यह भी भान नहीं हुआ कि वे कितने समीप आ गए थे ।
तिलक ने अपना कंधा पकड़ कर स्वयं ही दूरी बना ली, इससे पूर्व कि शशांक को भान होता और वह असहज हो जाता ।
"पीड़ा हो रही है ना?" शशांक ने दाँत भींचकर कहा । तिलक असत्य बोले भी तो कैसे?
"हो रही है, किंतु आदत है ।" तिलक ने नेत्र मूँदकर उत्तर दिया ।
"हम काका से कोई औषधि लेकर आते हैं ।" शशांक कहते हुए तत्क्षण बाहर जाने लगा, इससे पूर्व कि तिलक उसे रोक पाता ।
शशांक के बाहर जाने से पहले ही द्वार पर एक सेवक आया और बोला, "महाराज ने सबको भोजनगृह में उपस्थित होने का आदेश दिया है, सेनापति ।"
"हम उपस्थित हो रहे हैं ।" तिलक ने कहा ।
"भोजन के उपरांत हम वैद्य के पास चले जाएँगे ।" तिलक ने फिर शशांक से कहा ।
"क्यों? क्या आपको हमारे काका पर विश्वास नहीं है? आप तो उन्हें राजवैद्य नियुक्त करने वाले थे । क्या वह केवल विवाह तक बोला गया झूठ था?" शशांक माथे पर सिलवटे लिए उसकी ओर देखने लगा ।
"आप बातों को कुछ अधिक खींचते हैं, शशांक ।" तिलक बड़बड़ाया ।
"सुन लिया हमने । बने रहिए वेदना में, हमें क्या?" क्रोधपूर्वक कहते हुए शशांक पैर पटकते हुए बाहर निकल गया ।
वहीं तिलक ने नेत्र बंद कर लिए "सरल कार्य, वस्तुएँ और लोग तुम्हें रुचिकर नहीं लगते, तिलक । भुगतो अब ।"
"शशांक!" अगले ही क्षण पुकारते हुए उसने एक वस्त्र अपने शरीर के ऊपरी भाग पर ओढ़ा और शशांक के पीछे दौड़ा । उसे अधिक समय तक क्रोधित रहने दिया तो घात में बैठे दो बिल्ले उसकी वर्षों की मेहनत छीन ले जाएँगे ।
आगे जानने के लिए कहानी के साथ बने रहे ।
भोजन कक्ष में वैष्णव के आने से पहले ही सभी लोग उपस्थित हो चुके थे। अंततः वैष्णव ने अमृत के साथ प्रवेश किया। वैष्णव जहां अभी भी केवल धोती धारण किए हुए था और शरीर के ऊपरी भाग पर एक कपड़ा ओढ़ रखा था, वहीं अमृत ने वस्त्र बदलकर साधारण कुर्ता और धोती पहन ली थी।
"स्वागत है, महाराज। हमें लगा था कि आप आज भी यहां भोजन करने नहीं आएंगे। परंतु अब प्रतीत होता है कि आज अमृत की पहली रसोई हो सकती है। तो क्या वही भोजन बनाएंगे?" राजगुरु ने विनोदपूर्ण लहजे में प्रश्न किया। इस पर अमृत का चेहरा देखने लायक हो गया।
"हम? हमे तो कुछ भी बनाना नहीं आता।" अमृत ने स्वयं की ओर उंगली दिखाते हुए चिंतित स्वर में अपने पिता की ओर देखा। उसके पिता ने कभी अमृत को ऐसा कार्य करने नहीं दिया था। सिखाने का तो प्रश्न ही नहीं उठता था।
"वे केवल आपको छेड़ रहे हैं। ध्यान मत दीजिए।" वैष्णव ने अमृत का हाथ पकड़कर सांत्वना दी और अपने स्थान पर जाने के बाद उसका हाथ छोड़ दिया। पहले उसे बैठने का संकेत देकर वह स्वयं भी बैठा। इसके बाद शेष सभी ने अपने स्थान ग्रहण किए।
