प्रोमों... "ताकती निगाहें - इंतजार" राजकुमारी प्रियदर्शिनी राठौड़, जोधपुर की शान और गौरव, एक ऐसा नाम है जिसे हर कोई जानता है। लेकिन उसके भीतर का सन्नाटा और आंसू उस भव्यता के पीछे छिपे हैं। आज, दस साल बाद भी, उसकी आंखों में छिपे दर्द की गहराई ने उसे ए... प्रोमों... "ताकती निगाहें - इंतजार" राजकुमारी प्रियदर्शिनी राठौड़, जोधपुर की शान और गौरव, एक ऐसा नाम है जिसे हर कोई जानता है। लेकिन उसके भीतर का सन्नाटा और आंसू उस भव्यता के पीछे छिपे हैं। आज, दस साल बाद भी, उसकी आंखों में छिपे दर्द की गहराई ने उसे एक अनदेखे अंधेरे में कैद कर रखा है। एक ऐसी लड़की, जिसने कभी खुलकर हंसने-बोलने का मजा लिया था, आज खुद को उन बेड़ियों में जकड़ लिया है जो उसके ही परिवार ने उसके सपनों को तोड़ने के लिए बनाई हैं। उसकी चंचलता और मासूमियत अब एक खामोशी की चादर में ढक गई है। प्रियदर्शिनी को परिवार के प्यार और समर्थन की ख्वाहिश में इतना बिखेरा गया कि उसने अपनी भावनाओं को छुपाने का निर्णय लिया। खामोश और कठोर बन चुकी प्रियदर्शिनी, मुस्कराने की कोशिश में लगी रही, लेकिन वह जानती थी कि 10 साल पहले का तूफान उसे पूरी तरह बिखेर चुका है। उसके भीतर का खालीपन, जैसे एक खोखला महल हो, हर पल उसकी आत्मा को चीरता रहता है। परिवार की कड़वी बातें, निराशाजनक ताने और अनदेखी निगाहें, प्रियदर्शिनी को हर रोज एक नए संघर्ष का सामना करने पर मजबूर करती हैं। वह अकेलेपन में झरोखें पर बैठकर आंसू बहाने में गुजरे समय को याद करती है, जैसे उस समय के साथ ही उसका भी अस्तित्व मिट गया हो। लेकिन, इस गहरे सन्नाटे के बीच, दो युवा आत्माओं की कहानी उभरती है। अयंक जिंदल, एक महत्वाकांक्षी लेखक, अपने सपनों की तलाश में अपने परिवार के खिलाफ जा रहा है। वह प्रियदर्शिनी के अतीत को उजागर करने की जिद में है, ताकि वह अपनी कहानी को जीवंत बना सके। लेकिन प्रियदर्शिनी के बारे में जानकारी जुटाना उसके लिए आसान नहीं है। हर कोशिश उसके हाथ से निकल जाती है, और उसके हर प्रयास में उसे निराशा का सामना करना पड़ता है। फिर, शंशिता, एक उत्साही रिपोर्टर, अयंक की राहों में जुड़ती है। प्रियदर्शिनी के बारे में जानने की उसकी जिज्ञासा और अयंक की मेहनत उन्हें एक नई दिशा में ले जाती है। दोनों मिलकर प्रियदर्शिनी के रहस्यों को जानने और समझने की ठान लेते हैं। क्या अयंक और शंशिता प्रियदर्शिनी के दिल की गहराइयों को छू पाएंगे? क्या वे उसे अपने सपनों के पंख लगाने में मदद कर सकेंगे, या राठौड़ परिवार की जटिलताएं और परिवार के दबाव उनके प्रयासों को विफल कर देंगे? “ताकती निगाहें - इंतजार” एक ऐसी कहानी है, जो प्यार, संघर्ष, दोस्ती और उम्मीद की एक गहरी यात्रा को बयां करती है। यह कहानी न केवल प्रियदर्शिनी के दर्द और खामोशी को उजागर करती है, बल्कि यह भी दर्शाती है कि सच्ची दोस्ती और सहयोग की शक्ति हर अंधेरे को मिटा सकती है। महल की दीवारों में छिपे राज़ और उन राज़ों को जानने की चाह में, क्या अयंक और शंशिता प्रियदर्शिनी के अंदर की रानी को फिर से जिंदा कर पाएंगे? क्या हुआ था दस साल पहले ..... जो इतनी खामोश रहने लगी हैं प्रियदर्शिनी जारी हैं ....... प्यारे रिडर्स , इस कहानी के 10 पार्ट्स आॅलरेडी आ चुके हैं जिन्हें आप मेरी प्रोफाइल पर
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प्रोमों...
"ताकती निगाहें - इंतजार"
राजकुमारी प्रियदर्शिनी राठौड़, जोधपुर की शान और गौरव, एक ऐसा नाम है जिसे हर कोई जानता है। लेकिन उसके भीतर का सन्नाटा और आंसू उस भव्यता के पीछे छिपे हैं। आज, दस साल बाद भी, उसकी आंखों में छिपे दर्द की गहराई ने उसे एक अनदेखे अंधेरे में कैद कर रखा है। एक ऐसी लड़की, जिसने कभी खुलकर हंसने-बोलने का मजा लिया था, आज खुद को उन बेड़ियों में जकड़ लिया है जो उसके ही परिवार ने उसके सपनों को तोड़ने के लिए बनाई हैं। उसकी चंचलता और मासूमियत अब एक खामोशी की चादर में ढक गई है।
प्रियदर्शिनी को परिवार के प्यार और समर्थन की ख्वाहिश में इतना बिखेरा गया कि उसने अपनी भावनाओं को छुपाने का निर्णय लिया। खामोश और कठोर बन चुकी प्रियदर्शिनी, मुस्कराने की कोशिश में लगी रही, लेकिन वह जानती थी कि 10 साल पहले का तूफान उसे पूरी तरह बिखेर चुका है। उसके भीतर का खालीपन, जैसे एक खोखला महल हो, हर पल उसकी आत्मा को चीरता रहता है।
परिवार की कड़वी बातें, निराशाजनक ताने और अनदेखी निगाहें, प्रियदर्शिनी को हर रोज एक नए संघर्ष का सामना करने पर मजबूर करती हैं। वह अकेलेपन में झरोखें पर बैठकर आंसू बहाने में गुजरे समय को याद करती है, जैसे उस समय के साथ ही उसका भी अस्तित्व मिट गया हो।
लेकिन, इस गहरे सन्नाटे के बीच, दो युवा आत्माओं की कहानी उभरती है। अयंक जिंदल, एक महत्वाकांक्षी लेखक, अपने सपनों की तलाश में अपने परिवार के खिलाफ जा रहा है। वह प्रियदर्शिनी के अतीत को उजागर करने की जिद में है, ताकि वह अपनी कहानी को जीवंत बना सके। लेकिन प्रियदर्शिनी के बारे में जानकारी जुटाना उसके लिए आसान नहीं है। हर कोशिश उसके हाथ से निकल जाती है, और उसके हर प्रयास में उसे निराशा का सामना करना पड़ता है।
फिर, शंशिता, एक उत्साही रिपोर्टर, अयंक की राहों में जुड़ती है। प्रियदर्शिनी के बारे में जानने की उसकी जिज्ञासा और अयंक की मेहनत उन्हें एक नई दिशा में ले जाती है। दोनों मिलकर प्रियदर्शिनी के रहस्यों को जानने और समझने की ठान लेते हैं।
क्या अयंक और शंशिता प्रियदर्शिनी के दिल की गहराइयों को छू पाएंगे? क्या वे उसे अपने सपनों के पंख लगाने में मदद कर सकेंगे, या राठौड़ परिवार की जटिलताएं और परिवार के दबाव उनके प्रयासों को विफल कर देंगे?
“ताकती निगाहें - इंतजार” एक ऐसी कहानी है, जो प्यार, संघर्ष, दोस्ती और उम्मीद की एक गहरी यात्रा को बयां करती है। यह कहानी न केवल प्रियदर्शिनी के दर्द और खामोशी को उजागर करती है, बल्कि यह भी दर्शाती है कि सच्ची दोस्ती और सहयोग की शक्ति हर अंधेरे को मिटा सकती है। महल की दीवारों में छिपे राज़ और उन राज़ों को जानने की चाह में, क्या अयंक और शंशिता प्रियदर्शिनी के अंदर की रानी को फिर से जिंदा कर पाएंगे?
क्या हुआ था दस साल पहले ..... जो इतनी खामोश रहने लगी हैं प्रियदर्शिनी
जारी हैं .......
प्यारे रिडर्स , इस कहानी के 10 पार्ट्स आॅलरेडी आ चुके हैं जिन्हें आप मेरी प्रोफाइल पर जाकर पढ़ सकते हैं ।
यह कहानी प्रियदर्शिनी के जज्बातों का सहारा लेकर , उन सभी की भावनाओं को व्यक्त करती हैं । जहां पैसों और ख्याति के लिए लोग अपने ही अपनों को मोहरा बनाने से नहीं चुकते हैं । सियासत की और लालच की जंग में इतने आगे चले जाते हैं कि किसी को दर्द भरी जिंदगी दे देते हैं तो ....
ऐसा क्या तुफान आया , प्रियदर्शनी की जिंदगी में जो वह आज दर्द को आंखों से पीते हुए खामोशी से अपनी जिंदगी गुजार रही हैं ?
क्या होगा जब प्रियदर्शिनी , शेरनी की तरह दहाड़ेगी और उसके शब्दों में दर्द से भरा सैलाब सब कुछ बहा ले जायेगा ?
अयंक और शंशिता कभी अपने मकसद में कामयाब होंगे ।
जानने के लिए पढ़िये - मेरी प्रोफाइल पर जाकर -----
ताकती निगाहें - इंतजार
प्रियदर्शिनी राठौड़ , आज दस साल गुजर गये लेकिन आंखों के आंसुओं को पिया नहीं जाता हैं । सब कुछ तो हैं उसके पास , सब कुछ , आखिर जोधपुर की राजकुमारी जो थी । ऐसी रियासत की एकलौती मालकिन , जिसकी शान-शौकत के कसीदे पूरा राजस्थान पढ़ता था लेकिन सब कुछ होकर भी कुछ नहीं था उसके पास ..
समाज की बेड़ियों में ऐसे जकड़ी की आज उसकी हालत का जिम्मेदार उसका ही परिवार हैं और कभी खुलकर अपनी जिंदगी जीने वाली एक चंचल , शैतान और बातूनी लड़की बिल्कुल बदल गयी और आज यह बेबाक किरदार बिल्कुल खामोशी की भेंट चढ़ चुका हैं । जिन आंखों में कभी आंसुओं की कोई जगह ही नहीं थी वो आंखें बस नम रहती हैं । दर्द को दिल में इस तरह कैद कर रखा हैं उसने की अब घूटन के अलावा उसकी जिंदगी में कुछ भी ना बचा हैं । बस इंतजार के सिवा ....
उसके दिन का अधिकतर समय ... उस झरोखें पर बैठकर आंसु बहाने में ही गुजरता हैं उसके दिल का हाल कोई नहीं जान सकता हैं । उसने खुद को दुनिया से दूर बस उस एक कमरे में कैद रखा हैं। मोहब्बत की ऐसी मिसाल आज तक किसी ने नहीं देखी होगी । कभी किसी की नजर उस पर चली भी जाती हैं तो ऐसी हालत आंखें नम करने पर मजबूर कर देती हैं लेकिन सोचने की बात हैं ना हम सब तो पराये हैं लेकिन वो सब तो उसके अपने थे ना उन लोगों ने उस कदर दर्द कैसे पहुंचा दिया । क्या एक बार को भी उनका दिल नहीं कांपा होगा ऐसा करते वक्त - वो एक बाइस साल की लड़की थी जो अभी अपने घर में बैठी किसी इक्कीस साल के लड़के को यह सब बता रही थी ।
यह सब बताते बताते उसकी आंखें भी नम हो चुकी थी ।
यह लड़का उसे बजार में ही तो मिला था । ब्लैक शर्ट के नीचे वाइट जींस पहले वह हर किसी से प्रियदर्शिनी राठौड़ के बारे में जानकारी लेने की कोशिश कर रहा था और वह उसे अपने घर ले आयी जहां वह अपनी मां साथ रहती थी ।
वो लड़का जिसका नाम अयंक जिंदल था वो खामोशी से उसकी सारी बातें सुन रहा था ।
अयंक को लगातार दो महिने हो गये थे लेकिन उसे प्रियदर्शिनी राठौड़ के बारे में कुछ पता नहीं चल सका और जब उसे मौका मिला है तो वह उसे गंवा नहीं सकता था - क्या आप मुझे उनके बारे में सब कुछ बता सकती हो ।
वो लड़की निराशा से - मैं तुम्हें सब कुछ जरूर बताती लेकिन .... मैं खुद कुछ नहीं जानती हूं । मैं तो खुद यहां दो साल पहले रहने आयी थी और यह सब कुछ भी मैंने लोगों से ही सुना हैं । वैसे भी उनके परिवार का बहुत दबदबा हैं यहां उनके डर से अगर किसी को कुछ पता भी होगा तो भी वह अपना मुंह नहीं खोलेंगे ।
अयंक - जिसका चेहरा अब तक उम्मीद से चमक चुका था वह अब निराशा में डूब गया । वो पिछले दो महिने से भुखे प्यासे बस उसके बारे में जानने की कोशिश कर रहा था लेकिन उसके हाथ अब भी कुछ नहीं लगा ।
अयंक को निराश देखकर वह लड़की उसका कंधा थपथपाते हुए - क्या हुआ ? इतने परेशान क्यों हो रहे हो ? वैसे तुम्हें उनमें इतनी दिलचस्पी क्यों हैं।
अयंक उदासी से - आई वांट टू मेड ए राइटर बट माई फादर डोंट वांट । उनका मानना हैं कि मुझे उनका बिजनेस संभालना चाहिए । बहुत कोशिश की उन्हें मनाने की लेकिन वो नहीं माने । मैं उनसे बहुत प्यार करता हूं इसलिए उनकी बात टाल नहीं सकता लेकिन अपने सपने को भी नहीं टूटने दे सकता हूं । बहुत मुश्किलों के बाद मैंने उन्हें मना ही लिया लेकिन उन्होंने एक शर्त रख दी कि मुझे एक रियल एंड ट्रू स्टोरी लिखनी होगी जो हर किसी की आंखों में आंसु लाने पर मजबूर कर दे । बहुत कोशिश की बट मैं नहीं लिख पाया । तब मम्मा ने बताया कि मुझे जोधपुर की प्रिंसेस प्रियदर्शनी राठौड़ के जीवन पर लिखना चाहिए । यह मेरे पास लास्ट आॅप्शन था और इसलिए मैं मुम्बई से यहां आ गया और देखो पिछले दो महिने से मैं उनके बारे में कुछ नहीं जान पाया । उनके उस महल में भी गया था लेकिन वहां उनके गार्ड्स ने मुझे अंदर ही नहीं जाने दिया । प्रियदर्शिनी जी से बात करने के लिए कहां लेकिन उनके एक मुनीम जी ने यह कहकर मुझे भेज दिया कि वो अजनबी लोगो से बात नहीं करती हैं। उन्हें किसी से मिलना पसंद नहीं हैं।
वो लड़की जिसका नाम शंशिता था वो उदासी से - मैं अपनी मां के साथ , अलवर में रहती थी वो वहां एक सरकारी हाॅस्पीटल में साइकेट्रिस्ट थी और दो साल पहले उनका तबादला यहां जोधपुर में हो गया और तभी से मैं यहां उनके साथ हूं । मुझे शुरू से ही रहस्य से भरपुर चीजों के बारे में जानने में उत्सुकता थी और इसलिए मैंने एक रिपोर्टर बनना चूज किया । अभी मैं यही कि एक न्यूज कम्पनी में काम करती हूं । मैं बस प्रियदर्शिनी मैम के बारे में जानना चाहती थी। लेकिन मुझे कहीं से भी कोई जानकारी हासिल नहीं हुयी । बहुत मुश्किलों के बाद भी बस थोड़ी थोड़ी बातें पता चली । मैं पिछले चालीस दिनों से तुम्हें हर जगह उनके बारे में जानकारी हासिल करने की कोशिश करते देख रही हूं तो मुझे लगा कि हम दोनों को इस पर काम करना चाहिए । तुम्हें एक ट्रू स्टोरी मिल जायेगी और मुझे एक इतने अच्छे किरदार के बारे में जानकारी हासिल करने का मौका ।
अयंक को यह डूबते को तिनके के सहारे की तरह था तो उसके खुशी से हामी में सिर हिला दिया ।
शंशिता मुस्कराते हुए। - तो फ्रेंड्स ।
अयंक मुस्कराते हुए - फ्रेंड्स ।
शंशिता - शाम होने वाली हैं तो कल आना तब तक मैं , मम्मी से इस बारे में बात करुंगी तो हम दोनों कल से अपना यह मिशन स्टार्ट कर देंगे।
अयंक खड़े होते हुए - या स्योर
....
...
सुबह सुबह 6 बजे
अयंक जल्दी ही , शंशिता के घर के बाहर बेल बजाने लगता हैं ।
शंशिता अपने नाइटशूट में लिविंग रूम में बैठी उबासियां ले रही थी - मम्मा , मेरा आॅफिस नौ बजे होता हैं और आप मुझे 6 बजे उठा देती हैं।
उसकी मां जो की एक साइकेट्रिस्ट हैं वो गुस्से से - शायद तुमने ही कल रात में मुझे कहां था कि सुबह तुम्हें जल्दी उठाना हैं कोई अयंक आने वाला हैं।
शंशिता कुछ याद करते हुए जबरदस्ती मुस्कराकर - यस मम्मा , मैं भी ना आजकल ज्यादा भूलने लगी हूं ।
तभी डोरबेल की आवाज सुनकर - लगता हैं वह आ गया । मैं दरवाजा खोलती हूं । तुम तब तक तैयार हो कर आ जाओ ।
शंशिता - ठीक हैं माॅम इतना कहकर वह तैयार होने अपने रूम में चली जाती हैं।
और उसकी मां संजना जी दरवाजा खोलने चली जाती हैं।
जैसे ही वह दरवाजा खोलती हैं । वह उसके सामने बस दरवाजा खुलने के इंतजार में खड़ा था । संजना जी उसे ऊपर से नीचे घूरने लगती हैं जिससे अयंक सकपकाते हुए - जी आंटी , वो मुझे शंशिता से मिलना था । आप प्लीज उसे बुला देगी ।
संजना जी - तुम कौन ...
