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इश्क़ बिना चैन कहाँ

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Ravina Sastiya

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धैर्य राणा जिसकी ज़िंदगी उसकी पत्नी की मौत के बाद जैसे थम-सी गई थी।वो अब बस अपनी पाँच साल के बेटी की परवरिश में ही खुद को डुबो चुका था।लेकिन उसकी माँ, अपने बेटे को यूँ तन्हा टूटते नहीं देख पा रही थी।बार-बार कहती रही — "ज़िंदगी फिर से जीने की कोशिश कर...

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धैर्य राणा

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पंखुड़ी

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अंशी

Healer

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Page 1 of 2

  • 1. इश्क़ बिना चैन कहाँ - Chapter 1

    Words: 2835

    Estimated Reading Time: 18 min

    ज़िंदगी थमी नहीं थी… बस धैर्य ने चलना छोड़ दिया था।

    पत्नी की मौत ने उसकी दुनिया को ऐसा झटका दिया था कि उसने मुस्कुराना तक छोड़ दिया था। हर सुबह सिर्फ़ बेटी अंशी की ज़रूरतें पूरी करने के लिए उठता, हर रात उसे लोरी सुनाकर सुलाता  और खुद किसी अंधेरे में डूब जाता।

    पाँच साल की  नन्ही ' अंशी ' की आँखों में  सवाल होते थे —

    "पापा, आप मुस्कुराते क्यों नहीं?"

    "क्या मम्मा वापस नहीं आएँगी?"

    धैर्य राणा के पास इन सवालों का कोई जवाब नहीं था… और अब उसकी माँ  देवकी जी की चिंता भी बढ़ती जा रही थी।

    "धैर्य, एक बार किसी से मिल तो सही…"

    "मैं किसी से मिल नहीं सकता, माँ।"

    "तो फिर जी क्यों रहे हो? अंशी के लिए ही सही, थोड़ी ज़िंदगी फिर से जीने की कोशिश कर बेटा…"

    दिल्ली की गर्मियों का जून का महीना था। हवा में भी जैसे बेचैन थी।

    धैर्य राणा, ब्लैक शर्ट और ग्रे ट्राउज़र पहने, रेस्टोरेंट की उस टेबल पर बैठा था जहाँ उसकी माँ देवकी जी ने  उसकी मुलाकात लड़की  से  तय कर दी थी।

    उसके चेहरे पर कोई उत्साह नहीं था... कुछ था तो  बस एक ठंडी, थकी हुई नज़ाकत।

    वो घड़ी की ओर देखता रहा —

    "सिर्फ़ एक मुलाक़ात… उसके बाद माँ को साफ़ मना कर दूँगा।"

    और तभी…

    रेस्टोरेंट के दरवाज़े से एक लड़की अंदर आई।

    ब्लू डेनिम जींस पर उसने हल्के गुलाबी रंग का लंबा आ कुर्ता पहना हुआ था। उसके  सीधे सिल्की बाल कंधे तक आ रहे थे।

    आंखे छोटी छोटी सी थी उस लड़की की। उसकी हाइट लगभग पाँच फ़ुट चार इंच रही होगी।

    वो यूँ चली आ रही थी जैसे उसे  फ़र्क़ ही नहीं पड़ता कि कौन देख रहा है और कौन नहीं।

    धैर्य एक पल को जड़ हो गया।

    उसका दिल... जैसे किसी ने कस कर मुठ्ठी में भींच लिया हो।

    "नहीं... ये..."

    उसके होंठ खुद-ब-खुद फड़फड़ाए, लेकिन आवाज़ गले में अटक सी गई।

    वो लड़की अब ठीक उसी टेबल की ओर बढ़ रही थी जहाँ धैर्य बैठा था।

    पाँच साल पहले...

    उस रात धैर्य एक इमरजेंसी केस के चलते हॉस्पिटल से देर से निकल पाया था।

    रात के क़रीब साढ़े ग्यारह बज रहे थे।

    सड़क सुनसान थी।

    तभी...

    "धप्प!"

    एक लड़की उसकी कार के सामने आ गई।

    धैर्य ने ब्रेक दबाया।

    टायरों की चीखती आवाज़ और उसके दिल की धड़कन... दोनों एक साथ रुकीं।

    धैर्य ने सामने देखा…

    एक लड़की खड़ी थी।

    उसकी साँस अटक गई।

    ऊपर ब्लैक स्लीवलेस क्रॉप टॉप पहने और, नीचे रेड कलर की शॉर्ट घुटने से ऊपर तक की स्कर्ट पहने हुए…जिससे उसकी पतली, लंबी, दूध-सी गौरी टाँगें साफ दिख रही थी…

    कंधे तक आते बालों को उसने एक क्लिप से पीछे कस कर बाँधा था, जिससे उसकी छोटी सी झुमती हुई झुमकी और गर्दन साफ़ दिखाई दे रही थी।

    वो लड़की यूँ खड़ी थी जैसे कुछ हुआ ही न हो।

    फिर वो अपनी उसी बेपरवाह चाल में धैर्य की कार के पास आई, और फ्रंट विंडो पर उँगली से नॉक किया।

    "ओए हैंडसम..."

    उसने होंठों को गोल करते हुए धीमे से मुस्कुरा कर कहा।

    धैर्य कुछ कहने ही वाला था कि लड़की फिर बोली —

    "डोंट वरी, आई एम नॉट ए थीफ़… बस लिफ्ट चाहिए थी।"

    धैर्य हिचकिचाया।

    इस वक़्त… अकेली लड़की… और इस लिबास में?

    वो बोला —"देखिए, मैं—"

    "रिलैक्स डॉ. साहब," उसने कहा जैसे उसे सब पता हो।

    "MG रोड तक छोड़ दीजिए बस। आई प्रॉमिस,आई वोन्ट फ्लर्ट मच ।"

    धैर्य की आँखें चौड़ी हो गईं —

    "तुम्हें कैसे पता मैं डॉक्टर हूँ?"

    लड़की ने अपनी पतली गर्दन मोड़ते हुए कहा —

    "ID कार्ड, डैशबोर्ड पर पड़ा है।"

    और फिर हँस दी।

    धैर्य कुछ समझ नहीं पाया…

    पर जाने क्यों, उसने दरवाज़ा खोल दिया।

    "बैठो…"

    उसने बेमन से कहा।

    वो लड़की दरवाज़ा खोलकर बैठ गई… बिना एक पल की देरी किए।

    "थैंक गॉड , लिफ्ट मिल गई। " उसने अपनी स्कर्ट ठीक करते हुए कहा।

    वो लड़की जो अब उसकी बगल वाली सीट पर बड़ी आराम से बैठी थी .. कभी अपनी स्कर्ट ठीक करती, कभी कार की इनसाइड लाइट को छेड़ती, और बीच-बीच में उसे बड़ी चालाकी से घूरती।

    "वैसे..."

    उसने अचानक उसकी ओर झुकते हुए कहा —

    "आप जैसे सीरियस दिखने वाले लोग अंदर से बड़े रोमांटिक होते हैं, है न?"

    धैर्य ने उसकी ओर देखा भी नहीं।

    "कुछ नहीं बोले? तो मतलब, मैं सही हूँ?"

    धैर्य ने बस एक हल्की सांस ली, कुछ नहीं कहा।

    वो लड़की खिलखिला कर हँस पड़ी।

    धैर्य ने एक नज़र उस पर डाली ...उसके बोलने का अंदाज़… सब कुछ बेशक शोख था, लेकिन कहीं से भी वो परिपक्व नहीं लगी।

    उसके चेहरे पर थी एक कच्ची सी मासूमियत।

    आँखों में था जिज्ञासा का रंग, और उसके बोलने में वो बेबाक छेड़छाड़ जो अक्सर उम्र के सोलहवें-सत्रहवें पड़ाव पर पहुँचते ही आ जाती है।

    वो ज़्यादा से ज़्यादा सत्रह या अठारह साल की रही होगी।

    "तो डॉक्टर साहब,"

    उसने पैर एक के ऊपर एक चढ़ाते हुए कहा,

    "आपकी वाइफ को जलन नहीं होगी मुझे बिठा कर?"

    धैर्य का हाथ स्टियरिंग पर जकड़ गया।

    उसकी साँसें हल्के से थमीं, पर उसने कुछ नहीं कहा।

    "ओह…"

    लड़की ने तुरंत अपनी पतली गर्दन मोड़ी,

    "शायद तलाक हो गया है, राइट?"

    धैर्य अब भी चुप था।

    "या… क्या पता… विधुर हो आप,"

    उसने एकदम मासूम चेहरा बनाते हुए कहा,

    "ओह माय गॉड… सॉरी! अगर ऐसा कुछ है तो…"

    धैर्य की आँखें एक पल को सिकुड़ीं।

    उसने बस एक गहरी साँस ली, और कहा —

    "यू आर टॉकिंग टु मच।"

    लड़की ने हँसते हुए कहा —

    "अच्छा? तो चुप रहूँ क्या?"

    उसने होंठों पर ऊँगली रखी और धीरे से ‘श्श्श्’ किया।

    फिर वापस अगले ही पल वो बोल पड़ी —

    "वैसे, आप बहुत सीरियस टाइप लगते हो, मतलब, ड्राइविंग भी ऐसे कर रहे हो जैसे ओपन हार्ट सर्जरी कर रहे हो।"

    धैर्य का चेहरा  अभी भी तटस्थ ही  रहा।

    उसने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी।

    "वैसे मिस्टर हैंडसम, नाम तो बता दीजिए अपना।"

    धैर्य की हथेलियाँ स्टियरिंग पर और कस गईं।

    "वैसे मिस्टर हैंडसम..."

    वो लड़की फिर बोलने ही वाली थी , कि—

    एक झटके से धैर्य ने ब्रेक मारे।

    और गाड़ी सड़क किनारे  रोकी।

    वो कुछ नहीं बोला।

    बस पलटा… और अगली ही पल—

    अपनी ऊँगली उसके होठों पर रख दी।

    "बस। बहुत बोल लिया तुमने।"

    उसकी आवाज़ बेहद ठंडी थी।

    एक पल को लगा, जैसे अब ये लड़की काँप जाएगी…

    भाग जाएगी…

    या कम से कम झेंप कर चुप हो जाएगी।

    लेकिन…

    वो तो खिलखिला पड़ी।

    धीरे से उसकी ऊँगली अपने होठों से हटाई…

    और नज़रों में वही शरारत लेकर बोली —

    "ओह… छूने का बहाना अच्छा था हैंडसम साहब!"

    धैर्य एक पल को ठहर गया।

    "यू आर इनसॉलेंट!"

    धैर्य दाँत भींच कर बोल पड़ा।

    "और आप बहुत स्वीट!"

    वो मुस्कुराई सी बोली।

    धैर्य ने गहरी साँस ली।

    "उतरो गाड़ी से।"

    "ओह… आर्डर? या फिर डर लगने लगा?"

    "कह रहा हूँ, उतरो।"

    लड़की ने गहरी साँस ली, फिर बड़ी ड्रामा क्वीन स्टाइल में अपना बैग उठाया,

    और बोली —

    "ठीक है जनाब... जा रही हूँ… लेकिन इस बेरुखी का बदला ज़रूर लूँगी।"

    वो दरवाज़ा खोलकर उतरी।

    MG रोड के एक कोने पर, कुछ दूरी पर एक क्लासी कैफ़े से रंगीन लाइट्स और लाउड म्यूज़िक की हल्की झलक आ रही थी।

    भीतर पार्टी का माहौल था और कुछ लड़के बाहर सिगरेट पीते खड़े थे, नज़रों में वो बेहूदा घूरन थी... जो किसी भी लड़की को असहज कर सकती है।

    धैर्य की निगाह अनायास ही उन लड़कों पर पड़ी ।

    और फिर...

    उस बच्ची सी लड़की पर जो अब बेफिक्री से स्कर्ट ठीक करते हुए, उन्हीं के सामने से गुजरने लगी।

    धैर्य की साँस एक पल को थम गई।

    “नहीं…”

    उसने मन में कहा,

    "इसे यूँ अकेले नहीं छोड़ सकता।"

    गाड़ी से उतरते हुए वो उसी दिशा में बढ़ा —

    “सुनो…”

    वो लड़की ठिठकी।

    “अब क्या? मारोगे? या यहां तक छोड़ने का किराया भी लोगे?”

    “चलो… वापस गाड़ी में बैठो।”

    धैर्य ने कहा।

    “क्यूँ?”

    उसकी आँखें गोल हुईं।

    धैर्य ने बस एक नज़र उसकी स्कर्ट की लंबाई और सड़क के उस पार खड़े लड़कों की नज़रों को देखकर कहा —

    "तुम्हारे जैसे कपड़े देखकर बहुतों के इरादे बिगड़ जाते हैं… और  मै नहीं चाहता कि कोई बच्ची मुसीबत में पड़े।"

    लड़की ने होंठों को गोल किया, जैसे कुछ बोलने वाली हो —

    पर तभी…

    "ओए स्वीटहार्ट!"

    पीछे से आवाज़ आई।

    दो लड़कियाँ हँसती हुईं उस कैफ़े से बाहर आईं ...

    टाइट जींस, क्रॉप टॉप, और लंबे-लंबे नकली नेल्स में लिपटी उनकी पर्सनालिटी, उनकी उम्र से कही ज्यादा हाई थी।

    " अबे तू इतनी लेट क्यों आई...पार्टी तो  खतम हो गई… " एक लड़की मुंह बिचका कर बोली।

    वो लड़की अचानक से चौंकी, फिर रोती हुई शक्ल बनाते हुए बोली —

    "अरे यार… अब मेरा यहां इतना सज धज कर आने का कोई फायदा नहीं हुआ ?"

    और  फिर वो वापस धैर्य की तरफ घूमकर बोली —

    "हे हैंडसम… प्लीज़… वापस लिफ्ट दे दोगे क्या?"

    धैर्य ने हल्के से आँखें  मिच ली ।

    मन ही मन खुद को कोसने लगा —“ कहा फंस गया मैं…”

    मगर फिर... सन्नाटे वाली सड़क, और इन तीनों की चहकती हँसी में घुलती वो अकेली सी मासूम लड़की.....उसे फिक्र होने लगी कि,कही कुछ गलत न हो जाए।

    "बैठो।"

    उसने ठंडी आवाज़ में कहा।

    " थैंक यू ..."

    वो चहकती हुई कार में बैठ गई।

    बाकी दो फ्रेंड्स पीछे की ओर आईं और कार की विंडो पर झुकीं।

    "हे हैंडसम..."

    एक ने आँख मारते हुए कहा।

    "तुम सच में डॉक्टर हो या सिर्फ कॉस्मेटिकली कूल लग रहे हो?"

    दूसरी ने तुरंत कहा —

    "OMG, तुम्हारी आँखें… लिटरली कातिल हैं!"

    धैर्य ने मुड़कर देखा भी नहीं।

    तभी…

    वो लड़की जो उसकी बगल में बैठी थी, ज़रा झटके से उसकी बाँहों में सिमट गई —

    "बाय गर्ल्स! और स्टे अवे! डॉक्टर साहब सिर्फ मेरे हैं!"

    फ्रेंड्स चौंकीं।

    "ओह-ओह…  ओके ओके!"

    एक ने हँसते हुए कहा।

    "लगता है, किसी की रात बन गई…"

    दूसरी ने आँख मारी और दोनों खिलखिला कर  

    चली गईं।

    अब कार में सन्नाटा था।

    धैर्य ने फौरन अपनी बाँह झटकते हुए कहा —

    "तुम्हें अपनी उम्र का पता है भी या नहीं?"

    वो लड़की हँसी रोकते हुए बोली —

    "हूँ… 17 और हाफ… क्यों? ज़्यादा लगती हूँ क्या?"

    "नहीं, कम लगती हो… आठ साल की बच्ची!"

    धैर्य चिढ़ कर बोला।

    "बच्ची?"

    उसने चौंकने का नाटक किया।

    "डॉक्टर साहब… अभी आपने खुद मुझे चुप कराने के बहाने छुआ था। भूल गए?"

    धैर्य ने स्टियरिंग घुमाया, और बड़बड़ाया —

    "गॉड… ये फुटकी लड़की मुझे पागल कर देगी..."

    वो मुस्कुरा दी।

    "मतलब... लिफ्ट तो मिल गई, अब अगला स्टॉप क्या है? डिनर? या किडनैपिंग?"

    धैर्य ने एक तीखी नज़र उसकी तरफ डाली, फिर कहा —

    "अगर पाँच मिनट और चुप नहीं रही ना, तो मैं तुम्हें पुलिस स्टेशन ड्रॉप कर दूँगा।"

    वो फिर खिलखिला कर 

    हँस पड़ी।

    "आई लव यू डॉ.  हैंडसम!"

    धैर्य ने ज़ोर से ब्रेक मारा।

    "चुप।"

    वो खीझ कर बोला।

    "यू नो…"

    वो लड़की अचानक फिर बोल पड़ी,

    "अगर तुम पुलिस स्टेशन भी छोड़ दो ना… तो मैं वहाँ भी तुम्हारे ही साथ बैठूंगी। बोल दूंगी… आइ एम मेंटली अनस्टेबल। एंड ओनली डॉक्टर हैंडसम कैन ट्रीट मी!"

    धैर्य ने आँखें बंद कर लीं… गहरी साँस ली…

    फिर बोला —

    "मैं सच में तुम्हें कहीं फेंक देना चाहता हूँ अभी।"

    "फेंकना है?"

    वो आँखें फैलाकर बोली —

    "ओह माय गॉड, रफ लव! मुझपे ऐसा ही प्यार करो डॉ. साहब!"

    "हे भगवान…"

    धैर्य ने जैसे माथा पीट लिया हो।

    "तुम नॉर्मल हो भी या नहीं?"

    वो लड़की थोड़ी देर चुप रही। फिर बोली —

    "नहीं। नॉर्मल लड़कियाँ इतनी रात को अजनबी की गाड़ी में नहीं बैठतीं।"

    वो फिर खिलखिला कर हँस पड़ी।

    धैर्य के सब्र का बाँध अब लगभग टूटने को था।

    उसने जबरदस्ती अपनी नज़रों को सड़क पर टिकाया…

    पर उस लड़की की आवाज़ जैसे उसके कानों में सीटी बजा रही थी।

    “नॉर्मल लड़कियाँ इतनी रात को अजनबी की गाड़ी में नहीं बैठतीं।”

    वो फिर से खिलखिलाई थी।

    जैसे कोई पागल, जिसे किसी चीज़ का कोई डर ही न हो।

    धैर्य ने मन ही मन कहा —

    "कसम से... अगर दो मिनट और बोली न, तो दाँत तोड़ दूँगा इसके!"

    "एड्रेस क्या है तुम्हारा?"

    उसने सख्त आवाज़ में पूछा, जैसे अब कोई रुकावट नहीं चाहता।

    "ओह… फाइनली! ड्रॉप कर ही रहे हो मुझे!"

    वो लड़की ऐसे मुस्कुराई, जैसे किसी अवॉर्ड सेरेमनी में उसका नाम अनाउंस हुआ हो।

    "गोल्डन रोज़ गर्ल्स हॉस्टल।"

    उसने स्टाइल में कहा,

    "पास ही में है… बस दो सिग्नल छोड़ो, फिर लेफ्ट… फिर—"

    " ओके।"

    धैर्य ने स्टियरिंग कस कर पकड़ा, और कार तेज़ कर दी।

    पर उसके बगल में बैठी लड़की अब भी वही तेज़ी से बकबक कर रही थी…

    "वैसे तुम्हारी कार बहुत कूल है… और तुम भी… और तुम्हारा एंग्री फेस तो हॉ-हॉ-हॉट!"

    धैर्य ने जवाब नहीं दिया।

    वो चुप होने की उम्मीद कर रहा था… लेकिन…

    "वैसे डॉक्टर हैंडसम… तुम कौन सा हॉस्पिटल में हो? कोई क्यूट सी नर्स भी है या बस तुम अकेले ही क्लीनिक में सबका इलाज कर लेते हो?"

    धैर्य ने होंठ भींच लिए।

    "और प्लीज़ ये मत कहना कि तुम हार्ट सर्जन हो… वरना मैं तो सच में बेहोश हो जाऊंगी…"

    वो खुद ही हँसने लगी।

    "वैसे तुम्हारी साइलेंस भी बहुत कातिल है… पर सच बताऊँ लड़कियाँ ऐसे लड़कों के पीछे मरती हैं, जो कम बोलते हैं … यू नो… एक्शन वाले टाइप"

    धैर्य अब सच में सोच रहा था कि कार रोककर इस लड़की को बाहर फेंक दे।

    "वैसे… क्या तुम कभी प्यार में पड़े हो?"

    धैर्य की आँखें थोड़ी सिकुड़ीं।

    "मतलब… मेरा तो दिल अब भी काबू में है… पर तुम हो ही इतने क्रश टाइप… और आजकल के लड़के तो बस मीठा बोलते हैं, काम का कुछ नहीं… लेकिन तुम… तुम तो सीधे-सीधे ही डांट देते हो… सेक्सी!"

    "बस करो।"

    धैर्य के मुँह से सख्त आवाज़ निकली ।

    वो लड़की ज़रा सी चुप हुई। फिर धीमे से बोली — "ओके… सॉरी…"

    दो सेकंड के लिए कार में शांति छा गई।

    धैर्य ने राहत की साँस ली…

    लेकिन…

    "वैसे… चुप रहने से मुझे पैनिक अटैक आ जाता है।"

    धैर्य की आँखें छत की तरफ गईं, जैसे भगवान से दुआ माँग रहा हो।

    "मतलब... अगर मैं चुप रही तो मेरा दिमाग़ उल्टी गिनती गिनने लगता है… 10...9...8...7... और फिर अचानक से— बूम! मैं रोने लगती हूँ।"

    "रोओगी तो यहीं छोड़ दूँगा।"

    धैर्य अब तमतमाया सा बोला।

    "अरे नहीं! ठीक है! मैं चुप! पक्का चुप!"

    उसने होंठों पर उंगली रखी और सिर झुका लिया।

    धैर्य ने एक सुकून की साँस ली।

    लेकिन दो सेकंड बाद ही —

    "लेकिन एक बात बताओ… तुम्हारा नाम क्या है?"

    "डॉ. धैर्य राणा।"

    उसने ज़बर्दस्ती कहा।

    "ओह माई गॉड! व्हाट अ नेम!! ऐसा लग रहा कोई फिल्म का हीरो हो… ‘डॉ. धैर्य राणा’, द एंग्री हीलर!"

    धैर्य ने कार का हॉर्न ज़ोर से बजा दिया, जैसे झुंझलाहट निकाल रहा हो।

    "बस… पहुँचने ही वाले हैं…"

    वो खुद से बड़बड़ाया।

    कुछ ही देर में कार गर्ल्स हॉस्टल के सामने आकर रुकी।

    सड़क सुनसान थी, मगर हॉस्टल की इमारत के ऊपरी फ्लोर से कुछ  लाइटें झाँक रही थीं।

    धैर्य ने घड़ी देखी...

    रात के 12:47 हो गए थे।

    बगल वाली सीट पर बैठी लड़की अब भी मुस्कुरा रही थी…

    उसकी नज़रें धैर्य के  चेहरे  पर टिकी थीं।

    "थैंक यू फॉर द लिफ्ट… डॉ. हैंडसम,"

    उसने धीमे से कहा।

    धैर्य ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी।

    वो बस सिर झुकाए बैठा रहा।

    वो लड़की अब दरवाज़ा खोलने ही वाली थी…

    फिर एक पल को रुकी।

    धैर्य की ओर झुकी।

    और…

    उसने हल्के से उसके गाल पर एक अपने होठों का स्पर्श छोड़  दिया।

    धैर्य चौंक गया।

    "तुम…!"

    वो पलटा ही था कि लड़की पहले ही दरवाज़ा खोल चुकी थी।

    "गुड नाइट मिस्टर सीरियस!"

    उसने चुलबुली मुस्कान के साथ कहा।

    "आई होप अगली बार जब मिलें तो… थोड़ा स्माइल करोगे!"

    और फिर…

    वो गेट की ओर चल पड़ी।

    धैर्य गाड़ी में बैठा उसे जाते हुए देखता रहा…

    वर्तमान में ....

    रेस्टोरेंट की उसी टेबल पर...

    धैर्य अब भी घड़ी की सुइयों को देख रहा था।

    दिल्ली की गर्मी के बीच, AC की ठंडी हवा भी उसकी बेचैनी को कम नहीं कर पा रही थी।

    और तभी...

    सामने वही लड़की।

    ब्लू डेनिम और हल्का गुलाबी कुर्ता पहने वो ही लड़कीअब ठीक उसी टेबल तक आ चुकी थी…

    उसने बैठते ही बड़े आराम से कहा —

    "सुनिए जी, कहाँ खो गए आप?"

    धैर्य एक पल को कुछ बोल ही नहीं पाया।

    उसके होंठ सूख गए थे।

    क्या ये वही है...?

    लेकिन कैसे...?

    वो अब बहुत अलग लग रही थी...

    सलीके से बैठी, आँखों में शरम , और बातों में एक अजीब-सी सादगी लिए...

    और बाते तो एक संस्कारी, सभ्य लड़की की तरह कर रही।

    "मम्मी ने बताया, आप अक्सर मुस्कुराते नहीं… लेकिन आपकी बेटी.... सॉरी सॉरी हमारी बेटी की तस्वीर देखी थी मैंने… बहुत प्यारी है।"

    धैर्य का माथा ठनका।

    ये… वही लड़की है…?

    जो उस रात "डॉ. हैंडसम" कहती हुई, गाल पर किस करके भाग गई थी…?

    वो अब चक्कर-सा खाने लगा।

    दिल तेज़ धड़कने लगा…

    पसीना हथेलियों में आ गया।

    लड़की अब भी मुस्कुरा कर कुछ कह रही थी… लेकिन धैर्य को कुछ सुनाई ही नहीं दे रहा था।

    उसने कुर्सी से उठते हुए कहा —

    "एक्सक्यूज़ मी…"

    और बिना लड़की की ओर देखे…

    रेस्टोरेंट से चुपचाप बाहर निकल गया।

    वो लड़की वहीं बैठी रह गई…

    पलभर को चुप।

    फिर हल्के से मुस्कुरा दी —

    "अब भी उतने ही सीरियस हो, डॉ. हैंडसम।"

    Continue.....

    तो ये थी नई कहानी की शुरुआत....

    जल्दी से बताओ कैसा लगा पहला चैप्टर?😉

  • 2. इश्क़ बिना चैन कहाँ - Chapter 2

    Words: 1592

    Estimated Reading Time: 10 min

    रात का वक़्त था।
    दिल्ली की गर्मी में भी धैर्य के माथे पर पसीना ठहरा हुआ था  लेकिन ये गर्मी का नहीं, किसी भीतर के उलझाव का असर था।

    वो बग़ैर किसी से बोले घर में दाख़िल हुआ और सीधा अपने कमरे में  जाने लगा।
    लेकिन… माँ देवकी जी पहले से ही ड्रॉइंग रूम में बैठी उसका इंतज़ार कर रही थीं।

    जैसे ही धैर्य पास से गुज़रा, आवाज़ आई —
    "रुक जा, अब कौन सी आफ़त आ गई तुझपे?"

    धैर्य ने रुकते हुए थकी आवाज़ में कहा —
    "माँ, प्लीज़… आज डोंट स्टार्ट…"

    देवकी जी उठकर उसके पास आईं।
    "क्या मतलब 'डोंट स्टार्ट'? तुझसे एक ही बात तो की थी — लड़की से मिल ले। और तू रेस्टोरेंट से उठकर चला आया?"

    "मैं मिल तो लिया न माँ।"

    "तो?"

    धैर्य ने सीधा जवाब दिया —
    "मुझे लड़की पसंद नहीं आई।"

    देवकी जी ठिठक गईं।
    "नहीं पसंद आई?"
    "क्यों? बाल थोड़े छोटे थे? नाखूनों में नेलपॉलिश थी? या बस तुझे आदत पड़ चुकी है अपने अंधेरे में रहने की?"

    धैर्य खीझ कर बोला —
    "माँ, मैं बिना वजह कुछ नहीं कह रहा। मुझे नहीं लगता मैं उसके साथ… वो मेरी लाइफ़ का हिस्सा बन सकती है।"

    देवकी जी हाथ नचाते हुए बोलीं —
    "और क्यूँ नहीं बन सकती? क्या कमी है उस बच्ची में?"

    धैर्य चुप ही  रहा।

    तभी माँ का सुर और ऊँचा हो गया —
    "इतनी प्यारी, सुंदर, सलीकेदार लड़की… और तू कह रहा है पसंद नहीं आई?मुझ में ही कोई खोट रह गया था , जो तुझे अच्छे संस्कार न दे सकी…"

    धैर्य ने झल्लाकर कहा —
    "माँ! प्लीज़… ये कोई ब्लैकमेलिंग का तरीका नहीं है।"


    देवकी जी की आँखें भर आईं —
    "मैं क्या चाहती हूँ, सिर्फ़ इतना कि मेरी बहू आँगन में हँसी लाए… मेरी पोती के माथे पे माँ  का हाथ फिर से महसूस हों… और तू है कि हर लड़की में कोई ना कोई बहाना ढूँढ लेता है।"

    धैर्य चुपचाप खड़ा रहा…
    वो कुछ कहना चाहता था, लेकिन शब्द जैसे गले में अटक गए थे।

    माँ ने धीरे से कहा —
    "उस बच्ची ने तुझसे कुछ गलत कहा? बत्तमीज़ी की? तुझे नीचा दिखाया? नहीं ना?"

    धैर्य ने धीमे से कहा —
    "नहीं… लेकिन..."

    "तो फिर?"
    माँ आगे बढ़ीं —
    "जो लड़की पहली मुलाक़ात में ही अंशी की बात करे, उसके लिए 'संस्कार' का सर्टिफिकेट चाहिए क्या तुझे?"

    धैर्य का चेहरा हल्का सा ढल गया।
    वो अब भी कुछ सोच ही रहा था कि माँ ने हथियार फेंकते हुए कहा —

    "देख ले बेटा…तू इस बार मना नहीं करेगा!
    वरना ये बुढ़िया ज़्यादा दिन तक इस हवेली की दीवारों से तेरी चुप्पी नहीं सह पाएगी।"



    रात के साढ़े ग्यारह बजे थे।
    धैर्य अपने कमरे में बैठा था…
    लाइट्स बंद थीं। बस एक टेबल लैम्प जल रहा था जिसकी
    पीली रौशनी में धैर्य की आँखें सोच में डूबी थीं।

    वो टेबल पर कुहनी टिकाकर अपने माथे को हथेलियों से दबा रहा था… जैसे खुद के भीतर की आवाज़ें बंद करना चाहता हो।

    लेकिन यादें... कहाँ रुकती हैं?

    उसकी आँखों में फिर वही लड़की घूम गई —

    “ओए हैंडसम…”
    “डोंट वरी, आई एम नॉट ए थीफ़…”
    “आई लव यू, डॉ. हैंडसम…”



    धैर्य ने आँखें कस कर भींच लीं।
    "ये कैसे हो सकता है?"
    "वो… और ये…"

    उसके दिमाग़ में रेस्टोरेंट का आज का सीन चल रहा था —
    वही लड़की… जो अब एकदम बदल चुकी थी।
    धीरे बोलने वाली, नज़रे झुकाकर बात करने वाली…
    और जब उसने कहा था —
    “सुनिए जी… कहा खो गए आप?”


    उस लम्हे में धैर्य को लगा था जैसे किसी ने उसकी दुनिया को पलट कर रख दिया हो।

    वो बड़बड़ाया —
    "ये वही नहीं हो सकती…"
    "पांच साल पहले जो लड़की सड़क पर मिली थी… वो इतनी मासूम कैसे हो सकती है?"

    लेकिन फिर...
    अंदर से एक  आवाज़ गूंज उठी—
    "और तू ख़ुद वैसा ही है क्या, जैसा पाँच साल पहले था?"
    "अगर तू बदल सकता है… तो क्या वो नहीं?"

    धैर्य ने गहरी साँस ली।
    फिर उठकर खिड़की के पास गया।

    तभी…
    कमरे का दरवाज़ा हल्के से खटखटाया गया।

    "पापा..."
    बिलकुल धीमी सी आवाज़ आई।

    धैर्य ने फौरन दरवाज़ा खोला।
    सामने खड़ी थी उसकी पाँच साल की नन्ही सी बच्ची।

    अंशी बोली —
    "पापा… आप उदास हो? क्या आपको मम्मा की याद आ रही है?"

    धैर्य का गला भर आया।
    वो घुटनों के बल बैठ गया और अंशी को सीने से लगा लिया।

    "हाँ बेटा… बहुत ज़्यादा।"

    अंशी ने धीरे से कहा —
    "पापा… वो नई मम्मी अच्छी हैं। उन्होंने मुझे स्माइली वाला स्टिकर दिया… और कहा कि मैं बहुत क्यूट हूँ।"

    धैर्य ने चौंक कर अंशी को देखा।
    "तुम उनसे मिली थी?"

    अंशी ने मुस्कुरा कर सिर हिलाया —
    "हाँ! "

    धैर्य के अंदर कुछ हिल सा गया।
    वो सोच में डूब गया।

    "वो अंशी से मिली थी... मुझसे पहले।"



    अगली सुबह....

    सुबह के 7:00 बज रह रहे थे।

    धैर्य रेडी हो चुका था।

    “धैर्य!”
    देवकी जी अंदर दाख़िल हुईं, चाय की ट्रे हाथ में लिए।

    धैर्य हैरान —
    "माँ? आप इतनी सुबह-सुबह..."

    देवकी जी ने ट्रे टेबल पर रखी और मुस्कुराकर बोलीं —
    "बस यूँ ही… सोचा आज बेटे को माँ के हाथ की चाय पिलाऊँ।"

    धैर्य को कुछ शक हुआ।
    “माँ, आप कुछ छिपा रही हो ना?”

    देवकी जी ने मासूम सा चेहरा बनाया और बोली—
    "अरे नहीं तो, बस इतना है कि… आज शाम को एक पूजा रखी है घर में।"

    "पूजा?"
    धैर्य ने भौंहें चढ़ाईं।

    "हाँ, घर में इतने सालों बाद थोड़ा सा सुकून आया है… सोचा थोड़ा भगवान का धन्यवाद कर लें। और हाँ, पंखुड़ी के पापा-मम्मी भी आ रहे हैं।"

    धैर्य चौंक गया।
    "कौन पंखुड़ी?"



    देवकी जी ने जैसे बड़ी मासूमियत से बम फोड़ा —
    "अरे वही लड़की... जिससे तूने मिलने के बाद कहा था कि पसंद नहीं आई!"

    धैर्य ने झुँझला कर माथा पकड़ा —
    "माँ… आपने फिर से उसे बुला लिया?"

    "मैंने नहीं बेटा, भगवान ने बुलाया है। पूजा रखी है, और पूजा में अच्छे लोग आते हैं। बस संयोग से वो लोग भी आ रहे हैं,"
    देवकी जी ने प्यारी सी मुस्कान के साथ कहा।

    धैर्य उनकी चाल समझ चुका था।

    "माँ, आप मुझे मजबूर कर रही हैं।"

    देवकी जी ने चाय की ट्रे उठाई और जाते-जाते कहा —
    "मजबूरी नहीं, बेटे… एक मौका है।"


    धैर्य गहरी साँस लेकर रह गया।
    उसके पास अब कोई जवाब नहीं बचा था।


    शाम का वक्त था....

