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बेशर्म इश्क़

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Sunita Sood

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अखिल ने कहा,तुम मेरी रखैल हो, इतना बोल उसने रैना के हाथ बेड के सिरहाने से बांध दिये और खुद उसके ऊपर आ गया | रैना चिख चिल्ला रही थी तभी अखिल ने उसकी साड़ी सीने से उतार दी | "रैना शर्मा की जबरन शादी… एक ऐसे इंसान से, जिसे प्यार से नफ़रत...

Total Chapters (232)

Page 1 of 12

  • 1. बेशर्म इश्क़ - Chapter 1

    Words: 2248

    Estimated Reading Time: 14 min

    दरवाज़े की हर चरमराहट पर उसकी आँखें उसी ओर उठ जाती थीं। हाथों में दूध का गिलास था — कांपता हुआ, जैसे दिल की बेचैनी उसकी हथेलियों तक उतर आई हो।

    अचानक… दरवाज़ा खुला।

    वो आया — उसके सपनों का नहीं, उसके नाम का पति। भारी-भारी कदमों से कमरे में दाख़िल हुआ, जैसे इस रिश्ते का बोझ पहले ही उठा चुका हो। बिना एक शब्द कहे, उसने लड़की के हाथ से दूध का गिलास लिया और खुद पीने लगा।

    एक पल के लिए लड़की के चेहरे पर एक सुकून-सा उभरा — शायद आज कुछ बदलेगा?

    लेकिन नहीं।

    अगले ही पल, उसने लड़की की कलाई पकड़ी और जबरदस्ती वही गिलास उसके होठों से लगा दिया।

    "पी इसे!" उसकी आवाज़ में न तो प्यार था, न अपनापन — बस हुक्म और नफरत।

    लड़की घबरा गई, उसकी आँखें डबडबा गईं। उसने सिर हिलाकर मना किया, लेकिन तब तक देर हो चुकी थी। दूध का स्वाद अजीब था… कुछ ऐसा जैसे कड़वाहट अब सीधे उसके सीने में उतर रही हो।

    लड़की लड़खड़ाकर पलंग पर गिर गई। उसे लगा जैसे सबकुछ धुंधला हो रहा है।

    तभी वो झुका, उसके कानों में ज़हर-सी फुसफुसाहट की तरह बोला —

    "तुझे क्या लगा? कि मैंने तुझसे प्यार करके शादी की है?"

    "यह शादी मेरी मजबूरी थी… एक सौदा।"

    "और एक बात याद रखना… तुझे मैं कभी अपनी पत्नी का दर्जा नहीं दूँगा।"

    "तू सिर्फ मेरी नफरत की ज़रूरत है… मेरी ज़िंदगी की सबसे बड़ी सज़ा।"

    लड़की की आँखें उसके चेहरे को पढ़ने लगीं — शायद कोई झूठ हो, कोई नरमी छिपी हो… लेकिन वहाँ सिर्फ सर्द पत्थर था।


    अध्याय : इज़्ज़त का तमाशा

    सुबह के सात बज रहे थे। राजवंशी महल में रौनक थी। हर कोना सजा हुआ, जैसे वक़्त भी किसी ख़ास पल का इंतज़ार कर रहा हो। गुलाब की पंखुड़ियाँ फर्श पर बिछी थीं, झूमर की रोशनी उस पर पड़कर सोने जैसी चमक फैला रही थी। आज दादाजी और दादीजी की शादी की पचासवीं सालगिरह थी। पूरा खानदान हँसता, मुस्कराता और एक-दूसरे को गले लगाकर तस्वीरें खिंचवा रहा था।

    हॉल में एक दीवार पर बड़ा सा एलईडी टीवी लगा था। ज़्यादातर लोगों का ध्यान उस तरफ़ नहीं था, क्योंकि सब पार्टी में मशगूल थे। मगर तभी, अचानक—

    📺 “ब्रेकिंग न्यूज़... ब्रेकिंग न्यूज़...”

    तेज़ आवाज़ में टीवी की ओर सबका ध्यान खिंच गया।


    “देश के जाने-माने उद्योगपति और राजनेता वीर प्रताप राजवंशी के पोते अखिलेश राजवंशी को एक लड़की के साथ होटल रॉयल गैलेक्सी के कमरे नंबर 709 में रात में संदिग्ध हालत में देखा गया है। दोनों के कुछ बेहद निजी वीडियो फुटेज सामने आए हैं, जिससे ये साफ़ है कि दोनों हमबिस्तर थे…”



    एक सेकंड के लिए मानो पूरे हॉल की हवा थम गई।

    🎉 पार्टी की रौनक एक पल में बुझ गई।

    दादी का हाथ चाय की प्याली पर काँपने लगा।

    दादाजी की आँखें एकटक टीवी पर ठहर गईं। उनके माथे की नसें तन गईं थीं।

    “क्या बकवास है ये...?” बड़े भाई अर्जुन का ग़ुस्से से गला भर्राया।

    “टीवी बंद करो ये सब!” माँ ने चिल्लाकर कहा, पर तब तक तो पूरा न्यूज़ फ्लैश हो चुका था।

    वीडियो में अखिलेश के गले में वही काला लॉकेट था जो दादी ने उसे पिछले जन्मदिन पर दिया था। और उसके पास एक लड़की थी – आँखें नींद से भारी, बाल बिखरे हुए, और बदन पर सिर्फ़ एक चादर।

    “हे भगवान! ये अखिल ने क्या कर दिया...” बुआ मुँह पर हाथ रखकर फुसफुसाईं।

    “अखिल होटल में... वो भी इस हाल में? किसी ने पकड़ लिया क्या?” छोटा भाई राघव ने हैरानी में पूछा।

    दादाजी धीरे-धीरे सोफ़े से उठे। उनकी चाल भले ही अब धीमी हो गई हो, मगर आवाज़ अब भी वही पुरानी थी – सीधी रीढ़, सीधा लहजा।

    “रामलाल!” उन्होंने नौकर को पुकारा।

    “जी मालिक...”

    “अखिल कहाँ है?”

    “वो... वो कल से घर पर नहीं हैं। शायद शहर से बाहर गए थे, पर लौटे नहीं अभी तक।”

    “गाड़ी निकलवाओ। और पता करो कौन ये न्यूज़ फैला रहा है। अपने आदमी भेजो होटल में। CCTV, रिकॉर्ड – सब चाहिए मुझे। समझे?”

    “जी मालिक।”

    पापा – यशवर्धन राजवंशी – जो अभी तक चुप थे, अब धीरे से बोले, “बाबूजी... ये लड़का दिन-ब-दिन हाथ से निकलता जा रहा है। बहुत सिर चढ़ गया है।”

    “अब क्या कहें भईया,” छोटे चाचा ने भी गहरी साँस ली, “नाम तो पूरे खानदान का खराब हुआ है। और ऐसे मौके पर… जब घर में इतने लोग आए हैं...”

    मां दीवार की तरफ़ पीठ टिकाकर खड़ी हो गई थीं। उनकी आँखें लाल थीं।

    “मैंने बचपन से उसे समझाया था। कभी ऊँची आवाज़ नहीं की। कभी उसकी ज़रूरतें अधूरी नहीं रहने दीं... फिर भी...”

    “अब क्या फायदा सब कहने का,” यशवर्धन ने झुंझलाकर कहा, “अब तो न्यूज़ चैनल वाले हमारी हवेली के बाहर जमा हो जाएंगे।”

    छोटी भाभी ने धीरे से पूछा, “कहीं वो लड़की उसे फँसा तो नहीं रही?”

    “हो भी सकता है,” राघव बोला, “आजकल की लड़कियाँ भी तो... कैमरे का टाइम देखो, वो सब प्लान किया हुआ लग रहा है।”

    “चुप हो जा!” दादाजी की आवाज़ गूंजी, “अब भी किसी और को दोष देने बैठे हो? पहले अपने घर के लड़के को सीधा करो!”

    टीवी पर अब रिपोर्टर बाहर खड़े होकर लाइव रिपोर्टिंग कर रहा था।


    “हम इस वक्त होटल रॉयल गैलेक्सी के बाहर हैं, जहाँ अखिलेश राजवंशी को एक युवती के साथ देखा गया। सूत्रों के अनुसार, दोनों कई घंटे कमरे में रहे और वहाँ से निकलते वक़्त लड़की की हालत नाज़ुक लग रही थी...”



    “क्या मतलब है इनका? नाज़ुक हालत?” दादी फटी-फटी आँखों से स्क्रीन देखती रहीं।

    “बस अब और नहीं!” पापा उठ खड़े हुए, “मैं PR टीम को कॉल करता हूँ। हमें इस आग को फैलने से पहले बुझाना होगा।”

    “इज्जत का तमाशा बना दिया!” दादाजी की आवाज़ भारी पड़ने लगी थी, “हमारे खानदान ने इतने सालों तक मेहनत से नाम कमाया, और ये लड़का एक झटके में सब मिट्टी में मिला रहा है।”

    इतने में मोबाइल की घंटियाँ बजने लगीं। रिश्तेदार, बिज़नेस पार्टनर्स, पुराने दोस्त – हर कोई जवाब मांग रहा था।

    “ये क्या देख रहे हैं हम टीवी पर?”

    “क्या सच है अखिल के बारे में?”

    “तुम्हारे घर में सब ठीक है न?”

    पापा ने एक के बाद एक कॉल काटे, फिर PR हेड को मेसेज किया:
    “Control the media. Now.”



    रात 9:00 बजे

    हवेली में जैसे सन्नाटा पसर गया था। कोई खाना नहीं खा रहा था। मेज़ पर पकवान वैसे ही रखे थे – ठंडे, बेजान।

    तभी दरवाज़ा खुला।

    अखिलेश – काले कपड़े, बिखरे बाल, आँखें थकी हुई, और चेहरा सफेद जैसे किसी ने सारा खून निचोड़ लिया हो।

    उसके अंदर आते ही सबकी निगाहें उसकी तरफ़ घूमीं।

    माँ दौड़कर उसके पास आईं, “अखिल... ये क्या कर बैठे तुम?”

    अखिल कुछ नहीं बोला। बस चुपचाप दादाजी की तरफ़ देखा।

    दादाजी की आँखें तेज़ थीं।

    “बोलो अखिल, क्या सच है?”

    “दादाजी...” अखिल की आवाज़ ज़रा कांपी नहीं , “ मैं नहीं जानता । सुबह में मैंने भी उसे पहली बार देखा।

    “तो फिर वो कैमरा? वो फुटेज? वो न्यूज़?”

    “मैं कुछ नहीं जानता। हो सकता है ये किसी चाल हो”

    “क्यों? किसने? नाम बताओ।”

    “मैं... मुझे शक है... रनजीत सिंह पर।”

    सन्नाटा और गहरा गया।

    “रनजीत सिंह?” यशवर्धन चौंके, “वो तो तुम्हारा दोस्त था ना?”

    “था। अब नहीं। वो मेरी कंपनी के हिस्सेदार में से एक बनना चाहता था। जब मैंने मना किया, तबसे वो मुझे ब्लैकमेल कर रहा था।”

    “तुमने हमसे छुपाया?” पापा चिल्लाए।

    “क्योंकि मैं सोच रहा था कि सब ठीक हो जाएगा... लेकिन...”

    “ठीक हो गया ना अब? पूरा देश देख रहा है तुम्हारा हाल।”

    दादी ने बस धीरे से कहा, “भगवान करे... ये साज़िश ही हो। वरना ये हवेली कभी माफ़ नहीं करेगी तुझे।”

    अखिल ने एक लंबी साँस ली... और पहली बार आँखों में गुस्सा छलक आए।



    महल की दीवारों पर लगी मखमली सजावट अब एक अजीब सी खामोशी ओढ़ चुकी थी। माहौल में पहले जितनी गर्माहट थी, अब उतनी ही घुटन उतर आई थी।

    दादाजी अब भी उसी जगह खड़े थे — सोफ़े के पास, जहां से उन्होंने न्यूज़ चैनल की ख़बर पहली बार देखी थी। उनकी आँखें स्क्रीन पर गड़ी थीं, जैसे उसमें से जवाब खींच लाना चाहते हों।

    उधर, यशवर्धन राजवंशी — अखिलेश के पिता — तेज़ क़दमों से हॉल के कोने में रखी अपनी स्टडी टेबल की ओर बढ़े। वहीं दीवार के पास अर्जुन, अखिल का बड़ा भाई पहले से खड़ा था — हाथ में फोन थामे, माथे पर शिकन।

    "राघव!" यशवर्धन की आवाज़ तेज़ और हुक्मी थी, "अब तक PR टीम ने कोई स्टेटमेंट जारी किया?"

    "पापा, मैंने बात की थी... पर वो कह रहे हैं कि मीडिया वाले वीडियो के हवाले से दबाव बना रहे हैं, कोई भी स्पष्टीकरण सुनने को तैयार नहीं हैं।"

    यशवर्धन ने गहरी सांस ली, फिर राघव के कंधे पर हाथ रखा।

    "अब सिर्फ PR से काम नहीं चलेगा। सीधे चैनल के मालिक को फोन लगाओ। कह दो — अगर अभी के अभी ये न्यूज़ नहीं रोकी गई, तो हम उनके न्यूज़ ग्रुप की सारी फंडिंग खींच लेंगे।"

    "ठीक है पापा," राघव ने फोन उठाया और नंबर डायल किया, चेहरे पर साफ़ तनाव झलक रहा था।

    फोन कुछ ही सेकंड्स में उठ गया।

    "हैलो, मिस्टर जोशी? ये राघव राजवंशी बोल रहा हूं। जो न्यूज अभी आपके चैनल पर चल रही है, उसे अभी के अभी हटाइए।"

    (कुछ सेकंड की चुप्पी... दूसरी ओर से हल्की-सी सफाई...)

    "नहीं मिस्टर जोशी, मैं किसी सफाई में नहीं पड़ना चाहता। आपको हमारी कंपनी का नाम याद है ना? जो इस चैनल के 38% शेयर की फंडिंग करती है? अगर ये ब्रेकिंग न्यूज़ अब से पाँच मिनट बाद भी ऑन-एयर रही, तो आप अपने चैनल का ऑफिस किराये पे देने लायक भी नहीं बचेंगे। समझे आप?"

    कुछ देर बाद टीवी स्क्रीन पर ब्रेकिंग न्यूज़ की पट्टी धीमे-धीमे हटने लगी। रिपोर्टर हटाया गया, लाइव बंद हुआ और स्टूडियो से अचानक एक नया विषय ऑन-एयर हो गया — “क्रिकेट कप्तान का बड़ा बयान”।

    यश ने फोन रखा, गहरी साँस ली।

    "हो गया..." उसने कहा।

    यशवर्धन ने बस सिर हिलाया।

    “मीडिया को पैसे से नहीं... टाइमिंग से कंट्रोल किया जाता है। और आज तुमने सही टाइमिंग पकड़ ली, यश।”
    फिर जैसे उन्हें कुछ याद आया, उन्होंने मुड़कर पूछा —
    “अखिल कहाँ है?”

    "अपने कमरे में है पापा," यश ने कहा, "लेकिन... अजीब चुप बैठा है। ना सफाई दे रहा है, ना गुस्सा। बस बैठा है।"

    “चलो, बात करते हैं उससे।” यशवर्धन ने सधे कदमों से सीढ़ियों की ओर बढ़ते हुए कहा।



    राजवंशी हवेली – तीसरी मंज़िल, अखिल का कमरा

    दरवाज़ा खुला तो वहाँ कम रोशनी थी। एक कोना हल्की नीली लाइट से चमक रहा था। एक बड़ी खिड़की के पास अखिल बैठा था — कुर्सी की पीठ पर सिर टिकाए, आँखें बंद। उसकी कलाई पर अब भी वही घड़ी थी, जो रणविजय ने उसे MBA पूरा करने पर गिफ्ट की थी।

    "अखिल!" यशवर्धन की आवाज़ थोड़ी सख़्त थी।

    अखिल ने आँखें खोलीं, लेकिन चेहरा बिना भाव के।

    "न्यूज़ देखी?" यश ने सीधा सवाल किया।

    "हम्म..." बस इतना ही बोला अखिल।

    "कुछ कहोगे?" यशवर्धन पास आकर बोले।

    "कहने को कुछ है नहीं, पापा।"

    "मतलब?" यशवर्धन की भौंहें तनीं, "तू उस लड़की के साथ होटल में था या नहीं?"

    अखिल उठा, और सीधे पापा की आँखों में देख कर बोला:

    "मैं उस लड़की को जानता तक नहीं। ना नाम पता है, ना चेहरा पहचाना। और जो वीडियो तुमने देखा वो... मुझे यकीन है, बनाया गया है।"

    "तो तू वहां गया था?" यश ने संदेह से पूछा।

    "हां, मैं होटल में गया था। लेकिन मीटिंग थी, किसी क्लाइंट के साथ। 706 नंबर रूम मेरा नहीं था। किसी ने जान-बूझकर मेरा नाम वहाँ से जोड़ दिया। और जो लड़की वीडियो में दिख रही है... मैं उसे कभी मिला भी नहीं।"

    यशवर्धन की आँखों में गुस्सा और उलझन का तूफान था।

    "अखिल, इस वक़्त सिर्फ़ सच्चाई काम आएगी। अगर सच में तू इसमें फँसाया गया है तो हमें कानूनी रास्ता लेना होगा। और अगर झूठ बोल रहा है..."

    "पापा, दुनिया जो देख रही है, वो सब कुछ भी नहीं है।" अखिल ने बात काटते हुए कहा।

    "लेकिन इज्ज़त का सवाल है, अखिल।" यशवर्धन का स्वर ऊँचा हुआ।

    "और मेरी भी एक पहचान है अर्जुन भैया," अखिल अब थोड़ा सीधा खड़ा हुआ, "मैं भी आपके साथ बिजनेस संभालता हूं। मैं भी नाम कमाता हूं। लेकिन जब न्यूज़ चैनल में कोई लड़की के साथ मेरा नाम जोड़कर फुटेज चलाता है, तो कोई ये नहीं पूछता कि सच्चाई क्या है। सबको तमाशा देखना है।"

    "ये तमाशा तुम्हारे बर्ताव से खड़ा हुआ है!" अर्जुन ग़ुस्से से बोला।

    "नहीं, भैया। ये किसी और की साज़िश है। जिस क्लाइंट से मीटिंग थी, उसकी कंपनी का नाम आज मेरे कॉम्पिटीटर से जुड़ा मिला है।"

    यशवर्धन कुछ पल चुप रहे। फिर बोले, "इसका मतलब...?"

    "मतलब ये कि मैं निशाना था। लड़की भी, होटल का कमरा भी, कैमरा भी — सब सेट किया गया था। और अगर हमने सही तरीके से ये प्रूव नहीं किया, तो ये सिर्फ मेरी नहीं, आपकी और दादाजी की भी बेइज़्ज़ती बनेगी।"

    यश थोड़ी देर चुप रहा।

    "तू चाहता क्या है अभी?"

    "सिर्फ दो दिन। मैं सब प्रूव करके दिखाऊंगा।"

    "और अगर न कर सका?" यशवर्धन ने सीधा पूछा।

    "तो मैं खुद मीडिया के सामने जाऊगा। लेकिन उससे पहले... किसी को मुझे दोषी ठहराने का हक़ नहीं है।"

    कमरे में खामोशी पसर गई।

    यशवर्धन ने एक गहरी साँस लेकर कहा, "ठीक है। दो दिन। लेकिन एक बात याद रख अखिल, तू अगर झूठ बोल रहा है ना... तो इस खानदान का नाम तू कभी दोबारा इस्तेमाल नहीं कर पाएगा।"

    अखिल ने सिर आंखों में आंखे डाल कहा।
    “सच क्या है ये तो बाहर आकर ही रहेगा, पापा।”



    कमरे से बाहर निकलते हुए यशवर्धन ने अर्जुन की ओर देखा।

    "अगर वो सच कह रहा है तो किसी ने हमारी जड़ें हिलाने की साज़िश की है। और अगर वो झूठ बोल रहा है — तो उससे बड़ा दुश्मन कोई नहीं।”

  • 2. बेशर्म इश्क़ - Chapter 2

    Words: 1604

    Estimated Reading Time: 10 min

    अध्याय : सच का दावा, झूठ का तूफ़ान



    सुबह के सात बज रहे थे। राजवंशी हवेली की रसोई में चाय बन रही थी, लेकिन घर के हर कोने में एक अजीब सी चुप्पी फैली हुई थी। नौकर-चाकर भी धीरे-धीरे चलते, फुसफुसा कर बात करते।

    उधर लिविंग रूम में, दादाजी, दादी, यशवर्धन, अखिल, और परिवार के अन्य सदस्य एक बार फिर टीवी स्क्रीन के सामने जमा हो चुके थे।

    “क्या फिर से कोई न्यूज़ आई है?” दादी ने हल्की चिंता में पूछा।

    “पता चला है कि लड़की खुद इंटरव्यू देने वाली है। लाइव।” राघव की आवाज़ में बेचैनी थी।

    "अब क्या नया ड्रामा होगा…" रणविजय बड़बड़ाए।

    टीवी स्क्रीन पर ब्रेकिंग न्यूज़ की लाल पट्टी फिर से उभरी —

    “EXCLUSIVE INTERVIEW – वो लड़की जिसे लेकर अखिलेश राजवंशी विवादों में हैं, अब सामने आई हैं और कर रही हैं पहली बार खुलासा।”

    स्क्रीन पर एक सोफे पर बैठी लगभग 19 साल की लड़की दिखाई दी — साधारण सलवार-कुर्ते में, चेहरे पर हल्की सी घबराहट, लेकिन आवाज़ में एक अजीब-सा आत्मविश्वास।

    रिपोर्टर ने कैमरे की ओर देखा —

    “हमारे साथ हैं रैना शर्मा। ये वही लड़की हैं, जिनके साथ कथित तौर पर अखिलेश राजवंशी होटल के उस कमरे में थीं। रैना, सबसे पहले आपसे यही पूछना चाहेंगे — जो वीडियो सामने आया है, क्या उसमें जो कुछ दिखाया गया है, वो सच है?”

    कुछ सेकंड का मौन… फिर लड़की ने धीरे-धीरे कहा:

    “जी, वो वीडियो सच है।”

    राजवंशी हवेली में जैसे एक बम फटा हो।

    "क्या कहा इसने!" यश उठकर खड़ा हो गया।

    "बैठो अर्जुन!" यशवर्धन ने उसे रोका।

    टीवी स्क्रीन पर लड़की आगे बोल रही थी:

    “मैं अखिलेश सर को पिछले तीन महीने से जानती हूं। उन्होंने खुद मुझसे मुलाकात की थी एक बिजनेस पार्टी में। शुरू में तो बहुत आदर से पेश आए, लेकिन फिर... धीरे-धीरे चीज़ें बदलने लगीं।”

    रिपोर्टर ने बात बढ़ाई:

    “आपका मतलब...?”

    “हमारे बीच एक रिश्ता बन गया था। उस रात होटल में हम दोनों अपनी मर्ज़ी से थे। और जो कुछ हुआ, वो सब...बिना मेरी मर्जी के के हुआ था। उन्होंने मुझे कुछ पीने को दिया उसके बाद मुझे चक्कर आने लगे फिर वो मेरे नजदीक आए और मेरी मर्जी बिना वो सब किया"

    राजवंशी परिवार सन्न रह गया।

    "ये झूठ बोल रही है!" अखिल बुरी तरह गुस्से में चिल्लाया, "मैं इसे जानता भी नहीं!"

    "तो फिर ये लड़की तेरे बारे में इतना कुछ कैसे जानती है?" अर्जुन की आवाज़ में अब भी संदेह था।

    "किसी ने इस लड़की को खरीदा है, भैया! ये सब प्लान है। कोई चाहता है कि हम बर्बाद हों!"

    टीवी पर इंटरव्यू अब और आगे जा चुका था।

    “आपके पास कोई सबूत है इस रिश्ते का?”

    “हाँ।” रैना ने सीधा कैमरे की ओर देखा, “मेरे पास उस रात की चैट्स हैं, तस्वीरें हैं। मैं चाहूं तो फोन डिटेल्स भी दे सकती हूं।”

    रिपोर्टर के चेहरे पर जैसे कहानी मिल गई हो। उसकी मुस्कान से साफ था — ये सिर्फ इंटरव्यू नहीं, इतिहास बनने जा रहा था।

    "बहुत बहुत शुक्रिया रैना, आपने ये हिम्मत दिखाई और अपनी बात सबके सामने रखी।"

    इंटरव्यू खत्म हुआ, लेकिन देशभर के न्यूज चैनल्स, सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स, ट्विटर ट्रेंड्स और अखबारों में जैसे आग लग गई हो।



    पलटता समय – असर हर कोने में

    कॉरपोरेट वर्ल्ड:

    राजवंशी ग्रुप के शेयर आधे दिन में 6.5% गिर गए। निवेशकों की नज़रें अब बिजनेस की जगह अखिलेश की निजी ज़िंदगी पर थीं। दो डील्स जो साइन होने वाली थीं, उनमें से एक ने मेल भेज दिया — “until clarity emerges, we put this on hold.”

    सोशल मीडिया:

    "अखिलेश राजवंशी ट्रेंड कर रहा है" — पर किसी कॉर्पोरेट उपलब्धि के लिए नहीं, बल्कि #ScandalPrince और #ShameOnRajvanshi जैसे टैग्स के लिए।

    प्रतिद्वंद्वी कंपनियाँ:

    एक कॉम्पिटीटर ने तो प्रेस रिलीज़ ही निकाल दी — “हम अपने मूल्यों के साथ खड़े हैं और महिलाओं के सम्मान की वकालत करते हैं।" इशारा साफ था।



    राजवंशी हवेली – एक तूफ़ान के बीच

    यशवर्धन ने टीवी बंद किया और गुस्से से अखिल की ओर देखा।

    "अब बोल! अब भी कहेगा कि कुछ नहीं किया तूने?"

    "पापा, मैंने कुछ नहीं किया! मैं इसे नहीं जानता! ये सब झूठ है!"

    "झूठ! झूठ बोल रही है वो लड़की? पूरे देश के सामने झूठ बोल रही है? उसकी तस्वीरें? चैट्स?"

    "कोई बना सकता है चैट्स, फेक कर सकता है सब। मेरी लाइफ को बर्बाद किया जा रहा है पापा!"

    "तो फिर तू ही साबित कर। वरना अब इस घर से बाहर चला जा!"

    दादी रोने लगीं।

    "हमारा खानदान... ये दिन देखना था? दादी-दादा की सालगिरह के दिन जो परिवार तस्वीरें खिंचवा रहा था, आज उसी तस्वीर पर कालिख पोती जा रही है!"

    "एक लड़की के बयान से हमारा सब कुछ हिल गया है..." छोटे भाई निखिल ने धीरे से कहा।

    यश चुपचाप बैठा था — चेहरा शांत, लेकिन आँखें लगातार अखिल पर टिकीं।

    "अगर तू सच बोल रहा है, तो तुझे अब सिर्फ जुबान से नहीं, सबूत से लड़ना होगा। वरना ये राजवंश... तुझसे भी बड़ा फैसला करेगा।"



    अखिल का अकेलापन

    शाम होते-होते अखिल अपने कमरे में बंद हो चुका था। सामने लैपटॉप खुला था — हर न्यूज़ चैनल पर उसकी तस्वीर, उसका नाम, और वो लड़की। रैना शर्मा।

    "ये लड़की है कौन?" उसने खुद से पूछा।

    उसने अपने फोन से उस रात की कॉल डिटेल्स निकालीं, फिर होटल के लॉग्स देखे। कुछ भी... कुछ भी ऐसा नहीं था जो इस लड़की से मेल खाता हो।

    "मैंने इसे कभी देखा भी नहीं... तो फिर ये मुझे जानती कैसे है?"

    वो अपनी उंगलियों से टेबल पीटता रहा।

    "किसी ने इसे भेजा है... मुझे फंसाने के लिए..."

    और तभी उसके दिमाग में एक नाम उभरा...