वो मैंने आपको अपना नाम तों बताया ही नही। फिर दोनों हाथों को जोड़कर - नमस्ते आंटी , मैं शंशिता का दोस्त अयंक जिंदल , उसने बताया होगा ।
संजना जी - हां , उसने कल बताया था । तुम अन्दर आओ ना
अयंक -जी
वह अन्दर आके सोफे पर बैठ जाता हैं संजना जी किचन की तरफ जाते हुए - मैं , तुम्हारे लिए काॅफी लाती हूं।
कुछ देर बाद वह दो काॅफी लेकर आती हैं।
वह सोफे पर बैठते हुए - शंशि ने मुझे बताया कि तुम यहां के नहीं हो । वैसे अभी कहां रह रहे हो ।
अयंक - जी आंटी , वो मैं अभी पीछले दो महिने से एक होटेल में रूका हूं ।
संजना जी - तुम यहां क्यों नहीं रहते । वैसे भी हमारा ऊपर वाला फ्लोर खाली ही हैं।
अयंक जो काॅफी पी रहा था । उसे ठसका लग जाता हैं।
संजना - अरे शांति से पियो , मैंने ऐसी कोई बात तो नहीं कही जो तुम्हें ठसका लग जाये ।
अयंक उनके बेबाक अंदाज से हैरान - जी
संजना जी - तो कब ला रहे हो ।
अयंक - क्या
संजना जी - अरे अपना लगेज । अब बीना सामान के तो नहीं रह सकते हो ना ।
अयंक - पर
संजना जी - पर वर कुछ नहीं । वैसे भी मुझे एक किरायेदार चाहिए था पर जवान बेटी । तुम मुझे सही लड़के लग रहे हो तो ... मुझे अपनी इज्जत की चिंता नहीं होगी । वैसे भी फ़्री में नहीं रहने दूंगी । किराया देना पड़ेगा ।
अयंक - आप तो ...
संजना जी - हां हां ...जानती हूं क्या कहोगे । आन्टी आप बहुत अच्छी हो पर मुझे तारीफ पसंद नहीं हैं। इसलिए शाम तक अपना सामान यहां सेट कर लो । मैं शंशि को बोल दूंगी वह मदद कर देगी । तभी अचानक उनकी नजर घड़ी पर जाती हैं... ओह नो सात बज गये । मुझे हास्पीटल जाना पड़ेगा । तुम शंशि को बता देना ...नाश्ता मैंने तैयार कर दिया हैं। इतना कहकर वह अपना बैग उठाये बाहर निकल जाती हैं।
और अयंक उनको आंखें फाड़े हैरानी से जाते हुए देख रहा था ।
कुछ देर बाद शंशिता तैयार होकर बाहर आ जाती हैं। वह सोफे पर बैठते हुए - साॅरी , मुझे तैयार होने में लेट हो गया ।
अयंक अभी भी सदमे में था । वह - कोई बात नहीं ....
शंशिता चारों तरफ देखते हुए - मम्मा नहीं दिख रही हैं ।
अयंक - वो हास्पीटल चली गयी और उन्होंने कहा कि तुम्हें बता दूं कि नाश्ता तैयार हैं।
शंशिता उठते हुए - मैं पहले नाश्ता लगाती हूं । फिर बात करते हैं ठीक हैं।
कुछ देर बाद वो दोनों नाश्ता कर सोफे पर बैठे थे ।
अयंक बैचेनी से - तो तुम्हारे पास कोई भी इन्फोर्मेशन हैं । उनके बारे में या उनसे जुड़े लोगों के बारे में.....
शंशिता - हम्म , प्रियदर्शिनी जी , जोधपुर की राजकुमारी हैं उनकी उम्र इस वक्त तीस साल के लगभग होगी और राठौड़ एम्पायर पहले वो ही चलाती थी । आज राठौड़ एम्पायर आज इतने बड़े मुकाम पर था वो उनकी वजह से ही था । उनका गुस्सा बहुत ख़तरनाक हैं और वह बहुत कम बोलती हैं । पांच साल पहले उन्होंने कम्पनी से इस्तीफा ले लिया और वह अब अपनी रियासत चलाती हैं। इसके साथ उन्होंने अपना खुदका बिज़नस भी चलाती हैं लेकिन वह अपना सारा काम महल के अन्दर से देखती हैं। उनकी सिक्योरिटी इतनी टाइट हैं कि कोई अंदर उनके पास भी नहीं जा सकता हैं और पिछले पांच साल से वो कभी महल से बाहर भी निकली लेकिन वजह राजमहल के लोगों के अलावा कोई नहीं जानता ....
अयंक - पर तुम्हें इतना कुछ कैसे पता .....
शंशिता - राठौड़ एम्पायर में दो तीन चपरासीयो को पैसे खिलाकर यह इन्फोर्मेशन निकलवायी हैं।
अयंक - पर इससे तो हमें कुछ पता नहीं चलेगा ।
शंशिता - अगर उनसे जुड़ा एक व्यक्ति भी हमें मिल जाये तो हम धीरे-धीरे आगे बढ़ सकते हैं ।
अयंक - पर हम उस व्यक्ति से कैसे मिले .....
शंशिता - कुछ सोचते हुए .... अब क्या करें ।
अयंक - क्या तुम जानती हो कि उनका स्कूल और काॅलेज कहां से पूरा किया होगा ।
शंशिता - उनका स्कूल तो यहां से हीं हुआ हैं लेकिन काॅलेज के बारे में जानकारी नहीं हैं।
अयंक - स्कूल के बारे में जानती हो ....
शंशिता - हां , मेरे पास फाइल में हैं ।
अयंक - फिर ठीक हैं क्यों ना अब वहां चले । अब वही से कुछ पता चल सकता हैं ।
शंशिता - मैं फाइल लाती हूं .....
अयंक - मैं बाहर इंतजार कर रहा हूं ....
कुछ देर बाद शंशिता फाइल लेकर बाहर आ कर में गेट लाॅक कर लेती हैं।
अयंक - वैसे यहां टैक्सी कहां से मिलेगी ...
शंशिता - इससे अच्छा तो हम मेरी स्कूटी से चलते हैं ।
अयंक - यह भी अच्छा हैं।
..........
दोपहर के ग्यारह बजे
वह दोनों एक बड़े से स्कूल के बाहर खड़े थे । शंशिता बाहर खड़े गार्ड से - हमें प्रिंसिपल सर से मिलना हैं ।
जारी हैं .........
अब से मैं रेगुलर लिखने वाली थी तो कहानी को पढ़ते रहिए और समीक्षाएं देते रहिये ......
आगे ......
इस वक्त अयंक और शंशिता , दोनों प्रिंसिपल आॅफिस में बैठे थे ।
शंशिता एक अच्छी न्यूज कम्पनी में काम करती थी और अपने बाॅस की हेल्प से उसने प्रिंसिपल से मिलने की परमिशन भी ले ली थी और वह एक रिपोर्टर थी तो प्रिंसिपल अपने स्कूल की इमेज के साथ कोई समझौता नहीं कर सकता था तो उसने मिलने के लिए हांमी भर दी ..
प्रिंसिपल मुस्कराते हुए - तो बताइए आपको मेरी क्या मदद चाहिए ....
अयंक बात सम्हालते हुए - क्या आप हमें प्रियदर्शिनी राठौड़ जी के स्कूलिंग के बारे में बता सकते हैं।
प्रिसिपल - हम नहीं बता सकते हैं । किसी की पर्सनल जानकारी शेयर करना हमारे रुल्स के खिलाफ हैं।
अयंक - लेकिन ....
शंशिता को पता था कि प्रिंसिपल से जानकारी निकलवाना इतना भी आसान नहीं होगा इसलिए उसने अयंक के हाथ को पकड़ कर उसे रोक दिया ।
शंशिता मुस्कराते हुए - आप अपने बारे में एक बात नहीं जानते होंगे । वैसे मेरे पास सबूत भी हैं । आजकल आपके स्कूल में स्काॅलरशिप वाले स्टूडेंट्स से एडमिशन के नाम पर रिश्वत ली जा रहीं हैं । सोचिए कल यह न्यूज हर न्यूजपेपर की हैडलाइन होगी । फिर आपकी कुर्सी तो गयी ...बिचारे प्रिंसिपल साहब ..... बीना बात के ही .... अब आप सोचिए ... वैसे हमारे सौदे में फायदा आपका भी हैं।
प्रिंसिपल की तो बत्ती ही गुल हो गयी थी । वो घबराते हुए - तुमको कैसे पता ?
शंशिता - इतना मुश्किल भी नहीं है आखिर रिपोर्टर हूं ।
प्रिंसिपल - मैं आपको सब कुछ बता दुंगा । यह सुनते ही शंशिता और अयंक के चेहरे पर खुशी आ जाती हैं ।
प्रिंसिपल - लेकिन ... मेरा नाम किसी बात में नहीं आना चाहिए । किसी को भी पता नहीं चलना चाहिए कि मैंने तुम्हें कुछ बताया हैं।
अयंक -- ठीक हैं ।
प्रिंसिपल घबराते हुए - मेरा ट्रांसफर पीछले साल ही हुआ हैं । इसलिए पहले मिसेज मूर्ती यहां की प्रिंसिपल थी और उनके टाइम ही प्रियदर्शनी मैम ने पूरे स्कूल में टाॅप किया था । वह उनके बैच की स्टूडेंट थी । इसके अलावा मुझे कुछ नहीं पता ।
शंशिता - मिसेज मूर्ती का एड्रेस ..
।
प्रिंसिपल - एक कागज पता लिखकर उन दोनों को दे देता हैं ।
अयंक और शंशिता एड्रेस लेकर बाहर आ जाते हैं ।
अयंक परेशानी से - यहां से तो कुछ भी पता नहीं चला हैं । यह प्रियदर्शनी मैम तो ना एक पहेली बन गयी हैं ।
शंशिता - इतना परेशान नहीं होते और एक कड़ी तो मिली हैं ना । यह भी तो हो सकता हैं कि हमें मिसेज मूर्ती से कुछ पता चल सके ।
अयंक - अब यह तो उनके यहां जाकर ही पता लग सकेगा ।
शंशिता मुस्कराते हुए - तो चले .....
अयंक - हम्म पर उससे पहले कहीं लंच करें ....
शंशिता - भूख तो मुझे भी लग रही हैं तो पहले लंच ही करते हैं ।
शाम के छः बजे
वो दोनों शहर से थोड़ा दूर एक प्यारे से छोटे से घर के बाहर खड़े थे ।
कुछ देर बेल बजाने के बाद
एक प्यारी सी लड़की दरवाजा खोलती हैं ।
जी आपको किससे मिलना हैं।
अयंक - वो हमें मिसेज मूर्ती मैम से मिलना हैं । क्या वो घर पर हैं ।
वो दस साल की प्यारी सी लड़की जिसका नाम रीना था वो मुस्कराते हुए - दादी घर पर ही हैं लेकिन वो अभी पूजा कर रही है । आप लोग अंदर आइए ।
उसके कहने पर अयंक और शंशिता अंदर आते हैं। घर अंदर से बहुत ही प्यारा था । वो दोनों वही सोफे पर बैठ जाते हैं और रीना उनके सामने बैठ जाती हैं। उसके सामने बैठने पर अयंक और शंशिता उसे देखकर पूछते हैं ।
मैम को कितना वक्त लगेगा ।
रीना मुस्कराते हुए - दादी को पूजा के बीच डिस्टर्ब नहीं कर सकते हैं वरना वो नाराज़ हो जायेगी और मैं अपनी दादी को नाराज नहीं कर सकती हूं इसलिए मैं उनसे पूछ नहीं सकती हूं कि वो अपनी पूजा पूरी कर कब उठेगी लेकिन बस कुछ वक्त और लगेगा तब तक आप उनका इंतजार कर सकते हैं ।
उसके बाद अयंक चारों तरफ देखकर कर - क्या आप दोनों अकेले यहां रहती हैं ।
रीना - नहीं तो , मेरे मम्मी पापा भी तो हैं । इस वक्त वो दोनों हाॅस्पीटल में हैं । उनको कभी कभी आने में लेट हो जाता हैं।
अयंक - अच्छा , वैसे आप कौनसी क्लास में पढ़ती हैं ।
मैं पांचवी क्लास में हूं अभी ।
रीना मुस्कराते हुए - वैसे एक बात कहूं।
शंशिता मुस्कराते हुए - कहो ?
रीना , अयंक को देखते हुए - आपको अंकल कहने का दिल नहीं कर रहा हैं तो क्या मैं आपको भाई बुला सकती हूं ।
अयंक हैरानी से - लेकिन , तुम मुझे भाई क्यों बनाना चाहती हो ।
वो क्या हैं ना राखी पर मैं बहुत उदास रहती थी क्योंकि मेरे कोई भाई नहीं हैं ना तो दादी ने कहां कि कभी मेरा दिल किसी को भाई कहने को कहे तो मैं उसे भाई बना लूं और देखिये अब तक मैं बस इसी इंतजार में थी मेरी तलाश आप पर खत्म हुई ।
अयंक हैरानी से शंशिता को देखता हैं तो शंशिता अपनी पलकें झपका देती हैं जिसे रीना भी देख रही थी ।
अयंक मुस्कराते हुए - ठीक हैं तो तुम आज से मेरी बहन हो । आज के बाद तुम्हें कभी भी राखी पर अपने भाई का इंतजार नहीं करना पड़ेगा । वैसे मेरे भी कोई बहन नहीं हैं तो मैं तुम्हारी जैसी प्यारी सी छोटी बहन पाकर बहुत खुश हू।
रीना मुस्कराते हुए अयंक के गले लग जाती हैं उसका चेहरा खुशी से दमक रहा था जो शब्दों में बयां करना आसान नहीं था । आज उसे एक भाई मिल गया था जो उसे हमेशा प्रोटेक्ट करेगा ।
अयंक भी अपने दिल में एक अजीब सा सुकून महसूस कर रहा था । अयंक मन में - दो दिन में कितना कुछ बदल गया । पहले दोस्त के रुप में शंशिता मिली और अब एक प्यारी सी छोटी बहन , पता नहीं रीना क्यों तुमसे एक अलग ही जुड़ाव महसूस हो रहा हैं ऐसा लग रहा हैं जैसे मैंने हमेशा तुम्हारा इंतज़ार किया हो । मुझे भी तो हमेशा से एक बहन चाहिए थी और यह वादा अपने आप से करता हूं कि तुम्हें हमेशा हर बुरी नजर से बचाने की कोशिश करुंगा ।
शंशिता मुस्कराते हुए - लगता हैं यहां आने से तुम्हारा कुछ तो फायदा हो गया ।
अयंक मुस्कराते हुए - सही कह रही हो अगर यहां नहीं आता तो ना तुम और ना गुड़िया दोनों ही मुझे नहीं मिलती ।
रीना मुस्कराते हुए - अयंक से - वैसे भाई , भाभी बहुत खूबसूरत हैं ।
अयंक और शंशिता दोनों के मुंह हैरानी से खुले रह जाते है । वे दोनों इस सदमे से बाहर निकलते तब तक मिसेज मूर्ती जी कि तेज आवाज आती हैं - रीना बेटा , जरा यहां आना
जारी हैं ........
डियर रिडर्स .... प्लीज कहानी पढ़कर समीक्षा जरूर दिजियेगा
आगे ....
मिसेज मूर्ती - उसके दादाजी ने उसका एडमिशन करवा दिया था पर एक बात थी जो मुझे समझ नहीं आ रही थी । उनका महल स्कूल से ज्यादा दूर तो नहीं था ऐसे में उनका उसे हाॅस्टल में रखना , मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था लेकिन मुझे पूछने का हक भी नहीं था ।
हमने उसे स्नेहा के रुम में शिफ्ट करवा दिया । स्नेहा , एक ऐसी लड़की थी जो ज्यादा देर चुप नही रह सकती थी ऐसे में कुछ नहीं कहां जा सकता था और वह जोधपुर की राजकुमारी , बस किसी भी तरह से यह बात बाहर नहीं आनी चाहिए थी । शायद उसके दादाजी चाहते थे कि वह नाॅर्मल लाइफ जिये या बात कुछ और थी यह मुझे नहीं पता था । उसका ट्रांसफर सेशन के मिड में हुआ था इसलिए मैंने सभी टिचर्स को उस पर थोड़ा ज्यादा ध्यान देने के लिए कहां और वो भी ध्यान दें रहे थे ।
वह स्नेहा के साथ शिफ्ट हो गयी ।
शंशिता - आगे क्या हुआ ।
मिसेज मूर्ती - आगे वो हुआ जिसने पूरे स्कूल को बदल कर रख दिया ।
वह स्कूल आने लगी । इतनी खुबसूरत और मासूम की हर कोई उससे बात करने की कोशिश करता लेकिन वो बिल्कुल चुपचाप रहती । ना किसी से ज्यादा बात करना ना हंसना और ना खेलना । ऐसा लगता था कि उसमें कोई इमोशन ही नहीं हैं और यही बात मुझे , उसकी ओर कुछ ज्यादा ही खिंचती थी । हर समय कभी भी मेरी नजरें उस पर चली ही जाती थी और मैं सोच में पड़ जाती ऐसा भी हो सकता हैं कि इतनी कम उम्र में कोई कैसे अपने चेहरे पर स्थिर भाव रख सकता हैं और मेरे लिए वो बस एक पहेली बन गयी जिसे सुलझाने के चक्कर में , मैं और उलझती जा रही थी ।
कभी कभी तो लगता कि वह इंसान हैं ही नहीं पर फिर सोचती कि हो सकता हैं राजकुमारीयो के रहने के माप दण्ड यही होंगे ।
ऐसे ही दिन बितते गये । मुझे लगा कि स्नेहा के साथ रहते रहते वह भी उसकी तरह बन जायेगी पर हुआ इसका उल्टा , जो स्नेहा हमेंशा बस बात करती रहती थी वो अब बहुत कम बात करने लगीं थीं । उसका व्यक्तित्व ही ऐसा था कि कोई भी उससे अछूता नहीं रह सकता था । स्कूल में वह बस खामोश सी अपने बेंच पर बैठी रहती थी । उसके कपड़े बिल्कुल सिम्पल होते थे तो कुछ अमीर घर के बच्चे , उसे गरीब समझ कर परेशान करने लगे लेकिन वह बीना जवाब दिये बस अपना रास्ता बदल लेती थी । मुझे पहले तो पता ही नहीं था कि कुछ बच्चे उसे परेशान करते थे पर एक दिन मैंने अपनी आंखों से देखा था कुछ बच्चे उसे बुली कर रहे थे और उसने अपना रास्ता बदल लिया और जो पहले मुझे मासूम और खामोश सी लगी । एक बार फिर मेरी सोच बदली कि क्या राजकुमारियां इतनी कमजोर होती हैं जो किसी को मुंह तोड जवाब भी नहीं दे सकती हैं और बस ....
उस दिन मैंने उसे डांटा की अगर कोई उसे बुली कर रहा था तो उसे मुझे बताना चाहिए था पर वह बस सिर झुकाए खड़ी रही और जब मैं थककर चुप हो गयी तो वो अपना बैग उठाये अपने हाॅस्टल की तरफ चली गयी ।
उसे स्कूल में आये दो साल हो गये थे अब स्नेहा ने भी थक कर उससे दूरी बना ली थी । सब को उसके काॅल्ड व्यवहार की आदत हो गयी लेकिन हैरान करने वाली बात थी कि उसके मुंह से अब तक एक शब्द तक नहीं निकला और ना ही इन दो सालों में वह कभी भी छुट्टीयो पर अपने घर गयी ना कभी उसके दादाजी के अलावा कोई उससे मिलने आया । बस एक बुढ़ी सी लेडी आती थी जो भी उसके दादाजी के साथ ही आती थी । स्नेहा भी थक चुकी थी उससे दोस्ती करने के लिए लेकिन उसने उसे भी कभी कुछ नहीं कहां । इन दो सालों में वह हमेशा बस किताबों के साथ ही कहीं दिखती थी । बस इसके अलावा कभी मैंने उसे हंसते हुए या फिर बोलते हुए या खेलते हुए नहीं देखा । सारे बच्चे अब ग्यारह में आ गये थे उसने भी काॅमर्स के साथ इकाॅनामिक्स लिया था या दिलवाया गया था क्योंकि उसके चेहरे पर साइंस पढ़ते हुए अलग ही सुकून देखा था मैंने और अधिकतर वह साइंस की किताबों के साथ ही गार्डन में पेड़ के नीचे चेयर पर बैठी नजर आती थी । कभी कभी मन करता कि उससे कहूं कि किताबों से बाहर भी एक दुनिया होती हैं जो बहुत खूबसूरत हैं लेकिन ऐसा कुछ नहीं कर सकती थी मैं .....