    हवेली का आँगन, पूजा की तैयारियो से जगमगा रहा था।

    धूप अब ढल चुकी थी, आँगन में हल्की पीली झालरें टिमटिमा रही थीं।

    दीये सजे हुए थे, फूलों की महक हर ओर फैली हुई थी।

    देवकी जी गेस्ट्स के स्वागत में लगी थीं…
    और धैर्य बालकनी में खड़ा किसी से फोन पर बहस कर रहा था।

    अचानक हवेली के बाहर एक काली चमचमाती कार आकर रुकी।

    देवकी जी ने दरवाज़े की ओर देखा और मुस्कुरा दीं — "लगता है पंखुड़ी के घरवाले आ गए।"

    कार की पिछली सीट का दरवाज़ा खुला…

    सबसे पहले सौम्य सा चेहरा लिए एक महिला उतरीं ।

    देवकी जी तुरंत आगे बढ़ीं — "अरे नमस्ते बहन जी… आइए, आइए… बहुत समय बाद मुलाकात हो रही है।"

    महिला ने गर्मजोशी से हाथ जोड़ते हुए कहा — "देवकी जी, कैसी हैं आप? और ये जगह… अब भी वैसी ही है, जैसे पहले थी।"

    दोनों गले मिलीं।

    कार की दूसरी ओर से अब एक गंभीर, रौबदार व्यक्तित्व वाला पुरुष उतरा। सफ़ेद कुर्ता-पायजामा और उस पर ग्रे रंग की नेहरू जैकेट डाले… उनका चेहरा साफ बता रहा था कि ये आदमी कम बोलता है, पर जब बोलता है तो लोग चुप हो जाते हैं।

    राज जी यानी धैर्य के पिता जो अभी तक पूजा की आरती के इंतज़ाम में लगे थे, तुरंत आगे बढ़े और हाथ जोड़कर बोले — "शेखावत साहब, बहुत अच्छा लगा आपको यहाँ देखकर।"

    शेखावत साहब मुस्कुराए — "राज भाई, आपसे मिलने के लिए ही तो आए हैं। और अब ये रिश्ता बस बातचीत का नहीं, बंधन का हो जाए तो बेहतर होगा।"

    राज जी ने हल्के से मुस्कुरा कर देवकी जी की तरफ देखा, मानो कह रहे हों — "देखा? तुम्हारी मनोकामना सफल हो गई।"

    और तभी…

    कार से फिर एक लड़की बाहर निकली ।

    पीले रंग का लंबा सा घेरेदार सूट पहने हुए , जिसका दुपट्टा हल्के से सिर पर डाला हुआ था उसने… आँखें झुकी हुईं थी , और हाथों में पूजा की थाली पकड़े हुए …

    वो थी — पंखुड़ी।

    देवकी जी ने जैसे ही उसे देखा, उनका चेहरा खिल गया।

    “आ गई मेरी बहूरानी…” उन्होंने धीरे से कहा।


    धैर्य अभी भी बालकनी में खड़ा था।
    उसने नीचे देखा…
    और उसकी साँस अटक गई।

    वो वही लड़की थी।

    लेकिन इस बार… वो चेहरा नहीं… वो संजीदगी उसे चुभ रही थी।

    क्योंकि ये वही आँखें थीं… जो एक दिन उसे देखकर मुस्कुराई थीं — "डॉ. हैंडसम..."
    और आज… वही आँखें झुकी हुई थीं… एक परायी होने की तमीज़ के साथ।


    देवकी जी ने पंखुड़ी को अपने पास बुलाया — “आ जा बेटा… पूजा की थाली भी ले आई तू? अब तो मुझे पूरा यक़ीन हो गया, तू ही इस घर की लक्ष्मी बनने वाली है।”

    पंखुड़ी मुस्कुरा दी। "बस माँ जी… मन से सेवा करना जानती हूँ, बाक़ी भगवान की इच्छा।"

    राज जी ने हल्के से सिर हिलाया — "बहुत सुंदर जवाब है।"

    उसी पल…

    धैर्य बालकनी की रेलिंग से टिक कर बस उसे देखता रहा…

    उसकी आँखों में सवाल थे — क्या ये वही लड़की है? या फिर… वो बस एक लम्हे की ग़लतफ़हमी थी?

    देवकी जी ने ऊपर देखा और ज़ोर से कहा — “धैर्य! नीचे आ जा बेटा। पूजा शुरू होने वाली है।”

    धैर्य ने एक गहरी साँस ली…

    और पहली बार,
    उसने बिना बहस किए, चुपचाप नीचे की ओर कदम बढ़ा दिए…




    कंटिन्यू.....



    आगे क्या होगा जानने के लिए पढ़ते रहिए और इंतेज़ार करते रहिए अगले भाग का। ☺️

  • 3. इश्क़ बिना चैन कहाँ - Chapter 3

    Words: 1444

    Estimated Reading Time: 9 min

    धैर्य नीचे आ चुका था।

    उसने पीले रंग का सिल्क का कुर्ता पहन रखा था जो बिल्कुल नया था, और उसे थोड़ा खटक रहा था।
    शायद इसलिए नहीं कि वो रंग बुरा था…
    बल्कि इसलिए कि बहुत वक़्त बाद वो इस तरह सज-धज कर किसी के सामने जा रहा था।



    उसकी नज़र जैसे ही पंखुड़ी पर पड़ी ...
    वो फिर हल्के से नजरें झुका गई, और दुपट्टे को थोड़ा और सिर पर खींच लिया।

    धैर्य का माथा हल्का सा सिकुड़ गया।

    इतना भी क्या शरमाना?

    पाँच साल पहले तो इतनी तेज़ थी कि क्या ही कहे ...


    लेकिन जैसे ही

    "पापा, आप तो बहुत अच्छे लग रहे हो आज!"
    पांच साल की अंशी दौड़ती हुई आई और सीधे  धैर्य की गोद में चढ़ गई, धैर्य के दिल दिमाग से सब ख्याल कुछ पल के लिए गायब से हो गए।

    धैर्य ने हल्की मुस्कान के साथ उसकी नाक दबाई —
    "और तू तो हर दिन की तरह प्यारी  लग रही है।"


    अब धैर्य की नज़र फिर पंखुड़ी पर गई…

    वो अब भी साइड में खड़ी थी…
    उसके हाथ काँप रहे थे थाली पकड़ते-पकड़ते।

    देवकी जी धीरे से धैर्य के पास आईं और उसके कान में बोलीं —"जाओ, पंखुड़ी के मम्मी-पापा के पैर छुओ। मेहमान हैं। और तुम्हारे होने वाले सास-ससुर भी।"

    धैर्य एक पल के लिए चौंक गया।

    लेकिन फिर…
    बिना कुछ बोले, वो आगे बढ़ा।


    सबके सामने,
    उसने आदर से झुककर पंखुड़ी की माँ और पिता के पैर छुए।

    शेखावत साहब ने सिर पर हाथ रखते हुए कहा — "खुश रहो बेटा… खूब तरक्की करते रहो।"

    पंखुड़ी की माँ के चेहरे पर भी एक सुकून था —
    "बेटा, खुश रहो।"

    धैर्य  बेमन से मुस्कुरा  दिया।

    और एक बार फिर  जब उसने एक पल के लिए पंखुड़ी की ओर देखा,
    तो पाया कि वो अब भी नज़रें नहीं उठा रही थी।

    इतनी शर्म?
    इतनी संकोच?

    धैर्य के अंदर कुछ खटक गया — "ये वही लड़की है?"
    "जो मुझसे बिना डरे  मिली थी पाँच साल पहले?"

    लेकिन तभी…
    देवकी जी ने पूजा शुरू करवाई।



    लगभग आधे घंटे बाद पूजा पूरी हो चुकी थी।


    देवकी जी और राज जी,
    अब मिसेज और मिस्टर शेखावत के साथ बैठकर पूजा और बच्चों की बातें कर रहे थे —
    "पंखुड़ी को शुरू से ही पूजा-पाठ में बहुत मन लगता है…"
    "और अंशी तो सच में राजदुलारी है इस हवेली की…"

    लेकिन इन बातों से दूर…

    धैर्य, हवेली के एक खुले से कमरे में,
    पीठ किए हुए खड़ा था।

    तभी…

    उसने एक खिलखिलाती सी हँसी सुनी।

    धैर्य की भौंहें चढ़ गईं।


    "सुनिए जी…!" पीछे से वही खिलखिलाती आवाज आई।



    धैर्य ने  धीरे से पीछे मुड़कर देखा…

    पंखुड़ी, अब अपने पुराने शर्मीले अवतार से बिल्कुल अलग  धम्म से झूले पर बैठी हुई थी।

    धैर्य की आँखें सिकुड़ गईं।

    "ये… फिर से वही…?"

    अब पंखुड़ी ने थोड़ी ऊँची आवाज़ में कहा —
    "अरे इधर आइए ना…!"

    धैर्य कुछ कहता उससे पहले…

    वो झूले पर दोनों पैर चढ़ा कर बैठ गई, और फिर बुरी तरह पायल को घूरते हुए बोली —
    "ये पायल…उसे निकाल दीजिए प्लीज़… बहुत चुभ रही है!
    मतलब… इतनी आवाज़ करती है, जैसे मैं हॉर्स राइडिंग कर रही हूँ… टन टन टन!"

    धैर्य हैरानी से देखता रह गया।

    पंखुड़ी ने मासूम सी शक्ल बनाई —
    "प्लीज़ ना… मेरी फिंगर  दर्द कर रही है। आप ही खोल दो न।"

    धैर्य अब भी बिना कुछ बोले… उसकी तरफ देखता रहा।

    "बचपन से आदत नहीं पड़ी कभी इतने सजने की…!"
    पंखुड़ी मुंह फुलाकर बोली —
    "और ये मम्मी लोग… पता नहीं क्यों हर शादी लायक लड़की को झाँसी की रानी बना देते हैं।"

    वो आगे झुकी और धीरे से बोली —
    "वैसे आप कुछ बोलते क्यों नहीं?"

    धैर्य ने हल्की आवाज़ में कहा —
    "तुम… कुछ देर पहले बहुत शर्मीली नहीं थीं?"

    पंखुड़ी ने झट से आँखें बड़ी कीं —
    "वो सब ड्रामा था… आपकी मम्मी को अच्छा लगता है सीधी-सादी लड़कियाँ!"

    फिर एक पल बाद मुस्कुराई —
    "लेकिन अब तो पूजा खत्म हो गई न?"

    धैर्य कुछ पल तक उसे देखता रहा।

    फिर झूले के पास गया, झुका… और उसकी पायल को खोलने लगा।

    पंखुड़ी चुपचाप बैठी रही।

    धीरे से बोली —
    "पाँच साल पहले जो कहा था… याद है?"

    धैर्य ने बिना ऊपर देखे जवाब दिया —
    "सब याद है।"

    पंखुड़ी मुस्कुराई — "तो फिर इतना सोचना क्यों? अब भी वैसी ही हूँ… बस इस बार सीरियसली आई हूँ।"

    धैर्य की उँगलियाँ थम गईं।

    उसने धीरे से ऊपर देखा…

    और देखा पंखुड़ी, बिल्कुल वही थी…
    जैसी पाँच साल पहले मिली थी…


    धैर्य ने उसकी छोटी-छोटी टिमटिमाती आँखों को एक पल देखा…
    लेकिन अगले ही पल,
    धैर्य ने फौरन नज़रें फेर लीं… और पायल में गड़ा दीं।
    जैसे उसकी बातों से नहीं, सिर्फ उसके पैर की पायल से मतलब हो।

    लेकिन इधर…

    पंखुड़ी की बड़बड़ शुरू हो चुकी थी —

    "हाय दैय्या…
    ये क्या हो गया है आपको…
    पहले भी इतने सीरियस ही रहते थे …
    लेकिन अब तो  उम्र के साथ कुछ ज़्यादा ही हैंडसम नहीं हो गए आप?"


    धैर्य की उंगलियाँ रुक गईं।

    उसने बिना ऊपर देखे पूछा —
    "क्या कहा?"

    पंखुड़ी फिर खिलखिला पड़ी  —
    "कुछ नहीं डॉक्टर साहब… पायल खोलिए, लुगाई की सेवा करिए।"

    धैर्य ने झट से पायल खोल दी।

    फिर खड़ा हुआ और सीधा उसकी तरफ देखा।

    "पंखुड़ी…"

    वो मुस्कराई —
    "जी? बोलिए ना, डरिए मत।"

    "तुम्हें पता है, ये सब मुझे अजीब लग रहा है।"

    "क्या?" वो भोली बनते हुए बोली।

    "तुम… इस तरह।"वो बोला।

    पंखुड़ी झूले पर थोड़ा झूलते हुए बोली —
    "डॉक्टर साहब… पहले ये बताइए कि क्यूट हु न मैं।"


    धैर्य ने बिना पलकें झपकाए जवाब दिया —
    " बिल्कुल भी नहीं।"

    पंखुड़ी की मुस्कान वहीं अटक गई।
    "हाह?… मतलब… सीरियसली?!"

    धैर्य ने दो कदम पीछे लिए, और ठंडी आवाज़ में बोला —
    "शादी के लिए मना कर दो तुम।"

    पंखुड़ी की आँखें फटी की फटी रह गईं।

    "क्या!!"
    वो झूले से लगभग कूद पड़ी।

    "तुम्हें लगता है, मैं मज़ाक कर रहा हूँ?" धैर्य ने उसकी तरफ एक गंभीर नज़र डाली।

    "नहीं, नहीं… एक सेकंड… आप तो सच में… मतलब… मना करने को कह रहे हो?"

    "हाँ।"
    धैर्य अब थोड़ा और दूर हो गया।

    लेकिन पंखुड़ी…
    उसकी तो जिद पर आने की बारी थी।

    उसने झूले की रस्सी पकड़ी, सिर थोड़ा झुका कर बोली —
    "ओय हैंडसम… बातों से डराने की कोशिश मत करो… शादी से मना क्यों करूं मैं?"

    धैर्य पलटा, आवाज़ में झुंझलाहट थी —
    "क्योंकि मुझे नहीं पसंद हो तुम। और नहीं करनी मुझे शादी-वादी... मैं अपनी पत्नी से बहुत प्यार करता था... करता हूँ और करता रहूँगा।"

    धैर्य की आवाज़ जैसे कमरे की हवा को चीरती हुई पंखुड़ी के दिल तक पहुँची।

    एक पल को सन्नाटा छा गया।

    पंखुड़ी के चेहरे की शरारत मानो कहीं गुम हो गई।
    वो चुपचाप उसकी आँखों में देखती रही…

    फिर धीमे से बोली — "पर… वो तो अब स्वर्ग में हैं न?"

    धैर्य का चेहरा एकदम सख्त हो गया।

    पंखुड़ी की आवाज़ और भी नरम हो गई — "तो क्या जो लोग चले जाते हैं… उनके लिए हम सारी उम्र रुक जाएं?"

    धैर्य ने नज़रें फेर लीं — "हाँ। कम से कम मैं तो रुक ही गया हूँ।"

    अब पंखुड़ी अपनी जगह से उठी…

    धीरे-धीरे उसके पास आई।
    "और जो ज़िंदा लोग हैं… तो क्या उनके हिस्से में सिर्फ तन्हाई छोड़ी जाए? डॉक्टर साहब … प्यार की जगह कोई नहीं ले सकता। मैं ये कहने भी नहीं आई कि मैं उनकी जगह लेने आई हूँ। लेकिन…"

    उसने अपना हाथ उसकी ओर बढ़ाया और बोली— "मैं उनके बाद आई हूँ… और अगर आप नहीं भी चाहें, तो  भी मैं आपके साथ ही चलूंगी।"



    धैर्य ने एक पल उसकी ओर देखा… और फिर चेहरे पर एक अजीब सी थकान लिए, मुंह फेर लिया।

    पंखुड़ी ने कुछ पल उसे वैसे ही देखती रही।
    फिर अचानक… वही पुरानी शरारती मुस्कान वापस आ गई।

    वो दोनों हाथ कमर पर रखकर बोली —
    "ठीक है डॉक्टर साहब, आप मुंह फेरिए… मैं पीछे पीछे चल लूंगी।"

    धैर्य ने भौंहें टेढ़ी कीं, मगर पलटा अब भी नहीं।

    पंखुड़ी ने फिर से झूले पर बैठते हुए झूला झुलाना शुरू किया और बड़बड़ाई —
    "डॉक्टर हो, सबका इलाज कर लेते हो…
    पर खुद के दिल का इलाज नहीं कर पाए अभी तक।"

    धैर्य अब भी पीठ किए खड़ा था।


    पंखुड़ी  आखिरकार झल्ला कर अचानक झूले से उठी…
     
    फिर वो गुस्से में पैर पटकते हुए बोली —
    "उफ्फ्फ! कुछ भी बोलना नहीं आता क्या आपको? एक लड़की अपने दिल की बात कह रही है, और आप हैं कि... बस खड़े हो जैसे पत्थर के हो गए!"

    धैर्य फिर भी चुप रहा… पीठ किए।

    पंखुड़ी का सब्र अब जवाब दे गया।

    "चलो हटो… मैं जा रही हूँ!"
    वो झट से पलटी और तेज़ी से कमरे से बाहर निकल गई।

    धैर्य वहीं खड़ा रहा।
    कुछ पल…
    फिर लंबी सांस ली…

    "गई… आखिरकार पीछा छूटा।"
    उसने खुद से कहा।






    कंटिन्यू.....


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  • 4. इश्क़ बिना चैन कहाँ - Chapter 4

    Words: 1277

    Estimated Reading Time: 8 min

    धैर्य, अंशी को लोरी सुनाकर जैसे-तैसे सुला चुका था।
    बिलकुल धीमे कदमों से कमरे के वॉशरूम से बाहर निकला…
    थोड़ी राहत की सांस ली ही थी कि —

    ट्रिन ट्रिन… ट्रिन ट्रिन…

    उसका फोन बज उठा।

    धैर्य ने भौंहें चढ़ाकर स्क्रीन की ओर देखा ...अननोन नंबर।

    पहले तो सोचा छोड़ो… कौन होगा इस वक़्त।

    लेकिन फिर कहीं  हॉस्पिटल से कुछ अर्जेंट कॉल न हो…
    सोचते हुए उठा लिया।

    और…

    सामने से वही जानी-पहचानी,
    खिलखिलाती हुई आवाज़  आई—

    "डॉक्टर साहब… सोए नहीं अभी तक?"

    धैर्य का माथा  उसकी खिलखिलाती हुई आवाज सब कर सनक गया।

    "डॉक्टर साहब सो चुके हैं… और ये उनका भूत बोल रहा है।"
    उसने बेहद रूखे अंदाज़ में जवाब दिया।

    उधर से फिर से वही चहकती हँसी  सुनाई दी—
    "तो भूत साहब… अगर नींद नहीं आ रही, तो बातें कर लीजिए ना।"

    धैर्य अब चिढ़ चुका था।
    हवा में फोन घुमाते हुए बोला —
    "तुम्हें कोई और काम नहीं है क्या? और ये नंबर कहाँ से मिला तुम्हें?"

    पंखुड़ी की आवाज़ आई —
    "कैसे सवाल पूछ रहे है आप...अब अपने होने वाले पति का नंबर मुझे नहीं मिलेगा तो किसे मिलेगा।"

    धैर्य के माथे पर बल और गहरा हो गया।

    "तुम… क्या सीरियसली पागल हो?"

    "थोड़ी बहुत… पर सिर्फ़ आपके लिए!"

    धैर्य ने गहरी सांस ली…
    सोच रहा था कि या तो फोन पटक दे या खुद के सिर को दीवार से।

    "देखो पंखुड़ी… तुम्हें जो चाहिए, वो मैं नहीं दे सकता। इसलिए..."

    "आपने ट्राय तो किया ही नहीं!"

    अबकी बार उसकी आवाज़ में  गंभीरता थी। 

    "और वैसे भी… मैं कॉल इसलिए कर रही हूँ क्योंकि आपसे कुछ पूछना है।"

    धैर्य ने अनमने से अंदाज़ में कहा —
    "पूछो… जल्दी।"

    "आप… अपने बालों में ऑयल लगाते हैं क्या?"

    धैर्य एक सेकंड के लिए स्तब्ध रह गया।

    "क्या??"

    "मतलब, इतनी चमक है… मैं सोच रही थी कि आप कोई खास ब्रांड यूज़ करते होंगे।"

    धैर्य अब सच में फोन पटकने को था।

    "तुमने ये सब पूछने के लिए कॉल किया?"

    "नहीं… अगला सवाल थोड़ा और ज्यादा अच्छा  है… आप मुस्कुराते नहीं क्या कभी?"

    धैर्य  खीझ कर बोला—
    "पंखुड़ी… रात है… मैं थक चुका हूँ… और तुम्हारी ये बेहूदी बातें मुझे और थका रही हैं।"

    वो चुप हुई कुछ देर के लिए।

    फिर बोली —
    "थक गए हो… इसलिए तो आई हूँ।"

    धैर्य ने अपना माथा रगड़ा —
    "आई हो मतलब? फोन पे हो।"

    "नहीं… मैं सच में आई हूँ। बाहर हूँ।"

    धैर्य की सांसें थम गईं।
    उसने फौरन खिड़की से बाहर झांक कर देखा।



    खिड़की से बाहर झाँकते हुए, उसने गहरी आवाज़ में कहा —
    "कहाँ? दिख तो नहीं रही तुम कहीं।"

    सामने से वही बिंदास खिलखिलाहट गूंजी —
    "अरे ओ बुद्धू डॉक्टर… मैं वहाँ सच में थोड़ी हूँ!
    फोन पे हूँ बस……और आपको छेड़ने का मन कर रहा था, तो  थोड़ा डायलॉग डाल   दिया!"


    धैर्य ने झुंझलाकर आँखें बंद कर लीं —
    "उफ्फ! सीरियसली?! तुम क्या हर वक़्त लोगों को बेवकूफ़ बनाना ज़रूरी समझती हो?"

    पंखुड़ी की खिलखिलाती हँसी अभी भी जारी थी —
    "नहीं… बस आपको स्पेशल ट्रीटमेंट दे रही हूँ!"

    धैर्य  गहरी सांस लेते हुए बोला —
    "तुम्हारी ये ‘स्पेशल ट्रीटमेंट’ से ज़्यादा तो अंशी के कार्टून्स भी मैच्योर लगते हैं!"


    उधर से पंखुड़ी की हँसी रुक ही नहीं रही थी—
    "हाय दैय्या! आप इतने क्यूट गुस्से में लगते हो, कि जी कर रहा है स्क्रीन से निकलकर गाल खींच लूँ!"



    धैर्य अब सच में तिलमिला उठा था।

    फोन कान से हटाकर एक पल को खुद को समझाया — "शांत हो जा धैर्य… बस पाँच मिनट और... फिर इस ड्रामे को कट कर देना है।"

    उसने फिर फोन कान से लगाया, बेहद संयमित मगर तंज भरे लहजे में बोला —"तुम्हें न किसी अच्छे मनोचिकित्सक से मिलना चाहिए… और नहीं मिले तो बता देना, एक रेफर कर दूँगा।"

    पंखुड़ी बिना देर किए बोली —
    "इतनी फिक्र… हाय! आप तो सच में मुझे लेकर सीरियस हो रहे हैं!"
    और फिर वही चहकती हँसी हँस दी वो।



    खीझ कर धैर्य ने पलंग के सिरहाने पर हाथ पटका —
    "पंखुड़ी… अगर तुमने एक और बेहूदी बात की ना, तो मैं तुम्हे सच में ब्लॉक कर दूँगा!"

    लेकिन उधर से वही मासूमियत भरी आवाज़ आई —
    "ब्लॉक कर देना… लेकिन उससे पहले एक बात सुन लो।"

    धैर्य ने थकी हुई आवाज़ में कहा —
    "जल्दी बोलो… और इस बार अगर फिर कुछ बेकार निकला, तो मैं कसम से..."

    "आपको देखकर न… ऐसा लगता है जैसे बहुत कुछ खोया है आपने… और अभी भी किसी के लौट आने का इंतज़ार कर रहे हैं।"


    धैर्य का चेहरा एक पल के लिए बुझ गया।

    "मैं… तुम्हारी तरह मज़ाक नहीं करता पंखुड़ी। जो खोया है, वो वापस नहीं आ सकता।"


    "पता है।इसलिए तो… मैं आपको नया कुछ देने आई हूँ।"—पंखुड़ी बोली।

    धैर्य अब सच में परेशान हो चुका था।
    "क्या नया दे सकती हो तुम?"

    "खुद को।"
    वो बोली।
    "अपना वक्त, अपनी दोस्ती, और… अगर कभी आप चाहें, तो… थोड़ा सा इश्क़ भी....अरे सॉरी सॉरी… ‘थोड़ा सा इश्क़’ नहीं, पूरा का पूरा इश्क़ डॉक्टर साहब!वो वाला… जिसमें नींदें उड़ जाती हैं, और दिल यूँ ही बेवजह धड़कता है!"


    धैर्य ने एक लंबी साँस ली, फिर
    वो धीमे से बोला —
    "तुम्हें अंदाज़ा भी है, तुम क्या कह रही हो?"


    "पूरी तरह से!"
    पंखुड़ी बोली,
    "और क्या कमाल है ना… मैं इश्क़ का ऑफर दे रही हूँ, और आप..."


    उसकी बात अभी पूरी भी नहीं हुई थी कि धैर्य बोल पड़ा—"ये डॉयलॉग्स मेरे लिए सिरदर्द है समझी तुम!"



    पंखुड़ी हँसते हुए बोली —
    "हाय! आपको सिरदर्द देकर… मुझे इतना सुकून मिलता है डॉक्टर साहब, क्या बताऊं!"

    धैर्य ने माथा पकड़ लिया —
    "तुम… पागल हो पंखुड़ी! बिल्कुल सिरफिरी सी!"

    पंखुड़ी ने तुरंत जवाब दिया —
    "हां, लेकिन सिरफिरी भी तो सिर्फ आपके लिए हूँ!"

    फिर एक पल रुकी… और चहकते हुए बोली —
    "वैसे… आप ये मान क्यों नहीं लेते कि आपको मेरी बातें पसंद आने लगी हैं?"

    धैर्य ने थकी हुई आवाज़ में कहा —
    "पसंद नहीं… सिर्फ़ बर्दाश्त कर रहा हूँ!"

    "अरे वाह!" — पंखुड़ी खिलखिलाई —
    "बर्दाश्त तो तब होता है जब कुछ झेला जाए… और आप तो मुस्कुरा रहे हैं न डॉक्टर साहब!"

    धैर्य चौंक गया —
    "मुस्कुरा… नहीं, मैं नहीं—"

    "हां हां! आपकी सांसों की रफ़्तार बता रही है… झूठ मत बोलिए… एकदम पकड़ में आ जाते हो आप!"

    फिर वो बड़ी ही मासूमियत से बोली —
    "वैसे… मैं जब भी आपको परेशान करती हूँ न, तो लगता है… कहीं न कहीं आप फिर से जीने लगे हैं…"

    धैर्य एक पल के लिए शांत हो गया…


    "पंखुड़ी…"

    "हूँ?"

    "गुड नाइट, पंखुड़ी।"

    "अरे ऐसे कैसे....रुको!"
    लेकिन फोन काटने से पहले सामने से पंखुड़ी की आवाज आई जो अभी भी बहुत सारी बाते करना चाहती थी धैर्य से।

    "अब क्या?"
    धैर्य ने आँखें मूँद लीं।

    "गुड नाइट किस नहीं दोगे क्या?"

    "व्हाट???"
    धैर्य अचानक सेवझटका खा गया।

    "अरे आवाज़ में ही दे दो… होठों पर थोड़ी मांग रही हूँ!" पंखुड़ी की आवाज आई


    "तुम सच में… हद करती हो!"

    "हद नहीं करती… बस आपके दिल की सरहद पार करना चाहती हूँ!"
    पंखुड़ी की आवाज़ एकदम सॉफ्ट सी आई।

    अब धैर्य के चेहरे पर एक पल को मुस्कान आई… और फिर उसने बिना कुछ कहे फोन काट दिया।

    और जैसे ही उसने फोन रखा…
    कमरे की दीवार पर लटकती तस्वीर की ओर उसकी नज़र गई जिसपर हार चढ़ा हुआ था—" अंशिका…"


    धैर्य धीरे से बोला —
    "मैं फिर से किसी को कैसे जगह दूँ…?"


    वो धीरे-धीरे उठा, अलमारी के पास गया, और अंशिका की एक पुरानी डायरी निकाल ली।
    धूल जमी थी उस पर… जैसे वक़्त ने भी उसे भुला दिया हो।

    उसने एक पन्ना खोला—
    “धैर्य, तुम दुनिया के सबसे सीरियस इंसान हो… लेकिन जब मुस्कुराते हो, तो लगता है जैसे पूरा आकाश हँस पड़ा हो…”
    नीचे सिग्नेचर था — “तुम्हारी अंशु”।


    धैर्य की आँखें भीग गईं।





    कंटिन्यू.....


    आगे क्या होगा जानने के लिए अगले भाग का इंतजार करिए।

  • 5. इश्क़ बिना चैन कहाँ - Chapter 5

    Words: 1724

    Estimated Reading Time: 11 min

    अगली सुबह…

    धैर्य बहुत देर तक नहीं सो पाया था।

    वो एकटक छत की ओर देखता रहा…

    सुबह की हल्की रोशनी कमरे में फैलने लगी थी, पर धैर्य की आँखों में अब भी अंधेरा था।
    डायरी अब भी उसके सीने से लगी थी।

    उसने अलमारी में डायरी को दोबारा बहुत सँभालकर रखा…
    जैसे बीती यादों को वापस उसी तिजोरी में बंद कर रहा हो।

    टिंग!

    तभी फोन की स्क्रीन चमकी।

    “गुड मॉर्निंग, डॉ. गुस्सैल! ” — पंखुड़ी का मैसेज था।

    धैर्य ने एक लंबी साँस ली, मोबाइल देखा…
    पर रिप्लाई नहीं किया।


    उसी दिन अस्पताल में…

    धैर्य अपने केबिन में मरीज की रिपोर्ट पढ़ रहा था, लेकिन ध्यान बार-बार भटक रहा था।

    तभी नर्स आई और बोली—
    “सर… एक लड़की आई है आपसे मिलने।”

    धैर्य चौंका — “कौन?”

    नर्स मुस्कुरा दी — “नाम बताया ‘पंखुड़ी’... और वो कह रही हैं कि अपॉइंटमेंट नहीं चाहिए, बस आपको परेशान करना है।”


    धैर्य गहरी साँस लेकर बोला —
    “कह दो, चली जाए वापस। मैं बिज़ी हूँ।”

    नर्स ने सिर हिलाया और बाहर चली गई।

    कुछ पल बाद…

    धप!

    दरवाज़ा खुद खुल गया।

    पंखुड़ी अंदर बड़बड़ाते हुए दाख़िल हुई—
    “अरे वाह… आपने तो अब नर्सेज़ के ज़रिए भी मुझे रिजेक्ट करना शुरू कर दिया? दिल तोड़ने के स्टाइल अपग्रेड हो गए हैं डॉक्टर साहब!”

    धैर्य ने नज़रें नहीं उठाईं, रिपोर्ट्स पढ़ते हुए बोला —
    “पंखुड़ी… मैंने कहा था न, मैं बिज़ी हूँ।”



    “कितने बोरिंग हैं आप, डॉक्टर राणा! मुझे तो शक है, आपके पास दिल है भी या नहीं…”

    धैर्य अब भी रिपोर्ट में झाँकने का दिखावा कर रहा था।

    पंखुड़ी ने टेबल पर जोर से हाथ मारा —
    “अच्छा… अब नज़रें उठाइए ज़रा। और ध्यान इधर दीजिए मुझ पर अपनी होने वाली बीवी पर।”


    धैर्य ने खीझ कर अब धीरे-से सिर उठा ही लिया…

    और देखते ही कुछ सेकंड ठहर गया।

    पंखुड़ी आज बिल्कुल अलग लग रही थी…
    सफेद-नीली शॉर्ट कुर्ती के फेडेड जींस पहने हुए…और गले ने नीले रंग का स्कार्फ डाले वो खिलखिलाती मुस्कान लिए सामने खड़ी थी।


    धैर्य ने तुरंत खुद को संभाला।

    और सख़्त स्वर में बोला—
    "ये कोई कॉलेज कैम्पस नहीं है जहाँ तुम फ़ैशन शो करने आई हो।"

    पंखुड़ी हँसते हुए बोली —
    “और ये कोई मोक्षधाम भी नहीं है जहाँ आप हमेशा इतने मरे-मरे से रहें!”

    धैर्य कुछ कहने ही वाला था, पर पंखुड़ी ने बात काट दी।

    “वैसे… आप चाहें तो ‘गुस्से की दवाई’ के तौर पर मुझे प्रिस्क्राइब कर सकते हैं।
    रोज़ दो टाइम मिलूँगी… मूड फ्रेश रहेगा। साइड इफेक्ट सिर्फ़ ये है कि आप हँसना शुरू कर देंगे।”



    धैर्य ने ग़ुस्से से कुर्सी पीछे खींची और खड़ा हो गया।

    "इनफ, पंखुड़ी! मैं कोई मज़ाक नहीं हूँ… और ना ही मेरा केबिन। समझी तुम?"

    पंखुड़ी थोड़ी चुप हो गई।
    फिर होंठों को दबाते हुए मुस्कुराई —
    "और आप क्या हैं? जले हुए पराठे? जो ऊपर से कड़क और अंदर से बुझे-बुझे रहते है?"

    धैर्य ने अब आँखें तरेरीं —
    "पंखुड़ी… डोंट पुश इट।"


    "अरे बाबा, ठीक है…
    मत हँसिए… मत मुस्कुराइए…
    मुझे आदत है रिजेक्शन की।
    सिर्फ़ आप से थोड़ी उम्मीद लगा ली थी… वो भी बेवकूफ़ी थी शायद।"

    वो पलटी… और दरवाज़े की ओर बढ़ी।
    लेकिन फिर रुक गई…
    धीरे से मुड़ी,
    और बहुत शांत लहजे में बोली —
    "वैसे… आप मुझसे जितना चिढ़ते हैं न,
    वो इस बात का सबूत है कि आपको फर्क पड़ रहा है।"




    धैर्य कुछ नहीं बोला।
    बस एक टक पंखुड़ी को देखता रहा…
    और वो मुस्कुराई, जैसे जानती हो कि निशाना सही लगा है।




    पंखुड़ी धीरे-धीरे वापस उसके पास आई।
    और बोली—
    "आपको पता है?"
    वो सामने रखी कुर्सी को खींच कर बैठ गई ...ठीक उसके सामने, पैर लटका के।
    "जब मैं छोटी थी ना… तो अगर मम्मी मुझे डाँट देती थीं, तो मैं गुस्से में उनकी रजाई के अंदर जाकर छुप जाती थी।
    और जब वो मुझसे पूछती थीं कि बाहर आओ, तो मैं कहती थी 'नहीं! जब तक चॉकलेट नहीं मिलेगी, मैं बाहर नहीं आऊँगी।'"

    धैर्य भौचक्का-सा उसे देख रहा था।
    "तो?"
    उसने ठंडे स्वर में पूछा।

    "तो… अभी मैं वही करने आई हूँ,"
    पंखुड़ी बोली और एकदम से उसकी कुर्सी के पीछे जाकर खड़ी हो गई।

    धैर्य ने आँखें सिकोड़ते हुए पीछे देखा —
    "अब क्या कर रही हो?"

    "प्रोटेस्ट!"
    पंखुड़ी बोली —
    "जब तक आप मुझसे सीधे मुँह बात नहीं करेंगे, मैं इस कुर्सी के पीछे से हिलने नहीं वाली!"

    और उसने सच में वहीं नीचे बैठने की एक्टिंग शुरू कर दी।

    धैर्य का माथा गरम हो गया—
    "पंखुड़ी, ये ऑफिस है! अस्पताल है ये! तुम पागल हो क्या?"