    "विवेक सिंघानिया।"

    कॉम्पिटीटर... पुराना दुश्मन... जिसकी डील उसने पिछले महीने छीनी थी।

    "अगर ये खेल उसी का है — तो अब ये लड़ाई मीडिया की नहीं, मेरे अस्तित्व की होगी...वो नहीं जानता है कि उसने किससे पंगा ले लिया है "


    राजवंशी हवेली अब लड़ाई के मोड में थी।

    एक बेटा फंसा था।


    एक लड़की सामने आई थी।


    और जो लड़ाई अब शुरू हो चुकी थी — वो सम्मान, सच्चाई और सत्ता के लिए थी।


    दिन ढल रहा था।

    राजवंशी हवेली के ऊँचे बरामदे से ढलती धूप की सुनहरी किरणें निकलतीं, तो साथ में एक साया भी चलता — तेज़, भारी और बेचैन।

    वो साया था — अखिलेश राजवंशी का।

    पिछले तीन दिन से चैनलों पर चल रही “ब्रेकिंग” हर ब्रेक कर चुकी थी — उसका नाम, उसका चेहरा, उसकी हरकतें। और अब, उसकी चुप्पी भी बहस का हिस्सा बन चुकी थी।

    पर आज चुप्पी टूटेगी।

    क्योंकि आज वो जा रहा था उस सवाल तक, जो उसके खिलाफ सबसे बड़ा हथियार बन गया था — वो लड़की।



    शाम 6:10 – बोरीवली – रैना शर्मा का घर

    एक पुराना-सा दोमंज़िला मकान। बाहर टूटा हुआ सीमेंट, बालकनी में सूखते कपड़े, और नीचे लगे नींबू-मिर्च का पुराना धागा जो अब सिर्फ झूल रहा था।

    अखिल की SUV जैसे ही रुकी, गली के बच्चे ठिठक गए। वो किसी मशहूर आदमी को पहचानने जैसा नहीं था — वो डरने जैसा था।

    उसने बग़ैर किसी हिचक के लोहे का गेट खोला और अंदर पहुँचा।

    घंटी बजी।

    भीतर कोई आहट हुई। दरवाज़े की कुंडी खड़की।

    और फिर…

    दरवाज़ा खुला।

    वो लड़की — रैना — सामने खड़ी थी।

    उसकी आँखों में वही डर था, जो न्यूज़ चैनल के कैमरों में छिप गया था। सादा सलवार-कुर्ता, खुले बाल, और चेहरे पर इतनी घबराहट — मानो किसी ने उसके दरवाज़े पर मौत भेज दी हो।

    अखिल ने एक पल उसकी आँखों में झांका।
    रैना ने तुरंत दरवाज़ा बंद करने की कोशिश की।

    “रुको!” अखिल ने सख़्त आवाज़ में कहा।

    लेकिन उसने सुना नहीं। या सुनकर भी अनसुना किया।

    धड़ाम!

    अखिल ने पैर से दरवाज़ा रोक लिया।

    दरवाज़ा आधा खुला रह गया। एक खामोश टक्कर-सी हुई — सन्नाटा और आक्रोश के बीच।

    वो अंदर घुस आया। पीछे बोडीगाडस भी जो दूसरी गाड़ी में थे,

    रैना कुछ कदम पीछे हटी — काँपती हुई।

    “तू जानती है मैं कौन हूँ... फिर भी तूने वो किया?”
    अखिल की आवाज़ में अब गूंज नहीं, सीधा वार था।

    रैना कुछ नहीं बोली। उसका चेहरा और सफेद हो गया।

    "बोल! वो क्या था? वो इंटरव्यू, वो फुटेज... कौन है तू? क्यों किया ये सब?"

    रैना कांपते हुए पीछे हटी। उसकी नज़र कभी दीवार पर टंगे माँ-बाप की तस्वीर पर जाती, कभी अखिल की तरफ।

    "तू डर रही है मुझसे? या अपने झूठ से?"

    अब अखिल कुछ कदम और बढ़ा। पर उसने हाथ नहीं बढ़ाया। सिर्फ़ बात की।

    "तेरे कहे एक वाक्य से मेरी माँ को हार्ट अटैक आया है। मेरे बाप को शर्म से सर झुकाना पड़ा है। तू जानती है राजवंशी नाम का वज़न?"

    रैना ने दीवार की ओर देखा — नज़रें फँसी रहीं — जैसे उस पर कोई दरवाज़ा हो, जहाँ से वो भाग सकती थी।

    “देख, मैं चीखने नहीं आया। मैं सच लेने आया हूँ। लेकिन तू जो डर दिखा रही है न, उससे साफ़ है — सच तुझसे बड़ा नहीं है। झूठ है।”

    रैना की पलकों से एक आँसू नीचे गिरा। पर होंठ अभी भी सिले थे।

    "मैं तुझे छू नहीं रहा... ना छुऊँगा। लेकिन तेरे घर आया हूँ क्योंकि ये मेरा हक़ है — तूने मेरा नाम लिया, अब जवाब भी तेरा होगा।"

    कमरे में पंखा घूम रहा था। उसकी आवाज़ और अखिल के सवाल — दोनों गूंज रहे थे।

    अखिल अब रैना के ठीक सामने आ गया।

    “कौन भेजा था? पैसे मिले थे? या बदला था?”

    रैना काँपते हुए पीछे हटती है, लेकिन अब दीवार आ चुकी है। और उसके और अखिल के बीच सिर्फ़ हवा है — भारी, सघन, बोझिल।

    अखिल कुछ देर उसे देखता रहा।

    “अगर तू चुप रहेगी, तो भी मैं सच निकाल लूँगा। मगर याद रख — जब सच बाहर आएगा, उस दिन तुझे ये चुप्पी सबसे ज़्यादा काटेगी।”

    वो पलटा।

    "कभी-कभी इंसान खुद को बेगुनाह बताकर भी गुनहगार बन जाता है — क्योंकि वो बोलता नहीं, बस डरता है।"

  • 3. बेशर्म इश्क़ - Chapter 3

    Words: 1660

    Estimated Reading Time: 10 min

    अध्याय : दबाव की दरार – जब मौन डर बन जाए



    सांझ ढलते ही गली का कोना फिर से चुप हो गया।

    पर आज की चुप्पी वैसी नहीं थी जैसे रोज़ की —
    आज ये चुप्पी हथियार की तरह थी। भारी, ठंडी और सीधी रैना के दिल पर रखी हुई।

    पिछली शाम जो तूफान घर की दहलीज़ लांघ कर आया था — आज वह फिर लौटा था।

    लेकिन इस बार, उसके साथ आया था पूरा रुतबा।

    सड़क पर रुकी थी एक काली Range Rover, जिसका दरवाज़ा जैसे ही खुला, दो सजे-धजे बॉडीगार्ड्स पहले उतरे — काले चश्मे, ईयरपीस और सख्त चेहरे।

    फिर उतरा वो —
    अखिलेश राजवंशी।

    दोपहर का सूट, महंगे घड़ी की झलक, चमचमाते शूज़ और चाल में वैसा ही ठहराव — जैसा किसी अदालत में जज के आने पर होता है।

    वो सीधे चलता हुआ, फिर उसी दरवाज़े पर पहुँचा — जहाँ कल रैना की सांसें अटक गई थीं।

    उसने इस बार घंटी नहीं बजाई।

    धड़-धड़-धड़!

    उसने सीधे दरवाज़ा पीटना शुरू किया।

    “रैना!”

    भीतर का कमरा थर्राया।



    अंदर का दृश्य – रैना का डर

    रैना चुपचाप कोने में बैठी थी। उसके हाथ में एक पुरानी रेशमी चादर थी, जिसे वो घुटनों पर लपेटे थी — जैसे वो ही उसकी रक्षा कर रही हो।

    उसका फोन साइलेंट मोड पर था। टीवी बंद था। खिड़की से पर्दा गिरा हुआ था।
    लेकिन उसके दिल की धड़कन जैसे हर दीवार में गूंज रही थी।

    टॉक! टॉक! टॉक! — फिर से दरवाज़ा पीटा गया।

    और तभी वो आवाज़ —

    “खोलो! वरना तुम्हारे मोहल्ले को बता दूँ कि तुमने क्या किया है एक राजवंशी के साथ।”

    रैना कांपती है।

    वो जानती थी — वो दुबारा आएगा।

    लेकिन इतनी जल्दी... इतनी ताक़त से?

    उसने दरवाज़ा थोड़ा-सा खोला।

    सामने वही चेहरा — पर इस बार आँखों में सिर्फ़ सवाल नहीं, गु्स्सा भी था।





    अखिल (कड़वे स्वर में) – “बहुत बहादुर बनती हो कैमरे के सामने। अब बोलो, जब मैं सामने खड़ा हूँ।”

    रैना कुछ कहने के लिए होंठ खोलती है, लेकिन आवाज़ नहीं निकलती।

    उसकी नज़रें एक पल के लिए उसके पीछे खड़े बॉडीगार्ड्स पर जाती हैं, फिर फौरन झुक जाती हैं। उसकी उंगलियाँ अब भी कुर्ते के कोने को मरोड़ रही हैं।

    अखिल (पास आकर) – “मुझे बता दो रैना… कौन है वो जिसके कहने पर तुमने ये किया? कितने पैसे मिले?”

    रैना की पलकों से दो बूँदें झर पड़ीं — मगर आवाज़ अब भी बंद।

    अखिल (धीरे लेकिन भारी स्वर में) – “मैं किसी के दरवाज़े पर बार-बार नहीं आता। पर आज आया हूँ क्योंकि तूने मेरे नाम को नंगा किया है। अब तेरी खामोशी मेरे खिलाफ गवाही बन चुकी है।”

    रैना अब पीछे हटती है। उसकी पीठ दीवार से लग जाती है।



    रैना के एक्सप्रेशन्स – जब डर शब्दों से ज्यादा बोले

    उसके चेहरे पर थकावट नहीं, कच्चा डर था।

    पसीने की बूंदें माथे से गालों तक लुढ़क रहीं थीं। होंठ सूख गए थे। आंखें लाल हो चुकी थीं — लेकिन उनमें आँसू नहीं, सिर्फ़ थरथराता हुआ गिल्ट था।

    एक पल को वो कुछ कहने की कोशिश करती है…

    “मैं… वो…”

    लेकिन फिर रुक जाती है।

    गला सूख जाता है। साँस अंदर रह जाती है।

    अखिल (दबाव बढ़ाते हुए) – “अगर तू आज भी कुछ नहीं बोलेगी तो मैं मान लूँगा — तू सिर्फ़ मोहरा नहीं, तू ही वो चाल है जिसे मेरे खिलाफ चला गया है।”

    रैना आँखें बंद कर लेती है।

    उसके चेहरे पर साफ़ देखा जा सकता था — जैसे अंदर कुछ फूट रहा हो। यादें, पछतावा, या शायद डर और सच्चाई की लड़ाई।

    वो अब धीरे-धीरे खुद से फुसफुसाती है, “...मैंने कुछ गलत नहीं किया… मैंने कुछ गलत नहीं किया…”

    लेकिन वो इतना धीरे बोलती है कि कोई सुन नहीं सकता।

    बॉडीगार्ड्स की मौजूदगी और अखिल का रुतबा

    बाहर खड़े दोनों बॉडीगार्ड्स अब भी शांत खड़े हैं। लेकिन उनका होना ही एक चेतावनी जैसा है — जैसे रैना को अहसास दिलाया जा रहा हो कि वो एक आम लड़की नहीं, एक सिंहासन वाले आदमी से भिड़ी है।

    अखिल उसके सामने रुककर एक गहरी साँस लेता है।

    “तू बोल नहीं रही… ठीक है। मैं तेरी चुप्पी से भी जवाब निकाल लूँगा। लेकिन एक बात याद रख — इस खेल में जो शेर चुप रहता है, उसका दहाड़ सबसे खतरनाक होती है।”



    जब वो चला जाता है लेकिन डर छोड़ जाता है

    अखिल दरवाज़े की तरफ़ मुड़ता है।

    लेकिन एक आखिरी बार पीछे देखता है।

    रैना अब ज़मीन पर बैठी है — दीवार से टिककर, अपनी बाहों में खुद को समेटे।

    उसके हाथ काँप रहे हैं।

    उसकी आँखें बंद हैं। लेकिन पलकें भी अब काँप रही हैं।

    अखिल के चेहरे पर अब कोई क्रोध नहीं — बस सन्नाटा।

    क्योंकि वो जानता है — ये चुप्पी आज नहीं तो कल, बोल पड़ेगी।

    और जब वो बोलेगी…
    तो या तो सच बाहर आएगा,
    या कोई रिश्ता तबाह हो जाएगा।


    “छलके हुए लम्हें – जब इल्ज़ाम भी रिश्तों को झुलसा दे”


    अखिलेश का ग़ुस्सा अब टूटे हुए स्वाभिमान और खोए हुए सम्मान की शक्ल में सामने आता है।


    उसकी करोड़ों की डील, प्रतिष्ठा और अवॉर्ड सब हाथ से निकल जाते हैं — और वह इसका जिम्मेदार रैना को ठहराता है।

    वहीं दूसरी तरफ, रैना थोड़ी-बहुत बोलती है, मगर अब भी सच्चाई नहीं बताती। उसकी मासूमियत, उसका डर और उसकी चुप्पी इस अध्याय का दिल हैं।



    छलके हुए लम्हें – जब इल्ज़ाम भी रिश्तों को झुलसा दे

    कमरे की दीवारों में अब भी पिछले संवाद की गूंज बाकी थी।

    दरवाज़े के बाहर से फिर वही ठंडी आहटें भीतर रेंग रही थीं —
    लेकिन इस बार न धमकी थी, न दरवाज़ा तोड़ा गया।

    बस दस्तक थी… धीमी, लेकिन भारी।

    रैना ने दरवाज़े के पास जाकर एक लंबा सास भरा। उसकी आँखों में थकावट अब आंसुओं से ज़्यादा गहरी हो चली थी। उसके दिल ने कहा — मत खोलो।

    पर हाथ आगे बढ़ गया।

    दरवाज़ा खुला — और सामने वही चेहरा।

    लेकिन इस बार अखिलेश की आँखों में लपट नहीं, छाले थे।



    अखिल की बातें – जब शब्द भी बोझ बन जाएं

    "तुम जानती भी हो, क्या किया है तुमने?"

    आवाज़ ऊँची नहीं थी, मगर एक-एक शब्द अंदर उतरकर चुभ रहा था।

    रैना कुछ नहीं बोली। उसकी नज़र नीचे जमी हुई ज़मीन पर थी।

    "कल रात मुझे भारत सरकार की तरफ से 'यूथ बिजनेस ग्लोरी' का अवॉर्ड मिलने वाला था। वही जो हर साल एक यंग अचीवर को मिलता है..."

    वो थोड़ा ठहरा। फिर अपनी जैकेट की जेब से एक बयान की कॉपी निकाली और उसे ज़मीन पर फेंक दिया।

    "और आज ये आया है — डिसक्वालिफिकेशन स्टेटमेंट।
    ‘अनएथिकल कंडक्ट। मीडिया वायरल स्कैंडल। शर्मनाक प्रतिनिधित्व।’
    क्या यही बनकर रह गया हूँ मैं… तुम्हारी वजह से?"

    रैना अब भी चुप थी।
    लेकिन उसकी उंगलियां अपनी सलवार के कोने को मरोड़ रही थीं।



    गंभीर संवाद – दिल पर वार करते हुए

    "तुम समझती हो ये बस एक न्यूज़ थी?
    मेरी जिंदगी की सबसे बड़ी डील — एक अंतरराष्ट्रीय फाइनेंशियल फर्म के साथ —
    करीब 230 करोड़ की डील टूट गई, "

    उसने अपनी आँखें बंद कीं, जैसे वो एक क्षण में फिर सब कुछ जी आया हो।

    "उन्होंने एक लाइन में मना कर दिया —
    'We don’t do business with scandals.'
    क्या इतनी आसान थी मेरी बरसों की मेहनत?"

    रैना की आँखें अब नम थीं।
    मगर वो फिर भी चुप रही।

    "तुम्हें क्या फर्क पड़ता है?
    तुम तो एक खबर बनकर उभरीं और सबकुछ उड़ा ले गईं।
    क्या तुम्हें एक बार भी लगा — कि जो कुछ तुमने कहा, दिखाया, किया — उसका असर कितना बड़ा होगा?"



    रैना की मासूम प्रतिक्रिया – चुप्पी से निकली एक आवाज़

    अब रैना के होंठ फड़फड़ाए।

    धीरे, बहुत धीरे, उसने कहा –
    "मैंने… मैंने कुछ भी सोच-समझकर नहीं किया..."

    अखिल थोड़ा पीछे हटकर चुपचाप उसकी ओर देखने लगा।

    "मैं डरी हुई थी। मैं बहुत डरी हुई थी।
    मुझे लगा कुछ कहूं या ना कहूं…
    सब गलत हो जाएगा। और… और हुआ भी वही…"

    उसकी आवाज़ टूट रही थी। हर शब्द में खौफ और पछतावा था।

    "मैंने किसी को कोई इंटरव्यू देने के लिए मजबूरी से नहीं किया… मैं… बस… अकेली थी।
    बहुत कुछ एकसाथ हो गया…"

    वो रोने से पहले खुद को रोकती है, मगर उसकी आँखों से दो बड़ी बूँदें ज़मीन पर गिरती हैं।

    "मुझे नहीं पता था ये सब इतना बड़ा बन जाएगा।
    प्लीज़… प्लीज़ चले जाओ… मुझे अकेला छोड़ दो..."



    अखिल का भीतर से टूटा चेहरा – जब रुतबा भी थक जाए

    अखिल उसे ध्यान से देख रहा था।

    उसके भीतर एक बहुत गहरा द्वंद्व चल रहा था।
    उसकी आँखों में अब भी चोट थी, पर अब वह चोट गु्स्से से नहीं, टूटे विश्वास से बह रही थी।

    "तुम जानती हो, मैंने तुम्हें लेकर कभी ग़लत सोचा भी नहीं था।
    न ही उस रात कुछ वैसा हुआ जैसा दुनिया सोच रही है।
    लेकिन तुम्हारा मौन… तुम्हारी चुप्पी…
    वही सबसे बड़ा बयान बन गई…"

    रैना अब अपना चेहरा छुपा रही थी।

    "कभी सोचा है, अगर मैं कोई और होता —
    कोई भी ताक़तवर मर्द —
    तो तुम्हारी ये चुप्पी तुम्हें कहाँ ले जा सकती थी?"

    वो एकदम शांत हो गया।

    "तुम्हारा डर, तुम्हारी कहानी… सब तुम्हारा हक़ है।
    लेकिन किसी और की तबाही पर वो कहानी क्यों लिखी जाए?"



    एक आख़िरी अपील – जब शब्द रिश्तों से टकरा जाएं

    रैना (धीरे से) –
    "मुझे सच में नहीं पता था…
    जो हो गया, उसके बाद मैं… मैं बस डर गई थी…"

    "डर के आगे सच नहीं छिपता, रैना।
    सच जब नहीं बोले जाते, तो झूठ का जन्म होता है।
    और आज, हर अख़बार, हर चैनल, हर सोशल साइट पर…
    मेरा नाम एक झूठ के साथ चल रहा है — सिर्फ़ इसलिए क्योंकि तुमने चुप्पी ओढ़ ली…"

    वो उठने लगा।

    "तुम्हें अकेला छोड़ देता हूँ।
    पर याद रखना —
    कभी अगर तुम बोलने का हौसला जुटाओ,
    तो सिर्फ़ इतना कहना…
    कि उस रात क्या हुआ था — और क्या नहीं।
    बाकी मैं संभाल लूंगा।"


    – बचे हुए सन्नाटे के साथ

    अखिल बाहर चला गया।
    गली की वही Range Rover उसकी वापसी का इंतज़ार कर रही थी।

    रैना दरवाज़े के पास बैठी रही —
    थकी हुई, टूटी हुई,
    लेकिन इस बार उसके चेहरे पर सिर्फ़ डर नहीं था —
    बल्कि एक सवाल भी था।

    "क्या अब वक्त आ गया है… कि मैं कुछ कहूं?"

  • 4. बेशर्म इश्क़ - Chapter 4

    Words: 1977

    Estimated Reading Time: 12 min

    अध्याय : “परछाई का सौदा – जब अतीत, भविष्य छीन ले”

    स्थान: राजवंशी इंटरप्राइज़ेज़ हेड ऑफिस – टॉप फ्लोर कॉन्फ्रेंस हॉल

    समय: सुबह 10:15

    कमरे में महंगे फर्नीचर, चमकते क्रिस्टल झूमर और दीवारों पर लगी उन बड़ी तस्वीरों का रुतबा झलक रहा था —
    जिनमें राजवंशी खानदान के पूर्वज, पुरखों से लेकर वर्तमान के बिज़नेस टायकून्स की तस्वीरें टंगी थीं।

    कांफ्रेंस टेबल के एक छोर पर बैठे थे –
    यशवर्धन राजवंशी, जिनकी उम्र पचपन पार कर चुकी थी, लेकिन आवाज़ अब भी तलवार जैसी सीधी और भारी थी।
    उनके दाएँ हाथ पर था उनका बड़ा बेटा –
    रनविजय राजवंशी — तेज़, शातिर और शांत स्वभाव वाला।

    सामने बैठी थी —
    "ऑरलिंक ग्रुप" की इंटरनेशनल टीम, जिनके साथ लगभग 800 करोड़ की मल्टी-लेयर लॉजिस्टिक डील पर बातचीत महीनों से चल रही थी।



    मीटिंग की शुरुआत – सौदे की तैयारी

    यशवर्धन ने धीरे से पानी का ग्लास किनारे किया और बोले –
    "तो मिस्टर कार्लसन, हमें उम्मीद है कि आपने हमारा प्रपोज़ल अच्छे से देखा होगा।
    राजवंशी इंटरप्राइज़ेज़ की नेटवर्क और इन्वेस्टमेंट कैपेसिटी को आप जानते ही हैं…"

    कार्लसन मुस्कराया।
    उसके साथ उसकी लॉ फर्म की दो महिलाएं और दो इंडियन पार्टनर्स बैठे थे।

    "हाँ, श्रीमान राजवंशी, आपके ग्रुप की क्षमता और इतिहास प्रभावशाली है… कोई शक नहीं।
    परंतु..."
    उसका लहजा अचानक थोड़ा ठहरा।

    अर्जुन नेआंखे सिकोड़ते हुए गौर किया।

    "परंतु?"

    कार्लसन ने एक ब्लैक लैदर फोल्डर टेबल पर रखा।

    "हम अपनी टीम की तरफ से एक अनौपचारिक अपॉइंटमेंट लेकर आए थे… पर आज सुबह हम कुछ और देखकर बहुत व्यथित हुए।"



    खुलती परतें – जब स्क्रीन पर चलता है तूफ़ान

    कार्लसन की टीम की एक सदस्य ने टैबलेट पर एक वीडियो चलाया।

    और वो वही फुटेज था – "अखिलेश राजवंशी और एक युवती होटल के कमरे में…"
    ब्रेकिंग न्यूज़ की लाल पट्टी अब भी वीडियो पर फ्लैश कर रही थी।

    कमरे में सन्नाटा छा गया।

    यशवर्धन का चेहरा एकदम तना हुआ, जैसे किसी ने हवा ही खींच ली हो।

    अर्जुन ने फ़ौरन टेबल की स्क्रीन की तरफ झुककर कहा —
    "This is not relevant to this business discussion. My younger brother’s personal…"

    "Exactly, Mr. Rajvanshi," कार्लसन ने बीच में ही कहा, "We are not judging you.
    But for us, image matters. And in international dealings, perception defines trust."



    डील की वापसी – अपमान का पहला घाव

    कार्लसन ने अपनी डायरी बंद करते हुए कहा:

    "We are sorry, but under these volatile circumstances,
    our legal advisors have asked us to postpone — indefinitely — the deal."

    "Postpone?!" अर्जुन की आवाज़ में हैरानी और ग़ुस्सा दोनों थे।

    "Mr. Arjun," उनकी लॉयर बोली, "आपके ब्रदर के खिलाफ अभी कोई कानूनी केस नहीं है, लेकिन जो मीडिया में चल रहा है, वो पर्याप्त है।
    एक लॉन्ड्री ब्रांड को लॉजिस्टिक्स देने से पहले हमें खुद का चेहरा साफ़ रखना होगा।"

    यशवर्धन ने अपनी ठुड्डी पर हाथ रखा, और बस एक शब्द कहा —
    "आपका निर्णय?"

    "Final."

    और इसके साथ ही ऑरलिंक ग्रुप की टीम उठ खड़ी हुई।
    उनका मेन असिस्टेंट एक कागज़ मेज़ पर रख गया —
    डील टर्मिनेशन लेटर।



    सन्नाटा और शर्मिंदगी – पिता और बेटे के बीच

    वे लोग चले गए।

    कुछ पल तक कोई कुछ नहीं बोला।

    फिर अर्जुन ने फ़ाइलें समेटते हुए ग़ुस्से से कहा –
    "ये सब उस लड़की की वजह से हुआ है, पापा।
    मैंने पहले ही कहा था — अखिल को थोड़ी लगाम दें…"

    "चुप रहो!" यशवर्धन की आवाज़ कांपती हुई गूंज उठी।

    "जब बेटा घर की इज़्ज़त को खिलौना बना दे,
    तो दोष किसी और पर नहीं जाता अर्जुन।
    अखिल को हमने ही उड़ने की आज़ादी दी थी —
    अब उसका तूफ़ान सब कुछ उड़ा ले गया।"

    अर्जुन चुप हो गया।
    उसके चेहरे पर अब भी झुंझलाहट थी, मगर पिता के शब्दों ने उसकी गर्दन झुका दी।



    सिक्योरिटी इंचार्ज की एंट्री – कुछ नई खबर

    उसी समय दरवाज़ा खुला।

    "सर!"
    राजवंशी सिक्योरिटी हेड अंदर आया, माथे पर पसीना।

    "हमें सूचना मिली है कि कुछ मीडिया पर्सन्स हमारी कंपनी के बाहर… और घर के आस-पास…
    लाइव टेलीकास्ट के लिए लाइन में लगे हुए हैं।
    और कुछ पेज थ्री रिपोर्टर्स ने सोशल मीडिया पर…
    ‘राजवंशी साम्राज्य का पतन शुरू’ जैसे कैप्शन चलाए हैं।"

    यशवर्धन ने अब अपनी आंखें बंद कर लीं।

    एक गहरी सांस ली — और बोला,

    "अखिल कहां है?"

    "सर… वो किसी से नहीं मिला आज। और न ही कॉल्स उठा रहा है।"



    डूबते हुए एक साम्राज्य की हलचल

    यशवर्धन उठे, और धीरे-धीरे कांफ्रेंस हॉल के एक कोने की ओर चले गए।
    वहाँ दीवार पर परिवार की तस्वीरें थीं —
    दादाजी, उनके पिता, फिर वो, और अब…

    अखिलेश की तस्वीर।

    वो उस पर एकटक देखने लगे।

    "इतिहास बनाते वक्त सोचता नहीं कोई —
    पर मिटते वक्त सिर्फ़ शर्म बचती है।"

    उनकी आवाज़ थकी हुई थी।



    अर्जुन का ग़ुस्सा – बदनामी का बोझ

    "पापा," अर्जुन बोला, "हमें अब एक प्रेस स्टेटमेंट देना होगा।
    या तो हम अखिल को डिफेंड करें, या उससे दूरी बना लें।
    वरना बाकी कॉन्ट्रैक्ट्स भी खिसक जाएंगे।
    आज शाम ‘ज़ेमस टेक’ से भी कॉल आई थी।
    उनका टोन बदला हुआ था…"

    यशवर्धन ने गहरी आवाज़ में कहा —
    "अखिल को खुद बोलना होगा।
    अगर वह साफ़ है, तो सच्चाई सामने लाए।
    अगर नहीं… तो हमारी चुप्पी ही हमारी ढाल बनेगी।"

    – डूबते सूरज के साए

    शाम ढलने लगी थी।

    कॉन्फ्रेंस रूम अब खाली था, पर टेबल पर अब भी डील टर्मिनेशन लेटर पड़ा था।
    अर्जुन खिड़की के पास खड़ा, नीचे मीडिया की गाड़ियों की लाइन देख रहा था।

    बाहर से चीखते कैमरे, अंदर से टूटता हुआ आत्मसम्मान।



    क्या राजवंशी साम्राज्य अब चुप रहेगा?
    या ये सन्नाटा किसी तूफ़ान की तैयारी है?