और तभी क्लास ग्यारह में दो बच्चों का साइंस स्ट्रीम में एडमिशन हुआ लेकिन दो दिन के बाद पता नहीं ऐसा क्या हुआ जो उन्होंने काॅमर्स स्ट्रीम में एडमिशन ले लिया और उन बच्चों के नाम थे शिवांग और यशिका .....
बहुत ही चंचल बच्चें थे हमेशा एक दूसरे के साथ नजर आते थे और पता हैं मजे कि बात क्या थी वो दोनों बचपन के दोस्त थे और अब से हुई एक खुबसूरत सफर की शुरुआत जहां मैंने रिश्तों की ऐसी परिभाषा देखी कि जब भी वो दो साल जहन में चलते हैं तो एक सुकून सा मिलता हैं कि अपने पुरी जिंदगी में मैने कुछ ऐसे स्टूडेंट पाये जो हकीकत में अपने हर गुरु की दिल से इज्जत करते थे ।
वो पांच बच्चे , मुझे ऐसे मिले कि पूरी जिंदगी की कमाई मिल गई हो । सच में ही कुछ लोग दिल पर गहराई तक छाप छोड़ जाते हैं जिसे कोई नहीं मिटा सकता हैं ... कोई भी नहीं ......
मिसेज मूर्ती के चेहरे पर जो खामोशी इतनी देर से दिखाई दे रही थी वो अब कुछ हल्की पड़ती जा रही थी और अब कुछ खुश नजर आ रही थी ।
अयंक और शंशिता को वो सब दिल की गहराई तक महसूस हो रहा था वो बस मिसेज मूर्ति के शब्दों में खोये थे ।
उन सब का ध्यान एक कर्कश आवाज से टूटा जो कि शांता की थी जो खाना खाने के लिए सबको डायनिंग टेबल पर बुला रही थी ।
अयंक और शंशिता का ध्यान भी टूट चुका था ।
रीना जो ऊपर कमरे में पढ़ रही थी वो नीचे आकर प्यारी सी आवाज में - शांता ताई , आप इतनी तेज मत बोला करीये ना ... आप जानती हैं मैं डर जाती हूं ।
शांता , उसकी बात सुनकर अचानक ही मिसेज मूर्ती की तरफ देखती हैं जो उसे ही गुस्से से घूर रही थी ।
शांता ताई डरते हुए - साॅरी मांजी , बस गलती से हो गया ... अब आप इस तरह मुझे डराइए तो मत ... सच में .. आगे से ऐसा नहीं होगा ... आप ना साहब को मत बताना ... वरना मेरा क्या होगा ... आप तो जानती हैं ना .... उसका चेहरा रुआंसा सा हो गया था वो इसके आगे कुछ बोलती तब तक .. रीना जो वही खड़ी थी तपाक से ... जानते हैं हम सब ताई कि आपके दो छोटे-छोटे बच्चे हैं इवन अब तो यहां आने वाले हर मेहमान को पता हैं । और मेरी क्यूट ताई ... आपके बच्चे अब बड़े हो गये हैं ... और फिर अपनी अंगुलियों को गिनते हुए ... पूरे बीस साल के हो गये हैं । अब तो उनके भी बच्चे हो जायेंगे आखिर शादी की उम्र हो गयी ... इतना कहकर वो खिलखिलाकर हंसने लगती हैं ।
शांता ताई और मिसेज मूर्ती बस उसे खिलखिलाकर हंसते हुए देख रही थी और अयंक और शंशिता तो उसकी मासुम हंसी में खोये थे ।
अयंक को अपने दिल में एक सुकून सा महसूस हुआ । उसकी नजरें दो चेहरों पर टिकी थी पहली रीना और दूसरी शंशिता ।
आगे पता नहीं इनका यह सफर इन्हें कहां ले जायेगा । प्रियदर्शिनी राठौड़ एक अनसुलझी पहेली ... क्या इसे सुलझा पायेगे यह दोनों या फिर इन की खुद की कहानी उलझ जायेगी । अब यह तो आगे पता चलेगा ।
जारी हैं ....
प्लीज पार्ट पढ़कर समीक्षा जरूर दिजियेगा कि आपको कहानी कैसी लग रही हैं ।
शाम के आठ बजे
सभी डायनिंग टेबल पर बैठे खाना खा रहे थे और शांता उन्हें खाना परोस रही थी । रीना , अयंक और शंशिता के बीच बैठी उन दोनों के हाथ से खाना खा रही थी । इस वक्त उसके चेहरे पर छायी मुस्कराहट हर कोई महसूस कर सकता था ना चाहते हुए भी मिसेज मूर्ति के चेहरे पर मुस्कराहट उतर आयी । अपने मां बाप के अधिकतर समय बिजी रहने पर रीना कुछ उदास सी हो जाती थी लेकिन अभी उसे अकेलापन नहीं महसूस हो रहा था और यह वक्त मिसेज मूर्ति के लिए बहुत अज़ीज़ था आखिर बहुत कम रीना इतना खुश होती थीं ।
खैर यह वक्त भी गुजर जायेगा और एक याद की तरह दिल में कैद होगा क्योंकि हसीन पल अक्सर गुजर जाते हैं उस वक्त का अहसास नहीं होता हैं ।
खैर सभी खाना खाकर सोफों पर बैठे थे । रीना अयंक के सीने से लगी उसे अपने स्कूल की बातें बता रही थी ।
उनके रिश्ते में इतनी अच्छी गहराई देख लग ही नहीं रहा था कि यह रिश्ता कुछ पल पहले ही बना हैं ऐसा लग रहा था कि बरसों पुराने भाई - बहिन हो ।
शंशिता भी मुस्करा रही थी क्योंकि उसने गहराई से यह कमी महसूस की थी । उसे भी तो तलाश रही एक भाई की लेकिन वह दिल से खुश थी कि उसकी ना सही लेकिन रीना कि जिंदगी में यह कमी पूरी हो पायी । शायद ऐसा ना हो पाता अगर अयंक अपने सपने के लिए मुम्बई से जोधपुर ना आता ।
वक्त पता नहीं अपने वजूद में कितने ही अनगिनत पन्ने छुपाये हुआ था और वक्त के साथ हर एक पन्ने को सबके सामने आना ही था अब देखना यह था कि यह वक्त और कितना वक्त लेने वाला था ।
इस वक्त अयंक और शंशिता , मिसेज मूर्ती के साथ गार्डन में बैठे थे ।
मिसेज मूर्ति इसके आगे कहते हुए - सोचा नहीं था ऐसा भी कुछ होगा ... शिवांग और यशिका , दोनों सारे दिन प्रियदर्शिनी के पीछे पड़े रहते थे वो दोनों उसे परेशान करते , उससे बातें करते , उसको गुस्सा दिलाने की कोशिश करते थे । वो दोनों बस सारे दिन उसके साथ ही नजर आते थे । सब कुछ बहुत अजीब था वो दोनों बोलते रहते थे जबकि वह बस खामोश रहती थी फिर भी पता नहीं कैसे वो दोनों उससे बात कर लेते । उससे झगड़ा करते लेकिन कोई अगर उसे परेशान करने की कोशिश करते तो वो उसे भी नहीं छोड़ते और उसके बाद उनकी कम्पलेन मेरे पास आती थी । फिर उन्हें पनिशमेंट मिलती लेकिन फिर भी उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ा । उन दोनों की दोस्ती स्नेह से भी हो गयी । वक्त ऐसे ही गुजर रहा था पर उन दोनों ने हार नहीं मानी ।
यकीन नहीं कर पाओगे लेकिन प्रियदर्शिनी से दोस्ती के लिए उन्होंने बहुत मार खायी थी और पापड़ भी बहुत बेले थे ।
कभी कभी मैं खुद सोचती कि जब उसे दोस्ती करनी ही नहीं हैं तो वो दोनों क्यों अपनी सेल्फ रिस्पेक्ट को पीछे छोड़ हर बार उसकी तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाते हैं । यह बात शायद में नहीं समझ पायी लेकिन वो बच्चे समझते थे कि दोस्ती बस दोस्ती होती हैं वहां इगो , स्वार्थ , गुस्सा , नहीं होता हैं । हम अपने इगो को सेल्फ रिस्पेक्ट का नाम नहीं दे सकते हैं ।
कुछ चीजें वक्त से पहले नहीं होती हैं ।
क्लास ग्यारह के हाफ ईयरली एक्जाम आने वाले थे । सभी बच्चे इसकी तैयारीयों में जुटे थे और मैं बस बाहर ही बैठी अपना कुछ काम कर रही थी ।
प्रियदर्शनी वही एक पेड़ के नीचे बैठी अपने किताबों में सिर खफा रही थी । तभी वहां यशिका और शिवांग आकर बैठ जाते हैं उनके साथ स्नेहा भी थी । वह सब बस आपस में बात कर रहे थे और हमेशा की तरह प्रियदर्शिनी खामोश किताब में नजरें गढ़ाये बैठी थी ।
मुश्किल था पर नामुमकिन नहीं ... उनका यह सफर वो तय कर ही लेंगे । अब मुझे उ विश्वास होने लगा था कि मैं कभी उसकी आवाज नहीं सुन पाउंगी लेकिन उस दिन कुछ और ही होना था ।
कुछ शैतान बच्चों का ग्रुप - वहां आ गया ... वो सब स्नेहा को परेशान करने लगे पर स्नेहा ने उन्हें कुछ नहीं कहां ।
वह बस .. प्रियदर्शिनी से बात कर रही थी , यशिका और शिवांग भी वही बैठे थे ।
उनमें से ही एक बच्चा आर्यन - अपने आपको इग्नोर होता देख गुस्से से स्नेह को धक्का मार नीचे गिरा देता हैं । जिससे यशिका को बहुत तेज गुस्सा आता हैं वो आर्यन की काॅलर पकड़ - तुम्हारी इतनी हिम्मत , जो तुमने स्नेह को धक्का देने की कोशिश की ।
शिवांग - स्नेह को संभाल रहा था । जिसकी कोहनी और घूटना , नीचे गिरने से छिल गया था ।
आर्यन गुस्से से उसके बाल पकड़ते हुए - तुम्हें तो मैं ....
यशिका गुस्से से - तुम्हें तो मैं क्या ... आगे बोलों ... यशिका सिन्हा , तुम्हारी औकात से बाहर हैं ।
शिवांग - काम डाउन , यशिका पहले स्नेहा को देखना जरुरी हैं ।
यशिका का ध्यान शिवांग के कहने पर स्नेहा पर चला जाता हैं जिसका फायदा उठाकर आर्यन का एक दोस्त
लकड़ी के बैट से स्नेह के हाथ पर मारने की कोशिश करता हैं तब तक एक हाथ उसके हाथ को कसकर दबा देता हैं । आर्यन का दोस्त समीर की चीख निकल जाती हैं - जिससे सबका ध्यान उस तरफ चला जाता हैं और मैं भी किसी की चीख सुनकर वहां दौड़ी चली आयी .... सामने का नजारा सबको हैरान कर देने के लिए काफी था ।
हर कोई बस मुंह खोले देख रहा था ।
समीर के हाथ से बैट छुटकर नीचे गिर गया था और प्रियदर्शिनी के हाथ का कसाव लगातार उसकी कलाई पर बढ़ता जा रहा था जिससे उसके हाथ की नसें साफ दिखाई देने लगी थी । समीर लगातार चिल्ला रहा था । उसके हाथ में दर्द बढ़ रहा था और साथ ही प्रियदर्शनी के चेहरे पर कसाव और गुस्सा .....
जारी ...
प्लीज समीक्षा और रेटिंग्स जरूर दिजियेगा ।
आगे .......
वक्त के साथ उसके हाथों का कसाव बढ़ता ही जा रहा था उसकी आंखें , गुस्से से लाल हो गयी थी
प्रियदर्शिनी चेहरे से एक तेज-तर्रार लड़की नहीं लगती थी ।आज जब वह गुस्से से भरी थी तो उसका मासुम चेहरा एकदम बदल गया था उसकी भौहें एकदम तनी हुई थी । उसकी आँखें, जो आमतौर पर चमकीली और मृदु रहती थीं, अब तेज धार की तरह चमकने लगी थी । लग रहा था कि जैसे वह अपने गुस्से के जरीए किसी को अपनी बात समझाना चाहती हो।
सारे बच्चे उन सब के चारों तरफ खड़े हो गये थे लेकिन मैं वहां खड़ी खामोशी से सबकुछ समझने की कोशिश कर रही थी ।
बढ़ते झगड़े को देख स्नेहा रोने लगी थी । शिवांग , उसे संभाल रहा था तो यशिका , आर्यन को छोड़ अब प्रियदर्शनी को समीर से छुड़ाने की कोशिश कर रही थी ....वही समीर दर्द से चिल्ला रहा था । वह लगातार प्रियदर्शिनी से खुद के हाथ को छुड़ाने की कोशिश कर रहा था लेकिन प्रियदर्शनी के हाथों का कसाव उसे पर बढ़ता ही जा रहा था ।
आर्यन गुस्से से -तुम पागल हो गई हो क्या ? छोड़ो मेरे दोस्त को .... तुम गुस्से में अंधी हो गई हो... तुम्हें यह तक दिखाई नहीं दे रहा, कितना दर्द हो रहा है उसे .... समझ नहीं आ रहा है क्या.....
लेकिन प्रियदर्शनी पर इन सब का कोई फर्क नहीं पड़ रहा था ऐसा लग रहा था उसके आंखों में तूफान की कोई ज्वाला धड़क रही हो और उसका गुस्सा सब कुछ बर्बाद कर कर ही शांत होगा ।
यशिका लगातार उसे समीर से छुड़ाने की कोशिश कर रही थी लेकिन उसे तो कोई फर्क ही नहीं पड़ रहा था ।
इतना कहकर मिसेज मूर्ति शांत होते हुए गहरी सांस लेने लगती है ।
उनकी बातों में पूरी तरह खोये अयंक और शंशित बेचैनी से- आप चुप क्यों हो गई ? बताइए ना आगे क्या हुआ ? क्या सच में प्रियदर्शनी जी ने समीर को नहीं छोड़ा ? प्रियदर्शनी जी , स्नेहा जी ,शिवांग जी और याशिका जी की दोस्ती कैसे हुई ?
मिस मूर्ति गहरी सांस लेते हुए - इतना बेचैन होना सही नहीं है । अभी से बेचैनियों का इतना शबब लेकर चलोगे तो शायद ही प्रियदर्शनी राठौर की जिंदगी की बंद किताब को खोल पाओगे ।
फिर गहरी सांस लेते हुए - खैर ... मैंने पहली बार , उसे गुस्से में देखा था और उसके गुस्से से भरे उस रूप को देख , मेरा शरीर एक पल के लिए कांप गया । मैं बस उनको देख सकती थी लेकिन बातें नहीं सुन पा रही थी । मैं खुद हैरान रह गयी - जब , मैंने अचानक से ही उसको शांत होते देखा । वह समीर का हाथ छोड़ चुकी थी और अब शांति से अपनी किताबों को समेट रही थी । आर्यन और उसकी गैंग , गुस्से से बहुत कुछ बोल रही थी लेकिन उसका ध्यान ,उन सब बातों पर नहीं था । वह खामोशी से अपनी किताबें समेट कर जा चुकी थी और धीरे-धीरे सब शांत हो गया ।
मुझे हैरानी हो रही थी लेकिन सारी बच्चे , प्रियदर्शिनी के गुस्से से इतना डर गये कि यह बात मुझ तक पहुंचीं ही नहीं और सब कुछ बिल्कुल नाॅर्मल हो गया । किसी के मुंह से मैंने , उस दिन के बाद उस घटना का जिक्र भी नहीं सुना । वो सब उस बात को अपने अंदर दफन कर चुकें थे और फिर मैंने भी ज्यादा तुल देना जरूरी नहीं समझा लेकिन .... अब एक बात बदल गयी थी । वो तीनों अब हमेशा , मुझे प्रियदर्शिनी के चारों तरफ जोंक की तरह चिपके दिखते थे । उसकी बेरूखी से भी उन तीनों को कोई फर्क नहीं पड़ता था । शायद इसे ही दोस्ती कहते हैं ।
अयंक बीच में ही - लेकिन इसे तो एकतरफा दोस्ती निभाना कहेंगे । क्या एकतरफा भी रिश्ते निभायें जा सकते हैं । मिसेज मूर्ती , आप हमसे बड़ी हैं और यह बात अच्छी तरह समझती होगी ना ... कि ऐसे रिश्ते कभी ना कभी तो दम तोड़ ही लेते हैं । प्रियदर्शिनी जी सच में इतनी रुड थी कि उन्हें उन तीनों की दोस्ती की कोई कद्र नहीं की लेकिन फिर भी वो तीनों उनकी बेरूखी को नजरंदाज कर उनसे दोस्ती करने की कोशिश करते रहे ।
मिसेज मूर्ति मुस्कराते हुए - तुम्हारा गुस्सा जायज हैं लेकिन तुम खुद सोचो कि क्या प्रियदर्शनी ने उन तीनों से कहां कि वो उससे दोस्ती करें या फिर वह उनसे दोस्ती करना चाहती थी ।
चलों एक बात बताओं - क्या किसी रिश्ते में शामिल होने से पहले दोनों पक्षों की रजामंदी जरूरी नहीं होती हैं । हमेशा याद रखना यह बात कि हर सिक्के के दो पहलू होते हैं और बीना दोनों पहलुओं को जाने हम फैसले नहीं सुना सकते हैं । रही बात प्रियदर्शिनी की तो भावनाएं तो उसके पास भी थी । वह अलग बात थी कि वह उन्हें दिखाती नहीं थी । कभी कभी इंसान रिश्तों के नाम से डरता हैं और इसके , उनके पास अपने कारण होते हैं । हम , अपने फैसले उन पर थोप सकते हैं लेकिन उन फैसलों को स्वीकारना या इंकार करना , यह उनका फैसला होता हैं और यह प्रियदर्शनी का निजी फैसला था । इसमें कोई कुछ नहीं कर सकता था ......
शंशिता - तो क्या वो तीनों गलत थे जो प्रियदर्शिनी से जबरदस्ती दोस्ती करने की कोशिश कर रहे थे ।
मिसेज मूर्ति - शायद ..... नहीं ...
अयंक - लेकिन अभी तो आपने कहां कि वो प्रियदर्शिनी जी पर अपनी दोस्ती थोप नहीं सकते थे तो फिर तो वह तीनों गलत हुए ना ....