    पंखुड़ी बिलकुल मासूमियत से बोली—
    "हूँ तो मैं आपकी ही होने वाली बीवी ना… थोड़ा पागलपन तो लाज़मी है।
    वैसे भी, आप जैसे सख़्त इंसान की लाइफ में कोई तो हो, जो थोड़ी मस्ती घोल दे।"



    "खड़ी हो जाओ वहाँ से।"
    उसने गुस्से में कहा।


    "पहले एक स्माइल दीजिए। बस हल्की सी। वर्ना मैं यहीं बैठ जाऊँगी, और हंगामा मचा दूंगी कि...‘डॉ. धैर्य राणा अपनी होने वाली बीवी से डरते हैं!’”


    धैर्य ने उसकी ओर घूरते हुए देखा।
    "पंखुड़ी... तुम हद पार कर रही हो।"

    पंखुड़ी मुस्कुराते हुए बोली —
    "और आप हद से ज़्यादा सीरियस हो रहे हैं।
    थोड़ा हँसिए न डॉ. गुस्सैल!
    देखिए, मुँह तो आपका हमेशा ऐसा लगता है जैसे किसी ने नींबू चटा दिया हो।"


    धैर्य ने अब कुछ नहीं कहा।


    पंखुड़ी ने उसकी चुप्पी देखी…
    फिर सिर थोड़ा टेढ़ा करके बोली —
    “ओह… अब साइलेंट ट्रीटमेंट!
    यही रह गया था ना हथियारों में?”

    कोई जवाब नहीं आया ।

    “मतलब… आप बोलेंगे नहीं?
    ठीक है! फिर मैं ही बोलती हूँ।”

    वो उठी…
    टेबल के पास आकर खड़ी हो गई…
    और धीरे से उसकी आँखों के सामने हाथ हिलाते हुए बोली —
    “हैलो! कोई घर है? कोई रिस्पॉन्स देगा या मैं खुद ही खुद से बात कर लूँ?”

    धैर्य ने अब भी कोई प्रतिक्रिया नहीं दी।

    पंखुड़ी ने आँखें नचाईं —
    “ठीक है। मान लिया… आप डॉक्टर हैं, और आपकी दुनिया बहुत सीरियस है।
    पर मैं कौन हूँ? मैं तो आपकी होने वाली वाइफ हूँ ना?”

    वो धीरे से उसके बिल्कुल पास आकर बोली —
    “और आपकी लाइफ में थोड़ा रंग भरना मेरी ड्यूटी है… जैसे रेड सिरप बच्चों को अच्छा लगता है, वैसे ही मैं भी… थोड़ी मीठी, थोड़ी नटखट।”

    धैर्य का चेहरा अब भी सख़्त बना रहा।

    पंखुड़ी ने गहरी साँस ली…
    फिर मुँह फुलाकर बच्चों जैसी आवाज़ में बड़बड़ाने लगी —
    “ऊँह! क्या ज़रूरत थी डॉक्टर से शादी तय करवाने की!
    इतने खडूस, इतने गुस्सैल, और ऊपर से कोई सेंस ऑफ ह्यूमर भी नहीं!
    ना कोई रोमांस… ना कोई कॉम्प्लिमेंट…
    मैंने तो सुना था डॉक्टर दिल के बड़े सॉफ्ट होते हैं,
    पर इन्होंने तो जैसे अपने दिल को फ्रीज में रख छोड़ा है!”


    धैर्य ने उसे पल भर देखा…
    पर फिर वापस नज़रें फेर लीं।

    पंखुड़ी झुँझलाकर कुर्सी पर बैठ गई —
    “ठीक है!
    अब मैं भी चुप हूँ।
    देखती हूँ कौन जीतता है आपकी चुप्पी या मेरी मेरी।”

    और सच में उसने होंठ बंद कर लिए,
    पर उसके चेहरे से नाटक अब भी चल रहा था।

    कभी वो अपनी आँखे मटकाती,तो कभी पैर हिलाती…
    कभी इधर-उधर देखती,
    तो कभी मुट्ठी बंद करके हवा में मुक्का मारती।


    धैर्य ने आंखे तिरछी करके उसे यूँ हरकतें करते देखा…
    पर उसका चेहरा अब भी बिना प्रतिक्रिया के था।

    पंखुड़ी झल्ला कर बोली —
    “इतना गुस्सा क्यों करते हो, डॉक्टर राणा…
    कोई आपका खिलौना तो नहीं छीन लिया मैंने…”

    फिर वो धीरे से मुस्कुराई और बोली —
    “या फिर…
    कहीं दिल को फिर से चलाना सीख रहे हो…
    तो डर रहे हो कि कहीं मैं उसमें ज्यादा स्पीड न भर दूँ?”

    अबकी बार धैर्य ने पल भर के लिए आँखें बंद कीं…
    जैसे खुद को संयमित कर रहा हो।

    पंखुड़ी ने ये देख लिया…
    धीरे से पास आकर बोली —
    “आपको मेरी कसम… एक स्माइल कर दो बस…
    थोड़ा सा मुस्कुरा दो न डॉक्टर गुस्सैल… वरना मैं…वरना मैं ज़ोर-ज़ोर से रोना शुरू कर दूँगी!”
    पंखुड़ी ने मासूम सा चेहरा बनाते हुए कहा।

    तभी दरवाज़े पर किसी दस्तक हुई।

    एक नर्स अंदर आई —
    "सर… डॉक्टर मेहरा ने आपको तुरंत बुलाया है, किसी इमरजेंसी केस को लेकर।"

    धैर्य ने ऐसे सिर उठाया जैसे कोई कैदी बेल मिलने की खबर सुन ले।

    "थैंक यू ,"
    उसने झट से कहा और फाइल उठाते हुए तेज़ी से दरवाज़े की ओर बढ़ा।
    जाते-जाते उसने एक बार पीछे मुड़कर पंखुड़ी को देखा…
    जो अब भी अपनी जगह मासूम-सी बैठी थी, होंठ फुलाए हुए।

    धैर्य के चेहरे पर हल्की-सी राहत की परछाईं उभरी...
    जैसे कह रहा हो: “बच गया… फिलहाल।”

    पंखुड़ी ने भी उसे जाते देखा…
    और जैसे ही दरवाज़ा बंद हुआ, उसने अपनी एक्टिंग छोड़ दी।

    “ह्म्फ… समझती हूँ डॉक्टर राणा, आप मुझसे भाग रहे हो।
    लेकिन ये रनिंग गेम ज़्यादा देर नहीं चलेगा।”
    वो मुस्कुराई।



    पंखुड़ी ने चारों तरफ एक बार नज़र दौड़ाई…

    फिर क्या था —

    वो एक झटके से खड़ी हो गई…
    झाड़-पोंछ कर कपड़े ठीक किए…

    टेबल की एक साइड पर रखे स्टेथोस्कोप को उठाया और गले में डाल लिया।

    फिर घूम-घूमकर डॉक्टरों की नकल करने लगी —
    “पेशेंट की हालत सीरियस है… उसे तुरंत चॉकलेट थेरेपी की ज़रूरत है।
    डॉ. धैर्य राणा को बुलाइए...!"


    वो खुद ही हँस पड़ी।

    फिर एकदम से उसकी नज़र धैर्य की कुर्सी पर गई…
    और वो उस पर चढ़कर बैठ गई —
    दोनों पैर घुमा-घुमाकर गोल-गोल घूमते हुए बड़बड़ाने लगी —

    “हूँफ… ये कुर्सी तो कमाल की है…
    घूमो… नाचो…
    और अगर कोई तुम्हें घुमा न रहा हो… तो खुद ही घूम लो!”

    पंखुड़ी अपनी ही धुन में गुनगुनाते हुए कुर्सी पर गोल-गोल घूम रही थी —“डॉ. धैर्य राणा… आप मुझसे बच नहीं सकते!
    क्यूटनेस और पागलपन का कॉम्बो पैक हूँ मैं…
    कहीं भी डिलीवर हो सकती हूँ!”

    तभी दरवाज़ा फिर से धीरे से खुला…

    पंखुड़ी को लगा कोई नर्स होगी, उसने ध्यान नहीं दिया…




    और तभी…

    "धड़ाम!"

    पंखुड़ी की ज़ोरदार चीख कमरे में गूँज उठी —
    "आउच! मम्मीइइई!!"

    कुर्सी जो गोल-गोल घूम रही थी,
    एक ज़ोर की झटके में फिसली…
    और पंखुड़ी बेताल की तरह ज़मीन पर गिर गई।
    बिलकुल उल्टी होकर ,उसके हाथ-पाँव जमीन कर फैल गए!

    "ओह—"
    उसके मुँह से आधा शब्द ही निकला था कि…

    धैर्य दरवाज़े से तेज़ी से अंदर आया।

    "पंखुड़ी!"
    उसे ज़रा भी परवाह नहीं थी कि अभी दो मिनट पहले ही वो उससे चिढ़ा बैठा था।

    वो तुरंत उसके पास झुका —
    "पंखुड़ी… पंखुड़ी क्या हुआ? लगी तो नहीं?"

    पंखुड़ी ने आँखें कसकर बंद कर रखी थीं…
    एक हाथ सिर पर था, दूसरा पीठ पर।

    "हड्डी… टूट गई है… पूरी की पूरी टूटी है शायद..."
    वो बच्चों जैसी आवाज़ में बड़बड़ाई।






    कंटिन्यू....


    आगे क्या होगा जानने के लिए अगले भाग का इंतजार करिए...

  • 6. इश्क़ बिना चैन कहाँ - Chapter 6

    Words: 1371

    Estimated Reading Time: 9 min

    धैर्य ने बड़ी मुश्किल से पंखुड़ी को कंधे का सहारा देकर उठाया,
    और पास रखी चेयर पर बिठा दिया —
    “आराम से बैठो… कहीं ज्यादा चोट तो नहीं आई?”


    पंखुड़ी ने हल्के से अपनी आँखें खोलीं और मुंह बिचका कर बड़बड़ाई —
    “हूँह… आपको क्या!
    थोड़ा-सा उठाकर गोद में बिठा लेते तो क्या चला जाता?
    मुझे तो लगा था आप मुझे फिल्मी हीरो की तरह ‘कैच’ करेंगे…
    पर आप तो… स्पोर्ट्स टीचर निकले, बस सहारा देकर कुर्सी पे बिठा दिया।”


    धैर्य ने पंखुड़ी की बात सुनते ही भौंचक्का सा उसकी शक्ल देखी…और बोला—
    "तुम्हारी बातें सुनकर तो ऐसा लग रहा है कि तुम्हें लगी तो बिल्कुल भी नहीं…
    राइट?"
    वो ठंडी नज़रों से देखता हुआ बोला —
    "तो अब वो नाटक बंद करोगी?"



    पंखुड़ी मुँह बनाकर वहीं चेयर पर बैठी रह गई।
    उसने धीरे से गर्दन मोड़ी, और तिरछी नज़रों से धैर्य को घूरने लगी।


    कुछ देर बाद...

    धैर्य की कार में,पंखुड़ी उसके बगल वाली सीट पर बैठी थी ।वो
    बोलती तो लगातार जा रही थी, और धैर्य अब भी वैसे ही शांत सा बैठा कार ड्राइव कर रहा था।

    "और आपको पता है, जब मैं गिर रही थी ना…
    एक सेकंड के लिए मुझे लगा था आप मुझे उठा लेंगे…
    पर नहीं, आप तो सिर्फ़ 'फॉर्मैलिटी टाइप' सहारा देकर निकल लिए।
    उफ्फ… कहाँ फँस गई मैं!"

    धैर्य ने गाड़ी का मोड़ लिया, अब भी बिना प्रतिक्रिया दिए संबे देख रहा था।

    "और ये भी कोई कार है ? इतनी खामोश कि लग रहा है जैसे गाड़ी नहीं, साइलेंस ट्रेन में बैठी हूँ…
    थोड़ा सा रोमांटिक म्यूजिक चला लेते…तो मैं थोड़ा नॉर्मल फील करती!"

    धैर्य अब भी चुप ही था।

    पंखुड़ी भौंचक्की सी उसे देखती रह गई…
    "आप सच में कुछ नहीं बोलने वाले है न?"

    धैर्य ने बहुत धीमे से कहा —
    "बोल दिया न… कि कुछ नहीं हुआ तुम्हें।
    और वैसे भी तुम्हारा बोलना अकेले ही 1 दो लोगों के बराबर है।"

    पंखुड़ी मुँह खोलकर उसे देखती रह गई —
    "वाह… अब तो मेरी वाणी भी गिनती में आ गई?
    मैं बता रही हूँ, कल से व्रत रख लूँगी मैं… पूरा दिन चुप रहूँगी!"

    धैर्य ने एक हल्की सी मुस्कान दबाते हुए गाड़ी रोक दी।

    "लो आ गया तुम्हारा घर। उतर जाओ।"

    पंखुड़ी ने हैरानी से देखा —
    "बस! ऐसे ही छोड़ दोगे?
    घर के अंदर चलो न… कम से कम मम्मी को दिखा तो दूँ कि होने वाले दामाद आए थे।"

    "नहीं पंखुड़ी। मुझे काम है… तुम आराम करो।" — धैर्य ने विनम्रता से कहा।

    पंखुड़ी भौहें चढ़ा कर बोली —
    "अरे कम से कम घर में कदम तो रख लो… मम्मी तो बाद में पूछेगी मुझसे इसीलिए, मैं अभी ही बोल रही हूँ चलिए नहीं तो मम्मी पापा से बोलेगी कि ‘ये दामाद जी तो खडूस निकले!’
    अब थोड़ी तो इमेज मेन्टेन करनी चाहिए न आपको…"


    धैर्य ने गाड़ी की स्टेयरिंग पर हाथ कसते हुए गहरी साँस ली।
    फिर गर्दन घुमाकर उसकी तरफ़ देखा, और उतने ही शांत लहज़े में बोला —

    "इमेज बनाने के लिए दिखावा करना पड़ता है पंखुड़ी…
    जो मैं करता नहीं।"

    पंखुड़ी ने होंठ भींचकर गर्दन मोड़ी और दरवाज़ा खोलने लगी।

    "ठीक है… मत चलो!वैसे भी मुझे कोई ज़रूरत नहीं है आपकी।"


    पंखुड़ी ने दरवाज़ा खोला, पैर बाहर रखा… फिर एकदम रुक गई।

    उसने बिना उसकी तरफ देखे बड़े मासूम लहजे में कहा —
    "वैसे... अंदर जाने से पहले एक बात तो बता दूँ?"


    धैर्य ने गर्दन मोड़ कर उसकी तरफ देखा।


    "दरअसल… अंदर मम्मी अकेली नहीं हैं। मामा जी भी आए हुए हैं…
    वो वही जो फौज में थे और अब रिटायर्ड होकर पुलिस में हैं…"
    उसने जानबूझकर एक पॉज़ लिया और फिर कहा —
    "…और थोड़े सवाल पूछने में एक्सपर्ट हैं।"

    धैर्य की भौंहें हल्की सी उठीं।
    "सवाल?"

    पंखुड़ी मासूमियत ओढ़कर बोली —
    "हाँ, जैसे कि… लड़का गाड़ी खुद चलाता है या ड्राइवर है?
    ये जो गाड़ी है… अपनी है या किसी और से उधार ली है?
    और सबसे ज़रूरी —
    ‘क्या लड़का गुस्सैल है या सब्र वाला?’
    मतलब… मामा जी के शब्दों में कहूँ तो,
    ‘दमाद में दम है या बस दिखावा है?’"

    धैर्य ने गहरी साँस ली और सीट से पीठ टिकाकर उसकी तरफ देखा —
    "मतलब… ये सब सवाल मुझसे पूछे जाएँगे?"

    पंखुड़ी ने उसी मासूमियत में सिर हिलाया —
    "हाँ। और मैं तो बस यही सोच रही हूँ कि
    आप इतनी खामोश रहते हैं… जवाब देंगे भी या
    बस मामाजी से डरकर चुप बैठे रहेंगे?"

    धैर्य ने होंठ टेढ़े करते हुए कहा —
    "तो तुम्हें लगता है मैं मामा जी से डर जाऊँगा?"

    पंखुड़ी ने तुंरत कहा —" हां। "

    धैर्य ने चुपचाप दरवाज़ा खोला…
    और बग़ल से निकल कर गाड़ी की दूसरी तरफ आ गया।

    पंखुड़ी ने चौंक कर पूछा —
    "कहाँ जा रहे हो?"

    धैर्य गंभीर आवाज़ में बोला —
    "चलो, देखता हूं मै डरता हूं या तुम्हारे मामाजी। "


    पंखुड़ी हक्की-बक्की उसे देखती रह गई।
    "सच में… चलोगे?"


    अब पंखुड़ी आगे-आगे चल रही थी, और
    धैर्य उसके पीछे पीछे।

    दरवाज़ा पहले से खुला था।
    भीतर कदम रखते ही सामने दिखीं मिसेज़ शेखावत जो सोफे पर पैर फैलाकर आराम से बैठी थीं।

    जैसे ही उनकी नज़र दरवाज़े पर पड़ी, उनका चेहरा खिल गया —
    "अरे दामाद जी! तुम आए हो? बहुत अच्छा किया, अंदर आओ।"

    धैर्य ने शालीनता से हाथ जोड़कर कहा —
    "नमस्ते आंटी।"

    "नमस्ते बेटा… बैठो-बैठो, पंखुड़ी ने बताया भी नहीं कि तुम आने वाले हो!"

    पंखुड़ी ने पीछे मुड़कर माँ को जवाब दिया —
    "अरे मम्मी… मुझे भी कहाँ पता था ये मान जाएंगे!"

    धैर्य ने हल्के से भौंहें चढ़ाईं… और कमरे में नज़रें घुमाईं
    पर उसे कोई "मामाजी" नहीं दिखे।
    उसने आँखें सिकोड़ते हुए कहा —
    "मामाजी कहाँ हैं?"

    पंखुड़ी ने झट से अपना चेहरा घुमाया… अब वो धीरे-धीरे दबे कदमों से सीढ़ियों की ओर बढ़ने लगी —
    "वो… अभी तो शायद सो रहे हैं!" — उसने हड़बड़ाई हुई आवाज़ में कहा।

    धैर्य ने हैरानी से कहा —
    "सो रहे हैं? अब तक?"

    मिसेज़ शेखावत ने आश्चर्य से कहा —
    "कौन मामाजी? अरे नहीं बेटा, वो तो यहाँ हैं ही नहीं। किसी मामा की बात कर रही हैं तू पंखुड़ी?"

    अब पंखुड़ी की चाल एकदम धीमी हो गई। वो सीढ़ियों पर पहला कदम रखते ही रुक गई।
    धीरे से पलटी… और अपनी बत्तीसी चमकाते हुए बोली—

    "ओह… वो मामाजी? वो तो… मेरी कल्पना में थे!"


    मिसेज़ शेखावत ने एक नज़र ऊपर सीढ़ियों की ओर जाती पंखुड़ी पर डाली, फिर धीरे से सिर हिलाया।

    "बिल्कुल बचकानी हरकतें करती है ये लड़की..."
    उन्होंने मुस्कुराते हुए धैर्य की ओर देखा —
    "लेकिन दिल से बहुत सीधी-सादी है बेटा। जो भी दिल में होता है, सीधा बोल देती है… कोई चालाकी नहीं है इसमें।"

    धैर्य ने एक पल के लिए जाती हुई पंखुड़ी की पीठ की तरफ देखा ।

    "हाँ… बिल्कुल सीधी सादी है …"
    उसने इतना धीमे में कहा कि सिर्फ़ मिसेज शेखावत ही सुन सकीं।


    मगर मिसेज़ शेखावत अब शुरू हो चुकी थीं —
    "अब देखो न… पढ़ाई में हमेशा औसत रही, पर मेहनती है।
    और गुस्सा भी ज़्यादा नहीं करती… बस थोड़ा ड्रामा पसंद है।
    आपस में बहुत जल्दी घुल-मिल जाती है।
    घर का काम… मतलब सीखने की कोशिश कर रही है, और हाँ… सबसे बड़ी बात वो बहुत ही मासूम है बेटा, दिल की बहुत साफ़।"

    धैर्य हर लाइन पर एक शांत सिर हिलाता जा रहा था।
    उसके मन में चल रहा था — "ये माँ अपनी बेटी को कितना फ़िल्टर करके पेश कर रही हैं…"

    वहीं ऊपर सीढ़ियों के मोड़ पर खड़ी पंखुड़ी कान लगाए सब सुन रही थी —
    और फुसफुसाई — "मम्मी! प्लीज़ बस कर दो अब…"

    मगर मिसेज़ शेखावत को अब ब्रेक नहीं लगने वाला था —

    "पंखुड़ी कभी ज़िद नहीं करती बेटा… बस थोड़ी बातूनी है।
    और उस पर थोड़ा सा नाटकबाज़ी का शौक है…
    बाकी तो एकदम भोली-भाली सी लड़की है।"
    मिसेज़ शेखावत ने अपनी चाय का कप उठाया और बोले — "मतलब, थोड़ा संभालना पड़ेगा इसको… पर इसकी मासूमियत, ये किसी भी दिल को जीत लेती है।"



    मिसेज़ शेखावत की बातें अब चाय से ज़्यादा गर्म हो चुकी थीं।
    धैर्य अब भी सिर झुकाए मुस्कुरा रहा था, पर उसके मन में चल रहा था —"पंखुड़ी और मासूम? और जिद नहीं करती? अच्छा मज़ाक है!"

    मगर उसने कुछ कहा नहीं।
    बस चुपचाप अपनी मुस्कान में वो सारी “सच्चाई” दबाए बैठा रहा,
    जैसे सामने बैठी महिला कोई दूसरी पंखुड़ी की बात कर रही हो।







    कंटिन्यू....


    आगे क्या होगा जानने के लिए अगले भाग का इंतजार करें....

  • 7. इश्क़ बिना चैन कहाँ - Chapter 7

    Words: 1273

    Estimated Reading Time: 8 min

    रात का समय था…

    डाइनिंग टेबल पर धैर्य बैठा था। गोद में पाँच साल की अंशी आराम से उसकी छाती से लगी हुई थी ,उसकी नन्ही उंगलियाँ धैर्य की शर्ट की बटन से खेल रही थीं।

    धैर्य ने एक हाथ से उसका माथा सहलाते हुए, दूसरे हाथ से उसकी थाली में से रोटी तोड़ी और छोटे टुकड़े बनाकर उसे खिलाने लगा।

    देवकी जी रसोई से  आई  और मुस्कुराते हुए बोलीं —
    "अरे बेटा, थाली आगे कर… सब्ज़ी डाल दूँ। और अंशी को दाल में डुबोकर खिलाना, सूखी रोटी नहीं खाती ये।"

    धैर्य ने मुस्कुराकर थाली आगे बढ़ा दी —
    "हाँ मां… पता है मुझे, मेरी गुड़िया कितनी नकचढ़ी है खाने में।"

    अंशी ने तुरंत पापा की गोद में उछलकर कहा —
    "नकचढ़ी नहीं हूँ! मैं प्रिंसेस हूँ!"

    राज जी, जो एक तरफ़ कुर्सी पर बैठे फोन पर किसी से बात कर रहे थे, एक पल के लिए मुस्कुराए और फोन  एक तरफ  करके बोले —
    "और ये प्रिंसेस अब स्कूल जाएगी या अभी भी पापा के पीछे घूमेगी?"


    अंशी ने तुरंत जवाब दिया —
    "नहीं! अभी स्कूल नहीं… मुझे तो नई मम्मा के साथ रहना है हमेशा के लिए!"

    देवकी जी ने हँसते हुए कटोरी में दाल परोसी और कहा —
    "पता नहीं ये पंखुड़ी कैसे संभालेगी इसको!"



    धैर्य ने  चिढ़ कर बोला—
    "मां मेरे से दो बच्चे नहीं संभाले जाएंगे।"


    राज जी भौहें चढ़ा कर बोले—"अरे कौन कौन दो बच्चे ?"



    धैर्य सकपका गया फिर बात संभालते हुए  बोला —"मतलब कि मेरी उम्र से बहुत छोटी है वो पंखुड़ी...एकदम बच्ची सी है। "

    देवकी जी हँस पड़ीं —
    "तो तू कौन सा बुढ़ा हो गया है? अभी तेरी भी हड्डियाँ जर्जर नहीं हुईं बेटा!"

    राज जी ने भी मुस्कुराते हुए कहा —
    "और वैसे भी… बच्ची है तो क्या हुआ? दिल से तो समझदार लगती है। और तुझसे थोड़ी ज़्यादा बातूनी भी है।"


    धैर्य ने मुंह बना लिया।


    ...देवकी जी फिर मुस्कुरा कर बोली —
    "बेटा, हर लड़की शुरू में बच्ची ही लगती है…
    लेकिन जब ज़िम्मेदारी आती है न… तो खुद-ब-खुद संभल जाती है।"

    राज जी ने सिर हिलाया —
    "और वैसे भी, ज़िम्मेदारी निभाने के लिए उम्र नहीं… इरादा चाहिए होता है ।"


    फिर अचानक देवकी जी की नज़र दीवार पर टंगे कैलेंडर पर गई —
    "अरे हाँ… एक बात तो पूछनी ही भूल गई… धानी कब आ रही है?"

    धैर्य ने पूछा —
    "छोटी? उसका तो पेपर चल रहा था न मम्मा?"


    "हाँ… आज ही उसका आख़िरी पेपर था। सुबह बात हुई थी — कह रही थी कि एक-दो दिन में निकलूंगी।
    मैंने कहा भी बेटा अब ज़्यादा दिन मत रुकना, तेरे भैया की दूसरी शादी जो हैं 1 महीने बाद।"


    धैर्य ने जैसे ही माँ की बात सुनी, उसकी उँगलियाँ थाली में रुक गईं।उसके चेहरे पर एकदम सन्नाटा उतर आया।

    फिर वो धीरे से बोला —
    "एक महीने बाद?"

    देवकी जी मुस्कुराते हुए बोलीं —
    "हाँ बेटा, मैंने और तेरे पापा ने सोचा कि ज़्यादा देर करना ठीक नहीं। वैसे भी सब बात हो चुकी है… बस अब शादी की तारीख़ तय करनी बाकी है… और वो पंडित जी से कल तय करवा लेंगे।"



    धैर्य कुछ पल तक चुप रहा… फिर थोड़े सख़्त लहजे में बोला —"आपने मुझसे पूछे बिना… मेरी शादी फिक्स कर दी?"

    देवकी जी चौंक गईं —
    "बेटा… हम तो बस यही समझे कि अब तू भी आगे बढ़ना चाहता है। पंखुड़ी एक अच्छी लड़की है, और तू भी…"


    धैर्य ने उनकी बात बीच में ही काट दी —
    "मम्मा, वो एक अच्छी लड़की हो सकती है… लेकिन मुझे उससे शादी नहीं करनी!"

    अब राज जी भी ध्यान से देखने लगे।

    "मुझे नहीं लगता कि मैं तैयार हूँ…"
    धैर्य की आवाज़ अब बहुत धीमी हो चुकी थी।

    "इतनी जल्दी कैसे भूल जाऊँ मैं मेरे प्यार को?"
    उसने नजरें झुका लीं।
    "इतनी जल्दी कैसे किसी और को उस जगह बिठा दूँ, जहां मेरी पत्नी थी?"


    अंशी अब तक उसकी गोद में चुपचाप बैठी थी…
    अब धीरे से पापा की शर्ट खींचकर बोली —
    "पापा… आप रो रहे हो?"

    धैर्य ने फौरन अपनी आँखें पोंछीं और मुस्कुराने की कोशिश करते बोला —"नहीं मेरी जान… कुछ नहीं… बस पापा को थोड़ी थकान है।"


    देवकी जी अब पूरी तरह गंभीर हो गईं।

    "बेटा… ये शादी का फैसला हमने किसी ज़बरदस्ती में नहीं लिया। हमने सिर्फ़ वही सोचा जो तेरे लिए ठीक होगा।और तू ये मत समझ कि तू किसी की जगह किसी और को बैठा रहा है…"

    राज जी ने बात संभाली और बोले—
    "कभी-कभी बेटा… नए रिश्ते, पुराने ज़ख्मों को भरने नहीं, बल्कि जीने की वजह बनने आते हैं। पंखुड़ी कोई मजबूरी नहीं है, बस एक मौका है… ज़िंदगी को फिर से महसूस करने का।"


    धैर्य अब उठ खड़ा हुआ।
    "मुझे नहीं लगता कि मैं तैयार हूँ।"


    तभी देवकी जी की आवाज़ गूंज उठी —
    "लेकिन हम तैयार हैं धैर्य!"

    धैर्य एक पल को ठिठका…
    पीछे मुड़ा तो माँ की आँखों में वही ममता के साथ थोड़ा आक्रोश भी था।

    "हर बार तेरी ही भावनाओं की कद्र करें हम? हर बार तुझे ही समझें?कभी इस बच्ची के बारे में भी सोच!"
    उन्होंने अंशी की ओर इशारा किया —
    "बेचारी बिन माँ की हो गई… और अब तक सिर्फ़ तेरे आँसू और तेरी खामोशी देखती आ रही है।"

    धैर्य कुछ बोलने ही वाला था कि देवकी जी और बोल पड़ीं —

    "तेरी पत्नी को गए पाँच साल हो गए धैर्य!"
    "कितनी बार समझाया तुझे कि ज़िंदगी को रोक देने से, जो चला गया वो वापस नहीं आता… लेकिन तू है कि थम गया है… जम गया है… एक जगह!"


    धैर्य ने सिर झुका लिया… अब उसकी मुट्ठियाँ भींच गई थी।


    अंशी अब धीरे-धीरे नीचे फिसल गई उसकी गोद से… और वहीं पास में खड़ी हो गई।
    उसने माँ-बेटे को उलझन में देख, मासूमियत से पूछा —

    "दादी… नई मम्मा नहीं आएँगी क्या?"

    कुछ पल के लिए जैसे हवा भी थम गई।

    धैर्य ने आँखे बंद कीं… और एक भारी साँस ली।

    फिर नीचे झुककर अंशी की आँखों में देखा… उसकी मासूम आँखों में सिर्फ़ एक सवाल था —
    मुझे भी कोई मम्मा मिलेगी न?


    धैर्य की आँखें भर आईं।

    वो बहुत धीमे से बोला —
    "ठीक है मै तैयार हूं…"



    देवकी जी के हाथ में पकड़ी कटोरी से दाल छलक गई, लेकिन उन्हें अब कोई परवाह नहीं थी।
    राज जी ने चश्मा उतारकर टेबल पर रखा और आंखें मींच लीं,जैसे वो इस लम्हे के इंतज़ार में सालों से बैठे थे।

    अंशी की आँखें चमक उठीं।
    वो एक छलांग में दो कदम आगे आई और पापा के गले से लिपटते हुए चिल्लाई —

    "येय! नई मम्मा आएँगी!! नई मम्मा आएँगी!!"

    धैर्य हँस पड़ा… और उसी हँसी में उसकी आँखों के आँसू ढुलक पड़े।

    देवकी जी ने अपनी साड़ी के पल्लू से आँखें पोंछीं और धीमे से भगवान की मूर्ति की ओर देखा —"थैंक्यू ठाकुर जी…आखिर आपने मेरे नालायक धैर्य को सद्बुद्धि दे ही दी।"


    राज जी ने मुस्कुराकर धैर्य के कंधे पर हाथ रखा —
    "बेटा, ये तेरी ज़िंदगी का दूसरा अध्याय है… और हम सब चाहते हैं कि ये सबसे खूबसूरत हो।"


    देवकी जी मुस्कुरा कर बोली —
    "अब कल ही पंडित जी को बुलवाते हैं… तारीख़ पक्की करवाते हैं।"

    अंशी पापा की गोद से उतरकर दौड़ते हुए अपनी गुड़िया के पास गई और उसे पकड़कर बोली —
    "अब मैं तुझे नई मम्मा से मिलवाऊँगी!"

    घर में चारों तरफ़ रौशनी थी…
    चेहरों पर राहत थी…
    दीवारों पर रंग लौट आए थे…
    सब खुश थे…

    लेकिन धैर्य?

    वो वहीं खड़ा रहा…

    उसकी आँखें सब देख रही थीं, लेकिन मन कहीं और अटका था।
    मुस्कुराहट उसके चेहरे पर थी…
    पर दिल में अब भी वो खालीपन ठहरा हुआ था।

    वो जानता था…
    उसे अब आगे बढ़ना है।
    लेकिन…
    कभी-कभी चलने की हाँ कहना आसान होता है,
    चल पड़ना नहीं।





    कंटिन्यू...


    आगे क्या होगा जानने के लिए अगले भाग का इंतजार करें....

  • 8. इश्क़ बिना चैन कहाँ - Chapter 8

    Words: 1406

    Estimated Reading Time: 9 min

    अगले ही दिन सुबह का सूरज घर की खिड़कियों पर सुनहरी लकीरों की तरह बिखरा पड़ा था। घर में हलचल शुरू हो चुकी थी। 


    देवकी जी सिर  पर पल्लू जमाए, जल्दी-जल्दी काम निपटा रही थीं।
    "अंशी बेटा! देखना तो, पंडित जी आ गए क्या?"

    अंशी बाहर की ओर भागी और फिर दौड़ते हुए वापस आई —
    "दादी! पंडित जी तो आ गए!"

    दरवाज़े पर सफ़ेद धोती-कुर्ते में पंडित त्रिलोकी नाथ जी खड़े थे। 

    देवकी जी ने दौड़ते हुए स्वागत किया —
    "आइए पंडित जी, आइए… बहुत दिन बाद दर्शन हुए!"

    पंडित जी ने मुस्कुराकर कहा —
    "अब बुलावा भी तो इतने सालों बाद आया है, देवी जी! और सुना है… इस बार फिर से शहनाई बजने वाली है!"

    देवकी जी हल्का सा मुस्काईं और उन्हें हॉल में ले आईं, जहाँ राज जी पहले से ही सोफे पर बैठे अखबार पढ़ रहे थे।

    राज जी ने पंडित जी को देखकर चश्मा उतारा —
    "आइए त्रिलोकी नाथ जी, इस बार जल्दी-जल्दी शुभ मुहूर्त निकालिए… वरना हमारा धैर्य, फिर से ‘धैर्य’ दिखाने लग जाएगा!"

    पंडित जी ने हँसते हुए पंचांग खोल दिया —
    "कहाँ है धैर्य बाबू? बिना वर को देखे कैसे मुहूर्त निकालें?"


    देवकी जी ने थाली सजाई, हाथ में रोली-अक्षत लिए ऊपर की ओर  आवाज लगाई  —
    "धैर्य! नीचे आ बेटा! पंडित जी आ गए हैं!"

    ऊपर से सीढ़ियों पर धीमे क़दमों की आहट आई।

    धैर्य सफ़ेद टीशर्ट और ग्रे पेंट में नीचे उतर रहा था। 

    देवकी जी ने उसे बैठने को कहा।
    "चल बेटा, आज तेरे नाम का फिर से नया अध्याय खुलने वाला है।"


    पंडित जी ने कुंडली, ग्रह, तिथि सब देखकर कहा —
    "हूँ… आने वाले महीने की 21 तारीख़ को देवगुरु बृहस्पति का विशेष योग बन रहा है। बहुत शुभ मुहूर्त है। विवाह, गृह प्रवेश, सभी कार्यों के लिए उत्तम।"

    देवकी जी ने फौरन कहा —
    "बस! इसी दिन कर दीजिए पक्की तारीख़!"

    राज जी बोले —
    "और कोई रुकावट तो नहीं पंडित जी?"


    "रुकावट नहीं है राज जी, परंतु एक बात है…"

    सबका ध्यान एकदम से पंडित जी की ओर खिंच गया।

    देवकी जी ने घबरा कर पूछा —
    "क्या बात है पंडित जी?"