    “शतरंज का अगला मोहरा – जब राजवंशी सोचने लगते हैं पलटवार”


    स्थान: राजवंशी इंटरप्राइज़ेज़, चेयरमैन ऑफिस – 12वीं मंज़िल
    समय: दोपहर 1:05

    शहर की तेज़ धूप अब कांच की दीवारों से छनकर कमरे में फैल रही थी, लेकिन कमरे की हवा में एक गहरा भारीपन घुला हुआ था — मानो कोई अनदेखा कफन तैर रहा हो।

    यशवर्धन राजवंशी अपने महंगे बर्मा टीक वुड के डेस्क के पीछे गंभीर मुद्रा में बैठे थे। उनकी दाहिनी तरफ अर्जुन कुर्सी पर बैठा था, और बाईं तरफ बैठे थे कंपनी के लीगल हेड — धवल मेहता।

    कमरा बंद था, पर्दे खिंचे हुए, और मेज पर सिर्फ़ दो कॉफ़ी के कप बचे थे — एक आधा खाली, एक अब तक छुआ नहीं गया।

    “ये सिर्फ़ डील नहीं टूटी है,” अर्जुन की आवाज़ तेज़ नहीं थी, मगर उसके शब्द चाकू जैसे कटदार थे, “ये हमारा रुतबा टूटा है। और वो भी मीडिया के सामने — इंटरनेशनल प्रेस के सामने।”

    धवल ने गला साफ़ किया और धीरे से बोला, “हमें तुरंत एक लीगल शील्ड तैयार करनी होगी। चाहे अखिल दोषी हो या नहीं, अभी जो विडियोज़ घूम रहे हैं वो ‘कंसेंट’ से जुड़ा नहीं दिखते। और अगर कोई पार्टी आगे आकर… मामला कोर्ट में ले जाती है, तो…”

    यशवर्धन ने उनकी बात बीच में काटी —

    “वो वीडियो लीक कैसे हुआ, पहले ये पता करो। अखिल के खिलाफ साज़िश हुई है — और साज़िशें जब होती हैं, तो कोई मोहरा नहीं, कोई चाल नहीं — एक पूरा खिलाड़ी पीछे होता है।”

    एक नई आशंका – ‘भीतरघात?’

    “सर,” अर्जुन ने धीरे से कहा, “हमें एक बात सोचनी चाहिए – ये सब इतनी बारीकी से कैसे लीक हुआ? वो कमरा हाई सिक्योर होटल में था, वहाँ से CCTV या अंदर का फुटेज कैसे निकला?”

    धवल ने फ़ाइलें पलटते हुए कहा, “मैंने होटल को नोटिस भेजा है। उनकी मैनेजमेंट टीम से बात हुई थी – किसी ने बाहरी कैमरा फिट किया था, ये अब तक की जानकारी है। लेकिन हमें शक है, कोई इनसाइडर भी हो सकता है — जो राजवंशी नाम को गिराना चाहता है।”

    यशवर्धन कुछ पल चुप रहे। उनकी उंगलियाँ मेज़ पर धीरे-धीरे थपथपाती रहीं। फिर उन्होंने कहा —

    “कभी-कभी दुश्मन परिवार के भीतर ही होता है।”

    अर्जुन ने अचानक चेहरा उठाया। उसकी आँखों में झलक आया अविश्वास — “आप मुझ पर…”

    “मैं किसी पर नहीं,” यशवर्धन बोले, **“बस ये कह रहा हूँ — अब हर शख़्स को शक के घेरे में रखना होगा।”

    नया प्लान – प्रेस का जवाब, मीडिया की चाल

    “अब आगे क्या?” अर्जुन ने सीधा सवाल पूछा, “अगर हम चुप रहे, तो मीडिया हमें खा जाएगी। और अगर बोले, तो अखिल का चेहरा खुल जाएगा — फिर शायद हमेशा के लिए।”

    धवल ने कहा, “हमारी पब्लिक रिलेशंस एजेंसी ‘व्हाइट स्केल’ से बात हुई है। उन्होंने सुझाव दिया है कि हम तीन भागों में जवाब दें:



    इंटरनल फैमिली इन्वेस्टिगेशन — हम खुद बताएँ कि हम जाँच कर रहे हैं।



    की बहाली — यशवर्धन सर एक वीडियो स्टेटमेंट दें, जिसमें राजवंशी मूल्यों की बात हो।


    अखिल को पब्लिकली हटाना — अगर कुछ दिन उसे बोर्ड से बाहर दिखाया जाए, तो झटका कम होगा।



    अर्जुन झल्लाया, “मतलब हम अपने ही भाई को फेंक दें… मीडिया की भेंट चढ़ा दें?”

    यशवर्धन ने धीरे से कहा —

    “राजवंशी का झंडा अगर गिरा… तो उसे फिर कोई नहीं उठाएगा अर्जुन। हम सब उसमें दब जाएँगे। अखिल खुद अगर निर्दोष है — तो उसे सामने आकर लड़ना होगा।
    पर अभी… हमें वक़्त चाहिए। उसे शतरंज की बिसात से हटाना, हमारी चाल नहीं — हमारी ढाल है।”

    अर्जुन की नज़रें अब बुझने लगी थीं —
    भाई था अखिल, पर कारोबार खून से नहीं चलता।

    फ्लैशबैक – अखिल और उसका बिगड़ता रास्ता

    कुछ पलों की चुप्पी में, कमरे की हवा जैसे अतीत के धागों को खोलने लगी।

    यशवर्धन बोले — “जब उसने पहली बार पैसे के बदले वो मॉडलिंग इवेंट करवाया था, तभी समझ गया था मैं कि उसकी दिशा ग़लत है। पर मां ने कहा — ‘बच्चा है, सुधर जाएगा’।”

    “वो सुधरा नहीं,” अर्जुन ने ठंडी आवाज़ में जोड़ा, “उसने राजवंशी नाम को स्टाइल और शराब में बदल दिया। और अब…”

    “अब वो हमारी सबसे बड़ी कमजोरी है।”

    यशवर्धन की आँखें अब तेज़ थीं। चेहरे पर अटूट निर्णय की परछाईं साफ़ दिख रही थी।

    “पर कमजोरी को ढाल बनाया जा सकता है — अगर चाल ठीक हो।”

    दरवाज़े पर दस्तक – नया मोहरा दाख़िल

    ठीक उसी समय, दरवाज़े पर दस्तक हुई।

    “सर,” पर्सनल असिस्टेंट बोली, **“मिस ‘अनया सिंघल’ आई हैं — उनका कहना है कि वे अखिलेश सर के बारे में कुछ जानती हैं।”

    यशवर्धन और अर्जुन दोनों चौंक पड़े।

    “कौन?”

    “कह रही हैं, अखिल सर की पुरानी फ्रेंड… और आज सुबह होटल में उन्हें आखिरी बार उन्होंने देखा था।”

    कमरे में हलचल दौड़ी।

    “उसे अंदर भेजो।”

    कुछ ही पल बाद, अंदर प्रवेश हुआ — अनया सिंघल।

    करीब 26 वर्ष की, स्मार्ट पैंटसूट में, बाल बंधे हुए, मगर आँखें कुछ कहती हुई।

    “सर,” उसने कहा, “मैं जानती हूँ कि इस वक्त मैं आपकी मुश्किल बढ़ा सकती हूँ या आसान कर सकती हूँ। मैं वो लड़की नहीं हूँ जो उस वीडियो में थी — लेकिन मैं जानती हूँ कि वो कौन थी, और कौन उसे वहाँ लेकर गया।”

    अर्जुन तुरंत खड़ा हुआ, “क्या?”

    अनया ने एक लिफाफा मेज़ पर रखा।

    “ये होटल के उसी फ्लोर का एक और वीडियो है — जिसमें साफ़ दिखता है कि वो लड़की खुद नहीं आई थी… उसे किसी ने भेजा था। और उस 'किसी' का नाम… शायद आप सुनकर चौंक जाएँगे।”

    यशवर्धन ने वह लिफाफा उठाया। वीडियो क्लिप जैसे ही चली — अर्जुन के चेहरे की रेखाएँ सख्त हो गईं।

    क्लिप में था — राजवंशी हाउस के एक पुराने कर्मचारी 'नागेश' को, उसी युवती को होटल में छोड़ते हुए।

    नागेश — जो एक समय अर्जुन के पर्सनल सेक्रेटरी रह चुका था।

    राजवंशी की आँखें — अब चुप नहीं थीं

    यशवर्धन ने वीडियो पॉज़ किया। कमरे की हवा अब सर्द थी।

    “ये सिर्फ़ स्कैंडल नहीं था। ये एक साज़िश थी।”

    “और इसका जवाब,” अर्जुन ने कहा, “अब प्रेस में नहीं — खेल के मैदान में दिया जाएगा।”

    यशवर्धन ने धीरे से कहा:

    “अब बारी है — हमारे अगले मोहरे की।”

    – बोर्ड सेट हो चुका है

    बाहर अभी भी मीडिया के कैमरे चमक रहे थे। लेकिन अब राजवंशी ऑफिस के अंदर एक नई तैयारी शुरू हो चुकी थी।

    शतरंज की बिसात पर अब चालें बदलने वाली थीं।

    क्या अखिल को वापसी का मौका मिलेगा?
    या राजवंशी परिवार अपनी ही छाया से लड़ता रहेगा?
    और सबसे बड़ा सवाल — ये चाल किसने चली थी?
    राजवंशी नाम अब जवाब मांगेगा।

  • 5. बेशर्म इश्क़ - Chapter 5

    Words: 1778

    Estimated Reading Time: 11 min

    अध्याय – “सांकल की आवाज़ – जब डर के आगे हिम्मत जागे”

    स्थान: रैना का घर
    समय: रात 8:47

    दीवारों की दरारों में जैसे सन्नाटा रिस रहा था।
    बिजली की हल्की-सी झपक… और पूरे कमरे में एक क्षणिक अंधेरा।
    रैना अभी तक वहीं थी — दरवाज़े के पास ज़मीन पर बैठी।

    उसकी हथेलियों पर अभी भी उसके नाखूनों के निशान उभरे थे — घबराहट की पकड़ में खुद को भी कस लिया था। लेकिन उसकी आँखें अब थकी हुई नहीं थीं — उनमें एक अजीब सा तनाव था, जैसे भीतर कुछ उबल रहा हो।

    ट्र्र्रर्र्र…

    एक और दस्तक — इस बार न धड़ाधड़, न ज़ोर की मार। बस एक ठंडी, खामोश दस्तक।

    रैना उठी। धीरे-धीरे दरवाज़े तक चली। peephole से देखा — वही चेहरा।

    अखिलेश राजवंशी।

    लेकिन इस बार वो अकेला था।

    उसने दरवाज़ा खोला नहीं। बस आवाज़ दी —
    “अब क्या बचा है कहने को?”

    अखिल की आवाज़:
    "वो जो अब तक तूने छिपाया है।"

    रैना कुछ पल चुप रही। फिर बोली —
    "कितनी बार कहूं — मैंने कुछ नहीं किया?"

    अखिल ने गहरी साँस ली, और अपनी जेब से कुछ तस्वीरें निकालीं।
    दरवाज़े की दरार से भीतर सरकाईं।

    “ये देख। ये सारी तस्वीरें, वीडियो क्लिप्स, न्यूज़ चैनलों पर घूम रही हैं।
    तेरे एक हावभाव ने… मेरी पूरी छवि मिट्टी में मिला दी। तूने कुछ नहीं किया? तो फिर ये सब क्या है?”

    रैना तस्वीरें देखती है — एक कैमरे की झिलमिल रोशनी में कैद उसके डरे चेहरे की तस्वीरें… उसकी खामोशी… अखिल के पीछे खड़े बॉडीगार्ड्स… और मीडिया का वो झूठा विमर्श जो बना दिया गया था।

    वो अब चुप नहीं रह सकती थी।

    “मेरे डर को तुमने ही जन्म दिया था, अखिल। उस रात तुमने ही मुझे घेरा था… तुम्हारे सवाल, तुम्हारी आँखे… सब जैसे मुझे चीर डालने को तैयार थे।”

    अखिल ने दरवाज़ा हलके से धक्का देकर खोलने की कोशिश की।
    “मैं जानना चाहता हूँ सच्चाई — और अब मैं पीछे नहीं हटूँगा।”

    रैना चिल्लाई —
    “पीछे हटो! मत बढ़ो!”

    उसकी आवाज़ थरथरा गई थी, लेकिन इस बार उसमें एक चिंगारी थी।

    “अगर एक और कदम मेरी तरफ बढ़ाया, तो पुलिस को बुला लूंगी।
    क्या समझ रखा है खुद को?
    तुम कोई भगवान नहीं हो! बस एक आदमी हो जो ताक़त के नशे में चूर है!”

    अखिल थोड़ा चौंका।
    अब तक उसने रैना को इस तेवर में कभी नहीं देखा था।

    “तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई?
    जब जानती हो मैं अकेली हूं घर में, फिर भी इस वक्त आए?
    दरवाज़ा पीटा, डराया, धमकाया… क्या यही है तुम्हारा सच?”

    अखिल (गंभीर होकर)
    “मैं डराने नहीं आया… सच्चाई खींचने आया हूँ।
    जिस दिन तूने चुप रहकर सबके सामने मुझे गिराया, उस दिन तूने ये हक़ खो दिया कि अब तेरे सामने नरमी रखूं।”

    “तो अब क्या करोगे?” रैना चीखी।
    “बदला लोगे? धमकाओगे?
    तो सुन लो — तुम्हारी इस चुप्पी के तले अब मेरा डर मर चुका है। अब जो सामने है, वो सिर्फ़ मैं हूं — एक लड़की जो टूट तो गई थी, पर खत्म नहीं हुई!”

    कमरे की हवा थम गई।

    अखिल का चेहरा तना हुआ था — गुस्से, हताशा और असमंजस में उलझा हुआ।

    तभी —
    उसके फोन की घंटी बजी।

    उसने कॉल उठाया, और सुनते ही चेहरा और ज़्यादा सख्त हो गया।

    “हाँ?”
    (दूसरी तरफ से आवाज़ आती है — कोई बिजनेस सहयोगी या मीडिया मैनेजर।)

    "हाँ... मैं समझता हूँ... नहीं, फिलहाल कोई कमेंट नहीं।"
    (एक लंबा पॉज़)
    "ठीक है। मैं खुद सब संभाल लूंगा।"

    फोन काटकर उसने रैना की तरफ देखा — अब उसकी आंखों में लपट नहीं थी, पर हारा हुआ घमंड था।

    “ये मेरी आखिरी वार्निंग है, ।
    अगर तूने नहीं बताया कि उस रात असल में क्या हुआ था — तो मैं वो कर दूंगा, जिसकी तूने कल्पना भी नहीं की होगी।”

    “तेरे पास जो कुछ भी है — तेरी इज्जत, तेरा नाम, तेरा कॉलेज, तेरा छोटा सा करियर — मैं सबकी हवा निकाल दूंगा।”

    रैना खड़ी रही — इस बार ना डरी, ना कांपी।

    बस एक बात बोली —
    “तुम जो कर सकते हो, वो कर लो मिस्टर।
    पर एक बात मैं भी कह रही हूं —
    अगर तुम दोबारा मेरे दरवाज़े पर बिना इजाज़त आए,
    या एक और बार मुझे इस तरह डराने की कोशिश की…
    तो मैं पुलिस में सिर्फ शिकायत नहीं करूँगी —
    बल्कि तुम्हारा हर झूठ बाहर लाऊँगी।
    तब देखना… कौन शर्मिंदा होता है — मैं, या तुम।”

    अखिल कुछ कहने ही वाला था, लेकिन रैना की आँखों में जो स्थिरता थी — उसने उसकी जुबान बाँध दी।

    अखिल ने मुड़ते हुए एक सख्त आवाज़ में कहा —
    “24 घंटे का वक्त दे रहा हूँ।
    अगर तब तक सच्चाई बाहर नहीं आई —
    तो जो बचेगा, वो सिर्फ नाम, रिश्ते और इज्जत की राख होगी।”

    वो बाहर निकल गया।


    – जब भीतर की चुप्पी क्रांति बन जाए

    दरवाज़ा फिर से बंद हुआ।

    रैना ने उसे दो लॉक से बंद किया —
    फिर सांकल चढ़ाई… और दीवार से टिक गई।

    उसकी साँसे तेज़ थीं, लेकिन आंखों में एक नया रंग था — डर का नहीं, तैयारी का।

    कंधे पर पड़ी चुन्नी को उसने ठीक से लपेटा।

    उसके कानों में अब भी अखिल की धमकी गूंज रही थी —
    पर उस गूंज के भीतर एक नई आवाज़ थी — खुद की।

    “अब बहुत हो गया।”

    वो पलटी, और कमरे में रखी पुरानी डायरी उठाई।

    धीरे-धीरे उसके पन्ने पलटे… और फिर एक जगह आकर थम गए।

    जहाँ कुछ नाम, तारीखें, और कुछ छोटी बातें लिखी थीं।

    उसने देखा… और बहुत धीमे से फुसफुसाई —
    “अब सच्चाई बोलनी पड़ेगी… क्योंकि चुप्पी अब खुद पर भारी पड़ने लगी है।”

    “एक उम्मीद – जब सादगी राजवंश की देहरी पर खड़ी हो”

    सुबह के लगभग आठ बज रहे थे।

    राजवंशी हवेली के आँगन में हल्की-सी धूप उतर आई थी, जो संगमरमर की फ़र्श पर मोती जैसी चमक रही थी। रात की उथल-पुथल के बाद हवेली कुछ शांत थी, लेकिन वह शांति असली नहीं थी — जैसे किसी आँधी से पहले की चुप्पी।

    माहौल में खामोशी घुली थी, मगर तभी मुख्य दरवाज़े की तरफ़ से एक सधी हुई आहट सुनाई दी।

    एक लड़की – गहरे गुलाबी रंग की सिल्क की सूट सलवार पहने हुए, बालों को करीने से खुले छोड़े हुए, हाथों में हल्के चूड़ियों की खनक – धीरे-धीरे भीतर आई।

    उसके पीछे नौकर उसके साथ लाया गया छोटा-सा सामान और गिफ्ट्स लिए चल रहे थे। लड़की की चाल में संयम था, चेहरे पर मुस्कान, और आँखों में गहराई।

    वह थी – शालिनी वर्मा। अखिलेश राजवंशी की मंगेतर।

    चार महीने पहले ही दोनों की सगाई हुई थी – एक सादगी से भरे, लेकिन बेहद भावनात्मक समारोह में। शालिनी, मुम्बई के एक प्रतिष्ठित बिजनेस मेन की बेटी थी, और खुद एक सॉफ्टवेयर इन्जीनियर। खूबसूरती में उतनी ही सौम्य जितनी तेज़ तर्रार दिमाग में। अखिल के साथ उसका रिश्ता पारंपरिक होते हुए भी बहुत आधुनिक सोच पर टिका था – बराबरी, भरोसा और अपनापन।

    “रामलाल काका, दादीजी कहाँ हैं?” – उसने मुस्कराकर पूछा।

    “अंदर कमरे में हैं बिटिया, सुबह से कोई बोले नहीं रहा, सब थोड़े... परेशान से हैं।” रामलाल काका ने धीरे से जवाब दिया, फिर पूछा, “आपने कुछ खाया है बिटिया?”

    “नहीं काका, पहले सबको मिल लूँ, फिर चाय पियूँगी। वैसे अगर इलायची वाली चाय मिल जाए, तो मज़ा आ जाएगा।” उसने मुस्कराकर कहा।

    हॉल की ओर बढ़ते हुए शालिनी ने देखा – चारों ओर सन्नाटा था। वो चुपचाप सबके लिए लाई गई गिफ्ट बैग्स एक मेज़ पर रखवा चुकी थी — सबके नाम की सुंदर लेबलिंग के साथ — दादीजी के लिए एक कश्मीरी शॉल, दादाजी के लिए क्लासिक वॉच, यशवर्धन अंकल के लिए एक पुरानी पेंटिंग की रेप्लिका जो उन्हें पसंद थी, और अर्जुन-राघव भाइयों के लिए वेलनेस किट्स बाकी घर में सब के लिए कुछ ना कुछ।

    “ये सब आप लाई हैं?” – पीछे से आवाज़ आई।

    शालिनी ने मुड़कर देखा – अर्जुन खड़ा था, थका-सा, लेकिन आँखों में सवाल।

    “हाँ भैया। मैं कल रात ही आने वाली थी, लेकिन फ्लाइट कैंसिल हो गई, तो आज सुबह की फ्लाइट पकड़ ली। और ये सब… मैंने सोचा, इस स्पेशल डे पर कुछ यादगार हो। मगर...” वो रुक गई।

    “मगर आज का दिन वैसा नहीं रहा…” अर्जुन ने अधूरी बात पूरी की।

    “हूँ।” शालिनी ने हल्के स्वर में सिर हिलाया।

    अर्जुन ने शालिनी को ऊपर से नीचे तक देखा – महंगे कपड़े, पर कोई बनावटी ठाठ नहीं। चेहरे पर शालीनता, और बात करने में सहज आत्मविश्वास। वो वही लड़की थी जिसे देखकर अखिल ने एक बार कहा था — ‘इसके साथ ज़िंदगी सुकून में बहेगी, तूफ़ानों में भी।’

    “चाय मांगवाऊ ?” – अर्जुन ने अचानक कहा।

    “नहीं भैया,” शालिनी मुस्कुराई, “मैं खुद किचन में बना लूँगी, काका के साथ। वैसे भी मुझे यहाँ की रसोई बहुत अच्छी लगती है – बसंती काकी की बनाई इमली की चटनी तो भूली नहीं हूँ।”

    अर्जुन का चेहरा कुछ हलका हुआ।

    “दादी से मिल लूँ?” उसने पूछा।

    “मिल लो। लेकिन हो सके तो ज़्यादा सवाल मत करना |"
    शालिनी ने धीमे से सिर हिलाया।

    दादी के कमरे की ओर बढ़ते उसके क़दम अब थोड़ा धीमे थे।

    दरवाज़ा खटखटाया।
    अंदर से कोई जवाब नहीं आया।
    उसने धीरे से दरवाज़ा खोला।

    दादी जी बिस्तर पर बैठी थीं, आँखों में वीरानगी और हाथों में अखिल का बचपन का एक फ़ोटो।

    “दादी...” शालिनी ने धीरे से आवाज़ दी।

    दादी ने सिर उठाया, और हल्के से मुस्कराईं।

    “आ गई तू?”

    “हाँ दादी… सब कैसे हैं?” – उसने धीरे से आकर उनके पास बैठते हुए पूछा।

    “तू देख ही रही है… हवेली जो रौनक थी, वो जैसे किसी ने खींच ली हो।”

    शालिनी ने उनका हाथ थामा।

    “अखिल कहाँ है?”

    “अपने कमरे में... चुपचाप।”

    “कुछ कहा उसने?”

    “बस यही कि वो बेगुनाह है। पर बिटिया... आजकल लोग तो कैमरे से सच नहीं, मसाला ढूँढते हैं।”

    शालिनी ने थोड़ी देर कुछ नहीं कहा।
    फिर बोली, “दादी... कभी-कभी सच की शक्ल भी सवाल जैसी लगती है। पर मैं जानती हूँ... अखिल जैसा लड़का ऐसा कुछ कर ही नहीं सकता। ना आपके संस्कार, ना उसके स्वाभिमान में ऐसी चीज़ की गुंजाइश है।”

    दादी की आँखें भर आईं।

    “तू अखिल से मिल ले। शायद तुझसे कुछ कह पाए।”



    उसी वक़्त नीचे किचन में – रामलाल और बसंती चाय बना रहे थे।

    “बहुत भली बिटिया है ये शालिनी,” बसंती बड़बड़ा रही थी, “ना कोई नखरा, ना बनावटी बात। और देख रामलाल, सबके लिए तोहफे लाईं है। जबकि खुद के ऊपर आफत आई है।”

    “हूँ,” रामलाल बोला, “आजकल ऐसी लड़कियाँ कहाँ मिलती हैं? आँखों में नम्रता और चाल में इज़्ज़त।”

    “चाय इलायची वाली बना रही हूँ – जैसे इन्हें पसंद है।”

    “अच्छा कर रही है। आज इस हवेली में कोई तो है, जो अपना सलीका नहीं भूली।”



    उधर, शालिनी अब धीरे-धीरे अखिल के कमरे की ओर बढ़ रही थी।

    उसके चेहरे पर अभी भी वही ठहराव था – ना शक, ना डर, बस एक उम्मीद कि वो जिसे जानती है, उसे कोई गलत साबित नहीं कर सकता।

    दरवाज़े के पास पहुँचते हुए उसने बस हल्के से दस्तक दी...

  • 6. बेशर्म इश्क़ - Chapter 6

    Words: 1900

    Estimated Reading Time: 12 min

    अध्याय : “सच्चाई की सीधी बात – जब रिश्ते सवाल करते हैं”


    स्थान: राजवंशी हवेली, गेस्ट रूम
    समय: दोपहर 1:40

    राजवंशी हवेली के गेस्ट रूम में हल्का उजाला फैला हुआ था। खिड़की से आती धूप पर हल्के फूलों वाले परदे झूल रहे थे, और भीतर हल्की सी शांति थी — न कोई शोर, न कोई हड़बड़ी।

    कमरे में दो लड़कियाँ थीं — शालिनी, और उसके सामने बैठी थी चंचल, अखिलेश की छोटी बहन।

    चंचल कॉलेज में लॉ की स्टूडेंट थी, लेकिन हमेशा से ही थोड़ी संजीदा और गहरी सोच वाली लड़की रही थी। शालिनी से उसका रिश्ता सिर्फ़ भाभी वाला नहीं था — दोनों बचपन से दोस्त जैसे थे।

    आज, हालात कुछ अलग थे। रिश्ते उतने आसान नहीं रहे थे, और न ही बातें।

    चंचल ने एक ग्लास में पानी लेकर शालिनी की तरफ बढ़ाया —
    "पी लो। सुबह से तुम कुछ ढंग से खाई नहीं हो। मम्मी ने भी पूछा था, पर तुम सीधे कमरे में आ गईं।"

    शालिनी ने हल्की मुस्कान के साथ ग्लास लिया, दो घूंट पिए और धीरे से कहा —
    "भूख तो लगी है चंचल… लेकिन शायद आज भूख से ज़्यादा सच भारी लग रहा है।"

    चंचल चुप रही कुछ पल। फिर धीरे से बोली —
    "भाई ने कुछ बताया क्या?"

    शालिनी ने सिर हिलाया —
    "कुछ नहीं। बस चुप है। और वही चुप्पी… सब कुछ कह जाती है।"

    चंचल अपनी जगह से उठकर खिड़की के पास चली गई। बाहर कुछ देर देखती रही, फिर बोली —
    "तुम जानती हो ना शालिनी… अखिल भैया वैसे नहीं हैं।"

    शालिनी ने जवाब नहीं दिया तुरंत। बस अपने हाथ की चूड़ियों को धीमे-धीमे घुमाती रही। फिर बोली —
    "जानती हूँ। शायद इसीलिए आज भी यहाँ हूँ। वरना जो चीज़ें सामने आई हैं, वो किसी के भी भरोसे को तोड़ सकती थीं।"

    चंचल पलटी, और उसकी आँखों में थोड़ी थकान थी।

    "कभी-कभी सोचती हूँ, दुनिया कितनी जल्दी फ़ैसला कर लेती है। बस एक तस्वीर, एक वीडियो, एक हेडलाइन — और सब कुछ तय हो जाता है।"

    "हाँ। और जो इंसान सालों से अपनी पहचान बना रहा होता है, वो एक झटके में गिरा दिया जाता है," शालिनी ने धीमे से कहा।

    चंचल अब वापस बिस्तर पर बैठ गई।

    "सच कहूँ शालिनी… मैं डरी हुई हूँ। अपने भाई के लिए, अपने परिवार के लिए।"

    "तुम्हें डर है कि लोग क्या कहेंगे?" शालिनी ने सीधी नज़र से पूछा।

    "नहीं। मुझे डर है कि अगर सच… वाक़ई कुछ और निकला, तो मैं खुद को कभी माफ़ नहीं कर पाऊँगी।"
    चंचल की आवाज़ कांपी।

    "तुम्हें लगता है… अखिल झूठ बोल रहा है?"
    शालिनी ने यह सवाल बहुत साफ़ स्वर में किया, लेकिन उसके पीछे गहरी संवेदना थी।

    चंचल कुछ पल चुप रही। फिर बोली —
    "मैं जानती हूँ, भैया गुस्सैल है, थोड़ा एग्रेसिव भी… लेकिन ऐसा कुछ? नहीं, नहीं लगता। फिर भी… ये सब इतना अजीब है कि कभी-कभी खुद से भी सवाल करने का मन करता है।"

    "सवाल करना ग़लत नहीं होता चंचल," शालिनी बोली।
    "गलत तब होता है जब हम डर के मारे जवाब ढूंढना बंद कर देते हैं।"

    चंचल ने सिया की तरफ देखा।

    "तुम इतनी शांति से ये सब कैसे झेल रही हो?"

    शालिनी थोड़ी देर सोचती रही। फिर बोली —
    "शायद क्योंकि मैं उसे प्यार करती हूँ। और प्यार में सबसे पहला कर्तव्य यही होता है — भरोसे को जल्दी मत गिराओ। लेकिन भरोसे को आँख बंद करके पकड़ो भी मत।"

    "मतलब?"