मिसेज मूर्ति - हम्म .... बात तो सही हैं लेकिन एक बात बताओ ..... प्रियदर्शिनी ने समीर के हमले से यशिका को बचाया ....और स्थिर भाव रखने वाली वह गुस्से से पागल हो गयी .....तो बताओ की क्या उसमें भावनाएं नहीं थी । .... शायद थी ....और यह बात वह तीनो समझ चुके थे तभी तो उन्होंने प्रियदर्शिनी को कभी अकेला नहीं छोड़ा .........
जारी हैं .......
क्या कभी कर पायेंगे वो प्रियदर्शिनी से दोस्ती .....
अयंक और शंशिता कर पायेंगे प्रियदर्शिनी के दर्द को उजागर ....
क्या होंगे अतीत के राज
जानने के लिए पढ़िये..... ताकती निगाहें - इंतजार ।
प्यारे रिडर्स , मन ही नहीं करता आगे लिखने का जब
कोई कमेंट ही नहीं आते कहानी पर ....
तो पढ़कर बताइए कि आपको यह पार्ट कैसा लगा .....
अगला पार्ट जल्द ही आयेगा ।
तब तक के लिए अलविदा.....
जोधपुर
राजमहल
सब तरफ चहल पहल थी और इन सब से दूर -
एक लड़की एक आरामदायक कमरे में, खिड़की के पास मेज पर बैठी हुई थी और चाय का कप हाथ में थामे हुए वह बाहर की तरफ देख रही थी । उसकी लंबी, लहराती बाल कंधों पर बिखरे हुए थे और चेहरा शांत, संतुष्ट दिख रहा था पास में खिड़की से हल्की धूप आ रही थी , जिससे माहौल और भी सौम्य और सुखद लग रहा था। वह साधारण लेकिन सुंदर सी साडी पहने हुए थी , मेज पर फूलों के डिज़ाइन वाला चाय का सेट, एक किताब और कुछ ताजे फूल रखे हुए थे ।

वह गहराई से खामोश के साथ कुछ सोच रही थी लेकिन उसका मन , आज कुछ अशांत सा लग रहा था । पता नहीं वह ऐसा क्या सोच रही थी जो अचानक ही उसकी आंखों से आंसु टपकाने लगे । वह अपने एक हाथ की अंगुली पर अपने आंसु की एक बुंद लेकर , उसे ही एकटक मुस्कराते हुए देखने लगती हैं । वह मुस्कराते हुए - कितना अजीब रिश्ता हैं ना हमारा , तुम्हारे साथ ... वक्त , बेवक्त ,..... बीना वजह , बेवजह .... ही निकल पड़ते हो । कभी बहुत नफ़रत थी तुमसे ....और आज देखों .. सबसे करीबी रिश्ता भी तुम्हारे साथ ही हैं तो क्या लगता हैं ..... हमारा साथ जिंदगी भर का हैं । शायद ही हम कभी समझ पायेगे लेकिन तेरा और मेरा , रिश्ता जन्मों का रहने वाला हैं । हमारा साथ हमेशा रहेगा .... इन आंसुओं के बीना प्रियदर्शिनी राठौड़ का अस्तित्व संभव ही नहीं हैं ।
आज लंबे अरसे बाद उसे खुद से बातें करने का मौका मिला हैं ।
आज पहली बार था जब ,वह अपने कमरे में अकेली बैठी, खुद के अस्तित्व पर सवाल कर रही थी। उसकी आँखों में दर्द का एक सागर था, जो बाहर आने के लिए बेताब था। वह सोच रही थी कि क्या उसकी जिंदगी का कोई मतलब है? क्यों वह इस दुनिया में आई, और क्यों उसे लगातार संघर्ष करना पड़ रहा हैं । कभी खुद की भावनाओं को लेकर ... कभी खुद के वजूद को लेकर .... कभी खुदके सपनों को लेकर ... कभी खुदकी खुशियों को लेकर ... तो कभी खुदके आत्मसम्मान को लेकर .....
हर रिश्ते में उसने अपना पूर्ण समर्पण दिया और क्यों उसे बदले में हर जगह से बस नाउम्मीदी ही मिली .....
वह अपने अतीत के हर पल को टटोलने लगी थी—हर वह पल जब उसने अपने सपनों को टूटते देखा, जब उसने अपने आत्मसम्मान को गिरते देखा। वह सोचती है, "क्या मैं सही हूं? क्या मेरी उम्मीदें और सपने कभी सच होंगे?" उसकी अपनी आवाज़ उसकी सबसे बड़ी आलोचक बन चुकी थी, जो बार-बार उसे उसकी कमियों का अहसास कराती रहती थी। सहीं में यह , वह खुद नहीं थी । कभी हिम्मत नहीं हारने वाली वह , आज जमाने के द्वारा बुरी तरह तोड़ दी गयी थी । उसमें शायद अब वह खुद भी नहीं बची थी । बस एक जिंदा लाश बन चुकी थी वह , जो बस अपनी जिंदगी का बोझ ढो रही थी ।
"क्यों मैं अपने आप से ही लड़ रही हूं?" वह सोचती है। उसके अंदर की बेचैनी और नाखुशी एक तूफान की तरह उठ रही थी। वह साफ महसूस कर पा रही थी कि वह इस दुनिया में खो गई है , उसका अब अपनी भावनाओं पर कोई कंट्रोल नहीं रहा । वह अपनी भावनाओं के गहरे गर्त में डूबीं , खुदको एक ऐसी जगह पर देख रही थी , जहां कोई उसे समझने वाला नहीं। उसकी पहचान, उसकी भावनाएं, उसकी उम्मीदें—सब बिखरती जा रही थीं, जैसे कोई ताश के पत्तों का महल हो जो एक हल्की सी हवा में ढह जाता है।
आज एक अरसे बाद उसकी चाहते हिलोरें मार रही थी । दिल का दर्द इस कदर बढ़ रहा था कि आंसुओं को रोक पाना मुश्किल हो रहा था । आज उसका दिल चाह रहा था कि कोई हो जो उसे सुने, उसे समझे ।
पर क्या सच में कभी किसी ने उसे समझने कि कोशिश की और अगर सच में किसी ने कोशिश की होती तो आज उसके दिल में दर्द तो होता लेकिन इस हद तक नहीं होता ।
कहते हैं ना यादें , इंसान का पीछा नहीं छोड़ती हैं पर बुरी तरह तोड़ जरुर जाती हैं । उसकी आंखों में आंसु जरूर थे लेकिन वे बाहर आने का रास्ता नहीं ढूंढ पा रहे थे। उसकी पलकों पर भारीपन था, जैसे उसके आँसू उसके दर्द के बोझ तले दब गए हों। दिल में एक अजीब सी कसक थी, जो हर साँस के साथ और गहरी होती जा रही थी।
उसके अंदर एक तूफान मचल रहा था, लेकिन वह खुद को किसी तरह से काबू में करने की कोशिश कर रही थी। रोने की इच्छा उसके सीने में सुलग रही थी, पर वह अपनी मुट्ठियाँ भींच कर उस भाव को दबाने की कोशिश कर रही थी। उसके भीतर एक भीषण संघर्ष चल रहा था—एक हिस्सा चाहता था कि वह टूट कर रो दे, चिल्ला दे, लेकिन दूसरा हिस्सा उसे लगातार कह रहा था कि वह मजबूत बने क्योंकि पता था उसेकी , उसके पास कोई ऐसा नहीं जो उसे संभालेगा ।
उसके दिल की धड़कन तेज़ हो चुकी थी, जैसे हर धड़कन उसके अंदर के उस गहरे दर्द को और उभार रही हो। उसकी साँसें टूट-टूट कर चल रही थीं, और हर बार जब वह एक लंबी साँस लेती, तो लगता था जैसे वह अपने आँसुओं को खुद में ही समेटने की कोशिश कर रही हो।
वह आँसुओं को बाहर आने से रोकने की नाकाम कोशिश में, अपनी तकलीफ़ को अंदर ही अंदर घोंट रही थी।
आज का दिन ही ऐसा था जब उसका अपनी भावनाओं पर कंट्रोल नहीं होता था .... बहुत अच्छे से याद था उसे कि आज के ही दिन उसने अपने दादासा को खोया था जो शायद इस दुनिया में अकेले , उसके लिए नर्मदिल थे ।
तभी बाहर से दरवाजा खटखटाने की आवाज आती हैं और किसी तरह वह अपनी भावनाओं पर काबू पाकर कहती हैं - अंदर आ जाइए ।
एक नौकरानी अंदर आते हुए - राजकुमारी सा , बड़े महाराज के श्राद्ध की पूजा के लिए राजपुरोहित जी ने आपको बुलाया हैं ।
प्रियदर्शनी का चेहरा खिड़की की तरफ होंने से , वह नौकरानी उसकी अस्त व्यस्त हालत नहीं देख पायी ।
प्रियदर्शनी, अपनी कठोर मगर शांत आवाज में - राजपूरोहित जी से कहिये , हम थोड़ी देर में आ रहे हैं ।
वह नौकरानी जाते हुए - जी ......
जारी हैं .....
क्या हैं प्रियदर्शिनी के इस कदर दर्द का कारण ......
अयंक और शंशिता कभी जान पायेंगे , उसकी कहानी ....
क्यों प्रियदर्शिनी का सख्त वजूद कहीं खो सा गया हैं ?
ऐसा क्या हुआ उसके साथ , जानने के लिए पढ़िये , मेरी कहानी - ताकती निगाहें - इंतजार ....
और प्लीज समीक्षा जरुर देना कि आपको कहानी कैसी लग रही हैं
आगे ......
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मिसेज मूर्ति ने अपने विचारों को थोड़ी देर के लिए रोक लिया, और फिर अयंक और शंशिता की तरफ देखा।
जब प्रियदर्शिनी ने समीर से यशिका को बचाया, तो उस क्षण में उसके अंदर एक भावनात्मक लहर उठी थी। यह गुस्सा सिर्फ गुस्सा नहीं था, बल्कि एक छिपा हुआ आत्म-सम्मान और उन तीनों के प्रति उसकी चिंता का परिणाम था। जब उसने समीर को पकड़ रखा था, तो उसके चेहरे पर जो दृढ़ता थी, वह उसके अंदर की शक्ति को दर्शा रही थी।
अयंक ने जिज्ञासा से पूछा, "लेकिन अगर वह सच में भावनाओं को छिपाती है, तो फिर वह उन तीनों के साथ इतनी बेरुखी क्यों बरतती है?"
मिसेज मूर्ति ने धीरे से कहा, "कई बार लोग अपनी भावनाओं को छिपा लेते हैं क्योंकि उन्हें डर होता है कि उन्हें नकारा किया जाएगा। प्रियदर्शिनी शायद अपने अंदर की कमजोरियों को किसी के सामने नहीं लाना चाहती थी। वह खुद को इतना मजबूत दिखाना चाहती थी कि कोई उसे चोट न पहुँचा सके।" मैंने हमेशा महसूस किया था कि वह अपनी भावनाएं दिखाने से डरती थी और शायद आज जब सब कुछ सोच रही हूं तो लग रहा हैं कि यही डर था , जिसके कारण ,वह हमेशा खामोश रहती थी कि गलती से भी उसकी भावनाएं , किसी के सामने व्यक्त ना हो .......
शंशिता ने सहमति में सिर हिलाते हुए कहा - लेकिन क्या यह सही है? क्या उन्हें उन तीनों को अपना असली रूप नहीं दिखाना चाहिए? अगर वह उनकी फिक्र करती थी तो क्या उन्हें खुलकर , अपनी बात नहीं रखनी चाहिए थी ।
रिश्तों में खुलापन महत्वपूर्ण है, - मिसेज मूर्ति ने कहा। लेकिन इसके लिए एक निश्चित स्तर का भरोसा और सुरक्षा की भावना भी होनी चाहिए। प्रियदर्शिनी ने शायद उन तीनों से दूर रहकर अपने दर्द और डर को छिपाने की कोशिश की। वह चाहती थी कि लोग उसे एक मजबूत लड़की के रूप में देखें।"
अयंक ने गंभीरता से कहा - तो क्या हमें यह मान लेना चाहिए कि प्रियदर्शिनी उन तीनों की परवाह नहीं करती ? लेकिन जब वह उनके लिए गुस्से में आई, तो यह तो स्पष्ट है कि उसे उनकी चिंता थी।
यह सही है - मिसेज मूर्ति ने सहमति में सिर हिलाया।
वास्तव में, प्रियदर्शिनी ने अपने गुस्से के माध्यम से अपनी भावनाओं को व्यक्त किया। यह उसके अंदर की नाजुकता को दर्शाता है। जब हम गुस्से में होते हैं, तो हम अपनी असली भावनाओं को छिपा नहीं सकते।
शंशिता ने आगे कहा, और यही कारण है कि उन तीनों ने कभी उन्हें अकेला नहीं छोड़ा। उन्होंने उनके गुस्से को समझने की कोशिश की, और यही दोस्ती की असली पहचान है।"
मिसेज मूर्ति ने मुस्कुराते हुए कहा, "बिल्कुल। दोस्ती कभी भी एकतरफा नहीं हो सकती।
अयंक ने फिर से अपनी बात रखी, - लेकिन अगर प्रियदर्शिनी जी अपनी भावनाएं व्यक्त नहीं कर रही थी, तो क्या सच में वो यह समझ पाये कि वह कभी तो उनकी दोस्ती स्वीकार करेगी ।
"यह एक जटिल प्रश्न है," मिसेज मूर्ति ने कहा। "हर कोई अपने तरीके से दोस्ती निभाता है। प्रियदर्शिनी ने भले ही अपनी भावनाएं नहीं दिखाई हों, लेकिन उनकी फिक्र तो उसे भी थी । चाहे वह माने या ना माने .....
अयंक परेशानी से - आपकों नहीं लगता मैम , कि उनका किरदार समझना हमारे लिए बहुत मुश्किल हैं । हम तो उनको समझ ही नहीं पा रहे हैं ।
शंशिता आगे - अब आप बताइए ना आगे क्या हुआ .....
मिसेज मूर्ति - उसके बाद वो तीनों हमेशा,उससे ही चिपके रहते थे लेकिन प्रियदर्शिनी की खामोशी वह नहीं तोड़ पाये और इन सब में एक महिना और चला गया ।
मुझे अब बहुत दिलचस्पी होने लगी थी उसमें .... उसकी मासुमियत तो इतनी सी उम्र में ही कठोरता का रुप ले चुकी थी और खामोशी की चादर ओढ़े, वह हमेशा लोगों से दूर भागने की कोशिश में लगी रहती थी । सही बताउ तो मुझे , उससे एक अलग ही लगाव होने लगा था ।
अयंक और शंशिता , मिसेज मूर्ती से बात कर , प्रियदर्शिनी के बारे में जानने की कोशिश कर रहे थे ।
********
राजमहल
सुबह का समय
प्रियदर्शिनी के जीवन में अंधकार का एक गहरा चक्रव्यूह था, जिसमें वह फंसी हुई महसूस कर रही थी। उसकी आत्मा की आंतरिक आवाज़ ने उसे बार-बार उसके दुखों और असफलताओं की याद दिलाई, और यह अहसास कि उसके जीवन का कोई उद्देश्य नहीं रह गया है, उसे और भी बेचैन कर रहा था।
वह हमेशा दूसरों के लिए जीती आई थी—अपने परिवार के लिए, अपने लोगों के लिए लेकिन अब वह सोचने लगी थी कि क्या कभी किसी ने उसके लिए जीने की कोशिश की थी? क्या किसी ने कभी उसकी खुशियों और सपनों की परवाह की थी? प्रियदर्शिनी ने हर रिश्ते में खुद को समर्पित किया, लेकिन जब उसे प्रेम और समर्थन की आवश्यकता थी, तब वह अकेली रह गई।
उसके भीतर एक लहर थी, जो उसे बार-बार यह एहसास दिला रही थी ।
लेकिन किसी तरह खुद को संभालते हुए , उसने पहले अपना चेहरा धोया और अपने उस कमरे से बाहर निकल सीढियां उतरते हुए , वह नीचे चली जातीं हैं ... आखिर आज , उसे अपने दादाजी का श्राद्ध करना था ।
राजमहल का वह बड़ा सा हाॅल शांत था और सामने राजपुरोहित जी सारी तैयारी के साथ बैठे थे ।
पूरे राजपरिवार के साथ , सभी रिश्तेदार वही शान्ति से बैठे थे लेकिन सबकी आंखों में प्रियदर्शनी के लिए नफ़रत साफ दिखाई दे रही थी ।
उन सब के नफ़रत भरे चेहरों को देख उसका दिल फिर दर्द से भर गया । राजमहल की दीवारों के भीतर, जहां कभी शांति और प्रतिष्ठा का माहौल हुआ करता था, अब सियासी षड्यंत्रों और आपसी संघर्षों का अड्डा बन चुका था। उसके दादाजी ने , उन सभी लोगों को हमेंशा से अपने काबू में रखा था । वो अच्छी तरिके से जानते थे कि उनके बेटे , सिर्फ अपनी पत्नीयों के बनकर रह गये हैं और इसलिए उन्होंने अपनी सबसे काबिल पोती , प्रियदर्शिनी राठौड़ को अपना वारिस घोषित कर दिया ।
और यहीं बात सबकों सुई की तरह चुभ गयी और जिन नजरों में प्रियदर्शिनी हमेशा प्यार देखने के लिए तरसती रही हैं । उसकी उन तरसती निगाहों में हमेशा के लिए इंतजार लिख गया ।
राठौड़ साम्राज्य के सदस्य अपनी महत्वाकांक्षाओं और निजी स्वार्थों के लिए एक-दूसरे के खिलाफ जंग छेड़े हुए थे। और इसी सियासी खेल के बीच प्रियदर्शिनी एक आसान शिकार बन गई थी।
प्रियदर्शिनी राजपुरोहित के कहने पर धीरे-धीरे पूजा में आकर बैठ गई। उसकी आँखों में एक अजीब सी थकान और मन में एक अघोषित बोझ था। यह पूजा उसके दादाजी के लिए थी, जो उसकी ज़िंदगी का सबसे बड़ा सहारा थे। लेकिन आज, इस पवित्र अवसर पर भी, राजमहल में सियासी जंग की गर्माहट महसूस हो रही थी।
जैसे ही मंत्रोच्चारण शुरू हुआ, हाॅल में फैली गंभीरता को छेदते हुए धीरे-धीरे हल्की-फुल्की कानाफूसी की आवाजें उठने लगीं। प्रियदर्शिनी ने महसूस किया कि यह शांति बहुत जल्द टूटने वाली थी।
राजपरिवार के सदस्य, जो दिखावे में सब एकजुट बैठे थे, असल में एक-दूसरे के खिलाफ अपनी राजनीतिक चालें बुन रहे थे। उनके चेहरों पर नकली भावनाएं और भीतर जल रही सियासी आग साफ़ दिखाई दे रही थी।
उसकी बुआ ने धीमे स्वर में कहा - अब देखो, पिता जी की पूजा में भी प्रियदर्शिनी ही बैठी है। जैसे इस साम्राज्य की असली उत्तराधिकारी वही हो ।
उसकी बुआ ने धीमे स्वर में जरुर कहा था लेकिन इतना तेज़ कि प्रियदर्शिनी के कानों तक पहुँच जाए।
चाची ने तंज कसते हुए जोड़ा - उससे कुछ नहीं होने वाला। वह कभी भी राठौड़ साम्राज्य को संभालने लायक नहीं थी । पिताजी ने , इसे चुनकर अपनी बेवकूफी का प्रमाण दिया है।
प्रियदर्शिनी ने उनकी बातें सुनीं, और एक ठंडी लहर उसके शरीर में दौड़ गई। उसकी आंखें बंद थीं, लेकिन कानों में जो ज़हर घुला था, वह सीधे उसके दिल तक पहुंच गया था। वह जानती थी कि ये ताने केवल आज के दिन के लिए नहीं थे। यह नफरत बहुत पहले से उसकी ओर इकट्ठी हो रही थी। हर शब्द जैसे एक चोट की तरह लग रहा था, और वह हर वार को चुपचाप सह रही थी।
पूजा के दौरान भी परिवार के लोग धीरे-धीरे एक-दूसरे पर निशाने साधते रहे, और हर तंज प्रियदर्शिनी के आत्मसम्मान पर गहरा वार कर रहा था।
चचेरे भाई ने धीमी आवाज़ में कहा, लेकिन उसका तंज सीधा था - राठौड़ साम्राज्य को संभालना कोई खेल नहीं है। प्रियदर्शिनी से तो कुछ नहीं होगा, उसकी जगह कोई और होना चाहिए । जो खुदको नहीं संभाल पा रही है वो राठोड़ एम्पायर को क्या संभालेंगी ।
प्रियदर्शिनी ने अपनी आँखें खोले बिना सांस खींची, मानो वह अपने भीतर बढ़ते दर्द और आक्रोश को काबू में करने की कोशिश कर रही हो। उसे पता था कि यह पूजा उसके दादाजी की याद में थी, और वह किसी भी कीमत पर इसे शांतिपूर्ण बनाना चाहती थी। लेकिन उसके परिवार की कड़वी बातों ने उसे भीतर से तोड़ दिया था।
मंत्र खत्म होने के बाद भी, उस हाॅल में मानो एक अदृश्य जहर फैल गया था। सबके चेहरे पर एक नकारात्मकता थी, और प्रियदर्शिनी को यह महसूस हो रहा था कि वह इस घर में बिल्कुल अकेली थी। उसके अपनों की बातों ने उसे ऐसा महसूस कराया, जैसे वह इस परिवार का हिस्सा नहीं, बल्कि एक बाहरी व्यक्ति हो।
वह वहां चुपचाप बैठी रही, लेकिन उसके भीतर एक आंधी चल रही थी। नफरत से भरी इन बातों ने उसे इस कदर चोट पहुंचाई थी कि आज फिर, उसका दिल टूट गया था।
जारी हैं .......