    पंडित जी गंभीर हो गए —
    "शुभ योग तो है… लेकिन धैर्य बाबू की कुंडली में एक ‘ग्रह छाया’ है।
    पहली पत्नी के वियोग का जो प्रभाव है, वो अब भी पूर्णतः समाप्त नहीं हुआ है।
    अगर ये विवाह करना है, तो इससे पहले एक ‘शांति हवन’ ज़रूरी है… ताकि नए जीवन में कोई बाधा न आए।"

    देवकी जी ने घबरा कर धैर्य की ओर देखा —
    जो अब भी एकदम शांत  सा बैठा था।

    राज जी बोले —
    "हवन कब करें पंडित जी?"

    "जितनी जल्दी कर लें, उतना बेहतर है। इस रविवार को सुबह 6 बजे का मुहूर्त सबसे उपयुक्त है।
    उस दिन पंखुड़ी बिटिया को भी बुला लीजिए, वो भी हवन में आहुति देगी तो शुभ होगा।"

    धैर्य ने पहली बार सिर उठाकर पंडित जी की ओर देखा।
    पंखुड़ी…?
    नाम सुनते ही जैसे उसकी साँसें एक पल को अटक गईं।

    देवकी जी मुस्कुराईं —
    "बिलकुल! मैं आज ही बात करती हूँ। वो और उसके माता-पिता भी आ जाएँगे।"

    अंशी जो अब तक गुड़िया को अपनी छोटी सी कुर्सी पर बिठाए बैठी थी, अचानक चहक उठी।


    दूसरी तरफ...

    पंखुड़ी अपनी माँ के साथ बैठकर  मकड़ी के जाले  साफ कर रही थी।
    तभी फोन बजा।

    देवकी जी का कॉल था।

    पंखुड़ी की माँ ने बात की, फिर मुस्कराकर मोबाइल पंखुड़ी को पकड़ाया —"बात करो बेटा, तुम्हारी सासू माँ का कॉल है।"

    पंखुड़ी ने झट  से फोन ले लिया —
    "जी… नमस्ते आंटी…"


    देवकी जी की आवाज़ आई —
    "अरे बेटा! अब 'आंटी' नहीं, 'मम्मी' कहो। और तैयार रहना… इस रविवार को हवन है, तुम्हें भी आना है।"

    पंखुड़ी खिलखिला उठी—
    "जी… ज़रूर आऊँगी मम्मी जी।"




    रविवार आने में अभी तीन दिन बाकी थे, पर हवेली में जैसे पहले से ही उत्सव का माहौल बन चुका था।

    उसी शाम…

    दरवाज़े पर तेज़ हॉर्न की आवाज़ गूँजी।

    देवकी जी रसोई में से बाहर निकलीं और अंशी दौड़ती हुई बोली —"दादी! बुआ आ गईं!"

    लाल क्रॉप टॉप और ब्लू जीन्स में चहकती हुई धानी हॉल में खड़ी थी।

    जैसे ही उसकी नजर देवकी जी पर पड़ी...

    "माँ!!" धानी ने चिल्ला कर देवकी जी को गले लगाया —
    "इतनी बड़ी बात हो गई और आपने मुझे एक दिन पहले बताया?"

    देवकी जी मुस्कुरा दीं —
    "तू भी जान-बूझकर नाटक करती है… सोशल मीडिया पर सब देखती होगी तू!"

    "मैं तो बस भाभी की फोटो देखने आई हूँ!" धानी ने शरारत से कहा और सीढ़ियों की ओर देखने लगी।

    तभी ऊपर से धैर्य नीचे उतर रहा था।अपना वही सामान्य सा हुलिया लिए हुए और हमेशा की तरह शांत।
    लेकिन धानी तो जैसे इसी पल के इंतज़ार में थी।

    "भैया!"
    हाथ नचाते हुए वो उसकी ओर भागी।

    "क्या है?" — धैर्य ने थक कर पूछा।

    "मतलब कुछ नहीं बताया आपने मुझे! ना फोटो, ना डिटेल! और अब तीन दिन बाद सीधा शादी का शंखनाद! वाह!"

    धैर्य ने सादी सी आवाज़ में कहा —
    "और तू भी तो अब जाकर आई है!"

    धानी उसकी बात काट कर बोली —
    "भैया… फोटो है न आपके पास! दिखाइए न प्लीज़!"

    "नहीं है!" — धैर्य ने दो टूक कहा।

    "मतलब आप अपनी होने वाली पत्नी की फोटो तक नहीं रखते?"
    धानी ने घूरकर पूछा।

    "नहीं रखता!" — धैर्य अब थोड़े चिढ़े से अंदाज़ में बोला।


    "मम्मी!! देखिए न! भैया छुपा रहे हैं! मेरी होने वाली भाभी की फोटो नहीं दिखा रहे!"

    देवकी जी रसोई से चहक कर बोली —
    "अरे तू तो रविवार को खुद मिल लेगी न! "


    धानी ने उदासी से बोली —
    "माँ! पर मुझे अभी मिलना था!"



    आखिर रविवार की सुबह भी आ ही गई…

    घड़ी की सुइयाँ जैसे धीरे-धीरे नहीं, उत्साह में भाग रही थीं। हवेली में आज हर कोना चमक रहा था। कहीं आम की पत्तियों की तोरण बाँधी जा रही थी, कहीं फूलों की सजावट हो रही थी।

    देवकी जी आरती की थाली सजाकर मंद-मंद भजन गुनगुना रही थीं।

    अंशी गुलाबी फ्रॉक में तितली की तरह दौड़ती घूम रही थी।


    तभी हवेली के बाहर गाड़ी रुकी।

    पंखुड़ी अपने मम्मी पापा के साथ उतरी ।

    पंखुड़ी ने आज केसरिया रंग का लंबा सा घेरेदार सूट पहना हुआ था जिस पर पीला दुपट्टा ओढ़ा हुआ था उसने।
    कंधे तक आते बाल खुले ही थे।


    उसे देखते ही अंशी चिल्लाई —
    "नई मम्मा आ गईं!!"

    और लपक कर उससे लिपट गई।

    पंखुड़ी ने उसे गोद में उठा लिया —
    "अरे वाह! मेरी प्यारी अंशी आज तो बिल्कुल परी लग रही है!"


    हवेली के आँगन में जैसे ही गाड़ी की आवाज़ गूंजी, सबका ध्यान उधर चला गया।

    पंखुड़ी अपने माता-पिता के साथ मुस्कुराते हुए आगे बढ़ी ही थी कि ठीक उसी पल…

    दूसरी तरफ़ सीढ़ियों से उतरती धानी की नज़र उस पर पड़ी।

    उसने एक पल को अपनी आँखें मिचाईं… जैसे विश्वास नहीं हो रहा हो।

    फिर अचानक उसकी आँखें फैल गईं।

    उसके मुँह से अचानक फिसला —

    "व्हाट द फ़..*"

    देवकी जी चौंक गई धानी के बोलने के ढंग से —
    "धानी!"

    लेकिन धानी की नज़रें अब सिर्फ़ पंखुड़ी पर थीं…
    और पंखुड़ी की आँखें भी ठिठक कर धानी पर जाकर टिक चुकी थीं।


    दोनों की आँखों में एक साथ तूफ़ान आ गया था।

    पहचान थी…
    लेकिन उस पहचान में वो मीठी मुस्कुराहट नहीं थी,बल्कि वो कड़वी सी चुप्पी थी…नफरत से भरी हुई।

    पंखुड़ी के चेहरे से एकाएक सारी मुस्कुराहट जैसे छिन गई हो।

    उसने झटके में नज़रें फेर लीं।
    ठीक उसी पल धानी ने भी तेज़ी से मुँह मोड़ लिया।

    देवकी जी जो अब तक उत्साह में थीं, उन्होंने दोनों की ओर देख कर कहा—

    "तुम दोनों… जानती हो एक-दूसरे को?"

    धानी ने झूठी मुस्कुराहट ओढ़ ली और बोली—
    "नहीं माँ… बस चेहरा जाना-पहचाना सा लगा…"

    पंखुड़ी ने भी तुरंत खुद को सँभाला —
    "हाँ… शायद कहीं देखा है…"

    धैर्य, जो अब तक एक कोने में चुपचाप खड़ा था, वो भी अब हैरानी से दोनों को देख रहा था।


    अंशी, जो पंखुड़ी का हाथ पकड़कर अंदर की ओर खींच रही थी, बोली —
    "चलिए न नई मम्मा! आपको पूजा वाली जगह दिखाती हूँ!"

    पंखुड़ी ने धीमे से सिर हिलाया और अंशी के साथ अंदर बढ़ गई।

    पीछे खड़ी धानी अब भी उसी जगह जमी हुई थी…

    देवकी जी ने उसका कंधा पकड़ा —
    "क्या हुआ बेटा? तू तो बहुत एक्साइटेड थी पंखुड़ी से मिलने को… अब क्या हो गया?"

    धानी ने हल्के से कहा —
    "कुछ नहीं माँ…
    बस… ज़िंदगी कभी-कभी बहुत अजीब लोग एक ही घर में ला खड़ा करती है…"

    और वो धीरे से पलटी और अंदर चली गई…






    कंटिन्यू....


    आगे क्या होगा जानने के लिए अगले भाग का इंतजार करें...

  • 9. इश्क़ बिना चैन कहाँ - Chapter 9

    Words: 1371

    Estimated Reading Time: 9 min

    हवन अब समाप्त हो चुका था।

    परिवार के सभी सदस्य अब हल्के-हल्के मुस्कुरा रहे थे।

    इसी बीच देवकी जी ने पंखुड़ी से कहा —

    "बेटा, तुम ऊपर जाकर थोड़ा आराम कर लो… सुबह से बैठी हुई ही हो।"

    पंखुड़ी ने विनम्रता से मुस्कराकर सिर हिलाया —
    "जी मम्मी जी।"

    वो अंशी का हाथ थामे हॉल से निकल कर सीढ़ियाँ चढ़ने ही लगी थी, कि पीछे से तेज़ आवाज़ आई —

    "ओए पंखा!"

    पंखुड़ी एक पल को रुकी। उसके माथे पर हल्की सी शिकन उभरी। वो पीछे मुड़ी और तंज कसते हुए बोली —

    "और तुम धनिया पुदीना!"

    धानी की आँखें फैल गईं वो चिढ़ कर बोली —
    "मेरा नाम धानी है… ओके...धा-नी!"

    पंखुड़ी अपनी दुपट्टे को झटकते हुए उसी लहजे में बोली —
    "तो मैंने कौन सा मिर्ची बोला? शुरुआत तो तुमने की थी… वैसे भी मेरा नाम पंखुड़ी है, पंखा नहीं!"

    धानी ने हाथ कमर पर रखा और पलट कर बोली —
    "वैसे तुम आज भी उतनी ही नकचढ़ी हो, जितनी कॉलेज में थीं!"


    पंखुड़ी ने मुस्कुराकर जवाब दिया —
    "और तुम आज भी उतनी ही जलनखोर… बात-बात पर तुनक जाने वाली!"

    धानी ने आँखें तरेरीं —
    "कौन जल रहा है? मैं? और तुमसे? हाह!"


    पंखुड़ी एक कदम आगे बढ़ी, धीमे से शरारती मुस्कान मुस्कराकर बोली—
    "अब देख… एक ही घर में रहना है… तो भाभी बोल कर इज्जत दे मुझे?"



    धानी एक पल को चुप हुई…फिर बाँहें सीने पर लपेटते हुए बोली —
    "तो अब तू मेरी भाभी बनेगी?"
    फिर हँसकर बोली —
    "तू बस पंखुड़ी ही रह… और तू कोई भाभी-शाभी नहीं है मेरे लिए!"

    पंखुड़ी ने आँखें घुमाईं —
    "ठीक है धनिया जी… अब हटो ज़रा, मुझे आराम करना है!"

    वो मुस्कुराती हुई ऊपर बढ़ गई, और पीछे रह गई धानी… तमतमाए चेहरे के साथ।

    धानी बड़बड़ाई —
    "ओवरस्मार्ट कहीं की… पर ये घर मेरा है… और यहाँ चलेगी भी सिर्फ मेरी ही !"


    अंशी अब नीचे खेलने चली गई थी....

    पंखुड़ी धीरे-धीरे सीढ़ियाँ चढ़ती हुई ऊपर पहुँची।
    हवेली का वह कमरा, जहाँ धूप हल्के पर्दों से छनकर अंदर आ रही थी, एक सुकून भरी शांति से भरा हुआ था था वो कमरा।
    कमरा बड़ा था, खिड़कियाँ खुली थीं और पर्दे हवा में हौले-हौले लहर रहे थे।

    पंखुड़ी ने दुपट्टा उतारा, पास पड़ी कुर्सी पर रखा और फिर बिस्तर के कोने पर आकर बैठ गई।

    उसने लंबी साँस ली, और बालों में उँगलियाँ फेरते हुए खुद से बड़बड़ाई —
    "हे भगवान! मुझे क्या पता था कि वो धनिया पुदीना मेरी ननद बन जाएगी…"

    उसने तकिए को खींच कर अपनी गोद में रखा और फिर मुँह बना कर बोली —
    "क्या मुसीबत है यार! नकचढ़ी कहीं की… बात-बात पर घूरना, चिढ़ना, और फिर ओए पंखा बोलना!"

    वो उठकर खिड़की के पास चली गई। बाहर नज़ारा बेहद सुंदर था ।

    लेकिन पंखुड़ी की नजरें तो कहीं और थीं… उसके दिमाग में अब भी धानी की जलती आँखें और तीखे तेवर घूम रहे थे।

    उसने बड़बड़ाते हुए कहा —

    "लगता है, अब शादी के बाद सिर्फ पति और सास से ही नहीं, ननद महारानी से भी निपटना पड़ेगा!"
    वो फिर पलटी और कमरे में टहलने लगी।

    "कॉलेज में जो झगड़े थे, वो तो टाइम पास थे…
    पर अब? अब तो रोज़ सुबह उठकर इसी 'ओवरस्मार्ट धानी' का चेहरा देखना पड़ेगा।
    ओफ्फो!"


    वो जाकर बेड पर धम्म से गिर गई।
    आँखें बंद करते हुए बोली —

    " हैंडसम धैर्य जी… आपने तो कुछ बताया ही नहीं कि आपकी बहन मेरी 'वो वाली धानी' निकलेगी…"

    तभी दरवाज़े पर ठक-ठक की आवाज़ हुई।


    पंखुड़ी चौंकी, उठकर बैठी और बोली —
    "कौन है?"

    बाहर से धीमी आवाज़ आई —
    "मैं हूँ… धैर्य!"

    पंखुड़ी के चेहरे पर हैरानी और झेंप एक साथ आ गई।

    वो जल्दी से बाल सँवारती हुई दरवाज़े की तरफ बढ़ गई…



    पंखुड़ी ने दरवाज़ा खोला।

    सामने खड़ा था ... धैर्य राणा।
    सादा कुर्ता-पायजामा पहना हुआ था उसने, और चेहरे पर वही पुराना शांत भाव… जैसे मन में कोई हलचल ही न हो।
    हाथों में चाँदी की थाली थी, जिसमें हवन का प्रसाद रखा था ।

    "माँ ने भेजा है… प्रसाद। खा लो।" — आवाज़ सीधी और साफ थी।

    पंखुड़ी एक पल को उसे देखती रह गई…
    फिर मुस्कुरा पड़ी — "थैंक्यू, होने वाले पति देव!"

    धैर्य ने उसकी बात पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी।
    बस थाली थमा दी और पलटने लगा।

    पंखुड़ी ने लड्डू उठाते हुए कहा —
    "इतनी जल्दी जा रहे हो? बैठो ना थोड़ी देर… मैं अकेली थी, वैसे भी।"

    धैर्य एक पल रुका, फिर बेमन से दरवाज़े के पास रखी कुर्सी पर बैठ गया।

    पंखुड़ी वहीं बेड के कोने पर बैठ गई, और लड्डू को धीरे-धीरे तोड़ते हुए बोली —
    "बचपन से यही लड्डू पसंद है मुझे… दादी बनाती थी ऐसे ही…
    …पर अब तो दादी नहीं हैं…"
    उसकी आवाज़ धीमी पड़ गई।

    धैर्य ने कुछ नहीं कहा।
    वो खिड़की की ओर देख रहा था, जैसे उसकी बात उसके कानों तक नहीं पहुँच रही थी… या फिर वो सुनकर भी अनसुना कर रहा था।


    पंखुड़ी ने लड्डू का एक टुकड़ा तोड़ा और उसकी तरफ बढ़ाया —"लो, खाओ। प्रसाद बाँटने से पुण्य ज़्यादा मिलता है!"

    धैर्य ने उसकी ओर देखा, लड्डू लिया…
    और बिना कुछ बोले खा गया।


    अब पंखुड़ी लड्डू का एक टुकड़ा खुद के मुँह में डालते हुए हँसी रोकने की कोशिश कर रही थी।

    फिर अचानक वो खिलखिला कर हँस पड़ी।
    इतनी ज़ोर से, कि धैर्य को भी उसकी तरफ देखना पड़ा।

    धैर्य ने भौंहें चढ़ाकर पूछा —
    "क्या हुआ?"

    पंखुड़ी ने हँसी रोकते हुए अपनी उँगली से नीचे उसकी तरफ इशारा किया —
    "आप… आप न… पागल हो पूरे के पूरे!"

    धैर्य थोड़ा चौक गया —
    "क्या?"

    पंखुड़ी ने हँसते हुए कहा —
    "आपने… अलग-अलग मौजे पहन रखे हैं! एक काला है… और एक नीला! और दोनों अलग-अलग पैटर्न के!"

    वो फिर और ज़ोर से हँसी —
    "हे भगवान… धैर्य जी! आप जैसे सीरियस इंसान से ये उम्मीद नहीं थी!"

    धैर्य ने नीचे देखा…
    सच में एक मौजा काला और दूसरा नीला।

    उसने बस एक नज़र डाली… और फिर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी।

    बस खिड़की से बाहर देखने लगा… वैसे ही शांत भाव से।

    पंखुड़ी की हँसी धीमी होने लगी…
    वो देख रही थी कि उसका मज़ाक धैर्य पर कोई असर ही नहीं डाल रहा।

    अब उसके चेहरे पर हँसी की जगह हल्की झुँझलाहट आ गई।

    वो धीरे से बोली —
    "मतलब… कुछ भी बोलो, कुछ भी करो… आपको कोई फर्क ही नहीं पड़ता?
    मैं यहाँ खिलखिला रही हूँ, और आप वैसे ही चुपचाप बैठे हो… जैसे मुझमें कोई वजूद ही नहीं!"

    धैर्य ने उसकी तरफ देखा —
    "हर बात पर हँसना मुझे बचपना लगता है।"

    ये सुनते ही पंखुड़ी का मुँह थोड़ा और लटक गया।

    वो धीमे से बड़बड़ाई —
    "और मुझे हर वक्त पत्थर बने रहना बोरिंग लगता है…"

    वो तकिए को उठाकर सीने से लगाते हुए बेड पर बैठ गई।
    एक पल के लिए कमरे में फिर से चुप्पी छा गई।

    फिर पंखुड़ी ने धीरे से कहा —
    "पता है? शादी में हँसी-ठिठोली ना हो… तो रिश्ता भी खाली लगता है…
    पर अगर एक इंसान हँसता ही रहे और दूसरा सिर्फ देखता रहे…
    तो वो रिश्ता एकतरफा हो जाता है।"

    धैर्य खामोश रहा।

    पंखुड़ी ने सिर झुकाया और धीमे से कहा —
    "खैर… आप जाइए। आपको वैसे भी मुझमें कोई दिलचस्पी नहीं है…"

    धैर्य उठ खड़ा हुआ।

    "ठीक है। आराम करो।"

    और वो बाहर निकल गया।

    धैर्य के जाते ही दरवाज़ा बंद हुआ।

    पंखुड़ी कुछ पल दरवाज़े की ओर देखती रही…
    फिर मुँह बिचकाते हुए तकिए पर सिर टिकाया और बड़बड़ाई —"हुंह! सच में चला गया ये तो…
    बिलकुल भावशून्य इंसान है ये धैर्य राणा!"

    वो थोड़ी देर तक चुप रही… फिर तकिए को ज़ोर से दबाते हुए बोली —"पंखुड़ी बेटा…
    तुझे मेहनत करनी पड़ेगी…
    पति को वश में करने के लिए!"

    वो अपनी बात पर खुद ही खिलखिला पड़ी।
    इतनी ज़ोर से हँसी, कि उसके खुद के गाल लाल हो गए।

    "हे भगवान… ये मैं क्या-क्या सोच रही हूँ!"

    वो उठी, आईने के सामने गई और खुद को देखने लगी।
    अपने ही चेहरे को देखकर मुस्कुराई —

    "लेकिन बात सीरियस है पंखुड़ी शेखावत!
    वो शांत समंदर है...
    और मैं?
    मैं तो एकदम... झरना हूँ झरना!
    उछलती-कूदती, बेहिसाब बहती…
    एकदम जंगली झरना!"

    वो फिर खिलखिलाकर हँसी।

    "पता है पंखुड़ी…
    ये लड़का अगर ऐसे ही रहा ना…
    तो या तो तू इसे पिघला देगी…
    या फिर खुद सख़्त बर्फ़ बन जाएगी!"







    कंटिन्यू....


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  • 10. इश्क़ बिना चैन कहाँ - Chapter 10

    Words: 1846

    Estimated Reading Time: 12 min

    रात के तक़रीबन साढ़े नौ बज रहे थे।
    हवेली की रसोई में बर्तन रखने की हल्की आवाज़ें आ रही थीं, और हवेली के पिछवाड़े में पसरी थी गहरी खामोशी।
    नीम के पुराने पेड़ के नीचे बंधा वो झूला… जिसमें अक्सर धैर्य बैठा करता था ,आज भी वही बैठा हुआ था…

    उसकी आँखें बंद थीं, जैसे मन के भीतर चल रही हलचल को क़ैद कर रखा हो।

    चेहरा शांत… लेकिन माथे पर हल्की लकीरें बता रही थीं कि कुछ न कुछ अंदर ज़रूर उफान मार रहा है।

    तभी… पीछे से किसी के तेज़ क़दमों की आहट सुनाई दी।

    "भैया!" — एक तेज़ आवाज़ आई।

    धैर्य ने आँखें नहीं खोलीं।

    अगले ही पल, धानी सामने आकर खड़ी हो गई।


    "भैया… मुझे भी नहीं पसंद वो पंखुड़ी!"

    धैर्य अब भी चुप रहा।

    धानी की आवाज़ और तेज़ हो गई —
    "भैया, आप कुछ बोल क्यों नहीं रहे?
    मैं सीरियस हूँ! वो लड़की... पंखुड़ी... मुझे एक पल को भी हज़म नहीं हो रही!"

    धैर्य ने अपनी बंद आँखें धीरे से खोलीं।
    नीम की शाखों से छनती चाँदनी अब उसकी आँखों पर पड़ रही थी, मगर उसकी पुतलियाँ अब भी स्थिर ही थीं।

    वो एक गहरी साँस लेकर बोला —
    "पंखुड़ी इस घर की बहू बनने जा रही है, धानी।
    तुम्हें उसे नापसंद करने का हक़ है… पर उसे नीचा दिखाने का नहीं।"

    धानी अब बौखला गई —
    "मतलब आप मेरी बात को इग्नोर कर रहे हो?
    मैं कह रही हूँ, वो लड़की जैसी दिखती है, वैसी है नहीं!"

    धैर्य ने अब उसकी तरफ देखा, बहुत शांत भाव से —
    "और तुम जैसी बोलती हो… वैसी हमेशा सही भी नहीं होती।"

    धानी का मुँह खुला का खुला रह गया।
    उसके गाल गुस्से से लाल हो गए।

    "ओह! तो अब आपको भी मेरी बातों में तमीज़ की कमी दिखने लगी?
    कॉलेज में उसने मेरे साथ जो किया, वो सब मै नहीं भूल पाई हु!
    आपको पता भी है कि ये वही लड़की थी जिसने…"

    धैर्य ने बीच में ही टोक डाला उसे —
    "जो भी हुआ, वो कॉलेज था। वो उम्र, वो माहौल… अब नहीं है।
    आज हम सब ज़िंदगी के नए मोड़ पर हैं।
    तुमसे उम्मीद है कि तुम बचपना नहीं करोगी।"



    धानी की आँखें अब भर आई थीं…
    और फिर अचानक, अपने मोटे मोटे आंसू टपकाने लगी —

    "हाँ हाँ… आप तो भूल गए ना सब कुछ!
    इतनी आसानी से भूल गए अपने पहले प्यार को…
    इतनी जल्दी कैसे मूव ऑन कर सकते हो, भैया?"

    धैर्य के चेहरे की सारी शांति अब धीरे-धीरे सख़्ती में बदलने लगी।
    उसकी मुट्ठियाँ कस गईं… जबड़े भींच गए…

    वो अपनी प्यारी बहन से बहस नहीं करना चाहता था,
    पर वो शब्द जिनमें दर्द कम, और इल्ज़ाम ज़्यादा था।
    वो उसे कहीं भीतर तक चीर रहे थे।


    "भैया… आप तो कहते थे कि सच्चा प्यार एक बार होता है…
    तो फिर ये दूसरी शादी?
    क्यों? किस लिए?
    क्या इतनी जल्दी सब कुछ खत्म हो गया आपके अंदर?"

    धैर्य ने एक लंबी साँस खींची…
    आँखें बंद कीं, जैसे खुद को रोक रहा हो…
    फिर अगले ही पल वो उठ खड़ा हुआ।
    धीरे-धीरे, बिना कुछ बोले, उसने अपनी बहन को अपनी बाँहों में भर लिया।
    धानी पहले तो हिचकी… लेकिन फिर वो खुद को रोक न सकी, और धैर्य के सीने से लगकर ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी।

    धैर्य ने उसके बालों पर हल्का हाथ फेरा…
    पर उसकी अपनी आँखें अब लाल होने लगी थीं।

    उसने बहुत धीमे स्वर में कहा —
    "मैं नहीं भूला धानी…
    कुछ चीज़ें भूलने से नहीं, बस छुपाने से चलती हैं।
    हर सुबह जब मैं अंशी को तैयार करता हूँ… हर रात जब वो अपनी माँ को ढूँढती है…
    तो मैं उसे झूठी हँसी देकर सुला देता हूँ।"

    धानी रोते हुए बोली —
    "तो फिर क्यों? क्यों कर रहे हो ये सब?"

    धैर्य की आवाज़ अब भारी हो गई थी, टूटती हुई —
    "क्योंकि मैं अपनी बेटी के लिए जी रहा हूँ…
    उसकी ज़िंदगी अधूरी नहीं रख सकता।
    उसे माँ की ज़रूरत है… और मुझे…
    मुझे अब शिकायतों से ज़्यादा सुकून चाहिए।"

    धानी ने उसकी बाँहें धीरे से छुड़ाई, उसकी आँखों में देखा…
    और बोली —
    "लेकिन पंखुड़ी… वो…"



    "जानता हूँ… वो कभी मेरी अंशु की जगह नहीं ले सकती।
    मेरी अंशु… हमेशा मेरे दिल में रहेगी…
    उसकी जगह न तो कोई और ले सकता है… और न ही मैं लेने दूँगा।अंशु ने जाते-जाते अंशी को मेरे हवाले किया था…
    उसकी आँखों में बस यही सवाल था कि
    'क्या अब हमारी बेटी बिना माँ के रहेगी?'"


    धैर्य अब नीम के तने से टिक गया था।
    उसकी आँखें आसमान की ओर थीं, जैसे उन तारों में अपनी पुरानी दुनिया को ढूँढ रहा हो।

    "पंखुड़ी… मेरी अंशु नहीं है।
    और न ही मैं उससे वैसा कुछ चाहता हूँ।
    पर वो अंशी के लिए माँ बन सकती है…
    और मेरे लिए… सिर्फ एक जिम्मेदारी।"

    अभी धैर्य की बात खत्म ही हुई थी कि —
    ट्र्र्र… ट्र्र्र…
    एक मोबाइल की वाइब्रेटिंग टोन उस शांत रात में गूंज उठी।

    उसने धीरे से जेब से फोन निकाला।

    "पंखुड़ी कॉलिंग…"

    धानी ने मोबाइल स्क्रीन पर नज़र डाली —
    उसकी भौंहें चढ़ गईं।

    "लो भला! अभी हमारी बात खत्म नहीं हुई और इस महारानी की एंट्री हो गई!"
    उसने चिढ़ कर मुँह फेर लिया —
    "मैं तो कहती हूँ, भैया… यही सबसे बड़ी परेशानी है! ये लड़की हर जगह घुस आती है!"

    धैर्य ने फोन बजता रहने दिया।
    उसकी उँगलियाँ फोन के साइलेंट बटन पर थीं, पर वो अभी भी सोच रहा था कि उठाए या नहीं।

    धानी ने तुनक कर आगे कहा —
    "क्या है इसमें ऐसा जो अंशी के लिए ठीक लगेगा?
    क्या सिर्फ इसलिए कि वो थोड़ी 'क्यूट' है।
    भैया, ये दिखावे की बातें हैं… इसे न मैं कॉलेज से जानती हूँ!"

    धैर्य अब भी कुछ नहीं बोला।

    फोन अब भी बज रहा था…
    पंखुड़ी कॉलिंग...

    अंत में उसने गहरी साँस ली…
    और कॉल काट दिया।

    धानी ने आश्चर्य से उसकी ओर देखा।

    धैर्य अब उसकी ओर मुड़ा।
    "मैं जानता हूँ वो कौन है…
    और मैं ये भी जानता हूँ कि तुम क्या सोचती हो।
    लेकिन हर बार वो गलत नहीं हो सकती, और तुम सही।
    मैं उसे मौका दे रहा हूँ… सिर्फ इसलिए नहीं कि मुझे चाहिए कोई बीवी…
    बल्कि क्योंकि अंशी को चाहिए एक माँ।"

    धानी गुस्से में पैर पटखते हुए बोली —
    "पर ये वही पंखुड़ी है जो कॉलेज में…जिसने मुझे सबके सामने इंसल्ट किया था…
    जिसने मेरे कॉन्फिडेंस को कुचल दिया था…!"


    तभी...

    ट्र्र्र… ट्र्र्र…

    फिर वही वाइब्रेशन हुआ।

    "पंखुड़ी कॉलिंग…"

    धानी ने चिढ़ कर करवट ली और मुँह बिचकाते हुए बड़बड़ाई —
    "इस लड़की को तो जैसे टाइमिंग का कोई सेंस ही नहीं है!"


    धैर्य ने गुस्से से कॉल को फिर से कट किया।

    लेकिन ठीक तीन सेकंड बाद —
    फिर वही ट्यून…
    "पंखुड़ी कॉलिंग..."

    धानी भड़क गई —
    "भैया… अब तो हद हो गई!"
    वो झल्लाते हुए बोली —
    "ये लड़की आखिर चाहती क्या है? जब देखो तब ज़िंदगी में घुसने की कोशिश!"

    धैर्य ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी, बस स्क्रीन की रोशनी में उस चमकते नाम को देखता रहा — "पंखुड़ी कॉलिंग..."

    धानी दो क़दम आगे बढ़ी, और लगभग तमतमाकर बोली —
    "मैंने देखा है इसे…
    कैसे ये लोगों के सामने मासूम बनती है और पीछे से चालें चलती है!
    कॉलेज में मेरी ज़िंदगी का सबसे खराब दिन इसने बनाया था, भैया!
    उस दिन आप नहीं थे…
    पर मैं थी! मैं जानती हूँ उस लड़की की असलियत!"

    धैर्य अब तक शांत था… लेकिन उसके चेहरे की रेखाएँ तन चुकी थीं।

    धानी ने आगे कहा —
    "कॉल पर कॉल करके जबरदस्ती की अटेंशन चाहिए इसे!"

    धैर्य की मुट्ठी फिर से भींच गई।

    धानी की आवाज़ अब और तीखी हो गई थी —
    "मैं आपकी बहन हूँ, भैया!
    मैंने आपको टूटते देखा है, रात-रात रोते देखा है!
    और आज… आप उसी बद्ददिमाग लड़की को अपनी ज़िंदगी में ला रहे हैं…
    जिसकी वजह से न जाने कितनी बार मैं खुद को अकेला महसूस करती रही!"

    ट्र्र्र… ट्र्र्र…

    फिर वही कॉल ।


    धैर्य अब चुप नहीं रहा।
    उसने एक झटके में फोन उठाया —
    "हाँ पंखुड़ी?"

    धानी मुंह बिचकाकर रह गई। उसे यकीन नहीं था ,कि उसकी इतनी बुराइयां करने के बाद भी धैर्य पंखुड़ी का कॉल उठा लेगा।


    फोन के दूसरी तरफ़ से पंखुड़ी की घबराई हुई आवाज़ आई —
    "धैर्य… आप फोन क्यों नहीं उठा रहे थे?
    मैं… मैं अंशी से बात करना चाह रही थी।
    वो ठीक है ना? सो गई न वो ?"

    धैर्य का चेहरा थोड़ी देर के लिए नरम पड़ गया।

    "हाँ… सो गई है।
    और मैं भी कुछ देर अकेला रहना चाहता था।
    कल बात करेंगे, पंखुड़ी।"

    फोन के दूसरी ओर से पंखुड़ी की आवाज झट से आई —
    "अरे रुकिए… अभी मत काटिए…
    मुझे अंशी को गुडनाइट किस भेजनी थी!"

    धैर्य की भौहें सिकुड़ गई—
    "गुडनाइट किस? अब ये नया ड्रामा क्या है?"

    पंखुड़ी खिलखिलाई —
    "ड्रामा नहीं, रिवाज़ है हमारा।
    आप भूल गए?आज जब मैं अंशी से मिली थी, उसने खुद कहा था—नई मम्मा, मुझे रोज़ गुडनाइट किस चाहिए!'
    तो अब से मैं रोज़ भेजने वाली हूँ।"


    धैर्य के होंठों पर न चाहते हुए भी एक हल्की सी मुस्कान आ गई।

    पंखुड़ी आगे बोली —
    "वैसे, अगर आप कहें तो आज की किस मैं आपको दे दूं… आप ही पहुँचा देना अंशी को।
    वैसे भी आप उसके डैडी हो, तो आधा हक़ आपका बनता है!"


    "पंखुड़ी… प्लीज़।"
    धैर्य ने सिर झटका ही था कि तभी—

    "उम्म्माह्ह्ह!! "
    फोन के दूसरी तरफ़ से पंखुड़ी की वो बच्ची जैसी चहकती आवाज़ आई।


    "ये रही अंशी की गुडनाइट किस!
    आपके गाल पर टच कर दी है मैंने…
    अब आप उसे जाकर दे दीजिए।
    हाँ… हल्की सी मम्मा वाली फीलिंग के साथ!
    और सुनिए… फोन हटाना मत…
    आपको भी एक देना है!"

    धैर्य की आँखें फैल गईं।


    उसने गर्दन घुमाकर देखा…
    धानी अब भी सामने खड़ी थी —
    भौहें ऊपर किए हुए , आँखें चौड़ी किए हुए, और होंठों पर एक ऐसा भाव मानो अभी कह दे —
    "ओह माय गॉड, भैया!! सिरियसली?"

    धैर्य ने झट से नज़रें चुरा लीं।
    और बिना कुछ कहे, फोन एक झटके में कट कर दिया।

    तभी…

    धानी अपने होंठ दबाते हुए बोली —
    "उम्म्माह?"
    फिर वो आँखें मिचका कर बोली —
    "भैया… आपको भी देना था?"

    धैर्य झुंझलाते हुए पलटा —
    "बिलकुल चुप रहो, धानी!"


    "देखा… देखा मैंने! आपने उसका कॉल पर तीन बार काटा, फिर जब उसने ‘उम्म्माह’ किया तो… झट से मुस्कान!
    इतनी जल्दी बदल गए आप?
    इतनी जल्दी… भूल गए अंशु भाभी को?"