    "मतलब — मैं जानती हूँ कि अखिल कैसा इंसान है। लेकिन ये भी जानती हूँ कि इंसान हमेशा वही नहीं रहता जैसा उसे समझा गया था। कभी-कभी हालात, कभी कोई दर्द, या कोई अनकहा डर — उन्हें वो कुछ करने पर मजबूर कर देता है, जो वो खुद भी न करना चाहें।"

    चंचल की आँखें भर आईं।

    "और अगर भैया वाकई कुछ छिपा रहे हैं?"

    "तो वो मेरे सामने कहेंगे — यही उम्मीद करती हूँ। और अगर नहीं कहा, तो भी… मैं चुप नहीं रहूँगी।"

    "शालिनी… तुम क्या करना चाहती हो?"

    शालिनी ने गहरी साँस ली।

    "मैं सिर्फ़ सच्चाई जानना चाहती हूँ। न अखिल को बचाना है, न गिराना है। पर अगर किसी ने उनका नाम घसीटा है, झूठ बोला है, तो वो भी सामने आना चाहिए। और अगर वाकई कोई गलती हुई है, तो उसकी माफ़ी भी सच्ची होनी चाहिए — ना कि अहंकार से भरी सफाई।"

    चंचल ने सिर झुका लिया।
    "काश… हमारे घर के मर्द भी इस तरह सोच पाते।"

    शालिनी मुस्कराई नहीं — बस उसकी आँखों में एक शांति सी चमक आई।

    "सोचना लड़कियों की मजबूरी नहीं है, चंचल। ये हमारी ताक़त है। तुम भी सोचो — सिर्फ़ रिश्ता निभाने के लिए नहीं, अपने आप को समझने के लिए भी।"

    "क्या आप माफ़ कर पाओगी भैया को, अगर कुछ गलत निकला?"

    "हाँ, अगर वो सच्चाई बोलेगा — और सच्चाई सिर्फ़ ये नहीं होती कि उसने क्या किया… सच्चाई ये होती है कि उसने क्यों किया, और अब वो क्या करने को तैयार है।"

    कमरे में कुछ देर सन्नाटा छाया रहा। खिड़की के बाहर धूप अब थोड़ी तेज़ हो गई थी। पर्दों से छनती रौशनी सिया के चेहरे पर गिर रही थी — उसमें कोई डर नहीं था, न कोई दिखावा।

    "शालिनी," चंचल ने अचानक कहा, "क्या तुम को लगता है कि तुम भैया की ज़िंदगी में वो बदलाव ला सकेंगी जिसकी उन्हें ज़रूरत है?"

    शालिनी ने बहुत शांत स्वर में कहा —
    "मैं कोई बदलाव नहीं ला सकती चंचल। लेकिन अगर कोई इंसान खुद बदलना चाहे, तो मैं उसका हाथ नहीं छोड़ूंगी।"

    चंचल के होंठों पर हल्की-सी मुस्कान आई — थकी हुई, लेकिन सच्ची।

    "तुम बहुत अलग हो, शालिनी। शायद यही वजह है कि भैया तुम्हें लेकर हमेशा एक भरोसा महसूस करते थे।"

    शालिनी ने एकदम सधी हुई आवाज़ में जवाब दिया —
    "अब वो भरोसा मेरी परीक्षा में है — और मैं इस बार खुद को गिरने नहीं दूँगी।"

    कमरे की घड़ी ने दो बजने की घंटी दी।

    चंचल उठी और बोली —
    "चलो, मैं तुम्हारे लिए काॅफी लाती हूँ। और हाँ… दादीजी ने कहा था, तुम्हें यही ठहराना है — लेकिन भैया के कमरे से अलग।"

    शालिनी ने सिर हिलाया।
    "ठीक है। कुछ दूरी ज़रूरी है — जब तक सच्चाई सामने न आ जाए।"

    दोनों लड़कियाँ अब कमरे से बाहर निकल रही थीं — एक के कदमों में ठहराव था, तो दूसरी के मन में सवाल।

    लेकिन दोनों के बीच एक बात साझा थी — सादगी से सच्चाई की तलाश।


    “विश्वास की चुप्पी – जब प्रेम अपना वादा दोहराए”

    स्थान: राजवंशी हवेली – प्रथम मंज़िल, गेस्ट रूम
    समय: दोपहर के 3:20

    शालिनी हल्के गुलाबी साटन की चुन्नी को कंधे पर सही कर, खिड़की के पास खड़ी थी। नीचे बग़ीचे में फूलों के बीच फैली धूप में हवेली की दीवारों की पुरानी चमक अब थोड़ी धुंधली-सी लग रही थी। शायद क्योंकि घर के भीतर कुछ बुझा हुआ था — रिश्तों की रौशनी, भरोसे का ताप।

    कमरे का दरवाज़ा हल्के से खटखटाया गया।

    “आ जाओ,” शालिनी ने बिना मुड़े कहा।

    चंचल अंदर आइ उसके हाथ में कॉफी की ट्रे थी — दो खूबसूरत मग, साथ में स्नेस, और एक नैपकिन।

    “तुम्हें पता है ना, इस हवेली में तुम मेहमान नहीं हो?” चंचल ने कहा, ट्रे को टेबल पर रखते हुए।

    शालिनी मुस्कुराई, लेकिन मुस्कान में आज वो चंचलता नहीं थी — बस एक हल्की सी थकान।

    “मालूम है, इसीलिए तो बिन पूछे तुम्हारे कमरे में आ गई,” चंचल बोली और दोनों हँस दीं — हल्की, बेहद साधारण, मगर असली हँसी।

    चंचल ने मग उठाकर शालिनी को दिया।

    “इलायची कम, कॉफी ज़्यादा — जैसे तुम्हें पसंद है।”

    “तुम अब भी ध्यान रखती हो?” शालिनी ने धीरे से कहा।

    “रखती नहीं… सीख गई हूँ।”

    दोनों ने कॉफी का एक सिप लिया। कमरे में कुछ देर खामोशी रही — वैसी खामोशी जो कोई दूरी नहीं, बल्कि आत्मीयता पैदा करती है।

    “तो तुम कब से जानती हो… ये सब जो चल रहा है तुम्हें पता कैसे चला था?” चंचल ने धीरे से पूछा।

    शालिनी ने अपनी उंगलियों से मग की भाप पर एक छोटी सी लकीर बनाई, फिर देखा — संजना की आँखों में चिंता, असमंजस, और एक मौन भय था।

    “कल रात एयरपोर्ट पर जैसे ही लैंड की… फोन पर एक मैसेज आया — अखिल के बारे में। उसके बाद चैनल्स खोलकर देखा… और फिर कुछ नहीं समझ आया। मैंने कुछ भी नहीं सोचा, बस सुबह की पहली फ्लाइट ली और यहाँ चली आई।”

    “तुमने अभी तक भैया से बात की?”

    “नहीं। अभी तक नहीं। लेकिन बात तो मैं कब से कर रही हूँ — अपने अंदर, अपने विश्वास से।”

    चंचल ने सवाल भरी नज़र से देखा।

    शालिनी ने एक गहरी साँस ली। फिर बेहद धीमे और स्पष्ट स्वर में बोली —

    “मैं अखिल को बहुत प्यार करती हूँ, चंचल। और वो सिर्फ़ किसी ख़ूबसूरत रिश्ते के नाम पर नहीं… बल्कि एक सोच पर, उस इंसान की आत्मा पर।”

    चंचल ने धीरे से पूछा — “अगर उन्होंने वाकई कुछ किया हो तब भी क्या तुम हमेशा इस तरह उन से प्यार और विश्वास करोगी ?”

    शालिनी ने क्षण भर को चुप रहकर, बहुत सधी आवाज़ में जवाब दिया —

    “तब मैं उससे पूछूँगी ‘क्यों किया?’... लेकिन छोड़ूँगी नहीं मैंने तुम्हें पहले भी कहा था किसी को छोडना इतना आसान नहीं होता। किसी से प्यार ना करना फिर भी आसान है लेकिन किसी से प्यार कर निभाना बहोत मुश्किल”

    फिर एक सधी हुई मुस्कान उसके चेहरे पर लौटी।

    “पर मैं जानती हूँ… उसने कुछ गलत नहीं किया। उसकी आँखों में जो साफगोई है, जो कठोरता है बाहर से, उसमें भीतर की मासूमियत छिपी है। मैंने कभी उसे किसी और को बेइज़्ज़त करते नहीं देखा — ना बातों से, ना नज़र से। वो गुस्सैल हो सकता है, जिद्दी हो सकता है, पर ज़ालिम नहीं।”

    चंचल अब गौर से शालिनी को देख रही थी। उसकी आँखों में थोड़ी नमी थी।

    “मुझे डर लगता है शालिनी… कि ये दुनिया जो देखती है वो सच मानती है। यहाँ जो सबसे ज़्यादा चिल्लाता है, वही सबसे ज़्यादा सुना जाता है।”

    “जानती हूँ सब कुछ बहोत अच्छे से,” शालिनी ने कहा।

    “लेकिन इस बार चुप वो रहेगा जिसने सच देखा है। और आवाज़ मैं बनूंगी — क्योंकि मैं अब सिर्फ़ उसकी मंगेतर नहीं, उसकी दोस्त भी हूँ। उसका यक़ीन हूँ।”

    चंचल ने शालिनी की ओर हाथ बढ़ाया — शालिनी ने थामा।

    “तुम बहुत मज़बूत हो दी।”

    “नहीं, चंचल। मैं बस प्रेम को मज़बूत मानती हूँ। और वो जो मैं अखिल से करती हूँ, वो सिर्फ़ भाव नहीं है — वो एक निर्णय है। मैंने उससे प्यार करने का फ़ैसला तब नहीं किया जब सब आसान था… बल्कि अब ये फ़ैसला दोबारा किया है — जब सब मुश्किल है।”

    “तुमने उससे कभी कहा ये सब?”

    “कहने की ज़रूरत नहीं पड़ी। वो समझता है… लेकिन शायद आज कहना पड़ेगा। ताकि जब वो खुद को अकेला समझे, तो मेरी बात उसके भीतर गूंजे।”

    चंचल ने सिर हिलाया।

    “शालिनी… अगर आप चाहो तो मैं अखिल को बुला दूँ?”

    शालिनी ने मुस्कुरा कर ना में सिर हिलाया।

    “नहीं अभी नहीं। जब वो खुद को समझने के लिए अकेला होना चाहे, तब उसे अकेला ही रहने दो। लेकिन हाँ… जब वो तैयार हो, तब उसे ये बताना कि मैं उसका इंतज़ार कर रही हूँ — बिना किसी सवाल के।”

    कमरे में अब कॉफी का प्याला खाली हो चुका था, लेकिन बातों की गरमी से दोनों के मन कुछ हल्के हो चुके थे।

    चंचल ने उठते हुए कहा —

    “आपको देखकर लगता है दी कि कुछ भी बिखरे, अगर साथ में ऐसा यक़ीन हो… तो सब संभल सकता है।”

    शालिनी ने पीछे से कहा —

    “यही तो प्रेम है, चंचल। टूटने पर भी जो जोड़े… और डगमगाने पर भी जो थामे रखे।”

    लेकिन प्रेम की प्रतिज्ञा अब स्थिर है।

  • 7. बेशर्म इश्क़ - Chapter 7

    Words: 1884

    Estimated Reading Time: 12 min

    अध्याय: परतें खुलती हैं – जब सन्नाटा गवाही दे



    सुबह के ठीक नौ बजे थे।

    टीवी स्क्रीन पर एक लाल पट्टी बार-बार चमक रही थी —
    "ब्रेकिंग न्यूज़: राजवंशी खानदान के वारिस अखिलेश पर गंभीर आरोप – एक युवती को धमकाते हुए वीडियो वायरल!"

    हर न्यूज़ चैनल, हर मोबाइल स्क्रीन, हर सोशल मीडिया स्टोरी — एक ही वीडियो, एक ही आवाज़, एक ही चेहरा।
    और उस वीडियो में — अखिल, रैना के घर के सामने खड़ा था। गुस्से में, दबाव में, रुतबे में।
    और रैना — डरी हुई, काँपती हुई, चुप।

    कैमरे का कोण ऐसा था कि बहुत कुछ साफ नहीं था, लेकिन इतनी स्पष्टता थी कि चेहरों के भाव पढ़े जा सकें।
    और भावों से बड़ा कोई सबूत नहीं होता।



    परिवार के भीतर का तूफान

    राजवंशी हवेली का ड्राइंग रूम अब टीवी की आवाज़ से गूंज रहा था —
    लेकिन ये आवाज़ सूचना की नहीं, सदमे की थी।

    मम्मी रसोई से बाहर आईं, हाथ में चाय का कप कांपता हुआ।
    "ये… ये क्या दिखा रहे हैं टीवी पर?"

    यशवर्धन ने अख़बार का पन्ना मोड़ा और एक टक टीवी की ओर देखने लगे।

    टीवी पर न्यूज़ एंकर की आवाज़ गूंज रही थी —
    "राजवंशी फैमिली की छवि पर अब फिर एक नया विवाद। वायरल हो चुके वीडियो में साफ़ देखा जा सकता है कि अखिलेश एक युवती को डराने-धमकाने की कोशिश कर रहे हैं। अभी तक किसी भी पक्ष की ओर से आधिकारिक बयान नहीं आया है…"

    दादा जी की आँखों में गहराई से भरा ग़ुस्सा उतर आया।
    "हमने उसे हमेशा सिखाया था कि इज्ज़त पहले… पर अब इज्ज़त ही मिट्टी में मिल रही है!"

    दादी, जो अब तक बस चुप बैठी थीं, धीरे से कहती हैं —
    "पर ये सच है या कोई साजिश?"

    अर्जुन ने मोबाइल उठाया और ट्विटर खोलते ही चौंक गए —
    "#AkhileshRajvanshiExposed टॉप ट्रेंड में चल रहा है।
    हर तरफ़ यही वीडियो घूम रहा है।"

    राघव, जो कॉलेज के लिए तैयार हो चुका था, बैग ज़मीन पर पटक कर बैठ गया —
    "भाई… ये तो पागलपना है! क्या कभी सोचा था कि हमारे घर का नाम इस तरह बदनाम होगा?"

    तभी —

    ऊपरी मंज़िल से एक धीमी आहट आई।



    शालिनी का प्रवेश – चुप आहटों के साथ

    सीढ़ियों पर एक के बाद एक धीमे क़दम पड़े।

    शालिनी थी।

    उसने नीचे आते वक़्त किसी से कुछ नहीं पूछा।
    बस कमरे से निकलते ही उसे हल्की हलचल सुनाई दी थी — और फिर वह नीचे चली आई।

    रेशमी नीले सलवार सूट में लिपटी हुई, चेहरे पर नींद का असर साफ था।
    पर उसकी आँखें अब तेजी से साफ़ होती जा रही थीं — जैसे हर फ्रेम उसे झकझोर रहा हो।

    उसने नीचे आकर सीधे टीवी स्क्रीन की तरफ़ देखा।
    वहाँ उसका मंगेतर था — अखिल — गुस्से से भरा हुआ, किसी के दरवाज़े के सामने खड़ा।

    टीवी से आवाज़ आई —
    "अब तेरी खामोशी मेरे खिलाफ गवाही बन चुकी है!"

    शालिनी की आँखें फटी की फटी रह गईं।
    उसके चेहरे पर एक स्थिरता आ गई, और उसकी सांसें जैसे किसी ने बाँध दी हों।

    वो कुछ बोल नहीं पाई — न किसी से पूछा, न कुछ कहा।
    बस कुर्सी पर आकर धप्प से बैठ गई।

    टीवी पर हर फ्रेम, हर सेकेंड — उसके भीतर की परतों को तोड़ रहा था।



    रैना का मौन – भीतर और बाहर

    उधर रैना अपने कमरे में अकेली बैठी थी।

    मोबाइल पर मेसेज, नोटिफिकेशन, अनगिनत कॉल्स… सब लगातार आ रहे थे।

    "क्या आप प्रेस कॉन्फ्रेंस करेंगी?"
    "FIR करवाई आपने?"
    "ये वीडियो कैसे लीक हुआ?"
    "आप अब क्या चाहती हैं?"

    रैना इन सबका जवाब नहीं दे रही थी — वो बस पढ़ रही थी।
    और सोच रही थी —

    "मैंने ये वीडियो तो नहीं बनाया…
    फिर… ये बाहर कैसे आया?"

    उसके चेहरे पर अब डर नहीं था।
    उसकी आँखें बुझी हुई थीं, लेकिन उनमें चिंगारी भी पल रही थी।
    वो जानना चाहती थी — किसने यह सब किया? और क्यों?



    मीडिया का तूफ़ान – जब हर शब्द एक हथियार बन जाए

    मीडिया स्टूडियोज़ में चर्चा शुरू हो चुकी थी।

    "क्या यह सिर्फ़ एक रिश्ता था जो बुरा टूटा?"
    "या पावर का मिसयूज़, जो अब सामने आ गया?"

    "क्या अखिलेश राजवंशी को बरी कर दिया जाएगा, क्योंकि वो 'राजवंशी' है?"

    हर शो, हर डिबेट में अखिल पर उंगलियाँ उठ रही थीं।

    हर अख़बार की हेडलाइन थी —
    "राजवंशी वारिस पर आरोप – दबंगई या साज़िश?"


    शालिनी की प्रतिक्रिया – जब भरोसे की नींव डगमगाने लगे

    शालिनी ने रिमोट उठाया और टीवी की आवाज़ बढ़ा दी।

    दूसरे चैनल पर अब वीडियो को स्लो-मोशन में दिखाया जा रहा था —
    रैना की आँखें, उसका डर, उसका पीछे हटना।

    अखिल की छवि — और भी धुंधली होती जा रही थी।

    शालिनी के हाथ से रिमोट गिर गया।
    उसकी अंगूठी अब उसे बोझ लगने लगी थी।

    उसे याद आया —
    “रैना? ये कौन लड़की है क्या हम पहले कभी मिले है।”
    अगर अखिल इसे नहीं जानता तो उसके घर कैसे पहुंचा ।

    तो फिर ये सब क्यों?

    क्या सच में कोई साज़िश थी?

    या फिर प्यार का झूठ — आज सच्चाई के सामने बेनकाब हो रहा था?



    आत्ममंथन – जब प्रेम सवाल बन जाए

    शालिनी उठकर हॉल के बीच आकर खड़ी हो गई।

    "मम्मी… आप लोग ये देख रहे हैं?"
    उसकी आवाज़ में एक अजीब सी नमी थी।

    कोई जवाब नहीं आया — बस कुछ झुकी हुई नज़रें, कुछ खामोश चेहरे।

    शालिनी ने एक-एक को देखा।
    फिर दादी के पास जाकर बैठ गई।

    "दादी… जब किसी लड़की की आँखों में डर होता है — क्या वो डर झूठा होता है?"

    दादी की आँखें छलक गईं, पर उन्होंने उसका हाथ थामा।
    एक इशारे में जैसे पूरी बात कह दी।


    शालिनी चुपचाप अपने कमरे की ओर बढ़ गई —
    पर अब उसका हर क़दम किसी जवाब की तलाश में था।

    और इस बीच… घर में अब भी टीवी चल रहा था।
    हर दृश्य — एक सवाल।
    हर फ्रेम — एक चोट।


    समय: शाम क़रीब 6:30 बजे

    दिन ढल चुका था, लेकिन हवेली के हॉल में शाम की कोई रौनक नहीं थी। पर्दे आधे खुले थे, बाहर का धुंधलका अंदर तक फैल आया था, और हर चेहरा उसी धुंधलके में जैसे किसी जवाब की तलाश में थका हुआ बैठा था।

    टीवी बंद था, लेकिन कमरे की हवा अब भी गरम थी — जैसे बहसें अब भी दीवारों में गूंज रही हों।

    शालिनी, दादी के पास बैठी थी। यशवर्धन सामने की कुर्सी पर चुप थे। अर्जुन और राघव दोनों अपने-अपने फोन में सिर झुकाए चुपचाप बैठे थे। हर कोई जानता था — ये चुप्पी कोई आम चुप्पी नहीं थी।

    तभी…

    दरवाज़े पर एक दस्तक हुई।

    सलीकेदार कोट-पैंट में, तेज़ नज़र और संजीदा चाल के साथ अंदर आए — रमन भटनागर।

    राजवंशी परिवार का वर्षों पुराना मित्र, पिता की पीढ़ी से जुड़े हुए। एक क़ाबिल लॉयर और कूटनीतिज्ञ, जिनकी आवाज़ में हमेशा धैर्य की गहराई होती थी।

    "नमस्कार," उन्होंने प्रवेश करते ही कहा, "मैं बिना बुलाए आया हूँ, लेकिन हालात देखे तो लगा… चुप नहीं रहा जा सकता।"

    यशवर्धन और अर्जुन दोनों उठ खड़े हुए।

    "रमन … तुम आ गए?" यशवर्धन की आवाज़ में आश्चर्य और राहत दोनों थे।

    रमन मुस्कुराए नहीं, लेकिन उनकी नज़र एक बार पूरे कमरे पर घूम गई। उन्होंने टेबल पर रखी न्यूज़ की क्लिपिंग्स देखीं — वायरल वीडियो के प्रिंटआउट्स, मीडिया हेडलाइन्स की कॉपियाँ, और शालिनी की सूनी आँखें।

    "मैं सब देख चुका हूँ," उन्होंने कहा, "और सुन भी चुका हूँ — जितना बाहर गूंज रहा है। पर अब ये वक्त है… भीतर की बात करने का।"



    ✦ भरोसे की बात – जब हर शब्द तिनके सा लगे

    रमन धीरे-धीरे सोफ़े पर बैठे, बीचों-बीच।

    "अर्जुन, राघव, तुम दोनों बैठो। मैं यहां आरोप, सफाई या अफ़सोस सुनने नहीं आया।"

    उन्होंने सामने पड़े रिमोट को देखा, फिर उसकी ओर इशारा किया —
    "टीवी बंद रखना। ये जो हो रहा है, वो एक ‘कहानी’ की तरह दिखाया जा रहा है। पर ये कहानी नहीं… चाल है।"

    सब चुप।

    दादी ने धीरे से पूछा, "चाल? किसकी?"

    रमन का चेहरा कठोर हो गया —
    "अभी नहीं जानता। पर एक बात पक्की है — ये वीडियो लीक प्लानिंग के साथ हुआ है। यह सिर्फ अखिल पर नहीं, पूरा राजवंशी नाम मिट्टी में घसीटने की कोशिश है।"

    शालिनी ने चुप्पी तोड़ी —
    "लेकिन अगर वो लड़की अनजान है, तो इतना बड़ा ड्रामा क्यों?"

    रमन ने उसकी ओर देखा —
    "इसीलिए तो… सवाल उठता है। कोई भी बिना मक़सद के इतने संगीन इल्ज़ामों की पटकथा नहीं लिखता। यहां बात इमोशन्स की नहीं, इंटेंट की है। और इंटेंट… कभी अकेला नहीं होता।"



    ✦ संदेह के साये – जब साजिश धुंध से झाँकने लगे

    रमन ने जेब से एक छोटा नोटबुक निकाला।

    "मैंने आज सुबह से वो हर नंबर, हर अकाउंट और हर पब्लिक पोस्ट स्कैन करवाई जो इस वीडियो से जुड़ी है। ट्विटर पर जो पहला ट्रेंड शुरू हुआ, वो एक अनजाने नाम से हुआ — ‘@JusticeForReina24’"

    "रैना?" शालिनी चौंकी।

    "हाँ," रमन ने गर्दन हिलाई, "उसी लड़की का नाम। मगर ट्विटर अकाउंट दो दिन पहले बना। और उसके पहले 10 मिनट में ही 30 हज़ार से ज़्यादा रिट्वीट — ये नैचुरल नहीं हो सकता।"

    "तो ये कोई पब्लिक सिम्पैथी नहीं…?" अर्जुन ने पूछा।

    "ये प्रोफेशनल स्पिन है। पैसा लगा है। इरादा साफ है — अखिल की छवि को गिराओ, और पूरे खानदान की रीढ़ हिलाओ।"



    ✦ संदेह नहीं, सब्र चाहिए

    दादी अब भी उलझी हुई थीं।

    "पर ये सब कैसे साबित होगा? और क्या… क्या हम चुप बैठे रहें?"

    रमन ने पहली बार मुस्कुराने जैसा कुछ किया।

    "नहीं बैठेंगे। लेकिन बोलेंगे तब, जब हर शब्द एक सबूत की तरह टिकेगा। मैं बस ये बताने आया हूँ कि ये लड़ाई अब इज्ज़त की नहीं, सच्चाई की है — और मैं इसके पीछे की परतों तक पहुँचूंगा।"

    "कब तक?" राघव ने पूछा — उसकी आवाज़ में एक युवा व्यग्रता थी।

    रमन ने उसकी आँखों में देखा —
    "जितना वक्त एक सच्चे नाम को गढ़ने में लगता है, उतना ही लगता है उसे बचाने में भी।"



    ✦ रैना – अब भी मौन

    इस पूरे दौरान रैना का कोई ज़िक्र नहीं आया कि उसने FIR की या नहीं, या वो आगे क्या चाहती है।

    बस इतना तय था — उसने वीडियो लीक नहीं किया था।

    लेकिन उसने इनकार भी नहीं किया।

    रमन ने एक पल को चुप होकर सबको देखा और फिर कहा —

    "मैं लड़की से भी बात करूंगा। लेकिन उससे पहले… मुझे अखिल से मिलना है।"

    शालिनी ने धीरे से कहा —
    "वो नहीं है। और… वो खुद नहीं जानता कि उस लड़की को वो जानता है या नहीं।"

    रमन थोड़ी देर चुप रहा।
    फिर उठते हुए बोला —

    "कभी-कभी, जो हमें नहीं लगता कि हमने किया, वही हमें सबसे ज़्यादा परिभाषित करता है।"



    ✦ अंत की दस्तक – परतें खुली हैं, मगर फैसला नहीं

    रमन दरवाज़े तक पहुँचा, लेकिन रुककर बोला —

    "आप सब सिर्फ इतना याद रखिए — ये सिर्फ एक वीडियो नहीं है। ये सिस्टम की टार्गेटेड पॉलिटिक्स है। मैं इसे उल्टा कर दूंगा। और अखिल को नहीं, इस परिवार को — फिर से उसी जगह पर खड़ा करूंगा जहाँ ये था।"

    "क्यों?" यशवर्धन ने पूछा — "आप इतना क्यों कर रहे हैं?"