आगे .....
प्रियदर्शिनी मंत्रों की समाप्ति के बाद भी वहाँ शांत बैठी रही, जैसे अपने आस-पास की कठोरता को समझने की कोशिश कर रही हो। उसकी आँखें नीचे थीं, लेकिन उसके भीतर एक ज्वालामुखी फूटने को तैयार था। परिवार की कड़वी बातों ने उसकी आत्मा को छेद दिया था। उसकी उपस्थिति में उनका कटाक्ष और अपमान खुलकर बाहर आ रहे थे, मानो वे चाहते थे कि वह टूट जाए।
कुछ क्षणों के बाद, जब पूजा समाप्त हुई और सब लोग उठने लगे, प्रियदर्शिनी ने खुद को संभालने की कोशिश की। उसने गहरी सांस ली और अपने दिल को शांत करने का प्रयास किया। परंतु वह जानती थी कि आज की इस पूजा ने उसे और अधिक अकेला कर दिया था। उसकी भावनाएं घुटती हुई लग रही थीं, लेकिन फिर भी उसने अपने चेहरे पर वही पुराना कठोर नकाब डाल लिया, जिसे उसने वर्षों से पहन रखा था।
तभी उसकी बुआ पास आकर धीरे से फुसफुसाईं, "तुम्हारी जगह इस परिवार में कभी नहीं बन पाएगी, प्रियदर्शिनी। तुम चाहे जितनी भी कोशिश कर लो, यहाँ किसी को तुमसे कोई उम्मीद नहीं है।" यह कहते हुए उसकी बुआ ने तिरस्कार से अपनी नजरें हटा लीं।
प्रियदर्शिनी की सांसें रुक सी गईं। हर शब्द उसके दिल पर गहरी चोट कर रहा था। उसकी आँखों में आंसू थे, लेकिन उसने उन्हें बाहर आने से रोक लिया। राजमहल के उस विशाल हॉल में सबकुछ थम सा गया था, लेकिन उसके भीतर एक भयंकर तूफान उठ खड़ा हुआ था। वह समझ नहीं पा रही थी कि इस परिवार में उसकी जगह क्या थी, या थी भी या नहीं।
परिवार के सदस्य धीरे-धीरे एक-एक करके वहां से चले गए, लेकिन प्रियदर्शिनी अभी भी वहीं बैठी थी। उसने अपनी जगह से उठने की कोशिश की, लेकिन उसके कदम ठिठक गए। उसके दादाजी के बिना यह महल अब उसे सूना लगने लगा था। वह जानती थी कि यहां कोई उसे समझने वाला नहीं था, कोई उसके दर्द को महसूस करने वाला नहीं था।
प्रियदर्शिनी ने अपने चारों ओर नजरें दौड़ाईं, लेकिन वहाँ कोई भी नहीं था जो उसकी पीड़ा को समझ सके। राजमहल की दीवारें भी आज उसे ठंडी और अजनबी लगने लगी थीं। उसकी जगह जैसे कहीं खो गई थी। वह अपने अंदर इस नफरत और तिरस्कार के भार को महसूस कर रही थी, और अब वह समझ नहीं पा रही थी कि आगे कैसे बढ़े।
लेकिन तभी, एक अंदरूनी शक्ति ने उसे संभाला। उसने अपने दादाजी के शब्दों को याद किया, जिन्होंने उसे हमेशा सिखाया था कि कमजोरियां कभी नहीं दिखानी चाहिए। प्रियदर्शिनी ने अपने भीतर एक नई दृढ़ता महसूस की। वह जानती थी कि यह लड़ाई सिर्फ दूसरों से नहीं, बल्कि खुद से भी थी।
प्रियदर्शिनी धीरे से उठी, अपना सिर ऊंचा किया और उस हॉल से बाहर निकल गई।
*******
सुबह हो चुकी
और वो सभी नाश्ता करने के बाद हाॅल में ही रखें सोफों पर बैठे मिसेज मूर्ती कों देख रहे थे ।
मिसेज मूर्ति ने अपने विचारों को फिर से संजोते हुए कहा, "जब मैं हेड ब्रांच, मुंबई गई थी, वहां देश भर से आईं सभी ब्रांचों के प्रिंसिपल्स के लिए सात दिन का कैंपेन रखा गया था। उन दिनों में हर कोई अपने-अपने अनुभव साझा कर रहा था, नई रणनीतियों और शिक्षण के तरीकों पर चर्चा हो रही थी। पर उन सात दिनों में स्कूल में क्या हुआ, मुझे कोई अंदाज़ा नहीं था। जब मैं वापस स्कूल पहुँची, तो जो मैंने देखा, वह हैरान कर देने वाला था।"
अयंक और शंशिता ने एक साथ उत्सुकता से पूछा, "क्या हुआ था, मैम?"
मिसेज मूर्ति ने गहरी सांस लेते हुए कहा, "स्कूल का माहौल बिल्कुल बदल चुका था। प्रियदर्शिनी, जो हमेशा शांत और आत्मविहीन नजर आती थी, अब बिल्कुल अलग दिखाई दी। छात्रों के बीच तनाव और अशांति थी, जो पहले कभी नहीं देखी थी। मैंने सुना कि उस दौरान प्रियदर्शिनी और कुछ छात्रों के बीच गहरी खींचतान चल रही थी और उसका गुस्सा, झेलना सभी छात्रों के लिए मुश्किल होता जा रहा था । खामोशी, अब गुस्से का रुप लेने लगी । मुझे अंदेशा हो गया कि इन सात दिनों में कुछ तो उसकी जिंदगी में बुरा हुआ हैं।
शंशिता ने पूछा, "क्या प्रियदर्शिनी ने कुछ किया था?"
मिसेज मूर्ति ने सिर हिलाते हुए कहा, "यह स्पष्ट नहीं था कि क्या हुआ था, लेकिन ऐसा लग रहा था कि प्रियदर्शिनी का रुख और व्यवहार बदल गया था।
उसकी आँखें पथराई रहती थीं, जैसे वह किसी गहरे सदमे में हो। मैं जानने की कोशिश कर रही थी कि ऐसा क्यों हो रहा है लेकिन समझ नहीं पा रही थी कैसे पता करूं ?
मिसेज मूर्ति ने अपनी चिंताओं को साझा करते हुए कहा, "मैंने देखा कि वह अकेले में रहने लगी थी, हमेशा अपने कोने में सिमटी रहती थी। उसके चेहरे पर कभी-कभी एक असहाय मुस्कान होती, लेकिन वह असली नहीं थी। वह एक मुखौटा लग रहा था। उसके भीतर क्या चल रहा था, यह समझना मेरे लिए बेहद कठिन था।"
उसने शायद अपनी भावनाओं को खुद पर ही बंद कर लिया था।
"मुझे यकीन था कि उसके पीछे कोई बड़ी वजह थी, लेकिन मैं सिर्फ देख सकती थी कि प्रियदर्शिनी हर दिन और भी ज्यादा संकोची और दूरी बना रही थी। इस बदलाव ने मुझे और भी चिंतित कर दिया। मैं जानना चाहती थी कि क्या वह अकेली महसूस कर रही है या उसके मन में कोई गहरा डर है।"
अयंक ने उत्सुकता से कहा, तो आपने क्या किया ?
मिसेज मूर्ति - खामोशी से सबकुछ देखने के अलावा मेरे पास और कोई रास्ता नहीं था क्योंकि मैं , चाहकर भी कुछ नहीं कर सकती थी।
जारी हैं .........
प्लीज समीक्षा दीजिए कि आपको कहानी कैसी लग रही हैं............
प्रियदर्शिनी , जोधपुर की राजकुमारी और इतनी दर्द भरी जिंदगी ... खामोशी की चादर ओढ़े वह परिवार के लोगों के हर ताने को सहती रहती हैं । क्या उसमें जवाब देने की ताकत नहीं हैं या फिर वह जवाब देना ही नहीं चाहती है....
क्या वजह हैं जो वह हर दिन उनके ताने सुनती हैं लेकिन फिर भी चुप्पी साधे हैं ?
क्यों उसके परिवार ने ही उसे इस हद तक तोड़ दिया कि आज उसकी निगाहों में बस आंसुओं के लिए जगह बची हैं ?
तो क्या टूटेगी ... प्रियदर्शिनी की खामोशी ?
क्या हो पाएगी ,वह कभी इस अनकहे दर्द से आजाद ?
जानने के लिए पढ़िये मेरी कहानी ताकती निगाहें - इंतजार
आगे ......
उसी दिन मैं जब कैंटीन के पास से गुजर रही थी मैंने वहां उन तीनों को , प्रियदर्शिनी के साथ चिपके हुए देखा । मैं उनको दिवार के कारण नहीं दिख रही थी लेकिन मैं उनको देखने के साथ सुन भी पा रही थी ।
प्रियदर्शिनी खामोशी से स्कूल कैंटीन में बैठी थी, उसके सामने एक आधा खाली प्लेट था जिसमें कुछ खाने की चीजें थीं, लेकिन उसने उनमें से कुछ भी नहीं छुआ। उसका मन कहीं और ही था। उसके चारों ओर दोस्ती की कोशिशें हो रही थीं, लेकिन उसने अपनी आंखें नीचे की ओर झुका रखी थीं, जैसे कि उसे अपनी चारों ओर हो रही हलचल से कोई लेना-देना नहीं था।
शिवांग, स्नेहा, और यशिका उसके पास बैठे थे, उनके चेहरे पर उम्मीद की चमक थी। वे उसे हंसाने और उसके साथ बातचीत करने की कोशिश कर रहे थे। शिवांग ने मजाक करते हुए कहा, प्रियदर्शिनी, तुम चुप क्यों हो? आज तो तुम्हें कुछ कहना चाहिए।
लेकिन प्रियदर्शिनी ने सिर उठाने की बजाय अपनी प्लेट में ही देखना जारी रखा।
स्नेहा ने धीरे से कहा - क्या तुम ठीक हो? हम सब तुमसे बात करना चाहते हैं। तुम हमें छोड़कर क्यों जा रही हो?
यशिका ने उसके कंधे पर हल्का हाथ रखा - प्रियदर्शिनी, हमें चिंता हो रही है। तुम जानती हो, तुम हमारी दोस्त हो। हमें तुम्हारी जरूरत है।
लेकिन प्रियदर्शिनी की खामोशी ने उनकी कोशिशों को बेकार कर दिया। उसने सिर्फ एक हल्की सांस भरी और अपने आप को और भी अंदर खींच लिया, जैसे वह एक दीवार के पीछे छिपी हुई हो। उसके भीतर उठती हुई भावनाएं, जो उसे सच्चाई बताने के लिए प्रेरित करती थीं, वो भी उसकी चुप्पी के सामने हार गईं।
इस स्थिति ने शिवांग, स्नेहा, और यशिका को निराश कर दिया। उन्होंने एक-दूसरे की ओर देखा, जैसे उन्हें समझ में आ रहा हो कि प्रियदर्शिनी की इस खामोशी के पीछे एक गहरा कारण है, जिसे वह नहीं बताना चाहती।
उन्होंने फिर भी कोशिश जारी रखी।
शिवांग ने उत्साह से कहा - ठीक है, प्रियदर्शिनी, चलो हम सब एक गेम खेलते हैं। इससे तुम्हारा मन बहलेगा।
स्नेहा ने सहमति में सिर हिलाया हां , यह बहुत मजेदार होगा! तुम सिर्फ हमें देखकर थोड़ी मुस्कुराओ।
यशिका ने भी कहा - हम सब कुछ कर सकते हैं ताकि तुम थोड़ा खुल सको। बस एक बार बात तो करो।
लेकिन प्रियदर्शिनी की आंखें अभी भी पथराई थीं, मानो वह एक दूसरे संसार में खोई हुई हो। उसने एक बार फिर उनकी ओर देखा, लेकिन उसके चेहरे पर कोई प्रतिक्रिया नहीं थी।
शिवांग ने थोड़ी गंभीरता से कहा - प्रियदर्शिनी, हम समझते हैं कि तुम किसी चीज से गुजर रही हो। लेकिन तुम जानती हो, हम तुम्हारे दोस्त हैं। हमें तुम्हारे साथ खड़ा होना है। तुम्हें बस हमें बताना है कि तुम क्या महसूस कर रही हो।
स्नेहा ने कहा - हमारी दोस्ती इतनी कमजोर नहीं है कि तुम सिर्फ इसलिए चुप रहो। हम तुम्हें हर हालत में सपोर्ट करेंगे।
यशिका ने कहा - हां, तुम हमेशा हमारी प्रियदर्शिनी हो। तुमसे बात करना हमें खुशी देता है। हम चाहते हैं कि तुम हमें अपने अंदर की बात बताओ।
प्रियदर्शिनी ने फिर से सिर झुकाया, लेकिन इस बार उसकी आंखों में हल्की सी चमक आई। उसकी चुप्पी में एक दर्द छिपा हुआ था, जो उन की कोशिशों के बावजूद बाहर नहीं आ रहा था। वह जानती थी कि वे उसके लिए कितने परवाह करते हैं, लेकिन अपनी भावनाओं को साझा करने में उसे बहुत कठिनाई हो रही थी।
स्नेहा ने कहा - हम जानते हैं कि तुम मजबूत हो। और हम तुम्हें कभी अकेला नहीं छोड़ेंगे।
यशिका ने कहा - बस एक बार अपने दिल की बात कह दो। हम समझेंगे।
उनकी इतनी कोशिश भी उसकी खामोशी नहीं तोड़ पाई, लेकिन जब शिवांग, स्नेहा और यशिका ने उसे कसकर गले लगा लिया, तो प्रियदर्शिनी की दीवारें थोड़ी सी ढीली हुईं। गले लगने से एक अजीब सी गर्मी और सुरक्षा का एहसास हुआ, जैसे कि उसके चारों ओर एक कवच बन गया हो।
शिवांग ने उसे ढांढस बंधाते हुए कहा - तुम अकेली नहीं हो, प्रियदर्शिनी। हम सब तुम्हारे साथ हैं। चाहे कुछ भी हो, तुमसे हम दूर नहीं जाएंगे।
स्नेहा ने कहा - हम जानते हैं कि तुम अंदर से क्या महसूस कर रही हो। ये सब कहने की जरूरत नहीं है। बस हमारी दोस्ती को स्वीकार करो।
यशिका ने उसे और कसकर गले लगाते हुए कहा - हम सभी मिलकर इस मुश्किल समय से निकल सकते हैं। तुम बस हमारे साथ थोड़ा खुल जाओ।
प्रियदर्शिनी की आंखों में आंसू थे, और उसने उनकी गर्माहट को महसूस किया। इस पल में, उसकी खामोशी के पीछे का दर्द थोड़ी देर के लिए मिट गया। उसने धीरे-धीरे अपने दिल के भारीपन को महसूस किया और उन तीनों के लिए अपने प्यार और कृतज्ञता को महसूस किया लेकिन उसकी खामोशी का टूटना अब भी आसान नहीं था ।
शिवांग ने मुस्कुराते हुए कहा - यह ही दोस्ती है। हम सब एक-दूसरे का सहारा बनते हैं। तुम कभी भी हमसे कुछ भी शेयर कर सकती हो।
मिसेज मूर्ति ने आगे कहां - उनकी निस्वार्थ दोस्ती का यह रूप देख कर मेरीआंखों में आंसू उभर आए। प्रियदर्शिनी की खामोशी के बीच, जब उसके दोस्तों ने उसे कसकर गले लगाया, वह क्षण एक अद्भुत संवेदना से भरा था। उस दिन, मैंने पहली बार असल मायने में दोस्ती की गहराई को महसूस किया ..... अंत तक उनके गले में हल्की कंपन महसूस की जा सकती थी।
वह आगे बोली - प्रियदर्शिनी की आंखों की पथराई हुई नज़रें मानो उसके भीतर का दर्द बयां कर रही थीं। उसे अपनी स्थिति की गहराई समझने के लिए किसी और की जरूरत नहीं थी। उसे उस पल मुझे एहसास हुआ कि उसकी चुप्पी केवल उसके लिए नहीं, बल्कि उसके दोस्तों के लिए भी एक दीवार बन गई थी।
अयंक और शंशिता, प्रियदर्शिनी की जिंदगी के इस सफर के कठिनाईयों और संघर्षों को समझते हुए, अपनी आंखों के आंसुओं को रोक नहीं पाए। उनके दिल में उसके लिए जो दर्द था, वह हर शब्द में लहराने लगा।
अयंक ने कहा - यह कितना दुखद है कि प्रियदर्शिनी जी को अपनी भावनाओं को व्यक्त करने में इतना समय लग रहा है। उनकी खुद से जूझती हुई चुप्पी ने उन्हे अंदर से तोड़ दिया है।
शंशिता ने उसकी बातों में सहमति जताते हुए कहा - लेकिन देखो, उनके दोस्तों ने उन्हे फिर से गले लगाया। यह किसी जादू से कम नहीं है। क्या ऐसा नहीं हो सकता था कि यह दोस्ती उन्हें अपने दर्द से उबरने में मदद करे ?