    धैर्य एक पल को ठिठका।
    धीरे से उसने मुट्ठियाँ भींच लीं…
    लेकिन वो जानता था कि धानी को समझाने का तरीका गुस्सा नहीं… सब्र था।

    "धानी…"
    उसने शांत स्वर में कहा —
    "तुम्हारी भाभी को मैं आज भी वैसे ही याद करता हूँ, जैसे उस रात…
    जब वो गई थी… मेरी दुनिया से हमेशा के लिए।"



    लेकिन इससे पहले कि वो कुछ और कहता —

    धानी एक झटके में पीछे हटी।

    चेहरा तमतमाया हुआ, आँखें गुस्से से लाल —
    "नहीं भैया… अब और मत कहिए।
    प्लीज मत कहिए कि आप ये सब अंशी के लिए कर रहे हैं!"


    धैर्य ने झट से उसका रास्ता रोकते हुए कहा —
    "धानी! देखो—"


    वो पीछे हटते हुए बोली —
    "मुझे नहीं सुनना कुछ…
    और उस पंखुड़ी की बातें?
    उसे तो मैं ऐसा मज़ा चखाऊँगी कि ज़िंदगी भर याद रखेगी!"




    कंटिन्यू.....



    आगे क्या होगा जानने के लिए अगले भाग का इंतजार करें....

  • 11. इश्क़ बिना चैन कहाँ - Chapter 11

    Words: 1487

    Estimated Reading Time: 9 min

    अगले दिन सुबह –सुबह  धानी किसी से फोन पर बात कर रही थी।


    "हेलो? उमंग सुन तो!"


    फोन के दूसरी तरफ से उनींदी सी आवाज़ आई —
    "ओ मैडम! अब याद आई तुझे मेरी ? आज तो बड़ी सुबह-सुबह कॉल आ गया मैडम जी का !"

    धानी ने चिढ़ कर मुँह बिचकाया —
    "उल्टी खोपड़ी, सुबह के नौ बज रहे हैं! कौन-सी सुबह है तेरे लिए?"

    उमंग हँस पड़ा —
    "तू तो ऐसे बात कर रही है जैसे तुझे नींद ही नहीं आई हो!"

    धानी ने लंबी साँस ली…
    "नींद आती भी कैसे? तूफान आया पड़ा है मेरे घर में।"

    उमंग हँसते-हँसते बोला —
    "अरे यार तूफान आया है तो अपने बॉयफ्रेंड को बता! मुझे क्यों डरा रही है?"

    धानी की भौंहें चढ़ गईं। वो झटके से सीधी बैठी  और बोली—
    "अबे ढक्कन! तुझे याद है न वो ‘पंखा’?"

    उमंग एक पल को चुप…फिर जैसे याद आया —
    "ओह हां… वो पंखुड़ी! मेरी क्रश थी कॉलेज में! हाय राम… क्या लड़की थी यार!"

    धानी अब पूरी तरह भड़क गई —
    "तो अब सुन ले… वही तेरी ‘क्रश’ मेरी भाभी बनने वाली है!"

    उमंग का मुंह खुला का खुला रह गया।
    "क…क्या?? नहीं यार! तू मज़ाक कर रही है ना?"

    धानी की आँखें गोल हो गईं —
    "हाँ, बहुत हँसी आ रही है मुझे! रात में तीन बार कॉल करके 'उम्माह' बोल रही थी मेरे भैया को!"

    उमंग बुरी तरह चौंक गया —
    "सीरियसली?? "

    धानी ने गुस्से से चादर सिर तक ओढ़ ली —
    "हां सीरियसली !"

    उमंग हड़बड़ाते हुए बोला —
    "नहीं… नहीं… ये नहीं हो सकता! मैं… मैं आज ही आ रहा हूँ!"

    धानी ने झट से चादर हटा दी —
    "अबे ओ बकवास की दुकान! रुक! तू कहीं नहीं आ रहा है अभी! तेरे एग्ज़ाम्स चल रहे हैं, पहले वो खत्म कर।"

    उमंग ने चुपचाप कहा —
    "पर तू कह रही है  मेरी क्रश… तेरी भाभी!"

    धानी ने तुनक कर जवाब दिया —
    "तो तूफान को मैं संभाल लूँगी! तू बस टाइम पर आ जाना… फिर इस पंखा मतलब पंखुड़ी को मिलके ऐसा झटका देंगे कि वो खुद उड़कर चली जाए!"


    उमंग बोला —
    "बोल दे, तू अभी  भी उससे जलती है!"

    धानी  तुरंत बोली —
    "जलती नहीं… जलाकर राख कर दूँगी अगर उसने मेरे घर की बहू बनने की सोची भी तो!"


    उमंग ने  धीरे से कहा —
    "वैसे यार… एक बात बोलूं?"

    धानी ने भौंहें चढ़ाईं —
    "बोल जल्दी, मुझे नाश्ता करना है!"

    उमंग ने थोड़ा संकोच करते हुए कहा —
    "मतलब… पंखुड़ी जैसी लड़की भाभी बने तो… बुरा क्या है?"

    धानी की आँखें चौड़ी हो गईं —
    "क्या?? तू क्या बोल रहा है??"

    उमंग झट से बोला —
    "अरे यार…भाभी से  मतलब कि मेरी बीवी और तेरी भाभी !
    और तुझे याद है, कॉलेज की फेयरवेल में उसने जो रेड साड़ी पहनी थी… पूरा कॉलेज उसका दीवाना हो गया था!"

    धानी ने तकिया उठाया और अपने  मुँह पर दे मारा —
    "अबे बंद कर ये कविता पाठ!"


    उमंग बेतकल्लुफी से बोला
    "मैं तो सच में कह रहा हूँ धानी… वो लड़की तो बवाल है!
    मतलब… बहुत हॉट है यार!
    उसके चलने का स्टाइल, बोलने का अंदाज़, और वो जो बाल पीछे झटकती है न…उफ्फ!"

    धानी की आंखें अब जलने नहीं…
    धधकने लगी थीं।
    "उमंग.. शट अप!!"
    उसने दाँत भींचते हुए कहा ।




    उमंग की हँसी अचानक थम गई।
    फोन के उस पार अचानक एक लंबी चुप्पी छा गई…
    धानी को हैरानी हुई, वो बोली —

    "अबे? बोल न! क्या हुआ?"

    और तभी…
    उमंग की आवाज़ आई —
    लेकिन इस बार… हँसी नहीं, एक अजीब सी टूटन के साथ —

    "धानी… यार, प्लीज़… शादी मत होने देना तेरे भैया की उस पंखुड़ी से…"




    धानी ने चौंक कर फोन को थोड़ी दूर किया —
    "अबे! अचानक तेरे अंदर का दिल तो नहीं जाग गया?"

    उमंग की आवाज़ अब और भी भारी हो गई थी —
    "हाँ… जाग गया।
    क्योंकि धानी, वो मेरी क्रश नहीं थी बस…
    शायद… मेरा पहला और आख़िरी प्यार थी।
    अगर वो तेरे घर की बहू बन गई…
    तो मैं… उम्र भर कुंवारा रह जाऊंगा।"

    एक सेकंड के लिए धानी को यकीन नहीं हुआ कि वो ये सब वाक़ई सुन रही है।

    "अबे तू पागल हो गया है क्या?"
    उसकी आवाज़ में अब गुस्सा कम, और हैरानी ज़्यादा थी।

    उमंग ने एक लंबी साँस ली —
    "नहीं यार, पागल तो मैं तब हुआ था जब उसे पहली बार कॉलेज की लाइब्रेरी में देखा था।
    उसकी वो सफ़ेद कुर्ती, खुले बाल और आंखों में वो अजीब-सा गुरूर…
    मुझे पता था वो मुझसे कभी बात नहीं करेगी।
    लेकिन फिर भी… वो मेरे ख्वाबों में रोज़ आती थी।
    कई बार सोचा था बोल दूँ…
    पर तू जानती है न, मैं बस बोलने में तेज़ हूँ… दिल की बातें कहने में हमेशा पीछे रह गया।
    अब अगर वो तेरे घर की भाभी बन गई न…
    तो पक्का है, मेरी मोहब्बत की कब्र खुद जाएगी उसी घर की चौखट पर!"


    फिर धानी ने धीरे से कहा —
    "तू… सीरियस है?"


    "इतना कि अगर तू हां बोले न…
    तो मैं एग्ज़ाम्स छोड़कर अगले फ्लाइट से तेरे घर पहुँच जाऊँगा!"

    धानी ने अपना  सर पकड़ लिया —
    "अबे ओ देवदास! "
    फिर उपर छत को घूरते हुए बोली—
    "हे भगवान! इस उमंग को थोड़ा अक्ल दे दो या फिर पंखुड़ी को मंगल ग्रह भेज दो!"

    फोन कान पर लगाते हुए उसने गहरी साँस ली और बोली —
    "ओके… सुन, उमंग।"

    उमंग की आवाज़ हल्की-सी उम्मीद से भरी हुई आई —
    "हां…?"

    धानी बोली — "तू चाहता है कि वो तेरी लाइफ में वापस आए?
    तो फिर उसे मेरी भाभी बनने से पहले रोकना होगा।
    और उसके लिए… हमें एक प्लान चाहिए!"

    उमंग  खत से खुश हो पड़ा   — "ओह माय गॉड! तू मेरा साथ देगी धानी… तुझ जैसी दोस्त अगर हर किसी को मिल जाए न…तो क्रश से शादी करने का सपना हर लड़का देख सकता है!"


    धानी चिढ़ कर बोली—"अबे गधे... प्लान तो सुन!"





    वहीं दूसरी तरफ ....


    सर्द-सर्द एसी की हवा के बीच धैर्य , अपने हॉस्पिटल केबिन में बैठा था। सामने रखे फाइल्स के ढेर पर उसकी नज़रें थीं।

    उसके फोन की स्क्रीन बार-बार वाइब्रेंट कर रही थी।

    ट्रिन ट्रिन…
    ट्रिन ट्रिन…

    वो अनदेखा करता रहा। लेकिन जब लगातार वाइब्रेशन रुका नहीं , तो उसने अनमने भाव से फोन उठाया।

    24 new messages – From: Pankhudi

    धैर्य का माथा हल्का सा सिकुड़ गया।


    उसने एक लंबी साँस भरी…
    और न चाहते हुए भी फोन अनलॉक किया।

    जैसे ही चैट खोली…

    एक के बाद एक, पंखुड़ी की तस्वीरें उसके सामने आने लगी ... अलग-अलग पोज़ में, अलग-अलग एंगल से खींची हुई।


    धैर्य ने एक गहरी साँस ली और फोन टेबल पर पटका नहीं… बस रख दिया।
    पर उसका माथा अब उसके ही हाथों में था।

    वो बड़बड़ाया —
    "हे भगवान… ये लड़की सीरियस है भी या नहीं?"


    वो कुर्सी से पीछे झुक गया, आँखें बंद कर लीं।
    एक पल के लिए सब कुछ साइलेंट हो गया…
    सिवाय उस सिर के भीतर उठते तूफ़ान के, जिसे सिर्फ वही सुन सकता था।


    फिर उसने फोन उठाया, पंखुड़ी की चैट को देखा…
    "ब्लॉक" बटन पर अंगूठा रखा… लेकिन दबा नहीं पाया।


    फिर उसने लंबी साँस लेते हुए फोन धीरे से टेबल पर रखा, और ग़ुस्से में खुद से बोला —
    "इसे मैं ब्लॉक भी नहीं कर सकता ?"


    "खीझ" से भरे स्वर में उसने खुद से कहा —
    "क्या ये बच्ची मेरे भेजे का टेस्ट लेने आई है?"
    न ब्लॉक कर सकता हूँ, न झेल पा रहा हूँ…"

    उसका माथा अब भी उसकी हथेलियों में छिपा था।

    "ग़ुस्सा आता है इस लड़की पे…
    ना कोई तमीज़, ना कोई समझ, ना कोई लिमिट!"

    "एक डॉक्टर को, एक अजनबी को
    ऐसे पर्सनल फोटो भेजना, बातें बनाना,
    हर बात में 'तुम मेरे हो' का टोन…
    क्या समझती है अपने आप को ये लड़की?"

    धैर्य कुर्सी से उठा और तेज़ी से केबिन में टहलने लगा।
    उसका हर कदम जैसे उसके अंदर का गुस्सा नाप रहा था।

    "पागल है ये लड़की…"


    और तभी…

    फिर मैसेज आया—
    “प्यारे हैंडसम से सुन्दर से मेरे होने वाले पति आपने फिर रिप्लाई नहीं किया…
    मैंने इतने प्यारे-प्यारे फोटो भेजे…
    आपको एक भी अच्छा नहीं लगा क्या?
    वैसे… मेरी मम्मी कह रही थी कि आप बहुत शांत लगते हो , तो मैं आपको थोड़ा हँसाने की कोशिश कर रही थी…
    प्लीज़ न, एक बार मुस्कुरा दो… मेरे लिए।”


    धैर्य चेहरा सख्त ही रहा।
    फिर उसने कांपते हुए हाथों से चैट पर टाइप किया —

    "ये सब मत किया करो पंखुड़ी।
    मैं डॉक्टर हूँ, तुम्हारा कोई दोस्त नहीं।
    और तुम अभी बच्ची हो…
    और मुझे ना ये हरकतें पसंद हैं, ना ये जबरन का रिश्ता।
    मैंने पहले भी साफ़ कहा था कि
    मेरी मर्ज़ी के बिना ये रिश्ता आगे नहीं बढ़ेगा।
    और तुम्हारे इस बर्ताव से…
    मुझे अब और गुस्सा आ रहा है।"


    लेकिन…

    "सेंड" का बटन दबाने से ठीक पहले…

    उसका अंगूठा रुक गया।

    "क्या फ़ायदा?
    जो समझना ही नहीं चाहती… उसे समझा कर भी क्या मिलेगा?"

    उसने उस मैसेज को डिलीट कर दिया…

    और फोन को फिर से उल्टा कर टेबल पर रख दिया ।





    कंटिन्यू.....



    आगे क्या होगा जानने के लिए अगले भाग का इंतजार करें....

  • 12. इश्क़ बिना चैन कहाँ - Chapter 12

    Words: 1916

    Estimated Reading Time: 12 min

    शाम का समय था...

      किचन के बीचों-बीच खड़ी थी  पंखुड़ी शेखावत।

    उसने एक ढीली टीशर्ट और ढीला सा पैंट पहन रखा था।  थी  और सिर पर एक  दुपट्टा ओढ़ा हुआ था जो हर दो मिनट में गिरता और वो फिर से संभालती।

    "मम्मी… देखो न! इस बार तो बिलकुल गोल बनी है!"

    मिसेज़ शेखावत, जो वहीं पास में खड़ी दाल में तड़का लगा रही थीं, मुस्कुरा पड़ीं —

    "सच में? दिखा ज़रा…"

    पंखुड़ी ने जैसे ही रोटी थाली में रखकर घुमाई ...रोटी सच में… "अंडाकार गोल" बन गई थी।

    "देखा! देखा! मैंने कहा था न मम्मी, मैं सीख सकती हूँ!"

    "हाँ हाँ, गोल तो है… लेकिन ये गोल कम और ऑस्ट्रेलिया का नक्शा ज़्यादा लग रही है!"

    "अरे मम्मी!!"

    पंखुड़ी खिलखिलाकर हँस पड़ी।

    फिर बोली—

    "मम्मी शादी के बाद ये सब करना ही पड़ता है मुझे तो अच्छी बहू भी बनना है, ससुराल में सबको इंप्रेस जो करना हैं!"

    मिसेज़ शेखावत  मुस्कराते हुए  बोली —

    "बेटा, शादी के बाद रोटियाँ ही नहीं… रिश्ता भी गोल रखना होता है।"

    पंखुड़ी ने  धीमे से पूछा —

    "और अगर सामने वाला सीधा मुँह बनाकर बैठे… तब?"

    मम्मी पलटीं और उसका माथा प्यार से छूते हुए बोलीं —

    "तो तू अपने गोलगप्पे जैसी बातें करके उसे हँसा देना।

    तेरी यही बात तो तुझे सबसे अलग बनाती है।"

    पंखुड़ी मुस्कुरा  तो दी …

    लेकिन मन ही मन वो सोच रही थी —

    "काश… डॉक्टर साहब भी ऐसा सोचते!

    उन्हें तो जैसे मेरी हर बात में सिरदर्द नज़र आता है!"

    पर अगले ही पल उसने सिर झटका —

    "नहीं! मैं पंखुड़ी हूँ! और मेरे लिए कोई भी काम मुश्किल नहीं है।

    इतना सोच कर वो मुस्कुरा दी और मुस्कुराते हुए रोटी पलटने लगी और इस बार उसकी वो रोटी भी पूरी तरह फूल गई ! जैसे उसके आत्मविश्वास ने रोटी तक को फुला दिया हो।

    "मम्मी! देखो! देखो! फुल गई!!"

    वो उछल पड़ी ।

    "अरे वाह! अब पक्का ससुराल में तारीफें मिलेगीं।"

    पंखुड़ी मुस्कराई… लेकिन फिर उसकी मुस्कान थोड़ी धीमी हो गई।उसने रोटी से नज़र हटाकर मम्मी से पूछा —

    "मम्मी… एक बात बताओ, क्या हर रिश्ता दोनों तरफ से शुरू होना जरूरी है क्या?"

    मम्मी चौंकी —

    "मतलब?"

    "मतलब अगर मैं किसी को दिल से चाहूं, उसे अपनाने की कोशिश करूं…

    पर वो… सिर्फ मुँह फुलाकर बैठा रहे, तो क्या करें?"

    मम्मी ने धीरे से आँचल से हाथ पोंछते हुए कहा —

    "बेटा… धैर्य जी समझदार हैं।

    अपनी पहली पत्नी के गुजरने के बाद वो भी उस शौक से निकलने की कोशिश में हैं…

    और मुझे यकीन है कि वो तुझे भी अपना लेंगे।"

    "पर मम्मी… वो  तो मुझे देखये तक नहीं ।

    मैं जितना पास जाने की कोशिश करती हूँ, वो उतना ही दूर हो जाते हैं…

    जैसे मैं कोई ग़लती कर रही हूँ।"

    मम्मी ने उसके गाल को हल्के से सहलाया —

    "अरे नहीं मेरी लाडो, तू कोई ग़लती नहीं कर रही।

    तू तो बस किसी ठंडी दीवार को अपनी गर्म हथेली से पिघलाने की कोशिश कर रही है।

    थोड़ा वक्त लगेगा… पर दीवार पिघलेगी ज़रूर।"

    "अगर दीवार पिघली नहीं तो?अगर उन्हें मैं  फिर भी पसंद ही नहीं आई तो?"

    पंखुड़ी के उन शब्दों ने जैसे मिसेज़ शेखावत के दिल को भिगो दिया।

    वो कुछ पल के लिए बस अपनी बेटी को देखती रहीं…

    पर तभी…

    पंखुड़ी ने खुद ही अपनी आँखें मिचकाईं, रोटी को फिर से तवे पर डाला और ज़ोर से  खिलखिला कर बोली —

    “अगर दीवार नहीं पिघली न, तो मैं पंखुड़ी शेखावत… दीवार तोड़ दूंगी! वो भी अपनी स्टाइल में!"

    पंखुड़ी खिलखिला रही थी और मम्मी जी  उसे देख मन ही मन सोचने लगीं —

    "कितना साफ़ दिल है ये मेरी बच्ची का…

    बिलकुल किसी खुले आसमान जैसा…

    जहाँ कोई दिखावा नहीं, कोई चालाकी नहीं…

    बस प्यार… मासूमियत… और भरोसा।"

    रात का समय था…

    पंखुड़ी अपने कमरे में, चादर ओढ़े मोबाइल की स्क्रीन पर बार-बार टाइम देख रही थी

    11:48 PM

    "इतनी रात हो गई… और एक भी मैसेज नहीं किया इन्होंने," वो बड़बड़ाई।

    "अब तो मान ही ले, पंखुड़ी… डॉक्टर साहब को तेरी क़द्र ही नहीं है!"

    लेकिन अगले ही पल उसने सिर झटक दिया —

    "नहीं! पंखुड़ी हार नहीं मानती।

    कम से कम गुडनाइट किस तो भेज ही दूँ!"

    “उठाएंगे तो नहीं… पर चलो ट्राय कर ही लेती हूँ…”

    उसने धीरे से स्क्रीन पर नाम खोजा

    और कॉल बटन दबा दिया।

    ट्रिन…

    ट्रिन…

    ट्रिन…

    पंखुड़ी का दिल हर रिंग के साथ थोड़ा तेज़ धड़कने लगा।

    "उठा लिया तो?"

    "नहीं उठाया तो?"

    "ब्लॉक कर देंगे तो?"

    लेकिन तभी…

    कॉल कनेक्ट हो गया!

    पंखुड़ी चौंक पड़ी।

    "ओह माय गॉड! इन्होंने कॉल उठा लिया? सच्ची??"

    वो खुशी में उछलने ही वाली थी कि

    फोन के दूसरी तरफ से एक कड़क और तंज भरी आवाज़ आई —"तुम्हें शर्म नहीं आती क्या?"

    पंखुड़ी की हँसी वहीं रुक गई।

    "अरे! ये तो धानी की आवाज़ है!"

    उसका चेहरा एक सेकंड में बिगड़ गया।

    "ध… धानी तुम ?"उसने मुंह बना कर कहा।

    "जी हाँ, धानी! और तुम बार-बार क्यों कॉल कर रही हो मेरे भैया को?"

    पंखुड़ी का माथा ठनका —

    "क्योंकि मुझे करनी थी बात… क्या धैर्य जी नहीं हैं वहाँ?"

    "नहीं हैं! और होते भी तो तुम्हारी इन बेवकूफियों का जवाब देने के मूड में नहीं होते।

    समझी? एक बार में बात समझ नहीं आती क्या?"

    पंखुड़ी भी अब सीरियस हो चुकी थी —

    "धानी, मुझे नहीं पता तुम्हारी प्रॉब्लम क्या है, लेकिन…"

    "मेरी प्रॉब्लम ‘तुम’ हो!"

    धानी तमतमाकर बोल पड़ी।

    "कॉलेज में जो किया, वो मुझे आज भी याद है। और अब तुम मेरे घर, मेरे भैया, और हमारी अंशी की ज़िंदगी में घुस रही हो और ये मैं नहीं होने दूँगी!"

    "मैं किसी की ज़िंदगी में जबरदस्ती नहीं घुसती, धानी।

    मैं तो बस उस ज़िंदगी में रंग लाना चाहती हूँ… जो बहुत वक़्त से बेरंग हो गई है।"

    "अच्छा! रंग?

    क्या समझ रखा है खुद को? क्रेयॉन बॉक्स?"

    धानी ताना मारते हुए बोली।

    "तुम्हारी कॉमेडी तो बहुत चलती थी कॉलेज में, पंखुड़ी…

    पर मेरे भैया की ज़िंदगी कोई जोक नहीं है।

    समझीं?"

    पंखुड़ी ने लंबी साँस ली…

    उसका चेहरा अब गंभीर हो चुका था।

    "मैं तुमसे बहस करने नहीं आई थी, धानी।

    मैंने कॉल किया था धैर्य से बात करने के लिए…

    और अब तुमने कॉल उठा ही लिया है तो डॉक्टर साहब को कह देना कि, पंखुड़ी ने सिर्फ ये चेक करने को कॉल किया था कि वो ठीक हैं या नहीं। बाकी तुम तो पहले से ही ठीक होंगी, दूसरों की ज़िंदगी में नाक जो घुसेड़ती रहती हो।"

    इतना कहकर पंखुड़ी ने झटके से कॉल काट दिया।

    उधर…

    धानी फोन को घूर रही थी।

    "इस बार भी उसने पलट के जवाब दे ही दिया…"

    वो फोन नीचे रखने ही वाली थी कि तभी…

    दरवाज़ा धीरे से खुला।

    धैर्य अंदर आया ...गोद में अंशी को लिए, जो अब नींद में थी… उसकी छोटी उँगलियाँ धैर्य की शर्ट को पकड़ रखी थीं।

    धैर्य की नज़र जैसे ही पड़ी…

    "ध… धानी?"

    वो ठिठक गया।

    उसकी नज़र अपने फोन पर पड़ी जो धानी के हाथ में था।

    "तुम… मेरे फोन से बात कर रही थी?"

    धानी एक पल को चौंकी, लेकिन फिर तुरंत चेहरा सँभालते हुए बोली —

    "हाँ, वो… आपका फोन वाइब्रेट कर रहा था… मैंने सोचा शायद कुछ ज़रूरी हो।"

    धैर्य ने हल्के से माथा सिकोड़ लिया —

    "कॉल किसका था?"

    धानी ने एक पल को कुछ नहीं कहा… फिर धीमे से बोली —

    "पंखुड़ी का था।"

    धैर्य चुप रहा।

    "मैंने बात कर ली…"

    धानी ने धीरे से आगे कहा,

    "और हाँ, थोड़ा झगड़ा भी कर लिया।"

    धैर्य ने एक गहरी सांस ली,

    फिर अंशी को बड़े ही स्नेह से अपने कंधे से उतारकर धीरे से बेड पर लिटा दिया।

    उसने उसके बाल सहलाए, फिर धीरे से उसकी चादर ठीक की, माथे पर हल्की सी गुडनाइट किस दी और तकिए के पास उसका टेडी रख दिया।

    फिर बिना कुछ कहे उसने धानी के हाथ से फोन ले लिया।

    "अब तुम अपने कमरे में जाओ, धानी।"

    धानी कुछ कहना चाहती थी, लेकिन धैर्य के चेहरे की गंभीरता देखकर चुपचाप बाहर निकल गई।

    धैर्य बालकनी की ओर बढ़ा।

    और बिना वक्त गँवाए, पंखुड़ी का नंबर डायल कर दिया।

    फोन की पहली ही रिंग पर उधर से कॉल उठ गया।

    "हेलो ... पंखुड़ी!"

    धैर्य की आवाज सुन कर पंखुड़ी बेड से उठ बैठी।

    "देखा! मुझे पता था आप ही कॉल करेंगे!"

    धैर्य चुप ही रहा।

    "और हाँ, पहले ही कह दूँ — समझा दीजिए अपनी बहना को…

    हर बार ताना मारना, नीचा दिखाना, यही सीख है क्या आपकी फैमिली की?"

    धैर्य ने एक गहरी साँस ली,

    लेकिन कुछ कहा नहीं।

    उधर पंखुड़ी अब तक रफ्तार पकड़ चुकी थी —

    "मतलब हद है यार!

    मैंने क्या किया है ऐसा जो हर बार उस नकचढ़ी को मिर्ची लग जाती है?"

    वो बड़बड़ाते हुए उठकर बेड से नीचे उतरी —

    "कॉलेज की बातें गिनाती रहती है जैसे मैं उसकी एक्साम शीट चुरा के भाग गई थी!

    और सुनिए… आप भी कुछ नहीं बोलते!

    हमेशा बस चुप रह जाते हैं।"

    अब धैर्य के चेहरे कर न चाहते हुए भी एक मुस्कान लौट आई थी।

    "पंखुड़ी…"

    उसने धीरे से कहा।

    "नहीं! अभी मत रोकिए!

    इतना तो सुनना पड़ेगा डॉक्टर साहब!"

    पंखुड़ी की बड़बड़ चालू ही थी।

    "अब अगर आपने कॉल कर ही लिया है…

    तो चलिए छोड़िए भी उस नकचढ़ी को…उसे तो वैसे भी मुझसे जलन होती है। अब हम थोड़ी थोड़ा रोमांटिक बाते कर करते है। "

    फोन के दूसरी तरफ पंखुड़ी अब भी बड़बड़ा रही थी —

    " हां तो मैं भी अपना पूरा फायदा उठाऊंगी, डॉक्टर साहब!

    थोड़ा प्यार-व्यार, थोड़ा एहसास, थोड़ा रोमांस ....!"

    धैर्य मन ही मन सोच रहा था कि—

    "पल भर में ये लड़की क्या से क्या कह जाती है…

    हर वक्त इतनी बिंदास, इतनी निश्चिंत…

    जैसे ज़िंदगी उसके लिए बस हँसी-ठिठोली हो।

    और मैं?मैं तो आज भी उस फोटो फ्रेम से बाहर नहीं निकला…

    जहाँ वो हँसी थी मेरी पहली पत्नी की हँसी…

    उसकी यादें, उसकी बातें… जो अभी तक धुंधली नहीं पड़ीं थी…

    और ऊपर से पंखुड़ी की ये बेपरवाह हँसी कभी-कभी चुभ सी जाती है उसे …"

    धैर्य अब भी चुप था।

    उसकी चुप्पी ने अब पंखुड़ी को भी सोचने पर मजबूर कर दिया।

    "डॉक्टर साहब… आप सुन रहे हैं न?"

    "हेलो? डॉक्टर साहब?

    अरे आपने सुना नहीं क्या..."

    "आप ठीक तो हैं न?"

    पंखुड़ी ने स्क्रीन की ओर देखा —

    "कॉल डिस्कनेक्टेड!"

    उसकी आँखें चौड़ी हो गईं।

    "अबे हे भगवान! ये क्या हों गया ?"

    " मैने इतनी बड़बड़ की… और इन्होंने तो अब कॉल ही कट कर दिया?"

    "ऊपर से इन्होंने तो कुछ जवाब भी नहीं दिया…!"

    उसने घबराकर फिर कॉल लगाया।

    लेकिन इस बार स्क्रीन पर लिखा आया —

    “स्विच ऑफ। प्लीज ट्राई अगेन लेटर ।”

    "स्विच ऑफ़??"

    उसका चेहरा एकदम उतर गया।

    "मतलब… मैंने ज़्यादा बोल दिया क्या?"

    वो वहीं बेड कर धम्म से गिर गई।

    "पंखुड़ी… तू भी ना…"

    उसने खुद को समझाते हुए माथे पर हाथ मारा।

    " क्या जरूरत थी इतनी बाते करने की तो…
    अगर उन्हें सच में बुरा लगा होगा…

    तो मैं क्या करूँगी?"

    और उधर…

    धैर्य के फोन की स्क्रीन एकदम ब्लैक हो गई थी

    उसने देखा —

    "बैटरी 1% पर थी… और अब डेड हो चुकी थी। "

    उसने धीरे से फोन साइड में रखा और सिर पीछे टिका लिया।

    उसकी आँखें अब भी पंखुड़ी की आवाज में अटकी हुई थीं।

    वो आवाज जो हँसती है, छेड़ती है, चिढ़ाती है…

    और इसकी चुप्पी को तोड़ने की कोशिश करती है

    जिसमें वो पिछले पाँच साल से बंद था।

    "कभी कभी कुछ लोग…

    यूँ ही हमारी ज़िंदगी में दाख़िल नहीं होते…

    शायद वो भेजे ही जाते हैं…

    किसी बहुत गहरी खामोशी को आवाज़ देने के लिए…

    और शायद पंखुड़ी वही आवाज़ है…

    जिससे धैर्य भागता रहा है…

    जिसे वो समझ नहीं पा रहा है…"

    कंटिन्यू.....

    आगे क्या होगा जानने के लिए अगले भाग का इंतजार करें....

  • 13. इश्क़ बिना चैन कहाँ - Chapter 13

    Words: 1721

    Estimated Reading Time: 11 min

    ऐसे ही दिन बीत रहे थे।

    एक सुबह का वक्त था।

    धैर्य काम पर निकल चुका था।

    और उधर रसोई में देवकी जी पूजा की थाली के पास बैठकर चावल और हल्दी से शगुन की तैयारी कर रही थीं।


    उसी वक़्त धानी मुँह में ब्रश दबाए, गुस्से में बाल झटकती हुई हॉल से गुज़री।

    देवकी जी ने देखा —
    "धानी! सुन ज़रा इधर आ।"

    धानी ने आंखें तरेरी —
    "मां, ब्रश कर रही हूँ।"

    देवकी जी ने पलटकर कहा —
    "तू ब्रश नहीं, हमेशा बहाने कर रही होती है।
    आ ज़रा, ज़रूरी बात करनी है।"

    धानी ने तेज़ी से ब्रश किया, कुल्ला किया और फिर उसी गीले चेहरे के साथ आकर खड़ी हो गई।

    "क्या है?" वो चिढ़े स्वर में बोली।

    देवकी जी ने पूजा की थाली की ओर इशारा किया —
    "शगुन की तैयारी कर रही हूँ…
    सोच रही हूँ, तू लेकर चली जा पंखुड़ी के घर।"

    धानी का चेहरा एकदम बिगड़ गया।
    "मैं? मैं क्यों जाऊँ मां?"

    देवकी जी ने नज़रें उठाकर उसे देखा —
    "क्यों नहीं जाएगी?"

    "मतलब… मैं तो नहीं जाऊँगी।
    आप खुद चली जाइए न।"
    धानी ने साफ़  साफ मना कर दिया,
    "मुझे कोई शौक नहीं है उस लड़की से मिलने का, जो ज़बरदस्ती हमारी ज़िंदगी में घुसी जा रही है!"

    देवकी जी की आँखें अचानक सख़्त हो गईं।

    "धानी!" उन्होंने सख्त लहजे में कहा,
    "कैसी बातें कर रही है तू?
    वो तेरी होने वाली भाभी है।
    और मैं ये नहीं चाहती कि किसी को ये लगे कि हमारे घर की बेटी में तहज़ीब की कमी है।"


    धानी चौंक गई।
    "मां आप सीरियस हैं?
    वो लड़की… जिसकी वजह से भैया की ज़िंदगी में  वापस से उथल-पुथल मची है, जिसे भैया कभी रिस्पॉन्ड भी नहीं करते… आप उसे बहू मान रही हैं?"

    देवकी जी ने थाली उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा —
    "ये शगुन लेकर आज तू ही जाएगी…
    और मैं चाहती हूँ कि तू ये काम पूरे आदर और मुस्कान के साथ करे ।"


    धानी ने मुँह बनाया —
    "मुस्कान?"
    "मम्मा, मेरी शक्ल देखकर ही वो पंखुड़ी समझ जाएगी कि मैं जबरदस्ती आई हूँ…"

    देवकी जी ने गहरी साँस ली,
    "तो ज़रा आदत डाल ले, धानी।
    ज़िंदगी में हर बात अपनी पसंद की नहीं होती।
    कभी-कभी हमें वही करना होता है जिसने रिश्तों की ज़रूरत हो…"


    धानी ने थोड़ी देर सोचा, फिर ठंडी साँस भरते हुए बोली —
    "ठीक है… चली जाऊंगी।
    कल रात उमंग भी आ ही गया था  …
    उसी के साथ चली जाऊंगी उस पंखुड़ी के घर।"

    उसके बोलने के लहजे में अब भी तंज था।
    लेकिन उसने बात मान भी ली थी।

    देवकी जी ने राहत की साँस ली,
    "शुक्र है कम से कम मान तो गई…"

    उधर, धानी मन ही मन बड़बड़ाती निकल गई।






    दोपहर का वक़्त था।
    धूप हल्के-हल्के कार के शीशों पर झाँक रही थी।
    गाड़ी शहर की सड़कों से होते हुए पंखुड़ी के घर की ओर बढ़ रही थी।

    कार की ड्राइविंग सीट पर  अपना मुंह लटकाए उमंग  बैठा था।

    बगल की सीट पर धानी हाथ बाँधे  बैठी थी।

    "यार कुछ तो प्लान बना..."
    उमंग ने धीरे से कहा,
    "मैं उसे तेरे भैया का होते हुए नहीं देख सकता… प्लीज़ धानी, कुछ तो सोच!"

    धानी ने आँखें घुमाकर उसे देखा, फिर मुँह फेर लिया —
    "ओह प्लीज़! तू फिर शुरू हो गया?"