    रमन मुड़ा, और पहली बार थोड़ी आत्मीयता से बोला —
    "क्योंकि तुम मेरे भाई हो। और तुम्हारा बेटा — चाहे कैसा भी हो, इस वक़्त अकेला नहीं होना चाहिए।"



    ✦ अंतिम दृश्य

    दरवाज़ा बंद हो गया।

    कमरा फिर चुप हो गया।

    मगर अब ये सन्नाटा गवाही नहीं दे रहा था —
    ये तैयारी कर रहा था।

    एक ऐसी लड़ाई के लिए, जो अब सिर्फ बचाव नहीं, बल्कि साज़िश की हर परत खोलने की जंग बनने वाली थी।

  • 8. बेशर्म इश्क़ - Chapter 8

    Words: 1977

    Estimated Reading Time: 12 min

    अध्याय – “छोटे संवाद, गहरी सच्चाइयाँ”

    कमरे में धीमी रौशनी थी। हल्की नीली पर्दों के पीछे से आती धूप अब मद्धम हो चुकी थी, और शाम की उदासी हर कोने में पसर गई थी। कमरे की सजावट में पुराने ज़माने की झलक थी — लकड़ी की आलमारी, पीतल की मूर्तियाँ और दीवार पर टंगी अखिल के बचपन की तस्वीरें। उस तस्वीर को देखकर कोई भी कह सकता था — ये बच्चा कभी अपनी माँ की आँखों का तारा रहा होगा।

    अखिल की माँ, सुमित्रा देवी, खामोशी से खिड़की के पास रखी कुर्सी पर बैठी थीं। उनका चेहरा थका हुआ था, लेकिन आँखों में अभी भी वो चमक थी जो अनुभव और संघर्षों से पैदा होती है। सामने मेज़ पर आधा छूटा हुआ तुलसी वाला पानी रखा था, जिसे उन्होंने जाने कब से छुआ तक नहीं।

    दरवाज़ा हल्के से खटका।

    शालिनी, सिर झुकाए अंदर आई। उसके क़दम धीरे-धीरे चलते हुए कमरे में प्रवेश कर गए जैसे वो कोई अजनबी ज़मीन पर चल रही हो।

    "आ जाओ," सुमित्रा देवी ने शांत स्वर में कहा।

    शालिनी ने धीरे से कुर्सी खींची और उनके सामने बैठ गई।

    कुछ पल खामोशी रही। सन्नाटा इतना गहरा था कि दीवार घड़ी की टिक-टिक भी किसी भारी पहाड़ी नदी की तरह सुनाई दे रही थी।

    सुमित्रा देवी ने पहली बार सीधे उसकी ओर देखा।

    "तुम जानती हो शालिनी," उन्होंने कहना शुरू किया, "जब किसी खानदान का नाम उसकी ज़ुबान से ज़्यादा उसके कर्मों में दिखता है… तब वो नाम पीढ़ियों तक गर्व से दोहराया जाता है।"

    शालिनी की आँखें उठीं। उसने ध्यान से उनकी बातें सुनीं, लेकिन कुछ कहने की हिम्मत नहीं हुई।

    "अखिल…" सुमित्रा देवी का स्वर थोड़ा भारी हुआ, "उसने जो किया… उससे सिर्फ़ हमारे घर की दीवारें नहीं हिलीं, लोगों का भरोसा भी दरक गया।"

    शालिनी ने उनकी आँखों में देखा। वहाँ आँसू नहीं थे, पर उस भाव की गहराई वैसी थी जैसे कोई वर्षों पुरानी पीड़ा बिना बोले चुपचाप रिस रही हो।

    "मैंने उसे अच्छे संस्कार दिए थे। ये उम्मीद नहीं की थी कि वो…" उन्होंने रुककर एक लंबी साँस ली, "कि वो हमारे नाम पर मिट्टी डाल देगा।"

    शालिनी ने धीरे से हाथ आगे बढ़ाकर उनकी हथेली थामी। "आंटी… इंसान की परख सबसे मुश्किल होती है। हम सब अपनी-अपनी तरह लड़ रहे होते हैं। कोई भीतर से टूट रहा होता है, कोई बाहर से।"

    सुमित्रा देवी ने उसकी ओर देखा। एक क्षण को जैसे उन्हें उसकी बातों में कोई शांति मिल गई हो।

    "लेकिन शालिनी," वह फिर बोलीं, "क्या ये ठीक है कि परिवार का लड़का, जिसका हर काम हर किसी की नज़रों में होता है, वो ही रास्ता भटक जाए?"

    "नहीं, ये ठीक नहीं है," शालिनी ने सिर हिलाते हुए कहा। "पर शायद उसके भीतर कुछ ऐसा टूटा होगा जो उसने किसी को बताया ही नहीं। हम हर बात की तह तक तो नहीं पहुँच पाते, पर शायद… अब वक्त है कि हम सिर्फ़ ग़लती नहीं, वजह भी समझें।"

    कमरे में फिर एक ठहराव आया।

    सुमित्रा देवी अब कुर्सी से उठीं और खिड़की के पास जाकर खड़ी हो गईं। पर्दे को थोड़ा हटाकर बाहर देखती रहीं — जैसे पुराने दिन फिर से आँखों में उतर आए हों।

    "जब अखिल छोटा था," उन्होंने पीछे बिना देखे कहना शुरू किया, "उसकी आँखों में एक अलग चमक होती थी। वो हमेशा पूछता था, ‘माँ, क्या मैं कभी अपने दादाजी की तरह बड़ा आदमी बन पाऊँगा?’"

    शालिनी के होंठों पर एक हल्की मुस्कान आई — वो मुस्कान जो कड़वाहट के बीच उम्मीद का स्वाद देती है।

    "उसने भी बड़े बनने की कोशिश की होगी, आंटी… शायद सही रास्ता नहीं मिला," शालिनी ने कहा।

    "रास्ता!" सुमित्रा देवी मुड़ीं, "रास्ता हर किसी को मिलता है, शालिनी। फर्क ये होता है कि कोई कांटो में चलकर भी सीधा जाता है, और कोई फूलों में बिछे रास्ते पर भी बहक जाता है।"

    उनका स्वर अब अधिक तीव्र नहीं था, लेकिन उसमें कसक थी — एक माँ की कसक।

    शालिनी ने उनके पास जाकर खड़े होकर कहा, "आपका ग़ुस्सा जायज़ है। पर अभी हमें ग़ुस्से से ज़्यादा ज़रूरत है समझदारी की। अखिल अकेला नहीं है… वो इस समय खुद भी टूट चुका होगा।"

    सुमित्रा देवी की आँखों में नमी थी। उन्होंने शालिनी की ओर देखा, और धीमे स्वर में कहा, "तुम्हें अब भी उस पर भरोसा है?"

    शालिनी थोड़ी देर तक चुप रही। फिर धीरे से बोली, "मुझे खुद पर भरोसा है, आंटी… और उस भरोसे में वो भी आता है।"

    कमरे में मौन पसर गया। बाहर कहीं दूर किसी पंछी की आवाज़ आई।

    सुमित्रा देवी ने हाथ थाम लिया उसका। "तुम्हारे जैसे लोग ही रिश्तों की नींव को बचा पाते हैं, शालिनी।"

    "आप चिंता मत कीजिए," शालिनी ने हल्के से कहा, "सब ठीक हो जाएगा। शायद अभी नहीं, लेकिन धीरे-धीरे… जैसे पुराने ज़ख्म सूखते हैं… वैसे ही ये वक्त भी कट जाएगा।"

    "लेकिन लोग क्या कहेंगे?" सुमित्रा देवी की आवाज़ में फिर वही चिंता लौट आई थी।

    "लोग वही कहते हैं जो उन्हें दिखता है। हमें उन्हें वो दिखाना है — जो हम सच में हैं। हम टूटा हुआ परिवार नहीं हैं, आंटी… हम फिर से जुड़ने की कोशिश कर रहे हैं।"

    सुमित्रा देवी ने अपनी उंगलियाँ धीरे-धीरे साड़ी के पल्लू में मरोड़ते हुए कहा, "मैं डरती हूँ, शालिनी। डरती हूँ कि कहीं अखिल का अंधेरा हम सबको निगल न जाए।"

    शालिनी ने उनकी ओर झुककर कहा, "अगर अंधेरे से डरेंगे तो रोशनी कैसे जलाएंगे, आंटी? मैं हूँ। और जब तक मैं हूँ, मैं इस घर को फिर से जोड़ने की कोशिश करती रहूँगी। आप अकेली नहीं हैं।"

    ये शब्द कमरे की हवा में ठहर गए। बाहर अंधेरा गहराने लगा था, लेकिन कमरे के भीतर एक धीमा, गर्म उजाला आ चुका था।

    सुमित्रा देवी ने धीरे से सिर हिलाया। उन्होंने अपने काँपते हाथों से शालिनी के सिर पर हाथ फेरा — जैसे सालों की थकी हुई आत्मा को किसी ने सहारा दे दिया हो।

    "तुम मेरी बहू नहीं हो, शालिनी," उन्होंने कहा। "तुम इस घर की असली बेटी हो।"

    शालिनी की आँखें भर आईं। लेकिन इस बार वो आँसू किसी दर्द के नहीं थे, बल्कि उस अपनत्व के थे जो अब तक उसे सिर्फ़ अधूरे रूप में मिला था।

    सामने पड़ी अखिल की तस्वीर अब भी वहीं थी, लेकिन उसकी आँखों में अब भी वही सवाल थे — क्या मैं फिर से घर लौट पाऊँगा?

    और उस सवाल का जवाब शायद शालिनी ने दे दिया था — हाँ, अगर कोई तुम्हारा इंतज़ार कर रहा हो… तो तुम कभी खो नहीं सकते।


    “रिश्तों का भार, प्रेम का उजाला”

    कमरे में समय ठहर गया था। बाहर का अंधेरा अब खिड़की के कांच पर दस्तक देने लगा था। लेकिन भीतर एक हल्की-सी गर्माहट थी, जो न तो किसी दीपक से निकली थी, न ही किसी हीटर से — वह शालिनी की बातों से जन्मी थी, जिसने सुमित्रा देवी की थकी आत्मा को थोड़ी देर के लिए सहारा दे दिया था।

    वे दोनों अब खिड़की के पास खड़ी थीं। सुमित्रा देवी की उंगलियाँ अब भी साड़ी के पल्लू में लिपटी थीं — जैसे कोई अंदरूनी घबराहट उनके ज़ेहन को जकड़ रही हो। कुछ क्षण चुप रहने के बाद उन्होंने शालिनी की ओर देखा।

    "शालिनी…" उनका स्वर बेहद धीमा और डगमगाता हुआ था, "क्या तुम… क्या तुम अखिल से रिश्ता तोड़ दोगी?"

    शालिनी चौंकी नहीं, लेकिन उसकी साँस हल्की-सी थमी। उसने सुमित्रा देवी की आँखों में देखा — वहाँ सवाल कम, डर ज़्यादा था। वह वही डर था जो एक माँ को तब होता है जब वह जानती है कि उसका बेटा गलत राह पर चला गया है… और शायद अब कोई उसके साथ नहीं रहेगा।

    शालिनी ने धीमे स्वर में पूछा, "क्या आप मुझसे यह इसलिए पूछ रही हैं क्योंकि आप सोचती हैं… मैं कमज़ोर हूँ?"

    सुमित्रा देवी ने चुपचाप सिर झुका लिया। "नहीं… बिल्कुल नहीं," उन्होंने कहा। "पर जब सब कुछ बिखर रहा हो, तो मैं बस जानना चाहती हूँ… कि क्या तुम अब भी अखिल के साथ हो? या तुम्हारा मन भी… दूर जाने लगा है?"

    शालिनी कुछ पल के लिए चुप रही। फिर उसने गहरी साँस ली और कहा, "मैं चली गई होती, आंटी… अगर मेरा रिश्ता सिर्फ़ अच्छे दिनों पर टिका होता।"

    सुमित्रा देवी ने उसकी ओर देखा, आँखों में हल्की उम्मीद चमकने लगी थी।

    "मुझे अखिल से प्यार है," शालिनी ने स्पष्ट शब्दों में कहा। "और वो कोई आम, हल्का-फुल्का, फिल्मी प्यार नहीं है, आंटी। यह वो प्रेम है जो एक इंसान की आत्मा से जुड़ता है। जो उसकी अच्छाइयों में भी साथ देता है, और उसके अंधेरे में भी हाथ नहीं छोड़ता।"

    उसका स्वर स्थिर था, लेकिन उसकी आँखें भीग चुकी थीं।

    "मैं जानती हूँ," शालिनी आगे बोली, "कि उसने बहुत कुछ गलत किया है। लेकिन मैं उसे सिर्फ उसकी ग़लतियों से नहीं देख सकती। मैं वो सब भी देखती हूँ जो वो दुनिया को नहीं दिखाता — उसके भीतर का टूटा हुआ बच्चा, उसकी उलझनें, और वो संघर्ष जो शायद उसने कभी शब्दों में नहीं कहा।"

    सुमित्रा देवी की आँखें नम हो गईं। उन्होंने धीमे स्वर में कहा, "तुम्हें उससे इतना गहरा जुड़ाव कैसे हो गया, शालिनी? जब वो खुद अपने आप को नहीं समझ पाया… तब तुमने कैसे जान लिया कि उसमें अब भी कुछ अच्छा बाकी है?"

    शालिनी मुस्कराई — वो एक थकी हुई लेकिन सच्ची मुस्कान थी।

    "क्योंकि जब आप किसी से सच्चा प्रेम करते हैं," उसने कहा, "तो आप उसे सिर्फ़ तब नहीं चाहते जब वो परफेक्ट हो। आप उसे तब भी थामते हैं जब वो टूट रहा हो, जब उसकी परछाई भी डराने लगे।"

    वो थोड़ा रुकी, फिर आगे कहा — "मैंने अखिल को उसकी खामोशियों में पहचाना है। वो जो नहीं कहता, वो मुझे सुनाई देता है। और मैं जानती हूँ, चाहे जितना भी अंधेरा क्यों न हो जाए, वो कभी पूरी तरह बुरा नहीं बन सकता।"

    सुमित्रा देवी की आँखें छलछला गईं। उन्होंने शालिनी का हाथ थामा, और भर्राए स्वर में बोलीं, "तुम्हारी उम्र छोटी है, लेकिन तुम्हारा दिल… बहुत बड़ा है। शायद मुझसे भी बड़ा।"

    "नहीं आंटी," शालिनी ने धीरे से कहा, "माँओं का दिल कभी छोटा नहीं होता। आप अखिल से अब भी उतना ही प्यार करती हैं, बस डर आपको उस प्यार से दूर कर रहा है।"

    सुमित्रा देवी की आँखों से आँसू बह निकले।

    "मैं रोज़ खुद को दोष देती हूँ," उन्होंने कहा, "सोचती हूँ कहाँ चूक हुई मुझसे। काश मैं समझ पाती कि कब वो इतना अकेला हो गया…"

    शालिनी ने उनकी हथेली को अपने दोनों हाथों से थाम लिया। "हम सब कहीं न कहीं चूकते हैं। लेकिन चूक का मतलब यह नहीं होता कि सब खत्म हो गया। अभी भी वक्त है…"

    "क्या वो वापस आएगा, शालिनी?" उनकी आवाज़ काँप गई थी। "क्या तुम उसे वापस लाओगी?"

    शालिनी ने एक गहरी नज़र उनकी आँखों में डाली और कहा, "वो लौटेगा, आंटी। लेकिन तब नहीं जब हम उसे दोष देंगे… बल्कि तब जब हम उसे ये एहसास दिलाएँगे कि हम उसके लौटने का इंतज़ार कर रहे हैं।"

    कमरे में कुछ क्षणों के लिए नमी और गर्मी का अजीब मिश्रण हो गया। बाहर हवा का झोंका आया, और पर्दे हल्के से हिले। वह दृश्य मानो कह रहा था — परिवर्तन की शुरुआत हो चुकी है।

    सुमित्रा देवी ने पास रखे अखिल के बचपन की तस्वीर को देखा। कुछ देर तक उसे निहारती रहीं। फिर शालिनी की ओर मुड़ीं और कहा, "अगर कभी तुम्हारा भी मन डगमगाए, अगर कभी तुम्हें लगे कि सब थक चुका है… तो मेरे पास आ जाना। मैं तुम्हें कभी अकेला नहीं छोड़ूँगी।"

    शालिनी की आँखों से आँसू बह निकले। "आपके इन शब्दों में ही तो घर बसता है, आंटी।"

    फिर वे दोनों खिड़की के पास खड़ी रहीं — दो स्त्रियाँ, दो पीढ़ियाँ, लेकिन एक ही धागे से जुड़ी हुईं — प्रेम और विश्वास के।

    थोड़ी देर बाद, सुमित्रा देवी ने कहा, "कल सुबह, पूजा में आ जाना मेरे साथ। मैं अखिल के लिए दीपक जलाऊँगी। शायद हमारी प्रार्थना… उसके रास्ते में कुछ रोशनी बन जाए।"

    शालिनी ने सिर झुकाकर कहा, "ज़रूर। हम दोनों मिलकर उसे वापस लाएँगे।"

    बाहर रात पूरी तरह उतर चुकी थी, लेकिन भीतर उस कमरे में एक नया सवेरा जन्म लेने को तैयार था — रिश्तों की दरारों को भरने की शुरुआत… प्रेम की रोशनी से।

  • 9. बेशर्म इश्क़ - Chapter 9

    Words: 1668

    Estimated Reading Time: 11 min

    अध्याय – “खामोशियाँ जो चीखती हैं”


    कमरा शांत था, शायद ज़रूरत से ज़्यादा।

    पीले बल्ब की रोशनी में दीवार की परछाइयाँ लहराने लगी थीं — मानो दीवारें भी उसके भीतर के तूफ़ान को चुपचाप महसूस कर रही हों। बाहर से कभी-कभार कोई गाड़ी गुज़रती, लेकिन कमरे के भीतर सब कुछ ठहरा हुआ था। जैसे ज़िंदगी ने एक साँस लेनी बंद कर दी हो।

    शालिनी बिस्तर पर बैठी थी। उसका फोन सामने मेज़ पर रखा था — बार-बार उसकी आँखें उस स्क्रीन पर टिक जातीं, और हर बार वो नाउम्मीद हो जाती।

    उसने एक बार फिर फोन उठाया।

    “अखिल…”
    उसके होंठों ने सिर्फ नाम पुकारा, लेकिन कॉल लगाने की हिम्मत फिर भी थोड़ी देर बाद आई।

    उसने स्क्रीन पर नाम देखा — Akhil Calling…
    नहीं, वो बस उसकी कल्पना थी। हकीकत में स्क्रीन अब भी वैसी ही खामोश थी, जैसे खुद अखिल की मौजूदगी।

    शालिनी ने कांपते हाथों से कॉल लगाया। दूसरी, तीसरी, चौथी बार…

    “स्विच्ड ऑफ…”
    वही जवाब। वही बेरहम आवाज़ जो भावनाओं को बिना किसी तमीज़ के काटकर रख देती है।

    फोन नीचे रखते हुए उसने खुद से कहा —
    “कहाँ हो तुम, अखिल? इस वक्त, जब सब कुछ बिखर रहा है… जब एक आवाज़, एक जवाब, एक सांस तक की ज़रूरत है… तुम हो ही नहीं। क्यूँ?”

    उसने सिर पीछे टिकाया और छत की ओर देखा।
    “मैं समझ सकती हूँ कि तुम भागना चाहते हो… लेकिन कम से कम मुझे बताकर तो जाते। क्या मैं भी अब तुम्हारी परेशानियों में शामिल नहीं रही?”

    उसकी आवाज़ काँप रही थी।
    “मुझे सब लोग हज़ार तरह से देख सकते हैं, अखिल — किसी की बहू, किसी की बेटी, किसी की ज़िम्मेदारी… पर सिर्फ़ तुमने मुझे वो देखा जो मैं सच में थी। और अब… जब मैं वही बनने की कोशिश कर रही हूँ… तुम क्यों नहीं हो?”

    उसने रज़ाई अपने पैरों के इर्द-गिर्द लपेट ली, लेकिन ठंड जैसे उसके भीतर तक उतर चुकी थी।

    “तुम सोचते होगे कि मैं मज़बूत हूँ। शायद इसलिए कुछ नहीं कहा तुमने। लेकिन क्या तुम ये नहीं जानते थे कि मज़बूत लोग भी कभी-कभी सिर्फ़ एक बाँह चाहते हैं — कोई जो उन्हें बस थाम ले, बिना कुछ कहे?”

    उसने फोन फिर उठाया, इस बार कॉल लॉग्स को बस घूरते हुए। स्क्रीन पर वही तीन कॉल्स चमक रहे थे — “No Answer” लिखा हुआ ठंडा, बेरंग।

    “तुम्हारा फोन बंद है… या शायद तुमने जान-बूझकर बंद किया है? क्या मैं अब भी उस हिस्से में हूँ जहाँ तुम किसी को आने देना चाहते हो?”

    आँखों में नमी आने लगी थी — वो नमी जो शोर नहीं करती, बस धीरे-धीरे दिल को डुबो देती है।

    “आंटी पूछ रही थीं कि मैं तुमसे रिश्ता तो नहीं तोड़ूँगी… लेकिन वो नहीं जानतीं कि रिश्ता तोड़ने के लिए दो लोगों का दूर जाना ज़रूरी होता है। मैं तो अब भी यहीं हूँ, अखिल… उसी जगह जहाँ तुमने मुझे पहली बार देखा था — अपने विश्वास के सबसे करीब।”

    वो उठी और खिड़की तक गई। पर्दे हटाकर बाहर झाँका। अंधेरे में कुछ नज़र नहीं आ रहा था, लेकिन उसकी निगाहें उस एक शक्ल को ढूँढ रही थीं — जो शायद बहुत दूर, किसी परछाईं में खो गई थी।

    “तुमने मुझसे कहा था एक बार… कि तुम जब तक ज़िंदा हो, मुझसे कुछ नहीं छुपाओगे। क्या ये वादा इतना आसान था तोड़ने के लिए?”

    उसने सिर झटक दिया — जैसे उस बात को हवा में उड़ा देना चाहती हो, लेकिन दिल कहाँ इतनी आसानी से मानता है?

    तभी फोन की घंटी बजी।

    उसने चौंककर देखा — “Papa Calling…”

    एक पल के लिए उसका हाथ काँप गया। दिल जैसे डूब गया हो।

    फोन उठाते ही उसकी आवाज़ में एक बनावटी ठहराव था। वो शांत थी — या शायद शांत दिखने की कोशिश कर रही थी।

    फोन कटते ही उसने वहीँ बैठते हुए एक लंबी साँस ली। उसके चेहरे पर कोई स्पष्ट प्रतिक्रिया नहीं थी, लेकिन आँखों में बहुत कुछ उभर आया था।

    “पापा को भी खबर लग गई… उन्होंने कुछ नहीं कहा, बस पूछा कि मैं ठीक हूँ या नहीं। उन्होंने मुझे ढाढ़स दिया, बिना सवाल किए। पता नहीं, ये कैसी दुनिया है — जहाँ जिनसे हम उम्मीद नहीं रखते, वही सबसे पहले संभालते हैं… और जिनसे हम सब कुछ बाँटते हैं, वही ग़ायब हो जाते हैं।”

    उसने अपना सिर घुटनों पर टिकाया, आँखें बंद कर लीं।

    “काश तुम समझ पाते, अखिल, कि ये सिर्फ़ तुम्हारा संकट नहीं है… ये हमारा संकट है। तुम छिप सकते हो सब से, पर मुझसे क्यों? क्या अब भी तुम्हें ये लगता है कि तुम्हारा दर्द सिर्फ़ तुम्हारा है? क्या तुमने मुझे इतना ही पराया समझा?”

    कमरे में घड़ी की टिक-टिक गूंज रही थी।

    “मैंने सब कुछ सह लिया, अखिल। वो बातें, जो मेरे कानों में पिघला हुआ सीसा बनकर घुलीं… वो सवाल, जो मेरी आत्मा को चीरते गए। लेकिन फिर भी मैंने तुम्हें दोष नहीं दिया। क्योंकि मैंने तुम्हें चुना था — पूरे होश में, पूरे विश्वास के साथ।”

    उसकी आँखें अब बह रही थीं — खामोशी से, जैसे कोई तूफ़ान ज़मीन के नीचे बहता हो।

    “मैं जानती हूँ कि तुम अकेले हो। लेकिन अखिल, क्या ये ज़रूरी था कि मुझे भी अकेला छोड़ दो? क्या यही होता है सच्चा प्यार — एक को जलता हुआ छोड़कर दूसरा खुद छाया में छिप जाए?”

    फोन की स्क्रीन फिर देखी। अब भी कुछ नहीं था।

    “कोई मैसेज नहीं… कोई कॉल नहीं… कुछ भी नहीं।”

    उसने बिस्तर के सिरहाने टिककर आँखें मूंद लीं।

    “शायद अब मुझे उम्मीद करनी बंद कर देनी चाहिए। लेकिन… मैं कर नहीं पाती। क्योंकि मेरे भीतर जो प्रेम है… वो तुमसे लड़ता नहीं, बस इंतज़ार करता है।”

    धीरे-धीरे उसकी साँसें गहरी होने लगीं — जैसे थकान ने अंततः उसे अपनी बाहों में ले लिया हो।

    लेकिन सोना आसान नहीं था। अंदर कहीं वो अब भी जाग रही थी — उस एक कॉल की, उस एक नाम की, उस एक सन्देश की प्रतीक्षा में…

    अखिल की।


    "अधूरी टेबल, अधूरे ख्याल"


    लाइट ग्रे पर्दों से ढका ऑफिस का केबिन एकदम शांत था। अंदर बस एसी की हल्की गूँज थी और लैपटॉप से उठती सूक्ष्म टन-टन की आवाज़।

    अखिल अपने केबिन की चेयर पर बैठा था। सामने लैपटॉप खुला था, जिसमें एक के बाद एक मेल्स खुल रहे थे, बंद हो रहे थे, और जवाब टाइप किए जा रहे थे।

    कुर्सी की पीठ सीधी थी, लेकिन अखिल का शरीर थोड़ा झुका हुआ, दोनों कोहनियाँ टेबल पर टिकी हुईं। उंगलियाँ की-बोर्ड पर सहजता से चल रही थीं — एक मशीन की तरह, जो आदेश जानती है और कार्य करती है।

    एक एक्सेल शीट खुली थी:
    “Q4 Projection Review | Internal Summary Draft 2.3”

    अखिल ने बिना पलक झपकाए स्क्रीन पर नज़र गड़ाए रखी थी। सेल A7 में उसके हाथ कुछ डेटा भर चुके थे। अब वह B7 से E7 तक ऑटो-सुम और फार्मूला अपडेट कर रहा था।

    उसकी दाईं ओर एक कॉफी मग था — आधा भरा, जिसमें भाप नहीं थी। शायद सुबह की बची हुई। लेकिन उसे पीने की फुर्सत नहीं थी।

    फोन मेज़ पर पड़ा था, स्क्रीन बार-बार जगमगा रही थी। एक बार उसमें नोटिफिकेशन उभरा:

    “7 Missed Calls – Shalini”

    अखिल की निगाह उस पर पड़ी जरूर, लेकिन उसने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी।

    कोई मानसिक उथल-पुथल, कोई विचलन नहीं। उसका चेहरा स्थिर रहा — प्रोफेशनल, सधा हुआ, तटस्थ।

    उसने लैपटॉप पर फिर से फोकस किया।

    अब वह एक मेल खोल रहा था:
    “RE: Financial Report Cross-Verification (Internal Audit)”

    उसकी उंगलियाँ तेजी से चलने लगीं।


    Dear Mr. Rana,
    Please find the attached review report of last quarter's financial deviations. I’ve marked areas of concern and compiled probable response templates based on the earlier audit discussion.
    Let me know if you'd like to set up a pre-legal review meet before the board session.



    सेंड बटन दबाकर उसने दो और मेल खोले। एक के साथ पीडीएफ अटैच किया, दूसरे के साथ स्लाइड प्रेज़ेंटेशन।

    धीरे-धीरे ऑफिस का केबिन डाक्यूमेंट्स और डेटा की दुनिया में बदल गया था।

    उसके दिमाग में हर काम के लिए एक टाइम स्लॉट था। 3:00 बजे से पहले रिपोर्ट का फाइनल ड्राफ्ट, 3:30 पर बोर्ड कॉल, और शाम को मीटिंग लॉबी में।

    शरीर में थकावट थी, लेकिन मन नहीं मान रहा था कि रुकना चाहिए।

    उसने ऑफिस फोल्डर से एक फाइल निकाली — पीले स्टिकी नोट्स से भरी हुई। एक-एक करके वो नोट्स हटाता गया, और हर सेक्शन के सामने टिक लगाता रहा।

    कभी वो एक ग्राफ एडजस्ट करता, कभी किसी स्टेटमेंट को री-फ्रेज करता। आँखें स्क्रीन से नहीं हटतीं। ना ही चेहरे पर कोई भाव उभरते।

    ये अखिल वही था, जो भावनाओं से ऊपर उठकर सिस्टम के भीतर खुद को फिट करने की कोशिश कर रहा था।

    कभी-कभी स्क्रीन के कोने में शालिनी का नाम फिर से उभरता —
    Missed Call – Shalini
    लेकिन उसने अनदेखा करना सीखा लिया था।

    फोन एक किनारे पड़ा था, जैसे वो जानबूझकर दूरी बनाए हुए हो। न उसने मैसेज पढ़ा, न कॉल बैक किया।

    उसने एक बार फिर लैपटॉप पर मेल खोली —

    To: Legal Team
    Subject: Final Notes for Contract Review


    Attached are the pending contract details for Vendor #29B. Points marked in yellow require legal rewording. Please ensure that the clauses under IP protection are solid before external discussion.



    एक और मेल गया।

    ऑफिस की घड़ी ने तीन बजाए। अखिल ने बिना देखे स्क्रीन पर लॉगिन किया — वीडियो कॉल लिंक पर क्लिक किया और ईयरबड्स लगा लिए।

    केबिन की हवा अब ठंडी नहीं, बल्कि बोझिल लग रही थी।

    लेकिन अखिल की सांसों में कोई अड़चन नहीं थी। ना वो रुका, ना थमा। बस आगे बढ़ता गया — जैसे कोई मशीन जिसे रुकना आता ही नहीं।

    बैठते हुए उसकी नज़र मेज़ पर रखी एक नोटबुक पर पड़ी। उसे खोला, और उसमें लिखा:

    “To-Do List”
    Audit Draft Final

    Cross-check Fund Movement

    Vendor Contracts - Final Notes
    Shalini...?