मिसेज मूर्ति ने उन्हें आगे बताते हुए कहा- हम्म .. मुझे एहसास हुआ कि निस्वार्थ दोस्ती में कितनी ताकत होती है।"
उनकी बातें सुनते-सुनते, प्रियदर्शिनी की कहानी ने उनके दिलों में एक गहरा जख्म खोल दिया। उन्होंने महसूस किया कि दोस्ती केवल एक शब्द नहीं है, बल्कि यह एक कड़ी है, जो हमें एक-दूसरे से जोड़ती है, खासकर तब जब हम सबसे ज्यादा अकेले होते हैं।
उनकी आंखों से आंसू बहने लगे, और उस पल में, उन दोनों ने ही प्रियदर्शिनी के दर्द को अपने अंदर महसूस किया। वह एक खामोश संघर्ष थी, जो अकेले अपने सपनों और चाहतों से लड़ रही थी। उन्होंने मन ही मन यह संकल्प लिया कि वे प्रियदर्शिनी जी के बारे में सब कुछ जानकर रहेंगे ।
इस दर्दनाक क्षण में, उन्हें यह एहसास हुआ कि कभी-कभी, प्यार और दोस्ती ही वह कड़ी होती है, जो हमें अपने भीतर के अंधकार से बाहर निकालती है। प्रियदर्शिनी की कहानी उनके दिलों में एक गहरा असर छोड़ गई, और अब वे केवल उसकी दोस्ती को नहीं, बल्कि उसके दर्द को भी अपनी जिम्मेदारी मानते थे।
और अपने परिवार से जंग लड़ती प्रियदर्शिनी को तो इस बात का अहसास तक नहीं था ।
जारी हैं ......
क्या होगा आगे ...
जानने के लिए पढ़िये ताकती निगाहें - इंतजार
और प्लीज समीक्षा जरूर दिजियेगा
मिसेज मूर्ति की आंखें , आंसुओं से भरी थी । वह अपने अतीत में पूरी तरह खो चुकी थी जहां ... बहुत एहसास जिये थे उन्होंने ....
आंसु तो अयंक और शंशिता की आंखों में भी थे क्योंकि ... वो तो दर्द के छोटे से हिस्से से भी नहीं गुजरे थे ।
अयंक मन में - सच में कोई इतना दर्द सहन कर सकता हैं ..वह , स्वयं अपने सपने के लिए अपने पिता से लड़कर , यहां आया था और इसके लिए उसे कुछ अधिक संघर्ष भी नहीं करना पड़ा । अब तक अपनी जिंदगी को मुश्किल भरी मानने वाला , अयंक .. को आज खुद की जिंदगी बहुत आसान लग रही थी । वह , स्वयं को उन संघर्षों के बीच देख भी नहीं सकता था जो प्रियदर्शिनी ने हर पल , अपने सपनों के लिए सह थे ।
शंशिता भी गहरे विचारों में डूबी हुई थी। उसे भी यही लग रहा था कि उसने अब तक जितनी भी कठिनाइयों का सामना किया था, वे प्रियदर्शिनी के दर्द के सामने फीकी थीं। उसने खुद को प्रियदर्शिनी के दर्द और संघर्ष से जुड़ा हुआ महसूस किया। कैसे कोई इतने चुपचाप इतनी तकलीफें सह सकता है? उसके मन में यह सवाल बार-बार उठ रहा था।
अयंक और शंशिता बस खुदके सपनों को पूरा करने के लिए प्रियदर्शिनी राठोड़ की जिंदगी की बंद किताब को खोलना चाहते थे लेकिन यहां तक का सफर तय करते करते , वे खुद को , उससे जुड़ा हुआ महसूस कर रहे थे ।
बल्कि एक गहरा संबंध भी बन चुका था। वे खुद को उसकी जगह पर रखने की कोशिश कर रहे थे, लेकिन हर बार यह महसूस होता कि उसके संघर्ष और दर्द को महसूस करना भी उनके लिए बहुत कठिन है।
लेकिन अब उनके मन में प्रबल इच्छाशक्ति जन्म ले चुकी थी । सब कुछ जानने की .......
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राजमहल
प्रियदर्शिनी ने उस भारी हॉल को पीछे छोड़ दिया, लेकिन भीतर की घुटन को कम नहीं कर पाई। उसके कदम धीरे-धीरे महल के गलियारों में आगे बढ़ रहे थे, मानो हर कदम के साथ वह अपने भीतर के दर्द को दबा रही हो। उस क्षण में उसे महसूस हुआ कि उसने कितनी बार अपने दिल की आवाज़ को अनसुना किया है, कितनी बार अपने आंसुओं को अंदर समेटा है। आज फिर वही नकाब, वही मजबूत चेहरा, लेकिन भीतर की दीवारें अब कमजोर हो चली थीं।
महल के बाहर बगीचे में पहुँचते ही उसने गहरी सांस ली। चारों तरफ की हरियाली और ठंडी हवा भी उसके भीतर के उबाल को शांत नहीं कर पा रही थी। वह वहीं एक बेंच पर बैठ गई, उसके हाथों की मुट्ठियाँ कसकर भींची हुई थीं। मन ही मन वह सोच रही थी, क्यों मैं इस दुनिया में इतनी अलग-थलग हूँ? क्यों मेरा दर्द किसी को नहीं दिखता?
परंतु यह पहली बार नहीं था जब उसने खुद को इस तरह अकेला महसूस किया हो। उसकी पूरी जिंदगी इसी तरह बीती थी—अपमान, उपेक्षा, और नफरत के बीच। उसकी आत्मा में दरारें तब से थीं जब वह छोटी थी। परिवार की कड़वी बातों और ताने, हमेशा उसकी जगह को चुनौती देते रहते थे। लेकिन इस बार कुछ अलग था, यह अनुभव पहले से कहीं अधिक तीव्र था। वह अब और नहीं सह सकती थी।
तभी उसकी नज़र सामने पड़े एक छोटे से पौधे पर पड़ी, जो ज़मीन से बाहर झाँक रहा था। मिट्टी से लड़कर, धूप की ओर बढ़ता हुआ। उसकी हालत भी कुछ ऐसी ही थी—वह भी इन हालातों से लड़ रही थी, लेकिन उसकी लड़ाई बहुत गहरी और दर्दनाक थी। अंदर से टूट चुकी थी, लेकिन बाहरी दुनिया के सामने उसे मजबूत दिखने का नाटक करना पड़ता था।
प्रियदर्शिनी की आँखों में आंसू थे, लेकिन उसने उन्हें बाहर आने नहीं दिया। अब तक उसने आंसुओं को एक कमजोरी समझा था, लेकिन आज वह महसूस कर रही थी कि यही आंसू उसकी ताकत भी हो सकते थे। यह दर्द, यह अकेलापन उसे मजबूत बना रहा था। उसने एक बार फिर अपने दादाजी की सिखाई बात को याद किया, कमजोरियाँ दिखाने से लोग तुम्हें और चोट पहुँचाएँगे।
लेकिन इस बार कुछ अलग था। प्रियदर्शिनी ने सोचा, क्या हमेशा अपनी भावनाओं को दबाना सही है? क्या खुद को हर समय इतना सख्त दिखाना जरूरी है? वह अब समझने लगी थी कि इंसान कमजोर होने के बाद ही मजबूत बनता है। दर्द को महसूस करके ही उसे दूर किया जा सकता है।
उसने अपनी मुट्ठियाँ खोलीं और गहरी सांस ली। अब मुझे इस जाल से निकलना होगा, उसने खुद से कहा। वह जानती थी कि यह लड़ाई केवल उसके परिवार से नहीं, बल्कि खुद से भी थी। उसे इस नकली मजबूत चेहरे को तोड़कर अपनी असली भावनाओं को सामने लाना होगा। उसे अपनी पहचान, अपने अस्तित्व को इस दुनिया के सामने साबित करना होगा, लेकिन इस बार बिना किसी के डर से।
सब कुछ सोचते सोचते , उसकी आंखों में कठोरता आने लगी थी और मुट्ठियों का कसाव बढ़ रहा था । वह खुद से ही - सहीं में दस साल पहले आये , उसकी जिंदगी में आये उस तुफान ने सच में सब कुछ बदल कर रख दिया । काश , मैंने सब कुछ समझा होता और खुद को , अपनी भावनाओं को इतना आगे ना बढने दिया होता तो शायद आज मेरा वजूद कुछ और होता हैं ।
सहीं में गाहे-बगाहे , वो सभी पूरानी यादें प्रियदर्शिनी के ज़ख्मों को अंदर तक कुरेद जाती थी और इन सब के बीच आज वह पूरी तरीके से बिखर चुकी थीं ।
लेकिन आज वह खुद के लिए एक फैसला लेना चाहती थी । बहुत देर तक सोचने के बाद , प्रियदर्शिनी उठ खड़ी हुई। उसकी आंखों में दृढ़ता और विश्वास की एक नई चमक थी। वह जानती थी कि यह लड़ाई आसान नहीं होगी, लेकिन वह अब पीछे हटने वाली नहीं थी।
सब कुछ बदलने वाला था क्योंकि प्रियदर्शिनी ने अब अपनी खामोशी तोड़ने को फैसला ले लिया था । उसने खुद से वादा किया कि वह अब कभी भी किसी को खुदको को दर्द देना का मौका नहीं देगी ।
और अब , हर कोई मिलने वाला था । प्रियदर्शिनी के उस रुप से , जिसे उसने अपनी खामोशी की चादर नीचे ओढ़ रखा था । महल का हर ज़र्रा - ज़र्रा , उसकी दहाड़ से कांपने वाला था ।
जारी हैं ......
राजमहल में
प्रियदर्शिनी ने महल के दरवाजे पर कदम रखा, और उसकी आंखों के सामने एक विचित्र दृश्य था। महल के भीतर, राठौड़ परिवार के सभी सदस्य एक-दूसरे पर चिल्ला रहे थे, जैसे कोई युद्ध चल रहा हो। उनका आपसी झगड़ा केवल शब्दों तक सीमित नहीं था; उनकी आंखों में जलती हुई नफरत और तिरस्कार की आग थी। यह देखकर प्रियदर्शिनी का दिल धड़कने लगा।
"तुम्हारी ऐसी हिम्मत कि तुम मेरे अधिकारों पर सवाल उठाते हो?" चाचा रणजीत की आवाज़ भरी हुई थी, जैसे वह आग में घी डालने का काम कर रहे हों। "तुम्हें क्या लगता है, तुम इस साम्राज्य की वारिस हो?"
"क्या तुम अपने-आप को इस साम्राज्य का मुखिया समझते हो?" बुआ कमला ने तिरछी नजरों से कहा। "तुम्हारी तो कोई पहचान नहीं है। तुम्हारे पिता ने तुम्हें यहाँ कुछ नहीं सौंपा।"
महल की दीवारें इस बहस की गूंज से कांप रही थीं। प्रियदर्शिनी ने अपनी जगह पर खड़े होकर यह सब देखा। परिवार के सदस्य आपस में न केवल अपने अधिकारों के लिए लड़ रहे थे, बल्कि एक-दूसरे पर आरोप भी लगा रहे थे।
"हम सभी जानते हैं कि प्रियदर्शिनी कुछ नहीं है। उसे क्या पता कि रियासत कैसे चलानी है?" चाचा वीरेंद्र ने गुस्से में कहा। "वह तो केवल एक लड़की है, जो अपने सपनों के पीछे भाग रही है।"
प्रियदर्शिनी के मन में यह सब सुनकर आक्रोश भरने लगा। ये लोग जो कभी एकजुट होकर परिवार के रूप में रहते थे, अब स्वार्थ की वजह से एक-दूसरे के खिलाफ खड़े थे। उन्होंने कभी उसकी भावनाओं की कद्र नहीं की थी, और आज तो मानो उन्हें अपनी शक्ति की लड़ाई में किसी की परवाह नहीं थी।
प्रियदर्शिनी की आंखें में ज्वाला धधकने लगी थी । वह अपनी पूरी शक्ति समेटकर चिल्लायी - बस कीजिए ....
उसकी दहाड़ती आवाज सुनकर वो सभी अब शांत पड़ गये लेकिन क्या उनको शांत करना इतना आसान था । वो कहते हैं ना कि लालच में इंसान , हमेशा जहर ही उगलता हैं बीना यह सोचे कि उसके मुंह से निकले शब्दों का क्या परिणाम होने वाला हैं ।
परिवार के हर सदस्य की नजरें प्रियदर्शिनी पर थीं, जैसे कि वह किसी छाया के रूप में वहाँ खड़ी थी, जिसे वे अपने इरादों का शिकार बनाने के लिए एकदम तैयार थे।
अब तक जो लोग , अपने नापाक इरादों के चलते एक-दुसरे पर आरोप प्रत्यारोप लगा रहें थे । अब उनका निशाना प्रियदर्शिनी बन चुकी थी ।
"यह साम्राज्य अब तुम्हारे लिए नहीं है, प्रियदर्शिनी!" परिवार के सबसे बड़े सदस्य, चाचा रणजीत ने आवाज़ उठाई। उनकी आंखों में घृणा थी, और आवाज में गहराई।
"तुम्हारे पिता ने इसे तुम्हारे नाम नहीं छोड़ा है। तुम्हारी कोई जगह नहीं है।"दूसरे चाचा विरेन्द्र ने कहां
"तुम्हारे पास केवल एक नाम है, जो तुम्हारे दादा की कृपा से मिला है," बुआ कमला ने कहा, उनके चेहरे पर एक तीखी मुस्कान थी।
"तुम तो बस एक उपद्रव हो। इस रियासत में तुम्हारे लिए कोई स्थान नहीं है।" चचेरे भाई रवीन्द्र ने कहां ।
" तुम्हें क्या लगता हैं , पिताजी का सहारा लेकर तुम इस रियासत की वारिस बन बैठोगी ... जिस पर हमारा और हमारे बच्चों को अधिकार हैं " उसकी चाची , रमिला ने मुंह ऐंठते हुए कहां ।
"हमारी रियासत को बचाने के लिए हमें एकजुट होना होगा," चाचा वीरेंद्र ने सभी की तरफ देखते हुए कहा।
"सही कर रहा है विरेन्द्र ..... जो लड़की पीछले दस साल से अपने दुःख में डुबी बस एक कमरे में बंद रहती हैं उसका इस रियासत पर कोई हक नहीं हो सकता हैं ......प्रियदर्शिनी जैसे अयोग्य व्यक्ति को राठौड़ रियासत में ही नहीं रहना चाहिए।" रणजीत ने कहां
"हां, तुम सब उसकी बातों में मत आना। यह केवल एक मासूम लड़की है," कमला ने कहा, लेकिन उसकी आवाज में भी डगमगाहट थी।
"वह अपने सपनों के लिए लड़ने की कोशिश कर रही है, लेकिन हमें अपने हितों को ध्यान में रखना होगा।"
आज सभी लोग बस प्रियदर्शिनी पर आरोप लगाने पर तुले थे । सही में सियासत की रंजिश में वो सभी यह भी भूल गये थे कि वह भी उनका अपना खुन थी लेकिन उनका लालच , उन लोगों को अंधा कर चुका था और वो सभी देखने तक की क्षमता खो चुके थे । राठौड़ हवेली कहें या राजमहल में नफ़रत की एक नयी कहानी लिखी जा रही थी ।
लेकिन प्रियदर्शनी ने ठान लिया था कि वह कभी इस परिवार को बिखरने नहीं देगी । अपने दादाजी से किया वादा जरूर निभायेगी और इन सब के मन से लालच की पट्टी उतार , परिवार की अहमियत बतायेगी । चाहे उसे खुद को कितनी ही तकलीफ उठानी पड़ेगी और उसे पता था कि इसके लिए सबसे पहले , उसे अपनी खामोशी को तोड़ना होगा क्योंकि बिते सालों में उसकी खामोशी पूरे परिवार को शह दे चुकी थी और यही कारण था कि आज वो लोग उसके अस्तित्व पर ही सवाल उठा रहे थे ।
सोचना आसान होता हैं पर करना ..... बिल्कुल नहीं । बहुत मुश्किल होती हैं जब अपने ही अपने खिलाफ खड़े हो । प्रियदर्शिनी के दर्द का अंदाजा भी नहीं लगाया जा सकता हैं । कोई उसके दर्द का एक कतरा भी महसूस नहीं कर सकता था जो वो इस वक्त महसूस कर रही थी ।
खुन , खुन पर सवाल उठा रहा था और आज महल की उन खामोश दिवारो को भी प्रियदर्शिनी की दहाड़ की चाहता थी । जिसकी आगे कभी दुश्मन , नजरें उठाने की भी हिम्मत नहीं कर पाते हैं ।
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अयंक और शंशिता , उत्सुकता से ----- तो आपको पता हैं कि आगे क्या हुआ ?
क्या उनकी , प्रियदर्शिनी जी से दोस्ती हुई ....
या फिर वह हमेशा ही खामोश रही ...
क्या वो तीनों उसके मन की व्यथा समझ पाये ....
मिसेज मूर्ति हंसते हुए - तुम दोनों के सवाल ही खत्म नहीं हो रहे हैं । बस ... बस .... थोड़ा तो संयम रखो ।
अयंक संयमित होकर - आप आगे बताइए ना क्या हुआ ?
मिसेज मूर्ति - आगे बहुत कुछ हुआ ... जिसने मेरी भी जिंदगी को बदल कर रख दिया ।
जारी हैं ........
ऐसा क्या हुआ आगे ..... जानने के लिए आगे पढ़िये...
आगे ........