    "तू समझती क्यों नहीं? वो मेरी ज़िंदगी का पहला प्यार थी यार…"


    "और मेरा क्या? मेरे घर का  सिरदर्द बनने वाली है वो।"
    फिर वो आगे बोली—"वैसे तू चाहता है न कि वो शादी न करे मेरे भैया से?
    तो ठीक है! मैं हूँ न तेरे साथ।
    लेकिन तू ज़रा ये देवदास वाला मूड बंद करेगा?
    ऐसा लगेगा जैसे हम शगुन देने नहीं,  बल्कि किसी की   तेहरवीं में जा रहे हैं!"

    उमंग ने झट से सीट से सिर उठाया —
    "आई प्रॉमिस…अब  मूड चेंज!"


    फिर वो थोड़ी देर बाद बोला—
    "वैसे… तूने अब तक प्लान बताया नहीं।" 

    धानी  धीमे से मुस्कुराई —
    "प्लान तो बहुत सिंपल है, मिस्टर लवर बॉय…पहले उससे मिल, आँखों में आँखें डाल के बोल कि तू  उसे चाहता है…"

    उमंग घबरा गया —
    "क…क्या? पर… पर अगर उसने मना कर दिया तो?"

    धानी अपनी आँखें तरेर कर बोली —
    "तो फिर चुपचाप बारात में DJ पर नाचना, और अपने ‘क्रश’ को विदा होते हुए देखना!"

    उमंग ने घबरा कर कार एक तरफ रोक दी —
    "नहीं! DJ पर तो बिल्कुल नहीं नाच सकता!"


    कार अब एक चाय की दुकान के पास रुक चुकी थी।
    उमंग ने घबराहट में ब्रेक मारा और कार साइड में लगा दी।
    धानि ने चौंककर उसकी तरफ देखा —

    "अबे? ये क्या था?"

    उमंग ने लम्बी साँस ली, फिर गम्भीरता से बोला —

    "वैसे भी तूने तो कहा था कि तू उसे मेरी भाभी नहीं बनने देगी..."


    "मैंने कहा था न, रोकूंगी… और रोकूंगी भी।
    लेकिन उसके लिए तेरे प्यार की ‘अश्वमेघ यज्ञ’ जैसी कुर्बानी चाहिए होगी!"—धानी बोली।

    उमंग का माथा ठनका —
    "अश्वमेघ यज्ञ?"

    धानी ने सीरियस मुंह बनाते हुए  उसे समझाया —
    "हाँ! यानी एक बार बिना हिचक, बिना डर… जाकर उसे बोल दे कि‘पंखुड़ी, मैं  तुझसे प्यार करता हूँ…’
    बस! फिर देखना, कहानी कैसे पलटती है!"

    उमंग ने खुद को शीशे में देखा और
    अपने बाल ठीक किए फिर  बोला —
    "ठीक है! अब जो होगा… देखा जाएगा!"

    कुछ ही देर में वो लोग पंखुड़ी के घर पहुंच गए थे।


    पंखुड़ी की मां मिसेज शेखावत ने जैसे ही धानी को देखा वो एकदम खुश हो पड़ी —
    "अरे! धानी बिटिया ... आओ-आओ… भीतर आओ।"

    धानी हल्के से मुस्कुरा दी—
    "नमस्ते, आंटी। ये… शगुन भिजवाया है मां ने ।"

    उमंग भी थोड़ा संकोच में था।
    लेकिन मिसेज शेखावत ने मुस्कुराते हुए दोनों को अंदर बुलाया।




    "तुम दोनों बैठो… मैं पानी लेकर आती हूँ।"
    — कहकर मिसेज शेखावत रसोई की तरफ चली गईं।

    धानी और उमंग सोफे पर बैठ गए।
    धानी की नज़रें अब भी चारों ओर घूम रही थीं… दीवार पर लगी पंखुड़ी की तस्वीर देख वह मन ही मन बड़बड़ाई —
    "इतनी भोली शक्ल बनाकर सबको मूर्ख बना रही है ये लड़की…"

    उसी पल…

    सीढ़ियों से धीमे क़दमों की आवाज़ आई।

    पंखुड़ी अपने कमरे से बाहर आ रही थी।
    उसने हल्के पीले रंग का चिकनकारी सूट पहना हुआ था, कंधे तक आते बाल जुड़े में बंधे हुए थे।

    जैसे ही उसकी नज़र धानी पर पड़ी —
    वो एकदम ठिठक गई।

    "धानी?"


    धानी ने सिर घुमा कर उसकी तरफ देखा और वही, तिरछी मुस्कान फेंकते हुए बोली —

    "हां पंखुड़ी… .... माँ ने भेजा है शगुन देने के लिए
    कह रही थीं, अब तू हमारे घर की ‘बहू’ बनने वाली है तो रस्मों की शुरुआत तो होनी ही चाहिए न…"

    पंखुड़ी पल भर को स्तब्ध रह गई।
    लेकिन फिर तुरंत संभली और मुस्कुरा कर बोली —
    "शगुन? थैंक यू… बहुत अच्छा लगा कि तुम खुद आईं…"

    धानी व्यंग्य से मुस्कुरा दी।

    पंखुड़ी उसकी मुस्कान से चिढ़ गई थी —" मैं मम्मी को बुला लाती हूँ,"— वो इतना कहकर पलटी ही थी कि मिसेज शेखावत ट्रे में पानी और मिठाई लेकर आ चुकी थीं।


    "लो बच्चो, पहले पानी पियो… गर्मी बहुत हो रही है आजकल।"— कहकर उन्होंने पानी आगे बढ़ाया।

    धानी ने अनमने मन से पानी लिया और एक सिप लेकर गिलास टेबल पर रख दिया।

    उमंग ने भी गिलास थामते हुए नजरें एक बार फिर पंखुड़ी की ओर उठा दीं।

    पंखुड़ी अब भी सहजता से व्यवहार कर रही थी, लेकिन उमंग पर उसकी कोई नज़र नहीं पड़ी।
    वो बिल्कुल अनजान थी उस भाव से, जो ठीक पास बैठा लड़का हर पल उसके लिए महसूस कर रहा था।

    धानी ने बगल में बैठे उमंग को देखा जो अब तक पूरी श्रद्धा से पंखुड़ी को ताके जा रहा था जैसे वर्षों बाद किसी मंदिर में मूर्ति के दर्शन हुए हों।

    "अबे आँखें अंदर कर, मूर्ति नहीं है ये…"
    धानी ने धीमे से कहा।

    उमंग चौंक गया।
    "क्या करूँ यार… एकदम परी जैसी लग रही है।"


    मिसेज शेखावत शगुन का सामान उठाकर बोली—
    "मैं ये शगुन मंदिर में रख दूं, तब तक तुम लोग बैठो।"
    इतना कहकर वो चली गई।

    अब हॉल में सिर्फ तीन लोग रह गए थे —
    पंखुड़ी, धानी और उमंग।

    पंखुड़ी भी अब धीरे-धीरे अपनी जगह पर आकर बैठ गई,
    उसी पल उसकी नज़र उमंग पर पड़ी।

    उमंग अब भी बरसो के प्रेमी की तरह उसे देखे जा रहा था।


    पंखुड़ी ने उसकी तरफ देखा, फिर भौंहें चढ़ा लीं —
    "ये बंदर कौन है?"

    उसके स्वर में इतनी सहज घृणा थी कि उमंग का चेहरा एकपल में उतर गया।

    धानी झट से उमंग की तरफ मुड़ी और फिर पंखुड़ी से बोली —
    "बंदर? अच्छा नाम दिया तूने! हां… ये वही बंदर है जो कभी तेरे इर्द-गिर्द लटकता था!"

    पंखुड़ी चौंक गई —
    "क्या?"

    उमंग ने संकोच से कहा —
    "मैं… उमंग… याद है?"

    पंखुड़ी की भौंहें और सिकुड़ गईं —
    "नहीं… बिल्कुल नहीं।"

    उमंग का चेहरा अब पूरी तरह भावहीन हो चुका था।

    धानी हँस पड़ी—
    "देखा? जिसे तू अपनी ज़िंदगी का पहला प्यार कह रहा था… उसे तेरा नाम तक याद नहीं!"

    उमंग की नज़रें झुक गईं।
    वो सन्न बैठा रह गया ।

    पंखुड़ी ने पलटकर धानी से कहा —
    "वैसे, मुझे समझ नहीं आता… तुम्हें प्रॉब्लम क्या है मुझसे?"

    धानी ने बिना हिचके जवाब दिया —
    "तू मेरी ज़िंदगी में बिना बुलाए मेहमान की तरह आई है।
    तेरा आना सिर्फ़ रिश्ते नहीं, मनमानी है।
    तू मेरी फैमिली को हाइजैक कर रही है और मुझे उससे सख़्त नफरत है!"


    पंखुड़ी भी चिढ़ गई अब —
    "तो फिर ये शगुन? ये आना? ये तमाशा किसलिए?"

    धानी मुस्कुराई —
    "क्योंकि मेरी माँ ने मुझे तहज़ीब सिखाई है।
    वरना मैं तो तेरी शक्ल भी देखना पसंद नहीं करती !"



    "पर... मैं तो पसंद करता हूँ!"—उमंग बीच में ही बोल पड़ा।

    धानी और पंखुड़ी दोनों एक साथ उसकी ओर मुड़ीं।

    "क्या??" — दोनों का रिएक्शन बिल्कुल एक जैसा था।

    उमंग ने धीरे-धीरे अपनी नज़रें उठाईं,
    फिर सीधे पंखुड़ी की आँखों में देखते हुए बोला —

    "मेरा मतलब… शक्ल देखना पसंद करता हूँ पंखुड़ी की…"

    धानी का मुंह खुला का खुला रह गया।
    और पंखुड़ी की भौंहें तन गईं।

    पंखुड़ी ने गर्दन टेढ़ी कर उसे देखा —"एक्सक्यूज़ मी!"


    धानी ने उठते हुए कहा —
    "बस… अब और टाइम वेस्ट नहीं करना मुझे।
    शगुन दे दिया… अब चलते हैं।"


    पंखुड़ी अब भी वहीं बैठी थी… लेकिन उसकी नज़रें उमंग पर टिक चुकी थीं, जो अब कुछ बोलने के लिए होंठ खोल रहा था… फिर वापस बंद कर लेता।

    "चल उमंग!" — धानी ने उसका हाथ पकड़ कर उसे उठाया
    लेकिन उमंग ने अपनी जगह से हिला तक नहीं।





    कंटिन्यू.....



    आगे क्या होगा जानने के लिए अगले भाग का इंतजार करें....

  • 14. इश्क़ बिना चैन कहाँ - Chapter 14

    Words: 1526

    Estimated Reading Time: 10 min

    शाम हो चुकी थी...

    धानी कार ड्राइव कर रही थी।

    बगल की सीट पर उमंग बैठा था बिल्कुल शांत सा।

    उसकी आँखें खिड़की से बाहर  टिकी हुई थीं,
    जैसे वो उस रास्ते में किसी और दुनिया की तलाश कर रहा हो,
    जहाँ उसे पंखुड़ी सिर्फ देख भर ले…बस… देख ले।

    कार में साइलेंस था…
    और ये साइलेंस धानी को बिल्कुल पसंद नहीं था।

    वो बर्दाश्त नहीं कर सकी —
    "अबे! तू फिर से वही मुँह लटका के बैठ गया?"

    उमंग ने कुछ नहीं कहा।


    "अबे! और कितना उदास बैठेगा?"
    तेरा दिल टूट गया, चल मान लिया…
    पर अब ये शोकसभा बंद कर और कुछ बोल भी!"

    उमंग ने धीरे से कहा —
    "उसने मुझे पहचाना तक नहीं यार…
    नाम तक याद नहीं था उसे…"


    धानी बोली—"वो है ही घमंडी सी...मुझे बिल्कुल भी नहीं पसंद वो। "


    उमंग उदासी से बोला—"पर वो… बहुत खूबसूरत है यार…"


    धानी ने एक लंबी साँस ली…
    फिर स्टीयरिंग पर झुकी और बोली —
    "खूबसूरत है, तो क्या ताजमहल बनवा ले उसके लिए?"


    उमंग ने सूनी आँखों से बाहर देखे देखे ही कहा —
    "अगर बनवा पाता, तो अब तक बनवा भी चुका होता…"

    धानी  अपने गुस्से और खीझ को संभालने की कोशिश कर रही थी।

    लेकिन अब… उसका सब्र जवाब देने लगा था।

    "क्या करूँ मैं इस पगले का?"

    उमंग अब भी बाहर देख रहा था…

    वो उसकी तरफ देखे बिना बोली —
    "उमंग, ये जो तू कर रहा है न… इसे प्यार नहीं कहते,
    इसे आत्मसम्मान की हत्या करना कहते हैं।"


    आख़िर वो दिन भी आ ही गया…

    हर कोने से शहनाइयों की आवाज़ आ रही थी…
    महफिल सजी थी, दीवारों पर फूलों की लड़ियाँ लटक रही थीं…
    छत से लेकर गेट तक  झालरें लटक रही थीं।

    मिस्टर और मिसेज शेखावत के घर में आज धूमधाम थी।

    बारात आ चुकी थी।
    ढोल-नगाड़े, DJ, और लोगों की भीड़…
    सब एक अलग ही जोश में डूबे हुए थे।

    धैर्य, मंडप में बैठा था।

    यूके ठीक पीछे उसकी मां  देवकी जी बैठी थी,जो
      पंडित जी की बात को आदर से सुन रही थीं।

    राज जी (धैर्य के पापा) हल्की मुस्कान के साथ अपने बेटे को निहार रहे थे मानो कह रहे हों, “अब तेरी ज़िंदगी दोबारा पटरी पर आ जाएगी।”

    और तभी…

    झूमती हुई आई ...धानी राणा।
    आज कोई उसे देखे, तो कह ही नहीं सकता कि—
    “ये वही लड़की है जो अपने भाई की शादी रोकने का प्लान बना रही थी?”

    धानी ने बेबी पिंक  रंग  का लहंगा पहना हुआ था ,
    अपने बालों को उसने हल्के कर्ल्स में खुला छोड़ा था,
    कानों में लंबे झुमके पहने हुए थी वो , और होंठों पर गुलाबी शेड की लिपस्टिक लगाए हुए…

    हर लड़का उसे घूम घूमकर देख रहा था।


    वो धीरे-धीरे वो मंडप के पास पहुंची,
    माँ के पास वो बैठ तो गई लेकिन उसकी आँखें बार-बार उठ रहीं थीं…मंडप की दुल्हन की तरफ।

    वो दुल्हन…

    पंखुड़ी शेखावत।

    आज वो सचमुच बेहद खूबसूरत लग रही थी।
    सुर्ख लाल जोड़े में, सिर पर भारी चुनरी ओढ़े…
    गले में  रानी हार पहने हुए , आँखों में भरपूर काजल लगाए हुए…
    वो हर मायनों में एक परफेक्ट दुल्हन लग रही थी।



    लेकिन तभी उसकी निगाहें 
    एक कोने में पड़ी  जहाँ मुंह लटकाए 'उमंग' बैठा था।

    क्रीम रंग के कुर्ते में आज वो बहुत ही क्यूट सा लग रहा था।
    हाथ में कोल्ड ड्रिंक का गिलास पकड़े हुए था वो, और आँखों में “मेरा प्यार अब किसी और का हो गया” वाला भाव लिए।

    वो DJ की बीट्स पर ज़बरदस्ती सिर हिला रहा था…
    पर असल में वो हिलना नहीं…बल्कि  टूटना था।


    धानी ने उसे देखा फिर एक गहरी साँस ली
    और मुस्कुरा दी, जैसे सोच रही हो —
    “मैंने कहा था न… DJ पर नाचते नजर आएगा तू।”



    अब मंडप में फेरों का समय हो चुका था।

    पंडित मंत्र पढ़  रहे थे ...
    धैर्य और पंखुड़ी अग्नि के सात फेरे ले रहे थे।

    देवकी जी की आँखों में आँसू थे, पर वो आंसू खुशी के थे कि आज से उसके बेटे की जिंदगी में अकेलापन नहीं रहेगा।

    राज जी ने अपनी देवकी जी का हाथ थामा और बोले—
    "अब हमारा बेटा फिर से मुस्कुराएगा…"

    लेकिन धानी?

    उसका दिल अब भी किसी तूफान से गुज़र रहा था।
    उसने अपने गले का हार कसकर पकड़ा…
    मानो कह रही हो —
    “मैं ये सब सिर्फ इसलिए देख रही हूँ क्योंकि तुम मेरे भाई हो, भैया… वरना…”

    फेरों के बीच, पंखुड़ी की नज़र धानी पर पड़ी।

    एक सेकंड के लिए उनके बीच आँखों का टकराव हुआ।

    बिजली-सी चमकी उन दोनों की वो नज़रों की लड़ाई में…

    फिर पंखुड़ी ने हल्की मुस्कान दी।

    धानी ने भी उतनी ही कड़वाहट से मुस्कुराकर जवाब दे दिया।

    फेरे पूरे हो चुके थे।

    शादी की सभी रस्में लगभग पूरी हो चुकी थीं।
    कन्यादान, सिंदूरदान, मंगलसूत्र...


    विदाई की घड़ी भी अब सामने थी..
    वो घड़ी, जो किसी भी लड़की की ज़िंदगी का सबसे भारी पल होती है।

    बाहर लॉन में फूलों से सजी कार खड़ी थी।

    शहनाइयाँ अब धीमे सुरों में बज रही थीं…
    पंखुड़ी का मेहंदी से रंगा हाथ अपने पापा की ऊँगली थामे हुए था…
    और उनकी आँखों से गिरते आँसू अब छिपाए नहीं छिप रहे थे।

    पंखुड़ी की माँ बार-बार उसका घूंघट ठीक कर रही थीं —
    "ख़ुश रहना बेटा…
    जहाँ जाए वहाँ सिर्फ उजाला लेकर जाना…"


    पंखुड़ी को विदा किया जा चुका था…
    वो कार में आकर बैठ चुकी थी।
    उसका चेहरा अब भी घूंघट में ढका था,
    लेकिन आँखें…वो बहुत कुछ कह रही थीं।

    धैर्य, चुपचाप उसके बगल में आकर बैठ गया था।
    कभी उसे देखता, कभी सामने की सड़क।

    कार स्टार्ट हुई…
    और उसी के साथ पंखुड़ी की रुलाई फिर से शुरू हो गई।

    वो अब धीरे-धीरे हिचकियाँ लेने लगी थी।

    उसकी चुनरी के पल्लू से उसका मुँह ढका था,
    लेकिन आँसुओं की नमी उस रेशमी कपड़े को भी भीगने से नहीं रोक सकी।


    धैर्य को चैन नहीं आया।

    "स्टॉप द कार!"
    उसने अचानक ड्राइवर से कहा।

    ब्रेक्स लगे, और कार रुक गई।

    धैर्य तेज़ी से दरवाज़ा खोलकर बाहर निकल कर दुकान की ओर भागा।

    कुछ ही देर में वो लौट आया —
    हाथ में एक पानी की बॉटल लिए और टिशू लिए हुए ।


    उसने बोतल खोली,
    और एक पल घूंघट की तरफ देखा ...


    धैर्य ने धीरे से कहा —
    "पानी पिओ।
    साँस रोको मत, वरना घबराहट हो जाएगी।"

    पंखुड़ी ने फिर एक बार हिचकी ली…
    फिर धीरे से अपना चेहरा मोड़ा…
    आँखें उठाई…

    धैर्य ने बोतल उसके सामने बढ़ाई।

    "ले लो… पी लो।"

    पंखुड़ी ने कांपते हाथों से पानी लिया…
    दो घूँट पीते ही उसके गले से एक ठंडी सांस निकली…
    मानो किसी ने उसके अंदर की टूटन को थोड़ी देर के लिए सहारा दे दिया हो।

    धैर्य ने फिर टिशू आगे बढ़ाया।

    "आँखें साफ कर लो।"

    पंखुड़ी ने उसकी बात पर होंठ भींचे…
    एक पल के लिए, घूंघट के अंदर से ही बहुत हल्की सी मुस्कान आ ग़ई उसके चेहरे पर।


    धैर्य ने उसके घूंघट ओढ़े चेहरे की ओर देखा…
    वही चेहरा जो हर वक़्त कुछ न कुछ बोलता रहता था,
    ताने कसता था, लड़ता था,
    कभी बातों में काटता था, कभी शरारत से मुस्कुराता था…

    पर आज?

    आज वो चेहरा खामोश था।
    बस आँसू बहा रहा था।

    धैर्य ने थोड़ी दूरी बना ली…खिड़की से चिपक कर बैठ गया…

    और कार फिर से चल पड़ी।

    कार में अब भी सन्नाटा था।

    बस बीच-बीच में पंखुड़ी की धीमी हिचकियाँ उस सन्नाटे को तोड़ रही थी…
    पर वो खुद कुछ नहीं बोल रही थी।

    धैर्य खिड़की की ओर देखने लगा,
    पर उसकी नज़रें हर कुछ सेकंड बाद उसी पर आकर टिक जातीं —
    पंखुड़ी शेखावत,जो अब पंखुड़ी राणा बन चुकी थी।


    धैर्य के मन में अजीब सी कसक उठी।

    उसने फिर हल्के से कहा —
    "कुछ कहोगी नहीं?"

    पंखुड़ी ने हल्की गर्दन घुमाई…
    फिर ना में सिर हिला दिया।

    कोई जवाब नहीं।

    धैर्य मुस्कुरा पड़ा…

    "तुम्हें चुप देखकर डर लग रहा है...हर बार लड़ने वाली लड़की आज… बस रो रही है।"

    पंखुड़ी की आँखें फिर से भर आईं।
    वो मुंह फेरकर खिड़की की ओर देखने लगी…

    घूंघट की ओट से बाहर की दुनिया धुंधली हो चुकी थी।


    शायद यही होता है…
    एक लड़की का सबसे भारी वक्त…

    जब वो माँ-बाप का घर पीछे छोड़ती है,
    हर दीवार, हर तस्वीर, हर कोना छोड़ती है
    और एक अजनबी घर, अजनबी रिश्ते, और अजनबी जीवन की ओर बढ़ती है…

    धैर्य चुप था,
    लेकिन उसके चेहरे पर लिखा था —
    “मैं समझता हूँ।”


    कुछ देर बाद…

    कार हवेली के बड़े गेट पर पहुंच चुकी थी।

    सामने रंगोली सजी थी, आरती की थाली तैयार थी,
    और बुआजी तो जैसे कैमरा लिए खड़ी थीं —
    कब बहू की पहली झलक मिले, कब कमियाँ निकाली जाएँ!

    देवकी जी जो विदाई के समय ही जल्दी से घर आ गई थी ताकि बहु का गृहप्रवेश करा सके। वो अब आरती की थाल लिए दरवाजे पर खड़ी थी।

    जैसे ही पंखुड़ी का पहला पाँव बाहर निकला, बुआ जी धीरे से बड़बड़ाईं —
    "घूंघट तो ज़रा ढंग से कर लेती… शरम नाम की चीज़ हो तो…"


    देवकी जी ने हल्के से उन्हें देखा,
    पर आज वो किसी बहस के मूड में नहीं थीं।


    गृहप्रवेश की रस्म हुई…
    पंखुड़ी ने चावल का लोटा गिराया,
    अपने पैरों के निशान छोड़े…

    और पहली बार उस घर की दहलीज़ लांघी,
    जहाँ अब उसे सिर्फ बहू नहीं… एक माँ भी बनना था।






    कंटिन्यू.....



    आगे क्या होगा जानने के लिए अगले भाग का इंतजार करें....

  • 15. इश्क़ बिना चैन कहाँ - Chapter 15

    Words: 1714

    Estimated Reading Time: 11 min

    रात का अंधेरा हवेली पर पूरी तरह फैल चुका था।

    नीचे की रौनक अब सिमट कर थम चुकी थी,

    और ऊपर कमरे में…

    धैर्य बाथरूम से बाहर निकला।

    उसने शादी का शेरवानी वाला भारी लिबास उतार दिया था और अब वो एक ढीली-सी टी-शर्ट और ट्रैक पैंट में था।

    कमरे में हल्की रोशनी थी,

    और एक कोने में उसकी पहली पत्नी की तस्वीर रखी थी जिस पर गुलाब की माला डली हुई, और तस्वीर के नीचे एक दीपक जल रहा था।

    धैर्य की नज़र उस तस्वीर पर पड़ी…

    और उसी क्षण, दरवाज़ा धीरे से खुला।

    खट…

    हल्के-से कदमों की आहट के साथ,

    पंखुड़ी कमरे में दाख़िल हुई ।

    वो अपने हाथ में एक ट्रे पकड़े हुए थी जिसमें था दूध का गिलास।

    धैर्य ने एक पल के लिए उसकी तरफ देखा…

    फिर उस तस्वीर की ओर देखा।

    मन में एक अजीब सी टीस उठी —

    "अब इस कमरे में ये पंखुड़ी नाम की मुसीबत भी रहेगी…"

    पर पंखुड़ी?

    उसे जैसे इसकी परवाह ही नहीं थी।

    उसने धीरे से आगे बढ़कर दूध का गिलास टेबल पर रखा…

    फिर अपनी जगह देखने लगी और—

    धम्म!

    सीधे बेड पर गिर पड़ी।

    लहंगे का भारी घेर और घुंघट संभालते-संभालते

    वो ऐसे गिरी जैसे कोई थकी हुई योद्धा जंग के बाद सीधा मैदान में ढेर हो गई हो।

    और फिर शुरू हुई… पंखुड़ी की बड़बड़ाहट।

    "हे भगवान! मेरे पैर नहीं हैं अब, ये दो पत्थर हो चुके हैं!"

    उसने अपने झुमके उतारते हुए कहा —

    "कान बज रहे हैं इन लटकनों से… किसको अच्छा लगता है इतना भारी सोना पहनना?"

    फिर हार उतारते हुए — "रानी हार! हाँ हाँ, बिल्कुल रानी बन गई थी मैं… लेकिन गर्दन झुक गई थी मेरी पूरी शादी में!"

    धैर्य एक कोने में खड़ा होकर उसे देख रहा था ।

    पंखुड़ी अब अपनी चूड़ियाँ निकालने लगी —

    "इतनी चूड़ियाँ पहनाई हैं जैसे मैं बहू नहीं, कोई मुजरिम हूं…"

    फिर उसकी नज़र धैर्य पर पड़ी।

    "आप वहीं क्यों खड़े हो? बैठ जाइए न, ये आपकी भी शादी थी न… अकेले मैं ही क्यों दुख सहूं?"

    धैर्य ने हल्की सांस ली और बोला—

    "तुम ठीक हो?"

    पंखुड़ी ने बड़ी मासूमियत से कहा —

    "ठीक? क्या मतलब है आपका ठीक से?

    शादी में इतनी बार मुस्कुराना पड़ा कि गालों में ऐंठन आ गई है…

    और अब आप पूछ रहे हो कि मैं ठीक हूँ?"

    धैर्य को अब उसकी हालत पर हंसी आ रही थी,

    लेकिन उसने अपना चेहरा गंभीर ही रखा।

    पंखुड़ी अब बिस्तर पर फैल गई और बोली —

    "एक बात बताओ… ये शादी नाम की चीज़ सिर्फ लड़कियों को ही थकाती है क्या?

    आप तो बड़े आराम से बाथरूम से फ्रेश होकर आ गए, और मैं अब तक इस लहंगे से लड़ रही हूँ!"

    पंखुड़ी अब भी बिस्तर पर आधी पड़ी हुई थी,

    लहंगे का घेर ज़मीन पर फैला था,

    और ज़ेवर उतारते-उतारते उसकी झुंझलाहट भी ज़ुबान पर आ गई थी।

    धैर्य अब कुर्सी खींच कर बैठ ही रहा था कि अचानक पंखुड़ी बोल पड़ी —"अरे हाँ! मैं भी क्या ही बोल रही हूँ…"

    धैर्य ने चौंक कर उसकी तरफ देखा।

    पंखुड़ी ने पल्लू संभालते हुए हल्की सी मुस्कान के साथ कहा —"आपके लिए तो ये सब कोई नई बात नहीं होगी, है ना?"

    धैर्य की भौंहें सिकुड़ गईं।

    "क्या मतलब?" वो गंभीर हो गया।

    "मतलब ये कि… आपकी तो ये दूसरी शादी है,

    आप तो एक्सपीरियंस पर्सन हो न!"

    कमरे की हवा जैसे एकदम से ठहर गई।

    धैर्य की उंगलियाँ कुर्सी के हत्थे पर जमीं की जमीं रह गईं।

    उसका चेहरा धीरे-धीरे सख्त होने लगा,

    और आँखें… वो तो सिकुड़ ही गईं।

    "क्या कहा तुमने?"

    पंखुड़ी, जो अब अपनी चूड़ियाँ खोल रही थी,

    एकदम से रुक गई।

    उसने सिर उठाकर धैर्य की ओर देखा —

    और तभी, उसे महसूस हुआ कि उसने कुछ गलत बोल दिया है।

    "मतलब… मेरा मतलब था कि… आप… मतलब… आप समझ ही गए न?"

    धैर्य अब पूरी तरह सीधे बैठ गया।

    "नहीं। मैं नहीं समझा।

    ज़रा साफ़-साफ़ कहो।

    'एक्सपीरियंस पर्सन' का क्या मतलब है?"

    पंखुड़ी का चेहरा लटक गया।

    वो उठकर बैठ गई, लहंगे को ठीक करते हुए बोली —

    "अरे… आप ग़लत ले रहे हो बात को…

    मैं तो बस मज़ाक में कह रही थी… मुझे क्या पता था कि आप..."

    "क्या?"

    धैर्य अब उसकी आँखों में देख रहा था।

    "क्या पता था तुम्हें?

    तुम्हें क्या लगा, पहली पत्नी की मौत कोई अनुभव है?

    या ये शादी कोई फॉर्मेलिटी है जिसमें मैंने बस साइन कर दिए और आगे बढ़ गया?"

    पंखुड़ी चुप ही रह गई।

    अब वो वही पंखुड़ी नहीं लग रही थी जो दो मिनट पहले तक बड़बड़ा रही थी।वो एकदम से संकोच में पड़ गई थी।

    "मैं… सॉरी बोलती हूँ न।

    मुझे नहीं बोलना चाहिए था ऐसे…"

    उसकी आवाज़ अब एकदम से धीमी हो गई थी।

    पर धैर्य की आवाज़ अब और भी सख्त हो गई थी।

    "सॉरी हंह ?तुम्हें लगता है… एक ‘सॉरी’ से सब कुछ ठीक हो जाएगा?"

    "मैं सच में… मज़ाक में बोल गई थी… मैं बस थकी थी… और… और कुछ सोच-समझकर नहीं बोला…"

    धैर्य धीरे-धीरे खड़ा हुआ,

    और उस तस्वीर के पास जाकर खड़ा हो गया…

    उसकी पहली पत्नी की तस्वीर के पास।

    "मैंने कभी ये चाहा नहीं था… ये दोबारा शादी…"

    उसका गला भारी हो गया।

    "बस माँ की ज़िद थी।

    घर में अंशी है, उसका बचपन है… और मैं…"

    वो चुप हो गया।

    पंखुड़ी ने धीरे से उसकी तरफ देखा।

    धैर्य की पीठ उसकी तरफ थी।

    "न-नहीं… मेरी मंशा… वो नहीं थी…मैंने… जान-बूझकर कुछ नहीं कहा था…मैं तो बस… बस आपसे थोड़ा बात कर रही थी… शायद… शायद ग़लती हो गई…"

    धैर्य का सीना ऊपर-नीचे हो रहा था…

    शायद ग़ुस्से से नहीं, उस बीते वक्त की टीस से…

    धीरे-धीरे, वो घूमकर पंखुड़ी की ओर मुड़ा।

    "बस करो पंखुड़ी…तुम्हें शायद अंदाज़ा नहीं कि कुछ मज़ाक, मज़ाक नहीं होते…तुम्हें क्या पता कि किसी की चिता की राख के ऊपर फिर से दूल्हा बनना कितना मुश्किल होता है…"

    पंखुड़ी की नजरे झुक गई।

    "तुम्हें शादी में थकान हुई?

    मुझे तो शर्म आई थी।

    हर रस्म में लगता था कि जैसे मैं किसी और की जगह ले रहा हूँ…किसी की याद को धोखा दे रहा हूँ…"

    पंखुड़ी की उंगलियाँ घूंघट के कोने को ऐसे मोड़ रही थीं

    जैसे मन की कोई गाँठ सुलझा रही हो या शायद और उलझा रही हो…

    धैर्य अब उसकी तरफ बिल्कुल सामने खड़ा था,

    लेकिन उसकी आँखें अब भी कहीं और थीं ...शायद किसी गुज़रे पल में…

    "तुम्हारे लिए ये सब सिर्फ नई शुरुआत है, पंखुड़ी…"

    उसने बेहद ठहरे हुए स्वर में कहा।

    "लेकिन मेरे लिए ये… अधूरा अंत है।

    एक ऐसा अंत, जिसमें 'शुरुआत' करने की हिम्मत मेरी नहीं, बस माँ की ज़िद थी।"

    वो पल भर रुका।

    "हर मुस्कुराहट जो आज तुमने देखी… वो एक मुखौटा थी।

    हर फूल जो तुम्हारे रास्ते में बिछा…

    वो मेरे भीतर किसी की याद पर गिरा हुआ कांटा था।"

    पंखुड़ी का गला अब सूख गया था।

    वो बोलना चाहती थी… लेकिन जैसे गले से आवाज़ ही नहीं निकली।

    धैर्य अब धीरे से सोफे के पास जाकर बैठ गया।

    उसने खुद को थामने की कोशिश की…

    लेकिन उसकी हथेलियाँ आपस में भींचती ही जा रही थीं।

    "मैं जानता हूँ, तुम ग़लत नहीं हो…

    नहीं जानती थी कुछ… न तुम्हारा इरादा गलत था…

    लेकिन जब ज़िंदगी किसी के हाथों से फिसल चुकी हो,

    तो छोटी बात भी सीने में तीर बन जाती है।"

    अब उसकी आँखें छलछला उठीं।

    पर उसने पलकें झपका कर उन्हें अंदर ही रोक लिया।

    पंखुड़ी अब धीरे-धीरे उठी।

    वो बिना कुछ बोले बिस्तर से नीचे उतरी,

    और धीमे कदमों से उस तस्वीर के पास पहुँची जहाँ धैर्य कुछ देर पहले खड़ा था।

    उसने तस्वीर की ओर देखा…

    कुछ पल तक बस देखा।

    फिर अपने दो उंगलियों से हल्के से माला को छुआ…

    और फिर दीपक के सामने हाथ जोड़ लिए।

    "माफ़ करना…"

    उसने बहुत धीमे से कहा,जैसे किसी अनजाने रिश्ते से पहली बार बात कर रही हो।

    "मुझे नहीं पता था कि मेरी नादानी इस कदर चुभ जाएगी।

    मैं यहाँ किसी की जगह लेने नहीं आई हूँ…

    मैं बस… बस एक जिम्मेदारी हूँ।

    और मैं कोशिश करूँगी कि इसे निभा सकूँ…"

    धैर्य ने उसकी आवाज़ सुनी…लेकिन कुछ नहीं कहा।

    पंखुड़ी अब वापस मुड़ी,

    और धीरे से जाकर बेड के एक किनारे बैठ गई।

    वो अब बिल्कुल चुप थी…

    धैर्य ने एक नजर उसकी तरफ डाली,

    फिर सोफे पर लेट गया… और अपनी आँखें बंद कर लीं।

    पर दोनों के मन में एक ही बात गूंज रही थी —

    "कभी-कभी दो अनजाने लोग, एक ही कमरे में होते हुए भी…

    कितने अलग-अलग दर्द जी रहे होते हैं…"



    धैर्य सोफे पर लेटा था।
    आँखें बंद थीं, पर नींद कोसों दूर।
    मन में विचारों की एक अंतहीन श्रृंखला चल रही थी…

    और दूसरी ओर, पंखुड़ी बिस्तर के एक किनारे लेटी हुई थी।
    उसने करवट बदली।
    दीवार की ओर मुंह किया,
    और धीरे-धीरे आँखें बंद कर लीं।

    पर शायद शरीर जितना थका था…
    मन उतना ही बेचैन हो रखा था।

    कुछ ही देर में…
    पंखुड़ी की साँसें तेज़ होने लगीं।

    उसका चेहरा पसीने से भीगने लगा…

    और फिर...