"बाबा, शशांक, आप दोनों ठीक तो हैं?" अमृत ने उनके निर्विकार मुखमंडल को देखकर पूछा।
"हां, विवाह के दिन ऐसा नहीं होना चाहिए था। परंतु आक्रमणकारियों के लिए यह एक विशेष अवसर था।" वैष्णव ने कहा। न तो वह अपनी सफाई दे रहा था, और न ही उसकी वाणी से ऐसा लगा कि वह इसकी जिम्मेदारी अपने ऊपर लेकर क्षमा मांगेगा।
"हमारे पुत्र के साथ कुछ भी अनिष्ट हो सकता था, और इसका कारण आप हैं।" उमेश ने अंततः अपनी मौनता तोड़ी।
"हमारी सेना में कोई कमी नहीं है, उमेश।" राजगुरु ने उन्हें शांत करने का प्रयास किया, इससे पहले कि वैष्णव क्रोधित हो जाए।
"क्या इस आक्रमण को रोका नहीं जा सकता था?" शशांक ने भी अपनी बात रखी।
"प्रजा के सम्मुख विवाह संपन्न होना आवश्यक था, शशांक।" तिलक ने स्थिति स्पष्ट की।
"और आगे से ऐसा कुछ न हो, इसका ध्यान रखा जाएगा। अब हम किसी से कोई विवाद नहीं करेंगे। हमने आप सभी को भोजन के लिए आमंत्रित किया है। कृपया भोजन का आनंद लीजिए।" वैष्णव ने ठंडे किंतु दृढ़ स्वर में कहते हुए सबको शांत किया।
वैष्णव ने ध्यान दिया कि धर्म, वीरेंद्र और उनके पिता वहाँ उपस्थित नहीं थे। तिलक ने संकेत दिया कि वे संभवतः अभी भी कारागृह में ही हैं।
वैष्णव ने आंखें झपका कर सबको भोजन प्रारंभ करने का संकेत दिया।
"महाराज ने महल में मांसाहारी भोजन को प्रतिबंधित कर दिया है। अमृत, क्या आप शाकाहारी हैं? आपके लिए तो कई परिवर्तन हो रहे हैं। हमें आपसे ईर्ष्या हो रही है।" राजगुरु ने अचानक कहा।
अमृत चकित होकर उनकी ओर देखने लगा। फिर उसने वैष्णव की ओर देखा। ऐसा कुछ प्रतिबंध लगाने की आवश्यकता नहीं थी। बस उनके और उनके पिता के लिए अलग से भोजन बन जाना ही पर्याप्त था।
"ईर्ष्या करने का कारण क्या है, राजगुरु? क्या आपको भी महाराज से एकतरफा प्रेम है? अफसोस, आपका प्रेम अधूरा रह गया। कहीं इसी कारण तो आप अविवाहित नहीं रह गए? आह, अब तो आपको कोई कन्या तो क्या, पुरुष भी न मिले।" तिलक ने गंभीरता से अफसोस जताते हुए कहा। यह सुनकर वहां उपस्थित नए लोगों—उमेश, अमृत और शशांक को वातावरण में असहजता महसूस होने लगी।
"हम पर कटाक्ष करने से बेहतर होगा कि आप स्वयं पर ध्यान दें, सेनापति। हमारे पश्चात आपका ही नाम अविवाहित लोगों की सूची में आने वाला है।" , राजगुरु ने उसी लहजे में उत्तर दिया "हमें केवल इस बात का दुख है कि अब से हमें शाकाहारी भोजन करना होगा। और आप हमारे विवाह पर आए बिना न रुकें।"
"तो अपने लिए अलग से भोजन बनवा लीजिए।" तिलक ने उनकी समस्या का समाधान सुझाया।
राजगुरु ने सिर हिलाते हुए कहा, "इसकी कोई आवश्यकता नहीं है। भोजन तो भोजन होता है, जिसका उद्देश्य केवल पेट भरना है।"