    उसने आखिरी लाइन पर पहुँचते ही पेन से उसे काट दिया। कोई टिप्पणी नहीं, कोई सोच नहीं। बस एक लाइन, और फिर उसका अंत।



    अंत का स्पर्श:

    दिन ढलने को आया। केबिन में अब हल्की छाया थी। उसने लैपटॉप बंद किया, और एक पल के लिए सिर टेबल पर रख दिया।

    कोई सोच नहीं। कोई याद नहीं।

    बस थकावट।

    और फिर उसने धीरे से आंखें खोलीं, और वापस लैपटॉप ऑन कर दिया।

    "एक मेल और बचा है..."
    उसके होठ बुदबुदाए।

  • 10. बेशर्म इश्क़ - Chapter 10

    Words: 1960

    Estimated Reading Time: 12 min

    अध्याय – "एक घर, एक फैसला"


    दोपहर के ढलते सूरज की पीली किरणें हवेली के बड़े हॉल की काँच की खिड़कियों से अंदर उतर रही थीं। पर्दे हौले-से लहरा रहे थे, और घड़ी की टिक-टिक अब ज़रा ज्यादा सुनाई देने लगी थी — जैसे हर सेकंड एक फैसले की ओर धकेल रहा हो।

    हॉल के बीचोबीच एक लंबा लकड़ी का टेबल रखा था। एक तरफ़ अखिल के दादाजी — विजय प्रताप राजवंशी, गहरे भूरे कोट और सफ़ेद पेंट में, आँखों पर चश्मा और माथे पर झुर्रियों की गहराई लिए बैठे थे। उनके पास ही थीं दादीजी — सुमन देवी, जो चुपचाप अपने रुद्राक्ष की माला को घूमाती जा रही थीं।

    दूसरी ओर अखिल के पिता यशवर्धन, माँ सुमित्रा, बड़े भाई अर्जुन, छोटा भाई राघव, बहन चंचल, और कुछ घरेलू नौकर — रामू काका, माया दीदी, और मोहन — सब एक अजीब से तनाव में खामोश खड़े थे। केवल घड़ी की आवाज़ और हवा की सरसराहट सुनाई देती थी।

    यशवर्धन ने अंततः चुप्पी तोड़ी, आवाज़ में थकावट थी लेकिन संकल्प भी:

    “अब और देर नहीं की जा सकती। अखिल ने जो किया है... या जो हो गया है, उसमें चाहे उसकी सीधी गलती हो या नहीं, लेकिन उसका असर पूरे खानदान पर पड़ा है। अब ये हमारी जिम्मेदारी है कि हम नाम को और नीचे गिरने से बचाएँ।”

    दादाजी ने गहरी सांस ली और कहा, “नाम ही नहीं… अब तो अस्तित्व की लड़ाई बन चुकी है ये। जो लोग वर्षों से हाथ जोड़ते थे हमारे सामने, अब वे पीठ पीछे सवाल उठा रहे हैं।”

    सुमित्रा की आँखें भर आई थीं, लेकिन उन्होंने अपने आँचल से पोंछ लिया। उन्होंने धीमे से कहा, “अखिल तो कुछ भी नहीं बोल रहा... ना घर आ रहा है, ना फ़ोन उठा रहा है। वो अकेले ही सब कुछ सँभालने की कोशिश कर रहा है। लेकिन हम चुप नहीं रह सकते।”

    अर्जुन जो अब तक चुप था, सीधा खड़ा हो गया। वह हमेशा से शांत स्वभाव का था, लेकिन आज आँखों में असामान्य बेचैनी थी:

    “मैं कहता हूँ कि हमें अब पब्लिकली एक स्टेटमेंट देना होगा। मीडिया में जो चल रहा है वो हमारी चुप्पी का फायदा उठा रहा है। हम अब भी खामोश रहे, तो कल को ये हवेली भी सवालों में घिर जाएगी।”

    राघव, जो सबसे छोटा था और अब तक अपने मोबाइल में कुछ स्क्रॉल कर रहा था, अचानक बोल पड़ा, “भैया सही कह रहे हैं। सोशल मीडिया पर तो मानो कोर्ट चल रहा है। कोई ‘घोटालेबाज़ परिवार’ कह रहा है, तो कोई ‘सिस्टम का फायदा उठाने वाले’।”

    चंचल, जो अपनी भावनाओं को कभी भी छिपा नहीं पाती थी, गुस्से से बोली, “लेकिन क्या अखिल भैया को पता नहीं कि यह सब हमारे लिए कितना भारी है? उन्होंने एक बार भी नहीं सोचा कि पापा के बिज़नेस पर क्या असर पड़ेगा? स्कूल का नाम बदनाम हो रहा है। मम्मी के NGO के डोनर्स पीछे हटने लगे हैं।”

    दादी ने धीरे से अपनी माला नीचे रखी और बोलीं, “सब कुछ बिखरता जा रहा है... परिवार भी और विश्वास भी। लेकिन ये समय लड़ाई का है, छोड़ने का नहीं।”

    दादा जी ने दादी की बात पर सिर हिलाया। फिर बोले, “तो फैसला ये लेना है कि क्या हम अखिल को इस मामले से अलग मानकर आगे की राह पर बढ़ें, या एकजुट होकर उसका साथ दें लेकिन बहुत स्पष्ट रणनीति के साथ।”

    हॉल में कुछ पलों के लिए एक अजीब-सी चुप्पी छा गई।

    रामू काका, जो बचपन से उस परिवार में थे, बोले, “साहब, मैंने अखिल बाबू को बहुत करीब से देखा है। वे गलत नहीं हैं, पर वो हर बात अकेले छुपा जाते हैं। शायद उन्हें भरोसा नहीं रहा कि कोई समझेगा।”

    दीदी, जो हमेशा घर की औरतों से जुड़ी रहती थीं, धीरे से बोलीं, “लेकिन अब घर की औरतें भी टूटी हुई हैं। सुमित्रा की रातों की नींद चली गई है।”

    चंचल ने सिर झुका लिया, राघव ने अपनी मोबाइल स्क्रीन बंद कर दी।

    तभी अर्जुन बोला, “हमें दो टूक निर्णय लेना होगा। या तो हम एक पारिवारिक प्रेस मीट करें जिसमें हम ये साफ़ कर दें कि कंपनी का निर्णय बोर्ड लेगा और परिवार इसमें हस्तक्षेप नहीं करेगा। या हम अखिल को वापस बुलाकर सबकुछ साफ़ करें और उसे सामूहिक रूप से सपोर्ट करें — लेकिन उसकी हर हरकत की जवाबदेही हम पर भी आएगी।”

    दादाजी अब तक मौन थे, लेकिन अब उनकी आवाज़ भारी हो उठी:

    “परिवार का खून अगर छूटने लगे, तो नाम की दीवारें टिकती नहीं। अखिल इस परिवार का बेटा है, चाहे वो कितनी भी बड़ी गलती कर बैठे। लेकिन समर्थन अंधा नहीं होना चाहिए — उसे भी आकर अपनी जिम्मेदारी लेनी होगी।”

    सुमित्रा की आवाज़ काँपती हुई आई, “मैं अपने बेटे को टूटते नहीं देख सकती। लेकिन मैं ये भी नहीं चाहती कि मेरी बेटी और बेटे समाज में सिर झुकाएँ।”

    राघव धीरे से आगे बढ़ा और बोला, “भैया को बुलाना चाहिए, लेकिन इस बार उसे अकेला नहीं छोड़ना है। अगर हम अंदर से एक हो गए, तो बाहर की दुनिया चाहे जो कहे।”

    चंचल ने धीरे से माँ का हाथ पकड़ा, “हम सब थक गए हैं मम्मी। लेकिन टूटे नहीं हैं। बस अब निर्णय लो — हम क्या करें?”

    दादा जी ने सबकी बात सुनी, और फिर बोले, “तो तय हुआ… तीन दिन। अगले तीन दिन में हम अखिल से खुलकर बात करेंगे। उससे जवाब मांगेंगे, लेकिन प्यार से। और उसके बाद, हम परिवार की तरफ से एक स्टेटमेंट देंगे।”

    अर्जुन ने जोड़ा, “और कंपनी में ट्रांज़िशन की प्रक्रिया भी शुरू कर देते हैं। अगर ज़रूरत पड़ी, तो अस्थायी तौर पर मैं हेड लूँगा, जब तक चीज़ें स्पष्ट नहीं हो जातीं।”

    दादीजी ने उठते हुए कहा, “जब तक घर के लोग खुद नहीं टूटते, तब तक कोई दीवार गिर नहीं सकती। अब एकजुट रहना ही हमारी एकमात्र ताक़त है।”



    अंत की छाया:

    जैसे ही मीटिंग खत्म हुई, सभी सदस्य अपनी-अपनी जगह से उठे। कुछ हल्के मन से, कुछ भारी।

    किसी ने चाय नहीं मांगी, किसी ने टीवी नहीं चलाया।

    बस इतना पता था — तीन दिन के भीतर एक सच सामने लाया जाना है, और उसी पर इस खानदान की इज़्ज़त और अखिल का भविष्य टिका है।



    "शब्दों की ढाल – जब चुप्पी को जवाब बनाना हो"


    रात का दूसरा पहर था। हवेली का माहौल अभी भी उसी तनाव में लिपटा हुआ था — जिस कमरे में अभी कुछ घंटे पहले पूरा परिवार बैठा था, अब वहाँ बस टीवी की हल्की आवाज़ और कुछ रिमोट की क्लिकिंग बची थी। पर उस शोर के ठीक विपरीत, हवेली के दाहिने कोने में स्थित दादा जी का निजी कक्ष एक अलग सन्नाटे में डूबा था।

    कमरा गहरा लकड़ी का बना था — पुरानी किताबों से भरी अलमारी, दीवार पर महाराजा की एक पुरानी पेंटिंग, और एक बड़ी टेबल के पीछे गहरी चमड़े की कुर्सी। वहीं बैठे थे दादा जी — अखिल के पिता। सामने रखे टेबल पर दो खाली चाय के कप, एक बंद लिफ़ाफ़ा और एक नोटपैड पड़ा था।

    दरवाज़े पर धीमी दस्तक हुई।

    "आइए, रमन..."

    दरवाज़ा खोलकर अंदर आए रमन , वकील — नीली शर्ट, काली पतलून, और ब्रीफ़केस हाथ में। चेहरा गंभीर, चाल स्थिर और आँखों में वो पुरानी सियासत की चतुराई इस वक्त भी थी।

    उन्होंने भीतर आते ही दरवाज़ा अपने हाथ से बंद कर लिया — बिना ज़रूरत के किसी भी तीसरे कान को बाहर रखने की आदत थी ये उनकी।

    "बैठिए," दादा जी ने कुर्सी की ओर इशारा किया।

    रमन बैठ गए। बिना भूमिका के उन्होंने पूछा, "क्या आपने सोच लिया है, ?"

    यशवर्धन ने गहरी साँस ली, फिर बोले, "सोच तो बहुत कुछ लिया है, लेकिन अब वक्त है बोलने का। और उससे पहले... एक जरूरी काम बाकी है।"

    रमन चौंके नहीं, बल्कि गंभीरता से सिर हिलाया, "आप जैसा कहें, वो काम मैं करवा दूँगा। लेकिन आपको मालूम है, उसके बाद खेल पूरी तरह खुल जाएगा। एक गलती और फिर..."

    "खेल कभी बंद ही नहीं हुआ, रमन। बस अब हम उसे अपने पाले में खींच रहे हैं।" यशवर्धन की आवाज़ ठंडी और नियंत्रित थी।

    "और प्रेस?"

    "दो दिन बाद," यशवर्धन ने साफ़ कहा, "मुंबई की पूरी मीडिया को आमंत्रित करेंगे। लेकिन मंच पर सिर्फ मैं रहूँगा, अर्जुन और आप। बाकी कोई नहीं।"

    "और अखिल?"

    यशवर्धन का चेहरा थम गया। आँखों में एक पल के लिए हल्का-सा कंपन आया, लेकिन उन्होंने अपने शब्दों को संभाला।

    "अभी नहीं। जब वक्त आएगा, वो भी खड़ा होगा। लेकिन अभी उसका साया भी मंच पर नहीं होना चाहिए।"

    रमन ने सिर हिलाया। उन्होंने ब्रीफ़केस खोला, कुछ कागज़ात निकाले और मेज़ पर रख दिए।

    "यहाँ कुछ ड्राफ्ट्स हैं — लीगल स्टेटमेंट्स, प्रोटेक्शन क्लॉजेस, और एक वक़ालतनामा भी, अगर हमें एक 'प्रिवेंटिव स्टे' लेना पड़े…"

    यशवर्धन ने सब कागज़ बिना पढ़े बस देखे।

    "अभी सिर्फ ये तय है — हम सच्चाई का चेहरा दिखाएँगे, लेकिन उसका चेहरा क्या होगा, वो हम तय करेंगे।"

    कमरे में कुछ देर खामोशी रही। घड़ी ने रात के 12 बजाए। यशवर्धन ने एक फाइल में एक नोट लिखा — उसे लिफाफ़े में बंद किया और रमन को थमाया।

    "इसे किसी को मत दिखाना। और जो काम कहा है, वो कल सुबह से शुरू करवा देना।"

    रमन ने लिफाफ़ा लिया, बिना कोई सवाल पूछे उसे अपने ब्रीफ़केस में रखा और उठ खड़े हुए।

    "हम सब कुछ खो सकते हैं, यशवर्धन जी..."

    यशवर्धन ने मुस्कराकर कहा, "या सबकुछ बचा सकते हैं।"

    रमन ने सिर झुकाया और चुपचाप कमरे से बाहर निकल गए।



    दो दिन बाद – प्रेस कॉन्फ़्रेंस का दिन

    मुंबई, ताज पैलेस होटल का भव्य कॉन्फ्रेंस हॉल — सफेद पर्दे, सामने रखी स्टेज पर तीन कुर्सियाँ, एक माइक, और पीछे एक बड़ा स्क्रीन जहाँ ‘Singh Group – Official Statement’ चमक रहा था।

    सामने की पंक्ति में अलग-अलग मीडिया हाउस की कुर्सियाँ। सारे बडे न्यूज़ चेनल, और दर्जनों यूट्यूब पत्रकार — कैमरे, फोन, लाइव स्ट्रीमिंग — सब तैयार।

    3:00 बजे — स्टेज पर प्रवेश करते हैं यशवर्धन, उनके साथ अनिरुद्ध सिंह और वकील रमन मेहरा।

    पूरा हॉल क्लिक-क्लिक कैमरों की आवाज़ और हल्के कानाफूसी से भर गया।

    लेकिन इन तीनों के चेहरे बिल्कुल शांत थे।

    यशवर्धन माइक पर आए, पेपर की एक शीट निकाली। एक पल को रुककर उन्होंने कैमरों की ओर देखा — वो नज़रे जिनमें अफवाहों की आग थी, और जो आज किसी उत्तर की तलाश में थीं।

    "आप सभी का धन्यवाद, जो आज इस अहम मौके पर यहाँ उपस्थित हैं..."
    "...हम आज जो कहने जा रहे हैं, वो इस परिवार के सम्मान, सच्चाई और विश्वास की रक्षा के लिए है..."

    पूरा प्रेस हॉल सुनसान हो गया।

    "...लेकिन इस प्रेस कॉन्फ़्रेंस से पहले, हमने एक ज़रूरी कदम उठाया है। एक ऐसा कदम, जिसकी जानकारी इस वक्त नहीं दी जा सकती..."

    अब कैमरों की फ्लैश तेज़ हो गई।

    "...लेकिन इतना तय है — इस देश को, इस मीडिया को, और आप सभी को वो दस्तावेज़ दिखाए जाएँगे, जो अब तक छिपाए जाते रहे हैं। और उसके बाद हम फिर एक प्रेस करेंगे — जहाँ हर सवाल का जवाब मिलेगा..."

    अर्जुन ने तब तक माइक थामा और सिर्फ एक वाक्य बोला:

    "हम अपने नाम को मिटने नहीं देंगे। लेकिन उसे बचाने के लिए, हमें कुछ सच को पहले झेलना होगा। और वो सच अब बहुत दूर नहीं है।"

    रमन वकील अब माइक पर आए। आवाज़ स्पष्ट और प्रोफेशनल थी:

    "हमें बस इतना कहना है — लीगल प्रोसेस शुरू हो चुका है, कुछ नाम जल्द सामने आएँगे। लेकिन तब तक, हम किसी अनुमान या आरोप का हिस्सा नहीं बनेंगे।"

    प्रेस हॉल में अब हलचल थी। कैमरे बंद हो रहे थे, रिपोर्टर नोट्स ले रहे थे, लेकिन सवालों का जवाब देने के लिए मंच से कोई नहीं रुका।

    तीनों उठे और बाहर निकल गए।



    उसी वक्त – हवेली का हाल

    हवेली के हॉल में पूरा परिवार टीवी के सामने बैठा था। दादी माला घुमा रही थीं, चंचल के हाथ काँप रहे थे, सुमित्रा ने अखिल की तस्वीर की ओर एक नजर डाली — और फिर अपनी बेटी का हाथ थाम लिया।

    “तो यह थी वो तैयारी…” अर्जुन की आवाज़ टीवी में गूंजी।

    राघव ने टीवी का वॉल्यूम थोड़ा बढ़ाया। शांति अब किसी तूफ़ान से पहले की लग रही थी।

  • 11. बेशर्म इश्क़ - Chapter 11

    Words: 821

    Estimated Reading Time: 5 min

    अध्याय – “आरोपों की परछाई – जब हर जवाब एक दीवार बन जाए”



    ताज पैलेस, मुंबई – दोपहर के चार बज चुके थे। प्रेस कॉन्फ्रेंस हॉल में हलचल चरम पर थी। देश की तमाम नामी मीडिया हाउसेज़ से पत्रकार सामने बैठे थे, और कैमरे लगातार मंच पर टिके हुए थे।

    स्टेज के केंद्र में अब यशवर्धन राजवंशी खड़े थे, अखिल के पिता — गहरी नीली बंदगला कोट में गंभीर, पर स्थिर। उनके साथ कुर्सी पर बैठे था अर्जुन राजवंशी — अखिल का बड़ा भाई, जो गहरे भूरे कोट में था, लेकिन चेहरा आज थोड़ी कठोरता से चमक रहा था।

    बीच में रखा माइक अब धीरे-धीरे उनकी ओर खिसकाया गया।

    यशवर्धन राजवंशी ने बिना स्क्रिप्ट, बिना किसी पेपर के बोलना शुरू किया।



    "हम आज यहाँ किसी बचाव में नहीं खड़े हैं... बल्कि सच को ज़ुबान देने आए हैं।"

    "पिछले कुछ दिनों से, मीडिया में हमारे बेटे अखिल के नाम पर जो कुछ चल रहा है, वो महज़ अफवाहों की स्याही से लिखी एक अधूरी किताब है।"

    "हम कहना चाहते हैं— जो कुछ भी अखिल पर लगाया जा रहा है, वो झूठ है। हमारे परिवार के नाम पर जो कीचड़ उछाली जा रही है, वो सिर्फ एक साज़िश है — एक सोची-समझी कोशिश, हमारी विरासत को धूमिल करने की।"



    हॉल में कुछ हलचल हुई। कैमरों की फ्लैश और तेज़ हो गईं।

    अब अर्जुन राजवंशी ने माइक उठाया।

    "हमारा परिवार सदियों से समाज की सेवा में रहा है। मेरे भाई के खिलाफ जो बातों का गुबार बनाया गया है, वो ना तो अदालत से साबित हुआ है, ना ही किसी निष्पक्ष जांच से।"

    "किसी भी वीडियो क्लिप को तोड़-मरोड़ कर पेश करना आसान है। लेकिन हम कानून में, और इस देश की सोच में विश्वास रखते हैं — जो कहती है कि जब तक दोष सिद्ध न हो, कोई भी अपराधी नहीं होता।"

    एक रिपोर्टर ने हाथ उठाया, आवाज़ तेज़ थी:

    "लेकिन यशवर्धन साहब, सोशल मीडिया पर जो तस्वीरें और क्लिप्स वायरल हो रही हैं, वो तो साफ़ दिखाती हैं कि मामला गम्भीर है। क्या आप कह रहे हैं कि ये सब फर्जी है?"

    यशवर्धन बिना झिझके बोले:

    "हम कह रहे हैं — उस तस्वीरों की सच्चाई एकतरफ़ा नहीं है। जो आप देख रहे हैं, वो सिर्फ एक कोण है। और हम जल्द ही अदालत के सामने वो दूसरा कोण भी रखेंगे।"

    अर्जुन अब थोड़ा आगे झुक कर बोले:

    "हमें मालूम है कि एक लड़की इस कहानी का हिस्सा है। हम उसके दर्द को अनदेखा नहीं कर रहे। लेकिन हम यह भी कह रहे हैं कि जब सच सामने आएगा, तब असल ज़िम्मेदारी की परतें खुलेंगी।"

    अब कैमरों की रोशनी में एक चेहरा और चमका — एक बडे न्यूज़ चैनल के वरिष्ठ रिपोर्टर नीरा मल्होत्रा।

    वो खड़ी हुईं और सीधा सवाल दागा:

    "आप बार-बार कह रहे हैं कि आपका बेटा निर्दोष है। लेकिन जो क्लिप्स हैं, जिनमें लड़की रो रही है, कह रही है कि वो बर्बाद हो गई — क्या वो भी साज़िश है?"

    "और सबसे अहम सवाल — क्या आप चाहते हैं कि ऐसी हालत में भी कोई उससे शादी करे? उसका क्या?"

    सन्नाटा छा गया।

    ये सवाल जैसे नहीं, हथौड़ा था — जो सीधे मंच पर रखी साख को ठोक रहा था।

    यशवर्धन ने गहरी साँस ली, चेहरा टिका रहा।

    "हम झूठ नहीं बोल रहे। और ये भी नहीं कह रहे कि जो हुआ, वो पूरी तरह सही था। इंसान गलतियाँ करता है, और अगर कहीं कोई भूल हुई है — तो उसका जवाब मिलेगा। लेकिन... किसी को तबाह करने से पहले उसका पक्ष सुनना जरूरी है।"

    रिपोर्टरों की हलचल तेज़ हो गई थी।

    नीचे से फिर आवाज़ आई — एक यूट्यूब चैनल के तेज़ पत्रकार ने झल्लाकर कहा:

    "सच तो ये है कि आप सब झूठ बोल रहे हैं। आप अपने बेटे को बचाने के लिए पूरी दुनिया को गुमराह कर रहे हैं। और लड़की? उसकी तो ज़िंदगी बर्बाद हो गई। कोई उससे शादी भी नहीं करेगा!"

    हॉल एक पल को चुप हुआ।

    अर्जुन राजवंशी की उँगलियाँ मुट्ठी में बदल गईं। लेकिन उसने माइक उठाया।



    कमरे में जैसे साँसें थम चुकी थीं। कैमरों की लाइटें अभी भी जल रही थीं, लेकिन सवालों की तीव्रता अब एक नए मोड़ पर आ खड़ी थी।

    एक युवा रिपोर्टर, भावनाओं में डूबा हुआ, अचानक खड़ा हुआ और बोला—

    "आप कहते हैं कि अखिल निर्दोष है... लेकिन जिस लड़की के साथ यह सब हुआ, उसका क्या? उसकी ज़िंदगी तो बर्बाद हो गई। अब उससे कौन शादी करेगा?"

    हॉल में फिर सन्नाटा।

    कई रिपोर्टर सिर झुका कर कुछ टाइप करने लगे। कुछ एक-दूसरे की ओर देखने लगे, जैसे खुद को सवाल दोहराकर आश्वस्त कर रहे हों।

    स्टेज पर खड़े अर्जुन का चेहरा एक पल को सख्त हुआ, फिर उसकी आँखों में एक नमी-सी तैरने लगी — शायद शर्म की नहीं, हक की।

    उसने धीरे से माइक उठाया।

    "आप सही कह रहे हैं। अब शायद कोई उस लड़की से शादी नहीं करेगा..."

    मंच के सामने हलचल होने लगी।

    "...और नहीं करनी चाहिए!"

    अब सब चौंक कर उसकी ओर देखने लगे।

    कुछ सेकेंड रुककर उसने फिर कहा —

  • 12. बेशर्म इश्क़ - Chapter 12

    Words: 729

    Estimated Reading Time: 5 min

    मंच के सामने हलचल होने लगी।

    "...और नहीं करनी चाहिए!"

    अब सब चौंक कर उसकी ओर देखने लगे।

    कुछ सेकेंड रुककर उसने फिर कहा —

    "क्योंकि उस लड़की से कोई और शादी करे — ये ज़रूरी नहीं है। क्योंकि वो अब इस घर की बहू है!"

    हॉल जैसे बिजली की लहर से काँप उठा।

    एक साथ कई रिपोर्टर खड़े हो गए, सवालों की बरसात शुरू होने को थी।

    "क्या मतलब?"

    "क्या आप मज़ाक कर रहे हैं?"

    "क्या आपने अभी कहा कि अखिल ने शादी कर ली है उस लड़की से?"

    यशवर्धन अब माइक की ओर झुके। उनके चेहरे पर वही पुरानी रियासतों जैसा संतुलन था, लेकिन आँखों में अब कोई बवंडर पल रहा था।

    "आप लोगों को शायद यकीन न हो... लेकिन जो होना चाहिए था, वो हो चुका है।"

    उन्होंने अपने बैग से एक मोटा ब्राउन फोल्डर निकाला और उसे सामने रखे टेबल पर खोल दिया। कैमरों के लेंस उस ओर घूम गए।

    वहाँ एक स्टैम्प किया हुआ लीगल डॉक्यूमेंट था। फ्रेम पर लिखा था —

    "रजिस्ट्रेशन ऑफ मैरिज – श्री अखिल राजवंशी एवं कुमारी रैना शर्मा"
    दिनांक – २१ अप्रैल २०२५
    स्थान – सिविल मैरिज रजिस्ट्रार, मुंबई"

    एक पत्रकार ने हैरानी से पढ़ा:
    "रैना...!?"

    अर्जुन ने माइक में झुककर कहा —

    "जी हाँ। अखिल और रैना की शादी हो चुकी है। और वो अब हमारे परिवार का हिस्सा हैं।"

    "हमारा बेटा किसी भी परिस्थिति में अपनी जिम्मेदारी से नहीं भागेगा। और ये फैसला किसी दबाव या डर में नहीं, बल्कि अखिल की और हमारे परिवार की पूरी सहमति से लिया गया है।"



    उसी पल – हवेली का हॉल

    टीवी की स्क्रीन पर यही दृश्य लाइव चल रहा था।

    दादी के हाथों से चाय की प्याली गिर गई। चंचल का मुँह खुला का खुला रह गया।

    अखिल की माँ, ने आँखें मींच लीं — जैसे कुछ देर के लिए दुनिया को बंद कर लेना चाहती हों।

    घर का नौकर मुँह पर हाथ रखे खड़ा था — जैसे उसे विश्वास ही नहीं हो रहा।

    "ये... ये शादी कब हुई?" दादा जी ने पहली बार इतने वर्षों में अपनी ठंडी आवाज़ में तीखापन लाया।

    अखिल की बुआ — पास खड़ी थीं, उन्होंने सिर्फ धीमे से कहा,
    "ये फैसला शायद पहले ही ले लिया गया था... लेकिन अब सबके सामने आया है।"



    दूसरी ओर – अखिल का ऑफिस

    मुंबई के एक कॉर्पोरेट ऑफिस के 18वें माले पर, एक ग्लास केबिन के अंदर अखिल सिंह मीटिंग से निकला ही था।

    मोबाइल फोन लगातार वाइब्रेट कर रहा था।

    "क्या चल रहा है यार बाहर?" उसने चपरासी से पूछा, जिसने घबराकर सिर हिलाया।

    "साहब, आप खुद देख लीजिए..." उसने टीवी की ओर इशारा किया।

    टीवी पर ब्रेकिंग चल रही थी:

    "Exclusive: अखिल सिंह की शादी रहस्यमयी लड़की रैना शर्मा से पहले ही हो चुकी थी! परिवार ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में किया खुलासा!"

    अखिल ठिठक गया। पल भर के लिए उसे लगा जैसे ज़मीन काँप गई हो। उसने हाथ से कुर्सी पकड़ी।

    "रैना...? ये क्या...?"