    "छोड़ दो… मत छुओ… मत ले जाओ मुझे…"

    उसके होंठ फड़फड़ाने लगे ।

    आँखें बंद थीं… पर चेहरा डर से सिकुड़ रहा था उसका।

    "मम्मा… ममम्मा… मुझे मत छोड़ो…"

    पलक झपकते ही, उसके हाथ काँपने लगे,
    पैरों में हरकत हुई जैसे वो किसी से बचना चाहती हो।

    "बचाओ…"
    एक चीख निकली उसके मुंह से ।

    धैर्य ने झटके से आँखें खोलीं।

    देखा कि पंखुड़ी तड़प रही थी।

    "पंखुड़ी?"
    वो उठकर तुरंत बिस्तर की ओर भागा।

    "पंखुड़ी!… हे भगवान, ये क्या हो रहा है…"

    उसने उसका कंधा पकड़ा, और उसे हल्के से हिलाया —
    "पंखुड़ी, उठो… देखो… मैं हूँ यहाँ…"

    लेकिन पंखुड़ी अब भी नींद में डरी-सहमी काँप रही थी।

    "नहीं… मुझे मत भेजो वहाँ… मुझे वापस मम्मी के पास जाना है…"

    धैर्य को अब समझ आ गया था ..
    वो डर के मारे कोई सपना देख रही है।
    शायद विदाई का, या उस अजनबीपन का
    जो अभी-अभी उस पर लादा गया था।

    उसने हल्के से उसकी हथेली थामी।
    "देखो… देखो मैं हूँ यहाँ… धैर्य।
    कोई तुम्हें नहीं ले जा रहा।
    तुम सुरक्षित हो। यहाँ हो।"


    कुछ ही पल बाद…
    पंखुड़ी का शरीर धीरे-धीरे शांत होने लगा।
    उसकी साँसें सामान्य हो गई।

    आँखें अब भी बंद थीं,
    लेकिन चेहरा अब थोड़ा सुकून में आ गया था।

    धैर्य कुछ देर तक उसकी हथेली थामे बैठा रहा…
    फिर धीरे से उठकर पास रखे टिशू से उसका माथा पोंछ डाला जो पसीने से भीग गया था।




    कंटिन्यू.....

    आगे क्या होगा जानने के लिए अगले भाग का इंतजार करें....

  • 16. इश्क़ बिना चैन कहाँ - Chapter 16

    Words: 1803

    Estimated Reading Time: 11 min

    अगली सुबह...
    पंखुड़ी की आँखें नींद से धीरे-धीरे खुलीं।

    उसने करवट बदली।

    फिर अचानक उसकी नजर दीवार की घड़ी पर पड़ी ।

    "साढ़े आठ!"

    वो झट से उठकर बैठ गई ।

    "हे भगवान!! ये कैसे हो गया?
    मैं तो उठने वाली थी… मैं तो रात को अलार्म लगाने वाली थी… मम्मी ने कितनी बार समझाया था…"


    जल्दी से उसने चादर हटाई, इधर उधर झांक कर देखा  —
    "ये धैर्य जी कहाँ हैं?"

    चारों ओर नजर घुमाई पर कमरा खाली था।


    "हे राम!!"
    उसने अपने सिर पर हाथ मारा।

    फिर जैसे उसे कुछ याद आया —
    "मम्मी ने क्या कहा था?
    'सुबह जल्दी उठकर सबके पैर छूना होता है…
    वरना कहते हैं नई बहू को घर की लक्ष्मी नहीं मानते!'

    "हाय राम!!" उसने माथा पीट लिया।

    अब वो झटपट अपने बाल समेटने लगी।

    फिर तुरंत  बाथरूम की ओर दौड़ी।
    दरवाज़ा खोला और अंदर घुसी...

    "साड़ी… साड़ी कहाँ रखी है?"

    बाथरूम के हुक पर साड़ी टंगी देख उसने राहत की सांस ली।
    "शुक्र है… कम से कम ये तो यहीं टाँग दी गई थी…"

    वो तेजी से नहाई ...

    और नहाने के बाद... साड़ी पहनते हुए खुद से बड़बड़ाने लगी
    —"ऊँह! ये साड़ी ऐसे फिसल रही है जैसे रिश्तेदारों की तारीफें… पकड़ो तो भी न टिके!"

    बाथरूम से बाहर आते ही उसने घड़ी की ओर देखा ...
    अब 8:52 बज रहे थे।

    वोतो  जैसे अब और ज्यादा भड़क गई थी —
    "अब अगर लेट हो ही गई हूँ…
    तो जल्दीबाज़ी करके और क्या साबित करूँ?
    अब तो मैं आराम से तैयार होकर ही नीचे जाऊंगी!"

    वो खुद से ही जैसे बहस कर रही थी —
    "हां! हां! अब जब लेट हो ही गई हूँ…
    तो क्या फ़ायदा इस हड़बड़ी का?"


    फिर वो ड्रेसिंग टेबल के सामने बैठी,
    एक-एक चीज़ करीने से पहनने लगी ...
    बिंदी, चूड़ियाँ, झुमके…

    फिर, उसने मांग में सिंदूर भरा।

    और सबसे आख़िर में उसने मंगलसूत्र उठाया।उसे गले में पहनते हुए कुछ पल तक खुद को आईने में देखा।


    "हाय राम! कितनी क्यूट लग रही हूं मैं!"

    फिर वो एकदम से ठिठकी ...
    अपने होठों को थोड़ा सा गोल किया और फिर...
      "उम्म्माह!!"
    करके उसने  हल्के से मिरर पर किस कर दिया।

    "सो स्वीट!"
    वो खुद ही खिलखिलाकर हँस पड़ी।


    "चल पंखुड़ी… अब तू पूरी तरह से तैयार है,
    अब नीचे उतरते ही सबको ‘गुड मॉर्निंग’ बोलना है,
    और पैर छूने हैं... फिर रसोई में जाकर थोड़ा सा ‘बहू अवतार’ भी निभाना है।"

    उसे याद आया —
    "देवकी जी ने कल कहा था, ‘कुछ मीठा बनाना पड़ेगा बहू… बस रस्म के तौर पर…’मतलब… हलवा! या खीर… या जो भी मीठा बने!"


    फिर एकदम से आईने को देखकर आंख मारी और बोली —

    "चल मेरी शेरनी!"

    वो उठी,
    पल्लू थोड़ा ठीक किया, दरवाज़ा खोलने के लिए हाथ आगे बढ़ाया…


    लेकिन पंखुड़ी ने जैसे ही दरवाज़ा खोलने के लिए कुंडी घुमाई।

    “खट्…”
    उसकी भौंहें सिकुड़ गईं।

    उसने फिर से जोर दिया…
    “खट… खट… ठक् ठक्…”

    "अरे ये क्या!"
    उसने दरवाज़े की कुंडी को ऊपर-नीचे, आगे-पीछे घुमाने की कोशिश की… पर दरवाज़ा टस से मस नहीं हुआ।

    "हे भगवाना! ये दरवाज़ा बाहर से बंद है?"

    अब उसकी आँखें फैल गईं।
    उसने फिर ज़ोर से दरवाज़ा पीटना शुरू किया —

    "कोई है बाहर? हेलो? अरे! सुनिए तो!! दरवाज़ा खोलिए!!"

    पर कोई जवाब नहीं आया।


    नीचे, हॉल में...

    देवकी जी रसोई के पास खड़ी थीं।


    उन्होंने मुड़कर अपनी बेटी 'धानी' को देखा और कहा —

    "धानी, जा न बेटा… ऊपर से अपनी भाभी को बुला ला।
    आज उसकी पहली रसोई है, सब इंतज़ार कर रहे हैं नीचे।"

    धानी, जो सोफे पर मोबाइल में घुसी बैठी थी,
    एकदम से चिढ़कर बोली —
    "नहीं जाना मुझे! मैं कोई नौकर नहीं हूँ उसकी!"

    देवकी जी चौक पड़ीं —
    "अरे! ये क्या तरीका है बात करने का? बहू है वो इस घर की। आज पहली बार सबके बीच आएगी...."

    "तो आए न! मैं क्या उसका अलार्म हूँ?"
    धानी ने बिना नजर उठाए ही जवाब दिया।


    उधर, पास ही पड़ी कुर्सी पर बुआ जी बैठीं थीं...
    उन्होंने एक लंबी साँस लेकर कहा —

    "हम्म्म… यही होता है जब बहु को बहु की जगह बेटी का प्यार देते हो तो। न संस्कार, न समय का लिहाज़… उठने का सलीका तो बिल्कुल भी नहीं!"



    देवकी जी को बुरा तो लगा, लेकिन वो चुप ही रहीं।
    उनकी आँखें घड़ी की ओर चली गईं —
    "अब तक तो पंखुड़ी को नीचे आ जाना चाहिए था…"



    उधर कमरे में…

    पंखुड़ी अब दोनों हाथों से दरवाज़ा पीट रही थी —

    "अरे खोलिए! कोई है क्या इस हवेली में? मैं बंद हो गई हूँ!!"

    उसे अब डर भी लगने लगा था।

    "हे भगवान… ये तो मैं कभी सोची ही नहीं थी कि शादी के अगले दिन ऐसे फँस जाऊंगी…!"


    उसने फिर से दरवाज़ा पीटा —
    "कोई है? अरे! प्लीज़… कोई तो सुने!!"


    "हैलो! कोई है क्या इस हवेली में? मुझे नीचे जाना है! रस्म-वस्म करनी है यार!"



    तभी...

    "ठक… ठक…"

    बाहर से किसी के कदमों की आहट आई।

    "हाश! शायद कोई आ रहा है!"

    पंखुड़ी ने आवाज़ तेज़ की —
    "यहाँ! मैं हूँ यहाँ! कमरा बंद हो गया है! कोई खोलो प्लीज़!"



    बाहर से तंज भरी आवाज़ आई —
    "अरे भाभीजी कमरे में बंद हो गई हो क्या?"

    "धानी!"
    पंखुड़ी ने उस तंज भरी आवाज को तुरंत पहचान लिया।

    "धानी यार दरवाज़ा खोल न! पता नहीं कैसे लॉक हो गया है बाहर से!"

    धानी ने होंठ चबाते हुए कुंडी खोली…

    “ठक्…”

    दरवाज़ा खुला… और पंखुड़ी लगभग गिरते-गिरते बाहर आई।

    उसका चेहरा लाल हो गया था, बालों की कुछ लटें बिखर गई थी।


    "अरे अरे भाभी… तुम अभी तक तैयार नहीं हुईं?"धानी उसे देख तंज कसते हुए बोली।

    "मैं… तैयार तो हो गई थी… लेकिन लॉक हो गई थी अंदर से!"
    पंखुड़ी जल्दी से सफाई देने लगी।

    धानी अब भी मुस्कुराकर तंज कस रही थी —
    "मैनर्स नाम की चीज़ नहीं है ना तुझ में, पंखुड़ी!
    पहले ही दिन ड्रामा कर रही हो… !"

    पंखुड़ी कुछ पल के लिए रुक गई।
    उसकी मुट्ठियाँ हल्की सी भींच गईं, और वो चाहती तो कुछ कह भी सकती थी,
    पर फिर उसकी नज़र सीढ़ियों की ओर गई… और फिर घड़ी पर।

    "साढ़े नौ!"

    उसने लंबी साँस ली,
    फिर धीमे स्वर में खुद से कहा —

    "आज बहस करके कोई ताज नहीं मिलने वाला मुझे…"

    वो बिना कुछ बोले, अपनी साड़ी को ठीक करती हुई,
    पल्लू कंधे पर जमाते हुए…
    धानी को पूरी तरह इग्नोर करती हुई सीढ़ियों की ओर बढ़ गई।

    पीछे धानी मुंह बनातीं रह गई।


    नीचे…

    देवकी जी की नजरें सीढ़ियों पर टिकी थीं।

    और तभी…
    ठक… ठक… ठक…

    पायल की धीमी छनक के साथ पंखुड़ी नीचे उतरने लगी।


    देवकी जी ने राहत की सांस ली —
    "लो आ गई बहू…"

    बुआ जी ने तुरंत अपनी आँखें तरेरीं —
    "अब आए तो क्या, जिस वक्त पूजा का मुहूर्त था, तब तो ऊपर सो रहीं थीं महारानी!"

    पंखुड़ी ने हल्के से सिर झुकाया।

    फिर झुककर सबसे पहले बुआ जी के पैर छुए।

    बुआ जी ने पाँव तो खींचे नहीं, पर मुँह से निकला —
    "खाली पाँव छूने से कुछ नहीं होता बहू… सलीका समय में भी झलकता है।"

    पंखुड़ी ने ज़मीन की ओर नजर गड़ा दी।

    देवकी जी ने माहौल संभाला —
    "चलो बहू, अब ज्यादा मत सोचो… चलो रसोई में चलें, जो रस्म बची है उसे पूरा करते है।"

    पंखुड़ी ने "जी मम्मी जी…" कहकर पल्लू सिर पर लिया,
    और उनके पीछे-पीछे रसोई की ओर बढ़ गई।



    देवकी जी पहले से ही प्लेटों में ड्रायफ्रूट्स, सूजी और बेसन निकालकर सजा चुकी थीं।

    देवकी जी ने मुस्कुराते हुए कहा —
    "बहू, तुम तो मायके से सीख कर आई हो ना हलवा बनाना?
    तो फिर आज धैर्य के लिए बनाओ बेसन का हलवा…
    और बाकी सबके लिए सूजी का।"

    पंखुड़ी ने हैरानी से पूछा —
    "सिर्फ धैर्य जी के लिए अलग?"

    देवकी जी ने हल्के से मुस्कुराते हुए कहा —
    "हाँ, उसे बेसन का हलवा ही पसंद है…"

    पंखुड़ी के चेहरे पर एक प्यारी सी मुस्कान तैर गई।


    "ठीक है मम्मी जी… धैर्य जी के लिए बेसन का… और बाकी सबके लिए सूजी का…"

    वो कढ़ाही गैस पर रख चुकी थी, घी गरम होने लगा था।
    उसने झटपट अपने बालों की लट कान के पीछे अटकाई।

    फिर एक पल को इधर-उधर देखा, और फुसफुसाई —

    "वैसे अंशी और वो दोनों दिख नहीं रहे… कहीं बाहर गए हैं क्या?"

    देवकी जी ने गाजर काटते हुए जवाब दिया —

    "धैर्य अंशी को गार्डन में घुमा रहा है…
    कह रहा था कि वो रोज़ सुबह हवा में टहलेगी तो सेहत भी अच्छी रहेगी…"

    पंखुड़ी की आँखें अपने आप चमक उठीं —

    "ओह…!"
    वो मुस्कुरा दी।


    कुछ ही देर में…


    डायनिंग टेबल पर सब अपनी-अपनी कुर्सियों पर बैठ चुके थे।

    देवकी जी ने खुद थाली में सबके लिए सब्जी पूरी परोस रही …

    और पंखुड़ी, अपनी हल्की-सी कंपकंपाती उंगलियों से,
    सबके सामने प्यालियों में हलवा परोस रही थी।

    "ये बुआ जी… ये आपके लिए सूजी वाला…"
    "पापा जी… आप थोड़ा और लीजिए…"



    लेकिन…
    उसकी नजर बार-बार टेबल के दूसरे छोर पर बैठे अपने हैंडसम पति धैर्य राणा पर जा रही थी।
    धैर्य, सादा कुर्ता-पायजामा पहने हुआ था, एकदम शांत सा , सिर हल्का झुकाए बस अंशी को देख रहा था…
    जो इस वक्त राज जी की गोद में बैठकर उंगलियों से उन्हें नाक पकड़ने की कोशिश कर रही थी।

    पंखुड़ी ने जैसे ही उसकी प्लेट में बेसन का हलवा रखा —
    "ये आपके लिए है…"
    उसने धीमे से कहा, पर धैर्य ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी।


    पंखुड़ी के चेहरे की मुस्कान थोड़ी सी फिसल गई…
    उसने बिना कुछ कहे सिर झुका लिया और बाकी हलवा परोसने में लग गई।


    तभी, बुआ जी ने चम्मच से हलवा खाया और भौंहें सिकोड़ते हुए बोलीं —

    "हम्म्म… हलवा तो बनाया है, पर घी कम है इसमें…
    सूजी को थोड़ा और भूनती तो रंग आता…"

    देवकी जी ने पंखुड़ी की ओर देखा —
    "पहली बार है दीदी… थोड़ा समय लगेगा न सीखने में…"

    बुआ जी ने तुनककर जवाब दिया —
    "पहली बार ही तो असली छाप छोड़ने का मौका होता है…
    अब इसमें कमी दिख गई तो बात कहाँ छुपती है?"



    तभी…

    धानी, जो अब तक चुपचाप मोबाइल चला रही थी,
    अपना फोन टेबल पर पटकते हुए बोली —

    "वैसे मम्मी, बुआ जी सही कह रही हैं… मुझे भी हलवा कुछ खास नहीं लगा।थोड़ा कच्चा-कच्चा सा टेस्ट है… और ऊपर से ड्रायफ्रूट्स भी जले-जले से लग रहे हैं।"



    "धानी…!"
    देवकी जी ने उसे घूरा।

    "क्या मम्मी… सच बोलना गुनाह है क्या?


    पंखुड़ी सबकी बातें सुन रही थी…
    बुआ जी की तीखी टिप्पणी,
    धानी की तुनकती आवाज़,
    लेकिन इन सब में उसे सबसे ज्यादा जो खल रही थी वो थी धैर्य की चुप्पी।

    पर…

    उसने अपने चेहरे पर कोई भी शिकन नहीं आने दिया ।


    देवकी जी ने उसे देखा…वो कुछ कहने ही वाली थीं कि तभी…

    "मम्मी जी…"
    पंखुड़ी बोल पड़ी।
    "मैं बाकी पूरियाँ अंदर रख देती हूँ… और हलवा भी जो बचा है, फ्रिज में रख दूँ?"

    देवकी जी ने सिर हिला कर उसे अनुमति दे दी और पंखुड़ी तुरंत वहां से खिसक कर किचन में घुस गई।







    कंटिन्यू.....



    आगे क्या होगा जानने के लिए अगले भाग का इंतजार करें....

  • 17. इश्क़ बिना चैन कहाँ - Chapter 17

    Words: 1180

    Estimated Reading Time: 8 min

    पूरा दिन जैसे एक पहाड़ बन गया था पंखुड़ी के लिए।

    सुबह से ही रस्म, रसोई, नाश्ता, ताने, और सबसे ऊपर  धैर्य की  वो चुप्पी।

    धैर्य, नाश्ते के तुरंत बाद बिना कुछ बोले अस्पताल चला गया था।

    राज जी ने बस इतना कहा था कि

    “एक पेशेंट का केस आ गया है, इसलिए निकलना पड़ा।”

    पंखुड़ी ने कुछ नहीं पूछा…

    ना जाने की वजह, ना लौटने का समय।

    बस इतना  ध्यान दिया

    कि धैर्य गया  तो गया… पर जाते वक़्त पलटकर भी नहीं देखा।

    रसोई में बर्तन मांजते हुए भी उसकी नज़र बार-बार  उस कुर्सी पर जा रही थी,

    जहाँ कुछ घंटे पहले धैर्य बैठा था…

    लेकिन वहाँ अब सिर्फ खालीपन था।

    दोपहर का समय था....

    सारा घर अपने-अपने ढंग से व्यस्त था।

    बुआ जी आराम से कुर्सी पर लेटकर दोपहर की झपकी ले रही थीं,

    देवकी जी अपने काम में लगी थीं…

    और धानी?

    धानी तो हर बार जैसे कोई नया ताना इन्वेंट कर रही थी।

    "भाभी! बर्तन धोते वक्त थोड़ा कम आवाज़ किया करो न… ये कोई ढाबा थोड़ी है!"

    "ओह भाभी! आपकी साड़ी का पल्लू तो हर जगह लटकता रहता है, जरा स्टाइल में ओढ़ा करो!"

    पंखुड़ी ने एक बार भी पलटकर जवाब नहीं दिया।

    बस एक धीमा “हूं” या “ठीक है…” कहकर वो अपने काम में जुट जाती।

    लेकिन उस घर में एक छोटा सा कोना ऐसा था… जहां वो हर बार सुकून पाती।

    अंशी।

    वो नन्हीं सी बच्ची, जो अब 'मम्मा' कहकर हर थोड़ी देर में उसकी गोद में आ बैठती।

    उसकी उँगलियाँ पंखुड़ी की साड़ी से खेलतीं,

    तो पंखुड़ी का मन जैसे एक पल के लिए किसी मीठे झूले में झूल उठता।

    “मम्मा! आप मेरे साथ बाहर चलो ना… बगीचे में! देखो न फूल खिल गए!”

    पंखुड़ी उसके चेहरे को थामते हुए मुस्कुरा दी —

    “चलिए मैडम, आज फूलों से भी मुलाक़ात हो जाए…”

    बगीचे में धूप थोड़ी नरम हो चली थी,

    अंशी फूलों के पीछे-पीछे तितलियों को पकड़ने की कोशिश कर रही थी।

    पंखुड़ी पास के पत्थर पर बैठी थी,

    लेकिन उसका मन…

    अब भी वहीं था  जहाँ धैर्य गया था।

    तभी…

    "छपाक!!"

    एक ठंडी लहर सी उसके पूरे शरीर पर उतर गई।

    पल भर पहले जो हल्की धूप उसके चेहरे को सहला रही थी,

    अब वहीं पानी की ठंडक ने उसके कपड़े, बाल, और साड़ी सब भीगा दिए थे।

    पंखुड़ी एकदम सकपका गई।

    उसकी आँखें अचानक बंद हो गईं, बाल उसके चेहरे पर चिपक गए।

    वहीं तितलियों के पीछे भागती अंशी पहले तो चौंकी, लेकिन फिर अगले ही पल खिलखिलाकर हँसने लगी —

    "मम्मा! बारिश! बारिश!!"

    पंखुड़ी ने धीरे से आंखें खोलीं…

    पलकों पर पानी की बूंदें अब भी ठहरी थीं।

    उसने सिर ऊपर उठाकर देखा…

    और जो सोच रही थी, वही सच निकला।

    छत पर बाल्टी लिए, धानी खड़ी थी। अपने होठों पर हल्की मुस्कान लिए…और आँखों में वही जाना-पहचाना तंज लिए।

    पंखुड़ी कुछ सेकंड उसे देखती रही।

    उसने सिर थोड़ा सा टेढ़ा किया…और बस घूर कर देखा।

    एक भी शब्द नहीं बोली पंखुड़ी उसे।

    कोई चीख नहीं, कोई "क्या कर रही हो!" नहीं…

    बस एक नज़र डाली जो धानी को अंदर तक चुभ गई।

    धानी का चेहरा पहले तो थोड़ी देर तक मुस्कुराता रहा…

    पर फिर जब पंखुड़ी ने कुछ नहीं कहा,

    तो उसके होंठों से हँसी अपने आप गायब हो गई।

    वो बाल्टी नीचे रखकर धीरे से मुड़ी…

    जैसे खुद को भी यकीन नहीं हो रहा था कि पंखुड़ी चुप कैसे रह गई।

    नीचे बगीचे में…

    अंशी अब भी हँस रही थी —

    "मम्मा भीग गईं! मम्मा अब रेन डान्स करो न!!"

    पंखुड़ी ने हँसती हुई अंशी को अपनी गोद में उठा लिया,

    उसके  बालों को पीछे किया,और एक मीठी मुस्कान के साथ कहा —"डान्स तो नहीं, लेकिन चलो अंदर चलें मैडम… वरना आप मेरे साथ ठंडी पड़ जाएंगी!"

    अंशी ने सिर हिलाया और उसकी भीगी साड़ी से ही अपना चेहरा पोंछने लगी।

    कुछ मिनट बाद…

    पंखुड़ी ऊपर अपने कमरे में खड़ी थी।

    बाल सुखाने के लिए तौलिया लपेट रखा था, और अंशी बेड पर उछल रही थी।

    पंखुड़ी बाल सुखाने के बाद आइने के सामने बैठी थी।

    उसने कंघी को धीरे-धीरे बालों में फिराया और फिर मोबाइल उठाकर धैर्य का नंबर डायल कर दिया।

    कॉल जल्दी ही कनेक्ट हो गया।

    “हां…”

    धैर्य की वही सामान्य-सी आवाज़ आई सामने से।

    पंखुड़ी मुस्कुरा उठी।

    “हां?? बस हां? मतलब फोन उठाया भी और बस ‘हां’ कह दिया?  कोई सवाल नहीं कि बीवी क्यों फोन कर रही है, बस… ‘हां’!”

    “क्यों फोन किया?”धैर्य उसकी बात सुनकर बोल पड़ा।

    पंखुड़ी अब खिलखिला पड़ी—

    “क्यों किया? ओ हेल्लो डॉक्टर साहब! क्या अब फोन करने के लिए भी परमिशन लेनी पड़ेगी? वैसे भी… आज आपने बेसन का हलवा खाया था… मैं चेक कर रही थी कि ज़िंदा हो या नहीं!”

    “हूं…”

    “हूं? वाह! कमाल करते हो, कभी तो पूरा वाक्य बोल लो जनाब!

    “कुछ काम था क्या ?”धैर्य अब थोड़ी चिढ़ से बोला ।

    “काम? हाँ, बहुत बड़ा काम था… आपको मुस्कुराता देखना था आज।

    लेकिन अफ़सोस, आज तो आपने हलवा खाते वक्त भी मुस्कान नहीं दी… एक बार भी नहीं देखा मेरी तरफ़… और वो… मुझे थोड़ा खल गया यार…नहीं नहीं थोड़ा नहीं बहुत जुड़ा खल गया।”

    “मैं देख रहा था…”

    सामने से धीरे से जवाब मिला।

    पंखुड़ी चौक गई —

    “क्या?? आप देख रहे थे? फिर भी कुछ कहा नहीं?”

    “कुछ बोलने जैसा था ही नहीं …”

    "मतलब?"वो हैरानी से बोली।

    "मतलब ये कि...हा मै देख रहा था बस… कि तुम कोई ड्रामा तो नहीं करोगी।हर बात पे इमोशनल हो जाना, हर चीज़ पर रिएक्ट करना… वो सब जो आमतौर पर तुम करती हो… ये देख रहा था    कि आज  भी तुम वही करोगी  या नहीं।"

    पंखुड़ी की आँखें पल भर के लिए सुन्न रह गईं।

    "ड्रामा?"

    उसके होंठो से जैसे ये शब्द खुद-ब-खुद फिसल पड़ा।

    उसने मोबाइल थोड़ा कान से दूर किया, जैसे उस आवाज़ से खुद को बचाना चाहती हो।

    फिर दोबारा धीरे से कान पर लगाया… और पूछा, बहुत ठंडे लहजे में —

    "आप… क्या कह रहे हो?"

    धैर्य की आवाज़ अब भी वैसी ही ठंडी और लापरवाह थी —

    “बस कह दिया…वैसे भी ये  कोई बड़ी बात नहीं है न तुम्हारे लिए।”

    पंखुड़ी अब बिस्तर के पास खड़ी थी।

    अंशी की हँसी कमरे में गूंज रही थी,

    लेकिन पंखुड़ी की आँखों में अब एकदम सूनापन आ गया था…

    पंखुड़ी ने बिना कुछ कहे,बिलकुल चुपचाप, कॉल कट कर दिया।

    धीरे-धीरे वह पलटी,

    और उसकी नज़र दीवार पर टंगी उस तस्वीर पर जा टिकी…

    धैर्य की पहली पत्नी की तस्वीर।

    सजी हुई फ्रेम, फूलों की माला टंगी हुई…

    और उस तस्वीर में एक मुस्कुराती हुई धैर्य की पहली पत्नी।

    हां बेहद खूबसूरत थी वो।

    गोरे गालों पर हल्की गुलाबी रंगत,

    गहरी नीली आँखें… और होंठों पर एक स्थायी मुस्कान।

    पंखुड़ी चुपचाप उस तस्वीर को देखती रही।

    हाँ… कुछ ज्यादा ही सुंदर थी वो।

    लेकिन सबसे ज्यादा सुन्दर उसकी मुस्कान लग रही थी।

    चेहरा चमक रहा था।

    शायद इस चमक और सुन्दर सी मुस्कान के पीछे की वजह धैर्य का प्यार ही था।
    …और पंखुड़ी को वो चमक अब अपनी ज़िंदगी में कहीं नज़र नहीं आ रही थी।
    कमरे की उस हल्की सी पीली रौशनी में, वो तस्वीर जैसे खुद ब खुद बोल उठी हो —
    "धैर्य सिर्फ़ मेरा था…"




    कंटिन्यू.....

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  • 18. इश्क़ बिना चैन कहाँ - Chapter 18

    Words: 1887

    Estimated Reading Time: 12 min

    रात के ग्यारह बज चुके थे।

    कमरे में हल्का-सा अंधेरा था, सिर्फ़ बेड के पास वाली टेबल लैम्प जल रही थी। अंशी अब तक सो चुकी थी ,पंखुड़ी ने उसे खुद कहानी सुनाकर सुलाया था।

    लेकिन खुद पंखुड़ी की आँखों में आज नींद नहीं थी।
    वो खिड़की के पास बैठी थी ।


    देवकी मम्मी ने कहा था —
    "धैर्य तो दस बजे तक आ ही जाता है बेटा, तुम खाना मत रोकना।"

    लेकिन अब ग्यारह भी पार हो गया था…
    और दरवाज़े की घंटी अब तक नहीं बजी थी।

    पंखुड़ी की नज़र बार-बार मोबाइल स्क्रीन पर जाती —
    ना कोई मैसेज, ना कॉल।




    अब वो बस एकटक दरवाज़े की तरफ़ देख रही थी।
    आँखों में इंतज़ार था… और दिल में एक अजीब-सी बेचैनी।


    कल ही तो शादी हुई थी…

    और आज ही…
    धैर्य ने उससे ठीक से बात तक नहीं की।

    हाँ, उसे पता था कि धैर्य की ज़िंदगी में कोई और था,
    कोई जिसे वो सच में चाहता था।
    “लेकिन उसमें मेरा क्या कसूर?”
    उसने खुद से ही पूछा।

    वो तो बस… उससे थोड़ा-सा प्यार चाहती थी।
    थोड़ी-सी तवज्जो… थोड़ी-सी मुस्कान।

    "हर बार जब मैं हँसती हूँ धैर्य को देखकर, तो इसलिए नहीं कि कुछ मज़ेदार होता है...
    बस इसलिए कि अगर हम दोनों चुप रहेंगे तो किसी एक को तो कुछ कहना ही पड़ेगा, ना?"
    — ये बात उसके मन में ही गूंज रही थी।


    लेकिन बाहर से वो बस शांति से बैठी थी।
    वही पंखुड़ी जो पूरे दिन हँसती-खिलखिलाती है…
    इस वक्त एकदम चुप थी।

    तभी…

    “चर्र…”
    बाहर से गाड़ी की आवाज़ आई।

    उसका दिल जैसे उछल गया।
    “आ गया!”
    कहते हुए वो फुर्ती से उठी और हाल की तरफ़ भागी।

    रसोई में पहुंची और झट से गैस जलाकर खाना गर्म करने लगी।



    दरवाज़ा खुला।

    धैर्य अंदर आया ।

    पंखुड़ी ने झट से थाली में खाना परोसा —
    “बैठिए… मैं पराठा लाती हूँ…”

    धैर्य ने कोई जवाब नहीं दिया।
    बस कुर्सी खींचकर बैठ गया।

    पंखुड़ी उसके सामने थाली रखकर चुपचाप बैठ गई।
    कुछ पल तक दोनों के बीच बस चम्मच और थाली की आवाज़ें थीं।

    फिर पंखुड़ी ने धीमे से कहा —

    “आज थोड़ी देर हो गई… सब ठीक था न हॉस्पिटल में?”

    धैर्य ने एक नज़र उसकी तरफ़ देखा ..फिर थाली की तरफ़ झुकते हुए बोला,

    “हाँ। पेशेंट की हालत नाज़ुक थी… इसलिए लेट हो गया।”

    पंखुड़ी ने धीरे से सिर हिलाया।
    फिर, जैसे खुद को ज़बरदस्ती हल्का बनाने की कोशिश करते हुए मुस्कुराई —
    “मैंने ना… आज हमारा कमरा बहुत अच्छे से सजा डाला…”



    धैर्य ने एक कौर मुँह में डाला, फिर बस “हूँ।” कहकर चुप हो गया।

    पंखुड़ी का चेहरा फिर से थोड़ा फीका पड़ गया।

    उसने फिर भी हिम्मत जुटाकर बात आगे बढ़ाई —
    "और... वो जो बेडशीट थी... लाल रंग वाली, जो देवकी मम्मी ने दी थी… वो बिछाई है। आप देखोगे तो अच्छा लगेगा।"


    धैर्य ने इस बार भी कोई प्रतिक्रिया नहीं दी तो पंखुड़ी ने भी कुछ नहीं कहा।

    बस चुपचाप बैठकर उसे खाते हुए देखती रही।
    हर निवाले के साथ वो उसकी आँखों में कुछ ढूँढ रही थी..
    शायद… थोड़ा अपनापन।

    कुछ पल बाद धैर्य ने खाना ख़त्म किया और उठने लगा।

    पंखुड़ी ने जल्दी से कहा —

    “चाय बना दूँ? या… सो जाओगे?”

    धैर्य ने थके हुए लहजे में कहा,

    “बहुत थक गया हूँ… चाय नहीं। आराम करना है।”

    और वो सीधे कमरे की ओर बढ़ गया।

    पंखुड़ी वहीं किचन में खड़ी रही।
    उसने धीमे से थाली उठाई…


    थाली धोने के बाद,
    पंखुड़ी ने अपने भीगे हाथ आँचल से पोंछे,
    और धीमे कदमों से कमरे की ओर बढ़ गई।

    कमरे में हल्की-सी रौशनी थी,
    और वॉशरूम से पानी की आवाज़ आ रही थी।

    "शायद धैर्य अंदर है…"
    उसने मन में सोचा।

    पंखुड़ी ने गहरी सांस ली,आँखें बंद कीं…और चेहरे पर एक बड़ी-सी, बनावटी मुस्कान सजा ली।

    "चलो पंखुड़ी, आज तो मुस्कान से ही काम निकालना होगा…"
    उसने खुद से कहा।

    जैसे ही वॉशरूम का दरवाज़ा खुला,
    धैर्य बाहर आया...उसके बाल थोड़े गीले थे, आँखों में थकान साफ़ दिख रही थी।

    पंखुड़ी ने मुस्कराते हुए कहा —

    “अरे वाह! इतने फ्रेश लग रहे हो…
    बस अब आप बैठो, मैं सिर दबा देती हूँ…
    थोड़ी देर बातें करेंगे… आज का दिन तो थोड़ा खास है, है ना?”