महल में प्रियदर्शिनी के साहसिक शब्द गूंजे, और परिवार के सभी सदस्यों की आंखों में आश्चर्य था। यह वह प्रियदर्शिनी नहीं लग रही थी, जो हमेशा चुप रहती थी और अब उसने अपनी आवाज़ उठाई थी। चाचा रणजीत ने गहरी सांस ली और उसे घूरते हुए कहा, "तुम्हारे पास केवल एक नाम है, जो तुम्हारे दादा की कृपा से मिला है। तुम्हारे अंदर कोई योग्यता नहीं है।"
प्रियदर्शिनी ने उसकी बात को अनसुना करते हुए, दृढ़ता से कहा, "मेरे नाम का क्या मतलब है, यह मेरी पहचान नहीं है। मैंने भी इस परिवार का हिस्सा बनने के लिए मेहनत की है। क्या आप सबने मेरी कड़ी मेहनत और संघर्ष को कभी देखा है?" आपके नकारने से यह सच कभी नहीं बदल सकता कि मैं , जोधपुर के कुंवर देवेन्द्र राठौड़ की पोती हूं ।
चाचा वीरेंद्र ने मुँह ऐंठते हुए कहा, "तुम्हारे संघर्षों की बात करने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा। यह रियासत केवल मजबूत लोगों की होती है। तुम्हें पता होना चाहिए कि तुम कितनी कमजोर हो।" एक लड़की का रियासत पर हक नहीं हो सकता हैं । इस पर सिर्फ हम लोगों का हक हैं ।
"कमजोर मैं नहीं हूँ," प्रियदर्शिनी ने कहा, "कमजोर तो आप हैं, जो अपने स्वार्थ के लिए अपने ही खून को नकार रहे हैं। क्या आप अपनी नफरत के चलते यह भूल गए हैं कि मैं भी आपके ही बड़े भाई की संतान हूँ?" एक बात और ..... आप लोग कितनी भी कोशिश कर ले लेकिन कभी यह सच नहीं नकार पायेंगे कि मेरी रगों में भी राठौड़ का ही खुन बहता हैं ।
इस पर बुआ कमला ने व्यंग्य किया, "तुम्हारे लिए यह लड़ाई कितनी आसान है, प्रियदर्शिनी। तुम तो एक कमरे में बंद रहकर अपने सपनों की बातें करती रही हो । हमें पता है कि वास्तविकता क्या है।" पिछले दस साल में तुमने कंपनी के साथ बिज़नस , रियासत किसी भी सुध नहीं ली और आज इन सब को हड़पने को तैयार बैठी हो ।
प्रियदर्शिनी ने गुस्से से भरी आवाज़ में कहा, "क्या आप सबने कभी मेरी पीड़ा को समझने की कोशिश की? मैंने अपने दुखों को अकेले सहा है। आज मैं आपको बता रही हूँ कि मैं अपने अधिकारों के लिए लड़ने आई हूँ। आप लोग मुझसे कितनी भी नफ़रत करें .. वक्त के साथ मैंने खुदको समझा लिया हैं और अब आपकी बातों से , नफ़रत से मुझे फर्क नहीं पड़ता.......
सभी सदस्यों ने उसके शब्दों को सुना, लेकिन कोई भी उसे समझने को तैयार नहीं था। चाचा रणजीत ने फिर से अपने स्वर में और कठोरता डालते हुए कहा, "तुम्हारा इस साम्राज्य पर कोई हक नहीं। तुम्हारे पास केवल एक नाम है, और तुम उससे भी वंचित हो जाओगी । "
प्रियदर्शिनी ने नकारात्मकता को पीछे छोड़ते हुए कहा, "मेरा नाम ही मेरी पहचान नहीं है, बल्कि मेरी मेहनत और समर्पण है। मैं अपनी पहचान बनाने के लिए तैयार हूँ।"
अब चाचा वीरेंद्र ने कहा, "तुमको यह समझना होगा कि इस परिवार में तुम जैसी एक लड़की का कोई स्थान नहीं है। हमें इस रियासत को बचाने के लिए एकजुट होना होगा।"
प्रियदर्शिनी ने गहरी सांस ली और कहा, "एकता का मतलब यह नहीं है कि हम एक-दूसरे के अस्तित्व को नकारें। हमें अपनी भिन्नताओं को स्वीकार करना होगा। परिवार का मतलब एकजुटता है, न कि नफरत।"
रवींद्र, प्रियदर्शिनी का चचेरा भाई, ने कहा, "तुम तो सिर्फ एक लड़की हैं, और हमें अपने बच्चों के भविष्य के बारे में सोचना है। यह रियासत हमारे बच्चों का है, तुम्हारा नहीं।"
"मैं भी एक हिस्सा हूँ!" प्रियदर्शिनी ने तेज स्वर में कहा। "क्या आप सबने कभी सोचा है कि मैं क्या चाहती हूँ? मैं अपने परिवार के साथ खड़ी रहना चाहती हूँ, लेकिन आप सबने मुझे नकार दिया है। क्या आप नहीं समझते कि आप मुझे केवल इसलिए नहीं देख रहे हैं क्योंकि मैं एक लड़की हूँ?"परिवार होते हुए भी अनाथों की जिंदगी गुजारना हर किसी के लिए आसान नहीं होता हैं । हर पल सबकी नफ़रत भरी नजरों से गुजरना ही जिंदगी को बोझ बना देता हैं । जहां आप , अपने सबसे अजीज रिश्तों के प्यार के लिए भी तरसते रहते हैं । जब इतनी मुश्किले मुझे तोड़ नहीं पायी तो मुझे नहीं लगता कि अब मेरी जिंदगी में इससे बड़ी कोई और चुनौती हो सकती हैं ।
इस पर बुआ कमला ने कहा, "आपकी बातें सुनकर हमें हंसी आती है। आप केवल एक सपने देखने वाली लड़की हैं। इस रियासत का बोझ उठाने के लिए आपके कंधे बहुत कमजोर हैं।" एक छोटी बच्ची हो अभी ..... सब कुछ हम पर छोड़ो और आराम करो .... ऐसा ना हो कि सियासी जंग की इस बाजी में रानी खुद मौत की भेंट चढ़ जाये ।
प्रियदर्शिनी ने फिर अपने शब्दों को और भी मजबूती से रखा, "कमजोर मैं नहीं, बल्कि आप सब हैं, जो अपने स्वार्थ के चलते एक-दूसरे को कमजोर समझते हैं। मैं इस परिवार की बेटी हूँ, और मैं अपने परिवार के लिए लड़ने आई हूँ।"
इस बहस के दौरान, प्रियदर्शिनी ने महसूस किया कि परिवार का हर सदस्य अपनी स्वार्थी इच्छाओं में डूबा हुआ है। उन्हें अपनी जड़ों से जुड़ना और एकजुट होना सीखना होगा।
उसने अपनी आवाज़ में विश्वास लाते हुए कहा, "मैं इस परिवार की ताकत बनूँगी। मैं आपको दिखा दूंगी कि मेरी मेहनत और साहस के सामने किसी का लालच टिक नहीं सकता। मैं अपने पिता के सपनों को साकार करने के लिए लड़ने आई हूँ।"
प्रियदर्शिनी के साहस ने परिवार के सदस्यों को झकझोर दिया था। सभी ने उसे घूरते हुए देखा, और उनके मन में विचारों की एक नई लहर दौड़ने लगी। क्या वास्तव में प्रियदर्शिनी ने एक नई दिशा दी है? क्या वे अपनी गलतियों को पहचानेंगे और परिवार की एकता के लिए खड़े होंगे?
महल के वातावरण में एक अनजानी सी हलचल थी। प्रियदर्शिनी का साहस केवल एक युवती का नहीं था, बल्कि उस राठौड़ परिवार की पहचान का पुनर्निर्माण करने का प्रयास था, जो अब तक केवल स्वार्थ और नफरत के रंग में रंगा हुआ था।
"अब मुझे यह लड़ाई अकेले नहीं लड़नी होगी," प्रियदर्शिनी ने मन में ठान लिया, "मैं सभी को एकजुट करने की कोशिश करूंगी।" उसकी आंखों में एक नई चमक थी, जो इस परिवार की परंपरा को फिर से जीवित करने की इच्छा दर्शा रही थी।
जारी हैं ....
सच में प्रियदर्शनी परिवार के मामले में मासुम ही तो थी ... जो उन लोगों को एक साथ बांधने की कोशिश कर रही थी जिनके दिल में एक दूसरे के लिए बेइंतहा नफ़रत के अलावा कुछ नहीं था ।
अब देखना यह हैं कि प्रियदर्शिनी कामयाब हो भी पाती हैं या नहीं ..........
आगे .........
राजमहल में बहस बढ़ती जा रही थी । हमेशा से प्रियदर्शिनी की खामोशी तानों की बरसात को एकतरफा कर देती थी लेकिन इस बार उसका जवाब देना .. किसी को रास नहीं आ रहा था और यही कारण था कि उनके नफ़रत भरे शब्दों से महल की हर दिवार गुंज रही थी ।
महल में पसरे सन्नाटे के बीच रणजीत चाचा ने ठहाका मारते हुए कहा, "तुम्हें लगता है कि इतनी बड़ी रियासत तुम्हारे जैसे नौसिखिए हाथों में आ जाएगी? ये सब तुम्हारे बस का नहीं है, प्रियदर्शिनी।" उनकी आवाज में तिरस्कार साफ झलक रहा था।
प्रियदर्शिनी ने बिना झिझके कहा, "आप सभी ने मुझे कमजोर मानकर बहुत बड़ी गलती की है। मुझे मेरे पिताजी की तरह किसी सिंहासन की लालसा नहीं है, लेकिन अपनी जगह छिनने का साहस भी आप में नहीं है। अगर यह रियासत केवल ताकत से चलती तो शायद आप सब इसे अब तक खो चुके होते।"
कमला बुआ ने आँखें घुमाते हुए व्यंग्य में कहा, "अरे वाह, हमारी राजकुमारी का भाषण तो बड़ा जोशीला है! लेकिन बातें करने से कुछ नहीं होगा। यहाँ सत्ता की कुर्सी पर बैठने का मतलब है बलिदान और रणनीति, जो तुम जैसी नाजुक लड़की के बस की बात नहीं है।"
प्रियदर्शिनी ने बिना कोई भाव बदले कहा, "नाजुक? शायद आप सभी ने उस प्रियदर्शिनी को देखा ही नहीं जो दर्द और तकलीफों में तपकर यहाँ तक पहुंची है। आप सबके तानों ने मुझे मजबूत बनाया है।"
वीरेंद्र चाचा ने ताने कसते हुए कहा, "तुम खुद को जितना मजबूत समझती हो, दरअसल तुम उतनी ही कमजोर हो। एक लड़की हो, परिवार की इज्जत को बस बातों से नहीं संभाला जा सकता। तुम चाहो भी तो इस रियासत को संभालने का ख्वाब पूरा नहीं कर सकतीं।"
प्रियदर्शिनी ने तीखे स्वर में जवाब दिया, "अगर आप लोग यह मानते हैं कि राठौड़ खून सिर्फ ताकतवर पुरुषों में ही बहता है, तो आप बहुत बड़ी गलतफहमी में हैं। यह खून न सिर्फ मुझमें है, बल्कि इसमें राठौड़ का साहस और गौरव भी बहता है। मेरी लड़ाई सिर्फ संपत्ति के लिए नहीं है, बल्कि अपने हक के लिए है।"
रवींद्र, जो अब तक खामोश खड़ा था, ने चिढ़ते हुए कहा, "तुम्हारा हक? तुमने कभी हमारी तरह इस रियासत के लिए पसीना नहीं बहाया। हम लड़ते रहे, समझौते करते रहे, और तुम बस अपने दुखों में डूबी रहीं। अब आकर सब कुछ पाना चाहती हो?"
प्रियदर्शिनी ने गहरी सांस ली और कहा, "जिसे तुम मेरे अकेलेपन का नाम दे रहे हो, वो मेरी मजबूरी थी। मैंने खुद को अकेले ही मजबूत किया है। मुझे आपके दयाभाव या स्वीकृति की जरूरत नहीं है। जो मेरा हक है, वो मैं लूंगी, चाहे किसी को पसंद आए या नहीं।"
बुआ कमला ने उसे घूरते हुए कहा, "इतना हौसला अच्छा नहीं, प्रियदर्शिनी। हम सब यहां एक परिवार की तरह हैं और तुम हो कि अकेले होकर सब पर राज करना चाहती हो? भूल मत जाओ कि तुम्हारे पास हमारा साथ नहीं है।"
प्रियदर्शिनी ने बिना डरे जवाब दिया, "परिवार का मतलब होता है एक-दूसरे का साथ देना, न कि एक-दूसरे को कमजोर समझना। अगर मेरे साथ कोई नहीं है, तो कोई बात नहीं। मैं अकेली ही अपने अधिकार के लिए लड़ूंगी।"
सभी सदस्यों की आँखों में एक नया आश्चर्य था। शायद उन्हें यह अहसास हो रहा था कि प्रियदर्शिनी उनके बीच अब उस मासूम लड़की की तरह नहीं थी, जिसे वे हमेशा कमजोर समझते रहे थे। महल में उसकी गूंजती आवाज अब उनकी समझ पर चोट कर रही थी, मानो उसने उनके घमंड को चकनाचूर कर दिया हो।
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वक्त गुजर रहा था ।
दोपहर होने को आयी थी ।
मिसेज मूर्ति अपनी यादों में खोये हुए - हम , हमेशा अपनी जिंदगी अपने अनुसार जीते हैं और शायद उसमें किसी की दखलंदाजी हमें बिल्कुल पसंद नहीं आती हैं । हम रोज नये लोगों से मिलते हैं लेकिन बहुत कम के बराबर लोग होते हैं जो हमारी यादों में जगह पाते हैं ।
लेकिन प्रियदर्शिनी का किरदार अलग ही था । उसने मेरी यादों में ही जगह नहीं बनायी । बल्कि उससे मैंने जिंदगी के कई सबक सिखाने हैं ।
मिसेज मूर्ति की आवाज में एक अजीब-सा कंपन था। उनका चेहरा गंभीर और आंखें थोड़ी नम हो गईं थीं, मानो यादों का बोझ दिल पर हावी हो रहा हो। वह किसी ऐसे खजाने की बात कर रही थीं, जिसे उन्होंने अपनी जिंदगी के कोनों में सहेज रखा था। उन पलों में, उनके दिल की एक-एक धड़कन, प्रियदर्शिनी और उसके दोस्तों के साथ बिताए हुए वक्त की कहानियां बयां कर रही थी।
"जिंदगी के हर मोड़ पर हम हजारों लोगों से मिलते हैं, लेकिन बहुत कम होते हैं जो हमारी आत्मा में बस जाते हैं। प्रियदर्शिनी का व्यक्तित्व ऐसा था कि उसका होना ही सुकून का एहसास कराता था। उसकी खामोशी में भी एक गरिमा थी, एक सौम्यता थी जो हर चीज में झलकती थी," मिसेज मूर्ति ने धीमे स्वर में कहा। उन्होंने गहरी सांस ली, जैसे उस खालीपन को महसूस कर रही हों जो प्रियदर्शिनी की गैरमौजूदगी से रह गया था।
"कितनी छोटी-छोटी बातें थीं," उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा, "जिन्हें देखकर मैं हर दिन कुछ नया सीखती थी। उसे जज्बातों का इजहार करना नहीं आता था, शायद उसे लगा ही नहीं कि उसकी खामोश मदद किसी को दिखाई देती है। वह बिना किसी स्वार्थ के हर किसी की मदद करती। उसका हर कदम ऐसा लगता था जैसे उसने जिम्मेदारी का बोझ खुद ही अपने कंधों पर उठा लिया हो।
मिसेज मूर्ति की आवाज में एक गहरी पीड़ा उभर आई। "कभी-कभी, जब मैं उसे देखती, तो मुझे ऐसा लगता कि वह अपनी उम्र से कहीं ज्यादा समझदार है। इतनी कम उम्र में इतनी परिपक्वता शायद कुदरत का दिया हुआ एक उपहार है, लेकिन वह उपहार दर्द की कीमत पर मिलता है। उसकी आँखों में एक गहरी सी उदासी थी, जैसे उसने बहुत कुछ खो दिया हो। यह उसकी खामोशी में झलकता था, पर शायद किसी ने गौर नहीं किया, या शायद सबने अनदेखा कर दिया।"
एक आंसू उनकी आँखों के किनारे आकर ठहर गया। उन्होंने अपने हाथ से उसे हलके से पोंछा और बोलना जारी रखा, "मुझे एहसास भी नहीं हुआ कि उनका और मेरा साथ इतना छोटा और सीमित होगा। प्रियदर्शिनी, स्नेहा, यशिका, और शिवांग — इन चारों ने मेरी जिंदगी में अपनी जगह बनाई थी। मैंने हर पल इन पर ध्यान दिया, इन्हें देखा, समझा, और जाना। मैं हमेशा अपने लिए लापरवाह रही । हर कोई मुझे एक कठोर और डिसिप्लिन प्रिंसिपल के रुप में देखता था लेकिन इन चारों ने मुझे एक नई उम्मीद, एक नया उद्देश्य दिया ... मैं बदलने लगी थी और बच्चों को प्यार और समझ से हैंडल करने लगी थी । मुझे ऐसा लगता था कि वे मेरी जिंदगी का हिस्सा बन गए हैं, और मैंने अपना हर पल इन्हीं को समझने में बिताया।"
मिसेज मूर्ति ने अपने चेहरे पर हल्की मुस्कान के साथ यादों में खोई हुई आवाज़ में कहना शुरू किया, "मेरे पति का जब ट्रांसफर मुंबई हुआ, तो मुझे भी मजबूरी में अपना ट्रांसफर वहीं करवाना पड़ा। पर क्या बताऊं, इस बात का कितना दर्द था मुझे... वो जगह, वो स्कूल, जहां मैंने अपनी ज़िंदगी के पूरे तीस साल बिता दिए। वो जगह छोड़ने का ख्याल आते ही दिल जैसे भर आता था और इन सब से भी ज्यादा दर्द तब होता , जब लगता कि मुझे प्रियदर्शिनी की उस खामोशी का पता लगाएं बीना ही वह स्कूल छोड़ना पड़ रहा था और यह जख्म तो आज भी टीस बनकर चुभता हैं "
उन्होंने अपनी बात जारी रखी, "देखो, मेरे लिए वो स्कूल बस काम की जगह नहीं थी। वहां की हर दीवार, हर कोना जैसे मेरी यादों में बसा हुआ था। हर सुबह वहां जाना, बच्चों के बीच दिन बिताना, उनके हर सवाल का जवाब ढूंढना... ये सब मेरे जीने का एक हिस्सा बन गया था। और फिर, वो बच्चे – प्रियदर्शिनी, स्नेहा, यशिका और शिवांग – क्या कहूं उनके बारे में। जैसे वो सब मेरे अपने ही थे। उन चारों की मुस्कान, उनकी छोटी-छोटी परेशानियां, उनकी हरकतें... ये सब मेरे दिल के बहुत करीब आ गए थे। उनके बिना, ऐसा लगता था जैसे सब कुछ अधूरा-सा हो गया हो।"
उन्होंने थोड़ा रुककर, जैसे खुद को समझाते हुए कहा, "मुंबई जाने के बाद समझ आया कि कितना बड़ा खालीपन है मेरी जिंदगी में। वहां जाने पर एहसास हुआ कि इन बच्चों के बिना हर दिन कितना फीका लगता है। अब बस यही सोचती हूँ कि वो सब कैसे होंगे, क्या कर रहे होंगे। कभी सोचती हूँ कि क्या वो मुझे याद करते होंगे, क्या उन्होंने मेरी सिखाई बातें अपने साथ रखीं होंगी। क्या उनकी जिंदगी में सब कुछ ठीक होगा?"