    उसकी आँखें स्क्रीन पर जम गई थीं। भाई की आवाज़ गूंज रही थी:

    "हम शर्मिंदा नहीं हैं — हम जिम्मेदार हैं।"



    राजवंशी हवेली,

    शालिनी, वो भी वही थी लिविंग रूम में बैठी थी, जहाँ पूरा परिवार एक साथ टीवी देख रहा था।

    उसका का चेहरा सख्त था, फिर उसने अखिल कि माँ के चेहरे को सवालिया नजरों से देखा |

    शालिनी — वो जैसे किसी पत्थर में बदल गई थी। उसका चेहरा सफेद पड़ गया था।

    रैना का नाम सुनते ही उसने गर्दन झुका ली थी।

    उसके मन में वही सवाल घूम रहा था —
    "ये रिश्ता कभी नहीं बन सकता है |"

    शालिनी चुप रही। उसकी आँखें भीग चुकी थीं।

    प्रेस कॉन्फ्रेंस – मीडिया हॉल के बाहर

    अब रिपोर्टर्स बुरी तरह उबल रहे थे। चैनलों के हेडलाइन स्क्रोल में चमक रहा था:

    "शादी से मच गया धमाका – अखिल ने रैना से चुपचाप रचाई शादी!"

    रिपोर्टर्स आपस में बातें कर रहे थे —

    "क्या ये लीगल चाल थी?"

    "क्या परिवार ने बचाव का रास्ता अपनाया है?"

    "या फिर... ये सच्चा रिश्ता है?"



    प्रेस कॉन्फ्रेंस हॉल – यशवर्धन राजवंशी की अंतिम बात

    जब सारे सवाल थम गए, तो यशवर्धन ने सबसे आखिर में माइक उठाया और कहा:

    "हमें मालूम है कि ये बात सबको चौंकाएगी। लेकिन कभी-कभी समाज के सवालों से ज़्यादा ज़रूरी होता है आत्मा की शांति।"

    "अखिल और रैना की शादी एक समझदारी भरा निर्णय था। और अगर इसमें किसी को आपत्ति है — तो हम उसका जवाब भी देने को तैयार हैं... पर पहले इंसानियत को समझिए।"

  • 13. बेशर्म इश्क़ - Chapter 13

    Words: 773

    Estimated Reading Time: 5 min

    अध्याय : “हस्ताक्षर – जब रिवाज़ों के पीछे साज़िश छुपी हो”


    – अखिल का ऑफिस केबिन

    बाहर शाम के हल्के बादल समंदर की ओर झुकते नज़र आ रहे थे। लेकिन अखिल के मन के भीतर का तूफ़ान उससे कहीं ज़्यादा गहरा था।

    TV अब भी केबिन के कोने में चल रहा था। स्क्रीन पर अब कोई न्यूज़ एंकर जोश से यह बता रहा था कि अखिल और रैना शर्मा की शादी पहले ही रजिस्टर की जा चुकी है।

    "शादी...?" अखिल ने जैसे खुद से सवाल किया।

    वह अपने घुटनों के बल कुर्सी से खड़ा हुआ, फिर दोबारा बैठ गया। उसकी उंगलियां बालों में उलझ गई थीं। माथे पर शिकन की रेखाएं गहराती जा रही थीं।

    "मैंने शादी नहीं की... मुझे याद तो नहीं..."

    उसका दिमाग अब पीछे दौड़ने लगा — हर वो पल खंगाल रहा था जहाँ से ये जाल शुरू हो सकता था। फिर अचानक—

    एक स्मृति बिजली की तरह कौंधी।



    [फ्लैशबैक – एक दिन पहले, वही ऑफिस केबिन]

    "अखिल, ये कुछ जरूरी डॉक्यूमेंट्स हैं।"
    अर्जुन उसके सामने कुर्सी पर बैठा था — हाथ में एक ब्लैक लेदर फोल्डर।

    "क्या हैं?" अखिल ने लापरवाही से पूछा।

    "बस लीगल फॉर्मेलिटीज़ हैं। कंपनी के एक दो कॉन्ट्रैक्ट्स में तुम्हारे साइन चाहिए। और हाँ, फैमिली की कुछ इन्वेस्टमेंट्स से जुड़े भी पेपर्स हैं।"

    अखिल ने मुस्कराते हुए पेन उठाया।

    "यार भाई, तुम पे तो आँख बंद करके भरोसा है।"

    "बस इसलिए तो आया हूँ..." अर्जुन ने हँसते हुए कहा।

    अखिल ने फोल्डर खोला — चार–पाँच पेज थे। बीच में एक डॉक्यूमेंट अंग्रेज़ी में था, लेकिन ज़्यादा शब्द पढ़े बिना ही उसने वहाँ भी दस्तखत कर दिए।

    अर्जुन ने फोल्डर तेजी से बंद किया, और कहा,
    "तुम्हारे सिग्नेचर बहुत खूबसूरत लगते हैं... चलो, अब मैं चलता हूँ, माँ इंतज़ार कर रही होंगी!"



    [वापस वर्तमान – अखिल का चेहरा सख्त]

    "नहीं... नहीं... क्या वो पेपर्स...?"

    अखिल अब उठ खड़ा हुआ। उसके मन में एक शक गहराने लगा था।

    उसने तुरंत अपनी टेबल की ड्रावर खोली — कोशिश की कि शायद वह फोल्डर कहीं यहां पड़ा हो, लेकिन वह नहीं था।

    फिर उसका हाथ कंपनी के स्कैन रिकॉर्ड सिस्टम की ओर गया।

    "अगर ये कोई कानूनी डॉक्यूमेंट था, तो स्कैन जरूर हुआ होगा..."

    कंप्यूटर की स्क्रीन पर वह तेजी से फोल्डर नंबर और पिछले 48 घंटे के स्कैन रिकॉर्ड खंगालने लगा। कुछ मिनट बाद — उसकी उंगलियां जम गईं।

    फ़ोल्डर: "Family Confidential – Form A1"
    दस्तावेज़ शीर्षक: "Marriage Registration Document – Under Special Marriage Act"
    पार्टनर्स: Mr. Akhil Rajvenshi & Ms. Rena Sh..."

    "NO..."

    अखिल की साँस जैसे रुक गई। उसका नाम और रैना का नाम साफ़ लिखा था। नीचे दो हस्ताक्षर — उनमें एक उसी का था।

    उसके हाथ काँप गए।

    "मुझे धोखा दिया गया है...? ये कैसा मज़ाक है?"

    उसने दस्तावेज़ पूरा पढ़ा — भाषा जटिल थी, लेकिन बात साफ़ थी।

    यह कोई "फॉर्मेलिटी" नहीं थी — यह एक वैध शादी का रजिस्ट्रेशन फॉर्म था, जिस पर उसने स्वयं दस्तखत किए थे, यह मानते हुए कि यह कोई कॉर्पोरेट पेपर है।



    [कांपती यादें – शक से सच्चाई तक]

    अखिल अब वॉशरूम मिरर के सामने था — उसके चेहरे का रंग उड़ चुका था।

    "तो भाई... मुझसे मेरी ही शादी का दस्तखत ले गया...? और मैंने देखे बिना साइन भी कर दिया?"

    एक और बात याद आई — दो दिन पहले माँ ने अचानक कहा था:

    "अखिल, अब तुम जो भी फैसला लो... सोच समझकर लेना, क्योंकि इस घर के नाम की ज़िम्मेदारी अब तुम्हारे कंधों पर है..."

    क्या सबको पता था...?

    क्या उसके माँ पापा, भाई — सब शामिल थे इस खेल में?

    या... यह सिर्फ एक भाई की चाल थी? अकेले अर्जुन की?



    [अखिल अपने ऑफिस से बाहर निकलता है]

    अखिल अब धीमे कदमों से अपने ऑफिस से बाहर आया।

    उसके स्टाफ ने देखा कि उसके चेहरे पर एक गुस्सा, एक घबराहट और एक क्रोध का मिश्रण था — लेकिन कुछ पूछने की हिम्मत किसी में नहीं हुई।

    उसने सीधा अपनी कार उठाई और निकल पड़ा।



    [दूसरी ओर – राजवंशी हवेली]

    घर का माहौल उलझा हुआ था। सब लोग अब भी इस प्रेस कॉन्फ्रेंस के असर में थे।

    चंचल ने माँ से कहा —
    "माँ... क्या भाई को पता था ये शादी हो चुकी है?"

    सुमित्रा ने कोई उत्तर नहीं दिया — बस चुपचाप खिड़की से बाहर देखती रहीं।



    [शालिनी के घर – रात 9 बजे]

    टीवी पर न्यूज अब भी चल रही थी। शालिनी चुपचाप अपने कमरे में थी। उसका फोन बार-बार बज रहा था, लेकिन उसने किसी को जवाब नहीं दिया।

    उसके मन में सवाल था —
    "क्या अखिल को पता था...? या फिर उसे भी इस्तेमाल किया गया?"

    शालिनी अब खुद को ठगा महसूस कर रही थी — लेकिन दर्द इस बात का था कि अखिल ने ये सब उससे छिपाया क्यों?

  • 14. बेशर्म इश्क़ - Chapter 14

    Words: 938

    Estimated Reading Time: 6 min

    [अंतिम दृश्य – अखिल की कार में]

    अखिल अब कार में बैठा था — अकेला।

    सामने हाइवे का सूनापन और उसके अंदर की बेचैनी — दोनों एक जैसे लग रहे थे।

    उसने मोबाइल निकाला और भाई अर्जुन का नंबर डायल किया।

    "भाई, वो पेपर्स क्या थे...?"
    "मैंने जिन पर साइन किए..."

    उधर से कुछ सेकेंड चुप्पी रही।

    फिर अर्जुन की आवाज़ आई —
    "तुम्हारा ही भला किया है, अखिल। सब तुम्हारे नाम की इज़्ज़त के लिए था।"

    "मैंने तुम्हें बचाया है — एक लड़की की ज़िम्मेदारी उठाकर... जो अब तुम्हारी बीवी है।"

    अखिल के चेहरे पर एक अजीब सी मुस्कान आई — दर्द और गुस्से की बीच की मुस्कान।

    "भाई... तुमने मुझे बचाया नहीं — तुमने मुझे बाँध दिया।"

    "अब ये खेल तुम्हें भी महँगा पड़ेगा।"


    स्थान: राजवंशी हवेली, रात के 10:45 बजे

    अंधेरे में डूबे शहर के ऊपर जैसे आसमान भी अखिल के मन की तरह घने बादलों से भरा हुआ था। हवेली के बाहर दो गार्ड उसकी कार के आते ही सीधा खड़े हो गए, लेकिन अखिल की आंखें किसी तूफान से कम नहीं लग रही थीं।

    वो बगैर किसी से कुछ कहे, तेज़ कदमों से हवेली के मुख्य दरवाज़े की ओर बढ़ा। उसकी चाल में गुस्से की आग थी और चेहरे पर ऐसा सन्नाटा जैसे अंदर ही अंदर सब कुछ जल चुका हो।

    हॉल में उसकी एंट्री ऐसी थी जैसे कोई युद्धभूमि में अकेला योद्धा कदम रख रहा हो।



    हॉल – जहाँ सब चुप थे

    दादाजी अपने लकड़ी के झूले पर थे, चेहरा शांत लेकिन कठोर।
    यशवर्धन – अपने बगल में हाथ जोड़कर बैठे थे, माथे पर कुछ पछतावे की परछाई।
    माँ – चुपचाप आंखें झुकाए बैठी थीं।
    अर्जुन, जो अब तक सबसे मुखर था, खड़ा था दीवार के पास।
    सोफे बैठी चंचल कोई कुछ न बोल रहे थे, लेकिन उनका चेहरा साफ बता रहा था कि तूफान आने वाला है।

    और तभी—

    धड़ाम!
    अखिल ने ड्रॉइंग रूम की साइड टेबल पर अपना बैग पूरी ताकत से पटका।

    "कौन था ये जो मेरे नाम पर ज़िंदगी का सबसे बड़ा फैसला कर गया...?"

    सन्नाटा।

    "कौन था वो जिसने मेरे नाम पर मेरी मर्ज़ी के बिना किसी और के साथ मेरी शादी करवा दी? और वो भी उस लड़की से... जिससे मैं..."

    उसके लफ्ज़ हलक में अटक गए, लेकिन चेहरा अब भी गुस्से से जल रहा था।

    "तुमने क्या सोचा भाई?"
    अब वो सीधे अर्जुन की तरफ बढ़ा, कदम दर कदम।

    "तूने क्या सोचा था कि बहोत अच्छा काम किया है |"

    अर्जुन ने गहरी सांस ली।

    "अखिल... मेरी मंशा बुरी नहीं थी—"

    "तो क्या ये शादी मेरी मर्ज़ी के बिना कराना 'मंशा' है? या साज़िश?"

    "मैंने साज़िश नहीं की! अर्जुन अब थोड़े ऊँचे स्वर में बोला,
    **"मैंने सिर्फ वो किया जो पापा और दादाजी की मर्जी थी। और ये फैसला अचानक नहीं लिया गया था। यह..."

    "शट अप!" अखिल की आवाज़ अब तलवार की तरह कमरे में गूंज रही थी।

    "मुझे मत समझा कि क्या सही था। मैं उस लड़की से नफ़रत करता हूँ। उसे देखना नहीं चाहता... और तुम लोगों ने..."

    उसकी आँखें अब दादाजी की ओर घूमीं —
    "आपने भी?"

    दादाजी ने अब पहली बार आंखें उठाईं — उनकी आवाज़ धीमी थी लेकिन स्पष्ट।

    "अखिल, खानदान की इज़्ज़त हर रिश्ते से बड़ी होती है। और यह रिश्ता अब हमारे नाम को साफ कर सकता है।"

    "नाम?" अखिल हँसा — एक कड़वी, गूंजती हँसी।

    "आप लोग नाम के पीछे पागल हो गए हैं। और मेरा जीवन? मेरी मर्ज़ी? वो सब कोई मायने नहीं रखती?"

    माँ ने धीरे से कहा, "बेटा, उस लड़की की हालत भी..."

    "माँ!"
    अखिल ने हाथ उठाकर उन्हें रोका,
    "उस लड़की की हालत कैसी है, क्या है, क्या हुआ, क्यों हुआ — उसमें मुझे कोई दिलचस्पी नहीं है। और अब जब तुम सबने मेरी जिंदगी पर कब्जा कर ही लिया है, तो मुझसे हमदर्दी का नाटक मत करो।"



    एक पल की ख़ामोशी

    अर्जुन ने अब धीरे से आगे बढ़कर कहा:

    "भाई, हम सब जानते हैं कि तुम गुस्से में हो। पर यह शादी बस एक लीगल कदम था। इससे तुम्हारा नाम बचेगा, मीडिया शांत होगा—"

    "नाम बचेगा?"
    अखिल की आँखें अब अर्जुन के चेहरे में धँस गईं।

    "और जब मैं इस रिश्ते को नकार दूँगा, तब क्या बचेगा?"
    "जब मैं कहूँगा कि मैंने मजबूरी में साइन किए थे पेपर्स, तब कौन सा नाम बचाओगे तुम सब?"

    अब सबके चेहरे पर पसीने की एक महीन रेखा बन चुकी थी।



    यशवर्धन

    पिता जी ने अब खुद उठकर कहा:

    **"अखिल, हमने तुम्हारी बेहतरी के लिए ये फैसला लिया। वो लड़की—"

    "मुझे उस लड़की से कोई मतलब नहीं है!"
    अखिल अब आग की तरह पूरे कमरे को देख रहा था।

    "मेरी लाइफ कोई फिल्म नहीं है जहाँ स्क्रिप्ट पापा, भाई और दादाजी लिखेंगे!"

    "ये सब... ये सब जबरदस्ती है। धोखा है। और मैं इसे कभी स्वीकार नहीं करूँगा।"



    तूफान से पहले का आख़िरी वाक्य

    अर्जुन ने थक कर कहा:
    **"भाई... एक बार रैना से मिल लो। देख लो, समझ लो। शायद—"

    "कभी नहीं।"
    अखिल की आवाज़ अब लोहे की तरह ठंडी थी।

    "मैं उससे न मिलना चाहता हूँ, न उसे देखना चाहता हूँ, और न ही उसे अपनी ज़िंदगी में स्वीकार करता हूँ। और याद रखो, ये मेरा आखिरी शब्द है।"

    उसने पलटकर आखिरी बार पूरे हॉल को देखा —

    "तुम सब ने मेरी पीठ पीछे जो किया है, उसके बाद अब मैं तुम सब पर भरोसा नहीं कर सकता।"



    – अखिल अपने कमरे की ओर जाता है

    कमरे की ओर जाते वक्त उसके कदम भारी थे, लेकिन आँखें क्रोध से लाल।

    पीछे हॉल में सब सन्न रह गए थे।

    आज पहली बार अखिल उस परिवार के सामने एक अजनबी बनकर खड़ा हुआ था — उस परिवार के लिए, जिसने उसे हमेशा "अखिल राजवंशी – उत्तराधिकारी" कहा, पर शायद कभी “अखिल – इंसान” समझा ही नहीं।

  • 15. बेशर्म इश्क़ - Chapter 15

    Words: 530

    Estimated Reading Time: 4 min

    अखिल ने आखिरकार गहरी सांस लेते हुए कहा:

    "शालिनी..."

    वो पहली बार उसका नाम बोला। बहुत धीरे से। जैसे हर अक्षर के पीछे थका हुआ आत्मा हो।

    "मैं नहीं जानता... मैं क्या करूँ। सब कुछ... जैसे कंट्रोल से बाहर हो चुका है। मैं अपने ही घर में पराया हो गया हूँ।"

    शालिनी ने उसका हाथ और कसकर पकड़ लिया।

    "लेकिन तुम मेरे साथ हो। और ये तुम्हारा घर भी है, अखिल। मैं इस घर की नहीं, तुम्हारे दिल की हिस्सा बनना चाहती हूं।"



    एक भावुक ठहराव

    कुछ पल तक सिर्फ दोनों की साँसों की आवाज़ थी। हवा भी जैसे ठहर गई थी।

    अखिल ने अब उसका हाथ धीरे से अपने हाथों में लिया। उसकी आंखें अब भी गुस्से से भरी थीं, लेकिन उनमें एक थकान, एक मानवीय टूटन थी।

    वह कुछ कहने ही वाला था, पर नहीं कहा।

    बस उसने बहुत धीमे से, बहुत गहराई से शालिनी की आंखों में देखा और बोला:

    "तुम चिंता मत करो..."

    "मैं हमेशा तुम्हारा ही रहूंगा।"



    शालिनी की प्रतिक्रिया

    शालिनी का चेहरा जैसे अचानक आंसुओं और मुस्कान का संगम बन गया।

    उसने एक गहरी सांस ली और सिर्फ सिर हिलाया – जैसे वो सब कुछ कह रही हो, बिना एक शब्द बोले।



    अखिल का विदा लेना

    अखिल ने उसके हाथ धीरे से छोड़े, और खिड़की से दूर हटकर अपने कोट की ओर बढ़ा।

    "लेकिन अब... मुझे कुछ वक्त चाहिए। खुद से लड़ने के लिए... सच को समझने के लिए।"

    वह दरवाज़े की ओर बढ़ा।

    शालिनी कुछ कहना चाहती थी, पर उसने खुद को रोका। उसके चेहरे पर अब सिर्फ एक चीज़ थी — भरोसा।

    अखिल बिना पीछे देखे, दरवाज़ा खोलकर बाहर निकल गया।



    कमरे में रह गई खामोशी और उम्मीद

    कमरा अब फिर उसी सन्नाटे में डूबा था। लेकिन अब हवा में एक नया ताप था — जैसे किसी जख्म पर पहली बार मरहम लगा हो।

    शालिनी खड़ी थी, वहीं, उस जगह जहां आखिरी बार अखिल खड़ा था। उसने आंखें बंद कीं और खुद से कहा:

    "वो मेरा है... और रहेगा... चाहे रास्ते कितने भी मुश्किल हों।"

    "सनक का रंग – जब प्यार भ्रम की हदों को छूने लगे"


    दरवाज़ा बंद हो चुका था।

    अखिल चला गया था।

    लेकिन जो कुछ पीछे छूट गया था… वो सिर्फ शालिनी नहीं थी। वहाँ बचा था एक ठहरा हुआ पागलपन – जो बाहरी तौर पर खामोश, लेकिन भीतर से तेज़ आँधी जैसा था।

    शालिनी अभी भी उसी जगह खड़ी थी – जहाँ कुछ देर पहले अखिल ने उसके हाथ थामकर कहा था:
    "मैं हमेशा तुम्हारा ही रहूंगा।"

    उसके होंठों पर एक मंद मुस्कान थी – लेकिन वो मुस्कान वैसी नहीं थी जैसी प्रेम से भरी हो…
    वो एक गहरे विश्वास और किसी अज्ञात सनक की सीमा पर बैठी मुस्कान थी।



    शालिनी की अंतर्मन की गूंज

    उसने धीरे-धीरे अपने सिर को ऊपर उठाया, जैसे आसमान को देखकर कुछ कह रही हो।

    "तुम चले गए, अखिल। लेकिन तुम्हारा वादा मेरे साथ है..."

    वो फुसफुसाई।

    फिर उसकी आंखें गहरे चमकीली हुईं। वह बिस्तर की ओर बढ़ी और उसी तकिए को छूने लगी जिस पर अखिल ने शायद कभी सिर रखा था।

    "ये तकिया भी जानता है... तुम्हारी सांसों की गर्मी कैसी होती है। और अब... अब तुम मेरे हो चुके हो।"

    वो तकिया अपनी बाहों में कस कर पकड़ लिया।

  • 16. बेशर्म इश्क़ - Chapter 16

    Words: 601

    Estimated Reading Time: 4 min

    आत्म-भ्रम की शुरुआत

    शालिनी अब कमरे में चहलकदमी करने लगी – उसके हर कदम में एक अजीब रफ्तार थी। मानो वह अपनी सोच से तेज़ चल रही हो।

    "सब कहते हैं... ये शादी फर्ज़ी है। सिर्फ कागज़ पर है।"
    उसने खुद से कहा,
    "तो ठीक है... मैं उसे सच कर दूंगी। मैं इसे जीऊंगी। अखिल से शादी सिर्फ दस्तावेज़ पर ही रहेगी... मैं इसे सांसों में उतार दूंगी।"



    पुरानी यादें और एक गहरी योजना

    वह अचानक रुक गई।
    उसकी नज़र सामने टेबल पर पड़ी एक फ़ोटो फ्रेम पर गई, जिसमें वो और अखिल एक कॉलेज इवेंट में साथ खड़े थे।
    अखिल हँस रहा था, और शालिनी उसकी ओर देख रही थी — आँखों में सच्चा प्रेम।

    "तुम्हें याद है, अखिल?"
    वो बुदबुदाई।
    "उस दिन तुमने कहा था, तुम कभी किसी से इतना कनेक्ट नहीं हुए। वो सिर्फ मैं थी... सिर्फ मैं।"

    उसने फ़ोटो को चूमा और धीरे से कहा:

    "तो फिर अब कोई रैना, कोई झूठा क़ानून, कोई भाई, कोई मीडिया... कुछ भी नहीं रोक सकता।"

    अब उसकी आँखें जमी हुई थीं।

    "मैं तुम्हारी बीवी बन चुकी हूं – चाहे क़ानून कहे या ना कहे।"



    कमरे का परिवेश और उसका बदलता मूड

    कमरे में अब भी हल्की रौशनी थी लेकिन अब शालिनी ने टेबल लैम्प बंद कर दिया। पूरा कमरा अंधेरे में डूब गया।

    वो धीरे-धीरे बिस्तर पर बैठी और अपने फोन में अखिल की पुरानी तस्वीरें देखने लगी।

    हर तस्वीर को उसने जैसे एक पूजा की तरह देखा। जैसे उसमें कोई आत्मा हो। जैसे हर फ़ोटो कोई वादा निभा रही हो।

    "मैं तुम्हारी हर परछाईं से प्यार करती हूं, अखिल..."
    "तुम्हारे गुस्से से... तुम्हारी चुप्पी से... तुम्हारे झूठ से भी।"



    स्वर बदला – जब प्यार इरादों में ढलता है

    वो अचानक खड़ी हो गई। और शीशे के सामने जाकर खुद को देखा।

    "शालिनी..."
    वो खुद से बोली,
    "अब वक़्त आ गया है कि तू अपने प्यार को साबित करे। जो सबने झूठ कहा... उसे तू सच बना। तू वो औरत बन जिसे कोई हटा न सके अखिल की ज़िंदगी से।"

    उसने शीशे में खुद को देखा — अब उसके चेहरे पर मासूम मोहब्बत नहीं, बल्कि एक संकल्प की परछाईं थी।



    एक नौकर का आना और अजीब प्रतिक्रिया

    तभी दरवाज़े पर बहुत धीमे से एक हल्की दस्तक हुई। एक नौकरानी थी — सावित्री।

    "मैडम जी, आप ठीक हैं?"

    शालिनी ने कुछ पल उसे देखा।

    फिर धीरे से मुस्कुराकर कहा:
    "मैं बहुत अच्छी हूँ, सावित्री। बहुत अच्छी। और तुम जानती हो क्यों?"

    सावित्री चुप रही।

    "क्योंकि अब मैं इस घर की बहू हूँ। तुम सब मुझे बहू कहोगे ना?"

    सावित्री घबरा गई।
    "जी… हाँ… बिल्कुल।"

    "और अब कोई रैना-वैना की बात मत करना। जो हुआ... वह अब सिर्फ कागज़ है। अब मैं बन चुकी हूं... इस हवेली की रानी।"

    सावित्री तुरंत झुककर चली गई — उसकी आंखों में डर था।



    भीतर की चुप्पी – जब पागलपन धीरे-धीरे बढ़े

    दरवाज़ा बंद होने के बाद, शालिनी ने धीरे से अपनी हथेली में कुछ बंद किया – वो अखिल की एक ब्रेसलेट थी, जो एक दिन वह गलती से वहीं छोड़ गया था।

    उसे अपनी हथेली में कसकर दबाते हुए उसने कहा:

    "मैं कुछ भी कर सकती हूं... अखिल। बस तुम्हें खोना नहीं चाहती।"

    अब उसका चेहरा स्थिर था। जैसे मन में किसी बड़े इरादे की नींव रखी जा चुकी हो।


    – संकेत एक नई दिशा का

    शालिनी अब बिस्तर पर लेटी थी। हाथ में वो ब्रेसलेट, आँखें बंद।

    लेकिन चेहरे पर अब वो प्रेमिका वाली मासूमियत नहीं थी।

    अब वहाँ एक सनक थी।
    एक गहरी, सुनियोजित... विलन जैसी सनक, जो मुस्कुराती है, लेकिन किसी तूफ़ान से पहले की शांति जैसी लगती है।
    “राजवंशी की चेतावनी – जब बेटे की आँखों में बगावत उतर आए”

  • 17. बेशर्म इश्क़ - Chapter 17

    Words: 1108

    Estimated Reading Time: 7 min

    ✦ अध्याय: “राजवंशी की चेतावनी – जब बेटे की आँखों में बगावत उतर आए”

    स्थान: राजवंशी हवेली – अर्जुन का कमरा
    समय: रात के 10:00 बजे

    कमरे का दरवाज़ा अचानक ज़ोर से खुला।

    अखिल, अपने चारकोल ब्लैक पेंट और सफ़ेद शर्ट में, बिजली की तरह भीतर दाख़िल हुआ। चेहरा गुस्से से तना हुआ, आँखें जैसे अंगारे, और सांसें तेज़।

    अर्जुन, जो उस वक़्त अपनी मेज़ पर कुछ दस्तावेज़ पलट रहा था, एक क्षण को ठिठका। लेकिन उसने कोई हड़बड़ी नहीं दिखाई। अपनी कुर्सी से उठकर सामने खड़ा हो गया।

    "आखिर क्यों?" अखिल की आवाज़ कमरे को चीरती हुई निकली, "तुम लोगों ने मेरे साथ ऐसा कैसे कर लिया? कोर्ट मैरिज? एक अनजान लड़की से? और वो भी मेरे नाम से— मेरी ज़िंदगी से?"

    अर्जुन ने गहरी सांस ली, लेकिन उसका चेहरा सधा हुआ था।

    "वो अनजान नहीं है, अखिल। रैना शर्मा अब तुम्हारी पत्नी है—क़ानूनी तौर पर भी, और इस खानदान की बहू के रूप में भी।"

    "तुमने मेरी मर्ज़ी के बिना ये सब किया!" अखिल उसकी ओर बढ़ा, आँखों में तूफ़ान, "तुमने मेरी ज़िंदगी पर फ़ैसला सुनाया—जैसे मैं कोई गुज़रे ज़माने की रियासत का गुलाम हूँ!"

    "ग़ुलामी नहीं, ज़िम्मेदारी का नाम है ये," अर्जुन का लहजा अब भी संयमित था, "और तुम्हें वो निभानी होगी, चाहे तुम्हें पसंद हो या नहीं।"

    "तुम नहीं जानते मैं किस दर्द में जी रहा हूँ!" अखिल की आवाज़ काँप रही थी, "रैना एक सीधी-सादी लड़की नहीं है — मैं उसे नहीं चाहता, उसने मेरा नाम खराब किया है। और तुम लोगों ने उसे मेरे नाम से बाँध दिया?"