    धैर्य ने एक पल उसकी तरफ़ देखा,
    फिर भौं सिकोड़कर बोला —
    “पंखुड़ी… प्लीज़…मैं सच में बहुत थक चुका हूँ।
    और तुम्हारे ये नाटक… ये सब बंद करो प्लीज़।”

    पंखुड़ी जैसे एक पल के लिए जड़ हो गई।लेकिन अगले ही पल उसने अपने चेहरे की मुस्कान और चमक को ऐसे संभाल लिया,
    जैसे कुछ सुना ही न हो।उसने सिर हल्का सा झटक कर बाल पीछे किए,
    फिर वही खिलखिलाहट लिए दो कदम आगे बढ़ी और धैर्य के एकदम सामने खड़ी हो गई।

    “ओह्हो! मतलब थक गए हो? कोई बात नहीं डॉ. साहब…
    थकावट की दवा तो आपके सामने खड़ी है।”
    उसने आँख मारते हुए कहा और एकदम फिल्मी अंदाज़ में गर्दन टेढ़ी कर दी।और धैर्य को ज़बरदस्ती बेड पर बैठा दिया।

    धैर्य ने विरोध में कुछ कहना चाहा —

    “पंखुड़ी प्लीज़… स्टॉप इट! मुझे बिल्कुल भी—”

    लेकिन इससे पहले कि वो पूरा बोलता,
    पंखुड़ी ने उसके दोनों कंधे नीचे दबा दिए और चट से उसके पीछे आकर बैठ गई।

    “बस अब चुपचाप बैठिए… डॉक्टर लोगों की भी देखभाल होनी चाहिए, समझे?”

    धैर्य ने आँखें तरेर कर पीछे मुड़ने की कोशिश की —

    “पंखुड़ी ये बचपना मत करो—”

    “शश्श… डॉक्टर साहब!”
    उसने कान के पास धीमे से कहा,
    “बोलना मना है।"

    उसने अपने मुलायम हाथों से उसके सिर की मालिश शुरू कर दी ।

    धैर्य अब पूरी तरह खीझ चुका था।

    उसने हाथ पकड़ने की कोशिश की —
    “पंखुड़ी! क्या ज़बरदस्ती है ये? मुझे कोई सिरदर्द नहीं है!”

    पंखुड़ी ने बिना रुके बोली —

    “अरे,क्या दर्द नहीं है? आप जानते नहीं मेरी सेवा से आप बिल्कुल ठीक हो जाएंगे... वैसे भी… मैं बहुत काबिल बीवी हूँ!”

    धैर्य गुस्से में उठा —
    “यू आर जस्ट… अनबिलीवेबल!”

    पंखुड़ी उसकी तरफ़ घूमकर खड़ी हो गई, हाथ कमर पर टिकाए हुए बोली —
    “बिल्कुल! और इस ‘अनबिलीवेबल’ बीवी के साथ तुम्हें रहना है ज़िंदगीभर।
    तो इतनी जल्दी हार मानने लगे हो क्या?”


    धैर्य ने आँखें घुमाईं,
    “सीरियसली पंखुड़ी, थक चुका हूँ… और तुम—”

    “और मैं??”
    उसने दोनों भौं चढ़ा लीं।
    “मैं क्या कर रही हूँ? बस हँस रही हूँ, थोड़ा मन हल्का कर रही हूँ…
    क्योंकि अगर मैं भी तुम्हारी तरह हर वक्त मुंह लटका लूं ना,
    तो इस घर में कोई भी नहीं बचेगा।”

    धैर्य कुछ पल के लिए चुप हो गया।

    पंखुड़ी ने फिर से उसकी ओर सिर झुकाया और मुस्कुराकर बोली —
    “देखो ना… आज हमारा पहला दिन है एक साथ।
    तुम तो ऐसे बर्ताव कर रहे हो जैसे सौ साल पहले से हमारी शादी हो चुकी हो।थोड़ा तो रोमांस का माहौल बनाओ डॉक्टर साहब… बीवी नई है, इलाज पुराना क्यों कर रहे हो?”

    धैर्य का चेहरा अब भी कठोर ही था।

    पंखुड़ी ने मुस्कराकर अपनी उंगलियाँ उसके सिर पर दोबारा रख दीं और कहा —

    “अब ज़िद नहीं चलेगी।
    या तो खुद से हँस लो… या मेरी बातों पर हँस लो।
    लेकिन चुप रहकर नहीं बच सकते।”

    धैर्य ने फिर से कुछ कहने के लिए मुँह खोला लेकिन उसकी आवाज़ नहीं निकली।

    उसने सिर झुका लिया।

    और पंखुड़ी…
    अब भी हँस रही थी।

    लेकिन इस बार उसकी हँसी में एक अजीब-सी दृढ़ता थी —
    जैसे वो कह रही हो —"तुम्हारी खामोशी को भी मैं मुस्कान में बदल लूंगी… चाहे जितनी बार लग जाएं।"


    धैर्य के सिर पर पंखुड़ी की उँगलियाँ अब भी चल रही थीं,
    लेकिन उसकी आँखें…वो अब कहीं और अटक चुकी थीं।
    धीरे-धीरे…
    एक चेहरा उसकी आँखों के सामने धुंधला-सा उभरा…

    अंशिका।
    उसकी अंशु।

    जिसकी हँसी भी वैसी ही थी एकदम जिद्दी सी..चुलबुली सी और बहुत प्यारी सी।

    वो भी यूँ ही उसकी थकान उतारने की ज़िद किया करती थी।
    अक्सर जब धैर्य जानबूझकर उससे नज़रें चुराता,
    वो और भी ज़्यादा सिर पर चढ़ जाती।

    “देखो धैर्य, या तो मुझे प्यार से बुलाओ… या मैं तुम्हारे बाल खींच दूँगी!”— अंशिका की वो पुरानी बात उसके ज़हन में जैसे गूंज उठी।

    धैर्य का सीना एक पल के लिए भारी हो गया।

    उसकी उँगलियाँ अनजाने में मुट्ठी में बदलने लगीं।
    वो यादों की उस गली में चला गया जहाँ अंशिका उससे रूठी हुई थी ...बस यूँ ही,क्योंकि धैर्य ने उसे कोई "थैंक यू" नहीं कहा था, जबकि वो सिर दबा रही थी।

    “तुम्हें पता है ना धैर्य,
    मुझे तुम्हारे ‘थकने’ से नहीं,
    तुम्हारे ‘चुप’ रहने से डर लगता है…”— उसकी अंशिका ने ये तब कहा था।

    आज… वही बात पंखुड़ी की आँखों में उतर आई थी।

    बस फर्क ये था…

    तब वो जानबूझकर अंशु को तंग करता था… ताकि वो कुछ कहे,
    आज वो सच में थका हुआ था…
    लेकिन फिर भी आज पंखुड़ी बहुत कुछ कह रही थी।

    धैर्य ने हल्के से आँखें बंद कर लीं।

    पंखुड़ी की हँसी अब भी चल रही थी,
    लेकिन धैर्य को सुनाई दे रही थी किसी और की।

    “डॉ. साहब…
    अगर आप हर बार ऐसे ही थक के आओगे,
    तो मुझे हर दिन आपको मसाज देना पड़ेगा!
    सोच लो… ये डील पक्की है।”—ये बात अक्सर अंशिका हँसते हुए कहती थी।

    धैर्य ने गहरी साँस ली।

    फिर अचानक उसने पंखुड़ी की कलाई पकड़ ली।

    पंखुड़ी चौंक गई।

    धैर्य की आँखों में अब भी अंशिका की परछाईं थी।

    “तुम्हें नहीं करना चाहिए ये सब…”
    धैर्य ने धीमे से कहा,
    “मैं… मैं शायद कभी तुम्हें वो नहीं दे पाऊँ जो तुम चाहती हो।”

    पंखुड़ी की मुस्कान कुछ पल को सिहर गई।

    लेकिन फिर उसने धीरे से अपनी हथेली धैर्य की हथेली पर रख दी…


    धैर्य ने जैसे ही उसकी तरफ़ देखा,
    पंखुड़ी की आवाज़ बहुत ही स्थिर और साफ़ आई —

    “मैं वर्तमान में जीती हूँ धैर्य।”

    धैर्य कुछ कहने ही वाला था, लेकिन पंखुड़ी ने अपनी बात आगे बढ़ा दी —
    “न मुझे तुम्हारे पास्ट से मतलब है… न तुम्हारे फ़्यूचर से।
    पास्ट… बीता हुआ कल है।
    और फ्यूचर… आने वाला कल।
    इन दोनों में मेरा कोई यक़ीन नहीं।
    क्योंकि… फ्यूचर का क्या भरोसा धैर्य?”

    उसने गहरी नज़रें उसकी आँखों में डालीं —
    “कब कौन… कहाँ चल पड़े, किसे क्या हो जाए… कुछ नहीं पता।पर आज, इस पल, मै तुम्हारी हूं और यही मेरा सच है।”


    धैर्य की आँखों में नमी-सी तैरने लगी थी…
    शायद इस तरह की ईमानदारी से सामना हुए उसे बहुत वक़्त हो गया था।

    पंखुड़ी ने उसके हाथ को थामे रखा और धीमे से मुस्कुराई —
    “देखो… तुम्हारे अतीत में कोई था, जिसे तुमने बहुत चाहा।
    और हो सकता है… आज भी हो।
    मैं उससे लड़ने नहीं आई।
    मैं तो बस ये जानती हूँ कि अगर तुम्हारा आज,
    थोड़ा भी मेरी तरफ़ देखता है…
    तो मैं उसे पूरी शिद्दत से अपना बना लूंगी।”

    धैर्य की पलकें थम गईं।
    उसने जैसे पहली बार उस लड़की को ध्यान से देखा
    जो चुलबुली भी थी, मासूम भी… लेकिन उतनी ही मजबूत भी।

    "मैं तुम्हारी बीती ज़िंदगी नहीं बदल सकती धैर्य,"
    पंखुड़ी ने धीमे से कहा,
    "लेकिन हाँ… अगर तुम चाहो, तो मैं तुम्हारे आज को इतना खूबसूरत बना सकती हूँ…
    कि तुम्हें अतीत याद ही न आए।”

    कमरे में एक लंबी चुप्पी फैल गई।

    धैर्य की पकड़ उसकी कलाई पर अब हल्की हो गई थी…
    वो कुछ कहना चाहता था… लेकिन शब्द नहीं मिले।

    तभी…

    पंखुड़ी ने मुस्कुराकर उसके बालों में हाथ घुमाया…
    और एक नटखट बच्ची की तरह उसके पूरे बाल बिखेर दिए।

    धैर्य चौंककर उसकी ओर देखने ही वाला था कि पंखुड़ी ने झट से अपनी उंगली उसकी नाक पर टिकाते हुए कहा —

    "अब इतना सीरियस फेस मत बनाओ यार…"







    कंटिन्यू.....



    आगे क्या होगा जानने के लिए अगले भाग का इंतजार करें....

  • 19. इश्क़ बिना चैन कहाँ - Chapter 19

    Words: 1619

    Estimated Reading Time: 10 min

    अगली सुबह…

    घड़ी की सुई में अभी ठीक 6 बजे थे,
    और पंखुड़ी…आज कल वाली गलती दोहराना नहीं चाहती थी।

    वो एक लम्बी जम्हाई लेकर उठ गई।

    "उफ्फ... नींद तो अब भी आँखों में बसी है...
    पर नहीं! आज कोई 'लेट उठने' वाला ताना नहीं चाहिए मुझे।"
    उसने खुद से कहा और फटाफट बिस्तर से नीचे उतर गई।

    जल्दी से बाथरूम में नहाने घुस गई।
    नहाने के बाद जल्दी से केसरिया रंग की साड़ी पहन ली।
    बालों को ढीले जूड़े में समेटा, सिंदूर की हल्की सी लकीर माथे पर खींची और कान में छोटे से झुमके पहन लिए। गले में मंगलसूत्र डाल लिया।

    सजने-संवरने में उसे ज्यादा देर नहीं लगी, और हर बार की तरह आज भी वो  परफेक्ट ही लग रही थी।

    उधर… सोफे पर धैर्य गहरी नींद में सो रहा था।


    पंखुड़ी तैयार होकर कमरे से निकलने लगी,
    लेकिन एक बार फिर मुड़कर  उसने उसे देखा —
    "उफ्फ… कितना सुंदर है ये इंसान…"
    उसने धीमे से खुद के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा,
    "सारा नजर उतार लूँ वरना मेरी ही नज़र लग जाएगी!"


    अंशी अब भी बेड पर बेसुध सो रही थी...पंखुड़ी एक पल को उसे भी देखती रही,
    फिर मुँह में "awww" दबाकर सीढ़ियों की ओर बढ़ गई।

    हॉल में सब शांत था।
    वो सीधे मंदिर वाले कमरे में चली गई।

    दीपक में घी डाला, अगरबत्ती जलाई और भजन गाना शुरू कर दिया।


    उसके  भजन की वो धीमी और मधुर लहरें
    धीरे-धीरे पूरे घर में फैलने लगीं।

    उधर देवकी जी की आँख खुली।धीमे-धीमे भजन की आवाज़ सुनकर वो कुछ पल ऐसे ही लेटी रहीं।
    "किसकी आवाज़ है ये इतनी प्यारी सी...?पंखुड़ी की ?"


    दूसरी तरफ, धानी के कमरे में माहौल कुछ और ही था ..वो तकिये से सिर दबाए गुस्से में बड़बड़ा रही थी —"हे भगवान! कौन है ये जागरूक देवी!सुबह-सुबह ऐसे सुर लगाकर नींद खराब कर दी मेरी… ये बहुएं भी ना!"

    उधर धैर्य भी उठ चुका था।भजन की आवाज़ उसके कानों में भी पड़ रही थी लेकिन सबसे अजीब बात ये थी कि… आज की ये आवाज़ कुछ अलग लग रही थी उसे ।ना ज़्यादा ऊँची… ना ज़्यादा धीमी…बस… दिल को छूने वाली।

    "ये पंखुड़ी ही है?"
    उसने मन में ही सोचा,
    और फिर सीधे वॉशरूम में घुस गया।


     
    उधर… धानी का पारा उबल रहा था।
    वो तकिए से सिर निकालते हुए झल्लाकर उठी।

    “हे भगवान!! ये क्या आफत है सुबह-सुबह?
    नींद हराम कर रखी है  उस संस्कारी भूतनी ने!”

    वो पैर पटकते हुए अपने रूम से बाहर निकली और मंदिर की ओर बढ़ी।

    जैसे ही मंदिर के पास पहुँची, देखा कि पंखुड़ी भजन में मग्न बैठी है।


    लेकिन धानी की तो जैसे कोई आग जल रही थी अंदर…

    “ओए!!”
    उसने ज़ोर से आवाज़ लगाई —
    “बंद कर न ये बेसुरी आवाज़!
    कान के पर्दे फाड़ रही है तेरी सुबह-सुबह की सुर-ताल से बेखबर सिंगिंग!”

    पंखुड़ी की आँखें धीरे से खुलीं। लेकिन उसने कोई जवाब नहीं दिया…बस धीमे से अगरबत्ती को सीधा किया, और भजन पूरा करने लगी।

    लेकिन तभी…

    “धानी!!”
    पीछे से तेज़ और तीखी आवाज़ आई।

    धानी चौंक गई ..पीछे मुड़ी तो देवकी जी वहाँ खड़ी थीं।

    “शर्म नहीं आती तुम्हें?सुबह-सुबह भगवान के नाम पर हो रहा भजन भी सहन नहीं होता तुमसे?”

    धानी ने घबराकर कहा —“पर मम्मी… ये आवाज़… ये तो...”

    “आवाज़ मधुर है या बेसुरी, ये बात नहीं है धानी!
    बात ये है कि ज़ुबान तुम्हारी बेसुरी होती जा रही है।”

    “लेकिन मम्मी, ये तो बस दिखावा कर रही है…”
    धानी ने दबी आवाज़ में कहा।


    “पंखुड़ी तुम्हारी भाभी है धानी!इस घर में नई है… लेकिन जितनी जल्दी इस घर के रंग में ढल रही है, उतनी जल्दी तुम भी कुछ सीख लो।हर बात में जलन, हर बात में ताना…ये आदतें अच्छी नहीं होतीं बेटा।”

    धानी की आँखें शर्म से नीचे झुक गईं।

    “और हाँ…”देवकी जी ने और ठहरकर कहा —“सुबह-सुबह जो घर में भजन गूंजता है न,वो घर के लिए बरकत लाता है।
    और उस आवाज़ में कितनी भावना है, ये सुनने वाला समझता है।क्योंकि भक्ति आवाज़ से नहीं… मन से होती है।”

    पंखुड़ी अब तक चुपचाप खड़ी थी, सिर झुकाए।

    देवकी जी ने उसकी तरफ़ देखा, और हल्के से मुस्कुराईं —
    “जा बेटा… आरती पूरी कर।आज तो तुझमें जैसे खुद लक्ष्मी उतर आई हो।”



    जैसे ही देवकी जी वहाँ से चली गईं,पंखुड़ी ने चुपचाप फिर से हाथ जोड़े और आँखें बंद कर लीं।


    लेकिन धानी की साँसें अब तेज़ थीं… चेहरा खीज से भरा हुआ।
    उसे उम्मीद नहीं थी कि माँ उसी पर इस तरह फटकार लगा देंगी,और ऊपर से… उसकी प्यारी-सी ‘नकली’ भाभी…
    अब देवी का दर्जा भी पा चुकी है!

    भजन पूरा हुआ।

    पंखुड़ी ने जैसे ही आँखें खोलीं,उसकी नज़र सामने खड़ी धानी पर गई  जो अब भी एक कोने में खड़ी, मुँह फुलाए हुए थी।

    पंखुड़ी ने धीरे से सिर उठाया……और बस एक हल्की-सी, तिरछी मुस्कान दे  दी उसे।


    धानी को एक पल को समझ ही नहीं आया ये हँसी थी, चुनौती थी, या ‘देखा?’ कहने वाला स्टाइल?

    उसने घूर कर देखा, लेकिन कुछ कह न सकी।

    पंखुड़ी ने उस मुस्कान के साथ थाली उठाई  बोली —
    “अरे! प्यारी धानी ननद जी… आप कब आईं?”


    धानी मुँह बनाते हुए पलटी,
    “झूठी मुस्कान की दुकान…!”
    धीरे से बड़बड़ाई और पैर पटकती हुई अपने कमरे की तरफ़ चल पड़ी।


    पंखुड़ी वहीं खड़ी रही,और उसकी मुस्कान अब और गहरी हो गई थी।



    पंखुड़ी अब मंदिर की सफ़ाई करके जैसे ही थाली उठाकर मुड़ी, तभी सीढ़ियों से धैर्य उतरता दिखाई दिया ...उसकी
    गोद में प्यारी-सी, अंगड़ाई लेती हुई अंशी थी। उसकी आँखें अभी पूरी खुली भी नहीं थीं, और वो अपनी छोटी-सी उँगलियों से धैर्य की कॉलर पकड़कर मुँह छुपाए गोद में सिमटी हुई थी।


    पंखुड़ी की नज़र उस पर पड़ते ही जैसे फट से मुस्कान खिंच गई।


    वो तेज़ी से आगे बढ़ी और उसने मुस्कुराते हुए अंशी को अपनी गोद में ले लिया।
    अंशी ने आँखें मिचमिचाकर उसे देखा, फिर तुरंत उसकी गर्दन में बाँहें डाल दीं और धीरे से सिर टिकाकर बोली —
    “मम्मा…”

    धैर्य ने एक नज़र उन दोनों पर डाली, कुछ पल ठहरकर, फिर बिना कुछ कहे सीधा मंदिर की ओर बढ़ गया।

    कुछ देर बाद....

    सभी लोग डाइनिंग टेबल पर बैठे नाश्ता कर रहे थे।
    देवकी जी ने अपने सामने बैठे राज जी को पराठा पकड़ाया और कहा —
    "आज तो बड़ी सुगंध आ रही है पराठों की । लगता है लक्ष्मी जी आज खुद आकर रसोई में बैठी थीं!"

    राज जी मुस्कुरा दिए, “हमें तो बस खाने से मतलब है… कौन भजन गा रहा था और कौन ताना मार रहा था, वो सब घर की औरतें निपटा लें।”

    इतना कहते ही सबके चेहरे पर एक हल्की मुस्कान दौड़ गई… सिवाय धानी के।


    पंखुड़ी चुपचाप अपनी प्लेट में पराठा तोड़ रही थी, लेकिन उसकी नजरें…एकटक धैर्य को देखे जा रही थीं।

    पर धैर्य बिल्कुल शांत भाव से खाना खा रहा था।ना तो उसने किसी से बात की,ना ही पंखुड़ी की ओर देखा।जैसे कुछ हुआ ही नहीं।


    वहीं…
    धानी की नजरें लगातार पंखुड़ी पर टिकी थीं।
    हर बार जब पंखुड़ी की मुस्कान ज़रा भी उभरती, धानी का खून और खौल उठता।

    "हम्म्फ! ये तो बिल्कुल नाटकबाज़ निकली... पर मैं भी धानी हूँ... इतनी आसानी से नहीं हार मानने वाली,"
    उसने मन ही मन सोचा और गिलास को ज़ोर से टेबल पर रखा।

    “धप्प!”
    आवाज़ सबको सुनाई दी।

    देवकी जी ने चौंककर उसकी तरफ़ देखा —
    “धानी, सब ठीक है?”

    धानी ने तुरंत बनावटी मुस्कान ओढ़ ली —
    “हाँ मम्मी… बस… गिलास फिसल गया था।”

    पंखुड़ी ने बिना बोले एक नज़र उसकी तरफ डाली।
    फिर नज़रें घुमा लीं।
    लेकिन धानी का चेहरा अब और भी गुस्से से भर गया था।

    तभी…

    हॉल से किसी की आवाज़ गूंजी —
    "नमस्ते अंकल! नमस्ते देवकी आंटी!"

    सबकी नज़रें हॉल की ओर मुड़ गईं।
    वह खड़ा था उमंग।


    देवकी जी ने मुस्कुराकर कहा —
    "अरे उमंग बेटा! आ जा इधर।"

    वो अंदर आया, हाथ में एक लिफाफा था।
    उसने देवकी जी को थमाते हुए कहा —
    "आज शाम को हमारे घर गणेश पूजन है आंटी…
    आप सब लोग पधारिएगा।"


    फिर उसने धीरे से पंखुड़ी की तरफ़ देखा...जिसकी नजरे धैर्य कर ही टिकी हुई थी।

    धानी ने नोटिस किया।उसका चेहरा पहले से ही सुलग रहा था, और अब तो जैसे उसमें और अंगारे पड़ गए।

    "चलो अच्छा लगा सुनकर… ज़रूर आएंगे।"
    देवकी जी ने कहा।

    उमंग ने सिर हिलाया, फिर धीरे से धैर्य की ओर देखा —
    जो अब भी चुपचाप खाना खा रहा था।

    "भैया नमस्ते।"
    उसने कहा।

    धैर्य ने बस हल्के से गर्दन हिला दी, जैसे सिर्फ़ फॉर्मैलिटी निभा रहा हो।

    उमंग एक पल के लिए ठिठक गया।
    फिर धीरे से मुड़ा, लेकिन जाते-जाते एक आखिरी बार पंखुड़ी की ओर नज़र डाल ही दी।

    “अरे उमंग, बैठो न बेटा थोड़ी देर… नाश्ता साथ में कर लो।”
    देवकी जी ने कहा।

    “नहीं आंटी,”
    उसने मुस्कुराकर कहा, “बस ये न्योता देने आया था… और…”
    वो एक पल के लिए पंखुड़ी की ओर देखकर रुका,
    फिर खुद को संभालते हुए बोला —
    “अब चलूँ, मम्मी अकेली तैयारियाँ कर रही होंगी।”

    “ठीक है बेटा… शाम को मिलते हैं।”

    उमंग चला गया।

    जैसे ही उमंग दरवाज़े से बाहर निकला,धानी की नज़रें उसके पीछे ठहर गईं…

    वो कुछ पल ऐसे ही बैठी रही, फिर…उसके चेहरे पर एक अजीब-सी मुस्कान फैल गई।


    “तो जनाब अब भी वहीं अटके हुए हैं…”उसने मन ही मन कहा।

    फिर वो अचानक उठी,अपनी प्लेट वहीं छोड़ दी,देवकी जी कुछ कहतीं उससे पहले ही वो बोल पड़ी —"मम्मी, मैं अभी आती हूँ… थोड़ा वॉक पर जा रही हूँ।"

    देवकी जी ने हैरानी से कहा, “इतनी जल्दी? और अभी तो…”

    "हवा लेने जा रही हूँ मम्मी!"उसने बिना उनकी बात सुने जवाब दिया और तेज़ी से बाहर निकल गई।


    उधर बाहर गली में…

    उमंग अपनी बाइक के पास पहुँच ही रहा था कि पीछे से आवाज़ आई —

    “ओ हेलो मिस्टर दिलजला!”

    उमंग चौंक कर पलटा —
    धानी हाथ जोड़कर मज़ाकिया अंदाज़ में मुस्कुरा रही थी।

    “अरे धानी! तू? ”





    कंटिन्यू.....



    आगे क्या होगा जानने के लिए अगले भाग का इंतजार करें....

  • 20. इश्क़ बिना चैन कहाँ - Chapter 20

    Words: 1314

    Estimated Reading Time: 8 min

    शाम को…


    धैर्य, पंखुड़ी, अंशी और देवकी जी अपने परिवार के साथ उमंग के घर पहुँच चुके थे।

    उमंग ने सबका आदर-सत्कार किया,
    देवकी जी को नमस्ते किया, अंशी के गाल खींचे…
    पर उसकी नज़र हर पल पंखुड़ी पर ही टिकी हुई थी।


    पंखुड़ी ने हल्की मुस्कान से उसका अभिवादन स्वीकार किया,
    लेकिन जानबूझकर उससे नज़रे चुराती रही।

    धानी सब देख रही थी… और धीरे से मुस्कुरा रही थी।

    “शिकारी अब जाल बिछा रहा है…”
    उसने मन ही मन कहा।

    पूजा शुरू हो चुकी थी।
    पंडित जी मंत्रोच्चारण कर रहे थे,
    सभी हाथ जोड़कर बैठे थे।

    पंखुड़ी अंशी को अपनी गोद में लिए शांत बैठी थी।
    धैर्य उसके बगल में बैठा था।


    उसी समय…
    धानी, जो पंखुड़ी के ठीक पीछे बैठी थी,
    धीरे से आरती की थाली में रखा तेल का दीपक उठाने का बहाना करती है।

    और फिर…

    "छपाक!"

    तेल सीधे पंखुड़ी की साड़ी पर गिर गया।

    सारे लोग चौंक उठे।

    “अरे!” देवकी जी की आवाज़ आई,
    राज जी भी एकदम खड़े हो गए।

    पंखुड़ी झटके से उठी,अंशी को बचाते हुए साड़ी के गीले हिस्से को देखती रही।


    “ओह सॉरी भाभी!”धानी ने बनावटी मासूमियत से कहा —
    “पता ही नहीं चला कब ...हाथ से फिसल गया …”


    देवकी जी कुछ बोलतीं, उससे पहले ही —“पंखुड़ी जी , आप ठीक तो हैं?”उमंग तुरंत उठकर पंखुड़ी की तरफ़ आया।
    उसने जल्दी से अपनी रुमाल जेब से निकाली और कहा —“एक मिनट, रुकिए… मैं साफ कर देता हूँ।”

    वो पंखुड़ी की साड़ी के कोने को पकड़ ही रहा था कि —“रहने दो।”

    एक भारी आवाज़ आई… वो आवाज धैर्य की थी।


    धैर्य ने एक नज़र उमंग की ओर देखा फिर वो उठकर खड़ा हुआ,और बिना कुछ बोले पंखुड़ी की साड़ी का वह हिस्सा धीरे से पकड़कर अलग कर दिया,जहाँ तेल गिरा था।

    “अंशी को मुझे दो…”उसने धीरे से कहा।पंखुड़ी ने बच्ची को उसकी गोद में दे दिया।

    धैर्य ने फिर साड़ी को हल्के से मोड़ा और कहा —
    “चलो घर चल कर, बदल लेना… मैं अंशी को संभाल लूंगा।”


    पंखुड़ी ने चुपचाप उसकी बात मानी।


    उधर… धानी धीरे से बुदबुदाई —
    “अरे वाह… हीरो बनकर आ गए भैया…पर खेल अभी खत्म नहीं हुआ।”

    उमंग वहीं खड़ा रह गया…


    देवकी जी ने सख्त लहजे में कहा —“धानी! थोड़ी सावधानी रखा करो बेटा।तेल जल भी सकता था किसी को।”

    “मां! मैंने जान-बूझकर थोड़ी किया था…!”उसने मुँह फुलाकर कहा, लेकिन अब तर्क की कोई जगह नहीं बची थी।


    पंखुड़ी कुछ कदम चल चुकी थी… लेकिन उसके कदम धीरे-धीरे थम गए।दरवाज़े से बाहर निकलने से पहले, उसने एक बार पलटकर देखा…

    वो वहीं था… धैर्य।
    अंशी को गोद में सँभाले, शांत बैठा हुआ।
    चेहरे पर कोई खास भाव नहीं था… पर आँखों में थी एक चुप्पी जो किसी को चोट लगने पर भी कुछ नहीं कहती,बस संभालना जानती है।

    पंखुड़ी के चेहरे पर थकी सी मुस्कान तैर गई।

    "काश..."उसके मन ही मन धीरे से कहा,
    "काश तुम समझ पाते कि तुम्हारी यही चुप्पी… मेरे लिए सबसे ऊँची आवाज़ है।"

    कुछ पल खामोशी में बीते।फिर पंखुड़ी ने अपनी साड़ी को ठीक किया और दोबारा धीरे से आगे बढ़ गई।


    अपने कमरे में…

    पंखुड़ी अब अपने आप से बातें कर रही थी, वो साड़ी तो बदल ही रही थी, पर ध्यान वहीं था अपने पति धैर्य पर।

    "सबके सामने मेरा हाथ पकड़ना,साड़ी सम्हालना, अंशी को गोद में लेना,किसी को कुछ न कहकर भी सब कह देना..."

    वो धीरे से मुस्कुरा दी।

    "कहाँ छिपाकर रखते हो तुम अपना प्यार?और क्यों नहीं कह पाते हो कुछ?कभी तो… बस इतना कह दो ... कि मैं तुम्हारी हूँ।"



    उधर उमंग के घर में...

    धैर्य अब भी अंशी को गोद में लिए बैठा था।उसकी नज़रे सामने थीं, लेकिन दिमाग…शायद पंखुड़ी के पीछे ही चल दिया था।

    उसे याद था वो लम्हा… जब उमंग पंखुड़ी के करीब आया था।
    उसका साड़ी छूना…और धैर्य की अपनी जगह से उठकर बीच में आना ...शायद वो खुद नहीं समझ पाया कि क्यों किया उसने ऐसा ।

    "क्यों परेशान हो गया था मैं?"उसने खुद से पूछा।
    "क्या फर्क पड़ता है… अगर कोई पंखुड़ी की मदद कर रहा था?"





    उसी वक़्त…

    पंडित जी अब आरती की तैयारी कर रहे थे,
    देवकी जी और बाकी लोग फिर से पूजा में ध्यान लगाने लगे थे।

    पर एक कोने में…
    उमंग और धानी के बीच एक अलग ही ‘आरती’ चल रही थी।

    उमंग ने गुस्से में धानी का हाथ पकड़ा और उसे एक तरफ ले गया, रसोई के पास की खाली जगह में।

    “तू पागल है क्या धानी?जानबूझकर किया न तूने ये सब?”


    “ओए! मुझसे इस टोन में बात मत कर समझा?”फिर वो थोड़ा और पास आई और दबी आवाज़ में बोली —“और तू कौन होता है मुझसे पूछने वाला, हाँ?”

    उमंग ने उसकी बात अनसुनी करते हुए कहा —“तू जानती है पंखुड़ी को चोट भी लग सकती थी… उस पर अगर आग लग जाती तो?”


    उमंग के सवाल पर वह ज़रा भी नहीं हिली।

    बल्कि…धीरे से होंठ टेढ़े करते हुए बोली —“तो लग जाती तो अच्छा रहता ना…कम से कम उस पंखुड़ी की ये नकली छवि तो जलकर राख हो जाती।”

    उमंग एक पल को सन्न रह गया।

    “धानी!”उसने गुस्से में कहा,“तू इस हद तक गिर जाएगी, मैंने कभी नहीं सोचा था।”

    "हद तक गिरने की बात तो तू मत ही कर उमंग…गिरा हुआ तो तू है…! हाँ, तू!"

    उसने उसकी छाती पर हल्का धक्का देते हुए कहा —“किस चीज़ की कमी रह गई तुझमें कि तुझे उसमें अच्छाई दिखने लगी?”


    उमंग ने भौंहें तानीं —“धानी, तू लाइन क्रॉस कर रही है।”

    “ओह प्लीज़!लाइन तो कब की पंखुड़ी ने क्रॉस की थी, कॉलेज के दिनों में… याद है न?”

    उमंग अब भी कुछ नहीं बोला।

    “क्या ही पसंद है तुझे उसमें, हाँ?”धानी ने थोड़ा और झुककर कहा —"चल, मैं तुझे एक से बढ़कर एक लड़की दिखा दूँगी... स्टाइलिश, मॉडर्न, क्लासी एकदम तेरे लायक!"



    "पर नहीं... तू तो उस झूठी दिखावा करने वाली के पीछे पागल है। जिसका हर 'संस्कार' बस एक ड्रामा है।"

    उमंग ने गुस्से में मुँह फेर लिया —"बस कर धानी…"

    पर धानी अब रुकने वाली नहीं थी।
    वो और पास आकर लगभग उसके चेहरे के पास आकर बोली —"जानता है न तू... कॉलेज में कैसी थी वो?रातों को किसके साथ पार्टी करती थी, किसके बाइक पे घूमती थी, किससे मैसेजेस में 'बेबी-बेबी' करती थी सब कुछ पता है मुझे! पर तेरे जैसे बेवकूफ लड़कों को ही तो इसी लड़कियां पसन्द आती है न।"

    उमंग की मुट्ठियाँ कस गईं।
    वो दो कदम पीछे हटा और बेहद कड़े लहजे में बोला —"तो फिर करवा दे न डिवोर्स उससे तेरे भैया का! अगर इतनी ही बुरी, गिरी हुई, दिखावटी है वो… तो जा, बोल दे अपने घरवालों से! कह दे कि तू नहीं चाहती कि तेरे 'संस्कारी भैया' के साथ वो लड़की एक पल भी रहे!"

    धानी का चेहरा एक पल के लिए सख्त हो गया।


    "और अगर तेरे पास इतने ही सबूत हैं… तो जा, दे दे सबके सामने — देवकी आंटी को, राज अंकल को, यहाँ तक कि धैर्य भैया को भी!बता दे सबको कि वो कैसी थी, और कैसे वो अब भी तेरे दिल में काँटे की तरह चुभती है!"
    फिर वो आगे बोला—"और क्या कर लेगी तू, हाँ?"
    वो लड़की तेरे भाई की पत्नी है… और तेरे घर की बहू भी!अब अगर तू उसके खिलाफ बोलेगी न तो सवाल तेरे ऊपर भी उठेंगे!"

    धानी का चेहरा अब पीला पड़ने लगा था।

    "क्या सोचती है तू? कि एक सच्चाई से तू सबकुछ बिगाड़ देगी? अरे नहीं होगा कुछ...उल्टा सब लोग तुझसे पूछेंगे एक लड़की होकर तूने क्यों अपने घर की इज़्ज़त मिट्टी में मिलाने की कोशिश की?क्यों तूने अपने ही भाई की शादीशुदा ज़िंदगी तोड़ने की साज़िश रची?"

    "बोलो धानी!हिम्मत है तो कर न सबके सामने उसका पर्दाफाश!"

    धानी अब थरथराने लगी थी। उसके होंठ काँप रहे थे, पर शब्द नहीं निकल पा रहे थे।

    उमंग ने एक अंतिम वार किया —"जो आग तू दूसरों के लिए जलाना चाह रही है, धानी… ध्यान रखना, उस आग में सबसे पहले तू ही जलेगी।"

    फिर उमंग तेज़ी से वहाँ से चला गया।






    कंटिन्यू.....



    आगे क्या होगा जानने के लिए अगले भाग का इंतजार करें....