अयंक और शंशिता को देखकर उनकी आंखों में नमी सी झलक आई, "कभी-कभी ये सोचकर दिल भारी हो जाता है कि मैं अब उनकी जिंदगी में शायद किसी और टीचर की तरह एक बीता हुआ किस्सा बन गई हूँ। लेकिन वो चारों मेरे लिए हमेशा बहुत ख़ास रहेंगे। बस यही सोचकर तसल्ली करती हूँ कि जहां भी होंगे, खुश होंगे। शायद किसी दिन मेरी कमी को महसूस करेंगे और मुस्कुराएंगे।"
फिर हल्के से मुस्कुराते हुए उन्होंने दोनों बच्चों की तरफ देखा, "समझ रहे हो न तुम लोग? ऐसे ही जब किसी को सिखाते-सिखाते उसकी जिंदगी में एक छोटी-सी जगह बना लो, तो वो जगह खुद तुम्हारे दिल में भी घर बना लेती है, जिससे दूर जाना आसान नहीं होता।"
सब कुछ याद करते हुए मिसेज मूर्ति की आँखें फिर से नम हो गईं। "आज बहुत खालीपन महसूस हो रहा है, जैसे कोई अपना मुझसे बिछड़ गया हो। जैसे वह चारों मेरे साथ मेरे दिल में बसे हुए थे और उनकी यादें मुझसे बार-बार यह कह रही हैं कि वे तो कभी नहीं जाने वाले थे। और अब, यह खालीपन एक टीस बनकर मेरे दिल में घर कर गया है। उन्हें खोने का दर्द ऐसा है कि उसे शब्दों में ढालना मुश्किल है। हर दिन के साथ उनकी कमी महसूस होती है, जैसे कि वह मेरे अपने ही बच्चे हों, जैसे कि मैंने अपने किसी बहुत अजीज को खो दिया हो।"
उनकी आवाज भर्राने लगी, लेकिन वह रुकी नहीं, "वो चारों बस साधारण बच्चे नहीं थे। वो मेरी जिंदगी का ऐसा हिस्सा बन गए थे जो अब मेरे बिना भी हमेशा के लिए मेरे साथ रहेंगे। उन चारों की यादें मेरे दिल में हमेशा ताजा रहेंगी। उनकी हंसी, उनके सवाल, उनकी मासूमियत – ये सब मेरे लिए बेशकीमती हैं। उनके साथ बिताए वो हर पल, उनकी हर बात, आज भी मुझे जिंदगी की छोटी-छोटी खुशियों का एहसास कराते हैं।"
जारी हैं ..........
प्रियदर्शिनी और उसके दोस्तों की खुशियों के लिए रोज दुआं मांगने वाली ... मिसेज मूर्ति .... उनको तो एहसास भी नहीं हैं कि वह तो आज पहले से भी ज्यादा दर्द में तड़प रही हैं ।
मिसेज मूर्ति से जितना पता चला .... वह तो ठीक है ....
अब अयंक और शंशिता ... आगे का सफर किसके सहारे तय करेंगे
आगे ......
अयंक मायूसी से, " कभी कभी कुछ चीजों पर हमारा जोर नहीं होता । वह हमारी नियति होती हैं , शायद इसलिए आपको वह स्कूल छोड़ना पड़ा लेकिन प्रिंसिपल ने तो बताया था कि आपके टाइम ही प्रियदर्शिनी जी ने अपने बैच में टाॅप किया था । फिर .......
मिसेज मूर्ति एकपल के लिए सकपका गयी जैसे कुछ छूपा रही हो लेकिन खुद को संभालते हुए , " क्योंकि में सिर्फ दो साल ही मुम्बई रही । फिर मैं और मेरे हसबैंड वापिस यही लौट आये और मेरे काम को देखते हुए वापिस मेरा ट्रांसफर मुम्बई से यहां जोधपुर में वापिस प्रिंसिपल पोस्ट पर कर दिया गया और क्योंकि मेरे रिटायरमेंट तक पुराना स्टाफ जिन्हें यह बात मालूम थी वह बदल चुका था तो किसी को यह बात पता नहीं होगी ।
मिसेज मूर्ति , " मुझे तुम दोनों के लिए दुःख तो हो रहा हैं लेकिन आई एम सॉरी , इससे ज्यादा मैं कुछ और नहीं जानती हूं ।
शंशिता , " कोई बात नहीं मैम, आपने इतना बताया वही काफी हैं । "
अयंक , " लेकिन ...."
पर शंशिता , उसका हाथ पकड़ कर रोक लेती हैं और इशारे से उसे मना कर देती हैं ।
शंशिता, " अच्छा , मैम आप किसी ऐसे को जानती हैं जो उनके बारे में कुछ भी बता सके । "
मिसेज मूर्ति , " नहीं .... शायद मुझे याद नहीं । क्योंकि कभी कोई उनसे मिलने ही नहीं आया तो ....."
शंशिता परेशानी से , " लेकिन याद करने की कोशिश करिए ना ......। "
मिसेज मूर्ति कुछ याद करते हुए , " उनके दादाजी ने मुझे एक नम्बर दिया था किसी ड्राइवर का , यह कहते हुए कि यदि कभी प्रियदर्शिनी मेरे सामने अपने घर जाने की इच्छा जाहिर करें तो उनके पर्सनल ड्राइवर के नम्बर पर काॅल कर दे । एक मीनट रूको ...... मेरी डायरी में वो नम्बर हैं । मैं अभी तुमको लाकर देती हूं । शायद तुम्हारी मदद हो जाये । "
इतना कहते हुए वह अपने कमरे में चली जाती हैं ।
शंशिता, अयंक से ," जल्दी ही हमें यहां से निकलना होगा । "
तभी रीना बाहर से , अपना स्कूल बैग लिए अंदर आती हैं और अयंक और शंशिता को देखकर चहकते हुए , " भैया "
अयंक , उसे देख मुस्कराते हुए अपनी बाहें फैला देता हैं और रीना चहकते हुए उसकी बाहों में समा जाती हैं ।
रीना चहकते हुए ," आई मिस यू "
अयंक और शंशिता एकसाथ उसका सिर सहलाते हुए , " वी मिस यू बच्चा । "
रीना उदासी से , " मुझे लगा , आप लोग चले गये होंगे । "
अयंक मुस्कराते हुए , " आपसे मिला बिना कैसे जा सकते हैं । " फिर उसकी छोटी सी नाक पकड़ कर खिंचते हुए , " और इतनी प्यारी और छोटी बहन को नाराज करना भी तो सही नहीं हैं । "
रीना गुस्से से मुंह फुलाते हुए , " अब मेरी नाक तो मत खिंचिए, दर्द होता हैं । "
शंशिता गुस्से से, " अयंक क्यों बच्ची को परेशान कर रहे हो । "
अयंक बैचारगी से , " अरे पर "
शंशिता , " पर वर कुछ नहीं और रीना , आप पहले चेंज करके आइए फिर बात करेंगे । "
मिसेज मूर्ति के कमरे में
मिसेज मूर्ति हड़बड़ाहट से चारों तरफ सामान खंगालते हुए डायरी ढूंढने लगी । कुछ देर बाद उन्हें डायरी भी मिल गयी ।
आंखों में नमी लिये वो काफी देर तक उस डायरी पर हाथ फैरती रही । वो मन में , " दिल में कुछ उलझने घर करने लगी । पता नहीं तुम दोनों कभी इस सफर को पूरा कर भी पाओगे या नहीं ...... तुम्हें कह भी नहीं सकती..... लेकिन खुद को संभालना सिखना होगा तुम दोनों को ..... प्रियदर्शिनी की कहानी इतनी दर्द भरी हैं कि उसके करीब जाने पर भी उसका दर्द, तुम दोनों को बिखेर कर रख देगा पर एक उम्मीद भी हैं कि तुम दोनों ....शायद उसे दर्द से आजाद कर पाओ .....अगर तुमने प्रियदर्शिनी की दर्द भरी कहानी को पुरा कर दिया ..... सच कहूं तो ......वो सब लोग दिल से खुश होंगे ..... जो उसके साथ ही टूटकर बिखर गये । बस दुआ देने के अलावा कुछ नहीं कर सकती हूं कि तुम इस सफर को पूरा कर पाओ । "
मिसेज मूर्ति ने धीरे से पुरानी डायरी से नंबर निकालते हुए तो उनके मन में एक अजीब सा सन्नाटा था। उन्हें समझ में आ गया था कि ये बच्चे प्रियदर्शिनी के बारे में जानने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। लेकिन उनकी खुद की मजबूरी थी, उनके पास प्रियदर्शिनी की ज़िंदगी के बहुत कम और धुंधले से टुकड़े थे ।
मगर उस पल में उनके दिल में भी एक टीस उठी। यह सिर्फ प्रियदर्शिनी की कहानी नहीं थी, यह उनके अपने दिल का दर्द भी था।
कुछ देर बाद, मिसेज मूर्ति आंसू पोंछते हुए कमरे से बाहर निकलकर , डायरी के पन्नों में से एक पुरानी चिट निकाली और अयंक और शंशिता को देते हुए बोलीं, "ये नंबर है। शायद तुम लोगों को इसकी ज़रूरत पड़े। प्रियदर्शिनी के दादाजी ने मुझे दिया था, उसी ड्राइवर का है जो शायद उसकी जानकारी दे सके।"
अयंक ने वो चिट संभालकर रखा और मिसेज मूर्ति का आभार व्यक्त किया। मिसेज मूर्ति के चेहरे पर एक हल्की मुस्कान थी, पर उनकी आंखों में कुछ छिपा हुआ दर्द भी दिख रहा था।
मिसेज मूर्ति आगे , " बस यह बात याद रखना कि कुछ दर्द हमारी जिंदगी में हमारे जन्म के साथ ही आते हैं और उनसे हमारे कर्म भी पीछा नहीं छुड़ा सकते हैं । अगर दर्द में उतरोगे तो दर्द से तुम भी अछूते नहीं रहोगे । "
यह कहते वक्त , उनकी आंखों में एक अनकहा दर्द था ।
उनकी बातों में विराम लग गया जब रीना सिढियो से नीचे उतरकर ,उनकी तरफ आने लगी ।
इसके बाद, सभी मिलकर लंच करने बैठे। रीना ने जैसे ही खाना शुरू किया, वह अपने स्कूल की कहानियों से लेकर दोस्तों के साथ मस्ती तक की हर बात एक के बाद एक सुनाने लगी। उसकी बातों में जो मासूमियत और चंचलता थी, उसने वहां का माहौल खुशनुमा बना दिया। अयंक और शंशिता उसकी बातों में खो गए थे। उनकी आंखों में खुशी के आंसू थे । अयंक का मन भारी हो रहा था । उसे ये अहसास बड़ा सता रहे थे कि ये आखिरी पल हैं जो वो अपनी प्यारी बहन के साथ बिता रहा हैं।
सहीं में कुछ रिश्ते पल भर में बनते हैं और जिंदगी भर का साथ बन जाते हैं । जिनसे रुह तक का रिश्ता जुड़ जाता हैं । कुछ एहसास अनकहे होते हैं लेकिन शब्दों से परे वो कल्पनाओं में ही होते हैं लेकिन जब ऐसे रिश्ते हकीकत में हमारी जिंदगी में शामिल होते हैं तो दुनिया भर की खुशीयों का अहसास होता हैं । दिल में अलग ही हलचल होती हैं और कोशिश यही रहती हैं कि उनको खुश रखे , उन पर तकलीफ का एक साया भी ना पड़ने दें । चाहे तो हम खुद के हिस्से कितनी भी तकलीफ लिख दे ।
यही तो होने वाला हैं । नियति खुद को बदल रही हैं । प्रियदर्शिनी का दर्द , अयंक और शंशिता को भी लपेट रहा हैं अपनी बाहों ..... कुछ दर्द अब उनके हिस्से भी होंगे ।
कुछ राज होंगे जो सबके सामने उजागर होंगे। अतित के वो सभी पन्ने खुलेंगे , जो सब कुछ बदल कर रखे देंगे ।
प्रियदर्शिनी की जिंदगी के वो पन्ने जो कभी खुले ही नहीं वो पन्ने , जब सबके सामने आयेगे तो क्या हालात होंगे ?
अयंक और शंशिता इस सफर को पूरा कर पायेंगे । यह सब तो भविष्य के गर्भ में ही छूपा हैं ।
सभी सवालों के जवाब जानने के लिए पढ़िये मेरी कहानी ,
" ताकती निगाहें - इंतजार"
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आगे .......
लंच के बाद, रीना ने अचानक से अयंक और शंशिता की ओर देखकर कहा, "भैया, दीदी, जल्दी मत जाओ न, मुझे आपकी बहुत याद आएगी और फिर आप मुझे भूल गये तो वापिस जाने के बाद । क्या ऐसा नहीं हो सकता कि आप कुछ और दिन रुक जाते " उसकी बात सुनकर उन दोनों का दिल भारी हो गया।
अयंक ने उसे गले लगाते हुए धीरे से कहा, "तुम हमेशा हमारे दिल में रहोगी। भले ही दूर रहें, पर ये दिल का रिश्ता कभी टूटेगा नहीं और जब दिल में प्यार हो तो दूरियां भी पास होने का अहसास दिलाती हैं । फिर हम फोन पर तो कनेक्ट होंगे ना । आपको जब भी मेरी याद आये , आप मुझे काॅल कर लेना । "
शंशिता ने भी रीना को गले लगाया और कहा, "हम तुमसे बहुत प्यार करते हैं रीना । हम तुम्हें कभी नहीं भूल सकते हैं । "
अलविदा कहने का वक्त आया तो रीना की आंखों में भी आंसू थे, और अयंक और शंशिता की आंखों में भी।
आंसु तो मिसेज मूर्ति की आंखों में भी थे लेकिन उन्होंने अपने चेहरे को कठोर कर लिया ।
अयंक और शंशिता ने उनके चरण स्पर्श करें तो मिसेज मूर्ति ने कहां ," ईश्वर करे तुम्हारी राह को मंजिल मिल जाये । " और कुछ उनके मुख से निकल ही नहीं पाया ।
पता नहीं अब कब होगी , उनकी इनसे मुलाकात
जैसे ही वो दोनों रीना से गले मिले, वो खुद को रोक नहीं पाए और उनके आंसू बह निकले। वो कुछ समय तक यूं ही गले लगे रहे, और इस बीच एक गहरा, अनकहा रिश्ता बन चुका था – एक ऐसा रिश्ता जो दूरियों के बावजूद भी कभी कम नहीं होगा।
अयंक और शंशिता, मिसेज मूर्ति और रीना से विदा लेकर वापिस , जोधपुर की उन्हीं गलियों में निकल चुके थे । जहां अतित का एक कतरे भर से रंगा पन्ना फड़फड़ाते हुए उनके आने के इंतजार में रास्ते पर ही निग़ाहें जमाये बैठा था ।
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जोधपुर में आज अलग ही चहल पहल थी । सभी और दबी आवाज में फुसफुसाहट हो रही थी ।
कुछ लोग समुह बनाकर आपस में बात कर रहे थे ।
" अरे भाईयों सुना , आज जोधपुर में कयामत आ गयी "
सुना तो मैंने भी हैं भाई लेकिन विश्वास नहीं हो रहा हैं "
अरे ऐसा भी क्या हो गया तनिक हमें भी बताओं "उसकै समर्थन में ही कुछ लोग और हां में हां मिलाते हैं । "
" आज बड़े महाराज का श्राद्ध हैं और पता हैं । यह श्राद्ध राजकुमारी सा ने खुद ही किया हैं । "
" लेकिन मैंने तो सुना था कि वह पिछले दस सालों से अपने कमरे से बाहर ही नहीं निकली तो फिर क्या राजपरिवार के लोग उनके बारे में झूठी अपवाह फैला रहे हैं । "
" मैंने खुद अपनी आंखों से उन्हें , बड़े महाराज की श्राद्ध पूजा में बैठे देखा हैं और तुम सब भी जानते हो ना , राजपरिवार के सभी लोग उनसे घृणा करते हैं और यही घृणा उनके लिए हम सब के मन में भी भरना चाहते हैं । "
" पता नहीं हमारी राजकुमारी सा की जिंदगी में कब खुशी या आयेगी । "
सभी लोग सहानुभूति के साथ अपने अपने रास्ते निकल चुके थे ।
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अयंक और शंशिता के जाने के बाद , मिसेज मूर्ति किसी को फोन मिलाते हुए , " मैंने , उनको वो ही बताया , जो तुमने कहां था । तुम्हें लगता हैं यह प्लान काम करेगा ।
सामने से ," आप जानती हैं आपने मेरी कितनी बड़ी मदद की हैं । वरना हम सब ने जो उसके साथ किया हैं ना अब खुदसे नजरें मिलाने के काबिल तक ना रहे । "
मिसेज मूर्ति परेशानी से , " लेकिन अगर उन्हें पता चल गया कि मेरा कभी ट्रांसफर मुम्बई हुआ ही नहीं था क्योंकि मेरी उस बात के लिए उनकी आंखों में भरोसा कम ही नजर आ रहा था । "
सामने से , " सब कुछ इत्तेफाक ही लगना चाहिए मैम , वरना सब कुछ बर्बाद हो जायेगा । अयंक में सोच समझ कर फैसले लेने की ताकत नहीं हैं । ऐसे में उसे सब कुछ अभी पता नहीं चलना चाहिए । पहले उसे टुकड़ों में प्रियदर्शनी के दर्द से रुबरु होना होगा । सारा सच जानने के लिए उसे खुद छटपटाना होगा । तभी वह एहसास कर पायेगा कि जीवन में सच्चे रिश्तों की क्या अहमियत होता हैं और फिर इन सब के साथ हमारा मकसद भी तो पूरा करना हैं । बिछड़े रिश्तों को फिर से मिलाना आसान नहीं होगा । जो सब कुछ मेरी गलतीयो की वजह से बिगड़ा हैं उसे सही भी तो करना हैं । नफ़रत की हद देखी हैं अब तक सभीने लेकिन अब मोहब्बत की हद तो देखनी ही होगी ।
अच्छा आपका शुक्रिया जो आपने मेरी इतनी मदद की आपके बीना तो कभी संभव ही ना था और प्लीज उस डायरी को संभाल कर रखना क्योंकि सही वक्त आने पर उस डायरी को सही हाथों में लौटना है । "
मिसेज मूर्ति खुशी से , " अब तो बस अच्छे वक्त का इंतजार है । "
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शंशिता कार ड्राइव कर रही थी और अयंक उसके बगल में बैठा परेशानी से बाहर की और देख रहा था ।
शंशिता उसे परेशानी में देख , " तुम इतने परेशान क्यों लग रहे हैं । "
अयंक परेशानी से शंशिता की तरफ देखते हुए , " परेशान तो मैं हूं । पता नहीं क्यों ऐसा लग रहा हैं कि मिसेज मूर्ति ने हमे सब कुछ नहीं बताया । लग रहा हैं जैसे उन्होंने हमें बस ऊपर ऊपर से बताया लेकिन सब कुछ स्पष्ट नहीं बताया जैसे उन्होंने हमसे प्रियदर्शिनी जी की कहानी का सबसे अहम हिस्सा छूपा लिया ।
शंशिता , लग तो मुझे भी ऐसा ही रहा हैं । क्योंकि तुम्हारे यह बोलने पर कि प्रिंसिपल ने तो बताया कि प्रियदर्शिनी जी के टाॅप करने के समय आप ही प्रिंसिपल थी । वो एक पल के लिए सकपका गयी थी , जैसे खुद को संयमित रखने की कोशिश कर रही हों ।
जारी हैं .......
अंशिका और अयंक के सफर की राहों को कभी मंजिल मिलेगी ?
क्या होगा जब सब कुछ सामने होगा
जानने के लिए पढ़िये ताकती निगाहें - इंतजार