    "हाँ, हो सकता है। लेकिन वो हमें डर दे रही थी — मीडिया को, समाज को, और तुम्हारे फैलाए झूठ को… जो किसी भी दिन हमारी प्रतिष्ठा मिट्टी में मिला देता।"

    "तो तुम लोगों ने एक चालाक लड़की को ढाल बना लिया?" अखिल का चेहरा कस गया।

    अर्जुन अब उसके सामने आ खड़ा हुआ — दोनों की आँखें टकरा रही थीं।

    "उस लड़की ने किसी दिन खुद तुमसे कुछ नहीं माँगा था, अखिल। पर तुमने माँगे बिना बहुत कुछ उसे दे दिया—अपनी नज़रें, अपनी बदनामियाँ, अपने अफ़वाहें। और जब हालात हाथ से निकलने लगे, तब हमें उसे इस घर की इज़्ज़त में शामिल करना पड़ा।"

    "ये इज़्ज़त नहीं है अर्जुन, ये सिर्फ़ दिखावा है!" अखिल का स्वर अब दरकने लगा था।

    "तो क्या तुम्हारी शराब में डूबी रातें असल थीं?" अर्जुन की आवाज़ तीखी थी, "या रैना के साथ वो तस्वीरें, वो फुटेज — जो इंटरनेट पर हर जगह घूम रही थीं? वो असल थे या दिखावा?"

    अखिल एक पल के लिए चुप हो गया। शायद उसकी जुबान साथ नहीं दे रही थी।

    "तुम्हें लगता है तुम अकेले हो?" अर्जुन ने अपनी आवाज़ में ठहराव लाते हुए कहा, "हम भी टूटते हैं, अखिल। लेकिन हम ज़िम्मेदारियाँ नहीं छोड़ते। तुम इस खानदान का नाम हो — तुम्हारी हर हरकत सिर्फ़ तुम्हारी नहीं होती, हमारे माँ-बाप की नींव को हिलाती है।"

    "तो फिर क्यों नहीं कहा तुमने खुलकर? क्यों मेरे साइन धोखे से करवाया गया?" अखिल की आवाज़ कांप गई।

    अर्जुन की आंखें नीची हो गईं, लेकिन शब्द अब भी मजबूत थे।

    "क्योंकि उस वक़्त कोई और रास्ता नहीं था। अगर एक और दिन हम रुक जाते — तो पुलिस, मीडिया, और पब्लिक स्कैंडल — सब कुछ इस हवेली की नींव को गिरा देते। और तुम्हारे साथ खानदान भी मिट जाता — एक ऐसी गलती की तरह, जिसका कभी नाम नहीं लिया जाता।"

    "तुमने मुझे अंधेरे में रखा," अखिल बमुश्किल अपने गुस्से को रोकते हुए बोला, "मैं कोई सामान नहीं हूँ, अर्जुन।"

    "तुम कभी थे भी नहीं," अर्जुन की आवाज़ पहली बार थोड़ी नम हुई, "लेकिन कभी-कभी हम अपनों को उनकी खुद की भूल से बचाने के लिए कठोर बन जाते हैं।"

    अखिल ने अब कुछ कदम पीछे हटते हुए कहा —

    "और वो लड़की? वो भी क्या हमारी मजबूरी बन गई?"

    "वो एक मौका थी, अखिल। एक नई शुरुआत की। तुम चाहो तो उसे समझ सकते हो, उसे महसूस कर सकते हो। वो तुम्हारी काबिलियत से डरती नहीं — तुम्हारे ग़ुस्से से सहमी है। लेकिन उस डर के पीछे भी एक उम्मीद है। शायद वो तुम्हें बेहतर बना सकती है।"

    "मैं किसी का प्रोजेक्ट नहीं हूँ!" अखिल दहाड़ उठा, "ना सुधारने लायक हूँ, ना तुम्हारे बनाए हुए ढांचे में फिट बैठने वाला हूँ।"

    "तो तोड़ दो सब कुछ," अर्जुन ने सीधा कहा, "लेकिन एक बात याद रखना—तुम सिर्फ अपने नाम से नहीं, इस खानदान की नींव से जुड़े हो। अगर तुम गिरोगे, तो बहुत कुछ टूटेगा — सिर्फ तुम्हारा नहीं, बहुतों का।"

    अखिल चुप हो गया। लेकिन उसकी आंखों में अब भी वो पुराना रोष बाकी था।

    "क्या यही सच है?" उसने धीमे से कहा, "कि अब मेरी ज़िंदगी मेरी नहीं रही?"

    "नहीं, अखिल। अब तुम्हारी ज़िंदगी बहुतों की ज़िंदगी से जुड़ी है। वो लड़की भी उसमें शामिल है — जिसे तुम देखना तक नहीं चाहते, लेकिन जिसे तुम्हारे नाम से पहचान मिल रही है।"

    "पहचान नहीं, बोझ मिला है उसे," अखिल फुसफुसाया।

    "शायद। लेकिन कभी-कभी बोझ उठाते-उठाते ही इंसान खुद मजबूत हो जाता है," अर्जुन ने हल्के स्वर में कहा।

    कुछ पल तक कमरे में मौन पसरा रहा।

    फिर अखिल ने ठंडी सांस ली, दरवाज़े की ओर मुड़ा।

    "एक आखिरी बात," उसने कहा, "तुम लोग मुझे जितना बाँधोगे — मैं उतना ही बगावत करूँगा। मैं इस नाम के पीछे की सच्चाई निकाल कर रख दूंगा। तुम्हें लगता है हवेली की दीवारें चुप हैं — लेकिन हर ईंट कुछ न कुछ जानती है।"

    अर्जुन एक क्षण को ठिठका।

    "क्या करने वाले हो तुम?"

    अखिल पलटा। चेहरे पर एक खामोश मुस्कान थी — लेकिन वो मुस्कान आग से भरी हुई थी।

    "इस बार राख नहीं बनूंगा, अर्जुन… इस बार, मैं खुद आग बनूंगा।"

    दरवाज़ा खुला… और अखिल तेज़ कदमों से निकल रहा था।

    पीछे छोड अर्जुन — और दीवारें, जो अब उसी चेतावनी को गूंज रही थीं।

    "खुद आग बनूंगा…"


    अखिल दरवाज़े से बाहर जाने ही वाला था कि अचानक ठिठका। उसकी साँसें तेज़ थीं, पर आँखों में चुपचाप चलती कोई लड़ाई थी।

    अर्जुन अब भी वहीं खड़ा था, उसकी पीठ सीधी, आँखें गंभीर।

    अखिल धीरे-धीरे मुड़ा, और फिर ठोस कदमों से लौटकर अपने भाई के सामने खड़ा हो गया।

    "एक बात और सुन लो, अर्जुन," अखिल की आवाज़ ठंडी थी – पर उसके नीचे एक ऐसी आग छुपी थी जो हवेली की दीवारें भी भांप सकती थीं, "उस लड़की की ज़िंदगी मैं नर्क बना दूंगा। उसने मेरी ज़िंदगी छीनी है… अब मैं उसकी हर साँस में तकलीफ़ भर दूंगा।"

    अर्जुन ने बिना पलक झपकाए उसकी आंखों में देखा।

    "तुम जो करना चाहते हो, करो," उसने संयमित स्वर में कहा, "लेकिन याद रखना, अखिल… जो कुछ भी करना है, इस हवेली की दीवारों के भीतर रहकर करना। बाहर की दुनिया को इस खेल की भनक तक नहीं लगनी चाहिए।"

    "मैं दिखावे में यक़ीन नहीं रखता।"

  • 18. बेशर्म इश्क़ - Chapter 18

    Words: 787

    Estimated Reading Time: 5 min

    अर्जुन ने बिना पलक झपकाए उसकी आंखों में देखा।

    "तुम जो करना चाहते हो, करो," उसने संयमित स्वर में कहा, "लेकिन याद रखना, अखिल… जो कुछ भी करना है, इस हवेली की दीवारों के भीतर रहकर करना। बाहर की दुनिया को इस खेल की भनक तक नहीं लगनी चाहिए।"

    "मैं दिखावे में यक़ीन नहीं रखता।"

    "पर इस खानदान की इज़्ज़त तुम्हारे दिखावे पर टिकी है," अर्जुन ने जवाब दिया, "अगर मीडिया को जरा सा भी शक हुआ कि ये शादी सिर्फ़ एक ढोंग है… या तुम अपनी पत्नी के साथ बुरा बर्ताव कर रहे हो… तो जो अभी तक हमने सँभाला है, वो भी ढह जाएगा।"

    अखिल का चेहरा और कठोर हो गया।

    "तुम लोग तो जैसे उसके रक्षक बन बैठे हो!" उसने तीखी हँसी के साथ कहा, "एक अजनबी लड़की के लिए इतना दर्द… और मैं? मैं तो जैसे एक मोहरा हूँ — कभी भी आगे बढ़ा दो, कभी गिरा दो।"

    "उस लड़की के साथ तुम्हारा रिश्ता अब सिर्फ़ एक सामाजिक समझौता नहीं है, अखिल," अर्जुन धीरे से बोला, "वो अब इस घर की बहू है। तुम्हारी पत्नी है।"

    "पत्नी?" अखिल ज़ोर से हँस पड़ा, "मुझे तो आज तक उसका चेहरा तक याद नहीं… बस एक फाइल थी – जिसमें मेरे दस्तखत ले लिए गए। अब वो मेरे नाम पर जी रही है… लेकिन मैं उसे जीने नहीं दूँगा।"

    अर्जुन कुछ पल चुप रहा। फिर बोला —

    "तुम अगर सोचते हो कि उसे तोड़ कर तुम जीत जाओगे, तो तुम बहुत ग़लत समझ रहे हो।"

    "मुझे जीतने में दिलचस्पी नहीं है," अखिल की आवाज़ काँप रही थी, "मुझे बस उसे गिरते देखना है… उसकी आँखों में वो डर देखना है जो मेरे अंदर भर गया है। उसे हर वो दर्द देना है, जो मैंने बिना वजह झेला।"

    "तुमने जो भी झेला, वो तुम्हारी वजह से था, अखिल। कोई तुम्हें पीने को नहीं कहता था। कोई तुम्हें भाग जाने को मजबूर नहीं करता था।"

    "मेरे हिस्से में जो आया, वो ज़हर था — अब मैं उसे घूंट-घूंट कर किसी और को पिलाऊँगा।"

    अर्जुन अब आगे बढ़ा। उसकी आंखों में कुछ कठोर चमक थी।

    "तो पिलाओ," उसने कहा, "उस लड़की को बर्बाद कर दो अगर यही तुम्हारा जुनून है। लेकिन याद रखना, ये हवेली तुम्हारी पनाह है — और ये दीवारें तुम्हारे गवाह। अगर तुमने हद पार की, तो तुम्हें बचाने कोई नहीं आएगा — ना मैं, ना पापा।"

    "मुझे किसी की ज़रूरत नहीं," अखिल बड़बड़ाया।

    "शायद नहीं," अर्जुन ने गंभीर स्वर में कहा, "पर इस हवेली में अकेले कोई नहीं जी पाता। ना नफ़रत के साथ, ना मोहब्बत के साथ। यहाँ हर रिश्ता या तो जकड़ लेता है… या दफना देता है।"

    "तो तुम चाहते हो मैं उसे सह लूँ? उसे अपनाकर झूठा पति बनकर रहूँ?" अखिल की आवाज़ भारी थी।

    "नहीं। मैं चाहता हूँ तुम उसे तोड़ने की कोशिश करने से पहले खुद को सम्हालो। क्योंकि तुम खुद एक गिरती हुई इमारत बन चुके हो।"

    "मैं गिरा नहीं, अर्जुन," अखिल ने पलटकर कहा, "मैं सिर्फ़ रुक गया हूँ। अब फिर से चलूँगा – लेकिन इस बार मेरी चाल किसी को बख्शेगी नहीं।"

    "तो चलो। लेकिन अपने कदम सोच-समझकर रखना," अर्जुन अब दरवाज़े की ओर देख रहा था, "रैना को तकलीफ़ देना तुम्हारा निर्णय हो सकता है, पर अगर उसकी तकलीफ़ें किसी तीसरे तक पहुँचीं… तो इस राजवंशी हवेली की नींव फिर नहीं टिक पाएगी।"

    अखिल ने अर्जुन की ओर देखा — बहुत देर तक चुपचाप।

    "मैं कोई पब्लिक ड्रामा नहीं करूँगा," उसने कहा, "मैं जो भी करूँगा, वो इसी हवेली के भीतर करूँगा। मगर इतना तय है… वो लड़की एक दिन खुद कहेगी कि मौत उससे आसान है, जितना मेरे साथ जीना।"

    "तो करो," अर्जुन ने जैसे अंतिम मुहर लगाई, "लेकिन एक बात याद रखना, अखिल — तुम उसे जितना गिराओगे, उतना खुद भी गिरते जाओगे। और जब गिरोगे… तो कोई हाथ नहीं बढ़ेगा।"

    "ज़रूरत भी नहीं होगी," अखिल बोला, "क्योंकि तब तक मैं सब कुछ गिरा चुका होऊँगा।"

    दोनों के बीच अब सिर्फ़ साँसों की आवाज़ थी। कमरा भारी हो चुका था। अँधेरा और भी सघन लग रहा था।

    फिर, अचानक अर्जुन ने सिर मोड़ा और धीमे स्वर में कहा —

    "अगर तुम्हें कभी उस लड़की की आँखों में सच्चाई दिखे… तो शायद तुम अपने आप से नफ़रत करने लगोगे।"

    अखिल की नज़रें एक क्षण को झुकीं। लेकिन अगले ही पल वो फिर कठोर हो गया।

    "मेरे अंदर अब सिर्फ़ नफ़रत है — और वो उसके लिए काफी है।"

    वो बिना कुछ कहे पलटा और तेज़ कदमों से कमरे से बाहर चला गया।

    पीछे अर्जुन, अपनी जगह खड़ा रहा — जैसे एक चट्टान, जो तूफान को भी चुपचाप सह लेता है। मगर उसकी आंखों में वो चमक अब भी थी — जैसे वो जानता है कि यह नफ़रत का खेल कहीं बहुत दूर तक जाएगा… और शायद अंत में, किसी को पूरी तरह तोड़ देगा।

  • 19. बेशर्म इश्क़ - Chapter 19

    Words: 1031

    Estimated Reading Time: 7 min

    ✦ अध्याय: “गृहप्रवेश – जब देहरी भी पराई हो”

    स्थान: राजवंशी हवेली – मुख्य दरवाज़ा (Main Gate)
    समय: सुबह 10:32 बजे

    भव्यता और सत्ता का पर्याय मानी जाने वाली राजवंशी हवेली का में गेट आज फूलों से सजा था — गेंदे और गुलाब की झालरों से, पर उस सजावट में कोई आत्मा नहीं थी।
    न कोई बैंड, न कोई मंगलध्वनि… सिर्फ़ एक सन्नाटा जो हर पल यह कह रहा था — "ये स्वागत नहीं, सिर्फ़ रस्म है।"

    एक काली चमचमाती मर्सिडीज पोर्च के सामने आकर थमी।
    रैना शर्मा ने धीमे से गाड़ी का दरवाज़ा खोला और बाहर निकली।

    उसने लाल बनारसी लहंगा पहना था — भारी ज़री की कढ़ाई, माथे पर छोटी सी बिंदी, और कलाईयों में चूड़ियाँ। पर ये सब उसके चेहरे की थकी हुई खामोशी को नहीं छुपा पाए।

    उसके पीछे अखिल राजवंशी उतरा।
    और उनके आगे, हवेली के मुख्य द्वार पर खड़ी थीं — मनराजवंशी, अखिल की माँ।

    उनके बगल में थीं — शालिनी ।
    अब भी इस घर की पहचान का हिस्सा।

    माँ की आँखों में न गर्मजोशी थी, न मातृत्व — बस एक कठोर, निर्विकार दृष्टि।
    शालिनी की मुस्कान हल्की थी, पर उसका व्यंग्य आँखों में लहराता हुआ साफ़ दिख रहा था।

    पंडित ने थाली उठाई, हल्दी-कुमकुम, अक्षत और दीया।
    पर कोई “आरती” जैसी भावना उसमें नहीं थी।

    रैना ने धीमे क़दमों से में गेट की देहरी पर पाँव रखा।

    माँ ने बिना मुस्कराए, थाली की ओर देखा और पंडित से बोलीं —
    "जल्दी करो। ज्यादा नाटक मत हो।"

    पंडित ने थाली रैना के आगे कर दी।
    रैना ने चुपचाप चावल से भरा लोटा पाँव से गिराया। फिर गीले कुमकुम में अपना दाहिना पाँव डुबोया।

    माँ ने थाली घुमाई, जैसे कोई कानूनी औपचारिकता हो।

    "पाँव आगे रखो..."
    आवाज़ ठंडी थी — जैसे बहू नहीं, कोई सामान अंदर आ रहा हो।

    रैना ने बिना किसी सहारे के, अपने कुमकुम सने पाँव उस हवेली की सफ़ेद संगमरमरी ज़मीन पर रखे।

    गृहप्रवेश पूर्ण हुआ —
    पर किसी ने 'स्वागत है' नहीं कहा।



    "मुझे तो लगा था दुल्हन के स्वागत में आरती होगी," शालिनी धीमे से मुस्कराई, "पर शायद अब हमारे यहां पुराने रिवाज़ नहीं चलते… और शायद पुरानी जगह भी नहीं।"

    उसकी मुस्कान में तंज की धार थी।

    रैना ने उसकी तरफ देखा, पर कुछ नहीं कहा।
    चुप्पी ही अब उसकी सबसे सुरक्षित भाषा थी।

    "अब से ये इस घर की बहू है," यशवर्धन राजवंशी ने धीमे से जोड़ा, पर उस वाक्य में सम्मान नहीं, सिर्फ़ सूचना थी।

    "बहू?" माँ का चेहरा तन गया।
    "जिसे हमने अपनी मर्जी से नहीं चुना, उसे बहू कैसे मानें?"

    अर्जुन कुछ कहने ही वाला था कि वहाँ से अखिल आया —
    काले सूट में, ठंडे चेहरे के साथ। उसने न रैना की ओर देखा, न किसी से बात की।

    बस सीधा आया, और बिना रुके बोला,
    "मुझे इससे कोई मतलब नहीं। ये इस घर में है क्योंकि तुमने कहा। मेरे लिए ये एक नाम है — कुछ और नहीं।"

    रैना की साँस जैसे अंदर ही अटक गई।

    शालिनी ने मौका देखकर फिर डंक मारा —
    "कमाल की बात है… बिना मर्जी शादी भी हो गई और स्वागत भी…
    अब तो सिर्फ़ ये देखना है कि इस नाम की बहू कब तक इस हवेली में रह पाएगी।"

    माँ ने नौकरानी को इशारा किया —
    "इसे गेस्ट रूम में ले जाओ।"

    "गेस्ट रूम?" अर्जुन चौंका।

    "हाँ, अखिल के कमरे में कोई जगह नहीं है इस के लिए," माँ बोली, "वैसे भी इसकी जगह... किसी और को मिलनी थी।"

    रैना अब तक देहरी के ठीक अंदर खड़ी थी — पाँव सने हुए, आँखें भीगी नहीं, पर भीतर से चटक चुकी थीं।

    उसने कोशिश की बोलने की… पर कुछ निकला नहीं।

    शालिनी फिर से पास आई, उसके कान के पास फुसफुसाई —

    "मैं हारी नहीं हूँ, रैना। तुम्हें सिर्फ़ जगह मिली है, इज़्ज़त नहीं। और ये घर इज़्ज़त से चलता है – नाम से नहीं।"

    रैना की नजरें झुक गईं।

    अखिल ने बिना किसी ओर देखे, कॉलर ठीक किया और बोल पड़ा —
    "मैं अपने ऑफिस जा रहा हूँ। इस ड्रामे में मेरा हिस्सा नहीं है।"

    "ड्रामा?" अर्जुन ने आँखें सिकोड़ते हुए कहा।

    "हाँ, यही," अखिल बोला, "एक अजनबी को इस घर में घसीट लाना और फिर उससे बहू कहलवाना — यही तो है, ड्रामा।"

    रैना ने पहली बार अखिल को देखा —
    उसकी ठंडी आँखों में एक ऐसी जिद थी जो किसी की इंसानियत को भस्म कर सकती थी।

    वो निकल गया — जैसे कोई भार उतार दिया हो।



    अब गेट के पास सिर्फ रैना खड़ी थी।
    हर कोई बिखर चुका था।

    पंडित धीरे-धीरे थाली समेट रहा था।
    नौकरानी सिर झुकाए रैना के पास आई।

    "मैडम… चलिए, ऊपर ले चलूँ?"

    रैना ने एक गहरी साँस ली।

    उसने पीछे मुड़कर में गेट की देहरी को देखा, जहाँ उसके क़दमों के निशान अब धुँधले हो चुके थे।

    गृहप्रवेश का निशान मिट रहा था —
    जैसे ये कभी हुआ ही नहीं।

    वो धीरे-धीरे ऊपर चढ़ गई — लहंगे की कढ़ाई अब बोझ लग रही थी।
    पीठ पर तंज, माथे पर बेइज़्ज़ती की बिंदी — और आत्मा पर अकेलापन।

    पुराना कॉरिडोर
    समय: दोपहर 3:15 बजे

    राजवंशी हवेली का एक लम्बा, गूंगा गलियारा —
    जहाँ दीवारों पर टंगी तस्वीरें चुप थीं, और बल्ब की मद्धम रौशनी किसी दबी साजिश की तरह कांप रही थी।

    यहीं खड़े थे यशवर्धन राजवंशी —
    हाथ में एक लाल रंग का फोल्डर, और माथे की शिकनें हवेली के हर कोने को कंपा रही थीं।

    अभी-अभी उन्हें अर्जुन ने खबर दी थी —
    कि अखिल ने नई दुल्हन रैना को गेस्ट रूम में भिजवा दिया है।
    और यह बात हवेली के स्टाफ में फैल चुकी है।

    "कमरे में नहीं, गेस्ट रूम में?"
    यशवर्धन की सांसों में लावा था।

    उसी वक्त गलियारे के एक सिरे से अर्जुन आता दिखा —
    सधी हुई चाल, पर आंखों में एक बर्फीला तीर।

    “तुमसे बात करनी है, अर्जुन। अभी और यहीं।”
    यशवर्धन की आवाज़ लोहे जैसी सख्त थी।

    यशवर्धन रुका।
    "बोलिए पापा," स्वर में ठंडापन था, सम्मान नहीं।

    यशवर्धन ने फोल्डर उसकी तरफ उछाल दिया।

    "ये देखो। कुछ तस्वीरें।
    उस ‘दुल्हन’ की — गेस्ट रूम के दरवाज़े पर बैठी हुई।
    किसी ने खींचकर एक ब्लॉग को भेज दीं —"

    अर्जुन ने फोल्डर खोला।
    स्क्रीनशॉट्स थे — और एक प्रस्तावित हेडलाइन:


    "शादी के बाद भी दुल्हन को जगह नहीं मिली — राजवंशी परिवार में सास-ससुर का अत्याचार?"


    यशवर्धन अब एकदम सामने आ गए।

  • 20. बेशर्म इश्क़ - Chapter 20

    Words: 596

    Estimated Reading Time: 4 min

    यशवर्धन अब एकदम सामने आ गए।

    "अगर ये बात बाहर निकली तो तुम जानते हो, मीडिया क्या करेगा?
    इस साम्राज्य की इज्ज़त माटी में मिल जाएगी।
    रिश्तों की हकीकत बाद में आती है, बेटा — पहले दुनिया को दिखता है ‘डेकोरेशन’।"

    अर्जुन ने जबड़े भींचे।
    "आप जानते हैं अखिल इस शादी से खुश नहीं था।
    रैना को इस घर में लाने का फैसला आपका था।"

    "और अब जो फैसले लेने पड़ रहे हैं, वो भी मजबूरी में हैं।
    लेकिन निभाने पड़ेंगे।"
    यशवर्धन बोले।

    “उस लड़की को अखिल कमरे में शिफ्ट करवाओ।
    नौकरों के सामने, स्टाफ के सामने — ताकि सबकी जुबान बंद हो जाए।
    जो रिश्ता नहीं चाहा था, अब उसे निभाना नहीं तो कम से कम दिखाना तो पड़ेगा।”

    अर्जुन कुछ नहीं बोला।

    "कुछ दिन का अभिनय है।
    फिर जैसे उसे सही लगे।
    पर अभी —
    उसे अखिल कमरे में बुलवाओ।"

    "मैं नहीं जाऊँगा उसके पास," अर्जुन बर्फ की तरह बोला।

    "तो फिर किसी को भेज दो।
    पर वो लड़की आज शाम से अखिल कमरे में होनी चाहिए।
    वरना एक फोटो से पूरा वंश बिखर सकता है।"

    यशवर्धन गुस्से से मुड़कर चले गए —
    और अर्जुन वहीं खड़ा रह गया।
    दीवारों ने सब कुछ सुन लिया था।


    शाम 4:45 बजे
    स्थान: रैना का गेस्ट रूम

    रैना चुपचाप बैठी थी —
    उसकी मेहँदी अब मुरझाने लगी थी, और लहंगे की किनारी फर्श पर बिखरी थी।

    तभी दरवाज़ा हल्के से खटका।

    एक नौकरानी — साड़ी में लिपटी, सधी चाल — कमरे में दाखिल हुई।
    वो सीधे अलमारी की ओर गई और बिना कुछ पूछे, रैना का सामान समेटने लगी।

    रैना चौंकी।
    "क्या हुआ?" उसने धीमे स्वर में पूछा।

    नौकरानी बिना आंखें मिलाए बोली,
    "मेमसाब, आपको ऊपर वाले कमरे में जाना है।"

    "ऊपर? मतलब…?"

    "मालिक का आदेश है।
    अब से आपको साहब के कमरे में रहना है।
    शादी के बाद पत्नी का वही कमरा होता है।"

    रैना के होंठों पर हल्का कंपन आया।
    कुछ पल वह कुछ नहीं बोली।

    फिर धीरे से पूछा,
    “अ… अखिल… साहब ने… खुद भेजा है?”

    नौकरानी ने सिर हिलाया —
    "उन्होंने खुद तो नहीं कहा, पर आदेश उन्होंने ही दिया है।"

    फिर सारा सामान करीने से पैक कर के
    वो बोली,
    "चलिए मेमसाब, हम छोड़ देते हैं आपको।"

    रैना चुपचाप उठी।
    उसके पाँव भारी थे — जैसे हर कदम अपनी पहचान को मिटाने के लिए उठ रहा हो।


    अखिल का कमरा
    स्थान: हवेली – दूसरा तल

    दरवाज़ा खोला गया।

    रैना भीतर दाखिल हुई —
    कमरे में एक अलग सी ठंडक थी।

    दीवारें सफेद, फर्श संगमरमर का।
    एक ओर स्टडी टेबल, दूसरी तरफ एक लकड़ी का बड़ा बेड।

    लेकिन सब कुछ इतना व्यवस्थित, इतना… खामोश, कि लगता था यह कमरा सालों से किसी का इंतज़ार नहीं कर रहा।

    नौकरानी ने सामान किनारे रखा और बिना कोई बात किए चली गई।

    अब कमरे में सिर्फ रैना थी।

    और उस चुप्पी में —
    अखिल तक नहीं था।

    रैना ने बिस्तर की तरफ देखा — एक कोना खाली था।

    धीरे-धीरे चलकर वो उस ओर गई।
    बैठी नहीं — बस खड़ी रही।

    शायद सोच रही थी —
    क्या ये सचमुच उसका "घर" बन सकेगा?
    या फिर ये भी किसी कैद से कम नहीं?

    दरवाज़े की दूसरी ओर, किसी कोने में —
    शायद अखिल खड़ा था… देख रहा था, या शायद नहीं।

    लेकिन ये तय था —
    अब ये कमरा सिर्फ चार दीवारों का नहीं,
    एक झूठे रिश्ते की अदालत बन चुका था।


    कमरे में दो इंसान थे —
    एक, जो सब कुछ खोकर यहाँ आया था।
    दूसरा, जिसे कुछ भी मिले बिना इस जगह में डाला गया था।

    और दोनों के बीच — सिर्फ एक बिस्तर नहीं,
    बल्कि एक ऐसी दूरी थी, जो शायद पूरी कहानी बन जाएगी।