इस बीच वैष्णव और अमृत को इन बातों की परवाह नहीं थी। वैष्णव ने अमृत का एक हाथ पकड़ लिया और उसकी उंगलियों में अपनी उंगलियों को उलझा लिया। फिर दूसरे हाथ से उसने अमृत की ओर एक निवाला बढ़ाया।
"महाराज, हमारे पिता यहाँ बैठे हैं," अमृत ने धीमे स्वर में उसे चेताया।
"उनके अलावा भी कई लोग हैं। परंतु हम तो संकोच नहीं कर रहे। इसे रस्म समझकर खा लीजिए," वैष्णव ने दृढ़ता से कहा।
अमृत के पास कोई और विकल्प नहीं था। उसने जल्दी से निवाला खा लिया, इससे पहले कि कोई उनकी ओर ध्यान देता। परंतु शशांक चुपके से उन्हें देख रहा था।
शशांक को समझ नहीं आया कि उसे प्रसन्न होना चाहिए या अपनी नाराजगी महाराज के प्रति बनाए रखनी चाहिए।
"यदि अमृत और काका यहाँ अच्छे से रहें, तो हमें चिंता करने की आवश्यकता नहीं है। जैसे महाराज सबके सामने व्यवहार कर रहे हैं, बस बंद कमरे में भी अमृत के साथ वैसा ही व्यवहार करें। हम इस हंसते-खेलते बच्चे की मुस्कान खोते हुए नहीं देख सकते।" अपने आप से यह कहते हुए शशांक ने लगातार अपनी थाली की ओर देखना शुरू कर दिया।
"क्या हुआ? भोजन आरंभ कीजिए," तिलक ने उसे हल्का सा हिलाकर कहा।
शशांक ने कोई उत्तर नहीं दिया। उसने नजरें उठाईं और बोला, "काका, अमृत, हमें लगता है कि विवाह के पश्चात हमारा कार्य यहाँ पूर्ण हो गया। क्या हम कल गांव लौट सकते हैं?"
उमेश और अमृत के अलावा तिलक की आँखें भी आश्चर्य से बड़ी हो गईं। उमेश और अमृत तो इस सत्य से परिचित थे कि शशांक को कभी न कभी जाना ही पड़ेगा। लेकिन तिलक के लिए इस सत्य को स्वीकार कर पाना कठिन था।
"नहीं, इतनी शीघ्रता क्यों? आप यहाँ रुक रहे हैं। इस विषय में और कुछ नहीं सुनना है," अमृत ने मानो तिलक के मुंह की बात छीन ली।
"हमने आपका विवाह देख लिया और इस बार राजधानी भी घूम ली। अब कृपया हमें न रोकें," शशांक ने स्पष्ट किया। उमेश भी उसे रोकना चाहते थे, परंतु किस अधिकार से? यहाँ वे स्वयं को किसी दया पर आश्रित महसूस कर रहे थे।
"जब अमृत कह रहे हैं, तो उनकी बात कैसे टाली जा सकती है? यह न भूलें कि वे हमारी महारानी हैं। उनके मुख से निकली हर बात का मान रखना ही पड़ेगा, चाहे वह कोई भी हो," वैष्णव ने अमृत के इशारे पर कहा।
तिलक के निराश चेहरे पर आशा की किरण झलकने लगी।
"बस कुछ दिन और रुक जाइए। फिर हम आपको नहीं रोकेंगे," अमृत ने आग्रह किया। शशांक को अंततः सहमति देनी पड़ी।
अब तिलक के पास यही थोड़े दिन शेष थे। यदि इस दौरान बात बन गई तो अच्छा, अन्यथा राजगुरु के कथन के अनुसार अविवाहितों की सूची में उसका नाम जुड़ने वाला था।
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